देवराज चौहान के कार में बैठते ही, जगमोहन ने कार आगे बढ़ा दी।
देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता नजर आ रही थी।
“ये तुमने खुद को कैसे मामले में फंसा लिया है?” जगमोहन बोला।
"मैं खुद ही उलझा पड़ा हूँ। हालात अब बुरे होने शुरू हो गये हैं।" देवराज चौहान ने कहा।
“तुम्हें कैसे पता कि श्रेया का मदन ने अपहरण किया है?"
"आभास तो पहले ही हो गया था, ऊपर से मदन का फोन भी आ गया।"
“क्या बोला वो?”
"बंगला मांगता है।"
"बहुत कमीना है। भतीजी का अपहरण करके, बंगले का सौदा करना चाहता है उसके बदले। जाना किधर है?"
“चैम्बूर चलो। सात नम्बर बंगला ।”
“यहाँ कौन रहता है?"
“ये मदन का बंगला है। उसके परिवार में उसकी पत्नी सुनीता और बेटा विजय है। विजय, मदन के बिजनेस में हाथ बँटाता है। लोअर परेल की मार्किट में डायमंड हाऊस के नाम से मदन का शोरूम है।"
“तो डायमंड का बिजनेस है।”
“ये सारा बिजनेस कभी सूरज के पिता शिवचंद का था परन्तु धीरे-धीरे मदन ने वहाँ कब्जा जमा लिया। बंगले से निकलने से पहले मुझे सूरज का फोन आया था।” देवराज चौहान बोला।
“सूरज.... सूरज ने तुम्हें फोन किया?" जगमोहन ने चौंक कर देवराज चौहान को देखा।
“हाँ। तब मुझे लग रहा था जैसे रिकार्ड की, मैं अपनी ही आवाज सुन रहा हूँ। उसकी आवाज मेरे से पूरी तरह मिलती है, ये बात मेरी समझ से बाहर है। कद-काठी मिलना। हाव-भाव मिलना। व्यवहार मिलना। चेहरा मिलना और आवाज का भी पूरी तरह मिलना। इनमें से कुछ भी मेरी समझ में नहीं आ रहा।"
“तुमने सूरज से मिलने को नहीं कहा?"
“कहा, वो कहता है पहले श्रेया को किसी तरह वापस ले आओ। उसके बाद मिलेंगे। उसने स्पष्ट कहा कि वो मदन का मुकाबला नहीं कर सकता। किसी को थप्पड़ मारने की भी उसमें हिम्मत नहीं है। बल्कि वो तो कह रहा था कि मदन को बंगला दे दो और श्रेया को बचा लूं। परन्तु मैंने इन्कार कर दिया।"
“अजीब झंझट है ये, तुम तो यूँ ही इस मामले में आ फंसे।"
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली। कहा---
“मदन ने चिंकी का अपहरण करके गलत किया। अब मुझे मदन के बारे में सोचना पड़ रहा है....।"
“गलत तो उसने किया ही है।”
“रात मेरी उससे तीखी बात हुई थी। मैंने रिवाल्वर दिखाकर उसे धमकाया भी कि सीधा हो जाये। परन्तु मुझे तब ही महसूस हो गया था कि मेरी धमकी की वो परवाह नहीं कर रहा और आज उसने कॉलेज से चिंकी का अपहरण कर लिया। पहली मुलाकात में ही मैंने ये बात भांप ली थी कि मदन बे-सब्र इन्सान है, वो सब कुछ जल्दी से जल्दी कर लेना चाहता है। अब एक रात बीती और उसने ये सब कर दिया।"
"अभी मदन की गर्दन पकड़ते हैं, वो इस वक्त अपने बंगले पर है क्या?" जगमोहन ने पूछा।
"ये ऐसी लड़ाई नहीं कि हम मदन की गर्दन पकड़ें।"
"तो?"
"ये शरीफ लोगों की, कमीनेपन से भरी लड़ाई है, इसका जवाब भी हमें, शराफत से, कमीनेपन से ही देना होगा।"
"मैं समझा नहीं।”
"मदन के पास परिवार के नाम पर उसकी पत्नी और बेटा हैं। पत्नी इस वक्त बंगले पर ही होनी चाहिये। जबकि उसका बेटा विजय इस वक्त डायमंड हाऊस शोरूम में बैठा बिजनेस संभाल रहा होगा। इस बात के चांस कम हैं कि मदन इस वक्त बंगले पर होगा। वो चिंकी के पास मौजूद होगा। हम बंगले पर पहुँचकर उसकी पत्नी को अपने कब्जे में लेंगे।"
"ओह ।"
“तब मदन से बात होगी। देखेंगे कि चिंकी को छोड़ने के लिए वो क्या कहता है।" देवराज चौहान ने कहा।
“ये तो हल्की लड़ाई है। हमें मदन पर हाथ डालना चाहिये। "
“देखते हैं। जरूरत पड़ी तो सब कुछ किया जायेगा। पहले इस छोटी शुरूआत को अंजाम देते हैं।"
“मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं हूँ।"
“ये रिश्तों की लड़ाई है। मदन मुझे सुरेन्द्रपाल नहीं, सूरज ही समझ रहा है। तभी तो उसने चिंकी का अपहरण किया कि इस तरह मुझ पर दबाव डालकर वो बंगला अपने नाम लिखवा लेगा। मदन पेशेवर मुजरिम नहीं है। वो बस टेढ़ा इन्सान है और अपनी अकड़ जमा रहा है। उसके पास पैसा है और उसने किराये पर गुण्डे लेकर, चिंकी का अपहरण कर लिया। मेरे ख्याल में वो इतने में सीधा हो जायेगा, जब उसे पता चलेगा कि उसकी पत्नी मेरे कब्जे में है।"
“तुम्हारा मतलब कि मदन के सामने जाकर, हवाई फायर भी करें तो उसकी फूंक निकल जायेगी?" जगमोहन ने कहा।
“मेरा मतलब है कि चिंकी को वापस लेने में हमें कोई परेशानी नहीं आने वाली।”
जगमोहन कुछ पल चुप रहकर बोला---
"नोरा इस बारे में क्या कहती है?"
"उसे चिंकी की चिन्ता है। वो मदन को बंगला देने को तैयार है।" देवराज चौहान ने कहा।
"दो सौ करोड़ का बंगला इस तरह तो किसी को दिया नहीं जाता।" जगमोहन ने गहरी साँस ली।
“सूरज बेहद शरीफ इन्सान लगता है। वो किसी झगड़े को नहीं निपटा सकता।”
“तभी वो घर से गायब हो गया?”
“हाँ। उसका ख्याल रहा होगा कि वो सामने नहीं रहेगा तो मदन बंगला भी नहीं ले सकेगा।”
“ये तो कोई बात नहीं हुई। कोई इस तरह अपना घर छोड़कर भी जाता है क्या?”
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।
जगमोहन कार दौड़ाता रहा। एक घंटे में वो लोग चैम्बूर जा पहुँचे। सात नम्बर बंगला तलाश करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आई। ये दो-मंजिला बंगला था। चारदीवारी के भीतर पेड़ खड़े दिख रहे थे। सड़क के किनारे ही बंगलों की कतार नजर आ रही थी। जगमोहन ने कार को सीधा बंगले के गेट के पास ले जा रोका।
देवराज चौहान जगमोहन को बता चुका था कि आगे काम कैसे करना है।
बड़े से गेट के भीतरी तरफ चौकीदार स्टूल पर बैठा दिखा। दोनों कार से निकलकर, गेट के पास पहुँचे। चौकीदार फौरन स्टूल से उठा और गेट खोलते देवराज चौहान से मुस्करा कर बोला---
“राम-राम छोटे मालिक।”
देवराज चौहान के मस्तिष्क को झटका लगा। वो तो सोच रहा था कि बंगले के भीतर जाने के लिए तरकीब लगानी पड़ेगी। परन्तु चौकीदार ने उसे सूरज के तौर पर पहचान लिया था।
यानि कि सूरज, मदन के बंगले पर आ चुका है।
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान चौकीदार को देखकर मुस्कराया फिर बोला---
"चाचा भीतर हैं?"
"वो नहीं हैं मालिक। मेमसाहब हैं।"
देवराज चौहान ने सिर हिलाया और जगमोहन के साथ भीतर प्रवेश कर गया। बाईं तरफ पोर्च नजर आया, जहाँ दो कारें खड़ी दिखीं। दोनों उसी तरफ बढ़ गये।
"चौकीदार ने तुम्हें सूरज समझा।" जगमोहन बोला।
“हाँ। इस बात का हमें फायदा मिलेगा। कोई रोक-टोक नहीं।"
पोर्च के पास प्रवेशद्वार खुला मिला तो दोनों भीतर प्रवेश कर गये। सामने ड्राईंग हाल था। ये बंगला, सूरज के बंगले से काफी छोटा था। हर तरफ सजावट दिख रही थी। तभी एक तरफ से नौकर पास आ गया।
"साहब जी आप.....?" नौकर हाथ जोड़कर बोला--- “आईये....आईये....।”
"चाची कहाँ हैं?" देवराज चौहान बोला।
“अपने कमरे में हैं। आप बैठिये, मैं अभी खबर करता हूँ।" कहकर नौकर चला गया।
देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं।
“मदन की पत्नी को तुम यहाँ नौकरों के सामने तो बंधक नहीं बना सकते।" जगमोहन ने कहा।
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और आगे बढ़कर सोफे पर जा बैठा।
जगमोहन वहीं टहलने लगा। फिर नौकर पानी के साथ आया और बोला---
"मेमसाहब आ रही हैं। तब तक मैं आपके लिए चाय-पानी तैयार करता हूँ।" नौकर चला गया।
दो मिनट ही बीते कि पचास साल की एक औरत वहाँ आ पहुँची। उसने सूट पहन रखा था। चेहरे पर खुशी के भाव थे। वो तेजी से देवराज चौहान की तरफ बढ़ती कह उठी---
“ओह सूरज.... मेरे बेटे। मैं तेरे से मिलने आने ही वाली थी। तेरे चाचा से पता चला कि तू घर आ गया है।" पास आकर उसने देवराज चौहान को अपने गले से लगाया, सिर पर हाथ फेरा--- "कैसा है तू?"
“अच्छा हूँ चाची।"
"नोरा को साथ नहीं लाया?” चाची सुनीता ने पूछा।
"अचानक ही आने का प्रोग्राम बन गया। ये मेरा दोस्त जगमोहन है।"
जगमोहन ने सुनीता को नमस्ते की।
सुनीता ने भी जगमोहन को नमस्ते की, फिर बोली---
"बैठो-बैठो, खड़े क्यों हो?"
देवराज चौहान और जगमोहन बैठ गये।
"नीरज और श्रेया कैसे हैं?" सुनीता ने पूछा--- उन्हें देखे काफी देर हो गई। "
"मैं इसी सिलसिले में आपसे बात करने आया था।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्या बात?"
"चाचा मेरा बंगला लेना चाहते हैं।" देवराज चौहान ने सारी बात बताई।
सुनीता गम्भीरता से सुनती कह उठी---
"कुछ-कुछ तो मुझे भी मालूम है। मैंने तेरे चाचा को बहुत समझाया, परन्तु वो मेरी बात सुनते नहीं हैं।"
"अब चाचा ने बहुत ही गलत काम किया है। आज श्रेया का अपहरण करवा लिया....और मुझे फोन करके कहा कि बंगला उनके नाम कर दूँ, नहीं तो चार दिन बाद वो श्रेया की जान ले लेंगे।" देवराज चौहान बोला।
"ओह! ये तो उन्होंने बहुत बुरा किया।"
"मैं चाहता हूँ आप चाचा को समझायें कि उन्हें श्रेया को छोड़ देना चाहिये और बंगले पर नजर ना रखें।"
सुनीता गम्भीर नजर आने लगी। बोली---
"सूरज! तुम्हें तो पता ही है कि तुम्हारे चाचा मेरी एक नहीं सुनते। जो उनके मन में आता है, वो ही करते हैं। मेरी बात तो वो मानेंगे नहीं। मेरे समझाने का कोई फायदा नहीं होगा।"
"इस वक्त चाचा कहाँ हैं?"
"मैं नहीं जानती।"
"चाची!" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा--- "मैं श्रेया को बचाने के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। चाचा अगर नीचे गिर सकते हैं तो मैं उनसे भी नीचे गिर सकता हूँ। इन बातों का अंत बुरा ही होगा।"
"तुम ही कहो, मैं क्या करूँ? मेरी तो वो सुनते ही नहीं....।" सुनीता आहत स्वर में कह उठी।
देवराज चौहान उठते हुए बोला---
“मैं एक फोन कर लूं।” कहकर देवराज चौहान वहाँ से हटा और मदन का नम्बर मिला दिया।
दूसरी तरफ बेल गई, फिर मदन की आवाज कानों में पड़ी---
"तैयार हो भतीजे, बंगला मेरे नाम करने के लिए?"
"मैं तुम्हारा भतीजा नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ।” देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।
दूर बैठी सुनीता तक आवाज नहीं पहुँच पा रही थी।
“सुरेन्द्रपाल हो या रामपाल। मुझे सिर्फ बंगला चाहिये।"
“तुम वॉल्ट में रखी शिवचंद की दौलत भी हड़प गये। अब तुम्हें बंगले की तरफ नहीं देखना चाहिये।”
“बंगला भतीजे बंगला! वो दो सौ करोड़ का है और 180 करोड़ मैं दे चुका हूँ, समझे ना।"
“तुम्हारी पत्नी मेरे पास है।” देवराज चौहान ने कहा।
“सुनीता?” उधर से मदन ने हैरानी से कहा--- “क्या बकवास कर---।"
“वो मेरे सामने बैठी है। वो कहती है कि, वो तुम्हें नहीं समझा सकती। अब कहो, श्रेया को छोड़ते हो या मैं तुम्हारी पत्नी को शूट करूँ । ये तो सौदा है। तुमने जो कमीनी, गिरी हुई हरकत की है, उसका जवाब है ये---।"
“सूरज, तुम अपनी औकात से.... ।”
“मैं सुरेन्द्रपाल हूँ जिस दिन तुम ये समझ जाओगे, तो कोई भी गलत हरकत नहीं करोगे।”
“सुनीता को छोड़ दो वरना---।"
“सौदा, श्रेया और सुनीता का। श्रेया दो, सुनीता लो।"
उधर से मदन की गहरी साँस लेने की आवाज आई।
कुछ पलों की खामोशी के बाद मदन का स्वर कानों में पड़ा---
“तुम कहाँ हो?”
“तुम्हारे बंगले पर ।"
“म-मेरे बंगले पर ?” मदन अजीब-से स्वर में उधर से बोला--- “तुम मेरे बंगले पर हो?”
