‘रविवार : उनत्तीस दिसम्बर
खबरदार शहरी हलाक
नई दिल्ली । शनिवार । 28 दिसम्बर ।
आज रात भाटी माइन्स के रास्ते के एक उजाड़ खंडहर में शिवनारायण पिपलोनिया नाम ने एक रिटायर्ड कालेज प्रोफेसर की गोलियों से छलनी लाश की बरामदगी के साथ कथित खबरदार शहरी की नाटकीय दास्तान नाटकीये तरीके से ही समाप्त हो गयी । पुलिस को वारदात की खबर वन्दना नाम की एक लड़की से मिली जिसे कि एक मैटाडोर वन पर सवार पांच गुन्डे तब सरेराह अगुवा करके ले गये थे जबकि वो अपने मंगेतर के साथ उसकी मोटर साइकल के पीछे बैठी हौजखास क्रासिंग की ट्रेफिक लाइट हरी होने का इन्तजार कर रही थी । युवक ने मैटाडोर वैन का पीछा करने की कोशिश की तो वैन वालों ने उसे टक्कर मारकर गिरा दिया जिसकी वजह से उसका सिर फट गया और बाई बांह की हड्डी टूट गयी । वो गुण्डे अपनी नापाक हरकतों में पूरी तरह कामयाब रहे होते अगर उनकी करतूत हमारे ‘खबरदार शहरी’ की निगाहों में न आ गयी होती जो कि पता नहीं किस जादू के जोर से हमेशा ऐन मौके पर ऐसी जगह प्रकट हो जाता था । हालात का जायजा ये ही बताता है खबरदार शहरी ने भाटी माइन्स के रास्ते के एक खंडहर तक उनका पीछा किया जहां कि उसमें और गुण्डों में जमकर गोलीबारी हुई जिसमें जहां खबरदारी शहरी ने पांच गुण्डों को मार गिराया, वहां खुद उसको अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा । एक नौजवान लड़की की जान और शील की रक्षा कथित खबरदार शहरी ने अपनी जान देकर की । किसी से लिफ्ट हासिल करके बड़ी कठिनाई से टेलीफोन तक पहुंची वन्दना द्वारा पुलिस कन्ट्रोल रूम में फोन किए जाने पर जब पुलिस मौकायेवारदात पर पहुंची तो उन्होंने कथित खबरदार शहरी के ड्राइविंग लाइसेंस और उसकी जेब से बरामद कुछ अन्य कागजात के जरिये ये जाना कि हतप्राण माडल-टाउन का रहने वाला शिवनारायण पिपलोनिया नाम का एक रिटायर्ड कालेज प्रोफेसर था । पुलिस ने पिपलोनिया के पास से एफ-चौदह मार्का, दस फायर करने वाली दो जर्मन रिवॉल्वरें बरामद की हैं जिसमें से एक खाली थी लेकिन दूसरी में अभी नौ हालो-प्वाइन्ट बुलेट्स मौजूद थीं । उन रिवॉल्वरों से बरामदी से ही पुलिस इस नतीजे पर पहुंची है कि मंगलवार पन्द्रह तारीख से जिन वारदातों की शुरूआत मजनू का टीला के इलाके में गोविन्द और हनीफ नामक दो व्यक्तियों के कत्ल के साथ हुई थी, वो आज रात खुद कातिल के कत्ल के साथ खत्म हो गयी । साथ ही ये भी स्थापित हो गया कि वो पिपलोनिया का वन मैन शो था । यानी कि वो तमाम कारनामे कसी ओवरकोट बिग्रेड के नहीं एक ही ओवरकोट वाले के थे जो कि पिपलोनिया था ।
जो पांच गुण्डे खबरदार शहरी का आखिरी शिकार बने । उनकी शिनाख्त हो चुकी है । वो पांचों हिस्ट्रीशाटर्स और नोन बैड कैरेक्टर्स निकले हैं ।
विमल ने देखा कि ‘सम्पादकीय’ जो कि अमूमन अखबार के मध्यवर्ती पृष्ठों में छपता था, उस रोज के अखबार में ‘खबरदार शहरी हलाक’ वाली खबर के पहलू में अखबार के सम्पादक भगत नारायण मिश्रा की बाई लाइन के साथ छपा था ।
उसने सम्पादकीय पढना आरम्भ किया ।
लिखा था :
खबरदार शहरी की मौत के साथ जैसे एक दन्तकथा का समापन हो गया । जैसे अविश्वसनीय और चौंका देने वाले उसके कारनामे थे, वैसे ही अविश्वसनीय तरीके से उसकी मौत हुई और चौंका देने वाली उसकी शख्सियत निकली । कौन सोच सकता था कि जुल्म और नाइन्साफी की टोह में रात-ब-रात अन्धेरी तारीक सड़कों पर विचरने वाला खबरदार शहरी एक उम्रदराज रिटायर्ड कालेज प्रोफेसर निकलेगा ! इस पंक्तियों के लेखक को व्यक्तिगत रूप से पिपलोनिया का परिचय प्राप्त था, पिपलोनिया उसका बचपन का दोस्त था लेकिन उसकी ऐसी सोच की उसे कभी भनक तक नहीं लगी थी । पिछले दिनों तकरीबन रोजाना मुलाकात के बावजूद इस पंक्तियों के लेखक को कभी ये इशारा तक नहीं मिला था कि उसका मक्खी तक मारने में नाकाबिल दोस्त अभी-अभी कत्ल करके आया था या कत्ल करने जा रहा था ।
खबरदार शहरी की मौत के बाद अब पुलिस और आम नागरिकों के सामने समान रूप से ये सवाल मुंह बाये खड़ा है कि खबरदार शहरी के कारनामों के परिणामस्वरुप पिछले दिनों जो क्राइम का रेट घटा था, क्या अब उसमें फिर इजाफा होने लगेगा ? क्या गुण्डे बदमाश अब उस दहशत से मुक्त हो जायेंगे जो कि खबरदार शहरी के कारनामों का सीधा नतीजा थी ? क्या अब उनकी हैवानी करतूतों का नंगा नाच फिर शुरू हो जायेगा ? अगर ऐसा होने वाला है तो इन पंक्तियों के लेखक को शिवनारायण पिपलोनिया उर्फ खबरदार शहरी की मौत का सख्त अफसोस है ।
पुलिस के उच्चधिकारियों ने इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि अकेला पिपलोनिया पांच खतरनाक गुण्डों से टक्कर ले सका । यहां हम ये कहना चाहते हैं कि जो शख्स इंसाफ के लिये लड़ता है, वो कभी अकेला नहीं होता उसका ईश्वर उसके साथ होता है, वन्दना जैसी जुल्म का शिकार होने से बाल-बाल बची युवतियों की दुआयें उसके साथ होती हैं ।
पिपलोनिया खत्म हो गया लेकिन उसके खत्म हो जाने के साथ उसकी परिकल्पना खत्म नहीं हो गयी । आदमी मर सकता है । खयाल नहीं मर सकता । शिवनारायण पिपलोनिया मर सकता है, ‘खबरदार शहरी’ नहीं मर सकता ।
हम ‘खबरदार शहरी’ की लम्बी उम्र की दुआ मांगते हैं ।
विमल ने एक गहरी सांस ली और फिर अखबार एक और उछाल दिया ।
फिर उसने अपने बॉस शिवशंकर शुक्ला के घर फोन किया ।
“मैं अभी पुलिस से मिल के ही आ रहा हूं ।” - शुक्ला ने बताया - “दस बजे पोस्टमार्टम होगा । ग्यारह बजे लाश मिल जायेगी । फिर बारह बजे निगमबोध घाट पर...”
“ठीक है ।” - विमल बोला ।
“कल सुबह वो मुझे आखिरी बार मिला था तो एक बड़ी अजीब बात बोल के गया था ।”
“क्या ?”
“कह रहा था कि उसकी अभिलाषा थी कि उसका अन्तिम संस्कार तुम्हारे हाथों हो, तुम उसे मुखाग्नि दो ।”
“कमाल है !”
“बाज लोगों को इलहाम हो जाता है अपनी मौत का ।”
“फिर भी कमाल है कि उन्होंने मेरा नाम इस सन्दर्भ में लिया ।”
“वो बहुत तनहा आदमी था । बीवी बच्चे आंखों के सामने आनन-फानन खत्म हो गये, और कोई होता-सोता था नहीं । तुम्हारे में कुछ भाया उसे जिसकी वजह से उसके मन में अनुराग और स्नेह पनपने लगा । जिन्दगी से हारा, तनहा आदमी ऐसे किसी आसरे का तलबगार होता ही है ।”
“लेकिन वो आसरा मैं !”
“अब जिन्दा होता तो बताता तुम्हारी ओर अपने खास झुकाव की कोई वजह ।”
“आपको उनकी वसीयत की खबर है ?”
“हां । कल उसी सिलसिले में तो आया था वो मेरे पास । जगतनारायण की गवाही डलवाकर लाया था और मेरी गवाही डलवाना चाहता था । वसीयत पर दो गवाहों के दस्तखत जरूरी होते हैं न ।”
“आपको मालूम है अपना वारिस उन्होंने किसे बनाया था ?”
“नहीं, भई । वसीयत पढी तो नहीं मैंने । जरूरत क्या थी । उसने गवाही को कहा मैंने डाल दी ।”
“शुक्ला साहब, वो अपना सब कुछ मेरे नाम छोड़ के गये हैं ।”
“ओह ! मुझे इस बाबत तभी सोचना चाहिये था जब वो अपना अन्तिम संस्कार तुम्हारे हाथों होने की बात कर रहा था ।”
“मैं बहुत दुविधा में हूं । समझ में नहीं आता कि...”
“छोड़ो । वो बातें फिर करेंगे ।”
“अच्छी बात है ।”
“निगमबोध पहुंच जाना ।”
“जरूर ।”
उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
तभी मुबारक अली वहां पहुंचा ।
“क्या खबर है ?” - विमल ने पूछा ।
“बढिया खबर है, बाप ।” - मुबारक अली एक कान से दूसरे कान तक मुस्कराता हुआ बोला ।
“अभी हिसार से ही आ रहा है ?”
“सीधा ।”
“क्या हुआ ?”
“वही जो तू होना मांगता था । साला सब फूंक दिया । तबाह कर दिया । अक्खा पोल्ट्री फार्म मरघट बना दिया । कुछ नहीं छोड़ा ।”
“तेरा कोई नुकसान ?”
“कोई नहीं । सुबू चार बजे हमला किया । सब साले घोड़े बेच के सोये पड़े थे । तनवीर अहमद से मिले विलायती हथियार बहुत काम आये । राकेट लां... लां...”
“लांचर । राकेट लांचर ।”
“हां । उसने तो कमाल ही कर दिया । बहुत तबाही मचायी । अपुन तो साला जरनैल बन गया उदर ।”
“बढिया !”
“बाप, पण...”
“क्या ?”
“रोकड़ा बहुत खर्च हुआ तेरा । वो अपना जात भाई, अपना तनवीर अहमद तो वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बहुत ही बेमुरब्बत निकला रोकड़े के मामले में । हुसैन साहब का हवाला न होता तो अल्लामारा कपड़े उतारने में कसर न छोड़ता ।”
“पैसे की क्या बात है, मियां ! सब गुरबख्शलाल से वसूल कर लेंगे ।”
“बरोबर बोला न, बाप ?”
“हां । बराबर बोला ।”
“फिर क्या वान्दा है !”
“गुरबख्शलाल तक खबर पहुंच गयी होगी ?”
“फौरन तो नहीं पहुंची होगी, बाप । खबर पहुंचाने को तो उदर कोई बचा ही नहीं । पण आखिरकार तो पहुंचनी ही है । अभी नहीं पहुंची होगी तो थोड़ी देर में पहुंच जायेगी जबकि रोजमर्रा के काम करने वाले उदर हाजिरी भरने आयेंगे ।”
“ठीक ।”
“बाप, अब खाने कू कुछ नाश्ता-पानी मंगा न ! पेट में तो साला एकदम चूहों का रेसकोरस बनेला है ।”
“अभी लो ।”
विमल ने रूम सर्विस को फोन किया और चार जनों के लिए ब्रेकफास्ट का आर्डर किया ।
उसके रिसीवर रखते ही बाहर से काल आ गयी ।
फोन योगेश पाण्डेय का था ।
“फोरन” - वो बोला - “एन सी बी के आफिस में आर के पुरम पहुंचो ।”
“क्या हुआ ?” - विमल तनिक बौखलाकर बोला ।
“आओगे तो मालूम होगा ।”
“आज तो रविवार है । खैरियत तो है ?”
“अभी है । आगे और हो जायेगी ।”
“यानी कि पहले खैरियत नहीं थी ?”
“अब सब कुछ फोन पर ही पूछोगे ?”
“आता हूं ।” - उसने रिसीवर क्रेडल पर रखा और मुबारक अली से सम्बोधित हुआ - “नाश्ता तुम्हीं करना, मियां । मुझे फौरन कहीं हाजिरी भरनी है ।”
“अली वली को साथ ले के जा ।”
“जरूरत नहीं ।”
“फिर भी साथ ले के जा ।”
“मियां, इमान से जरूरत नहीं । मैं टैक्सी में जाऊंगा और टैक्सी से लौटूंगा ।”
“लेकिन जहां जायेगा ?”
“वो सरकारी दफ्तर है । ढेर सारी सिक्योरिटी वाला ।”
“फिर भी...”
“जिद न कर, यार ! तू अभी वली के साथ बैठ के नाश्ता कर । मैं गया और आया ।”
मुबारक अली ने सन्दिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा ।
“मियां” - विमल बोला - “कोई खतरा दिखाई देगा तो मैं रास्ते से लौट आऊंगा फोन करके तुझे बुला लूंगा । ठीक ?”
