शाम को चार बजे जगत पाल ने रंजन को फ्लैट से बाहर आते देखा। उसके हाथ में ब्रीफकेस था। वह पैदल ही कॉलोनी से बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गया। उसने कार क्यों नहीं उठाई, इस बारे में जगत पाल ने अवश्य सोचा। जब रंजन काफी आगे निकल गया तो जगत पाल ने कार स्टार्ट करके बेहद धीमी गति से आगे बढ़ा दी।
यूँ जगत पाल तीनों में से किसी का नाम नहीं जानता था। मुख्य सड़क पर पहुँच कर उसने रंजन को जाती टैक्सी रोककर उसमें बैठते देखा।
टैक्सी आगे बढ़ी तो जगत पाल ने कार पीछे लगा दी। पीछा करने का यह सफर एयरपोर्ट पर जाकर खत्म हुआ।
"तो यह मुम्बई से बाहर जा रहा है।" जगत पाल बड़बड़ा उठा।
जगत पाल ने अपनी कार पार्किंग में खड़ी की और एयरपोर्ट की इमारत की तरफ आ गया। यहाँ काफी भीड़ थी। हर कोई दौड़ा-भागा नजर आ रहा था। जगत पाल की निगाहें रंजन को तलाश रही थीं। जो कि उसे एक लाइन में लगा नजर आ गया था।
आधे घण्टे बाद जगत पाल एयरपोर्ट की इमारत से निकलकर पार्किंग में खड़ी अपनी कार तक आ पहुँचा। फोन निकाला और चेहरे पर सोचो के भाव समेटे देवली का नम्बर मिलाने लगा। एक बार में ही नम्बर लग गया।
"कहो।" उधर से देवली का स्वर कानों में पड़ा।
"ये काम कठिन होता जा रहा है।" जगत पाल ने कहा, "उन तीनों में से एक प्लेन पर दिल्ली जा रहा है।"
"तो समस्या क्या है?"
"मैं इस तरह उन पर नजर रखकर, उनके बारे में और उनके काम के बारे में नहीं जान सकता। अभी तक उनके नाम तक नहीं जान पाया हूँ। वैसे तो मैं अब तक सब जान लेता, परन्तु तुम ने उन पर हाथ डालने से मना कर रखा है।"
"उससे बात बिगड़ जाएगी जगत पाल।"
"उसके बिना हम नहीं जान सकते कि वे क्या कर रहे हैं। नजर रखने का फायदा तब है, जब हमें पता हो कि वे क्या कर रहे हैं।"
देवली की तरफ से कोई आवाज नहीं आयी।
"बोल मेरी जान!" जगत पाल बोला, "क्या करूँ?"
"ठीक है! उनमें से किसी पर हाथ डालते हैं। ये काम तू अकेला नहीं करेगा। मैं तेरे साथ रहूँगी।"
"सोचती क्या है।" जगत पाल बोला, "आ जा। साल भर बाद हम फिर किसी काम के लिए इकट्ठे हो रहे हैं। मुझे यह महसूस करके अच्छा लग रहा है। पुराने दिन याद आने लगे हैं।"
"भूल जा। पुराने दिन अब पुराने हो चुके हैं। मैं सिर्फ काम के लिए तेरे पास आ रही हूँ।"
"किसी भी काम के लिए आ। आ तो रही है। मेरे लिए यही बहुत है।" जगत पाल हँस पड़ा।
"तू कहाँ मिलेगा मुझे?"
जगत पाल, देवली को समझाने लगा कि उसे कहाँ पर पहुँचना है।
■■■
"हमें काफी बड़ा नुकसान हो गया।" जगमोहन बोला, "पौने पाँच अरब के नुकसान।"
"हमसे ज्यादा नुकसान वालिया को हुआ है।" देवराज चौहान ने कहा और सिगरेट सुलगा ली।
दोनों इस वक़्त कॉफ़ी हाउस में मौजूद, कॉफ़ी की चुस्कियाँ ले रहे थे।
"उसका पैसा कम लगा था। फिर हमसे ज्यादा नुकसान उसका कैसे हो सकता है?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
"उसका 300 करोड़ लगा था कंस्ट्रक्शन में। यह उसकी पूरी जमा पूँजी थी। यहाँ तक कि उसने अपना बंगला भी गिरवी रख कर पैसा उठाया हुआ था। हमारे पास तो इतनी दौलत है कि 500 करोड़ के नुकसान से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उसका तो 300 करोड़ ही सब कुछ था। 300 करोड़ बहुत बड़ी रकम होती है।"
"परन्तु वे छः प्लॉट तो वालिया के नाम ही हैं, जिन पर वह इमारतें बना रहा था।"
"उससे यह नुकसान पूरा नहीं होता।"
"जिसने भी वालिया की इमारतें उड़ाईं, उसने सच में बहुत बड़ा काम किया। तबाही दुश्मनी रही होगी उसकी।"
"जाहिर है।"
"पुलिस भी पूरी कोशिश करेगी कि इन विस्फोटों के पीछे कौन है, पता लगा ले।"
देवराज चौहान ने अपना सोचों से भरा चेहरा हिलाया।
"मुझे इस बात की हैरानी है कि वालिया किसी पर भी अपना शक जाहिर नहीं कर रहा है।"
"अभी मामला गर्म है। उसका दिमाग ठीक से कोई फैसला नहीं ले पा रहा है। धीरे-धीरे शायद वह किसी नतीजे पर पहुँचे और उसे अहसास हो जाये कि यह सब किसने किया है।"
"हमें खोजबीन करनी चाहिए कि यह सब किसने किया। हमारा पैसा लगा था उसमें।" जगमोहन ने कहा।
"जिसने भी यह किया है, वह हमारा दुश्मन नहीं है। उसने वालिया को बर्बाद करने की ही खातिर यह किया है। कोई नहीं जानता कि उन इमारतों में हमने पैसा लगाया और यह बात वालिया किसी को बताने से रहा। यह सब वालिया से दुश्मनी का नतीजा ही है। हमें इस मामले में जरा भी नहीं आना चाहिए। यह हमारा काम नहीं है।"
"मतलब कि इस नुकसान को भूल जाये?"
"यही बेहतर है।"
उसी पल जगमोहन का फ़ोन बजा।
"हेलो!" उसने कान से फोन लगाया।
"मैं भानू भाई बोलता है।"
"पहचाना। कहो।"
"उधर कौन है?" आवाज पुनः कानों में पड़ी।
"कोई नहीं।"
"देवराज चौहान से मेरी बात करा।"
"वह नहीं है।" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखकर कहा, "मुझसे बात कर।"
"मैं बोत मुसीबत में हूँ। मुसीबत से बाहर नहीं निकला तो अपनी जान दे दूँगा।" भानू भाई की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम जिंदा रहो या मरो, इससे मुझे कोई मतलब नहीं। मेरे से कोई काम है बता।"
"मेरा मैनेजर मेरा साठ करोड़ लेकर भाग गया है। वह काला पैसा था, छिपाकर रखा था। पुलिस से भी नहीं कह सकता। वरना बात बढ़ जाएगी। इनकम टैक्स वाले मुझे नाप देंगे। तुम मेरे मैनेजर को पकड़ो।"
"मुझे क्या मिलेगा?"
"दो-चार करोड़ ले लेना।"
"आधा लूँगा।"
"आधा! यह तो ज्यादा है। कुछ कम कर।"
"आधा।"
"ठीक है दिया। अब तू जल्दी से मेरे मैनेजर को ढूँढ। कहीं मेरा पैसा ख़र्च करके बर्बाद न कर दे।"
"तू किधर है? फैक्ट्री में या अपने बंगले में?"
"फैक्ट्री में।"
"वहीं रह। मैं आता हूँ। तेरे से मैनेजर के बारे में जानकारी लेनी है। उसके दोस्तों-रिश्तेदारों और ठिकानों के बारे में जानकारी।"
■■■
दीपचंद का फोन आया। वालिया ने बात की।
"मुझे यह जानकर बहुत दुख हुआ वालिया कि तेरी बन रही इमारतों को किसी ने बम से उड़ा दिया।" उधर से दीपचंद ने कहा।
वालिया खामोश रहा।
"किसने किया?"
"नहीं जानता।"
"बुरा हुआ। ऐसा नहीं होना चाहिए था।"
"तेरा पचास करोड़ मैं दो-चार महीनों में चुका दूँगा। इमारतें बर्बाद हुई हैं, जमीनें तो हैं मेंरे पास।"
"मैंने अपने पैसे के लिए तेरे को फोन नहीं किया। मुझे मालूम है कि मेरा पैसा मुझे मिल ही जायेगा। कुछ और जरूरत हो तो बता देना।" कहने के साथ ही दीपचंद ने फोन बंद कर दिया।
■■■
वक़्त बीता। इसी तरह पंद्रह दिन बीत गए।
पुलिस की पूछताछ भी अब बन्द हो गयी थी। पुलिस अभी तक मालूम नहीं कर पायी थी कि किसने वालिया की इमारतें उड़ाई हैं। वालिया अब अपने बंगले से कम ही बाहर निकलता था। वह हर वक़्त सोचों में ही गुम रहने लगा था। रूपा अपने तसल्ली भरे शब्दों से उसे सम्भाले हुए थी।
उस दिन सुबह नाश्ते के बाद वालिया ने रूपा से कहा-
"रूपा, तुम्हारे पिता से मिलने चलते हैं!"
"क्या?" रूपा चौंकी, "पापा से?"
