घटके ने उठकर परेरा का अभिवादन किया और रुखसत पाई।
रात के नौ बजने को थे जब कि सादा लिबास में थानाध्यक्ष उत्तमराव भारकर अपने मातहत सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे के आवास पर पहुंचा।
उसका आवास धोबी तलाव की पुलिस कॉलोनी में ग्राउन्ड फ्लोर का एक फ्लैट था जिसमें अक्सर वो अकेला ही पाया जाता था। उसका ससराल खेड में था जहां उसके दो बच्चे – दोनों लड़के, उम्र पांच और आठ साल – नाना-नानी के पास ही रहते थे और वहीं खेड में ही पढ़ते थे और इस वजह से बीवी अक्सर मायके गई रहती थी।
गोरे को उस सिलसिले से कभी कोई ऐतराज़ नहीं हुआ था क्योंकि उसे लगता था कि बीवी बच्चों के साथ ज्यादा ख़ुश रहती थी। मुम्बई में गुजरती तनहा लाइफ के नतीजों के तौर पर गोरे कुछ ऐसी हरकतें करता था जो उसे – एक गृहस्थ को, बाऔलाद गृहस्थ को- नहीं करनी चाहिए थीं, लेकिन जिनकी प्रमुख वजह यही थी कि दो स्कूल गोईंग बच्चों की मां उसकी बीवी का दिल मायके में ज़्यादा लगने लगा था। उन हरकतों में से एक हरकत ये भी थी कि लेमिंगटन रोड वाले बार की जसमिन गिल नाम की एक होस्टेस उसे भाव देती थी और कोई बड़ी बात नहीं थी कि बार ओनर की शह पर वो ऐसा करती थी।
भारकर ने कॉलबैल बजाई। बैठक में बैठ कर जसमिन के साथ ड्रिंक्स का आनन्द लेता गोरे सकपकाया।
“इस वक्त कौन आ गया?” – वो बड़बड़ाया।
वो उठ कर मेन डोर पर पहुंचा, उसने डोर में फिट पीप होल के लैंस में आंख लगा कर उसमें से बाहर झांका।
भारकर!
वो लपक कर जसमिन के पास वापिस लौटा और दबे स्वर में बोला – “मेरे थाने का एसएचओ भारकर आया है।”
“इस वक्त?” – जसमिन भी दबे स्वर में बोली।
“हां। पता नहीं कैसे आ गया!”
“कॉलबैल का जवाब न दो, चला जाएगा।”
“अरे, बत्तियाँ जल रही हैं, बाहर मेरी मोटरसाइकल खड़ी है। कैसे होगा?”
“तो?”
“दरवाजा तो खोलना पड़ेगा लेकिन मैं नहीं चाहता वो तेरे को यहां देखे। वो पहले ही मेरे पीछे पड़ा है, रात की इस घड़ी तेरे को यहां देखेगा तो एक की आठ लगाएगा।”
“अरे, तो?”
“व्हिस्की, पानी और एक गिलास को छोड़कर सब कुछ यहां से उठा के भीतर ले जा।”
“क्यों?”
“ताकि तसदीक हो कि मैं घर में अकेला था, अकेला बैठा ड्रिंक कर रहा था।”
“ओह! भीतर कहां? पीछे बैडरूम में?” घन्टी फिर बजी।
“नहीं। बैडरूम में अटैच्ड बाथ है। वो मेहमान है, शायद वहां जाने की ज़रूरत महसूस करे।”
“किचन में?”
“उसकी निगाह में मैं घर में अकेला हूँ। मेहमान की कोई खिदमत की नौबत आई तो वो मेरे को ही करनी पड़ेगी। इस वजह से मैं किचन में गया तो हो सकता है वो मेरे पीछे-पीछे चला आए।”
“तो फिर? जल्दी फैसला करो।”
“स्टोर में जा।”
“स्टोर में?”
“वहां उसका कोई काम नहीं। जा अब। पहले ट्रे और उसका सामान किचन में ठिकाने लगाना।”
“कब टलेगा?”
“पता नहीं। ख़ामोशी से स्टोर में इन्तज़ार करना। आवाज़ न करना। इन्तज़ार लम्बा हो जाए तो सब्र से काम लेना। ज़रूरी है। हिल अब।”
जसमिन उछल कर खड़ी हुई, उसने एक गिलास और व्हिस्की की खुली बोतल और पानी की बोतल को छोड़ कर बाकी साजो-सामान ट्रे में रखा और ट्रे उठा वहां से रुखसत हो गई।
घन्टी फिर बजी, इस बार ज़्यादा देर तक।
ग्राउन्ड फ्लोर पर स्थित दो कमरों का वो फ्लैट जसमिन का देखा-भाला था। उसकी बैठक का दरवाज़ा एक छोटे से ढके हुए दालान में खुलता था जिसकी बाईं ओर स्टोर था, दाईं ओर किचन थी और सामने आजू-बाजू दो बैडरूम थे जिनमें से एक अमूमन बन्द ही रहता था क्योंकि बीवी-बच्चों की, या अकेली बीवी की, गैरहाजिरी में उसे दो बैडरूम्स की ज़रूरत नहीं होती थी। वो बैडरूम लाक्ड कभी नहीं होता था, ख़ाली उसका बोल्ट तब तक लगा रहता था, जब तक कि बीवी की आमद की वजह से उसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती थी।
किचन में क्षणिक पड़ाव के बाद वो स्टोर में पहुंच गई जो कि बाकी फ्लैट की तरह उसका देखा-भाला था इसलिए जानती थी कि स्टोर और बैठक की पिछली दीवार के बीच एक खिड़की थी जो हमेशा बन्द रहती थी। खिड़की पर बैठक की तरफ हमेशा मोटा पर्दा पड़ा रहता था इसलिए थोड़े किए तो किसी को मालूम भी नहीं हो पाता था कि पर्दे के पीछे बन्द खिड़की थी जिसका रुख कहीं बाहर की तरफ नहीं, फ्लैट के भीतर की तरफ ही था।
“टॉयलेट में हूँ!” – उसे गोरे की ऊंची आवाज सुनाई दी – “आता हूँ।”
बन्द खिड़की के करीब एक स्टूल पड़ा था जिस पर जसमिन बैठ गई और मन ही मन दुआ करने लगी कि मेहमान जल्दी टले।
बाहर बैठक में गोरे आगे बढ़ने लगा तो इत्तफाक से ही उसे सोफे के पहलू में फर्श पर पड़ा जसमिन का हैण्डबैग दिखाई दिया।
देवा!
उसने झपट कर हैण्डबैग उठाया, भीतर जाकर स्टोर की चौखट पर से ही उसे जसमिन की तरफ उछाला और लपकता हुआ वापिस मेन डोर पर पहुंचा। उसने दरवाज़ा खोला। अपना उतावलापन छुपाता चौखट पर भारकर खड़ा था।
“अरे!” – नकली हैरानी ज़ाहिर करता गोरे बोला – “भारकर साहब, आप! इस वक्त!”
“हल्लो!” – भारकर अपने लहजे में मिश्री घोलता बोला – “सॉरी, यार, तेरे को ये टाइम डिस्टर्ब किया।”
“वो तो कोई बात नहीं लेकिन ...”
“इधर से गुज़र रहा था, याद आया आज तेरा ऑफ था, सोचा, हल्लो बोलता चलूँ।”
“वेलकम। आइए।”
“शुक्रिया।”
गोरे ने मेहमान को बैठक में ले जाकर बिठाया।
“घर में अकेला जान पड़ता है!” – भारकर बोला।
“जी हां।”
“बीवी फिर मायके?”
“जी हां।”
“बच्चे पहले से वहां!”
“जी हां।”
“अकेले कैसे कटती है?”
“कट ही जाती है जैसे-तैसे। न कटे तो बुला लेता हूँ।”
“ठीक!”
उसने एक सरसरी निगाह सेंटर टेबल पर पड़ी रैड लेबल की बोतल और एक गिलास पर डाली।
“बोले तो” – भारकर बोला – “पड़ा मगज में कैसे कटती है अकेले भीड़ की!”
“वो बात नहीं, सर” – गोरे से शिष्ट विरोध किया – “मैं तो खाली छुट्टी वाले दिन .....”
“ठीक! ठीक!”
“मैं आपके लिए ड्रिंक बनाऊँ?”
“अरे, नहीं भई, मेरे को अभी थाने पहुंचना है।”
“ओह! तो चाय ...”
“कौन बनाएगा? घरवाली तो तेरी यहां है नहीं!”
“मैं बनाऊंगा न! घरवाला।”
“आती तेरे को?”
“अरे, जनाब, जब घरवाली मायके में तो चाय मेरे को ही बनाने का न!”
“बाहरवाली कोई नहीं?”
“मज़ाक करते हैं आप!”
“ग्रांट रोड जैसे इलाके में तेरा आना जाना है, सोचा, शायद बना ली हो कोई ज़रूरत के वक्त के लिए!”
“ऐसी कोई बात नहीं, सर।”
“नहीं तो न सही।”
“और सुनाइए, सर ...”
“और सुनाऊं! लगता है उतावला हो रहा है मेरे को डिसमिस करने के लिए!”
“अरे, सर, क्या गज़ब करते हैं! मैं भला ऐसी गुस्ताखी कर सकता हूँ! मैंने तो बस ऐसे ही पूछा था जैसे कि . . . जैसे कि मेहमान से पूछा ही जाता है।”
“वान्दा नहीं। अभी बोल, वीडियो क्लिप के बारे में क्या कहता है?”
“वीडियो क्लिप?”
“जिसकी तलवार तूने मेरे सिर पर लटकाई हुई है! जिसकी कॉपी तू मेरे को फॉरवर्ड करने वाला था! पचास लाख रुपए के लेन-देन की वीडियो क्लिप। जानबूझ कर अंजान बनने की कोशिश न कर। दिखा मेरे को ताकि मैं कनफर्म कर सकू कि वो जेनुइन है और मौपर्ड भी नहीं है। क्या!”
“सर, जो बात ख़त्म हो चुकी है उसको क्यों दोबारा फिर से शुरू करते हैं! ये फैसला हो तो चुका कि जोश में, हालात की गर्मी में कुछ आपने ऐसा वैसा कहा, कुछ मैंने कहा। अब ख़ाक डालिए उस बद्मजा किस्से पर।”
“तू फिर कहना चाहता है कि पचास लाख के लेन-देन की वीडियो क्लिप वाली बात कोरी धमकी थी?”
“अब . . . है तो . . . ऐसीच!”
“हां या न में जवाब दे!”
“हां।”
“ठीक है। अब एक ख़ास बात सुन। तेरे लिए ख़ास।”
“सर, गुस्ताखी माफ, आप तो कह रहे थे कि इधर से गुज़र रहे थे इसलिए ‘हल्लो’ बोलने चले आए थे?” ।
भारकर ने एक सर्द निगाह उस पर डाली।
गोरे के मिज़ाज़ में कोई तबदीली न आई।
“क्यों भई” — फिर भारकर बदले स्वर में बोला – “कोई एक काम के लिए कहीं हाजिरी भरे तो साथ में कोई दूसरा काम नहीं कर सकता?”
“कर सकता है। क्यों नहीं कर सकता?”
“तो?”
गोरे ने जवाब न दिया।
“तो दूसरा काम करने दे मुझे।”
“दूसरा काम?”
“जो तेरे बड़े कारनामे से ताल्लुक रखता है जिसकी मेरे को आज ही खबर लगी और तेरे ख़ुशकिस्मती से मेरे सिवाय अभी किसी को कोई ख़बर नहीं।”
“कारनामा बोला!”
“बड़ा कारनामा बोला – कारनामे तो पुलिस की नौकरी में होते ही रहते हैं – ख़ास बड़ा कारनामा बोला। ख़ास तेरा बड़ा कारनामा जिसने तेरे बारे में सारे भरम खोल दिए।”
“क्या कह रहे हैं, जनाब, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा।”
“आएगा न!”
“क्या?”
“बड़ा कारनामा।”
“जनाब क्या पहेलियां बुझा रहे हैं? जो कहना है साफ-साफ कहिए।”
“तो साफ-साफ सुन। तू कातिल है . . .”
स्टोर में स्टूल पर बैठी जसमिन को बैठक में होता तमाम वार्तालाप साफ सुनाई दे रहा था। गोरे पर कातिल होने का इलज़ाम आयद होता सुन कर वो बुरी तरह से चौंकी। वो भारकर को पहचानती नहीं थी। स्त्रीसुलभ उत्सुकता के हवाले उसने सोचा कि वो बैठक में झांके।
कैसे?
उसने धीरे से, बाल-बाल सरका कर खिड़की के दोनों पल्ले एक दूसरे से यूँ अलग किए कि एक मामूली-सी ही झिरी उनमें बन पाती। आगे खिड़की पर बैठक की तरफ जो मोटा पर्दा तना था वो दो पल्लों वाला था जिनमें संयोग से उतनी ही झिरी बनी रह गई थी जितनी कि खिड़की के दो पल्लों में अब थी।
हिम्मत करके उसने झिरी में आंख लगाई।
वो दोनों एक दूसरे के सामने यूँ बैठे हुए थे कि पर्दे से ढकी खिड़की की तरफ या मेन डोर की तरफ देखने की जगह एक दूसरे को देख रहे थे।
अपनी ख़ौफज़दा हालत में वो झिरी में मुतवातर आंख तो न लगाए रही लेकिन कान वो बराबर खड़े किए रही।
आखिर कत्ल का ज़िक्र सुन रही थी। मेहमान आगे पता नहीं क्या बम फोड़ता!
“... ऑलिव बार के दो पार्टनरों में से एक का - सुबोध नायक का – कत्ल तूने किया है और उसकी बीवी नीरजा नायक को तूने इसलिए शूट किया था क्योंकि वो तेरे कारनामे की गवाह बन गई थी ...’
“वाट नानसेंस!” – गोरे भड़कने को हुआ।
“. . . लेकिन तेरी बदकिस्मती से अपने पति की तरह वो फौरन न मरी, हस्पताल में तेरी बाबत बयान देकर मरी, इस बात की मजबूती से तसदीक करके मरी कि बतौर शूटर उसने तेरे को देखा था।”
“अरे, जनाब, क्या वाही तबाही बक . . . बोल रहे हैं?”
“और उसका वो बयान उसकी डाइंग डिक्लेयरेशन का दर्जा रखता है जिसे कोई हिला नहीं सकता।”
“बंडल!”
“बतौर शूटर तेरी तस्वीर से उसने बाकायदा तेरी शिनाख्त की थी, मेरे और उसके हस्पताल के आईसीयू के डॉक्टर अधिकारी के सामने तेरी शिनाख्त की थी और बाजरिया तस्वीर पक्की, मज़बूत, न हिलाई जा सकने वाली शिनाख़्त के बाद तस्वीर की पीठ पर बाकायदा अपने दस्तख़त किए थे और उन दस्तख़तों को डॉक्टर अधिकारी ने काउन्टरसाइन करके बाकायदा एनडोर्स किया था।”
“बकवास! भारकर साहब, ये एक गढ़ी हुई कहानी है जो आपके ख़ास खुराफाती दिमाग को सूझी क्योंकि आप मेरे पीछे पड़े हैं और कैसे भी मेरा मुंह बन्द कराना चाहते हैं जो आप बाज़ नहीं आएंगे तो नहीं करा पाएंगे।”
“डबल एनडोर्ल्ड तस्वीर मेरे पास है।” – भारकर शान्ति से बोला।
गोरे सकपकाया, उसने भारकर को देखा तो उसे पूरी तरह से अविचलित पाया।
“दिखाइए।” – गोरे चैलेंजभरे स्वर में बोला।
भारकर ने इंकार में सिर हिलाया।
“अब क्या हुआ?
“तू तस्वीर को झपट लेगा, फाड़ देगा और एक बड़े, ओपन एण्ड शट केस का बड़ा सबूत नष्ट कर देगा।” ।
“देवा!” – गोरे के स्वर में वितृष्णा का पुट आया – “अरे, कैसे आदमी हैं आप! जब तस्वीर दिखानी नहीं थी तो उसका ज़िक्र क्यों किया?”
भारकर ने उस बात पर विचार किया।
फिर उसने जेब से तस्वीर निकालकर उसके हवाले की लेकिन साथ ही गन निकाल कर उस पर तान दी।
“क्या!” – अर्थपूर्ण भाव से वो बोला।
गोरे ने जवाब न दिया, उसने तस्वीर पर तो सरसरी निगाह डाली – क्योंकि शक की कोई गुंजायश ही नहीं थी कि वो उसकी तस्वीर थी – लेकिन पीठ पर हुए दो दस्तख़तों का उसने बड़ा बारीक मुआयना किया।
“क्या सबूत है” – फिर बोला – “कि ये दस्तख़त जेनुइन हैं, कि ये नीरजा नायक ने ही किए थे? उसके आईसीयू के डाक्टर अधिकारी ने ही किये थे?”
“तू बहुत श्याना है, डेढ़ दीमाक है” – भारकर बोला – “इसलिये मेरे को मालूम कि कोई श्यानपत्ती दिखाये बिना तू नहीं मानेगा।”
“जवाब दीजिए!”
