मैं आसिफ अली रोड पहुंचा ।
वहां इन्डियन एयरलाइन्स का ऑफिस जिस इमारत में था, वह आलोकनाथ के ऑफिस वाली इमारत के एकदम करीब थी ।
लड़की - रोहिनी माथुर - ऑफिस से जा ही रही थी जबकि मैं वहां पहुंचा था ।
“मुझे सुधीर कोहली कहते हैं” - मैं अपने स्वर में मिश्री घोलता हुआ बोला - “मैं बम्बई से आया हूं ।”
उसने सिर से पांव तक मुझे देखा । जैसे गाय जुगाली करती है वैसे उसके जबड़े चल रहे थे जिससे मैंने यह अन्दाजा लगाया कि वह चिंगम खा रही थी । वह एक ब्लाउजनुमा कमीज और बेहद टाइट जीन पहने हुए थी और इस बात में कोई शक नहीं कि देखने में किसी बड़ी कंपनी की कंज्यूमर प्रॉडक्ट की तरह शानदार लग रही थी ।
वैसे भी तो बड़े शहरों में वर्किंग गर्ल का दर्जा कंज्यूमर प्रॉडक्ट जैसा ही हो गया है ।
“आप मुझे जानते हैं ?” - वह सशंक स्वर में बोली ।
“नहीं जानता” - मैं बड़े इतमीनान से बोला - “लेकिन आपको जानने के लिये ही मुझे बम्बई से भेजा गया है ।”
“भेजा गया है ? किसने भेजा है आपको ?”
“देसाई साहब ने ।”
“कौन देसाई साहब ?”
“एक ही तो नाम लेवा देसाई साहब हैं बम्बई में । मनमोहन देसाई साहब ।”
“वो जो फिल्में बनाते हैं ?”
“अजी बनाते क्या हैं, गजब ढाते हैं । सब गोल्डन जुबली सुपरहिट ।”
“आप उनसे कैसे सम्बन्धित हैं ?”
“मैं उनका सेक्रेट्री हूं ।”
“लेकिन...”
“कहीं चलकर बैठ जायें तो तरीके से बात समझाऊं ।”
वह हिचकिचाई ।
“मेरे पास वक्त कम है ।” - मैं अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डालता हुआ बोला - “शाम को फ्लाइट से ही मैंने बम्बई लौट जाना है ।”
“आइये ।” - फिर वह निर्णयात्मक स्वर में बोली ।
मैं उसके साथ हो लिया ।
वह मुझे ऑफिस के एक कबूतर के दड़बे जैसे लेकिन खाली केबिन में ले आयी । हम दोनों आमने-सामने बैठ गये । मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकालकर उसे सिगरेट ऑफर किया जो कि उसने निसंकोच ले लिया । मैंने पहले उसका, फिर अपना सिगरेट सुलगाया और फिर ढेर सारा धुंआ उगलता हुआ बोला - “यू आर इन लक ।”
“हाउ ?” - वह बोली ।
“देसाई साहब टी वी सीरियल प्रोड्यूस करने जा रहे हैं । तुम खुद ही सोच सकती हो कि जब देसाई साहब सीरियल बनायेंगे तो वह क्या चीज होगी । सीरियल वो दिल्ली में बनाना चाहते हैं और लोकल टेलेन्ट को वे बहुतायत में इस्तेमाल करना चाहते हैं । अपने सीरियल में इस्तेमाल करने के लिये जिन मेजर आर्टिस्टस पर उनकी निगाह है, उनमें से एक आप भी हैं ।”
“मैं !”
“जी हां ! आप रोहिनी माथुर । देसाई साहब का यह भी कहना है कि अपने टी वी सीरियल के तमाम मेजर आर्टिस्टस को वे अपनी अगली फीचर फिल्म में भी ब्रेक देंगे । सोचिये, रोहिनी जी, सोचिये । आप अमिताभ बच्चन की हीरोइन हो सकती हैं । आप अनिल कपूर की हीरोइन हो सकती हैं । आप...”
“लेकिन” - वह सन्दिग्ध भाव से बोली - “उन्हें मेरी खबर कैसे लगी ?”
“ऐसे लगी” - मैंने बड़े नाटकीय अंदाज से उसकी वह तस्वीर निकालकर उसके सामने रख दी जो रजनी उसके होटल के कमरे से चुराकर लायी थी ।
“यह तस्वीर !” – वह सकपकाई - “यह आपके पास कहां से आयी ?”
“अरे, यह पूछिये कि देसाई साहब के पास कहां से आई ।”
“यही बताइये ।”
“माडलिंग असाइनमेंट्स सालीसिट करने के लिये आप अपनी ऐसी तस्वीरें बम्बई बैस्ट एड एजेन्सीज को भेजती हैं ?”
“हां ।”
“यह तस्वीर आपने एडमास को भेजी थी ।”
“मैंने तो एडमास का कभी नाम भी नहीं सुना ।”
“तो आपने यह फोटो किसी और एजेन्सी को भेजी होगी ।” - मैंने बात बनाई - “और उन्होने यह आगे किसी और को, एडमास को, सौंप दी होगी ।”
“हां । यह हो सकता है ।”
मेरी जान में जान आयी ।
“देसाई साहब एडमास में आते रहते हैं” - मैं बोला - “वहां इत्तफाक से उनकी निगाह आपकी इस तस्वीर पर पड़ गयी थी । तस्वीर देखते ही उन्होंने फैसला कर लिया था कि वे हर हाल में आपको अपने टी वी सीरियल के लिये साइन करेंगे । मैडम, मुझे स्पेशल, सिर्फ आपकी तलाश में दिल्ली भेजा गया है ।”
“अच्छा !” – वह बोली ।
तब उसके चेहरे पर मुझे वह रौनक दिखाई दी जिसके पैदा होने के इन्तजार में मैं इतने पापड़ बेल रहा था ।
“जी हां” - मैं भी उतने ही जोश के साथ बोला ।
“आपको मेरा यहां का पता कैसे लगा ?”
“मैंने लगा लिया । जरा दिक्कत से लगाया लेकिन लगा लिया । आखिर इन्हीं कामों की तो मुझे तनखाह मिलती है।”
“तो अब..”
“अब क्या ? आपका काम बन गया । यू हैव अराइव्ड । अब सबसे पहले तो आप देसाई साहब के नाम यह चिट्ठी लिखिये आप उनके सीरियल में काम करने को तैयार हैं ।”
उसने बड़े जोशो-खरोश से वह चिट्ठी लिखी जो मैंने फौरन अपने काबू में कर ली और अपनी जेब में रख ली ।
“अब बताइये मैं आपसे सम्पर्क कहां कर सकता हूं ? यहीं या आपके घर पर भी ?”
“मेरे घर पर भी ।”
उसने अलग कागज पर मुझे अपने होटल का पता और फोन नम्बर लिखकर दिया ।
“अब मैं चलता हूं” - अपार व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मैं उठ खड़ा हुआ - “वक्त बहुत कम है और अभी मैंने विनोद नागपाल से भी मिलना है ।”
“विनोद नागपाल !”
“बशेशर । हम लोग । कर्मा । आप तो जानती होंगी उसे ।”
“जी, जानती तो नहीं लेकिन....”
“कोई बात नहीं, आप अब जान जायेंगी । आप दोनों का देसाई साहब के सीरियल में रनिंग रोल है । कल मैं आपको बम्बई से फोन करूंगा । कुछ दिनों में देसाई साहब आपसे खुद आकर मिलेंगे । तब तक के लिये गुडबाई ।”
“आप रुक नहीं सकते ?”
“जी !”
“मेरा मतलब था आज डिनर मेरे साथ हो जाता ।”
“नहीं, वो तो मुमकिन नहीं । प्लेन तो मैंने जरूर पकड़ना है वरना देसाई साहब नाराज हो जाएंगे ।”
“जैसी आपकी मर्जी ।”
“बैटर लक नैक्सट टाइम ।”
उसने उठकर मुझसे हाथ मिलाया और मुझे दरवाजे तक छोड़ने आयी ।
दरवाजे पर उसने फिर मुझसे हाथ मिलाया । उतने में ही आपके खादिम को यूं लगा जैसे कोई बून्द-बून्द करके मेरे खून में तेजाब डाल रहा हो । हाथ की नजाकत और गर्मी से उसके नंगे जिस्म की कल्पना करता हुआ मैं वहां से विदा हुआ ।
मैं पार्किंग में खड़ी अपनी कार में जा बैठा । मैंने अपनी जेब से वह गुलाबी लिफाफा निकाला । जिसमें गोपाल वशिष्ठ के नाम रोहिनी की चिट्ठी थी और जो चारुबाला ने मुझे सौंपा था ।
रोहिनी की अभी-अभी देसाई साहब के नाम लिखी चिट्ठी से मैंने गुलाबी लिफाफे की चिट्ठी का मुआयना किया ।
दोनों हस्तलेखों में कोई समानता नहीं थी ।
अलबत्ता किसी ने रोहिनी के हस्तलेख से मिलता-जुलता हस्तलेख बनाने की कोशिश जरूर की थी ।
देसाई वाली चिट्ठी क्योंकि रोहिनी ने मेरी आंखों के सामने लिखी थी इसलिये मैं दावे के साथ कह सकता था कि वशिष्ठ के नाम आई चिट्ठी रोहिनी ने नहीं लिखी थी ।
इसका एक ही मतलब था कि कोई वशिष्ठ को उसकी उसकी बीवी की निगाह र्मे गिराने की कोशिश कर रहा था । इसलिये किसी ने जानबूझकर गुलाबी लिफाफा चुना था और उस पर सैंट भी लगाया था ताकि लिफाफा चारुबाला के हाथ में पड़े तो वह उसकी सूरत से ही उसे किसी लड़की की चिट्ठी समझ ले और उसे खोलने का लोभ संवरण न कर सके ।
एक सम्भावना यह भी थी कि वशिष्ठ को चिट्ठी लिखने वाली रोहिनी कोई और हो ।
लेकिन चिट्ठी महारानी के लेटरहैड पर थी और दूसरी रोहिनी भी महारानी में ही रहती हो यह सम्भव न था । क्योंकि तब रजनी से होटल वालों ने यह सवाल जरूर किया होता कि वह कौन-सी रोहिनी से मिलना चाहती थी ।
नहीं, मेरा पहला ख्याल ही ठीक था वह चिट्ठी जरूर किसी ऐसे शख्स की करतूत थी जो चारुबाला की निगाह से वशिष्ठ को गिराना चाहता था ।
मेरा ध्यान फौरन आलोकनाथ की तरफ गया ।
उसके अपने हाथ से लिखे उसके नाम-पते वाला कागज और अहिल्या शर्मा से हासिल हुआ लिफाफा, दोनों अभी मेरी जेब मे थे । मैंने उन्हें जेब से निकाला और आलोकनाथ के हस्तलेख को गुलाबी लिफाफे वाली चिट्ठी के हस्तलेख से मिला कर देखा ।
मुझे बहुत मायूसी हुई ।
दोनों हस्तलेख कतई नहीं मिलते थे ।
मेरी अक्ल कह रही थी कि सारी करतूत आलोकनाथ की होनी चाहिये थी । आखिर उसी ने अहिल्या शर्मा को रेड की तस्वीर भेजकर भड़काया था ।
फिर मुझे एक बात सूझी ।
हैंडराइटिंग जनाना थी । हो सकता है कि वह चिट्ठी आलोकनाथ ने अपनी बीवी गीता से लिखवाई हो । वह करतूत मियां-बीवी में से किसी की भी होती, नतीजा तो एक ही निकलना था ।
मुझे वह बात जंची ।
अब मुझे निकट भविष्य में किसी प्रकार गीता के हैंडराइटिंग का नमूना हासिल करना था ।
उस दिशा में तुरन्त कोई कोशिश करने से पहले मैंने कुछ और किया ।
एक पब्लिक टेलीफोन से मैंने आकाश होटल से हासिल हुए उस नम्बर पर फोन किया जोकि साउथ एक्सटेंशन के एक गैस्ट हाउस का था । दूसरी ओर से उत्तर मिला तो मैं बोला - “मिस्टर मोहरसिंह प्लीज ।”
कुछ क्षण खामोशी रही, फिर उत्तर मिला- “सॉरी, सर ! इस नाम के तो कोई साहब हमारे गैस्ट हाउस में नहीं ठहरे हुए हैं ।”
“क्या चैक आउट कर गये ?”
“नो, सर ! पहले भी यहां इस नाम के कोई साहब नहीं ठहरे हुए थे ।”
“देखिये, वे बंसीधर जी के फ्रेंड हैं और उन्होने ही मुझे बताया था कि...”
“आप बंसीधर जी से ही बात कर लीजिये ।”
“वे हैं अपने कमरे में ?”
“जी हां । आप होल्ड कीजिये आपकी उनसे बात करवाते हैं ।”
होल्ड करने की जगह मैंने लाइन काट दी ।
खूब तेज कार चलाकर मैं साउथ एक्सटेंशन पहुंचा ।
गैस्ट हाउस के रिसैप्शन से मैंने बंसीधर का रूम नम्बर पूछा ।
उसका कमरा गैस्ट हाउस की सबसे ऊपरली मंजिल पर गलियारे के एकदम कोने का निकला ।
मैंने दरवाजे पर दस्तक दी ।
दरवाजा खुला । दरवाजे पर एन वैसा ही रीछ जैसा आदमी प्रकट हुआ जैसे का हुलिया मंजु मैनी ने बयान किया था ।
“नमस्ते मोहर सिंह जी” - मैं मीठे स्वर में बोला ।
उसके चेहरे के भाव तुरन्त बदले । एक क्षण उसने मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूरा और फिर मेरा गिरहबान पकड़कर मुझे भीतर घसीट लिया ।
मैंने कोई एतराज न किया ।
“उसने लात मारकर दरवाजा भीतर से बन्द कर मुझे गिरहबान से झिंझोंड़ता हुआ बोला - “अभी क्या नाम लिया था तुमने ?”
