दो जीपों में पूरी पुलिस फोर्स के साथ वे सर्च वारण्ट लेकर न्यादर अली के बंगले पर पहुंचे। पुलिस बल बंगले में दाखिल हो गया।

उन्हें देखते ही सेठ न्यादर अली अधीरतापूर्वक पूछ बैठे— क्....क्या मेरा बेटा मिल गया है?"
दीवान ने बहुत ही कड़ी दृष्टि से न्यादर अली को घूरा, बोला—" हमें तो यह पता लगा है कि सिकन्दर यहां आया है।"
“य.....यहां—कहां है, कहां है सिकन्दर?" न्यादर अली पागल-सा होकर चीख पड़ा।
"ज्यादा नाटक करने की कोशिश मत करो, मिस्टर न्यादर अली, हम जानते हैं कि उसे तुमने इसी बंगले में कहीं छुपा रखा है—उसे हमारे हवाले कर दो।"
"क...कैसी बात कर रहे हो, इंस्पेक्टर? हम भला उसे छुपाएंगे क्यों?"
उसे आतंकित कर देने की मंशा से घूरते हुए दीवान ने पुन: कहा— इस बात को अच्छी तरह समझ लो मिस्टर न्यादर अली कि मुजरिम को पनाह देने वाला भी मुजरिम होता है। भले ही पनाह देने वाला मुजरिम का पिता हो।"
" म.....मेरा सिकन्दर भला मुजरिम कैसे हो सकता है?”
और फिर चटर्जी ने आगे बढ़कर संक्षेप में न्यादर अली को सारा किस्सा समझा दिया। सुनने के बाद न्यादर अली की आंखें हैरत से फटी-की-फटी रह गईं। वह पागलों की तरह चीख पड़ा— न...नहीं यह झूठ है मेरा बेटा किसी की हत्या नहीं कर सकता—मेरा सिकन्दर तो एक चींटी को भी नहीं मार सकता—तुम झूठ बोल रहे हो—या तो वह कोई और होगा या पुलिस मेरे बेटे को किसी षड़्यंत्र का शिकार बना रही है।"
न्यादर अली चीखता ही रहा, जबकि फोर्स ने उसके बंगले की तलाशी लेनी शुरू कर दी।
परिणाम तो पाठक जानते ही हैं।
पूरा एक घण्टा व्यर्थ बरबाद किया गया। उसके बाद वह पुलिस बल न्यादर अली को रोता-पीटता छोड़कर वापस लौट गया—तीनों इंस्पेक्टर एक ही जीप में थे।
काफी देर तक जीप में खामोशी छाई रही।
"मेरे ख्याल से अब वह देहली से बाहर निकलने की चेष्टा करेगा।" अचानक दीवान ने शंका व्यक्त की।
धीमे से मुस्कराया चटर्जी, बोला—"भागकर जाएगा कहां, कल हम अखबार में उसकी फोटो छपवा देंगे। ऐसा होने पर उसे कोई भी पहचान सकता है और फिर हर आदमी उसके लिए एक पुलिस कांस्टेबल से कम खतरनाक नहीं होगा।"
¶¶
ऊपर वाले कमरे में, पलंग पर अकेली पड़ी रश्मि सूने-सूने नेत्रों से कमरे की छत को निहार रही थी।
अभी, कुछ देर पहले तक नीचे से विशेष और उस अजनबी के खेलने, हंसने और बोलने की आवाजें आ रही थीं।
कुछ ही देर से तो खामोशी छाई है।
रात गहरा गई थी—चारों तरफ सन्नाटा छा गया।
रश्मि सोचने लगी कि क्या विशेष सो गया है?
क्या उस शैतान को नींद आ गई है, जो कभी उसके बिना नहीं सोता है? यही सोचते-सोचते उसे काफी देर हो गई। अचानक ही जाने उसके दिमाग में क्या विचार आया कि वह उठकर खड़ी हो गई—बड़े ध्यान से, बड़े प्यार से वह दीवार पर लगे सर्वेश के फोटो को देखने लगी। वह देखती रही—देखती रही और देखते-ही-देखते उसे जाने क्या याद आने लगा।
उसका चेहरा कठोर होता चला गया, आंखें पथरा-सी गईं—जाने किस भावना के वशीभूत जबड़े भिंच गए उसके।
कोमल मुट्ठियां कसती चली गईं।
नीली आंखों से आग लपलपाती-सी महसूस हुई। दांत भींचे किसी जुनून-से में फंसी वह कह उठी— म...मैं बदला लेकर रहूंगी प्राणनाथ—आपके चरणों की कसम, अपने हत्यारे का खून पी जाऊंगी मैं—एक बार, बस एक बार रंगा-बिल्ला मेरे सामने आ जाएं।"
जज्बातों के झंझावात में फंसी, उत्तेजना के कारण अभी वह कांप ही रही थी कि कमरे के बन्द दरवाजे पर दस्तक हुई।
बुरी तरह चौंककर वह उछल पड़ी।
एक ही क्षण में उसके जिस्म के असंख्य मसामों ने बर्फ-सा ठंडा पसीना उगल दिया—दिल बहुत जोर-जोर से धड़कने लगा, आतंकित-सी वह कमरे के बन्द दरवाजे को देखने लगी। शायद दहशत के कारण ही जुबान तालू में कहीं जा चिपकी थी।
दस्तक पुन: उभरी।
रश्मि ऊपर से नीचे तक कांप गई। उसने अपनी सारी हिम्मत जुटाकर पलंग के सिरहाने से एक रिवॉल्वर निकाल लिया। डर के कारण भले ही उसका हाथ कांप रहा था, परन्तु रिवॉल्वर को बन्द दरवाजे की तरफ तानकर बोली—“क....कौन है?"
"म...मैं हूं रश्मिजी।"
 त...तुम?" कांपते लहजे को संतुलित करने की रश्मि ने भरपूर चेष्टा की— तुम यहां क्यों आए हो?"
"वीशू सो गया है, इसे ले लीजिए।"
रश्मि का कठोर स्वर—“अगर सो गया है तो नीचे ही सोने दीजिए।"
"यह नींद में मम्मी-मम्मी बड़बड़ा रहा था, इसीलिए मैं विवश हो गया।"
"मैंने कहा था कि तुम ऊपर नहीं आओगे।"
"मुझे याद है रश्मिजी, मैं वीशू को दरवाजे के इस तरफ लिटाए जा रहा हूं—जब मैं चला जाऊंगा तो इसे उठाकर ले जाइएगा।" युवक के इस वाक्य के जवाब में रश्मि चुप रही—कुछ देर बाद उसे किसी के द्वारा सीढ़ियां उतरने की आवाज सुनाई दी।
एक बोझ-सा उसके दिलो-दिमाग से उतर गया।
रिवॉल्वर को पलंग पर डालकर दरवाजे की तरफ अभी उसने पहला कदम बढ़ाया ही था कि मस्तिष्क से एक विचार टकराया—'कहीं यह उस बदमाश की कोई चाल तो नहीं है?
'सम्भव है कि सीढ़ियां उतरने की आवाज सिर्फ पैदा की गई हों, असल में वह कमरे के बाहर ही अंधेरे में कहीं छिपा खडा हो, ऐसा हो सकता है।’
इस एकमात्र विचार ने उसे पुन: आतंकित कर दिया।
' उसकी नीयत में खोट हो सकता है—पराए मर्द का क्या भरोसा—बहुरूपिया कहीं छुपा पड़ा हो—मैं दरवाजा खोलूं और वह झपट पड़े, तब मैं उस दरिन्दे से अपनी रक्षा कैसे कर सकूंगी? '
' बस— एकाएक ही कानों में उसके पति की आवाज गूंज गई—'रश्मि, क्या तुझमें इतना ही हौंसला है? अरे, अगर तू इतनी डरपोक बनी रही तो मेरे हत्यारों से बदला कैसे ले सकेगी—रिवॉल्वर तेरे पास है, उठा उसे और निकल बाहर—अगर वह तेरी इज्जत पर हमला करे तो गोली से उड़ा दे उसे।'
उसी आवाज की प्रेरणावश उसने रिवॉल्वर उठा लिया, चेहरे पर सख्ती के वही भाव उभर आए, जो कभी महारानी लक्ष्मीबाई के चेहरे पर रहे होंगे—अब वह बिना डरे आगे बढ़ी।
बेहिचक दरवाजा खोल दिया उसने।
रिवॉल्वर मजबूती के साथ पकड़े हुए थी रश्मि। रात चांदनी थी—सारी छत पर चांदनी पिघली हुई चांदी के समान बिखरी पड़ी थी। दरवाजे के पास जमीन पर सो रहे विशेष के अलावा वहां कोई नहीं था।
चारों तरफ खामोशी और छिटकी हुई चांदनी उसे अच्छी लगी।
सोते हुए विशेष को उठाकर उसने कमरे के अंदर, पलंग पर लिटाया, फिर दरवाजा बन्द किया रिवॉल्वर सिरहाने रखा और इत्मीनान की एक सांस लेती हुई लेट गई।
वह पुन: छत को निहारने लगी।
मस्तिष्क में पुन: विचार रेंगने लगे—सोच रही थी कि मैंने व्यर्थ ही उस बेचारे की नीयत पर शक किया, यह सचमुच चला गया था और फिर विशेष तो सचमुच ही नींद में 'मम्मी-मम्मी' बड़बड़ाता रहता है—सुनकर उसने इसे यहां पहुंचाना जरूरी समझा होगा।
'किसी पर व्यर्थ ही शक करना भी तो पाप है—वह ऐसा नहीं है—म....मैं जब स्वयं विशेष को डांटकर कमरे से बाहर भेज रही थी, तब खुद उसी ने इसे यहां रोका था—यदि वह गिरे हुए चरित्र का होता तो ऐसा हरगिज नहीं करता—नहीं, युवक ऐसा नहीं है।'
'वह बेचारा तो खुद ही ऐसी उलझन में फंसा हुआ है, जो बड़ी अजीब है।'
युवक की उलझन का अहसास करती-करती वह जाने कब सो गई?