मुबारक अली ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
***
योगेश पाण्डेय एन सी बी के हैडक्वार्टर में अपने ससुर के आफिस में अपने ससुर की कुर्सी पर बैठा हुआ था ।
“क्या बात है ?” - विमल ने पहुंचते ही पूछा ।
“अभी पता चलता है ।” - पाण्डेय बोला । उसने घन्टी बजाकर चपरासी को तलब किया और उससे बोला - “हवलदार खूबराम को बुलाकर लाओ ।”
चपरासी चला गया ।
दो मिनट बाद एक तीन फीती वाला वर्दीधारी हवलदार वहां पहुंचा । उसने पाण्डेय को सैल्यूट मारा ।
“खूबराम यहां लॉकअप का इन्चार्ज है ।” - पाण्डेय ने बताया - “गुरबख्शलाल का एक आदमी आज सुबह इससे मिला था और पांच हजार एडवांस और पांच हजार काम हो जाने के बाद देने की एवज में उसने उसे लाकअप में बन्द सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा तक एक रुक्का पहुंचाने के लिए तैयार किया था । खूबराम ईमानदार आदमी है । इसने गुरबख्शलाल के आदमी को तो हामी भर दी लेकिन उसके पीठ फेरते ही सारे किस्से की खबर अपने आला अफसर को कर दी । इसके आला अफसर के जरिये खबर मेरे तक पहुंची तो मैं यहां दौड़ा आया ।”
“क्या लिखा है रुक्के में ?” - विमल उत्सुक भाव से बोला ।
“खुद देख लो । खूबराम, वो रुक्का साहब को दो ।”
खूबराम ने कई बार मोड़ के पोस्टेज स्टैम्प के नाप तक पहुंचाया हुआ एक कागज विमल को सौंप दिया ।
विमल ने कागज को खोलकर सीधा किया और उस पर लिखी इबारत पढी । लिखा था :
लूथरा,
अगर अपनी बीवी की खैरियत चाहता है तो एक कागज पर कौल की बीवी का पता लिख के कागज लाने वाले को लौटा दे ।
विमल ने कागज को पूर्ववत् लपेटकर पाण्डेय के सामने डाल दिया और प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“कल तुम लूथरा की बड़ी हिमायत कर रहे थे” - पाण्डेय बोला - “और चाहते थे कि उसके साथ रियायत से पेश आया जाये । अब तुम्हारे से मेरा सवाल ये है कि अगर हमारा हवलदार खूबराम ईमानदारी न दिखाता अगर रुक्का लूथरा तक पहुंच जाता तो क्या वो अपनी बीवी की सलामती की खातिर तुम्हारे दुश्मनों को तुम्हारी बीवी का पता न बता देता ?”
“अभी आजमा लेते हैं ।” - विमल बड़े इत्मीनान से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“ये रुक्का लूथरा तक पहुंच जाने दो । लौटेगा भी तो ये खूबराम के ही जरिये । फिर लूथरा की जो नीयत होगी वो सामने आ जायेगी । मालूम हो जायेगा कि उसकी कल वाली चिट्ठी तुम्हारे लफ्जों में, महज दुकानदारी थी या उसके मन में वाकई पश्चाताप की कोई भावना है ।”
पाण्डेय कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“खूबराम” - फिर वो हवलदार से सम्बोधित हुआ - “तू समझ गया तूने क्या करना है ?”
खूबराम ने सहमति में सिर हिलाया ।
“जैसे वो बदमाश चाहता था, ऐन वैसे ही ये चिट्ठी तू लूथरा तक पहुंचा दे और जो जवाब मिले उसको लेकर उलटे पांव यहां आ ।”
“जी, जनाब ।”
खूबराम वहां से विदा हो गया ।
पीछे पाण्डेय ने अपने और विमल के लिए काफी मंगायी ।
दोनों काफी चुसकते और सिगरेट के कश लगाते प्रतीक्षा करते रहे ।
दस मिनट बाद खूबराम वापिस लौटा ।
उसने कागज का एक पुर्जा पाण्डेय को थमाया, पाण्डेय ने जिसे पढ के आगे विमल को सौंप दिया ।
विमल ने पुर्जे पर लिखी इबारत पढी । लिखा था :
मैं कसम खाकर कहता हूं, मुझे कौल की बीवी का पता नहीं मालूम । उसका पता लगा पाने से पहले ही मैं गिरफ्तार हो गया था लेकिन होगी यकीनन वो किसी नर्सिंग होम में ही । जो काम मैं नहीं कर सका उसे खुद करा लो और भगवान के लिए मेरी मजबूरी की, मेरी नालायकी की सजा मेरी मासूस बीवी को न दो ।
“अब क्या कहते हो ?” - विमल बोला ।
“यहीं कि” - पाण्डेय बोला - “वक्त की मार ने वाकई ह्रदय परिवर्तन कर दिया इस करप्ट पुलसिये का ।”
“वो तो हुआ लेकिन इसकी बीवी को सलामती के लिहाज से तो ये जवाब नहीं ठीक । लूथरा ने कसम खाकर कहा और गुरबख्शलाल ने मान लिया, ऐसा नहीं होने वाला । ये चिट्ठी पढकर वो लूथरा की बीवी पर जुल्म ढाने से बाज नहीं आने वाले ।”
“शायद तुम ठीक कह रहे हो ।”
“बदमाशों को उनका मनमाफिक जवाब मिलने पर ही लूथरा की बीवी का उनसे पीछा छूट सकता है ।”
“उनका मनमाफिक जवाब तो ये ही होगा कि उन्हें तुम्हारी बीवी का पता लगे ।”
“बिल्कुल ।” - विमल खूबराम की तरफ घूमा - “वो पहले वाला रुक्का कहां है ?”
“मेरे पास है, हुजूर ।” - खूबराम बड़े अदब से बोला और उसने मुड़ा-तुड़ा रुक्का विमल को सौंपा ।
विमल ने उस कागज को सीधा किया और उसे उलटकर अपने सामने फैलाया । उसने कलमदान में से एक पैन निकाला और उस पर लिखा :
कौल की बीवी उसी के फ्लैट वाले हाउसिंग कम्पलैक्स की आठवीं मंजिल पर सुमन वर्मा के फ्लैट में है ।
उसने वो कागज पाण्डेय को थमाया और बोला - “अब लूथरा का लिखा जवाब फाड़ के फेंक दो और उसकी जगह ये जवाब गुरबख्शलाल के आदमी के पास पहुंचवा दो ।”
पाण्डेय ने एक निगाह में कागज की इबारत पढी ।
“पागल तो नहीं हो गये हो ?” - फिर वो हकबकाया-सा विमल को देखता हुआ बोला ।
विमल केवल मुस्कराया ।
“भई, क्या मतलब हुआ इस आ बैल मुझे मार जैसी हरकत का ?”
“अपने हवलदार को रुखसत करो, फिर बताता हूं ।”
“इस.. इस डायनामाइट जैसी खबर के साथ रुखसत करूं खूबराम को !”
“हां ।”
“एक बार फिर सोच लो, भैया । कहीं ये कमान से निकला तीर न बन जाये ।”
“कुछ नहीं होता ।”
“खूबराम” - पाण्डेय हवलदार से बोला - “वो बन्दा तुझे कहां मिलेगा ?”
“करीब ही एक टी स्टाल है, जनाब ।” - खूबराम बोला - “वहां ।”
पाण्डेय ने लूथरा के हाथ का लिखा कागज फाड़ दिया और दूसरा विमल के लिखे सन्देशे वाला कागज हवलदार को पकड़ाता हुआ बोला - “जाओ ।”
खूबराम तत्काल वहां से रुखसत हो गया ।
पाण्डेय फिर विमल की तरफ आकर्षित हुआ ।
“इतना तो मैंने माना” - पाण्डेय बोला - “कि उन्हें लूथरा के हैण्डराइटिंग की पहचान नहीं होगी इसलिये तुम्हारी लिखी इबारत चल जायेगी वो ये ही समझेंगे कि वो इबारत लूथरा ने ही लिखी थी, लेकिन तुमने तो सच में ही उन्हें अपनी बीवी के मौजूदा ठिकाने की खबर कर दी ।”
विमल केवल मुस्कराया ।
“क्या माजरा है, भैय्या ! और क्या मतलब है तेरी उस तिलस्मी मुस्कराहट का ? क्या इरादा है ?”
विमल ने सब बताया ।
“ओह !” - पाण्डेय के मुंह से निकला - “तेरी माया तू ही जाने, भैय्या ।”
तभी खूबराम वापिस लौटा ।
“पहुंचा आये ?” - पाण्डेय बोला ।
“जी, जनाब !” - खूबराम तत्पर स्वर में बोला ।
“शबाश !”
“और जनाब...”
“बोलो ।”
“ये दस हजार रुपये” - खूबराम ने जेब से नोटों का एक पुलन्दा निकालकर हाथ में लिया - “पांच हजार पहले वाले और पांच हजार अब चिट्ठी देने के बाद वाले । जनाब, इनका क्या करुं मैं !”
“अपने पास रखो ।” - पाण्डेय बोला ।
“जी ।”
“ये तुम्हारी ईमानदारी का इनाम है ।”
“लेकिन जनाब, इतना रुपया...”
“तुम इसके हकदार हो । नोट जेब में रखो ।”
खुशी से थर-थर कांपते हुए खूबराम ने नोट वापिस जेब के हवाले किये ।
“और सुनो ।” - पाण्डेय बोला ।
“जी, जनाब ।”
“इन नोटों को, और बाकी बातों को भी, किसी को खबर करने की जरूरत नहीं । समझ गये ?”
“जी, जनाब ।”
“जाओ ।”
हवा में कदम रखता हुआ खूबराम वहां से रुखसत हुआ ।
फिर विमल ने भी पाण्डेय से विदा ली । वो इमारत से बाहर निकला तो जहां उसकी प्रतीक्षारत टैक्सी खड़ी होनी थी, वहां उसने अली-वली की बन्द जीप को खड़ा पाया । वो लपककर जीप के करीब पहुंचा ।
“यहां क्या कर रहे हो ? - वो बोला ।”
“आपका इन्तजार ।” - ड्राइविंग सीट पर बैठा वली मोहम्मद बड़े इतमीनान से बोला ।
“वो टैक्सी ड्राइवर कहां गया ?”
“हमने भाड़ा देकर उसे रुखसत कर दिया ।”
“कब से यहां हो ?”
“शुरू से ही ।”
“क्या मतलब ?”
“आपनी टैक्सी के पीछे-पीछे ही यहां आये थे ।”
“लेकिन मैंने कहा था कि मुझे...”
“आपने तो कहा था लेकिन मामू सुने तब न !”
“तौबा !”
वो जीप में सवार हो गया ।
***
कुशवाहा अपने चुनिन्दा आदमियों के साथ कोविल हाउसिंग काम्प्लेक्स की आठवीं मंजिल पर पहुंचा । उसने सुमन वर्मा के फ्लैट के बन्द दरवाजे का और बाकी तीन दरवाजों का मुआयना किया ।
“घन्टी बजाओ ।” - फिर उसने आदेश दिया ।
एक आदमी ने आगे बढ के सुमन वर्मा के फ्लैट की कालबैल बजाई ।
कोई जवाब न मिला ।
“फिर बजाओ । दरवाजा भी खटखटाओ ।”
फिर भी कोई जवाब न मिला ।
“बाकी तीन दरवाजों को बाहर से बन्द कर दो ।”
तीन आदमी आगे बढे । उन्होंने सुमन वर्मा के फ्लैट को छोड़कर बाकी तीन फ्लैटों के दरवाजे चुपचाप बाहर से बन्द कर दिये ।
“ताला तोड़ो ।” - कुशवाहा ने नया आदेश दिया - “खामोशी से ।”
एक आदमी के हाथ में एक साइलेंसर लगी रिवाल्वर प्रकट हुई । उसने उसे ताले के साथ लगाकर दो फायर किये और फिर दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा खुल गया ।
सब-के-सब भीतर दाखिल हुए ।
एक बैडरूम में पलंग पर कोई कम्बल ओढे सोया पड़ा था । पलंग की बगल में एक ऊंचे स्टैण्ड पर ग्लूकोस की बोतल लटकी हुई थी और करीब की एक तिपाई पर कुछ दवाइयां बिखरी दिखाई दे रही थीं ।
कुशवाहा ने चैन की सांस ली । एक लम्बे अरसे के बाद पहली बार कामयाबी का मुंह देखना नसीब हो रहा था ।
“काबू करो ।” - वो दबे स्वर में बोला ।
दो आदमी पलंग की ओर बढे । एक ने करीब पहुंचकर कंबल खींचा ।
कम्बल के नीचे से दोनों हाथों में मशीनगन थामे अली मोहम्मद प्रकट हुआ, वो बिजली की फुर्ती से पलंग के परली तरफ कूद गया और मशीनगन अपने सामने दायें-बायें लहराता हुआ बड़े हिंसक स्वर में बोला - “खबरदार !”
सबको जैसे सांप सूंघ गया ।
“कौन है बे तू ?” - फिर कुशवाहा कड़ककर बोला ।
“अन्धा है !” - अली वैसे ही कड़का - “दिखाई नहीं देता ?”
“साले ! जानता नहीं किससे अकड़ रहा है ?”
“तू नहीं जानता तू किससे अकड़ रहा है ।”
“तेरी मौत आयी है जो तू समझता है कि तू अकेला...”
“तू वाकई अन्धा है ! अबे, ये मशीनगन है या पानी की मश्क ?”
“ये यहां मशीनगन चलाने का हौसला नहीं कर सकता ।”
“ये तो तू ठीक बोला । मैं तो इसे चलाने का हौसला नहीं कर सकता लेकिन सुना है ये खुद भी चल जाती है ।”
“पछतायेगा ।”
“अली हंसा ।”
“कौल की बीवी कहां है ?”
