मदमहेश्वर की तरफ

मैंने हर हर महादेव का जयघोष किया और मेरे साथ महेश और वसंत ने भी किया, उनके चेहरों पर अब जाकर ख़ुशी दिखाई दे रही थी। ट्रेकिंग के लिए पत्थरों को सलीके से जोड़ जाड कर पक्का रास्ता बनाया गया था, पहला कदम रखते ही हम घने जंगल में पहुँच चुके थे, एक तरफ विशालकाय और घने पेड़ तो दूसरी तरफ घनी झाड़ियों के बिच उतरती सीधी खड़ी ढलान, पहले कदम के बाद ही यहाँ से जिग जैग में घूमता हुआ रास्ता दिखाई देने लगा था जो लगभग हर पच्चीस तीस मीटर पर जाकर एकदम से मुड जाता था। हर मोड़ के साथ रास्ता और निचे जा रहा था, मैंने शुरुवाती वीडियों रिकॉर्ड की और फिर मोबाइल जेब में रख लिया, मुझे प्रकृति की इस अद्भुत चित्रकारी का आनन्द लेना था, यहाँ पेड़ों पर काई भी जमी हुयी थी जो शायद नमी और ठीक से सूरज की रोशनी ना पहुँचने की वजह से पनप गयी थी। मै तेजी से चल रहा था, इसी बिच एक लडका दिखाई दिया, वह थक कर चूर हो चुका था, उसके कंधे पर लगभग सत्तर लीटर वाला रकसैक, स्लीपिंग बैग और टेंट का सामान था। दोनों हाथों में स्टिक्स थी, वह किसी तरह हांफते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था।
मेरे सामने पड़ते ही उसने धीरे से 'जय भोले' कहा, और मैंने पुरे जोश के साथ जय भोले, हर हर महादेव का उद्घोष किया। वह मुस्कुराया और चल दिया। उसकी पीठ पर इतना बोझा देख कर वसंत और महेश हैरान थे, हैरान तो मै भी था कि वह व्यक्ति वाकई बड़ी मेहनत कर रहा था, वह इसी वजन के साथ ना केवल मदमहेश्वर गया बल्कि वापस भी आ रहा है। कमर तो ऐसे ही टूट गयी होगी।
मेरे पास मात्र पच्चीस तीस लिटर का बैग था, जिसमे कुछ कपड़े, खाने पिने की चीजें भर रखी हुयी थी। वजन पूरी तरह से कम से कम रखने की कोशिश थी इसके बावजूद बैग काफी वजनदार हो गया था। लम्बी और उंचाई वाली यात्राओं में वजन जितना कम हो यात्रा का आनंद उतना ही ज्यादा आता है, और वजन जितना अधिक हो यात्रा उतनी ही अधिक कष्टदाई हो जाती है।
मुझे नही पता था उस व्यक्ति को इतना सामान लादने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी, जहां तक मुझे पता था मदमहेश्वर में रुकने खाने की ठीक ठाक व्यवस्था हो जाती है। बिच में एकाध पडाव भी पड़ते हैं जहां आराम से रहने और खाने की व्यवस्था हो जाती है। तो अपनी पीठ पर इतना बोझ लादकर चलना मेरे ख्याल से तो बेवकूफी ही थी। मै ऐसा कभी नही करता, मै यात्रा पर जाने से पहले यात्रा की दुरी, उसके पडाव, व्यवस्था, खाने पिने की चीजें और उपलब्धता इत्यादि की पूरी जानकारी निकालने के बाद ही उस हिसाब से ही सामान अपने पास रखता हूँ।
"यह इतना बोझ लेकर ढलान पर चढ़ रहा है, मुझे तो उसका बोझ देखकर ही थकान महसूस होने लगी है।" वसंत ने कहा।
"वह अपनी पूरी व्यवस्था के साथ आया है, उसके पास टेंट, स्लीपिंग बैग वगैरह हैं। और भरपूर गर्म कपडे भी रखे होंगे, अपने साथ खाने पिने का सामान काफी मात्रा में रखा होगा। ये कैम्पिंग वाले बन्दे हैं, होटल, होमस्टे वगैरह में रुकने के बजाय कहीं टेंट लगा कर रह लेते है।" मैंने बताया।
"ढलान पर उतरने में तो मजा आ रहा है लेकिन आते वक्त यह ढलान हालत खराब कर देगी।" महेश ने कहा।
"अभी से मत सोचो, फिलहाल पहुँचने पर ध्यान दो।" मैंने कहा और अपनी गति तेज कर ली।
महेश और वसंत के होंठ ठंड की वजह से फट चुके थे, उन्हें बोलते वक्त इसका अहसास हुआ। ठंड ने उन पर मनसूना से ही असर दिखाना शुरू कर दिया था, वे पुरे रास्ते होंठों पर वैसलीन मलते हुए चल रहे थें। हम जैसे जैसे निचे उतर रहे थे नदी के बहाव की आवाज और तेज होती जा रही थी। हम घाटी के तल तक पहुँचने वाले थे, यहाँ लहरों का शोर पर्वतों के बिच गूँज रहा था और नदी से आती ठंडी हवाए कानों को सिहरा रही थी।
कुछ दुरी पर चलने के बाद एक झरना दिखाई दिया, अत्यंत सुंदर और मनमोहक था वह। उस झरने के सामने लोहे का एक पुल बना हुआ था जो पानी के बहाव के उपर से उस रास्ते को दुसरे पहाड़ से जोड़ता था। उस झरने से थोड़ी देर पहले ही एक नल था जहां से पहाड़ी से बहता पानी एक टंकी में इकट्ठा होकर नल के मुंहाने से पूरी ताकत के साथ बह रहा था। यहाँ पहुँचने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ, हमने पानी की बोतल तो ली ही नही थी। 

यह एक बहुत बड़ी लापरवाही थी। सबसे जरुरी चीज ही हम भूल चुके थें। लेकिन खुशनसीबी यह रही कि पुरे रास्ते में पिने के पानी की कोई दिक्कत नही रही। हर सौ डेढ़ सौ मीटर पर झरने या इस तरह के नल थे। मैंने उसी का पानी पिया और पेट भर कर पिया। वसंत और महेश भी पहुँच गए, उन्होंने भी हाथ मुंह धोकर पानी पिया। पानी अत्यधिक ठंडा था, वसंत ने थोड़ा ही पीया।
"ज्यादा पियूंगा तो तकलीफ हो जाएगी, पेट दर्द हो जायेगा।" वसंत ने कहा, उसकी इस बात पर मै झुंझला गया।
"अबे किस चीज से तकलीफ नही होती तुझे? मतलब सीरियसली? पानी से भी समस्या हो रही है? हे भगवान। अरे भाई तू कितना भी पानी पि ले अभी सौ मीटर चलेगा ना तो वह पानी कब पसीना बन कर उड़ जायेगा पता भी नही चलेगा। हमारे पास बोतल नही है तो वनतोली की किसी दुकान से पानी ले लेंगे और खाना भी खा लेंगे।" मैंने कहा।
"मै ज्यादा खाना नही खाऊंगा, एसिडिटी हो जाएगी। पेट भरा रहने पर ज्यादा चला भी नही जायेगा।" वसंत ने कहा। उसकी बात सुनकर मेरा मन हुआ कि हाथ में थमी लाठी ही उसे खिंच के मारू लेकिन फिर मैंने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और महादेव का नाम लिया।
अब हम झरने के सामने वाले पुल पर खड़े थे, झरने के बहते पानी की फुहारे हमे भिगों रही थी। मै पूरी तरह से उन फुहारों का आनन्द ले रहा था, वसंत और महेश फोटोशूट में लग गए और अजीबो गरीब पोज में तस्वीरें खिंचवाने लगे। मै आँखे बंद करके उस झरने के संगीतमय शोर, हवाओं का संगीत और पक्षियों के कलरव को महसूस कर रहा था, आँखे बंद करके इन अद्भुत ध्वनियों को सुनना एक अलग ही प्रकार की दिव्य अनुभूति प्रदान कर रहा था, रह रह कर मेरे चेहरे पर पानी की महीन बौछारें पड़ रहीं थी, लहरों से छन कर आती हवा से मेरे रोंगटे खड़े हो रहे थे, लेकिन मैं पूर्णतया इसमें तल्लीन हो गया था। इसी बिच महेश और वसंत ने मुझे आवाज दी। उनका फोटोशूट हो चुका था और उन्होंने पुल भी पार कर लिया था।