जब आंख खुली तो दरवाजे को कोई जोर-जोर से पीट रहा था।
रश्मि हड़बड़ाकर उठी, रोशनदान के माध्यम से कमरे में धूप की ताजा रोशनीयों आ रही थी। बौखलाकर उसने पूछा—" क.....कौन है?"
"अरी दरवाजा खोल, रश्मि...देख, वह चला गया है—मेरा बेटा चला गया, बस एक ही रात के लिए यहां आया था।"
रश्मि खुद नहीं जानती थी कि युवक के चले जाने की इस सूचना से उसे धक्का-सा क्यों लगा, वह लपकी-सी दरवाजे पर पहुंची।
विशेष भी जाग चुका था।
अपनी दोनों मुट्ठियों से आंखें भींचते हुए उसने पहला वाक्य यही कहा—" पापा कहां हैं?"
दरवाजा खुलते ही पागल-सी रोती-पीटती बूढ़ी मां अंदर दाखिल हुई, बोली— देख ले—वह चला गया, तू उसे सर्वेश कहने के लिए तैयार नहीं थी न?”
"क...कहां चले गए?"
"म....मैं क्या जानूं.....मैं उसके कमरे में गई तो वह वहां नहीं था—पलंग पर यह खत पड़ा था, शायद कुछ लिखकर छोड़ गया है—इसे जल्दी से पढ़।"
विशेष कुछ भी नहीं समझ पा रहा था, इसीलिए पलंग पर ही बैठा मासूम-सी नजरों से उनकी तरफ देखता रहा। रश्मि ने जल्दी से
मां के हाथ से कागज लिया।
लिखा था—
प्रिय रश्मिजी,
अपने घर में रहने के लिए दो दिन की मौहलत देने के लिए बहुत धन्यवाद—दिल से चाहता तो था कि वे दो दिन पूरे करूं, अगर सच्चाई पूछें तो वह ये है कि यहां से जाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी—अतीत की तलाश में भटकते हुए यहां आकर मुझे कुछ ऐसा सकून मिला कि फिर से अतीत की तलाश में भटकने की मंशा ही खत्म हो गई थी—हां, लेकिन यकीनन मैं सर्वेश नहीं हूं, फिर भी जाने क्यों, इस चारदीवारी में मुझे ऐसा महसूस हुआ था कि मेरा अतीत मिल गया है।
मैँ वीशू के साथ खेला, हंसा—वह सब शायद मुझे तब तक याद रहेगा, जब तक कि प्रकृति एक बार पुन: मेरी याददाश्त न छीन ले—, बड़ी ही प्यारी लगने वाली शैतानियां करता है वीशू और यदि सच पूछें तो मैं वक्त से पहले उसी शैतान से डरकर जा रहा हूं—मुझे माफ करना रश्मि जी, वीशू और मांजी को जो कुछ समझाने का मैंने आप से वादा किया था, उसे पूरा करके नहीं जा रहा हूं—पूरा कर भी नहीं सकता—‘बेटा-बेटा' करती मांजी और ' पापा-पापा' करते वीशू को वास्तविकता बताना दुनिया का शायद सब से कठिन काम है।
वीशू को आपके कमरे के बाहर लिटाकर आने के बाद यहां आकर यह पत्र लिख रहा हूं—दुर्भाग्य से उस वक्त मैंने आपकी आवाज सुन ली थी, जब शायद आप अपने पति के फोटो से बातें कर रही थीं—यह सवाल तीर की तरह दिल में चुभता चला गया कि आखिर किस दरिन्दे में इतना कलेजा था, जिसने वीशू जैसे मासूम बच्चे के पिता की हत्या कर दी—खैर, जानता हूं कि इस सवाल का जवाब मुझे कभी नहीं मिलेगा, क्योंकि यह आपका अपना व्यक्तिगत मामला है और इस बारे में कुछ भी जानने का मुझे कोई हक नहीं है—दिल पर पत्थर रखकर इसीलिए जा रहा हूं क्योंकि जानता हूं कि अगर मैं पूरे दो दिन तक उस मासूम फरिश्ते के साथ खेलता रहा तो फिर जा ही नहीं सकूंगा और जाना तो मुझे पड़ेगा ही। मैं सर्वेश नहीं हूं—फिर भी मेरी तरफ से एक बार वीशू को चूम जरूर लेना, मांजी से चरण स्पर्श करना।
आपका कोई नहीं—एक अजनबी।
पूरा पत्र पढ़ने के बाद उसी स्थान पर खड़ी-खड़ी पथरा-सी गई रश्मि। मांजी अभी तक चीख-चीखकर पूछ रही थी कि पत्र में क्या लिखा है। विशेष ने केवल एक ही रट लगा रखी थी—" मम्मी, पापा कहां हैं—पापा कहां चले गए हैं, मम्मी?"
¶¶
हालांकि उस वक्त वातावरण में दिन का प्रकाश फैल चुका था जब युवक ने गांधीनगर में स्थित मकान से बाहर कदम रखा, किन्तु लोग सड़क पर नहीं आए थे—इतनी सुबह उसे कहीं से कोई सवारी भी नहीं मिली थी, अतः विचारों में गुम वह पैदल ही बढ़ता चला जा रहा था—सड़क पर इक्का-दुक्का व्यक्ति ही नजर आ रहे थे।
वे जो मॉर्निंग वॉक' के शौकीन थे। वे जो सड़क साफ कर रहे थे या वे जो साइकिल के हैण्डिल पर अखबारों का पुलिन्दा रखे थे।
वे साइकिल को काफी तेज चलाते हुए उसके समीप से गुजर जाते थे।
शायद अपने ग्राहकों तक अखबार पहुंचाने की जल्दी में थे वे।
अचानक ही बिजली की तरह युवक के दिमाग में यह विचार कौंध गया कि—सम्भव है आज के अखबारों में गाजियाबाद के भगवतपुरा मौहल्ले में हुए हत्याकांड के बारे में कुछ छपा हो?
जरूर छपा होगा।
मगर क्या?
मन में अखबार देखने की तीव्र इच्छा जाग्रत हो उठी—बहुत ही जबरदस्त बेचैनी के साथ उसने अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई। एक अखबार विक्रेता जाता नजर आया, युवक ने उसे रोक लिया।
उसने एक अखबार खरीदा।
अखबार विक्रेता साइकिल दौड़ाता चला गया और इधर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर नजर पड़ते ही युवक का दिल ' धक्क' से किसी गेंद के समान उछलकर कण्ठ में जा अटका।
सारा शरीर पसीने से भरभरा उठा उसका।
आंखों के सामने अंधेरा छा गया और यह सच है कि चलना तो दूर, अपनी टांगों पर खड़ा रहना असम्भव हो गया—इस डर से कि कहीं गिर न पड़े, वह वहीं—फुटपाथ पर बैठ गया।
अपनी बिगड़ी हुई स्थिति पर काबू पाने के लिए उसे काफी मेहनत करनी पड़ी—उसका इस प्रकार फुटपाथ पर बैठना अजीब था—इक्का-दुक्का राहगीर उसे विचित्र निगाहों से देखकर गुजरे थे, इसीलिए साहस जुटाकर पुन: खड़ा हो गया।
उसकी ऐसी अवस्था अखबार में अपने फोटो को देखकर हुई थी, उस फोटो को देखकर, जिसके नीचे लिखा था—इस हत्यारे से विशेष रूप से युवा लड़कियों को दूर रहना चाहिए, क्योंकि उन्हें देखते ही यह गर्दन दबाकर उन्हें मार डालने के लिए मचल उठता है।'
'उफ्फ—अखबार ने ऐसा खतरनाक परिचय दिया है मुझे? '
कुछ ही देर में ये अखबार सारी देहली और उसके आसपास फैल जाएंगे-शाम तक लगभग सारे ही भारत में—हर व्यक्ति इस फोटो को घूर रहा होगा।
अब वह ज्यादा-से-ज्यादा आधे घण्टे तक सड़क पर सुरक्षित है—केवल तब तक जब तक कि सड़कें वीरान हैं—कुछ ही देर में भीड़ बढ़ने लगेगी—आधा घण्टे बाद हर सड़क पर मेला-सा लग जाएगा और फिर लाखों-करोड़ों उन व्यक्तियों में से कोई भी उसे पहचान लेगा, अतः उसे जल्दी से किसी ऐसे स्थान पर पहुंच जाना चाहिए जहां उसके अलावा कभी कोई न जा सके।
यहां आसपास ऐसा कौन-सा स्थान हो सकता है?
बौखलाकर उसने अपने चारों तरफ देखा।
कहीं कोई स्थान नहीं था, सड़क के दोनों तरफ लोगों के मकान—ज्यादातर मुख्य द्वार अभी तक बन्द थे—युवक पर घबराहट पूरी तरह हावी हो गई—जेहन में रह-रहकर यह सवाल भी उठ रहा था कि पुलिस को आखिर मेरा फोटो कहां से मिल गया?