"हाँ, दिल्ली चलते हैं।"
"नहीं!" रूपा के चेहरे पर अचानक से उखड़ेपन के भाव आ गए, "मैं पापा से नहीं मिलना चाहती।"
"समझा करो रूपा! हमें इस वक़्त आर्थिक सहारे की जरूरत है ताकि मैं फिर से काम शुरू कर सकूँ।"
"यह बात दोबारा मत कहना अजय।" रूपा गंभीर हो गयी।
"क्या मतलब?"
"मैंने कसम खायी है कि जिंदगी में कभी पापा से नहीं मिलूँगी। मुझे नफरत है उनसे।"
"यह क्या कह रही हो?"
"मैंने इस शर्त पर शादी की थी कि तुम पापा से कभी वास्ता नहीं रखोगे। बेशक मेरे पापा, जगन्नाथ सेठी जिंदा हैं, परन्तु मेरे लिए तो वह उसी दिन भर गए थे जब मैंने उनकी आवारागर्दियों की वजह से घर छोड़ा। घर से बेघर हो गयी मैं।"
"हम अपने मतलब से उनसे मिलने जा रहे हैं।"
"नहीं अजय! मैं तुम्हारी यह बात किसी कीमत पर नहीं मान सकती।" रूपा ने दृढ़ भरे स्वर में कहा, "मुझसे तुम्हारी बर्बादी की हालत देखी नहीं जाती। मैं चाहती हूँ कि तुम फिर पहले की तरह धंधे में जम जाओ, परन्तु पापा के पास किसी कीमत पर नहीं जाऊँगी।"
"मेरी खातिर भी नहीं?"
"नहीं।"
वालिया, रूपा के तनाव भरे चेहरे को देखता रहा।
"अगर तुम्हारे पापा की मरने की खबर आ जाये तो तब तो जाओगी ही?" वालिया ने गहरी साँस ली।
"हाँ! तब मुझे दिल्ली जाने में कोई एतराज नहीं होगा। तब जाकर पापा की सारी दौलत समेटूंगी।" रूपा ने तीखे स्वर में कहा और कमरे से बाहर निकलती चली गयी।
वालिया ने गहरी साँस ली और आँखें बंद कर ली।
■■■
अगले पाँच दिन और बीते। वालिया ने इन पाँच दिनों में रूपा को, उसके पापा जगन्नाथ सेठी के पास ले जाने की भरपूर चेष्टा की परन्तु रूपा अपनी बात पर अटकी हुई थी। वह नहीं मानी। इस दौरान कई बार वालिया नाराज हुआ तो कई बार रूपा।
दोनों के बीच इसी बात को लेकर खींचातानी चलती रही। बीती रात तो दोनों, एक-दूसरे से नाराजगी की वजह से अलग-अलग बेडरूम में सोए।
अगले दिन नाश्ते की टेबल पर दोनों सामने पड़े।
रूपा का चेहरा बता रहा था कि वह गुस्से में है। उसने एक बार भी वालिया की तरफ नहीं देखा था।
बरबस ही वालिया मुस्कुराया और बोला-
"रूपा!"
"बात मत करो मुझसे।" उसे देखे बिना रूपा ने नाराजगी से कहा।
"मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि अब तुमसे तुम्हारे पापा जगन्नाथ सेठी के बारे में कोई बात नहीं करूँगा।"
"पक्का?" रूपा ने वालिया को देखा।
"कसम से। अब नहीं कहूँगा कि तुम्हारे पापा से मिलने चलते हैं।" वालिया मुस्कुरा रहा था।
"मैं तुम्हारी तकलीफ को समझती हूँ अजय।" रूपा ने भारी मन से कहा, "पर मैं मजबूर हूँ।"
"छोड़ो इन बातों को। पैसे का इंतजाम मैं कहीं और से करने की चेष्टा करूँगा।"
"तुम क्या जानो कि तुम्हारी हालत पर मुझे कितनी तकलीफ हो रही है।" रूपा ने आँखों में आँसू भर लिए, "मैं दुनिया भर की दौलत तुम्हारे कदमों में बिछा देना चाहती हूँ, परन्तु ऐसा कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं।"
"रहने दो इन बातों को। मैं पहले ही तुम्हें तकलीफ दे चुका हूँ।"
"तुम अपनी जगह सही थे अजय। परन्तु मैं भी गलत नहीं थी। गलती किसी की भी नहीं है। तुम्हें इस वक़्त पैसे की सख्त जरूरत है। ऐसे में इंसान अपने से ही सहायता की आशा करता है। तुमने कुछ भी गलत नहीं कहा। मैं तो भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि पापा का एक्सीडेंट हो जाये। वह दुनिया में न रहे और मैं दिल्ली जाकर सारा पैसा समेटकर तुम्हें दे दूँ।"
"नहीं रूपा!" वालिया गंभीर स्वर में बोला, "ऐसे बुरे बोल नहीं बोलते। ऐसा कभी सोचना भी मत। वे तुम्हारे पापा हैं।"
रूपा की आँखों से आँसू निकले और गालों से लुढ़कते चले गए। फिर वह उठी और वहाँ से चली गयी।
वालिया ने फोन उठाया और जगमोहन को नम्बर मिलाए।
"हेलो!" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।
"मैं तुमसे मिलने चाहता हूँ।"
"ओह तुम! अगर तुम मुझसे पैसा लेने के फेर में हो तो वह नहीं मिलने वाला। पहले ही बहुत नुकसान...।"
"कोई और बात है।"
"लेकिन मैं इस वक़्त व्यस्त हूँ।"
"देवराज चौहान से मिलवा दो।"
"देवराज चौहान का नम्बर ले लो और फोन पर बात कर लो।"
कहने के साथ ही उधर से जगमोहन ने फोन नम्बर बताया।
■■■
देवराज चौहान और अजय वालिया एक रेस्टोरेंट में मिले। दिन के 12.30 हुए थे। वहाँ कम लोग थे। दोनों ने एक टेबल संभाल ली। वेटर को कोल्ड ड्रिंक के लिये कह दिया। वालिया कुछ बेचैन सा था।
"कहो, क्यों मिलना चाहते थे तुम?" देवराज चौहान ने कहा।
"मैं... मैं तुम्हारा सारा पैसा वापस कर सकता हूँ। एक रास्ता दिखा है मुझे।"
"कैसा रास्ता?"
"मेरी पत्नी रूपा दिल्ली की है। उसका पिता जगन्नाथ सेठी, दिल्ली का बहुत बड़ा बिजनेसमैन है।"
देवराज चौहान उसे देखता रहा।
"25-30 अरब दौलत का मालिक है वह।"
वेटर आया कोल्ड ड्रिंक रख गया।
"तो तुम अपने ससुर से दौलत लेने की फेर में हो।" देवराज चौहान ने घूँट भरा।
"इसमें समस्या है।"
"क्या?"
"रूपा की अपने पिता से नाराजगी है।"
"तो?"
"मेरे कहने पर भी, जोर देने पर भी वह अपने पिता से मिलने नहीं जाना चाहती।"
"तुमने मुझे क्यों बुलाया मिलने के लिए?" देवराज चौहान ने पूछा।
"एक कत्ल करना है।"
"जगन्नाथ सेठी का?" देवराज चौहान की निगाह उसके चेहरे पर थी।
"हाँ! वो...।"
"मैं यह काम नहीं करूँगा।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्यों?"
"इस तरह किसी की जान लेना मेरे उसूलों के खिलाफ है।"
"उसूल? 482 करोड़ की तुम्हारी दौलत तुम्हें वापस मिल सकती है देवराज चौहान। सिर्फ एक कत्ल करने पर।"
देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा। वालिया के चेहरे पर ढेर सारी बेचैनी थी।
"यह कत्ल मैं नहीं कर सकता।"
"क्यों?"
"मेरे पास किसी की जान लेने के लिए पर्याप्त वजह होनी चाहिए।"
"482 करोड़ के लिए एक कत्ल। क्या यह पर्याप्त वजह नहीं है?"
"दौलत के लिए मैंने आज तक किसी की जान नहीं ली। मैंने जिसे भी मारा, उसकी वजह दूसरी रही।"
"मैं बर्बाद हो चुका हूँ देवराज चौहान। तुम्हें मेरे लिए कुछ करना चाहिए।"
"इस बात का मुझे अफसोस है। तुम चाहो तो 50-70 करोड़ मैं तुम्हें दे सकता हूँ कि उससे तुम अपने को संभाल सको।"
"50-70 से मेरा कुछ नहीं होगा। मेरे कहने पर जगन्नाथ सेठी की जान लेने को तैयार क्यों नहीं हो जाते?"
