एसीपी देवड़ा फिर कमिश्नर के पास पहुंचा ।
“मैंने रामन्ना के बारे में और पूछताछ कराई है ।” - देवड़ा बोला - “मैं यह खबर करने के लिये हाजिर हुआ था कि पड़ताल का नतीजा बड़ा अच्छा निकला है ।”
“क्या मालूम हुआ ?”
“मालूम हुआ कि मरने वाले के सुरेश जयरथ और अकबर खान नाम के दो बड़े जिगरी यार थे जो अक्सर टैक्सी स्टैंड पर उससे मिलने आया करते थे और जिनके साथ कमाठीपुरे के एक ईरानी के रेस्टोरेंट में वह अक्सर बैठा पाया जाता था । टैक्सी स्टैंड पर उन दोनों यारों का जो हुलिया हमें बताया गया था, वह हमने आर्ट गैलरी के सिक्योरिटी स्टाफ से हासिल फाल्स सीलिंग के कारीगरों के हुलियों से मिलाया था तो मोटे तौर पर मिलता पाया था ।”
“यानी कि फाल्स सीलिंग बनाने वाले नकली कारीगर वही तीनों थे ?”
“जी हां । इस बात की अब निर्विवाद रूप से तसदीक हो चुकी है ।”
“कैसे ?”
“तोलाराम नायक से । उसकी बीवी से । उसके बच्चे से । उन तीनों के बयानात से जो तस्वीर उभरकर सामने आयी है, वह यह कहती है कि अकबर तोलाराम के पास उसकी दुकान पर गया था और रामन्ना और जयरथ उसके घर गये थे कि जहां वे पिस्तौलें लेकर उसकी बीवी और बच्चे की खोपड़ी पर सवार हो गये थे । हमने नायक की बीवी अचला नायक को रामन्ना की लाश दिखाई है । उसने निर्विवाद रूप से उस शख्स के तौर पर रामन्ना की शिनाख्त की है जो अपने एक साथी के साथ - जाहिर है कि वह साथी जयरथ था - उसके बच्चे का अपहरण करके ले गया था ।”
“आई सी ।”
“इस सिलसिले में एक दिलचस्प बात यह है कि इन तीनों ने तोलाराम नायक को अपने असली नाम बताये थे जबकि जाहिर उन्होंने यही किया था कि वे उनके असली नाम नहीं थे ।”
“नामों से क्या फर्क पड़ता है ?”
“अब कोई फर्क नहीं पड़ता । अब हम जानते है कि चोरी में शामिल वे तीनों कौन थे, नाम उनके कुछ भी हों ।”
“और ।”
“तोलाराम नायक के लड़के को हम बांद्रा वाले फ्लैट में लेकर गये थे । लड़के ने फ्लैट को उस जगह के रूप में फौरन पहचान लिया था जहां कि अपहरण के बाद वह बंद रखा गया था । यही नहीं सर, आठ साल के उस बच्चे ने हतप्राण मंजुला को भी उस सुंदर आंटी के तौर पर निःसंकोच पहचान लिया था जो रोज उसे नई नई वीडियो फिल्में दिखाया करती थी ।”
“दैट्स वैरी गुड ।”
“सर, क्या अब भी भण्डारी चोरों का साथी होने से इनकार कर सकता है ?”
“उसे गिरफ्तार किया गया ?”
“अभी नहीं । अभी वह गिरफ्तारी के लिए उपलब्ध नहीं । वह अपने घर पर नहीं है और आर्ट गैलरी भी नहीं पहुंचा । उसके घर वालों का कहना है कि आज सुबह आठ बजे एक टेलीफोन आया था जिसे सुनते ही वह बिना कुछ बताये घर से निकल गया था । बहरहाल उसकी तलाश जारी है । मैंने उसके घर और गैलरी दोनों जगह आदमी तैनात कर दिये हैं । वह जहां भी पहुंचेगा गिरफ्तार कर लिया जायेगा ।”
“गुड ! तुम ऐसा इंतजाम करो कि गिरफ्तारी के बाद वह सीधा मेरे पास लाया जाये । मैं खुद उससे पूछताछ करूंगा ।”
“राइट, सर ।”
“तुम्हारी वो तीस टीमें अपना काम कर रही हैं ?”
“जी हां । उन्हें मरने वाली के सारे ग्राहकों को कवर करने के लिये भेज दिया गया है ।”
“कोई नतीजा ?”
“अभी नहीं । अभी तो हमारे आदमी मुश्किल से अपने अपने लक्ष्य पर पहुंचे होंगे ।”
“हूं ।”
“वुई आर डुईंग अवर बैस्ट, सर ।”
“गुड । आई एम ग्लैड ।”
***
एक पब्लिक टेलीफोन से विमल ने वरसोवा में तुकाराम को फोन किया ।
“तुका” - उसके लाइन पर आने के बाद वह बोला - “तुम्हारे पास जिसका भी फोन आए उसे कह देना कि वह अपने चैकिंग के प्रोग्राम से किनारा कर ले और वापिस लौट आए ।”
“क्यों ? क्या मुझे हमारा शिकार मिल गया है ?”
“नहीं, लेकिन मुझे ऐसा एक संकेत मिला है जिससे लगता है कि जहां भी हमारा आदमी पहुंचेगा वहां पुलिस उसका इंतजार कर रही होगी । मैं खुद फंसने से बाल बाल बचा हूं ।”
“ऐसा कैसे हो गया ?”
“पता नहीं कैसे हो गया ! लेकिन अब यह आपरेशन ड्राप करने में ही हमारी भलाई है ।”
“कोई पहले ही न फंस चुका हो !” - तुकाराम चिंतित भाव से बोला ।
“जो फंस चुका है उसके लिए हम कुछ नहीं कर सकते लेकिन आइंदा फंस सकने वालों को वार्निंग हम दे सकते हैं ।”
“हां ।” - तुकाराम एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “यानी कि नतीजा तो कुछ न निकला !”
“मेरे खयाल से नतीजा भी निकला है ।”
“क्या ?”
“आकर बताऊंगा ।”
“आएगा कब ?”
“एक घंटे में ।”
“ठीक है ।”
विमल ने लाइन काट दी ।
***
“एक टीम वापिस आ गई है, सर ।” - एक सब-इंस्पेक्टर ने एसीपी मनोहर देवड़ा को सूचित किया ।
“वापिस आ गई है !” - देवड़ा सकपकाया - “क्यों वापिस आ गई है ?”
“जिस पते पर टीम को भेजा गया था, वह हमारे ही महकमे के एक आदमी का पता निकला था ।”
“तुम्हारा मतलब है कि मरने वाली का एक स्थायी ग्राहक हमारे महकमे का कोई आदमी भी था ?”
“जी हां । एक इंस्पेक्टर ।”
“इंस्पेक्टर ! कौन-सा इंस्पेक्टर ?”
“इंस्पेक्टर चटवाल ।”
“चटवाल ! लिस्ट में तो ऐसा कोई नाम नहीं था !”
“लिस्ट में चटवाल नहीं लिखा होगा । इंस्पेक्टर भी नहीं लिखा होगा । टीम को जो नाम बताया गया था वह किशनचंद था । किशनचंद के जनता कालोनी के पते पर पहुंचने के बाद ही टीम को मालूम हुआ था कि वह नाम पता अपने ही महकमे के एक आदमी का था ।”
“टीम वापिस क्यों लौट आई ?”
“इंस्पेक्टर चटवाल ने उसे लौटा दिया । उसका आज ऑफ है । उसने कहा था कि वह सारा दिन घर पर ही रहने वाला था । और यह कि टीवी सेंटर का सर्वेयर होने का बहाना करके अगर कोई आदमी वहां आएगा तो वह खुद ही उसे धर दबोचेगा ।”
“टीम ने उसका कहना मान लिया ?”
“सर, चटवाल इंस्पेक्टर है जबकि टीम के दो आदमी महज एक हवलदार और एक नया भरती हुआ सब-इंस्पेक्टर थे ।”
“हूं ।”
देवड़ा को अब एक नई सम्भावना दिखाई दी ।
अगर इंस्पेक्टर चटवाल मंजुला के ग्राहकों में से एक था तो मुमकिन था कि कल वह बांद्रा में उसी से मिलने गया था और किसी टिप पर काम करते वहां पहुंचने की कहानी उसने हकीकत छुपाने के लिए गढ ली थी ।
सब-इंस्पेक्टर सावधान की मुद्रा में खड़ा अपलक अपने एसीपी को देख रहा था ।
“टीम को वापिस भेजो ।” - एकाएक देवड़ा निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
“यस, सर”
“लेकिन उस काम के लिए नहीं जिसके लिए उन्हें पहले तैनात किया गया था ।”
“सर !”
“इस बार उन्होंने इंस्पेक्टर चटवाल की निगरानी करनी है । लेकिन उसे पता न लगने पाए कि उसकी निगरानी हो रही है । अगर वह कहीं जाए तो उन्होंने साये की तरह उसके पीछे लग जाना है । इस काम को ठीक से अंजाम देने के लिए उनके साथ दो आदमी और भेजो । उन्हें वायरलैस से लैस करो और.. .उनके पास सवारी क्या है ?”
“मोटर साइकल, सर ।”
“उनके लिए एक कार का इंतजाम करो । लेकिन कार पुलिस की न हो ।”
“राइट, सर ।”
“और हसन नाम का हमारा एक पुराना मुखबिर है...”
“बदरुल हसन ?”
“वही ! उसे तलाश करो और पकड़कर मेरे पास लाओ ।”
“यस, सर ।”
***
वागले को अपने हिस्से के काम को अंजाम देने में किसी अड़चन का सामना नहीं करना पड़ा था । अब तक वह चार आदमियों से मिला था, चारों उसे अपने घरों में मौजूद मिले थे, और तब भी टीवी से चिपके मिले थे । सबने सहयोग की पूरी भावना दिखाई थी और बड़ी सरलता से उसके हर सवाल का जवाब दिया था । दो जनों ने तो इस बात में बड़ी इज्जत महसूस की थी कि टीवी सेंटर वालों ने अपने किसी सर्वे के लिए मुम्बई के लाखों बाशिंदों में से उन्हें चुना था ।
अपने हिस्से की लिस्ट के चौथे आदमी से विदा लेकर उसने तुकाराम को फोन किया ।
“एक और नाम लिस्ट में से काट दो ।” - तुकाराम के लाइन पर आने के बाद वह बोला ।
“वागले” - तुकाराम ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं - “वापिस आ जा ।”
“वापिस आ जाऊं ? लेकिन अभी एक और नाम...”
“उसे छोड़ दे और वापिस आ ।”
“क्यों ? क्या किसी और को हमारा मुर्गा मिल गया है ?”
“नहीं । लेकिन विमल का कहना है कि अब इस काम को आगे बढाना खतरनाक साबित हो सकता है ।”
“क्यों ?”
“वह कोई पुलिस का खतरा बता रहा था । मुकम्मल बात तो उसके लौटने पर ही पता लगेगी ।”
“मेरा एक ही नाम बाकी रह गया है ।”
“उसे गोली मार और वापिस आ ।”
“अच्छा ।”
***
विमल अंधेरी पहुंचा ।
न्यू बाम्बे टूरिस्ट टैक्सी सर्विस के रिसैपश्निस्ट ने उसे उस शख्स की सूरत में फौरन पहचान लिया जो पिछले रोज गोवा के लिए बुक कराई गई एयरकन्डीशन्ड बस की बाबत पूछताछ करने आया था ।
“रुस्तमभाई तो अभी भी नहीं है ।” - विमल के पूछने से पहले ही वह बोल पड़ा ।
“अजीब बात है !” - विमल बोला ।
“अजीब भी और बहुत हैरान करने वाली भी । उसकी बीवी बेचारी का तो फिक्र से दम खुश्क हुआ जा रहा है । हर घंटे बाद उसका फोन आता है यहां । वह तो पुलिस के पास जाना चाहती है । मैंने ही कहा था कि शाम तक और देख लो ।”
“अपने नये बने उस इंस्पेक्टर यार के साथ कहीं तफरीह मार रहा होगा तुम्हारा उस्ताद !” - विमल तनिक उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।
“इंस्पेक्टर चटवाल के साथ ?”
“हां ।”
“नहीं । कल रात मैंने चटवाल को उसके थाने फोन किया था । वह थाने में नहीं था । फिर थाने से ही उसका पता पूछकर मैं उसके घर गया था जहां कि वो मौजूद था । उसने कहा था कि उसे रुस्तमभाई की कतई कोई खबर नहीं थी । परसों रात रुस्तमभाई उसके साथ जरूर गया था लेकिन बकौल चटवाल वे दोनों घंटे भर बाद ही अलग हो गये थे ।”
“एक इंस्पेक्टर चटवाल पहले एयरपोर्ट पर कस्टम में हुआ करता था । तुम्हारे उस्ताद का यार इंस्पेक्टर चटवाल कहीं वही तो नहीं ?”
“क्या पता, हो ?”
“कस्टम वाला चटवाल तो कोई पचपन साल का सिर से गंजा, बड़े झोलझाल जिस्म वाला आदमी था !”
“फिर वो हमारे वाला चटवाल नहीं हो सकता ।”
“अच्छा !”
“हां । यह तो मुश्किल से चालीस साल का है और बड़ा फिट और फुर्तीला है । सिर से गंजा भी नहीं है ।”
“सूरत शक्ल में कैसा है ?”
रिसैप्शनिस्ट उसका हुलिया बयान करने लगा ।
विमल ने गहरी सांस ली ।
रिसैप्शनिस्ट ऐन वही हुलिया बयान कर रहा था जो वह पहले दीपक मेहरा की जुबानी सुन चुका था ।
अब उसे उस इंस्पेक्टर की सूरत भी याद आ रही थी, माहिम क्रीक की नाकाबंदी पर मैटाडोर की तलाशी के सिलसिले में जिसने बड़ा अजीबोगरीब व्यवहार किया था ।
वह इंस्पेक्टर शर्तिया चटवाल था और नाकाबंदी पर पेंटिंगों की या रोकड़े की ही फिराक में था ।
अब विमल को गारंटी थी कि रुस्तमभाई का शुरू से ही उस इंस्पेक्टर से गठजोड़ था ।
रुस्तमभाई गायब था ।
मंजुला की हत्या के ऐन बाद वह इंस्पेक्टर मंजुला के फ्लैट में मौजूद था । लिहाजा जरूर माल उसी ने पार किया था । कैसे किया था, यह सोचना अभी बाकी था लेकिन वह करतूत उसके अलावा और किसी की हो ही नहीं सकती थी ।
“यह इंस्पेक्टर चटवाल रहता कहां है ?” - विमल ने पूछा ।
रिसैप्शनिष्ट ने उत्तर न दिया ।
“तुम उसके घर गये थे तो उसके घर का पता तो तुम्हें मालूम ही होगा !”
