रविवार : चौदह मई : मुम्बई दुबई
“बाप, लोहिया खल्लास।”
विमल ने चौंक कर इरफान की तरफ देखा जो उसे सुबह सवेरे वो बुरी खबर सुना रहा था।
“कैसे जाना?” — उसके मुंह से निकला।
“छापे में छापा है।” — इरफान बोला — “अभी आज का अखबार नहीं देखा?”
“नहीं।”
“मैं लाता है।”
इरफान ने उसे उस रोज का टाइम्स ऑफ इन्डिया लाकर दिया जिसके मुख पृष्ठ पर लोहिया की तसवीर के साथ सुर्खी थी :
नगर का प्रसिद्ध उद्योगपति समुद्र में डूब कर मरा
विमल ने जल्दी जल्दी वो खबर पढ़ी और फिर अखबार एक तरफ फेंक दिया।
“ये कत्ल है।” — वो बोला।
“क्या बोला, बाप?” — इरफान हकबकाया सा बोला।
“इसमें लिखा है कि नशे में होने की वजह से वो यॉट के डैक पर से समुद्र में जा गिरा।”
“क्या बड़ी बात है?”
“कोई बड़ी बात नहीं लेकिन ये नहीं हो सकता कि जिस यॉट पर एक ग्रैंड पार्टी चल रही हो, उस पर से समुद्र में गिरता आदमी किसी को — न किसी मेहमान को, न क्रियू को — दिखाई न दिया हो।”
“हो जाता है, बाप, रात के वक्त हो जाता है।”
“तो भी वो डूब क्यों मरा? उसे तैरना आता था।”
“क्या?”
“उसकी अपनी कोठी में स्वीमिंग पूल है, मैंने कितनी ही बार उसे बड़ी दक्षता से पूल में तैरते देखा था।”
“ओह!”
“मान लिया कि उसे समुद्र में गिरता किसी ने न देखा लेकिन वो गिर चुकने के बाद यॉट पर से किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सकता था, क्योंकि यॉट चल नहीं रहा था, पार्टी की खातिर समुद्र में स्थिर खड़ा था। वो सम्भव नहीं था तो वो उन मोटरबोटों में से किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर सकता था जो कि मेहमानों को लाने ले जाने के लिये यॉट और किनारे के बीच लगातार शंटिंग कर रही थीं। वो भी नहीं तो वो तैर कर किनारे पर पहुंच सकता था क्योंकि यॉट किनारे से सिर्फ एक मील दूर समुद्र में खड़ा बताया गया है।”
“ठीक बोलता है, बाप, बरोबर बोलता है। पण छापे में ये भी तो छपा है कि डूब के मरा!”
“जबरदस्ती डुबोया गया होगा। ऐसा करने वालों को नहीं मालूम होगा कि वो तैरना जानता था।”
“करने वाले कौन?”
“अब मुझे मालूम है कि कौन! इन्दौरी वगैरह का सस्पेंस खत्म हो जाने के बाद और सलाउद्दीन पर हल्ला होने के बाद अब मुझे यकीनी तौर पर मालूम है कि कौन! ये तमाम कारगुजारी दिल्ली के बिरादरीभाइयों की है जिनमें से कि एक मुम्बई में मौजूद है। सब कुछ उन्हीं के कराये हो रहा है। ‘भाई’ की उन्हें शह हो सकती है, कोई छोटी मोटी लोकल मदद हासिल हो सकती है लेकिन हो सब कुछ बिरादरीभाइयों की वजह से रहा है। मेरे करीबों लोगों पर हमले करके एक तरह से वो मुझे वार्निंग दे रहे हैं कि एक दिन ऐसे ही वो मेरे सिर पर भी आ खड़े होंगे।”
“ऐसा, बाप?”
“हां। अब तो मुझे ‘भाई’ की भी ये बात सच जान पड़ती है कि हम ने नाहक छोटा अंजुम की जान ली।”
“नाहक तो न ली! तेरे पीछे तो वो पड़ा ही था!”
“लेकिन तुका, वागले या फिरोजा की मौत के लिये वो जिम्मेदार नहीं था। लोहिया की मौत के लिये वो जिम्मेदार नहीं हो सकता था।”
“भाई’ हो सकता है। छोटा अंजुम की मौत का बदला लेने के लिये उसी ने दिल्ली वालों को हड़काया हो सकता है कि वो तेरे पर कोई ऐसी चोट करें जिससे कि तू तड़पे। देख ले, तड़प रहा है तू लोहिया की मौत वजह से।”
“तेरी बात ठीक है, लेकिन मेरे पर यूं वार पर वार करने की ओरीजिनल सोच जरूर दिल्ली वालों की है... और उनमें से भी खास झामनानी की है। कुशवाहा की बाबत तो मुबारक अली स्थापित कर भी चुका है कि उसका कत्ल जैसे भी था, बिरादरीभाइयों का काम था। सुमन को उन्होंने हेरोइन ढोने के लिये जानबूझ कर मारा या संयोग से वो बेचारी उनके हत्थे चढ़ गयी, कहना मुहाल है लेकिन हेरोइन की वो खेप इस हौलनाक तरीके से क्योंकि दिल्ली पहुंची इसलिये ये गारन्टी है कि बिरादरीभाई मेरी वार्निंग को नजरअन्दाज कर चुके हैं कि वो नॉरकॉटिक्स के धन्धे में हाथ डालने की जुर्रत न करें। उन्हीं कमीनों ने अपनी ताकत दिखाने के लिये शुक्ला का खून किया। योगेश पाण्डेय उनकी पहुंच से दूर न हो गया होता तो उसका भी अंजाम बुरा ही होता। अब तो मुझे मुबारक अली की फिक्र सताने लगी है। मैं उसे फोन लगाता हूं।”
उसने दिल्ली मुबारक अली के टैक्सी स्टैण्ड पर फोन किया तो मालूम हुआ कि वो अभी स्टैण्ड पर नहीं पहुंचा था।
उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और फिर इरफान से सम्बोधित हुआ — “ब्रजवासी की क्या खबर है?”
“अभी कोई खबर नहीं।” — इरफान बोला — “सिवाय इसके कि रात को वो अपने होटल में वापिस नहीं लौटा था।”
“कहां चला गया?”
