काले शीशों वाली एक काली एम्बेसेडर कार मनोरी बीच के करीब एक स्थान पर आकर रुकी । कार को एक वर्दीधारी ड्राइवर चला रहा था, उसके पहलू में शमशेर भट्टी बैठा था और पिछली सीट पर विमल और एक नौजवान लड़की मौजूद थी । लड़की फिल्म अभिनेत्रियों जैसी हसीन थी ।
विमल ने तत्काल कार से बाहर निकलने का उपक्रम न किया ।
“यह ब्रीफकेस संभालो ।” - भट्टी विमल की ओर एक ब्रीफकेस बढाता हुआ बोला - “पांच लाख रुपए हैं इसमें ।”
विमल ने ब्रीफकेस ले लिया ।
“और यह एक कार्ड ।”
विमल ने कार्ड लिया और डोम लाइट जलाकर उसका मुआयना किया । कार्ड पर केवल इतना लिखा था:
स्वैन नैक प्वाइंट
ओके
उसने डोमलाइट आफ कर दी और पूछा - “यह किसलिए ?”
“मुझे मालूम हुआ है” - भट्टी बोला - “कि टापू की मोटर बोट सर्विस इस्तेमाल करने के लिए ऐसा कार्ड दिखाना पड़ता है ।”
“यह कार्ड...”
“एकदम चौकस है । कैसीनो के एक पक्के क्लायंट से हासिल किया गया है ।”
“गुड ।”
“वापिसी का कोई अंदाजा ?”
“कोई नहीं ।”
“कोई बात नहीं । जब भी लौटोगे, यह कार तुम्हें यहीं खड़ी मिलेगी ।”
“ड्राइवर समेत ?”
“हां ।”
“गुड ।”
“और कुछ ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“तो फिर गुडलक ।”
विमल ने उससे हाथ मिलाया और कार से बाहर निकल आया ।
लड़की भी बाहर निकली ।
वह एक स्लीवलेस ब्लाउज और नाभिदर्शनी साड़ी पहने थी । थ्री पीस सूट में विमल उसके मुकाबले में ओवरड्रैस्ड लग रहा था । लड़की अपने कंधे पर बस कंडक्टरों जैसा लंबा ब्राउन बैग लटकाए थी । उसके कथनानुसार कैमरा उस बैग में फिट था । बैग में केवल लैंस के लिए एक छोटा-सा सुराख था जो कि दिखाई नहीं देता था । उसका स्विच बैग के लैच में था और कैमरे में जो फिल्म थी वो इस प्रकार की थी जो कि कम-से-कम रोशनी में भी तस्वीर खींच सकती थी ।
लड़की का नाम वैभवी था जो कि उसके अत्यंत वैभवशाली रूप-यौवन से खूब मेल खाता था ।
कार छोड़कर अगल-बगल चलते हुए दोनों आगे बढे ।
वे पायर के करीब पहुंचे तो वैभवी एकाएक बोली - “मुझे पानी से बहुत डर लगता है ।”
“हमने” - विमल शुष्क स्वर में बोला - “तैरकर टापू तक नहीं जाना ।”
“फिर भी मुझे पानी से बहुत डर लगता है । मैं तो नहाती भी आंखें बंद करके हूं ।”
विमल ने उत्तर न दिया । लड़की बहुत बातूनी थी, जब से मिली थी, मुतवातर उसके कान खा रही थी लेकिन उसे आश्वासन दिया गया था कि वह बहुत ही दक्ष फोटोग्राफर थी ।
ऊपर से खूबसूरत थी, कमसिन थी, खुशमिजाज थी ।
यानी कि वो हर लिहाज से वैसी लड़की थी जैसी की उस अभियान में विमल को जरूरत थी ।
“बचपन में मैं एक बार डूबते-डूबते बची थी” - वैभवी कह रही थी - “तभी से मुझे पानी की दहशत है ।”
“अच्छा ! क्या हुआ था ?”
“किसी ने मुझे तालाब में धक्का दे दिया था । वो तो अच्छा हुआ कि जल्दी ही किसी ने मुझे बाहर निकाल लिया ।”
“हूं ।”
“मुझे तो पानी का ख्याल से चक्कर आने लगता है ।”
“इस वक्त आ रहा है ?”
“क्या ?”
“चक्कर ।”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“तुम जो साथ हो । तुम मुझे कुछ ही थोड़े ही जाने दोगे ? अगर मैं डूबने लगी तो तुम मुझे बचा लोगे न ?”
“डूबने क्यों लगोगी ?”
“मैंने कहा अगर ।”
“खुद तुम्हारे साथ न डूब गया तो बचा लूंगा ।”
“मजाक कर रहे हो ।”
“अब एक मिनट चुप करो ।”
तब तक वे पायर पर पहुंच चुके थे । पायर के साथ एक भव्य, विशाल मोटरबोट लगी हुई थी । करीब पायर पर एक बैंच पर एक मोटा-ताजा आदमी बैठा था । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से दोनों की तरफ देखा ।
“ये टापू का बोट है ?” - विमल ने पूछा ।
“कौन-सा टापू ?” - मोटा बोला ।
“स्वैन नैक प्वाइंट ।”
“है तो क्या ?”
“तो यह ।”
विमल ने उसको भट्टी का दिया कार्ड दिखाया ।
मोटे ने हाथ बढाकर विमल की पकड़ से कार्ड खींच लिया और उसका मुआयना किया । फिर उसने कार्ड विमल को वापिस लौटा दिया ।
“ब्रीफकेस में क्या है ?” - वह बोला ।
जुबानी जवाब देने की जगह विमल ने ब्रीफकेस खोलकर उसे दिखाया ।
मोटे के मिजाज में तब्दीली आई ।
“बोट में बैठिए ।” - वह अदब से बोला - “पांच मिनट में चल रहे हैं ।”
विमल ने ब्रीफकेस बंद किया और फिर वैभवी का हाथ थामे बोट में सवार हो गया ।
वे डैक पर पहुंचे ।
“मैं मजाक नहीं कर रही ।” - वैभवी धीमे किंतु व्याकुल स्वर में बोली - “मुझे वाकई पानी से बहुत डर लगता है ।”
विमल खामोश रहा ।
डैक के तीन चौथाई भाग पर छत थी और उसके नीचे कुर्सियां लगी हुई थीं । वहां दो जोड़े और एक अकेला आदमी पहले से बैठे थे ।
वे उनसे परे दो कुर्सियों पर अलग-अलग बैठ गए ।
“ये तो खड़ी-खड़ी ही बहुत हिल रही है ।” - वैभवी बोली ।
“लहरें हिलाती हैं ।” - विमल ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और अपने पाइप का एक कश लगाया ।
“चलने पर तो यह और हिलेगी ?”
“तब हरकत ऐसी डगमग-जैसी नहीं होगी ।”
“तो कैसी होगी ?”
“पहले कभी मोटरबोट पर नहीं बैठी ?”
“नहीं ।”
“तभी तो ।”
“मोटरबोट की हरकत कैसी होती है ?”
“अभी चलेगी तो मालूम हो जाएगा ।”
“तुम्हें तैरना आता है ?”
“हां ।”
“मुझे तो आता नहीं ।”
“अच्छा !”
“अगर यह बोट डूब गई तो तुम मुझे बचा लोगे ने ? मुझे किनारे तक तो पहुंचा दोगे न ?”
विमल का जी चाहा कि वह जेब से अपना रूमाल निकाले और उसके मुंह में ठूंस दे ।
“बोलो, बचा लोगे न ?”
“शुभ-शुभ बोलो और हौसला रखो ।” - विमल तनिक चिढे स्वर में बोला - “तुम्हें कुछ नहीं होने वाला ।”
“लेकिन अगर बोट...”
“इसे भी कुछ नहीं होने वाला ।”
“लेकिन अगर...”
तभी पायर पर बैठा मोटा बोट पर आ चढा । उसके पीछे-पीछे एक जोड़ा और बोट पर सवार हुआ ।
और कुछ क्षणों में बोट स्टार्ट हुई और फिर अंधेरे समुद्र की छाती पर दौड़ चली ।
वैभवी कसकर उससे लिपट गई ।
“यूं मुझे जकड़कर रखोगी ।” - विमल धीरे से बोला - “तो मैं तो तुम्हें क्या उबार पाऊंगा, तुम मुझे भी डुबो दोगी ।”
“मैं क्या करूं ?” - वह रुआंसे स्वर में बोली - “मुझे दहशत होती है ।”
“समुद्र की तरफ मत देखो, डैक के फर्श की तरफ देखो । आंखें बंद कर लो ।”
“लेकिन मोशन ?”
“समझ लो हिंडोले पर बैठी हो ।”
“लेकिन...”
तभी बोट ने स्पीड पकड़ी । वैभवी सहमकर चुप हो गई ।
उस घड़ी विमल को नीलम की बहुत याद आई । ऐसे ही एक बार वह नीलम के साथ क्लब-29 गया था तब नीलम ने भी अनाप-शनाप बोलकर उसके खूब कान खाए थे लेकिन नीलम की हर बात उसे भोली और मीठी लगती थी और वह उससे आनंदित होता था जबकि उस लड़की की बातों से वह बोर हो रहा था, चिड़चिड़ा रहा था ।
“धन्न करतार !” - वह आह भरकर बोला ।
वैभवी की मौजूदा दहशत का एक फायदा विमल को फिर भी पहुंचा ।
बोट के स्वैन नैक प्वाइंट के पायर पर जा लगने तक वैभवी एक अक्षर तक न बोली ।
बादशाह अब्दुल मजीद दलवई की बादशाहत वाला टापू दिन के मुकाबले में रात को कहीं अधिक प्रभावशाली लग रहा था । उस वक्त उसका सारा अग्रभाग रोशनियों से जगमगा रहा था । टापू पर बहुत ऊंची-ऊंची लगी फ्लड लाइट्स पायर से बहुत आगे तक समुद्र को जगमगा रही थीं । सारा इलाका बहुत छुपाकर लगाए हुए स्पीकरों से निकलती आधुनिकतम पाश्चात्य संगीत की स्वर लहरियों से गूंज रहा था । पायर और कैसीनो के बीच फैला रॉक गार्डन रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमग-जगमग कर रहा था । हर तरफ कैसीनो के क्लायंटों की और वहां के स्टाफ की आवाजाही की हलचल थी । एक त्योहार जैसा माहौल बना हुआ था वहां ।
“लवली !” - वैभवी के मुंह से निकला ।
खुश्की पर पहुंचते ही पानी का खौफ उसके दिल से निकल गया था, लेकिन विमल की बांह उसने अभी तक नहीं छोड़ी थी ।
दोनों रॉक गार्डन की जगमग करती राहदारी पर आगे बिना खिड़कियों वाली मेन बिल्डिंग की ओर बढे जो कि कैसीनो था ।
“तस्वीरें खींचनी शुरू कर दो ।” - विमल धीरे से बोला ।
“दो तो मैं खींच भी चुकी हूं ।” - वैभवी वैसे ही धीरे से बोली - “एक पायर पर पहुचंने से पहले और दूसरी पहुंचने के बाद ।”
लड़की के जवाब ने विमल को खुश कर दिया ।
“शाबाश ।” - वह बोला ।
“तस्वीरों की तुम फिक्र मत करो ।” - वह बोली - “मेरे काम में कोई नुक्स नहीं होगा । न ही तुम्हें याद दिलाना होगा कि मैं यहां तुम्हारे साथ क्या करने आई हूं ।”
“वैरी गुड ।”
शीशे के चार पल्लों वाले घूमते दरवाजों में से होकर उन्होंने कैसीनो में कदम रखा ।
कैसीनो का मेन हाल किसी राजदरबार जैसा भव्य था । उसकी कोई तीस फीट ऊंची छत झाड़-फानूसों से सजी हुई थी जिसकी रंग-बिरंगी रोशनियों की छटा देखते ही बनती थी । दीवारें विशाल तैलचित्रों से सुसज्जित थीं और फर्श पर मोटे कालीन बिछे हुए थे । वहां लगा फर्नीचर भी किसी महाराजा के महल की शोभा बढाने के काबिल मालूम होता था । हाल के तीन और मेहराबदार दरवाजे थे जिनमें से बाएं के पार डायनिंग रूम था, सामने लाउंज था और दाएं मेन कैसीनो था ।
“कुछ खाना-पीना पसंद करोगी ?” - विमल बोला ।
“अभी नहीं ।” - वैभवी ने उत्तर दिया ।
“तो फिर कैसीनों में चलते हैं ।”
वैभवी ने सहमति में सिर हिलाया और उसके साथ हो ली ।
कैसीनो में पहुंचकर सबसे पहले विमल ने ब्रीफकेस से निजात पाई । वहां के कैशियर ने ब्रीफकेस के नोटों को गिनने तक का उपक्रम नहीं किया । जो विमल ने कहा उसे कबूल करके उसने चार लाख रुपए की रसीद और एक लाख रुपए के एक हजार, पांच हजार और दस हजार रुपए के टोकन एक प्लास्टि की ट्रे में रखकर विमल को दे दिए । विमल का ब्रीफकेस उसने वहीं मौजूद एक अलमारी जैसी तिजोरी के करीब फर्श पर रख दिया ।
कैसीनो बहुत बड़ा था और वहां हर प्रकार के जुए की टेबल लगी हुई थीं ।
विमल ने आधे टोकन वैभवी को दिए ।
“मैं क्या करूं ?” - वह बोली ।
“कैसीनो में घूमो ।” - विमल बोला - “छोटे-मोटे दांव लगाओ । तस्वीरें खींचो । आनंद लो ।”
“और तुम ?”
