3 मई : रविवार
विमल शिवाजी चौक पहुँचा।
कुछ क्षण फासले से उसने नए ट्रस्ट के ऑफ़िस का मुआयना किया। ऑफ़िस पर उसकी पूरी लम्बाई में, बाएँ से दाएँ तक चमचम, आधुनिक साइनबोर्ड लगा था जिस पर खूबसूरती से टंकित था:
छत्रपति चैरिटेबल ट्रस्ट (रजिस्टर्ड)
(फ़ॉरमरली तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट)
(एन एनजीओ रिकग्नाइज़्ड बाई स्टेट गवर्नमेंट)
रजिस्ट्रेशन नं. M-4245 फोन नं. 252***04
(फ़ॉरमरली तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट)
(एन एनजीओ रिकग्नाइज़्ड बाई स्टेट गवर्नमेंट)
रजिस्ट्रेशन नं. M-4245 फोन नं. 252***04
बोर्ड के नीचे एक झूलने वाला, होटलों जैसा शीशे का दरवाज़ा था जिसके भीतर का नजारा एक सजे हुए रिसैप्शन की तरह था, बाई ं ओर एक रिसैप्शन डैस्क के पीछे एक सुन्दरी बाला मौजूद थी।
कूपर कम्पाउन्ड में तुका के घर पर ऐसा कोई आडम्बर नहीं था। वहाँ ट्रस्ट का जो बोर्ड लगा हुआ था, वो भी छोटा-सा था और हाथ से लिखा हुआ था।
शीशे के दरवाज़े के सामने उस घड़ी कोई फरियादी नहीं दिखाई दे रहा था।
विमल ने नए हासिल हुए मोबाइल की घड़ी देखी तो पाया ग्यारह बज कर दो मिनट हुए थे।
उसका उस घड़ी का हुलिया वही था जो गुरुद्वारे में होता था। हज्जाम के पास जाने का प्रोग्राम उसने सामने हाजिरी भर चुकने तक के लिए मुल्तवी कर दिया था। हुलिए में सिर्फ एक तब्दीली उसने की थी कि अब उसके सिर पर पटका नहीं था। अपने लम्बे उग आए बालों को उसने बिना माँग निकाले कसके कंघी कर के रबड़ बैंड से सिर के पीछे बांध लिया था।
उसने ट्रस्ट का शीशे का दरवाज़ा ठेलकर भीतर कदम रखा।
रिसैप्शन डैस्क के आगे वहाँ कई विज़िटर्स चेयर्स थीं जिनमें से एक को छोड़कर सब खाली थीं। आकूपाइड कुर्सी बिल्कुल पीछे दीवार के साथ एक कोने में थी और उसका आकूपेंट नाक पर रीडिंग ग्लासिज़ अटकाए एक ए-फोर शीट का मुआयना कर रहा था।
“यस?” – आगन्तुक का ध्यान अपनी तरफ करने के लिए युवती असहिष्णुतापूर्ण स्वर में बोली – “कौन हो? क्या चाहते हो?”
“फरियादी हूँ” – अपने लहज़ेे को दीन-हीन बनाता विमल बोला – “फरियाद करना चाहता हूँ।”
“पहले कभी इधर आए?”
“नहीं, पहली बार आया।”
“यानी इधर के प्रोसीजर से वाकिफ़ नहीं हो?”
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
“मुंडी नहीं हिलाने का।” – युवती कर्कश स्वर में बोली – “जुबान हिलाने का।”
“मैं इधर के प्रोसीजर से वाकिफ़ नहीं हूँ। पहली बार आया न!”
“किसी ने पूछताछ भी न की?”
विमल इंकार में सिर हिलाने ही लगा था कि बोल पड़ा – “नहीं की।”
“तो इधर के बारे में कैसे जाना?”
“हर कोई बोलता था इधर इंसाफ़़ मिलता था, मैं सुनता था।”
तभी पीछे अकेला बैठा व्यक्ति अपने स्थान से उठा और उसने हाथ में थमा कागज़ रिसैप्शनिस्ट को थमाया।
“भर लिया?” – युवती ने निरर्थक प्रश्न किया।
“हाँ।” – वो दबे स्वर में बोला।
“बैठो। वेट करो।”
वो जाकर वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गया।
युवती वापिस विमल की तरफ आकर्षित हुई, तभी फिर विघ्न आ गया।
दरवाज़ा ठेल कर एक उम्रदराज़ शख़्स भीतर दाखिल हुआ। युवती ने हाथ के इशारे से उसे परे रुकने को कहा और वापिस विमल की ओर घूमी। उसने डैस्क टॉप के नीचे कहीं से एक फूलस्केप, जेरोक्स्ड शीट निकाली और उसे विमल को सौंपती बोली – “इस शीट पर कुछ सवाल लिखे हैं, उधर बैठ के जवाब भरो। जब भर लो तो फाॅर्म मेरे पास लेकर आना।”
“ये क्या है?”
“ख़ुद देखो। पढ़े-लिखे हो न?”
“हाँ, जी, हूँ। सरकारी मुलाज़मत में हूँ।”
“मेरे को बताने की ज़रूरत नहीं। फाॅर्म में लिखना। कलम है?”
“नहीं।”
“लो! अब कलम नहीं है! चले आए मुँह उठाए!”
“बाई, मेरे को क्या मालूम था” – विमल विनीत भाव से बोला – “इधर कोई लिखा-पढ़ी का काम होना था!”
“ठीक है, ठीक है!” – युवती ने उसे एक बाॅलपैन थमाया – “वापिस लौटाना है भरे हुए फाॅर्म के साथ, घर नहीं ले जाना। क्या!”
“लौटाना है। घर नहीं ले जाना।”
“ठीक!”
“एक सवाल का और जवाब दे दो, अहसान होगा।”
“पूछो।”
“इधर बारी आने का क्या प्रोसीजर है? कितना टेम लगता है?” – फिर उसने जल्दी से जोड़ा – “मैं सरकारी मुलाज़िम! हाफ डे की छुट्टी लेकर आया, ज्यास्ती टेम लगा तो मुश्किल होगी।”
“टेम तो लगेगा” – उसने अहसान-सा करते बताया – “पर ज्यास्ती नहीं। इधर एक दिन में पाँच भीड़ुओं को ही सुना जाता है। साढ़े ग्यारह तक इन्तज़ार करना होता है, उसके बाद पेशी शुरू होती है। पाँच से कम हों तो वांदा नहीं, पाँच से ज्यास्ती हों तो उन्हें अगले दिन आने को बोला जाता है। कोई और सवाल?”
विमल को उस घड़ी वो रेलवे की अनाउन्सर बाला की तरह बोलती लगी :
‘कृपया सुनिए। देहरादून से आकर मुम्बई जाने वाली सवारी गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर चार की जगह प्लेटफार्म नम्बर सात पर आ रही है। धन्यवाद।’
“कोई सवाल नहीं।” – विमल कृतज्ञ भाव से बोला – “शुक्रिया।”
वो पीछे जाकर एक कुर्सी पर बैठ गया।
रिसैप्शनिस्ट नए आए व्यक्ति को अटैंड करने लगी।
विमल ने फाॅर्म पर निगाह डाली। वो व्यक्तिगत जानकारी संबंधी स्टैण्डर्ड फाॅर्म था जिस पर नाम, पता, उम्र, लिंग, व्यवसाय, मोबाइल नम्बर, ई-मेल आईडेंटिटी दर्ज करना था।
पाँच मिनट बाद विमल माँगे के पैन और फाॅर्म के साथ वापिस रिसैप्शन पर पहुँचा। उसने दोनों चीजें रिसैप्शनिस्ट के सामने रखीं।
“भर लिया?” – युवती ने आदतन सवाल किया।
“हाँ, जी।”
उसने फार्म का मुआयना किया।
“साइन नहीं किए?” – वो भुनभुनाई।
गनीमत थी कि कोई नुक्स उसकी पकड़ में आ गया था वर्ना इसी बात पर कलपती कि कोई नुक्स पकड़ में क्यों नहीं आया था।
“साइन!” – विमल बोला – “कहाँ साइन? साइन का कोई काॅलम तो फार्म में मेरे को नहीं दिखा?”
“करने तो होते हैं न! जब कोई फाॅर्म भरो तो उसको एंडोर्स तो करना होता है न! कैसे सरकारी मुलाज़िम हो जो इतना भी नहीं जानते?”
“सॉरी।”
विमल ने फाॅर्म और बाॅलपैन फिर काबू में किया वो फाॅर्म के बाटम पर साइन करने ही लगा था कि रिसैप्शनिस्ट ने फिर उसे टोका।
“अरे, वहाँ नहीं! वहाँ नहीं!”
विमल का हाथ ठिठका, उसकी भवें उठीं।
“वहाँ, जहाँ सवाल ख़त्म हुए हैं। वहाँ साइन करो।”
विमल ने आदेश का पालन किया।
उस दौरान वो असंतोषपूर्ण भाव से बड़बड़ा रही थी – “पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं।”
“औरों का पता नहीं, बाई” – विमल बोला – “मैं सायन से आया।”
“कान पतले हैं तुम्हारे!” – उसने नाक सिकोड़ी – “साइन कर लिए?”