“मोहर सिंह” - मैं बोला - “लेकिन भाई साहब, अगर तुम मोहर सिंह नहीं हो तो कह दो नहीं हो । इसमें खफा होने की क्या बात है ? मैं आपको किसी और नाम से पुकार लेता हूं ।”
“और क्या नाम ?”
“बंसीधर ! वैसे तो दोनों ही नाम रद्दी है लेकिन अगर, तुम्हें बंसीधर पसन्द है तो मुझे क्या एतराज है ?”
“तुम हो कौन ?”
“गिरहबान छोड़ो तो बताऊं । और भी बहुत कुछ बताऊं ?”
“और क्या ?”
“मिसाल के तौर पर तुम्हें मुकेश मैनी नाम के उस शख्स के बारे में बताऊं जिससे तुमने एक लाख रुपया उधार लिया हुआ है और जो बेचारा कत्ल हो गया । उसकी उस बहन के बारे में बताऊं कल रात जिसके घर में घुसकर तुमने बेतहाशा कोहराम मचाया लेकिन वह प्रोनोट हाथ फिर भी न आया जिसकी खातिर तुमने मुकेश मैनी का कत्ल किया ।”
“मैंने मुकेश मैनी का कत्ल नहीं किया ।”
“यानी कि बाकी अपराधों से नहीं डरते हो लेकिन कत्ल से डरते हो ।”
“मतलब ?”
“मतलब यह कि अगर कत्ल की सजा से डरते हो तो मेरा गिरहबान छोड़ो । मैं चीख गया तो तुम्हारे लिये बहुत मुश्किल हो जायेगी । यह भरा पूरा गैस्ट हाउस है । मुझे मारकर फरार भी नहीं हो सकोगे ।”
वह कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने मेरा गिरहबान छोड़ा और मुझे एक कुर्सी पर धकेल दिया ।
“कौन हो तुम ?” - वह बोला ।
“खाकसार को सुधीर कोहली कहते हैं...”
“सुधीर कोहली ! वो प्राइवेट डिटेक्टिव जिसके बारे में अखबार में छपा था ?”
“यानी कि पढ़े-लिखे हो ।”
“मेरा पता कैसे जाना ?”
“जान लिया किसी तरह । आखिर डिटेक्टिव हूं ।”
“यहां क्यों आये हो ?”
“यह जानने के लिये कि मुकेश मैनी तुम्हें लाख रुपया उधार देने के लिये कैसे तैयार हो गया ? और अब उसकी मौत के बाद अपना लाख रुपये का प्रोनोट वापस हासिल करने के लिये मरे क्यों जा रहे हो ?”
“मैंने उससे कोई उधार नहीं लिया ।”
“यह चलने वाला झूठ नहीं है, पहलवान ! तुम्हारा प्रोनोट मैंने अपनी आंखों से देखा है । उस पर हुए तुम्हारे हस्ताक्षरों की तसदीक बड़ी आसानी से हो सकती है । ऊपर से कल रात तुम मुकेश मैनी की बहन के फ्लैट में घुसे । एक तो वही उम्र भर तुम्हारी सूरत नहीं भूलने वाली दूसरे तुम उसके फ्लैट में दर्जनों की तादाद में अपनी उंगलियों के निशान छोड़कर आये हो ।”
“वहां पुलिस पहुंच गयी ?”
“तुम्हारे जाते ही ।”
“यानी कि लड़की पर मेरी धमकी का असर नहीं हुआ । बाज नहीं आयी वो पुलिस को खबर करने से । यह भी झूठ बोला उसने कि प्रोनोट उसके पास नहीं ।”
“यह आखिरी बात सच कही थी उसने । प्रोनोट उसके पास नहीं था ।”
“तो कहां गया ?”
“पुलिस के पास गया ।”
“वहां कैसे पहुंच गया ?”
“मैंने पहुंचाया । उसने मुझे दिया । मैंने आगे पुलिस को दे दिया ।”
“यही तो मैं नहीं चाहता था ।”
“क्यों नहीं चाहते थे ?”
“क्योंकि उस प्रोनोट की वजह से मुकेश मैनी के कत्ल का शक मुझ पर किया जा सकता था ।”
“तुमने नहीं किया उसका कत्ल ?”
“मैंने आज तक मक्खी नहीं मारी ।”
“पुलिस तुम्हें नोन क्रिमिनल बताती है ।”
“उनके कहने से क्या होता है ! वो तो जिसके भी पीछे पड़ जायें, उस पर दर्जन भर इलजाम लगा देते हैं । आज तक पुलिस का लगाया एक भी इलजाम मुझ पर साबित नहीं हो सका है ।”
“जोकि तुम्हारी खुशकिस्मती है । तुमने मुकेश मैनी से लाख रुपया उधार क्यों लिया ?”
“वो एक प्राइवेट मामला है जो मेरे और उसके बीच में था ।”
“मुकेश मैनी तो मर चुका, अब वह बात खोलने में क्या हर्ज है ?”
“हर्ज है ।”
“पहलवान यह बात तुमसे पुलिस भी पूछ सकती है ।”
“मैं पुलिस को भी कुछ नहीं बताने वाला ।”
“पुलिस पहले से जानती है ।”
“क्या ?” - वह सकपकाया - “क्या जानती है ?”
“यही कि तुम्हारा ताजा-तरीन धन्धा जाली नोटों का है । और मुकेश मैनी से तुम्हें हासिल हुई लाख रुपये की रकम का रिश्ता भी इसी जाली नोटों के धन्धे से है । एक लाख रुपये में कितने लाख के जाली नोट खरीदे जा सकते हैं, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन यह मेरी गारंटी है कि मुकेश मैनी से लाख रुपये का उधार तुमने जाली नोट खरीदने के लिये ही लिया था । उसको इस धन्धे में डालने के लिये कुछ कम रकम के जाली नोट तुमने उसे भी खरीदकर दिये थे । बीस हजार रुपये के ऐसे नोट बरामद हो भी चुके है ।”
“ओह !”
“इसीलिये तुम अपना प्रोनोट वापिस हासिल करने के लिये मरे जा रहे थे क्योंकि वह प्रोनोट तुम्हारा और मुकेश मैनी का रिश्ता जाली नोटों के धन्धे से जोड़ सकता था ।”
वह खामोश रहा ।
“अब कबूल करो कि तुमने अपने प्रोनोट की खातिर मुकेश मैनी का कत्ल किया । तुम्हें उम्मीद थी कि प्रोनोट उसके होटल के कमरे में ही होगा । प्रोनोट वहां से बरामद न होने पर तुम्हारे छक्के छूट गये होंगे कि कत्ल भी किया और मतलब भी हल न हुआ । गुनाह बेलज्जत । फिर तुम्हें मुकेश मैनी की बहन का पता लगा तो तुम...”
“बकवास बन्द करो ।” - “वह भड़ककर बोला - “मैंने उसका कत्ल नहीं किया ।”
“चलो न सही । लेकिन क्या तुम इस बात से भी मुकर सकते हो कि तुम जाली नोटों के व्यापारी हो ? लाख रुपये में आठ दस लाख रुपये के तो जाली नोट आते ही होंगे ।” - मैंने कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाई - “माल यही रखते हो या कोई और ठिकाना है ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“मत बताओ” - मैं उठता हुआ लापरवाही से बोला - “अभी पुलिस पता लगा लेगी । वैसे भी पुलिस वाले अपने पुराने यार मोहर सिंह से मिलकर बहुत खुश होंगे ।”
“उन्हें पता है कि अब-अब मेरा नाम बंसीधर है ?”
“लो ! उन्हें क्यों नहीं होगा पता ? उन्हीं ने तो मुझे बताया है ।”
“अब तुम कहां जा रहे हो ?”
“पुलिस के पास । उन्हें यह बताने कि तुम कहां पाये जाते हो ।”
“यानि कि अभी उन्हें मेरा यह पता नहीं मालूम ।”
“अब मालूम हो जायेगा ।”
“अब नहीं होगा ।”
“क्यों नहीं होगा ?”
“क्योंकि तुम यहां से नहीं जा रहे हो ।”
“अच्छा ! कौन रोकेगा मुझे ?”
“मैं । मैं रोकूंगा ।”
एकाएक वह मुझ पर झपटा ।
मैं हड़बड़ाकर पीछे हटा ।
“मैंने तुम्हें पहलवान कह दिया” - मैं बोला - “तो तुम सच ही पहलवान समझ बैठे अपने आपको । खमीरे की तरह तो फूले हुए हो । इतना मोटा आदमी कहीं लड़ सकता है ।”
“ठहर जा साले ।”
वह फिर मुझ पर झपटा ।
मैंने वही कुर्सी उठा ली जिस पर उसने मुझे बिठाया था ।
“खबरदार !” - मैं उसकी तरफ कुर्सी तानता हुआ बोला ।
“करता हूं तुझे मैं, खबरदार” - वह दांत किटकिटाता हुआ बोला ।
“मैं शोर मचा दूंगा ।”
“सारा फ्लोर खाली है । कोई नहीं सुनने का ।”
मैंने कुर्सी उसकी तरफ चलाई । कुर्सी उसके कन्धों से टकराकर टूट गयी और उसके कान पर जूं भी न रेंगी । मैंने हाथ में रह गयी कुर्सी की पीठ का वार उसके सिर पर किया, उसका सिर फूटा तक नहीं । फिर उसने एक घूंसा मेरे जबड़े पर जड़ा और मैं पलंग पर से उलटकर नीचे फर्श पर जाकर गिरा ।
मैं भयभीत हो उठा । उसके एक ही वार ने मुझे सितारे दिखा दिये थे । ऊपर से मुझे लग रहा था कि अगर मैं उसकी बाहों की पकड़ में आ गया तो वह मुझे सुरमे की तरह पीसकर रख सकता था ।
उसने करीब आकर अपने पांव की ठोकर चलाई । मैं तत्काल करवट न बदल गया होता तो मेरी पसलियां उसकी ठोकर का निशाना बनी होतीं और पता नहीं कितनी एक ही बार में चटक गयी होतीं । उसने फिर पांव चलाया तो मैंने उसका पांव रास्ते में ही थाम लिया । मैंने उसे जोर से पीछे को धकेला और पांव छोड़ दिया । उसका सन्तुलन बिगड़ गया । वह लड़खड़ाकर पीछे को हटा और फिर फर्श पर ढेर हो गया । मैं उछलकर अपने स्थान से उठा । मेरी व्याकुल निगाह आसपास किसी हथियार की तलाश में दौड़ गयी ।
एक कोने में बुलवर्कर पड़ा था जिससे जरूर वही रोज एक्सरसाइज करता था । वह उठकर मेरी तरफ झपटा और मैं बुलवर्कर की तरफ झपटा । बुलवर्कर मेरे हाथ में आ गया तो मैं छलांग मारकर पलंग पर चढ़ गया ।
आंखों में खून लिये वह मेरी तरफ बढ़ रहा था ।
मैंने पूरी शक्ति से बुलवर्कर को लाठी की तरह घुमाया ।
बुलवर्कर का हैंडल उसकी कनपटी से टकराया । तुरन्त उसकी गति में अवरोधक आया । उसके मुंह से एक जोर की हाय निकली । दूसरा प्रहार मैंने सीधा उसकी खोपड़ी पर किया । वह वार इतनी जोर का पड़ा कि मेरे हाथ झनझना गये ।
वह कटे वृक्ष की तरह धराशायी हुआ ।
मैंने थरथराकर बुलवर्कर फेंक दिया ।
हे भगवान ! कहीं वो मर ही तो नहीं गया था ।
डरते-डरते मैं उसके करीब पहुंचा । उसका चेहरा लहूलुहान था और उसके शरीर में कोई हरकत नहीं थी ।
मैंने उसकी नब्ज देखी, दिल टटोला । दोनों में हरकत थी ।
मेरी जान में जान आयी ।
वही के टेलीफोन से मैंने इंस्पेक्टर यादव को फोन किया । मैंने जल्दी-जल्दी उसे सारी बात सुनाई ।
“मैंने तुम्हें कहा था उससे मत उलझना” - यादव सख्त नाराजगी भरे स्वर में बोला ।
“यार, मैंने तसदीक तो करने जाना था कि नहीं कि वही सही आदमी था ।”
“वह तसदीक भी हमें करने दी होती ।”
“अब मुझे क्या पता था कि वह खून-खराबे पर उतर आयेगा ।”
“क्यों नहीं पता था ? मैंने तुम्हें बताया नहीं था कि वह बहुत खतरनाक आदमी था ?”
“यादव साहब ? दिन-दहाड़े, भरे-पूरे गैस्ट हाउस में वह कत्ल करने पर उतारू हो जायेगा, यह मैंने नहीं सोचा था ?”
“और खतरनाक आदमी किसे कहते है, जो तुम्हें गोद में बिठाकर दादा-दादी की कहानी सुनाये और लालीपोप दे ?”
“जो हुआ उसे छोड़ो और इस बात की तरफ तवज्जो दो कि तुम उसे गिरफ्तार कर सकते हो । और मुमकिन है यहां उसके इस कमरे से ढेरों में जाली नोट भी बरामद हों ।”
“मुझे आने में वक्त लगेगा । लोकल थाने में फोन करो ताकि वे लोग फौरन पहुंचकर उसे हिरासत में ले लें ।”
“मुझे लोकल थाने का नम्बर नहीं मालूम ।”
“100 नम्बर पर रिंग कर दो । लोकल थाने को अपने आप खबर लग जायेगी ।”
“ठीक है ।”
मैंने सम्बन्ध-विच्छेद किया तो पाया कि फोन में डायल टोन आ रही थी । मैंने 100 डायल किया, उत्तर मिलते ही मैंने इंस्पेक्टर यादव का हवाला देकर मोहर सिंह उर्फ बंसीधर की बाबत तोते की तरह सारी बात रट दी और तुरन्त रिसीवर क्रेडल पर रख दिया । मैं कमरे से बाहर निकला । मैंने उसे बाहर से कुंडी लगा दी और चुपचाप वहां से खिसक गया ।
फ्लाईंग स्क्वायड की गाड़ी मुझे रास्ते मे मिली ।
***
टेलीफोन डायरेक्ट्री से मुझे मालूम हुआ कि अनिल पाहवा पंडारा रोड पर रहता था ।
मैं उसके घर पहुंचा ।
उसने मुझे भीतर बुलाकर अपने ड्राइंगरूम में बिठाया ।
“कुछ पियोगे ?” - वह बोला ।
“एक गिलास पानी पी लूंगा ।” - मैं बोला ।
“पानी नीट पीते हो” - वह विनोदपूर्ण स्वर में बोला – “या उसमें कुछ मिलाकर ?”
