सुबह ठीक आठ बजे मैं गुड़गांवा रोड पर एक नयी बनती कालोनी में था जहां कि सतीश बैक्टर की स्वीमिंग पूल और टेनिस कोर्ट से सुसज्जित नयी बनी कोठी थी ।
वहां उस घड़ी पहुंचने के लिए मुझे दो बातों ने प्रेरित किया था ।
बैक्टर के बीवी बच्चे आजकल दिल्ली में नहीं थे ।
बैक्टर की पक्की दिनचर्या थी कि वो सुबह आठ से नौ बजे तक अपने पड़ोसी के साथ टेनिस खेलता था ।
वहां मैं इस पक्की गारन्टी के साथ पहुंचा था कि कोई मेरे पीछे नहीं लगा हुआ था । अब ये कहना मुहाल था कि तलवार ने मेरी निगरानी एक ही दिन किये जाने का इन्तजाम किया था या अभी निगरानी करने वालों का दिन शुरू नहीं हुआ था ।
मैंने कोठी से परे अपनी कार खड़ी की और पेड़ों की ओट लेता उस तक पहुंचा ।
टेनिस कोर्ट कोठी के एक पहलू में था जहां कि मेरी अपेक्षा के अनुसार गेम में मशगूल बैक्टर मौजूद था ।
मैं कोठी के दूसरे पहलू में पहुंचा और उधर से दीवार फांदकर भीतर दाखिल हुआ ।
जैसा की अपेक्षित था, उधर के दरवाजे को ताला लगा हुआ था लेकिन आपके खादिम ने वो ताला पांच मिनट में खोल लिया ।
दबे पांव मैं भीतर दाखिल हुआ ।
मैंने वो कोठी कभी देखी नहीं थी लेकिन हीरा से - जो कि उसकी खूबसूरती अक्सर बयान करती रहती थी - मैं इतना कुछ इतनी बार सुन चुका था कि बिना देखे ही वहां के जुगराफिये से मैं पूरी तरह वाकिफ था । लिहाजा सबसे पहले मैं बैक्टर की स्टडी में पहुंचा ।
स्टडी की तीन दीवारों में शैल्फ थे जो पुस्तकों से भरे पड़े थे । एक तरफ एक तीन गुणा पांच की टेबल लगी हुई थी । चौथी दीवार में वो दरवाजा था जिससे मैं भीतर दाखिल हुआ था । उसकी बगल में एक दीवान था और फिर एक ड्रिंक्स की कैबिनेट थी ।
अपनी तलाश की शुरूआत मैंने टेबल से की ।
वहां कुछ न था ।
ड्रिंक्स की कैबिनेट टटोलना भी बेकार गया ।
मैं पुस्तकों के सामने पहुंचा ।
एक-एक पुस्तक टटोलने का न तो मेरे पास वक्त था और न ही वो मुझे जरूरी लग रहा था इसलिए मैंने दोनों हाथों में एकबारगी कई-कई पुस्तकें थाम कर उनके पीछे झांकना आरम्भ किया ।
इस बार मुझे अपनी मेहनत का फल मिला ।
मैं दूसरी दीवार के शैल्फ टटोल रहा था तो मुझे एक बहुत मोटे ग्रन्थ के पीछे कुछ कागजात दिखायी दिये । तत्काल मैंने उन्हें वहां से निकाल कर उनका मुआयना किया ।
वो कागजात हीरा के चोरी गये कागजात का एक हिस्सा निकले ।
उनमे कुछ तो वो पत्र थे जो बकौल बैक्टर, उसने हीरा को लन्दन से लिखे थे और कुछ हीरा की डायरी से फाड़े गये पन्ने थे ।
डायरी के पन्नों में हीरा का हैंडराइटिंग मैंने साफ पहचाना ।
“कौन है ?”
आवाज चाबुक की फटकार की तरह मेरी चेतना से टकराई ।
मैं हौले से आवाज की दिशा में घूमा ।
दरवाजे पर हाथ में टेनिस का रैकेट थामे सरोश बैक्टर खड़ा था ।
“तुम !” - वो भौंचक्का सा मेरा मुंह देखता हुआ बोला - “तुम यहां क्या कर रहे हो ? भीतर कैसे आये ? तुम्हारे हाथ में क्या है ?”
तत्काल मैंने कागजात को मोड़कर अपने कोट की जेब में डाल दिया ।
वो दनदनाता हुआ मेरी तरफ लपका ।
“मैं यहां तुम से मिलने आया हूं ।” - वो करीब पहुंचा तो मैं बोला - “दरवाजा खुला दिखा सो भीतर आ गया । और मेरे हाथ” – मैंने अपने दोनों हाथ उसे दिखाये – “खाली हैं ।”
वो हकबकाया सा कभी मेरे हाथों को और कभी मेरी सूरत को देखने लगा ।
“स्टडी बढ़िया है तुम्हारी ।” – मैं बोला ।
“क्यों मिलना चाहते थे तुम मेरे से ?” – वो मुझे घूरता हुआ हुआ बोला ।
“हीरा की बाबत कुछ बात करनी थी !”
“फोन क्यों नहीं किया ? आने की खबर क्यों नहीं की ? शहर से बाहर इतनी दूर यहां आना क्यों जरूरी समझा जबकि तुम मेरे से मेरे आफिस भी मिल सकते थे ?”
“ये तो कुछ भी फासला नहीं ।” – मैं छाती फुलाकर बोला – “अपने क्लायंटस की खिदमत की खातिर तो मैं माउंट एवरेस्ट के शिखर पर चढ़ सकता हूं, साउथ पोल पर पहुंच सकता हूं, सहारा रेगिस्तान की खाक छान सकता हूं..”
“बकवास बन्द !” – वो दहाड़ा ।
“ओके, बॉस ।”
“बेवकूफ बनाते हो ! तुम चोरों की तरह यहां घुसे हो । चोरों की तरह चोरी की खातिर ही घुसा जाता है । बोलो, क्या चुराया है तुमने यहां से ? अभी अपनी जेब में क्या रखा है तुमने ?”
“कुछ नहीं ।”
“अन्धा नहीं हूं मैं, कोहली । कुछ कागजात की झलक मुझे साफ मिली थी । अभी जो कागजात जेब में रखे हैं, उन्हें वापिस निकालो वर्ना तुम्हारी खैर नहीं ।”
“निकालता हूं ।” – मैं बड़ी शराफत से बोला – “लेकिन कम से कम बैठ तो जाओ । यूं रैकेट थामे मेरे सिर पर खड़े रहोगे तो वैसे ही मेरा हार्टफेल हो जायेगा ।”
“कोई चालाकी करने की कोशिश की तो पछताओगे ।”
“कोई चालाकी नहीं होगी ।”
वो मेज के पीछे जाकर अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठने के स्थान पर विजिटर्स चेयर्स में से ही एक पर बैठ गया । मैं भी उसके पहलू में एक कुर्सी पर ढ़ेर हुआ और मैंने अपनी जेब से कागजात वापिस निकाले । उसमें से एक चिट्ठी मैंने अलग की और उस पर सरसरी निगाह डाली ।
“वाह !” – मैं बोला – “इसमें तो ये भी दर्ज है कि कौन-कौन से सुख तुमने अपनी बीवी से नहीं सिर्फ हीरा से पाये है, जैसे...”
उसका चेहरा पीला पड़ गया । उसने चिट्ठी मेरे हाथ से झपट ली । उसने एक आतंकित निगाह चिट्ठी पर डाली और फिर उसका पुर्जा-पुर्जा कर दिया ।
“अभी तो कई और हैं ।” – मैं बोला – “जैसे ये जिसमें तुमने लिखा है कि...”
“सब मुझे दो ।” - वो सख्ती से बोला ।
“अच्छा !”
“अपनी कीमत खुद बोलो । मैं जानता हूं कि मैं हीरा के कातिल से सौदा कर रहा हूं लेकिन इस घड़ी मैं इस बात को नजरअन्दाज करने को तैयार हूं ।”
“तुम समझते हो कि हीरा का कत्ल मैंने किया है !”
“और किसी तरीके से ये चिट्ठियां तुम्हारे कब्जे में नहीं आ सकती थीं । लेकिन मुझे क्या ! तुम अपनी कीमत बोलो ।”
“काम इतना आसान नहीं ।”
“मुझे और ज्यादा निचोड़ने की भूमिका बना रहे हो तो...”
“मैंने हीरा का कत्ल नहीं किया । अलबत्ता बहुत लोग मुझे इस जंजाल में फंसाने की जी तोड़ कोशिशें कर रहे हैं । उनमें एक अब तुम भी शामिल हो जाओगे तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । और फिर तुम्हारे कहने भर से ही मैं कातिल नहीं हो जाऊंगा ।”
“तुम इस बात को झुठला सकते हो कि तुम यहां चोरों की तरह घुसे हो ?”
“झुठला सकता हूं लेकिन नहीं झुठलाता । मैं कबूल करता हूं कि मैं यहां चोरों की तरह घुसा था लेकिन इसलिये नहीं क्योंकि मैं कातिल हूं बल्कि इसलिये क्योंकि मैं ये साबित करके दिखाना चाहता हूं कि मैं कातिल नहीं हूं । मैं असली कातिल की तलाश में हूं ताकि ये स्थापित हो सके कि कातिल मैं नहीं हूं । मैं असली कातिल का कोई सुराग पाने की कोशिश में हूं ।”
“वो सुराग तुम्हें यहां मिलने वाला था ?”
“मुझे नहीं पता था कि मुझे यहां क्या मिलने वाला था । अपनी तलाश की कामयाबी की गारन्टी के साथ मैं यहां नहीं आया था । मुझे मालूम था कि मेरी तलाश नाकाम भी जा सकती थी । लेकिन नाकामी का पाठ एडवांस में पढ लेने से कामयाबी हासिल नहीं होती ।”
“मुझ पर कृपादृष्टि क्यों ?”
“क्योंकि तुम्हारे हीरा से अवैध सम्बन्ध थे । क्योंकि हीरा तुम्हें ब्लैकमेल कर रही थी । क्योंकि ब्लैकमेल से भड़के शख्स की पनाह कत्ल में ही होती है । ये तमाम बातें तुम्हारे कातिल होने की तरफ बड़ा मजबूत इशारा करती हैं । हीरा के कागजात गायब थे जो कि मेरी निगाह में कातिल के कब्जे में हो सकते थे । उन कागजात की तलाश में मैं यहां आया था । उन कागजात का एक हिस्सा यहां मौजूद था ।”
“ये... ये कागजात” - वो मेरे हाथ में थमे कागजात की ओर इशारा करता हुआ हैरानी से बोला – “तुम्हें यहां से मिले हैं ?”
“हां ।”
“यहां से कहां से ?”
“उस शैल्फ की उन किताबों के पीछे से ।”
“कोहली ।” - वो तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “मैं तो तुम्हें बड़ा काबिल जासूस समझता था । लेकिन तुम तो निरे गावदी निकले । मुझे तो अफसोस हो रहा है मैंने तुमसे कोई उम्मीद बांधी । अब एक तकलीफ करो, मेरी फीस मुझे वापिस कर दो ।”
“क्या कहना चाहते हो ?”
“अरे, अगर मैंने अपनी चिट्ठियां वापिस हासिल करने के लिए हीरा का कत्ल किया होता तो मैं उन्हें यहां लाकर ऐसी जगह - खुलेआम किताबों के पीछे - रखता जहां से कि कोई बच्चा भी उन्हें तलाश कर लेता । तुम खुद गावदी हो या मुझे समझ गावदी रहे हो ? अरे, मैंने कत्ल किया होता तो मैं इन कागजात को अब तक तक सम्भाल कर रखता ! मैं इन्हें कत्ल के फौरन बाद ही फूंक-फांक न चुका होता !”
“ये एक अच्छा सवाल है । इसका कोई मैच करता अच्छा जवाब भी तुम्हारे ही पास होगा बॉस ।”
“इसका जवाब ये है कि ये कागजात मैंने यहां नहीं छुपाये । ये कागजात तुम यहां अपने साथ लाये हो और अगर मैं एकाएक ऊपर से न आ गया होता तो इन्हें तुम मुझे फंसाने की नीयत से यहां प्लांट करके जाने का इरादा रखते थे । मैं ऊपर से आ गया इसलिये तुम ये जाहिर कर रहे हो कि इन्हें तुमने यहां से बरामद किया है । कोहली, यूं अपनी बला मेरे सिर पर मंढने का तुम्हारा मंसूबा पूरा नहीं हो सकता । अपना गुनाह किसी और के सिर थोपना चाहते हो तो वो सिर कहीं और जा के तलाश करो । लेकिन अगर कागजात तुम्हारे पास हैं तो उनका ग्राहक मैं अभी भी हूं । तुम्हारे हाथ में जो कागजात हैं, ये सब अगर मेरी बाबत हैं और अगर ये मुकम्मल कागजात हैं, जिनमें कि मेरा जिक्र है, तो सौदा अभी भी हो सकता है ।”
“मौजूदा हालात में तुम्हारे से ऐसा कोई सौदा करना तुम्हारे इस ख्याल की तसदीक करना होगा कि मैं कातिल हूं । बॉस न मैं कातिल हूं न मेरे पास कागजात हैं, न कभी थे । मैं यहां ये कागजात प्लांट करने आया होता तो इस डेढ़ मिनट के काम को अन्जाम देकर मैं कब का यहां से रुख्सत हो चुका होता ।”
“ये सब लिफाफेबाजी है । मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं ।”
“नहीं है तो न सही ।” – मैं लापरवाही से कन्धे झटकाता हुआ उठ खडा हुआ – “फिर मुलाकात होगी, बॉस ।”
मैंने कागजात को वापिस अपने कोट की जेब में रखा और दरवाजे की ओर कदम बढ़ाया ।
“कहां चल दिये ?” – वो पीछे से बोला ।
“घर ?” – मैं बोला ।
“ऐसे कैसे चले जाओगे ?”
“क्यों ? बैण्डबाजे के साथ भेजने का इरादा है ?”
“शहनाई का भी इन्तजाम हो सकता है !”
“गाने वाली का ?”
“क्या ?”
“मैंने कहा साथ में गाना भी हो जाये तो कैसा रहे !”
“गाना !”
“कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना ।”
उसके चेहरे पर क्रोध के भाव आये । उसने अपनी भैंगी आंखें मेरे पर फोकस करके मुझे घूरा, घूरा क्या गाने के बोल सार्थक किए ।
“मसखरी बातों का मैं बहुत कद्रदान हूं ।” – मैं बोला – “लेकिन सारी बॉस, इस वक्त मूड नहीं हैं । सो बैटर लक नेक्स्ट टाइम ।”
वो केवल मुस्कराया ।
मैं दरवाजे के करीब पहुंचा तो एक पहाड़ जैसा आदमी वहां प्रकट हुआ और पूरे का पूरा दरवाजा घेर कर खड़ा हो गया । उसका हाथ इतना बड़ा था कि उसमे थमी रिवाल्वर बच्चे का खिलौना लग रही थी । रिवाल्वर की नाल का रुख मेरी छाती की तरफ था ।
“केयरटेकर ।” – बैक्टर सहज भाव से बोला – “हाल ही में रखा है । लगता है बाकी बातों की तरह इसकी खबर नहीं थी तुम्हें ।”
“सच में ही खबर नहीं थी ।” – मैं पहाड़ से सम्बोधित हुआ – “रास्ता छोड़ो, भाई । मुझे जरा जल्दी कहीं पहुंचना है ।”
केयरटेकर अपने स्थान से टस से मस भी न हुआ । उसके विकराल चेहरे पर बड़ी कमीनी मुस्कराहट आयी और फिर वो बोला – “अभी आप कैसे जा सकते हैं । आपकी कोई खातिर तो अभी हुई ही नहीं ।”
“देखा कोहली !” – बैक्टर बोला – “अपने जोरावर को भी इस बात की फिक्र है कि यहां तुम्हारी कोई खातिर नहीं हुई ।”
“क्या चाहते हो, भई ?” – मैं चिन्तित भाव से बोला ।
“मैं तो कुछ नहीं चाहता । शायद जोरावर चाहता हो । जोरावर, तू साहब को चपाती खिलाना पसन्द करेगा या परांठा ?”
