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सोमवार : तेईस दिसम्बर
सुबह विमल फ्लैट से बाहर निकला । वो जानता था कि रावत वगैरह उसकी निगरानी रात को ही करते थे, फिर भी सावधानीवश वो लिफ्ट द्वारा पहली मंजिल पर गया और फिर वहीं से आठवीं मंजिल पर पहुंचा।
उसने सुमन के फ्लैट का दरवाजा बदस्तूर बन्द पाया ।
वो कुछ क्षण दरवाजे के आगे ठिठका खड़ा भीतर से आती कोई आहट लेने की कोशिश करता रहा, फिर उसने कालबैल बजाई ।
कोई नतीजा सामने न आया ।
उसने चाबी लगाकर फ्लैट का ताला खोला और भीतर दाखिल हुआ।
फ्लैट खाली था । कहीं कोई नहीं था ।
बाल्कनी का दरवाजा भीतर की ओर से मजबूती से बन्द था ।
उसे एक ही बात सम्भव लगी ।
सब-इन्स्पेक्टर लूथरा, जो उसके और सुमन के फ्लैट की ऊपर-नीचे स्थित बाल्कनियों में इतनी दिलचस्पी ले रहा था, जरूर जबरन ताला खोलकर चोरों की तरह वहां घुसा था और उसने बाल्कनी में पड़ा सब सामान अपने कब्जे में ले लिया था ।
लेकिन अगर ऐसा था तो वो खामोश क्यों रहा ? वो कल रात ही क्यों न उस पर चढ दौड़ा ? और कुछ नहीं तो शक की बिना पर तो वो उसे गिरफ्तार कर ही सकता था ।
लूथरा के व्यवहार पर हैरान होता वो अपने फ्लैट में वापिस लौटा ।
“कहां चले गये थे सवेरे-सवेरे ?” - नीलम उसे देखते ही बोली ।
“मैं जरा” - विमल बोला - “अखबार का पता करने नीचे गया था ।”
“बाहर पड़ा तो था अखबार ।” - नीलम ने उसे अखबार दिखाया - “मैं अभी उठा के लाई हूं ।”
“अच्छा ! मेरी गैरहाजिरी में आया होगा ।”
“जरा ये तसवीर तो देखो ।” - नीलम ने अखबार का मुखपृष्ठ उसके सामने किया ।
तसवीर पर निगाह पड़ते ही उसका दिल धक्क से रह गया । वो उसके उस सिख बहुरूप की तसवीर थी जो उसने पिछली रात धारण किया था । तसवीर स्पष्ट नहीं थी लेकिन इतनी अस्पष्ट भी नहीं थी कि वो सिख किसी को दिखाई दे जाता तो वो उसे न पहचानता ।
यानी कि अब वो दोबारा सिख बहुरूप धारण करने का हौसला नहीं कर सकता था ।
उसने अखबार को पूरा खोला तो पाया कि उसकी एक तसवीर और भी छपी थी । उसमें वो हाथ में रिवाल्वर लिये सुन्दरलाल की लाश के सिरहाने खड़ा था और सिर उठाकर कैमरे की ओर देख रहा था ।
पहली तसवीर उस दूसरी तसवीर से ही निकाला हुआ क्लोजअप था । उसमें एन्लार्ज होकर नयन-नक्श और भी आउट आफ फोकस हो गये मालूम होते थे ।
विमल के लिए ये करिश्मा था कि अन्धेरे में कोई ऐसी तसवीर खींच पाया ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह ! - मन-ही-मन वो बोला - तू मेरा राखा सबनी थांही ।
“मैं सोच रही थी ।” - नीलम बोली ।
“क्या ?” - विमल अखबार से सिर उठाकर बोला ।
“मेरे सरदारजी अगर फिर से सरदारजी बन जायें तो ऐसे लगेंगे ।”
विमल एक खोखली हंसी हंसा ।
“तुम अखबार पढो, मैं चाय बनाकर लाती हूं ।”
“नहीं, नहीं ।” - विमल तत्काल बोला - “तू रहने दे । आज चाय मुझे बनाने दे ।”
“वो किसलिये ?”
“मलिकाआलिया की खिदमत का मौक ?” - विमल नाटकीय स्वर में बोला - “कभी-कभार इस गुलाम को भी तो हासिल होना चाहिए ।”
नीलम खुश हो गयी । वो थी ही ऐसी । जरा-सी बात पर खुश हो जाती थी ।
“ठीक है ।” - वो बड़ी शान से बोली - “मलिकाआलिया खुश हुई । गुलाम, ऐसी चाय बनाकर लाओ जो काफी से मिलती-जुलती हो ।”
“ऐसा क्योंकर होगा, मलिकाआलिया ?”
“हम कुछ नहीं जानते । गुलाम, ये हमारा हुक्म है और उसकी तामील हो ।”
“जरूर होगी ।” - विमल बड़े जोश से बोला - “न हो तो बेशक गुलाम का सर कलम कर दीजियेगा । बशर्ते कि...”
“क्या बशर्ते कि...”
“आप लिखने के लिये बाल प्वायंट पैन न इस्तेमाल करती हों ।”
नीलम जोर से हंसी । उसका चेहरा तमतमा गया ।
वो सोकर उठी थी लेकिन फिर भी उस घड़ी वो विमल को निहायत हसीन लगी ।
“भई, क्या है ये ।” - नीलम बोली - “बस करो अब । मेरी हंसी नहीं रुकती ।”
“तू रोकना क्यों चाहती है हंसी । हंसती रह । मुझे अच्छी लगती है तेरी हंसी ।”
“अब अच्छी लगती है ! पहले नहीं अच्छी लगती थी । पहले इतना रुलाया । अकेले गाड़ी पर चढा दिया बम्बई से । अपाहिज बनाकर । बूढी, फांफा बनाकर !”
“फिर ले बैठी पुराने किस्से ! तुझे सौ बार कहा है पुरानी बातें याद न किया कर ।”
“तुम तो नाराज हो रहे हो सवेरे-सवेरे ।”
विमल तत्काल चुप हुआ । वो नीलम के करीब पहुंचा, उसने उसे गले से गले लगाकर उसके होंठों पर एक चुम्बन अकित किया और फिर उसके कान में बोला - “अभी चाय बनाके लाता है तेरा गुलाम ।”
वो अखबार थामे किचन में पहुंचा ।
उसने चूल्हा जलाकर उस पर चाय का पानी चढाया और एक स्टूल पर बैठकर उसने अखबार खोला ।
अखबार का मुखपृष्ठ पिछली रात की विभिन्न घटनाओं से रंगा पड़ा था । उसमें पहाड़गंज वाली वारदात इसलिये प्रमुख थी क्योंकि उसका मोहन वाफना नाम के फ्रीलांस फोटोग्राफर की सूरत में एक चश्मदीद गवाह उपलब्ध था । अखबार पढकर ही विमल को मालूम हुआ कि उस शख्स ने न सिर्फ उसकी तसवीर खींची थी बल्कि उसका सुन्दरलाल और शफीक से हुआ तकरीबन वो वार्तालाप भी सुना था जो ये सिद्ध करता था कि वो दोनों और छंगू, हनीफ और गोविन्द नाम के उनके अन्य तीन साथी, जो विभिन्न वारदातों में पहले ही मारे जा चुके थे, पिछले शुक्रवार को गोल मार्केट में हुई दिनदहाड़े जबरजिना और कत्ल की वारदात के लिए जिम्मेदार थे । वो वार्तालाप ये भी स्थापित करता था कि उन पांचों को ढूंढ ढूंढकर उनकी गोल मार्केट वाली करतूत की सजा दी गयी थी ।
मुखपृष्ठ पर ही ‘रक्षक ही भक्षक’ शीर्षक के साथ इण्डिया गेट वाली वारदात का विवरण प्रकाशित हुआ था जो कि विमल ने बड़े गौर से पढा ।
उन दोनों समाचारों के बीच में एक बाक्स में छपा था - कृपया सम्पादकीय भी देखें ।
विमल ने सम्पादकीय वाला पृष्ठ निकाला । वहां उसने अपराधियों के लिये आतंक - खबरदार शहरी शीर्षक सम्पादकीय जल्दी-जल्दी पढा । लिखा था:
पिछली रात नगर के दो विभिन्न भागों में लगभग एक ही समय पर हुई कत्ल की दो घटनायें ये सिद्ध करती हैं कि पिछले पूरे सप्ताह में राजधानी में जो कत्ल की छिटपुट घटनायें हुई हैं, वो छिटपुट नहीं बल्कि एक योजनाबद्ध तरीके से की गई एक ही तार में बन्धी घटनायें हैं । पहाड़गंज की घटना में मरा युवक सुन्दरलाल पक्का स्मैकिया था और उसके और उसके घायल जोड़ीदार शफीक के पास से स्मैक बरामद भी हुई थी । ऊपर से वो दोनों खूनी और बलात्कारी थे । कल से पहले मंगलवार को मजनू का टीला के इलाके में मरे गोविन्द और हनीफ नामक युवक और बृहस्पतिवार को लोधी गार्डन में अपने दो साथियों के साथ मरा मनसुखलाल उर्फ छंगू नाम का मवाली भी खूनी और बलात्कारी था और कल रात पहाड़गंज में मरे सुन्दरलाल और घायल हुए शफीक के जोड़ीदार थे । हमारी स्थानीय पुलिस को इस बात में शर्म महसूस करनी चाहिये कि शुक्रवार तेरह तारीख को गोल मार्केट में हुई बलात्कार और दोहरे कत्ल की घटना का उन्हें अभी तक कोई क्लू तक हासिल नहीं है, जबकि किसी खबरदार शहरी ने न केवल उन पांचों बलात्कारियों की शिनाख्त कर ली बल्कि उन्हें तलाश करके उन्हें उनकी करतूत की सजा भी दे डाली । यानी कि जो काम पुलिस जैसी संगठित और विशाल आर्गेनाइजेशन नहीं कर सकी, वो काम एक वाहिद शख्स ने कर दिखाया ।
यहां हम अपने सुधी पाठकों को ये याद दिला देना चाहते हैं कि हम ऐसे खून-खराबे के हामी नहीं । किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं होनी चाहिए । किसी को भी ये अख्तियार नहीं होना चाहिए कि वो किसी अपराधी के खिलाफ जज, ज्यूरी और एग्जीक्यूशनर सब खुद ही बन के दिखा दे । हम सिर्फ ये कहना चाहते हैं कि जो काम एक साधनहींन शख्स अकेला करके दिखा सकता था, ऐसा क्योंकर हुआ कि उसे पुलिस न कर पायी । स्थानीय पुलिस के नाकारेपन का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि जिस केस को हल करने की दौड़ में वो अभी स्टार्टिंग लाइन से नहीं हिले, किसी दूसरे ने वो दौड़ मुकम्मल भी कर ली ।
कल रात इण्डिया गेट पर हुई घटना और भी शर्मनाक है जहां कि रक्षक ही भक्षक बन बैठे, जहां पुलिस के नुमायन्दों ने ही बलात्कारियों का रोल अदा करने की कोशिश की । इससे कोई क्या सबक ले ? क्या ये कि दिल्ली शहर में आदमी का बच्चा कहीं महफूज नहीं, किसी के हाथों महफूज नहीं - न उनके हाथों जो कानून के मुहाफिज हैं और न उनके हाथों जो कानून के दुश्मन हैं । क्या हम ये कबूल कर लें कि हम जुल्म और गुंडागर्दी के उस दौर में कदम रख चुके हैं जहां कोई नेक शहरी न सड़क पर महफूज है और न अपने घर पर । कहने को हम एक आजाद मुल्क में रहते हैं लेकिन अगर हमारे किसी अनिष्ट की आशंका हमें घर के दरवाजे बन्द करके भीतर दुबके रहने पर मजबूर करती है तो हम आजाद कैसे हुए ? ये कैसी आजादी है जिसमें हमें ये सुझाया जाता है कि अगर हम अपनी सलामती चाहते हैं तो हम अपने घरों में दुबककर बैठें ?
हमें लगता है कि स्थानीय पुलिस अपनी तमाम जिम्मेदारियों की परिणति इसी में समझने लगी है कि वो अपनी जिप्सी वैनों के काफिलों से नेक शहरियों में - ध्यान दें, अपराधियों में नहीं, नेक शहरियों में - खौफ पैदा करें, सड़कों पर जगह-जगह बैरियर लगाकर और यूं पैदा होने वाले लम्बे-लम्बे ट्रैफिक जामों से पूर्ण निर्लिप्त दिखाये और कम्यूटर्स को हलकान करें, काले शीशों वाली कारों के चालान करने और सार्वजनिक पार्कों में बैठे नौजवान जोड़ों को खौफजदा करने में ही अपनी वर्दी की शान समझें, अपनी ही शै पर धन्धा करती एक कार्लगर्ल को और उसके दलाल को पकड़कर यूं वाहवाही लूटने की कोशिश करें जैसे सुलताना डाकू मार लिया हो ।
यूं इस शहर का निजाम नहीं चल सकता । यूं इस मुल्क का निजाम नहीं चल सकता । पुलिस को चेतना होगा । पुलिस के ऊपर बैठे ब्यूरोक्रैट्स को चेतना होगा, उनसे भी ऊपर बैठे मन्त्रियों और नेताओं को चेतना होगा । ऐसा नहीं होगा तो ये सारा शहर एक कत्लगाह बन जायेगा । अभी एक हफ्ते में चौदह कत्ल हुए हैं, फिर चौदह सौ होंगे, चौदह हजार होंगे । ये वांछित नहीं । मरने वाले चाहे खूनी थे, चाहे बलात्कारी थे, उनका यूं इंसाफ नहीं होना चाहिए जैसे कि हो रहा है । हम पुलिस कमिश्नर साहब से दरख्वास्त करते हैं कि वो ऐसे पुलिसकर्मियों पर अंकुश लगायें जो रेहड़े-तांगे वालों से हफ्ता वसूल करके और रंडियों से चौथ वसूल करके ही समझते हैं कि उनकी ड्यूटी हो ली ।
पिछले हफ्ते की तमाम घटनाओं का अगर गूढ विश्लेषण किया जाये तो ये तथ्य उजागर होता है कि इतने कत्ल करने वाला कथित खबरदार शहरी कोई एक शख्स नहीं । इसका सबूत ये है कि कल रात एक ही वक्त पर, यानी कि ग्यारह बजे के करीब, नगर के दो विभिन्न स्थानों पर - पहाड़गंज में ओर इन्डिया गेट पर - दो वारदातें हुई । इसका आगे सबूत ये है कि गोल मार्केट की वारदात के पांचों बलात्कारियों में से पहले तीन को जिस ओवरकोट वाले ने मारा था वो मोना था जबकि पहाड़गंज वाली वारदात करने वाला कोई दाढी-मूंछ पगड़ी वाला सिख था । हमें लगता है कि राजधानी में होते अपराधों और उनके अपराधियों के खिलाफ जेहाद छेड़ने के लिए कुछ ऐसे भुक्तभोगियों ने या पब्लिक स्पिरिटिड लोगों ने, जो कि पुलिस से पूरी तरह से नाउम्मीद हो चुके हैं, एक कोई सीक्रेट सोसायटी बना ली है जिसके सदस्य हर मजहब के लोग हैं । उन सीक्रेट सोसायटी के माध्यम से हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब खबरदार शहरी बन गये मालूम होते हैं जो एक ही तरह की रिवाल्वरों से लैस रात के वक्त शहर के विभिन्न भागों में विचरते हैं । यूं ही अत्याचार करने को तत्पर कोई अत्याचारी काबू में आ सकता है । ये किसी इकलौते आदमी के बस का काम है ही नहीं । वो एकाध बार संयोगवश किसी ऐसी जगह मौजूद हो सकता है जहां कि कोई खूनी वारदात होने वाली हो लेकिन वो हमेशा हर ऐसी जगह मौजूद नहीं हो सकता । लेकिन अब कई जने इस ताक में शहर में विचर रहे हों तो किसी के हाथ तो कामयाबी लगनी ही होती है ।
ऐसी सोसायटी का अस्तित्व कोई बहुत असम्भावित बात नहीं । हिटलर के राज्य में तो ऐसी कई सोसायटियां सक्रिय थीं । अमेरिका में आज भी कू क्लक्स क्लेन (Ku Klux Klan) साइलेंटट ब्रदरहुड, आर्यन नेशन और कैलीफोर्निया क्लैन इत्यादि के नामों से ऐसी सोसायटीज चलती हैं । कोई बड़ी बात नहीं ऐसी किसी सोसायटी की स्थापना अब भारतवर्ष में भी हो गयी हो । यहां हम पुलिस को आगाह करना चाहते हैं कि इन पंक्तियों को पढकर अब वो ऐसा कहर ढाने का खयाल न कर बैठे कि लोग ओवरकोट पहनने से खौफ खाने लगें । मसलन जैसे उन्हें सफेद मारुति के किसी वारदात में शामिल होने की खबर मिलनी है तो शहर के सारे सफेद मारुति वालों की शामत आ जाती है या काली मोटरसाइकल की बाबत ऐसी खबर मिलती है तो काली मोटरसाइकल वालों की शामत आ जाती है, ऐसे ही अब पुलिस हर उस शख्स को अपने कहर का शिकार न बनाने लगे जो कि सर्दियों की रात में दिल्ली शहर में उन्हें ओवरकोट पहने दिखाई दे जायें ।
सम्पादकीय समाप्त हुआ तो विमल का ध्यान चूल्हे की तरफ गया । उसने देखा कि पानी जोरों से उबल रहा था । वो हड़बड़ाकर स्टूल से उठा । उसने अखबार एक ओर रखा और चाय बनाने में जुट गया ।
दो गिलासों में चाय लेकर वो बैडरूम में पहुंचा । उसने एक गिलास नीलम को थमाया और बोला - “चाय हाजिर है, मलिका आलिया ।”
“काफी जैसी, गुलाम ?” - नीलम शरारती स्वर में बोली ।
“आप जैसी, मलिकाआलिया ।”
“क्या मतलब ?”
“मीठीं । तीखी । दिलफरेब ।”
“अगर ऐसी न निकली तो ?”
“जरूर निकलेगी, मलिकाआलिया, क्योंकि इसमें चाय के अलावा मैंने कुछ और भी डाला है ।”
“वो क्या ?”
“अपना खुलस । अपनी मुहब्बत । अपना दिल ।”
“शाबाश । इसी ईमानदारी के काम करते रहो, गुलाम । देखना, एक दिन हम तुम्हें कहां से कहां पहुंचाते हैं ।”
“शुक्रिया, मलिकाआलिया, लेकिन गुलाम आपके पहलू के अलावा और कहीं नहीं पहुंचना चाहता ।”
तब तक गम्भीरता का दिखावा करती नीलम की फिर हंसी छूट गयी ।
“वहां तो पहुंचे ही हुए हो, सरदार जी ।” - वो बड़े अनुराग पूर्ण स्वर में बोली - “अब तो और चन्द दिनों में” - उसने विमल का हाथ पकड़कर अपने उभरे पेट पर रखा - “सर्टिफिकेट भी जारी होने वाला है ।”
“देख लेना लड़का होगा ।”
“कैसे जाना ?”
“तेरी सूरत से जाना । तबीयत इतनी खराब रहती है तेरी लेकिन फिर भी मुझे तेरे मुंह पर सूरज चमकता लगता है ।”
“लड़का हुआ तो ये ही नाम रख देंगे उसका ।”
“क्या ?”
“सूरज । सरदार सूरजसिंह सोहल ।”
“पागल । अरी, मैं विस्थापित कश्मीरी हुआ तो मेरा लड़का सिख कैसे हो जायेगा ?”
“यानी कि मुझे उसका नाम कौल रखना पड़ेगा ?”
“हां ।”
“नामंजूर । मैं इसका नाम सिर्फ सूरज रखूंगी । फिर जब वो बड़ा हो जाएगा’ - वो बड़े अरमान-भरे स्वर में बोली - “जब सोहल की खूनी दास्तान पुरानी पड़ चुकी होगी तो मैं उसका नाम सूरजसिंह सोहल रखूंगी । सरदार सूरजसिंह सोहल । सन आफ सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल ।”
“चल, चल, चाय पी । ठण्डी हो रही है । और सपने देखने बन्द कर ।”
नीलम खामोश हो गयी ।
तब विमल ने नोट किया कि उसकी आंखें डबडबा आयी थीं ।
“रोती क्यों है ?” - विमल मीठे स्वर में बोला ।
“मुझे लगता है” - वो सच में ही रो पड़ी - “कि मैं अपनी औलाद को तुम्हारा नाम कभी नहीं दे सकूंगी ।”
“पगली !” - विमल ने उसके आंसू पोंछे - “भविष्य में इतना गहरा झांकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए । बस, कल शाम तक का सोचा कर । आगे की वाहेगुरु पर छोड़ दे । होना तो वही है जो उसको पसन्द होगा । जो तुध भावे नानका सोई भली कार ।”
नीलम खामोश रही ।
“चल, अब चाय पी ।”
दोनों चाय पीने लगे । चाय पीते विमल ने अखबार फिर खोल दिया ।
तीसरे पृष्ठ पर उसे शनिवार रात की घटी और रविवार के अखबर में छपी राजौरी की बस वाली घटना की खबर दिखाई दी ।
खबर के मुताबिक बस में मरे चारों आदमी मोतीनगर के इलाके के शातिर बदमाश थे और सजायाफ्ता मुजरिम थे ।
उनके पोस्टमार्टम की रिपोर्ट कहती थी कि उन्हें चौवालीस कैलीबर की एफ-14 मार्क वैसी ही जर्मन रिवाल्वर से शूट किया गया था जैसी से कि उस प्रकार की पहले की तीन वारदात हुई थीं ।
उसी संदर्भ में ये भी छपता था कि पुलिस का बैलेस्टिक एक्सपर्ट ये स्थापित करने में असफल रहा था कि तमाम वारदातों की तमाम गोलियां एक ही रिवाल्वर से चलाई गयी थीं क्योंकि बरामद गोलियां एक विशेष प्रकार की थीं जो कि हालो प्वायंट बुलेट्स (Hollow Point Bullet) कहलाती थीं और जिनके वैपन ऑफ डिस्चार्ज की शिनाख्त बहुत ही कठिन होती थी ।
हालो प्वायंट बुलेट्स के नाम पर विमल का माथा ठनका । उसे तत्काल तेलीवाड़े वाले तनवीर अहमद की याद आयी ।
उसने खबर आगे पढी ।
उसमें छपा था कि पति, जो कि उस वारदात में गम्भीर रूप से घायल हुआ था, अब खतरे से बाहर था ।
और बस के ड्राइवर और कन्डक्टर को सस्पैंड कर दिया गया था । डी टी सी के उच्चाधिकारियों ने उन दोनों के खिलाफ विभागी कार्यवाही की घोषण की थी ।
***
सब-इन्स्पेक्टर लूथरा ने हिन्दुस्तान टाइम्स के आवरण पृष्ठ के समाचार और उसका सम्पादकीय ‘अपराधियों के लिए आतंक - खबरदार शहरी’ थाने में बैठकर पढा । उसे सम्पादकीय की ये बात तत्काल जंच गयी कि ओवरकोट वाला कोई एक नहीं उस प्रकार के कई जने थे ।
कम-से-कम दो तो शर्तिया थे - वो मन-ही-मन बोला ।
अखबार में छपे सिख के क्लोजअप का उसने बहुत गौर से मुआयना किया । उसने दराज से मैग्नीफाइंग ग्लास निकालकर उसके एक-एक इंच भाग को परखा लेकिन वो निर्विवाद रूप से कोई फैसला न कर सका कि वो अरविन्द कौल था या नहीं ।
तभी रावत वहां पहुंचा ।
“उस इमारत में तीन सिख परिवार रहते हैं ।” - अभिवादनोपरान्त वो बोला - “तीनों परिवारों में आपके बताये हुलिये वाले सिख भी हैं लेकिन उनमें से किसी की भी आंखें नीली नहीं हैं और कोई भी रात को दस बजे के बाद घर से नहीं निकला था ।”
“ओह !” - लूथरा कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “वो सिख किसी का मेहमान हो सकता था ।”
“मुझे भी ये बात सूझी थी । मैंने हर फ्लैट से पता किया था । कल किसी के यहां कोई ऐसा सिख मेहमान नहीं था जो रात दस बजे ओवरकोट ओर ब्रीफकेस के साथ कहीं बाहर गया हो और सवा ग्यारह बजे लौटा हो ।”
“कोई झूठ बोल रहा होगा ।”
“कोई क्या, सर, सारे ही झूठ बोल रहे हो सकते हैं । वैसा सिख नौजवान अभी भी उन बत्तीस फ्लैटों में से किसी में मौजूद हो सकता है । लोगों के फ्लैटों में घुस-घुसकर तो हम उसकी तलाश नहीं कर सकते थे न ।”
“हूं । रावत, मुझे लग रहा है कि इस निगरानी से कोई फायदा नहीं होने वाला । शहर में तो कोई ओवरकोट ब्रिगेड बन गयी मालूम होती है । हम किस-किस की निगरानी कर सकते हैं ?”
“ऊपर से” - रावत धीरे से बोला - “जिसकी निगरानी हम कर रहे हैं, उसको हमारी खबर है ।”
“कैसे जाना ?”
“आज सुबह जब वो अपने आफिस के लिए रवाना हो रहा था तो काले खां और शीशपाल अभी वहीं थे । वो सीधा उनके पास पहुंचा और बोला कि वो अपने आफिस जा रहा था, अगर पीछा करने के लिए उनके पास कोई सवारी थी तो वो उसे लिफ्ट दे दे, नहीं तो वो जो टैक्सी करने लगा था वो दोनों भी उसी में सवार हो लें, किराया आधा-आधा ।”
“तौबा ! इतनी हिम्मत उसकी ?”
रावत चुप रहा ।
“जब आदमी निगरानी करने वालों से खबरदार हो जाये” - लूथरा बोला - “तो तुम चार क्या, सौ आदमी उसकी निगरानी नहीं कर सकते । रावत, निगरानी बन्द कर दे और फ्लैट के मालिक को उसकी चाबी लौटा आ ।”
“ठीक ।” - रावत यूं बोला जैसे वो बात सुनकर उसकी बात में जान पड़ गयी हो । फिर उसने लूथरा का अभिवादन किया और वहां से विदा हो गया ।
लूथरा कुछ क्षण खामोश अपनी सीट पर बैठा रहा, फिर उसने सिख की तसवीरों की और सम्बन्धित खबर की कटिंग अखबार में से निकाली और उसे भी उस फाइल में नत्थी कर दिया जिसमें केवल अरविन्द कौल से सम्बन्धित कागजात थे ।
फिर उसने झण्डेवालान में स्थित पुलिस के फारेन्सिक डिपार्टमेंट में फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट तिवारी को फोन किया ।
“क्या हुआ हैल्मेट से उठाये फिंगरप्रिंट्स का ?” - उसने फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट से पूछा ।
“अभी कुछ नहीं हुआ ।” - तिवारी का जवाब मिला ।
“क्यों ? क्यों नहीं हुआ ?”
