यादव अपने ऑफिस में मौजूर था ।
“कहां हो, भई ?” - मुझे देखते ही बोला - “भूल गये तुम्हें क्या हिदायत है ?”
“नहीं भूला ।” - मैं उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “ग्यारह बजे फोन किया था । पता चला था साहब फील्ड ड्यूटी पर थे।”
“अपना नाम छोड़ा होता ।”
“गलती हो गयी । सॉरी ।”
“और क्या खबर है ?”
“कोई खास खबर नहीं ।”
“यानी कि अभी भी भटक ही रहे हो ?”
“हां ।”
“भटकने की भी कोई दिशा होती है । किधर भटक रहे हो ?”
उस सवाल का कोई छोटा-मोटा जवाब देना जरूरी था । न देता तो वो समझ जाता कि मैं उससे कुछ छुपा रहा था ।
“मैं पाण्डेय की मौत के संदर्भ में” - मैं बोला - “हेरोइन वाले ऐंगल को चेज करने की कोशिश कर रहा हूं ।”
“हेरोइन वाला ऐंगल ! इस वजह से कि उसके मुंह पर लगी लिपस्टिक में प्योर हेरोइन के कर्ण पाये गये थे ?”
“हां । पिछले दिनों मैंने दिल्ली के उन इलाकों के काफी चक्कर लगाये हैं जो कि डोप पुशिंग के मामले में काफी मशहूर हैं । जैसे जामा मस्जिद, पहाड़गंज, संजय अमर कालोनी, मजनूं का टीला वगैरह । पहाड़गंज के एक बार में तो मैं खुद ड्रग एडिक्ट का बहुरूप धारण करके गया था लेकिन कोई डोप पुशर मेरे से नहीं टकराया था । मै किसी डोप पुशर को ट्रेस करने में कामयाब नहीं हो सका था ।”
“पहाड़गंज के कौन से बार में गये थे ?”
“स्टेटस बार में । किसी ने मुझे बताया था कि वहां हेरोइन मिलती थी लेकिन मेरी खबर गलत निकली थी ।”
“स्टेटस बार !” - उसने नाम दोहराया - “अच्छा इत्तफाक है ।”
“क्या इत्तफाक है ?”
“स्टेटस बार के किशनलाल नाम के एक बारमैन के साथ कल एक हादसा हो गया है । हस्पताल में है । शायद ही बचे ।”
“क्या हुआ !”
“जी.टी.रोड पर, संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर के करीब, वो सड़क पर गिरा पड़ा पाया गया था । कुछ चश्मदीद गवाहों का कहना है कि वो एक तेज रफ्तार ट्रक में से गिरा था । एक गवाह ने तो ये तक दावा किया है कि उसे ट्रक में से धक्का दिया गया था ।”
“अरे ! यानी कि किसी ने उसे यूं जान से मार डालने की कोशिश की थी !”
“अगर सच में धक्का दिया गया था तो यही बात थी । खुद गिरा था तो बात और थी ।”
“ओह !”
“अगर वो खुद गिरा था तो हैरानी है कि ट्रक वालों को उसके गिरने की खबर न लगी । तब न लगी तो बाद में तो उन्हें पता लगा होता कि वो शख्स ट्रक में मौजूद नहीं था ।”
“हो सकता है वो शख्स उनका साथी न हो और उनकी जानकारी के बिना पीछे ट्रक में सवार हो ।”
“क्यों ?”
जवाब में मैंने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये ।
“वो पहाड़गंज के एक बार में बारमैन था । रात को वो ट्रांसपोर्ट नगर में क्या कर रहा होगा ? और क्यों वो चोरों की तरह किसी ट्रक में सवार हुआ होगा ?”
“स्टेटस बार में उस बाबत पूछताछ की होती ।”
“क्यों भई ? बच्चे पढ़ा रहा है ?”
“यानी कि की थी ?”
“हां । मालूम हुआ था कि वो उसकी साप्ताहिक छुट्टी का दिन था ।”
“ओह !”
“अफसोस की बात है कि उसे ट्रक से गिरता देखने वाले तो कई निकल आये थे लेकिन ऐसा एक भी शख्स सामने नहीं आया था जिसने कि उस ट्रक का नम्बर नोट किया होता ।”
“फिर तो वो ही होश में आयेगा तो कुछ बतायेगा ।”
“अगर होश में आयेगा तो । डॉक्टर लोग कहते हैं कि बेहोशी में ही उसकी चल चल हो जाने की ज्यादा सम्भावना है ।”
“गुड ।”
“क्या ।”
“कुछ नहीं ।”
“कोहली, ये स्टेटस वही बार है जिसके करीब की एक अन्धेरी गली में तीन दिन पहले संतोख सिंह नाम के नोन डोप पुशर की लाश पड़ी पायी गयी थी ।”
“तो ?”
“उसी बार के बारमैन के साथ अब ये हादसा गुजरा ।”
“इत्तफाक की बात है ।”
“इत्तफाक की बात है या उन दोनों वाकयात का आपस में कोई रिश्ता है ?”
“तुम बताओ ।”
उसने उत्तर न दिया ।
“कोई और ऐसी ही करारी खबर ?” - विषय परिवर्तन की नीयत से मैं बोला ।
“वो भी है ।”
“क्या ?”
“कल रात बुराड़ी के इलाके में खूब गोलियां चलीं जिन्हें सुन कर इलाके के किसी बाशिन्दे ने सौ नम्बर पर फोन कर दिया । फलाईंग स्कवायड की एक गाड़ी वहां पहुंची तो वहां गोलियों से बिंधी चार लाशें पड़ी पायी गयीं ।”
“कोई उन चारों को मार के भाग गया ?”
“आपस में लड़ मरे । मुठभेड़ जैसा माहौल था वहां ।”
“हे भगवान ! कहीं दिल्ली भी बाम्बे स्टाइल गैंगवार्स का अखाड़ा तो नहीं बनने जा रहा ?”
“तुम्हारा तो इन वाकयात से कोई रिश्ता नहीं ?”
“खामखाह ! मैं क्या कोई गैंगस्टर हूं ?”
“सवाल का जवाब दो ।”
“नहीं । मेरा कोई रिश्ता नहीं ।”
“कोहली, मुझे तुम्हारी जान वैसे ही खतरे में दिखाई देती है । अगर इन बातों से भी तुम्हारा कोई रिश्ता है तो समझ लो कि तुम्हारी मौत निश्चित है ।”
“लिहाजा मैं तुम्हारे पास डेली हाजिरी लगाना बन्द कर दूं ?”
“भले ही कर दो लेकिन जो कुछ आजकल कर रहे हो, उसकी कोई समरी बना कर पीछे जरूर छोड़ जाना ताकि बाजरिया पुलिस तुम्हारी मौत के बाद भी तुम्हारा काम जारी रह सके ।”
“ख्याल बुरा नहीं । मैं सोचूंगा इस बारे में ।” - मैं एकाएक उठ खड़ा हुआ - “जल्दी ही तुम्हें एक चिट्ठी मिलेगी जिस में ये दर्ज होगा कि अपना कोई ऐसा हलफनामा मैं अपने पीछे कहां छोड़ के जा रहा हूं !”
“बढिया !”
मैं वहां से रूख्सत हुआ, दरवाजे के करीब पहुंच कर ठिठका और फिर वापिस लौटा ।
“अब क्या है ?” - यादव भुनभुनाया ।
“लिपस्टिक फिर याद आ गयी ।” - मैं बोला ।
“क्या मतलब ?”
“तुम्हारी पुलिस लैब में उसे जांचने-परखने की कोशिश की जा रही थी । अभी कोई नतीजा निकला या नहीं ?”
“निकला ।”
“निकला ? फिर भी कुछ न बताया ?”
“क्यों, भई ? तुम कोई बात भूल सकते हो तो क्या मैं नहीं भूल सकता ?”
“क्या नतीजा निकला ?”
“उस लिपस्टिक की शिनाख्त हो गयी है । हमारा एक्सपर्ट कहता है कि वो एस यू फाइव सी-स्प्रे शेड की लोरियल ब्रांड की फ्रेंच लिपस्टिक है जो हजार रुपये की आती है ।”
“ऐसी लिपस्टिक वो लड़की लगाये थी जिसने कि पाण्डेय को मौत के चुम्बन से नवाजा ?”
“ऐसा ही जान पड़ता है ।”
“हजार रूपये कीमत की फ्रेंच लिपस्टिक लगाने वाली कोई मामूली लड़की तो नहीं हो सकती ।”
“जाहिर है ।”
“लेकिन पाण्डेय तो मामूली आदमी था । फिर ये जुगलबन्दी क्यों कर मुमकिन हुई ?”
“तुम बताओ ?”
मैं क्या बताता ?
मैं खामोशी से फिर वहां से रुख्सत हुआ ।
***
मैं कनाट प्लेस पहुंचा ।
वहीं की एक बड़ी कास्मेटिक्स शॉप से मैंने उस लिपस्टिक के बारे में दरयाफ्त किया तो मालूम हुआ कि वो वहां उपलब्ध थी ।
हजार रूपये का गम खाकर मैंने लोरियल ब्रांड की उस फ्रेंच लिपस्टिक का एस यू फाइव सी-स्प्रे शेड खरीदा ।
अपनी कार में लौट कर मैंने हर मुमकिन तरीके से उस लिपस्टिक का मुआयना किया, कोई कसर छोड़ी तो बस उसे अपने होंठों पर लगा लेने की ही छोड़ी । अलबता वैकल्पिक काम जो मैंने किया, वो उसे अपने बायें हाथ की पीठ पर घिस कर देखने का था ।
आखिरकार वो लिपस्टिक मैंने अपनी जेब के हवाले की ।
अब मैं आश्वस्त था कि एक निगाह में मैं उस शेड की लिपस्टिक से सजी किसी भी सलोनी को पहचान सकता था ।
मैं ऑफिस पहुंचा ।
रजनी अपनी सीट पर मौजूद थी ।
उसके पीछे उसकी खोपड़ी से रिवॉल्वर की नाल सटाये एक आदमी खड़ा था ।
रजनी ने भयभीत भाव से पहले मेरी तरफ और फिर मेरे कक्ष के बीच के बन्द दरवाजे की तरफ देखा ।
मुझे समझते देर न लगी कि वैसा ही कोई मवाली - एक या एक से ज्यादा - भीतर भी मौजूद था ।
“यहां तुम्हारा ही इन्तजार हो रहा है ।” - रिवॉल्वर वाला बोला - “दरवाजा बन्द करके भीतर से चिटकनी चढा दो और शीशे पर ‘क्लोज्ड’ की तख्ती लटका दो ।”
“तुम्हारी ये मजाल !” - मैं भड़का - “यूं दिन दहाड़े...”
“मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा, साहबजी । लड़की को गोली मार दूंगा ।”
मैं फिर न बोला । तत्काल मैंने उसके आदेश का पालन किया ।
उस वक्त, साफ जाहिर हो रहा था कि, मेरी जेब में मौजूद मेरी रिवॉल्वर मेरे किसी काम नहीं आने वाली थी ।
बीच का दरवाजा खोलकर मैंने अपने कक्ष में कदम रखा ।
सबसे पहले मुझे अपनी तरफ तनी एक रिवॉल्वर की नाल दिखाई दी, फिर नाल पकड़े हाथ और हाथ का मालिक दिखाई दिया जो कि मेरी एग्जीक्यूटिव चेयर पर पसरा बैठा था ।
वो नोरा था ।
एक दूसरा आदमी खामोशी से मेरी फाइलिंग कैबिनेट टटोल रहा था ।
उस आदमी को मैंने तत्काल पहचाना ।
वो वो शख्स था जिसे मैंने और पाण्डेय ने प्रिया सिब्बल की मौजूदगी में एक टैक्सी पर पार्क होटल पहुंचते देखा था, जिसे प्रिया ने अपना पति लक्ष्मीकान्त सिब्बल बताया था लेकिन जो, प्रिया के बताये ही अब मुझे मालूम था कि, वास्तव में हरमेश पीपट नाम का आदमी था ।
उस वक्त तो तब से कहीं बेहतर पोशाक पहने था जबकि वो हमें पार्क होटल के बाहर दिखाया गया था ।
नोरा ने भावहीन ढंग से रिवॉल्वर की नाल से ही मुझे बैठ जाने का इशारा किया ।
“हमारे यहां” - मैं बोला - “मेहमान का इस्तकबाल वर्टीकल पोजशीन में किया जाता है ।”
“मेहमान !” - नोरा की भवें उठीं ।
“पीपट !”
नोरा सकपकाया ।
फाइलिंग कैबिनेट से उलझा शख्स साफ-साफ चौंका ।
उसने घूमकर मेरी तरफ देखा ।
“क्या नाम लिया ?” - वो बोला ।
“पीपट ।” - मैं बोला - “हरमेश पीपट ।”
“कैसे जाना ?”
“आई एम ए डिटेक्टिव । रिमेम्बर ।”
“चलो अच्छा है कि अब हम सब एक दूसरे को जानते हैं ।
नोरा से पहले ही मिल चुके हो । अब मेरे से भी मिल लिये ।”
“और तुम मेरे से ।”
“जाहिर है ।”
“यहां क्या हो रहा है ?”
“बैठ जाओ ।”
“यहां क्या हो रहा है ? क्यों तुम लोग...”
“मिस्टर कोहली, नोरा के हाथ में रिवॉल्वर है और उसका गुस्सा खराब है ।”
“क्या करेगा इसका गुस्सा ? मारने तो ये मुझे लगा नहीं ।”
“क्यों भला ?”
“इसी से पूछो जो कहता था कि मेरा कत्ल करना अब जरूरी नहीं रहा था ।”
“वो ये नहीं, मैं कहता था । और लगता है कि गलत कहता था ।”
“आई सी ।”
“लेकिन ये कोई ऐसी गलती नहीं जो कि सुधारी न जा सके । क्यों नोरा ?”
नोरा ने सहमति में सिर हिलाया और बोला - “मुझे जितनी जल्दी ये गलती सुधारने का मौका मिलेगा, उतनी ही खुशी होगी ।”
“देखा !” - पीपट बोला ।
“सोचता हूं” - नोरा रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा करता हुआ बोला - “इसकी खामख्याली दूर कर ही दूं ।”
“तू मुझे नहीं मार सकता ।” - मैं विषभरे स्वर में बोला - “तेरा ये उस्ताद भी मुझे नहीं मार सकता जिसके सुर में तू सुर मिला रहा है ।”
“अच्छा !”