रिसैप्शनिस्ट अपलक उसकी तरफ देखने लगा ।
“क्या बात है ?” - विमल तनिक विचलित स्वर में बोला - “ऐसे क्या देख रहे हो ?”
“होटल में ठहरे एक टूरिस्ट के लिहाज से तुम कुछ ज्यादा ही सवाल पूछ रहे हो ?”
“कहां ज्यादा सवाल पूछ रहा हूं । मैं तो महज तुम्हारे उस्ताद के लिए फिक्र जाहिर कर रहा हूं ।”
“लेकिन..”
“मेरा वाकिफ इंस्पेक्टर चटवाल जे बी नगर में रहता था । मैंने सोचा कि शायद इस चटवाल का भी यही पता हो ।”
“नहीं है । यह इंस्पेक्टर चटवाल वैस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर इस्माइल कालेज के करीब जनता कालोनी में रहता है ।”
“फिर तो कोई दूसरा ही इंस्पेक्टर हुआ यह ।” - विमल ने फिर तुरंत विषय बदला - “अब यह बताओ कि मेरे उस एडवांस का क्या होगा जो मैंने रुस्तमभाई को बस बुक करवाते वक्त दिया था ?”
“मुझे तो ऐसे किसी एडवांस की खबर नहीं !”
“तो ?”
“तुम एडवांस वापिस चाहते हो ?”
“हां ।”
“गोवा नहीं जाना ?”
“फिलहाल प्रोग्राम बदल गया है ।”
“एडवांस तो तुम्हें रुस्तमभाई ही वापिस दे सकता है ।”
“ठीक है । मैं कल फिर आऊंगा ।”
“आने से पहले फोन कर लेना ।”
“ठीक है ।”
***
इंस्पेक्टर चटवाल हालात से सख्त नाखुश था और इस कदर बौखलाया हुआ था कि अपने हवास ठिकाने लगाने की कोशिश में दिन में ही विस्की पी रहा था ।
अपने फ्लैट में उन दिनों वह अकेला था । उसकी बीवी उसके बाल बच्चों को लेकर पंजाब में अपने मायके गयी हुई थी ।
कोई काम ठीक नहीं हो रहा था ।
रुस्तमभाई की लाश अभी तक बरामद नहीं हुई थी और यह बात उसे खामखाह सस्पेंस में डाल रही थी । पहाडी पर झाड़ियों में पड़ी लाश का अभी तक किसी की तवज्जो में न आना कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन वह जानता था कि जब तक लाश बरामद नहीं होती थी, तब तक उसका ध्यान लाश की तरफ से नहीं हटने वाला था ।
और इतना जोखिम उठाने के बाद - एक खून तक कर चुकने के बाद - माल तो लगभग उसके हाथ से निकल ही गया था ।
पिछले रोज बांद्रा पहुंचने में उसे पांच मिनट की भी देरी हो गयी होती तो वह हाथ ही मलता रह जाता ।
गुनाह बेलज्जत !
लेकिन अब गनीमत थी कि गुनाह की लज्जत उसे हासिल थी ।
परसों रात को छोकरी के फ्लैट में चुपचाप घुसकर छोकरी और उसके साथ मौजूद सोहल का कत्ल कर देने का उसका जो प्रोग्राम फेल हो गया था, उसी पर दोबारा अमल करने के लिए वह कल दोपहर को बांद्रा गया था । फ्लैट का दरवाजा खुला पाकर वह हैरान हुआ था लेकिन मंजुला को भीतर बैडरूम में मरी पाकर उसके छक्के छूट गये थे । उसने यही समझा था कि छोकरी का कल करके सोहल माल ले उड़ा था ।
छोकरी की सूरत ने भी उसे कम हैरान नहीं किया था ।
हिंसक मौत ने उसका चेहरा विकृत और वीभत्स बना दिया था लेकिन फिर भी उसने छोकरी को फौरन पहचान लिया था ।
आखिर वह उस छोकरी के साथ दर्जनों बार हमबिस्तर हो चुका था । लड़की कालगर्ल थी लेकिन उसका अपना धंधा चलाने का सिस्टम अनोखा था । ऐसी और लड़कियां ग्राहकों को अपना पता देती थीं, वह ग्राहकों के पते अपने पास रखती थी । यानी जब वह उपलब्ध होती थी तो फोन करके पूछ लेती थी कि वह आये । उसके धंधे के उस तरीके से चटवाल ने यही अंदाजा लगाया था कि जरूर वह गाहे बगाहे टूर पर जाते रहने वाले किसी सेल्समैन की बीवी थी जो अपने पति की गैरहाजिरी में ही अपना धंधा चला सकती थी और यह उसे पता नहीं होता था कि कब उसका पति गैरहाजिर होने वाला था ।
अपना नाम वह जानकी बताया करती थी लेकिन उसे पूरा विश्वास था कि वह उसका असली नाम नहीं था । उसका असली नाम जानकर उसने लेना भी क्या था । उसे तो सिर्फ इस बात से लेना देना था कि लड़की की खूबसूरती और नौजवानी टकसाली सिक्के जैसी असली और चौकस थी ।
ऊपर से अपनी इंस्पेक्टरी का रोब झाड़कर वह उसे उसकी कीमत से आधे पैसे भी नहीं देता था । एकाध बार तो उसने उसे कुछ भी नहीं दिया था - वापिस लौटने के लिए टैक्सी का किराया तक नहीं दिया था ।
फिर तूफानी रफ्तार से उसने फ्लैट की तलाशी ली थी और बैडरूम की वार्डरोब से चार सूटकेस बरामद किये थे ।
अभी उसने सूटकेस फ्लैट से बाहर निकाले ही थे कि अनायास ही उसकी निगाह नीचे इमारत के मुख्य द्वार की तरफ उठ गयी थी और उसे इमारत में दाखिल होता सोहल दिखाई दिया था ।
ऊपर की तरफ से भी सीढियों पर पड़ते किसी के कदमों की आवाज आ रही थी ।
वह माहौल सोहल को शूट कर देने के लिये मौजूं नहीं था ।
तब बिजली की फुर्ती से उसने बगल के फ्लैट की कालबैल बजाई थी । उसकी तकदीर अच्छी थी कि दरवाजा तुरंत खुला था । उसने दरवाजा खोलने वाले की सूरत भी देखे बिना उसे परे धकेला था और एक एक करके चारों सूटकेस फ्लैट में घसीट लिये थे ।
जिस घड़ी वह दरवाजा बंद कर रहा था, उसी घड़ी सोहल ने उस मंजिल पर कदम रखा था ।
यह फ्लैट खाली था और सिर्फ एक नौकर के हवाले था । फ्लैट के मालिकान किसी शादी के सिलसिले में शोलापुर गए हुए थे और बकौल नौकर अभी चार दिन और लौटकर नहीं आने वाले थे ।
नौकर गढवाली था, उसका नाम सजन सिंह था और उसने चटवाल की वर्दी का बहुत रोब खाया था । ऊपर से खामखाह घुड़ककर चटवाल ने उसे और त्रस्त कर दिया था । उसने बताया था कि वे सूटकेस एक स्मगलर की मिल्कियत थे जो कि उसने एक केस के दौरान पकड़े थे । स्मगलर भाग गया था, वह उसके पीछे जा रहा था और उसके लौटने तक उसने वे सूटकेस सम्भालकर रखने थे ।
फ्लैट के मालिकान बाकी फ्लैट को ताला लगाकर अपने नौकर के लिए सिर्फ बैठक खुली छोड़कर गये थे इसलिए सूटकेसों को सम्भालकर रखने के लिए उपलब्ध जगह वह बैठक ही थी ।
हालात ऐसे थे कि सूटकेसों को वहां छोड़ने के अलावा चटवाल के पास और कोई चारा नहीं था ।
तभी बगल के फ्लैट का दरवाजा भड़भड़ाया जाने लगा था ।
उसका दिल गवाही दे रहा था कि छोकरी के कत्ल की वजह से वहां कोई हंगामा बरपाने वाला था जिसमें फंसना उसके लिए गलत साबित हो सकता था ।
वह फ्लैट से बाहर निकला था ।
यह देखकर उसे बड़ी हैरानी हुई थी कि फ्लैट को बाहर से कुंडी लगी हुई थी और उसका बाहर वाला नहीं बल्कि भीतर का कोई दरवाजा भड़भड़ाया जा रहा था ।
सजन सिंह को उसके या सूटकेसों के बारे में किसी को कुछ न बताने की ताकीद करके वह वहां से खिसक गया था ।
पहली मंजिल पर ऊपर आते एक वर्दीधारी सिपाही से उसका सामना होते होते बचा था । सिपाही को ऊपर पहुंचने की जल्दी थी इसलिए उसने अपने से थोड़ी ही दूर एक फ्लैट के दरवाजे के साथ चिपके खड़े वर्दीधारी इंस्पेक्टर की तरफ निगाह नहीं उठाई थी । उस घड़ी उसकी मुकम्मल तवज्जो ऊपर की तरफ थी जहां कहीं जोरों से कोई दरवाजा भड़भड़ाया जा रहा था ।
चटवाल सड़क पर आया तो उसके और भी छक्के छूट गये ।
उसकी जीप सड़क पर से गायब थी ।
हालांकि वह सपने में नहीं सोच सकता था कि कोई जीप चुरा सकता था, फिर भी उस घड़ी उसने जीप की चाबियां इग्नीशन में छोड़ दी होने की वजह से अपने आपको जी भरकर कोसा ।
वहीं पुलिस की एक दूसरी जीप की मौजूदगी उसे यह चेतावनी भी दे रही थी कि उसका वहीं बने रहना ठीक नहीं था ।
चटवाल ने अपना विस्की का गिलास खाली किया और नया पैग बनाया ।
आज सुबह अपने एसीपी के सामने कितनी फजीहत हुई थी उसकी जीप चोरी की वजह से ! जीप बरामद हो जाने के बावजूद वह एसीपी का बच्चा उसे चार्जशीट की धमकी दे रहा था ।
और कितने फसादी सवाल पूछ रहा था !
अच्छा था कि वह हसन को पहले ही पट्टी पढा आया था, जब एसीपी कोई पूछताछ करवायेगा तो यही साबित होगा कि चटवाल का बयान सही था ।
छ: करोड़ की रकम तो उसने हथिया ली थी लेकिन उसकी अक्ल यही कह रही थी कि जैसे उसने रुस्तमभाई का काम तमाम किया था, वैसे ही चोरों की सारी जमात का, विशेष रूप से सोहल का काम तमाम किये बिना वह उस दौलत के मामले में निश्चिंत नहीं हो सकता था । वह काम उसकी निगाह में खास मुश्किल भी नहीं था क्योंकि उन्हें उन लोगों के हैडक्वार्टर यानी कि तुकाराम के चैम्बूर वाले घर की खबर थी ।
वह चैम्बूर गया था तो उसने मकान को ताला लगा पाया था ।
एक भण्डारी को वह उसके घर पर या आर्ट गैलरी में तलाश कर सकता था लेकिन वहां उसका काम तमाम करना खुद उसके लिए खतरनाक साबित हो सकता था । वह तो चाहता था कि वे सातों आदमी किसी एक ही जगह मौजूद होते और वह एक ही हल्ले में सामूहिक रूप से उनका काम तमाम कर देता ।
तुकाराम के या उसके किसी साथी के लौटने की उम्मीद में वह कुछ देर उस इमारत के इर्द गिर्द मंडराता रहा लेकिन जब उसने किसी को लौटता न पाया तो उसने कोई और कोशिश करने का फैसला किया ।
‘कोई और कोशिश’ उसने यह की कि उसने रामन्ना के घर का पता जान लिया । फारस रोड के टैक्सी स्टैंड से उसे वह पता बहुत मुश्किल से हासिल हुआ । लेकिन हुआ । उस बार भी उसका पुलिसिया होना फिर उसके बहुत काम आया ।
पता मालूम होने के बावजूद बड़ी मुश्किल से वह फारस रोड के इलाके में रामन्ना का मकान तलाश कर पाया ।
मकान की स्थिति उसे पसंद आयी ।
सड़क पर से ही ऊपर को लकड़ी की सीढियां जा रही थीं जिनके सिरे पर बंद खिड़कियों वाला मकान था ।
वह बड़े आराम से ऊपर जाकर रामन्ना को शूट कर सकता था ।
कोई झमेला नहीं । कोई बखेडा नहीं ।
बशर्ते कि वह घर पर हो । चैम्बूर वाले मकान की तरह वहां भी ताला न झूल रहा हो ।
उसने सड़क पार करने के लिए कदम बढाया ही था कि एकाएक वह ठिठक गया ।
उसी मकान में से निकलकर किसी ने सीढियों पर कदम रखा । उसके पीछे मकान का दरवाजा बंद हो गया । वह दो सीढियां और उत्तरा तो सड़क पर लगे बिजली के खम्बे की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी ।
चटवाल ने सोहल को साफ पहचाना ।
अच्छा है - वह मन ही मन बुदबुदाया - पहले चोर की मां का ही काम तमाम होने दो ।
उसने रिवाल्वर निकाल ली ।
सोहल अब काफी सीढियां नीचे उतर आया था ।
उसने फायर किया ।
निशाना चूक गया । एकाएक कोई चिल्ला पड़ा था जिसकी वजह से सोहल सावधान हो गया था और कलाबाजी खा गया था ।
उसने दोबारा फायर किया तो पता नहीं कौन हरामजादा बीच में आ गया ।
उसने तीसरा फायर किया तो तब तक सोहल को एक कूड़े के ड्रम की ओट मिल चुकी थी । गोली उसे लगने की जगह ड्रम से टकराई ।
अब भाग निकलने में ही कल्याण था ।
अपनी नाकामयाबी पर भुनभुनाता हुआ वह पतली अंधेरी गली में भाग निकला था ।
वहां से वह वापिस चैम्बूर गया था ।
आधी रात तक भी तुकाराम के मकान का दरवाजा नहीं खुला था तो वह वहां से लौट पड़ा था ।
उसने एक चक्कर फिर कमाठीपुरे का लगाया ।
उस बार उसने रामन्ना के मकान को भी ताला लगा पाया ।
वह बांद्रा जाना चाहता था लेकिन वहां हुए कत्ल की वजह से वहां लौटना उसे मुनासिब नहीं लग रहा था । पुलिस तब भी वहां हो सकती थी ।
पिछली रात भी घर आकर सोने से पहले वह पौनी बोतल विस्की पी गया था ।
आज एसीपी के सामने पेशी कराकर और हसन को पट्टी पढाकर वह घर लौटा ही था कि दो पुलिसिये वहां आन धमके थे ।
तब उसे पहली बार मालूम हुआ था कि उस हरामजादी कॉलगर्ल ने अपने स्थायी ग्राहकों की कोई लिस्ट बनायी हुई थी जिसमें उसका भी नाम था और वह लिस्ट पुलिस न केवल बरामद कर चुकी थी बल्कि लिस्ट के हर नाम को चैक भी कर रही थी ।
किसी पुलिसिये का किसी कालगर्ल का स्थायी क्लायंट होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी लेकिन फिर भी चटवाल को यूं लगा जैसे वह कोई निहायत काबिलेएतराज हरकत करता रंगे हाथों पकड़ा गया था ।
दो पुलिसिये उसके सिर पर सवार होकर बैठ जायें, यह उसके लिये भारी असुविधा की बात थी । इस तरह न तो वह सोहल और उसके साथियों को खत्म कर देने के अपने अभियान पर काम कर सकता था और न ही चारों सूटकेसों को कब्जाकर किसी ज्यादा सुरक्षित स्थान पर रखने की दिशा में कोई कदम उठा सकता था ।
अपने सीनियर रैंक और रुतबे का रौब गालिब करके और उन्हें यह समझा बुझाकर कि जो काम वे दोनों वहां करने आए है वह उसे खुद भी बाखूबी अंजाम दे सकता था, उसने उन्हें वहां से चलता कर दिया था ।
उसे खुशी थी कि पुलिसिये वापिस लौटकर नहीं आए थे ।
यानी कि उन्हें भेजने वाले को यह बात कबूल हुई थी कि जो काम उन्होंने वहां करना था, वह चटवाल भी बाखूबी कर सकता था ।
उसने विस्की का नया पैग बनाया ।
कोई काम ठीक नहीं हो रहा था लेकिन फिर भी हालात नाउम्मीदी की हद तक नहीं पहुंचे थे ।
दौलत अभी भी उसकी पहुंच में थी और सोहल और उसके साथियों का काम वह अभी भी तमाम कर सकता था ।
और सबसे बड़ी बात यह थी कि ऐसी कोई सूरत नहीं थी जिससे उसकी पोल खुल पाती ।
एक बात का अलबत्ता अफसोस था उसे ।
रुस्तमभाई को खत्म करने में उसने जल्दबाजी दिखाई थी ।
उसका काम उसे सबसे आखिर में तमाम करना चाहिए था ।
तब वह बाकी लोगों का काम तमाम करने में उसका मददगार साबित हो सकता था ।
‘कोई बात नहीं’ - नशे में उसने हुंकार भरी - ‘जो हो गया, सो हो गया’ ।
तभी कालबैल बजी ।
***
दो सिपाहियों ने बदरूल हसन को एसीपी मनोहर देवड़ा के कमरे में धकेल दिया ।
हसन को किसी ने कुछ बताया नहीं था लेकिन उसका दिल गवाही दे रहा था कि उसको वहां तलब किए जाने की इंस्पेक्टर चटवाल के सुबह को उसकी खोली में आगमन से जरूर कोई रिश्तेदारी थी ।
“तेरा नाम बदरूल हसन है ?” - देवड़ा कहरभरी निगाहों से उसे घूरता हुआ बोला ।
हसन केवल मुंडी हिला पाया ।
“प्रेम मलानी के बारे में क्या जानता है ?”
