कमिश्नर साहब वानखेड़े को देखते ही बोले।

“आओ मिस्टर वानखेड़े...। मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था।"

""क्या सोच रहे थे सर?"

“बैंक वैन रॉबरी करने वालों का पुलिस से टकराव भी हुआ। लेकिन उसके बाद वैन को कहीं देखा नहीं गया। वैन आखिर कहां गायब हो गई?" कमिश्नर साहब ने कहा।

"आप के पास क्या इस शहर की सड़कों का नक्शा होगा सर?”

कमिश्नर साहब ने मेज की दराज से नक्शा निकालकर उसे थमा दिया।

"सर, वैन को उड़ा ले जाने वाले तीन आदमियों के नाम वैन में मौजूद गार्डो ने वायरलैस सेट पर बताए हैं। जगमोहन, देवराज चौहान और डालचन्द। डालचन्द का तो कोई रिकार्ड ही नहीं है सर !"

कमिश्नर साहब ने सिगरेट सुलगाकर गम्भीरता से सिर हिलाया---

"इतने बड़े शहर में बिना रिकार्ड वाले आदमी को तलाश करना असम्भव है।”

"कोशिश तो की जा सकती है सर।"

"देखूंगा कि इस बारे में क्या हो सकता है!" कमिश्नर साहब ने सिर हिलाया--- “कुछ मालूम हुआ कि इस काम में कितने आदमी थे?"

“हां सर। एक को तो पहचान भी लिया गया है। वह नीना पाटेकर नाम की एक खतरनाक गैंगस्टर है सर।"

"कैसे जाना.... ?"

वानखेड़े ने सारा विवरण बताने के बाद कहा---

“सुधीर को मैंने पाटेकर की तलाश पर लगा दिया है। और बाकी सब के बारे में भी जल्दी ही मालूम हो जायेगा।"

“ठीक है। तलाश जारी रखो।”

चन्द और बातों के पश्चात वानखेड़े ने कमिश्नर साहब से विदा ली और बाहर आ गया।

■■■

जगमोहन दोपहर का खाना ले आया था।

डालचन्द और देवराज चौहान ने मिलकर खाना खाया।

जगमोहन वैन के पास पहुंचा और वैन की बाडी को ठकठका कर बोला---

“क्यों खुद को गर्मी में बंद कर रखा है? बाहर आ कर खाना खा लो!"

"हमारे पास भी खाना है।" वैन के अन्दर से आवाज आई।

"हमारे पास पालक पनीर है। बाई गॉड, बहुत ही बढ़िया।"

“इस समय हम दोनों मटर पनीर खाने की तैयारी कर रहे हैं।"

जगमोहन ने बुरा सा मुंह बनाया।

"खाने की तो तैयारी कर रहे हो-- लेकिन अपने मटर पनीर निकालोगे कहां?"

"यहां नोटों से भरे चार सरकारी थैले रखे हुए हैं--- एक की सील तोड़ देंगे और---।"

"नोट गन्दे मत करना, कहीं और कर लेना।"

"अपना काम करो।"

एक गार्ड की खुश्क आवाज उभरी।

जगमोहन ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर कुर्सी पर बैठ गया।

"ऐसे कब तक हम वैन के पास बैठे रहेंगे?" डालचन्द बोला।

"जब तक वैन के भीतर मौजूद गार्ड सरेण्डर नहीं कर देते।"

"इसमें कितना समय लगेगा?”

"जब तक इनका राशन पानी चलेगा।"

"इनसे एक बार फिर बात की जाए?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।

“क्या फायदा?” देवराज चौहान बोला ।

"शायद कुछ बात बने।"

"मैं जानता हूं कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है।"

“फिर भी एक बार बात तो करके देखो।”

देवराज चौहान ने कन्धों को झटका दिया और वैन के करीब पहुंचकर बॉडी को थपथपाया।

“क्या है?” भीतर से आवाज आई।

“कैसे हो तुम लोग ?”

“हमारी छोड़ो-- तुम अपनी सुनाओ।"

“यह सिलसिला ज्यादा देर नहीं चलने वाला।" बोला देवराज चौहान ।

“तुम हो कौन ?”

"देवराज चौहान। इस डकैती का सरगना ।"

अन्दर से कोई आवाज नहीं आई।

“सुनो।” देवराज चौहान बोला--- “तुम लोग हमारे दोस्त बन जाओ।"

अन्दर से गार्ड की हंसी सुनाई दी।

“साला, हमें गधा समझता है ।"

"तुम लोग मेरी बात का विश्वास नहीं कर रहे, मत करो। लेकिन....।”

"तुम जैसे डकैत खूनी विश्वास के काबिल होते ही नहीं।"

"हम लोग धोखेबाज नहीं हैं।"

"बस.... बस। जाओ, आराम करो और हमें भी सोने दो।"

देवराज चौहान लौट आया।

■■■

मंगल पांडे सोकर उठा तो तीन बज रहे थे।

उसने बैल बजाई तो मोटा नटियाल खुद उसके आगे हाजिर हुआ।

"उठ गए।"

"हां....सिर में दर्द है।"

"अभी ठीक हो जाएगा।" नटियाल ने बेल मारी।

कुछ क्षणों बाद बार का आदमी वहां आ गया।

"राजू, एक स्ट्रांग कॉफी बनाकर ला।" नटियाल ने कहा।

"अभी लाया।" राजू बाहर निकल गया।

नटियाल ने सिगरेट सुलगा ली।

"बैंक वैन के बारे में शहर में क्या हलचल है?" पांडे ने पूछा।

“बहुत बुरी। पुलिस तो लुटेरों और वैन की तलाश में है, मेरे खास आदमी ने खबर दी है कि इस मामले को इंस्पेक्टर वानखेड़े देख रहा है।"

"हां, वही।"

तभी राजू कॉफी दे गया।

“वह खतरनाक पुलिसवाला?” पांडे सीधा होकर बैठ गया।

पांडे कॉफी की चुस्कियां लेने लगा।

“अब क्या फैसला है तेरा ?"

“किस बारे में?” पांडे ने मोटे नटियाल के चेहरे पर निगाह मारी।

“कल की बैंक डकैती में शामिल होना है या नहीं?"

"तेरे को बोला तो था नहीं होना। जितना आ गया उतना ही बहुत है।"

"मैंने इसलिए पूछा कि कहीं तेरा विचार न बदल गया हो।"

पांडे जवाब में कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर तसल्ली के भाव थे।

■■■

वानखेड़े ने अपनी कार चेकपोस्ट के करीब पहुंच कर रोक दी। चेकपोस्ट पर मौजूद पुलिस वालों से पूछा---

"सुबह बैंक वैन तो यहां से नहीं निकली ?"

“नहीं साहब!"

“तुम लोग दावे के साथ कैसे कह सकते हो?”

“साहब, हमारी ड्यूटी सुबह आठ बजे से ही है। आज शाम डबल शिफ्ट कर रहे हैं।"

वानखेड़े वापस चल पड़ा।

यह शहर का बाहरी इलाका था। चारों तरफ फार्म थे और फार्मों में कॉटेज और बंगले बने हुए थे। मन ही मन उसने सोचा और हिसाब लगाया कि हो सकता है.... वैन को लुटेरों ने इन फार्मों में ही कहीं छुपा रखा हो।

इस समय शाम के पांच बज रहे थे।।

वानखेड़े ने सोचा इस समय फार्मों में वैन को ढूंढना मुनासिब न रहेगा। यह काम उसे कल सुबह करना चाहिए और साथ में कोई और भी हो ।

मन ही मन फैसला करके वह कार आगे बढ़ाने की सोच रहा था कि फार्मों की पगडण्डी की तरफ से उसको कोई आता दिखाई दिया।

वह डालचन्द था।

पगडण्डी से निकलकर वह सीधा वानखेड़े की कार के पास आया ।

“सर....! क्या आप शहर की ओर चल रहे हैं?"

“हां।” वानखेड़े ने सहमति में अपना सिर हिला दिया।

“तो मुझे शहर तक छोड़ दीजिएगा...बड़ी मेहरबानी होगी।"

"बैठो।”

डालचन्द कार में समा गया।

“तुम इन्हीं फार्मों में रहते हो?"

इस प्रश्न पर क्षण भर के लिए डालचन्द हड़बड़ाया-- फिर बोला---

“जी, यहां मैं अपने एक रिश्तेदार के फार्म पर आया हुआ हूं।"

“आज सुबह से ही तुम फार्म पर थे?"

“जी हां।”

"तुमने आज सुबह यहां किसी वैन को तो नहीं देखा है?"

डालचन्द के शरीर में चीटियां रेंगने लगीं। जिस्म जोरों से कांपा।

"वैन?" डालचन्द ने अपने आपको संभालने की चेष्टा की।

"हां। बैंक वैन। उसमें साढ़े पांच करोड़ नकद रुपया भी है।"

डालचन्द का गला सूखने लगा।

“मैंने तो ऐसी किसी वैन को नहीं देखा।"

"या हो सकता है कि तुम्हारी निगाह ही न पड़ी हो।" वानखेड़े ने कहा।

डालचन्द उल्टे-सीधे ढंग से सिर हिलाकर रह गया।

बातों के दौरान वानखेड़े की निगाह सड़क पर थी।

"मैंने अखबार में तो डकैती की खबर नहीं पढ़ी।" एकाएक डालचन्द बोला।

"डकैती दिन में हुई है, खबर कल के अखबार में आएगी या फिर शाम को ही आ गई होगी। बाहर चलकर देख लेना।”

डालचन्द ने सिर हिलाया। अब वह खुद को काफी हद तक संभाल चुका था।

"आप कौन साहब हैं? बैंक वैन को क्यों तलाश कर रहे हैं?"

“मेरा नाम इंस्पेक्टर पवन कुमार वानखेड़े हैं। पुलिसवाला हूं। वैन को तलाशने के काम पर लगा हुआ हूं।"

कार अब शहरी इलाके में प्रवेश कर रही थी।

डालचन्द बोला---

“बस, अब मुझे यहीं उतार दीजिए साहब।"

वानखेड़े ने कार रोक दी।

डालचन्द धन्यवाद देते हुए कार से बाहर आ गया। कार पुनः आगे बढ़ गई।

डालचन्द सड़क पर खड़ा जाती हुई कार को देखता रह गया।

■■■

देवराज चौहान ने कमरे में मौजूद सब पर निगाह मारी। नीना पाटेकर। मंगल पांडे। उस्मान अली। और सबसे बाद में वहां डालचन्द पहुंचा था, जो कि कठिनता से अपने पर काबू पाए हुए था।

नीना पाटेकर ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया, फिर बोली---

"वैन कहां है देवराज चौहान ?"

"जहां भी है, सलामत है।"

"लेकिन है कहाँ ?" पांडे बोल उठा--- "लूट में हम भी शामिल थे। उस पर हमारा भी हक है।"

देवराज चौहान की निगाहों में खतरनाक भाव तैरने लगे।

"मुझे अच्छी तरह याद है कि लूट में कौन-कौन था और लूट की उस दौलत पर किस-किस का हक है। तुम्हें याद दिलाने की जरूरत नहीं।"

“आखिर हमें वैन के बारे में मालूम होना ही चाहिए।"

"क्यों?"

जवाब में पांडे होंठ हिलाकर रह गया।

"जब तक कल की डकैती का काम पूरा नहीं होता, तब तक वैन कहां है, यह बात किसी को नहीं बताई जा सकती। हो सकता है डकैती के समय हम में से कोई वहां फंस जाये और पुलिस के हत्थे चढ़ते ही सब कुछ उगल दे, इसलिए कल की डकैती के बाद ही हम वैन के पास पहुंचेंगे। समझ में आ गई मेरी बात!" देवराज शांत स्वर में बोला।

मंगल पांडे ने सिर हिला दिया।

तभी उस्मान अली बोल पड़ा---

"देवराज चौहान, मैं कुछ कहना चाहता हूं।"

"क्या?"

"क्या जरूरी है कि हम बैंक डकैती करें?"

“क्या मतलब?” देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ गयीं।

उस्मान अली पल भर के लिए हिचकिचाया, फिर कह उठा---

“यह ठीक है कि आज हमारे प्लान में बैंक वैन को उड़ाना नहीं था। परन्तु हालात ऐसे हो गये कि उड़ाना पड़ा। इसी चक्कर में साढ़े पांच करोड़ रुपया हमारे हाथ में लग गया। जिसके हिस्से करें तो नब्बे-नब्बे लाख हमारे हिस्से आएगा। यह एक बहुत बड़ी रकम है हमारे लिए।" क्षण भर ठिठककर उस्मान अली ने पुनः पूछा--- “मेरे ख्याल में कल चार करोड़ रुपये की डकैती करना ठीक न होगा। जो हमारे हाथ लग गया, हमें उसी को ही सब कुछ समझना चाहिए। कल को डकैती में हो सकता है, हममें से कोई मारा जाए। क्या फायदा? इसलिए जो मिल गया, हमें उसी पर सब्र कर लेना चाहिए।"

देवराज चौहान का चेहरा क्रोध से भर उठा।

"यह तुम्हारा फैसला है?"

