डोरीलाल ने गुलाबलाल को खबर दी ।

"अमरु आया है । वो चिंता में लग रहा है । आपसे मिलना चाहता है ।"

"मैं आ रहा हूं ।" डोरीलाल चला गया।

गुलाबलाल समझ चुका था कि अमरु तिलस्म की ही कोई खबर लाया होगा । पांच मिनट के पश्चात जब वो बैठक में पहुंचा तो अमरु को कुर्सी पर बैठे, बेचैनी से हाथ मलते पाया ।

गुलाबलाल को देखते ही अमरू उठ खड़ा हुआ ।

अमरू के कुछ कहने से पहले ही गुलाबलाल बोल पड़ा ।

"क्या बात है अमरु, तुम व्याकुल लग रहे हो ?"

"जी, खबर ही ऐसी है कि आप भी परेशान हो जायेंगे ।" अमरु के होठों से बेचैन स्वर निकला ।

"कैसी खबर ?"

"तिलस्म के हालात खराब हो रहे हैं ।"

"स्पष्ट कहो ।"

"यह तो आपको बता ही चुका हूं कि मिन्नो और देवा ने तिलस्म के कई तालों को तोड़ दिया है ।"

"मालूम है   इस वक्त वो दोनों तिलस्म में किस स्थिति में है ?" गुलाबलाल ने पूछा ।

"उन्हें तलाश कर रहा हूं ।"

"गीतलाल की तरफ से भी, काफी देर हो गई खबर मिले । वो भी तिलस्म में...।"

"इसी सिलसिले में काम अधूरा छोड़कर मुझे खबर देने के लिए आना पड़ा । तिलस्म में दो लाशें मैंने देखी । एक लाश हरीसिंह और दूसरी गीतलाल की।

गुलाबलाल चौंका ।

"असंभव । ये नहीं हो सकता ।"

"अभी मेरी खबर पूरी नहीं हुई ।"

गुलाबलाल की निगाह अमरु के चेहरे पर जा टिकी ।

"हरीसिंह और गीतलाल की गर्दनें कटी हुई है ।"

"क्या ?" गुलाब लाल की आंखें हैरानी से फैल गई--- "गर्दनें कटी हुई हैं ?"

"जी हां ।"

"गर्दन पूरी की पूरी अलग है ?" गुलाब लाल के चेहरे के भाव समझ में नहीं आ रहे थे ।

"जी हां ।"

"असंभव।" गुलाब लाल जैसे खुद से कह उठा--- "ये कैसे हो सकता है । शुभसिंह पागल हो गया है क्या ?" उसमें इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि वो मुझसे और दालूबाबा से दुश्मनी लेने की जुर्रत कर सके । इस तरह से तो शुभसिंह ही हत्याएं करता है।  इस बात से तो हर कोई वाकिफ है।"

"यही मैं आपसे कहना चाहता हूं ।" अमरु बोला ।

कुछ पल खामोश रहकर, गुलाबलाल ने गंभीर स्वर में पूछा ।

"लाशें देखने-समझने में तुमसे कोई गलती तो नहीं हुई ?"

"जी नहीं । पूर्ण विश्वास के बाद ही खबर देने आपके पास आया हूं ।" अमरु ने कहा--- "मेरे ख्याल में आप ये मामला दालू के हवाले कर दें तो ज्यादा ठीक रहेगा । क्योंकि मैं देवा और मिन्नो भी...।"

"नहीं, दालूबाबा इस वक्त अनुष्ठान में व्यस्त हैं ।" गुलाब लाल ने हाथ उठाकर कहा ।

"अनुष्ठान ?"

"हां, मिन्नो और देवा से मुकाबला करने के लिए दालूबाबा अनुष्ठान कर के हाकिम को बुला रहा है ।"

हाकिम के आने की सुनकर अमरु विचलित हो उठा ।

"इस काम के लिए हाकिम को बुलाने की क्या जरूरत थी । दालूबाबा के पास दो सैकड़ो आदमी है, जो आसानी से देवा और मिन्नो से निपट सकते हैं ।" अमरु ने कहा।

"ये बातें दालूबाबा ही जाने । इसके लिए दालूबाबा को मैंने भी टोका था । हाकिम का नगरी में आना ठीक नहीं । परंतु दालूबाबा शायद किसी प्रकार का खतरा नहीं उठाना चाहता । उसने सोचा होगा कि कहीं उसके आदमी असफल न हो जायें, इसलिए हाकिम को बुलाकर सारा खतरा सिरे से ही खत्म कर दिया जाये।"

हाकिम आने वाला है, यह सुनकर अमरू परेशान-सा हो उठा था ।

"हरीसिंह और गीतलाल के बारे में सुनकर बहुत बुरा लगा । शुभसिंह को जिंदा नहीं छोड़ा जा सकता । दालूबाबा इस वक्त अनुष्ठान में व्यस्त है, इसलिए मुझे अवश्य कुछ करना होगा ,अमरू।"

"जी ।"

गुलाब लाल का चेहरा कठोर हो चुका था ।

"मेरे पांच-सात योद्धा ले जाओ, जिनके बारे में तुम्हें पूरा भरोसा हो वे शुभसिंह से निपट सकते हैं । उन्हें तिलस्म में पहुंचाकर बिखरा दो, किसी को तो शुभसिंह मिलेगा । तब वो योद्धा शुभसिंह को खत्म कर देंगे ।"

"जी, समझ गया ।"

"ये काम शीघ्र करके, देवा और मिन्नो पर ध्यान दो कि तिलस्म में उनकी स्थिति क्या है ।"

इजाजत लेकर अमरु बाहर निकलता चला गया।

■■■

पैंतालीस मिनट के बाद हवा में आगे बढ़ते रथ की रफ्तार धीमी होने लगी । दूर-दूर तक खुला मैदान नजर आ रहा था । पथरीला मैदान । बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थर बिखरे-खड़े नजर आ रहे थे। एकाएक वो पत्थर का रथ रुक गया । फिर वह धीमे-धीमे नीचे आने लगा ।

और वो जमीन पर आ लगा ।

मोना चौधरी देवराज चौहान और रुस्तम राव नीचे उतरे ।

"मानेला तिलस्म में...।" रूस्तम राव चेहरे पर अजीब भाव समेटे कह उठा--- "पत्थर का रथ और हवा में उड़ेला । बोलने पे कोई विश्वास नेई करने का ।"

देवराज चौहान की निगाह आसपास दूर तक जा रही थी । हर तरफ खाली मैदान या बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थर ही नजर आये । कुछ दूर लाल रंग का बड़ा-सा ऊंचा पत्थर खड़ा था।

रथ के नीचे उतरते ही मोना चौधरी पत्थर के घोड़े के ठीक सामने पहुंची और दोनों घोड़ों के माथों पर हाथ लगाकर उनके सामने घुटनों के बल नीचे बैठी और हाथ जोड़ते हुए आंखें बंद कर ली । फिर होठो-ही-होठों में कुछ बुदबुदाने लगी ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव ने उसे देखा ।

करीब मिनट बाद मोना चौधरी ने आंखें खोली और खड़े होने के पश्चात हाथ बढ़ाकर, पत्थर के दोनों घोड़ों के माथों को छुआ और शांत अवस्था में खड़ी घोड़ों के माथे पर निगाहें टिकाये रही ।

अगले ही पल देखते-ही-देखते वो पत्थर का रथ टूट-टूटकर बिखरने लगा ।

"बाप, ये तो गएया काम से ।"

देवराज चौहान खामोशी से रथ को टूटते देखता रहा ।

दो मिनट में ही रथ पूरी तरह टूटकर मलबे के ढेर में बदल चुका था ।

जैसे मोना चौधरी को फुर्सत मिली । उसने देवराज चौहान, रुस्तम राव को देखा ।

"तोड़ दिया इसको भी ।" देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर कहा ।

"हां ।" मोना चौधरी गंभीर थी--- "इन सब चीजों को कभी मैंने ही बनाया था । तब जरूरत महसूस हुई थी । लेकिन अब सारे तिलस्म को अपने ही हाथों से तहस-नहस करके, नगरी वालों के मन से तिलस्म का खौफ निकालूंगी।  वरना नगरी कभी भी सामान्य रूप से वक्त नहीं गुजार सकती। तिलस्म में कैद हो जाने का खौफ हर पल उनके सिर पर सवार होगा । तिलस्म जानने वाला दूसरे से जरा-सी बात पर खफा होकर तिलस्म में धकेल सकता है ।"

देवराज चौहान पुनः मुस्कुराया ।

"मुझे खुशी है कि तिलस्म समाप्त करके, तुम अच्छा काम कर रही हो ।" देवराज चौहान बोला ।

मोना चौधरी की निगाह उस बड़े से लाल पत्थर पर जा टिकी । जो पचास-साठ फीट ऊंचा होगा ।