“हाँ।”
“तो इधर करो फाॅर्म।”
विमल ने फाॅर्म लौटाया।
“बाई” – फिर याचनापूर्ण स्वर से बोला – “अभी भाव नहीं खाने का। मेरे को खाली एक सवाल पूछने का।”
युवती ने अपलक उसे देखा।
“प्लीज़ कर के!”
“पूछो!” – वक्ती तौर पर तेवर ताक पर रखती वो बोली।
“बोले तो, जो फाॅर्म मैं भरा, उस पर जो छपा है, अपरले आधे हिस्से के करीब में छपा है, नीचू आधा फाॅर्म खाली है। ऐसा क्यों?”
“वो आॅफि़शियल रिमार्क्स के लिए है!” – वो यूँ बोली जैसे विमल की अक्ल पर तरस आ रहा हो।
“ओह! आॅफि़शियल रिमार्क्स के लिए है। बोले तो इधर मेरी फरियाद पर जो फैसला होगा, वो फार्म पर उसके नीचू के खाली हिस्से में दर्ज होगा?”
“अभी आई बात समझ में।”
“मेरे को कॉपी मिलेगी?”
वो फिर भड़कने को हुई।
“माथा फिरेला है!”
“स-सॉरी!”
“बैठो जाकर।”
विमल वापिस कुर्सी पर जा बैठा और साढ़े ग्यारह बजने का इन्तज़ार करने लगा।
उस दौरान एक चपरासी वहाँ पहुँचा और रिसेप्शनिस्ट से भरे हुए फार्म लेकर भीतर चला गया।
साढ़े ग्यारह आख़िर बजे।
कोई चौथा फरियादी वहाँ नमूदार न हुआ।
चपरासी फिर वहाँ पहुँचा।
“उल्हास राजे!” – वो तनिक उच्च स्वर में बोला।
पीछे कोने में बैठा सबसे पहले आया व्यक्ति उठकर खड़ा हुआ और चपरासी के पीछे चलता बीच का दरवाज़ा खोलकर भीतर चला गया। लकड़ी का एक ही चौड़े पल्ले वाला दरवाज़ा आॅटोमैटिक डोर क्लोज़र की वजह से अपने आप बन्द हो गया।
विमल प्रतीक्षा करने लगा।
अगली बारी उसकी।
पन्द्रह मिनट बाद बीच का दरवाज़ा खुला तो चपरासी ने पहले फरियादी को बाहर का रास्ता दिखाया और साथ ही विमल के बाद वहाँ पहुँचे उम्रदराज़ फरियादी को इशारा किया, जो तत्काल चपरासी के साथ हो लिया।
विमल उठके खड़ा हुआ और लपक कर रिसेप्शन पर पहुँचा।
“ये क्या?” – वो ऐतराज़ जताता बोला – “मैं पहले . . .”
“ख़ामोशी से बैठो।” – रिसैप्शनिस्ट उसे डाँटती-सी बोली – “वो बड़ी उम्र का भीड़ू! ऐसे फरियादी को इधर पहले बुलाया जाता है। रूल है इधर। जाकर सीट पर बैठो और वेट करो। अगला नम्बर लेना।”
“बीच में फिर कोई बुजुर्गवार आ गए तो?”
“मेरे को नहीं मालूम तो। जब ऐसा कोई आएगा तो . . . देखेंगे।”
“मैं पाँच मिनट के लिए बाहर जा सकता हूँ।”
“काहे वास्ते?”
“बीड़ी लगाने के वास्ते। ज़ोर की तलब लग रही है। प्लीज़ करके बोलता है।”
“ठीक है, जाओ। पाँच मिनट में न आए तो नम्बर कट।”
विमल ने उसकी बात न सुनी, वो ग्लास डोर ठेेल कर बाहर दौड़ा।
पहला फरियादी उसे सड़क से पार फ़ुटपाथ पर दिखाई दिया। उधर करीब ही बस स्टैण्ड था जो शायद उसका निशाना था।
बड़े खतरनाक तरीके से सड़क पार करके वो उस शख़्स के पास पहुँचा जिसका नाम उल्हास राजे पुकारा गया था।
“दो मिनट!” – विमल हाँफता-सा बोला – “सिर्फ दो मिनट मेरी बात सुनो। प्लीज़।”
“तुम!” – वो बोला – “उधर रिसैप्शन पर थे?”
“हाँ। क्या हुआ भीतर? आपकी समस्या हल हुई? इंसाफ़़ मिला आपको? ब्रीफ़ में बताना। प्लीज़।”
“दुत्कार मिली।” – उसकी आवाज़ भर्रा गई – “डांट कर भगाया गया। लिहाज़ किया, अहसान किया जो पीट कर न भगाया।”
“सब इसलिए कि आपने वहाँ फरियाद लगाई?”
“इसलिए कि उनकी निगाह में ऐसी फरियाद लगाई जो मेरे को नहीं लगानी चाहिए थी। अक्खी बकवास करके उनका – उन बड़े लोगों का – टेम खोटी किया। जेनुइन फरियादियों की जेनुइन फरियाद सुनने में फच्चर डाला। दफ़ा किया मेरे को!”
उसका गला रुँध गया।
“बोले, मेरा प्रॉब्लम बहुत पर्सनल।” – बड़ी मुश्किल से वो फिर बोला – “चैम्बूर का दाता उसमें कुछ नहीं कर सकता था और निकाल बाहर किया।”
“मुझे आपसे हमदर्दी है लेकिन, सॉरी, मैं और नहीं रुक सकता।”
रिस्क लेकर भीड़ में रास्ता बनाता विमल वापिस दौड़ चला।
जब उसने ग्लास डोर से भीतर कदम रखा, तब चपरासी तीसरे, उम्रदराज़, फरियादी को बाहर का रास्ता दिखा रहा था।
“किधर चले गए थे?” – चपरासी ने भी उसे झिड़का।
‘कंजर माई ंयवा!’– विमल होंठों में बुदबुदाया – ‘छाज तो बोले ही बोले, छलनी भी बोले!’
“क्या बोला?”
“कुछ नहीं।”
“क्या कुछ नहीं! मेरे को सुनाई दिया!”
“क्या सुनाई दिया?”
“पता नहीं।”
“तो फिर?”
चपरासी से जवाब देते न बना, वो रिसैप्शनिस्ट की तरफ देखने लगा।
“कश लगाने गए थे।” – दो उंगलियों को होंठों पर ले जाकर कश लगाने का एक्शन करती वो यूँ बोली जैसी विमल की खिल्ली उड़ा रही हो।
“देवा रे!” – चपरासी बोला – “हद है तलब की! अब वहाँ क्यों खड़े हो? इधर आओ मेरे साथ।”
विमल लपक कर उसके साथ हो लिया।
चपरासी ने उसे बीच के दरवाज़े के पार पहुँचाया।
विमल ने देखा, वो वैभवशाली ढंग से सज़ा दस गुणा बारह फुट का एक ऑफ़िस था जिसकी विशाल एग्जीक्यूटिव टेबल के पीछे एक नहीं, दो आदमी बैठे हुए थे। दोनों चमड़ा मंढ़ी एग्जीक्यूटिव चेयर्स पर बड़ी शान और रौब के साथ विराजमान थे। उनमें से एक कोई तीस-बत्तीस की उम्र का क्लीनशेव्ड व्यक्ति था जो सिल्क का व्हाइट सूट पहने था और सूरत और रखरखाव दोनों से कार्पोरेट एग्जीक्यूटिव लगता था। दूसरा उससे दस साल बड़ा लगता था, सिर के बाल गंजा होने की तैयारी में पीछे सरकने लगे थे और उनकी कसर वो लम्बी, मोटी कलमों से और घनी मूँछ से निकालता जान पड़ता था। वो गोल गले की टाइट, महरून टी-शर्ट पहने था जिस पर ‘आई लव मुम्बई’ लिखा था। नीचे क्या पहने था, जानना मुमकिन नहीं था क्योंकि मेज की वजह से कमर के नीचे वो दिखाई नहीं दे रहा था।
विमल को वो पक्का मवाली लगा।
दोनों ने – टी-शर्ट वाले ने ज़्यादा – सिर से पांव तक विमल का मुआयना किया।
विमल हाथ जोड़ता भीतर घुसा था, उसी मुद्रा में उनके सामने खड़ा रहा।
“रिलैक्स।” – मुआयना मुकम्मल हुआ तो सूट वाला बोला।
विमल ने हाथ नीचे किए और शरीर को ढीला छोड़ा।
“बैठो।”
मेज के आगे एक ही विज़िटर्स चेयर थी, झिझक का इज़हार करता विमल उस पर बैठा। उसने देखा, बाहर उसने जो फाॅर्म भरा था, वो उस घड़ी सूट वाले के सामने पड़ा था।
“हीरा सिंह चौहान!” – सिल्क-सूट ने फाॅर्म पर से नाम पढ़ा।
“जी, सर।” – विमल अदब से बोला।
“इधर के तो नहीं हो! – नाम ही ज़ाहिर करता है – कहाँ के हो?”
“राजस्थान का हूँ, जी!”