“मैं तेरे कैसे भी एतराज़ का कोई भी मुकाबला करने के लिए तैयार होकर आया हूँ। ये देख” – भारकर ने एक कागज उसके सामने रखा – “ये डॉक्टर अधिकारी के जारी किए डैथ सर्टिफिकेट की जेरोक्स कॉपी है जिस पर उसकी ऑफिशियल मोहर समेत उसके दस्तख़त हैं। ये’ – उसने दूसरा कागज पेश किया – “मकतूला नीरजा नायक के उन दस्तख़तों की जेरोक्स कॉपी है जो बतौर ड्राईविंग लाइसेंस होल्डर आरटीओ के रिकॉर्ड में अवेलेबल थे। जी भर के मुआयना कर इनका, मुझे कोई जल्दी नहीं।”
गोरे ने जी भर के ही वो काम किया। वो दोनों नमूने तस्वीर की पीठ पर हुए दोनों दस्तख़तों से हूबहू मिलते थे।
उसने दोनों ज़ेरोक्स कॉपीज़ सेंटर टेबल पर डालीं और तस्वीर पर से सिर उठाया।
भारकर ने बड़ी सफाई से तस्वीर गोरे की उंगलियों में से निकाल ली, और टेबल पर पड़ी जेरोक्स कॉपीज़ भी समेट लीं। गन उसने वापिस अपनी पतलून की बैल्ट में खोंसी और ऊपर के कोट के बटन बन्द किए।
“क्या?” – वो विजेता के से भाव से बोला।
“ये तस्वीर आपके पास क्यों है?” – गोरे बोला।
“बोले तो?”
“ये रिकॉर्ड की दस्तावेज़ है, इसे या कोर्ट में जमा होना चाहिए या थाने में।”
“अब तू मुहावरे वाली खिसियानी बिल्ली है जो खम्बा नोच रही है। तू भूल रहा है कि मैं उस थाने का थानेदार हूँ जिसकी ज्यूरिसडिक्शन में तेरा केस आता है। मैं उस डबल मर्डर केस का इन्वैस्टिगेटिंग ऑफिसर हूँ, जिसके तेरा कारनामा होने के खुल्ले सबूत मुझे मिले हैं। और आखिरकार तमाम सबूत कोर्ट में ही पेश होंगे।”
“कीजिए पेश।” _ गोरे चैलेंजभरे स्वर में बोला – “ताकि अपने बचाव के लिए मेरे पास कोई रास्ता न बचे।”
“आखिर तो करूँगा ही लेकिन मैं बात को इतना नहीं बढ़ाना चाहता कि पीछे हटने का रास्ता न बचे। मैं इस बात को तेरे-मेरे बीच में ही रखना चाहता हूँ।”
“बट दैज इज़ शियर नॉनसेंस! आप कत्ल का इलज़ाम मेरे पर थोप रहे हैं, मुझे - अपने मातहत पुलिस अधिकारी को– कातिल करार दे रहे हैं और कहते हैं कि बात आपके और मेरे बीच ही रहेगी!”
“कहता हूँ।”
“कैसे होगा?”
“तेरे किए होगा। जिसे तू मेरी दुखती रग बोला, उसे नहीं छेड़ेगा तो क्यों नहीं होगा?”
“क्या मतलब?”
“मेरे खिलाफ जो कुछ तेरे पास है, ख़ासतौर से वो वीडियो क्लिप, उसे मेरे हवाले कर, मैं तेरे खिलाफ खड़े हो सकने वाले तमाम सबूत नष्ट कर दूँगा।”
“तमाम सबूत! यानी अभी और भी हैं?”
“हां।”
“बोले तो?”
“मर्डर वैपन। आलायकत्ल। वो गन जिसको तूने अपने कारनामे में इस्तेमाल किया, जिस पर तेरी उंगलियों के निशान हैं।”
“क्या!”
“वो गन मेरे पास महफूज़ है। फिंगरप्रिंट्स झूठ नहीं बोलते। कैसे मुकरेगा?”
“ये नामुमकिन है। मुझे डराने के लिए आप नाहक बढ़-बढ़ के बोल रहे हैं।”
“नायक के घर के बैकयार्ड में एक फुट प्रिंट मिला था जो जब होगा, तेरा साबित होगा।”
“बकवास! उस वारदात से पहले मेरे को ये तक नहीं मालूम था कि नायक कौन था और कहां रहता था!”
“मालूम था। अभी और सुन।”
“अभी और भी?”
“हां। ऑलिव बार में सावन्त को धमकाने जो भीड़ आया था, वो तेरा कारिन्दा था।”
“अरे, क्या कह रहे है आप!” – गोरे कलप कर बोला – “वो बोल के तो गया था कि वो टोपाज़ क्लब वाले रेमंड परेरा का कारिन्दा था जिसे कि कराची से शह थी!”
“नहीं बोल के गया था। उसने जो किया था, तेरे हुक्म पर किया था।”
“क्योंकि मैं मवालियों का, गुण्डे बदमाशों का भड़वा हूँ?”
“वो तेरे को मालूम हो।”
“क्योंकि मैं ऑलिव बार में पार्टनरशिप चाहता था?”
“क्योंकि रेमंड परेरा ऑलिव बार में पार्टनरशिप चाहता था और उसने आगे जो किया था, तेरे कहने पर किया था। रेमंड परेरा की तरफ से विनायक घटके तेरा वक्ती जोड़ीदार था और वो खम ठोक कर इस बात की गवाही देगा। क्या!”
गोरे ने उत्तर न दिया, वो भौंचक्का-सा भारकर कर मुंह देखने लगा।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“अब तेरे पास एक ही रास्ता है” – फिर भारकर बोला – “कि तू मेरे काम आए, मैं तेरे काम आऊं।”
“क्या करूँ? आपकी करततें आप पर उजागर न करूँ?”
“हां।”
“भले ही आप जैसे मर्जी मेरी वाट लगायें!”
“तू सीधा चलेगा तो मैं क्यों टेढ़ा चलूँगा?”
“सीधा कैसे चलूं? आपकी हर हुक्मबरदारी करूँ? आपके तलुवे चाहूँ? आपका जूता पालिश करूँ? आपकी ड्योढ़ी का कुत्ता बनके रहूँ?”
“इतना कुछ करने की ज़रूरत नहीं। वो वीडियो क्लिप मेरे हवाले कर और जो भी सबूत तेरे पास मेरे खिलाफ हैं, मेरे हवाले कर।”
गोरे ने मज़बूती से इंकार में सिर हिलाया।
“बोले तो?” – भारकर सख़्ती से बोला।
“सुनिए। गौर से सुनिए। ये मेरा फैसला है, बावजूद आपकी धमकियों के – नाजायज़, वाहियात, बेगैरत, बदअख़लाक धमकियों के – मेरा फैसला है। सुन रहे हैं?”
“हां।”
“भले ही आप थाना प्रभारी हैं लेकिन अभी आप इतने ताकतवर नहीं हैं कि समझने लगें कि आप अपने मातहतों की तकदीर लिखते हैं। अपना थाना नहीं, पुलिस का पूरा महकमा ही आप चलाते हैं। महज़ महानताबोध से कोई महान नहीं हो जाता, ताकतवर नहीं हो जाता। दूसरे, मुल्क में अभी इतनी बदअमनी नहीं है कि आप जैसे ज़लील आदमी की हर पेश चलने लगे। आप मेरे को धमकाने से बाज़ नहीं आएंगे तो मेरे से पहले आपका अंजाम बुरा होगा। फर्जी गवाहों और गढ़े हुए सबूतों के दम पर आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। आप मेरे खिलाफ फर्जी केस बना कर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं लेकिन मेरा मनोबल नहीं तोड़ सकते। अलबत्ता ये अफसोस मुझे हमेशा रहेगा कि आप जैसे शैतान के जने इस महकमें में पाए जाते हैं।”
भारकर का वर्ण विवर्ण हुआ। “अब आखिरी बात सुनिए।” – गोरे पूर्ववत् भड़के लहजे से बोला – “सुनते हैं?”
“हां।” – वो कठिन स्वर में बोला – “कह के चुक जो कहना है।”
“सुनिए। गौर से सुनिए। इस मुद्दे पर आखिरी बार सुनिए। भारकर साहब, आपसे जो होता हो, कर लीजिए; अपने बचाव के लिए मेरे से जो होता होगा, मैं कर लूँगा। आप मेरा जो उखाड़ सकते हो, उखाड़ लेना, खुली छूट है आपको। मेरा जो अंजाम होगा, आप की किसी घिनौनी, नामुराद साजिश के तहत जो अंजाम होगा, वो मैं भुगत लूँगा - जुल्म भी और नाइंसाफी भी – लेकिन आप जो चाहते हैं, मैं हरगिज़, हरगिज़ नहीं करूँगा, मेरे पर आपके क़हर का पहाड़ टूट पड़े तो भी नहीं करूँगा।”
“वीडियो क्लिप नहीं देगा?”
“कोई वीडियो क्लिप नहीं है।”
“पहले फैसला कर ले कि है नहीं या देगा नहीं!”
“आपके लिए एक ही बात है।”
“बाकी सबूत जो तेरे पास मेरे खिलाफ हैं, वो भी नहीं देगा?”
“मेरे पास कोई सबूत नहीं है।”
“तो बोला क्यों था?”
“जोश में बोला था। होश में पछतावा हुआ था।”
“तो तू मेरे साथ ऐसे पेश आएगा?”
“आप मेरे साथ ऐसे पेश आएंगे?”
“अरे, मैं सुलह चाहता हूँ ...”
“जिन नामाकूल, नामुराद शर्तों पर आप सुलह चाहते हैं, उनको सुनना भी मुझे गवारा नहीं। जनाब, आपकी शर्ते, आपकी साज़िशें एक बीमार दिमाग की उपज हैं। आपको मेडिकल काउंसलिंग की ज़रूरत है। जल्दी उसका इंतज़ाम करें वर्ना पागल हो जाएंगे। या” – गोरे एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “शायद हो चुके हैं।”
भारकर का चेहरा सुर्ख होने लगा।
“सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला।” – गोरे ओजपूर्ण स्वर में बोला। कई क्षण ख़ामोशी रही।
उस दौरान भारकर ने बड़ी मुश्किल से अपने-आप पर काबू किया।
“तूने” – फिर वो बोतल और इकलौते गिलास पर निगाह डालता बोला -
“मेरे को ड्रिंक ऑफर किया था!”
“ऐसा करते मेरे को खुशी होगी।” – गोरे बोला – “लेकिन आपने बोला था आपको थाने पहुंचना था!”
“नहीं जाऊँगा। घर जाने की सोच रहा हूँ। इसलिए ड्रिंक बना। आज तेरे साथ चियर्स बोल के जाऊँगा।”
“वेलकम! मैं अभी इन्तज़ाम करता हूँ।”
“किसी ख़ास इन्तज़ाम की ज़रूरत नहीं। खाली एक गिलास और ले आ।”
“ओके!”
“देख, कुछ मैं पीछे हटता हूँ, कुछ तू पीछे हट, ज़रूर कोई हल निकल आएगा जो हम दोनों को माफ़िक आएगा। अब मेरे और अपने दोनों के लिए ड्रिंक्स बना और निर्मल मन से मेरे साथ चियर्स बोल।”
“अभी।”
मेहमाननवाज़ी के लिए गोरे उठ कर खड़ा हुआ।
बैठक में दोनों यूं आमने सामने बैठे हुए थे कि भीतरी दरवाज़े की तरफ गोरे की पीठ थी। वो उठकर घूमा और उसने उस दरवाज़े की तरफ कदम बढ़ाया।
भारकर भी उसकी पीठ पीछे चुपचाप उठा, उसने पतलून की बैल्ट से गन निकाली, उसे नाल की तरफ से पकड़ा और गोरे की पीठ पीछे पहुंचकर उसकी मूठ का वार गोरे की खोपड़ी के पृष्ठभाग पर किया।
गोरे के मुंह से एक फंसी हुई कराह-सी निकली और वो निशब्द बीच के दरवाज़े की चौखट पर ढेर हो गया।
स्टोर में झिरी में कभी आंख तो कभी कान लगाती जसमिन के प्राण कांप गए। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि मेहमान और मेज़बान दोनों ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारी थे फिर भी एक जने ने दूसरे पर ऐसा वार किया था कि वो धाराशाही हो गया था।
जब वो नज़ारा उसने किया था, तब झिरी पर कान की जगह उसकी आंख थी और मेहमान की तवज्जो बिल्कुल भी पर्दे से ढंकी खिड़की की ओर नहीं थी, जिसकी बाबत उसे मालूम तक नहीं था कि पर्दे के पीछे खिड़की थी। मेहमान पर्दे की ओर पीठ फेरे घुटनों के बल झुककर अचेत गोरे का मुआयना कर रहा था।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित हो जसमिन ने फुर्ती से अपना मोबाइल निकाला, उसे कैमरे के वीडियो मोड पर सैट किया और जो झिरी से उसको दिखाई दिया, वो उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग करने लगी।
उसकी वो हरकत बहुत खतनाक थी लेकिन ख़तरा तो उस ज़ालिम हाकिम की फ्लैट में मौजूदगी में भी कोई कम नहीं था, हाकिम के मुंह से निकली जो हैरतअंगेज़ बातें उसने सुनी थीं, उनमें भी कम नहीं था।
वो ख़तरा मोल लेने को तैयार थी।
उसकी रिकॉर्डिंग बैठक तक ही सीमित थी जो कि उसने जारी रखी।
भारकर ने अपने कोट की भीतरी जेब से पोलीथीन की थैली में महफज़ गन बरामद की।
वो वो गन थी जो उसने विनायक घटके से हासिल की थी और जो तुलसीवाडी वाली वारदात में शूटर ने- अब स्थापित था कि घटके ने इस्तेमाल की थी, जो आलायकत्ल थी। उसने गन को पोलीथीन बैग में से निकाला और रूमाल की सहायता से तब तक उसे रगड़-रगड़ कर पोंछा जब तक कि वो किसी भी प्रकार के प्रिंट्स से सर्वदा मुक्त न हो गई।
वो धराशायी गोरे के करीब पहुंचा। सावधानी से उसने गन को अचेत गोरे के दाएं हाथ में यूं सरकाया कि हाथ की गिरफ़्त गन की मूठ पर थी और तर्जनी उंगली ट्रीगर पर थी। जब सुनिश्चित हो गया कि गन पर अचेत गोरे के यूं फिंगरप्रिंट्स बन चुके थे जैसे कि उसने उसे इस्तेमाल के वक्त हैंडल किया हो तो उसने हाथ में रूमाल लपेट कर गन गोरे की उंगलियों से आज़ाद की, उसे वापिस पोलीथीन बैग में रखा, और पूर्ववत् अपने कोट की जेब के हवाले किया।
गोरे कुनमुनाया।
भारकर ने फौरन उसकी तरफ तवज्जो दी।
गोरी की आंखें अभी भी बन्द थीं और उसकी सूरत से नहीं लगता था कि वो होश में आ चुका था लेकिन उसके कभी भी होश में आ जाने के आसार अब बराबर थे।
भारकर – मुम्बई पुलिस का ज़िम्मेदार अधिकारी, एक थाने का प्रभारी - एकाएक धराशायी गोरे की छाती पर सवार हो गया और दोनों हाथों से उसका गला दबाने लगा।
सांस न आ पाने की वजह से गोरे ज़ोर से तड़पा लेकिन भारकर ने उसका गला न छोड़ा। गोरे के मुकाबले में वो ड्योड़े वज़न का था और बैल जैसा ताकतवर था। उसने तब तक गोरे का गला दबाना न छोड़ा जब तक कि उसने उसकी आंखों से जीवन ज्योति बुझती न देख ली।
भारकर हांफता हुआ उसके ऊपर से उठकर खड़ा हुआ।
साला हरामी, मेरे को हूल देता था। मेरे को ज़लील बोलता था, शैतान का जना बोलता था। अब देख शैतान का क़हर! ।
ये नहीं कहा जा सकता था कि ऐन मौके पर भारकर का दिमाग हिल गया था। उसने जो किया था, वो उसके लिए तैयार होकर आया था। उसका सबूत ये भी था कि वो अपनी पोशाक के नीचे एक पतली लेकिन मज़बूत रस्सी लपेट कर लाया था। गोरे उसके काबू में आएगा, वो उस सुर में बोलने लगेगा जिसमें वो उसे बोलता सुनना चाहता था, इसकी उसे कतई कोई उम्मीद नहीं थी। लिहाज़ा उसको रास्ते से हटाया जाना ज़रूरी था। उसको कातिल साबित करने के लिए अब उसके पास पर्याप्त सबूत थे इसलिए अब जब वो अपने फ्लैट में फांसी लगाकर मरा पाया जाता तो यही सहज और स्वाभाविक नतीजा निकाला जाता कि अपने अंजाम से खौफ़ खाकर उसने ख़ुदकुशी कर ली थी।
उसने अपनी पोशाक के नीचे से रस्सी अलग की और पोशाक को पूर्ववत् व्यवस्थित किया। एक सोफे के पहलू में एक स्टूल पड़ा था जिसको उसने सैंटर टेबल पर रखा और फिर पहले टेबल पर और फिर स्टूल पर चढ़ गया। उस फ्लैट की छत कदरन ऊंची थी जो कि भारकर को माफिक आने वाली बात थी। उसने रस्सी का एक सिरा मज़बूती से पंखे के साथ बांधा, रस्सी की लम्बाई को अपने हिसाब से एडजस्ट किया फिर नीचे उतर आया। बड़े आराम से उसने गोरे के चेतनाहीन शरीर को अपने कन्धे पर लाद लिया और वापिस मेज़ पर चढ़ गया। रस्सी का दूसरा सिरा फन्दे की तरह उसने गोरे की गर्दन के गिर्द डाला, रस्सी की लम्बाई को फिर यूं एडजस्ट किया कि जब गोरे फन्दे पर झूलता, उसके पांव स्टूल पर होते। फिर उसने फन्दे को मजबूती से कसा और नीचे उतर कर अपनी कारीगरी का मुआयना किया।
जो उसने देखा, उससे पूरी तरह से सन्तुष्ट होकर उसने स्टूल को धक्का दे दिया।
स्टूल फर्श पर परे जाकर गिरा।
अब साफ जान पड़ता था कि आत्महत्या के अभिलाषी गोरे ने फांसी पर झलने से पहले खुद अपने पांव से स्ट्रल को धक्का दिया था।
बढ़िया!
