भामा परी लौटी।
सबके चेहरे खुशी से भर उठे।
“उन चारों को छोड़ आईं भामा परी?” राधा ने पूछा।
“हाँ।”
“मेरा नीलू कैसा है?”
“नीलू, ओह नीलू सिंह की बात कर रही हो। वो तो ठीक है। उसे क्या होना था। अभी तो तुम्हारे पास से गया।”
“वो तो मुझे पता है। मैं पूछ रही हूँ कि वहाँ पर ठीक है।”
भामा परी मुस्कराई और शांत स्वर में कह उठी।
“मैं तुम्हें भी वहीं ले चलती हूँ। तब उसकी सेहत का हाल उससे ही पूछ लेना।”
“वो अब महल में है।” पारसनाथ ने पूछा।
“महल के आंगन में खड़े तुम लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।”
“चलो।” राधा बोली-“हम भी चलते...।”
“सरजू कहाँ है?” तभी प्रेमा की आवाज उन सब के कानों में पड़ी।
“सरजू?” दया ने फौरन हर तरफ देखा-“कहाँ गया सरजू?”
“यहीं तो था।” सोहनलाल कह उठा।
“सरजू! सरजू!”
“कुछ देर पहले ही मैंने उसे देखा था।” पार्वती कह उठी-“उस पेड़ के पास था।”
“सरजू!” दया चीखी।
उसके बाद तो वहाँ सरजू की तलाश शुरू हो गई।
आसपास की हर जगह देख ली। सबने उसे पुकार-पुकार कर देख लिया।
परन्तु सरजू का कहीं पता नहीं था।
जानकीदास और पार्वती उनके साथ बराबर की भागदौड़ करते, परेशान से नजर आ रहे थे।
काफी वक्त गुजर गया। परन्तु सरजू न मिला।
दया रो रही थी। आँखें लाल हो रही थीं। उसका चेहरा आंसुओं से भरा पड़ा था।
“समझ में नहीं आता कि आखिर सरजू चला कहाँ गया?”
सोहनलाल परेशान-सा कह उठा।
“तब तो मैंने भी उसे पास ही देखा था।”
दया नीचे बैठी फफके जा रही थी।
“मेरे ख्याल से वो टहलता हुआ किसी दिशा की तरफ गया होगा।” पार्वती बोली-“फिर रास्ता भूल गया। भटक गया। हर तरफ तो एक जैसा ही नज़ारा है। पेड़-घास और उनके बीच में गुजरते रास्ते।”
“मेरे ख्याल से ऐसा ही हुआ होगा।” पारसनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा-“वो मिल जायेगा।”
“मैं तो यहाँ नहीं रुक सकती।” राधा बोली-“महल में नीलू मेरा इन्तजार कर रहा होगा। चलो भामा परी, मुझे वहाँ ले चलो।”
सब एक-दूसरे को देखने लगे। चेहरों पर गम्भीरता थी।
“ये बात तो सच है कि उस महल के आंगन में खड़े वो चारों तुम लोगों के आने का इन्तजार कर रहे हैं।” भामा परी बोली।
“लेकिन सरजू के बिना हम कैसे।” पारसनाथ ने कहना चाहा।
“वो जहाँ भी होगा, भटकता-भटकता यहीं पहुँच जायेगा।” राधा कह उठी।
“मैं सरजू के बिना नहीं जाऊँगी।” दया रोते फफकते कह उठी।
कुछ सोच के बाद भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा।
“दया! मैं इन्हें छोड़ कर आती हूं और सरजू जहाँ भी है, उसे तलाश करके, तुम दोनों यहाँ से ले चलूंगी।”
“बच्ची को मैं यहाँ अकेला नहीं रहने दूंगी!” पार्वती कह उठी-“मैं इसके साथ रहूंगी।”
“इनके साथ मैं भी यहीं रहूंगी।” प्रेमा कह उठी-“सरजू को तलाश करने के बाद भामा परी हम सबको उस महल में पहुँचा देगी।”
“हमें भी सरजू को तलाश...।” पारसनाथ ने कहना चाहा।
“सब ही यहां रहेंगे तो मैं किसे उस महल में पहुँचाऊँगी?” भामा परी कह उठी।
पारसनाथ और सोहनलाल की नजरें मिलीं।
“यहां पर दया, पार्वती और प्रेमा को रहने दो। सरजू को ढूंढ कर, इन चारों को वहाँ ले आऊँगी। अब तुम चारों चलो।” भामा परी ने सोहनलाल, पारसनाथ, राधा और जानकीदास पर नज़रें घुमाईं।
“ठीक ही तो कह रही है भामा परी।” राधा बोली।
“हम यहां रहते तो ज्यादा ठीक रहता।” पारसनाथ ने धीमे स्वर में कहा।
“तुम लोगों को छोड़कर मैं फौरन ही यहाँ लौट आऊँगी।” भामा परी ने कहा-“तुम लोग यहाँ रहो या न रहो, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि यहाँ आने वाले खतरों से सिर्फ शक्ति के दम पर निबटा जा सकता है जो किसी के पास भी नहीं है।”
सब की नज़रें भामा परी के चेहरे पर थीं।
दया एक तरफ बैठी अभी भी सुबक रही थी। पार्वती उसके पास जा पहुंची थी।
“तुम जाओ भामा परी।” प्रेमा ने गम्भीर स्वर में कहा-“इन्हें छोड़ आओ।”
भामा परी ने हाथ में पकड़ी रॉड को आगे की तरफ किया और बोली-
“तुम चारों इस रॉड को पकड़ लो।”
पारसनाथ, जगमोहन, राधा और जानकीदास ने आगे बढ़कर रॉड को थाम लिया। भामा परी ने पंख फैला कर होंठों में कछ बुदबुदाया। पंख को उड़ाने के लिये हिलाए तो जमीन को छोड़कर वो ऊपर की तरफ बढ़ने लगी।
☐☐☐
प्रेमा, सुबकती दया और हौसला देती पार्वती के पास पहुंची।
“बहुत बुरा हुआ।” दया के सिर पर हाथ फेरती पार्वती कह उठी-“जरा देख तो, सरजू पास ही होगा।”
“साथ आओ।” प्रेमा बोली-“ढूंढते हैं कि...।”
“बेचारी का हाल तो देख। चल नहीं पायेगी। तू आस-पास नजर तो मार। न मिला तो, बाद में एक साथ ही ढूँढेंगे सरजू को। इसकी तबीयत तो संभल जाये।”
“मैं आसपास देखकर आती हूँ।” कहने के साथ ही प्रेमा वहाँ से हटी और एक दिशा की तरफ बढ़ गई।
पार्वती ने दया को देखा।
दया का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था।
“इस तरह रोने से काम नहीं चलेगा।” पार्वती बोली-“अपने को संभाल तू।”
“सरजू कहाँ चला गया? वो मुझे छोड़कर नहीं जा सकता। उसके साथ अवश्य कोई गम्भीर बात हुई है।” दया सुबकती कह उठी।
“तुम ठीक कहती हो।”
“क्या?”
दया ने आंसुओं भरी निगाहों से फौरन पार्वती को देखा।
“सच में-सरजू के साथ बहुत बुरा हुआ।” पार्वती ने गहरी सांस लेकर कहा।
“क्या हुआ?” दया का सुबकना बंद हो गया।
“होना क्या है।” पार्वती ने कड़वे तीखे स्वर में कहा-“मैं और जानकीदास बहुत खास बात कर रहे थे और सरजू ने सुन ली हमारी तो पोल खुल गई कि तुम सबको हम महल में जहर देंगे।”
“जहर!” दया का मुंह खुला-का-खुला रह गया।
“हाँ। अगर सरजू ये बात सबको बता देता तो हमारी योजना खराब हो जाती। ऐसे में सरजू को खत्म कर देना ही ठीक था। जानकीदास महल में चला गया है, उन सबके साथ, जहर देगा। अब मैं यहाँ रह गई तेरे साथ क्योंकि तेरे को सरजू चाहिये। अब उसे ढूंढने का बहाना तो करना ही है।”
दया फटी-फटी आँखों से पार्वती को देख रही थी।
“क्या-क्या किया तुमने सरजू के साथ।” दया के होंठों से निकला-“म-मार दिया...उसे?”
“हाँ।” पार्वती के दाँत भिंचने लगे-“वो तो मर गया। अब तेरी बारी है।”
“नहीं।” दया काँप कर जल्दी से उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था, और दूसरा जा रहा था। वो समझ नहीं पा रही थी कि जो उसने सुना, वो सच है। परन्तु ऐसा मजाक पार्वती कर भी नहीं सकती थी।
“तुम...तुम पागल तो नहीं हो गई।” दया को अपना मस्तिष्क ठीक से काम करता न लगा।”
पार्वती के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी।
“पागल मैं नहीं, तू हो गई है।” पार्वती उठ खड़ी हुई-“तेरे को खत्म करना मेरे लिये बहुत जरूरी है। वरना तू सरजू को तलाश करती रहेगी और हमारे काम तेरी वजह से रुकने लगेंगे। सबका ध्यान इधर रहेगा।”
दया के जिस्म में बर्फ से भरी सिरहन दौड़ गई। वो आतंक में लिपटी धीमे-धीमे पीछे होने लगी। आँखों में भरा खौफ स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
पार्वती के कदम उसकी तरफ बढ़ने लगे। चेहरे पर खतरनाक चमक थी।
“तेरे को खत्म करके प्रेमा को भी मार दूंगी। वरना वो बता देगी सबको कि मैंने तुम्हें मारा।”
“सरजू को कहाँ मारा तूने।” दया के होंठों में कांपता स्वर निकला।
“उधर...।” पार्वती ने एक तरफ इशारा किया-“वहाँ गड्ढे में पड़ा है उसका शरीर। गड्ढे को ढाँप रखा है फूल-पत्तों से।”
दया की आँखों से आंसू बह निकले। वो पीछे हटती जा रही थी।
“बहुत बुरी औरत हो तुम...।” दया का चेहरा फक्क था-“कौन-कौन हो तुम?”