बौखलाकर वह सड़क पर भाग पड़ा।
उसे किसी ऐसे स्थान की तलाश थी, जहां दुनिया के हर व्यक्ति की नजर से बच सके—हालांकि ऐसा कोई स्थान उसकी समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी—पागलों की तरह वह एक से दूसरी गली में भागता फिरने लगा।
भागते हुए अचानक ही उसकी दृष्टि एक ऐसे मकान पर पड़ी जो मकान नहीं, सिर्फ मलबे का ढेर नजर आ रहा था—वह कोई पुराना मकान था, जो अपनी उम्र पूरी करने के बाद गिर चुका था और किसी वजह से जिसके मालिक ने मलबा हटाकर उसका पुन: निर्माण नहीं कराया था—मलबे के ढेर से दबा होने के बावजूद भारी मुख्य द्वार अभी गिरा नहीं था, अटका पड़ा था।
द्वार पर एक बहुत पुराना ताला भी झूल रहा था, किन्तु उसका कोई महत्व नहीं था, क्योंकि साइड में से कोई भी मलबे के ऊपर से गुजरकर अंदर जा सकता था।
इस तरफ मलबे का एक छोटा-सा पहाड़ बन गया था।
वह भागता-हांफता मलबे पर चढ़ गया।
सामान्य अवस्था में हालांकि किसी के उस मलबे के पार जाने की कोई वजह नहीं थी, परन्तु ऐसी गारंटी कोई नहीं थी कि यहां कोई पहुंचेगा ही नहीं, मगर इस वक्त युवक को किसी गारंटी की जरूरत नहीं थी, अतः दूसरी तरफ मलबे के ढेर से नीचे उतर गया।
खण्डहर ही बता रहा था कि अपने समय में मकान काफी बड़ा रहा होगा—चारों तरफ मलबा-ही-मलबा पड़ा था। दाएं कोने में एक ऐसा कमरा था जिसकी आधी दीवारें खड़ी थीं—छत का एक कोना भी जाने कैसे लटका रह गया था।
वह वहां पहुंच गया।
गन्दे कोने में एक व्यक्ति के लेटने जितनी जगह पर उसकी नजर पड़ी—इस कोने में छिपे व्यक्ति को कोई इस कमरे में आए बिना नहीं देख सकता था, अतः युवक को छिपने के लिए वही स्थान उपयुक्त लगा।
कपड़ों की परवाह किए बिना वह धम्म से उस कोने में जा गिरा।
मलबे के ढेर पर बैठा वह दो गन्दी और आधी दीवारों से पीठ टिकाए बुरी तरह हांफ रहा था—स्वयं को नियंत्रित करने में उसे काफी समय लगा।
थोड़ा संभलने के बाद उसने अखबार में छपा खुद से सम्बन्धित समाचार पढ़ा।
मोटे-मोटे शब्दों में हैडिंग बनाया गया था—‘सनसनीखेज हत्याकाण्ड।‘
युवक पढ़ता चला गया, सारी वारदात विवरण सहित लिखी थी—आंग्रे की खोजबीन पढ़कर वह चकित रह गया—आंग्रे और चटर्जी के मिलने तथा उनकी वार्ता के निष्कर्ष ने उसके होश उड़ा दिए—राजाराम के बयान ने उसके दिमाग की समस्त नसों को हिला दिया।
तात्पर्य यह कि पूरा समाचार पढ़ने के बाद उसकी घबराहट चरम सीमा पर पहुंच गई, इन सबसे जहां यह बात स्पष्ट होती थी कि रूबी किसी वजह से व्यर्थ ही उसे जॉनी सिद्ध करना चाहती थी, वहां इस समाचार ने उसे थरथराकर रख दिया कि रूपेश जीवित बच गया है और तीनों इंस्पेक्टर न्यादर अली के बंगले तक पहुंच गए।
वह उस क्षण को धन्यवाद देने लगा जिस क्षण उसके दिमाग में न्यादर अली के बंगले के लिए देहली जाने के स्थान पर शाहदरा में ही उतर जाने का विचार आया था।
मगर इस तरह कब तक बचा रह सकूंगा मैं?
युवक का मनोबल कमजोर पड़ने लगा—उसे महसूस हो रहा था कि—कानून से भागते रहने की मेरी हर कोशिश अब बेकार जाएगी। अंतत: इन काइया इंस्पेक्टरों के चंगुल में फंस जाना ही मेरा भाग्य है।
युवक को अपने चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आने लगा—ऐसा घनघोर अंधेरा कि जिसमें हाथ को हाथ सुझाई न दे और इस अंधेरे में हल्की-सी प्रकाश की किरण बनकर उभरा—सर्वेश।
रश्मि के कमरे की दीवार पर लगा सर्वेश का वह फोटो।
'हां।' दिमाग के उसी शैतान कोने ने सलाह दी—'तुम सर्वेश बन सकते हो। पूरी तरह सर्वेश बनकर बचे रह सकते हो—फिलहाल तुम्हारा कोई परिचय नहीं है—कोई चोला नहीं है तुम पर—सर्वेश का चोला ओढ़ लो—तब शायद पुलिस भी धोखा खा जाए।'
यह बात युवक के दिमाग में बैठती चली गई कि अब केवल उस छोटे-से घर की चारदीवारी ही उसके लिए एक सुदृढ़ किला साबित हो सकती है।
'मगर अब वहां जाऊं किस मुंह से? '
छोड़े हुए पत्र में लिखा अपना एक-एक शब्द उसे याद आने लगा—दिलो-दिमाग में एक द्वन्द-सा छिड़ गया।
¶¶
पंजाब नेशनल बैंक की मेरठ रोड पर स्थित शाखा के मैनेजर की मेज पर सौ-सौ के नए नोटों की एक गड़्डी धीमे से रखते हुए इंस्पेक्टर चटर्जी ने कहा, " मैं यह जानना चाहता हूं कि नोटों की यह गड्डी आपके बैंक ने कब और अपने किस ग्राहक को दी थी।"
"य...यह सब बताना तो बहुत कठिन है, इंस्पेक्टर।"
"जानता हूं मगर यह एक संगीन मामला है मिस्टर मेहता, जुर्म की तह तक पहुंचने के लिए हमारे पास इस गड़्डी के अलावा कोई दूसरा सूत्र नहीं है—जितना कठिन काम आपको करना पड़ेगा, उतना ही रिजर्व बैंक को भी करना पड़ता है—वहीं से यह पता लगाना भी आसान काम नहीं था कि यह गड्डी आपकी शाखा को इशू की गई थी।"
मैनेजर दुविधा में फंस गया।
"प.....प्लीज मिस्टर मेहता—ऐसा करके आप कानून की बहुत बड़ी मदद करेंगे—दरअसल यह मर्डर का मामला है—शायद आपके उसी खातेदार का मर्डर हुआ है, जिसे यह गड्डी दी गई—हमें मरने वाले का नाम-पता आपके बैंक से मालूम करना है।"             
"कमाल है—लोग हत्यारे को तलाश करते हैं और आप उसके ठीक विपरीत यह मालूम करने के लिए घूम रहे हैं कि हत्या किसकी हुई है?"
"वक्त की बात है, मिस्टर मेहता।"
"खैर—आप ' वेट' कीजिए, मैं कोशिश करता हूं।" कहने के बाद मेज से गड्डी उठाकर मैनेजर अपने ऑफिस से बाहर चला गया—चटर्जी ने जेब से एक सिगरेट निकालकर सुलगा ली और कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाकर धुएं के छल्ले उछालने लगा।
दस मिनट बाद मेहता ने जाकर बताया कि गड्डी के नोटों का सीरियल नम्बर वह हेड-कैशियर को लिखवा आया है। वह कोशिश कर रहा है—सफलता मिलते ही सूचना देगा।
"आप बेशक अपना काम कर सकते हैं—मैं इंतजार कर रहा हूं।" चटर्जी ने कहा और इस वाक्य के एक घण्टे बाद हैड-कैशियर ऑफिस में आया। एक कागज पर उसने खाता नम्बर, खातेदार का नाम, पता और वह तारीख नोट कर रखी थी, जिसमें यह दस हजार की गड्डी बैंक से निकाली गई।
 थैंक्यू।" कहने के बाद चटर्जी ने उस कागज पर नजर डाली और खातेदार का नाम पढ़ते ही उछल पड़ा। लिखा था—" रूपेश सान्याल।”
चटर्जी के जेहन में एकदम अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा बुरी तरह जला हुआ व्यक्ति नाच उठा और यह सोचकर उसकी खोपड़ी उलट गई कि वे दस हजार रुपए रूपेश के खाते में से निकले थे।
रूपेश के खाते में से निकले रुपए राजाराम को रूबी देती है।
स्पष्ट है कि रूपेश और रूबी मिले हुए हैं।
जोश की अधिकता के कारण अन्जाने में ही चटर्जी ने एक जोरदार मुक्का मैनेजर की मेज पर जमा दिया। मेज पर भूचाल-सा आ गया।
"क्या हुआ, इंस्पेक्टर?" मैनेजर ने पूछा।
 थैंक्यू वेरी मच मिस्टर मेहता और तुम्हें भी बहुत-बहुत धन्यवाद मिस्टर।" चटर्जी ने सफलतावश झूमते हुए हेड-कैशियर से कहा—" तुम लोगों की वजह से मेरी एक ऐसी गुत्थी सुलझ गई है, जो कभी सुलझती नजर ही न आ रही थी।"
"यदि आपको कोई सफलता मिली है तो हम उसके लिए आप को बधाई देते हैं।" मैनेजर ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा और उन दोनों के प्रति आभार व्यक्त करके चटर्जी बैंक से बाहर निकल आया। बाहर निकलते वक्त उसने चिट पर लिखा एड्रेस भी पढ़ लिया था। बैंक
के बाहर उसकी मोटरसाइकिल खड़ी थी।
अगले कुछ ही पलों बाद मोटरसाइकिल उस एड्रेस की तरफ उड़ी चली जा रही थी—पन्द्रह मिनट बाद ही वह ' सुभाष नगर' मौहल्ले में मकान नम्बर बावन पूछ रहा था।
फिर मकान नम्बर बावन के सामने उसने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी।
बैल बजाने पर बीस-इक्कीस की आयु के युवक ने दरवाजा खोला, चटर्जी ने उससे प्रश्न किया— क्या यहां कोई रूपेश सान्याल रहते हैं?"