“हां ।”
“क्यों भला ?”
“क्यों कि जिस चीज के तुम तलबगार हो, वो इस फाइलिंग कैबिनेट में मौजूद नहीं है ।”
“कौन सी चीज ?” - पीपट बोला ।
“तुम्हें मालूम है कौन सी चीज ! जब तक तुम्हें उस चीज का कोई अता पता हासिल नहीं हो जाता, तुम लोगों की मजाल नहीं हो सकती मुझे मारने की । मैं अभी यहां से जाने लगा हूं । इसे कहो मुझे रोक कर दिखाये । इसे कहो मेरे पर गोली चला कर दिखाये ।”
“बाहर मौजूद लड़की के बारे में क्या ख्याल है ?”
“वो कोई सगेवाली नहीं है मेरी, सिर्फ मुलाजिम है । तुम समझते हो उसके जरिये तुम मेरे पर कोई दबाव डाल सकते हो तो ये कोशिश भी कर देखो ।”
हकीकतन वो कोरा ब्लफ था । हकीकतन रजनी का बाल भी बांका होने देने से पहले मैं अपनी जान दे सकता था ।
ये देख कर मेरे को दिली राहत महसूस हुई कि मेरा ब्लफ चल गया था ।
“अपनी खास जानकारी मैं फाइलिग कैबिनेट में नहीं रखता । यहां” - एक उंगली से मैंने अपनी कनपटी ठकठकाई - “यहां रखता हूं ।”
“तो तुम मानते हो कि वो चीज तुम्हारे कब्जे में हैं ?”
“मैं क्या, तुम भी मानते हो । तभी तो उसका कोई सुराग पाने के लिये यहां घुसे बैठे हो ।”
“उस रात तुम्हीं ट्रक ले कर भागे थे ?”
“सूझा कैसे ?”
“हमारे उस आदमी ने सुझाया जो कि बाकी लोगों की तरह बुराड़ी में मारा नहीं गया था, जो कि सिर्फ घायल हुआ था और वक्त रहते कोन्टेसा पर सवार हो कर वहां से भागने में कामयाब हो गया था । काश, भाग कर अपनी जान बचाने से ज्यादा अहमियत उसने ट्रक का पीछा करने को दी होती ।”
“जान पर आ बनी हो तो जान बचाने के अलावा कुछ नहीं सूझता ।”
“ठीक । तो ट्रक तुम्हारे कब्जे में है ?”
“ट्रक नहीं । ट्रक का मैंने क्या करना था !”
“ट्रक का कनसाइनमेंट तुम्हारे कब्जे में है ?”
“हां ।”
“क्या है कनसाइनमेंट ? मालूम कर चुके ?”
“हां । सबसे पहली फुर्सत में मैंने शाफ्ट में छेद ही किया था । शाफ्ट में क्या है, मुझे मालूम है लेकिन कितना है, उसकी कीमत क्या है ये नहीं मालूम । ये तुम मुझे बता दो ।”
“पचास किलो प्योर अनकट हेरोइन की खबर है हमें ।”
“यानी कि पचास करोड़ का माल ।”
“हां । कहां रखा ?”
“रखा है किसी ऐसी जगह जहां से तुम सारे के सारे मिल कर भी सौ साल में उसे बरामद नहीं कर सकोगे ।”
“सौ साल लगाने की क्या जरूरत है ? जो काम चुटकियों में हो सकता हो, उसे करने में सौ साल लगाने की क्या जरूरत है ?”
“चुटकियों में वो मेरे और सिर्फ मेरे किए हो सकता है ।”
“तुम्हीं करोगे, भाई ।”
“ऐसे ही ?”
“नहीं । ऐसे ही नहीं । तुम्हारी कीमत अदा की जायेगी ।”
“अच्छा !”
“हां । बोलो क्या चाहते हो ?”
“यानी कि सौदा करना चाहते हो ?”
“हां ।”
“तो सुन लो । खास कुछ नहीं चाहता मैं । मैं सिर्फ उस आदमी का सिर चाहता हूं जिसने मेरे आदमी की पीठ में खंजर भौंका ।”
“हम उस आदमी को नहीं जानते ।”
“फिर तुम्हारे से मेरा कोई सौदा नहीं हो सकता । फिर मेरा सौदा जयपुरिया से होगा ।”
जयपुरिया के नाम ने जादुई असर किया । दोनों बुरी तरह से चौंके ।
“तुम तो बहुत कुछ जानते हो ।” - पीपट हड़बड़ाया सा बोला ।
मैं केवल मुस्कराया ।
“ज्यादा जानकारी जानलेवा साबित हो सकती है ।”
“शायद । लेकिन फिलहाल मेरी जान को कोई खतरा नहीं ।”
उसके नेत्र सिकुड़े । उसने यूं नोरा की तरफ देखा जैसे वो उस घड़ी नोरा की सलाह का तलबगार हो ।
तब मुझे उसके बॉस के जिक्र पर वालिया की खामाशी याद आयी ।
“फिर भी” - मैं बोला - “जोश में आकर मेरी जान के पीछे पड़ने का इरादा बना बैठो तो पहले ऊपर मशवरा कर लेना ।”
“ऊपर ! ऊपर कहां ?”
“वहां जहां तुम्हारा हाजिरी रजिस्टर है । जहां तुम ‘यस सर, कमिंग सर, प्रेजेंट सर’ करते हो ।”
“क्या मतलब ?”
“अपने बॉस से मशवरा कर लेना ।”
“क्या !”
“माल हाथ में आने से पहले उसे तुम्हारा मेरे पर हाथ डालना पसन्द नहीं आयेगा । सामने फोन है । अभी बात कर लो । लो ।”
मैंने मेज पर रखा फोन उसकी तरफ सरकाया ।
तभी फोन की घण्टी बजने लगी ।
मैं रिसीवर उठाने लगा तो पीपट ने आगे बढकर मेरे रिसीवर वाले हाथ पर अपना हाथ रख दिया ।
“क्या है ?” - मैं बोला - “फोन नहीं सुनने दोगे ?”
“सुनने देंगे” - वो बोला - “लेकिन सुनते वक्त रिसीवर इस ढंग से पकड़ना है कि ईयरपीस एकदम कान से न सटे ।”
“उससे क्या होगा ?”
“उससे जब मैं तुम्हारे साथ सिर से सिर जोडूंगा तो दूसरी तरफ से आती आवाज मुझे भी सुनायी देगी ।”
“ओह !”
“और तुम जो बोलोगे, मेरी मर्जी के मुताबिक बोलोगे ।”
“ऐसा कैसे होगा ?”
“होगा । तुम करोगे । वरना लाइन काट दी जायेगी । समझ गये ?”
“हां ।”
“उठाओ ।”
मैंने रिसीवर उठा कर कान से लगाया तो पीपट मेरे, पीछे आ खड़ा हुआ । उसने अपना एक कान इयरपीस के करीब किया और फिर खुद हाथ बढा कर रिसीवर को थोड़ा एडजस्ट किया । फिर उसने अंगूठा उठा कर मुझे ओके का सिग्नल दिया ।
“हल्लो !” - मैं माउथपीस में बोला ।
“क्या हो रहा है ?” - दूसरी तरफ से आवाज आयी जो कि मैंने तत्काल पहचानी ।
“वही जो ऑॅफिस में होता है ।” - मैं बोला ।
“यानी कि बिजी हो ?”
“ज्यादा नहीं । फरमाइये, क्या खिदमत कर सकता हूं मैं शहजादी साहिबा की ?”
“खिदमत तो तुम बहुत कर सकते हो ।” - लैला की आवाज आयी ।
मैंने पीपट की सूरत पर निगाह डाली तो मुझे लगा कि उसने भी लैला की आवाज पहचानी थी । उसके अगले एक्शन ने उस बात को सिद्ध भी कर दिया । उसने हाथ बढा कर एक क्षण को माउथपीस को ढका और फिर मेरे कान में फुसफुसाया - “उसे हमारी यहां मौजूदगी की खबर नहीं लगनी चाहिये ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया तो उसने माउथपीस से हाथ हटा लिया ।
“बोलिये कोई खिदमत !” - मैं माउथपीस में बोला ।
“पहली खिदमत तो यही है कि यहां आ जाओ” - लैला की आवाज आयी - “और आकर अपनी बदसलूकी की माफी मांगो ।”
“बदसलूकी ! किसने की ?”
“तुमने की और किसने की ? मैं इतने अरमान से तुम्हारे फ्लैट पर पहुंची और तुम... अपनी पिछली रात की वहां ऐन्ट्री भूल गये ?”
“ओह, दैट ।”
“यस, दैट । कोई लड़की किसी का इन्तजार कर रही हो और वो कोई किसी दूसरी लड़की को साथ लेकर वहां पहुंचे तो इसे क्या कहेंगे ?”
“शायद बदसलूकी ही कहेंगे । लेकिन अनजाने में हुई खता की माफी भी तो मिल जाती है ।”
“मिल जायेगी । यहां आकर मांगो ।”
“महज माफी मांगने ही आना है ?”
“और भी काम है ।”
“और क्या काम है ?”
“बाशा तुम से मिलना चाहते हैं ।”
“कब ?”
“फौरन ।”
“फौरन तो मुमकिन नहीं । अभी तो मैं बहुत मसरूफ हूं । मैं कल मिल सकता हूं ।”
“मिस्टर कोहली, बाशा को टालमटोल वाली जुबान पसन्द नहीं । उसकी बेटी को भी ।”
“लेकिन...”
“और इस वक्त बाप से ज्यादा बेटी तुम्हारे से मुलाकात की तमन्नाई है ।”
“ओह !”
“ए वर्ड टु दि वाइज ।”
“ओके । समझ लो कि अक्लमन्द को इशारा मिल गया । मैं” - मैं वॉल क्लाक की तरफ निगाह डालता हुआ बोला - “तीन बजे हाजिर हो जाऊंगा ।”
“ठीक है । तीन बजे ।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया ।
मैंने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और पीपट की तरफ देखा । मुझे उम्मीद थी कि वो उस फोन कॉल की बाबत कुछ कहेगा लेकिन उसने ऐसा न किया । प्रत्यक्षत: उसके जेहन में कुछ और ही था जिसे कि वो जल्दी ही जुबान पर लाया ।
“तुमने” - वो मुझे घूरता हुआ बोला - “ये कैसे सोच किया कि मेरे ऊपर कोई है ?”
“क्या नहीं है ?” - मैं बोला ।
“नहीं है । मेरा कोई बॉस नहीं । मैं खुद अपना बॉस हूं । मेरे से ऊपर कोई नहीं ।”
“तुम असल में ये कहना चाहते हो कि काश तुम्हारे ऊपर कोई न होता । काश तुम्हारी डोर किसी दूसरे के हाथ में न होती ।”
“ऐसा कुछ नहीं है ।”
“ऐसा ही है । मुझे तो लगता है कि तुम्हारे में और तुम्हारे इस गौरिल्ले में उन्नीस-बीस का ही फर्क है ।”
“खबरदार !”
पता नहीं वो नोरा को गोरिल्ला कहे जाने से भड़का या उसको अपने बराबर बताया जाने से भड़का ।
“ओके ! ओके ! चलो मैंने मान लिया कि तुम नोरा से ऊपर हो । लेकिन जैसे नोरा तुम्हारे अंडर में चलता है, वैसे तुम भी किसी के अन्डर में चलते हो, ये बात मैं यकीनी तौर से कह सकता हूं । इसलिये अपने बॉस तक मेरी डिमांड पहुंचा देना ।”
“तुम्हारी डिमांड ! ये कि तुम्हारे जोड़ीदार के कातिल को तुम्हारे हवाले किया जाये ?”
“हां । और अपने बॉस को ये भी कह देना कि आइन्दा बिचौलिये के जरिये बात नहीं होगी ।”
“बिचौलिया कौन ?”
“तुम !”
“अरे अहमक, मैं ही बॉस हूं ।”
“हा हा हा ।”
“साले !” - वो कहरभरे स्वर में बोला - “हंसता है !”
“हां । साला हंसता है ।”
“मेरे पर हंसता है ?”
“तेरे पर नहीं, तेरी अक्ल पर हंसता हूं जो समझता है कि तेरे कहने से मैं मान जाऊंगा कि तू ही बॉस है ।”
उसने खा जाने वाली निगाहों से मेरी तरफ देखा और फिर बेचैनी से पहलू बदला ।
उस घड़ी मुझे नोरा की आंखों में विनोद की चमक दिखाई दी जो कि तत्काल गायब हो गयी ।
यानी कि मैं सही राह पर था । पीपट ही टॉप बॉस होता तो नोरा की मन ही मन उस पर हंसने की मजाल न होती ।
“तू बेवकूफ है ।” - पीपट बोला - “जो मौके का कोई फायदा उठाने की जगह अपने आदमी के कातिल के पीछे पड़ा है । अरे, मरने वाला मर गया, अब तेरे उसके कातिल के पीछे पड़ने से क्या वो जिन्दा हो जायेगा ?”
“मुझे क्या करना चाहिये ?”
“मेरे से पूछता है ! अरे, तेरे हाथ में खामखाह जो तुरुप का पत्ता लग गया है, तुझे उसको कैश करने की कोशिश करनी चाहिये ।”
“मतलब ?”
“माल लौटाने की कीमत बोल । तू जो कीमत बोलेगा, तुझे मिलेगी ।”
“बोलूंगा...”
“शाबाश !”
“लेकिन तुझे नहीं, तेरे बॉस को ।”
जवाब में उसने जोर से दांत किटकिटाये और बोला - “जी चाहता है कि यहीं तेरी गर्दन मरोड़ दूं ।”
“बॉस से पूछ कर ।” - मैं चेतावनीभरे स्वर में बोला - “अपनी मर्जी से नहीं ।”
“तू ‘बॉस-बॉस’ की रट नहीं छोड़ेगा ?”
“तू ‘मैं ही बॉस हूं, मैं ही बॉस हूं’ की रट नहीं छोड़ेगा ?”