“आप कैसे पीते है ?”
“मैं तो नीट पानी नहीं पीता । मुझे नशा करता है ।”
“नशे से तो खुद मैं बहुत डरता हूं ।”
“फिर तो मैं तुम्हें नीट पानी पीने की राय नहीं दूंगा ।”
“जैसी आपकी मर्जी ।”
वह कमरे से बाहर गया और दो लबालब भरे गिलासो के साथ वापिस लौटा । उसके निर्देश पर मैंने एक गिलास ले लिया । मैंने उसका तरल पदार्थ चखा तो पाया कि उसमें काफी तगड़ी मिकदार में स्कॉच विस्की थी ।
“मुझे नहीं मालूम था” - वह बोला – “कि दिल्ली शहर में तुम्हारी इतनी पहुंच है । आनन-फानन जमानत करा ली । वो भी कत्ल के केस में ।”
“ऊपर वाला मेहरबान होना चाहिये” - मैं बोला - “सब कुछ हो जाता है ।”
“यहां कैसे आये ?”
“एकाध बात पूछना चाहता था । सोचा शायद आपको जवाब देने से एतराज न हो ?”
“क्या पूछना चाहते हो ?”
“मुकेश मैनी की बाबत ही एकाध सवाल था मेरे जेहन में ।”
“क्या ?”
“वो आपका यार था ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“क्लायंट ?”
“नैवर !”
“आज तक उससे कतई कोई वास्ता नहीं था ?”
“न ।”
“फिर तो इसे इत्तफाक ही माना जायेगा कि एक कड़ी ऐसी थी जो आप दोनों को जोड़ती थी । यानी कि वो उस कड़ी से जुड़ा और आगे वह कड़ी आपसे जुड़ गयी । यूं उस कड़ी ने आपको भी जोड़ दिया ।”
“तुम किसकी बात कर रहे हो ? कौन सी कड़ी थी हमारे बीच ?”
“मीरा वशिष्ठ । जिसकी वजह से आप मुकेश मैनी के ब्वॉय फ्रेंड इन लॉ बन गये थे ।”
“ब्वॉय फ्रेंड इन लॉ !” - वह सकपकाया ।
“एक ही औरत के दो चाहने वाले यही तो कहलायेंगे ।”
“मुकेश मैनी मीरा का चाहने वाला नहीं हो सकता था । कहां मीरा कहां वो ?”
“बहुत फर्क था दोनों के रुतबों में !”
उसने उत्तर न दिया ।
“मुकेश मैनी” - मैं बोला - “मीरा के स्टेटस का आदमी नहीं था । फिर भी वो होटल के कमरे में इकट्ठे पाये गये थे । अगर आपकी यह बात मान ली जाये कि मुकेश मैनी मीरा का चाहने वाला नहीं हो सकता तो फिर तो पुलिस की यह धारणा सच हुई कि उन दोनों की होटल में मौजूदगी एक धोखा था, एक फ्रॉड था । उनकी होटल में मुलाकात तलाक की खातिर स्टेज किया गया एक ड्रामा था ।”
“मुझे इस बाबत कुछ मालूम नहीं ।”
“बावजूद इसके कि आप मीरा के वकील थे ?”
“ये तमाम बातें हमारे में पहले भी हो चुकी हैं ।”
“हो चुकी हैं लेकिन कुछ को मैं दोहराना चाहता हूं ।”
“क्या कहते हो तुम ?”
“पुलिस को इस ड्रामे का स्क्रिप्ट-राइटर होने का मुझ पर शक है लेकिन मैं बेगुनाह हूं । पुलिस को ऐसा ही शक बलबीर साहनी पर है लेकिन वह कहता है कि वह बेगुनाह है । अब आप कहते हैं आपका भी इस सिलसिले से कोई वास्ता नहीं तो फिर वास्ता किसका हुआ ?”
“शायद बलबीर साहनी झूठ बोल रहा हो ।”
“मैं उसे कह दूं कि आपका उसकी बाबत ऐसा ख्याल है ?”
उसने जवाब न दिया । उसने फिर विस्की से गला तर किया ।
“तुम हो किस फिराक में ?” - फिर वह बोला ।
“मैं यह साबित करने की फिराक में हूं कि मीरा के तलाक के सिलसिले में जो कुछ भी हुआ उसके स्क्रिप्ट-राइटर, डायरेक्टर सब आप थे ।”
“ओहो ! यानी कि तुम अपनी बला मेरे गले मढ़ने की कोशिश कर रहे हो । जो करतूत पुलिस तुम्हारी बताती है, उसे अब तुम मेरी साबित करने पर उतारू हो ।”
“जी हां ?” - मैं पूरी ढिठाई के साथ बोला ।
“जबरन ?”
“शायद ! आपकी विस्की पी रहा हूं, अब आपसे झूठ थोड़े ही बोलूंगा ।”
“इससे तुम्हें क्या फायदा होगा ?”
“पुलिस समझती है कि तलाक के सारे बखेड़े का जन्मदाता मैं था, इसी बात को खुल जाने से बचाने के लिये मैंने मुकेश मैनी का कत्ल किया । अब अगर मैं यह साबित कर सकूं कि तलाक के बखेड़े से मेरा कोई रिश्ता नहीं था तो फिर मुकेश मैनी के कत्ल से भी मेरा रिश्ता बेमानी हो जायेगा ।”
“मैं यूं तुम्हारे बनाये बलि का बकरा नहीं बनने वाला । कोई और शिकार ढूंढो, दोस्त ।”
“मैं सिर्फ हकीकत जानना चाहता हूं ।”
“वो भी कहीं और जाकर जानो ।”
“कहीं और जाना वक्त की बरबादी होगा । जो हासिल होगा, यहीं से होगा ।”
“कैसे होगा ?”
“सुनिये कैसे होगा ? नम्बर एक । क्या सुबह आपके आफिस से मेरे विदा होते ही आप नाक की सीध में बलबीर साहनी के पास गए थे और उससे खूब लड़-झगड़ कर आये थे ?”
“तुम्हें कैसे मासूम ?”
“मैंने आपका पीछा किया था ।”
“ओह !”
“नम्बर दो । अपनी मौत से पहले मुकेश मैनी ने आपको फोन किया था ।”
“कौन कहता है ?”
“उसके होटल का रिकार्ड कहता है । होटल के टेलीफोन कॉलम के रिकॉर्ड में यह हकीकत दर्ज है कि परसों मुकेश मैनी ने आपके ऑफिस के नम्बर पर आपको फोन किया था ।”
“मेरी उससे बात नहीं हुई थी ।”
“क्यों बात नहीं हुई थी ?”
“शायद मैं कोर्ट गया हुआ था ?”
“उसने फोन किया क्यों था आपको ?”
“क्योंकि-क्योंकि पहले मैंने उसे फोन किया था ।”
“कब ?”
“उसी रोज की सुबह को । वह होटल में नहीं था तो मैंने उसके लिये मैसेज छोड़ा था कि वह जब भी लौटे मुझे फोन करे ।”
“आप उससे क्या बात करना चाहते थे ?”
“मीरा के तलाक के केस के मामले में पुलिस गड़े-मुर्दे उखाड़ रही थी । वो मुझ तक पहुंची थी, तो उस तक भी पहुंच सकती थी । मैं उसे पुलिस के आगमन के बारे में चेतावनी देना चाहता था और जानना चाहता था कि वह अपने बयान में क्या कहना चाहता था । दरअसल...दरअसल मैं उसे सलाह देना चाहता था कि वह जो हकीकत है, वही बयान करे ।”
“वैरी नोबल ऑफ यू ।”
वह खामोश रहा ।
“मैं वकील नहीं हूं लेकिन कोई अहमक भी यह जान सकता है कि आपकी तमाम बातों में परस्पर विरोधाभास है । आप कहते हैं कि मुकेश मैनी मीरा के स्टैंडर्ड का आदमी नहीं था इसलिये वह उसका यार नहीं हो सकता था । साथ ही आप यह भी कहते हैं कि उस रेड में कोई फ्रॉड नहीं था । फ्रॉड नहीं था तो फिर मुकेश मैनी मीरा का यार था । दोनों बातें कैसे हो सकती हैं ? मैंने कल सुबह आपके ऑफिस में आकर आपको रेड की तस्वीर के बारे में बताया तो आपने भारी हैरानी जाहिर की और कहा कि न आपको तस्वीर की कोई वाकफियत थी और न आपका उससे कोई मतलब था । फिर अपनी इस बात को खुद ही झूठी साबित करने के लिए आप बलबीर साहनी से लड़ने के लिये आनन-फानन में उसके ऑफिस में पहुंच गये और उससे आप उसी तस्वीर का नेगेटिव और प्रिंट मांगने लगे जिससे बकौल आपके आपका कोई मतलब नहीं था । अभी आप खुद कबूल करके हटे हैं कि आप मुकेश मैनी को कोई खास तरह का, अपना पसंदीदा, बयान देने के लिये पट्टी पढ़ाना चाहते थे । अभी आप...”
एकाएक वह उठकर खड़ा हो गया । क्रोध में वह थरथर कांप रहा था ।
“गैट आउट” - वह बोला ।
मैंने हड़बड़ाकर दायें-बायें देखा और फिर बोला - “यह आपने मुझे फरमाया !”
“गैट-आउट ।”
“यह कौन-सा तरीका है मेहमान नवाजी का ! जिसको विस्की पिलाते हैं उसे गैट आउट थोड़े ही कहते हैं ।”
इस बार वह जुबान से कुछ कहने की जगह कमरे के बाहर खुलने वाले दरवाजे के पास पहुंचा और उसे मेरे लिये खोलकर खड़ा हो गया ।
मैं धीरे से उठा । मेरे हाथ में थमा गिलास अभी स्कॉच से तीन-चौथाई भरा हुआ था । मैंने उसे धार बनाकर उसकी सैंटर टेबल पर पलट दिया । मैं दरवाजे पर उसके करीब पहुंचा । मैंने विस्की का खाली गिलास जबरन उसके हाथ में थमा दिया ।
“जिसकी विस्की पी हो” - मैं एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “उसकी मौत का सामान करना मुझे पसन्द तो नहीं लेकिन तुम्हारे लिये मैं अपनी पसन्द के खिलाफ भी जाऊंगा ।”
“आउट !”
“तुम्हारी जितनी विस्की मैंने पी है, उतनी मैं तब तुम्हारे मुंह में टपका दूंगा जब तुम्हारी लाश फांसी के फंदे से उतारी जायेगी ।”
मैंने चौखट के बाहर कदम रखा तो उसने मेरे पीछे इतनी जोर से दरवाजा बन्द किया कि कमरे के बाकी खिड़कियां-दरवाजे खड़खड़ा गये ।
***
एक पेट्रोल पम्प के पी सी ओ से मैंने फरीदाबाद फोन किया ।
थोड़ी देर होल्ड करने के बाद चारुबाला लाइन पर आ गयी ।
“मिस्टर कोहली” - वह बोली - “क्या खबर है ?”
“खास खबर यह है मैडम, कि रोहनी की वशिष्ठ साहब के नाम जो चिट्ठी आपने मुझे दी थी, वह जाली है । वह चिट्ठी रोहनी ने नहीं लिखी ।”
“यानी कि गोपाल किसी रोहनी को नहीं जानता ?”
“यह मैंने नहीं कहा । मैंने कहा है वह चिट्ठी रोहनी ने नहीं लिखी ।”
“तो फिर किसने लिखी ?”
“यह मैं अभी पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं ।”
“तुम...तुम उस लड़की से मिले थे ?”
“किससे ? रोहनी से ?”
“हां ।”
“जी हां । मिला था ।”
“देखने में कैसे है वो ? खूबसूरत ! नौजवान ! मॉडर्न ! सैक्सी ! विलिंग !”
वो औरत अपने पति की वो के रूप में रोहिनी की कल्पना करके खामखाह अपने आपको टार्चर कर रही थी ।
“वो आम लड़कियों जैसी लड़की है, मैडम ! जैसी स्वर्ग की अप्सरा आप उसकी उम्र में थीं, वैसी तो वो सात बार जन्म लेकर नहीं बन सकती ।”
“ओह !” - उसके स्वर से मुझे लगा जैसे मेरे उस जवाब ने उसके कलेजे को बहुत ठण्डक पहुंचाई हो - “तुम काबिल आदमी हो, मिस्टर कोहली । कुछ तो जान पाये । उस दूसरे आदमी ने तो अभी तक मुझे खबर भी नहीं दी अपनी ।”
“कौन दूसरा आदमी ?”
“तुम्हारा हमपेशा दूसरा आदमी ।”
“यानि कि आपने यही काम किसी और प्राइवेट डिटेक्टिव को भी सौंपा है !”
“वो.. वो क्या है कि....तुम्हारे जाते ही....गीता - मेरी भांजी आ गई थी...मैं अपनी भांजी से कुछ नहीं छुपाती । जो कुछ मैंने गोपाल और रोहिनी के बारे में तुम्हें बताया था, वही मैंने गीता को भी बता दिया । वो कहने लगी कि क्योंकि तुम गोपाल के दोस्त थे, इसलिए उसकी भलाई की खातिर अपनी खोज के नतीजे की कई बातें तुम मुझसे छुपा सकते थे ।”
“इसलिए” - मैं वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “आपने एक और डिटेक्टिव एंगेज कर लिया !”
“गीता ने ही किया ! कहती थी कि कोई डिटेक्टिव उसका वाकिफकार था ।”
“बहुत अच्छा किया आपने । बधाई हो ऐसी सूझ-बूझ दिखाने के लिए ।”
“मिस्टर कोहली, तुम खफा तो नहीं कि मैंने...”
