सूर्यनारायण रोड पर राजागोपाल के नेतृत्व में पुलिस दल के पहुंचने का इतना ही फयदा हुआ कि पोनाप्पा की जान बच गयी । उसे फौरन हस्पताल न पहुंचाया गया होता तो वह एक्सेसिव ब्लीडिंग से मर गया होता ।
नायर का सिर ही फटा था, वह हर प्रकार के खतरे से बाहर था । उसी की जुबानी राजागोपाल को मालूम हुआ कि पीछे क्या हंगामा मचा था ।
राजागोपाल को बहुत अफसोस हुआ । अगर दूसरा टैक्सी ड्राइवर पांच मिनट भी जल्दी उनके पास पहुंच गया होता तो डकैत उसी बंगले से गिरफतार हो चुके होते ।
***
कॉलेज रोड पर बत्तीस नम्बर इमारत के सामने लाकर त्यागराजन ने स्टेशन वैगन रोक दी ।
“चाबियां दो” - लक्ष्मी बोली - “मैं गैरज का दरवाजा खोलती हूं ।”
“लक्ष्मी” - त्यागराजन अनुनयपूर्ण स्वर से बोला - “मेरी बात मानो । इस झमेले में फंसना हमारे लिये ठीक नहीं । हमें फौरन पुलिस को सूचित करना चाहिये । हमें दस हजार रुपये का इनाम मिल जायेगा ।”
“ओह, शटअप ।” - लक्ष्मी झल्लाकर बोली - “कहां दस हजार रुपये और कहां सत्तर लाख रुपये ! और फिर दस हजार रुपये तो जब मिलेंगे सो मिलेंगे, सत्तर लाख रुपया तो अभी हमारे अधिकार में है । चाबियां दो ।”
त्यागराजन ने चुपचाप चाबियां निकालकर अपनी पत्नी के हाथ पर रख दीं ।
लक्ष्मी स्टेशन वैगन से बाहर निकली ।
उसने आगे बढ़कर गैरेज का दरवाजा खोला ।
त्यागराजन ने स्टेशन वैगन गैरेज में ले जा खड़ी की ।
लक्ष्मी ने गैरेज का दरवाजा बन्द कर दिया और भीतर की बत्ती जला दी ।
त्यागराजन भी इग्नीशन बन्द करके ड्राइविंग सीट से नीचे उतर आया ।
लक्ष्मी ने उसकी मास्टर की लगाकर स्टेशन वैगन का पिछला दरवाजा खोला । लक्ष्मी ने फोर्ड का टायर और पिकनिक के सामान की टोकरी नीचे रख दी फिर दोनों ने मिलकर लकड़ी की पेटी को डिकी से निकालकर जमीन पर रख लिया ।
त्यागराजन ने लक्ष्मी से चाबियां ले लीं और डिकी का दरवाजा पूर्ववत् बन्द कर दिया ।
लक्ष्मी ने कांपते हाथों से पेटी का ढक्कन खोला ।
भीतर निगाह पड़ते ही उसके नेत्र फैल गये । उसका मुंह खुल गया । वह सांस लेना भूल गई । उसकी निगाहें नोटों से लबालब भरी पेटी से चिपक कर रह गर्इ थीं ।
त्यागराजन भी हक्का बक्का-सा नोटों से भरी पेटी को देख रहा था ।
कितनी ही देर जड़ से वे दोनों पेटी के सामने खड़े रहे ।
लक्ष्मी का कांपता हुआ हाथ आगे बढ़ा । उसने पेटी में से नोटों का एक बंडल उठा लिया । उसने बंडल को अपनी छाती से लगा लिया और फिर नेत्र बन्द कर लिये ।
“हे भगवान !” - वह होंठों में बुदबुदाई - “हे मेरे भगवान !”
“अगर हम पकड़े गये तो सालों जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी ।” - त्यागराजन बोला - “लक्ष्मी, अब भी मेरी बात मानो...”
“अब मुझे अपनी बातें मनवानी बन्द करो” - लक्ष्मी कर्कश स्वर में बोली - “अैर अपने होशहवास पर काबू रखो । अभी तुमने बहुत काम करने हैं ।”
“काम ! कैसे काम ?”
लक्ष्मी ने नोटों का बंडल वापिस पेटी में रख दिया । उसने पेटी का ढक्कन बन्द कर दिया ।
“तुमने एक ऐसी मूर्खता की है जिसकी वजह से यह सारी दौलत भी हमारे हाथ से निकल सकती है और यह भी हो सकता है कि हमारी जान पर बन आये ।”
“क्या किया है मैंने ?”
“तुम अपनी कार पर अपने घर का पता लिखकर लगा आये हो । डाकुओं का जो साथी स्टेशन वैगन को वहां लाया था, वह आसपास ही कहीं होगा । जब वह वापिस लौटेगा और हमारी कार पर तुम्हारी लिखी लगी चिट देखेगा तो क्या वह यहां नहीं पहुंच जायेगा ?”
“हे भगवान !” - त्यागराजन घबरा कर बोला - “अब तो हमें जरूर ही पुलिस को सूचित करना चाहिये ।”
“फिर लगे बकवास करने ।”
“तो फिर क्या करें ?”
“तुम अपनी कार के पहिये में पंचर लगवाओ, यह स्टेशन वैगन वापिस वहां लेकर जाओ जहां अपनी कार छोड़कर आये हो और अपनी कार वापिस लेकर आओ ।”
“मैं नहीं जाऊंगा ।”
“क्यों नहीं जाओगे ?”
“मैं... मुझे डर लगता है ।”
“किस बात से डर लगता है तुम्हें ?”
“अगर उस आदमी से मेरा सामना हो गया तो वह मुझे जान से मार डालेगा ।”
“यह खतरा तो हमें उठाना ही पड़ेगा । एक बार इतनी दौलत हाथ में आ जाने के बाद अब मैं आसानी से इसे अपने हाथ से निकलने नहीं दूंगी ।”
“चाहे जान चली जाये !”
“चाहे जान चली जाये ।” - लक्ष्मी दृढ़ स्वर में बोली ।
त्यागराजन को जवाब नहीं सूझा ।
“और मरो मत । तुम मर्द हो । कोई मर्दों जैसा काम करके दिखाओ ।”
“लेकिन...”
“ऑल राइट । मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी । अगर मरेंगे तो दोनों इकट्ठे मरेंगे ।”
त्यागराजन ने हथियार डाल दिये । उसने टायर को स्टेशन वैगन में रखा और ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । वह स्टेशन वैगन को गैरेज से बाहर निकाल ले गया ।
लक्ष्मी ने गैरेज का द्वार भीतर से बन्द कर लिया ।
***
जयशंकर के बंगले की बाबत पुलिस ने आस-पड़ोस से पूछताछ आरम्भ की ।
मालूम हुआ कि वह बंगला लगभग एक महीना पहले जयशंकर नाम के एक दक्षिण भारतीय वृद्ध ने किराये पर लिया था । प्रापर्टी एजेन्ट ने जयशंकर का हुलिया यूं बयान किया: उम्र लगभग पचास साल । छोटा कद फिर भी काठी तनिक झुकी हुई । शरीर दुबला-पतला । सूरत-शक्ल और परिधान मामूली ।
एजेन्ट ने उसे एक एम्बैसेडर गाड़ी चलाते देखा था लेकिन उसे गाड़ी का नम्बर याद नहीं था ।
बंगले के विभिन्न स्थानों से फिंगरप्रिंट उठाये गये और उन्हें क्लासीफिकेशन के लिये पुलिस लैबोरेट्री में भेज दिया गया ।
रात के आठ बजे तक पुलिस के सामने जयशंकर की हकीकत खुल गई ।
जयशंकर की फाइल पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल के सामने पेश कर दी गई । सुपर साहब को इस नतीजे पर पहुंचते देर नहीं लगी कि अपनी पचपन साल जिन्दगी में कम से कम आधी दर्जन बार सरकारी मेहमान बन चुका जयशंकर ही वह पांचवां आदमी था जो डाके के दौरान स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा था और जिसकी किसी ने सूरत नहीं देखी थी ।
यह बात स्पष्ट थी कि जहां जयशंकर था, वहीं लूट का धन था ।
पुलिस के रिकार्ड में जयशंकर की तस्वीर भी थी । अगले दिन वह तस्वीर देश भर के समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो गई ।
***
उन तमाम बातों से बेखबर जयशंकर गुफा के दहाने पर दिल थामे लेटा हुआ था ।
उसके देखते-देखते सत्तर लाख रुपये से भरी स्टेशन वैगन उसकी नाक के नीचे से निकल गई थी और वह कुछ भी नहीं कर पाया था । इतना रुपया खर्च करने के बाद, इतनी प्लानिंग करने के बाद, इतनी मुसीबत उठाने के बाद जो दौलत उसके हाथ में आई थी वह पलक झपकते ही उसके अधिकार से निकल गई थी । जयशंकर को लग रहा था कि वह दिल के दौरे से तो नहीं मरा था लेकिन दौलत हाथ से निकल जाने का गम जरूर उसकी जान ले लेगा ।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वे युवक और युवती स्टेशन वैगन क्यों ले गए ? वे कौन थे और स्टेशन वैगन कहां ले गये थे ?
बड़ी मेहनत से जयशंकर उठकर बैठ गया । उसने रिवॉल्वर अपने बिस्तर पर डाल दी । उसने काम्पोस की दो और गोलियां जेब से निकालकर मुंह में रखीं और उन्हें पानी के बिना ही निगल गया ।
थोड़ी ही देर बाद उसे कुछ राहत मिलती महसूस हुई । वह फिर उन लोगों के बारे में सोचने लगा जो उसकी स्टेशन वैगन ले गये थे ।
वे वहां तक पहुंचे कैसे ? वे जरूर कार पर आये होंगे । तो फिर उनकी कार कहां थी ?