“अरे, किसी जगह का नाम भी तो बोलो!”
“पाली मारवाड़ का।”
“वो कहाँ है?”
“मारवाड़ और जोधपुर के बीच में है, जी।”
“कब से इधर हो?”
“बीस साल से ऊपर हो गए।”
“इसी पते पर जो यहाँ दर्ज है?” – इसने एक उंगली से फॉर्म पर दस्तक दी।
“पता मजबूरी में दो-तीन बार बदला जी, लेकिन इलाका न बदला।”
“मौजूदा पता खोली नम्बर 307, तीसरा माला, गंगादास चाल, गायकवाड़ नगर, कोलीवाड़ा, सायन?”
“जी हाँ।”
“म्यूनीसिपैलिटी में नौकरी! क्लर्क! अपर डिवीज़न!”
“जी हाँ।”
“सायन में ही?”
“जी नहीं। हैड ऑफ़िस में। जो कि फोर्ट में है।”
“कब से?”
“दस साल हो गए।”
“उससे पहले?”
“छोटी-मोटी कई प्राइवेट नौकरियाँ कीं।”
“कहीं टिके क्यों नहीं?”
“अब . . . क्या बोलूँ, जी! किस्मत की बात है।”
“यूँ ही फटेहाल नौकरी की होगी!” – टी-शर्ट वाले ने नाक चढ़ाई – “म्यूनीसिपैलिटी की नौकरी तो सरकारी नौकरी जैसी है, वहाँ कोई नहीं टोकता होगा! बाकी जगहों से इस ड्रैस की वजह से ही निकाल बाहर किया जाता होगा!”
“सर, हमारे नेता ये ड्रैस पहनते हैं।”
“देखो तो! कहाँ मुकाबला कर रहा है!”
“ड्रैस इसका पर्सनल मामला है।” – सिल्क-सूट बोला – “हमें क्या!”
टी-शर्ट वाले ने सहमति में सिर हिलाया, फिर वापिस विमल की ओर घूमा – “अभी प्रॉब्लम बोलने का!”
“सर, पाँच महीने हुए, मैंने बेटी की शादी की . . .”
“शादी के काबिल बेटी का बाप है? क्या उम्र है?”
“सर, फॉर्म में लिखी है।”
टी-शर्ट वाले ने खा जाने वाली निगाह से उसे देखा।
“चा-चा-चालीस।”
“इतनी उम्र में ब्याहने लायक बेटी का बाप बन भी गया! शादी भी कर दी!”
“सर, हमारे यहाँ शादियाँ जल्दी करने का रिवाज है। मैं अठरा का था जब मेरी शादी हो गई थी, उन्नीस का था तो बाप भी बन गया था।”
“शादी के वक्त तू अट्ठारह का था तो तब बीवी तो नाबालिग ही होगी!”
“हमारी तरफ चलता है, साहब . . .”
“इसे प्रॉब्लम बोलने दो।” – सूट वाले ने टोका।
“हाँ।” – टी-शर्ट वाला बोला – “तो पाँच महीने पहले बेटी ब्याही। आगे बोल।”
“सर, बेटी ब्याहने के लिए प्राॅविडेंट फंड से कर्ज़ा लेना पड़ा। कुछ दोस्तों ने मदद की, मेरी सारी जमा-पूँजी – जो बेटी ब्याहने के लिए ही थी – शादी में चुक गई। फिर भी मैं ख़ुश था कि मैं एक बड़ी ज़िम्मेदारी भुगता पाया था।”
“औलाद बस एक बेटी ही, जो ब्याह दी?”
“जी हाँ।”
“आगे बोल। प्रॉब्लम पर पहुँच।”
“सर, तीन महीने में ही ससुराल वालों ने उसे घर भेज दिया, इस हुक्म के साथ कि लड़के के लिए मोटरसाइकल लेकर लौटूँ वर्ना न लौटूँ। सर, दो महीने से लड़की घर में है, मेरी मौजूदा हैसियत मोटरसाइकल तो क्या, बाइसिकल खरीदने वाली नहीं है और लड़के वाले हैं कि अपनी माँग से टस से मस नहीं हो रहे।”
विमल ने गला रुँध गया होने का अभिनय किया।
“नौटंकी नहीं।” – टी-शर्ट वाला सख़्ती से बोला – “नौटंकी नहीं। क्या?”
विमल ने जवाब न दिया, झुका हुआ सिर और झुका लिया।
“कितनी तनखाह है तेरी?”
“कटौतियों के बाद इक्कीस हज़ार के करीब मिलती है।”
“इतनी कम!”
“मजबूरी है, जी।”
“कटौतियाँ क्या?”
“प्राॅविडेंट फं़ड। प्राॅविडेंट फं़ड से लिया कर्ज़। लाइफ़़ इंश्योरेंस की किस्त। हैल्थ इंश्योरेंस की किस्त वग़ैरह . . .”
“फिर भी मोटरसाइकल किस्तों में खरीदने में क्या प्रॉब्लम है तेरे को?”
“सर, मेरी किस्त भरने की हैसियत नहीं है। पहले ही दोस्तों से लिया कर्ज़ा सिर पर है।”
“उसको टाल। जो दोस्त कर्ज़ा दे सकते हैं, वो वापिसी का इन्तज़ार भी कर सकते हैं। मोटरसाइकल बैंक से फ़ाइनांस करा – आजकल इन कामों के लिए बैंक फाइनांस बहुत आसान है, मोटरसाइकल कम्पनी वाले ही सब सैट कर देते हैं – और मोटरसाइकल के साथ बेटी को ससुराल भेज।”
विमल ख़ामोश रहा।
“अब क्या है?” – टी-शर्ट वाला डपट के बोला।
“सर, बेटी के ब्याह को तीन महीने हुए और उन्होंने मोटरसाइकल की माँग खड़ी कर दी। और छ: महीने बाद, साल बाद कार माँगने लगे तो मैं क्या करूँगा? इतनी बड़ी माँग तो मैं ख़ुद को बेच के पूरी नहीं कर सकूँगा। नतीजतन बेटी फिर मायके बैठी होगी।”
“ये छ: महीने बाद की, साल बाद की प्रॉब्लम है, तू बोला न ख़ुद?”
“हं-हाँ।”
“जब ये प्रॉब्लम खड़ी हो, तब फिर आना। अब बैंक से फाइनांस करा के मोटरसाइकल ले और लड़की को ससुराल वापिस भेज।”
विमल ख़ामोश बैठा रहा।
“अब क्या है, भई?” – टी-शर्ट वाला अप्रसन्न भाव से बोला – “अब हिलता क्यों नहीं?”
“सर, माफ़ी दो तो कुछ अर्ज़ करूँ?”
“बोल! कह, जो कहना चाहता है?”
“सर, मैं तो यहाँ इस उम्मीद में आया था कि यहाँ इंसाफ़़ मिलता था।”
“तो?”
“लड़के वाले मोटरसाइकल की नाजायज़ माँग करते हैं, लड़की को धमका के मायके भेज देते हैं कि मोटरसाइकल ले के आए, तभी ससुराल में कदम रखे। मैं इस नाजायज़ माँग के खिलाफ इधर इंसाफ़़ माँगने आया, मुझे इंसाफ़़ तो न मिला, सर! मुझे सलाह मिली। सलाह मिली जो मुझे पड़ोस में भी मिल सकती थी, उसके लिए चैम्बूर आने की क्या ज़रूरत थी? कोई दाता के द्वारे जाता है तो क्या खाली हाथ लौटता है?”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“जैसे आप मेरे साथ पेश आ रहे हैं, अब उससे एक बात तो ज़ाहिर है कि आप दोनों में से ‘चैम्बूर का दाता’ कोई नहीं है . . .”
“क्या बकता है?” – टी-शर्ट वाला भड़का।
“अगर है तो सर, बोलो न, कौन है? ताकि मैं उससे शिकायत करूँ कि मैं द्वारे आया और मुझे सलाह दे के टरकाया जा रहा है – और सलाह भी ऐसी जिस पर मैं अमल नहीं कर सकता।”
“तुम किस उम्मीद के साथ आए थे?” – सूट वाला कदरन सभ्य लहज़े से बोला – “ये कि मोटरसाइकल साथ लेकर जाओगे? साल, छ: महीने बाद जब अगला फेरा लगाओगे तो कार साथ लेकर जाओगे?”
“सर, आप मुझे जुबान दे रहे हैं। मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा।”
“तो किस उम्मीद से यहाँ आए थे?”
