पाण्डे जी बस्ती के निकट पहुंच चुके थे।

रात का तीसरा पहर चल रहा था। ठंड में दुबका लखनऊ शान्त था, सो रहा था। कभी-कभी कुत्तों की आवाजों और चौकीदारों की जागते रहो की सदा से मौन वातावरण भंग हो जाता था।

यकायक घोड़ों की टापों से वातावरण गूंज गया। पाण्डे जी ने कुहरे भरे वातावरण में देखा कि चार घुड़सवार उनकी ओर ही चले आ रहे थे, उनके हाथों में मशालें थीं।

-'यह रही...!'

-'यही तो है!'

यकायक उस पगली को देख कर वह चारों घुड़सवार घोडे से उतर पड़े और एक घुड़सवार ने म्यान से तलवार निकाल ली।

पाण्डे जी की कमर से कटार बंधी हुई थी, परन्तु उन्होंने उसे नहीं निकाला और शान्त स्वर में चारों को ललकार कर कहा-'मेरा नाम चतुरी पाण्डे है, तलवार वही म्यान से निकाले जिसे जिन्दगी की परवाह न हो।'

विलक्षण परिस्थिति थी।

तलवार वाला नौजवान व्यक्ति एक हाथ में मशाल और दूसरे हाथ में तलवार लिए बढ़ रहा था।

वह ठीक पाण्डे जी के सम्मुख आ गया।

पाण्डे जी अब भी शान्त थे, उनका एक हाथ खाली था और दूसरे हाथ से पगली की बांह थामे हुए थे। वह बस एकटक देख रहे थे उस तलवार वाले नौजवान की ओर।

यकायक चमत्कार हुआ। उस युवक ने मशाल एक साथी को पकड़ा दी और तलवार पाण्डे जी के पांवों में रखता हुआ बोला-'परनाम करता हूं पाण्डे जी।'

-'जीते रहो, जीते रहो बेटा। कौन हो तुम...मैं पहचाना नहीं!'

युवक उठा। पाण्डे जी के ठीक सम्मुख खड़ा हो गया, शेष मशालधारी निकट आ चुके थे।

-'मुझे पहचाना नहीं पाण्डे जी?'

पाण्डे जी ने देखा उस व्यक्ति की आँखें डबडबाई हुई थीं। बात अजीब थी। उसके स्वर में कंपन था, वह रुंआसा-सा था।

-'सचमुच बेटा, मैंने नहीं पहचाना।'

-'क्या जब बुरे दिन आते हैं तो अपने भी बेगाने हो जाते हैं पाण्डे जी? वह जो आपके खास दोस्त थे, मैं गोमती पार ताल्लुके के ठिकानेदार मिर्जा रहमत का छोटा बेटा इदरीस हूं।'

-'अरे!' यकायक पाण्डे जी ने पगली का हाथ छोड़ दिया और उस युवक को गले से लगाते हुए कहा-'बेटा पहचानता तो कैसे? अरे मैंने तो तुम्हें जरा-सा देखा था। फिर मिर्जा खुदा को प्यारे हुए। हवेली पर आना-जाना हुआ नहीं, तुम्हारे बड़े भैया इल्यास अक्सर मिलते रहे। हवेली पर आखिरी वक्त गया था जब इल्यास की शादी हुई थी। तुम्हें देख कर बहुत खुशी हुई बेटा! इल्यास कैसे हैं, कोई बाल बच्चा है घर में?'

पगली ठहाका मार कर हंस पड़ी-'पागल है...बुड्ढा पागल है।'

उस युवक के साथ और जो घुड़सवार थे, उन्होंने उस पगली को सम्भाला। वह युवक रो पड़ा।

-'क्या बात हुई बेटा...इदरीस बेटे क्या हुआ...?'

-'आप...आप तो पाण्डे जी जाकर गांव में रहने लगे, कभी लखनऊ आते भी हैं तो यह भी नहीं देखते कि दोस्त के बच्चों में से कौन मर गया और कौन जिन्दा है!'

-'क्या कहते हो बेटा?'

-'भाई जान मर गये।'

-'क्या कहते हो?' सुन कर पाण्डे जी सन्न रह गये।

-'और यह पगली है मेरी भाभी...इल्यास की विधवा।'

-'हे मेरे भगवान...यह सब कैसे हुआ बेटा? यह तो बहुत ही बुरा हुआ।'

इदरीस बच्चे की भांति रोता हुआ पाण्डे जी के गले से लिपट गया।

पाण्डे जी ने अपने दोस्त के बेटे को कस कर गले से लगा लिया। कैसे धीरज बंधाते वह दोस्त के बेटे को। स्वयं द्रवित हो गये थे वह।

-'धीरज रख मेरे बेटे। धीरज रख...खुदा की मर्जी के आगे भला किसका क्या बस! लेकिन यह सब कैसे हुआ? इल्यास कैसे मरा...बहू कैसे पागल हुई? उफ्, मैं तो बेगार समझ कर इस पगली को साथ लिए आ रहा था। कैसे हुआ...बेटा यह सब कैसे हुआ?'

-'सब कुछ बताऊंगा पाण्डे जी। हवेली नहीं चलेंगे?'

-'हवेली...अच्छा। चलूंगा बेटा...चलो।'

इदरीस उस पगली की ओर मुड़ा।

-'भाभी जान।'

-'कौन भाभी...किसकी भाभी? मैं किसी की भाभी नहीं हूं। कोई मेरा देवर नहीं है...सब पागल हैं।' पगली फिर हंस पड़ी।

-'भाभी जान...आपको मुझ पर रहम नहीं आता? आपको मेरे खानदान पर रहम नहीं आता। लेकिन कम से कम अपने आप पर तो रहम किया कीजिए। इस सर्दी में आप निकल आईं। आप क्यों अपना खूने नाहक मेरे सिर डालना चाहती हैं? क्या आपको यह अच्छा लगेगा कि मैं आपके हाथ पांवों में जजीरें डाल कर आपको तहखाने में डलवा दूं?'

परन्तु पगली हंस रही थी।

कैसा है जमाने का विधान!

बड़ी निर्ममतापूर्वक शेष तीनों सवारों ने उस पगली को एक घोड़े पर लाद दिया, उस घोड़े पर इदरीस चढ़ गया।

पाण्डे जी एक और सवार के पीछे बैठ गए।

लखनऊ के सुनसान पथ को गुंजाते हुए चारों घोड़े आगे बढ़े।

रहमत का खानदान...मिर्जा रहमत बेग।

जिन्हें नवाब वाजिद अली शाह की चचेरी बहन ब्याही गई थी। तैमूरी खानदान के एक निहायत ही शरीफ जागीरदार।

पाण्डे जी से रहमत बेग की खूब दोस्ती थी।

यह एक वास्तविकता थी कि लखनऊ दरबार में एक रहमत बेग ही ऐसे थे जिनकी ईमानदारी पर कहीं भी, कोई भी शक नहीं किया जा सकता था।

मिर्जा ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो जब तक जीते रहे तब तक नवाब के चरित्र के आलोचक रहे, उन्हें ऐश से चिढ़ थी और नवाब को हमेशा वह खरी-खरी सुनाते थे।

एक ओर अपनी विलासिता के कारण नवाब धीरे-धीरे अंग्रेजों के जाल में फंसते जा रहे थे, दूसरी ओर दरबार के वफादार दरबारी धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे थे।

पाण्डे जी की न केवल मिर्जा से दोस्ती थी वरन वह मिर्जा का आदर भी करते थे।

रहमत मिर्जा पाण्डे जी के लखनऊ प्रवास में ही मर गये थे।

उनके बड़े लड़के को दरबारी मनसब दिया जाए या नही...इस बात को लेकर विवाद चल रहा था। यूं नवाब को कोई आपत्ति नहीं थी, परन्तु रेजीडेन्ट को आपत्ति थी। इसलिए कि रहमत मिर्जा अंग्रेजों के विरोधी थे। इतने विरोधी थे कि उनके ताल्लुके में अंग्रेज सैनिकों का जाना मना था। इतना तो पाण्डे जी को भी अनुमान था कि शायद इल्यास बेग को दरबारी पद न मिले।

घोड़े रहमत मिर्जा की हवेली पर जाकर रुके।

ऐसी तो कल्पना भी पाण्डे जी ने नहीं की थी। बाहर से हवेली का हुलिया ऐसा था जैसे उसमें कोई बरसों से न रह रहा हो। जिस दरवाजे पर कभी शानो शौकत बरसती थी, उस हवेली के दरवाजे पर ऐसा लगता था जैसे जिन्दा आदमियों के रहने की हवेली न होकर मृत व्यक्तियों के सोने का मकबरा हो।

पाण्डे जी के सम्मुख ही इदरीस ने उस पगली को एक कमरे में बंद करा दिया, परन्तु कमरा जेल जैसा न था। सभी सुविधायें थीं उस कमरे में, सेवा के लिए एक हृष्टपुष्ट दासी भी थी।

इदरीस के साथ के घुड़सवार किसी और कक्ष में चले गये। इदरीस पाण्डे जी को अपनी बैठक में ले गया। वहां फानूश न होकर साधारण शमादान जल रहा था, मसनद की चाँदनी मैली सी थी।

-'तशरीफ रखिए पाण्डे जी। देख लिया न, भाभी जान भी मेरी जान के लिए मुसीबत हैं। उस कमरे में हर वक्त एक औरत इनकी खिदमत के लिए रहती है। वैसे लाइलाज पागल हैं। लेकिन बांदी को साफ चकमा देकर...कमरे से निकल गईं और मेरी रात की नींद हराम कर दी। खैर, आप पहले अपनी सुनाइए। सुना है नवाब साहब ने आपको लखनऊ छोड़ कर गांव चले जाने का हुक्म दिया था।'

-'हां, आज-कल गांव में ही तो रहता हूं।'

-'लेकिन कभी-कभी तो लखनऊ आते ही होंगे! आपने तो पीछे मुड़ कर यह भी न देखा कि दोस्त के बाद दोस्त के बच्चों पर क्या बीती है?'