“कल बोला न कि उसके साथ एक खूबसूरत लड़की थी! जरूर उसी के साथ तफरीह लम्बी चल गयी होगी!”
“निगरानी तो जारी है न?”
“बरोबर जारी है। अब पिचड की जगह बुझेकर उधर तैनात है ताकि पिचड को रैस्ट मिल सके।”
“इरफान, इस ब्रजवासी का आर या पार जो करना है, जल्दी कर, क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत जल्द मुझे दिल्ली जाना पड़ेगा।”
“क्यों?”
“क्योंकि वहां ब्रजवासी जैसे तीन खलीफा और भी हैं, जिन्हें मैंने नये साल की रात को वार्निंग दी थी कि अगर उन्होंने ड्रग के कारोबार में हाथ डालने की कोशिश की तो मैं उनकी हस्ती मिटा दूंगा। वो अपना काम कर चुके हैं, अब मैंने अपना काम न किया तो मेरी बहुत हेठी होगी।”
“ओह!”
“तू आज ही मेरे लिये दिल्ली के एक ओपन एयर टिकट का इन्तजाम कर।”
“कौन सा टिकट, बाप?”
“ओपन टिकट। हमारे होटल में ही सहारा एयरवेज का बुकिंग काउन्टर है। वहां ऐसा ही बोलना, वो लोग समझ जायेंगे।”
“ठीक है। मैं टिकट का इन्तजाम करता हूं और ब्रजवासी के उसके होटल में लौटने पर कैसे भी उसे थामने का इन्ताजम करता हूं।”
“बढ़िया।”
ग्यारह बजे ब्रजवासी और शिवांगी शाह अपने सुइट में ब्रेकफास्ट कर रहे थे। जो वेटर उन्हें ब्रेकफास्ट सर्व कर रहा था, उसका नाम जीवाने था और वो ‘कम्पनी’ के उन चार बाकी बच गये प्यादों में से एक था जो कि होटल के नये मैनेजमैंट की सैकेंड स्क्रीनिंग में भी नहीं आ सके थे।
जीवाने शिवांगी शाह को जानता था इसलिये उसका ब्रजवासी को जानना जरूरी नहीं था।
शिवांगी भी उसे ‘कम्पनी’ के पुराने प्यादे के तौर पर जानती थी।
“कैसा चल रहा है?” — शिवांगी बोली।
“ठीक नहीं चल रहा।” — जीवाने चिन्तित भाव से बोला — “बहुत सख्ती हो रही है। पता नहीं कैसे कैसे होटल स्टाफ से ‘कम्पनी’ के प्यादे बीने जा रहे हैं। होटल चालू होते ही एक सौ छप्पन आदमी एकमुश्त निकाल दिये गये थे। कल ग्यारह और खड़े पैर डिसमिस कर दिये गये।”
“शिनाख्त कैसे हुई?”
“क्या पता कैसे हुई! लेकिन हुई और कील ठोक कर हुई।”
“तुम कैसे बच गये?”
“पता नहीं कैसे बच गया! मेरी तरह बच जाने वाले तीन जने और भी हैं। सिक्योरिटी चीफ की लिस्ट में ग्यारह ही नाम थे। पूरे पन्द्रह नाम क्यों नहीं थे, हैरानी की बात है।”
“ग्यारह में से कोई तुम लोगों की बाबत न बका?”
“मुझे मालूम नहीं कि बका नहीं या बकाने की कोशिश ही न की गयी। वैसे कोशिश की गयी होती तो नाकाम ही होती।”
“अच्छा!”
“हां। वो सब ‘कम्पनी’ के पुराने, वफादार प्यादे थे, उनमें से कोई मुखबिरी करना न सीखा।”
“इसीलिये तुम सलामत हो!”
“फिलहाल तो हूं! बाकी के तीन भी हैं लेकिन आगे का कोई भरोसा नहीं। जैसे ग्यारह की बाबत जानकारी सिक्योरिटी चीफ के पास जैसे आसमान से टपकी, वैसै बाकी हम चार की बाबत भी ऐसा ही कोई करतब हो सकता है।”
“ओह!”
“मैडम, जिस दिन यहां से हम चारों की छुट्टी हो गयी, उस दिन समझ लेना कि ‘कम्पनी’ की परछाई भी इस होटल के, जो कि अभी कल तक आल पावरफुल ‘कम्पनी’ का हैडक्वार्टर था, किसी कोने खुदरे में बाकी न बची।”
“और ये अभियान होटल का नया मालिक वो राजा साहब चला रहा है?”
“खुद तो नहीं चला रहा लेकिन हो तो सब कुछ उसी की शह पर रहा होगा!”
“चला कौन रहा है?”
“नया जनरल मैनेजर कपिल उदैनिया और नया सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े। दोनों बहुत कड़क हैं। सारा स्टाफ थरथर कांपता है उनके सामने।”
“और राजा साहब?”
“वो किसी के मुंह नहीं लगते। किसी को कुछ कहना होता है तो उसके महकमे के हैड से कहलवाते हैं।”
“वैसे कैसे आदमी हैं?”
“सख्त मिजाज ही हैं। रौब तो ऐसा है कि लोग बाग उन्हें आता देखें तो रास्ता छोड़ के खड़े हो जायें।”
“वो सोहल हो सकता है?” — ब्रजवासी बोला।
“कौन? राजा साहब?”
“हां।”
“नहीं। नहीं।”
“बहुत दावे से कह रहा है?”
“जी हां।”
“सोहल को पहचानता है?”
“जी हां। बाखूबी।”
“कैसे पहचानता है? ‘कम्पनी’ की फैलाई तसवीरों से या कभी रूबरू भी देखा?”
“रूबरू भी देखा।”
“कब? कहां?”
“गजरे साहब की मौत से दो तीन दिन पहले। दिल्ली में। उस की माडल टाउन वाली कोठी में। मैं शोलू और जयगुरु बाबू कामले के साथ उधर नीलम की ताक में तैनात थे कि वो वहां पहुंच गया था। हमें खदेड़ कर भगाया गया था वहां से। करिश्मा था कि जानबख्शी कर दी गयी थी।”
“हूं। तो सोहल राजा साहब नहीं हो सकता?”
“मेरी निगाह में तो नहीं हो सकता!”