उसने असहाय भाव से गर्दन हिलाई ।
“एक बात और ध्यान में रखना । तुम्हारे बॉस का लम्बा इन्तजार करने का मेरा कोई इरादा नहीं है । मुझे जल्दी उसका जवाब न मिला तो मैं माल पकड़वाने का इनाम क्लेम करने के लिए नारकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो में पहुंच जाऊंगा ।”
“खबरदार !”
“खबरदार तू हो, मेरे भाई, और जल्दी यहां से टल । जितनी जल्दी जायेगा, उतनी ही जल्दी अपने बॉस के साथ या उसके जवाब के साथ वापिस लौटेगा ।”
पीपट के मुंह से बोल न फूटा । वो कुछ क्षण यूं स्थिर खड़ा रहा जैसे खड़े खड़े लकवा मार गया हो । फिर उसने एक गहरी सांस ली और नोरा को इशारा किया । तत्काल नोरा उठ खड़ा हुआ । तत्काल दोनों आगे पीछे-पीपट आगे, नोरा पीछे-वहां से रूख्सत हुए ।
कुछ क्षण बाद मुझे बाहर का दरवाजा चौखट के साथ टकराने की आवाज आई । मैंने बाहर के कक्ष में कदम रखा तो पाया कि रजनी के सिर पर मौजूद रिवॉल्वर वाला भी अपनी जगह से गायब था । रजनी की मेरे से निगाह मिली तो उसके शरीर ने जोर की झुरझुरी ली ।
“बड़े खतरनाक लोग थे ।” - वो धीरे से बोली ।
“हां ।” - मैं संजीदा लहजे से बोला ।
“आपके पीछे पड़े थे ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“एक ही तो वजह है ।”
“मिस्टर पाण्डेय का कत्ल !”
“हां ।”
“क्या चाहते थे ?”
“तू नहीं समझेगी ।”
“टले कैसे ? मैं तो समझी थी कि आज हम दोनों यहां इकट्ठे शहीद होने जा रहे थे ।”
“रजनी, तू कुछ दिन के लिए छुट्टी कर ।”
उसने इन्कार में सिर हिलाया ।
“या नौकरी ही कहीं और तलाश कर ।”
“दिल से कह रहे हैं ?”
“दिल से तो नहीं कह रहा, दिल से तो कह ही नहीं सकता, लेकिन तेरी सलामती इसी में है कि...”
“मौत के अन्देशे से डरा रहे हैं ?”
“यही समझ ले ।”
“सर” - भयभीत होने की जगह वो बड़ी अदा से बोली - “मौत तो जिन्दगी का आखिरी अंजाम है, मौत से डरना अहमकों का काम है ।”
मैं हकबकाया ।
“और” - बड़ी अदा से वो आगे बढी - “आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं, सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं ।”
मैं और हकबकाया ।
“जिन्दगी और मौत के सौदे नहीं होते, सर । अलबत्ता जिन्दगी के ख्वाब खरीदे जा सकते हैं और मौत के अन्देशे बेचे जा सकते हैं । अगर आप मुझे मौत के अन्देशे बेचने की कोशिश कर रहे हैं तो मैं उन की खरीदार नहीं ।”
मैं भौचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“सो देयर !” - वो पूर्ववत बड़ी अदा से बोली ।
“एक नम्बर की कम्बख्त है ।” - मैं भड़का - “कभी कोई बात समझने की कोशिश नहीं करती । मैं इतनी संजीदा बात कर रहा था, उसे पता नहीं कहां ले उड़ी !”
“मैंने भी संजीदा बात कही है ।”
“तूने क्या संजीदा बात कही है ?”
“नहीं कही तो अब कहती हूं । आई हैव माई एम्पलाईज राइट्स । आप मुझे नौकरी से नहीं निकाल सकते ।”
“नोटिस देकर, एक महीने की तनख्वाह देकर निकाल सकता हूं, कम्बख्त ।”
“तो अब ये टुच्ची तरकीब आजमायेंगे आप मेरे खिलाफ !”
“क्या ! क्या कहा ?”
“मेरे पर पेश नहीं चलती इसलिये मेरी जगह किसी और को रखेंगे जो कि आप से फंसना अपनी खुशकिस्मती मानेगी !”
“क्या बकती है ?”
“मैं सब समझती हूं ।”
“मां का सिर समझती है । अरी अहमक, बात में से बात मत निकाल । ओरीजनल बात को समझ ।”
“क्या समझूं ?”
“जैसे हालात अभी थोड़ी देर पहले यहां बने थे, उनमें तू मेरे यहां कदम रखने से पहले मरी पड़ी हो सकती थी । वो रिवॉल्वर वाला तेरी खोपड़ी पर रिवॉल्वर तान कर तुझे खामोश रखने की जगह तुझे हमेशा के लिये खामोश कर सकता था ।
“मैं मौत से नहीं डरती ।”
“बोला तूने । सोहराब मोदी की तरह शेर बोल के बोला लेकिन मैं डरता हूं ।”
“तो फिर आप अपनी हिफाजत का सामान कीजिये, मेरे पीछे क्यों पड़े हैं ?”
“अरी खरदिमाग, मैं अपनी मौत से नहीं, तेरी मौत से डरता हूं । मेरी वजह से तुझे कुछ हो गया तो.. तो..”
“तो आपका काम डबल हो जायेगा ।”
“डबल ।”
“तो मिस्टर पाण्डेय की मौत के साथ आपको मेरी मौत का बदला भी लेना पड़ेगा ।”
“ओह माई गॉड ! ओह माई गुड गॉड !”
पांव पटकता मैं अपने कक्ष में वापिस लौटा और अपनी कुर्सी पर ढेर हुआ ।
मैं उसे हजार रुपये वाली वो लिपस्टिक भेंट करना चाहता था जो कि मेरी जेब में मौजूद थी लेकिन कम्ब्ख्त ने वैसा कोई माहौल ही नहीं बनने दिया था ।
मैंने एक सिगरेट सुलगाया और उसके लम्बे कश खींचने शुरु किये ।
तभी बजर बजा ।
झुंझलाते हुए मैंने फोन उठाया और भन्नाया सा बोला - “क्या है ?”
“वही है” - रजनी बोली - “जिसके लिये ऑफिस खोल के बैठे हैं ।”
“मतलब ?”
“लाइन पर कोई क्लायन्ट हो सकता है । चार पैसे कमायेंगे तो मेरी तनख्वाह भर पायेंगे न !”
“फिर शुरु हो गयी ।”
“कोई मिस्टर जयपुरिया लाइन पर हैं । आप से बात करना चाहते हैं ।”
तत्काल मैं सीधा होकर बैठा ।
काफी डिमांड बन गयी थी आज की तारीख में दिल्ली शहर में आपके खादिम की ।
“दे ।” - मैं बोला ।
“एक क्लिक की आवाज हुई और फिर लाइन थ्रू हो गयी ।”
“मिस्टर कोहली !” - एक अधिकारपूर्ण आवाज मेरे कान में पड़ी ।
“स्पीकिंग ।” - मैं बोला ।
“सुधीर कोहली । प्राइवेट डिटेक्टिव ।”
“दि सेम । इन पर्सन । वन ऑफ दि काइन्ड । फरमाइये ।”
“मैं हीरालाल जयपुरिया बोल रहा हूं । तुम्हारे से एक मीटिंग करना चाहता हूं । कब आ सकते हो ?”
“जब आप हुक्म करें ।”
“मेरे हुक्म की कोई अहमियत समझते हो तो आज ही मिलो ।”
“कब ?”
“शाम को किसी वक्त ।”
“पांच बजे ?”
“ठीक है । मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगा । जहां पहुंचना है वो पता नोट कर लो ।”
“पता मुझे मालूम है ।”
“मालूम है ?”
“आई एम ए डिटेक्टिव । रिमेम्बर ?”
“ओह ।”
“मैं पूरे पांच बजे बी-26, निजामुद्दीन ईस्ट पहुंच जाऊंगा ।”
“गुड ।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया ।
मैंने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और इत्मीनान से सिगरेट के कश लगाने लगा ।
सिगरेट समाप्त होने तक मेरा आन्दोलित मूड काफी हद तक शान्त हो चुका था ।
मैं अपने स्थान से उठा और बाहर रजनी के डैस्क के सामने पहुंचा ।
वो रेती से अपने नाखून घिस रही थी । अपना वो जरूरी काम बन्द करके उसने मेरी तरफ निगाह उठायी ।
“जा रहा हूं ।” - मैं बोला - “अब लौट के नहीं आऊंगा ।”
“हे भगवान !” - वो व्याकुल भाव से बोली - “मेरी तनखाह का क्या होगा ! अगले ही हफ्ते पहली तारीख है ।”
“हमेशा के लिये नहीं जा रहा हूं , तनखाह की सगी । मैंने कहा है कि अब आज वापिस लौट के नहीं आऊंगा ।”
“ओह ! आज लौट के नहीं आयेंगे । आपने तो मेरी जान ही निकाल दी थी ।”
“निकली तो नहीं ?”
“नहीं, निकली तो नहीं । बाल बाल बच गयी ।”
“इतने शेर कहां से सीख गयी ? रैम्बो ने तो नहीं सिखाये ?”
वो हंसी ।
“अब घटोत्कच का भी एक शेर सुन ।”
“इरशाद ।”
“बल्कि दो सुन ।”
“सुनाइये ।”
“शामिल नहीं है जिसमें तेरी मुस्कराहटें” - मैं संजीदगी से बोला - “वो जिन्दगी किसी भी जहुन्नुम से कम नहीं ।”
“वाह !”
“इसलिये, मौसमबहार करे सिजदा सुबह शाम तुझे, अलावा मुस्कराने के न रहे कोई काम तुझे ।”
“ये सब से उम्दा बात कही आपने । मुस्कराने का काम करूंगी । ऊपर से तनखाह भी मिलेगी ।”
“जब तक रहे तू, यूं रहे कि तू ही तू रहे । जब तू न रहे, तब भी तेरी गुफ्तगू रहे ।”
“मैं क्यों न रहूं, सर ?” - वो पलकें फड़फड़ाती हुई बोली ।
“रैम्बो से पूछना । समझा देगा ।”
“और फिर जहां तक मेरा ख्याल है, ये तो तीन शेर हो गये । आपने तो दो के लिए कहा था ।”
“शुक्र है तीन तक तो गिन सकती है ।”
“मैं तो...”
“जाने दे, जाने दे, मालूम है । दस तक गिन सकती है दस्ताने उतार कर । बीस तक गिन सकती है जुराबें उतार कर । बाईस तक गिन सकती है...”
“अब आप जाने दीजिये ।”
“ठीक है तू भी क्या याद करेगी ।”
मैं कदनर अच्छे मूड में अपने ऑफिस से रुख्सत हुआ ।
***
निर्धारित समय पर मैं हालीडे इन पहुंच गया ।
सोलहवीं मंजिल पर पहुंच कर मैंने अपने मेजबान के सुइट का दरवाजा खटखटाया तो उसे लैला ने खोला ।
मुझे आया पाकर वो बड़े चित्ताकर्षक अन्दाज में मुस्कराई ।
“हल्लो ।” - मैं भी उसकी मुस्कराहट से मैच करती मुस्कराहट पेश करता हुआ बोला ।
“प्लीज कम इन ।”
“थैंक्यू ।”
वो मुझे सुइट के ड्राईंगरूम में ले आयी ।
मैंने देखा कि उस घड़ी वो एक शिफौन की स्कर्ट पहने थी और उसके रंग से मैच करता हुआ एक पारदर्शी ब्लाउज पहने थी जिसमें से कि उसके उन्नत उरोजों पर गिलाफ की तरह मंढी काली अंगिया साफ दिखाई दे रही थी । अपने सुनहरी बालों को उसने कस कर पोनी टेल की सूरत में गर्दन के पीछे बांधा हुआ था । उस रखरखाव में वो खूबसूरत तो लग ही रही थी, उम्र में छोटी भी बहुत लग रही थी ।
लेकिन छोटी ही तो ज्यादा खोटी होती थीं ।
सर्दियों के मौसम में मर्द कपड़े ज्यादा पहनते हैं ताकि वो गर्माये रहें । उसी मौसम में औरतें भी ऐन इसीलिये कपड़े कम पहनती हैं ।
ताकि मर्द गर्माये रहें ।
मुझे गर्मी महसूस होने भी लगी थी ।
“बड़े साहब नहीं दिखाई दे रहे ?” - मैं बोला ।
“बाशा कहीं गये हैं ।”
“लेकिन तुमने तो कहा था कि वो मेरे से मिलना चाहते थे । मेरी उनसे तीन बजे की अप्वायन्टमेंट थी । अभी तो तीन बजे ही हैं ।”
“उन्हें एकाएक जाना पड़ा ।”
“यानी कि मैं यहां बेकार आया ।”
“बेकार क्यों आये ? तुम्हें और भी तो काम हैं यहां ।”
“और काम ?”
“मसलन तुमने अपनी बद्सलूकी की माफी मांगनी है ।”
“ओह ।”
“और फिर हौसला रखो, वो काम भी हो जायेगा जिसकी वजह से बाशा तुम से मिलना चाहते थे ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“फिर क्या बात है । क्यों मिलना चाहते थे वो मेरे से ?”
“उन्हें तुम्हारी व्यवसायिक सेवाओं की जरूरत है ।”
“ऐसा उन्होंने पिछली मुलाकात पर कहा था । यानी कि उस बाबत अब वो अपना मन बना चुके हैं ?”
“हां ।”
“दैट्स वैरी गुड ।”
“तुम कैसे चार्ज करते हो, ये तुमने अपनी यहां पिछली विजिट में बताया था, लेकिन क्या चार्ज करते हो, ये नहीं बताया था ।”
“क्योंकि किसी ने पूछा नहीं था ।”
“ठीक । ठीक । इसीलिये बाशा अन्दाजन ये रकम छोड़ गये हैं” - उसने मेरी तरफ एक लिफाफा बढाया - “जिसे बतौर एडवांस कबूल करो । जो घट-बढ हो, वो बाशा से बाद में डिसकस कर लेना ।”
“नो प्रॉब्लम ।”
मैंने लिफाफे में निगाह डाली तो उसमें पांच-पांच सौ के नोट मौजूद पाये जिसकी बाबत बिना गिने मेरा अन्दाजा बीस हजार का था ।
“बाई दि वे” - मैं बोला - “काम क्या है ?”
