आखिरी ख्वाहिश
सूरज डूब रहा था, साये लंबे होते जा रहे थे व पेड़ों पर परिंदों क चहचहाहट भी न थी। घास में कीड़े-मकौड़ों की भनभनाहट पूरे माहौल पर मौत की सन्नाटा की तर पसरा हुआ था। यह सन्नाटा किसी को भी भयभीत कर सकता था।
वह उस इलाके में इकलौता ऐसा घर था जिसके आस-पास लंबे वृक्ष और घनी झाड़ियों के सिवाय और कुछ न था।
चारों तरफ घना अंधेरा छाते ही वहाँ छाई खामोशी गहराती हुई गहन निस्तब्धता में तब्दील हो रही थी। दरअसल चाँद को एक बड़े काले टुकड़े ने ढक दिया था।
उस घर के किसी कमरे में बिस्तर पर पसरी हुई शालिनी बिष्ट यूं तो अपने जीवन के 19 बसंत सफलतापूर्वक देख चुकी थी परंतु ना जाने वह किस बात को ले कर चिंतित थी जिसकी वजह से उसकी नींद आज कोसों दूर थी।
सहसा शालिनी ने महसूस किया की आज की रात उसके इस घर में अकेले हो की वजह से वहाँ छाई खामोशी एक रहस्यमय खामोशी में परिवर्तित हॉट जा रही है। सायं... सायं करता सन्नाटा इतना पैना हो उठा है कि दूर कहीं उभरता कुत्तों के भौंकने का स्वर सहमकर ठिठक सी गई थी।
अंधेरा अब गहराकर घने काले भयवाह अंधेरे में परिवर्तित हो उठा था।
उन कुत्तों के भौंकने का स्वर उस सन्नाटे को चीरती हुई शालिनी के कान के पर्दे से टकराने का क्रम शुरू कर दिया था। एक पल को शालिनी सिहर उठी। शरीर में रोमांच की लहरें भयभीत करने वाले अंदाज में सिर से पाँव तक बारम्बार घूमने लगी।
तभी हवा का एक सुगंधित झोंका आया और शालिनी के गालों से टकराकर बालों को सहलाता चला गया।
अभी शालिनी स्तब्ध स बैठा पीपल के पत्ते की तरह कांप ही रही थी कि तभी
खट...खट... खट!
दरवाजे पर दस्तक हुई। उसकी बोझिल दृष्टि सामने दीवार पर गई तो उसने देखा की रात के ठीक दो बजे का वक्त हो रहा था।
‘ओह! बाहर कौन हो सकता है? वो भी रात के इस वक्त?’ शालिनी बिष्ट ने खुद से यह प्रश्न किया और दरवाजे के करीब जा कर अगली प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी। आज वह घर पर अकेली थी उसके माँ और पिता उसकी माँ के गाँव उसके नाना की अन्तयोष्टी में सम्मिलित होने गए थे।
हालांकि उसका गाँव उत्तराखण्ड के पौड़ी जिले में सतपुली नामक जगह पर पड़ती थी जो की उसके वर्तमान निवास देहरादून से 150 किमी दूर थी जिसकी वजह से कल सुबह से पहले उसके माँ और पिता के लौटने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।
शालिनी के पिता आनंद सिंह बिष्ट को अचानक ही सुबह फोन आया था कि उसके श्वसुर की हृदयगति रुकने की वजह से मौत हो गई है। उसके पिता ने आनन फानन में अपनी कार उठाई और अपनी धर्मपत्नी सुनीता बिष्ट के साथ अपने ससुराल सतपुली के लिए निकल पड़े। जाते-जाते उन्होंने शालिनी को हिदायत दी थी की कुछ भी हो घर का मुख्य दरवाजा ना खोले जब तक की वे वापिस नहीं आ जाते।
परंतु आज किसे पता था की इतनी बड़ी अनहोनी शालिनी की राह देख रहा था और वह मौका पाते ही उसके घर में प्रवेश करने की हौड़ में था।
खट...खट... खट!
तभी दरवाजे पर फिर से आहट हुई।
‘कौन है?’ शालिनी ने बुलंद आवाज में पूछा।
मगर बाहर से कोई जवाब नहीं आया। वह उस दरवाजे को खोलना नहीं चाहती थी लेकिन उसके मन में जिज्ञासा थी जिसने शब्दों का रूप ले लिया और वह खुद से ही बड़बड़ाई, ‘आखिर बाहर कौन है? कहीं उसे किसी मदद की जरूरत तो नहीं?’