“किसी तेरे से ज्यादा बड़े जानकार ने दावा किया है कि सोहल ही राजा गजेन्द्र सिंह बना हुआ है।”
“अगर ऐसा है तो करिश्मा है। शक्ल तो छोड़िये, राजा साहब तो कद में भी सोहल से चार पांच इंच ऊंचे हैं!”
“पगड़ी का कमाल होगा!” — शिवांगी बोली — “हाई हील का कमाल होगा!”
जीवाने खामोश रहा।
“सुना है कि उनका एक प्राइवेट सैक्रेट्री भी है जो कि होटल के निजाम में काफी दखल रखता है!”
“हां। कौल नाम है उसका।”
“वो सोहल हो सकता है?”
जीवाने कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने हिचकिचाते हुए इनकार में सिर हिलाया।
“जवाब हिचकिचा के दिया?”
“नाक नहीं मिलती। सोहल की नाक सुतवां है, कौल की पकौड़े जैसी फूली हुई है। आवाज तो बिल्कुल नहीं मिलती। आंखों की रंगत नहीं मिलती लेकिन अब आप मुझे शक में डाल रही हैं तो लगता है कि कहीं कहीं से कुछ कुछ मिलता भी है।”
“जैसे क्या?”
“जैसे ठोढ़ी। जैसे कद काठ।”
“कौल सोहल के कई नामों में से एक नाम है।”
“वो महज इत्तफाक से हो सकता है। ये कौल साफ कश्मीरी लगता है। सोहल कश्मीरी नहीं लगता था।”
“जब लगना चाहता होगा तो लगने लगता होगा!”
जीवाने खामोश रहा।
“तूने” — ब्रजवासी उसे घूरता हुआ बोला — “राजा साहब को और कौल को कभी इकट्ठे देखा?”
जीवाने माथे पर बल डाले कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “नहीं। लेकिन ये कोई बड़ी बात नहीं।”
“क्यों?”
“अभी तीन दिन पहले तो होटल फिर से चालू हुआ है!”
“यानी कि आगे उम्मीद है कि वो कभी इकट्ठे दिखाई देंगे?”
“हां।”
“राजा साहब को या कौल को या दोनों को देख पाने का कोई तरीका?”
जीवाने ने इनकार में सिर हिलाया।
“क्यों?” — ब्रजवासी के माथे पर बल पड़े।
“इतना बड़ा होटल है, वो कब कहां हैं, कहीं हैं या नहीं हैं, क्या पता लगता है!”
“हूं।”
“अब वैसे भी बहुत सख्ती है। स्टाफ को खामखाह इधर उधर भटकने नहीं दिया जाता। जिस का जहां काम हो, वो वहीं जा सकता है। राजा साहब और उनके सैक्रेट्री का आफिस चौथी मंजिल पर है। मैं चाहूं कि मैं मुंह उठा कर उधर को चल दूं तो ऐसा नहीं हो सकता।”
“कौन रोकेगा?”
“सिक्योरिटी स्टाफ। राजा साहब का पर्सनल स्टाफ।”
“ओह!”
“आजकल सिक्योरिटी बहुत कड़ी है यहां। पहले हर फ्लोर पर सिर्फ एक फ्लोर वेटर होता था, अब उसके अलावा हर फ्लोर पर वेटर की वर्दी में दो सिक्योरिटी वाले होते हैं और हर दो फ्लोर के लिये एक हाउस डिटेक्टिव तैनात है। मेहमानों की गैरहाजिरी में मैटल डिटेक्टर से उनका सामान भी चैक किया जाने लगा है।”
“तुम्हारा मतलब है” — शिवांगी सकपकायी — “ऐसी चैकिंग यहां की भी हो सकती है?”
“आपकी गैरहाजिरी में।”
“गैरहाजिरी में ही सही लेकिन हो सकती है?”
“जी हां।”
शिवांगी की ब्रजवासी से निगाह मिली। ब्रजवासी ने सहमति में सिर हिलाया।
“कोई तो तरीका होगा” — फिर ब्रजवासी बोला — “राजा साहब या उनके सैक्रेट्री के दर्शन कर पाने का?”
“मेरी जानकारी में” — जीवाने बोला — “उनमें से कोई लॉबी में कदम रखेगा तो मैं आपको खबर कर दूंगा।”
“और कोई तरीका नहीं?”
“नहीं।”
“सुना है ‘कम्पनी’ ने सोहल के कई बहुरूपों की वक्त वक्त पर अन्डरवर्ल्ड में तसवीरें बंटवाई थीं ताकि कोई उसे पहचान पाता और फिर ‘कम्पनी’ से हासिल होने वाले ईनाम के लालच में या उसे खुद मार गिराता या ‘कम्पनी’ को उसकी खोज खबर दे देता। जैसे कि उसकी उस वक्त की असली तसवीर जबकि वो सिख था, उसकी दाढी मूंछ और केश मुंडी तसवीर, उसकी फ्रेंचकट दाढी मूंछ वाली तसवीर, उसके प्लास्टिक सर्जरी से तब्दील हुए नये चेहरे की तसवीर वगैरह?”
“जी हां, हुआ तो था ऐसा! ये काम इकलाब सिंह के निजाम में भी हुआ था और गजरे साहब के निजाम में भी हुआ था।”
“वो तसवीरें अभी भी कहीं कहीं किसी के पास होंगी?”
“हो सकता है।”
“उसका एक सैट हमारे लिये कहीं से भी पैदा कर।”
“ठीक है। कोशिश करूंगा मैं।”
“इससे हमें राजा साहब के बारे में और उसके सैक्रेट्री कौल के बारे में कोई आखिरी फैसला करने में भी सहूलियत होगी।”
“आखिरी फैसला?”
“जीवाने, तू हमारी तरफ है इसलिये साफ बोलता हूं। हमें पता चला है कि ये राजा साहब ही सोहल है... बीच में मत बोल। जो मैं कहता हूं, वो सुन। तुझे वो सोहल लगता है या नहीं लगता, वो जुदा मसला है लेकिन हमें यकीनी तौर से मालूम हुआ है कि वो ही सोहल है। अब अगर वो सोहल है तो उसकी बीवी नीलम भी यहीं होनी चाहिये। उसका बच्चा भी यहीं होना चाहिये। जैसे तू सोहल को पहचानता है, वैसे क्या नीलम को भी पहचानता है?”