"जानते हो क्या है ?" मोना चौधरी ने कहा ।

"क्या है ?" देवराज चौहान ने उधर देखा ।

"ये पत्थर भी उड़ेला क्या ?" रुस्तम राव मुस्कुरा कर कह उठा ।

मोना चौधरी आगे बढ़ी । देवराज चौहान और रुस्तम राव भी।

जब पत्थर को सामने से देखा तो देवराज चौहान और रुस्तम राव चौंके ।

मोना चौधरी मुस्कुरा उठी ।

उस बड़े पत्थर के सामने वाले हिस्से में देवराज चौहान का चेहरा बना हुआ था । होठों पर मूंछे थी--- यह देवराज चौहान का बूत वही है, जिसके सामने मोना चौधरी पड़ी थी और बुत के अदृश्य तिलस्मी पहरेदार ने मोना चौधरी को बुत को पत्थर मारने को कहा था । ये सब जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार'।"

"देवराज चौहान ये तो मैं तेरा बुत होएला ।" रूस्तम राव के होठों से निकला ।

देवराज चौहान यहां पर अपना बुत देखकर खुद हैरान था ।

"ये तुम्हारा ही बुत है देवराज चौहान ।" मोना चौधरी बोली ।

"हां ।" देवराज चौहान ने न समझने वाली निगाहों से मोना चौधरी को देखा--- "लेकिन, मेरा बुत तिलस्म में ?"

मोना चौधरी सहमति भरे ढंग से सिर हिला उठी ।

"मेरे आदेश पर ही यहां तुम्हारा बुत बनाया गया था ।"

"क्यों ?" देवराज चौहान की निगाह पुनः बुत की तरफ उठी ।

"इसलिए कि यहां से गुजरने वाले के मन में तुम्हारे प्रति नफरत पैदा हो । इस बुत का एक तिलस्मी पहरेदार है, जो यहां से गुजरने वाले को आदेश देता है कि पत्थर उठाकर तुम्हारे बुत को मारो । जब तक वो पत्थर नहीं मारता, तिलस्मी पहरेदार उसे जाने नहीं देता । नगरी में भी दो खास जगह पर तुम्हारे लाल पत्थर के बुत मौजूद हैं । वहां भी नगरी के लोग, तुम्हारे बुत को पत्थर से मारते हैं । क्योंकि सब नगरी वाले यह भी जानते हैं कि तुमने देवी के साथ लड़ाई की और देवी की जान ले ली ।" मोना चौधरी के होठों पर मुस्कान थी--- "लेकिन अब ये बातें जल्दी खत्म हो जायेंगी ।"

देवराज चौहान भी मुस्कुराया ।

"खत्म हो या न हो । मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ।"

"लेकिन मुझे पड़ता है । मैं नगरी का भला चाहने वाली उनकी देवी हूं । मुझे ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये कि नगरी वालों के मन में किसी के प्रति नफरत पैदा हो । तभी वो चैन से जीवन व्यतीत कर सकते हैं ।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा ।

"बाप ।" रुस्तम राव ने मोना चौधरी से कहा--- "अब इधर को किस वास्ते खड़ेला है ?"

"इस बुत के नीचे रास्ता है ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"रास्ता ?"

"हां, ये रास्ता ही बनाया गया था । इसे छिपाने के लिए रास्ते के मुंह पर कुछ रखना था तो देवराज चौहान का बुत बना कर खड़ा कर दिया गया । रास्ता भी बंद हो गया और बुत को पत्थर मारने की प्रतिक्रिया भी शुरू हो गई ।" कहने से साथ ही मोना चौधरी आगे बढ़ी और बुत वाले पत्थर को छूने के बाद, घुटनों के बल नीचे बैठी और हाथ जोड़ते हुए आंखें बंद करके होठों-ही-होठों में किसी मंत्र को बोलने लगी ।

आधे मिनट बाद आंखें खोली । उठी और बुत को हाथ लगा कर शांत अवस्था में खड़ी हो गई । चंद पल ही बीते होंगे वो बुत हौले से हिला और फिर धीरे-धीरे एक तरफ सरकने लगा । तीनों की निगाहें सरकते बुत पर लगी थी ।

पांच मिनट पश्चात बुत पूरा सरक कर रुक गया।

अब जहां बुत खड़ा था, ठीक उसके नीचे सीढ़ियां नजर आ रही थी ।

सीढ़ियों पर निगाह मारने के बाद मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा ।

"देवराज चौहान । बुत को तुम्हें चांटा मारना होगा ।"

"क्यों ?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।

"क्योंकि, इस बुत को तबाह करने के लिए, इस पर तुम्हारे नाम यानी कि देवा के नाम का तिलस्म पढ़ा गया था कि जब तक देवा इस बुत को चांटा नहीं मारेगा, यह तबाह नहीं होगा ।"

"ऐसा क्यों ?"

"इसलिए कि मैं चाहती थी ये बुत कभी भी टूट कर समाप्त न हो जाये।  ऐसे में मैंने गुप्त तौर पर तुम्हारे नाम का तिलस्म पढ़ा कि तुम इसे चांटा मारोगे तो तभी ये तबाह होगा । दूसरी सूरत में अगर कोई इसे तोड़ने-फोड़ने का प्रयत्न करेगा तो ये टूटेगा नहीं । तुम्हारे नाम का तिलस्म इसलिए पढ़ा था कि तुम कभी भी अपने बुत को चांटा नहीं मारोगे ।" मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"बहुत समझदारी से काम लिया।" देवराज चौहान भी मुस्कुराया--- "परंतु इसे तबाह करने के लिए, तिलस्म पढ़ने की क्या जरूरत थी। तुम...।"

"तिलस्मी विद्या के मुताबिक अगर तिलस्म से किसी चीज को बनाया जाये तो उसे समाप्त करने की चाबी भी कहीं रखनी पड़ती है, तभी तिलस्म से बनी चीज लंबे समय तक सलामत रह सकती है ।"

देवराज चौहान होंठ सिकोड़कर सिर हिला कर रह गया ।

"बाप, ये तिलस्मी विद्या तो बोत कमाल का होएला । तुम अपुन को सिखाएला क्या ?" रूस्तम राव मुस्कुराया ।

"नहीं ।" मोना चौधरी का स्वर शांत था--- "तिलस्मी विद्या के गलत इस्तेमाल से बहुत कुछ गलत हो जाता है । यह तो तुम देख ही रहे हो । अगर मुझे तिलस्मी विद्या नहीं आती होती तो नगरी शायद ज्यादा मुसीबत में न पड़ती ।"

रुस्तम राव ने गहरी सांस ली ।

"ठीक है बाप । अपुन पेशीराम से सीखेएला ।"

"भूल में मत रहना ।" इस बार मोना चौधरी मुस्कुरा पड़ी--- "पेशीराम ऐसी गलती कभी नहीं करेगा ।"

तभी देवराज चौहान आगे बढ़ा और बुत के सामने पहुंचकर चांटा मारा।

कुछ भी नहीं हुआ ।

"पीछे हो जाओ ।" मोना चौधरी ने कहा ।

देवराज चौहान तुरंत कई कदम पीछे हट गया ।

वो साठ-सत्तर फीट ऊंचा बुत कुछ ही सेकड़ों के बाद एकाएक भरभराकर नीचे गिरने लगा । छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलने लगा ।

करीब एक-डेढ़ मिनट में ही पत्थर के रथ की तरह ही वो बुत मलबे का ढेर बन गया ।

"वाह बाप ।" रुस्तम राव, हौले से हंसा--- "तुम्हारा चांटा तो कमाल का होएला।"

देवराज चौहान गहरी सांस लेकर रह गया ।

"आओ ।" मोना चौधरी आगे बढ़ी और सीढ़ियां उतरने लगी ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव भी उसके पीछे सीढ़ियां उतरने लगे ।

सोलह सीढ़ियां थी वो, जो कि खत्म हो गई। वहां अंधेरा था । मोना चौधरी ने पास ही दीवार पर हाथ रख कर, होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाया तो वहां रोशनी हो गई । हर चीज स्पष्ट नजर आने लगी ।

यह तीस बाई तीस फीट का हॉल था । जिसके ठीक बीचो-बीच लोहे की कश्ती के समान बड़ी-सी कटोरी मौजूद थी । जिसके नीचे एक फीट के फैसले पर लोहे की पतली-पतली दो रॉडे थीं जो कश्ती जैसे कटोरे के नीचे कहीं फंसी थी और वो रॉडे आगे जाती हुई, एक तरफ की खाली दीवार में जाने कहां जाती नजर आ रही थी । रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा ।

"ये क्या चीज होएला बाप ?"