“क्यों भई, तुम्हें नहीं मालूम क्यों नहीं हुआ ? अरे शनिवार दोपहरबाद तो तुम ही हैल्मेट लेकर आये थे, कल छुट्टी थी, आज दफ्तर खुला नहीं कि फोन खड़का दिया । यहां क्यो कोई कम्प्यूटर लगा हुआ है जो...”
“नाराज न हो मेरे भाई । मुझे कल की छुट्टी का ध्यान नहीं रहा था।”
“काम हो रहा है ।” - तिवारी इस बार अपेक्षाकृत नम्र स्वर में बोला - “हैल्मेट पर से निशानों का बड़ा साफ सैट उठा है । ये मेहनतवाला, टाइम खाऊ काम है, धीरे-धीरे होगा । जब कोई नतीजा निकलेगा तो मैं खुद तुम्हें फोन कर दूंगा ।”
“ठीक है । शुक्रिया ।”
लूथरा ने अरविन्द कौल वाली फाइल को दराज में रख के उसे ताला लगाया और उठ खड़ा हुआ ।
***
पुलिस हैडक्वार्टर में पुलिस कमिश्नर के आफिस में पुलिस के उच्चाधिकारियों की मीटिंग थी जिसकी सदारत क्रोध से भन्नाया हुआ कमिश्नर खुद कर रहा था ।
“बड़े अफसोस की बात है” - वो कह रहा था - “अपराधियों की एक नयी किस्म, वो ओवरकोट ब्रिगेड, एक हफ्ते में चौदह खून कर चुकी है और हम अभी तक उनमें से किसी की परछाईं तक नहीं पहुंच सके ।”
“मरने वालें तमाम के तमाम बैड कैरेक्टर थे ।” - एक डी सी पी बोला ।
“इसी वजह से तो हमारी और भी थू-थू हो रही है । क्या पुलिस क्या पब्लिक, सब ओवरकोट ब्रिगेट की तारीफों के पुल बान्धे दे रहे हैं और हमें एक ऐसी निकम्मी, बेकार, लाचार फोर्स बता रहे हैं जो कि सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने पहुंच जाती है । मौजूदा हालात में तो हम ये दलील भी नहीं दे सकते कि पुलिस ने वारदात के बाद ही पहुंचना होता है । तब हमसे ये सवाल होगा कि कोई ओवरकोट वाला कैसे ऐन वारदात के दौरान बल्कि उससे भी पहले मौकायवारदात पर पहुंच जाता है । आप साहबान में से किसी के पास कोई जवाब है कि वो ऐसा क्योंकर कर पाता है ?”
कोई कुछ न बोला ।
“मेरे पास जवाब है । सुनिए । मैंने” - कमिश्नर ने अपने सामने पड़ी एक फाइल ठकठकाई - “तमाम वारदातों की केस हिस्ट्री स्टडी की है और मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ओवरकोट ब्रिगेड वारदात होने का इन्तजार नहीं करती बल्कि वारदात के हालात खुद पैदा करती है । मिसाल के तौर पर मजनू का टीला पर जो वारदात हुई उसकी रिपोर्ट ये कहती है कि ओवरकोट वाला वहां के एक तिब्बती ढाबे में हनीफ और गोविन्द नाम के वारदात के शिकार हुए बदमाशों की मौजूदगी में वहां मौजूद था । वहां उसने अपनी जेब से नोटों से ठुंसा हुआ एक बटुवा निकालकर ढाबे का बिल दिया था । साहबान, वो हरकत जरूर उसने जानबूझ के की थी, ताकि लालच में पड़कर हनीफ और गोविन्द उसके पीछे लगते और किसी तनहा जगह पहुंचकर उसे लूटने की कोशिश करते ।”
कमिश्नर एक क्षण को ठिठका, उसकी निगाह पैन होती हुई अपने मातहत उच्चाधिकारियों की सूरतों पर घूमी और फिर वो फिर बोला - “ऐन ऐसी ही हरकत पहाड़गंज के पीजा पार्लर में उसे सिख ने की जिसकी कि अब तसवीर भी अखबार में छप चुकी है । अपने ब्रीफकेस में मौजूद नोटों की गड्डियां उसने जानबूझकर सुन्दरलाल और शफीक नाम के स्मैकियों के सामने बिखर जाने दीं । साहबान, मेरा कहना ये है कि इस मॉडस अपरांडी से, इस कार्य प्रणाली से, हमें सबक लेना चाहिए । सबक क्या लेना चाहिए, हमें इस कार्य-प्रणाली पर अमल करना चाहिए ।”
“कैसे ?” - सवाल हुआ ।
“सुनिये कैसे ? जिन इलाकों में चेन स्नैचिंग की वारदात ज्यादा होती हैं, वहां सादे कपड़ों में हमारी लेडी पुलिस गले में चेन डाल के विचरें और इन्तजार करें कि कोई उनके गले में मौजूद चेन या हार को झपट्टा मारने की जुर्रत करे । जूडो, कराटे और आर्म्ड कम्बैट में प्रशिक्षित हमारी महिलायें असहाय नारियां बनकर रात को उन पार्को में विचरें जहां कि जबरजिना की वारदात होती हैं । हमारे सादी वर्दी वाले सशस्त्र जवान नाइट सर्विस की बसों पर सफर करें, नाइट क्लबों और कैब्रे जायन्टों और आइसक्रीम पार्लरों के सामने निरीह प्राणियों की तरह विचरें । ऐसे ही और फन्दे आप लोग सोचें और तैयार करें । साहबान, मुझे यकीन है कि हमारी इन सामूहिक कोशिशों का नतीजा बहुत सुखद निकलेगा, हम इन गैर-मामूली तरीकों से जरूर-जरूर कई मुजरिमों को पकड़ पायेंगे और फिर तभी हमारे बिगड़ते इमेज में कोई सुधार आयेगा । जो लोग मेरे से सहमत हों वो बरायमेहरबानी हाथ खड़ा करें ।”
तमाम हाथ खड़े हुए ।
“गुड । आई एम ग्लैड ।” - कमिश्नर बोला - “एक बात ध्यान में रखें साहबान, ये वक्त पब्लिक को पुलिस की मजबूरियां और लिमिटेशंस गिनाने का नहीं है । दिल्ली राजधानी है और सुबुद्ध लोगों का शहर है, ये बातें हर कोई हमारे समझाये बिना भी समझता है कि हम एक नागरिक पर एक पुलिस वाला तैनात नहीं कर सकते । हमारे पास साधनों की कमी है, हमारे पास मैन पावर की कमी है, हमारे पास फंड्स की कमी है, हमारी तीन-चौथाई फोर्स प्रदशनों, पोलिटिकल रैलियों, धार्मिक जुलूसों को कन्ट्रोल करने में लगी रहती है, मौजूदा हालात में इन बातों में पब्लिक हमारी हमदर्द बनने के मूड में नहीं है । वक्त की जरूरत ये है कि हम कुछ करके दिखाये । मुझे उम्मीद है कि आप लोगों ने हिन्दुस्तान टाइम्स का आज का एडीटोरियल पढा होगा।”
तमाम सिर सहमति में हिले ।
“दैट् वाज मोस्ट अनफार्चूनेट, जन्टलमैन, मोस्ट अनफार्चूनेट इनडीड । एक तो हमारे लिए वैसे ही हालात बद हैं, रही-सही कसर हमारे ही दो जवानों ने इन्डिया गेट वाली वारदात को अंजाम देकर पूरी कर दी । जरा गौर फरमाइए, साहबान कि जो कालिख प्रेस और पब्लिक ने हमारे मुंह पर पोती है, उसका रंग गहरा है या उसका जो हमारे ही महकमे के जवानों ने हमारे मुंह पर पोती है ।”
तमाम सिर छातियों पर झुक गए ।
“साहबान, हिन्दुस्तान टाइम्स का वो एडीटोरियल बहुत व्यापक रूप से पढा गया है और उसकी बहुत व्यापक प्रतिक्रिया भी हुई है । आपकी जानकारी के लिए लेफ्टीनेट गर्वनर साहब और गृह राज्यमन्त्री साहब का फोन मेरे पास आ भी चुका है । और फोन भी अभी आते ही होंगे । सो आई मस्ट वार्न यू, जन्टलमैन, दैट इफ आई एम इन ट्रबल, ईच वन आफ यू विल बी इन इक्वल ट्रबल । सो देयर यू आर ।”
सबके सिर उनकी छातियों से उठे ।
“दि मीटिंग इज एडजर्न्ड । गुड डे एण्ड गुड लक जन्टलमैन ।”
सब लोग तत्काल कुर्सियों से उठने लगे ।
***
लूथरा पहाड़गंज पहुंचा ।
फ्रीलांस फोटोग्राफर मोहन वाफना की घर तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई । लूथरा की वर्दी का या वर्दी पर लगे दो फूलों का उसने कोई रोब खाया हो, ऐसा उससे न लगा ।
“जानते हो ?” - लूथरा ने नकली रौब झाड़ा - “मैं तुम्हें गिरफ्तार कर सकता हूं ।”
“गिरफ्तार कर सकते हो !” - वाफना सकपकाया - “क्या किया है मैंने ?”
“तुम एक कत्ल के चश्मदीद गवाह थे, तुमने कातिल की तसवीर तक खींची थी । एक कत्ल के केस का इतना अहम क्लू पुलिस से छुपाकर रखना क्राइम है ।”
“मैंने कहां पुलिस से छुपाकर रखा कुछ । कातिल की तसवीर और मेरा बयान दोनों अखबार में छपे हैं । अखबार नहीं पढते हो ?”
“वो तसवीर तुम्हें पुलिस को सौंपनी चाहिए थी ।”
“क्या करती पुलिस तब ? दौड़ के पकड़ लेती कातिल को ?”
“फिर भी पुलिस को सौंपनी चाहिए थी ।”
“क्यों ? मैं पुलिस की नौकरी करता हूं ?”
“अरे, एक शहरी के तौर पर सोसायटी के लिए तुम्हारा कोई फर्ज नहीं ?”
“है । क्यों नहीं है ? तभी तो खुद गोली खा जाने का रिस्क लेकर कातिल की तसवीर खींची । वो मुझे तसवीर खींचता देखकर मेरे घर में घुस के मुझे शूट कर जाता तो क्या तुम बचाने आते मुझे ?”
“तसवीर” - लूथरा पूरी ढिठाई से बोला - “फिर भी तुम्हें पुलिस को सौंपनी चाहिए थी ।”
“और पुलिस मुझे चुपचाप निकालकर पांच हजार रुपये दे देती जो कि मुझे अखबार से मिले ! ठीक ?”
“फिर भी...”
“अभी भी फिर भी ? अरे, मैं क्या कोई वालन्टियर हूं ?”
“दो दिन हवालात में बन्द रहना पड़ गया न, तो सारी हेंकड़ी निकल जायेगी ।”
“अरे, कौन करेगा मुझे हवालात में बन्द ?”
“मैं । मैं करूंगा ।”
“फिर खुद जाके मूंगफली की रेहड़ी लगाएगा या स्मैक बेचेगा ?”
“क्या बकता है ?”
“ये गीदड़ भभकियां जाके किसी और को देना, दरोगाजी । मैं हिन्दुस्तान का टॉप का फोटो जर्नलिस्ट हूं, कोई रण्डी का दलाल नहीं, कोई चोर-उचक्का या जेबकतरा नहीं जिसे, तुम जब चाहो हवालात में बन्द कर दोगे । मुल्क में अभी इतना गुण्डा राज नहीं हुआ कि एक मामूली सब-इंस्पेक्टर...”
“अच्छा, अच्छा । जुबान को लगाम दो अब ।”
वाफना खामोश हो गया ।
“अखबार में जो” - लूथरा बदले स्वर में बोला - “सिख की चेहरे वाली फोटो छपी है...”
“क्लोजअप ।”
“वही । क्या उससे बड़ी फोटो नहीं बन सकती ?”
“बन सकती है ।”
“कितनी बड़ी ?”
“कितनी भी बड़ी । इस दीवार जितनी भी बन सकती है लेकिन वो फिजूल की मेहनत होगी ।”
“क्यों ?”
“तसवीर धुंधली भी है और आउट आफ फोकस भी । उसको जितना ज्यादा एनलार्ज किया जाएगा उतने ही ज्यादा उसके ग्रेन फटते जायेंगे और वो आउट आफ फोकस होती जायेगी ।”
“फिर भी कुछ तो बड़ी ठीक बन सकती होगी ?”
“दस, बारह तक ठीक बन जायेगी ।”
“मुझे बना दो बस बारह के दो प्रिंट ।”
“फोकट में ?”
लूथरा ने जोर से थूक निगली और वर्दी की जेब से अपना पर्स निकाला ।
“दे रहे हो तो” - वाफना हंसा - “नहीं चाहिए ।”
“अजीब आदमी हो, यार ।” - लूथरा भी जबरन हंसा ।
“हां । ये जुबान बोलो । मीठी-मीठी । प्यारी-प्यारी । यारी-यारी वाली।”
लूथरा फिर हंसा ।
***
लंच में विमल एम्बैस्डर होटल पहुंचा ।
वहां टैक्सी स्टैण्ड पर मुबारक अली नहीं था । खोखे में बैठे एक आदमी को उसने उसके लिए सन्देशा दिया कि अगर वो लौट आये तो वही उसका इन्तजार करे ।
फिर वो लंच के लिए होटल के प्रसिद्ध साउथ इन्डियन रेस्टोरेंट में पहुंच गया ।
आधे घन्टे बाद वो वहां से बाहर निकला तो मुबारक अली स्टैण्ड पर मौजूद था । विमल उसे बांह पकड़कर स्टैण्ड के एक तनहा कोने में ले गया और फिर बोला - “पिछले शनिवार तूने मुझे गैरकानूनी हथियार बेचने वाले तनवीर अहमद के बारे में बताया था और टेलीफोन पर उससे अप्वायन्टमैंट फिक्स करने का तरीका भी बताया था । मैं ये पूछना चाहता हूं कि ये सदर वाले हुसैन साहब वाकई कोई हैं या ये महज एक कोड वर्ड है तनवीर अहमद तक पहुंचने के लिए ?”
“हुसैन साहब तो वाकई ही हैं, बाप । अपने एक जात भाई के बताये अपुन खुद उनसे सदर जाकर मिला था । तब वो ही अपुन को बोलेला था कि तनवीर अहमद से, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कैसे मुलाकात फिट करने का था ।”
“तूने अपने उन हुसैन साहब को बोला था कि असल में तनवीर अहमद से असले का खरीददार तू नहीं, मैं था ?”
“नक्को ।”
“यानी कि हुसैन साहब की निगाह में तनवीर अहमद के पास तू - मुबारक अली - गया था ?”
“बरोबर ।”
“मैंने जब तनवीर अहमद से फोन पर अप्वायन्टमैंट फिक्स की थी तो मैंने उसे अपना नाम भी बताया था । फोन मैंने दोपहर को किया था जब कि अप्वायन्टमैंट शाम की थी । शाम को उसने मुझे - कौल को - अपने घर में घुसने दिया । इसका मतलब ये हुआ कि उसने बीच के वक्फे में हुसैन साहब से तसदीक नहीं की थी मेरे बारे में । की होती तो उसे मालूम होता कि हुसैन साहब ने जिस आदमी को रिकमैंड किया था, वो कोई कौल नहीं मुबारक अली था । उस सूरत में वो हरगिज भी मुझे अपने घर में कदम न रखने देता ।”
“तू एकदम ठीक बोला, बाप ।”
“ये आदमी बहुत होशियार बनता है । ये ही लच्छन रखेगा तो बहुत जल्द जन्नतनशीन होगा ।”
“बात क्या है, बाप ?”
“बात कोई खास नहीं । तू एक काम कर, मुबारक अली ।”
“दो बोल, बाप ।”
“ठीक है, दो ही बोलता हूं । एक तो किसी तरीके से मालूम कर कि पहाड़गंज के पीजा पार्लर वाले चार्ली ने ड्रग्स के धन्धे से किनारा किया या नहीं । दूसरे, शहर के चार्ली के पीजा पार्लर जैसे कुछ और ठिकानों का पता कर जिन्हें कि शहर के कथित बड़े बाप गुरबख्श लाल को प्रोटेक्शन हासिल है ।”
“ठीक है । करेंगा ।”
“कोई रुपए-पैसे की दिक्कत होते...”
“नेईं है । होयेंगा तो बोलेंगा । तेरे कू नेईं बोलेंगा तो और किस कू बोलेंगा !”
“ठीक है । मैं चलता हूं ।”
***
आधे घन्टे में लूथरा को वांछित तसवीर हासिल हो गयी जिसे लेकर वो उसी इलाके में स्थित एक कमर्शियल आर्ट स्टूडियो में पहुंचा । एक कामन दोस्त के माध्यम से स्टूडियो के संचालक आर्टिस्ट योगकुमार से उसकी मामूली वाकफियत थी ।
उसने तसवीर योगकुमार को दिखाई ।
“मैं चाहता हूं कि इसी तसवीर को इस ढंग से रिटच किया जाये” - लूथरा बोला - “कि तसवीर पर से दाढी हट जाए, चश्मा हट जाये, पगड़ी हट जाए, आंखें नीली से काली हो जायें । हो सकता है ये काम ?”
“हो तो सकता है लेकिन मेहनत का काम है ।” - जवाब मिला ।
“मेहनत कर ले, यार । पुलिस तफ्तीश का मामला है ।” - वो पैसे न मांग बैठे इसलिए लूथरा जल्दी से बोला - “तेरा कभी कोई चालान-वालान तो माफ करा देंगे ।”
“सिर का क्या करूंगा ? तसवीर की पगड़ी हटाने से तो सिर नहीं दिखने लगेगा न ?”
“मैं समझ गया ।”
लूथरा ने बड़ी बारीकी से उसे अरविन्द कौल के सिर और कानों की बनावट और उसका हेयर स्टाइल समझाया ।
“ठीक है ।” - आर्टिस्ट बोला - “करता हूं ।”
“कब आऊं मैं तसवीर के लिए ?”
“मैं थाने पहुंचा दूंगा ।”
“नहीं, नहीं । मैं ही आऊंगा ।”
“शाम को आना ।”
“ठीक है ।”
ए एस आई सहजपाल थाने में अपनी सीट पर बैठा सिगरेट फूंक रहा था जबकि लूथरा ने वहां कदम रखा ।
सहजपाल को देखकर लूथरा लम्बे डग भरता उस के करीब पहुंचा ।
“यहां क्या कर रहा है ?” - लूथरा बोला - “तेरे को तो उस लड़की के पीछे लगा होना चाहिए था ।”
“पीछे ही समझ यार उसके ।” - सहजपाल भुनभुनाया - “वो करोलबाग में अपने आफिस में बैठी है । कहीं भागी नहीं जा रही वो ।”
“यहां क्यों आया ?”
“रिपोर्ट देने और ये कहने कि उस लड़की के पीछे लगना बेकार है।”
“ये फैसला तू करेगा ?”
“तू कर ले मेरे बाप, लेकिन हकीकत ये ही है । वो लड़की तो कोई साध्वी है, नन है । कोई सहेली नहीं, कोई दोस्त नहीं, कोई वाकिफकार नहीं । शुक्रवार शाम को उसकी हस्पताल से छुट्टी हुई थी, शनिवार से ही दफ्तर जाने लगी थी । लगी-बन्धी रुटीन है उसको अपने घर से दफ्तर, दफ्तर से खान मार्केट वाली कम्प्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट, इंस्टीच्यूट से घर । तब से अब तक न वो किसी के पास फटकी न कोई उसके पास फटका ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
लूथरा सोचने लगा । इससे तो ये लगता था कि किसी ने उसे धमकाकर उसका बयान नहीं बदलवाया था । ऐसी धमकी एक ही बार में कारगर साबित नहीं हो जाती थी, उसे दोहराना पड़ता था, दोहराते रहना पड़ता था ।
तो कैसे बदलवाया ?
अनुनय-विनय से ? फरियाद करके ?
यूं बयान बदलने वाली लड़की तो अपने बयान से अब क्या टस-से-मस होती ?
“यार” - सहजपाल कह रहा था - “तभी तो कह रहा हूं कि उस लड़की के पीछे लगने में कुछ नहीं रखा । कुछ हाथ नहीं आने वाला यूं...”
लूथरा ने घूरकर उसे देखा ।
“तू लानत भेज मेरी राय को, यार । खाक मेरे मुंह में । लेकिन भगवान के लिए इस वाहियात ड्यूटी से पीछा छुड़ा दे । तू मेरे से उम्र में छोटा । कभी मैं तेरा सीनियर हुआ करता था । फिर भी तेरे सामने फरियाद कर रहा हूं । मेरा इस ड्यूटी से पीछा छुड़ा, मेरे बाप ।”
“ड्यूटी का भी यूं ही रोते-धोते की होगी ?”
“भगवान कसम, नहीं । पूरी ईमानदारी से की ड्यूटी । जरा कोताही नहीं की । मैंने मरना है कोताही करके !”
“तू गारन्टी करता है कि न लड़की किसी के पास फटकी और न लड़की के पास कोई फटका ?”
“हां । पूरी-पूरी ।”
“ठीक है । रिपोर्ट लिख । मैं एस एच ओ से बात करूंगा ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया । मैं अभी रिपोर्ट तैयार करता हूं ।”
तभी एक हवलदार वहां पहुंचा ।
“साहब बुला रहे हैं ।” - वो लूथरा से बोला ।
लूथरा तत्काल हवलदार के साथ हो लिया ।
सहजपाल कुछ क्षण लूथरा को जाता देखता रहा, फिर कुछ सोचकर उसने सिगरेट फेंका और चुपचाप लूथरा के पीछे हो लिया ।
जिस घड़ी लूथरा ने एस एच ओ रतनसिंह के कमरे में कदम रखा, उस घड़ी गलियारा बिल्कुल खाली था । लूथरा के दृष्टि से ओझल होते ही वो लापरवाही से टहलता हुआ रतनसिंह के आफिस के दरवाजे के करीब पहुंचा । दरवाजा मुकम्मल तौर से बन्द नहीं था और जब उसने कान लगाकर सुनने की कोशिश की तो उसे रतनसिंह और लूथरा दोनों की आवाजें साफ सुनाई दीं ।
“ए सी पी साहब हैडक्वार्टर में मीटिंग अटैंड करके आए हैं ।” - रतनसिंह कह रहा था - “कमिश्नर साहब बहुत ही ज्यादा खफा हैं हाल ही की वारदातों से । कह रहे थे कि उस ओवरकोट वाले के कारनामों से पुलिस की नाक कट रही है । मेरी चलती हो तो मैं तो उसे कभी न रोकूं उसकी करतूतों से । गुण्डे-बदमाशों का ही सफाया कर रहा है वो।”
“सर, यूं कभी शरीफ शहरियों की भी बारी आ सकती है ।”
“जब आएगी तो देखा जाएगा । तब उठा लेंगे वो कदम उसके खिलाफ जो कि हमें आज उठाने को कहा जा रहा है । कोई ये नहीं सोचता कि अगर उसने कुछ आदमी मारे हैं तो कुछ की जान भी उसी ने बचाई है । वो कुछ न करता तो जिनकी मौत आती, वो नेक शहरी होते । अब उनकी जगह शातिर बदमाश और हिस्ट्रीशीटर मरे हैं । क्या बुरा है ये सौदा ? क्यों न चलने दिया जाए ये सिलसिला ?”
“सर, ऐसा कहीं होता है ?”
“हां ।” - रतनसिंह के मुंह से आह-सी निकली - “यही तो अफसोस है कि ऐसा नहीं होता । खैर छोड़ो, मैंने तुम्हें क्यों बुलाया था, वो सुनो । देखा, ये तमाम वारदातें क्योंकि एक ही किस्म की हैं इसलिए आज हैडक्वार्टर में ये फैसला हुआ है कि वारदात की तफ्तीश कोई एक पुलिस आफिसर ही करे, भले ही वो किसी भी थाने की हद में हो ।”
“आई सी ।”
“लूथरा, इस काम के लिए ए सी पी साहब ने तुम्हें चुना है । ऐसी वारदात कहीं भी हो, उसकी तफ्तीश तुम करोगे । जिस थाने की हद में वारदात होगी, उसका स्टाफ तुम्हारी मदद करेगा लेकिन इंचार्ज, स्पैशल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर तुम ही रहोगे । तुम समझे मेरी बात ?”
“जी हां ।”
“कल रात पहाड़गंज में जो ताजातरीन वारदात हुई है, उसकी अब तक की इनवैस्टिगेशन की रिपोर्ट तुम्हें पहाड़गंज थाने से मिल जायेगी । आगे भी कुछ करना है, तुमने खुद करना है ।”
“कल जो एक आदमी जख्मी हुआ था, उसका बयान हो गया ?”
“नहीं हो गया । वो अभी हस्पताल में है और पहाड़गंज थाने से खबर लगी है कि सुबह तक बयान देने की स्थिति में वो नहीं था । अब उसका बयान भी तुम लोगे ।”
“ठीक है ।”
“तुम्हारे उस हेरोइन के नोन स्मगलर की क्या खबर है जो शुक्रवार रात को एम्बैसेडर होटल पहुंचने वाला था लेकिन पहुंचा नहीं था ?”
“लेखराज मूंदड़ा ?”
“वही ।”
“उसकी तो कोई खबर नहीं, सर ।”
“तुम अपने खबरी से मिलने वाले थे ?”
“मौका ही नहीं लगा । वैसे ही इतना मसरूफ रहा कि...”
“अब तो और भी ज्यादा मसरूफ हो जाओगे । ठीक है, वो केस मैं तुम्हारे से वापिस ले रहा हूं । उस पर मैं किसी और को तैनात कर दूंगा।”
“सर, सहजपाल खाली है ।”
“खाली है ? उसे तो उस लड़की... सोनिया शर्मा की निगरानी पर लगाया गया था ?”
“जी हां । लेकिन सर, उस लड़की की निगरानी में कुछ नहीं रखा । सहजपाल की रिपोर्ट है कि जब से उस लड़की की हस्पताल से छुट्टी हुई है, तब से अब तक न वो किसी के पास फटकी है और न कोई उसके पास फटका है । सर, उसकी निगरानी से वक्त की बरबादी के अलावा कुछ नहीं हासिल होने वाला था ।”
“ये तुम्हारी राय है या सहजपाल की ?”