“इस उम्मीद से कि दाता कोई ऐसा इन्तज़ाम करेंगे कि मेरे दामाद को अक्ल आएगी, वो अपनी नजायज़ माँग से बाज़ आएगा, उसके माँ-बाप उसे इस माँग को लेकर उकसाने से बाज़ आएँगे और मेरा दामाद मुझे एक सद्पुरुष की तरह मेरी बेटी को अपने पास बुलाकर उसके साथ सद्व्यवहार करता दिखाई देगा। ये कोई बड़ी उम्मीद नहीं थी, सर, जो मैंने दाता से बांधी थी, उसके एक इशारे पर ये सब कुछ हो सकता था लेकिन मुझे तो बैंक फाइनांस से किस्तों पर मोटरसाइकल खरीदने की सलाह मिली। जिसे आटा-दाल-चावल खरीदना भारी पड़ता हो, उसे मोटरसाइकल खरीदने को बोला गया। लोग कहते हैं ‘चैम्बूर का दाता’ गरीबों का हमदर्द है, भूखे के मुँह में रोटी का निवाला देने वाला है, नंगे के तन पर कपड़ा डालने वाला है, अंधे की आँख है, लंगड़े की लाठी है, बेसहारे का सहारा है। आप साहब लोगों के ज़रिए मुझे तो ‘चैम्बूर का दाता’ की ऐसी कोई खूबी इधर उजागर दिखाई न दी!”
“क्या बकता है?” – टी-शर्ट वाला भड़का।
“मैं बकता हूँ! आप की जुबान से फूल झरते हैं! द्वारे आए शरणागत से तू-तकार की जुबान बोलते हैं, उसे दुत्कारते हैं! उसे कूड़ेदान की तरह ट्रीट करते हैं! अहसास दिलाते हैं उसे कि उसने यहाँ आकर गलती की! ये कैसा दाता का द्वारा है जहाँ दान पर राशन है!”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“आप बात-बात पर भड़ककर दिखाते हैं! भड़कने से क्या होगा, सर? अगर मैं गलत हूँ तो कहिये मैं गलत हूँ; और बताइये कहाँ गलत हूँ, कैसे गलत हूँ? आप ऐसा नहीं कर सकते तो मुझे ‘चैम्बूर का दाता’ के हुजूर में पेश होने का मौका दीजिये। हर कोई कहता है ये दाता का ठीया है, यहाँ से इंसाफ़़ मिलता है। ये कैसा दाता का दफ़्तर है जहाँ से दाता ग़ैरहाजिर है!”
“उसे ये ही काम नहीं, और भी काम हैं।”
“ज़रूर होंगे। पर मेरा तो एक ही काम है न, जो न हो सका! मैं तो अब” – विमल उठ खड़ा हुआ – “दाता के द्वारे से नाउम्मीद ही लौट रहा हूँ न! गायकवाड़ नगर में, कोलीवाड़े में कोई पूछेगा कि दाता के दरबार से क्या इंसाफ़़ मिला तो मैं यही जवाब दूँगा न, कि कोई इंसाफ न मिला . . . क्योंकि वहाँ इंसाफ़़ नहीं मिलता था, सलाह मिलती थी। शुक्र है ये सलाह न मिली कि मैं बेटी को कुएं में धकेल दूँ, फिर तमाम समस्याएं अपने आप ही हल हो जाएंगी।”
“बहुत मुँहफट है!”
“जाता हूँ, सर।” – विमल हाथ जोड़ता विनीत भाव से बोला – “खाली झोली के साथ! ‘चैम्बूर का दाता’ के दर्शन पाए बग़ैर।”
दोनों मुँह बाये उसे जाता देखते रहे।
विमल ने रिसैप्शन पर कदम रखा तो पाया वो खाली था।
रिसैप्शन की वाॅल क्लॉक पर तब साढ़े बारह बज चुके थे।
विमल ने रिसैप्शनिस्ट की तरफ देखा।
रिसैप्शनिस्ट ने उसकी निगाह का मन्तव्य समझा और बोली – “बारह के बाद शायद ही कभी कोई आता है। जिसने आना होता है, साढ़े ग्यारह से पहले तक हर हाल में आ जाता है।”
“ओह!” – विमल संजीदगी से सिर हिलाता बोला – “दाता का द्वारा है, इतनी कम हाजिरी क्यों?”
“पता नहीं। पहले बहुत लोग आते थे। रश हो जाता था। उन्हें यहाँ का सिस्टम समझाना पड़ता था और पाँच से ऊपर लोगों को बोलना पड़ता था कि अगले रोज़ आएं। अब तो अक्सर कोरम कॉल ही नहीं होती।”
“देखा मैंने।”
“तुम्हारा काम हुआ?”
“हुआ, बराबर हुआ। ऐन वैसे ही हुआ जैसे होने की उम्मीद लेकर मैं यहाँ आया था लेकिन वो न हुआ जिसकी मैंने अर्ज़ी लगाई थी।”
“क्या मतलब?”
“तुम नहीं समझोगी। जो भीतर जूनियर दाता बैठे हैं, वो भी नहीं समझेंगे। जयहिन्द!”
चेहरे पर उलझन के भाव लिए रिसैप्शनिस्ट उसे जाता देखती रही।
पीछे एग्जीक्यूटिव ऑफ़िस में बैठे दो जनों में कुछ क्षण ख़ामोश मंत्रणा चली।
फिर चपरासी को तलब किया गया।
“टोपी को बुला।” – टी-शर्ट वाले ने हुक्म दिया।
चपरासी ख़ामोशी से बाहर निकल गया।
थोड़ी देर बाद कार्डुराय की काली जींस और वैसी ही आधी बाँह की काली कमीज पहले एक व्यक्ति ने भीतर कदम रखा। उसके सिर पर वैसी ही काली क्रिकेटरों जैसी टोपी थी जिसके बिना किसी ने उसे कभी नहीं देखा था और इसी वजह से हर कोई उसे टोपी बुलाता था, जबकि उसका नाम नज़ीर सैफी था।
“इधर आ के ये फॉर्म देख।” – टी-शर्ट वाले ने हुक्म दिया।
टोपी मेज का घेरा काटकर टी-शर्ट वाले के पहलू में जा खड़ा हुआ।
“ये फॉर्म देख।” – टी-शर्ट वाला बोला – “अभी ये भीड़ू इधर से गया।”
“हीरा सिंह चौहान!” – टोपी ने फॉर्म पर से पढ़ा।
“हाँ। पता, फोन नम्बर वग़ैरह सब दर्ज है। ये इधर कुछ ज़्यादा ही बोल के गया। इस वास्ते मेरे को इसकी ज्यास्ती जानकारी माँगता है। टोपी, ख़ासतौर से ये मालूम करने का कि क्या ये अपनी माली हालत की बाबत सच बोलता था और इसकी पाँच महीने पहले की ब्याही बेटी का ससुराल किधर था! जमा, ये मालूम करने का कि शादी कैसे फि़क्स हुई थी और क्या दामाद मोटरसाइकल की बाबत मुँहफट है या सारा कुनबा ही लालची है!”
“हैल्प करने का मन बनाया, बाप!” – टोपी बोला।
“कर सकते हैं। देखेंगे। तू जो बोला है, कर।”
“करता है न, बाप! ये फॉर्म मैं रखे?”
“हाँ, बाद में वापिस करना।”
“बरोबर, बाप।”
विमल कूपर कम्पाउन्ड पहुँचा
वो इरफ़ान, शोहाब के रूबरू हुआ तो दोनों के मुँह खुले के खुले रह गए!
विमल उस घड़ी क्लीनशेव्ड था, चेहरे पर कहीं बाल थे तो निचले होंठ के नीचे सोल पैच की सूरत में थे। आधुनिकतम हेयर स्टाइल साफ़ चुगली कर रहा था कि किसी टॉप के सैलून का फेरा लगा के आया था। कहीं-कहीं बालों की किसी-किसी लट में ब्राउन डाई की भी रौनक साफ़ दिखाई दे रही थी। वो झक सफेद लिनन की कमीज और किसी फॉरेन ब्रांड की जींस पहने था। उसके पैरों में वैसा ही मैचिंग बिना तस्मों वाला सफेद जूता था। उसकी आँखों को किसी फॉरेन ब्रांड के ही गाॅगल्स ढंके थे।
“तू ही है न, बाप!” – इरफ़ान भौंचक्का-सा बोला – “कोई दूसरा है तो झोलझाल खड़े होने की जगह अदब से, अटेंशन खड़े हों!”
जवाब देने की जगह विमल दोनों से गले लग के मिला।
“ऐसे कायापलट की ज़रूरत तो थी” – शोहाब बोला – “लेकिन उम्मीद नहीं थी, जनाब!”
“भई, तुम्हीं लोगों ने तो बोला था” – विमल बोला – “कि मेरे कल वाले हुलिये में मुझे कोई भी इश्तिहारी मुजरिम के तौर पर पहचान सकता था!”
“बरोबर बोला था” – इरफ़ान बोला – “तूने जो किया, दुरुस्त किया, बाप! कैसे तू कोई काम गलत कर सकता है?”
“शुक्रिया।”
“बोले तो, जो भी काम करता है, जो कोई भी काम करता है, उसमें डूब के करता है। कल गुरुद्वारे का पुश्तैनी सेवादार लग रहा था ऐन पर्फे़क्ट कर के – यही बोलते हैं न, शोहाब!”
शोहाब ने सहमति से सिर हिलाया।
“. . . अब रितिक का चाचाज़ाद भाई लग रहा है ऐन पर्फे़क्ट करके। क्या!”
“सब फ़र्ज़ी है।” – एकाएक विमल का स्वर उदास हुआ – “मिशन की ख़ातिर, मिशन इन हैण्ड की ख़ातिर, वर्ना . . .”