"जी हां, वे हमारे किराएदार हैं।"
"क्या वे घर पर हैं?"
"जीं नहीं, वे तो पिछले एक हफ्ते से कहीं बाहर गए हुए हैं।"
"बाहर कहां?"
"म...मुझे नहीं मालूम, शायद अम्माजी को मालूम हो। मगर बात क्या है?"
"पुलिस को ऐसा डाउट है कि शायद मिस्टर रूपेश किसी दुर्घटना के शिकार हो गए हैं, तुम थोड़ी देर के लिए अपनी माताजी को चुला दो।"
एक मिनट बाद ही एक अधेड़ आयु की महिला चटर्जी से कह रही थी— रूपेश तो बहू को लेकर बस्ती गया है।"
" ब...बहू क्या मिस्टर रूपेश शादीशुदा हैं?"
"हां.....।"
"मगर वे बस्ती क्यों गए हैं?"
"बस्ती में रूपेश का अपना घर है—उसके मां-बाप आदि।”
"क्या आप मुझे रूपेश की पत्नी का नाम बता सकेंगी?"
"माला।"
"मैं मकान का वह हिस्सा देखना चाहता हूं—जहां वे रहते हैं।"
"म...मगर बात क्या है—रूपेश को आखिर हुआ क्या है?"
"मेरा नाम इंस्पेक्टर चटर्जी है और यह मेरा परिचय-पत्र है।" चटर्जी ने जेब से परिचय-पत्र निकालकर युवक को दिया, बोला—“कल गाजियाबाद के ही भगवतपुरे मोहल्ले में, एक मकान में आग लगा दी गई थी। मिस्टर रूपेश बुरी तरह जली हुई अवस्था में वहां पाए गए।"
" र...रूपेश वहां क्या कर रहा था—वह तो बस्ती गया हुआ है?"
"यह पहेली अभी मुझे सुलझानी है।"
एकदम चौंकते हुए युवक ने कहा—"कहीं आप उस हत्याकांड की बात तो नहीं कर रहे हैं, जिसमें एक याददाश्त खोए व्यक्ति ने एक औरत को मार डाला और फिर उसके साथ ही एक जीवित व्यक्ति को भी जला डालने की कोशिश की—जी, हां, उस जले हुए व्यक्ति का नाम अखबार में रूपेश ही लिखा था, मगर वह रूपेश भला ये कैसे हो सकते हैं?"
"मैं यही पुष्टि करना चाहता हूं कि वह रूपेश यहां रहने वाला रूपेश है या नहीं—इसीलिए आपसे उनके रहने का स्थान देखने की रिक्वेस्ट कर रहा हूं।"
“आइए।" युवक और महिला ने उसे एक कमरे के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। कमरे का दरवाजा बन्द था और उस पर गोदरेज का एक ताला लटक रहा था, चटर्जी ने पूछा— क्या उनके पास किराए पर यही एकमात्र कमरा था?"
"जी हां।" युवक ने बताया और आंगन में ही एक तरफ को उंगली उठाकर बोला—"उधर उनका किचन और बाथरूम हैं।"
"इस कमरे की चाबी कहां है?"
"म...माला मुझे दे गई है, मगर उनमें से किसी के बिना हम इसे खोल नहीं सकते।"
"मैँ मानता हूं—किसी का कमरा इस तरह खोलना ठीक नहीं है—मगर इस वक्त मजबूरी हो गई है—आप कहती हैं कि वे बस्ती गए थे, जबकि मिस्टर रूपेश रहस्यमय ढंग से बुरी तरह जली हुई अवस्था में हमें गाजियाबाद से ही मिले हैं—अब सवाल यह उठता है कि उसकी पत्नी माला कहां गई, शायद उनके कमरे से बरामद किसी चीज के जरिए उसका पता लग सके।"
महिला अपने कमरे से जाकर चाबी निकाल लाई।
ताला खोलकर चटर्जी युवक और महिला के साथ कमरे में दाखिल हुआ। वहां कोई ज्यादा सामान नहीं था—एक रैक पर रखे पति-पत्नी के फोटो पर चटर्जी की नजर टिक गई।
चटर्जी ने पूछा—"वह फोटो रूपेश का ही है न?"
"जी हां।" कहने के बाद युवक ने पूछा—" क्या वहां से ये जले हुए मिले हैं?"
"हां।”
"ओह माई गॉड!"
"क्या फोटो में रूपेश के साथ उसकी पत्नी है?"
"जी हां।"
बहुत ही ध्यान से चटर्जी ने उस युवती के फोटो को देखा और मन-ही-मन राजाराम द्वारा बताए गए रूबी के हुलिए से मिलाने पर उसने काफी समानता महसूस की।
अब यह बात उसे जंच रही थी कि रूबी माला ही थी।
चटर्जी ने कमरे की तलाशी लेनी शुरू की। पलंग के गद्दे से उसे 'पंजाब नेशनल बैंक' से सम्बन्धित वही पास बुक मिली—उसे कुछ देर देखने के बाद चटर्जी ने जाना कि पिछले चार साल में रूपेश ने बहुत ही छोटी-छोटी रकम जोड़कर चौदह हजार रुपए बना लिए थे और पिछले हफ्ते उसमें से तेरह हजार निकाल लिए गए।
तीन एक बार, दस एक बार।
एकाएक ही युवक की तरफ पलटता हुआ वह बोला— लगता है कि मिस्टर रूपेश की आय बहुत ज्यादा नहीं है—क्या काम करता है वह? ”
"उनकी फोटोग्राफी की एक दुकान है—दुकान अच्छी मार्किट में न होने की वजह से ग्राहक वहां कम ही आते हैं—फिर भी—गुजारे लायक आमदनी उन्हें हो जाती है।"
चटर्जी करीब पन्द्रह मिनट तक कमरे की तलाशी लेता रहा—अन्य कोई उल्लेखनीय चीज उसके हाथ नहीं लगी। अन्त में उसने फ्रेम से रूपेश और उसकी पत्नी का फोटो निकालते हुए कहा— इस फोटो को मैं ले जा रहा हूं—माला को ढूंढने में मदद करेगा।"
"और यह पास-बुक?"
"इसे भी, केस में शायद इसकी भी जरूरत पड़े।"
"अगर आप अस्पताल जा रहे हैं इंस्पेक्टर साहब—तो क्या रूपेश भाई को देखने मैं आपके साथ चल सकता हूं?" युवक ने पूछा।
एक क्षण सोचने के बाद चटर्जी ने कहा— चलो।"
¶¶
उस वक्त रात के साढ़े ग्यारह बजे थे, जब युवक ने सर्वेश के मकान के मुख्य द्वार पर धड़कते दिल से दस्तक दी—उसका ख्याल था कि रात के इस समय तक वे तीनों सो चुके होंगे, परन्तु आशा के विपरीत मकान में जाग थी।
पहली ही दस्तक के बाद अन्दर से पूछा गया—“कौन है?”
आवाज रश्मि की थी।
इस विचारमात्र से उसके रोंगटे खड़े हो गए कि उसे पुन: यहां देखकर रश्मि क्या सोचेगी, क्या व्यवहार करेगी—फिर भी उसने जल्दी से कहा—“म...मैं हूं।
"मैं कौन?"
"म...म मुझे अपना नाम नहीं मालूम है।"
इस वाक्य के तुरन्त बाद ही एकदम कुछ इतने तीव्र झटके के साथ दरवाजा खुला कि युवक हड़बड़ा गया। सामने ही रश्मि खड़ी थी—इतना प्रकाश वहां नहीं था कि उसके चेहरे के भावों को ठीक से देख सकता।
"त...तुम फिर आ गए? ” बड़ा ही सपाट स्वर।
सकपका गया युवक। यह सच्चाई है कि इस सीधे प्रश्न का उसके पास कोई जवाब नहीं था, अत: वहां खड़ा वह सिर्फ—"मैं...मैं ही करता रहा।
 आज सुबह ही तुम यहां से चले गए थे—ऐसा पत्र भी छोड़ गए थे जैसे जीवन में फिर कभी यहां नहीं आओगे और अभी ही आ गए हो—पूरे चौबीस घण्टे भी नहीं गुजरे हैं—जब आना ही था तो वह लम्बा-चौड़ा पत्र लिखकर गए क्यों थे?"
"क...क्या बताऊं रश्मि जी, मैंने बहुत चाहा कि यहां न लौटूं मगर...।"
"फिर क्या आफत आ गई?"
"दिल के हाथों विवश होकर आया हूं—सारे दिन वीशू का ख्याल जेहन से लिपटा रहा—म...मैँ उसके बिना नहीं रह सकता रश्मि जी।"
"तुम कोई बहुत बड़े जालसाज हो।"
"र...रश्मि जी।"
"वीशू कौन लगता है तुम्हारा? उससे क्या सम्बन्ध है? क्यों उसके लिए मरे जाने का नाटक कर रहे हो?"
"प...प्लीज रश्मि जी, नाटक मत कहिए—उफ्फ, मैं अपने किसी अजीज को नहीं जानता, जिसकी कसम खाकर आपको यकीन दिला सकूं कि मैं नाटक नहीं कर रहा हूं— काश, मैं अपना सीना चीरकर दिखा सकता—जानता हूं कि वीशू मेरा कोई नहीं है, फिर भी जाने क्यों—पता नहीं क्यों—दीवानों की तरह यहां चला आया हूं?"