-'बेटा, गलतफहमी के लिए अपने दिल में जगह मत रखो। लखनऊ से एक बार गया तो पिछली सुबह ही लौटा हूं। नवाब साहब ने एक खास काम के लिए बुलाया था।'

-'ओह!' आश्चर्य प्रगट करते हुए इदरीस ने कहा-'बात ताज्जुब की है पाण्डे जी। नवाब साहब ने मतलब के लिए बुलाया और आप आ भी गए?'

-'लिहाज तो करनी ही पड़ती है।'

-'मैं आपकी जगह होता तो हरगिज न आता। लेकिन क्या कहूं...बुजुर्ग हैं आप! ऐसा क्या काम निकल आया नवाब साहब को आपसे?'

-'कुछ खास काम भी न था। नवाब साहब की रेजीडेन्ट से शर्त ठहर गई, सौदागर नबी बख्श है न...उसकी लड़की को आधी रात के वक्त कुछ लोग उठा कर ले गए। कोतवाल साहब पता नहीं लगा सके, इसीलिए उन्होंने मुझे बुलवा लिया।'

-'कुछ पता लगा?'

-'बताया न पिछली सुबह तो आया ही था।'

-'ओह, मैं आता हूं अभी...जरा...!'

उठ कर इदरीस तेजी से बाहर चला गया। कुछ देर बाद वह लौटा तो एक चांदी के पात्र में गर्म दूध था और चांदी की थाली में कुछ मिठाई। दोनों वस्तुयें एक थाल में सजा कर नौकर इदरीस के साथ था।

-'अपने पागलपन में मैं यह भी भूल गया पाण्डे जी कि अब मैं ही कम्बख्त इस हवेली के बड़ों में से आखिरी हूं। आप यहां आ गए और बैठ गए, मैंने पानी के लिए भी नहीं पूछा। लीजिए, जो कुछ भी मुझ गरीब के पास है...हाजिर है। इन्कार नहीं सुनूंगा, इसलिए कि आपके दोस्त का बेटा हूं...मेरा भी हक है।'

-'लेकिन इस वक्त?'

-'आपके दोस्त की हवेली की इज्जत का सवाल है।'

-'अच्छा भई अच्छा।'

पाण्डे जी ने पहले अपने हाथ से मिठाई की एक डली इदरीस को खिलाई और फिर मिठाई की एक डली स्वयं लेकर दूध पी लिया।

-'खुश हुए न?'

-'बहुत खुश।'

-'अब मुझे बताओ बेटा। मुझे बताओ कि यह हवेली कैसे उजड़ गई, इल्यास को क्या हो गया था और और बहू कैसे पागल हुई?'

-'लेकिन पहले मेरे अचरज की तो दवा कीजिए। लिहाज की बात जुदा है, क्या सचमुच आप अब भी नवाब साहब के वफादार हैं?'

-'बेशक।'

-'उन्होंने आपको लखनऊ में न रहने दिया...तब भी?'

-'उनकी मजबूरी थी। रेजीडेन्ट जो वैसा चाहता था।'

-'लखनऊ के नवाब वह हैं या रेजीडेन्ट?'

गम्भीर पाण्डे जी ने कहा-'बेटे इस सवाल का जवाब तुम्हें मालूम है।'

-'मुझे तो यह मालूम है कि नवाब साहब धीरे-धीरे लखनऊ की नवाबी को फिरंगिओं के हाथों बेचते जा रहे हैं!'

-'बेटे!' सख्त स्वर में पाण्डे जी बोले-'यह छोटा मुंह बड़ी बात है। इस बात को रहमत मिर्जा कहते तो मान लेता। लेकिन नवाब साहब तुम्हारे बुजुर्ग हैं।'

-'जाने दीजिए कि नवाब साहब मेरे क्या हैं...लेकिन मैं कहूंगा कि...!'

-'तुम्हारे मुंह से मैं नवाब की बुराई नहीं सुनूंगा। मैंने नवाब का नमक खाया है।'

-'पाण्डे जी नमक तो नवाब साहब भी खाते हैं, वह किसका नमक है? लीजिये मैं ही बताये देता हूं कि नवाब साहब रियाया का नमक खाते हैं और उन्हें हक नहीं है रियाया की किस्मत की फिरंगिओं के हाथों बेच दें!'

-'इदरीस!' चीख उठे पाण्डे जी।

-'फरमाइये।'

-'चुप रहो ईश्वर के लिये। मैं किसी छोटे मुंह से बड़ी बात सुनने का आदी नहीं हूं। मेरी रग-रग में नवाबी नमक है। मैं नवाब के नाम पर जान दे सकता हूं।'

-'तब तो मुझमें और आप में कोई रिश्ता न रहा पाण्डे जी। आपने नवाब का नमक खाया और मैं नवाब को नमक हराम समझता हूं।'

रोष भरे पाण्डे जी उठ कर खड़े हो गये।

-'ठीक कहते हो, सचमुच मेरा तुम्हारा कोई रिश्ता न रहा। ईश्वर तुम्हारा भला करे, अब मैं जा रहा हूं।'

यकायक कमरे में विलक्षण चमत्कार हुआ। इस बैठकखाने के तीनों दरवाजे एकदम खुल गये और बीसियों आदमियों ने नंगी तलवारें हाथों में लिये पाण्डे जी को घेर लिया।

शान्त पाण्डे जी ने इदरीस की ओर देखा।

-'मुझे अफसोस है पाण्डे जी। हम दोनों अचानक ही राह में मिले और एक दूसरे से टकरा गये। आपको इस वजह से कैद में रहना पड़ेगा कि आप नवाब के दोस्त हैं, और चूंकि आप नवाब के दोस्त हैं इसलिये लखनऊ की रियाया के दुश्मन हैं। आप जुल्म पसन्द हैं, आप देख रहे हैं कि रियाया लुट रही है। नवाब के नाम पर फिरंगी सिपाहियों ने पूरी लखनऊ अमलदारी में लूट मचा रखी है और नबाव रियाया के आंसुओं को शराब समझ कर पी रहे हैं। रियाया की बहू-बेटियां अब सिर्फ उनके महल की शोभा के लिये रह गई हैं।'

पाण्डे जी का चेहरा आवेश में सुर्ख हो रहा था। दोनों ने एक दूसरे को तीखी नजर से देखा।

बहुत कुछ कहना चाहने पर भी पाण्डे जी कुछ भी कह न सके। सिर्फ इतना ही कह पाए  -'काश तुम मिर्जा रहमत के बेटे न होते!'

-'यही अफसोस तो मुझे भी है पाण्डे जी। काश आप पाण्डे जी न होते। अगर आपकी जगह कोई और होता तो अब तक उसका सिर धड़ से अलग हो गया होता। लेकिन अब आपको कुछ दिन मेरी कैद में रहना पड़ेगा। यकीन रखिए कि कोई तकलीफ न होगी। आपका भतीजा हूं, बेटे जैसा हूं और यकीन रखिये यह मामला दूसरा है...औरंगजेब और शाहजहां वाला मामला नहीं है। ले जाओ इन्हें...ये मेरे चचा हैं, इन्हें तब तक कोई तकलीफ न हो जब तक कि यह तुम्हें कोई तकलीफ न दें।'

कर्तव्य विमूढ़ से हो गए पांडे जी।

नंगी तलवार लिये वह व्यक्ति पांडे जी को घेरे हवेली के तहखाने में ले आए।

देखते ही देखते तहखाने में पलंग और बिछावन आ गया। इसी तहखाने में उन्होंने कई बार रहमत के साथ गरमी की दोपहरियां बिताई थीं और आज...!

पांडे जी लेट गये। निश्चय किया कि सोना चाहिये। सुबह सोचेंगे कि क्या हुआ, क्या करना चाहिये!