लेकिन अभी उसका काम ख़त्म नहीं हो गया था। उसने सूई तलाशने की तरह फ्लैट की भरपूर तलाशी लेनी थी, भले ही तलाशी का नतीजा सिफर निकलता। लेकिन उसका दिल कहता था कि नतीजा सिफर नहीं निकलने वाला था। उसके लिए ख़तरनाक जैसी वीडियो क्लिप - जैसे दूसरे सबूत – गोरे अपने काबू में बताता था, वो किसी दूसरे शख़्स को नहीं सौंपी जा सकती थी, भले ही वो कितना ही विश्वसनीय होता क्योंकि ऐसी वीडियो क्लिप के बेजा इस्तेमाल की खुराफ़ात किसी को भी सूझ सकती थी। ज़रूर गोरे ने उन सबूतों को बहुत खुफ़िया जगह छुपाया था लेकिन वो खुफ़िया जगह यकीनन उसकी अपनी थी, किसी और की नहीं, भले ही वो कितना भी भरोसे का होता।
उस बात में उत्साहित होकर भारकर ने तलाशी का अभियान अपने हाथ में लिया। सबसे पहला काम उसने ये किया कि बैठक की तमाम बत्तियाँ बुझा दीं और बैठक की तलाशी को भी ऐन आखिर के लिए मुल्तवी कर दिया। किसी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चीज़ को छुपाने के लिए बैठक कोई मुनासिब जगह नहीं थी क्योंकि बैठक के आम फर्नीचर के अलावा तो उसमें और कुछ था ही नहीं।
उसने बैठक के भिड़के हुए भीतरी दरवाज़े को धक्का देकर पूरा खोला और आगे उस छोटे से, ढंके हुए दालान-से में कदम रखा जिसमें अटैच्ड बाथ वाले दो बैडरूम, किचन और स्टोर के दरवाज़े खुलते थे। उसने एक सरसरी निगाह चारों तरफ दौड़ाई और फिर उस बैडरूम को अपनी तवज्जो का मरकज़ बनाया जिसका दरवाज़ा खुला था और जो तब गोरे का मुकाम होता था जब बीवी मायके गई होती थी।
दूसरे बैडरूम का बोल्ट लगा साफ दिखाई दे रहा था।
वो खुले दरवाज़े वाले बैडरूम में दाखिल हुआ जो कि दाईं ओर किचन की तरफ था।
ये भारकर की दीदादिलेरी की इन्तहा थी कि बैठक में पंखे से घर के मालिक की लाश झूल रही थी और वो फ्लैट के हर कोने ख़ुदरे को पूरी बारीकी से टटोलने, खंगालने को आमादा था।
जसमिन फंस गई थी।
फ्लैट से निकासी का एक ही रास्ता था, मौजूदा हालात में जिसका रुख करने का वो ख़याल तक नहीं रख सकती थी। अब स्थापित हो चुका था कि रात की उस घड़ी का मेहमान महज़ मेहमान ही नहीं था, नृपंश हत्यारा भी था। उसे जब ख़बर लगती कि फ्लैट में उसकी शैतानी करतूत का गवाह मौजूद था तो क्या वो उसे ज़िन्दा छोड़ देता!
उस ख़याल से ही वो सिर से पांव तक कांप गई।
कातिल मेहमान पूरे फ्लैट की तलाशी लेने पर आमादा था, कैसे वो उससे छुपी रह पाती!
अब उसे इस बात का पछतावा होने लगा कि उसने इतने ख़तरनाक वाकये का वीडियो बनाया था।
लेकिन पछतावा बेमानी था। वीडियो होता या न होता, कत्ल की गवाह वो फिर भी थी। और गवाह कौन छोड़ता था!
उसके सिर से पांव तक कंपकंपी दौड़ गई।
अब उसकी गति एक ही बात में थी कि मेहमान की तलाश जल्द-अज़-जल्द कामयाब हो जाती। कामयाबी हाथ लगने के बाद बाकी फ्लैट की तलाशी लेना ज़रूरी न रहता और उसकी फ्लैट में मौजूदगी उजागर न होती। मन ही मन वाहेगुरु भजती वो प्रतीक्षा करने लगी।
आधा घन्टा गुज़रा।
गाहे-बगाहे वो स्टोर के दरवाज़े में झिरी बनाकर बाहर झांकती रही थी।
दाएं बैडरूम का, जिसमें कि मेहमान उस घड़ी था, दरवाज़ा पूरा खुला था और उसकी भीतर मौजूदगी के दौरान खुले दरवाज़े के आगे से गुज़रने की उसकी मजाल नहीं हो सकती थी।
अपने अंजाम से बुरी तरह से ख़ौफजदा वो इन्तज़ार करती रही।
बैडरूम को भारकर ने वाकई सूई तलाशने जैसी बारीकी और मुस्तैदी से टटोला था लेकिन निराशा ही हाथ लगी थी। अब वो दावे के साथ कह सकता था कि बैडरूम में उसके काम का कुछ नहीं था।
वान्दा नहीं। - उसने ख़ुद को तसल्ली दी – अभी तो एक ही जगह ने उसे नाउम्मीद किया था, अभी तो बहुत जगह बाकी थीं।
बैडरूम लांघ कर उसने बाथरूम का दरवाज़ा खोला और भीतर दाखिल हुआ। उसने एक सरसरी निगाह बाथरूम में दौड़ाई तो पाया कि वॉशबेसिन पर एक गिलास में शेव का सामान, टुथब्रश और टुथपेस्ट पड़ा था, उसके बाजू में एक हैंगर था जिस पर एक हैण्ड टावल लटक रहा था। हैंगर के नीचे फर्श पर एक फैंसी कूड़ेदान पड़ा था जो पांव से पैडल दबाया जाने पर खुलता था। वॉशबेसिन से विपरीत दिशा में दीवार में आई लैवल पर फिक्स एक वाल कैबिनेट थी जो टॉयलेटरी के स्पेयर सामान को स्टोर करने के काम आती थी। परली तरफ शावर की दिशा में एक ऊंचा शैल्फ था जिस पर तह किए हुए दो बड़े तौलिए पड़े थे। शावर के पहलू में शावर कर्टेन था जो उस वक्त तौलियों वाले शैल्फ के करीब इकट्ठा हुआ लटक रहा था।
सब मोटी-मोटी चीजें थीं जिनमें बारीक तलाशी के लायक कुछ नहीं था।
लेकिन उस घड़ी आदत से, ज़रूरत से, मजबूर भारकर ने हर चीज़ का बारीक मुआयना किया।
कहीं कुछ नहीं।
आखिर में वॉल कैबिनेट की बारी आई।
मेहमान को बाथरूम में दाखिल हुए पांच मिनट से ऊपर हो गए थे। जसमिन का दिल गवाही दे रहा था कि अभी उसे और इन्तज़ार करना चाहिए था लेकिन और इन्तज़ार उस पर भारी पड़ सकता था। मेहमान उसकी उम्मीद से जल्दी बाथरूम से फारिग हो सकता था।
उसने फिर स्टोर के दरवाज़े की झिरी में आंख लगाई।
बैडरूम का प्रवेश द्वार और आगे बाथरूम का दरवाज़ा पूरी तरह से खुला था। मेहमान बाथरूम के भीतर था लेकिन कोई आहट, कोई खटपट नहीं कर रहा था इसलिए कहना मुहाल था कि वो कब तक बाथरूम में ठहरने का इरादा रखता था।
फिर भी उसके मन में नई उम्मीद जागी।
कातिल मेहमान ने बैडरूम में आधा घन्टा लगाया था, बाथरूम की तलाशी में वो उससे आधा टाइम तो लगाता! दस मिनट तो लगाता!
उसके लिए ये भी उम्मीदअफ़्ज़ाह बात थी कि बाथरूम के आगे के दोनों दरवाज़े पूरे खुले होने के बावजूद जब मेहमान बाथरूम के दरवाजे पर आए बिना दालान में नहीं झांक सकता था।
बड़ी शिद्दत से उसने थोड़ी देर और इन्तज़ार किया, फिर दिल मज़बूत करके स्टोर से बाहर दालान में कदम रखा।
इस ख़याल से ही उसका कलेजा मुंह को आ रहा था कि मेहमान कभी भी बाथरूम के दरवाज़े की चौखट पर प्रकट हो सकता था। लेकिन मौजूदा हालात में वो खतरा मोल लेना ज़रूरी था।
सांस रोके, जैसे अंडों पर चलती, वो आगे बढ़ी।
और निर्विघ्न बैठक के भीतर के दरवाज़े पर पहुंची।
बैठक में पहुंच कर भी उसने धीरे-धीरे, दबे पांव चलना बन्द न किया। बैठक में अंधेरा था, हड़बड़ी में, अफरातफरी में वो वहां किसी चीज से टकरा सकती थी और यूं पैदा हुई आवाज़ उसकी वहां मौजूदगी की पोल खोल सकती थी।
बैठक पार करके वो आगे प्रवेश द्वार पर पहुंची। उसने हाथ उठाया और सूत सूत सरका कर भीतर से लगी चिटखनी को नीचे गिराया। वैसे ही सूत सूत सरकाकर उसने दरवाज़े का एक पट खोला।
निर्विघ्न। अब आज़ादी उसके सामने थी।
उसने अपने पीछे हौले से दरवाज़े को भिड़का कर बन्द किया और घूम कर यं वहां से भागी जैसे पीछे प्रेत लगा हो।
वॉल कैबिनेट में एक ही शैल्फ था जो कैबिनेट में उपलब्ध स्टोरेज स्पेस को दो हिस्सों में विभक्त करता था। ऊपर के हिस्से में नफ़ासत से तह किए हुए गैरइस्तेमालशुदा तौलिए थे और नीचे टुथपेस्ट की, शेविंग क्रीम की ट्यूब्स, एक्स्ट्रा डिस्पोजेबल सेफ़्टी रेज़र, साबुन की तीन चक्कियां और टॉयलेट पेपर के दो रोल थे।
भारकर को भरपूर निराशा हुई।
वहां क्या रखा था?
लेकिन उसने तो हर जगह की सूई तलाश करने जितनी बारीक तलाशी लेनी थी इसलिए एक जिद के तहत उसने कैबिनेट की हर आइटम का मुआयना किया। इस अभियान में उसने तौलिए खोल-खोल कर देखे और दोबारा तह करके वापिस रखे, टॉयलेट पेपर्स के रोल्स का बारीक मुआयना किया, सोप केक्स के रैपर उघाढ़-उघाढ़ कर देखे कि भीतर साबुन ही था जिसमें कहीं कोई खुफ़िया कैविटी या कोई नामालूम दरार नहीं थी, शेविंग क्रीम की दो ट्यूब्स को परखा, केवल सेफ्टी रेज़र्स को नजरअन्दाज़ किया और आखिर टुथपेस्ट की दो ट्यूबों की तरफ तवज्जो दी।
वो ट्यूबें कोलगेट के मैक्सफ्रैश के डबल पैक की सूरत में थीं और दोनों डेढ़ सौ ग्राम की थीं। उसने दोनों के ढक्कन खोल कर तसदीक की कि भीतर फैक्ट्री का ऑटोमैटिक पैकिंग उत्पाद, लाल रंग का मैक्सफ्रैश टुथपेस्ट ही था। वो दोनों ट्यूबों को वापिस उनके पैकिंग बॉक्स में सरकाने ही लगा था कि उसका हाथ ठिठका। उसने नए सिरे से दोनों ट्यूबों मुआयना किया तो पाया एक ट्यूब दूसरी ट्यूब से छोटी थी।
ऐसा क्यों?
अत्याधुनिक मशीनों से बनने वाले टुथपेस्ट की असैम्बली लाइन प्रोडक्शन दो ट्यूमें तो ऐन एक साइज़ की होनी चाहिए थीं फिर एक ट्यूब अपनी हमशक्ल दूसरी से एक सैन्टीमीटर के करीब छोटी क्यों थी?
उसका माथा ठनका।
क्यों थी?
कोई बात बेवजह तो होती नहीं थी।
ढक्कन की तरफ से तो वो छोटी बड़ी हो नहीं सकती थीं, वो फर्क दूसरे सिरे की मशीनी लॉकिंग में ही मुमकिन था।
उसने और ग़ौर से दोनों ट्यूबों को परखा तो पाया कि प्लास्टिक की ट्यूब पारदर्शी थी लेकिन टुथपेस्ट का रंग लाल होने की वजह से और उस पर लाल छपाई होने की वजह से लाल जान पड़ती थी। उसका मुआयना और बारीक हुआ तो उसने पाया कि लम्बी ट्यूब के फैक्ट्री सील्ड दूसरे सिरे पर कुछ अंक एमबोस्ड थे जो बड़ी मुश्किल से पढ़े जा रहे थे लेकिन वैसे अंक दसरी, छोटी ट्यूब के सील्ड सिरे पर नहीं थे।
अनायास उसका दिल ज़ोर से धड़का।
क्यों एक ट्यूब पर कोई अंक नहीं थे, दूसरी पर थे?
क्यों जिस ट्यूब पर थे, वो दूसरी ट्यूब से कदरन बड़ी थी?
क्यों? क्यों?
दोनों ट्यूबों के लम्बे मुआयने के बाद उसने छोटी को ही अतिरिक्त तवज्जो के काबिल जाना। उसने खुर्दबीनी निगाह से दोनों ट्यूबों के सील्ड सिरे का मुआयना किया तो पाया कि ट्यूबों के सील्ड सिरे को किसी तरह नहीं खोला जा सकता था। वो कोशिश उसने किचन से तीखे फल वाली एक छुरी लाकर भी की लेकिन किसी भी ट्यूब की सील्ड परतें एक दूसरे के अलग
न हुईं।
लेकिन कई अंकों वाली संख्या सिर्फ बड़ी ट्यूब पर क्यों थी, छोटी पर क्यों नहीं थी?
एक सम्भावना उसे सूझी।
एक ट्यूब के निचले, ढक्कन से विपरीत, सिरे को कैंची से काट कर फिर सील किया गया था, क्योंकि सीलशुदा सिरा खोला जा पाना नामुमकिन था, और फिर किसी जुदा तरीके से उसे दोबारा सील किया गया था जिसकी वजह से वो ट्यूब दूसरी – नॉर्मल – ट्यूब से छोटी हो गई थी और नई सील पर कई अंकों वाली कोई संख्या भी एमबौस नहीं की जा सकती थी।
कैसे उस काम को अंजाम दिया गया था, कैसे छोटी ट्यूब को फिर से सील किया गया था, ये जानने का उसके पास कोई ज़रिया नहीं था। जो उसकी बाबत कुछ – सब कुछ – जानता था, वो बाहर बैठक में पंखे से झूल रहा था।
बहरहाल, ये बात अहम नहीं थी कि वो काम कैसे हुआ था, अहम बात ये थी कि वो काम हुआ था, यकीनन हुआ था। नतीजतन एक ट्यूब दूसरी के मुकाबले में लम्बाई में छोटी हो गई थी।
वजह?
क्योंपर ट्यूब को नाहक पहले खोला गया था और फिर पूरी नफ़ासत के साथ बन्द किया गया था?
एक ही वजह मुमकिन थी।
छोटी ट्यूब में कुछ छुपाया गया था और जो छुपाया गया था, वो पेस्ट का रंग लाल होने की वजह से ट्यूब के बाहरी मुआयने से नहीं देखा जा सकता था।
लेकिन पेस्ट से फुल ट्यूब में कुछ छुपाने के लिए जगह कहां थी!
वो क्या प्रॉब्लम थी?
जितनी जगह ट्यूब में छुपाई गई चीज़ ने घेरनी थी, उतना पेस्ट ट्यूब से निकाल दिया गया था।
उसका दिल और ज़ोर से उछला।
वहीं वॉशबेसिन पर पड़े शेव वगैरह के सामान में एक कैंची भी मौजूद थी। उसने झपटकर उसे काबू में किया और छोटी ट्यूब के सील्ड सिरे को काट कर उस सिरे का मुंह खोला जो कि अब आराम से खुल गया। धड़कते दिल से उसने भीतर उंगली फिराई।
पेस्ट में से गुजरती उसकी उंगली भीतर मौजूद किसी ठोस चीज़ से टकराई।
प्रत्याशा में उसका चेहरा चमकने लगा और कनपटियों में खन बजने लगा।
उसने उस चीज़ को ट्यूब से बाहर खींचा, कटी ट्यूब को तिलांजलि दी, वॉशबेसिन का नल खोलकर अपनी उंगली को और उस चीज़ को पेस्ट के घने लेप से मुक्त किया और धड़कते दिल से नतीजे पर निगाह डाली।
वो पॉलीथीन की एक छोटी-सी थैली थी जिसका मुंह आपस में दबाने से यूं बन्द हो जाता था जैसे कोई अदृश्य ज़िप लगी हो। उस थैली को वो पहचानता था। वो फैमिली फिज़िशयन कहलाने वाले गली मौहल्ले के डॉक्टर अपने क्लीनिक में डिस्पैंसिंग के लिए खुद इस्तेमाल करते थे या उनके कम्पाउन्डर इस्तेमाल करते और ...