“मैं भी यही कुछ करूंगा ।”
“इकट्ठे क्यों नहीं ?”
“इकट्ठे ही समझो । मैं भी तुम्हारे आसपास ही होऊंगा ।”
“मैं हार गई तो ?”
“तो क्या ! पराया माल है । तुम्हारा क्या जाएगा ।”
“जीत गई तो ?”
“तो भी पराया माल है । लालच में मत पड़ो ।”
वैभवी ने तनिक सकपकाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
एक घंटा दोनों ने कभी इकट्ठे, कभी अलग-अलग कैसीनो में गुजारा ।
फिर वे डाइनिंग रूम में पहुंचे ।
भव्यता में डायनिंग रूम भी कैसीनो के किसी भाग से कम नहीं था और खाना लाजवाब था ।
तब तक विमल सरसरी तौर पर वहां के हर कोने-खुदरे का मुआयना कर चुका था लेकिन कहीं भी उसे ऊपर की मंजिल की ओर जाने वाला कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया था । उसे किसी दीवार में कोई ऐसा दरवाजा तक नहीं दिखा था जो बंद हो और जिसकी बाबत वह अपेक्षा कर सकता हो कि उसके पीछे कोई सीढियां होंगी या कोई गलियारा होगा जिसके आगे कहीं सीढियां होंगी । जब ऊपर मंजिल थी ऊपर जाने का रास्ता कहीं तो होना ही था । जो रास्ते बहार को जाते प्रत्यक्षत: दिखाई दे रहे थे उनमें से कोई ऊपर की मंजिल से संबंधित नहीं मालूम होता था । डायनिंग रूम से बाहर जाने वाले रास्ते लाउंज या किचन तक या बाहर के हाल तक ही जाते थे । कैसीनो से बाहर जाने का केवल एक ही रास्ता था लेकिन वह भी बाहर के हाल में ही पहुंचता था । इसी प्रकार लाउंज से कोई कहीं जा सकता था तो बाहर के हाल में ही जा सकता था ।
वे वापिस कैसीनो में पहुंचे ।
विमल वैभवी को रॉलेट टेबल पर बिठाकर आप इधर-उधर भटकने लगा ।
कहीं कोई गुप्त दरवाजा जरूर होना चाहिए ।
उसका अंदाजा था कि ऐसा कोई दरवाजा अगर कहीं हो सकता था तो कैसीनो वाले हाल में ही हो सकता था । अलबत्ता यह उसकी समझ से बाहर था कि ऐसे गुप्त दरवाजे की जरूरत क्या थी, जब अंधे को भी दिखाई दे रहा था कि इमारत दो मंजिली थी ऊपर जाने का कहीं तो कोई रास्ता होना ही था । रास्ता न दिखाई देने भर से ही कौन मान लेता कि ऊपर कुछ नहीं था ।
आइंदा पंद्रह मिनटों में उसने वह गुप्त दरवाजा तलाश कर ही लिया ।
जो वालपेपर दीवार की रौनक बढा रहा था वही दरवाजे पर भी लगा होने की वजह से उस दरवाजे की दीवार में मौजूदगी का आभास तक नहीं मिलता था । केवल एक फुट परे से विमल को बस बोर्ड में वो पतली-सी लकीर दिखाई दी थी जहां वालपेपर लगाने वाले की कारीगरी में नुक्स रह गया था ।
उस गुप्त दरवाजे का मुआयना करने के लिए विमल उसके सामने और न रुका क्योंकि वहां का कोई-न-कोई गार्ड उसके कार्यकलापों पर निगाह रखे हो सकता था ।
आइंदा आधे घंटे में वह किसी-न-किसी बहाने से उस दरवाजे के पास से कई बार गुजरा और इसी नतीजे पर पहुंचा कि उस दरवाजे को कैसीनो की तरफ से खोलने का कोई तरीका नहीं था और भीतर से भी वह दरवाजा जरूर-जरूर किसी इलैक्ट्रानिक कंट्रोल द्वारा खुलता था ।
और दस मिनट बाद विमल ने वैभवी को रॉलेट टेबल से उठाया और उसे गुप्त दरवाजे तक लाया जहां विमल हाथ-पांव झटक-झटककर उससे बातचीत करता रहा और वैभवी उस गुप्त दरवाजे की तस्वीरें खींचती रही ।
“हाल में कोई तस्वीरें खींची ?” - विमल ने पूछा ।
“हां । खूब ।” - वैभवी बोली ।
“अभी तक एक ही फिल्म चल रही है ?”
“पागल हुए हो ! तीसरी ।”
“चेंज कैसे की ?”
“लेडीज टायलेट में जा कर । क्या मुश्किल था ?”
“कैशियरों के पिंजरे की तस्वीरें खींचीं ?”
“हां । कई ।”
“गुड ।”
फिर तो इमारत से बाहर निकले और इमारत के दाएं पहलू से होकर आगे बढते रास्ते पर चलते हुए पिछवाड़े में बने मिनी ओपन एयर थियेटर तक पहुंचे । जिस रास्ते से वे गुजरे थे उसके दोनों ओर सफाई से कटी हुई ऊंची-ऊंची झाड़ियां थीं और उनसे परे घना जंगल था ।
मिनी ओपन एयर थियेटर में उस घड़ी मुर्गों की लड़ाई जारी थी । दो खूब पले हुए मुर्गे उछल-उछलकर एक-दूसरे पर वार कर रहे थे । वहां काफी सारे दर्शक मौजूद थे जो मुर्गों की हार-जीत पर हजारों के दांव लगा रहे थे । अधिकतर लोगों की सूरत से साफ जाहिर हो रहा था कि उन्होंने पहले कभी मुर्गों की लड़ाई नहीं देखी थी ।
“मैं देखना चाहती हूं ।” - वैभवी उत्तेजित भाव से बोली ।
विमल ने बिना हुज्जत किए सहमति में सिर हिला दिया ।
“अब चलो ।” - पांच मिनट बाद विमल बोला ।
“ओह नो ।” - वैभवी ने तत्काल विरोध किया - “कितना मजा आ रहा है ।”
“हम यहां मुर्गे भिड़ते देखने नहीं आए ।” - विमल सख्ती से बोला ।
“बस थोड़ी देर...”
“नो ।”
मुंह बिसूरती वैभवी उसके साथ हो ली ।
इस बार विमल ने उधर कदम बढाया जिधर गोदाम थे । उधर का रास्ता बाकी रास्तों जैसा साफ-सुथरा नहीं था । वह जंगल से गुजरती पगडंडी से जरा चौड़ी महज एक कच्ची सड़क थी । उस रास्ते पर जो इक्का-दुक्का बल्ब जल रहा था वह बड़े अस्थायी तरीके से तार खींचकर पेड़ से लटकाकर जलाया गया मालूम होता था ।
वे गोदामों के पहलू में पहुंचे तो एकाएक एक भारी-भरकम आदमी दीवार की तरह उनके सामने आ खड़ा हुआ ।
“इधर” - वह सख्ती से बोला - “आगे जाना मना है, साहब ।”
“क्यों ?” - विमल बोला ।
“ऑर्डर है, साहब ।”
“जाने दे न, यार ।” - विमल खुशामद भरे स्वर में बोला ।
“इधर कुछ नहीं है, साहब ।”
“तभी तो जाना चाहते हैं ।”
“मतलब ?”
“नहीं समझा ?”
विमल ने वैभवी की कमर में हाथ डालकर उसे अपनी तरफ खींचा और आदमी को आंख मारी !
“ओह !” - उस आदमी के मुंह से निकला ।
विमल ने जेब से एक सौ का नोट निकालकर जबरन उसके हाथ में ठूंसा और बोला - “यार तफरीह के लिए आए हैं । तफरीह में क्यों रोड़ा अटकाता है ?”
“काटेजों से आगे न जाना ।” - वह आदमी चेतावनी-भरे स्वर में बोला ।
“नहीं जाएंगे ।”
“किसी काटेज के भीतर जाने की कोशिश तो हरगिज न करना ।”
“मंजूर ।”
“खान को खबर लग गई तो मेरी मुश्किल हो जाएगी ।”
“खान कौन ?”
“अंजुम खान । बादशाह का दायां हाथ । बादशाह के बाद यहां उसी का हुक्म चलता है ।”
“ओह ।”
“जल्दी लौटने की कोशिश करना ।”
“बहुत जल्दी ।”
वह आदमी एक ओर हट गया ।
दोनों आगे बढ गए ।
आगे रास्ता पायर हाउस के गिर्द से होकर गुजर रहा था । उसके आगे रास्ते ढलुवां होता चला जा रहा था । उधर भी रोशनी का साधन पेड़ों से टंगा कोई इक्का-दुक्का बल्ब ही था ।
आगे काटेज थे ।
वे कंक्रीट के ऊंचे चबूतरों पर एक-दूसरे से काफी फासला रखकर बनाए गए थे और प्राय: समुद्र-तटों पर पाए जाने वाले बीच केबिनों जैसे मालूम हो रहे थे ।
उस घड़ी सब-के-सब काटेजों में अंधेरा था ।
पांचवें और आखिरी काटेज पर पहुंचकर वह रास्ता खत्म हो गया ।
“तुम जरा यहीं ठहरना ।” - विमल बोला ।
“जल्दी आना ।” - वैभवी तनिक त्रस्त भाव से बोली ।
विमल आगे बढा । उसने अपनी जेब से एक पैंसिल टॉर्च निकालकर जला ली ।
वहां से आगे घना जगल था और इतने झाड़-झंखाड़ थे कि उनके बीच से रास्ता बनाकर समुद्र-तट तक पहुंचना नामुमकिन था ।
वह वापिस लौट आया ।
उसने पैंसिल टॉर्च बुझाकर जेब के हवाले की और बोला - “चलो ।”
“इधर कोई तस्वीर नहीं खींचनी ?” - वैभवी बोली ।
“नहीं । इधर क्या रखा है ?”
उलटे पांव वे वापिस लौटे ।
विमल को इस बात से बड़ी हैरानी हुई कि जिस आदमी ने उन्हें उस पर आगे बढने से रोका था, वह उन्हें वापिसी में कहीं दिखाई न दिया ।
कैसीनो के करीब जाकर इस बार विमल ने उस इमारत की तरफ कदम बढाया जिसमें टापू का स्टाफ रहता था और जिधर बोट हाउस थे ।
वहां उन्होंने पाया कि एक बोट हाउस के सामने कुर्सियां डाले तीन आदमी बैठे थे जो वैसी ही नीली वर्दियां पहने थे जैसी उस बोट के सवार पहने थे जो पिछले रोज उनकी मोटरबोट के पीछे लगे थे । जाहिर था कि वे वहां सके सिक्योरिटी स्टाफ के अंग थे ।
“इधर कुछ नहीं है, साहब ।” - एक बोला - “दूसरी तरफ जाइए ।”
“दूसरी तरफ किधर ?” - विमल सहज भाव से बोला ।
“मेरा मतलब है कि कैसीनो में जाइए ।”
“वहीं से आए हैं । वहां मेरा दम घुटने लगा था । मैं खुली हवा...”
“तो गार्डन में जाइए, साहब ।”
“भई, यहां से समुद्र का नजारा...”
“वो मेन पायर से भी होता है ।”
“अरे, यहां कोई थोड़ी देर रुक भी गया तो...”
“बहस न कीजिए, साहब ।” - वह आदमी एक क्षण ठिठका और‍ फिर बोला - “प्लीज ।”
“ओके ! ओके ।”
उसने वैभवी की बांह थामी और वापिस चल दिया । वे लोग दृष्टि से ओझल हो गए तो वह बोला - “कोई तस्वीर खींची ?”