"बेहतर होगा कि तुम अपनी पत्नी को राजी करो कि वह तुम्हें अपने पिता के पास ले चले।"
"कोशिश कर चुका हूँ। वह तैयार नहीं है।"
"यह तुम जानो।"
वालिया के चेहरे पर गुस्सा झलक उठा।
"तुम मेरे पिता के वक़्त से वालिया कंस्ट्रक्शन के पार्टनर रहे हो। पुराने रिश्तों को ध्यान में रखकर, मेरी बात तुम्हें माननी चाहिए।"
"बार-बार कहने का कोई फायदा नहीं। मैं यह कत्ल नहीं करने वाला।"
"तुम मतलबी हो।"
"कुछ भी कहो। जब तक वजह मुझे जँचती नहीं, तब तक मैं हत्या नहीं करता। और इसलिए जगन्नाथ सेठी की जान नहीं ले सकता कि उसके मरते ही तुम उसकी दौलत के मालिक बन जाओगे।" देवराज चौहान उठता हुआ बोला, "मेरे से कभी भी यह आशा मत रखना कि पुराने रिश्तों की खातिर मैं कोई गलत काम करूँगा।" कहने के साथ ही देवराज चौहान बाहर की तरफ बढ़ता चला गया।
वालिया होंठ भींचे वहीं बैठता सोचता रहा। वह बहुत आशा के साथ देवराज चौहान से मिला था। परन्तु देवराज चौहान ने जगन्नाथ सेठी को मारने के लिए स्पष्ट मना कर दिया था। जबकि उसने सोचा था कि देवराज चौहान सारी बात सुनते ही हाँ कर देगा।
"तो अब मुझे कुछ करना होगा।" होंठ भींचे वालिया बड़बड़ाया।
देर तक वहीं बैठा सोचता रहा वालिया। फिर बिल चुकता करके उठा और रेस्टोरेंट से बाहर आ गया। अपनी कार तक पहुँचा और भीतर बैठकर ब्रीफकेस में से फोन डायरी निकाली और उस पर लिखे नम्बरों पर निगाह दौड़ाने लगा।
कुछ देर बाद एक नम्बर पर उसकी नजरें जा कर टिकीं।
यह दिल्ली की 'मेजर डिटेक्टिव एजेंसी' का नम्बर था। उसने अपना मोबाइल निकाला और नम्बर मिलाने लगा कि ठिठक गया। फिर उसने फ़ोन वापस जेब में डाला। डायरी पर लिखे नम्बर को याद किया और कार से बाहर निकलकर आगे बढ़ गया। कुछ देर बाद ही उसे एस०टी०डी० बूथ दिखा। वहाँ से उसने दिल्ली मेजर डिटेक्टिव एजेंसी फोन किया।
"हेलो!" उधर से युवती का स्वर सुनाई दिया, "मेजर डिटेक्टिव एजेंसी।"
"मेजर साहब से मेरी बात कराओ।"
"आपका नाम?"
"बात कराओ। मेरे पास वक़्त कम है।" वालिया ने तेज स्वर में कहा।
दो पलों के बाद ही उसके कानों में मर्दाना आवाज पड़ी।
"मेजर दिस साइड।"
"मैं तुम्हें अपना नाम नहीं बता सकता।" वालिया ने शांत स्वर में कहा।
"कोई बात नहीं, काम बताइए।"
"क्या तुम ऐसे क्लाइंट के लिए काम करोगे, जिसका नाम-पता तुम्हें न मालूम हो और पैसा भी न पहुँचा हो?"
"यह तो काम पर निर्भर है।"
"दिल्ली का जाना-माना नाम है जगन्नाथ सेठी।" वालिया बोला।
"जानता हूँ।"
"जगन्नाथ सेठी के बारे में पूरी रिपोर्ट चाहिए कि वह कब कहाँ जाता है? सुबह कितने बजे उठता है, कितने बजे घर जाता है? दिन में क्या करता है? ऐसी जगहों की जानकारी चाहिए, जहाँ वह अक्सर आता-जाता है।"
"सिर्फ जानकारी?"
"हाँ!"
"ऐसे काम पेमेंट लिए बिना हम नहीं करते।"
"मैं इस वक़्त दिल्ली से दूर हूँ। तुम जानकारी इकट्ठी करो और मुझे बता दो कि मैं कब दिल्ली पहुँचूँ। रिपोर्ट मैं फोन करके कहीं भी मँगवा लूँगा और तुम्हारी फीस रिपोर्ट लाने वाले को दे दूँगा।"
"चार दिन लगेंगे इस काम को। फीस ढेड़ लाख रुपये है अगर पहले दी तो। बाद में ढाई लाख रुपये देने होंगे।"
"मंजूर है मुझे। मैं चार दिन बाद दिल्ली पहुँचकर फोन करूँगा। मुझे जगन्नाथ सेठी के बारे में हर तरह की जानकारी चाहिए। कुछ भी छूटे नहीं।" वालिया ने शांत स्वर में कहा।
"निश्चिन्त रहिए। हमारा काम तसल्लीबख्श होता है।"
वालिया ने रिसीवर रखा और कॉल की पेमेंट करके अपने कार की तरफ बढ़ गया।
■■■
वालिया बंगले पर पहुँचा। रूपा बेडरूम में वार्डरोब में कपड़े लगाते हुए मिली। वालिया ने रूपा को पीछे से बाँहों में भर लिया।
"बहुत खुश हो।" रूपा अपने काम में व्यस्त कह उठी।
वालिया ने उसे गर्दन पर चूमा और मुस्कुराकर बोला-
"सोचता हूँ जिंदगी में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। इंसान को खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए।"
"हाँ! मैं तो तुम्हें समझाती रही हूँ कि सब ठीक हो जाएगा। वक़्त से लड़ने की कोशिश मत करो।"
"जल्दी ही मलबे को साफ कराने का काम शुरू करा दूँगा। उन छः में से चार की जमीनें बेचकर बाकी दो पर मिले पैसे से काम शुरू करा दूँगा। कुछ साल लगेंगे लेकिन अब कुछ ठीक हो जाएगा।"
रूपा उसके बाँहों में ही घूमी और उसके सीने से लग गयी।
"हम फिर से पहले वाली, प्यार भरी शांत और अच्छी जिंदगी बिताएँगे।"
"ओह अजय! मैं हमेशा इसी तरह तुम्हारे सीने से लगी रहना चाहती हूँ।"
"मैं तुम्हें कभी जुदा नहीं करूँगा।"
"मैं पापा के पास जाने को तैयार नहीं हुई। तुम जरूर इस बात से नाराज...।"
"छोड़ो भी उस बात को। मैंने अपनी जिंदगी की दिशा तय कर ली है। खुद को सारी चिंताओं से बाहर निकाल लिया है। मैंने जरूर कभी अच्छे कर्म किये होंगे जो मुझे तुम जैसी पत्नी मिली।"
"ओह अजय! तुम कितने अच्छे हो।"
■■■
देवली और जगत पाल झल्लाये हुए थे। कई दिन की निगरानी के बाद भी उन्हें महेश और दीपक में से किसी एक पर भी हाथ डालने का मौका नहीं मिल रहा था। दोनों अक्सर फ्लैट में ही बन्द रहते। किसी सामान की जरूरत की खातिर उनमें से कोई एक बाहर निकलता और पास के बाजार से सामान ले आता। परन्तु इस दौरान उस पर हाथ डालने का मौका उन्हें कभी न मिला।
"तू बूढ़ा हो गया जगत पाल। अब तू पहले की तरह फुर्ती से काम नहीं कर पा रहा है।" देवली बोली।
"तू देख रही है कि हमें मौका नहीं मिल पा रहा है।" जगत पाल कुढ़ कर बोला, "तू कर ले कुछ।"
"अब मैं ही करूँगी।" देवली फैसले वाले स्वर में कह उठी, "शिकार को ले कहाँ जाना है?"
"तेरा फ्लैट जो है।"
"वहाँ वालिया कभी आ गया तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी। मेरे ख्याल में किसी सुनसान जगह पर ले जाकर।"
"अगर उसने फटाफट मुँह न खोला वहाँ तो क्या करेंगे? उसके साथ वहीं बंधे रहेंगे?"
देवली जगत पाल को देखकर बोली-
"तू ही किसी जगह के बारे में सोच।"
"जहाँ मैं टिका हुआ हूँ, वहीं पर ले चलेंगे।"
"तू टिका कहाँ है?"
"जीवन के घर। उसकी बूढ़ी माँ ही है वहाँ।"
"जीवन?"
"वही कानपुर वाला। दो बार उसने हमारे साथ काम किया था। अब जेल में पहुँच चुका है।"
"उसकी माँ मुसीबत तो खड़ी नहीं करेगी?"
"नहीं! उसे पैसे की जरूरत है। मैं उसे पैसा देता रहता हूँ।"
करीब दो घण्टे बाद उन्होंने दीपक को बाहर निकलकर बाजार जाने वाली सड़क की तरफ बढ़ते देखा। दोपहर का वक़्त था इक्का-दुक्का लोग ही आ-जा रहे थे।
"अच्छा मौका है। रिवॉल्वर मुझे दो।" देवली बोली।
"चला मत देना।" जगत पाल रिवॉल्वर निकालता कह उठा, "बकरे से बहुत कुछ पूछना है।"
देवली ने रिवॉल्वर लेकर अपने कपड़ों में छिपाई और दरवाजा खोलते बोली-
"मैं उसके पास जा रही हूँ। तू कार पास में ले आना।" कहने के साथ ही वह आगे बढ़ गयी।
तेज-तेज कदम उठाते वह दीपक के पास जा पहुँची। दीपक ने अपने बराबर में किसी को चलते देखा तो नजरें घुमाई। देवली पर नजर पड़ते ही वह बुरी तरह चौंका और उसी पल ठिठक गया।
"तुम?" उसके होंठों से निकला।
"मैं जानती हूँ कि तुम लोग मुझपर नजर रख रहे हो।" देवली ने होंठ भींच कर कहा और उसी पल रिवॉल्वर निकाल ली। परन्तु रिवॉल्वर को दोनों हाथों में इस तरह छिपा लिया कि जग जाहिर न हो।
दीपक उसके हाथों में रिवॉल्वर पाकर सतर्क हुआ।
"तुम... तुम क्या चाहती हो?"
"हरामजादे! यही तो तेरे से पूछना है कि तू मुझसे क्या चाहता है? क्यों तुम लोग मुझपर नजर रख रहे हो?"
