थोड़े विराम के बाद राजदान ने फिर कहना शुरू किया- “तुम यही चाहते थे न कि मैं इस रिवाल्वर से आत्महत्या कर लूं? मैंने सारी जिन्दगी वही किया तो तुमने चाहा। फिर अपनी जिन्दगी के इस आखिरी लम्हें में वो कैसे कर सकता हूं जो तुम नहीं चाहते। वही होगा छोटे जो तुम चाहते थे, जिसके लिए मरे जा रहे थे तुम दोनों में इस रिवाल्वर से अपनी हत्या करने वाला हूं।” रोमांचित हो उठे दिव्या और देवांश ।
क्या वह सच कह रहा है?
क्या वास्तव में वह आत्महत्या करने वाला है?
वहें जो इस वक्त बड़ी आसानी से उन्हें मार सकता है?
ऐसी स्थिति में भला आत्महत्या क्यों करेगा कोई?
पागल ही कर सकता है ऐसा ।
यकीनन वह झूठ बोल रहा है।
और अगर यह सच है तो भले ही वह पूरा पागल न हो किसी न किसी हद तक दिमाग जरूर हिल गया है उसका। जो शख्स अपने दुश्मनों को मारने की स्थिति में है वह आत्महत्या की बात करे तो कैसे उसका दिमाग ठीक माना जा सकता है? जो बात उनके दिमाग में घुमड़ रही थी, वही कहा राजदान ने-“मैं जानता हूं इस वक्त तुम मुझे पागल समझ रहे होंगे। मगर पागल मैं नहीं तुम हो। अपना कत्ल करने से पहले मैं तुम्हें एक बात बताना चाहता हूं। सिर्फ एक बात ।” मुंह से आवाज वे अब भी नहीं निकाल सके।
“बीमा कम्पनी को मैं एक लेटर लिख चुका हूं। वह कल उन्हें मिल जायेगा। उसमें लिखा है- 'अगर मैं सुसाइड कर लूं तो पांच करोड़ की रकम किसी को अदा न की जाये। सुन रहे हो न, उस रकम में से एक पाई भी तुम्हें नहीं मिलेगी जिसके लिए मेरी आत्महत्या चाहते थे।”
राजदान के शब्द गड़गड़ाती हुई बिजली की मानिन्द उनके दिलो-दिमाग पर गिरे थे। अगर यह कहा जाये तो गलत नहीं होगा कि उन चंद ही शब्दों ने उन्हें उस बंद कमरे में तारे दिखा दिये थे। पहली बार उनकी हालत का लुत्फ लेते राजदान ने कहा- “मगर घबराओ मत! तुम चाहे जितने कमीने सही लेकिन मैं इतना निष्ठुर नहीं हूं कि पांच करोड़ तक पहुंचने के तुम्हारे सारे दरवाजे बंद कर जाऊं। एक रास्ता खुला रखा है मैंने। थोड़ी सी मेहनत करोगे तो पांच करोड़ रुपये तुम्हें जरूर मिलेंगे । हराम में तो आजकल कोई किसी को दो वक्त की रोटी भी नहीं देता फिर मैं पांच करोड़ कैसे दे सकता हूं। मेहनत तो करनी पड़ेगी उनके लिए पूछो, पूछो क्या करना पड़ेगा। मेहनत के नाम पर?” बोल अब भी दोनों में से किसी के मुंह से न फूट सका।
जुबान नाम की चीज मानों मुंह में थी ही नहीं।
“कमाल है। गूंगे हो गये तुम तो ।” राजदान हंसा- “खैर, बताये देता हूं। ध्यान से सुनो - मैंने बीमा कम्पनी को लिखा है- “अगर मैं स्वाभाविक मौत मरूं या किसी के द्वारा मेरी हत्या कर दी जाये तो पांच करोड़ मेरी पत्नी को मिलें। उसे, जो पॉलिसी में मेरी नोमिनी है।” दिमाग घूमकर रह गये दोनों के।