"मेरे ख्याल में ।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--  "ये लिफ्ट हो सकती है।"

"लिफ्ट ? पण लिफ्ट तो ऊपर को जाएला बाप, ये तो ।"

"जिस तरह कुंए से हमने कुछ देर की यात्रा की थी, कुछ वैसा ही सिस्टम यहां है । ये कश्ती जैसा कटोरा मेरे ख्याल में नीचे नजर आ रही पाइपों पर चलेगा ।" देवराज चौहान बोला ।

"तुम्हारा ख्याल ठीक है देवराज चौहान ।" मोना चौधरी कह उठी ।

"तो अपुन लोग अब इसमें बैठेला ।"

"हां, लेकिन अभी मत बैठना ।" कहने के साथ ही मोना चौधरी आगे बढ़ी और कश्ती जैसे कटोरे को छूकर घुटनों के बल नीचे बैठी और आंखें बंद करते हुए हाथ जोड़ लिए।  होंठ हिलने लगे।

पन्द्रह-बीस सेकंड के बाद ही मोना चौधरी उठी और कटोरे को छूकर खामोशी से खड़ी हो गई । तभी देखते-ही-देखते कटोरा हिला और करीब चार फीट आगे बढ़कर रुक गया ।

"आओ बैठो।" कहने के साथ ही मोना चौधरी उछलकर कटोरे के भीतर पहुंच गई ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव भी भीतर आ गये । कटोरे में इतनी जगह थी कि चार व्यक्ति आराम से बैठ सकें।  उनके भीतर आते ही मोना चौधरी ने कटोरे की परत पर जोर से दो बार हाथ मारा तो वो कटोरा उन्हीं पाइपों पर आगे बढ़ने लगा । देखते-ही-देखते कमरे से बाहर आ गया । सामने सुरंग नजर आ रही थी । जिसके भीतर अंधेरा था।

तभी मोना चौधरी ने कटोरे पर दो बार थाप दी तो वो रुक गया ।

मोना चौधरी ने पलटपर उस कमरे को देखा और हाथ जोड़कर आंखें बंद करते हुए बड़बड़ाने लगी । जब तिलस्मी मंत्र पूर्ण कर  लिया तो  सीधे बैठते ही कटोरे पर दो बार थाप दी तो वो धीरे से आगे सरकने लगा । देखते-ही-देखते वो सुरंग में प्रवेश कर गया।

"बाप, इधर तो पूरा अंधेरा होएला ।"

"हां, सारे रास्ते अंधेरा ही रहेगा ।" मोना चौधरी का स्वर कानों में पड़ा--- "यह सफर करीब तीन घंटे तक जारी रहेगा । उसके बाद हम जल्दी ही तिलस्म से निकल सकेंगे ।"

तभी पीछे से काफी तीव्र आवाजें आने लगी । टूट-फूट की आवाजें ।

"जहां से कटोरा खड़ा था, वो तिलस्मी जगह भी तोड़ दी ?" देवराज चौहान ने कहा ।

"हां और अब हम जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, हमारा सफर समाप्त होते ही ये सुरंग भी टूट कर बिखर जायेगी । ये रास्ता हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा और सामान्य जगह बन जायेगी ।"

कटोरा तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था।

■■■

फकीर बाबा की पेशानी पर चिंता की लहरें स्पष्ट नजर आ रही थी । वह गहरी सोच में डूबा हुआ था । इस वक्त वो अपने उसी घर में मौजूद था, जहां वो रूस्तम राव को भी लाया था ।

लाडो कब उसके पास आ पहुंची, फकीर बाबा को इस बात का एहसास न हो पाया ।

"बापू ।" लाडो के पुकारने पर फकीर बाबा ने अपना चिंता से भरा चेहरा उठाया ।

चेहरे पर मासूमियत ओढ़े लाडो को अपनी तरफ देखते पाया।

"कहो बेटी ?"

"कब से ऐसे ही बैठे हो ?" लाडो बोली।

फकीर बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया ।

"त्रिवेणी कहां है बापू ?"

"तिलस्म में ।" फकीर बाबा ने कहा ।

"तुम मिले थे उससे ?"

"हां, कल मिला था । ठीक है त्रिवेणी ।"

लाडो के चेहरे पर कसक-सी नजर आने लगी ।

"त्रिवेणी को लाओ न बापू ।  मैंने तो उससे जी भरकर बातें भी नहीं की ।" लाडो का स्वर भारी हो गया ।

फकीर बाबा का सिर हौले से हिला ।

"त्रिवेणी व्यस्त है लाडो बेटी । वो अभी नहीं आ सकता ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "जिस काम के लिए मैं इन लोगों को नगरी में लेकर आया हूं, पहले वो काम पूर्ण होना चाहिये ।"

"लेकिन बापू मैं तो डेढ़ सौ बरस से त्रिवेणी का इंतजार कर रही हूं ।" लाडो की आंखों में आंसू चमक उठे--- "उस पर पहला हक मेरा बनता है । आपने बताया था कि गुरुवर ने कहा था कि वो एक दिन लौटेगा ।"

"सिर्फ तुम्हारे भले के लिए मैं त्रिवेणी को नहीं रोकूंगा । वो जो भी कर रहा है, नगरी के भले के लिए कर रहा है । तुम ही सोचो बेटी, एक तरफ तुम हो और दूसरी तरफ पूरी नगरी ।"

लाडो फिर कुछ न कह सकी ।

"वक्त क्या रंग दिखाता है, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता ।"

"त्रिवेणी तिलस्म में क्या कर रहा है बापू ?" लाडो आंसू पोंछते हुए कह उठी ।

"वह, देवा और मिन्नो के साथ था । देवा और मिन्नो को पूर्व जन्म की याद आ गई है और अब वो उस रास्ते पर बढ़ रहे हैं, जो तिलस्म से बाहर जाता है ।" फकीर बाबा ने बताया ।

"सच बापू ।" लाडो के चेहरे पर खुशी के भाव उभरे--- "देवा और मिन्नो को भी सब याद आ गया है, पहले जन्म के बारे में । वे तिलस्म से बाहर आ रहे हैं ?"

"हां बेटी ।"

"फिर तो उनसे जल्दी ही मुलाकात होगी । तिलस्म से बाहर आते ही वो नगरी में जायेंगे । वहां मैं त्रिवेणी से मिलूंगी ।"

फकीर बाबा ने गंभीर निगाहों से लाडो को देखा ।

"बेटी, अभी  त्रिवेणी से नहीं मिला जा सकता । तिलस्म से बाहर आने पर भी तू त्रिवेणी से नहीं मिल सकती। दालू ने हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान शुरू कर दिया है । अनुष्ठान को एक दिन बीत चुका है और दो दिन बाद हाकिम नगरी में मौजूद होगा । और इनके साथ आये, सब को मारेगा । इन सबको हाकिम के सामने लड़ाई के लिए उतरना होगा, जबकि हाकिम को अमरत्व प्राप्त है ।"

"बापू, आपने ही बताया था कि एक किताब है, जिसमें यह दर्ज है कि अमरत्व प्राप्त हाकिम की जान कैसे ली जा सकती है । उस किताब साथ में लिखी तरकीब को पढ़कर हाकिम को खत्म किया जा सकता है।"

"हां, तुम ठीक कहती हो । परंतु वो किताब मिन्नो ने देवी बनने के बाद, महल में ही कहीं गुप्त जगह पर रख दी थी । अब देवा और मिन्नो उसी किताब को लेने महल में जा रहे हैं । परंतु उस किताब को हाकिम के कहने पर दालू बीते सवा सौ बरस से तलाश कर रहा है । क्या मालूम वो किताब दालू के हाथ लग गई हो और उसने किसी से इसका जिक्र न करके, किताब को अपने पास रख लिया हो ताकि जरूरत पड़ने पर वो हाकिम को खत्म कर सके । मेरा कहने का मतलब है कि निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वो किताब उन्हें मिल ही जायेगी । अगर वो किताब देवा और मिन्नो को न मिली तो हाकिम किसी को जिंदा नहीं छोड़ेगा । मेरी सारी मेहनत खराब चली जायेगी । मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति में शायद गुरुवर कुछ कर सकें।  मुझे उनसे मिलना चाहिये ।"

"बापू, तुम तो कहते थे कि गुरुवर सब कुछ कर सकते हैं ?" लाडो ने भोलेपन से कहा ।

फकीर बाबा के चेहरे पर मुस्कान उभर आई ।

"हां, कोई भी बात गुरुवर की हद से बाहर नहीं । परंतु वो नगरी की बातों में दखल नहीं देते । परन्तु एक बार मैं उनसे बात अवश्य करूंगा ।" कहने के साथ ही फकीर बाबा उठ खड़े हुए ।

"गुरुवर के पास जा रहे हो बापू ?" लाडो ने पूछा ।

"हां बेटी।" कहने के साथ ही फकीर बाबा ने आंखें बंद की और होंठों-ही-होठों में बड़बड़ाने लगे । कुछ पल ही बीते होंगे कि फकीर बाबा जैसे हवा बनकर लाडो की निगाहों से ओझल हो गये।