“नहीं।”
“तूने होटल में किसी नौजवान औरत को चार पांच महीने के दुधमुंहे बच्चे के साथ देखा?”
“नहीं।”
“इसने नहीं देखा” — शिवांगी बोली — “तो इसका मतलब ये नहीं कि वो यहां नहीं है। इतना बड़ा होटल है ये। कितने कमरे हैं इसमें?”
“साढ़े चार सौ।” — जीवाने बोला।
“मंजिलें भी बीस से कम क्या होंगी।”
“अट्ठारह हैं।”
“ऊपर से ये तो एक ही शिफ्ट की ड्यूटी करता होगा न! नीलम जैसी बच्चे वाली औरत के यहां होते हुए भी इसको उसकी खबर न लगना कोई बड़ी बात नहीं।”
“तो फिर खबर लगे तो कैसे लगे?” — ब्रजवासी बोला — “हम जाकर एक एक कमरे में तो नहीं झांक सकते!”
“एक तरीके से खबर लग सकती है।”
“कौन से तरीके से?”
“ये होटल अभी चालू ही हुआ है। बकौल इसके, सिर्फ तीन दिन पहले से ये होटल फिर से चालू हुआ है। इतने अरसे में यहां सैंकड़ों मेहमान नहीं पहुंच गये होंगे।”
“अभी तो पचासेक कमरे बुक हैं।” — जीवाने बोला।
“यानी कि अभी मुश्किल से दस बारह पर्सेंट की आकूपेंसी है। ऐसे में किसी खास कमरे में कोई खास चीज सर्व की जा रही हो तो वो जानकारी में आ सकती है।”
“खास चीज क्या?”
“बच्चे के लिये दूध। दूध की बोतल में। फीडर कहते हैं जिसे। दिन में कई बार। क्या समझे?”
तत्काल ब्रजवासी के चेहरे पर रौनक आयी।
“जीती रह, पट्ठी।” — फिर वो प्रशंसात्मक स्वर में बोला।
“डैडियो” — शिवांगी चहकी — “इतनी पते की बात कहने की फीस अलग होगी।”
“अरे, मेरा काम होने दे, मेरी जान, मैं तुझे सोने से तोल दूंगा।”
“होगा। जरूर होगा। भले ही सोने से न तोलना। क्योंकि तुम्हारा काम सिर्फ तुम्हारा काम नहीं, मेरा भी काम है।”
“तेरा?”
“‘भाई’ का। डैडियो, मैं यहां सिर्फ तुम्हारी तफरीह के लिये नहीं हूं। ‘भाई’ के हुक्म से अब वो काम भी मेरे हवाले हैं जिन्हें कि छोटा अंजुम अंजाम न दे सका।”
“ओह! तो तू ‘भाई’ की सगी है?”
“हां। फुल।”
“मैं क्या हूं?”
“तुम! तुम मेरी मुर्गी हो।”
“मुर्गी मैं हूं या तू?”
“तुम्हें लगता होगा कि मैं हूं लेकिन असल में तुम हो।”
“मैं तेरी साफगोई कि दाद देता हूं लेकिन अब बन्द कर ये बद््मजा किस्सा।”
“ओके।”
“कम से कम इसके सामने तो मेरी लाज रख।”
“ये अपना आदमी है।”
“फिर भी।”
“ओके। ओके।” — फिर वो जीवाने की तरफ आकर्षित हुई — “मैं फीडर की बात कर रही थी। तू समझा कुछ?”
“समझा।” — जीवाने बोला।
“अभी तेरे जैसे जो तीन प्यादे यहां और हैं, जो खुद समझा, वो उन्हें भी समझा। फीडर में दूध कौन से कमरे में सर्व होता है, जो इस बात की खबर लायेगा, उसे स्पेशल ईनाम। ओके?”
जीवने ने सहमति में सिर हिलाया।
फिर उसने खाली बर्तनों की ट्रे उठाई और वहां से रुखसत हो गया।
‘भाई’ के मोबाइल फोन की घन्टी बजी।
उसने काल रिसीव की।
“मैं काठमाण्डू से रॉस आरनाल्डो बोलता हूं।” — आवाज आयी — “लाइन पर रहिये, मिस्टर फिगुएरा बात करेंगे।”
“ठीक है।”
कुछ क्षण खामोशी रही फिर उसे रीकियो फिगुएरा की आवाज सुनायी दी।
“‘भाई’, फिगुएरा बोलता हूं।”
“यस, बॉस।”
“नेपाल की मीटिंग के बाद से मुझे तुम्हारी कोई खोज खबर नहीं है।”
“अभी तो एक हफ्ता ही हुआ है उस मीटिंग को...”
“आठ दिन।”
“आपने मुझे एक महीने का वक्त दिया है।”
“हफ्तावार रिपोर्ट कामन कर्टसी मानी जाती है।”
“वो... वो क्या है कि मैंने... मैंने आपको खामखाह डिस्टर्ब करना मुनासिब नहीं समझा था।”
“ऐसे नाजुक मामलों में मैं डिस्टर्ब होना पसन्द करता हूं। बोलो, क्या खबर है?”
“हेरोइन की पहली खेप महफूज दिल्ली पहुंच गयी है।”
“मुझे मालूम है। मेरा सवाल सोहल की बाबत था। काबू में आया अभी?”
“अ... अभी तो नहीं! लेकिन कोशिश जारी है।”
“कौन सी कोशिश जारी है? सोहल को ‘कम्पनी’ की गद्दी सौंपने की या उसकी हस्ती मिटाने की?”
“अब तो दूसरी ही कोशिश है, जनाब।”
“हस्ती मिटाने की?”
“हां।”
“पहली का क्या हुआ?”
“उस सिलसिले में उसकी तरफ से पूरी नाउम्मीदी हाथ लगी है। उसे ‘कम्पनी’ का सरगना बनना कुबूल नहीं। किसी कीमत पर कुबूल नहीं।”
“कैसे जाना?”