“सुनीता मेरे पास बंधक है यहाँ।"
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया---।"
“सुनीता को जिन्दा चाहते हो तो मैं तुम्हें दो घंटे का वक्त देता हूँ। श्रेया को लेकर यहाँ आ जाओ। नहीं तो दो घंटे बाद तुम्हें यहाँ सुनीता की लाश मिलेगी। रिवाल्वर की झलक तो मैंने तुम्हें कल शाम दिखा ही दी थी।"
"तुम पागल हो जो....।"
“तुमने मुझे चार दिन का वक्त दिया था, पर मैं तुम्हें दो घंटे का वक्त दे रहा हूँ। तुम्हारे बंगले पर हूँ। श्रेया के साथ दो घंटों में पहुँचोगे तो अपनी पत्नी को जिन्दा पाओगे। बाद में आओगे तो फिर कभी सुनीता से बात नहीं कर पाओगे।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद किया और सुनीता के पास आकर बोला--- “चाचा को समझाने की चेष्टा की है। अगर बात उनकी समझ में आ जाये, हो सकता है वो अभी यहाँ आ भी जाये।"
“श्रेया को भी साथ ला रहे हैं?” सुनीता ने पूछा।
“नहीं पता।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर थी।
कुछ ही देर में नौकर चाय ले आया। साथ में खाने पीने का सामान भी था।
वे चाय पीने लगे। देवराज चौहान सुनीता से थोड़ी-बहुत इधर-उधर की बात भी कर रहा था।
जगमोहन अभी तक कुछ नहीं बोला।
वक्त बीतने लगा। एक घंटा बीत गया।
“तुम्हारे चाचा अभी तक नहीं आये।" सुनीता बोली।
“कह रहे थे, दो घंटे लग जायेंगे आने में।" देवराज चौहान ने कहा।
दस मिनट और बीते कि दरबान के साथ तीन पुलिस वाले हाल में प्रवेश करते नजर आये।
देवराज चौहान और जगमोहन पुलिस वालों को देखते ही सतर्क हो गये।
“मेमसाहब!” दरबान आगे आता कह उठा--- “मैंने इन्हें रोकने की बहुत चेष्टा की। मैंने कहा भीतर खबर करता हूँ, पर इन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। कहने लगे भीतर गड़बड़ है, हमें खबर मिली है। ये जबर्दस्ती भीतर आ गये।”
देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं।
देवराज चौहान फौरन समझ गया कि मदन ने ही पुलिस को खबर दी है कि उसके घर में कुछ गड़बड़ है।
सुनीता खड़ी हो गई और उलझन भरी नजरों से पुलिस वालों को देखा।
“क्या बात है?" सुनीता ने पूछा--- "आप लोग इस तरह भीतर कैसे आ गये?"
“आप ठीक हैं मैडम?” उनमें से एक सब-इंस्पेक्टर था, उसने पूछा।
“हाँ.... क्यों?" सुनीता ने उसे देखा।
“आपके पति मदन साहब ने खबर दी कि उनके भतीजे ने बंगले पर आपको बंधक बना रखा है।" कहने के साथ सूरज ही सब-इंस्पेक्टर की निगाह देवराज चौहान और जगमोहन की तरफ उठी--- "सूरज कौन है?"
“मैं हूँ।” देवराज चौहान ने कहा।
"इसका मतलब खबर सही है कि तुमने मैडम को बंधक बना रखा है।" सब-इंस्पेक्टर सख्त स्वर में बोला।
“ये गलत है इंस्पेक्टर।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
“मदन साहब आपके साथ नहीं आये?" जगमोहन ने पूछा।
“उन्होंने फोन पर इस बात की खबर पुलिस स्टेशन को दी थी। तो क्या चल रहा है यहाँ....क्यों मैडम?"
सुनीता हैरान सी दिखी।
“इंस्पेक्टर साहब, ये आप क्या कह रहे हैं? सूरज तो मेरे बेटे जैसा है। ये मुझे बंधक क्यों बनायेगा?" सुनीता बोली।
“आपका मतलब कि आपके पति ने गलत कहा कि इसने आपको बंधक बना रखा है?"
“उनका दिमाग खराब हो गया है जो उन्होंने ऐसा कहा। यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है।" सुनीता ने हाथ हिलाया--- “आप जाईये।”
“पक्का मैडम? सब ठीक है?"
“सब ठीक है।"
सब-इंस्पेक्टर ने देवराज चौहान को देखकर कहा---
“आपका नाम सूरज है?"
“हाँ।”
“लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैंने आपको कहीं देख रखा है पहले भी....।”
देवराज चौहान और जगमोहन मन-ही-मन सतर्क हो गये।
दिखावे के तौर पर देवराज चौहान मुस्करा कर बोला---
“हो सकता है राह चलते कहीं देखा हो।"
“हम पुलिस वाले हैं। राह चलते का चेहरा याद नहीं रखते। हमें वो ही याद रहते हैं, जो अपराधी होते हैं। तुम कभी कोई अपराध किया था?"
“इंस्पेक्टर।" सुनीता तेज स्वर में कह उठी--- "ये आप कैसी बातें कर रहे हैं? सूरज साहब मशहूर डायमंड व्यापारी शिवचंद के बेटे हैं।"
सब-इंस्पेक्टर ने सिर हिलाया फिर बोला---
“पर इन साहब को मैंने कहीं देखा है।"
“आज के बाद आप ये बात नहीं कहेंगे।" जगमोहन ने कहा।
"क्यों ?"
“क्योंकि अब तो आपने सूरज को अच्छी तरह देख लिया है।" जगमोहन शांत दिखा।
"आप कौन हैं?”
“सूरज का दोस्त हूँ।” जगमोहन बोला--- "क्या मुझे भी आपने कहीं देखा है पहले?"
सब-इंस्पेक्टर ने सिर हिलाया और अपने पास खड़े हवलदार और सिपाही से कहा---
"चलो।"
वो दोनों पलट कर चल दिए।
“सब ठीक है ना मैडम?" सब-इंस्पेक्टर ने सुनीता से फिर पूछा।
"हाँ-हाँ, ठीक है। आप शक क्यों कर रहे हैं?"
"फिर भी सावधानी के तौर पर हम तब तक बाहर गेट पर मौजूद रहेंगे जब तक कि सूरज साहब चले नहीं जाते।"
“ये क्या मतलब हुआ? आप इस तरह मेरे बंगले के गेट पर खड़े नहीं रह सकते।"
“सावधानी के तौर पर आपको एतराज नहीं होना चाहिये। मदन साहब को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ। उनका काम करके मुझे खुशी होगी। अगर आप चाहती हैं कि पुलिस वाले बाहर ना रहें तो इन्हें यहाँ से जल्दी रुखसत कर दें।"
"ये क्या मतलब हुआ?"
तब तक सब-इंस्पेक्टर पलट कर बाहर निकलता चला गया। उसके साथ दरबान भी चला गया।
चंद पल के लिए वहाँ खामोशी-सी आ ठहरी।
“चाची.... ।” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- “देख लिया चाचा क्या खेल, खेल रहे हैं।"
"उनका तो दिमाग चल गया लगता है। ऐसी गलत बात वो कैसे कह सकते हैं....।"
"मुझे कहा कि वो श्रेया को लेकर आ रहे हैं, पर उन्होंने पुलिस भेज दी।"
"मैं तुम्हारे चाचा से आज बात करूँगी कि श्रेया को छोड़ दें। बंगले के बारे में भी कोई बात ना करें। हमें किस चीज की कमी है। बहुत पैसा है....और एक ही औलाद है। फिर ये सब काम किसलिए?" सुनीता ने गम्भीर स्वर में कहा।
“सारा बिजनेस भी चाचा ने हेराफेरी करके हड़प लिया है।"
"ये बातें तुम लोग ही जानो, मैं इस तरफ कभी ध्यान देती भी नहीं। पर तेरे चाचा से आज बात जरूर करूँगी।"
“पापा (शिवचंद) ने वॉल्ट में, चाचा के केबिन में काफी बड़ी दौलत रखवाई थी, पर पापा की मौत के बाद चाचा कहने लगे कि उनके पास पापा का एक पैसा भी नहीं है। जबकि पापा ने मुझे सब कुछ बता रखा था।"
"तुम्हारे चाचा मेरी नहीं सुनते.... मैं.... ।”
"चाचा ने कौन से वॉल्ट में केबिन ले रखा है?"
“लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में। वो दादर इलाके में पड़ता है।" सुनीता ने सामान्य स्वर में बताया।
"केबिन नम्बर क्या है?"
जगमोहन ने तुरन्त देवराज चौहान को देखा।
“नम्बर नहीं मालूम। एक बार बताया था, भूल गई, पर शायद डायरी में लिखा था।”
“मुझे केबिन नम्बर बताओ।” देवराज चौहान ने कहा।
“तुम ये सब क्यों पूछ रहे हो?" सुनीता ने एकाएक पूछा ।
“पापा ने मुझे बता रखा था लेकिन अब मुझे भी याद नहीं आ रहा। तुम डायरी देखकर बताओ चाची।" देवराज चौहान बोला।
“लेकिन तुम केबिन नम्बर क्यों जानना चाहते.... ।”
"चाची! उसमें मेरी दौलत रखी है। वो मुझे बेशक ना मिले, पर केबिन नम्बर तो जानने का हक रखता हूँ।”
“देखती हूँ डायरी में।” इसके साथ ही सुनीता उठी और वहाँ से चली गई।
देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता थी ।
“तुम क्या करने की सोच रहे हो?" जगमोहन ने आँखें सिकोड़ कर पूछा।
"इस वक्त तुम जो सोच रहे हो, वो सही है।" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"तो तुम वॉल्ट में डकैती करोगे?"
"हाँ।"
"हमें क्या जरूरत है डकैती करने की....हम...।"
"मैं मदन को खाली कर दूंगा। सारा पैसा सूरज के पास जायेगा। वो पैसा मदन का है ही नहीं। उसने बिजनेस भी हड़प लिया है। मदन जैसे इन्सान को झटका देना जरूरी है।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।
“लेकिन...।"
"मदन खुराफाती इन्सान है। यहाँ आने की अपेक्षा उसने पुलिस भेज दी। मान लो अगर हमने सच में सुनीता को बंधक बना रखा होता तो उस स्थिति में पुलिस के साथ हमारा झगड़ा हो जाता या हममें से कोई पकड़ा भी जाता।" देवराज चौहान ने कहा--- "वो आसानी से मानने वाला नहीं। वो हमसे खेलने की कोशिश कर रहा है तो उसे खेल दिखा देते है हम।"
"पर इस वक्त मामला तो श्रेया का....।"
"श्रेया की तलाश तुम करोगे। मदन पर नजर रखोगे। वो जरूर श्रेया के पास जायेगा। अपनी सहायता के लिए सोहनलाल को बुला लो। मदन घिसा हुआ अपराधी नहीं है जो श्रेया की हवा भी हमें नहीं लगने दे। एक-दो दिन में श्रेया हमें मिल जायेगी।"
“और तुम डकैती की तैयारी करोगे?" जगमोहन गम्भीर दिखा।
"हाँ। लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट की छानबीन करूंगा कि कैसे काम को अन्जाम दिया जाये।"
"लेकिन वॉल्ट के केबिन में रखी सारी दौलत तो सूरज की है नहीं। उसमें मदन की दौलत भी रखी होगी।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"हम सारी दौलत क्यों सूरज को दें?" जगमोहन ने कहा।
“नोरा ने बताया था कि वॉल्ट में शिवचंद ने करीब पचास करोड़ की दौलत रखी थी।" देवराज चौहान बोला।
"तो पचास करोड़ उनके, बाकी हमारे। इस सिरदर्दी का कुछ फायदा तो हमें भी मिलना चाहिये।"
"ये बाद की बातें हैं। तुम सोहनलाल के साथ, मदन पर नजर रखो। हमें श्रेया की वापसी हर हाल में चाहिये। मदन श्रेया से मिलने जाता रहेगा। ये बात हमेशा याद रखना। श्रेया तक पहुँचना हमारे लिए ज्यादा कठिन नहीं है।"
तभी सुनीता वहाँ आ गई।
"सूरज बेटा, वॉल्ट में केबिन नम्बर एक सौ बारह तुम्हारे चाचा का है।" सुनीता ने बताया।
"एक सौ बारह....।" देवराज चौहान ने दोहराया।
"हाँ।"
"लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में?"
सुनीता ने सिर हिलाया, फिर बोली---
"बैठो, खाना खाकर जाना।"
"नहीं। मुझे और भी काम हैं चाची।" देवराज चौहान ने कहा--- "फिर आऊँगा।"
"आज तुम्हारे चाचा को समझाने की पूरी कोशिश करूंगी बेटा कि वो कोई गलत काम ना करें।"
देवराज चौहान और जगमोहन बाहर आ गये।
गेट पर दरबान के अलावा तीनों पुलिस वाले और उनकी दो मोटरसाईकिल खड़ी थी।
उनके पास पहुँचते ही सब-इंस्पेक्टर देवराज चौहान से कह उठा।
“मैं अभी तक ये ही सोच रहा हूँ तुम्हें कहाँ देखा है।"
“सोचते रहो।" कहकर देवराज चौहान आगे बढ़ने को हुआ।
“रुको-रुको, मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई।" सब-इंस्पेक्टर कह उठा।
देवराज चौहान ने ठिठक कर सब-इंस्पेक्टर को देखा।
जगमोहन सतर्क हो चुका था।
"मैंने पहले भी कहा है कि हम पुलिसवाले खामखाह किसी को याद नहीं रखते। कोई बात तो होगी जो तुम जाने से लग रहे हो....।”
“मैं तुम्हारी परेशानी को हल नहीं कर सकता।” देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर कहा।
"या करना नहीं चाहते ?"
"क्या मतलब?"
"तुमने कोई क्राईम किया हो, पर इस वक्त बता नहीं रहे। ऐसा कुछ है क्या?"
“नहीं।" देवराज चौहान ने उसकी छाती पर लगी नाम की पट्टी देखी।
वो अशोक मावेलकर था। सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर।
"सच में तुम्हारा नाम सूरज है?"
"हाँ इजाजत हो तो जाऊँ?"
"तुम्हारे पास सूरज के नाम का कोई पहचान-पत्र या लाइसेंस, ऐसा कुछ भी जेब में है?"
"इस वक्त तो नहीं है। जरूरत हो तो मेरे बंगले पर चलो सब दिखा देता हूँ।"
"जाने क्यों....।” सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर सिर हिलाकर बोला--- “तुम्हें देखकर, मुझे एक ऐसी देखी तस्वीर याद आने लगी है जो दो साल पहले देखी थी। वो तस्वीर डकैती मास्टर देवराज चौहान की थी।"
देवराज चौहान के सिर को तीव्र झटका लगा।
जगमोहन के शरीर में तनाव भरता चला गया।
"मुझे लगता है जैसे तस्वीर का चेहरा तुमसे मिलता हो।"
“तुम्हारा मतलब कि मैं डकैती मास्टर देवराज चौहान हूँ?” देवराज चौहान मुस्कराया।
“नाम सुना है देवराज चौहान का?”
“हाँ....।”
सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर ने गहरी साँस ली। देवराज चौहान को देखता रहा।
“कुछ समझ में नहीं आता....।" सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर बोला--- “तुम मदन साहब के भतीजे हो। उनकी पत्नी ने भी इस बात को स्वीकारा है। ऐसे में तुम डकैती मास्टर तो हो नहीं सकते। तुम इतने हौंसलामंद लगते भी नहीं।"
देवराज चौहान दरबान की तरफ पलट कर बोला---
“इंस्पेक्टर साहब को बताओ कि मैं कौन हूँ....।”
“आप मालिक के भतीजे सूरज साहब हैं।” दरबान ने तुरन्त कहा।
“मैं कितनी बार यहाँ आया हूँ?”