"तुम्हें गलतफहमी हुई है।"
उसी पल जगत पाल ने कार को पास ला रोका।
"चल कार में बैठ। यह रिवॉल्वर दिखाने के लिए नहीं है। मैं गोली चला भी देती हूँ। बैठ भीतर।" देवली गुर्रायी।
दीपक के होंठ भिंच गए।
"तूने कुछ भी किया तो मैं सारी गोलियाँ तुझ पर चला दूँगी। बैठ कार में।"
"मेरी बात तो सुनो। मैं...।"
"बैठ हरामी! वरना मैं गोली चला रही हूँ।"
दीपक के पास कोई और रास्ता न बचा था। उसने कार की ड्राइविंग सीट पर बैठे जगत पाल को देखा तो जगत पाल मुस्कुराया।
देवली ने रिवॉल्वर की नाल उसके कमर में धँसा दी। दीपक ने देवली को देखा तो देवली के चेहरे पर मौत के भाव दिखे। दीपक समझ गया कि वह फँस चुका है। वह कार की तरफ बढ़ गया।
■■■
"तो मिल गया तुम्हें तुम्हारा दोस्त।" दीपक को देखते ही बूढ़ी औरत कह उठी, "क्यों रे, तू उस दिन क्यों नहीं आया? उस रात मैंने खाना बनाकर रखा था। तूने अभी पाँच सौ मेरे को देने हैं।"
"दरवाजा बंद कर।" जगत पाल बोला।
बुढ़िया ने दरवाजा बन्द किया और पलट कर देवली से कह उठी-
"तू कितनी खूबसूरत है। किसी की नजर न लगे तेरे को। जीवन के लिए मैं तेरे जैसी सुंदर बहु लाना चाहती थी।"
जगत पाल ने दीपक को बाँह से पकड़ा हुआ था। उसे वे पीछे वाले कमरे में ले गए।
"मौसी, नाड़ा दे इसके हाथ-पाँव बाँधने के लिये।"
"क्या? यह तो तुम्हारी पहचान वाला है।"
"यह हमारा कुछ नहीं लगता। उस दिन इसने तुमसे झूठ बोला था।" जगत पाल ने तीखे स्वर में कहा।
"झूठ बोला? भले का तो जमाना ही नहीं रहा। मैंने इन्हें भीतर बिठाया, पानी पिलाया।" कहते-कहते वह बाहर निकल गयी।
"नीचे बैठ।" देवली गुर्रायी और पुनः रिवॉल्वर निकाल ली।
दीपक नीचे फर्श पर बैठ गया। जगत पाल ने एक कुर्सी खींची और उस पर बैठ गया।
"बोल क्या इरादे हैं तेरे?" देवली ने पूछा।
"तुम लोग चाहते क्या हो?" दीपक बोला, "मुझे क्यों पकड़ा?"
"यह भी तेरे को बताना पड़ेगा।" जगत पाल गुर्राया।
दीपक ने देवली और जगत पाल को देखा।
"मेरे पर तू नजर क्यों रख रहा था?" देवली ने कठोर स्वर में कहा।
"तुम्हें गलतफहमी हुई।"
देवली का रिवॉल्वर वाला हाथ घुमा और नाल उसके गाल पर जा पड़ी।
दीपक के होंठ से घुटी-घुटी चीख निकली। भीतर से गाल फट गया। मुँह से खून आया जो उसने फर्श पर थूक दिया और खा जाने वाली निगाहों से देवली को देखा।
"क्या देखता है हरामजादे?" देवली गुर्रायी।
"तुम्हें देखकर कोई विश्वास नहीं करेगा कि तुम इतनी क्रूर हो सकती हो।"
"तेरे को विश्वास आ गया न?" देवली ने दाँत पीसे, "मेरी बात का जवाब दे।"
जगत पाल हँसकर कह उठा-
"यह बड़ी कमीनी चीज है। तूने मुँह न खोला तो अभी पता चल जाएगा तेरे को।"
तभी बुढ़िया भीतर प्रवेश करती कह उठी-
"यह लो। अपनी सलवार से नाड़ा निकालकर लायी हूँ। अब बाजार से और लाना पड़ेगा मुझे।"
जगत पाल ने नाड़ा लेकर दीपक के हाथ पीछे करके बाँधे।
"और ला...।" उसने बुढ़िया से कहा।
"दो ही तो सलवारें हैं मेरे पास। जो पहनी है, उसका नाड़ा दूँगी तो पहनूँगी क्या?" वह बोली।
"बाजार से ले आ?
"अभी?"
"हाँ अभी। जल्दी जा।" जगत पाल ने उसे घूरा।
बुढ़िया खामोशी से बाहर निकल गयी।
"बोल मामला क्या है?" देवली कठोर स्वर में बोली, "तू और तेरे दोनों साथी मुझ पर नजर क्यों रख रहे थे?"
"तुम लोगों को गलतफहमी हुई है।"
तभी देवली की ठोकर उसकी छाती पर जा पड़ी। दीपक फर्श पर जा लुढ़का और गहरी-गहरी साँसें लेने लगा।
"तू अपने साथी के साथ इस घर में आया। मौसी से मेरे बारे में पूछा, क्या यह भी गलत है?" जगत पाल बोला।
दीपक ने होंठ भींच लिए।
"बेटे!" जगत पाल खतरनाक स्वर में बोला, "मुँह तो तू खोलेगा ही। देखना यह है कि कितनी ठुकाई के बाद खोलता है। सब कुछ बताना पड़ेगा तेरे को, जो भी तेरे पेट में है।"
■■■
चार दिन वालिया अपना चेहरा रूपा के आँचल में छुपाए रहा, और रूपा, वालिया के बाँहों में रही। यह दिन, यह वक़्त कैसे बीत गया, दोनों को पता ही न चला।
वह चौथे दिन की सुबह थी, जब रूपा ने वालिया से कहा-
"अजय, हमारा हाथ तंग है! हमें बंगले पर नौकरों की संख्या कम कर देनी चाहिए।"
"तुम फिक्र मत करो। मैं सब ठीक कर लूँगा।"
"लेकिन कैसे? तुम तो मुझे कुछ करते दिखते नहीं।"
"सब काम हो रहा है। मोहन दास गिरा दी गयी इमारतों का मलबा उठवाने का इंतजाम कर रहा है। इधर मैं भी किसी से पैसे का इंतजाम करा रहा हूँ। हो सकता है इसके लिए मुझे चंडीगढ़ जाना पड़े।"
"चंडीगढ़ में कौन है तुम्हारा?"
"पहचान वाले हैं। तुम नहीं जानती उन्हें।"
"मैं चाहती हूँ सब जल्दी से ठीक हो जाये। मैं तुम्हें परेशानी में नहीं देख सकती।" रूपा ने प्यार से कहा।
"भगवान पर विश्वास रखो। शायद सब कुछ ठीक हो जाये।"
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लंच के बाद वालिया कार पर बंगले से बाहर निकला और एक पी०सी०ओ० से उसने दिल्ली मेजर को फोन किया। जल्दी ही उसकी बात मेजर से करा दी गयी।
"मेरा काम हो गया मेजर, जगन्नाथ सेठी वाला?" वालिया ने कहा।
"हाँ! रिपोर्ट टाइप हो रही है। शाम को रिपोर्ट ले सकते हो।" उधर से मेजर की आवाज आयी।
"अपने किसी आदमी के साथ रिपोर्ट भिजवा देना। मैं शाम आठ बजे धौला कुआँ से गुड़गांव जाती सड़क की पहली लालबत्ती पर बायीं तरफ मिलूँगा।" वालिया बोला, "मेरे बारे में जानने की चेष्टा मत करना।"
"हमें तुममें कोई दिलचस्पी नहीं। तीन लाख रुपये तुमने रिपोर्ट देने वाले को देने हैं।"
"ढाई!"
तीन। इस काम में खर्चा ज्यादा हुआ है। मुझे तीन जासूस इस काम पर लगाने पड़े हैं।"
"ठीक है, तीन दे दूँगा।"
उसके बाद वालिया वापस बंगले पर पहुँचा।
"रूपा!" कमरे में रूपा को देखते ही वालिया कह उठा, "मुझे शाम की फ्लाइट से चंडीगढ़ जाना होगा।"
"अभी?"
"हाँ! शायद पैसों का इंतजाम हो जाये। दो-तीन दिन मेरी वापसी में भी लग सकते हैं।"
"मैं अभी जाने की तैयारी करती हूँ।" रूपा ने उत्साह भरे स्वर में कहा।
तभी रूपा का मोबाइल फोन बजा। उसने फौरन आगे बढ़कर फोन उठाया।
"हेलो!" रूपा ने बात की।
वालिया की निगाह रूपा पर ही थी।
"रूपा!" उधर से महेश की आवाज कानों में पड़ी, "दीपक अचानक ही कहीं लापता हो गया है। आज तीसरा दिन है।"
"सॉरी सर!" रूपा ने फोन पर मुस्कुराकर कहा, "अब मुझे नौकर की जरूरत नहीं रही।" इसके साथ ही उसने फोन बंद कर दिया।
"कौन था?"
"कहीं पर पहले नौकरी के लिए अप्लाई किया था, उसी के सिलसिले में कॉल थी। कब की फ्लाइट है तुम्हारी?"
"साढ़े पाँच बजे की। चार बजने वाले हैं। मुझे जल्दी निकलना होगा। बड़े ब्रीफकेस में दो जोड़ी कपड़े रख दो।"
रूपा, अजय की तैयारियों में लग गयी। और बीस मिनट बाद ही ब्रीफकेस थामें अजय बाहर निकल गया। हीरा ने गाड़ी तैयार रखी और वालिया के आने के इंतजार में था।
रूपा ने महेश को फोन किया।
"तुम क्या कह रहे थे महेश?" रूपा ने पूछा।
"दीपक तीन दिन से गायब है। वह बाजार सामान लेने गया था, लेकिन वापस नहीं लौटा। मैंने तीन दिनों से उसे हर जगह ढूँढा परन्तु वह कहीं नहीं मिला। उसकी कोई खबर नहीं मिली।" उधर से महेश ने कहा।
"कहाँ जा सकता है वह?"