“पांच ।” - वैभवी बोली - “बल्कि छ: ।”
“गुड । अब वापिस चलते हैं ।”
“यहां का काम खत्म ?”
“हां । बशर्ते कि सच में ही जुए में तुम्हारी कोई दिलचस्पी न हो ।”
“जब हार-जीत मेरी नहीं तो क्या दिलचस्पी होगी ?”
“ऐग्जैक्टली ।”
वे पायर पर पहुंचे ।
मालूम हुआ कि मोटरबोट वहां से पंद्रह मिनट बाद रवाना होने वाली थी ।
उसे वहीं छोड़कर विमल कैसीनो में वापिस पहुंचा । उसके कैशियर को बचे हुए टोकन और कैश की रसीद थमाई ।
“आपका ब्रीफकेस ऑफिस में है ।” - कैशियर बोला - “मैं अभी लाता हूं ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
कैशियर उठकर भीतर कहां चला गया ।
विमल ने अपना पाइप सुलगा लिया और उसके कश लगाता प्रतीक्षा करने लगा ।
नीली वर्दी वाला एक हथियारबंद व्यक्ति उसके समीप पहुंचा ।
“आप जरा मेरे साथ आइए ।” - वह बड़े अदब से बोला ।
“कहां ?” - विमल तनिक सकपकाकर बोला ।
“भीतर ऑफिस में ।”
“क्यों ?”
“साहब आपसे मिलना चाहते हैं ।”
“कौन साहब ?”
“खान साहब । वो यहां के सिक्योरिटी चीफ हैं ।”
“वो मेरे से मिलना चाहते हैं ?”
“हां ।”
“मैं कौन हूं ?”
“जो कोई भी आप हैं ।”
“कमाल है !”
“जिद न कीजिए, साहब ।” - इस बार सिक्योरिटी गार्ड के स्वर में सख्ती का पुट था ।
“ठीक है । चलो ।”
धड़कते दिल के साथ विमल उसके साथ हो लिया ।
गार्ड उसे उसी कमरे में ले गया जिसमें थोड़ी देर पहले कैशियर घुसा था और जब अब अपनी सीट पर वापिस लौट आया हुआ था ।
निश्चय ही वही विमल की भीतर खबर करके आया था ।
कमरा ऑफिस की तरह सजा हुआ था और एक विशाल मेज के पीछे एक एग्जीक्यूटिव चेयर पर किसी बड़ी कंपनी का टॉप एग्जीक्यूटिव लगने जैसा एक आदमी बैठा था ।
“वैलकम ।” - वह मुस्कराकर बोला - “तशरीफ रखिए ।”
विमल एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मुझे खान कहते हैं । अंजुम खान ।”
तो ये था बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का दायां हाथ । टापू का कथित सिक्योरिटी चीफ !
खान एक क्षण आशापूर्ण नेत्रों से विमल को देखता रहा और फिर बोला - “आपकी तारीफ ?”
“पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला ।” - विमल बड़ी शान से बोला - “दैट्स मी ।”
“मेकअप किसलिए ?”
“मेकअप !”
“जो आपके चेहरे पर है । नकली दाढी-मूंछ । कांटैक्ट लैंस । चश्मा वगैरह...”
विमल का दिल डूबने लगा । क्या हाल ही में बंबई के हर दादा ने एक्सरे विजन हासिल कर ली थी ? वह दो बार उस मेकअप में पहचाना जा चुका था । पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ ।
“उतारिए ।” - हुक्म मिला ।
खेल खत्म । - विमल ने मन-ही-मन सोचा ।
“आप मेकअप खुद उतारेंगे या मैं गार्ड को हुक्म दूं इस बाबत ।”
विमल ने चुपचाप दाढी-मूंछ, कांटैक्ट लैंस, चश्मा, पाइप सब कुछ एक-एक करके मेज पर रख दिया ।
अंजुम कान गौर से उसकी सूरत देखने लगा । कई क्षण वह अपलक उसे देखता रहा ।
“क्या कारोबार है आपका ?” - फिर उसने पूछा ।
“बताते शर्म आती है ।” - विमल हिम्मत करके बोला ।
“शर्म शरीफ लोगों का जेवर होता है । खातिर जमा रखिए, यहां कोई शरीफ आदमी नहीं ।”
“स्मगलर हूं । घड़ियों का ।”
“मेकअप किसलिए ?”
“पकड़ा गया था । बड़ोदा में । लॉकअप से भागा हुआ हूं ।”
“यहां क्या खतरा है ?”
“यहां नहीं है । किनारे पर तो है ।”
“किनारे का कारोबार किनारे तक रखिए । अगली बार जब तशरीफ लाएं तो मेकअप के बगैर आएं । यहां आपको कोई खतरा नहीं । अपने मेहमान के हम हमेशा मुहाफिज हैं ।”
“शुक्रिया । मैं ध्यान रखूंगा ।”
“आप जल्दी जा रहे हैं ?”
“मैं तो नहीं जाना चाहता लेकिन मेरे साथ जो दोशीजा है, वो उतावली हो रही है ।”
“हो जाता है कभी-कभी ऐसा । फिर आइएगा ।”
“जरूर ।”
अंजुम खान ने बड़ी गर्मजोशी से उठकर उससे हाथ मिलाया ।
अपने मेकअप को संभाले विमल गार्ड के साथ वहां से विदा हुआ जो पहले उसे एक प्रसाधन कक्ष में लेकर गया जहां कि उसने मेकअप फिर अपने चेहरे पर स्थानांतरित कर लिया ।
कैशियर से उसने नोटों का ब्रीफकेस हासिल किया, आमद के मुकाबले में जिसमें से तिहत्तर हजार रुपए कम हो चुके थे ।
गार्ड कैसीनों में ही उससे अलग हो गया था ।
वह बाहर की ओर बढा ।
प्रत्यक्षतः उसके नए चेहरे की खबर वहां तक अभी नहीं पहुंची थी । उस टापू का मालिक इकबालसिंह का फिफ्टी-फिफ्टी का पार्टनर था लेकिन शायद इकबालसिंह ने सपने में भी न सोचा था कि विमल वहां भी पहुंच सकता था या उसकी कैसीनो से ‘कंपनी’ की रिश्तेदारी की खबर लग सकती थी ।
तकदीर से ही उसकी जान बच गई थी ।
तेरा अंत न जाना मेरे साहिब - वह मन-ही-मन बुदबुदाया - मैं अंधुले क्या चतुराई ।
वह पायर पर पहुंचा ।
“कहां रह गए थे ?” - वैभवी व्याकुल भाव से बोली - “मैंने रिक्वैस्ट करके खास तुम्हारे लिए बोट रुकवाई हुई है ।”
विमल कभी सॉरी तो कभी थैंक्यू बोलता जल्दी से उसके साथ बोट में सवार हो गया ।
उनके सवार होते ही बोट वहां से चल पड़ी ।
***
वागले ने अपने के पहलू में पड़े टेबल लैंप की बत्ती जलाई और वॉल क्लॉक पर निगाह डाली ।
एक बजने को था ।
उसने करीब दूसरे पलंग पर तुकाराम सोया पड़ा था और खुद दो भी सोते से जागा था । अपने एक हाथ से पेट को मसलता हुआ उठकर खड़ा हुआ और दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने दरवाजे को अपनी तरफ खींचा तो उसे हमेशा की तरह बाहर से बंद पाया । उसने कोई आहट लेने की कोशिश की तो उसे इमारत में मुकम्मल सन्नाटे का आभास हुआ । उसने दरवाजे पर दस्तक दी ।
कुछ क्षण बाद बाहर से दरवाजे का ताला खुलने और कुंड़ी सरकाई जाने की आवाज हुई ।
“खोलो ।” - बाहर से आदेश मिला ।
वागले ने दरवाजा खोला ।
तत्काल एक रिवॉल्वर उसकी तरफ तन नई ।
वागले ने गलियारे में खड़े रिवॉल्वर वाले के आसपास निगाह डाली तो उसे अकेला पाया जबकि पहले हमेशा उसके पीछे या आजू-बाजू उसको कवर किए खड़े दो कारबाइनधारी प्यादे और हुआ करते थे ।
“क्या है ?” - रिवॉल्वर वाला प्यादा कर्कश स्वर में बोला ।
“टॉयलेट जाने का है ।” - वागले बोला ।
“चल ।”
वागले ने गलियारे में कदम रखा ।
“दरवाजा बंद कर ।”
वागले ने कमरे के दरवाजे को बाहर से बंद करके कुंडी लगाई ।
“चल ।”
वागले गलियारे में आगे बढा ।
वो लंबा गलियारा पिछवाड़े के कम्पाउंड में जाकर खत्म होता था जहां के एक कोने में टॉयलेट था ।
गलियारे के सिरे पर एक सशस्त्र प्यादा मौजूद था ।
“जा के कमरे के दरवाजे पर खड़ा हो ।” - पहले प्यादे ने उसे आदेश दिया ।
दूसरा प्यादा सहमति में सिर हिलाता उसकी बगल से गुजरकर पीछे दरवाजे की ओर बढ गया ।
फिर पहला प्यादा वागले को अपने सामने चलाता हुआ टॉयलेट तक ले आया ।
रास्ते में किसी प्यादे के वागले को दर्शन नहीं हुए जबकि पहले ऐसे किसी अवसर पर पिछले कम्पाउंड में भी कम-से-कम दो प्यादे हुआ करते थे । उससे वागले ने यही नतीजा निकाला कि उनकी तरफ से वे लोग काफी हद तक निश्चित हो चुके थे ।
वह टॉयलेट में दाखिल हो गया ।
पांच मिनट बाद जब वह बाहर निकला तो उसने प्यादे को दीवार से पीठ लगाए खड़े ऊंघते पाया ।
वागले स्तब्ध खड़ा हो गया ।
प्यादे को हिलता न पाकर उसने अपने चारों तरफ निगाह डाली । दीवार के करीब एक स्थान पर उसे तीन-चार ईंटें पड़ी दिखाई दीं । वह दबे पांव वहां पहुंचा । उसने वहां से एक ईंट उठा ली और पूर्ववत् दबे पांव प्यादे की तरफ बढा ।
वह प्यादे से अभी दो कदम दूर ही था कि एकाएक उसने आंखे खोलीं ।
वागले थमककर खड़ा हो गया । तत्काल अपना र्ईंट वाला हाथ उसने पीछे कर लिया ।
“निबट गया ?” - प्यादा सहज भाव से बोला ।
वागले ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया ।
“तो चल ।”
प्यादे आगे बढा ।
रिवॉल्वर से वागले को कवर करके उसे अपने आगे चलाने के स्थान पर वह स्वयं आगे बढा ।
वागले फैसला न कर सका कि वह उसकी मूर्खता थी या लापहवाही ।
या फिर वह किसी नशे की गिरफ्त में था ।
वागले चार कदम उसके पीछे चला फिर एकाएक उसने पूरी शक्ति से हाथ में थमी ईंट उसके सिर में दे मारी । साथ ही उसने लपककर उसका मुंह दबोच लिया । प्यादे का शरीर उसकी पकड़ में ढीला पड़ने लगा तो उसने हौले-हौले उसे धराशायी हो जाने दिया । उसने देखा कि प्यादे का सिर पूरी तरह से फट गया था और वह लगभग फौरन ही चेतना खो बैठा था ।
वागले ने सबसे पहले उसकी रिवॉल्वर अपने काबू में की और फिर प्यादे के निश्चेष्ट शरीर को घसीटकर टॉयलेट में ले आया । वहां उसने अपने कपड़ों का मुआयना किया । उस घड़ी वह कुर्ता-पाजामा पहने था । जिस पर कहीं भी प्यादे के खून के छींटे उसे न दिखी दिए । केवल उसके हाथ खून से सन गए थे जो कि उसने धोकर साफ कर लिए ।
अब वह तुकाराम की बाबत सोचने लगा ।
क्या वह तुकाराम को छुड़ा सकता था ?
