अगले रोज सारा दिन विमल भट्टी की टेलीफोन काल की प्रतीक्षा करता रहा ।
तुकाराम ‘मराठा’ में सालउद्दीन की हिफाजत में पहुंचा दिया गया था जहां उसका रामभक्त हनुमान जैसा वफादार सेवक वागले उसके साथ था । विमल खार वाले फ्लैट में अकेला था और कतई इत्मीनान महसूस नहीं कर रहा था । उसने दो बार भिंडी बाजार ट्रेवल एजेंसी वाले फोन पर रिंग करके भट्टी के लिए संदेशा छोड़ा था । जवाब में आश्वासन मिला था कि भट्टी साहब तक खबर पहुंच जाएगी लेकिन वापिस न भट्टी खुद आया था और न उसका फोन ।
शाम होने को हुई तो उसने वहां से निकलने को फैसला किया ।
जवाहरात की पोटली अभी भी उस झोले में थी जिसमें पिछली रात के बचे तीन हथगोले और दो रिवॉल्वर पड़ी थीं । उसने झोले में से पोटली निकालने की जगह झोला ही उठा लिया और फ्लैट से बाहर निकला ।
उसने एक टैक्सी पकड़ी और ग्रांट रोड पहुंचा ।
वहां उसने सलाउद्दीन के साहबजादों की काले शीशों वाली ओमनी तलाश की ।
उसकी मुलाकात जावेद से हुई ।
“बस अभी” - जावेद ने बताया - “फारिग हुए हैं सारे फ्लैटों की पड़ताल मुकम्मल कर के ।”
“क्या पता लगा ?” - विमल तनिक उत्सुक भाव से बोला ।
“भाईजान, इमारत में सिर्फ चौथी मंजिल वाला एक फ्लैट ही है जो खाली है । बाकी के इकत्तीस के इकत्तीस फ्लैटों में गृहस्थ बाल बच्चेदार परिवार बसे हुए हैं ।”
“आई सी ।”
“किसी न किसी बहाने से हमने एक-एक फ्लैट में घुसकर देखा है । कालिया न कहीं था, न कहीं हो सकता था ।”
“वो इमारत में होगा ही नहीं ।”
“यही तो अचरज की बात है । वो इमारत में से बाहर भी तो नहीं निकला । हम चार भाई दावे के साथ कह सकते हैं कि कल दोपहरबाद की आपकी और कालिया की मुलाकात के बाद से उसने इमारत से बाहर कदम नहीं रखा ।”
“कमाल है !”
“इस लिहाज से तो वो इमारत के चौथी मंजिल वाले खाली फ्लैट में ही हो सकता है ।”
“वहां कैसे हो सकता है ? वहां को तो मैंने खुद एक-एक कोना-खुदरा देखा था और खुद फ्लैट को बाहर से ताला लगाया था ।”
“फिर तो कालिया जरूर कोई सुपरमैन है जो किसी खिड़की या झरोखे के रास्ते फुर्र से आसमान में उड़ गया ।”
“नानसेंस !”
“फिर आप ही बताइए जो शख्स इमारत से बाहर नहीं निकला और इमारत के भीतर भी कहीं नहीं है, वो गया तो कहां गया ?”
“चौथी मंजिल वाले फ्लैट की क्या पोजीशन है ? उस पर भी ताला है ?”
“थोड़ी देर पहले तक तो ताला ही था । लेकिन अभी आपके आगे-आगे ही भट्टी यहां पहुंचा है । अब शायद खुल गया हो ।”
विमल खामोश रहा । वह कुछ क्षण पाइप के कश लगाता सोचता रहा और फिर बोला - “आसपास कहीं फोन है ?”
“मोड़ पर पैट्रोल पंप है ।” - जावेद बोला - “वहां होगा ।”
“तुम जरा एक चक्कर चौथी मंजिल का लगाकर आओ । जरा देख के आओ कि फ्लैट का ताला खुला है या नहीं, तब तक मैं एक फोन करके आता हूं ।”
“ठीक है ।”
दोनों वैन से बाहर निकले और अपनी-अपनी राह चल दिए । पैट्रोल पंप के पब्लिक टेलीफोन से विमल ने मलाड वाले फ्लैट का नंबर डायल किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“वैभवी ?” - वह धीरे से बोला ।
“हां ।” - उत्तर मिला - “कौन ?”
“पहचाना नहीं ?”
“नहीं ।”
“मैं घड़ीवाला ।”
“कौन ?”
“अपने स्वैन नैक प्वाइंट की सैर के साथी को इतनी जल्दी भूल गई ? इतवार को तो तुम मुझे उम्र-भर न छोड़ने की ख्वाहिशमंद मालूम होती थीं ।”
“ओह ! ओह !”
“लगता है अब पहचान लिया !”
“हां । कैसा इत्तफाक है ! मंगलवार शाम के बाद से आज मैं पहली बार अभी पांच मिनट पहले फ्लैट में घुसी हूं कि तुम्हारा फोन आ गया ।”
“मेरी खुशकिस्मती । इतना अरसा कहां रहीं ?”
“कहीं और ।”
“क्यों ?”
“भट्टी कहता है ये फ्लैट सेफ नहीं रहा । कहता है कुछ लोग इसकी निगरानी कर रहे हैं, हालांकि मुझे तो कोई नहीं दिखाई दिया यहां की निगरानी करता ।”
“अब भट्टी ने तुम्हें इजाजत दे दी यहां आने की ?”
“नहीं ! मैं उससे पूछे बिना आई हूं । मेरी कुछ जरूरी चीजें यहां थीं, उन्हें लेकर अभी चली जाऊंगी ।”
“फिर तो वाकई मेरी खुशकिस्मती है कि तुम्हारे से बात हो गई ।”
“तुम्हें जैसे परवाह है ऐसी खुशकिस्मतियों की ।”
“अब है ।”
“मेरी ?”
“हां ।”
“मेरी वजह से मेरी ?”
“तुम्हारी कुछ मालूमात का वजह से तुम्हारी ।”
“एक बात माननी पड़ेगी, मिस्टर घड़ीवाला ।”
“क्या ?”
“बेमुरब्बत हो लेकिन झूठे नहीं हो ।”
विमल हंसा ।
“क्या मालूम करना चाहते हों मेरे से ?”
“एक मामूली बात ।” - विमल बोला - “एक निहायत मामूली बात । उम्मीद है बताने से इनकार नहीं करोगी ।”
“क्या बात है वो ?”
“इतवार का रात को मेरी मौजूदगी में तुमने इब्राहीम कालिया को फोन किया था जो कि खुद उसने बिना किसी बिचौलिए के उठाया था । मैं ये जानना चाहता हूं तुमने फोन कहां किया था ?”
“ये तो मुझे पता नहीं ।”
“यानी कि बताना नहीं चाहतीं ।”
“गलत समझ रहे हो । मुझे फोन नंबर मालूम है लेकिन वो कहां जाके खड़कता है ये नहीं मालूम ।”
“नंबर ही बता दो ।”
वह हिचकिचाई ।
“ओह, प्लीज !”
“तुम उसका कोई बेजा इस्तेमाल तो नहीं करोगे ?”
“एक टेलीफोन नंबर का क्या बेजा इस्तेमाल हो सकता है ?”
“किसी को ये तो नहीं बताओगे कि वो नंबर तुम्हें कहां से हासिल हुआ था ?”
“नहीं बताऊंगा । सौं वाहे गुरु दी ।”
“क्या ?”
“आई मीन बाई गॉड, बाई गॉड नहीं बताऊंगा ।”
वह फिर हिचकिचाई ।
“वैसे मैंने अपनी आंखें खुली रखी होतीं तो वो नंबर मुझे वैसे ही मालूम होता । तुमने मेरे सामने वो नंबर डायल किया था ।”
“यही कहना ।”
“क्या ?”
“कि तुमने मुझे वो नंबर डायल करते देखा था ।”
“ऐसा कुछ कहने की नौबत नहीं आने वाली ।”
“आ जाए तो ये ही कहना ।”
“ठीक है ।”
“नोट करो ।”
वैभवी ने उसे एक नंबर बताया जो कि विमल ने याद कर लिया । फिर उसने उसका धन्यवाद करके संबंध विच्छेद किया ।
फिर उसने डायरेक्ट्री इन्क्वायरी का वो नंबर डायल किया जिस पर से टेलीफोन नंबर बताकर उसका संस्थापन स्थान जाना जा सकता है । वहां से मालूम हुआ कि वह नंबर मैरिन ड्राइव पर स्थित झावेरी टावर नामक इमारत के 502 नंबर फ्लैट में चलता था ।
विमल को बहुत मायूसी हुई । उसे वांछित उत्तर नहीं मिला था ।
फिर भी उसने टेलीफोन बूथ में ही मौजूद पैंसिल उठाकर और डायरेक्ट्री के पन्ने का एक कोरा टुकड़ा फाड़कर वह पता और टेलीफोन नंबर उस पर नोट कर लिया ।
वह वापिस लौटा ।
जावेद से उसकी फिर मुलाकात हुई ।
“फ्लैट खुला है ।” - जावेद धीमे से बोला ।
“गुड ।” - विमल बोला - “मैं भीतर जा रहा हूं । मेरी वापिसी पर निगाह रखना ।”
“ठीक है ।”
“तुम भी अब यहीं ठहरो । अब ऊपर निगरानी की कोई जरूरत नहीं ।”
“बेहतर ।”
“पिछवाड़े में अभी भी कोई है ?”
“आमिर है ।”
“उसे भी वापिस बुला लो । अब उसकी वहां जरूरत नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे मालूम है कालिया इमारत में कहां है ।”
“कहां है ?”
“चौथी मंजिल वाले फ्लैट में ।”
“लेकिन वो फ्लैट तो अभी खुला है ?”
“उसे फ्लैट के खुले या बंद होने से कोई फर्क नहीं पड़ता । वो चाबी के छेद से भीतर दाखिल हो सकता है ।”
“क्या पहेलियां बुझा रहे हो, भाई जान ?”
विमल केवल मुस्कराया और फिर इमारत की ओर बढ गया ।
लिफ्ट द्वारा वह चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
उसने फ्लैट नंबर 403 की कालबेल बजाई ।
दरवाजा भट्टी ने खोला ।
“तुम यहां ?” - वह हैरानी से बोला ।
“हां ।” - विमल इत्सीनान से बोला - “कोई एतराज ?
“मेरा मतलब है बिना खबर किए । बिना बुलाए !”
“मैंने दो बार फोन किया था ।”
“मुझे मालूम हुआ था लेकिन मैं बहुत बिजी था । ऊपर से बॉस भी नहीं था ।”
“चलो अच्छा हुआ मैं तब आया जबकि तुम बिजी भी नहीं हो और बॉस भी है ।”
“क्या मतलब ?”
“अब रास्ते से तो हट ।”
“लेकिन...”
“भई, मैं तेरे बॉस का माल उसे सौंपने आया हूं । करोड़ों के जवाहरात मैं साथ लिए तो नहीं फिर सकता न !”
“ओह !”
“क्या ओह ?”
“माल मुझे दो ।”
“भट्टी, मेरे बच्चे !” - विमल हंसा - “अगर माल तुझे देना होता तो कल रात ही न दे देता !”
“लेकिन कालिया...”
“भीतर है । मुझे मालूम है ।”
“कैसे मालूम है ?”
“क्योंकि तुम भीतर हो ।”
“ये क्या बात हुई ?”
“हुई ।”
“ये आज क्या अनाप-शनाप...”
“रास्ते से हट ।” - विमल एकाएक कर्कश स्वर में बोला - “कालिया भीतर नहीं भी है तो आता ही होगा, मैं तेरे साथ बैठ के उसका इंतजार करता हूं ।”
“लेकिन...”
विमल ने उसे जबरन परे धकेला और भीतर दाखिल हुआ ।
भट्टी ने बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से उसके पीछे दरवाजा बंद किया और चिटकनी चढाई । जब तक वह दरवाजे पर से वापिस घूमा, तब तक विमल पिछवाड़े के उस कमरे में पहुंच भी चुका था, जहां पिछले शुक्रवार को उसकी कालिया से पहली मुलाकात हुई थी ।
वहां तक पहुंचने से पहले विमल की बाजू के कमरे के खुले दरवाजे के भीतर निगाह पड़ी और वह वहां कोई दर्जन-भर सशस्त्र प्यादों को मौजूद पाकर बहुत हैरान हुआ था ।
कालिया को उसने एक सोफे पर पसरे बैठे सिगरेट के कश लगाते पाया ।
यूं विमल को वहां आया पाकर वह भी हड़बड़ाया ।
“क्या बात है ?” - विमल शिकायत भरे स्वर में बोला - “आज तुम लोग मुझे आया देखकर यूं बौखला रहे हो जैसे मैं कब्र से उठकर चला आया कोई मुर्दा होऊं ?”