हसन ने जवाब न दिया । उसने बेचैनी से पहलू बदला और अपने एकाएक सूख आए होंठों पर जुबान फेरी ।
पुलिस के इतने बड़े अफसर के आगे पेश होने का उसका वह पहला मौका था । चटवाल ने अगर उसे बताया होता कि जो पट्टी उसने उसे पढाई थी, वह उसने पुलिस के इतने बड़े साहब के आगे दोहरानी थी तो वह कोई तैयारी करके आया होता, कुछ हौसला बांधकर आया होता ।
“जवाब दे !” - देवड़ा घुड़ककर बोला ।
हसन ने तोते की तरह वे तमाम बातें रट दी जो चटवाल ने उसे पढाई थीं ।
“झूठ बोलने का अंजाम जानता है ?” - देवड़ा आंखें निकालकर बोला ।
“बाप” - हसन हकबकाया - “अपुन तो...”
“मेरे सामने” - देवड़ा का स्वर हिंसक हो उठा - “झूठ बोलने का अंजाम जानता है ?”
“बाप, अपुन तो अक्खी उम्र कभी झूठ नहीं बोलेला है ।”
“प्रेम मलानी की मुझे खबर कैसे लगी थी ? नाम कैसे सुना था तूने यह ?”
“अपुन एक रेस्टोरेंट में कुछ लोगों को बातें करते सुनेला था । तभी प्रेम मलानी का जिक्र आयेला था, अपुन को खबर पुलिस के काम का लगा, तो अपुन...”
“कौन से रेस्टोरेंट में ? कहां के रेस्टोरेंट में ?”
हसन हिचकिचाया ।
“जवाब दे !”
“तुलसी पाइप रोड के झोपड़ पट्टे के एक रेस्टोरेंट में ।”
देवड़ा उठकर हसन के करीब पहुंचा । वह कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा, फिर एकाएक उसका एक झन्नाटेदार झापड़ हसन के जोबड़े पर पड़ा ।
हसन गिरता गिरता बचा ।
“हरामजादे !” - देवड़ा नफरतभरे स्वर में बोला - “इंस्पेक्टर चटवाल को तो तूने कहा था कि तूने उस खबर से ताल्लुक रखता वार्तालाप चौपाटी बीच पर सुना था ! बोल, कहा था कि नहीं ?”
“क - कहा था ।”
“तो अब कुछ और क्यों कह रहा है ?”
“बाप, वो - वो अपुन दो बार सुनेला था । एक बार रेस्टोरेंट में । एक बार बीच पर । अक्खी बात अपुन दो बार में सुनेला था ।”
“बातें करने वाले वही लोग तेरे से दो बार दो जुदा ठिकानों पर टकराये ?”
“बरोबर ।”
“पक्की बात ?”
“सौ टांक पक्की बात, बाप ।”
देवड़ा ने गहरी सांस ली और दरवाजे के करीब खड़े सब-इंस्पेक्टर को करीब बुलाया ।
“इसे नीचे तहखाने वाली कोठरी में बंद कर दो और इसकी डंडा परेड का इंतजाम करो ।”
“बाप” - हसन एकाएक आतंकित स्वर में चिल्लाया और देवड़ा के पैरों में लोट गया - “काहे कू गरीब मार करेला है...”
“जब यह” - देवड़ा उसे पांव की ठोकर से परे धकेलता हुआ बोला - “सच बोलने के मूड में आ जाये तो तब इसे मेरे पास ले आना ।”
“बाप” - हसन बिलखने लगा - “अपुन तो अभी भी सच बोलेला है ।”
“साले हलकट ! तेरा झूठ पकड़ा जा चुका है ।”
“क - क्या ?”
“इंस्पेक्टर चटवाल ने इस बाबत कभी कुछ नहीं कहा था कि तूने प्रेम मलानी की बाबत बातचीत तुलसी पाइप रोड पर सुनी थी या चौपाटी बीच पर सुनी थी या कहीं और ।”
हसन मुंह बाये एसीपी की तरफ देखने लगा ।
“और अभी हम तेरा इंस्पेक्टर चटवाल से आमना सामना भी कराते हैं । फिर देखते है तू कैसे झूठ बोलता है ! तुझे मालूम नहीं होगा कि इंस्पेक्टर चटवाल भी गिरफ्तार है ।”
“गिरफ्तार है !” - हसन भौंचक्का सा बोला ।
“हां ।”
“पुलिस का इंस्पेक्टर गिरफ्तार है ?”
“हां ।”
उस खबर ने हसन के कस बल तोड़ दिये । अब उसे पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई ।
“बाप” - वह एकाएक बद्हवास स्वर में बोला - “वो मेरे कू ऐसा बोलने को मजबूर कियेला था । अपुन को जान से मार डालने की धमकी दियेला था । अपुन गरीब आदमी, साहब । क्या करता ! जो वो बोला अपुन को बोलना पड़ा ।”
“क्या बोलना पड़ा ?”
जवाब में इंस्पेक्टर चटवाल का इतनी मेहनत से पढाया हुआ तोता अपना असली सबक भूल गया और कोई नया ही राग अलापने लगा ।
***
भण्डारी को टीवी सेंटर का सर्वेयर बनकर घर घर घूमना सख्त नागवार गुजर रहा था लेकिन लुट गये माल के वापिस मिलने की उम्मीद में और उसमें अपने हिस्से का हक बरकरार रखने के लिए उसे वह सब करना पड़ा रहा था । ऊपर से उसे इस बात की दहशत थी कि माल का चोर और मंजुला का हत्यारा उसके हिस्से में आये पांच नामों में से एक हो सकता था ।
सबसे ज्यादा पस्त वह इस बात से था कि जिस औरत की खातिर उसने ऐसा जोखिमभरा कदम उठाया था, वह मर चुकी थी । उसका मूल उद्देश्य तो पिट चुका था, अब तो वह इसलिए अपने हिस्से का तलबगार था क्योंकि उसमें उसकी मेहनत लगी हुई थी और मंजुला के मर जाने से हासिल होने वाला रुपया चौदह आने का नहीं हो जाने वाला था । जहां वह उस क्षण पहुंचा था, वह उसका आखिरी पड़ाव था ।
जो पांच पते उसे मिले थे, उनमें से दो पर ताला लगा मिला था और अड़ोस पड़ोस से पूछने पर भी उन बंद जगहों की बाबत कोई संतोषजनक जानकारी हासिल नहीं हो सकी थी । बाकी दो जने निर्दोष निकले थे और तुकाराम को फोन करके उनके नाम वह लिस्ट से कटवा चुका था ।
बंद दरवाजे पर फ्लैट का नम्बर तो लिखा था लेकिन किसी तरह की कोई नेम प्लेट नहीं लगी हुई थी ।
तनिक झिझकते हुए उसने कालबैल बजाई ।
बस दो मिनट और - दरवाजा खुलने की प्रतीशा करते हुए उसने मन ही मन सोचा - और फिर खलासी ।
दरवाजा खुला ।
दरवाजा खोलने वाले आदमी का चेहरा तमतमाया हुआ था और आंखें सुर्ख थीं ।
“क्या है ?” - वह बोला ।
उसके मुंह खोलते शराब का भभूका भण्डारी के नथुनों से टकराया ।
उसने तनिक नाक सिकोड़ी लेकिन फिर मीठे स्वर में बोला - “गुड आफ्टर नून, सर । आई एम ए सर्वेयर फ्रॉम टीवी सेंटर ।”
“तो ?”
“हम टीवी दर्शकों की टीवी प्रोग्रामों की बाबत पसंद नापसंद का सर्वे कर रहे हैं । उसी बाबत मैं आपसे चंद सवाल पूछना चाहता था ।”
“खास मुझसे क्यों ?”
“खास आपसे नहीं, सर । हम सभी से पूछ रहे हैं ।”
“ओह ! भीतर आ जाओ ।”
वह दरवाजे से हट गया ।
हाथ में पैन और पेंसिल थामे झिझकते हुए भण्डारी ने भीतर कदम रखा ।
“कल दोपहर को” - भण्डारी ने पूछा - “आप टीवी देख रहे थे ?”
उस आदमी ने उत्तर न दिया । वह उसकी तरफ पीठ करके दरवाजा बंद कर रहा था और उसकी चिटखनी चढा रहा था ।
“सर” - भण्डारी हड़बड़ाकर बोला - “आई विल हार्डली टेक टू मिनट्स । यू डोंट हैव टू शट दि डोर ।”
उसने उत्तर न दिया । धीरे से वह वापिस घूमा ।
“तू भण्डारी है ।” - वह धीरे से बोला ।
भण्डारी के छक्के छूट गये ।
“आप” - वह हकलाया - “आप मुझे...”
“अब तू मुझे यह बतायेगा कि तेरे बाकी साथी कहां हैं !”
“म.. .मेरे.. .ब... बाकी... साथी.. ?”
“हां । तुकाराम । वागले । अकबर । जयरथ । रामन्ना । और तुम सबका बाप वो सोहल का बच्चा ।”
भण्डारी के हाथ से पैड पेंसिल छट गये ।
“तुम” - वह दहशतनाक स्वर में बीएला - “कौन हो ?”
जवाब देने की जगह उसका प्रचंड घूंसा भण्डारी के चेहरे से टकराया । वह लड़खड़ाया और पीछे को उलट गया । उसने चिल्लाने की कोशिश की तो उस आदमी ने एक छलांग में उसके सिर पर पहुंचकर उसकी गर्दन दबोच ली । वह घुटने से उसके पेट को ठोकने लगा और अपने खाली हाथ से उसके शरीर के विभिन्न भागों पर घूंसे बरसाने लगा ।
“कहां है ?” - वह बार बार कह रहा था - “कहां हैं सारे जने ?”
“बताता हूं ।” - भण्डारी के मुंह से कराह निकली - “बताता हूं । बताता हूं ।”
यह इंस्पेक्टर चटवाल पर हाथी शराब के नशे का असर था कि भण्डारी के सब कुछ बक चुकने के बावजूद वह उसे पीटता रहा, वह उसे पीटता रहा और तुकाराम के वरसोवा वाले मकान के पते की तसदीक करता रहा, तसदीक करता रहा और पीटता रहा । बाद में भी उसने अपना हाथ इसलिए रोका था क्योंकि वह थक गया था, न कि इसलिए क्योंकि उसे भण्डारी की बात पर आखिरकार यकीन आ गया था ।
अंत में उसने एक रस्सी तलाश करके उसके हाथ पांव बांधे और उसे फ्लैट के डिब्बे जैसे बाथरूम में डाल दिया ।
अब उसने इस बात की तसदीक करनी थी कि वह, जैसा कि उसने कहा था, वहां अकेला आया था, साथ कोई जोड़ीदार नहीं आया था ।
लुंगी और बनियान में ही वह फ्लैट से बाहर निकला ।
वह नीचे सड़क पर पहुंचा ।
उसे वहां भण्डारी का कोई जोड़ीदार दिखाई न दिया ।
लेकिन सुनसान सड़क पर थोड़ा परे मोड़ के करीब खड़ी एक काली फियेट की तरफ उसकी तवज्जो जाये बिना न रह सकी । फियेट की अगली सीट पर जो आदमी बैठा था, उसने चटवाल के कार की दिशा में देखते ही अपने सामने एक अखबार कर लिया लेकिन अखबार तानने में पहले उसकी सूरत की एक झलक उसे मिल गई थी ।
उसे वह सूरत उस युवा सब-इंस्पेक्टर की लगी जिसे थोड़ी देर पहले उसने यह पट्टी पढाकर विदा किया था कि जो काम करने वह वहां भेजा गया था, उसे वह खुद ही बाखूबी अंजाम दे सकता था ।
चटवाल का माथा ठनका ।
उस सब-इंस्पेक्टर का उस गली में क्या काम ! वह अपनी ड्यूटी ही भुगता रहा था या कोई और वजह थी ?