क्यों नहीं छुड़ा सकता था ? - उसकी अक्ल ने जवाब दिया - अब वह हथियारबंद था और गलियारे में तुकाराम के कमरे के दरवाजे के सामने केवल एक प्यादा मौजूद था । हथियारबंद होते हुए क्या वह एक प्यादे पर भी काबू पाने में समर्थ नहीं था ? क्यों नहीं था ? यकीनन था ।
रिवॉल्वर मजबूती से हाथ में थामे उसने सावधानी से टॉयलेट से बाहर कदम रखा और गलियारे में आगे बढा ।
तभी एकाएक कॉलबेल बजी ।
वागले यूं थमककर खड़ा हुआ जैसे सामने दीवार आ गई हो । रात के स्तब्ध वातावरण में कॉलबेल की कर्कश आवाज बहुत जोर से गूंजी ।
अब तुकाराम के करीब पहुंचने की कोशिश करना मूर्खता थी । कॉलबेल के जवाब में इमारत में जाग हो जाने वाली थी और वह अकेला इमारत में मौजूद दर्जन-भर प्यादों से नहीं जूझ सकता था ।
वो क्या करे ?
तुका को छोड़कर भाग निकले ?
उसे इसी में समझदारी दिखाई दी ।
तुका के साथ गिरफ्तार रहकर वह उसका कोई भला नहीं कर सकता था । जबकि एक बार आजाद हो जाने के बाद वह उसकी रिहाई की कोई जुगत भिड़ा सकता था । और नहीं तो वह पुलिस के पास ही जा सकता था ।
वह लपककर कंपाउंड की पिछली गली के दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने दरवाजे को ताला लगा पाया ।
लेकिन दीवार फांदकर गली में कूद जाना मामूली काम था ।
वह निःशब्द दीवार पर चढ़ गया । उसने गली में दाएं-बाएं निगाह दौड़ाई तो उसे उजाड़ पाया । वह गली में कूद गया ।
वो नहीं जानता था कि पहले उसे गली के दोनों छोरों पर भी दो प्यादे मौजूद रहा करते थे जिन्हें उसी रात वागले के पलायन को आसान करने के लिए वहां से हटाया गया था ।
वह निर्विघ्न गली पार कर गया ।
***
काले शीशों वाली काली कार बयम ड्राइवर पूर्वनिर्धारित जगह पर मौजूद थी ।
वे कार में सवार हो गए ।
कार तत्काल शहर को दौड़ चलीं ।
“तस्वीरें कब मिलेंगी ?” - विमल ने पूछा ।
“जब तुम चाहो ।” - वैभवी बोली ।
“मेरा क्या है । मैं तो चाहूंगा कि अभी मिल जाएं ।”
“ठीक है ।”
“क्या ?” - विमल सकपकाया ।
“अभी मिल जाती हैं ।” - वैभवी मुस्कराकर बोली ।
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“मेरे फ्लैट में ही मेरा डार्करुम है । मैं अभी चलकर फिल्में डवैलप कर लेती हूं । फिर बड़ी हद एक घंटे में प्रिंट तुम्हारे हाथ में होंगे ।”
विमल ने खड़ी पर निगाह डाली ।
अभी मुश्किल से बारह बजे थे ।
“वैरी गुड ।” - वह बोला ।
वैभवी ड्राइवर को अपने फ्लैट का पता समझाने लगी ।
वह करीब ही मलाड के इलाके में रहती थी जहां कि वे दस मिनट में पहुंच गए ।
विमल ने नोटों वाला सूटकेस ड्राइवर के हवाले करके उसे वहां से रुख्सत कर दिया ।
वैभवी का फ्लैट उसके नाम के अनुरूप निकला । वह एक सैंट्रली एयरकंटीशंड बहुखंडीय इमारत में उसकी तीसरी मंजिल पर था जहां तक कि वे दोनों लिफ्ट में सवार होकर पहुंचे । फ्लैट में एक विशाल ड्राइंग डायनिंग और दो बैडरूम थे और हर जगह बड़े किताबी, बड़े मशीनी अंदाज में सजी हुई थी । वहां के एक खाली स्टोर में वैभवी ने अपना डार्करूम बना रखा था ।
“उधर” - वह बोली - “बार कैबिनेट है । चाहो तो अपने लिए ड्रिंक बना लो ।”
“तुम्हारे लिए ?” - विमल ने पूछा ।
“मैं ड्रिंक नहीं करती ।”
“लेकिन फ्लैट में ड्रिंक का सामान रखती हो ।”
“कोई एतराज ?”
“नहीं । कोई एतराज नहीं ।”
वह डार्करूम में चली गई तो विमल बार कैबिनेट के करीब पहुंचा जिसे कि उसने कई तरह के गिलासों और कई तरह के ड्रिंक्स की बोतलों से सुसज्जित पाया । कैबिनेट में ही एक छोटा-सा रेफ्रिजरेटर फिट था ।
विमल ने अपने लिए शीवाज रीगाल का एक लार्ज पैग बनाया और एक सोफे पर ढेर हो गया ।
थोड़ी देर बाद वैभवी वहां प्रकट हुई ।
तब वह एक सफेद रंग की बैगी पतलून और कई तरह के कपड़ो के बिल्लों से सुसज्जित मर्दानी कमीज पहने थी । अपने बाल उसने पोनी टेल की सूरत में कसकर बांध लिए थे । उस साधारण पोशाक में वह अपने शाम वाले जगमग-जगमग परिधान से कहीं ज्यादा हसीन और कमसिन लग रही थी ।
“डवैलपिंग हो गई है ।” - वह बोली - “फिल्में सूख जाएं, फिर प्रिंट बनाते हैं ।”
“कितना टाइम लगेगा ?”
“कम । बहुत कम ।”
“फिर भी ?”
“जल्दी क्या है ? तुमने कौन-सी गाड़ी पकड़नी है ।”
“फिर भी ?”
“लगता है ड्रिंक में मजा नहीं आ रहा ।”
“मैं अकेले ड्रिंक करना पसंद नहीं करता ।”
“तो यूं कहो न । मैं तुम्हारा साथ देती हूं । जस्ट यू वेट ए मिनट ।”
“लेकिन तुम तो ड्रिंक करती नहीं ।”
“गलत नहीं कहा था मैंने ।”
“तो ?”
“तो यह ।”
उसने रेफ्रीजरेटर में से अपने लिए कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल निकाली । उसने कोल्ड ड्रिंक को गिलास में डाला, उसमें दो आइस क्यूब डाले और फिर विमल के करीब आकर उसके गिलास से गिलास टकराती हुई बोली - “चियर्स ।”
“चियर्स ।” - विमल बोला ।
“यू नो वाट !”
“वाट ?”
“आई लाइक जंटलमैन हू ड्रिंक एंड स्मोक ।”
“अच्छा !”
“मर्दों वाले काम हैं ये । शानदार । जानदार ।”
विमल तनिक हंसा ।
“और बताऊं ?” - वह बोली ।
“बताओ ।”
“मुझे ऐसे मर्द पसंद आते हैं” - वह बोली, उसके स्वर में खुला निमंत्रण था - “जो औरत को रोब से, जोर-जबरदस्ती से हासिल करना पसंद करते हैं ।”
“आई सी ।”
“वाट डू यू से अबाउट दिस ?”
“दैट मीन्स यू लाइक ए मैन हू इज मोर ऑफ एन एनीमल ।”
“दैट इज रादर रफली सैड ।”
“बट करैक्टली सैड । तुम्हें पशु की पवृति वाले मर्द पसंद हैं ।”
वह तनिक हड़बड़ाई । उसने संदिग्ध भाव से विमल की ओर देखा ।
“यह ट्रेनिंग भी बॉस लोगों से मिली ?” - विमल उसे अपलक देखता हुआ बड़ी संजीदगी से बोला ।
“कौन-सी ट्रेनिंग ?” - उसके चेहरे पर उलझन के भाव आए ।
“कि कौन-सा मर्द किस किस्म की बातों से अभिभूत होगा ?”
“मैं समझी नहीं ।”
“कब बिठाया उन लोगों ने तुम्हें यहां ?”
“क्या मतलब ?”
“ज्यादा वक्त तो नहीं हुआ होगा । मेरा अंदाजा दो ढाई महीने का है । तुमने सिर्फ एक डार्करूम यहां आने के बाद सैट किया है । बाकी सब कुछ तो जाहिर है कि तैयारशुदा है ।”
“अरे क्या पहेलियां बुझा रहे हो, यार ?”
“मेरे ख्याल से तुम्हें जो काम-सौंपा गया है वो यह है कि तुम मुझे इतना लुभा-रिझाकर रखो कि मैं बॉस लोगों के काम से इनकार न कर पाऊं । वो लोग नहीं समझते कि मेरी हां या ना सिर्फ इस बात पर मुनहसर है कि काम हो सकता है, या नहीं हो सकता । किसी औरत पर रीझकर किसी न हो सकने वाले काम में हाथ डालने वाला शख्स मैं नहीं ।”
“तुम समझ रहे हो” - वह मुंह बिसूर कर बोली - “कि मैं तुम्हें रिझाने की कोशिश कर रही हूं ?”
“हां । अब इस बात पर कोई बहस किए बिना तुम मुझे यह बताओ कि यह काम शमशेर भट्टी ने तुम्हारे सुपुर्द किया है या यह खुद इब्राहीम कालिया के आला दिमाग की उपज है ?”
“मुझे सिर्फ तुम्हें कंपनी देने का और तुम्हारे लिए तस्वीरें खींचने का काम सौंपा गया था ।”
“बाकी सब कुछ किस खुशी में ?”
“बाकी सब कुछ क्या ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“तुम बताओ ।”
“पानी से खौफ का बहाना ताकि तुम गाहे-बगाहे मेरे ऊपर ढेर होती रहो और मेरे तन-बदन को आग लगाती रहो, जो कि बदकिस्मती से लगी नहीं । तस्वीरें मुझे अभी मुहैया कराने की पेशकश ताकि मैं तुम्हारे फ्लैट की तनहाई में कदम रख सकूं । मेरे मिजाज को स्टडी करके - गलत स्टडी करके अपनी मर्दाना पसंद पर जोर वगैरह-वगैरह...”
“तुम क्या समझते हो अपने आपको ?” - वह तमककर बोली - “शहजादा गुलफाम ?”
विमल केवल मुस्कराया ।
“वैसे हो तो सही तुम ।” - तत्काल वैभवी के मिजाज ने यू टर्न लिया ।
“क्या ?”
“शहजादा गुलफाम ।”
विमल हंसा ।
“तुम मानो या न मानो लेकिन हकीकत यही है कि तुम मुझे पसंद आ गए थे । मैं इसलिए तुम्हें यहां नहीं लाई क्योंकि मुझे किसी का ऐसा हुक्म हुआ था । मैं अपनी मर्जी से तुम्हें यहां लाई हूं ।”
“यहां ? अपने फ्लैट पर ?”
“हां ।”
“जो कि तुम्हारा घर है ?”
“हां ।”
“तुम्हारी प्रापर्टी है ? तुम्हारे मिल्कियत ?”
“जाहिर है ।”
“यह बार कैबिनेट कितने की आई ?”
“क्या मतलब ?”
“इस सोफासैट की क्या कीमती होगी ?”
“क्या ?”
“यह पर्दों का कपड़ा क्या भाव लिया ?”
“क-क्या ?”
“शीवाज रीगाल की एक लिटर की बोतल कितने की आती है ? कहां से मिलती है ?”
“तु... तुम... तुम कहना क्या...”
“जाहिर है कि किसी भी सवाल का जवाब तुम्हारे पास नहीं है । इसलिए नहीं है कि इनमें से एक भी चीज तुमने नहीं खरीदी । इसलिए नहीं खरीदी क्योंकि यह तुम्हारा घर नहीं है । यह घर ही नहीं है ।”
“तो फिर क्या है ?”
“ठीया ।”
“क्या !”
“ठीया ! बारडेलो ! होर हाउस ! रंडीखाना ! कोठा !”
क्रोध से उसका चेहरा तमतमा गया । तब तक विमल के पहलू से लगकर बैठी वह यूं उसके साथ से छिटकी जैसै करंट लगा हो ।
“यू !” - वह आगबबूला होती हुई बोली - “यू... यू...”
विमल केवल मुस्कराया ।
“जी चाहता है तुम्हारा मुंह नोंच लूं !”
“जी जो चाहता है” - विमल क्रूर स्वर में बोला - “सच ही उस पर अमल करने न बैठा जाना ।”
“तुम्हें मेरी इन्सल्ट करने का कोई हक नहीं ।”
“मैंने तुम्हारी कोई इन्सल्ट नहीं की । मैंने महज एक हकीकत बयान की है । यह तुम्हारा घर नहीं । यह बॉस लोगों का सैट किया हुआ एक खूबसूरत अड्डा है जहां तुम उन लोगों को एंटरटेन करना का काम करती हो जिनसे बॉस लोगों का मतलब निकलता है ।”
“यह झूठ है ।”
“ठीक है ।” - विमल ने लापरवाही से कंधे झटकाए - “झूठ ही सही ।” - उसने अपना विस्की का गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ - “तस्वीरें भट्टी को दे देना । मुझे मिल जाएंगी ।”
वह दरवाजे की ओर बढ़ा ।
“अरे, रुको-रुको ।” - वह एकाएक बौखलाए स्वर में बोली और उछलकर खड़ी हो गई - “कहां जा रहे हो ?”