“मेरी खुद की बात हुई है उससे। वो तो ‘कम्पनी’ के नाम से ही ऐसे भड़कता है जैसे कि लाल कपड़ा दिखाये जाने पर सांड भड़कता है। एक ही रट है उसकी। ‘कम्पनी’ खत्म है। उसका मुर्दा दफनाया जा चुका है। मुर्दा अब कब्र से उठ के खड़ा नहीं हो सकता।”
“ओह!”
“पता नहीं किस मिट्टी का बना आदमी है कि धमकी में आने की जगह उलटा धमकाता है। दुबई पहुंचकर मेरी लाश गिराने की बात करता है। आपका भी पता ठिकाना पूछता है।”
“ग्रेट! जस्ट ग्रेट! हमें अफसोस है कि ऐसा हौसलामन्द शख्स हमारी तरफ नहीं है।”
“अहमक है।”
“उसे ताकत दिखाई होती!”
“दिखाई। मेरी तरफ से तो नौबत न आयी लेकिन दिल्ली वालों ने खूब दिखाई। उसके कई अजीजों, कई करीबियों को मार डाला लेकिन वो नहीं हिलता।”
“अभी और भी तो बाकी होंगे?”
“हैं तो सही! उनको जहन्नुमरसीद करने का इन्तजाम तो अब मैं भी करूंगा!”
“कोई खास वजह?”
“जी हां। उसने मेरा दायां हाथ काट दिया।”
“क्या किया?”
“मुम्बई में छोटा अंजुम को मार गिराया।”
“ऐसा शख्स तो सच में ही किसी दिन तुम्हारे सिर पर आ खड़ा होगा।”
“वो ऐसी कोई कोशिश करेगा तो मुझे खुशी होगी। जल्दी कोशिश करेगा तो मुझे और खुशी होगी। यहां मेरी बादशाहत चलती है, जनाब। उसने इधर का रुख किया तो लाश का भी पता नहीं चलेगा।”
“लाश का तो पता चलना चाहिये वरना दुनिया को खबर कैसे लगेगी कि सोहल खत्म हो गया, वो तुम्हारे किये खत्म हो गया!”
“मैंने मुहावरे वाली बात की थी, जनाब।”
“ओह! तो तुम्हारे खुद भी उससे बात करने का उस पर कोई असर नहीं हुआ?”
“ऐसा ही है, जनाब।”
“अगर मैं बात करूं तो कोई नतीजा निकलेगा?”
“आप कैसे बात करेंगे?”
“कैसे भी। नतीजा निकलेगा कोई?”
“मुझे उम्मीद नहीं।”
“‘भाई’, अगर तुम उससे मेरी फेस टु फेस बातचीत का कोई इन्तजाम कर सको तो ये तुम्हारे हक में एक प्लस प्वायन्ट होगा।”
“कहां? नेपाल में?”
“इन्डिया में।”
“जी!”
“हेरोइन स्मगलिंग का अपना आइन्दा प्रोग्राम सैट करने के लिये मैंने दिल्ली में नार्थ ईस्ट एशिया के ड्रग लार्डस की एक मीटिंग रखी है। मीटिंग की खबर मैंने झामनानी को कर दी है। वो ही इसका सब इन्तजाम करेगा। उस मीटिंग में शामिल होने के लिये ढाका से खलील-उर-रहमान आ रहा है, कराची से जहांगीर खान आ रहा है, काबुल से मुहम्मद कामिल दिलजादा आ रहा है, मियामर से आंग सू विन आ रहा है, कोलम्बो से नेविल कनकरत्ने आ रहा है और काठमाण्डू से बुद्धिराजा भट्टराई आ रहा है। ‘भाई’, वो एक इम्पॉर्टेंट मीटिंग है जिसमें मैं तुम्हारी भी मौजूदगी चाहता हूं।”
“मेरी भी!”
“हां। तुम्हें परहेज मुम्बई में कदम रखने से है। दिल्ली में तुम्हें कौन जानता है? वहां पुलिस भी तुम्हारे पीछे नहीं।”
“पुलिस तो, जनाब, सारे हिन्दोस्तान की मेरे पीछे है।”
“फिर भी तुम आसानी से वहां विजिट कर सकते हो। ये क्विक इन एण्ड आउट का प्रोग्राम है, जब तक किसी को तुम्हारी भनक भी लगेगी, तब तक तुम बड़े आराम से वापिस दुबई पहुंच चुके होगे।”
“कब पहुंचना होगा?”
“परसों सुबह। आगे का प्रोग्राम झामनानी को फोन करके पता करना।”
“ठीक है।”
“वहीं सोहल के बारे में भी मशवरा करेंगे जो कि मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे काबू में आ पायेगा।”
“ऐसी बात तो नहीं है, जनाब!”
“देखेंगे। देखेंगे।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
शाम को जाकर कहीं विमल की मुबारक अली से बात हुई, वो भी जबकि मुबारक अली ने ही उसे फोन लगाया।
“कहां गायब हो, मियां?” — विमल बोला — “मुझे तो तुम्हारी फिक्र हो गयी थी!”
“किस वास्ते?” — मुबारक अली बोला।
“खून खराबे का बाजार गर्म है। कल रात इधर कमीनों ने मेरे एक और करीबी को मार गिराया।”
“अरे! कौन गया?”
“तू नहीं जानता उसे। इधर का बड़ा आदमी था। बड़ा कारखानेदार। खामखाह मारा गया। सिर्फ इसलिये कि मुझे मुंह लगाने का गुनाह कर बैठा।”
“बाप, जिसकी आयी हो, उसने तो जाना ही होता है, वजह कोई भी बने।”
“मैं तो इतना हिला हुआ हूं कि मुझे तेरी फिक्र सता रही थी।”
“बाप, एक हमला हुआ तो था तेरे खादिम पर कल रात पण कामयाब न हो सका अल्लाह के फजल से।”
“यानी कि ठीक ही मुझे तेरी फिक्र सता रही थी।”
“तू फिक्र नक्को कर। मेरी फिक्र तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बिल्कुल ही नक्को कर। मैं पहले ही बोला अभी मेरा किस्मत में बहुत चान्द सूरज देखना लिखा है।”
“मुबारक अली, तेरी जान पर वैसा हमला फिर हो सकता है।”
“हो सकता है। मालूम मेरे को। मवाली लोगों के फेंके टुकड़ों पर पलने वाले वो कम्बख्तमारे इस बार चार आये, अगली बार आठ आ सकते हैं, दस आ सकते हैं, बीस आ सकते हैं।”
“तो तूने कोई प्रीकाशन नहीं ली?”