दीवार का सहारा लेकर वह अपने स्थान से उठा और झाड़ियां हटाकर गुफा से बाहर निकल आया । बाहर अंधेरा हो गया था । टार्च के प्रकाश में वह कांपते कदमों से आगे बढ़ा । वह बहुत सम्भल-सम्भल कर कदम रख रहा था । उसे भय था कि दिल पर जोर पड़ने से उसे दोबारा दिल का दौरा न पड़ जाये ।
अन्त में वह उस स्थान पर पहुंच गया, जहां थोड़ी देर पहले स्टेशन वैगन खड़ी थी । उसने टार्च का प्रकाश चारों ओर डाला
थोड़ी दूर उसे एक कार खड़ी दिखाई दी ।
लड़खड़ाते कदमों से चलता हुआ उस कार के समीप पहुंचा । वह एक बेहद पुरानी फोर्ड थी । फोर्ड के एक विंडस्क्रीन वाइपर में एक कागज अटका हुआ था । जयशंकर ने वाइपर में से वह कागज खींच लिया । कागज पर लिखा था:
मेरी कार पंचर हो गई है । मैं आपकी कार ले जा रहा हूं । मैं एक-डेढ़ घण्टे में वापिस लौट आऊंगा । मैं माफी चाहता हूं । आपकी जानकारी के लिये मेरा पता यह है:
एन. त्यागराज; 32, कॉलेज रोड; मद्रास ।
जयशंकर फोर्ड के साथ लगकर खड़ा हो गया । उसने अपने नेत्र बन्द कर लिए ।
तो उन लोगों के स्टेशन वैगन ले जाने की यह वजह थी । त्यागराजन की अपनी कार बिगड़ गई थी इसलिए वह स्टेशन वैगन ले गया था और वह वापिस आने वाला था । फिर तो यह भी सम्भव था कि उन्हें खबर भी न लगे कि डिकी में लाखों रुपयों से भरी एक पेटी रखी थी । और पेटी की जानकारी उन्हें हो भी कैसे सकती थी उनके पास डिकी की चाबी नहीं थी ।
फिर जयशंकर को ख्याल आया कि चाबी तो उस युवक के पास स्टेशन वैगन के इग्नीशन की भी नहीं थी लेकिन फिर भी उसने स्टेशन वैगन स्टार्ट कर ली थी । फिर तो वह डिकी भी खोल सकता था ।
लेकिन शायद उसे डिकी खोलने की जरूरत न पड़े ।
कांपते हाथों से जयशंकर ने अपनी जेब से एक कागज का टुकड़ा और पैन निकाला । उसने कागज पर त्यागराजन का पता नोट करके कागज अपनी जेब में रख लिया । त्यागराजन का लिखा टुकड़ा उसने वापिस फोर्ड के वाइपर में लगा दिया ।
त्यागराजन के स्टेशन वैगन लेकर वापिस लौटने का इन्तजार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था ।
एकाएक वह फिर भारी कमजोरी का अनुभव करने लगा ।
धीरे-धीरे कांपते कदम बढ़ाता हुआ वह वापिस गुफा की ओर लौट चला ।
***
विमल ने एल्फिंस्टन ब्रिज क्रॉस करके स्कूटर को महाबलीपुरम की ओर जाने वाली सड़क पर डाल दिया ।
अभी वह उस सड़क पर कुछ ही दूर बढ़ा था कि उसे अनुभव होने लगा कि आगे कुछ गड़बड़ थी । उसने स्कूटर को एक स्थान पर रोक दिया । विपरीत दिशा से एक साइकल वाला आ रहा था । उसने साइकल वाले को हाथ के संकेत से समीप बुलाया । साइकल वाला झिझकता हुआ समीप आ गया ।
“आगे क्या कोई एक्सीडेंट हो गया है ?” - विमल ने अंग्रेजी में पूछा ।
“नहीं ।” - उत्तर मिला ।
“तो फिर आज इस सड़क पर भीड़-भाड़ कैसी है ?”
“आगे पुलिस ने सड़क ब्लाक की हुई है । पुलिस शहर से बाहर जाने वाली सारी गाड़ियां चैक कर रही है ।”
“क्यों ?” - विमल वजह जानता था लेकिन फिर भी उसके मुंह से निकल गया ।
“पुलिस उन लोगों की तलाश में है जिन्होंने स्टेडियम में डाका डाला था ।”
“ओह !” - विमल बोला - “अभी कोई पकड़ा नहीं गया ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“थैंक्यू ।”
साइकल वाला आगे बढ़ गया ।
विमल चिन्तित हो उठा । अगर महाबलीपुरम जाने वाली सड़क पर पुलिस तैनात थी तो हाईवेज पर तो और भी कड़ा पहरा होगा ।
स्कूटर पर आगे बढ़ने में बहुत रिस्क था । हालांकि पुलिस केवल कारों की तलाशी ले रही थी लेकिन चैक पोस्ट पर वह पहचाना जा सकता था ।
उसने स्कूटर घुमाया और वापिस लौट पड़ा । उसका दिमाग तेजी से महाबलीपुरम के रास्ते पर आगे बढ़ने की कोई तरकीब सोच रहा था ।
चर्च रोड, पी.वी. कौबिल स्ट्रीट और ट्रिप्लीकेन हाई रोड से होता हुआ वह शांति सिनेमा के सामने पहुंच गया । वहां कोई तामिल की फिल्म चल रही थी जिसका वह ठीक से नाम भी नहीं पढ़ पाया । उसने स्कूटर को पार्क किया, टिकट खरीदी और सिनेमा हाल में घुस गया । फिल्म शुरू हो चुकी थी ।
विमल ऊंघता-सा सिनेमा हाल में बैठा रहा ।
फिल्म खत्म होने पर जब वह बाहर निकला तब अंधेरा हो चुका था । उसने अपना स्कूटर सम्भाला और मूर मार्केट पहुंच गया ।
वहां से उसने एक माउथ ऑर्गन खरीदा और एक वैसी टोपी खरीदी जैसी ज्वेल थीफ में देवानन्द पहनता था । माउथ ऑर्गन उसने जेब में रखा, टोपी अपने सिर पर इस प्रकार जमाई कि वह उसके चश्मे तक झुक आई और फिर मूर मार्केट में ही स्थित एक रेस्टोरेन्ट में घुस गया ।
वहां उसने पेट भर कर साउथ इन्डियन खाना खाया ।
बाहर आकर उसने फिर स्कूटर सम्भाला और मेरीना बीच की ओर उड़ चला ।
प्रेसीडेंसी कॉलेज की इमारत के समीप उसने स्कूटर खड़ा किया और बीच पर पहुंच गया ।
बीच पर सैलानियों की काफी भीड़ थी ।
एक स्थान पर जाकर वह रेत में औंधे मुंह लेट गया ।
कब नींद आ गई, उसे खबर नहीं लगी ।
***
जब उसकी नींद खुली तो सवेरा हो चुका था । नित्यकर्म से निवृत होकर उसने अपनी टोपी अपने सिर पर जमाई और वहां से चल दिया ।
एक गन्दे से रेस्टोरेन्ट में उसने कॉफी पी ।
प्रेसीडेंसी कॉलेज के सामने से उसने स्कूटर उठाया और पैंतीस, माउन्ट रोड पर स्थित गवर्नमेंट आफ इन्डिया टूरिस्ट ऑफिस के सामने पहुंच गया । वह पहले ही पता कर चुका था कि वहां से महाबलीपुरम के लिए टूरिस्ट बस जाती थी ।
विमल ने स्कूटर पार्क किया, चश्मा उतार कर जेब में रखा और टोपी को अपनी आंखों पर और अधिक झुका कर बुकिंग पर पहुंचा । वहां से उसने महाबलीपुरम जाने वाली साधारण टूरिस्ट बस की एक टिकट खरीदी और बस में घुस गया । उसने बस के बीच की एक सीट चुन ली । माउथ ऑर्गन उसने जानबूझ कर अपनी कमीज की ऊपरली जेब में रख लिया था ।
उसकी बगल में एक विद्यार्थी दिखाई देने वाला युवक बैठा था ।
“बजाना आता है ?” - विद्यार्थी उसकी जेब में रखे माउथ ऑर्गन की ओर संकेत करता हुआ अंग्रेजी में बोला ।
विमल ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“अगर एतराज न हो तो बजाकर सुनाओ । रास्ता मजे से कट जायेगा ।”
“ओके ।” - विमल बोला ।
उसने माउथ ऑर्गन निकालकर होंठों से लगाया और उसे बजाना आरम्भ कर दिया । माऊथ ऑर्गन बजाने में वह दक्ष था । शीघ्र ही सारी बस का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया । बस में आधे से अधिक विद्यार्थी थे । शीघ्र ही वे सब माउथ ऑर्गन की धुन की ताल में चुटकियां बजाने लगे और अपने पैरों से बस का लकड़ी का फर्श ठकठकाने लगे ।
बस चल पड़ी ।
विमल बड़ी लगन से माउथ ऑर्गन बजाता रहा ।
बस महाबलीपुरम जाने वाली सड़क के उस स्थान पर पहुंच गई जहां पुलिस ने चैक पोस्ट बनाई हुई थी ।
इतनी सुबह उस सड़क पर अधिक ट्रैफिक नहीं था ।
एक पुलिसमैन के संकेत पर बस रुक गई ।
बस में एक सब-इन्स्पेक्टर और दो पुलिसमैन घुस आये । उनकी निगाहें बस की सवारियों पर फिरने लगीं ।
विमल अभी भी माउथ ऑर्गन बजा रहा था और विद्यार्थी खुशी से झूमते हुए अभी भी चुटकियां बजा रहे थे । विमल के माथे पर टोपी झुकी हुई थी, चश्मा उसकी जेब में था और उसका तीन चौथाई चेहरा माउथ ऑर्गन बजाते हुए हाथों से ढका हुआ था ।
उस स्थिति में और उल्लास के उस वातावरण में उसका पहचाना जाना सम्भव नहीं था ।
पुलिस वालों ने एक सरसरी दृष्टि सबके चेहरों पर डाली और फिर बस से उतर गये ।
बस को आगे बढ़ने का संकेत मिल गया ।
बस आगे बढ़ी ।
माउथ ऑर्गन बजाते-बजाते विमल का मुंह दुखने लगा था । लेकिन उसने माउथ ऑर्गन बजाना बन्द नहीं किया था । अपनी आंखों की कोरों से उसने देख लिया था कि केवल नगर से बाहर जाने वाली गाड़ियां ही चैक की जा रही थीं, भीतर आने वाली नहीं ।
चैक पोस्ट से काफी दूर निकल आने के बाद विमल ने माउथ ऑर्गन बजाना बन्द कर दिया ।
तत्काल उस पर प्रशंसापूर्ण शब्दों की बौछार होने लगी ।
विमल ने माउथ ऑर्गन जेब में रख लिया । उसने मुस्करा कर प्रशंसा करने वालों का अभिवादन किया ।
कुछ लोगों ने उससे दोबारा माउथ ऑर्गन बजाने का आग्रह किया लेकिन विमल ने महाबलीपुरम पहुंचकर उनका मनोरंजन करने का वादा करके बात समाप्त कर दी ।
थोड़ी-देर बाद सब लोग आपस में बातें करने में मग्न हो गये ।
विमल खिड़की से बाहर झांकने लगा । उसकी निगाह सड़क के किनारे पर लगे हर मील के पत्थर पर पड़ रही थी ।
एक मील का पत्थर उसकी निगाह के आगे से गुजरा जिस पर लिखा था : महाबलीपुरम -16 मील ।
विमल अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ ।
वह ड्राइवर के समीप पहुंचा और प्रतीक्षा करने लगा ।
ज्यों ही उसे समीप आता अगला मील का पत्थर दिखाई दिया, वह ड्राइवर से बोला - “मुझे यहां उतार दो । प्लीज ।”
ड्राइवर ने विचित्र नेत्रों से विमल की ओर देखा लेकिन उसने बस रोकने से इन्कार नहीं किया ।
“थैंक्यू ।” - विमल बोला और बस से नीचे उतर आया । कुछ विद्यार्थियों ने उसे पीछे से आवाज लगाई लेकिन विमल ने उन की ओर ध्यान नहीं दिया ।
बस आगे बढ़ गई ।
विमल ने माउथ ऑर्गन जेब में रख लिया और चश्मा निकाल कर अपनी आंखों पर लगा लिया । चश्मे के बिना वह बहुत परेशानी अनुभव कर रहा था ।
वह सड़क से नीचे उतर आया और कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ा ।
***
महाबलीपुरम जाने वाली सड़क पर पुलिस चैक पोस्ट पर त्यागराजन को स्टेशन वैगन रोकनी पड़ी ।
त्यागराजन भयभीत सा स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा ।
लक्ष्मी ने उसकी बदरंग सूरत देखी तो गुर्राकर बोली - “जरा होश में आओ । तुम्हारी तो सूरत ही तुम्हारी नीयत की चुगली कर रही है ।”
त्यागराजन ने बेचैनी से पहलू बदला ।
संयोगवश जो पुलिसमैन स्टेशन वैगन को चैक करने आया, वह त्यागराजन का परिचित था । त्यागराजन उसे देख कर मुस्कराया ।
पुलिसमैन ने त्यागराजन का अभिवादन किया और फिर बोला - “इस वक्त इधर कहां चलें, साहब ?”