"नहीं।" उस्मान अली ने सिर हिलाया--- "मैंने तो राय दी है। मानना न मानना सबके ऊपर है।"

"सबके ऊपर नहीं, सिर्फ मेरे ऊपर है। जिस डकैती के लिए हम घर से निकले हैं, उसे करके ही रहेंगे। बीच में ही अपनी मंजिल का रास्ता नहीं छोड़ सकते। मैंने बैंक डकैती की पूरी योजना बना रखी है। वह होकर ही रहेगी। अगर इतने से ही तसल्ली होने वाली होती तो मैं बैंक वैन रॉबरी का ही प्लान बनाता, बैंक डकैती का नहीं। मैं हर हाल में हर कीमत पर साढ़े नौ करोड़ रुपया इकट्ठा सामने देखना चाहता हूं। उसके बाद ही हिस्से होंगे।" देवराज चौहान ने सबके चेहरों पर निगाह मारी--- "इस सारी रकम को इकट्ठा पाने के लिए ही तो आज हम बैंक पहुंचे थे कि साढ़े पांच करोड़ आज बैंक से न निकलें, कल ही निकलें, और निकलने से पहले ही हम बैंक में डकैती डालकर सारा पैसा अपने कब्जे में कर लें। जिस मकसद के लिए हम लोग इकट्ठे हुए थे, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। खुद को कायर मत बनाओ। मेरे साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलो।"

"देवराज ठीक कहता है।" नीना पाटेकर बोल उठी--- "जिस मकसद के लिए हम इकट्ठे हुए थे, वह अभी पूरा नहीं हुआ है। हमें वैन को, वैन में मौजूद साढ़े पांच करोड़ रुपये को तब तक भूल जाना चाहिए, जब तक हम कामयाब बैंक डकैती न कर लें। और यह डकैती कल सुबह होगी।"

मंगल पांडे फौरन बोला---

“मेरा भी यही कहना है कि साढ़े पांच करोड़ को अपने पल्ले देखकर हमें बैंक डकैती का विचार त्यागना नहीं चाहिए। यह बुजदिली होगी।"

डालचन्द मुंह बन्द किए खामोश बैठा सबको देखे जा रहा था। उसकी आंखों के सामने वानखेड़े का चेहरा घूम रहा था।

"किसी को कल होने वाली डकैती पर ऐतराज है तो, आवाज उठा सकता है।"

उस्मान अली बोला।

“तुम मेरी बात को गलत समझ रहे हो देवराज चौहान । मैंने तो सिर्फ एक ही राय दी थी। अगर राय सबको पसन्द होती तो ठीक। अब पसन्द नहीं तो मुझे क्या ऐतराज! मैं तो तुम सबके साथ ही हूं। यूं भी काम को आधा-अधूरा छोड़ना मेरी आदत नहीं है।"

कई पलों तक वहां खामोशी छाई रही।

देवराज चौहान ने खामोशी तोड़ी---

"आज हिन्दुस्तान बैंक से बैंक वैन को उड़ाया गया है। पावरफुल बम फेंके गये हैं। इसलिए कोई सोच भी नहीं सकता कि कल फिर उसी बैंक में कोई डकैती करने का साहस कर सकता है। यह बात हमारे लिए फायदेमन्द है। दोपहर बाद मैंने वहां जाकर देखा, सिर्फ चार पुलिस वाले बैंक की निगरानी पर हैं। जिनसे हमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कल हम आज की ही तरह आसानी से कामयाब होंगे। इस बात का मुझे पूरी तरह विश्वास है।"

हर कोई देवराज चौहान के चेहरे को देख रहा था। जहां पर दृढ़ता का समन्दर उछाले मार रहा था।

“जगमोहन कहां है?" एकाएक मंगल पांडे बोला।

"बैंक वैन की निगरानी पर।"

"वह अकेला ही बैंक वैन की निगरानी कर रहा है?" पांडे ने हैरानी से पूछा।

"हां।"

"कम से कम दो तो होने चाहिए थे।"

"अवश्य होने चाहिए थे। लेकिन हमारे पास आदमियों की कमी है। बैंक वैन के मुद्दे पर मैं तुम लोगों से बात करना चाहता हूं। लेकिन उससे पहले कल की डकैती पर बात कर ली जाए। कल की डकैती की योजना मैं सबको बता देना चाहता हूं।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जेब से तह किया बड़ा-सा कागज निकाला और डालचन्द की तरफ बढ़ाकर बोला--- “वजीर चंद प्लेस से उस जगह पर पहुंचने के मैंने छः रास्ते बना रखे हैं। समझे, जहां पर तुम्हें डकैती का माल पहुंचाना है। रास्ते भर के नक्शे के रास्ते को अच्छी तरह समझ लेना। कल तुम्हें और भी सावधानी से काम लेना होगा, क्योंकि आज की घटना के कारण कल पुलिस पहले से ही शहर की सड़कों पर दौड़ रही होगी। आज तो बुलेटप्रूफ वैन ने हमें बचा लिया, कल हमारे पास आम कार होगी।"

डालचन्द ने गम्भीर भाव से कागज थाम लिया।

उसके बाद देवराज चौहान ने सबको बैंक डकैती की योजना बतायी।

आधा घण्टा वह बताता रहा कि डकैती पर काम कैसे करना है। किस-किस को क्या करना है। बैंक का भीतरी नक्शा उसने कम से कम तीन बार सबको बताया, ताकि अच्छी तरह याद हो जाए।

सबने डकैती के सम्बन्ध में कई सवाल पूछे।

देवराज चौहान उन्हें उसकी बातों का जवाब देता रहा।

कुल मिलाकर, इस मुद्दे पर बात करते हुए उन्हें एक घंटा लग गया। जब डकैती की योजना का मुद्दा समाप्त हुआ तो पांडे बोला---

"डकैती के दौरान जो अलग हो जाएगा, वह कहां पर मिलेगा ? क्योंकि किसी को तो यह नहीं मालूम कि माल रखने का ठिकाना कहां है और कहां पहुंचना है।"

"ऐसी नौबत आने पर, डकैती में अलग हो जाने वाले को दोपहर बाद यहीं आ जाना है। मैं, जगमोहन या और कोई आकर उसे ले जायेगा। और तुम लोग अपने मन से इस का वहम निकाल दो कि मेरे द्वारा दौलत में कोई धोखेबाजी हो सकती है। मुझे दगाबाजी से सख्त नफरत है। अगर मैं तुम लोगों को जगह नहीं बता रहा तो सिर्फ सावधानी के कारण। डालचन्द को वह जगह बतानी जरूरी थी क्योंकि इसी ने तो डकैती के माल को वहां तक पहुंचाना है। कल डकैती के बाद हम सब यहां पर होंगे। साढ़े नौ करोड़ के बीच होंगे। परन्तु इस समय हमारे सामने बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गई है, इस कठिनाई को साल्व करना बेहद जरूरी है।"

"कैसी समस्या?" नीना पाटेकर के माथे पर बल पड़ गये।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और सिर हिलाकर बोला।

“जिस बैंक वैन को हमने आज सुबह उड़ाया, उस बैंक वैन के भीतर दो सख्त इरादों वाले गार्ड हैं। जिनके पास गनें हैं। दरवाजा भीतर से ही बन्द किया जा सकता है। खोला जा सकता है। बाहर से दरवाजा बंद या खोलने का कोई प्रबन्ध नहीं। सांस लेने के लिए उन गार्डों को, वैन के फर्श पर बने छोटे-छोटे छिद्रों में से हवा मिल रही है। खाना उनके पास कुछ दिन का है। पीने को पानी है। वह जब भी चाहें वैन का दरवाजा खोलकर अपनी गनों से गोलियों की बरसात कर सकते हैं। यानी कि इस समय वह दोनों गार्ड वैन सहित साढ़े पांच करोड़ के मालिक बने बैठे हैं। नोटों से भरी वैन हमारे पास होने पर भी हम नोटों से बहुत दूर हैं। उस दौलत तक हमारी पहुंच नहीं ।"

सुनते ही सब सकते की सी हालत में रह गये।

"और तो और उनके पास वायरलेस सेट है, वायरलेस के जरिए वह जब भी चाहे पुलिस हैडक्वार्टर से बात कर सकते हैं।"

सब ने बेचैनी से पहलू बदला।

कई पलों के लिए वहां पैना सन्नाटा छाया रहा।

"तो उन्होंने यह भी जान लिया होगा कि वैन इस वक्त कहां है और---।"

"नहीं।" देवराज चौहान ने मंगल पांडे की बात काट कर कहा--- "तुमने शायद वैन को सही ढंग से देखा नहीं, वह डिब्बाबंद वैन है। बुलट प्रूफ आर्म्ड प्रूफ है। भीतर से बाहर और बाहर से भीतर नहीं झांका जा सकता। डिब्बाबंद वैन में, ड्राईवर की तरफ खुलने वाली छोटी-सी खिड़की है, जिसे सिर्फ भीतर मौजूद गार्ड ही खोल सकते हैं। उस खिड़की में कठिनता से एक हाथ ही भीतर घुस सकता है और वह गार्ड किसी भी कीमत पर उस खिड़की को इसलिए नहीं खोलेंगे कि कहीं उनके लिए घात लगाये कोई खिड़की पर बैठा न हो और उसके खुलते ही भीतर की तरफ कोई गोली न दाग दे।"

"ओह!" उस्मान अली के होठों से निकला।

“लेकिन!" नीना पाटेकर बोली--- "अब इस समस्या का हल क्या है?"

“हल ही तो हमने निकालना है।"

"उनके पास कितने दिन का खाना पानी है?" नीना पाटेकर ने एकाएक पूछा।

"इस बारे में यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता, पांच-सात दिन का तो होगा ही।"

“मान लिया जाए सात दिन का खाना है....गार्डों के पास।" नीना पाटेकर बोली--- “उसके बाद वह क्या करेंगे? तब तो भूख-प्यास के मारे हाथ उठाकर उन्हें बाहर आना ही होगा।"

“ऐसा भी हो सकता है।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- “इस मुद्दे पर बात करने के लिए कल की डकैती के बाद हमारे पास काफी समय होगा। इस समय सबसे बड़ी समस्या है कि वैन की निगरानी कौन करेगा....? सुबह से डालचन्द और जगमोहन कर रहे हैं। रात को मैं कर नहीं सकता, क्योंकि सुबह फ्रेश होकर मुझे बैंक डकैती करनी है, बैंक डकैती के लिए हम सब पूरे हैं। किसी एक का भी कम होना हमारे लिए ठीक न होगा और अब ऐसी नाजुक स्थिति में बाहर का कोई विश्वासी आदमी भी तलाश नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारे पास समय कम है।"

"इसका मतलब कि हमें कम से कम।" मंगल पांडे ने सिर हिलाया--- "एक ऐसे आदमी की जरूरत है, जो हमारे इस काम में शामिल हो और रात भर, सुबह के उस समय तक सावधानी से उस बैंक वैन की निगरानी करे--- ताकि कहीं वह गार्ड दरवाजा खोलकर वैन से बाहर न आ जायें, अगर आयें तो फौरन उन्हें गोली से उड़ाया जा सके।"

“हां। लेकिन कल की डकैती में जगमोहन हिस्सा नहीं लेगा। क्योंकि कोई भी आदमी चुस्ती-फुर्ती के साथ, सारी रात और दिन में हमारे डकैती करके आने तक वैन पर पहरा नहीं दे सकता। हमें आने में बारह बज सकते हैं। इसलिए वहां पर एक ऐसा आदमी चाहिए जो जगमोहन के साथ पहरेदारी कर सके।"

“सही बात है।" उस्मान अली ने सिर हिलाया।

“तो अब किसी विश्वास के काबिल आदमी को कहां से लाया जाये?" नीना पाटेकर बोली।

"इस समय यही समस्या है हमारे सामने। हम सबको कल बैंक डकैती में हिस्सा लेना है। हम पांचों में से एक को भी कम नहीं होना चाहिए। जगमोहन को निकाल कर हम छः में से पांच हुए हैं। अब पांच से चार होना सम्भव नहीं है।"

"यह समस्या मैं साल्व कर सकता हूं।" मंगल पांडे ने सिगरेट सुलगाकर कहा।

"कैसे?"

“मेरे पास आदमी है। खास विश्वसनीय। वफादार कुत्ते के समान। जो काम उसे सौंपा जाये, उसे वह अपनी जान देकर भी पूरा करेगा।"

"कौन है वह ?” देवराज ने पूछा।

“बताऊंगा। पहले यह बताओ, उसे मिलेगा क्या?"

"क्या मतलब?”

"हमारे पास मोटा माल है....और उस विश्वसनीय आदमी को हम खास काम के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। बदले में उसे भी तो कुछ मिलना चाहिए। वह हमारी हरकतों का राजदार होगा। उसकी वफादारी की कीमत भी तो लगनी चाहिए--- और यह फैसला अब आप सब लोग करेंगे कि ऐसे आदमी को कितना मिलना चाहिए।"

"तुम उसे कितना देना चाहते हो?" नीना पाटेकर बोली।

मंगल पांडे ने नीना पाटेकर को देखा। पल भर के लिए उसकी निगाहें नीना पाटेकर के जिस्म पर फिसली, फिर तुरन्त ही संभल गया।

"कुल मिलाकर हमारे पास साढ़े नौ करोड़ रुपया होगा। कल की डकैती के बाद।"

"हां, होगा।" नीना पाटेकर फिर बोली।

“नौ से ऊपर उसका। बाकी नौ के हम हिस्से करेंगे।"

"तुम्हारा मतलब कि पचास लाख उसे दें?"

"साढ़े नौ करोड़ में से पचास लाख उसे दे भी दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई। वह हर कदम पर हमारी सहायता करेगा। काम का आदमी है। उससे कई काम लिये जा सकते हैं।"

कुछ देर तक उनके बीच खामोशी व्याप्त रही।

"उस पर किस हद तक विश्वास किया जा सकता है?" देवराज बोला।

"हर हद तक ।"

“अगर उसने कोई गड़बड़ की तो जिम्मेदारी तुम्हारी होगी।”

"बेशक मेरी होगी।”

"उसके गड़बड़ करने पर उसके साथ-साथ हम तुम्हारे भी दुश्मन बन सकते हैं।"

"उस इंसान को लेकर मुझे हर बात मंजूर है।" मंगल ने विश्वास से कहा।

"ठीक है, नौ से ऊपर उसका। कौन है वह ?"

मंगल ने देवराज को देखा।

"जिस बार में तुम मुझसे मिले थे, उस बार का मालिक नटियाल ।"

“बार का मालिक!” देवराज चौहान चौंका--- "वह हमारे काम का नहीं हो सकता।"

मंगल के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।

“देवराज चौहान, उसे सिर्फ बार का मालिक मत समझो। हर क्राईम में मास्टर है वह। आज भी वह क्राईम का स्कूल चला सकता है। जिन कामों में आज हम पड़े हैं, इन कामों को करके, इन कामों से थककर, वह यह सब छोड़ चुका है। एक तरह से मेरा मास्टर है वह। इतना खतरनाक और बुद्धि का है कि हर मामले में आसानी से निपट लेता है। वह मोटा है किन्तु फुर्तीला इतना कि हम सबको मात कर जाये। मैंने जितनी भी आज तक डकैतियां कीं, उन सबके प्लान वही बनाता रहा। तभी तो मैं कामयाब रहा और कभी फंसा नहीं। अगर वह किसी काम का नहीं तो समझो हम भी किसी काम के नहीं और जिस मामले के लिए हम उसे अपने साथ मिलाने जा रहे हैं, वह मामला उसके लिए बचकाना है। क्राईम की दुनिया में ऐसा गुण वाला व्यक्ति मिलना आसान नहीं।"

देवराज चौहान और पाटेकर की आंखें मिलीं।

"अगर ऐसा है तो उसे आजमा लेने में कोई हर्ज नहीं।" उस्मान अली बोला।

"क्या नाम है उसका?" पाटेकर बोली।

"नटियाल ।"

"नटियाल ।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- "वह इस समय बार में होगा ?"

"हां।"

"इस काम के लिए तैयार हो जाएगा?"

"मेरा कहा वह कभी नहीं टालता ।"

"ठीक है। मैं अभी चलकर उससे मिलता हूं।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने सब पर निगाह मारी--- "कल हमने बैंक डकैती के लिए, सुबह ठीक नौ बजे, उस जगह पर इकट्ठे होना है, जहां बैंक से कुछ दूर कार रोकी थी। याद है वह जगह?"