■■■

सिर के बाल सुनहरी सफेद । वैसी ही दाढ़ी । माथे पर तिलक । कमर में लिपटी सफेद धोती, जिसका किनारा कंधे तक जा रहा था । इस वक्त फूलों की क्यारी के पास खड़े फूलों को निहार रहे थे कि एकाएक उनके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे । वे फौरन पलटे ।

कहीं कुछ भी नहीं था ।

परंतु अगले ही पल, दस कदमों की दूरी पर एकाएक फकीर बाबा खड़ा नजर आने लगा ।

गुरुवर के चेहरे पर शांत मुस्कान उभरी, उसे देखकर ।

"प्रणाम गुरुवर।" फकीर बाबा ने हाथ जोड़कर कहा और आगे बढ़कर गुरुवर के चरण-स्पर्श किए ।

"कैसे हो पेशीराम ? गुरुवर ने मधुर स्वर में पूछा ।

"आपका हाथ सिर पर हो तो फिर मुझे क्या कमी है ।" फकीर बाबा ने आदर भाव से कहा ।

गुरुवर ने सिर हिलाया और सामने ही नजर आ रहे, खूबसूरत मकान की तरफ बढ़ गये ।

फकीर बाबा, गुरुवर के पीछे चल दिए ।

मकान में प्रवेश करते ही सामने एक व्यक्ति को देखते ही गुरुवर ने कहा ।

"पेशीराम जी आये हैं । जलपान का प्रबंध करो ।"

"जैसा आदेश गुरुवर।" कहने के साथ ही वो व्यक्ति पलट कर चला गया ।

बैठक में पहुंचकर गुरुवर कुर्सी पर बैठे, परंतु फकीर बाबा नीचे बैठ गया ।

"यह क्या पेशीराम !" गुरुवर ने मुस्कुरा कर कहा--- "कुर्सी पर बैठो । नीचे क्यों बैठ गये ?"

"मैं अपनी चादर के बाहर पांव नहीं निकाल सकता गुरुवर । अपनी सीमा का एहसास है मुझे ।"

"पहले की बात और थी ।" गुरुवर के चेहरे पर मुस्कान विद्यमान थी--- "अब तुम विद्या ग्रहण करके, विद्वान बन चुके हो । नगरी के चंद गिने-चुने लोगों में तुम्हारा नाम शुमार होता है ।"

"मुझे विवश न करें गुरुवर । मैं वही पेशीराम हूं जो नगरी वालों की दाढ़ी बनाने घर-घर जाया करता था । मैं कुछ भी बन जाऊं । परंतु अपना बीता वक्त नहीं भूल सकता ।" फकीर बाबा के स्वर में आदर के भाव कूट-कूटकर भरे थे--- "और फिर आपके बराबर बैठने की तो मैं सोच भी नहीं सकता ।"

गुरुवर ने हौले से सिर हिलाया ।

"जैसी तुम्हारी इच्छा पेशीराम । कहो, कैसे आना हुआ ?"

"गुरुवर, बहुत ही विकट स्थिति आ गई है ।"

गुरुवर पुनः मुस्कुराये ।

"कैसी विकट स्थिति ?"

"आपसे भला क्या छिपा है गुरुवर । मैं नगरी की बात कर रहा हूं । दालू अनुष्ठान शुरू कर चुका है । हाकिम बहुत जल्द नगरी में होगा । उसे अमरत्व प्राप्त है । वो देवा-मिन्नो की जान ले लेगा। दालू तो पागल हुआ पड़ा है । इससे पहले कि नगरी वाले अपनी देवी को देखें, वो उसे खत्म करा देना चाहता है । ताकि उसके खिलाफ कोई बोलने का साहस न कर सके। वैसे भी दालू के पास तिलस्मी ताज के रूप में ऐसी शक्ति है कि वो किसी की परवाह नहीं करता ।" कहते हुए फकीर बाबा के चेहरे पर व्याकुलता नजर आने लगी ।

गुरुवर का चेहरा शांत रहा । वे खामोश रहे ।

"आपने सुना गुरुवर, मैंने जो कहा ?" फकीर बाबा के स्वर में दुख के भाव थे ।

"अवश्य सुन रहा हूं पेशीराम ।" गुरुवर की निगाह, फकीर बाबा पर ही थी ।

"आप ही कुछ कीजिये गुरुवर ।"

"तुम ही कहो, मैं क्या कर सकता हूं ।"

"आप दालू को समझा सकते हैं कि...।"

"समझाने गया था, परंतु दालू ने मेरी बात मानने से इनकार कर दिया ।" गुरुवर का स्वर शांत था ।

"ओह, मैं तो पहले ही कह रहा था कि दालू किसी की भी परवाह नहीं कर रहा । फकीर बाबा के होठों से निकला--- "परंतु वो आपको भी इंकार कर देगा, ऐसा तो मैंने सोचा भी नहीं था।"

गुरुवर खामोश रहे ।

"गुरुवार एक और रास्ता है ।" फकीर बाबा ने कहा ।

"कहो पेशीराम ।"

तभी गुरुवर का सेवक जलपान का सामान रख गया ।

"जलपान ग्रहण करो पेशीराम ।"

"आप नहीं लेंगे गुरुवर ?" फकीर बाबा ने गुरुवर को देखा ।

"नहीं, हमारे व्रत के दिन चल रहे हैं ।" गुरुवर के होंठ हिले ।

जलपान ग्रहण करते हुए, फकीर बाबा ने कहा ।

"आप हाकिम को समझा सकते हैं ।"

गुरुवर खुलकर मुस्कुरा पड़े ।

"तुमने कैसे सोच लिया कि मैं हाकिम को समझा सकता हूं ।"

"वो आपका बेटा है गुरुवर । उसके मन में आपके लिए, कुछ तो इज्जत होगी । वो आपकी बात मान जायेगा और आपकी बात को मानकर वो देवा और मिन्नो को नहीं मारेगा ।"

"तुम गलत सोच रहे हो पेशीराम।"

फकीर बाबा, गुरुवर को देखता रहा।

गुरुवर के चेहरे पर शांति के भाव थे ।

"पेशीराम ।" गुरुवर ने कहा--- "हाकिम मेरी औलाद होने के नाते, अवश्य मेरी इज्जत करता है । परंतु वो मेरी बात नहीं मानता । वह आजाद विचारों का है और अपनी आजादी में, किसी का भी दखल पसंद नहीं करता । उसके कामों में कोई रुकावट बने, यह बात हाकिम पसंद नहीं करता । अमरत्व प्राप्त करके उसने, अपनी शक्ति गलत कामों में लगाकर मुझे धोखा दिया है । ऐसे में वो हर गलत काम कर सकता है । मेरी बात वो कभी नहीं मानेगा ।"

फकीर बाबा के चेहरे पर विवशता के भाव नजर आये ।

"तो क्या गुरुवर, हाकिम के दालू के मसले को हल करने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता, वो दोनों ताकतवर बने नगरी में आतंक फैलाते रहें और उनका कुछ न बिगाड़ सके ।"

गुरुवर खामोश रहे ।

"आपके पास तो इतनी शक्ति है कि आप दालू और हाकिम के इरादों को नाकामयाब बना सकें।  आप अपनी शक्ति से उन्हें रोक सकते हैं । आप अपनी शक्ति का इस्तेमाल कीजिये गुरुवर ।"

"ये संभव नहीं ।"

"क्यों संभव नहीं गुरुवर ?" पेशीराम की आवाज में आग्रह के भाव थे ।

गुरुवर की शांत निगाह फकीर बाबा पर जा टिकी ।

"पेशीराम, सत्य बात तो यह है कि जिसे मैंने विद्या दी हो, मैं उससे युद्ध नहीं कर सकता । ऐसा करते ही मेरी सारी शक्तियां छिन जायेगी।  यही वजह है कि मैंने कभी नगरी के कामों में दखल नहीं दिया । क्योंकि अपने ही शिष्यों पर गलती से मैं अपनी शक्ति इस्तेमाल न कर दूं । दालू और हाकिम भी मेरे शिष्य हैं । इसलिए मैं इस काम में दखल नहीं दे सकता ।"

"लेकिन गुरुवर आपने मुझे भी तो श्राप दिया हुआ है कि...।"

"हां ।" गुरुवर के होठों पर मुस्कान उभरी--- "जब तुम्हें श्राप दिया, तब तुम मेरे शिष्य नहीं थे ।"

फकीर बाबा कुछ न कह सका । खामोशी से जलपान समाप्त किया ।

"हकीम को अमरत्व प्राप्त है ।" फकीर बाबा ने धीमे स्वर में कहा--- "आवश्यकता पड़ने पर, हाकिम को कैसे समाप्त किया जा सकता है, ये बात आपने एक किताब में लिखी थी । जो कि हमेशा नगरी की देवी के पास रहती थी और जब मिन्नो देवी बनी तो वो किताब उसके अधिकार में आ गई ।"

"मालूम है मुझे ।"

"देवा और मिन्नो, वो किताब लेने जा रहे हैं ।" फकीर बाबा के स्वर में परेशानी झलकी--- "वो किताब उन्हें मिलेगी गुरुवर ?"