“आया कुछ समझ में?” पूछते वक्त राजदान के होठों पर जहरीली मुस्कान थी- “मैं इस रिवालवर से इस ढंग से आत्महत्या करूंगा कि दुनिया की कोई ताकत उसे स्वाभाविक मौत साबित नहीं कर सकती । अब तुम्हें केवल एक स्थिति में पांच करोड़ मिल सकते हैं। तब, जब मेरी आत्महत्या को किसी और के द्वारा की गई हत्या साबित करो। याद रहे - अगर कोई इन्वेस्टीगेटर पकड़ गया, ये हत्या नहीं आत्महत्या है तो कंगले के कंगले रह जाओगे ।” रामभाई शाह जैसे फाईनेंसर्स गोश्त नोंच-नोंचकर खा जायेंगे तुम्हारा ।” दिव्या और देवांश उसके चक्रव्यूह को समझने की कोशिश कर रहे थे।
“उम्मीद है, पूरी स्थिति को अच्छी तरह समझ लिया होगा तुमने ।” राजदान कहता चला गया -“मामला थोड़ा उल्टा है । क्राइम को दुनिया में लोग हत्या करके कानून से बचने के लिए उसे आत्महत्या साबित करने हेतु कसरत करते हैं। मगर तुम्हें, आत्महत्या को हत्या सिद्ध करने के लिए पापड़ बेलने होंगे। बहरहाल, सवाल पांच करोड़ का है। मुझे पूरी उम्मीद है - यह कोशिश तुम जरूर करोगे।” वे दोनों डरी सहमी आंखों से उसे देखते रहे।
“अब तुम कहोगे, ये तो जुल्म है तुम पर भला इतनी जल्दी आनन-फानन में मेरी आत्महत्या को कैसे और किसके द्वारा की गई हत्या साबित कर सकते हो । टाईम तो मिलना ही चाहिए। ताकि सोच सको। समझ सको। प्लानिंग बना सको अपनी। गोली चलने का धमाका हुआ तो अभी दौड़ चले आयेंगे लोग यहां कुछ करने का टाइम ही नहीं मिलेगा, इसलिए।” कहने के साथ उसने दूसरा हाथ जेब में डाला। साइलेंसर निकाला। उसे रिवाल्वर की नाल पर फिट करता बोला- “अब ठीक है, मैं मर भी जाऊंगा और कानो-कान किसी को खबर भी नहीं होगी। कम से कम बाकी रात तो मिलेगी ही तुम्हें प्लानिंग बनाने के लिए।" सकपकाये देवांश के मुंह से इतना ही निकाल सका- “तुम ऐसा नहीं करोगे । ”
“गधे हो तुम। गधे ही रहे। देखो - ऐसा ही कर रहा हूं मैं।" कहने के बाद उसने साइलेंसर लगी रिवाल्वर की नाल अपने मुंह में घुसेड़ ली।
“न-नहीं।” हलक फाड़कर देवांश उसकी तरह लपका।
परन्तु!
राजदान ट्रिगर दबा चुका था।
गर्म खून के छींटे देवांश को सराबोर कर गये। जहां का तहां खड़ा रह गया वह ।
दिव्या के हलक से चीख निकल गई थी।
‘पिट' की हल्की सी आवाज के बाद राजदान की खोपड़ी बीसवीं मंजिल से गिरे तरबूज की तरह फट गई थी। चेहरे सहित चिथड़े उड़ गये उसके। अगर उसने यह सब उनके सामने न किया होता तो शायद लाश को पहचान भी न पाते।
धड़ सोफे की पुश्त से जा टिका था। गर्दन से ऊपर के हिस्से के चिथड़े यूं बिखरे हुए पड़े थे। जैसे फटने के बाद पटाखे के अवशेष।
चारों तरफ खून ही खून! गोश्त ही गोश्त ।
रिवाल्वर अभी भी बगैर चेहरे वाली लाश के दोनों हाथों में था।
दिव्या और देवांश फटी-फटी आंखों से उस दृश्य को देख रहे थे। चेहरे ऐसे नजर आ रहे थे जैसे वर्षों से पीलिया के रोगी हो। टांगे यूं कांप रही थीं जैसे अब गिरे कि तब गिरे।