“परांठा !” – जोरावर बोला – “तन्दूरी ।”
“साहब को हजम न हुआ तो ?”
“तो साहब की किस्मत ।”
“परांठा साहब पहले ही कहीं से खा के आये मालूम होते हैं ।” – वो मेरे चेहरे की चोटों की ओर इशारा करता हुआ बोला – “कहीं हाजमा खराब न हो जाये ?”
“साहब का हाजमा सच में खराब है ।” – मैं जल्दी से बोला – “इसलिये परांठा फिर कभी...”
“अभी आपका हाजमा ठीक करता हूं, मालिक ।” – जोरावर बोला । उसने रिवाल्वर को अपने बायें हाथ में स्थानान्तरित किया और दायें से हाथ से मेरा गिरहबान जमकर यूं जमीन से दो फुट ऊंचा उठा दिया जैसे मैं कोई भारहीन वस्तु था ।
मैं उसकी पकड़ में छटपटाने लगा ।
उसने थोड़ी देर मुझे पेंडुलम की तरह दायें-बायें हिलाया और फिर छोड़ दिया ।
मैं धड़ाम से फर्श पर जा कर गिरा ।
“हाजमा ठीक हुआ, कोहली ?” – बैक्टर व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां, हुआ ।” – मैं उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ और हांफता हुआ बोला – “बिल्कुल ठीक हो गया । शुक्रिया ।”
“सोच लो ।”
“सोच लिया ।”
“तो फिर...”
मैंने जेब से कागजात निकाल कर उसके सामने मेज पर रख दिये ।
बैक्टर उनका मुआयना करने लगा । जितनी देर वो कागजात देखता रहा उतनी देर जोरावर पहाड़ की तरह मेरे सिर पर खड़ा रहा ।
आखिरकार बैक्टर ने मेज पर से एक सिगरेट लाइटर बरामद किया और उन कागजात को आग लगा दी ।
“मुझे लगता है” - वो बोला - “कि मेरे से ताल्लुक रखते कागजात इतने ही थे । हीरा इन्हीं की धमकी से मुझे ब्लैकमेल करना चाहती थी और साथ में अपने पट्ठे की भी, सुधीर कोहली की भी, यूं धमकी देती थी जैसे तुम सुपरमैन हो, फैन्टम हो । मैंने उसकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया था क्योंकि मुझे ऐतबार नहीं आता था कि तुम्हारे जैसा आदमी इतना नीचे गिर सकता था कि एक रण्डी के ब्लैकमेल जैसे घिनौने कारोबार में उसका जोड़ीदार बन सकता था । कितना गलत सोचा था मैंने तुम्हारे बारे में ! तुम तो मेरी सोच से भी ज्यादा खराब निकले । इन कागजात को यहां प्लांट करने पहुंच गये ।”
तब तक कागजात से उठती लपट उसके हाथ तक पहुंचने लगी थी । उसने उन्हें एक बड़ी-सी ऐश ट्रे में झोंक दिया और जेब से रूमाल निकाल कर अपने हाथ पोंछने लगा ।
“इन कागजात को राख करके अच्छा नहीं किया तुमने ।” – मैं बोला – “इनमें कत्ल का कोई सुराग छुपा हो सकता था और वो सुराग हीरा के कातिल की गिरफ्तारी में मददगार साबित हो सकता था ?”
“मैंने क्या लेना-देना है हीरा के कातिल से और उसकी गिरफ्तारी से !” – वो लापरवाही से बोला – “मेरी तरफ से तो अच्छा होता कि हीरा के साथ-साथ तुम्हारा भी काम हो गया होता ।”
“मैं हीरा के ब्लैकमेल रैकेट में शरीक नहीं था ।”
“अब तुम्हे कुछ भी कहने का अख्तियार है ।”
“तुम्हारा टेनिस का खेल आज जल्दी कैसे खत्म हो गया ?”
“जोरावर को घर आये बिन बुलाये मेहमान की खबर लग गयी थी । वो मुझे बुलाने टेनिस कोर्ट पर पहुंच गया था ।”
“ये अपने आप में सबूत है कि कागजात मैं यहां प्लांट करने नहीं आया था । इसके मुझे देखने, तुम्हें बुलाने जाने और तुम्हारे यहां पहुंचने के वक्फे तो मैं यंहा तीन बार आ जा सकता था ।”
“अब छोड़ो वो किस्सा ।”
“जब असल इरादा तुम्हारा ये था ।” – मैंने ऐश ट्रे की ओर इशारा किया – “तो कागजात की कीमत क्यों पूछ रहे थे ?”
“अगर तुम कोई कीमत बोलते तो ये अपने आप में सबूत होता कि ये कागजात तुम्हीं यहां लाये थे और अब तुम हीरा का ब्लैकमेल रैकेट खुद चलाने के ख्वाहिसमन्द थे ।”
“मैं कोई कीमत बोलता तो तुम मुझे गलत आदमी समझते लेकिन इसका उलट तुम्हे मंजूर नहीं ! कीमत न बोलने का कोई क्रेडिट तुम मुझे नहीं देना चाहते ?”
“तुम बड़े टॉप के हरामी हो, कोहली । तुम्हारी कौन सी मूव के पीछे क्या मकसद छुपा है, ये तो कोई तुम से बड़ा हरामी ही भांप सकता है जो की मैं नहीं हूं ।”
“कोशिश करते रहो । कभी न कभी तो पहुंच ही जाओगे हरामपन्ती के शिखर पर ।”
“बॉस ।” – जोरावर आशापूर्ण स्वर में बोला – “मैं इसकी जुबान कुतर दूं ?”
“जाने दे ।” – बैक्टर बड़ी दयानतदारी से बोला – “मेहमान है ।”
जोरावर के चेहरे पर निराशा के भाव आये ।
“कोहली !” – बैक्टर बोला – “मौके का फायदा उठ और फूट ले वर्ना ऐसा न हो कि उतावला हो रहा जोरावर मेरी इजाजत के बिना ही तेरा परांठा सेक दे । तन्दूरी । बड़े वाला ।”
पराजय और अपमान के बोझ के नीचे दबा मैं वंहा से रुखसत हुआ ।
आपके खादिम की तकदीर तो वाकई उससे रूठ गयी थी, तभी तो कदम – कदम पर हत्तक, कदम – कदम पर नाकामी के रूबरू होना पड़ रहा था ।
***
मैं गोल मार्केट पहुंचा ।
पुलिस के आदमियो से खबरदार तब भी मैं बहुत सावधानी से वंहा पहुंचा और मुझे यकीन था कि अव्वल तो कोई मेरे पीछे लगा नही हुआ था, लगा हुआ था तो मैंने उसे अपने पीछे से झटक दिया था ।
अमोलकराम की आर्म्स एंड अम्युनिशन शॉप खुल चुकी थी लेकिन वो खुद वहां मौजूद नहीं था । वहां काउंटर के पीछे मेरा एक जाना पहचाना सेल्समैन मौजूद था ।
“बाउजी कंहा गए ।” – मैंने उससे पूछा ।
“उन्हें तो” – वो घबराया सा बोला – “पुलिस पकड़ कर ले गयी ।”
“क्यों ?”
“अभी दुकान खुली ही थी तो वो लोग यहां आ धमके थे । उन्होंने बाउजी को आननफानन जीप पर बिठाया और ये जा वो जा ।”
“वजह कुछ नहीं बतायी ?”
“बाउजी को बतायी होगी । मुझे तो मालूम नहीं ।”
“कमाल है । जरा फोन दिखाओ ।”
उसने फोन मेरे सामने सरकाया तो मैंने पुलिस हैडक्वार्टर यादव के लिए फोन किया ।
वो वहां नहीं था ।
मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“मैं बोल रहा हूं ।” – रजनी लाइन पर आई तो मैं बोला ।
“कंहा से बोल रहे हैं ?” – वो व्यग्र भाव से बोली ।
“गोल मार्केट से । क्यों ?”
“आपके लिए पुलिस का बुलावा है । आपके लिए पुलिस का हुक्म है कि आप फौरन पुलिस हैडक्वार्टर में ए सी पी तलवार के हुजूर में पेश हों । मैंने उन्हें कहा था कि मेरा आप से सम्पर्क होते ही मैं तलवार साहब का सन्देशा आपको दे दूंगी लेकिन उनको तसल्ली नहीं । पांच-पांच मिनट में फोन आ रहा है और हर बार एक ही बात पूछी जा रही है । आप आये या नहीं ! आपसे सम्पर्क हुआ या नहीं !”
“ऐसी क्या आफत आ गयी है ?”
“उन्होंने कुछ नहीं बताया लेकिन कोई आफत ही आ गयी मालूम होती है जो .....”
“ठीक है, मैं पहुंचता हूं तलवार के पास ।”
“कहीं आप फिर गिरफ्तार तो नहीं होने वाले ?”
“पता नहीं । जैसे हालात होंगे, मैं तुझे खबर करूंगा ।”
फिर मैंने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
बद्हवास सा अमोलकराम मुझे ए सी पी तलवार के ऑफिस में बैठा मिला ।
मैंने तलवार का अभिवादन किया और अमोलकराम से हाथ मिलाया ।
“बैठो ।” - तलवार गम्भीरता से बोला ।
“शुक्रिया ।” – मैं अमोलकराम के पहलू में एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मैसेज मिला ?”
“जी हां, मिला । तभी तो दौड़ा चला आया । सिर के बल ।” – मैंने एक उड़ती निगाह अमोलकराम की परेशानहाल सूरत पर डाली और फिर बोला - “माजरा क्या है, जनाब ?”
“माजरा इन साहब की मौजूदगी से ही तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा ?”
“कोहली ।” – अमोलकराम दबे स्वर में बोला – “मुझे सब कुछ बताना पड़ा था ।”
“तो क्या हो गया ?” – मैं आश्वासन भरे स्वर में बोला – “तुमने कोई गैरकानूनी काम थोड़े ही किया है ?”
“पुलिस से” - तलवार सख्ती से बोला - “कोई जानकारी छुपाकर रखना भी गैरकानूनी काम होता है ।”
“ए सी पी साहब” - अमोलकराम बोला - “मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं कि मुझे नहीं मालूम था कि वो गोली किसी कत्ल के केस में चली थी । अब मुझे क्या सपना आना था कि .....”
“इसे आपको उस गोली की बैकग्राउंड बतानी चाहिए थी । आपको पूछना चाहिये था उस गोली की बाबत ?”
“खामखाह ! मुझे एक गोली दिखाई जाती है और सवाल किया जाता है कि वो कैसी रिवाल्वर में फिट आने वाली गोली थी ! मैंने सवाल का जवाब दे दिया और गोली लौटा दी । इसमें क्या गैरकानूनी काम कर दिया मैंने ?”
“वो गोली सबूत है ।”
“किस बात का ?”
“उसने उत्तर न दिया ।”
“किस बात का ?” - मैंने भी अमोलक राम का सवाल दोहराया ।
“जब गोली बरामद होगी तो मालूम पड़ जायेगा ।” – तलवार बोला – “कहां है वो गोली ?”
“कौन सी गोली ?”
“वो गोली जो तुमने तीन दिन पहले मंगलवार को जांच के लिये इन्हें सौंपी थी ।”
“आपको कैसे खबर लगी, जनाब ?”
“ये मेरे सवाल का जवाव नहीं है ।” – वो गला फाड़कर चिल्लाया ।
“मेरे पास है ।” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“निकालो ।”
मैंने जेब से अपना बटुवा निकाला ।
हीरा के पलंग की मैट्रेस से निकली, अमोलकराम की लिफाफे में रख कर लौटाई गोली तब भी लिफाफे में ही थी लेकिन पिछली रात अस्थाना की रिवाल्वर से पेड़ में चलाई गोली मैंने वैसे ही बटुवे के एक कोने में धकेल दी थी । मैंने वहां से गोली निकल कर तलवार के सामने मेज पर रख दी ।
तलवार ने गौर से उसका मुआयना किया । फिर उसने अपनी मेज की दराज से एक लिफाफा निकाला जिस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था: हीरा ईरानी की लाश से निकाली गयी गोली ।
उसने लिफाफे में से गोली निकाली, लिफाफे को मेरे वाली गोली के पहलू में रखा और लिफाफे पर गोली रखी ।
“क्या फर्क है ?” – वो बोला ।
“देखने में तो कोई फर्क नहीं लगता ।” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“दोनों हू-ब-हू एक जैसी गोलियां हैं जो कि एक ही हथियार से चलाई गयी हैं ।”
“एक जैसे हथियार से, जनाब । दोनों पैंतालिस कैलिबर की कोल्ट रिवाल्वर से चली गोलियां हैं लेकिन ये दो जुदा रिवाल्वरों से नहीं, बल्कि एक ही रिवाल्वर से चली हैं, ये बात इन पर एक निगाह - नंगी निगाह - डाल कर ही नहीं कही जा सकती ।”
“ये” - वो जिदभरे स्वर में बोला - “हीरा के कत्ल के दौरान मौकायेवारदात पर चली गोली ही है । वहां दो गोलियां चली थीं । एक हीरा की छाती में लगी थी जिस ने उसकी जान ली थी । दूसरी उसके जिस्म के करीब मैट्रेस में धंस गयी थी । हमें पलंग पर बिछी चादर में और चादर के नीचे मैट्रेस में गोली का सुराख मिला था लेकिन गोली नहीं मिली थी । किसी ने गोली उस सुराख में से निकाल ली थी । जरुर कोई पुलिस से पहले ये जानने का इच्छुक था कि वो गोली कैसी रिवाल्वर से चलायी गयी थी ताकि फिर वो ऐसे शख्स को ट्रेस कर सकता जो कि हीरा का करीबी था, उसका कातिल हो सकता था और वैसी रिवाल्वर का मालिक था । वो ‘कोई’ तुम हो, मिस्टर प्राइवेट डिटेक्टिव । ऐसा खुरापाती आदमी मुझे इस केस में एक ही दिखाई दे रहा है जो कि तुम हो । फिर जब हमने चुपचाप ये मालूम करवाया कि क्या तुम्हारी जानकारी के दायरे में कोई आर्म्स एण्ड अम्युनिशन डीलर भी था तो इन साहब का नाम सामने आया । इन्हें पकड़ कर यहां मंगवाया गया तो इन्होंने जल्दी ही सारी कहानी कह दी । अब बोलो तुमने मैट्रेस में से गोली क्यों निकाली ?”
“मैंने नहीं निकाली ।” – मैं दिलेरी से बोला – “और मैं अभी भी कहता हूं कि ये जरुरी नहीं है कि ये गोली मर्डर वैपन से ही चली हो ।”
“तलवार ने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर कुछ सोचकर खामोश हो गया । फिर उसने दराज में से एक खाली लिफाफा निकाला, उस पर पहले लिफाफे जैसे ही मोटे मोटे अक्षरों में ‘सुधीर कोहली से बरामद हुई गोली’ लिखा और मेरे वाली गोली उठाकर उस लिफाफे में बंद किया और फिर कॉलबैल बजायी ।”
“तत्काल एक हवलदार भीतर आया ।”
“ये दोनों लिफाफे” – तलवार ने आदेश दिया – “बैलेस्टिक एक्सपर्ट के पास ले जाओ और कम्पेरिजन की रिपोर्ट लेकर उलटे पांव वापिस आओ ।”
“जी, जनाब ।” – हवलदार तत्पर स्वर में बोला, उसने मेज पर से लिफाफे उठाये और वहां से रुख्सत हो गया ।”
“अगर ये दोनों गोलियां” – तलवार मुझे घूरता हुआ बोला – “आपस में मिलती पायी गयीं तो जानते हो इसका मतलब क्या होगा ?”