“तेरे पीछे खड़ी है ।”
कुशवाहा ने घूमकर पीछे देखा तो उसके छक्के छूट गये ।
उसके हर आदमी के पीछे एक आदमी खड़ा था । खुद उसके पीछे मुबारक अली खड़ा था जो कि उस वक्त किसी नरभक्षी राक्षस से कम नहीं लग रहा था ।
सबके पीछे दरवाजे की चौखट के साथ पीठ लगाये वली मोहम्मद खड़ा था ।
फिर मुबारक अली ने सिर्फ एक इशारा किया ।
उसके छ: आदमी खामोशी से कुशवाहा के छ: आदमियों पर पिल पड़े । खुद मुबारक अली ने कुशवाहा पर हाथ उठाने की कोशिश न की । वो उसके पहलू में य खड़ा तमाम नजारा करता रहा जैसे वो कुशवाहा का प्रतिद्वन्द्वी नहीं, उसका जोड़ीदार हो ।
पांच मिनट से भी कम वक्त में कुशवाहा के छः-के-छः आदमी हिलने से भी लाचार धराशायी हुए पड़े थे ।
तब ड्रामे के अहमतरीन किरदार के तौर पर विमल ने भीतर कदम रखा ।
उसे देखकर कुशवाहा के नेत्र फैले ।
विमल उनके करीब पहुंचा ।
“हल्लो !” - वो मधुर स्वर में बोला ।
कुशवाहा के मुंह से बोल न फूटा ।
“ऐसे” - विमल ले फर्श पर पड़े कुशवाहा के आदमियों की ओर इशारा किया - “कुल जमा कितने आदमी हैं तुम्हारे पास ? सबको एक ही बार इकट्ठा क्यों कर लेते ? यूं एक ही बार में तुम्हें और तुम्हारे साहब को पता लग जायेगा कि तुम लोग धोबियों से पार नहीं पा सकते ।”
“क-क्या चाहते हो ?” - कुशवाहा कठिन स्वर में बोला ।
“तुम्हें मालूम है ।”
“अब क्या चाहते हो ?”
“सुनो ! तुम मुझे गुरबख्शलाल के मुकाबले में सयाने आदमी लगते हो इसलिये उस वनमानुष से कोई बात कहने की जगह तुमसे कह रहा हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“जो कि बड़ी मेहरबानी है तुम्हारी मेरे ऊपर । ठीक ?”
कुशवाहा ने उतर न दिया । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जुल्म करना तुम्हारा पेशा है, कारोबार है । उससे तुम लोग बाज नहीं आ सकते लेकिन जिस जुल्म का हासिल कुछ न हो, उससे तो बाज आ सकते हो या वो भी नहीं ?”
“क्या मतलब ?”
“लूथरा की बीवी का पीछा छोड़ो । लूथरा को नहीं मालूम मेरी बीवी कहां है ।”
“ओह ! यानी कि तुम्हारी बीवी की बाबत जो सन्देशा उसने हमें दिया, वो तुम्हारे तक भी पहुंचा दिया ?”
“उसने ऐसा कुछ नहीं किया । वो मेरे तक पहुंच रखता होता तो मेरी बीवी का पता बताने की जगह वो तुम्हें मेरा पता बताता ।”
“फिर तुम्हें कैसे हमारी यहां आमद की खबर लगी ? कैसे तुमने वक्त रहते अपनी बीवी को यहां से हटा लिया ?”
“ये एक लम्बी कहानी है जिसकी सुनाने के लिये ये मुनासिब जगह नहीं, ये मुनासिब माहौल नहीं । बहरहाल मैं जो कहना चाहता हूं, वो ये है कि लूथरा की बीवी का पीछा छोड़ो । इसलिये छोड़ो क्योंकि लूथरा को नहीं पता कि मेरी बीवी कहां है । उसको यहां की खबर थी जो कि उसने तुम तक पहुंचा दी । अब आगे मेरी बीवी कहां है, उसकी न उसे खबर है और न हो सकती है । हो सकती है तो बताओ कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती तो ये बात कबूल करो ।”
“नहीं हो सकती ।”
“तो फिर लूथरा की बीवी के पीछे पड़ने का क्या फायदा ?”
“कोई फायदा नहीं ।”
“ये बात अपने बॉस को समझाओ ।”
“समझा लो कि समझा दी ।”
“यानी कि तुमने लूथरा की बीवी का पीछा छोड़ा ?”
“छोड़ा ।”
“गुड ! मैने तुम्हारी जुबान पर एतबार किया ।”
“बाप !” - मुबारक अली व्यग्र भाव से बोला - “इसे ये तो बता कि अगर इसने इस एतबार में भांजी मारी तो क्या हो जायेंगा ।”
“वो तू बता दे ।”
“बाप” - मुबारक अली बड़े हिंसक भाव से कुशवाहा से सम्बोधित हुआ - “उस खातून को अगर कुछ हुआ तो तू नहीं बचने का ! फिर कहीं भी जा के छुप बैठना, अपुन का हाथ तेरी गरदन पर होयेंगा । ये तेरे कू अपुन बोला । याद रखना मांगता है इसको ।”
कुशवाहा खामोश रहा । पलक झपकते इतना खूंखार रुख अख्तियार कर लेने वाला शख्स उसने जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखा था ।
“तुम्हारा मुजरिम” - विमल बोला - “तुम्हारा कसूरवार लूथरा है । जो जोर आजमायश करनी हो, वो लूथरा पर करना । उसकी बीवी पर नहीं । ओके ?”
कुशवाहा ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया । उसे लग रहा था कि अगर उसने ऐसा न किया होता तो मुबारक अली उसकी गरदन को थामकर जबरन ऊपर-नीचे हिलाने लगता ।
“गुड !” - विमल बोला - “हिसार की खबर लग गयी ?”
कुशवाहा के गले की घन्टी जोर से उछली ।
“यानी कि लग गयी ।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“यानी कि तुम्हारे बॉस की मेरी तीसरी वार्निंग मिल गयी ।”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“कुशवाहा, तुम अपने मालिक के वफादार हो और उसे सही राय देना अपना फर्ज समझते हो । परसों जब मैं तुम्हारे घर पर तुमसे मिला था तो ऐसा तुमने बहुत जोर देकर कहा था और मैंने तुम्हारे इन जज्बात की बहुत कद्र भी की थी । अब तुम दिल पर हाथ रखकर ये जवाब देना कि मौजूदा हालात में भी तुम्हारे मालिक के लिये तुम्हारी सही राय ये ही है कि जिस राह से मैं उसे हटाना चाहता हूं, वो अभी भी जिद करे उसी राह पर चलते रहने की ?”
“वो मेरी नहीं सुनता ।” - कुशवाहा धीरे-से बोला - “वो किसी की नहीं सुनता ।”
“इसी को कहते विनाशकाले विपरीत बुद्धि । जब विनाश का वक्त आता है तो अक्ल मारी जाती है । जिसका विनाश मुंह बायें उसके सामने खड़ा हो, उसके साथ चिपके रहने में समझदारी है, कुशवाहा ?”
“नहीं ।”
“डूबते-जहाज के साथ डूबना दानिशमन्दी है ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“तो भी मैं लाल साहब का साथ नहीं छोड़ सकता । मै सिर्फ सुख का साथी नहीं, सुख-दुख का साथी हूं । लाल साहब के मेरे ऊपर बहुत अहसान हैं । मैं अहसान फरामोश नहीं ।”
“होना भी नहीं चाहिये । लेकिन साथ ही तुम्हें इस बात का भी अहसास होना चाहिये कि तुम्हारी इस अंधी स्वामीभक्ति की वजह से बेशुमार लोगों का खून तुम्हारे सिर होगा । तुम गुनहगार होगे अन्धी ताकत के नशे में मदहोश एक दौलतमन्द आदमी की सलामती की खातिर भूखे नंगों को लड़ाने के । मैं हिसार की या उससे भी पिछली मिसालें नहीं देता लेकिन और कुछ नहीं तो अपने इन छः आदमियों पर गौर करो जो कि अधमरी हालत में यहां तुम्हारे सामने पड़े हैं । ये मरे भी पड़े हो सकते थे । इनकी जानबख्शी सिर्फ इसलिये हुई क्योंकि मैं खामखाह का खून-खराबा पसन्द नहीं करता । क्योंकि मैं तुम्हारे लाल साहब जैसा कड़क दादा नहीं । कुशवाहा, मैंने पहले भी कहा और फिर कहता हूं कि इस भारी खून-खराबे को तुम और सिर्फ तुम रोक सकते हो ।”
“मैं नहीं रोक सकता ।” - कुशवाहा का स्वर एकाएक भर्रा गया - “लेकिन मैं पसन्द करता कि तुमने मुझे भी मेरे इन आदमियों जैसी ही हालत में पहुंचा दिया होता ।”
“ऐसा भी हो सकता था लेकिन दो वजुहात से ऐसा मुनासिब नहीं समझा गया । एक तो तुमने अपने आदमियों को, ये जिन्दा या मुर्दा जैसे भी हैं, यहां से ढो के ले जाना है, दूसरे यहां क्या बीती, इसकी गुरबख्शलाल तक खबर पहुंचानी है । ठीक ?”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“तुमने या गुरबख्शलाल ने एक बार भी मेरे से ये सवाल नहीं किया कि अगर सच में ही तुम ड्रग्स का धन्धा बन्द करने का इरादा कर लेते तो मुझे नेक इरादे की खबर कैसे होती ! इसी से साबित होता है कि तुम लोग खयाल तक नहीं करना चाहते, ड्रग्स का धन्धा बन्द करने का । लेकिन उम्मीद करना मेरी आदत है । उम्मीद के खिलाफ उम्मीद करना मेरी फितरत है इसलिये गुरबख्शलाल से कहना कि अगर उसका ड्रग्स के धन्धे से हाथ खींच लेने का मन बन जाये, अगर ये अनहोनी हो जाये तो वो लोटस क्लब के प्रदेश द्वार पर एक सफेद झंडा टंगवा दे । क्योंकि अब मैं तो उसके इरादों की बाबत उससे दोबारा सवाल करने वाला नहीं ।”
“सफेद झण्डा !”
“जो कि अमन का निशान होता है । कुशवाहा इस साल के आखिर तक ऐसा झण्डा मुझे लोटस क्लब पर फहराता न दिखाई दिया तो तुम अपने बॉस, सुपर गैंगस्टर गुरबख्शलाल को ‘हैपी न्यू ईयर’ नहीं बोल सकोगे । अपने बॉस को मेरी तरफ से बोल देना कि न्यू ईयर ईव अच्छी तरह से मना ले और उन चन्द लोगों से गले लग - लग के मिल ले जिसने उसकी निसबत है क्योंकि हो सकता है कि इस फानी दुनिया में किया उसका ये आखिरी कर्म हो ।”
फिर विमल अली वली के साथ वहां से रुखसत हो गया ।
***
निगमबोध घाट पर शिवनारायण पिपलोनिया के अन्तिम संस्कार के बाद तब तक उसकी परछाई का दर्जा अख्तियार कर चुके अली वली के साथ विमल माडल टाउन पहुंचा ।
एक पूर्वानिर्धारित तरीके से उसने पिपलोनिया की कोठी के दरवाजे पर दस्तक दी तो सुमन ने दरवाजा खोला । विमल तत्काल भीतर दाखिल हो गया । दरवाजा उसके पीछे बन्द हो गया ।
अली वली कोठी के बाहर जीप में ही बैठे रहे ।
नीलम को वहां स्थानान्तरित करने का खयाल विमल को पिछली रात पिपलोनिया की मौत के बाद ही आया हो ऐसा नहीं था । वो जानता था कि नीलम के लिये सुमन वर्मा का फ्लैट वक्ती तौर पर ही सेफ था, हमेशा के लिये नहीं । क्योंकि नीलम की तलाश में शहर के तमाम नर्सिंग होम्स और हास्पीटल्स की खाक छान चुकने के बाद दादा लोगों को सुमन वर्मा के फ्लैट का खयाल आ सकता था । अब जबकि पिपलोनिया की कोठी बालो चायस उसके सामने थी तो पिछली रात गोल मार्केट लौटते ही उसने नीलम को चुपचाप वहां पहुंचा देने का प्रबन्ध कर दिया था ।
“कैसी है नीलम ?” - विमल ने सवाल किया ।
“ठीक है ।” - सुमन बोली - “सो रही हैं ।”
“गुड ! सुमन मैं दो दिन के लिये शहर से बाहर जा रहा हूं । अगर सलामत रहा तो पहली की सुबह को लौटूंगा ।”
“अगर सलामत रहे तो ?” - सुमन नेत्र फैलाकर बोली ।
“हां । दो दिन यहां नीलम के साथ रहने की तकलीफ तुझे गवारा करनी पड़ेगी ।”
“मुझे कोई तकलीफ नहीं ।” - वो निसंकोच बोली - “लेकिन...”
“नीलम के साथ उसकी तबीयत से ताल्लुक रखती कोई दुश्वारी हो तो डाक्टर मिसेज कुलकर्णी को फोन करना । तबीयत से जुदा कोई दुश्वारी हो तो इस कार्ड पर दर्ज किसी भी नम्बर पर” - विमल ने उसे एक कार्ड थमाया - “योगेश पाण्डेय को फोन करना । बाकी वाहे गुरु भली करेगा ।”
“वाहे गुरु !”
“भगवान भली करेगा । और सुमन....”
“हां, जी ।”
“मैं तेरा ये अहसान जिन्दगी भर नहीं भूलूंगा ।”
“चलो, चलो । बहन का भाई पर अहसान होता है ।”
विमल मुस्कराया और फिर वापस बाहर को बढा ।
“ये क्या ?” - सुमन व्यग्र भाव से बोली - “आप तो चल दिये !”
“अभी तूने ही तो कहा था चलो चलो ।”
“अरे, वो तो मैंने वैसे ही कहा था ।”
“मुझे फिर भी जाना है ।”
“उनसे मिल तो लो एक बार ।”
“नहीं । सोने दो उसे । अच्छा है वो सो रही है ।”
“जाग रही होतीं तो आपको जाने न देतीं !”
“या शायद में ही न जा पाता । नीलम को इस हालत में छोड़ के जाने के खयाल से मेरा कलेजा फटता है लेकिन क्या करूं, मजबूरी है । जाना बहुत जरूरी है ।”
“क्यों जरूरी है ?”
“तुम नहीं समझोगी । टेलीफोन की बाबत मैंने क्या कहा था, याद है न ?”