"कई बार साहब जी ।”
देवराज चौहान सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर को देखकर बोला---
“सुना तुमने? कोई और शंका बाकी हो तो मेरे बंगले पर आ जाना।” कहकर देवराज चौहान कार की तरफ बढ़ गया।
जगमोहन साथ था ।
दोनों कार में बैठे और कार आगे बढ़ गई।
"मदन ने तो हमें मुसीबत में डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बुरे बचे।" जगमोहन ने गहरी साँस ली।
"अगर मैं कुछ देर और उसके पास रुकता तो, उसका शक जरूर यकीन में बदल जाता कि मैं ही देवराज चौहान हूँ।"
"ये सब-इंस्पेक्टर खतरा बनकर फिर सामने आ सकता है। क्या पता बंगले पर आ जाये।" जगमोहन ने कहा।
"कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मैं सूरज हूं, ये साबित करने के लिए बंगले पर बहुत सामान होगा।"
"मेरा दिल अभी भी रफ्तार से दौड़ रहा है।"
“कार को किनारे पर रोक दो।" देवराज चौहान ने कहा।
जगमोहन ने कार को सड़क के किनारे रोक कर देवराज चौहान को देखा।
"तुम्हें मैं बता चुका हूँ कि तुम्हें क्या करना है।” देवराज चौहान बोला ।
“मदन की निगरानी.... ।”
“हाँ। सोहनलाल को बुला लो। सारा मामला उसे समझा देना। बारी-बारी दिन-रात मदन पर नजर रखना। वो जहाँ भी जाये, तुम्हें और सोहनलाल को पता होना चाहिये कि वो कहाँ है। हमारी जरूरत श्रेया है। मदन श्रेया के पास भी जरूर जायेगा। मदन कच्चा खिलाड़ी है। वो नहीं समझ पायेगा कि उस पर नजर रखी जा रही है। फिर भी तुम दोनों ने सावधानी से उस पर नजर रखनी है। वो जहाँ जाये, तुम लोगों ने भीतर नहीं जाना है। मुझे खबर करनी है।"
“और तुम वॉल्ट के बारे में जानकारी हासिल करोगे?”
“हाँ।” देवराज चौहान गम्भीर दिख रहा था ।
“सोच लो। वॉल्ट में डकैती से मामला बड़ा हो जायेगा।" जगमोहन ने कहा।
"मैं मदन को सबक सिखाना चाहता हूँ। उसने खुद आने की अपेक्षा पुलिस भेज दी। ज्यादा होशियार बनता है वो। अब इसका नतीजा तो उसे भुगतना ही होगा। वॉल्ट के केबिन में, 112 नम्बर केबिन में मौजूद पचास करोड़ की दौलत सूरज की है। जो कि उसने दबा ली है। अब ये दौलत उसके हाथ से जायेगी।"
"पचास करोड़ से ऊपर की दौलत हम इस मामले की मेहनत समझ कर रख लेंगे। तब जाकर मदन के होश उड़ेंगे।”
देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला और बाहर निकलकर बोला---
"वापस मदन के बंगले पर जाओ। पुलिसवाले चलें गये होंगे। तुम दूर रहकर बंगले पर नजर रखो और मदन के आने का इन्तजार करो। जब वो नजर में आये तो उसके बाद वो नजरों में ही रहे। सोहनलाल से फोन पर बात कर लेना।"
जगमोहन ने सिर हिलाया और कार को आगे बढ़ा दिया।
देवराज चौहान ने दादर जाने के लिए, टैक्सी के वास्ते नजरे सड़क पर दौड़ाईं।
तभी फोन बज उठा। देवराज चौहान ने कॉल रिसीव की। दूसरी तरफ मदन था।
"कहो....।"
"तुम्हारी प्लानिंग तो फेल हो गई भतीजे....।" दूसरी तरफ से मदन का हंसी भरा स्वर सुनाई दिया।
“तुमने पुलिस को वहाँ भेजकर बहुत गलत किया। मैं...।" देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया था।
“मुझे अफसोस है कि पुलिस वाले तुम्हें रंगे हाथ नहीं पकड़ सके। सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर ने फोन पर मुझे बताया कि सुनीता ने कहा, तुमने उसे बंधक नहीं बनाया। ऐसा कैसे हुआ? तुम तो कह रहे थे कि सुनीता तुम्हारे पास बंधक है।"
“वो बंधक नहीं थी । "
“तुमने चालाकी से काम लिया। सोचा कि मैं डरकर श्रेया को तुम्हारे हवाले कर दूंगा।" मदन फिर उधर से हंसा--- "मेरे सामने तू दूध पीता बच्चा है सूरज । तू मेरा कुछ भी नहीं कर सकता। चुपचाप बंगला मेरे हवाले कर दे।"
“इतना ज्यादा हजम नहीं कर पायेगा मदन।" देवराज चौहान ने कड़वे स्वर में कहा।
“तुम दो तो । हजम मैं कर लूंगा। श्रेया जिन्दा चाहिये कि नहीं?"
“उसे कुछ हुआ तो मैं तेरे हजारों टुकड़े कर दूंगा।" देवराज चौहान गुर्राया ।
“मैं जानता हूँ तुझे अपनी बहन से बहुत प्यार है। तभी तो आज वो मेरे पास है। मैं ये भी जानता हूँ कि चार दिन तू हाथ-पाँव मारकर, थककर बंगला मेरे नाम कर देगा। याद रखना, चार दिन का वक्त दिया है तुझे। आज पहला दिन बीत जायेगा। तेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है। श्रेया तो हर वक्त भैया-भैया कहती रहती है। तेरे को उसकी याद नहीं आती क्या?"
देवराज चौहान के दाँत भिंच गये।
"चार दिन में तूने मेरे हक में फैसला नहीं किया तो पांचवें दिन श्रेया तुझे मिल जायेगी। लेकिन वो जिन्दा नहीं होगी।"
“तू मेरे हाथों से मरेगा।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।
उधर से मदन हँसकर रह गया, फिर बोला---
"तेरी चाची ने बताया कि तूने वॉल्ट का लॉकर नम्बर पूछा। क्यों पूछा, क्या करेगा जानकर? वो तो मेरे नाम है और वहाँ तगड़ी सिक्योरिटी है। कहीं मेरा माल चोरी करने का इरादा तो नहीं है?" मदन की आवाज में कड़वापन था--- "तेरे बस का कुछ नहीं है। तू कुछ नहीं कर सकता। चुपचाप बंगला मेरे हवाले कर दे, नहीं तो श्रेया.....।"
"दादर का लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट है ना?" देवराज चौहान के स्वर में गजब का तीखापन था।
“हाँ, तुम क्या.....।"
“उसमें 112 नम्बर केबिन तुम्हारा है, ठीक ?”
"सही कहा भतीजे.....।" उधर से मदन ठहाका लगा उठा।
“सूरज के पिता शिवचंद की पचास करोड़ की दौलत उसी में रखी थी तुमने?”
“चल ऐसा ही सही। बड़े भैया की दौलत उसी में है। बोल, क्या करेगा तू? तू क्या.....।"
"वक्त का इंतजार कर।"
“श्रेया की चिन्ता कर। वरना चार दिन बाद....।"
देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया। आँखों में दरिन्दगी मचल रही थी।
■■■
देवराज चौहान दादर पहुँचा।
दादर में लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट ढूंढने में उसे कोई परेशानी नहीं हुई। सड़क के किनारे इमारतों की कतार नजर आ रही थी। वॉल्ट की इमारत उन्हीं के बीच में से एक थी। जो कि अन्य इमारतों से बड़ी नजर आ रही थी। उसका माथा अन्य इमारतों से डबल से भी ज्यादा था। वो दो मंजिला इमारत थी और पुरानी बनी दिख रही थी, परन्तु उसकी पर्याप्त देख-रेख की जाती थी, जिसकी वजह से वो नई जैसी दिख रही थी। यूँ भी वो प्राईवेट वॉल्ट की इमारत थी तो यकीनन उसमें कई खास गुण होंगे, जिन्हें कि आम आदमी नहीं समझ सकता था।
इमारत की पहली मंजिल के माथे पर 'लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट' का छोटा-सा बोर्ड लगा हुआ था। बाहरी दीवारें बारह फीट ऊँची थीं। दीवारों के ऊपर कांटेदार तारें भी लगी थीं जो कि छल्ले की तरह गोल-गोल दीवार की मुंडेर पर टिकी हुई थीं। उन्हें पार कर पाना असम्भव सा काम था
दीवार के बीच लगा बाहरी गेट लोहे का सलाखों वाला मजबूत गेट था। जिसकी ऊँचाई दीवार की ऊँचाई के बराबर थी। गेट की चौड़ाई पन्द्रह फीट थी। बाईं तरफ वाले पल्ले में छोटा-सा विकेट गेट था, गेट खोले बिना अन्दर-बाहर आने-जाने के लिए।
गेट के बाहरी तरफ एक गनमैन खड़ा था।
भीतरी तरफ दो गनमैन टहलते नजर आ रहे थे।
एक गनमैन की झलक देवराज चौहान को वॉल्ट की इमारत की छत पर भी मिली।
वॉल्ट है तो इसकी सुरक्षा के प्रबन्ध भी तगड़े ही होंगे। देवराज चौहान जानता था ।
वॉल्ट के दाँये-बाँये इमारतें थीं। देवराज चौहान जानना चाहता था कि वॉल्ट के पीछे की तरफ क्या है। उसने कार को कुछ दूर पार्क किया और लम्बा चक्कर काट कर वॉल्ट के पीछे की तरफ पहुँचा।
पीछे भी सटी हुई इमारतें थीं। वॉल्ट के पीछे वाली इमारत में फ्लैट बने हुए थे। उसमें लोग रह रहे थे। बाहरी गेट पर चौकीदार था, जो कि अपने काम के प्रति पूरी तरह लापरवाह दिख रहा था। देवराज चौहान फ्लैटों वाली इमारत के भीतर प्रवेश कर गया। नीचे पार्किंग बनी थी। कुछ कारें, वाहन भी खड़े थे। वो पीछे की तरफ पहुँचा जहाँ लक्ष्मीचंद वॉल्ट की इमारत की पीठ थी।
परन्तु वहाँ सिर्फ दीवार ही दिखी जो ऊपर तक उठी हुई थी।
यानि कि वॉल्ट की इमारत पीछे से पूरी तरह बंद थी।
वहाँ से निकलकर देवराज चौहान लम्बा चक्कर काटकर पुनः इमारत के सामने पहुँचा। अब तक उसे इतना महसूस हो गया था कि वॉल्ट की इमारत पाँच सौ गज की जगह में बनी हुई है। पाँच सौ गज में बना वॉल्ट छोटा वॉल्ट माना जाता है और छोटी जगह पर सुरक्षा के प्रबन्ध खुद-ब-खुद ही मजबूत होते चले जायेंगे। देवराज चौहान ने वॉल्ट की इमारत को दाँये-बाँये जाँचने की चेष्टा की।
उसे लगा कि इमारत के दाँये-बाँये भी ऊँची दीवारें खड़ी कर रखी हैं।
यानि कि इमारत पीछे और दाँये-बाँये से पूरी तरह बंद थी।
वॉल्ट में जाने और आने का रास्ता सामने की तरफ से था। ये सब बातें सुरक्षा के लिहाज से मजबूती पैदा करती थी।
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली और दूर खड़ा सोच भरी नजरों से वॉल्ट की इमारत को देखने लगा। मन में सिर्फ एक ही बात उठ रही थी कि मदन का एक सौ बारह नम्बर केबिन दूसरी वॉल्ट में है। उस केबिन में रखी दौलत को पाने के लिए भीतर कैसे पहुंचा जाये ? रास्ता बने तो कैसे बने?
सबसे पहले वॉल्ट की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में जानना जरूरी था।
देवराज चौहान दिमाग को दौड़ा रहा था कि फोन बजने लगा।
दूसरी तरफ नोरा थी।
"हैलो।" देवराज चौहान ने कॉल रिसीव की ।
"तुम कहाँ हो?" नोरा के स्वर में बेचैनी के भाव थे।
"कुछ नया हुआ क्या?" देवराज चौहान ने पूछा।
"नया.... नहीं....मैं श्रेया के बारे में चिन्तित हूँ। इतनी देर से तुम गये हो, तुम्हारा फोन भी नहीं आया ।"
"श्रेया की चिन्ता मत करो। वो वापस मिल जायेगी।" देवराज चौहान ने कहा।
“लेकिन तुम कर क्या रहे हो?"
"श्रेया को ढूँढ रहा हूँ।"
“श्रेया को ढूँढ रहे हो? क्या इस तरह तुम श्रेया को ढूँढ लोगे? नहीं, ये ढंग ठीक नहीं है। जब मैं तैयार हूँ कि मदन को बंगला दे दो तो तुम्हें क्या एतराज है? अभी सूरज का फोन भी आया था।"
“कब?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"अभी, दस मिनट पहले। सूरज भी चाहता है, बंगला, मदन को देकर श्रेया को वापस ले लें।"
“तुम और सूरज घबराये हुए हो। जल्दी में गलत फैसला ले रहे हो। मैं....।"
“मुझे श्रेया वापस....।”
"मदन ने चार दिन का वक्त दिया है। तब तक मैं श्रेया को वापस नहीं ला सका तो जैसा तुम और सूरज चाहते हो, वैसा ही करूँगा। परन्तु ये चार दिन वक्त मुझे दे दो।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।
"तुम वक्त खराब कर रहे...।"
“मैं रात को तुम्हारे पास आऊँगा, जो भी बात करनी हो, तब करना।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद किया।
कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर वॉल्ट की तरफ बढ़ने लगा।
दो मिनट में ही वो वॉल्ट के गेट पर था।
गेट के बाहर खड़े गनमैन ने उसे सवालिया नजरों से देखा।
“भीतर जाना है।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा।
“क्यों?" गनमैन ने पूछा।
"केबिन किराये पर लेना है।”
गनमैन ने देवराज चौहान को सिर से पाँव तक देखा, फिर गेट के भीतर मौजूद गनमैनों से बोला---
"सर ने वॉल्ट का केबिन लेना है।"
“भेज दो भीतर।" भीतरी गनमैन ने कहा और विकेट गेट के पास आ खड़ा हुआ।
“जाईये।” गनमैन ने विकेट गेट खोला।
देवराज चौहान झुकते हुए भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर दो गनमैन थे। एक मुस्तैदी से खड़ा रहा जबकि दूसरा देवराज चौहान से बोला ।
“आप मेरे साथ आईये।”
देवराज चौहान उसके साथ आगे बढ़ गया।
पन्द्रह कदमों की दूरी पर एक जगह रिसैप्शन का छोटा-सा बोर्ड लगा दिख रहा था।
गनमैन देवराज चौहान को रिसैप्शन रूम में ले गया।
भीतर दो व्यक्ति मौजूद थें। टेबलों के पीछे कुर्सियों पर बैठे थे। गनमैन ने उन्हें बताया कि ये सर वॉल्ट में केबिन किराये पर लेना चाहते हैं। कहकर वो वापस चला गया।
दोनों व्यक्तियों में से एक चालीस साल का था। दूसरा पचास का लग रहा था ।
“बैठिये सर।” पचास बरस के व्यक्ति ने कहा--- “मेरा नाम दीपक महावत है। मैं वॉल्ट का मैनेजर हूँ।"
“थैंक्स।” देवराज चौहान मुस्कराया--- "मेरा नाम सुरेन्द्रपाल है।" देवराज चौहान बैठ गया।
चालीस बरस वाला व्यक्ति शांत नजरों से देवराज चौहान को देख रहा था।
“तो आप वॉल्ट का केबिन किराये पर लेना चाहते हैं?" दीपक महावत बोला--- "वैसे तो हमारा वॉल्ट ज्यादा बड़ा नहीं है। इसलिये हमारे केबिन, लॉकर सब फुल रहते हैं। परन्तु इस वक्त दो केबिन खाली हैं। पिछले महीने ही खाली हुए हैं।"
“मुझे यहाँ पर आपकी सिक्योरिटी नजर नहीं आ रही?" देवराज चौहान ने कहा।
"सिक्योरिटी ?”