तहखाने में सभी सुविधायें जुटाने के बाद तहखाने का मजबूत दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया।

प्रात: हुई। दोपहर निकट आ गई।

पांडे जी नहीं मिले इसका अचरज नजीर को नहीं हुआ। जैसा कि कार्यक्रम था, उसने मौलवी बन कर बड़े इमामबाड़े के सामने जाकर खुले मैदान में जानमाज बिछा कर नमाज पढ़ी। नमाज पढ़ कर दुआ मांगी और जैसे ही यह काम समाप्त करके वह उठा तो देखा...सामने नबी बख्श और इलाही बख्श दोनों खड़े थे।

-'आदाब बजा लाता हूं मौलवी साहब, यह हैं मेरे वालिद साहब।'

-'तसलीमात...आओ आओ। अरे हम ठहरे फकीर, गद्दा तोशक और मसनद कहाँ से लायें? अल्लाह मियां ने जो फर्श अता फरमाया है, उसी पर अय खुदा के बन्दो तशरीफ रखो।'

कीमती कपड़े थे इलाही बख्श और नबी बख्श के, लेकिन यह वक्त तकल्लुफ का नहीं था। दोनों नजीर के सम्मुख धूल भरी जमीन पर बैठ गए।

कुछ क्षण मौन रहा।

इलाही बख्श ने मौन तोड़ा-'हुजूर मौलवी साहब, हम बदकिस्मतों के लिये आपने कुछ फैसला किया?'

-'फैसला...हां, फैसला कर ही तो लिया। खुदा के हुक्म से तुम्हारी तकलीफें दूर होंगी। खुदा की मेहरबानियां खुदा के हर बन्दे को मिलती हैं...हमें हुक्म हुआ है कि हम बाप से बिछड़ी हुई बेटी को मिला दें, भाई से बिछुड़ी हुई बहन को मिला दें।'

दुखी नबी बख्श ने नजीर के पांव पकड़ लिये-'वल्लाह मौलवी साहब! जो भी आपके बारे में लड़के ने कहा था वह हरूफ ब हरूफ सच है। आप सचमुच पहुंचे हुए अल्लाह वाले फकीर हैं।'

-'तौबा तौबा...ऐसी बात मत कहो। मैं अल्लाह का गुनाहगार बन्दा उसके नेक बन्दों का गुलाम हूं। मुझे शर्मिन्दा मत करो, बस आपकी लड़की की तलाश है न...वह मिल जाएगी। हम कल सुबह के वक्त आयेंगे, तुम्हारे हाथों से गरीबों को खैरात करवायेंगे और अल्लाह के हुक्म से यह बता देंगे कि तुमसे बिछड़ी हुई लड़की कब मिलेगी। खैरात के नाम से डरने की जरूरत नहीं है। सिर्फ मोहताजों को खाना खिला देना।'

इतना कह कर नजीर उठ कर खड़ा हो गया।

-'तो सुबू आप तशरीफ लायेंगे?' इलाही बख्श ने पूछा।

-'हां।'

-'हमें और क्या हुक्म है?'

-'सच्चे दिल से खुदा की इबादत करो, जा सकते हो।'

नजीर इतना कह कर जानमाज उठा कर चल पड़ा। वह दो कदम बढ़ा फिर मुड़ा-'सुनो, खास काम तो भूल ही गया।'

-'फरमाइये।'

-'लखनऊ की रुहानी दुनिया में एक जिन्न है फरचट खां। उसे भी वश में करना पड़ेगा। कुछ सामान मैं बताए देता हूं...तैयार रखना। कल खैरात के बाद कब्रिस्तान जाकर वह चीजें जिन्न के लिये दबा कर आनी पड़ेगी। यह टोटका है...जरूर करना पड़ेगा।'

-'बहुत बेहतर, बहुत बेहतर। उन चीजों के नाम बता दीजिये।' उत्सुकता से नबी बख्श ने कहा।

-'आप लोग मुरीद हैं किसी मुर्शिद के?'

-'जी हां, पीर बहरामशाह के।'

-'उनके पास जाना।'

-'जो हुक्म।'

-'तीन बाल उनके सिर से लेना।'

-'जी...?' नबी बख्श चौंका।

-'मियां यूं हैरानी के साथ क्या देख रहे हो? यह बवाल जो आया है, इसके जिम्मेदार ही वह हैं। मेरी तरफ ऐसे मत देखो जैसे विलायती उल्लू को देखा जाता है। ध्यान से सुनो वर्ना...!'

इलाही बख्श सुन कर घबरा गया। बोला-'नाराज न हों हजरत, और फरमाइये वही होगा जो आपका हुक्म होगा।'

-'बहरामशाह के सिर के तीन बाल।'

-'हम लोग अभी लेते हुए चले जायेंगे।'

-'तीन बहरामशाह की नाक के बाल।'

इस बार इलाही बख्श भी चौंका-'बुरा न मानें तो एक बात अर्ज करूं हुजूर?'

-'कहिये।'

-'अगर नाक के बाल देने में पीर साहब को ऐतराज हुआ तो...?'

नजीर ने खास अन्दाज से आसमान की तरफ देखा। फिर वह दोनों को देख कर मुस्कराया -'अगर वह इन्कार करे तो उससे कहना कि एक परदेशी फकीर ने बताया है कि इन्द्रसभा के लालदेव और कालादेव अब भी शाह नसीर के मजार के पास हवा में चक्कर लगा रहे हैं। चक्की चल रही है, दो पाटों के बीच में आटा बन जाओगे शाह साहब। वह इन्कार नहीं कर सकता। खुदा ने उसके बहुत से गुनाह माफ किये, उसके बहुत से कारनामों पर पर्दा डाला है, लेकिन अब उसकी किश्ती डूबनी शुरू हो गई है। सम्भल के रहना, वह दिन दूर नहीं है जब शाह लखनऊ छोड़ कर भागेगा।'

बात ऐसे अन्दाज से कही गई थी कि दोनों बाप-बेटे भयभीत हो गए।

तनिक हड़बड़ाहट-सी में इलाही बख्श बोला-'हम दोनों बस अब सीधे पीर साहब के पास ही जा रहे हैं।'

-'यह दोनों चीजें उससे लेना।'

-'बहुत बेहतर।'

-'एक कबूतर चाहिए...लका कबूतर।'

-'तैयार मिलेगा।'

-'एक मुर्गा होना चाहिये...लड़ाकू नस्ल का।'

-'जो हुक्म।'

-'एक काम कुछ सख्त है, लेकिन करना जरूर पड़ेगा।'

-'बहुत बेहतर।'

-'घर जाकर नौकर दौड़ाइएगा। लखनऊ शहर में ग्यारह ऐसे आदमियों के पांवों के नीचे की मिट्टी होनी चाहिए जो तुम लोगों के दुश्मन हों।'

बाप बेटे ने एक दूसरे की ओर देखा।

-'कर सको तो हां कहो।'

-'जी हां...जी हां, कर सकेंगे।'

-'एक तोला जमालगोटा, जिन्न को जुलाब लगाने के लिये।'

-'जी!'

-'एक तोला अफीम जिन्न के नशे के लिये।'

-'बहुत बेहतर।'

-'कूड़े इलवाई के यहां की एक पाव जलेबी।'

-'आ जायेगी।'

-'हजरत गंज के नुक्कड़ से तोपखाने को जो सड़क जाती है, उस पर है बन्नो तमोलिन की दुकान। कहना कि दो पान के बीड़े तबीयत से लगाए, अपने होठों से सटा कर बांधे।'

-'जी।'

-'बस! मैं जानता हूं कि कुछ टेढ़े-तिरछे काम हैं। लेकिन भाई वह फरचट जिन्न भी अपने नाम का एक ही तुखमे लानत है...मजबूरी है, उसे खुश करना जरूरी है। अब जा सकते हो।'

-'जो हुक्म...आदाब।'

टालने की बात थी सो टाल दिया। नजीर ने अपनी कार्यप्रणाली निश्चित की थी कि वह कल प्रात: नबी बख्श से ग्यारह उन दुश्मनों के नाम पूछ कर असली कार्यवाही करेगा, जिनके पांवों की मिट्टी नबी बख्श मंगवा कर सामने रखेगा।

सारी तरकीब बेतरतीब हो गई।

जब नजीर शाम को अघोरी वाले श्मशान पहुंचा तो वहां चतुरी पाण्डे का कोई पता नहीं था। दिन ढले तक यह प्रतीक्षा करता रहा...परन्तु व्यर्थ।

दिन ढल गया। आकाश को अन्धेरे की काली चादर ने ढांप लिया।

नजीर शंकित हो उठा। सर्वप्रथम वह वहां पहुंचा जहां वह शाह की नकदी दबा आया था, नकदी ज्यों की त्यों सुरक्षित थी।

अगर पाण्डे जी को कहीं जाना होता तो निश्चय ही वह सूचना देकर जाते। काफी देर तक नजीर उस पुराने कुएं पर बैठा सोचता रहा।

यह तो साफ था कि गुरु जी उस पगली के कारण किसी झंझट में पड़ गये। यह जानकारी भी नजीर को थी कि कोतवाल हाशिम खां के होते लखनऊ की रक्षा व्यवस्था उनका बाल बांका नहीं कर सकती।

सोचने के बाद सीधे सादे हिसाब के माध्यम से वह एक ही नतीजे पर पहुंचा...गुरु जी पगली के कारण किसी संकट में पड़े हैं। अतएव यह जानकारी जरूर होनी चाहिए कि पगली कौन है, लखनऊ में उसका संरक्षक कौन है, वह कैसे पागल हुई, शाह से उसकी क्या अदावत है?