“यही” - मैं बोला - “कि दोनों गोलियां एक ही रिवाल्वर से चली थीं ।”
“उस रिवाल्वर से, हीरा के कत्ल के केस में जिस से घातक गोली चली थी ।”
“कबूल । लेकिन इससे ये कैसे साबित हो जायेगा कि दूसरी गोली मैट्रेस में से निकली थी ?”
“और कहां से निकलेगी जब मौकायेवारदातपर दो ही गोलियां चली थी तो ....”
“मौकायेवारदात पर दो गोलियां चली थी लेकिन उन गोलियों को चलाने वाली रिवाल्वर से, कथित मर्डर वैपन से, दर्जनों गोलियां कहीं और, कभी और चली हो सकती हैं । दूसरी गोली उन्हीं कहीं और, चली गोलियों में से एक हो सकती है । जनाब, घातक गोली की शिनाख्त तो ये है कि वो पोस्टमार्टम के दौरान लाश में से निकली । दूसरी गोली घातक गोली से मिलती भी पायी गयी तो ये कैसे स्थापित होगा कि वो उस मैट्रेस में दागी गयी थी जिस पर कि हीरा की लाश पड़ी पायी गयी थी ?”
वो हड़बड़ाया । मुझे घूरती उसकी निगाह एक क्षण को विचलित हुई और फिर वो पूर्ववत कठोर स्वर में बोला - “ये तुम अपनी जुबानी कबूल करोगे कि वो गोली तुम ने मैट्रेस में से निकाली थी ।”
“अच्छा ! जबरदस्ती ?”
“फिर तुम्हें ये भी कबूल करना पड़ेगा कि वारदात के वक्त तुम मौकायेवारदात पर मौजूद थे ।”
“जनाब, अगर मैं वारदात के वक्त मौकायेवारदात पर मौजूद रहा होता तो ये गोली वहां मैट्रेस में से नहीं, हीरा की बगल में लुढकी पड़ी मेरी लाश में से बरामद हुई होती । आप कातिल के ऐसा अक्ल का अन्धा होने की कल्पना क्योंकर कर सकते हैं कि वो अपने पीछे अपनी करतूत का एक चश्मदीद गवाह जिन्दा छोड़ जाता ।”
“तुम तब कहीं इधर-उधर रहे होगे और कातिल को वहां तुम्हारी मौजूदगी की खबर नहीं लगी होगी ?”
“इधर-उधर कहां ? पलंग के नीचे ?”
“शटअप ।”
“मैं सुबह पांच बजे वहां कैसे मौजूद था ?”
“हीरा से तुम्हारा अफेयर था – तुम अपनी जुबानी मानो या न मानो, हमारी तफ्तीश यही कहती है कि तुम्हारा उससे अफेयर था – तुम पिछली रात से ही वहां मौजूद रहे हो सकते हो ।”
“किसलिये ?”
“मौजमेले के लिए और किसलिए ?”
“आप ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आप नहीं जानते कि हीरा कैसी फायरब्रांड औरत थी ! आप ये भी नहीं जानते कि इस पंजाबी पुत्तर की रगों में खून की जगह नाइन्टी थ्री ओक्टेन दौड़ती है । मेरी वो रात हीरा के पहलू में गुजरी होती तो अगली दोपहर तक मैं उठकर पैरों पर खड़ा न हो पाया होता । यानी कि जैसे हीरा की सोते में जान गयी थी, वैसे ही मेरी भी सोते में ही उसके पहलू में जान चली गयी होती ।”
“नेचर काल के लिये हर किसी को उठना पड़ता है । तुम्हारी खुशकिस्मती ये रही होगी कि तुम कातिल के बैडरूम में पहुंचने से बस जरा ही पहले टॉयलेट में गए होगे ।”
“और कातिल को टॉयलेट में मेरी मौजूदगी की खबर नहीं लगी होगी ?”
“हां ।”
हकीकत तो वही थी जो वो बयान कर रहा था लेकिन फिर भी दिखावे के लिए मैं एक फरमायशी हंसी हंसा ।
तभी हवलदार वापस लौटा । उसने दोनों लिफाफे तलवार के सामने मेज पर रख दिए और बोला – “जनाब जी, पराशर साहब बोलते हैं कि दोनों गोलियां एक ही रिवाल्वर से चलायी गयी हैं ।”
वो बात सुनते ही मुझे जैसे सांप सूंघ गया ।
यानी कि मर्डर वैपन मेरे अधिकार में था ।
अब जैसे उस काईयां पुलिस वाले ने अमोलकराम को खोज निकाला था, वैसे ही वो मेरी कार में से अस्थाना वाली फोर्टी फाइव कोल्ट रिवाल्वर बरामद कर लेता तो दिल्ली शहर में मौजूद मेरे सारे हिमायती मिल कर भी मुझे उस संकट से नहीं उबार सकते थे ।
जरुर यूयर्स ट्रूली की फेमस लक को किसी कलमुहें की नजर लग गयी थी ।
मेरा दिमाग तेजी से उस दुशवारी से निकलने के लिये कोई विश्वसनीय कहानी सोचने लगा ।
तलवार ने भुकुटि के एक इशारे से हवलदार को डिसमिस किया और फिर अमोलक राम की तरफ घूमा – “आप भी जाइये ।”
“शुक्रिया ।” - अमोलक राम तत्काल उछल कर खड़ा हुआ ।
“आपको आपके अपने हित में राय दी जाती है कि आइंदा ऐसे बखेड़ों से बच कर रहें । यारी दोस्ती दिखाने के और भी जरिये होते हैं, आइंदा ऐसा जरिया अख्तियार न करें जो आप और आप के कारोबार दोनों के लिए नुकसानदेय साबित हो सकता हो ।”
“मैं आइंदा ध्यान रखूंगा ।”
“जाइये ।”
मेरी तरफ हाथ हिलाता वो वहां से रुख्सत हो गया ।
फिर तलवार मेरी तरफ आकर्षित हुआ । उसने यूं मेरी तरफ देखा जैसे कसाई बकरे को देखता है ।
“अब बोलो ।” – वो मेरे से हासिल हुई गोली वाला लिफाफा अपनी एक उंगली से ठकठाता हुआ बोला – “ये गोली तुम्हारे पास कहां से आयी ?”
“रूबी ने दी ।” – मैं यूं बोला जैसे वो बात मजबूरन मुझे अपनी जुबान पर लानी पड़ रही हो ।
“किसने ?” – वो अचकचा कर बोला ।
“रूबी ने ? रूबी गोमज ने । हीरा की मेड ।”
“कब ? कब दी ?”
“मंगलवार । जब मैं उसके घर पर उससे मिला था । उस मुलाकात की बाबत मैंने बताया तो था आपको ।”
“मुलाकात की बाबत बताया था । गोली की बाबत नहीं बताया था ।”
“जनाब, तब गोली की बाबत बताने लायक कोई बात तो होती ! तब उस गोली की बाबत अभी कुछ मुझे भी कहां मालूम था ! उस रोज तो वो गोली मैंने अमोलकराम को सौंपी थी जिसकी बाबत उसने मुझे अगले रोज यानी की परसों बताया था कि वो कैसे हथियार से चली गोली थी ।”
“तो परसों इस बात की खबर पुलिस को की होती ?”
“किस बात की खबर पुलिस को की होती, जनाब ? मुझे क्या सपना आया था कि उस गोली का रिश्ता कत्ल के केस से निकल सकता था ? मेरे पास ये जानने का था कोई साधन कि हीरा का कत्ल पैंतालीस कैलिबर की रिवाल्वर से निकली गोली से हुआ था ? मेरे को तो यहां कदम रखने से पहले तक नहीं मालूम थी ये बात ।”
“रूबी के पास वो गोली कहां से आयी ?”
“वो कहती थी कि जब वो मंगलवार सुबह हीरा के फर्म हाउस पर पहुंची थी तो वो गोली उसे बैडरूम के फर्श पर पड़ी मिली थी ।”
“फर्श पर ?”
“जरुर वो मैट्रेस से पार किसी सख्त चीज से, किसी कब्जे या स्प्रिंग वगेरा से टकरायी होगी और छिटक कर छेद से बाहर आ गिरी होगी ।”
“नॉनसेंस ।”
“मैं आपको वो ही बता रहा हूं जो मुझे रूबी ने बताया था । उसने गोली फर्श पर पड़ी पायी थी और कोई अजीब सी चीज जानकर उठा कर अपनी जेब में रख ली थी ।”
“अजीब सी चीज जानकर !”
“क्या बड़ी बात है ! जनाब, सौ में से निन्यानवे, बल्कि हजार में से नौ सौ निन्यानवे लोगों ने गोली नहीं देखी होती ।”
“फिर उसे सूझा कैसे कि वो गोली थी ?”
“उसने गोली मुझे दिखायी थी । तब मैंने उसे बताया था कि वो तो रिवाल्वर की गोली थी ।”
“जो कि उसे मौकायेवारदात पर पड़ी मिली थी ?”
“हां ।”
“फिर भी तुमने इस बात को पुलिस की जानकारी में लाने के काबिल न समझा !”
“मैं जरुर लाता लेकिन जब तक मुझे उस गोली की बाबत कुछ मालूम हुआ, तब तक रूबी मर गयी । तब मुझे ये खतरा सताने लगा कि पता नहीं अब कोई मेरी बात पर विश्वास करेगा या नहीं कि वो गोली मुझे रूबी ने दी थी ।”
“मुझे तो बिल्कुल विश्वास नहीं तुम्हारी इस बात पर ।”
“देख लीजिये अब आप ही । यानी कि मेरा अन्देशा सही था ।”
“फिर भी इस बात की खबर तुम्हे पुलिस को करनी चाहिए थी ।”
“मेरा पूरा इरादा था ऐसा करने का लेकिन उस सूरत में जबकि मुझे हीरा के कत्ल में इस्तेमाल हुये मर्डर वैपन की बाबत पता चल जाता । अगर वो मर्डर वैपन पैंतालीस कैलिबर की कोल्ट रिवाल्वर पाया जाता तो मैं जरुर-जरुर इस गोली के साथ आपके पास पहुंचता । लेकिन आप जानते हैं कि मर्डर वैपन के बारे में तो अखबारों में कुछ छपा नहीं हैं ।”
“आज के अखबारों में छपा है ।”
“बदकिस्मती से आज का अखबार पढ़ने का मुझे मौका नहीं लगा ।”
“क्यों ?”
गोली से सम्बंधित अपना बड़ा नुक्स छिपाने के लिये पिछली रात रजनी के साथ बीती घटना का तब जिक्र करना आपके खादिम को बड़ी डीलक्स स्ट्रेटेजी लगी ।
“जनाब, परसों से ही मैं ऐसे हालत के हवाले हूं” – मैं अपने स्वर को भरसक दयनीय बनाता हुआ बोला – “कि मेरा दिमाग भन्नाया हुआ है । परसों रात मुझे गुंडों ने पीट दिया जिसका सर्टिफिकेट ये देखिये ये मेरी कनपटी पर बना गूमड़ और आंख के नीचे बना जख्म है । उससे पहले मेरी पता नहीं कब चोरी गयी रिवाल्वर कत्ल के मुकाम से बरामद हुई । कल रात को मेरी सैक्रेट्री के घर चोर घुस आये । फिर उसका अपने घर से अगवा हो गया ।”
“क्या !”
“कल रात ही, जनाब । चोरों के जाने के बाद । आपके जाने के बाद । पुलिस के जाने के बाद । मेरे जाने के बाद ।”
“क्या किस्सा है ?”
मैंने किस्सा सुनाया ।
“इतना बड़ा वाक्या छुपा के बैठे हुए हो ?” – वो हैरानी से बोला – “पुलिस में रिपोर्ट नहीं लिखवाई ?”
“एक कुलीन परिवार की इज्जतदार कुमारी कन्या की आबरू का सवाल था, जनाब ।”
“लेकिन फिर भी... परसों रात खुद पर हुए हमले की रपट लिखाई ?”
“नहीं ।”
“वो भी नहीं !”
“जनाब, मेरी जान को खतरा है । मुझे हर क्षण लगता है कि जैसे हीरा और रूबी का कत्ल हुआ है, वैसे ही मेरा भी कत्ल होने वाला है । ऐसे माहौल में दादा लोगों की दादागिरी से डर जाना क्या स्वाभाविक नहीं मेरे लिए ?”
“वैसे तो बड़े साहसी बनते हो !”
“अधिक साहस ही कभी-कभी विडम्बना बन जाता है, जनाब ।”
“अब तुम्हारी सैकेट्री कहां है ?”
“मेरे ऑफिस में, लेकिन वहां उसे कोई खतरा नहीं । और घर पर आज दोपहरबाद तक उसके मां-बाप लौट आयेंगे ।”
“मैं उसकी हिफाजत के लिये उसके घर पर पुलिस तैनात कर सकता हूं ।”
“वो आपकी मेहरबानी है लेकिन यूं लड़की और भी अड़ोस-पड़ोस की निगाह में आ जायेगी । जनाब, मुझे उम्मीद है उसके मां-बाप उसकी बखूबी हिफाजत कर लेंगे ।”
“हूं । उस अगवा करने वाले की सूरत बयान कर सकते हो ?”
“सूरत भी बयान कर सकता हूं और उसका नाम भी बता सकता हूं ।”
“अच्छा !”
“जी हां । उसका नाम रघुवीर है और परसों रात मेरे अगवा के वक्त उसके साथ उसके जो दो चमचे मौजूद थे, उनके नाम इब्राहिम और कलीराम हैं ।”
“और क्या जानते हो उनके बारे में ?”
“और कुछ नहीं जानता !” - मैं बोला । उनकी बाबत यादव से हासिल जानकारी का जिक्र करना और जानकारी के साधन का जिक्र करना यादव की खातिर मुनासिब नहीं था ।
“नाम कैसे जाने ?” - तलवार बोला ।
मैंने बताया ।
“उनके हुलिये बयान करो ।”
मैंने किये ।
“हूं ।” - वो बोला । वो कुछ खामोशी से बैठा अपनी कुर्सी का हत्था ठकठकाता रहा और फिर बोला - “तुम बहुत खुराफाती आदमी हो । खुराफाती और झूठे भी । बहुत सी बेजा हरकतें तुमने की हैं जिनकी वजह से तुम्हें अभी हवालात में बन्द किया जा सकता है और ऐसा बन्द किया जा सकता है कि तुम्हारे हिमायती भी तुम्हारे किसी काम न आ सकेंगे । जब तुम यहां पहुंचे थे तो मेरा ऐसा ही कुछ करने का पक्का इरादा था लेकिन तुमने अपनी और अपनी सैक्रेट्री की जो पर्सनल ट्रेजडीज सुनायी हैं, उन्होंने मुझे द्रवित किया है इसलिये मैं तुम्हें एक मौका और दे रहा हूं । गोली की बाबत तुम्हारा बयान और अपनी रिवाल्वर की चोरी की बाबत तुम्हारा बयान बिल्कुल भी विश्वास में आने लायक नहीं है लेकिन फिर भी मैं तुम्हें हिरासत में नहीं ले रहा हूं । मिस्टर कोहली, अगेन्स्ट माई बैटर जजमेंट, आई एम लैटिंग यू ऑफ ।”
“थैंक्यू सर ।” - मैं हर्षित स्वर में बोला ।
“अब इससे पहले कि मेरा इरादा बदल जाये, यहां से निकल जाओ ।”
“फौरन, जनाब, फौरन ।”
मैंने उसे बनावटी सैल्यूट मारा और वहां से कूच कर गया ।
***
मैं पार्किंग में पहुंचा तो यादव मुझे मेरी कार के करीब खड़ा मिला ।
“नमस्ते ।” - मैं बोला - “यहां क्या कर रहे हो ?”
“तुम्हारा इन्तजार । तलवार ने कैसे तलब किया ?”
“कार में बैठो, बताता हूं ।”
हम दोनों कार में बैठे तो मैंने तलवार से अपना इन्टरव्यू अक्षरशः दोहराया ।
“कोहली ।” - आखिर में यादव बोला - “तेरी खैर नहीं ।”
“यार, तुमने तो तकियाकलाम ही बना लिया इसे अपना । ‘तेरी खैर नहीं, तेरी खैर नहीं’ अभी कितनी बार और कहोगे ?”
