बेदी और दीपाली के बीच खास बात नहीं हुई थी, जब से वो इस कमरे में थे। इधर-उधर की ही बातें होती रही थीं। दीपाली हालातों को लेकर कुछ घबराहट में थी, परन्तु बेदी ने उसे तसल्ली दी थी कि एक-दो दिन में सब ठीक हो जायेगा। वो अपने घर पहुंच जायेगी।
रात दीपाली फोल्डिंग पर ही सोई थी और बेदी फर्श पर चादर बिछाकर सोया था। जब हरबंस वहां पहुंचा तो दोनों चाय पी रहे थे।
"सब ठीक है ना यहां ?" हरबंस दरवाजा बंद करते हुए कह उठा।
“हां।" बेदी ने उसे देखा--- “बाहर का क्या हाल है?"
“ठीक ही है। अमर की तलाश कम होती जा रही है। वो यही सोच रहा है कि तुम दोनों शहर से बाहर चले गये हो। मेरे ख्याल में कल के बाद, सब ठीक हो जायेगा।" हरबंस ने मुस्कराकर कहा--- "कोई सोच भी नहीं सकता कि तुम लोग यहां हो सकते हो। तुम्हारी कोशिश ने दीपाली को बचा ही लिया।"
"इस काम में तुम्हारा ही पूरा साथ रहा है हरबंस ।" बेदी के चेहरे पर मुस्कराहट उभरी।
"मैं तुम दोनों की एहसानमंद हूं कि---।" दीपाली ने आभार भरे स्वर में कहना चाहा।
"एहसान कैसा बेटी!" हरबंस कह उठा--- "इन्सान ही इन्सान के काम आता है।"
"चाय लोगे?" बेदी ने पूछा।
"नहीं। आओ, जरा बाहर टहल आयें। फिर मैंने सोफिया के दारूखाने पर जाना है।"
"बाहर किसी ने मुझे देख लिया तो---।"
“कुछ नहीं होगा। वैसे भी अंधेरा हो रहा है।" हरबंस ने लापरवाही से कहा।
हरबंस और बेदी बाहर निकले और गली में आगे बढ़ने लगे।
दीपाली ने दरवाजा भीतर से बंद कर लिया था।
"तुम कोई बात करना चाहते हो।" बेदी ने हरबंस को देखा।
"मैं तुम्हें बाहरी हालातों के बारे में बताना चाहता हूं। दीपाली के सामने, कुछ कहना ठीक नहीं था।" हरबंस बोला ।
“गड़बड़ है क्या?" बेदी ने उस पर निगाह मारी।
“हां। हालात ज्यादा अच्छे नहीं हैं।" हरबंस ने कुछ लम्बी ही सांस ली।
"क्या हुआ?"
"अमर हर हाल में दीपाली को पाना चाहता । वो हार मानने को तैयार नहीं। मेरी मुंह बोली बेटी कल्पना इस काम में शुरू से ही अमर के साथ थी, जिसके बारे में पहले मुझे कोई जानकारी नहीं थी। वो सुखवंत राय के यहां से आकर मेरे घर में जमी बैठी है। कोई दूसरे लोग भी हैं, जो तुम्हें और दीपाली को तलाश करते फिर रहे हैं। कल शाम उन्होंने मुझे पकड़कर पूछताछ की कि तुम दोनों कहां हो। उनके पास रिवाल्वर भी है। और अब कुछ लोग मुझ पर नजर रख रहे हैं कि मैं कहां जाता हूं। यानि कि उन्हें शक है कि मैंने तुम दोनों को कहीं पर छिपा रखा है और किसी को बता नहीं रहा।" एक-एक शब्द पर जोर देकर हरबंस ने कहा।
“मैंने सोचा था, बाहर सब ठीक हो रहा होगा।" बेदी के होंठों से निकला।
"सोचा तो मैंने भी यही था। लेकिन सब उल्टा हो गया।" हरबंस ने फौरन कहा--- “मुझे तो लगता है आने वाले वक्त में मामला और भी बिगड़ जायेगा। हम किसी मुसीबत में फंस सकते हैं।"
कुछ पल खामोश रहकर बेदी बोला ।
“अब क्या किया जाये ?"
"तेरा क्या ख्याल है?"
"मेरे ख्याल में तो मैं दीपाली के साथ इसी कमरे में तब तक रहूंगा जब तक कि दीपाली की तलाश में सब लोगों की भागदौड़ खत्म नहीं हो जाती।" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा--- "उन लोगों की भागदौड़ ज्यादा देर नहीं चल सकेगी हरबंस! ज्यादा से ज्यादा एक सप्ताह और ले लो।"
"एक सप्ताह कम नहीं होता विजय!"
"ज्यादा भी नहीं होता।" बेदी के चेहरे पर सोच के भाव थे--- "मैं और दीपाली यहां छिपे रह सकते हैं।"
"गड़बड़ भी हो सकती है।"
"कैसे?"
बातें करते हुए वे दोनों गली से बाहर आ गये थे।
"इधर आ जा। यहां खड़े होकर बात करते हैं।"
दोनों एक तरफ खड़े हो गये। लोग पैदल ही आ-जा रहे थे।
"कैसे गड़बड़ हो सकती है?" बेदी की निगाह हरबंस पर जा टिकी।
"आज तो मैं किसी तरह अपने पीछे लगे लोगों को धोखा देकर यहां आ गया। उन्हें नहीं मालूम कि मैं तुम दोनों के पास हूं।" हरबंस ने समझाने वाले ढंग में कहा--- “लेकिन कभी ऐसा भी हो सकता है कि अपने पर नजर रखने वालों को पूरी तरह धोखा न दे सकूं और कोई मेरे पीछे-पीछे यहां तक आ पहुंचे और---।"
"हरबंस !" बेदी ने टोका--- "तुम यहां आना बंद कर दो। सप्ताह-दस दिन इधर का रुख ही न करो।”
"ये कैसे हो सकता है! कोई खास बात बतानी हो तो---?"
"मैं, दीपाली के साथ यहां ठीक ढंग से छिपा हुआ हूं। बाहर क्या हो रहा है, मुझे जानने की जरूरत ही नहीं। मैं सिर्फ दीपाली को उन लोगों के हाथों से बचाना चाहता हूं। वक्त बीतता जायेगा और सब ढीले पड़ते जायेंगे। कोई भी खास खबर हो, ऐसे में वो मेरे लिए कोई अहमियत नहीं रखती। तुम्हारे यहां आने से दीपाली के लिए खतरा पैदा हो सकता है। कुछ दिन के लिए तुम भूल जाओ कि मैं, दीपाली के साथ यहां हूं।"
हरबंस ने गहरी सांस ली फिर मुस्कराया।
"क्या हुआ ?" बेदी ने पूछा।
"बात तो तेरी ठीक है। तेरे को खास ख़बर देने की क्या जरूरत है। तू आराम से बैठा रह।" हरबंस ने कहा ।
बेदी ने सिर हिलाया ।
"विजय!" हरबंस ने सिग्रेट सुलगाई--- “मेरी उम्र बढ़ती जा रही है। अब मेरे से काम नहीं होता। पैसे की किल्लत तो मुझे रहती ही है। तुम जानते ही हो। ऐसे में बुढ़ापे के लिए दो पैसे मिल जायें तो, मेरा भला हो जायेगा।”
“मैं समझा नहीं।” बेदी की आंखें सिकुड़ीं ।
"ये तो मैं तुम्हें बता ही चुका हूं कि अमर, दीपाली के दम पर सुखवंत राय से मोटी रकम झाड़ने की फिराक में है। साथ में, तेज दिमाग वाली कल्पना भी है। और वो हरामी सोफिया भी इस काम में अमर के साथ हो गई। तीनों ही दीपाली को लेकर, करोड़ों की दौलत का खेल, खेल रहे हैं। मेरे ख्याल में वो दीपाली का पीछा छोड़ने वाले नहीं। देर-सवेर में दीपाली को किसी भी तरह का तगड़ा नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। ठीक बोला ना, मैं?"
"हां।"
“अब हम अपनी बात लेते हैं। तू भी शरीफ बंदा। मैं भी शरीफ बंदा। मैं खर्चे-पानी के हाथों मजबूर और तू छः लाख पाने के लिए मजबूर कि दिमाग में फंसी गोली निकलवानी है। गोली का जहर फैल गया तो तेरी जिन्दगी गई। मतलब कि तेरे को छः लाख चाहिये। मैं चार लाख से ही काम चला लूंगा।"
बेदी उसे देखता रहा।
"समझ रहा है ना, मेरी बात?"
"सब समझ रहा हूं। कहता जा।" बेदी की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
हरबंस ने कश लिया और समझाने वाले अंदाज में कह उठा।
"सच बात तो ये है कि दीपाली का सौदा मैं आसानी से अमर से कर सकता हूं। दीपाली को पाने के बदले में वो दस-पन्द्रह लाख हाथों-हाथ मुझे दे देगा और सौ से ज्यादा बार मेरा शुक्रिया अदा करेगा क्योंकि, दीपाली को आजाद करने के लिए वो सुखवंत राय से करोड़ों रुपये लेगा।"
बेदी ने शांत स्वर में सिर हिलाया।
"वैसे मैं अमर को इस बात के लिए भी आसानी से मजबूर कर सकता हूं कि वो दीपाली वाले मामले में मुझे अपना पार्टनर बना ले। इस काम के लिए भी वो खुशी-खुशी राजी हो जायेगा।" हरबंस के स्वर में लापरवाही थी।
बेदी उसे देखता रहा।
“लेकिन मैं ये नहीं चाहता कि दीपाली का कोई भारी नुकसान हो। वो अमर जैसे बदमाश के हाथ लग जाये और कल्पना अपनी बुरी सोच में सफल हो जाये। कल्पना के मां-बाप का हत्यारा सुखवंत रॉय है, वो बेशक उसे गोली मार दे। लेकिन उसके बच्चों को उसकी सजा क्यों मिले? गलत बात है। कल्पना को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन मैं जानता हूं मेरे समझाने पर भी वो इस मामले से पीछे नहीं हटेगी। मुझे पापा कहती है, लेकिन सच तो ये है कि मेरी मां बनकर हर काम करती है।" हरबंस ने कहा--- “मैं तो सिर्फ ये चाहता हूं कि दीपाली ठीक-ठाक अपने घर पहुंच जाये। बाकी लोग अपने बुरे मकसद में सफल न हो सकें।"
"हूँ।" बेदी की आंखें एकटक उसके चेहरे पर थीं--- "तेरा चाहना बिल्कुल ठीक है। आगे कह।"
"सुखवंत राय के लिए दस लाख ऐसी रकम है, जैसे हमारे लिये। दस करोड़। वो हमें दस लाख देकर, पांचवें सेकण्ड में भूल जायेगा कि उसने हमें दस लाख दिए हैं।" हरबंस के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"लेकिन वो हमें दस लाख क्यों देगा?"
"क्योंकि हम किसी तरह छिप-छिपाकर दीपाली को सुखवंत रॉय तक आसानी से पहुंचा देंगे। उससे पहले ही बात कर लेंगे कि मेहनताने के तौर पर, इस काम के दस लाख लगे। उसने फौरन हां कर देनी है। तेरा और मेरा काम बन जायेगा, उधर सुखवंत राय का काम बन जायेगा। दीपाली सुख-शान्ति से घर पहुंच जायेगी। तू छः लाख से आप्रेशन करा लेगा। मैं चार लाख को संभालकर खर्च करूंगा। ये काम करके तेरे को फौरन इस शहर से निकल जाना होगा। क्योंकि अमर, तेरे से भारी तौर पर खुन्दक खाये हुए है। वो तेरे को छोड़ेगा नहीं।"
बेदी, होंठ सिकोड़े हरबंस को देखता रहा ।
"कुछ तो बोल। इतनी बढ़िया बात बताई है तेरे को ।"
"मुझे तेरी बात पसन्द नहीं आई हरबंस।" बेदी का स्वर शांत था।
"क्या मतलब? सीधी-सीधी बात तेरे पल्ले नहीं पड़ी।"
"अगर मैं तेरी बात मानूं तो इसे धोखेबाजी कहा जायेगा।"
"धोखेबाजी ?" हरबंस के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे।
"हां। अगर हमने दीपाली पर ये सोचकर हाथ डाला होता कि, उसके बदले सुखवंत राय से पैसा लेना है तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं था।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा--- "लेकिन इत्तफाक से ही एक मजबूर, मुसीबत की मारी लड़की हमारी शरण में आ गई कि हमने उसे बदमाशों से बचाने की सोच ली। अब उसी मजबूर लड़की को उसके घर पहुंचाने के बदले, उसके बाप से दस लाख की मांग रखें तो ये सिरे से ही गलत बात है।"
“गलत-सही को छोड़, नोटों को देख । तेरे को छः लाख की जरूरत है। मैं चार से ही काम चला लूंगा। वैसे भी हम दीपाली का कोई बुरा तो नहीं कर रहे। बदमाशों से बचाकर, उसे उसके घर पहुंचा रहे हैं।"
“उसे घर पहुंचाने पर मना नहीं कर रहा। इस काम के लिए मैं तैयार हूं। खतरा भी उठा लूंगा।”
"तो---?"