“दिन में पिकनिक के लिए महालबीपुरम गया था ।” - त्यागराजन अपने चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “वहां थरमस रह गई है । वही लेने जा रहा हूं ।”
“अब तो शायद ही मिले वह ।”
“देखते हैं ।”
“जितने की थरमस होगी उतने का तो पिचहत्तर मील के राउण्ड में आप पेट्रोल फूंक देंगे ।”
“यार, वह थरमस बहुत कीमती है ।”
“आपकी फोर्ड कहां गई ?”
“खराब हो गई ।”
“यह गाड़ी...”
“किसी कस्टमर की है ।”
पुलिसमैन ने स्टेशन वैगन के भीतर झांका, फिर उसका नम्बर चैक किया और फिर त्यागराजन को आगे बढ़ने का संकेत कर दिया ।
त्यागराजन ने छुटकारे की सांस ली और स्टेशन वैगन आगे बढ़ा दी ।
“क्या हुआ ? कुछ भी नहीं हुआ ।” - लक्ष्मी तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली - “तुम तो खामखाह ही मरे जा रहे थे ।”
त्यागराजन ने उत्तर नहीं दिया । वह चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा ।
“जगह याद है या भूल गई ?” - कुछ देर बाद लक्ष्मी ने पूछा ।
“याद है, याद है । कान मत खाओ ।” - त्यागराजन झल्लाकर बोला ।
सत्रहवें मील के पत्थर के पास से उसने स्टेशन वैगन सड़क से नीचे उतार दी और उसे बाईं ओर कच्ची सड़क पर मोड़ दिया ।
शीघ्र ही वह उस स्थान पर पहुंच गया जहां उसकी फोर्ड खड़ी थी । फोर्ड के विन्ड स्क्रीन वाइपर में उसका लिखा पर्चा अभी भी फंसा हुआ था । उसने स्टेशन वैगन को फोर्ड समीप ले जाकर रोका और उसमें से बाहर निकल आया । सबसे पहले उसने अपना पर्चा वाइपर में से निकाल कर जेब के हवाले किया और फिर वह टायर बदलने में जुट गया ।
अपनी गुफा में पड़े जयशंकर ने कार की आवाज सुन ली थी । वह लड़खड़ाता हुआ गुफा से बाहर निकल आया । वह झाड़ियों के पीछे छुपकर त्यागराजन को टायर बदलते देखने लगा । स्टेशन वैगन वापिस लौट आई देखकर उसकी जान में जान आ गई थी । न जाने क्यों वे लोग जयशंकर को बहुत शरीफ लग रहे थे और उसका मन कह रहा था कि उन्होंने डिकी को नहीं खोला होगा ।
टायर बदल चुकने के बाद त्यागराजन ने लक्ष्मी को कार में बैठने का संकेत किया । बदला हुआ टायर उसने डिकी में रखा और कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा ।
अगले ही क्षण कार कच्ची सड़क पर हिचकोले खाती आगे बढ़ गई ।
धीरे-धीरे चलता हुआ जयशंकर स्टेशन वैगन के समीप पहुंचा । कांपते हाथों से उसने डिकी का ताला खोला और उसका दरवाजा ऊपर उठाया ।
फिर जैसे उसे सांप सूंघ गया ।
डिकी खाली थी ।
क्रोध और बेबसी से उसका चेहरा विकृत हो उठा । उसके मुंह से एक गन्दी गाली निकली और उसने जोर से खाली डिकी में थूक दिया ।
***
त्यागराजन निर्विघ्न वापिस अपने निवास स्थान पर पहुंच गया । उसने अपनी फोर्ड गैरेज में खड़ी कर दी और दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया ।
नोटों से भरी पेटी वहीं पड़ी थी जहां वे उसे छोड़कर गये थे ।
“लक्ष्मी !” - त्यागराजन दयनीय स्वर में बोला - “मैं फिर कहता हूं हमें पुलिस को सूचित करना चाहिये ।”
“हे भगवान !” - लक्ष्मी क्रोधित स्वर में बोली - “अब यह एक ही राग अलापना बन्द करोगे या नहीं ?”
“लक्ष्मी, इतना रुपया हम नहीं रख सकते । हम इसे खर्च नहीं कर सकते । हम लोगों को क्या बतायेंगे कि हमारे पास रुपया कहां से आया ?”
“हम यह शहर छोड़ देंगे ।”
“कैसे छोड़ देंगे ? हर जगह तो पुलिस का पहरा लगा हुआ है ।”
“मैं यह शहर अभी छोड़ने की बात नहीं कर रही हूं । पुलिस का पहरा हमेशा ही नहीं लगा रहेगा । कभी न कभी तो पुलिस हताश होकर इस मामले से अपना हाथ खींचेगी ही । उसके बाद हम यहां से निकल चलेंगे ।”
“पुलिस की चैकिंग तो महीनों चल सकती है ।”
“ठीक है, हम महीनों सब्र से बैठे रहेंगे ।”
“और तब तक हम इस रुपये को कहां रखेंगे ?”
लक्ष्मी कुछ क्षण सोचती रही और फिर निर्णायात्मक स्वर में बोली - “इस पेटी को हम पिछले कम्पाउण्ड में गाड़ देंगे और फिर इसे तभी निकालेंगे जब डकैती का मामला ठण्डा पड़ जायेगा ।”
त्यागराजन मुंह से कुछ नहीं बोला लेकिन चेहरे से चिन्ता के भाव नहीं गये ।
“देखो ।” - लक्ष्मी उसे समझाती हुई बोली - “किसी को मालूम नहीं है कि बैंक का लुटा हुआ रुपया हमारे अधिकार में है और न ही किसी को मालूम होने की सम्भावना है । तुम मुझे कोई ऐसा रास्ता बता दो जिससे पुलिस को दौलत हमारे पास होने की भनक भी पड़ सकती हो । फिर मैं यह बात मान लूंगी कि हमें इसकी सूचना पुलिस को देनी चाहिये ।”
त्यागराजन को उत्तर नहीं सूझा ।
उस रात उन्होंने नोटों से भरी पेटी को चुपचाप अपने घर के पिछले कम्पाउण्ड में गाड़ दिया ।
***
अगली सुबह तक जयशंकर की तबीयत सुधर गई । दिल के दौरे से उत्पन्न खतरा टल गया था और वह स्वयं को पूर्ववत् स्वस्थ अनुभव करने लगा था । कल रात तक उसे लग रहा था कि उसका दम निकलने में थोड़ा ही समय बाकी था लेकिन आज वह ऐसा अनुभव कर रहा था जैसे दिल का दौरा उसे कभी पड़ा ही नही था ।
नित्यकर्म से निवृत होकर उसने स्टोव जलाया और अपने लिये कॉफी और अण्डों का ब्रेकफास्ट तैयार किया । उसके बाद उसने अपनी जेब का सारा सामान निकालकर बिस्तर पर डाल दिया । फिर उसने अपना सूटकेस खोला ।
जयशंकर एक पेशेवर और तजुर्बेकार अपराधी था और वह आदतन अपने आपको किसी भी प्रकार की स्थिति के लिये हमेशा तैयार रखता था । उस सूटकेस में एक पादरी का पहनावा, लम्बी दाढ़ी और सफेद बालों का विग था ।
आधे घण्टे के बाद गुफा में एक बहुत ही धर्मपरायण पादरी खड़ा था । जयशंकर ने शीशे में अपनी छाती पर फैली लम्बी दाढ़ी और सिर पर पहने तसले जैसे टोप का निरीक्षण किया । उसने एक लम्बी चेन के सहारे अपने गले में लटके क्रॉस को छुआ और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाने लगा । उसे विश्वास था कि उसे उस सूरत में कोई नहीं पहचान सकता था ।
अन्त में उसने अपने मेकअप पर फिनिशिंग टच के तौर पर अपनी नाक पर तार के फ्रेम का गोल शीशों वाला चश्मा लगाया और फिर बिस्तर पर पड़ा अपना सामान अपनी जेबों में भरना आरम्भ कर दिया ।
जिस कागज पर उसने त्यागराजन का पता लिखा था, उस पर आखिरी बार दृष्टि डाल कर उसने कागज हवा में उड़ा दिया ।
वह पता उसके दिमाग पर लिख गया था । यह सत्तर लाख रुपये का पता था । वह पता उसे हरगिज नहीं भूल सकता था ।
सूटकेस में उसने अपने जरूरी कपड़े और तमाम जरूरत की चीजें भरीं और फिर गुफा से बाहर निकल आया । वह सीधा वहां पहुंचा जहां झाड़ियों के झुंड में सूखी डालियों और पत्तियों के सायबान के नीचे एम्बैसेडर कार खड़ी थी । उसने सूटकेस को कार में रखा और फिर उसके स्टियरिंग के पीछे जा बैठा । बड़े इत्मीनान से उसने कार स्टार्ट की और उसे बैक गियर में डालकर सायबान से निकाल लिया । वह कार को कच्ची सड़क पर ले आया और फिर मेन रोड की दिशा में आगे बढ़ा ।
मेन रोड पर आकर वह सावधानी से कार चलाता हुआ मद्रास की ओर बढ़ा ।
नगर के समीप पहुंचकर उसने देखा कि एक स्थान पर पुलिस ने चैक पोस्ट बनाई हुई थी ओर वहां नगर से बाहर जाने वाली हर कार को चैक किया जा रहा था । तनिक भी भयभीत हुये बिना वह कार चलाता रहा ।
वह निर्विघ्न चैक पोस्ट से आगे निकल गया । उसे किसी ने नहीं टोका ।
कॉलेज रोड पर उसने कार को सड़क के किनारे पार्क कर दिया । उसने कार से अपना सूटकेस निकाला, कार को लॉक किया और फिर सूटकेस हाथ में लटकाये छोटे-छोटे कदम रखता हुआ बत्तीस नम्बर इमारत की ओर बढ़ा ।
बत्तीस नम्बर इमारत के सामने पहुंचकर उसने द्वार पर लगी कॉल बैल बजाई ।
द्वार खुला । द्वार पर जयशंकर को वही युवती दिखाई दी जो पिछली रात अपने युवा साथी के साथ उसकी स्टेशन वैगन ले गई थी ।
अपने सामने एक पादरी को खड़ा देखकर लक्ष्मी के चेहरे पर उलझन के भाव उभर आये ।
“फरमाइये ?” - वह बोली ।
“मिसेज त्यागराजन ?” - जयशंकर ने प्रश्न किया ।
“जी हां ।”
“मेरा नाम जयशंकर है । मैं उस रुपये के बारे में यहां आया हूं जो...”