“क्या बोला, बाप?”
“कोई एहतियात नहीं बरती कि ऐसी नौबत आइन्दा न आये?”
“मेरी तो ऐसी कोई मर्जी नहीं थी पण भांजों की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जिद पर एक काम किया है।”
“क्या?”
“अड्डे पर जाना छोड़ दिया है। कुछ दिन के लिये सवारी के लिये टैक्सी चलाना नक्को।”
“वो तेरी फिराक में तिराहा बैरमखां पहुंच गये तो?”
“मसखरी करता है, बाप। इधर अपना इतना बड़ा कुनबा। चौदह तो भांजे। फिर अपने, चचा ताऊओं के, भाई भतीजे। फिर धोबियों की पलटन। बाप, इधर तो कोई फौज ही ले के आयेंगा तो कुछ पल्ले पड़ेंगा।”
“ये सब लोग हर वक्त, खड़े पैर तो साथ नहीं हो सकते होंगे!”
“वो तो है पण जितने किसी एक वक्त में साथ हो सकते होंगे, वो भी कम नहीं होंगे। इसलिये तू फिक्र नक्को कर।”
“थे कौन तेरे हमलावर?”
“झामनानी के आदमी थे।”
“कैसे जाना? किसी को पहचानता था?”
“पहले नहीं पहचानता था। बाद में पहचाना।”
“बाद में कब?”
“आज। बल्कि अभी।”
“कैसे?”
“बाप, तेरे को याद परसों मैं बोला कि मैं अपने धोबियों से इधर के चारों दादाओं के सारे कारिन्दों, प्यादों की शिनाख्त कराना मांगता था?”
“हां।”
“क्योंकि जानकारी ताकत!”
“हां।”
“बाप, जिन ऐसे कारिन्दों की शिनाख्त हो चुकी है, मेरे चार हमलावरों में से दो कम्बख्तमारे उन्हीं में से थे और वो दोनों झामनानी की चाकरी में हैं।”
“फौरन दुम ठोकी होगी उनकी!”
“अभी लिहाज किया। क्योंकि उन पर निगाह रखकर मेरे को उन जैसे और लोगों की शिनाख्त हासिल करना मांगता है।”
“तो यूं कह न कि कनकौवे की तरह अभी ढील दी है, एक ही बार खींचेगा?”
“ऐसीच है, बाप।”
“दिल्ली का हवा पानी माफिक आ गया तुझे! जाकर कनकौवेबाज बन गया!”
“ऐसीच है।”
“और?”
“और कुछ खुद और कुछ कीमती के जरिये मैंने झामनानी की और खोज खबर ली है। बाप, मेरे कू मालूम हुआ है कि कुतुबमीनार से आगे छतरपुर के इलाके में उसके ऐन आखिरी सिरे पर एक बियाबान जगह पर एक फार्म है जो कि झामनानी की मिल्कियत है। उस फार्म की बाबत और कुछ और बातों की बाबत तेरे को तेरा सब-इन्स्पेक्टर अजीत लूथरा बताता है।”
“लूथरा! वो कहां है?”
“मेरे पास खड़ेला है।”
“ओह!”
कुछ क्षण बाद उसे लूथरा की आवाज सुनाई दी।
“नमस्ते। मैं लूथरा।”
“नमस्ते। फार्म की क्या बात है?”
“वो फार्म उस इलाके के और फार्मों से बहुत परे, बहुत अलग थलग है जो कि, मैंने मालूम किया है कि, अमूमन उजाड़ पड़ा ही दिखाई देता है। यानी कि वहां फार्म हाउसों जैसी कोई वीक एण्ड पार्टी, कोई जश्न वगैरह नहीं होते। ये निश्चित है कि वो है झामनानी की ही प्रापर्टी। अमूमन वहां एक केयरटेकर और दो नौकर चाकर देखे जाते थे लेकिन आजकल वहां खामोश, लेकिन मुतवातर, आवाजाही है। फार्म में जो फार्म हाउस की इमारत है, उसकी झाड़ बुहार की जा रही है और वहां कोई दर्जन भर आदमी हर वक्त दिखाई देने लगे हैं।”
“आई सी।”
“आज उन आदमियों में मुझे एक ऐसी सूरत दिखाई दी थी जिसे कि मैं अपनी पुलिस की छूट गयी हुई नौकरी की वजह से पहचानता हूं।”
“कौन था वो?”
“वो तरसेम लाल नाम का एक हवलदार था जो कि अभी कल तक पहाड़गंज थाने में ड्यूटी भरता था। पहाड़गंज थाने का सब-इन्स्पेक्टर जनकराज, आप जानते ही हैं कि, मेरा दोस्त है। मैंने तरसेम लाल की बाबत उससे पूछा तो मालूम हुआ कि उसने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था।”
“एकाएक?”
“हां।”
“वजह?”
“वजह जो बताई जाती है वो विश्वास के काबिल नहीं। जनकराज कहता है कि उसने इस्तीफे में लिखा है कि वो किन्हीं जाती वजुहात से पुलिस की नौकरी करता नहीं रह सकता था।”
“क्यों ये वजह विश्वास के काबिल नहीं?”
“इस्तीफे के लिये एक महीने का नोटिस देने का विधान है। तुरन्त लागू होने वाला इस्तीफा दिया तो जा सकता है लेकिन उस सूरत में एक महीने की तनखाह का या इससे भी ज्यादा जुर्माना होता है। अब सोचिये, जो आदमी परसों रात तक ड्यूटी पर था, क्यों उसने कल सुबह ड्यूटी पर आते ही ऐसा इस्तीफा ठोक दिया जबकि वो बाल बच्चेदार है और उसकी आमदनी का कोई दूसरा जरिया भी नहीं दिखाई देता!”
“क्यों ठोक दिया?”
“वजह अभी पकड़ में नहीं आयी लेकिन मुझे साफ महसूस हुआ था कि वो एस.आई. जनकराज को मालूम है इसलिये मैं जान के रहूंगा।”
“लेकिन वो झामनानी के फार्म में क्या कर रहा था?”