वो ख़ामोश हो गया।
इरफ़ान को साफ़ उसकी आँखें नम लगीं।
कई क्षण वातावरण में बोझिल सन्नाटा छाया रहा।
“और क्या ख़बर है?” – सन्नाटा भंग करने के लिए फिर विमल ने नाहक सवाल किया।
“मैं बोलता है न!” – इरफ़ान ने जैसे हिंट पकड़ा – “पहले अपना बोल, आने में पाँच कैसे बजा दिए? हमने सुबह नाश्ते पर इन्तज़ार किया, फिर लंच पर इन्तज़ार किया। अभी भी वहीच कर रहे थे – बोले तो, इन्तज़ार – क्या हुआ, साला अक्खा दिन सीलोन में सजने में सर्फ कर दिया?”
“सैलून में।” – शोहाब ने चेताया।
“मालूम मेरे को। ये टेम जुबान फिसल गई। बाप, सैलून में . . . सैलून में होल डे लगा के आया!”
“नहीं, भई।” – विमल बोला – “सुबह ‘चैम्बूर का दाता’ की हाजिरी भरी।”
“क्या!” – इरफ़ान सकपकाया – “क्या बोला?”
“ठीक ग्यारह बजे शिवाजी चौक पहुँचा न फरियादी बन के!”
“अभी मैं साला ठीक से सुनता है या मेरा कान बजता है! तू! उधर! हो भी आया?”
“हाँ।”
“इसी!” – इरफ़ान ने हैरानी से उसके सामने हाथ ऊपर-नीचे चलाया – “डीलक्स हुलिए में?”
“नहीं, भई। फरियादी वाले दीन-हीन हुलिए में।”
“बोले तो?”
“उस हुलिए में जिसमें कल मैं तुम लोगों से महालक्ष्मी स्टेशन पर मिला था।”
“सैलून बाद में गया। खरीददारी बाद में की?”
“हाँ।”
“अकेले पहुँच गए!” – शोहाब के मुँह से निकला।
“और क्या चार हिमायती ले के जाता! ऐसे कौन कुबूल करता कि मैं फरियादी!”
“ठीक!”
“कौन मिला?” – इरफ़ान उत्सुक भाव से बोला – “वो नाहंजार, शैतान का तुख्म, जो ख़ुद को ‘चैम्बूर का दाता’ बोलता है?”
“नहीं, भई। उसके अप्वायंटिड दो कड़छे मिले।”
“कड़छे?” – शोहाब बोला।
“चमचे तो नहीं थे? उनसे तो हैसियत में बड़े थे न!”
“ओह! इसलिए कड़छे!”
“हाँ।”
“क्या किया उधर?” – इरफ़ान बोला – “सब बता, बाप। ख़ासतौर से ये बता कि कहानी क्या की?”
“अरे, टिकने तो दे इन्हें!” – शोहाब शिकायती लहज़े से बोला – “सैटल तो होने दे! काेई ख़ातिर तवज्जो तो कुबूल करने दे!”
“ओह!” – इरफ़ान ने फौरन अपने जोशोखरोश को लगाम दी – “सॉरी बोलता है, बाप। लंच का टेम नहीं। अभी बोल, क्या खायेगा? नहीं, पहले बैठ।”
विमल एक सोफे़ पर बैठा, शोहाब उसके सामने बैठा, इरफ़ान खड़ा रहा।
“अभी बोल, बाप।” – वो बोला।
“चाय पिऊंगा।” – विमल बोला – “और कोई छोटा-मोटा स्नैक मुमकिन हो तो . . .”
“काहे वास्ते नहीं होगा! बरोबर होगा। शोहाब चाय बनाता है, मैं अभी का अभी समोसे ले के आता है। इधर बहुत अच्छे बनते हैं। मंज़ूर?”
“मंज़ूर।”
दस मिनट बाद दोनों चाय पी रहे थे और गर्मागर्म समोसों का लुत्फ़़ उठा रहे थे।
“अभी बोल, बाप” – इरफ़ान बोला – “क्या हुआ उधर शिवाजी चौक पर?”
विमल ने सविस्तार सब बोला।
उधर के सिस्टम के बारे में, फरियादी के साथ असहिष्णुता से पेश आने के अन्दाज के बारे में, पेशी के बारे में और बिना किसी इमदाद के आश्वासन के टरकाए जाने के बारे में।
“उनके ऑफ़िस पर लगे बोर्ड से जाना” – विमल बोला – “कि उन लोगों ने तुका के नाम पर भी कब्ज़ा किया हुआ है।”
“क्या बात करता है, बाप!” – इरफ़ान अविश्वास से बोला।
“बोर्ड पर हैडिंग – छत्रपति चैरिटेबल ट्रस्ट (रजिस्टर्ड) – बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में है और हैडिंग के नीचे बहुत बारीक, आसानी से न पढ़े जा सकने वाले अक्षरों में दर्ज है – फ़ॉरमरली तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट।”
“फार . . . फार . . . मरली बोले तो?”
“भूतपूर्व” – शोहाब बोला – “पूर्वकाल में! पहले!”
“कमाल है! मेरी तो निगाह न पड़ी!”
“कोई बड़ी बात नहीं। लिखा ही यूँ गया था कि थोड़े किए निगाह न पड़े।”
“कोई सवाल करता होगा तो?”
“तो बोलेंगे वही ट्रस्ट था जिसका नाम बदल गया था। कोई एकाध जना ही सवाल करेगा न! भीतर बैठे महन्त उसकी तसल्ली करा देंगे। इतने महीनों में किसी ने पुलिस में फ्रॉड की रिपोर्ट तो दर्ज नहीं कराई न!”
इरफ़ान का सिर स्वयमेव इंकार में हिला।
“धीरे-धीरे जब स्थापित हो जाएगा कि तुका के चलाए ट्रस्ट में और मौजूदा छत्रपति ट्रस्ट में कोई फर्क नहीं – दोनों एक ही बात – तो बोर्ड से तुका के ट्रस्ट का नाम गायब कर दिया जाएगा।”
“ये तो ज़ुल्म है!”
“ये नगरी ही ज़ुल्म की है। क्या बड़ी बात है!”
“मैं थाने जाए तो?”
“कोई कुछ नहीं सुनेगा। पुलिस ऐसी बेजा, ग़ैरकानूनी हरकतें करने वालों की जेब में होती है।”
“फिर भी जाए तो?”
“हाथ कंगन को आरसी क्या? जाके देख! मालूम पड़ जाएगा।”
इरफ़ान कसमसाया।
“तुका के ओरीजिनल ट्रस्ट पर अपना दावा” – विमल बोला – “हम अपने तरीके से लगाएँगे। और कामयाब हो के दिखाएँगे।”
“आमीन!” – शोहाब संजीदगी से बोला।
“हम्म!” – इरफ़ान कुछ क्षण ख़ामोश रहा – “कहानी क्या की उधर?”
विमल ने सविस्तार बताया।
“ये तो” – इरफ़ान सकपकाया – “हवलदार केशव राव भौंसले और उस की ससुराल की, खाविन्द की सताई बेटी काशी बाई की आपबीती है! हवलदार भौंसले इधर फरियादी बन कर आया था तो तूने काशी बाई के बिगड़ैल, बेग़ैरत, लालची खाविन्द को तीर की तरह सीधा किया था, उसे ख़ुदा का खौफ़ दिलाया था . . .”
“सोहल का खौफ़!” – शोहाब बोला – “चैम्बूर का दाता का खौफ़!”
“. . . तो काशीबाई ससुराल जाकर बसी थी और पिता हवलदार भौंसले ने और माता अनुसूया ने सुख की साँस ली थी!”
“याददाश्त चौकस है तेरी!”
“अरे, बाप, खाविन्द की ख़बर लेने जब तू कमाठीपुरे के एक कोठे पर पहुँचा था तो मैं तेरे साथ था न! मैंने ही तो उसे जकड़ कर थामा था तो तूने उसे धुना था। दस मिनट में ही ऐसा लगने लगा था कि हेंकड़ कमीना जैसे मुसल्लम भूने जाने के लिए तैयार बकरा हो। पट्ठे की ख़ास बाई, ससुराल से हासिल पैसे को ऐश में उड़ाने जिसके कोठे पर जाता था, उसको ठुकता देखकर इतनी खौफ़़ज़दा हुई थी कि खाविन्द से मूंडा उसका पैसा लौटा दिया, बिना माँगे लौटा दिया, और बोली उसकी शक्ल नहीं पहचानती। हा हा हा। इंसाफ़़ एकदम चौकस करता था, बाप, तू उन दिनों!”
“उन दिनों क्या मतलब?” – शोहाब बोला – “हर दिनों।”
“ऐसा?”
“हां।”
“फिर तो साला ख़ुशी हुआ मेरे को अंग्रेज़ का माफि़क!” – उसने आशापूर्ण भाव से विमल की तरफ देखा – “मैं बरोबर बोला, बाप!”
विमल ने मज़बूती से सहमति में सिर हिलाया।
“बढ़िया!” – इरफ़ान के लहज़े में संतोष का पुट आया – “अब बोल, वही कहानी क्यों की?”