यह कहते के साथ ना चाहते हुए भी उसके हाथ अनायास ही किसी अदृश्य शक्ति की मदद से सिटकनी की तरफ बढ़ गए और उसने दरवाजा खोल दिया।
शालिनी ने बाहर देखा लेकिन वहाँ कोई मौजूद नहीं था। वह दरवाजे की सीमा से बाहर आ गई और उसने अपनी दृष्टि चारों दिशा में दौड़ाई लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
वहाँ किसी को ना पा कर शालिनी की आँखों में आश्चर्य का समुद्र ठाठें मार रहा था।
‘ओह यहाँ तो कोई भी मौजूद नहीं हैं। मुझे इस वक्त यहाँ नहीं होना चाहिए था।’ इस शब्दों ने उसके मस्तिष्क को झिंझोड़ा और वह चौंककर वर्तमान में आ गई।
बादल का वो टुकड़ा जो अब तक काजल जैसा अंधकार किए हुए था न जाने वो किस दिशा में उड़ गया था। चाँद का उजाला पूर्व की भांति फैल गया था।
उस वीराने में भौंकते कुत्तों का स्वर अब पहले से ज्यादा स्पष्ट हो गई थी।
चारों ओर छाया सन्नाटा वातावरण को भयावह अंदाज देता हुआ शालिनी के जिस्म में खौफ उत्पन्न कर रहा था।
शालिनी को ऐसा महसूस हुआ जैसे वहाँ के वातावरण में खुली रहस्यमयी दहशत और भी पैनी हो उठी हो। एक बारगी शालिनी का हृदय जो से धड़का किन्तु स्वयं को लापरवाह प्रदर्शित ना करते हुए उसने दुबारा से उस जगह के चारों तर सूक्ष्म अवलोकन करने लगी।
तभी तेज हवा का झोंका शालिनी के जिस्म से टकरा गया। उसके भीतर डर का एक भभका सा उठा और वह नख से शीर्ष तक सिहर उठी। सहसा उसे एहसास हुआ कि उसके पीछे कोई खड़ा है। इस एहसास से ही उसका जिस्म कंपकंपा उठा।
वह बिजली की फुर्ती से पीछे पलटी, परंतु वहाँ कोई नहीं था। एक अजीब सा खौफनाक और रहस्यमयी सन्नाटा घर के बाहर फैला हुआ था। भयभीत हो कर शालिनी ने दरवाजा बंद किया और रसोई में जा पहुंची।
उसने फ्रीज़ खोला और एक ही सांस में पानी की पूरी बोतल खाली कर गई। वापिस अपने बिस्तर पर आ कर लेटने का प्रयास किया।
‘आखिर बाहर कौन था जिसने कुंडी बजाई थी। मेरे दरवाजे को खोलते ही भला इतनी जल्दी कहाँ अदृश्य हो सकता है?’
शालिनी के मन में विचित्र सी उथल-पुथल मची थी। इस घटना के बारे में सोचते-सोचते उसकी आँखें मूँदने लगी। उस पर अब नींद की खुमारी छाने लगी थी नतीजतन वह जल्द ही नींद के आगोश में समा गई थी।
‘शालू... शालू...! अपनी आँखें खोलो!’
यह स्वर शालिनी के कानों में पड़ते ही वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसकी दृष्टि जैसे ही सामने पड़ी वह एकदम से चौंक पड़ी और बोली, ‘माँ आप।’
‘क्या हुआ तु तो ऐसे चौंक रही है जैसे तूने मुझे पहली बार देखा है?’ माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘वो दरवाजा तो बंद था फिर आप अंदर कैसे आईं?’ शालिनी ने यह कहते के साथ अपनी दृष्टि माँ के ऊपर जमा दी।
‘तुम्हारी लापरवाही की वजह से।’ माँ ने उसे जवाब देते हुए कहा। जिसे सुनते ही शालिनी ने अपने कंधे उचकाते हुए दोनों भौंह उठाकर कारण जानना चाहा। जिसे देखते हीउसकी माँ ने फिर से जवाब देते हुए कहा, ‘तुमने रात को दरवाजा तो बंद किया था मगर तुम कुंडी लगाना भूल गई थी। तुम्हारी इसी लापरवाही की वजह से हम अंदर आने में कामयाब हुए। नहीं तो तुम्हारी नींद खुलने तक हमे बाहर ही प्रतीक्षा करनी पड़ती।’
‘धत्त तेरी की, लगता है कल सिटकनी खोलने के बाद मैं उसे बंद करना ही भूल गई थी।’ यह कहते हुए शालिनी ने अपने माथे पर हाथ दे मारा था।
‘अच्छा जाओ अब हाथ पाँव धो के आओ और जल्दी से दूध ले के आओ। थकान की वजह से सारा शरीर चूर-चूर है। लगता है कि तुम्हारे हाथ की चाय पीने के बाद ही जाएगी।’ यह कहने के बाद उसकी माँ के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।
किसे पता था की यह घटना तो भविष्य में होने वाली खौफनाक मंजर का परिसूचक मात्र था। शालिनी के घर में दो ही कमरे थे। मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते ही डायनिंग रूम था जिसे शालिनी देर तक अध्ययन करने के लिए भी इस्तेमाल करती थी। उसके बाद रसोईघर था जिसके अंतिम छोर पर दो कमरे थे जिसमे से बाईं तरफ वाले में उसके माँ-पिता और तो वहीं दाहिनी तरफ वाली में शालिनी खुद सोया करती थी।
हालांकि डायनिंग रूम में एक कोने में एक छोटा स बिस्तरा भी लगा हुआ था जिसका इस्तेमाल मेहमानों के लिए होता था। उसके बाजू में ही स्टडी टेबल लगा हुआ था जिसकी वजह से कभी शालिनी को पढ़ते पढ़ते देर हो जाए तो वह वहीं बिस्तर पर लेट जाया करती थी।
उस रात भी शालिनी कोई हॉरर उपन्यास पढ़ने में लगी हुई थी। वह अकसर इस तरह की किताबें अपने माता-पिता से छिपकर पढ़ती थी। उसे इस तरह की किताबें पढ़ने की वजह से कई बार डांट का सामना करना पड़ा था जिसकी वजह से वह रात को सभी के सो जाने के बाद ही अपने इस शौक को पूरा करती थी।
खट...खट... खट!