"मैं खुद परेशान हूँ।"
"तुम्हें उसकी बातों से कभी लगा कि वह काम से अलग होना चाहता हो?" रूपा ने पूछा।
"नहीं! बल्कि वह खुश था कि इस काम से उसे अच्छा पैसा मिल रहा है।"
"फिर वह कहाँ जा सकता है?" रूपा के माथे पर बल नजर आने लगे थे।
"मुझे तो शक होता है कि उसके साथ कुछ बुरा न हो गया हो।"
"कैसा बुरा?"
"कह नहीं सकता। कई तरह के अंदेशों से मेरा दिमाग भरा पड़ा है।"
"तीन दिन हो गए उसे?"
"हाँ! आज चौथा दिन है। तुमने कहा था कि तुम्हें तभी फोन किया जाए जब बहुत जरूरी हो। इसलिए मैं ही उसे तलाश करता रहा।"
"काम के बीच दीपक का गायब हो जाना, बहुत गलत बात रही। वह हमारे काम के बारे में बहुत कुछ जानता था।"
"तीनों ही बहुत कुछ जानते हैं।" उधर से महेश का चिंता भरा स्वर रूपा के कानों में पड़ा।
"वह तीन दिन से नहीं लौटा। उसने फोन नहीं किया तो वह अब भी नहीं आने वाला। रंजन की क्या खबर है?"
"वह दिल्ली में जगन्नाथ सेठी पर नजर रखे हुए है। वह कहता है कि कई दिनों से काम करते वह थक चुका है।"
"वालिया कुछ देर पहले ही चंडीगढ़ जाने को कहकर निकला है। साढ़े पाँच बजे उसकी फ्लाइट है। मेरा ख्याल है कि वह दिल्ली गया होगा, जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए, ताकि उसकी दौलत का मालिक बन सके।"
"पक्की बात?"
"नहीं! परन्तु ख्याल है मेरा। तुम यह बात रंजन को बता दो। अगर वह वालिया को जगन्नाथ सेठी के आस-पास देख ले तो उसे कहना कि तुम्हें खबर कर दे। तुम भी फौरन दिल्ली पहुँचना। उसके बाद तुम दोनों ने क्या करना है, तुम जानते ही हो।"
"जरूरी तो नहीं कि वह जगन्नाथ सेठी की जान ले।"
"उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं। वह यही सोच रहा है कि जगन्नाथ सेठी के मरते ही वह अरबपति बन जायेगा, क्योंकि मैं जगन्नाथ सेठी की बेटी हूँ। उसकी दौलत की वारिस हूँ।"
"जबकि तुम जगन्नाथ सेठी को जानती तक नहीं।" महेश ने उधर से हँसकर कहा।
"हमारे पत्ते सीधे पड़ रहे हैं महेश। सारी गेम मेरे इशारे पर खेली जा रही है।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा, "दीपक को भूल जाओ। हम इस मामले में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब रुक नहीं सकते। जिस फ्लैट में तुम हो उसे छोड़ दो। दीपक की वजह से तुम पर भी कोई खतरा आ सकता है।"
"ठीक है।"
"जो तुमसे कहा है वह पूरा करो। रंजन से बात करो। मेरा काम ठीक से निपटा दो। तुम दोनों को मैं नोटों से भर दूँगी।"
"अगर दीपक आ गया तो?"
"उसे भी। मेरे पास नोटों की कमी नहीं है।" कहकर रूपा ने फोन काटा और अन्य नम्बर मिलाने लगी।
नम्बर लग गया। उधर से किसी बड़ी उम्र की औरत की आवाज आयी-
"हेलो!"
"दीपक से बात कराइये!" रूपा ने कहा।
"वह तो दो महीनों से घर नहीं आया।"
"आखिरी बार कब घर आया था?"
"दो महीने पहले गया था घर से। उसके बाद वह नहीं आया। दस-बारह दिन में एक बार फोन कर लेता है।"
"आखिरी फोन उसका कब आया था?"
"दस दिन हो गए।"
"तुम कौन हो?" रूपा ने पूछा।
"उसकी माँ। लेकिन मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।"
रूपा ने फोन बंद कर दिया।
दीपक का इस तरह अचानक गायब हो जाना चिंता वाली बात थी।
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दीपक की हालत बुरी थी। कपड़े फटे से शरीर पर झूल रहे थे। बदन पर जगह-जगह जख्म और यातनाओं के निशान थे। निचला होंठ सूजकर फूला हुआ था। एक आँख के आस-पास भी घूँसा लगने की वजह से नीला सा निशान उभरा दिखाई दे रहा था।
फ़टी पैंट में से अंडरवियर झलक रहा था। उसके हाथ-पाँव बंधे हुए थे। आँखें बंद थीं। फर्श पर टेढ़ा सा पड़ा हुआ था वह।
देवली ने कमरे में प्रवेश किया और उसके कूल्हों पर जोरदार ठोकर मारी।
दीपक के होंठों से कराह निकली। उसने आँखें खोली। पपोटे भारी हुए पड़े थे।
"बोल क्या इरादा है तेरा? बहुत हो गया। अब तेरे को हम और नहीं सह सकते।" देवली गुर्रा उठी।
तभी बुढ़िया ने भीतर प्रवेश किया और हड़बड़ाकर बोली-
"छोड़ो भी। अब क्या इसकी जान ही ले लोगे।"
"तुम चुप रहो।"
"क्यों चुप रहूँ? मेरे घर में तुम लोग यह सब नहीं कर सकते।"
उसी पल जगत पाल ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा-
"तेरे को भी बांधकर एक कोने में डाल दें?"
"तू मेरे को बाँधेगा। मैं तेरी मौसी हूँ।"
"मौसी है तो मौसी बनकर रह। हमारे काम में मत आ। बढ़िया सी चाय बना ला हमारे लिये।"
"यह सब ठीक नहीं हो रहा है। तुम...।"
"आज यह मामला खत्म हो जाएगा।" जगत पाल ने कहा।
"यह मुँह नहीं खोलेगा तो कैसे बात बन जाएगी?"
"बात बनेगी।"
"मैं भी तो जानूँ।"
"या तो यह मुँह खोलेगा, या फिर हमारे हाँथों से अपना गला कटवायेगा।" जगत पाल कठोर स्वर में बोला।
"राम-राम-राम। कैसी बुरी बात करता है तू।" कहने के साथ ही वेग बाहर निकल गयी।
नीचे पड़ा दीपक आँखें खोले उन्हें देख रहा था।
"अपना मुँह बन्द रखकर तीन दिन तूने हमारे सब्र का इम्तेहान ले लिया।" देवली गुर्रायी, "लेकिन आज तेरे को मुँह खोलना ही होगा। हम फैसला ले चुके हैं कि तूने मुँह नहीं खोला तो तेरे को खत्म करके, तेरे दूसरे साथी को पकड़ लायेंगे। जो जानकारी हम चाहते हैं, वह हमें बता देगा। तूने अपनी जान बचानी है तो मुँह खोल दे।"
दीपक कराह कर सीधा लेटा। हाथ-पाँव बंधे होने की वजह से उसे बहुत परेशानी हो रही थी। अब उसमें तकलीफ सहने की हिम्मत नहीं बची थी। तीन दिन उसके नरक जैसे बीते थे।
"देवली!" जगत पाल सिगरेट सुलगाकर बोला, "वक़्त खराब मत कर। इसका गला काट। इसे बोरे में भरकर डिग्गी में डालकर कहीं फेंक देते हैं और आते वक्त इसके दूसरे साथी को पकड़ लाते हैं।"
देवली ने कठोर निगाह से जगत पाल को देखा।
"मंजूर?"
"ठीक है। तू इसका गला काट। मैं उधर से बोरा लाती हूँ। यह हमारे काम का नहीं है।"
जगत पाल ने एक तरफ पड़ा चाकू उठाया। तभी दीपक हाँफते हुए कह उठा-
"मुझे मत मारना।"
"जिंदा रहना चाहता है तो तुझे हमारी बातों का जवाब देना होगा।" देवली ने दाँत भींच कर कहा।
दीपक थक चुका था इन सब बातों से। अब और हिम्मत नहीं बची थी तकलीफ सहने की।
"ठीक है। बताता हूँ।" दीपक सूखे स्वर में बोला, "मुझे मारोगे तो नहीं?"
"नहीं। तब तेरे को छोड़ देंगे।"
तभी बुढ़िया भीतर आती कह उठी-
"चिंता मत कर। मैं गवाह हूँ, यह तेरे को छोड़ देंगे। जो यह पूछते हैं बता और जा यहाँ से। मैं भी तंग आ चुकी हूँ।"
दीपक ने दो गहरी साँसें ली फिर बोला-
"मेरे हाथ-पाँव खोलो।"
जगत पाल ने देवली को देखा। देवली के सहमति से सिर हिलाने पर जगत पाल आगे बढ़ा और हाथ में पकड़े चाकू से उसके हाथ-पाँव के बंधन काट दिए।
दीपक ने राहत की साँस ली और उठकर बैठ गया।
"शाबाश बेटा!" बुढ़िया कह उठी, "अब बता दे इन्हें सब कुछ और उसके बाद यूँ नहीं जाना तू। नहा-धो लेना। तब तक मैं खाना बना दूँगी। खाना खा कर जाना और कभी-कभी आ जाना, मेरे हाथ का खाना खाने।"
देवली कुर्सी पर बैठते कह उठी-
"मुझपर नजर क्यों रख रहे थे तुम लोग?"