“क्या खराबी थी? आज़माई हुई सैड स्टोरी थी जिसके बारे में हमीं जानते थे, उन्हें क्या ख़बर थी!”
“ठीक!”
“दूसरे, खड़े पैर मुझे कोई दूसरी कहानी सूझी नहीं थी।”
“ये ज़्यादा ठीक।”
“बहरहाल” – शोहाब बोला – “आपको फर्स्टहैण्ड ख़बर लग गई कि वहाँ इंसाफ़़ वग़ैरह कुछ नहीं होता था!”
“मैं पहले ही बोला न” – इरफ़ान बोला – “कि होता भी होगा तो दस-बीस फीसदी के लिए होता होगा, बाकी अस्सी फीसदी को तो टरकाया ही जाता है उधर – जैसे कि तेरे को टरकाया।”
“तो फिर” – शोहाब बोला – “फाॅर्म वग़ैरह भरवाने का आडम्बर किसलिए?”
“उसकी एक, काफी माकूल, वजह मेरे को सूझी है।” – विमल बोला – “वो ट्रस्ट एनजीओ रजिस्टर्ड है, ये उनके शिवाजी चौक वाले बोर्ड पर ही दर्ज है। एनजीओ को सरकारी ग्रांट मिलती है – ताकतवर लोगों का, रसूख वाले लोगों का खड़ा किया एनजीओ हो तो बड़ी ग्रांट मिलती है और ग्रांट कैसे सर्फ हुई, इसकी अमूमन कोई गहरी पड़ताल भी नहीं होती। चैरिटेबल ट्रस्ट के बहाने वो लोग फरियादियों से फॉर्म भरवाते हैं जिसका आधा हिस्सा ‘कमेंट्स/एक्शन टेकन’ के लिए खाली होता है। फरियादी चाहे राजी होकर जाए, चाहे फटकार खाकर जाए, वो खाली हिस्सा उसके चले जाने के बाद मनमर्ज़ी तरीके से भरा जाता है जिसकी फरियादी को ख़बर न लगती है, न लग सकती है। यूँ वो चौकस, डाकूमेंट्री रिकॉर्ड बनाते हैं, जिसके ज़रिए ज़ाहिर करते हैं – साबित करके दिखाते हैं – कि फलां फाइनेंिशयल इयर में इन्होंने इतने लाख लोगों की मदद की। यूँ फर्ज़ी रिकॉर्ड बनाना आसान होता है। किन्हीं फाॅर्म्स की कभी कोई रैंडम चैकिंग होगी तो फॉर्म पर दर्ज तमाम पर्टीकुलर्स जेनुइन पाए जाएँगे।”
“ओह!”
“ऐसी एनजीओज़ का नाजायज़ फायदा कुछ ख़ास लोग ही नहीं उठाते, ख़ासुलख़ास लोग भी उठाते हैं। एक कैबिनेट मिनिस्टर थे – अभी भी प्रभु की कृपा से सलामत हैं, खाली मिनिस्टर नहीं हैं – अपनी बीवी के नाम से एक एनजीओ चलाते थे, ख़ुद सरकार में थे इसलिए मोटी सालाना ग्रांट पाते थे। दस्तूर के मुताबिक एनजीओ परोपकार के काम करती थी। अक्सर अलग-अलग शहरों में गरीब-गुरबा के लिए, झुग्गी-झोंपड़ी कालोनियों में मेडीकल कैम्प लगाती थी जो ज़रूरतमंद ख़लकत के मुताबिक तीन-तीन दिन भी चलता था। सर्दियों में रैन बसेरे मेनटेन करती थी और गरीबों को कम्बल बांटती थी।”
“यहाँ?” – इरफ़ान बोला।
“यूपी में।”
“ओह!”
“सबाब का काम था।” – शोहाब प्रभावित स्वर में बोला।
“सरकारी लूट का काम था। एक टीवी चैनल ने ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत एक्सपोज़ ब्रॉडकास्ट किया था कि जो कैम्प पिछले फ़ाइनेंशियल ईयर में उस एनजीओ ने लगाए बताए थे, असल में उनमें से एक भी कहीं नहीं लगा था और कैम्प लगे होने के सबूतों के तौर पर जो तस्वीरें जारी की गई थीं, वो हालिया होने की जगह छ: साल पुरानी थीं। ऐसे ही और भी सबूत टीवी चैनल ने पेश किए जो कहते थे कि हालिया कुछ नहीं हुआ था, खर्चा हज़्म करने के लिए सिर्फ मीडिया को बयान दिए गए थे और छ: साल पहले वाकया हुए कैम्प्स की तस्वीरें ताज़ातरीन कैम्प्स की बताकर बांटी गई थीं।
“ख़ूब खलबली मची होगी?”
“हाँ। बड़ा एक्सपोज़ बना। बीवी ने, जिसके नाम से एनजीओ था, जिसका अपने डिफें़स में सफाई देना बनता था, मुँह सी लिया और मंत्री खाविंद को आगे कर दिया। मंत्री ने आनन-फानन प्रैस कॉन्फ्रेंस बुलाई और सफाइयाँ देनी शुरू कर दीं। मंत्री के साथ चार दीन-हीन व्यक्ति भी खड़े किए गए, माइक पर जिनसे कहलवाया गया कि पिछले साल यकीनन कैम्प लगे थे और उन्हें वहाँ से इमदाद भी मिली थी।”
“ऐसी पुख़्ता गवाही देने वाले चार आदमी आनन-फानन कैसे पकड़ में आ गए?”
“तफ़्तीश का मुद्दा था लेकिन कौन करता!”
“ठीक।”
“साफ़ सिखाए-पढ़ाए गवाह थे; वो तो, जो उन्हें पढ़ाया जाता, तोते की तरह रट देने को तैयार हो जाते।”
“आख़िर क्या हुआ था?”
“वही जो ऐसी सरकारी नौटंकी में होता है। मंत्री का दबाव बना, चैनल को महंगे विज्ञापनों का लालच दिया गया और चुप करा दिया गया। मंत्री जी की औचक प्रैस कॉन्फ्रें़स कामयाब, प्रैस संतुष्ट, शिकायत ठंडे बस्ते में और बीवी ख़ामोश।”
“ट्रस्ट का क्या हुआ?”
“जारी है। बीवी चलाती है। किन्हीं इररेगुलेरिटीज़ पर सवाल हो तो ख़ुद हमेशा की तरह मौन व्रत धारण कर लेती है और खाविन्द को आगे कर देती है। चतुर सुजान खाविन्द सब संभाल लेता है।”
“ओह!”
“सैयां भये कोतवाल” – इरफ़ान बोला – “फिर डर काहे का?”
“बिल्कुल!”
“तो” – शोहाब बोला – “उधर भी, जिधर आप हो के आए, यही हो रहा होगा?”
“यकीनन।”
“फरियादियों का क्या होगा?”
“धीरे-धीरे आना बंद कर देंगे। जहाँ से दुत्कारे जाने के बाद भी नाउम्मीदी हासिल हो, वहाँ कौन लौट के जाना पसंद करेगा?”
“आख़िर?”
“या फर्ज़ी फरियादी दिखाए जाया करेंगे या वहाँ से भी फ़्री मैडीकल कैम्प्स, फ़्री भण्डारा, फ़्री स्कूल ड्रैसिज़ जैसे ऐलान होने लगेंगे।”
“और ट्रस्ट के नाम पर चन्दा उगाही, जो जबरन की जा रही है?”
“बोले तो, वसूली।” – इरफ़ान बोला।
“वो विकट समस्या है।” – विमल बोला – “उसको लगाम लगनी ही चाहिए क्योंकि यूँ तुका का नाम बदनाम हो रहा है। चन्दा वसूल कर वाे लोग हड़प जाएंगे और कोसने तुका के हिस्से में आएँगे।”
“हम ख़ुद कहते हैं ऐसा नहीं होना चाहिए” – शोहाब बोला – “लेकिन . . . अब क्या कहें?”
“क्या कहें!” – इरफ़ान आवेश से बोला – “यही कहें कि हो रहा है बराबर।”
“इस बारे में मैंने कुछ सोचा है।”
“शुकर।”
“लेकिन पहले एक जुदा बात सुनो।” – विमल ने जेब से एक पाँच गुणा सात इंच का लिफ़ाफ़ा निकाला, उसमें से दो कैमरा प्रिंट बरामद किए और उनको इरफ़ान और शोहाब के सामने मेज पर रखा – “ये वो दो कड़छे हैं बतौर फरियादी जिनके सामने मेरी पेशी हुई थी। गौर से शक्लें देखो इनकी। शायद कोई पहचान में आती हो!”
“फोटो!” – शोहाब उत्सुक भाव से बोला – “आपके पास कहाँ से आई ं?”
“ख़ुद खींचीं। मिनियेचर कैमरे से – जो कुर्ते का बटन जान पड़ता था – लैस होकर गया था।”
“बड़ा ख़तरा मोल लिया, जनाब!”
“ख़तरों के बिना कहाँ है ज़िन्दगी, मियां!”
“ख़बर लग जाती तो?”
“तो देखता क्या होता! जो काम हुआ नहीं, उसकी क्या फिक्र करूँ!”