“वो बाशा बतायेंगे ।” - वो बोली ।
“तुम भी तो बता सकती हो ।”
“नहीं बता सकती । इस बाबत मुझे कुछ नहीं मालूम ।”
“ओह ।”
“सो मच फार दि बिजनेस । बाशा का काम खत्म हुआ । अब दूसरा काम शुरु करें ।”
“दूसरा काम !”
“बद्सलूकी की माफी मांगने वाला काम ।”
“ओह ! वो !”
“हां । वो । शुरु करो माफी मांगना ।”
“कैसे करूं ? वो क्या है कि ऐसा पहले कभी इत्तफाक हुआ नहीं मेरे साथ कि मुझे किसी नौजवान लड़की से माफी मांगनी पड़ी हो ।”
“यानी कि उसके लिए भी तुम्हें सबक देना पड़ेगा ।”
“क्या हर्ज है ! मैं बहुत अच्छा स्टूडेंट हूं । जो कुछ भी मुझे सिखाया जाता है, उसे मैं बहुत जल्दी सीख जाता हूं । खासतौर से तब जब कि उस्ताद तुम्हारे जैसा हो ।”
“अच्छा !” - वो इठलाती सी बोली ।
“हां ।”
“फिर तो जाओ माफी मांगे बिना ही तुम्हे माफ किया ।”
“जहेनसीब ।”
वो मेरे करीब आयी । वो मेरे साथ सट कर खड़ी हो गयी और मेरे जिस्म को दहकाने लगी । उसके अधखुले होंठ आमन्त्रण की तरह मेरी तरफ उठे । मैंने उसे बांहों में भर लिया
लेकिन पिछली बार जैसा जोशोखरोश मैं न दिखा सका । पिछली बार जैसी कोई एक्सप्रैस घन्टी इस बार मेरे भीतर न बजी ।
वजह आपका खादिम समझाने की कोशिश करता है । मुर्गाबी खुद आकर सिर पर बैठ जाये तो कौन मुर्गाबी का शिकार करने जायेगा ! मछली आपके पानी में बंसी डालने से पहले खुद ही आपकी नाव में आ कूदे तो कौन मछली मारने जायेगा ! लिहाजा मजा उसी चीज के पीछे भागने में है जो आसानी से काबू में नहीं आती । औरत खुद ही मर्द के गले पड़े तो मर्द की ईगो की तुष्टि नहीं होती । राजी से रजा दिखाई तो क्या तीर मारा ! न न करती को फांसा, तभी तो बहादुरी है ।
यूं मशीनी अन्दाज में मैंने उसके होंठो पर अपने होंठ रखे जैसे वो भी बाशा का ही एक काम था जो कि मैंने एडवांस फीस के बदले में करना था ।
उस घड़ी मुझे अमरीकी देहात के एक किसान का जोक याद आया जो जब अपने खेत में ट्रेक्टर चला कर लौटा तो उसने खलियान में अपनी नौजवान लड़की को घर में ठहरे एक मेहमान के ऊपर लेटे अभिसाररत पाया । किसान को बहुत गुस्सा आया ।
अपनी बेटी पर ।
उसने अपनी बेटी को बुरी तरह से डांटा कि क्यों मेहमान खलियान के ठण्डे फर्श पर लेटा हुआ था ! मेहमाननवाजी से कोरी लड़की क्या नहीं जानती थी कि ठण्डे फर्श पर उसे लेटना चाहिये था ताकि मेहमान को तकलीफ न होती !
कहने का मलतब ये है कि मुझे पूरा यकीन था कि अगर उस घड़ी बाशा एकाएक ऊपर से आ जाता तो मेरी उस जुर्रत पर खफा होने की जगह जरुर वो अपनी बेटी पर ही खफा होता कि वो मेहमान को ठीक से एन्टरटेन नहीं कर रही थी ।
मैंने चोरी से अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
“बैडरुम में चलते हैं ।” - मेरे कान की लौ चुभलाती वो बुदबुदाई - “देखना, वक्त थम जायेगा ।”
“लेकिन...”
“तालिबइल्म, उस्ताद की हुक्मउदूली की सजा जानते हो ?”
“जानता तो नहीं लेकिन कोई सजा भुगतना मैं नहीं चाहता इसलिये हुक्म सिर माथे ।”
“शाबाश । हमें उठा के लेकर चलो ।”
उसे गोद में उठाये मैं बेडरुम में पहुंचा जहां हम दोनों पलंग पर ढेर हो गये ।
वहां कितनी ही देर मैं उसके - वो मेरे नहीं - हवाले रहा ।
“जानते हो ?” - वो मेरे कान में फुसफुसाई ।
“क्या ?” - मैं बोला ।
“तुम यूं मेरी बांहों में समाने वाले पहले मर्द हो ।”
मुझे उसकी बात पर पूरा-पूरा विश्वास था, क्योंकि जो बात वो सैकड़ों बार दोहरा चुकी हो, वो गलत नहीं हो सकती थी ।
किसी ने गलत नहीं कहा कि पुरुष की पहचान उसके कर्मों से बनती है, स्री की उसके कुकर्मों से ।
“जहेनसीब ।” - प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
आखिरकार हांफती हुई वो मेरे से अलग हुई ।
“ये सबक नम्बर दो था ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं ।” - वो बोली - “ये उसका ड्रेस रिहर्सल था ।”
“आई सी ।”
“दो नम्बर सबक बहुत पेचीदा और गम्भीर है । उसके लिये ये जगह मुनासिब नहीं ।”
“पहले नहीं मालूम था ?”
“मालूम था । तभी तो तुम्हारे फ्लैट पर गयी थी लेकिन...”
उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“वो इत्तफाक की बात थी ।” - मैंने सफाई पेश की - “वो क्या है कि...”
“आई अन्डरस्टैन्ड । हम कहीं और चलेंगे । तुम्हारे फ्लैट से दूर । यहां से दूर । बाशा से दूर ।”
“कहां ?”
“कहीं भी । आगरे के बारे में क्या ख्याल है ?”
“आगरा !”
“जहां ताजमहल है । जिसे देखना तुम्हारी जिन्दगी की दो ख्वाहिशों में से एक था । इतनी बड़ी ख्वाहिश हफ्ते ही भर में फिर पूरी हो जाये तो क्या हर्ज है ! दोनों ख्वाहिशें एक ही जगह फिर पूरी हो जायें तो क्या हर्ज है !”
“हर्ज तो कोई नहीं लेकिन क्या ये मुमकिन होगा ? तुम्हारे बाशा अपनी शहजादी को अकेले दिल्ली से इतनी दूर जाने देंगे ?”
“प्रॉब्लम तो है ।”
“सो देयर ।”
“लेकिन हर प्रॉब्लम का कोई हल होता है इसलिये इसका भी जरूर, होगा ।”
“क्या ?”
“मैं सोचूंगी इस बाबत । सोचूंगी और खबर करुंगी ।”
“गुड ।”
“यस । क्योंकि अब तो तुम आगरे की ट्रिप का खर्चा भी अफोर्ड कर सकते हो । बाशा से मिले एडवांस से ही खर्चा अफोर्ड कर सकते हो ।”
“एडवांस कहीं इसी मद पर खर्चने को तो नहीं मिला ?”
“अरे, नहीं । वो तो इत्तफाक है ।”
“मुझे ऐसे इत्तफाक पसन्द हैं । लेकिन अभी एक प्रॉब्लम और भी है ।”
“अभी और भी है ।”
“हां ।”
“यू आर ए किलजाय, मिस्टर ।”
“आई एम सॉरी ।”
“और क्या प्रॉब्लम है ?”
“मेरे हाथ में एक काम है, उसको मुकम्मल किये बिना तफरीहन शहर से किनारा कर जाना ठीक न होगा ।”
“तुम बाशा के काम की फिक्र न करो, वो काम...”
“मैं उस काम की बात नहीं कर रहा ।”
“तो ?”
“कोई और काम है ।”
“और काम है ! तुम एक वक्त में एक से ज्यादा क्लायन्टस को सर्व करने लगते हो ।”
“वो काम किसी क्लायन्ट का नहीं है । वो और तरह का काम है । बहुत जाती किस्म का । समझो कि बिल्कुल अपना ।”
“ऐसा क्या काम है ?”
“क्या करोगी जान कर ?”
“आई वांट टु नो । टैल मी ।”
“सुनकर बोर ही होओगी ।”
“कोई बात नहीं । बोलो, क्या काम है वो ?”
मैंने उसे पाण्डेय के कत्ल की बाबत ही नहीं बताया बल्कि उससे सम्बन्धित तमाम किस्सा कह सुनाया - यह भी कि हेरोइन की एक बहुत बड़ी खेप मेरे कब्जे में थी ।
आखिर ऐसी कोई बात उसे बताने में क्या हर्ज था जिसे कि वो पहले से जानती थी !
“कमाल है !” - वो हैरानी जाहिर करती हुई बोली - “तुम्हारे कब्जे में पचास करोड़ की हेरोइन है ।”
“ये कीमत इन्टरनेशनल मार्केट में प्योर, अनकट हेरोइन की है । जब शहर में उसे कट करके यानी कि कमजोर करके रिटेल में बेचा जायेगा तो सौ करोड़ खड़े होंगे ।”
“तुम बेच सकते हो ।”
“बेच सकता होऊं तो ?”
“तो मजा आ जायेगा । फिर तो हम हमेशा के लिये ही कहीं निकल चलेंगे । लौट कर ही नहीं आयेंगे ।”
“मैं उसे रिटेल में नहीं बेच सकता । ये काम एक आर्गेनाइजेशन का होता है । एक अकेला आदमी इतनी हेरोइन दस साल में नहीं बेच सकता । अभी ऐसी कोशिश ही करेगा कि या तो पकड़ा जायेगा या कत्ल कर दिया जायेगा ।”
“फिर क्या फायदा हुआ !” - वो कुछ क्षण खामोश रही और फिर आशापूर्ण स्वर में बोली - “शायद न पकड़े जाओ । शायद कत्ल होने से भी बच जाओ । जरा सी सावधानी, जरा सी होशियारी...”
मै इनकार में सिर हिलाने लगा ।
“क्यों ?” - वो बोली - “क्या हुआ ?”
“मेरा ड्रग पैडलिग जैसे जलील और नापाक काम में हाथ डालने का कोई इरादा नहीं । नशा वन-वे स्ट्रीट है जिस पर से कोई लौट कर नहीं आता । मेरी अन्तरात्मा को ये बात गवारा नहीं है कि वो एकतरफा रास्ता अपने मुल्क के नौजवानों को मैं दिखाऊं ।”
“तुम नहीं दिखाओगे तो कोई और दिखायेगा । ये धन्धा तो बन्द होने वाला है नहीं ।”
“मैं दूसरे की कांशस का ठेका नहीं ले सकता ।”
“तुम” - वो अपने वक्ष से मुझे धक्का देती हुई बोली - “एक काम क्यों नहीं करते ?”
“कौन सा काम ?”
“जो काम तुम्हारी कांशस को गवारा नहीं, वो तुम मुझे करने दो ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे बताओ, वो माल तुमने कहां छुपाया हुआ है...”
“मैंने कब कहा है मैंने उसे छुपाया हुआ है ?”
“भई, वो तुम्हारे कब्जे में है तो तुमने उसे कहीं छुपाया ही हुआ होगा ।”
“हूं । काफी समझदार हो ।”
“फिर जो काम तुम नहीं करना चाहते, वो मैं करुंगी ।”
“तुम करोगी ?”
“तुम्हारी खातिर । हमारी खातिर ।”
“तुम ! तुम, एक शहजादी...”
“मैंने पहले भी बोला था कि मैं कोई शहजादी-वहजादी नहीं हूं ।”
“लेकिन बाशा...”
“वो भी कोई बादशाह नहीं है ।”
“ओह ! ओह !”
“अब बोलो क्या कहते हो ?”
“मुझे सोचने का मौका दो ।”
“सोच लो । मौका ही मौका है ।”
“इस वक्त वहीं । इस वक्त मेरे पर तुम हावी हो । तुम्हारा नशा हावी है । इस वक्त कोई अक्ल की बात सोचने की स्थिति में मैं नहीं हूं ।”
“ओह, कम ऑन ।”
“और फिर मैंने कहीं और भी पहुंचना है । मेरी कहीं और भी अप्वायन्टमेंट है ।”
“ओह ! तभी बार बार घड़ी देख रहे हो !”
“सच पूछो तो हां ।”
वो कुछ क्षण सोचती रही और फिर मेरी एक बांह के साथ अपने दोनों स्तन मसलती हुई बोली - “तो फिर उस अप्वायन्टमेंट से तुम्हारे फारिग होने के बाद...”
“यही ठीक रहेगा । लेकिन बाद नहीं, काफी बाद ।”
“काफी बाद कब ?”
“कल । या परसों ।”
“ओह नो । तुम इतने बिजी भला कैसे हो सकते हो ?”
मैं खामोश रहा । मेरी मंशा यह थी कि उसे अपना काम आसानी से होता न लगे ।
“आज रात में क्या खराबी है ?” - उसने पूछा ।
“कोई खराबी नहीं । वैसे भी काली करतूतों के लिये काली रात ही मुनासिब वक्त होता है । लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“रात की मेरी पहले से ही किसी से अप्वायन्टमेंट फिक्स है ।”
“काफी पापुलर आदमी हो दिल्ली में, सुधीर कोहली ।”
“है तो सही ऐसा ही कुछ कुछ ।”
“किस से अप्वायन्टमेंट फिक्स है ?”
“है कोई ।”
“किसी मर्द से या औरत से ?”
“लड़की से ।”
“ओह !” - वो जल कर बोली - “लड़की से ।”
“जो कि तुम्हारे मुकाबले में कुछ भी नहीं । लेकिन क्या करुं, मेरा वादा है उससे आज शाम का ।”
“कहां जाओगे ? मेरा मतलब है कोई जगह पहले से मुकर्रर है या अभी सोचोगे इस बारे में ?”
“पहले से मुकर्रर है ।”
“कौन सी जगह ?”
“‘अब्बा’ । डिफेंस कालोनी में है ।”
“रात को कब पहुंचोगे वहां ?”
“यही कोई आठ बजे के करीब ।”
“पहुंचोगे ?”
“क्या मतलब ?”