“आ, सरदार ।” - कालिया तत्काल सुसंयत स्वर में बोला - “आ बैठ ।”
विमल उसके करीब बैठ गया । हाथ में थमा झोला उसने अपनी गोद में रख लिया ।
“आज बड़ी रौनक है यहां ।” - वह बोला ।
“रौनक !” - कालिया सकपकाया ।
“बाजू के कमरे में कितने ही गनमैन थे । कमरा छोटा पड़ रहा था । आदमी पर आदमी चढा हुआ था ।”
“उसे कह रहा है रौनक ?”
“हां सब मेरे स्वागत के लिए तो नहीं ?”
“पागल हुआ है ! मुझे खबर भी नहीं थी कि तू यहां आने वाला है ।”
“यानी कि वो इंतजाम मेरे लिए नहीं ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“फिर तो समझ लो मेरी जान में जान आ गई ।”
“आया कैसे ?”
“तेरा माल तुझे सौंपने आया ।” - विमल बोला, उसने झोले से जबाहरात की पोटली निकालकर कालिया के सामने मेज पर डाल दी ।
“तुका छूट गया ?” - कालिया ने पूछा ।
“हां ।”
“फिर तो मुबारक हो ।”
“शुक्रिया ।”
“बहुत जीदारी का काम किया तूने ।”
“माल चौकस कर लो ।”
“वो तो चौकस ही चौकस है । चौकस करना तो दूर, मैं तो पोटली में झांकना भी जरूरी नहीं समझता । मैं क्या जानता नहीं कि मुझे माल किससे हासिल हो रहा है !”
विमल खामोश रहा ।
“तेरे लिए एक खुशखबरी है, सरदार ।”
“मुझे सरदार मत कहो । पहले भी कई बार बोला ।”
“तेरे लिए पचास लाख रुपए की खुशखबरी है बिरादर ।”
“क्या मतलब ?”
“मेरी उमर अजीज से बात हुई है । वो बोलता है माल साढे पांच करोड़ से किसी सूरत में कम नहीं है ।”
“इसका साफ-साफ हिंदोस्तानी में क्या मतलब हुआ ?”
“यही कि तू पचास लाख रुपए का हकदार । यही तो तय हुआ था । पांच करोड़ के ऊपर का सारा माल तेरा । भूल गया ?”
“नहीं भूला ।”
“मैंने तो पचास लाख रुपए के नोटों से भरा सूटकेस तैयार भी करके रखा हुआ है ।”
“ऐसा ?”
“हां । भट्टी, सर... सोहल का सूटकेस ला ।”
“कमाल है ! बड़ी एक्सप्रेस सर्विस है तुम्हारी ।”
“तू भी क्या याद करेगा कि कभी कोई दोस्त मिला था ।”
भट्टी एक सूटकेस उठा के लाया, उसने सूटकेस विमल के सामने मेज पर रख दिया और घड़ी देखने लगा ।
विमल ने नोट किया कि कालिया की निगाह भी रह-रहकर वॉल क्लॉक की ओर उठ जाती थी ।
“अच्छा ।” - पटाक्षेप करने के अंदाज से कालिया उसकी ओर अपना हाथ बढाता हुआ बोला - “फिर मिलेंगे ।”
“फिर भी मिलेंगे ।” - विमल अपनी ओर बढे उसके हाथ को नजरअंदाज करता हुआ बोला - “अभी तो मिल लें ।”
“तुझे जल्दी होगी ।”
“मुझे तो कोई जल्दी नहीं ।”
“तुकाराम का ख्याल...”
“करने वाले बहुत हैं । क्या बात है आज तो व्हिस्की भी आफर नहीं की मुझे ।”
“तू दिन में पीता जो नहीं ।”
“याद रहा तुम्हें ?”
“अरे, दोस्त की हर पसंद-नापसंद याद रखी जाती है ।”
“गुड ।”
“तो...”
विमल ने अपने स्थान से हिलने तक का उपक्रम न किया ।
इब्राहिम कालिया ने बेचैनी से पहलू बदला, उसने एक बार अपनी लेफ्टीनेंट भट्टी पर निगाह डाली और फिर कठिन स्वर में बोला - “बात कुछ यूं है, सरदार, कि यहां इस माल का” - उसने जवाहरात की पोटली को थपथपाया - “एक खरीददार आने वाला है । मेरा उससे वादा है कि मेरी उसकी मुलाकात के दौरान यहां कोई नहीं होगा । इसलिए अगर अब तू...”
“चला तो मैं जाता हूं, कालिया” - विमल जम्हाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ - “लेकिन एक बात बता ।”
“दो पूछ ।”
“एक ही बता । जिस माल की यहां आमद का ही तुझे इमकान नहीं था, उसका खरीददार तूने पहले से कैसे बुला लिया ?”
कालिया सकपकाया ।
“कहने का मललब ये है कि जहां ऐसी पर्दादारी हो, वहां दोस्ती नहीं चलती ।”
“सरदार ।” - कालिया ने एकाएक थूक निगली - “तू गलत...”
“नमस्ते ।”
विमल ने सूटकेस उठा लिया और भट्टी से बोला - “चल भई, रास्ता दिखा ।”
भट्टी उसके साथ दरवाते तक आया । उसने उसके लिए दरवाजा खोला ।
“यार” - भट्टी बोला - “वो क्या है कि आज...”
“शनिवार है ।” - विमल मीठे स्वर में बोला - “कल इतवार होगा । और अगर बाबे की मेहर की छतरी सृष्टि पर बनी रही तो परसों सोमवार हो जाएगा । देखा कितना बढिया इंतजाम है कुदरत का !”
भट्टी मुंह बाए उसे देखता रहा ।
“चल मैं तुझे नीचे तक छोड़ के आता हूं ।” - फिर वह बोला ।
“जरूर ।” - विमल बोला - “नीचे तक छोड़ने जाना है तो ये सूटकेस पकड़ ।”
भट्टी ने बेमन से सूटकेस थामा । दोनों लिफ्ट में सवार हुए ।
“कार कहां है ?” - एकाएक भट्टी बोला ।
“कार !” - विमल तनिक हड़बड़ाया ।
“कॉन्टेसा । जिस पर पूना गए थे ।”
“अच्छा, वो ! उसे कल रात मैंने जुहू रोड पर होटल सी व्यू और हालीडे इन के बीच सड़क पर छोड़ा था लेकिन उसे वहां से मंगवाने की जगह बेहतर यही होगा कि उसकी चोरी की रिपोर्ट थाने में दर्ज करवा दो ।”
भट्टी खामोश रहा ।
दोनों नीचे पहुंचे ।
“मैं तेरे लिए टैक्सी लाता हूं ।” - भट्टी सूटकेस उसे वापिस थमाता हुआ बोला - “कहां जाएगा ?”
“खार ही जाऊंगा ।” - विमल बोला - “और कहां जाऊंगा ।”
“ठीक है, मैं टैक्सी लाता हूं ।”
“तू क्यों तकलीफ करता है ? मैं ले लूंगा टैक्सी ।”
“अरे तेरे पास माल है । मैं इधर ही टैक्सी लाता हूं ।”
“मर्जी तेरी ।”
“रात को बैठेंगे ।”
“किसलिए ?”
“अरे, ‘कंपनी’ की आंख में डंडा करने का कोई अगला प्रोग्राम नहीं चुनना ?”
“ओह ! कहां बैठेंगे ?”
“जहां कालिया बोलेगा । मैं तुझे फोन पर खबर करूंगा ! शायद तुझे इधर ही लौटना पड़े ।”
“ठीक है ।”
“तू खार में ही होगा न ?”
“हां ।”
भट्टी टैक्सी लेने चला गया ।
विमल खूब समझ रहा था कि वो सारा आडंबर इस बात की तसदीक के लिए किया जा रहा था कि विमल वहां से विदा हो गया था ।
भट्टी टैक्सी लेकर वापिस लौटा ।
विमल टैक्सी में सवार हो गया । टैक्सी वहां से चल दी ।
टैक्सी के जेकब सर्कल पहुंच जाने तक वह चुपचाप बैठा पाइप के कश लगाता रहा ।
तब तक उसे गारंटी हो चुकी थी कि ग्रांट रोड से कोई उसके पीछे नहीं लगा था ।
“वापिस चलो ।” - उसने टैक्सी ड्राइवर को आदेश दिया ।
“वापिस कहां ?” - टैक्सी ड्राइवर हड़बड़ाकर बोला ।
“जहां से आए थे ।”
“कुछ पीछे रह गया ?”
“हां ।”
टैक्सी ग्रांट रोड पर वापिस दाखिल हुई तो उसने ड्राइवर को बिना कालिया के फ्लैट वाली इमारत के सामने रुके गुजर जाने का आदेश दिया ।
उसे वहां कोई असाधारण बात न दिखाई दी ।
सलाउद्दीन के साहबजादों की ओमनी भी सड़क के पार पार्किंग में बदस्तूर खड़ी थी ।
जाहिर था कि कालिया का खास मुलाकाती अभी वहां पहुंचा नहीं था ।
विमल ब्लॉक के सिरे पर टैक्सी से उतर गया । उसने टैक्सी का भाड़ा चुकाकर उसे विदा किया और ब्लॉक के पिछवाड़े की संकरी गली में दाखिल हो गया ।
भारी सूटकेस उसके लिए परेशानी का बायस बन रहा था लेकिन उसे कहीं छोड़ देना भी मुमकिन नहीं था ।
सुनसान गली में से खामोशी से गुजरता वह कालिया के फ्लैट वाली इमारत के पिछवाड़े में पहुंचा । उसने सावधानी से भीतर झांका तो तब भी बदस्तूर शांति का माहौल पाया ।
वह भीतर दाखिल हुआ ।
उसने लिफ्टों के सामने जाकर कॉल बटन दबाया और प्रतीक्षा करने लगा ।
तभी काली एम्बेसेडर कारों का एक काफिला-सा इमारत के सामने आकर रुका ।
विमल की उधर निगाह उठी और फिर किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर वह लिफ्ट का इंतजार छोड़कर सीढियों की ओर बढ चला । जिस वक्त उसका पहली सीढी पर कदम पड़ा, ऐन उसी वक्त सबसे अगली कार में से ‘कंपनी’ के सिपहसालार श्याम डोंगरे ने बाहर कदम रखा ।
अब कालिया के खास मुलाकाती की शिनाख्त का अंदाजा लगाना विमल के लिए कोई खास मुश्किल काम न था ।
वह तेजी से सीढियां चढने लगा ।
जल्दी ही किसी ठिकाने न लगने की सूरत में वह दो टॉप के मवालियों के प्यादों की फौज के बीच चक्की के दो पाटों के बीच आए अनाज की तरह पिस सकता था ।
वह पांचवीं मंजिल पर पहुंचा ।
उसने 503 नंबर फ्लैट के मुख्य द्वार पर जाकर सूटकेस अपने सामने पैरों के करीब रख लिया । झोला अपने बाएं हाथ में थामा और उसमें से साइलेंसर लगी रिवॉल्वर निकालकर दाएं हाथ में ले ली । उसने कॉलबेल बजाई और रिवॉल्वर वाला हाथ कोट की बाहरी जेब में डाल दिया ।
तत्काल दरवाजा खुला । चौखट पर एक जीनधारी युवती प्रकट हुई ।
“यस ।” - वह सहज भाव से बोली ।
“मुझे नीचे से भट्टी ने भेजा है ।” - विमल विनयशील स्वर में बोला ।
“कौन भट्टी ?” - युवती पूर्ववत् सहज भाव से बोली ।
“कालिया साहब का सैक्रेटरी ।”
“कौन कालिया साहब ?”
“जो नीचे 403 में रहते हैं ।”
“उस फ्लैट में तो मेरे ख्याल से कोई भी नहीं रहता । मैंने जो जब भी देखा है उस पर ताला ही जड़ा देखा है ।”
“आप इब्राहीम कालिया साहब को या शमशेर भट्टी को नहीं जानती ?”
“कभी नाम भी नहीं सुने ।”
“फिर तो जरूर मैं किसी मुगालते में यहां आ गया हूं । मैं माफी चाहता हूं ।”
“कोई बात नहीं । वैसे काम क्या था ?”
“ये सूटकेस” - विमल ने पैरों के करीब पड़े सूटकेस की ओर इशारा किया - “इधर पहुंचाने का हुक्म हुआ था मुझे लेकिन जब आप उन लोगों का जानतीं ही नहीं तो...”
विमल ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
युवती बड़ी भद्रता से मुस्कराई ।
“तकलीफ की माफी चाहता हूं ।” - विमल बोला, उसने रिवॉल्वर कोट की जेब में छोड़ दी और झुककर सूटकेस उठा लिया ।
युवती एक बार शिष्टाचारवश मुस्कराई, फिर उसने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया ।
विमल तीसरी मंजिल पर पहुंचा ।
चौथी मंजिल उसने बहुत सावधानी से पार की थी ।
वहां ऊपर जैसे ही अंदाज से उसने 303 नंबर फ्लैट की कॉलबेल बजाई ।
इस बार दरवाजा नहीं खुला । बल्कि, भीतर से सावधानीपूर्ण स्वर में सवाल किया गया - “कौन ?”