कुछ देर शांत खड़ी रश्मि उसे देखती रही। जैसे समझने की कोशिश कर रही थी कि युवक झूठ बोल रहा है या सच? जबकि यह जानने के बाद युवक के जेहन से बहुत बड़ा बोझ उतर गया था कि रश्मि को अखबार में छपे उसके फोटो के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
एकाएक रश्मि ने कहा—" अन्दर जा जाओ।"
धड़कते दिल से युवक ने चौखट पार की।
दरवाजे को पुन: बन्द करने के बाद घूमती हुई रश्मि ने कहा—" यदि सच पूछो तो इस वक्त इस घर को तुम्हारी बहुत जरूरत थी।"
"म...मेरी जरूरत!" युवक लगभग उछल ही पड़ा।
 वीशू ने सुबह से कुछ भी नहीं खाया है—आज वह स्कूल भी नहीं गया—सिर्फ तुम्हें ही याद कर रहा है—उधर मांजी ने भी आपके जाने पर मुझे न जाने क्या-क्या कहा है।”
“क...क्या कहा वीशू ने कुछ भी खाया-पिया नहीं है?"
"इस वक्त वह बेहोशी की-सी अवस्था में है।"
"क...कहां है वीशू?"
"स...सामने वाले कमरे में।"
युवक गन से निकली गोली के समान कमरे की तरफ भागा। उसे भागता देखकर रश्मि सोचने लगी कि क्या बिना खून का रिश्ता जुड़े ही दो व्यक्ति एक-दूसरे के लिए इतने पागल हो सकते हैँ?
कमरे के दरवाजे पर ही ठिठक गया युवक।
पलंग पर वह प्यारा बच्चा लेटा था। सिरहाने बूढ़ी मां बैठी आँसू बहा रही थी। आहट सुनकर उसने दरवाजे की तरफ देखा, बोली—“ कौन है?"
"म....मैँ हूं, मां।" युवक खुद नहीं जानता था कि उसकी आवाज क्यों भर्रा गई।
" क.....कौ....न....स.....सर्वेश?" वह एकदम उछल पड़ी।
विवश युवक को कहना ही पड़ा—“हां मां।"
"अरे, तू कहां चला गया था मेरे लाल—देख, तेरे बेटे ने अपनी क्या हालत बनाई है—सुबह से पानी की एक बूंद तक नहीं पी है मरदूद ने।" चीखती हुई पागलों की तरह वह युवक की तरफ दौड़ी।
युवक ने आगे बढ़कर उसे संभाला।
आलिंगनबद्ध हो गए वे। बुढ़िया फूट-फूटकर रो पड़ी। सांत्वना देने के प्रयास में खुद युवक की आंखें बरस पड़ीं। काफी देर तक उनकी यही स्थिति रही। अपने गम से उबरते ही बुढ़िया ने कहा—" उस मरदूद को तो देख, जालिम—कहीं वह अपनी जान ही न ले ले।
युवक बुढ़िया से अलग हुआ।
नजर बरबस ही दरवाजे की तरफ उठ गई। चौखट के बीचो-बीच संगमरमर की प्रतिमा के समान खड़ी थी वह विधवा—हैरत के साथ वह युवक को ही देख रही थी। विशेष रूप से उसके धूल से अटे पड़े कपड़ों को।
रश्मि की आंखें सूजी हुई थीं।
युवक को समझने में देर नहीं लगी कि अपने बेटे के गम में वह भी सारे दिन रोती रही है। वह तेजी के साथ पलंग की तरफ बढ़ा—नजदीक पहुंचकर विशेष पर झुका।
विशेष अर्ध-मूर्छित अवस्था में था।
रह-रहकर उसके होंठ कांप रहे थे और उनके बीच से आवाज निकल रही थी—‘पापा-पापा’—बस यही एक शब्द निकल रहा था उसके मुंह से।
"वीशू-वीशू।" युवक ने दोनों हाथों से उसके गाल थपथपाते हुए पुकारा—कई बार पुकारने पर कराह-सी विशेष के मुंह से निकली। युवक ने कहा—" देखो बेटे हम आ गए हैं—आंखें खोलो।"
धीमे-धीमे उसने आंखें खोल दी। बहुत ही कमजोर आवाज उसके मुंह से निकली-"पापा।"
"हां बेटे—हम ही हैं—देखो, हम आ गए हैं।"
"प...पापा।" जोर से चीखकर विशेष अपनी नन्हें बांहें फैलाकर उससे लिपट गया और फूट-फूटकर रोने लगा—युवक का हृदय भयानक अंदाज में कांप उठा। कुछ उसी तरह, जिस तरह उस क्षण कांपा था, जब पहली बार उसे अहसास हुआ था कि उसने रूबी की हत्या की है।
युवक रो पड़ा।
बुढ़िया और रश्मि भी, मगर रश्मि ने किसी को पता नहीं लगने दिया था कि वह रो रही है—भले ही वह युवक चाहे जो सही, परन्तु फिलहाल यहां फरिश्ता बनकर ही आया था।
¶¶
"दोपहर के वक्त हमने एक डॉक्टर को बुलाया था।" रश्मि ने बताया— चैक करने के बाद उसने कहा कि वीशू को कोई बीमारी नहीं है, इस बच्चे के दिल में कोई बात बहुत गहरे तक बैठ गई है—इसे दवा या डॉक्टर की नहीं, उसकी जरूरत है जिसे यह याद कर रहा है।”
युवक चुपचाप सुन रहा था।
"डॉक्टर जानता था कि उन्हें गुजरे तीन महीने के करीब हो गए हैं, इसीलिए उसने पूछा कि आखिर आज ही बच्चे को इतना गहरा शॉक क्यों लगा है—मैँ डॉक्टर के इस सवाल का कोई उत्तर नहीं दे सकी, कहती भी क्या?"
युवक अब भी चुप ही रहा।
ऊपर वाले कमरे में उस वक्त वे दोनों अकेले थे—रश्मि ने कुछ जरूरी बातें करने के लिए उसे वहां बलाया था। युवक आ तो गया था, मगर प्रत्येक पल यह सोचकर उसका दिल कांप रहा था कि कहीं इस अकेले कमरे में पुन: वे ही भयानक विचार उसके जेहन में न उठने
लगें।
कहीं वह जुनूनी न बन जाए।
अपने दिमाग पर नियंत्रण रखने की पूरी चेष्टा कर रहा था वह।
रश्मि ने आगे कहा— डॉक्टर वाली यह बात मैंने तुम्हें इसीलिए बताई है, ताकि तुम समझ सको कि मैँ तुम्हें इस घर में सहन करने के लिए कितनी विवश हूं।"
युवक अब भी खामोश रहा।
"अगर तुम कोई जालसाज हो तो निश्चय ही बहुत खतरनाक हो। तुम जानते हो कि पति की मृत्यु के बाद एक नारी की सबसे बड़ी कमजोरी उसका बेटा होती है और इसीलिए तुमने वीशू को अपने वश में कर लिया है।"
"ऐ...ऐसा मत कहिए रश्मि जी—म...मैं...।"
"मुझे कहने दो।" आंखों से युवक पर ढेर सारी चिंगारियां बरसाती हुई रश्मि ने बहुत ही साफ और सपाट स्वर में कहा—" तुमने जाल ही ऐसा फेंका है कि तुम्हारे जालसाज होने की शंका के बावजूद भी, मुझे तुम्हें सहन करना ही होगा—मेरे बच्चे के प्राण अपनी मुट्ठी में कैद कर लिए हैं तुमने।"
"यह बिल्कुल झूठ है—गलत है।" युवक चीख पड़ा।
"अगर तुम सच कह रहे हो, तब भी अपने बेटे की जिन्दगी एक अजनबी के हाथ में चले जाने का दु:ख है मुझे—कोशिश करूंगी, कि उसे तुम्हारे मोहजाल से मुक्त कर सकूं।
" म...मेरी कोशिश भी यही होगी।"
"यह कहना मेरी विवशता है कि अगर चाहो तो वीशू के मोहजाल से मुक्त होने तक तुम यहीं रह सकते हो।"
"ध...धन्यवाद।" खुशी के कारण युवक का लहजा कांप गया। उसे लगा कि वह बच गया है। वह छोटा-सा घर—वह चारदीवारी कानून के लम्बे कहे जाने वाले हाथों से बहुत दूर है। वह छोटा-सा घर उसे बहुत ही सुदृढ़ किला महसूस हुआ।
अचानक ही रश्मि ने प्रश्न किया— क्या मैं तुम्हारे कपड़ों पर लगी इस बेशुमार धूल का कारण जान सकती हूं? यहां से जाने के बाद सारे दिन कहां रहे? ”
"जिसका कोई घर न हो, वह रह भी कहां सकता है? सारा दिन एक खण्डहर हुए मकान के मलबे पर पड़ा रहा, यह धुल वही मलबा है।"
"अब तुम नीचे जा सकते हो—मगर सुनो—यहां तुम केवल तब तक रहोगे, जब तक कि वीशू तुम्हारे मोहजाल से मुक्त न हो जाए, तुम उसे मुक्त करने की कोशिश करोगे—बांधने की नहीं—यहां तुम वीशू के पापा और मांजी के पुत्र बनकर ही रहना, रश्मि का पति बनने की कोशिश कभी मत करना।"
"ऐ...ऐसा गन्दा विचार मेरे दिमाग में कभी नहीं जाएगा।"
"हमेशा याद रखना कि मैं तुमसे नफ़रत करती हूं।"
युवक विचित्र नजरों से उसे देखता रहा। सचमुच उसकी आंखों से नफरत की चिंगारियां निकल रही थीं। युवक कुछ बोल नहीं सका, जबकि रश्मि ने कहा—" यहां से बाहर निकल जाओ।"
कमरे से निकलता, सीढ़ियां उतरता युवक ' मां' की महानता के बारे में सोच रहा था—' उफ—एक मां अपनी औलाद के लिए ऐसे जालसाज को भी सहन कर सकती है, जिससे बेइन्तहा नफरत करती हो—सिर्फ नफरत।
¶¶
“हैलो आंग्रे प्यारे।"
अपने ऑफिस में बैठा आंग्रे इंस्पेक्टर चटर्जी की आवाज सुनकर चौंक पड़ा, स्वागत के लिए खड़ा हो गया वह और हाथ बढ़ाता हुआ बोला— हैलो—तुम नोटों की वह गड्डी ले गए थे—क्या तीर मारकर आए हो?"