“वॉल्ट की सुरक्षा के लिए कम लोग हैं यहाँ। तीन गेट पर हैं, इसके अलावा कोई नहीं दिखा।"
“सिक्योरिटी की आप चिन्ता मत करें।” दीपक महावत मुस्कराया--- “वो हमारा काम.... ।”
“मुझे क्यों नहीं चिन्ता होगी?” देवराज चौहान बोला--- "मैं केबिन में कीमती माल रखने वाला हूँ। ऐसे में मैं वहीं पर अपना सामान रखूंगा जहाँ मुझे सबसे ज्यादा सुरक्षित जगह मिलेगी। मदन ने मुझे कहा कि ये जगह सुरक्षित है।”
“कौन मदन ?”
"डायमंड हाऊस वाले मदन। वो मेरा दोस्त है।"
“ओह, मदन साहब।” दीपक महावत ने सिर हिलाया--- “उन्होंने आपको भेजा है....। वो हमारे पुराने कस्टमर हैं।”
“लेकिन यहाँ केबिन लेने से पहले सुरक्षा के मामले में अपनी तसल्ली चाहता हूँ।” देवराज चौहान ने कहा।
“मैं आपका कोई आई-डी प्रूफ देख सकता हूँ? जैसे कि वोटर आई-डी या लायसेंस या आधार कार्ड...?”
“क्यों नहीं।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने सुरेन्द्रपाल के नाम वाला लायसेंस निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया।
दीपक महावत ने लायसैंस को चैक किया, फिर चालीस वर्षीय व्यक्ति की तरफ सरका दिया।
दूसरे व्यक्ति ने भी गौर से लायसेंस को देखा।
देवराज चौहान शांत बैठा रहा।
उसने लायसेंस देवराज चौहान की तरफ बढ़ा दिया।
देवराज चौहान ने लायसेंस वापस जेब में डाला।
"आप क्या काम करते हैं?" दीपक महावत ने पूछा।
“इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का बिजनेस है। मैं यहाँ केबिन किराये पर लेने आया हूँ, अपने बारे में ज्यादा नहीं बताना चाहता।"
“आप अपनी जगह सही हैं सुरेन्द्रपाल जी। लेकिन हमें भी इस बात की तसल्ली करनी होती है कि हम जिसे केबिन किराये पर दे रहे हैं, वो ठीक व्यक्ति है कि नहीं। वैसे आपने मदन जी का नाम ले लिया, ये ही बहुत है हमारे लिए।"
"मैं यहाँ की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में बात कर रहा था कि जब तक मेरी तसल्ली नहीं होगी, मैं केबिन नहीं लूंगा।"
“आपको मदन जी ने नहीं बताया कि लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट हर तरफ से सुरक्षित वॉल्ट है.... ।”
“मदन ने ऐसा कुछ कहा था परन्तु मैं अपनी तसल्ली आपसे चाहता हूँ।” देवराज चौहान ने कहा।
दीपक महावत ने चालीस वर्षीय व्यक्ति को देखकर कहा---
“सावंत ! तुम सुरेन्द्रपाल जी को समझा दो।”
चंद पल चुप रहकर सावंत नाम का व्यक्ति बोला---
“मैं यहाँ का सिक्योरिटी चीफ सावंत हूँ।"
“आपसे मिलकर खुशी हुई।” देवराज चौहान ने उससे हाथ मिलाया ।
“हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी मजबूत है कि वॉल्ट के मालिक भी सुरक्षा व्यवस्था की इजाजत के बिना भीतर नहीं जा सकते। आप गेट के बाहर थे और हमें आपके आने की खबर मिल गई। यहीं बैठे-बैठे हमने आपका चेहरा भी देख लिया था। गेट पर हुई आपकी बातें भी हमने सुन ली थीं।” सावंत ने कहा।
“अच्छा! वो कैसे?”
“ये हम नहीं बता सकते। ये ही तो हमारी सिक्योरिटी है। गेट से आप वहाँ तक आये तो आपको कोई भी नहीं दिखा। ये ही कह रहे थे ना आप, लेकिन दस से ज्यादा लोगों की नजरें आप पर थीं। उन सबके हाथों में हथियार थे। आप कोई भी गलत हरकत करते तो आप बचते नहीं। अब ये मत पूछियेगा कि वो आदमी कहाँ पर थे। आपको तो दिखे नहीं। इन बातों को गुप्त रखना हमारी सुरक्षा का हिस्सा है। दिन में इस वॉल्ट की छत पर एक गनमैन मौजूद रहता है, नीचे और आसपास रहता है, जबकि रात होने पर छत पर तीन गनमैन होते हैं और छः गनमैन नीचे भी नजर आने लगते हैं। वॉल्ट की इमारत तीन तरफ से बंद है। इसलिए सुरक्षा व्यवस्था की जरूरत सिर्फ सामने से है। सामने की तरफ बीस कैमरे लगे हैं जिन्हें कि वॉल्ट के भीतर से तीन आदमी चौबीसों घंटे वॉच करते हैं। हमारी सिक्योरिटी का कंट्रोल रूम वॉल्ट के भीतर है और कंट्रोल रूम के भीतर के मौजूद लोग भी वॉल्ट के उस हिस्से की तरफ नहीं जा सकते, जहाँ केबिन हैं, लॉकर हैं। वहाँ सिर्फ कस्टमर ही जा सकता है। मिस्टर दीपक कस्टमर को खुद भीतर लेकर जाते हैं और एक खास जगह पर कस्टमर के वापस आने का इन्तजार करते हैं। जब कस्टमर स्ट्रॉग रूम से बाहर आता है तो दीपक साहब उसे लेकर बाहर आ जाते हैं। स्ट्रांग रूम को, केबिन या लॉकर को खोलना सम्भव नहीं, अगर कोई भीतर घुस जाये। स्विट्जरलैंड की कम्पनी ने यहाँ ऐसे लॉक सिस्टम लगाये हैं कि हमें पूरी तसल्ली है कि वॉल्ट सुरक्षित है। वॉल्ट के भीतर कोई भी चोरी से नहीं प्रवेश कर सकता। क्योंकि लॉक्स को आवाज कंट्रोल करती है।"
"वो कैसे?" देवराज चौहान ने कहा।
“भीतर जाने और स्ट्रांग रूम का दरवाजा खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत नहीं पड़ती। ना ही कम्बीनेशन नम्बर की जरूरत होती है। मिस्टर दीपक महावत की आवाज की जरूरत पड़ती है। आवाज ही लॉक खोलती है। अब ये भी नहीं कि कोई दीपक साहब की आवाज निकालकर लॉक खोल ले। आवाज को पकड़ने वाला सिस्टम इतना चतुर है कि वो धोखा नहीं खाता और रात को लॉकर बंद करते वक्त, दीपक साहब हर रोज सिस्टम में नये शब्द रिकार्ड कर जाते हैं, जो किसी को नहीं पता होते। यानि कि अगले दिन वॉल्ट में जाने के लिए दीपक साहब वही शब्द दोहराते हैं तो वॉल्ट का लॉक खुलता है। स्ट्रांग रूम का दरवाजा ऐसे मैटल से बना है कि उसे तोड़ा, या काटा नहीं जा सकता।" सावंत की एकटक नजर देवराज चौहान पर थी--- "इसके अलावा सुरक्षा के और भी कई ढंग जो आपको नहीं बता सकता। दो बार इस वॉल्ट को लूटने की चेष्टा की गई, परन्तु वो लोग भीतर भी प्रवेश नहीं कर सके थे। हमारा वॉल्ट छोटा जरूर है, परन्तु इतना ज्यादा सुरक्षित है कि ये हम ही समझ सकते हैं।"
देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
“आपको अपनी दौलत या महत्वपूर्ण चीजों की चिन्ता है जबकि हमें, सब कस्टमर की दौलत या उनकी महत्वपूर्ण चीजों की चिन्ता है जो हमारे वॉल्ट में मौजूद हैं। हम कभी अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह नहीं होते।"
"मुझे विश्वास आ गया कि यहाँ रखा मेरा सामान सुरक्षित रहेगा।" देवराज चौहान ने कहा।
"आप हम पर पूरा भरोसा कर सकते हैं सुरेन्द्रपाल जी।" दीपक महावत ने मुस्कराकर कहा।
"अब तो भरोसा करना ही पड़ेगा सुरक्षा व्यवस्था के बारे में सुनकर।" देवराज चौहान भी मुस्कराया--- "मदन ने सही कहा था कि यहाँ के वॉल्ट की सुरक्षा बहुत बेहतर है। मैं केबिन देख सकता हूँ जो केबिन आप मुझे देंगे?"
"केबिन दिखाने का नियम नहीं है।" दीपक महावत मुस्कराया--- "भीतर वो ही जा सकता है जिसने वॉल्ट में लॉकर, केबिन किराये पर ले रखा है। यहाँ तक कि स्टाफ का व्यक्ति भी भीतर नहीं जा सकता। बिना काम के मैं भी भीतर नहीं जा सकता।"
"समझ गया। जो नियम है, वो तो नियम ही है। देवराज चौहान ने कहा--- "आप मुझे ये बताइये कि केबिन लेने के लिए मुझे क्या-क्या फारमैल्टीज पूरी करनी होंगी। इसी हफ्ते मैंने बिजनेस के सिलसिले में चीन जाना है। मैं चाहता हूँ कि जाने से पहले ये काम निपट जाये। केबिन में मैं अपनी महत्वपूर्ण चीजें रख जाऊँ....।"
दीपक महावत ने सारी फारमेल्टीज के बारे में बताया।
देवराज चौहान ने कहा कि दो दिन के भीतर वो सारी फॉरमेल्टीज पूरी कर देगा। इसके बाद उठा और दोनों से हाथ मिलाकर लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट की इमारत से बाहर आ गया। शाम के सात बज रहे थे।
■■■
जगमोहन और सोहनलाल मदन के बंगले के बाहर, कुछ दूरी पर मौजूद थे। शाम का अंधेरा फैलने लगा था। दोनों बंगले पर नजर रख रहे थे। उन्हें मदन के आने का इन्तजार था। जबकि दोनों में से कोई भी मदन को पहचानता नहीं था। उन्होंने अन्दाजे से ही मदन को पहचाना था। देवराज चौहान ने जगमोहन को मदन का हुलिया बता रखा था।
सारा मामला सुनकर सोहनलाल भी हैरान हुआ था। ज्यादा हैरानी इस बात की थी कि कोई, एकदम देवराज चौहान जैसा है।
"वो कमीना कब आयेगा?" सोहनलाल ने पूछा।
"पता नहीं। हमारा असली काम तो कल सुबह से शुरू होगा, जब मदन बंगले से बाहर निकलेगा। तब उसके पीछे लगकर देखना है कि वो कहाँ-कहाँ जाता है। मेरे ख्याल में तो श्रेया के पास जरूर जायेगा।" जगमोहन बोला।
"तो रात की निगरानी की जरूरत नहीं?" सोहनलाल ने कहा।
"जरूरत है। क्या पता वो आधी रात को हो श्रेया की तरफ चल दे, जहाँ उसे रखा हुआ है।"
"तो रात में मैं बंगले पर नजर रखूंगा।" सोहनलाल बोला--- सुबह मुझे कुछ जरूरी काम है। तुम्हें सुबह सात बजे तक यहाँ आ जाना होगा।"
"आ जाऊँगा।"
"मेरा तो विचार है मदन को उठवा लिया जाये।" सोहनलाल ने कहा--- "ठुकाई होगी तो श्रेया के बारे मुँह खोल देगा।"
"देवराज चौहान ये काम खामोशी से करना चाहता है। उसने नजर रखने को कहा है।"
"ठीक है। तुम जाओ। मैं यहाँ का काम संभाल लूंगा।"
"जब तक मुझे विश्वास ना हो जाये कि मदन बंगले पर आ पहुँचा है, मैं यहीं रहूँगा। उसे पहचानना भी तो है।"
"वो पचपन की उम्र के आसपास है?"
"लगभग....।"
पूरी तरह से अंधेरा घिर गया था।
वक्त आगे सरका। पौने नौ बजे जगमोहन का फोन बजा। देवराज चौहान का फोन था।
"कहाँ हो?" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
"मदन के बंगले के बाहर, सोहनलाल साथ है।" जगमोहन ने बताया।
"मैं भी यहाँ आ गया हूँ। तुम दोनों किस दिशा में हो?" जगमोहन ने बताया कि वो किस तरफ हैं।
अगले पाँच मिनट बाद पैदल ही आता देवराज चौहान उनके पास आ पहुँचा।
"कैसे हो सोहनलाल ?" देवराज चौहान मुस्कराया।
"बढ़िया। दो-तीन महीने हो गये हमें मिले....।" सोहनलाल भी मुस्कराया।
"मदन अभी तक बंगले पर नहीं आया।" जगमोहन ने कहा।
"कोई और बंगले पर आया हो?" देवराज चौहान ने पूछा।
"नहीं।"
"ध्यान रहे, मदन का बेटा विजय भी बंगले पर आयेगा। मेरे ख्याल में डायमंड हाऊस नाम का शोरूम नौ बजे तक तो बंद हो जाता होगा। इस हिसाब से वो दस बजे तक तो आ ही जायेगा। क्या मालूम बाप-बेटा इकट्ठे ही आयें।"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगा ली।
"मैंने सुना है सूरज हू-ब-हू तुम जैसा है।" सोहनलाल कह उठा।
“सुना तो मैंने भी है।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
"अभी तक तुम उसे देख नहीं पाये?"
“नहीं। आवाज ही सुनी है। फोन पर उससे आज ही बात हुई थी।" देवराज चौहान ने कहा।
“आवाज तुम जैसी ही है?" सोहनलाल ने पूछा।
“पूरी तरह---।"
“तुम तो मुझे हैरानी में डाल रहे हो। मैं कुछ भी ठीक से समझ नहीं पा रहा। उसकी कद-काठी, बोलचाल, हाव-भाव, बात करने का अन्दाज । तुम्हारी पीठ पर भी तिल है, जाँघ पर भी तिल है तो उसके वहाँ भी तिल है। क्या ये सम्भव हो सकता है?"
“लगता नहीं कि सम्भव है।" देवराज चौहान ने कहा।
“मतलब कि तुम्हें भी भरोसा नहीं?”
“पूरी तरह नहीं।”
“लेकिन तुम तो इस तरह काम कर रहे हो जैसे तुम्हें सूरज के होने का यकीन हो ।”
“कुछ बातें मुझे भी समझ नहीं आ रहीं। सम्भव हो वास्तव में सूरज मेरे जैसा ही हो।"
"क्या बातें?” सोहनलाल गम्भीर था।
“नोरा ने पहले ही दिन, बंगले पर जाते ही तिजोरी की चाबियाँ मेरे हवाले कर दी थीं। मेरे कई बार इन्कार करने पर भी उसने चाबियाँ मुझे दे दीं कि, वो ये बोझ संभालने को तैयार नहीं थी।"
"तो?”
“उस तिजोरी में करीब तीन करोड़ की दौलत मौजूद थी। उसमें बंगले की फाईल भी मौजूद थी, मेरी यानि कि सूरज की तस्वीर फाईल में लगी थी और उन कागजों के हिसाब से बंगले का मालिक मैं हूँ और बंगला दो सौ करोड़ का है। "
“दो सौ करोड़ ?”