मैने फौरन उन्हें देखा और एक बार फिर से झरने को मन भर कर देखा, झरने पानी पूर्णतया पारदर्शी नीला था। उसमे एक ऐसा आकर्षण महसूस हो रहा था जो मुझे वहां से जाने नही दे रहा था, लेकिन समय कम था और रास्ता लम्बा तो मैंने खुद से वापसी में इस झरने पर रुकने का वादा किया और निकल पड़ा। हमने डेढ़ किलोमीटर के आसपास रास्ता पार कर लिया था। अब लगभग पचास मीटर की एक सीधी चढाई पड़ी, जिसे मैंने पार कर लिया। दोनों धीरे धीरे मेरे पीछे आ रहे थे, चढाई खत्म होते ही सपाट रास्ता शुरू हो गया, अब वापस उंचाई बढ़ने लगी थी। हम नदी के तल से उपर जाने लगे थे, रास्ते के किनारों पर चट्टाने उभरी हुयी थी, एकाध जगह पर तो चट्टान छत की भाँती रास्ते के उपर निकली हुयी थी और हम उसके निचे से निकल रहे थे। इस पुरे रास्तें में हमारी एक तरफ खड़ी पहाड़ी और दूसरी तरफ सीधी खाई थी। हर कुछ मीटर पश्चात हमारी उंचाई और खाई की गहराई बढती जा रही थी। हमारी दाहिनी तरफ निचे नदी बह रही थी, शायद दूध गंगा थी वह। नदी के पार घने जंगलों से घिरी हुयी विशालकाय पहाड़ियां, उन पहाड़ों के पीछे सूर्य देवता झांकते से दिखाई दे रहे थें, उनकी किरणें उन पहाड़ों के शिखरों से छनकर आती हुयी दिखाई दे रही थी, बड़ा ही अलौकिक सा दृश्य दिखाई दे रहा था, मै वहीं खड़ा रह गया। इस दृश्य को तो कैद करना ही था मैंने एक छोटी सी वीडियो बनाकर वहां की काफी सारी तस्वीरें ली और इस बार उस दृश्य के साथ मै अपनी तस्वीर खिंचवाने के मोह से खुद को बचा नही पाया, मैंने वसंत को अपना मोबाइल थमा दिया। उसने मेरी दो तीन तस्वीरें खिंची। और मै आगे बढ़ गया।


इन दृश्यों की मृग मरीचिका अक्सर आपको अपने मोहपाश में बाँध लेती है। जिस कारण आप समय रहते अपने गन्तव्य तक नही पहुँच पाते, इस पुरे रास्ते प्रकृति ने ऐसी ही अद्भुत चित्रकारी कर रखी है, यह सम्मोहन पाश जैसे हैं, आप इनसे सम्मोहित होते रहेंगे और आपको देर होती रहेगी। मै जानता था यह रास्ते में पड़ने वाले पहले और आखरी दृश्य नही थें। यह तो पुरे रास्ते चलने वाले थे, अभी तो मात्र आरम्भ था, अभी से खो जाना भी ठीक नही था। वसंत और महेश पुरी तरह से वेडिंग फोटोशूट जैसी ही हरकतों में व्यस्त थे। उन्हें बार बार समझा कर मै थक गया था, तो मैं उन्हें दो मिनट का मौक़ा देकर बिन बोले निकल पड़ता था। अब उसका असर यह होता कि मुझे जाते देखकर दोनों भी अपनी फोटोग्राफी छोड़ कर पीछे आने पर मजबूर हो जाते थे।
इन पथरीले मार्गों एवं चट्टानों पर सैकड़ों की संख्या में काले गिरगिट दिखाई देते है, वे गिरगिट बिलकुल भी शर्मीले नहीं हैं, आपके आगे पीछे दौड़ते रहते हैं। वसंत, महेश के साथ मैं भी इतनी संख्या में इन गिरगिटों को देखकर हैरान था, उन्हें किसी का डर ही नही था। बेधडक आपके सामने से दौड़ जाते हैं या आपके आगे आकर खड़े हो जाते हैं। अब आपकी मर्जी आप चाहे रुक जाए या उनकी बगल से निकल जाए, उन्हें रत्ती भर भी फर्क नही पड़ता।
एक गिरगिट तो उपरी चट्टान से दौड़ता हुआ आया और मेरे सिर पर ही कूद पड़ा, अचानक हुए इस गुरिल्ला हमले से मै बुरी तरह चौंक गया, आप भले कितने ही साहसी सही किन्तु अचानक से एक गिरगिट का आपके सिर पर होना आपके अच्छे खासे साहस की पोल खोल सकता है। मैंने उसे झटक दिया तो वह रास्ते के बिच जा गिरा, उसने एक बार मेरी तरफ देखा, उसके हाव भाव से प्रतीत हो रहा था कि उसे मेरी यह बदतमीजी कुछ पसंद नहीं आई थी।
"क्यों भाई, क्या समस्या है? इस तरह सरपट पागलों की तरह क्यों दौड़ रहे हो? एक जगह शान्ति से बैठो। लोग आ रहें है जा रहे है इसी बिच तुम भी उधम मचाये हुए हो।" मै बडबडाया।
"यह हमारी जगह है, हम यहाँ के निवासी है। हम दौड़े चाहे कूदे तुम बाहरी लोग कौन होते हो हमसे सवाल जवाब करने वाले? हमारे इलाकों में घुसपैठ तो तुम कर रहे हो, हमने कभी तुम्हे रोक कर सवाल पूछा?" गिरगिट ने जीभ लपलपाते हुए मानो यही कहा।
"जी ठीक है, माफ़ कर दीजिये। अब आगे बढ़ने की आज्ञा दीजिये प्रभु।" मैंने उसकी बात समझकर कहा। वह अपनी गर्दन को घुमाते हुए फौरन किसी दुसरे गिरगिट के साथ ढलान की तरफ वाली झाड़ियों में भाग लिया। मैंने झांक कर देखा तब दोनों प्रेमालाप में व्यस्त थे, शायद वह उसकी सखी अथवा जीवन संगिनी थी। खैर उनकी प्राइवेसी में ज्यादा दखल ना देते हुए मैंने एक सभ्य मनुष्य का कर्तव्य निभाया और अपने उस काल्पनिक वार्तालाप से बाहर आकर आगे बढ़ गया।
हमने ढाई किलोमीटर का मार्ग पार कर लिया था। अब थोड़ी सी चढाई पड़ गयी थी, मै उन दोनों से से आगे ही था, आगे जाकर मै ठिठक गया। आगे का रास्ता टूट कर खाई में गिर चूका था। रास्ते का अस्सी प्रतिशत हिस्सा रेलिंग सहित गायब हो चुका था और जो रास्ता बचा था उस पर एक समय में एक ही व्यक्ति के चलने भर की जगह थी। एक फूट रास्ता ही शेष बचा हुआ था, वह देख कर मै रुक गया। क्या पता पैर रखते ही वह हिस्सा भी मुझे लेकर निचे सैकड़ो फीट खाई में जा गिरे। उस रास्ते पर चलने के अलावा और कोई मार्ग नही था, रास्ते के एक तरफ सीधी खड़ी चट्टान थी दूसरी तरफ खाई। चट्टान पूरी तरह से तीखी चढाई वाली थी, उस पर चढना असम्भव था, और खाई में उतरने का प्रश्न ही नही उठता था।
ऐसे में मैंने एक बात पर और ध्यान दिया, वह मार्ग अपने आप नही धंसा था, उपर से कुछ चट्टाने गिरी थी जिससे वह हिस्सा टूट गया था, आसपास गिरा हुआ मलबा साफ़ बता रहा था। उस छोटे जोखिमभरे रास्ते के उपर ही एक विशालकाय गोल चट्टान थी जो खाई के मुहाने तक मुड़ी हुयी थी। जब वसंत और महेश आ गए तब वे उस रास्ते को देखकर थम गए।
"यही रास्ता है, धीरे धीरे करके चट्टान के किनारे से चलना।" कहकर मै आगे बढ़ गया। चट्टान के पास पहुंचा तो मुझे उसमे एक गुफा दिखाई दी, अब इस सुनसान जंगल में चट्टान के बीचोंबीच ऐसी गुफाओं को देखकर जी थोड़ा घबरा जाता है, क्या पता कौन सा जानवर उसमे आराम कर रहा हो और आहट पाते ही टूट पड़े, मेरी उस गुफा की तरफ देखने की हिम्मत नही हो रही थी। मै चुपचाप धीरे धीरे कदम रखते हुए उस रास्ते को पार करके दूसरी तरफ पहुँच गया। मेरे बाद वसंत और महेश ने भी वही दोहराया, गुफा की तरफ नजर पड़ने पर उनके चेहरे पर भी जल्दबाजी और डर साफ़ दिखाई दे रहा था। अब जब यह रास्ता पार हो चुका था तो हम चलने लगे, अब कुछ दुरी तक मार्ग एकदम सीधा था, कोई चढाई नहीं। बस हम उतरते ही जा रहे थे लेकिन कुछ ही दुरी पर जाने पर वापस रास्ता खड़ी चढाई का हो गया, एक सीधी खड़ी चढाई चढ़ते हुए मुझे एक पानी की टंकी दिखाई दी जिसके नल से पानी बह रहा था, वसंत और महेश थकने लगे थे, वे काफी दूर थे तो मैंने पानी वगैरह पीकर अपने चेहरे पर बौछार मारी, अब जाकर थोड़ी राहत मिली, जैसे ही मैंने उन्हें समीप आते देखा मै फिर से चलने लगा। लग रहा था जैसे कोई खड़ी पहाड़ी चढ़ रहा हु, उस चढाई को पार करते ही सामने एक छोटा सा मंदिर दिखाई दिया, जब तक वे दोनों पीछे थे तब तक मैंने अपने जूते उतार कर उस मंदिर के आगे पूरी श्रद्धा से सर झुका कर प्रणाम किया। फिर अपने जूते पहन कर वापस चल पड़ा। थोड़ी ऊँची नीची चढाई लगातार जारी थी। लेकिन जितनी ऊँची चढाई होति थी उससे भी लम्बी ढलान भी थी, इसलिए थोड़ी थकान के बाद लम्बे समय तक राहत मिल जाती थी। यहाँ एक छोटी सी बस्ती थी कुछ दो चार घर बने हुए थे, यह गोंडार गाँव था, यहाँ आकर हमारी तीन किलोमीटर की ट्रेक सम्पन्न हुयी। वहीं कुछ दम्पति चूल्हे चौके में व्यस्त थे। लकड़ी के कामचलाऊ टेबल कुर्सियां बना कर उन्होंने छोटे मोटे होटल बना रखे थे। हमे देखते ही उन्होंने खाने के लिए पूछा, मुझे फिलहाल भूख नही थी और खाना बनाने में भी समय लगता इसलिए मैंने मना कर दिया। वसंत और महेश को भी फिलहाल खाने की इच्छा नही थी तो उन्होंने भी दिलचस्पी नही दिखाई।