“रात अभी बहुत दूर है । तब तक जिन्दा रह पाओगे ?”
“मैं तुम्हारा इशारा समझ रहा हूं लेकिन खातिर जमा रखो, मुझे कुछ नहीं होने वाला ।”
“कहीं इसी खामख्याली में न मारे जाना ।”
“ये खामख्याली नहीं, हकीकत है । वो क्या है कि जिस जगह पर मैंने माल छुपाया हुआ है, वहां मेरे अलावा कोई नहीं पहुंच सकता । अगर मेरे कत्ल की कोशिश की गयी तो समझ लो कि माल हमेशा के लिए गर्क हो गया ।”
“टार्चर नाम की कोई चीज भी है इस दुनिया में ।”
“तुम तो बहुत कुछ जानती समझती हो ।”
“जासूसी नॉवल पढती हूं न !”
“अव्वल तो मैं टार्चर के लिये किसी की पकड़ में नहीं आने वाला । आ गया तो समझ लो कि ये पंजाबी पुत्तर पत्थर का बना हुआ है ।”
“सारे की तो मुझे खबर नहीं” - वो अपने सामने एक हाथ चलाती हुई बड़े अश्लील स्वर में बोली - “लेकिन एक जगह पर तो तुम वाकई पत्थर के बने हुए हो ।”
मैं हंसा ।
“मैं भी ‘अब्बा’ में पहुंचूंगी ।” - फिर वो दृढता से बोली ।
“अकेले ?”
“देखेंगे ।”
“बाशा के साथ ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“बोला न, देखेंगे ।”
“ठीक है ।”
“हो सकता है वहां ऐसा इत्तफाक पैदा हो जाये कि हम इकट्ठे मिल बैठें ।”
“हम !”
“तुम और तुम्हारी गर्ल फ्रेंड । मैं और मेरा ब्वाय फ्रेंड ।”
“ये मुनासिब होगा ?”
“देखेंगे ।”
“हर बात का जवाब देखेंगे है ?”
“मिस्टर कोहली, बहुत सी बातें माहौल पर भी निर्भर करती हैं, उस खास वक्त पर भी निर्भर करती हैं । तुम्हारे जो इरादे इस वक्त हैं, जो मिजाज इस वक्त है, वो शायद उस वक्त न हो ।”
“ठीक है । फिर मेरा भी यही जवाब है जो तुम्हारा है । देखेंगे ।”
“गुड ।”
“फिर भी कोई हिन्ट तो दो कि तुम्हारे साथ कौन होगा ? अगर कोई स्टेडी ब्वाय फ्रेंड है तो...”
“स्टेडी क्या, वो ब्वाय फ्रेंड ही नहीं है । फ्रेंड भी अभी बनेगा ।”
“वो ही आदमी तो नहीं जो तुम्हारे साथ कोज़ी कार्नर में था ?”
“नहीं, वो नहीं ।”
“तो ?”
“शाम को बाशा के एक फ्रेंड होटल में उनसे मिलने आ रहे हैं । उनके साथ उनका बेटा भी होगा । बाशा ने फ्रेंड से कोई गम्भीर बिजनेस टॉक करनी है इसलिये बेटा मेरे हवाले होगा । वो मुझे यकीनन अपने और मेरे डैडी की छत्रछाया से दूर बाहर कहीं ले जाने की कोशिश करेगा । वो समझेगा कि वो मुझे ‘अब्बा’ में लेकर आया लेकिन असल में इसका उलट हुआ होगा ।”
“यानी कि तुम्हारी भी शाम की अप्वायन्टमेंट पहले से फिक्स है ?”
“मेरी अप्वायन्टमेंट तुम्हारी अप्वायन्टमेंट जैसी पत्थर की लकीर नहीं है । तुम अपनी अप्वायन्टमेंट कैंसल करो, फिर देखो कैसे मैं जहन्नुम रसीद करती हूं बाशा के दोस्त के बेटे को ।”
मैं हंसा ।
“बोलो ।” - वो चैलेंजभरे स्वर में बोली ।
“पहला प्रोग्राम ही ठीक है । शाम को ‘अब्बा’ में एक्सीडेंटल मुलाकात ही होने दो ।”
“ओके ।”
“तो मैं चलूं ?”
“क्या ! तीसरा सबक हासिल किये बिना ?”
“तीसरा सबक ! लेकिन अभी तो दूसरा ही मुकम्मल नहीं हुआ ! अभी तो उसका ही महज ड्रैस रिहर्सल हुआ है !”
“अच्छे बच्चे उस्ताद से जुबानदराजी नहीं करते” - वो मुझे पुचकारती सी बोली - “जो हासिल हो, उसे सिर माथे कबूल करते हैं ।”
“हासिल !”
“अभी सामने आता है ।”
वो भड़की हुई बिल्ली की तरह मेरे पर झपटी ।
***
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
बिल्ली के झपट्टे ने मेरा टाइम शिड्यूल बिगाड़ दिया था, लिहाजा मुझे निजामुद्दीन ईस्ट का रुख करना चाहिये था जहां कि मेरी पांच बजे की अप्वायन्टमेंट थी लेकिन मैं यादव के दरबार में पहुंचा ।
वो अप्वायन्टमेंट इन्तजार कर सकती थी क्योंकि उसका तलबगार मैं नहीं, जयपुरिया था ।
यादव ने मेरे पर निगाह डाली और फिर जानबूझ कर अनजान बनता हुआ बोला - “तब से यहीं हो ?”
“नहीं ।” - मैं बड़े सब्र के साथ बोला - “लौट के आया हूं ।”
“यूं उलटे पांव लौटे हो तो कोई खास ही वजह होगी ?”
“खास ही वजह है ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“मैं तुम्हें पिछले साल के एक वाकये की याद दिलाना चाहता हूं जिसने दिल्ली शहर में काफी हड़कम्प मचाया था और जो यहां के तमाम अखबारों की बैनर हैडलाइन्स का सब्जेक्ट बना था ।”
“कौन सा वाकया ?”
“एक लोकल होटल पर हुई रेड का वाकया जिसमें बेशुमार कालगर्ल्स पकड़ी गयी थीं । इतनी ज्यादा कि यकीन नहीं होता था कि उस छोटे से होटल में एट ए टाइम इतनी कालगर्ल जमा थीं ।”
“जैसे दवा छिड़कने पर बिलों में से चूहे निकलते हैं” - वो हंसता हुआ बोला - “वैसे उस होटल के हर कोने खुदरे से कालगर्ल निकली थीं । ऊपर से सब माडर्न । सब जवान सब हसीन ।”
“यानी कि वो वाकया याद आ गया तुम्हें ?”
“वो भी कोई भूलने की बात है ! यहीं तो लाया गया था सब को बुक किये जाने के लिये । कितनी वाहवाही मिली थी पुलिस को ।”
“एक चीज तो मिलनी ही होती है । हफ्ता या वाहवाही ।”
“क्या मतलब ?”
“इतने बड़े और रसूख वाले होटल पर पुलिस की रेड कोई खामखाह थोड़े ही हो जाती है ! इतना व्यापक कालगर्ल रैकेट बिना पुलिस की मिली भगत के थोड़े ही चलता है ! ऊंचे अफसरान को हफ्ता नहीं पहुंचा होगा या उम्मीद और करार से कम पहुंचा होगा, तो रेड डलवा दी ।”
“शटअप ।”
“यस सर । यस सर ।”
“मेन लाइन पर ही रहो । भटके तो बाहर ।”
“सॉरी ।”
“क्यों याद कर रहे हो उस रेड को ? क्या चाहते हो ?”
“जहां तक मुझे याद पड़ता है, पकड़ी गयी तमाम कालगर्ल्स की यहां तस्वारें खिची थीं ।”
“फिंगरप्रिन्ट्स भी लिये गये थे । नाम-पते ठिकाने भी दर्ज किये गये थे । यही कायदा है ।”
“वो सब रिकार्ड आज भी यहां होगा ?”
“होगा ।”
“यादव साहब, मैं वो तस्वीरें देखना चाहता हूं ।”
“आज मुमकिन नहीं ।”
“क्यों ?”
“रिकार्ड सैक्शन चार बजे बन्द हो जाता है ।”
“लेकिन इमरजेंसी में खुल भी तो जाता होगा ?”
“मुझे कोई इमरजेंसी दिखाई नहीं दे रही ।”
“लेकिन...”
“तुम रंडियों की तस्वीरें देखना चाहते हो, ये कोई इमरजेंसी है !”
“खामखाह तो नहीं देखना चाहता ।”
“वजह बताओ ?”
“मैं कोई खास सूरत पहचानना चाहता हूं ।”
“जो कि उन पिचहत्तर तस्वीरों में दर्ज है ?”
“हो सकता है, हो । हो सकता है, न हो । तसदीक करना चाहता हूं ।”
“आज नहीं हो सकती ।”
“कुछ करो न, बॉस । प्लीज ।”
वो कुछ क्षण यूं खामोशी से मेरा मुआयना करता रहा जैसे कि मेरी बेचैनी से आनन्दित हो रहा हो, फिर बोला - “एक तरीका है ।”
“क्या ?” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“अखबारों में तो सिर्फ वो खबर ही छपी थी लेकिन दिल्ली से ही छपने वाली एक मासिक पत्रिका ने यहां से हासिल करके अपने एक अंक में उन तमाम की तमाम कालगर्ल्स की रंगीन तस्वीरें बमय नाम-पते, छापी थीं । दरियागंज में दफ्तर है उस मैगजीन का । वहां चले जाओ और वो पुराना अंक हासिल कर लो ।”
“वो टरका देंगे मुझे ।”
“क्यों ?”
“पुराना अंक ढूंढना जो पड़ेगा । टरकायेंगे नहीं तो तुम्हारी तरह ये कह के टाल देंगे कि कल आना । यादव साहब, किसी तरह आज ही काम बनवाओ न मेरा ।”
“आज ही किसलिये ?”
“एक ख्वाहिश है आपके खादिम की एक खास दिन एक खास वक्त एक खास मुहूर्त पर पिचहत्तर कालगर्ल्स की एक साथ तस्वीरें देखने की ।”
“मजाक मत करो ।”
“यादव साहब, प्लीज ।”
“क्या चाहते हो ?”
“कोई अपना ऐसा जद्दोजलाल दिखाओ कि वो मैगजीन वाला अपना वो पुराना अंक तलाश करके मुझे आज ही सौंपे । कोई ऐसी तार खींचो, कोई ऐसी घंटी खड़काओ कि प्यासा कुएं के पास न जाये, कुआं प्यासे के पास आये ताकि प्यासे की प्यास जल्दी मिटे ।”
“बदले में मुझे क्या मिलेगा ?”
मैंने जेब से अपनी ताजा खरीद लिपस्टिक निकाली ।
“ये हजार रुपये की लिपस्टिक ।” - मैं बोला - “आपकी बीवी के लिये ।”
“मेरी बीवी लिपस्टिक नहीं लगाती ।” - वो रुखाई से बोला - “और तुम्हें खूब मालूम है कि वो छ: नौजवान बेटियों की मां है ।”
“तो बेटियों के लिये सही ।”
“यानी कि एक अनार छ: बीमार ?”
“सॉरी !” - मैंने लिपस्टिक वापिस जेब में रख ली - “मैं आपके अहसान का बदला किसी और तरीके से चुकाऊंगा । मोहलत दीजिये ।”
“लिपस्टिक जेब में क्यों रखे हो ?”
मैंने वजह बतायी ।
“हूं । ठीक है, तुम भी क्या याद करोगे !”
“थैंक्यू, सर ।”
फिर वो पहले डायरेक्ट्री में और फिर फोन में उलझ गया । मैं बड़े सब्र के साथ प्रतीक्षा करता रहा ।
आखिरकार उसने फोन रखा और बोला - “प्रकाशक कहता है कि पुराना अंक गोदाम में से तलाश कराना पड़ेगा जो कि किंग्सवे कैम्प में है ।”
“फिर क्या बात बनी ?” - मैं मायूसी से बोला ।
“बनी । आठ साढे आठ बजे तक उन तस्वीरों वाले वरके की कटिंग तुम जहां भी होवोगे, तुम्हारे पास पहुंच जायेगी । अब बोलो उस वक्त कहां होवोगे ।”
“अब्बा’ में ।” - मैं निसंकोच बोला ।
“ठीक है । वहां कटिंग के पहुंचने का इन्तजार करना ।”
“पहुंचेगी ?”
उसने घूर कर मुझे देखा ।
“शुक्रिया । शुक्रिया, बॉस । भगवान तुम्हें जल्द-अज-जल्द ए.सी.पी. बनाये ।”
“भगवान नहीं बना सकता । लेकिन तुम बना सकते हो ।”
“अच्छा ! कैसे ?”
“शहर के पांच-छ: मकबूल आदमियों का कत्ल करके फरार हो जाओ । फिर ऐसे हालात पैदा करो कि मैं और सिर्फ मैं तुम्हें गिरफ्तार कर सकूं । वो भी यूं जैसी मैंने गिरफ्तारी के लिये जान की बाजी लगा दी हो । फिर बतौर इनाम मुझे आउट आफ टर्न प्रोमोशन मिलेगी और मैं ए.सी.पी. बन जाऊंगा । ठीक ?”
“मैं कोई और दुआ सोचूंगा, बॉस ।”
फिर तत्काल मै वहां से रुख्सत हुआ ।
***
मैं निजामुद्दीन ईस्ट पहुंचा ।
मैंने बी-26 की कॉलबैल बजायी तो एक सूटबूटधारी युवक ने मुझे दरवाजा खोला ।
वो जयपुरिया नहीं हो सकता था । हुलिया नहीं मिलता था, उम्र नहीं मिलती थी, ऊपर से कोई पैसे वाला सेठ क्यों भला घर आये मेहमान को खुद दरवाजा खोलता !