“मेरे खयाल से तो मुलाजमत कर रहा था, नौकरी बजा रहा था, तसदीक अभी कल या परसों में हो जायेगी।”
“लिहाजा उसने एक दादा की नौकरी करने के लिये पुलिस की नौकरी छोड़ दी!”
“बात में कोई भेद जरूर है लेकिन अभी पकड़ में नहीं आ रहा। मैं कल आपको फिर फोन करूंगा और आज से ज्यादा पुख्ता कोई रिपोर्ट दूंगा।”
“ठीक है।”
“मुबारक अली से अभी और बात करेंगे?”
“नहीं। काफी हो गयी।”
विमल ने लाइन काट दी।
तभी इरफान वहां पहुंचा।
“नटराज से पिचड का फोन आया था।” — वो बोला — “वो अपना आदमी तो अभी तक वापिस नहीं लौटा!”
“ब्रजवासी?”
“वही।”
“कहां चला गया?”
“समझ में नहीं आ रहा। क्यों कल शाम का उधर से निकला अभी तक वापिस नहीं लौटा!”
“तफरीह और लम्बी खिंच गयी होगी!”
“ऐसीच होगा। और तो कोई वजह समझ में नहीं आ रही!”
“कहीं चैक आउट तो नहीं कर गया?”
“बाप, हो तो नहीं सकता कि उसकी ऐसी किसी हरकत की बुझेकर को या पिचड को खबर न लगे पण शोहाब फिर भी चैक कियेला है। वो होटल नहीं छोड़ गया हुआ है। उसका सामान उधर पड़ा है, बाप।”
“फिर क्या बात है! कभी तो लौटेगा ही!”
“मैं भी बुझेकर और पिचड को यहीच बोला। वो उधर शिफ्ट में निगरानी करते रहेंगे, वो लौटेगा तो फौरन इधर खबर करेंगे।”
“बढ़िया।”
आठ बजे के करीब ड्रिंक्स की एक ट्राली के साथ जीवाने ब्रजवासी और शिवांगी शाह के सुइट में पहुंचा।
“वो दूध की बोतल वाली बात” — वो धीरे से बोला — “कारगर हुई जान पड़ती है।”
“अच्छा!” — शिवांगी आशापूर्ण स्वर में बोली।
“वैसी दूध की बोतल, जिसे आप फीडर बोला, अट्ठारहवीं मंजिल के सुइट नम्बर 1808 में पहुंचायी जाती है।”
“यानी कि नीलम वहां है?”
“अभी पक्के तौर पर कहना मुहाल है। अभी अन्दाजा ही लगाया जा सकता है। उस सुइट में एक औरत है, एक दूध पीता बच्चा है लेकिन वो औरत नीलम है, ये अभी नहीं कहा जा सकता। ये भी नहीं कहा जा सकता कि वहां नीलम और बच्चे के अलावा और कोई नहीं।”
“क्यों भला? नीचे रजिस्ट्रेशन से...”
“वेटर को रजिस्टर कौन देखने देगा? बोला न, बहुत सख्ती है इधर आजकल।”
“फिर क्या बात बनी? क्या पता 1808 में नीलम न हो! क्या पता फीडर कहीं और भी पहुंचाया जाता हो!”
“तसदीक कैसे होगी?” — ब्रजवासी बोला।
“कैसे भी होगी, होगी। टेम लगेगा।”
“अरे, कमरे में झांकना ही तो है!”
“मैं नीलम को नहीं पहचानता।”
“हुलिया तो जानता होगा?”
“मैं अट्ठारहवीं मंजिल पर नहीं जा सकता।”
“तो फीडर की बाबत कैसे जाना?”
“आज अट्ठारहवीं मंजिल पर जिस वेटर की ड्यूटी है, वो अपना आदमी है।”
“यानी कि” — शिवांगी बोली — “बाकी बचे चार प्यादों में से एक?”
“हां।”
“उसको इधर बुला के ला।”
“वो इधर नहीं आ सकता। जैसे मैं उधर नहीं जा सकता।”
“नाम क्या है उसका?”
“शोलू।”
“वो नीचे नहीं आ सकता, तू ऊपर नहीं जा सकता, हम तो ऊपर जा सकते हैं?”
“किसी ने टोका तो क्या जवाब देंगी?”
“क्यों टोकेगा? होटल में ठहरे हुए हैं। होटल के मुअज्जिज मेहमान हैं। होटल का नजारा कर रहे हैं। होटल के टॉप फ्लोर से मुम्बई का नजारा कर रहे हैं।”
“ऐसा नजारा करने से आपको कोई नहीं रोक सकता लेकिन किसी को अपना नजारा करने से आप भी नहीं रोक सकेंगी।”
“क्या मतलब?”
“मैं बोला हर दो फ्लोर पर एक हाउस डिटेक्टिव। हर फ्लोर पर वेटर की वर्दी में दो सिक्योरिटी वाले। फिर खुद वेटर भी।”
“वो तो तुम बोले अपना आदमी है! शोलू है!”
“आज है। कल उसकी ड्यूटी बदल सकती है।”
“ओह!”