वहीं एक सफ़ेद कुत्ता बैठा हुआ था, जो हमारे पीछे पीछे चल दिया। उसे देखकर वसंत और महेश घबरा गए।
"इन पहाड़ी रास्तों में ऐसे कुत्ते मिल जाते है। मेरी हर यात्रा में मिलते है, अगर इन्हें कुछ खाने को दे दो तो पूरी यात्रा में यह आपके साथ रहते हैं। अगर साथ है तो अच्छी बात है, किसी जंगली जानवर से सामना होने की स्थिति में काम भी आते हैं और किसी अनजानी से मुसीबत की आपको खबर भी हो जाती है।" कहकर मैंने एक राजगीर का बना हुआ एक एनर्जी बार निकाल कर उसे दे दिया, उसने लपक कर उसे खत्म कर दिया और साथ साथ चल दिया। मैंने अपने साथ काफी एनर्जी बार रखे थे तो उनमे से कुछ वसंत और महेश को भी दिया।
"थोडा थोडा खाते रहो तो एनर्जी बनी रहेगी।" मैंने कहा इस बार वसंत फिर खाने के मामले में कुछ कहने ही वाला था कि मैंने डपट दिया तो वह चुप हो गया। थोड़ी दुरी पर एक झरना दिखाई दिया तो मैंने वहां से अपनी प्यास बुझाई, वसंत एक पत्थर पर बैठकर आराम करने लगा। इसी बिच मैंने उपर पेड़ों से कोई चमकीली चीज धीरे धीरे वसंत की तरफ आते देखि, वह चमकीली हरे पीले रंग वाली मकड़ी थी। जिसका आकर एक मुट्ठी जितना बड़ा था, उस मकड़ी के उस भयानक स्वरूप को देखकर ही मै चीख पड़ा।
"अबे वसंत, हट वहां से, देख तेरे सिर पर कितनी बड़ी मकड़ी है।" मेरी आवाज से वह एक झटके से कूद पड़ा, उसने फिर पीछे मुड कर देखा, मकड़ी को किसी की चीख से कोई फर्क नही पड़ा था। वह आराम जाली पर लटकते हुए निचे आ रही थी। अब मुझे उस रंगबिरंगी मकड़ी ने आकर्षित किया और मैंने उसकी एकाध दो तस्वीरें लेने का प्रयास किया। उसकी रंग संरचना देखकर उसके अत्यंत भयानक होने का भ्रम हो जाता है, हालांकि यात्रा के बाद मैंने उस मकड़ी के बारे में जानने का प्रयास किया तब पता चला कि वह मकड़ी मनुष्यों के लिए घातक नही है, वह जहरीली नही है। लेकिन उस मकड़ी का वह भयंकर रंग रूप ही किसी को भी डराने के लिए पर्याप्त था, कुछ देर हमने उसे देखा और फिर चलना शुरू किया।
"वसंत, थक जाना तो बैठना मत, भले ही एक जगह खड़े हो जाना। लेकिन बैठना मत। बैठने से मांस पेशियाँ ठंडी पड़ जाएँगी, जिससे भयानक थकान होगी और चलने में भी दर्द होगा। इसलिए खड़े खड़े ही आराम करना।" मैंने वसंत को समझाया। 


हमे चलते हुए लगभग तीन घंटे बीत चुके थे, वसंत और महेश मेरी उम्मीद से काफी धीमी गति से चल रहे थे। कायदे से बारह बजे के पहले हमे वनतोली पहुँच जाना था, लेकिन पौने बारह बजे तक हम गोंडार ही पार कर रहे थे जबकि अगतोली से गोंडार तक का रास्ता सबसे सरल है। असली कठिनाई तो उसके बाद शुरू होती है, जिससे अभी इनका सामना ही नही हुआ था।
आगे जाकर एक पुल नजर आया, उसके निचे से नदी भयंकर शोर के साथ बह रही थी। उस पुल के पार ही वनतोली गाँव था। उस पुल की कुछ तस्वीरें खिंच कर मै आगे बढ गया, वसंत और महेश की चाल अब और धीमी होने लगी थी।
"अभी से थकने लगे? अभी तो हमने आसान वाला रास्ता ही पार किया है, वनतोली के बाद असली चढाई शुरू होगी। इस तरह चलते रहे तो हमे रात हो जाएगी और ऐसे सुनसान जंगल और पहाड़ियों में रात में यात्रा करना किसी भी हाल में सुरक्षित नही है।" मैंने कहा तो वे थोडा तेजी दिखाने लगे। लोहे का विशालकाय पुल पार करते हुए हम वनतोली पहुँच गए, वहां कुछ पक्के मकान बने हुए थे, लेकिन उस समय उस पुरे गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था, किसी की भी आवाज नही आ रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम तीन ही लोग यहाँ रहते हैं, बड़ी ही अजीब सी शान्ति थी वहां। मैंने उन दोनों की तरफ देखा, वे थक चुके थे, साढ़े बारह बज चुके थे और हमने अब तक केवल पांच किलोमीटर की दुरी ही पार की थी, अभी तो दस बारह किलोमीटर की चढाई बाकी थी।
"देखो किसी को भूख लगी हो तो यहाँ कुछ खा पि लो फिर चढाई शुरू करते हैं। पांच किलोमीटर हो चुके हैं, वैसे तो पन्द्रह किलोमीटर की यात्रा है ऐसा कहते हैं लेकिन कुछ जगहों पर पढ़ा है तो सत्रह अठरह किलोमीटर भी बताते है, तो मानकर चलो अभी बारह किलोमीटर बाकी है। और बज रहे हैं साढ़े बारह, अगर हम एक घंटे में तीन किलोमीटर की चढाई भी पार करते है तो चार घंटे में हम मंदिर पहुँच जायेंगे, मतलब चार बजे तक। लेकिन उसके लिए स्पीड बढ़ानी होगी, इस तरह चलने से काम नही बनेगा।" मैंने उन्हें समझाया।
"भूख नही लग रही है अभी, वैसे भी पुरे गाँव में कोई दिखाई नही दे रहा है। कहाँ खाने के चक्कर में पड़े रहेंगे? एक घंटा यहीं बर्बाद हो जायेगा, सीधे मंदिर पहुंचकर ही खाना खाते है।" वसंत ने कहा। फिर हम चल पड़े। कुछ ही मिनटों में हमने गाँव के आखिरी घर को भी पीछे छोड़ दिया।
अब जाकर हमारे सामने एक सीधा पहाड़ था, जिसपर एक सीधा रास्ता जा रहा था, अब असली चढाई आरम्भ हो रही थी। हमने चढाई शुरू की, कुछ ही मीटर चढाई के बाद महेश और वसंत के कसबल ढीले होने लगें, मै लगभग उनसे एक किलोमीटर आगे पहुँच गया था, पहाड़ी रास्ता जिग जैग की तरह अनेक बार तीखे मोड़ लेकर मुड़ता था और मोड़ के बाद जैसे हम और सीधी चढाई करते जा रहे थें। ऐसे ही सीधे मोड़ के पास जाकर मै खड़ा होकर देखने लगा, वसंत और महेश निचे लगभग एक किलोमीटर दूर दिखाई दिए तो मैंने अपना बैग कंधे से उतार दिया और वहीं खड़े खड़े उनका इन्तजार करने लगा। इसी के साथ मैं प्रकृति का भी आनंद लेने लगा, यहाँ से वनतोली गाँव दिखाई दे रहा था, दूर जंगलों के बिच छिपा हुआ गोंडार भी दिखाई दे रहा था। पहाड़ियों का दूर तक फैला हुआ जाल सा बिछा हुआ था, बहती हुयी नदी और घने जंगल भी दिखाई दे रहे थे, नदी की आवाज से पूरी घाटी गूँज रही थी। मै दूर तक दिखाई देते पहाड़ों के बिच उस पहाड़ को पहचाने का प्रयास कर रहा था जहाँ से हमने यात्रा शुरू की थी, और मुझे लगा भी कि मैंने उस पहाड़ को पहचान लिया है, लेकिन मेरे पास उस बात की पुष्टि करने का कोई साधन नही था। तभी उपर से एक युवक आता हुआ दिखाई दिया, उसने भी भारी भरकम बैग टांग रखा था और बुरी तरह हांफ रहा था।
"जय भोले भाई।" मैंने कहा।
"जय भोले।" उसने जवाब दिया।
"अभी और कितना दूर होगा भाई?" मैंने पूछा।
"अभी तो चढाई शुरू हुयी है, शाम हो जाएगी भाई।" कहकर वह निकल पड़ा, मै उसका जवाब सुनकर मुस्कुरा दिया।