थैली में एक पैन ड्राईव मौजूद थी।
उसे मालूम नहीं था कि पैन ड्राइव में क्या था, लेकिन उसका चेहरा प्रत्याशा में पहले ही हज़ार वॉट के बल्ब की तरह दमकने लगा था।
पैन ड्राइव को छुपाने का नायाब तरीका ही इसके ख़ास होने की, ख़ासुलख़ास होने की, चुगली कर रहा था।
फिर उसे ख़याल आया कि पैन ड्राइव के कन्टेंट को चैक करने का साधन भी वहीं उपलब्ध था।
बैडरूम में एक छोटी-सी राइटिंग टेबल थी जिस पर उसने एक डैस्कटॉप कम्प्यूटर पड़ा देखा था, उसने बैडरूम में जाकर कम्प्यूटर ऑन किया और सीपीयू यूनिट के पैन ड्राइव के स्लॉट में उसे लगाया।
वही नज़ारा उसे स्क्रीन पर दिखाई दिया जिसकी बाबत गोरे कहता था कि ऐसी कोई वीडियो क्लिप उसके कब्जे में नहीं थी, वक्ती जोशोजुनून में वो बेबुनियाद बात उसके मुंह से निकल गई थी।
स्क्रीन पर भारकर रेपिस्ट लड़कों के पिताओं से पचास लाख रुपये के नोट समेटता-सहेजता साफ दिखाई दे रहा था।
साला हरामी! डेढ़ दीमाक!
मेरे ताबूत में कील ठोकने का सामान लिए बैठा था।
उसने पैन ड्राइव को कोट की जेब के हवाले किया, कम्प्यूटर ऑफ़ किया और वापिस बाथरूम में लौटा जहां कि अब उसकी नई उम्मीदें जाग रही थीं।
नए उत्साह से, नए सिरे से उसने बाथरूम को टटोला।
नतीजा फिर सुखद निकला।
कर्टेन रॉड खोखली थी – अमूमन खोखली ही होती थी – उसमें से बारीकी से रोल किये हुए कुछ कागजात निकले, सीधा कर के, बल निकाल के जिनका उसने मुआयना किया तो पाया कि कुछ मोतीराम अहिरे की मुकम्मल केस हिस्ट्री से सम्बन्धित थे और बाकी एफआईआर थीं। उसने उनका मुआयना किया तो गोरे के लिए उसके मुंह से फिर गालियों का परनाला बह निकला।
वो दो विभिन्न एफआईआर की जेरोक्स कॉपी थीं। दोनों के दोनों वर्ज़न उसकी आंखों के सामने थे।
एक जो मूल रूप से रिकॉर्ड हुआ।
दूसरा जो आरोपियों की पसन्द की हेरफेर किए जाने के बाद वजूद में आया और रिकॉर्ड में फाइल किया गया।
कैसे गोरे उन कागजात की कापियां हासिल कर पाया था, वो नहीं जान सकता था। वो सब करने वाला, कर सकने वाला, उसकी पहुंच से, पकड़ से दूर था।
वो जेरोक्स कापियां रिश्वत वाले वीडियो से ज़्यादा डैमेजिंग साबित हो सकती थीं।
हरामज़ादा, कुत्ता! आस्तीन का सांप! गोद में बैठ के दाढ़ी मूंड गया!
बहरहाल अब वो सेफ था, निश्चिंत था।
गोरे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सका था जबकि गोरे का उसने सब कुछ बिगाड़ दिया था। उसे जहन्नुम की राह का राही बना दिया था।
साला नहीं जानता था कि किस को दश्मन बना रहा था, जानता होता तो हरगिज़ उसकी मुखालफ़त की जुर्रत न करता।
डबल कनफर्मेशन के लिए उसने रॉड के एक सिरे पर आंख लगाई और दूसरे का रुख ट्यूब लाइट की तरफ करके भीतर झांका।
रॉड के भीतर और कुछ नहीं था।
जबकि पैन ड्राइव भी रॉड में छुपाई जा सकती थी।
ज़रूर श्याना अपने कब्जे में उपलब्ध सारी विस्फोटक सामग्री एक ही जगह नहीं छुपाना चाहता था।
उसने कर्टेन रॉड पर्दे समेत यथापूर्व शावर के आगे दीवार में फिट की और तमाम बरामद कागजात को वहीं जलाकर, राख कमोड में बहा दी।
अब दो काम और अभी बाकी थे।
उसने जेब से पोलीथीन की थैली में महफूज़ मर्डर वैपन गन निकाली और इंसलेशन टेप – जो कि वो साथ लाया था- की सहायता से गन को फ्लश की टंकी के ढक्कन के भीतर की तरफ फिक्स कर दिया और ढक्कन यथास्थान पहुंच दिया।
गोरे की खुदकुशी के बाद जब मौका-ए-वारदात की – उसके फ्लैट की – पड़ताल होती तो वो गन बरामद होके रहती और उसके बारे में विवेचन अधिकारी का यही फैसला होता कि वो ख़ुद गोरे ने वहां छुपाई थी। बाद में उस गन का मर्डर वैपन साबित होना और उस पर मौजूद गोरे के फिंगरप्रिंट्स की वजह से गोरे का मर्डरर साबित होना महज़ वक्त की बात होती।
अनिल गोरे, सब-इन्स्पेक्टर तारदेव स्टेशन हाउस, ने जब कानून के लम्बे हाथ अपनी गर्दन की तरफ बढ़ते पाये तो घबरा कर खुदकुशी कर ली।
दूसरे काम को अंजाम देने के लिए वो बैडरूम में वापिस लौटा।
बैडरूम की बिल्ट-इन वॉर्डरोब के नीचे एक दराज़ था जो वॉर्डरोब की पूरी चौड़ाई जितना ही चौड़ा था इसलिए उसको बाहर खींचने के लिए उस पर आजू बाजू लगे दो हैंडल थामने पड़ते थे। वो जानता था कि वैसा दराज़ जूते रखने के काम आता था। उसने दराज़ खोला और उसके भीतर झांका।
दराज़ का वही इस्तेमाल उसने पाया तो उसके जेहन में था।
जूतों के खाली डिब्बों और चप्पलों के अलावा उसमें चार जोड़ी जूते थे जिनमें से एक ब्राउन जोड़ी बिल्कुल नई थी और बाकी के तीन जोड़ी जूते काले थे और काफी पहने गए जान पड़ते थे। अपने मकसद के लिए उसने सबसे पुराना जूता छांटा और तसदीक की कि वो आठ नम्बर का था। दराज़ में ही एक पोलीथीन का बैग था जिसमें उसने वो जते डाले और दराज़ बन्द कर दिया।
अब उसकी सारी ज़रूरतें पूरी हो चुकी थीं।
अपनी नापाक, नामुराद करतूत से पूरी तरह से राजी हाकिम आखिर बैठक में वापिस लौटा जहां कि ख़ुदकुशी की साजिश को फिनिशिंग टच देना अभी बाकी था। उसने वहां रौशनी की और ये देखने के लिए कि सब ऐन चौकस था, आखिरी बार वहां के माहौल का नज़ारा किया।
सेंटर टेबल पर से गुजरती उसकी निगाह एकाएक ठिठकी।
व्हिस्की की बोतल के पहलू में जो इकलौता गिलास सेंटर टेबल पर पड़ा था, उसके रिम पर लिपस्टिक के दाग थे।
देवा!
फ्लैश की तरह उस गिलास का मतलब उसके ज़ेहन पर चमका।
उसकी वहां आमद से पहले गोरे किसी लड़की की सोहबत में था, उसके साथ बाकायदा ड्रिंक्स शेयर कर रहा था। कॉलबैल बजने पर जरूर उसने बाजरिया पीप होल देख लिया था कि आगन्तुक कौन था। तभी उसने ड्रिंक्स का वो साजोसामान मेज़ पर से हटवाया था जो फ्लैट में किसी की – किसी ज़नाना जोड़ीदार की - मौजूदगी की चुगली करता था और उस वक्त की अफरातफ़री में जोड़ीदार गलत गिलास पीछे छोड़ गई थी और इस बात की तरफ गोरे की तवज्जो नहीं गई थी।
जोड़ीदार!
लड़की!
गोरे की पक्की या वक्ती माशूक!
क्या बड़ी बात थी! ‘बीवी मेरी घर नहीं, मुझे किसी का डर नहीं’ के तहत क्या बड़ी बात थी! लिपस्टिक से दाग़दार हुआ ड्रिंक का गिलास साफ तो ज़ाहिर कर रहा था कि उसकी आमद के वक्त गोरे के साथ उसकी कोई फीमेल कम्पैनियन थी!
कहां? कहां थी?
फ्लैट से निकासी का एक ही रास्ता था जिस पर कॉलबैल का जवाब पाने के लिए वो मौजूद था! इस लिहाज़ से तो लड़की को - जो कोई भी वो थी – भीतर ही कहीं होना चाहिए था।
उसने गन निकाल कर हाथ में ले ली और सारे फ्लैट में फिर गया।
कहीं कोई नहीं था।
किचन में ड्रिंक के बाकी साजोसामान से लैस वो ट्रे पड़ी थी जो कॉलबैल बजने पर बैठक से हटाई गई थी। गोरे ख़ुद वो काम नहीं कर सकता था। उसने किया होता तो उसने बैठक में ड्रिंक का बाकी सामान भी न छोड़ा होता।
क्या माजरा था?
फिर उसकी तवज्जो मेन डोर की चिटकनी की तरफ गई जो कि नीचे गिरी हुई थी, जबकि उसे बाख़बी याद था कि उसके बैठक में कदम रखने के बाद उसने ख़ुद गोरे को वो चिटकनी बदस्तूर चढ़ाते देखा था।
कोई फ्लैट से निकल कर गया था और तलाशी की अपनी मसरूफ़ियत में उसे उसके जाने की ख़बर क्या, भनक तक नहीं लगी थी।
लानत!
अब कोई लड़की उसकी वहां की हर करतूत की गवाह थी।
एक समस्या अभी हल हुई नहीं थी कि अब पहले से बड़ी दूसरी समस्या मुंह बाए उसके सामने खड़ी थी।
देवा!
बड़ी मुश्किल से उसने अपने होशोहवास को काबू में किया और आइन्दा कार्यवाही में जुटा।
ख़ामोशी से वो फ्लैट से बाहर निकला।
वहां आती बार उसने नोट किया था कि वहां आजू-बाजू के फ्लैट्स के बीच से ऊपर को सीढ़ियां जाती थीं जो ऊपर के तमाम फ्लैट्स के लिए कॉमन होने की वजह से पूरी तरह से रौशन नहीं थीं। प्रत्यक्ष था कि सीढ़ियों का कोई बल्ब फ्यूज़ हो जाता था तो मुझे क्या’ वाले रवैए के तहत कोई भी उसकी तरफ तवज्जो नहीं देता था। तब पहली मंजिल को जाती सीढ़ियों के बीच में जो बल्ब था, वो फ्यूज था इसलिए दूसरी मंजिल की सीढ़ियों से प्रतिबिम्बित होती बहुत कम रौशनी वहां थी और रात की उस घड़ी सीढ़ियों में सन्नाटा था।
बढ़िया!
सीढ़ियों के पहलू की दीवार पर दोहरी कतार में बिजली के दस मीटर थे और हर मीटर का मेन स्विच था। उसने क्षण भर के लिए बारी-बारी एक-एक स्विच ऑफ और फिर फौरन ऑन करना शुरू किया।
छटा मेन स्विच - जो कि नीचे की, दूसरी कतार में बाएं से पहला था - ऑफ करते ही गोरे के फ्लैट की बत्तियां बुझ गईं।
अब उसे गोरे के फ्लैट के बिजली के कनैक्शन की ख़बर थी।
मेन स्विच के बक्से के भीतर एक एमसीबी (मिनियेचर सर्कट ब्रेकर) लगा हुआ था जिसे उसने गिरा दिया और बक्सा बन्द कर के मेन स्विच वापिस ऑन कर दिया।
एमसीबी गिरा होने की वजह से गोरे के फ्लैट की बत्तियां तब भी बुझी रहीं।
वो वहां से हटा और जतों वाले बैग को सम्भाले इमारत के परले पहल की ओर बढ़ा, जहां कहीं वो बैग छुपाने का उसका इरादा था, लेकिन जल्दी ही उसे अपना इरादा तर्क करना पड़ा। अभी कदम ने वहां पहुंचना था जो कि उसका मुंह लगा मातहत था। अपने आला अफसर को रुख़सत करने के लिए वो उसके साथ बाहर तक आ सकता था और यूं जूतों वाले बैग को काबू में करना उसके लिए मुमकिन न हो पाता।
यही बात सड़क पर भी लागू थी। कदम उसके साथ कम्पलैक्स के बाहर तक आने की ज़िद कर सकता था।
कई क्षण उसने उस समस्या पर विचार किया, फिर बैग को तिलांजलि देकर जूतों को उसने अपने कोट की दो भीतरी जेबों में लूंस लिया। वो डबल बैरल आदमी था इसलिए उसका कोट भी काफी बड़ा था। भीतरी जेबों में जूते होने की वजह से कोट बाहर को उभर आया था लेकिन रात के अन्धेरे में शायद ही किसी की निगाह में वो फर्क आता, आता भी तो कौन उससे उस बाबत सवाल करने की जुर्रत करता!
वो फ्लैट में वापिस लौटा। उसने मेन डोर की भीतर से चिटकनी वापिस चढ़ाई और मोबाइल निकालकर अपने मुंहलगे मातहत एसआई रवि कदम को फोन किया।
तत्काल उत्तर मिला।
“भारकर बोलता हूँ।” – भारकर धीमे, सन्तुलित स्वर में बोला – “एसआई गोरे का घर मालूम?”
“मालूम।” – जवाब मिला – “धोबी तलाव में है।”
“बढ़िया। अभी का अभी उधर जाने का। साथ में दो सिपाही ले के जाने का।”
“ऐसा!”
“हां। बोलने का एसएचओ ने थाने तलब किया। आने में हुज्जत करे तो पकड़के ले के आने का।”
“जी!”
“इसी वास्ते दो सिपाही साथ ले के जाने को बोला। क्या!”
“सर, ग्यारह बजने को हैं! अगर सुबह . . .”
“नहीं। अभी।”
“सर, अपना, अपने थाने का अफसर है, अगर .....”
“कदम! अभी क्या मैं ख़ुद जाए ये काम के वास्ते?”
“नो, सर। मैं . . . जाता हूँ।”
“हां। और इमिजियेट रिपोर्ट करने का।”
“यस, सर।”
भारकर ने फोन बन्द करके जेब के हवाले किया और प्रतीक्षा करने लगा।
दस-बारह मिनट में कदम अपने गन्तव्य स्थल पर पहुंच गया।
फ्लैट के मुख्यद्वार के बाहर से एक से ज़्यादा पदचाप सुनाई दीं।
कॉलबैल बजी।
जवाब नदारद।
फिर बजी।
सन्नाटा।
“लगता है घर पर कोई नहीं है।” – एक सिपाही की आवाज़ आई।
“बीवी मायके में।” – एसआई कदम की आवाज आई – “मेरे को मालूम। ये टाइम किधर जाएगा!”
“सो गया होयेंगा।” – दूसरे सिपाही की आवाज आई।
“या” – पहला बोला – “कहीं तफरीह मारता होयेंगा।”
“बोले तो” – कदम बोला – “घन्टी किधर बजी! मेरे को तो किधर बजने की आवाज आई नहीं! दोनों टाइम नहीं आई!”
“ख़राब होगी!”
“उधर एक कुर्सी पड़ी है। दरवाज़े के पास ले के आ।”
“काहे?”
“रोशनदान खुला है। मेरे को भीतर झांकने का।”
“पण काहे, साब?”
“अरे, आवाज लगाऊंगा नाम ले के! घन्टी खराब बोला कि नहीं बोला! गोरे साहब अभी सोता होगा तो आवाज़ सुनकर उठा जाएगा।”
“ओह! ठीक।”
बाहर से किसी के कुर्सी पर चढ़ने की आहट मिली।
भारकर दबे पांव दालान में सरक आया।
“देवा रे!” – एकाएक कदम की आतंकित आवाज आई – “देवा रे!”
“क्या हुआ साब?”
“अरे, कोई पंखे से लटका झल रहा है। अन्धेरे में भी साफ पता लग रहा है।”
“क-कौन?”
“मालूम नहीं।”
“आदमी कि औरत?”
“नहीं मालूम। खाली एक जिस्म बोले तो। म-मैं . . . एसएचओ साहब को फोन लगाता हूँ।”
भारकर ने जानबूझ कर फोन की घन्टी ऑफ कर दी हुई थी, फोन वाइब्रेटर मोड पर था, तत्काल उसने कॉल रिसीव की।
“साहब ...”
कदम ने आशंकित, आतंकित भाव से जो देखा, जल्दी-जल्दी बयान किया।
“दरवाजा तोड़ दो।” – भारकर ने आदेश दिया।
“जी!”
“ज़बरदस्ती खोलो।”
“सर, फ्लैट में अन्धेरा है। लगता है कनैक्शन को कुछ हो गया है। पहले बिजली का न पता करें कि क्यों नहीं आ रही ....”
“नहीं। पहले जैसे-तैसे दरवाजा खुलवाओ। हो सकता है जो हुआ है, वो अभी हुआ हो। वो अभी टंगा हो और अभी ज़िन्दा हो!”
“ओह!”
“चिटखनी की जगह पर किसी भारी चीज से चोट मारो। भीतर से चिटखनी की आंख उखड़ जाएगी तो झट दरवाज़ा खुल जाएगा।”
“अभी, सर।”
“लाइन चालू रखने का। मैं होल्ड करता हूँ।”
कुछ क्षण बाद दरवाज़े पर किसी भारी चीज की चोट पड़ी।
दरवाज़ा खुल गया।
कदम लपक कर भीतर दाखिल हुआ।
भारकर फ्लैट के और भीतर सरक गया।
बैठक में हल्की सी रौशनी हुई। शायद किसी ने मोबाइल की टार्च ऑन की थी।
“सर!”– फिर कदम का आतंकित स्वर सुनाई दिया – “गोरे! ख़ुदकुशी कर ली!”