"दीपाली को घर पहुंचाने के बदले, सुखवंत राय से दस लाख वसूल करना गलत बात है।" बेदी ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा--- "मैंने पहले भी कहा है कि ये काम मैं शराफत के नाते कर रहा हूं। इस काम में से दौलत नहीं कमाऊंगा।"
"अपने सिर में फंसी गोली को भूल गया जो---।"
“वो तो मेरी मौत की साथी है। उसे कैसे भूल सकता हूँ। वो ऐसी तलवार है जो कभी भी मेरी जिन्दगी खत्म कर सकती है। मेरी सांसों को बंद कर सकती है।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा--- "डाक्टर वधावन के बताये दो महीने न बीते होते तो मैं तेरी ये बात हर हाल में मान लेता। क्योंकि तब में अपनी जिन्दगी को सिर्फ दो महीने की ही मानकर चल रहा था और मुझे पूरा विश्वास था कि दो महीने बाद मैं नहीं बचूंगा। लेकिन बच गया। दो महीने का वक्त निकल गया। अब शायद मुझमें सहने की शक्ति आ गई है कि मौत वो सच है, जिसने तभी आना है, जब आना है। वो कभी भी वक्त से पहले नहीं आयेगी और जब आयेगी तो फिर खाली हाथ वापस नहीं जायेगी।"
हरबंस, आंखें सिकोड़े बेदी को देखे जा रहा था।
“ये ठीक है कि मुझे छः लाख चाहिये। छः लाख पाने के लिए मैं चोरी-डकैती-कत्ल, कोई भी गलत काम कर सकता हूं। लेकिन हर काम की शुरूआत सोच-समझकर करूंगा। इस तरह इत्तफाक से किसी मासूम की जान बचाते हुए, उसकी वापसी के लिए उसके बाप से सौदा नहीं करूंगा। पैसा नहीं लूंगा।"
"वाह प्यारे, अब तू "सच का सिपाही" बन रहा है।" हरबंस व्यंग्य से कह उठा--- “पहले तो तू छः लाख के लिए मरा जा रहा था कि उसके इन्तजाम का कोई रास्ता बताऊं।"
"वो तो मैं अब भी कहता हूं।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मुझे रास्ता बताओ कि कहां से मैं छः लाख का इन्तजाम कर सकूं। अगर तुम कहो कि जिसकी रक्षा का जिम्मा मैंने मन ही मन ले लिया है। छः लाख के लिए उसे ही बकरा बना दूं तो इस बात के लिए मेरा मन नहीं मानता हरबंस!"
“पागल लोग ऐसी बात करते हैं। आज का जमाना अपने मतलब का---।"
"मैं भी तो अपना मतलब निकालना चाहता हूं---लेकिन बिना वजह दीपाली के दिल को दुःख पहुंचाकर, उसे धोखा देकर नहीं। वो मेरी शरण में है। जब उसे मालूम होगा कि उसकी वापसी के बदले मैंने उसके बाप से रकम ली है तो कैसा बुरा लगेगा? क्या सोचेगी वो मेरे बारे में?" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- “अब तुम कल्पना को ही लो। तुमने उसे सहारा दिया। अपनी मुंह बोली बेटी बताकर, पाल-पोसकर बड़ा किया। तुमने ही मुझे बताया कि तुम्हें अंधेरे में रखकर, अमर के साथ मिलकर वो अपना ही खेल खेलने लगी। अब तुम ही बताओ कि जब तुम्हें ये बात पता चली तो क्या तुम्हें दुःख नहीं हुआ कि, कल्पना ने इस बारे में तुम्हें कुछ भी नहीं बताया? जबकि तुमने बाप के तौर पर उसका हर तरफ से ध्यान रखा।"
हरबंस ने गम्भीरता से सिर हिलाया।
"तुम ठीक कहते हो। कल्पना की इस बात से मुझे वास्तव में दुःख पहुंचा कि उसने मुझे नहीं बताया कि वो सुखवंत राय के यहां क्या कर रही है। मैं इस बात को कभी भूल नहीं सकता। और अब भविष्य में कभी कल्पना पर विश्वास नहीं कर सकता। जो अपनापन उसे देता था, वो अब नहीं दे सकता।"
"इसी तरह मैं दीपाली के दिल को दुःख नहीं पहुंचाना चाहता। मेरा कोई रिश्ता नहीं है दीपाली से। लेकिन मैं अपनी शरण में आई दीपाली को ऐसा धोखा नहीं देना चाहता कि वो बुरे इन्सान के तौर पर मुझे हमेशा याद रखे। उसे धोखा देने को मेरा मन नहीं मानेगा।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- "तुम कहो तो अभी दीपाली को लेकर मैं तुम्हारे साथ चलता हूं। जैसे भी हो उसे सुखवंत राय के यहां पहुंचाते हैं। लेकिन एक पैसा भी नहीं लेंगे, इस काम के बदले । सुखवंत राय देगा तो तब भी नहीं लेंगे।"
खामोश सा, हरबंस सिग्रेट के कश लेने लगा। वो कुछ परेशान, कुछ बेचैन नजर आने लगा था। अंधेरा घिरना शुरू हो चुका था। बेदी की निगाह उसके चेहरे पर ही थी।
"बोलो हरबंस !" बेदी ने कहा--- "बिना पैसे के दीपाली को उसके घर पहुंचाने में मेरी मदद करोगे?"
“सोचना पड़ेगा।" हरबंस ने गहरी सांस ली।
"इसमें सोचने की क्या बात है। जो फैसला करना है, वो तो तुम्हें बता ही चुका हूं।"
"ये तुम्हारा फैसला है। मेरा नहीं। मुझे सोचने का वक्त दो।" हरबंस ने सिग्रेट नीचे फेंककर उसे जूते से मसला--- “मेरे को पैसे की बुरी तरह किल्लत रहती है। मेरा ख्याल था कुछ हाथ लग जायेगा। ठीक है, तू कुछ नहीं लेना चाहता तो मत ले। मुझे सुखवंत राय से चार लाख दिलवा देना।"
"मैं पहले ही कह चुका हूं कि इस काम के बदले, दीपाली को बचाने के बदले मैं एक पैसा भी नहीं लूंगा।"
“मुझे भी नहीं लेने देगा ?"
“इस मामले में तेरे-मेरे में कोई फर्क नहीं। दीपाली की निगाहों में हम एक ही हैं।" बेदी गम्भीर था।
हरबंस कुछ नहीं बोला।
मिनट भर चुप्पी में बीत गया।
"बोल। दीपाली को पहुंचाएं उसके घर । ले चलें उसे । कभी-कभी भले का काम भी कर देना चाहिये।"
हरबंस ने अंधेरे में उसे देखा।
“मैं कल आऊंगा। सोचने दे। फिर बात करूंगा।" हरबंस सोच भरे स्वर में कह उठा--- “ये भले का काम हम कल भी कर सकते हैं। किसी पंडित ने मुहूर्त तो नहीं निकाला कि ये काम आज ही होना चाहिये।"
बेदी ने अंधेरे में हरबंस को गहरी निगाहों से देखा।
"एक रात में तो बहुत कुछ हो सकता है हरबंस।" बेदी ने शब्दों पर जोर देकर कहा ।
"क्या हो जायेगा ?"
"तुम अमर से दीपाली का सौदा कर सकते हो और दीपाली को पाने से पहले, अमर सबसे पहले मुझे शूट करेगा। ये बात एक रात में सौ से ज्यादा बार हो सकती है।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा।
“कहते रहो।"
“तुम सुखवंत राय से भी दीपाली का सौदा कर सकते हो। अमर के पार्टनर भी बन सकते हो। नोटों को पाने के लिए कुछ भी कर सकते हो। जबकि मैं इस मामले से, एक पैसा भी नहीं लेना चाहता।"
हरबंस मुस्कराया। कहा कुछ नहीं ।
"ऐसा कुछ भी हो सकता है हरबंस । मैंने गलत नहीं कहा ।"
"अभी तक मैंने सोचा नहीं कि मैंने क्या करना है और क्या नहीं। इसलिए कह नहीं सकता कि तुमने गलत कहा है या सही। फिक्र मत करो। मैं जो भी फैसला करूंगा। बहुत सोच-समझकर करूंगा।" हरबंस ने गम्भीर स्वर में कहा।
"मेरा-तुम्हारा ऐसा कोई रिश्ता दोस्ताना नहीं है कि तुम मेरे हक में भी सोचो।”
“ऐसा मत कहो। हमारा जितना रिश्ता बना है। इन्सान को पहचानने के लिए उतना बहुत होता है।" हरबंस बोला--- "वैसे एक बार फिर सोच लो कि दीपाली को बंगले पर पहुंचाने की एवज में दस लाख रुपये लेने में कोई हर्ज नहीं है। सुखवंत राय को दस लाख देने में जरा भी परेशानी नहीं होगी।"
“सवाल सुखवंत राय की परेशानी या न परेशानी का नहीं है। मैं उस मासूम को बचाने के लिए एक पैसा भी नहीं लेना चाहता। ये काम मैं पैसों के लिए नहीं कर रहा। अगर सुखवंत राय से इस बारे में पहले ही सौदा कर रखा होता और बाद में हमारे हाथ दीपाली लगती तो पैसा लेने में तब कोई बुराई नहीं थी।"
"मर्जी तुम्हारी।" हरबंस ने गहरी सांस ली--- "कल दिन में आऊंगा।"
"रात को अमर के आदमियों का इन्तजार करूं।" बेदी ने उसे देखा।
"अभी तक तो मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है।" हरबंस ने कहने के साथ ही उसका कंधा थपथपाया--- “मजे से नींद लो। खाओ- पीओ। अभी मैंने सोचा नहीं कि इस मामले में क्या करना है।" कहने के साथ ही हरबंस आगे बढ़ गया।
बेदी गम्भीर निगाहों से उसे जाते देखता रहा।
देखते ही देखते हरबंस निगाहों से ओझल हो गया।
बेदी के मस्तिष्क में सोचें तेजी से दौड़ रही थीं। हरबंस की एक-एक बात पर उसने गौर किया था। एक तरह से वो स्पष्ट कह गया था कि उसे पैसे की जरूरत है और उसे वास्तव में पैसे की सख्त जरूरत थी भी। वो रोजमर्रा के खर्चों को भी पूरा नहीं कर पा रहा था।
ऐसे में वो कुछ भी कर सकता था।
बेदी ने सोचा। सोचा कि हरबंस के लिए सब से फायदेमंद सौदा ये ही रहेगा कि दीपाली के ठिकाने के बारे में बताने के बदले, अमर से दस-बीस लाख हाथो-हाथ मार ले। वो ऐसा ही करेगा। अब किसी भी वक्त अमर के आदमी यहां आकर उन्हें घेर सकते हैं। दीपाली को तो साथ ले जायेंगे और उसके साथ कुछ भी बुरा कर सकते हैं। हरबंस पर भरोसा नहीं किया जा सकता था।
ये जगह फौरन छोड़नी होगी।
“क्या हुआ?" दरवाजा खोलने पर दीपाली ने भीतर के प्रकाश में, बेदी का गम्भीर चेहरा देखते ही पूछा।
“दरवाजा बंद करो।” बेदी ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा।
दीपाली दरवाजा बंद करके पलटी।
बेदी ने सिग्रेट सुलगाई। कश लेकर, सोच भरे स्वर में कह उठा।
“दीपाली! हमारा यहाँ रहना ठीक नहीं। हमें अभी ये जगह छोड़नी होगी।"
"क्यों?" दीपाली चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे।
“हरबंस के मन में शायद बेईमानी आ गई है। हो सकता है, ये मेरा वहम हो। लेकिन मैं किसी तरह का रिस्क नहीं ले सकता। पैसों के लालच में वो शायद, उन लोगों को यहां का पता बता दे, जो तुम्हें ढूंढ रहे हैं।"
"ओह!" दीपाली एकाएक परेशान दिखने लगी--- "हरबंस ने ऐसा कुछ कहा, क्या?"
"हां। वो मुझे ऐसा कुछ करने का लालच देकर गया है। बोला, कल आऊंगा। लेकिन कोई बड़ी बात नहीं कि वो रात को ही तुम्हारे बारे में उन लोगों को खबर कर दे।" बेदी ने दीपाली को देखा।
"तुमने उसके दिए लालच को नहीं माना ?"
"नहीं।"
"क्यों?"
"किसी की मजबूरी पर, मैं पैसे बनाना ठीक नहीं समझता। और इस वक्त तुम मजबूर हो। इस आशा के साथ मेरे साथ हो कि मैं तुम्हें बचाऊंगा। ऐसे में मैं तुम्हारी मजबूरी का फायदा नहीं उठा सकता।"
"तो क्या करोगे?"
"मैं तुम्हें बचाने की पूरी कोशिश करूंगा। मेरी कोशिश का अंत तुम्हें, तुम्हारे घर तक पहुंचाना है।"
दीपाली आगे बढ़ी। बेदी के पास पहुंची। पंजों के बल ऊपर हुई और बेदी के होंठों पर होंठ रख दिए। दोनों बांहें बेदी के गले में डाल दीं।
बेदी ने उसे अपने से अलग किया।
"ये क्या कर रही हो?" बेदी ने अपने होंठ साफ करते हुए उसे देखा।
"तुम्हारा हक तुम्हें दे रही हूँ।" वो परेशान होने पर भी मुस्कराई--- "तुम जैसे भी हो, बहुत अच्छे हो विजय!"
"यहां से निकलने की तैयारी करो।"
"तैयारी क्या करनी है। चलो।" दीपाली ने बेदी की बांह पकड़ ली--- "कहां चलना है?"
"तुम्हारे बंगले के बाहर अमर के आदमी हैं। मेरे में इतनी हिम्मत नहीं कि उनसे बचाकर तुम्हें बंगले में पहुंचा सकूं। हम दोनों को, शहर में जगह-जगह ढूंढा जा रहा है। ऐसे में समझदारी वाली यही बात है कि कुछ दिनों के लिए इस शहर से बाहर निकल जायें।"
“मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। जहां चाहो, वहीं ले चलो।"
बेदी ने दीपाली को देखा। कहा कुछ नहीं।
■■■
हरबंस ने वापसी पर, सोफिया के दारूखाने में जाने का ख्याल छोड़कर बोतल खरीदकर घर जा पहुंचा। उसका मस्तिष्क उलझा हुआ था। वो समझ नहीं पा रहा था कि दीपाली के मामले में क्या करे?