“घर ।” - विमल चौखट के करीब ठिठककर बोला ।
“मत जाओ ।”
विमल हंसा ।
“तुम !” - वह रूआंसे स्वर में बोली - “क्यों मेरे से ऐसे पेश आ रहे हो ?”
“मैंने क्या किया ?”
“तुम मुझे रुसवा कर रहो हो, जलील कर रहे हो । जैसे किसी फूहड़, बदसूरत औरत को किया जाता है । मैं क्या ऐसी हूं ?”
“नहीं । तुम तो बहुत हसीन हो ।”
“मैं अपनी मर्जी से तुम्हारी झोली में आके गिर रही हूं, मुफ्त में तुम्हें हासिल हो रही हूं और तुम हो कि...”
“मुफ्त के माल में दिलचस्पी या मंगतों की होती है या चंदा उगाहने वालों की होती है या कफनखसोटों की होती है । मैं इनमें क्या लगा तुम्हें ?”
“कोई नहीं लेकिन...”
“और वेश्या का प्यार उन लोगों के काम की चीज होता है जो साधन और सामर्थ्य से हीन होते हैं ।”
उसका चेहरा उतर गया ।
“ओह !” - वह बोली - “ओह !”
विमल ने फिर द्वार की ओर बढने का उपक्रम किया ।
“एक मिनट ठहरो ।” - वह बोली - “प्लीज ! प्लीज !”
विमल फिर रुक गया । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से वैभवी की ओर देखा ।
“ठीक है ।” - वह दबे स्वर में बोली - “मैं कबूल करती हूं कि यह मेरा घर नहीं । यह इब्राहीम कालिया के गैंग का - तुम्हारे शब्दों में - ठीया है । मैं यह भी कबूल करती हूं कि मुझे तुम्हें शीशे में उतारने का हुक्म हुआ था । लेकिन वो कहानी मैं अभी खत्म कर देती हूं ।”
“कैसे ?”
“मैं उन लोगों को फोन कर देती हूं कि मैं अपनी कोशिश में नाकामयाब रही हूं । मैं अभी तुम्हारे सामने फोन करती हूं ।”
वह झपटकर फोन के करीब पहुंची । बड़ी व्यग्रता से उसने एक नंबर डायल किया ।
“वैभवी बोल रही हूं ।” - वह माउथपीस में बोली - “मलाड वाले फ्लैट से । ...वो नहीं पटा । ...क्योंकि वो भांप गया कि फ्लैट मेरा घर नहीं, बाई का कोठा है । ...कुछ मेरे से भी गलती हुई...”
विमल तब तक लंबे डग भरता हुआ करीब पहुंचा । उसने रिसीवर उसके हाथ से ले लिया और माउथपीस को ढककर इयर पीस अपने कान में लगाया ।
“कमाल है ।” - उसके कान में इब्राहीम कालिया की आवाज पड़ी - “तेरे से वो मामूली आदमी नहीं पटा । अब वो है कहां ?”
विमल ने रिसीवर जल्दी से वैभवी को पकड़ा दिया और उसके कान में बोली - “पूछ रहा है अब मैं कहा हूं ।”
“चला गया ।” - वैभवी सहमति में सिर हिलाती हुई माउथपीस में बोला - “सॉरी । ...हां ...ठीक है ।”
उसने रिसीवर रख दिया ।
“ये कालिया ही था न ?” - विमल बोला ।
“हां ।” - वह बोली ।
“भट्टी तो कहता था कि वो दुबई गया हुआ था ?”
“कालिया को गोली मारो । अपनी बात करो ।”
“अपनी क्या बात करूं ?”
“वो कारोबारी कहानी तो खत्म हो गई । अब अगर मैं कहूं कि मेरी खातिर रुक जाओ तो रुक जाओगे ?”
“तुम्हारी खातिर किसलिए ?”
“क्योंकि... क्योंकि मुझे तुम पसंद आने लगे हो । क्योंकि तुम्हारे ख्याल से ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती है । क्योंकि मुझे तुमसे मुहब्बत हो गई है ।”
वह एकाएक विमल से लिपट गई ।
विमल ने उसे जबरन अपने से अलग किया ।
“मैं एक शादीशुदा बाल-बच्चेदार आदमी हूं ।” - वह बोला - “मैं तुम्हारी मुहब्बत के काबिल नहीं ।”
“मैं तुमसे शादी के लिए कब कह रही हूं ?”
“मैं उस मुहब्बत का हामी नहीं जिसकी परिणति शादी में न हो सकती हो ।”
“तुम तो मुझे दुत्कार रहे हो ?”
“बिल्कुल गलत । बड़ी हद मैं तुम्हें नकार रहा हूं ।”
“लेकिन...”
“कालिया के पास अपनी नाकामयाबी की हाजिरी दर्ज करवा चुकने के बावजूद तुम अभी भी अपने रिजक के लिए मेहनत कर रही हो । यह बेमानी कोशिश छोड़ो । जाकर फिल्मों की तरफ तवज्जो दो । मैं सुबह उनका पता करूंगा । नमस्ते ।”
विमल वहां सि विदा हो गया ।
***
चैम्बूर में जेल बनी इमारत से दूर निकल आने के बाद वागले ने महसूस किया कि वह कुछ ज्यादा ही आसानी से आजाद हो गया था । कहां तो इकबालसिंह वहां ऐसे इंतजाम का दावा कर रहा था कि बिना ‘कंपनी’ के प्यादों की इजाजत के उसकी या तुका की पलक नहीं झपकने वाली थी और कहां वह यूं वहां से बाहर निकल आया था जैसे किसी को उसकी परवाह ही नहीं थी ।
वागले को दाल में काला दिखाई देने लगा ।
कहीं उसे इसलिए तो नहीं छोड़ा गया था कि वह मदद के लिए अपने किसी मेहरबान के पास पहुंचे और ‘कंपनी’ उसे भी धर दबोचे ।
जरूर यही बात थी ।
उसका इरादा सीधे सलाउद्दीन के पास पहुंचने का था जोकि उसने वक्ती तौर पर ड्राप कर दिया ।
लेकिन उसे अपने पीछे लगा तो कोई दिखाई नहीं दे रहा था ।
मौजूदा हालात में उसे अपने दोबारा पकड़े जाने की कतई कोई परवाह नहीं थी, वह पंसद करता अगर यूं भी ‘कंपनी’ की नीयत सामने आ पाती ।
उसकी जेब एकदम खाली थी । भागते वक्त वो घायल प्यादे को भी जेबें टटोलता तो चार पैसे उसके हाथ लग जाते लेकिन तब उसे ऐसा करना सूझा नहीं था । वैसे जेब खाली होना उसके लिए कोई बड़ी समस्या नहीं थी । वह एक टैक्सी पर सवार होकर कोलीवाड़े में सलाउद्दीन के पास पहुंच सकता था और वहां टैक्सी का भाड़ा चुका सकता था ।
लेकिन अब पहले उसने इस बात की तसदीक करनी थी कि कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था ।
अगला आधा घंटा उसने कई आड़े-तिरछे रास्तों से गुजरकर गुजारा ।
उसे कोई अपने पीछे लगा दिखाई न दिया ।
उसे किसी पर संदेह तक न हुआ कि कोई उसके पीछे लगा हुआ था ।
क्या माजरा था ?
क्या उसका शक नाजायज था ? क्या वह खामखाह दाल में काला देख रहा था ?
वह निश्चित रूप से कोई फैसला न कर सका ।
तभी आगे उसे एक पुल दिखाई दिया ।
उसे एक ख्याल आया ।
पुल पर चढकर वह अपने पीछे बहुत दूर तक देख सकता था । तब अगर कोई उसके पीछे लगा होता तो वो छुपा न रहता । तब उसका पीछा करते किसी प्यादे या प्यादों को भी पुल पर चढना पड़ता वरना उसके पीछे लगा रहना संभव न रह पाता ।
वह पुल की सीढियां चढ गया ।
पुल पर पहुंचकर वह कुछ कदम सीधा चला, फिर ठिठका और उकड़ू होकर दबे पांव वापिस लौटा । रेलिंग की ओट से उसने अपने पीछे झांका ।
उसे पुल के करीब तो क्या, दूर-दूर तक कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखाई न दिया ।
वह फिर भी उकडूं बैठा वहां दुबका रहा ।
पांच मिनट गुजर गए ।
उतनी रात गए किसी के भी पांव सीढियों पर न पड़े ।
अब वह निश्चित हो गया । उसका वहम बेजा था । कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था ।
वह उठकर सीधा हुआ । घूमकर आगे बढने लगा तो किसी की विशाल छाती से जा टकराया । उसने चिहुंककर सिर उठाया तो एक पहाड़ जैसे मवाली से उसकी निगाह मिली ।
उसके साथ तीन जने और थे जिन्होंने वागले को घरे लिया और एक ने उसके टेंटुवे के साथ लंबा रामपुरी चाकू सटा दिया ।
वागले ने एक आह भरी । उधर की सीढियों की तरफ उसकी तवज्जो इस हद तक हुई रही थी कि दूसरी ओर से उसके सिर पर पहुंच गए उन चार मवालियों की उसे भनक भी नहीं लगी थी । जरूर वे कोई रात को राहजनी करने वाले मामूली गुंडे थे जिन्होंने वागले को अकेला पाकर धर दबोचा था ।
“चल, माल निकाल ।” - सामने खड़ा पहाड़ जैसा मवाली कड़ककर बोला ।
“मेरे पास कुछ नहीं है ।” - वागले सहज भाव से बोला - “मेरी जेबें खाली हैं ।”
“साले । बेवकूफ बनाएला है ! बंबई में तो मंगते की भी जेबें खाली नहीं होतीं ।”
“ये देखो ।” - वागले ने कुर्ते की दोनों खाली जेबें बाहर लटका दीं - “कुछ नहीं है मेरे पास ।”
“जरूर माल अंटी में दबाएला है ।” - पीछे से कोई बोला - “सोचता होएंगा कि कोई पकड़ लेंगा तो जेबें टटोलकर छोड़ देंगा ।”
पहाड़ जैसे मवाली का सिर सहमति में हिला ।
“चुपचाप खड़ा रह ।” - वह क्रूर स्वर में बोला - “हिलना नेईं मांगता । जरा भी हिलेंगा तो तेरी आतां निकालकर तेरे गले में डाल देंगा । क्या ?”
वागले स्तब्ध खड़ा रहा । चाकू की तीखी नोक जोर से उसके पेट में चुभी ।
पहाड़ जैसे मवाली ने उसकी अंटी टटोली तो उसका हाथ रिवॉल्वर पर पड़ा । तुरंत उसके नेत्र फैले । उसने वागले की अंटी से खींचकर रिवॉल्वर बाहर निकाली और फिर सख्त हैरानी से कभी रिवॉल्वर को तो कभी वागले की सूरत को देखने लगा ।
“ये तो कमाल हो गया !” - फिर उसके मुंह से निकला - “जेबें खाली लेकिन अंटी में विलायती तमंचा !”
“बाप !” - एक और जना बोला - “अपनी ही बिरादरी का मालूम होता है ।”
“अपनी बिरादरी का है तो साला बिरादरी का नाम बदनाम करेला है । अंटी में भरी रिवॉल्वर और जेबें खाली । लानत है ।”
“फिर भी बिरादरी का है, बाप !”
“तो क्या करें ! जानें दें ? रिवॉल्वर भी लौटा दें ?”
“हां ।”
“ठहर जा, साले । मसखरी करता है । दो दिन से कोई बकरा हाथ नेई लगेला है, और अब मेरे कू बोलता है इसको भी माल समेत जाने दे ।”
“लेकिन माल किदर है, बाप ?”
“यह भी माल ही है ।” - पहाड़ जैसे मवाली ने रिवॉल्वर हाथ में लहराई - “विलायती है । दस हजार से कम की नई होएंगा । डिब्बा इसके छः तो देंगा ! पांच तो देंगा !”