नजीर ने अपने ढंग से काम करने का नया निश्चय कर लिया।

वह कब्रिस्तान के दरवाजे से होता हुआ शाह नसीर के मजार पर पहुंचा। वहां आज रौनक न थी। अलबत्ता कुछ व्यक्ति यहां बैठे थे, एक बुढ़िया भी वहां बैठा थी।

नजीर ने काफी मोटी गप्प मारते हुए कहा-'हुजूर, शाह साहब कहां हैं? मेरी अम्मी को दौरा पड़ा है, शाह साहब से ताबीज लेना है।'

उत्तर मिला-'शाह साहब आज खास इबादत में हैं। आज वह घर से बाहर नहीं निकलेंगे... कल उनका दीदार हो सकेगा।'

खास इबादत? नजीर कुछ समझा कुछ नहीं समझा। निराशा प्रदर्शित करता हुआ वह वहां से लौट पड़ा।

वह कब्रिस्तान के दरवाजे तक आया, फिर रास्ता छोड़ कर कब्रिस्तान के अन्धेरे भाग में अपने आपको छुपाता हुआ बहराम शाह के मकान तक जा पहुंचा।

परन्तु दरवाजे से उसे दूर ही रहना पड़ा।

आज दरवाजे पर दूसरा ही रंग था। दो खूब मोटे ताजे पहलवान टाइप के आदमी दरवाजे पर बड़े-बड़े लट्ठ लिये बैठे थे। उन्होंने दरवाजे के निकट ही तापने के लिए अलाव जला रखा था, अतएव: अन्धेरा नहीं था, खासी रोशनी थी।

इधर दाल गलनी नामुमकिन थी। वह पलटा और मकान के पीछे जा पहुंचा।

दुर्भाग्य से इधर मकान के निकट कोई वृक्ष नहीं था। मकान से लगभग पन्द्रह हाथ दूर नीम का वृक्ष था। यूं नीम की शाखें मकान की छत तक पहुंची हुई थीं, परन्तु इतनी पतली टहनियों के द्वारा वहां पहुंचना असम्भव-सा था।

परन्तु नजीर ने हिम्मत नहीं हारी। वह उसी नीम पर चढ़ गया। बोझ सम्भालने जैसी डाल तक पहुंच भी गया, इसके बाद बहुत ही नाजुक शाखें थीं और छत का फासला था लगभग सात हाथ।

सात हाथ, दो हाथ की लगभग नीचाई और पांच हाथ के फासले की कूद। काम जोखम का था।

परन्तु इसके अतिरिक्त और चारा न देख नजीर ने मन ही मन गुरु का स्मरण किया, गुरु के सम्मान में दोनों कान पकड़े और कूदने के लिये अपने पूरे बदन से डाल को लचकाया और धम्म...!

काम सचमुच जोखम का था। उसके पांव छत के कंगूरों पर जाकर टिके, अगर बालिश्त भर चूक हो जाती तो धड़ाम से नीचे पहुंचता।

सीढ़ियों द्वारा नजीर नीचे पहुंचा।

परन्तु मामला यहां भी बेढब था। दरवाजा अन्दर से बन्द था।

अन्दर से धीमी-सी आवाज सुनाई पड़ी-'छोड़ दो, छोड़ दो मुझे...ओह शैतान!'

चौंका नजीर।

स्पष्ट ही स्त्री कण्ठ की आवाज थी।

फिर दरवाजे के निकट ही आहट सुन कर वह एक ओर को सट गया। अन्दर से दरवाजे की कुन्डी खुली। एक तरुण युवती अस्त-व्यस्त-सी पोशाक में दरवाजे से आधी ही बाहर आई थी कि पीछे से किसी ने उसे फिर खींचा।

वक्त का फायदा उठाया नजीर ने, मौका पाते ही वह अन्दर घुस गया।

उस युवती में और बहराम शाह में खासा द्वन्द युद्ध हो रहा था।

नजीर ने जल्दी से सांकल बन्द की और बस शाह को सामान की तरह सिर पर उठा कर वह उस खूबसूरत कमरे में जा पहुंचा।

इस नई परिस्थिति के लिये बहराम शाह तैयार नहीं था।

कमरे के पलंग का बिस्तर अस्त-व्यस्त था, एक ओर शराब की सुराही और प्याले रखे थे। मसनद, फर्श के कालीन आदि सब इस तरह अस्त-व्यस्त थे जैसे यहां बाकायदा अखाड़ा जमा हो।

-'कौन है तू...कौन है, कहां से आया?'

-'मैं तेरा बाप हूं लालदेव। सोचता था कि कल की मार से तू सुधरा होगा! सांप तो सांप ही रहता है, ले बेटा...अब खा सन्डीले के लड्डू।'

ऊपर से नजीर ने शाह को पटका तो वह हाय-हाय करता रह गया।

बड़ी तत्परता से नजीर ने मसनद की बड़ी सफेद स्वच्छ चादर खींच ली। उसमें से एक पट्टी फाड़ कर पहले शाह का मुंह बांधा और फिर हाथ पीछे को बांध दिए।

इसके बाद शेष चादर में उसने शाह की गठरी बांध ली। शाह इन्सान से गठरी में बंधा हुआ सामान रह गया...बस।

-'वल्लाह, आप कौन हैं जी?'

युवती की दृष्टि झुक गई।

उसके बाल अस्त-व्यस्त हो गये थे। वह सुन्दर थी, निस्सन्देह बहुत सुन्दर थी। वह झुकी और उसने भूमि पर पड़ी अपनी ओढ़नी उठा ली। सुशील महिला की तरह सिर ढांपा।

-'ओह शायद आप गूंगी हैं?'

-'जी नहीं।' दृष्टि झुकाये ही वह बोली।

-'आपका नाम?'

-'जुबैदा।'

-'यहां कैसे पहुंचीं?'

-'मेरी बदकिस्मती मुझे यहां ले आई।'

-'लखनऊ में ही रहती हैं?'

-'जी, भूरे खां के अहाते में।'

-'शादी-शुदा हैं?'

-'जी नहीं।'

-'ताज्जुब है। इस शैतान के पास तो अक्सर औरतें सौत को मारने का, औलाद के होने का ताबीज लेने आती हैं। आप क्या लेने आती हैं...आप क्या लेने आई थीं?'

-'जी मैं कुछ लेने नहीं आई थी। मुझे यहां जबरदस्ती लाया गया है।'

-'कैसे?'

-'कहते जबान कटती है। मेरे दादा हुजूर करीमउल्ला खां लखनऊ के नामी फौजदारों में से एक थे। लेकिन वालिद साहब को बुरी तरह अफीम की लत है, इसी दुख में मेरी मां मर गई। अफीम की लत ने घर क्या घर के बर्तन तक बिकवा दिये। वालिद साहब सारे मुहल्ले के कर्जदार हैं, शायद मेरी शादी के बारे में उन्हें सोचने की फुर्सत नहीं है। उसी मुहल्ले में जिल्लो नाम की एक औरत रहती है, वालिद साहब उसके भी कर्जदार हैं...उसका रौब मानते हैं। मैं नहीं आना चाहती थी, लेकिन जिल्लो ने वालिद साहब से हां करा ली। कहा कि पीर शाह साहब से तुझे ताबीज दिलवा कर लाऊंगी, ताकि जल्दी शादी हो जाए। मैं जानती थी कि वह कुटनी है, लेकिन मुझे मजबूर कर दिया गया। जिस वक्त वह मुझे यहां लाई, यह शाह बिस्तरे पर पड़ा कराह रहा था। तब मुझे देख कर बुजुर्ग की तरह सिर पर हाथ फेरा, कहा मैं अभी तुम्हारे लिए ऐसा ताबीज बना कर दूंगा कि एक महीने के अन्दर तुम्हारी शादी हो जायेगी। बुढ़िया को उसने बाहर भेज दिया, दरवाजे की अन्दर से कुन्डी लगवा ली और फिर शराब पीने लगा। फिर...उफ, अगर आप न आते तो...तो मुझ गरीब के पास बस लाज की ही तो दौलत थी, वह लुट जाती। मैं आपकी जिन्दगी भर अहसानमन्द रहूंगी, खुदा करे आपके बाल-बच्चों की हजारी उम्र हो।'