विमल को जिस फ्लैट की तलाश थी, उसका 503 और 303 में से एक होना लाजमी था क्योंकि उन दोनों के ऐन बीच में 403 था । अब 503 क्योंकि वांछित फ्लैट नहीं निकला था तो सही जगह यकीनन वही थी जिसके सामने वो उस घड़ी खड़ा था ।
“ऊपर से भट्टी ने भेजा है ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “दरवाजा खोल ।”
तत्काल दरवाजा खुला । दरवाजा खोलने वाला एक कोई चालीस साल का सूरत से किसी सरकारी दफ्तर के क्लर्क सरीखा लगने वाला आदमी था ।
विमल ने उसकी छाती पर रिवॉल्वर की नाल टिका दी ।
“आवाज न निकले ।” - वो चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
उस आदमी की घिग्घी बंध गई ।
“सूटकेस उठा ।”
उसने उठाया ।
“पीछे हट ।”
वो हटा ।
विमल भीतर दाखिल हुआ । उसने अपने पीछे दरवाजा मजबूती से बंद कर दिया ।
“नाम बोल ।” - विमल बोला ।
“भास्कर ।” - वो घिघियाया - “मैं गरीब आदमी हूं । यहां फ्लैट में कुछ नहीं...”
“भास्कर ! बस कर । उतना ही बोल जितना जरूरी हो वरना...”
विमल ने रिवॉल्वर की नाल से उसकी नाक की हड्डी पर दस्तक दी ।
भास्कर पीड़ा से बिलबिलाया ।
“और कौन-कौन है यहां ?” - विमल ने पूछा ।
“बीवी ।” - भास्कर बोला - “तीन बच्चे ।”
“सबको यहां बुला ।”
उसकी पुकार पर एक कमरे से निकलकर बीवी-बच्चे वहां पेश हुए । भास्कर की हालत देखकर उसकी बीवी भय से थर-थर कांपने लगी । माता-पिता को भयभीत देखकर बच्चे भी भय की गिरफ्त में आए बिना न रहे ।
“बहनजी” - विमल मीठे स्वर में बोला - “अगर आप सब लोग मेरा कहना मानेंगे तो यकीन जानिए आपका बाल भी बांका नहीं होगा । बोलिए मानेंगी आप मेरा कहना ?”
औरत ने जल्दी-जल्दी सहमति में सिर हिलाया ।
“अपने पति को भी ये बात समझाइए ।”
तत्काल और जल्दी-जल्दी मराठी में कुछ बोलने लगी । विमल को एक अक्षर भी समझ न आया लेकिन उसने इतना महसूस किया कि औरत उसे फटकार भी रही थी और फरियाद भी कर रही थी । फिर भास्कर बार-बार सहमति में सिर हिलाने लगा ।
“ये” - फिर औरत हिंदी में बोली - “आपकी हर बात मानेंगे ।”
“गुड ।” - विमल पूर्ववत् मीठे स्वर में बोला - “सबसे पहले इनके हाथों आपको थोड़ी-सी तकलीफ उठानी पड़ेगी ।”
“तकलीफ ?”
“अभी आपके पति फ्लैट में से एक रस्सी ढूंढ के लाएंगे और आप चारों की मुश्कें कसेंगे । फिर आप लोगों का मुंह बंद करने का भी कोई जुगाड़ इन्हें करना पड़ेगा ।”
“हम अपनी जुबान वैसे ही नहीं खालेंगे । हरगिज नहीं खालेंगे ।”
“जुबानी गारंटी नहीं होती न, बहनजी ।”
“लेकिन...”
“बस बड़ी हद पंद्रह मिनट की तकलीफ जानिए । आपकी बात तो जुदा है लेकिन फूल जैसे बच्चे हैं, आपके, इनको ज्यादा तकलीफ पहुंचे, मेरा तो इस ख्याल से ही कलेजा फटता है । यकीन जानिए, पंद्रह मिनट की तकलीफ भी आप लोगों को देना निहायत जरूरी न होता तो मैं हरगिज इसरार न करता । वैसे भी जान है तो जहान है । जहान में जान बरकरार रहे इसके लिए पंद्रह मिनट की तकलीफ क्या मायने रखती है !”
विमल के कहने का ढंग कुछ ऐसा आश्वासन-भरा था जैसे वह उन लोगों को बंधनों में जकड़े जाने का इंतजाम न कर रहा हो, फूलों की शैया पर विराजने को आमंत्रित कर रहा हो ।
औरत ने सहमति में सिर हिलाना आरंभ कर दिया ।
भास्कर ने विमल के आदेश का पालन किया । विमल के निरीक्षण में अपने बीवी-बच्चों को वह बेडरूम में ले गया जहां उसने सबकी मुश्कें कस दीं और सबके मुंह में कपड़े ठूंस दिए ।
“अब भास्कर” - विमल बोला - “तू मुझे ऊपरले फ्लैट में जाने का रास्ता बता ।”
“वो जो बाहर लिफ्ट है ।” - भास्कर बोला - “उसकी बगल में ही सीढियां हैं जो...”
“बाहर वाला रास्ता मुझे मालूम है । भीतर वाला रास्ता बता ।”
अब भास्कर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“भी... भीतर वाला रास्ता ?”
“हां । इस फ्लैट के भीतर से ऊपर 404 नंबर फ्लैट तक रास्ता जाता है । मैं उस रास्ते की बात कर रहा हूं जिससे होकर इब्राहीम कालिया ऊपर बंद फ्लैट में वापिस पहुंचता है । ऐसा एक खुफिया रास्ता यहां है । कहां है वो ?”
भास्कर ने उत्तर न दिया ।
“मैं सबसे पहले तेरी छोटी लड़की को शूट करूंगा । फिर...”
“वो मुझे जान से मार डालेगा ।”
“बहुत मुमकिन है । लेकिन तेरा कुनबा बच जाएगा । मैं तुम सबको मार डालूंगा ।”
भास्कर ने जोर से थूक निगली ।
“वैसे हो सकता है कि तुझे जान से मार डालने के लिए कालिया जिंदा न बचे । कहने का मतलब है कि मेरे साथ सहयोग करने में तुम्हारी ज्यादा गति है ।”
उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
विमल ने रिवॉल्वर का रुख उसकी चार साल की बच्ची की तरफ किया ।
तत्काल और फटी-फटी आंखों से अपने पति को इशारे करने लगी ।
“मैं बताता हूं ।” - भास्कर के कंठ से बड़ी मुश्किल से बोल फूटा ।
“गुड !”
भास्कर उसे ड्राइंगरूम में ले आया । आकार-प्रकार में वो कमरा बिल्कुल ऊपरले फ्लैट के कमरे जैसा ही था अलबत्ता साज-सज्जा में थोड़ा फर्क था । वहां पहुंचकर भास्कर ने एक अलमारी खोली । उसने भीतर कहीं टटोलकर एक बटन दबाया तो अलमारी का पिछला हिस्सा निशब्द अपने स्थान से सरक गया और उसके पीछे से ऊपर को जाती संकरी सीढियां प्रकट हुईं ।
“हूं ।” - विमल गंभीरता से बोला - “टेलीफोन का क्या किस्सा है ?”
“टेलीफोन ?” - भास्कर बोला ।
“जिसे कालिया सुनता है । या भट्टी सुनता है । जिस पर भिंडी बाजार की ट्रेवल एजेंसी से कॉल आती है ।”
“उसकी एक साकेट ऊपरले फ्लैट में भी है । कालिया उसी साकेट में प्लग लगाकर फोन सुनता है ।”
“जब वो वहां नहीं होता तो ?”
“तो फोन नीचे लगा रहता है और उसे हम इस्तेमाल करते हैं ।”
“इस वक्त फोन ऊपर है ?”
वो खामोश रहा ।
“अगर तुम समझते हो कि यूं तुम्हारी हामी से कालिया के ऊपर होने की तसदीक हो जाएगी तो खातिर जमा रखो, मुझे पहले ही मालूम है कालिया ऊपरले फ्लैट में मौजूद है ।”
वो कुछ न बोला ।
“अब...”
विमल ने खुद उसकी मुश्क कसीं और उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर उसे एक सोफे पर डाल दिया ।
फिर वह दबे पांव अंधेरी सीढियां चढ गया ।
उसे सीढियों के ऊपर वैसी ही अलमारी में जाकर खत्म होने की उम्मीद थी । वैसी एक अलमारी उसने ऊपर बार के पहलू में देखी भी थी ।
वह ऊपर पहुंचा ।
उसका अंदाजा सही निकला । सीढियां कपड़े टंगी एक अलमारी में ही जाकर खत्म हुईं । कपड़े जरूर वहां अलमारी के पृष्ठ भाग की ओट बनाने की खातिर टांगे जाते थे वरना ड्राइंगरूम में कपड़ों की अलमारी का और क्या काम था ! जैसे बटन दबाने से नीचे अलमारी की पिछली पैनल सरकी थी वैसे ही वहां की अलमारी की भी पैनल सरक चुकी थी जिसका मतलब था कि बटन के एक ही आपरेशन से ऊपर-नीचे दोनों तरफ की पैनलें सरक जाती थीं ।
वह उकडूं बैठ गया । उसने बंद अलमारी के की-होल में आंख लगाकर बाहर झांका ।
बाहर उसे जो सबसे पहला चेहरा दिखाई दिया, वो इकबालसिंह का था । उसके पहले में डोंगरे खड़ा था और पीछे उसके चार सशस्त्र प्यादे खड़े थे । इकबालसिंह के सामने कालिया बैठा था । उसके पहलू में भट्टी खड़ा था और पीछे चार सशस्त्र प्यादे खड़े थे । कालिया, भट्टी या उसने प्यादों में से कोई भी जरा पहलू बदलता था तो इकबालसिंह उसकी ओट में आ जाता था ।
अलमारी के पल्लों को छेड़ने की विमल हिम्मत नहीं कर सकता था क्योंकि उनमें पैदा हुई जरा सी जुंबिश भी बाहर मौजूद बाहर आदमियों में किसी की भी नजर में आ सकती थी । वह यह तक जानने के लिए पल्लों को नहीं छेड़ सकता था कि अलमारी बाहर से बंद थी या खुली ।
यानी कि उन हालात में इकबालसिंह को अपने से सिर्फ पांच गज दूर बैठा पाकर भी वह उसे शूट करने में कामयाब नहीं हो सकता था । अलबत्ता बाहर चलता वार्त्तालाप वह बखूबी सुन सकता था क्योंकि बाहर की आवाजें उस तक साफ पहुंच रही थीं ।
वह निशब्द सुनने लगा ।
“आज अगर बखिया साहब जिंदा होते” - इकबालसिंह कह रहा था - “तो ‘कंपनी’ को इस हत्तक का मुंह न देखना पड़ता ।”
“किस हत्तक का ?” - कालिया बोला ।
“वही जो मेरी वहां मौजूदगी कर रही है । ‘कंपनी’ के सरगना को खुद चलकर ऐसे शख्स के पास आना पड़ा है जो ‘कंपनी’ की आंख में डंडा किए है ।”
“ये कौन हुआ ?”
“तू हुआ और कौन हुआ ?”
“ऐसी बात थी तो नहीं आना था । अभी भी क्या वांदा है ! अभी वापिस चला जा ।”
“कालिया, ये कैसी जुबान बोल रहा है मेरे से ? मैं तेरा मेहमान हूं । मेहमान से पेश आता है ?”
“मेहमान जब आते ही मेजबान को गलत करार देने लगे, उसके नुक्स गिनाने लगे तो क्या करे मेजबान !”
“देख, मैं यहां...”
“और मैंने क्या ‘कंपनी’ की आंख में डंडा किया है ? उल्टे ‘कपनी’ ही मेरा वजूद मिटाने पर तुली हुई है ।”
“तू इस बात से इनकार करता है कि बादशाह का आलीशान कैसीनो तेरी वजह से नेस्तनाबूद हुआ ?”
“मेरी वजह से नहीं, ‘कंपनी’ के खासुलखास दुश्मन सोहल की वजह से ।”
“उसे शै देने वाला कौन है ? उसे पनाह देने वाला कौन है ? उसके लिए सलाहियात जुटाने वाला कौन है ? ‘कंपनी’ के खिलाफ उसके हाथ मजबूत करने वाला कौन है ?”
कालिया खामोश रहा ।
“मेरी बीवी को पूना से अगवा कर लाना क्या अकेले सोहल के बस का था ? उसे तो सात जन्म यही खबर नहीं लग सकती थी कि मेरी बीवी कहां थी ?”
“इकबालसिंह, अगर कोई कह दे कि इन मामलात में कालिया का हाथ था तो...”
“कोई नहीं कह देगा । इतना सयाना तू यकीनन है कि तू होने न दे किसी ऐसे कह देने वाले को । ‘कंपनी’ के खिलाफ खुला खेल खेलने का हौसला अपने में पैदा करने में अभी भी तुझे कई सूरज-चांद देखने होंगे कालिया । अगर तू समझता है कि सोहल को आगे करके ‘कंपनी’ के खिलाफ खुला खेल खेलने से तेरी करतूतों पर पर्दा पड़ गया है तो गलत समझता है । सोहल की पीठ पर तू है, इसके लिए मुझे किसी सबूत की जरूरत नहीं, और मैं इस बाबत तेरा इनकार सुनने यहां नहीं आया ।”
“तो क्यों आया ?”