सब ने सहमति में सिर हिलाया।

“ठीक नौ बजे। हमें किसी भी हालत में लेट नहीं होना। पहले पहुंचकर हमें बैंक के आसपास निगाह रखनी है कि कल यहां सुरक्षा के खास प्रबन्ध तो नहीं। उसके बाद ठीक दस सवा दस बजे हमें हरकत में आ जाना है। बिल्कुल सतर्क रहकर काम करना है। किसी भी हालत में मैं बैंक डकैती को असफल नहीं देखना चाहता।"

"चिन्ता मत करो।" नीना पाटेकर विश्वास भरे स्वर में बोली--- "हम अवश्य कामयाब रहेंगे।"

देवराज चौहान ने मंगल से कहा---

“चलो पांडे, मुझे नटियाल से मिलाओ।"

तभी लम्बे समय से खामोश बैठा डालचन्द बोल पड़ा---

"अब मैं कुछ कहना चाहता हूं।"

सबकी निगाहें डालचन्द की तरफ उठ गयीं।

"वानखेड़े को जानते हैं आप लोग कि नहीं?"

वानखेड़े के नाम पर देवराज चौहान ही नहीं, नीना पाटेकर भी चौंकी।

“क्या मतलब?” देवराज चौहान ने हैरानी से उसे देखा।

"साल भर पहले वानखेड़े हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गया था।" नीना पाटेकर बोल पड़ी--- “परन्तु वह मुझे पकड़ नहीं सका था। वह एक खतरनाक पुलिसवाला है।"

“हां।" डालचन्द ने सिर हिलाया--- “मैं उसी की बात कर रहा हूं। जब मैं ठिकाने से निकल कर सड़क पर आया तो कार में वह मुझे मिला। मैं उसी की कार में लिफ्ट लेकर कुछ दूरी तक आया।"

देवराज चौहान, डालचन्द की बात का स्पष्ट मतलब समझ रहा था कि कहां से उसने वानखेड़े से लिफ्ट ली होगी---

"उसने अपना नाम और विभाग बताया, फिर पूछा कि इस तरफ दिन में मैंने कोई बैंक वैन तो आती नहीं देखी। मैंने मना कर दिया....कि नहीं देखी। सवाल यह पैदा होता है कि सुबह हमने वैन डकैती की और शाम को पांच बजे वह उसी इलाके में मंडरा रहा था जिस इलाके में वैन छिपा रखी है। इतनी जल्दी वह वहां कैसे पहुंच गया?"

डालचन्द की बात पर हर कोई स्तब्ध रह गया।

"वह बड़ा काईयां इंस्पेक्टर है।" देवराज चौहान ने कहा--- “पर हम वैन को वहां से हटा भी तो नहीं सकते।"

“अगर वह वैन तक पहुंच गया तो?" उस्मान अली ने कहा।

“तो ऊपर पहुंच जायेगा।" नीना पाटेकर खतरनाक लहजे में गुर्रा उठी ।

मन-ही-मन सब नीना पाटेकर की बात से सहमत थे।

■■■

देवराज चौहान, मंगल पांडे के साथ नटियाल से मिलने चला गया था।

उस्मान अली अपने घर की तरफ रुखसत हो गया था।

नीना और डालचन्द एक ही कार पर रवाना हो गये।

रात के नौ बज रहे थे।

“क्या सोच रहे हो डालचन्द ?" नीना ने सिगरेट को सुलगाकर पूछा।

"कुछ नहीं।"

“मत बताओ.... तुम्हारी मर्जी ।" नीना मुस्कुराई--- “एक बात बताओगे?"

“क्या?”

“मैं तुम्हें कैसी लगती हूं?"

"ठीक लगती हो।”

"तू भी मुझे अच्छा लगता है।"

डालचन्द खामोशी से कार की खिड़की से बाहर को देखने लगा।

“हिसाब लगाया तूने कि नौ करोड़ में से कितना तेरा हिस्सा होगा?” वह बोली।

"डेढ़ करोड़ ।”

"क्या करेगा तू इतने पैसे का?"

“जब आ जायेगा तो सोचूंगा।"

"डेढ़ और डेढ़ तीन होते हैं डालचन्द ।”

"क्या मतलब?"

“मेरे डेढ़ करोड़ भी अपने डेढ़ करोड़ में मिला ले।”

डालचन्द ने गरदन घुमाकर नीना पाटेकर की ओर देखा।

“तेरी मेरी नहीं पटेगी।"

"क्यों ?”

“तू बदमाश! सालों से खून खराबे के धन्धे में है। जबकि यह मेरा पहला और आखिरी बुरा काम है। इस काम में मैं इत्तफाक से ही आ फंसा हूं।"

“मैं भी तंग आ गई इन कामों से। आज तक कोई भी मर्द मेरे जिस्म पे हाथ नहीं लगा सका है। एकदम क्वारी हूं। तेरे को नुकसान का सौदा नहीं लगेगा मुझसे शादी करके।"

“तेरे पीछे पुलिस है।"

"हम यहां से कहीं दूर निकल चलेंगे। मां-बहन को लेकर।"

“तू सिगरेट पीती है।"

नीना पाटेकर ने सिगरेट कार की खिड़की से बाहर उछाल दी।

“ले छोड़ दी....अब नहीं पीऊंगी।"

"एक बार तेरे मुंह से शराब की स्मैल भी आई थी।" डालचंद बोला।

"आज के बाद व्हिस्की भी छोड़ दूंगी...।"

"शराफत से जिन्दगी बितायेगी मेरे साथ? गड़बड़ तो नहीं करेगी ?"

"नहीं। मैं बहुत अच्छी बीवी बनकर दिखाऊंगी तुझे।"

"देख, मैं शरीफ जरूर हूं। लेकिन सीधा या बेवकूफ नहीं। अगर जिन्दगी में तू कभी अपनी बातों से पीछे हटी तो तेरा बुरा हाल करके रख दूंगा।"

"मैंने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर है।"

"ठीक है। कल की डकैती का मामला निपट जाने दे और बंटवारा हो जाने दे। उसके बाद मां और बहन को लेकर हम शहर छोड़ देंगे। फिर शादी कर लेंगे।" डालचन्द ने कहा।

"कहीं ऐसा न हो कि कल सुबह तू अपनी बात से पीछे हट जाए।"

“मैं पीछे क्यों हटूंगा।” डालचन्द उसे देखकर पहली बार मुस्कुराया--- "तू मुझे शुरू से ही अच्छी लगती थी लेकिन सिर्फ तेरी बुरी आदतों के कारण ही मैं तेरे से दूर रहा।"

“अब तो मैंने बुरी आदतें छोड़ दी हैं।"

दोनों एक दूसरे से रजामन्द हो गए थे।

"बस रोक दे। मेरा घर आ गया है।"

नीना ने कार रोक दी।

“मैं भी साथ चलूं.... मां-बहन से मिल लूंगी।" वह बोली ।

“जल्दी मत कर! मेरा दिमाग अभी ठीक नहीं है। कल की डकैती से निपट लें--- उसके बाद ही इस बारे में बात करना।"

"ठीक है।"

नीना डालचन्द को जाते देखती रह गई।

■■■

“कहां था तू.... सुबह का गया अब लौट रहा है?" शारदा देवी ने पूछा।

“मां, तुम भी अजीब हो।” चारपाई पर बैठता हुआ डालचन्द बोला ।

“तो जाते हुए कहकर जाया कर कि रात को देर से आऊंगा।"

"अब मुझे क्या पता मां-- प्राइवेट नौकरी है। आना-जाना तो मालिक के हाथ में है।"

तभी कमला पानी ले आई। डालचन्द ने पानी पीकर गिलास उसे थमा दिया।

"चाय बनाऊं भैया।"

"नहीं.... अब खाना ही खाऊंगा।"

"खाना भी तैयार है।”

डालचन्द ने शारदा देवी को देखा।

"मां.... कल शायद मैं कम्पनी के काम से टूर पर जाऊं। कुछ दिन बाद लौटूंगा।"

"कितने दिन?"

"पांच-दस दिन तो लग ही जाएंगे।"

शारदा देवी ने सिर हिलाया।

“बाहर अपना ख्याल रखना बेटा.... आजकल जमाना ठीक नहीं है।"

"तुम मेरी फिक्र बिल्कुल मत करना मां। मैं कोई बच्चा नहीं हूं।"

"अच्छा अब जा.... खाना खा ले।"

डालचन्द चारपाई से उठ गया।

“कल कितने बजे जायेगा ?"

“सुबह ही जाना है। आठ बजे से पहले ही घर से निकल जाऊंगा।"

"कपड़े तैयार कर रखे या नहीं?"

"कपड़ों की फिक्र मत करो मां... जरूरत की हर वस्तु कम्पनी वाले ही देंगे।"

"कपड़े भी देंगे?" शारदा देवी बड़बड़ा उठी--- "जाने कैसी कम्पनी है यह!"

■■■

“तुम तो इतनी बड़ी हस्ती हो....और मुझसे मिले बिना ही उस दिन चले गये।" नटियाल ने मुस्कुराकर देवराज चौहान से कहा--- "कम से कम मुझे सलाम मारने का मौका तो दे देते।”

देवराज ने गहरी निगाहों से मोटे नटियाल की ओर देखा।

“नटियाल, तुमसे काम है।" पांडे बोला।

नटियाल फौरन सतर्क हो उठा।

"मुझसे भला क्या काम पड़ गया...।" उसकी आवाज में लापरवाही थी।

मंगल पांडे ने देवराज चौहान के सामने सारी बात दोहराई।

नटियाल ने गम्भीरता से बात सुनी।

"तुम्हें उस वैन की चौकस निगरानी करनी है। बदले में पचास लाख मिलेंगे।"

"बहुत मोटी रकम मिल रही है--- मैं काम के लिए तैयार हूँ।"

"मोटी रकम इसलिए मिल रही है कि हम दोनों ने मोटा हाथ मारा है--- और काम में किसी प्रकार की लापरवाही नहीं होनी चाहिए।"

“नहीं होगी।"

"अगर कहीं पर जरा भी गड़बड़ी की तो तुम्हारी जिन्दगी की कोई गारण्टी नहीं।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

मोटा नटियाल मुस्कुराया ।

"ऐसी बातें मत करो। मैं भला क्या गड़बड़ कररूंगा। अभी चलना होगा?"

“अभी का अभी।”

"ठीक है....तुम लोग बैठो। मैं आधे घण्टे में आता हूं।"

"कहां जा रहा है?" पांडे ने उससे पूछा।

"कल के कामों का इंतजाम करने जा रहा हूं।" और वह बाहर निकल गया।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा कर कहा---

“आदमी तो ठीक लगता है।"

“आदमी तो ठीक ही है।" पांडे ने सिर हिलाया।

आधे घण्टे बाद नटियाल वापस लौटा।

"मैंने कल का सारा इंतजाम कर दिया है। किशन सुबह टैक्सी लेकर आयेगा।"

मंगल पांडे ने सिर हिलाया। वह समझा गया कि नटियाल उसके कल के एक्सीडेंट का इन्तजाम करने गया था।

“चलो।" नटियाल ने देवराज चौहान से कहा।

देवराज चौहान खड़ा हो गया।

"मैं रात को यहीं पर रहता हूं।" मंगल पांडे देवराज चौहान से बोला--- “अगर मेरी जरूरत पड़े तो आ जाना या किसी को भी भेज देना।"

देवराज चौहान नटियाल के साथ बाहर निकल गया।

"जाना कहां है?" नटियाल ने पूछा।

"खामोशी से चलते रहो। जब ठिकाना आ जाएगा तो बता दूंगा।"

मोटे नटियाल ने बेहद शराफत के साथ मुण्डी हिला दी।

■■■

वानखेड़े जब अपने ऑफिस में पहुंचा, रात के नौ बज रहे, थे। सुधीर चावला को वहां पर मौजूद देख कर उसने पूछा---

“तू यहां क्या कर रहा है?"

“ड्यूटी कर रहा हूं सर ।"

“केबिन में बैठकर ड्यूटी की जाती है? वह भी मेरे केबिन में।"

“हां....कभी-कभी ऐसा भी करना पड़ता है।"

"मैंने तुझे नीना पाटेकर का सुराग ढूंढने पर लगाया था न?"

"मैंने सारे मुखबिरों को सावधान कर दिया है सर। जल्द ही उसकी कोई खबर मिलेगी।"

वानखेड़े सिर हिलाकर रह गया।

“तुमने दिन भर क्या किया?”

"वैन को तलाश करता रहा।" वानखेड़े ने कहा--- "मेरा यकीन है कि वैन शहर के बाहर मौजूद फार्मों में ही कहीं है।"

“तो क्या फार्मों की तलाशी लोगे?" सुधीर चावला ने पूछा।

“कल तुम मेरे साथ रहोगे। चोरी छिपे जिस फार्म की तलाशी ले सके तो ले लेंगे, नहीं तो फार्म की तरफ जाने वाले मेन रास्ते पर निगाह रखेंगे। शायद कोई नतीजा सामने आए।"

“यह तो अन्धेरे में हाथ-पांव मारने वाली बात होगी सर ।"

"हमारे पास अलादीन का चिराग है नहीं जो उससे मालूम कर लें। ख्याल के दम पर ही अन्धेरे में हाथ मारना पड़ेगा।"

सुधीर सिर हिलाकर रह गया।

“तुम मेरे ऑफिस में क्या ड्यूटी कर रहे थे?" वानखेड़े एकाएक बोला।

"ओह, हां.... कमिश्नर साहब तुम्हारा इंतजार करके कुछ देर पहले ही गये हैं।"

“मैं पिछले ढाई घण्टे से कंट्रोल रूम में बैठा था--- यह सोचकर कि शायद वैन में मौजूद गार्डों का कोई मैसेज आ जाए। क्योंकि सिर्फ एक ही बार उन्होंने मैसेज दिया था। उसके बाद सम्बन्ध ही नहीं बनाया।" वानखेड़े ने कहा।

"कहीं फंस न गये हों?"

"क्या कहा जा सकता है!"

"तुमने शायद चीफ को किसी डालचन्द के विषय में पता लगाने के लिए कहा था, जो फास्ट ड्राइविंग में एक्सपर्ट हो ?"

"तो?"

"चीफ ने दिन भर यही काम किया। फोन पर बिजी रहे। आखिरकार डालचन्द नाम के एक आदमी का पता चल ही गया जो ड्राइविंग में बहुत एक्सपर्ट है। वह तीन बार कार रेसिंग में हिस्सा ले चुका है। और तीनों बार वह चौथे नम्बर पर आया है।"

"कहां रहता है वह ?"

"इसी शहर में।” सुधीर ने एक लिफाफा उसकी तरफ बढ़ा दिया--- "इसमें उसके घर का पता है।"

वानखेड़े ने लिफाफा लेकर उसमें लिखा पता देखा।

"यह डालचन्द वैन भगाने वाला हो भी सकता है....और नहीं भी।"

“चीफ ने उसकी तस्वीर का इंतजाम भी कर रखा है। " सुधीर ने टेबल पर पड़ा एक दूसरा लिफाफा उसकी ओर सरका दिया।

वानखेड़े ने लिफाफा उठाकर उसमें से तस्वीर निकाली।

तस्वीर देखते ही वह उछल कर खड़ा हो गया।

सुधीर ने हैरानी से उसे देखा।

वानखेड़े आंखें फाड़े तस्वीर को देखे जा रहा था।

"क्या हुआ?” सुधीर ने हैरानी से पूछा।

“सुधीर! यह वही है जिसे शाम को मैंने उन फार्मों से बाहर आने वाली सड़क पर लिफ्ट दी थी। इसका वहां पर मिलना साबित करता है कि मैं एकदम सही रास्ते पर हूं। देवराज चौहान और अन्य सब लुटेरे वहीं पर मौजूद हैं।"

सुधीर भी चौंककर खड़ा हो गया।

"क्या कह रहे हो?”