मै काफी देर तक वही खड़े रहकर दोनों की प्रतीक्षा कर रहा था, उन्होंने भी उस व्यक्ति से बात करके दुरी पूछ ली। उसका जवाब सुनकर उनकी हिम्मत टूटने लगी, वे जब वहां पहुँचते दिखाई दिए तो मै चल पड़ा, आगे एक और तीखा मोड़ मिला जो सीधी खड़ी चढाई पर जा रहा था, हम मै ऐसे दो तीन मोड़ पार करके फिर उपर पहुँच गया, रास्ता दो चट्टानों के बिच से गुजर रहा था, मैंने उस चट्टान को पार किया और पार करते ही दृश्य पूरी तरह बदल गया। चट्टान के पहले जो दृश्य दिखाई दे रहा था चट्टान के बाद वह पूरी तरह बदल चुका था । मानो वह रास्ता किसी दूसरी ही दुनिया में खुल रहा था, मेरे सामने ही बर्फ से ढंका चौखम्बा अपने पूर्ण विराट स्वरूप में दिखाई दे रहा था, उसके आसपास के पहाड़ भी किसी सैनिक की भाँती उसके साथ खड़े नजर आ रहे थे।
आगे के मोड़ टेढ़े मेढ़े थे, यहाँ से जंगल और घने होते जा रहे थे, इस कदर घने और सुनसान कि आगे बढ़ने में मुझे थोड़ी घबराहट सी होने लगी थी। उस सम्पूर्ण सुनसान पहाड़ी जंगल में हमारे अलावा और कोई दिखाई नही दे रहा था, शायद मैंने गलत कह दिया, मै अपने दोनों साथियों से लगभग एक किलोमीटर आगे था, तो फिलहाल उस घने जंगल में मै अकेला ही था, असंख्य पक्षियों और कीड़े मकौडों की आवाजें उन घने पेड़ों और झाड़ियों में गूँज रही थी। यदि इस समय यहाँ कोई तेंदुवा अथवा भालू आ जाए तो मेरे साथियों को मेरी खबर तक नही मिलेगी। अक्सर ऐसे सुनसान पहाड़ी इलाकों में मन अजीब अजीब कल्पनाओं के घोड़े दौडाने लगता है। आप चाहे या ना चाहे आप पर घबराहट हावी होने लगती हैं, मै निर्णय नही ले पा रहा था कि मै उस घने जंगल में प्रवेश करूँ या नही, जंगल इतना घना था कि पेड़ों पर सूर्य की किरणों के ना पड़ने की वजह से हरियाली और काई छाई हुयी थी, फंगस, फफूंदी पड़ी हुयी थी, सभी पेड़ों पर नमी सी दिखाई दे रही थी। मैंने साहस बटोरने के लिए चौखम्बा की तरफ देखा, उसका स्वरूप हर मोड़ पर और विराट होते जा रहा था। इस पर्वत में गजब का सम्मोहन है जो आपको खींचता है, हिम्मत देता है, आपके अकेले होने पर आपको साहस प्रदान करता है। मेरी यात्राओं में मै जब भी कहीं भटका हूँ, थक कर बैठा हूँ या हिम्मत हारा हूँ तब यही पर्वत मुझे दिखाई देता था और प्रतीत होता था जैसे कह रहा हो 'चल तू अकेला नही है, मै हूँ ना तेरे साथ, तू जहां जायेगा मुझे अपने साथ पाएगा, चल उठ जा कुछ कदम और है।' और मै उठ जाता और चल पड़ता।
मैंने इस बार भी चौखम्बा की तरफ देखा, चौखम्बा कुछ नही बोलता, लेकिन उसे देखकर आपका अंतर्मन आपसे चौखम्बा के रूप में संवाद करता है, उसके कहे शब्द जैसे मुझे सुनाई दे रहे थे और मै चल पड़ा। एक और तीखी और घनी चढाई चढने लगा, कुछ उपर पहुँचने के पश्चात मैंने दोनों की तलाश में निचे देखा, लेकिन जंगल इतना घना था कि अब यहाँ से कुछ भी दिखाई नही दे रहा था। हमे वनतोली को छोड़े हुए घंटो बीत चुके थे, मै अंदाजा लगा रहा था कि शायद हमने तीन किलोमीटर अंतर और पार कर लिया है, लेकिन यह अंतर भयंकर रूप से समय ले चुका था। दो बज गए थे और अभी तक हमने आधी चढाई भी नही की थी। अब मुझे चिंता होने लगी थी और उन दोनों की भी कोई खबर नही लग रही थी। मन तो किया कि चीख कर उन्हें आवाज दूँ लेकिन इस जंगल में चीखना भी सही नही लगा, मन घबरा रहा था। मै उसी स्थान पर रुककर उनके आने का इन्तजार करने लगा। जैसे ही मै रुका चारों तरफ झींगुरो, पक्षियों और अजीब से कीटों का शोर भी एकदम से जैसे बढ़ गया, कोई दिशा ऐसी नही थी जहां से अजीब अजीब से स्वर नहीं सुनाई दे रहे थे। मेरे सामने रेलिंग के पार सीधी खाई और उसके निचे दूर तक फैला घना जंगल जिसका कोई अंत ही नही दिखाई दे रहा था, चढाई के दोनों तरफ घने पेड़ और झाडिया इस प्रकार फैली हुयी थी जैसे मै पेड़ों से बनी किसी गुफा के बिच से गुजरा रहा हूँ। मै अकेले खड़ा रहा, मेरे कान हर पल चौक्कना थे, जरा सी आहट पर कलेजा जैसे मुंह को आ जाता था। लगभग आधे घंटे तक उस बियाबान में खड़े रहने के बाद मुझे उन दोनों की आवाज सुनाई दी। वे निचे वाले मोड़ पर थे, थोड़ी देर बाद दोनों दिखाई देने लगे, वसंत और महेश का चेहरा बता रहा था कि उनसे अब चला नही जा रहा है। दोनों की हालत खस्ता हो चुकी थी और वे पुरे रास्ते बैठ बैठ कर आ रहे थे, जबकि मैंने बैठकर आराम करने से मना किया था।
"क्या हुआ? भाई अगर ऐसे चलते रहे तो हम आज मंदिर नही पहुँच पायेंगे और जंगल में ही रात गुजारनी पड़ेगी।" मैंने कहा।
"भाई, नही चला जा रहा मुझसे, मेरी सांस फूल रही है। बहुत थकान लग रही है,पैर जवाब दे रहे है।" वसंत ने आखिरकार अपनी हार मान ली।
"तो? ठीक है, मै तुम्हारे साथ चलता हूँ, थोड़ा आराम कर लो और धीरे धीरे चलो, कोई बात नही। अगर रात होती है तो होने दो, तीनो साथ रहेंगे तो उतना फर्क नही पडेगा, लेकिन ठंड भयानक रूप से बढ़ जाएगी और सबसे बड़ा डर है बारिश का, जिस हिसाब से बादल दिखाई दे रहे है, मुझे डर है कि कहीं बारिश ना शुरू हो जाए, और इन जंगलों में एक बार बारिश शुरू हो गयी ना तो इतनी उंचाई पर जानलेवा हो जाएगी। इसलिए भाई थोडा आराम करो और चलते रहो, धीमे धीमे कदम रखो, एक काम करो शायद कुछ खाया नही है इसलिए तुम लोगो को ज्यादा थकान लग रही है, उपर से धीरे धीरे उंचाई बढती जा रही है, तो उसका भी असर हो रहा है।  कुछ खाओगे पियोगे और थोड़ा आराम कर लोगे तो सही हो जाओगे।" कहकर मैंने पैकेज्ड कचोरियाँ निकाल ली और वसंत की तरफ बढाई।
"ये तेल में बनाया होगा ना? मुझे सूट नही करेगी।" वसंत ने कहा।
"अबे यार तू ना अब बहुत ज्यादा इरिटेट करने लगा है, हर खाने पिने की चीज से तुझे कुछ ना कुछ प्रॉब्लम जरुर है। शायद यही वजह है कि तू टिक नही पा रहा है, शुरुवात से ही हर चीज को लेकर तेरे मन में एक नकारात्मक माहौल बैठ गया है, इसलिए अब तेरा शरीर भी जवाब देने लगा है।" मैंने कहा।
"आप नही थकते हो क्या?" महेश ने पूछा, वह अब तक अपनी सांसो को नियंत्रित ही कर रहा था।
"भाई मै भी इंसान ही हूँ कोई सुपरमैन नही। होती है मुझे भी थकान लेकिन मै जानता हूँ इन पहाड़ों को तुम्हारी थकान से कोई फर्क नही पड़ता और ना ही यहाँ का मौसम तुम्हारी थकान के लिए रुका रहेगा। तुम्हारी थकान देखकर सूरज रुक नही जाएगा, रात थम नही जायेगी और पूरा खेल मौसम और रात का है, हमे जल्द से जल्द चलना पड़ेगा, तो साँसे स्थिर करों, और धीरे धीरे चलते रहो।" कह कर मै आगे बढ़ गया और तेजी से चढाई चढने लगा।
मै लगभग आधा किलोमीटर चढाई चढ़ चुका था, अब उनकी आवाज नही आ रही थी। आखिरकार मन मारकर मुझे फिर रुकना पड़ा, अब मैंने यात्रा को भगवान भरोसे छोड़ दिया। कुछ देर बाद दोनों दिखाई दिए, वसंत का चेहरा रुंवासा हो चुका था। उसे देखकर मुझसे रहा नही गया और मै उसके पास पहुंचा।