“राय तो मेरी ही है, अलबत्ता कायम इसे मैंने सहजपाल की रिपोर्ट से ही किया है ।”
“ठीक है । मैं सहजपाल को मूंदड़ा वाले केस पर लगाता हूं । तुम इसी केस पर अपना पूरा ध्यान लगाओ जिसके कि तुम स्पैशल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर नियुक्त किए जा रहे हो ।”
“ठीक है ।”
“लूथरा, कोई नतीजा निकाल के दिखाना है । थाने की इज्जत का सवाल है ।”
“मैं जी तोड़ कोशिश करूंगा, सर ।”
“शाबाश । अब तुम जाओ और सहजपाल को मेरे पास भेज दो ।”
“यस, सर ।”
सहजपाल तत्काल दरवाजे पर से हट गया ।
***
गुरबख्श लाल लोटस क्लब के पृष्ठ भाग में बने अपने आफिस में मौजूद था जबकि उसके प्राइवेट टेलीफोन की घन्टी बजी ।
उसने फोन उठाया और आदतन भुनभुनाता हुआ बोला - “हां । क्या है ?”
“लाइन पर” - उसे कुशवाहा की आवाज आयी - “वो पुलसिया सहजपाल है । बात करेंगे ?”
“कहा तो था मैंने उसे फोन करने को । ठीक है, करा ।”
“अभी लीजिए ।”
“लाल साहब” - फिर एक नयी आवाज आयी - “मैं सहजपाल बोल रहा है ।”
“क्या है ?” - गुरबख्श लाल रुखाई से बोला ।
“लाल साहब, आपने दोपहर को फोन करने को कहा था ।”
“वो तो मैंने कहा था । लेकिन बताने को कुछ है या कान ही खाएगा?”
“बताने को है, लाल साहब ।”
“क्या ?”
“मैंने मालूम कर लिया है कि केस की तफ्तीश किसके हाथ में है ।”
“अच्छा ! कौन है वो ?”
“वो मेरे ही थाने का एक सब-इंस्पेक्टर है । नाम अजीत लूथरा है ।”
“तेरे थाने का सब-इंस्पेक्टर है ? लेकिन वारदात तो पहाड़गंज थाने के इलाके में हुई है ?”
“लाल साहब, उसे स्पैशल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर मुकर्रर किया गया है और खास इस केस की तफ्तीश के लिए स्पैशल अख्तियारात दिए गए हैं ।”
“हूं । किसी पर शक है उसे ?”
“अभी मालूम नहीं मुझे लेकिन मैं मालूम करने की कोशिश कर रहा हूं ।”
“ये सब-इंस्पेक्टर... लूथरा...कैसा आदमी है ?”
“कैसा आदमी क्या मतलब, लाल साहब ?”
“बोलने वाला तोता है या गूंगा है ?”
“मालूम नहीं, लाल साहब ।”
“यानी कि तुझे ये नहीं मालूम कि वो तेरी बिरादरी का है या नहीं ?”
“जी ?”
“अरे, वो बिकाऊ है या नहीं ?”
सहजपाल अपमान का कड़वा घूट पीकर रह गया ।
“पक्का नहीं मालूम, लाल साहब ।” - वो कठिन स्वर में बोला ।
“कोई बात नहीं । मैं मालूम करता हूं । नम्बर तेरे वाला ही है उसका ? थाने का ?”
“हां ।”
“ठीक है । लाइन छोड़ ।”
“लाल साहब, वो...”
“वो’ को इन्तजाम हो जाएगा और होता रहेगा । ड्यूटी करके घर पहुंचेगा तेरी बीवी तुझे ‘वो’ की खुशखबरी दे देगी । आगे भी मिलती रहेगी खुशखबरी । बस, तू किसी तरह से उस हरामी के पिल्ले का नाम मालूम कर जिसने मेरे भांजे का खून किया ।”
“मैं जरूर करूंगा । थैंक्यू, लाल साहब ।”
लूथरा की मेज पर रखे फोन की घन्टी बजी ।
“हल्लो” - वो रिसीवर उठाकर कान से लगाता हुआ बोला - “सब-इंस्पेक्टर लूथरा हेयर ।”
“लूथरा ।” - कोई बड़े रोब से बोला - “मेरे को तेरे से एक काम है । करेगा ?”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“वो भी पता लग जाएगा लेकिन पहले तेरी नीयत तो पता लगे ।”
“क्या काम है ?”
“पिछली रात मेरे एक अजीज का कत्ल हो गया । पहाड़गंज में । इम्पीरियल सिनेमा के पास । सुन्दरलाल नाम है मकतूल का । मुझे मालूम हुआ है कि उस कत्ल की तफ्तीश तू कर रहा है । तू मुझे कातिल का नाम बताये तो बीस हजार रुपए तेरे । ज्यादा कहे तो ज्यादा ।”
“सिर्फ नाम बताने के ?”
“हां ।”
“नाम जान के आप क्या करेंगे ?”
“ये तेरी सिरदर्द नहीं । तू मुझे सुन्दरलाल के कातिल का नाम बता और अपनी फीस खुद बोल ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“कोई बात नहीं । जब तफ्तीश कर रहा है तो कुछ मालूम भी करेगा।”
“और मेरा काम क्या है !”
“यानी कि मालूम कर लेगा ?”
“उम्मीद तो है ।”
“ठीक है । मालूम कर । दो-तीन दिन बाद मैं फिर फोन करूंगा ।”
लाइन कट गयी ।
हैरान होते हुए लूथरा ने रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
इतनी जल्दी किसी को कैसे मालूम पड़ गया था कि सुन्दरलाल के कत्ल के केस की तफ्तीश उसके हाथ में थी ! अभी तो उसकी नयी अप्वायन्टमैंट की बात उसके ए सी पी उसके एस एच ओ और खुद उसके अलावा किसी को भी नहीं मालूम थी ।
और फिर कोई क्यों जानता चाहता था सुन्दरलाल के कातिल का पता ?
वो भी जानकारी की मोटी फीस भरकर ?
बीस हजार वो मुंह से कह रह था और मनमानी कीमत देने की बात कर रहा था ।
पचास हजार तक तो वो जरूर ही दे देता ।
उसका ध्यान कौल की तरफ गया ।
वो फोन करने वाले को कौल का नाम बताकर आराम से एक मोटी रकम पीट सकता था ।
लेकिन कौल अगर बेगुनाह हुआ तो ?
यूं किसी बेगुनाह की मौत का सामान करना क्या कोई अच्छी बात होगी ?
नहीं होगी तो न सही - उसने सोचा - मेरी बला से । मेरा क्या वो मामा लगता है ? गिरफ्तार करके जेल की हवा खिलवाई वो कहीं से शाबाशी तक नहीं मिलने वाली जब कि यूं इतनी आसानी से पचास हजार रुपए...
उसने एक जोर की हुंकार भरी ।
उसने दो-तीन दिन बाद फोन करने को कहा है - फिर उसने झुंझलाते हुए खुद को समझाया - जो फैसला करना होगा, दो-तीन दिन बाद करूंगा । अभी पचास हजार रुपए कौन से सामने रखे दिखाई दे रहें हैं ।
उसका सिर स्वयंमेव ही सहमति में हिलने लगा ।
लेकिन - उसने फिर सोचा - मुझे पता तो लगना चाहिये कि फोन करने वाला कौन था ?
कैसे ?
वो विकट काम था ।
वो कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने पहाड़गंज थाने में सब-इंस्पेक्टर जनकराज को फोन किया ।
पहले, उसने शफीक खबरी की खबर लेनी थी ।
***
विमल तनवीर अहमद के आफिस में उसके सामने बैठा था ।
पहले वाले तरीके से ही फोन पर अप्वायन्टमैंट फिक्स करके वो वहां पहुंचा था ।
“मुझे पहचाना, हजरत ? - विमल बोला ।”
“पहचाना ।” - तनवीर अहमद बोईफोकल्स में से उसे घूरता हुआ बोला - “अभी तक मरे नहीं ?”
“जी !”
“भई, खुदकशी करने वाले थे न तुम ।”
“याददाश्त अच्छी है आपकी । कोई बात भूलते नहीं आप । भले ही मजाक में कही गई हो ।”
वो खामोश रहा ।
“फिर तो आपको ये भी याद होगा कि पिछले से पिछले शनिवार, यानी कि चौदह तारीख को, मैं यहां क्यों आया था ?”
“याद है । रिवाल्वर में कोई नुक्स निकला ?”
“नहीं । वो तो बहुत उम्दा चीज थी । आपकी जुबान में रीयल ब्यूटी।”
“तो ?”
“वैसी रिवाल्वरों जोड़ा था आपके पास ।” - विमल ने जेब से सौ-सौ की दो गड्डियां निकालकर तनवीर अहमद के सामने डाल दीं - “मुझे दूसरी भी चाहिए ।”
तनवीर अहमद ने नोटों की ओर हाथ न बढाया । उसका सिर इनकार में हिलने लगा ।
“क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“वो तो बिक गयी ।” - तनवीर अहमद बोला ।
“बिक गयी ! कब ?”
“हफ्ता हो गया ।”
“किसे बेची ?”
“क्यों जानना चाहते हो ?”
“मैं वो रिवाल्वर उससे खरीद लूंगा, जिसे कि वो आपने बेची है ।”
“शायद वो न बेचे ।”
“ये आपकी सिरदर्द नहीं । आप मुझे उस आदमी का नाम-पता बताइये जिसे आपने जोड़े की दूसरी रिवाल्वर बेची है ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“ये कैसे हो सकता है ?”
“क्यों नहीं हो सकता । तुम्हारा पता जानता हूं मैं ? पूछा भी था मैंने तुमसे तुम्हारा पता ?”
“नाम तो जानते हैं आप मेरा ।”
“हां, नाम तो जानता हूं ।”
“उसका भी जानते होंगे ।”
“पिपलोनोया नाम था उसका । पिपलोनिया । अजीबोगरीब नाम था इसलिये याद रह गया ।”
“पिपलोनिया का पता मालूम करने की कोई तरकीब सुझा सकते हों आप ?”
उसने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये फी ।
“आई विल पे फाइन्डर्स फी ।”
उसकी आंखो में लालच की चमक आयी । उसने मेज पर अपने सामने पड़ी नोटों की गड्डियों की ओर देखा । उसका हाथ एक गड्डी पर पड़ा, उसने गड्डी को थोड़ा-सा अपनी ओर सरकाया ।
“ज्यादा है ।” - विमल सख्ती से बोला ।
“तो ?”
विमल ने एक हाथ पूरा खोलकर, उसकी नाक के सामने किया ।
“तरकीब सुझा दूंगा ।” - तनवीर अहमद बोला - “कामयाबी की कोई गारन्टी नहीं होगी ।”
“मंजूर ।”
विमल ने मेज पर से दोनों गड्डियां उठा लीं । उसने एक को आधी करके उमेठा । वो दो टुकड़े हो गयी तो एक टुकड़ा तनवीर अहमद के सामने वापिस डाल दिया और बाकी के नोट अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिये ।
“ग्राहक का नाम-पता” - तत्काल तनवीर अहमद बोला - “मैं इसलिए नहीं पूछता क्योंकि इस बाबत तमाम मालूमात हुसैन साहब ने पहले कर ली होती हैं ।”
“जरूर आपके कारोबार में उनका हिस्सा होगा ?”
“हुसैन साहब को” - तनवीर अहमद उसकी बात की ओर ध्यान दिये बिना कहता रहा - “इस पिपलोनिया का पता मालूम होगा । जाके पूछ लो ।”
“न मालूम हुआ ? या उन्होंने न बताया ?”
“तो समझा लेना पांच हजार रुपये की गिरह कट गयी ।”
“और कोई तरीका नहीं ?”
तनवीर अहमद का सिर इनकार में हिला ।
“कम-से-कम कोई हुलिया तो बयान कीजिये इस पिपलोनिया का ! उसकी उम्र, कदकाठ वगैरह की बाबत कुछ बताइये ।”
“उम्र रही होगी पचास-पचपन साल । बाल दिखे नहीं क्योंकि वो टोपी पहने था चश्मा नहीं लगाता था । दाढी-मूंछ साफ थी । कदकाठ तुम्हारे जैसा ही था । और क्या बताऊं ?”
“आप सोचिए ।”
“और कुछ नहीं है मेरे पास उसकी बाबत बताने को ।”
“ठीक है ।” - विमल उठ खड़ा हुआ - “खुदा हाफिज ।”
“खुदा हाफिज ।”
***
“इर्विन हस्पताल में शफीक खबरी के पास पहुंचने से पहले लूथरा उसके डाक्टर से मिला ।”
“गोली जांघ में लगी थी” - डाक्टर ने बताया - “लेकिन हड्डी नहीं टूटी । मोटे मांस, में से आरपार गुजर गयी गोली । सीरियस केस नहीं है । तीन-चार दिन में खड़ा हो जाएगा ।”
“हूं । शुक्रिया ।”
वो शफीक के पास पहुंचा ।
शफीक से सब कुछ कुबुलवा लेने में उसे दो मिनट लगे । वो उसका मुंह दबोचकर सिर्फ दस सैकेण्ड के लिए उसकी जख्मी टांग पर बैठ गया । दोबारा और कुछ करने की नौबत न आयी । उसने पहले ही सब कुछ बक दिया ।
लेकिन उसके बयान से लूथरा की जानकारी में कोई खास इजाफा न हुआ ।
सिवाय इसके कि:
शफीक के बयान से गोल मार्केट वाला जबरजिना का केस निश्चित रूप से हल हो गया । बलात्कारियों की शिनाख्त भी हो गयी और एक जीवित बच गये बलात्कारी का इकबालिया बयान भी हासिल हो गया ।
उस पर और उसके जोड़ीदार सुन्दरलाल पर गोली चलाने वाला सिख खास सिखों वाली ठेठ पंजाबी बोलता था ।
दूसरी जानकारी ने लूथरा को फिर पशोपेश में डाल दिया ।
क्या वो सच में ही कोई सिख था ?
कौल तो कश्मीरी था । वो सिख का बहुरूप तो धारण कर सकता था लेकिन ठेठ पंजाबी कैसे बोल सकता था ?
लेकिन - जिद के मारे लूथरा ने फिर अपनी ही दलील को काटा - वो कश्मीरी होते हुए ठेठ हिन्दी भी तो बोलता था !
तब उसे एक नयी बात सूझी ।
क्या गारन्टी थी कि वो कश्मीरी था ?
“गली में अन्धेरा था ।” - लूथरा बोला - “लेकिन पीजा पार्लर में तो तूने उस सिख को खूब अच्छी तरह से देखा होगा । वो तो रोशनियों से जगमगाती जगह है ।”
“हां, साहब ।” - शफीक कांपती जुबान में बोला ।
“क्या हां साहब ?”
“मैंने उस सिख के खूब अच्छी तरह से देखा था ।”
“वो नकली सिख लगता था ? उसकी दाढी नकली लगती थी ?”
“बिल्कुल भी नहीं, साहब ।”
“असली थी उसकी दाढी ?”
“हां, साहब ।”
“पक्की बात ?”
“हां, साहब ।”
“साले ! क्या पहचान है तुझे असली-नकली दाढी की ?”
लूथरा की एक ही घुड़की से शफीक फिर सिर से पांव तक कांप गया ।
“नकली होगी दाढी, साहब ।” - वो मिमियाया ।
“अबे, मेरे पर अहसान कर रहा है दाढी को नकली बताकर ?”
शफीक से जवाब देते न बना ।
लेकिन उसकी खामोशी ने भी लूथरा के जेहन में शक का बीज बो दिया था ।
अगर वो शख्स सच में सिख था तो वो कौल कैसे हो सकता था ?
कहीं वो खामखाह ही तो कौल के पीछे नहीं पड़ा हुआ था ?
उस, अपने को सख्त नापसन्द, खयाल को उसने तत्काल झटककर अपने जेहन से निकाला ।
“स्मैक कहां से मिली ?” - लूथरा ने नया सवाल किया ।
आतंकित शफीक निगाहें चुराने लगा ।
“तेरे और तेरे जोड़ीदार के पास एक ही जितना माल था । चालीस-चालीस पुड़िया । न एक कम न एक ज्यादा । जरूर तभी एक ही जगह से, एक ही वक्त तुम दोनों को वो माल हासिल हुआ था ?”
“साहब” - शफीक गिड़गिड़ाया - “वो सुन्दरलाल कहीं से लाया था।”
“कहां से लाया था ?”
“मालूम नहीं, साहब ।”
“पक्की बात ?”
“हां, साहब ।”
लूथरा ने उसकी घायल टांग को टखने के करीब से पकड़कर खूब ऊंचा उठाया और हाथ से छोड़ दिया ।
शफीक के चेहरे से खून निचुड़ गया । टांग वापिस पलंग की साइड से आकर टकराई तो जैसे उसके चेहरे पर राख पुत गई । उसके मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली और उसकी पुतलियां उलटने लगीं ।
लूथरा ने हाथ बढाकर उसी हाथ से उसका मुंह और नाक दोनों दबोच लिये । शफीक हवा के लिए तड़पा, उसके मुंदले नेत्र फैले और कटोरियों से बाहर निकलने को हो गये तो लूथरा ने हाथ वापिस खींच लिया ।
“स्मैक कहां से मिली ?” - लूथरा ने बड़े सहज भाव से पूछा ।
शफीक ने तत्काल बताया ।
“शाबाश !” - वो खामोश हुआ तो लूथरा बोला - “अब अपने उस्ताद सुन्दरलाल के घर का पता बोल ।”
उसने बता बोला ।
“कौन-कौन हैं उसके घर में ?” - लूथरा बोला ।
“कोई नहीं है । बस, एक विधवा मां है । शकुन्तला नाम है ।”
“हूं ।”
लूथरा कुछ क्षण सोचता रहा ।
“शफीक खबरी !” - आखिर में वो बोला - “मैं तुझे कत्ल और जबरजिना के इलजाम में गिरफ्तार करता हूं ।”
***
लोटस क्लब में गुरबख्श लाल के आफिस में चार्ली उसके रूबरू पेश हुआ ।
“कैसा है, चार्ली ?” - गुरबख्श लाल भैंसे की तरह डकराया
“अच्छा हूं ।” - चार्ली बड़े अदब से बोला - “गॉड इज काइन्ड ।”
“खुशकिस्मत है तू । आजकल हर किसी पर कहां काइन्ड होता है गॉड ।”
चार्ली खामोश रहा ।
“कल बहुत बड़ी वारदात हो गयी तेरे पीजा पार्लर में !” - गुरबख्श लाल बोला ।
“मेरे पीजा पार्लर में नहीं ।” - चार्ली बोला - “वहां से काफी परे की एक गली में ।”
“मेरा मतलब था तेरे इलाके में । तेरे पड़ोस में ।” - गुरबख्श लाल ने उसे घूरा - “मरने वाला कौन था, मालूम हो गया न ?”
“हां । मुझे आपके भांजे सुन्दरलाल की मौत का अफसोस है ।”
“होना ही चाहिए । विधवा मां का इकलौता बेटा था नौजवानी में मर गया ।”
“मुझे अफसोस है ।”
“वो सिख कौन था ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“पहले कभी नहीं देखा था अपने पीजा पार्लर में ?”
“मैंने तो कल भी नहीं देखा ।”
“मतलब ?”
“वारदात के वक्त के आसपास मैं पीजा पार्लर में नहीं था ।”
“जब सुन्दर वहां आया था, तब तो था ?”
चार्ली एक क्षण हिचकिचाया, फिर उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर जानता कैसे है कि वो वहां गया था ?”
“बाद में वेटरों से जाना, पुलिस से जाना अखबार में पढा ।”
“उसे स्मैक क्यों दी ? मैंने तुझे, हर किसी को, मना किया हुआ है कि उसे स्मैक नहीं देनी, फिर भी उसे स्मैक क्यों दी ?”
“लाल साहब, कैसी बाते कर रहे हैं आप ! जब कल वो मेरे से मिला ही नहीं तो फिर भला मैं उसे कैसे स्मैक दे सकता था ?”
गुरबख्श लाल ने बहुत सख्ती से उसे घूरा ।
चार्ली ने बड़ी निडरता से उससे निगाह मिलाई ।
“इतना जानता है न” - गुरबख्श लाल पूर्ववत उसे घूरता हुआ बोला - “कि कल की वारदात में सुन्दर का शफीक नाम का जो जोड़ीदार था, वो अभी जिन्दा हैं । स्मैक उसके पास भी थी । उन दोनों की एक ही जने ने स्मैक दी थी । ऐसा करने वाला तू था या नहीं, ये शफीक से भी मालूम हो सकता है ।”
“मैंने आपके भांजे को स्मैक नहीं दी ।”
“लेकिन शफीक को दी ?”
“कल उसे भी नहीं दी ।”
“अगर उसने कहा कि उन दोनों को स्मैक तूने दी तो ?”
“वो ऐसा नहीं कहेगा ।”
“अगर कहा तो ?”
“तो मैं कहूंगा कि वो झूठ बोल रहा है ।”
“उसे झूठ बोलने की क्या जरूरत है ?”
“ये वो जाने ।”
“तेरी क्या गारन्टी है तू सच बोल रहा है ?”
“सिवा इससे कोई गारन्टी नहीं कि मैंने पहले भी कभी आपसे झूठ नहीं बोला ।”
वो बात गुरबख्श लाल को जंची । वो तनिक नर्म पड़ा ।
“ठीक है ।” - वो बोला - “जो असलियत होगी, मालूम पड़ जाएगी । बहरहाल अब तू वो बात सुन जिसके लिए मैंने तुझे यहां बुलाया है ।”
“फरमाइए ।”
“चार्ली, सुन्दरलाल के कातिल का पता लगाने में मेरी मदद कर ।”
“मैं ! मैं मदद करूं ?”
“हां । तू कर सकता है ऐसा । तेरा ठीया ऐसा है । वहां बहुत दुनिया आती है । बहुत कुछ कहती-सुनती है । इस काम के लिए अपने स्टाफ को आंखें और कान खुले रखने का सबक दे । मुझे यकीन है कि कोई न कोई नतीजा जरूर सामने आएगा ।”
“मैं ऐसा इन्तजाम कर दूगा ।”
“और खुद भी इस बाबत थोड़े हाथ-पांव चलायेगा ?”
“जी हां । जरूर ।”
“शाबाश । मुझे तेरे से यही उम्मीद थी ।”
“लाल साहब” - चार्ली बड़े विनीत भाव से बोला - “आज की मुलाकात का फायदा उठाकर एक बात मैं भी करना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“मैं ड्रग्स के धनधे से हाथ खींच रहा हूं । खींच चुका हूं ।”
गुरबख्श लाल चौंका । उसने फिर चार्ली को घूरा ।
“वजह ?” - वो बोला ।
“कल की वारदात की वजह से पुलिस की तवज्जो मेरे पीजा पार्लर की तरफ हो गयी है । जो ठीया एक बार पुलिस की निगाहों मैं आ जाए, वहां चलता ऐसा धन्धा पुलिस की निगाहों से छुपा नहीं रह सकता ।”
“बात तो तू ठीक कह रहा है । ठीक है, कुछ दिन के लिए धन्धा बन्द कर दे ।”
“मैं हमेशा के लिए बन्द कर रहा हूं ।”
“पागल हुआ है ?”
“लाल साहब, मेरे में अब और हिम्मत नहीं रही खतरा उठाने की ।”
“हिम्मत नहीं रही या जरूरत नहीं रही ! चार पैसे कमा लिए तो वही धन्धा काटने लगा जिससे चार पैसे कमाये ! जैसे पैसे से पहले मोटर-बंगला वगैरह खरीदा वैसे पैसे से अब कुलीनता और समाजी रुतबा खरीदना चाहता है ! साले, मोरी के कीड़े, सुधरना चाहता हैं ! इज्जतदार बनके मेरा मुंह चिढाना चाहता है ?”
“आप मुझे गलत समझ रहे हैं, लाल साहब मौजूदा माहौल ऐसा नहीं है कि...”
“भाग जा । जब मौजूदा माहौल सुधर जाए तो लौट के आ जाना ।”
“अब मैं लौट के नहीं आऊंगा, लाल साहब ।”
“चार्ली ! कहीं तू मेरी प्रोटेक्शन भी तो नहीं नकार रहा ?”
“अगर मैं ड्रग्स का धन्धा नहीं करूंगा तो पिर मुझे प्रोटेक्शन की क्या जरूरत है ?”
“मालूम पड़ जायेगा । अब दफा हो ।”
बुरी तरह से आतंकित चार्ली वहां से विदा हुआ ।
***
विमल विलिंगडन हस्पताल पहुंचा ।
मालूम हुआ कि सुमन शर्मा की तो छुट्टी हो गयी थी ।
“कब ?” - खुद ही उसके मुंह से निकल गया ।
“कल रात को ।” - जवाब मिला ।
“कल रात को !” - वो अचरज से बोला ।
“हां ।”
वो रिसैप्शन पर पहुंचा । वहां उसने सुमन शर्मा के बिल की बाबत सवाल किया । मालूम हुआ सैतालीस सौ कुछ रुपये का बिल था जिसे कि एडवांस में जमा पांच हजार रुपये की रकम से एडजस्ट करके बैलेंस पेशेन्ट को लौटा दिया था ।
वो गोल मार्केट पहुंचा ।
सुमन के फ्लैट को उसने ताला लगा दिया ।
वो घर पर नहीं थी ।
कहां चली गयी थी वो ?
फिर अपने फ्लैट वाली मंजिल पर कदम रखे बिना ही वो वहां से विदा हुआ और मुबारक अली की तलाश में निकल पड़ा ।
***
लूथरा बाड़ा हिन्दुराव पहुंचा ।
वहां बड़ी कठिनाई से वो सुन्दरलाल का घर तलाश कर पाया । घर के बाहरी कमरे में मौहल्ले की औरतों का जमघट लगा हुआ था जिनमें से, पूछने पर मालूम हुआ कि, एक सुन्दरलाल की मां थी । लूथरा ने उसे अपना परिचय दिया तो वो औरतों में से उठी और उसे एक अन्य, खाली पड़े, कमरे में ले आयी ।
लूथरा ने देखा कि उसकी आंखे रो-रो के सूजी हुई थीं और उस वक्त भी नम थीं । सुन्दरलाल कैसा भी था, आखिर उसका बेटा था ।
“दाह संस्कार हो गया, अम्माजी ?” - लूथरा हमदर्दीभरे स्वर में बोला।
“हां ।” - वो बोली - “एक तो मेरा बेटा मर गया, ऊपर से रुड़जाने पुलिस वाले पीछा नहीं छोड़ते ।”
“मैं आपके दो मिनट से ज्यादा नहीं लूंगा ।”
“क्या करेगा दो मिनटों में ?”