“हां । पहली बार घंटी बजे तो फोन नहीं उठाना । दो बार बज के बन्द हो जाये और फौरन ही फिर बजे तो फोन उठाना है ।”
“शाबाश !”
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
मोनिका ने विशाल बन्द फाटक के सामने कार रोकी । उसने हार्न बजाया और प्रतीक्षा करने लगा ।
फाटक पर एक बड़ा-सा बोर्ड लगा हुआ था जिस पर लिखा था:
कुत्तों से सावधान
प्राइवेट प्रापर्टी
अनाधिकार प्रवेश पाने की कोशिश करने वाले को शूट किया जा सकता है
सीमा के शरीर ने झुरझुरी ली ।
“घबरा नहीं ।” - मोनिका आश्वासनपूर्ण स्वर में बोली - “सारी धमकिेयां अजनबियों के लिये हैं ।”
“मैं भी तो अजनबी हूं ।” - सीमा बोली - “पहली बार यहां आयी हूं ।”
“लेकिन मेरे साथ आयी है । मैं बहुत बार आ चुकी हूं यहां ।”
सीमा फिर न बोली । बड़े सशंक भाव से तो सामने देखती रही ।
वो कोई बीस साल की, मोनिका जैसी ही हसीन लड़की, थी अलबत्ता मोनिका के मुकाबले में उसका रंग सांवला था लेकिन उसकी वो कमी उसकी मासूमियत और कम उम्र बखूबी पूरी कर रही थी ।
फाटक एक खिड़की खुली । खिड़की में से वीरसिंह ने बाहर झांका और फिर सहमति में सिर हिलाया । उसने खिड़की बन्द कर दी । फिर कुछ क्षण बाद फाटक खुला । मोनिका ने कार आगे बढाई । उसने कार को फाटक के भीतर ले जाकर खड़ा किया । वीरसिंह ने उसके पीछे फाटक बन्द कर दिया और उसमें ताला जड़ दिया ।
वीरसिंह एक कोई तीस साल का युवक था जो इस खुशफहमी का शिकार था कि सूरत में वो बिल्कुल गोविन्दा लगता था । जब कभी भी वो किसी शीशे पर निगाह डालता था तो उसे अपनी ओर गोविन्दा ही झांकता दिखाई देता था । यही वजह थी कि वो गोविन्दा की हर फिल्म देखता था और उसके हावभाव और बोलने के अन्दाज की नकल करने की भरसक कोशिश करता था । अलबत्ता पोशाक के मामले - में वो गोविन्दा जैसा फैशनेबल या मॉडर्न बनके नहीं दिखा सकता था, क्योंकि बमय बैल्ट होलस्टर में लगी पिस्तौल, गार्ड की वर्दी उसे पहननी पड़ती थी ।
उसने बड़ी लालसापूर्ण निगाहों से कार में बैठी दोनों लड़कियों को देखा ।
“इससे सावधान रहना ।” - मोनिका धीरे से बोली - “प्रेत की तरह पीछे आन खड़ा होता है और बगलों में हाथ डाल देता है ।”
“जबरदस्ती ?”
“हां । लेकिन डरना नहीं । सावधान तो रहना ही, फिर भी ऐसी हरकत करने में कामयाब हो जाये तो जो हाथ में आये इसके सिर में मार देना । सीधा हो जायेगा ।”
“तेरे साथ किया कभी ऐसा ?”
“कई बार । सच में ही प्रेत है कमीना । पता ही नहीं लगता कब सिर पर पहुंच जाता है ।”
“तू लाल साहब से शिकायत नहीं करती ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“गैंडे के मिजाज का पता जो नहीं लगता । मैं शिकायत करूं और वो इसे कुछ कहने की जगह मेरे ही गले पड़ जाये कि मैं खामखाह बात का बतंगड़ बनाती हूं ।”
“कमाल है ! उसे क्योंकर बर्दाश्त होता होगा कि जो लड़की उसने अपने एनटरटेनमेंट के लिये बुलाई है, उसे गार्ड छेड़े ।”
“आदमी के बच्चे को तो ये सब नहीं बर्दाशत होता लेकिन यहां आदमी का बच्चा कौन है ? सब शैतान की औलाद हैं ।”
“हम कार में क्यों बैठे हैं ?”
“ग्रैगरी के इन्तजार में ”
“वो कौन है ?”
“डाग ट्रेनर है । वो जो उस साइड की इमारत से निकल के आ रहा है । कुत्तों के साथ ।”
सीमा की कुत्तों पर निगाह पड़ी तो उसके चेहरे की रंग पीली पड़ गयी ।
“ये कुत्ते हैं ?” - वो भयभीत भाव से बोली ।
“हैं तो कुत्ते ही ।” - मोनिका बोली ।
“मुझे तो बब्बर शेर मालूम पड़ते हैं ।”
मोनिका हंसी ।
“ये... ये क्या करेंगे ?”
“ये तो कुछ नहीं करेंगे । जो करना है इसका ट्रेनर करेगा ।”
“वो क्या करेगा ?”
“कुत्तों से हमारा परिचय करायेगा । कुत्तों को अंग्रेजी में बतायेगा कि हम कौन हैं ।”
“ये... ये कुत्ते... अंग्रेजी बोलते हैं ?”
“पागल !” - मोनिका हंसी - “बोलते नहीं लेकिन अपने ट्रेनर की आवाज को समझते हैं । ट्रेनर जिस गन्ध की इन्हें पहचान करा देता है उसे ये कभी नहीं भूलते । ऐसा करना इसलिये जरूरी होता है ताकि कुत्ते मेहमानों पर ही न झपट पड़ें ।”
“ये... हमारे पास आयेंगे ?”
“हमें इनके पास जाना होगा । निकल ।”
“मुझे डर लगता है ।”
“कुछ नहीं होता । मैं जो साथ हूं ।”
“मुझे बहुत डर लगता है । मुझे तो आम कुत्तों से ही बहुत डर लगता है, ये तो....”
“बोला न, जरूरी है । बाहर निकल ।”
दोनों बाहर निकलीं ।
“इसका नाम सीमा है ।” - मोनिका बोली - “मेरे साथ है ।”
ग्रेगरी ने सहमति में सिर हिलाया । उसके हाथ में थमी जंजीरों पर जैसे दोनों कुत्ते जोर दिखा रहे थे उससे यही अन्देशा होता था कि जंजीर ग्रेगरी के हाथ से छूट जायेंगी । जंजीरें नहीं छूट रही थीं, यह ग्रेगरी के अत्यन्त बलशाली होने का अपने आप में सबूत था ।
वो दो कदम आगे बढा तो कुत्ते ऐन मोनिका और सीमा के सामने पहुंच गये और लपलप करती जुबानों के साथ लड़कियों को घूरने लगे ।
“टॉमी ! लियो !” - ग्रेगरी बोला - “फ्रैन्ड्स ! मोनिका । सीमा ! फ्रैन्ड्स ।”
कुत्तों ने मोनिका को सूंघा । वही हरकत उन्होंने सीमा के साथ की तो उसकी चीख निकल गयी ।
“हौसला रख ।” - मोनिका बोली - “कुछ नहीं होता ।”
सीमा बड़ी कठिनाई से सांस रोके स्थिर खड़ी रह पायी ।
कुत्ते गले से गर्र-गर्र की बड़ी खतरनाक आवाज निकाल रहे थे और मुंह से लार टपका रहे थे ।
“फ्रैन्ड्स । मोनिका ! सीमा ! फ्रैन्ड्स ! ओके !”
कुत्तों के मुंह से गर्र-गर्र निकलना बन्द हुआ ।
“अब हिलना नहीं ।” - ग्रेगरी ने चेतावनी दी ।
मोनिका ने सहमति में सिर हिलाया, उसने सीमा को भी निर्देश का पालन करने का इशारा किया ।
ग्रेगरी ने कुत्तों के गले से जंजीरे निकाल दी ।
आतंक से सीमा के नेत्र फट पड़े ।
दोनों कुत्ते नथुने फुलाते - सिकोड़ते मोनिका और सीमा के इर्द-गिर्द - एक बायें से दायें और दूसरा दायें से बायें - घूमने लगे । यूं उन्होंने तीन चक्कर लगाये और फिर वापिस अपने ट्रेनर के अगल-बगल जा खड़े हुए ।
“वैलकम !” - ग्रेगरी बोला - “अब तुम लड़कियों को टॉमी और लियो से कोई खतरा नहीं । अब ये तुम दोनों को तुम्हारे जिस्मों की गन्ध से पहचानते हैं और इन्हें समझा दिया गया है कि तुम दोनों यहां की मेहमान हो ।”
मोनिका ने सहमति में सिर हिलाया ।
कुत्ते अपने ट्रेनर के कदमों में बैठ गये ।
तब कहीं जाकर सीमा की जान में जान आयी ।
“जाओ ।” - ग्रेगरी बोला - “मिसेज स्मिथ साइड डोर पर तुम्हारा इन्तजार कर रही हैं ।”
दोनों वापिस कार में सवार हो गयीं । मोनिका ने कार को स्टार्ट किया और उसे वहां से अपनी काफी परे मौजूद कोठी की ओर दौड़ाया । कोठी के अग्रभाग में विशाल पोर्टिको थी लेकिन उधर से भीतर दाखिल होने की इजाजत सिर्फ गुरबख्शलाल के खास मेहमानों को थी ।
उसने साइड डोर पर ले जाकर कार खड़ी की ।
वहां खुले दरवाजे पर एक कोई पचास साल की क्रिस्चियन औरत थी ।
“हाउसकीपर है ।” - मोनिका दबे स्वर में बोली - “नमस्ते करना ।”
सीमा ने सहमति में सिर हिलाया । दोनों कार के बाहर निकलीं । दोनों ने मिसेज स्मिथ का अभिवादन किया ।
“वैलकम ।” - वो मुस्कराती हुई बोली - “वैलकम मोनिका । वैलकम....”
उसने सीमा की तरफ देखा ।
“इसका नाम सीमा है ।” - मोनिका बोली ।
“नाइस नेम ।” - मिसेज स्मिथ बोली - “वैलकम, सीमा ।”
“थैंक्यू, मैडम !” - सीमा बोली ।
मोनिका वे कार के पीछे जाके उसकी डिकी खोली और भीतर मौजूद दो सूटकेस निकालकर बाहर जमीन पर रखे ।
“मैं तीरथ को बुलाती” - मिसेज स्मिथ बोली - “वो तुम बेबी लोगों को ऊपर छोड़ के आयेगा ।”
“मैं छोड़ के आता है, मिसेज स्मिथ ।”
मोनिका ने घूमकर देखा तो उसने वीरसिंह को दांत निकाल कर हंसता अपने सामने खड़ा पाया । पता नहीं कैसे इतनी जल्दी वो कार के पीछे-पीछे वहां पहुंच गया था ।
“प्रेत !” - मोनिका के मुंह से निकला ।
सीमा भी हैरानी से वीरसिंह को देख रही थी ।
“नो !” - मिसेज स्मिथ सख्ती से बोली - “वीरसिंह तेरे को ऊपर छोकरी लोगों के रूम वाले फ्लोर पर जाना नहीं मांगता । तेरे को मालूम ! नो ?”
“यस, मिसेज स्मिथ ।” - वीरसिंह पूर्ववत् दांत निकालता हुआ बोला - “लेकिन मैं तो मदद करने की नीयत से....”
“नहीं, मांगता । इधर तुम्हारा कोई मदद नहीं मांगता । जब जरूरत होयेंगा तो बोलेंगा । अभी हम बोला कुछ ?”
“नहीं ।”
“सो ?”
“जाता है । जाता है ।” - वीरसिंह भुनभुनाया हुआ बोला और घूमकर वापिस फाटक की ओर बढ गया ।
“साला, हलकट ।” - मिसेज स्मिथ बड़बड़ाई - “हमेशा छोकरी लोगों पर निगाह ! हमेशा छोकरी लोगों पर निगाह ! नहीं मानेंगा तो बॉस को बोलेंगा । सीधा हो जायेगा ।” - फिर वो फिर लड़कियों से सम्बोधित हुई - “तुम लगेज इधर छोड़ो । तीरथ आता और ले के जाता । तुम मेरे साथ चलो ।”
मोनिका ने सहमति में सिर हिलाया, उसने कार को लॉक किया और सीमा को साथ लेकर मिसेज स्मिथ के पीछे हो ली ।
उधर एक हाल था जिसमें ऊपर को जाती सीढियां थी ।
“लिफ्ट भी है ।” - मिसेज स्मिथ ने नवागन्तुक सीमा को बताया - “वो फ्रन्ट हाल में से है ।”
सीमा ने सहमति में सिर हिलाया ।
हाल के एक पहलू में एक विशाल किचन थी जिसके खुले दरवाजे पर फ्राक पहने एक नौजवान लड़की खड़ी थी ।
“हमारा डाटर एलिजाबेथ ।” - मिसेज स्मिथ बोली - “लिजा, से हल्लो टू नाइस गर्ल्स ।”
“हल्लो !” - फ्राकधारी लड़की बोली ।
मोनिका और सीमा ने भी हल्लो बोला ।
“एलिजाबेथ” - मिसेज स्मिथ बोली - “इधर कुकिंग में हमारा हैल्प करता और मेड की ड्यूटी भी करता । न्यू ईयर ईव पार्टी के लिए हम इसको स्पेशल इधर बुला के रखा ।”
“ओह !” - मोनिका बोली - “एलिजाबेथ की तरह किसी और को भी हैल्प के लिए इधर बुला के रखा, मिसेज स्मिथ ?”
“नो !”
“कोई बाद में आने वाला हो ?”
“नो ! क्यों पूछा ?”
“कोई खास वजह नहीं । यूं ही पूछा ।”
“और कोई नहीं आने वाला । और कोई आयेंगा तो तुम्हारे जैसा छोकरी लोग आयेंगा । या साहब लोग आयेंगा । ”
“वो सब लोग परसों शाम से पहले नहीं आने वाले । मैं तो उससे पहले का पूछा ।”
“उससे पहले और कोई नहीं आने वाला । हमको मांगता भी नहीं । बस इधर तीरथ होयेंगा, हमारा एलिजाबेथ होयेंगा और तुम दोनों होयेंगा । एनफ । नो ?”