जरूर कोई और वजह थी ।
न होती तो उसने यूं अखबार के पीछे चेहरा छुपाने की कोशिश न की होती ।
वह वापिस इमारत में लौट आया ।
अपने फ्लैट में दाखिल होने के स्थान पर वह उस चारमंजिला इमारत की छत पर चढ गया । वहां से उसने बड़ी सावधानी के साथ पिछली गली में झांका ।
वहां भी दो आदमी मौजूद थे ।
उसे आसार अच्छे न लगे ।
उसे उन लोगों की वहां मौजूदगी की कोई खास वजह तो समझ में न आई लेकिन क्योंकि उसके दिल में चोर था इसलिए उसे यही शंका सता रही थी कि उनकी वहां मौजूदगी उसी की वजह से थी ।
लेकिन थी भी तो क्या हुआ ? - उसने अपने आपको तसल्ली दी - उसने क्या किया था ? प्रत्यक्षत: उसने क्या किया था ? बड़ी हद हसन के संदर्भ में बोला उसका झूठ पकड़ा जा सकता था । उससे भी क्या हो सकता था ? उससे सिर्फ यह साबित हो सकता था कि जीप का उसने कोई प्राइवेट इस्तेमाल किया था जिसे छुपाने के लिए उसने वह झूठ बोला था । वह मरने वाली का ग्राहक था, यह बात सिद्ध हो जाने से भी कोई तबाही नहीं आ सकती थी । उस पर एक्शन ही तो हो सकता था, उसको ट्रांसफर किया जा सकता था, बड़ी हद तक सस्पेंड किया जा सकता था । अब वह खुद ही कहां नौकरी का ख्वाहिशमंद था ।
उसको बहुत राहत महसूस हुई ।
भण्डारी को वह अभी आजाद करके घर भेज सकता था । उसने उसे बहुत मारा पीटा था लेकिन फिर भी वह उसके खिलाफ जुबान खोलने की हिम्मत नहीं कर सकता था । उसको एक ही धमकी चुप करा सकती थी कि वह उसकी यह पोल खोल देगा कि वह आर्ट गैलरी की चोरी में शरीक था ।
वह वापिस अपने फ्लैट में पहुंचा ।
उसने भण्डारी के बंधन खोलने का उपक्रम किया तो पाया कि वह मरा पड़ा था ।
***
जो युवा सब-इंस्पेक्टर जनता कालोनी में चटवाल की निगरानी करती टीम का नेतृत्व कर रहा था, उसका नाम कदम था ।
उसने चटवाल को इमारत के बाहर सड़क पर आते और वापिस लौटते देखा था लेकिन वह यह न समझ पाया कि वह बाहर क्या करने आया था और बिना कुछ किये लौट क्यों गया था ।
थोड़ी देर बाद उसकी बगल में बैठा हवलदार बोला - “जो आदमी चटवाल के फ्लैट में गया था, वो अभी तक लौटा नहीं ।”
“तुमने ठीक से देखा था” - कदम बोला - “गया वह चटवाल के फ्लैट में ही था ?”
“बिल्कुल ठीक से देखा था, साहब । अपनी इन्हीं दो आंखों से देखा था ।”
“फिर वह टीवी सेंटर का फर्जी सर्वेयर नहीं होगा । चटवाल का कोई यार होगा ।”
“हां, शायद ।”
दस मिनट और गुजर गये ।
“कार में बैठे बैठे टांगें अकड़ गयीं” - हवलदार अंगड़ाई लेता बोला - “मैं जरा फ्लैट का एक चक्कर लगाकर आऊं ?”
कदम ने सहमति में सिर हिला दिया ।
हवलदार बाहर निकला । उसने एक बीड़ी सुलगा ली और टहलता हुआ आगे सड़क पर बढ गया ।
कदम ने उसे बड़े सहज भाव से इमारत में दाखिल होते देखा ।
लेकिन दो मिनट बाद वह इमारत से बाहर यूं निकला जैसे पीछे आग लग गयी हो ।
वह भागता हुआ कार के करीब पहुंचा ।
“साहब ! साहब !”
“क्या हुआ ?” - कदम हड़बड़ाकर बोला ।
“चटवाल के फ्लैट को तो ताला लगा हुआ है !”
“क्या !”
“मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है ।”
“चटवाल कहां गया ?”
“और वह आदमी कहां गया जो उससे मिलने आया था !”
“अरे, उस आदमी को गोली मारो, चटवाल कहां गया ?”
“फ्लैट में तो कोई नहीं हो सकता । उसके इकलौते दरवाजे को ताला बाहर से लगा हुआ है ।”
“कहीं खिसक तो नहीं गया !” - कदम घबराकर बोला - “अगर वह खिसक गया होगा तो हमारी बड़ी दुर्गति होगी ।”
“खिसक कैसे गया होगा ? दो ही तो रास्ते हैं इमारत से बाहर निकलने के ! और दोनों हमारी निगरानी में हैं ।”
कदम ने वायरलैस सैट ऑन किया और पिछली गली में तैनात अपने आदमियों से बात की ।
उन्होंने दावे के साथ जवाब दिया कि चटवाल ने पिछली गली में कदम नहीं रखा था ।
“वह इमारत में ही होगा ।” - कदम बोला - “वह किसी और फ्लैट में गया होगा ।”
“और वह दूसरा आदमी ?”
“वह भी उसके साथ होगा । लौट आयेगा ।”
कदम अपने हवलदार को आश्वासन दे रहा था लेकिन खुद आश्वस्त नहीं हो पा रहा था ।
आधा घंटा उसने सस्पेंस में गुजारा ।
उसके बाद उसने फिर पता करवाया तो मालूम हुआ कि चटवाल के फ्लैट का ताला तब भी बंद था ।
वह बेचैन हो उठा ।
“इमारत में पता करो ।” - एकाएक वह बोला ।
“कैसे ?” - हवलदार बोला - “जाकर एक एक दरवाजा खटखटाऊं और पूछूं कि चटवाल साहब वहां आये है या नहीं ?”
“हां । यही करो ।”
“अगर वह किसी फ्लैट में हुआ तो ?”
“तो... .तो कह देना कमिश्नर साहब ने पुछवाया है कि अभी तक टीवी सेंटर का सर्वेयर बनकर कोई आदमी वहां पहुंचा है या नहीं ?”
“ठीक है ।” - हवलदार अनिश्चित स्वर में बोला ।
इमारत में चटवाल का फ्लैट मिलाकर सोलह फ्लैट थे । उसने पंद्रह फ्लैटों का दरवाजा खटखटाया ।
कहीं न चटवाल आया था और न वह आदमी आया था जो चटवाल के फ्लैट में दाखिल होता देखा गया था ।
अब कदम के छक्के छूट गये ।
उसे पहली बार लीडरशिप दिखाने का मौका मिला था और वह उसी में फेल हो गया था ।
वह चटवाल के फ्लैट के सामने पहुंचा ।
ताला वाकई बंद था, मजबूती से बंद था ।
दरवाजे के ऊपर एक रोशनदान था जिसके पल्ले में शीशे लगे हुए थे ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर भीतर झांकने के लिए वह रोशनदान पर चढ गया ।
उसे भीतर फर्श पर जगह जगह खून टपका दिखाई दिया ।
वह नीचे उतरा और कार की तरफ दौड़ा ।
अब हैडक्वार्टर खबर करने के अलावा कोई चारा नहीं था ।
उसने वायरलैस पर हालात की खबर दी ।
उसे ‘स्टैंड बाई’ रहने के लिए कहा गया ।
थोड़ी देर बाद वायरलैस खड़का ।
“हल्लो !” - कदम व्यग्र भाव से बोला ।
“फ्लैट का ताला तोड़ दो” - आवाज आयी - “और भीतर जाकर तफ्तीश करो । यह एसीपी साहब का हुक्म है ।”
“यस, सर ।”
***
चटवाल ने भण्डारी के मुंह में जो कपड़ा ठूंसा था, वही उसकी मौत का कारण बना था । कपड़ा उसने ऐसी लापरवाही से और बेरहमी से ठूंसा था कि भण्डारी का दम टूट गया था ।
अब वह एक ऐसे कत्ल का अपराधी था जिसे वह छुपा भी नहीं सकता था ।
अगर वह लाश गायब करने की स्थिति में होता तो भी वह न घबराता । लेकिन मौजूदा हालात में लाश गायब करना तो दूर, उसका खुद गायब हो पाना टेढी खीर था ।
अब वह अपनी नशे की हालत के लिए भी अपने आप को कोस रहा था ।
वह होश में होता तो न उसने भण्डारी को हद से ज्यादा पीटा होता और न उसकी मुश्कें कसते वक्त वो लापरवाही दिखाई होती जिसकी वजह से वह दम घुटने से मर गया था ।
सब सत्यानाश हो गया था ।
उस कठिन घड़ी में उसे एक ही बात सूझी कि वह किस तरह से बांद्रा से माल बटोरे और फरार हो जाए ।
लेकिन बाहर इमारत के आगे पीछे दोनों तरफ पुलिस वाले मौजूद थे ।
वह सोचने लगा ।
उसे एक तरकीब सूझी ।
तरकीब जोखम की थी लेकिन कारआमद साबित हो सकती थी ।
उसने कपड़े बदले और अपने आपको अपनी तसल्ली के मुताबिक हथियारबंद कर लिया ।
वह फ्लैट से बाहर निकला । फ्लैट को ताला लगाकर वह सीढियों की तरफ बढ़ा ।
वह वापिस छत पर पहुंचा ।
वह इमारत के सोलह फ्लैटों की छत थी । छत पर तभी कोई आता जाता था जब पानी की टंकी में कोई नुक्स पैदा हो जाता था ।
वहां एक कोई आठ डंडों वाली बांस की सीढी पड़ी थी जो उसने उठा ली । उकडू होकर चलता वह छत के सिरे पर पहुंचा । वहां उसे अगली इमारत की उतनी ही ऊंची छत दिखाई दे रही थी । उसने सावधानी से दोनों छतों की मुंडेरों पर सीढी टिका दी और फिर उस पर से होता हुआ अगली छत पर पहुंच गया ।
उसका नशा भण्डारी की लाश देखकर हिरण न हो गया होता तो जितनी उसने विस्की पी थी, उसे देखते हुए वह उस बार नहीं तो अगली बार, अगली बार नहीं तो उससे अगली बार नीचे गिरता ही गिरता ।
वस्तुत: वह निर्विघ्न कई छतें फलांग गया ।
पुलिस वालों की जगह किसी और की भी उस पर निगाह पड़ी होती तो पंगा पड़ गया होता लेकिन गनीमत थी कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था ।
अपने फ्लैट वाली इमारत से बहुत दूर निकल आने के बाद वह सीढियों के रास्ते नीचे सड़क पर पहुंचा जहां से उसे फौरन टैक्सी मिल गयी ।
अब कम से कम वह पुलिस के जाल से बच निकला था ।
चटवाल के फ्लैट से लाश की बरामदी की खबर सुनकर एसीपी मनोहर देवड़ा खुद घटनास्थल पर पहुंचा ।
उसने भण्डारी की लाश को फौरन पहचाना ।
एक बहुत विषम पहेली उसके जेहन में अब अपने आप ही हल होती जा रही थी ।
“कंट्रोल रूम में फोन करो” - उसने कदम को आदेश दिया - “और उन्हें इंस्पेक्टर किशनचंद चटवाल की गिरफ्तारी के लिए आल पॉइंट बुलेटिन इश्यू करने का हुक्म दो ।”
“यस, सर ।” - कदम बोला और फौरन वायरलैस वाली कार की तरफ भागा ।
***
बैठक में पड़े चार सूटकेसों को सजन सिंह कल दोपहर से ही, जब से कि वह तीन फूलों वाला इंस्पेक्टर उन्हें वहां छोड़कर गया था, यूं देख रहा था जैसे अभी उनमें से कोई अपने आप खुल जायेगा और उसमें से कोई जिन्न निकलकर उससे उसकी ख्वाहिश पूछने लगेगा या कोई परी निकलकर नाचने लगेगी ।
क्या था उन सूटकेसों में ?
अगर वे किसी स्मगलर की मिल्कियत थे तो उसमें निहायत बेशकीमती माल हो सकता था ।
कल पड़ोस वाले फ्लैट की मेमसाहब के कत्ल की वजह से आधी रात तक पुलिस वहां मंडराती रही थी लेकिन उन सूटकेसों को लेने वहां कोई नहीं आया था ।
आज बहरहाल शांति रही थी ।
सवेरे उसने उत्सुकतावश सूटकेसों के कैच खोलने की कोशिश की थी लेकिन उसने उन सबमें ताले लगे पाये थे ।
और एक घंटे बाद उसने घर में उपलब्ध तमाम चाबियां सूटकेसों के तालों में फिराकर देखी थी लेकिन किसी भी चाबी से कोई भी ताला नहीं खुला था ।
कैसा होता था स्मगलिंग का माल - सोच सोचकर वह अधमरा हुआ जा रहा था - क्या था उन सूटकेसों में ?
सोना !
चांदी !
हीरे जवाहरात !
घडियां !
क्या !
उसने कई बार उन सूटकेसों को उठा उठाकर देखा था तो पाया था कि वे काफी वजनी थे । भीतर कोई हिलडुल नहीं थी, इससे लगता था कि माल ठसाठस भरा हुआ था ।
ऐसे माल का एक मामूली हिस्सा भी उसके हाथ आ जाता तो जिंदगी संवर जाती उसकी । सीधा टिहरी गढवाल जाता वह और एक मकान और काश्त की थोड़ी जमीन खरीदकर ऐश करता ।
दोपहर के बाद से वह एक तार का टुकड़ा सूटकेसों के तालों में फिरा रहा था । तार के टुकड़े को वह कई शक्लें दे चुका था और कई कोणों से हर नयी शक्ल को तालों में दाखिल करके फिरा चुका था ।
शाम को जैसे एक करिश्मे की तरह तार के टुकड़े से एक सूटकेस का ताला खुल गया । उसने सीधे खड़े उस सूटकेस को उसके जोड़ीदारों से अलग करके फर्श पर लिटाया और कांपते हाथों से उसका ढक्कन उठाया । ढक्कन अभी मुकम्मल तौर से खुला भी नहीं था कि वह उसके हाथों से छूट गया ।
हे भोले भण्डारी ! यह क्या देख रहा था वो ! इतना रुपया ! इतना रुपया । कांपते हाथों से उसने सूटकेस को दोबारा खोला । कितनी ही देर वह अपलक नोटों को देखता रहा ।
इतने नोट भी कहीं हो सकते थे किसी के पास !