मुस्कराया नजीर-'बस! वल्लाह यह तो बड़ी छोटी-सी बात हुई। मेरे तो नाती पोते हैं साहब...उन्हें भी तो दुआ दीजिये।'

लजाई जुबैदा-'जाइए, आप तो बनाते हैं।'

-'बना तो आप मुझे रही हैं! जनाब अभी तो मेरी मां का कहना है कि मेरे दूध के दांत भी नहीं टूटे और आप मेरे बच्चों की खैर मना रही हैं। जाने दीजिए, कोई और होता तो इस गाली पर मैं उसे सौ गाली सुनाता! आइए, चूहेदानी से निकलने की तरकीब करें।'

मकान से निकलने में कोई खास दिक्कत नहीं हुई।

कब्रिस्तान के कुएं की लाव जैसी मोटी रस्सी बाहर सहन में पड़ी थी, उसी के सहारे पहले नजीर ने बहरामशाह की गठरी को नीचे उतारा। फिर उसी रस्सी के सहारे जुबैदा भी उतर गई। मकान के कंगूरे में रस्सी का फंदा लगा कर नजीर भी उतर गया।

नीचे उतर कर बहरामशाह की गठरी नजीर ने सिर पर उठा ली और जुबैदा से कहा      -'अन्धेरा है...जरा सम्भल कर मेरे पीछे-पीछे चली आइये।'

इस बार यह कब्रिस्तान के पीछे जाकर निकला।

कब्रिस्तान की सीमा पार करके नजीर ने गठरी उतार कर पटकते हुये कहा-'कम्बख्त बुड्ढे खूसट में बोझ भी तो बहुत है! सुनिये।'

-'जी।'

-'देखिये आप पगडंडी पर खड़ी हैं, कब्रिस्तान तक सीधी पूरब में जाइएगा, फिर दक्षिण को मुड़ जाइएगा। कुछ दूर चलने के बाद बड़ी सड़क मिल जाएगी। आपके साथ वही बुढ़िया थी न जिसके गाल पर बड़ा सा मस्सा है?'

-'जी हां।'

-'वह शाह नसीर के मजार पर बैठी है। बैठी रहने दीजिये कमबख्त को, आप घर पहुंचिये और फिर कभी उस बुढ़िया के चक्कर में मत पड़िएगा।'

-'शुक्रिया...क्या आप बता सकेंगे कि गोमती को कौन-सी राह जाती है?'

-'गोमती को...? वहां जाकर क्या कीजिएगा?'

-'गोमती की गोद ही अब मेरे लिए मां की गोद है। बस सो जाऊंगी मां की गोद में सदा के लिये।'

-'कैसी बातें करती हैं आप...?'

-'काश आप समझ सकते मेरी बात को! मैं कहां जाऊं...कहां है मेरा घर? जो बाप मुझे एक कुटनी के हवाले कर सकता है, उसके झोंपड़े को मैं कैसे अपना घर समझूँ? न साहब, वहां न लौटा जाएगा मुझसे। मेरा दुनिया में कोई नहीं है, और आपको मैं क्यों परेशान करूं! शुक्रिया, मैं जीते जी आपकी अहसानमन्द रहूंगी। खुदा हाफिज...।'

-'क्या मतलब?'

-'मैं छोड़ती हूं अपने आपको खुदा के हवाले। कह नहीं सकती, जहां वह ले जाएगा चली जाऊंगी।'

-'यह भी खूब रही!'

-'जी?'

-'आप क्या समझती हैं कि मैं ऐसी खूबसूरत जान को यूं मर जाने दूंगा? आइए मेरे साथ।'

-'कहां?'

-'फिलहाल तो गोमती तक जा रहा हूं, शाह साहब के मिजाज जरा दुरुस्त करने हैं।'

-'इन्हें नदी में डुबोइएगा?'

-'आपको कोई एतराज है?'

-'जी नहीं।' वह मुस्कराई-'मुझे क्या एतराज होगा! चाहे आप इसे भाड़ में झोंक दीजिए। लेकिन...!'

-'जी।'

-'मैं...।'

-'गोमती जाना चाहती हैं न आप...शायद मेरे साथ नहीं जाना चाहतीं, क्यों?'

-'जी मैं!'

-'मुझसे डर लगता है क्या?'

-'आपसे डर...आपने तो मेरी आबरू बचाई है साहब।'

-'तब चलिए, आपको कुछ तफरीह दिखाऊंगा। अलबत्ता मरने नहीं दूंगा आपको। अजीब बात है कि जाने क्यों, आपकी जान आपसे ज्यादह मुझे अजीज है।'

-'बनाना खूब जानते हैं आप।'

-'चलेंगी मेरे साथ, गोमती के किनारे...?'

-'जी चल रही हूं, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप मुझे डूब कर मर जाने देंगे तो।'

-'माफ कीजिए इतना रहमदिल मैं नहीं हूं।'

कहीं दूर, शायद नवाबी बुर्ज पर दस बजे का घन्टा बजा।

पाण्डे जी अभी जाग रहे थे, सोये नहीं थे। अभी-अभी उन्होंने हुक्के की चिलम समाप्त की थी, तम्बाकू जरा तेज था इसलिए यूं ही आंखें मूंद कर लेट गये थे।

दरवाजा खुलने की आहट से पाण्डे जी उठ कर बैठ गये।

इदरीस आया था।

उसके तहखाने में प्रवेश करते ही दरवाजा फिर बन्द हो गया।

वही अदब वही कायदा। उसकी आंखों में गर्व की चमक नहीं, खेद की उदासीनता थी।

इदरीस पाण्डे जी के निकट पहुंचा और अदब से बोला-'परनाम करता हूं पाण्डे जी।'

-'जीते रहो बेटा।'

-'नौकरों ने शिकायत की है आपने सुबह और शाम खाना बहुत कम लिया?'

-'शिकायत जैसी कोई बात नहीं है बेटा! उम्र ढल गई, फिर बैठे-बैठे भूख भी तो नहीं लगती। जितना भाया उतना खाया।'

-'मैंने हुक्का भी भिजवा दिया था।'

-'सुबह से कई चिलम पी चुक हूं...हुक्का भरने वाला हुनर वाला है। लेकिन तम्बाकू ज्यादा कडुवा है।'

-'सुबह मैं दूसरा भिजवा दूंगा। कोई और खिदमत मेरे लायक हो तो फरमाइए!'

पाण्डे जी ने दृष्टि भर कर इदरीस की ओर देखा। फिर मुस्कराए-'शुक्रिया, अपने बेटे की कैद में मैं बहुत सुखी हूं।'

-'मैं बहुत शर्मिन्दा हूं पाण्डे जी।'

-'मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे लिए शर्मिन्दा हो! लेकिन बेटे अभी तक मैं अपनी कैद की साफ वजह नहीं जान पाया।'

-'मैं फिरंगिओं का बागी हूं।'

-'लेकिन इससे मेरी कैद का क्या सरोकार है?'

-'चूंकि मैं फिरंगिओं का बागी हूं, इसलिए आपके नवाब साहब का भी बागी हूं...जिनकी गफलत की वजह से फिरंगी यहां पांव पसारते जा रहे हैं।'

-'ठीक...मैं नवाब का नमकखार हूं। लेकिन बेटे अभी तो यह सब तुम्हारे मन की बातें है। जहां तक मेरी जानकारी है, तुमने फिरंगिओं के खिलाफ या नवाब साहब के खिलाफ ऐलाने जंग तो नहीं किया है?'

-'अभी ऐलाने जंग नहीं किया है, लेकिन पाण्डे जी एक दिन ऐलाने जंग भी होगा। मैंने कसम ली है जब तक लखनऊ में, हिन्दुस्तान में फिरंगी का एक बच्चा भी रहेगा...मेरी जंग जारी रहेगी। शायद जब तक मैं जिन्दा हूं लड़ता ही रहूंगा और लड़ते-लड़ते ही मर जाऊंगा।'

-'लेकिन इन सब बातों से मेरा सीधा ताल्लुक नहीं है बेटे। यहां मैं सिर्फ नबी बख्श की लापता बेटी को खोजने आया हूं, इसके बाद फिर मैं अपने गांव लौट जाऊंगा। क्या मुझे इतना नीच समझा है कि मैं तुम्हारे इरादों की खबर हुजूर नवाब साहब को दूंगा या रेजीडेन्ट स्लीमन तक यह खबर पहुंचाऊंगा?'

-'मैं जानता हूं कि आप ऐसा नहीं करेंगे।'

-'तब मुझे कैद क्यों किया गया है? शायद तुम्हारा यह ख्याल है कि तुम ऐलाने जंग करोगे तो मैं नवाब की तरफ से तुम्हारे खिलाफ मैदान में आऊंगा! हां, अगर नवाब मुझे हुक्म देंगे तो जरूर आऊंगा। चचा भतीजे आमने-सामने भी आ सकते हैं, चचा भतीजे की तलवारें भी म्यान से निकल सकती हैं। दांव लगे तो बेशक चचा का सिर उड़ा देना...लेकिन जहां तक मेरा ताल्लुक है, मरहूम दोस्त की निशानी पर मेरा हाथ न उठेगा। जो भी हो उस दूर के वक्त की इन्तजार में अभी से...?'