“यस !” - मोनिका मन-ही-मन चैन की सांस लेती हुई बोली ।
“तुम लोग मेनमेन हॉल को डेकोरेट करेगा ।”
“कल । कल करेंगे, मिसेज स्मिथ । आज तो रैस्ट करेंगे । ”
“नो प्राब्लम । एनफ टाइम ।”
“मिसेज स्मिथ, वो दूसरा गार्ड मांगेराम कहीं दिखाई नहीं दिया ?”
“इधर ही कहीं होयेंगा । भीतर काटेज में बैठा वीडियो देख रहा होयेंगा । बॉस न हो तो ये ऐसा ही करते हैं । एक गार्ड ड्युटी देता है तो दूसरा मस्ती मारता है । वीडियो देखता है । ”
“आई सी ।”
फिर मिसेज स्मिथ उन्हें तीसरी मंजिल पर लायी ।
“इधर छ: रूम्स हैं” - मिसेज स्मिथ बोली - “दो डबल । चार सिंगल । तुम दोनों छोकरी लोग एक डबल में रहना मांगता ?”
“मैं सिंगल में ।” - मोनिका जल्दी से बोली ।
सीमा ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“आई होप यू डोंट माइन्ड, सीमा ।” - मोनिका बोली ।
“ओह, नो !” - सीमा अनमने भाव से बोली - “नो । कैसे भी चलेगा ।”
“थैंक्यू ! मिसेज स्मिथ, ये सीढियों के साथ का पहला कमरा सिंगल है न ? मेरे को तो सिंगल ही याद पड़ता है ।”
“सिंगल है ।” - मिसेज स्मिथ बोली ।
“गुड ! आई विल हैव दिस रूम । ”
“ठीक है । इससे नैक्स्ट भी सिंगल है । वो तुम्हारी फ्रेंड को चलेगा ?”
“चलेगा ।” - सीमा बोली ।
“इधर और कितना छोकरी लोग आने वाला है ?”
“चार लड़किया और आयेगीं ।”
“दैन देयर इज नो प्राब्लम । सब इधर सिंगल सिंगल रह सकता है ।”
मोनिका ने एक फरमायशी ठहाका लगाया ।
“क्या हुआ !” - मिसेज स्मिथ उलझन भरे स्वर में बोली - “हंसता काहे कू है ?”
“मिसेज स्मिथ” - मोनिका बोली - “मैंने कहा, बाकी की लड़कियों परसों शाम को ही यहां पहुचेंगी ।”
“तो !”
“नहीं समझी ?”
“नहीं ।”
“अरे मिसेज स्मिथ, लाल साहब ने क्या हम लोगों को सिंगल सोने के लिए यहां बुलाया है !”
“ओह !” - मिसेज स्मिथ हड़बड़ाकर बोली - “ओह !”
“सिंगल सोने वाली तो हम दो ही हैं । वो भी आज और कल की रात ।”
“आई मीन, अगर छोकरी लोगों को रैस्ट करने का टाइम मिला तो वो लोग इधर सिंगल सिंगल भी रैस्ट कर सकती हैं ।”
मोनिका होंठ दबाकर हंसी ।
तभी तीरथ उनकें सूटकेस वहां ले आया ।
“अभी मेरे को नीचे जाना मांगता है ।” - मिसेज स्मिथ बोली - “तुम लोग लंच के लिए नीचे आ जाना । फिफ्टीन मिनटस में । ओके ?”
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया ।
मिसेज स्मिथ तीरथ के साथ वहां से चली गयी ।
मोनिका ने अपना सूटकेस उठाया और अपने लिए पसन्द किए कमरे का दरवाजा खोलकर उसमें दाखिल हुई ।
सीमा एक क्षण अनिश्चित सी गलियारे में खड़ी रही और फिर उसके पीछे-पीछे आ गयी ।
मोनिका ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“हम दोनों” - सीमा बोली - “एक कमरे में रहती तो क्या हर्ज था ?”
“वैसे तो कोई हर्ज नहीं” - मोनिका बोली - “लेकिन तुम्हें डिस्टर्बेंस होती ।”
“क्यों ?”
“मैं नींद में खर्राटे भरती हूं । बहुत जोर-जोर से ।”
और उसने एक जोर का फरमायशी ठहाका लगाया ।
सीमा के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये ।
“ओह, कम ऑन !” - मोनिका बोली - “आज और कल की सो बात है परसों की रात तो रंगीनियों में ही गुजर जायेगी । पहली की सुबह हम वापिस अपने घर होंगे । ठीक ?”
सीमा ने मशीन की तरह सहमति में सिर हिलाया ।
“फिर भी रात की डर लगे” - मोनिका बोली - “तो मुझे आवाज दे लेना । मैं तुम्हारे पास आके सो जाऊंगी !”
“या मैं तुम्हारे पास आके सो जाऊंगी ?”
“एक ही बात है । नाओ गेट अलांग ।”
सीमा वहां से बाहर निकल गयी ।
सात बजे के करीब मोनिका नीचे पहुंची ।
लंच के दौरान उसने देखा था वहां ग्राउन्ड फ्लोर के पिछवाड़े वाले हाल में, जिसमें बाहर से दाखिल होने का रास्ता इमारत की साइड से था, सीढियों के नीचे एक टेलीफोन रखा था ।
उस घड़ी हाल में कोई नहीं था । उसने आगे बढकर सावधानी से किचन में झांका तो उसने स्मिथ मां-बेटी को दरवाजे की ओर पीठ किये सब्जी काटते पाया ।
वो साइड के दरवाजे पर पहुंची जहां से उसने दूर फाटक की ओर झांका । उसने देखा कि कुत्ते तब छुट्टे घूम रहे थे, उनका ट्रेनर ग्रेगरी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था और दोनों गार्ड वीरसिंह और मांगेराम काटेज के बरामदे में बैठे गप्पें लड़ा रहे थे ।
तभी ग्रेगरी काटेज के बरामदे में पहुंचा, उसने एक उड़ती निगाह अपने कुत्तों की ओर डाली और फिर वापिस उसी कमरे में दाखिल हो गया जिसमे से कि उसने बाहर कदम रखा था ।
अब सिर्फ तीरथ ही था जिसके बारे में वो निश्चित रूप से नहीं जानती थी कि वो कहां था ।
वो दरवाजे पर से हटी और दबे पांव टेलीफोन के करीब पहुंची । उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और हौले से फरीदाबाद के उस होटल का नम्बर डायल किया जिसका पता खुद उसने विमल को बताया था । दूसरी ओर से उत्तर मिला तो वो दबे स्वर में बोली - “आई वांट टु स्पीक मिस्टर अरविन्द कौल ।”
“रूम नम्बर, मैडम ?” - पूछा गया ।
“आई डोंट नो । प्लीज एनक्वायर फ्राम दि फ्रंट डैस्क ।”
“होल्ड आन, प्लीज ।”
वो प्रतीक्षा करने लगी ।
थोड़ी देर बाद उसके कानों में चिरपरिचित आवाज पड़ी ।
“मैं बोल रही हूं ।” - वो बोला - “पहचाना ?”
“हां ।” - उत्तर मिला ।
“अब ?”
“मैं रूम नम्बर एक सौ तीन में हूं । तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा हूं ।”
“आती हूं ।”
“ठीक है ।”
उसने रिसीवर क्रेडिल पर रखा और वापिस घूमी ।
उसका दिल धक्क से रह गया ।
साइड डोर पर गोविन्दा का पोज बनाये वीरसिंह मुस्कराने की कोशिश करता अपलक उसे देख रहा था ।
हे भगवान ! - मोनिका ने मन-ही-मन सोचा - अभी काटेज के बरामदे में यें बैठा था जैसे घन्टों वहां से हिलने वाला न हो और अब कोठी के साइड डोर पर खड़ा था ।
वो लापरवाही से कन्धे झटकती टेलीफोन के करीब से हटी ।
“टेलीफोन हो रहा था ।” - वीरसिंह बोला ।
“हां ।” - मोनिका बोली - “कोई एतराज ?”
“लो ! मुझे क्या एतराज होगा ? टेलीफोन लगा किसलिए हुआ है ? अपनी को फोन करने के लिए ही तो ।”
वो बहुत इठलाकर चलती हुई वीरसिंह के करीब पहुंची ।
“किसी अपने को ही फोन कर रही थी ।” - वो बड़े चित्ताकर्षक ढंग से मुस्कराती हुई बोली - “यहां ओल्ड फरीदाबाद में मेरा एक रिश्तेदार रहता है, उसे ।”
“रिश्तेदार !”
“और क्या यार ?”
“वो भी ही तो क्या है ! वो कहा नहीं है बुल्लेशाह ने कि प्यार बिना हो जाये गुजारा यार बिना क्या जीना ?”
“बड़ी सयानी बातें कर रहे हो ?”
वो शान से मुस्कराया ।
“कम-से-कम इस मामले में तुम गोविन्दा से इक्कीस हो ।”
“किस मामले में ?” - वीरसिंह ने पूछा ।
“वो ऐसी सयानी बात नहीं कर सकता । और बुल्ले शाह तो उसे पता भी नहीं होगा कि वो कौन है !”
“अरे, मैं क्या सयानी बातें करता हूं । तुम मौका कहां देती हो मुझे सयानी बातें करने का ?”
“यहां मुझे ही मौका कहां मिलता है ?”
“अब तो मौका ही मौका है ! आज भी और कल भी । सोच ।”
“सोचूंगी । अभी बहुत टाइम है ।”
“सुन ।” - वो बड़े रहस्यमय स्वर में बोला ।
“क्या सुनूं ?”
“मुझे तेरा कमरा मालूम है । सीढियों के साथ का । दायें वाला ।”
“तो ?”
“तो मैं गोविन्दा तू जूही चावला ।”
“क्या बक रहा है ?”
“बक नहीं रहा, बता रहा हूं तुझे । खबरदार कर रहा हूं । रात को ऊपर आऊंगा । पहली दस्तक पर दरवाजा खोल देना ।”
“स्टुपिड ! मैं तो ओल्ड फरीदाबाद जा रही हूं । अपने रिश्तेदार से मिलने ।”
“जरूर जा । मिले के आ । लेकिन दस बजे तक तो तू वापिस यहां होगी ।”
“क्यों ? दस बजे के बाद शहर में कर्फ्यू लग जाता है ?”
“नहीं । दस बजे के बाद यहां कर्फ्यू लग जाता है । दस बजे के बाद लाल साहब के अलावा यहां किसी को दाखिल होने की इजाजत नहीं ।”
वो मोनिका के लिये नई बात थी । ऐसे किसी इन्तजाम की खबर उसे इसलिये नहीं थी क्योंकि पहले कभी वो न तो रात के वक्त वहां पहुंची थी और न रात के वक्त यहां से रुखसत हुई थी ।
“क्यों ?” - प्रत्यक्षत: वो बोली ।
“क्योंकि यहां पर इलैक्ट्रानिक बर्गलर अलार्म और लाकिंग सिस्टम है । रात के दस बजे वो अपने आप स्विच आन हो जाता है और फिर सुबह छ: बजे अपने आप स्विच आफ होता है । रात के किसी और वक्त ओटामेशन को केन्सिल करने के लिये कोठी के भीतर जाना पड़ता है और रात दस बजे के बाद कोठी के भीतर का दरवाजा तीरथ एक ही सूरत में खोलता है जबकि खुद लाल साहब लेट वापिस लौटे हों ।”
“कोई जबरन घुसने की कोशिश करे तो ?”
“कोई कौन ?”
“मसलन कोई चोर ?”
“वो फाटक ही नहीं लांघ सकता । वो चारदीवारी के करीब नहीं फटक सकता ।”
“फिर भी अगर कोई जबरन घुसने की कोशिश करे तो ?”
“कोई यहां का कोई भी दरवाजा या खिड़की या रोशनदान खोलने की कोशिश करेगा तो न सिर्फ कोठी के ही चारों पहलुओं में जोर-जोर से अलार्म बजने लगेंगे बल्कि वैसा ही अलार्म फौरन नजदीकी पुलिस स्टेशन पर भी बजने लगेगा ।”
“पुलिस स्टेशन पर !” - मोनिका ने नेत्र फैलाये ।
“हां ।”
“क्या यहां की पुलिस भी लाल साहब की मुलाजमत में है ?”
“यही समझ ले ।”
“कमाल है ।”
“कहने का मतलब ये है कि अपने रिश्तेदार से मिलने तो बेशक जा लेकिन दस बजे से पहले हर हाल में लौट आना । ऐसा न हो सके वो रात अपने रिश्तेदार के पास ही गुजारना और सुबह छ: बजे के बाद ही वापिस लौटना ।”
मोनिका ने घूरकर उसे देखा ।
“क्या हुआ ?” - जो तनिक बौखलाया सा बोला - “घूरती क्यों है ?”
“तू मुझे उल्लू बना रहा है ?”
“नहीं तो । क्यों ?”
“जब दस बजे के बाद कोठी को दरवाजा लाल साहब के सिवाय किसी के लिये नहीं खुलता तो तू आ के मेरे कमरे का दरवाजा कैसे खटखटायेगा ?”
“अच्छा वो ।”
“हां । वो लम्बी वाली वो ?”
“मेरे लिये खुलता है, मेरी जान ।” - वो मोनिका के कान में फुसफुसाया ।
“कैसे ?”
“कैसे भी ।”
“तीरथ को फंसाया हुआ होगा !”
“यही समझ ले ।”
“मैं इतनी बार यहां आई । इस दस से छ: बजे वाले लॉकिंग अरेंजमैंट की खबर तो मुझे न हुई ।”
“कैसे होती ? जैसे तू इस बार एडवांस में आयी है ऐसे तू पहले कभी आयी भी नहीं । पहले तो तू पार्टी में आती थी । दिन के दिन । और पार्टी खत्म हो जाने पर लौट जाती थी । और पार्टी की रातों को तो ये लाकिंग अरेंजमेंट कैन्सिल हो जाता है ।”
“परसों रात भी ऐसा ही होगा ?”