चंद पल चुप रहकर दीपक थके स्वर में बोला-
"सावधानी के तौर पर, तुम पर नजर रख रहे थे। कुछ भी खास बात नहीं थी।"
"सावधानी के तौर पर?" देवली की निगाह दीपक पर थी, "खुलकर बताओ। कैसी सावधानी? चक्कर क्या है?"
"मेरा नाम दीपक है और बाकी दो का महेश और रंजन।"
"जो विमान पर उस दिन गया था, वह कौन था?"
"रंजन।"
"ठीक है।" जगत पाल ने कहा, "अब सारी बात बोलो।"
"उसके बाद मुझे जाने दोगे न?"
"हाँ!"
दीपक ने गहरी साँस ली फिर बोला-
"रूपा नाम की युवती, अजय वालिया को बर्बाद करना चाहती है।"
"रूपा?" देवली ने आँखें सिकुड़ी, "यह तो वालिया की पत्नी है।"
"वही।"
देवली के चेहरे पर अजीब से भाव आ ठहरे।
"वह वालिया को बर्बाद करना चाहती है?" देवली असहज दिखाई देने लगी, "तो उसने वालिया से शादी क्यों की?"
"यह उसकी प्लानिंग का हिस्सा है।"
देवली के होंठ भिंच गए।
"इसे पूरी बात कह लेने दो देवली।"
"तुम चुप रहो। मुझे बात करने दो। ये मेरा मामला है।" देवली बोली, "वालिया की इमारतें भी उसने उड़ाई?"
"उसके कहने पर हम तीनों ने उड़ाई। मेरे साथ महेश और रंजन थे।"
"यह तो बहुत गंभीर बात है।" जगत पाल शांत स्वर में बोला।
"मुझपर क्यों नजर रख रहे थे?"
"क्योंकि वालिया तुम्हारे पास अक्सर आता था। रूपा ने कहा था कि वालिया के खास लोगों पर भी नजर रखी जाए। तुम्हारे पास यह जगत पाल भी आया। इसके बारे में पता चला कि यह कानपुर का नामी बदमाश है तो फिर तुम दोनों पर नजर रखना जरूरी हो गया कि कहीं मौके पर तुम लोग हमारा खेल न बिगाड़ दो।"
"मेरे बारे में क्या जाना?" देवली ने पूछा।
"यही कि वालिया तुम्हारे पास आता है। जगत पाल तुमसे मिलता है। इसके अलावा तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानते।"
देवली का चेहरा धधक उठा था। जगत पाल सतर्क नजर आ रहा था।
"रूपा कौन है?"
"यह बात हम तीनों में से कोई नहीं जानता।"
"यह कैसे हो सकता है!"
"मैं सच कह रहा हूँ।"
"मैं नहीं मानती कि तुम रूपा के बारे में कुछ नहीं जानते। तुम तीनों उसके लिए काम करते हो।"
"हम तीनों भी एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते।"
"क्या मतलब?"
"रूपा ने अपने काम के लिए हम तीनों को अलग-अलग चूना और इकट्ठा किया। ये बात उसने पहले ही कह दी थी कि हम लोग उसका कहा काम करने की तरफ ध्यान दे। एक-दूसरे के बारे में जानने की चेष्टा न करें। काम के बाद हमें दोबारा अलग हो जाना है। किसी ने किसी के साथ मिलना भी नहीं है। एक-दूसरे को पहचानना भी नहीं है।"
"तुम तीनों ने मानी यह बात?"
"हाँ, क्योंकि रूपा ने हमें इन कामों का काफी ज्यादा पैसा दिया है। जितना माँगा उससे ज्यादा।"
"रूप असल में कौन है, कहाँ रहती है वो?"
"यह हम तीनों को नहीं मालूम।"
"यह सब वो क्यों कर रही है? वालिया को क्यों बर्बाद करने पर लगी है।"
"उसने इस बारे में हमें कुछ नहीं बताया।"
"रूपा ने वालिया को फँसाया अपने जाल में?" देवली का चेहरा कठोर हुआ पड़ा था।
"हाँ!"
"मुझसे ज्यादा खूबसूरत है वो?"
"कह नहीं सकता। शायद ज्यादा ही हो।"
दीपक ने जगन्नाथ सेठी से वास्ता रखती बात जरा भी नहीं बताई थी। वह नहीं चाहता था कि उसके मुँह खोलने की वजह से रूपा का ज्यादा काम खराब हो।
तभी जगत पाल ने कहा-
'रूपा का चरित्र न समझ आने वाला है। उलझन भरा है।"
"कैसे?" देवली ने जगत पाल को देखा।
"आमतौर पर लड़कियाँ किसी अमीर को फँसा कर उससे शादी करती हैं कि उसकी दौलत से जिंदगी भर मजे लेगी। जबकि रूप ने उससे शादी की, उसे बर्बाद करने के लिए। अजीब बात है यह।"
"पुरानी दुश्मनी होगी।" कहकर देवली ने दीपक की तरफ देखा।
"मुझे नहीं पता।" दीपक ने कहा।
"जो यह सब कर रही है, उसके पीछे जरूर कोई खास बात होगी।" देवली गंभीर और गुस्से में थी।
दीपक बड़ी-बारी दोनों को देख रहा था।
जगत पाल ने दीपक से पूछा-
"यह सब काम करने के लिए रूपा ने तुम तीनों को क्या दिया?"
"तीस-तीस लाख।"
"तो एक करोड़ तुम तीनों पर खर्च किया। वालिया की इमारतें उड़ाने में भी खर्चा हुआ होगा।"
"साठ लाख के करीब।"
"मतलब की वालिया को बर्बाद करने के लिए वह अपने पल्ले से ढेड़ करोड़ से ज्यादा खर्च कर चुकी है।" जगत पाल ने कश लेकर कहा, "मामला कुछ ज्यादा ही टेढ़ा नजर आ रहा है मेरी जान।"
"तू मुझे मेरी जान मत कहा कर।" देवली ने उसे घूरा।
"नाराज हो गयी।" जगत पाल हँसा, "अपनी जान को, अपनी जान नहीं कहूँगा तो क्या कहूँगा?"
"तूने प्रताप को मारा है इसलिए अब तू मुझे अच्छा नहीं लगता।"
"मैंने नहीं मारा उसे। मुझे क्या जरूरत थी उसे मारने की। वो तो...।"
"तूने ही मारा है उसे।"
"तेरा दिमाग खराब है जो ऐसा सोचती है।"
देवली ने दीपक को देखा।
"रंजन दिल्ली क्यों गया है?" जगत पाल ने पूछा।
"कुछ काम था उसे।"
"अपना या रूपा का?"
"पता नहीं। रंजन ने उस बारे में कुछ नहीं बताया।" दीपक जगन्नाथ सेठी का सारा मामला ही गोल कर गया था, "मैंने सब कुछ बता दिया है। अब तो मुझे जाने दो। छोड़ दो मुझे।"
देवली और जगत पाल की नजरें मिलीं।
"कुछ और पूछना है तो पूछ लें।" जगत पाल बोला।
सोचों में डूबी देवली ने दीपक से कहा-
"रूपा, वालिया को बर्बाद करना चाहती है इसलिए उससे शादी की। उसकी इमारतों को तबाह कर दिया जिसमें वालिया का अरबों रुपया लगा था। यह सब काम तो वह वालिया से शादी किये बिना भी कर सकती थी।"
दीपक ने सहमति से सिर हिला दिया।
"तो फिर उसने शादी क्यों की?"
"मैं नहीं जानता?"
"इसका मतलब अभी रूपा की इच्छा पूरी नहीं हुई। वह अभी बहुत कुछ करना चाहती है, तभी उसने वालिया से शादी की।"
दीपक ने कुछ नहीं कहा।
"बता, रूपा और क्या करने का इरादा बनाये हुए है?"
"मैं नहीं जानता।"
"झूठ मत बोल। तेरे को सब पता है। रूपा ने तुम लोगों को अपने इरादों की जानकारी अवश्य दी होगी।"
"नहीं दी!"
"पक्का?"
"हाँ! वह अचानक ही आगे काम करने को कहती है।" दीपक ने बताया।
"अभी रूपा तुम लोगों से और भी काम लेना चाहती है?" देवली ने पूछा।
"हमें उसने जाने को नहीं कहा तो जाहिर है कि वह कोई और काम भी लेगी।"
देवली कुर्सी से उठी और जगत पाल से कह उठी-
"मुझे इससे और कुछ नहीं पूछना।"
"तो चल, इसे बाहर कहीं रास्ते में छोड़ देंगे।" जगत पाल मुस्कुराया।
"इसका हाथ-मुँह धुलवा। अपने कपड़े दे इसे पहनने को। तभी यह हमारे साथ बाहर जाने के लायक होगा।"
तभी बुढ़िया ने भीतर प्रवेश किया और दीपक से कह उठी-
"कभी-कभी आते रहना बेटा।"
दीपक ने गहरी साँस ली और उठ खड़ा हुआ।
■■■
देवली ने कार ड्राइव की थी। जगत पाल पीछे वाली सीट पर दीपक के साथ बैठा था और रास्ते में हल्की-फुल्की बातें करता रहा था। जबकि दीपक इन दोनों से पीछा छुड़ाने पर व्याकुल था और कई बार कह चुका था कि उसे उतार दिया जाए। परन्तु जगत पाल उसे हर बात पर कहता कि कुछ आगे जाकर उसे उतार देंगे।
फिर देवली ने सड़क किनारे पेड़ों के बीच कार ले जा रोकी
"यह कहाँ ले आये मुझे?" दीपक ने कहा।
"यहाँ से तुम जा सकते हो। टैक्सी ले लेना।"
"किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर उतारते जहाँ से टैक्सी मिल जाती।"
"चल उतर जल्दी कर।"
दीपक ने दरवाजा खोला और बाहर निकलकर दरवाजा बंद किया। दीपक के शरीर पर जगत पाल के ही कपड़े थे। होंठ सूजा हुआ और आँख के पास सूजन।
"जा बेटे, ऐश कर!"