दिमाग सांय-सांय कर रहे थे।
लाश सामने पड़ी थी। फिर भी यकीन नहीं आ रहा था राजदान मर चुका है।
अभी वे इसी सदमे से नहीं उबर पाये थे कि बुरी तरह चौंक पड़े।
चौंकने का कारण था किसी के द्वारा बंद दरवाजे पर दी गई दस्तक।
दोनों की नजरें एक झटके से आवाज की दिशा में घूमीं। आंखे बाथरूम के दरवाजे पर स्थिर हो गयीं। दरवाजा कमरे की तरफ से बंद था। दिव्या और देवांश के दिल धाड़-धाड़ करके बज रहे थे। चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं। मारे खौफ के बुरा हाल था। अभी वे सोच ही रहे थे- 'दस्तक की आवाज उन्होंने वास्तव में सुनी थी या वह उनका भ्रम था कि दरवाजा पुनः बाथरूम की तरफ से बहुत ही आहिस्ता से खटखटाया गया। मारे खौफ के दिव्या के हलक से चीख निकलने वाली थी कि देवांश ने झपटकर अपना हाथ उसके मुंह पर जमा दिया। दरवाजा एक बार फिर बाथरूम की तरफ से खटखटाया गया।
देवांश ने उसका मुंह न भींच रखा होता तो दिव्या यकीनन अब तक फर्श पर गिरकर बेहोश हो चुकी होती । खुद देवांश का भी सारा वजूद सूखे पत्ते की मानिन्द कांप रहा था।
फटी-फटी आंखों से दोनों बाथरूम के बंद दरवाजे की तरफ देख रहे थे। यह बात उनकी समझ में आकर नहीं दे रही थी वहां आखिर
है कौन? कौन हो सकता है? वह बंद बाथरूम में क्यों हैं?
वे करीब एक घण्टे से इसी कमरे में थे।
बाथरूम तभी से कमरे की तरफ से बंद था।
वहां जो भी था, उसने अपने दरवाजा क्यों नहीं खटखटाया?
क्यों राजदान की मौत के तुरंत बाद ऐसा करना शुरू किया?
और दरवाजा खटखटाया भी कुछ इस तरह जा रहा था जैसे चोरी की जा रही हो । जैसे खटखटाने वाला चाहता हो तो उस आवाज को कमरे में मौजूदाख्स के अलावा कोई न सुन सके।
क्यों था ऐसा ?
क्या रहस्य था?
कौन था वहां?
देवांश का जी चाहा-चीखकर पूछे परन्तु ऐसा करने का मतलब था, बाथरूम में जो भी है उसे यह बता देना कि उस पल वे उस कमरे में हैं। उस पल जिस पल कमरे में राजदान की लाश पड़ी है।
इस बार दरवाज के दूसरी तरफ से मुस्कराहट उभरी।
जैसे किसी ने कहा हो- 'राजदान साहब!'
देवांश ने आवाज पहचानने की कोशिश की परन्तु फुसफुसाहट इतनी धीमी थी कि वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका। अब ज्यादा देर यहां ठहरना देवांश को बेवकूफी लगी अतः दिव्या का मुंह उसी तरह दबोचे उसे अपने साथ घसीटता सा कमरे के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा।
गैलरी में पहुंचकर दिव्या के मुंह से हाथ हटा लिया ।
दिव्या कांपती आवाज में कह उठी- “क-कौन है वहां?”
“बेवकूफी भरे सवाल मत करो।” कांपती आवाज में देवांश गुर्रा उठा- “जितनी अंजान तुम हो उतना ही मैं भी हूं। संभालों खुद को, वरना अब तक का किया धरा सब चौपट हो जायेगा।"
“अगर वो कमरे में पहुंच गया, उसने लाश देख ली तो क्या होगा?”