“हां ।”
“हूं ।”
“अब बोल क्या जवाब है तेरा ?”
“मैं सोचूंगी तेरे बारे में ।”
“अभी सोचेगी ?”
“तूने सोचने को ही तो कहा था ।”
“लेकिन सोचते रहने को तो नहीं कहा था ! जो सोचना है सोच के नक्की कर ।”
“मुझे तेरी वर्दी से डर लगता है । तेरी पिस्तौल से डर लगता है । और फिर वर्दी में तू फुल गोविन्दा भी तो नहीं लगता । उसने तो किसी फिल्म में ऐसी वर्दी पहनी नहीं ।”
“मैं वर्दी उतार दूंगा ।” - वो व्यग्र भाव से बोला ।
“मुझे अब जाने दे । बाकी बातें फिर ।”
“ठीक है । जा । लेकिन दस से पहले लौट आना ।”
“वो तो अब तू चेता रहा है तो लौटना ही पड़ेगा । तू मुझे एक बात बता । बल्कि दो ।”
“दो पूछ ।”
“रात को कोठी में दाखिल होने के मामले में तूने तीरथ को फंसाया हुआ हो, ये नहीं हो सकता । तीरथ मालिक का बहुत वफादार है ।”
“वो तो हम सब हैं ।”
“वो किसी छोटी-मोटी बात के लिये भी - ऐसी बात के लिये भी जिससे कि लाल साहब को कोई फर्क न पड़ता हो - मालिक से बाहर नहीं जा सकता ।”
“हम भी नहीं जा सकते ।”
“तो फिर रात दस बजे के बाद कोठी में दाखिल होने का तेरे पास क्या इन्तजाम है ?”
“बता दूं ?”
“हां ।”
“सच में बता दूं ?”
“क्यों कलपा रहा है ? अब बता भी चुक ।”
“मेरे पास साइड डोर की चाबी है ।”
“कैसे मिली ?”
“लाल साहब ने खुद दिलवाई ।”
“क्यों ? सब कुछ एक ही बार में कह ।”
“सुन । भीतर जो इलैक्ट्रानिक बर्गलर अलार्म और लाकिंग सिस्टम लगा हुआ है, वो चलता बिजली से ही है लेकिन उसके साथ एक ऐसा पावर बैकअप सिस्टम है जो बिजली चले जाने पर उस सिस्टम को चलाता है । बिजली और बैटरी में आटोमैटिक स्विचओवर का इन्तजाम होता है लेकिन आजकल वो ऐसा बिगड़ा हुआ है कि कभी-कभी बैटरी की वजह से डायरेक्ट सप्लाई में विघ्न आ जाता है । इसी वजह से सिस्टम के फाल्ट इंडीकेशन लैम्प्स को हर दो घन्टे बाद चैक करना पड़ता है और इसीलिये जब तक वो सिस्टम ठीक नहीं करा लिया जाता, तब तक के लिये मुझे कोठी के साइड डोर की चाबी मिली हुई है ।”
“सिस्टम ठीक कब कराया जायेगा ?”
“परसों की पार्टी के बाद ।”
“यानी तब तक चांदी है अपने गोविन्दे की ?”
“काहे की चांदी है ? तू होने देगी तो चांदी है न ?”
“मैं क्यों होने दूंगी ?”
उसने जवाब न दिया । उसने आहत भाव से मोनिका की ओर देखा ।
“बस !” - मोनिका मीठे स्वर में बोली - “लटक गया चेहरा घुटनों तक ?”
“अब तू तो...”
“क्या मैं तो ?”
“कुछ नहीं । अब दूसरी बात बोल ।”
“दूसरी बात ?”
“तू कह नहीं रही थी कि तू दो बातें पूछना चाहती थी ?”
“अच्छा, वो । हां । दूसरी बात बता ।”
“पूछ ।”
“जूही चावला की गैरहाजिरी में शिल्पा शिरोडकर का दरवाजा खटखटाने तो नहीं पहुंच जायेगा ?”
“क्या मतलब ?”
“तीसरी मंजिल पर एक लड़की और भी है !”
“अरे तौबा ! मुझे तो तू पसन्द है सिर्फ ।”
“चल , चल ।”
“कसम उठवा ले ।”
“ठीक है । ठीक है । अब जाने दे मुझे ।”
“रात का ध्यान रखना ।”
मोनिका ने होंठ चुभलाते हुए अर्धनिमीलित नेत्रों से उसे देखा और हंसी ।
वीरसिंह निहाल हो गया । यही गनीमत हुई कि उसने मोनिका को वहीं दबोच लेने की कोशिश न की ।
***
रात को दस बजने में सिर्फ दस मिनट बाकी थे जबकि मोनिका ने कार को बन्द फाटक के सामने लाकर रोका और बिना हैड लाइट्स बुझाये उसका हार्न बजाया ।
आठ बजे के करीब, इस बात की भरपूर तसल्ली हो जाने के बाद कि कोई उसके पीछे नहीं लगा हुआ था, उसने विमल के होटल का रुख किया था । साढे नौ बजे जानबूझ के इतनी देर कर चुकने के बाद कि वो टाइम के टाइम ही कोठी पर पहुंचे, वो वापिस लौटी थी । विमल का खयाल था कि क्योंकि तब आटोमैटिक अलार्म और लाकिंग सिस्टम के सैट हो जाने का टाइम होने वाला होगा, इसलिये तब मोनिका की ज्यादा पड़ताल नहीं होगी ।
कितना गलत खयाल निकला उसका !
फाटक की खिड़की खुली और उस पर वीरसिंह प्रकट हुआ ।
“हैडलाइट बन्द ।” - वो बोला ।
मोनिका ने आदेश का पालन किया । उसने हैडलाइट आफ की परन्तु पार्किंग लाइट जली रहने दी ।
“डोम लाइट आन ।”
मोनिका ने डोम लाइट जुलाई ।
तब तक वीरसिंह कार में अकेली बैठी मोनिका को पहचान चुका था ।
फिर फाटक खुला । वीरसिंह ने मोनिका को इशारा किेया ।
उसने कार आगे बढाई । कार के फाटक से भीतर दाखिल होते ही एकाएक कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे ।
“स्टाप !” - ग्रेगरी कर्कश स्वर में बोला ।
मोनिका ने तत्काल ब्रेक लगायी ।
दोनों कुत्ते दान्त निकाले, बड़े भयानक अन्दाज से गुर्राते तूफानी रफ्तार के साथ कार पर झपटे ।
मोनिका ने घबराकर ड्राइविंग सीट की ओर की खुली खिड़की का शीशा चढाया । बाकी शीशे पहले से बन्द थे ।
दानवाकार कुत्ते पंजों से कार पर हमला करते जोर-जोर से भौंकते रहे ।
आतंकित मोनिका कार के रिवर्स गियर में डाल के वहां से भाग निकलने की सोच ही रही थी कि वीरसिंह ने पीछे से फाटक बन्द कर दिया ।
तभी काटेज के बरामदे में मांगेराम प्रकट हुआ ।
“क्या हो गया !” - वो उच्च स्वर में बोला - “कुत्ते क्यों भौंकने लगे ?”
“पागल हो गये है साले ।” - वीरसिंह भुनभुनाया ।
“क्या गड़बड़ है ?”
“शर्तिया कोई गड़बड़ है ।”
“मुझे मालूम है क्या गड़बड़ है । तुम्हारी ट्रेनिंग में गड़बड़ है । तुम अपने कुत्तों को अंग्रेजी बोल के जिसकी शिनाख्त करवा चुके होते है, ये उस पर भी भौंकते हैं ।”
“ऐसा नहीं होता ।”
“नहीं होता ! सामने हो रहा है, फिर भी कहते हो ऐसा नहीं होता !”
“मेरे कुत्ते खामखाह भौंकने वाले नहीं । कोई वजह है जो ये भौंक रहे हैं ।”
“क्या वजह है ?”
“इन्हें कोई और, नावाकिफ मुश्क मिली है ।”
“कहां से ?”
“कार से और कहां से !”
मोनिका का दिल जोर से धड़का । उसकी कनपटियों में खून बजने लगा ।
“फ्लड लाइट आन करो ।” - ग्रेगरी उच्च स्वर में बोला ।
मांगे राम ने बरामदे में बने स्विच बोर्ड पर लगे दो स्विच आन किये । तत्काल कोठी के सामने का सारा कम्पाउण्ड रोशनी से नहा गया ।
रोशनी होते ही कुत्ते और भी खूंखार हो उठे और पहले से ज्यादा तेजी से कार पर आक्रमण करते पहले से ज्यादा उच्च स्वर में भौंकने लगे ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर मांगेराम ने अपने बैल्ट होल्स्टर में से पिस्तौल खींचकर अपने हाथ में ले ली और दृढ कदमों से कार की तरफ बढा ।
मोनिका का कण्ठ सूखने लगा और उसका दिल धाड़-धाड़ उसकी पसलियों से बजने लगा ।
लेकिन वो ये भी समझ रही थी कि उस घड़ी की उसकी भयभरी खामोशी उन लोगों के शक को दोबाला कर सकती थी ।
“ये क्या बेहूदगी है ?” - वो हिम्मत करके चिल्लाई - “ये कुत्ते मेरे ऊपर क्यों भौंक रहे हैं ?”
“अरे, डाग मास्टर ?” - वीरसिंह झुंझलाकर बोला - “चुप करा अपना कुत्तों को ।”
“ये कौन सा तरीका है मेरे साथ पेश आने का ?” - वीरसिंह की शै पाकर मोनिका बोली - “मैं लाल साहब से सबकी शिकायत करूंगी । सबको नौकरी से न निकलवाया तो कहना ।”
“ग्रेगरी !” - वीरसिंह चेतावनी भरे स्वर में बोला ।
“ये कोई तरीका है !” - मोनिका बोली - “यानी कि मैं जब भी फाटक लांघूगी, ये कुत्ते मेरे पर भौंकेंगे । मैं यूं अपनी जान बार-बार सांसत में नहीं डाल सकती । मैं अभी यहां से जा रही हूं । बोल देना लाल साहब को कि तुम लोगों ने मुझे कुत्तों से डरा के भाग दिया । फाटक खोलो ताकि मैं जाऊ यहां से ।”
“यार, क्यों बात बतंगड़ बनवा रहा है !” - वीरसिंह बोला ।- “चुप करा अपने कुत्तों को ।”
“ये ट्रेन्ड डाग्स हैं ।” - ग्रेगरी बोला - “ये खामखाह यूं आपे से बाहर नहीं होने वाले । इन्हें कोई नावाकिफ मुश्क मिल रही है जिसकी बाकायदा पहचान इन्हें नहीं कारवाई गयी ।”
“कहां से मिल रही है ?” - वीरसिंह बोला ।
“जाहिर है कि कार में से ।”
“तुम लोग अपनी बकबक बाद में लगाना ।” - मोनिका बोली - “पहले फाटक खोलो और मुझे जाने दो ।”
“नहीं नहीं । ठहरो । ग्रेगरी ! तू कुत्तों को चुप कराता है या नहीं ?”
“इन्हें कार में से नावाकिफ मुश्क मिल रही है ।” - ग्रेगरी ने जिद की ।
“अरे, कार में लड़की के अलावा कोई है भी !”
“सीट पर नहीं दिखाई देता । सीट के बीच लेटा हो सकता है ।”
“पागल हुआ है !”
“तू मूर्ख है ।” - ग्रेगरी गुर्राया - “और तेरा ये जोड़ीदार मांगेराम भी । वीरसिंह तू खास तौर से, जो खामखाह लड़की की वकालत तो करता जा रहा है लेकिन अपनी गार्ड की वो ड्यूटी नहीं भुगता रहा जिसके लिये कि तू यहां रखा गया है ।”
वीरसिंह को जैसे चाबुक लगी । वो हकबकाया सा ग्रेगरी को देखने लगा ।
“जाके कार चैक करो दोनों जने !”
“करते हैं ।” - वीरसिंह बोला - “लेकिन तू पहलें कुत्तों को चुप करा ।”
“पहले कार चैक करो ।”
“पहले कुत्तों को चुप करा वर्ना में दोनों को शूट कर दूंगा ।”
“वीरसिंह !” - ग्रेगरी चैलेंज भरे स्वर में बोला - “तेरी ऐसी मजाल नहीं हो सकती । इन कुत्तों की जान तेरी अपनी जान से कहीं ज्यादा कीमती है । तू क्या जानता नहीं ?”
वीरसिहं को फिर चाबुक सी लगी ।
“ग्रेगरी ” - फिर वो असहाय भाव से बोला - “भगवान के लिये इन्हें चुप करो ।”
ग्रेगरी पिघला । उसने कुत्तों को उस जुबान में पुचकारना शुरू किया जिसे कि वो समझते थे । कुत्ते धीरे धीरे शान्त हो गये । उन्होने भौंकना और दांत निकालना तो बन्द कर दिया लेकिन वो कार के पहलू से न टले ।
वीरसिंह कार के करीब पहुंचा । उसने कार में आगे और पीछे दोनों जगह निगाह दौड़ाई ।
“कोई नहीं है ।” - वो बोला ।
“इसे कहो कार से बाहर निकले ।” - ग्रेगरी बोला ।
“मैं नहीं ।” - मोनिका भयभीत भाव से बोली ।
“कुत्ते तुझे कुछ नहीं कहेंगे । वो तेरी मुश्क पहचानते हैं ।”
“ये मुझे खा जायेंगे ।”
“ये तेरे पास भी नहीं फटकेंगे । मेरी गारन्टी ।”
मोनिका डरती हुई कार से बाहर निकली और लपककर ग्रेगरी के पीछे हो गयी । ग्रेगरी ने आगे बढकर कार के चारों दरवाजे खोल दिये । दो तरफ से दोनों कुत्ते कार की ओर झपटे और कार के पृष्ठभाग में घुस गये ।
जब वो बाहर नकले तो एक के मुंह मे एक मर्दाना पुलोवर दबा हुआ था जिसकी कि पलक झपकते दोनों ने मिलकर धज्जियां उड़ा दी ।
“मेरे ब्वायफ्रेंड का था ।” - मोनिका रुआंसे स्वर में बोली - “गलती से कार में रह गया होगा ।”
“तेरा ब्वायफ्रेंड !” - वीरसिंह सकपकाया - “तू अपने ब्यायफ्रेंड से मिलने गयी थी ?”