दीपाली के बारे में अमर से सौदा करे या सीधे-सीधे सुखवंत राय से ही बात कर ले। इस बीच बेदी का उसे ध्यान आ जाता कि वो जो भी करेगा। बेदी से हेराफेरी ही होगी। यूं तो बेदी से उसका कोई खास रिश्ता नहीं था। लेकिन बेदी उसे पसन्द आया था। इस कारण किसी फैसले पर पहुंचने के लिए वो कुछ हिचक-सा रहा था।
आखिरकार हरबंस ने यही फैसला किया कि बोतल खाली करने के दौरान आराम से फैसला कर लेगा कि इस मामले में क्या करना है। अभी सिर खपाने का कोई फायदा नहीं है।
घर का दरवाजा खुला था।
भीतर प्रवेश करते ही हरबंस ठिठका। आंखें सिकुड़ गई।
कल्पना पीठ पर हाथ बांधे टहल रही थी कि उसे भीतर आते पाकर ठिठक गई। उसके होंठ भिंचे हुए थे। अमर कुर्सी पर बैठा खा जाने वाली निगाहों से उसे घूर रहा था। वहां अमर के चार और भी साथी थे जिनके चेहरों पर खतरनाक भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
हरबंस को समझते देर न लगी कि उसका ही इन्तजार हो रहा है।
"मिल आये विजय और दीपाली से।" दांत भींचकर कहते हुए अमर खड़ा हो गया।
"क्या-क्या कहा तुमने?" हैरानी जाहिर करते हुए हरबंस आगे बढ़ा और बोतल टेबल पर रख दी।
अमर ने आगे बढ़कर भीतर से दरवाजा बंद कर दिया।
"कल्पना।" हरबंस के स्वर में सख्ती आ गई--- "तुम, अमर के साथ जो भी काम कर रही हो, करो। लेकिन ये मेरा घर है और इसका मैं अपने घर में आना पसन्द नहीं करता। इसे यहां बुलाने की अपेक्षा, तुम इसके पास चली जाया करो। मैं अपने घर में भीड़ देखना नहीं चाहता।"
"विजय और दीपाली कहां हैं?" अमर ने क्रूर स्वर में पूछा।
“मुझे क्या मालूम कहां हैं।" हरबंस ने अमर को घूरा।
"शाम को मेरे आदमी से पीछा छुड़ाकर कहाँ गये थे?" अमर आगे बढ़ा।
"तुम्हारा आदमी ?" हरबंस ने कहा--- "तुम्हारा आदमी मेरे पीछे था क्या?"
तभी पास पहुंचकर अमर का घूंसा, हरबंस के चेहरे पर पड़ा तो हरबंस लड़खड़ाकर कुर्सी से टकराता हुआ नीचे जा गिरा। अमर के दो आदमियों ने उसे बांह से पकड़कर खड़ा कर दिया। हरबंस के होंठ के कोने से खून बहता निकलता नजर आया।
“ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो।” अमर के स्वर में क्रूरता थी--- "तुम्हारी ये बातें मेरे सामने नहीं चलने वालीं। विजय और दीपाली के बारे में तुम्हें बताना होगा हरबंस। मेरी बात का जवाब दिए बिना तुम अब चैन की सांस भी नहीं ले पाओगे।"
“पागल हो गये हो तुम। तुमने सुना नहीं कि मैं उन दोनों के बारे में कुछ भी नहीं जानता।"
"तो फिर इस वक्त कहां से आ रहे हो?" अमर के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी।
"कहीं गया था। दीपाली और विजय के बारे में लोगों से पूछताछ कर रहा था कि---।"
"ठीक है। मुझे उन लोगों के पास ले चलो, जिससे तुमने विजय और दीपाली के बारे में पूछताछ की है। मैं अपनी तसल्ली करना चाहता हूं कि तुम वास्तव में सच कह रहे हो।”
हरबंस ने गुस्से से, होंठ के कोने से बहते खून को उल्टी हथेली से पोंछा ।
“कल्पना! तुम इसे लेकर यहां से बाहर निकलो ।”
“पापा!” कल्पना का शांत स्वर, हर भाव से परे था--- "तुम बता क्यों नहीं देते कि दीपाली कहां है?"
“तुम भी, क्या तुम्हें भी मुझ पर भरोसा नहीं कि मैं सच कह रहा हूं?"
“तुम जानते हो पापा कि दीपाली कहां है।" कल्पना ने पहले वाले स्वर में कहा--- “तुमने ही उसे और विजय को कहीं छिपा रखा है। वरना, अब तक वो हमारे हाथ आ चुके होते। ये झूठी बात कहने का कोई फायदा नहीं कि तुम दीपाली के ठिकाने के बारे में नहीं जानते।"
“मैं सच में नहीं जानता ।"
“ये आराम से मानने वाली हड्डी नहीं है।" अमर गुर्राया--- “मारो साले को। तब तक मारो, जब तक---।"
“ठहरो अमर!” कल्पना ने उसी लहजे में कहा--- “इतनी जल्दबाजी करना भी अच्छा नहीं होता। पापा बाहर से आये हैं। इन्हें बैठने दो। सांस लेने दो।" कहने के साथ ही कल्पना किचन की तरफ बढ़ गई। जब वापस आई तो हाथ में खाली गिलास और पानी की बोतल थी। जिन्हें टेबल पर रखती हुई बोली--- “अपना पैग तैयार करो पापा और शाम की शुरूआत करो। बातें तो होती रहेंगी।"
हरबंस ने कड़वी नजरों से कल्पना को देखा। फिर बोतल खोलकर पैग तैयार किया। एक ही सांस में खड़े-खड़े आधा गिलास खाली किया। गिलास हाथ में ही पकड़े रखा। सारे हालात उसके सामने थे। जाने क्यों आज कल्पना के लिए मन में गहरी नफरत आ गई थी। जिसके सिर पर पिता बनकर प्यार भरा हाथ फेरता था आज वो ही उसका बुरा हाल करवाने पर उतारू है। उसके सारे एहसान भूल गई। अगर उस रात तरस खाकर अपने घर पर न लाया होता तो आज जाने क्या इसका हाल हुआ होता।
"अमर!" कल्पना के स्वर में वही भाव थे--- "हर काम डण्डे से नहीं होता। दीपाली से हमें कितना फायदा होना है, ये बात पापा भी जानते हैं। सारा फायदा तुम ले लो। ये बात भी तो गलत है। आराम से करो। सौदा करो। पापा चाहें, तो तय सौदे की रकम, एडवांस में भी दे देना।"
अमर की कठोर निगाह हरबंस पर जा टिकी।
हरबंस ने हाथ में पकड़ा गिलास खाली किया और दूसरा बनाने लगा।
"बोलो हरबंस ! दीपाली को हमारे हवाले करने के लिए, कितना पैसा चाहते हो?"
गिलास तैयार करके पुनः हरबंस ने आधा खाली किया। कहा कुछ नहीं ।
"हरबंस ने बाकी का आधा भी खाली कर दिया।
"पांच लाख ।"
"दस लाख।"
पूरा गिलास खाली करके हरबंस नया गिलास तैयार करने लगा। उसका चेहरा कठोर हुआ पड़ा था। वहां गहरी खामोशी छाई हुई थी। हर किसी की निगाह हरबंस पर थी।
“पन्द्रह लाख ।” अमर दांत पीसकर बोला--- “अभी। नकद । एडवांस में बाद में हमें दीपाली के पास ले चलना ।"
हरबंस ने नया बनाया गिलास एक ही सांस में खाली कर दिया।
“हरामजादे!” हरबंस गुस्से से भड़क कर कह उठा--- "मैं नहीं जानता, वो दोनों कहां हैं।"
“तो अभी किसके पास से आया है?" अमर दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा।
"तेरी मां से मिलने गया था।"
“मारो हरामी को।" अमर वहशी स्वर में कह उठा ।
चारों, हरबंस पर टूट पड़े।
कल्पना ने गहरी सांस लेकर पीठ मोड़ ली।
■■■
बेदी और दीपाली ने जब वो कमरा छोड़ा तो उस वक्त रात के साढ़े नौ बजे थे। दोनों तंग गली से सावधानी से आगे बढ़ने लगे। गली में घरों से आती मध्यम सी रोशनी फैली थी। लोग आ-जा रहे थे।
“सावधान रहना। खतरा कभी भी आ सकता है।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा।
"हूं।" उसके साथ चलती दीपाली ने सिर हिलाया।
"मैं इस शहर में रास्तों से अंजान हूं। शहर से बाहर जाना हो तो, किधर जायें। किस शहर में जायें?"
“मेरे ख्याल से सुन्दर नगर जाना ठीक होगा।” दीपाली बोली ।
"सुन्दर नगर ?”
"तीन घंटे का रास्ता है बाई पास से। इस शहर जैसा ही बड़ा शहर है।"
“सुन्दर नगर तक का रास्ता मालूम है?"
“हाँ। लेकिन वहां तक जायेंगे कैसे?” दीपाली ने पूछा।
“किसी कार का इन्तजाम करना पड़ेगा।"
"ट्रेवल्स एजेन्सी के बारे में किसी से पूछते---।”
"ट्रेवल्स एजेन्सी की जरूरत नहीं है। कार का इन्तजाम वैसे ही करना होगा।"
चलते-चलते दीपाली ने बेदी के चेहरे पर निगाह मारी।
"चोरी करोगे ?"
“मजबूरी है। हमारे पास इतना वक्त नहीं कि कार को किराये पर लेने की कोशिश करें।"
“विजय! मैं पापा को फोन करके बुला लूं। वो---।"
“इस बारे में मैं तुम्हें राय नहीं दूंगा। तुम फोन करना चाहती हो। कर सकती हो। लेकिन ऐसा करने में तुम्हारे लिए खतरा भी पैदा हो सकता है। अमर के आदमी तुम्हारे बंगले के आसपास फैले हैं। हो सकता है कि अमर का कोई खबरी कल्पना के अलावा दूसरा भी हो, जो बंगले में नौकरी कर रहा हो। तुम्हारा फोन जाने पर, वो फौरन अमर को तुम्हारे यहां होने की खबर कर सकता है। यानि कि इस बारे में जो तुम ठीक समझो, वो कर सकती हो।"
कुछ पल की खामोशी के बाद दीपाली ने कहा।
"शायद तुम ठीक कहते हो। इस वक्त हमें शहर से बाहर सुन्दर नगर ही चले जाना चाहिये।"
दोनों पैदल आगे बढ़ते हुए उस इलाके से बाहर, खुले में, सड़क पर आ गये। सड़कों पर वाहन की ढेरों चमकती लाइटों से आंखें चुधियां रहीं थी। हॉर्न पर हॉर्न की आवाजें सुनाई दे रही थीं। कानों में शोर पड़ रहा था। उस बंद कमरे से निकलकर, ये सब देखना-सुनना अच्छा लगा उन्हें ।
"इधर फुटपाथ पर आगे बढ़ते हैं।" बेदी ने कहा।
दोनों सड़क के किनारे फुटपाथ पर आगे बढ़ने लगे। बेदी की नजरें इधर-उधर फिर रही थीं कि कोई ऐसी खड़ी कार नजर आ जाये, जिस पर हाथ डालने में आसानी हो।
"विजय!"
"हूं!"
"मेरी बचपन की सहेली है। हम वहां जाकर आसानी से बच सकते हैं।" एकाएक दीपाली कह उठी।
"ख्याल बुरा नहीं। उस पर भरोसा किया जा सकता है?"
"हां। वो तो मेरी खास है।" दीपाली की आवाज में विश्वास के भाव थे।
"फिर तो वहां चलना ठीक रहेगा। कहां रहती है? कितनी दूर है यहां से?" बेदी ने पूछा।
"ज्यादा दूर नहीं है। आधे घंटे में वहां पहुंच जायेंगे। टैक्सी ले लेते हैं।"
जल्दी ही उन्हें टैक्सी मिल गई।
"बस यहीं रोक दो ।" दीपाली कह उठी।
टैक्सी ड्राईवर ने टैक्सी रोक दी।
पास ही में खूबसूरत अपार्टमैंट खड़ा नजर आ रहा था।
"यहीं रहती है।" दीपाली ने अपार्टमेंट को देखा--फिर टैक्सी का दरवाजा खोलते हुए बोली--- “किराया दो।”
बेदी ने जेब में हाथा डाला। नजरें अपार्टमैंट की तरफ थीं।
दीपाली टैक्सी से बाहर निकल चुकी थी।
“कितना हुआ?” बेदी ने पूछा।
"अस्सी रुपये।" टैक्सी ड्राईवर बोला।
बेदी ने सौ का नोट निकालकर टैक्सी ड्राईवर को थमाया। बाकी पैसे जेब में डालकर बाहर निकलने को हुआ तो उसकी आंखें सिकुड़ीं। अपार्टमैंट की बाहरी दीवार के पास दो बदमाश टाईप के व्यक्ति नजर आये। जो कि एकाएक ही दीपाली की तरफ तेजी से बढ़े।
दीपाली अपार्टमैंट के गेट की तरफ बढ़ रही थी ।
बेदी को समझते देर नहीं लगी कि दीपाली के लिए मुसीबत यहां भी है।
“दीपाली !” बेदी ने पुकारा--- “जल्दी से वापस आओ।" कहने के साथ ही होंठ भींचे टैक्सी ड्राईवर से बोला--- “उस्ताद जी, कुछ बदमाश पीछे हैं। टैक्सी भगानी है।"
"झंझट वाला काम। "
“कोई झंझट नहीं। दस मिनट के लिए पांच सौ दूंगा।” बेदी की निगाह दीपाली पर थी। जिसने ठिठककर, टैक्सी की तरफ देखा ।
दो पल ही बीत गये।
बदमाश दीपाली की तरफ बढ़ रहे थे।
"खतरा है।" बेदी ने चिल्लाकर कहा--- “जल्दी से टैक्सी में आओ।"
ये सुनते ही दीपाली पल्टी और तूफान की तरह टैक्सी की तरफ भागी।
ये देखकर दोनों बदमाश भी उसे पकड़ने के लिए भागे ।
बेदी ने टैक्सी का दरवाजा पूरा खोल दिया।
“जल्दी ।" बेदी पुनः चिल्लाया और टैक्सी ड्राईवर से बोला--- "लड़की आते ही टैक्सी खींच लेना।”
"पांच सौ लूंगा।"
“छः सौ दूंगा। पैसे की बात मत कर काम होना---।"
तभी दीपाली छलांग मारने वाले ढंग में टैक्सी के भीतर खुले दरवाजे से आ कूदी। ड्राईवर ने टैक्सी को तूफान की गति दौड़ा दिया। वो दोनों बदमाश सिर्फ एक कदम की दूरी पर थे। चाहकर भी उनके हाथ दीपाली तक नहीं पहुंच सके और भागती टैक्सी से टकराकर, बुरी तरह लड़खड़ा गये।
"वो गये, पकड़ो उन्हें ।" एक ने गुस्से से कहा--- “कार की तरफ भागो।"
दोनों कुछ फासले पर खड़ी कार की तरफ भागे।
“यहां आकर तो खामखाह मुसीबत ले ली।" दीपाली के होंठों से घबराया स्वर निकला। अब तक वो टैक्सी का दरवाजा बंद कर चुकी थी। गर्दन घुमाकर पीछे देख रही थी।
बेदी ने भी पीछे देखा ।
"अब ये तो स्पष्ट हो गया कि अमर तुम्हारी तलाश बड़े पैमाने पर करा रहा है। ऐसा न होता तो तुम्हारी सहेली के यहां तुम्हारे इन्तजार में उसके आदमी मौजूद न होते।" बेदी ने होंठ भींचकर कहा।
तभी पीछे कार की हैडलाइट्स चमकीं ।
“शायद वो लोग पीछे आ रहे हैं।" बेदी का चेहरा सख्त होने लगा ।
“अब क्या होगा ?"