“मैं-पार्वती हूँ और वो मेरा आदमी जानकीदास। सेवक हैं हम सौदागर सिंह के। ये चक्रव्यूह सौदागर सिंह का है। यहाँ आने वाले को चक्रव्यूह में फंसाना हमारी सेवा ही है। सौदागर सिंह का ही हुक्म मानते हैं हम।”
“तुम और सौदागर सिंह कमीने हो-जो मासूमों की जान ले रहे हो।”
पार्वती हंसी।
“न तो हम ऐसे हैं, न हमारा मालिक सौदागर सिंह। हमने आज से पहले कभी किसी की जान नहीं ली।” पार्वती धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ रही थी। दया पीछे सरकती जा रही थी-“मालिक का हुक्म है कि जान तब ही ली जाये, जब बहुत जरूरी हो। और इस वक्त तेरे को खत्म करना जरूरी है-वरना तू दूसरों को अपने साथ लगाकर सरजू को ढूंढती रहेगी। ऐसे में जो जहर से बच जायेगा, उसे फिर किसी नये जाल में फंसाने की तैयारी करनी पड़ेगी-इसलिये।”
“प्रेमा...ऽ...ऽ...ऽ...।” एकाएक दया गला फाड़ कर चीखी।
शांत माहौल में उसकी पुकार दूर-दूर तक गई।
“चालाकी करती है मेरे से।” पार्वती गुर्रा उठी और दया पर झपटी-“ले-अभी मर।”
दया के होंठों से भयपूर्ण चीख निकली। उसने पार्वती से खुद को बचाया और एक तरफ दौड़ी।
परन्तु पार्वती जैसी शातिर औरत से बच नहीं सकी दया।
पार्वती ने पीछे से उसे धक्का दिया, नीचे गिरा दिया। इससे पहले उठ पाती, पार्वती उसके ऊपर आ गिरी। दया छटपटाई।
पार्वती का पंजा उसके गले पर कस गया।
दया छटपटाई बचने को।
“नहीं बच सकेगी। पार्वती के हाथों से बचना आसान नहीं।” पार्वती गुर्राई और गले पर हथेली का दबाव बढ़ा दिया।
दया की आँखें फटने लगीं।
सांस रुकने के कारण उसका चेहरा सुर्ख-सा होने लगा। वो छटपटाई। तड़पी। फिर उसका शरीर शांत पड़ता चला गया। दया के शरीर में हरकत होनी बंद हो गई। खुला मुँह। फटी आँखें। मर चुकी थी दया।
पार्वती ने दाँत भींचे, सिर उठाकर आस-पास देखा। दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसकी नज़रें प्रेमा को देख रही थीं। उसे कहीं भी न पाकर, वो जल्दी से उठी और दया के मृत शरीर को कंधे पर डालकर तेजी से एक तरफ बढ़ गई। पॉर्क के नीचे सूखे पत्ते आने की वजह से चरमराहट-सी उभर रही थी।
पार्वती बेहद तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी। कंधे पर दया का शरीर, जैसे कोई असर न कर रहा था। जैसे कंधे पर कुछ पड़ा ही न हो। कुछ ही मिनटों में वो काफी दूर, जंगल के भीतरी हिस्से में पहुँची। वहाँ एक पेड़ के पास पत्ते-टहनियों से ढका गड्ढा था।
पार्वती ने पैर से पत्ते-टहनियों को हटाया तो गड्ढे में सरजू की लाश पड़ी दिखाई दी। पार्वती ने कंधे पर पड़ा दया का मृत शरीर गड्ढे में फेंका और पत्तों-टहनियों से गड्ढे को पुनः ढाँप दिया। अब उस जगह को देखकर कोई नहीं कर सकता था कि वहाँ गड्ढा भी हो सकता है।
इन सब कामों से निपटकर पार्वती पलटने को हुई कि ठिठक गईं। इसके साथ ही उसके दाँत भिंचते चले गये। खतरनाक भाव चेहरे पर आ रहे थे। हाथ मुट्ठियों के रूप में भिंच गये थे।
कुछ कदमों के फासले पर प्रेमा खड़ी उसे देख रही थी।
प्रेमा की आँखों में खतरनाक भाव थे। भिंचे दाँत।
“तो तुम हो वो डायन जिसने सरजू को भी खाया और अब दया को।” प्रेमा सख्त स्वर में कह उठी।
“डायन कहो, कुछ भी कहो।” पार्वती ने खा जाने वाले स्वर में कहा-“ये सब करके मैं अपना फर्ज़ पूरा कर रही हूँ।”
“फर्ज?”
“हाँ। मैं...।”
“तुम हो कौन?”
“सौदागर सिंह की सेविका हूँ। चक्रव्यूह के उस हिस्से में आने वाले लोगों को फंसाना मेरा काम है।” पार्वती कड़वे स्वर में कह उठी-“मेरे काम में जो आयेगा, उसका यही हाल होगा। अब तू भी नहीं बच सकेगी।”
प्रेमा के चेहरे पर दरिन्दगी भर उठी।
“मेरे को धमकी देती है।”
“धमकी नहीं, सच कह रही हूँ। अब देख अपना हाल...।”
“तूने मुझे भी दया समझ लिया। जानती हो मैं कौन हूँ।” प्रेमा दाँत भींचकर कह उठी।
“किसी राजा की बेटी भी हो, तो मुझे क्या परवाह।” जहरीले स्वर में वो हंसी।
“पवित्र शक्तियों की तलवार से मेरा जन्म हुआ है।” प्रेमा शब्दों को चबाकर कह उठी-“कभी मैं शैतान के अवतार के तिलस्म में मिट्टी का बुत थी, सजावट के लिये। परन्तु शक्तियों ने मुझमें जीवन भर दिया।” (ये जानने के लिये पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”) “मैं साधारण युवती नहीं कि जिसकी आसानी से जान ले लूंगी।”
“मैं भी साधारण नहीं।” पार्वती ने कठोर स्वर में कहा-“सौदागर सिंह ने पहरेदार बनाया है। कुछ खास ताकते हैं मुझमें।”
“वो खास ताकतें तुझे मरने से बचा लेंगी।” प्रेमा के दाँत भिंच गये।
“तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। सरजू-दया की तरह मैं तेरे को भी खत्म करने जा रही हूँ।” पार्वती गुर्राई।
प्रेमा, पार्वती की आँखों में झांकती उसकी तरफ बढ़ी।
पार्वती की आँखें सुलग उठीं।
प्रेमा के पास पहुंचते ही, पार्वती ने झपट्टा मारा और अपना हाथ उसके गले पर जमा लिया। प्रेमा के शरीर को हल्का-सा झटका लगा, फिर सामने हो गई। वो वैसे ही खड़ी रही। पार्वती ने हाथ की उंगलियों का दबाव उसके पंजे पर बढ़ाया। दूसरे ही पल उसके माथे पर बल नज़र आने लगे।
उंगलियों का दबाव उसके गले पर नहीं बढ़ा। पार्वती को ऐसा लगा जैसे किसी कठोर चीज को दबा रही हो। उसने पुनः कोशिश की, परन्तु वो गर्द जैसे बेहद सख्त सी महसूस हुई।
पार्वती की आँखें सिकुड़ीं।
प्रेमा के चेहरे पर खतरनाक भाव आ ठहरे।
“मैंने कहा कि मेरा शरीर मिट्टी का है। पवित्र शक्तियों ने मुझमें जीवन भरा है। यूं तो मैं सबको सामान्य ही नज़र आऊँगी। परन्तु जब भी मेरे शरीर पर घातक वार किया जायेगा तो वो हिस्सा लोहे से भी ज्यादा सख्त हो जायेगा। मेरे शरीर पर तुम्हारा कोई भी वार कामयाब नहीं हो सकेगा।”
“मंत्रों की शक्ति से तो नहीं बच सकोगी तुम...।”
“ठीक कहती हो। मंत्रों की शक्ति से बच नहीं सकूँगी।” प्रेमा ने दाँत भींचकर कहा-“लेकिन तेरे को अब मंत्रों को याद करने का वक्त ही कहाँ मिलेगा।” इसके साथ प्रेमा ने पार्वती का गला दोनों हाथों से पकड़ लिया। पार्वती ने अपने गले से, उसका हाथ हटाने की चेष्टा की-परन्तु सफल नहीं हो सकी।
प्रेमा ने पीछे धकेला तो पार्वती पेड़ के तने से जा सटी।
पार्वती गला छुड़ाने की भरपूर चेष्टा कर रही थी। तभी प्रेमा ने उसके सिर को झटका दिया। पार्वती का सिर वेग के साथ तने से टकराया। पार्वती के होंठों से कराह निकल गई। इससे पहले वो संभल पाती, प्रेमा ने पूरी शक्ति लगाकर, पार्वती का सिर तने से पुनः टकरा दिया। पार्वती के शरीर को तीव्र झटका लगा फिर शांत पड़कर नीचे झुकने लगा। प्रेमा ने उसके शरीर को छोड़ा तो, वो पास ही गड्ढे में जा लुढ़का, जिसमें सरजू और दया के मृत शरीर पड़े थे।
पेड़ के तने से टकराने पर पार्वती का सिर फट गया था-जैसे किसी ने सिर के बीचो-बीच कुल्हाड़ी मार दी हो। इसके साथ ही उसकी सांसों की डोर टूट गई थी।
प्रेमा गड्ढे में पड़े पार्वती के शरीर को सख्त निगाहों से देखती रही। पेड़ के तने पर और गड्ढे में खून की सुर्खी नज़र आ रही थी। प्रेमा के हाथ पर भी कुछ खून लग गया था। प्रेमा गहरी सांस लेकर वहाँ से हटी और चंद कदमों की दूरी पर हो गई। सरजू और दया की मौत का, खासतौर से दया की मौत का दुःख था उसे कि वो उसके साथ थी और उसे छोड़कर, सरजू को ढूंढने चली गई-पार्वती के कहने पर। अगर वो न जाती या पार्वती को साथ लेकर जाती तो, दया ने अब तक जिन्दा होना था।
प्रेमा अभी सोचों में उलझी थी कि तभी उसकी निगाह प्रकाश बिन्दु पर पड़ी जो कि अचानक ही जाने कहाँ से आकर, उसके कुछ कदम की दूरी पर पहुँच कर, हवा में मंडराने लगा था। उस प्रकाश बिन्दु में इतना तीव्र प्रकाश चमक रहा था कि उस पर निगाह टिकानी कठिन-सी हो रही थी।
प्रेमा अभी कुछ समझ नहीं पाई कि एकाएक प्रकाश बिन्दु का आकार बड़ा होने लगा।
आकार बड़ा होने के साथ-साथ उसकी चमक भी बढ़ने लगी।
आँखें चौंधिया गईं प्रेमा की।
वो चमकता बिन्दु छः फीट से ज्यादा बड़ा हो गया और चमक इतनी बढ़ गई कि प्रेमा के लिये उस नज़रें टिकाए रखना असम्भव हो गया तो उसने मुँह घुमा लिया। इधर-उधर देखते प्रेमा की आँखें सिकुड़ गई। बिन्दु से प्रकाश इतना तेज था कि आँखें न टिक पा रही थीं। परन्तु उस प्रकाश की चमक कहीं नहीं पड़ रही थी।
ये अजीब बात थी।
“तो तुम हो। तुमने मेरी सेविका पार्वती की जान ली।”
इस आवाज को सुनते ही प्रेमा ने तुरन्त सामने देखा।
वहाँ अब प्रकाश बिन्दु की अपेक्षा लम्बा-चौड़ा व्यक्ति खड़ा था। शरीर पर धोती और कुर्ता पहन रखा था। गले में कई तरह की मालाएँ पड़ी थीं। माथे पर तिलक था। उसकी आँखों में ऐसी चमक थी, जो इन्सानों की आँखों में नहीं होती।
सौदागर सिंह था वो।
प्रकाश बिन्दु के गायब होते ही वहाँ खड़ा नज़र आने लगा था, सौदागर सिंह।
प्रेमा के चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे थे।
“कौन हो तुम?” उसके होंठों से निकला-“प्रकाश बिन्दु में तुम यहाँ आये हो।”
“हाँ।” सौदागर सिंह के होंठ हिले।
“कौन हो तुम?”
“सौदागर सिंह-इस चक्रव्यूह का जन्मदाता।”
प्रेमा के होंठ भिंच गये।
“पार्वती मेरी सेविका थी, जिसे तुमने मार दिया। उसकी मौत होते ही तुरन्त मुझे खबर मिली तो मैं आ गया।” सौदागर सिंह ने कहा-“लेकिन मैं अपनी शक्ति से जान चुका हूँ कि तुम सामान्य इन्सान नहीं हो। तुम मिट्टी के बुत से इन्सान बनी हो। मैं देख रहा हूँ-देवा ने तुम्हारे जिस्म में जान डाली है।”
“हाँ। अब वो ही मेरा मालिक है। उसका हुक्म मेरे लिए सब कुछ है।”
“तुम सिर्फ मेरा हुक्म मानोगी।”
“नहीं। देवराज चौहान के शब्द ही मेरे लिए सब कुछ है।”
“मैं तुम्हें तब तक के लिए अपनी कैद में ले रहा हूँ, जब तक तुम मेरी सेवा के लिये तैयार नहीं होतीं।” कहने के साथ ही सौदागर सिंह ने आँखें बंद करके होंठों ही होंठों में बुदबुदाया। उसी पल प्रेमा का शरीर इस तरह छोटा होने लगा, जैसे गुब्बारे से हवा निकल रही हो और फिर गायब हो गई प्रेमा।
जैसे वहाँ थी ही नहीं।
फिर सौदागर सिंह ने अपनी आँखें बंद की। एकाएक वहाँ सौदागर सिंह न दिखाई देकर चमकीला गोला दिखाई दिया, जो कि छोटा होते हुए प्रकाश बिन्दु बन गया। फिर वो भी गायब हो गया।
इसके कुछ देर बाद ही आस्मान से उतरती भामा परी दिखाई दी।
☐☐☐
भामा परी हैरान-परेशान थी कि पार्वती, दया और प्रेमा कहाँ चली गईं? यहाँ तो कोई भी नज़र नहीं आ रहा। हर तरफ देख चुकी थी वो। दूर-दूर तक हो आई थी-परन्तु कोई न दिखा।
भामा परी समझ न पाई कि क्या करे?