“दो-चार सवाल पूछुंगा । बस ।”
“कैसे सवाल ?”
“मामूली सवाल, अम्माजी ।”
“पूछ ।”
“सुन्दरलाल के यार-दोस्तों के बारे में कुछ बताइए । अमूमन कहां, किन लोगों में उठता-बैठता था वो ?”
“क्यों पूछता है ?”
“ऐसी बातें पूछना तफ्तीश का हिस्सा होता है । ऐसी जानकारी से कातिल को तलाश करने में मदद मिलती है । हो सकता है उसका कत्ल उसके किसी यार-दोस्तों ने ही किया हो ।”
“नहीं हो सकता । उसके यार-दोस्तों ऐसे नहीं थे । वो सारे तो जान छिड़कते थे मेरे सुन्दर पर । ”
“फिर भी उसके कुछ खास दोस्तों के नाम बताइए तो ?”
“नाम नहीं आते मुझे । बस शक्लों की पहचान है ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
वो खामोश रही ।
“कोई एकाध नाम ही याद कीजिये ।”
“एक वो मुसलमान दोस्त था उसका । भला-सा नाम था । मरजाणी याददाश्त तो बिल्कुल ही बिगड़ गयी है । हां, शफीक नाम था उसका ।”
“कोई और नाम ?”
“मुझे नहीं आता ।”
“उसके उठने-बैठने का कोई खास ठिकाना ?”
“पहाड़गंज कहीं जाता था । जगह का नाम पूछो तो कुछ पिज्जा-पिज्जा करने लगता था ।”
“पीजा पार्लर ।”
“ये ही होगा । बहुत पसन्द करता था वहां का खाना । एक बार मेरे लिये भी घर ले आया था रुड़जानी सब्जी नाल लिबड़ी होई बासी रोटी । मैं तो मुंह भी नहीं लगाया था ।”
“और कहां जाता था ?”
“रब्ब जाने कहां जाता था धक्के खाने । मुझे तो पहाड़गंज वाली जगह का भी इसलिए ध्यान है क्योंकि वो वहां से मेरे लिए वो विलैती रोटी लाया था ।”
“कोई काम-धाम नहीं करता था ?”
“यही तो रोना था कि कोई काम-धाम नहीं करता था । सारा-सारा दिन पता नहीं कहां-कहां धक्के खाता फिरता था करमांमारा । उसके मामे ने कई बार कहा कि चल सुन्दरलाल, तुझे काम पर लगा देता हूं लेकिन सुन्दर की खुद की ही कोई मर्जी नहीं थी काम की ।”
“मामा का अपना काम है ?”
“एक क्या कई काम हैं । वड्डा आदमी है वो । बहुत वड्डा आदमी है वो।”
“अच्छा ! नाम क्या है ?”
“गुरबख्श लाल ।” - वो सर्गव बोली - “शहर का बच्चा-बच्चा जानता है मेरे भाई को ।”
“वो गुरबख्श लाल जिसकी कनाट प्लेस में क्लब है, अशोक बिहार में रेस्टोरेन्ट है, साउथ एक्सटेंशन में बार है ?”
“हां । वही ।”
“वो गुरबख्श लाल तो बहुत रसूख वाला आदमी है, बहुत ताकत वाला आदमी है । हैरानी है कि किसी की उसके भांजे को कत्ल करने की जुर्रत हुई ।”
“और नहीं तो क्या !”
“गुरबख्श लाल को आपके भांजे के कातिल का पता लग गया तो वो तो उसके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आएगा । है न अम्माजी ?”
“टोटे करके रख देगा वो पटकीपैने दे ।”
“उसने कहा ऐसा ?”
“बिल्कुल कहा । सुन्दर की खबर सुनते ही कहा । बोला सुन्दर को मारने वाला जिन्दा नहीं बचेगा । टोटे-टोटे लाश जमना से ही बरामद होगी ।”
“फिर तो वो बुरी तरह से तलाश कर रहा होगा सुन्दर के कातिल को?”
“हां । और देख लईं दरोगया, वो तेरी पुलिस से पहले ये काम करके दिखाएगा ।”
“हम भी पूरी कोशिश कर रहे हैं, अम्माजी ।”
“अरे क्या कोशिश कर रहे हो ? तू देखना मेरा भाई क्या करता है ।”
लूथरा ने थोड़ी देर और बुढिया की कचर-कचर सुनी और फिर वहां से विदा हो गया ।
वो अपने थाने पहुंचा ।
दो-तीन जगह फोन करने पर उसे मालूम हो गया कि गुरबख्श लाल के साउथ एक्सटेंशन में स्थित बार का नाम डलहौजी बार था, अशोक विहार में स्थित रेस्टोरेंट का नाम शहनशाह था और कनाट प्लेट में स्थित क्लब का नाम लोटस क्लब था ।
डायरेक्ट्री में से उसने तीनों जगहों के नम्बर नोट किए ।
सबसे पहले उसने डलहौजी बार में फोन किया ।
“गुरबख्श लाल ?” - वो आवाज बदलकर बोला ।
“आप कौन ?” - पूछा गया ।
“मूंदड़ा ।” - वो बोला - “लेखराज मूंदड़ा ।”
“लाल साहब लोटस कलब में हैं, मूंदड़ा साहब ।” - तत्काल कोई बड़े अदब से बोला ।
लूथरा ने लाइन काटकर लोटस क्लब का नम्बर डायल किया और वहां भी नाम मूंदड़ा बताकर गुरबख्श लाल से बात करने की इच्छा व्यक्त की ।
“अबे साले मूंदड़े !” - थोड़ी देर बाद उसे एक भैंसे की तरह डकराती आवाज सुनाई दी - “कब आया दिल्ली ?”
लूथरा ने धीरे से रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
वो आवाज उसने साफ पहचानी थी । वो वही आवाज थी जिसने उसे फोन करके उससे सुन्दरलाल के कातिल की बाबत सवाल किया था और दो दिन बाद फिर फोन करने की बात की थी ।
शहर का टॉप का गैंगस्टर सुन्दरलाल के कातिल के खून का प्यासा था ! यानी कि कौल की खैर नहीं थी ।
***
चार्ली पहाड़गंज वापिस लौटा तो उसने पीजा पार्लर को पुलिस से घिरा पाया । उसके छक्के छूट गए । उसने लपककर भीतर घुसने की कोशिश की तो एक सिपाही ने बड़ी बेरहमी से उसे परे धकेल दिया ।
“अरे” - चार्ली झल्लाया - “मैं मालिक हूं यहां का ।”
“फिर भी ठहरे रहिए ।” - सिपाही बोला और भीतर दाखिल हो गया।
तभी चार्ली को देखकर उसका स्टीवर्ट माइकल उसके करीब पहुंचा।
“क्या हुआ ?” - चार्ली बदहवास स्वर में बोला - “कोई और कत्ल...”
“सर, रेड पड़ी है ।” - माइकल बोला ।
“रेड ! कब पड़ी ?”
“आपके यहां से जाने के थोड़ी देर ही ये लोग यहां आ धमके थे ।”
“यानी कि एक घन्टे से ये यहां हैं ?”
“जी हां ।”
“तलाश किस चीज की है इन्हें ?”
“बताते नहीं ।”
तभी जो सिपाही भीतर गया था, वो सब-इंस्पेक्टर जनकराज के साथ वापिस लौटा । उसने जनकराज को दिखाकर चार्ली की तरफ इशारा किया । चार्ली ने भी वो इशारा देखा, वो लपककर जनकराज के पास पहुंचा ।
“क्या बात है, जनाब ?” - चार्ली बोला - “क्या कर दिया मैंने ?”
“आप मालिक हैं यहां के ?” - जनकराज सख्ती से बोला ।
“हां । चार्ली नाम है मेरा ।”
जनकराज ने घूरकर चार्ली को दखा । चार्ली विचलित हो गया और तत्काल बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
वो रेड उस बयान का नतीजा थी जो शफीक खबरी ने हस्पताल में सब-इंस्पेक्टर लूथरा को दिया था ।
“हमें टिप मिली है” - जनकराज बोला - “कि आप ड्रग बेचते हैं ।”
“अरे, मैं पीजा बेचता हूं ।” - चार्ली अपना माथा पीटता हुआ बोला ।
“आप पीजा पार्लर की ओट में ड्रग बेचते हैं ।”
“कौन कहता है ऐसा ? उसे कहो मेरे सामने कहे ।”
“ऐसी टिप्स सीक्रेट रखी जाती हैं ।”
“अरे, कोई कुछ भी भौंक दे, तुम उसके पीछे लग लोगे ।”
“तमीज से बात कीजिए ।”
“क्या तमीज से बात करूं ? मुझे सब पता है ये कौन करा रहा है । मुझे क्या मालूम नहीं इस शहर की पुलिस कितनी बिकाऊ है ।”
“क्या बक रहे हैं आप ! जुबान को लगाम दीजिए वर्ना गिरफ्तार कर लूंगा ।”
चार्ली खामोश हुआ । उसने जोर से थूक निगली ।
“अब हो क्या रहा है ?” - फिर वो बोला ।
“तलाशी हो रही है ।” - जनकराज बोला ।
“कब तक चलेगी ?”
“पता नहीं ।”
“क्या मिला ?”
“अभी कुछ नहीं । लेकिन मिल जाएगा ।”
“नहीं मिलेगा ।”
“क्यों ?” - जनकराज व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “बहुत चालाकी से छुपा के रखा है माल ?”
“अरे, मेरे बाप, है ही नहीं माल । तुम्हें गलत टिप मिली है ।”
“देखेंगे ।”
“अच्छा, एक बात तो बता दो ।” - चार्ली ने फरियाद की - “तुम्हारी दाढी हाथ लगा के पूछ रहा हूं ।”
“क्या ?”
“कोई गरीबमार तो नहीं करोगे ?”
“क्या मतलब ?”
“कोई स्मैक वगैरह खुद ही भीतर रख के बरामदी तो नहीं दिखा दोगे ?”
“क्या बकते हो ?”
“गिड़गिड़ा के पूछ रहा हूं, यार । हाथ जोड़ के पूछ रहा हूं ।”
“नहीं ।” - जनकराज तनिक नरमी से बोला - “ऐसा कुछ नहीं होगा।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“मैं निश्चित हो जाऊं ?”
“हां ।”
“थैंक्यू । जनाब, इतनी तसल्ली की भी कोई खिदमत हो तो बोलो ।”
“वो बाद में देख लेंगे ।”
“ठीक है मैं जरा फोन करके आता हूं ।”
***
लूथरा पहाड़गंज में योगकुमार के कमर्शियल आर्ट स्टूडियो में पहुंचा ।
योगकुमार ने उसे अपनी कारीगरी दिखाई ।
लूथरा को तसवीर से बहुत मायूसी हुई । पता नहीं योगकुमार ने काम ठीक नहीं किया था या यूं एक सूरत में दूसरी निकाली ही नहीं जा सकती थी, लेकिन जो तसवीर वो देख रहा था, वो बहुत ही कम कौल जैसी लग रही थी । तसवीर में पगड़ी, दाढी, चश्मे वगैरह का तो कोई नामोनिशान भी बाकी नहीं बचा और उसने पगड़ी हटाकर सिर और कान भी ठीक ही बनाये थे लेकिन हासिल नतीजे से उसे कौल की तसवीर करार देना मुश्किल था । जो थोड़ी-बहुत कौल की तसवीर वो उसे लग रही थी, वो इसलिए लग रही थी क्योंकि वो जिद पकड़े हुए था उस सिख को कौल साबित करने की ।
“नहीं बात बनी ?” - योगकुमार उसके चेहरे को देखता हुआ बोला ।
लूथरा ने इनकार में सिर हिलाया ।
“उसकी वजह है ।” - योगकुमार बोला ।
“क्या ?”
“ठोडी और चेहरे का ओवल भी बहुत प्रामीनेंट फीचर होते हैं इंसानी सूरत के । दाढी हटाते वक्त वो सब मैंने अन्दाजे से बनाया । कान, माथा, सिर और हेयर स्टाइल पहले ही अन्दाजे से हैं । इतने अदाजों का जो सामूहिक नतीजा निकला है, वो भ्रामक हो सकता है ।”
“किया क्या जाये ?”
“एक तरीका है ।”
“क्या ?”
“तसवीर से कुछ हटाने से उसमें कुछ जोड़ना आसान होता है । लूथरा साहब, जिस आदमी पर तुम्हें सिख का बहुरूप धारण किये होने का शक है, उसकी तसवीर लेकर आओ । उस तसवीर पर दाढी, पगड़ी, चश्मा वगैरह बनाने से अगर वो अखबार में छपी तसवीर वाला सिख लगने लगा तो समझ लेना कि जो काम एक तरीके से पकड़ में नहीं आया, वो दूसरे तरीके से आ गया ।”
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो ।”
“मेरी बनाई तसवीर से अभी आगे बन्दा तुमने पहचानना है तो मैं कुछ ठीक नहीं कह रहा लेकिन अगर कोई बन्दा तुमने पहले से ताड़ा हुआ है तो...”
लूथरा का सिर पहले ही सहमति में हिलने लगा ।
***
एक पब्लिक टेलीफोन बूथ से चार्ली ने गुरबख्श को फोन किया ।
“अब क्या है ?” - गुरबख्शलाल भुनभुनाया ।
“लाल साहब ” - चार्ली उखड़े स्वर में बोला - “मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।”
“कैसी उम्मीद नहीं थी ?”
“मैंने आपके आफिस में आपके सामने से पीठ नहीं फेरी कि आपने ये हंगामा करवा दिया ।”
“क्या हंगामा करवा दिया ? अबे साले, कुछ भौंकेगा भी या पहेलियां ही बुझायेगा ?”
“आपने मेरे पीजा पार्लर पर पुलिस की रेड पड़वा दी ?”
“तेरे यहां रेड पड़ी है ?”
“हां । अभी भी जारी है ।”
“कुछ पकड़ा गया ?”
“नहीं ।”
“पकड़ा जाएगा ?”
“नहीं ।”
“फिर क्यों रो रहा है ?”
“आपको ऐसा करना तो चाहिए था न । मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो मेरे ऊपर रेड डलवा दी ? मैंने इतना ही तो कहा था कि ड्रग का धन्धा करना अब मेरे बस का नहीं । इतनी-सी बात के लिए आपने...”
“भौंके जा । भौंके जा । कसम है तुझे अपने पैदा करने वाली कुत्तिया की जो चुप हुआ ।”
“लाल साहब, आप...”
“अबे, लाल साहब के बच्चे ! बहन... कमीने, कुत्ते ! गुरबख्श लाल ऐसे काम करवाता नहीं खुद करता है । गुरबख्श लाल ऐसे कामों के लिए पुलिस का मोहताज नहीं । तू सुर नहीं बदलेगा तो ये बात तुझे आज ही रात मालूम हो जाएगी ।”
“मैंने क्या सुर नहीं बदला है ?”
“तुझे नहीं मालूम ?”
“मैं तो...”
“नहीं मालूम तो मेरे सुन ले । तू मेरा पालतू कुत्ता था और रहेगा । तू मेरी प्रोटेक्शन में था और रहेगा । तू ड्रग्स का धन्धा करता था और करता रहेगा । हां बोल वर्ना रात के नजारे का इन्तजार कर ।”
“लाल साहब, मैं...”
“अबे मैंने तुझे बहस करने को नहीं, हां बोलने को कहा है ।”
चार्ली के मुंह से बोल न फूटा ।
“ठीक है ।” - गुरबख्श लाल दहाड़ा - “मुझे तेरा जवाब मिल गया, अबे तू मेरे जवाब का इन्तजार कर । इन्तजार कर मेरे जवाब का जो कि तुझे आज ही मिलेगा ।”
लाइन कट गयी ।
चार्ली ने भी कांपते हाथों से रिसीवर हुक पर टांगा और सर्दियों में भी अपनी चेहरे पर चुहचुहा आये पसीने को पोंछता हुआ वो बूथ से बाहर निकल आया ।
अब उसके सामने जो अहमतरीन सवाल था वो ये था कि वो सोहल को कहां तलाश करे !
***
विमल सुजानसिंह पार्क में मुबारक अली के ठीये पर पहुंचा । उसने मुबारक अली को तनवीर अहमद से अपनी मुलाकात के बारे में बताया और पिपलोनिया का जिक्र किया ।
“वो कहता है” - विमल बोला - “कि इस शख्स का पता तेरे सदर वाले हुसैन साहब को जरूर मालूम होगा । मुबारक अली इस शख्स का पता मुझे जरूर चाहिए ।”
“क्यूं ?”
“मैं इससे मिलना चाहता हूं ।”
“क्यूं ?”
“क्योंकि ये पिपलोनिया वो शख्स हो सकता है जो प्रेस की जुबान में मेरी तरह खबरदार शहरी का रोल अदा करने की कोशिश कर रहा है।”
“ये वो ही शख्स हुआ तो तू क्या करेगा, बाप ?”
“तो मैं उसे समझाऊंगा कि वो ये खतरनाक खेल छोड़ दे ।”
“और तू जारी रखे !”
“मेरी बात और है ।”
“क्यों तेरी बात और है ?”
“चल, नहीं है मेरी बात और । लेकिन अब तो वो कहानी खत्म है । जिन पांच बलात्कारियों की मुझे तलाश थी, उनमें से चार को मैंने मार डाला और पांचवें को मुल्क का कायदा-कानून फांसी पर लटका देगा । कहानी खत्म ।”
“कहां खत्म कहानी, बाप मेरे कू तो लगता है कि एक नई, इससे भी बड़ी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में कहानी की शुरूआत होने जा रही है ।”
“मतलब ?”
“दोपहर में तू मेरे कू बोला था न कि मैं पहाड़गज पीजा पार्लर वाले चार्ली का पता करूं कि वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, नशे-पानी वाले धन्धे से किनारा कियेला है कि नेई !”
“हां ।”
“मैं उदर गया था । अभी उदर से ही लौटा हूं । बाप, उदर पुलिस का रेड पड़ेला है ।”
“चार्ली के पीजा पार्लर में ?”
“हां ”
“कुछ हाथ लगा पुलिस के ?”
“नक्को । पुलिस के जाने तक अपुन उदर रुक के आया । कुछ हाथ लगा होता पुलिस के तो उनके जूलूस के साथ अपना चार्ली भी होता । हथकड़ी में । क्या !”
“तो इसका मतलब ये हुआ कि उसने ड्रग्स का धन्धा छोड़ दिया ।”
“फिलहाल ।”
“फिर तो हमारा काम उसी से बन सकता है । फिर तो वो ही हमें बता सकता है कि शहर में उसके जैसे और ठिकाने कहां हैं जिन्हें गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन हासिल है । मुबारक अली, पहाड़गंज चल।”
“चल, बाप ।”
“लेकिन” - एकाएक विमल ठिठका - “वो बीच की बात तो बीच में ही रह गयी । उस पिपलोनिया का क्या करेगा ?”
“हुसैन साहब सिर्फ सवेरे मिलते हैं ।” - मुबारक अली बोला - “अनुप सवेरे उनके दरबार का चक्कर लगायगा ।”
“गुड ।”
“पण अपुन उन्हें बोलेंगा क्या, क्यों मांगता है अपुन को उसका पता?”
“बोलना जो रिवाल्वर वो तनवीर अहमद से ले गया है तुम्हें चाहिये क्योंकि उन रिवाल्वरों की जोड़े में भारी कीमत है । और ये बात तनवीर अहमद को भी नहीं मालूम थी । बोलना, तू वो रिवाल्वर उस आदमी से खरीदकर जोड़ा मुकम्मल करना चाहता है और उसे बहुत ऊंचे दामों में किसी फिरंगी को बेचना चाहता है ।”
“वो फिट हो जायेगा इस बात से ?”
“तुझे शक है तो तू कोई तरकीब सोच, लेकिन मुबारक अली, मुझे उस शख्स का पता जरूर-जरूर चाहिए ।”
“अच्छा, बाप ।”
फिर दोनों टैक्सी में सवार हो गए । टैक्सी पहाडगंज की ओर दौड़ चली ।
पहाड़गंज में चार्ली का पीजा पार्लर कितना चलता था, उसका ये भी एक सबूत था कि पुलिस के वहां से जाने के लगभग फौरन बाद ही वहां फिर हमेशा जैसी हलचल और चहल-पहल हो गयी थी ।
मुबारक अली को टैक्सी में ही बैठा छोड़कर विमल चार्ली के आफिस में पहुंचा ।
उसे देखते ही चार्ली की बाछें खिल गयीं । वो उछलकर अपनी कुर्सी पर से खड़ा हुआ, लपककर विमल के पास पहुंचा और जबरन विमल का हाथ थामकर उसे ऊपर-नीचे चलाने लगा ।
“बास !” - वो बोला - “तू गॉड है । तू जीसस क्राइस्ट है । मेरी दुश्वारी की घड़ी में जैसे तू यहां है, वैसे या गॉड पहुच सकता है या गॉड का बेटा पहुंच सकता है ।”
विमल ने जबरन अपना हाथ छुड़ाया ।
“क्या हुआ ?” - वो बोला ।
“बैठ ।” - चार्ली बोला - “बताता हूं ।”
विमल एक कुर्सी पर बैठ गया तो वापिस अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर जा बैठने के स्थान पर चार्ली उसके पहलू में ही एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“क्या हुआ ?” - विमल ने पूछा ।
चार्ली ने उसे गुरबख्श लाल से हुई अपनी मुलाकात और उससे मिली धमकी की बाबत बताया ।
“तो ?” - विमल बोला - “तू क्या चाहता है ?”
“मैं क्या चाहता हूं !” - चार्ली हकबकाया सा बोला - “अरे मेरे आका । तुझे नहीं मालूम मैं क्या चाहता हूं ? अपना वादा भूल गया ?”
विमल खामोश रहा ।
“तू बोला था कि नहीं बोला था कि अगर मैं ड्रग्स का धन्धा छोड़ दूं तो तू मुहाफिज होगा मेरा और मेरे ठीये का गुरबख्श लाल से और गुरबख्श लाल जैसे किसी भी शख्स से । भूल भी गया, बास !”
“तूने कर लिया है किनारा ड्रग्स के धन्धे से ?”
“एकदम । इधर रेड में पुलिस को कुछ मिला ? बोल, कुछ मिला ?”
“मझे क्या मालूम ?”
“नहीं मिला । मिला होता तो मैं क्या यहां आजाद बैठा होता ?”
“स्टाक कहीं और पहुंचा दिया होगा ? धन्धा कहीं और से जारी रखने का इरादा होगा ?”
“हरगिज भी नहीं । अरे, मेरा ऐसा कोई ऐसा कोई इरादा होता तो क्या यहां रेड पड़ती ? गुरबख्श लाल यहां रेड पड़ने देता ? जिस ठीये को गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन हासिल हो वहां कहीं रेड पड़ती हैं ! कोई पुलसिया साला पास फटकने की हिम्मत नहीं कर सकता ऐसे ठीये के । ऐसा ही दबदबा है इस शहर में गुरबख्श लाल का ।”
“पुलिस के महकमे में भी ?”
“पुलिस के महकमे में भी ।”
“गुरबख्श लाल क्या करेगा ?”
“वो सिर्फ एक इशारा करेगा और मेरा ये पीजा पार्लर तबाह हुआ पड़ा होगा ।”
“उसने बोला ऐसा कब होगा ?”
“हां, बोला । बराबर बोला । आज ही रात । आज ही रात के लिए बोला वो ।”
विमल ने वाल क्लाक पर निगाह डाली ।
“बास, कुछ कर ।” - चार्ली उसके घुटने छूता हुआ फरियाद करने लगा - “मझे बचा । मझे तबाह होने से बचा ।”
“तुझे अपने जैसे और कितने ठीयों की खबर है जिन्हें गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन हासिल है ?”
चार्ली को जैसे सांप सूंघ गया ।
“चार्ली !” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “अपना कोई एक रास्ता चुन ले । एक बार फैसला कर ले कि तू मेरी तरफ है या गुरबख्श लाल की तरफ है ।”
“तू मुझे मरवाएगा !” - वो बद्हवास-सा बोला ।
“अभी कौन-सा जिन्दा है तू । मरा तो पहले ही पड़ा है !”
“ओह, माई गॉड । मैं तो चक्की के दो पाटों में पिस गया ।”
“ड्रामा मत कर । अभी कुछ नहीं हुआ । अभी कुछ नहीं हुआ लेकिन मेरे से बाहर जाएगा तो होगा ।”
चार्ली खामोश रहा ।
“जो मैंने पूछा है, वो बताता है या मैं चलूं ?”
“बताता हूं । बताता हूं, मेरे बाप ।”
“गुड । फिर समझ ले तेरा ठीया बच गया । तू बच गया । अब बोल ।
चार्ली धीरे-धीरे बोलने लगा ।
***
विमल घर पहुंचा तो उसने ड्रइंगरूम में सब-इंस्पेक्टर लूथरा को बैठा पाया । उसके सामने नीलम बैठी थी और उसके चेहरे पर बहुत संजीदा भाव थे । दोनों के सामने रखे चाय के कप बता रहे थे कि वो कोई क्षणिक मुलाकात नहीं थी ।
विमल का दिल डूबने लगा ।
अब क्या गुल खिल रहा था - या खिला चुका था - वो काइयां सब-इंस्पेकटर !
लूथरा विमल को देखकर बड़ी ढिठाई से मुस्काराया । उसकी मुस्कराहट ही बता रही थी कि वो नीलम के साथ कोई बड़ी प्रभावी खुसर-पुसर कर भी चुका था ।
“तुम फिर आ गये !” - विमल क्रोधित स्वर में बोला ।
“मैडम से बात करने आया था ।” - वो पूर्ववत् मुस्कराता हुआ बोला - “मैं मैडम को...”
विमल लम्बे डग भरता हुआ उसके सिर पर जा खड़ा हुआ और उसकी बात काटता हुआ बोला - “स्टैण्ड अप एण्ड गैट आउट आफ माई हाऊस ।”
“यही बात जरा कश्मीरी में कहकर दिखाइये, कौल साहब ।” - लूथरा बड़े इत्मीनान से बोला - “या शायद पंजाबी में बढिया कह पायगें!”
“शटअप एण्ड गैट आउट ।”
लूथरा ने नीलम की ओर देखा ।
“आप बैठे रहिए ।” - नीलम बोली ।
लूथरा सोफा चेयर पर पसर गया ।
विमल ने हैरानी से नीलम की ओर देखा । नीलम ने अपलक उससे निगाह मिलाई ।
“यहां क्यों बैठी हो ?” - विमल खामखाह उस पर बरसा - “तुम्हें यहां बैठे होना चाहिए या पंलग पर लेटे होना चाहिए ! जानती नहीं तुम्हारी तबीयत...”