बेदी ने टैक्सी ड्राईवर से कहा।
"वो बदमाश शायद पीछा कर रहे हैं। उनसे बचना है।"
"छः सौ रुपये में तो टैक्सी भगाने की बात हुई थी। बचाने की बात नहीं हुई।" टैक्सी ड्राईवर बोला।"
"हजार ले लेना।"
“पहले दे दो तो टैक्सी बढ़िया दौड़ेगी। ये भी तो इस वक्त नखरा दिखायेगी।"
बेदी ने जल्दी से उसे हजार रुपया दिया।
"मीटर का किराया अलग है साहब जी।"
“ले लेना।” पीछे वाली कार से पीछा छुड़ाओ।" बेदी ने तीखे स्वर में कहा।
■■■
आधी रात का वक्त हो रहा था।
हरबंस बुरे हाल में था । बुरी तरह मारा गया था उसे। चेहरा खून में डूबा हुआ था। दांत खून से रंगे हुए थे। कमीज कई जगह से फट चुकी थी। मार खाने के दौरान दो बार बेहोश हुआ और उसे होश में लाया गया। फिर ठुकाई का दौर जारी और अब वो तीसरी बार बेहोश हुआ था।
सैकड़ों बार पूछने पर भी उसने बेदी और दीपाली के ठिकाने के बारे में नहीं बताया था। हरबंस के मन में कल्पना के प्रति घृणा और नफरत भर गई थी। जिसे वो बेटी की तरह चाहता था, वो ही आज उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बनी, खड़ी थी। बेशक मुंह बोला बाप ही सही, लेकिन वो उससे ऐसा व्यवहार करेगी, ये बात तो उसने सपने में भी नहीं सोची थी। यही एक जिद्द उसके मन में ऐसी आई कि पन्द्रह लाख का लालच भी उसकी नफरत से भरी जिद्द को नहीं तोड़ सका था।
उसे पुनः बेहोश होते पाकर कल्पना गम्भीर स्वर में कह उठी।
"ये नहीं बतायेगा।"
“क्यों?" अमर के चेहरे पर दरिन्दगी बरस रही थी।
"पापा ने बताना होता तो दस-पन्द्रह लाख की बात सुनकर ही बता देता ।" कल्पना ने बेहोश पड़े हरबंस को देखा--- “मैं पापा को अच्छी तरह जानती हूं कि आते पैसे को ये कभी नहीं, जाने देता। वैसे, ये भी हो सकता है कि पापा को वास्तव में उन दोनों के बारे में न मालूम हो।"
“मालूम है। लेकिन कमीना बता नहीं रहा।" अमर के स्वर में विश्वास के भाव थे--- "मेरा ख्याल है कि ये खुद दीपाली की वापसी का सौदा सुखवंत राय से करना चाहता होगा। तभी---।”
"नहीं।” कल्पना ने इन्कार में सिर हिलाया--- “पापा में इतना बड़ा काम करने का हौसला नहीं है। लाख-दो लाख से ऊपर का खेल, ये नहीं खेल सकता। अगर इसे मालूम है कि विजय-दीपाली कहाँ हैं तो फिर समझो मुंह बंद रखने के पीछे और ही वजह है। वरना इतनी ठुकाई के बाद ये अवश्य बता देता।"
"और क्या वजह हो सकती है?" अमर ने होंठ भींचकर पूछा।
"कह नहीं सकती।"
"अब क्या करना है?" अमर ने कल्पना को देखा।
"अपने दो आदमी यहीं छोड़ दो। जब भी पापा को होश आये, ठुकाई शुरू कर दें। शायद---।"
"इसे अपने ठिकाने पर ले जाता---।"
तभी बाहर, दरवाजे पर थपथपाहट पड़ी।
सबकी निगाहें मिलीं।
अमर ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी। आधी रात के तीन बज रहे थे।
"कौन सकता है?" अमर के होंठों से धीमा स्वर निकला।
कल्पना के चेहरे पर दृढ़ता के भाव उभरे और दरवाजे की तरफ बढ़ी। दरवाजा खुला।
बाहर सोफिया खड़ी थी।
कल्पना, सोफिया को नहीं पहचानती थी।
"कौन हो तुम?" कल्पना के होंठों से निकला।
"आने दो इसे।" पीछे से अमर की आवाज आई--- “सोफिया है ये।"
सोफिया को चुभती निगाहों से देखती, कल्पना पीछे हटी।
"तुम्हारा नाम ही कल्पना है।" भीतर प्रवेश करते हुए सोफिया बोली--- “जितना सुना था, उससे ज्यादा खूबसूरत पाया।"
कल्पना ने होंठ भींचकर दरवाजा बंद किया। जवाब में कुछ नहीं कहा। पहली नजर में ही सोफिया उसे पसन्द नहीं आई थी। कल्पना की नजरें उस पर टिक चुकी थीं।
"तुम इस वक्त यहां कैसे?" अमर कह उठा ।
सोफिया ने हरबंस को बुरे हाल बेहोश पड़े देखा तो कह उठी।
"तगड़ी ठुकाई की बेचारे की।" कहने के साथ ही पलटकर कल्पना से कहा--- "जो भी हो, ये तुम्हारा मुंह बोला बाप है। इसने तुम्हें पाला । इसका इतना बुरा हाल न हो, ये ध्यान रखना था तुम्हें।"
"तुम्हें इसी पर राहत की सांस लेनी चाहिये कि ये तुम्हारा बाप नहीं है।" कल्पना ने सपाट स्वर में कहा--- "अगर तुम्हारा बाप होता तो इस वक्त ये और भी बुरे हाल में होता।"
सोफिया ने गहरी निगाहों से कल्पना को देखा फिर कंधे झटककर पलटी।
"तुम हरबंस से ये जानना चाहते थे कि विजय और दीपाली कहाँ हैं?" सोफिया बोली।
"हाँ।"
"बताया इसने ?"
"नहीं। लेकिन तुम---।"
"सुनते रहो। दो घंटे की मेहनत के पश्चात् मालूम हुआ कि तुम यहाँ हो। अब हरबंस से पूछने की जरूरत नहीं कि वो दोनों कहाँ पर हैं। क्योंकि इस वक्त सच में ये भी नहीं जानता कि विजय और दीपाली कहाँ हैं?"
"क्या मतलब?"
सब की निगाह सोफिया पर उठी।
"कुल मिलाकर जो जानकारी मेरे पास है, वो तुम्हें बता रही हूँ। दस बजे दीपाली, विजय के साथ अपनी खास सहेली के यहां पहुंची। वहां तुम्हारे आदमी पहले से ही मौजूद---।"
"मालूम है। आगे बोलो।" अमर की आंखें सिकुड़ीं।
"तुम्हारे आदमी दीपाली को पकड़ नहीं पाये। वो दोनों टैक्सी से भाग निकले। उनका पीछा किया, लेकिन तब भी उन्हें पकड़ा नहीं जा सका। टैक्सी उनकी निगाहों से गुम हो गई।" सोफिया बता रही थी--- "ऐसे में जल्दी ही शहर भर में फैले तुम्हारे और मेरे आदमियों में ये बात फैल गई कि दीपाली और विजय अपने छिपने की जगह से बाहर आ गये हैं। सुखवंत राय के बंगले पर निगरानी सख्त कर दी गई कि, वो बंगले पर पहुंचने की कोशिश करें तो पकड़े जायें। और बाकी आदमी शहर भर की सड़कों पर उनकी तलाश में भागने दौड़ने लगे।" कहने के साथ ही सोफिया ठिठकी और सिग्रेट सुलगाकर कहा--- "दो घंटे पहले मेरे आदमी ने दीपाली और विजय को कार पर बाईपास से गुजरते देखा।"
"बाईपास--कौन-सा ?"
"वो बाईपास जहां से शामपुर, कांवरा और सुन्दर नगर जाया जा सकता है।" सोफिया ने उसे देखा।
"तो दीपाली शहर से बाहर निकल ही गई।" कल्पना का स्वर कठोर हो गया।
"ये सब विजय की करतूत हैं।" अमर ने दांत भींचकर कहा--- "वो ही दीपाली को हमसे बचाये हुए है। वरना दीपाली में इतनी हिम्मत नहीं कि, हमारे हाथों से इतनी दूर रह सके। एक बार वो हरामजादा हाथ तो लग जाये। फिर--।"
"तुम्हारे आदमी उसके पीछे गये हैं?" कल्पना ने सोफिया से पूछा ।
"मेरे आदमी ने उनका पीछा किया, लेकिन सफल नहीं हो सका।” सोफिया ने कहा--- "उसकी पुरानी कार में पैट्रोल कम था। जबकि वो जिस कार में थे, वो ठीक-ठाक हालत में थी।"
"सुन्दर नगर से पहले भी कई जगह पड़ती हैं। क्या मालूम वो---।"
"ये बातें रास्ते में भी हो सकती हैं।" कल्पना ने शब्दों को चबाकर कहा-- "यहां से निकलो।"
अमर ने कठोर निगाहों से कल्पना को देखा फिर सिर हिलाकर बोला।
“चलो।”
कल्पना ने एक निगाह बेहोश हरबंस पर मारी। फिर आगे बढ़कर उसे अच्छी तरह चैक किया। वो बेहोश ही था। ठीक था। होश आ जाना था उसे ।
“मैं भी साथ चलूंगी।" सोफिया कह उठी।
अमर और कल्पना ने उसे देखा ।
"तुम?" अमर ने कहना चाहा।
“क्यों?" सोफिया मुस्कराई--- “मेरे साथ चलने में क्या एतराज है? अब तो मैं तुम्हारी पार्टनर हूं।"
“इस काम में वक्त लग सकता है सोफिया। पीछे से तुम्हारा धंधा---?"
“मेरी इतनी फिक्र ना करो अमर!" सोफिया बराबर मुस्करा रही थी--- “मेरी गैर मौजूदगी में भी मेरा धंधा चलता रहेगा।"
“तुम्हारी इच्छा। चलो।”
“इसे समझा देना अमर कि ये सिर्फ तुम्हारी पार्टनर है। हमारे काम में दखल न दे। क्योंकि ये काम हमारा है।” कहते हुए कल्पना की कठोर निगाह सोफिया पर थी।
“तुम लोगों के काम में मेरा कोई दखल नहीं होगा। मैं तो सिर्फ तफरीह के इरादे से साथ चल रही हूं।” सोफिया पुनः मुस्कराई।
"इसे ये भी समझा देना अमर कि हम तफरीह पर नहीं जा रहे।"
सोफिया ने कुछ नहीं कहा। मुस्कराकर कल्पना को देखती रही।
“निकलो यहां से।” कल्पना ने पलटते हुए दरवाजा खोला और बाहर निकल गई।
"ये तो बहुत तेज लगती है अमर!"
अमर के कुछ कहने के पहले ही बाहर अंधेरे में खड़ी कल्पना कह उठी।
“ये बातें भी तुम रास्ते में कर सकती हो। दीपाली पहले ही हमसे दूर पहुंच चुकी है।"
सोफिया गहरी सांस लेकर रह गई।
■■■
सुबह चार बजे फोन बजने पर विनोद कुमार की आंख खुली।
"हैलो!" विनोद कुमार की ऑंखें बंद थीं। स्वर में नींद का असर था।
“सर! मैं टण्डन ।" टण्डन का स्वर कानों में पड़ा ।
"तुम सोये नहीं क्या?" विनोद कुमार की आंखें खुल गईं।
“सोया हुआ था सर! अभी फोन पर दीपाली की खबर आई है। अमर के आदमी ने फोन किया था। दीपाली, विजय के साथ शहर से बाहर निकल गई है।" टण्डन जल्दी-जल्दी कह रहा था।
"शहर से बाहर, किस तरफ?” विनोद कुमार सीधा होकर बैठ गया।
"सुन्दर नगर की तरफ ।"
विनोद कुमार के होंठ सिकुड़ गये। माथे पर बल नजर आने लगे।
"सर!" टण्डन की आवाज कानों में पड़ी।
"टण्डन!" विनोद कुमार के होंठों से निकला--- “तुमने कहा कि विजय और दीपाली सुन्दर नगर की तरफ गये हैं। इस शहर से सुन्दर नगर पहुंचने तक के बीच, दो-तीन जगह और पड़ती हैं। "
"यस सर।"
"वो दोनों सुन्दर नगर गये हैं या बीच में किसी जगह पर ?"