यहीं रहकर उनकी तलाश करती रहे या वापस उस महल में जाये, जहाँ उन सबको छोड़ आई है।
उनकी तलाश में लगी भामा परी तब ठिठक गई, जब उसकी निगाह पेड़ के पास नजर आ रहे गड्ढे पर पड़ी। वहाँ से एक पाँव निकला नज़र आ रहा था।
भामा परी ने फौरन पास पहुँचकर देखा।
नज़र आने वाला पाँव पार्वती का था। फिर गड्ढे में उसे दया और सरजू के मृत शरीर पड़े दिखे। वो समझ न पाई कि इन तीनों को किसने मार दिया? प्रेमा कहाँ है?
क्या प्रेमा ने इन्हें मारा है।
भामा परी ने प्रेमा की पुनः तलाश की वहाँ। परन्तु वो नज़र नहीं आई। जब भामा परी को लगा कि यहाँ रहना अब बेकार है तो पंख फैलाकर आसमान की तरफ बढ़ती चली गई।
☐☐☐
पेशीराम की आत्मा को गये आधा घंटा हो चुका था।
मोना चौधरी दो फीट ऊँचे पत्थर पर बैठ गई थी। उसकी शांत गम्भीर निगाह दूर-दूर तक जा रही थी। बाईं तरफ बड़ा-सा बांध था। जिसके भीतर फूलों की छोटी-छोटी क्यारियाँ दिखाई दे रही थीं। हर रंग के फूल थे वहां। दांई तरफ पेड़ ही पेड़ नज़र आ रहे थे। जंगल जैसा नजारा था। पेड़ों पर फल से लटकते दिखाई दे रहे थे। सामने की तरफ दो कच्चे रास्ते जाते दिखाई दे रहे थे।
दोनों रास्ते ही बाईं तरफ जा रहे थे।
दूर-दूर तक कोई भी नज़र नहीं आ रहा था।
मोना चौधरी ने पुनः उस तरफ देखा जिधर पेड़ थे। जंगल जैसा नज़र आ रहा था। बैठे-बैठे थकान-सी महसूस की तो वो उठ खड़ी हुई। पेशीराम की आत्मा चक्रव्यूह के रास्ते और महल देखने गई थी। परंतु अभी तक वापस नहीं लौटी थी। मोना चौधरी टहलने के अंदाज में आगे बढ़ी और जंगल में प्रवेश कर गई। पेड़ों की वजह से यहाँ दिन की रोशनी कम महसूस हो रही थी। धूप से राहत मिल रही थी यहाँ।
तभी मोना चौधरी ठिठकी। चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। नज़रें पेड़ों के बीच के रास्ते में पड़ी बेहद खूबसूरत कुर्सी पर जा टिकीं। चाँदी की कुर्सी थी वो। उस पर रंग-बिरंगे नगीने लगे हुए थे। कुर्सी की पुश्त इतनी बड़ी थी कि उस पर बैठा व्यक्ति पीछे से नज़र न आये। कुर्सी के हत्थों पर भी नगीने जड़े दिख रहे थे। चाँदी की कुर्सी इस तरह चमक रही थी जैसे अंधेरे में रोशनी चमक रही हो।
मोना चौधरी उलझन में फंसी कुर्सी के पास जा पहुंची। वो समझ नहीं पा रही थी कि ऐसी वीरान जगह, खूबसूरत कुर्सी कौन छोड़ गया। दूर तक कोई भी दिखाई न दे रहा था।
मोना चौधरी ने कुर्सी को छुआ। टटोला। कुर्सी क्या, वो चाँदी का सिंहासन थी जैसे। मोना चौधरी को वो सिंहासन जैसी कुर्सी इतनी प्यारी लग रही थी कि उससे दूर होने का मन नहीं कर रहा था।
मोना चौधरी ने पुनः हर तरफ नज़रें दौड़ाईं। कोई नज़र न आया। फिर आराम से बैठने की सोचकर वो कुर्सी की गद्देदार सीट पर जा बैठी। बैठते ही अजीब-सा चैन-सुकून मिला दिलो-दिमाग को। ऐसी आरामदेह कुर्सी हो तो वो दस घंटे बैठकर भी पेशीराम की आत्मा के आने का इन्तजार कर सकती है।
दो-तीन मिनट बीत गये मोना चौधरी को चाँदी की कुर्सी पर बैठे। फिर जाने क्या सोचकर उठने लगी कि उठ न सकी। हिलने के अलावा कुछ न हुआ।
मोना चौधरी के मस्तिष्क को झटका लगा। फिर आँखें फैलकर चौड़ी होती चली गईं।
उसका जिस्म कुर्सी से चिपक चुका था।
मोना चौधरी ने पुनः कोशिश की कुर्सी छोड़कर, जमीन पर खड़ी हो जाये। परन्तु कोशिश बेकार रही। कुर्सी से उठ न सकी। कूल्हे और पीठ कुर्सी से चिपके रहे।
मोना चौधरी समझ गई कि चक्रव्यूह की चाल में फंस चुकी है। सच में बेवकूफ रही वो। ऐसी जगह चाँदी की सिंहासन नुमा कुर्सी मौजूद देखकर ही उसे समझ लेना चाहिये था कि ये उसके लिये जाल है।
मोना चौधरी ने जंगल जैसी जगह पर दूर-दूर तक निगाह मारी।
सुनसानी और चुप्पी ही हर तरफ महसूस हुई।
मोना चौधरी ने पुनः कोशिश की कुर्सी से उठने की। लेकिन सफल न हो सकी।
तभी जमीन में जोरों से कम्पन हुआ। कुर्सी इतनी जोर से हिली जैसे किसी ने झिंझोड़ दिया हो। उसी पल मोना चौधरी को अपनी सांसें थमती-सी लगीं। देखते-ही-देखते कुर्सी के सामने उसे जमीन फटती नज़र आई। जमीन इस तरह फट रही थी, जैसे किसी कागज को फाड़ा जाता है। फिर वो जमीन उसकी कुर्सी के नीचे से भी फटती चली गई।
दहशत में घिर गई मोना चौधरी।
जिस चाँदी की कुर्सी से वो चिपकी बैठी थी, वो जोर से हिली और उसी पल ही फटी जमीन में कुर्सी सहित गिरती चली गई। गिरते हुए कुर्सी घूम गई। मोना चौधरी का सिर नीचे की तरफ हो गया। परन्तु वो गिरी नहीं। कुर्सी से चिपकी रही। सांसें लेना भूल चुकी थी मोना चौधरी। वो यही सोच रही थी कि नीचे जाती कुर्सी अभी किसी कठोर फर्श से, अथवा अन्य किसी चीज से टकरायेगी और सब कुछ खत्म हो जायेगा।
दाँत भिंचे हुए थे मोना चौधरी के।
हर तरफ गहरा अंधेरा था। कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था कि वो कहाँ गिरी जा रही है। कैसी जगह है आसपास...यही अहसास हो रहा था कि किसी भी पल उसका जीवन समाप्त हो जायेगा और...। तभी उल्टी हुई पड़ी वो कुर्सी सीधी होने लगी। उसके नीचे गिरने की रफ्तार भी कम हो गई। कुछ ही पलों में कुर्सी सीधी होकर सामान्य स्थिति में आ गई। अब वो धीमे-धीमे नीचे जा रही थी।
मोना चौधरी गहरी-गहरी सांसे लेने लगी। उल्टे हो जाने के कारण, सारा खून चेहरे पर सिमट आया था। लाल सुर्ख हो चुका था चेहरा। परन्तु गहरे, स्याह अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
तभी मोना चौधरी को हल्का-सा झटका लगा। नीचे जाती कुर्सी थम गई। मोना चौधरी को अपना सिर चकराता-सा महसूस हो रहा था। सांसें असंयम सी थीं। अंधेरा था इस तरफ। कुछ दूरी पर रोशनी की पतली-सी रेखा दिखाई दे रही थी। वो समझ न पाई कि वो रोशनी कैसी है?
कई पलों तक वो रोशनी की उस लकीर को देखती रही। सांसों पर अब काबू होने लगा था। तभी उसे एहसास-सा हुआ कि कुर्सी की पकड़ से वो जैसे आजाद हो गई है।
मोना चौधरी ने पीठ आगे की तो पीठ पुश्त से अलग हो गई। ये देखकर मोना चौधरी उठी तो उठती चली गई। कुर्सी की पकड़ अब ढीली हो चुकी थी। उठते ही वो कुर्सी से दो कदम दूर हो गई। खुद को उसने ठोस जगह पर महसूस किया। अंधेरे में यहाँ ठहरना बेकार था। कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। मोना चौधरी सावधानी से उधर बढ़ी, जिधर रोशनी की लकीर दिखाई दे रही थी।
उस लकीर के पास पहुँच कर वो ठिठकी।
इसके साथ ही मोना चौधरी को महसूस हुआ कि वो किसी दरवाजे के पास खड़ी है। रोशनी की लकीर दरवाजे के नीचे से आ रही है। मोना चौधरी ने हाथ आगे बढ़ा कर टटोला। वो वास्तव में दरवाजा था। लोहे का दरवाजा। धकेला तो खुलता चला गया वो। सारी जगह रोशनी से चमक उठी। पल भर के लिये मोना चौधरी की आँखें चौंधिया कर बंद हुईं। फिर खोल लिया आँखों को। सब सामान्य-सा नज़र आने लगा था।
मोना चौधरी ने देखा कि दरवाजा एक कमरे में खुला था। तेज रोशनी में वो कमरा चमक रहा था।
मोना चौधरी ने कदम आगे बढ़ाया और भीतर प्रवेश कर गई।
रोशनी में वहाँ हर चीज स्पष्ट नज़र आ रही थी।
दूधिया सफेद फर्श था। कमरे में लकड़ी की तीन कुर्सियां कतार में रखी हुई थीं। इसके अलावा कोई फर्नीचर नहीं था। खाली कमरा। छत से लोहे की तीन मजबूत जंजीरें लटक कर फर्श की तरफ आ रही थीं फर्श से वो मात्र तीन फीट ऊँची रह रही थी। कमरे में एक दीवार में छोटा-सा रास्ता नजर आ रहा था। जिसके पास पहुँचने पर मोना चौधरी को ऐसा महसूस हुआ, जैसे दीवार के उस पार पानी बह रहा हो।
मोना चौधरी की नज़रें पुनः कमरे में दौड़ी।
कतार में रखी तीनों कुर्सियों और छत से लटकती तीनों जंजीरों का मतलब नहीं समझ पा रही थी मोना चौधरी। परन्तु इतना तो एहसास था कि कुर्सियां और लटकती जंजीरों का कोई मतलब है। मोना चौधरी अब इस बात का पक्का ध्यान रख रही थी कि वो चक्रव्यूह में है। कदम-कदम पर खतरे हैं। ज़रा-सी भी गलत हरकत उसे मौत के मुँह में पहुँचा देगी। मात्र एक गलत कदम से उसकी दुनिया बदल जायेगी।
मोना चौधरी उस दीवार के पास पहुँची, जिसमें रास्ता बना था और रास्ते से पानी बहने की आवाज आ रही थी।
मोना चौधरी ने नीचे झुक कर उस आधे दरवाजे के साईज के रास्ते के पार देखा। कमरे की रोशनी रास्ते से होती हुई उस तरफ पड़ रही थी। उस रोशनी में बहता पानी चमकता स्पष्ट नज़र आ रहा था। तीन-चार फीट चौड़ी जगह थी वो। तेजी से बहता पानी दिखाई दे रहा था। उधर अंधेरा होने की वजह से बहते पानी के आगे पीछे की जगह नज़र भी आ रही थी। मोना चौधरी ने वहाँ से नज़रें हटाकर, कमरे में निगाह दौड़ाई। चेहरे पर सोच के भाव थे।
कुर्सियों पर बैठने का खतरा लेने की स्थिति में नहीं थी वो। लटकती जंजीरों को देखने लगी वो। छत के रास्ते से वो नीचे आ रही थीं। मोना चौधरी जानती थी कि वह बुरी तरह चक्रव्यूह में फंस चुकी है। हर तरफ धोखे ही धोखे है। जाने अब क्या होगा?