“कुछ नहीं हुआ मेरी तबीयत को ।” - नीलम बोली - “ठीक है मेरी तबीयत ।”
“एग्जर्शन से बिगड़ तो सकती है ! इस वाहियत आदमी की बकवास सुनने के लिए अगर तुम यहां बैठक में बैठी...”
“आप बैठ जाइये ।”
“लेकिन...”
“बैठ जाइये ।”
विमल धम्म से एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मैं” - नीलम उठती हुई बोली - “आपके लिए कप लेकर आती हूं ।”
“तुम रहने दो ।” - विमल बोला - “मैं लाता हूं ।”
“आप बैठे रहिये ।”
नीलम उठकर चली गयी ।
विमल ने कहरभरी निगाहों से लूथरा की ओर देखा ।
लूथरा मुस्कराया ।
“बड़े ढीठ आदमी हो ।” - विमल बोला - “बहुत ही ढीठ आदमी हो।”
“क्या करूं ?” - लूथरा बोला - “पुलिस की नौकरी ढिठाई बिना कहीं चलती है ?”
“अब किस फिराक में हो ?”
“अपनी नौकरी की ही फिराक में हूं ।”
“मेरी बीवी को क्या पट्टी पढाई ?”
“चाय बहुत बढिया बनाती हैं आपकी मिसेज । बहुत खुशकिस्मत हैं आप, कौल साहब, जो आपको ऐसी सुघड़ बीवी हासिल हुई !”
“लगता है” - विमल एक आह-सी भरता हुआ बोला - “मुझे तुम्हारी बाबत कुछ करना ही पड़ेगा ।”
“क्या ? मेरी शिकायत मेरे आला अफसरों तक पहुंचायेंगे ? या शायद अखबार वालों के पास ?”
तभी नीलम लौट आयी ।
वो तीनों के लिए चाय बनाने लगी तो विमल अपना पाइप निकालकर उसमें तम्बाकू भरने में मसरूफ हो गया ।
चाय सर्व हो गयी ।
विमल ने अपना पाइप सुलगा लिया ।
“आपने जवाब नहीं दिया मेरी बात का ।” - लूथरा चाय की चुस्की लेकर बोला - “क्या करेंगे आप मेरी बाबत ?”
“तड़प रहे हो जानते को ?” - विमल बोला ।
“हां ।”
विमल ने नीलम की ओर देखा ।
“यानी कि” - लूथरा बोला - “मिसेज के सामने नहीं बताना चाहते ।”
विमल ने पाइप का गहरा कश लगाया ।
तभी विमल की निगाह मेज के एक कोने में अखबारों के ऊपर पड़े अपने राशन कार्ड पर पड़ी ।
“ये राशन कार्ड” - वो बोला - “यहां क्यों पड़ा है ?”
“ये देखना चाहते थे ।” - नीलम बोली ।
“क्यों ?”
नीलम ने लूथरा की ओर देखा ।
“मैं” - लूथरा बोला - “इस बात की तसदीक करना चाहता था कि राशन कार्ड के मुताबिक इस घर के कर्ता आप ही हैं ।”
“देख लिया ?” - विमल बोला ।
“जी हां । तसवीर लगी है आपकी राशन कार्ड पर । नाम भी लिखा है कर्ता की जगह । ...मैं एक दिन के लिए राशन कार्ड अपने साथ ले जाना चाहता हूं । सिर्फ एक दिन के लिये । उसके बाद लौटा जाऊंगा ।”
“राशन कार्ड किसलिए ?”
“ये तसदीक करने के लिए कि ये जाली नहीं ।”
विमल ने असहाय भाव से कन्धे झटकाए ।
“तो मैं...”
उसने राशन कार्ड की ओर हाथ बढाया तो विमल ने राशन कार्ड पहले उठा लिया और उसे अपने कोट की जेब में डाल लिया ।
“कोई बात नहीं ।” - लूथरा बड़ी दयानतदारी से बोला - “मैंने आपके राशन कार्ड का नम्बर नोट कर लिया है । उस नम्बर से भी मेरा मतलब हल हो जाएगा ।”
“वक्त बरबाद करना तुम्हारा पसन्दीदा शगल मालूम होता है ।”
लूथरा हंसा । उसने चाय का एक घूंट पिया ।
विमल नीलम की ओर घूमा ।
“क्या कहता है ये आदमी ?” - वो बोला ।
“ये” - नीलम बोली - “बड़ी भयानक बात कह रहे हैं ।”
“क्या कह रहे हैं ?”
“ये कह रहे हैं कि शहर में एक कोई सीक्रेट सोसायटी सक्रिय है जिसका मिशन शहर से गुण्डे-बदमाशों का, बलात्कारियों का, नशेड़ियों का सफाया करना है । इन्होंने उस सोसायटी को ओवरकोट ब्रिगेड का नाम लिया है ।”
“और” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “हर वो शख्स जिसके पास ओवरकोट है - जैसे कि बदकिस्मती से मेरे पास है - उस ब्रिगेड में शामिल है ?”
“ये कहते हैं कि हाल ही में शहर में जो दर्जन से ज्यादा खून हुए हैं, उनमें से आधे अकेले आपने किये हैं ।”
“कैसे ? जादू के जोर से ? यहीं घर में बैठे-बैठे ?”
“ये कहते हैं आप रात को कभी घर नहीं होते । आप मुझे नींद की कोई गोली खिलाते हैं और मेरे सो जाने के बाद यहां से खिसक जाते हैं।”
“झूठ ! बकवास !”
“ये कहते हैं...”
“क्यों भाई ?” - विमल लूथरा की ओर घूमा - “सीधे-सीधे कुछ हाथ नहीं लगा तो अब ये पैंतरा बदल रहे हो ! मेरी बीवी को ही मेरे खिलाफ भड़का रहे हो ? कैसे लानती आदमी हो तुम जिसे अपनी कोई इज्जत-बेइज्जती भी महसूस नहीं होती । मुझे लगता है कि मैं तुम्हें धक्के देकर भी यहां से निकालूंगा तो तुम वापिस लौट आओगे ।”
“ठीक लगता है आपको ।” - लूथरा दृढ स्वर में बोला - “मैं आसानी से आपका पीछा नहीं छोड़ने वाला । लसूड़ा हूं मैं । जिसके साथ चिपक जाता हूं तो बस चिपक ही जाता हूं ।”
“तौबा !”
“आप पहले मेरी बात का जवाब दीजिये ।” - नीलम व्याकुल भाव से बोली - “क्या ये सच है कि आप हर रात को मुझे अनजाने में नींद की गोली खिलाकर...”
“अरे, तुम किस वाहियात आदमी की बातों में आ रही हो ?” - विमल चिढकर बोला ।
“ये कहते हैं कि...”
“ये कहते नहीं, बकते हैं । सुनो । इसने तुम्हें बताया कि परसों रात को एक बजे जब कि राजौरी में डी टी सी की बस में वारदात हुई बताई जाती है, इसके एक आदमी ने ये देखने के लिए हमारे फ्लैट की घन्टी बजाई थी कि मैं घर पर था या नहीं ?”
“आप घर पर थे ?”
“इसी से पूछो ।”
नीलम ने लूथरा की ओर देखा ।
“ये घर पर थे” - लूथरा बोला - “लेकिन...”
“क्या लेकिन ?” - विमल भड़का - “कल रात अपना कोई आदमी भेजने की जगह खुद इसने आकर यहां का दरवाजा पीटा था तो पूछो इससे कि मैं घर पर था या नहीं ?”
नीलम ने सन्देह और असमंजस मिश्रित निगाह से लूथरा की ओर देखा ।
“आप घर पर थे” - लूथरा बोला - “लेकिन मेरा दावा है कि आप तभी घर लौटे थे ।”
“कैसे ? उड़कर ? खिड़की या रोशनदान के रास्ते ?”
“बाल्कनी के रास्ते ।”
“तुम भूल रहे हो कि हमारा फ्लैट सातवीं मंजिल पर है ।”
“नहीं भूल रहा । आप अपनी बाल्कनी में आठवीं मंजिल पर ऐन आपकी बाल्कनी के ऊपर स्थित सुमन वर्मा की बाल्कनी से पहुंचे ।”
“तुम जरूर पागल हो गए हो जो...”
“मैं साबित कर सकता हूं ।”
“साबित कर सकते हो ?” - विमल सकपकाया - “कैसे साबित कर सकते हो ?”
“आपको याद होगा कि शनिवार दोपहर बाद जब मैं आपके आफिस में आपसे मिला था तो वहां से रुख्सत होते वक्त कुर्सी से मेरा पांव उलझ गया था, मैं गिरते-गिरते बचा था और मेरे हाथ में थमी मेरी क्रैश हैल्मेट मेरे हाथ से छिटक गयी थी जिसे कि आपने दोनों हाथों से हवा में लपका था ?”
“हां । तो ?”
“ये” - लूथरा ने फोटोग्राफी में इस्तेमाल होने वाला एक कागज उसके सामने रखा - “उस क्रैश हैल्मेट पर से उठाये गये आपकी उंगलियों के निशान हैं । और ये” - उसने एक और कागज पहले कागज की बगल में रखा - “ऊपर सुमन वर्मा के फ्लैट की बाल्कनी की रेलिंग पर से उठाये गए उंगलियों के निशान हैं । ये दोनों निशान हू-ब-हू एक-दूसरे से मिलते हैं । इसका क्या मतलब हुआ, कौल साहब ?”
विमल ने नोट किया कि नीलम अपलक उसे देख रही थी । उस काइयां इंस्पेक्टर ने यूं उसके घर में नीलम तक घुसपैठ करके उसके लिए बहुत दुरूह स्थिति पैदा कर दी थी । अब विमल के लिए लूथरा से कहीं ज्यादा नीलम को विश्वास दिलाना जरूरी था कि जैसा वो सोच रही थी, वैसा नहीं था ।
“क्या मतलब हुआ इसका ?” - विमल लापरवाही से बोला - “कुछ भी मतलब नहीं हुआ । सिवाय इसके कि मैं कभी सुमन वर्मा के फ्लैट की बाल्कनी में रेलिंग पकड़कर खड़ा हुआ था ।”
“कब ? ऊपर हुई वारदात से पहले या बाद में ?”
“जाहिर है कि पहले । उस वारदात के बाद से तो ऊपरला फ्लैट बन्द है ।”
“लेकिन वहां से उठाये गए उंगलियों के निशान तो साफ ताजे बने मालूम पड़ रहे थे ?”
“नानसेंस । मैं नहीं मानता कि फिंगर प्रिंट्स को देखकर ये बताया जा सकता है कि वो ताजे हैं या बासी ।”
“चलिए, ऐसे ही सही । तो पिछले शुक्रवार से पहले कभी ऐसा इत्तफाक हुआ था कि आप ऊपरली बाल्कनी में खड़े हुए थे ? रेलिंग पर अपने दोनों हाथ रखकर ?”
“हां । हमारा वहां आना-जाना है इसलिए...”
“सिर्फ आना-जाना ही क्यों ? मैं तो कहता हूं आपके गहरे ताल्लुकात हैं वर्मा परिवार से । तभी तो आपने सुमन वर्मा का हस्पताल का बिल भरने की पेशकश की ।”
नीलम चौंकी ।
“लगता है” - लूथरा नीलम से बोला - “आपको इन्होंने नहीं बताया कि सुमन वर्मा का कोई पौने पांच हजार रुपए का हस्पताल का बिल इन्होंने भरा है !”
नीलम ने विमल की ओर देखा ।
“वो हमारे घरेलू बात है ।” - विमल आंखों-ही-आंखों में नीलम को आश्वासन देता हुआ - “तुम्हें क्या ?”
“कुछ नहीं ।” - लूथरा बोला - “मेरी तरफ से आप अपने सारे पड़ोसियों का बिल भरिए । बल्कि अपना खुद का एक खैराती हस्पताल खोल लीजिए । मुझे क्या ? मुझे जिस बात से है, वो ये है कि ऊपरली बाल्कनी की रेलिंग पर आपकी उंगलियों के जो निशान पाये गए हैं, उनमें उंगलियों का रुख फ्लैट की ओर था और हथेली का रुख बाहर की ओर था ।”
“तो ?” - विमल उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“तो ये, कौल साहब, कि ऐसे निशान रेलिंग पर बनने तभी सम्भव है जब कि रेलिंग को बाहर की ओर से थामा गया हो । बाल्कनी में खड़े होकर रेलिंग को थामने से उस पर जो निशान बनेंगे उनमें उंगलियों के निशानों का रुख बाल्कनी से बाहर की ओर होगा और हथेली के निशान का रुख भीतर की ओर होगा ।”
“क्या जरूरी है ?”
“जरूरी है । बाल्कनी में खड़े होकर रेलिंग को यूं नहीं पकड़ा जा सकता कि उन पर उंगलियों के निशान यूं बने कि उंगलियों का रुख उंगलियों के मालिक की तरफ हो ।”
“नानसेंस !”
“वो सामने बाल्कनी है । आप वहां जाकर खड़े होइये और मुझे रेलिंग को यूं थाम के दिखाइए कि आपकी उंगलियों का रुख आपकी तरफ हो और आपकी हथेलियों का रुख बाहर की तरफ हो । आप ऐसा कर पाए तो मैं अपनी पुलिस की वर्दी को यहीं आपके कदमों में न्यौछावर करके नंगा घर जाऊंगा ।”
“शटअप ! एण्ड बिहेव ।”
“सारी ! सारी मैडम । आई बैग यूअर पार्डन । जोश में जुबान फिसल गयी । शर्मिन्दा हूं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“इससे साबित क्या हुआ ?” - आखिरकार विमल बोला ।
“इससे वो रूट साबित हुआ जो आप यहां से निकलने के लिए अख्तियार करते रहे । यहां से आप अपनी बाल्कनी में । रात के अन्धेरे में सीवर के पाइप के सहारे ऊपर दूसरी बाल्कनी में । वहां से लिफ्ट के जरिये सीधे नीचे । नीचे से बाहर । और फिर यूं ही वापिस ।”
“सुमन फ्लैट को ताला...”
“उसकी चाबी आपके पास होना कोई बड़ी बात नहीं । न भी हो तो ताला खोला जा सकता है । आखिर मैंने भी तो” - लूथरा के चेहरे पर बड़ी काइयां मुस्कराहट उत्पन्न हुई - “खोला ही था ।”
विमल चौंका ।
“कब ?” - वो बोला ।
“कभी भी ।”
“तुम पुलिस आफिसर हो या सेंधमार ?”
“कौल साहब, आप मुझे अपना ओवरकोट दिखा सकते हैं ?”
“वो किसलिए ?”
“जब किसी को प्वायन्ट ब्लैंक शूट किया जाए तो उसके जिस्म से फव्वारे की तरह निकल पड़े खून के छींटे बहुत दूर-दूर तक उड़ते हैं । खून की ऐसी कोई फुहार आपके ओवरकोट पर भी कहीं पड़ी हो सकती है ।”
“वाट नानसेंस ! मैंने किसी को शूट नहीं किया ।”
“तो फिर खून की फुहार आपके ओवरकोट पर नहीं पड़ी होगी । जरा देखें आपका ओवरकोट ।”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“वजह ?” - लूथरा बोला ।
“मैं जरूरी नहीं समझता तुम्हें अपना ओवरकोट दिखाना ।”
“आपको एतराज क्या है ?”
“सवाल एतराज का नहीं, जरूरत का है ।”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । मैं...”
“मैं दिखाती हूं ।” - एकाएक नीलम बोली ।
“नीलम !”
“बल्कि मैं खुद देखना चाहती हूं ।”
“नीलम !”
भावनाओं के आवेग में बही जा रही नीलम को विमल की चेतावनी सुनने-समझने की सुध नहीं थी । वो उठी और तत्काल बैडरूम में चली गयी ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह ! - विमल मन-ही-मन बोला - तू मेरा सखा सबनी थांही ।
कुछ क्षण बाद वो वापिस लौटी ।
“ओवरकोट” - इलजाम लगाती निगाहों से विमल को देखती हुई वो बोली - “नहीं है भीतर वार्डरोब में ।”
“दफ्तर में रह गया होगा ।” - विमल लापरवाही से बोला ।
“दफ्तर कब पहन के गये आप उसे ?”
विमल ने उत्तर न दिया, उसने फिर चेतावनी-भरी निगाहों से नीलम की ओर देखा ।
नीलम के गले की घन्टी जोर से उछली, उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला लेकिन फिर खामोश हो गयी ।
“आप कुछ समझीं, बहन जी ?” - लूथरा बड़े मीठे स्वर में बोला ।
नीलम ने प्रश्नसूचक नेत्रों से लूथरा की ओर देखा ।
“इन्होंने वो ओवरकोट नष्ट कर दिया हुआ है । जरूर उस पर पड़े खून के छींटे इन्हें दिखाई दे गये होंगे । वो ओवरकोट अब नहीं मिलने का । अब तो उसका राख भी बरामद होना मुमकिन न होगा ।”
नीलम रुआंसी हो उठी ।
“अब बताइये, बाकी है कोई कसर ये साबित होने में कि आपके पति भी ओवरकोट ब्रिगेड के मेम्बर हैं, अभी कल रात ही इन्होंने पहाड़गंज के इलाके में एक आदमी का कत्ल किया है और एक को जख्मी किया है ।”
“लेकिन” - नीलम बोली - “वो तो कोई सिख...”
“वो सिख ये ही हैं ।” - लूथरा ने मोहन वाफना से बनवाई सिख वाली तसवीर नीलम के सामने रखी - “ये तसवीर देखिये । ये उस सिख की तसवीर है जिसने कल रात पहाड़गंज में वो वारदात की । अब ये तसवीर देखिये” - लूथरा ने योगकुमार वाली तसवीर पहली तसवीर की बगल में रखी - “ये भी ये ही तसवीर है, सिर्फ इस पर से आर्टिस्ट ने दाढ़ी, मूंछ, चश्मा, पगड़ी वगैरह हटा दी है । आप खुद बताइये कि ये तसवीर कौल साहब की है या नहीं ।”
नीलम कभी विमल को और कभी तसवीर को देखने लगी । उसके चेहरे पर सन्देह के भाव उपजे ।
“मैं मानता हूं कि ये तसवीर ऐन कौल साहब से नहीं मिलती ।” - लूथरा बोला - “क्योंकि ये असली तसवीर नहीं, आर्टिस्ट का बनाया कैरीकेचर है । लेकिन आप कबूल करेंगी कि ये फिर भी काफी हद तक कौल साहब से मिलती है ।”
नीलम ने उत्तर न दिया, उसने डबडबाई आंखों से विमल की ओर देखा ।
“कौल साहब” - लूथरा सख्ती से बोला - “मुझे खुशी है कि अब मैं आपकी ख्वाहिश पूरी करने की स्थिति में हूं ।”
“मेरी ख्वाहिश ।” - विमल सकपकाया ।
“तड़फड़ा रहे थे न आप मेरे हाथों गिरफ्तार होने के लिये ?”
“तुम मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते ।”
“क्यों नहीं कर सकता ?”
“मैंने कुछ नहीं किया ।”
“बावजूद इतने सबूतों के आप कह रहे हैं कि आपने कुछ नहीं किया ? अब भी आप इस बात से इनकार कर सकते हैं - कर रहे हैं - कि कल रात दस और सवा ग्यारह के बीच आप यहां अपने फ्लैट में होने की जगह पहाड़गंज में थे जहां कि आपने कत्ल...”
“कल रात ये मेरे फ्लैट में मेरे साथ थे ।”
तीनों ने चौंककर दरवाजे की तरफ देखा ।
फ्लैट के प्रवेश द्वार पर सुमन वर्मा खड़ी थी । वो अपनी बाईं बांह पर एक ओवरकोट लटकाये थी । तीनों को अपनी तरफ आकर्षित पाकर वो तनिक मुस्कराई और फिर आगे बढकर विमल के करीब पहुंची ।
“कौल साहब, ये आपका ओवरकोट ।” - वो बोली - “कल रात ऊपर मेरे बैडरूम में रह गया था ।”
“तु... तुम्हारे” - नीलम भौचक्की-सी बोली - “बैडरूम में ?”
“हां ।” - सुमन स्थिर स्वर में बोली - “मैं कौल साहब का कोट लौटाने आयी थी कि मैंने यहां होती कुछ बातें दरवाजे पर खड़े-खड़े सुनी । ये कौल साहब की महानता है कि वो इस पुलिस वाले को कत्ल का इलजाम अपने सिर थोपने दे रहे हैं ताकि मेरी इज्जत-आबरू पर कोई आंच न आने पाये । असल में इनका किसी कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं । कल रात दस और सवा ग्यारह के बीच ये ऊपर मेरे बैडरूम में मेरे साथ थे ।”
“सुमन !” - विमल झिड़की-भरे स्वर में बोला ।
“ये मेरे साथ थे जबकि यहां नीचे इनके फ्लैट की कालबैल बजने लगी थी । कालबैल की आवाज सुनकर ही ये आनन-फानन ऊपर से रुख्सत हुए थे और नीचे पहुंचे थे । तब जल्दी से जल्दी वापिस यहां पहुंचने की हड़बड़ी में ये अपना ओवरकोट ऊपर भूल आये थे ।”
उसने ओवरकोट विमल के पहल में सोफे पर डाल दिया ।
“मिस्टर पुलिस आफिसर” - सुमन फिर बोली - “इस खशफहमी से किनारा कर लीजिए कि कौल साहब आपसे खौफजदा होकर नीचे लपके चले आए थे । इन्हें तो तब खबर भी नहीं थी कि दरवाजे पर कौन था । इन्हें तो कोई और ही अन्देशा था ।”
“और क्या अन्देशा था ?” - लूथरा के मुंह से निकला ।
“इन्हें अन्देशा था कि लगातार बजती कालबैल की आवाज से और लगातार दरवाजे पर पड़ती दस्तक की आवाज से मिसेज कौल जाग सकती थीं, इन्हें कौल साहब की इनके पहलू से गैरहाजिरी की खबर लग सकती थी और यूं हमारे अफेयर की पोल खुल सकती थी ।” - वो नीलम की तरफ आकर्षित हुई - “आई एम सारी मिसेज कौल लेकिन मौजूदा हालात में मेरे लिए ये बात अपनी जुबान पर लाना जरूरी हो गया था ।”
नीलम ने जोर की हिचकी ली ।
लथूरा ने उठाकर ओवरकोट उठा लिया और बड़ी बारीकी से उसका मुआयना किया । फिर उसने एक गहरी सांस ली और कोट को वापिस सोफे पर डाल दिया ।
“तो” - सुमन के करीब पहुंचकर वो बोला - “आपका - एक कुंआरी लड़की का - कौल साहब से - एक शादीशुदा शख्स से अफेयर है ?”
“हां ।” - सुमन पूरी निडरता से बोली ।
“आप समझती हैं न कि इस अफेयर की बात आम हो जाने से कौल साहब का तो कुछ नहीं जायेगा - ये मर्द जो ठहरे, मर्द का ऐसे मामलों में कभी नहीं जाता - लेकिन आपकी सारे जग में थू-थू हो जाएगी ।”
“आप मुंह नहीं फाड़ेंगे तो कैसे आम होगी यह बात ?”
“मैं क्यों नहीं मुंह फाड़ूंगा ?”
“शरीफ इनसान होंगे तो नहीं फाड़ेंगे । आपको इस बात का अहसास होना चाहिए कि ये बात मुझे मजबूरन अपनी जुबान पर लानी पड़ी है ।”
“क्यों ?”
“आपको मालूम है क्यों ? क्योंकि आप कौल साहब को कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार करने पर आमादा हैं ।”
“हूं ।” - लूथरा एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “कब से चल रहा है ये अफेयर ?”
“जब से ये यहां आए हैं, उससे थोड़े दिन बाद से ही ।”
“लेकिन वाया बाल्कनी ये कल रात पहली मर्तबा ही आपके बैडरूम में पहुंचे ?”
“नहीं । पहले भी ये ही अक्सर मेरे पास आया करते थे ।”
“पहले तो आप फ्लैट में अकेली नहीं होती थीं । पहले तो आपकी मां और छोटी बहन भी होती होंगी फ्लैट में ?”
“उनका अलग बैडरूम है । उन्हें खबर नहीं लगती थी । कभी खबर लगने का अन्देशा होता था तो कौल साहब वैसे ही चुपचाप बाल्कनी उतर जाते थे जैसे कि कल रात उतरे थे ।”
“एक शादीशुदा मर्द से ऐसे ताल्लुकात का हासिल ?”
“शायद कुछ भी नहीं लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर थी ।”
“आई सी । यानी कि आप कौल साहब पर फिदा हुई थी ?”
“ऐसा ही समझ लीजिए ।”
“फिर कौल साहब को आपकी मुहब्बत की कद्र हुई और ये भी आप पर मर मिटे । ठीक ?”
“हां ।”
“और बाल्कनियां फांदने लगे ?”
“मजबूरन । जमाने की निगाहों से छुपे रहने के लिए ये जरूरी था ।”
“डायलाग बढिया बोल रही हैं आप । जैसे खास ऐसे ही किसी मौके के लिए घोट के रखे हुए हों ।”
“ये डायलाग नहीं, फर्ज की आवाज है ।”
“आपने कभी सोचा कि यूं सातवीं और आठवीं मंजिल के बीच सोवर के सहारे कूदते-फांदते कौल साहब किसी दिन नीचे कम्पाउन्ड में जाके गिर सकते थे और अपनी जान गवां सकते थे ?”
“इन्हें सीवर पाइप के सहारे कूदने-फांदने को जरूरत नहीं थी ।”
“तो जरूर ये उड़ना जानते होंगे ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“तो फिर आप ही बताइये कि बजरिया बाल्कनी ये कैसे आप तक पहुंचते थे और कैसे वापिस लौटते थे ?”
“हमने एक सीढी बनाई हुई थी ।”
“सीढी ?”
“मैं लाके दिखाती हूं ।”
वो तत्काल वहां से चली गयी ।
तब विमल की तवज्जो नीलम की तरफ गयी । उसने देखा उसके गालों पर आंसुओं की गंगा-जमना बह निकली थी । उसके करीब पहुंचने की मंशा से विमल ने उठने का उपक्रम ही किया तो नीलम पहले ही उठ खड़ी हुई और वहां से निकलकर अपने बैडरूम में घुस गयी ।
विमल ने एक गहरी सांस ली और पाइप में कश लगाने लगा ।
कुछ क्षण बाद सुमन वापिस लौटी और उसने लूथरा को एक बंडल-सा थमा दिया ।
लूथरा ने उसे खोला तो पाया कि वो दो समानन्तर रस्सियों के बीच फुट-फुट के फासले पर लगे बांस के डण्डों से बनी सीढ़ी थी जिसके एक सिरे पर लोहे के दो हुक लगे थे ।
“तो” - लूथरा तनिक व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “इन हुकों को रेलिंग में अटकाकर आप बवक्ते जरुरत ये सीढी अपनी बाल्कनी से नीचे लटका देती थीं और कौल साहब इसके सहारे ऊपर चढ जाते थे ?”