"उसे छोड़ो प्यारे।" हाथ मिलाने के बाद 'धम्म' से एक कुर्सी पर बैठता हुआ चटर्जी बोला—" तुम कहो, आज का अखबार पढ़ने के बाद सिकन्दर का सुराग देने वाला कोई मुर्गा यहां आया भी या यूं ही बैठे मक्खियां मार रहे हो?"
"कोई नहीं आया।" आंग्रे के लहजे में निराशा थी।
"यानि मक्खियाँ मार रहे हो, कितनी मार चुके हो—पूरी तीस हुईं या नहीं?" इस वाक्य के बीच ही में उसने जेब से निकालकर एक सिगरेट सुलगा ली थी—आंग्रे ने देखा कि चटर्जी का चेहरा सफलता की वजह से चमक रहा था। उससे रहा न गया तो पूछ लिया—" तुम्हारे चेहरे से लग रहा है कि तुम किसी मामले में सफल होकर लौटे हो, क्या मुझे अपनी उपलब्धि नहीं बताओगे।"
"इस बारे में पांच मिनट बाद बात करेंगे—पहले यह बताओ कि राजाराम को जेल भेजा या नहीं?"
"बस, तैयारी ही कर रहा था।"
"यानि अभी वह हवालात में है?"
"हां।"
"मैं पांच मिनट में उससे बात करके आता हूं—तब तक अपनी गड्डी के इन नोटों को गिनो, चोरी की आदत है—कहीं बीच में से मैंने एकाध सरका न लिया हो।" कहने के साथ ही उसने गड्डी मेज पर डाली और तेजी के साथ उस तरफ चला गया जिधर इस थाने की हवालात थी।
चटर्जी के अंतिम शब्दों पर हौले से मुस्कराते हुए आंग्रे ने गड्डी उठाकर दराज में डाल ली और व्यग्रतापूर्वक चटर्जी के लौटने का इंतजार करने लगा—वह नहीं समझ पा रहा था कि चटर्जी राजाराम से क्यों मिलने गया है।
वह पांच मिनट से पहले ही लौट आया। आंग्रे ने देखा कि इस बार चटर्जी की आंखें ठीक कीमती हीरों की तरह चमक रही थीं। कुर्सी पर बैठते हुए चटर्जी ने कहा—" रूबी की लाश का मलबा यहीं है?"
 उस अलमारी में, मगर उसका तुम क्या करोगे?"
"निकालो प्यारे, अचार डालना है।"
आंग्रे उठा, अलमारी के समीप पहुंचा—जेब से चाबी निकालकर अलमारी पर लगा लॉक खोला और फिर एक लाल कपड़े की छोटी-सी गठरी उसने मेज पर लाकर रख दी—इस गठरी में घटनास्थल से बरामद रूबी की हड्डियां थीं। बैठते हुए आंग्रे ने कहा—" यह मेरी जिन्दगी का ही नहीं, बल्कि शायद क्राइम की दुनिया का पहला ही केस होगा, जिसके अन्तर्गत अदालत में मकतूल की डैडबॉडी शब्द कहकर ये हड्डियां पेश की जाएंगी—शायद ही कभी किसी को किसी की डैडबॉडी इस रूप में मिली हो—ये हड्डियां न तो यह बता सकती हैं कि ये किसके जिस्म की हैं और न ही इस लाश का पोस्टमार्टम आदि कुछ हो सकता है।"
चटर्जी ने जेब से एक फोटो निकाला, इस फोटो को उसने बीच में से मोड़ रखा था—यानि केवल माला का फोटो ही सामने था। रूपेश का नहीं—फोटो को उसी स्थिति में मेज पर रखते हुए चटर्जी ने कहा— जरा देखो प्यारे, इस कन्या को देखो।"
"देख रहा हूं।"
 कैसी है?"
"ठीक है, सुन्दर ही कही जाएगी—मगर इसे तुम मुझे क्यों दिखा रहे हो?"
"अब जरा यह कल्पना करो कि उस पोटली में रखी हड्डियों को अगर ' सिस्टेमेटिक ढंग से फिट करके उन पर गोश्त और खाल का लेप कर दिया जाए तो इतनी सुन्दर कन्या बन सकती है या नहीं?"
"' क...क्या यह रूबी की फोटो है?" आंग्रे उछल पड़ा।
चटर्जी ने बड़े प्यार से कहा—" राजाराम यही कहता है, अखबारों में इसका नाम गलत छप गया है—असल में इसका नाम माला है।"
"म....माला?”
"हां।"
"म....मगर तुम यह कैसे कह सकते हो?"
चटर्जी ने फोटो की तह खोल दी। युवती के साथ बैठे युवक को देखते ही वह सचमुच उछल पड़ा, मुंह से निकला--“रूपेश? ”
"तुमने ठीक पहचाना किबला।"
"म...मगर रूपेश और यह! आंग्रे अपने आश्चर्य पर काबू नहीं कर पा रहा था—" क......क्या ये दोनों पति-पत्नि हैं?"
"तुम्हारे होने वाले बच्चे जिएं।"
"ल...लेकिन ये सब चक्कर क्या है?" बेचैन होते हुए आंग्रे ने पूछा—"प...प्लीज चटर्जी, मुझे विस्तार से सब कुछ बताओ।"
चटर्जी ने नोटों की गड्डी के आधार पर रूपेश के कमरे तक पहुंचने की कहानी सुनाने के बाद कहा—“हम वहां से मकान मालिक के लड़के को लेकर अस्पताल पहुंचे—मेरे साथ अपने मकान मालिक के लड़के को देखकर रूपेश समझ गया कि मैं कहानी की उस तह तक पहुंच गया हूं, जिसे वह छुपा रहा था, अत: मेरे सवालों के उत्तर उसने बिना किसी हील-हुज्जत के दे दिए।"
"क्या बताया उसने?"
"रूपेश बस्ती जिले में रहने वाले एक निर्धन परिवार का लड़का है, जो किसी वजह से गाजियाबाद में जा बसा—वह बचपन से ही महत्वाकांक्षी रहा है—बस्ती में जहां उसका घर है, वहां एक करोड़पति परिवार भी रहता है—उनके ठाट-बाट, शानो-शौकत आदि देखकर वह ईर्ष्या करता रहा है—करोड़पति का एक विद्रोही लड़का दस साल की उम्र में ही भाग गया था। जो काफी तलाश करने के बावजूद आज बीस साल गुजरने के बाद भी नहीं मिला है—पिछले तीन साल पहले वहां बाढ़ आई और वह बाढ़ सैंकड़ों अन्य लोगों के साथ उस करोड़पति परिवार के सभी बच्चों को अपने साथ बहा ले गई—ठूंठ की तरह रह गए वह करोड़पति सेठ और उनकी पत्नी—पड़ोसी होने के नाते रूपेश का वहां आना-जाना था, अत: उनके कोई भी बच्चा न रहने के कारण उनकी दौलत को हासिल करने की उसके मन में और प्रबल इच्छा हो गई।
"मगर सवाल था—कैसे?"
 इधर रूपेश एक दिन घूमने-फिरने देहली गया वहां कनॉट प्लेस पर जिस लड़की से उसका आंख-मट्क्का हुआ, वह महरौली में रहने वाले एक परिवार की लड़की थी—अपने परिवार के साथ वह पिकनिक पर यहां आई हुई थी—सारे दिन की अठखेलियों के बाद उनके दिल की अदला-बदली हो गई थी—अतः रूपेश महाराज उन्हें उनके महरौली स्थित मकान तक छोड़ने गए—इस रहस्य को केवल माला ही जानती थी, उसके परिवार के अन्य लोग नहीं।"
"अब तो मुलाकातों का सिलसिला चालू हो गया—इश्क की पेंगें बढ़ने लगीं—झोंटे ऊंचे और ऊंचे होते चले गए—रूपेश ने गाजियाबाद से देहली तक का पास बनवा लिया, जिसके जरिए वह सर्विस करने वाले दूसरे ' डेली पैसेंजर्स' की तरह आने-जाने लगा—इस तरह खर्चा भी कम पड़ता था।"
"खैर—इश्क इस मुकाम पर पहुंचा कि माला के घर भण्डाफोड़ हो गया, डांट-फटकार पड़ी—प्रेम दीवानी ने विद्रोह कर दिया—मां-बाप कम्बख्त होते क्या चीज हैं—उन्हें क्या हक है कि दो प्यार करने वालों के बीच चीन की दीवार बनें—देहली के किसी अंधेरे कोने में माला ने यह सारी रामायण रूपेश को सुनाई—अब रूपेश ने बता दिया कि वह कोई बहुत मोटी हस्ती नहीं है—गाजियाबाद में फोटोग्राफी की एक दुकान है जिस पर ग्राहक तभी जाता है जब शहर की दूसरी दुकान पर उसकी दाल न गलती हो।"
"र...रूपेश फोटोग्राफर है?”