जवाब में गुरुवर के होठों पर मुस्कान उभरी।

"जवाब तो दे दीजिये गुरुवर ।"

"इस बात का जवाब आने वाला वक्त देगा । अपने मुंह से कुछ भी कहना मुनासिब नहीं ।"

"आप तो भविष्य में भी झांक सकते हैं गुरुवर । इतना बता दीजिये कि आने वाला वक्त नगरी के लिए कैसा होगा ?"

गुरुवर मुस्कुराकर शांत स्वर में बोले ।

"पेशीराम, अब तुम्हारे जाने का वक्त आ गया है । तुम्हें चलना चाहिये ।"

फकीर बाबा उठ खड़ा हुआ और आग्रह भरे स्वर में बोला ।

"जैसी गुरुवर की इच्छा ।" कहने के साथ ही गुरुवर के चरण स्पर्श किए और पलटकर बाहर की तरफ बढ़ गया । मन में जो सवाल थे, वह वहीं थे । गुरुवार से संतुष्टि भरा जवाब नहीं मिल पाया था उसे । अवश्य ही गुरुवर की मजबूरी रही होगी, स्पष्ट कुछ न बताने के बारे में ।

बाहर आकर पेशीराम ने आंखें बंद करके मंत्र बुदबुदाया तो वो हवा में विलीन होता चला गया।

■■■

अमरु ने गुलाब लाल के आठ-दस योद्धाओं को तिलस्म में प्रवेश कराकर, उन्हें आदेश दिया कि वे अलग-अलग होकर तिलस्म में फैल जाएं और जहां भी शुभसिंह नजर आये उसे खत्म कर दें । इसके पश्चात अमरु खुद भी देवराज चौहान और मोना चौधरी की तलाश में आगे बढ़ गया।

■■■

तेज रफ्तार आगे बढ़ता लोहे का कटोरा, मोना चौधरी के मुताबिक करीब तीन घंटे बाद ही जाकर रुका और उन्हें रोशनी के दर्शन हुए । वरना सारे रास्ते में उस सुरंग में गहरा अंधेरा था ।

कटोरा जहां पहुंचा, वो कमरे जैसी जगह थी और वहां तीव्र प्रकाश फैला था ।

"बाहर निकलो और सामने सीढ़ियां नजर आ रही है, वो चढ़ जाओ ।" मोना चौधरी ने कटोरे से बाहर निकलते हुए कहा--- "सीढ़ियां पार करते ही खुद को खुले में पाओगे ।"

देवराज चौहान और रुस्तम राव भी उस कटोरे से बाहर निकले ।

"और तुम ?" देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा ।

"मैं अभी आती हूं ।"

"तुम इधर अकेला क्या करेला बाप ?"

"काम है ।" मोना चौधरी मुस्कुराई ।

"आओ ।"  देवराज चौहान ने कहा और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया । रूस्तम राव उसके साथ हो गया ।

"उधर मोना चौधरी क्या करेला ?" रुस्तम राव बोला ।

"तिलस्म के इस रास्ते को समाप्त करेगी ।" देवराज चौहान ने कहा ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव सीढ़ियां चढ़ते चले गये ।

सोलह सीढ़ियां थीं। जिनके खत्म होते ही उन्होंने खुद को खुले में पाया । दूर-दूर तक पथरीला मैदान था और यहां सूर्य आसमान के ठीक बीचो-बीच था । इससे पहले कि कोई बात करते, जहां से वे ऊपर आये थे, वहां टूट-फूट की तेज आवाज आई । दोनों फौरन उस तरफ घूमे ।

"अंदर गड़बड़ होएला ।" रुस्तम राव के होठों से निकला।

देवराज चौहान ने आगे बढ़कर, सीढ़ियों में झांका तो तेजी से मोना चौधरी को सीढ़ियों पर चढ़ते पाया । अभी दो-तीन सीढ़ियां ही बची थी कि एकाएक सीढ़ियों के ऊपर का हिस्सा टूटकर मोना चौधरी पर आ गिरा।  मोना चौधरी पलट कर वापस नीचे गिरने को हुई कि देवराज चौहान ने फौरन हाथ बढ़ाकर मोना चौधरी का हाथ थामा।  परंतु उसका कूल्हों तक का हिस्सा मलबे में दब गया और मलबा भी काफी भारी था ।

देवराज चौहान ने मोना चौधरी को खींचा। परंतु कामयाब नहीं हो सका ।

"तुम मुझे खींच नहीं पाओगे ।" मोना चौधरी दांत भींचकर बोली--- "यह मलबा मुझे नीचे खींच रहा है।"

"क्या मतलब ?" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े ।

"यह तिलस्म को तबाह करने की सजा है ।"

"क्या मतलब ?" देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन नजर आने लगी ।

रूस्तम राव भी पास आ पहुंचा ।

"क्या होएला बाप ?"

मोना चौधरी ने ऊपर से झांकते देवराज चौहान और रुस्तम राव को देखा ।

"सजा के बारे में तुम क्या कह रही हो ?" देवराज चौहान ने पुनः पूछा ।

"इस सवाल का जवाब बाद में दूंगी । बातों में वक्त खराब मत करो ।" मोना चौधरी ने जल्दी से कहा--- "मेरे ऊपर जो मलबा पड़ा है, उसे हटाओ । ये तिलस्मी मलबा है। मुझे नीचे की तरफ खींच रहा है, ताकि अपने में समेट कर मेरे को खत्म कर सके ।"

"लेकिन तुम तो नगरी की देवी कही जाती हो।  तिलस्म तुम्हारी ही देन है, ऐसे में...।"

"देवराज चौहान तिलस्म के भी कुछ कायदे-कानून होते हैं । इस वक्त उन्हीं कानून-कायदों का शिकार मुझे होना पड़ रहा है । बातें बाद में किसी तरह मलबा मुझ पर से हटाओ ।"

देवराज चौहान ने महसूस किया, मोना चौधरी को वास्तव में कोई नीचे खींच रहा है क्योंकि मोना चौधरी के हाथ को पकड़े उसकी बांहों में खिंचाव-सा महसूस हो रहा था ।

"बाप ।" रुस्तम राव बोला--- "बाद में समझेला कि रगड़ा क्या होएला । पैले अपुन को मोना चौधरी के बदन पर पड़ा मलबा हटाने का है । अपुन मोना चौधरी का हाथ पकड़ेला, तुम...।"

"तुम हाथ पकड़कर मोना चौधरी को संभाले नहीं रह सकते ।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा ।

"क्यों बाप ?"

"मलबे में जैसे कोई अनजानी शक्ति है, जो उसे नीचे खींच रही है । इस वक्त मुझे पूरी ताकत का इस्तेमाल करना पड़ रहा है, मोना चौधरी को संभालने के लिए ।"

"ओह, समझेला बाप । पण ये आजाद कैसे होएला ?" रूस्तम राव के होंठ सिकुड़े ।

देवराज चौहान ने हालातों का जायजा लिया ।

"रुस्तम !"

"यस बाप ?"

"तुम नीचे उतरो । सावधानी से । लुढ़क मत जाना, हाथ से वो मलबा हटाओ ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"पण, नीचे उतारने का जगह कां होएला । एक सीढ़ी के बाद तो मोना चौधरी पड़ेला । मलबा तो कमर से लेकर पैरों तक पड़ेला है ।" रूस्तम राव ने उलझन भरे स्वर में कहा।

देवराज चौहान जानता था कि रूस्तम राव ठीक कह रहा है । परंतु मोना चौधरी को भी बचाना था ।

"पहला कदम दूरी पर रखो।" देवराज चौहान ने कहा--- "दूसरा मोना चौधरी की कमर पर रख कर खड़े हो जाओ और आहिस्ता से झुककर मोना चौधरी पर से मलबा हटाना शुरू कर दो ।"

रूस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा ।

देवराज चौहान ने महसूस किया कि अब कोई मोना चौधरी को जोरों से नीचे खींचने लगा है । देवराज चौहान ने दूसरा हाथ भी मोना चौधरी की कलाई पर टिका दिया ।

मोना चौधरी को अपुन के, उस पर खड़े होने से तकलीफ होएला ।" रूस्तम राव ने कहा ।

"देवराज चौहान जो कह रहा है, वही करो । मुझे तकलीफ होने की परवाह मत करो ।" मोना चौधरी तेज स्वर में कह उठी ।