-'यह बात नहीं है पाण्डे जी।'

-'बात क्या है...यही तो मैं जानना चाहता हूं।'

-'हम दोनों चचा भतीजे अलग-अलग राह के राही होने के बावजूद एक चौराहे पर मिले और टकरा गये।'

-'कुछ इस किस्म की बात तुमने कल भी कही थी।'

-'आप इस बात को न उठायें तो ही अच्छा है।'

-'लेकिन बेटे मैं इस को समझना चाहता हूं।'

-'ओह!'

-'समझाओगे?'

-'मजबूरी है।' इदरीस ने निश्वास भर कर कहा-'समझाना ही पड़ेगा...आपका हुक्म मैं कैसे टाल सकता हूं! लेकिन फिर भी अगर बात की तह तक न जायें तो मेहरबानी होगी।'

-'मुझे बात की तह तक जाने की जरूरत भी नहीं है, मैं सिर्फ यह जानना चाहता हूं कि हम दोनों का टकराव कहां है? तुम्हारी बगावत दूर की बात है। मैं मानता हूं कि नवाब साहब के खिलाफ कुछ भी सुनता हूं तो मेरा खून खौल जाता है, शायद कल रात मैंने तुमसे एक आध सख्त बात भी कही...लेकिन आज मैं सिर्फ समझना चाहता हूं। मैं समझना चाहता हूं कि मुझे कैद में रखने से तुम्हें क्या फायदा है?'

-'आप यकीन रखिए कि मुझे फायदा है।'

-'शायद और कुछ तुम नहीं बताना चाहते?'

-'न पूछें तो अच्छा है।'

पाण्डे जी पलंग से उठ कर खड़े हो गये। इदरीस के दोनों कन्धे थपथपाते हुए बोले-'बेटे, मैं क्या हूं...यह अगर तुम्हारे वालिद होते तो बताते। लेकिन दावा है कि तुम्हारी कैद से भाग जाना मेरे लिए बहुत मामूली बात थी। बहरहाल सबसे पहले तो मैं तुम्हें यह विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मेरा भागने का कतई इरादा नहीं है। यह लो...।'

पाण्डे जी ने अपने वस्त्रों में से एक कटार, एक बड़ी सी पैनी नोंक वाली छैनी और एक बटुआ निकाल कर इदरीस के हाथों में थमा दिया।

-'जी यह...?'

-'शायद तुम यह न जानते हो कि इन सब वस्तुओं का उपयोग क्या है? सुनो, मैं बताता हूं। यह कटार सात जहरों से बुझी हुई है, किसी को इसकी खरोंच भी लग जाये तो जान लेकर छोड़ेगी। यह जो छैनी देखते हो...इससे बड़े से बड़े फाटक की चूल सरका देने का गुण है। इस बटुए में बुकनी है, मुझ पर इसका असर नहीं होता...लेकिन दस-दस हाथ दूर तक यह आदमी को बेहोश कर देगी। यह सब वस्तुयें मैं तुम्हें सौंपता हूं, इसलिए कि तुम्हारी कैद से कम से कम भागने का इरादा मेरा नहीं है।'

इदरीस जो पाण्डे जी की वस्तुयें हाथ में लिए था, मर्माहत हुआ...आंखों में आंसू छलक आये।

-'काश पाण्डे जी, वैसा न होता जैसा कि हुआ है। काश आप यह जानते कि दौरे नवाबी में फिरंगिओं के आ जाने से रियाया पर कैसे-कैसे जुल्म हो रहे हैं? काश आप हम नौजवानों के साथ होते। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता...ऐसा नहीं हो सकता।'

-'लेकिन बेटे...?'

-'मैंने सोचा था कि आपको कुछ बताने से फायदा न होगा। लेकिन अब आपने मजबूर कर दिया है...अब सब कुछ आपको बताना ही पड़ेगा।'

इदरीस झुका और पाण्डे जी की सभी वस्तुयें बिस्तरे पर रख दीं। वह मुड़ कर दरवाजे की ओर बढ़ा।

-'जा रहे हो बेटे...?'

-'मैं अभी कुछ देर बाद हाजिर हूंगा। सब कुछ बताऊंगा आपको।'

नजीर बहराम शाह को कन्धे पर लादे गोमती के सुनसान तट पर जा पहुंचा।

दूर-दूर तक कोई न था। हवा खूब तेज चल रही थी। अभी-अभी दूर दिशा में चन्द्रोदय हुआ था, उसकी हल्की पीली किरणें गोमती की लहरों पर पड़ कर झिलमिला रही थीं।

-'मर गए भई। अगर यह पता होता कि इस कम्बख्त में इतना बोझ है तो जरूर किसी कुम्हार के गधे को खोल लाता।'

सहमी सी जुबैदा ने पूछा-'क्या सचमुच आप इसे नदी में बहा देंगे?'

-'आपको कोई ऐतराज है?'

-'जी मुझे तो कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन यह मर गया तो...?'

-'लखनऊ के रहने वालों को फायदा होगा।'

-'हां...सो तो होगा।'

नजीर झुका और वह गठरी खोल डाली जिसमें बहरामशाह बंधा हआ था।

बुरी हालत थी शाह की। वह भय से थर-थर कांप रहा था। अब तक बोलने से मजबूर था, लेकिन राह में जो कुछ नजीर ने कहा था वह तो उसने सुना ही था।

साहस करके बढ़ा। हकलाए से स्वर में बोला-'नौजवान, मुझे बख्श दो। मैं अपनी जान की कीमत चुका दूंगा, आखिर...आखिर तुम्हें मेरी जान लेने से क्या मिलेगा?'

नजीर नीचे झुका और दांव देकर खट से शाह को हाथों में सिर से ऊंचा उठा लिया।

फिर ऊपर से ही गड़प से पानी में फेंक दिया। गनीमत यही थी कि वह किनारे के छिछले पानी में गिरा।

-'हाय मैं मर गया।'

मछली की तरह तड़पता हुआ वह पानी से निकला और लंगड़ाता हुआ तीर की तरह भागा।

बड़े इत्मीनान से नजीर बढ़ा और भागते हुए शाह की टांग में अड़ंगी फंसा दी।

धप्प से शाह रेत में गिरा।

गिरे हुए शाह की टांग खींचता हुआ नजीर रेत में बैठ गया।

-'छोड़ दो...मुझे छोड़ दो, खुदा के लिये मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी काली गाय हूं।'

तड़ाक! एक तमाचा जड़ दिया नजीर ने।

-'हाय मैं मर गया।'

-'चुप...वर्ना फेंक दूंगा अब की बार गहरे पानी में।'

बुरी तरह घिघिया रहा था शाह।

जुबैदा एक ओर खड़ी सर्दी से सिकुड़ी-सी यह तमाशा देख रही थी।

इस बार नजीर शान्त स्वर में बोला-'सुनो शाह, मैं वह हूं जो कल रात तुम्हारी गत बना कर गया था। यूं तो मैं तुम्हें पानी में फेंक कर तुम्हारी छुट्टी कर सकता हूं, लेकिन अगर शराफत से जवाब दो तो बख्श भी सकता हूं। बोलो...सच बोलोगे?'

-'पाक परवरदिगार की कसम...सच बोलूंगा।'

-'कल रात जो पगली आई थी, वह कौन थी...?'

-'पगली...कौन पगली?'

तड़ाक...एक भरपूर हाथ फिर मारा नजीर ने मुंह पर।

-'मैं मर गया।'

-'चुप...वर्ना फेंक दूंगा। बताओ वह पगली कौन थी...नहीं तो?'

-'बताता हूं।'

-'बताओ।'

-'वह रोशनआरा है।'

-'कौन रोशनआरा?'

-'गोमती पार के ताल्लुकेदार मिर्जा रहमत के बड़े बेटे इल्यास की विधवा है।'

-'उसे तुमने पागल किया?'

-'नहीं।'

झपट कर नजीर ने उसे फिर उठा लिया।

वह चीख रहा था-'हां...हां, मैं बताता हूं...मैं बताता हूं वह कैसे पागल हुई! मैं मैंने...।'

इस बार नजीर ने उसे तनिक और आगे को फेंका।

एक पूरी डुबकी खाकर बड़ी कठिनाई से वह किनारे तक सुबकता हुआ पहुंचा ही था कि नजीर ने फिर धकेल दिया।

इसके बाद उसे बाहर खींच लिया।

-'बोल बेटा...सच बोलेगा या नहीं?'

-'मैं बताता हूं।'

-'लेकिन सच्चाई शर्त है।'

-'सच बोलूंगा।'

-'तो बोलता क्यों नहीं?'

-'किसी की रंजिश थी इल्यास से।'

-'फिर गड़बड़...किस की रंजिश थी?'