“कैसे पहुंच जायेगा। कमरे में? दरवाजा अंदर से बंद है और।" कुछ कहते-कहते बिजली सी कौंधी देवांश के दिमाग में। दिव्या को वहीं छोड़कर तेजी से गैलरी में एक तरफ को दौड़ा। एक पल के लिए तो दिव्या उसकी इस अजीबो-गरीब हरकत पर हकबकाई सी वहीं खड़ी रह गई मगर अगले पल यह सोचकर वह भी उसके पीछे लपक पड़ी कि शायद जल्द से जल्द वहां से दूर हो जाने में ही 'बचाव' है । बड़ी तेजी से सीढ़िया चढ़ता देवांश विला के टैरेस पर पहुंचा। उसका रुख राजदान के बैडरूम की छत की तरफ था। किनारे पर पहुंचकर वह पेट के बल लेट गया। अभी उखड़ी सांसों को नियंत्रित करने की कोशिश कर ही रहा था कि अब गिरी कि अब गिरी वाले अंदाज में दौड़ती दिव्या भी वहां पहुंच गई। हांफते हुए उसने पूछा- “यहां क्यों आये हो तुम?" देवांश ने मुंह से जवाब देने की जगह उसका हाथ पकड़ा । हल्का सा झटका दिया और अपने नजदीक छत पर गिरा लिया, साथ ही गुर्राया- “चोंच बंद रखो।”
दिव्या उसके नजदीक पड़ी हांफ़ती रही।
विला का फ्रन्ट लॉन उनकी आंखों के सामने फैला पड़ा था।
हर तरफ सन्नाटा था।
अंधकार ।
केवल एक बल्ब रोशन था। लम्बे-चौड़े लॉन में छाये अंधेरे को दूर करने में पूरी तरह असक्षम। कहीं कोई हलचल, कोई आवाज नहीं थी। जैसे विला के पेड़-पौधों को अपने मालिक की मौत का एहसास हो गया था। वातावरण बड़ा ही डरावना सा लग रहा था उन्हें ।
यह एहसास थर्राये हुए था कि बैडरूम में राजदान की लाश पढ़ी है और बाथरूम में कोई अंजान शख्स मौजूद है। दिव्या का ऊपरी जिस्म इस वक्त भी पूरी तरह नग्न था, इस बात को न केवल दिव्या पूरी तरह भूली हुई थी बल्कि देवांश को भी एहसास तक नहीं था। उस देवांश को जो एक दिन इसी जिस्म को देखने की ललक के कारण दिव्या द्वारा रंगे हाथों पकड़ा गया था।
कुछ देर बाद देवांश फुसफुसाया- “मैं समझ चुका हूं। वह जो भी है, उसी रास्ते से बाथरूम में पहुंचा होगा जिस रास्ते में एक दिन में पहुंचा था। जब उसके लाख खटखटाने और आवाजें लगाने के बावजूद दरवाजा नहीं खुलेगा तो उसी रास्ते से वापस निकल जाने पर मजबूर हो जायेगा और यहां से हम उसे आसानी से देख सकेंगे।”
“ल- लेकिन अगर उसने दरवाजा तोड़ दिया ?”
“न-नहीं! ऐसा नहीं करेगा वह?”
“क्यों नहीं कर सकता?”
“उसके खटखटाने और राजदान को पुकारने का अंदाज चोरों वाला था। दरवाजा टूटने पर जोरदार आवाज होगी, जिसे शायद वह नहीं करना चाहेगा ।
“म-मगर देव! अब होगा क्या? वो कम्बख्त तो मरता-मरता भी हमारे साथ खेल, खेल गया। आत्महत्या कर ली उसने । कह रहा था - आत्महत्या पर बीमा कम्पनी कोई पैसा नहीं देगी। जीते जी मर गये हम दोनों तो ।”
“वो सब बाद में सोचेंगे। फिलहाल इस मुसीबत से निपटना जरूरी है।"
“आखिर करोगे....”
देवांश ने उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही जोर से हाथ दबाया । यह इशारा चुप रहने के लिए था। खुद दिव्या की नजर भी उस साये पर पड़ चुकी थी जो अभी-अभी बाथरूम की खिड़की से बाहर निकला था। सांस रोके दोनों उसे देखते रहे।
वह विला के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ गया।
लाख कोशिशों के बावजूद दोनों में से कोई उसे पहचान नहीं पा रहा था।
ठीक उसी क्षण दोनों पर एक साथ बिजली गिरी जिस क्षण वह एकमात्र रोशन बल्ब के प्रकाश दायरे में पहुंचा। दोनों के मुंह से एक साथ निकला - "ठकरियाल ।”
“इस वक्त यहां क्या कर रहा है?" देवांश बुदबुदाया।
दिव्या बड़बड़ाई-“चोरों की तरह कमरे में क्यों पहुंचना चाहता था?”
“वह तो मुख्य द्वार की तरफ बढ़ रहा है, आखिर है किस चक्कर में?”