“इस घड़ी” - इकबालसिंह अपनी ही झोंक में कहता रहा - “टापू की तबाही और मेरी बीवी के अगुवा में अपना हाथ होने से इनकार करने की तुझे खुली छूट है । इस घड़ी तू चाहे तो इस बात से भी इनकार कर सकता है कि पिछले हफ्ते ‘कंपनी’ के दो आदमियों को तूने शूट नहीं करवाया, ‘कंपनी’ का पैडर रोड वाला पेट्रोल पंप तूने नहीं जलवाया, चांदनी की मौत का सामान तूने नहीं करवाया...”
“इन बातों में क्या रखा है, इकबालसिंह ! ऐसी फेहरिस्त मैं तुझे इससे लंबी गिनवा सकता हूं । अगर नफे-नुकसान का हिसाब-किताब करना है तो मेरे नुकसान वाले खाते में देख कितनी आइटमें दर्ज हैं ! गिन । मेरे खास आदमी सतीश गावली का ट्रैफिक में चौराहे पर कत्ल हुआ । टैगोर नगर में मेरा कूरियर अरविंद नायक मरा और उससे एक करोड़ की हेरोइन छिली । धारावी में मेरे डेढ दर्जन आदमी मार गिराए गए और मुझे ये संदेशा भिजवाया गया कि आने वाले दिनों में मेरे गैंग का एक भी आदमी जिंदा नहीं बचेगा । मैं भी नहीं । अयूब पहलवान का इसलिए खात्मा हुआ क्योंकि वो माल मेरे से लेने लगा था ।”
“टापू की तबाही के मुकाबले में ये नुकसान कुछ भी नहीं ।”
“मैंने या मेरे किसी आदमी ने टापू पर कदम तक नहीं रखा ।”
“रखा भी हो तो क्या है ? मैं बोला न मैं यहां तेरा इनकार या इकरार सुनने नहीं आया ।”
“मैं सुना । पहले भी पूछा फिर पूछता हूं । क्यों आया ?”
“मैं तुझे ये समझाने आया हूं कि सोहल से गठजोड़ करके तू अपनी मौत को दावत दे रहा है । तू अपनी जवान मौत को दावत दे रहा है ।”
“अच्छा !”
“तू अपनी गोद में एक सांप पाल रहा है जो तुझे ही डंसेगा ।”
“तेरा इशारा सोहल की तरफ है ?”
“और किस की तरफ होगा ?”
“वो मुझे डंसेगा ?”
“यकीनन ।”
“वो तेरा दुश्मन है ।”
“सिर्फ मेरा नहीं । मैंने उसका क्या बिगाड़ा है ?”
“वो तो तू जाने !”
“मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा । बिगाड़ा होता तो उसने तभी मेरी लाश गिरा दी होती जब उसने बखिया का मारा था ।”
“वो... वो ऐसा कर सकता था ?”
“बिल्कुल कर सकता था । बहुत सहूलियत से कर सकता था । बखिया का कत्ल कर चुकने के बाद वो उसकी लाश के सिरहाने खड़ा था जबकि मैं वहां पहुंचा था । अकेला । निहत्था । उस घड़ी मेरी भी लाश गिरा देना उसके लिए मच्छर मसल देने जैसा आसान काम था ।”
“तो... तो किया क्यों नहीं उसने ऐसा ?”
“यही तो वो भेद की बात है जो मैं आज तुझे समझाने आया हूं ।”
“क्या किस्सा है ? बाप, अक्खी मुंबई को मालूम है कि सोहल ने तेरे को जान से मार डालने की धमकी दी हुई है । जब तूने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं, जो उसने बखिया को और उसके तेरे जैसे कोई डेढ दर्जन ओहदेदारों को मार गिराने के बाद भी तुझे छोड़ दिया तो आज ही वो क्यों तेरे खून का प्यासा है ?”
“क्योंकि वो हर उस आदमी के खून का प्यासा है जो आर्गेनाइज्ड क्राइम का झंडाबरदार है । बखिया की मौत के बाद उसने इस शहर को आर्गेनाइज्ड क्राइम के जेरेसाया पलती कत्लगाह कहा था, अत्याचार का ऐसा डेरा कहा था जहां कोई जिंदगी महफूज नहीं, इंसान की बर्बरता और उसके वहशी नंगे रूप की नुमाइशगाह कहा था । इसलिए उसने अपनी बेमानी जिंदगी को कोई मानी देने की नीयत से आर्गेनाइज्ड क्राइम की मुखालफत करने का बीड़ा उठाया था । उसने मुझे वार्निंग दी थी कि मैं कुछ भी करूं, बखिया बनने की कोशिश न करूं । कालिया, तब उसने जो कुछ कहा था उसका एक-एक लफ्ज आज भी हर घड़ी मेरे कानों में गूंजता है । उसने कहा था - ‘जब-जब बखिया की ‘कंपनी’ जैसी आर्गेनाइज्ड क्राइम की कोई संस्था इस मुल्क में सिर उठाएगी, तब-तब मैं उस पर कहर बनके टूटूंगा । यह मेरा आर्गेनाइज्ड क्राइम के बखिया जैसे उन तमाम महंतों से वादा है जो अपने आपको कायदे-काननू और सरकार से ऊंचा समझते हैं, जो मुल्क के कानून को अपना गुलाम और मुल्क की सरकार को अपनी लौंडी समझते हैं । मैं काननू की मुखालफत करके कानून का रखवाला बनके दिखाऊंगा’ ।”
“उसने ऐसा कहा था ?” - कालिया मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“हां । ऐन ऐसा ही कहा था उसने । मेरे से उसकी जाती अदावत नहीं । वो मुझे अपना गुनहगार इसलिए मानता है क्योंकि मैंने उसकी वार्निंग पर अमल नहीं किया । मैं बखिया की जगह बखिया बनने से बाज न आया । अगर वो मेरी लाश गिराने में कामयाब हो जाता है तो मेरे बाद जो कोई भी मेरी जगह लेगा, उसका भी वही हश्र होगा, चाहे वो व्यास शंकर गजरे हो चाहे इब्राहीम कालिया ।”
“क... कमाल है !”
“क्या ख्वाहिश है तेरी आज की तारीख में ? यही न कि तू मेरी जगह लेना चाहता है ! तू बखिया की तरह मुंबई का बादशाह बनना चाहता है । फर्ज कर तेरी ख्वाहिश पूरी हो गई । तूने मेरी जगह ले ली । तूने बखिया की जगह ले ली । तू बन गया मुंबई का बादशाह । लेकिन बादशाहत के इस ओहदे पर तो सोहल की वार्निंग पैवस्त है । बादशाहत की इस कुर्सी के ऊपर तो सोहल की धमकी की तलवार लटक रही है । जो कोई भी यूं कुर्सीनशीन होगा, सोहल की धमकी की तलवार के जेरेसाया ही होगा । तेरी ख्वाहिश पूरी हो गई तो ये धमकी तुझे विरासत में मिलेगी, कालिया । अब तो तू सोहल से वाकिफ हो चुका है, क्या अब भी तुझे समझाने की जरूरत है कि सोहल यकीनी तौर पर अपनी धमकी पर खरा उरतरकर दिखा सकता है ?”
कालिया के मुंह से बोल न फूटा ।
“कहने का मतलब ये है, कालिया, कि तू गलत आदमी से यारी लगा बैठा वो हमारी किस्म का आदमी नहीं । हम हैं एक-दूसरे की किस्म के आदमी वो नहीं । उस आदमी से जुगलबंदी करके तू ऐसी बेल को पनपने का मौका दे रहा है जो खुद पेड़ को खा जाती है । मैं फिर कहता हूं, सोहल की सूरत में तू अपनी गोद में एक सांप को पाल रहा है जो तुझे ही डंसेगा । उसके हाथों आज मैं मारा गया तो समझ ले कल तेरी बारी है ।”
“ऐसा यारमार आदमी लगता तो नहीं वो ।”
“है भी नहीं । लेकिन तुझे ये खुशफहमी क्योंकर हो गई कि वो तेरा यार हो गया है ? वो तेरा यार नहीं हो गया । तेरे जैसे किसी अंडरवर्ल्ड बॉस का यार वो हो भी नहीं सकता ।”
“जबकि वो खुद भी यही है ।” - कालिया बुदबुदाया - “अंडरवर्ल्ड बॉस ! खतरनाक डकैत ! बेरहम कातिल ! इश्तिहारी मुजरिम !”
“ऐसा पब्लिक समझती है, पुलिस समझती है, अंडरवर्ल्ड समझता है लेकिन वो खुद नहीं समझता । वो अपने आपको मुल्क के कायदे-कानून का रखवाला, मजलूम का मुहाफिज, हमारे जैसे लोगों का दुश्मन और जाने क्या-क्या समझता है !”
कालिया खामोश रहा । इकबालसिंह की बातों का प्रभाव उस पर हर क्षण गहराता चला जा रहा था ।
“क्या समझा, कालिया !” - इकबालसिंह बोला - “वो तेरा यार नहीं हो गया । उसने महज ताल्लुकात बनाए तेरे से तेरे ‘कंपनी’ से दुश्मनी के रवैये को कैश करने की खातिर । कौन नहीं जानता कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है ! कोई नंगे हाथों से अंगारा नहीं पकड़ सकता । अंगारा हमेशा चिमटे से पकड़ा जाता है । कालिया, तू उसका यार नहीं, चिमटा है जिससे उसने” - इकबालसिंह ने अपनी छाती पर दस्तक दी - “अंगारा पकड़ना है ।”
“वो इतना चालाक है ?”
“वो इससे कहीं ज्यादा चालाक है । उसकी चालाकी और होशियारी की पुरानी मिसालें तो दर्जनों हैं, ताजी दो मिसालों पर गौर कर जिसका कि तू खुद गवाह है । टापू की जो गत उसने बनाई, वो कोई और माई का लाल बना सकता था ! मेरी बीवी को हथियार बनाकर जैसे वो तुकाराम को छुड़ाकर ले गया, वैसे कोई और ये काम कर सकता था ! वो सलामत रहा तो ऐसे ही एक दिन वो मेरी छाती पर आकर बैठा होगा और मेरी गर्दन मरोड़ रहा होगा । उसके बाद तेरी बारी होगी, कालिया ।”
“तू तो मुझे डरा रहा है !”
“डरा नहीं रहा, हालात से आगाह कर रहा हूं । उस खतरे से तुझे वाकिफ करा रहा हूं जो तेरे सिर पर मंडरा रहा है और जो तेरा खुद का पैदा किया हुआ है ।”
“मैं क्या करूं ?”
“हां । ये समझदारी का सवाल है जो तुझे बहुत पहले करना चाहिए था । कालिया, तू ये मान के चल कि वो शख्स तेरा भी उतना ही दुश्मन है जितना कि ‘कंपनी’ का । इस लिहाज से हम दोनों में दोस्ती होनी चाहिए ।”
“वो भी यही कहता था ।”
“क्या ?”
“कि एक ही आदमी के दो दुश्मन दोस्त होते हैं ।”
“तू और वो ?”
“हां ।”
“लेकिन अभी मैंने तुझे समझाया न कि दोस्ती एक ही किस्म के लोगों में मुमकिन होती है । वो तेरी किस्म का लोग नहीं, कालिया । सांप और नेवले की दोस्ती कहीं मुमकिन है !”
“लेकिन तेरी-मेरी दोस्ती भी कैसे चल सकती है ?”
“क्यों नहीं हो सकती ? क्या वांदा है हमारी दोस्ती में ?”
“कंपनी’ ने मेरा इतना नुकसान किया !”
“तूने कम किया ?”
कालिया ने जवाब न दिया ।
“कम तो क्या, कहीं ज्यादा किया ।” - इकबालसिंह बोला - “लेकिन ये न भूल कि जो कुछ किया सोहल के बलबूते किया । अपने बलबूते तो सिर्फ एक औरतजात को मार सका, ‘कंपनी’ के दो आदमी खलास करवा सका और एक पैट्रोल पम्प फुंकवा सका । तेरे अपने बलबूते की पोल तो ये है कि ‘कंपनी’ के खौफ से ते जलावतन हुआ हुआ है और यहां बंबई में मुंह छुपाता फिरता है ।”
कालिया के चेहरे पर बड़े कठोर भाव आए ।
“तिलमिलाने की जरूरत नहीं, कालिया ।” - इकबालसिंह मीठे स्वर में बोला - “ये बात मैंने तुझे तपाने या खराब करने के लिए नहीं कही, बल्कि तुझे हालात का सही जायजा देने के लिए कही है ।”
“मैं सुन रहा हूं ।” - कालिया जब्त करके बोला ।
“बढिया । अब इसी सब्र वाले मूड में आगे सुन । देख, तेरा तकरीबन हर आदमी ‘कंपनी’ की निगाह में है । जैसे अजमेरसिंह के ढाबे में डोंगरे ने तेरे डेढ दर्जन आदमी मारे, वैसे ही ये तेरे एक-एक आदमी को चुन-चुन के खलास कर सकता है । तेरी भिंडी बाजार वाली ट्रैवल एजेंसी को चुटकियों में खाक किया जा सकता है । तेरा मलाड वाला एयरकंडीशंड फ्लैट तो अब तक फुंक भी चुका होता, समझ ले कि इत्तफाक से सलामत रह गया । ‘कंपनी’ एक बार कमर कस ले तो मुंबई के तेरे इस फ्लैट जैसे बाकी ठीए भी तलाश कर सकती है और चुन चुन के उनका मटियामेट कर सकती है ।”
“जब ये सब कुछ हो रहा होगा” - कालिया व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “तब मैं हाथ पर हाथ धर के खामोश बैठा होऊंगा । बरोबर ?”