-'नबी बख्श सौदागार की। सौदागर नबी बख्श मरहूम रहमत मिर्जा का ताल्लुका इल्यास से खरीदना चाहता था। इल्यास बेचने को तैयार नहीं था।'

-'फिर क्या हुआ?'

-'नबी बख्श ने मुझे मजबूर कर दिया कुछ करने के लिए। कुसूर मेरा नहीं नबी बख्श सौदागर का है।'

-'बात बोलो...बकवास मत करो।'

-'बात बोलता हूं...नबी बख्श ने मुझे मजबूर कर दिया।'

-'उफ...किसलिए मजबूर कर दिया?'

-'उसे पागल करने के लिए।'

-'तुमने उसे किस तरह पागल किया?'

-'फूंक मार कर।'

-'फिर झूठ?'

-'नहीं।'

-'फूंक मार कर जरा मुझे पागल करो तो?'

-'कर सकता हूं।'

-'खड़े हो जाइए।'

नजीर उठ कर खड़ा हो गया सर्दी और भय से कांपता हुआ बहराम शाह भी खड़ा हो गया।

उसने झुक कर जरा सी रेत उठाई-'तक तक-तब रुक...!'

-'ठहरो शाह।'

बहरामशाह चुप हो गया।

-'देखो, अगर नहीं कर सके न...तो शिकायत मत करना। बस उठा कर फेंक ही दूंगा।'

-'आप बेफिक्र रहें। अल्लाह के फजल से मुझे कुछ करामातें हासिल हैं।'

-'देखूंगा।'

वह फिर मंत्र सा पढ़ने लगा-'तक...तक...तबरक...बरी...चिराग खबर्रा।'

बात सिर्फ दिल्लगी की तो थी। वर्ना नजीर जानता था कि यह क्या इसका बाप भी फूंक मार कर, मंत्र पढ़ कर किसी को पागल नहीं बना सकता।

वह अजीब सा समझ में न आने वाला मंत्र पढ़ता था और मुंह पर फूंक मार मुट्ठी से जरा सा रेत जमीन पर गिरा देता था।

कुछ क्षण यही मजाक चलता रहा।

फिर उसने जोर-जोर से यह अजीब मन्त्र पढ़ना आरम्भ कर दिया।

और फिर यकायक वह अपनी धूर्तता दिखा ही गया।

मुट्ठी में जितनी भी रेत थी वह सभी उसने पैंतरा बदल कर नजीर की आंखों पर दे मारी।

नजीर हतप्रभ-सा आंखें मलता खड़ा रह गया। सरासर धोखा खाया उसने।

और नजीर की आंखों में धूल झोंक कर वह हिरन की चाल से भागा।

परन्तु नजीर अकेला तो नहीं था!

वह जो बंद कमरे में बहरामशाह से हाथ जोड़ कर रहम की भीख मांग रही थी, वह निरीह अबला यकायक जोश से भर गई।

जुबैदा में जाने कहां से असीम बल का संचार हुआ!

वह लपकी और लगभग पच्चीस कदम दूर उसने भागते हुए शाह को पकड़ लिया। जब शाह ने देखा कि छूटना मुश्किल है तो उसने कस कर गला दबा दिया जुबैदा का। हड़बड़ी में जुबैदा के हाथ शाह की दाढ़ी आ गई। दाढ़ी पकड़ कर झूल ही तो गई वह। वहां मैदान जुबैदा के हाथ रहा।

इसलिए कि तभी आ पहुंचा नजीर। अब भी वह भली प्रकार आँखें न खोल पा रहा था, परन्तु तब भी वह आकर शाह से जूझ ही गया।

एक पटकी।

-'हाय मैं मर गया।'

दूसरी पटकी।

-'अरे कोई मुझे बचाओ रे!'

और तीसरी पटकी नजीर ने फिर पानी में जाकर दी। इस बार शाह पानी में सिर के बल गिरा था।

-'रहम।' पानी से निकलते हुए हकलाए से स्वर में वह बोला-'रहम...अल्लाह के वास्ते...!'

नजीर उसकी ओर बढ़ ही रहा था कि ठिठक कर रुक गया। इसलिए कि आहट करता हुआ शाह लड़खड़ाया और धड़ाम से गिर पड़ा।

अस्त-व्यस्त सी जुबैदा सिमटी-सी नजीर के निकट आ खड़ी हुई।

-'यह शायद मर गया?' घबराई-सी वह बोली।

-'मर जाने दीजिये, आपकी कौन रिश्तेदारी है उससे?'

-'तौबाह! मैं इस कलमुंहे से रिश्तेदारी जोड़ूंगी? दाढ़ी में तेल छिड़क कर आग न लगा दूंगी! ऐसी बाते हमें अच्छी नहीं लगतीं...कहे देते हैं।'

बेतकल्लुफी भरा शिकायत का स्वर था जुबैदा का।

बहराम शाह तनिक हिला।

नजीर ने जुबैदा को फिर छेड़ा-'मान गए साहब आपकी दुआ में असर है! देखिये वह मर कर जी रहा है।'

निकट ही तो खड़ी थी वह। नजीर ने उसकी निश्वास स्पष्ट सुनी-'साहब, हमारी दुआ में असर कहां! अगर हमारी दुआ में असर होता तो क्या यह मर कर फिर जीता?'

छटपटा-सा रहा था शाह। उसके सांस ऊबड़-खाबड़ से चल रहे थे।

नजीर झुका।

सम्भवतः सर्दी और चोट के कारण बेहोश हो गया था शाह। नजीर ने नब्ज देखी, आश्वस्त हुआ।

-'बेहोश है।' वह बोला।

-'हमारी बला से।' जुबैदा बोली।

कुछ क्षण नजीर खड़ा-खड़ा सोचता रहा। फिर झुका और उसे कन्धे पर लादता हुआ बोला-'यह हुआ गुनाह बेलज्जत।'

-'अब...?'

-'आइए।'

-'कहां?'

-'देखिए कहां जाना होता है! फिलहाल तो यह समझ लीजिए कि यह जिन्दगी सफर है।'

गोमती के किनारे लगभग आधा कोस तक दोनों चलते रहे। दूर से आग देखी थी नजीर ने, बस उसी दिशा में बढ़ता गया।

यह एक हिन्दू साधू की झोपड़ी थी। झोपड़ी से बाहर धूनी रमाए साधु ध्यानरत था।

-'माफी चाहता हूं महात्मा जी।'

साधू ने आंखें खोल कर देखा।

-'मैं नजीर हूं मछुआ...मछली पकड़ता हूं, यह मेरी बीवी है। हमें यह शख्स नदी के किनारे बेहोश मिला है। आस-पास कोई हकीम भी नहीं है, फरमाइए अब क्या किया जाए?'

जय सतगुरु का जाप करते हुए साधू उठा। बेहोश शाह की नब्ज देखी।

-'ठन्ड लगी है, शायद सिर में गुम चोट भी लगी है। ऐसा करो, इसके सारे गीले कपड़े उतार दो। अन्दर कुछ कम्बल हैं झोपड़ी में, उनमें इसे लपेट दो...फिर मैं एक दवा इसकी नाक में डालूंगा, उम्मीद है कि सुबह तक होश में आ जाएगा।'

इस प्रकार बड़े कौशल से बेहोश शाह को साधू की झोपड़ी में डाल कर नजीर छुट्टी पा गया।

अब वह दोनों शहर की तरफ चले।

-'बुरा तो नहीं माना? मजबूरी थी, महात्मा जी से मुझे कहना पड़ा कि तुम मेरी बीवी हो ...बुरा तो नहीं माना न!'

-'मजबूरी का क्या बुरा मानना...!'

-'सचमुच समझदार हो।'

-'जी समझदार तो हम कहां...समझदार तो आप हैं! हमसे कहते थे कि शाह हमारा रिश्ते वाला है, आधा कोस उठा कर लाए। मरते को जिलाने के लिए इतना सब किया...?'

-'जी हां, वह मेरा रिश्ते वाला है।'

-'क्या लगता है?'

-'आज नहीं बतायेंगे।'

-'क्यों?'

-'बतायेंगे तो आप नाराज हो जायेंगी।'

फिर दोनों चुपचाप चलने लगे।

बस्ती निकट आ चुकी थी।

जुबैदा ने फिर मौन तोड़ा-'हम लोग चल कहां रहे है?'

-'ओह अरे...!' चौंकता-सा नजीर बोला-'आपका मुझे ध्यान ही नहीं रहा। सिर्फ अपनी उलझन में उलझा रहा। देखिए, मेरी मां हैं सिर्फ मेरे घर...चलिए आपको घर छोड़ आता हूं। जहां तक मेरा सवाल है, मैं रात भर घर से बाहर रहूंगा।'

-'आप क्यों घर से बाहर रहेंगे?'

मुस्कराया नजीर-'इसलिए कि आप घर में रहेंगी।'

-'लानत है मुझ पर।'

-'क्यों?'