इसके बाद रूस्तम राव नहीं रुका । वो फुर्ती के साथ आगे बढ़ा और पहली सीढ़ी पर पांव रखने के बाद दूसरा पाव कंधे पर रखा और फिर दोनों पैर मोना चौधरी की कमर पर जा टिके थे । इसके साथ ही वो झुका और मोना चौधरी पर पड़ा मलबा, जो कि छोटे-छोटे पत्थरों के रूप में था, उठाकर एक तरफ फेंकने लगा । इसके साथ ही रूस्तम राव को  महसूस हुआ कि छोटा-छोटा पत्थर भी एक ईंट से ज्यादा भारी है ।

दस मिनट लगे रुस्तम राव को मलबा हटाने में । उसके बाद वो वापस ऊपर आ गया ।

मोना चौधरी उठी और बाकी की सीढ़ियां तय करके ऊपर आ गई तब देवराज चौहान ने उसका हाथ छोड़ा । मोना चौधरी के चेहरे पर थकान के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे ।

"इसका मतलब तुम मरते-मरते बची हो ।" देवराज चौहान ने उसे देखा ।

मोना चौधरी ने गंभीर निगाहों से देवराज चौहान को देखा ।

"अभी तक तो जो हुआ वो कुछ भी नहीं था ।" मोना चौधरी के स्वर में व्याकुलता थी--- "परंतु जो अब होगा, उसका मुकाबला बहुत भारी पड़ेगा । कुछ भी हो सकता है ।

"मैं समझा नहीं ।"

"क्या होएला अब ?" रुस्तम राव की आंखें सिकुड़ी ।

दो पल की सोच के बाद मोना चौधरी कह उठी ।

"अपने ही बनाये तिलस्म को तोड़ा जाये तो किसी एक जगह पर तिलस्मी ताकत से मुकाबला करना होता है और उस तिलस्मी ताकत ने यहां पर हमें घेरा है । तिलस्मी विद्या सिखाते वक्त ही ये बात समझा दी जाती है कि तिलस्म बनाने के बाद खुद ही उसे तबाह करने पर तिलस्मी ताकत से टक्कर लेनी पड़ेगी । क्योंकि अदृश्य ताकत वाले तिलस्म में भी जान है और वो खुद को बचाने का पूरा हक रखता है ।"

"तुम्हारा मतलब है कि मलबे के रूप में वो तिलस्मी ताकत थी जो तुम्हें नीचे खींच रही थी ।" देवराज चौहान बोला ।

"हां ।"

"अब वो कहां है ?" देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती के भाव उभरे ।

"तिलस्मी ताकत पास ही किसी रूप में है । यहां से हम तब तक आगे नहीं बढ़ सकते, जब तक की ताकत की इजाजत न मिल जाये। क्योंकि जब तिलस्मी ताकत रोकती है तो अपने दुश्मन को जाने नहीं देती और सख्त प्रहार करके तबाह करने वाले को खत्म करने का प्रयास करती है।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा।

"पण वो किधर को होएला बाप ? अपुन...।"

कहते-कहते रूस्तम राव रुक गया ।

देवराज चौहान और मोना चौधरी ने देखा।

कुछ ही कदमों के फासले पर पच्चीस बरस का खूबसूरत युवक खड़ा कठोर निगाहों से मोना चौधरी को देख रहा था । उसके कपड़े दूध की तरह उजले थे । वह बेहद आकर्षक था ।

"नगरी की कुलदेवी का तिलस्म में स्वागत है ।" उस युवक का लहजा कठोर ही था--- "यह मालूम होते ही कि तिलस्म में देवी वापस लौट आई है । मैं शालीन रूप में आया हूं । कोई और होता तो कुरूप बना कर आता और उससे इतने आराम से बात भी न करता, जो मेरी हत्या कर रहा है ।"

मोना चौधरी खामोश रही ।

"मैं कुलदेवी से जानना चाहता हूं कि मुझसे सेवा में कहां कमी रह गई, जो मुझे तबाह किया जा रहा है ?"

"तुमसे कहीं कोई कमी नहीं रही तिलस्म ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा ।

"तो फिर मुझ पर ये जुल्म क्यों ?"

"मैं मजबूर हो गई हूं । ऐसा करने के लिए ।"

"मुझे मजबूरी बताई होती । मैं तुम्हारी मदद करता ।"

"तुम इस मामले में कुछ नहीं कर सकते तिलस्म क्योंकि तुम्हारा खौफ दिखाकर दालू ने नगरी वालों को दहशत में डाला हुआ है । दालू तुम्हारा, जगह-जगह पर गलत इस्तेमाल कर रहा है । दालू और अधिक फायदा न उठा सके। इसके लिए तुम्हें खत्म करना जरूरी हो गया था ।" मोना चौधरी की निगाह तिलस्म पर थी।

"मुझे बनाते वक्त तुम्हें सोचना चाहिए था कि मैं फायदा देता हूं तो नुकसान भी देता हूं । यह तुम्हारी मर्जी पर निर्भर नहीं करता कि जब चाहा मुझे बना दिया और जब चाहा तबाह कर दिया । तुम कहीं पर मुझे थोड़े बहुत क्षति पहुंचाती तो जुदा बात थी।  लेकिन तुम तो मुझे पूरा ही तबाह करने पर तुल गई हो । मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता । इसकी सजा तुम्हें और तुम्हारे साथियों को हर हाल में मिलकर रहेगी ।"

"ऐसा मत करो तिलस्म ।" मोना चौधरी कह उठी--- "हम तो तुम्हारी ताकत के सहारे, दूसरों पर कब्जा जमाते हैं।  ऐसे में तुम ही मुझे सजा दो । यह तो तुम्हें भी अच्छा नहीं लगेगा ।"

"तुम क्या चाहती हो कि तुम मुझे तबाह करती रहो और मैं खुद को बर्बाद होते देखता रहूं । डेढ़ सौ बरस से मैं तुम्हारे इशारे पर यहां मौजूद हूं और अब तो यहां मेरा मन भी लग गया है, नहीं ।" तिलस्म का स्वर बेहद सख्त हो गया--- "तुम्हें हर हाल में सजा मिलकर ही रहेगी ।" फिर उसने देवराज चौहान को देखा--- "अब तक देवी अपने किए की सजा पा गई होती, अगर तुमने देवी का हाथ पकड़कर सहारा न दिया होता । ऐसा करके तुम भी मेरे दुश्मन बन गए हो ।"

"बाप !" रूस्तम राव कड़वे स्वर में बोला--- "अपुन भी तुम्हारा दुश्मन होएला । अपुन ने मोना चौधरी के ऊपर से तिलस्मी पत्थर हटाएला।"

तिलस्म के होठों से गुस्से से भरी फुंफकार निकली ।

तभी मोना चौधरी जल्दी से कह उठी ।

"तिलस्म, मैं अपने साथियों से चंद बातें करना चाहती हूं ।"

"ज्यादा समय नहीं दूंगा ।" तिलस्म  के चेहरे पर मौत नाचने लगी थी ।

मोना चौधरी देवराज चौहान रूस्तम राव के पास पहुंचकर धीमे स्वर में कह उठी ।

"तिलस्म का मुकाबला नहीं किया जा सकता। तिलस्म की ताकत का अंदाज तो तुम दोनों को अब तक हो गया होगा। इस वक्त अपनी पूर्ण ताकत के साथ हमारे सामने मौजूद है और...।"

"पण ये तो चौपाटी वाला कोई छोकरा, लगाएला है ।" रुस्तम राव कह उठा ।

देवराज चौहान ने तिलस्म पर निगाह मारी।

"इसके रूप मत जाओ । यह कोई भी रूप बना सकता है ।" मोना चौधरी की आंखों में व्याकुलता चमक रही थी--- "अब सवाल है, इसका मुकाबला कैसे किया जाये ?"

"मेरे पास लकड़ी का वो टुकड़ा है जो बेला ने...।"

"तिलस्म से भरा वो लकड़ी का टुकड़ा इसी की तो देन है ।" मोना चौधरी कह उठी ।

देवराज चौहान होंठ भींचकर रह गया ।

"ये तो बाप बहुत झमेले वाला मामला बनेला है ।" रूस्तम राव परेशान-सा कह उठा

"इसे कैसे खत्म किया जा सकता है, तुम्हें कुछ तो मालूम होगा ?" देवराज चौहान ने पूछा ।

"सच तो यह है कि तिलस्म को खत्म किया ही नहीं जा सकता ।"

"तो ?"

"इस वक्त जिस रूप में हमारे सामने है उसे देखो।  इसने जो कपड़े पहन रखे हैं, उसे देखो ।" मोना चौधरी गंभीर स्वर में कह रही थी--- "अगर इसकी कोई चीज हाथ में आ जाये तो ये हमारी जान लिए बिना हमें छोड़ कर चला जायेगा और मन में हमारे लिए वैर का भाव निकाल देगा । परंतु इसकी किसी भी चीज पर कब्जा कर पाना आसान नहीं । ये अपनी जगह खड़े-खड़े एक पल में हमें खाक में मिला सकता है ।"

"फिर इसका क्या करेला बाप ?" रूस्तम राव सकपका उठा ।

मोना चौधरी वहां से हटी और दो कदम आगे बढ़कर, तिलस्म से कह उठी ।

"तुम हमें माफ नहीं कर सकते तिलस्म ?"