"सुनते रहो, प्यारे। वैसे तुमने प्वाइंट ठीक पकड़ा है—हां, तो हम कह रहे थे कि रूपेश ने अपनी हकीकत माला को बता दी—माता के सिर पर प्रेम-भूत सवार था, उसे भला इन बातों से क्या फर्क पड़ना था—टीo वीo पर देख-देखकर उसने ढेर सारे फिल्मी डायलॉग रट रखे थे, सब उगल दिए—उनमें प्यार की महिमा थी और यह था कि भला प्यार का दौलत से क्या सम्बन्ध, दौलत होती ही क्या है—हुंह—चांदी के चन्द सिक्के। उस वक्त माला को यकीन था कि अगर तराजू के एक पलड़े में उनका प्यार और दूसरे में सारे जहां से इकट्ठी करके दौलत रख दी जाए तो नीचे प्यार वाला पलड़ा ही रहेगा।"
 तुम तो उनके प्यार ही पर अटक गए, आगे बढ़ो।"
"माला और रूपेश भी आगे बढ़े और इतने आगे बढ़ आए कि उन्होंने कोर्ट में शादी कर ली—पैदा करने वाले आएं भाड़ में—न रूपेश के मां-बाप को पता था, न ही माला के घर वाले इन्वाइट किए गए, क्योंकि उस घर को हमेशा के लिए छोड़ने के बाद ही वह शादी हुई थी—अब वे पति-पत्नि बन गए।
साथ रहने लगे।
"कुछ दिन तक ठीक चला, मगर शीघ्र ही माला की समझ में यह बात आ गई कि उनके प्यार के मुकाबले पर तराजू के दूसरे पलड़े में अगर एक सौ का नोट भी रख दिया जाए तो प्यार वाला पलड़ा हवा में डगर-डगर नाचेगा।
"कहना चाहिए कि फांकों की झाडू ने माला के सिर से प्रेम-भूत उतार दिया और तब उसने जाना कि वह खुद दौलत के मामले में रूपेश से कहीं प्यादा महत्वाकांक्षी है—अब ये पति-पत्नी किसी ऐसी तिकड़म के जुगाड़ में लग गए, जिससे एक ही दांव में मालामाल हो जाएं। रूपेश के जेहन में बस्ती में रहने वाला करोड़पति सेठ खटक ही रहा था।
"ऐसे समय में इन लोगों ने इंस्पेक्टर दीवान द्वारा अखबारों में दिया गया विज्ञापन देखा और उसे देखते ही रूपेश के दिमाग में एक साफ-सुथरी स्कीम चकरा गई—फोटोग्राफर होने के नाते रूपेश यह समझ गया कि याददाश्त गंवाए व्यक्ति के दिमाग की प्लेट ताजा फोटो रील के समान है, जिस पर चाहे जो फोटो उतारा जा सकता है, अतः उसने उसे बस्ती के करोडपति सेठ का बचपन में भागा हुआ लड़का साबित करने की ठान ली—पति-पत्नी में मंत्रणा हुई, इस बात पर गौर किया गया कि उनकी स्कीम कितनी मजबूत रहेगी—इसी विचार-विमर्श में इन्हें देर हो गई और रूपेश से पहले मेडिकल इंस्टीट्यूट में सेठ न्यादर अली न केवल पहुंच गया, बल्कि युवक को अपने साथ भी ले गया—यह बात रूपेश को डॉक्टर भारद्वाज से पता लगी और इस प्रथम चरण में ही उनकी योजना पर पानी फिर गया।
"जब गाजियाबाद लौटकर रूपेश ने यह सब माला को बताया तो माला के वे सारे सपने चूर-चूर हो गए, जो उसने बनी हुई स्कीम की सफलता पर देखे थे उसने रूपेश को ताने दिए कि वह सिर्फ बातें मिला सकता है, कर कुछ नहीं सकता।
"फिर रूपेश ने सेठ न्यादर अली द्वारा अखबारों में दिया गया विज्ञापन देखा—अब, अपनी उसी स्कीम को कार्यान्वित करने का उनके सामने एक और मौका था।
"इस बार रूपेश चूका नहीं।
“उसने न्यादर अली के यहां सर्विस कर ली—पहले ही दिन उसने जान लिया कि युवक को अपने सिकन्दर होने का पूरा यकीन नहीं है और वह स्वयं अपने अतीत को तलाश करना चाहता है। युवक की यह मानसिकता रूपेश के लिए लाभदायक ही थी युवक कपड़े बदल चुका था, यानि वे कपड़े यह उतार चुका था जो एक्सीडेंट के समय उसके तन पर पाए गए थे। उन कपड़ों को साथ लिए रूपेश समय निकालकर गाजियाबाद आया। स्कीम के मुताबिक उन्हीं कपड़ों के नाप के न केवल ढेर सारे कपड़े सिलवाए गए, बल्कि इन कपड़ों पर भी ‘बॉनटेक्स’ की चिट लगवाई गई—उसी दिन रूपेश ने अपने खाते से रुपए निकाले और माला को सब कुछ समझाने के बाद देहली लौट आया, क्योंकि सर्विस की शर्तों के मुताबिक वह ज्यादा देर तक न्यादर अली की कोठी से बाहर नहीं रह सकता था।
"उधर योजना के अनुसार माला ने रूबी के नाम से दस हजार राजाराम को दिए। सौ-सौ रुपए उन्हें, जिन्होंने युवक को दुआ-सलाम की थी—वे पैसे केवल सलाम करने के ही थे—उस युवक को पांच-सौ रुपए दिए गए, जिसने सिकन्दर से 'जमने' के लिए कहा था, भगवतपुरे वाला मकान किराए पर लिया गया—इतना सब काम निपटने के बाद माला रात के वक्त देहली जाकर रूपेश से मिली—स्कीम के मुताबिक यह ट्रिक फोटोग्राफी से ऐसी एलबम तैयार कर चुका था, जिससे सिकन्दर और माला पति-पत्नी नजर आएं—वह एलबम देते वक्त रूपेश ने उसे बाकी बातें भी समझा दीं।
“माला भगवतपुरे वाले मकान में लौट आई।
"उसी रात रूपेश ने बातों में फंसाकर सिकन्दर की नॉलिज में यह बात ला दी कि उसके तन से मिले कपड़ों पर गाजियाबाद के बॉंनटेक्स टेलर की चिट है और वहीं से उसका सही अतीत पता लग सकता है।"             
"बेचारा सिकन्दर रूपेश को सचमुच अपना दोस्त और शुभचिन्तक समझ बैठा। रूपेश की जानकारी में वह उसी रात न्यादर अली की कोठी से भाग निकला—रूपेश को वह समझा चुका था कि दिन में ' बॉंनटेक्स' टेलर से मालूम कर ले कि यह कहां गया है—वह क्या जानता था कि सब कुछ रूपेश का ही किया-धरा है।
"सोच-समझकर फैलाए गए जाल में से गुजरता सिकन्दर भगवतपुरे के मकान में पहुंच गया। उसे सुनाने के लिए जो कहानी तैयार की गई थी, उसमें उन सभी सवालों के जवाब थे, जो सिकन्दर के जेहन में चकरा रहे थे—रूबी बनी माला ने अपनी और रूपेश की प्रेम कहानी ज्यों-की-त्यों सिकन्दर को सुना दी—उनके जेहन में यह भर दिया कि वह बस्ती में रहने वाले सेठ का भागा हुआ लड़का है—उसे यह बताया कि वह अपराधी प्रवृत्ति का है, ताकि अपने बारे में और ज्यादा खोजबीन करने का साहस न कर सके।"
आंग्रे की आंखों में हैरत के साए लहरा उठे, बोला—"बड़ी खतरनाक और साफ-सुथरी स्कीम थी इनकी—बस्ती में रहने वाले सेठ के समक्ष ये सिकन्दर को उसका बेटा सिद्ध कर देते और माला को उसकी पत्नी—फिर समय आने पर सिकन्दर को रास्ते से हटा दिया जाता और सेठ की सारी दौलत की एकमात्र अधिकारिणी रूबी या माला।"
"मगर—सिकन्दर के जुनून ने सारे हालात उलट दिए—अपनी स्कीम के जोश में वे ' जुनून' के बारे में भूल गए थे—इसी जुनून ने न केवल इनकी सारी स्कीम खाक में मिला दी, बल्कि माला चल बसी, रूपेश भी एक प्रकार से चल ही बसा—अंजाम वही हुआ आंग्रे प्यारे, जो अक्सर ऐसे खतरनाक ‘प्लानर्स' का होता है।"
"क्या मरने से पहले माला सिकन्दर को यकीन दिला चुकी थी कि....?"
"इस बारे में कौन जानता है!"
"ल...लेकिन रूपेश माला को उसकी पत्नी साबित कर रहा था, जबकि असल में वह रूपेश की पत्नी थी, इस स्कीम के आगे बढ़ने पर क्या माला की पवित्रता कायम रह पाती? ”
"किस किस्म की पवित्रता की बात कर रहे हो, प्यारे?”
"तुम समझ रहे हो।"
"हुंह।" व्यंग्यपूर्वक मुस्कराते हुए चटर्जी ने कहा—"अपराध करने वाले यदि इस किस्म की पवित्रता-अपवित्रता का ख्याल करने लगे तो अपराध ही न हों—दौलत हासिल करने की ललक इन बातों को नगण्य कर देती है, आंग्रे भाई—जिस बात की चिंता तुम कर रहे हो, उसकी चिंता न रूपेश को थी, न माला को।"
आंग्रे चुप रह गया, इस बारे में पूछने के लिए अब जैसे उसके दिमाग में कोई सवाल नहीं रहा था, बोला—“मान गए चटर्जी—नोटों की गड्डी को क्लू बनाकर तुमने इस मामले की अंतिम गुत्थी भी सुलझा दी।"
"यह केस तुम्हारा है, फिर मैंने इतनी भाग-दौड़ क्यों की?"