“जब इतना कुछ बताया है तो बाकी क्यों छुपाता है ? जबकि तू जानता है कि कम से कम इस बार मैं तेरी तरफ हूं । अब कबूल कर कि सोमवार रात को तू हीरा के साथ था, तेरी मौजूदगी में ही उसका कत्ल हुआ था, मैट्रेस में से गोली तूने ही निकाली थी और जिन कागजात की सारी हायतौबा है वो हीरा ने तुझे सेफ कस्टडी के लिये नहीं सौंपे थे, तूने उसके कत्ल के बाद उसके बैडरूम से चुराये थे ।”
“इतनी बातें एक साथ कबूल करूं ?”
“न भी करे तो कुछ फर्क नहीं पड़ता । क्योंकि मैं जानता हूं कि यही हकीकत है । कोहली, मैं तेरा पुराना वाकिफ हूं जबकि तलवार का तेरे से वास्ता ताजा-ताजा पड़ा है । तू तलवार को बहला सकता है, मुझे नहीं । अब कबूल कर कि जो मैं कह रहा हूं, वही सच है ।”
“मैं कबूल करूंगा तो तुम्हारा अगला दावा ये होगा कि हीरा का कत्ल भी मैंने किया है !”
“अभी नहीं होगा, बाद की गारन्टी नहीं करता !”
“ठीक है । किया कबूल ।”
“तू सोमवार रात को हीरा के साथ था ?”
“हां ।”
“कत्ल तेरी मौजूदगी में हुआ था ?”
“हां ।”
“कातिल की शक्ल देखी थी ?”
“नहीं ।”
“अपनी वहां मौजूदगी को छुपा के क्यों रखा ? फौरन कत्ल की खबर पुलिस को क्यों न दी ?”
“कागजात की वजह से । उनमें मेरा भी कोई कच्चा चिट्ठा हो सकता था जिसे कि मैं उनमें से सेंसर करना चाहता था लेकिन नौबत ही न आयी । कागजात तो हाथ के हाथ ही मेरे फ्लैट से चोरी चले गए ।”
“यानी कि कत्ल के बाद भी कातिल वहां से चला नहीं गया था । वो तुम्हारी निगाहबीनी के लिये वहीं कहीं छुपा रहा था ?”
“जाहिर है ।”
“कागजात तुम्हारे फ्लैट से कातिल ने ही चुराये ?”
“ये भी जाहिर है ।”
“और क्या छुपा रहे हो तुम मुझसे ?”
“चोरी गये कागजात में से कुछ कागजात प्रकट हो चुके हैं ।”
“कहां ?”
“हीरा के एक और एडमायरर सरोश बैक्टर के यहां ।”
“तफसील में बताओ सारी बात ?”
मैंने बतायी । मैंने जोरावर का हुलिया भी बयान किया ।
“तुम यहीं ठहरना ।” - मैं खामोश हुआ तो यादव बोला - “मैं गया और आया ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया । वो कार में से निकला और हैडक्वार्टर की बिल्डिंग में दाखिल हो गया । उसके पीछे मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
पांच मिनट में यादव वापिस लौटा । वो वापिस कार में मेरे पहलू में आ बैठा और उसने पुलिस की एक रिकार्ड शीट मुझे थमायी । उस शीट पर दो क्लोज-अप चित्र लगे हुए थे जिनमें सें एक फ्रंट पोज था और दूसरा प्रोफाइल था ।
“पहचाना ?” - यादव बोला ।
“हां ।” - मैं तत्काल बोला - “यही है जोरावर ।”
“इसका असली नाम जावर सिंह है । बहुत शातिर चोर, ताला-तोड़, तिजोरीतोड़ और सेंधमार है । दो कत्ल भी कर चुका है लेकिन एक सेंधमारी की वारदात के अलावा इसका कोई जुर्म साबित नहीं हो सका था । उस जुर्म में इसे तीन साल की सजा हुई थी जिसे काट कर ये कोई छ: महीने पहले छूटा था । इसकी अपने थाने में हफ्तावारी हाजरी भरने की रूटीन जी जिस पर कि इसने चार हफ्ते भी अमल नहीं किया था । तलाश किये जाने पर ये मिला नहीं था । । पूछताछ करने पर मालूम हुआ था कि नेपाल भाग गया था लेकिन अब तुम्हारी बातों से सिद्ध होता है कि ये जावर सिंह से जोरावर बन गया हुआ है और इसे सरोश बैक्टर ने पाल लिया हुआ है । कोहली, अगर इतना शातिर और बदमाश खूनी बैक्टर की सरपरस्ती में है तो फिर बैक्टर हीरा का कातिल नहीं हो सकता । फिर अपने हाथ खून से रंगने की जगह उसने इसी को कहा होता कि हीरा की सिल्वर मून में हाजिरी के दौरान ये हीरा के फार्म हाउस में घुसता और जो भी ताले-वाले खोलने जरूरी होते उन्हें खोल कर वहां से हीरा के वो फसादी कागजात चुरा लाता । कत्ल जरूरी होता तो वो भी उसने जोरावर को ही करने को कहा होता ।”
“दम तो है तुम्हारी बात में ।” - मैंने कबूल किया - “कत्ल का हथियार भी था जोरावर के पास । मैंने बैक्टर की कोठी पर उसके हाथ में जो रिवाल्वर देखी थी, वो पैंतालीस कैलीबर की कोल्ट आटोमैटिक थी और हीरा का कत्ल ऐसी ही रिवाल्वर से हुआ था ।”
“तुम्हारी गैरहाजिरी में तुम्हारे घर के ताले वाले खोल लेना भी जोरावर के लिये चुटकियों का काम था । कोहली, तुझे जोरावर की बाबत तलवार को बताना चाहिये था ।”
“पहले कैसे बताता ! पहले मुझे जोरावर की इतनी सारी खासियात कहां मालूम थी ! वो तो तुमने मुझे अब बतायी हैं ।”
“अब वापिस पहुंच जाओ तलवार के पास ।”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” - यादव बोला ।
“मैं उसके सामने नहीं पड़ना चाहता । मुझे डर है कि मेरी बाबत कहीं उसका इरादा न बदल जाये ! मुझे छोड़कर उसने जो दयानतदारी दिखाई है, पीछे बैठा वो उसके लिये पछता न रहा हो ! दोबारा उसके सामने पड़ना खामखाह वक्ती तौर पर टल गयी मुसीबत को फिर से न्योता देना होगा ।”
“सोच तो । ये तुम्हारे फायदे की मूव है । पुलिस के डण्डे में बड़ी ताकत होती है । तलवार चुटकियों में जोरावर से ही नहीं सरोश बैक्टर से भी सब कुछ कुबुलवा लेगा ।”
“नहीं ।”
“क्यों नहीं ?”
“मेरे को एक बात बहुत चुभ रही है । अगर जोरावर के माध्यम से कागजात बैक्टर ने चोरी करवाये थे तो कागजात को नष्ट कर देने की जगह वो तमाम कागजात में से ऐन वही कागजात क्यों सम्भाले बैठा था जिनसे कि खुद उसका ताल्लुक था ? दूसरों के कच्चे चिट्ठे को संजोकर रखने में तो उसकी दिलचस्पी किसी भी वजह से हो सकती थी लेकिन खुद अपना कच्चा चिट्ठा भला क्यों वो सम्भाले रहता ?”
“तुम ये कहना चाहते हो कि किसी और ने वो कागजात वहां प्लांट किये थे ?”
“हां । खासतौर से छांट कर । सिर्फ वही कागजात जो बैक्टर की पोल पट्टी खोलते थे । चिट्ठियों के अलावा डायरी में से भी वही वरके फाड़े गये थे जिनमें सिर्फ बैक्टर का जिक्र था । मुझे लगता है कि बैक्टर को सच में ही अपनी स्टडी में उस कागजात की मौजूदगी की खबर नहीं थी । उसको तो उनकी बाबत मेरी वजह से ही पता चला था ।”
“उसको कत्ल और चोरी के इल्जाम से बरी कर रहे हो ?”
“ऐसा करते मेरा कलेजा फटता है लेकिन हालात का इशारा तो इसी तरफ है ।”
“कागजात वहां बैक्टर को फंसाने के लिये छुपाये गये थे ?”
“तत्काल समझ में आने वाली वजह तो ये ही है लेकिन वजह इससे गहरी भी हो सकती है ।”
“क्या ?”
“किसी को मालूम था कि मैं उसकी तलाशी के लिये उसके घर में जरूर घुसूंगा और फिर तलाशी में वो कागजात बरामद करके अपने घर ले जाऊंगा । ऐसा हो जाने पर वो पुलिस को कोई गुमनाम हिंट इस बाबत देता, पुलिस वो कागजात मेरे घर से बरामद करती तो उनकी वहां मौजूदगी की कोई वजह बयान करना मेरे लिये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता । तलवार को तो पहले ही मेरे पर शक है, उन कागजात की मेरे घर से बरामदी को तो वो मेरे खिलाफ हाथ आया कनक्लूसिव प्रूफ मान लेता ।”
“ये तो गर्दन के पीछे से हाथ घुमा कर कान पकड़ने जैसी बात हुई । ऐसा लखनऊ वाया सहारनपुर जैसा रूट अख्तियार करने की जगह उसने कागजात सीधे तुम्हारे यहां ही क्यों न प्लांट कर दिये ? बल्कि वहां से चुराये ही क्यों ?” - फिर तत्काल उसने अपने ही कथन में संशोधन किया - “नहीं, नहीं । निकालने की वजह तो है । उसने उनमें से अपना नाम सेंसर करना था ।”
“वो तत्काल कागजात मेरे यहां नहीं प्लांट करना चाहता होगा ।” - मैं सोचता हुआ बोला - “वो पहले मेरे खिलाफ शक की बैकग्राउन्ड मजबूत करना चाहता होगा । इसी वजह से उसने मेरी रिवाल्वर चोरी की और उससे रूबी गोमेज का कत्ल किया । इसी वजह से उसने मेरी सैक्रेट्री के यहां चोरी का ड्रामा किया ताकि पुलिस को पूरी तरह से यकीन आ जाता कि मैं उनसे कुछ छुपा रहा था । इतना कुछ हो चुकने के बाद जब कागजात मेरे यहां से बरामद होते तो पुलिस मेरे कहने भर से ये न मान लेती कि वो कागजात वहां प्लांट किये गये थे ।”
“लेकिन हत्यारा कागजात के तुम्हारे घर पहुंचने की गारन्टी कैसे कर सकता था ? ऐसा होने में कोई भी अप्रत्याशित विघ्न आ सकता था जैसा कि सच में ही आया-बैक्टर ने वहां तुम्हें कागजात के साथ पकड़ लिया और उन्हें तुमसे छीन कर भस्म कर दिया । ऐसा न भी होता तो क्या गारन्टी थी कि कागजात को तुम अपने घर में ही छुपाते ?”
“स्वाभाविक बात तो ये ही थी । फिर भी मैं ऐसा न करता या कागजात के साथ कोई हादसा गुजरता - जैसा कि गुजरा - तो अभी तो वही गोला बारुद उसके पास और भी था । वो कागजात का कोई और हिस्सा, जो कि उससे सम्बन्धित न होता, अपने काबू में करता और उसे मेरे सिर थोपने का कोई जुगाड़ करता ।”
“हां, ये हो सकता है ।” - उसने स्वीकार किया - “कोई ऐसा शख्स है तुम्हारी निगाह में जिसे मालूम हो कि तुम हीरा के करीबी तमाम लोगों की घर-घर तलाशी लेने का इरादा रखते थे ?”
“नहीं ।” - मैं बोला ।
“फिर क्या बात बनी ?”
मैं खामोश रहा ।
“तुमने कागजात को पढ़ा था ?”
“कौन से कागजात को ? जो मैंने हीरा के यहां से चुराये थे या जो मैंने बैक्टर की स्टडी से बरामद किये थे ?”
“दोनों की बाबत बताओ ।”
“नहीं पढ़ा था । टाइम कहां था इतना ! चिट्ठियां और लूज शीट्स मिलाकर वो कोई ढ़ाई तीन सौ कागज थे । साथ में एक ये-मोटी डायरी थी । बैक्टर के यहां से बरामद कागजात भी, डायरी के फटे पन्ने और चिट्ठियां मिला कर गिनती में अस्सी पिच्चासी से कम नहीं थे । वक्त कहां था मेरे पास इतने कागजात की पड़ताल करने का ! मैंने तो बस हीरा की हैण्डराइटिंग पहचानने की नीयत से कुछ वरकों पर निगाह फिराई थी ।”
“ये गारन्टी है कि बैक्टर वाले कागजात मुकम्मल कागजात का ही एक हिस्सा थे ?”
“हां ।”
“और बैक्टर वाले कागजात सिर्फ बैक्टर से सम्बन्धित थे ?”
“हां ।”
“फिर तो ये भी हो सकता है कि मुकम्मल कागजात काबू में आ जाने के बाद सबने अपने-अपने कागजात आपस में बांट लिये हों ।”
“हो सकता है लेकिन ये नहीं हो सकता कि वो सब इतने मूर्ख हों कि जिन कागजात की वजह से हालात खून खराबे तक पहुंचे थे, उन्हें वे अपने पास संजोये रखते । हकीकतन कागजात बांटने की भी जरूरत नहीं थी । वो कागजात उनके कारनामों की कोई ट्रॉफी थोड़े ही थे जिन्हें वो बतौर यादगार संजोये रखना चाहते थे ! समझदारी की बात तो ये थी कि अपने-अपने कागजात बांटने की जगह उन्हें सबके सामने फूंक दिया जाता ?”
यादव ने सहमति में सिर हिलाया, वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “अब ये तो जाहिर है कि बाकी कागजात में बैक्टर का जिक्र नहीं होगा !”
“हां ।”
“वो कागजात अगर किसी और के यहां से बरामद होते हैं तो सारी करतूत बैक्टर की होने का ये अपने आप में सबूत होगा । तब यही समझा जायेगा कि बैक्टर ने अपना नाम छुपाने के लिये अपने कागजात उसमें से गायब कर दिये थे ।”
“यादव साहब, इससे बैक्टर का नाम छुपता नहीं, और उजागर होता है । और बैक्टर इतना अहमक नहीं हो सकता कि वो इस बात को न समझता हो । जिसका भी नाम कागजात में से कटा पाया जायेगा या जिससे संबन्धित कागजात भी मुकम्मल कागजात में से गायब पाये जायेंगे, उसका नाम तो जैसे स्पॉट लाइट के दायरे में आ जायेगा ।”
“तुम ठीक कह रहे हो । ये काम बैक्टर नहीं कर सकता । लेकिन कोई और तो कर सकता है । कोई ऐसा शख्स तो कर सकता है जो बैक्टर के भी खिलाफ हो और उस शख्स के भी खिलाफ हो जिसके यहां से कि कागजात बरामद होते ?”
“हां ।”
“वो शख्स कोई अनजाना नाम भी हो सकता है । वो शख्स हीरा के उन चार स्टेडीज के अलावा भी कोई हो सकता है जिनकी कि तुम्हें वाकफियत नहीं है ?”