वागले जानता था कि डिब्बा कौन था । डिब्बा शेख मुनीर नाम के एक फैंस का (चोरी के माल की खरीद-फरोख्त करने वाले का) अंडरवर्ल्ड में मशहूर नाम था कि जो माटूंगा में पीजा पार्लर चलाता था ।
कोई कुछ न बोला ।
“अपुन” - पहाड़ जैसा मवाली बोला - “तुम्हेरे कू अब्बी माटूंगा जाकर अब्बी-का-अब्बी इस रिवॉल्वर को रोकड़ा खड़ा करके बतलाता है ।”
“ठीक है ।” - कोई उत्साहपूर्ण स्वर में बोला - “मेरे कू भूख भी लगेला है ।”
“मेरे कू बी ।”
केवल क्षण-भर को वागले के हक में बोलने वाला न बोला, फिर वह भी बोला - “मेरे को बी ।”
“भाग जा !” - एकाएक पहाड़ जैसा मवाली घुड़ककर बोला ।
वागले उनसे अलग हट गया ।
चारों मवाली तेजी से सीढियां उतर गए ।
वागले उनसे विपरीत दिशा में आगे बढ गया ।
***
पिछले रोज वाले वक्त ही विमल केशवराव भौंसले की खोली पर पहुंचा ।
वहां उसे वो शुभ समाचार न मिला जिसे सुनने के लिए वो वहां आया था ।
“केशवराव” - विमल असहाय भाव से बोला - “तुम्हारी मर्जी तो है न ये काम करने की ?”
भौंसले ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा ।
“तो फिर ऐसे कैसे बीतेगी ?” - विमल बोला ।
“मेरी समझ में नहीं आती कि क्यों हो रहा है । आज तक ऐसा नहीं हुआ कि लगातार दो दिन कोई अपराधी थोबड़े को फोटू और फिंगर प्रिंट्स के लिए हैडक्वार्टर न लाया गया हो ।”
“लगता है बंबई के सारे अपराधी सुधर गए हैं ।”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“हां, तुम क्या कहो । ...आगे तुम्हारी हफ्तावारी छुट्टी भी आ रही है ।”
“आज नहीं तो कल हर हाल में तुम्हारा काम हो जाएगा ।”
“और दो दिन भी कोई नया अपराधी बुक न हुआ तो ?”
“तो भी हो जाएगा । चाहे तबाही आ जाए ।”
“कल तुम किसी और तरकीब की बात कर रहे थे ।”
“सीधे से काम न बना तो वही तरकीब आजमाऊंगा । तुम खातिर जमा रखो, आज नहीं तो कल हर हाल में...”
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
कंपनी का सिपहसालार अपनी दैनिक हाजिरी ‘कंपनी’ के बादशाह के हुजूर में लगाने के लिए पेश हुआ ।
इकबालसिंह को उसने अपेक्षाकृत अच्छे मूड में पाया ।
“क्या खबर है, डोंगरे ?” - इकबालसिंह बोला ।
“बढिया खबर हैं ।” - डोंगरे खुश होता हुआ बोला - “कल डाकी को खलास कर दिया था ।”
“डाकी !”
“चांदनी के फ्लैट वाली इमारत का रात पाली का चौकीदार । उसी हरामजादे की मदद से भट्टी चांदनी का कत्ल करने में कामयाब हो सका ।”
“भट्टी ।”
“हां । उसी की करतूत निकली ये । मरने से पहले डाकी ने अपनी जुबान से कबूल किया था कि वो शमशेर भट्टी के हाथों बिका था ।”
“ओह !”
“साहब, जरा यो सोहल वाला झमेला निबट जाए, फिर इस भट्टी के बच्चे को और उसके बाप इब्राहीम कालिया को मैं खुद पाताल से भी खोदकर खलास करूंगा ।”
“बढिया । चैम्बूर की क्या खबर है ?”
“बढिया खबर है । वागले को वैसे ही आजाद हो जाने दिया था जैसे आप चाहते थे ।”
“उसे शक तो नहीं हुआ कि यूं आजाद हो जाने का मौका उसके लिए गढकर तैयार किया गया था ?”
“शक तो हुआ लेकिन उस शक से उसे हासिल कुछ नहीं हुआ ।”
“मतलब ?”
“अपने शक की तसदीक के लिए वो चैम्बूर की सड़कों पर खूब भटका, खूब कूदा-फांदा लेकिन उसे मेरा कोई आदमी अपने पीछे दिखाई नहीं दिया ।”
“ऐसे कैसे हो पाया ?”
“साहब, मैंने ऐसी तरकीब निकाली, ऐसी तरकीब निकाली कि उसके लिए आप मुझे जरूर शाबाशी देंगे ।”
“क्या किया तूने ?”
“बस, कमाल किया साहब इस बार मैंने । गजरे साहब भी यहां मौजूद होते तो मेरी तरकीब की बाबत सुनकर खुशी से झूम जाते । बस, तरकीब ही कुछ ऐसी सूझी मुझे कि...”
“डोंगरे ! डोंगरे ! होश में आ ! होश में आ ।”
डोंगरे के जोशोखरोश को ब्रेक लगी ।
“क्या तरकीब की तूने ?”
“मैने वागले के मत्थे एक ऐसी रिवॉल्वर मढ दी जिसकी मूठ में एक बहुत शक्तिशाली ट्रांसमीटर फिट था ।”
“मतलब ?” - इकबालसिंह सकपकाया ।
“साहब, जिस प्यादे पर हमला करके उसने वहां से भागना था, उसका हथियार तो उसने अपने काबू में करना ही था । और उसको ये भी लगना ही था कि वह कुछ ज्यादा ही सहूलियत से आजाद हो गया था । ऐसे हालात में जब मेरे आदमी उसके पीछे लगते तो उसे उनकी जरूर खबर लगती । तब या तो वो उन्हें किसी-न-किसी तरीके से डाज दे जाता और या फिर वो चैम्बूर वापिस लौटकर इमारत की घंटी बजाकर कहता कि वह तुका के पास ही ठीक था ।”
“भूमिका बहुत हुई । मतलब की बात कर ।”
“इन बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने मॉर्डन तरीके से” - डोंगरे फिर अपने आप पर खुश होने लगा - “उसकी निगाहबीनी की तरकीब निकाली । मैंने एक नन्हे इलैक्ट्रॉनिक ट्रांसमीटर का इंतजाम किया जो कि एक रिवॉल्वर की मूठ में छिपाकर फिट किया जा सकता था और जिसमें से निकलते सिग्नल को उसके पांच मील के दायरे तक कैच किया जा सकता था । वो रिवॉल्वर मैंने उस प्यादे को दी जिसने अपने पर हमला करवा के वागले को भाग जाने का मौका देना था और जिसे कि भागते वक्त वागले ने यकीनन अपने साथ ले जाना था और उसका रिसीवर अपने प्यादों की उस टीम को दिया जिसने वागले की निगाहबीनी के लिए उसके पीछे लगना था । इस तरह ट्रांसमीटर वाली उस रिवॉल्वर के जरिए वागले की निगाह में आए बिना भी वो वागले के पीछे लगे रहे ।
इकबालसिंह भौचक्का-सा अपने सिपहसालार का मुंह देखने लगा ।
“डोंगरे !” - इकबालसिंह बोला - “तूने तो कमाल कर दिया ।”
डोंगरे की इकलौती असली आंख खुशी से चमकी ।
“अब तूने साबित करके दिखाया है कि तू ‘कंपनी’ का काबिल सिपहसालार है । ऐसी अंग्रेजी तरकीब कैसे सूझ गई तुझे ?”
“बस” - डोंगरे खुशी से झूमता हुआ बोला - “सूझ गई ।”
“अब कहां है वागले ?”
“माटूंगा में शेख मुनीर के पीजा पार्लर में । रात को चैम्बूर में यह तसल्ली हो जाने के बाद कि कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था, वह टैक्सी करके सीधा शेख मुनीर के पास पहुंचा था ।”
“शेख मुनीर ! वो डिब्बा । फैंस ?”
“वही ।”
“वागले का उससे क्या लेना-देना ?”
“कुछ तो होगा ही । जरूर उसके जरिए सोहल का वागले से संपर्क होगा ।”
“वागले अभी भी वहीं है ?”
“मेरे यहां आने तक वो वहीं था ।”
“डिब्बा एक मामूली फैंस है । तुकाराम भाइयों से उसका वास्ता हो, ऐसा कोई इशारा कभी मिला तो नहीं हमें ।”
“साहब, ऐसा इशारा तो हमें कभी अकरम लाटरी वाले का भी नहीं मिला था लेकिन तुकाराम भाइयों का वास्ता उससे निकला था । याद कीजिए कंपनी के पिछले सिपहसालार घोरपड़े ने जब सोहल को पकड़ा था तो कहां से पकड़ा था ?”
“भिंडी बाजार में अकरम लाटरी वाले की खोली में से ।” - इकबालसिंह के मुंह से निकला ।
“वैसे ही खुफिया ताल्लुकात सोहल के या तुकाराम के या उन दोनों के हिमायतियों के बंबई में किसी से भी हो सकते हैं । डिब्बे से भी ।”
“तू ठीक कहता है ।” - इकबालसिंह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “तुझे रिपोर्ट कैसे मिलती है वागले के पीछे लगी टीम की ?”
“वायरलेस टेलीफोन से !” - डोंगरे ने बड़े अभिमान से अपने कोट की जेब से एक वायरलेस टेलीफोन निकाला - “इसके जरिए बाबू कामले से मेरा सीधा संपर्क है ।”
“वागले के पीछे बाबू कामले है ?”
“हां । चार प्यादों के साथ ।”
“और चैम्बूर में तुकाराम की रखवाली...”
“दर्जन-भर प्यादे कर रहे हैं । सब भरोसे के हैं । साथ भौमिक भी है ।”
“हूं । बढिया । अब जरा पता कर वागले का ।”
डोंगरे ने बडे ड्रामेटिक अंदाज में वायरलेस टेलीफोन पर अपने विश्वासपात्र लेफ्टीनेंट बाबू कामले से बात की ।
“वह वहीं है ।” - अंत में वह बोला ।
“पीजा पार्लर में ?” - इकबालसिंह बोला ।
“डिब्बे के घर में । डिब्बे का घर पीजा पार्लर के पिछवाड़े में उसी इमारत में है ।”
“वो वहीं क्यों जमा हुआ है ?”
“अभी यह कैसे कहा जा सकता है साहब कि वो वहीं जमा हुआ है ।”
“क्या मतलब ?”
“साहब रात के तीन बजे तो वो अभी वहां पहुंचा था । अभी” - डोंगरे ने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली - “दस बजे हैं । अभी तो हो सकता है कि वो सो के भी न उठा हो ।”
“ओह !”
“जब उठेगा तो की नजारा सामने आएगा ।”
“डोंगरे, एक बात का खास ख्याल रखना है तूने । वागले कहीं भी जाए लेकिन पुलिस का रुख न करने पाए । वो पुलिस के पास पहुंच गया तो पुलिस चैम्बूर से तुकाराम को यूं छुड़ाकर ले जाएगी जैसे पहले कभी सोहल की सहेली नीलम को यहां से छुड़ाकर ले गई थी ।”
“वो पुलिस का रुख नहीं करने पाएगा ।” - डोंगरे पूरे विश्वास के साथ बोला - “वो उधर का रूख करेगा तो बाबू कामले सारे तकल्लुफ छोड़कर उसे दबोचेगा । मैंने उसे ऐसा बोला हुआ है ।”
“अगर उसने पुलिस को फोन किया तो ?”
“सिर्फ टेलीफोन से इतनी अहम बात का पुलिस को यकीन नहीं दिलाया जा सकता ।”
“फिर भी ?”
“फिर भी ऐसी किसी फोन कॉल के जवाब में एक्शन या पुलिस हैडक्वार्टर से होगा या चैम्बूर के थाने से । दोनों जगह हमारे भेदिए हैं । पुलिस तुकाराम के घर का रुख करेगी तो हमारे पास खबर पहुंच जाएगी । तब पुलिस के वहां पहुंचने से पहले हम तुकाराम को वहां से हटा देंगे ।”
“बढिया । तुझे अभी भी सोहल के चैम्बूर पहुंचने की उम्मीद है ?”
“अब मुझे ज्यादा उम्मीद उसके माटूंगा पहुंचने की है । बल्कि यह कहिये कि गारंटी है । वागले खामखाह ही डिब्बे के पीजा पार्लर जैसी गैरमामूली जगह नहीं पहुंच गया हो सकता । सोहल वहां जरूर आएगा और आएगा तो लौटकर नहीं जाएगा ।”
“फिर तुका के घर की किलेबंदी का क्या फायदा ?”