“कोहली ।” - मैं बोला - “मिस्टर जयपुरिया से मेरी अप्वायन्टमेंट है ।”
“यस सर ।” - युवक अदब से बोला - “प्लीज कम इन ।”
मैं उसके पीछे हो लिया तो उसने मुझे एक सजे हुए ड्राईगरुम में पहुंचाया ।
वहां जो आदमी मौजूद था, मैंने उसे तत्काल पहचाना । मुकन्दलाल ने सेठ हीरालाल जयपुरिया का बहुत सही हुलिया बयान किया था । कोई बात नहीं बतायी थी तो वो ये थी कि वो दस में से सात उंगलियों में अंगूठियां पहनता था, बायीं कलाई में सोने का भारी कड़ा पहनता था और उसके मुंह में निचली कतार में दो दान्त सोने के थे ।
यानी कि सारा सोना रिजर्व बैंक में ही नहीं था ।
उसने खुर्दबीनी निगाह से सिर से पांव तक मेरा मुआयना किया और फिर बोला - “मैं जयपुरिया हूं, तुम कोहली हो ।”
कहने का ढंग ऐसा था जैसे कह रहा हो ‘मैं राजा हूं, तुम प्रजा हो’ ।
“हां ।” - मैं धृष्ट स्वर मं बोला - “मैं कोहली हूं, तुम जयपुरिया हो ।”
मेरा वो लहजा सुन कर वो हड़बड़ाया, उसने कुछ क्षण घूर कर मुझे देखा और फिर बोला - “सिर्फ नाम से ही वाकिफ हो या जानते हो कि मैं कौन हूं ?”
“जानता तो नहीं हूं लेकिन अन्दाजा लगा सकता हूं ।”
“अच्छा !”
“आप वन-वे स्ट्रीट के ट्रैफिक वार्डन हैं ।”
“वन-वे स्ट्रीट !” - वो हड़बड़ाया ।
“एकतरफा रास्ता । जिस पर हरी बत्ती चमका कर आपका कारोबार चलता है ।”
“काफी बददिमाग आदमी हो ।”
“आमको कौन से कान से ज्यादा अच्छा सुनायी देता है ?”
“क्या मतलब ?”
“ताकि मै आपके ज्यादा अच्छे कान की तरफ बिराजूं ।”
“ओह !” - फिर उसने अपने सामने के सोफे की तरफ इशारा किया - “बैठो, भई, बैठो ।”
मैं सोफे पर ढेर हुआ । कीमती कालीन से अच्छी तरह रगड़ कर मैंने जूते पोंछे, एक उंगली से नाक कुरेद कर वो उंगली सोफे की बांह पर फिराई, एक सिगरेट सुलगाया और उसकी राख कालीन पर झाड़ी ।
जयपुरिया भावहीन ढंग से अपलक मेरे हर कार्यकलाप को देख रहा था । लेकिन सूट वाला जो युवक मुझे वहां तक लाया था, उसके चेहरे पर दहशत के भाव थे । वो बार बार यूं जयपुरिया की तरफ देख रहा था जैसे कि उसे यकीन नहीं आ रहा था कि उसका बॉस मेरी हरकतें बर्दाश्त कर रहा था ।
“फारिग हो गये ?” - आखिरकार वो बोला ।
“हां ।” - मैं पूर्ववत् धृष्ट भाव से बोला - “शुक्रिया ।”
“नहाने-धोने का भी मूड हो तो लोटा बाल्टी यहां आ सकता है ।”
“शेव का क्या इन्तजाम है ?”
“वो भी हो जायेगी । हजामत भी । करवायें ?”
“नहीं । अभी जरूरत नहीं ।”
“कोई और सेवा हो हमारे लिये ?”
“फिलहाल कोई नहीं ।”
“तो फिर बोलो क्या आफॅर है तुम्हारी ?”
“ऑफर ! मेरी !”
“जिसकी पेशकश लेकर तुम यहां आये हो ।”
“आपको गलतफहमी है । मैं कोई पेशकश लेकर नहीं आया । मैं आपके बुलाने पर आया हूं । क्योंकि आप मेरे से एक मीटिंग करना चाहते थे ।”
“तुम्हारी ऑफर सुनने कि लिये ही मीटिंग करना चाहता था ।”
“मेरे पास ऑफर कोई नहीं है । अलबत्ता डिमांड है ।”
“तुम कोई डिमांड करने की पोजीशन में नहीं हो, मिस्टर ।”
“अच्छा !”
“एक बार अपने दायें देखो ।”
मैंने दायें देखा तो पाया कि सूट वाले के करीब एक और आदमी आ खड़ा हुआ था । उसके हाथ में रिवॉल्वर थी जिसका रुख मेरी तरफ था ।
“बस, महज एक नन्ही सी रिवॉल्वर !” - मैं बोला - “इतने बड़े सेठ को तो तोप मंगानी चाहिये थी ।”
“तुम्हारे लिये यही काफी है ।”
“वहम है आपका । इसे कहिये रिवॉल्वर का रुख किसी और तरफ करे । अनाड़ी लोगों के हाथ लग जाये तो ये कई बार अनजाने में भी चल जाती है ।”
“डरते हो ?”
“आपके लिये । क्योंकि अगर गोली चली तो ये आपके लिये मुसीबत बन जायेगी ।”
“हमारे लिये ?”
“जी हां ।”
“वो कैसे ?”
“एक ही बार में कहूं ?”
“यही ठीक रहेगा । वक्त की बचत होगी ।”
“तो सुनिये । आपके शक्ति नाम के ट्रकों के कॉनवाय के साथ कल शाम जो हेरोइल दिल्ली पहुंची थी, वो इस वक्त मेरे कब्जे में है । हेरोइन उस ड्राइव शाफ्ट में थी जो कि गाजियाबाद की पेपर मिल की मशीनरी का पुर्जा बताया जाता है । शाफ्ट जिस ट्रक में लदा हुआ था, वो आप की ट्रांसपोर्ट कम्पनी का है । इस वक्त आपका ट्रक भी गायब है और हेरोइन से भरा शाफ्ट भी गायब है । मैंने दोनों चीजों को दो अलग-अलग ऐसी जगहों पर छुपाया हुआ है जहां से कि आप उन्हें सात जन्म नहीं तलाश करवा सकते । लेकिन उन दोनों जगहों का तफसील से जिक्र मैंने एक चिट्ठी में किया है जिसमें कि मेरे साथी हरीश पाण्डेय की मौत और उसके बाद के मेरी जानकारी में आये तमाम वाकयात भी दर्ज हैं । मेरे को एकाएक कुछ हो जाने की सूरत में वो चिट्ठी सीधी पुलिस कमिश्नर के हाथ जा कर लगेगी । उसकी एक कापी नारकॉटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के चीफ के पास पहुंचेगी और दूसरी कापी होम मिनिस्ट्री में पहुंचेगी । उसके बाद क्या होगा, क्या ये भी मैं ही बताऊं या आप खुद समझ लेंगे ताकि वक्त की बचत हो सके ?”
वो खामोश रहा । तब पहली बार वो विचलित दिखाई दिया ।
“बात यहीं खत्म नहीं हो जाती । मैं आपका बाकी का गेम भी समझ चुका हूं इसलिये उसका भी उस चिट्ठी में जिक्र है ।”
उसकी भवें उठीं ।
“आपकी ट्रांसपोर्ट कम्पनी हेरोइन स्मगलिंग और डिस्ट्रीब्यूशन के धन्धे में पहले से है लेकिन पहले शायद ये सिलसिला यू. पी. तक ही सीमित था । यू.पी. में डिस्ट्रीब्यूशन के लिये हेरोइन का सोर्स या तो गाजीपुर की सरकारी अफीम फैक्ट्री है जहां से अफीम चोरी होती है और फिर गाजियाबाद में - शायद उस पेपर मिल में ही जिस का पार्टनर ट्रांसपोर्ट कम्पनी में आपका पार्टनर दासानी बताया जाता है - उससे हेरोइन बनायी जाती है या फिर वो पाकिस्तान और अफगानिस्तान से स्मगल होती है । मेरा अन्दाजा ये है कि हाल ही में हेरोइन को हासिल करने का वो सिलसिला गड़बड़ा गया है या फिर मुम्बई में हेरोइन इन स्थापित जरियों से सस्ती मिलने लगी है । तभी आप लोग मुम्बई से हेरोइन मंगवाने लगे है । उसे यू.पी. में पहुंचाने का तरीका यकीनन ये होता है कि पहले आप स्थापित करते हैं, कि पेपर मिल की मशीनरी का कोई पुर्जा - जैसे कोई फीड पाइप, कोई सपोर्ट पिलर - बिगड़ गया था जिसे कि आपकी ट्रांसपोर्ट कम्पनी के ट्रक पर लदवाकर मुम्बई अरसाल किया जाता था और जिसकी बाबत हर नाके पर, चैकिंग के हर ठीये पर, पहले ही स्थापित कर दिया जाता था कि या तो वो ही पुर्जा मरम्मत के बाद वापिस लौटने वाला था या उसकी जगह नया पुर्जा आने वाला था । यूं जब नया या मरम्मतशुदा पुर्जा लौटता था तो असल में उसका एक भीतर से खोखला डुप्लीकेट लौटता था जिसमें कि हेरोइन भरी होती थी । यूं वो पुर्जा सीधा गाजियबाद की पेपर मिल में पहुंचता था तो उसके जरिये हेरोइन की एक खेप यू.पी. में पहुंच जाती थी ।”
अपने शब्दों का उस पर प्रभाव देखने के लिये मैं एक क्षण को ठिठका और फिर बोला - “लेकिन इस बाद ड्राइव शाफ्ट में जो हेरोइन मुम्बई से आयी थी, वो यू.पी. पहुंचने के लिये नहीं थी, वो लोकल सप्लाई के लिये थी, जहां कि नशे का अकाल पड़ा हुआ है ।”
“कैसे मालूम ?”
“क्या कैसे मालूम ?”
“कि वो सप्लाई यू.पी. जाने के लिये नहीं थी ?”
“क्योंकि हेरोइन से भरे ड्राइव शाफ्ट वाले ट्रक ने कल रात गाजियाबाद का रुख नहीं किया था । आउटर रिंग रोड पर वो बुराड़ी की तरफ मुड़ा था जिधर से कि यू.पी. को कोई रास्ता नहीं जाता ।”
“ओह !”
“तो ये है सारी बात का खुलासा । अब आप खुशी से अपने इस जमूरे को गोली चलाने का हुक्म दे सकते हैं ।”
“कोई बात ऐसी भी है जो तुम नहीं जानते हो ?”
“एक बात है ऐसी ।”
“वो भी बोलो ।”
“शहर में हेरोइन का तोड़ा बताया जाता है । मैं ये नहीं जानता किे उस तोड़े को निगाह में रखते हुए आपने दिल्ली के ड्रग्स के धन्धे में उतरने का फैसला किया है या माल की कीमत बढाने के लिये वो तोड़ा भी आप ही का पैदा किया हुआ है ।”
“शुक्र है कोई तो बात है जो तुम नहीं जानते हो ।”
मैं हंसा, मैंने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और बावजूद इसके कि अपनी कोहनी के करीब साइड टेबल पर पड़ी ऐश ट्रे मुझे दिखाई दे रही थी, मैंने उसे कालीन पर फेंका और अपने जूते से मसल दिया और फिर पूरी बेबाकी में जयपुरिया की तरफ निगाह उठाई ।
“तुमने” - वो बोला - “एक डिमांड का जिक्र किया था । क्या डिमांड है तुम्हारी ?”
“मेरी डिमांड है कि हरीश पाण्डेय का कातिल मेरे हवाले किया जाये ।”
“हमारा उस कत्ल से कोई लेना देना नहीं । इसलिये हम नहीं जानते कि कातिल कौन है ।”
“नहीं जानते तो जानने की कोशिश कीजिये ।”
“वो हमारा काम नहीं ।”
“शाफ्ट वापिस चाहिये तो इसे अपना काम बनाइये ।”
“ये शर्त है तुम्हारी शाफ्ट लौटाने की ?”
“हां । वाहिद । अहमतरीन ।”
वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “चिट्ठी, जिसका तुमने अभी जिक्र किया, वो कहां है ?”
“हा हा हा ।”
“मेरा सवाल उसका अता पता जानने की बाबत नहीं था । मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूं कि क्या वो सेफ हाथों में है ।”
“बहुत सेफ हाथों में है । मेरे सिवाय उन हाथों के मालिक तक कोई नहीं पहुंच सकता ।”
“ये ब्लफ भी हो सकता है ।”
“क्या फरमाया, जनाब ?”
“मौत सिर पर खड़ी पा कर चिट्ठी वाली कहानी तुमने हाथ के हाथ गढ ली हो सकती है ।”
“आप पर कोई बन्दिश नहीं है कि आप मेरी बात पर यकीन करें । आपको खुद अपनी बात पर यकीन कर के अपना अगला कदम उठाने की खुली छूट है । आप अपने गन मास्टर को हुक्म दे सकते हैं कि ये मेरे पर गोली चलाये ।”
उसने ऐसी कोई कोशिश न की ।
“इस बात की क्या गारन्टी है कि तुम्हारी डिमांड पूरी हो चुकने के बाद भी वो चिट्ठी आगे उन हाथों में नहीं पहुंच जायेगी जिनमें कि नहीं पहुंचनी चाहिये ?”
“गारन्टी कोई मुमकिन नहीं । सिवाय इस पंजाबी पुत्तर की जुबान के । अब ये रिस्क तो आपको लेना ही पड़ेगा कि मैं अपनी जुबान का पक्का निकलता हूं या नहीं ।”
“और हेरोइन ?”
“जब मेरा काम हो जायेगा तो आपका काम भी हो जायेगा ।”
“यानी कि हेरोइन हमारे हवाले कर दी जायेगी ?”
“हां ।”
“प्रिया कहां है ?” - फिर उसने अप्रत्याशित सवाल किया ।
“ओह ! तो परसों रात टेलीफोन पर उसकी वापिसी की मांग करने वाले आप थे ?”
“वो हमारी मुलाजमत में है । उसने जो कुछ किया था, हमारी हिदायत पर किया था ।”
“आई सी ।”
“काफी होशियारी दिखाई तुमने उस पर काबिज होने में ।”
“तारीफ का शुक्रिया ।”
“अब बताओ तुमने उससे क्या जाना था ?”
“वही जो उसे मालूम था । अलबत्ता कुछ छुपा गयी हो तो कह नहीं सकता ।”
“मुझे बताओ उसने तुम्हें क्या बताया था । फिर मैं तसदीक कर दूंगा कि उसने कुछ छुपाया था, या नहीं छुपाया था ।”
आनेस्ट ?”