“ओह! गिरफ्तारी से डर गया, इसलिए। अब बत्ती की ख़बर लो। सब जने फ्लैट से बाहर निकलो और दाएं-बाएं मेन स्विच तलाश करो। कोई लोकल बाशिन्दा दिखाई दे जाए तो मदद के लिए उसको पकड़ो।”
“यस, सर।”
“आउट! क्विक!” अफ़रातफ़री में बाहर जाते कदमों की आवाज़ आई।
भारकर ने फोन बन्द करके आगे कदम बढ़ाया, दालान पार किया और बैठक की चौखट पर पहुंचा। उसकी अपेक्षानुसार वहां कोई नहीं था। वो मेन डोर पर पहंचा। सावधानी से उसने बाहर झांका तो पाया कि बाहर भी कोई नहीं था। वो और आगे बढ़ा तो वो लोग उसे सीढ़ियों के पास मीटरों की तरफ पीठ किए खड़े दिखाई दिए। अब उनमें कॉलोनी के बाशिन्दे भी शामिल थे।
भारकर ने चुपचाप बरामदा पार किया और दबे पांव सीढ़ियों से विपरीत दिशा में बढ़ा। वो परली तरफ ब्लॉक की ओट में पहुंचा ही था कि फ्लैट की बत्ती आ गई। फिर मेन डोर की ओर बढ़ते कई कदमों की आहट हुई।
भारकर ख़ामोशी से ठिठका खड़ा प्रतीक्षा करने लगा।
“अरे, ये गोरे साहब ही हैं। नीचे उतारो! जल्दी! किचन में कहीं छुरी होगी। लाके रस्सी काटो।”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“अरे, ऐसे नहीं! ऐसे नहीं। पहले दो जने टांगे पकड़ो। फिर रस्सी कटते ही बॉडी को सम्भालो। . . . हां, हां . . . ऐसे ही . . . ऐसे ही।”
भारकर आगे बढ़ा और बरामदे की दो सीढ़ियां चढ़ कर मेन डोर पर पहुंचा। उसके बैठक में कदम डालते ही कदम की उस पर निगाह पड़ी।
“सर, अच्छा हुआ आप आ गए।” – अपने थानाध्यक्ष को देखते ही कदम ने चैन की लम्बी सांस ली – “यहां तो बड़ा कांड हो गया . . .”
उस वक्त की अफरातफरी में कदम को अपने उच्चाधिकारी से सवाल करना न सूझा कि वो इतनी जल्दी मौका-ए-वारदात पर कैसे पहुंच गया था। अगर वो थाने में था तो यूं चुटकियों में धोबी तलाव नहीं पहुंच सकता था, कहीं आसपास था तो तभी क्यों न पहंचा जब दरवाजा तोड़ देने का हक्म जारी कर रहा था।
“. . . सर, गोरे ने ख़ुदकुशी कर ली।”
“मुझे इसी बात का अन्देशा था।” – भारकर गम्भीरता से बोला।
“आ-आप को प-पहले से अन्दाज़ा था वो ऐसा करेगा?”
“हां।”
“सर, गुस्ताखी माफ, रोकने की कोई जुगत करनी चाहिए थी!”
“की थी। उसे थाने तलब किया था ताकि उसे अपनी सफाई देने का मौका मिल पाता। लेकिन अपने अंजाम से ख़ौफज़दा वो पहले ही हिम्मत हार बैठा। नतीजा तुम्हारे सामने है।”
“नतीजा!”
“हां, भई, नतीजा।”
“खुदकुशी कर ली!”
“और क्या! जब घर में उसके अलावा कोई नहीं था और दरवाज़ा भीतर से बन्द था जो तोड़कर खोला गया तो और क्या किया!”
“और क्या किया!”
“अरे, मैं तेरे से पूछ रहा हूँ।”
“वही किया जो हुआ दिखाई दिया।”
“तो?”
कदम ने जवाब न दिया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“मेरे पास उसके खिलाफ ओपन एण्ड शट केस था। वो नहीं बच सकता था। ख़ुदकुशी के सिवाय उसके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था। बाज लोगों की दिलेरी ऊपरी होती है, अन्दर से बहुत कमजोर होते हैं, प्रैशर नहीं झेल पाते। क्या!”
“जी हां। अब मेरे लिए क्या हुक्म है?”
“मेरे को थाने जाने का। ये महकमे के अफसर का केस है, शायद रिपोर्ट के लिए ऊपर से हुक्म आए। प्रोसीजर के अलावा भी और इधर सब सम्भालना। बैक अप की ज़रूरत हो तो बुलाना। मैं चलता हूँ।”
कदम ने सहमति में सिर हिलाया।
□□□
सुबह के साढ़े दस बजने को थे जब थानाध्यक्ष भारकर ने एसआई कदम को तलब किया।
कदम ने मुस्तैदी से सैल्यूट मारा।
“बैठ।” – भारकर बोला।
“थै क्य, सर।”
“शत कैसी बीती?”
“ठीक! ख़ुदकुशी का ओपन एण्ड शट केस था।”
“हूँ”
“लेकिन हैरानी है कि गोरे ने ....”
“हैरान बाद में हो लेना फुरसत से, इत्मीनान से। अभी मेरे को ज़्यादा ज़रूरी बात करने का। सुन रहा है न!”
“हां, सर। बराबर।”
“तू माल खाने का इंचार्ज है।”
“हां, सर।”
“कैसा इंचार्ज है? ड्यूटी ठीक से नहीं कर सकता?”
“ड्यूटी!” – कदम हड़बड़ाया – “मैं?”
“हां, त। तेरे से ही बात कर रहा हूँ मैं।”
“सर, कोई गड़बड़?”
“हां।”
“क्या हआ?”
“मालखाने से तुलसीवाडी वाले केस के सस्पैक्ट शूटर का पीओपी मोल्ड गायब है।”
“जी!”
“प्लास्टर ऑफ पैरिस के घोल से बना मौका-ए-वारदात पर मिली जूते की छाप का सांचा जो लैब वालों ने उनका काम हो जाने के बाद हमें सौंप दिया था। जो तेरे हवाले था। जो तूने मालखाने में जमा कराया था, नहीं?”
“हां। लेकिन ...”
“गायब है। मालखाने में नहीं है।”
“नहीं है?”
“और मैं क्या बोला!”
“सर, ऐसा कैसे हो सकता है?”
“तू बोल, तू इंचार्ज है मालखाने का।”
“सर वो मैं इसलिए हूँ क्योंकि किसी ने तो होना ही होता है वर्ना काम तो स्टाफ ही करता है।”
“ठीक! लेकिन ज़िम्मेदारी तो इंचार्ज की बनती है न, जो कि तू है!”
“सर, बोले तो मैं तो नाम का इंचार्ज हूँ। आप थाने के मालिक हैं, असल में तो थाने का सब कुछ आपके ही चार्ज में है।”
“क्यों भई, मेरे पर इलज़ाम लगा रहा है कि वो मोल्ड मैंने खो दिया?”
“सर, ये मैंने कब कहा?”
“कहने में कसर भी क्या छोड़ी!”
पहले से हड़बड़ाए कदम के मुंह से बोल न फूटा।
“तुलसीवाडी का मर्डर केस अब कोई मामूली केस नहीं रहा। कल हालात ने जो करवट बदली है, उसकी रू में ये बहुत अहम, एक हाईफाई केस बन गया है। पहले शूटर, जो कोई भी था, हमारे लिए काला चोर था। अब पता चला है कि शूटर हमारा अपना पुलिस ऑफिसर, हमारा अपना सब-इन्स्पेक्टर था। अब ये जो राज फ़ाश हुआ है, इससे ये केस बहुत अहम हो गया है, इसलिए कातिल के फुटप्रिंट का मोल्ड अब अहमतरीन हो गया है। वो मोल्ड अब कातिल के खिलाफ – जो अब हमें मालूम है कि एसआई गोरे था – एक बड़ा सबूत बन कर सामने आने वाला है।”
“सर, यकीन नहीं होता कि ....”
“अपनी बेयकीनी अपने पास रख। प्रत्यक्ष को प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती। अगर एसआई गोरे गुनाहगार नहीं था तो क्यों उसने ख़ुदकुशी कर ली?” - भारकर एक क्षण ठिठका, फिर अपने मातहत को घूरता बोला – “या तेरे को ये ख़ुदकुशी का केस होने पर भी शक है?”
“कैसे होगा, सर!”– पहले से हड़बड़ाया कदम और हड़बड़ाया- “प्रिमिसिज़ को जबरन खोलकर पंखे से झूलती लाश बरामद की गई, कैसे होगा?”
“तो?”
“अब मैं क्या बोलूं?”
“कल रात मौका-ए-वारदात के हालात तेरे से बेहतर गवाह बन गए हैं इसलिए उस बाबत तो तू कुछ न ही बोले तो बेहतर होगा। अभी तो ये बोल कि मालखाने से पीओपी मोल्ड कैसे गायब हो गया?”
“सर, मैं क्या बोलू! मेरे को तो कुछ सूझ नहीं रहा। मैं तो हैरान हूँ कि कैसे कोई चीज़ मालखाने से गायब हो सकती है जबकि वहां तो पुलिस की पकड़ में आया एक से एक कीमती सामान मौजूद है!”
“तो?”
“तो सर, इस बात की तफ़्तीश होनी चाहिए कि कैसे कोई आइटम मालखाने से गायब हो गई! थाने में ही ऐसी वारदात होने लगें तो...”
“कदम, अपने जोश को काबू में कर। इस हाय-हाय का ये वक्त नहीं है।”
कदम को जैसे ब्रेक लगी।
“इस बात को इस वक्त उछालेगा तो सबसे बड़ी जवाबदारी तेरी ही बनेगी। तू चाहता है ऐसा हो?”
मशीनी अंदाज से कदम का सिर इंकार में हिला।
“अब बोल, जो दुश्वारी सामने है, उसका कोई हल ये टाइम तेरे मगज में है?”
“नहीं, सर। लेकिन आपके मगज में तो होगा न बरोबर वर्ना आपने ये किस्सा ही न छेड़ा होता! आप मालिक हैं सर, आप बताइए न कोई हल?”
“मैं बताऊं?”
“हां, सर। दरख्वास्त है।”
“ओके। तू मेरा अजीज़ है, मेरा वफ़ादार है, इसलिए बताता हूँ।”
“थैक्यू, सर।”
“अभी ये बात खुली नहीं है कि मालखाने से मोल्ड गायब है। इत्तफाक से अभी ये बात सिर्फ मेरे को मालूम है। सुबह मैं किसी दूसरी चीज़ की पड़ताल के लिए मालखाने में गया था तो मेरे नोटिस में आया था कि वो मोल्ड जहां होना चाहिए था, वहां नहीं था। तब मैंने तब तक ख़ामोश रहने का फैसला किया था जब तक इस बाबत मेरी तेरे से बात न हो जाती। क्या!”
“शुक्रिया, सर। मैं मशकूर हूँ।”
“अब तेरी . . . तेरी बोला मैं . . . इस प्रॉब्लम का हल यही है कि मोल्ड जहां होना चाहिए था, वहीं पाया जाए। यानी उसे मालखाने में वापिस रिप्लेस किया जाए।”
“कैसे?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! वैसे नए मोल्ड का इन्तजाम किया जाए।”
“सर, गुस्ताख़ी माफ, फिर पूछ रहा हूँ, कैसे? कैसे होगा ये काम?”
“इत्तफाक से बहुत आसानी से होगा। वो क्या है कि मेरे पास . . . कातिल का जूता है।”
“जी!”
“अब ये न पूछना कि कहां से आया! बस, आया कहीं से। तू इसे तेरे मेरे बीच की, आपसदारी की बात समझ। क्या!”
कदम का सिर सहमति से हिला।
“वो जूता मैं तेरे हवाले कर दूँगा। फिर उस जूते की मदद से तेरे को नया मोल्ड बनाने का और मालखाने में रखने का ताकि खानापूरी हो।”
“लेकिन, सर, ये . . . ये क्या मुनासिब होगा?”
“गैरमुनासिब भी क्या होगा?”
“सर, थाने से एक चीज गायब हो गई तो आखिरकार तो ज़िम्मेदारी, गुस्ताख़ी माफ, थानाध्यक्ष की ही बनती है!”
“क्या कहने! हमारी बिल्ली हमसे ही म्याऊं?”
कदम ने बेचैनी से पहलू बदला।
“ठीक है, बनती है बराबर। मालखाने का इंचार्ज तू, लेकिन थाने का ओवरआल इंचार्ज होने की वजह से मैं ज़िम्मेदार। अभी क्या होगा?”
“क-क्या होगा?”
“ये होगा कि मेरे पर जो एक्शन होगा, वो जैसे-तैसे मैं भुगत लूँगा। बोले तो मेरी ट्रांसफर हो जाएगी। मेरे को लाइन हाज़िर कर दिया जाएगा। लेकिन तेरी तो नौकरी ही जाएगी।”
“जी!”
“मालखाने के इंचार्ज के तौर पर तेरे पर बराबर इलज़ाम आएगा कि मोटी रिश्वत खाकर तूने मोल्ड को मालखाने से गायब कर दिया।”
“मोटी रिश्वत! कौन देगा?”
“जिसके जूते का मोल्ड था।”
“वो तो . . . वो तो मर गया!”
“अगर किसी रिश्वत देने वाले का वजूद है तो नहीं मर गया। वो जूते की छाप किसी जुदा शख़्स को कातिल करार देती लगे तो उस शख़्स को बचाने के लिए उसके तरफ़दार, तू ख़ुद सोच कि क्या कुछ नहीं कर गुज़रेंगे!”
“सर, आप मुझे उलझा रहे हैं। माफी के साथ अर्ज़ है आप केस में नाहक धुंडी डाल रहे हैं। अगर जूते का मोल्ड मालखाने से – कैसे भी, रिश्वत से या कैसे भी — गायब कराया गया है तो कातिल वो है जिसने अपने जूते की छाप मौका-ए-वारदात पर छोड़ी, जिसके जूते की छाप का कि मोल्ड था। फिर अपना एसआई गोरे कातिल क्योंकर हुआ? क्यों और कौन से अंजाम से खौफ खाकर उसने ख़ुदकुशी कर ली?”
“उस ख़ुदकुशी में बहुत भेद हो सकते हैं जो अभी खुलने हैं और खुलते खुलते खुलेंगे। लेकिन जूते का पीओपी मोल्ड तो मालखाने से अभी गायब
“मैंने नहीं किया।”
“मोल्ड गायब है। गायब है तो किया।”
“देवा रे! ये क्या गोरखधन्धा है?”
“कोई गोरखधन्धा नहीं है। अगर वफ़ादार है . . . है न?”
“पूरा। सौ टांक।”
“तो वफादार बन के रह। और जैसा मैं कहता हूँ वैसा कर। जवाब एक ही बार में दे। हां या न में दे।”
“हां।”
“क्या?”
“करता हूँ।”
“बढ़िया! कितना टाइम लगाएगा? कम से कम बोल।”
“श-शाम तक। क्योंकि ये काम यहां होने वाला नहीं। घर जाके करना होगा।”
“कर लेगा?”
“हां।”
“सब प्रोसीजर मालूम?”
“मालूम।”
“हाफडे की लीव अप्लाई कर और घर जा। शाम से पहले मोल्ड के साथ लौट। कोशिश कर कि लंच ब्रेक तक ये काम हो जाए। कदम, शाम ही नहीं कर देने का।”
“वो .... जूता!”
पोलीथीन के बैग में रखा एक जूता भारकर ने उसे सौंपा।
झिझकते हुए, सावधानी से कदम ने जूते का मुआयना किया।
भारकर ने एतराज़ न किया। वो धीरज से उसे वो काम करता देखता रहा।
आखिर कदम ने जते पर से सिर उठाया।
“आठ नम्बर!” – वो दबे स्वर में बोला।
“हां।” – भारकर सहज भाव से बोला।
“मोल्ड तो नौ नम्बर के जूते का था!”
“जो चीज़ है नहीं, उसके बारे में तेरे को क्या मालूम!”
“आइडेन्टिकल साइज़ के जूते से मोल्ड को नाप कर देखा जाता है, सर। प्रोसीजरल बात है।”
“फिज़ीकल पैमायश में ऊंच-नीच हो जाती है।”
कदम ने चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए।
“अरे, आठ नम्बर कैसे बनता है? – भारकर तनिक झल्लाया।
“क-कैसे बनता है?”
“ऊपर-नीचे एक दूसरे से जुड़े दो गोल दायरे होते हैं, ऐसे बनता है। नहीं?”
“हं-हां।”
“पुराना जूता था, इस्तेमाल में आते-आते नीचे का गोल दायरा बाईं ओर से घिस गया तो ‘आठ’ ‘नौ’ ही तो लगेगा!”
“सर, साथ आई रिपोर्ट में भी तो ऐसा लिखा था!”
“आठ को नौ पढ़ा रिपोर्ट बनाने वाले ने। क्यों ऐसा पढ़ा, अभी बोला न तेरे को!”
“हां, बोला तो! लेकिन ऐसी कोताही .....”
“होती है, होती है। ये मुम्बई पुलिस है, स्काटलैंड यार्ड नहीं है, एफबीआई नहीं है।”
“वो तो ठीक है, सर, लेकिन ...”
“अभी भी लेकिन! अरे, क्यों छोटी सी बात का बतंगड़ बनाता है? वो कोताही नहीं तो अनजाने में हुई क्लैरिकल मिस्टेक होगी या वो वजह होगी जो मैंने अभी बयान की।”
“रिपोर्ट के साथ दो फोटोग्राफ भी थे!”