और अभी तो उसने एक ही सूटकेस के भीतर झांका था ।
उसने हाथ बढाकर नोटों की तीन चार गड्डियां उठा लीं ।
सब सौ सौ के नोट ।
इतने नोटों से तो वह अपना पूरा गांव खरीद सकता था ।
अगर वह उन सूटकेसों को लेकर - या सिर्फ उस एक खुल चुके सूटकेस को लेकर - वहां से खिसक जाये तो तभी उसकी आंखों के सामने उस इंस्पेक्टर का क्रूर चेहरा घूम गया जो उन सूटकेसों को वहां छोड़कर गया था ।
नहीं, नहीं - उसके शरीर में सिहरन दौड़ गयी, नोटों की गड्डियां उसने अपनी उंगलियों से निकल जाने दीं - वह राक्षस जैसा इंस्पेक्टर उसे कच्चा चबा जायेगा ।
लेकिन - कुछ क्षण बाद उसने फिर सोचा - अगर वह सूटकेस में से कुछ गड्डियां निकाल ले और सूटकेस वापिस बंद कर दे तो उसे क्या पता लगेगा ?
इतने नोटों में से कुछ नोट निकालना तो घड़े में से बूंद निकालने जैसा काम होगा ।
बात उसे जंची ।
बैठक में बिछे दीवान में साहब का एक पुराना ब्रीफकेस पड़ा था जो कि उसने वहां से निकाल लिया ।
उस ब्रीफकेस में वह कुछ गड्डियां डालकर ब्रीफकेस को वापिस दीवान में छुपा सकता था ।
उसने ब्रीफकेस में कुछ गड्डियां डाली ।
सूटकेस में मौजूद नोटों के मुकाबले में उसे ब्रीफकेस में पड़ी वे कुछ गड्डियां यूं लगी जैसे किसी मरते के कटोरे में कुछ सिक्के पड़े हों ।
उसने कुछ गड्डियां और डाली ।
तब भी उसे तसल्ली न हुई ।
धीरे धीरे उसने ब्रीफकेस को नोटों से ठसाठस भर लिया ।
तभी कालबैल बजी ।
***
टूरिस्ट टैक्सी की नम्बर प्लेट वाली मार्क फोर सफेद एम्बेसेडर कार चलाता चटवाल बांद्रा पहुंचा ।
जनता कालोनी से वह सीधा अंधेरी गया था जहां से उसने रुस्तमभाई की एक टैक्सी हासिल की थी ।
रुस्तमभाई की बाबत वहां उससे फिर सवाल हुए थे जिनका जवाब उसने अनभिज्ञता से दिया था । ऊपर से उसने खुद भी बड़ी संजीदगी से चिंता व्यक्त की थी कि आखिर रुस्तमभाई गायब हो गया था तो कहां गायब हो गया था ।
वहां मौजूद रुस्तमभाई के कारिंदे उसे कार देकर राजी नहीं थे, थोड़ी बहुत आनाकानी भी की थी उन्होंने, रुस्तमभाई के न होने का पुरजोर हवाला दिया था लेकिन आखिरकार एक कार उसके हवाले कर दी थी ।
पहले वह उस इमारत के सामने से, जो कि उसका लक्ष्य था, बिना रुके गुजर गया । जब उसे तसल्ली हो गयी कि इमारत के आस पास ऐसा कोई नहीं था जिससे उसे खतरा होता तो वह वापिस लौटा ।
कार को उसने ऐन इमारत के सामने खड़ा किया ।
इस बार वह गाड़ी को ताला लगाना न भूला ।
सावधानी से सीढियां तय करता वह दूसरी मंजिल पर पहुंचा ।
मंजिल पर सन्नाटा था । मंजुला वाले फ्लैट पर ताला झूल रहा था । वह उसकी बगल वाले फ्लैट के सामने पहुंचा ।
उसने हौले से कालबैल बजायी और दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
दरवाजा न खुला ।
उसने फिर कालबैल बजायी और इस बार दरवाजे पर हौले से दस्तक भी दी ।
दरवाजा फिर भी न खुला ।
दरवाजे के भीतर की चिटकनी बंद थी, ऐसा दरवाजे को चिटकनी वाली जगह के करीब धक्का देने से साफ मालूम हो रहा था ।
वह नौकर का बच्चा भीतर तो शर्तिया था, उसने बेसब्रेपन से सोचा ।
बार बार घंटी बजाकर और जोर जोर से दरवाजा पीटकर वह अड़ोस पड़ोस का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं करना चाहता था इसलिए दरवाजा खुलने का इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था । आखिर कभी तो उसने दरवाजा खोलना ही था ।
फिर एकाएक कुछ सोचकर वह घुटनों के बल नीचे बैठा और उसने दरवाजे में बने की होल के साथ अपनी एक आंख सटा दी ।
यह देखकर वह सन्नाटे में आ गया कि चार सूटकेसों में से एक खुला था । उसके करीब बैठा सजन सिंह एक ब्रीफकेस बंद कर रहा था । फिर वह ब्रीफकेस समेत उसकी निगाह के दायरे से परे हो गया । कुछ क्षण बाद जब वह उसे दोबारा दिखाई दिया तो ब्रीफकेस उसके हाथ में नहीं था । उसने सूटकेस को जल्दी से बंद किया और उसे उठाकर तीन सूटकेसों के पहलू में खड़ा कर दिया ।
फिर उसने दरवाजा खोला ।
उत्तेजना से वह थर थर कांप रहा था और भरसक अपनी उस असाधारण दशा पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था । उसने कांपते हाथों से चटवाल को नमस्ते की ।
क्रोध से आग बबूला हो रहे चटवाल का जी तो चाहा कि वह वही उस पर झपट पड़े लेकिन उसने किसी प्रकार अपने आप पर जब्त किया और भीतर दाखिल हुआ । सजन सिंह को परे हटाकर उसने खुद दरवाजा बंद किया और भीतर से चिटकनी चढाई ।
फिर वह खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरने लगा ।
“मैंने मुझे सूटकेस खोलने के लिए मना किया था !” - फिर वह सांप की तरह फुम्फकारा ।
“क - क” - सजन सिंह हकलाया - “क - क्या ?”
“क्या के बच्चे ! क्यों खोला सूटकेस ?”
“मैंने नहीं खोला, साहब ।”
चटवाल ने खुले हाथ का एक करारा झापड़ उसके चेहरे पर रसीद किया ।
उस एक ही झापड़ से उस डरपोक गढवाली के कस बल निकल गये ।
“साहब” - वह बड़े दयनीय स्वर में गिड़गिड़ाया - “वह अपने आप खुल गया था ।”
“तो बंद कर दिया होता !”
“मैंने कर दिया था ।”
“अपनी जेब गर्म कर लेने के बाद, हरामजादे, पहले नहीं ।”
“मैंने कोई जेब गर्म नहीं की, साहब” - वह सचमुच ही जेबें दिखाने लगा - “आप खुद देख लो ।”
चटवाल ने कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
“ब्रीफकेस कहां छुपाया ?” - उसने पूछा ।
“ब... ब... ब्रीफकेस !”
“हां ! ब - ब - ब्रीफकेस । निकालकर ला उसे ।”
सजन सिंह ने हुज्जत नहीं की । उसने यह भी न पूछा कि वह किस ब्रीफकेस की बात कर रहा था और उसे कैसे मालूम था कि उसने कोई ब्रीफकेस कहीं छुपाया था ।
एक प्रेत की तरह हरकत करता वह दीवान में से ब्रीफकेस निकाल लाया ।
“चारों सूटकेस और ब्रीफकेस नीचे पहुंचा ।” - चटवाल ने हुक्म दिया ।
“दो... दो फेरे लगाने पड़ेंगे ।” - सजन सिंह हकलाया ।
“चाहे चार लगा ।”
सजन सिंह ने दो सूटकेस उठाये ।
दोनों नीचे पहुंचे । चटवाल ने दोनों सूटकेस कार की डिकी में रख लिये । फिर वह बाकी के दो सूटकेस ले आया ।
गनीमत थी कि चारों सूटकेस खड़े करके रखने पर डिकी में आ गये ।
उसने डिकी बंद कर दी और ताला लगा दिया ।
“ब्रीफकेस लाऊं ?” - सजन सिंह आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं खुद ले आऊंगा ।” - चटवाल बोला - “ऊपर चल ।”
भण्डारी के खून के बाद अब चटवाल को किसी और की जान लेना भारी नहीं पड़ रहा था । उस नौकर के बच्चे को, जो कि सूटकेसों में बंद दौलत का राज जान गया था, जिंदा छोड़ने का उसका कोई इरादा नहीं था ।
दोनों फिर फ्लैट में पहुंचे ।
वहां चटवाल के एक ही प्रचंड घूंसे ने सजन सिंह को धराशायी कर दिया । फिर वह उसकी छाती पर सवार हो गया । उसने बड़े इत्मीनान से जेब से रिवाल्वर और साइलेंसर निकाला । साइलेंसर को रिवाल्वर की नाल पर चढाया और सजन सिंह की खोपड़ी के साथ रिवाल्वर लगाकर गोली दाग दी ।
जब उसने देख लिया कि सजन सिंह की आंखें पथरा चुकी थीं तो वह उसकी छाती पर से उठ खड़ा हुआ । उसने ब्रीफकेस संभाला और फ्लैट से कूच कर गया । नीचे आकर वह फिर कार में सवार हुआ । उसने ब्रीफकेस अपने पहलू में रख लिया और कार आगे बढ़ा दी ।
अब वरसोवा जाकर उसने भण्डारी के साथियों का काम तमाम करना था जो कि उसे कोई खास मुश्किल काम नहीं लग रहा था ।
सड़क पर एक पेड़ के नीचे पुलिस की एक गश्ती गाड़ी खड़ी थी । गाड़ी वायरलैस सैट से लैस एक जीप थी जिसके क्रियु के दो हवलदार और एक एएसआई जीप से बाहर उसकी बीड़ी के साथ टेक लगाये खड़े धूम्रपान कर रहे थे । सड़क का वह मोड़ पिछले दस दिन से उनका स्थायी ठिकाना था ।
तफ्तीश के लिए उन्हें जो हुक्म मिलता था, वहां मिलता था । यह एक दुर्लभ संयोग था कि पिछले दस दिन अपनी शिफ्ट का पूरा टाइप उन्होंने किसी केस के इंतजार में वहां ऊंघते ही गुजरा था ।
सड़क पर से एक कार गुजरी ।
एक बड़ी बड़ी मूंछों वाले हवलदार का हाथ अनायास ही सैल्यूट की सूरत में उठ गया ।
कार वाले ने सैल्यूट की स्वीकृति के तौर पर अपना हाथ खिड़की से बाहर निकालकर हिलाया । फिर कार बायें चौराहे के मोड़ काट गयी और दृष्टि से ओझल हो गयी ।
“कौन था ?” - एएसआई ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“इंस्पेक्टर चटवाल” - हवलदार ने बताया - “आजकल अंधेरी थाने में है । मैं इसके नीचे काम कर चुका हूं ।”
“कार तो एकदम नवीं थी !”
“मांगे की होगी ।”
तभी वायरलैस पर सिग्नल आने लगा ।
एएसआई ने हाथ बढाकर जीप की छत में बने एक हुक के साथ लटकता रिसीवर उतार लिया ।
वह वायरलैस फोन सुनने लगा ।
ज्यों ज्यों वह फोन सुनता गया, उसके नेत्र फैलते गये ।
“ओवर एण्ड आल, सर ।” - अंत में उसने रिसीवर हुक पर टांग दिया और तीखे स्वर में बोला - “चलो, जीप में बैठो । जल्दी करो ।”
“क्या हुआ ?”
“कोई कारगुजारी कर दिखाने का एक सुनहरा मौका हाथ से निकल गया ।”
“हुआ क्या ?”
“तूने उस कार का नम्बर देखा था ?” - एएसआई ने बड़ी - बड़ी मूंछों वाले हवलदार से पूछा ।
“किस कार का ?”
“अबे, उसी का जिस पर अभी तेरा बाप हाथ हिलाता गया था !”
“अपना इंस्पेक्टर चटवाल ?”
“हां ।”
“नहीं । क्यों ?”
“उसकी गिरफ्तारी का हुक्म है ।”
“क - क्या ?”
“किधर गया होगा ।”
“यह सड़क तो आगे वरसोवा जाती है !”
“उससे आगे भी तो जाती है !”
“वो तो है !”
“साले, तूने नम्बर देखा होता तो मजा आ जाता ।”
“मैंने नम्बर नहीं देखा था लेकिन कार सफेद थी, एम्बेसडर थी और टैक्सी थी ।”
फिर सफेद एम्बेसडर टैक्सी की तलाश में पुलिस की जीप आगे दौड़ चली ।
भण्डारी ने वरसोवा के जिस मकान का पता बताया था, चटवाल ने पाया कि वह मछुआरों की बस्ती से एकदम अलग थलग था । मकान पेड़ों के एक झुरमुट के नीचे बना हुआ था । उसके पिछवाड़े में समुद्र था और एक पहलू में सीधे खड़े बेशुमार पेड़ों का जंगल था । उसने कार को पेड़ों के झुरमुट में छुपा दिया और फिर पैदल आगे बढ़ा ।
तब तक सूरज ढल चुका था और वातावरण में रात का अंधेरा छाने लगा था ।
वह इमारत तक पहुंचा ।
इमारत में कई कमरे वे लेकिन रोशनी सिर्फ एक कमरे में थी ।
वह कितनी ही देर कान खड़े करके कोई आहट लेने की कोशिश करता रहा लेकिन उसे कोई आवाज सुनाई न दी ।
दबे पांव वह रोशनी वाले कमरे तक पहुंचा ।
कमरे का दरवाजा आधा खुला था ।
उसने सावधानी से भीतर झांका ।
एक पलंग पर उसे तुकाराम लेटा दिखाई दिया । उसकी एक टांग पर पांव से लेकर जांघ तक पलस्तर चढा हुआ था ।
उसने जेब से रिवाल्वर निकाली लेकिन फिर लगभग फौरन ही वापिस जेब में रख ली ।
जिस हालत में तुकाराम था, उसमें उसे तो जब चाहे चींटी की तरह मसला जा सकता था । अपनी रिवाल्वर की गोलियों का सही इस्तेमाल तो वह पहले बाकी लोगों पर - खास तौर से उस सोहल के बच्चे पर - करना चाहता था ।
जैसे दबे पांव वह भीतर दाखिल हुआ था, वैसे ही दबे पांव वह इमारत से बाहर निकल आया ।
***
विमल टैक्सी पर सवार होकर वरसोवा पहुंचा । टैक्सी उसने मेन रोड पर ही छोड़ दी और पैदल बस्ती की तरफ बढ़ा ।
अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि पीछे से कार के हार्न की आवाज हुई ।
उसने घूमकर पीछे देखा ।
तभी कार उसके पहलू में आ खड़ी हुई ।
उसने देखा कार वागले चला रहा था ।
“बैठो ।” - वागले बोला ।
विमल उसके साथ कार में सवार हो गया ।
“आपरेशन ड्राप क्यों करा दिया ?” - वागले ने पूछा - “क्या खतरा हो गया है पुलिस का ?”