“मौजूदा हालात में फायदा तो अब कुछ नहीं दिखाई देता लेकिन वो सिलसिला अभी एक-दो दिन और चलता भी रहे तो क्या हर्ज है ।”
“कोई हर्ज नहीं ।” - इकबालसिंह सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला ।
“साहब” - एकाएक डोंगरे बेहद खुशामद-भरे स्वर में बोला - “आपको अपना वादा याद है न ?”
“वादा ! कौन-सा-वादा ?”
“भूल भी गए ?”
“अरे, कुछ कहेगा भी या मेरी याददाश्त का इम्तहान ही लेता रहेगा ?”
“साहब, आपने वादा किया था कि अगर मैं सोहल को खलास कर पाया तो आप मुझे ‘कंपनी’ में अपने बराबर का ओहदेदार बना देंगे ।”
“अपने बराबर का नहीं” - इकबालसिंह तनिक झुंझलाए स्वर में बोला - “गजरे के बराबर का । अपने से एक सीढी नीचे का ।”
“साहब, मैंने तो यही सुना था कि आप मुझे अपने बराबर का...”
“गलत सुना था तूने । साले, मेरी बराबरी करेगा !”
“हरगिज नहीं, साहब । तो साहब, अगर मैंने सोहल को खलास किया तो गजरे साहब के बराबर का ओहदेदार तो मैं बन गया न ?”
“हां, बन गया । लेकिन तुझे भी कुछ याद है न ?”
“क्या ?”
“तूने वादा किया था कि अगर एक महीने में तू सोहल को जिंदा या मुर्दा मेरे सामने पेश न कर पाया तो जिंदगी में दोबारा कभी मुझे अपनी सूरत नहीं दिखाएगा । याद है न ?”
“याद है ।” - डोंगरे उत्साहहीन स्वर में बोला ।
“अब कितने दिन बाकी रह गए महीना होने में ?”
“साहब, दिन न गिनाइए । कोई बड़ी बात नहीं कि मैं आज शाम को ही आपको ये गुड न्यूज दूं कि डिब्बे के पीजा पार्लर में सोहल पकड़ा गया ।”
इकबालसिंह खामोश रहा ।
बॉस के वर्तमान मूड को देखते हुए डोंगरे ने वहां से रुख्सत हो जाना ही मुनासिब समझा ।
***
विमल इरफान अली से मिला ।
“उस छोकरे की” - इरफान बोला - “मधुकर झेंडे की जन्मकुंडली मैंने तैयार कर ली है । खास-खास बातें इस कागज पर लिखी हैं ।”
विमल ने उसके हाथ से कागज लिया और उस पर सरसरी निगाह डाली ।
“गुड ।” - फिर वह बोला - “आज रात को भेंट करेंगे इस छोकरे से ।”
इरफान ने सहमति में सिर हिलाया ।
“और ?” - विमल बोला ।
“वागले” - इरफान दबे स्वर में बोला - “मराठा में है ।”
“क्या !” - विमल चौंका ।
सलाउद्दीन ने संदेशा भिजवाया है । कल आधी रात के बाद वो वहां पहुंचा था । तुम्हारे से मिलना चाहता है ।”
“मैं खुद उससे मिलना चाहता हूं । लेकिन वो आजाद कैसे हो गया ?”
“पता नहीं ।”
“जरूर कोई भेद है ।”
“हो सकता है ।”
“मराठा चलो ।”
सलाउद्दीन के होटल में उसके ऑफिस में विमल की वागले से मुलाकात हुई । दोनों मां जायों की तरह गले लगकर मिले ।
“कैसे छूट गया ?” - फिर विमल ने पूछा ।
वागले ने बताया ।
“ऊंहू !” - विमल बोला - “कोई गड़बड़ है ।”
“मुझे भी लगता है । लेकिन एक बात की मेरी गारंटी है । न चैम्बूर में कोई मेरे पीछे लगा था और न कोई यहां तक मेरे पीछे आया था ।”
“इसमें भी कोई भेद है ।”
“क्या ?”
“यही तो मालूम नहीं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“अब सवाल से पैदा होता है” - विमल बोला - “कि तुकाराम को कैसे छुड़ाया जाए ?”
“मौजूदा हालात में तो” - वागले बोला - “किसी छोटी-मोटी फौज का हमला ही उसे चैम्बूर से छुड़वा सकता है ।”
“तब भी शायद जिंदा नहीं ।” - इरफान बोला ।
“फौज इस वक्त हमें मुहैया नहीं ।” - विमल बोला - “इस वक्त हम बहुत तनहा हैं ।”
“मैं और मेरे चार लड़कों के होते” - सलाउद्दीन बोला - “यहां कोई तनहा नहीं है ।”
विमल और वागले दोनों ने कृतज्ञ भाव से से सलाउद्दीन की ओर देखा ।
“मैं और आदमी भी इकट्ठे कर सकता हूं ।” - सलाउद्दीन बोला ।
“जरूरत नहीं ।” - विमल बोला - “मेरी राय में तुका जब तक चैम्बूर में है, सेफ है । उसे खतरा तब माना जाएगा जब उसे वहां से हटाकर होटल सी व्यू की बेसमेंट में पहुंचा दिया जाएगा ।”
“ऐसा हो जाने से पहले हमें कुछ करना नहीं चाहिए ?”
“करना तो चाहिए लेकिन कुछ कर सकने की हालत में हैं तो नहीं न हम !”
“सरदार ठीक कहता है ।” - वागले बोला ।
“क्यों न हम पुलिस की मदद लें ।” - इरफान बोला ।
“कोई फायदा नहीं होगा ।” - विमल बोला - “वागले पुलिस के पास जा सकता है इतनी मामूली बात ‘कंपनी’ के प्यादे को भी सूझ सकती है । वागले के कथन का कोई तोड़ उन्होने यकीनन सोचा हुआ होगा ।”
“सरदार ठीक कहता है ।” - वागले बोला
“यानी कि फिलहाल” - सलाउद्दीन तनिक व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने का इरादा है ?”
“हरगिज भी नहीं ।” - विमल बोला ।
“तो ?”
तब विमल ने बताया कि इब्राहीम कालिया से गठजोड़ करके बादशाह अब्दुल मजीद दलवाई के कैसीनो की तबाही की सूरत में वो ‘कंपनी’ को कितनी बड़ी चोट पहुंचाने की योजना बनाए बैठा है ।
“वागले” - अंत में विमल बोला - “तुम बहुत ही मुनासिब वक्त पर मिले । तुम्हारी कमी मुझे बहुत खल रही थी ।”
“योजना क्या है तुम्हारी ?” - वागले बोला ।
“साथ चलो, एक ही बार समझाता हूं ।”
“कहां ?”
“मलाड ।”
“वहां कहां ?”
“वहां इब्राहीम कालिया का एक फ्लैट है जो मौजूदा हालात में तुम्हारे लिए सबसे सुरक्षित जगह है ।”
“इस जगह को क्या हुआ है ?” - सलाउद्दीन बोला - “खास तौर से जबकि वागले गारंटी करता है कि किसी ने यहां तक इसका पीछा नहीं किया !”
“लेकिन यह यकीन नहीं दिलाता कि उसके यूं आजाद हो जाने में कोई भेद नहीं है ।”
“लेकिन...”
“सलाउद्दीन, मेरे दोस्त, मेरे भाई, यह हमारा इन्तेहाई महफूज आसरा है । इसका यही दर्जा बरकरार रहने दो । इसे हमारी आखिरी पनाह ही बना रहने दो ।”
“सरदार ठीक कहता है ।” - वागले बोला ।
“ठीक है फिर ।” - सलाउद्दीन अनमने स्वर में बोला ।
***
वे मलाड में वैभवी के फ्लैट पर पहूंचे ।
वैभवी वहां मौजूद थी ।
वहां शमशेर भट्टी भी मौजूद था ।
“अच्छा हुआ तुम भी यहां हो ।” - विमल बोला - “मेरे साथियों से मिलो ।”
उसने वागले और इरफान अली का परिचय कराया ।
“वागले को मैं जानता हूं ।” - भट्टी बोला ।
वागले जुबानी कुछ न बोला लेकिन उसकी सूरत से लग रहा था कि वह भी भट्टी को जानता था ।
“गुड ।” - विमल बोला ।
“तुकाराम कैसा है ?” - भट्टी बोला ।
“बढिया !” - वागले बोला ।
“हौसलामंद आदमी की मैं कद्र करता हूं ।”
“कौन नहीं करता !”
विमल ने देखा इरफान बड़ी ललचाई आंखों से एकाएक वैभवी को देख रहा था और वैभवी भी उस निगाहबीनी से आनंदित हो रही थी ।
इरफान खूबसूरत नौजवान था लेकिन उसमें कमी यह थी कि आदतन मैला-कुचैला रहता था और सलीके के कपड़े की जगह फिल्मी गुंडों जैसी पोशाकें पहनता था ।
“कोई चाय-वाय बना दे ।” - वैभवी को वहां से टरकाने की नीयत से विमल बोला ।
वैभवी सहमति में सिर हिलाती हुई किचन में चली गई ।
तब कहीं इरफान की तवज्जो जनाबेहाजरीन की तरफ हुई ।
फिर विमल ने इरफान और वागले को भट्टी से हासिल नक्शों और लिस्टों की सहायता से स्वैन नैक प्वाइंट का जुगराफिया और उसका निजाम समझाया ।
उस दौरान वैभवी सबको कॉफी सर्व कर गई थी और ‘शापिंग करने जा रही हूं’ कहकर फ्लैट से कूच कर गई थी ।
“क्या कहते हो ?” - अंत में विमल बोला ।
“टेढा काम है ।” - वागले बड़ी संजीदगी से बोला ।
“लेकिन नामुमकिन नहीं ।”
“तुमने कोई योजना तैयार की है ?”
“हां । मेरी योजना की कामयाबी का असल दारोमदार उन लोगो के इस ख्याल पर है कि वहां कोई हल्ला बोलने की नहीं सोच सकता और यह कि मेन पायर वाले रास्ते के अलावा टापू पर नहीं पहुंचा जा सकता जबकि हकीकत यह है कि बोट हाउस की तरफ से भी टापू पर कदम रखा जा सकता है । मेरा इरादा दोनों तरफ से टापू पर पहुंचने का है । दो जने रेगुलर ग्राहकों को तरह मेन पायर के रास्ते टापू पर पहुंच सकते हैं और मौका लगने पर बोट हाउस वाली साइड पर पहुंचकर वहां मौजूद गार्डों पर काबू पा सकते हैं ताकि उधर से टापू पर पहुंचने की कोशिश करते हमारे साथियों के लिए रास्ता साफ हो सके । जाहिर है कि उधर से आने वाले हमारे साथियों के पास अपनी मोटरबोट होगी इसलिए वही मोटरबोट बाद में वहां से कूच कर जाने के भी काम आएगी । मेरी राय में अगर थोड़ा-बहुत दिक्कत का कोई काम है तो बोट हाउस वाले रास्ते से टापू पर पहुंचना है, उस रास्ते वहां से खिसकना नहीं ।”
“कुल जमा कितने आदमी दरकार होंगे ?” - भट्टी बोला ।
“सात । जिनमें से एक तिजोरीतोड़ और एक बोटमैन होना जरूरी है ।”
“तिजोरीतोड़ किसलिए ?”
“तिजोरी तोड़ने के लिए और किसलिए ! तुम क्या समझते हो कि वहां बादशाह का माल यूं ही इधर-उधर खुले में बिखरा पड़ा रहता होगा ?”
“माल तिजोरी मे बंद होगा ?”
“जाहिर है ।”
“तिजोरी कैसी है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“क्या मतलब ?”
“वही जो कहा । मुझे नहीं मालूम । तिजोरी नीचे कैसीनो में तो थी नहीं । कैशियर के पिंजरे में चलताऊ माल रखने के लिए एक तिजोरी थी लेकिन उसे तिजोरी की जगह स्टील की अलमारी कहना ही उचित होगा ।”
“चलताऊ माल में क्या रखा होगा ? वो तो चिड़िया की बीट होगी ।”
“बिल्कुल । लेकिन मोटा माल रखने के लिए कोई तिजोरी, जो कि छोटा-मोटा वाल्ट भी हो सकता है, वहां अगर कहीं होगी तो कैसीनो के ऊपर की मंजिल पर होगी । ऊपर जाना मेरे लिए संभव नहीं था । लेकिन ऊपर जाने का अत्यंत गुप्त रास्ता मैंने तलाश कर लिया था । यह देखो ।”
विमल ने उन्हें वैभवी द्वारा खींची गुप्त रास्ते की तस्वीरें दिखाई ।
“मुझे तो कोई दरवाजा दिखाई नहीं दे रहा ।” - इरफान अली बोला - “मुझे तो यह वालपेपर मढी सपाट दीवार ही लग रही है ।”
“यहां” - विमल ने तस्वीर के एक स्थान पर उंगली रखी - “बेसबोर्ड में जो पतली-सी लकीर जैसी झिरी दिखाई दे रही है वही यहां दरवाजा होने की चुगली कर रही है ।”
“ओह‍ !”