तभी दरवाजे पर आहट हुई।
उसकी दृष्टि दीवार घड़ी पर गई तो उसने देखा की घड़ी रात के दो बजने का इशारा कर रही थी।
‘उफ्फ़ रात के इस वक्त कौन हो सकता है?’ यह कहते के सात उसने उस उपन्यास को बिना बंद किए ही दरवाजे की तरफ बढ़ चली।
शालिनी ने इस बार बिना कुछ कह कहे ही दरवाजे को खोल दिया। आज भी उसे कोई दिखाई नहीं दिया परंतु वह दृढ़ निश्चय कर के आई थी की वह इस सत्य का पता लगाकर ही दम लेगी।
तभी उसकी दृष्टि एक सफेद साये पर पड़ी जो मेन गेट के बाहर खड़ी थी। उस साये ने अपने एक हाथ हवा में उठाया और अपनी तरफ आने का इशारा किया। ना चाहते हुए भी शालिनी उस दिशा में बढ़ने लगी। उसने मेन गेट को भी खोल दिया अब वह सड़क पर ठीक सड़क पर थी। उसकी आँखों की पुतलियाँ फैली हुई थीं मानो ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी ने उसे सम्मोहित कर लिया हो।
‘मुझे इंसाफ चाहिए...!’ अचानक उस साये के कंठ से यह आवाज आई और शालिनी के कानों से जा टकराई।
यह आवाज सुनते ही शालिनी सामान्य अवस्था में आ गई। अगले ही पल उसने देखा की वह साया उसके करीब आ रहा था। अगले ही पल जो दृश्य सामने था उसे देखकर शालिनी के प्राण हलक में आ गए।
वह साया और कोई नहीं बल्कि स्वयं उसके नाना भरत सिंह चौहान थे। उनकी आँखें सुर्ख लाल और चेहरे पर निषतेज भाव थे।
शालिनी की नजर जैसे ही उनके खून से सने कुर्ते पर गई तो हलक फाड़ कर चीख उठी और वहीं बेहोश हो गई।
शालिनी को जब होश आया तो उसने देखा की उसका सिर उसकी माँ के गोद में था। लेकिन वहीं दो फुट की दूरी पर उसके पिता गुस्से से उस हॉरर उपन्यास के पृष्ठ पलट रहे थे।
‘कैसी हो शालू?’ शालिनी की पलक खुलते ही उसकी माँ ने उसका हाल जानना चाहा।
‘माँ मैं अब ठीक हूँ बस सिर में हल्का सा दर्द है।’ शालिनी ने सिर दर्द का बहाना बनाकर झूठ बोलने का सफल अभिनय किया।
वह जानती थी की यदि वह ऐसा ना करती तो उसके सामने सवालों के अम्बार लग जाते और उस हॉरर उपन्यास को ले कर डांट पड़ती वो अलग।
‘ठीक है तुम कुछ देर आराम करो। मैं चाय बनाकर लाती हूँ, उस से शायद तुम्हें कुछ आराम मिले।’ सुनीता बिष्ट यह कहती हुई रसोई की तरफ जाने लगी तभी शालिनी के पिता आनंद सिंह बिष्ट ने कहा, ‘अरे उस से पूछो तो सही की वह इतनी रात बाहर क्या करने गई थी?’ अपने दांतों को पीसते हुए आनंद सिंह बिष्ट ने सवाल किया लेकिन जवाब में सुनीता ने अपने दोनों पलकों को झुकाकर शांति बनाए रखने के लिए कहा।
परंतु सुनीता की इस हरकत से वह संतुष्ट नहीं हुए और उसके पीछे रसोई तक जा पहुंचे और सुनीता के हाथ पर एक उपन्यास थमाते हुए बोले, ‘यह हॉरर उपन्यास उसकी टेबल पर क्या कर रहा है? जब उसे मैं कितने दफे चेतावनी दे चुका हूँ तो यह लड़की मानती क्यों नहीं?’