“न .. न .. न .. । बिलकुल नहीं । वशिष्ठ साहब की क्या खबर है ?”
“गोपाल आगरे से तो लौट आया है लेकिन अभी घर नहीं लौटा । स्टेशन से उसका फोन आया था कि उसको घर लौटने में काफी देर हो सकती थी ।”
“क्यों ?”
“जो लड़की पहले उसकी सैक्रेट्री हुआ करती थी, उसे उससे कुछ काम था...”
“अनीता सोनी से ?”
“हां । यही नाम...”
“थैंक यू मैडम । आई विल कॉल अगेन ।”
मैं फौरन अपनी कार में आ बैठा ।
पता नहीं क्यों मुझे यह सोचकर ईर्ष्या हो रही थी कि रात के नौ बजे वशिष्ठ अनीता के फ्लैट पर था । ईर्ष्या की कोई वजह नहीं थी लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लग रहा था जैसे अनीता मेरी ब्याहता बीवी थी और मेरी गैरहाजिरी में किसी गैरमर्द से मिलकर मेरे साथ दगाबाजी कर रही थी ।
तूफानी रफ्तार से मैंने अपनी कार गोल मार्किट की ओर दौड़ाई ।
अनीता के फ्लैट की बत्तियां जली हुई थीं लेकिन भीतर से कोई आवाज नहीं आ रही थी । मैंने की-होल से कान लगाकर भी भीतर से आती कोई आवाज सुनने की कोशिश की लेकिन नतीजा सिफर निकला । वह सन्नाटा भी मेरा खून खौला रहा था । मैं वशिष्ठ और अनीता की कल्पना पलंग पर गुत्थम-गुत्था हुए जोड़े के रूप में करने लगा ।
पता नहीं आपका यह अहमक खादिम बंसीधर का घूंसा खाकर अपना दिमागी तवाजन खो बैठा था या सारे दिन भर की दौड़-धूप की थकावट ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाला हुआ था या मैं था ही अक्ल का अंधा लेकिन उस वक्त मुझे यह नहीं सूझ रहा था कि अनीता अगर वो सब कुछ भी कर रही थी जिसकी मैं कल्पना कर रहा था तो मैं कौन होता था उसे रोकने-टोकने वाला ? मेरे ऐतराज करने पर अगर वह मुझे यही बात कहकर अपने फ्लैट से बाहर निकाल देती तो मैं क्या कर लेता उसका ?
बहरहाल मैंने काल-बैल बजाई । अनीता ने दरवाजा खोला । मुझे उसकी पोशाक देखकर ही बहुत राहत महसूस हुई । वह बहुत सलीके से सलवार-कमीज पहने थी । अगर वह कोई हाउस कोट या नाइटी जैसे पोशाक पहने होती तो मेरे जेहन में और ज्यादा बुरे-बुरे ख्याल आते ।
मेरी राहत में इजाफा इस बात ने भी किया था कि दरवाजा फौरन खुला था ।
“सुधीर !” - वह बोली - “तुम कैसे आ गए ?”
“यूं ही” - मैं बोला - “इधर से गुजर रहा था, सोचा हल्लो कहता चलूं ।”
“वैसे ऐसा तो नहीं कि तुमने मुझे कहा हो कि तुम आने वाले हो और मैं भूल गयी होऊं ?”
“ऐसा तो नहीं है । लेकिन अगर मेरे यूं आने से तुम्हें कोई असुविधा हुई है तो मैं वापिस चला जाता  हूं ।”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं । वापिस काहे को चले जाते हो ? आओ तुम्हें किसी से मिलाऊं ।”
“घर में कोई है ?”
“ऐसा कोई नहीं” - वह बांह पकड़कर मुझे फ्लैट के भीतर घसीटती हुई बोली - “जो तुम्हारा नावाकिफ हो ।”
मैंने ड्राइंग रूम में निगाह दौड़ाई ।
गोपाल वशिष्ठ एक सोफ़े पर बैठा था । उसके सामने सेंटर टेबल पर ढेर सारे हस्तलिखित कागज पड़े थे ।
“आओ, आओ” - वह उठता हुआ बोला ।
मैंने उससे हाथ मिलाया । हम सब बैठ गए । मेरी निगाह फिर मेज पर बिखरे कागजों पर पड़ी ।
“अपने नए नॉवेल की कहानी” - वह बोला - “प्रोड्यूसर को सुनाने आगरा गया था । प्रोड्यूसर को कहानी पसंद आई है । उसे कापी चाहिये इसलिए स्क्रिप्ट को फौरन टाइप कराना निहायत जरूरी हो गया है । मेरा हैंडराइटिंग इतना खराब है कि उसे सिर्फ अनीता ही पढ़ सकती है, इसलिए टाइप के लिए इसी से इसरार करने यहां आया हूं ।”
मैंने मेज पर से स्क्रिप्ट का एक पेज उठाकर उसका मुआयना किया ।
गोपाल का हैंडराइटिंग वाकई बहुत खराब था । बस ऐसा लगता है जैसे स्याही में डूबी कोई चींटी कागज पर रेंग गयी हो । एक निगाह से तो यह भी नहीं मालूम होता था कि उसने भाषा कौन सी लिखी थी ।
मैंने कागज वापिस मेज पर डाल दिया और बोला - “फिल्म असाइनमेंट के लिए बधाई हो ।”
“अभी काहे की बधाई । अभी तो सिर्फ प्रपोजल है । कांट्रैक्ट होगा तो जानेंगे ।”
“फिर भी...”
“मेरा सिर्फ पांच-दस मिनट का काम बाकी है । अगर तुमने अनीता से कोई जरूरी बात करनी हो तो...”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं । मैं तो बस यूं ही कर्टसी काल पर आया था । मैं जाता हूं ।”
“ऐसे कैसे जाते हो !” - अनीता तुरंत बोली - “तुम ऐसा करो, बैडरूम में चले जाओ और थोड़ी देर रिलैक्स करो ।”
मैं सहमति से सिर हिलाता हुआ बैडरूम में आ गया । वहां मैंने पलंग की दोनों साइड टेबल और वार्डरोब खोलकर देखी, किचन में पड़ा रेफ्रीजरेटर भी मैं चुपचाप खोला लेकिन जिस चीज की मुझे तलाश थी, वो मुझे कहीं दिखाई न दी ।
विस्की कहीं नहीं थी ।
विस्की के नाम पर आह सी भरता हुआ मैं पलंग पर लेट गया, लेटा तो ऊंघ गया, ऊंघा तो सो गया, सोया तो किसी ने झिंझोड़ कर जगा दिया ।
“वशिष्ठ साहब जा रहे हैं ।” - मेरे करीब खड़ी अनीता बोली - “तुमसे गुडबाई कहना चाहते हैं ।”
मैंने एक जोर की जम्हाई ली, उठकर अपने कपड़े दुरुस्त किए, बालों में उंगलियां फिराई और कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
सिर्फ दस मिनट गुजरे थे ।
अनीता के साथ मैं ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
“अच्छा, कोहली” - वह मेरी तरफ हाथ बढ़ता हुआ बोला - “मैं चलता हूं ।”
मैंने जबरन मुसकराते हुए उसके हाथ में अपना हाथ दे दिया ।
“पुलिस अभी भी तुम्हें ही मुकेश मैनी का हत्यारा मान रही है ?”
“जी हां ।”
“दैट्स टू बैड ।”
मैं एक शहीद की तरह बड़े जब्त के साथ मुस्कुराया ।
“मेरी किसी मदद की जरुरत हो” - वशिष्ठ बोला - “कैसी भी मदद की जरुरत हो तो मुझे बेझिझक बताना ।”
“जी हां । जरूर । जरूर ।”
“तुम” - वह अनीता की तरफ घूमकर बोला - “आज ही रात से काम शुरू कर दोगी ।”
“जी हां” - वह बोली ।
“मैं दो घंटे में घर पहुंच जाऊंगा । स्क्रिप्ट की कोई बात न समझ में आए तो मुझे फोन कर देना, रात के चाहे कितने ही क्यों न बजे हो ।”
“ठीक है ।”
तब कहीं जाकर उसने मेरा हाथ छोड़ा और दरवाजे की ओर बढ़ा । वह वहां से विदा हो गया तो अनीता ने उसके पीछे दरवाजा बंद कर दिया और मेरी तरफ घूमी ।
“यह यहां तक पहुंचा कैसे था ?” - मैंने व्यग्र भाव से पूछा ।
“अपनी कार पर” - वह बोली - “क्यों ?”
“आगरा तो यह ट्रेन से गया था ।”
“कार स्टेशन की पार्किंग में छोड़ गया था । क्यों ?”
“कार से तो यहां फरीदाबाद का रास्ता मुश्किल से एक घंटे का है फिर यह दो घंटे में घर क्यों पहुंचेगा ?”
“तुम क्या कह रहे हो ? मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा है ।”
“जरूर अभी इसने रास्ते में कहीं और जाना है । मैं अभी आया ।”
“अरे, अरे, तुम कहां चल दिये ?”
“मैं अभी आया । न आ सका तो फोन करूंगा ।”
वशिष्ठ सीधा करोल बाग महारानी होटल पहुंचा ।
वहां तक उसका पीछा करने में मुझे कतई कोई असुविधा न हुई । वशिष्ठ अपनी धुन में मग्न गाड़ी चलाता रहा था, शायद उसे सूझा तक नहीं था कि उसका पीछा किया जा सकता था ।
उसके होटल में दाखिल हो जाने के थोड़ी देर बाद मैं कार से बाहर निकला । मैं भी होटल में दाखिल हुआ । बिना किसी के रोके-टोके मैं दूसरी मंजिल पर पहुंच गया जहां का कमरा नंबर 201 मेरा लक्ष्य था । रजनी ने उस होटल में रोहिनी माथुर के कमरे का यही नम्बर बताया था ।
मैं दबे-पांव 201के सामने पहुंचा । गलियारा उस वक्त सुनसान था इसलिये मैंने हिम्मत करके की होल में आंख लगा दी ।
मेरी निगाह के दायरे में भीतर का जो दृश्य आया उससे मैं यही जान सका कि दो स्त्री पुरुष आमने सामने खड़े बातें कर रहे थे । वे अपेक्षाकृत ऊंचा बोल रहे थे इसलिये बातों की आवाज बाहर सुनाई दे रही थी ।
“रोहिनी !” - वशिष्ठ कह रहा था - “मैंने तुम्हें खासतौर से कहा था कि मुझे घर पर फोन न करना, किसी हालत में फोन न करना । यह बात तुम सीधे सीधे समझ लो तो अच्छा है नहीं तो मुझे कोई सख्त कदम उठाना पड़ेगा ।”
“यानी कि तुम मुझसे मिलना नहीं चाहते ?” - मुझे जनानी आवाज सुनाई दी ।
“ऐसी कोई जरूरत मैं समझूंगा तो मैं...मैं तुम्हें खबर करूंगा ।”
“गोपू डार्लिंग, पहले तो तुम ऐसे नहीं थे । जब तुम पहली बार मिले थे तब तो तुम...”
“वो सब भूल जाओ । पहले भी मैं तुमसे सिर्फ हंस बोल लेता था । बस । अब मेरे लिये वो भी मुमकिन नहीं । मैं एक शादीशुदा आदमी हूं । मेरी बीवी को हमारी रिश्तेदारी की खबर लग गयी तो कहर बरपा सकता है ।”
“तुम अपनी बीवी से डरते हो ?”
“हां । बहुत ज्यादा ।”
“कैसे मर्द हो तुम ?”
“जैसा हूं, हूं ।”
“अगर तुम्हारे ऐसे ख्यालात थे तो तुमने मेरे साथ कोई शुरूआत ही क्यों की थी ?”
“तुम्हारी याददाश्त में नुक्स मालूम होता है । शुरूआत मैंने नहीं तुमने की थी । तुम्हारे जैसी लाजवाब और खूबसूरत लड़की मेरे जैसे उम्रदराज आदमी के पीछे पड़े तो वह उसको कमजोर बना सकती है ।”
“गोपू डार्लिंग, यह पीछे पड़ने जैसी बातें क्यों कहते हो, सच तो यह है कि मैं तुम्हें चाहती हूं ।”
“तुम अपना वक्त बर्बाद कर रही हो । मेरे साथ तुम्हारा कोई स्कोप नहीं । तुम्हारी जैसी शानदार लड़की चुटकियों में कोई दूसरा मर्द तलाश कर सकती है ।”
“मुझे नातजुर्बेकार, मूर्ख नौजवान पसन्द नहीं । मुझे तुम्हारे जैसा मर्द पसन्द है ।”
“दिल्ली शहर में मेरे जैसे मर्दों की भी कमी नहीं ।”
“लेकिन तुम्हारे जैसा लेखक कोई न होगा । यह मत भूलो कि मैं तुम्हारी कलम की दीवानी हूं । तुम्हारी फैन हूं । मैं सिर्फ तुम्हें चाहती हूं ।”
“मैं अवेलेबल नहीं ।”
“लेकिन...”
“मेरी बात सुनो । देखो, अगर तुम रुपये-पैसे की वजह से मेरे चक्कर में हो तो मैं तुम्हारी यह इच्छा भी पूरी नहीं कर सकता । मैं दौलतमंद नहीं ।”
“दौलतमंद होते भी तो मुझे तुम्हारी दौलत से कोई सरोकार न होता । मुझे सिर्फ तुमसे सरोकार है ।”
“यह सरोकार बेमानी है । रोहिनी, अक्लमंद को इशारा काफी होता है ।”
“कैसा इशारा ?”
“जिस बात का कोई हासिल न हो, उसका पीछा छोड़ देना चाहिए ।”
“तुम्हारा मेरे लिये कोई फर्ज नहीं ?”