"मैं एकदम सही कह रहा हूं।"

"अगर ऐसा है तो पहले इस डालचन्द को ही पकड़ते हैं। इसके घर को घेरते हैं।"

"नहीं। अगर इस पर हाथ डाला तो देवराज चौहान सतर्क हो जाएगा। मैं देवराज चौहान को इस बार छोड़ना नहीं चाहता हूं।"

"लेकिन देवराज चौहान को पकड़ोगे कैसे?"

"यही तो देखना है।"

कुछ क्षण तक उनके बीच खामोशी छाई रही।

"अब कौन सा कदम उठाओगे?" सुधीर ने मौन भंग किया।

"सोचना पड़ेगा।"

"डालचन्द पर निगाह रखी जाए ?"

"मेरे ख्याल से कोई फायदा नहीं। वह अपने घर पर नहीं मिलेगा। अगर मिल भी गया तो सुबह उठते ही फार्म की तरफ भागेगा--- जहां वैन और उसके अन्य साथी मौजूद हैं।"

"यह तो है।"

"हमें कोई ऐसी ठोस योजना बनानी चाहिए कि वह सब एक साथ फंदे में फंसें और साथ में देवराज चौहान भी हो।"

"तुम सिर्फ देवराज चौहान के बारे में सोच रहे हो--- जबकि मैं सभी के बारे में सोच रहा हूं। वह भी कम खतरनाक नहीं होंगे।"

"यह भी सही है।"

"तो जो भी कदम उठाया जाये, सोच-समझ कर ही उठाया जाए।

“यही तो मैं सोच रहा हूं सुधीर कि ऐसा कौन सा कदम हो सकता है... जो कच्चा न हो और उन पर लुहार की चोट के समान हो।"

"इस बारे में कमिश्नर साहब से बात की जाए ?”

“कमिश्नर साहब से भी बात कर लेंगे। पहले मुझे तो सोचने दो।"

वानखेड़े ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया और केबिन में चहलकदमी करने लगा।

सुधीर चावला ने कुर्सी की पुश्त से सिर टिका कर आंखें बन्द कर लीं।

■■■

रात के साढ़े नौ बज रहे थे।

खूबचन्द ने दो दुनी चार कर रखी लुंगी उतारी और उसकी, जगह पतलून पहन ली।

उसके मस्तिष्क में साढ़े पांच करोड़ के नोटों से भरी वैन घूम रही थी जो उसके ख्याल से उसी फार्म पर छुपायी गई थी जहां पर वैन लूटने से एक दिन पहले देवराज चौहान और डालचन्द गये थे।

वह अपने सन्देह की पुष्टि कर लेना चाहता था कि वैन वहां पर है या नहीं।

खूबचन्द इस मामले में इसलिए पड़ा था कि वह मंगल पांडे को सबक सिखाना चाहता था। क्योंकि पांडे ने उसे पीछे वाले कमरे में ले जाने की धमकी दी थी....यानी कत्ल करने की धमकी।

खूबचन्द सोच रहा था कि अगर वैन वास्तव में ही फार्म पर हुई तो वह क्या करेगा ?

अगर उसने पुलिस को खबर कर भी दी तो उसे क्या मिलेगा? दस बीस या पचास हजार का इनाम....और बदले में खतरनाक लोगों से दुश्मनी। जो कभी न कभी उसे ठिकाने लगा ही देंगे।

बस यही बात खूबचन्द को परेशान किए दे रही थी, कि अगर वैन उस फार्म पर ही हुई तो वह कौन सा कदम उठायेगा ?

तैयार होने के बाद उसने जेब में हाथ डाला तो सिर्फ दस का नोट ही पड़ा था। खूबचन्द दूसरे कमरे में मौजूद शामली के पास पहुंचा।

“कुछ पैसे दे दे मुझे।"

“कितने?”

“दो सौ दे दे।”

“दो सौ ।” शामली की आंखें सिकुड़ गयीं--- "इतनी रात को तूने दो सौ का क्या करना है? यह समय घर में रहने का है कि बाहर जाने का? कहां जा रहा है?"

“काम पर।”

“मैं भी तो जानूं कि किस काम पर जा रहा है दो सौ रुपया लेकर---।"

"ज्यादा बक-बक न कर--- नोट इधर सरका।"

"रौब न मार..... मेरे सामने सीधा रहा कर। रौब मारना है तो कमाना सीख।"

"मैं कहता हूं दो सौ रुपया दे दे।"

"जब तक तू नहीं बताएगा कि इन दो सौ रुपयों का क्या करना है, तब तक मैं तेरे हाथ पर फूटी कौड़ी भी नहीं रखूंगी।"

"बोला तो कि काम पर जा रहा हूं।"

"काम पर।" शामली ने गहरी निगाहों से उसे देखा--- "कब से काम शुरू कर दिया तूने? कहीं नौकरी कर ली है या बिजनेस खोल लिया है? या फिर किसी लौंडिया को पाल लिया है?"

खूबचन्द दांत पीसते उसे देखता रहा।

"देख। शामली बोली--- "लौंडिया पालने का काम तेरी औकात से बाहर का है। और इस काम के लिए तो मैं तुझे पैसे दूंगी नहीं। जरूरत है तो जाकर कहीं चोरी कर... डाका डाल... लेकिन मुझसे न मांग।"

"हरामजादी....ज्यादा बकवास न कर।" खूबचन्द ने दांत पीसकर कहा--- "लौंडिया पालने का शौक होता तो कब की पाल चुका होता। यह कुतियाना शौक मुझे नहीं लगा है--- और न ही लगेगा मुझे। मैं मंगल पांडे नहीं हूं।"

"खूबचन्द।" शामली क्रोध से कांप उठी।

"चिल्ला मत....नहीं तो एक ही हाथ में थोबड़ा तोड़ दूंगा।" खूबचन्द का चेहरा क्रोध से भर उठा---  "बोल-- नोट मेरे हवाले करती है या नहीं?”

शामली का चेहरा धधक रहा था। वह चोट खाई नागिन के समान उठी और अलमारी से सौ-सौ के दो नोट निकाल कर खूबचन्द की ओर फेंक दिये।

"दफा हो जा यहां से और याद रख.... अब यह नोट देने वाला मामला ज्यादा देर नहीं चलने वाला। मेरी कमाई खाते तुझे शर्म नहीं आती ?"

“नहीं आती।" खूबचन्द बेशर्मी से मुस्कुराया।

"जिस दिन मैं नोट देना बन्द कर दूंगी, अक्ल ठिकाने लग जायेगी।"

खूबचन्द ने सिगरेट सुलगाई और हंसकर बोला---

"तू दो चार सौ के कारण नाराज न हुआ कर। अब ऐसा हाथ मारने जा रहा हूं कि....हमारे पास दौलत ही दौलत होगी।"

"तू.... तू हाथ मारने जा रहा है?" शामली कड़वे से स्वर में बोली।

"हां....साढ़े पांच करोड़ नकद का।"

"साढ़े पांच करोड़! इतनी ही रकम तो आज दोपहर को आकर मंगल पांडे ने भी उससे कहा था। मैं पूछती हूं मुझे बता, मामला क्या है?"

खूबचन्द ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। और पलटकर बाहर निकल गया।

शामली ने उसे कई बार पुकारा लेकिन खूबचन्द रुका नहीं।

शामली के शरीर में बेचैनी सी भरती चली गयी थी।

■■■

यह शहर से बाहर का खुला इलाका था। ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी। फार्मों पर लगे बल्ब मध्यम रोशनी फैला रहे थे। खूबचन्द ने उस छोटे से फार्म का एक चक्कर लगा लिया। लेकिन बैंक वैन उसे वहां कहीं भी नजर नहीं आई।

उसने फार्म की सीमा पर लगे कांटेदार तार को पार करने का प्रयत्न किया तो तार में अटककर कंधे से उसकी कमीज फट गई।

फिर किसी तरह नीचे से सरककर वह फार्म की सीमा में प्रवेश कर गया।

उसने चारों तरफ नजरें दौड़ाई।

शान्ति थी। कहीं कोई हलचल नहीं।

दबे पांव वह फार्म के कॉटेज की ओर बढ़ने लगा। अगले ही क्षण उसका दिल इस विचार के साथ जोरों से, धड़कने लगा कि अगर वैन इसी फार्म पर हो और मंगल पांडे, देवराज चौहान और नीना पाटेकर भी यहां मौजूद हों और पकड़ा जाए तो क्या होगा ?

तभी खूबचन्द की गरदन से ठण्डा लोहा आ लगा। खूबचन्द की तो जैसे दिल की धड़कन ही बन्द हो गई। वह समझ गया कि यह लोहा और कुछ न होकर रिवाल्वर की नाल है।

"कौन है तू?" गुर्राता हुआ स्वर खूबचन्द के कानों में पड़ा।

आवाज खूबचन्द की जानी-पहचानी थी।

कांपते दिल से खूबचन्द पलटा ।

सामने हाथ में रिवाल्वर लिए बार का मालिक मोटा नटियाल खड़ा था।

खूवचन्द को देखकर वह चौंका। उसका मुंह खुला का खुला रह गया।

"खूबचन्द....तू यहां?"

जवाब में खूबचन्द के होंठ हिलकर रह गये।

"तू यहां क्या कर रहा है?" मोटा नटियाल एकाएक गुर्राया ।

"वैन देखने आया था।"

"कौन सी वैन?"

"बैंक वैन जो सुबह उड़ाई गई थी।"

"तू कैसे जानता है कि वैन यहां है?”

खूबचन्द ने सब कुछ बता दिया।

नटियाल का दिमाग तेजी से दौड़ रहा था। एक वक्त में उसका ध्यान तीन तरफ था।

वैन की तरफ-- कि कहीं गार्ड बाहर न निकलें। कॉटेज की तरफ-- जिसमें जगमोहन सोया पड़ा था कि कहीं वह बाहर न आ जाए, और खूबचन्द की तरफ।

“तो तू उस वैन को देखने आया था जिसमें साढ़े पांच करोड़ रुपया है?"

खूबचन्द ने डूबते दिल के साथ सिर हिलाया।

“आ...इधर आ!" नटियाल उसकी बांह पड़ककर खींचता हुआ उसे झाड़-फूंस के कमरे में ले आया--- “देख ले, अच्छी तरह से वैन को ।"

खूबचन्द ने वैन को देखा तो उसका दिल जोरों से धड़कने लगा।

"देख लिया?"

खूबचन्द ने थूक निगला ।

"बोल, अब क्या करेगा तू?"

खूबचन्द होंठों पर जीभ फिराकर रह गया।

“साले तेरे को पता नहीं....तेरी औकात कितनी है? और किस काम में हाथ डालना चाहिए तुझे? अगर तुझे अभी गोली मार दूं तो?”

"म....मुझे माफ कर दो नटियाल--- अब ऐसी भूल मैं नहीं करूंगा।"

“साला... हरामी ! जा भाग जा यहां से। भूल जा वैन को। अगर कहीं मुंह खोला तो समझ ले तेरी लाश कुत्ते भी नहीं खाएंगे।"

"मैं कुछ नहीं करूंगा।" खूबचन्द ने सूखे होठों पर जीभ फेरी ।

"और किसी को तूने इस बारे में बताया तो?”

“न....नहीं बताऊंगा।”

"सोचकर जवाब दे!"

"भला मैं किसी को क्यों बताऊंगा!" खूबचन्द जल्दी से बोला।

"बताना भी नहीं।"

"नहीं बताऊंगा।"

"मैं तेरे को छोड़ रहा हूं तो सिर्फ इसलिए कि जानता हूँ तेरे में दमखम नहीं है। जा दफा हो जा यहां से हरामी की औलाद!"

खूबचन्द धड़कते दिल से वापस पलटा और तारों की तरफ बढ़ गया।

उसकी समझ में यह बात आ गई कि नटियाल ने उसे क्यों छोड़ दिया। इसलिए क्योंकि वह गोली चला कर शोर-शराबा करना नहीं चाहता था।

■■■

पुलिया पर बैठे हुए खूबचन्द को ठण्डी हवा लगी तो उसके मस्तिष्क से भय का भूत उतरा। धीरे-धीरे उसका दिमाग सोचने के काबिल हुआ।

बैंक वैन डकैती में देवराज चौहान, पांडे, पाटेकर, जगमोहन, डालचन्द और उस्मान अली। लेकिन इतने सारे लोगों में से उसे कोई भी वहां नजर नहीं आया था, नजर आया था तो सिर्फ मोटा नटियाल ।

नटियाल इस मामले में कैसे आ गया?

खूबचन्द के दिमाग में नटियाल का मामला फिट नहीं बैठ रहा था।

फिर बाकी सब के सब यहां से गायब हैं--- इसका मतलब फिर कुछ होने वाला है। लेकिन क्या होने वाला है, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। जल्दी से उसने सोचा और इस नतीजे पर पहुंचा कि दोबारा से उसे इस काम पर लगना पड़ेगा।

और किसी का तो पता नहीं कि कौन कहां होगा लेकिन--- डालचन्द तो अपनी मां-बहन के पास घर पर ही होगा। जहां भी जायेगा, सुबह ही जायेगा।

खूबचन्द पुलिया से उठा और तेजी से शहर की तरफ बढ़ने लगा।

मन ही मन उसने फैसला कर लिया था कि रात घर में बिताकर सुबह अन्धेरे ही वह डालचन्द के घर के सामने उसकी निगरानी पर बैठ जायेगा।

■■■

सुबह के छः बज रहे थे।

राजाराम अपने अड्डे पर बैडरूम में गहरी नींद में डूबा हुआ था कि एकाएक बैडरूम में तेज बैल बजी।

उसकी नींद उचट गई। दांत भींचकर दरवाजे की ओर देखता हुआ वह गुर्राया---

"काये कू सुबह-सुबह भेजा खराब करता है-- मां मर गई है क्या ?"

"राजाराम साहब....मैं हूं भीमराव।" बाहर से आवाज आई।

भीमराव की आवाज सुनकर राजाराम के चेहरे पर तनाव कुछ कम हुआ। वह उठा और आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया।

“क्या है सुबह सुबह ? तेरे कू मालूम नहीं कि आधी रात को सोया था---।"

“मालूम था। बात ही ऐसी हो गई कि---।"

"बातें तो होती ही रहती हैं।" राजाराम बड़बड़ाया और बाथरूम चला गया।

भीमराव खड़ा रहा।

राजाराम बाथरूम में हाथ-मुंह धोकर लौटा, और बोला---

“अब खड़ा ही रहेगा या फूटेगा भी कि कौन सी आफत आ गई है?"