“क्या सोच रही हो मिन्नो?” बेहद शांत-प्यारा स्वर मोना चौधरी के कानों में पड़ा।
मोना चौधरी ने चौंककर हर तरफ देखा।
“मुझे ढूंढ रही हो।” वो मर्दाना स्वर पुनः सुनाई दिया।
“कौन हो तुम?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।
“मैं पानी का देवता हूँ।”
“पानी का देवता?” मोना चौधरी की आँखें सिकुड़ीं।
“हाँ। ढाई सौ बरस से तेरे आने का इन्तजार कर रहा हूँ।”
मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।
“ढाई सौ बरस से?”
“हाँ।”
“तुम्हें ढाई सौ बरस पहले कैसे पता था मैंने आना है? तव तो मेरा जन्म भी नहीं हुआ था।”
“ठीक कहती हो तुम। तब तुम्हारा जन्म नहीं हुआ था मिन्नो।” वो ही आवाज पुनः कानों में पड़ी-“ढाई सौ बरस पहले शैतान की कैद में जाने से पहले सौदागर सिंह ने जब चक्रव्यूह बांधा और अपनी शक्ति से दूम नदी को पैदा किया तो उसकी शक्ति ने उसे एहसास कराया कि ढाई सौ बरस के बाद मिन्नो यहाँ आयेगी और पानी को छुएगी। चूंकि मिन्नो के सिर पर गुरुवर का हाथ होना चाहिये था-इसलिये सौदागर सिंह धर्म संकट में पड़ा था कि क्या करे? तब उसने अपनी शक्ति से मुझे पैदा किया और कहा कि मिन्नो जब भी आये तो उसे चक्रव्यूह के ऊपरी हिस्से में पहुँचा दूं।”
“ऊपरी हिस्से में?”
“हाँ-जहाँ से तुम यहाँ आ पहुँची हो।”
“सौदागर सिंह की ये मेहरबानी मुझ पर क्यों?”
“क्योंकि वो अपने गुरुवर की इज्जत करता है। तुम भी सौदागर सिंह के गुरुवर की शिष्य हो।”
मोना चौधरी होंठ भींचे खड़ी रही।
“आओ मिन्नो-ज्यादा सोचो मत। झुककर रास्ता पार करो और बहते पानी में आकर खड़ी हो जाओ।”
“तुम कौन हो?”
“पानी का देवता।”
“बहरहाल जो भी तुम हो, ये सुन लो-मैं सौदागर सिंह की बात पर यकीन नहीं कर सकती कि वो मुझे चक्रव्यूह के ऊपरी हिस्से में पहुँचा देगा, जहाँ से में यहां आ पहुँची हूँ।” मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर कह उठी-“जो इन्सान अपने गुरुवर को धोखा दे सकता है, उसके सामने मेरी हैसियत ही क्या?”
“बेशक सौदागर सिंह पर विश्वास न करो। मुझ पर भरोसा करो लो। मैंने सच कहा...।”
“तुम भी तो सौदागर सिंह का इशारा हो। यहाँ पर किसी का भी भरोसा नहीं किया जा सकता।”
“विश्वास करो मिन्नो। मैं धोखा नहीं। मैं सच कह...।”
“चुप हो जाओ।” मोना चौधरी एकाएक दाँत भींचे कह उठी-“मुझे धोखे में लेने की चेष्टा न करो।”
पानी के देवता की फिर आवाज नहीं आई।
मोना चौधरी की सख्ती निगाह कमरे में घूमी।
वही तीन कुर्सियां। लटकती तीन लोहे की मजबूत जंजीरें।
मोना चौधरी के चेहरे पर गम्भीरता थी। मन-ही-मन वो इतना तो तय कर चुकी थी कि पानी के देवता की बात नहीं मानेगी। वो धोखा है। चक्रव्यूह के नये जाल में उसे फंसाने की तैयारी चल रही है। उसे किसी धोखे में नहीं आना है। मोना चौधरी आगे बढ़ी और एक लटकती जंजीर को पकड़ कर पहले तो हिलाया। कुछ न होने पर उसने जंजीर को जोर से खींचा। उसी पल ही मोना चौधरी के हाथों को जोर से झटका लगा और जंजीर हाथों से निकल कर तेजी से ऊपर उठती हुई वापस उस हिस्से में प्रवेश कर गई जहाँ से निकल कर लटक रही थी। तभी मोना चौधरी की निगाह कमरे में गई तो चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।
तीन में से एक कुर्सी गायब थी।
कहाँ गई कुर्सी?
मोना चौधरी के पास इस बात का जवाब नहीं था गहरी चुप्पी थी वहां। एकाएक मोना चौधरी अपनी जगह से हिली और आगे बढ़कर दूसरी जंजीर को, पहले की भांति खींचा।
मोना चौधरी के हाथ को पुनः झटका लगा। जंजीर हाथों से निकलकर, वापस छत में चली गई। परन्तु वो तो कुर्सी को देख रही थी। उसके देखते ही देखते निःशब्द फर्श पर थोड़ा-सा हिस्सा खुला और कुर्सी हवा में झूलते हुए नीचे जाने लगी। फर्श के खाली हिस्से में से मोना चौधरी को वहाँ लोग घूमते दिखाई दिए। उस पल कुर्सी नीचे चली गई और फर्श का वो हिस्सा वापस अपनी जगह पर आ गया। अब फर्श को देखने पर कोई नहीं कह सकता था कि वहाँ कोई रास्ता भी है। मोना चौधरी के होंठ सिकुड़े हुए थे। वो जान चुकी थी कि पहली कुर्सी कहाँ गई। तीनों जंजीरों का, तीनों कुर्सियों से ये ही सम्बन्ध था। जंजीर खींचने पर फर्श खिसकता और कुर्सी नीचे चली जाती। नीचे लोग थे।
मोना चौधरी ने मन-ही-मन तय किया कि तीसरी कुर्सी पर बैठकर वो नीचे जायेगी। वो लोग जो भी हैं, उनके बीच पहुँच कर ही चक्रव्यूह से निकलने का कोई रास्ता तलाश करना होगा।
“मिन्नो।” पानी के देवता की आवाज गरजी।
मोना चौधरी ने फौरन उस दीवार के रास्ते को देखा, जिसके पार पानी बह रहा था।
“तुम बहुत बड़ी गलती करने जा रही हो।” पानी के देवता के शब्द सुनाई दिए।
“यानि तुम्हारी बात मानती तो ठीक करती। उसके अलावा सब कुछ गलत।” मोना चौधरी ने तीखे स्वर में कहा।
“मुझ पर शक मत करो। मैं...।”
“तुम मेरी खास पहचान वाले नहीं हो कि मैं तुम पर शक न करूँ।” मोना चौधरी का स्वर तीखा ही रहा-“तुम सिर्फ धोखा हो। सौदागर सिंह का छोड़ा हुआ धोखा। मैं तुम्हारी बातों में नहीं आ सकती।”
“मैं धोखा नहीं हूँ। पानी का देवता बनाया गया है मुझे कि जब तुमआओ तो तुम्हें चक्रव्यूह के ऊपरी हिस्से में पहुँचा दूँ। तुम्हारे भले के लिये ही मेरी मौजूदगी है। मैं तुम्हारा बुरा नहीं कर सकता।”
“भड़वे हो तुम!” कहने के साथ ही मोना चौधरी जंजीर खींचने लगी कि आवाज कानों में पड़ी।
“फंस जाओगी मिन्नो तुम...।”
मोना चौधरी ने जंजीर खींची।
हाथों को हल्का-सा झटका लगा और जंजीर छत की तरफ वापस खिंचती हुई, छत में प्रवेश कर गई।
तभी फर्श में रास्ता बनता नजर आया।
रास्ता बनते ही, वो कुर्सी हिली, जिस पर मोना चौधरी बैठी थी। फिर वो कुर्सी खाली बनी जगह से नीचे जाने लगी। बहुत धीमी रफ्तार थी उसके नीचे जाने की।
“मिन्नो।” पानी के देवता का स्वर कानों में पड़ा-“बहुत बड़ी गलती कर चुकी हो। मेरी बात नहीं मानी। लेकिन सौदागर सिंह ने ढाई सौ बरस से जो जिम्मेदारी मुझे सौंप रखी है, उसे अवश्य पूरा करने की कोशिश करूँगा। कोशिश करूंगा कि फिर मिल सकूं तुझे। कभी मेरी जरूरत पड़े तो पानी में खड़े होकर मेरा स्मरण कर लेना।”
तब तक मोना चौधरी कुर्सी सहित नीचे जा चुकी थी।
फर्श वापस अपनी जगह आने लगा था।
☐☐☐
हवा में लटकी कुर्सी धीरे-धीरे नीचे होती जा रही थी।
कुर्सी पर बैठी मोना चौधरी की निगाह हर तरफ जा रही थी। नीचे लोग आते-जाते दिखाई दे रहे थे-जो कि अब ठिठक कर नीचे आती कुर्सी और उसे देखने लगे थे।
ये बाजार जैसी जगह थी। एक तरफ कुछ दुकानें खुली नज़र आ रही थीं। कुछ लोग कंधों पर टोकरे या अन्य तरह का सामान उठाये हुए थे। ज्यादातर उनका पहनावा धोती-कुर्ता ही था। कुछ ने अवश्य पैंट कमीज पहन रखी थी।
कुर्सी नीचे जा लगी।
मोना चौधरी जल्दी से उठ खड़ी हुई। नज़रें वहाँ खड़े लोगों पर जा रही थीं।
लोग अब मोना चौधरी के गिर्द इकट्ठे होने लगे थे। उनकी
आवाजें उसके कानों में पड़ने लगी थीं।
“खूबसूरत।” एक कह उठा-“आसमान से उतरी परी की तरह।”
“मैं तो देखकर ही पागल हो रहा हूँ।”
“ऐसी औरत मैंने पहले कभी नहीं देखी।”
“लेकिन किस्मत खराब है बेचारी की।”
“क्यों?”