“हां ।” - सुमन बोली - “मामूली काम है ! बच्चा भी कर सकता है ।”
“एक बात बताइये ।” - लूथरा सीढी पहले की तरह बंडल की सूरत में इकट्ठी करके उसे थमाता हुआ बोला - “आप परजुरी (Perjury) का मतलब जानती हैं ?”
“नहीं ।”
“अब जान लीजिए । परजुरी कहते हैं झूठी गवाही देने को और हमारी दण्ड संहिता में ये एक गम्भीर अपराध है ।”
“जरूर होगा । लेकिन आप ये मुझे क्यों बता रहे हैं ?”
“आपको नहीं मालूम ?”
“नहीं ।”
“आप कौल साहब को एलीबाई देने के लिए झूठ बोल रहीं है ।”
“पहले परजुरी । अब एलीबाई ! इतनी कठिन कानूनी जुबान मेरी समझ में नहीं आने वाली, सब-इंस्पेक्टर साहब ।”
“समझ जायेंगी । सब समझ जायेगी । इस वक्त बाजी आपके हाथ में है लेकिन आखिरकार न समझीं तो लानत भेजियेगा मेरे पर ।” - फिर वो विमल की ओर घूमा - “मुझे आपकी खुशकिस्मती पर रश्क आता है, कौल साहब । जब भी मैं समझने लगता हूं कि मैंने आपको जिच कर लिया है, आपके हक में ऐसा कुछ हो जाता है कि मुझे पिटा-सा मुंह लेकर जाना पड़ता है ।”
“मुझे हमदर्दी है तुम्हारे से ।”
“शुक्रिया । अभी मैं रुख्सत होता हूं, कौल साहब, लेकिन मैं फिर आऊंगा ।”
“बेइजज्ती कराओगे ।”
“लेकिन मैं फिर भी फिर आऊंगा ।”
लूथरा ने सेंटर टेबल पर पड़ी दोनों तसवीरें और फिंगर प्रिंट के दोनों चार्ट उठाये और वहां से रुख्सत हो गया ।
विमल सुमन की तरफ आकर्षित हुआ ।
“सुमन” - विमल तीखे स्वर में बोला - “ये तूने क्या किया ?”
“मैंने जो मुनासिब समझा किया ।”
“लेकिन...”
“बाकी बातें बाद में । अभी मिसेज कौल के पास पहुंचिये और जा के समझाइये उन्हें । वैसे” - उसके होंठो पर एक फीकी हंसी आयी - “मेरी मौत की कामना तो कर भी चुकी होंगी ।”
“लेकिन तू...”
सुमन ने आगे उसकी बात न सुनी । वो बगूले की तरह वहां से बाहर से निकल गयी ।
विमल ने फ्लैट का मुख्यद्वार भीतर से बन्द किया और फिर भारी कदमों से बैडरूम की तरफ बढा ।
***
सहजपाल थाने में अपनी सीट पर बैठा सिगरेट पी रहा था ।
वो खुश था ।
अभी थोड़ी देर पहले उसकी बीवी ने उसे फोन पर बताया था कि कोई आदमी उसके लिए एक लिफाफा छोड़ गया था जिसे उसने खोला था तो भीतर से सौ-सौ के बीस नोट निकले थे ।
यानी कि गुरबख्श लाल ने उसकी ‘वो’ का इन्तजाम कर भी दिया था ।
दादा लोगों की यही बात उसे बहुत-बहुत पसन्द थी । बात जुबान से निकली नहीं कि उस पर अमल भी हो गया । गुरबख्श लाल ने कहा कि शाम को उसकी बीवी उसे ‘वो’ की खुशखबरी देगी और खुशखबरी मिल गयी । इसे कहते हैं कामगार की उजरत उसका पसीना सूखने से पहले उसे देना ।
मैंने साला कौन-सा पसीना बहाया था - वो मन-ही-मन हंसा - बस, जरा कान ही तो खड़े रखे थे ।
फिर उसे बीवी का खयाल आया आया । जब उसे मालूम कि लिफाफा उसके लिए था तो उसे क्यों खोला साली ने । घर जा के दो झांपड़ लगा के समझाना पड़ेगा साली को कि उसके नाम का लिफाफा उसने नहीं खोलना था ।
तभी सब-इंस्पेक्टर लूथरा वहां पहुंचा ।
सहजपाल पर निगाहें पड़ते ही उसकी निगाह स्वयंमेव ही वाल क्लाक की ओर उठ गयी ।
सात बज चुके थे ।
“क्या बात है ?” - वो बोला - “अभी तक बैठा है ?”
“एक टेलीफोन आने वाला है ।” - सहजपाल सहज भाव से बोला - “उसी के इन्तजार में बैठा हूं ।”
“तेरे घर पर भी तो फोन है ?”
“वो घर पर सुनने वाली किस्म का फोन नहीं । वो वैसा फोन है जिसकी खबर बीवियों को लग जाए तो वो कटखनी कुतिया की तरह काटने को दौड़ती हैं ।”
“सहजपाल, तू नहीं सुधरेगा ।”
सहजपाल बड़े कुत्सित भाव से हंसा ।
“रावत कहां हैं ?” - लूथरा ने पूछा ।
“अभी तो यहीं था । शायद एस. एच. ओ. साहब ने कहीं भेजा है ।”
“हूं ।”
“कोई काम है ?”
“नहीं । ऐसे ही पूछा ।”
“काम है तो मेरे को बोल ।”
“कोई काम नहीं । बोला न ऐसे ही पूछा ।”
लूथरा अपनी सीट पर पहुंचा । उसने चाबी लगाकर दराज को खोला और उसमें से कौल की फाइल निकाली । कौल का वो तसवीरें और फिंगर प्रिंट्स के दो चार्ट उसने फाइल में रखे और फाइल को वापिस दराज में रखकर उसे ताला लगा दिया । फिर वो उठा और बिना सहजपाल पर निगाह डाले वहां से विदा हो गया ।
परे अपनी सीट पर बैठा सहजपाल कनखियों से उसे जाता देखता रहा । वो उस फाइल की बाबत सोच रहा था जो लूथरा ने तभी दराज में बन्द की थी । क्या था उस फाइल में जिसे वो कभी निकालता था तो कभी रखता था ?
छः बजे के बाद उस बड़े कमरे में बैठने वाले तकरीबन पुलसियों की छुट्टी हो जाती थी । थाने का नाइट ड्यूटी का स्टाफ या बाहर रिपोर्टिंग रूम में होता था और या गश्त पर निकला होता था । उस घड़ी वहां किसी का आगमन अपेक्षित नहीं था । जिस एक शख्स का आगमन अपेक्षित था वो अभी वहां आकर चला गया था । जो दूसरा शख्स - रावत - उसकी तरह वहां मौजूद हो सकता था, वो थाने से बाहर कहीं गया था ।
तब सहजपाल के मन में ये खुराफाती खयाल आया कि उसे लूथरा की उस ‘खास’ फाइल पर एक निगाह डालनी चाहिए थी । क्या पता उस फाइल से ही उसे पता लग जाए कि सुन्दरलाल का कातिल कौन था या लूथरा को किस पर कातिल होने का शक था । गुरबख्श लाल ने जब उस इनवैस्टिगेटिंग आफिसर का नाम उसे बताने के दो हजार रुपये दे दिये थे तो अपने भांजे के कातिल का नाम जानकर तो वो उसे पांच हजार रुपये दे सकता था, दस हजार रुपये दे सकता था !
दस हजार मिल जायें तो एक बार वो डिफेंस कालोनी वाली निशा नाम की उस कालगर्ल का मजा ले आए जो सिर्फ सतरह साल की थी और जो अपने बाप और भाई की देखरेख में सिर्फ फाइव स्टार होटलों में बुक की जाती थी ।
या वो पल्ले की रकम खर्चे ही क्यों ? गुरबख्श लाल के पास नौजवान लड़कियों की कोई कमी थी ! उसके अशोक विहार वाले रैस्टोरेंट ‘शहनशाह’ में कैब्रे होता था, साउथ एक्सटेंशन वाले उसके ‘डलहौजी बार’ में नौजवान लड़कियां वेट्रेस की ड्यूटी भुगताती थीं और और कनाट प्लेस वाली उसकी लोटस क्लब में तो लड़कियों के मामले में जैसे राजा इन्द्र का दरबार लगता था । कैब्रे और वैट्रेसों के अलावा वहां तो बार मेड की ड्यूटी भी खूबसूरत नौजवान लड़कियां भुगताती थीं । उसके काम से खुश होकर गुरबख्श लाल इनाम में नावें के साथ-साथ - खुद-ब-खुद नहीं तो उसकी दरख्वास्त पर - उसे थोड़ी देर के लिए एकाध लड़की भी तो दे सकता था !
उस खयाल से ही सहजपाल को जोश आ गया । उसने सिगरेट का आखिरी कश लगाकर उसे ऐश ट्रे में झोंका और उठ खड़ा हुआ । लापरवाही से टहलता हुआ वो वहां से बाहर निकला और दायें-बायें निगाह डालता, रिपोर्टिंग रूम से होता थाने के फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर पहुंचा । वहां फुटपाथ पर बैठे पनवाड़ी से उसने विल्स का एक पैकेट लिया, उसकी सात पुश्तों पर अहसान करते हुए उसे उसकी कीमत चुकायी और प्रत्यक्षतः लापरवाही दिखाता सजग भाव से दायें-बायें निगाह फिराता वापिस लौटा ।
इस बार वो सीधा लूथरा की सीट पर पहुंचा ।
वो जानता था कि आम मेजों की आम दराजों को जो ताले लगते थे वो मामूली ताले होते थे जो दूसरी चाबियों से भी आम खुल जाते थे ।
उसने जेब से अपनी चाबियों का गुच्छा निकाला ।
संयोगवश अपनी जो पहली चाबी उसने ताले के छेद में फिराई, उसी से ताला खुल गया ।
उसने एक सशंक निगाह अपने सामने डाली और फिर कांपते हाथों से दराज खींचकर उसने उसमें से लूथरा की वो फाइल निकाली जिसकी अब तक उसे खूब पहचान हो चुकी थी । उसने जल्दी-जल्दी फाइल के पन्ने पलटे । फाइल में अखबार की कटिंग्स, तसवीरें, फिंगर प्रिंट्स व लूथरा के हाथ के लिखे नोट्स जैसी कई चीजें थीं ।
उसने जल्दी-जल्दी लूथरा के नोट्स पढने शुरू किये ।
उसको समझते देर न लगी कि वो सारी फाइल किसी अरविन्द कौल नाम के आदमी से सम्बन्धित थी और प्रत्यक्षतः उसी पर लूथरा को सुन्दरलाल का हत्यारा होने का शक था ।
फाइल में अरविन्द कौल के आफिस का और घर का पता और दोनों जगहों का फोन नम्बर भी दर्ज था ।
सहजपाल ने वहीं से एका कागज उठाकर जल्दी-जल्दी वो सब उस पर दर्ज किया और फिर फाइल को बन्द करके वापिस दराज में रख दिया । उसने दराज बन्द करके जब ताले के छेद में लगी चाबी घुमाई तो कहीं अटक गयी ।
चाबी को आगे-पीछे करके वो उसे ताले में घुमाने की कोशिश करने लगा ।
तभी परे कमरे में प्रवेश द्वार पर रावत प्रकट हुआ ।
सहजपाल ने घबराकर खींच ली और गुच्छा वापिस अपने कोट की जेब में डाल लिया । फिर उसने मेज पर रखे कलम-दान में से एक कलम निकाल ली ।
रावत ने सन्दिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा और फिर वैसे ही सन्दिग्ध स्वर में बोला - “लूथरा साहब की सीट पर क्या कर रहे हो ?”
“क्या कर रहा हूं ।” - सशंक सहजपाल प्रत्यक्षतः भुनभुनाया - “लिखने के लिए जरा कलम ले रहा हूं और क्या कर रहा हूं ?”
रावत फिर कुछ न बोला लेकिन उसके चेहरे से सन्देह के भाव न गये ।
सहजपाल ने तब भी हाथ में थमे कागज पर कुछ लिखने का बहाना किया और कलम को वापिस कलमदान में रख दिया । फिर कागज को तह करके वो मेज के पीछे से हटा ।
वो रावत के करीब पहुंचा ।
“किसी ने फोन पर फोन नम्बर बताया था ।” - वो खोखली हंसी हंसता हुआ बोला - “भूला जा रहा था । सोचा लिख लूं ।”
“छोटा-मोटा बाल पैन अपना भी तो रखा करो, सहजपाल जी ।” - रावत बोला - “सब रखते हैं ।”
“मैं भी रखता हूं, यार । आज ही नहीं था । मुझे चीजें इधर-उधर रख के भूल जाने की बहुत बुरी आदत है ।”
रावत खामोश रहा ।
सहजपाल ने एक बार फिर दांत निकाले और फिर रावत के पहलू से गुजरकर वहां से बाहर निकल गया ।
पीछे रावत की निगाह अनायास ही फिर लूथरा की टेबल की ओर उठ गयी ।
***
विमल बैडरूम में पहुंचा ।
बैडरूम में अन्धेरा था । लेकिन अन्धेरे में भी उसने महसूस किया कि नीलम पलंग पर पड़ी सुबक रही थी । वो हिचकी लेती थी तो उसका जिस्म जोर से हिलाता था ।
सबसे पहले विमल ने वहां की ट्यूब लाइट जलाई ।
कमरे में रोशनी होते ही नीलम ने उसकी तरफ करवट बदल ली ।
विमल पलंग के करीब पहुंचा, वो पलंग पर बैठ गया और उसने नीलम को कन्धे से थामकर उसका रुख अपनी और करने की कोशिश की ।
“हाथ मत लगाओ मुझे ।” - नीलम तड़पकर बोली ।
“नीलम ! बेवकूफ न बन ।”
“तुम्हारी जगह यहां नहीं, कहीं और है । पहुंचो वहां । और बाल्कनी के रास्ते जाने की तकलीफ न करना । सीधे-सीधे रास्ते जाओ अपनी... अपनी प्रेमिका के पास । बल्कि जाने की क्या जरूरत है ? उसे ही यहां बुला लो ।”
“यहां बुला लूं ?”
“हां । मेरी तरफ से खुली छूट है ।”
“फिर” - विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला - “तू कहां जाएगी ?”
“मेरा क्या है !” - वो भर्राए स्वर में बोली - “मैं पड़ी रहूंगी कहीं रसोई, गुसलखाने में ।”
“खामखाह !”
“मेरा क्या है ? मैं ठहरी रास्ते का पत्थर । तुमने उठा लिया । मैं निहाल हो गयी । तुमने वापिस फेंक दिया । शिकायत कैसी ?”
“अरे, क्या बहकी-बहकी बातें कर रही है ? इधर मुंह कर ।”
“मैंने बोला न हाथ मत लगाओ मुझे ।”
“सुना मैंने । तू भी कुछ सुन । इधर मुंह कर । और जो कहना है मेरी आंखों में आंखें डालकर कह ।”
नीलम ने उसके तरफ मुंह न फेरा ।
“मैंने सुना था” - वो बोली - “कि औरत ऐसे दिनों में पहुंचती हैं तो उनके मर्द उनसे विरक्त होने लगते हैं । लेकिन, सरदार जी, तुम ऐसे मर्द निकलोगे मैंने सपने में नहीं सोचा था । वाह ! क्या खूब उल्लू बनाया मुझे पुच-पुच करके । मीठा-मीठा बोल के । साइयां मुझे और बधाइयां कहीं और ।”
उसने जोर की हिचकी ली ।
“नीलम !” - विमल सख्ती से बोला - “बाज आ जा ।”
“क्या बाज आ जाऊं ?”
“ये बकवास बन्द कर ।”
“ये बकवास है ?”
“हां । कोरी । निरी ।”
“मैं बकवास कर रही हूं और वो खसमांखानी जो डके की चोट तुम्हें अपना यार बता गयी, वो शहद घोल रही थी तुम्हारे कानों में ?”
“वो झूठ बोल रही थी ।”
“कोई कुआंरी लड़की अपने बारे में ऐसा झूठ बोल सकती है ?”
“नहीं बोल सकती । इसी से सबक ले और महसूस कर रही कि अपने ऊपर इतना बड़ा लांछन ओढकर उसने कितनी बड़ी कुर्बानी की है ।”
“कुर्बानी ! स्वाते मिट्टी !”
“अरी, गधी, उसका मेरे से कुछ लेना-देना नहीं । उसने मेरी खातिर झूठ बोला ।”
“क्यों झूठ बोला ?”
“उस पुलिस वाले से मेरा पीछा छुड़ाने के लिए जो कि हाथ धोकर मेरे पिछे पड़ा हुआ था । जो मुझे गिरफ्तार करने पर अमादा था ।”
“क्या जरूरत थी उसे तुम्हारी खातिर ऐसा करने की ? इसीलिए न क्योंकि तुम उसके सगे वाले बने बैठे हो ?”
“नहीं । इसलिए नहीं ।”
“तो फिर किसलिए ?”
“नीलम !” - विमल बड़े विनयशील स्वर में बोला - “तू मेरी तरफ देख । तू मेरी बात सुनने-समझने की कोशिश करे तो मैं तुझे कुछ बताऊं ।”
तत्काल नीलम पर कोई प्रतिक्रिया न दिखाई दी ।
कुछ क्षण खामोश रहो ।
फिर उसने करवट बदली । वो तकियों के सहारे ऊंची होके बैठी । उसने अपने आंसू पोंछे और बड़े यत्न से विमल को देखा । विमल के चेहरे पर उसे ऐसे दयनीय भाव दिखाई दिये कि वो पिघल गयी ।
“क्या कहना चाहते हो ?” - वो बड़ी संजीदगी से बोली ।
“एक ही बार में कहूं ?” - विमल आर्द्र स्वर में बोला ।
“कहो ।”
“उस लड़की से मेरा कोई वास्ता नहीं । उस लड़की से क्या, सृष्टि की किसी लड़की से मेरा वैसा कोई वास्ता नहीं जैसा तू समझ रही है । न है, न कभी होगा । इस बाबत अगर मैं तेरे सामने झूठ बोलूं तां बाबे दी सौ मैनूं, जिन्दगी में दोबारा कभी मुझे हरमिन्दर साहब की देहरी पर मत्था टेकना नसीब न हो । मैं जहन्नुम की आग में झुलसूं । मेरी रूह मर के भी कहीं चैन न पाये ।”
आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदे विमल के गालों पर ढुलक पड़ी ।
“हाय, मैं मर जावां ।” - नीलम ने आर्तनाद किया । उसने विमल को खींचकर अपने कलेजे से लगा लिया और खुद रोती हुई बोली - “रोते हो ! सरदार हो के रोते हो ?”
“तू मेरा विश्वास कर ।”
“मैंने किया । मैंने किया, सरदार जी । खाक पड़े मेरी खोटी सोच पर । गोली लगे मेरी कुत्ती अक्ल को ।”
“बस कर ।”
“मेरी अक्ल पर पर्दा पड़ गया था । इस खयाल ने मुझे पागल कर दिया था कि मेरे सरदार जी किसी और के हो सकते थे । लेकिन...”
उसने अपने अंक से विमल का चेहरा हटाकर उसकी ओर देखा ।
“क्या लेकिन ?”
“अगर वो लड़की अपने और तुम्हारे बारे में झूठ बोल रही है तो फिर जो कुछ जो कुछ वो पुलिस वाला कह रहा था, वो सच है ? तो फिर उस इंस्पेक्टर की वो ओवरकोट ब्रिगेड वाली बात सच है ? ये सच है कि तुम हर रात मुझे नींद की गोली खिलाकर यहां से खिसक जाते हो और गुण्डे, बदमाशों बलात्कारियों को कत्ल करते फिरते हो ? ठीक ?”
“नीलम ! कुछ न पूछ ।”
“मैं जरूर पूछूंगी । अगर हम दोनों एक हैं तो तुम्हें बताना भी पड़ेगा । बोलो हकीकत क्या है ?”
“अपनी मौजूदा हालत में हकीकत तुझे रास न आयेगी ।”
“सरदार जी, कसम है तुम्हें वाहेगुरु की अगर तुमने मेरे से झूठ बोला । अगर तुमने मेरे से कुछ भी छुपाया ।”
“कसम न खिला ।”
“मैंने खिला दी । आगे तुम्हारी मर्जी ।”
“ठीक है । नहीं मानती तो सुन ।”
मजबूर विमल ने धीरे-धीरे सब कह सुनाया ।
विमल खामोश हुआ तो नीलम हक्की-बक्की सी उसका मुंह देखने लगी ।
“हे भगवान !” - फिर उसके मुंह से निकला - “एक गैर की खातिर... ”
“एक मजलूम की खातिर ।” - विमल बोला ।
“... तुमने इतने खून कर डाले !”
“पापियों के । बलात्कारियों के ।”
“तुम्हें क्या पड़ी थी...”
“मुझे पड़ी थी । मैं जुल्म देखकर उससे आंखे बन्द किये नहीं रह सकता ।”
“लेकिन वो गैर लड़की ... ”
“मैं जुल्म को सिर्फ इसलिए अनदेखा नहीं कर सकता क्योंकि जिस पर जुल्म हुआ वो कोई मेरे सगे वाला नहीं था ।”
“और लोग भी तो करते हैं ?”
“और लोग और तरह के बने हुए हैं, मैं और तरह का बना हुआ हूं । और लोगों के जज्बात और हैं, मेरे जज्बात और हैं । और लोगों की सोच और है, मेरी सोच और है । मेरी सोच ये है कि जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है । कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐजाजे सुखन । जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है । और तू खुद इस बात की गवाह है कि ये सबक मुझे खुद बेशुमार जुल्म सहकर हासिल हुआ है ।”
“तुम्हें अपनी जान की परवाह नहीं ?”
“नहीं । होती तो अब तक सौ बार मर चुका होता । मुझे अपनी जान की परवाह नहीं, इसीलिए जिन्दा हूं । मैं वाहेगुरु का खालसा हूं जिसके गुरुओं की उसको यही सीख है कि सिर दीने सिर रहत है, सिर राखे सिर जाये ।”
नीलम खामोश रही ।
“नीलम, जरा सोच । यही हादसा अगर तेरे साथ गुजरा होता तो फिर मैं क्या करता ? क्या वही कुछ न करता जो मैंने अब किया ? लोग जालिम का साथ देते हैं, मैंने मजलूम का साथ दिया । मजलूम की खातिर मैंने जालिम का सर्वनाश किया ।”
“तुम एक अकेली जान ... ”
“खालसा अकेला भी सवा लाख होता है ।”
“ये तुम नहीं, तुम्हारा अहंकार बोल रहा है । बम्बई में बखिया के खिलाफ जो कामयाबियां तुम्हें हासिल हुईंई, उन्होंने तुम्हारा सिर घुमा दिया है । तुम पता नहीं क्या समझने लगे हो अपने-आपको । तुम कोई पीर या पैगम्बर ? देवता या अवतार हो जिसकी भृकुटी तानोगे तो पापियों का सर्वनाश हो जायेगा ? तुम सवा लाख ही सही लेकिन क्या सवा लाख जने भी सृष्टि से मुकम्म्ल जुल्म का और तमाम जालिमों का सफाया कर सकते हैं ?”
“नहीं कर सकते । लेकिन हर कोई ये ही सोचकर जुल्म सहता खामोश बैठा रहा कि उस अकेले के किये कुछ नहीं होने वाला तो सर्वनाश हो जायेगा हमारे समाज का । एक से अनेक बनते हैं, नीलम । बूंद-बूंद से ही घड़ा भरता है ।”
“लेकिन तुमने...”
“मैंने जो किया, ठीक किया । अपनी मां-बहन की दुरगत के सदमे से मौत की कगार पर पहुंची हुई मजलूम लड़की की खातिर मैंने जो किया ठीक किया । मेरे गुरुओं की सीख ये कहती है कि सूरा सो पहचानिये जो लरे दीन के हेत । मैंने दीन के हित में लड़ाई की, मुझे अपने किये का कोई रंज नहीं ।”
“बहुत जरूरी था अपने-आपको सूरमा साबित करना ?”
“बहुत जरूरी था दीन के हित में लड़ना ।”
“ऐसा करते वक्त एक दीन जो तुम्हारे अपने घर में मौजूद है उसकी तो सुध नहीं आयी होगी ?”
“क्या मतलब ?”
“ये तो नहीं सोचा होगा कि सूरमाई की तरफ उठता तुम्हारा कदम तुम्हारी बीवी को विधवा बना सकता है ?”
“यकीनन बना सकता है । लेकिन मेरी बीवी को भी ये याद रखना चाहिये कि उसने एक मामूली इंसान को नहीं एक गैंगस्टर को, एक मवाली को स्वेच्छा से अपना पति चुना है । ऐसी बीवी ऐसे पति के आखिरी अंजाम को नजर अन्दाज करती है तो ये उसकी भूल है । उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि मवाली की बीवी विधवा ही मरेगी ।”
“खबरदार जो तकाल संध्या के वक्त अपशब्द मुंह से निकाले ।”
“ये हकीकत है । ए गैंगस्टर्स वाइफ विल डाई ए विडो ।”
“चुप कर जाओ ।”
“मेरे चुप कर जाने से हकीकत नहीं बदल सकती ।”
“बदल सकती है । बदल रही है । मेरी आंखों के सामने बदल रही है । सरदार जी, ये भी तो हकीकत है कि तुमने माता वैष्णोदेवी के दरबार में मत्था टेककर कसम खाई थी कि तुम गुनाह की दुनिया से हमेशा के लिए किनारा कर लोगे, तुम शादी करके, गृहस्थ बनके एक शरीफ और नेक शहरी बनकर दिखाओगे !”
“तब मैं अपनी औकात को नजरअन्दाज करने लगा था और ख्वाब देखने लगा था । तब मैं भूल गया था कि मैं जहाज का पंछी हूं । गुनाह के जहाज से उड़ा पंछी जितना मर्जी जोर लगा ले कहीं नहीं पहुंच सकता । उसको वापिस जहाज पर लौट के आना ही होता है । जहाज के अलावा उसे कहीं पनाह नहीं ।”
“अपने आइन्दा इरादों से भी मुझे खबरदार कर रहे हो ? यहां से उड़ जाने के लिए पर तोल रहे हो ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मैंने तो महज एक मिसाल दी है और तुझे ये समझाने की कोशिश की है कि बड़ी-बड़ी उम्मीदें नहीं बांधनी चाहियें । जितनी बड़ी उम्मीद होती है उतनी ही बड़ी मायूसी हाथ लगती है । ज्यादा ऊपर तक पहुंचने वाले ज्यादा ऊंचाई से निचे गिरते हैं ।”
“अब तुम क्या करोगे ?”