“हमारे इरादों की पुलिस को किसी तरह से भनक लग गयी मालूम होती है । कहीं ऐसा न हो कि हमारा कोई आदमी पहले ही पुलिस की गिरफ्त में आ चुका हो ।”
“यह तो अभी तुका बता सकता है । जिसका फोन नहीं आया होगा वही किसी बखेड़े में फंसा होगा ।”
“वाहे गुरु न करे कि ऐसा हुआ हो ।”
“यानी कि सारी भागदौड़ तो बेकार हो गयी !”
“नहीं । बेकार नहीं गयी ।”
“अच्छा !”
“हां । अब मुझे मालूम है माल किसने पार किया है ?”
“किसने पार किया है ?”
“चटवाल नाम के एक पुलिस इंस्पेक्टर ने ।”
“पुलिस इंस्पेक्टर ने !” - वागले हैरानी से बोला ।
“हां । लगता है उसका रुस्तमभाई से शुरू से ही गठजोड़ था । जरूर वे दोनों हम सबको डबलक्रॉस करके माल खुद हथिया लेना चाहते थे । रुस्तमभाई के गायब होने के पीछे भी इंस्पेक्टर के बच्चे का ही साथ हो सकता है । कोई बड़ी बात नहीं कि सारा माल खुद हड़प जाने की नीयत से उसने रुस्तमभाई का कत्ल ही कर दिया हो ।”
“मंजुला का कत्ल भी उसी ने किया होगा ?”
“नहीं । यह काम उसका नहीं ।”
“अच्छा ! कैसे ?”
“यह एक लम्बी कहानी है । इमारत पर चलकर बताऊंगा ।”
“ठीक है ।”
“बहरहाल अब हमें मालूम है कि हरामी आसामी इंस्पेक्टर चटवाल है । अब हम सबने मिलकर उससे माल वापिस झटकना है ।”
“तुम्हें उम्मीद है माल वापिस होने की ?”
“क्यों नहीं है ? बराबर है ।”
“वह माल के साथ गायब हो गया तो ?”
“तो मैं पाताल में से खोद निकालूंगा हरामजादे को ।”
तभी सामने इमारत दिखाई देने लगी ।
वागले को गाड़ी इमारत से परे ही रोक देनी पड़ी ।
इमारत तक गाड़ी ले जाने लायक सड़क वहां नहीं थी ।
दोनों कार से बाहर निकले ।
इमारत को जाती एक पगडण्डी पर वे आगे पीछे चलते आगे बढे । वागले आगे था और विमल उसके पीछे ।
एकाएक एक पेड़ के पीछे से जयरथ बाहर निकला ।
“वागले !” - वह गर्जकर बोला - “एक तरफ हट जा ।”
वागले और विमल दोनों ठिठक गए ।
विमल ने उस वक्त के नीमअंधेरे में भी देखा कि जयरथ के पास गन थी और उसके चेहरे पर बड़े हिंसक भाव थे ।
“जयरथ” - वागले कठोर स्वर में बोला - “यह क्या...”
“एक तरफ हट जा, वागले, वर्ना इस हरामजादे सोहल की जगह तू गोली खा जाएगा ।”
“तू” - विमल हैरानी से बोला - “मुझे क्यों गोली मारना चाहता है ?”
“क्योंकि तेरी वजह से अकबर की जान गयी है । तू उसकी जान के लिए जिम्मेदार है । मैं तुझे नहीं छोडूंगा ।”
“अकबर मर गया ?” - विमल के मुंह से निकला ।
“तेरी वजह से मर गया, हरामजादे ! तूने उसे पुलिस के फंदे में फंसने के लिए भेजा था । साले ! तू ही कहता था कि पुलिस लोगों के सिर पर नहीं जा बैठेगी जबकि यही हुआ था ।”
“तू कैसे बच गया ?”
“बच गया । तेरा काम तमाम करने के लिए बच गया । वागले, मेरा तेरे से कोई लेना देना नहीं है लेकिन अब तू मेरे और सोहल के बीच में से नहीं हटेगा तो...”
तभी वागले को इमारत के पहलू से निकलता एक और आदमी दिखाई दिया । वह आदमी जयरथ से काफी पीछे था, हथियारबंद था और धीरे धीरे इमारत की ओट से बाहर कदम रख रहा था ।
उस आदमी को सोहल ने भी देखा ।
“यह इंस्पेक्टर चटवाल है ।” - विमल एकाएक बोला ।
वागले का हाथ फौरन अपनी जेब की तरफ लपका । बिजली की फुर्ती से उसने जेब में से रिवाल्वर निकाल ली । इमारत के पहलू से निकला आदमी जयरथ को शूट करने जा रहा था, जयरथ की उसकी तरफ पीठ थी, उसको बचाने का एक ही तरीका था कि वागले उस पर गोली चलाता ।
“जयरथ” - वागले अपना रिवाल्वर वाला हाथ सीधा करता बोला - “सावधान...”
क्रोध से पगलाए जयरथ ने उस वार्निंग का गलत मतलब लगाया । उसने समझा कि वागले उसे शूट करने जा रहा था ।
उसने अंधाघुंध अपने हाथ में थमे तमंचे का ट्रीगर खींचना शुरू कर दिया ।
तभी चटवाल की साइलेंसर लगी रिवाल्वर से निकली गोली उसकी खोपड़ी के पृष्ठ भाग से टकराई ।
जयरथ का भेजा उड़ गया । वह कटे वृक्ष की तरह जमीन पर गिरा ।
तब तक वागले भी धराशायी हो चुका था ।
रिवाल्वर उसके हाथ से छिटककर एक ओर जा गिरी थी ।
विमल उस रिवाल्वर की तरफ झपटा ।
“खबरदार !” - चटवाल बोला ।
विमल ठिठक गया ।
संतुलित कदमों से चलता चटवाल उसकी तरफ बढ़ा । रिवाल्वर उसने मजबूती से थामी हुई थी और उसकी नाल का रुख विमल की छाती की तरफ था ।
वह उससे पांच कदम दूर आकर ठिठका ।
“तो” - फिर वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “तू होता है मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल !”
विमल खामोश रहा ।
“सुना है सात राज्यों की पुलिस तेरे पीछे लगी हुई है लेकिन तू किसी की पकड़ में ही नहीं आता । ऐसा तो तीसमारखां न निकला तू ! मैंने तो मुझे यूं ही थाम लिया ।”
“बधाई ।”
“सुना है असल में सरदार है तू !”
“ठीक सुना है ।”
“फिर तो मरने से पहले अपने वाहे गुरु को याद कर ले ।”
“अपने वाहे गुरु को मैं हर वक्त याद रखता हूं ।”
“यह और भी अच्छा है । फिर मरने के लिए तैयार हो जा ।”
“मरने के लिए भी मैं हर वक्त तैयार रहता हूं ।”
“वैसे हैरान तो हो रहा होगा तू इस बात पर कि तेरी जान लेने वाला मैं कौन निकल आया !”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“तू चटवाल है । रुस्तमभाई का जोड़ीदार । कल दोपहर बांद्रा के फ्लैट से नोटों से भरे चार सूटकेस तूने चुराए थे ।”
उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आए । वह कुछ क्षण अपलक विमल को देखता रहा, फिर उसके जबड़े भिंच गए ।
“ज्यादा ही होशियार है तू ।” - वह बड़े सर्द स्वर में बोला ।
“रुस्तमभाई का क्या किया तूने ?”
“अभी मुझे उसी के पास भेज रहा हूं । खुद मालूम कर लेना ।”
उसका रिवाल्वर वाला हाथ सीधा हुआ ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह - विमल होंठों मे बुदबुदाया - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
तभी एकाएक स्तब्ध वातावरण में पुलिस के सायरन की आवाज गूंजी ।
चटवाल ने हड़बड़ाकर आवाज की दिशा में देखा ।
विमल ने एकदम नीचे को डुबकी मारी ।
चटवाल की रिवाल्वर ने आग उगली ।
गोली विमल के सिर के ऊपर से गुजरी ।
वैसे ही उकडू वह परे खड़ी वागले की कार की तरफ भागा ।
फिर फायर हुआ ।
वह बाल बाल बचा ।
विमल ने जमीन पर लोट लगा दी और कलाबाजियां खाता कार के नीचे घुस गया ।
सायरन की आवाज अब करीब होती जा रही थी ।
एक गोली कार की बॉडी में कहीं आकर टकराई ।
विमल कार के नीचे से लुढकता हुआ परली तरफ निकल गया ।
नीचे झुके झुके ही उसने कार की ड्राइविंग साइड का दरवाजा खोला और भीतर सरक गया । बिना सिर ऊंचा उठाए उसने इंजन स्टार्ट किया, कार को गियर में डाला और उसे मोड़कर सीधा चटवाल की तरफ दौड़ा दिया ।
एक और फायर हुआ । कार की विंड स्क्रीन टूटकर मकड़ी के जाले जैसी बन गयी लेकिन गोली विमल को न लगी ।
कार को अपनी तरफ आती पाकर चटवाल कूदकर उसके रास्ते से हट गया ।
कार की चपेट में आने से वह बाल बाल बचा ।
चटवाल ने रिवाल्वर का रुख कार की तरफ किया, फिर कुछ सोचकर वह वापिस घूमा और पेड़ों की दिशा में भागा ।
विमल ने कार रोकी । वह कार से बाहर निकला और दौड़कर वागले के करीब पहुंचा ।
यह देखकर उसकी जान में जान आ गयी कि वागले मरा नहीं था । उसके कंधे में गोली लगी थी और जख्म में से भल भल करके खून बह रहा था ।
“वागले” - विमल बोला - “हिम्मत से काम ले और उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो जा ।”
वागले के मुंह से कराह निकली । विमल उसे सहारा देकर उसके पैरों पर खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा ।
“यह तेरी और तुका की भलाई का सवाल है ।” - विमल जल्दी से बोला - “यहां किसी भी वक्त पुलिस पहुंचने वाली है । मौजूदा हालात में तुम लोग यहां पकड़े गए तो बहुत दुरगत होगी ।”
“मैं.. .क.. .क्या करूं ?”
“तू कार के स्टियरिंग पर बैठ । मैं तुका को भीतर से लाता हूं । तुम दोनों कार पर किसी भी तरीके से इस इलाके से निकल जाओ ।”
“मैं कोशिश करता हूं ।”
“कोशिश नहीं, यह काम करना ही है । हिम्मत ! हिम्मत दिखा, वागले । हौसला दिखा । ताकतवर बन । कमजोर न बन । वाहे गुरु तेरी मदद करेगा । मैं तुका को लाता हूं ।”
विमल इमारत की तरफ भागा ।
गोलियों की आवाज तुकाराम तक पहुंची थी और वह सस्पेंस से मरा जा रहा था । विमल को सामने पाकर उसने उससे कई सवाल करने चाहे लेकिन विमल ने उसे बोलने न दिया । बड़ी बेरहमी से पलंग पर से घसीटकर उसने तुकाराम को उसकी एक अच्छी टांग के सहारे खड़ा किया और फिर उसे थोड़ा चलाता, थोड़ा घसीटता इमारत से बाहर को ले चला ।
उसे कार तक पहुंचाने में विमल की सांस धोंकनी की तरह चलने लगी ।
उसने तुकाराम को कार की पिछली सीट पर डाला और फिर वागले को भी किसी प्रकार कार के स्टियरिंग के पीछे पहुंचाया ।
“चला लेगा ?” - विमल ने पूछा ।
वागले ने अपनी मुंदती आंखों को किसी प्रकार खोला और सहमति में सिर हिलाया ।
“शाबाश ! शाबाश ! जा !”
“क - कहा जाऊं ?”
“कोलीवाड़े । सलाउद्दीन के पास, इस वक्त वही मददगार साबित हो सकता है ।”
“और तुम !”
“मैं चटवाल के पीछे जाता हूं । वह जंगल की तरफ भागा है ।”
“जंगल में क्या वह अभी तक बैठा होगा ?”
“शायद बैठा हो ! शायद कहीं मिल जाये ! तुम मेरी फिक्र न करो और जाओ यहां से ।”
“तुम उसका पीछा छोड़ो और साथ चलो ।”
“पागल ! अगर मैंने साथ जाना होता तो तेरी इस खस्ता हालत में मुझे कार चलाने को कहता ।”
“लेकिन..”
“जा ! तुका ! इसे समझा ।”
“वागले, चल” - तुकाराम बोला - “सरदार जो करता है, इसे करने दे ।”
वागले ने कार आगे बढ़ा दी ।
विमल ने अभी भी जमीन पर लावारिस पड़ी वागले की रिवाल्वर उठाई और जंगल में उस तरफ दौड़ चला जिधर उसने चटवाल को जाते देखा था ।
वह अभी भी चमत्कृत था कि वह इस बार भी अपनी निश्चित मौत से बच गया था ।
तेरा अंत न जाणा मेरे साहिब - उसके मुंह से निकला - मैं अंधुले क्या चतुराई ।
वह जंगल में दाखिल हुआ ही था कि पुलिस की पहली गाड़ी पीछे वहां पहुंची जहां अब केवल जयरथ की लाश पड़ी थी ।
***
लानत ! लानत ! लानत ! - चटवाल बड़बड़ा रहा था । क्या हो गया था उसे ? अपने से पांच कदम दूर खड़े आदमी को वह शूट नहीं कर सका था । यह जानते हुए भी उसने किसी मामूली मवाली को नहीं, सोहल को शूट करना था, उसने उसे शूट करके एक अहम काम को नक्की नहीं किया था बल्कि उसके साथ कादरखान स्टाइल फिल्मी डायलाग बोलने लगा था !