“इतनी बड़ी दौलत कोई यूँ ही किसी के हवाले नहीं कर सकता। नोरा इतना बड़ा धोखा तभी खा सकती है, जबकि मेरे और सूरज में पूरी तरह समानता हो। बात सिर्फ नोरा की नहीं है। श्रेया और नीरज की भी है। बंगले के नौकरों की भी है। किसी ने मुझे ये नहीं कहा कि मैं सूरज नहीं हूँ। सबने मुझे सूरज ही कहा। सूरज ही माना।"
"मतलब कि तुम सूरज से पूरी तरह मिलते हो ?"
"यही बात तो परेशानी पैदा कर रही है कि मैं सूरज से पूरी तरह मिलता हूँ जबकि इन्सान बनाने वाली शह भी किसी इन्सान की फोटोकॉपी नहीं बना सकती। बनाने पर कोई ना कोई कमी जरूर रह जायेगी। ये ही बात मुझे उलझन में डाल रही है।"
"तुम्हारा कोई जुड़वाँ भाई तो नहीं था?"
“नहीं। होता भी तो वो मेरी फोटोकॉपी कभी नहीं हो सकता था। हम दोनों में फर्क जरूर रहता।"
“क्या पता कोई करिश्मा हो गया हो। सूरज और तुम एक जैसे ही हो।"
“जानकारी के मुताबिक सूरज मुम्बई में ही रहा। ऐसा है तो उसके बारे में किसी के मुँह से नहीं सुना कि....।"
“ये इत्तफाक भी हो सकता है कि अब तक सूरज हमारी नजरों से छिपा रहा हो।"
“मालूम नहीं। हालातों पर कभी यकीन करने को दिल करता है तो कभी लगता है बीच में जरूर कुछ है।"
“जगमोहन ने बताया कि तुम लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में हाथ मारने की सोच रहे हो।" सोहनलाल ने कहा।
“मदन की दौलत पर।"
“तुम्हें ऐसा करने की क्या जरूरत.... ।"
“मदन, सूरज के परिवार को बहुत तंग कर रहा है। बिजनेस हड़प लिया। वॉल्ट में रखा शिवचंद का पैसा हजम कर लिया। और अब सूरज का बंगला हथियाने की फिराक में है। हर जगह उसकी बदमाशी नहीं चल सकती। वो नीचता पर उतर आया है। अपनी भतीजी श्रेया का अपहरण करके मुझ पर दबाव डाल रहा है कि बंगला उसके नाम कर दूँ। सूरज दस महीनों से घर से फरार है। नोरा, श्रेया, नीरज, मदन का मुकाबला नहीं कर सकते। अगर मैं बीच में इत्तफाक से ना आया होता तो मदन ने इस परिवार को बरबाद कर देना था। श्रेया के अपहरण के बाद नोरा परेशान होकर कह रही है कि बंगला मदन को दे दूँ और श्रेया को बचा लूँ। आज सूरज का मुझे फोन आया। वो भी श्रेया के लिए तड़प रहा था। उसका कहना भी था कि मदन को बंगला दे दूँ, पर श्रेया को बचा लूँ।"
"और तुम बंगला मदन को दोगे नहीं।" सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा।
"कभी नहीं।" देवराज चौहान का स्वर दृढ़ था--- "आज मदन ने मेरे लिए पुलिस भेज दी। कठिनता से बचा हूँ। सब-इंस्पेक्टर ने तो लगभग मुझे पहचान ही लिया था कि मैं देवराज चौहान हूँ। पर ठीक से वो इस बात का यकीन नहीं कर पाया। तभी मैंने सोच लिया कि मदन को तगड़ा सबक सिखाने की जरूरत है। लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में मदन का केबिन है जिसमें उसने मोटी दौलत रखी हुई है। उसी में सूरज के पिता शिवचंद का पैसा है। अब मैं उस केबिन में मौजूद पैसा हासिल करूँगा और सूरज को शिवचंद वाला पचास करोड़ लौटाऊँगा, बाकी पर मेरा हक होगा। ये ही मदन के लिए सबक होगा।"
“तो वॉल्ट में डकैती करने का तुमने पक्का इरादा कर लिया है?" जगमोहन बोला।
“पक्का।” देवराज चौहान ने सोहनलाल से कहा--- "इस काम में मुझे तुम्हारी जरूरत है सोहनलाल ।”
"इसका मतलब प्लान भी बना लिया है कि काम कैसे करना है।" सोहनलाल मुस्करा पड़ा ।
“कुछ-कुछ....।”
“कब करना है काम?” सोहनलाल ने पूछा।
“तैयारी कर रहा हूँ, शायद सप्ताह तक या एक-दो दिन पहले ही...।" देवराज चौहान ने कहा।
“कैसे होगा काम?” जगमोहन ने पूछा ।
“जब काम का वक्त आयेगा....तो बताऊँगा। सोहनलाल, तुम्हें परसों मेरे साथ वॉल्ट में चलना होगा।"
“परसों....वॉल्ट में.... कैसे?” सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा--- "क्या करना होगा वहाँ?"
“वहाँ मैं केबिन किराये पर ले रहा हूँ। तुम मेरे साथ चलोगे और केबिन के लॉक सिस्टम की जाँच करोगे क्योंकि मदन के केबिन का वैसा ही लॉक, तुम्हें खोलना पड़ेगा।" देवराज चौहान ने कहा।
“मैं चलूँगा। मुझे फोन कर देना।" सोहनलाल बोला।
बातों के दौरान उनकी नजरें बराबर बंगले पर रहीं।
“सूरज तुम्हें कब मिलेगा?" सोहनलाल ने पूछा।
"उसने कहा था कि श्रेया के मिल जाने के बाद वो मुझसे मुलाकात करेगा।”
नौ बजे एक कार मदन के बंगले के गेट के बाहर रुकी। कार की हैडलाईट की रोशनी में गेट पूरी तरह चमक उठा। देवराज चौहान तेजी से उस तरफ बढ़ता चला गया।
उधर चौकीदार गेट खोलने में लगा था।
जब कार बंगले के भीतर जाने लगी, तभी देवराज चौहान पीछे से निकल कर आगे बढ़ता चला गया। इस बीच उसने कार के भीतर झांक लिया था। कार को पच्चीस-छब्बीस बरस का लड़का चला रहा था। स्पष्ट था कि वो मदन का बेटा विजय था। देवराज चौहान कुछ देर बाद वापस दोनों के पास पहुँचा।
“मदन आया है?"
"नहीं। उसका बेटा विजय था। मैं उसे पहचानता नहीं। परन्तु वो विजय ही था। शोरूम बंद करके आया होगा। इसका मतलब मदन शोरूम पर नहीं था, होता तो साथ ही आता या फिर शोरूम से निकल वो वहाँ चला गया होगा जहाँ श्रेया को रखा है। "
“आयेगा तो अपने बंगले पर ही।" सोहनलाल बोला।
वे तीनों वहीं टिके बंगले पर नजर रखते, मदन के आने का इंतजार करने लगे।
“ये भी हो सकता है कि मदन रात को वहीं रहे जहाँ उसने श्रेया को रखा है।" जगमोहन कह उठा ।
“ये भी सम्भव है।” सोहनलाल ने हामी भरी।
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और सिग्रेट सुलगा ली।
इसी पल देवराज चौहान का फोन बज उठा ।
“हैलो।” देवराज चौहान ने बात की।
“तुम कहाँ हो....?” नोरा की आवाज कानों में पड़ी--- "अभी तक आये नहीं.... ।”
"मैं श्रेया को तलाश कर रहा....।"
“तुम क्यों वक्त खराब कर रहे हो....।" नोरा की परेशानी से भरी आवाज कानों में पड़ी--- “जब मैं बंगला देने को तैयार हूँ, सूरज भी मदन को बंगला दे देना चाहता है तो तुम्हें इस बात पर एतराज क्यों है, तुम क्यों.... ।”
“जो भी बात करनी हो, मेरे आने पर करना।" देवराज चौहान ने कहा और फोन बंद कर दिया।
“नोरा का फोन था ?"
“हाँ।” देवराज चौहान गम्भीर था--- "वो चाहती है कि मदन को बंगला दे दिया जाये। सूरज की फोटोकॉपी होने के नाते मैं उसके साईन की कॉपी करके ये काम आसानी से कर सकता हूं। पर मदन को कुछ नहीं मिलेगा। जो उसके पास है, वो भी वो हाथ से गंवा देगा। मैं उसकी बदमाशी का जवाब उसे बदमाशी से ही दूंगा। उसे अभी तक इस बात का एहसास ही नहीं हो पाया कि अनजाने में वो किससे टकरा गया है।" देवराज चौहान के स्वर में खतरनाक भाव आ गये थे।
"मैं कहता हूँ मदन को उठवा लो।" सोहनलाल ने कहा।
"कोई जरूरत नहीं। उसके बिना ही मैं मदन का बुरा हाल कर दूंगा।" देवराज चौहान का स्वर बेहद सख्त था।
"उसके बेटे को उठा कर, श्रेया को वापस मांगा जा सकता है।"
"ये बाद की बात है, मेरे ख्याल में श्रेया को हम अपने ढंग से वापस पा लेंगे। बस, हमें मदन पर नजर रखनी होगी।"
रात ग्यारह बजे मदन कार पर बंगले पर आ पहुँचा। कार को ड्राईवर चला रहा था। देवराज चौहान ने दूर से ही पीछे की सीट पर बैठे मदन को पहचाना। स्ट्रीट लाईट की रोशनी मदन के चेहरे पर पड़ी थी।
"इस कार में मदन है।" देवराज चौहान बोला--- “कार को पहचान लो। अब ये सुबह बंगले से निकलेगा। कल बाप-बेटा अपनी कार बदल भी सकते हैं, इसलिये सावधान रहने की जरूरत है कि बाहर निकलती कार में कौन बैठा है। तुम दोनों ने यहाँ किस तरह नजर रखनी है, तय कर लो। मुझे मदन के बारे में पूरी रिपोर्ट मिलनी चाहिये। वो कहाँ-कहाँ जाता है। उन्हीं में से एक जगह पर श्रेया अवश्य होगी।"
■■■
देवराज चौहान जब पैडर रोड के बंगले पर पहुँचा तो रात के बारह से ऊपर का वक्त हो रहा था।
बंगले के भीतर बाबू मिला। वो जाग रहा था।
“मालिक, खाना लगा दूँ?” बाबू ने पूछा।
“अभी नहीं। तुम सोये नहीं?" देवराज चौहान बोला।
“खाना देना है आपको....।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और बैडरूम में पहुँचा।
नोरा जाग रही थी। कुर्सी पर बैठी थी ।
“इतनी देर कहाँ लगा दी?" नोरा ने पूछा।
“तुम्हें पता तो है कि मैं क्या कर रहा हूँ।" इसके साथ ही देवराज चौहान कपड़े बदलने लगा।
नोरा कुर्सी से उठी और वार्डरीव खोलते कह उठी---
"तुम सीधी तरह मदन को बंगला क्यों नहीं दे देते?"
"कितनी बार कह चुका हूँ कि मैं ऐसा नहीं करूंगा।"
"क्यों?"
"क्योंकि ऐसा करना मेरी आदत में शामिल नहीं है।" देवराज चौहान ने कहा।
नोरा ने नाईट सूट निकाल कर देवराज चौहान को दिया।
देवराज चौहान नाईट सूट पहनने लगा।
“ऐसा करने में तुम्हारा क्या जाता है? सूरज भी ये ही चाहता है कि...।"
"ऐसा ही करना है तो सूरज से कहो खुद आकर ये काम कर ले। मैं जो भी करूंगा, अपने ढंग से करूंगा।"
“तुम आखिर हो कौन, मैं तुम्हें अभी तक नहीं समझ पाई कि....।"
“मुझे समझने की जरूरत भी नहीं। मैं तुम लोगों की परेशानियाँ हल कर रहा हूँ। ये ही काफी है।" देवराज चौहान ने कहा--- “बाबू अभी तक जाग रहा है कि मुझे खाना खिला सके। मैं उसे फुर्सत देना चाहता हूँ खाना खाकर ।"
"मैंने भी खाना है।"
“तुमने?”
“तुम्हारे इन्तजार में मैंने अभी तक नहीं खाया।”
“मेरे इन्तजार में तुम्हें रुकने की जरूरत नहीं है। आगे से तुम खा लिया....।"
“हम में जो चल रहा है, वो नौकरों को तो नहीं पता। इसलिए तुम्हारे आने पर ही मुझे खाना, खाना चाहिये।"
“बाबू से कहो, खाना लगा दे।"
नोरा ने इन्टरकॉम पर बाबू को खाना लगाने को कहा।
"मुझे बताओगे कि तुमने आज क्या किया?" नोरा ने पूछा।
"तुम्हें जानने की जरूरत नहीं।"
“मुझे श्रेया की फिक्र...।"
“वो मिल जायेगी। मदन ने चार दिन का वक्त दिया है। आज एक दिन बीता है।"
“मतलब कि तुम अगले तीन दिनों में श्रेया को ढूँढकर वापस ले आओगे?" नोरा का चेहरा गम्भीर दिखा।
“हाँ।"
“ना ला सके तो?” नोरा व्याकुल दिखी।
देवराज चौहान ने नोरा को देखा।
"जवाब दो, अगर ना ला सके तो....?"
“तो बंगला मदन को दे दूंगा। तुम्हारी और सूरज की बात मान लूंगा।" देवराज चौहान ने कहा ।
नोरा ने गहरी साँस लेकर कहा---
"अगले तीन दिन क्यों खराब कर रहे हो? ये काम अभी ही क्यों नहीं कर देते....।”
"मेरे पास तीन दिन का वक्त । हमें नीचे चलना चाहिये डिनर के लिए..... ।”
देवराज चौहान और नोरा नीचे पहुँचे।
बाबू डायनिंग रूम में डिनर लगा रहा था। उसने देवराज चौहान से पूछा---
"छोटी मालकिन का कुछ पता चला मालिक?"
“नहीं.... ।”
“कुछ कीजिये । मदन अच्छा आदमी नहीं है। वो छोटी मालकिन को कोई नुकसान ना पहुँचा दे।"
देवराज चौहान ने कोई जवाब नहीं दिया।
खाने के दौरान देवराज चौहान खामोश रहा।
खाने के बाद देवराज चौहान ने बाबू को कमरे में कॉफी लाने को कहा और नोरा के साथ वापस बैडरूम में पहुँचा और सिग्रेट सुलगाकर कुर्सी पर बैठ गया। पूछा---
“सूरज का फोन आया ?"
“नहीं। मुझे नहीं आया। आज पापा आये थे। श्रेया के बारे में वो बहुत चिन्तित हैं।” नोरा बोली।
देवराज चौहान ने कश लिया। नोरा को देखा।
नोरा उसके सामने कुर्सी पर आ बैठी और बोली---
“मुझे नहीं बताओगे कि तुम सारा दिन क्या करते रहे। जानने का मेरा हक है। इससे शायद मेरी चिन्ता कम हो।"
"श्रेया को ढूँढता रहा। मदन के घर भी गया।"
“मदन के बंगले पर गये? सुनीता से मिले?"
“हाँ। वो भी मुझे सूरज ही समझ रही थी।"
“वो अच्छी औरत है। मदन सुनीता के लायक है ही नहीं। सह रही है वो मदन को....।"
कुछ खामोशी के बाद देवराज चौहान बोला---
"वॉल्ट में सूरज के पापा की पचास करोड़ की दौलत थी ना?"