“जो मेरा वाहेगुरु मेरे से कराएगा ।”
“यानी कि अभी इसी राह चलोगे ?”
“अगर वाहेगुरु चलाएगा ।”
“मेरे लिए क्या हुक्म है तुम्हारा ?”
“वाहेगुरु का ।”
“मैं क्या करूं ?”
“तू वाहेगुरु का नाम ले और अपने बच्चे की खैर मना ।”
“बच्चे की ? बच्चे के बाप की नहीं ?”
“उसकी भी ।”
“मेरा जी डरता है ।”
“अब डरता है ! तब नहीं डरता था जब बम्बई में डोगरा के लेफ्टीनेंट घोरपड़े की टोह में अकेली निकल पड़ी थी ? तब नहीं डरता था जब बखिया की क्लब ट्वेन्टी नाइन पर डाका डालने मेरे साथ गयी थी ? तब नहीं डरता था जब...”
“चुप करो ।”
“तू नाहक डरती है । नीलम, मेरी जान, ऐसा कुछ नहीं होने वाला जो पहले कभी न हुआ हो । चिन्ता ता की कीजिए, जो अनहोनी होये ।”
नीलम खामोश रही ।
“एक बात और सुन । बल्कि समझ ।”
“क्या ?” - नीलम बोली ।
“तू मेरी है । तुझे मेरी तरफ ही रहना चाहिए । उस पुलिस वाले के भड़काए तुझे उसके सामने ही मेरे से जवाबतलबी नहीं शुरू कर देनी चाहिये थी, उसके सामने ही मुझे शकभरी निगाहों से नहीं देखना शुरू कर देना चाहिये था ।”
“मेरे से गलती हुई । मैं बहुत आन्दोलित हो गयी थी ।”
“मैंने देखा था । मुझे तो डर लगने लगा था कि कहीं तू उसके सामने मुझे विमल या सरदार जी कहकर ही न पुकारने लगे ।”
“ऐसा हो सकता था । रब्ब का शुक्र है कि हुआ नहीं ।”
“आइन्दा ध्यान रखना इस बात का ।”
“जरूर ।”
“अब उस लड़की के लिए तेरे मन में कोई रंजिश तो नहीं ?”
“नहीं । बिल्कुल नहीं । उलटे मुझे अफसोस है कि गुस्से में मैंने उसका बुरा चाहा, उसके अनिष्ट की कामना की । मैं अभी जाके उससे माफी मांग के आती हूं ।”
“कोई जरूरत नहीं ।”
“लेकिन...”
“बात को लम्बा नहीं घसीटना चाहिए और कुछ बातों को भूल जाने में ही भलाई होती है । ठीक ?”
नीलम ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब बोल । मेरी ?”
“सिर्फ तुम्हारी । हमेशा-हमेशा । जन्म-जन्मान्तर तक ।”
“शाबाश । माबदौलत खुश हुए ।”
“अच्छा ! कल गुलाम थे । आज माबदौलत हो गये ?”
“मैं कुछ नहीं जानता । मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं मलिकाआलिया का सरताज हूं । और मलिका का सरताज तो कोई बादशाह ही हो सकता है ।”
“बातें बनाना तो कोई तुमसे सीखे ।”
“हां । और खाना बनाना तो कहीं से भी सीखा जा सकता है ।”
“हाय, मैं मर जावां । खाना बनाने का तो मुझे खयाल ही नहीं रहा ।”
“अब खयाल ला भी मत मन में । आज भी मैं पीजा ही ले आता हूं । बोल, मंजूर ।”
“तुम्हें मंजूर तो मंजूर ?”
“मुझे तो मंजूर है ।”
“तो मुझे भी मंजूर है । मैं जाता हूं । मुझे एक काम और भी है इसलिए हो सकता है, थोड़ी-सी देर हो जाये । तुम फिक्र न करना ।”
“बहुत ज्यादा देर न लगाना ।”
“अच्छा ।”
विमल वहां से विदा हो क्या ।
***
सहजपाल ने लोटस क्लब में कदम रखा ।
भीतर की चकाचौंध देखकर एक क्षण को वो दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा रहा । क्लब का हाल पूरी तरह से भरा हुआ था और वहां मौजूद लोगों की आधुनिक और कीमती पोशाकों का खयाल करके वो खुद को फटेहाल महसूस कर रहा था ।
उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
एक ओर एक लम्बा बार काउन्टर था जहां दो सुन्दरियां बारटेन्डर की ड्यूटी भुगता रही रही थीं । बार काउन्टर के आगे पड़े तमाम के तमाम स्टूलों पर ग्राहक मौजूद थे ।
दूसरी तरफ बैंड स्टैण्ड था जहां उस घड़ी बैंड बज रहा था और उसकी धुन पर दो लगभग नग्न कैब्रे डांसर थिरक रही थीं । दो घूमने वाले लाइट ग्लोब स्टेज पर कई तरह की रोशनियां फेंक रहे थे जिससे माहौल में जादुई समां बंध रहा था ।
सहजपाल बार पर पहुंचा और उसके एक कोने में खड़ा हो गया ।
मेहन्दी के रंग के कटे बालों वाली एक बारमेड, जो कि मोनिका थी, तत्काल उसके करीब पहुंची ।
“यस सर ?” - वो अपने सफेद सुडौल दांत चमकाती हुई बोली ।
सहजपाल तनिक आगे को झुका और धीरे से बोला - “लाल साहब से मिलना है ।”
मोनिका के चेहरे से मुस्कराहट यूं गायब हुई जैसे बिजली का स्विच ऑफ हुआ हो ।
“वो कौन है ?” - वो बोली ।
“तुम लाल साहब को नहीं जानती ?”
“न ।”
“तो किसी और को बुलाओ ।”
“और किसको बुलाऊं ?”
“जो कोई भी लाल साहब को जानता हो ।”
“ठीक है । मैं मालूम करती हूं । शायद कोई जानता हो ।”
बार के पहलू में एक शीशे को दरवाजा था जिसे खोलकर वो उसके पीछे गायब हो गयी ।
फिर कुछ क्षण बाद जब वो वापिस निकली तो उसने सहजपाल का रुख न किया । सहजपाल को पूरी तरह से नजरअंदाज करती वो लम्बे बार काउन्टर के परले सिरे पर पहुंच गयी ।
सहजपाल अनिश्चित-सा अपने स्थान पर खड़ा रहा । फिर जब वो वहां से हटने ही लगा था तो एक आदमी उसकी कोहनी के करीब प्रकट हुआ और हौले से खांसा ।
सहजपाल ने उसकी ओर देखा । वो आदमी काला सूट पहने था और बो टाई लगाये था लेकिन कोई संभ्रान्त या कुलीन व्यक्ति वो फिर भी नहीं लग रहा था ।
वो कुशवाहा था ।
“क्या चाहते हो ?” - कुशवाहा रुक्ष स्वर में बोला ।
“लाल साहब से मिलना चाहता हूं ।” - सहजपाल भुनभुनाता-सा बोला । उसने पहली बार गुरबख्श लाल के किसी ठीये पर कदम रखा था । उसे नहीं मालूम था कि उस तक पहुंचना इतना कठिन काम था ।
“वो कौन है ?”
“अरे, मैंने उस छोकरी को कहा था” - सहजपाल झल्लाया - “कि वो किसी ऐसे आदमी को बुलाकर दे जो लाल साहब को जानता हो । आगर तुमने भी ‘वो कौन है’ ही पूछना है तो क्या फायदा हूआ तुम्हारा ।”
“हो कौन तुम ?”
“मेरा नाम सहजपाल है ।”
“क्या कहना है लाल साहब से ?”
“तुम्हें बताना जरूरी है ?”
“मर्जी है तुम्हारी ।
सहजपाल ने उसे घूरा लेकिन कुशवाहा पर उसके घूरने की कोई प्रतिक्रिया दिखाई न दी ।
“मैंने” - आखिरकार सहजपाल दबे स्वर में बोला - “लाल साहब को ये बताना है कि उनके भांजे का कातिल कौन है ।”
तब कुशवाहा के चेहरे पर एकाएक मुस्कराहट प्रकट हुई ।
“आप एक मिनट और ठहरिये” - वो बोला - “मैं पीछे आफिस में पता करता हूं । शायद वहां कोई लाल साहब को जानता हो ।”
“ठीक है ।” - सहजपाल ने रोब झाड़ा ।
कुशवाहा वहां से चला गया ।
सहजपाल कुछ क्षण हिचकिचाता-सा खड़ा रहा फिर उसने मोनिका को इशारा किया ।
इस बार उसको नजरअन्दाज करने की जगह वो निसंकोच उसके करीब पहुंची ।
सहजपाल ने करीब आती मोनिका को लगभग लार टपकाते हूए घूरा । वो काली स्कर्ट और लाल ब्लाउज पहने थी । उसकी बड़ी-बड़ी छातिया थीं, कमर पतली थी और कूल्हे भारी थे ।
“यस, सर ।” - वो बोली ।
“ड्रिंक ।” - सहजपाल बोला ।
“विच ड्रिंक, सर ?”
सहजपाल ने हड़बड़ाकर पीछे शीशे के शैल्फों पर रखी बेशुमार बोतलों पर निगाह डाली । तकरीबन बोतलें विलायती शराब की थीं, जरूर बहुत महंगी होंगी ।
“पी... पीटर स्काट ।” - फिर उसके मुंह से निकला ।
मोनिका ने पीटर स्काट का एक बड़ा पैग गिलास में डालकर उसके सामने रखा, उसमें दो-तीन आइस क्यूब डाले और फिर पूछा - “वाटर ऑर सोडा, सर ।”
“सो... सोडा ।” - सहजपाल बोला ।
उसने एक सोडे की बोतल खोलकर उसके गिलास को उससे तीन-चौथाई भरा और फिर बोतल गिलास के पहलू में रख दी ।
“कितना पैसा ?”
“नाइन्टी रुपीज, सर ।”
सहजपाल के छक्के छूट गये । वो पच्चीस-तीस रुपए भी कहती तो रकम उसे ज्यादा लगती, लेकिन वो तो नब्बे रुपए मांग रही थी । बुरी तरह से कलपते हुए उसने जेब से एक सौ का नोट निकाल कर युवती को सौंपा ।
मोनिका ने एक दस का नोट उसके सामने रखा ।
सहजपाल का हाथ नोट की ओर बढा तो उसे एकाएक सूझा कि एसी जगह पर तो करारी टिप का भी रिवाज होता होगा ।
तत्काल उसने हाथ वापिस खींच लिया और बड़ी दयानतदारी से मोनिका को नोट ले लेने का इशारा कर दिया ।
“थैंक्यू, सर ।” - मोनिका नोट उठाती हुई बोली ।
“नाम क्या है तुम्हारा ?” - वो बोला ।
पूछ लेने के बाद उसे सूझा कि उसके नाम की सफेद आयताकार प्लेट तो उसके ब्लाउज पर लगी हुई थी । प्लेट पर मोनिका अंकित था ।
“मोनिका ।” - वो बोली, शायद इसीलिये उसने नाम बताने से गुरेज न किया ।
“बार कितने बजे तक चलता है ?”
“ग्यारह बजे तक ?”
“यानी कि तुम्हारी ड्यूटी यहां ग्यारह बजे तक होती है ?”
“यस, सर ।”
“उसके बाद ?”
“उसके बाद क्या ?”
“उसके बाद क्या करती हो ?”
“आपको क्या ?”
“शायद कुछ हो ।”
“हो तो हो । मुझे क्या ?”
फिर सहजपाल के दोबारा बोल पाने से पहले वो इठलाती हुई वहां से हट गई ।
सहजपाल ने एक आह-सी भरी और अपने जाम की ओर आकर्षित हुआ । सौ रुपये खर्च हो गये थे दाढ में फाहा लगाने जितनी विस्की हासिल हुई थी । कहीं और जाके पीता तो सौ रुपये में बोतल आ जाती - पीटर स्काट की न सही, बोतल तो आ ही जाती । कहां उसने ये सोच के क्लब में कदम रखा था कि गुरबख्श लाल के लिए जो धाकड़ खबर वो लाया था उसकी वजह से उसका वहां सब खाना-पीना फ्री हो जाने वाला था और कहां अब गांठ का पैसा निकला जा रहा था ।
यूं ही भुनभुनाता हुआ वो विस्की चुसकने लगा ।
***
विमल सीढियों के रास्ते आठवीं मंजिल पर पहुंचा और उसने सुमन के फ्लैट पर दस्तक दी ।
सुमन ने दरवाजा खोला । विमल को आया देखकर वो रास्ते से एक ओर हट गयी ।
विमल भीतर दाखिल हुआ । उसने बाह पकड़कर सुमन को एक कुर्सी पर बिठाया और स्वयं भी उसके सामने बैठ गया ।
“ये तूने क्या किया ?” - वो बोला ।
सुमन चुप रही ।
“जवाब दे !”
“मैंने जो ठीक समझा, किया ।”
“वो ठीक नहीं था । तूने अपनी इज्जत को खतरे में डाला ।”
“तो न सही । मैंने सिर्फ अपनी इज्जत को खतरे में डाला । आपने तो मेरी खातिर अपनी जान को खतरे में डाला ।”
“क्या मतलब ?”
“आप मेरी हमलावर बांह बने । आपने मेरी ख्वाहिश पूरी की । आपने मुझे बदला दिलाया ।”
“सूझा कैसे ?”
“कल रात जब आप वापिस लौटे थे, उस वक्त मैं यहां अपने फ्लैट में थी ।”
“अच्छा !”
“एक सिख को चाबी से दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल होते देखकर पहले तो मेरा दम ही निकल गया था । मैं चिल्लाने लगी थी लेकिन आपको सीधा बाल्कनी की ओर लपकता पाकर मैं खामोश हो गयी थी । आपने कोई बत्ती नहीं जलाई थी । जलाते तो फ्लैट में मेरी मौजूदगी आपसे छुपी न रहती । आपको बहुत जल्दी थी । बत्ती जलाने का भी वक्त आपको नहीं था । या शायद जरूरत नहीं थी । आपने बाल्कनी का दरवाजा खोला तो नीचे आपके फ्लैट में बजती कालबैल की मद्धम सी आवाज मुझे भी सुनाई देने लगी थी । फिर आपने आनन-फानन अपना ओवरकोट मेकअप वगैरह बाल्कनी में फेंका था और वहां से गायब हो गये थे । तब मैं बाल्कनी में पहुंची थी तो मैंने आपको पाइप के सहारे नीचे अपनी बाल्कनी में पहुंचते देखा था । मैंने फ्लैट से बाहर निकलकर सीढियों की रेलिंग से नीचे झांका था तो उस सब-इंस्पेक्टर को आपके फ्लैट के बन्द दरवाजे पर दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करते पाया था । तब मुझे सूझा था कि वो सब-इंस्पेक्टर यहां भी आ सकता था । तब मैंने आपका सारा सामान नकली दाढी, पगड़ी, फिफ्टी, चश्मा, ब्रीफकेस, ओवरकोट बाल्कनी में से उठा लिया था और बाल्कनी का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया था ।”
“और मैं समझा था कि वो सब सामान उस पुलसिये के कब्जे में आ गया ।”
सुमन खामोश रही ।
“फ्लैट की चाबी तो तूने मुझे दे दी थी ?”
“आपको मैंने अपनी मां वाली चाबी दी थी । मेरी चाबी मेरे पास थी ।”
“यानी कि मेरे यहां से जाती बार तू यहां नहीं थी, लौटती बार थी ?”
“हां ।”
“सुबह मुझे बताना तो था कि तू घर आ गयी हूई थी ?”
“मैने छ: बजे अपनी ट्रंक आपरेटर की ड्यूटी पर पहुंचना था जिसके लिये मैं साढे पांच घर से निकल गयी थी । तब तक आप लोग अभी जागे नहीं थे । ढाई बजे मैं लौटकर आयी थी तो तब आपका घर पर होने का वक्त नहीं था । फिर पुलिस वाले आ धमके थे जिनके साथ मुझे सुन्दरलाल नाम के उस बलात्कारियों के सरगने की लाश की शिनाख्त के लिए मोर्ग में जाना पड़ा था ।”
“ओह !”
“फिर शाम को मैं नीचे गयी तो मुझे वहां आपके ड्राइंग रूम में वो पुलसिया बैठा दिखाई दिया जो आपसे ओवरकोट की बाबत सवाल कर रहा था । मैं दौड़कर यहां से आपका ओवरकोट ले गयी तो मुझे वो आपको गिरफ्तारी की धमकी देता मिला । तब मेरे दिल ने मुझे वो कदम उठाने के लिए प्रेरित किया जो कि मैंने उठाया ।”
“और यूं अपना वादा पूरा करके दिखाया कि जिन्दगी में कभी तू मेरे किसी काम आके दिखायेगी । अपनी अस्मत दांव पर लगा दी । इतना बड़ा लांछन अपने सिर ले लिया ।”
वो खामोश रही ।
“ये सिर्फ मुझे सिख बना देख के ही तुझे सूझ गया कि उन बलात्कारियों के खून मैंने किए थे ?”
“सिर्फ इतने से तो नहीं सूझा था ।” - वो धीरे से बोली ।
“तो ?”
“पिछले शुक्रवार को आपने हस्पताल में लोधी वाले केस वाली उस लड़की सोनिया शर्मा से जो बातचीत की थी, वो तमाम की तमाम मैंने सुनी थी ।”
विमल चौंका ।
“तू तो सोई हुई थी !” - वो बोला ।
“बातचीत की आवाज सुनकर जाग गयी थी । मैंने आपको साफ कहते सुना था कि आप ही वो आदमी थे पिछली रात जिसने उसे लोधी गार्डन में बलात्कारियों का शिकार होने से बचाया था, जिसने उन बलात्कारियों को शूट किया था ।”
“ओह ! ओह !”
“मैं तभी समझ गयी थी कि मेरी हमलावर बांह और कोई नहीं आप थे ।”
“ओह ! तो तूने भलाई का बदला भलाई से चुकाने के लिए झूठ बोलकर मुझे बचाया !”
“कौल साहब, मैं सारी उम्र आपके पांव धो-धोकर पिऊं तो आपकी भलाई का बदला नहीं चुका सकती । मैं सात जन्म में भी आपकी भलाई का बदला नहीं चुका सकती । आप महान हैं । आप देवता हैं । देवता ही किसी की दुश्वारी से यूं पसीज सकते हैं जैसे कि आप मेरी दुश्वारी से पसीजे ।”
“मैं तेरे जज्बात की कद्र करता हूं, सुमन, लेकिन तेरा बोला झूठ मेरे बहुत ज्यादा काम नहीं आने वाला । तू मेरे फ्लैट से मेरी सिर्फ कल की गैरहाजिरी की जामिन बन सकती है ये झूठ बोल कर । कल रात से पहले तो तू खुद यहां पर नहीं थी ।”
“मैं कह दूंगी कि आप हस्तपाल में मेरे से मिलने आते थे । उस एक दिन को छोड़कर जब कि वो लोधी की वारदात वाली लड़की वहां भरती हुई थी, उस कमरे में मैं अकेली थी, मैं कह दूंगी कि आप रात को वहां मेरे साथ होते थे ।”
“पागल !” - विमल हंसा - “ऐसा कहीं मुमकिन है । ये कोई चलने वाला झूठ है ?”
“तो फिर ?”
“छोड़ । फिलहाल हालात काबू में हैं, आगे जो होगा देखा जाएगा ।” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “सीढी । सीढी कहां से आयी ?”
“बाजार में बनी-बनाई मिलती है । दफ्तर से लौटते वक्त खरीद लायी थी ।”
“यानी कि तूने पहले से सोचा हुआ था कि ऐसा कोई झूठ बोलने की तुझे जरूरत पड़ सकती थी ?”
“हां । तभी से जब कि मैंने आपको सीवर पाइप पकड़कर नीचे उतरते देखा था ।”
“ओवरकोट पर खून के छींटे थे ।”
“थे । लेकिन मैंने पैट्रोल से साफ कर दिए थे ।”
“पैट्रोल कहां से लायी ?”
“ड्राईक्लीनिंग और घड़ीसाजी में काम आने वाले वाइट पैट्रोल बाजार में आम मिलता है । उसके लिए पैट्रोल पम्प पर नहीं जाना पड़ता ।”
विमल ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
सुमन बड़े संकोच से तनिक मुस्कराई, फिर उसने सिर झुका लिया ।
“मेरा बाकी सामान कहां है ?” - विमल बोला ।
“यहीं है ।” - सुमन ने उत्तर दिया - “मैंने बहुत हिफाजत से छुपा के रखा हुआ है ।”
“उसका यहां रहना ठीक नहीं । वो सब-इंस्पेक्टर तेरे बयान से बहुत खफा है । वो यहां की तलाशी की कोई जुगत भिड़ा सकता है । उसकी बातों से लगता है वो एक बार चोरी से तेरा फ्लैट खोल भी चुका है ।”
“ओह !”
“मेरा सामान ला ।”
“आप उसे अपने फ्लैट में रखेंगे ?”
“देखूंगा ।”
“उस समान का आपके पास से बरामद होना भी तो ठीक नहीं ।”
“वो सब-इंस्पेक्टर फिलहाल मेरे से खौफजदा है । वो मेरे साथ कोई गलत हरकत करने की हिम्मत नहीं कर सकता ।”
“फिर भी ? ”
“फिर भी का भी कोई हल सोचूंगा । तू ले के आ मेरा समान ।”
सुमन भीतर गयी और उसका लाल ब्रीफकेस ले आई ।
“सब कुछ इसी में है ।” - वो बोली ।
“ठीक है ।” - विमल बोला - “खाना खाया ?”
सुमन ने धीरे से इनकार में सिर हिलाया !
“मैं बाजार से खाना लेने जा रहा हूं । तू नीचे जाके नीलम के पास बैठ ।”
वो सकपकाई ।
“मैने उसे सब समझा दिया है । वो अब जानती है कि तूने मेरी खातिर झूठ बोला था ।”
“ओह !”
“ये ब्रीफकेस तू ही नीचे ले जा । मै आता हूं आधे-पौने घन्टे में ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
“चलो ।”
सहजपाल ने चौककर सिर उठाया तो उसने कुशवाहा को अपने पहलू में खड़ा पाया ।
“कहां ?” - उसके मुंह से निकला ।
“लाल साहब के पास और कहां ?”
“ओह !”
उसने एक ही सांस में विस्की का गिलास खाली किया और कुशवाहा के साथ हो लिया ।
हाल के पिछवाड़े में एक दरवाजा था, जिसके आगे एक लम्बा नीम अन्धेरा गलियारा था, उस गलियारे के सिरे पर एक और बन्द दरवाजा था जिसे कुशवाहा ने धक्का देकर खोला और सजहपाल को भीतर जाने का इशारा किया ।
सहजपाल झिझकता हुआ बड़े ही ऐश्वर्यशाली ढंग से सजे हुए आफिस में दाखिल हुआ जहां एक विशाल मेज के पीछे राजसिंहासन जैसी कुर्सी पर ढोल जैसे जिस्म वाला और बुलडाग जैसी सूरत वाला गुरबख्श लाल बैठा था । उसके सामने खतरनाक सूरतों वाले तीन शख्स बैठे थे और कुशवाहा भी उसके पीछे-पीछे ही भीतर घुस आया था और दरवाजा बन्द करके उसके साथ पीठ लगाकर खड़ा था ।
सहजपाल ने उसका अभिवादन किया ।
“बैठ जा ।” - मुंह से थूक की फुहार छोड़ता हुआ गुरबख्श लाल भैंसे की तरह डकराया ।
तीन दादाओं के पहलू में एक खाली कुर्सी पर सहजपाल बैठ गया ।
गुरबख्श लाल उसकी ओर ध्यान देने की जगह एक सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया ।
सहजपाल बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
खामखाह लालच किया वहां आने का - वो मन-ही-मन सोच रहा था - फोन पर बात करना ही ठीक था । यहां तो उसके साथ यूं व्यवहार किया जा रहा था जैसे शीशमहल में कुत्ता घुस आया हो ।
“तो” - गुरबख्श लाल नाक से धुएं की दोनाली छोड़ता हुआ बोला - “तूने मालूम कर लिया कि मेरे भांजे का कातिल कौन है ?”
सहजपाल ने सशंक भाव से अपने पहलू में बैठ तीन आदमियों को देखा ।
“जो बोलना है, बेखौफ बोल ।” - गुरबख्श लाल बोला - “यहां सब अपने हैं ।”
“लाल साहब ” - सहजपाल बोला - “मैंने ये मालूम कर लिया है कि केस को तफ्तीश में लगे सब-इंस्पेक्टर लूथरा को किस पर कातिल होने का शक है ।”
“किस पर शक है ? शक है ?”
“जी हां ।”
“कुशवाहा ! साले तू बहरा है ! मैल निकलवाने वाली है तेरे कान से । अबे, तू तो कह रहा था कि ये कह रहा था कि इसने मुझे ये बताना था कि मेरे भांजे का कातिल कौन है ?”
“इसने ये ही कहा था ।” - कुशवाहा दरवाजे पर से बोला ।
गुरबख्श लाल ने घूरकर सहजपाल की ओर देखा ।
“मेरा मतलब वही था” - सहजपाल हड़बड़ाकर बोला - “जो मै अब कह रहा हूं ।”
“यानी कि तू कहता कुछ और है और तेरे कहे का मतलब कुछ और होता है ?”
“नहीं, नहीं, लाल साहब, वो बात नहीं...”
“खैर ! नाम बोल ।”
सहजपाल ने जेब से वो कागज निकालकर गुरबख्श लाल के सामने रख दिया जिस पर उसने अरविन्द कौल का नाम, उसके फोन नम्बर और उसके घर आफिस का पता लिखा था ।
गुरबख्श लाल ने कुशवाहा को इशारा किया । उसने समीप आकार वो कागज उठाया और उस पर लिखी तहरीर अपने बास को पढकर सुनाई ।
“अरविन्द कौल !” - गुरबख्श लाल ने नाम दोहराया - “कोई बड़ा दादा है अपने इलाके का ?”
“नहीं, लाल साहब” - सहजपाल विनीत भाव से बोला - “वो तो कोई पढा-लिखा बाबू है जो एकाउन्टैट की नौकरी करता है ।”
“क्या बकता है ? तेरा मतलब है मेरे भांजे का कत्ल किसी दफ्तर के बाबू ने किया ?”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“गलत मालूम होता है ।”
सब-इंस्पेक्टर लूथरा को उसी पर शक है ।”
“तुझे कैसे मालूम ?”