"अभी बसन्त का फोन आया था कि---।"

“बसन्त! उसे तो मैंने सुल्तानपुर भेजा था टोनी के साथ स्मैक लाने के लिए। वह दोनों क्यों नहीं आये माल के साथ? फोन क्यों आया?"

"मैंने बसन्त से पूछा था लेकिन उसने कुछ भी नहीं बताया। कहने लगा कि पन्द्रह मिनट के बाद फोन करूंगा--- राजाराम जी से काम है।"

“मुझसे क्या बात करनी है....तुझे नहीं बता सकता था।

“अब इस बारे में मैं क्या कहूं?"

“पन्द्रह मिनट हो गए ?"

“होने ही वाले हैं।”

“कौन से फोन की घण्टी बजेगी?"

"बाहर वाले फोन की लाईन मैंने यहां कर दी है, अब इसी फोन की घंटी बजेगी।”

तभी फोन की घंटी बज उठी।

राजाराम ने फौरन रिसीवर उठाया।

"कौन बोलता है?" उसने कहा।

"मैं बसन्त बोल रहा हूँ।"

"कहां से?"

"सुल्तानपुर से।"

"क्या बात है?"

“भारी गड़बड़ हो गई। हम चालीस लाख की स्मैक लेकर निकले ही थे कि हमारे पीछे पुलिस पड़ गई। थोड़ी बहुत गोलाबारी भी हुई। परन्तु पुलिस ने पीछा नहीं छोड़ा। लगता है किसी ने मुखबिरी की है।"

“आगे भी फूट!" राजाराम झल्लाया।

"जब पुलिस से पीछा नहीं छूटा तो टोनी ने मुझे कार से उतारकर कहा कि वह कुछ ही देर में इसी जगह पर आता है। मैं वहीं खड़ा रहा। आधे घण्टे बाद जब वह वापस आया तो वह घायल था। पुलिस की दो गोली उसे लगी हैं।"

"तो मर गया वह?"

“नहीं, जिन्दा है....और आखिरी सांसें ले रहा है। मैं किसी तरह उसे बचाकर सुल्तानपुर की पहाड़ी पर वीरान पड़े शंकर मन्दिर में ले आया हूं। अब हाईवे पर बने पैट्रोल पम्प पर से आपको फोन कर रहा हूं।”

“माल सलामत है न?”

“माल का ही तो रगड़ा है। जब टोनी आधे घण्टे के लिए मुझसे अलग हुआ था तो माल कहीं पर छिपा आया था।"

“कहां कू छिपाया है?"

“मुझे नहीं मालूम।"

"नहीं मालूम तो मालूम कर!" राजाराम दहाड़ा--- "हरामी, अगर वह मर गया तो क्या उसकी लाश से पूछेगा कि माल कहां है?"

"मैंने पूछा लेकिन वह बताता ही नहीं-- कहता है कि आपको ही बताएगा।"

"मुझे बताएगा ?”

"हां।"

“मेरे कू कैसे बताएगा? मीलों दूर है.... फोन पर वह बात कर नहीं सकता।"

"मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की....लेकिन वह एक ही बात कहता है कि माल के बारे में आपको ही बताएगा ।"

"गधा। उल्लू का पट्ठा!"

"इसमें मेरी क्या गलती है?"

"मैं तेरे को नहीं... टोनी को कह रहा हूं।" राजाराम गुर्राया--- "ठीक है, मैं आता हूं।"

"आप आ रहे हैं -- ।"

"हां.... अभी आ रहा हूं। अगर वह मर गया तो मेरा चालीस लाख का नुकसान होगा।" राजाराम बोला--- “तू सुन।"

"क्या ?"

"मेरे आने तक वह जिन्दा रहना चाहिए।"

"यह मेरे बस में तो नहीं है.... वैसे कोशिश करूंगा मैं कि... ।"

"अगर वह मरा मिला तो तेरे कू भी खत्म कर दूंगा, समझा।"

राजाराम ने रिसीवर रखा और सिगरेट सुलगा ली।

"क्या हुआ?" भीमराव ने पूछा।

राजाराम ने उसे सारी बात बता दी।

"यह तो बहुत बुरा हुआ, टोनी बहुत काम का आदमी था।" भीमराव बोला।

"मेरे कू इस बात से कब मना है।" राजाराम हाथ हिलाकर बोला--- “यहां होता तो इलाज करा लेते उसका-- लेकिन वहां पर क्या किया जा सकता है। हमारे पहुंचने तक जिन्दा मिल जाये तो समझो बहुत बड़ी बात है। अब चलने की तैयारी करो!"

"कोई फायदा नहीं राजाराम साहब।"

“काये कू?" राजाराम के माथे पर बल पड़ गए।

"सुल्तानपुर पहुंचने के लिए हमें कम से कम ढाई घंटे चाहिए। और मैं नहीं समझता कि टोनी ढाई घण्टे और जीवित रहेगा।"

“जो भी हो, जाना तो है ही। चांस नहीं छोड़ना मांगता है। क्या मालूम वह जिन्दा ही मिले। बसन्त उसे मरने नहीं देगा।"

"ठीक है..... मैं चलने की तैयारी करता हूं।" भीमराव ने कहा।

भीमराव जाने लगा तो राजाराम बोला---

"भीमराव, उस छोकरे को भी साथ ले लेते हैं।"

“कौन?”

"वही अपना भला सा नाम है उसका-- जो कार बहुत तेज चलाता है।"

"डालचन्द।"

"हां.... डालचन्द ! उस साथ ले लेते हैं। ढाई घण्टे का सफर वह डेढ़ घण्टे में पूरा कर लेगा। एक घण्टा पहले हम वहां पहुंच जाएंगे। बहुत काम का छोकरा है। सोच रहा हूं कि उसे भी अपने गैंग में शामिल कर लूं। काम आता रहेगा।"

“ख्याल बुरा नहीं है।"

"ठीक है.....रास्ते में डालचन्द को उसके घर से ले लेंगे।" राजाराम ने सहमतिपूर्ण मुद्रा में सिर हिलाकर कहा--- “तू कार वगैरह तैयार कर। मैं आधे घण्टे में बाहर आता हूं, बल्कि बीस मिनट में ही आ रहा हूं।"

भीमराव पलटा और फुर्ती के साथ बाहर निकल गया।

■■■

खूबचन्द सुबह साढ़े छः बजे ही डालचन्द के घर के सामने,, सड़क पार बनी चाय की दुकान पर जाकर जम गया था।

उसकी निगाहें डालचन्द के घर के दरवाजे पर जमी थीं। इसके साथ ही उसका दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था।

जाने क्यों उसका मन कह रहा था कि कल की तरह आज भी कुछ होने वाला है। देवराज चौहान, जगमोहन, मंगल पांडे, डालचन्द, नीना पाटेकर और उस्मान अली आज भी कुछ करके रहेंगे।

रात को बैंक वैन के पास नटियाल का होना यही साबित करता था।

परन्तु वह खुद इस मामले में क्या कर पायेगा? साढ़े पांच करोड़ रुपये से भरी वैन का उसे पता था, परन्तु वह उसमें से साढ़े पांच रुपये भी नहीं हासिल कर सकता था.... अगर आज भी यह लोग कुछ करते हैं तो, उसे क्या फायदा? कुछ वसूल तो कर नहीं पायेगा।

उसका कोई ऐसा साथी भी नहीं जो इन लोगों से माल छीन लेने की हिम्मत रखता हो। लेकिन कुछ न कुछ तो इन्तजाम करना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी दौलत को देखकर आंखें सेककर तो यह काम चलाने से रहा। किसी खलीफा को अपने साथ मिलाना होगा, जो इस मामले में कुछ कर सके, नोटों को हथिया सके।

इस मामले में उसने कितनी मेहनत की है। जान भी जोखिम में डाली। अगर कल रात नटियाल उसे मार ही डालता तो? इस पर भी कुछ हाथ न लगे तो उसके लिए बेहद शर्म की बात है। वह सोचने लगा कि किसे अपने साथ मिलाये, कौन विश्वास के काबिल हो सकता है जो बाद में शराफत से उसका हिस्सा उसके हवाले कर दे?

इन्हीं सोचों में आठ बज गये। आठ में दो-चार मिनट ही ऊपर हुए होंगे कि उसने तैयार होकर डालचन्द को घर से बाहर निकलते देखा। डालचन्द सोचों में गुम था। आज वह बैंक डकैती में हिस्सा लेने जा रहा था। खूबचन्द उसे देखे जा रहा था और जानता था कि चौराहे से डालचन्द टैक्सी लेगा। तब वह भी टैक्सी लेकर उसके पीछे लग जाएगा।

खूबचन्द के देखते ही देखते डालचन्द के करीब तेजी से एक कार आकर रुकी। कार के भीतर बैठे इंसान को देखकर डालचन्द की क्या हालत हुई, यह तो वह देख नहीं सका, क्योंकि कार में बैठे व्यक्ति को देखकर उसके जिस्म में मौत की सर्द लहर दौड़ गई थी, उसे खूबचन्द जानता था कि वह गैंगस्टर राजाराम था।

■■■

डालचन्द सुबह छः बजे उठा। आंखें मलते हुए कमला को चाय के लिए आवाज दी। कुछ ही देर में कमला चाय बना लाई। डालचन्द घूंट भरते हुए गहरी सोच में डूब गया। भीतर ही भीतर उसका दिल धड़क रहा था.....कि क्या आज की बैंक डकैती कामयाब होगी....या. कुछ गड़बड़ होकर रहेगी। उसने अपने दिल को फौरन तसल्ली दी कि उसे ऐसा-वैसा नहीं सोचना चाहिए। भगवान सब कुछ ठीक करेगा, देवराज चौहान पर उसे पूरा भरोसा था।

तभी शारदा देवी आ पहुंची।

“तू अभी तक यहीं बैठा है? उठकर तैयार हो। नहीं तो ऑफिस पहुंचने में देर हो जायेगी। आज तूने टूर पर जाना है, याद है न?"

“याद है मां, यह बात मैं कैसे भूल सकता हूं।" डालचन्द भारी मुस्कान के साथ बोला।

“नहा धो ले, आज मैंने अपने हाथों से खाना बनाया है। और हां, सफर में अपना ध्यान रखना। कहीं गाड़ी से उतरकर टहलने।मत लग जाना और गाड़ी निकल जाये ।"

डालचन्द के चेहरे पर अजीब सी मुस्कान फैलती चली गई।

"चिन्ता मत किया कर मेरी।"

"तो क्या बहुत बड़ा हो गया है तू?"

डालचन्द अब मां को क्या बताता कि वह अब इतना बड़ा हो गया है कि बैंक रॉबरी कर चुका है। आज भी बैंक में करने जा रहा है।

"क्या सोचने लगा?" उसे खामोश पाकर शारदा देवी ने पूछा।

“सोच रहा था कि मेरे पीछे तुम्हें कोई तकलीफ न हो।"

"नहीं होगी। चल उठ और तैयार हो जा।"

डालचन्द तैयार हुआ। खाना खाया। उसके बाद मां बहन से बातें करता रहा, फिर आठ बजकर दो चार मिनट पर घर से बाहर निकला। वह सोचों में गुम था। मन में आशंका थी कि डकैती सफल होगी कि असफल ?

अभी थोड़ा सा ही आगे चला होगा कि स्पीड के साथ आती कार उसके पास रुकी। हड़बड़ा कर वह दो कदम पीछे हट गया। उसके बाद डालचन्द ने कार के भीतर झांका। भीतर राजाराम पर निगाह पड़ते ही उसका दिल उछलकर गले में आ फंसा। आंखें स्थिर सी रह गयीं। दिमाग में घन्टी-सी बज उठी कि अब कुछ होने वाला है। राजाराम का उसके पास आना यूं ही नहीं होगा। यकीनन बेहद खास मामला होगा। उसने कलाई पर बंधी घड़ी में समय देखा, सवा आठ बजने को जा रहे थे।

राजाराम उसे देखकर मुस्कुराया ।

“तू तो बाहर कू ही मिल गया। कैसा है?"

जवाब में डालचन्द सिर हिलाकर रह गया।

"आ बैठ।" राजाराम ने कार का दरवाजा खोला।

डालचन्द ने कार के भीतर निगाह मारी, पिछली सीट पर राजाराम खुद बैठा था। भीमराव कार ड्राईव कर रहा था, परन्तु अब स्टेयरिंग सीट पर से खिसककर बाजू को सरक गया था।

“बैठ....सोचता क्या है, रोकड़ा मिलेगा!"

"क्या मतलब?" डालचन्द ने चौंककर राजाराम को देखा।

“मतलब?" राजाराम की आंखें सिकुड़ गयीं--- "कितनी बार तूने हमारे साथ गू खाया और आज गू खाने का मतलब पूछ रहा है? कार चला। अपने को जल्दी से जल्दी सुल्तानपुर पहुंचना है। फौरन ।"

डालचन्द हक्का-बक्का रह गया।

"आंखें फाड़-फाड़कर काये कू देखता है, तेरे कू सुना नहीं मैंने क्या कहा?"

"मैं.... मैं आज नहीं जा पाऊंगा।" डालचन्द एकाएक आतंक में घिर कह उठा ।

“क्यों-- आज तेरी शादी है क्या?" राजाराम गुर्राया ।

डालचन्द सूखे होठों पर जीभ फेरकर रह गया।

"कार में आ जा कार में।"

"नहीं राजाराम ।" डालचन्द ने पुनः सूखे होठों पर जीभ फेरी--- “आज नहीं, आज मुझे जाने दे। कल तू जो कहेगा मैं करूंगा। पांव भी धोकर पीने को कहेगा....तो पिऊंगा, पर आज जाने दे। आज मैं तेरे काम नहीं आ सकूंगा।"

“क्या बोला तू?" राजाराम ने पलक झपकते ही रिवाल्वर निकाल ली--- "मेरे कू न बोला तू? राजाराम को मना किया तूने? तेरे को मालूम नहीं, राजाराम कू मना सुनना पसन्द नहीं। आखिरी बार तेरे कू बोलता है। गाड़ी में बैठ और गाड़ी को सुल्तानपुर भगा ले, नहीं तो गोली तेरे भेजे में डाल दूंगा।"

डालचन्द को ऐसा लगा, जैसे उसके पांवों के नीचे की जमीन सरक गई हो। क्योंकि अगर वह वक्त पर नहीं पहुंचा तो बैंक डकैती का क्या होगा? फटी-फटी आंखों से वह अपनी ओर तनी रिवाल्वर को देखे जा रहा था।

“अब तू मरने की तैयारी में है हरामी।" राजाराम ने खतरनाक लहजे में कहा और अंगूठे से रिवाल्वर का सेफ्टी वाल्व हटा दिया।

डालचन्द बुत बना उसके रिवाल्वर को देखता रहा।

तभी दांत किटकिटा कर भीमराव कार से बाहर निकला और डालचन्द के पास पहुंचकर झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर दे मारा ।

चांटा पड़ते ही डालचन्द के शरीर को झटका लगा। वह सकते की सी हालत से बाहर आया। वक्त की नाजुकता को तो वह समझ ही चुका था। राजाराम के बारे में यह बात वो भली-भांति जानता था कि, किसी को गोली से उड़ा देना उसके लिए मामूली बात है। बहरहाल उसने मन ही मन फैसला कर लिया कि राजाराम के साथ नहीं जायेगा। राजाराम के साथ जा नहीं सकता। बैंक डकैती पहले से ही तय थी। उसे हर हाल में डकैती पर पहुंचना था। वरना उसके न होने से डकैती के बाद माल लेकर भागने में गड़बड़ हो सकती है। पुलिस उन लोगों को घेर सकती है।

"हट भीमराव" राजाराम का पारा सातवें आसमान को छूने लगा--- "कुत्ते के नसीब में मौत ही लिखी है। देख, साले का भेजा कैसे खील-खील होता है अब!"