-'आप मेहरबानी करके घर चलें। मुझे आपसे डर नहीं है।'

-'शुक्रिया, लेकिन मुझे आपसे डर है।'

ओढ़नी होठों में दबा कर वह मुस्करा दी।

फिर कुछ देर मौन रहा। अब वह दोनों बस्ती में आ चुके थे।

-'सुनो जी।' जुबैदा ने टोका।

-'जी।'

-'आपने अपना इस्म शरीफ नहीं बताया?'

-'आपने पूछा कब था?'

-'अब पूछ रही हूं।'

-'नजीर कहते हैं मुझे।'

-'शगल क्या है?'

-'जासूसी करता हूं।'

-'हाय अल्लाह!' ठिठक कर जुबैदा रुकी और सीने पर हाथ रखा।

-'क्या हुआ?'

-'डर गई।'

-'क्यों?'

-'जासूस के नाम से।'

-'धत्।'

दोनों हंसे। इसके बाद एक चौराहे पर नजीर रुक गया।

-'सुनिए।'

-'फरमाइए।'

-'यूं यह रास्ता मेरे घर को जाता है। लेकिन अगर सर्दी न लग रही हो, अगर थकावट न हो, अगर ऐतराज न हो तो चलिए...आपको जासूसी का काम सिखाऊं...!'

परन्तु यह तो मजाक था और मजाक कुछ देर और चला।

नजीर ने जाकर अपने घर का दरवाजा खटखटाया।

मां के लिए संसार में नजीर के अतिरिक्त दूसरा कौन सहारा था!

जब नजीर घर में होता तो मां रात्रि के आरम्भ से ही सो जाती, और जब नजीर घर से बाहर होता तो मां दिए के निकट बैठ कर रात आंखों में बिता देती।

नजीर ने घर का दरवाजा खटखटाया।

तुरन्त प्रत्युत्तर मिला-'आई बेटा...आई।'

लाज और संकोच से भरी जुबैदा दरवाजे के निकट दीवार से सट गई।

मां ने दरवाजा बोलते हुए कहा-'कम से कम खाना तो खा जाया करो बेटा! जल्दी आओ, अभी सालन गर्म है...परांठे दबा कर रख दिए थे। मुलायम ही निकलेंगे, आओ न बेटे...।'

-'सुनो अम्मी।'

-'कैसे पगले हो! जो सुनाना है अन्दर आकर सुनाना...यहां सर्दी में...?'

-'सुन तो लो मां।'

-'बड़े जिद्दी हो, मैं यहां सर्दी से गली जा रही हूं...खैर सुनाओ।'

-'आपके लिए एक तोहफा लाया हूं।'

-'अच्छा-अच्छा।'

-'बताइए तो क्या तोहफा हो सकता है...?'

-'उफ्!'

-'बताइए न अम्मी?'

-'हम जानते हैं।'

-'तभी तो पूछ रहा हूं, बताइए न!'

-'बता दें?'

-'जल्दी बताइए।'

-'बनारसी सुरती होगी।'

-'नहीं...अम्मी नहीं बता सकीं।'

-'तो छज्जू की दुकान से खुट्टयां लाए होगे?'

-'नहीं, और दूर की सोचिए।'

-'तुम तो हमें परेशान कर रहे हो बेटे, न सही कोई ऐसी ही चीज होगी। इतना हम जानते हैं कि कोई हमारे लिए दुल्हन नहीं लाए हो जो हम खुशी से उछल पड़ें।'

-'तब अम्मीजान आप खुशी से उछल पड़िए।'

-'दुर पगले!'

-'माना कि हम दुल्हन नहीं लाये हैं, लेकिन चीज दुल्हन के आस-पास की ही है। देखिए न।'

वातावरण में चांद की हल्की-सी चांदनी।

नजीर तनिक पीछे हटा। फिर हाथ बढ़ा कर उसने ओढ़नी में दुबकी जुबैदा को आगे कर दिया।

चौंक पड़ी मां एक बार।

-'यह...कौन है बेटा?'

-'हम क्या जानें?'

-'हाय अल्लाह, तुम जानते नहीं और साथ ले आए?'

-'जी हां।'

-'उफ्...अच्छे गोरख धन्धे में डाला है! भई हम कुछ समझ नहीं पा रहे हैं।'

नजीर को तो हंसी सूझ रही थी।

जमीन में गड़ती सी जुबैदा बोली-'अम्मी और अम्मी के बेटे के बीच में बोलने की माफी चाहती हूं अम्मीजान। बोलते जबान कटती है, फिर भी बोलना ही पड़ रहा है। मैं एक दुखियारी हूं। मेरे वालिद अफीम के नशे में दुनिया जहान को भूले रहते हैं, उन्हीं की वजह से मैं बहराम शाह जैसे बदमाश के हाथों में पड़ गई थी। आपकी अहसानमन्द हूं...इसलिए कि आपके बेटे की मेहरबानी से ही मेरी आबरू बची। मैं जानती हूं अम्मीजान कि जो औरत घर से निकल कर गली कूंचों में बिना डोली के जा पहुंचे...उसे भली कहने में आप जैसी बुजुर्ग को दिक्कत होगी। मैंने आपके बेटे से कहा था कि वह अपनी राह जायें और मुझे मेरी किस्मत पर छोड़ दें! लेकिन यह अपनी मर्जी के मालिक थे और मुझे यहां ले आये। आपका हुक्म मेरे लिए सिर आंखों पर होगा, हुक्म मिले तो बाकी रात आपकी छांव में गुजार लूं? अफसोस न होगा अगर चले जाने का भी हुक्म मिले। अल्लाह का सबको सहारा है।'

मां गम्भीर हो गई। बोली-'अन्दर आ जाओ बेटी।'

उन्होंने हाथ बढ़ा कर जुबैदा का हाथ थामा और उसे आदरपूर्वक अन्दर बुला लिया।

-'आओ बेटे।'

-'सुनिये अम्मी।'

-'कुछ और भी सुनाओगे?' लहजा शिकायत का था।

निराश्रित को सहारा दिया यह धर्म था। परन्तु मां के स्वर में शिकायत थी, सन्देह था... जाने बेटा किसे साथ ले आया है!

-'हम जा रहे हैं अम्मी, दरवाजा बन्द कर लीजिये।'

चौंकी मां।

-'अम्मी हम इन्हें ही घर तक पहुंचाने के लिए यहां आ गये थे। गुरु जी गायब हैं, शायद किसी परेशानी में पड़ गये हैं। रातों रात उनकी ढूंढ मचानी है।'

-'लेकिन बेटे खाना...?'

-'गुरु जी की खैरियत पाये बगैर खाना हलक से न उतर सकेगा।'

नजीर मुड़ा और चल पड़ा।

औलाद चाहे जितनी बड़ी हो जाए, परन्तु मां के लिए औलाद सदा बच्चा ही रहती है।

ऐसी सुनसान रात!

गली में न आदम न आदमजात। मां तब तक बेटे को निहारती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल ना हो गया।

मां ने निश्वास लेते हुए दरवाजा बन्द किया।

-'आओ बेटी।' जुबैदा की बांह पकड़ कर मां उसे अन्दर घर में ले गई।

दीवट पर दिया जल रहा था। दिए की बत्ती तनिक ऊंची की, प्रकाश में मां ने आगन्तुक युवती का चेहरा देखा।

मुखमुद्रा की सादगी से, शराफत की झुकी हुई दृष्टि से...मां के मन का संशय तनिक कम हुआ।

जुबैदा को निकट बैठाया मां ने। आदेश दिया-'कुछ अपनी कहो बेटी।'

जुबैदा ने अपनी बीती विस्तारपूर्वक सुना दी। बुजुर्गों ने झूठ नहीं कहा है...मुख से निकले शब्द ही सच और झूठ प्रमाणित कर देते हैं।

जब अपनी बात समाप्त करके जुबैदा ने दृष्टि उठाई तो आँखें गीली थीं। मां के मन का संशय घुल गया।

उमंग कर मां ने कहा-'तो बेटी अब खाना खा लो।'

-'अब?'

-'क्या हर्ज है?'

-'भला कोई वक्त है खाने का?'

-'भूख हो तो हर वक्त खाने का वक्त है बेटी।'

-'लेकिन...!'

-'इन्कार करोगी तो बेटी मुझे दुख होगा। मैं इस घर में अकेली हूं, और अकेली से खाने के लिए बैठा नहीं जाता। साथ बैठोगी तो दो चार ग्रास मैं भी खा लूंगी।'

-'तब अम्मी मैं जरूर खाऊंगी।'

-'बड़ी अच्छी है मेरी बेटी।'

खाना हुआ।

इसके बाद जैसे वह बिल्कुल छोटी-सी बच्ची हो, मां ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया और तब तक निकट बैठ कर उसका सिर सहलाती रही जब तक कि जुबैदा को नींद न आई।

अम्मी जागती रही...उसका बेटा जो बाहर था!