“नहीं । तू भी उछलेगा, तड़पेगा, ‘कंपनी’ के चंद आदमी मार गिराने का सामान करेगा, ‘कंपनी’ के चंद ठीयों को हिट करने में कामयाब हो के दिखाएगा । ‘कंपनी’ के ये छोटे-मोटे नुकसान होंगे जो कि ‘कपनी’ बर्दाश्त कर सकती है - आखिर पूना और स्वैन नैक प्वाइंट पर हुए बड़े नुकसान भी तो ‘कंपनी’ ने बर्दाश्त किए ही हैं - लेकिन कालिया, बदले में जो तेरे नुकसान होंगे वो तुझे तबाह कर देंगे । कह कि मैं गलत कर रहा हूं ।”
“कैसीनो की लूट से मेरा कुछ लेना-देना नहीं और पूना में...”
“तू खुशी से ऐसा कह । तेरा ऐसा कहना मुझे कबूल है । आखिर मैं दोस्ती का प्रस्ताव लेकर तेरे पास आया हूं । और मैं ये जानता नहीं कि गुजरी बातों को भुलाए बिना दोस्ती नहीं हो सकती ?”
“लेकिन...”
“अभी अपने और भट्टी के बारे में ‘कंपनी’ के प्रोग्राम सुन ले, फिर एक ही बार बोलना ।”
“मेरे और भट्टी की बाबत क्या कहना चाहता है ?”
“पहले अपनी बाबत सुनेगा या भट्टी की बाबत ?”
“कुछ भी बोल ।”
“ठीक है पहले भट्टी की सुन । हर दूसरी-तीसरी रात कोलाबा के एक फ्लैट में जिस औरत के पास भट्टी आजकल तफरीह के लिए जाता है, मेरे एक इशारे पर वही इसे अपने आगोश में ले के इसकी पीठ में खंजर भौंक देगी ।”
कमरे में एकाएक सन्नाटा छा गया ।
विमल को इस बात का बड़ा अफसोस हुआ कि वो उस घड़ी भट्टी की सूरत न देख सका ।
“अब अपनी सुन ।” - इकबालसिंह स्थिर, संतुलित स्वर में बोला - “दुबई में औरतें नचाने का बहुत शौक है न तुझे ! कालिया, तेरे दुबई के खास मेहमानों का मनोरंजन करने के लिए बंबई का नाइट वाचर्स नाम का चालीस जनों का जो म्यूजिकल ग्रुप तेरे बुलावे पर अगले हफ्ते शो करने के लिए दुबई पहुंच रहा है, उसमें से एक आदमी अपनी परफारमेंस के दौरान स्टेज पर से ही तुझे शूट कर देगा ।”
कालिया सन्न रह गया ।
“कहने का मतलब ये है कि दुबई में तू इतना ही सेफ है कि यहां की पुलिस की पहुंच तेरे गिरहबान तक नहीं हो सकती । ये जानते हुए भी कि तू दुबई में है, वो तुझे पकड़कर यहां नहीं ला सकती लेकिन ‘कंपनी’ की हमलावर बांह बहुत लंबी है, कालिया । अपने दुश्मन की गर्दन नापने के लिए वो दुबई तो क्या अमरीका तक पहुंच सकती है ।”
कोई कुछ न बोला ।
“मैंने जो कहना था, कह दिया ।” - इकबालसिंह बोला - “अब तूने कुछ कहना है तो बोल ।”
“तू” - इब्राहीम कालिया इस बार बोला तो उसके स्वर में खोखलापन था - “धमकी से दोस्ती करना चाहता है ?”
“हरगिज भी नहीं ।” - इकबालसिंह बोला - “मेरा जो कहा तुझे धमकी लगा, वो कहना इसलिए जरूरी था कि मेरे खुद चलकर तेरे पास आने का कहीं तू कोई गलत मतलब न लगा ले । कहीं ये न समझ ले कि ‘कंपनी’ कमजोर पड़ रही है या पिलपिला रही है । अपनी चंद कामयाबियों से तुझे ये खुशफहमी न हो जाए कि तूने ‘कंपनी’ की इस हद तक कमर तोड़ दी कि खुद इकबालसिंह को दौड़े-दौड़े तेरे पास आना पड़ा ।”
“हूं ।”
“मेरा काम तुझे समझाना था, मैं समझा चुका । अब समझना, न समझना तेरी अपनी मर्जी पर मुनहसर है । लेकिन एक बात चाहे तेरे से स्टांप पेपर पर लिखवा ले । अव्वल तो ‘कंपनी’ से टक्कर लेकर जुर्म की बादशाहत की उन बुलंदियों तक तू पहुंच नहीं सकता, जिस तक पहुंचने का तू ख्वाहिशमंद है, किसी करिश्मासाज तरीके से पहुंच भी गया तो उसी सोहल के हाथों कुत्ते की मौत मारा जाएगा जिसके हाथ तू मेरी गर्दन पर पहुंचने के लिए मजबूत कर रहा है ।”
“फर्ज कर मैं ‘कंपनी’ से दोस्ती कर लेता हूं” - कालिया विचारपूर्ण स्वर में बोला - “फिर मेरे नाकाटिक्स धंधे का क्या होगा ? ‘कंपनी’ ने तो नारकाटिक्स स्मगलिंग को अपनी बपौती माना हुआ है । फिर मेरा धंधा कैसे चलेगा ?”
“मुझे मालूम था हमारे बीच ये बात उठेगी । इसलिए मैं इसका जवाब पहले ही सोच के आया हूं ।”
“क्या जवाब है ?”
“हम इलाके बांट लेंगे । यूं हममें टकराव नहीं होगा ।”
“गजरे को ये बात मंजूर होगी ?”
“क्यों नहीं होगी !”
“आखिर वो नारकाटिक्स ट्रेड का इंचार्ज है ।”
“गजरे मेरे से बाहर नहीं जा सकता । तू उसकी फिक्र छोड़ । हम दोनों में जो समझौता होगा, वो गजरे को मंजूर होगा, इसका जिम्मा मैं लेता हूं ।”
“फिर क्या वांदा है !”
“यानी कि दोस्ती पक्की ?”
“पक्की ।”
“मिला हाथ ।”
दो टॉप के मवालियों के हाथ मिले ।
“अब बोल” - इकबालसिंह बडे़ आशापूर्ण स्वर में बोला - “सोहल कहां है ?”
“वो थोड़ी देर पहले तक यहां था” - कालिया बोला - “तेरे आगे-आगे ही यहां से गया है । मैं तो डर रहा था कि कहीं यहीं तुम दोनों का आमना-सामना न हो जाता ।”
“जो कि बहुत अच्छा होता ।”
“ये तो अब कहने की बात है न ? तब तो मैं हरगिज नहीं चाहता था कि वो...”
“यहां से गया कहां वो ?”
“खार ही गया होगा ।”
“खार ही गया है ।” - भट्टी बोला - “मैंने खुद उसके लिए खार की टैक्सी ठीक की थी ।”
“खार में कहां ?”
कालिया ने उसे अपने खार वाले फ्लैट की बाबत बताया ।
“वहां फोन है ?” - इकबालसिंह ने पूछा ।
“हां ।” - कालिया बोला ।
“मालूम कर, पहुंच गया !”
“भट्टी, फोन कर और उसे कह कि...”
तभी एकाएक वहां घंटी की एक कर्कश आवाज गूंजी ।
“ये क्या हुआ ?” - इकबालसिंह हड़बड़ाकर बोला ।
“गड़बड़ !” - कालिया उछलकर खड़ा हुआ - “नीचे ।”
“नीचे कहां ? क्या मतलब है इस...”
विमल बाकी बात सुनने को न रुका । वो सीधा हुआ और संकरी सीढियों पर नीचे भागा ।
वह नीचे ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उसने पाया कि भास्कर जिसे कि वो एक सोफे पर डालकर गया था, कमरे के कोने में एक स्विचबोर्ड के पास खड़ा था और उस पर लगे एक पुश बटन को अपने माथे से दबाने की कोशिश कर रहा था ।
निश्चय ही वही ऊपर बजती वार्निगबेल का स्वि्च था ।
भास्कर नाम का वो शख्स स्वामीभक्ति दिखाने से बाज नहीं आया था ।
विमल ने झोले में मौजूद पूना के बचे तीन बम निकालकर अपनी जेबों में डाले और सूटकेस संभाले बाहर को लपका ।
सीढियों पर धम्म-धम्म पड़ते कदमों की आवाज वहां तक आ रही थी ।
विमल ने दौड़कर फ्लैट का दरवाजा खोला और बाहर एक काला हथगोला फेंका । तत्काल वहां धुआं फैलने लगा ।
सीढियों की तरफ से शोर उठा ।
वह निर्विघ्न नीचे जाती सीढियों के दहाने पर पहुंचा और नीचे को भागा ।
दूसरी मंजिल के गुजरते समय उसने देखा कि दोनों लिफ्टें नीचे को जा रही थीं ।
वह पहली मंजिल पर पहुंचकर एक क्षण को ठिठका, फिर गलियारे को खाली पाकर दौड़कर उस खिड़की के करीब पहुंचा जिसका रुख बाहर सड़क की ओर था । उसने खिड़की को धक्का देकर खोला और सावधानी से नीचे झांका ।
खिड़की के ऐन नीचे पांच काली एम्बेसेडर कारें खड़ी थीं ।
तब तक सूरज डूब चूका था, आसमान में अभी डूबते सूरज की रोशनी मौजूद थी लेकिन सड़कों पर स्ट्रीट लाइट्स चल चुकीं थीं ।
उसकी निगाह सड़क से पार खड़ी सालाउद्दीन के साहबजादी की नीली ओमनी की तरफ उठी । काले शीशों की वजह से वह तो भीतर किसी को न देख सका लेकिन ओमनी के तुरंत हरकत में आ जाने का उसने यही मतलब लगाया कि उन लोगों ने उसे देख लिया था ।
विमल खिड़की की चौखट पर चढ गया । उसने धुंए का दूसरा बम नीचे सड़क पर फेंका और उसके पीछे-पीछे निसंकोच नीचे छलांग लगा दी ।
एक जोर की आवाज के साथ वह एक काली एम्बेसेडर की छत पर जाकर गिरा । वहां से लुढकनी खाकर जव वह धुएं के गहरे होते गुबार के नीचे सड़क पर कूदा, ऐन उसी वक्त नीली ओमनी उसके करीब आकर ठिठकी । ब्रेकों की चरचराहट से वातावरण गूंजा, ओमनी का उसकी ओर का लुढकने वाला दरवाजा खुला, और फिर उसके कान में जावेद की आवाज पड़ी - “भाईजान ! जल्दी !”
विमल ने ओमनी के खुले दरवाजे के भीतर जुस्त-सी लगाई । चार मजबूत हाथों ने उसे थामा, ओमनी तत्काल सड़क पर भाग निकली । वह साठ-सत्तर की स्पीड पकड़ चुकी थी तब तो कहीं जाकर उसका दरवाजा बंद हुआ ।
पीछे हाहाकर मचा हुआ था ।
विमल ने देखा ओमनी सलाउद्दीन का सबसे छोटा बेटा आमिर चला रहा था । उसके पहलू में नासिर बैठा था और वह खुद पीछे जावेद और आरिफ के बीच में मौजूद था ।
उसन गर्दन घुमाकर पीछे सड़क पर निगाह डाली ।
***
ऐन उस क्षण पहली काली एम्बेसेडर धुंए के बादलों को चीरकर बाहर निकल रही थी ।
“वो यहां था ।” - इब्राहीम कालिया विक्षिप्तों की तरह चिल्ला रहा था और अपने बाल नोच रहा था - “वो यहीं था और जरूर उसने हमारी बातचीत भी सुनी है ।”
“अब क्या फर्क पड़ता है ।” - इकबालसिंह धीरे से बोला ।
“वो जान गया है कि मैं उससे दगाबाजी करने को आमादा था ।”
“अरे, बोला न अब कोई फर्क नहीं पड़ता । डोंगरे उसके पीछे गया है । वो उसे नहीं छोड़ना वाला ।”
“मेरे ठीए का भेद खुल गया ।” - कालिया ने प्रलाप किया ।
“अरे, मूर्ख ! तू ठीए को रो रहा है । घंटी की आवाज पर वो यहां से भाग न खड़ा हुआ होता तो मुमकिन था वो हम दोनों को यहीं ढेर कर देता । तेरे इस ठीए का खुफिया इंतजाम ही तेरी मौत की वजह बन जाता ।”
“अब क्या होगा ?”