"मेरे सीने में दर्द हो रहा है, मै एक कदम भी नही चल पाउँगा, सपाट रास्ता होता तो चल लेता लेकिन चढाई नहीं चढ़ पाऊंगा। मुझे एम्बुलेंस और आईसीयू दिखाई दे रहे हैं।" वसंत ने कहां, सीने में दर्द वाली बात सुनकर मेरा माथा ठनक गया। उसे अब मतिभ्रम भी होने लगे थे, चक्कर आ रहे थे। मतलब हाई एलटीट्यूड माउन्टन सिकनेस के लक्षण थे यह। अब उसकी इस हालत में उसे अपने साथ ले जाना उसके लिए घातक सिद्ध होता। 
मै समझ गया कि अब ट्रेक यही पर समाप्त करना पड़ेगा। उन दोनों ने हिम्मत छोड़ दी थी, वसंत ने स्पष्ट कह दिया वह अब नही कर पायेगा। लेकिन मुझे पहुंचना था, मुझे जाना था। मै यहाँ से वापस लौटने के लिए नही आया था।
"एक काम करो, निचे वनतोली गाँव है, आते हुए हमने देखा था। तुम दोनों यहीं से वापस चले जाओ और उस गाँव में रुक जाओ, आराम करो। निचे उतरने में पूरी ढलान है तो ना थकान होगी और नाही बाकी कोई तकलीफ होगी, गाँव में रहने के लिए कमरे मिल जायेंगे कोई दिक्कत नही आती।" मैंने कहा।
"और तुम?" वसंत ने पूछा।
"मैंने यात्रा के पहले ही कहा था कि मुझे ट्रेक पूरी करनी है और मै करूंगा, अगर तुम दोनों की हालत खराब होती है या तुम दोनों यात्रा नही कर पाओगे तो तुम्हे किसी सुरक्षित जगह पर छोड़ कर मै अकेले आगे चला जाउंगा, और वापसी में तुम्हे लेते चलूँगा।" मैंने कहा।
"तुम इस भयानक जंगल और खड़ी चढाई के बिच अकेले यात्रा कर लोगे? तीन बज रहे हैं कुछ ही देर में अन्धेरा भी होने लगेगा फिर तुम अकेले अँधेरे में इन पहाड़ों में ट्रेक कर लोगे?" वसंत ने पूछा, वह मेरे फैसले पर हैरान था, उन्हें यकीन ही नही हो रहा था।
"देखो सबसे पहले अपने मन से यह गलतफहमी निकाल दो कि मै तुम दोनों के भरोसे पर यात्रा करने निकला था। मैंने जब योजना बनाई थी तब मै अकेला ही था, तुम दोनों बाद में शामिल हुए। मै अकेले ही यात्राये करता हूँ, दो साल पहले मै ऐसे ही घने जंगल और पहाड़ों के बिच घुटनों तक बर्फ में रात के अंधेरों में तीन घंटे तक भटक चुका हूँ, यहाँ तो फिर भी बर्फ नही है। तो मेरी फ़िक्र मत करो, मै पहुँच जाउंगा। कल सुबह जल्दी निकलूंगा तो दस बजे तक तुम्हे पिक अप कर लूंगा तो अब तुम दोनों वापस जाओ। और मै गुस्से में नही कह रहा हूँ, मन पर कोई बोझ मत रखो, मै समझ सकता हूँ तुम्हारी हालत। तुंगनाथ की पहली यात्रा में मै इस अवस्था को महसूस कर चुका हूँ। तो भाई लोग अब यहीं से विदा लेते है, तुम दोनों जाओ।" कह कर मैंने बिना समय गंवाए निकलने का फैसला किया।
मैं तेज तेज क़दमों से चढाई चढने लगा, फिर एक मोड़ मुड़ते ही वे मुझे दिखाई देने बंद हो गए। मुझे पूरी उम्मीद थी कि जैसे जैसे वे उंचाई से निचे उतरेंगे वैसे वैसे वसंत की हालत में सुधार होता जायेगा। मैंने आधे किलोमीटर की चढाई खत्म कर ली थी और हिसाब लगा रहा था कि वे दोनों एक किलोमीटर उतर चुके होंगे। इसी बिच एक और ट्रेकर आता दिखाई दिया, इस सुनसान जंगल में एक आदमी को देखकर बड़ी राहत मिली वरना कब से मै अकेला ही भटक रहा था।
"जय भोले भाई।" मैंने जयकारा लगाया।
"जय भोले।" उसने जवाब दिया।
"अभी कितनी दूर होगा भाई?" मैंने पूछा।
"अभी तो आधी भी चढाई नही हुयी है भाई, इसके आगे का रास्ता तो और मुश्किल चढाई वाला है।" उसने कहा।
"शाम तक तो पहुँच जाउंगा?" मैंने प्रश्न किया।
"रात हो जाएगी भाई।" उसने कहा।
"अच्छा उपर कहीं कोई रुकने की जगह है?" मैंने पूछा।
"आधा किलोमीटर उपर दो चार घर है। वहां पता कर लो।" कह कर वह चला गया, वह जल्दबाजी में था। होना भी चाहिए था, आखिर शाम होने वाली थी। मै आधा किलोमीटर और पार कर गया तो मोड़ के खत्म होते ही दो चार घर दिखाई दिए, जहां कुछ लोग रुके हुए थे। वह देखकर ना जाने मेरे मन में क्या ख्याल आया कि मै जहाँ से आया था वापस उसी तरफ बढ़ गया, मै अभी उन दोनों को छोडकर एक किलोमीटर की खड़ी चढाई करके यहाँ तक पहुंचा था लेकिन फिर मै उस चढाई को उतर रहा था। मेरे दिमाग में यही ख्याल आया कि तीन चार किलोमीटर निचे रुकने के बजाय अगर दोनों यहीं आकर रुक जाते तो सही रहता। मै थोड़ी ही देर में उसी स्थान पर वापस पहुँच चुका था जहाँ मैंने उन दोनों को छोड़ा था, और मुझे देखकर हैरानी हुयी कि दोनों अब तक वहीं बैठे हुए थे।
"अबे तुम दोनों पागल हो गए हो क्या? जब कहा है कि निचे उतर जाओ तो क्यों अब तक यहाँ बैठे हुए हो? अँधेरा होने का इन्तजार कर रहे हो क्या?" मैंने गुस्से में कहा।
"थोड़ा आराम कर रहे थे। थक गए थे बुरी तरह से।" वसंत ने कहा, उसकी बात सुनकर मुझे समझ ही नही आ रहा था कि मै क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ।
"अच्छा सुनो, अगर तीन चार किलोमीटर निचे उतरने के बजाय आधा किलोमीटर उपर चढकर रुकने के लिए कहूँ तो कर पाओगे? मै अभी देखकर आ रहा हूँ, आधा किलोमीटर उपर रुकने की व्यवस्था है, इसलिए वापस आया कि निचे उतरने के बजाय तुम दोनों को यही रुकने के लिए कह दूंगा। चल पाओगे आधा किलोमीटर? कोई जल्दबाजी नहीं, धीरे धीरे चलना।" मैंने जानबूझकर एक किलोमीटर को आधा कह दिया था, मेरी बात सुनकर दोनों के चेहरे खिल उठे।
दोनों में अभी भी चलने की हिम्मत नही थी लेकिन जब उन्होंने सुना कि अब तीन साढ़े तीन किलोमीटर उतरने के बजाय उन्हें केवल आधा किलोमीटर चढाई करनी है तो उनमे सकारात्मक बदलाव हुआ और वे उठ खड़े हुए। अब मै फिर से उसी चढाई को चढ़ रहा था जहाँ से वापस आया था, उनके चक्कर में एक बार चढाई, फिर उतरना और फिर दोबारा चढाई के हिसाब से मेरा तीन किलोमीटर चक्कर व्यर्थ में बढ़ गया।
दोनों की हालत में सुधार तो था लेकिन थोड़ी थोड़ी दुरी पर जाकर दोनों थक कर रुक जाते और रोनी सुरत बना लेते। मेरे चिल्लाने पर फिर चल पड़ते। लाठियां टेकते हुए दोनों घिसट घिसट कर चढाई पार करते रहे, उस एक किलोमीटर की चढाई में उनके सारे कसबल ढीले हो गए थे। अब गिरे की तब गिरे वाली हालत हो चुकी थी उनकी, लगभग आधा घंटे बाद वे रेंगते हुए आखिरी मोड़ पर पहुंचे, मै उस मोड़ पर काफी देर पहले ही पहुँच गया था और एक पत्थर पर बैठ कर उनका इन्तजार कर रहा था। मेरे सामने ही सीधी खाई थी, जिसके दोनों तरफ घने जंगलो से लदी विशालकाय पहाड़ियां थी, घाटी में बहती नदी का शोर अब भी सुनाई दे रहा था। मै उन घाटियों के उपर तैरते बादलों को देख रहा था, सूर्य की किरणों में लाली आने लगी थी, किरणों की प्रखरता कम होने लगी थी । बादलों के उपर बैठे सूर्यनारायण अब विश्राम करने की तैयारी कर रहे थे, उन्हें देखकर मैंने अंदाजा लगाया कि मेरे पास लगभग डेढ़ घंटे का समय और है। अगर मै अकेला आगे बढ़ता हूँ तो भी उजाले में ही पांच किलोमीटर निपटा दूंगा और आखिर दो ढाई किलोमीटर किसी तरह अँधेरे में ही पार कर लूंगा। तब तक दोनों मेरे सामने आकर खड़े हो गए।