“कतई कोई फर्ज नहीं । कोई फर्ज होने की हद तक तो खुदा का शुक्र है कि हम पहुंचे ही नहीं, जहां तक हमारे ताल्लुकात पहुंचे हैं, मुझे उसका भी अफसोस है । रोहिनी, मैं आखिरी बार यह बात कह रहा हूं और साफ-साफ कह रहा हूं । तुमसे मेरा कोई वास्ता नहीं । मेरे से सम्पर्क की भविष्य में कोशिश न करना । फोन हरगिज भी मत करना । मेरी बीवी को तुम्हारी भनक भी लग गयी तो प्रलय आ जायेगी । अब मेरी खातिर, बल्कि अपनी भी खातिर, एक अच्छी लड़की की तरह वादा करो कि जो कुछ मैंने कहा है तुम उस पर अमल करोगी ।”
वह कुछ खामोश रही और फिर बोली - “एक शर्त पर ।”
“वह क्या ?” - वशिष्ठ सशंक स्वर में बोला ।
“यह कि कभी-कभार जब सेफ समझोगे तो मुझसे मिलोगे ।”
“लेकिन...”
“मैंने कहा जब सेफ समझोगे तब । दिल्ली शहर में बेशुमार तनहा जगह हैं जहां किसी को किसी की खबर नहीं लग सकती ।”
“ठीक है । मैं सोचूंगा ।”
“सोचूंगा नहीं मिलोगे ।”
“जब सेफ समझूंगा ?”
“हां ।”
“अगर नहीं समझूंगा तो नहीं मिलूंगा ।”
“बिल्कुल ।”
“ठीक है, मंजूर ।” -वशिष्ठ के कहने का स्टाइल साफ ऐसा था जैसे वह उससे पीछा छुड़ाने के लिये मंजूरी दे रहा हो ।
“वादा ?”
“वादा । मैं अब चलता हूं ।”
मैं फौरन दरवाजे से हट गया ।
वशिष्ठ अभी होटल से बाहर भी नहीं निकला था कि मैं अपनी कार में सवार होकर वहां से कूच कर गया था ।
मैं वापिस गोल मार्केट पहुंचा ।
अनीता के फ्लैट का दरवाजा खोलते ही मैंने उसे अपनी बांहों में लेने की कोशिश की ।
“अरे, अरे” - वह बड़बड़ाई - “सुनो, सुनो ।”
“सुनता तो हमेशा ही हूं । आज....”
“अरे सुनो तो । तुम्हारे मतलब की बात है ।”
“मेरे मतलब की बात तो यह है कि तुम मेरे आगोश में हो ।”
“बकवास बंद करो और एक मिनट के किये मुझे छोड़ो ।”
उसके स्वर की गम्भीरता मुझसे छुपी न रही । मैंने उसे बंधन मुक्त किया ।
“क्या बात है ?” - मैं बोला ।
“यहां एक पुलिस वाला आया था” - उसने बताया - “तुम्हें तलाश करता हुआ ।”
“मुझे तलाश करता हुआ ?”
“हां । बकौल उसके वो ऐसी हर जगह का चक्कर लगा रहा था जहां कि तुम्हारे होने की सम्भावना थी ।”
“क्यों ?”
“कोई इन्स्पेक्टर यादव तुम्हारे लिये तड़प रहा है ।”
“ओह ! तुमने हवलदार को बताया था कि मैं यहां आया था ?”
“हां । और यह भी कि तुम यहां वापिस भी आने वाले थे ।”
“हो गया काम ।”
“क्यों मैंने कुछ गलत कह दिया ?”
“गलत नहीं, गैर जरूरी । यह बताने की क्या जरूरत थी कि मैं यहां लौटकर भी आने वाला था । अब मैं यहां से न गया तो वह हवलदार शर्तिया यहां वापस आएगा ।”
“ओह ! सॉरी, डार्लिंग ।”
“हवलदार ने बताया था कि इन्स्पेक्टर यादव कहां होगा ?”
“अपने ऑफिस में ।”
“इस वक्त ?”
“कहा तो उसने यही था ।”
“ठीक है, मैं जाता हूं ।”
“वापिस आओगे ?”
“अब क्या फायदा ! अब...”
“नहीं आना । मैंने भी सारी रात वशिष्ठ के लिये टाइप राइटर कूटना है ।”
मैंने एकाएक उसे बांहों में जकड़ लिया और जोर से होंठों पर एक चुम्बन अंकित किया ।
“यह क्या हुआ ?” - मैंने उसे बन्धन मुक्त किया तो वह तनिक हांफती हुई बोली ।”
“यह भागते चोर की लंगोटी हुई ।” - मैं बोला ।
“चोर कहां भाग रहा है । भाग तो तुम रहे हो ।”
“यानि कि मुहावरा गलत हो गया ।”
“सरासर ।”
“आई एम सॉरी, फिर तो मेरा चुम्बन वापिस कर दो ।”
मैं फिर उसकी तरफ बढ़ा तो उसने मुझे फ्लैट से बाहर धकेल दिया ।
इन्स्पेक्टर यादव अपने ऑफिस में बैठा था और बहुत बुरे मूड में था ।
मैं भीतर दाखिल हुआ तो मेरी शक्ल देखेते ही वह हवलदार से बोला - “इसे बन्द कर दो ।”
“अरे, अरे” - मैं हड़बड़ाया - “काहे को ! इन्स्पेक्टर साहब, मैं जमानत पर छूटा हुआ हूं ।”
“तुम्हें मोहर सिंह उर्फ बंसीधर पर कातिलाना हमला करने के इलजाम में बन्द किया जा रहा है ।”
“मालिक, हमला तो उसने मेरे ऊपर किया था । मैंने तो सिर्फ अपना बचाव किया था ।”
“अगर यह बात थी” - वह गर्जा - “तो अपना बयान दर्ज कराने के लिये तुम वहां रुके क्यों नहीं ?”
“ओह ! तो असल में तुम इसलिये खफा हो ।”
“जवाब दो ।”
“मुझे रुकने के लिये नहीं कहा गया था ।”
“तुम्हें मालूम नहीं कि जो आदमी किसी वारदात की पुलिस को खबर देता है, उसने पुलिस के आने तक मौकायेवारदात पर मौजूद भी रहना होता है ?”
“नहीं ।”
“क्यों नहीं ?”
“मुझे ऐसी कोई बात मालूम नहीं थी ।”
“तुमने एक आदमी पर ऐसा भयंकर वार किया कि उसकी खोपड़ी पर चौदह टांके लगे, वह मर भी सकता था, लेकिन तुमने इस बाबत अपना बयान दर्ज कराना जरूरी नहीं समझा ।”
“वो तो खता हो गयी जनाब । उसी की तलाफी के लिये तो रात वक्त मैं यहां आया हूं । इस खता की और नहीं तो इसलिये माफी दे दो कि खतावार वो आदमी है जिसकी वजह से पुलिस एक ऐसे नोन क्रिमिनल को गिरफ्तार पाई है जिसका पुलिस को अभी अता-पता भी नहीं था ।”
यादव के चेहरे पर तनिक नर्मी के भाव आये ।
“और कोई बड़ी बात नहीं कि जहां से मोहर सिंह उर्फ बंसीधर बरामद हुआ था वहां से और जाली नोट भी बरामद हुए हों ।”
“ढेरों” - यादव हवलदार को वहां से चले जाने का इशारा करता हुआ बोला - “तकरीबन पांच लाख के जाली नोट वहां से बरामद हुए ।”
“यानी कि कल के सारे अखबारों में फ्रंट पेज पर फिर इन्स्पेक्टर यादव ।”
वो उस संभावना से ही खुश हो गया ।
“बंसीधर ने कोई बयान दिया ?” - मैंने पूछा ।
“कोई लम्बा-चौड़ा बयान देने की स्थिति में तो तुमने उसे छोड़ा नहीं था फिर भी उससे कुछ सवालों के जवाब हासिल करने में मैं कामयाब हुआ था ।”
“क्या जाना ?”
“यह जाना कि जाली नोट छापने वाले गैंग से उसका सीधा रिश्ता नहीं । लेकिन उसकी बातों से लगा था कि वह गैंग से वाकिफ बराबर है । मुकेश मैनी को वह जाली नोटों के धंधे में पार्टनर बनाना चाहता था । मुकेश मैनी को क्योकि धन्धे पर एतबार नहीं था इसलिये उसने कहा था कि शुरुआत में वह बंसीधर को लाख रुपया उधार के तौर पर देगा । अगर उस धंधे में उसका विश्वास जम गया तो वह प्रोनोट फाड़ देगा और बाकायदा उसका पार्टनर बन जायेगा । बीस हजार के जाली नोट मुकेश मैनी को बंसीधर ने ही दिये थे । दिये चलाने के लिये थे लेकिन मुकेश मैनी की फौरन हिम्मत नहीं हुई थी इसलिये वे नोट अपनी बहन के यहां रख छोड़े थे ।”
“यह तो जाली नोटों की कहानी हुई । मुकेश मैनी के कत्ल के बारे में बंसीधर क्या कहता है ?”
“वह कहता है कत्ल से उसका कोई वास्ता नहीं अलबत्ता यह वह कबूल करता है कि मुकेश मैनी की मौत की खबर सुनकर उसने अपना प्रोनोट हथियाने कोशिश जरूर की थी ।”
“वह झूठ बोलता हो सकता है ।”
“सरासर हो सकता है । बंसीधर जैसा आदमी सत्यवादी हरिश्चंद्र तो होने से रहा । असल में यही हुआ हो सकता है कि दोनों कथित पार्टेंनरों में कोई ऐसा झगड़ा हो गया हो गया हो जिसमें नौबत खून-खराबे तक पहुंच गयी हो । अभी हमने बंसीधर का पीछा छोड़ नहीं दिया है । वह जरा ठीक हो जाये, उसे फिर ग्रिल किया जायेगा । वह यह भी बताएगा कि उसने मुकेश मैनी का खून किया है या नहीं और यह भी बतायेगा कि जाली नोट छापने वाले उसके आका लोग कौन हैं ।”
“आई सी ।”
तभी उसकी मेज पर रखे फोन की घण्टी बजी । उसने फौरन फोन उठाया, कुछ क्षण फोन सुना और फिर “ठीक है आता हूं” कहकर रिसीवर रख दिया ।
“मैं” - वह तत्काल कुर्सी से उठ खड़ा हुआ - “एक जरूरी केस के सिलसिले में बैठा था । तुम्हारी इन्तजार में नहीं । मुझे फौरन कहीं पहुंचना है । तुम कल सुबह यहां आना ।”
“फिर ?” - मेरे मुंह से निकला ।
“हां । फिर ।” - वह सख्ती से बोला - “अभी बहुत ती बातें हम दोनों के बीच होने से रह गयी हैं और मुझे इस वक्त फुरसत नहीं । कल सुबह यहां दिखाई देना वरना बहुर दुर्गत हो जायेगी तुम्हारी ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
***
अगले रोज सबसे पहले मैं अपने ऑफिस में पहुंचा ।
रजनी ने मुझे बताया कि चारुबाला का फोन आया था, वह दिल्ली में अपनी भांजी के घर पर थी और फौरन मुझसे मिलना चाहती थी ।
“वह दिल्ली कैसे पहुंच गयी ?” - मैं बोला - “वह तो व्हील चेयर पर थी ।”
“इसका बेहतरीन जवाब तो वही दे सकती है ।”
“शुक्र है ।”
“किस बात का ?”
“कि दुनिया में कोई ऐसी बात भी है जिसका बेहतरीन जवाब सिर्फ तुम्हारे पास नहीं है ।”
वह हंसी ।
“भांजी का कोई पता है ?”
जवाब में उसने मुझे कालका जी का जो पता बताया वहां मैं पांच मिनट में पहुंच सकता था ।
भांजी का घर एक छोटा सा मकान था जो चारुबाला की फरीदाबाद वाली शानौ-शोकत भरी जिन्दगी से कतई मेल नहीं खाता था ।
आलोकनाथ घर में नहीं था, दरवाजा गीता ने खोला जो कि फौरन मुझे चारुबाला के पास ले गयी ।
वइ एक बैडरूम में तकियों के सहारे पलंग पर लेटी हुई थी ।
“आपने” - उसका अभिवादन करने के बाद मैं बोला - “अपनी ऐसी हालत में फरीदाबाद से यहां आने की तकलीफ फरमाई...”
“मैंने बहुत मना किया था ।” - जवाब गीता ने दिया - “लेकिन ये मानी नहीं । बोली अब उस घर में सांस लेना इनके लिये सजा थी ।”
“फिर भी अपनी बीमारी को हालत में सफर करना...”
“जरूरी था” - चारुबाला क्षीण स्वर में बोली - “अब जब तक निपटारा नहीं हो जाता मैं यहां गीता के साथ ही रहूंगी ।”
“निपटारा ! कैसा निपटारा ?”
“मेरे और गोपाल के तलाक का निपटारा ।”
“आप...आप वशिष्ठ साहब से तलाक चाहती हैं ?”
“जितनी जल्दी मुनासिब हो सके ।”
“लेकिन....”
“जरा इसे देखो” - उसने मुझे एक लम्बा लिफाफा सौंपा ।
“यह क्या है ?”
“इसमें उस दूसरे प्राइवेट डिटेक्टिव की रिपोर्ट है जिस का कल मैंने तुमसे जिक्र किया था ।”
“जिसे कि इन्होंने” - मैंने गीता की तरफ देखा - “एंगेज किया था, इसलिये एंगेज किया था क्योंकि इन्हें मेरे पर भरोसा नहीं था ।”
“बात को दिल को मत लगाओ, मिस्टर कोहली ! तुम बात को यूं समझो कि मैं दो प्राइवेट डिटेक्टिवों की फीस भरना अफोर्ड कर सकती हूं ।”
“रिपोर्ट में क्या है ?”