“सॉरी, हम चर्च को चन्दा नहीं देते ।” - और लक्ष्मी ने द्वार बन्द करने का उपक्रम किया ।
लेकिन जयशंकर पहले ही अपना पांव बन्द होते हुए द्वार के रास्ते में फंसा चुका था ।
“आपने मेरी बात नहीं सुनी, मैडम । मैं चन्दा मांगने नहीं आया हूं । मैं उस रात सत्तर लाख रुपयों की बात कर रहा हूं जो आपने और आपके पति ने मेरी स्टेशन वैगन से चुराये हैं ।”
लक्ष्मी के चेहरे का रंग उड़ गया । वह हक्की-बक्की सी अपने सामने खड़े दुबले-पतले पादरी को देखने लगी । कितनी ही देर उसके मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“लगता है मैंने आपको डरा दिया है । मैं शर्मिन्दा हूं ।” - जयशंकर पूर्ववत् मीठे स्वर में बोला - “क्या मैं अन्दर आ सकता हूं ?”
“खबरदार !” - एकाएक लक्ष्मी चिल्लाई - “फौरन यहां से दफा हो जाओ, वर्ना मैं पुलिस को फोन कर दूंगी ।”
“च.. च... च । बहुत गलत हरकत करेंगी आप । आपको तो पुलिस के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए । आप सोचिये, अगर पुलिस यहां आ गई तो क्या मैं उन्हें यह बता नहीं दूंगा कि आप अपने घर में स्टेडियम का लुटा हुआ माल छुपाए हुये हैं ।”
“क्या चाहते हो ?” - लक्ष्मी कठिन स्वर में बोली ।
“सबसे पहले तो मैं भीतर आना चाहता हूं ।” - जयशंकर बोला । लक्ष्मी दरवाजे से एक ओर हट गई ।
जयशंकर भीतर प्रविष्ट हुआ । वह ड्राइंगरूम में एक कुर्सी पर बैठ गया और बोला - “दरवाजा बन्द कर दीजिये ।”
लक्ष्मी ने द्वार बन्द कर दिया और उसके सामने आ खड़ी हुई ।
“तशरीफ रखिये ।” - वह बोला ।
“तुम जयशंकर हो ?” - लक्ष्मी बैठने का उपक्रम किये बिना बोली ।
“करैक्ट ।”
“ये दाढ़ी-मूंछ नकली हैं ?”
“आपने कैसे जाना ?”
“आज के अखबार में तुम्हारी तस्वीर छपी है ।”
“अच्छा !” - जयशंकर उखड़े स्वर में बोला - “मैंने अखबार नहीं देखा ।”
लक्ष्मी ने उस रोज का ‘दिना थांथी’ उसके सामने कर दिया ।
जयशंकर ने देखा अखबार के मुखपृष्ठ पर ही उसकी तस्वीर छपी हुई थी । तस्वीर देखकर जो पहला ख्याल जयशंकर के दिमाग में आया वह यह था कि उसने पादरी के भेष में नगर में प्रविष्ट हो कर भारी समझदारी का परिचय दिया था ।
यह उसके लिये हैरानी का विषय था कि पुलिस इतनी जल्दी उसके बारे में जान गई थी ।
“क्या चाहते हो ?” - लक्ष्मी ने फिर पूछा ।
जयशंकर ने अखबार रख दिया और बोला - “कहने की जरूरत नहीं कि मैं वह रुपया वापिस चाहता हूं और इसीलिये यहां आया हूं लेकिन अगर आप मुझे थोड़ा सहयोग दें तो मैं वह दौलत आप लोगों के साथ बांटने को तैयार हूं ।”
“हमारे पास रुपया नहीं है ।”
“फिर बहकने लगीं आप । रुपया आपके पास है । मेरे सामने झूठ बोलना बेकार है । मैंने आपको और आपके पति को स्टेशन वैगन ले जाते देखा था । रुपया स्टेशन वैगन की डिकी में था । जब आप लोग स्टेशन वैगन वापिस छोड़कर गये थे तो रुपया उसमें नहीं था । जाहिर है कि स्टेशन वैगन की डिकी में से नोटों से भरी पेटी आप लोगों ने निकाली है । वह पेटी कहां रखी है आप लोगों ने ?”
“मुझे नहीं मालूम तुम क्या कह रहे हो ! मैं किसी पेटी के बारे में नहीं जानती ।” - लक्ष्मी उखड़े स्वर से बोली ।
“तुम ऐसे नहीं मानोगी ।” - एकाएक जयशंकर सांप की तरह फुंफकारता हुआ बोला - “मैं चाहता था कि नर्मी से काम बन जाये लेकिन तुम तो डंडे की यार हो ।”
जयशंकर के भावों में ऐसा तीव्र परिवर्तन हुआ था कि लक्ष्मी बेहद डर गई । उसके देखते-देखते जयशंकर ने अपनी जेब से एक रिवॉल्वर निकाल ली और उसे लक्ष्मी के सामने करता हुआ बोला - “तुम्हें सबक सिखाना पड़ेगा । यह रिवॉल्वर देख रही हो ?”
लक्ष्मी के मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“इस रिवॉल्वर की नाल से गोली नहीं तेजाब निकलता है ।” - जयशंकर बोला - “अगर यह जरा-सा भी तुम्हारे चेहरे पर पड़ गया तो यह तुम्हारे इस खूबसूरत चेहरे से खाल को यूं छील देगा, जैसे तुम संतरा छीलती हो । देखो ।”
और उसने रिवॉल्वर का रुख लक्ष्मी के पांव की ओर करके थोड़ी देर के लिये ट्रीगर दबा दिया ।
लक्ष्मी के पांव से केवल छ: इंच दूर सफेद धुंआ सा उठा और जब धुंआ छंटा तो उसे कालीन में एक छेद दिखाई देने लगा । जहां तेजाब पड़ा था, वहां से कालीन गायब हो गया था ।
लक्ष्मी डर कर पीछे हट गई । उसका चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया । वह यूं आंखें फैलाकर जयशंकर की ओर देखने लगी जैसे वह कोई दूसरी दुनिया का आदमी हो ।
“पेटी कहां है ?” - जयशंकर क्रूर स्वर में बोला ।
“वह... वह” - लक्ष्मी हकलाती हुई बोली - “वह हमने पिछले कम्पाउण्ड में जमीन में गाड़ दी है ।”
“पिछला कम्पाउन्ड कच्चा है ?”
“हां ।... उसमें... सब्जी की क... क्यारियां हैं ।”
“शाबाश ! बहुत समझदारी का काम किया तुम लोगों ने । जब तक पुलिस की सरगर्मी खतम नहीं हो जाती पेटी, वहां सुरक्षित रहेगी ।”
“आप... आप” - लक्ष्मी अब सम्मान से बोल रही थी - “आप वह दौलत हम लोगों के साथ बांटने की बात कर रहे थे ?”
“हां” - जयशंकर प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “अब की न समझदारी की बात । जैसा कि अखबार में छपी मेरी तस्वीर से जाहिर है, पुलिस बुरी तरह से मेरी तलाश में है । अगर तुम लोग मुझे आने वाले कुछ समय के लिए यहां छुपाकर रख लो तो मैं पेटी में मौजूद सत्तर लाख रुपयों में से आधे तुम लोगों को दे दूंगा ।”
“सत्तर लाख !”
“मैंने गिने नहीं हैं । थोड़े-बहुत कम भी हो सकते हैं । लेकिन जितने भी हैं, उनमें से आधे मैं तुम लोगों को दे दूंगा ।”
“लेकिन आपका यहां रहना कैसे सम्भव हो सकता है ?”
“क्यों नहीं हो सकता ? तुम और तुम्हारा पति इस इमारत में अकेले रहते हो । यह अच्छा खासा बड़ा मकान है । मैं यहां आराम से छुपा रह सकता हूं । और जब तक पुलिस की सरगर्मी खतम नहीं हो जाएगी, मैं यहां से बाहर कदम भी नहीं रखूंगा । और मैं तुमसे वादा करता हूं कि मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा और तुम्हारी और तुम्हारे पति की स्वतन्त्रता में बाधक नहीं बनूंगा ।”
लक्ष्मी सोचने लगी ।
“तुम्हारा पति कहां है ?” - जयशंकर ने पूछा ।
“वे ऑफिस गए हैं ।”
“तुम उन्हें फोन करके थोड़ी देर के लिए बुला लो, फिर हम इकट्ठे बात करेंगे । मुझे उम्मीद है, तुम्हारा पति मेरी बात जरूर मान जायेगा ।”
“वह नहीं मानेगा ।”
“क्यों ?” - जयशंकर हैरानी से बोला ।
“वह बहुत कायर आदमी है । वह तो शुरू से ही चाहता था कि हम पुलिस में रिपोर्ट कर दें । मैंने बड़ी मश्किल से उसे ऐसा करने से रोका है ।”
“तुम बहुत समझदार हो । और जहां तक तुम्हारे पति का सवाल है, तुम उसे वापिस बुलाओ और मुझे उससे बात करने दो । मैं उसे मना लूंगा । अगर मैंने तुम्हें मना लिया है तो मैं उसे भी मना लूंगा ।”
और उसने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से अपने हाथ में थमी रिवॉल्वर को झटका दिया ।
***
विमल कच्ची सड़क पर आगे बढ़ा जा रहा था ।
एकाएक उसे सामने से आती हुई एक एम्बैसेडर कार दिखाई दी । उसने तत्काल सड़क छोड़ दी और एक पेड़ की ओट में हो गया ।
कार हिचकोले खाती हुई उसके समीप से गुजर गई । उसने देखा कार की ड्राइविंग सीट पर एक पादरी बैठा था ।
कार के दृष्टि से ओझल हो जाने के बाद विमल भी सड़क पर उतर आया ।
वह आगे बढ़ा ।
शीघ्र ही वह उस घनी झाड़ियों के झुंड के पास पहुंच गया जिसका जिक्र वीरप्पा ने किया था । झाड़ियों के समीप एक स्टेशन वैगन खड़ी थी ।
विमल ने रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले ली । झाड़ियों की बगल से पीछे की ओर एक पगडन्डी जाती दिखाई दे रही थी । उस पगडन्डी पर ताजे कदमों के निशान दिखाई दे रहे थे ।
विमल सावधानी से उस पगडन्डी पर बढ़ा ।
थोड़ी आगे फिर एक झाड़ियों का झुंड था जिसके पीछे एक गुफा के मुंह का आभास मिल रहा था ।
दबे पांव विमल झाड़ियों की साइड में पहुंचा और वहां नीचे बैठ गया । उसने धीरे से पेड़ की एक टहनी को थोड़ा-सा सरकाया । सामने गुफा का मुंह था और उसमें से गुफा का काफी सारा भीतरी भाग दिखाई दे रहा था ।
भीतर उसे किसी की मौजूदगी का आभास नहीं मिला ।
“जयशंकर !” - उसने धीरे से आवाज दी ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
विमल रिवॉल्वर अपने आगे किये गुफा के मुंह के पास सरका गया ।
गुफा खाली थी ।
विमल गुफा के भीतर घुस गया ।
भीतर एक पूरी गृहस्थी का सामान जुटा हुआ था । जयशंकर के अतिरिक्त वहां सब कुछ था ।
विमल सोच में पड़ गया ।
क्या वह आसपास ही कहीं था ?
फिर उसे ख्याल आया कि गुफा में नोटों के थैले भी नहीं थे ।
उसी क्षण विमल की निगाह एक कागज के टुकड़े पर पड़ी जो गुफा में उड़ता फिर रहा था । उसने वह कागज उठा लिया और उसे खोलकर देखा । उस पर लिखा था : एन. त्यागराजन; 32, कॉलेज रोड; मद्रास ।
वह किसका पता था ?