हम जिस जगह पर पहुंचे थे उस स्थान पर बोर्ड लगा हुआ था, यह जगह थी खड्डारा। सामने ही तीन चार कमरे बने हुए थे जिसके सामने दोनों तरफ क्यारियों में फूल और कुछ सब्जियां उगाई हुयी थी। कमरों के बाहर कुछ वृद्ध दम्पत्ति कुर्सियों पर बैठे हुए थे वे बंगाली थे। दो ग्रुप में आये थे, उनके ग्रुप में चार या पांच ही लोग थे। उनमे जो सबसे उम्रदराज आदमी था वह जिस तरह से सबको निर्देश दे रहा था उससे उनका मुखिया प्रतीत होता था। एक महिला उसके पैरों की मालिश कर रही थी, जो उनकी पत्नी थी। एक पचास पचपन के आसपास की उम्र के व्यक्ति कानों पर गमछा लपेटे चाय पि रहे थे, वे उन सबसे अलग दिखाई दे रहे थे। उनकी हालत बता रही थी कि वे दर्शन करके वापस लौटे हैं और आज रात यहीं रहने वाले है। कमरे इतने कम और लोग इतने ज्यादा थे कि हमे शंका होने लगी कि यहाँ शायद ही कमरा मिले।
उन कमरों के बाई तरफ यानी ट्रेकिंग के रास्ते की तरफ एक कमरा बना हुआ था जिसमे रसोई थी। एक नौजवान लड़का और उसकी माँ खाने पिने की चीजें बना रहे थे। मै सीधे उस लड़के के पास पहुंचा।


"भाई कमरा मिलेगा? मेरे दोनों दोस्तों की हालत बहुत ज्यादा खराब है, दोनों बेहद थक गए है।" मैंने कहा तो उसने देखा, तीनों कमरे भरे हुए थे और एक कमरे में सामान वगैरह रखा हुआ था।
"मै बताता हूँ आप लोगो को, वे आदमी अकेले हैं उनसे बात कर लेता हूँ।" उसने कहा और चला गया, थोड़ी देर में वह वापिस आया।
"जी बिच वाला कमरा मिल जाएगा आप लोगो को। वो अंकल जी उसमे रुके हुए थे, अकेले थे तो वो सामान वाले कमरे में रुकने के लिए मान गए हैं।" लड़के ने कहा, उसकी बात सुनकर मुझे शर्मिंदगी सी हो गयी। मैने सीधे उनसे ही बात करना उचित समझा जो हमारे लिए कमरा खाली कर रहे थें।
"आप रहने दीजिये, तकलीफ मत उठाइये। हमे बस रात बिताने के लिए छत चाहिए। हम सामान वाले कमरे में एडजस्ट कर लेंगे, आप कमरा खाली मत कीजिये।" मैंने कहा तो वे मुस्कुरा दिए।
"अरे नही, समान वाला कमरा छोटा है, एक ही बिस्तर है उसमे और मै जिस कमरे में हूँ उसमे लम्बा चौड़ा बिस्तर है, तीन चार लोग उसमे सो सकते हैं। तो आप लोग इसमें रहिये, कोई दिक्कत की बात नही है।" उन्होंने कहा और अपना बैग सामान वाले कमरे में रख दिया।
"अगर चार पांच लोगो की जगह है तो आप भी इसी कमरे में रुक जाइए, साथ रह लेंगे कोई दिक्कत नही है। वैसे भी दोनों लड़के मेरे साथ उपर नही जा रहे हैं, वे दोनों यहीं रुकेंगे मै आगे चला जाउंगा।" मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वसंत और महेश को यकीन ही नही हुआ।
"तुम इस टाइम अकेले इस सुनसान जंगली पहाड़ी पर जाओगे? अभी आधा रास्ता बाकी है। थकान नही हो रही है? आगे अकेले पड़ जाओगे, जंगल है, रात के अँधेरे में परेशान हो जाओगे।" वसंत ने कहा।
"देख भाई, मुझे तो आज ही पहुंचना था और मै जाऊँगा। तुम दोनों तो दर्शन करने नही जाने वाले हो तो यहीं आराम करो और सुबह मेरा इन्तजार करना। मै आ जाऊँगा तो साथ वापस चलेंगे।" मैंने कहा।
"अब आराम करो और सबसे पहले कुछ खाना खा लो, पेट में कुछ रहेगा तो तबियत जल्दी ठीक होगी।" मैंने कहा।
यहाँ ठंड अप्रत्यक्षित रूप से ज्यादा थी। हमारा चलना फिरना भी एकदम से रुक गया था, जब तक चढाई कर रहे थे तब तक शरीर में गर्मी थी तो ठंड इतनी महसूस नही हुयी, लेकिन रुकने के साथ ही ठंड में बेतहाशा वृद्धि होने लगी थी। इतनी कि कान सुन्न होने लगे थे, हम बात कर रहें थे तो हमारे मुंह से भांप निकल रही थी। उंगलियाँ सुन्न होने लगी थी तो हमने फौरन ग्लव्स पहन लिए।
"मै आता हूँ तुम्हारे साथ।" महेश ने कहा।
"नहीं, तुम्हारी हालत भी ठीक नही है, तुम्हारे साथ चलूँगा तो आधी रात हो जाएगी पहुँचने में। तुम यहीं रहकर वसंत का खयाल रखो और खुद भी आराम करो।" मैंने उसे समझाया।
"यहाँ तक आकर वापस जाने के लिए मन नही मान रहा।" महेश ने उतरे हुए चेहरे से कहा, मै उसकी हालत समझ सकता था। लेकिन हकीकत को झुठलाया नही जा सकता था और हकीकत यह थी कि दोनों अब सौ मीटर चलने की भी हालत में नही थें, कई बार रुकने और बैठने के कारण उनके पैरों में अकडन भी होने लगी थी।
"देख भाई तू भी रुक जा, आज आराम कर लेते है। हमे भी दर्शन का मन है, सुबह तक हमारी भी हालत में सुधार हो जायेगा तो हम भी साथ ही चलेंगे।" वसंत ने कहा।
"भाई वसंत अगर सुबह भी तू साथ चलेगा ना तो हमे फिर मंदिर पहुँचने तक शाम हो जाएगी। यहाँ से चढाई और भी सीधी है, तो तेरा शरीर नही झेल पायेगा। और ऐसी ऊँचाइयों पर दिल के बजाय दिमाग से सोचना चाहिए, तेरे सीने में दर्द हो रहा है। और उपर बढ़ेंगे तो वह और भी बढ़ जायेगा, और यह जगह ऐसी है कि तबियत खराब हो गयी और इमरजेंसी पड़ गयी तो मदद भी नही मिल पायेगी।" मैंने समझाने की कोशिश की।
"अरे भाई कुछ खाने को मिलेगा क्या?" मैंने लडके से पूछा, वह बंगालियों को चाय दे रहा था।
"खाना तो रात में बनेगा जी। अभी जो दोपहर में बना था वही है, दाल चावल होंगे थोड़े से।" लड़के ने कहा।
"मैगी वगैरह मिलेगी?" मैंने पूछा, मै जानता था और कुछ मिले ना मिले यह चीज जरुर मिल जाएगी।
"हां मिलेगी।" उसने कहा।
"तो बचे हुए दाल चावल और मैगी ले आता हूँ, लेकिन दाल चावल दो प्लेट ही है।" लड़के ने कहा।
"तो इन दोनों को दाल चावल दे देना और मुझे मैगी। इन्हें मैगी सूट नही करती।" मैंने वसंत की तरफ देखकर कहा, वह खिसियानी हंसी हंस दिया।
"और सुनो अगर चाय हो तो भिजवा देना भाई, राहत मिलेगी।" मैंने कहा, वसंत और महेश दोनों के दांत ठंड की वजह से किटकिटा रहे थे। ठंड की वजह से इस बार वसंत ने चाय के लिए कोई नखरे नही दिखाए, वह चाय नही पीता लेकिन अब उसके पास कोई चारा नही था। ठंड में थोड़ी सी भी गर्मी से उसे राहत ही मिलने वाली थी।
मैंने सोच लिया था कि अगर आगे बढना ही है तो जल्दी से कुछ खा पीकर ही निकलूंगा।
चाय आ चुकी थी, दाल चावल गर्म करके दो थालियों में परोसा जा चुका था। हम ने हाथ धोने के लिए बाहर रखी टंकी से पानी निकाला, पानी एकदम बर्फ की तरह ठंडा था, धोने के बाद हाथ सुन्न से होते प्रतीत होने लगे तो मैंने अपनी हथेलियों को आपस में रगड़ना शुरू कर दिया। चाय का गिलास हाथ में लेकर उसकी गर्माहट से उँगलियों का ठंडा पन दूर करने की कोशिश की। चावल थोड़े ज्यादा थे तो वसंत ने मुझे उसके हिस्से लेने के लिए कहा, मैंने मना कर दिया क्योकि इस वक्त उसे खाने पिने की ज्यादा जरूरत थी, मेरे पास मैगी थी ही, तो मै उसी से काम चला रहा था।