“जनाब, आपको अकेले नहीं जाना चाहिए था।”
“हाँ, बाप।” – इरफ़ान ने भी शोहाब की हाँ में हाँ मिलाई – “तैयारी के साथ जाना चाहिए था।”
“तैयारी के साथ ही तो गया! तभी तो फ़ोटुएं खींच के लाया!”
“बाप, मेरा मतलब है . . . शोहाब, तू बोल।”
“आपको बैक अप के साथ जाना चाहिए था।” – शोहाब बोला।
“तब इतना वक्त नहीं था। आइन्दा ख़याल रखूँगा। तुम तस्वीरों की तरफ तवज्जो दो।”
“बाप” – इरफ़ान ने एक तस्वीर उठाई – “इस मोटी मूँछ, लम्बी कलम, अधगंजे सिर और गोल गले की टी-शर्ट वाले को मैं पहचानता है।”
“गुड! कौन है?”
“अहसान कुर्ला।”
“क्या?”
“असल नाम अहसान रिज़वी। कुर्ला का छोटा-मोटा मवाली था इसलिए रौब के लिए नाम अहसान कुर्ला रख लिया जैसे सारा कुर्ला उसकी बादशाहत हो। पहले चूनाभट्टी की एक चाल में रहता था, अब तरक्की कर ली है। सुना है, चैम्बूर में ही कहीं एक फ्लैट में रहता है।”
“क्या कहने!”
“बाप, कोई मामूली टपोरी, साला फंटर, किसी बड़े मवाली के या किसी ‘भाई’ के अन्डर में चलने लगे तो अपने को डेढ़ दीमाक समझने लगता है।”
“तो ये डेढ़ दीमाक! कोई इम्पॉर्टेंट करके भीड़ू?” – विमल ने विनोदपूर्ण भाव से इरफ़ान के अन्दाज़ेबयां की नकल की।
“अभी जिधर तू उससे मिल के आया, उस फ़ैंसी ठीये की बोले तो . . . बरोबर।”
“चैम्बूर में ही रहता है, बोला?”
“ऐसीच सुना है।”
“पर ये मालूम नहीं, कहाँ रहता है?”
“अभी तो नहीं मालूम बाप, पण तू कहता है तो करता है कोशिश मालूम करने का।”
“अहसान रिज़वी उर्फ अहसान कुर्ला?”
“हाँ।”
“ख़ुद कोशिश करना ज़रूरी नहीं। किसी शार्गिद को शिवाजी चौक पर निगाहबीनी के लिए छोड़ेगा तो ये अहसान कुर्ला आख़िर कभी तो घर पहुँचेगा!”
“ठीक! कल करता है सब चौकस।”
“दूसरा?”
“कभी नहीं देखा।” – इरफ़ान एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “पण मंज़ूर हो, बाप, तो एक अन्दाज़ा बोले?”
“बोल।”
“जब ये अहसान कर के भीड़ू मामूली टपोरी था और चूनाभट्टी की एक चाल में रहता था तो तब उधर उसका एक जोड़ीदार होता था जिसके साथ इसकी दांत काटी रोटी थी। इलाके में दोनों हमेशा इकट्ठे देखे जाते थे। जोड़ीदार का नाम अनिल विनायक था। और तब वो अहसान कुर्ला से इतना छोटा था कि यूँ समझो कि छोकरे की तब बस मसें भीगी थीं। लोगबाग उनकी बेमेल जोड़ी को देखते थे तो तंज़ कसते थे।”
“कैसे तंज़?”
“सोच, बाप! समझ, बाप!”
“ओह! तू वही कह रहा जो मैं सोच रहा हूँ, समझ रहा हूँ?”
“बोले तो हाँ। और बोले तो फिर जैसे कोढ़ में खाज।”
“मतलब?”
“इलाके के भीड़ू लोग पीठ पीछे उसे अनिल विनायक बोलने की जगह अनिल चिकना बोलने लगे।”
“ओह!”
“अभी और सुन। एक बार इलाके के अहसान कुर्ला से भी बड़े एक लड़के ने उन दोनों को देखा था तो जोड़ी पर तंज़ कसा था। उस टेम तो दोनों तौहीन करा के चुपचाप निकल लिए थे पण अगली सुबह उस लड़के की लाश धारावी में काला किला के खण्डहरों में पड़ी पाई गई थी।”
“ओह! कैसे मरा?”
“क्या बोलूं, बाप! बहुत हौलनाक मौत मरा।”
“कैसे?”
“किसी ने लोहे की सलाख तपा कर उसके पिछौंडे में घुसेड़ दी।”
“दाता!”
“तड़प कर मरा बताते थे। सलाख का जो सिरा पिछौंडे से बाहर था, कहते हैं वो भी दहक रहा था। यानी ख़ुद थाम के सलाख बाहर भी नहीं खींच सकता था।”
“दाता! दाता!”
“तभी से इलाके के लोग अहसान से ख़ौफ खाने लगे थे और अहसान रिज़वी से कुर्ला, अहसान कुर्ला, बन गया था।”
“उसकी कोई निशानदेही न हुई?”
“किसी की मजाल न हुई। पुलिस ने बहुत चोर बहकाए पर कोई गवाही देने को तैयार न हुआ। अहसान से सवाल हुआ तो बोला सारी रात चाल में था। चार गवाह पेश कर दिए।”
“हम्म!”
“उस वाकये के बाद किसी की मजाल तो हुई नहीं उन दोनों पर तंज़ कसने की, उन्हें आता देखते थे तो लोग-बाग रास्ता छोड़ कर परे हट जाते थे।”
“यानी ये दूसरा शख़्स – सिल्क के सूटवाला – अहसान का जवानी का जोड़ीदार अनिल विनायक हो सकता है?”
“हो सकता है बरोबर पण गारण्टी कोई नहीं। खाली अन्दाज़ा है।”
“रूबरू देखकर मेरे को अहसान कुर्ला चालीस के ऊपर लगा था।”
“इतना ही होने का। मेरा भी यहीच अन्दाज़ा।”
“दूसरा?”
“अगर अनिल विनायक है तो तीस-बत्तीस का। नहीं है तो उम्र का अंदाज़ा तेरे को ही हो। क्योंकि मेरे को तो तस्वीर से दूसरे की उम्र का कोई अन्दाज़ा नहीं हो रहा! भीड़ू पच्चीस का भी हो सकता है, पैंतालीस का भी हो सकता है।”
“दोनों की निगाहबीनी का इन्तज़ाम करना है। लेकिन इसलिए नहीं कि हमें दोनों की आपसी पुरानी – या मौजूदा भी – रिश्तेदारी कनफर्म करनी है, बल्कि इसलिए कि जब तक कोई नयी लीड पकड़ में नहीं आती, हमने इनमें से किसी को सीढ़ी बना कर इनके आकाओं तक पहुँचना है, इनके टॉप बॉस तक पहुँचना है, तुका के ट्रस्ट को हड़पने के पीछे जिसका भ्रष्ट दिमाग चल रहा है।”
दोनों के सिर सहमति में हिले।
“फिर हो सकता है कि ट्रस्ट हड़पने से भी बड़ा गेम किसी के ज़ेहन में हो, जिसको फिलहाल समझना मुहाल है। असल में क्या गेम है, उसकी परतें धीरे-धीरे ही खुलेंगी।”
“खोलने के लिए कोई परतें हुई ही न तो?” – शोहाब बोला।
“तो समझना जो सामने आया है, वो छोटे लैवल का गेम है, कोई बड़ी ताकत उन दोनों कड़छों की पीठ पर नहीं है जिनसे मैं मिल कर आया।”
“ऐसा मुमकिन है?”
“तुम्हारे से बेहतर कौन जानता है कि बराबर मुमकिन है। यहाँ के मवाली लोग बड़े नाम उछालने में, अपनी फर्ज़ी औकात बनाने में माहिर हैं। किसी इलाके का कोई भी छोटा-मोटा मवाली छोटी-मोटी तरक्की कर लेता है तो सबसे पहला काम यही करता है कि नेम ड्रॉपर बन जाता है।”
“बोले तो?” – इरफ़ान बोला।
“बड़े-बड़े नाम उछालने लगता है।”
“ओह!”
“हर किसी का दावा होता है कि वो कराची वाले ‘भाई’ का करीबी है जब कि ऐसे आधे दावे झूठे होते हैं . . .”
“दस में से नौ, जनाब, दस में से नौ।” – शोहाब बोला।
“बहरहाल, अभी उतने पर ही फोकस रखो, जितना मैं बोला।”
“अरे, बाप” – इरफ़ान जोश में बोला – “मैं अहसान कुर्ला और उसके जोड़ीदार की – वो अनिल विनायक हो या न हो – सात पुश्तों की कब्र खोद के बताएगा।”
“गुड। अभी एक निहायत ज़रूरी काम और भी है, उसकी बाबत गौर से सुनो।”
दोनों ने चाय के गिलास मेज पर रख दिए, समोसों की तरफ से तवज्जो हटा ली – विमल ऐसा पहले ही कर चुका था – फिर तीनों सिर जोड़ कर गंभीर मंत्रणा में जुट गए।
नज़ीर टोपी शिवाजी चौक लौटा।
“कहाँ अटक गया था?” – गोल टी-शर्ट नाराज़गी से बोला – “इतना बड़ा काम था? साला सूखने डाल दिया हमें!”