"लगभग। सूरज ने इतना ही कहा था। तुमने ये बात क्यों पूछी?" नोरा बोली।
"मैं कोशिश करूँगा कि वो पैसा भी सूरज को मिल जाये।"
"असम्भव । मदन जैसा कमीना इन्सान कभी भी वो दौलत नहीं लौटायेगा, तुमने कैसे सोच लिया कि....।”
"उस दौलत को हासिल करने का मेरा अपना ढंग है।"
"अपना ढंग--- क्या ?"
"इस बारे में तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। इस काम को पूरा करना मेरा काम है।"
नोरा कुछ क्षण देवराज चौहान को देखती रही, फिर बोली---
“आखिर तुम हो कौन? अपने बारे में बताओ...।"
बाबू कॉफी दे गया। देवराज चौहान ने कॉफी का घूँट भरा।
“तुम अपने बारे में....।”
“मेरे बारे में तुम कभी नहीं जान सकोगी। मैं तुम लोगों के काम आ रहा हूँ, ये ही बहुत है। रात बहुत हो रही है, अब सो जाओ। किसी भी बात की चिन्ता मत करो। तुम लोगों की सारी समस्याएँ दूर करके ही मैं यहाँ से जाऊँगा।”
■■■
सुबह सात बजे जगमोहन, सोहनलाल के पास आ पहुँचा।
“क्या रहा?" जगमोहन ने पूछा।
"बंगले से कोई नहीं निकला....।" सोहनलाल ने कहा।
“आगे का काम तुम संभालो। मैं शाम चार बजे तक अपने किसी काम में व्यस्त रहूँगा। उसके बाद फोन पर बता देना, कहाँ आना है, पहुँच जाऊँगा।"
सोहनलाल वहाँ से हटा और कुछ दूर खड़ी कार में बैठकर चला गया।
जगमोहन की नजर बंगले पर टिक गई। वो ऐसी दिशा में मौजूद था कि बंगले के भीतर से उसे देख पाना आसान नहीं था। आठ बजे उसने गेट पर खड़े चौकीदार को बदलते देखा। उसकी जगह दूसरे, कल वाले चौकीदार ने ली थी। जगमोहन की निगाह बराबर बंगले पर थी।
सवा नौ बजे उसने एक कार बंगले से निकलते देखी ।
कार को एक युवक चला रहा था। जगमोहन समझ गया कि ये मदन का बेटा विजय है। देखते-ही-देखते कार दूर होती चली गई। नजरों से ओझल हो गई। गेट को चौकीदार ने बंद कर लिया था।
जगमोहन वहीं रहा।
वक्त बीता। पौने ग्यारह बजे जगमोहन ने गेट खुलते देखा और एक कार को बाहर आते देखा। फौरन पहचान गया कि ये कार मदन की है। कार को ड्राईवर चला रहा था। पीछे की सीट पर किसी व्यक्ति के बैठे होने की झलक मिली---जो कि यकीनन मदन ही हो सकता था।
जगमोहन तेजी से चलता कुछ दूर खड़ी अपनी कार तक पहुँचा। भीतर बैठा और कार स्टार्ट करके तेजी से उधर दौड़ा दी, जिधर मदन की कार गई थी।
मिनट भर में मदन की कार की झलक पा ली।
फिर मदन का पीछा शुरू हो गया।
सड़कों पर भीड़ थी। पीछा करने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी। चालीस मिनट के बाद जगमोहन ने मदन की कार को एक मार्किट में रुकते देखा और चंद कदमों की दूरी पर डायमंड हाऊस का शोरूम नजर आ रहा था। जगमोहन ने भी कार को एक तरफ ले जा रोका।
मदन को कार से निकल कर डायमंड हाऊस की तरफ बढ़ते देखा।
अपनी कार में बैठा जगमोहन मदन को देखता रहा। वो शीशे का दरवाजा धकेल कर डायमंड हाऊस में प्रवेश कर गया। जगमोहन सोच रहा था कि अब यहाँ पर मदन की वापसी के लिए लम्बा इन्तजार भी करना पड़ सकता है। क्या पता मदन शाम को शोरूम से बाहर निकले। जगमोहन कार में ही रहा।
लेकिन जगमोहन को दिन भर का लम्बा इन्तजार नहीं करना पड़ा।
वो एक बजे शोरूम से बाहर निकलता दिखा और अपनी कार की तरफ बढ़ा। कार के पास पहुँच कर दो मिनट उसने ड्राईवर से बात की, फिर उससे चाबी लेते देखा। ड्राईवर एक तरफ खड़ा हो गया।
मदन को कार की ड्राईविंग सीट पर बैठते देखा।
जगमोहन एकाएक सतर्क हो गया। आँखें सिकुड़ीं। दिमाग तेजी से दौड़ा।
मदन कार पर कहीं अकेला जा रहा था।
ड्राईवर को यहीं छोड़ दिया था।
स्पष्ट था कि वो किसी खास जगह जा रहा था और वो जगह वो ही हो सकती थी, जहाँ श्रेया को कैद में रखा हुआ था। मदन की कार वहाँ से निकली तो जगमोहन ने सावधानी से कार को, उस कार के पीछे लगा दिया।
भीड़ भरी सड़कों पर जगमोहन आराम से मदन के पीछे लगा रहा।
आधे घंटे बाद जगमोहन ने मदन की कार को एक सोसायटी में प्रवेश करते देखा, जहाँ फ्लैट बने हुए थे। जगमोहन भी कार को भीतर लेता चला गया और जहाँ मदन ने कार रोकी, उसने कुछ दूर अपनी कार रोक दी।
मदन कार से निकल कर फ्लैटों की एक इमारत की तरफ बढ़ा तो जगमोहन उसके पीछे लग गया।
पाँच मिनट बाद उस इमारत की पहली मंजिल की बेल बजाते देखा मदन को। फौरन ही दरवाजा खुला और मदन भीतर प्रवेश कर गया। फ्लैट का दरवाजा बंद हो गया।
■■■
देवराज चौहान ने सुबह साढ़े नौ बजे ब्रेकफॉस्ट किया। वो बाहर जाने को तैयार था। नोरा भी ब्रेकफास्ट के दौरान टेबल पर मौजूद थी। वो गम्भीर, व्याकुल और कुछ चिन्तित लग रही थी।
भानू और प्रेमवती वहीं मौजूद रहकर, उनकी जरूरतें पूरी कर रहे थे।
देवराज चौहान जब ब्रेकफास्ट के बाद जाने लगा तो नोरा कह उठी---
"तुम पता नहीं क्या कर रहे हो? मुझे डर लग रहा है....।"
"डरने वाली कोई बात नहीं है।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
“मुझे श्रेया की चिन्ता है....वो....।"
"किसी भी बात की चिन्ता मत करो। मैं वापस आकर तुमसे बात करूंगा।" देवराज चौहान बोला।
“लेकिन तुम जा कहाँ रहे....।"
"चिंकी को ढूँढने।"
नोरा को परेशानहाल छोड़कर देवराज चौहान बाहर आ गया।
पोर्च में खड़ी एक कार ले ली। प्यारेलाल, रतनसिंह ने ड्राईवर के तौर पर साथ जाना चाहा तो देवराज चौहान ने इन्कार कर दिया और कार सहित बंगले से बाहर आ गया।
आज देवराज चौहान ने लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में केबिन लेने के लिए, जो फारमैल्टीज थीं, उन फारमेल्टीज की तैयारी करनी थी। वहाँ से देवराज चौहान सीधा अपने बंगले पर पहुंचा और वहाँ से जरूरी कागजात, सुरेन्द्रपाल नाम से बैंक एकाउंट की चैकबुक, अपनी तीन तस्वीरें और कुछ कैश लेकर ब्रीफकेस में रखा कि तभी फोन बजने लगा।
“हैलो।" देवराज चौहान ने कॉल रिसीव की ।
"आगे का क्या प्रोग्राम है भतीजे?" मदन का कड़वा स्वर कानों में पड़ा--- “आज दूसरा दिन है।"
"तुम---?" देवराज चौहान का चेहरा कठोर हो गया।
“श्रेया अभी जिन्दा है। उसकी आवाज सुनना चाहोगे?" मदन के हँसने की आवाज आई।
"बात कराओ।" देवराज चौहान का स्वर बेहद सख्त था।
"करो....करो। अपनी बहन से बात करो। जी भर कर बात करो।"
दो पल बीते कि श्रेया की घबराई आवाज कानों में पड़ी।
"भ-भैया....तुम कहाँ हो भैया, मुझे यहाँ से ले जाओ।"
“तुम कहाँ हो चिंकी?” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर पूछा।
"मैं नहीं जानती, पर ये फ्लैट है कोई। ये मुझे बेहोश करके यहाँ लाये थे। मुझे बचा लो भैया.... । चाचा बहुत बुरा इन्सान....।"
"तुम्हारे पास कितने लोग हैं?"
"दो। चाचा तीसरा है। ये....ये....मुझे इनसे डर लगता है भैया । ये....।"
“इन्होंने तुम्हें कोई तकलीफ दी?"
"न- नहीं.... भैया। पर ये मुझे जान से मारने की धमकी देते हैं। चाचा कहता है सूरज का दिमाग खराब हो गया है जो मेरे से पंगा ले रहा है। वो कहता है मेरी जिन्दगी के ढाई दिन बचे हैं। उसके बाद चाचा मुझे मार....।"
श्रेया की आती आवाज रुक गई।
उसके बाद मदन की कमीनगी से भरी आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी---
"दिल को ठण्डक तो मिली होगी अपनी प्यारी बहन से बात करके....।"
"चिंकी को छोड़ दे मदन।"
"बंगला मेरा नाम कर दे। उसके बाद हमारा कोई मतलब ही नहीं रहेगा। तब तुम भी मजे करो....मैं भी मजे करूँगा।"
कुछ खामोशी के बाद देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा---
“मैंने अभी फैसला नहीं किया। दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा।"
“सोच ले भतीजे। अभी ढाई दिन बाकी हैं। मुझे मालूम है तू अपनी प्यारी बहन से जुदा नहीं होना चाहेगा। ठीक कहा ना मैंने? मुझे फोन कर देना जब भी तेरा दिमाग ठीक से काम करने लगे। फिर बात करेंगे भतीजे। टाटा....।" इसके साथ ही फोन बंद हो गया।
देवराज चौहान ने जगमोहन को फोन मिलाया।
“कहो।" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी--- "मैं मदन के पीछे हूँ।"
“इस वक्त मदन कहाँ है?" देवराज चौहान ने पूछा।
“एक सोसायटी के फ्लैट में।" कहकर जगमोहन ने उधर से फ्लैटों का पता बताया।
“श्रेया उसी फ्लैट में है जगमोहन।”
“तुम्हें कैसे पता?” जगमोहन ने दूसरी तरफ से फौरन पूछा।
“अभी मदन का फोन आया था, फिर उसने श्रेया से मेरी बात कराई ।”
“ओह! तब तो हमने आसानी से श्रेया को ढूँढ लिया।"
“वहाँ नजर रखो, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ।" देवराज चौहान ने कहा।
“मदन यहाँ से जाये तो?"
“जाने देना। उसे कुछ नहीं कहना। हमने वहाँ से श्रेया को निकालना है।"
“मदन को कुछ भी नहीं कहना?"
"मैं मदन को दूसरी तरह से झटका देना चाहता हूँ। उसके वॉल्ट का केबिन खाली करके ।"
“लेकिन तब भी वो बंगला लेने के लिए इस परिवार के पीछे लगा रहेगा।"
"तब मदन को हम संभाल लेंगे। पहले उसकी दौलत उड़ाना चाहता हूँ। केबिन में पचास करोड़ तो सूरज के पिता का रखा है। मेरे ख्याल में इतनी या इससे ज्यादा दौलत मदन की भी होगी। सौ से डेढ़ सौ करोड़ की दौलत मदन के केबिन में हो सकती है। इतनी दौलत को हाथ से निकलते पाकर मदन पागल हो जायेगा।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- “मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। अब तुमने मदन पर नहीं, उस फ्लैट पर नजर रखनी है, जहाँ इस वक्त मदन मौजूद है।"
■■■
देवराज चौहान के फोन के बाद जगमोहन इमारत के भीतर पहुँचकर उस फ्लैट पर नजर रखने लगा था, जिसका दरवाजा बंद था। हालांकि इमारत के भीतर रहना उसके लिए ठीक नहीं था। लोग आ-जा रहे थे और कोई भी उस पर शक कर सकता था कि वो खामखाह यहाँ टहल रहा है।
जबकि जगमोहन के दिमाग में एक ही बात थी कि श्रेया का अपहरण करके उसे इसी फ्लैट में रखा हुआ है। ऐसे में फ्लैट के करीब रहकर नजर रखना जरूरी था। वो अब श्रेया को खोना नहीं चाहता था। देवराज चौहान कभी भी वहाँ पर आ सकता था। उसके बाद श्रेया को यहाँ से आजाद कराया जायेगा।
दोपहर का एक बजने जा रहा था।
डेढ़ बजे के करीब दो बदमाश टाईप व्यक्ति इस फ्लैट के दरवाजे पर पहुँचे। कॉलबेल बजाई।
ये देखकर जगमोहन वहाँ से दूर हो गया कि वे उस पर किसी तरह का शक ना करें। परन्तु उसकी नजर दूर रहकर भी दूसरी तरफ रही। दरवाजा खुला। वो दोनों भीतर प्रवेश कर गये। दरवाजा बंद हो गया।
जगमोहन ने देवराज चौहान को फोन किया।
"कहो।" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।
“दो आदमी अभी उसी फ्लैट में गये हैं। वो बदमाश जैसे लोग हैं।" जगमोहन ने बताया ।
“दो और आदमी ? एक लड़की को संभालने के लिए चार आदमी बहुत ज्यादा हैं।" उधर से देवराज चौहान ने कहा।
“चार कैसे हो गये?"
"श्रेया ने मुझे बताया था कि उसके पास मदन के अलावा दो आदमी मौजूद हैं। क्या फ्लैट से कोई बाहर निकला?"
"नहीं। पक्का नहीं।"
"तो चार आदमियों का श्रेया के पास क्या काम?"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
"मदन भीतर है?"
"हाँ। वो बाहर नहीं निकला।"
"फ्लैट में कुछ हो रहा है। शायद....शायद मदन श्रेया को कहीं और ले जाने वाला है....।"
"कहीं और?" जगमोहन चौंका।
"हाँ। इतने लोगों का तो ये ही मतलब निकलता है कि श्रेया पर मानसिक दबाव डाला जाये कि वो खामोशी से उनके साथ चले।"
"कहीं वो श्रेया के साथ कुछ बुरा तो नहीं करने जा रहे?"
"मदन ऐसा नहीं करेगा। क्योंकि वो उसकी भतीजी है। फिर उसने चार दिन का वक्त दे रखा है मुझे...।"
"तुम कहाँ हो?”
"अपने बंगले पर। बस यहाँ से निकलने वाला हूँ। तुम वहीं नजर रखो। अगर वो श्रेया को कहीं और ले जायें तो उनका पीछा करो। मैं तुम्हारे पास तीस-पैंतीस मिनट में.....।"
“कहो तो मैं श्रेया को वहाँ से निकालने की चेष्टा करूँ?" जगमोहन ने कहा।
“ऐसा मत करना। वहाँ चार लोग हैं। उनके पास हथियार भी होंगे। मदन भी वहाँ मौजूद है। मदन किसी भी हाल में श्रेया को हाथ से नहीं निकलने देगा। तुम्हारे कुछ करने की वजह से वो श्रेया को नुकसान भी पहुँचा देगा। इस वक्त मदन पागल हुआ पड़ा है कि चाहे कैसे भी हो, सूरज से बंगला ले लो। उसे सिर्फ दो सौ करोड़ नजर आ रहा है।"
“तुम मदन को इतना ढीला क्यों छोड़ रहे हो?"