"अरे मेरी इतनी भूख नहीं है, मै इतने चावल कभी नहीं खाता। आराम से दो लोगों का हो जायेगा इसमें।" कहकर वसंत ने उस लड़के को एक्स्ट्रा प्लेट के लिए आवाज दी, वह प्लेट लेकर आया तो वसंत ने उसमे खाना निकाल दिया। अब मुझे चढाई पर निकलना था तो मैंने भी ज्यादा नखरें नहीं दिखाए और जल्दी जल्दी खाना खत्म करने की कोशिश करने लगा। हम जहाँ बैठे थे वहाँ से पहाड़ियों के बिच ढलता सूरज साफ़ दिखाई दे रहा था। वसंत और महेश ठंड से कांप रहे थे, वो किसी तरह खाना खाकर रजाई में जाकर बैठने तैयारी में थे।
"सुनों, शाम हो रही है। कुछ ही देर में अन्धेरा हो जायेगा, मै अपना बैग यहीं रखता हूँ और कुछ जरुरी सामान लेकर निकल लेता हूँ।" मैंने कहा दोनों को अभी भी यकीन था कि मै शायद आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दूंगा। लेकिन उसी समय चार पांच लड़कों का एक ग्रुप आता दिखाई दिया, जिन्होंने मदमहेश्वर की दुरी का बोर्ड देखा और उस होमस्टे वाले युवक से कुछ बात करके आगे निकल गए।
"देखो मै अकेला नहीं रहूंगा, ये लोग है आगे। तो रात हो जाएगी तो भी कोई दिक्कत नहीं होगी। मै निकलता हूँ, अगर सुबह तुम दोनों की हालत ठीक रही तो उपर आ जाना या यहीं रुक जाना, मै वापसी में तुम्हे लेकर जाऊँगा।" कह कर मैंने खाना खत्म किया, बर्फीले पानी से फिर अपने हाथ धोये और गमछे से हाथ पोंछ कर फौरन दस्ताने पहन लिए। तब तक सूरज पूरी तरह से लाल हो चुका था।
हमसे पहले जो व्यक्ति हमारे कमरे में रुके थे। वो वहीं खड़े मुझे देख रहे थे, शायद कुछ बातचीत करना चाहते थे।
"आप कहाँ से हैं?" उन्होंने पूछा। मैंने मुंबई के बजाए खुद का जौनपुर का परिचय दिया।
"अरे! आप जौनपुर से हैं? हम अयोध्या से आये हैं।" उन्होंने कहा।
"आप दर्शन करके आ गए? यहाँ से अभी कितनी दूर होगा?" मैंने अंदाजा लेने के लिए पूछा।
"जितना अब तक चलकर आये हो उतना ही और है। लेकिन यहाँ से चढाई लम्बी और सीधी है और जंगल और घना हो जायेगा, आखिरी तीन किलोमीटर जंगल बहुत घना है। अगर अभी भी आप निकले तो आधे पौने घंटे में अन्धेरा हो जायेगा।" उन्होंने कहा।
"मै किसी तरह मैनेज कर लूंगा, और लोग भी तो गए हैं ना आगे।" मैंने कहा, तब होमस्टे वाले युवक ने बताया कि वे लड़के उससे कमरे के बारे में पूछताछ कर रहे थे। कमरे खाली नहीं मिले तो उपर चले गए, उपर कून चट्टी या नानु चट्टी पर उन्हें कमरा मिल जायेगा, वो वहां रात बिता कर सुबह निकल जायेंगे। इस समय पहाड़ी जंगली रास्तों पर चलना ठीक नहीं है, आगे का रास्ता बहुत ज्यादा सुनसान है।" युवक ने कहा। उनकी बातें सुनकर मेरा मन बैठने लगा,  मुझे लग रहा था कि शायद मै किसी तरह अन्धेरा होने से पहले आधी दुरी दौड़ते भागते पार कर लूंगा। लेकिन लडका स्थानीय था, और लोकल लोग जो भी सलाह देते हैं वह उनके अनुभवों से देते हैं, अगर वह समझाने की कोशिश कर रहा है तो समझदारी इसी में थी कि रुक जाऊं। अगर वसंत और महेश ने शुरुवात से थोड़ी भी तेजी दिखाई होती तो कम से कम डेढ़ दो घंटे मेरे पास अतिरिक्त होते जो मेरे लिए मंदिर तक पहुँचने में काफी काम आते।
लेकिन अब कुछ नही हो सकता था, उसी समय मै चौखम्बा की चोटियों को देख रहा था, उसपर बादलों का एक झुण्ड अठखेलियाँ कर रहा था। हमारे कमरे के पीछे खड़े विशालकाय पर्वत श्रृंखलाओं पर भी घने बादल छा रहे थे। साफ़ था कि मौसम बिगड़ रहा था, अभी कुछ दिनों पहले ही उत्तराखंड में हुयी बरसात की वजह से हुयी तबाही की खबरें आँखों के सामने दिखाई देने लगी। मै रात में किसी तरह रोते कलपते जंगल का रास्ता पार कर सकता हूँ, बर्फिलें रास्तों में चलने की हिम्मत दिखा सकता हूँ, लेकिन इतनी उंचाई पर आकर बरसात में उपर चढने की बेवकूफी नहीं कर सकता था। यहाँ की बरसात भी ऐसी होती है कि जब होती है तो रुकने का नाम नहीं लेती। इन पहाड़ों और जंगल में बरसात में चढाई करना वह भी अँधेरे में, तो यह एक बहुत बड़ी बेवकूफी हो कही जाएगी। यह साहस नहीं दुस्साहस की श्रेणी में आता था। और मेरे पास इतना जोखिम लेने की कोई वजह भी नहीं थी। सब मुझे समझा रहे थे और अब तो मौसम भी इशारें करता प्रतीत हो रहा था, मैंने बादलों से ढंके चौखम्बा की तरफ देखा, उसकी सभी चोटियाँ बादलों से ढंक चुकी थी, कभी कभार कोई एक हिस्सा दिखाई दे जाता था, मानो वह भी कह रहा हो कि इतनी जल्दी क्या है? थोडा ठहर जाओ, इतनी भी क्या जल्दबाजी है? सब तरफ से मिलते इशारों को देखकर मैंने भी हथियार डाल दिए। मैंने वसंत और महेश को बता दिया कि मै आज रात यहीं रुक रहा हूँ, सुबह सुबह पांच छह बजे निकल जाऊँगा। मेरी बात सुनकर दोनों खुश हो गए।
मैंने अपना बैग कमरे में रखा, कपडे वगैरह जस के तस रहने दिए, उन्हें बदलने की कोई जरूरत नहीं महसूस हो रही थी। दोनों भीतर घुसते ही रजाइयों में समा गए, खुशकिस्मती से यहाँ एकाध पॉइंट नेटवर्क आ रहा था। मैंने श्रीमती जी को फोन करके सारा हालचाल सुनाया और अपडेट दी। उन्होंने भी मेरे रुकने के फैसले को सही ठहराया। फिर उसके बाद मैंने मोबाइल को चार्जिंग पर रख दिया, सोलर की वजह से बिजली थी। अब जब रुकने की ठान ही लिया था तो मै पूरी तरह रिलैक्स हो गया, हम बाथरूम टॉयलेट वगैरह से फारिग होकर हल्के हो लिए। दोनों अपनी अपनी रजाइयों में औंधे पड़े हुए थे, मै जानता था उनकी हालत खराब हो चुकी होगी, बदन का पुर्जा पुर्जा ढीला पड़ गया होगा। वसंत ने फोन करके अपनी पत्नी को अपडेट दी, महेश फोन में किसी और चीज में व्यस्त था।
"अरे बाहर मौसम इतना अच्छा है, सनसेट हो रहा है। हमारी बाई तरफ चौखम्बा पर्वत की चोटी दिखाई दे रही है, तुम लोगों ने आज तक ऐसी कोई चीज देखि नही होगी जो आज देखने को मिलेगी। शाम होते ही ढलते सूरज की रोशनी में बर्फ से लदे पर्वत सोने की तरह दमकने लगते हैं। लगता है जैसे उनके भीतर से प्रकाश निकल रहा है, एकदम अलौकिक वातावरण होता है। चलो बाहर निकलो और प्रकृति का मजा लो, आराम तो रात भर करना ही है।" मैंने उन्हें समझाया तो दोनों कांपते ठिठुरते बाहर निकले। हरे भरे जंगल से लदे पहाड़ों के पीछे लुकाछिपी खेलते हुए चौखम्बा की चारों चोटियाँ नजर आ रही थी। उसके आसपास बादल छाये हुए थे लेकिन उसकी एक चोटी बादलों को चीर कर बाहर निकल चुकी थी और उसी पर सूर्यदेव की किरणों की कृपा दृष्टि पड़ रही थी, चौखम्बा जैसे उस कृपा से निहाल हुआ जा रहा था। वह मारे ख़ुशी के जैसे लाल हो गया था, सिंदूरी आभा से इस प्रकार दमकते पर्वत वसंत और महेश ने आज से पहले कभी नही देखे थे। सूर्य की मद्धिम होती सिंदूरी किरणों से प्रतीत हो रहा था मानों उस पुरे इलाके पर किसी ने आकाश से गुलाल की वर्षा सी कर दी हो। क्या पेड़ क्या पौधे, क्या ऊँचे पहाड़ और क्या हमारी त्वचा। सारे वातावरण पर सिंदूरी रंगत चढ़ चुका था।
यह नजारा कुछ ही देर तक रहा उसके बाद बादलों की आँख मिचौली शुरू हो गयी, चौखम्बा अब पूर्णतया बादलों की ओट में छिप चुका था। उपर जंगलों की तरफ बादलों का एक झुण्ड पूरी मस्ती से बढ़ते हुए दिखाई दे रहा था।