“आम काम न निकला।” – टोपी संजीदगी से बोला – “लोचे वाला काम निकला।”
“ऐसा?”
“हाँ, बाप।”
“फिर तो बैठ . . .”
“शुक्रिया।” – टोपी इकलौती विजि़टर्स चेयर पर ढेर हुआ।
“. . . और बता लोचा किधर निकला?”
“बाप, पूछो, किधर नहीं निकला?”
“बोले तो?”
“ये फॉर्म जो तुम मेरे को दिया” – टोपी ने फॉर्म गोल टी-शर्ट के सामने रखा – “इसमें जो भी दर्ज है, सब गलत है, फर्ज़ी है।”
“क्या!” – दोनों जोड़ीदार संभल कर बैठे।
“गायकवाड़ नगर, कोलीवाडा में गंगादास चाल नाम की कोई चाल हैइच नहीं। उधर जो भी चाल हैं, उनमें कोई भी दो माले से ज़्यादा ऊंची नहीं है, ये मैं सायन के अक्खे इलाके से कनफर्म किया, इस वास्ते टेम लगा।”
“हीरा सिंह चौहान!” – सिल्क-सूट के मुँह से निकला।
“कहीं किसी चाल में इस नाम का कोई भीड़ू नहीं रहता। न अकेला, न फ़ैमिली वाला, न ऐसा कोई, पाँच महीना पहले जिसकी बेटी की शादी हुई हो।”
“फिर साले डेढ़ दीमाक का” – टी-शर्ट बड़बड़ाया – “मोटरसाइकल का तलबगार कोई दामाद होने का तो कोई मतलब ही नहीं!”
“अभी आई बात पकड़ में।”
“खाली इस्टोरी किया?”
“बरोबर।”
“काहे वास्ते?”
“वो तो तुम लोग बोलेगा, तुम्हेरा दीमाक बोलेगा!”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, फिर एक-दूसरे की तरफ झुक कर खुसर- पुसर करने लगे।
“मोबाइल नम्बर!” – एकाएक टोपी की तरफ सिर उठाता सिल्क-सूट बोला – “वो बजाना था!”
“फॉर्म में दर्ज बाकी बातों की तरह” – टोपी बोला – “उसमें भी लोचा!”
“क्या?”
“मोबाइल नम्बर दस . . . दस डिजिट्स का होता है, फॉर्म में दर्ज मोबाइल नम्बर नौ डिजिट्स का है। बाप, बोलने का नहीं कि ये फॉर्म भरने वाले ने एक डिजिट – हिन्दसा – जानबूझ के छोड़ दिया।”
दोनों सामने पड़े फॉर्म पर झुके।
“हाँ।” – फिर पहले गोल टी-शर्ट ने सिर उठाया – “बरोबर! पण, टोपी, तू इस अधूरे नम्बर के साथ बारी-बारी एक से ज़ीरो तक के दस हिन्दसे जोड़ कर बारी-बारी नम्बर ट्राई करता तो बड़ी हद दस बार ही तो बजाना पड़ता . . .”
उसने देखा उसका जोड़ीदार मंद-मंद मुस्का रहा था।
और टोपी उसका साथ दे रहा था।
“क्या हुआ!” – गोल टी-शर्ट सकपकाया – “कुछ गलत बोल गया मैं?”
“अहसान भाई” – सिल्क-सूट पूर्ववत् मुस्कुराता बोला – “ये कैसे सोच लिया कि फॉर्म में मोबाइल नम्बर भरने वाले ने आख़िर का – इकाई का – हिन्दसा ही छोड़ा, दहाई का न छोड़ा, सैंकड़े का न छोड़ा, हज़ार का न छोड़ा, वग़ैरह!”
बात आख़िर उसकी समझ में आई तो गोल टी-शर्ट ने अपना माथा ठोका।
“हज़ारों नम्बर ट्राई करने पर भी ये काम नहीं होने वाला।”
“ओह!”
“बाप” – टोपी बोला – “किसी करिश्मे की तरह हो भी जाए, कोई नम्बर बोल भी पड़े तो क्या गारंटी कि नम्बर उसी भीड़ू का जिसने ये फॉर्म भरा?”
“हो भी गारन्टी” – सिल्क-सूट बोला – “तो मुम्बई की दो करोड़ की आबादी में किधर ढूंढ़ेंगे हम उसे?”
“कोई भेदी था।” – गोल टी-शर्ट भड़के लहज़े से बोला – “भेदी था जो भेद लेने आया। ऐसे श्याने को अक्खी मुम्बई में नहीं ढूँढ़ना पड़ेगा। क्या!”
उसके जोड़ीदार ने जवाब न दिया, उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव नहीं आए थे।
“साला बोलता था” – गोल टी-शर्ट बड़बड़ाया – “फोर्ट में कमेटी के बड़े दफ़्तर में क्लर्क था। दस साल से। क्या पता . . .”
“बाप, जब इतना कुछ गलत” – टोपी बोला – “तो ये एक बात किधर से सही होयेंगा?”
“हूँ।”
“फिर भी बोलता है तो मालूम करता है।”
“नहीं, जाने दे। वहाँ कोई हीरा सिंह चौहान क्लर्क नहीं मिलने वाला। इत्तफ़ाक से मिल भी गया तो वो कोई और ही निकलेगा। क्या!”
टोपी ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“टेम खोटी करेगा। जाने दे वो काम। कोई और बात है तो बोल।”
“बोलता है। बाप, अभी फॉर्म देखता है इस वास्ते ये भी देखने का कि फॉर्म में लिखा ई-मेल अड्रैस भी गलत है – heeeraschauhan@yahoodotcom में ‘हीरा’ लिखा देखने का, उसमें तीन ‘ई’ हैं।”
गोल टी-शर्ट से ज़्यादा सिल्क-सूट वाले ने फॉर्म की तरफ तवज्ज़ो दी।
“हाँ। बरोबर!” – उसने असहाय भाव से गर्दन हिलाई – “अहसान भाई बरोबर बोला, कोई भेदी घुस आया।”
“तभी बढ़-बढ़ के बोलता था।” – गोल टी-शर्ट बड़बड़ाया – “पण भेदी था तो माँगता क्या था!”
“मैं बोले तो” – टोपी बोला – “इधर का सैटअप स्टडी करता था।”
“काहे वास्ते?”
“अभी मैं क्या बोलेगा, बाप!” – टोपी ने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाए – “कोई तो वजह होगी ही!”
“पद् मा साली क्या काम करती है?” – गोल टी-शर्ट एकाएक फिर भड़का – “बुला उसे।”
टोपी उठकर बाहर गया और रिसैप्शनिस्ट के साथ वापिस लौटा।
“क्या काम है तेरा रिसैप्शन पर?” – गोल टी-शर्ट गर्जा।
एकाएक हुए उस हमले से युवती सिर से पांव तक कांप गई।
“क . . . क . . . क्या . . . क्या हुआ?” – वो हकलाई।
“पूछती है क्या हुआ! ये फॉर्म देख!” – गोल टी-शर्ट ने फॉर्म उसके मुँह पर मारने में कसर न छोड़ी – “तूने चैक किया?”
“ह-ह-हाँ।”
“अच्छी तरह से पढ़ के?”
“ह-हाँ, जी।”
“सब चौकस पाया? कोई गलती, कोई खराबी नहीं थी?”
“न-नहीं, जी।”
“मोबाइल नम्बर देख। ठीक है?”
उसने फॉर्म पर निगाह दौड़ाई और बोली – “हाँ – हाँ, जी।”
“पंखें से टांग दूँगा।” – इस बार गोल टी-शर्ट के लहज़े में क़हर का पुट था – “साली हाँ जी!”
भयभीत भाव से युवती ने फिर फॉर्म पर निगाह डाली।
इस बार उसके चेहरे से ख़ून निचुड़ गया।
“ए-ए-ए-एक डिजिट कम है।” – वो बड़ी मुश्किल से बोल पाई।
“अब ई-मेल देख!”
उसने फिर फॉर्म देखा लेकिन न लगा कि कोई फर्क उसकी पकड़ में आया था।
“अन्धों की तरह काम करती है। अभी भी नहीं दिखाई देता कि ‘हीरा’ में तीन ‘ई’ हैं। देख!”
युवती ने देखा तो उसका फक् चेहरा और फक् पड़ गया।
“अगली बार” – गोल टी-शर्ट पूर्ववत् सख़्ती से बोला – “मामूली-सी भी कोताही हुई तो कोई और नौकरी देखना। ख़ुद ही इधर न आना। वॉर्निंग है तेरे को। निकल ले।”
वो यूँ वहाँ से बाहर गई जैसे चलना मुहाल हो।
“तू भी जा, भई।”
टोपी दोनों का अभिवादन करके रुखसत हो गया।
पीछे दोनों जने अपनी-अपनी अक्ल लड़ाने लगे कि फर्ज़ी फरियादी हीरा सिंह चौहान कौन था और क्या चाहता था।
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