"ये तो मालूम नहीं सर ! खबर ये ही है कि उन दोनों को बाईपास से सुन्दर नगर जाने वाले रास्ते पर देखा गया है।"
"खबर पक्की है?"
"हां सर! उस आदमी ने बताया कि अमर, सोफिया और कल्पना, अपने आदमियों के साथ उनके पीछे गये हैं।"
विनोद कुमार सीधा होकर बैठ गया।
"क्या करना है सर?
“सुन्दर नगर के सुन्दर होटल में महेश और पांडे रुके हुए हैं। ग्यारह बजे मेरी उनसे फोन पर बात हुई थी। वहां का केस उन्होंने निपटा लिया है। उनका कहना था कि रात भर वे आराम करके सुबह यहां के लिए चलेंगे। तुम होटल में फोन करके उनका कमरा नम्बर मालूम करो।" विनोद कुमार कह रहा था--- "उन्हें विजय और दीपाली के हुलिये बताकर, उस रास्ते पर नजर रखने को कहो, जहां से सुन्दर नगर में प्रवेश किया जाता है। उन्हें समझा देना कि दोनों के मिल जाने पर उन्हें कुछ कहना नहीं है। सिर्फ हमें मोबाईल फोन पर खबर करें।"
"यस सर! लेकिन सर, हो सकता है, वो दोनों सुन्दर नगर न जायें और बीच में ही---।"
"ऐसा भी हो सकता है। तुम ये काम करके फौरन मेरे पास पहुंचो। मैं तैयार मिलूंगा। हम सुन्दर नगर चलेंगे। रास्ते में उनके बारे में मालूम करते जायेंगे कि---।”
"मैं समझ गया सर!"
“जल्दी पहुंचो।”
"आधे घंटे में आया सर!”
विनोद कुमार ने रिसीवर रखा और सिग्रेट सुलगा ली। चेहरे पर सोच के भाव थे। विजय, दीपाली को लेकर शहर से बाहर निकल गया है। यानि कि वे जानते थे कि शहर में उन्हें तलाश किया जा रहा है। हर तरफ उनके लिये खतरा है। अब वे शहर से बाहर निकलकर खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे होंगे।
क्या उन्हें मालूम होगा कि कल्पना, अमर और सोफिया को उनकी खबर हो गई है?
कि वे अभी भी पीछे हैं?
■■■
बेदी सामान्य गति से कार ड्राईव कर रहा था। तीव्र हैडलाईट में सामने की सड़क चमक रही थी। हाईवे पर तूफानी रफ्तार से आते वाहन, उसे ओवरटेक कर रहे थे। उन दोनों बदमाशों से बचने के बाद, टैक्सी छोड़कर, वे खामोशी से अंधेरे भरी सड़कों पर छिपे इधर-उधर जाते रहे थे।
बेदी को बढ़िया हालत वाली कार की तलाश थी। जिसे आसानी से उठाया भी जा सके।
ऐसी कार तलाश करने में उसे तीन-साढ़े तीन घंटे का वक्त लगा।
उन्हें कार मिल गई। कार का लॉक खोलना उसके लिए मामूली काम था। और संयोग तो ये रहा कि कार के डैशबोर्ड में कार की डुप्लीकेट चाबी मौजूद थी।
दीपाली बगल में बैठी और बेदी ने कार आगे बढ़ा दी ।
उसके बाद एक घंटा लगा उन्हें शहर से बाहर निकलने में। बाईपास पर उसे शक हुआ था कि कोई कार उसके पीछे लगी है, परन्तु शीघ्र ही पीछे आने वाली कार पीछे रह गई तो बेदी समझ गया कि ऐसा कुछ नहीं है। सब ठीक है। अब उन्हें, पीछे लगे लोग नहीं पकड़ सकेंगे।
बेदी ने दीपाली पर निगाह मारी।
वो सीट की पुश्त से सिर टिकाये आंखें बंद किए पड़ी थी। इस भागदौड़ से वो थक चुकी थी। बेदी ने गहरी सांस ली और ड्राईविंग पर ध्यान लगा दिया।
"तुम थके नहीं?” एकाएक दीपाली ने पूछा।
"नहीं।"
"मैं थक गई हूं।” दीपाली ने आंखें खोलीं--- "चाय पीने का मन कर रहा है। "
"इस वक्त ? जानती हो तीन बज चुके हैं!"
"तो क्या हो गया?"
“अब कहां चाय मिलेगी ?”
“रात के वक्त तो हाईवे पर होटल वगैरह खुले रहते हैं। कहीं न कहीं तो मिल ही जायेगी।"
बेदी ने गहरी सांस ली।
"प्लीज।"
“ठीक है। ऐसी कोई जगह आई तो कार रोक दूंगा।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा।
“तुम कितने अच्छे हो विजय!” दीपाली के स्वर में प्यार के भाव थे--- "खुद को खतरे में डालकर मुझे बचाया।”
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
"तुमने अपने बारे में नहीं बताया कि तुम कौन हो और---?"
"इस सवाल का जवाब देने के लिये, मैं पहले ही मना कर चुका हूं।" बेदी बोला ।
"कोई हर्ज है बताने में?"
“फायदा भी नहीं बताने का।"
“ठीक है। ये तो बता सकते हो कि तुम्हारे घर में और कौन-कौन हैं?'
"कोई भी नहीं।"
"ये कैसे हो सकता है! कोई तो होगा ही।" दीपाली ने उस पर निगाह मारी।
“कुछ लोगों का कोई भी नहीं होता और कुछ के बहुत लोग होते हैं।" बेदी का स्वर शांत था--- "मां-बाप थे। बूढ़े हो गये थे। बुढ़ापा भी जब बीत गया तो इस दुनियां से चले गये।"
दीपाली ने सामने देखते हुए कहा।
“लगते तो शरीफ खानदान के, शरीफ इन्सान हो।"
"तुम्हें किसी ने कहा मैं बदमाश हूं।"
"ये बात नहीं।” दीपाली ने सिर हिलाया--- “लेकिन हरबंस जैसे इन्सान का साथ फिर अमर जैसे बदमाश से टक्कर लेना......।"
"हरबंस से मेरा इतना ही वास्ता है कि, मेरे पास रहने की जगह नहीं थी। उसके घर ठहरा।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "और अमर के साथ मेरा दुश्मनी का रिश्ता तुम्हारी वजह से बना । अगर मैंने तुम्हें बचाने की न सोची होती तो अमर से मेरा वास्ता नहीं पड़ना था।"
"तुमने यह नहीं सोचा कि अमर गुस्से में तुम्हारी जान भी ले सकता है कि---।"
“मैं मौत का डर पीछे छोड़ चुका हूं। कभी बहुत डरता था मरने से। लेकिन जब महसूस हुआ कि जिन्दगी और मौत पर किसी का बस नहीं तो, मरने का डर छोड़ दिया। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मैं आंखें बंद करके कुएं में कूद जाऊं।" बेदी की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था--- “अब मैं सिर्फ कर्म करने में विश्वास करने लगा हूँ। मुझे किसी चीज की जरूरत है, उसे पाने की कोशिश कर रहा हूं, सिर्फ अपने कर्मों से। मुझे खुद पर इतना तो भरोसा है कि देर-सवेर में मैं अपनी जरूरत को, कर्मों के दम पर पूरी कर लूंगा।”
दीपाली ने होंठ सिकोड़कर उसे देखा ।
“तुम्हें किस चीज की जरूरत है?" दीपाली ने पूछा।
बेदी खामोश रहा।
“बताओ मुझे। रुपया-पैसा चाहिये तो परवाह मत करना। मेरे पास बहुत है। किसी और चीज की जरूरत हो तो कहो--वो---।”
“तुमसे मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है।" बेदी ने शांत स्वर में कहा।
“तुम मुझे बताना नहीं चाहते। जबकि मैं तुम्हारी जरूरत पूरी कर---।"
"मेरी जरूरत ऐसी नहीं है कि तुम पूरी कर सको।" बेदी ने टालने वाले ढंग में कहा।
दीपाली ने अंधेरे में उसे देखा। सामने से आते वाहन की हेडलाईट्स दोनों के चेहरों पर पड़ीं।
"तुम्हें मालूम हैं तुम खूबसूरत हो। आकर्षक हो।" दीपाली बोली।
बेदी कुछ नहीं कहा।
"मैं तुम्हें कैसी लगती हूं विजय ?"
"मैंने तुम्हें देखा नहीं।"
“कमाल है! कई दिनों से मेरे साथ हो और मुझे देखा नहीं?" दीपाली ने मुंह बनाया।
"देखने-देखने में फर्क होता है। बेहतर होगा कि ये सब बातें मत करो। अमर के बारे में सोचो, तो---।"
“एक बार मैं ठीक-ठाक घर पहुंच जाऊं। उसके बाद पापा, देखेंगे अमर को। तुम नहीं जानते मेरे पापा को कि उनकी पहुंच कहाँ तक है। अमर को तो---।" दीपाली की आवाज में गुस्सा था।
"मेरा इन बातों से कोई वास्ता नहीं। बाद में जो मन में आये करना।"
दीपाली गुस्से से भरे चेहरे के साथ खामोश सी बैठ गई।
"बड़े बाप की बेटी हो। तुम्हें खुद सतर्क रहना चाहिये कि दौलत के लालच में लोग तुम्हारे साथ बुरा भी कर सकते हैं। एक अमर जायेगा तो दूसरा आ जायेगा।" बेदी का स्वर शांत था।
"तुम ठीक कहते हो।" दीपाली गम्भीरता से कह उठी।
कुछ पल उनके बीच खामोशी से बीते ।
"मेरा सिर दर्द कर रहा है। चाय पिला दो कहीं से। कुछ आगे होटल वगैरह आने वाले हैं।” दीपाली ने होंठ भींचकर कहा--- "सच बात तो ये है कि कुछ लोगों ने चालबाजी से, मेरे को फंसाकर ड्रग्स की आदत डाल दी है, जो कि ईलाज से बहुत हद तक छूट चुकी है। लेकिन कभी-कभार ड्रग्स लेने की इच्छा जोर मारती है। तभी सिर फटता है।"
"मेरे साथ होते हुए तुम ड्रग्स का इस्तेमाल नहीं करोगी।" बेदी ने कहा।
"तुम कहोगे, तो तब भी ड्रग्स नहीं लूंगी। इन बुरी चीजों से दूर रहना चाहती हूं।" दीपाली कह उठी--- "मुझे सिर्फ चाय पिला दो। सिर कुछ काबू में आ जायेगा।"
"कोई जगह आ लेने दो।"
"शामपुर आने वाला है। वहां चाय वगैरह मिल जायेगी।" दीपाली बोली ।
बेदी ने घड़ी में वक्त देखा। सुबह के चार बजने जा रहे थे।
कुछ ही देर में छोटे से कस्बे शामपुर की लाईटें जलती नजर आने लगीं ।
■■■
टण्डन कार ड्राइव कर रहा था।
सुबह चार बजे वो विनोद कुमार के साथ बाईपास की तरफ, सुन्दर नगर के लिए रवाना हुआ था।
“सर!" कार दौड़ाते टण्डन बोला--- “विजय और दीपाली खतरे में पड़ सकते हैं। अमर, कल्पना और सोफिया पहले ही उनके पीछे जा चुके हैं। हम लेट हैं।"
“हम जितनी जल्दी कर सकते हैं, कर रहे हैं।” विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अगर हमें पक्के तौर पर मालूम हो जाये कि विजय-दीपाली कौन-से शहर जाने की सोचे हुए हैं, तो शायद कुछ कर सकें।"
"ये मालूम होना तो अब संभव नहीं।”
“महेश और पांडे को सुन्दर नगर फोन कर दिया था?" विनोद ने पूछा।
"यस सर! पांडे नींद खराब होने की वजह से उखड़ गया था कि उसे दो दिन बाद सोने को मिला है। लेकिन अब तक दोनों अपनी ड्यूटी संभाल चुके होंगे।" टण्डन ने कहा।
विनोद कुमार ने सिग्रेट सुलगाई।
"इन सब लोगों के बीच हरबंस का नाम सुनने को नहीं आ रहा।” विनोद कुमार ने कहा।
“हां सर! आपको बताना भूल गया।" टण्डन जल्दी से कह उठा--- "हरबंस पर हमारा आदमी नजर रखे था, परन्तु शाम को वो उसे धोखा देकर जाने कहां खिसक गया। फिर रात को नौ बजे अपने घर पहुंचा था। तब घर पर कल्पना के साथ अमर और उसके चार आदमी मौजूद थे। वहां नजर रखने वाले आदमी ने ये बात बताई। उसके बाद घर से कोई भी बाहर नहीं निकला। हमारे आदमी ने भीतर से आती हरबंस की एक-दो बार चीख सुनी थी ।"
“मतलब कि अमर को शक होगा कि हरबंस, विजय-दीपाली के बारे में जानता है कि वो कहां है। उससे इसी बारे में पूछताछ कर रहा होगा।” विनोद कुमार ने कहा।
“इसके अलावा हरबंस की ठुकाई की क्या वजह सकती है! फिर आधी रात के बाद सोफिया वहां पहुंची और मिनट बाद सब घर से निकले और कारों में बैठकर चले गये। मतलब कि उन्हें विजय और दीपाली के बाईपास से गुजरने की खबर मिल गई होगी।" टण्डन कहकर रुका।
"और हरबंस नजर नहीं आया?” विनोद कुमार ने पूछा।
"नहीं ।"
“इससे तो लगता है कि हरबंस, उनकी मारपीट से अपने घर में घायल पड़ा हो सकता है।"
"शायद ।" टण्डन तेज रफ्तार के साथ कार दौड़ा रहा था। इस वक्त सड़कें खाली थीं। वो बाईपास के पास आ पहुंचे थे--- "उन दोनों का पता चलने पर, हरबंस से पूछताछ की जरूरत नहीं रही होगी।"
विनोद कुमार ने मोबाईल फोन निकाला और नम्बर मिलाने लगा।
कुछ देर बाद लाईन मिली फिर नींद से भरी आवाज कानों में पड़ी।
"हैलो!"