“यस । आनेस्ट ।”
संक्षेप में मैंने अपने फ्लैट पर प्रिया के साथ हुआ वार्तालाप दोहराया ।
“उसने कुछ नहीं छुपाया था ।” - सुनकर वो बोला - “इतनी ही कहानी है वो । यकीन जानो ।”
“असलियत साफ बता कर मुझे ऐंगेज क्यों न किया गया ?”
“क्योंकि हमें अन्देशा था कि तब कहीं तुम इस काम को हाथ में लेने से इन्कार न कर देते । उस वक्त बेवफा पति वाली कहानी ही हमें बेहतरीन लगी थी जिसके पीछे लगने के लिये कि तुम्हें ऐंगेज किया गया था । तुम्हारा आदमी खामखाह मारा गया लेकिन जिस किसी ने भी उसे मारा वो न हमारा आदमी था और न हम जानते हैं कि वो कौन था । इसलिये उसकी मौत के लिये हमें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता ।”
“लेकिन आप मालूम कर सकते हैं कि वो शख्स कौन था ! क्योंकि आपको कई बातों की इनसाइड इनफार्मेशन है जो कि मुझे नहीं है । शहर में नारकॉटिक्स ट्रेड पर काबिज होने के लिये दो गुटों में टकराव चल रहा है, ये बात मैं यकीनी तौर से कह सकता हूं । एक गुट आप हैं, इसलिये आपको बेहतर मालूम हो सकता है कि दूसरा गुट कौन सा है, आपके विपक्षी कौन हैं ?”
“बदकिस्मती से नहीं मालूम । यही मालूम करने की तो हमने कोशिश शुरु की थी जो कि कामयाब न हो सकी । हमारे सामने एक ही सूत्र था और वो पीपट था । इतना हमें अन्दाजा था कि पीपट टॉप बॉस नहीं था । उसके बॉस तक पहुंचने की कोशिश हमने की थी, लेकिन वो कामयाब न हो सकी । फिर इससे पहले कि तुम्हारा आदमी कोई कारआमद रिपोर्ट जारी करता, खुद वो ही मारा गया ।”
“अब क्या कोशिश बन्द कर दी है आपने अपने विपक्षियों को पहचानने की ?”
“नहीं । कोशिश जारी है । लेकिन कोई नतीजा हाथ नहीं आ रहा । जो एक सूत्र हमारे हाथ में था, अब तो वो भी हमारे हाथ से निकल गया है ।”
“क्या मतलब ?”
“आज की तारीख में तो हमें ये भी नहीं मालूम कि पीपट कहां है ! वो तो एकाएक जैसे गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गया है ।”
“वो कहीं गायब नहीं हुआ । वो इसी शहर में है । मुझे आज ही मिला था ।”
“अच्छा ! कहां ?”
“मेरे ऑफिस में । आपकी तरह वो भी मेरे से जबरदस्ती कुबुलवाना चाहता था कि शाफ्ट मैंने कहां छुपाया था ?”
“कामयाब हुआ ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । हुआ होता तो क्या मैं आपको यहां दिखाई देता ?”
“टला कैसे ?”
“मैंने उसके सामने भी वो ही शर्त रखी थी जो कि आपके सामने रखी है ।”
“ओह !”
“लिहाजा अब एक अनार के दो बीमार सामने हैं । अनार उसी को मिलेगा जो पहले नतीजा निकाल कर दिखायेगा इसलिये इस बाबत जो कुछ करना आपके बस का हो, उसे जरा फुर्ती से कीजियेगा ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“वो आदमी” - फिर वो बोला - “जो तुम्हारे यहां से प्रिया को जबरन ले गये, कौन थे वो ?”
“मैं नहीं जानता लेकिन इतना जानता हूं कि उनमें से एक का नाम नोरा था और यही नोरा कल दोपहार को मेरे ऑफिस पर हल्ला बोलने पीपट के साथ आया था ।”
“फिर तो हो सकता है कि वो पीपट का ही आदमी हो ?”
“हो क्या सकता है । मेरे ख्याल से तो है ही ।”
“इस लिहाज से तो प्रिया को उठवाने के पीछे भी पीपट का ही हाथ हुआ ?”
“या उसके बॉस का ।”
“एक ही बात है ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”
“अगर महज जानकारी हासिल करने के लिये प्रिया को उठवाया गया था तो अब तक उसे छोड़ दिया जाना चाहिये था । अब तक प्रिया को लौट आना चाहिये था ।”
“मुर्दे नहीं लौटते ।”
“मुझे भी यही अन्देशा सता रहा है । ये पीपट का बच्चा कोई बहुत ही गहरी चाल चलता मालूम हो रहा है ।”
“आपका उससे कैसे वास्ता पड़ा ?”
“हेरोइन के सिलसिले में ही पड़ा । हमें मुम्बई से हेरोइन दिलाने के मामले में वो बिचौलिये का काम करता है । हमें उस पर कोई खास एतबार नहीं लेकिन क्या करें उसके जरिये मुम्बई में डीलिंग रखना हमारी मजबूरी है । हमें ये तक शक है कि वो बीच में पैसा खा जाता है । यानी कि हेरोइन का जो रेट लगता है वो हमसे उससे ज्यादा चार्ज कर लेता है और फर्क की रकम को खुद हज्म कर जाता है । इसी वजह से हमने ये जानने का अभियान शुरु किया था कि पीपट का बॉस कौन था लेकिन अफसोस कि हम कामयाब न हो सके ।”
“वो कहता है कि उसका कोई बॉस नहीं, खुद वो ही टॉप बॉस है ।”
“ऐसा उसने तुमसे कहा ?”
“हां ।”
“तुम्हें यकीन आ गया उसकी बात पर ?”
“नहीं ।”
“वही तो ।” - वो एक क्षण ठिठका और बोला - “कल रात जो कुछ वाकया हुआ, उसकी रू में तो हमें उस पर अभी और भी शक है ।”
“और वैसा ही शक है जैसा कि मुहावरे में कहा जाता है ।”
“कौन सा मुहावरा ?”
“चोर को कहा चोरी कर ले, शाह को कहा सावधान रहना ।”
“मतलब ?”
“हेरोइन की मौजूदा खेप की खरीद में भी बिचौलिया तो पीपट ही था । उससे बेहतर और कौन जान सकता था कि वो खेप दिल्ली पहुंचने वाली थी ! फिर ये जान लेना भी कौन सी बड़ी बात थी कि वो कब पहुंचने वाली थी, कैसे पहुंचने वाली थी ! मुझे लगता है कि उसी ने हमारा माल लुटवाने का सामान किया ।”
“या खुद लूटने का सामान किया ।”
मेरी वो बात तीर की तरह उसे लगी । कितने ही क्षण वो हकबकाया सा मेरा मुंह देखता रहा । साफ लग रहा था कि उसे मेरी बात जंची थी ।
“कोहली ।” - फिर वो बोला ।
“हां ।”
“हम अभी भी तुम्हारे क्लायन्ट हैं । तुम अधूरा छूट गये काम को अभी भी पूरा कर सकते हो ।”
“अधूरा काम ! यानी कि मैं पता लगाऊं कि पीपट का बॉस कौन है ?”
“मौजूदा हालात में सिर्फ पीपट का पता भी लगा दोगे तो चलेगा । एक बार वो कमीना मेरे काबू में आ जाये, फिर आगे सब कुछ वो ही मुझे गा गा कर बतायेगा ।”
“हूं ।”
“तुम्हारे से बीस हजार का पैकेज तय हुआ था जिसमें से दस तुम्हें मिल चुके हैं । मैं बाकी दस की जगह बीस दूंगा । अगर तुम चौबीस घन्टों में पीपट को तलाश कर पाये तो चालीस दूंगा ।”
“अभी मैं अपने वन प्वायन्ट प्रोग्राम पर अमल करते रहने के अलावा कोई काम हाथ में नहीं ले सकता ।”
“तुम्हारा काम हो जायेगा ।”
“तो फिर आपका काम भी हो जायेगा । जितनी जल्दी आप पाण्डेय के कातिल को मेरे हवाले करेंगे, उतनी ही जल्दी मैं आपके लिये पीपट को तलाश करने वाला बनूंगा ।”
“ठीक है । तुम एक बात की गारन्टी करते हो ?”
“किस बात की ?”
“कि दोनों तरफ तुम्हारी डिमांड यही रहेगी कि तुम अपने आदमी को कातिल के बदले में ही शाफ्ट वापिस करोगे ?”
“हां, गारन्टी करता हूं ।”
“पैसे से तो नहीं पिघल जाओगे ?”
“क्या मतलब ?”
“शाफ्ट को किसी रकम की एवज में तो नहीं बेच दोगे ?”
“नहीं बेच दूंगा । वो शाफ्ट बिकाऊ नहीं है ।”
“हो तो इधर भी बात करना । मैं ज्यादा बड़ी कीमत अदा करूंगा । वो मेरा खुद का माल है, उसकी फिर से कोई कीमत अदा करना भी मुझे कबूल होगा ।”
“शाफ्ट बिकाऊ नहीं है । मैं बहुत गिरा हुआ और सिद्धान्तहीन आदमी हूं । लेकिन इस बार मेरे दुर्गुण आड़े नहीं आने वाले । इस बार मुझे अपने ईमान, अपनी गैरत, अपनी दोस्ती का सौदा मंजूर नहीं इसलिये शाफ्ट का कोई दूसरा सौदा नहीं हो सकता । शाफ्ट उसी के हवाले होगा जो पाण्डेय के कातिल को मेरे हवाले करेगा ।”
“हम करेंगे । जरूर करेंगे । बहुत जल्द करेंगे ।”
“तो फिर समझ लीजिये कि आपका शाफ्ट मेरे पास आपकी अमानत है ।”
“बढिया ।”
फिर वो मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
***
मैं अपने फ्लैट पर पहुंचा ।
वहां का नजारा देखकर मेरा मन वितृष्णा से भर उठा ।
वहां वही कुछ हो रहा था जो पहले मेरे ऑफिस में हो कर हटा था ।
नोरा रिवॉल्वर हाथ में लिये, प्रवेश द्वार की ओर मुंह किये एक सोफे पर बैठा था और पीपट वहां की तलाशी ले रहा था ।
“जल्दी निफ्ट लो, भाई लोगो ।” - मैं बोला - “आज मैंने हैवी डेट पर जाना है इसलिये तैयार होने के लिये फ्लैट की मुझे भी जरूरत है ।”
“बस, निपट गये ।” - पीपट बैडरूम की चौखट पर से बोला ।
“शुक्र है ।”
“कुछ मिलने की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन देखना तो पड़ता है । कोशिश तो जारी रखनी ही पड़ती है ।”
“ऐसे तोपखाने की जानकारी जब मैंने ऑफिस में नहीं रखी तो घर में रखता ?”
“हम सिर्फ इसलिये यहां नहीं आये थे । तलाशी वाले काम का जोश तो हमें तुम्हें यहां मौजूद न पाकर आ गया था ।”
“भीतर कैसे घुसे ?” - फिर मेरी निगाह स्वयमेव ही दरवाजे की तरफ उठ गयी - “ताला फिर तोड़ दिया ?”
“सॉरी !” - नोरा कुटिल भाव से बोला ।
“हर्जाना भर देंगे ।” - पीपट बोला ।
“दोनों बार का ।” - नोरा बोला ।
“जुगलबन्दी अच्छी है । तबला बजने लगे तो सारंगी अपने आप बजने लगती है ।”
कोई कुछ न बोला ।
“प्रिया कहां है ?”
“क्या करोगे जानकर ?” - पीपट लापरवाही से बोला - “तुम वो बात सुनो जो तुम्हारे मतलब की है । जिसे जानने को तुम तड़प रहे हो ।”
“समझ लो कि प्रिया की बाबत जानने को भी मैं तड़प ही रहा हूं ।”
“ठीक है । जान लो । वो अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“क्या !”
“बड़ी ढीठ लड़की थी, कुछ बता के ही नहीं देती थी । फिर नोरा ने भी जरा उतावलेपन से काम लिया ।”
“तुम लोगों ने मार दिया उसे ?”
“हमने नहीं मारा । उसकी जिद ने मारा ।”
“और अब तुम दावा करोगे कि वो ही हरीश पाण्डेय की कातिल थी । और ये बात वो कबूल करके मरी थी लेकिन मैं इतना बेवकूफ नहीं...”
“उतावले नोरा जितने ही हो । पहले मुझे तो कुछ कहने दो, फिर तुम भी, जो कहना हो, कह लेना । तुम तो घोड़े के आगे तांगा जोत रहे हो । अभी जो बात मेरी जुबान पर भी नहीं आयी, लगे उस पर पहले ही तबसरा करने ।”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“अपने जोड़ीदार पाण्डेय के कातिल से तुम वाकिफ हो । पाण्डेय भी उससे वाकिफ था । इसीलिये पाण्डे की जान गयी । क्योंकि पाण्डेय ने अपनी मौत वाले रोज उसे मेरे से बातें करते देख लिया था । समझे ?”
“नहीं । मेरी समझ में कतई कुछ नहीं आया । वो जुबान बोलो जिसे मैं समझ सकूं । जो कहना है साफ कहो, दो टूक कहो । तुम किसकी बात कर रहे हो ? कौन है वो कातिल जिसे तुम कहते हो कि मैं जानता हूं ? नाम लो उसका !”
“दिनेश ।”
“कौन दिनेश ?”
“वालिया ।”
“दिनेश वालिया ! वो आर्टिस्ट ?”
“और एक्स डोप एडिक्ट । उसी ने पाण्डेय का कत्ल किया था क्योंकि पाण्डेय ने उसे मेरे से बात करते देख लिया था ।”
“वालिया का तुम्हारे से क्या रिश्ता ?”
“वो मेरे लिये काम करता था ।”
“तुम्हारे लिये काम करता था ! क्या काम करता था ?”
“कोहली, पूसा रोड में उसका आर्ट स्टूडियो महज उसका फ्रंट था । असल में वो ड्रग्स के धन्धे में ज्यादा नहीं तो घुटनों-घुटनों तो धंसा ही हुआ था ।”
“कैसे ?”
“वो एक तरह से समझ लो कि इस धन्धे का डबल एजेन्ट था ।”
“डबल एजेन्ट !”
“वो मेरा आदमी था लेकिन जयपुरिया के लिये काम करता था । अब समझे ?”