'नहीं ।" तिलस्म की आवाज में मौत से भरी भरपूर कठोरता थी--- "सजा के तौर पर तुम दोनों को मौत अवश्य मिलेगी । अगर तुम नगरी की कुलदेवी न होती तो कब की तुम्हें मौत हासिल हो चुकी होती ।"

मोना चौधरी के चेहरे पर तीखापन आ गया ।

"किस प्रकार की तुम हमें मौत देना चाहते हो ?"

"यह तुम्हारी इच्छा है कि तुम कैसे मरना पसंद करोगी ?" तिलस्म ने सुलगते स्वर में कहा ।

"मैं और मेरे साथी एक साथ तुमसे दो-दो हाथ करना चाहते हैं । मैं जानती हूं कि तुम्हारी शक्ति का हम मुकाबला नहीं कर सकते । लेकिन हम चाहते हैं कि खुद को बचाने की असफल कोशिश करते हुए मरें ।"

"मुझे कोई एतराज नहीं ।" तिलस्म की आवाज में मौत के भाव थे ।

मोना चौधरी ने पलटकर देवराज चौहान और रुस्तम राव को देखा।

"हम तिलस्म के साथ हाथों से लड़ेंगे । तीनों एक साथ। हमें क्या कोशिश करनी है, वो बता ही चुकी हूं ।"

देवराज चौहान की निगाह तिलस्म पर जा टिकी । चेहरे पर एकाएक खतरनाक भाव नजर आने लगे थे । आंखें जैसे सुलग उठी थी । वो एक-एक शब्द चबाकर कह उठा ।

"तिलस्म से मैं अकेला मुकाबला करूंगा ।"

"नहीं ।" मोना चौधरी के होंठों से तेज स्वर निकला--- "ऐसी गलती, भूल कर भी मत करना । हजार लोगों की फौज भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती । तुम...।"

"मैं जो कह रहा हूं वही होगा ।" देवराज चौहान ने सुलगते स्वर में कहा ।

मोना चौधरी एकाएक व्याकुल हो उठी थी ।

"तुम तिलस्म की शक्ति को पहचान नहीं पा रहे...।"

"तिलस्म की शक्ति से मैं तुमसे ज्यादा परिचित हो चुका हूं । मैं जानता हूं कि तिलस्म की ताकत के सामने मेरी तिनके जैसी भी हैसियत नहीं है ।" देवराज चौहान ने दांत भींचे एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "लेकिन यह मेरा फैसला है कि तिलस्म से मैं अकेला मुकाबला करूंगा ।"

रुस्तम राव भी व्याकुल हो उठा था ।

"हम तीनों मुकाबले के दौरान, उसका ध्यान हटाकर अपनी कोशिश में सफल हो सकते हैं शायद । उसके सामने सिर्फ तुम ही रहोगे तो वह धोखा कैसे खायेगा ?" मोना चौधरी ने समझाने की चेष्टा की ।

"इन बेकार की बातों में तुम वक्त बर्बाद कर रही हो मोना चौधरी । तिलस्म से मैं अकेला ही मुकाबला करूंगा अगर मैं कामयाब न हो सका तो फिर तिलस्म के साथ मिलकर बाद में जो मन में आये करती रहना।"

मोना चौधरी ने आहत भाव से रूस्तम राव को देखा ।

"तुम ही इसे समझाओ कि तिलस्म इसे फौरन खत्म कर देगा ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"बाप ।" रुस्तम राव बैचेन-सा कह उठा--- "मोना चौधरी ठीक बोला कि तुम...।"

परंतु देवराज चौहान के होठों पर जो मुस्कान उभरी, उसे देखकर रूस्तम राव खामोश हो गया । उसके होंठ भिंच गये । देवराज चौहान के चेहरे पर मौत से भरी मुस्कान आ ठहरी थी ।

"तुम समझाते क्यों नहीं इसे...।" मोना चौधरी कह उठी।

रुस्तम राव ने मोना चौधरी को देखकर गहरी सांस ली ।

"अपुन इसे क्या समझाएला बाप । ये तो अपुन को समझाएला है ।"

"क्या मतलब ?'

"देवराज चौहान जो बोएला है । वही करेला । कोई फायदा नहीं होएला, बोलने का।"

मोना चौधरी ने दांत भींच लिए ।

देवराज चौहान ने सुलगती निगाहों से तिलस्म को देखा ।

तिलस्म के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी ।

"अभी भी वक्त है देवराज चौहान । मेरी बात मान जाओ ।" मोना चौधरी तेज स्वर में बोली ।

देवराज चौहान तिलस्म की तरफ बढ़ा।

एक पल के लिए तो लगा जैसे वक्त ठहर गया हो । मोना चौधरी और रूस्तम राव जैसे सांस रोककर मौत के तमाशे का इंतजार कर रहे थे । जिसमें कि शत-प्रतिशत देवराज चौहान की मौत से भरी हार थी ।

तिलस्म से दो कदम पहले ठिठका देवराज चौहान ।

तिलस्म पुनः मुस्कुराया ।

"रुक क्यों गये ।" तिलस्म का स्वर शांत था--- "आओ, पहला वार तुम करो मुझ पर ।"

देवराज चौहान के होठों पर जहर से बुझी मुस्कुराहट नाच उठी ।

"क्यों, पहला वार तुम क्यों नहीं करते ?" देवराज चौहान ने कहा ।

"मेरे वार के बाद तुम वार करने के लिए जिंदा नहीं रहोगे । जबकि मैं चाहता हूं जो मेरे मुकाबले पर खड़ा हो वो कम से कम एक बार तो मुझ पर वार कर सके ।" तिलस्म के होठों पर मुस्कान थी ।

"अभी भी मेरी बात मान जाओ देवराज चौहान ।" मोना चौधरी कह उठी--- "हम दोनों को साथ ले लो । वरना तुम अकेले कुछ नहीं कर सकोगे और...।"

मोना चौधरी के शब्दों पर ध्यान न देकर देवराज चौहान तिलस्म से बोला ।

"ठीक है, बताओ, पहला वार तुम्हारे जिस्म के कौन से हिस्से पर करुं ?"

"जहां भी तुम चाहो ।" तिलस्म ने कहा ।

"तो अपना चेहरा आगे करो । मैं तुम्हारे चेहरे पर घूंसा मारूंगा।"

तिलस्म की आंखे सिकुड़ी ।

"तुम मुझे किसी चाल में फंसाना चाहते हो ।"

देवराज चौहान के होठों पर तीखी मुस्कान उभरी।

मोना चौधरी ने रूस्तम राव को देखा ।

"देवराज चौहान पक्का, गड़बड़ करेला है । इसकी खोपड़ी में कुछ होएला ।" रूस्तम राव के स्वर में अजीब से भाव थे ।

"तुम मुझसे डर रहे हो ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"तिलस्म किसी से नहीं डरता । लेकिन मुझे लगता है कि तुम मुझे किसी चाल में फंसाना चाहते हो।"

"तिलस्म तो खुद चालों का मालिक है ।" देवराज चौहान ने कहा--- "अगर तुम सच कह रहे हो तो बताओ कि मैं क्या वास्तव में कोई चाल चलना चाहता हूं ।"

तिलस्म कई पलों तक देवराज चौहान को देखता रहा ।

"अब तुम्हें इतनी हिम्मत नहीं कि मेरा वार बर्दाश्त कर सको और खुद को तिलस्म कहते हो ।"

तिलस्म अजीब से अंदाज में मुस्कुरा पड़ा ।

"मुझे पूरा विश्वास है कि तुम अपने इस वार की आड़ में कोई चाल चलने जा रहे हो । परंतु मैं तुम्हें चाल चलने का पूरा मौका देता हूं, क्योंकि तिलस्म की यानी कि मेरी मौत कभी भी नहीं हो सकती, लो करो अपना चाल से भरा वार ।"

मोना चौधरी और रुस्तम राव की नजरें मिलीं ।

देवराज चौहान जरा-सा और आगे बढ़ा । तिलस्म की आंखों में झांका ।

"मैं एक ही वार में तुम्हें समाप्त कर दूंगा ।" देवराज चौहान ने कहा ।

"मैं जानता हूं कि तुम्हारे ये शब्द मुझे उलझाने के लिए हैं । तिलस्म तो दूसरों को उलझाता है तुम बेकार मुझ पर अपनी कोशिश कर रहे हो। तुम्हारी बातों से मुझ पर कोई असर नहीं होगा ।"