विमल को उसका कोई जवाब नहीं सूझा ।
उसने कागज वापिस जमीन पर फेंक दिया ।
अगले दो घन्टे वह रिवॉल्वर हाथ में लिए जयशंकर के बिस्तर पर उसके स्वागत के लिए तैयार बैठा रहा ।
जयशंकर नहीं आया ।
एकाएक विमल को उस एम्बैसेडर कार का ख्याल आया जो उसे रास्ते में मिली थी और जिसे एक पादरी चला रहा था ।
वीरप्पा ने भी ऐसा कुछ कहा था कि जयशंकर ने गुफा के पास एक एम्बैसेडर कार छुपाई हुई थी ।
कहीं वह एम्बैसेडर जयशंकर की ही तो नहीं थी ?
और वह पादरी !
कहीं वह जयशंकर ही तो नहीं था ?
विमल गुफा के बाहर निकल आया ।
वह वापिस स्टेशन वैगन की ओर बढ़ा ।
रास्ते में उसे जमीन पर पड़ा एक तार का टुकड़ा दिखाई दिया । विमल ने वह टुकड़ा उठा लिया ।
स्टेशन वैगन के समीप पहुंचकर वह डिकी के सामने पहुंचा । रास्ते से उठाये तार के टुकड़े की सहायता से एक मिनट से भी कम समय में उसने डिकी का ताला खोल लिया । उसने ढक्कन उठाकर भीतर झांका ।
भीतर माल नहीं था ।
उसने ढक्कन गिरा दिया ।
अगले दो घन्टों में उसने आसपास का सारा इलाका छान मारा ।
एम्बूलेंस कहीं नहीं थी ।
माल कहीं नहीं था ।
जयशंकर कहीं नहीं था ।
विमल वापिस स्टेशन वैगन के पास पहुंच गया ।
वह स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा ।
बड़ी मेहनत से तार के टुकड़े की सहायता से ही उसने स्टेशन वैगन का इग्नीशन ऑन कर लिया । उसने गाड़ी को गियर में डाला और उसे मेन रोड की ओर ड्राइव करने लगा ।
मेन रोड पर पहुंचकर मद्रास जाने के स्थान पर उसने स्टेशन वैगन को महाबलीपुरम की ओर मोड़ दिया ।
महाबलीपुरम पहुंचकर पार्किंग से थोड़ी दूर ही उसने स्टेशन वैगन छोड़ दी और पैदल आगे बढ़ा ।
शीघ्र ही उसे वह टूरिस्ट बस दिखाई दे गई जिस पर वह मद्रास से सवार हुआ था ।
समुद्र के किनारे पर बने टूरिस्ट बंगले के रेस्टोरेन्ट में उसने भोजन किया और फिर बस में आकर बैठ गया ।
थोड़ी देर बाद उस बस में मद्रास से उसके साथ आये टूरिस्ट वापिस आने लगे । कई विद्यार्थियों ने उसे पहचान लिया और उससे पूछने लगे कि वह रास्ते में क्यों उतर गया था और जहां वह उतरा था वहां से महाबलीपुरम तक कैसे पहुंचा था । उसने सब को मुनासिब उत्तर देकर शांत किया और बस चलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
बस चल पड़ी ।
विद्यार्थी फिर उससे माउथ ऑर्गन बजाने का आग्रह करने लगे । विमल ने उन्हें थोड़ी देर बाद माउथ ऑर्गन सुनाने का वादा करके टाल दिया ।
जब वे मद्रास से दो-तीन मील दूर रह गये तो विमल ने अपनी टोपी आंखों पर झुका ली, चश्मा उतार कर जेब में रख लिया और माउथ ऑर्गन बजाना आरम्भ कर दिया ।
थोड़ी ही देर बाद बस में फिर पहले जैसा समा बंध गया । विद्यार्थी माउथ ऑर्गन की ताल पर चुटकियां बजाने लगे ।
बस बिना रुके चैक पोस्ट से गुजर गई ।
रास्ते में उसने माउथ ऑर्गन बजाना बन्द कर दिया ।
बस टूरिस्ट ऑफिस के सामने रुकी ।
तब तक अन्धेरा हो चुका था ।
विमल बस में से उतरा । उसने टोपी और माउथ ऑर्गन एक कूड़े के ड्रम में डाल दिए और चश्मा लगा लिया । पार्किंग से उसने स्कूटर उठाया और कॉलेज रोड की ओर उड़ चला ।
कॉलेज रोड पहुंचकर बत्तीस नम्बर इमारत के समीप उसने स्कूटर रोक दिया । वह कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर स्कूटर वहीं छोड़कर आगे बढ़ा ।
उसने कॉल बैल के पुश पर उंगली रख दी ।
द्वार त्यागराजन ने खोला ।
विमल ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन तभी उसकी निगाह भीतर मेज पर पड़े पादरियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले तसले जैसे हैट पर पड़ी ।
एक सैकेण्ड से भी कम समय में विमल ने अपना अगला एक्शन निर्धारित कर लिया ।
“यस ?” - त्यागराजन बोला ।
विमल ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसकी छाती पर रख दी ।
त्यागराजन के नेत्र कटोरियों से बाहर निकल पड़े ।
विमल ने रिवॉल्वर की नाल से उसकी छाती पर धक्का देकर उसे पीछे हटने का संकेत किया । त्यागराजन लड़खड़ाता हुआ पीछे हट गया ।
विमल भीतर घुस आया । उसने दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया ।
“पादरी कहां है ?” - विमल ने धीमे स्वर में पूछा ।
“पादरी कौन...”
“धीरे बोलो ।” - विमल फुसफुसाया - “और जो बोलो सोच समझ कर ठीक बोलो । ऊटपटांग मत बोला । समझे ?”
त्यागराजन ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“पादरी कहां है ?” - विमल ने अपना प्रश्न दोहराया ।
“पिछले कमरे में ।” - त्यागराजन फुसफुसाकर बोला ।
“वह जयशंकर है ?”
युवक ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“रुपया भी इसी इमारत में है ?”
त्यागराजन ने उत्तर नहीं दिया ।
विमल ने रिवॉल्वर की नाल से उसकी पसलियों को टहोका और अपने स्वर को अधिक से अधिक क्रूर बनाने का प्रयत्न करता हुआ बोला - “जल्दी बोलो । और ठीक-ठीक जवाब देना वर्ना शूट कर दूंगा ।”
“हां ।” - त्यागराजन की घिग्घी बंध गई ।
“घर में और कौन-कौन हैं ?”
“मेरी बीवी है ।”
“कहां ?”
“किचन में ।”
“और कौन है ?”
“और कोई नहीं है ।”
“जयशंकर के कमरे में चलो ।”
त्यागराजन कांपता हुआ आगे बढ़ा ।
वह एक बन्द दरवाजे के समाने आ खड़ा हुआ । उसने संकेत से बताया कि पादरी उस कमरे में था ।
“दरवाजा खोलकर भीतर घुसो ।” - विमल उसके कान में फुसफुसाया ।
त्यागराजन ने ऐसा ही किया ।
विमल भी छलांग मारकर कमरे में प्रविष्ट हो गया ।
भीतर एक पलंग पर अधलेटा सा जयशंकर अखबार पढ़ रहा था । वह उस समय भी पादरी का सफेद कालर वाला काला चोगा पहने हुए था लेकिन दाढ़ी, मूंछ और सिर का विग उतार कर उसने बगल की मेज पर रखा हुआ था । विमल पर निगाह पड़ते ही उसकी आंखें फट पड़ीं । उसके हाथ से अखबार छूट गया और उसका दायां हाथ बिजली की तेजी से अपने चोगे के भीतर की ओर बढ़ा ।
“खबरदार !” - विमल चेतावनीभरे स्वर में बोला ।
जयशंकर का बढ़ता हुआ हाथ रुक गया ।
“चाचा जी !” - विमल विषैले स्वर से बोला - “मेरी इजाजत के बिना सांस लेने के अलावा अगर तुम्हारे शरीर ने कोई हरकत की तो अभी तम्हारी छाती में कई खिड़कियां खुल जाएंगी ।”
“तुम यहां कैसे पहुंचे ?” - जयशंकर ने धीरे से पूछा ।
“बस पहुंच गया किसी तरह । दास्तान कहते-कहते तो रात हो जायेगी । त्यागराजन !” - वह त्यागराजन की ओर मुड़ा - “यहां आओ को तामिल में क्या कहते हैं ?”
“इंगे वा ।” - त्यागराजन बोला ।
“इंगे वा ।” - विमल ने दोहराया - “वैरी गुड । अब तुम अपनी बीवी को आवाज देकर यहां बुलाओ । अगर इसके अलावा कोई दूसरा वाक्य तुम्हारे मुंह से निकला तो भेजा उड़ा दूंगा । समझ गए ?”
“समझ गया ।”
“आवाज दो फिर ।”
“लक्ष्मी !” - त्यागराजन उच्च स्वर में बोला ।
“ऐन्ना ।”
“इंगे वा ।”
“वरेन ।”
त्यागराजन चुप हो गया ।
विमल अपनी रिवॉल्वर से उन दोनों को कवर किये रहा । उसका अधिक ध्यान जयशंकर की ओर था । त्यागराजन में कोई शरारत करने की हिम्मत दिखाई नहीं दे रही थी ।
लक्ष्मी आई ।
विमल पर निगाह पड़ते ही वह चीखने ही वाली थी कि विमल ने उसका मुंह दबोच लिया और उसे त्यागराजन की ओर धकेल दिया ।
“अपनी बीवी को सम्भालो ।” - विमल गुर्राया ।
त्यागराजन ने लक्ष्मी को चुप रहने का संकेत किया ।
लक्ष्मी फटी-फटी आंखों से कभी विमल को और कभी उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर को देखती रही ।
“तुम पलंग से नीचे उतरो ।” - विमल जयशंकर से बोला ।
“मिस्टर !” - जयशंकर बोला - “मेरी बात तो सुनो ।”
“बात भी सुनूंगा ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “लेकिन बाद में । पहले मैं जो कहता हूं, करो ।”
जयशंकर पलंग से नीचे उतर आया ।
“हाथ ऊपर ।”
जयशंकर ने हाथ ऊपर उठा दिये ।
“तुम” - विमल त्यागराजन की ओर घूमा - “इसकी जेबों से सारा सामान निकालकर पलंग पर डाल दो । और मेरी रिवॉल्वर और जयशंकर के बीच में न आना । यह बहुत बदमाश आदमी है । इसे कोई शरारत का मौका मिला तो यह चूकेगा नहीं ।”
त्यागराजन ने जयशंकर की जेबों से सारा सामान निकालकर पलंग पर डाल दिया ।
“जयशंकर, अब तुम पलंग से हट जाओ और अपने कपड़े उतार दो ।” - विमल बोला ।
“क्यों ?”