दीपक वहाँ से आगे बढ़ गया।
जगत पाल ने कपड़ों में फँसी रिवॉल्वर निकाली और देवली से बोला-
"मेरी जान, तेरी खातिर मैं इसे गोली मारने जा रहा हूँ।"
"अहसान क्यों चढ़ाता है। मत मार।"
"नहीं मरूँगा तो यह रूपा को तेरे बारे में बता देगा। वह सावधान हो जाएगी।"
"तूने पहले भी कईयों को मारा है।"
"वह सब अपने लिए किया था। लेकिन किसी दूसरे के लिए मैं पहली बार किसी को मुफ्त में मार रहा हूँ।"
दीपक कई कदम दूर जा चुका था। इस बीच उसने दो बार पीछे मुड़कर भी देखा।
"तूने कहना क्या चाहता है?" देवली कह उठी।
"तेरे को कानपुर वापस ले जाना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि हम दोनों के बीच पहले वाला वक़्त वापस लौट आये।"
"तूने प्रताप को न मारा होता तो मैं सोचती इस बारे में।" देवली ने शांत स्वर में कहा। नजरें दीपक पर थी।
"वो बात पुरानी हो गयी है। अब की बात कर। तेरी और मेरी बात।"
"सोचूँगी।" कहने के साथ ही देवली ने मध्यम सी रफ्तार में कार आगे बढ़ा दी।
आगे दीपक जा रहा था।
"तेरे को गोली चलाने में डर लग रहा है तो रिवॉल्वर मुझे दे दे।" देवली बोली।
"तेरे खातिर तो मैं तोप चलाने का हौसला रखता हूँ।"
"तो तैयार हो जा।"
कार दीपक के पास पहुँच चुकी थी। वह सुनसान जगह थी। वहाँ कोई और नजर नहीं आ रहा था। कार को अपनी तरफ आते पाकर दीपक ठिठका और कार को देखने लगा। फिर कार पास आ गयी। उसके बाद जो हुआ, उसकी तो कल्पना भी दीपक ने नहीं कि थी।
पीछे वाली सीट पर बैठे जगत पाल ने एक के बाद एक दो गोलियाँ उस पर चलाई। एक गोली उसकी छाती में लगी, दूसरी उसके माथे पर। इस पल देवली ने कार को तेजी से दौड़ा दिया।
जगत पाल ने रिवॉल्वर वापस अपने कपड़ों में फँसाई और बड़बड़ा उठा-
"नाल बहुत गर्म हो गयी।"
पाँच मिनट बाद ही उनकी कार भीड़ भरे इलाके में पहुँच गयी। देवली ने एक जगह कार रोकी तो जगत पाल उतरकर आगे आ बैठा। कार पुनः आगे बढ़ गयी। जगत पाल ने देवली को देखा जो कि गहरी सोचों में डूबी थी।
"कहाँ गुम हो गयी तू?"
"वालिया के बारे में सोच रही हूँ।"
"छोड़ उसे। अब उसमें कुछ नहीं बचा।" जगत पाल हँस पड़ा।
देवली ने जगत पाल को घूरा।
"ऐसे क्या देखती है?"
"वालिया शरीफ आदमी है। मुझे अच्छा लगता है वह।"
"मैं तेरे को कानपुर ले जाना चाहता हूँ।"
देवली खामोशी से कार ड्राइव करती रही। चेहरे पर सोच नाच रही थी।
जगत पाल ने सिगरेट सुलगा ली।
"मैं तेरे साथ कानपुर चलूँगी।" देवली कह उठी।
"सच मेरी जान!" जगत पाल मुस्कुरा पड़ा।
"हाँ! फिर सब कुछ वैसे ही होगा, जैसे हम पहले रहा करते थे।" देवली शांत थी।
"तूने तो दिल खुश कर दिया मेरा। बोल कब?"
"लेकिन मैं वालिया को इस तरह मुसीबत में छोड़कर नहीं जा सकती जगत पाल।"
"वह तेरा पति तो नहीं।"
"मैं उसके साथ एक साल से हूँ। वह मेरे को अच्छा लगता है, कई बार तेरे को बता चुकी हूँ। वह शरीफ आदमी है, रूपा उसके पीछे हाथ धोकर पड़ी है। वो उसे पूरी तरह बर्बाद कर देगी। शायद जान भी ले ले उसकी और वालिया को खबर तक नहीं होगी कि इन सब के पीछे रूपा का हाथ है। यह मामला ठीक करके, तेरे साथ कानपुर चलूँगी।"
"वादा?"
"वादा।" देवली ने गंभीर स्वर में कहा, "इस काम में तूने मेरा साथ देना होगा।"
"ये भी कोई कहने की बात है।"
"मैं ये सोवह रही हूँ कि आखिर रूपा क्यों वालिया के पीछे पड़ी हुई है।" देवली बोली।
"खास वजह होगी। वरना वो पागल तो है नहीं।"
"जरूर खास बात होगी। वालिया ने कभी कोई ऐसी गड़बड़ की होगी, जो रूपा को अच्छी नहीं लगी। वह गड़बड़ कुछ भी हो सकती है। खास बात यह है कि वालिया पहले से रूपा को नहीं पहचानता। वालिया ने रूपा को पहली बार तब ही देखा जब वह उसके सामने आई। ऐसे में वालिया कदम-कदम पर रूपा से धोखा खायेगा और वालिया को इस बात का अहसास भी नहीं होगा।"
"मेरे ख्याल से तुम्हें वालिया को सब कुछ बता देना चाहिए।" जगत पाल ने कहा।
"वालिया मेरी बात का यकीन करेगा?"
"जरूर करेगा।" जगत पाल ने कहा, "उसे यकीन दिलाने के लिए महेश अभी भी उसी फ्लैट पर होगा। महेश को पकड़ कर वालिया के सामने कर देंगे। देखेंगे साला कैसे सच नहीं बोलेगा।"
देवली ने सड़क किनारे कार रोकी और जगत पाल को देखकर बोली।
"सीधे-सीधे रूपा पर हाथ डालें क्या? उसे पकड़कर मामला ही खत्म कर देते हैं।"
"वालिया रूपा से यह जरूर जानना चाहेगा कि आखिर रूपा यह अब क्यों कर रही है?"
"हाँ! वह जानना चाहेगा।"
"तो वालिया का मामला वालिया को ही निपटने देते हैं। हम दूर रहकर जितनी सहायता कर सकते हैं, वह कर देंगे।"
देवली ने फोन निकाला और वालिया के फोन का नम्बर मिलाने लगी।
एक-दो-तीन बार वालिया का नम्बर मिलाया। परन्तु वालिया के फोन का स्विच ऑफ ही मिला।
"उसका फोन बंद है।"
"फिर क्या करें?"