“केशोराम इसके साथ ब्याह कर लेगा।”
“हाँ। राजा केशोराम तो युवतियों का रसिया है। जिस भी खूबसूरत युवती को देखता है, उससे ब्याह कर लेता है। उसके बाद वो तमाम जिन्दगी युवती को बंद कमरे रहकर नर्क भोगना पड़ता है। केशोराम पसन्द नहीं करता कि जिससे वो ब्याह करे, उसे बाहर वाले देखें। उसकी बादशाहत है। उसे कुछ कहने की हिम्मत ही किसी में कहाँ।”
“जल्दी ही इसके आने की खबर केशोराम तक पहुँच जाएगी। उसके आदमी बग्गी लेकर, इसे लेने आ जायेंगे।”
“इससे दूर हो जाओ। वरना राजा केशोराम के आदमी हमें ऐसी सजा देंगे कि हम उस खूबसूरत युवती के पास क्यों खड़े हैं।”
फिर देखते-ही-देखते मोना चौधरी के पास लगी भीड़ छंटने लगी।
परन्तु इन चंद बातों से ही पीना चौधरी की तरह अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गये।
लेकिन एक युवक उसके पास ही खड़ा रहा।
“क्या तुम्हें डर नहीं लगता राजा केशोराम से?” मोना चौधरी ने शांत स्वर में पूछा।
“लगता है।” युवक बोला-“लेकिन तुम्हारे पास से हटने का मन नहीं हुआ। खूबसूरत हो तुम।”
मोना चौधरी मुस्कराई।
“मैं तुमसे ब्याह करूँगा।” वो युवक कह उठा।
“ब्याह?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।
“हाँ। तुम्हें अपने बच्चों की माँ बनाऊँगा। चलो माँ के पास। वो हमारा ब्याह करा देगी।”
“मैंने तो सुना है कि राजा केशोराम मुझसे ब्याह कर लेगा। फिर मैं तुम से क्यों ब्याह करूं।”
“केशोराम के चक्कर में मत पड़ना।”
“क्यों?”
“वो तो हर खूबसूरत लड़की से ब्याह कर लेता है। फिर उसे कमरे में बंद कर देता है कि वो किसी से न मिल सके। जब तक वो मर नहीं जाती, तब तक वो कमरे में ही बंद रहती है। मरने पर ही उसे कमरे से बाहर निकाला जाता है।”
“फिर तो तुम्हारा राजा बहुत जालिम है।”
“हाँ। उसे कोई भी पसन्द नहीं करता। परन्तु सब डरते हैं उससे।” युवक जल्दी से कह उठा-“अगर तुम मेरे से ब्याह करके, बच्चा पैदा करने की क्रिया आरम्भ कर दो तो फिर केशोराम तुम पर अपनी नज़र नहीं डालेगा। जल्दी चलो माँ के पास।”
“मतलब कि एक से बचने के लिए मुझे दूसरे के पास फंसना पड़ेगा।”
“ऐसा मत कहो। तुम मुझे अच्छी लगती हो। मैं तुमसे ब्याह...।”
तभी घोड़ों की टापें सुनाई देने लगीं।
युवक की निगाह सामने गई तो चेहरे पर घबराहट आ गई।
मोना चौधरी ने भी उधर देखा।
दो घोड़ों पर, दो व्यक्ति बैठे इधर ही आ रहे थे। उनके पीछे दो घोड़ों वाली सफेद रंग की बग्गी थी-जिसके आगे एक व्यक्ति लगाम थामे बैठा था।
“तुम घबरा क्यों गये?” मोना चौधरी ने पूछा।
“राजा केशोराम के सिपाही आ गये। बग्गी साथ होने का मतलब है कि तुम्हारे बारे में इन्हें खबर मिल गई और तुम्हें लेने यहाँ आ पहुँचे हैं।” युवक ने धीमे किन्तु सूखे स्वर में कहा।
दोनों घुड़सवार और बग्गी वहाँ आकर रुक गई।
“इस नगरी में स्वागत है आपका।” एक घुड़सवार ने मुस्कराकर मोना चौधरी से कहा।
दूसरे घुड़सवार ने उस युवक को तीखी निगाहों से देखा।
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो? जानते नहीं कि।”
“मैं सब कुछ जानता हूँ, जनाब।” युवक जल्दी से सिर झुकाकर कह उठा-“इस युवती को देखकर मेरे मन में कोई बुरा ख्याल नहीं आया। हर प्रभात में मैं भगवान को स्मरण करता हूँ। मैं तो इसे ये समझा रहा था कि राजा केशोराम ही हमारे सब कुछ हैं। हमारे राजा बेहद नर्मदिल हैं। लोगों का दुःख-दर्द समझते हैं। औरतों की बहुत इज्जत करते हैं। खासतौर से खूबसूरत औरतों को तो अपने दिल में बिठाते हैं। अगर ये अच्छा जीवन बिताना चाहती है तो राजा केशोराम से ब्याह करना पड़ेगा।”
“ये बेवकूफ लड़का ठीक कह रहा है?” घुड़सवार ने मोना चौधरी को देखा।
उन दोनों को गहरी निगाहों से देखते, मोना चौधरी ने सिर हिला दिया।
“जाओ।” उसने युवक से कहा-“भविष्य के लिये याद रखो कि समझाने का काम हमारा है-तुम्हारा नहीं।”
“जी।” सिर हिलाने के साथ ही वो आगे बढ़ गया।
मोना चौधरी ने उसे जाते देखा। कुछ देर पहले तो ब्याह करने का दम भर रहा था, इस घुड़सवारों के आते ही रंग बदल लिया।
स्पष्ट था कि ये खतरनाक लोग हैं।
मोना चौधरी ने एक बार फिर घुड़सवारों को देखा। तगड़े-खतरनाक थे वे।बग्गी का कोचवान एक आँख वाला था। दूसरी आँख बंद थी और उस पर पुराना जख्म नजर आ रहा था। तिकोने कमरबन्द के साथ, पेटी में नंगी तलवारे फंसा रखी थी। नज़रें उस पर थी।
आसपास लोग अपने में व्यस्त आ-जा रहे थे।
“कौन हो तुम लोग?” मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा।
“हम, यहाँ के राजा केशोराम के सिपाही हैं।” एक घुड़सवार के चेहरे पर क्रूरता भरी मुस्कान आ ठहरी-“हमारे राजा खूबसूरत औरतों की बहुत इज्जत करते हैं। आप तो बे-पनाह खूबसूरत हैं। बग्गी के साथ हम आपको लेने आये हैं। राजा केशोराम के पास ले चलेंगे आपको। आपकी जिन्दगी में बहार आ जायेगी। राजा की पत्नी बनकर गर्व होगा आपको। आपकी शान दूसरों से अलग हो जायेगी। जुदा दिखेगी आप।”
मोना चौधरी ने उसकी आँखें में झांका।
“बग्गी में आ जाइये। हम आपको राजा के पास ले चलेंगे।”
“तुम्हारे घर में कौन-कौन है जवान?” मोना चौधरी ने शांत स्वर में पूछा।
पहले तो इस सवाल पर घुड़सवार के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। फिर कह उठा।
“मेरी माँ, पत्नी के अलावा दो बहनें हैं।”
“बहनें कैसी हैं?” मोना चौधरी के चेहरे पर हल्की-सी कठोरता आ ठहरी।
“सुन्दर हैं। उनके लिये रिश्ते आ रहे हैं। वो मुस्करा कर बोला-“उनका ब्याह करने की सोच रहा हूँ।”
“अपने राजा से दोनों का ब्याह कर दो।” मोना चौधरी शब्दों को चबाकर कह उठी।
“क्या?” पलभर के लिये वो अचकचा उठा।
“दोनों ऐश करेंगी। तुम्हारा रुतबा भी बढ़ जायेगा। फिर तुम...।”
“खामोश।” एकाएक वो गला फाड़कर चीख उठा।
मोना चौधरी के चेहरे पर जंग के भाव आ गये।
“क्या बुरा कह दिया मैंने? तुम्हें इतनी तकलीफ क्यों हुई।” मोना चौधरी तीखे व्यंग्य से कह उठी।
“राजा से ब्याह करने से तो बेहतर होगा कि मैं उनका गला काट दूं।” वो गुस्से से कह उठा।
“फिर मुझे क्यों राजा के पास ले जा रहे हो। मेरा ब्याह करवाने? तुम तो-।”
तभी दूसरे ने कमर में फंसी तलवार निकाल कर हाथ में ले ली।
“फालतू की बात मत करो। बग्गी में बैठो, राजा केशोराम के पास जाना है।”
“मैं नहीं जाऊँगी।” मोना चौधरी ने सख्त स्वर में कहा-“चले जाओ यहाँ से।”
“अगर तुम्हें राजा के सामने न पेश किया तो हमें जेल में डाल दिया जायेगा।” दूसरे ने गुस्से से भरे स्वर में कहते हुए तलवार हाथ में ले ली-“चुपचाप बग्गी में बैठो। हमें सख्ती पर आने के लिये मजबूर न करो।”
“मैं नहीं जाऊँगी और तुम मुझे नहीं ले जा सकते।” मोना चौधरी ने दाँत भींचकर कहा और कमर में, अटका रखा प्रेतनी चंदा का खंजर निकाल कर हाथ में ले लिया। चेहरे पर दृढ़ता के भाव थे। वो जानती थी कि ये सब सौदागर सिंह के चक्रव्यूह के आदमी है। इसमें फंसना शुरू हुआ तो वो फंसती ही चली जायेगी। फिर निकलना कठिन होता चला जायेगा। इनसे मुकाबला करना बहुत जरूरी था।
मोना चौधरी के हाथ में खंजर देखकर दोनों घुड़सवारों ने हैरानी से एक-दूसरे को देखा।
“ये तो मुकाबला करने को तैयार है।” एक के होंठों से निकला।
“तुम भयभीत हो क्या?”
“नहीं-मैं तो सोच रहा हूँ कि मुकाबले में ये घायल हो गई तो राजा केशोराम को क्या जवाब देंगे।”
“वो बाद की बात है। इसे राजा के सामने हाजिर करना...।”
तभी खंजर थामे मोना चौधरी आगे बढ़ी।
“ये तो सच में लड़ाई करेगी।”
खंजर पर निगाह मारकर मोना चौधरी बड़बड़ा उठी।
“हे प्रेतनी चंदा के खंजर! तू तलवार जितना लम्बा हो जा।”
मोना चौधरी के शब्द पूरे ही हुए थे कि खंजर में तीव्र चमक उभरी। दूसरे ही पल वो तलवार जितना लम्बा नज़र आने लगा। दोनों घुड़सवारों की आँखें फैल गईं।
“हे भगवान! इसके हाथ में दबे खंजर को क्या हो गया। इतना लम्बा?”