"दीपक!"
"सर!" एकाएक आने वाली आवाज में से नींद के भाव गायब हो गये।
"हरबंस का पता जानते हो जो---?"
"यस सर! टण्डन के साथ हरबंस से की गई पूछताछ के वक्त मैं साथ ही था।"
"ठीक है। हरबंस के पास जाओ। उसके घर। मेरे ख्याल में वो घायल हो सकता है। जो भी हो उसे देखो। जरूरत समझो तो उसके लिए डाक्टर का भी इन्तजाम करो।” विनोद कुमार ने कहा।
"यस सर!"
"अमर ने शायद उसकी ठुकाई की है। तुमने हरबंस का ध्यान रखना है। और बातों-बातों में उससे विजय के बारे में जानना है। पहले उसे अमर और कल्पना के खिलाफ भड़काना। उसके बाद ही तुम्हारी बातों का वो जवाब देगा।"
"समझ गया सर!"
"वो विजय के बारे में अवश्य कुछ जानता है। शायद इस वक्त वो गुस्से में हो और बता दे।"
"मैं सब संभाल लूंगा सर ! अगर उसने मेरे बारे में जानना चाहा तो---?"
"जैसा ठीक समझो। वैसा ही करना और मोबाईल पर ही मुझसे बात करना। मैं इस वक्त शहर से बाहर हूं।"
"ओ०के० सर ।"
विनोद कुमार ने मोबाइल बंद किया।
"आपने ठीक सोचा सर ! अगर अमर ने उसकी ठुकाई की है, तो, शायद वो खुन्दक में बता दे। ये जानकर तो बता ही देगा कि अमर, कल्पना और सोफिया, विजय और दीपाली के पीछे गये हैं।"
"ये बात दीपक को नहीं मालूम।” विनोद कुमार बोला--- "लेकिन वो अपने ढंग से हरबंस को संभाल लेगा।"
■■■
वो दो कारें थीं।
आगे वाली कार को चालीस बरस का व्यक्ति चला रहा था। उसकी बगल में कल्पना बैठी थी और पीछे वाली सीट पर अमर-सोफिया मौजूद थे।
तीनों की निगाहें दौड़ती कार में आस-पास फिर रही थीं।
"कार को चालीस के ऊपर मत चलाओ।" कल्पना ने कहा।
चलाने वाले ने रफ्तार कम कर ली।
"अगर हम धीरे चलेंगे तो विजय-दीपाली को लेकर बहुत आगे निकल जाएगा।" सोफिया कह उठी।
"अमर! इसे समझा दो कि हमारी बातों में दखल न दे।" कल्पना ने सपाट स्वर में कहा।
"तुम चुप रहो सोफिया !" अमर कह उठा--- "कल्पना का कहना ठीक है कि कार की रफ्तार कम रहनी चाहिये। क्या मालूम उन्होंने अपनी कार को सड़क से उतारकर, अंधेरे में खड़ी कर रखी हो कि दिन निकलने पर आगे बढ़ेंगे। अगर वो आगे निकल गये हैं तो मेरे ख्याल में सुन्दर नगर में ही जाकर रुकेंगे। वहां से शायद आगे न जायें। "
"वो दोनों सुन्दर नगर से आगे नहीं जायेंगे।" कल्पना कह उठी--- "इस शहर से बाहर निकलने के पीछे उनका मकसद सिर्फ खुद को बचाना है। वो यही सोच रहे होंगे कि हमें, उनके शहर से निकल जाने की खबर नहीं है। ऐसे में सुन्दर नगर में ही कुछ ठहरेंगे। कोशिश करने पर वहां उन्हें ढूंढा जा सकता है।"
"सुन्दर नगर कोई छोटी जगह नहीं कि उन्हें आसानी से---।" सोफिया ने कहना चाहा।
"दीपाली और विजय, आनन-फानन शहर से निकले हैं।" कल्पना सपाट स्वर में कह उठी--- "कोई जरूरी नहीं कि सुन्दर नगर में उनका कोई रहने का ठिकाना हो। हो तो, शायद वो सतर्कता की वजह से वहां भी न ठहरें। अपनी सहेली के यहां जाने का नतीजा वो देख ही चुके हैं। ऐसे में वो किसी होटल में ये सोचकर ठहरेंगे कि सुन्दर नगर में उन्हें कोई खतरा नहीं। कुछ दिन बाद, बचने का रास्ता निकालेंगे।"
"रास्ते में शामपुर और कांवरा जगह भी पड़ती हैं।" सोफिया बोली--- "वो वहां भी कहीं रुक सकते हैं।”
"हर जगह पूछताछ करके ही आगे बढ़ेंगे। मेरे ख्याल में अब हमारे लिए काम आसान हो गया है। शहर में उनके छिपे रहने से, उन्हें तलाश करने में हमें परेशानी आ रही थी। दीपाली का घर भी वहीं था और प्राईवेट जासूस विनोद कुमार भी दीपाली की तलाश में दौड़ा फिर रहा था। वहां खतरा ज्यादा था।"
"अब हम उन्हें ढूंढ लेंगे।" अमर के स्वर में विश्वास था--- "वो बच नहीं सकेंगे।"
"सुखवंत राय के बंगले पर तुम्हारे आदमी नजर रख रहे हैं?" कल्पना ने पूछा।
"हां। वहां बराबर नजर रखी जायेगी।" अमर बोला--- “विजय और दीपाली किसी तरह की चालबाजी करके बंगले पर पहुंचने की चेष्टा कर सकते हैं। लेकिन तुम्हारा सुखवंत राय के यहां न होना, तुम्हारे को शक के घेरे में ला सकता।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" कल्पना कह उठी--- "मैं कहकर आई थी कि मेरे पापा की तबीयत खराब है। उनके ठीक होने पर वापस आऊंगी। लेकिन विनोद कुमार मेरे लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।"
"विनोद कुमार---वो प्राईवेट जासूस।"
"हां। हो सकता है उसे अब तक मालूम हो गया हो कि मैं, दीपाली के मामले में तुम्हारे साथ ही हूं।"
"वो तुम्हारे लिए कोई परेशानी खड़ी नहीं कर सकेगा।" अमर ने होंठ भींचकर कहा--- "जल्दी ही दीपाली हमारे कब्जे में होगी। सुखवंत राय तब खुद ही विनोद कुमार को पीछे हटने को कह देगा। दीपाली को सही-सलामत वापस पाने के लिए वो हमारी हर बात मानेगा। हमारा बुरा करने की तो वो सोच भी नहीं सकेगा।"
"जब तक हालात हमारे काबू में नहीं आते। तब तक के लिए, खासतौर से मुझे सावधान रहने की जरूरत है।"
"याद है, ना अमर! इस मामले में सुखवंत राय से जो भी मिलेगा, वो आधा-आधा होगा, हमारे बीच।"
“सब याद है। बार-बार इस बात को दोहराओ मत।"
उनकी कार के पीछे दूसरी कार में अमर के चार गनमैन मौजूद थे ।
■■■
बेदी और दीपाली ने चाय के साथ स्लाईस भी लिए। रात खाना न खाने की वजह से भूख महसूस हो रही थी, परन्तु इस वक्त ज्यादा खाने का भी मन नहीं हो रहा था। दोनों के चेहरों पर थकान और नींद के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे। सुबह के पांच बजने वाले थे।
"विजय!" दीपाली ने उसे देखा ।
“क्या?" बेदी ने सिग्रेट सुलगाई।
“अब तो हमें कोई खतरा नहीं, अमर-कल्पना-सोफिया से वो तो उसी शहर में रह गये।" दीपाली बोली।
"हां। हम उनसे बचकर शहर से निकल आये।" बेदी ने कश लिया।
“मुझे बहुत नींद आ रही है। इस होटल में सोने का इन्तजाम जरूर होगा। कुछ घंटे नींद ले लें।"
बेदी ने सोच भरी निगाहों से दीपाली को देखा । वो खुद भी थका हुआ था। चूंकि उसकी निगाहों में अब उन्हें कोई खतरा नहीं था तो उसने भी नींद लेने का मन बना लिया। वो इस समय सड़क के किनारे स्थित ढाबे पर थे। सामने, हाईवे पर से कभी-कभार कोई वाहन निकल जाता था।
“प्लीज विजय! मुझे बहुत नींद आ रही है।" दीपाली कह उठी।
"देखता हूं।" कहने के साथ ही विजय ने उस छोकरे को पुकारा, जिसने चाय और स्लाईज सर्व किए थे।
"क्या लाऊं साब?" पास आकर छोकरे ने पूछा।
“यहां कुछ घंटे बिताने की जगह है? नींद आ रही है।"
"है साब ! पीछे एक छोटा सा कमरा है।” छोकरे ने दीपाली पर निगाह मारी--- “अगर ये आपकी पत्नी है तो कमरे का किराया सौ रुपये होगा। अगर पत्नी नहीं है तो पांच सौ लगेगा।"
बेदी के चेहरे पर मुस्कान उभरी। दीपाली भी मुस्कराई।
"हमारी सगाई हो चुकी है। शादी होने वाली है। अब क्या किराया लोगे?” दीपाली मुस्कराकर कह उठी।
छोकरा सकपकाया फिर कह उठा।
“तब तो साब, जो मन में आये दे देना। दो सौ दे देना।"
"ठीक है। कमरा तैयार करो।"
“कमरा तैयार है साब! खाट बिछी है। चादर झाड़कर बिछा देता हूं। आप दोनों पीछे की तरफ आ जाईये।"
छोकरा चला गया तो बेदी ने कहा।
“मैं कार को साईड लगाकर आता हूं। खुले में खड़ी है।"
“क्या जरूरत है। खड़ी रहने दो।” दीपाली ने उसे देखा।
"कार चोरी की है और खामखाह हमें फंसा सकती है।"
दीपाली सिर हिलाकर रह गई।
बेदी ने कार को ढाबे की बगल में इस तरह खड़ा किया कि आसानी से उस पर नजर न पड़ सके। इस काम में दस मिनट लगाकर वो दीपाली के पास वापस पहुंचा।
"आओ।"
बेदी और दीपाली होटल के पीछे वाले हिस्से में पहुंचे। भीतर चारपाई पर दो आदमी सो रहे थे जो कि होटल में काम करने वाले थे। इस वक्त वही छोकरा सारा काम देख रहा था। होटल के पीछे से एक दरवाजे से छोकरा निकला और उन्हें।देखते ही बोला
“आईये। ये है कमरा। चादर झाड़ दी है।"
बेदी और दीपाली ने भीतर प्रवेश किया।
"ये कमरा है।" भीतर प्रवेश करते ही दीपाली के होंठों से निकला।
वो छोटा-सा कच्चा कमरा था। साईड में चारपाई बिछी थी। उतनी ही जगह और खाली थी।
"मेम साहब, इस कमरे के तो कभी-कभी कोई हजार रुपये भी दे देता है। वो भी सिर्फ घंटे भर के लिए।"
दीपाली गहरी सांस लेकर रह गई।
बेदी के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"हम दो हैं । चारपाई एक है।" दीपाली बोली।
"मेम साहब! आप दोनों की सगाई हो चुकी है।" छोकरा दांत फाड़कर कह उठा--- “जल्दी ही शादी हो जानी है।"
"क्या मतलब?” दीपाली ने उसे घूरा।
छोकरा समझदार था। फौरन खिसक गया।
बेदी ने दरवाजा बंद किया।
“भगवान ही जाने, यहां मुझे नींद आ भी जायेगी या नहीं।" दीपाली ने मुंह बनाकर कहा।
"आ जायेगी। मौत की तरह नींद भी ऐसी चीज है कि जब आती है तो उसे कोई नहीं रोक सकता।” बेदी कह उठा ।
“मालूम नहीं तुम कैसी बातें करते हो। कभी-कभी तो मुझे समझ नहीं आता कि---।"
“समझने की जरूरत भी नहीं। सो जाओ। मैं नीचे लेट रहा हूं। तुम्हें चारपाई मिल रही है, यही बहुत है ।"
"तुम चारपाई पर लेटोगे।” दीपाली ने उसे देखा ।
“और तुम---?"
दीपाली ने बेदी को धक्का दिया तो वो चारपाई पर जा गिरा।
“तुम नीचे सोओगी?” बेदी ने उसे देखा ।
दीपाली के होंठों पर मुस्कान उभरी। वो आगे बढ़ी और चारपाई पर बिछ गई।
“अब समझ में आया विजय, कि---।"
“नहीं दीपाली । मैं---।”
“मैं तुमसे प्यार करने लगी हूं। तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो।" दीपाली ने उसके गाल पर होंठ रख दिए--- "ये शायद मेरे साथ पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई मुझे अच्छा लगा है।
उसके बाद बेदी साहब की मर्जी कहां चलनी थी।
दीपाली की ही मर्जी चली।
■■■
“सामने ढाबा आ रहा है।" अमर बोला--- “वहां कार रोकना।"
“कोई फायदा होगा?” सोफिया कह उठी--- “मेरे ख्याल में वो दोनों यहां नहीं रुके होंगे। वो तो जल्दी से जल्दी कम वक्त में दूर चले जाना चाहते होंगे।"
"कुछ भी हो सकता है। पूछताछ करने में क्या हर्ज है?" कल्पना ने कहा--- "हो सकता है, उन्होंने सोचा हो कि अब कोई खतरा नहीं है। यहां रुककर आराम से कुछ खा-पी लिया जाये।"
सोफिया के होंठों पर मुस्कान उभरी। चुप ही रही वो।
कार चलाने वाले ने सड़क से नीचे उतारकर ढाबे के सामने कार रोकी। पीछे वाली कार भी पास आकर रुक गई। सब बाहर निकले। इधर-उधर नजरें मारीं।
"यहां तो कोई नजर नहीं आ रहा।"
तभी ढाबे से वही छोकरा बाहर निकलता नजर आया।
दिन का उजाला फैलना शुरू हो गया था।
“आईये साहब! खाने-पीने को सब कुछ मिलेगा। मिनटों में मिलेगा। बैठिये।" छोकरे ने मुस्कराकर कहा।
"हमें खाना कुछ नहीं है।" अमर ने कहा--- “कुछ देर पहले यहां कार पर एक लड़का और लड़की रुके थे?"