सुनीता ने इस बार बड़ी धीरज के साथ जवाब दिया, ‘देखो अभी उसकी तबीयत सही नहीं है। चिंता न करो मैं उस से सभी बात पूछ लूँगी, तब तक जाओ आप आराम करो।’
शालिनी के सामान्य होने के बाद उसकी माँ ने उसके रात को बाहर होने का कारण पूछा तो उसने अपनी माँ से झूठ कहा की रात को उसकी स्कूटी बाहर ही खड़ी थी जिसकी वजह से वह उसे गेट से अंदर करने गई थी। फिर अचानक उसकी नजर काली बिल्ली पर पड़ी तो वह डर के बेहोश हो गई।
शालिनी अच्छे से जानती थी की यदि वह कल रात की सच्चाई बताती तो उसे अच्छी तरह डांट पड़ती और उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करता। वह पूरे दिन सोच में डूबी रही लेकिन उसने अपनी समस्या किसी के सामने उजागर नहीं होने दी।
लेकिन जैसे-जैसे शाम ढलती जा रही थी शालिनी के में अनजाना सा खौफ गहराता जा रहा था। कल रात की घटना उसके मानसिक पटल पर उभर पड़ती जिसकी वजह से उसकी धड़कनों की गति तेज हो जा रही थी।
उसने आज मन ही मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था की वह आज इस सच्चाई का पता लगाकर ही रहेगी, वह इस तरह घूंट-घूंट कर नहीं जी सकती थी। उसने आज डायनिंग रूम में नाइट बल्ब जलाया और बिस्तर पर जा पसरी।
उसकी नजर दीवार घड़ी पर जाती और उसके बाद वह दरवाजे की तरफ देखती। वह इस क्रम को काफी देर से दोहरा रही थी। पता नहीं क्यों उसे ऐसा एहसास हो रहा था की आज उस साये से फिर से उसकी मुलाकात होगी और वह जानेगी की वह वाकई उसके नाना ही थे या फिर कोई छलावा।
थोड़ी ही देर में दीवार घड़ी ने जैसे ही दो बजने का इशारा किया तभी दरवाजे पर फिर से आहट हुई।
खट...खट... खट!
शालिनी झट से बिस्तर से खड़ी हुई और बिना सोचे समझे दरवाजा खोल दिया। बाहर चारों तरफ अंधेरा फैला हुआ था। कहीं कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। वह कुछ देर तक उसी स्थिति में खड़ी रही लेकिन जब कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसने अंदर आ कर दरवाजे को बंद कर लिया।
वह अपने बिस्तर पर आ कर पसर गई और हल्की सी मुस्कुराहट के साथ बोली, ‘शायद पापा सही कहते थे वह सभी घटनाएं मेरे मन का वहम था। रात को उस तरह की किताबें पढ़ने की वजह से उसका असर काफी देर तक रहता है।’
यह कहने के बाद शालिनी ने अपनी आँखें मूँद ली।
तभी अचानक वह चिहुँककर उठ बैठी। उसने अपने चेहरे पर किसी का स्पर्श महसूस किया था। उसने आस-पास अपनी दृष्टि का विस्तार कर के जायजा लेने की कोशिश की लेकिन उसके अतिरिक्त वहाँ कोई भी मौजूद नहीं था।
‘आखिर वह किसका स्पर्श था? वह ठंडे हाथ जैसे बर्फ की कोई सिल्ली हो, भला यह कैसे संभव है?’ शालिनी ने खुद से सवाल किया लेकिन हमेशा की तरह उसे कोई जवाब नहीं मिला।
वह कुछ देर तक बिल्कुल खामोश किसी बूत की तरह एक ही अवस्था में बैठी रही।
उसने घड़ी में देखा की रात के ढाई बजे का वक्त हो चला था। उसने थक हारकर सोने का ही फैसला किया। वह बिस्तर पर पूर्वस्थिति में लेट गई।
‘चटाकsss!’