“मतलब?"
"हम मदन की गर्दन पकड़ सकते हैं। या उसके बेटे विजय का अपहरण करके, श्रेया का सौदा कर सकते हैं। हम....।"
“मदन मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। मैं जानता हूँ कि श्रेया को मैं कभी भी आसानी से हासिल कर सकता हूँ। मैं मदन का केबिन खाली करके, उसे तगड़ा झटका देने की तैयारी कर रहा हूँ। मदन सोच रहा है कि उसने श्रेया का अपहरण करके बहुत बड़ा काम कर लिया, जबकि मदन बच्चों की तरह काम कर रहा है। क्योंकि ये शरीफों की कमीनगी से भरी लड़ाई है। खुद को शरीफ कहने वाले घटिया लोग ऐसी ही हरकतें करते हैं। मैं भी जो काम कर रहा हूँ, शराफत से कर रहा हूँ। ये अण्डरवर्ल्ड का झगड़ा नहीं है। इसलिए मैं मदन को कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा। लेकिन जो वो करना चाहता है, उस पर उसे हार देता रहूँगा। जैसे कि बहुत जल्द उसका केबिन खाली कर दूंगा। जैसे कि बहुत जल्द श्रेया को मदन के हाथों से निकाल लूंगा। केबिन से सौ करोड़ से ऊपर की दौलत को गया पाकर वो अपना सिर पकड़ लेगा। ये मेरा ही ख्याल है कि उसमें सौ-डेढ़ सौ करोड़ की दौलत होगी, परन्तु ज्यादा भी हो सकती है। हो सकता है हम आज ही श्रेया को छुड़ा लें। मैं तुम्हारे पास तीस-पैंतीस मिनट में पहुँच रहा हूँ।"
"आ जाओ।" जगमोहन ने कहा और फोन बंद कर दिया।
पाँच मिनट बीते कि जगमोहन का फोन पुनः बजा।
"हैलो।"
“मैं फुर्सत में हूँ अब।” सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी--- “मेरी जरूरत हो तो कहो, अभी आ जाता हूँ।"
जगमोहन ने बताया कि वो कहाँ पर है।
सोहनलाल ने कहा, कुछ ही देर में वो उसके पास पहुँच जायेगा।
तभी उस फ्लैट का दरवाजा खुला। जगमोहन बीस कदम दूर तब लिफ्ट के पास खड़ा था। फ्लैट से, मदन को निकलते पाकर सतर्क हो गया। वो इसी तरफ आ रहा था।
जगमोहन समझ गया कि मदन लिफ्ट से या सीढ़ियों से नीचे जायेगा। अब जगमोहन के पास वक्त नहीं था, वहाँ से हटने का। मदन उसे देख चुका था। ऐसे में जगह छोड़ना, मदन के मन में सन्देह पैदा करने की बात थी।
मदन उसके पास से निकला।
उसने सरसरी निगाह जगमोहन पर मारी और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
जगमोहन वहीं खड़ा उसे जाता देखता रहा। जगमोहन ने देखा, सीढ़ियाँ उतरते मदन ने फोन निकाला था और नम्बर मिलाकर फोन कान से लगा लिया था। जगमोहन लिफ्ट का इस्तेमाल करके, मदन से पहले नीचे पहुँच सकता था, परन्तु समस्या ये आ रही थी कि अगर मदन की निगाह नीचे उस पर पड़ गई तो वो शक खा जायेगा कि उसका पीछा हो रहा है। लेकिन जगमोहन का इरादा अब श्रेया पर नजर रखने का था ।
देवराज चौहान ने भी ऐसा कहा था।
जगमोहन वहीं खड़ा रहा। मिनट भर ही बीता कि उसने फ्लैट का दरवाजा खुलते और दो बदमाश टाईप व्यक्तियों को पुनः बाहर निकलते देखा। जगमोहन सतर्क हो गया। तभी देखा कि उनके पीछे कुछ देर पहले आये दोनों बदमाशों के बीच एक मासूम-डरी सी लड़की फंसी चल रही है।
जगमोहन तुरन्त समझा कि ये श्रेया है।
चार बदमाशों ने उसे घेर रखा है।
यानि कि श्रेया को यहाँ से कहीं और ले जाया जा रहा है। जगमोहन ने सोचा।
जगमोहन अपनी जगह पर खड़ा इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगा।
वो पास आते जा रहे थे।
वो वक्त तभी आया जब वो श्रेया को अपने साथ रखे उसके पास से निकले।
परन्तु जगमोहन उस वक्त बुरी तरह चौंका जब बाकी के दो उसके पास रुक गये।
जगमोहन ने उन दोनों को देखा।
दोनों कहर भरी नजरों से उसे देख रहे थे।
“मदन साहब का पीछा करता है हरामी।" एक ने खतरनाक स्वर में कहा।
तभी दूसरे का घूंसा वेग के साथ उसकी कनपटी पर पड़ा।
जगमोहन की आँखों के सामने लाल-पीले तारे नाच उठे।
अगले ही क्षण एक के बाद एक दो घूंसे उसकी कनपटी पड़े तो उसका मस्तिष्क अंधेरे में डूबता चला गया। भरसक प्रयत्न किया कि टांगों पर खड़ा रह सके, परन्तु चेतना लुप्त होती गई । घुटने मुड़े और वो बेहोश होकर नीचे गिरने को हुआ कि, लगा किसी ने उसे थामा है, फिर नीचे लिटा दिया। उसके बाद का कुछ याद नहीं रहा।
■■■
जगमोहन को होश आया। उसे लगा कि वो ज्यादा देर बेहोश नहीं रहा, शायद पन्द्रह या बीस मिनट। अपना चेहरा पानी से भीगा महसूस किया। कमीज भी कुछ गीली थी। लोगों की आवाजें उसके कानों में पड़ीं। पता नहीं, वो क्या कह रहे थे। धीरे-धीरे जगमोहन का मस्तिष्क सतर्क हो उठा--- फिर उसने आँखें खोलीं।
लोगों को घेरा बनाए अपने आसपास खड़े देखा।
ये लोग यहीं के रहने वाले थे। वो यहीं था लिफ्ट के पास। उसे होश में लाने के लिए उस पर पानी के छींटे भी मारे गये थे। उस भीड़ में सोसायटी के दो गार्ड भी खड़े थे।
जगमोहन उठ बैठा।
क्या हुआ कैसे हुआ, तुम कौन हो, बेहोश कैसे हुए, ऐसे कई सवाल उसके कानों में पड़े।
जगमोहन खड़ा हो गया और लोगों को देखकर बोला---
"मैं ठीक हूँ।”
“पर तुम्हें हुआ क्या?” एक ने पूछा।
“क्या किसी ने मारा?” दूसरे ने पूछा ।
"मुझे चक्कर आ गया था....बेहोश होकर गिर गया.....।"
“ये झूठ बोलता है।" तभी भीड़ में खड़ी एक औरत कह उठी--- "मैंने देखा था दो आदमी इसे मार रहे थे।”
"तुम इस सोसायटी में तो नहीं रहते।" एक व्यक्ति बोला।
“मैं उस वाले फ्लैट में आया था।" जगमोहन ने उस फ्लैट के बंद दरवाजे की तरफ इशारा किया, जहाँ श्रेया को रखा गया था।
"वो फ्लैट तो खाली है।"
“क्या?” जगमोहन की आँखें सिकुड़ीं।
“उसमें कोई नहीं रहता। महीना पहले ही किरायेदार ने वो फ्लैट खाली कर दिया था।"
"नहीं।"
“तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? तुम वहाँ किससे मिलने आये थे?”
“राजन मलहोत्रा से.... ।”
“इस नाम का आदमी तो शायद सोसायटी में ही नहीं रहता।”
तभी जगमोहन को सोहनलाल दिखा।
सोहनलाल भांपने की चेष्टा में था कि क्या हुआ, यहाँ लोग क्यों इकट्ठे हैं?
जगमोहन आगे बढ़ा और सोहनलाल का हाथ पकड़े सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
“यहाँ क्या हो रहा है?" सोहनलाल ने पूछा।
"मामला बिगड़ गया है।" जगमोहन गम्भीर स्वर में बोला--- “मदन को अपना पीछा किए जाने का पता चल गया था। उसके आदमियों ने मुझे बेहोश कर दिया और श्रेया को यहाँ से ले गये।"
"वो लड़की यहाँ थी ?"
"हाँ। मदन ने उसे यहीं के एक फ्लैट में रखा हुआ था।"
“तुमने लड़की को यहाँ से निकालने की चेष्टा नहीं की?" सोहनलाल ने कहा।
"कुछ देर पहले ही मुझे श्रेया के यहाँ होने का पता चला। मैंने देवराज चौहान को बताया तो उसने कहा कि वो पहुँच रहा है। इस बात के कुछ देर बाद ही ये सब हो गया।" जगमोहन ने सारी बात बताई।
वे नीचे खड़ी कार तक आ पहुँचे थे।
जगमोहन ने देवराज चौहान को फोन किया, बात हो गई।
“मैं आ पहुँचा हूँ।” देवराज चौहान ने कहा।
"सोसायटी के बाहर ही मिलो। सोहनलाल मेरे साथ है। मामला बिगड़ गया है।"
जगमोहन और सोहनलाल कार पर सोसायटी से बाहर निकले और एक किनारे पर रुक गये।
“तुम्हारी कार कहाँ है?" जगमोहन ने पूछा।
"उस तरफ खड़ी है।" सोहनलाल ने एक तरफ इशारा किया।
पाँच मिनट ही बीते कि उनकी कार के पीछे देवराज चौहान की कार आ रुकी। देवराज चौहान अपनी कार से निकला और जगमोहन वाली कार में आ बैठा।
“क्या हुआ?” देवराज चौहान ने पूछा।
जगमोहन ने सब कुछ बता दिया।
देवराज चौहान गम्भीर हो गया।
“तो श्रेया को तुमने देखा वो तुम्हारे सामने से निकली?" देवराज चौहान बोला ।
"दो ने लड़की को देर रखा था। वो घबराई हुई थी। यकीनन कुछ ना करने को कहकर उसे धमका रखा होगा।"
"मदन को कब पता चला कि उसका पीछा हो रहा है?" देवराज चौहान ने पूछा।
"कह नहीं सकता। सोसायटी तक पहुंचने तक तो मुझे सब ठीक ही लगा था।
“गलत हुआ। अगर मदन को पीछा होने का शक ना होता तो आज हम श्रेया को वापस पा लेते।" देवराज चौहान के कहा--- “श्रेया को यहाँ से हटाने की वजह यही थी कि मदन को पता चल गया था कि उसका पीछा हो रहा है।"
"अब क्या किया जाये?" सोहनलाल ने पूछा।
"मदन पर ही नजर रखनी होगी। उसका पीछा करके ही पता चलेगा कि श्रेया को कहाँ रखा गया है।"
"अब मदन सतर्क रहेगा।" जगमोहन ने कहा---- “उसे पता है कि उसका पीछा किया जा सकता है।"
"अपनी कारें बदल लो। चेहरे पर मेकअप कर लो। अगले दो दिनों में हमने हर हाल में श्रेया को ढूँढ निकालना है। वरना उसके बाद मदन, श्रेया को नुकसान पहुँचा सकता है।" देवराज चौहान ने कहा।
"वो श्रेया को कुछ नहीं कह सकेगा।" जगमोहन बोला।
"वो कैसे?"
"उसने चार दिन का वक्त दिया है। अगर वो वक्त बीत गया तो हम मदन के बेटे को विजय को उठा लेंगे। अपने बेटे की खैरियत की खातिर वो श्रेया को सलामत रखेगा।"
कुछ पल चुपकर देवराज चौहान ने कहा---
"इस बारे में भी सोच लेंगे। परन्तु श्रेया को पहले ढूँढ निकालें तो वो अच्छा रहेगा। इस वक्त मदन कहाँ है ये पता लगाना कठिन होगा। शायद वो इस वक्त श्रेया के साथ उस नई जगह पर हो, जहाँ श्रेया को अभी-अभी ले जाया गया है। अब वो श्रेया के पास जाने में सावधानी का इस्तेमाल करेगा। तुम दोनों में से एक डायमंड हाऊस पर नजर रखे, दूसरा मदन के बंगले पर। जहाँ वो दिखे, उसके बाद वो नजरों से ओझल नहीं होना चाहिये। अपनी कारें बदल लो। चेहरों पर मेकअप कर लो कि मदन फौरन ना पहचान सके तुम लोगों को।"
“तुम क्या कर रहे हो?" जगमोहन ने पूछा।
“मैं....।" देवराज चौहान कार का दरवाजा खोलता बोला--- “लक्ष्मीचंद प्राईवेट वॉल्ट में डकैती की तैयारी कर रहा हूँ। वॉल्ट में मदन के केबिन में मौजूद दौलत को वहाँ से निकालना है।"
देवराज चौहान उस कार से निकल कर अपनी कार में जा बैठा। इससे पहले कि कार स्टार्ट करता, उसका फोन बज उठा। देवराज चौहान ने फोन की स्क्रीन पर नजर मारी, ये मदन की कॉल आई थी।
"हैलो।” देवराज चौहान ने बात की।
"परेशानी तो हो रही होगी भतीजे---।" मदन का कड़वा, व्यंग्य भरा स्वर कानों में पड़ा।
देवराज चौहान के चेहरे पर तीखे भाव उभरे।
"कैसी परेशानी?" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
"श्रेया तक पहुंचने में इतनी मेहनत की, लेकिन वो हाथ से निकल गई। माथा तो पीट रहे होगे। वैसे बड़ी हिम्मत का काम कर रहा है, मुझ आशा नहीं थी कि तू मेरा मुकाबला करने की कोशिश भी कर सकता है। क्या सोचता है, श्रेया को मेरे हाथों से छीन लेगा? ये भूल है तेरी। अभी ठीक से मुझे जानता नहीं। बच्चा है। जानता है पीछा करने वाले को मैंने कैसे पहचाना?"
"कैसे पहचाना?”