"दोस्ती के नाते।"
"बिल्कुल नहीं।"
"फिर?”
"उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाने की बीमारी है मुझे, गुत्थी मेरे सामने आई और फिर मैं खुद को रोक नहीं सका।"
मुस्कराते हुए आंग्रे ने कहा—" चलो यूं ही सही, मगर सारा मामला सुलझने के बाद भी अपराधी अभी तक गायब है, उस तक पहुंचने का भी तो कोई रास्ता निकालो।"
"लगता है कि वह किसी बिल में छुपकर बैठ गया है प्यारे मगर कब तक छुपा रहेगा? जब चटर्जी हरकत में आएगा तो उस बिल को भी खोज निकालेगा—कम-से-कम आज मैं हरकत में आने वाला नहीं हूं प्यारे, बहुत थक गया हूं—आराम करूंगा।"
¶¶
युवक को वहां रहते धीरे-धीरे एक महीना गुजर गया।
विशेष और बूढ़ी मां बहुत खुश थे। रश्मि अब उसके प्रति इतनी सख्त नहीं थी। अब युवक उसकी आंखों से अपने लिए नफरत की चिंगारियां निकलते नहीं देखता, परन्तु आज तक भी यह युवक के प्रति नम्र नहीं थी—ऐसा नहीं कहा जा सकता था कि वह युवक की उपस्थिति से खुश थी।
हां, इस एक महीने में, युवक के व्यवहार आदि से रश्मि इतना समझ गई थी कि युवक कोई बहुरूपिया या जालसाज नहीं था, वह किसी दुर्भावना से यहां नहीं रह रहा था।
युवक के चरित्र में कोई बुराई महसूस नहीं की थी उसने।
उसे अपनी तरफ कभी उन नजरों से देखते नहीं पाया था, जिन्हें अनुचित कहा जा सके, वह तो यह कोशिश करती ही थी कि युवक के सामने न पड़े—रश्मि ने भी यह महसूस किया था कि युवक स्वयं अकेले में उसके सामने पड़ने से कतराता था।
मगर पिछले दस-पन्द्रह दिन से एक बात कांटे की तरह उसके मस्तिष्क में चुभ रही थी। वह यह कि इस एक महीने में युवक ने एक बार भी शेव नहीं कराई थी, उसकी दाढ़ी और मूंछें काफी बढ़ गई थीं और अब उसका चेहरा रश्मि के कमरे की दीवार पर लगे फोटो में मौजूद सर्वेश के चेहरे जैसा ही लगता था।
पिछले पांच-छ: दिन से उसने अपने हेयर स्टाइल में भी परिवर्तन कर लिया था।
फोटो में सर्वेश की आंखों पर मौजूद चश्मे जैसा ही चश्मा पहने भी रश्मि ने उसे एक रात देखा था, यानि युवक अब पूरी तरह वह सर्वेश बनने की कोशिश कर रहा था, जिसका फोटो उसके कमरे की दीवार पर लगा है।
आखिर क्यों वह पूरी तरह सर्वेश बनता जा रहा हे?
उधर—यदि युवक के दृष्टिकोण से इस बदलाव को देखा जाए तो वह केवल पुलिस से बचने के लिए यह सब कर रहा था। हमेशा तो वह इस घर की चारदीवारी में बन्द रह नहीं सकता था। जानता था कि वहां से उसे निकलना ही होगा और किसी पुलिस वाले से टकरा जाने का पूरा खतरा था—ऐसे किसी भी समय के लिए यह खुद को सर्वेश बना रहा था।
ताकि समय आने पर खुद को सर्वेश कहकर बच सके—पुलिस साबित न कर सके कि मैं ' सिकन्दर' , ' जॉनी' या वह हत्यारा हूं जिसे युवा लड़कियों को मारने का जुनून सवार होता है, बस—इस बदलाव के पीछे यही एक मकसद था।
¶¶
"मैं तो असफल हो ही गया हूं चटर्जी, मगर उस हत्यारे को खोज निकालने के मामले में तुम भी मात खा गए हो।" आंग्रे कह रहा था—" तुम, जिसके बारे में लोग यह कहा करते हैं कि चटर्जी जिस मामले के पीछे पड़ जाता है, उसकी बखिया उधेड़कर रख देता है—आज पूरा एक महीना हो गया है, क्या तुम उसे तलाश कर सके?"
"ठीक कहते हो प्यारे, मानता हूं इस झमेले में मेरी खोपड़ी ने मेरा साथ नहीं दिया है।" चटर्जी बोला—“पता लगाने की हर कोशिश कर ली, एड़ी से चोटी तक का जोर लगा लिया, किन्तु उस कम्बख्त का कोई सुराग नहीं मिला। पता नहीं उसे जमीन खा गई या आसमान निगल गया।"
"यानि तुम भी हार मान चुके हो?"
"चटर्जी तब तक हथियार नहीं डालेगा प्यारे, जब तक जिन्दा है।"
"क्या मतलब?"
"अंतिम सांस तक मेरी इच्छा उस तक पहुंचने की रहेगी।"
“आशावान भी रहें तो किस आधार पर, आज एक महीना हो चुका है—गधे के सींग की तरह जाने कहां गायब हो गया और अब मेरा ख्याल तो कुछ और ही है।"
"उसे भी पेश कर दो।"
"कम-से-कम मर्द के लिए अपनी शक्ल में तब्दीली करने के लिए एक महीना काफी होता है, अगर वह होशियार होगा तो अपनी शक्ल में यह तब्दीली उसने कर ली होगी और सामने पड़ने पर भी एक बार को शायद हम उसे पहचान न सकें।"
"किस किस्म की तब्दीली की बात कर रहे हो?"
"वह दाढ़ी-मूंछ बढ़ा सकता है, नाक की बनावट बदल सकता है—बाजार में मिलने वाले स्थाई लैंस से आंखों के रंग को बदल सकता है—हेयर स्टाइल चेंज कर सकता है।"
"तुम्हारा मतलब है—मेकअप?"
 ऐसा, जो मेकअप भी न कहलाया जा सके।"
"किसी भी मेकअप से तुम भले ही धोखा खा जाओ आंग्रे प्यारे, मगर चटर्जी चक्कर में आने वाला नहीं है, इंसान तो इंसान—यदि वह ' भैंस' बनकर भी मेरे सामने आ गया तो मैं उसे पहचान लूंगा, और फिर उसे हत्यारा भी बड़े आराम से साबित कर दूंगा।"
"वह कैसे?"
"लाख मेकअप के बावजूद वह अपने 'फिंगर-प्रिण्ट्स' नहीं बदल सकेगा—लाख कोशिश के बावजूद अपनी ' राइटिंग' चेंज नहीं कर सकेगा वह—हथौड़ी से प्राप्त फिगर-प्रिंट्स और ' मिट्टी के तेल' वाले सिलसिले में मेरे पास उसकी राइटिंग है।"
"उन्हें तो तभी मिलाओगे न जब हमें किसी पर शक हो?”
"बात के जवाब में एक बात पक्की है प्यारे, वैसे तुम्हारे इस विचार से मैं सहमत हूं कि उसने निश्चय ही अपनी शक्ल में हर सम्भव परिवर्तन किया होगा—खैर, चलता हूं प्यारे।" कहते हुए चटर्जी ने उठने के लिए कुर्सी के दोनों हत्थों पर हाथ रखे ही थे कि आंग्रे ने अनुरोध किया—“बैठो यार, ऐसी क्या जल्दी है?"
 कचहरी जाना है।"
आंग्रे ने कहा— कचहरी तो मुझे भी जाना है।"
"किस सिलसिले में?"
"रूपेश को अदालत में पेश करने के बाद जेल भेजने। अब वह लगभग पूरी तरह स्वस्थ हो चुका है—जलने के कारण चेहरे पर जो बदसूरती आ गई है, वह तो हमेशा रहेगी ही।"
"उसके कर्म गोरे शरीर पर फूट पड़े हैं।"
“वैसे तुम्हें कचहरी क्यों जाना है?”
 कुछ नहीं यार, हरिद्वार पैसेंजर से पकड़े उसी मिट्टी के तेल के मामले की आज पहली तारीख है, अपना एक गवाह तो साला उड़न छू हो ही गया है—देखें, एक गवाह से काम चलेगा या नहीं?"
"तुम्हें भी गवाह के लिए वह हत्यारा ही मिला था।"
 इतना बड़ा मामला नहीं है, एक ही गवाह काफी होगा और वह तो आएगा ही—अरे....।" बात करता-करता चटर्जी एकदम उछल पड़ा, जैसे कुछ याद आ गया हो।
बिजली के समान मस्तिष्क में जैसे कुछ कौंधा हो।
"वो मारा पापड़ वाले को!" एकाएक ही मेज पर बहुत जोर से घूंसा मारता हुआ चटर्जी चीखा— क्लू मिल गया है आंग्रे प्यारे।"
"क...कैसा क्लू? चौंकते हुए आंग्रे ने पूछा।
"गवाही के सिलसिले में वह दूसरा गवाह अदालत में आज जरूर जाएगा—उसे भी नई देहली जाना था, यानि वह बता सकता है कि  सिकन्दर' ट्रेन से किस स्टेशन पर उतरा था।”
"क्लू तो है, मगर...।"
"मगर?"
"उतना जोरदार नहीं है जितना तुम उछल रहे हो-मान लिया कि हमें पता लग गया कि सिकन्दर पुरानी देहली में उतरा है, तब?”
"अभी तक तो ' क्लू' ही नहीं मिल रहा था, मेरी जान......यह प्रकाश किरण नजर तो आई है और प्रकाश किरण नजर आना शुभ होता है।"
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