“हां । इतना कीमती पुलोवर था ।”
“ऐसा क्या कर रही थी कार की पिछली सीट पर अपने ब्वायफ्रेंड के साथ जिसके लिये उसे अपना पुलोवर उतारना पड़ा ।”
“ओह, शटअप !”
“वो नावाकिफ मुश्क” - मांगेराम अपनी पिस्तौल वापिस होलस्टर में रखता हुआ यूं बोला जैसे उस अप्रिय प्रसंग का अब पटाक्षेप चाहता हो - “जिसका ग्रेगरी हवाला दे रहा था, जरूर इसके कुत्तों को इस पुलोवर की वजह से ही मिल रही थी । ”
“यही बात होगी ।” - ग्रेगरी अनिश्चित भाव से बोला ।
“आई एम सॉरी ।” - मोनिका बड़ी मासूमियत से बोली - “मेरी ब्यायफ्रेंड के पुलोवर की वजह से सबको असुविधा हुई ।”
“कोई बात नहीं ।” - वीरसिंह बड़ी दयानतदारी से बोला सीट पर तेरे ब्वायफ्रेंड का पुलोवर था, वो खुद नहीं था वर्ना अब तक तू कम्पाउन्ड में से उसके जिस्म के टुकड़े बीन रही होती ।”
“वीरसिंह ! तेरे मुंह मे खाक ! शक्ल अच्छी नहीं तो बात तो अच्छी किया कर ।”
मांगेराम ने जोर का अट्टहास किया ।
“लो ।” - वो बोला - “अपने गोविन्दा की शक्ल को खराब बता रही हैं ।“
तब मोनिका भी हंसी । उसने आंखों में मद भरकार वीरसिंह की ओर देखा ।
वीरसिंह निहाल हो गया और फिर स्वयंमेव ही हंसने लगा ।
केवल ग्रेगरी ही तब भी गम्भीर था ।
“अब मुझे जाने दो ।” - फिर मोनिका बोली ।
“जा ।” - वीरसिंह बड़ी दयानतभरी से बोला - “किसने रोका है ?”
“कुत्तों को परे करो ।”
“ग्रेगरी ! कुत्ते सम्भाल भई अपने ।”
ग्रेगरी आगे बढा । उसने दोनों कुत्तों को कालर से पकड़कर कार से परे किया ।
मोनिका डरती हुई आगे बढी और कार के समीप पहुंची । उसने कार के खुले दरवाजे बन्द किये और फिर ड्राइविंग सीट पर बैठकर उधर का दरवाजा भी बन्द किया । उसने कार की हैंडलाइट्स जलाने की कोशिश न की क्योंकि कम्पाउन्ड में फ्लड लाइट्स की ही पर्याप्त रोशनी थी ।
“जाके फ्लड लाइट बन्द कर ।” - वीरसिंह मांगेराम से बोला ।
“मांगेराम सहमति में सिर हिलाता काटेज की ओर बढा ।”
मोनिका ने कार को स्टार्ट करके गियर में डाला ।
“ठहरो !” - एकाएक ग्रेगरी कर्कश स्वर में बोला ।
मोनिका ने समझा कि वो मांगेराम को ठहरने को कह रहा था । उसने एक्सिलेटर के पैडल पर पांव का दबाब बढाया ।
“टॉमी ! लियो !” - ग्रेगरी चिल्लया - “श !”
कुत्ते बिजली की रफ्तार से कार की तरफ दौड़े ।
तब मोनिका की समझ में आया कि ठहरने को उसे कहा जा रहा था । उससे जोर से ब्रेक लगायी । एक चरचराहट की आवाज के साथ कार रुकी ।
कुत्ते झपटकर कार के आगे पहुंचे । उसमें से एक तो बोनट पर ही चढ गया ।
मोनिका के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली ।
“अब क्या हुआ ?” - वीरसिंह भुनभुनाया । ग्रेगरी की उस नयी हरकत पर मोनिका से पहले वो एतराज कर रहा था ।
ग्रेगरीर ने उत्तर न दिया । वो लपककर कार के करीब पहुंचा ।
उसके पीछे पीछे वीरसिंह भी लपकता हुआ वहां पहुंचा ।
“ग्रेगरी !” - वीरसिंह गुस्से में यूं बोला जैसे ग्रेगरी अमरीशपुरी हो और गोविन्दा उससे झगड़ रहा हो - “अब क्या तकलीफ हुई तुझे ?”
ग्रेगरी ने वीरसिंह की ओर ध्यान नहीं दिया । वो मोनिका से सम्बोधित हुआ - “डिकी खोल !”
“क...क्या ?” - मोनिका हकलाई ।
“मैंने कहा कार की डिकी खोल ।”
“लेकिन...”
“बाहर निकल और ..”
“मैं नहीं निकलूंगी । मुझे कुत्तों से डर लगता है ।”
“सौ बार कहा, कुत्ते तुझे कुछ नहीं कहेंगे ।”
“मैं नहीं निकलू्गी । मैं कोठी में भी नहीं जाना चाहती । मैं अपने घर जाना चाहती हूं । फाटक खुलवाओे ।”
“वो भी तभी खुलेगा जब तू पहले डिकी खोलेगी ।”
“अबे, ग्रेगरी ” - वीरसिंह बोला - “यार ये क्या...”
“शटअप !” - ग्रेगरी फुंफकारा ।
वीरसिंह सकपकाकर चुप हो गया ।
“एक तो ठीक से अपना ड्यूटी नहीं कर सकता, ऊपर से बातें बनाता है । ”
“लेकिन...”
“आई सैड शटअप ।”
बेचैनी से पहलू बदलता वीरसिंह फिर खामोश हो गया लेकिन उसने आंखो आंखों में मोनिका को आश्वासन देना बन्द न किया ।
“अब बाहर आके डिकी खोल रही है या नहीं ?” - ग्रेगरी बोला ।
“देखो” - मोनिका रुआंसे स्वर में बोली - “मुझे यूं तंग करने का तुम्हें कोई हक नहीं । मैं क्या कोई...”
ग्रेगरी ने उसकी बाकी बात न सुनी । उसने एकाएक कार का उधर का दरवाजा खोला और भीतर हाथ बढाकर इग्नीशन में से चाबियां निकाल ली । फिर वो कार के पृष्ठ भाग की ओर बढा ।
तत्काल उसके दोनों कुत्तें यूं उसके साथ हो लिए जैसे वो अपने मालिक का मतलब समझ भी गये हों ।
ग्रेगरी ने डिकी का ताला खोला ।
वीरसिंह का हाथ अपने पिस्तौल की मूठ पर जा पड़ा ।
ग्रेगरी ने ढक्कन ऊपर उठाया ।
कुत्तों ने गुर्राते हुए गर्दनें आगे निकालकर भीतर झांका ।
वीरसिंह की गर्दन भी सारस की तरह आगे को निकली । डिकी खाली थी ।
तब चैन की सबसे लम्बी सांस वीरसिंह ने ली । उसने पिस्तौल पर से हाथ हटा लिया और बड़े तिरस्कारपूर्ण भाव से ग्रेगरी की ओर यूं देखा जैसे वो कोई विलेन था जो खामखाह बेचारी - उसकी - हीरोइन को हलकान कर रहा था ।
ग्रेगरी के चेहरे पर कोई भाव न आया । उसने डिकी बन्द की, उसमें ताला लगाया और चाबी लाकर मोनिका को दे दी ।
“तकलीफ माफ !” - वो बोला ।
जवाब में मोनिका ने मुंह बिचकाया और चाबी लगाकर कार फिर स्टार्ट की ।
फिर कार सबको पीछे छोड़कर आगे बढ गयी ।
***
मोनिका को अपने कमरे में पहुंचे अभी पन्दरह मिनट ही हुए थे कि दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
तत्काल उसके जेहन पर वीरसिंह का अक्स उभरा ।
“कौन !” - उसने पुछा ।
“मैं ।” - वीरसिंह की धीमी आवाज गूंजी ।
“क्या है ?”
“तुझे नहीं मालूम क्या है ?”
“नहीं, मुझे नहीं मालूम ।”
“दरवाजा खोल, मालूम पड़ जायेगा ।”
“देख, मेरा मूड बहुत खराब है ।”
“मूड मैंने खराब किया है ?”
“शामिल तो तू भी था । मूड खराब करने वालों में । खामखाह हलकान कर दिया कमीनों ने मिलकर !”
“मैं तो तेरी तरफ था लेकिन वो साला ग्रेगरी ही नहीं मान रहा था ।”
“मनाना था उसे !”
“मैंने क्या कम कोशिश की थी ! तू खुद गवाह है कि मैंने बहुत कोशिश की थी ।”
“अब क्या रोज यही कुछ होगा ?”
“तू रोज अपने ब्यायफ्रेंड से मिलने जायेगी ?”
“हां ।” - मोनिका पूरी ढिठाई से बोली ।
“फरीदाबाद में पहले तो तेरा कोई ब्यायफ्रेंड नहीं था ।”
“नया बना है ।”
“फरीदाबाद में ?”
“दिल्ली में । उसका दिल्ली मोटरपार्ट्स का बिजनेस है । रहता यहां है । डेली अप एण्ड डाउन करता है ।”
“खुशकिस्मत है । मुझे एक बार तो करने दे ।”
“क्या ?”
“अप एण्ड डाउन ।”
“शटअप ।”
“दरवाजा खोल ।”
“तूने मेरी बात का जवाब नहीं दिया । क्या रोज यही कुछ होगा ?”
“मैं कोशिश कि फिर ऐसा न हो । मैं ग्रेगरी को समझाऊंगा ।”
“सिर्फ समझायेगा ?”
“समझाने से ज्यादा कुछा नहीं कर सकता मैं । उससे मेरी शिकायत लाल साहब को कर दी तो मेरी नौकरी चली जायेगी ।”
“वैसे इतना सूरमा बनता है । गोविन्दा बनता है ।”
“ये सूरमाई का काम नहीं, मेरी जान ।”
“इसका मतलब तो ये हुआ कि अगर मैं सच में ही अपने ब्वायफ्रेंड को यहां लाना चाहूं तो नहीं ला सकती ।”
“तू चाहती है अपने ब्वायफ्रेंड को यहां लाना ?”
“जो काम हो ही नहीं सकता, उसकी चाहत रखने का क्या फायदा ?”
“वैसे चाहती है ?”
“तो क्या बुरा करती हूं ! मैं यहां अकेली हूं और....”
“और तू सर्दियों की रात में इस अकेले कमरे का फायदा उठाना चाहती है ?”
“यही समझ ले ।”
“मेरा क्या होगा ?”
“तेरा वही होगा जो मेल ट्रेन न मिले तो पैसेंजर ट्रेन का होता है ।”
“मुझे वो भी मंजूर है । ठीक है, मैं पैसेंजर ट्रेन । अब दरवाजा खोल ।”
“नहीं । आज मूड नहीं है । बोला न !”
“दरवाजा तो तुझे फिर भी खोलना पड़ेगा ।”
“क्यों भला ?”
“तू गाड़ी साइड डोर के सामने खड़ी कर आयी है । रास्ता रुक रहा है । उसे गैरेज में ले जा के खड़ी करना होगा । चाबी दे, मैं करके आता हूं ।”
“अरे, आधी रात को किसका रास्ता रुक रहा है ?”
“मुझे नहीं पता । लाल साहब का हुक्म है गाड़ी गैरेज में खड़ी हो । दरवाजे पर नहीं । चाबी दे ।”
मोनिका ने दरवाजा थोड़ा सा खोला और हाथ बाहर निकालकर चाबी वीरसिंह को थमायी । उसने दरवाजा बन्द करने की कोशिश की तो वीरसिंह ने अपना भारी पांव दरवाजे और चौखट के बीच में डाल दिया ।
“खबरदार !” - मोनिका बोली ।
“क्या खबरदार ?” - वीरसिंह भुनभुनाया ।
“बोला न मेरा मूड नहीं है ।”
“ये कोई तरीका है ! पहले उम्मीद बंधा दी और अब ऐसे पेश आ रही है ।”
“किसने उम्मीद बंधाई ?”
“तूने बंधाई और किसने बंधाई ?”
“अव्वल तो ऐसा है नहीं । है तो मेरा मूड खराब करने के लिए भी तो तू ही जिम्मेदार है । नहीं करना था मेरा मूड खराब ।”
“अब ठीक कर देता हूं , मेरी जान । तू मौका तो दे ।”
“वीरसिंह,प्लीज, आज नहीं । कहना मान ।”
“अच्छा, एक पप्पी तो दे दे ।”
“फिर बाज आ जायेगा ?”
“हां । वादा ।”
“वादा तोड़ा तो मैं शोर मचा के आसमान सिर पर उठा लूंगी ।”
“नहीं तोडूंगा । इसका भी वादा ।”
मोनिका ने दरवाजे पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी ।
वीरसिंह ने फौरन उसे दबोच लिया । उसके होंठ मोनिका को होंठों से चिपक गये और उसके दोनों हाथ उसके सारे जिस्म पर फिरने लगे ।
“अब बस ।” - एकाएक मोनिका ने उसे परे धकेल दिया ।
“लेकिन....”
“अपना वादा निभा, वीरसिंह !”
“अच्छी बात है । जाता हूं । प्यासा ही जाता हूं ।”
“यानी कि चाबी का तो बहाना था दरवाजा खुलवाने का ।”
वो बड़े धूर्त भाव से हंसा ।
“तू गोविन्दा है या गुलशन ग्रोवर !”
वो और हंसा ।
“गोविन्दा !” - मोनिका अपने स्वर में मिश्री घोलती हुई बोली ।
“बोल मेरी जूही ।”
“तू कल कोशिश करेगा न कि वो कुत्तों वाला कमीना मुझे हलकान न करे ?”