“ये जादू-टोना जानती है। तभी तो-।”
दूसरा घुड़सवार तलवार थामे, घोड़े से मोना चौधरी पर कूद पड़ा।
मोना चौधरी फुर्ती से पीछे हुई और खंजर को तलवार की तरह घुमाया। घुड़सवार ने फुर्ती से खुद को बचाया। परन्तु खंजर की नोक उसके कंधे से रगड़ खा ही गई। पलक झपकते ही उसके शरीर का रंग नीला पड़ता चला गया। शरीर कांपने लगा। देखते ही देखते वो नीचे गिर पड़ा। उसके शरीर का कम्पन ठहर गया था। फटी आँखें, अकड़ा नीला शरीर। वो मर चुका था।
दूसरे घुड़सवार और बग्गी के कोचवान के चेहरे पर अविश्वास के भाव आ ठहरे।
मोना चौधरी ने हाथ में दबे खंजर को देखा। वो खुद नहीं जानती थी कि प्रेतनी चंदा के दिए खंजर में क्या-क्या कमाल मौजूद है। (खंजर और प्रेतनी चंदा के बारे में जानने के लिये पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)
मोना चौधरी की कठोर निगाह दूसरे घुड़सवार पर जा ठहरी।
“तुमने बहुत बुरा किया इसकी जान लेकर।” इसका घुड़सवार हड़बड़ा कर कह उठा-“राजा केशोराम तुम्हें कभी भी माफ नहीं करेंगे। अपने सिपाहियों का वे बहुत ध्यान रखते हैं। वो...।”
“तुम्हारा राजा केशोराम मुझे कुछ भी नहीं कहेगा।” मोना चौधरी सख्त स्वर में कह उठी-“क्योंकि वो मुझ जैसी खूबसूरत युवतियों को प्यार करता है। अपने सिपाहियों को नहीं।”
“ये कहकर तुम राजा की शान में गुस्ताखी कर रही हो।” घुड़सवार ने तलवार वाला हाथ ऊपर उठाया।
तभी मोना चौधरी ने छलांग मारी और खंजर वाला हाथ आगे कर दिया।
खंजर का लम्बा फल घुड़सवार के पेट में धंसता चला गया। मोना चौधरी ने वक्त के साथ खंजर को बाहर खींचा। खंजर का फल खून से सुर्ख हो रहा था।
वो घुड़सवार लड़खड़ाकर नीचे गिरने को हुआ कि थम गया। उसके पाँव पत्थर के हो गये थे। दोनों हाथों से पेट दबाये, दाँत भींचे हुआ था। तलवार नीचे गिर चुकी थी। पाँवों के बाद उसकी टांगें पत्थर की हो गईं। फिर धीरे-धीरे उसका पूरा शरीर पत्थर का हो गया। वो एक ऐसा बुत नज़र आने लगा, जिसने दोनों हाथों से पेट को थाम रखा था। बुत का रंग उसके जिस्म के जैसा ही था।
लोग हक्के-बक्के से ये सब देख रहे थे।
उसे बुत बनता पाकर मोना चौधरी चौंकी अवश्य थी, परन्तु हैरान नहीं हुई। वो समझ गई कि खंजर के हर वार का असर अलग-अलग है। उसे मालूम था कि इस खंजर में प्रेतनी चंदा की शक्तियाँ मौजूद हैं। इसके वार के बाद सामने वाला जिन्दा नहीं बच सकता।
तभी उसके कानों में घोड़ों की टापों की आवाज पड़ी।
मोना चौधरी ने फौरन सिर उठाकर देखा।
वो बग्गी तेजी से एक तरफ भाग खड़ी हुई थी। कोचवान लगाम थामे, घोड़ों पर जल्दी-जल्दी चाबुक बरसा रहा था। तेज भागते हुए घोड़े, बग्गी को दूर ले जाते या ये कुछ ही पलों में बग्गी नज़र आनी बंद हो गई। घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई देती रही। फिर वो आवाज भी दूर होती हुई, सुनाई देनी बंद हो गई। कुछ पलों के लिये वहाँ सन्नाटा-सा छा गया।
हर कोई उस घुड़सवार के बुत को और मोना चौधरी को देखे जा रहा था।
मोना चौधरी ने दाँत भींचकर खंजर को देखा और बड़बड़ा उठी।
“हे खंजर! अपनी पूर्व स्थिति में आ जा।”
हल्की सी चमक के साथ ही वो खंजर छोटा हो गया। उसके फल पर खून की परत दिखाई दे रही थी। सामने नज़र आ रहे हैंड पम्प पर मोना चौधरी ने पहुँच कर खंजर के फल को पानी से धोकर खून साफ किया और उसे वापस कमर के पास, पैंट में फंसा लिया।
मोना चौधरी को अपनी तरफ देखते पाकर लोग वहाँ से खिसकने लगे।
मोना चौधरी खामोशी से इस बात को महसूस कर रही थी हर कोई उससे दूर रहने की चेष्टा कर रहा है। कोई भी उससे वास्ता नहीं रखना चाहता। शायद इसलिये कि उसने राजा के सिपाहियों को मार दिया है। उससे जो वास्ता रखेगा, वो राजा के क्रोध का शिकार होकर ही रहेगा।
वहाँ पानी पीने आया एक व्यक्ति हौसला करके कह उठा।
“यहाँ क्यों खड़ी हो। भाग जाओ।”
“क्यों?” मोना चौधरी ने उसे देखा।
“राजा केशोराम के सिपाही आते ही होंगे तुम्हें खत्म करने के लिये। जान बचाकर इस जगह से दूर हो जाओ। वो बहुत ही गंदा और जालिम राजा है। औरतों का तो रसिया है वो।” उस व्यक्ति ने दबे स्वर में कहा।
मोना चौधरी सोचभरी निगाहों से उसे देखती रही।
“राजा तुम्हें हर हाल में ढूंढ कर रहेगा। भागो और बचा लो अपने को।” इतना कहने के साथ ही वो पानी पीकर वहाँ से दूर होता चला गया।
दूर मौजूद कई लोगों की नज़रें उस पर थीं।
मोना चौधरी तेजी से, आगे जा रहे रास्ते पर बढ़ने लगी। ज्यादा देर नहीं लगी। कई रास्ते उसने पार कर लिए। उस जगह से दूर आ गई थी। परन्तु राजा केशोराम की पहुँच में ज्यादा दूर नहीं थी। ये जगह उसके लिए अंजान थी। वो नहीं जानती थी कि केशोराम से बचने के लिए उसे किधर जाना है।
जब से मोना चौधरी ने चलना शुरू किया था, तब से ही एक आदमी सावधानी से उसका पीछा कर रहा था। मोना चौधरी को एहसास न हो पाया था कि कोई उसका पीछा कर रहा है। एक अजीब बात मोना चौधरी ने यह महसूस की कि कोई औरत उसे अभी तक देखने को नहीं मिली। अपने आप में ये अजीब-सी, न समझ में आने वाली बात थी। मोना चौधरी के कदम तेजी से उठ रहे थे।
☐☐☐
एक मोड़ पर किसी ने मोना चौधरी की कलाई पकड़ी और अपनी तरफ खींचा।
मोना चौधरी हड़बड़ा-सी उठी। वो लड़खड़ाई। फिर संभल गई।
सामने वो ही युवक खड़ा था जो उससे शादी करने को कह रहा था।
“तुम?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।
“हाँ। आओ मेरे साथ।” वो बेसब्री से कह उटा।
“कहाँ?”
“इस वक्त तो मैं तुम्हें राजा केशोराम से बचाना चाहता हूँ। वो नहीं चाहेगा कि तुम उसके सिपाहियों को मार कर बची रहो। अब तक तो उसने तुम्हारी तलाश में अपने सिपाही दौड़ा दिये होंगे।”
मोना चौधरी इस बात को पहले ही महसूस कर चुकी थी कि यहाँ पर उसे किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता की जरूरत है, जो यहाँ के रास्तों से उसे वाकिफ करा सके। वरना अभी तक तो वो ये भी नहीं जानती थी कि बचने के लिए जिस तरफ जा रही है, राजा केशोराम उधर ही तो नहीं रहता क्या?
“तुमने मेरे साथ कोई धोखेबाजी की तो?” मोना चौधरी बोली।
“कैसी बातें करती हो? मैं तुमसे ब्याह करने की सोच रहा हूँ। आओ मेरे साथ।”
“क्या नाम है तुम्हारा?”
“सुनार सिंह।”
सुनार सिंह और मोना चौधरी एक तंग सी गली में आगे बढ़ गये।
मोना चौधरी का पीछा करने वाला सावधानी से, अभी तक पीछे लगा हुआ था।
☐☐☐
मोना चौधरी, सुनार सिंह के साथ एक छोटे से घर में जा पहुँची। दो छोटे-छोटे कमरों का घर था ये। साधारण-सा फर्नीचर था। कमरों के बाहर बैठने के लिये खुली जगह थी। पचपन बरस की औरत वहाँ मौजूद थी। नाम सुन्दरी था। वो सुनार सिंह की माँ थी।
“माँ।” सुनार सिंह खुशीभरे स्वर में कह उठा-“देख तो मैं किसे लाया।”
“देख तो लिया बेटा। सुन्दरी उलझन भरे स्वर में कह उठी-“लेकिन ये है कौन?”
“तेरी बहू है ये।”
“बहू।” सुन्दरी खिल-सी उठी-“इतनी सुन्दर मेरी बहू है ये?”
“हाँ, माँ।”
सुन्दरी ने आगे बढ़कर मोना चौधरी को बाँहों में भर लिया।
मोना चौधरी ने इस वक्त चुप रहना ही ठीक समझा। ये लोग उसे बहू माने या दुल्हन, उसे कुछ नहीं कहना था। बाहर राजा केशोराम के रूप में खतरा खड़ा था। और जहाँ सुनार सिंह ही उसे रास्ता दिखाने वाला था। “तेरे को घर में पाकर मैं खुश हो गई बहू।” सुन्दरी सच में बहुत खुश थी।
“माँ। अभी ब्याह नहीं किया है मैंने।”
“ओह-तो इसे ऐसे ही ले आया। इसके माँ-बाप को पता चल...।”
“मैं अकेली हूँ। मेरे माँ-बाप नहीं हैं।” मोना चौधरी कह उठी।
“ओह।” सुन्दरी ने अफसोसभरे स्वर में कहा-“मुझे नहीं मालूम था कि तू इतनी दुखी है।”
“अब तो मैं आपसे माँ का प्यार लूंगी।”
“जरूर बेटी।” फिर वो सुनार सिंह से बोली-“कहाँ से लाया है तू इसे?”
सुनार सिंह ने सब कुछ बताकर कहा।
“अभी इसे बचाना है राजा से। लेकिन यहाँ रहकर ये नहीं बच सकती। हमें दूर चले जाना होगा। खतरों से दूर पहुँचकर मैं इससे शादी कर लूंगा। ऐसी बहू तेरे को कहीं नहीं मिलेगी माँ।”
“तेरी बात ठीक है। लेकिन जायेंगे कहाँ?”
“यहाँ से निकल जायें। उसके बाद कोई ठीक दिशा पकड़ कर चलते रहेंगे। कहीं तो ठिकाना मिलेगा।”
सुन्दरी सिर हिलाकर बोली।
“जैसा तू ठीक समझे सुनार।”
सुनार सिंह ने मोना चौधरी से कहा।
“यहाँ से दूर चले जाने में तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?”
“नहीं।” मोना चौधरी का स्वर शांत था-“लेकिन राजा केशोराम के सिपाही देख लेंगे हमें जाते।”
“हम रात को, सावधानी से यहाँ से निकलेंगे।” सुनार सिंह बोला।
“ठीक है।” सुन्दरी ने कहा-“मैं सामान बांध लेती हूँ और रास्ते के लिये रोटियाँ भी बना लेती हूँ।”
“बहू को अपने साथ काम पर लगा ले माँ।” सुनार सिंह ने कहा-“मैं बाहर का फेरा लगाकर आता हूँ।”
जो मोना चौधरी का पीछा कर रहा था, उसने सब सुन लिया था और सोच रहा था कि राजा केशोराम को अगर युवती के यहाँ होने की खबर दी जाये तो कितना इनाम मिल जायेगा।
☐☐☐
घंटे भर बाद सुनार सिंह लौटा।
“राजा केशोराम के सिपाही हर जगह फैले तेरी बहू को ढूंढ रहे हैं माँ।” सुनार सिंह ने कहा।
“ओह।” सुन्दरी चिन्तित हो उठी।
“राजा ने मोटे इनाम का ऐलान किया है, जो तेरी बहू के बारे में खबर देगा, उसे मिलेगा।”
“ओह। फिर तो खतरा बढ़ गया बेटा। हम तो रात को यहाँ से जा नहीं सकेंगे। पकड़े जायेंगे।”
“तुम ठीक कहती हो। इनाम के लालच में लोग भी तेरी बहू को तलाश कर रहे हैं।”
मोना चौधरी शांत सी दोनों की बातें सुन रही थी।
“अब क्या करें सुनार?”