“नहीं ।”
“अरे, वो जयपुरिया की आर्गेनाइजेशन में मेरा भेदिया था । वो जयपुरिया की हर मूव की मूझे खबर करता था ।”
“ओह !
“अब तो समझे ?”
“कुछ कुछ । लेकिन तुम उसका जिक्र भूतकाल में क्यों कर रहे हो ? ‘था’ क्यों कह रहे हो बार-बार उसे ?”
“वो भी अब इस दुनिया में नहीं है ।”
“बहुत खूब । यानी कि जो कहानी मुझे प्रिया के सन्दर्भ में कबूल नहीं थी, वो अब तुम मुझे वालिया के सन्दर्भ मे कबूल कराओगे ?”
“प्रिया की मौत की वजह जुदा थी । वालिया की मौत की वजह जुदा है । प्रिया की मौत एक इत्तफाक था, वो कमजोर दिल निकली, खामख्वाह टें बोल गयी । उसका पाण्डेय के कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं था लेकिन वालिया का तुम्हारे आदमी के कत्ल से पूरा-पूरा रिश्ता था ।”
“कैसे ?”
“वही तो मैं समझाने की कोशिश कर रहा हूं, तुम बार-बार बीच में बोल पड़ते हो ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“सुनो । और समझो । जयपुरिया को अगर ये पता लग जाता कि वालिया उसके खेमे में मेरा आदमी था तो उसकी मौत निश्चित थी । इस धन्धे में अपने घर में दूसरे के भेदिये को कौन जिन्दा छोड़ता है ?”
“आगे बढो ।” - मैं उतावले स्वर में बोला - “आगे बढो ।”
“पाण्डेय के कत्ल के रोज वालिया ने देखा था कि पाण्डेय मेरी निगरानी में लगा हुआ था और इसलिये वो वालिया की मेरे से मुलाकात का चश्मदीद गवाह था । उस मुलाकात के बाद जब मैं अपनी राह लगा था और जब उसने पाण्डेय को मेरे पीछे लगते देखा था तो वो पाण्डेय के पीछे लग लिया था और यूं बाद में उसने हालीडे इन के सामने पाण्डेय को प्रिया सिब्बल से मिलते देखा था । फिर जब मैं होटल से निकल रहा था तो पाण्डेय मेरे पीछे लगा था, प्रिया पाण्डेय के पीछे लगी थी और वालिया उन दोनों के पीछे लगा था । मुझे बाद में पता चला था कि मेरे करोलबाग के इलाके में सतनगर की एक कमर्शियल इमारत में दाखिल हो जाने के बाद वहां एक कार पहुंची थी जिसमें से एक नौजवान लड़की बाहर निकली थी जिसने कि इमारत के पहलू की अन्धेरी गली में, जहां कि पाण्डेय छुपा हुआ था, जाकर पाण्डेय से कोई बात की थी । वहां पाण्डेय का ध्यान बंटाये रखने के लिये लड़की ने एकाएक उसे अपनी बांहों में भर लिया था और जब वो उसे किस कर रही थी तो ऐन उस घड़ी प्रेत की तरह पाण्डेय के पीछे पहुंचकर वालिया ने पाण्डेय की पीठ मे खंजर भौंक दिया था और फिर चुपचाप वहां से गायब हो गया था ।”
“तुम्हें ये बातें कैसे पता चलीं ? तुम तो इमारत के भीतर थे ? जो वहां हुआ, उसकी बाबत तुम्हें बताने वाला कौन था ?”
“प्रिया थी । अब ये बात दीगर है कि जो कुछ उसने मुझे बताया था, अपनी मर्जी से नहीं बताया था । सब कुछ उससे जबरन कुबुलवाया गया था । जल्दी मर गयी बेचारी । अभी और जिन्दा रहती तो और भी बहुत कुछ बताती ।”
“उसने कहा था कि उसने वालिया को पाण्डेय की पीठ में छुरा घोंपते देखा था ?”
“हां । राजी से नहीं बताया था लेकिन बताया था ।”
“उसने साफ पहचाना था वालिया को या कि अन्धेरे में जो साया पाण्डेया के पीछे उसे दिखाई दिया था, उसने समझ लिया था कि वो वालिया था ?”
“साफ पहचाना था ।”
“उसने खुद ऐसा कहा था ?”
“हां । राजी से नहीं लेकिन...”
“आई नो । आई नो । लेकिन कहा था ?”
“हां । अलबत्ता पहले मुझे ये बात अहम नहीं लगी थी लेकिन तुम्हारे माल हथिया लेने के बाद और ये जिद करने लग जाने के बाद कि पाण्डेय का कातिल तुम्हारे हवाले किया जाता, उस वाकये को एक नयी रोशनी में देखना मेरे लिये जरूरी हो गया था ।”
“क्या किया उस नयी रोशनी ने ? तुम्हें वालिया को रास्ते से हटा देने के लिये हड़का दिया ?”
“अरे, नहीं मेरे भाई, मैंने नहीं मारा उसे ।”
“यानी कि सिर्फ हुक्म जारी किया उसकी मौत का ? मारा किसी दूसरे ने ? शायद इसने ।”
“नहीं ।”
“तो फिर कैसे मरा वो ?”
“उसे समझाया गया था कि मौजूदा हालात में अपनी जिन्दगी खुद खत्म कर लेने में ही उसकी भलाई थी ।”
“क्या ! तुम ये कहना चाहते हो कि तुमने उसे आत्महत्या के लिये मजबूर किया ?”
“मजबूर नहीं किया, सिर्फ समझाया । समझाया कि जैसे तुम भड़के हुए थे, तुम्हारे उस मिजाज में अगर वो तुम्हारे हाथ लग जाता तो कुत्ते की मौत मरता । अपने जोड़ीदार की मौत का बदला लेने के लिये पता नहीं किस हद तक तड़पा-तड़पा कर मारते तुम उसे । अब वो कम से कम शान्ति की मौत तो मरा था ।”
“तो ये पट्टी पढाई तुमने उसे ?”
“मैंने क्या गलत कहा उसे ? क्या तुमने नहीं कहा था कि तुम उस आदमी का सिर चाहते थे जिसने पाण्डेय की पीठ में खंजर भौका था ?”
“वो जोश में कही बात होती है जिसे कि अंग्रेजी में फिगर ऑफ स्पीच कहते हैं । जैसे कहा जाता है कि खून पी जाऊंगा, पाताल तक पीछा नहीं छोड़ूंगा । असल में कोई खून पीता है ? कोई पाताल का टिकट कटाता है ?”
“मैं ये सब नहीं समझता लेकिन तुम्हारे तब के तेवर यही कहते थे कि तुम्हारे हाथों वो बहुत बुरी मौत मर सकता था ?”
“मेरा इरादा कातिल को उसकी करतूत की सजा दिलाना था, खुद सजा देना नहीं था ।”
“ऐसा था तो तुम्हें उस बेचारे के सिर की मांग नहीं करनी चाहिये थी ।”
“अब हुआ क्या ?”
“वही जो मैंने बताया । उसने आत्महत्या कर ली है और अपने पीछे अपने गुनाह को कबूल करता अपना इकबालिया बयान छोड़ कर मरा है ।”
“इकबालिया बयान ?”
“एक चिट्ठी । जिसमें उसने साफ कबूल किया है कि हरीश पाण्डेय नाम के शख्स का कत्ल उसने किया था जिसका कि उसे पश्चाताप था इसलिये वो आत्महत्या कर रहा था ।”
“क्या कहने !”
“कोहली, वो तुझे फंसा कर भी जा सकता था । वो ये लिख कर भी मर सकता था कि वो तेरे खौफ में आत्महत्या कर रहा था । इस सन्दर्भ में विपाशा नाम की उसकी एक माडल भी तेरे खिलाफ गवाही दे सकती है जिसे कि मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी जुबान बन्द रखने के लिये मनाया है ।”
“जो कि तुम्हारा मुझ पर अहसान है ।”
“है तो सही लेकिन तू माने तब न !”
“और ?”
“और अपनी चिट्ठी के साथ ही वालिया ने वो मर्डर वैपन - वो खंजर - भी पीछे छोड़ा है जिसे कि उसने पाण्डेय की पीठ में भौंका था ।”
“यानी कि कहानी खत्म !”
“और क्या ?”
“कैसी अजीब सिचुएशन है कि कहीं से किसी बात की कोई तसदीक नहीं हो सकती । मैं प्रिया से नहीं पूछ सकता कि उसने बतौर कातिल वालिया की सच में शिनाख्त की थी या नहीं...”
“की थी ।”
“...मैं वालिया से नहीं पूछ सकता कि उसने पाण्डेय का कत्ल किया था या नहीं ।”
“किया था । अपने सुसाइड नोट में कबूल किया है उसने ।”
“तुम्हारे लिये तो चौतरफा सहूलियत हो गयी ।”
“हो तो गयी । मैं वालिया का मुंह फाड़ना अफोर्ड नहीं कर सकता था । लिहाजा मैं उसे तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता था । अच्छा हुआ कि मेरा कहना मानकर उसने आत्महत्या कर ली वरना मुझे उसका खुद कोई इन्तजाम करना पड़ता । वो बहुत कुछ जानता था, वो बहुत ज्यादा कुछ जानता था । मैंने उसे तुम्हारे हवाले करने के लिये हामी भरी थी लेकिन मेरी भी कुछ मजबूरियां हैं ।”
“क्या मजबूरियां हैं ?”
“सबसे बड़ी मजबूरी तो यही है कि मेरे पर अपनी आर्गेनाइजेशन को प्रोटेक्ट करके रखने की जिम्मेदारी आयद होती है ।”
“तुम्हारी !” - मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “तुम्हारी आर्गेनाइजेशन !”
“हां । मेरी आर्गेनाइजेशन । कोहली, अब बाल तुम्हारे पाले में है ।”
“मतलब ?”
“तुम्हारी जिद पूरी की जा चुकी है । तुम्हारे जोड़ीदार के कातिल को उसकी करतूत की सजा मिल चुकी है । अब बोलो शाफ्ट कहां है ?”
“चीजें इधर-उधर रख के भूल जाने की मुझे आदत है इसलिये सोचना पड़ेगा ।” - मैंने एक उंगली से अपनी कनपटी ठकठकानी शुरु की - “शाफ्ट ! शाफ्ट ! कहां रखा ! कोट की जेब में तो नहीं ! शायद कार के ग्लोव कम्पार्टमेंट में... कहां रखा... कहां...”
“तौबा !” - पीपट भड़का - “मजाक की भी कोई हद होती है ।”
“ये ऐसे नहीं मानेगा ?” - नोरा बोला ।
“नोरा, मेरे बच्चे ।” - मैं उसे पुचकारता हुआ बोला - “जब मालिक खुद भौंक रहा हो तो कुत्ते को नहीं भौंकना चाहिये ।”
नोरा का चेहरा लाल हो गया । एक झटके के साथ वो कुर्सी पर से उठा ।
“नोरा !” - पीपट तीखे स्वर में बोला ।
नोरा ठिठक गया । वो आगे तो न बढ़ा लेकिन बार-बार उसकी उंगलियां रिवॉल्वर की मूठ पर कसने लगीं । दांत भींचे कहरभरी निगाहों से वो मुझे देखता रहा ।
“तुम किसी और फेर में तो नहीं हो ?” - फिर पीपट मेरे से सम्बोधित हुआ ।
“और फेर ?” - मैं बड़ी मासूमियत से बोला ।
“तुमने सरकारी इनाम का जिक्र किया था । ऐसा कोई इनाम हासिल करने की सच में ही तो मंशा नहीं तुम्हारी ?”
“नहीं । होती तो अब तक उस पर अमल कर न चुका होता ?”
“या शायद मुर्गे भिड़ाने की मंशा हो ।”
“क्या मतलब ?”
“सौदेबाजी के मामले में तुमने जयपुरिया का नाम लिया था । शाफ्ट के मामले में कहीं तुम उसके कान्टैक्ट में भी तो नहीं हो ?”
“ऐसा कुछ नहीं है ।”
“मर्जी है उससे भी बात करने की ?”
“अभी नहीं है ।”
“बढ़िया । तो फिर हील हुज्जत, टालमटोल वाली जुबान छोड़कर जो फैसला करना है, जल्दी करो । समझ लो कि सही फैसला जल्दी करने पर इन्सेन्टिव है तुम्हारे लिये ।”
“अच्छा !”
“हां । नकद इन्सेन्टिव ।”
“कितना ?”
वो एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “दस लाख ।”
“बस ! सिर्फ दस लाख ! जबकि सरकार...”
“सरकारी इनाम सालों में मिलता है । कभी नहीं भी मिलता । इसलिये उसका हवाला बेकार है । फिर हम तुम्हें कोई इनाम ऑफर नहीं कर रहे, इन्सेन्टिव ऑफर कर रहे हैं जल्दी, सही फैसला करने पर ।”
“तुम जो रकम मुझे ऑफर कर रहे हो, वो तुम्हारे बॉस को कबूल न हुई तो ?”
“कोहली, अभी कितनी बार और दोहराना होगा कि मेरा कोई बॉस नहीं है । मैं ही अपना बॉस हूं ।”
“यानी कि ऑफर पक्की है ?”
“बिलकुल पक्की है ।”
“ठीक है । मुझे तुम्हारी ऑफर मंजूर है । लाओ ।”
“क्या लाओ ?”
“दस लाख ।”
“पागल हुए हो ! इतनी बड़ी रकम कोई जेब में लिये फिरता है !”
मुझे उससे उसी जवाब की अपेक्षा थी ।
“तो फिर ?”
“रकम का इन्तजाम करना होगा ।”
“कर लो ।”
“लेकिन शाफ्ट...”
“मिल जायेगा । सौदा इस हाथ दे उस हाथ ले जैसे होगा ।”
“मुझे मंजूर है लेकिन कोहली !”
“हां ।”
“अपनी बात पर कायम रहना ।”
“जरूर ।”
“और जयपुरिया के पास पहुंच जाने की आत्मघाती गलती भूल कर भी न करना ।”
“तौबा मेरी ।”
“बढ़िया । कल सुबह मैं तुमसे फिर मिलूंगा । रकम के साथ । कहीं गायब न हो जाना ।”
“हरगिज नहीं ।”
फिर वो दोनों वहां से रुख्सत हो गये ।
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