“हां । जरूर । लेकिन तू कहीं सच में ही तो अपने ब्वायफ्रेंड को यहां लाने की फिराक में नहीं है ?”
“अरे नहीं ।”
“यूं किसी को यहां लाना मना है ।”
“मुझे क्या मालूम नहीं !”
“खामखाह ब्वायफ्रेंड पाल लिया, जानेमन । मजा मिट्टी कर दिया ।”
“खामखाह ! अभी वो ब्वायफ्रेंड ही है । खसम नहीं बन गया ।”
“मतलब ?”
“खसम एक ही हो, ऐसा विधान है हिन्दोस्तान में । ब्वायफ्रेंड भी एक ही हो, ऐसा विधान तो नहीं है ।”
“यानी कि...”
“हां । यानी कि” - मोनिका ने हाथ बढाकर जोर से उसके गाल पर चिकोटी काटी - “अब फूट ।”
मोनिका ने जो काम खुन्दक में किया था, वो वीरसिंह को प्यार का तोहफा लगा । पीड़ा से बिलबिलाता लेकिन बड़े अनुराग से अपना गाल सहलाता और निकट भविष्य के सुन्दरतम सपने देखता हुआ वो वहां से विदा हुआ ।
मोनिका अपना दरवाजा बन्द करने ही लगी थी कि उसकी निगाह बगल के कमरे के दरवाजे पर पड़ी ।
वो दरवाजा खुला था और उसकी चौखट से लगी सीमा कभी उसे तो कभी दबे पांव सीढिया उतरते वीरसिंह को देख रही थी ।
केवल एक क्षण के लिए दोनों की निगाह मिली, फिर मोनिका के होंठों पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट प्रकट हुई और फिर उसने हौले से अपना दरवाजा बन्द कर दिया ।
फिर सीमा ने भी दरवाजा बन्द कर दिया ।
अपनी तरफ से वो समझ गयी थी कि मोनिका क्यों अकेला रहना चाहती थी ।
***
हिसार की तबाही का नजारा अपनी आंखों से करके आधी रात के करीब अपने लावलश्कर के साथ गुरबख्शलाल वापिस दिल्ली पहुंचा ।
हिसार से रवाना होने से लेकर लोटस क्लब में अपने आफिस में आ बैठने तक वो एक शब्द भी न बोला । कार में वो सारे रास्ते विस्की पीता आया था, फिर भी उसने आते ही विस्की के दो पैग गटागट पिये और तीसरा बनाकर अपने सामने रख लिया ।
फिर उसने एक सिगार सुलगाया और बडे बेसब्रेपन से उसके लम्बे लम्बे कश लगाने लगा ।
“कुशवाहा !” - फिर एकाएक वो बोला ।
“हां, लाल साहब ।” - अपने बॉस की परेशानी से परेशान कुशवाहा बड़े अदब से बोला ।
“मोनिका को बोल कि वो मिन्टो रोड पहुंचे ।”
“मोनिका को तो आपने” - कुशवाहा दबे स्वर में बोला - “फरीदाबाद भेजा हुआ है । न्यू ईयर ईव की पार्टी की तैयारी के लिए ।”
“ओह, हां । हां । सीमा भी उसी के साथ है ।” - वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “शहनशाह की नई वाली कैब्रे डांसर का क्या नाम था ?”
“सलोमी ।”
“उसको मिन्टो रोड पहुंचने को बोल ।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाते हुए शहनशाह के मैनेजर सचदेवा को फोन किया । वो सचदेवा से कुछ क्षण बात करता रहा और फिर बोला - “वो आप से बात करना चाहता है ।”
“कौन ?” - गुरबख्शलाल तनिक हड़बड़ाया ।
“सचदेवा ।”
“क्यों ?”
कुशवाहा ने उत्तर न दिया । उसने बड़े अदब से रिसीवर गुरबख्शलाल की ओर बढाया ।
गुरबख्शलाल ने रिसीवर उसके हाथ से झपटा और नशे में थरथराती आवाज में माउथपीस में बोला - “क्या है ?”
“लाल साहब” - आवाज आयी - “मैं सचदेवा अर्ज कर रहा था...”
“लाल साहब है । आगे बोल ।”
“लाल साहब, वो सलोमी तो अभी खाली नहीं है ।”
“क्यों ?”
“अभी पांच मिनट बाद उसकी सोलो परफारमेंस है । फिर पन्द्रह मिनट के ब्रेक के बाद उसका डबल शो है और फिर फाइनल में...”
“उसे फौरन मिन्टो रोड रवाना कर ।”
“लाल साहब, अगर सलोमी स्टेज पर न पहुंची तो उसी की परफारमेंस का इन्तजार करते ग्राहक बहुत नाराज हो जायेंगे । परसों रात की वारदात के बाद आज पहली बार यहां कोई जिक्र के काबिल चार लोग इकट्ठे हुए हैं, लाल साहब, अगर सलोमी स्टेज पर न पहुंची तो धन्धा बिल्कुल ही चौपट हो जायेगा ।”
“धन्धा तेरे बाप का है ?”
“वो तो आप ही का है, लाल साहब, लेकिन बतौर अपने मैनेजर, आप मेरी मुश्किल तो समझिये । ग्राहकों को जवाब तो मैंने देना है । सलोमी डांस के लिए स्टेज पर नहीं पहुंचेगी तो...”
“उसकी जगह डांस करने के लिए खुद स्टेज पर पहुंच जाना ।” - गुरबख्शलाल गला फाड़कर चिल्लाया - “समझ गया ?”
“जी, लाल साहब ।”
“अभी, इसी मिनट सलोमी को मिन्टो रोड रवाना कर ।”
“जी, लाल साहब ।”
गुरबख्शलाल ने रिसीवर क्रेडल पर पटक दिया और कहर भरे स्वर में बोला - “मादर... कुत्ता !”
कुशवाहा चुप रहा । वो मन-ही-मन अनुभव कर रहा था कि कौल ने ठीक कहा था कि विनाश काले विपरीत बुद्धि । अपने मैनेजर से इतने नाजायज तरीके से वही शख्स पेश आ सकता था जिसकी मति मारी गयी हो ।
कितनी ही देर खामोशी रही ।
“क्या करें ?” - आखिरकार गुरबख्शलाल बोला -
“लेकिन खबरदार जो वो साली सफेद झण्डा टांगने वाली राय दी ।”
“लाल साहब” - कुशवाहा विनीत भाव से बोला - “गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज कर रहा हूं कि मौजूदा हालात में माकूल राय तो ये ही है ।”
“कुशवाहा, तू किसकी तरफ है ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“जवाब दे ।”
“मैं आपकी तरफ हूं ।”
“साले, फिर भी ये राय दे रहा है ?”
“इसीलिए ये राय दे रहा हूं क्योंकि मैं आपकी तरफ हूं ।”
“मुझे हथियार डाल देने की, उस... उस छोकरे से हार मान लेने की राय दे रहा है ?”
“वक्ती तौर पर । सिर्फ वक्ती तौर पर । ड्रग्स का धन्धा सिर्फ वक्ती तौर पर बन्द कर देने में कोई हर्ज नहीं । जो पीछा न छोड़ता हो, उससे पीछा छुड़ाने का एक तरीका ये भी होता है कि उसी की मान ली जाये ।”
“हरगिज नहीं । कुशवाहा, जो सिर एक बार झुक जाये वो फिर झुका ही रहता है । जानता है न !”
“हिसार वाली वारदात के बाद सिर तो झुका ही पड़ा है लाल साहब । जब धन्धा ही नहीं रहेगा तो हम छोड़ेगे क्या और थामेंगे क्या !”
“अच्छा ! तो अब हम इतने नंग बुच्चे हो गये हैं कि तू ये सोचने लगा है कि हम ओढेंगे क्या और निचोड़ेंगे क्या ?”
कुशवाहा चुप रहा ।
“जवाब दे, भई ।”
“मैं क्या जवाब दूं, लाल साहब ?”
“हां । तू क्या जवाब दे ! तूने तो अपना जवाब दे दिया ।”
“लाल साहब, मैंने सिर्फ अपनी हकीर राय दी है, उसे कबूल करना या न करना आपकी मर्जी पर मुनहसर करता है ।”
“मुझे ये राय कबूल नहीं !” - गुरबख्शलाल दांत पीसता हुआ बोला ।
“ठीक है । लानत भेजी सफेद झण्डे पर ।”
“हां । ये बोला न मेरी पसन्द वाली जुबान ।” - उसने सिगार का एक लम्बा कश गलाया और बोला - “एक बात बता ।”
“पूछिये ।”
“इस बहन... कुत्ते सोहल को, इस बाहर से आये आदमी को पोल्ट्री फार्म की खबर कैसे लगी ?”
कुशवाहा खामोश रहा ।
“तू कहते हिचक रहा है तो मैं कहूं ?”
“कहिये ।”
“झामनानी से । ठीक ?”
“हो तो सकता है लाल साहब ।”
“हो सकता है नहीं, है । कुशवाहा, यकीन जान, कल सुबह होटल ताजमहल के बाहर हमारे आदमियों की कार का और मिनी बस का जो एक्सीडेट हुआ था वो इत्तफाकन नहीं हुआ था बल्कि हमारे आदमियों से पीछा छुड़ाने के लिए स्टेज किया गया था । फिर झामनानी की होटल ताजमहल से बाहर कहीं सोहल से मुलाकात हुई थी और उस बहन... ने सोहल को गुरबख्शलाल की कमर तोड़ने की तरकीब सुझाई थी । बोल, मैं गलत कर रहा हूं ?”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“कुशवाहा, ऐसा दगाबाज और यारमार आदमी क्यों जिन्दा है ?”
“आप झामनानी का खात्मा चाहते हैं ?”
“मैं ऐन ये ही चाहता हूं । और ऐसा मैं बिरादरी भाइयों के सामने अपने हाथों से करूंगा । कुशवाहा, ये लेखूमल झामनानी कल की पार्टी में मुझे नये साल की बधाई देने के लिए जब मेरे गले मिलेगा तो उसकी लाश ही मेरे जिस्म से अलग होगी ।”
कुशवाहा ने बड़ संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“परसों दोपहर की बिरादरी की मीटिंग में तो अपनी लफ्फाजी झाड़कर इसने अपनी जान सांसत से निकाल ली थी और बिरादरी के सामने खुद को दूध का धुला साबित करके दिखाने में कामयाब हो गया था लेकिन परसों रात उसकी ऐसी पेश दोबारा नहीं चलने वाली । मैं उसकी जुबानी उससे कुबलवा के दिखाऊंगा कि सोहल उससे मिला था और उसी ने सोहल को हमारे पोल्ट्री फार्म की खबर की थी ।”
“ऐसा हो जाये तो आप क्या, बिरादरी ही उसकी जान की दुश्मन बन जायेगी ।”
“ऐसा होगा । जरूर होगा । न सिर्फ ये होगा बल्कि झामनानी के खात्मे के मामले में हमें अपने बिरादरी भाइयों की हामी हासिल होगी ।”
“आमीन ।”
“अब तू एक बात बता ।”
“पूछिये ।”
“ये बात मुझे परसों से ही खटक रही है ।”
“क्या ?”
“परसों सुबह झामनानी तो होटल ताज पैलेस में पहुंचा लेकिन सोहल तो वहां नहीं पहुंचा था ।”
“मतलब ?”
“कुशवाहा, जब दो आदमियों में मुलाकात मुकर्रर होती है, मुलाकात की जगह मुकर्रर होती है तो वहां दोनों को पहुंचना चाहिए ।”
“वो तो है ।”
“लेकिन वहां पहुंचता और वहां से रुखसत होता तो सिर्फ झामनानी दिखाई दिया ।”
“सोहल पहले से वहां मौजूद होगा !”
“बिल्कुल ! ऐन ये ही कहना चाहता था मैं । वो वहां पहले से मौजूद था लेकिन क्योंकि उसे झामनानी के पीछे लगे हमारे आदमियों की खबर लग गयी थी इसलिए वो झामनानी के करीब नहीं फटका था । हमारे आदमियों से झामनानी का पीछा छूट जाने के बाद वो कहीं और जाकर झामनानी से मिला था ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि सोहल उस होटल में ठहरा हो सकता है ?”
“क्या नहीं हो सकता ऐसा ! जो आदमी अपने घर पर नहीं, अपनी पड़ोसिन के घर पर नहीं, अपने आफिस में नहीं, नर्सिंग होम में नहीं, वो कहीं तो होगा ! अब बोल, वो उस होटल में क्यों नहीं हो सकता ?”
“हो तो सकता है । झामनानी का वहां जाना और वहां के काफी हाउस में अकेले बैठ के चले जाना भी इस तरफ इशारा करता है ।”
“बढिया ! अब तू बोल तू क्या करेगा ?”
“मैं मालूम करूंगा कि अरविन्द कौल या सोहल नाम का कोई शख्स वहां ठहरा हुआ भी है या नहीं ।”
“अपना नाम उसने कुछ और भी रखा हो सकता है इसलिए सिर्फ नाम के जरिये उसकी बाबत पूछताछ करने से ही काम नहीं बनने वाला । कौल तेरे से मिल चुका है इसलिए तू उसके हुलिए से वाकिफ है । तुझे उसका हुलिया बयान करके उसकी बाबत वहां से पूछताछ करनी होगी । कुशवाहा, इस काम के लिए वहां के स्टाफ को - खासतौर पर से फ्लोर वेटर्स को, रूम सर्विस वाले वेटर्स को और सफाई कर्मचारियों को - लेना होगा ।”
“मैं करूंगा ।” - कुशवाहा जोर से बोला - “मैं सब कुछ करूंगा ।”
“कुशवाहा, अगर यूं तू उस शख्स का पता पा गया तो मैं समझूंगा कि हमारी किस्मत अभी मुकम्मल तौर से हमसे नहीं रूठी ।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर गुरबख्शलाल वहां से रुखसत हो गया ।
शहनशाह की नयी कैब्रे डांसर सलीमा के पहलू में गर्क होने की नीयत से ।
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