"मुझे मार देने से तुम सुल्तानपुर पहुंच जाओगे?" डालचन्द जल्दी से बोला ।

"तेरे खड़े रहने से भी हम सुल्तानपुर नहीं पहुंचने वाले।" राजाराम दांत किटकिटा कर कह उठा--- "कसम से अगर मुझे सुल्तानपुर पहुंचने की जल्दी न होती तो कब का तुझे गोली से उड़ा चुका होता। बोल, चल रहा है न?"

"हां।" डालचन्द ने सिर हिलाया।

"आ बैठ। लेकिन कान खोलकर सुन ले। इस बार तुझे काम का मेहनताना नहीं मिलेगा। तूने चलने में आनाकानी की इसलिए।"

"मैं अभी आया।"

“कहां जा रहा है अब....?" राजाराम ने दांत किटकिटाये।

“घर। सू-सू करने। एक मिनट में आया।"

“रास्ते में कर लियो....मैं.... ।”

"बहुत तेज आ रहा है।"

"जा मर। जल्दी आईयो ।”

"बस गया और आया।" डालचन्द जल्दी से पलटा ।

"सुन---।"

डालचन्द ठिठका और पलटकर कार में बैठे राजाराम को देखने लगा।

“धागा बांधकर आईयो।"

"क्या?"

"मैंने कहा है धागा बांधकर आईयो। रास्ते में सू-सू नहीं आना चाहिए।"

डालचन्द सिर हिलाकर अपने घर की तरफ बढ़ गया।

भीमराव सख्त चेहरा लिए वापस कार में आ बैठा।

"हरामजादा सुबह-सुबह किसी खास काम से जा रहा होगा।" राजाराम ने दांत भींचकर कहा--- "तभी हमारे साथ चलने को इंकार कर रहा था।"

"मेरा भी यही ख्याल है।"

दोनों की निगाहें डालचंद पर थीं जो कुछ दूरी पर नजर आ रहे अपने घर का दरवाजा थपथपा रहा था।

"उल्लू के पट्ठे को सू-सू भी अभी आना था।" राजाराम झुंझलाकर कह उठा।

■■■

शारदा देवी ने दरवाजा खोला तो डालचन्द को सामने पाकर हैरान हो उठी।

"तू गया नहीं अभी तक?"

“जा रहा हूं मां। पर्स भूल गया था!" डालचन्द ने मां की बगल से भीतर प्रवेश करते हुए कहा--- "दरवाजा बन्द कर दे।"

शारदा देवी ने असमंजसता में फंसे दरवाजा बन्द किया। डालचन्द दिखावे के तौर पर अपने कमरे में घुसा, फिर बाहर आया।

“पर्स ले लिया?” शारदा देवी ने पूछा।

"हां, ले लिया।"

“कुछ और तो नहीं भूल गया?"

"कुछ नहीं भूला मां। तुम पीछे का दरवाजा बन्द कर लो।"

"पीछे का?” शारदा देवी ने हैरानी से उसे देखा।

“पहले भी कई बार पीछे से गया हूं। आज तुम हैरान क्यों हो रही हो?" डालचन्द ने कहा कि तभी कमला वहां आई--- “कमला, दरवाजा बन्द कर ले।"

डालचन्द पीछे का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

कमला ने दरवाजा बंद कर लिया। शारदा देवी असमंजसता में घिरी बड़बड़ा उठी---

"न जाने इस लड़के को क्या हो गया है! दुनिया टूर पर जाती है। यह तो अनोखा ही जा रहा है--- न कपड़ा लिया न कुछ!"

■■■

डालचन्द को गये तीन मिनट हो गए तो राजाराम ने बेचैनी से पहलू बदला। निगाहें एकटक डालचन्द के मकान पर थीं।

“भीमराव!” आखिरकार राजाराम ने कहा--- "जाकर देख, आया क्यों नहीं अभी तक।"

भीमराव कार से उतरा और डालचन्द के घर की तरफ बढ़ गया। चन्द ही पलों पश्चात वह डालचन्द के घर का दरवाजा खटखटा रहा था। शारदा देवी ने यह सोचकर दरवाजा खोला कि डालचन्द फिर आया होगा, परन्तु सामने किसी अजनबी को पाकर संभल गई और प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा।

"डालचन्द को बुलाओ।" भीमराव सामान्य स्वर में बोला।

"डालचन्द, वह तो घर पर नहीं है।" शारदा देवी ने सिर हिलाकर कहा।

"नहीं है? यह कैसे हो सकता है--- अभी तो मेरे सामने वह घर में गया है।" भीमराव ने अपनी आवाज में सख्ती न आने का प्रयत्न करते हुए कहा।

“हां-हां, अभी आया था, परन्तु पिछले दरवाजे से निकल गया।"

भीमराव चौंका। शक की कोई गुंजाइश नहीं थी, बुढ़िया सही कह रही थी। हरामजादे डालचन्द ने अवश्य ऐसा ही किया होगा। वह क्रोध भरी मुद्रा में वापस पलटने लगा कि शारदा देवी की आवाज सुनकर ठिठका--- “तुम कौन हो बेटे ?”

"मैं!" भीमराव ने शारदा देवी के चेहरे पर निगाह मारी--- "मैं डालचन्द की पहचान वाला हूं....कुछ काम था उससे।" कहकर भीमराव पलटा और कार में बैठे राजाराम के पास पहुंचकर सही बात उसे बताई।

सुनकर राजाराम के होंठ सिकुड़ गये। माथे पर बल पड़ गये, फिर वह हंसा।

"डालचन्द भाग गया।"

"हां!” भीमराव ने गम्भीरता से सिर हिलाया।

“कमाल है। वह कल का छोकरा, राजाराम को जुल दे गया! इतनी हिम्मत आ गई उसमें कि मुझे गधा बना दे!" राजाराम हंस रहा था--- "कार में बैठ भीमराव।"

भीमराव कार में बैठते हुए बोला---

“सुल्तानपुर चलूं।"

“नहीं, रहने दे। सुल्तानपुर का अब मन नहीं है। मुझे उस छोकरे डालचन्द के बारे में सोचना है।" राजाराम के चेहरे पर कठोर भाव छाने लगे।

"लेकिन, अगर टोनी मर गया तो चालीस लाख का माल---।"

"तेरे कू बोला न--- अड्डे पर चल। मुझे उस छोकरे के बारे में सोचना है।"

भीमराव ने कार आगे बढ़ा दी।

कार में लम्बी खामोशी छायी रही।

"भीमराव!" आखिरकार राजाराम बोला--- "उस कार दौड़ाने वाले में इतना दम नहीं कि मुझे धोखा देकर पतली गली से खम्भे की ओट से निकल आये।"

भीमराव कुछ न बोला।

"यकीनन कोई खास बात है।" राजाराम खिड़की से बाहर सड़क पर आते-जाते वाहनों को देखता हुआ बोला--- "बहुत ही खास बात है। नहीं तो वह इस तरह मेरे कू कार में बैठा छोड़कर भागता नहीं। नहीं तो वह यह न कहता कि आज का दिन छोड़ दो, कल मैं तुम्हारे पांव धोकर भी पीऊंगा।"

भीमराव खामोश रहा।

"आज उसे इतना जरूरी क्या काम है कि उसने मेरे से भी दुश्मनी ले ली? तुम ही बोलो भीमराव, वह खास जरूरी काम क्या हो सकता है?"

"कह नहीं सकता।" भीमराव ने कार ड्राईव करते हुए सिर हिलाया।

"नौकरी वह नहीं करता। बिजनेस वह नहीं करता। कोई काम धन्धा नहीं करता। नोटों से खाली है। आशिकी भी नहीं कर सकता।" राजाराम एक-एक शब्द चबाकर कहे जा रहा था--- "यानी कि वह कुछ भी नहीं करता फिर भी उसे ऐसा क्या जरूरी काम पड़ गया...कि उसने राजाराम को अपना दुश्मन बना लिया? जबकि कोई बहुत ही खास बात है, जो वह मुझे नहीं बताना चाहता था और चुपचाप भाग लिया। अब बची एक ही बात। वह यह कि डालचन्द यकीनन किसी लफड़े में फंसा हुआ है। वह कोई भारी-भरकम गलत काम कर रहा है। ऐसा लफड़े वाला काम कि उसने मुझसे दुश्मनी लेनी भी गंवारा कर ली है भीमराव ।"

"जी।"

“अब डालचन्द कहां मिलेगा?"

"कह नहीं सकता।" भीमराव ने पुनः वही शब्द कहे।

"हूं।" राजाराम ने अपने सख्त हो रहे चेहरे पर हाथ फेरा--- "उसके घर में कौन-कौन है?"

"मां और जवान बहन।"

"दोनों को ले आ। उठा ला दोनों को--- और ठिकाने पर बन्द कर दे। डालचन्द भागकर कहां जायेगा। जहां भी होगा, मेरे पास कू ही आयेगा। मेरे कू हर हालत में यह मालूम करने कू है कि यह साला कार रेसर किस लफड़े में फंसा है।"

"जी।" भीमराव सिर हिलाकर रह गया।

दोनों के बीच कई पलों के लिए खामोशी छाई रही, जिसे राजाराम ने ही तोड़ा।

"कमाल हो गया भीमराव!" राजाराम खुलकर हंसा, आंखों में आग जल रही थी--- "वह कल का छोकरा राजाराम को हैंगर पर लटका गया। कितना बड़ा मजाक है यह!"

थोड़ी देर बाद भीमराव ने कार को ठिकाने पर ले जा रोका।

“तू यहीं बैठ। कार से बाहर निकलने का नहीं, समझा। मैं अन्दर से पांच-चार आदमी भेजता हूं--- जाकर उसकी मां-बहन को ले आना, समझा।"

"समझ गया।" भीमराव ने सिर हिलाया।

राजाराम कार से उतरा और ठिकाने के भीतर प्रवेश कर गया।

■■■

खूबचन्द ने सब कुछ देखा और समझ गया कि डालचन्द राजाराम को किस प्रकार धोखा देखकर भाग निकला है। डालचन्द की इस हरकत से उसे यकीन हो गया कि देवराज चौहान एण्ड पार्टी आज फिर कुछ करने जा रही है। डालचन्द भागकर वहीं पहुंचेगा, जहां उनका पहुंचना तय था। मन ही मन खूबचन्द अपने पर ही खीझ उठा कि डालचन्द उसकी निगाहों से ओझल हो गया। अब कैसे वह जानेगा कि वह लोग क्या करने जा रहे हैं?

यहां पर रहना तो बेवकूफी थी। खूबचन्द ने टैक्सी पकड़ी और सीधा देवराज चौहान के ठिकाने पर जा पहुंचा कि शायद कोई यहां मिल जाये। परन्तु मकान पर ताला लटका देखकर वह दांत किटकिटा कर रह गया।

फिर खूबचन्द टैक्सी पर सवार होकर मोटे नटियाल के बार में जा पहुंचा। वहां पर उसने यह देखकर राहत की सांस ली कि मंगल पांडे वहीं था और जाने की तैयारी कर रहा था। सुबह का समय था, बार खाली था। कहीं मंगल पांडे उसे न देख ले, इसलिए बार के बाहर कुछ हटकर टैक्सी के भीतर जमकर बैठ गया। निगाहें बार के द्वार पर थी कि कब मंगल बाहर निकले और उसका पीछा करे। खूबचन्द को तसल्ली थी कोई तो नजर आया।

■■■

मोटे नटियाल ने रात भर मुस्तैदी से पहरा दिया। जरा भी लापरवाही नहीं बरती अपने काम में। वह जानता था लापरवाही का मतलब था खुद उसकी अपनी मौत। वैन का पिछला दरवाजा खुलते ही, भीतर बैठे गार्डों ने ढेरों गोलियां उसके शरीर में उतार देनी थीं, और नटियाल लापरवाही भरी मौत नहीं मरना चाहता था।

भोर के उजाले के साथ ही उसकी आंखों में नींद हावी हो गई थी, तब वह एक घन्टा नींद को लेकर परेशान रहा, फिर बाद में ठीक हो गया था।

साढ़े छः बजे जगमोहन उठा। हाथ-मुंह धोकर, वह कॉटेज के पिछले द्वार पर पहुंचा, वहीं से उसने आवाज लगाई---

"नटियाल---।"

नटियाल ने सिर घुमाकर उसे देखा।

"चाय पी ली या बनाऊं?"

"बना लो। मैं तो यहां से हिला भी नहीं।" नटियाल ने उखड़े स्वर में कहा। रात भर का जगा होने के कारण नींद तंग कर रही थी।

जगमोहन कॉटेज में उल्टा पलट गया।

जगमोहन से बहुत बड़ी गलती हो गई थी--- यह गलती कि नटियाल का नाम लेकर ऊंची आवाज में उसे पुकारने से भीतर बैठे गार्डों के कानों तक नटियाल का नाम पहुंच गया था। उन्होंने फौरन वायरलैस सेट ऑन किया और पुलिस हैडक्वार्टर के कन्ट्रोल रूम से सम्पर्क बनाकर नटियाल का नाम बता दिया।

दस मिनट में ही जगमोहन चाय के दो गिलास पकड़े वहां आ पहुंचा।

एक गिलास नटियाल ने थाम लिया।

"चाय पीकर तुम सो जाओ।" जगमोहन पास ही मौजूद खाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला--- "यहां पर अब मैं पहरा दूंगा।"

“तुम नहा-धो लो, फिर यहां बैठ जाना।" नटियाल ने चाय का घूंट भरा।

"मैं ऐसे ही ठीक हूं। तुम नींद ले लो कुछ घन्टों की। बारह बजे तक उन सब लोगों ने भी आ जाना है। नींद ले लोगे तो बेहतर होगा।"

नटियाल ने सिर हिलाया और बोला---

"बैंक डकैती में वह लोग सफल रहेंगे न?