तिलस्म बोला ।

तभी देवराज चौहान का हाथ उठा । घूंसे के रूप में बांह लहराई और हाथ तिलस्म के माथे और फिर से टकराता हुआ वापस आ गया ।

तिलस्म की आंखें सिकुड़ी ।

देवराज चौहान की एकटक निगाह तिलस्म पर थी। चेहरे पर गंभीरता थी ।

मोना चौधरी और रुस्तम राव की नजरें मिलीं ।

"तिलस्मी अब देवराज चौहान को पलक झपकते ही राख में मिला देगा ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।

तिलस्म के चेहरे पर बेचैनी-सी नजर आई ।

"मैं अपना वार कर चुका हूं तिलस्म । अब तुम्हारी बारी है ।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा ।

"तुम अपनी चाल चल गये । मेरी ही लापरवाही रही थी देवी की वजह से मैंने तुम लोगों को हाथों से मुकाबला करने की इजाजत दे दी । अब मैं तुम लोगों को खत्म नहीं कर सकता ।" तिलस्म का स्वर शांत था।

मोना चौधरी और रुस्तम राव चौंके ।

"तुम बहुत समझदार हो।" तिलस्म ने कहा--- "मैं नहीं जानता था कि तुम इस तरह मुझे धोखा देकर खुद को बचाने में सफल हो जाओगे । मैं जा रहा हूं।" इन शब्दों के साथ ही देवराज चौहान के सामने खड़ा तिलस्म एकाएक निगाहों से ओझल हो गया ।

देवराज चौहान मोना चौधरी और रुस्तम राव की तरफ पलटा ।

मोना चौधरी और रुस्तम राव हक्के-बक्के, उलझन से भरे खड़े थे । कई पलों तक उनके मुंह से कोई बोल नहीं फूटा ।

देवराज चौहान का चेहरा शांत था ।

"ये क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव के होंठ हिले ।

जवाब में देवराज चौहान ने अपना घूंसे वाला हाथ आगे कर दिया ।

हाथ की उंगलियों के बीच तीन-चार छोटे-छोटे बाल फंसे हुए थे ।

"हाथ तो खाली...ओह, ये बाल किधर से आएला बाप ?" रुस्तम राव के होठों से निकला।

मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव आ गये।

"ये...ये तिलस्म के सिर के बाल ?" मोना चौधरी कह उठी।

"हां तुमने कहा था कि तिलस्म की किसी चीज पर कब्जा कर लिया जाये तो वो दोस्तों की तरह पेश आयेगा और जान नहीं लेगा । ऐसे में सबसे आसान चीज उसके सिर के बाल थे, जो आसानी से हथियाए जा सकते थे।  किसी और चीज को पाने में कामयाबी न मिलती या फिर देर हो जाती ।

मोना चौधरी के चेहरे पर मुस्कान उभर आई ।

"वाह बाप, ये तो तीर मारेला है तू ।" रूस्तम राव हंस पड़ा ।

"तुमने बहुत बड़ा खतरा उठाया देवराज चौहान ।" मोना चौधरी के होठों से मुस्कुराहट भरे शब्द निकले--- "अगर तुम्हारी ये कोशिश सफल न होती तो तिलस्म ने फौरन तुम्हारी जान ले लेनी थी ।"

देवराज चौहान ने फौरन सहमति में सिर हिलाया ।

"तुम ठीक कहती हो । लेकिन अगर हम तीनों तिलस्म को घेरने की चेष्टा करते तो उस बात में मेरी निगाहों में शायद ज्यादा खतरा था ।" देवराज चौहान भी मुस्कुराया ।

"बाप, कान किधर से भी पकड़ेला, काम होएला, पूरा होएला।"

देवराज चौहान ने हाथ झाड़े तो उंगलियों में फंसे बाल नीचे कहीं गिरे ।

"तिलस्म को पार पाना सबसे कठिन काम था । लेकिन तुमने बेहद आसानी के साथ काम निपटा लिया ।" मोना चौधरी ने कहा--- "मन में यही डर था कि तिलस्म का मुकाबला करते वक्त, कुछ भी हो सकता है । अब रास्ते में हमारे सामने ऐसा कोई खतरा नहीं आयेगा, जिसके बारे में सोचना पड़े । हमें यहां से आगे बढ़ना चाहिये ।"

उसके बाद तीनों आगे बढ़ गये ।

सूर्य सिर पर चढ़ा हुआ था ।

सामने दूर-दूर तक पथरीला मैदान नजर आ रहा था ।

कुछ आगे बढ़ने पर रुस्तम राव ने कहा ।

"बाप, भूख लगेएला है ।"

"आधे घंटे बाद यह बंजर मैदान समाप्त हो जायेगा उसके बाद हरी जगह है हम किसी पेड़ की छांव में बैठकर खाना खाएं तो ज्यादा बेहतर रहेगा ।" मोना चौधरी ने कहा ।

"चलेगा बाप ।" रुस्तम राव ने सहमति में सिर हिलाया ।

वे आगे बढ़ते रहे।

पच्चीस-तीस मिनट में ही देवराज चौहान, मोना चौधरी और रुस्तम राव उस बंजर मैदान को पार कर गये और हरियाली से भरा रास्ता शुरू हो गया था । शुरू-शुरू में पेड़ नजर आये, फिर पांवों के नीचे थोड़ी-थोड़ी घास भी नजर आने लगी, जो कि बढ़ती जा रही थी । कुछ देर बाद तीनों ऐसी जगह में पहुंचे, जहां सामने छोटा सा बाग था ।

"बाग के पेड़ की छांव में खाना खाएगा बाप ।" रुस्तम राव बोला।

"बाग में प्रवेश करने की गलती मत करना ।" मोना चौधरी ने मुस्कुराकर कहा।

"क्यूं बाप ?" रूस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा ।

मोना चौधरी ठिठकी ।

देवराज चौहान और रुस्तम राव भी रुक गये ।

"इस बाग के गिर्द तिलस्मी लकीरें हैं । जो जाने वाले को नहीं रोकती, परंतु बाग में जाने के बाद तिलस्मी लकीरें बाहर नहीं निकलने देती और बाग में प्रवेश करने वाला अपनी याददाश्त खो बैठता है ।"

"याददाश्त खोएला ।" रूस्तम राव हैरानी से बोला ।

"हां, वह अपना नाम काम, अपने बारे में सब कुछ भूल जाता है ।"

"पण बाप, ऐसा होता तो कोई तो बाग में फंसा होएला ।"

"फंसने वाला, जिसे कि कुछ भी याद नहीं होता, आखिरकार बाग के ठीक बीचो-बीच बनी सीढ़ियों से नीचे उतर जाता है और वो गहरे तिलस्म में जा फंसता है ।" मोना चौधरी ने बताया ।

रूस्तम राव ने बाग में नजरें दौड़ाई, परंतु कोई सीढ़ियां नजर नहीं आई ।

"तुम्हें इस तरह सीढ़ियां नहीं आयेगी ।" उसकी निगाहों का मतलब समझकर मोना चौधरी कह उठी--- "जब बाग में पहुंचकर बाहर नहीं निकल सकोगे, याददाश्त भूल जाओगे तो सीढ़िया नजर आयेंगी । मैं अभी यहां का तिलस्म काट देती हूं । उसके बाद खाना खायेंगे ।"

"रुकेला बाप ।" मोना चौधरी ने रूस्तम राव को देखा ।

"अपुन अगर बाग में पौंचेला तो तिलस्म खत्म होते ही अपुन ठीक होएला ?"

"हां ।" मोना चौधरी उसके प्रश्न का मतलब समझ गई ।

"तो अपुन बाग में जाएला है ।" कहने के साथ ही रूस्तम राव आगे बढ़ा और बाग में प्रवेश कर गया।

देवराज चौहान को मोना चौधरी की निगाहें मिलीं ।

"इसे पुकार कर देखो ।" मोना चौधरी ने कहा ।

देवराज चौहान ने सिर हिलाया फिर रुस्तम राव को आवाज लगाई ।

"रुस्तम !"

परंतु बाग में प्रवेश कर चुके रूस्तम राव पर देवराज चौहान के पुकारने का कोई असर नहीं हुआ। वह अनजान-सा बाग में आगे बढ़ता रहा ।

"रुस्तम ।" देवराज चौहान ने तेज स्वर में पुकारा।

एक बार जवाब में रूस्तम राव की गर्दन इधर-उधर हिली । उन्हें भी देखा । उसके बाद वो पुनः बाद में आगे बढ़ने लगा ।

"ये अब अपनी याददाश्त भूल चुका है । अपना नाम तो क्या अब ये हमारे चेहरे भी नहीं पहचानता ।" मोना चौधरी ने कहा--- "मैं अभी बाग का तिलस्म तोड़ती हूं ।" इसके साथ ही मोना चौधरी घुटनों के बल नीचे बैठी । जमीन को हाथ लगाया और उसके बाद हाथ जोड़ते हुए आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाने लगी।