“खुद ही पढकर देख लो क्या है ।”
मैंने खुले लिफाफे में से एक फुलस्केप टाइपशुदा कागज बरामद किया और उसे खोलकर सीधा किया ।
मुझे बहुत धक्का लगा ।
वह रिपोर्ट बलबीर साहनी की थी ।
यानी कि भांजी का वाकिफकार, और चारुबाला के लिये उसके द्वारा एंगेज किया गया डिटेक्टिव बलबीर साहनी था ।
मैंने रिपोर्ट पढ़ी ।
रिपोर्ट में गोपाल वशिष्ठ के करोलबाग के महारानी होटल में रोहिनी माथुर के कमरे में गये होने का वर्णन था । लेकिन उस रिपोर्ट में जो हैरान कर देने वाली बात थी, वह यह थी कि वशिष्ठ वहां आधी रात के बाद तक ठहरा था ।
यानी कि मेरे पीछे-पीछे ही वह वहां से बाहर नहीं निकल आया था । मैं चलता हूं कहते ही वशिष्ठ वहां से चला नहीं आया था ।
और मुझे भी अपनी आंखों से उसे वहां से विदा होते देखना चाहिये था ।
लड़की कुछ ज्यादा ही उस्ताद निकली थी ।
और मेरा हमपेशा बलबीर साहनी भी ।
अगर बलबीर साहनी भी वशिष्ठ के पीछे लगा हुआ था तो उसने शर्तिया मुझे देखा था, क्योंकि मेरे वहां से चले आने के बाद भी वह वहां मौजूद रहा था । यह मेरे लिये बहुत शरम की बात थी कि मुझे उसकी खबर नहीं लगी थी ।
अब मैं सोचने लगा कि क्या वशिष्ठ ने भी मुझे धोखा दिया था ? क्या उसे खबर लग गई थी कि कोई उसके पीछे-पीछे होटल तक पहुंचा था और उसके कमरे के की होल के माध्यम से भीतर चलता वार्तालाप सुना था ? क्या वह वार्तालाप मुझे सुनाने के लिये ही घड़ा गया था ? मुझे भीतर मौजूद रोहिनी और वशिष्ठ कमर से नीचे-नीचे ही दिखाई दे रहे थे । वशिष्ठ ने रोहिनी को इशारों से समझा दिया हो सकता था कि बाहर कोई उसका वार्तालाप सुन रहा था इसलिये वार्तालाप ऐसा होना चाहिये था जिससे सुनने वाले पर वशिष्ठ की शराफत का सिक्का बैठ सके ।
मुझे यकीन न आया कि वशिष्ठ इतनी चालाकी कर सकता था ।
मन रिपोर्ट को मोड़कर वापिस लिफाफे में बन्द किया और चारुबाला की तरफ देखा ।
“मैं” - वह कठोर स्वर में बोली - “मर्द का हर नुक्स बर्दाश्त कर सकती हूं लेकिन बेवफाई नहीं ।”
“इस रिपोर्ट में ऐसा तो कुछ नहीं” - मैं खामखाह वशिष्ठ का पक्ष लेने लगा - “जिससे लगता हो कि आपके उस दूसरे जासूस ने आंखों से कुछ देखा हो ।”
“रात के वक्त, किसी होटल के तनहा कमरे में, किसी नौजवान छोकरी के साथ मेरा पति जब चार घंटे रहता है तो आंखों से देखना जरुरी नहीं रह जाता ।”
“विल्कुल” - गीता ने फौरन अपनी मामी की बात का पुरजोर समर्थन किया ।
“तुम्हारे पास उस छोकरी की चिट्ठी पहले से है” - चारूबाला बोली - “यह रिपोर्ट भी रख लो और मेरी तरफ से एक निहायत काबिल वकील का इन्तजाम करो जो कि फौरन तलाक का दावा दायर कर सके । अपना मैरिज सर्टिफिकेट भी मैं साथ लाई हूं” - वह मुझे एक और कागज सौंपती हुई बोली - “शायद वकील को इसकी जरूरत पड़े ।”
“पड़ेगी” - मैंने सर्टिफिकेट ले लिया और खोलकर उसका मुआयना किया । सर्टिफिकेट बम्बई के मैरिज रज्रिस्टार द्वारा इश्यु किया गया था और उस पर 10 अगस्त 1984 की शादी की तारीख दर्ज थी ।
“एक डोक्युमेंट आप मुझे और भी दे सकती हैं ?” - मैं बोला ।
“वो क्या ?”
रोहिनी की वशिष्ठ के लिये जो टेलीफोन कॉल आई थी और जिसे आपने इत्तफक से ही सुन लिया था, उसके बारे में आप सब कुछ मुझे लिखकर दे दीजिये ।”
“मैं लिख नहीं सकती । मेरे हाथ कांपते हैं ।”
“साइन तो कर सकती हैं आप ? आखिर वे तो आपको तलाक की अर्जी पर भी करने पड़ेंगे ।”
“हां । साइन तो कर सकती हूं ।”
“फिर क्या प्राब्लम है ! आप अपनी भांजी को कहिये कि जो आप बोलें, ये लिखती जाये । बाद में आप साइन कर दीजियेगा । ईजी !”
ऐसा ही किया गया ।
इस प्रकार मुझे भांजी के हैंडराइटिंग का नमूना हासिल हो गया जो कि मैंने संभालकर जेब में रख लिया ।
“आपने इस बाबत वशिष्ठ साहब से कोई बात की ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं ।” - चारूबाला सख्ती से बोली - “मैंने जरूरी नहीं समझा । बात क्या, मुझे तो अब उसकी सूरत देखना गवारा नहीं है ।”
“आपको यूं दिल्ली नहीं आना चाहिये था । आपके घर छोड़कर चले आने से वशिष्ठ साहब के खिलाफ भविष्य में कोई और सबूत हासिल हो पाने की सारी सम्भावनाओं पर पानी फेर दिया है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि यूं उन पर आपकी नीयत जाहिर हो जाती है । अब तो वे किसी औरत जात के करीब भी फटकने से परहेज करेंगे ।”
“ओह !” - वह एक क्षण ठिठकी और बोली - “तो क्या किया जाये ?”
“आप वापिस फरीदाबाद चली जाइये । आप यह जाहिर कीजिये कि घर पड़े-पड़े आप तंग आ गयी थीं इसलिये आप ड्राइव के लिये निकल गई थी ।”
गीता को मेरी वह राय सख्त नापसन्द आई । उसने चेतावनी भरे अंदाज में चारुबाला की तरफ देखा ।
“यह तो अब मुमकिन नहीं ।” - चारूबाला बोली - “मैं अब वशिष्ठ के साथ एक छत के नीचे अपनी कल्पना नहीं कर सकती ।”
“आपको अपने उद्देश्य की प्राप्ति की खातिर ऐसा करना चाहिए ।”
“न । यह मुझे मंजूर नहीं ।”
“वापिस तो अब मामी न जायेंगी !” - गीता बोली ।
“ठीक है फिर । मर्जी आपकी । मैं वकील से बात करता हूं ।”
“जल्दी । आज ही । मैं चाहती हूं कि आज ही कोर्ट में पेपर्स दाखिल हो जाएं ।”
“आप चाहती हैं ?”
“म...मेरा मतलब है मामी...मामी चाहती हैं ।”
मैंने चारूबाला की तरफ देखा ।
उसने सहमति सें सिर हिलाया ।
साफ जाहिर हो रहा था कि भांजी ने मामी की अच्छी फिरकी घुमाई थी ।
मैंने उससे विदा ली और बाहर आकर अपनी कार में सवार हो गया । मैंने कार आगे बढ़ाई । मेन रोड पर पहुंचकर मैंने उसे एक ओर रोक दिया । मैंने जेब से रोहिनी का पता ओर गीता के हस्तलेख का ताजा हासिल हुआ नमूना निकाला ।
दोनों हस्तलेख हूबहू मिलते थे ।
यानी कि जो हो रहा था आलोकनाथ और उसकी बीवी की मिलीभगत से हो रहा था ।
एकबारगी तो मेरा जी चाहा कि मेरा वापिस जाकर गीता और आलोकनाथ के बारे में चारूबाला को बताऊं लेकिन मैंने वैसा न किया । मैंने इन्स्पेक्टर यादव के ऑफिस में हाजिरी देनी थी । मेरे वहां लेट पहुंचने की वजह से वह बहुत खफा हो सकता था ।
मैंने अपनी कार पुलिस हैडक्वार्टर की ओर दौड़ा दी ।
इन्स्पेक्टर यादव अपने कमरे में नहीं था ।
पूछने पर एक हवलदार ने बताया कि वह था इमारत में ही कहीं लेकिन आधे घंटे से पहले लौटकर नहीं आने वाला था । मैंने उसी के पास अपनी हाजिरी लगाई और आधे घंटे बाद लौट कर आने को कहकर मैं वहां से विदा ही गया ।
पुलिस हैडक्वार्टर के पीछे ही प्रेस एरिया था जहां कि एक ही कतार में कई अखबारों के दफ्तर थे ।
मैं टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस में पहुंचा ।
मेरी मामूली दरखास्त पर मुझे वहां के उस कमरे में पहुंचा दिया गया जहां अखबार के पिछले अंकों की फाइलें रखी जाती थीं ।
मैंने कोई सात महीने पहले की तारीख के आसपास के अखबार टटोलने आरम्भ किये ।
बड़ी सहूलियत से मैंने मीरा वशिष्ठ की मौत से सम्बन्धित खबर अखबार के एक अंक में तलाश कर ली । मैंने गौर से उसे पढा ।
खबर में तकरीबन वही कुछ छपा था जो मैं पहले किश्तों में सुन चुका था ।
सोमवार को कोई आधी रात के करीब का वक्त था जबकि वह अपनी कार खुद ड्राइव करती हुई विनय मार्ग पर जा रही थी कि एकाएक कार का एक पहिया पंचर हो गया । उस वक्त किसी आते जाते वाहन ड्राइवर से कोई मदद हासिल करने की नीयत से कार से निकलकर वह सड़क पर आ खड़ी हुई थी । उसके इन्तजार के फलस्वरुप जो कार सड़क पर प्रकट हुई थी, वह बहुत तेज रफ्तार से जा रही थी और पुलिस की धारणा के अनुसार ड्राइवर को बीच सड़क में खड़ी मीरा तब दिखाई दी थी जबकि कार ऐन उसके सिर पर पहुंच गयी थी । परिणामस्वरूप कार मीरा को रौंदती हुई गुजर गयी । मीरा की हालत देखने के लिए कार वाला कार को बैक करके वापिस लाया था लेकिन मीरा मर चुकी थी । ड्राइवर ने देखा कि मरने वाली कितने ही बेशकीमती जेवर पहने हुए थी । तब उसने लाश के जेवर उतार लेने की इन्तहाई कमीनी हरकत कर दिखाई थी और वहां से रफूचक्कर हो गया था ।
यह मैं पहले ही सुन चुका था कि जेवर कम से कम तीन लाख रुपये की कीमत के थे ।
मैंने उस अंक से कोई दस दिन आगे के अखबार और टटोले ।
मेरे मतलब की कोई बात कहीं नहीं थी ।
प्रत्यक्षत: उस हिट एण्ड रन ड्राइवर का पुलिस को कोई सुराग नहीं मिला था ।
मैं वापिस पुलिस हैडक्वार्टर लौटा ।
इस बार मैंने यादव को अपने ऑफिस में मौजूद पाया ।
“मैं पहले भी आया था” - मैं बोला ।
“मुझे मालूम है” - वह एक सरसरी निगाह मुझ पर डालता हुआ बोला - “बैठो ।”
थैंक यू” - मैं उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“तुम्हारी” - वह बोला - “अड़तालीस घंटे की मौहलत तो खत्म हो गयी ।”
“हां” - मैं बोला ।
“बड़े तीसमारखां बनकर कह रहे थे” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “कि अड़तालीस घंटों में मुकेश मैनी के कातिल का पता लगा लोगे ।”
“वो बंसीधर का और जाली नोटों का झमेला बीच में न आन पड़ता तो शायद लगा ही लेता ।”
“शायद !”
“यकीनन लगा लेता ।”
“अभी तक कुछ किया या सिर्फ पाले पर ही खड़े हो ?”
“पाले पर तो नहीं खड़ा । कबड्डी-कबड्डी तो बहुत दूर तक कर आया हूं ।”
“अच्छा ! तो क्या जाना ? कोई ऐसी बात जानी जो हमें न मालूम हो ?”
“जानी ।”
“क्या ?”
“मुझे मालूम है मीरा वशिष्ठ की बहन अहिल्या शर्मा को रेड की तस्वीर किसने भेजी थी ।”
उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
“किसने भेजी थी ?”
“वशिष्ठ की मौजूदा बीवी की भांजी के पति ने । आलोकनाथ नाम है उसका । स्टॉक ब्रोकर है । आसिफ अली रोड पर पाया जाता है । तस्वीर के साथ जो चिट्ठी आयी थी, वह तुम्हारे पास है । चैक करोगे तो पाओगे कि चिट्ठी आलोक नाथ की लिखी हुई थी ।”
“अगर वह आलोकनाथ की लिखी न निकली तो तो ?”
“तो उसकी बीवी की लिखी निकलेगी ।”
“यह क्या बात हुई ?”
“हुई । मैं कोई सौ-पचास नाम नहीं ले रहा । दो ही आप्शन बताई हैं मैने तुम्हें । काम एक का नहीं होगा तो दूसरे का होगा । आखिर वो मियां बीवी हैं । इस मामले में तुम उन्हें एक इकाई मानो ।”
“चलो माना । उसके पास अहिल्या शर्मा को भेजने के लिये तस्वीर कहां से आई ?”
“वहीं से से जहां से आनी मुमकिन थी ।”
“बलबीर साहनी के पास से ?”
“हां । तुम्हारी जानकारी के लिये मुझे बलबीर साहनी गीता का वाकिफकार वताया गया है । अब मुझे नहीं पता कि बलबीर साहनी ने यह तस्वीर उन्हें खैरात में दी या बेची या वह उन्होंने उसके ऑफिस से किसी तरीके से चुराई ।”
“मैं पता लगाऊंगा” - वह दृढ स्वर में बोला - “लेकिन वे मियां बीवी इतना खटराग फैला क्यों रहे हैं ?”
“उन्हीं से पूछना ।”
“मैं जरुर पूछूंगा । और ?”
“और बतौर इनवैस्टिगेटिंग ऑफिसर तुम्हारी तवज्जो अनिल पाहवा की तरफ जानी चाहिये ।”
“उस वकील की तरफ ?”
“हां ।”
“क्या ?”