साला सोहल ! - वह सांप की तरह फुंफकारा - क्या किस्मत पाई थी उसने ! खामखाह बच गया ! बिना वजह बच गया !
अब उसे इस बात में ही बड़ी गनीमत दिखाई दे रही थी कि दौलत अभी भी उसके अधिकार में थी ।
वह आगे बढता रहा ।
यह देखकर उसे बड़ी राहत महसूस हुई कि कार वह जहां खड़ी करके गया था, वहीं खड़ी थी ।
उसने रिवाल्वर जेब में रख ली और कार की तरफ बढ़ा ।
करीब आकर उसने कार की ड्राइविंग साइड का दरवाजा खोला तो डोम लाइट जल गयी ।
दरवाजा पूरा खोलकर वह भीतर दाखिल होने ही लगा था कि ठिठक गया ।
भीतर कोई था ।
उसने दरवाजा छोड़ दिया और बिजली की फुर्ती से जेब में पड़ी अपनी रिवाल्वर की तरफ हाथ बढाया ।
“न न” - कार में मौजूद आदमी सीधा होता हुआ बोला - “ऐसी कोशिश न करना, इंस्पेक्टर साहब ।”
वह आदमी सिर पर हैट पहने था । हैट का सामने वाला भाग उसके चेहरे पर काफी नीचे को झुका हुआ था जिसकी वजह से चटवाल उसकी सूरत नहीं देख पा रहा था ।
लेकिन उसके हाथ में थमी रिवाल्वर उसे साफ दिखाई दे रही थी ।
“क.. .कौन” - चटवाल बोला - “कौन हो तुम ?”
हैट वाले ने अपने खाली हाथ से हैट को अपने चेहरे से ऊंचा किया ।
चटवाल को उसका चेहरा दिखाई दिया ।
उसके नेत्र फट पड़े ।
वह आदमी रुस्तमभाई अंधेरीवाला था ।
“तु - तु - तुम” - चटवाल फंसे स्वर में बोला - “जिंदा हो !”
“हां, जिंदा हूं ।” - रुस्तमभाई बोला । उसका रिवाल्वर वाला हाथ एकदम स्थिर था - “मेरी रूह नहीं खड़ी तेरे सामने ।”
“लेकिन... लेकिन...”
“पीछे हट ।”
मन मन के कदम रखता चटवाल पीछे हटा ।
रुस्तमभाई ने कार से बाहर कदम रखा ।
“सूटकेसों में रोकड़ा है न ?” - रुस्तमभाई ने पूछा ।
चटवाल बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिला पाया ।
“मरा जा रहा था इस रकम को हासिल करने के लिये ! आधे से भी सब्र नहीं था तुझे ! पूरी रकम चाहिए थी !”
“वो - वो क - क्या है कि. ..”
“अब पूरी रकम, छ: करोड़ रुपया, तेर सामने है लेकिन तू इसे हाथ नहीं लगा सकता ।”
“रुस्तमभाई, वो क्या है कि. ..”
“कैसा मर्जी दिमाग पर जोर दे ले, साले । कैसी मर्जी कहानी गढ ले । लेकिन तेरी कोई कहानी तेरी उस हरामजादगी का जवाब नहीं बन सकती जो तूने मेरा कत्ल करने की कोशिश करके दिखाई ।”
“ब - बच - कैसे गये ?”
“बुलेट प्रूफ वैस्ट की वजह से जो मैं उस रात अपने कपड़ों से नीचे पहने था ।”
“बु - बुलेट प्रूफ. ..”
“उस रात जब मैंने मुझे बाहर गाड़ी में बैठने के लिए कहा था तो मैं बुलेट प्रूफ वैस्ट पहनने के लिये ही पीछे रुका था ।”
“तुम म. ..मेरी नीयत समझ गये थे ?”
“हरामजादे, उस रात से बहुत पहले मैं तेरी नीयत समझ गया था । रही सही कसर तूने तब पूरी कर दी थी जब तूने कहा था कि दौलत के लिए दो क्या, तू बीस खून कर सकता था । लेकिन यह बात मैं मुझ पर जाहिर करता तो तू सावधान हो जाता । तेरी रिपोर्ट करने मैं पुलिस के पास तो जा नहीं सकता था क्योंकि तब यह बात खुल जाती कि मैं पेंटिंग चोरों का साथी था । पीछा तू मेरा छोड़ने वाला नहीं था । तेरा दौलत का लालच तेरे चेहरे पर लिखा होता था । पूरी रकम हासिल किए बिना मुझे सब्र नहीं होने वाला था । उस रात मुझे साफ लगा था कि तू मुझे मारने के लिये ही साथ ले जा रहा था ।”
“लेकिन मरने का ड्रामा. ..”
“करना जरूरी था । न करता तो क्या करता ? मरा जानकर ही तो तूने मेरा पीछा छोड़ा था । और कैसे छुड़ाता मैं तेरे से पीछा ?”
“अब तू.. .तू क्या करेगा ?”
“यह भी कोई पूछने की बात है !” - रुस्तमभाई के चेहरे पर एक क्रूर मुस्कराहट आई - “मैं अभी तेरा खून करूंगा और सारा रोकड़ा खुद हथियाऊंगा ।”
“रुस्तमभाई, ऐसा न करना ।” - वह गिड़गिड़ाया - “मेरे से खता हुई...”
“तो खता की सजा भुगत । जब खता से नहीं डरा तो सजा से क्यों डरता है ?”
“मुझे कोई और सजा दे दे लेकिन जान से न मार ।”
“और क्या करूं मैं ?”
“सारा रोकड़ा तू रख ले ।”
“वो तो मैंने रख ही लिया है ।”
“रुस्तमभाई, खुदा के वास्ते...”
“डिकी खोल ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं !”
चटवाल आगे बढ़ा ।
रुस्तमभाई उससे थोड़ा परे हटकर खड़ा हो गया ।
चटवाल ने चाबी लगाकर ताला खोला और डिकी का ढक्कन उठाया ।
“सूटकेस खोल” - रुस्तमभाई बोला - “रोकड़े की बाबत तसल्ली कर लेने से पहले मैं मुझे नहीं मारना चाहता ।”
“रोकड़ा यहीं है ।”
“मुझे अपनी आंखों से देखने दे ।”
“सूटकेसों में ताले लगे हैं ।”
“लगे हैं तो खोल ।”
“चाबियां मेरे पास नहीं ।”
“तो एकाध ताला तोड़ ।”
चारों सूटकेस एक जैसे थे । सबके ताले आजमाकर चटवाल ने उनमें से वो सूटकेस खोला जिसे उसने सजन सिंह को खोलते देखा था । उसने वह सूटकेस डिकी में से निकालकर उसका ढक्कन नीचे गिराया और फिर सूटकेस को बंद ढक्कन पर रखकर खोला ।
उसके भीतर अच्छी तरह से झांकने के लिए रुस्तमभाई तनिक करीब सरक आया ।
नोटों पर निगाह पड़ते ही उसका चेहरा खुशी से चमक उठा ।
“अल्लाह !”
वह रुस्तमभाई अंधेरीवाला के मुंह से निकला आखिरी लफ्ज था ।
कहीं से एक गोली सनसनाती हुई आई और उसका भेजा फाड़ गयी ।
वह पछाड खाकर गिरा और गिरते ही मर गया ।
उस घड़ी उसकी बुलेट प्रूफ वैस्ट भी उसके काम न आयी जो पहले एक बार उसकी जान बचा चुकी थी ।
***
भीम और उसके दोनों साथी कार से दूर एक पेड़ के पीछे छुपे हुए थे । बांद्रा में कार में चार सूटकेस रखे जाते उन्होंने अपनी आंखों से देखे थे ।
चटवाल की कार का पीछा करते वे वहां पहुंचे थे ।
चटवाल जब कार को पेड़ों के झुरमुट में छुपाकर इमारत की तरफ चला गया था तो वे बहुत खुश हुए थे ।
अब कार लावारिस खड़ी थी और रोकड़े को या रोकड़े समेत कार को हथिया लेना उनके लिए मामूली काम था ।
“चलो ।” - चटवाल के दृष्टि से ओझल होते ही भीम खुशी से दमकता हुआ बोला ।
लेकिन वह अपने साथियों के साथ दो कदम ही आगे बढ़ा था कि उन्हें ठिठक जाना पड़ा ।
एक आदमी प्रेत की तरह कहीं से कार के पास प्रकट हुआ । वह काली पोशाक पहने था और सिर पर हैट लगाए था ।
कार के करीब पहुंचकर उसने बायें हाथ से कार का दरवाजा खोला तो कार की डोम लाइट की रोशनी उसके दायें हाथ पर पड़ी ।
उन्होंने उसके हाथ में थमी रिवाल्वर साफ देखी ।
वह कार में जा बैठा और कार का दरवाजा उसने बंद कर लिया ।
डोम लाइट बुझ गयी । कार अंधेरे में डूब गयी ।
“सत्यानाश !” - भीम निराश स्वर में बोला - “फिर काम बिगड़ गया ।”
“अब यह कौन है ?” - उसका एक साथी फुसफसाया ।
“क्या पता कौन है !”
“वह अकेला है और. ..”
“हम तीन हैं । यही कहने लगा था न ?”
“हां ।”
“लेकिन उसके पास गन है । हमारे चाकू और साइकिल चेन गन का मुकाबला नहीं कर सकते । हम उसके करीब भी नहीं फटके होंगे कि वो हम तीनों को शूट कर देगा ।”
“तो ?”
“अभी और इंतजार करते है । अभी और मेला देखते हैं ।”
भीम के साथियों में से कोई कुछ न बोला ।
“सुन ।” - तभी भीम अपने एक साथी का कंधा दबाता हुआ बोला ।
“क्या ?” - उसका साथी बोला ।
“तू उधर जा जिधर वो पहले वाला कार छोड़कर गया है और देख के आ कि उधर क्या हो रहा है !”
“अच्छा ।”
थोड़ी देर बाद भीम का वह साथी उसके पास वापिस लौटा ।
“बाप” - वह आते ही बोला - “उधर बहुत खून खराबा हो गया है । पुलिस भी पहुंचने वाली लगती है ।”
“पुलिस !”
“हां । उधर जोर जोर से पुलिस का सायरन बजने की आवाज आ रही है ।”
“यहां तो नहीं आ रही !”
“अभी आने लगेगी । बाप, यह देखो अपुन उधर से क्या लायेला है !”
“क्या है ?”
उसने भीम के हाथ में वो देसी तमंचा रख दिया जो उसे इमारत के पास जयरथ की लाश के करीब लावारिस पड़ा मिला था ।
“भीतर गोली भी है ।” - उसने बताया ।
“वाह !” - भीम फिर खुशी से दमकने लगा - “मजा आ गया !”
“बाप, चलाना आता है ?”
“खूब अच्छी तरह से । साले, मैं बहुत बढिया निशानेबाज हूं ।”
“फिर क्या वांदा है ! अब हैट वाले से निपटना क्या मुश्किल है !”
“बाप !” - तभी भीम का दूसरा साथी बोल पड़ा - “गाड़ी की तरफ देख !”
उन्होंने देखा कि कार का पहला ड्राइवर वापिस लौट आया था और हैट वाला हाथ में गन लिए कार से बाहर निकल आया था ।
वे तीनों कुछ क्षण सांस रोके सामने का नजारा देखते रहे ।
चटवाल ने एक सूटकेस निकालकर कार की बॉडी पर रखा तो भीम बोला - “ये तो साले कार से रोकड़ा निकाल रहे हैं !”
“एक ही सूटकेस निकाला है ।” - उसका एक साथी बोला ।
“लेकिन..”
“बाप, अब देर न करो । अब गन को चलाकर दिखा दो ।”
“हां ।” - भीम बोला । उसने बड़ी सावधानी से अपना तमंचे वाला हाथ सामने फैलाया ।
“बाप, पहले हथियार बंद पर गोली चलाना ।”
“अबे, साले इतनी भी अक्ल नहीं अपुन को !”