“कुछ समझ में नहीं आता माँ।” सुनार सिंह ने बेचैनी से कहा-“एक पहरेदार दूसरे को बता रहा था कि, मैंने सुना। मैंने कह रहा था शायद कल घर-घर तलाशी लेने का हुक्म दे दे राजा केशोराम।”
“ये बहुत बुरी खबर दी तूने। बहू को कहीं छिपा देना ही ठीक रहेगा।”
“भूसे की कोठरी में छिपा दें माँ।”
तभी दरवाजा थपथपाया गया।
“देख तो माँ कौन है। मैं बहू को लेकर दूसरे कमरे में जाता हूँ।”
सुन्दरी ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला तो घबरा गई।
बाहर ढेर सारे राजा के सिपाही तलवारें लिए खड़े थे।
मोना चौधरी का पीछा करने वाले ने इनाम के लालच में मोना चौधरी के यहाँ होने की खबर दे दी थी। मोना चौधरी पकड़ी गई और उसे राजा केशोराम के दरबार में ले जाया गया।
☐☐☐
दुखी प्रजा का सुखी राजा केशोराम।
अपने सुख, चैन, आराम की चिन्ता रहती राजा केशोराम को। हर वक्त वो ज्यादा से ज्यादा सुख पाने की चेष्टा में रहता और प्रजा उसकी हरकतों से दुखी रहती। एक तो प्रजा का ध्यान न रखना और अपने सुख की खातिर, प्रजा परेशानी में पड़े तो उसे परवाह नहीं थी।
औरतों का शौकीन था राजा केशोराम। परन्तु किसी औरत की इज्जत पर हाथ नहीं डाला था। जबर्दस्ती नहीं की थी। जो उसे अच्छी लगती, उससे ब्याह के लिये तैयार करता। शादी करने के बाद ही उसे हाथ लगाता। उससे पहले गलत निगाहों से नहीं देखता था राजा केशोराम।
राजा केशोराम की उम्र पचास बरस थी। सेहत का तगड़ा। लम्बा-ऊँचा। हर वक्त मौज-मस्ती में लगा रहता। कभी नशा तो कभी शिकार का शौक। प्रजा में कोई उसके खिलाफ आवाज उठाने की चेष्टा करता तो राजा केशोराम के सिपाही उसे खत्म कर देते।
ढाई सौ बरस से राजा केशोराम का राज्य चल रहा था यहाँ।
सौदागर सिंह ने तब अपनी शक्ति के चक्रव्यूह में इस छोटे से शहर को खड़ा किया था। अपनी शक्तियों के दम पर उसने अभी इस शहरी चक्रव्यूह में कई चीजें डालनी थीं कि वो शैतान की कैद में जा पहुंचा था। ऐसे में तब ये शहर वैसे ही चल रहा था, जैसे सौदागर सिंह से छूट गया था। जो हो रहा था, वही होता आ रहा था। राजा केशोराम के जुल्मों को ढाई सौ बरस से प्रजा सह रही थी। सौदागर सिंह की शक्तियों ने शहर का पहिया चला रखा था। शहर में एक मरता था तो एक का ही जन्म होता था। सौदागर सिंह की शक्तियों ने यहाँ जनसंख्या नहीं बढ़ने दी। राजा केशोराम और चंद लोग ऐसे थे, जो ढाई सौ बरस से, जैसे थे, वैसे ही अब हैं और जीवन के मजे ले रहे हैं।
राजा केशोराम ने मोना चौधरी को सिर से पाँव तक कठोर निगाहों से देखा।
शांत सी मोना चौधरी की निगाह राजा केशोराम पर ही थी। वहाँ पन्द्रह लोग थे। जिनमें से बारह तो उसके हथियारबंद सिपाही थे। जो यहाँ-वहाँ फैले थे। दो उसके सलाहकार थे। जो सलाह कम और हवा ज्यादा देते थे।
“तो तुमने मेरे सिपाहियों को मारा।” राजा केशोराम सख्त स्वर में कह उठा।
“एक को मारा है।” मोना चौधरी बोली-“दूसरा तो पत्थर का बुत बन गया। तीसरा भाग गया।”
“तू जादू करना भी जानती है।” केशोराम की आँखें सिकुड़ीं।
“नहीं।”
“तो फिर वो पत्थर का बुत कैसे बन गया, तेरे हथियार का वार सहन करते ही। दूसरा खंजर की नोक लगते ही इस तरह नीला क्यों पड़ गया, जैसे जहर पी लिया हो।”
“भगवान ने उन्हें इसी तरह मौत देनी थी, वो मेरे हाथों से दे दी।” मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा।
“बहुत हाजिर जवाब है तू। बता अब तेरा क्या करूँ?”
मोना चौधरी खामोश रही।
“कोई बाहरी व्यक्ति हमारी दुनिया में आये, ये तो हम कभी भी पसन्द नहीं करते। ऐसों को हम जिन्दा नहीं छोड़ते। तेरी जान लेना हमारी मजबूरी बन गई है।” राजा केशोराम ने मोना चौधरी को घूरा।
तभी एक तरफ खड़ा व्यक्ति कह उठा।
“जान बख्शी हो तो मैं कुछ कहूँ राजा साहब।”
“कहो।”
“अकेले में बात करूँगा। इस तरफ आ जाइयेगा।”
उस व्यक्ति और राजा केशोराम ने एक तरफ हटकर बात की।
“राजा साहब।” वो धीमे स्वर में बाला-“बहुत खूबसूरत है ये। आप इसके साथ ब्याह कर सकते हैं।”
“तुम कहना क्या चाहते हो?”
“इसकी जान मत लीजिये।”
“बेवकूफ।” राजा केशोराम दबे स्वर में कह उठा-“जान कौन ले रहा है। मैं तो इसे ब्याह के लिये तैयार कर रहा हूँ। इन्कार न करे, इसलिये पहले ही डरा-धमका कर, इसकी जान सुखा रहा हूँ।”
“ओह! समझा। ऐसी खूबसूरत युवती को हम अपनी पत्नी बनाए बिना कैसे छोड़ देंगे। ये तो हमारे बीस बच्चे पैदा करेगी।”
“मर जायेगी राजा साहब। आपसे कई बार कहा है पांच-सात बच्चों से ज्यादा की बात मत किया करें।”
“ठीक है, ठीक है।” कहने के साथ ही राजा केशोराम मोना चौधरी की तरफ बढ़ते कह उठा-“तुम सही कह रहे हो कि ज्यादा सवाल-जवाब न करके, इसे खत्म कर देना ही बेहतर है। ये हमारे किसी काम की नहीं। इसे जिन्दा छोड़ा गया तो हमारे खिलाफ ही काम करती रहेगी।”
मोना चौधरी जानती थी कि ये उसे खत्म नहीं करेगा।
“वो माँ-बेटा कहाँ हैं, जिन्होंने इसे छिपा रखा था अपने घर में?” राजा केशोराम ने एक पहरेदार से पूछा।
“उन्हें कैदखाने में डाल दिया है। आपका हुक्म चाहिये कि उन्हें क्या सजा देनी है?” पहरेदार कह उठा।
“उन्हें भूखा रखा जाये। खाने-पीने को कुछ भी न दिया जाये। जब वो मर जायें तो उनके शरीरों को महल के बाहर लटका दो। ताकि देखने वाले समझ जायें कि हमसे गद्दारी करने का क्या अंजाम होता है।”
“जी। ऐसा ही होगा राजा साहब।”
मोना चौधरी खामोशी से राजा केशोराम को देख रही थी।
उसकी खामोशी पर राजा केशोराम मन-ही-मन झल्ला रहा था।
“इसके मुँह में जुबान है कि नहीं? ये बोलती है या नहीं?”
“बोलती है राजा साहब। बहुत सुरीली आवाज है इसकी।” दूसरा व्यक्ति कह उठा-“ये तो आपकी पत्नी बनने के लायक है।”
“पत्नी?”
“जी हाँ।” वो फिर कह उठा-“इसकी खूबसूरती पर ध्यान दीजिये। इसकी जान लेकर तो आप इस पर जुल्म करेंगे। जान की माफी देने के बाद इसे आप दिल की रानी बना लीजिये। आपसे हर कोई रहम की उम्मीद रखता है।”
“हूँ।” राजा केशोराम ने सिर हिलाया-“तुम्हारी बात हमें पसन्द आई। हमें रहम से काम लेना चाहिये। इसे हम अपनी पत्नी बना लें तो बुरा नहीं होगा। ये जो औलाद पैदा करेगी, उसे यहाँ कर राजा बना देंगे।”
“आप तो वास्तव में राजा-बल्कि प्रतापी राजा बनने के लायक हैं।”
वो खुद ही सवाल कर रहे थे। खुद ही जवाब दे रहे थे।
मोना चौधरी उनकी बातों को बखूबी समझ रही थी।
“पूछो इससे क्या ये अभी हमसे ब्याह करना चाहेगी या आराम करने के बाद।” राजा केशोराम कह उठा।
“जवाब दो खूबसूरत युवती।” वो व्यक्ति मोना चौधरी से कह उठा-“तुम कब राजा केशोराम से ब्याह करके भाग्यशाली बनना चाहोगी।”
“मेरे हाथ में ब्याह की लकीर नहीं है भाई साहब।” मोना चौधरी शांत स्वर में कह उठी।
“ये कैसे हो सकता है।”
“ये सच है। तभी तो मैं शांत खड़ी आपकी व्यर्थ की बातें सुन रही थी।”
“ओह।” उसने सिर हिलाकर राजा केशोराम को देखा-“आपने सुना राजा साहब।”
राजा केशोराम ने मोना चौधरी को देखा।
“तुम हमसे ब्याह करोगी तो क्या बुरा होगा हसीना।”
“जो मुझसे ब्याह करेगा, वो जीवित नहीं रह सकता।” मोना चौधरी कह उठी।
राजा केशोराम हौले से हंस पड़ा।
मोना चौधरी देख रही थी उसे।
“चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। मेरी जान हर हाल में सलामत रहेगी।” राजा केशोराम कह उठा।
“क्या मतलब-ये कैसे हो सकता है?” मोना चौधरी के होंठों से निकला।
“ऐसा ही है प्रिय।” राजा केशोराम ने सिर हिलाकर कहा-“मेरा जीवन सौदागर सिंह की शक्ति की देन है। किसी भी तरह की ताकत का असर मुझ पर नहीं हो सकता। मेरा जीवन सलामत रहेगा।”
“यानी कि ये कहना चाहते हो कि तुम अमर हो।”
“नहीं। मैं अमर नहीं।” राजा केशोराम ने सिर हिलाया-“सौदागर सिंह जब चाहे मुझे हवा में मिला सकता है।”
“समझी।” मोना चौधरी के होंठ सिकुड़े-“अगर मैं तुम पर कोई ताकत इस्तेमाल करना चाहूँ तो?”
“कोई फायदा नहीं। मैं ठीक रहूँगा।”
“तो ताकत इस्तेमाल करूँ?”
“बेशक! परन्तु-।”
“राजा साहब।” पास खड़ा व्यक्ति कह उठा-“ये आप क्या कर रहे हैं। मालूम नहीं ये कौन है? कैसी शक्तियाँ हैं इसके पास। अगर इसका वार सफल हो गया तो जाने आपका क्या हो...।”
“मुझे कुछ नहीं हो सकता।” राजा केशोराम कह उठा-“कोई शक्ति असर नहीं करेगी। सिर्फ सौदागर सिंह की शक्ति ही मेरे को खत्म कर सकती है। सौदागर सिंह ने ढाई सौ बरस पहले ऐसा ही कहा था। ऐ खूबसूरत युवती! तुम अपनी शक्ति का इस्तेमाल मुझ पर करके देख सकती हो। परन्तु मेरी एक शर्त है।”
“क्या?”
“अगर तुम्हारी शक्ति ने मुझ पर कोई असर नहीं किया तो तुम्हें मुझसे ब्याह करना होगा।”
“मैं अवश्य ब्याह करूँगी।”
“आज ही करना होगा।”
“आज ही करूँगी।” कहने के साथ ही मोना चौधरी ने खंजर निकाला।
राजा केशोराम की निगाह खंजर पर गई।
कईयों ने उस खंजर को देखा।
“ये क्या है?”