“हां । अब तो ये ही लगता है कि हीरा के ताल्तुकात बहुत मर्दों से थे । उसके कागजात को पढ़ पाने का मौका मुझे हासिल हुआ होता तो कौशिक, पचौरी, अस्थाना और बैक्टर के अलावा और भी नाम रोशनी में आये होते । मैं हत्यारे की कल्पना हीरा के इन चार स्टेडीज के अलावा किसी और शख्स की सूरत में करूं तो कहानी कुछ यूं बनती है कि हत्यारे ने फार्महाउस पर हीरा का कत्ल किया लेकिन उस को तत्काल मेरी वहां मौजूदगी की खबर न हुई जिसकी वजह से मेरी जान बच गयी । फिर किसी तरीके से - जैसे मेरी कार की वहां मौजूदगी की वजह से - उसे सूझा कि घर में कोई और भी था । तब तक छुप के वार करने का माहौल खत्म हो चुका था और मेरे सामने आने का उसका हौसला हुआ नहीं था, लिहाजा मेरी ताक में वो कहीं छुपा रहा और जब मैं वहां से रुख्सत हुआ तो वो मेरे पीछे लग गया । यूं वो मेरे घर तक पहुंचा, मेरी गैरहाजिरी में वहां का ताला खोल कर भीतर घुसा, वहां से हीरा वाले कागजात और रिवाल्वर तलाश करके अपने कब्जे में की और चम्पत हो गया । अब उसके सामने चार सौ से ज्यादा वरकों को गौर से पढ़ने का काम था । उन वरकों को उसने इस निगाह से ही नहीं पढ़ना था कि उन में उसके नाम का जिक्र कहां-कहां था बल्कि इस निगाह से भी पढ़ना था कि उस में उसके मिजाज का, उसकी किसी आदत का उसके किसी पोजेशन का कोई ऐसा जिक्र न हो जो कि उसकी शिनाख्त की वजह बन सकता हो । एक तो ये वैसे ही वक्त खाने वाला काम था, दूसरे उसे अपनी पूरी तसल्ली के लिये कई कागजात को कई-कई बार पढ़ना पड़ सकता था । यूं जो कागजात उसने अपने आपको प्रोटेक्ट करने के लिए पढ़े, उन्हीं से उसे कौशिक, पचौरी, अस्थाना और बैक्टर के काले कारनामों की खबर लगी, उनमें मेरा भी कोई जिक्र था तो मेरी भी खबर लगी । उन्हीं कागजात से उसे ये भी मालूम हुआ होगा कि हीरा औरों के मुकाबले में मुझे कदरन अपने ज्यादा करीब मानती थी और ये कि मैं कौशिक वगैरह चारों जनों के बारे में जानता था । फिर मामूली सी सूंघ से उसे यह भी मालूम हो गया होगा कि मैं भी स्वतन्त्र रूप से हीरा के कत्ल के केस की तह तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था और यह कि मेरे पास उस काम को अंजाम देने का जो सब से मजबूत जरिया था वो ये ही था कि मैं ये पता लगाने की कोशिश करता कि मेरे फ्लैट से हीरा वाले कागजात कौन चुरा के ले गया था । तब उसका ये सोचना स्वाभाविक था कि सबसे पहले मेरा शक कौशिक वगैरह पर ही जाता और फिर मैं उनके घरों और दफ्तरों वगैरह की तलाशी लेकर उन कागजात की बरामदी की कोशिश करता । कहना न होगा कि उसने मेरी विचारधारा को एकदम सही भांपा था । इसलिये उसने मेरी तलाश कामयाब बनाने के लिये बैक्टर के यहां वो कागजात प्लांट किये और अस्थाना के यहां वो रिवा...”
मैंने तत्काल अपने होंठ काटे ।
“कौन-सी रिवाल्वर ?” - यादव मुझे घूरता हुआ बोला ।
“रिवाल्वर का नाम किसने लिया ?”
“तुमने लिया । अभी लिया । जुबान फिसल जाने की वजह से लिया लेकिन लिया ।”
“बिल्कुल नहीं । मैं तो...”
“कोहली, दाई से पेट छुपाने की कोशिश न कर । और ये भी ध्यान में रख कि इस बार मैं तेरी तरफ हूं । पहले भी कहा । फिर कह रहा हूं । कम से कम इस बार मैं तेरी तरफ हूं ।”
तब मैंने अस्थाना के ऑफिस में अपने चोरों की तरह घुसने की और वहां की फाइलिंग कैबिनेट में से बिना नम्बर वाली पैंतालीस कैलीबर की कोल्ट रिवाल्वर की बरामदी की भी कथा उसे सुनायी ।
वो भौंचक्का-सा मेरा मुंह देखने लगा ।
“क्या बात है, कोहली !” - फिर बोला - “तड़प रहा है तिहाड़ में ट्रांसफर के लिये ?”
मैं खिसियाता सा हंसा ।
“ये किसी पढ़े-लिखे समझदार आदमी के करने के काम हैं ?”
“सॉरी ।”
“मुझे क्या सॉरी बोलता है ? और सॉरी बोलने की जगह अक्ल कर । क्यों तड़प रहा है अपनी दुरगत कराने के लिये ?”
“अब तो जो होना है वो हो चुका ।”
“कहां है अब वो रिवाल्वर ?”
“है किसी सेफ जगह पर ।”
“वैसी ही सेफ जगह पर जहां पर कागजात थे ?”
“नहीं ।”
“यानी कि रिवाल्वर घर में नहीं रखे हुए है ?”
“नहीं । कागजात का अंजाम देखकर उसे घर में रखना मुझे मुनासिब नहीं लगा ।”
“वो तेरे दफ्तर में या तेरी सैक्रेट्री के घर में भी बरामद हुई तो....”
“वो कहीं से बरामद नहीं होने वाली ?”
“यानी कि इस घड़ी तेरे घर पर पुलिस का छापा पड़े तो...”
“पुलिस के कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा ।”
“क्या पता हत्यारा पुलिस को फोन कर भी चुका हो ।”
“अभी ऐसा नहीं कर सकता वो । अभी तो मैंने अपने घर का रुख भी नहीं किया ।”
“जो कागजात तेरे हाथ लगने की अपेक्षा हत्यारा कर रहा था, उन्हें तो बैक्टर फूंक-फांक चुका ।”
“लेकिन उसे अभी इस हकीकत की खबर नहीं हो सकती । यादव साहब, अभी तो वो मेरे घर पहुंचने का ही इन्तजार करेगा, उसके बाद कोई बड़ी बात नहीं कि इस बात की वो तसदीक करने की कोशिश करे, कि जो सामान उसने इतने टेढ़े तरीके से मेरे सिर थोपा था, वो मेरे घर पर मौजूद था । उसे वो वहां नहीं मौजूद पायेगा तो बाकी कागजात में से कुछ और कागजात वो वहां प्लांट कर देगा और फिर किसी तरह से पुलिस की तवज्जो मेरे फ्लैट की तरफ करने का कोई जुगाड़ करेगा । बहरहाल ऐसा कोई कदम वो तब तक नहीं उठायेगा जब तक कि मेरा कम से कम एक फेरा मेरे घर पर लग चुका होने की उसे तस्दीक नहीं हो जाती ।”
“इस तसदीक के लिये वो तुम्हारे पीछे लगा हुआ होगा ?”
“क्या जरूरत है ? ये तसदीक तो मेरे घर की निगरानी करने से भी हो सकती है ।”
“तुम कहते हो कि हत्यारा बहुत दूरअन्देशी था और वो भांप गया था कि तुम्हारी अगली मूव क्या होगी । यानी कि वो भांप गया था कि तुम चोरी से अस्थाना वगैरह के ठीऐ ठिकानों की तलाशी लेने की कोशिश करोगे । लेकिन असल में तुम ऐसा कोई कदम उठाने से गुरेज कर सकते थे । बात कितनी ही युक्तिसंगत क्यों नहीं थी, किसी वजह से-किसी भी वजह से, अंजाम से डरकर या हालात को अपने हक में न पाकर तुम उस पर अमल करने का ख्याल छोड़ सकते थे । इस लिहाज से क्या ये बेहतर न होता कि वो किसी तरीके से तुम्हें ये साफ टिप देता कि तुम्हारा अस्थाना का दफ्तर या बैक्टर की कोठी टटोलना तुम्हारे लिये फलदायक साबित हो सकता था ?”
“यादव साहब, ऐसी मुखबिरी पुलिस में चलती है और वहीं वैलकम होती है । कोई मुझे शिद्दत से ये बात सुझाता तो मैं न शक करता भी शक करता । तब पहला ख्याल मुझे यही आता कि अगर मुझे टिप देने वाला अस्थाना को या बैक्टर को हत्यारा समझ रहा था और ये भी जानता था कि उनकी तलाशी पर उनके खिलाफ कोई सबूत बरामद हो सकते थे तो उसने जो टिप मुझे दी थी, वो पुलिस को क्यों न दी ! मुझे वो टिप मिलने का मैं जो स्वाभाविक मतलब निकालता, वो ये होता कि मुझे कत्ल के लिये सैट किया जा रहा था । मिली टिप पर अमल करके मैं अस्थाना के दफ्तर में या बैक्टर के घर में घुसता तो चोर समझ कर शूट कर दिया जाता ।”
“ओह !”
“आज बैक्टर की कोठी पर जैसे मैं पकड़ा गया था, उन हालात में मुझे वहां शूट कर दिया जाता तो बैक्टर पर जरा भी कोई आंच न आती, खास तौर से तब जब कि मेरी जेब से चोरी गये कागजात का एक हिस्सा भी बरामद होता ।”
“वहां जोरावर की मौजूदगी का वो क्या जवाब देता ?”
“उस बाबत कोई सवाल होता तो वो जवाब देता न ? जोरावर की वहां मौजूदगी की बाबत तुम्हें किसने बताया ? मैंने बताया । अब जब मैं ही न रहता तो जोरावर का नाम कौन लेता ? खुद बैक्टर ?”
“कभी भी नहीं ।”
“एग्जैक्टली । वो जोरावर को वहां से खिसका देता और कह देता कि घर में घुस आये चोर को उसने खुद शूट किया था ।”
“वो तुम्हें जानता था ।”
“वो कह सकता था कि गोली चला चुकने के बाद ही उसने चोर की सूरत देखी थी । या वो इसी बात से मुकर सकता था कि वो मुझे जानता था ।”
“लेकिन किया तो तुमने ऐन वही सब कुछ जो हत्यारा तुम्हें टिप देता तो उसके परिणामस्वरूप तुम्हारे से करने की अपेक्षा करता !”
“इसीलिये तो उसने मुझे टिप न दी । वो जानता था कि मैं टिप के बिना भी वही कुछ करने वाला था । यादव साहब, तुम जरा हत्यारे के मकसद को समझने की कोशिश करो । उसका मकसद मुझे परलोक पहुंचाना नहीं था । होता तो वो मुझे वो टिप भी देता जिसका तुम जिक्र कर रहे हो और किसी तरीके से मेरी बाबत अस्थाना और बैक्टर को भी खबरदार करता । तब ये हो सकता था कि कोई मुझे चोर समझ कर शूट कर देता ।”
“हूं ।”
“उसका मकसद तो था, और है, मुझे कत्ल के इलजाम में फंसाना ताकि वो निश्चिन्त होता कि अब पुलिस की तवज्जो उसकी तरफ नहीं जाने वाली थी । इसीलिये उसने मेरी रिवाल्वर से रूबी का खून किया और उसे मौकायेवारदात पर छोड़ा । इसीलिये उसने बैक्टर के घर में कुछ कागजात और अस्थाना के ऑफिस में रिवाल्वर प्लांट की ताकि वो चीजें मेरे हाथ लगतीं और वापिस मेरे फ्लैट में पहुंच जातीं । इसीलिये उसने मेरी सैक्रेट्री के फ्लैट की तलाशी करवाई ताकि पुलिस को उस वारदात की खबर लगने के बाद पूरी तरह से यकीन हो जाता कि मैं उनसे कुछ छुपा रहा था ।”
“तुमने तो अपनी ही बातों से अस्थाना और बैक्टर को कत्ल के इल्जाम से बरी कर दिया !”
“हकीकत को तो मैं नहीं झुठला सकता, अलबत्ता हो सकता है कि वो दोनों मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा पहुंचे हुए महन्त हों ।”
“क्या मतलब ?”
“सुनो । ये सच है कि अस्थाना के पास हीरा के कत्ल के वक्त की उसकी बीवी की सारी रात चली बर्थडे पार्टी की सूरत में बड़ी मजबूत एलीबाई है । ये भी सच है कि बिना नम्बर वाली कोल्ट रिवाल्वर उसके ऑफिस में प्लांट की गयी हो सकती है लेकिन ये बात शक जगाने वाली है कि रघुवीर, इब्राहिम और कलीराम जैसे तीन हिस्ट्रीशीटर, तीन प्रोफेशनल दादे, जिनमें से एक हथियारबन्द, एक उजाड़ बियाबान जगह पर मुझ एक अकेली जान को काबू मे न रख सके । यादव साहब, मुझे अब बड़ी शिद्दत से अहसास हो रहा है कि परसों मैं कुछ ज्यादा ही आसानी से उनके चंगुल से छूट गया था ।”
“तुम्हारा क्या मतलब है” - वो अचरज से बोला - “कि तुम्हें दरियागंज से जबरन उठाना, तुम्हें उजाड़ जगह ले जाकर तुम से डायरी का अतापता कुबुलवाने की कोशिश करना, सब ड्रामा था ? तुम्हें गुमराह करने की चाल थी ? तुम्हें ये जताना था कि कागजात का चोर वो नहीं था, वो तो उन कागजात को हासिल करने के लिये मरा जा रहा था ?”
“क्या नहीं हो सकता ?”
“हो तो सकता है लेकिन....फिर तुम्हारी सैक्रेट्री के अगवा की कहानी कैसे बनी ?”
“वो रघुवीर का वन मैन शो हो सकता है जिससे कि अस्थाना का कुछ लेना-देना नहीं था ।”
“लेकिन जब तुम कहते हो कि अस्थाना ने उसे और उसके जोड़ीदारों को ये पट्टी पढ़ाकर परसों तुम्हारे पीछे लगाया होगा कि उन्होंने तुम्हारे से कागजात का तकाजा ही करना था, उन्हें वसूल करने की जिद करना तो दूर, उन्होने तुम्हें वहां से भाग निकलने का मौका देना था तो रघुवीर ने कैसे सोच लिया कि वो कागजात तुम्हारे पास हो सकते थे ? अगर अस्थाना को ये ऐतबार होता तो वो उन्हें ये निर्देश न देता कि वो तुम्हारे हाथ पांव तोड़कर भी तुम से ये कुबुलवायें कि वो कागजात तुमने कहां छुपाये थे ? फिर ये अस्थाना का ड्रामा कैसे रह जाता ?”
“मैं बताता हूं कैसे रह जाता ? जरूर अस्थाना ज्यादा इच्छुक ये स्थापित करने का था कि वो कागजात का चोर नहीं था, कि वो हीरा का हत्यारा नहीं था । कागजात आम हो जाना सिर्फ उसके मान सम्मान की हानि कर सकता था, उसके घर संसार में आग लगा सकता था लेकिन उसको कातिल समझ लिया जाना तो उसको दूसरी दुनिया का रास्ता दिखा सकता था ।”
“कोहली, दम नहीं तेरी दलील में । लेकिन तू आगे बोल, बैक्टर के बारे में क्या कहता है ?”
“फर्ज करो तमाम के तमाम कागजात उसके कब्जे में थे । ऐसी सूरत में उसका पहला काम उन कागजात में से वो कागजात छांटना और उन्हें नष्ट करना ही होता जो कि उससे संबन्धित थे । उसने वो कागजात छांट कर अलग किये लेकिन उन्हें नष्ट करने की जगह अपनी स्टडी में मेरे लिये सजा कर रख लिया जहां से कि मैं बड़ी सहूलियत से उन्हें बरामद कर सकता था । फिर वो वहां मेरी आमद के इन्तजार में बैठ गया । मैं वहां पहुंचा लेकिन उससे बेखबर नहीं, उसकी जानकारी में वहां पहुंचा । मेरे कागजात बरामद कर लेने तक वो मुझे वाच करता रहा और फिर उसने यूं ड्रामा किया जैसे वो इत्तफाकन ही एकाएक ऊपर से आ गया था । फिर उसने उन कागजात को, जिनको उसने वैसे ही नष्ट करना था, बड़े फैनफेयर के साथ ये जाहिर करते हुए मेरे सामने जलाया जैसे ऐसा कर चुकने के बाद ही उसकी जान में जान आयी थी ।”
“है तो ये भी कहानी लचर लेकिन तेरी अस्थाना वाली दलील के मुकाबले में ये कदरन दमदार है ।”
“बहरहाल कहना मैं ये चाहता हूं कि अभी चौकड़ी में से कोई भी पूरी तरह से शक से परे नहीं है ।”
“हूं ।” - यादव कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तो अब हीरा के कत्ल के दौरान चली दूसरी गोली भी हमारे ए सी पी साहब के कब्जे में है ?”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?” - वो तीखे स्वर में बोला ।
मैंने मतलब समझाया ।
“कोहली” - वो भौंचक्का सा बोला - “तेरी...”