मुख्य द्वार पर पहुंचकर ठकरियाल ने कॉलबेल के स्वीच पर अंगूठा रख दिया।
अंदर कहीं घंटी बजी जिसकी आवाज रात के सन्नाटे को चीरती खुद उसके कानों तक भी पहुंची। ऐसा एक बार नहीं, वो या तीन बार नहीं बल्कि पूरे सात बार हुआ।
थोड़े-थोड़े अंतराल से, वह बार-बार बेल बजाता रहा मगर दरवाजा था कि खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था। आठवीं बार जब उसने हाथ स्वीच की तरफ बढ़ाया तो अंदर से 'कट' की आवाज उभरी। साथ ही, दरारों से रोशनी ने झांकना शुरू किया। ठकरियाल ने ऐसी सांस ली जैसी तेनसिंह और हिलेरी ने एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचकर ली होगी।
“कौन है?” अंदर से पूछा गया।
“कोने में नहीं, सामने ही खड़े हैं देवांश बाबू। पट खोलकर देखो तो सही ।”
“त- तुम ? तुम इस वक्त यहां?" दरवाजा खोलने के साथ देवांश का हैरान स्वर उसके कानों में पड़ा। चेहरे से भी हैरान नजर आ रहा था वह जिस्म पर इस वक्त वे कपड़े नहीं थे जो राजदान के खून से सराबोर हो चुके थे बल्कि एक दूसरा ही नाइट गाऊन पहने हुए था। सवाल का जवाब देने की जगह ठकरियाल उसक तरफ यूं देख रहा था। जैसे ताजमहल को निहार रहा हो जबकि देवांश के मन का चोर उसकी लाख चेष्टाओं के बावजूद बार-बार चेहरे पर काबिज होने की कोशिश कर रहा था। उसी को छुपाने के प्रयास में उसने पूछा- “ए ऐसे क्या देख रहे हो?”
“पहचानने की कोशिश कर रहा हूं-ये तुम हो या तुम्हारा प्रेत?” “म- मैं समझा नहीं।”
“लग तो ऐसा ही रहा था जैसे मैं कब्रिस्तान की घंटी बजा बैठा हूं।"
“ओह! ये मतलब था तुम्हारा । " देवांश खुद को सामान्य दर्शाने की भरसक चेष्टा के साथ कहता चला गया - “रात के इस वक्त अचानक जाकर किसी के घर की घंटी बजाओगे तो ऐसा ही लगेगा। गहरी नींद का समय है।"
“सो तो है।” ठकरियाल ने कहा- “अब सोचो, क्या नसीब पाया है टेकचंद ठकरियाल ने। जिस वक्त तुम! तुम ही नहीं बल्कि सारा शहर बिस्तर में घुसा खर्राटे मार रहा है। उस वक्त ये नाचीज घंटियां बजाता घूम रहा है।"
“वही तो जानना चाहता हूं मैं। यहां क्यों आये हो ?”
“आपके भ्राता श्री ने बुलाया है।"
“भ - भैया ने ?”
“जी हां!”
“र- रात के इस वक्त !”
“जी।” वह अपनी रिस्टवॉच पर नजर डालता हुआ बोला-“बीस मिनट लेट हूं। वैसे लेट हुआ नहीं था। एक्यूरेट टाइम पर पहुंच गया था वहां जहां आपके भ्राता श्री ने पहुंचने के लिए कहा था परन्तु एन्ट्री नहीं मिली। तब से एन्ट्री के लिए भटक रहा था जो अब, आपके कपाट खोलने पर मिली है।”
“पता नहीं तुम क्या कहना चाहते हो?”
“समझा दूंगा। समझाना ही तो कारोबार है मेरा । एन्ट्रीकम्पलीट तो होने दो ।”
“मतलब?”
“अंदर आने दो हुजूर । तुम तो बैरियर बनकर अड़े पड़े हो दरवाजे पर ।”
देवांश बड़ी मुश्किल से अपने मनोभाव ठकरियाल से छुपा पा रहा था। यह इन्फारमेशन उसे अंदर तक हिलाये हुए थी कि रात के इस वक्त ठकरियाल को राजदान ने बुलाया था। वह भी बाथरूम के रास्ते चोरों की तरह। क्यों? क्यों किया था राजदान ने ऐसा ? आखिर खेल क्या था ये? यही सब सोचता वह बेध्यानी में दरवाजे के बीच में हटा तो अंदर कदम रखते ठकरियाल ने कहा- “अब जाकर हुई है एन्ट्री पूरी । मगर तुम-तुम यहां मौजूद नहीं जान पड़ते देवांश बाबू कहां चले गये अचानक? नींद में टहलने की बीमारी तो नहीं है?”