इस आवाज से कमरा गूंज उठा। शालिनी अपने बाएं गाल पकड़कर बैठ गई थी। उसके कानों में उस थप्पड़ की गूंज अब भी गूंज रही थी।
वह बुरी तरह डर गई थी। दहशत के कारण उसका हलक सुख गया था। शालिनी ने टेबल पर रखा पानी का बोतल एक ही सांस में खाली कर दिया। उसने अपने धड़कते दिल पर काबू करने के लिए गहरी-गहरी सांस लिया।
‘नहीं यह मेरा वहम नहीं हो सकता। यह जरूर उसी साये का खेल है जो मुझे पिछले कुछ दिनों से परेशान कर रहा है।’ शालिनी ने मन ही मन में खुद को आसवस्त किया।
उसने इस बार बची खुची ऊर्जा इकट्ठी की और चीख कर बोली, ‘मैं जानती हूँ तुम जो भी हो इस वक्त इस कमरे में मौजूद हो। मैं तुम्हें चेतावनी देती हूँ की तुम जो भी हो मेरे समक्ष आओ।’
शालिनी की यह मेघ गर्जना काम कर गई। उसने देखा कि अगले ही पल दरवाजे के पास आदमकद का कोई साया खड़ा था। उससे फूटती सुगंध उसकी थूथन से जा टकराई। शालिनी को ऐसा महसूस हुआ जैसे प्रकृति की पूरी सुवास उस सुगंध से साँसों के द्वारा उसके शरीर में समा गई हो।
आनंद की अधिकता से शालिनी का शरीर झनझना उठा। उसने अपनी हथेली उस साये की तरफ करनी चाही थी कि तभी अचानक ही कमरे का पंखा उल्टी दिशा में घूमने लगा। उस कमरे की बत्तियाँ भी झप-झप कर के जलने बुझने लगीं। उस कमरे में अजीब सा भय का वातावरण उत्पन्न हो गया था।
शालिनी के जेहन में झटका सा लगा और वह स्तब्ध सा उस विचित्र घटना पर पलकें झपझपाती ही रह गईं।
तभी वह साया शालिनी की तरफ धीरे-धीरे बढ़ने लगा। वह अब शालिनी के काफी करीब था। शालिनी ने अपनी नजर उठाकर देखा तो अवाक रह गई। वह साया और क नहीं बल्कि उसके नाना ही थे लेकिन उनकी यह अवस्था देखकर वह विचलित हो गई।
आज भी उनका हुलिया अजीब सा था। उनके कुर्ते से खून रिस रहा था और उसके करीब आते ही बोले, ‘मुझे इंसाफ चाहिए...!’
शालिनी के आँखों में आश्चर्य उभरा जो कि एक अनजाने खौफ में तबदील होता चला गया। उसका जिस्म पसीने से नहाया हुआ लग रहा था। दिल की धड़कनें यूं बढ़ी हुई थी जैसे पसलियों को तोड़कर बाहर आ जाना चाहता हो।
‘नहीं मुझे बचाओ!’ इस चीख के साथ शालिनी ने अपनी आंखें बंद कर ली और लगातार जोर-जोर से चीखने लगी।
थोड़ी देर में ही कमरे में प्रकाश फैल गया और उसकी माँ सुनीता उसको अपने गले से लगाती हुई बोली, ‘क्या हुआ शालू? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’
लेकिन अचानक ही शालिनी को ना जाने क्या हुआ उसने अगले ही पल पूरी ताकत से अपनी माँ को धकेल दिया। सुनीता पछाड़ खाती हुई आनंद सिंह बिष्ट से जा टकराई। वह तो शुक्र था की उसके पति बीच में आ गए थे नहीं तो सुनीता का सिर दीवार से लगकर फट जा सकता था।
उसकी इस असीमित ऊर्जा को देखकर दोनों कुछ देर तक एक दूसरे का मुंह ताकते रहे। सुनीता ने इस बार हिम्मत की और उसके करीब आ कर उसके सिर को सहलाते हुए कहा, ‘शालू क्या तुमने कोई बुरा सपना देखा?’
शालिनी ने झट से अपना चेहरा ऊपर उठा दिया और कर्कश आवाज में बोली, ‘नहीं माँ, मैंने अपने नाना जी को देखा जो मुझे देखकर एक ही बात बार-बार दोहरा रहे थे- मुझे इंसाफ चाहिए...!’
‘क्या बकवास कर रही हो?’ उसकी इस बात से उसके पिता भड़क उठे और बोले, ‘यह क्या उल जुलूल बाते कर रही हो। तुम्हारे नाना की मृत्यु हुए तीन दिनों से अधिक हो गए हैं भला वो यहाँ कैसे आ सकते हैं?’