“बहुत वहमी है। फोटोग्राफ सोल के मोल्ड के थे। सोल पर, तले पर नम्बर नहीं होता। नम्बर जूते के अन्दर वहां होता है, पहने जानते पर जहां पांव की एड़ी टिकती है और जिस जूते की छाप से मोल्ड बना था, वो इस इन्स्पेक्शन के लिए उपलब्ध नहीं था . . . जैसे कि तेरे हाथ का जूता तेरी इन्स्पेक्शन के लिए उपलब्ध है।”
“हूँ”
“कोई और शंका?”
“जी, कोई नहीं।” — वो उठ खड़ा हुआ – “चलता हूँ।”
“जल्दी लौटने की कोशिश करना। फिर ताकीद है, कदम, शाम की बात हुई है तो शाम करके ही न लौटना।”
“जल्दी लौटूंगा, सर।”
लैंडलाइन की घन्टी बजी।
अनायास ही भारकर की निगाह ऑफिस की वॉल क्लॉक पर पड़ी।
एक बजने को था।
उसकी तवज्जो बार-बार एसआई कदम की ओर जाती थी।
आता ही होगा! – उसने मन ही मन सोचा। उसने हाथ बढ़ाकर क्रेडल पर से रिसीवर उठाया और माउथपीस में बोला – “हल्लो !”
“एसएचओ साहब बोलते हैं?” – एक भारी खरखराती मर्दाना आवाज़ उसके कान में पड़ी – “मल्लबकि तारदेव थाने के थानाध्यक्ष बोलते हैं?”
“हां।”
“सर, मैने आप से एक बहुत ज़रूरी बात करनी है, जो कि ख़ास आपके मल्लब की है इसलिए उतावला नहीं होना। लाइन नहीं काटना।”
“मेरे मतलब की बोला?”
“हां।”
“मेरे यानी इन्स्पेक्टर उत्तमराव भारकर के मतलब की जो कि तारदेव स्टेशन हाउस का स्टेशन हाउस ऑफिसर है?”
“हां।”
“मेरे को जानते हो?”
“नहीं। ख़ाली नाम और पोस्ट से वाकिफ मैं।”
“नाम बोलो अपना।”
“आखिर तो बोलना ही पड़ेगा लेकिन अभी नहीं।”
“क्यों ?”
“मैं बात कर चुडूंगा तो आप ख़ुद ही समझ जाएंगे।”
“करो।”
“फिल्में देखते हैं?”
“वाहियात सवाल है लेकिन . . . कॉल रिसीव की है तो . . . हां, भई, देखते हैं।”
“गुड। मेरे पास एक फिल्म है जो आपको ज़रूर-ज़रूर देखनी चाहिए, मल्लबकि सौ काम छोड़ के देखनी चाहिए।”
“अच्छा !”
“जी हां। नहीं देखेंगे तो नुकसान आप ही का होगा।”
“कहां है फिल्म?”
“मेरे पास है। शॉर्ट फिल्म है, मेरे पास है।”
“तुम्हारे पास है तो मेरे को कैसे दिखाई देगी?”
“मैं दिखाऊंगा न! मल्लबकि आपको फॉरवर्ड करूँगा।”
“कैसे?”
“लैंडलाइन पर तो फॉरवर्ड नहीं कर सकता, मोबाइल नम्बर आपका मुझे मालूम नहीं, ई-मेल आइडेन्टिटी भी नहीं मालूम। लैंडलाइन का नम्बर भी इसलिए मालूम क्योंकि थाने के बाहर लगे थाने के साइन बोर्ड पर लिखा था। तीन लैंडलाइन नम्बर वहां दर्ज थे, बारी-बारी बजाए तो तीसरा आपका निकला। मल्लबकि यूं आपसे बात हो गई।”
“आगे?”
“आगे वो शॉर्ट फिल्म जो मैं आपको फॉरवर्ड करना चाहती हूँ। आप उसे देखना चाहते हैं, मल्लबकि जानना चाहते हैं कि उस फिल्म में ख़ास क्या है, खास आपके मतलब का क्या है, तो मेहरबानी करके अपना मोबाइल नम्बर शेयर कीजिए।”
“किस से शेयर करूँ? अपना कोई परिचय दोगे, अपने बारे में कुछ बोलोगे तो शेयर करूँगा न!”
“पहले करो।”
“ये तो नहीं हो सकता!”
“नहीं हो सकता! क्या भूल गए हो कि कहां फोन किया है! पुलिस चुटकियों में...”
“नहीं कर सकेगी। कुछ नहीं कर सकेगी। आपकी लैंडलाइन पर कॉलर आइडेंटिटी की सुविधा है तो भी नहीं कर सकेगी।”
“क्यों भला?’
“क्योंकि कॉल खत्म होते ही मेरा इरादा मोबाइल को सिम समेत समुद्र में फेंक देने का है।”
“ओह! लेकिन सिम समेत क्यों? खाली सिम क्यों नहीं?”
“मोबाइल खोने से मेरे को कोई फर्क नहीं पड़ता। चोर बाजार में जो चोरी के फोन धड़ल्ले से बिकते हैं, कई बार उनमें सिम भी मौजूद होता है, मल्लबकि ऐसा फोन चालू कनैक्शन वाला होता है....”
“ऐसा फोन पुलिस बड़ी आसानी से ट्रेस कर लेती है।”
“अगर कीमती, हाई एण्ड फोन हो तो। तभी लोगबाग फोन खोने या चोरी हो जाने की रिपोर्ट दर्ज कराते हैं। आजकल तो हज़ार से भी कम में नया फोन मिल जाता है - पुराना और भी कम में मिल जाता है - तो ऐसे सस्ते फोन की रिपोर्ट दर्ज कराने की ज़हमत कौन करता है!”
“श्याने हो काफी!”
“मल्लबकि कॉल करवाना ट्रेस खुशी से। मेरा काम तो हो गया! मेरे चोरी के फोन बमय सिम का काम तो हो गया! मेरे को तो अब कॉल डिसकनैक्ट करने का।”
“अभी रुको। प्लीज़ा”
“प्लीज़ बोला तो . . . ओके।”
“फिल्म की बाबत कुछ बताओ। क्या है उसमें?”
“कुछ बताने की ज़रूरत किधर, अगरचे कि पहले फिल्म देख लेते।”
“फिर भी कुछ बताओ। इसलिए बताओ क्योंकि तुमने मुझे भारी सस्पेंस में डाल दिया है।”
“आप चाहते हैं मैं लम्बी बात करूँ, जो कि मैं फिल्म की बाबत बोलूँगा तो मुझे करनी पड़ेगी, और आप इस कॉल को ट्रेस करवाने में लग जाएं!”
“अरे, नहीं।”
“आप अभी मुझे अपना मोबाइल नम्बर और ई-मेल आइडेन्टिटी बताइए। नहीं बताएंगे या बताने में इरादतन लम्बी हुज्जत करेंगे तो मेरे को फिल्म की सीडी आपके थाने भिजवानी पड़ेगी जो कि हो सकता है कोई और रिसीव कर ले। रिसीव कर ले और देख भी ले। ऐसा होगा तो आपकी सारी पॉलिश उतर जाएगी। मल्लबकि आपका अंजाम बुरा होगा, इतना बुरा होगा कि उसका आप तसव्वुर भी नहीं कर सकेंगे।”
“ये तुम मुझे डरा रहे हो या धमका रहे हो?”
“आपके हुक्म के मुताबिक हिन्ट दे रहा हूँ कि फिल्म में क्या हो सकता है!”
“अपने हिन्ट को थोड़ा और पसारो।”
“तो सुनिए। उसमें जो रिकॉर्डिड है, वो आपके प्राण कम्पा देगा, आपको साक्षात मौत का नज़ारा करा देगा।”
“किसकी मौत का?”
“आपकी मौत का।”
“क्या बकते हो?”
“बोले तो अभी कॉल जारी है या मैं ख़त्म समझं?”
“नोट करने के लिए तुम्हारी पास कोई कागज पेंसिल है?”
“है।”
“ई-मेल आइडेन्टिटी नोट करो। मोबाइल नम्बर भी।”
“बोलिए।”
भारकर ने बोला।
“थैक्यू।” – दूसरी तरफ से आवाज़ आई- “मैं बजाऊँगा आपका मोबाइल।”
“फिर किसी दूसरे के सिम वाले चोरी के फोन से?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! हर नई कॉल नए फोन से।”
“क्या फायदा?”
“नुकसान भी क्या है? मैने कोई सौ पचास कॉलें तो नहीं करनी! दो तीन बार कॉल करने के लिए दो-तीन बार चोरी का फोन खरीदने में कितना गरीब हो जाऊँगा मैं! मल्लबकि कोई फर्क नहीं पड़ेगा मेरे को।”
“कब करोगे फोन?”
“आपके इत्मीनान से फिल्म देख लेने के बाद। क्योंकि थाने में बैठ के देखने लायक वो फिल्म नहीं है।’
“तुम तो मुझे फिक्र में डाल रहे हो!”
“कर लीजिए फिक्र। थोड़ी देर ही तो करनी पड़ेगी! मल्लबकि उतनी ही देर जितनी देर में फिल्म देख पाओगे।”
“लेकिन ....”
“कल फोन करूँगा।”
“अरे, सुनो तो!”
“या परसों या अगले दिन।”
“ऐसा क्यों?”
“कोई ख़ास वजह नहीं। सिवाय इसके कि मैं सब्र वाला भीड़ हूँ। फिर शायद आपके फिल्म देख चुकने के बाद आपका भड़कना, तड़पना देखने का भी मौका मिल जाए। क्या!”
भारी सस्पेंस के हवाले भारकर ख़ामोश रहा।
“तब तक फिल्म बार-बार देखकर ये तसल्ली भी कर लेना कि फिल्म मौपर्ड नहीं है, स्पलाइस्ड नहीं है, डॉक्टर्ड नहीं है, मल्लबकि उसके साथ किसी तरह की कोई छेड़ाखानी नहीं हुई है।”
लाइन कट गई।
भारकर ने फोन वापिस क्रेडल पर रखा और उंगलियों से मेज़ ठकठकाता सोचने लगा।
गोरे की बैठक में पड़ा रिम पर लिपस्टिक लगा गिलास बार-बार उसके ज़ेहन पर उबर रहा था। वो गिलास ड्रिंक्स में गोरे को कम्पनी देती किसी लड़की ने इस्तेमाल किया था, इस बात से अब वो आश्वस्त था और अब वो फोन कॉल इस तथ्य को रेखांकित करती थी कि कॉल के दौरान हुई रहस्यमयी बातों का ज़रूर उस लड़की से कोई रिश्ता था।
क्या रिश्ता?
लड़की का कोई जोड़ीदार! कोई मेल अकम्पलिस!
क्या बड़ी बात थी!
लेकिन शॉर्ट फिल्म?
क्या था उसमें! क्या हो सकता था जो उसके प्राण कम्पा सकता था, उसे साक्षात मौत के दर्शन करा सकता था!
ऐसी कोई फिल्म वजूद में कैसे आई?
फोनकर्ता फिर से कॉल करने से पहले उसको इत्मीनान से फिल्म देखने का मौका देना चाहता था, इस लिहाज़ से तो फिल्म आती ही होनी चाहिए थी।
बहरहाल इन्तज़ार के सिवाय कोई चारा नहीं था।
उसका मोबाइल ई-मेल भी रिसीव करता था इसलिए वो बार-बार मोबाइल की स्क्रीन पर निगाह डाल रहा था।
तभी स्क्रीन पर मैसेज फ्लैश हुआ— चैक युअर मेल।
उसने फौरन मोबाइल पर मेल रिसीव की।
अटैचमेंट के तौर पर जो उसने देखा और रिसीव किया, उसने उसके होश उड़ा दिए।
फिल्म की उस शार्ट क्लिप में पहले वो गोरे पर पीछे से आक्रमण कर रहा था फिर उसका गला घोंट रहा था और फिर उसे सूली पर टांग रहा था।
देवा! वो फिल्म थी या साक्षात उसकी मौत का सामान था!
बार-बार उसके ज़ेहन में वही सवाल दस्तक देने लगा।
कैसे वजूद में आई?
फ्लैट में मौजूद गोरे की संगिनी ने बनाई और आगे किसी मेल अकम्पलिस को सौंप दी जिसने उस बाबत उसे फोन लगाया! कैसे वो लड़की – जो कोई भी वो थी- ऐसे दीदादिलेरी के काम को अंजाम दे पाई! मंशा क्या थी उसकी! किसी मेल अकम्पलिस को फ्रंट बना कर क्या हासिल करना चाहती थी!
या जो करना था – हरकत भी और हासिल भी – मेल अकम्पलिस ने, जोड़ीदार ने करना था।
लेकिन क्या?
क्या? क्या? क्या?
उसका खुराफाती क्रुकेड पुलिसिया दिमाग तेज़ी से काम करने लगा।
फोन पर हुए वार्तालाप को उसने कई बार याद किया।
जितना आडम्बर, जितना सस्पेंस बाजरिया शार्ट फिल्म खड़ा किया गया था, बिना किसी मतलब के तो वो हो नहीं सकता था।
क्या मतलब?
उसके थाने में एक नामी गैंगस्टर पुलिस रिमांड के तहत बन्द था, क्या वो सारा ड्रामा उस गैंगस्टर को आज़ाद कराने के लिए खड़ा किया जा रहा था! ज़रूरत के मुताबिक ऐसे डील होते तो थे! ऐसे दबाव बनाए तो जाते थे!
लेकिन ऐसे गैंगस्टर को वो कैसे छोड़ सकता था? ऐसे फैसले जिस ऊंचे लैवल पर होते थे उसमें एक मामूली एसएचओ की कोई पूछ नहीं होती थी।
शायद कॉल करने वाले को इस बात की ख़बर नहीं थी, वो समझता था कि थाना प्रभारी को जिच करके ही मकसद पाया जा सकता था।
लेकिन - उसने ख़ुद से जिरह की- अगर ऐसा था तो ये एक बड़ा षड़यन्त्र था जिसमें गोरे की कोई टैम्परेरी माशूक कहीं फिट नहीं होती थी।
बहरहाल, जब तक कोई मांग खड़ी न होती तब तक कुछ नहीं किया जा सकता था।
एकाएक उसकी विचारधारा को ब्रेक लगी।
एक बार फिर उसके जेहन में फोन पर हुआ डायलॉग गूंजा तो इस बार कुछ नए नक्तों की तरफ उसकी तवज्जो गई।
कुछ नहीं किया जा सकता था – उसके अब अलर्ट मगज ने उससे सवाल किया - क्या वाकई!
एक नई सम्भावना ने उसकी चेतना को झकझोरा।
तभी एसआई कदम ने वहां कदम रखा।
भारकर ने जल्दी से फोन जेब के हवाले किया और विशेष अभियान पर निकले अपने मातहत की ओर देखा।
कदम ने सहमति में सिर हिलाया।
“ठीक बना?” – भारकर बोला।
कदम का सिर फिर सहमति में हिला।
“दिखा।”
एक लिफाफे में मौजूद पीओपी मोल्ड कदम ने पेश किया।
भारकर ने ग़ौर से उसका मुआयना किया तो सब कुछ तसल्लीबख़्श पाया।
“जूता!”
कदम ने एक दूसरा लिफाफा पेश किया।
बढ़िया - भारकर मन ही मन बोला- अब उस जूते की कोई ज़रूरत नहीं थी, पहली फुरसत में वो उसे ठिकाने लगा सकता था।
दूसरे पांव का जूता वो पहले ही ठिकाने लगा चुका था।
भारकर ने मोल्ड को वापिस लिफाफे में डाला और लिफाफा कदम को लौटाया।
तभी उसका डैस्क फोन बजा।
उसने कॉल रिसीव की, एक क्षण बात की और रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखता उठ खड़ा हुआ।
“एसीपी बुलाता है। अभी का अभी जाना पड़ेगा। तू ये मोल्ड वापिस मालखाने में पहुंचा।
“अभी।” – कदम बोला।
“होशियारी से।”
“ये भी कोई कहने की बात है, सर?”
“किसी को ख़बर न लगे कि मोल्ड पहले मालखाने में नहीं था लेकिन अब बराबर मौजूद था।”
“नहीं लगेगी। चलूं अब?”
“हां। लेकिन पहले एक बात सुन के जा।”
कदम की भवें उठीं।
“मुझे तेरे से एक निहायत ज़रूरी, पर्सनल – पर्सनल बोला मैं – काम है जो मैं तेरे से बाद में - एसीपी से फारिग हो जाने के बाद – डिसकस करूँगा।”
“ऐसा क्या काम है?”
“बोलूंगा न! तेरे से नहीं बोलूंगा तो किस से बोलूंगा! आखिर एक तू ही तो मेरा भरोसे का भीड़ है इस थाने में! नहीं?”
“जी हां।”
“थाने में ही रहना। कहीं जाना नहीं। एसीपी से फुरसत पा कर मैं तेरे से बात करूँगा। कौन सी बात?”
“पर्सनल!”