“कुछ नहीं होगा । वो पकड़ा जाएगा । यकीनन पकड़ा जाएगा ।”
“न पकड़ा गया तो ?”
“कुछ नहीं होगा । वो पकड़ा जाएगा । यकीनन पकड़ा जाएगा ।”
“न पकड़ा गया तो ?”
“तो मेरे गले लग के फूट-फूट के रोने लगना ।”
“क्या बकता है ?”
“तो आदमी का बच्चा बन । जो हुआ उसे भूल जा । जो होने वाला है उसका ख्याल कर । जो होना चाहिए उसकी जुगत कर ।”
“मैं क्या करूं ?”
“हां, तू क्या करे ? मैं ही करता हूं । टेलीफोन इधर ला ।”
कालिया ने टेलीफोन उसके सामने सरका दिया ।
“किसे फोन लगाएगा ?” - वह बोला ।
“पुलिस को ।” - इकबालसिंह बोला ।
“पुलिस को !” - कालिया सकपकाया ।
“दोस्त पुलिस को ।”
“ओह ! फिर तो एक बात बोलता हूं ।”
“बोल !”
“उसके पास पचास लाख रुपया था । एक सफेद सूटकेस में । हो सकता है वो सूटकेस अभी भी उसके पास हो ।”
“बढिया ।”
इकबालसिंह ने एक नंबर डायल किया ।
“डी.सी.पी. डिडोलकर प्लीज ।” - उत्तर मिलने पर वह बोला ।
“कौन बात करेंगे ?” - पूछा गया ।
“इकबालसिंह । होटल सी-व्यू से ।”
“होल्ड कीजिए ।”
कुछ क्षण बात ‘दोस्त पुलिसिया’ लाइन पर आया ।
“मैं इकबालसिंह ।” - बिना किसी औपचारिकता के वह बोला - “अभी-अभी एक आदमी एक नीली मारुति वैन पर जैकब सर्कल की ओर भागा है । सूरत में फ्रेंचकट दाढी-मूंछ वाला पारसी लगता है लेकिन दाढी नकली है । ये वही आदमी है जिसे पहले पुलिस ने सोहल समझकर पकड़ा था लेकिन फिर छोड़ दिया था क्योंकि वह सोहल नहीं निकला था ।”
“ओह ! यानी कि वो सोहल है ।”
“जब उसे सोहल साबित करना पुलिस के बस का काम नहीं रहा तो समझो वो काला चोर है ।”
“गाड़ी का नंबर ?”
“नहीं मालूम ।”
“और ?”
“गाड़ी में और कोई ?”
“नहीं मालूम । हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता ।”
“और उसके पास पचास लाख रुपया है । एक सफेद सूटकेस में । उसे पकड़ो । रुपया तुम्हारा, आदमी हमारा । बोलो मंजूर ?”
“मंजूर ।”
“बढिया ।”
इकबालसिंह ने रिसीवर रख दिया । वह कालिया की ओर घूमा और अपलक उसे देखने लगा ।
कालिया ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“अब” - इकबालसिंह धीरे से बोला - “पूना वाला माल निकाल ।”
“क... क्या ?”
“कालिया, तेरी तमाम खताएं सोहल की पकड़वाने के बदले में माफ थीं । तू उसे नहीं पकड़वा सका ।”
“वो... वो पकड़ा जाएगा ।”
“जरूर पकड़ा जाएगा लेकिन तेरा क्या कमाल होगा उसमें ?”
कालिया ने जोर से थूक निगली । उस घड़ी उसका मनोबल इस हद तक नीचे गिर चुका था कि उससे ये कहते न बना कि माल सोहल के पास था । उससे ये भी कहते न बना कि उसी माल की एवज में वह सोहल को पल्ले से पचास लाख रुपए दे चुका था । मन-ही-मन अल्लाह से ये दुआ मांगते हुए कि कैसीनो की लूट का जिक्र न आए, उसने जवाहरात की पोटली इकबालसिंह को सौंप दी ।
कैसीनो की लूट का जिक्र न आया ।
***
“धीरे । धीरे ।” - ओमनी की धुआंधार रफ्तार से आशंकित विमल बोला - “ये गाड़ी इतने तीखे मोड़ काटने के लिए नहीं बनी । पलट जाएगी ।”
“फिक्र न करो, भाईजान ।” - आमिर बोला - “कुछ नहीं होता ।”
“लेकिन...”
“भाईजान, रफ्तार कम की तो पकड़े जाएंगे ।”
“लेकिन मोड़ फुल स्पीड पर न काट, मेरे भाई ।”
“आप बिल्कुल फिक्र न...”
“रोड ब्लॉक !” - एकाएक जावेद के मुंह से निकला ।
आमिर ने मानसिक सजगता की उस वक्त विमल को तारीफ करनी पड़ी क्योंकि जावेद के मुंह से रोड ब्लॉक का लफ्ज निकला ही था कि आमिर ने वैन को दांए एक गली में मोड़ दिया ।
वैन उलटते-उलटते बची ।
“रोको ।” - विमल एकाएक बोला, उसने नोट किया था कि उसके पीछे कोई काली एम्बेसेडर गली में दाखिल नहीं हुई थी ।
“लेकिन भाईजान...”
“रोको ।” - विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
ब्रेकों की चरचराहट के साथ वैन रुकी ।
“सबकी वैन में मौजूदगी बेमानी है ।” - विमल जल्दी से बोला - “सब उतरो ।”
“लेकिन !” - जावेद ने प्रतिवाद करना चाहा ।
“सुना नहीं ?”
सबने अपने बड़े भाई की ओर देखा ।
जावेद ने सहमति में सिर हिलाया । सब वैन से उतरे । विमल ने आगे जाकर वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठने की कोशिश की तो जावेद उसे परे धकेलकर उससे पहले भीतर बैठ गया ।
“सब नहीं भाईजान” - वह दृढता से बोला - “मैं तुम्हारे साथ ।”
“लेकिन...”
“मैंने आपका साथ छोड़ दिया तो अब्बाजानी उम्र-भर मेरा मुंह नहीं देखेंगे ।”
“ओह !”
विमल आगे उसके साथ बैठ गया ।
तभी एक काली एम्बेसेडर गली में दाखिल होती दिखाई दी ।
“दूसरी गली में घुस जाओ ।” - जावेद वैन को गियर में डालता हुआ आतंकित भाव से बोला - “कार हमारे पीछे आएगी ।”
करीब ही दो ब्लाकों के पिछवाड़े के एक संकरी गली थी जिसकी तरफ वैन से बारह खड़े तीनों भाई दौड़ चले ।
जावेद ने अपने छोटे भाई से भी ज्यादा हौलनाक रफ्तार से कार आगे दौड़ाई ।
काली एम्बेसेडर ने संकरी गली में दाखिल होने की कोशिश न की । वो वैन के ही पीछे लगी ।
वैन हवा से बातें करती नगर की विभिन्न सड़कों पर दौड़ती रही ।
जेकब सर्कल के बाद एक जगह और रोड ब्लॉक उन्हें दिखाई दिया लेकिन जावेद बड़ी दक्षता से उनसे कन्नी कतरा गया ।
पीछे काली एम्बेसेडर कभी दिखाई दे जाती थी तो कभी निगाहें से ओझल हो जाती थी ।
“रोड ब्लॉक्स” - जावेद बोला - “जरूरी नहीं हमारे लिए हो !”
“दुरुस्त ।” - विमल बोला - “लेकिन हम रुकना अफोर्ड नहीं कर सकते । असल खतरा हमें पीछे लगी काली एम्बेसेडर से है । उसमें जो मवाली भरे हैं उनमें ‘कंपनी’ के सिपहसालर डोंगरे की शक्ल मैंने साफ पहचानी है । हम रुक गए तो हम लोग पुलिस की परवाह किए बिना हमें रोड ब्लॉक पर ही शूट कर देंगे ।”
“तौबा ! लगता है शहर पर मुकम्मल तौर से गुंडा राज कायम हो गया है ।”
“शहर पर ही क्यों ! मुल्क पर बोलो ।”
“तौबा !”
“हम हैं कहां इस वक्त ?”
“सिवरी रोड पर । यह मेन रास्ता नहीं । यहां रोड ब्लॉक्स मिलने के कम चांस हैं ।”
वैन ने फिर एक तीखा मोड़ काटा ।
“आज वैन जरूर पलटेगी ।” - विमल बोला ।
जावेद जोर से हंसा ।
“भाई मेरे, मैं फिर कहता हूं यह गाड़ी इतने शार्प टर्न के लिए नहीं बनी ।”
“भाईजान, आप फिक्र...”
“सामने देखो...”
वैन उस वक्त चौराहे के करीब पहुंच रही थी ।
वहां पुलिस की एक जीप सड़क पर तिरछी खड़ी थी । जीप के करीब सड़क के बीच एक वर्दीधारी सब-इंस्पेक्टर खड़ा था और हाथ हिलाकर उन्हें रुकने को इशारा कर रहा था ।
विमल ने पीछे देखा ।
काली एम्बेसेडर उसी क्षण मोड़ काटकर उस सड़क पर दाखिल हुई थी ।
“अब हो गया काम ।” - विमल बोला - “अब तो चक्की के दो पाटों में...”
“कुछ नहीं होता, भाईजान” - जावेद बड़ी दिलेरी से बोला - “आप नजारा देखो ।”
जीप के करीब पहुंचकर जावेद ने कार की रफ्तार कम की । वैन को रुकने को आमादा पाकर सब-इंस्पेकटर सड़क के बीच से हट गया । वह जीप के पहलू में जा खड़ा हुआ और वैन के करीब आकर रुकने की प्रतीक्षा करने लगा ।
वैन जीप के पहलू में पहुंची तो जावेद ने ब्रेक से पांव हटाकर पूरे जोर से एक्सीलेटर दबाया । ब्रेक की पकड़ में आकर क्षण-भर को धीमी हुई वैन तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर भागी ।
पीछे सब-इंस्पेक्टर जोर से चिल्लाया, फिर वैन को रुकता न पाकर लपककर जीप में सवार हुआ ।
“वो पुलिस पेट्रोल की जीप थी ।” - विमल चिंतित भाव से बोला - “अब वो वायरलैस पर सारे शहर की अपने जैसी पी.सी.आर. गाडियों को हमारी बाबत आगाह कर देगा ।”
“हम ये गाड़ी ही छोड़ देते हैं ।” - जावेद बोला ।
“एकदम तो गाड़ी छोड़ना भी मुमकिन नहीं होगा ।”
“होगा, भाईजान, होगा । इस गाड़ी की यह तो खूबी है । इसकी पिकअप और स्पीड का कोई दूसरी गाड़ी मुकाबला नहीं कर सकती ।”
चौराहे से जावेद ने वैन को दाएं मोड़ लिया था और अब वो उसे एक सौ बीस की रफ्तार से भगा रहा था । आगे एक तिराहा था जहां से उसने पूरी रफ्तार से वैन को बाएं मोड़ा ।
फिर वही हुआ जिसका विमल को अंदेशा था ।
जावेद के संभालते-संभालते वैन उलट गई ।
***
पुलिस की एक सफेद एम्बेसेडर कार पी.सी.आर. जीप के करीब आकर रुकी । कार को डी.सी.पी. डिडोलकर खुद चला रहा था । वह कार से बाहर निकला ।
जीप के सब-इंस्पेक्टर ने डिडोलकर को सैल्यूट मारा ।
उस सब-इंस्पेक्टर का नाम अठवले था और वह डी.सी.पी डिडोलकर का खास आदमी था ।
डिडोलकर ने सैल्यूट स्वीकार किया और चारों आरे निगाह डाली ।
सड़कर पर थोड़ा आगे नीली ओमनी उस घड़ी भी अपने बाएं पहलू के बल उलटी पड़ी थी । उससे विपरीत दिशा में थोड़ी दूर एक काली एम्बेसेडर खड़ी थी जिसमें अपने पांच आदमियों के साथ डोंगरे बैठा था और अपलक सामने पुलिस की गाड़ियों की ओर देख रहा था । पुलिस से वह कतई भयभीत नहीं था । वह जानता था डी.सी.पी. डिडोलकर को कंपनी ने सालाना ‘हफ्ता’ मिलता था और नीली वैन की दुर्घटना के तुरंत बाद उसका वहां पहुचना उन्हीं के किसी फायदे के लिए था ।
फिर डिडोलकर की निगाह सड़क के पार उस आठ फुट ऊंचे फाटक पर पड़ी जिसके पहलू में पराजित स्टूडियो का बोर्ड लगा हुआ था
तब तक वातावरण से दिन की रोशनी मुकम्मल तौर से लुप्त हो चुकी थी और रात का अंधेरा गहराने लगा था ।
“क्या हुआ ?” - डिडोलकर बोला ।
“वैन” - अठवले धीमे स्वर में बोला - “ड्राइवर के कंट्रोल से बाहर होकर उलट गई थी । वैन में ड्राइवर और फ्रेंचकट दाढी वाला पैसेंजर बस दो ही जने थे । वैन उलटने से कोई गंभीर चोट दोनों को ही नहीं आई थी क्योंकि वैन रुकते ही दोनों ने निकलकर भागने की कोशिश की थी । वो दोनों मेरी जीप और काली एम्बेसेडर के बीच में थे इसलिए साफ बच निकलना मुमकिन नहीं था । नतीजतन फ्रेंचकट दाढी वाला पैसंजर तो वो सामने स्टूडियो का आठ फुट ऊंचा फाटक कूद गया और परली तरफ कूदकर भीतर कहीं गायब हो गया । ड्राइवर को” - उसने परे खड़ी जीप की ओर इशारा किया - “पकड़ लिया है ।”
डिडोलकर ने जीप पर निगाह डाली । वहां एक हवलदार के साथ जावेद बैठा था । उसकी पेशानी पर खून की पतली-सी लकीर दिखाई दे रही थी और कोहनियों और घुटने पर से उधड़ चुकी पोशाक पर से भी खून के धब्बे नुमाया हो रहे थे ।
“वो जो दाढी वाला” - डिडोलकर सावधान स्वर में बोला - “स्टूडियो में घुस गया है, वो खाली हाथ था ?”