“खैर नहीं ।” - मैंने उसका वाक्य पूरा किया ।
“ऐसा क्यों किया तूने ?”
“देखो, जो बात मैंने तुम्हारे सामने कबूल की है, वो मैं तलवार के सामने न कबूल कर सकता था और चाहे तबाही आ जाये, न कबूल करूंगा । हीरा के कत्ल के चार दिन बाद ये कबूल करना कि उस रात को मैं हीरा के साथ था और कत्ल मेरी मौजूदगी में हुआ था, अपने गले में फांसी का फन्दा खुद डालने जैसा काम होगा । मैं हाथ के हाथ ये बात बताता तो शायद कोई मान भी लेता लेकिन अब कौन मानेगा कि मैं ही हीरा का कातिल नहीं था । मेरी बदकिस्मती से अमोलकराम तलवार की जानकारी मे आ गया था...”
“सच पूछो तो अब तक का यही एक ब्रिलियन्ट काम है जिसे हमारे ए सी पी साहब ने अंजाम दिया था । मेरी निगाह में तो ये ही एक करिश्मा है कि तलवार को तुम्हारी जानकारी के दायरे में किसी आर्म्स एण्ड एम्यूनीशन के डीलर की तलाश करना सूझा । बहरहाल तुम अपनी बात कहो ।”
“गोली की बाबत मैंने ये कहानी गढ़ी थी कि वो मुझे रूबी ने दी थी जिसकी निगाह में वो गिरी पड़ी पता नहीं क्या चीज थी ! मैट्रेस से निकली गोली तलवार को सौंपने की जगह मैंने उसे वो गोली सौंप दी थी जो पिछली रात मैंने अस्थाना की रिवाल्वर से एक पेड़ में चला कर बरामद की थी । ऐसा करने के पीछे मेरी मंशा ये ही थी कि तलवार जब उस गोली का मिलान रूबी की लाश से निकली गोली से करवाता तो वो दोनों गोलियां मिलती न पायी जातीं । तब मुझे उम्मीद थी कि तलवार मेरा पीछा छोड़ देता और, अनिच्छा से ही सही, ये मान लेता कि वो गोली मुझे रूबी ने दी थी । इस बाबत रूबी कब्र से उठकर तो अपना बयान दे नहीं सकती थी..”
“तभी तो तुमने गोली की बात उसके सिर थोपी ।”
“और क्या ?”
“पक्के हरामी हो ।”
“बिल्कुल पक्का । आयरनक्लैड । गिल्टऐज्ड । स्टीलटेप्ड ।”
“गोली की बात करो ।”
“यादव साहब, अभी जब तलवार के आफिस में पुलिस के बैलेस्टिक एक्सपर्ट ने अपनी ये रिपोर्ट भेजी थी कि मेरे द्वारा सौंपी गयी गोली भी उसी रिवाल्वर में से चली थी तो मेरा हार्टफेल होते-होते बचा था ।”
“हार्टफेल तो चलो तुम्हारा नहीं हुआ लेकिन अब इस बात की अहमियत समझते हो ?”
“समझता हूं । इस ख्याल से मेरा दिल बैठा जा रहा है कि मर्डर वैपन मेरे अधिकार में है । अस्थाना वाली रिवाल्वर ने तो मेरी हालत सांप छछूंदर जैसी कर दी है । न निगलते बनता है, न उगलते बनता है ।”
“अपनी खैरियत चाहते हो तो या तो उस रिवाल्वर से जल्दी से जल्दी पल्ला झाड़ लो या रिवाल्वर ले कर तलवार के पास पहुंच जाओ और उसे सब कुछ साफ-साफ बता दो ।”
“मरना है मैंने ?”
“तो पहला काम करो ।”
“वही करूंगा बल्कि कोई ऐसी तरकीब सोचूंगा कि रिवाल्वर से मेरा सम्बन्ध भी न जुड़े और पुलिस के पास वो इस जानकारी के साथ पहुंच जाये कि उसे अस्थाना अपने आफिस में छुपाये बैठा था ।”
“कर सकोगे ऐसा ।”
“करना ही पड़ेगा ।”
“और जो गोली तुमने असल में मैट्रेस में से निकाली थी, उसका क्या करोगे ?”
मुझे जवाब न सूझा ।
“एक बात और सुन लो ।” - यादव चेतावनी भरे स्वर में बोला - “और समझ लो । अभी तलवार ने सिर्फ कम्पैरिजन माइक्रोस्कोप से ये जंचवाया है कि दोनों गोलियां एक रिवाल्वर से चलाई गयी थीं । बाद में तुम्हारे वाली गोली की अधिक शक्तिशाली माइक्रोस्कोप से और बारीक जांच हो सकती है । होगी । फिर उससे से ये बात कुछ छुपी नहीं रहेगी कि वो गोली मैट्रेस में से नहीं निकाली गयी थी । उस गोली पर जरूर जरूर लकड़ी के ऐसे माइक्रोस्कोपिक कण चिपके पाये जायेंगे जो ये सिद्ध कर देंगे कि वो मैट्रेस से निकाली गयी गोली नहीं थी । एक बार ये स्थापित हो जाने पर तुम्हारा इस जिद पर अड़ा रहना मुमकिन नहीं रहेगा कि वो गोली तुम्हें हत्प्राण रूबी ने हीरा के बेडरूम के फर्श पर से उठा कर दी थी ।”
मैं और भी घबरा गया ।
“शायद तलवार को” - मैं हकलाता सा बोला - “मेरे वाली गोली की दोबारा जांच कराना न सूझे ?”
“भगवान से ये ही दुआ करो कि उसे ऐसा न सूझे । इसी में तुम्हारी खैरियत है ।”
“मैंने” - मैं सोचता हुआ बोला - “जब तलवार से कहा था कि मेरे वाली गोली की बाबत ये कैसे स्थापित होगा कि वो उस मैट्रेस में दागी गयी थी जिस पर कि हीरा की लाश पड़ी पायी गयी थी तो उसने ये नहीं कहा था ऐसा माइक्रोस्कोपिक एग्जामिनेशन से हो सकता था, उसने मुझे धमकी दी थी कि ये बात वो मेरे से मेरी जुबानी कबूल करवायेगा । क्या पता उसे मालूम ही न हो कि शक्तिशाली माइक्रोस्कोप के जरिये....”
“ख्वाब देखने बन्द कर, कोहली ।” - यादव मेरी बात काटता हुआ बोला - “वो असिस्टैण्ट कमिश्नर आफ पुलिस है, कोई कांस्टेबल या हवलदार नहीं ।”
मैंने बड़े चिन्तित भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“अब” - फिर मैं बोला - “ये तो बताओ कि मेरी गति कैसे हो ?”
“तुम्हारी गति तो भैया इसी बात में है कि कातिल जल्दी से जल्दी पकड़ा जाये ।”
“कैसे ? जादू के जोर से !”
“जादू के जोर से क्यों ? कोशिश करो । मेहनत करो । काया को कष्ट दो ।”
“पुलिस का काम मैं करूं ?”
“अब या अंटी की सोच लो या अंजाम की सोच लो ।”
“और काया को और क्या कष्ट दूं ? जब से हीरा का कत्ल हुआ है, मारा मारा तो फिर रहा हूं सारे शहर में ।”
“और, फिर लो । वो कहते हैं न कि हर कातिल कत्ल का कोई न कोई सुराग अपने पीछे जरूर छोड़ता है । इस कातिल ने भी जरूर छोड़ा होगा । इसलिये...”
“वो सब किताबी बातें हैं ।”
“एक काम तो फिर भी करो ।”
“क्या ?”
“जैसे तुमने अस्थाना, कौशिक और बैक्टर को टटोला है, वैसे उस चौथे पंछी को भी तो टटोलो...क्या नाम बताया था तुमने उसका ?”
“पचौरी । प्रभात पचौरी ।”
“ताले वाले खोलने में तो तू उस्ताद हो ही गया मालूम होता है । एक ताला पचौरी का भी खोल के देख ले ।”
“हूं । अब तुम्हारे खुद के केस की क्या पोजीशन है ?”
“भई, निपट तो नहीं गया केस । अलबत्ता अब सस्पैंड शायद न किया जाऊं ?”
“वो कैसे ?”
“एक तो इसीलिये कि ऐसे मामलों में सस्पेंशन फौरन होती है जो कि नहीं हुई । दूसरे अब मुझे काम भी दिया गया है ।”
“क्या ?”
“गड़े मुर्दे उखाड़ने का । साल-साल डेढ़-ड़ेढ साल से बन्द पड़े कत्ल के केसों की तफ्तीश का । तलवार कहता है कि जब मैं इतना ही सूरमा हूं कि कत्ल का हर केस हल कर सकता हूं तो उन केसों को क्यों नहीं हल कर सकता ! अब तो मैं ये भी नहीं कह सकता कि मैं फील्ड का आदमी हूं, फील्ड वर्क करूंगा । क्योंकि फील्ड में जाने की मुझे कोई मनाही नहीं । जबकि हालात मनाही जैसे ही हैं ।”
“वो कैसे ?”
“अरे फाइलों से माथा फोडूंगा तो फील्ड वर्क के काबिल कोई नुक्ता निकलेगा न !”
“ओह !”
“इसी बखेड़े की वजह से तो मैं फॉर्टी फाइव कोल्ट रिवाल्वर होल्डरों की वो लिस्ट न मुहैया कर सका जो तूने...”
“अब उसका ख्याल छोड़ दो । अब उससे कुछ हासिल नहीं होने वाला । अब जब मर्डर वैपन बरामद हो गया है और ये मालूम हो गया कि उस पर सीरियल नम्बर है ही नहीं तो उस लिस्ट से क्या हाथ आयेगा ! बिना सीरियल नम्बर का हथियार तो रजिस्टर हो नहीं सकता । या हो सकता है ?”
“नहीं हो सकता ।”
“सो देयर यू आर !”
“मैं अब चलता हूं ।” - यादव कार का अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
“एक बात और बताते जाओ ।” - मैं जल्दी से बोला ।
“पूछो ।”
“हैदराबाद से हीरा का कोई होता सोता यहां पहुंचा ?”
“नहीं पहुंचा । पुलिस ने किसी के पहुंचने की उम्मीद भी छोड़ दी है । आज शाम तक कोई न आया तो शाम को ही बतौर लावारिस लाश इलैक्ट्रिक क्रिमेटोरियम में उसका अंतिम संस्कार पुलिस ही करवा देगी ।”
“तौबा ! अपनी जिन्दगी में हुस्न की मलिका । बेशुमार दिलों की धड़कन ! और मौत के बाद लावारिस लाश !”
“जिस पर कि कोई निगाह डाल के राजी नहीं ।”
“उनमें से भी कोई नहीं जो कभी जिन्दगी में उसके तलुवे चाटते थे, जिनमें उसको हासिल करने की होड़ लगी रहती थी ।”
“कोहली ! ऐसा ही एक शख्स तू भी तो है ।”
मैं हकबकाया और फिर बोला - “वो-वो क्या है कि....”
“मुझे पता है वो क्या है । वो यही है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।”
“यार तू तो...”
“मैं चला । शाम को फोन करना ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
सड़क पर पहुंचते ही मैंने सबसे पहले अखबार खरीदा ।
उस रोज का अखबार देखने का मौका मुझे सच में ही नहीं मिला था ।
मैंने जल्दी-जल्दी अखबार पर निगाह फिराई ।
उसमें पुलिस के एक प्रवक्ता के बयान के जरिये इस बात का जिक्र वाकेई था कि हीरा का कत्ल जिस गोली से हुआ था, वो पैंतालीस कैलीबर की कोल्ट रिवाल्वर से चलायी गयी थी ।
उसमें पिछली रात राकेश अस्थाना के नेहरू प्लेस स्थित ऑफिस में घुसे चोर का भी जिक्र था जो कि चौकीदार पर आक्रमण करके वहां से भाग खड़ा हुआ था । चौकीदार को कोई गम्भीर चोट नहीं आयी थी, वो थोड़ी ही देर में होश में आ गया था और तत्काल उसने पुलिस को - और अस्थाना को भी - फोन किया था । अस्थाना पुलिस की मौजूदगी में अपने ऑफिस में पहुंचा था और पूरी पड़ताल के बाद उसने ये बयान दिया था कि वहां से कुछ चोरी नहीं गया था ।
लेकिन अखबार की हीरा के कत्ल से सम्बन्धित सब से दिलचस्प खबर ये थी पुलिस को हीरा के पार्लियामैंट स्ट्रीट में स्थित एक बैंक में लाकर का पता चला था जिसे जब उचित कार्यवाही के बाद बैंक और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने खोला गया था तो उसमें सौ-सौ के नोटों की सूरत में कोई सोलह लाख रुपये की धनराशि मौजूद पायी गयी थी । उस दौलत की बरामदी ने पुलिस को ये सोचने पर मजबूर किया था कि वो महज एक कालगर्ल ही नहीं थी बल्कि कुछ और भी थी ।
‘कुछ और’ के सन्दर्भ में उसके किसी बड़े स्मगलर की सहचरी होने की सम्भावना भी व्यक्त की गयी थी ।
इतनी बड़ी रकम की बरामदी ने तो मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि मैं हीरा की जिन्दगी के तमाम पहलुओं से वाकिफ नहीं था । अगर वो तमाम दौलत उसने चन्द महीनों में सिर्फ ब्लैकमैलिंग से ही कमायी थी तो बकरे मूंडने में उसने कमाल कर दिखाया था ।
***
अपने निगाहबानों से खबरदार मैं हेली रोड पहुंचा ।
यूअर्स ट्रूली का ये जाति तजुर्बा है कि जो शख्स अपने निगाहबानों से खबरदार हो, उसको निगाह में रखना नामुमकिन नहीं तो बेहद कठिन काम जरूर होता है । यूं खबरदार शख्स - जैसे कि मैं खुद था - के सामने अपने पीछे लगे लोगों को पहचाने बिना भी उन्हें अपने पीछे से झटक देने के कई तरीके होते थे ।
हेली रोड की एक बहुखण्डीय इमारत की छठी मंजिल पर प्रभात पचौरी का फ्लैट था ।
लिफ्ट द्वारा मैं छठी मंजिल पर पहुंचा । वहां मैंने पचौरी के फ्लैट की कालबैल बजायी और फिर दौड़ कर ऊपर को जाती सीढ़ियां चढ़ गया । सीढ़ियों के मोड़ पर मैं ठिठका । वहां से मुझे पचौरी के दरवाजे का निचला भाग दिखाई दे रहा था । मैंने दरवाजे पर निगाह टिका ली और कान खड़े कर लिये ।
मुझे न दरवाजा खुलता दिखाई दिया, न कोई ऐसी आहट मिली कि दरवाजा खुलने वाला था ।
यानी कि भीतर कोई नहीं था ।
अब मैं बड़े इत्मीनान से फ्लैट का ताला खोल कर भीतर दाखिल हो सकता था ।
मेरे पास पचौरी के फ्लैट की चाबी थी जो कि सोमवार रात को उसने मुझे खुद दी थी । वो चाहता था कि उस रात हीरा से मुलाकात के बाद मैं उससे मिलूं और अगर वो फ्लैट पर न हो तो ताला खोल कर भीतर जा बैठूं । उससे मिलने का कोई प्रयोजन तो हीरा के कत्ल की वजह से खत्म हो गया था और उसे चाबी लौटाने मैं इसलिये नहीं गया था कि वो खुद आकर चाबी मेरे से ले सकता था ।
बहरहाल फ्लैट की चाबी मेरे पास थी जिससे फ्लैट का प्रवेश द्वार खोलकर मैं बड़े इत्मीनान से भीतर दाखिल हुआ ।
वो तीन बैडरूम का फ्लैट था जिसके एक बेडरूम को पचौरी ने अपना ऑफिस बनाया हुआ था ।
मैंने अपनी खोज की शुरूआत उसके ऑफिस से ही की ।
बहुत जल्द मेरी खोज कामयाब हो गयी ।
उसकी फाइलों के शैल्फ में से एक फाइल बरामद हुई जिस में कानूनी कागजात लगे होने की जगह वैसे ही कागजात लगे हुए थे जैसे मैंने बैक्टर की स्टडी में शैल्फ में लगी किताबों के पीछे से बरामद किये थे । उन कागजात को फाइल से निकाल कर मैंने अपने कोट की भीतरी जेब के हवाले किया । उनके अध्ययन में वहां वक्त बर्बाद करना मूर्खता थी । पचौरी किसी भी क्षण वहां पहुंच सकता था ।
सड़क पर पहुंचकर मैं अपनी कार में सवार हुआ और वहां से चल पड़ा । इण्डिया गेट पहुंच कर मैंने कार को राजपथ पर एक पेड़ की छांव में रोका । मैंने कोट की भीतरी जेब से वहां मौजूद कागजात निकाले और उनकी पड़ताल आरम्भ की ।
उनमें भी हीरा की डायरी के कई पन्ने थे जिन पर अंकित क्रम संख्या से मुझे मालूम हुआ कि बीच-बीच में से कुछ पन्ने गायब थे और कुछ पन्ने ऐसे थे जिनकी इबारत में से एक नाम गाढ़ी काली स्याही की सहायता से मिटा दिया गया हुआ था । मिटाया हुआ शब्द नाम था, ये उसके आगे पीछे के अक्षर पढ़ने से स्पष्ट स्थापित होता था लेकिन वो नाम किसका था इसका कोई इशारा मुझे पूरे पन्ने पढ़ने के बाद भी न मिल पाया । अलबत्ता उन कागजात में, जो कि गिनती में अस्सी थे, मेरा, कौशिक का, बैक्टर का और अस्थाना का स्पष्ट उल्लेख था । उसमें प्रभात पचौरी का कहीं उल्लेख न होने का ये मतलब हो तो सकता था कि मिटाया गया नाम पचौरी का था लेकिन ऐसा दावे के साथ कहना मुहाल था क्योंकि हीरा के लाकर से बरामद सोलह लाख रुपये की रकम इस बात की साफ चुगली कर रही थी कि हीरा के कद्रदानों की संख्या मेरी जानकारी से, बल्कि मेरे अनुमान से भी, कहीं ज्यादा थी । पचौरी जैसे और भी कई नाम - एक तो नरेन्द्र कुमार का ही था - भी मुमकिन थे जो कि उन कागजात में दर्ज नहीं थे ।
और इस बारे में भी कोई दो राय नहीं हो सकती थीं कि उन कागजात की पचौरी के यहां मौजूदगी हत्यारे के ही हस्तकौशल की मिसाल थी । इस बार उसने ये नयी चालाकी की थी कि उनमें से एक नाम मिटा दिया था ताकि जब कागजात पचौरी के यहां से बरामद हों तो ऐसा लगे कि उसी ने अपने नाम को कागजात में से सैन्सर किया था ।
आखिरकार मैंने उन कागजात के बहुत छोटे-छोटे टुकड़े किये और उन्हें हवा में उड़ा दिया ।
आखिर उनमें मेरा भी तो जिक्र था ।
***
मैं विक्रम होटल पहुंचा ।
मैंने कार को होटल से बाहर ही पार्क किया, पैदल चलकर होटल में पहुंचा और फिर लिफ्ट पर सवार होकर चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
लिफ्ट से निकलते ही मैं ठिठककर खड़ा हो गया ।
कौशिक के सूइट के खुले दरवाजे के सामने कई लोग जमा थे जिनमें एक वर्दीधारी पुलिसिया भी था ।
मैं लपक कर करीब पहुंचा । वहां एक काला सूट और बो टाई लगाये व्यक्ति को - जो कि निश्चय ही होटल का कोई कर्मचारी था - मैंने बांह से थामा और व्यग्र भाव से पूछा - “क्या हुआ ?”