‘मुझे इंसाफ चाहिए...! मुझे इंसाफ चाहिए...!’ इस बात को शालिनी बार-बार दोहराने लगी और उसकी धमनियों में बहता लहू पल प्रतिपल ठंडा होता चला गया नतीजतन वह बेहोश हो गई।
तभी सुनीता बिष्ट की दृष्टि शालिनी के गया पर पड़ी तो वह चौंक उठी।
शालिनी के दायें गाल पर इंसानी पंजों के खूनी निशान थे। पांचों उँगलियों के निशान बिल्कुल स्पष्ट दिख रहे थे। सुनीता यह देखते ही कांप उठी। भय के मरे उसकी आँखें फट गई। उसके लरजते हाथ की उँगलियाँ गाल तक पहुंची और उन निशान को स्पर्श करने लगी जहां खून के बने उंगलियों के निशान थे।
‘ओह्ह! यह तो किसी इंसान का ताजा रक्त है। इसका मतलब शालिनी... सच...!’
‘बच्चों जैसी बातें मत करो। यह मत भूलो की वह हॉरर उपन्यासों की शौकीन है और यह सब और कुछ नहीं उन्हीं चीजों का असर है।’ आनद सिंह बिष्ट ने सुनीता की बातों को बीच से ही काटकर अपनी बात रखने की कोशिश की थी।
लेकिन सुनीता इतनी जल्दी अपनी हार कहाँ मानने वाली थी, ‘यदि तुम्हारा कहना सच है तो फिर शालू के गाल पर खूनी इंसानी पंजे के निशान कैसे उभर आए, जबकि सामने दरवाजा बिल्कुल ही बंद है।’
सुनीता की बातों ने इस बार आनंद सिंह बिष्ट को सोचने पर मजबूर कर दिया। उसका दिमाग किसी चकरघिन्नी की तरह घूम गया। कहीं ना कहीं उनकी बातें भी समझ में आ रही थी की सच को झुठलाया नहीं जा सकता था। जो सुबूत शालिनी के गालों पर दस्तक दे रहे थे उस से मुंह मोड़ना इतना आसान नहीं था।
‘मुझे लगता है कि शालू के नाना हमसे कुछ कहना चाहते हैं। कही मेरा शक सच ना साबित हो जाए?’ सुनीता ने अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा।
‘कैसा शक? तुम क्या कहना चाहती हो?’ आनंद सिंह बिष्ट ने उसकी मंशा जाननी चाही।
‘दरअसल मुझे लगता है की शालिनी के नाना की मृत्यु प्राकृतिक नहीं हुई थी?’
‘मतलब?’
‘मतलब यह की उनकी किसी ने हत्या कर दी है और वह उस इंसाफ के लिए अब भी भटक रही है।’
‘यह सरासर बकवास है। मैं आत्माओं के वजूद पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करता।’ यह कहते के साथ आनंद सिंह बिष्ट के दिल में कांटे से चुभ उठे और आँखें क्रोध से सुलग उठी की तभी शालिनी होश में आ गई। उसने झटके से अपने पिता का कॉलर पकड़ा और बोलने लगी, ‘मुझे इंसाफ चाहिए...! मुझे इंसाफ चाहिए...!’
यह कहती हुई अपनी आँखों की पुतलियों को लगातार घुमाये जा रही थी।
आनंद सिंह बिष्ट लाख कोशिशों के बावजूद भी खुद को उसकी पकड़ से आजाद नहीं करवा पा रहे थे। आनंद सिंह बिष्ट के शरीर में भय की सिहरन ने उसके रौंगटे खड़े कर दिए थे। वह समझ नहीं पा रहे थे की यह क्या बला है?
बड़ी मुश्किल से उन दोनों ने मिलकर शालिनी पर नियंत्रण पाया और उसके हाथ पाँव को कुर्सी के साथ बांध दिया। अचानक हुई इस हरकत की वजह से सुनीता ने पहली बार अपने पति के चेहरे का रंग फक्क पड़ते देखा था।
चंद पलों तक वह निस्तेज हुआ खड़ा रहा तत्पश्चात सुनीता को टटोलने वाली दृष्टि से घूरते धमकी भरे स्वर में बोला,
‘सुनीता मैं अस्पताल फोन कर के एम्बुलेंस को बुलवाता हूँ। मुझे लगता है इसे जल्द ही उपचार की आवश्यकता है।’
‘नहीं ठहरो जरा।’
आनंद सिंह बिष्ट ने चिहुँककर सुनीता की तरफ देखा।
सुनीता बोली, ‘मुझे लगता है की कुछ चीजों का इलाज अस्पताल में नहीं हो सकता। और शालू का यह लक्षण स्वयं बयान कर रहा है की वह किसी मानसिक संतुलन खो जाने की वजह से नहीं बल्कि उसके पीछे कुछ और कारण है।’
‘तुम कहना क्या चाहती हो?’
‘यही की मुझे शालिनी की बातों में सच्चाई नजर आती है। वह जो कुछ भी कह रही थी बिल्कुल सत्य था। उसने वाकई अपने नाना को अपनी मदद मांगते हुए देखा है।’
‘क्या?’