"उसके बंगले पर नजर रखनी होगी कि कब वह बाहर निकले और...।"
"क्या पता वह बंगले में हो ही नहीं।"
"वह बंगले में होगा। फोन बंद है तो उसे हर हाल में घर में ही होना चाहिये।" देवली बोली, "हम वालिया के बंगले पर नजर रखेंगे और उसके बाहर निकलने का इंतजार करेंगे।"
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अजय वालिया रात ड्रिंक करने के बाद गहरी नींद सोया। अगले दिन सुबह उठा तो खुद को हल्का महसूस कर रहा था। वह जानता था कि उसे अब ऐसा करना है कि जो उसकी जिंदगी बना देगा।
जगन्नाथ सेठी की हत्या करने आया था वह दिल्ली। ताकि जगन्नाथ सेठी की दौलत, उसकी बेटी रूपा को मिले और रूपा के पास जो होगा, वह उसी का ही तो होगा। रूपा ने कहा था कि वह जीते-जी अपने पापा का चेहरा नहीं देखना चाहती। उसे भी इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बाप-बेटी आपस में मिलते हैं या नहीं। उसे तो दौलत से मतलब था, ताकि अपने नुकसान को पूरा कर सके। शानदार ढंग से जिंदगी जी सके। गरीब बनकर जीना, उसके बस के बाहर की बात थी। क्योंकि अमीरी की आदतें उसके भीतर घर कर चुकी थीं। सिर्फ एक हत्या और उसका फिर से दौलत-मंद बन जाना।
वालिया चाहता तो किसी को पाँच-दस लाख देकर जगन्नाथ सेठी की हत्या करा सकता था। लेकिन ऐसा करने पर उसका राज खुल जाने का खतरा था। जो जगन्नाथ सेठी की हत्या करता वह जिंदगी भर उसे ब्लैकमेल कर सकता था। इसलिए वालिया ने यह काम खुद ही करने की सोची थी।
रात उसने प्राइवेट जासूस से जगन्नाथ सेठी के बारे में रिपोर्ट ली थी। तीन लाख उसे उसी वक़्त दे दिए थे। वह अंधेरे में उससे मिला था। वालिया को पूरा भरोसा था कि वह उसे रोशनी में देखेगा तो पहचान नहीं पायेगा। उस रिपोर्ट में इस बात का पूरा ब्यौरा था कि जगन्नाथ सेठी अक्सर कहाँ-कहाँ और कब आता-जाता है। रात सोने से पहले कागजों में दर्ज पूरी रिपोर्ट को उसने कई-कई बार पढ़ा था और सब कुछ उसे याद भी हो गया था।
रात उसने अपना पुराना नम्बर बन्द करके, नया मोबाइल कनेक्शन लिया था। वह नहीं चाहता था कि इस काम के दौरान उसे फ़ोन आते रहें और वह डिस्टर्ब हो। परन्तु उसका फोन न मिलने पर रूपा परेशान न हो, इस कारण उसने रूपा को अपना नया फोन नम्बर दे दिया था और उसे यही बताया कि रात बारह बजे तक वह चंडीगढ़ पहुँच जाएगा और कल उस व्यक्ति से मिलेगा जिससे पैसे मिलने की आशा है।
वह बसंत विहार के एक गेस्ट हाउस में ठहरा था, जो कि ज्यादा महंगा नहीं था। वालिया जानबूझकर गेस्ट हाउस जैसी जगह में ठहरा था कि किसी की निगाह खामखाह उस पर न टिक सकें।
नाश्ता करने के पश्चात तैयार होकर वह ब्रीफकेस थामे गेस्ट हाउस से निकला और पैदल ही आगे बढ़ गया। उसकी निगाह हर तरफ जा रही थी। जगन्नाथ सेठी की हत्या करने के लिए उसके पास कोई भी हथियार नहीं था। कहीं से हथियार का इंतजाम करना था उसे।
दो किलोमीटर चलने के पश्चात उसने एक ऑटो वाले को रोका-
"किधर चलना है साहब जी?" ऑटो वाले ने पूछा।
"किसी लोहार के पास ले चलो।" भीतर बैठते वालिया बोला।
"लोहार?" ऑटो वाले ने उसे देखा।
"हाँ! मैंने कई बार उन्हें सड़क के किनारे बैठा देखा हैं।"
"समझ गया। परन्तु वह शायद इस तरफ नहीं मिलेंगे। यहाँ से कुछ दूर...।"
"जहाँ भी हो, चलो...।"
ऑटो वाले ने ऑटो आगे बढ़ा दिया।
बाहर नजरें दौड़ाता वालिया सोच रहा था कि अगर यह काम करने के लिए देवराज चौहान तैयार हो जाता तो उसे भाग-दौड़ न करनी पड़ती। परन्तु उसे भरोसा था कि वह इस काम को ठीक ढंग से निपटा लेगा। उसका सुनहरा भविष्य जगन्नाथ सेठी की मौत पर ही निर्भर था। तभी वह रूपा को मिलने वाली जायदाद का मालिक बन सकता था।
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ऑटो वाला, वालिया को सड़क किनारे बैठे लोहारों के पास छोड़कर चला गया। वहाँ 5-6 लोहार कतार में बैठे थे और अपने औजार बनाने में व्यस्त थे। उनकी औरतें उनके काम में सहायता कर रही थीं। सड़क पर से भरी ट्रैफिक निकल रहा था। शोर कानों में पड़ रहा था।
"कहिए साहब!" एक लोहार उसे पास आया पाकर बोला, "क्या चाहिए?"
"एक चाकू!" वालिया शांत स्वर में बोला, "सवा इंच चौड़ा, आगे से नुकीला। दोनों तरफ धार हो। कम से कम दस इंच लम्बा और पकड़ने के लिए हत्था आसान सा हो।"
"साब जी, यह तो छुरा हो गया। चाकू तो पतला और छोटा होता है।" वो बोला।
"छुरा ही सही। मुझे ये भी चाहिए।"
"बढ़िया का 300 और चालू किस्म का चाहिए तो 200 लगेगा।" लोहार ने कहा।
"बढ़िया बनाओ। 300 दूँगा। कितनी देर लगेगी?"
"एक-ढेड़ घण्टा तो लग ही जायेगा।"
"बनाओ। मैं यही तुम्हारे पास बैठूँगा।"
"बैठो जी बैठो। ओ राम, मूढ़ा लेकर आ, साब जी के बैठने के लिए।"
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आज सोमवार था और प्राइवेट जासूस मेजर की दी गयी रिपोर्ट के मुताबिक जगन्नाथ सेठी, शाम पाँच बजे वसंत विहार के गोल्फ कोर्स, गोल्फ खेलने जाता था। वालिया को जगन्नाथ सेठी के बारे में सब कुछ याद हो चुका था।
वालिया साढ़े चार बजे ही गोल्फ कोर्स में पहुँच गया। भीतर सिर्फ मेम्बर ही जा सकते थे या फिर मेम्बरों के साथ आये मेहमान।
वालिया की भीतर जाने की इच्छा भी नहीं थी। उसने जगन्नाथ सेठी की हत्या करनी थी, जो कि बाहर भी की जा सकती थी। रिपोर्ट के मुताबिक जगन्नाथ सेठी ने डेढ़ घण्टा गोल्फ खेलना था। उसके बाद उसने अपने बंगले पर पहुँचना था। फिर बंगले से रात आठ बजे कार पर निकलना था और धौला कुआं स्थित एक क्लब में जाकर व्हिस्की पीना और ताश खेलनी थी। उसके बाद वहाँ से ग्यारह बजे निकलकर वापस अपने बंगले पर पहुँच जाना था। उसकी कार को ड्राइवर चलाता था। जगन्नाथ सेठी को कभी खुद कार चलाते नहीं देखा गया था।
सब बातें याद करने के बाद वालिया ने गोल्फ कोर्स की पार्किंग में नजरें दौड़ाई, जो कि काफी खुली जगह थी। दो-तीन कारें पहले से ही वहाँ पर थीं। जगन्नाथ सेठी की कार यहीं कहीं आकर रुकेगी। कहाँ पर रुकती होगी उसकी कार। पार्किंग के पार्क में एक माली पौधों को काटने-छाँटने में व्यस्त था।
वालिया ने कमीज के भीतर पैंट में फँसा रखे छुरे को टटोला। फिर उसने अपने आपसे कहा कि वो यह काम आसानी से कर सकता है। छुरा मारकर किसी की हत्या करना कठिन काम नहीं है।
उसके बाद... ओह, बहुत भूल हो गयी उससे। यहाँ से भागेगा कैसे?
कार तो उसके पास है नहीं।
छुरा मारकर भागने के लिए उसे किसी वाहन की जरूरत थी, वरना उसे कोई भी पकड़ लेगा। उसका ड्राइवर ही उसे पकड़ लेगा। उसका चेहरा भी पहचाना जा सकता है। कितनी बड़ी गलती कर रहा था वह। छुरे के साथ-साथ उसे बाकी इंतजाम भी करने चाहिए थे। उसने तो छुरा भी तैयार नहीं की।
वालिया बेचैन हो गया कि आज काम नहीं हो पायेगा। जगन्नाथ सेठी को कुछ किया तो फँस जाने का खतरा है। फौरन भाग जाने के लिए कार का पास में होना जरूरी है। तो आज, आज कम से कम वो जगन्नाथ सेठी का चेहरा देख तो लेगा, परंतु उसे बतायेगा कौन की फला ही जगन्नाथ सेठी है।
वालिया उस छोटे से पार्क में काम कर रहे माली के पास पहुँच गया।
"तुम यहीं काम करते हो?" वालिया ने पूछा।
"जी बाबू जी।"
"नाम क्या है तुम्हारा?"
"बनारसी।"
"यहाँ पर जगन्नाथ सेठी आते हैं सोमवार को, रविवार को और शुक्रवार को?"
"जी!" माली ने काम छोड़कर कहा, "मैं जानता हूँ उन्हें। बहुत अच्छे इंसान हैं। सौ, दो सौ यूँ ही दे जाते हैं।"
"जब वह आये तो मुझे बताना। मैं उन्हें पहचानता नहीं हूँ।" वालिया वहीं घास पर बैठते कह उठा।
"उनसे आपको काम है बाबूजी?"
"हाँ!" वालिया ने कहा और सौ का नोट निकालकर उसे थमा दिया।
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जगन्नाथ सेठी पचपन बरस का सामान्य कद-काठी का व्यक्ति था। उसे देखकर दौलत की महक आती थी। क्लीन शेव चेहरा। सिर पर छोटे-छोटे सफेद-काले बाल। गोल्फ कोर्स जब पहुँचा तो उसने आधी बाँह की टी-शर्ट के साथ पैंट पहन रखी थी। पाँवों में स्पोर्ट्स शू थे। ऑक्टिविया कार में वहाँ आया था। साथ में तीस बरस का ड्राइवर था।
माली ने उस कार को देखते ही कहा-
"वो सेठ जी आ गए।"
वालिया की निगाह जगन्नाथ सेठी पर जा टिकी थी।
जगन्नाथ सेठी कार से बाहर निकला। वह मध्यम कद का था, जबकि रूपा लम्बी थी। वालिया ने सोचा कि रूपा अपनी माँ पर गयी होगी। उसे ऐसा लगा जैसे रूपा का चेहरा जगन्नाथ सेठी से मिलता है। ऐसा उसे इसलिए लगा क्योंकि वह मन ही मन जगन्नाथ सेठी को रूपा का पिता मानते हुए, दोनों में तुलना कर रहा है।
वह जगन्नाथ सेठी को अब जहाँ भी देखेगा पहचान लेगा। देखते ही देखते जगन्नाथ सेठी गोल्फ कोर्स के इमारत में प्रवेश कर गया।
"सेठ जी से आप मिले नहीं?" माली ने पूछा।
"जिससे मुझे मिलना है, वह यह नहीं है।" कहकर वालिया उठा और बाहर के गेट की तरफ बढ़ गया।
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