“दरवाजे की बनावट यह भी साफ जाहिर करती है कि इसे कैसीनो की तरफ से खोलने का कोई तरीका नहीं है । और भीतर की तरफ से भी यह दरवाजा यकीनन किसी इलैक्ट्रानिक कन्ट्रोल के जरिए खुलता होगा ।”
“फिर हम इसे कैसे खोलेंगे ?” - वागले बोला - “हम तो बाहर की तरफ होंगे ।”
“दरवाजा भीतर की तरफ से ही खोला जाएगा । हम बाहर कैसीनो में ऐसा माहौल पैदा कर देंगे कि बादशाह को या उसके किसी जोड़ीदार को यह देखने के लिए वहां आना पड़ेगा कि वहां क्या हो गया था ! मुझे तो खुद बादशाह के ही आने की उम्मीद है । उसकी बादशाहत लुटी जा रही हो और वह हालात से वाकिफ होने की कोशिश न करे, ऐसा नहीं हो सकता ।”
“बात तिजोरी की हो रही थी ।” - भट्टी बोला ।
“तिजोरीतोड़ की हो रही थी ।” - विमल बोला - “हमें किसी ऐसे तिजोरीतोड़ की सेवाओं की जरूरत है जो कैसी भी तिजोरी या वाल्ट खोल लेने में माहिर हो ।”
“ऐसा एक आदमी है तो नहीं मेरी निगाह में ।”
“कौन है वो ?”
“उसका नाम डेनियल है । मेरा पुराना वाकिफकार है । बंबई में उससे शातिर तिजोरीतोड़ मिलना मुश्किल है ।”
“तुम उसे हमारे काम के लिए तैयार कर सकते हो ?”
“हां ।”
“गुड ।”
“और बोटमैन ?”
“उसका क्या है । वो तो कोई भी...”
विमल पहले ही इनकार में सिर हिलाने लगा ।
“क्या हुआ ?” - भट्टी बोला ।
“यह ऐसा काम नहीं जहां ‘कोई भी’ बोटमैन चल सकता हो । इस अभियान में बोटमैन की वही हैसियत और इम्पोर्टेंस है जो कि एक डकैती में गैट-अवे कार चलाने वाले ड्राइवर की होती है । जैसे कार चलानी आने से ही कोई डकैती की गैट-अवे कार चलाने के योग्य ड्राइवर नहीं बन जाता वैसे ही सिर्फ स्टीमर हांकना जानने वाला कोई हमारे लिए मुफीद बोटमैन साबित नहीं हो सकता ।”
“बात तो मैं तुम्हारी समझ गया लेकिन ऐसा बोटमैन ढूंढ निकालना तो कोई आसान काम न होगा ।”
“अभी और सुनो । ”
“और क्या ?”
“मैंने सात आदमियों की जरूरत यह सोचकर बताई थी कि बोटमैन मोटरबोट चलाने के अलावा कुछ नहीं करेगा और तिजोरीतोड़ तिजोरी तोड़ने के अलावा और किसी काबिल नहीं होगा । अगर बोटमैन और तिजोरीतोड़ हमें ऐसे मिल सकें जो हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ भी सकते हों तो यह काम पांच आदमी भी कर सकते हैं ।”
“यानी कि तीन तुम और दो तिजोरीतोड़ और बोटमैन ?”
“हां ।”
“डेनियल तो है ऐसा जांबाज । अब बोटमैन जा मिलेगा, वो पता नहीं कैसा होगा ?”
“बोटमैन भी हमारे मतलब का ढूंढ पाओ तो मजा आ जाए । वो कहते है न कि वैल बिगन इज हाफ डन ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं ।”
“मैं तलाश करूंगा तुम्हारी पसंद का बोटमैन ।”
“जितनी जल्दी तलाश करोगे उतनी जल्दी यह काम होगा ।”
“मैं जल्दी ही तलाश करूंगा ।”
“गुड ।”
“उनकी फीस का क्या होगा ?”
“किनकी फीस का क्या होगा ?”
“बोटमैन और तिजोरीतोड़ की फीस का ?”
“भट्टी” - विमल सख्ती से बोला - “परसों रात को तुम्हारे ग्रांट रोड वाले ठीये पर जब इस बाबत मेरी कालिया से बात हो रही थी, लगता है उस वक्त तू ऊंघ रहा था । या सो ही गया था ।”
“क... क्या ?”
“क्या यह तय नहीं हुआ था कि इस काम के लिए आदमी मैं भरती करूंगा, दस लाख रुपए तक उनकी फीस कालिया भरेगा ?”
“तय तो हुआ था ।”
“तो फिर क्यों पूछता है कि बोटमैन और तिजोरीतोड़ की फीस कौन देगा ?”
“ठीक है । नहीं पूछता ।”
“और इस बात की भी खास ख्याल तूने ही रखना है कि दोनों शख्स ऐसे न हों जो टापू पर पहचान लिए जा सकते हों ।”
“यह भी कोई कहने की बात है ?”
“कहने की बात है ।”
“तू तो, यार, कालिया से भी सख्त हाकिम है ।”
विमल चुप रहा ।
“और ?” - भट्टी बोला ।
विमल ने मेज पर फैले कागजों में से एक कोरा कागज अपनी तरफ घसीटा उस पर कुछ शब्द घसीटे और कागज भट्टी को थमा दिया ।
“यह क्या है ?” - भट्टी बोला ।
“हिंदी के चार अक्षर भी नहीं पढ सकता ?” - विमल बोला - “निरा अनपढ है ?”
“हिंदी क्यों नहीं पढ सकता ?”
“तो पढ ।”
“चार रिवॉल्वर । सौ कारतूस । दो मशीनगन । पांच स्पेयर मैगजीन । छ: हैंड ग्रेनेड । छ: धुएं के बम । तीन सैट टापू के सिक्योरिटी स्टाफ जैसी नीली वर्दिया जो कि तुझे, तिजोरीतोड़ को और बोटमैन को फिट आ सकें ।” - उसने कागज पर से सिर उठाया - “सब इंतजाम हो जाएगा ।”
“गुड ।” - विमल बोला - “एक बात और ।”
“वो भी बोल, बाप ।”
“मेरे ये दोनों साथी कुछ दिन यहीं रहना चाहते हैं ।”
“यहां ? इस फ्लैट में ?”
“हां ।”
भट्टी के चेहरे पर चिंता के भाव आए । वह कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “यह हमारा बहुत सेफ ठीया है, इसकी सेफ्टी पर कोई हर्फ आए, यह कालिया को मंजूर नहीं होगा । इसका जवाब मैं तुम्हें फिर दूंगा ।”
“फिर कब ?”
“रात तक ।”
“कालिया से मशवरा करके ?”
“कुछ भी समझ लो ।”
“वो अभी भी दुबई में है ?”
“हां ।”
“पक्की बात ?”
“इसमें” - भट्टी झुंझलाया - “कच्ची-पक्की वाली कौन-सी बात हो गई ?”
“कोई नहीं ।”
“मैं चलता हूं । शाम को मिलूंगा ।”
“एक मिनट रुक ।”
“अब क्या है ?”
“मेरी शक्ल देख ।”
“क्यों ?”
“बाकी लोग भी मेरी शक्ल देखो और ये बताओ मेरे मेकअप में क्या कमी है ?”
“क्या मतलब ?” - भट्टी बोला ।
“मेरा मेकअप दो बार पहचान लिया गया ।” - विमल बोला - “शुक्रवार रात अपने ग्रांट रोड वाले फ्लैट में तूने पहचान लिया । कल रात टापू पर वहां के सिक्योरिटी वालों ने पहचान लिया ।”
“कल रात भी ?” - भट्टी नेत्र फैलाकर बोला ।
“हां ।”
“पकड़ा नहीं गया ?”
“पकड़ा गया ।”
“तो छूटा कैसे ?”
विमल ने बताया । 
“खुशकिस्मत है भाई तू ।”
“मेरे सवाल का जवाब दो । मेरे मेकअप में क्या नुक्स है ? यह मेरे लिए फिक्र की बात है । भट्टी, तू बता तूने कैसे पहचाना ?”
“मुझे दाढी पर शक हुआ था ।”
“शक की वजह ?”
“करीब से देखने पर साफ पता चलता है कि बाल नायलोन के हैं ।”
“बस ?”
“रबड़ की झिल्ली, जो चेहरे पर दाढी को चिपकाती है, उसका किनारा बालों से बाहर दिखाई देता है । यही बात मूंछ में है । कांटैक्ट लैंस की बाबत मैंने अंदाजा लगाया था या यूं समझ लो कि बंडल मारा था ।”
“इसका कोई इलाज ? कोई उपाय ?”
“इलाज दाढी का ही ज्यादा जरूरी है । मूंछ तो चार-छ: दिन में उग आती है लेकिन जैसी तू दाढी लगाए है, वो तो महीनों में उगती है । ”
“दाढी का कोई इलाज ?”
“दाढी किसी खास कारीगर से असली बाल की बनवानी पड़ेगी । उसमें ये भी ख्याल रखना पड़ेगा कि रबड़ की झिल्ली बालों के भीतर रहे, बाहर न झांके, चेहरे पर दाढी के किनारे-किनारे एक लकीर खिंची न दिखाई दे ।”
“ऐसा कोई कारीगर है तेरी निगाह में ?”
“है । तभी तो इतना कुछ बोला ।”
“मुझे दाढी बनवा के दे ।”
“ठीक है । बनवा के देता हूं । ऐसी बनवा के देता हूं कि याद करेगा । उसे लगाए-लगाए नहा-धो भी लेगा तो फर्क नहीं पड़ेगा ।”
“बढिया ।”
“वैसे ऐसी चीजों से परहेज ही करे तो अच्छा है । मेकअप वक्ती इस्तेमाल के लिए ही ठीक होता है । ये सदा चलने वाली आइटम नहीं । आम आदमी नहीं पहचानेगा तो एक्सपर्ट पहचान लेगा ।”
“मैं सोचूंगा इस बाबत । तो कब होगा ये काम ?”
“कल ही हो जाएगा ।”
“गुड ।”
“लेकिन उसके लिए थैंक्स अलग से बोलना पड़ेगा ।”
विमल हंसा ।
भट्टी भी हंसा और फिर उठा खड़ा हुआ ।
तभी वैभवी वापिस लौटी । वो दो बड़े-बड़े झोले उठाए हुए थी और उस घड़ी उसका चेहरा तमतमाया हुआ था ।
इरफान ने फिर ललचाई निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
बिना किसी व्यक्ति विशेष की ओर निगाह डाले वैभवी एक बार बड़े चित्ताकर्षक ढंग से हंसी और फिर किचन की ओर बढ चली ।
इरफान यूं बाग-बाग हुआ जैसे वो खास उसके लिए हंसी हो ।
भट्टी अपलक इरफान को देखता रहा । वैभवी दृष्टि से ओझल हुई तो वह धीरे से बोला - “पसंद है ?”
“क... क्या बोला ?” - इरफान हड़बड़ाया ।
“बोला, पसंद है ?” - भट्टी बोला ।
“किसे बोला ?”
“तेरे को बोला और किसे बोला !”
“मेरे कू क्यूं बोला ?”
“क्योंकि उसे देखकर तेरी ही तो लार घुटनों तक टपक रही है ।”
“झूठ !” - इरफान हकबकाकर बोला - “गलत ! वो तो.. वो तो...”
“सैर करेगा इसके साथ ?”
“सैर !”
“बढिया होटल की । सब खर्चा-पानी मेरा ।”
जवाब में जो शब्द इरफान के मुंह से निकला, उसने नीयत की साफ-साफ चुगली कर दी ।
“कब ?” - वह व्यग्र भाव से बोला ।
“कहे तो आज ही रात को । लेकिन ये हुलिया सुधारना होगा । शानदार जगह पर इतनी शानदार औरत के साथ इस हुलिये में जाएगा तो लोग बोलेंगे सेब पर मक्खी बैठी है ।”
“क्या किस्सा है !” - विमल उलझनपूर्ण भाव से बोला ।
“मेरा एक काम है ।” - भट्टी बोला - “तुम्हारे आदमी की सैर हो जाएगी, मेरा काम हो जाएगा ।”
“क्या काम है ?”
भट्टी ने बताया ।