“मेरी भी ड्यूटी अब खत्म है। ये आखिरी सर्विस है जो मैंने आपकी की। नया वेटर बाहर पहुंच चुका है। वो जरा देर से पहुंचा वरना ये सर्विस भी मैं न कर पाया होता।”
“आई सी।”
“और ध्यान रखियेगा, वो अपना आदमी नहीं है।”
“अच्छा हुआ बता दिया।” — ब्रजवासी बोला।
“मैं चलता हूं।”
“ईनाम तो ले जा शोलू का। और अपना भी।”
“फिर ले लेंगे। कोई जल्दी नहीं। वैसे भी होटल में ‘कम्पनी’ राज लौट आया तो मेरे जैसों के लिये तो ईनाम ही ईनाम हैं।”
“ठीक।”
जीवाने उनका अभिवादन करके दरवाजे की ओर बढ़ा।
शिवांगी ड्रिंक्स तैयार करने लगी।
जीवाने दरवाजे पर से वापिस लौटा।
ब्रजवासी ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“वो तसवीरें।” — जीवाने बोला — “सोहल की कई सूरतों की। जिनकी सुबह बात हुई थी। देना भूल गया। ये लीजिये।”
जीवाने ने ब्रजवासी को एक लिफाफा सौंपा और वहां से रुखसत हो गया।
शिवांगी ने ब्रजवासी को जाम थमाया और उसके साथ चियर्स बोला।
विस्की चुसकता ब्रजवासी लिफाफे में से बरामद हुई तसवीरों का मुआयना करने लगा।
“ये वो काम है” — ब्रजवासी बोला — “जो दिल्ली में भरपूर कोशिशों के बाद न हुआ। यहां आराम से हो गया।”
“इत्तफाक की बात है।” — शिवांगी लापरवाही से बोली।
दोनों विस्की चुसकते रहे और कबाब चुभलाते रहे।
एकाएक शिवांगी ने चुटकी बजायी।
“क्या हुआ?” — ब्रजवासी सकपकाया सा बोला।
“अभी नहीं हुआ।” — शिवांगी इत्मीनान से बोली — “अब होगा। देखते जाओ।”
उसने अपना गिलास वापिस ट्राली पर रखा और उठ कर बाथरूम के दरवाजे की ओर बढ़ी।
एकाएक वो जोर से चीखी।
“क्या हुआ?” — ब्रजवासी घबराकर बोला।
“चुप! तुम्हारे लिये नहीं हुआ।”
“लेकिन...”
शिवांगी फिर चीखी।
भड़ाक से सुइट का दरवाजा खुला। एक दूसरे से उलझते हाउस डिटेक्टिव और दो वेटरों ने भीतर कदम रखा।
“क्या हुआ, मैडम?” — हाउस डिटेक्टिव बौखलाया सा बोला।
“काकरोच!” — शिवांगी आतंकित भाव से बोली।
“जी!”
“काकरोच! मेरे पांव के नीचे आने लगा था।”
“लेकिन, मैडम...”
“उधर गया। रेफ्रीजरेटर के पीछे।”
“मैडम, इधर काकरोच नहीं हो सकता।”
“रेफ्रीजरेटर के पीछे।”
हाउस डिटेक्टिव ने दोनों वेटरों को इशारा किया।
उन्होंने रेफ्रीजरेटर के पीछे झांका। फिर उसे सरका कर खाली हुई जगह पर झांका।
“नहीं है।” — एक बोला।
“कार्पेट के नीचे घुस गया होगा!” — शिवांगी बोली।
“कार्पेट तो फिक्स है।” — हाउस डिटेक्टिव बोला।
“तो किधर गया?”
“मैडम, आपको वहम हुआ होगा।”
“मैं काकरोच वाले कमरे में नहीं रह सकती। दिखाई एक दिया है, होंगे कई।”
“मैडम, ऐसा नहीं हो सकता।”
“मैनेजर को बुलाओ।”
“लेकिन, मैडम...”
“आई डिमांड दैट ए रिस्पांसिबल होटल पर्सनल शुड बी हेयर दिस वैरी मिनट।”
“मैं... मैं बुलाता हूं।”
उसकी फोन काल पर एक असिस्टेंट मैनेजर दौड़ता हुआ वहां पहुंचा।
शिवांगी ने उसके सामने भी फुल थियेट्रिकल्स के साथ काकरोच की दुहाई दी।
“बट दैट इज इमपासिबल।” — असिस्टेंट मैनेजर बोला — “ये होटल तो नीचे से ऊपर तक तमाम क्रालिंग आब्जेकट्स से इम्यूनिटी के लिये ट्रीटिड है। यहां काकरोच जैसे क्रालिंग आब्जेक्ट की मौजूदगी नामुमकिन है।”
“यानी कि” — ब्रजवासी, जिसकी समझ में तब तक शिवांगी का नाटक आ चुका था, गुस्से से बोला — “ये झूठ बोल रही हैं?”
“नहीं, नहीं।” — असिस्टेंट मैनेजर हड़बड़ाया — “ये क्यों झूठ बोलेंगी?”
“बिल्कुल!”
“मैं... मैं पैस्ट कन्ट्रोल वालों को बुलाता हूं।”
“तब तक मैं काकरोच की दहशत झेलती यहां खड़ी रहूंगी?”
मैनेजर और भी हड़बड़ा गया, उसने कुछ क्षण बेचैनी से पहलू बदला और फिर बोला — “मैं आपका सुइट चेंज करा देता हूं।”
“किसी फ्लोर पर” — शिवांगी सावधान स्वर में बोली — “एक जगह काकरोच हों तो दूसरी जगह पर भी हो सकते हैं।”
“मैं फ्लोर चेंज करा देता हूं।”
“मैंने सुना है कि फ्लोर जितना स्ट्रीट लैवल से ऊंचा हो, उतनी ही काकरोच वगैरह के वहां होने की सम्भावना कम होती है।”
“ऐसा?” — ब्रजवासी बोला।
“हां।” — शिवांगी बोली।
“फिर तो हमें टॉप फ्लोर पर शिफ्ट करने का इन्तजाम कीजिये।” — ब्रजवासी बोला।
“यस, सर।” — असिस्टेंट मैनेजर बोला — “राइट अवे, सर।”
“लेकिन...” — शिवांगी बोली।
हे भगवान! — कलपता हुआ असिस्टेंट मैनेजर मन ही मन बोला — कैसी कम्बख्त औरत थी! अभी भी लेकिन!
“यस, मैडम!” — प्रत्यक्षत: वो बोला।
“सुइट लिफ्ट या सीढ़ियों के आसपास न हो।” — शिवांगी बोली — “फायर एस्केप के करीब न हो।”
“नहीं होगा, मैडम। मैं अभी इन्तजाम करता हूं।”
वो हिदायत शिवांगी ने इस नीयत से जारी की थी कि उन्हें 1808 के ज्यादा से ज्यादा करीब का कोई कमरा हासिल हो सकता।
होटल स्टाफ वहां से रुखसत हो गया।
उनके जाते ही शिवांगी ने ब्रजवासी को आंख मारी।
“जीती रह, पट्ठी।” — ब्रजवासी उसे बांहों में भरता हर्षित भाव से बोला — “टॉप का हरामी दिमाग पाया है तूने।”
“तारीफ का शुक्रिया, डैडी।” — शिवांगी चहकी।
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