“जी नहीं ।” - अठवले बोला - “उसके पास एक भरी सूटकेस था । उसने पहले वो सूटकेस ही उछालकर फाटक से ऊपर से भीतर फेंका था और फिर उसके पीछे फाटक चढकर भीतर कूदा था ।”
“ओह !” - डिडोलकर ने फिर उजाड़ अंधेरे स्टूडियो पर निगाह डाली - “अब तक वो स्टूडियो की परली तरफ से कहीं का कहीं निकल गया होगा ।”
“वो कहीं नहीं जा सकता, सर ।” - अठवले पूरे विश्वास के साथ बोला - “इस सामने के फाटक के आलावा स्टूडियो से बाहर निकलने का और कोई रास्ता नहीं । वो जितनी मर्जी टक्करें मार लें, अगर उसे बाहर निकलना है तो उसे वापिस फाटक ही आना पड़ेगा ।”
“ऐसा ?”
“जी हां । स्टूडियो के सामने हम खड़े हैं । इसके आजू-बाजू सिवरी फोर्ट और तेल कंपनी का गोदाम है । पीछे समुद्र है । यहां से बाहर निकलने का सामने फाटक के अलावा कोई रास्ता मुमकिन नहीं । आप ये समझिए कि इस फाटक से भीतर कूदकर वे चूहे की तरह पिंजरे में फंस गया है ।”
“हूं । तुमने कंट्रोलरूम को रिपोर्ट किया ?”
“अभी नहीं, सर ।”
“गुड । कंट्रोलरूम को बोलो कि डी.सी.पी. डिडोलकर का हुक्म है कि उस नीली वैन की तलाश बंद कर दी जाए । बोलो कि टिप गलत साबित हुई थी कि किसी नीली वैन में स्मगलिंग का सोना ले जाया जा रहा था । किसी ने पुलिस को वो गलत टिप देकर बेहूदा मजाक किया था । समझ गए ?”
“यस सर ।”
अठवले ने कार के वायरलैस टेलीफोन से डिडोलकर का वो मैसेज पुलिस कंट्रोलरूम में डिस्पैचर को हस्तांतरित किया ।
जब अठवले उस काम से फारिग हुआ तो डिडोलकर ने जावेद को तलब किया ।
जावेद जीप से निकलकर डिडोलकर के सामने जा खड़ा हुआ ।
“क्या बात है ?” - डिडोलकर मीठे, हमदर्दी-भरे स्वर में बोला - “गाड़ी ठीक से नहीं चलाते हो ?”
जावेद ने उत्तर नहीं दिया । उसने जोर से थूक निगली और अपने होंठों पर जुबान फेरी ।
“नाम क्या है तुम्हारा ?”
“जावेद खान ।” - वह बोला ।
“कहां रहते हो ?”
“कोलीवाड़े ।”
“चोट ज्यादा तो नहीं आई ? कोई हड्डी-वड्डी तो नहीं चटकी ?”
जावेद ने इनकार में सिर हिलाया ।
“कोई मरहम-पट्टी की जरूरत महसूस करते होवो ?”
जावदे ने फिर इनकार में सिर हिलाया ।
“घर खुद जा सकोगे ?”
डी.सी.पी के सवालों पर मन-ही-मन हैरान होते हुए जावेद ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अपनी गाड़ी की खबर लो । देखो, चलती है ! अठवले, गाड़ी सीधी करवाओ ।”
जावेद, अठवले और हवलदार ने मिलकर अपने पहलू के बल लुढकी पड़ी वैन को सीधा किया ।
“देखो, चलती है ।” - डिडोलकर बोला ।
मंत्रमुग्ध-सा जावेद ड्राइंविंग सीट पर बैठा ! उसने इग्नीशन ऑन किया । इंजन तत्काल गरजा । उसने ब्रेक एक्सीलेटर वगैरह के पैडल चैक किए गाड़ी को फारवर्ड गियर में डालकर थोड़ा आगे बढाया और फिर रिवर्स किया ।
प्रत्यक्षत: कार को इतना ही नुकसान हुआ था कि उसकी विंड स्क्रीन टूट गई थी और बायां पहलू पिचक गया था ।
“ठीक है ?” - डिडोलकर ने पूछा ।
जावेद ने सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड । अब अपने अल्लाहताला का शुक्रगुजार होते हुए घर जाओ कि आंख हस्पताल में या दूसरी दुनिया में नहीं खुली ।”
“शु-शुक्रिया ।” - जावेद बोला ।
“दैट्स ए गुड ब्वाय । नाओ गैट अलांग ।”
डी.सी.पी. की नर्मदिली पर हैरान और विमल के लिए फिक्रमंद जावेद वहां से रुख्सत हुआ ।
वैन दृष्टि से ओझल हो गयी तो डिडोलकर काली एम्बेसेडर की ओर आकर्षित हुआ ।
“कंपनी’ के आदमी हैं ।” - अठवले धीरे से बोला ।
डिडोलकर ने सहमति में सिर हिलाता और फिर बोला - “किसी से बात हुई ?”
“अभी नहीं ।”
“मालूम करो, सब प्यादे ही हैं या साथ में कोई जिम्मेदार आदमी भी है !”
अठवले सहमति में सिर हिलाता काली एम्बेसेडर की ओर बढा । जब लौटा तो उसके साथ श्याम डोंगरे था ।
डिडोलकर डोंगरे को बखूबी जानता-पहचानता था ।
डोंगरे ने डी.सी.पी. को सलाम किया ।
“वो आदमी ।” - डिडालेकर बोला - “कहां गया ? मालूम ?”
“मालूम ।” - डोंगरे बड़े अदब से बोला ।
“जगह की खूबी मालूम ?”
“मालूम । एकदम चूहेदान है । मेरा एक आदमी पहले फिल्मों में एक्स्ट्रा था, वो ही बोला ।”
“गुड ।”
“पिछले दिनों स्टूडियों में आग लग गई थी । शूटिंग के दौरान सैट पर ही चालीस आदमी जल मरे बोलता है । आजकल स्टूडियो बंद है । इदर कोई भी नहीं होता । सिर्फ रात होने पर आठ बजे एक चौकीदार आता है जो सुबू आठ बजे तक इदर रहता है । एक आदमी क्या वांदा है, बाप !”
“तुम्हारे पास कितने आदमी हैं ?”
“पांच । पण अभी दस और बुलाएला है ।”
“भीड़ नहीं मांगता । किसी को इधर इतने आदमी मंडराते दिखाई दिए तो कोई पुलिस को फोन कर देगा कि इधर शायद डाका पड़ रहा है ।”
“मंडराता कोई नहीं दिखाई देगा, बाप । सब भीतर होएंगा ।”
“एक आदमी को पकड़ने के लिए इतने आदमियों की जरूरत होगी ?”
“वो आदमी बहुत कड़क है, बाप । बहुत जबर है । उसे वास्ते फुल से ज्यास्ती इंतजाम मांगता है । ”
“इतना इंतजाम तो कम नहीं पड़ जाएगा ?”
“नक्को ।”
“ये सब-इंस्पेक्टर अठवले है । मालूम ?”
डोंगरे ने इनकर में सिर हिलाया ।
“अब तो मालूम ?”
“हां ।” - डोंगरे बोला - “अब तो मालूम ।”
“ये और इसका हवलदार इधर ही है । ये दोनों बाहर ही ठहरेंगे । वो आदमी भीतर तुम लोगों के काबू में आ गया तो ठीक । तुम लोगों को डाज देकर वो बाहर निकल आया तो अठवले उसे संभाल लेगा ।”
“कैसे ?” - डोंगरे संदिग्ध भाव से बोला ।
“ऐसे ।” - डिडोलकर ने अपनी पहली उंगली रिवॉल्वर की नाल की तरह तानकर दिखाई ।
“ओह !” - डोंगरे बोला ।
“अठवले !” - डिडोलकर बोला ।
“यस, सर ।” - तत्काल अठवले बोला ।
“जो आदमी सोलह मवालियों के काबू में न आए, वो तो निहायत खतरनाक हुआ न ?”
“यस, सर । डैफीनेटली, सर ।”
“यू मस्ट शूट सच डेंजरस पर्सन ऐट साइट । उसे देखते ही गोली मार दो ।”
“यस, सर ।”
“डोंगरे !” - डिडोलकर फिर डोंगरे से संबोधित हुआ ।
“बोलो, बाप ।” - डोंगरे बोला ।
“उस आदमी के पास एक सूटकेस है । जब वो पकड़ में आ जाए तो सूटकेस तुमने सब-इंस्पेक्टर अठवले को सौंप देना है । क्या करना है ?”
“सूटकेस अठवले को सौंप देना है ।” - डोंगरे संदिग्ध भाव से बोला ।
“बात समझ में आ गई या इकबालसिंह से मशवरा करने के बाद समझ में आएगी ?”
“समझ में आ गई, बाप । बरोबर आ गई ।”
“गुड । अभी मैं जा रहा हूं । मुझे एक जरूरी काम है । थोड़ी देर बाद फिर चक्कर लगाऊंगा ।”
“मालिक हो, बाप ।”
अठवले को एक बार फिर खबरदार करके पचास लाख रुपए की विपुल धनराशि के सपने देखता ‘कंपनी’ के हाथों बिका हुआ पुलिसिया डी.सी.पी. डिडोलकर अपनी कार की ओर बढ गया ।
***
फाटक के भीतर कूदते ही विमल ने सबसे सूटकेस संभाला और फिर फाटक के पहलू में बने आफिसनुमा कमरे में कदम रखा । उस कमरे की एक खिड़की बाहर सड़क की ओर खुलती थी । जिसके करीब पहुंचकर उसने उसे हौले से खोला और उसके दो पल्लों में यूं पैदा हुई झिरी से आंख लगाकर बाहर झांका ।
सबसे पहले उसने यही बात नोट की कि फिलहाल उसी की तरह फाटक फांदकर किसी ने उसके पीछे आने की कोशिश नहीं की थी ।
फाटक पर उसने बाहर से ताला लगा देखा था, ऊपर से-भीतर हर जगह अंधेरा था । उन दो बातों से सिद्ध होतो था कि वो स्टूडियो आबाद नहीं था ।
झिरी में आंख लगाए-लगाए उसने अपना झोला टटोला । अब उसमें केवल एक बेहोशी की गैस छोड़ने वाला लाल रंग का बम और दो रिवॉल्वर मौजूद थीं । उसने दोनों रिवॉल्वरों की और बम की अपनी जेबों के हवाले किया और झोले को तिलांजलि दे दी ।
आइंदा पंद्रह मिनट उसने बाहर सड़क पर झांकने में लगाए ।
उस दौरान उसने पुलिस के उच्चाधिकारी की पैट्रोल जीप के क्रियु से मंत्रणा, जावेद की बाइज्जत रिहाई और वहां से रवानगी और उच्चाधिकारी की डोंगरे से मंत्रणा का नजारा किया ।
वह तत्काल समझ गया कि आगे जो कुछ होने वाला था, पुलिस और मवालियों की मिलीभगत से होने वाला था ।
फिर पुलिस का उच्चाधिकारी वहां से विदा हो गया ।
पांच मिनट बाद प्यादों से भरी दो कारें और वहां पहुंच गई ।
विमल के लिए यह हैरानी की बात थी कि ‘कंपनी’ ने इतने आदमी और दो पुलिसिए भी बाहर मौजूद थे फिर भी कोई उसके पीछे भीतर आने का उपक्रम नहीं कर रहा था । ये तो हो नहीं सकता था कि फाटक फांदता वो किसी के द्वारा देखा ही न गया हो । ऐसा होता तो न तो फाटक के सामने इतने लोगों का जमघट होता और न ही जावेद यूं सस्ते में छूट गया होता ।
तो माजरा क्या था ?