‘हाँ, मेरी मानो तो इस गाँव के सीमा के पास जो मरघट है ना वहाँ जाओ। वहाँ उस मरघट के एक कोने में एक झोपड़ी है जहां तांत्रिक अटलानन्द निवास करते हैं। वह बहुत पहुंचे हुए तांत्रिक हैं और उनकी सिद्धियाँ ही उनकी पहचान है। तुम जल्दी जाओ और उन्हें ले कर यहाँ आओ।’
‘लेकिन।’
‘लेकिन वेकीन कुछ नहीं। मैं अपनी इकलौती जवान लड़की नहीं खो सकती। उनके सिवा अब हमारी कोई भी मदद नहीं कर सकता। इसलिए तुम जाओ और उन्हें अपने साथ ले कर ही वापिस आना।’
मारता क्या न करता, आनंद सिंह बिष्ट उसकी बात को मानने को विवश हो गया था। आखिर उसे भी एक हद तक इन अप्रत्याशित घटनाओं ने काफी प्रभावित कर दिया था।
सुनीता की आँखों में चिंता व आशाओं के बादल मंडरा रह थें। उसका शरीर पिछली घटनाओं को याद कर के हौले-हौले कांप भी रहा था।
एक घंटे के अंदर वह किसी तांत्रिक के साथ वहाँ खड़ा था।
सुर्ख लाल आंखे, श्याम चमड़ी, बड़ी बड़ी सफेद दाढ़ी के साथ काले रंग के चोले और धोती के साथ वह अपने तांत्रिक होने की पुष्टि कर रहा था।
थोड़ी देर में ही पूरे कमरे को अंधकार में कर दिया गया। शालिनी कुर्सी पर बैठी थी और उसके चारों तरफ लाल सिंदूर का घेरा था। उन घेराओं के बाहर मिट्टी का दीपक प्रज्वलित हो रहा था।
तांत्रिक अटलानन्द बिल्कुल उसके सामने ही बैठा था, उसके एक हथेली में इंसानी खोपड़ी तो दसूरे में मानव कंकाल की हाथ की लंबी हड्डी थी। अपनी दोनों आँखों को बंद करते हुए कोई मंत्र बुदबुदाने की चेष्टा कर रहा था और साथ ही उसने उस लंबी हड्डी को उस कंकाल खोपड़ी पर धीरे-धीरे घुमाना शुरू किया।
कुछ देर बाद उसने अक्षत और लाल फूल को शालिनी के जिस्म पर फेंक दिया। ऐसा करते ही शालिनी अपनी कुर्सी से बैठे-बैठे उछल पड़ी।
‘छोड़ दे मुझे छोड़ दे। मुझे क्यों कैद किया है तूने?’ शालिनी के मुख से अजीब सी आवाज आने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे शालिनी के आवाज के साथ किसी मर्द की आवाज भी मिश्रित हो।
‘तू कौन है और तू शालिनी के जिस्म में क्या कर रहा है?’ तांत्रिक अटलानन्द ने सवाल किया।
‘मुझे इंसाफ चाहिए...! मुझे इंसाफ चाहिए...!’ शालिनी बार-बार यह शब्द दोहराने लगी।
‘पहले तू बता तू कौन है और शालिनी को क्यों परेशान कर रहा है?’
‘मेरा नाम भरत सिंह चौहान है और मैं शालू का नाना हूँ।’
यह सुनते ही आनंद सिंह बिष्ट और सुनीता एक दूसरे के मुख को ताकने लगे।
‘मेरी धोखे से हत्या की गई है और मुझे इंसाफ चाहिए...! मैं उसे नहीं छोड़ूँगा बिल्कुल भी नहीं छोड़ूँगा।’ यह कहते के साथ शालिनी अजीब किस्म से हंसने लगी।
‘क्या तुझे अपनी बेटी और दामाद के दुख नहीं दिखाई दे रहे। भला इस छोटी बच्ची का क्या कुसूर जो तू उसे इतनी यातनाएं दे रहा है।’
‘मेरे पास अपनी सच्चाई बताने का इसके सिवा कोई रास्ता नहीं था। मैं चाहता हूँ की मेरे गुनहगार को उसकी कर्मों की सजा मिले।’
‘ठीक है ऐसा ही होगा लेकिन तुम्हारी हत्या कैसे हुई बताओ।’
‘दरअसल मेरी पत्नी का देहांत हुए एक अरसा बीत चुका है और मैं अपने गाँव में अकेले ही रहता हूँ। मेरी एक ही पुत्री थी जिसके विवाह के पश्चात मेरे जीवन का उद्देश्य सफल हुआ। मेरी बेटी ने कितनी बार मुझे अपने साथ देहरादून रहने को कहा लेकिन मुझे शहर की चकचौंध बिल्कुल भी ना भाँति। हाँ मैं कुछ दिनों के लिए अक्सर वहाँ आया जाया करता था लेकिन मुझे अपना गाँव में रहने में आनंद आता था।