“वो-वो कौशिक साहब” - वो बोला - “जो इस कमरे में ठहरे हुए थे....”
“हां, हां । क्या हुआ उन्हें ?”
“उन्होंने आत्महत्या कर ली ।”
मैंने झिझकते हुए कमरे के भीतर झांका ।
प्रवेशद्वार के सामने ही कौशिक की लाश यूं पीठ के बल पड़ी थी कि उसके पांव दरवाजे की तरफ थे और सिर कमरे के भीतर की तरफ था । उसके माथे में दोनों पलकों के ऐन बीच में गोली का सुराख दिखाई दे रहा था ।
एक फोटोग्राफर उस घड़ी विभिन्न कोणों से लाश की तस्वीरें खींच रहा था ।
वो निपटा तो लाश को चादर से ढंक दिया गया ।
तभी भीतर मौजूद ए सी पी तलवार से मेरी निगाह मिली । मुझे देख कर उसके चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये, फिर उसने करीब खड़े ए एस आई रावत को कुछ कहा ।
रावत तत्काल दरवाजे के करीब पहुंचा । उसने मुझे इशारा किया तो मैंने कमरे के भीतर कदम रखा ।
“यहीं रहना ।” - वो सख्ती से बोला - “जाना नहीं । बड़े साहब का हुक्म हुक्म है ।”
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
तलवार उस घड़ी वेटर की वर्दी पहने एक युवक से पूछताछ कर रहा था लेकिन दोनों की ही आवाज मेरे तक नहीं पहुंच रही थी ।
“क्या हुआ ?” - मैं दबे स्वर में बोला ।
“वही जो दिखाई दे रहा है ।” - रावत भी वैसे ही स्वर में बोला - “कोई अम्बरीश कौशिक है मरने वाला । लखनऊ से आया हुआ । गोली मार ली अपने आपको । खुदकुशी कर ली ।”
“लेकिन....”
“चुप करो ।”
मैं खामोशी से खड़ा रहा ।
फिर मेरे देखते-देखते लाश वहां से उठवा दी गयी ।
तब तलवार ने युवा वेटर को डिसमिस कर दिया और मुझे इशारा किया ।
मैं तलवार के करीब पहुंचा ।
“इतनी जल्दी” - वो मुझे घूरता हुआ - बोला - “वारदात की खबर कैसे लग गयी तुम्हें ? अभी तो यहां कोई प्रैस वाला भी नहीं पहुंचा जो कि...”
“मुझे वारदात की खबर नहीं थी ।” - मैं जल्दी से बोला - “वारदात की खबर मुझे अभी, यहां आके ही लगी है । मैं तो वैसे ही कौशिक से मिलने आया था ।”
“उसे खबर करके ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्यों क्या ? मुझे उम्मीद थी उसके यहीं होने की । न होता तो मैं फिर आ जाता ।”
“क्यों मिलना चाहते थे ?”
“हीरा के कत्ल की बाबत ही कोई छोटी-मोटी पूछताछ करना चाहता था ।”
“ऐसी पूछताछ करना तुम्हें कत्ल के चार दिन बाद सूझा ?”
“पहले भी सूझा था । फौरन सूझा था । मंगलवार आया भी था मैं यहां कौशिक से मिलने ।”
“तो ? मुलाकात नहीं हुई थी ?”
“मुलाकात तो हुई थी लेकिन मुफीद साबित नहीं हुई थी । तब वो इतना ज्यादा नशे में था कि कोई ढंग की बात करने की हालत में नहीं था ।”
“क्यों था वो ऐसी हालत में ?”
“मेरे ख्याल से तो फिक्रमंद था किसी बात से ।”
“किस बात से ? कुछ बताया नहीं उसने ?”
“न ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
मैं खामोश रहा ।
“कोहली, ये आत्महत्या का केस है इसलिये मैं बात को यहीं खत्म कर रहा हूं । हत्या का केस होता तो तुम यूं खामोश न रह पाए होते ।”
“मैं इसलिये खामोश हूं क्योंकि मेरे पास कहने को कुछ नहीं है । इसलिये नहीं क्योंकि...”
“ओके । ओके । नाओ गैट अलोंग ।”
मैं वहां से बाहर निकला और नीचे बार में पहुंचा । वहां मैं एक ऐसी टेबल पर बैठा जहां से मुझे लिफ्ट और होटल का मुख्य द्वार दोनों दिखाई दे रहे थे ।
इच्छा न होते हुए भी अपनी वहां मौजूदगी को सार्थक करने के लिये मैंने एक बीयर का आर्डर दिया ।
दस मिनट बाद मैंने तलवार को अपने दल-बल के साथ वहां से रुख्सत होते देखा ।
मैं पांच मिनट और वहां बैठा रहा, फिर वहां से फारिग होकर बाहर निकल गया ।
मैंने उस युवा वेटर को तलाश किया जिसे मैंने ऊपर कौशिक के सुइट में ए सी पी के रूबरू देखा था ।
मालूम हुआ कि उसका नाम किशन पाल था और वो कौशिक के सुइट वाली मंजिल का फ्लोर वेटर था । पहले तो किशन पाल ने कौशिक के सन्दर्भ में मेरे से कोई बात करने से साफ इंकार कर दिया लेकिन जब मैंने एक सौ का पत्ता उसकी नजर किया तो वो पिघला ।
“यहां नहीं” - वो बोला - “आप होटल से बाहर स्टैण्ड पर पहुंचिये । मैं वहां आता हूं ।”
मैं सहमति में सिर हिलाता वहां से रुखसत हो गया और बाहर जाकर खाली पड़े बस स्टैण्ड पर खड़ा हो गया ।
दस मिनट में किशन पाल वहां पहुंचा ।
“पुलिस वालों ने” - आते ही वो बोला - “वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने से मना किया था ।”
“अरे, मैं क्यों उन्हें बताने जाऊंगा कि तुमने मेरे से कोई बात की थी ।”
“यही मतलब था मेरा । उनको खबर न लगे ।”
“नहीं लगेगी । वादा ।”
“अब पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं ?”
“वैसे तुम ए सी पी तलवार के सामने खास हाजिरी भर रहे थे, उससे लगता है कि वारदात की सबसे पहले खबर तुम्हें ही लगी थी !”
“हां । अपने फ्लोर के एक और मेहमान को सर्व करके मैं सर्विस लिफ्ट में सवार होने ही लगा था कि मुझे गोली चलने की आवाज सुनायी दी थी ।”
“तुम्हें झट सूझ गया था कि वो गोली चलने की आवाज थी ?”
“मुझे तो सूझा था लेकिन लिफ्टमैन मेरी खिल्ली उड़ाने लगा कि होटल में गोली चलने का क्या काम ! जरूर किसी मेहमान ने शैम्पेन की बोतल खोली थी ।
“फिर ?”
“तब तो मैं खामोश हो गया था लेकिन ये बात मेरे दिल से निकली नहीं थी । मुझे हर घड़ी ये ही लगता रहा था कि वो गोली चलने की आवाज थी जो कि कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ।”
“ये कैसे सूझा कि वो कौशिक साहब के कमरे से आयी थी ?”
“क्योंकि आज उस फ्लोर के सिर्फ दो ही कमरे लगे हुए थे । उनमें से एक के मेहमान को सर्व करके और उसे भला चंगा छोड़ कर तो मैं वहां से निकला था । अब दूसरा लगा हुआ...”
“आकूपाइड !”
“हां । वो कमरा तो कौशिक साहब का ही था । बाकी सब तो खाली थे ।”
“फिर ?”
“फिर मैंने अपने दिमाग में मची खलबली का जिक्र मैनेजर से किया । पहले तो मैनेजर ने भी मुझे डांट कर भगा दिया लेकिन फिर खुद ही मेरे पीछे-पीछे आया और हम दोनों चौथी मंजिल पर पहुंचे । हमने कौशिक साहब को नाम लेकर पुकारा तो भीतर से कोई आवाज न आयी, दरवाजा खटखटाया तो भी कोई जवाब न मिला, फिर दरवाजा खोला तो पाया कि फर्श पर कौशिक साहब की लाश पड़ी थी ।”
“वैसे ही जैसे अभी थोड़ी देर पहले तक पड़ी थी ?”
“हां ।”
“पीठ के बल ? पांव दरवाजे की ओर ? सिर कमरे से भीतर की ओर ?”
“और दायें हाथ में पिस्तौल ।”
“पिस्तौल ? मुझे तो पिस्तौल नहीं दिखाई दी थी ।”
“वो पुलिस वालों ने अपने काबू में कर ली थी ।”
“कैसी थी पिस्तौल ?”
“मैं क्या बताऊं कैसी थी ? मैं तो हथियारों के बारे में कुछ जानता नहीं ।”
“हूं । किशन पाल, लाश की पोजीशन से ऐसा नहीं लगता था जैसे कौशिक साहब ने किसी आगन्तुक के लिये दरवाजा खोला हो जिसने दरवाजा खुलते ही उन्हें शूट कर दिया हो और वो वहीं दरवाजे के सामने फर्श पर ढ़ेर हो गये हों ।”
“यानी कि” - वो नेत्र फैला कर बोला - “हत्या ?”
“हां ।”
“लेकिन पुलिस वाले तो कहते थे कौशिक साहब ने आत्महत्या की थी !”
“जरूर की होगी । मैं तो ये कह रहा था कि लाश की पोजीशन से ऐसा लगता था - लगता था - कि वो दरवाजे के पास दरवाजे की तरफ मुंह किये खड़े थे जबकि गोली खाकर पीठ के बल फर्श पर गिरे थे ।”
“लगता तो ऐसा ही था ।”
“तुमने उनके हाथ में पिस्तौल देखी थी ?”
“हां । साफ । दायें हाथ में ।”
“उंगलियां पिस्तौल की मूठ पर जकड़ी हुईं ?”
“अब इतना तो मुझे मालूम नहीं । मुझे, तो बस ये मालूम है कि पिस्तौल उनके हाथ में थी ।”
“गोली चलने की आवाज सुनने से लेकर मैनेजर के साथ कौशिक के सुइट में वापिस लौटने तक कितना वक्त गुजर गया होगा ?”
“यही कोई बीस मिनट ।”
“बीस मिनट ?”
“साहब मैंने तो मैनेजर को काफी पहले बोला था लेकिन हम जब ऊपर जाने के लिये लिफ्ट में सवार होने लगे थे तो उसका फोन आ गया था । अपने ऑफिस में जाकर फोन रिसीव करने में मैनेजर ने काफी वक्त जाया कर दिया था ।”
“पुलिस कब पहुंची ?”
“और पन्दरह मिनट बाद ।”
“पिछले तीन चार दिनों से तुम्हीं फ्लोर वेटर हो चौथी मंजिल के ?”
“जी हां । सोमवार से मेरी वहां ड्यूटी है जो कि अभी परसों तक रहेगी ।”
“तब तो तुम्हें सोमवार से अब तक की कौशिक साहब की मूवमेंट्स की काफी खबर होगी ? उनकी कहीं, कभी आवाजाही की ! उनसे मिलने आने वाले लोगों की !”
“साहब, मंगलवार से कौशिक साहब कहीं नहीं गये थे । अपने सुइट से निकलकर वो कहीं गये थे तो या तो नीचे बार में या रेस्टोरेन्ट में । वो भी कोई बहुत ज्यादा बार नहीं । अमूमन तो वो खाना भी रूम सर्विस से मंगाते थे और ड्रिंक्स वगैरह भी ।”
“यानी कि मंगलवार से वो होटल में ही थे ?”
“हां ।”
मुझे याद आया कि मंगलवार को जब मैं कौशिक से मिला था तो वार्तालाप के सिरे पर उसने कहा था कि उसने भी कहीं जाना था ।
क्या मतलब था उस बात का ?
क्या उसने नीचे होटल में ही कहीं जाना था ? या ऐसा उसने महज मुझे टालने के लिये कह दिया था ?