“ओह न-नहीं।” देवांश चौंका-“द-दरअसल मैं यह सोचने लगा था, रात के इस वक्त भैया ने तुम्हें क्यों बुलाया? वे तो नींद की गोली लेकर सो रहे होंगे।”
“नींद की गोली लेकर?"
“यह उनका हर रात का रुटीन है।"
“अब आई बात ‘समझ' में।" ठकरियाल अजीब ढंग से मुंडी हिलाता बोला- “मैं भी तो कहूं-इतनी ठोक-पीट कर दरवाजे में इतना पुकारा उन्हें मगर कमरे के अंदर से चूं चां तक की आवाज नहीं आई। आती भी कैसे-वे तो नींद की गोलियों के नशे में अंटगाफिल हुए पड़े होंगे।”
“मगर मेरी समझ में बात बिल्कुल नहीं आई। कौन से दरवाजे में ठोक-पीट की तुमने? कब और कहां से पुकारा उन्हें ?”
“यहां, अर्थात् इमारत के मुख्य द्वार पर पधारने से पहले हम राजदान साहब के बाथरूम में गये थे। वहां से उनके दरवाजे को ठोका-पीटा था।
“ब-बाथरूम में?” ठकरियाल का वाक्य काटकर देवांश ने चौंकने की खूबसूरत एक्टिंग की -“वहां क्यों गये थे तुम? भला ये किसी के कमरे में जाने का कैसा रास्ता हुआ और बाथरूम में पहुंच कैसे गये? उनकी खिड़की "
“खुली हुई थी।”
“खुली हुई थी?”
“बल्कि खोलकर रखी गयी थी।”
“किसने किया ऐसा ?”
“आपके भ्राता श्री ने।”
“भ-भैया ने? मगर क्यों? आखिर क्या पहेलियां बुझा रहे हो तुम?” देवांश के चेहरे पर उलझन नजर आ रही थी। “बात जब मेरी ही समझदारी में नहीं घुसी तो तुम्हारी चूहेदानी में कैसे फंसेगी ?”
“क्या मतलब?”
“किस्सा आज रात आठ बजे से शुरू होता है।" ठकरियाल ने ऐसे अंदाज में कहना शुरू किया जैसे सब कुछ बताने की ठान ली हो- “उस वक्त मैं थाने से घर जाने की तैयारी कर रहा था जब अचानक फोन की घण्टी बजी।
ठकरियाल ने यह बुदबुदाते हुए बुरा सा मुंह बनाया कि 'अब किसकी अम्मा मर गई ।' रिसीवर उठाकर कहा -“ हमें इंस्पैक्टर ठकरियाल से बात करनी है। दूसरी तरफ से कहा गया ।
“जी फरमाइये। इत्तफाक से ठकरियाल ही पकड़ में आ गया है आपकी ।”
“हम राजदान बोल रहे हैं।"
हलो!”
“ओह! राजदान साहब ।” ठकरियाल अचानक मुस्तैद नजर आने लगा था- “जी बोलिए। जितना जी चाहे बोलिए। खादिम का तो निर्माण ही सुनने के लिए हुआ है।
“तुम्हें आज रात एक बजे हमसे मिलने विला पहुंचना है।"
“एक बजे?”
“ठीक एक बजे। न एक मिनट इधर न उधर ।"
“रादजान साहब, मुलाकात का ये मुहुर्त किसी ज्योति से निकलवाया है क्या ?”
“मैं नहीं चाहता हमारी मुलाकात के बारे में किसी को पता लगे।”
“किसी से मतलब?”
"हमारा मतलब विशेष रूप से दिव्या और देवांश से है।"
“ऐसी क्या बात है जिसे आप अपनी जान से प्यारी जीवन साथी और उस भाई से छुपाना चाहते हैं जिसे असल में खुद से भी ज्यादा प्यार करते हैं?”
“यहां आओगे तो बात भी पता लग जायेगी।"
“आ जाऊंगा राजदान साहब कोई और बुलाता तो न आता लेकिन आप बुला रहे हैं तो जरूर हाजिर हो जाऊंगा। बहरहाल, सोने के अंडे देने वाली मुर्गी हैं आप | क्या पता, रात के बड़े अंडे टपकाने लगें।”
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