मैंने बड़े इत्मीनान से उसे अपनी और अनिल पाहवा की दोनों मुलाकातों का खुलासा सुनाया और अंत में बड़े ड्रामेटिक अन्दाज से उसे यह बताया कि जिस रोज मुकेश मैनी का कत्ल हुआ था, उस रोज अपनी मौत से पहले किसी वक्त उसने अनिल पाहवा को फोन किया था ।
यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर आवेशपूर्ण स्वर में बोला - “मैं अभी खबर लेता हूं इस वकील के बच्चे की ।”
“मुझे भी साथ ले चलो ।”
“वो किसलिये ?”
“क्योंकि वो तकरीबन बातों से मुकर जाएगा । मेरी मौजूदगी में मुकरना उसके लिये आसान न होगा ।”
वह सोचने लगा ।
मैं आशापूर्ण निगाहों से उसे देखता रहा ।
“ठीक है” - अन्त में वह बोला - “चलो ।”
अनिल पाहवा अपने ऑफिस में मौजूद था । उसने बहुत सर्द निगाहों से मुझे देखा । उसकी सूरत से साफ जाहिर हो रहा था कि अगर मैं वहां इन्स्पेक्टर यादव के साथ न आया होता तो उसने शर्तिया मुझे वहां से बाहर निकलवा दिया होता ।
यादव ने मतलब की बात पर आने में एक क्षण भी नष्ट न किया ।
“वकील साहब” - वह बोला - “यह सच है कि मुकेश मैनी के कत्ल से थोड़ी देर पहले उसने आपसे टेलीफोन पर बात की थी ?”
“बात क्या है, इन्स्पेक्टर साहब ?” - वह बोला - “अगर आप...”
“बराये मेहरबानी पहले मेरे सवाल का जबाव दीजिये । बाकी सब बात बाद में ।”
“इन महानुभाव की मौजूदगी में” - वह मेरी दिशा में भाले-बर्छियां बरसाता हुआ बोला - “इनकार करना तो बेकार होगा ।”
“यानी कि आपका जवाब हां में है ।”
“हां ।”
“मकतूल आपका क्लायंट था ?”
“नहीं ।”
“फिर उस टेलीफोन कॉल का क्या प्रायोजन था ?”
“खास कुछ नहीं । मुझे मालूम हुआ था कि मीरा वशिष्ठ के तलाक के मामले में पुलिस गड़े-मुर्दे उखाड़ने की कोशिश कर रही थी । मुझे पता लगा था कि इस सन्दर्भ में पुलिस मुकेश मैनी से भी सवाल कर चुकी थी । मैं मीरा वशिष्ठ का वकील और हितचिन्तक था । मेरी उसके बयान में दिलचस्पी होना स्वाभाविक था ।
“फोन पर आप उसे क्या कहना चाहते थे ?”
“यही कि वह सच बोले ।”
“सच क्या है ?”
“सच यहीं था कि उस रेड में कोई फ्रॉड नहीं था ।”
“यानी कि मुकेश मैनी वाकई मीरा वशिष्ठ का यार था ?”
वह हड़बड़ाया ।
“जब मैंने” - मैं बोला - “इन पर यह सम्भावना व्यक्त की थी तो ये बहुत चमके थे, बहुत तड़पे थे और बोले थे कि मीरा वशिष्ठ जैसी ऊंचे दर्जे की औरत के एक मामूली ड्राइवर से ताल्लुकात रहे हों, यह नामुमकिन था ।”
उसने आग्नेय नेत्रों से मेरी तरफ देखा ।
“इनका यह भी दावा है” - मैं बड़े इतमीनान से कहता रहा - “कि आज से पहले इन्हें यह नहीं मालूम था कि रेड के वक्त मीरा वशिष्ठ का कथित बॉय फ्रेंड मुकेश मैनी था ।”
“वकील साहब” - यादव बोला - “आप मीरा के वकील थे । यह भी बात पुलिस से छुपी नहीं कि आप उसके चाहने वाले भी थे । यह क्या मानने वाली बात है कि मीरा वशिष्ठ अपने किसी बॉय फ्रेंड के साथ रंगे हाथों पकड़ी गयी थी तो आपके मन में कोई ईर्ष्या की भावना नहीं पैदा हुई ? आपने अपनी क्लायंट से जो कि आपकी प्रेमिका भी थी, यह पूछने तक की कोशिश नहीं की कि वह शख्स कौन था जो उसके साथ रेड में पकडा गया था ?”
“मैंने नहीं पूछा ।”
“क्यों नहीं पूछा ?”
“बस, नहीं पूछा ।”
“यह हकीकत आपको कोहली के बताने से पहले नहीं मालूम थी कि मीरा वशिष्ठ के साथ रेड में पकड़ा गया व्यक्ति मुकेश मैनी था ?”
“नहीं मालूम थी ।”
“यह आपके पास मुकेश मैनी के कत्ल से पहले आया था या बाद में ?”
“बाद में ।”
“फिर आप मुकेश मैनी की असलियत के बारे में ही कैसे जानते थे । जब आपको यही पता नहीं था कि वही वह शख्स था जो मीरा वशिष्ठ के साथ रेड में पकड़ा गया था तो उसको फोन करके आप कौन-सा सच बुलवाना चाहते थे ?”
उसने उत्तर न दिया । उसके चेहरे पर परेशानी के भाव आए । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जवाब दीजिये” -यादव जिद भरे स्वर में बोला ।
“ये सवाल बेमानी है । मैं इनका जवाब देना जरूरी नहीं समझता ।”
“बेमानी न होते तो आप जवाब देते ?”
“हां । जरूर !”
“तो फिर मैं आप से एक ऐसा सवाल पूछता हूं जो शायद आपको बेमानी नहीं लगेगा ।”
“पूछिए ।”
“जिस रात मीरा वशिष्ठ एक्सीडेंट में मरी थी उस रात वह आपकी कम्पनी में थी और आपसे ही अलग हो कर अपने घर जा रही थी जब कि उसका एक्सीडेन्ट हुआ था । ठीक ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“वह आपसे कहां मिली थी ?”
“मैरीडन में ।”
“और आपसे जुदा होकर वह जा कहां रही थी ?”
“ईस्ट पटेल नगर जहां कि वह रहती थी ।”
“फिर वह विनय मार्ग कैसे पहुंच गयी ?”
“मतलब ?”
“वकील साहब, विनय मार्ग और मैरीडन उसके घर के रास्ते में नहीं आता, यह आपको भी मालूम होना चाहिये, आखिर आप दिल्ली में रहते है । मैरीडन से ईस्ट पटेल नगर जाने के लिए विनय मार्ग जाना यूं हुआ जैसे आप यहां से फरीदाबाद जाने के लिये पहले गुडगांव जायें ।”
“तो फिर घर जाने से पहले वह कहीं और गयी होगी ।”
“आधी रात को ?”
“हां-हां ।”
“उस रात उसका मूड कैसा था ?”
“मूड ?”
“वह परेशान थी ? फिक्रमन्द थी ?”
“नहीं । वो तो बहुत खुश थी और मेरी कम्पनी एनजॉय कर रही थी । यह बात तो मैं साबित भी कर सकता हूं कि उस रात वह बहुत खुश थी ।”
“आज, उसकी मौत के सात महीने बाद आप यह बात साबित कर सकते हैं ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“मेरे पास उस रात की उसकी एक तस्वीर है ।”
“तस्वीर !”
“जी हां । मैरीडन में मेरा एक दोस्त मिल गया था जिसके पास कैमरा था । उसने मजाक-मजाक में मीरा की एक फोटो खींची थी । बाद में उसने फोटो का एक प्रिंट मुझे दिया था । मैं अभी दिखाता हूं आपको ।”
उसने अपनी मेज के दराज से निकाल कर एक 5x7 इंच की रंगीन तस्वीर इन्स्पेक्टर को सौंपी ।
मैंने भी उचक कर उस तस्वीर को देखा ।
“देखिये कैसी मुक्त हंसी हंस रही है मीरा तस्वीर में” - पाहवा बोला - “कोई परेशान हो, फिक्रमन्द हो तो क्या ऐसी हंसी हंस सकता है ।”
मैंने देखा तस्वीर में मीरा वशिष्ठ वाकई बहुत खुश दिखाई दे रही थी और जिन्दगी का भरपूर मजा लेती मालूम हो रही थी ।
फिर मेरी तवज्जो उसकी साड़ी की तरफ गयी ।
वह शिफौन की कॉफी कलर की साड़ी पहने थी । तस्वीर रंगीन थी इसलिये कपड़े की किस्म पहचानना कोई मुश्किल काम न था ।
“यह तस्वीर” - मैं तनिक उत्तेजित स्वर में बोला - “मीरा के एक्सीडेन्ट से कितनी देर पहले की होगी ?”
“यही कोई एक डेढ घंटा पहले” - वह यूं बोला जैसे मेरे सवाल का जवाब दे कर मुझ पर भारी अहसान कर रहा हो ।
“यानी कि एक्सीडेंट के वक्त मीरा यही साड़ी पहने थी ?”
“यह भी कोई पूछने की बात है ?” - वह तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “साड़ी क्या उसने आधी रात को रास्ते में बदल ली होगी ?”
“यादव साहब कुछ समझे ?” - मैं यादव की तरफ घूमा ।
यादव के चेहरे पर उलझन के भाव आये ।
“मुकेश मैनी की बहन से हासिल हुई दो चीजें मैंने तुम्हें सौंपी थीं । एक चीज लाख रुपये का प्रोनोट थी । दूसरी क्या थी ?”
“शिफौन का कॉफी कलर का टुकड़ा ।” - यादव बोला ।
“फटा हुआ टुकड़ा । वह टुकड़ा वैसा ही था जैसी यह-यह साड़ी है ।”
“तो ?”
“साड़ी से फटे हुए एक मामूली टुकड़े को कोई सात महीने इतनी हिफाजत से खामखाह नहीं रखे रह सकता ।”
“वजह भी क्या हो सकती है ?”
“वजह कोई गंभीर ही होनी चाहिये !”
“क्या ?”
“साड़ी का वो टुकड़ा जरूर सबूत है किसी बात का ।”
“किस बात का ?”
“कत्ल का ।”
“कत्ल का ! किसके कत्ल का ?”
“मीरा वशिष्ठ के कत्ल का । जिस कार के नीचे वह कुचली गयी थी, उसी के निचले हिस्से में कहीं मरने वाली की साड़ी फंसी थी और यह टुकड़ा साड़ी में से नुचकर कार के नीचे कहीं फंस गया था जो कि बाद में किसी तरह से मैनी के हाथ लग गया था ।”
“वह दुर्घटनावश कार के के नीचे कुचली गयी थी ।”
“जानबूझकर भी कार उसके ऊपर से गुजारी गयी हो सकती है ।”
“लेकिन दुर्घटनावश भी...”
“तो भी यह साड़ी का टुकड़ा कार वाले के खिलाफ सबूत है । कत्ल का नहीं तो चोरी का । यह न भूलो कि उस कार वाले ने मरने वाली के जिस्म से तीन लाख रुपये की कीमत के जेवर भी उतारे थे ।”
“फिर तो यह काम मुकेश मैनी का ही होगा ।” - यादव बोला ।
“कैसे ?”
“मुकेश मैनी भी मरने वाली का उतना ही चहेता था जितने कि हमारे ये वकील साहब । ये कहते हैं कि मीरा इन से अलग होकर अपने घर जा रही थी । इन्हें क्या पता वो कहां जा रही थी । क्या पता वह मुकेश मैनी से मिलने जा रही हो ।”
“मैनी दरियागंज के होटल में रहता था” - अनिल पाहवा बोला - “अगर मीरा उससे मिलने जा रही होती तो विनय मार्ग का रुख न करती । दरियागंज और विनय मार्ग मैरीडन से एकदम विपरीत दिशाओं में हैं ।”
“शहर के जुगराफिये से में वाकिफ हूं ।” - यादव शुष्क स्वर में बोला - “जब मीरा मरी थी तब मैनी दरियागंज के होटल में नहीं रहता था । उसे होटल में रहते छ: महीने हुए हैं जबकि मीरा को मरे सात महीने हो चुके हैं । होटल में शिफ्ट करने से पहले वह विनय मार्ग वाली साइड में कहीं रहता होगा ।
“होटल से पहले वह फरीदाबाद में वशिष्ठ की कोठी में रहता था ।”
“तब तक वह नौकरी से निकाला जा चुका होगा ।”
“तब तक नहीं निकाला गया था । मीरा की मौत के वक्त के आसपास मुकेश मैनी अभी वशिष्ठ का ही मुलाजिम था ।”
“तो फिर विनय मार्ग की तरफ उसने अपना कोई प्रेम घरौंदा बनाया गया होगा जहां कि वे दोनों मिलते होंगे ।”
“ऐसा कोई प्रेम घरौंदा होता तो फिर वे पहाड़गंज के डायमंड होटल में क्यों जाते ?”
“होटल वाली बात दो साल पुरानी है, तब वैसा प्रेम घरौंदा नहीं रहा होगा । ऐसा कोई इन्तजाम बाद में सूझा होगा ।”
“आप कहना क्या चाहते हैं ?” - अनिल पाहवा तिक्त स्वर में बोला ।”
“मैं यह कहना चाहता हूं” - यादव बड़े सब्र से बोला - “कि अगर मीरा वशिष्ठ का कत्ल हुआ है तो यह काम मुकेश मैनी का है ।”
“मैरीडन में आपसे अलग होकर वह मुकेश मैनी से मिलने गयी होगी ।”
“आधी रात को ?” - अनिल पाहवा ने फिर प्रतिवाद किया ।
“ऐसी मुलाकातों में दिन-रात नहीं देखे जाते और फिर रात का वक्त तो ज्यादा मुनासिब, ज्यादा रोमान्टिक होता है ।”
“रोमांस में कत्ल की नौबत कैसे आ गयी ?”
“दोनों में कोई तकरार छिड़ गयी होगी । मुकेश मैनी आपे से बाहर होकर उस पर वार कर बैठा होगा । फिर यह देखकर उसके छक्के छूट गये होंगे कि उसके वार से वह मर गयी थी । तब उसने वह एक्सीडेंट स्टेज किया होगा जो कि बाद में विनय मार्ग पर हुआ पाया गया था ।”
“कैसे ?”