“जल्दी ।” - विमल चिल्लाया ।
जयशंकर ने अपने कपड़े उतार दिये । अब वह अन्डरवियर में कमरे में खड़ा था ।
“तुम” - विमल त्यागराजन से बोला - “एक बड़ी-सी रस्सी लेकर आओ । अगर तुम दो मिनट में वापिस नहीं लौटे तो मैं तुम्हारी पत्नी को शूट कर दूंगा ।”
त्यागराजन गया और डेढ़ मिनट से भी पहले रस्सी के कई टुकड़े लेकर लौट आया ।
“इसके हाथ-पांव बांध दो और मुंह में कपड़ा ठूंस दो ।”
“मिस्टर विमल” - जयशंकर गिड़गिड़ाता हुआ बोला - “भगवान के लिये मेरे साथ ऐसी ज्यादती मत करो । मैं तो तुम्हारा साथी हूं ।”
“तुम मेरे साथी नहीं हो ।” - विमल घृणापूर्ण स्वर में बोला - “तुम किसी के साथी नहीं हो । तुम किसी के साथी हो ही नहीं सकते । तुम सिर्फ पैसे के साथी हो । तुम इतने नीचे गिरे हुए और इतने लालची इन्सान हो कि तुम उन्हीं लोगों को धोखा देने से बाज नहीं आये जिन्होंने अपनी जान हथेली पर रख कर तुम्हारी स्कीम को कामयाबी बख्शी । अगर तुमने सारा माल खुद हड़पने का लालच ना किया होता तो आज शायद तुम्हारी यह हालत न होती । न मालूम हो तो सुन लो कि अब्राहम और वीरप्पा भी अपनी जान से हाथ धो चुके हैं । सदाशिवराव तुम्हारे सामने ही स्टेडियम में गार्ड की गोलियों का शिकार हो चुका था । तुम्हारा पुराना यार कुप्पूस्वामी भी मर चुका है ।”
“कुप्पूस्वामी !” - वह हैरानी से बोला ।
“हां । उसका भतीजा और भतीजे का एक दोस्त दौलत की फिराक में थे । वो चाहते थे जब स्टेडियम से माल लूट कर तुम सूर्यनारायण रोड वाले बंगले में पहुंचो तो किसी तरह माल वे झपट लें ।”
“वे- वे- डकैती के बारे में जानते थे ?”
“कुप्पूस्वामी से जबरदस्ती जानकारी हासिल की उन्होंने । उसी जोर-जबरदस्ती में बेचारा मारा गया । तुम्हारा साथ देने से इनकार उसने डरकर नहीं किया था बल्कि इसलिए किया था क्योंकि उसे अपने भतीजे की नीयत की खबर लग गई थी ।”
“अगर मैं माल लेकर सूर्यनारायण रोड वाले बंगले में पहुंचा होता तो माल वे छोकरे लूट लेते ?”
“हां ।”
“फिर तो अच्छा हुआ मैं वहां नहीं पहुंचा । फिर तो...”
“बकवास मत करो । इन बातों से तुम्हारी जानबख्शी नहीं हो सकती ।”
“मिस्टर विमल, प्लीज ! जरा सोचो । प्लीज, जरा सोचो । अब हम दो ही जने बाकी रह गये हैं । अब या मैं हूं या तुम हो या माल है ।”
“तो ?”
“फिफ्टी-फिफ्टी !” - जयशंकर खीसें निपोर कर बोला ।
“जवाब नहीं तुम्हारा भी, चाचा जी !” - विमल बोला - “अपनी इस हालत में भी अपने आपको सौदेबाजी के काबिल समझ रहे हो !”
“या तुम्हीं सारी दौलत ले लो और मुझे आजाद कर दो ।”
“ताकि तुम फिर कोई उस्तादी दिखा सको !”
“मैं कुछ नहीं करूंगा । बाई गॉड, मैं कुछ नहीं करूंगा ।”
“मैं छोड़ूंगा ही नहीं तुम्हें कुछ करने के काबिल ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“मैं सारी दौलत तुम्हें दूंगा ।”
“क... क्या ?”
“मैं इसी दौलत में तुम्हें दफन करके जाऊंगा । मैं तुम्हें उन्हीं नोटों का कफन पहना कर जाऊंगा जिसमें से एक को भी तुम अपने से अलग नहीं करना चाहते थे ।”
जयशंकर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं । उसके मुंह से बोल न फूटा ।
“मेरा हार कहां है ?” - विमल ने पूछा ।
जयशंकर ने पलंग के समीप पड़े अपने सूटकेस की ओर इशारा कर दिया ।
विमल ने सूटकेस उठा कर खोला और उसका सारा समान मेज पर उलट दिया ।
जयशंकर के कपड़ों के बीच मोतियों का हार जगमगा रहा था ।
विमल ने हार उठाकर जेब में रख लिया ।
“तुम्हारी कार कहां खड़ी है ?” - उसने पूछा ।
“इमारत की दाईं ओर सड़क पर कोई डेढ़ सौ गज दूर ।” - जयशंकर बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
“चाबियां ?”
उसने अपनी जेबों से निकले और पलंग पर पड़े सामान की ओर संकेत कर दिया ।
सामान में से विमल ने पहले सारे नोट उठा कर जेब में रखे और फिर कार की चाबियां अपने अधिकार में कीं ।
“इसके हाथ-पांव बांध दो” - उसने त्यागराजन को फिर आदेश दिया - “और मुंह में कपड़ा ठूंस दो ।”
त्यागराजन ने बड़ी तत्परता से आज्ञा का पालन किया ।
पांच मिनट बाद जयशंकर रस्सियों में जकड़ा हुआ कमरे में पड़ा था ।
“माल कहां है ?” - विमल बोला ।
“मत बताना ।” - लक्ष्मी चिल्लाई ।
“माल” - त्यागराजन दबे स्वर में बोला - “बाहर पिछले कम्पाउण्ड की जमीन में गड़ी हुई लकड़ी की एक पेटी में है ।”
“दोनों बाहर चलो ।” - विमल बोला ।
उनके साथ विमल पिछले कम्पाउण्ड में पहुंचा ।
विमल के आदेश पर त्यागराजन फावड़ा ले आया । उसने जमीन को वहां से खोदना शुरू कर दिया जहां उसने पिछली रात को पेटी दबाई थी ।
लगभग बीस मिनट में त्यागराजन और लक्ष्मी ने मिल कर पेटी बाहर निकाल ली और उसे उस कमरे में ले आये जिसमें जयशंकर बंधा पड़ा था ।
“अब तुम अपने पति की मुश्कें कसो ।” - विमल बोला ।
लक्ष्मी के पास आज्ञापालन के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था ।
अन्त में लक्ष्मी के हाथ-पांव विमल ने बांधे ।
तभी भड़ाक से दरवाजा खुला ।
दो नौजवान भीतर दाखिल हुए । दोनों के चेहरों पर कमीनगी थी और हाथों में रिवॉल्वर थे ।
“शुक्रिया !” - एक बोला - “बाकी का काम हम कर लेंगे ।”
विमल खामोश रहा ।
“हाथ ऊपर ।”
विमल ने हाथ ऊपर उठा लिए ।
एक नौजवान ने दूसरे को संकेत किया । उसने आगे बढ़कर विमल की पतलून की बैल्ट से उसकी रिवॉल्वर खींच ली और तुरन्त परे हट गया ।
“माल पेटी में है न ?” - पहला फिर बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया ।
पहले ने अपने साथी को इशारा किया । उसके साथी ने जाकर पेटी का ढक्कन उठाया । फौरन उसका चेहरा हजार वाट के बल्ब की तरह चमकने लगा ।
“है । है ।” - वह खुशी में लगभग नाचता हुआ बोला - “यहीं है ।”
विमल एक कदम पीछे हटा । उसकी पीठ दीवार पर लगे बिजली के स्विच बोर्ड के साथ जा लगी ।
“तुम मुत्थू हो ?” - विमल बोला - “कुप्पूस्वामी के भतीजे ?”
“हां ।” - पहला हैरानी से बोला - “कैसे जाना ?”
“तो फिर यह ।” - विमल तब भी पेटी का ढक्कन उठाये खड़े नौजवान की तरफ देखता हुआ बोला - “गणेशन होगा ।”
“वाह !” - गणेशन बोला - “तुम तो बड़े उस्ताद हो ! हमारे नाम भी जानते हो !”
“यहां कैसे पहुंच गये ?”
“तुम्हारे ही पीछे लगे-लगे पहुंच गये । और तो कोई बचा नहीं था पीछे लगने लायक ।”
“तुम मेरे पीछे थे ?”
“चिपके हुए थे ।”
“गोंद की तरह ।” - मुत्थू बोला ।
“मुझे तो खबर नहीं लगी ।”
दोनों हंसे ।
“अब क्या चाहते हो ?”
“यह भी कोई पूछने की बात है !” - गणेशन पेटी पर वापिस ढक्कन ठोकता हुआ बोला ।
“हम जो चाहते हैं, हमें मिल चुका है ।” - मुत्थू बोला ।
“अभी नहीं मिला, सालो ।”
विमल ने अपनी पीठ को यूं पीछे को हूला कि स्विच बोर्ड के सारे स्विच ऑफ हो गए ।
फौरन कमरे में अन्धकार छा गया ।
बाहर के कमरे में रोशनी थी लेकिन बीच के दरवाजे पर पर्दा पड़ा होने के कारण वह रोशनी भीतर नहीं आ रही थी । अलबत्ता इतना पता जरूर लग रहा था कि दीवार में चौखट कहां थी ।
“मुत्थू !” - अन्धकार में गणेशन का स्वर गूंजा ।
“हां ।” - मुत्थू सस्पेंसभरे स्वर में बोला ।
“दरवाजे से परे रहना । वो बाहर निकलने की कोशिश करेगा तो मैं उसे शूट कर दूंगा ।”
“ठीक है ।”
आवाजों से विमल ने इतना अंदाजा लगाया कि मुत्थू उसके ज्यादा करीब था । वह उकड़ू हो गया और इंच-इंच मुत्थू की तरफ सरकने लगा ।
“मुत्थू !”
“हां ।”
“रिवॉल्वर का रुख दरवाजे की ओर रखना ।”
“रखा है । लेकिन वो है कहां ?”
“कमरे में ही कहीं है ।”
“ऐसे हम कब तक इन्तजार करते रहेंगे ?”
“थोड़ी देर में आंखें अन्धेरे की आदी हो जायेंगी । तब हम उसे शूट कर देंगे ।”
“तब उसकी आंखें भी तो अन्धेरे की आदी हो जायेंगी !”
“हों जायेंगी तो हो जायें । हथियार बिना वह कुछ नहीं कर सकता । उसकी रिवॉल्वर तो मैंने पहले ही छीन ली है ।”
विमल महसूस कर रहा था कि जिस स्थिति की वे दोनों प्रतीक्षा कर रहे थे, उसके आ जाने पर उसका काम तमाम हो जाना लाजमी थी । उसने उससे पहले ही कुछ करना था ।
वह आंखें फाड़-फाड़ कर अन्धकार में देखने लगा ।
उसे अपने सामने हल्की सी हरकत महसूस हुई ।
शायद मुत्थू ने पहलू बदला था ।
एकाएक विमल सीधा हुआ और सामने हाथ फैलाये आगे को लपका ।
एक मानव शरीर उसे अपनी गिरफ्त में आता महसूस हुआ ।
उसने उसे फिरकनी की तरह दरवाजे की तरफ घुमाया और उसे सामने धक्का दिया ।
“वह भाग रहा है ।” - साथ ही वह चिल्लाया ।
मुत्थू का लड़खड़ाता शरीर चौखट के अर्धप्रकाशित चौकोन के सामने प्रकट हुआ ।
एक फायर हुआ ।
मुत्थू के मुंह से एक हाय निकली और वह फर्श पर ढेर हो गया ।
“गणेशन !” - वह आर्तनाद करता हुआ बोला - “तूने मुझे गोली मार दी ।”
गणेशन के मुंह से एक घरघराहट सी निकली और वह दरवाजे की तरफ झपटा । उसने एक झटके से दरवाजे का पर्दा नोच फेंका । बाहर के कमरे की रोशनी भीतर आने लगी । उसे रोशनी में उसे थोड़ा परे खड़ा विमल दिखाई दिया ।
“खबरदार !” - वह कहरभरे स्वर में बोला ।
आगे लपकने को तत्पर विमल ठिठक गया ।
गणेशन ने स्विच बोर्ड टटोल कर बिजली का स्विच ऑन किया ।
कमरे में ट्यूब लाइट फैल गयी ।
विमल की ओर रिवॉल्वर ताने गणेशन ने मुत्थू का मुआयना किया ।
उसकी पीठ में गोली लगी थी ।
“गणेशन !” - मुत्थू कराहा - “तूने मुझे ही गोली मार दी ।”
“मैं.. मैं” - गणेशन पश्चातापपूर्ण स्वर में बोला - “समझा था, वो भाग रहा था ।”
“हा-य !”