सहजपाल ने लूथरा को अरविन्द कौल सम्बन्धी फाइल की बाबत बताया ।
“उस लूथरे ने” - गुरबख्श लाल बोला - “अभी तक इस शख्स को गिरफ्तार क्यों नहीं किया ?”
“लगता है कोई पुख्ता केस अभी तक लूथरा नहीं खड़ा कर पाया है इस शख्स के खिलाफ ।”
“अब कर भी नहीं पायेगा ।”
“जी !”
“अगर यही शख्स मेरे भांजे का कातिल है तो पुलिस के हाथ पड़ने से पहले ही ये जहन्नुम रसीद हो चुका होगा ।”
“ओह !”
यहां क्यों दौड़ा चला आया ? फोन क्यों नहीं किया ?”
“फोन मिल नहीं रहा था ।”
“झूठ भी बोल रहा है तो इस बार कोई बात नहीं लेकिन आइन्दा खयाल रखना । आइन्दा कभी तेरे कदम यहां न पड़ें । ये हाई क्लास जगह है । ये हाई क्लास लोगों के लिए जगह है । समझा ?”
“जी, लाल साहब ।”
“फोन करना है । सिर्फ फोन । यहां आना जरुरी होगा तो मैं तुझे आने को बोलूंगा । समझ गया ?”
“जी हां ।”
“क्या चाहता है अपनी इस खिदमत के बदले में ?”
“मैं क्या बोलू लाल साहब । जो भी आप मुनासिब समझें...”
“मैं कुछ भी मुनासिब न समझूं ?”
“तो कुछ भी न सही ।”
“यानी कि तुझे फोकट की खिदमत भी मंजूर है ?”
“आपकी । सिर्फ आपकी । हर किसी की नहीं ।”
“हां । ये बढिया जवाब दिया तूने । सयाना आदमी है । पहली रकम मिल गयी ?”
“जी हां ।”
गुरबख्श लाल ने पचास के नोटों की एक साबुत गड्डी दराज में से निकाली और उसे सहजपाल की तरफ उछाल दिया ।
“शुकिया, लाल साहब ।” - सहजपाल गड्डी उठाता हुआ बोला ।
“राजी !”
“हां, लाल साहब । शुक्रिया ।”
“एक बात याद रखना । गुरबख्श लाल की नवाजिश पैसे पर ही खत्म नहीं हो जाती, वो बहुत आगे तक जाती है । जो आदमी मेरे काम आता है, उसके काम आना मैं अपना फर्ज मानता हूं । कभी कोई काम पड़े तो बेखौफ बोलना ।”
“काम तो” - यूं शह पाकर सहजपाल बोला - “लाल साहब अभी ही है ।”
“क्या ? बोल ?”
“लाल साहब, बाहर वार पर जो मेहन्दी रंगे बालों वाली लड़की हैं, जिसका नाम मोनिका है...”
“हां, हां । क्या है उसे ?”
“मैं सोच रहा था कि अगर आप उसे मेरे साथ फिट करा देते तो...”
तभी गुरबख्श लाल का सुर्ख होता चेहरा देखकर वो सहमकर बीच में ही चुप हो गया ।
“क्योंकि” - गुरबख्श लाल कहरे भरे स्वर में बोला - “मैं दल्ला हूं ? रंडियां बुक करता हूं ? स्साले ! मेरा काम तेरे ऐसे काम आना है ?”
“गलती हो गयी, लाल साहब ।”
“गलती हो गयी का बच्चा !”
अपमानित सहजपाल खून का घूंट पी के रह गया ।
“क्यों भाई लोगों” - गुरबख्श लाल अपने आदमियों से मुखातिब हुआ - “क्या राय है तुम्हारी कोई दफ्तर का बाबू, कोई पढ़ा-लिखा सफेदपोश मेरे भांजे का कातिल हो सकता है ?”
कुशवाहा समेत तमाम सिर इनकार में हिले ।
“लेकिन ये बात भी अपनी जगह कायम है कि सहजपाल आज तक कोई गलत खबर नहीं लाया । इस लिहाज से इसकी लाई ये खबर भी बेमानी नहीं हो सकती ।”
चमचों ने उस पर भी सहमति जताई ।
“कुशवाहा, ठीक से पता कर ये आदमी - ये अरविन्द कौल एकाउन्टेट - क्या बला है ! अगर तुझे लगे कि यही आदमी मेरे भांजे का कातिल है तो उसके सिर पर पचास हजार के इनाम की घोषणा कर दे । जो कोई इस आदमी का शिकार करे, वो मेरे से पचास हजार रुपय ले जाये । ऐसे आदमी की मौत धूम-धड़ाके से होनी चाहिए । तभी मेरा बहन के कलेजे को ठण्डक पड़ेगी ।”
“लाल साहब” - कुर्सियों पर बैठे तीन आदमियों में से एक बोला - “ये काम आप मेरे हवाले कर दीजिये ।”
गुरबख्श लाल ने उसकी तरफ देखा ।
उस आदमी का नाम उसकी मां ने बड़े अरमान से अनमोल कुमार रखा था लेकिन अपने मवाली भाइयों में वो ढक्कन के नाम से बेहतर जाना जाता था, दर्जन-भर आदमियों के ढक्कन खोल चुका था लेकिन आज तक कभी पकड़ा नहीं गया था ।
उसके दाये पहलू में जो आदमी बैठा था, उसका नाम लट्टू था । ढक्कन को वो अपना उस्ताद मानता था और ढक्कन ने ही उसे गुरबख्श लाल के विश्वासपाल लोगों के दायरे में पहुंचाया था । ढक्कन की तरह उसे भी उसके असली नाम लतीफ अहमद से शायद ही कभी किसी ने पुकारा था ।
ढक्कन के बायें पहलू में बैठे तीसरे शख्स का नाम जैदी था ।
वो तीनों ही गुरख्श लाल के खास आदमी समझे जाते थे । उन तीनों के अलावा गुरबख्श लाल के कोई खासुलखास था तो वो सिर्फ कुशवाहा था । इस लिहाज से ढक्कन और जैदी तो अपने-आपको कुशवाहा से जरा ही नीचा समझते थे लेकिन लट्टू क्योंकि ढक्कन का शागिर्द मशहूर था इसलिए वो अपने उस्ताद का मौजूदगी में ही कुशवाहा और गुरबख्श लाल के करीब बैठने के काबिल पाता था ।
“लाल साहृब !” - ढक्कन बोला - “इस आदमी का ढक्कन आप मुझे खोलने दीजिए ।”
“नावें की कोई खास जरूरत मालूम होती है आजकल तुझे !” - गुरबख्श लाल बोला ।
“हमेशा ही होती है, लाल साहब ।”
“ठीक है । तू ही कमा पचास हजार रूपये ।”
“शुक्रिया, लाल साहब ।”
“लेकिन यूं ही न चढ दौड़ना । पहले तसदीक करनी है कि वही आदमी मेरे भांजे का कातिल है ।”
“ऐसा ही होगा, लाल साहब ।”
“शाबाश !”
ढक्कन ने यूं शक्ल बनायी जैसे वो शाबाशी उन पचास हजार रुपयों से कहीं कीमती थी । जिन्हें कमाने तो वो ख्वाहिशमन्द था ।
फिर गुरबख्श लाल की निगाह सहजपाल पर पड़ी ।
“तू अभी यही हैं ?” - वो बोला ।
सहजपाल हड़बड़ाया ।
“कहीं तू भी तो पचास हजार रुपये कमाने की नहीं सोच रहा ?”
“न-नहीं ।” - सहजपाल के मुंह से निकला - “नहीं, लाल साहब ।”
“तो उठके खड़ा हो और चलता-फिरता नजर आ ।”
सहजपाल भारी कदमों से वहां से रुख्सत हुआ ।
***
विमल चार्ली के आफिस में उसके सामने बैठा पाइप पी रहा था ।
उसका आर्डर तैयार हो रहा था ।
चार्ली के आफिस की पीजा पार्लर की दिशा की झरोखे जैसी खिड़की खुली थी और उसमें से तकरीबन सारा हाल देखा जा सकता था ।
हाल में दरवाजे के करीब की एक कोने की मेज पर मुबारक अली अपने तीन साथियों के साथ बैठा हुआ था । देखने में वो लापरवाही से काफी चुसक रहा था लेकिन हकीकतन वो सतर्कता की प्रतिमूति बना चारों ओर निगाह रखे था ।
तभी पार्लर के शीशे के प्रवेशद्वार के सामने एक ट्रक आकर रुका । ट्रक के पृष्ठ भाग से एक-एक करके आठ आदमी उतरे । ट्रक का ड्राइवर अपनी सीट पर ही बैठा रहा लेकिन उसने ट्रक को वहां से हटाने की कोशिश न की ।
वो आठों आदमी आगे-पीछे, दायें-बायें चलते हुए पीजा पार्लर के शीशे के झूलते दरवाजे से भीतर दाखिल हुए ।
विमल सम्भलकर बैठ गया ।
उसने मुबारक अली को भी सावधान होते देखा ।
चार्ली के हवास उड़ने लगे । वो बार-बार छाती पर क्रॉस बनाने लगा और होंठों में बुदबुदाने लगा - “जीसस, मेरी एण्ड जोजेफ ।”
आठों एक खाली मेज पर पहुंचे । चार उस मेज पर बैठ गये ।
बाकी चारों ने उस मेज के पहलू की मेज पर निगाह दौड़ाई जहां एक अकेला आदमी बैठा पीजा खा रहा था । उनमें से एक आदमी ने जो कि गले में लाल मफलर लपेटे था उसके सामने पड़ी पीजा की प्लेट उठाई, उसे गर्दन से पकड़कर जबरन कुर्सी से उठाया और प्लेट उसे थमाता हुआ कहरभरे स्वर में बोला - “कहीं और जा के बैठ ।”
“लेकिन” - उस आदमी ने प्रतिवाद करना चाहा - “यहां...”
“सुना नहीं !”
“और जगह कहां है ?”
“पीजा घर ले जा । प्लेट कल वापिस कर जाना । चल फूट ।”
वो आदमी ऐसा खौफजदा हुआ कि उसकी दोबारा बोलने की हिम्मत न हई । अपनी प्लेट सम्भाले वो जाकर काउन्टर पर खड़ा हो गया ।
बाकी के चारों आदमी दूसरी मेज पर बैठ गये ।
“इधर आ बे टेसू” - लाल मफलर वाला एक वेटर से सम्बोधित हुआ ।
वेटर उसके करीब पहुंचा ।
“पीजा ला ।” - मफलर वाला बोला - “आठ ।”
“कौन-सा ?” - वेटर बोला ।
“जिस पर अण्डा, मुर्गा बकरा, सुअर, सासेज, सलामी, कछुवा, मछली सब कुछ लगा हो ।”
“ऐसा कोई पीजा नहीं होता, साहब ।”
“तो सालो, क्यों खोल के बैठ हो ये भटियारखाना ?”
“साहब, आप...”
“चल-चल । जैसा बनता है, वैसा लेकर आ । कितनी देर लगेगी ?”
“पन्द्रह मिनट ।”
“ठीक है । फूट ।”
वेटर चला गया ।
“यार, बहुत भूख लगी है ।” - पीछे लाल मफलर वाला अपने पेट पर हाथ फेरता हुआ अपने साथियों से बोला - “पन्द्रह मिनट हो पता नहीं कब होगे ।”
“ऐसी बात है, खलीफा” - एक दूसरा, गोल्फ कैप वाला, बोला - “तो तेरी भूख का हम अभी इन्तजाम किये देते हैं ।”
“वो कैसे ?”
“ऐसे ।”
गोल्फ कैप वाले ने पिछली टेबल पर अपने बीवी-बच्चों के साथ पीजा खाते आदमी के सामने से पीजा की प्लेट उठा ली और उसे ‘खलीफा’ के सामने रख दिया । उस आदमी ने एतराज किया तो गोल्फ कैप वाले ने चाकू निकालकर उसकी ओर तान दिया । तत्काल उस आदमी के चेहरे का रंग उड़ गया ।
“मैने कुछ नहीं कहा ।” - वो घबराये स्वर में बोला ।
गोल्फ कैप वाले ने चाकू बन्द करके जेब में रख लिया ।
तत्काल उस आदमी की बीवी उसको कोहनियां मारने लगी और जल्दी-जल्दी कुछ कहने लगी । उस आदमी ने सहमति में सिर हिलाया और वेटर को बुलाकर उसे बिल लाने को कहने लगा ।
लाल मफलर वाले ने पीजा का एक टुकड़ा उठाकर मुंह में डाला और फिर तत्काल भड़का - “अबे, ये पीजा है या गोबर का ढेर !”
उसने पीजा की प्लेट उठाई, वो उसे फेंककर काउन्टर पर मारने ही लगा था कि मुबारक अली ने उठकर उसकी बांह थाम ली ।
“घर पर गोबर खाता है !” - वो कड़ककर बोला - “अन्न की बेइज्जती करता है, कमीने ।”
क्षण भर को लाल मफलर वाले को जैसे सांप सूंघ गया ।
तब तक मुबारक अली के कई और आदमी पूरी खामोशी के साथ हाल में घुस आये थे । उसके साथ बैठे तीनों आदमी पहले ही उस्ताद के पीछे आ खड़े हुए थे ।
मुबारक अली ने उसके हाथ से प्लेट छीनकर टेबल पर रखी और उसमें से एक टुकड़ा तोड़ा । उसने बायें हाथ से मफलर वाले का जबड़ा दबोचकर जबरन उसका मुंह खोला और दाये हाथ में थमा पीजा का टुकड़ा उसके मुंह में धकेलता हुआ बोला - “खा इसे ।”
मफलर वाले के दो साथी मुबारक अली पर झपटे लेकिन मुबारक अली पर झपटे लेकिन मुबारक अली ने अपने जिस्म को एक ही झटका दिया तो वो उससे छिटककर परे जाकर गिरे ।
तब गोल्फ कैप वाले ने फिर चाकू निकाल दिया ।
उसके बाकी साथियों के हाथों मे भी साइकल चेन, लोहे के डण्डों और चाकुओं जैसे हथियार प्रकट हुए ।
तब तक मुबारक अली के बाद में वहां पहुंचे आदमी उनके सिरों पर पहुंच चुके थे । सब के सब हाकियों और डण्डों से लैस थे ।
फिर घमासान लड़ाई शुरू हुई ।
लड़ाई शुरू होते ही वहां बैठ तमाम ग्राहक वहां से खिसक गये ।
मफलर वाले खलीफा के आदमियों ने कुछ क्षण मुकाबला किया लेकिन जल्दी ही वो पिटने लगे । उन लोगों ने वहां से भागने की कोशिश की तो मुबारक अली के आदमियों ने उन्हे पकड़-पकड़ कर वापिस घसीट-घसीटकर मारा ।
सिर्फ पांच मिनट बाद हो ये हाल था कि लाल मफलर वाले समेत उसका एक भी आदमी अपने पैरों पर खड़ा नहीं था ।
बाहर मौजूद ट्रक के ड्राइवर ने वो नजारा देखा तो उसने वहा से भागने की कोशिश की लेकिन वो ऐसा न कर पाया । एक आदमी ट्रक के परले दरवाजे से भीतर घुस आया था और अब उसके तरफ रिवाल्वर ताने बैठा मुस्करा रहा था ।
आखिर में मुबारक अली ने लाल मफलर वाले को गिरहबान थामकर फर्श पर से उठाया और उसे गर्दन से पकड़कर झिझोड़ता हुआ बोला - “तू खलीफा है इन सबका ? ठीक ?”
“हं हं हां ।” - जवाब मिला ।
“नाम क्या है तेरा ?”
“भीमा । तुम कौन हो भाई !”
“हम धोबी हैं ।”
“ध धो-धोबी !”
“हां ! देख लिया कि तेरे जैसे लोगों को कैसे फटाफट धो डालते हैं ? कैसे झक्क सफेद निकाल देते हैं ? कोई कलफ वगैरह में कमी रह गयी हो तो बोल, अभी पूरी कर देते हैं ?”
भीमा के मुंह से बोला न फूटा ।
“आज जिन्दा बच गये हो इसलिए पांव-पांव वापिस जा रहे हो । अब जाके अपने बड़े खलीफा को समझा देना कि आइन्दा कभी इधर निगाह न डाले । उसे बोल देना कि अगली बार तुम्हारे वाली नीयत लेकर जो कोई भी यहां आया, वो मुर्दाघर की गाड़ी में बदकर जायेगा । समझ गया ?”
भीमा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब फूट ।”
आठ में से पांच जने ही कांखते-कराहते खुद जाके ट्रक में सवार हो पाए । बाकी तीन जनों को मुबारक अली के आदमियों ने उठाकर ट्रक में डाला ।
ट्रक तत्काल वहां से रवाना हो गया ।
फिर मुबारक अली के तमाम आदमी भी जैसे जादू के जोर से वहां से गायब हो गए ।
“राजी ?” - भीतर आफिस में विमल ने चार्ली से पूछा ।
“वो फिर आयेंगे ।” - चार्ली कम्पित स्वर में बोला ।
“अव्वल तो आयेंगे नहीं । आयेंगे तो फिर ये ही गत बनवा के जायेंगे, बल्कि इससे भी बुरी ।”
“थे कौन ये लोग ?”
“धोबी । बताया तो था उनमें से एक ने ।”
“‘धोबी !” - चार्ली मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“अब पन्दरह हजार रुपये निकाल !”
“वो किसलिए ?”
“अब तीस हजार रूपये निकाल ।”
“वो किसलिए ?”
“दर्जन धोबियों की और एक ड्राईक्लीनर की फीस । दो हजार रुपये फी धोबी । छ: हजार ड्राईक्लीनर के ।”
“ड्राईक्लीनर वो लम्बा-चौड़ा दाढी वाला गंजा मवाली ?”
“वही ।”
“कौन है वो ?”
“ड्राईक्लीनर ।” - विमल मुस्कराकर बोला ।
चार्ली ने एक आह-सी भरी और बोला - “तीस हजार ?”
“मामूली रकम है ।”
“अभी लो, बॉस ।”
चार्ली ने उसे तीस हजार रुपये दे दिए जो कि विमल ने बाहर जाकर मुबारक अली को सौंप दिये ।
मुबारक अली वहां से रुख्सत हो गया ।
विमल वापिस लौटा ।
“अब मेरा आर्डर ?” - वो बोला ।
चार्ली खुद जाके उसका आर्डर पैक करा के लाया ।
तभी सायरन बजाती फ्लाइंग स्क्वायड की एक गाड़ी वहां पहुंची जिसमें से निकलकर एक सब-इंस्पेक्टर और चार सिपाही भीतर पहुंचे ।
चार्ली, उसके पीछे-पीछे विमल भी, आफिस से बाहर निकल आया ।
“क्या हुआ यहां ?” - सब-इंस्पेक्टर दबंग स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं ।” - चार्ली बड़े इत्मीनान से बोला ।
“कुछ नहीं ! हमें यहां दंगे और मारकाट की खबर मिली है ?”
“गलत खबर मिली है । यहां कोई दंगा नहीं हुआ ।”
“तो इतनी टूट-फूट कैसे हो गयी ?”
“बाहर एक कार्पोरेशन का सांड फिर रहा था, किसी ने उसे हड़का दिया, वो भीतर घुस आया । उसी ने ये तमाम तोड़-फोड की ।”
“यहां तो खून भी बहां दिखाई दे रहा है ।”
“दो ग्राहक उस सांड की चपेट में आ गये थे ।”
“वो कहां गये ?”
“टैक्सी करके हस्पताल चले गए ।”
“कौन से हस्पताल ?”
“पता नहीं ।”
“और सांड ?”
“वेटरों ने मिलकर बड़ी मुश्किल से उसे काबू करके बाहर निकाला और भगा दिया ।”
सब इंस्पेक्टर ने सर्विस काउन्टर के सामने कतार लगाये खड़े वेटरों की ओर देखा ।
तमाम वेटरों के सिर एक साथ सहमति में हिले ।
सब-इंस्पेक्टर की निगाह चारों तरफ घूमी, फिर उसके मुंह से निकला - “कमाल है ।”
“पीजा में भी कमाल है ।” - चार्ली बोला - “हमबर्गर में तो और भी ज्यादा कमाल है । खायेंगे, जनाब ?”
“पैक करा दो ।” - सब-इंस्पेक्टर बड़े रोब से बोला - “छ: आदमियों के लिये ।”
यानी कि किस्सा निपट गया ।
विमल चुपचाप वहां से विदा हो गया ।
***
कुशवाहा को ट्रक के ड्राइवर से सारा वाकया सुनने को मिला जिसने कि आगे वो गुरबख्श लाल को सुनाया ।
गुरबख्श लाल यूं भौचक्का-सा अपने लेफ्टीनेंट का मुंह देखने लगा जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास न हो रहा हो ।
“मेरे आदमी पिटकर आ गये !” - वो हैरानी से बोला - “और वो भी चार्ली जैसे चूहे के यहां से ?”
“ऐसे पिट के आए हैं, लाल साहब, जैसे कभी कोई नहीं पिटा होगा ।” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला - “रुई की तरह धुने गये हैं सारे के सारे । कोई अपने पैरों पर खड़ा हो पाने के काबिल नहीं है । तीन तो बेहोश हैं और उनमें से एक की हालत गम्भीर है । ड्राइवर को अछूता छोड़ दिया उन्होंने वर्ना उन्हें वहां से लाद के जाने वाला कोई न होता ।”
“थे कौन लोग वो ?”
“पता नहीं । भीमे से पूछा था मैंने । वो कहता है कि उन लोगों का सरगना धोबी बता रहा था अपने को और अपने आदमियों को ।”
“धोबी ! पागल हुआ है !”
“लाल साहब, कूटा तो उन लोगों ने हमारे आदमियों को ऐसे ही है जैसे धोबी लोग कपड़ों को कूटते हैं ।”
“और ?”
“और उन्होंने हमारे लिए सन्देशा भिजवाया है ।”
“क्या ?”
“आइन्दा हम लोग कभी चार्ली के पीजा पार्लर की ओर निगाह न डालें ।”
“डालेंगे तो क्या होगा ?”
कुशवाहा ने झिझकते हुए बताया ।
तत्काल गुरबख्श लाल की जुबानी गन्दी गालियों का तूफान फट पड़ा ।
कुशवाहा सहमा-सा खड़ा उसके खामोश होने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“कुशवाहा !” - अन्त में गुरबख्श लाल दहाड़ा - “वहां दुगने आदमी भेज । तिगने आदमी भेज । उन्हें कह कि इस मादर... कुत्ते चार्ली और उसके बहन... हिमायतियों की ईंट-से-ईंट बजाकर आये ।”
“अब ये ठीक न होगा ।” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला ।
“क्यों ?” - गुरबख्श लाल आंखें निकालकर बोला ।
“वहां पुलिस का फेरा लग चुका होगा ।”
“चार्ली ने पुलिस को खबर करने की हिम्मत की होगी ?”
“पुलिस खुद ही पहुंच गयी होगी । आखिर भरे बाजार में वो वारदात हुई थी ।”
“तो क्या करें ? मार खाके चुपचाप बैठ जायें ?”
“नहीं । लेकिन दोबारा वार करने से पहले हालात का जायजा लेना बेहतर होगा । हमें नहीं मालूम वो कथित धोबी कौन हैं और वो चार्ली के हिमायती कैसे बन गये हैं । हमें उनकी ताकत की खबर नहीं । हमारे तिगने आदमियों के स्वागत के लिए वहां छ: गुने आदमी मौजूद हो सकते हैं । हमारे आठ क्या अस्सी आदमी भी पिट के वापिस आ सकते हैं ।”
“बात तो तू ठीक कह रहा है लेकिन... उस हरामजादे चार्ली की ऐसी मजाल कैसे हो गयी ? वो खड़े पैरे इतनी सलाहियत वाला आदमी कैसे बन गया ? रेड की बाबत बात करता फोन पर ही वो गिड़गिड़ा रहा था, रहम की भीख मांग रहा था मेरे से, फोन रखते ही इतना कहर बरपाने लायक औकात हो गयी उसकी ?”
“इसी बत की तो मुझे हैरानी है, लाल साहब ।”
“उसे जरूर किसी की शै हासिल हुई है ।”
“आनन-फानन ? खड़े पैर ?”
“वो पहले से ही चुपचाप कोई खुसर-फुसर कर रहा होगा । तभी तो मेरे मुंह पर कह गया कि वो अब ड्रग का धन्धा नहीं करेगा !”
“मैं मालूम करूंगा क्या माजरा है ।”
“कुशवाहा, शै तो शर्तिया है उसे किसी की ।”
“लाल साहब, अगर उसने ड्रग का धन्धा ही छोड़ दिया तो वो शै देने वाले के किस काम का हुआ ?”
“वो धन्धा नहीं छोड़ रहा होगा । वो कुत्ता मेरी छतरछाया से बाहर निकलने के लिए ऐसा भौंक रहा होगा । कुशवाहा, मुझे तो कुछ और ही सूझ रहा है ।”
“क्या ?”
“कोई इस शहर में हमारे खिलाफ सिर उठा रहा है ।”
“ऐसा कहीं हो सकता है, लाल साहब ?”
“हो तो नहीं सकता लेकिन...”
“इस शहर में कोई आपकी मुखालफत करने की, आपके खिलाफ सिर उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता । और ये बात आपने वो दर्जनों सिर काट के स्थापित की है जिन्होंने कभी आपके खिलाफ उठाने की जुर्रत की थी ।”
“सब दुरुस्त है । मुझे खुद एतबार नहीं कि इस शहर में मेरे खिलाफ सिर उठाने की जुर्रत कोई कर सकता है । फिर भी तू पता लगा कि कोई सिर कटने के लिए तड़प तो नहीं रहा ?”
“ठीक है ।”
“और ये भी पता लगा कि चार्ली के हिमायती वो धोबी कौन हैं और उसका सरगना कौन है ?”
“जरूर ।”
“चार्ली से मैं खुद बात करूंगा ।”
“यही बेहतर होगा ।”
“लेकिन उनसे बात करने की नौबत आने से पहले तू एक काम कर।”
“क्या ?”
“वो मेरे भांजे का दोस्त, वो मुसलमान, जो कल रात उसके साथ था...”
“शफीक खबरी !”
“वही । वो हस्पताल में है । किसी तरह उससे ये पता कर कि क्या उसे और सुन्दरलाल को स्मैक चार्ली ने दी थी ?”
“ठीक है, लाल साहब ।”
फिर वार्तालाप समाप्त हो गया ।
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