भीम ने गोली चलाई ।
गोली ने रुस्तमभाई का भेजा उड़ा दिया ।
दूसरे आदमी की तरफ उसने अभी तमंचे का रुख किया ही था कि उसने एक बड़ी अप्रत्याशित हरकत की ।
उसने सूटकेस एकाएक हवा में उछाल दिया ।
सूटकेस में से जैसे नोटों की बारिश होने लगी ।
हवा में उछले सूटकेस में से इतने नोट नीचे गिरने लगे कि उनके और कार के बीच नोटों का पर्दा सा पड़ गया ।
भीम ने अंधाधुंध दो फायर झोंके लेकिन गोली कहां गयी उसे पता नहीं लगा ।
कुछ क्षण बाद हवा में फड़फड़ाते सारे नोट जब जमीन पर पहुंच गए तो उन्होंने देखा कि दूसरा आदमी कार के करीब नहीं था ।
वे सावधानी से आगे बढे ।
कार की तरफ से कोई आहट नहीं हो रही थी ।
वे कार के करीब पहुंचे ।
वहां कोई नहीं था ।
“मार लिया मोर्चा” - भीम हर्षित स्वर में बोला - “सालो, जल्दी जल्दी नोट सूटकेस में भरो ।”
उसके दोनों साथी जमीन पर बिखरे पड़े नोट समेटने लगे ।
***
एक हाथ में ब्रीफकेस और दूसरे में अपनी रिवाल्वर थामे, सिर नीचा किए, चटवाल जंगल में भागा जा रहा था ।
रुस्तमभाई के जिंदा निकल आने ने उसे हिलाकर रख दिया था ।
ऊपर से वह यह नहीं समझ पा रहा था कि रुस्तमभाई किसकी चलाई गोली से मरा था और वह कोई एक था या अनेक थे ।
हर जगह पंगा पड़ रहा था । कहीं किस्मत उसका हाथ नहीं दे रही थी । छ: करोड़ की विपुल धनराशि से भरे चार सूटकेसों को पीछे छोड़कर उसे भागना पड़ रहा था । यह गनीमत थी कि ऐन मौके पर उसे कार की अगली सीट पर पड़े ब्रीफकेस को दबोचने का खयाल आ गया था ।
उसे वातावरण में चारों तरफ पुलिस के सायरनों की आवाज गूंजती लग रही थी । पता नहीं कि उसके कान बज रहे थे या सारी मुम्बई की पुलिस वहीं जमा होने को पहुंच रही थी ।
अच्छा ही हुआ था कि वह न सिर्फ गोली खाने से बच गया था बल्कि वक्त रहते वहां से निकल आया था ।
तभी एकाएक उसे अपने पीछे से अपनी ही तरह भागते कदमों की आहट मिली ।
वह ठिठका । वह कान लगाकर सुनने लगा ।
उसे कुछ सुनाई न दिया ।
जरूर उसे वहम हुआ था । जरूर उसने अपनी ही आहट की प्रतिध्वनि सुनी थी ।
वह फिर भागा ।
वही आहट उसे फिर सुनाई दी ।
नहीं, वह प्रतिध्वनि नहीं थी ।
“हे भगवान !” - उसके मुंह से निकला - “अब कौन उसके पीछे लगा हुआ था ।”
वह ठिठका तो आहट फिर बंद हो गयी ।
वह भागने की जगह कदम कदम चलने लगा और कान लगाकर पीछे आती किसी आवाज को सुनने की कोशिश करने लगा ।
अब कोई आहट नहीं आ रही थी ।
जरूर वह उसका वहम था ।
जरूर दौड़ने से कदमों की आहट उस अजीब तरीके से जंगल में गूंजती थी कि उसे लगता था कि कोई उसके पीछे आ रहा था ।
वह कुछ आश्वस्त हुआ और वैसे ही कदम कदम चलता आगे बढता रहा ।
जंगल के एक पहलू से बाहर निकलती कच्ची सड़क के दहाने पर पुलिस की तीन जीप खड़ी थीं ।
वैसी ही नाकाबंदी उस सारे इलाके की जा रही थी ।
पुलिस की जीपें वहां इंस्पेक्टर चटवाल की टोह में पहुंची थीं लेकिन वहां का वातावरण जब गोलियों की आवाजों से गूंजने लगा था तो और मदद तलब की गयी थी जिसका कुछ भाग इलाके में पहुंच चुका था और काफी सारा भाग पहुंचने वाला था ।
उस घड़ी वहां खड़ी तीन जीपों में एक फ्लाइंग स्क्वायड की वो जीप भी थी जिसके क्रियू ने कंट्रोल रूम को चटवाल की कार के वरसोवा की तरफ गयी होने की खबर दी थी ।
उसका बड़ी बड़ी मूंछों वाला हवलदार कान लगाकर कुछ क्षण सुनता रहा और फिर बोला - “एक कार आ रही है ।”
सब कच्ची सड़क की दिशा में देखने लगे ।
“सफेद है !” - एकाएक हवलदार बोला ।
कार थोड़ी और करीब आयी ।
“एम्बेसडर है !”
कार और करीब आयी ।
“टैक्सी है !” - हवलदार उत्तेजित हो उठा - “वही है !”
फौरन कार को रोक लिया गया ।
कार की ड्राइविंग सीट पर भीम बैठा था ।
पिछली सीट पर उसके दोनों साथी थे जिनकी टांगों के बीच में वह चौथा सूटकेस रखा था जिसे डिकी में रखने के लिए उन्होंने वक्त जाया नहीं किया था ।
कार को कोई दर्जन भर पुलिसियों ने घेर लिया ।
“बाहर निकलो ।” - आदेश मिला ।
तीनों कार से बाहर निकल आये ।
“चटवाल कहां गया ?” - पूछा गया ।
“कौन चटवाल ?” - भीम बोला ।
“इंस्पेक्टर चटवाल !”
“हम किसी इंस्पेक्टर चटवाल को नहीं जानते ।”
“यह गाड़ी किसकी है ?”
“हमेरी है ।”
“यह तो टैक्सी है !”
“मैं कब बोला कि हवाई जहाज है !” - भीम भुनभुनाया - “यह टैक्सी है और मैं इसका डिरेवर है ।”
“इसका शीशा कैसे टूटा ?”
तब पहली बार उन्हें दिखाई दिया कि कार का एक शीशा टूटा हुआ था ।
“पता नहीं कैसे टूटा !” - भीम बोला - “किसी ने पत्थर मारा होयेंगा ।”
“और तुम्हें पता नहीं लगा ?”
“साहब” - तभी मूंछों वाला हवलदार बोल पड़ा - “यह गोली से टूटा शीशा है । गोली का छेद टूटे शीशे में साफ दिखाई दे रहा है ।”
“यह गाड़ी” - भीम से फिर पूछा गया - “अभी सिर्फ आधा घंटा पहले इंस्पेक्टर चटवाल चला रहा था । यह तुम्हारे पास कैसे पहुंच गयी ?”
“तुम्हेरे कू गलतफहमी हुई है, बाप । यह गाड़ी तो सुबह से ही हमेरे पास है ।”
“इधर कहां गए थे ?”
“एक पैसेंजर को ड्राप करने गए थे ।”
“साथ में ये भी ?”
“नहीं । ये तो मेरे दोस्त हैं जो अभी रास्ते में मिले ।”
“पीछे पड़ा यह सूटकेस किसका है ?”
भीम के मुंह से बोल न फूटा । जब से गाड़ी रोकी गयी थी, वह मन ही मन यही प्रार्थना कर रहा था कि सूटकेस पर किसी की निगाह न पड़े लेकिन उसकी प्रार्थना कबूल नहीं हुई थी ।
“इतना बढिया सूटकेस तुम्हारा तो नहीं होगा ।” - पूछा गया - “यह उस पैसेंजर का तो नहीं रह गया ?”
“उसी का रह गया होयेंगा, बाप ।” - भीम विनीत भाव से बोला - “आप इसे रख लो । कोई पूछे तो लौटा देना ।”
सूटकेस कार में से निकाला गया । उसके दोनों खटके भीम के साथियों की जल्दबाजी की वजह से ठीक से बंद नहीं हुए थे । सूटकेस कार में से निकालकर सीधा करने करने में ही खुल गया ।
नोटों की गड्डियां सड़क पर बिखरने लगी ।
“हो गया काम !” - भीम के मुंह से निकला ।
तुरंत तीनों को दबोच लिया गया ।
***
विमल के पास यह जानने का कोई साधन नहीं था कि चटवाल जब इमारत की तरफ से जंगल में दाखिल हुआ था तो किधर भागा था ।
वह खुद अंदाजन जंगल में घुसा था लेकिन भटकने के अलावा उसके हाथ कुछ नहीं लगा था ।
फिर जब वह निराश होकर चटवाल की तलाश छोड़ने वाला था तो दूर पेड़ों के बीच में उसे चटवाल की एक झलक मिली थी ।
वह एक हाथ में रिवाल्वर और दूसरे में ब्रीफकेस थामे भागा जा रहा था ।
ब्रीफकेस !
ब्रीफकेस कहां से आ गया उसके पास ?
जरूर उसके एक बार इमारत के सामने उसकी निगाहों से ओझल होने के और दोबारा दिखाई देने के बीच के वक्फे में वह कहीं और रुका था जहां से कि उसके पास वह ब्रीफकेस आया था ।
विमल उसके पीछे लपका ।
एकाएक चटवाल ठिठका ।
विमल भी ठिठक गया ।
जरूर चटवाल को भनक लग गयी थी कि कोई उसके पीछे आ रहा था ।
चटवाल फिर दौड़ा तो विमल भी दौड़ने लगा ।
जंगल में फासले से उस पर गोली चलाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं था । गोली का कोई कारआमद नतीजा हासिल करने के लिए उसका उसके करीब पहुंचना जरूरी था, लेकिन चटवाल भी तो हथियारबंद था ! तब वह भी तो उस पर गोली चला सकता था !
फिलहाल उसके पीछे ही लगा रहना काफी था ।
थोड़ी देर बाद चटवाल जब कदम कदम चलने लगा तो विमल को एक तरकीब सूझी ।
वह दबे पांव दायें को भागा ।
थोड़ी देर बाद वह उसके पीछे पीछे भागने की जगह उससे परे परे भाग रहा था और एक खूब बड़ा घेरा काटकर उससे आगे पहुंचने की कोशिश कर रहा था ।
वह तरकीब कारगर साबित हुई ।
जल्द ही विमल उस रास्ते पर पहले पहुंचा हुआ था जहां से चटवाल ने अभी गुजरना था ।
वह करीब आया तो विमल ने निशाना ताककर गोली चलाई ।
गोली चटवाल के रिवाल्वर वाले हाथ पर लगी । रिवाल्वर उसके हाथ से निकल गयी ।
विमल ओट में से निकला और कूदकर उसके सामने पहुंच गया ।
“अभी थोड़ी देर पहले” - विमल उसकी तरफ रिवाल्वर लानता बोला - “तू मुझे खबरदार कर रहा था, अब मैं मुझे खबरदार करता हूं ।”
चटवाल ने असहाय भाव से उसकी तरफ देखा । उसने ब्रीफकेस घुटनों में दबा लिया था और इस प्रकार खाली हुए अपने हाथ से अपने घायल हाथ को थाम लिया था ।
विमल उसके सिर पर पहुंचा । उसके हाथ में थमी रिवाल्वर उसकी कनपटी से सटा दी ।
“माल कहां छोड़ा ?” - विमल ने पूछा ।
वह खामोश रहा । उसका चेहरा पीड़ा से विकृत हो रहा था ।
विमल ने रिवाल्वर का कुत्ता खींचा ।
उस प्रकार हुई हल्की सी क्लिक की आवाज चटवाल को नगाड़े पर पड़ती चोट जैसी लगी ।
“माल छिन गया ।” - वह कठिन स्वर में बोला ।
“कैसे छिन गया ?”
“उसे जंगल में कार में छोड़कर मैं तुम लोगों को खत्म करने गया था । वापिस लौटा था तो कार में रुस्तमभाई बैठा था ।”
“रुस्तमभाई बैठा था ?” - विमल हैरानी से बोला ।
“हां । जिसे मैं मार चुका था, वह प्रेत की तरह जिंदा निकल आया था ।”
“अब माल रुस्तमभाई ले गया है ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“कार पर गोलियां बरसने लगी थीं । रुस्तमभाई मर गया । मैं बच गया । मैं भाग न खड़ा हुआ होता तो मैं भी मरता ।”
“गोलियां चलाने वाले कौन थे ?”
“पता नहीं ।”
“अब माल वो ले गये ?”
“कार उनके काबू में आ गई तो ले ही गये होंगे !”
चटवाल झुकता - झुकता जमीन पर उकडू बैठ गया था । ब्रीफकेस उसने अपने घुटनों के बीच में से निकल जाने दिया था ।
“बांद्रा वाले फ्लैट से माल तुमने चोरी किया था ?” - विमल ने पूछा ।
तब उसका रिवाल्वर वाला हाथ नीचे लटक गया था । अब रिवाल्वर चटवाल की तरफ तनी हुई नहीं थी ।
“हां ।”
“छुपाया कहां था ?”
“बगल के फ्लैट में ?”
“वहां तुम्हारा कोई जानकार रहता था ?”
“नहीं । यूं ही फ्लैट की घंटी बजा दी थी और सूटकेस वहां छुपा दिये थे । जिस वक्त तुम ऊपर आ रहे थे, तब मैं खुद भी वहीं छुपा था ।”
“कमाठीपुरे तुम मेरी फिराक में गये थे या रामन्ना की फिराक में ?”
“रामन्ना की फिराक में । तुम तो मुझे इतफाकन वहां दिख गये थे ।”
“वहां तुम रामन्ना का खून करने आये थे ?”
“हां ।”
“और मुझे देखकर मेरा खून करने पर आमादा हो गये थे ?”
“हां ।” - चटवाल बोला, उसकी निगाह अपने हाथ से छिटक कर करीब ही गिरी पड़ी रिवाल्वर पर टिकी हुई थी । अगर अब भी रिवाल्वर उसके हाथ में आ जाती तो वह बायें हाथ से भी गोली चला सकता था । आखिर वह पुलिस का प्रशिक्षण प्राप्त इंस्पेक्टर था ।
“हमारे बारे में सारी जानकारी तुम्हें रुस्तमभाई से हासिल हुई थी ?”
“हां ।”
“तुम्हें माल हथिया कर ही सब्र क्यों नहीं था ? तुम हम सबको मार डालने पर क्यों आमादा थे ?”
“क्योंकि तुम लोगों को मेरी जानकारी थी ।”
“ऐसा किसने कहा था ?”
“रुस्तमभाई ने ।”
“उसने गलत कहा था । उसने तुम्हारी बाबत हमसे कभी कोई बात नहीं की थी ।”
“फिर तुम मुझे जानते कैसे थे ?”
“मैंने अपनी जाती पूछताछ से यह नतीजा निकाला था कि चटवाल नाम के एक पुलिसिये का रुस्तमभाई से गठजोड़ था । हम लोगों को तुम खतम न कर सके, यह तुम्हारी बद्किस्मती थी । आज तुम हमारे तक पहुंचे, लेकिन जल्दी ही हम तुम तक पहुंचने वाले थे । सिर्फ वक्त की बात थी ।”
चटवाल खामोश रहा ।
“हराम का पैसा तुम्हारी किस्मत में नहीं लिखा था ।”
“अब.. .अब तुम क्या करोगे ?”
“अब मैं कोई ऐसा इंतजाम करूंगा कि अपनी सारी करतूतों की सजा तुम्हें तुम्हारे महकमे से ही मिले ।”
“तुम.. .तुम मुझे पुलिस के हवाले करोगे ?”
“हां । तुम्हारी करतूतों के सबूतों के समेत । ताकि तुम सजा से न बच सको ।”
एकाएक चटवाल अपनी रिवाल्वर पर झपटा ।
रिवाल्वर को उसकी उंगलियों ने अभी छुआ भी नहीं था कि विमल ने फायर कर दिया ।
गोली उसकी खोपड़ी में लगी ।
वह ब्रीफकेस के ऊपर उलटकर मर गया ।
विमल ने रिवाल्वर अपनी जेब में रख ली और आगे बढकर उसकी लाश के नीचे से ब्रीफकेस निकाला ।
उसने ब्रीफकेस को अपने एक घुटने पर टिकाकर खोला ।
ब्रीफकेस नोटों से भरा हुआ था ।
सारे नोट सौ-सौ की गड्डियों की सूरत में थे इसलिए यह अंदाजा लगाना आसान था कि उसमें कितनी रकम मौजूद थी ।
रकम का अंदाजा हो जाने पर उसके होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट प्रकट हुई ।
दीनदयाल दयानिध दोखन - उसके मुंह से निकला - देखत है पर देत न हारै ।
ब्रीफकेस में ऐन उतनी रकम बंद थी जितनी उसे नया चेहरा हासिल करने के लिए दरकार थी ।
समाप्त
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