“तू बिल्कुल मत घबरा, मुत्थू, मैं अभी सब ठीक करता हूं ।”
वह उठकर सीधा खड़ा हुआ । उसने विमल की तरफ देखा । उस घड़ी उसकी आंखों से चिन्गारियां फूट रही थीं ।
विमल ने खामोशी से अपने होंठों पर जुबान फेरी ।
“थेवड़िया पईया !” - वह तमिल में गालियां बकता हुआ बोला - “अपनपेर तेरिपदवने ! सब तेरी वजह से हुआ । मैं तुझे बहुत बुरी मौत मारूंगा ।”
उसने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया ।
“वाहे गुरू सच्चे पातशाह !” - विमल होंठों में बुदबुदाया - “तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।”
फिर एकाएक गणेशन का रिवॉल्वर वाला हाथ झुक गया ।
“लेकिन नहीं” - वह बोला - “अभी नहीं । अभी तो तूने मेरे काम आना है । अभी तो तूने मेरे बहुत काम आना है । अम्माले ओतवने ! सुन रहा है ?”
“हां” - विमल बोला - “सुन रहा हूं ।”
“इसे उठा ।”
“किसे ?”
“इसे । मुत्थू को । जिसे तेरी वजह से गोली लगी है । चल । जल्दी कर ।”
विमल हिचकिचाया ।
“बाई गॉड” - गणेशन दहाड़ा - “बहुत बुरी मौत मारूंगा ।”
विमल आगे बढ़ा ।
“इसे सावधानी से उठा ।”
“उठाकर क्या करूं ?” - विमल बोला ।
“बाहर लेकर चल ।”
“बाहर कहां ?”
“हमारी कार में । अपनपेर तेरिपदवने ! बहस मत कर । हाथ-पांव हिला ।”
विमल मुत्थू पर झुका ।
“आराम से” - गणेशन बोला - “आराम से । उसे तकलीफ हुई तो तुझे सौ गुणा तकलीफ हो जायेगी ।”
कराहते हुए मुत्थू को विमल ने अपने कन्धे पर लादा और सीधा हुआ । गणेशन के इशारे पर वह बाहर को बढ़ा ।
बाहर एक बहुत बड़े साइज की विलायती लेकिन एकदम खटारा कार खड़ी थी ।
गणेशन ने आगे बढ़कर कार का पिछला दरवाजा खोला ।
विमल ने घायल मुत्थू को कार की पिछली सीट पर लिटा दिया ।
“वापिस भीतर चल ।” - गणेशन रिवॉल्वर उसकी तरफ लहराता हुआ बोला ।
दोनों फिर भीतर आ गए ।
“पेटी उठा ।” - गणेशन बोला ।
“मैं अकेला पेटी नहीं उठा सकता ।” - विमल बोला ।
“अगर” - गणेशन आंखें निकाल कर बोला - “अपनी खैरियत चाहता है तो पेटी उठा ।”
“यह एक आदमी से नहीं उठने वाली । खुद कोशिश करके देख ले ।”
“पेटी उठा, कैसे भी उठा नहीं तो मैं तेरा घुटना फोड़ता हूं । फिर दूसरा घुटना । फिर आंतें बाहर । फिर...”
“दाता !” - विमल ने आह भरी ।
गणेशन उसकी बातों में नहीं आया था । पेटी उठाने में उसकी मदद करने की कोशिश में गणेशन को रिवॉल्वर हाथ से छोड़नी पड़ती । तब विमल पेटी उस पर धकेल कर स्थिति को अपने काबू में कर सकता था । और कुछ नहीं तो भाग खड़ा तो हो ही सकता था ।
उसने पेटी ट्राई की ।
पेटी भारी थी, खूब भारी थी, लेकिन इतनी भारी नहीं थी कि किसी एक जने के लिये उसे उठा लेना सर्वथा असम्भव होता ।
गणेशन के आदेश पर पेटी उठाये लड़खड़ाता हुआ वह बाहर को चला ।
गनीमत थी कि जयशंकर की मुश्कें कसी हुई थीं और उसके मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था । वह बोल सकता होता या गणेशन को उसे आजाद करना सूझा होता तो निश्चय ही उसने गणेशन को बातों में लगाकर बेवकूफ बनाने की कोशिश जरूर की होती । विमल का काम खत्म करवा कर खुद गणेशन का हिमायती बनने की पेशकश तो उसने जरूर ही की होती । आखिर मुत्थू उसके दिवंगत जोड़ीदार का भतीजा था ।
गणेशन ने कार की डिकी खोली ।
नोटों से भरी पेटी उसमें बाखूबी समा गयी ।
गणेशन ने रिवॉल्वर विमल की ओर ताने-ताने कार का पिछला दरवाजा खोला और भीतर जा बैठा ।
“ड्राइविंग सीट पर बैठ ।” - वह बोला ।
“क्यों ?” - विमल बोला ।
“क्योंकि कार तुझे चलानी है, थेवड़िया पईया । मैंने यहां अपने साथी को सम्भालना है ।”
विमल ड्राइविंग सीट पर आ बैठा ।
“अगर” - गणेशन पीछे से उसकी खोपड़ी के साथ रिवॉल्वर की नाल सटाता हुआ बोला - “कोई शरारत की तो भेजा उड़ा दूंगा ।
“कहां चलूं ?” - विमल इग्नीशन ऑन करता हुआ बोला ।
“डाक्टर के पास ।”
“डाक्टर के पास कहां ?”
“अदियार ! वहां मेरा एक डाक्टर दोस्त है जो मुत्थू को सम्भाल लेगा । मैं उसे मालामाल कर दूंगा ।”
“क्यों नहीं ! क्यों नहीं !
“चल ।”
“मुझे अदियार का रास्ता नहीं आता ।”
“अभी सीधा चल । आगे रास्ता बताऊंगा ।”
विमल ने कार आगे बढ़ाई ।
गणेशन से पीछा छुड़ाना अब उसे बहुत कठिन काम नहीं लग रहा था । उस विलायती कार की वजह से वह बाखूबी गणेशन से निपट सकता था । कार का हुड इतना बड़ा था कि कार के सामने सिरे से ड्राइविंग सीट कोई छः फुट दूर थी । अब उसे तलाश थी तो किसी मुनासिब मौके की ।
वह मुनासिब मौका भी जल्दी ही आ गया ।
आगे सड़क सुनसान थी । उस सड़क पर दोनों ओर मोटे-मोटे तनों वाले पेड़ थे ।
विमल ने रियरव्यू मिरर पर निगाह डाली ।
गणेशन ने रिवॉल्वर अब भी विमल की खोपड़ी से सटाई हुई थी लेकिन अब वह अपेक्षाकृत निश्चिन्त लग रहा था । रह-रहकर उसका ध्यान मुत्थू की तरफ चला जाता था और वह उसे मौखिक तसल्ली देने लगता था ।
सतनाम श्री वाहे गुरु - विमल मन ही मन जप जी साहब का पाठ करने लगा - करता पुरुख, निर भौ, निर वैर...
फिर एकाएक पूरी रफ्तार, से भागती कार का रुख उसने एक निहायत मोटे तने वाले पेड़ की ओर किया और स्वयं स्टियरिंग छोड़ कर दोहरा हो गया ।
कार के पेड़ से टकराने से पहले गणेशन की रिवॉल्वर से एक फायर हुआ लेकिन गोली विमल के सिर के ऊपर से गुजर गयी ।
तभी एक धड़ाम की आवाज के साथ कार पेड़ से टकराई ।
गणेशन के हाथ से रिवॉल्वर निकल गयी । वह इतनी जोर से उछला कि अगली सीट की पीठ से टकरा कर दोनों सीटों के बीच ढेर हो गया ।
विमल क्योंकि उस टक्कर के लिए तैयार था, इसलिए टक्कर का झटका वह झेल गया ।
कार के अगले दोनों दरवाजे टक्कर से अपने आप ही खुल गये थे ।
विमल ने अगली सीट पर आ गिरी गणेशन की रिवॉल्वर अपने काबू में की और फुर्ती से कार से बाहर निकला ।
पीछे गणेशन और मुत्थू गुच्छा-मुच्छा हुए पड़े थे । मुत्थू गणेशन के ऊपर आ कर गिरा था और अब कराहता हुआ गणेशन उसके नीचे से निकलने की काशिश कर रहा था ।
विमल ने बड़ी बेरहमी से तब तक अचेत ही चुके मुत्थू के शरीर को कार से बाहर घसीटा और कांपते -कराहते, सीधा होने का उपक्रम करते, गणेशन की तरफ रिवॉल्वर तान दी ।
“बाहर निकल ।” - वह क्रूर स्वर में बोला ।
तामिल में गालियां बकता गणेशन बाहर निकला ।
“यह... यह...” - उसने आतंकित भाव से मुत्थू की तरफ देखा ।
“अभी जिन्दा है ।” - विमल बोला - “पापियों की जान बड़ी मुश्किल से निकलती है । यह भी बाबे का बड़ा अनोखा करतब है ।”
“यह यूं पड़ा-पड़ा मर जायेगा ।”
“तो क्या बुरा होगा ? जब तुम दोनों एक बूढ़े लाचार आदमी को टार्चर करके उसकी जान ले रहे थे, तुम्हें सूझा था कि वो मर जायेगा ?”
“तू किसकी बात कर रहा है ?”
“मैं कुप्पूस्वामी की बात कर रहा हूं, अम्माले ओतवने ।” - विमल उसी की गाली उस पर थोपता हुआ बोला - “जान लेते कुछ नहीं हुआ तो अब जान देते क्यों मां मर रही है ?”
“तू” - गणेशन ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी - “हमें मार डालेगा ?”
“तू क्या करने वाला था मेरे साथ ?”
गणेशन उत्तर न दे सका ।
“तू न मार डालता मुझे ? बोल ?”
गणेशन न बोला ।
“तेरा जवाब मुझे मालूम है लेकिन मेरा जवाब तुझे मालूम नहीं । मेरा जवाब सुनकर तू हैरान हो जायेगा ।”
“क- क्या ?”
“हां । मैं तेरी जानबख्शी कर रहा हूं । तेरा अधमरा साथी अगर यहीं मरने से बच जाये तो इसे भी याद दिला देना कि इसने मेरा शुक्रगुजार होना है ।”
“तू..तू.. हमें छोड़ रहा है ?”