छोकरे की निगाह तुरन्त ही सब पर फिर गई। खासतौर से उन चार बदमाशों पर। वो समझ गया कि खतरे वाली बात है। ये बदमाश लोग हैं उन्हीं दोनों को ढूंढ रहे हैं, जो पीछे वाले कमरे में हैं।
“लड़का-लड़की?" छोकरे ने फौरन तय कर लिया कि उनके बारे में इन्हें कुछ नहीं बताना है।
“हां। लड़का-लड़की लड़की खूबसूरत है।" कल्पना ने कहा ।
"लड़का भी कम खूबसूरत नहीं है।" सोफिया कह उठी--- "अच्छे घर का लगता है, देखने में।"
"ये कब की बात है मेमसाब ?" छोकरे ने सोफिया को देखा।
“पिछले दो-तीन घंटे की बात कर रहा हूं।" अमर कह उठा।
"नहीं।" छोकरा सिर हिलाकर कह उठा--- "आधी रात के बाद तो यहाँ कोई ऐसा लड़का-लड़की नहीं आया। शाम होने पर ऐसे दो-तीन जोड़े अवश्य आये थे।"
“शाम की नहीं, मैं आधी रात की बात कर रहा हूं।" अमर ने तीखे स्वर में कहा।
"नहीं। यहां तो ऐसा लड़का-लड़की, कोई नहीं आया।” छोकरे ने कहा।
“चलो।" अमर बोला--- “वो यहां नहीं रुके होंगे। आगे पूछते हैं।"
वो सब पलटकर कारों की तरफ बढ़ गये।
"साब जी, चाय तो पी लो। सुबह हो गई है।" छोकरे ने कहा।
लेकिन देखते ही देखते वो कारों में बैठे और कारें आगे बढ़ गई।
छोकरा तब तक वहां खड़ा रहा, जब तक कि दोनों कारें निगाहों से ओझल न हो गईं। फिर वो पलटा और होटल के पीछे जाकर, बंद कमरे के दरवाजे को थपथपाया। दूसरी बार थपथपाने पर भीतर से बेदी की आवाज आई।
“कौन है?"
“साब जी, मैं हूं। जरा प्राईवेट बात करनी है।" छोकरे ने कहा।
दरवाजा खुला। बेदी ने पैंट पहन रखी थी।
छोकरे ने खोपड़ी आगे करके भीतर झांकना चाहा तो बेदी बोला।
"अन्दर क्या देखता है। बात कर।"
“साब जी! आप दोनों घर से भागकर आये हैं?" छोकरा बोला।
"क्या मतलब?"
"कुछ लोग आप दोनों को ढूंढते हुए यहां आये थे। लेकिन मैंने बोल दिया, आप लोग यहां नहीं हैं। वो आगे चले गये।"
बेदी ने छोकरे को घूरा।
“मजाक करता है।"
"कैसी बात करते हो साब जी! ये मेरी मजाक की उम्र है क्या! बच्चा हूं।"
बेदी बाहर निकला। दरवाजा भिड़ा दिया था।
"कैसे लोग थे वो?"
"एक लड़की थी। एक ज्यादा उम्र की थी। एक चालीस बरस का आदमी था। इनके अलावा बदमाश जैसे दिखने वाले पांच लोग और थे उनके साथ।” छोकरे ने कहा।
"देखने में वे कैसे लगते थे?"
छोकरे ने उन सब के हुलिये बताये ।
सोफिया के हुलिये को वो फौरन पहचान गया। सोफिया के साथ अमर हो सकता है। और वो लड़की कल्पना हो सकती है। बाकी अमर के बदमाश होंगे।
यानि कि उन लोगों को लगे हाथ मालूम हो गया था कि वो शहर से बाहर, इस तरफ निकल आये हैं। तभी तो वो सब उन्हें तलाश करते-करते उनके पीछे यहां आ गये।
“साब जी!"
बेदी ने होंठ भींचे उसे देखा ।
“आप दोनों के बारे में उन्हें न बताकर मैंने ठीक किया या गलत ?” छोकरा बोला।
“ठीक किया। बहुत अच्छा किया। अब वो किस तरफ गये हैं?" बेदी ने पूछा।
“सुन्दर नगर की तरफ। लेकिन साब जी वो फिर भी तो आ सकते हैं पूछने के लिए।"
"क्या मतलब?"
"मैंने आपका भला किया। आप मेरा भला कर दीजिये। ढाबे का मालिक आने वाला है। कमरे का किराया उसे दे दीजियेगा। मेरा ईनाम मुझे दे दें तो उनके दोबारा आने पर, फिर यही कहूंगा कि आप लोग यहां नहीं हैं।"
बेदी ने जेब से पांच सौ का नोट निकालकर उसे थमाया ।
“गोल हो जा। किसी को पता न चले कि हम यहां हैं। हमें नींद आ रही है।"
"मजे लो साब जी! सब संभाल लूंगा मैं। तगड़ी नींद लो।” कहते हुए छोकरा वहां से चला गया।
बेदी कमरे में गया और दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। चारपाई पर नजर मारी। दीपाली गहरी नींद में थी। बेदी के चेहरे पर चिन्ता नाच रही थी उसने समझा था, वो खतरे से निकल आये हैं। लेकिन सब कुछ वहीं का वहीं था। वो भारी खतरे में थे। वो लोग ज्यादा दूर नहीं थे। कभी भी वो, उनकी नजरों में आ सकते थे।
स्पष्ट था कि शहर से बाहर निकलते हुए उन्हें देख लिया गया था। इन्हीं सोचों में डूबा बेदी, दीपाली की बगल में जा लेटा। आंखों में नींद भरी थी, परन्तु मस्तिष्क में नींद की जगह, चिन्ता भरी सोचों ने ले ली थी।
■■■
सुबह के पौने सात बजे टण्डन ने कार को उसी ढाबे पर रोका। ढाबे पर कई कर्मचारी काम कर रहे थे। खाने का सामान बनाने में व्यस्त थे। तीन-चार लोग बैठे नाश्ता भी कर रहे थे ।
दोनों कार से बाहर निकले। इधर-उधर नजर मारी।
एक टेबल पर खाना सर्व करने के बाद वो ही छोकरा उनकी तरफ बढ़ता हुआ बोला।
“आओ साब जी! बढ़िया गर्मा-गर्म परांठे। खाकर कहेंगे, नाश्ता हो तो ऐसा। यहां का नाश्ता बहुत मशहूर है। जो खाता है, रास्ते के लिए भी पैक करा ले जाता है। बैठिये-बैठिये ।"
“रात को यहां पर कौन था?" विनोद कुमार ने पूछा।
“रात को--कब को साब जी ?" छोकरे की निगाह विनोद कुमार पर जा टिकी।
"रात दो-तीन बजे के बाद।”
"मैं ही ड्यूटी दे रहा था साब जी। नाश्ते के बाद मेरी ड्यूटी ख़त्म हो जाती है और रात के बारह बजे फिर शुरू हो जाती है। अब नींद लूंगा और फिर शाम को घूम-फिरकर मस्ती मारूंगा।"
"तो फिर तुम्हें ये भी याद होगा कि रात दो-तीन बजे के बाद, यहां कार में एक लड़का-लड़की पहुंचे थे।"
"लड़का-लड़की?" छोकरा तुरन्त समझ गया कि ये भी उन्हीं दोनों को पूछ रहे हैं।
"नहीं साब जी! यहां रात को कोई लड़का-लड़की नहीं आये।" छोकरे ने कहा--- "दो घंटे पहले दो कारों में कुछ लोग आये थे, जो ऐसा ही कुछ पूछ रहे थे। आप तो शरीफ लोग हैं। वो सब बदमाश लग रहे थे। साथ में दो औरतें भी थीं। मुझसे पूछने के बाद वो कारों में बैठकर सुन्दर नगर की तरफ चले गये।"
विनोद कुमार और टण्डन की नजरें मिलीं।
"वो हमारे काफी आगे चल रहे हैं सर!" टण्डन बोला--- “वो दोनों उनके हाथ लग गये तो गड़बड़ हो सकती है।"
"तुम जाओ।” विनोद कुमार ने छोकरे से कहा।
"चाय नहीं लेंगे साब! नाश्ता....?"
"नहीं।"
छोकरा चला गया।
“सर, हमें आगे बढ़ने की रफ्तार तेज करनी चाहिये। अब तक अमर और उसके साथ के लोग सुन्दर नगर पहुंच चुके होंगे।"
"हम रफ्तार नहीं पकड़ सकते।” विनोद कुमार ने पलटकर कार की तरफ बढ़ते हुए कहा--- "क्योंकि बीच में पड़ने वाली जगहों पर भी उनके बारे में पूछताछ करनी है। कहीं से तो उनकी खबर मिलेगी कि वो कहीं रुके। कहीं उन्होंने चाय पी।"
टण्डन के चेहरे पर सोच के भाव थे।
"अमर और उसके साथ के लोग भी, अभी सुन्दर नगर नहीं पहुंचे होंगे। क्योंकि वो भी रास्ते में रुक-रुककर उनके बारे में पूछताछ करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे कामों में वक्त---।”
“सर!" टण्डन बोला--- “हो सकता है, वो रास्ते में कहीं रुके हों और अमर ने उन्हें पकड़ लिया हो।"
"आओ। यहां से आगे चलें।"
दोनों कार में बैठे। कार आगे बढ़ गई।
■■■
विनोद कुमार का असिस्टैंट दीपक जब हरबंस के घर पर पहुंचा तो बाहर अंधेरा ही था। दिन नहीं निकला था अभी । हरबंस घायल अवस्था में बेहोश पड़ा था। उसके हाल ठीक न पाकर, दीपक ने कुछ दूर पब्लिक बूथ से डाक्टर को फोन करके, हरबंस का पता बताकर आने को कहा।
डाक्टर, विनोद कुमार की खास पहचान वाला था। उसके इन्कार का तो सवाल ही नहीं उठता था।
हरबंस को जब होश आया तो दिन के आठ बज रहे थे। डाक्टर ने मरहम-पट्टी दवा वगैरह सब दे दी थी। जख्म साफ कर दिए थे। हरबंस के शरीर से पीड़ा उठ रही थी। पीड़ा पर काबू पाने की दवा डाक्टर ने दे दी थी। चेहरा बहुत हद तक सूजा हुआ था। मुंह भीतर से जख्मी था। डाक्टर की दवा-दारू की वजह से वो काफी हद तक दुरुस्त हाल लग रहा था।
होश में आते ही सबसे पहले हरबंस की निगाह, कमरे में मौजूद दीपक पर पड़ी।
"तुम्हारा तो चेहरा ही पहचाना नहीं जा रहा।" दीपक ने मुस्कराकर कहा ।
"तुम?" हरबंस के सूजे होंठ हिले ।
“हां। मैं वही हूं जिसने गली में, अपने दो साथियों के साथ तुमसे दीपाली के बारे में पूछा था। विजय के बारे में पूछा था। मैंने ही रिवाल्वर तुम्हारे पेट से लगाई थी।" दीपक कहते कुर्सी पर बैठ गया।
हरबंस उसे देखता रहा।
“तुम बहुत बुरे हाल में थे। मैंने डाक्टर को बुलाकर तुम्हारी दवा-दारू का इन्तजाम कराया। वरना इस वक्त तुम आराम से लेटने के लायक नहीं होते।” दीपक ने शांत स्वर में कहा--- “वैसे मुझे हैरानी है कि तुम्हारी मुंह बोली बेटी कल्पना पास में थी। अमर के साथ वो काम कर रही है। उसकी मौजूदगी और सहमति में तुम्हारी ठुकाई की गई। अगर वो चाहती तो कम से कम तुम्हारी इतनी बुरी हालत न होती। "
“वो---।” हरबंस के होंठों पर कड़वी मुस्कान उभरी। उसका चेहरा अजीब-सा हो रहा था--- "एहसान फरामोश है। मैंने उसे हमेशा बाप का प्यार दिया। लेकिन अब मैं उसे अपनी बेटी नहीं मानता। वो मेरी कुछ नहीं लगती।”
"जो भी कहो। रिश्ता टूटेगा नहीं हरबंस ।"
“सब कुछ टूट जाता है। वक्त आने पर सब कुछ खत्म हो जाता है। कोई भी चीज स्थायी नहीं होती। औलाद को जब रिश्ते की परवाह नहीं तो, मुझे क्यों हो। वैसे भी वो मेरी असली बेटी नहीं है। वरना दिल को ज्यादा तकलीफ होती।" हरबंस की आवाज में गुस्सा और दुःख आ गया--- "ये बात रात को उसने पूरी तरह साबित कर दी।"
"क्यों मारा तुम्हें?" दीपक का स्वर शांत था।
"मैं उन्हें विजय और दीपाली के बारे में नहीं बता रहा था कि वो दोनों कहां हैं। पन्द्रह लाख का लालच दिया मुझे। लेकिन मैंने नहीं बताया।" कहकर हरबंस ने गहरी सांस ली।
"पन्द्रह लाख तो बहुत बड़ी रकम होती है हरबंस !"
"किसी के लिए हो या न हो। मेरे लिए तो बड़ी रकम है ही। लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी। कल्पना, जिसे हमेशा मैंने अपनी बेटी माना। उसके परायों जैसे व्यवहार ने मुझे जिद्द पर ला दिया कि विजय-दीपाली के बारे में इन्हे कुछ नहीं बताऊंगा। उधर विजय के साथ भी धोखा करने का मन नहीं किया। जो भी हो, बढ़िया बंदा है वो।”
"कब से जानते हो विजय को?"