बात कुछ समय पहले की है मेरा पड़ोसी संदीप चौहान मुझसे मेरा खेत और घर हड़पना चाहता था तो मैंने उसकी एक बात भी नहीं मानी। उसने बदले में मोटी रकम देने की बात कही लेकिन मैं धन का लोभी नहीं था और अपनी आखिरी सांस भी इसी गाँव की मिट्टी में लेना चाहता था।
एक रात धोखे से उसने मुझे सोता देख कुल्हाड़ी से वार कर दिया। वह तब तक वार करता रहा जब तक मेरे शरीर से प्राण पखेरू नहीं उड़ गए। मेरा पूरा जिस्म लहूलुहान हो गया था। उसने मेरे अंगूठे से सारे दस्तावेजों पर अंगूठे का निशान ले लिया। इस अपराध को छिपाने के लिए रातों-रात मेरी श्मशान में अंतिम संस्कार कर दिया।
उसके बाद तुम्हें उसने रात में मेरी मौत की सूचना दी की हृदयगति के रुकने मेरी मौत हुई है। उसे अच्छी तरह से पता था की देहरादून से आने में तुम्हें कम से कम 4 घंटे से अधिक का समय लगेगा। इसी का फायदा उठाकर उसने बड़ी चालाकी से कहानी गढ़ दी।
मुझे अपनी संपत्ति का मोह नहीं परंतु मैं चाहता हूँ की मेरी हत्या की साजिश रचने वाले संदीप को उसके किए की सजा मिले तभी मैं सुकून से मुक्ति पा सकूँगा।’ अपनी व्यथा कहने के बाद शालिनी के जिस्म में पड़ी वह आत्मा रोने लगी।
तांत्रिक अटलानन्द ने पूछा, ‘लेकिन उसने सारे कार्य चालाकी से की तो हम उसको सजा कैसे दिलवा सकते हैं?’
इस बार शालिनी चिंघाड़ते हुए बोली, ‘वह कुल्हाड़ी जिस से उसने मेरी हत्या की थी वह आज भी उसके कमरे में लोहे के बक्से में पड़ी हुई है। जिस पर लिपटे मेरे खून और उसकी हथेलियों के निशान चीख-चीखकर उसके मुजरिम होने की गुहार लगा रहे हैं।’
तांत्रिक अटलानन्द बोला, ‘ठीक है, तुम जैसा चाहते हो वैसा ही होगा लेकिन तुम्हें वादा करना होगा की इसके बाद तुम कभी शालिनी को परेशान नहीं करोगे और अपने लोक खुशी से चले जाओगे।’
‘हाँ ऐसा ही होगा। मेरा जब तक इंसाफ नहीं होगा तब तक मेरी रूह को सुकून नसीब नहीं होगा। ठीक है इस वक्त मैं जा रहा हूँ और मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरे होते ही मैं दुबारा कभी नहीं आऊँगा।’ शालिनी के आँखों में करुणा के भाव दृष्टिगत हुए तत्पश्चात उनसे रिसकर बहते नर्म आँसू की धारा फुट पड़ी। फिर कुछ पलों के बाद शालिनी का शरीर एक तरफ झूल गया।
सुनीता ने शालिनी की तरफ देखा तो एक विचित्र सा एहसास हुआ। उसे यूं लगा जैसे उसके पिता की ज्योतिविहीन भयानक आँखें शालिनी की आँखों की मदद से उसे एकटक देख रही थी।
थोड़ी देर बाद जब शालिनी को होश आया तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठी थी। आँख खुलते ही उसे रात में घटी घटना का स्मरण हो आया। नख से शीर्ष तक वह कांप गई। मगर जैसे ही उसने देखा की उसके चेहरे पर कोई भी निशान नहीं थे तो वह अचंभित हो उठी।
‘बेटा शालू! अब घबराने की कोई बात नहीं है। हमें खुशी है की तुम्हारे वजह से तुम्हारे नाना की सच्चाई सामने आ सकी और हमें एक बहुत बड़े अपराध का पता चला। अब उनको बहुत जल्द ही मुक्ति प्राप्त होने वाली है।’ सुनीता ने उसे यह कहकर अपने गले से लगा लिया था।
आनंद सिंह बिष्ट अपने साथ पुलिस को अपने ससुराल सतपुली साथ ले गए और जैसा की उन्हें बताया गया था वह खूनी कुल्हाड़ी उसी बक्से से बरामद हुई। पुलिस ने संदीप चौहान को धर दबोचा और उसे उम्र कैद की सजा मिली थी।
आखिरकार शालिनी के नाना की आखिरी ख्वाहिश पूरी हो चुकी थी।
***समाप्त***
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