"तुम्हें किसने बताया कि वह लोग क्या रहे हैं?" जगमोहन ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा।

“छोड़ो इस बात को किसने बताया कि---।"

“मंगल पांडे ने बताया होगा?" जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।

“मंगल पांडे बताये या कोई और, जब तुम लोगों के बीच बैठा हूं तो सब बातें मालूम होंगी ही। तुम्हें इस बारे में चिंता नहीं करनी चाहिये।” नटियाल ने लापरवाही से कहा।

नटियाल ने ठीक कहा था। जगमोहन होंठ भींचकर रह गया।

परन्तु बैंक वैन में मौजूद गार्डों ने उनकी बात सुनी थी। स्पष्ट सुनी थी। उन्होंने फौरन अपना वायरलेस सैट खोला और हैडक्वार्टर बैंक डकैती के साथ-साथ मंगल के नाम की सूचना दे दी। जगमोहन और नटियाल ने वायरलेस सैट के ऑफ होने का स्वर भी सुना, परन्तु तब भी उनके दिमाग में नहीं आया कि सैट पर, वह गार्ड उनकी बातें सुनकर आगे पहुंचा रहे थे। जो कि आने वाले समय में उनके लिए घातक सिद्ध होनी थीं।

"मैं गार्डों से बात करूं?" नटियाल ने चाय का घूंट भरकर जगमोहन को देखा।

“तुम....तुम क्या बात करोगे?"

“उन्हें समझाने की कोशिश करता हूं।"

“समझा ले।" जगमोहन व्यंग से बोला--- “तू भी अपने दिल की आग ठण्डी कर ले।"

चाय समाप्त करके नटियाल ने गिलास नीचे रखा और वैन के पास पहुंचा।

"तुम लोग मेरी  आवाज सुन रहे हो?” नटियाल वैन की बाडी ठकठकाकर बोला।

दूसरी बार पुकारने पर भीतर से आवाज आई---

“क्या है?"

"मैं तुम लोगों से यह कहना चाहता हूं-- क्यों अपनी जान के दुश्मन बने बैठे हो। देर-सवेर में तुम लोग खामखाह मारे जाओगे। अच्छा यही होगा कि हमारे सामने झुक जाओ। हम तुम लोगों को विश्वास दिलाते हैं कि तुम लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा।"

“लगता है तुम हमारे सच्चे हमदर्द हो।" भीतर से कड़े स्वर में कहा गया।

“सच बात यही है।” नटियाल ने सिर हिलाकर कहा--- “हम सबका फायदा इसी में है। किन्तु तुम लोग बाहर आकर हमसे मिल जाओ, दौलत में खेलोगे।"

“एक बात कहें!" भीतर से दूसरे गार्ड ने तीखे स्वर में कहा।

"क्या?"

"नोटों में तो हम खेल ही रहे हैं-- साढ़े पांच करोड़ की दौलत हमारे कदमों में बेकार पड़ी है।"

“यही तो मैं कहना चाहता हूं, दौलत को बेकार मत रखो, इसे इस्तेमाल करो।" नटियाल ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा--- “तुम हमारे दोस्त बन जाओ।"

“तुम लोगों की दोस्ती सिर्फ कानून के फन्दे के साथ ही हो सकती है।”

“इसका मतलब तुम लोग हमारी बात नहीं मानोगे?" नटियाल सख्त स्वर में बोला।

“जाओ, जाकर सो जाओ। रात भर के जगे हो, तुम्हें हमारी बात ठीक तरह से समझ में नहीं आ रही। नींद पूरी हो जाए तो फिर हमसे बात करने आना।"

नटियाल ने गहरी सांस लेकर जगमोहन को देखा।

“बहुत ढीठ हैं साले!" नटियाल दांत पीसकर बोला।

"ढीठ भी हैं और बेवकूफ भी!" जगमोहन तीखे स्वर में कह उठा।

■■■

रेस्टोरेन्ट के ऊपर कमरे की खिड़की के करीब खड़ी नीना पाटेकर के होंठ भिंचे हुए थे। आठ बज रहे थे। कुछ ही देर में उसे बैंक डकैती के लिये निकलना था, परन्तु पौन घन्टे से उसकी निगाहें उस आदमी पर से न हट रही थीं, जो सड़क पार खड़ा उसके घर पर निगाह रख रहा था।

चूंकि अब बरबाद करने को समय नहीं था, इसलिए निगरानी कर रहे व्यक्ति को ज्यादा देर बर्दाश्त भी नहीं किया जा सकता था। पाटेकर ने जेब में पड़ी रिवाल्वर को थपथपाया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ी। कुछ ही पलों में वह रेस्टोरेन्ट के पीछे वाले हिस्से में थी। रेस्टोरेन्ट के कर्मचारी अपना काम करने में व्यस्त थे। उन पर निगाह मारकर पाटेकर तेजी से बाहर की तरफ बढ़ी।

पाटेकर को सीधा अपने पास पहुंचते देखकर वह व्यक्ति हड़बड़ा उठा।

“चल मेरे साथ।” नीना पाटेकर ने गुर्राहट भरे स्वर में कहा।

“क.... कहां?”

"रेस्टोरेन्ट में।" पाटेकर के दांत भिंचे हुए थे।

"क...क्यों, म.... मैं क्यों जाऊं?” तनिक साहस करके, वह व्यक्ति कह उठा।

“उल्लू के पट्ठे, अपनी मां की निगरानी कर रहा था?" नीना पाटेकर मौत के स्वर में कह उठी--- "मेरी जगह के सामने खड़े होने से पहले सोच तो लेता कि क्या कर रहा है? सीधी तरह चलेगा या जेब में पड़े रिवाल्वर को निकाल कर तेरे पेट में घुसेडूं?”

उस व्यक्ति का चेहरा फक्क पड़ गया।

“चल।” पाटेकर उस व्यक्ति की कलाई पकड़े रेस्टोरेन्ट की तरफ बढ़ी। न चाहते हुए भी वह नीना पाटेकर के साथ चलता गया।

नीना पाटेकर उसे लेकर रेस्टोरेन्ट के पिछले हिस्से में पहुंची और ध्यानपूर्वक उसे देखा।

ठिकने से कद का सामान्य से कपड़े पहने हुए था, शक्लो सूरत से वह यूं ही छोटा-मोटा काम करने वाला लगता था, इस समय उसके चेहरे पर घबराहट व्याप्त थी, धीरे-धीरे नीना पाटेकर की आंखों में क्रूरता के भाव आते जा रहे थे।

“देख बे!" पाटेकर गुर्राई--- “तू तेरी निगरानी कर रहा था तो मेरे बारे में सब कुछ जानता ही होगा। इसलिए मैं अपने बारे में न बताकर, मैं तेरे बारे में पूछती हूं--- कौन है तू और मेरी निगरानी पर क्यों था?”

वह व्यक्ति भय से होंठ हिलाकर रह गया, पाटेकर ने उसकी दशा पहचानी।

“क्या नाम है तेरा?”

“कि....किशन।”

"करता क्या है तू?"

"धर्मपुरे में चाय की दुकान चलाता हूँ।" किशन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा।

"मेरी निगरानी क्यों कर रहा था?"

किशन फिर खामोश । रेस्टोरेन्ट के कर्मचारी सब देख सुन रहे थे।

"चुप रहने से काम न चलेगा।" पाटेकर ने सख्त स्वर में कहा--- “अभी तक मैं तेरे साथ नरमी का व्यवहार कर रही हूं.... परन्तु तू खामोश रहकर मुझे सख्ती के लिए मजबूर कर रहा है।"

किशन का चेहरा फक्क था।

"बचना चाहता है तो अब मुंह फाड़ दियो।" नीना पाटेकर ने कहते हुए उसके सिर के बाल मुट्ठी में लेकर जोर से हिलाये--- "मेरे पर नजर क्यों रख रहा था?"

"मेरे को मालूम करने को कहा था तुम्हारे बारे में....।"

"क्या मालूम करने को कहा था?"

“यही कि तुम कहां छिपी हो?" किशन जल्दी से बोला--- "मेरे को मालूम था तुमने कभी रेस्टोरेन्ट खरीदा था लेकिन यह नहीं मालूम था कि तुम यहीं पर रहती हो। बाहर खड़ा होकर तुम्हारे बारे में जानने की कोशिश कर रहा था कि तुम यहीं रहती हो।"

“मुखबिर हो ?”

किशन ने सहमति से सिर हिलाया।

“पुलिस के?"

"हां।"

"मेरे बारे में मालूम करने को किसने कहा था?” नीना पाटेकर विचारपूर्ण ढंग से बोली।

“सब-इंस्पेक्टर सुधीर चावला ने।"

“सुधीर चावला--- क्यों?"

"मालूम नहीं, लेकिन सुधीर चावला, इंस्पेक्टर वानखेड़े का असिस्टेन्ट है। इससे जाहिर है कि इंस्पेक्टर वानखेड़े आजकल जिस केस पर काम कर रहा है उसमें उसे तुम्हारी जरूरत होगी।"

नीना पाटेकर की आंखें सिकुड़ती चली गई, कल शाम ही डालचन्द ने बताया था कि वानखेड़े....फार्म वाली जगह पर घूमता हुआ, बैंक वैन को तलाश कर रहा था। इसका मतलब वानखेड़ को किसी तरह मालूम हो गया है कि साढ़े पांच करोड़ से भरी बैंक वैन उड़ाने में उसका भी हाथ है--- तभी तो उसकी तलाश में मुखबिर छोड़ दिया।

नीना पाटेकर ने रेस्टोरेन्ट के कर्मचारियों को देखा।

"मैं बाहर जा रही हूं। इसे---।" पाटेकर ने किशन की तरफ इशारा किया---  "यहीं कहीं बन्द कर दो। भाग न सके। मलिक आये, तो इसे उसके हवाले कर देना, कहना पांच-सात दिन इसे कहीं दबाकर रखे उसके बाद छोड़ दे।"

किशन ने कुछ कहना चाहा परन्तु पाटेकर का क्रोधित चेहरा देखकर खामोश रह गया। उसे रेस्टोरेन्ट के दो हट्टे-कट्टे कर्मचारियों ने घेर लिया। नीना पाटेकर तेजी से बाहर निकलती चली गई।

■■■

मंगल पांडे बेचैनी से नटियाल के बार में टहल रहा था। रह रहकर वह कलाई में बंधी घड़ी पर निगाह मार लेता था। ठीक आठ बजे थे और नटियाल ने कहा था कि आठ बजे टैक्सी पहुंच जायेगी। परन्तु टैक्सी अभी तक नहीं पहुंची थी। उसके बैंक डकैती पर न पहुंच पाने का सारा इंतजाम नटियाल ने किया था कि कहां पर, क्या-क्या होना है, उसे कुछ नहीं मालूम था। नटियाल का टैक्सी लेकर आने वाला आदमी ही जानता था।

राजू इस बीच उसके पास तीन चक्कर लगा गया था व्हिस्की भेजूं, परन्तु पांडे ने हर बार उसे मना ही किया। राजू हैरान था कि आज पांडे व्हिस्की को मना कर रहा है। उसकी व्याकुलता भी राजू की समझ में न आ रही थी। जब सवा आठ बज गये। तो मंगल के होठों से गहरी सांस निकल गई। अब इतना वक्त नहीं था कि और इंतजार किया जाता। नटियाल के आदमी का इंतजार करता रहे और वक्त बीत जाये। उधर देवराज चौहान बैंक डकैती निपटा ले तो, पूछने पर बाद में क्या जवाब देगा कि वह वक्त पर डकैती के लिए क्यों नहीं पहुंचा। हो सकता है क्रोध में पड़े साढ़े पांच करोड़ में ऐसी तैसी न कर दे, या बैंक वैन में पड़े साढ़े पांच करोड़ में हिस्सा न दे। अगर उसने ऐसा किया तो, वह देवराज चौहान के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकेगा, क्योंकि तब सब उसके खिलाफ ही होंगे। सब उसे धोखेबाज ही समझेंगे।

“तुम कुछ परेशान लग रहे हो?” राजू ने करीब आकर पांडे से पूछ ही लिया।

"नहीं, मैं ठीक हूं।" पांडे ने राजू पर निगाह मारकर कहा--- "मैं बाहर जा रहा हूं। अगर नटियाल का कोई आदमी यहां आकर मेरे बारे में पूछे तो उस हरामजादे के हाथ-पांव तोड़ देना। वापसी पर वह टूटे हाथ-पांव से मुझे इसी बार के कोने में पड़ा मिलना चाहिए।"

“बात क्या है?"

“बहुत जरूरी काम पर जाना था। नटियाल ने अपने किसी आदमी को यहां आने को फिक्स किया था। छोड़ना मत कुत्ते को समझा!" पांडे गुर्राया।

राजू सिर हिलाकर रह गया।

पांडे क्रोध भरे कदम उठाता हुआ बार से निकला और पैदल ही आगे बढ़ गया।

कुछ दूर चलने के बाद उसने एक टैक्सी रुकवाई और ड्राईवर को बता दिया कि कहां जाना है। फिर सिगरेट सुलगाकर कश लेने लगा। मन ही मन नटियाल के प्रति गुस्सा भी उबल रहा था। वह बैंक डकैती में हिस्सा नहीं लेना चाह रहा था--- परन्तु नटियाल के कमजोर इंतजाम के कारण मजबूरन उसे बैंक डकैती में शरीक होना पड़ रहा था।

एकाएक पांडे ने ड्राईवर से कहा---

“मेरी एक बात मानोगे?"

"क्या साहब?” ड्राईवर ने टैक्सी चलाते हुए कहा ।

“तुम अपनी टैक्सी का कहीं एक्सीडेंट कर दो। टैक्सी का जितना नुकसान होगा, उससे तीन हजार ऊपर तुम्हें मैं दूंगा।” पांडे ने जल्दी से कहा। उसने सोचा अगर यह एक्सीडेंट के लिए तैयार हो जाता है तो तब मौके पर आने वाली पुलिस से बहाना बनाकर झगड़ा कर सकता है। ऐसा झगड़ा कि वह लोग उसे पकड़ कर थाने ले जाएं, ताकि बाद में वह देवराज चौहान के सामने सफाई पेश कर सके कि डकैती के समय वह पुलिस स्टेशन में था।

“साहब, आपका दिमाग तो ठीक है?" ड्राईवर ने तीखे स्वर में कहा।

“क्यों?”

“अच्छी भली चलती टैक्सी को आप कह रहे हैं कि मैं कहीं मार दूं। नहीं साहब, अभी मेरा दिमाग खराब नहीं हुआ।"

पीछे खूबचन्द टैक्सी में खूबी के साथ पांडे का पीछा कर रहा था।

"तुम मेरी बात समझने की कोशिश नहीं कर रहे हो। जहां मैं जा रहा हूं, वहां मैं जाना नहीं चाहता। गया तो मुसीबत में फंस जाऊंगा। तुम फिक्र मत करो, टैक्सी को जितनी खराबी पहुंचेगी, मैं तुम्हें उससे फालतू पैसा ही दूंगा।"

टैक्सी ड्राईवर कुछ न बोला।

"तुमने सुना न, मैंने क्या कहा?"

“हां सुना।” ड्राईवर उखड़े स्वर में बोला--- “अब आप मुझे ये बताइए कि आपने जिस जगह पर जाने के लिए कहा है, वहाँ चलना है कि नहीं?"

"क्या मतलब?”

"टैक्सी रोककर आपको यहीं पर उतार दूं या वहां पर उतारूं, जिस जगह पहुंचने का पता आपने बताया था?"