“हां लेकिन इस काबिल नहीं कि तुम दोबारा किसी को डबल-क्रॉस कर सको, दोबारा किसी पर ऐसा कहर ढा सको जो तुमने कुप्पूस्वामी पर ढाया ।”
और विमल ने दो बार फायर किया ।
गणेशन के दोनों घुटने फूट गये ।
वह त्योरा कर जमीन पर अपने साथी के पहलू में गिरा ।
विमल कार के करीब पहुंचा ।
कार का अगला भाग बुरी तरह पिचका हुआ था, रेडिएटर में से पानी टपक रहा था लेकिन इंजन अभी चल रहा था ।
विमल कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा ।
उसने कार को बैक गियर में डाला ।
कार ने कुछ खड़-खड़ सी की लेकिन बैक होती चली गई ।
विमल कॉलेज रोड वापिस लौटा ।
उसने कार में से नोटों की पेटी निकाली और फिर त्यागराजन के घर में दाखिल हुआ ।
त्यागराजन दम्पति और जयशंकर उसे वैसे ही पड़े मिले जैसे वह उन्हें छोड़कर गया था ।
जयशंकर बितर-बितर उसकी तरफ देखने लगा । नोटों की पेटी लौट आई देखकर न जाने क्यों उसकी उम्मीदें फिर से जाग उठी थीं ।
विमल ने उसके मुंह से कपड़ा निकाला ।
“वो वही दोनों छोकरे थे” - विमल बोला - “जिन्होंने कुप्पूस्वामी को मारा था । कुप्पूस्वामी का भतीजा मुत्थू और उसका दोस्त गणेशन ।”
“तुम” - जयशंकर हैरानी से बोला - “बच कैसे पाये उनसे ?”
“बच गया वाहे गुरु की मेहर से ।”
“वो दोनों अब कहां हैं ?”
“अधमरे से यहां से कुछ मील दूर सड़क पर पड़े हैं ।”
“तुमने तो कमाल कर दिया ।” - जयशंकर मंत्रमुग्ध स्वर में बोला, फिर एकाएक वह यूं बोला जैसे कोई भूली बात याद आ गयी हो - “लेकिन तुम वापिस क्यों लौट आये ? माल तुम्हारे कब्जे में था और तुम...”
उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया । वह हैरानी और उलझन मिश्रित निगाहों से विमल को देखने लगा ।
“उन दोनों के एकाएक आगमन से यहां मेरा एक काम अधूरा रह गया था ।” - विमल बोला ।
“क... क्या ?”
“मैंने कहा था कि जिस दौलत की खातिर तुमने अपने साथियों के साथ दगाबाजी की थी, मैं उसी में तुम्हें दफन करके जाऊंगा । मैं तुम्हें उन्हीं नोटों का कफन पहनाकर जाऊंगा जिनमें से एक को भी तुम अपने से अलग करना नहीं चाहते थे ।”
“विमल, प्लीज !” - जयशंकर गिड़गिड़ाया - “भगवान के लिए मेरी ऐसी दुर्गति मत करो । तुम यह सारी दौलत ले लो लेकिन मुझे आजाद कर दो । मेरे बन्धन खोल दो ।”
“तुम्हारे बन्धन तो पुलिस ही आकर खोलेगी ।”
“विमल, प्लीज । मुझे पुलिस के हवाले मत करना ।”
विमल नोटों की पेटी की तरफ आकर्षित हुआ ।
उसने पेटी का ढ़क्कन खोला और सौ-सौ के नोटों की एक गड्डी उठाकर अपनी जेब में रख ली ।
फिर उसने दोनों हाथों से नोटों की गड्डियां निकाल निकालकर जयशंकर के ऊपर फेंकनी आरम्भ कर दीं ।
शीघ्र ही पेटी खाली हो गई और जयशंकर गरदन तक नोटों के ढेर में समा गया ।
“अब कैसा लग रहा है, चाचा जी ?” - विमल बोला ।
क्रोध, अपमान और बेबसी के भावों से जयशंकर का चेहरा विकृत हो उठा ।
विमल ने दोबारा उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया ।
“तुम्हारे यहां टेलीफोन है ?” - विमल त्यागराजन से सम्बोधित हुआ ।
त्यागराजन ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“कहां ?”
त्यागराजन ने बगल के कमरे की ओर संकेत कर दिया ।
विमल बगल के कमरे में पहुंचा ।
उसने पुलिस का नम्बर डायल किया ।
दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह बोला - “मेरा नाम विमल है । मैं स्टेडियम में पड़े डाके के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण जानकारी रखता हूं । इस विषय में मैं पुलिस के किसी उच्चाधिकारी से बात करना चाहता हूं ।”
“जरा होल्ड कीजिये ।” - उत्तर मिला ।
“हल्लो !” - थोड़ी देर बाद विमल को एक नया स्वर सुनाई दिया ।
“आप कौन बोल रहे हैं ?” - विमल ने पूछा ।
“पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल ।”
“सुपर साहब” - विमल भावहीन स्वर में बोला - “मेरा नाम विमल है । मैं स्टेडियम में डाका डालने वाले गैंग का एक सदस्य हूं... चौंकिये नहीं और यह पता लगवाने की कोशिश भी मत कीजिये कि मैं कहां से बोल रहा हूं क्योंकि यह बात मैं आपको खुद ही बताने जा रहा हूं । मैं बत्तीस, कॉलेज रोड से बोल रहा हूं और अगर आप राकेट पर भी पुलिस को यहां भेजेंगे तो उन्हें मेरी हवा नहीं मिलेगी क्योंकि मैं केवल एक मिनट आपसे बात करूंगा और उसके बाद यहां से खिसक जाऊंगा ।”
विमल एक क्षण रुका और फिर बोला - “बत्तीस, कॉलेज रोड पर इस वक्त डकैतों का सरगना जयशंकर, इमारत का मालिक त्यागराजन और उसकी पत्नी लक्ष्मी बन्धे पड़े हैं । इसी इमारत में स्टेडियम से लुटी दौलत भी मौजूद है जिसमें से केवल दस हजार रुपये कम हैं । वे दस हजार रुपये मैंने ले लिये हैं क्योंकि डाकुओं को पकड़वाने वाले या माल का पता देने वाले को दस हजार रुपये के इनाम की घोषणा मैंने रेडियो में सुनी है और मैं आपको डाकुओं का सरगना और माल दोनों सौंप रहा हूं ।”
“त्यागराजन और लक्ष्मी का डकैती से क्या सम्बन्ध है ?” - सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल का स्वर सुनाई दिया ।
“डकैती से उनका कोई सम्बन्ध नहीं और जयशंकर लूट के माल सहित त्यागराजन की इस इमारत पर कैसे मौजूद है, यह बात मैं खुद भी नहीं समझ पाया हूं ।”
“तुम पांच आदमी थे । तुम्हारा एक साथी स्टेडियम में गार्ड की गोली का शिकार हो गया था । एक अन्य साथी सूर्यनारायण रोड के बंगले पर मारा गया था । दो तुम और जयशंकर हो । तुम्हारा पांचवां साथी कहां गया जो स्टेडियम में गोली का शिकार हुआ था और बाद में वहां से बाइसिकल पर भागा था ?”
“उसका नाम अब्राहम था । वह मर चुका है । समय पर डाक्टरी सहायता न मिलने की वजह से वह जीवित नहीं रह सका था । उसकी लाश सूर्यनारायण रोड वाले बंगले के पास बीच पर एक नारियल के पेड़ के नीचे दबी पड़ी है ।”
“विमल, तुम अपने आपको पुलिस के हवाले कर दो । हम तुम्हें जयशंकर के खिलाफ सरकारी गवाह बना लेंगे और तुम माफी पा जाओगे ।”
“मुझे मूर्ख मत बनाओ, सुपर साहब । जयशंकर के खिलाफ केस तैयार करने में पुलिस की सहायता करने और दौलत और जयशंकर का पता बताने की वजह से शायद मैं इस जुर्म से तो बरी हो जाऊं लेकिन क्या मैं लेडी शान्ता गोकुलदास के कत्ल के जुर्म से भी बरी हो सकता हूं ? क्या मैं उस जुर्म से भी बरी हो सकता हूं जो मैंने इलाहाबाद की जेल तोड़ कर किया था और जब मेरा नाम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था ?”
“उस बाबत भी विचार किया जा सकता है ।”
“सॉरी, सुपर साहब ।”
“लेकिन...”
“मुझे बातों में उलझाने की कोशिश मत कीजिये । एक मिनट से ज्यादा समय हो गया है । नमस्कार, सुपर साहब ।”
विमल ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया । वह वापिस पिछले कमरे में पहुंचा ।
“अलविदा, दोस्तो !” - वह बोला - “और जयशंकर, तुम्हें याद होगा जब रुबी रेस्टोरेन्ट में मेरी तुम से पहली मुलाकात हुई थी तो मैंने तुम्हें बताया था कि मैं पेशेवर मुजरिम नहीं था लेकिन तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ था । उम्मीद है कि मेरे मौजूदा एक्शन से तुम्हें मेरी बात पर विश्वास हो गया होगा । उम्मीद है कि जेल में गुजरे तुम्हारे दिन मुझे डकैती में अपना साथी चुनने की भारी गलती पर पछताते हुए गुजरेंगे ।”
जयशंकर की पुतलियां बेचैनी से दायें-बायें फिरने लगीं और उसके मुंह से गों-गों की आवाज निकलने लगी ।
बिना उस पर दोबारा दृष्टिपात किये विमल ने अपने कपड़े उतारे । उसने उनके स्थान पर जयशंकर की उतारी पादरी की पोशाक पहनी, सिर पर सफेद बालों का विग लगाया, लम्बी दाढ़ी और मूंछें लगायीं और फिर उस कमरे से बाहर निकल गया ।
ड्राइंगरूम में मेज पर पड़ा पादरी वाला तसले जैसा हैट उठाकर उसने अपने सिर पर रखा और अपने गले में लटके क्रॉस को छूता हुआ इमारत से बाहर निकल आया ।
वह जयशंकर की एम्बैसेडर के समीप पहुंचा । उसने कार का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा चाबी लगा कर खोला और भीतर जा बैठा । रियरव्यू मिरर में उसने अपनी सूरत देखी ।
दाढ़ी-मूंछ की वजह से उसकी सूरत कुछ-कुछ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल से मिलने लगी थी लेकिन फिर भी उसे विश्वास था कि पादरी के उस मौजूदा भेष में वह पहचाना नहीं जाने वाला था ।
फिर एकाएक उसकी आंखों के सामने अपनी खूबसूरत बीवी सुरजीत कौर की सूरत घूम गयी । एकाएक वह बेहद उदास हो गया ।
अगर उसकी बीवी ने उसे धोखा न दिया होता तो आज उसे वह दिन न देखना पड़ता । आज वह अपनी जान की सलामती की खातिर पुलिस से और सारी दुनिया से मुंह छुपाता न फिरता होता । आज उसकी हालत गली-गली दुर-दुर करते एक आवारागर्द कुत्ते जैसी न हो गयी होती ।
उसकी आंखों से आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदें ढुलक पड़ीं ।
“धन्न करतार !” - वह एक आह भर कर बोला ।
उसने कार आगे बढ़ा दी ।
समाप्त
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