“कल तू उसके साथ सुनीता के पास बंगले पर आया था। रात को सुनीता ने बताया था तेरे साथ कोई और भी था। मेरे बंगले पर C.C.T.V. कैमरे लगे हैं। मैंने रिकार्डिंग चैक की तो तेरे साथी का चेहरा देखा और आज जब मैं बंगले से निकला तो कुछ देर बाद मैंने इत्तफाक से ही उसे कार पर अपना पीछा करते देखा तो तेरी चाल समझ गया मैं।" उधर से मदन हंसा।
“तूने तो बहुत बड़ा तीर मार दिया।" देवराज चौहान होंठ भींचकर बोला।
“मेरे रास्ते में मत आ। मैं फिर कहता हूँ तू अभी ठीक से मुझे जानता नहीं।" मदन के आने वाले स्वर में खतरनाक भाव आ गये थे--- “जो मैं कहता हूँ मान ले। चुपचाप बंगला मेरे नाम कर दे।”
“तूने चार दिन का वक्त दिया है मुझे।" देवराज चौहान ने कहा।
“और आज दूसरा दिन बीत जायेगा।"
“जब चार दिन पूरे हो जायेंगे, तब बंगला तेरे नाम करने की सोचूंगा।"
"मतलब कि तू सोचता है तब तक श्रेया को ढूँढ निकालेगा और....।"
“मैं क्या सोचता हूँ इससे तेरा कोई मतलब नहीं। चार दिन तक श्रेया का कुछ बिगड़ा तो मैं तुझे शूट कर दूंगा।"
“मुझे धमकी देता---।"
“जो समझा रहा हूँ वो समझ ले। श्रेया का बाल भी बांका किया तो---।"
“भतीजे!" मदन दूसरी तरफ से हँसकर बोला---- "जो भी हो, श्रेया मेरी भतीजी है। मैं उसे चार दिन तक कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊँगा। चार दिन पूरे होने तक बंगला तूने मेरे नाम नहीं किया तो तब श्रेया की लाश ही मिलेगी तुझे।"
"चार दिन पूरे होने पर बंगला तुम्हें मिल जायेगा।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया। इस वक्त देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती थी और आँखों में दरिन्दगी मचल रही थी।
■■■
देवराज चौहान शाम छः बजे सूरज के बंगले पर पहुँचा। दरबान ने फौरन गेट खोल दिया। इससे पहले कि देवराज चौहान गाड़ी को भीतर ले जा पाता, भीतर से इंस्पेक्टर जीवन ताड़े बाहर आता दिखा। गेट के बाहर एक तरफ उसकी मोटरसाईकिल भी खड़ी थी। देवराज चौहान की निगाह उस पर जा टिकी।
उसे देखते ही सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े मुस्कराकर फौरन उसके पास पहुँचा।
"नमस्कार सर।" जीवन ताड़े ने अदब से कहा--- "यहाँ से निकल रहा था तो सोचा आपसे मिलता चलूं।"
देवराज चौहान ने ताड़े को गहरी निगाहों से देखा।
ताड़े कुछ सकपका-सा उठा था।
"किस काम के लिए आये थे?" देवराज चौहान ने पूछा।
"यूँ ही सर, मैं तो....।"
"झूठ मत बोलो इंस्पेक्टर। तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि बात कुछ और है।" देवराज चौहान ने कहा।
"जी वो.... वो मैडम ने कहा था कि जब आप मिल जायेंगे तो वो पचास हजार रुपया मुझे ईनाम में देंगी। इसी कारण मैं आपको ढूँढने में बहुत मेहनत कर रहा था।" सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े ने धीमे स्वर में कहा।
"समझा। तुम पचास हजार लेने आये थे---मिला? दिया मैडम ने?"
"द-दस हजार दिया है। मैडम ने कहा बाकी बाद में.....।"
तभी पास में मोटरसाईकिल के रुकने की आवाज आई।
देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर उधर देखा तो फौरन सतर्क हो गया।
वो सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर था जो कल मदन के बंगले पर मिला था, जिसने उसके डकैती मास्टर देवराज चौहान होने का शक जाहिर किया था। इस वक्त उसके साथ, पीछे की सीट पर एक हवलदार भी मौजूद था। इस पुलिस वाले का यहाँ आना खतरे की घंटी जैसा था। देवराज चौहान ने खुद को संभाला और दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
ताड़े ने देवराज चौहान को देखा, अशोक मावेलकर की तरफ देखा, फिर बोला---
"आप इन्हें जानते हैं सर?"
"कल किसी के यहाँ इनसे मुलाकात हुई थी।" देवराज चौहान का स्वर सामान्य था।
तभी भीतर से रतन सिंह निकल कर वहाँ आ पहुँचा।
“मालिक, गाड़ी भीतर लगा दूँ?" रतनसिंह ने पूछा।
देवराज चौहान ने हाँ में सिर हिला दिया।
रतनसिंह गाड़ी में जा बैठा।
तब तक अशोक मावेलकर, कांस्टेबल के साथ पास आ पहुँचा। उसकी पैनी निगाह देवराज चौहान पर थी।
"कहो इंस्पेक्टर....।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- “यहाँ कैसे आना हुआ?"
“कल से ही उलझन में हूँ।" अशोक मावेलकर ने जीवन ताड़े को देखा--- "तुम इन्हें जानते हो?"
"हाँ। ये सूरज साहब हैं। इस बंगले के मालिक हैं और....।"
"इनका चेहरा देखकर मुझे डकैती मास्टर देवराज चौहान बार-बार याद आ रहा है कल से। रात को ठीक से नींद भी नहीं ले पाया।"
"डकैती मास्टर देवराज चौहान?" ताड़े हैरानी से बोला--- "मैं समझा नहीं।"
“तुमने डकैती मास्टर देवराज चौहान को देखा है कभी?"
"नहीं।”
"मैंने भी नहीं देखा। पर मैंने एक बार उसकी तस्वीर देखी थी और वो तस्वीर सूरज साहब की ही लगती है।"
"सूरज साहब की?" ताड़े ने देवराज चौहान पर नजर मारी--- "तुम्हें लग रही है, इन्हें तो मैं पुराना जानता हूँ।"
“कितना पुराना ?"
“दस बारह सालों से जानता हूँ।" ताड़े बोला।
"तुम किस पुलिस स्टेशन से हो?"
"इसी इलाके के पुलिस स्टेशन में में तैनात हूँ।" जीवन ताड़े बोला।
"इंस्पेक्टर।" देवराज चौहान मुस्कराकर कह उठा--- "तुम अपना वक्त खराब कर रहे हो। मैं शरीफ आदमी हूँ। तुम पता नहीं किस डकैती मास्टर का नाम ले रहे हो। इस बंगले में मैं बचपन से रह रहा हूँ। यहाँ आस-पास के लोग मुझे पुराना जानते.... ।"
"मैं आपकी बात को झूठला नहीं रहा। परन्तु डकैती मास्टर ऐसा भी तो रह सकता है जैसे आप कह रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि मैं सही हूँ, पर मन में शंका आ गई तो आ गई....।" सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर ने देवराज चौहान को देखते गम्भीर स्वर में कहा--- "डकैती मास्टर देवराज चौहान का मामला मैंने पता किया तो पता चला सीनियर इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े के पास है। मैं उनसे मिलने हैडक्वार्टर गया तो पता चला वो छुट्टी पर गाँव गये हैं, दस-बारह दिन बाद लौटेंगे। वो मिल जाते तो आज ही शक-वहम दूर हो जाता मेरा। कोई बात नहीं.... दस बारह दिन बाद ही सही। यहाँ तो मैं यूँ ही आपके बंगले पर नजर मारने आ गया था।"
वानखेड़े का नाम सुनते ही देवराज चौहान समझ गया कि सब-इंस्पेक्टर आसानी से पीछा छोड़ने वाला नहीं।
"तो बंगले के भीतर चलिये, भीतर चाय-कॉफी पीकर आपको तसल्ली मिलेगी।" देवराज चौहान ने कहा।
“फिर कभी, अभी तो मैं व्यस्त हूँ।" सब-इंस्पेक्टर अशोक मावेलकर ने कहा।
“तुम गलत रास्ते पर चल रहे हो। सूरज साहब इज्जतदार बिजनेसमैन हैं।" सब-इंस्पेक्टर ताड़े बोला।
“ऐसा ही हो तो अच्छा है। मैं बस अपनी तसल्ली करना चाहता हूँ। वानखेड़े साहब जब ड्यूटी ज्वाइन करेंगे, छुट्टी से वापस आयेंगे तो उनसे बात करके, मेरी तसल्ली हो जायेगी।"
उसके बाद सब-इंस्पेक्टर मावेलकर, हवलदार के साथ चला गया।
सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े कह उठा---
“आप इसकी बातों की परवाह मत करें सूरज साहब, पुलिसवाले ऐसे ही होते हैं।"
जवाब में देवराज चौहान मुस्कराया।
“मैं चलता हूँ सर।”
सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े भी चला गया।
देवराज चौहान होंठ सिकोड़े मिनट भर वहीं खड़ा सोचों में रहा। वानखेड़े ने दस-बारह दिन बाद छुट्टी से लौटना है। जो काम वो कर रहा है, उसे निपटाने के लिए इतने दिन बहुत थे। जब तक वानखेड़े आयेगा, तब तक यहाँ का काम निपटा कर वो यहाँ से जा चुका होगा।
देवराज चौहान गेट से भीतर प्रवेश करके कार तक पहुंचा और कार की डिग्गी खोलकर, उसमें रखे कागजों की फाईल को पास ही रखे नोटों वाले ब्रीफकेस में रखा और ब्रीफकेस बंद करके, उसे थामे बंगले के भीतर प्रवेश करता चला गया। सीधा ऊपर नोरा के बैडरूम में पहुँचा, परन्तु भीतर प्रवेश करते ही ठिठक गया।
कमरे में नोरा के साथ रीटा बैठी थी।
रीटा को वो तुरन्त पहचान गया क्योंकि उस रात की पार्टी की तस्वीरों में रीटा को देखा था। दोनों कुर्सियों पर बैठी थी कि रीटा उसे देखते ही खड़ी हो गई। जबकि नोरा बैठी रही। दोनों के चेहरों पर गम्भीरता थी ।
“हैलो!” देवराज चौहान ने मुस्करा कर रीटा से कहा और आगे बढ़कर ब्रीफकेस टेबल पर रख दिया।"
रीटा ने हैलो का जवाब नहीं दिया। देवराज चौहान को देखती रही।
“क्या हुआ?” देवराज चौहान ने रीटा को देखा, फिर नोरा को।
“मैंने।” नोरा गम्भीर स्वर में बोली--- “रीटा को तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है।”
“यही कि मैं सुरेन्द्रपाल हूँ?”
“हाँ....।”
देवराज चौहान ने सिर हिलाकर रीटा को देखा।
“तुम नोरा को बेवकूफ क्यों बना रहे हो सूरज?” रीटा तेज स्वर में कह उठी ।
“पहले नोरा भी नहीं मानती थी लेकिन अब मानने लगी है कि मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ।” देवराज चौहान बोला।
"मेरा तो दिमाग खराब हुआ पड़ा है।" नोरा परेशान सी कह उठी--- “मैंने खुद को हालातों के हवाले कर दिया है।”
“तुम सूरज हो। मानो ये बात....।" रीटा ने कहा।
“मैं सुरेन्द्र.... ।”
इसी पल देवराज चौहान का फोन बज उठा। देवराज चौहान ने बात की।
दूसरी तरफ सूरज था।
“आज दो दिन बीत गये। तुम श्रेया को मदन के हाथों से छुड़ा नहीं सके।" दूसरी तरफ से देवराज चौहान को अपनी ही आवाज सुनाई दे रही थी--- "तुम मदन को बंगला क्यों नहीं दे देते। वो कमीना दो सौ करोड़ का बंगला लिए बिना नहीं मानेगा। तुम कागज तैयार करवाओ, हम कहीं मिल लेंगे। मैं कागजों पर साईन कर दूंगा। बंगला मदन को दे दो।"
"मदन ने चार दिन का वक्त दिया है।" देवराज चौहान बोला--- “अभी दो दिन बाकी हैं।"
"दो दिन ऐसे बीत जायेंगे, पता ही नहीं चलेगा। तुम मदन को बंगला दे दो। मुझे श्रेया सही-सलामत चाहिये। मेरी बहन को कुछ हो जाये, मैं सह नहीं सकूंगा। तुम बहुत ढीले चल रहे हो। तुम्हारे बस का नहीं है श्रेया को ढूँढ लेना। तुम्हारी वजह से श्रेया की जिन्दगी खतरे में पड़ सकती है। वो कमीना...।"
"अगर दो दिन में मैं श्रेया को ना ढूँढ सका तो बंगला मदन के हवाले कर दूंगा।"
दूसरी तरफ से सूरज के गहरी साँस लेने की आवाज आई।
“पक्का तुम बंगला मदन को दे दोगे?" उधर से सूरज ने कहा।
“हाँ। परन्तु दो दिन बाद। अगर तुम्हें इस काम की जल्दी है तो तुम भी यहाँ आ सकते हो। आते क्यों नहीं? बंगला तुम्हारा है। सब कुछ तुम्हारा है। तुम जो चाहो कर सकते हो।"
“ये....ये तुम सूरज से बात कर रहे हो?” एकाएक नोरा कहते हुए उठ खड़ी हुई।
देवराज चौहान ने हाँ में सिर हिलाया और नोरा को वहीं रुकने को कहा।
"मेरी कोई मजबूरी है कि अभी मैं बंगले पर नहीं आ सकता। जब हम मिलेंगे तो तुम्हें सब कुछ बताऊँगा।"
"फोन पर बता दो।"
"ये बातें फोन पर कहने वाली नहीं हैं। आमने-सामने बैठकर ही बातें हो सकती हैं।"
“नोरा तुमसे बात करना चाहती है।" देवराज चौहान ने कहा।
"नोरा ?”
"रीटा भी यहाँ है। बात करना चाहोगे?"
कुछ चुप्पी के बाद आवाज आई---
“बात कर लूंगा। पर तुम श्रेया की चिन्ता करो। उसे जैसे भी हो, वापस लाओ।"
देवराज चौहान ने रीटा की तरफ फोन बढ़ा कर कहा।
"सूरज से बात कर लो।"
रीटा ने फौरन फोन लेकर बात की।
"तुम सूरज हो?” रीटा ने कहा।
उधर से सूरज ने बात की।
“पार्टी में तुम आये थे?”
सूरज ने उधर से जवाब दिया।
“बताओ तो पार्टी में मैंने और तुमने क्या बातें की थीं?" रीटा ने पूछा।
उधर से सूरज ने बताया।
“ओह गॉड....।” रीटा हक्की-बक्की रह गई--- "तुम-तुम ही सूरज हो। हम में ये ही बातें हुई थीं। तुम ही सूरज हो। तुम्हारी आवाज मैं पहचान रही हूँ। पर....पर ये कौन है जो मेरे सामने खड़ा है? ठीक तुम जैसा ही....।"
नोरा ने आगे बढ़कर रीटा से फोन ले लिया।
नोरा फोन पर बात करने लगी।
रीटा हक्की-बक्की-सी देवराज चौहान को देखे जा रही थी।
“विश्वास आ गया कि मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ।" देवराज चौहान बोला।
रीटा ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा---
“विश्वास....विश्वास करने को दिल नहीं कर रहा। तुम....तुम तो हर तरफ से सूरज दिखते हो।" रीटा हैरान थी--- "हे भगवान!"
देवराज चौहान आगे बढ़ कर कुर्सी पर बैठा और सिग्रेट सुलगा ली।
"ये सब देखकर बेचारी नोरा का क्या हाल हो रहा होगा।"
रीटा ने व्याकुल भाव से नोरा को देखा।
कुछ कदम दूर खड़ी नोरा फोन पर बात कर रही थी। उसकी आँखों में आँसू थे।
“तुम कहाँ रहते हो?” रीटा ने देवराज चौहान से पूछा।
"यहीं....मुम्बई में।"
"मुम्बई में कहाँ---कोई पता तो होगा?"
"वो नहीं बता सकता....।"
"क्यों....क्यों नहीं बता सकते। मैं....मैं तुम्हारे बारे में पता करूंगी कि तुम क्या वास्तव में सुरेन्द्रपाल हो या...।"
"अभी-अभी तुमने सूरज से बात की है। तसल्ली नहीं हुई तुम्हारी?" देवराज चौहान बोला।
रीटा ने माथा पकड़ लिया। वो अभी तक हैरत में थी।
नोरा बात खत्म करके पास आ गई थी। उसकी आँखें गीली थीं।
"श्रेया के बारे में कुछ करो।" नोरा भर्राए स्वर में बोली--- "जितनी देर होती जा रही है, मेरी घबराहट उतनी ही बढ़ती जा रही है। सूरज भी परेशान हो रहा है कि श्रेया जाने किस हाल में होगी।"
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