"इस बात का जवाब तुम्हें दे चुका हूं।"
"इस शहर में वो क्या करने आया है? ये बताया उसने कि---।"
हरबंस ने उसे घूरा।
"तुम कौन हो?"
"मैं प्राइवेट जासूस। विनोद कुमार का असिस्टैंट दीपक हूँ।"
“विनोद कुमार।" हरबंस कुछ संभला--- “सुना है उसका नाम । इस मामले में उसका क्या वास्ता ?"
"सुखवंत राय ने दीपाली को तलाश करने का काम विनोद कुमार को सौंपा है। हमारी एजेन्सी दीपाली को तलाश कर रही है।" दीपक का स्वर गम्भीर हो गया--- "अगर तुम दीपाली को सुरक्षित हमारे हवाले कर दो। सुखवंत राय के हवाले कर दो तो, सुखवंत राय तुम्हें पांच-दस लाख वैसे ही दे देगा। चाहो तो सुखवंत राय से पहले बात कर लो।"
हरबंस, दीपक को देखता रहा ।
"सोच लो हरबंस!" दीपक ने पहले वाले स्वर में कहा--- “फैसला करने में जल्दी नहीं करना।"
"सिग्रेट देना।”
दीपक ने सिग्रेट सुलगाकर, हरबंस को थमा दी।
हरबंस कुछ सीधा हुआ। कश लिया।
"विजय के बारे में बताओ कि वो कौन है?"
“उसके बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता। सिर्फ ये ही उसने बताया था कि उसके मस्तिष्क में गोली फंसी हुई है और आप्रेशन से निकलवाने में छः लाख की जरूरत है उसे। वो कहीं से छः लाख का इन्तजाम करना चाहता था।"
"ओह! तो ये भी हो सकता है कि विजय इस सिलसिले में सुखवंत राय से सौदा करे कि---।"
"नहीं। वो कहता है कि इस वक्त मजबूर लड़की की सहायता कर रहा है। उसे बदमाशों से बचा रहा है। ये काम उसने पहले सोच कर नहीं किया। इसलिए दीपाली के बाप से कोई पैसा नहीं लेगा।"
दीपक ने सोच भरे ढंग में होंठ सिकोड़े।
"कोई बात नहीं। तुम सुखवंत राय से पांच-दस लाख जो चाहों ले लेना। बात कर लो सुखवंत राय से। उसे दीपाली के छिपे ठिकाने का पता बता दो। शायद सुखवंत राय अपनी खुशी से ज्यादा रकम।"
"नहीं।" हरबंस का चेहरा सख्त-सा हो गया--- "मैं एक पैसा भी नहीं लूंगा।"
"हरबंस, तुम जानते हो कि दीपाली, अमर के हाथ लग गई तो---।"
“उसके हाथ नहीं लगेगी।" हरबंस ने उसी स्वर में कहा--- "मैं बताता हूं वो कहां पर है। विजय भी उसके साथ ही है। विजय को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिये।”
“वायदा। नहीं पहुंचेगा। बताओ दीपाली इस वक्त कहां है?"
दीपक जल्दी से कुर्सी से उठ खड़ा हुआ ।
“विजय को अमर से ख़तरा है। उसे सुरक्षित इस शहर से, खामोशी से निकाल दो।"
“ये भी वायदा रहा। बताओ, दीपाली इस वक्त कहां है?"
हरबंस ने उस कमरे का पता बता दिया, जहां बेदी और दीपाली को उसने रखा था।
"मैं अभी आया। सर, से बात करके आता हूं।" कहने के साथ ही दीपक बाहर निकल गया।
पन्द्रह मिनट बाद दीपक वापस आया।
“हरबंस!” दीपक के चेहरे पर गम्भीरता थी--- "जो पता तुमने बताया । वहां रात तक, विजय और दीपाली अवश्य हो सकते हैं, परन्तु रात को वो दोनों वहां से भाग निकले।”
हरबंस कई पलों तक दीपक को देखता रहा फिर उठ बैठा।
दर्द भरी कराह होंठों से निकली।
“मतलब कि विजय ने विश्वास नहीं किया मुझ पर। उसे लगा कि पैसे के लालच में मैं गड़बड़ कर दूंगा।" हरबंस ने गहरी सांस ली आवाज में अफसोस के भाव थे।
"क्या मतलब?"
"तुम नहीं समझोगे।" हरबंस ने कहा--- "मतलब कि अब उनकी खबर नहीं कि वो कहां हैं?"
"जो मुझे सर ने बताया वो मैं तुम्हें बता देता हूं।" कहने के साथ ही दीपक ने फोन पर विनोद कुमार से हुई सारी बातचीत हरबंस को बताई।
"तो वो दोनों सुन्दर नगर की तरफ निकल गये हैं।" हरबंस के चेहरे पर कठोरता आ गई--- “अमर, कल्पना और सोफिया उनके पीछे हैं। बेवकूफ ने कमरे से निकलकर खुद को खतरे में डाल लिया।"
दीपक की निगाह, हरबंस के चोट खाये, गुस्से से भरे चेहरे पर थी।
कुछ पल चुप्पी में से गुजर गये।
“अब तो तुम्हारे बस में कुछ नहीं रहा। कुछ नहीं करोगे तुम?" दीपक ने शांत स्वर में कहा।
"क्यों?" हरबंस का सूजन से भरा चेहरा कठोर हुआ पड़ा था।
“विजय, दीपाली के साथ, सुन्दर नगर की तरफ निकल गया है। उसके पीछे अमर, सोफिया कल्पना और अमर के कुछ बदमाश भी होंगे। वो दीपाली पर हाथ डालने का पक्का इरादा बनाये हुए हैं। वैसे सर भी टण्डन के साथ उनकी तलाश में सुन्दर नगर गये हैं। लेकिन जो भी होगा अनिश्चित-सा है।” दीपक ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अमर हर हाल में दीपाली को पा लेना चाहेगा। ऐसे में वो हर उसकी जान ले लेगा, जो उनके रास्ते में आयेगा। सोफिया तो हरामी है ही। सुना है कल्पना भी कम नहीं है।"
हरबंस का चेहरा क्रोध से भरा हुआ था।
"कल्पना, अमर के साथ कैसे मिल गई हरबंस ? वो तो---।"
“इन बातों को छोड़ो।" हरबंस मन ही मन फैसला करते हुए सख्त स्वर में कह उठा--- “मुझे भूख लग रही है। लेकिन मेरे मुंह में जख्म है। खाने के लिए किसी ऐसी चीज का इन्तजाम करो, जो आसानी से पेट तक पहुंच सके।"
“तुम्हें कुछ खिलाने के बाद दवा भी देनी है।" हरबंस को देखता हुआ दीपक उठ खड़ा हुआ ।
“सुनो!" हरबंस बोला--- “मैं विजय को इतना तो जानता हूं कि ये कह सकूं कि इन हालातों में वो किसी पर भी विश्वास नहीं करेगा। बेशक वो विनोद कुमार ही क्यों न हो। लेकिन वो मेरे पर विश्वास कर लेगा।”
“क्या कहना चाहते हो तुम?"
"यही कि विजय, दीपाली को लेकर इधर-उधर भागता रहेगा। हो सकता है ऐसे में वो अमर के हाथ लग जाये। मैं इस मामले को काफी हद तक संभाल सकता हूं। तुम चलोगे मेरे साथ?"
"कहां?"
“सुन्दर नगर की तरफ। मैं विजय और दीपाली के पास पहुंचना चाहता हूँ। ढूंढ लेंगे उन्हें।"
"मुझे चलने में कोई एतराज नहीं। लेकिन तुम ठीक हाल में नहीं हो। तुम---।"
“मेरी परवाह मत करो। मैं ठीक हूं। मेरे खाने का इन्तजाम करो और चलने के लिए कार का।" हरबंस का सख्त स्वर सोच भरा था--- "ऐसे वक्त में विजय सिर्फ मुझ पर ही विश्वास करेगा।"
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दीपक से बात करके विनोद कुमार ने मोबाईल फोन बंद किया। होंठ सिकुड़े हुए थे। आंखों में सोच के भाव थे। ये देखकर टण्डन बोला।
"क्या हुआ सर?"
“टण्डन !” विनोद कुमार ने कहा--- “दीपक ने बताया कि, हरबंस कहता है विजय के दिमाग के दोनों हिस्सों के बीच रिवाल्वर की गोली फंसी है। जिसे वो आप्रेशन करके निकलवा देना चाहता है। इसके लिए उसे छः लाख की जरूरत है और वो छः लाख को पाने के लिए भागदौड़ कर रहा है।"
“ओह! कुछ और बताया विजय के बारे में?" टण्डन के होंठों से निकला।
"विजय के बारे यही नई बात मालूम हुई है।” विनोद कुमार ने सिग्रेट सुलगाते हुए कहा--- "हरबंस घायल है और रात अमर के आदमियों ने उसकी तगड़ी ठुकाई की। ये जानने के लिए कि विजय और दीपाली को उसने कहां छिपा रखा है। इसके लिए उसे पन्द्रह लाख का लालच भी दिया गया, परन्तु हरबंस ने मुंह नहीं खोला। जबकि दीपक को उसने बता दिया कि वो दोनों कहां पर छिपे हुए हैं।"
“दीपक को आसानी से क्यों बता दिया?"
“उसने हरबंस को बताया कि वो मेरा असिस्टैंट है और सुखवंत राय के कहने पर, हम दीपाली के भले के लिए उसे ढूंढ रहे हैं। उसे घर पहुंचाना चाहते हैं।” विनोद कुमार की आवाज में गम्भीरता थी--- "जब अमर या उसके आदमियों ने उसकी ठुकाई की तो, कल्पना पास में थी। कल्पना और अमर एक होकर इस काम में लगे हुए हैं। हरबंस, कल्पना को बेटी की तरह मानता है, परन्तु उसकी ठुकाई में कल्पना की रजामंदी थी। शायद यही वजह रही होगी कि कल्पना के प्रति गुस्से में आकर, हरबंस ने दीपक को बता दिया कि वो दोनों कहां पर छिपे हैं, परन्तु कल्पना को नहीं बताया। ये बात कल्पना के प्रति, उसकी नफरत को दर्शाती है।"
कई पलों तक उनके बीच खामोश रही।
“सर!" टण्डन बोला--- “विजय को छः लाख रुपये की सख्त जरूरत है।" विनोद कुमार ने कश लेते हुए टण्डन को देखा।
"हो सकता है कि वो छः लाख पाने के लिए, दीपाली को बचाता फिर रहा हो।"
"तुम्हारी बात ठीक हो सकती है।” विनोद कुमार ने कहा--- “उसने दीपाली से बात कर ली हो कि वो उसे अमर से बचायेगा और बदले में छः लाख लेगा ।"
“यही वजह होगी कि विजय खुद को खतरे में डालकर दीपाली को बचाने में लगा है।"
"यानि कि विजय की तरफ से हम पूरी तरह निश्चिंत हो सकते हैं कि दीपाली को उससे कोई खतरा नहीं ?"
"यस सर ! लेकिन अमर के आदमियों की वजह से वो दीपाली को उसके घर नहीं पहुंचा पा रहा। हरबंस उसे पूरी जानकारी देता रहा होगा कि बाहर के क्या हालात हैं। अमर के आदमी कहां-कहां फैले हैं। वो अवश्य सुखवंत राय के बंगले पर भी नजर रखे होंगे।”
तभी मोबाईल फोन बज उठा।
विनोद कुमार ने बात की। दूसरी तरफ दीपक था।
फिर फोन बंद करते हुए विनोद कुमार, टण्डन से कह उठा ।
“हरबंस, दीपक के साथ विजय और दीपाली की तलाश में आना चाहता है।"
"क्यों सर?"
"हरबंस का कहना है कि विजय किसी पर भी विश्वास नहीं करेगा। मुझ पर भी नहीं। क्योंकि वो मुझे जानता नहीं। लेकिन हरबंस पर भरोसा है उसे। वो कहता है, विजय इसी तरह दीपाली को साथ रखे सब से बचता फिरेगा और कभी भी गलती से अमर के हाथ लग सकता है।"
“तो दीपक, हरबंस को लेकर इधर आ रहा है?” टण्डन ने पूछा।
“हां। दीपक ने इसमें कोई बुराई नहीं समझी। मुझे भी कोई एतराज नहीं। हरबंस के आने से मामला बिगड़ेगा नहीं। कुछ ठीक ही होगा।” विनोद कुमार शांत स्वर में कह उठा--- “दीपक का कहना है कि वो कल्पना से खुन्दक खाये हुए हैं। ऐसे में हरबंस, जो भी करेगा। उससे हमारा फायदा होगा।"
"राईट सर !”
“मैं दीपाली को ठीक-ठाक सुखवंत राय के पास पहुंचा देना चाहता हूं। अगर वो अमर या कल्पना के हाथ लग गई तो वो फिरौती के रूप में, सुखवंत राय से भारी रकम लेंगे। यानि कि मैं इस केस में असफल रहा।"
"ऐसा नहीं होगा सर! हम दीपाली को पा लेंगे।"
"अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। जो लोग दीपाली के पीछे हैं, वो भी कम नहीं हैं।” विनोद कुमार ने होंठ भींचकर कहा--- “अगर विजय उसके साथ न होता तो दीपाली कब की अमर के शिकंजे में फंस चुकी होती। ये जो विजय है, कभी भी दीपाली को बचाने के फेर में चूक सकता है।"
“सर! विजय के मस्तिष्क के ठीक बीचो-बीच रिवाल्वर की गोली फंसी है।" टण्डन बोला--- “इसका मतलब वो कोई बदमाश भी हो सकता है। यूं ही तो नहीं वो, अमर जैसे इन्सान के रास्ते में आ खड़ा हुआ ।”
"हमारे पास विजय के बारे में कोई जानकारी नहीं। ऐसे में उसके बारे में कोई भी राय कायम नहीं की जा सकती।”
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