“पहले वह उसकी कार चलाकर विनय मार्ग लाया होगा जहां कि उसने उसे खड़ा करके जानबूझकर उसके एक पहिये में पंचर कर दिया होगा या सिर्फ हवा निकाल दी होगी । फिर वह अपनी कार में मीरा की लाश को लादकर वहां लाया होगा । उसने लाश को सड़क पर डाला होगा और उसके ऊपर से कार दौड़ा दी होगी ।”
“जेवर !”
“जेवर उसने मीरा के जिस्म से पहले ही उतार लिये होंगे । जेवर उतारकर ही वह घर से लाश लाया होगा ।”
अनिल पाहवा खामोश रहा । वह भारी सोच में डूबा हुआ था ।
“वकील साहब, मीरा के कत्ल के बाद ही मुकेश मैनी ने नौकरी छोड़ी थी और वह ठाठ से होटल में रह सकने के काबिल बना था । कत्ल के बाद ही बंसीधर को उसने एक लाख रूपया उधार दिया था । इतना पैसा एक मामूली ड्राइवर के पास कहां से आया ? यकीनन मीरा के जेवर बेचकर आया । उसको एकाएक हासिल हुई उसकी सम्पन्नता ही उसके जुर्म का सबसे बड़ा सबूत है ।”
मैंने बड़ी गम्भीरता से इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” – यादव तनिक मुलायम स्वर में बोला – “क्या नुक्स हैं मेरी थ्योरी में ?”
“तुम्हारी थ्योरी के मुताबिक” – मैं बोला – “मीरा की साड़ी का टुकड़ा मुकेश मैनी की कार के नीचे तब कहीं अटका रह गया होगा जब उसने मीरा की लाश पर से कार गुजारी थी ?”
“हां ।”
“फिर तो वह साड़ी का टुकड़ा उसकी करतूत का सबूत हुआ ।”
“हुआ ।”
“फिर अपने ही खिलाफ एक सबूत उसने सात महीने तक सम्भाले क्यों रखा ? ऐसी कोई चीज तो उसे तत्काल नष्ट कर देनी चाहिये थी !”
यादव को जवाब न सूझा ।
“होगी कोई वजह” – वह भुनभुनाया – “वह जिन्दा रहता तो बताता खुद अपनी जुबानी ।”
“छः महीने पहले वो एक मामूली ड्राइवर था और वशिष्ठ की मुलाजमत में था । उसकी कार रखने की हैसियत होने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता । फिर उस रात उसके पास कार कहां से आयी ?”
“वशिष्ठ से उधार मांग ली होगी उसने । उससे नहीं तो और से उधार मांग ली होगी ।”
“किसलिये ? क्या उसे एडवांस में मालूम था कि उस रात इत्तफाक से उसके हाथों मीरा का कत्ल होने वाला था और उसकी लाश का कल्याण करने के लिये उसे कार की जरूरत पड़ने वाली थी ?”
“उसके अधिकार में उस रोज एक कार होना महज एक इत्तफाक हो सकता है ।”
मैं खामोश रहा ।
यादव अपनी थ्योरी से बहुत खुश था, मैं उसे खुश होने से - खामख्वाह खुश होने से - कैसे रोक सकता था ।
“वकील साहब” - एकाएक यादव उठता हुआ बोला - “मैं आपके जवाबों से सन्तुष्ट नहीं । मुझे आपसे फिर बात करनी होगी इसलिये उपलब्ध रहियेगा ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
उसने यादव से हाथ मिलाया लेकिन मुझे यूं नजर-अन्दाज किया जैसे अगर मैं उससे छू जाता तो उसे कोई जानलेवा बीमारी हो जाती ।
इन्स्पेक्टर यादव रीगल के सामने ही मुझसे जुदा हो गया । मेरी ख्वाहिश थी कि वह बलबीर साहनी के यहां भी मेरे साथ चलता और मैं उसके सामने अपने उस हमपेशा कबूतर से चंद सवाल पूछ पाता ।
ऐसा मुमकिन न हो सका ।
यादव ने किसी और केस के सिलसिले में तत्काल कहीं और पहुंचना था ।
पैदल चलता हुआ मैं शंकर मार्केट पहुंचा ।
बलबीर साहनी अपने ऑफिस में मौजूद था ।
मुझे देखते ही उसके चेहरे पर बल पड़ गये ।
“अब कैसे आये ?” – वह बोला – “फिर अठन्नी देने ?”
मैं मुस्कुराया और एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
“पहली अठन्नी इस्तेमाल कर ली थी” - मैं बोला ।
“मैं इस वक्त बड़ी जरुरी रिपोर्ट तैयार कर रहा था ।”
“ओहो ! तो अब तुम्हे मेरा यहां आना भी भारी गुजर रहा हैं ।”
वह खामोश रहा ।
“जबकि ऐसा होना नहीं चाहिये” - मैं आगे बढ़ा - “इसलिये नहीं होना चाहिये क्योंकि अब हम पाले के आरपार नहीं, एक ही तरफ हैं ।”
उसकी भंवे उठी ।
“चारूबाला के बारे में ।”
“क्या मतलब ?” - वह बोला ।
“चारूबाला उस औरत का नाम है जिसने हमें पाले के एक ही तरफ लाकर खड़ा कर दिया है । वह हम दोनों की क्लायंट है ।”
“क्या ?”
“जैसे तुम्हें मालूम नहीं ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“हो सकता है । हुआ है । तभी तो उसके पति की वो रिपोर्ट जो आज सुबह तुमने उसे दी थी, उसने मुझे सौंप दी है ।”
“नॉनसेंस ।”
“नॉनसेंस मेरी जेब में है । यह देखो” - मैंने उसे रिपोर्ट निकालकर दिखाई ।
वह हैरान हुए बिना न रह सका ।
“कैसी अजीब बात है ! ऐसे ही काम के लिये आज से दो साल पहले तुम वशिष्ठ की बीवी के पीछे लगे थे और अब खुद वशिष्ठ के पीछे लगे हुए हो ।”
“दिस इज बिजनेस ।”
“आई नो । आई नो ।”
“यह रिपोर्ट” - उसने मेरे हाथ में थमी रिपोर्ट की तरफ इशारा किया - “जरुरी नहीं कि तुम्हे चारूबाला से हासिल हुई हो ।”
“और किससे हासिल होगी ?”
“उसके पति से । वशिष्ठ से । किसी तरह रिपोर्ट वशिष्ठ के हाथ लग गई होगी । वह मशवरे के लिये तुम्हारे पास आया होगा और...”
“तुम चारूबाला से पूछ लो । वह कालकाजी में अपनी भांजी के यहां ठहरी हुई है ।”
“मैं गीता से बात करता हूं ।”
“यानी कि तुम्हे मेरी बात पर विश्वास नहीं ।”
“एक-दूसरे की बात पर विश्वास कर लेने जैसा कौन-सा रिश्ता है तुम्हारा मेरा ?”
“ठीक है ।” - मैंने नकली जमहाई ली - “मर्जी तुम्हारी ।”
उसने गीता को फोन किया । कुछ क्षण फोन पर बात करने के बाद उसने धीरे-से रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
उस दौरान मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया था ।
“विश्वास हो गया ?” - मैंने पूछा ।
“हां” - वह बोला ।
“अब मेरी मुबारकबाद कबूल करो ।”
“किस बात के लिये ?”
“अपने-आपको मेरे से ज्यादा होशियार साबित करके दिखाने के लिये ।”
“वो कैसे ?”
“वशिष्ठ के पीछे तुम भी लगे हुए थे और मैं भी । तुम्हें मेरी खबर लगी लेकिन मुझे तुम्हारी खबर नहीं लगी । खासतौर से करोलबाग के महारानी होटल में तो अपने-आपको छुपाये रखने में तुमने कमाल ही कर दिया ।”
“शुक्रिया” - वह शुष्क स्वर में बोला ।
“मुझे कुछ ऐसा इशारा मिला था कि वशिष्ठ लड़की से विदा होकर रवाना होने ही वाला था इसलिये मैं उससे पहले वहां से विदा हो गया था । तुम्हारी रिपोर्ट से ही मुझे मालूम हुआ है कि वशिष्ठ मेरे चले आने के बाद भी भी वहां बहुत देर - बहुत ज्यादा देर - वहां रुका था ।”
वह खामोश रहा ।
“मेरे जाने के बाद तुमने उनकी बातें सुनने की भी कोशिश की होगी ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे तुम्हारे वापिस लौट आने का अंदेशा था । मुझे गारंटी होती कि तुम पक्के वहां से विदा हो चुके थे तो शायद मैं ऐसी कोई कोशिश करता ।”
“चारूबाला कहती थी कि तुम उसकी भांजी के पुराने वाकिफकार हो । अभी भी तुमने फोन पर बात भांजी से ही की थी, चारूबाला से - अपनी क्लायंट से - नहीं ।”
“तो क्या हुआ ?”
“हुआ तो कुछ नहीं । यूं ही पूछा था । तुम गीता से कैसे वाकिफ हो ?”
“उसके हसबैंड की वजह से । चार पैसे मैं कहीं इनवैस्ट करता हूं, वो मैं आलोकनाथ की सलाह पर करता हूं ।”
“आलोकनाथ से वाकफियत हुई कैसे थी तुम्हारी ?”
“पाहवा ने मिलवाया था । एक पार्टी में...”
वह ठिठक गया । उसने अपना निचला होंठ काटा ।
“ओहो” - मैं बोला - “तो तुम अनिल पाहवा को जानते हो, इतनी अच्छी तरह जानते हो कि वह तुम्हें लोगों से आगे मिलवाता है ।”
“मैंने अनिल पाहवा का नाम कब लिया ?”
“पहले नहीं लिया तो अब ले लिया । अब यह भी कबूल करो कि दो साल पहले रेड का जो ड्रामा तुमने रचा था उसका स्क्रिप्ट-राइटर अनिल पाहवा था ।”
बलबीर साहनी खामोश रहा ।
“अब जुबान को ताला क्यों लग गया ?” - मैं बोला - “इसीलिये न क्योंकि अब बात की गम्भीरता तुम्हारे पल्ले पड़ रही है । तुम्हें याद आ रहा हैं कि तुम पहले खम ठोककर मुझे कह चुके हो कि तुम अनिल पाहवा को नहीं जानते । भ्राताजी, अब पुलिस तुमसे ही यह कबूलवा लेगी कि मीरा वशिष्ठ पर हुई दो साल पहले की रेड फर्जी थी और उस षड़यंत्र में अनिल पाहवा के साथ-साथ तुम खुद भी शामिल थे ।”
बलबीर साहनी ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तुम्हारी जानकारी के लिये अब यह स्थापित हो चुका है कि आलोकनाथ वो शख्स था जिसने रेड की तस्वीर मीरा वशिष्ठ की बहन अहिल्या शर्मा को भेजी थी । वह तस्वीर और उसका नेगेटिव सिर्फ तुम्हारे पास उपलब्ध था । इसका मतलब हैं कि तस्वीर आलोकनाथ को तुमने मुहैया कराई ? क्यों मुहैया कराई ? फोकट में या उसकी कोई कीमत हासिल करके ? इन सवालों का जवाब सोचकर रखना, बलबीर साहनी, पुलिस आती ही होगी यहां ।”
मैं उठ खड़ा हुआ । मैंने बड़े नाटकीय ढंग से उसका अभिवादन किया और घूमकर दरवाजे की तरफ बढ़ा । मुझे पूरी उम्मीद थी कि वह मुझे पीछे से आवाज देगा और वापिस बुलाकर अपनी कोई सफाई देने की कोशिश करेगा लेकिन ऐसा न हुआ ।
साला एक नम्बर का हरामी निकला ।
***
मैं गाजियाबाद पहुंचा ।
मैं अहिल्या शर्मा से मिला और उसे याद दिलाया कि पिछली मुलाकात में उसने मुझे वहां फिर आने की बाकायदा इजाजत दी थी ।
इस बार मैंने मीरा वशिष्ठ का वो व्यक्तिगत सामान देखने की इच्छा प्रकट की जो उसकी मौत के बाद उसने अपने अधिकार में कर लिया था ।
उसने बिना हुज्जत मुझे एक ट्रंक के सिरहाने बिठा दिया ।
मैंने ट्रंक में दुनिया जहान की चीजें भरी पाई लेकिन मेरी दिलचस्पी का मरकज केवल दो ही चीजें बन पायी ।
पहली चीज एक पैकेट था जिसमें से कई पोस्टकार्ड साइज की रंगीन तस्वीरें बरामद हुईं । उन तस्वीरों की गेटवे ऑफ इन्डिया, होटल ताजमहल, मैरिन ड्राइव, फ्लोरा फाउंटेन, राजाबाई टावर जैसी बैकग्राउंड बता रही थी कि तस्वीरें बम्बई की थी । कुछ तस्वीरों में मीरा अकेले दिखाई दे रही थी तो कुछ में अनिल पाहवा उसके साथ था । उन दोनों की इकट्ठी तस्वीरें साफ बता रही रही थीं कि वे किसी तीसरे व्यक्ति ने नहीं खींची थीं बल्कि कैमरे को स्टैंड पर फिट करके टाइमर द्वारा खींची गयी थीं ।
दूसरी चीज एक फाइल थी जिसमे मीरा के तलाक से ताल्लुक रखते कागजात लगे हुए थे ।
मैंने बड़ी गम्भीरता से कागजात का मुआयना किया और फिर अहिल्या शर्मा को बताया कि वे दोनों चीजें मीरा के कत्ल के रहस्य पर से पर्दा उठाने में मददगार साबित हो सकती थी । कत्ल शब्द ने अहिल्या पर जादुई असर दिखाया । उसने निःसंकोच वे दोनों चीजें दिल्ली ले आने की मुझे इजाजत दे दी ।
अब मीरा के तलाक का और फिर उसके कत्ल का तकरीबन जुगराफिया मेरी समझ में आ चुका था ।