“बहुत पर्सनल। बोले तो टॉप सीक्रेट। अभी जा। मिलते हैं।”
संजीदासूरत कदम रुख़सत हो गया।
अपने आला अफसर के व्यवहार से वो आहत था लेकिन उस वजह से अपनी वफादारी में कमी आने देने का उसका कोई इरादा नहीं था।
एसीपी का नाम तुषार कुलकर्णी था।
उसके अन्डर में थाना तारदेव के अलावा वैसे दो और थाने आते थे। उसका अपना ऑफिस तारदेव थाने के परिसर में ही था इसलिए उसके हुक्म पर भारकर ने फौरन एसीपी की हाजिरी भरी।
एसीपी को अपने अन्डर के थाने का एसएचओ उत्तमराव भारकर कतई पसन्द नहीं था, उसके ज़रूरत से ज्यादा दबंग मिज़ाज़ से उसे बिलकुल इत्तफाक नहीं था। वो इस बात से बाखूबी वाकिफ था कि भारकर को डिस्ट्रिक्ट के डीसीपी अनन्त पुजारा की शह थी और उसी की रिकमैंडेशन पर इन्स्पेक्टर बनने के काबिल इन्स्पेक्टर्स की पैनल में उसका नाम आया था जबकि पहले वो उस पैनल के लिए एक बार रिजेक्ट किया जा चुका था। छः साल से वो तारदेव थाने में था। किसी इन्स्पेक्टर को किसी थाने में बतौर एसएचओ दो-तीन साल से ज्यादा नहीं टिकने दिया जाता था लेकिन डिस्ट्रिक्ट के डीसीपी का हाथ सिर पर होने की वजह से जब भी ऐसी नौबत आती थी, वो अपनी ट्रांसफर रुकवा लेता था।
एसीपी ने हाथ के इशारे से उसे सीट ऑफर की तो कृतज्ञताज्ञापन करता भारकर उसके सामने सादर एक विज़िटर्स चेयर पर बैठ गया।
“कल की वारदात” – एसीपी संजीदगी से बोला – “हमारे एसआई अनिल गोरे से ताल्लुक रखती वारदात हैरान करने वाली थी। यकीन नहीं आता कि इतने होनहार पुलिस ऑफिसर ने ख़ुदकुशी कर ली।”
“सर, इस बारे में मैंने अपनी विस्तृत रिपोर्ट आपके ध्यानाकर्षण के लिए पुट अप की थी।”
“भारकर, डोंट टैल मी थिंग्स दैट आई आलरेडी नो।”
“सॉरी, सर।”
“रिपोर्ट मैंने पढ़ी है। रिपोर्ट में तुम्हारा सारा ज़ोर इस बात पर जान पड़ता था कि एसआई गोरे ने ख़ुदकुशी की थी।”
“सर, गोरे की मौत की कोई और वजह मुमकिन ही नहीं थी।”
“नो फाउल प्ले?”
“नॉट एट ऑल, सर। गोरे के फ्लैट में जो कुछ कल रात हुआ, उसके बन्द फ्लैट में हुआ जिससे निकासी का एक ही रास्ता था और वो भीतर से मजबूती से बन्द था। वहां पहुंचे हमारे एसआई कदम को और उसके साथ गए दो सिपाहियों को वो दरवाज़ा कॉलोनी के दो लोकल बाशिन्दों के सामने तोड़ कर खोलना पड़ा था।”
“खिड़की रोशनदानों की क्या पोज़ीशन थी?”
“एक ही रोशनदान था, सर, जो कि फ्लैट के मेन डोर के ऊपर था। उसके मिडल में चौखट के टॉप से पैरेलल एक लोहे की सलाख थी और रोशनदान का घूम के खुलने बन्द होने वाला शीशा जड़ा फ्रेम था। और जो खिड़कियां थीं, उन सब पर लोहे की मजबूत ग्रिल फिट थीं जिनमें से हर एक के आगे मच्छरों को बाहर रखने के लिए बारीक छेदों वाली जाली फिट थी।”
“हूँ। यानी इस बात की कोई सम्भावना नहीं थी कि एसआई गोरे का कत्ल हुआ हो?”
“कतई कोई सम्भावना नहीं थी। कैसे होती, सर! उस बन्द फ्लैट से बाहर तो परिन्दा पर नहीं मार सकता था, किसी आदमजात का कत्ल करके वहां से निकल लेना कैसे ममकिन होता!”
“पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कहती है कि उसके पेट में अल्कोहल की काफी मात्रा पाई गई थी!”
“सर, वो कोई बड़ी बात नहीं। ही वॉज़ ए ड्रिंकिंग मैन। फैमिली उसकी बीवी के मायके में थी। फिर कल उसका ऑफ था। ऐसे माहौल में उसका चूंट लगाने का मन कर आना क्या बड़ी बात थी!”
“अकेले?”
“सर, व्हिस्की की खुली बोतल के साथ बैठक की सेंटर टेबल पर एक ही गिलास था।”
“मुमकिन है कोई मेहमान आया हो और ड्रिंक्स में उसको वक्ती कम्पनी देकर चला गया हो!”
“आपका मतलब है . . . ही वॉज़ हैविंग ए गुड टाइम शेयरिंग ड्रिंक्स विद ए गैस्ट?”
“वाई नाट!”
“सर, ऐसा कोई शख़्स मेहमान के जाते ही भला ख़ुदकुशी क्यों कर बैठेगा?”
“तुम्हें क्या पता उसने मेहमान के जाते ही ख़ुदकुशी की?”
भारकर हड़बड़ाया, फिर तत्काल सम्भला।
“सर, टाइम फैक्टर यही कहता है।”
“क्या कहता है? एक्सप्लेन!”
“सर, मैंने गोरे को थाने तलब किया था . . .” ।
“पहले मेहमान की बात करो। था या नहीं था?”
“सर, मेहमान की बाबत तो ख़ुद आपने कहा था कि ऐसी आमद आपको मुमकिन लगती थी, मैंने इस बात पर ये कहते हुए शक ज़ाहिर किया था कि कैसे कोई मेहमान के जाते ही ख़ुदकुशी कर बैठेगा!” ।
“मेरा फिर सवाल है, तुम्हें क्या पता गोरे ने मेहमान के जाते ही ख़ुदकुशी की?”
“तो क्या सामने की?”
“भारकर!”
“सॉरी, सर।”
“आई बोंट टॉलरेट इररिस्पांसिबल स्टेटमेंट्स।”
“आई एम टैरीबली सॉरी, सर। आइल बी केयरफुल इन फ्यूचर।”
“तुमने गौरे को थाने तलब किया था। इससे आगे बढ़ो।”
“सर, मैंने इस हिदायत के साथ एसआई कदम को और दो सिपाहियों को गोरे के घर भेजा था। कि अगर वो रात की उस घड़ी थाने पहुंचने में आनाकानी करे तो उसे हिरासत में ले के थाने लाया जाए।”
“एक फैलो पुलिस ऑफिसर के लिए इतना हार्श ट्रीटमेंट किसलिए?”
“सर, इस फैलो पुलिस ऑफिसर पर मर्डर का चार्ज था। मेरे को पक्के सबूत मिले थे कि तुलसीवाडी में जो शूटिंग हुई थी – जिसमें सुबोध नायक नाम का एक शख़्स ठौर मारा गया था और उसकी बीवी गम्भीर तौर से घायल हुई थी और बाद में उसने भी प्राण त्याग दिए थे – वो एसआई गोरे का कारनामा था।”
“यकीन नहीं आता।”
“मेरे को भी कहां आता था, सर! लेकिन उसके खिलाफ पक्के सबूत अवेलेबल थे, जो बिलाशक कहते थे कि वो ही कातिल था।”
“था भी तो उसके छुट्टी वाले दिन इतनी रात गए उसे थाने तलब करने का क्या मतलब था? क्या सवेरा नहीं होना था? या तम्हें अन्देशा था कि वो फरार हो जाएगा?”
भारकर को तुरन्त जवाब न सूझा।
“उसके खिलाफ जो सबत तम्हारे पास थे, क्या उनकी उसको ख़बर थी?”
“अभी तो . . . अभी तो नहीं थी!”
“यानी तुम्हारे तलब किए जाने पर जब वो थाने हाजिरी भरता, अनगाँडली आवर्स में थाने हाजिरी भरता, तो तब वो सबूत तुम उसके मुंह पर मारते!”
भारकर ने बेचैनी से पहलू बदला।
“जब उसे अभी कुछ मालूम ही नहीं था तो उसने एकाएक खुदकुशी क्यों कर ली?”
“सर, पुलिस पहुंची न उसके द्वारे!”
“कब पहुंची? जब लाश पहले ही पंखे से झूल रही थी। पुलिस की आमद की खबर लग जाने के बाद तो उसने ख़ुद को फांसी नहीं लगाई थी!”
भारकर के मुंह से बोल न फूटा, लेकिन उसके खुराफाती दिमाग की ची तेज़ी से घूम रही थी।
“सर” – वो ख़ुद को सम्भालने की कोशिश करता बोला – “ज़रूर किसी ने मुखबिरी की ...”
एसीपी सावधान हो के बैठा।
“. . . और गोरे को पहले ख़बरदार कर दिया कि वो गिरफ्तार होने वाला था। इसीलिए ख़ुद उसने मेहमान को – अगर कोई मेहमान वहां था – जल्दी डिसमिस कर दिया।”
“ताकि वो पीछे ख़ुदकुशी कर पाता!”
“सर, अब किया तो उसने यही!”
“हूँ। तो किसी ने मुखबरी की! वक्त रहते गोरे को चेता दिया कि वो गिरफ्तार होने वाला था?”
“सर, ऐसा ही जान पड़ता है।”
“किसने की?”
“क्या पता किसने की!”
“शुक्र है कोई बात ऐसी भी है जो तुम्हें नहीं पता।”
“सर, आप तंज कस रहे हैं।”
“प्लीज़, प्रोसीड।”
“यस, सर। सर, मैं ये अर्ज़ कर रहा था कि थाने में डेढ़ सौ आदमियों का स्टाफ होता है, जिसमें सब खिलाफ ही तो नहीं होते न! कई खैरख्वाह, हमदर्द और तरफदार भी होते हैं। ऐसे किसी तरफदार का गोरे को उसके आइन्दा अंजाम से ख़बरदार कर देना क्या बड़ी बात थी!”
“इसलिए पुलिस के पहुंचने से पहले अपने अंजाम से ख़ौफज़दा होकर उसने ख़ुदकुशी कर ली?”
“मेरी अक्ल तो यही कहती है।”
“ख़ुदकुशी ही करनी थी तो ये पेचीदा रास्ता क्यों अख्तियार किया? घर में एक गन मौजूद थी – जो कि मर्डर वैपन थी, जिससे दो खून पहले ही हो चुके थे – उसने तीसरे – अपने – खून के लिए वो गन क्यों न इस्तेमाल की?”
“अब मैं क्या कह सकता हूँ, सर! हो सकता है उस घड़ी की हड़बड़ी में, सस्पेंस में उसे गन की याद न आई हो!”
“उस गन की याद न आई हो जो उस छोटे से फ्लैट में उसने ख़ुद छुपाई थी?”
“क्या कहा जा सकता है!”
“छुपाई क्यों? वो भी अपने ही घर में? वो भी फ्लश की पानी की टंकी जैसी बचकानी जगह पर? वो गन अपना काम कर चुकी थी। अब उसको पास रखने का क्या मकसद था? आफिशियली रजिस्टर्ड गन तो वो थी नहीं जो कि ट्रेस की जा सकती थी?”
वो ख़ामोश रहा।
“जवाब दो।”
“मैं क्या जवाब दूं?” – भारकर का स्वर एकाएक शुष्क हुआ – “मेरे को क्या पता गोरे के मन में क्या था! मेरे को क्या पता कि आलायकत्ल वो गन वो अपने घर में क्यों छुपाए रहा और क्यों उसने उस गन को ख़ुदकुशी के लिए न चुना! जो मुझे पता है, और यकीनी तौर पर पता है, वो ये है कि फ्लश की टंकी में छुपाई गई वो गन मर्डर वैपन थी और उस पर मर्डरर के फिंगरप्रिंट्स के साफ निशान थे।”
“जिनको न बनने देने की कोई जुगत करना उसे न सूझा! और वारदात के बाद भी मिटाना न सझा! ओके?”
“सर, इस ओके का जवाब गोरे ही बेहतर दे सकता था।”
“जो कि अब इस दुनिया में नहीं है!”
“जाहिर है।”
“और क्या है गोरे के खिलाफ तुम्हारे पास?”
“सर, सब मेरी रिपोर्ट में दर्ज है।”
एसीपी ने घूर कर उसे देखा।
“बोलता हूँ, सर।” – भारकर जल्दी से बोला – “आपको रिपोर्ट पढ़ना गवारा नहीं तो बोलता हूँ। सर, वो क्या है कि ये बात तो हमारे बीच उठ ही चुकी है कि मर्डर वैपन गोरे के घर से बरामद हुआ था और उसपर उसके क्लियर, प्रॉमीनेंट फिंगर प्रिंट्स थे। फिर अपनी मौत से पहले सुबोध नायक की बीवी नीरजा नायक ने गोरे की तस्वीर से बतौर कातिल उसकी शिनाख्त की थी और अपनी शिनाख़्त की तसदीक के तौर पर तस्वीर की पीठ पर अपने साइन किए थे और तारीख डाली थी। फिर आईसीयू के डॉक्टर अधिकारी ने - जो कि उस घड़ी वहां मौजूद था – तस्वीर को काउन्टरसाइन किया था।”
“यानी कातिल गोरे?”
“बाकायदा शिनाख्त हुई उसकी, सर।”
“जिसका पुलिस की नौकरी में हमेशा क्लियर रिकॉर्ड था . . .”
“इतना क्लियर तो नहीं, सर!”
“अच्छा! क्या अनक्लियर था? कान्ट्रैक्ट किलर था? सुपारी उठाता था? पार्ट टाइम वॉल्ट बस्टर था? या ऐसी और भी खूबियां थीं मरने वाले में?”
“सर, आप मज़ाक कर रहे हैं।”
“तुम्हारे से?”
भारकर परे देखने लगा।
“कत्ल जैसा जघन्य अपराध किसी मैटीरियल गेन के लिए किया जाता है, किसी बड़े, बहुत बड़े हासिल के लिए किया जाता है। अगर गोरे कातिल था तो क्या गेन किया उसने घटिया मवालियों की तरह दो कत्ल करके? अपनी उजली वर्दी को दागदार करके?”
“उसकी वर्दी कितनी उजली थी या कितनी दाग़दार थी, ये जुदा मसला है लेकिन गेन तो किया बराबर।”
“क्या?”
“अब तक नहीं किया था तो अब करता।”
“अरे, क्या?”
“हमें मालूम पड़ा था कि उसके रेमंड परेरा नाम के एक गैंगस्टर से ताल्लुकात थे और परेरा आगे ख़ुद को कराची वाले ‘भाई’ का ख़ास बताता था। रेमंड परेरा, आप न जानते हों तो अर्ज़ है कि, टोपाज़ क्लब का मालिक है जो कि कोलाबा में कफ परेड पर है और बड़ी एक्सक्लूसिव, बड़ी हाईफाई जगह बताई जाती है।”
“मैंने सुना है टोपाज़ क्लब के बारे में। तुम आगे बढ़ो।”
“हमारी तफ्तीश बताती है, ज़ीरो नम्बर भीडुओं से हासिल खुफिया जानकारी बताती है कि अपना गोरे रेमंड परेरा के हाथों पूरी तरह से बिक चुका था।”
“नॉनसेंस!”
“सर, या तो आप अपने ऐतराज़ दाखिल कर लीजिए या मुझे कुछ कह लेने दीजिए।”
“कहो, क्या कहना चाहते हो?”
“मुझे यकीनी तौर पर मालूम पड़ा है कि कराची वाले ‘भाई’ की शह पर रेमंड परेरा जोर-ज़बरदस्ती से एक लोकल बिज़नेस एस्टैब्लिशमेंट को टोटली या पार्शियली टेकओवर करना चाहता है। वो लोकल एस्टैब्लिशमेंट, जिस पर परेरा दांत गड़ाने की फिराक में है, ग्रांट रोड पर का ऑलिव बार है। अभी कुछ दिन पहले विनायक घटके नाम का एक आदमी ऑलिव बार के एक पार्टनर सर्वेश सावन्त से पंगा लेकर गया था . . . पंगा क्या, कि अगर परेरा को ऑलिव बार के बिज़नेस में शरीक न किया गया - बिना किसी इनवेस्टमेंट, फोकट में शरीक न किया गया - तो अंजाम बुरा होगा। उस वक्त बार के दोनों पार्टनरों को – दूसरा पार्टनर मकतूल सुबोध नायक - नहीं सूझा था कि बुरा अंजाम क्या होगा! लेकिन वो बुरा अंजाम एक पार्टनर के कत्ल की सूरत में सामने आया।”
“उसने किया जो ऑलिव बार में धमकी उछाल के गया, जिसका नाम तुमने विनायक घटके बताया?”
“उसी ने करना था लेकिन हालात ऐसे बने – या बिग बॉस रेमंड परेरा का हुक्म ऐसा हुआ – कि कत्ल गोरे ने किया . . . सर, अब ‘नॉनसेंस’ कहने से काम नहीं चलेगा क्योंकि स्थापित हो चुका है कि तुलसीवाडी का उस रात का शूटर गोरे था।”
“कैसे स्थापित हो चुका है?”
“मौका-ए-वारदात पर उसके बाएं पांव के जूते के सोल की छाप पाई गई थी जिसका प्लास्टर ऑफ पैरिस मोल्ड थाने में उपलब्ध है। सर, वो मोल्ड आठ नम्बर के जूते से बना था जो कि गोरे के जूते का साइज़ था।”
“इतने से गोरे कातिल साबित हो गया?’
“सर, गोरे की बीवी मायके से लौट आई हुई है और उसने बयान दिया है कि उसके हसबैंड के एक जोड़ी जूते घर से गायब हैं।”
“क्यों गायब हैं?”
“ज़ाहिर है कि ख़ुद गोरे ने किए। वक्त रहते उसे ख़बर लग गई कि वारदात के बाद फरार होते वक्त उसके जूते के एक पांव की छाप मौका-ए-वारदात पर छूट गई थी। लिहाज़ा उसने वो जूते ही गायब कर दिए ताकि पीओपी मोल्ड का मिलान उसके उस जूते से न हो पाता।”
“ये भी सही, इस से गोरे कातिल साबित हो गया?”