“मेरी शक्तियाँ इस खंजर में कैद हैं।” मोना चौधरी ने कहा।
“खूब।” राजा केशोराम मुस्कराया-“अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके देख लो। फिर हम ब्याह करेंगे।”
तभी एक बूढ़ी आया ने भीतर प्रवेश किया और झुकाकर कह उठी।
“राजा साहब की जय हो। छोटी वाली रानी ने बच्चे को जन्म दे दिया है।”
“ओह। जल्दी बताओ। बच्चा कैसा है। वो ठीक है या...।”
“क्षमा राजा जी।” उस औरत ने पुनः कहा-“वो बच्चा अब तक हुए बच्चों की तरह ये बच्चा भी न तो पुरुष है और न ही स्त्री।”
“ओह। ये क्या हो रहा है हमारे साथ। हमारी कोई औलाद ठीक क्यों नहीं हो रही?” राजा केशोराम ने परेशान स्वर में कहा-“हमारी हर औलाद ही ऐसी क्यों होती है।”
“राज ज्योतिषी से पूछिये राजा जी। उसने कहा था इस बार आपकी औलाद ठीक होगी।”
“अवश्य। राज ज्योतिषी से बात करनी पड़ेगी। पहले हम इस खूबसूरत युवती की शक्ति देख लें।” राजा केशोराम की नज़रें मोना चौधरी पर जा टिकी-“तुमने अभी तक अपने नाम का जिक्र नहीं किया।”
“करूँगी। पहले अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर लूं।” कहने के साथ ही मोना चौधरी ने खंजर को खुली हथेली में रख लिया।
सबकी निगाह मोना चौधरी पर जाती तो कभी खंजर पर।
मोना चौधरी ने खंजर को देख फिर होंठों ही होंठों में बड़बड़ा उठी।
“हे प्रेतनी चंदा के शक्तिशाली खंजर! अपनी शक्ति दिखा और सामने खड़े राजा केशोराम को खत्म कर दे।”
खंजर हथेली पर ही पड़ा रहा। कोई हरकत नहीं हुई।
“हे प्रेतनी चंदा के खंजर! प्रेतनी चंदा की इज्जत खराब मत कर। अपनी ताकत दिखा। इस राजा को खत्म कर दे।”
परन्तु खंजर की तरफ से कोई हलचल नहीं हुई।
मोना चौधरी की आँखें सिकुड़ीं।
हर कोई चुप खड़ा था।
“खंजर।” मोना चौधरी दाँत भींचकर बड़बड़ा उठी-“सामने खड़े राजा को खत्म कर। प्रेतनी चंदा की इज्जत रख ले।”
कोई फायदा नहीं हुआ।
मोना चौधरी समझ गई कि राजा केशोराम पर सच में किसी शक्ति का असर नहीं होगा। गहरी सांस लेकर खंजर को हाथ में दबाकर राजा केशोराम को देखा।
“सच में तुम पर किसी शक्ति का असर नहीं हो रहा। ऐसा क्यों? ये खंजर मेरा आदेश मानने से कभी पीछे नहीं हटा।”
“तुम्हारी या खंजर की गलती नहीं है खूबसूरत शह।” राजा केशोराम मुस्करा पड़ा-“सौदागर सिंह की दी, शक्तियों से भरी इस अंगूठी का कमाल है, जो मेरी उंगली में पड़ी है। ये अंगूठी जिसके भी हाथ में पड़ी होगी, वो सौदागर सिंह का सेवक बनकर यहाँ रहेगा और उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा।”
“तुम झूठ कह रहे हो।” मोना चौधरी ने होंठ सिकोड़ कर कहा-“मुझे तो ये साधारण अंगूठी लगती है।”
“मैं सच कह रहा हूँ। ये अंगूठी दस दिन तक नये-नये रंग निकालती है। नया दिन, नया रंग। ग्यारहवें दिन फिर से पहले रंग में शुरू हो जाती है।” राजा केशोराम गर्व भरे स्वर में कह उठा।
“ओह।” मोना चौधरी ने हैरानी से आँखें फैलाई-“अंगूठी दिखाईये तो सही राजा साहब।”
“नहीं। मैं तुम्हारे हाथों में अंगूठी नहीं दूंगा।”
“पास से दिखा तो सकते हो।” मोना चौधरी प्यार भरे ढंग से मुस्कुरा पड़ी।
राजा केशोराम मोना चौधरी का दीवाना होता नजर आया।
“शर्त के मुताबिक अब तुम्हें मुझसे शादी करनी है।”
“मैंने कब मना किया है राजा साहब। मैं तो हार गई आपसे।”
मोना चौधरी अदा के साथ कह उठी-“लेकिन एक तरफ तो आप मुझे अपना बनाने की बात करते हैं और मुझे पर भरोसा नहीं। एक अंगूठी दिखा सकें।”
“ये-ये बात नहीं।” राजा केशोराम कह उठा-“ये साधारण अंगूठी नहीं है।”
“तभी तो देखने को कह रही हूँ। आपकी पत्नी बनने जा रही हूँ। मुझे अंगूठी पहनाकर नहीं दिखा सकते क्या?”
राजा केशोराम कुछ कहने लगा कि पास खड़ा व्यक्ति कह उठा।
“बात तो ठीक है इनकी राजा साहब। अब तो आपकी है। अंगूठी पहनाकर दिखा दीजिये।”
राजा केशोराम मुस्कराया और हाथ की उंगली से अंगूठी निकालकर आगे बढ़कर, मोना चौधरी के हाथ की उंगली में अंगूठी डाल दी। अंगूठी का सफेद नग हल्का नीला रंग छोड़ते हुए बहुत अच्छा लग रहा था।
“सच में।” मोना चौधरी खुशी से बोली-“कितनी प्यारी अंगूठी है। ये मुझे दे दीजिये राजा साहब।”
“नहीं प्रिय। ये अंगूठी नहीं दे पाऊँगा।” राजा केशोराम ने प्यार से कहा-“सौदागर सिंह ने कहा था कि इस अंगूठी को कभी भी अपने से जुदा न करूँ। ढाई सौ बरस के बाद, आज पहली बार इस अंगूठी को अपने से जुदा किया है।”
“इसमें ऐसी क्या खास बात है राजा साहब।” मोना चौधरी ने मुस्करा कर उसकी आँखों में देखा।
“बहुत खास बात है। ये अंगूठी जिसके हाथ में रहेगी, वो सौदागर सिंह के कहर से बचा रहेगा। सौदागर सिंह की कोई भी ताकत उस पर असर नहीं करेगी। दुश्मन उसे मार नहीं सकेगा। चक्रव्यूह में बेखौफ होकर घूमा जा सकता है।”
“ओह।” मोना चौधरी ने होंठ सिकोड़े-“मतलब कि जिसके हाथ में ये अंगूठी रहेगी, वो खतरों से बचा रहेगा।”
“हाँ। जैसे कि मैं खतरों से बचा हुआ हूँ ढाई सौ बरस से।” राजा केशोराम कह उठा-“लाओ। ये अंगूठी मुझे दे दो और ब्याह की तैयारियाँ करो। मैं तुमसे अभी ब्याह कर लेना चाहता हूँ।”
“ब्याह को कौन मना करता है।” मोना चौधरी कह उठी-“परन्तु ये अंगूठी तो मैं आपको पहली सेज पर ही वापस करूँगी।”
“लेकिन...।”
“मुझ पर भरोसा नहीं करेंगे तो किस पर भरोसा करेंगे राजा साहब।” मोना चौधरी ने कहकर उसके गाल को थपथपाया।
मोना चौधरी के छूने से ही राजा केशोराम निहाल हो गया।
“अच्छी बात है। पहली सेज सजने में ज्यादा देर नहीं। तुमसे तब अंगूठी वापस ले लूंगा।” फिर राजा केशोराम ने वहाँ खड़े दोनों आदमियों से कहा-“ब्याह की तैयारी करो। अब हमसे और नहीं रुका जाता।”
मोना चौधरी पीछे हटी। हाथ में दबे खंजर को हथेली में रखा और बुदबुदा उठी।
“हे खंजर! राजा केशोराम को जान से खत्म कर दे।”
उसी पल हथेली में पड़े खंजर में कम्पन हुआ। दूसरे ही पल वो हवा में लहरा उठा हथेली छोड़कर कइयों ने खंजर को हवा में लहराते देखा।
“ये क्या?”
“खंजर हवा में?”
तभी उस खंजर ने रफ्तार पकड़ी और तूफानी गति से आगे बढ़ता हुआ राजा केशोराम की गर्दन में जा धंसा। उसकी आँखें फटती चली गईं। वो जोरों से लड़खड़ाया और नीचे गिर पड़ा। चंद पलों तक तड़पने के पश्चात उसका शरीर ठण्डा पड़ता चला गया।
आँखें फटी की फटी रह गईं।
हर कोई स्तब्ध सा राजा केशोराम की लाश को देखने लगा।
दाँत भींचे मोना चौधरी ने सब पर नज़र मारी फिर आगे बढ़कर राजा केशोराम की गर्दन में फंसा खंजर बाहर खींचा। फल पर लगा खून, उसके कपड़े से साफ किया और खंजर को वापस अपनी पैंट में फंसा लिया।
तभी एक आदमी चीखा।
“पकड़ लो इसे और टुकड़े-टुकड़े कर दो-इसने हमारे राजा को।”
“खबरदार!” मोना चौधरी खतरनाक स्वर में कह उठी-“कोई अपनी जगह से न हिले। वरना उसका हाल भी राजा केशोराम जैसा होगा। जिसे जान प्यारी नहीं है, वो ही मुझ पर वार करे।”
मोना चौधरी की तरफ बढ़ने को तैयार पहरेदार ठिठक गये।
प्रेतनी चंदा का खंजर पुनः मोना चौधरी के हाथ में आ चुका था।
वहाँ मौजूद व्यक्तियों की नज़रें बार-बार मोना चौधरी के हाथ में दबे खंजर पर जाने लगीं। खंजर का कमाल उन्होंने देख लिया था।
खंजर से वे भयभीत नज़र आ रहे थे। चेहरे फक्क पड़ चुके थे।
“राजा केशोराम के पास जो ताकतें थीं, इस अंगूठी के रूप में, वो मेरे पास आ चुकी हैं। अब तुम लोगों को मेरी बात माननी होगी, वरना मैं सबको खत्म कर दूंगी।” मोना चौधरी खतरनाक स्वर में कह उठी-“बोलो, मेरी बात मानोगे या फिर मैं अपना वार तुम सब पर।”
“नहीं, नहीं। ऐसा मत करना।” एक कह उठा-“हम तुम्हारी बात मानेंगे।”
“ये तो तुम कह रहे हो। बाकी सब तो नहीं कह रहे।” मोना चौधरी गुर्रा उठी।
“हम भी कह रहे हैं। सब कह रहे हैं।”
“तुम्हारी हर बात मानेंगे।”
मोना चौधरी ने खतरनाक निगाहों से सबको देखा। खंजर अभी भी हाथ में दबा था।
“सबसे कह दो कि राजा केशोराम नहीं रहा अब। नये राजा का नाम रात तक बता दिया जायेगा। जिसने नये राजा को स्वीकार नहीं किया, उसे सिर्फ मौत मिलेगी।”
“हम-हम अभी सबसे कह देते हैं।”
“सब आपकी बात मानेंगे।”
“राजा केशोराम के जुल्म से सब परेशान थे।”
“वो ब्याह के बहाने बहू-बेटियों की इज्जत खराब करता था।”
“उसकी मौत के बारे में सुनकर हर कोई प्रसन्न ही होगा।”
“मेरी सुनो।” मोना चौधरी ने तेज स्वर में कहा।
सबकी निगाह मोना चौधरी पर जा टिकी।
“वो माँ-बेटा, जिनके घर में मैं छिपी थी, उन्हें आजाद करो। और बेटे-सुनार सिंह को मेरे पास लाओ।”
“अभी-।” एक ने तुरन्त सिर हिलाकर कहा-“हम अभी उसे कैद से आजाद करके आपके सामने पेश करते हैं।”
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