जो होगा सामने आ जाएगा - उसने कंधे झटकाते हुए सोचा ।
वह खिड़की के पास हटा । उसने सरसरी निगाह से कमरे का मुआयना किया । वहां दो ऑफिस टेबल, पांच-छः कुर्सियां, एक लकड़ी की अलमारी और एक स्टील की फोल्डिंग चारपाई पड़ी थी ।
उसने मेजों के दराज टटोले तो एक दराज में उसे अपने काम आ सकने वाली एक चीज दिखाई दी ।
टॉर्च !
उसने टॉर्च अपने काबू में की, सूटकेस संभाला और ऑफिस से बाहर निकला । फाटक के सामने पड़ने से बचता हुआ वह आगे बढा । कुछ ही कदम चलने के बाद वह फाटक से परे एक अन्य इमारत की ओट में पहुंच गया । वहां एक दीवार के करीब कूड़े का विशाल ड्रम पड़ा था ।
विमल ने सूटकेस उस ड्रम में डाल दिया और उसको ड्रम में पड़े कूड़े से ही अच्छी तरह से ढक दिया ।
उसकी मंशा पहले वहां से निकासी का कोई रास्ता तलाशने की और फिर वो सूटकेस अपने काबू में करने की थी । सूटकेस बहुत भारी था और वह उसकी सहज गति में बाधा बन रहा था ।
अगले आधे घंटे में उसके कई एकड़ में फैले उस विशाल स्टूडियो का एक-एक कोना-खुदरा नाप डाला ।
हालात बहुत मायूस करने वाले निकले !
सामने फाटक के अलावा वहां से निकासी का कोई रास्ता नहीं था ।
उस इमारत के पहलू में एक पुराना किला था जिसकी दीवार पर चढ पाना असंभव था । वैसी ही ऊंची लेकिन सीमेंट की आधुनिक दीवार दूसरे पहलू में थी । वो दीवार किले की दीवार से भी ऊंची थी और उसके पार तो उसे मालूम भी नहीं था कि क्या था । पिछवाड़े में स्टूडियो की अपनी बाउंड्री वॉल थी लेकिन उसके पार कम-से-कम पचास फुट का सीधा ड्राप था और उसकी ऐन जड़ तक समुद्र था । समुद्र के पानी से बाहर सिर उठाए खड़ी नोकीली चट्टानों का आभास उसे अंधेरे में हो रहा था । उधर से सुमुद्र में छलांग लगाना आत्महत्या सरीखा काम था ।
स्टूडियो के भीतर चार साउंड स्टेज थीं जिसमें से एक में सबकुछ जला-फुंका पड़ा था । साफ जाहिर होता था कि वो साउंड स्टेज किसी भीषण आगजनी का शिकार हुई था । वहां का केवल स्टील का ढांचा ही अभी भी अपने पैरों पर खड़ा था बाकी सब कुछ तो जल-फुंककर मलबे की सूरत अख्तियार कर चुका था ।
उन साउंड स्टेजों के अलावा वहां एक रेलवे स्टेशन का एक कोर्ट रूम का, एक मंदिर का और एक जेल का स्थायी सैट था । जेल के सैट के पहलू में एक बहुत बड़ा गोदाम था जिसमें सैट बनाने में इस्तेमाल होने वाली बोर्ड पेंट करके बनाई गई दीवारें, फर्नीचर, दफ्ती के खोखले खंभे और पेड़, देखने में संगमरमर सरीखे लगने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस के आदमकद पुतले, भारी लाइटें टांगने के काम आने वाले स्टैंड, ट्रॉलियां और ऐसा ही न जाने कितना कबाड़ भरा पड़ा था ।
साउंड स्टेज नंबर तीन के पहलू में विशाल कैंटीन थी । और साउंड स्टेज नंबर एक के सामने स्टूडियो के प्रशासनिक कार्यालय की एक मंजिली इमारत थी । संयोग से वहां केवल वही एक इमारत थी जिसके प्रवेश द्वार पर मजबूत ताला जड़ा हुआ था ।
अब जबकि यह सिद्ध हो गया था कि वहां से चुपचाप बच निकलना नामुमकिन था तो विमल वहां ऐसे ठिकाने तलाश करने लगा जहां कि छुपा जा सकता था, नौबत आ जाने पर जहां अकेले भी कई आदमियों का मुकाबला किया जा सकता था या मुकाबला नहीं तो कम-से-कम उन मवालियों के लिए दुश्वारियां तो पैदा की जा सकती थीं ।
साथ ही उसे लग रहा था कि अंधेरा उसके लिए सबसे बड़ा हथियार साबित होने वाला था ।
गोदाम में उसे स्टील की बारीक तार का एक लच्छा मिला था जो जरूर शूटिंग के दौरान यूं चीजें लटकाने के काम आता था कि चीजें दर्शक को हवा में निराधार लटकी दिखाई दें । वो तारें उसने कई इमारतों के प्रवेश द्वारों के करीब कहीं पांच फीट की ऊंचाई पर तो कहीं आधे फुट की ऊंचाई पर दाएं से बाएं तानकर मजबूती से बांध दीं ।
साउंड स्टेज नंबर चार सबसे बड़ी थी । उसकी स्टील स्ट्रक्चर फर्श से साठ फीट ऊपर तक जाती थी । उसमें चालीस फीट तक स्टेज के चारों तरफ फिरी हुई वो पतली-सी राहदारी थी जिस पर चलकर लाइटमैन शूटिंग की जरूरत के मुताबिक लाइटें एडजस्ट करते थे और जो स्टूडियो की जुबान में कैट वाक कहलाती थी । उस साउंड स्टेज पर एक-एक मन वजन के आर्क लैंप अभी भी लटके हुए थे । वो रस्सियों से इस प्रकार बंधे हुए थे कि रस्सियां पुल्लियों पर से गुजरती थीं और इस प्रकार शूटिंग की जरूतर के मुताबिक लाइटें ऊपर-नीचे या दाएं-बाएं सरकाई जा सकती थीं । लाइटों को संभालने वाली पुल्लियों जैसी कुछ पुल्लियां वहां खाली भी थीं । विमल ने वहीं से रस्सियां तलाश कीं और उनको उन पुल्लियों पर से गुजारकर रस्सियों के साथ जो भी भारी-भारी चीजें वहां पड़ी दिखाई दीं, बांध दीं । रस्सियों के खाली सिरे उसने कहीं स्टील की बीम तो कहीं कालम के साथ यूं बांध दिए कि वो रस्सियां खोली जातीं तो नीचे साउंड स्टेज पर भारी-भारी चीजों की बरसात-सी होने लगती । एक विशाल पुल्ली जो सबसे ऊंची लगी हुई थी, उस पर से रस्सी गुजारने में उसे सबसे अधिक मेहनत करनी पड़ी । उस लंबी रस्सी का सिरा जब फर्श पर पहुंचा तो उसने साथ कोई ढाई मन वजन का रेल की पटड़ी का एक टुकड़ा बांध दिया । पटड़ी के सिरे में सुराख था जिस में रस्सी बांधकर खींचने से पटड़ी लंबवत् सीधी लटक गई । ऊपर कैट वाक पर जाकर विमल ने बड़ी मेहनत से रस्सी खींच-खींचकर उस पटड़ी को साउंड स्टेज की छत पर इतना ऊपर पहुंचा दिया कि वो कैट वाक से भी पंद्रह फुट ऊंची पहुंच गई । वहां टंगी वो पटड़ी साउन्ड स्टेज के फर्श से तो क्या, चालीस फुट ऊंची कैट वाक से भी नहीं दिखाई देती थी । पटड़ी इतनी ऊपर पहुंच गई तो रस्सी का दूसरा सिरा साउंड स्टेज के फर्श पर ढेर होने लगा । विमल ने उस सिरे को एक खंभे के साथ बांध दिया ।
इतने कामों से फारिग होने तक वो पसीने-पसीने हो चुका था और बुरी तरह से हांफने लगा था । अपनी सांसों पर काबू पाने की नीयत से वो वहीं पड़ी एक कुर्सी पर ढेर हो गया ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह ! - वह होंठों में बुदबुदाया - जीऊ जंतु सभे सरण तुम्हारी, सरब चिंत तुध पासे ।
अब उसे बाहर से कोई आहट मिलने की प्रतीक्षा थी ।
***
कोलीवाड़े की ओर बढता जावेद साल्ट पैन रोड से गुजर रहा था जब एकाएक एक पुलिसिया सड़क पर प्रकट हुआ और उसे हाथ देकर रुकने का इशारा करने लगा ।
जावेद ने देखा कि सड़क के किनारे खड़ी एक मोटर साइकल पर हाथ में चालान की किताब थामे ट्रैफिक पुलिस का एक सब-इंस्पेक्टर बैठा था और उसके पहलू में एक और हवलदार खड़ा था ।
रुकने के सिवय कोई चारा नहीं था ।
उसने मोटर साइकल के करीब गाड़ी रोकी ।
सब-इंस्पेक्टर मोटर साइकल पर से उठा और चेहरे पर संदेह के गहन भाव लिए ओमनी की जावेद की ओर वाली खिड़की के करीब पहुंचा ।
“एक्सीडेंट कैसे किया ?” - सब इंस्पेक्टर कठोर स्वर में बोला ।
“गाड़ी काबू से निकल गई ।” - जावेद विनयशील स्वर में बोला - “मोड़ काटते उलट गई ।”
“किसे मारा ?”
“किसी को नहीं ।”
“गाड़ी किसी से नहीं टकराई ? कोई नीचे नहीं आया ?”
“नहीं ।”
“लाइसेंस है ?”
“है ।”
“निकालो ।”
जावेद ने उसे अपना ड्रिइविंग लाइसेंस दिखाया ।
सब-इंस्पेक्टर ने लाइसेंस का मुआयना किया लेकिन मुआयने के बाद लाइसेंस जावेद को वापिस लौटाने की कोशिश न की ।
“इन्क्वायरी होगी ।” - वो बोला - “आजकल हिट एंड रन के बहुत केस हो रहे हैं ।
“साहब, मैंने किसी को हिट नहीं किया । मैंने बताया तो, गाड़ी मोड़ काटते उलट गई थी ।”
“कहां ?”
“सिरटी रोड पर ।”
“मालूम करना पड़ेगा । गड़ी को फुटपाथ पर चढाकर खड़ी करो ।”
“जनाब, मुझे एक इंतहाई जरूरी काम से फौरन कहीं पहुंचना है, मैं...”
“सुना नहीं !” - सब-इंस्पेक्टर कड़ककर बोला ।
“सुना तो सही ! लेकिन मेरा रुकना क्यों जरूरी है ? आप गाड़ी रख लो, मेरा ड्राइविंग लाइसेंस रख लो, मैं लौट के आ जांऊगा ओर एक्सीडेंट की बाबत आपकी तसल्ली हो जाने के बाद गाड़ी और लाईसेंस ले जाऊंगा ।”
“छोकरे ! मुझे बेवकूफ न बना । तू यहां से खिसक नहीं सकता । तुझे भी इधर ही गाड़ी के साथ रुकना पड़ेगा ।”
जावेद ने असहाय भाव से कंधे झटकाए ।
“चल, गाड़ी फुटपाथ पर चढा ।”
“टाइम कितना लगेगा इन्क्वायरी में ?”
“पता नहीं ।”
फिर जावेद को एक तरकीब सूझी । वह गाड़ी से बाहर निकला ।
“इंस्पेक्टर साहब ” - वह खुशामद-भरे स्वर में बोला - “जरा बाजू में आकर मेरी बात सुनो ।”
“जो कहना है, यहीं कहो ।” - सब-इंस्पेक्टर बोला ।
“साहब, कोई मालपानी रख लो ।” - वह दबे स्वर में बोला - “सौ रुपए का चालान होता है । आप पांच सौ ले लो, हजार ले ली ।”
“रिश्वत देता है ?” - सब-इंस्पेक्टर कड़ककर बोला ।
जावेद बौखलाया ।
“अब तू कल ही जाएगा यहां से । जब तक मुंबई के सारे हिट एंड रन केसों की तफ्तीश नहीं हो जाती, तब तक अपनी गाड़ी के साथ तू भी बंद । हवलदार, इसे थाम के रख, वरना भाग जाएगा ।”
जावेद गैस निकले गुब्बारे की तरह पिचक गया । वो गलत आदमी को रिश्वत ऑफर कर बैठा था । तकदीर की मार कि उसके पल्ले ईमानदार पुलिसिया पड़ गया था ।
अब कोलीवाड़े पहुंचकर विमल के लिए कोई मदद मुहैया कराने का सामान करना नामुमकिन हो गया था ।
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