“सर, बैक अप प्रूफ्स भी तो हैं जिनको कानूनी ज़ुबान में कोरोबोरेटिंग इवीडेंस कहा जाता है।”
“मसलन?”
“मसलन मकतूल सुबोध नायक की बीवी नीरजा नायक ने – जो कि अब ख़ुद मकतूला है – गोरे की बतौर कातिल निर्विवाद शिनाख्त की थी – कातिल की तस्वीर से उसकी शिनाख्त की थी, तस्वीर को बाकायदा अपने दस्तख़तों से एनडोर्स किया था और आईसीयू के डॉक्टर अधिकारी ने डबल एनडोर्स किया था। सर, अन्धे को दिखाई देता था कि वो तस्वीर एसआई अनिल गोरे की थी, मकतूला नीरजा ने वारदात के बाद जिस शूटर को मौका-ए-वारदात से निकल भागते देखा था, वो अनिल गोरे था। फिर वो गन – जो कि आलायकत्ल थी – गोरे के घर से बरामद हुई थी और उस पर जो फिंगर प्रिंट्स पाए गए थे,वो निर्विवाद रूप से गोरे के थे। तीसरे, विनायक घटके नाम का मवाली जिसका मैंने पहले ज़िक्र किया था, हल्फिया बयान देगा कि उस सिलसिले में उसकी गोरे से सांठ-गांठ थी और गोरे की आगे परेरा से सांठ-गांठ थी, जिसका आगे अपने ख़ास आदमी विनायक घटके को हक्म था कि वो गोरे के साथ मिल के काम करे। सर, अकेले मौका-ए-वारदात से मिले फुटप्रिंट की बात होती तो मैं भी गोरे की तरफ उंगली न उठाता लेकिन उसके खिलाफ और भी तो सबूत हैं जो हिलाए नहीं जा सकते?”
“हूँ”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“तुम कहते हो” – फिर एसीपी बोला – “घटके ऑलिव बार के एक पार्टनर को धमकाने पहुंचा। किसी को यूं धमकी देना जुर्म है। तुमने इस बात का कोई नोटिस लिया?”
“लिया न, सर!”
“क्या?”
“घटके को थाने तलब किया।”
“क्या बोला वो?”
“बोला, धमकी वाली कोई बात नहीं थी, परेरा साहब के ख़ास आदमी की हैसियत में उसने ख़ाली अपने बॉस की बिजनेस प्रोपोज़िशन दोहराई थी कि परेरा बॉस ऑलिव बार में पार्टनरशिप चाहता था।”
“फोकट में।”
“ऑन पेमेंट।”
“पार्टनर सर्वेश सावन्त इस बात की तसदीक करता है?”
“थाने में मेरी उससे भी बात हुई थी। सर, कहने-सुनने में कोई फर्क आ गया जान पड़ता था।”
“किसके कहने-सुनने में?”
“घटके कहता है कि धमकी वाली कोई बात नहीं हुई थी, ख़ाली कारोबारी पेशकश हुई थी।”
“ऐसा था तो कुबूल क्यों नहीं हुई थी?”
“क्योंकि दो पार्टनर पहले से थे, उनको तीसरे पार्टनर की ज़रूरत नहीं थी।”
“परेरा फिर भी पार्टनर बनना चाहता था!”
“सर, परेरा क्या चाहता था, उसके बारे में मैं क्या कह सकता हूँ?”
“दिस इज़ ए वेग आनसर।”
“जी!”
“गोलमोल जवाब है। बयान के लिए परेरा को भी तलब किया जाना चाहिए था।”
“सर, वो बड़े रसूखवाला बड़ा आदमी है . . .”
“हम पुलिस वाले क्या हैं? घास खोदने वाले? दिहाड़ी मज़दूर? बड़े रसूख वाले बड़े आदमियों के भड़वे?”
“सर, ये मैंने कब कहा!”
“ग्राफिक डिटेल में न कहा लेकिन कहा।”
बेचैनी से पहलू बदलता भारकर ख़ामोश रहा।
“जब ऑलिव बार के एक पार्टनर ने ख़ुद थाने आकर धमकी वाली बात की तसदीक की तो तुमने उसका गम्भीर नोटिस क्यों न लिया?”
“सर, मैंने बोला न कि कहने सुनने में फर्क आ गया था। पार्टनर सर्वेश सावन्त ने गलत समझा था कि घटके परेरा के हवाले से उसे धमकाने आया था।”
“वो पार्टनर दोहरा के बोलेगा ऐसा?”
“बोलेगा।”
“और घटके! वो ऑलिव बार में अपनी आमद तो कुबूल करता है न, या उसमें भी कोई कहने सुनने में फर्क आ गया?”
“कुबूल करता है लेकिन कारोबारी पेशकश के लिए, न कि धमकाने के लिए।”
“तुम उसको, एक हल्के आदमी को, कुछ ज़्यादा ही एडवोकेट नहीं कर रहे हो?”
“ऐसी कोई बात नहीं, सर।”
“यानी फिर कहने-सुनने में फर्क आ गया। नो?”
भारकर ख़ामोश रहा।
“ऑलिव बार में सीसीटीवी का इन्तज़ाम तो होगा! मेरे को वो फुटेज चाहिए।”
“सर, वो तो... वो तो .....”
“क्या वो तो?”
“इरेज़ हो गई!”
“क्या बोला?”
“मैं ख़ुद भी उस फुटेज की पड़ताल करने की खातिर ऑलिव बार गया था। सर, वो फुटेज रिकॉर्डिंग में नहीं थी।”
“वजह?”
“इरेज़ हो गई, बस। हो सकता है मेरे से ही कोई लापरवाही हुई हो, कोई कोताही हुई हो!”
“बड़े ज़िम्मेदार थानाध्यक्ष हो!”
“सर, कोई छोटी-मोटी लापरवाही किसी से भी हो सकती है।”
“नीरजा सावन्त की एनडोर्ल्ड तस्वीर की क्या पोजीशन है?”
“जी!”
“वो तो सलामत है या वो भी छोटी-मोटी – रिपीट, छोटी-मोटी– लापरवाही की शिकार हो गई?”
“मेरे पास महफूज़ है, सर। साथ लाया हूँ कि शायद आप देखना चाहें।”
“चाहता हूँ।”
भारकर ने एक सफेद लिफाफा अपने आला अफसर के आगे सरकाया।
एसीपी ने लिफाफे में से तस्वीर बरामद की और कितनी ही देर तक उलटपलट उसका मुआयना किया।
“मकतूला के दस्तख़त” – आखिर बोला – “इनमें तो कोई भेद नहीं?”
“कैसा भेद, सर?”
“आथेंटिक हैं?”
“सर, मेरे सामने किए। मेरे पर ऐतबार न हो तो डॉक्टर अधिकारी है न! उसके सामने किए।”
“तुम्हारे पर ऐतबार क्यों नहीं, भई?”
“मैंने सोचा शायद ...”
“गलत सोचा। बहरहाल, डबल चैक का कोई ज़रिया होता तो बेहतर होता।”
“है न, सर! मेरे पास मकतूला के ड्राइविंग लाइसेंस की, जिस पर मकतूला के दस्तख़त हैं, जेरोक्स कॉपी है।”
भारकर ने कॉपी पेश की।
कोई ज़रूरत न होते हुए महज़ इसलिए कि वो भारकर को नापसन्द करता था, मैग्नीफाइंग ग्लास से उसने दस्तख़तों का मिलान किया।
दोनों दस्तख़त हूबहू मिलते थे।
उसने ऑफिस प्रिंटर पर तस्वीर की दोनों तरफ से कॉपी बनाई, फिर अपने मोबाइल के कैमरे से दोनों तरफ की तस्वीर भी खींची।
तस्वीर उसने पूर्ववत् सफेद लिफाफे में डाल कर भारकर को वापिस लौटा दी।
“ये डॉक्टर” – फिर बोला – “अधिकारी नाम बोला न!”
“जी हां।”
“मैं उससे मिलना चाहता हूँ।”
“मैं पता करता हूँ, सर। कॉन्टैक्ट होने पर ख़बर करता हूँ।”
एसीपी ने सहमति में सिर हिलाया।
भारकर ने कई क्षण प्रतीक्षा की लेकिन एसीपी को बोलता न पाया तो बोला - अब मेरे लिए क्या हुक्म है, सर?
“हुक्म!” – एसीपी तनिक हड़बड़ाया – “नो, नथिंग। यू कैन गैट अलांग।”
“थैक्यू, सर।” – वो उठ खड़ा हुआ।
“लेकिन एक बात सुन के जाओ।”
“यस, सर।”
“आई एम नॉट हैपी विद युअर इनवैस्टिगेशन ऑफ दिस केस ...”
“सर, मैंने तो ...”
“डोंट इन्ट्रप्ट।”
“सॉरी, सर।”
“युअर इनवैस्टिगेशन हैज़ गैपिंग होल्स। तुम्हारी इनवैस्टिगेशन के नतीजे से, कि एसआई अनिल गोरे ने खुदकुशी की, मुझे बिल्कुल इत्तफाक नहीं; तुम्हारे पास उसके खिलाफ बड़े पुख्ता सबूत हैं, फिर भी इत्तफाक नहीं। अनिल गोरे वैसा पुलिस ऑफिसर नहीं था जो अपनी रोटिया सेंकने के लिए गुण्डे-बदमाशों से सांठ-गांठ रखता। रिश्वत की खाऊं-खाऊं भी उसको नहीं थी जो कि महकमे में आम है। ऐसा पुलिस ऑफिसर एक ढंके-छुपे गैंगस्टर का भड़वा बन गया, ये बात मझे हज़्म नहीं हो रही। न ही ये कि एक दो टके के फंटर को उसने अपना जोड़ीदार बनने के काबिल मान लिया। गोरे की तस्वीर पर नीरजा सावंत की एनडोर्समेंट, जो तब हासिल की गई, एक ज़िद के तहत हासिल की गई, जब वो इस काम के लिए बिल्कुल फिट नहीं थी। क्या जल्दी थी उस फौरी एनडोर्समेंट की! क्यों वो इन्तज़ार नहीं कर सकती थी . . .”
“सर आप भूल रहे हैं कि उसी शाम को, उस औरत की डैथ हो गई थी। अगर इन्तज़ार किया गया होता तो वो एनडोर्समेंट हमें कभी हासिल न होती। उस औरत का दर्जा कातिल के खिलाफ चश्मदीद गवाह का था जिसका कभी हम कोई फायदा न उठा पाए होते। मुजरिम का जुर्म निर्विवाद रूप से साबित करने वाला सबूत हमें कभी हासिल न हो पाया होता अगरचे कि मुजरिम की उसकी तस्वीर से शिनाख्त न हुई होती और एक न हिलाए जा सकने वाले चश्मदीद गवाह ने अपने दस्तख़तों से उस तस्वीर को सत्यापित न किया होता।”
“इसलिए गम्भीर रूप से घायल हुए गवाह की, ज़िन्दगी मौत के बीच झूलते गवाह की जान को जोखिम में डालने का तुम्हें अख्तियार हो गया?”
“जी!”
“अगर में कहूँ कि वो औरत एग्ज़र्शन से मरी, इसलिए मरी क्योंकि तुम उसे कथित कातिल की शिनाख्त के लिए हाउन्ड करने से बाज़ न आए तो? तुमने ख़ुद कहा था कि डॉक्टर अधिकारी उस हालत में उसका बयान लिए जाने के सख़्त खिलाफ था। क्यों तुमने डॉक्टर के सुपीरियर जजमेंट की कद्र न की और उस बयान को मुल्तवी न किया? क्यों तुमने गवाह के पीछे हड़बड़ी का डमरू लगा कर उसकी जान को जोखम में डाला? क्यों तुमने एक हमदर्द पुलिस ऑफिसर बनकर न दिखाया?”
भारकर हकबकाया सा एसीपी का मुंह देखने लगा।
“शूटर के मौका-ए-वारदात से मिले जिस फुट प्रिंट की तुम इतनी हाल दुहाई मचा रहे हो, उस जूते की गैरबरामदी की सूरत में जिससे वो प्रिंट बना, क्या अहमियत है उस फुट प्रिंट की, उसके पीओपी मोल्ड की? सिवाय इसके क्या अहमियत है कि मोल्ड आठ नम्बर के जूते से बना था और बदनसीब एसआई अनिल गोरे इत्तफाक से आठ नम्बर का जूता पहनता था। आठ नम्बर का जूता पहनने वाला वो इकलौता शख़्स था मुम्बई में या आसपास सौ-पचास कोस तक? शूकम्पनी ने क्या एक ही जूता आठ नम्बर का बनाया था? ऐसे सबूत की अहमियत तब होती है जब सोल के पैटर्न में कोई ख़ासियत पाई जाए, उस पर कोई ख़ास शिनाख़्ती निशाना पाया जाए जिस की बिना पर कम्पैरिज़न के लिए जूता बरामद करके कब्जे में लिया जाता। लेकिन जो जूता ऐसा कुछ कर दिखा सकता था, वो तो ग़ायब है! कहीं से बरामद ही न हुआ। इन हालात में कैसे वो मोल्ड अहम सबूत बन गया? सिर्फ इतने से अहम सबूत बन गया कि गोरे की बीवी कहती है कि उसके खाविन्द के एक जोड़ी जूते घर से गायब हैं! उसकी बीवी बच्चों के साथ मायके में थी, वो घर में अकेला था, क्या पता वो पुराना जूता इतना पुराना हो चुका हो कि ख़ुद गोरे ने ही उसे कचरे के हवाले कर दिया हो? बीवी ने कह दिया एक जोड़ी जूते गायब हैं तो इतने से स्थापित हो गया कि चोरी चले गए?”
भारकर से जवाब देते न बना।
“गोरे एक ट्रेंड, एक्सीपीरियंस्ड पुलिस अधिकारी था। उसकी ट्रेनिंग किस काम आई, उसका एक्सपीरियंस किस काम आया जबकि उसने आलायकत्ल गन को अपने ही घर में, बाथरूम की फ्लश की टंकी में, छुपाया! वो गैरलाइसेंसी गन थी, क्यों न शूटर ने वारदात के बाद जल्द से जल्द गन से पीछा छुड़ाया? क्यों उसने गन पर अपने फिंगरप्रिंट्स बने रहने दिए? बल्कि फिंगरप्रिंट्स बनने ही क्यों दिए? अनाड़ी से अनाड़ी शूटर भी इस एहतियात से वाकिफ होता है कि गन को ग्लब्ज़ पहन कर भी हैंडल किया जा सकता है, ग्लब्ज़ न अवेलेबल हों तो इस्तेमाल के बाद फिंगरप्रिंट्स को पोंछ कर मिटाया जा सकता है! लेकिन हमारा ट्रेंड, एक्सपीरियंस्ड, आलादिमाग पुलिस ऑफिसर तो निरा खजूर निकला, मर्डर वैपन अपने घर में छुपाया और उस पर अपने फिंगरप्रिंट्स यूं बनने दिए जैसे अपने को फंसाने वाले इस काम को अंजाम देने में उसने ख़ास एहतियात बरती हो। ठीक?”
भारकर चुप रहा।
“फिर ये सुइसाइड का मामला था तो उसने पीछे सुइसाइड नोट छोड़ने की ज़िम्मेदारी क्यों न दिखाई, जो कि उसे दिखानी चाहिए थी ताकि किसी और को उसकी मौत के लिए ज़िम्मेदार न मान लिया जाता!” ।
“उसने जो किया, जल्दबाज़ी में किया इसलिए ....”
“नो! आई कैननाट हैव इट। पंखे पर झूलने के लिए रस्सी भी तो लाया कहीं से या नहीं! या रस्सी को रूटीन के तौर पर घर में रखता था ताकि बावक्तेज़रूरत फांसी लगाने के काम आ सके?”
भारकर ख़ामोश रहा।
“फिर सुइसाइड नोट के तौर पर ढाई सतरें एक कागज पर उकेरने में कितना टाइम लगता? उसने इतना ही तो लिखना था कि वो अपनी मर्जी से, अपनी राज़ी से ख़ुदकुशी कर रहा था, अपनी मौत के लिए वो ख़ुद ज़िम्मेदार था, किसी दूसरे को ज़िम्मेदार न ठहराया जाए! नो?”
“सर, गुस्ताख़ी माफ़, ये बातें सुनने में बड़ी फैंसी, बड़ी सजती हुई लगती हैं लेकिन इस हकीकत को नहीं झुठला सकतीं कि फ्लैट भीतर से बन्द था, वहां निकासी का दूसरा कोई रास्ता नहीं था और पुलिस गवाहों के सामने दरवाज़ा तोड़ कर भीतर दाखिल हुई थी।”
“यही तो वो बात है” – एसीपी यूं बड़बड़ाया जैसे स्वतः भाषण कर रहा हो। – “जो समझ से बाहर है!”
“मैं अब इजाज़त लूं, सर?” – भारकर, जो रुखसत पाने के लिए पहले ही उठ खड़ा हुआ था और तब भी खड़ा था, बोला।
“क्या! ओह, हां। हां। वापिस थाने जाओगे?”
“अभी नहीं, सर। अभी तो डीसीपी साहब के पास जाऊँगा।”
एसीपी ने अपलक उसे देखा।
इस बार भारकर विचलित न हुआ।
“सो” – एसीपी बोला – “यू विल गो अबव मी! भारकर, दिस वुड बी इनसबार्डीनेशन।”
“आप गलत समझ रहे हैं, सर। मेरे को डीसीपी साहब का पहले से बुलावा है। इस केस की रिपोर्ट उन्होंने भी मांगी है न!”
“हूँ। ओके, गैट अलांग।”
मन ही मन एसीपी को कोसता भारकर तत्पर सैल्यूट मार कर रुख़सत हुआ।
पीछे अत्यन्त विचारमग्न एसीपी को छोड़ कर।
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