ड्राईवर के स्वर में क्रोध का पुट था।

कोई और वक्त होता तो पांडे ड्राईवर की अक्ल को ठिकाने लगा देता, परन्तु इस वक्त उसके पास झगड़े-फसाद के लिए समय नहीं था।

पांडे ने गहरी सांस ली और पुश्त से सिर टिकाकर आंखें बंद कर लीं।

■■■

वानखेड़े रात को अपने ऑफिस के रेस्टरूम में ही सोया। उसने सुधीर को भी घर नहीं जाने दिया। दोनों देर रात तक बैंक वैन और देवराज चौहान के सम्बन्ध में ही बातें करते रहे थे।

सुबह वानखेड़े की आंख खुली तो छः बज रहे थे। उसने पास में पड़े सुधीर को हिलाया ।

नींद में सुधीर ने जोर से बाजू हिलाई---

"सोने दे यार--- !"

“यार!” वानखेड़े ने सख्त निगाहों से उसे देखा और फिर कमीज का कालर पकड़कर खड़ा कर दिया--- "तुम अपने ऑफिसर को यार कहते हो?"

सुधीर की नींद टूटी और हड़बड़ाकर बोला---

“स.... सारी सर...। मैं नींद में था। सोचा घर में सोया पड़ा हूं।"

“तो तुम अपनी बीवी को यार कहते हो?"

"सिर्फ तब सर, जब वह मुझे नींद से उठाती है।"

"फालतू बात छोड़ो और उठकर तैयार हो जाओ। हमें एक घन्टे के अन्दर यहां से रवाना हो जाना है।" वानखेड़े बोला।

"आज उस फार्म को चैक करना है क्या?" सुधीर आंखें मलता हुआ बोला।

“हां। हमें तब तक वहां नजर रखनी है जब तक देवराज चौहान नजर नहीं आ जाता। देवराज चौहान पर काबू पाने के बाद ही अन्यों की घेराबन्दी करेंगे।"

सुधीर ने सोच भरी मुद्रा में सिर हिलाया ।

"हमें उन गार्डो का भी ध्यान रखना है जो वैन में बन्द हैं। वह ज्यादा देर तक बन्द नहीं रह सकते। इससे पहले कि वैन में मौजूद गार्ड कमजोर पड़ें, हमें एक्शन में आ जाना है।"

“गार्डो का मुझे ध्यान है।" वानखेड़े ने सिर हिला कर कहा ।

"आज सुबह की चाय तो नहीं मिलेगी?" सुधीर एकाएक बोला।

"अवश्य मिलेगी-- लेकिन तैयार होने के बाद। बाहर से पिएंगे।"

उसके बाद दोनों ऑफिस के बाथरूम में नहा-धोकर तैयार हुए और बाहर निकलकर पार्किंग में खड़ी कार में जा बैठे।

"पहले पुलिस हैडक्वार्टर चलते हैं। हो सकता है कि गार्डों का कोई मैसेज आया हो।"

“पहले चाय।"

"चाय वहीं पी लेंगे।" कहते हुए वानखेड़े ने कार आगे बढ़ा दी।

आधे घन्टे बाद वह दोनों हैडक्वार्टर में थे।

कन्ट्रोल रूम के इंचार्ज ने बताया कि आधा घण्टे पहले ही गार्डों का मैसेज आया था। उन्होंने दो नाम और बताए है, मंगल पांडे और नटियाल साथ ही यह भी बताया कि देवराज चौहान और उसके आदमी आज कहीं बैंक डकैती डाल रहे हैं।

सुनकर वानखेड़े और सुधीर चौंके।

चन्द और बातें करने के पश्चात् वह दोनों हैडक्वार्टर से बाहर आ गये।

■■■

“यह क्या कर रहे हो? भगवान के लिए हमें छोड़ दो।" शारदा देवी कह रही थी और वो दादे से लगने वाले ने शारदा देवी और कमला को एक कमरे में धकेल दिया।

तभी दरवाजे पर भीमराव नजर आया।

"तुम!" शारदा देवी फट पड़ी--- "तुम तो कहते थे तुम मेरे बेटे के पहचान वाले हो-- फिर हमें यहां क्यों उठा लाए?"

"तुम्हारे बेटे डालचन्द की पहचान वाला हूं-- तभी तो तुम दोनों को यहां लाया हूं।" भीमराव ने सख्त स्वर में कहा।

"क्या चाहते हो तुम लोग हमसे?" शारदा देवी फिर चीख उठी।

"तुम्हारे बेटे ने हमें धोखा दिया है। इसलिए जब तक डालचन्द नहीं आ जाता--  तुम दोनों को हमारे पास रहना होगा।"

"क्या धोखा दिया है उसने?"

“यह बात तुम्हारे जानने की नहीं है।"

"झूठ बोलते हो तुम। मेरे भोले-भाले बेटे का तुम जैसे बादमाशों से क्या सम्बन्ध ?"

“भोला भाला नहीं.... दूध पीता कहो। दो बार वह हमारे लिए काम कर चुका है।"

“तुम मेरे बेटे की शराफत की तरफ उंगली उठा रहे हो।"

“तुम्हारे बेटे की शराफत के कारण ही तुम दोनों को उठाकर यहां लाना पड़ा। अब चुपचाप यहां पड़ी रहो....समझीं।"

कमला सहमी सी भीमराव को देखे जा रही थी।

“कब तक तुम लोग रखोगे हमें यहां?” शारदा देवी रो पड़ी।

“जब तक डालचन्द हमारे हाथ नहीं लगता।" भीमराव बोला।

“मेरे बेटे ने तुम्हें क्या धोखा दिया है?" शारदा देवी ने पूछा।

“मैंने तुम्हें सारी स्थिति समझा दी है। अब चुपचाप मां-बेटी यहीं पड़ी रही।" कहने के साथ ही भीमराव पलटा और बाहर की ओर बढ़ गया।

वहां से भीमराव, राजाराम के पास पहुंचा।

“क्या हुआ--- ले आया उसकी मां-बहन को?” राजाराम ने उसे देखते ही पूछा ।

“हां। वह दोनों अड्डे के भीतरी कमरे में बन्द हैं।"

“ठीक है। अच्छा काम किया तूने । डालचन्द को सबक मिलना ही चाहिए कि राजाराम को धोखा देना कितना महंगा पड़ता है!"

भीमराव खामोश रहा।

“साला, कल का छोकरा राजाराम को बेवकूफ समझता है। अब तू जा।" राजाराम ने हाथ हिलाकर भीमराव को जाने का इशारा किया।

भीमराव बाहर निकल गया।

■■■

देवराज चौहान ने वजीर चन्द प्लेस से कुछ पहले ही कार रोकी और कार में ही बैठा रहा। यहीं पर ही सबने इकट्ठा होना था।

सबसे पहले उस्मान अली पहुंचा।

"देख लो।" वह कार में बैठता हुआ बोला--- "सबसे पहले मैं आया हूं।"

“दिमागी तौर पर काम करने के लिए तैयार हो न तुम?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां....हां क्यों नहीं। आज का ही तो दिन है। इसके बाद सारी उम्र नोट ही नोट हैं।" कहकर उस्मान अली हंसा--- “तंगी का दौर खत्म।"

"तुम.... ।" देवराज चौहान ने मुस्कुराकर उसे देखा--- "यह क्यों नहीं सोचते कि बैंक डकैती के समय, तुम्हें कुछ भी हो सकता है। तब तुम्हारे नोट कहां जाएंगे?"

“अल्लाह जो करेगा, भला ही करेगा।" उस्मान अली ने गहरी सांस लेकर कहा--- “अल्लाह की कुदरत को आज तक जान ही कौन पाया है। वैसे बहुत मेहरबान रहा है वो मुझे पर....।"

देवराज चौहान दूसरी तरफ देखने लगा।

इसके बाद नीना पाटेकर आई और कार में बैठ गई।

"देवराज चौहान।” नीना पाटेकर बोली--- “वानखेड़े का आदमी मेरी निगरानी कर रहा था। वो उसका मुखबिर था, अभी उसने मेरे बारे में, वानखेड़े को खबर देनी थी। लेकिन मैंने पांच-सात दिन के लिए उसका इन्तजाम कर दिया है।"

“वानखेड़े।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "बहुत ही समझदार और तेज दिमाग का इन्सान है। वह हर हाल में मुझे पकड़ना चाहता है। हमें उससे बचकर रहना चाहिए।"

"कल डालचन्द बता रहा था कि उसने वानखेड़े से उसी ठिकाने के पास से लिफ्ट ली, जहां पर बैंक वैन को छिपा रखा है। उससे बैंक वैन के बारे में भी पूछ रहा था।"

"तो?"

"अगर वानखेड़े वास्तव में समझदार है तो फिर उसे आज भी उसी जगह के करीब ही होना चाहिए जहां वह कल डालचन्द को मिला था।" नीना पाटेकर ने व्याकुलता से कहा--- "और आज बैंक डकैती के बाद हमें लूट के माल को उसी जगह ले जाना है। वानखेड़े के कारण आज के माल को वहां ले जाना खतरे से खाली नहीं। कहीं वानखेड़े के कारण बैंक के साथ-साथ आज की डकैती की दौलत भी हाथ से न निकल जाए।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया---

"तुम्हारी बात ठीक हो सकती है। लेकिन बैंक डकैती के माल को हमें वहीं लेकर चलना होगा। नया ठिकाना तलाश करना तो दूर, नये ठिकाने के बारे में सोचना भी बेकार है। हमारे पास जरा भी समय नहीं है। क्योंकि आधे पौन घण्टे के बाद हम बैंक डकैती करने जा रहे हैं। इस समय हमें सिर्फ बैंक डकैती की योजना पर सोचना चाहिए। यह हम लोगों की जिन्दगी मौत का सवाल है, हमें हर हाल में इसलिए जान बचाकर रखनी है कि लूट के साढ़े नौ करोड़ रुपये को इस्तेमाल किया जा सके।"

तभी उनके सामने कुछ दूरी पर मंगल पांडे टैक्सी से उतरा। टैक्सी वाले को किराया चुकता करके उसने सावधानी से भरी दृष्टि चारों ओर डाली, फिर कार की तरफ बढ़ा। पांडे के चेहरे पर उखड़ेपन के निशान स्पष्ट झलक रहे थे। करीब आकर उसने कार का दरवाजा खोला और भीतर आकर बैठ गया। मन से नटियाल के प्रति ढेरों गालियां निकल रही थीं कि न चाहते हुए भी उसकी लापरवाही के कारण उसे बैंक डकैती में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

“तेरी तबीयत तो ठीक है?" उस्मान अली ने उसके चेहरे पर निगाह मारी ।

“ठीक है, मुझे क्या होना है।"

“कुछ उखड़े-उखड़े से लग रहे हो।"

“यूं ही टैक्सी ड्राईवर से झगड़ा हो गया था।" पांडे ने गहरी सांस ली और चोर निगाहों से नीना पाटेकर की छातियों को निहारा। मन ही मन इस बात के प्रति वह दृढ़ था कि नीना पाटेकर को अपने नीचे लाकर ही छोड़ेगा।

“डालचन्द नहीं आया?” नीना पाटेकर ने घड़ी देखी--- "नौ पच्चीस हो रहे हैं।"

“उसे किसी भी हाल में लेट नहीं होना चाहिए था।" उस्मान अली बोला।

एक-एक पल आधे घन्टे के समान लग रहा था। लम्बी प्रतीक्षा के बाद डालचन्द पौने दस के करीब वहां पहुंचा। वह हांफ रहा था। उसकी सांस चढ़ी हुई थी। कपड़े पसीने से लथपथ थे। दरवाजा खोलकर वह भी कार में आ गया।

"देर से क्यों आए?” देवराज चौहान ने उस पर निगाह मारी।

"गड़बड़ हो गई थी। भारी गड़बड़! शुक्र करो कि मैं देर से ही सही परन्तु आ गया हूं।" कहने के साथ ही उसने राजाराम का सारा किस्सा उन्हें बताया।

"तुमने राजाराम को गच्चा दे दिया?" मंगल पांडे हैरानी से कह उठा ।

"और क्या करता! मेरा यहां पहुंचना जरूरी था। लेकिन अब राजाराम मुझे नहीं छोड़ेगा, वह हर हाल में किसी न किसी तरह से मुझे नुकसान पहुंचाकर ही रहेगा।" डालचन्द ने चिन्तित लहजे में कहा--- "समझ में नहीं आता कि क्या करूं?"

“चिन्ता मत करो, देख लेंगे राजाराम को।" देवराज चौहान बोला।

“राजाराम और मैं एक दूसरे से भली-भांति वाकिफ हैं।" नीना पाटेकर ने डालचन्द के कंधे पर हाथ रखा--- "यह काम निपट ले, फिर उससे बात करके मैं उसे समझा दूंगी।"

डालचन्द के चेहरे पर राहत के भाव उभरे।

समय बीता। दस बजकर दो मिनट हो गये।

"बैंक खुल चुका होगा। हमें चलना चाहिए।" देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला--- "सब को संभलकर काम करना है। डकैती में किसी फंसने वाले या मरने वाले को बचाया नहीं जाएगा। सबको अपना काम करना और निकल चलना है। देखा जाए तो बैंक डकैती के लिए हम कम आदमी हैं, फिर भी सतर्क रहें तो आसानी से सफलता पा सकते हैं। और डालचन्द, तुम्हें कार वहां नहीं खड़ी करनी जहां पहले तय था। तुमने कार को हमारे जाने के बाद बैंक के अहाते में ला खड़ी करनी है और आसपास ही रहना है। ताकि जब हम लोग बाहर निकलें तो फरार होने में ज्यादा वक्त न लगे।"

"कार बैंक के अहाते में हैं। इससे तो मेरे लिए खतरा बढ़ जायेगा।" डालचन्द बोला ।

"यह खतरा तो हमें उठाना ही होगा।" देवराज चौहान बोला।

“असली खतरा तो हम उठा रहे हैं बैंक के भीतर जाकर।" पांडे बोला।

"पांडे।” देवराज चौहान सख्त स्वर में बोला--- "फालतू बातें नहीं।"

मंगल पांडे ने होंठ भींच लिए।

"आओ।" देवराज चौहान कार का दरवाजा खोलता हुआ बोला--- “हम लोग बैंक में अलग-अलग प्रवेश करेंगे। सब के पास रिवाल्वरें हैं?"

सबने सहमति में सिर हिला दिया।

उसके बाद डालचन्द को छोड़कर बाकी सब कार से उतरे और अलग-अलग दिशाओं से बैंक के मुख्य द्वार की ओर बढ़ने लगे।

कल की बमबारी के कारण आज बाहर चार पुलिस वाले तैनात थे । मुख्य द्वार पर बन्दूक थामे चौकीदार मुस्तैदी से खड़ा था।

देखते ही देखते देवराज चौहान और उसके साथी भीतर प्रवेश कर गये। चन्द ही पलों में आने वाले लम्हें खतरनाक रंग लाने वाले थे।

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