शायद होटल में ही कहीं जाना था ।
काफी हाउस में ?
जहां कि मैंने उसे बैठा देखा था ।
“तुम” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “इस बात को दावे से कैसे कह सकते हो कि कौशिक साहब होटल से बाहर कहीं नहीं गये थे ?”
“साहब, उन्होंने कहीं जाना होता था तो टैक्सी बुलाने के लिये वो मुझे कहते थे । मंगलवार से अब तक एक बार भी उन्होंने मुझे टैक्सी बुलाने को नहीं कहा था ।”
“ओह ! कोई आया गया ?”
“उसकी मुझे कोई गारन्टी नहीं । क्योंकि हर वक्त तो मैं फ्लोर पर नहीं रह सकता न ?”
“मंगलवार को तो एक बार” - मैंने ‘एक बार’ पर विशेष जोर दिया - “मैं भी यहां आया था !”
“मुझे खबर नहीं ।”
“तुम्हारी ड्यूटी कितने बजे से शुरू होती है ?”
“सुबह नौ बजे से ।”
“कौशिक साहब मंगलवार सुबह सवेरे, कह लो कि चार सवा चार बजे कहीं गये हो तो तुम्हें तो फिर खबर नहीं लगी होगी ?”
“मुझे कैसे खबर लगती । मैं तो नौ बजे...”
“हां, हां । आज कौशिक साहब को आखिरी बार जीवित कब देखा था तुमने ?”
“सुबह दस बजे । जब उन्होंने विस्की की नयी बोतल मंगवाई थी ।”
“तब हालत कैसी थी उनकी ?”
“खस्ता ही थी । बड़े नर्वस से, परेशान से, डरे-डरे से लग रहे थे । सुबह सवेरे पैग भी लगा लिया मालूम होता था ।”
“यानी कि ऐसे शख्स जैसे नहीं लग रहे थे जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कन्ट्रोल हो ?”
“नहीं, जी । वो तो बड़े हलकान से, बीमार से...”
“ओके । सहयोग का शुक्रिया, किशन पाल । अब अपनी वो बात याद रखना । पुलिस वालों ने वारदात की बाबत किसी से कोई बात करने के लिये तुम्हें मना किया हुआ है ।”
“बिल्कुल याद है मुझे ये बात ।” - उसने तत्काल इशारा समझा - “मैंने किसी से कोई बात नहीं की ।”
“शाबाश । तरक्की करोगे, बरखुरदार ।”
***
चार बजे पुलिस हैडक्वार्टर के सामने, इन्कम टैक्स ऑफिस के पिछवाड़े में बने एक साउथ इन्डियन रेस्टोरेंट में मेरी इन्स्पेक्टर यादव से फिर मुलाकात हुई ।
“अम्बरीश कौशिक के कत्ल की खबर लग गयी ?” - मैंने पूछा ।
“कत्ल की ?” - उसकी भवें उठी ।
“लग गयी खबर ?”
“खबर तो लग गयी लेकिन वो तो आत्महत्या का ओपन एण्ड शट केस बताया जा रहा है ।”
“आत्महत्या, माई फुट ।”
“क्या माजरा है, कोहली ?”
“हत्यारे ने अपनी तरफ से बड़ी होशियारी से आत्महत्या की स्टेज सैट की थी और वो अपने मकसद में कामयाब रहा था, इसका यही काफी सबूत है कि तुम्हारा ए सी पी तलवार पूरी तरह से आश्वस्त है कि वो आत्महत्या का केस है ।”
“लेकिन तुम आश्वस्त नहीं हो ?”
“नहीं हूं । सुनो क्यों नहीं हूं: नम्बर एक, गोली माथे में लगी पायी गयी । मैं ये नहीं कहता कि खुद की माथे में गोली मार कर आत्महत्या नहीं की जा सकती लेकिन ये एक स्थापित तथ्य है कि आत्महत्या करने वाले रिवाल्वर की नाल को अपनी कनपटी से लगाकर ही इस काम को अंजाम देते हैं । दूसरे, मौत से पहले की उसकी हालत बहुत खस्ता बताई जाती है । फ्लोर वेटर का कहना है कि सुबह दस बजे जब वो कौशिक के लिये विस्की की नयी बोतल लाया था, तो उस वक्त वो बहुत नर्वस, बहुत परेशान, बहुत डरा-डरा, बहुत हलकान और बीमार सा लग रहा था । यानी कि ऐसा आदमी तो वो सुबह दस बजे ही नहीं था जिसे कि अपने आप पर मुकम्मल कंट्रोल रहा है । ऊपर से उसने और विस्की भी पी ली थी ।”
“कैसे मालूम ?”
“भई, जब उसने नयी बोतल मंगायी थी तो पीने के लिये ही तो मंगायी होगी । कोई मेज पर सजा कर रखने को तो मंगायी नहीं होगी !”
“खैर फिर ?”
“जैसी हालत मैंने अभी कौशिक की बयान की है, यादव, वैसी हालत में आदमी पिस्तौल को उल्टी करके हाथ में पकड़ कर नाल को माथे पर ऐन पलकों के बीच सटा कर आत्महत्या करने की नहीं सोच सकता ।”
“और ?”
“और आत्महत्या करने के लिये उसने जगह देखो कौन सी चुनी ? दरवाजे के सामने की । जैसे वो किसी के लिये दरवाजा खोलने गया हो और फिर सोचा हो दरवाजा क्या खोलना है, आत्महत्या ही कर लेता हूं ।”
“मजाक मत करो ।”
“ये मजाक नहीं है ! उस खस्ताहाल आदमी ने अगर आत्महत्या करनी थी तो पलंग पर पड़े-पड़े कर लेता ! कुर्सी पर बैठे-बैठे कर लेता ! आत्महत्या करने के लिये तो उठकर दरवाजे पर क्यों गया ?”
“क्यों गया ?”
“इसका जवाब कि नहीं गया । आत्महत्या के लिये नहीं गया ।”
“तो और किसलिये गया ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है !”
“दरवाजे पर दस्तक पड़ने पर किसी को दरवाजा खोलने ?”
“बिल्कुल । फिर दस्तक देने वाले आगंतुक ने ही दरवाजा खुलने पर उसके माथे के साथ पिस्तौल सटाई और उसे शूट कर दिया । कौशिक वहीं पीठ के बल फर्श पर धराशायी हुआ तो उसने पिस्तौल उसके दायें हाथ में थमायी और वहां से खिसक गया ।”
“हूं ।”
“आत्महत्या की थ्योरी के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत ये है कि उसके पास आत्महत्या के लिये पिस्तौल कहां से आयी ?”
“क्या मतलब ?”
“मंगलवार को उसकी गैरहाजिरी में मैंने उसके होटल के कमरे की भरपूर तलाशी ली थी । तब वहां कोई पिस्तौल मौजूद नहीं थी । फ्लोर वेटर का कहना है कि मंगलवार से कौशिक ने होटल से बाहर कदम नहीं रखा था । अब तुम बताओ कि आत्महत्या करने के लिये पिस्तौल कहां से आ गयी उसके पास ?”
“उसने” - यादव सोचता हुआ बोला - “फोन किया होगा किसी को पिस्तौल के लिये । कोई पिस्तौल उसे होटल में आके दे गया होगा ?”
“क्या कहने ! पिस्तौल न हुई, झुनझुना हो गया ।”
यादव खामोश रहा ।
और फिर ये न भूलो कि कौशिक दिल्ली शहर में परदेसी था । बाहर से आये आदमी के लिये कोई हंसी खेल नहीं है दिल्ली में किसी को फोन करके लोली पॉप की तरह पिस्तौल मंगा लेना ! कौन देता है ऐसे किसी को कोई हथियार ! जबकि उसे यूं हथियार हासिल करने वाले की किसी मंशा की भी कोई खबर न हो !”
“कोहली ! तू ये कहना चाहता है कि आत्महत्या के खिलाफ ये जो बातें तुझे सूझीं, वो हमारे माननीय ए सी पी साहब को नहीं सूझीं ?”
“मुझे नहीं पता सूझी या नहीं सूझी लेकिन अपनी जुबानी उसने ये ही कहा था कि वो आत्महत्या का केस था इसलिये वो मुझे बख्श रहा था, हत्या का केस होता तो वो मुझे आसानी से न छोड़ देता ।”
“हूं । और क्या खबर है ?”
फिर मैंने उसे पचौरी के फ्लैट से बरामद कागजात की बाबत बताया और ये भी बताया कि मैंने उसका क्या हश्र किया था ।
“यानी कि” - यादव बोला - “कागजात वहां भी प्लांट किये गए थे ?”
“एक निगाह में तो ऐसा ही मालूम होता है, अलबत्ता असल में इसका भी कोई सारगर्भित मतलब हो सकता है ।”
“यानी कि तुम्हारी निगाह में हत्यारा अभी भी हीरा की चौकड़ी में से बाकी बचे तीन जनों में से कोई हो सकता है ।”
“हत्यारा कोई भी हो अब मैं उसकी अगली मूव की बुनियाद बनाने के लिये अपने फ्लैट का रुख करने जा रहा हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब मैं तुम्हें पहले भी समझा चुका हूं । जब तक मैं अपने फ्लैट पर नहीं लौटूंगा हत्यारे को ये आश्वासन नहीं होगा कि उसके द्वारा जगह-जगह प्लांट किये गये कागजात मेरे फ्लैट पर पहुंच गए हैं ।”
“यानी कि उसे खबर नहीं लगी होगी कि कुछ कागजात बैक्टर ने भस्म कर दिये थे और कुछ की खुद तुमने धज्जियां उड़ा दी थी ।”
“उम्मीद तो यही है कि खबर नहीं लगी होगी । बैक्टर ने कागजात अपनी बन्द स्टडी में जलाये थे जहां किसी का झांका पाना नामुमकिन था मैंने राजपथ पर जहां कागजात नष्ट किये थे, वहां मेरे इर्द-गिर्द दूर-दूर तक कोई नहीं था ।”
“यानी कि तुम अपने फ्लैट पर जाओगे, अपनी वहां मौजूदगी स्थापित करने के लिये थोड़ी देर टिकोगे जिसकी कि हत्यारे को या तुम्हारे फ्लैट की हत्यारे के लिये निगरानी करते किसी शख्स को खबर लग जायेगी और फिर अपने पीछे हत्यारे के लिए मैदान खाली छोड़ कर वहां से कूच कर जाओगे ?”
“हां ।”
“हत्यारा सीधे ही तुम्हारी बाबत पुलिस को खबर कर देगा या पहले तुम्हारे पलैट में घुसकर इस बात की तसदीक करेगा कि तुम्हें फंसाने में काम आने वाले कागजात वगैरह तुम्हारे यहां मौजूद थे ।”
मैं कुछ क्षण सोचता रहा ।
“वो तसदीक वाला कदम भी उठा सकता है ।” - फिर मैं बोला - “आखिर हीरा के काफी सारे कागजात अभी भी उसके अधिकार में हैं । बैक्टर और पचौरी वाले कागज मेरे फ्लैट में न पहुंचे पाकर, अस्थाना के ऑफिस में प्लांट किया गया मर्डर वैपन वहां न पाकर वो बाकी बचे कागजात को प्लांट करके मेरी दुक्की पीटने का सामान कर सकता है ।”
“कोहली !” - यादव चेतावनीभरे स्वर में बोला - “वो ये कदम उठा चुकने के बाद एक कदम और भी उठा सकता है ।”
“कौन सा ?”
“वो तेरा कत्ल कर सकता है । ताकि अपने फ्लैट में से बरामद होने वाले कागजात वगैरह की कोई सफाई देने के लिये तू बाकी न बचे । अगर वो कौशिक की आत्महत्या की स्टेज सैट कर सकता है तो तेरा भी यूं कत्ल कर सकता है जैसे कि तू किसी एक्सीडेंट की चपेट में आ गया हो !”
“यार, तुम तो मुझे डरा रहे हो !”
“डरा नहीं रहा, इस बात पर जोर दे रहा हूं कि अब अपने ऐसे किसी अंजाम से भी तुझे खबरदार रहना चाहिये ।”
मैंने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
***
पौने पांच बजे के करीब मैं अपने फ्लैट पर पहुंचा ।
सरसरी निगाह से वहां का मुआयना करने पर मुझे लगा कि पिछली रात से मेरी वहां से गैरहाजिरी के दौरान वहां किसी बिन बुलाये मेहमान के कदम नहीं पड़े थे । लेकिन अपने काम को आगंतुक ने इस बार जरूरत से ज्यादा सावधानी से अंजाम दिया भी हो सकता था इसलिये फिर भी मैंने हर उस स्थान का बड़ी बारीकी से मुआयना किया जहां कि कुछ छुपाया जा सकता था ।
कुछ बरामद न हुआ ।
सवा पांच बजे मैंने वहां से कूच करने का फैसला कर लिया ।
मैंने दरवाजा खोल कर फ्लैट से बाहर कदम रखा । मैं घूमकर दरवाजा बंद करने लगा तो मेरे पर जैसे गाज गिरी, मेरी आंखों के सामने अन्धेरा छाने लगा और मेरे घुटने मुड़ने लगे ।
फिर मेरी चेतना लुप्त हो गयी ।
पता नहीं कब मुझे होश आया ।
मैं लड़खड़ाता हुआ उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ, आंखें मिचमिचा कर मैंने उन्हें फोकस करने का उपक्रम किया और फिर दरवाजा धकेल कर लड़खड़ाता सा वापिस अपने फ्लैट में दाखिल हुआ । मैं सीधा बाथरूम में पहुंचा जहां मैंने अपने मुंह पर ठन्डे पानी के छींटे मारे तो मेरे हवास कुछ ठिकाने लगे ।
मैंने शीशे में अपनी सूरत का मुआयना किया तो पाया कि मेरी दाईं कनपटी पर पहले से मौजूद गूमड़ अब और बड़ा हो गया था । लेकिन वो फूटा नहीं था ।
मैंने अपना मुंह सिर पोंछा, बालों में कंघी फिराई, कपड़े व्यवस्थित किये और नये सिरे से फ्लैट की तलाशी ली ।
मेरी बेहोशी के दौर में भी वहां कुछ प्लांट नहीं किया गया था ।
तो फिर मुझं पर यूं आक्रमण का मकसद क्या था ?
कोई जवाब मुझे न सूझा ।
मैं फ्लैट से बाहर निकला, उसको ताला लगाया और अपने पर दौबारा किसी आक्रमण से खबरदार मैं नीचे सड़क पर पहुंचा जहां कि मेरी कार खड़ी थी । मैं कार पर सवार हुआ और मैंने उसे वहां से आगे बढाया ।
उस घड़ी मेरी मंजिल करोलबाग थी जहां कि हरीश पाण्डेय रहता था और जिसने पूरे दिन से मुझे अपनी कोई खोज खबर नहीं दी थी । अपने पर हुए वर्तमान आक्रमण के बाद मेरा उससे उसकी रिवाल्वर उधार मांगने का भी इरादा था ।
गली से निकल कर जब मैंने कार को आगे लेडी श्री राम कालेज के सामने से बायें मोड़ने की कोशिश की तो मेरे छक्के छूट गये ।
कार को ब्रेक नहीं लग रही थी ।
रफ्तार से मोड़ काटने की कोशिश में कार उलटते-उलटते बची वो मेन रोड पर सीधी हुई तो सामने तोप से छूटे गोले की तरह भागी । सामने से एक कार आ रही थी जिसकी चपेट में आने से मेरी कार बाल बाल बची ।
लेकिन फिर सामने मुझे पहाड़ की तरह तीन चौथाई सड़क घेरे एक बस दिखाई दी । उससे बचने की कोशिश में मैंने स्टियरिंग को बायें काटा, तो कार के उधर के दो पहिये फुटपाथ पर चढ़ गये ।
फिर ब्रेकों की चरचराहट की तीखी आवाज !
फिर धड़ाम की गगन भेदी आवाज !
मेरी चेतना फिर लुप्त ।
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