"बादल जा रहें हैं, उपर मौसम खराब होगा। उपर आज या तो कल बर्फ गिरेगी और निचे बरसात होगी।" होम स्टे वाले लड़के ने कहा। वह यहीं का रहने वाला था, वह अपने अनुभव से ही बोल रहा था। उसकी बातें सुनकर मुझे थोड़ी सी फ़िक्र होने लगी थी। बर्फबारी तक ठीक था, हम उसके लिए पूरी तरह से तैयार थे, लेकिन बारिश के लिए मै मानसिक रूप से बिल्कुल भी तैयार नही था। मै जानता था इन पहाड़ों पर बरसात का मतलब है मुसीबत।
हमने चाय की इच्छा जताई, अब पूरी तरह से अन्धेरा हो चुका था। वसंत और महेश ठिठुर रहे थे और अपने कमरे की तरफ जाने लगे। मैंने एक प्लास्टिक की कुर्सी ली और बाहर आंगन में रखकर बैठ गया।
मेरे सामने ही दूर तक पहाड़ और जंगल दिखाई दे रहे थे, रात हो चुकी थी इसके बावजूद काफी चीजें अभी भी साफ दिखाई दे रही थी। कुछ देर में चाय बन चुकी थी मैंने ग्लास थाम लिया, मेरे दोनों साथी कमरे से बाहर आने का नाम ही नही ले रहे थे। मुझे ही भीतर जाना पड़ा।
"हम इस तरह कम्बल में दुबके रहने के लिए थोड़े ही आये थे, चाय पिने का मजा तो बाहर है। आ जाओ बाहर बैठते है, देखो मौसम कितना साफ़ है, इतना साफ़ आसमान और इतने तारें तुम दोनों आज तक कभी देखे नही होंगे।" मैंने कहा तो दोनों मन मार कर बाहर आ गए।
अयोध्या वाले भाई साहब भी चाय पि रहे थे, बंगाली परिवार ने खाना कमरे में ही मंगवा लिया था। अयोध्या वाले भाई साहब थोड़ी देर बाद खाना खाने वाले थे।
"आपने दर्शन कब किये?" मैंने उनसे पूछा।
"तीन दिन हो गए।" उन्होंने कहा, उनकी बात सुनकर मुझे हैरानी हुई, तीन दिन से ये यहीं रुके हुए हैं। वसंत और महेश भी उनकी बात सुनकर भौंचक्के रह गए।
"आप तीन दिन से यहीं पर हैं? वापसी कब की है?" मैंने पूछा।
"नौ तारीख की टिकट है, तो सोचा इतनी जल्दबाजी क्यों करूँ? थोड़े ही बार बार आने का मौक़ा मिलता है, अब एक बार आये हैं तो पूरी तरह से मन भरने तक रुका जाये, इतनी खूबसूरती, इतनी सुंदर जगह, प्रकृति का ऐसा रूप आज तक नही देखा। इस जगह से मोह हो गया है, अगर कमाने खाने की दिक्कत ना होती तो मै यहीं बस जाता, किसी होम स्टे या इन्ही के पास नौकरी कर लेता। लेकिन दुनियादारी भी तो देखनी है, जाए बगैर काम भी नही चलने वाला है।" उन्होंने कहा।
"बढिया है, असली मजे तो आप ही ले रहे हैं। हम तो कल के केदारनाथ जाने की योजना बना कर निकले थे। आज ही देर हो गयी अब कल का भगवान जाने।" मैंने कहा, इतने में होम स्टे वाले लडके ने उन्हें खाने के लिए बुला लिया। वो रसोई वाले कमरे में ही चले गए।
"सर जी, आप लोग अपने कमरे में खाना खायेंगे या रसोई में ही चलेंगे? गरमा गर्म रोटियाँ बनती रहेंगी वहां और चूल्हे से गर्मी भी रहेगी।" लड़के ने कहा, उसकी बात सुनकर वसंत और महेश ने फौरन हां कर दी। उस समय पारा शायद माइनस तीन डिग्री तक पहुँच चुका था, ऐसे में आग के सामने बैठने का मोह भला कौन त्याग सकता है। मेरे ना कहने की कोई वजह ही नही थी, ठंड तो मुझे भी महसूस हो रही थी। जब तक खाना बन रहा था तब तक हम तीनो कुर्सियों पर बैठ कर बातें करने लगे।
वसंत ने फिर ऑफिस की चर्चा छेडी तो मैंने उसे डपट दिया कि यहाँ आकर बाहर की दुनियादारी नहीं चलेगी, ऑफिस की तो बिल्कुल भी नही। मै आकाश में तारों को निहार रहा था, कितने ही तारें खुली आँखों से दिखाई दे रहे थे, अचानक जैसे मैंने कोई छिपी हुई चीज देख ली। मैंने अपनी आँखों पर जोर डालकर देखने का प्रयास किया। और मुझे यकीन ही नही हुआ, गौर से देखने पर आकाश में में मिल्की वे अर्थात आकाशगंगा की धुंधली सी आकृति दिखाई दे रही थी। वह देख कर मेरी आँखे फटी की फटी रह गयी, एक बार आकशगंगा की आकृति स्पष्ट हो गयी तो और भी चीजें साफ़ होने लगी।
"उपर आकाश में देखो, मुझे आकाशगंगा दिखाई दे रही है। गौर से देखना, खुली आँखों से यह चीज दिखना बहुत ही मुश्किल है, ध्यान से देखो।" मैंने दोनों से कहा तो दोनों आकाश में ताकने लगे, लेकिन वे उस आकृति को देख नहीं पा रहे थे।
"कहाँ, किधर?" दोनों ने कहा, मैंने ऊँगली से इशारा किया, उसी समय एक साथ दो तारे टूटे।
"वह देखों जहां अभी दो तारे टूटे, उसी जगह पर गौर से देखों, तारों का पूरा गुच्छा नजर आयेगा, बादलों की तरह फैला हुआ । बहुत ही धुंधला सा है लेकिन गौर से देखोगे तो दिख जायेगा।" मैंने उन्हें तारों की स्थिति से अवगत कराया तब जाकर उन्हें आकाशगंगा की झलक मिली और उनकी आँखे फ़ैल गयी, उन्हें अपनी आँखों पर यकीन नही हो रहा था। मै उनके चेहरे की मुस्कान देख रहा था।
"हम काफी देर तक तारों को देखते हुए बातें करते रहे। मै पुरानी यात्राओं से जुड़े किस्से सुना रहा था। बिच बिच में तारों का टूटना जारी था। उसी समय निचे जंगल की तरफ से कुछ लोगो की आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ लडकियाँ और एक लडका पुरे साजो सामान के साथ आते हुए दिखाई दिए, वे बुरी तरह थक चुके थे। उनके बैग्स देखकर मैंने अंदाजा लगा लिया था कि इनके पास खुद के टेंट्स और स्लीपिंग बैग्स की व्यवस्था है।
दो लडकियां सीधे होम स्टे वाले लड़के के पास पहुंची। दोनों परेशान दिखाई दे रही थी, ना चाहते हुए भी मेरे कानो पर उनके कुछ शब्द पड़े। वे कमरे के बारे में इन्क्वायरी कर रहीं थी लेकिन वहां कमरे खाली नही थे, कुछ ही मीटर उपर कुछ और कमरे थे, लडका उन्हें उनके बारे में बता रहा था।
फिर उनमे से एक लड़की ने वाशरूम जाने के बारे में पूछा।
"नहीं मैडम! सब कमरे भरे हुए है, यहाँ वाशरूम कैसे दे सकते है?" लड़के ने कहा।
"अरे सुनिए, आप हमारा टॉयलेट यूज कर सकती हैं।" मैंने कहा और अपने कमरे की तरफ इशारा कर दिया, उसके बाद मैंने नजरे फेर ली ताकि वो असहज ना महसूस कर सके। वसंत और महेश उन लड़कियों की तरफ ही देख रहे थे।
"उन्हें मत देखो। अपनी नॉर्मल बातें करते रहो जैसे कुछ हुआ ही नही था।" मैंने कहा, लड़की बिना देर किये हमारे कमरे के भीतर जा घुसी।
"ये लडकी लोग इतनी रात में ऐसे भयानक जंगल में अकेले जा रही हैं? बाप रे।" वसंत हैरान था।
"हां जाती हैं, इसमें कोई नयी बात नही है, वैसे भी वो सिंगल लड़की नही है, उसके साथ और भी लडकियां है।" मैंने कहा, उन दोनों के लिए यह काफी अनोखी बात थी।
"एक लडका भी था उनके साथ।" वसंत ने कहा।
"नहीं वह उनके साथ नही रहा होगा, रास्ते में लोग मिल जाते हैं। अगर वह उनके साथ होता तो इनके रुकने पर वह इन्हें छोड़ कर आगे नहीं चला जाता।" मैंने कहा। फिर कुछ ही देर में लड़की निकली और अपने ग्रुप के साथ वापस आगे के सफर पर निकल पड़ी।
"अरे उसने थैंक यु तक नही बोला तुझे।" वसंत ने कहा।
"तू अब तक उसी में खोया हुआ है? इन चीजों में यह सब नही सोचना चाहिए।" मैंने कहा।
"लेकिन इस अँधेरे में वो लोग ट्रेकिंग करेंगी? उन्हें डर नही लगता?" महेश ने पूछा।
"उनके पास अपने टेंट्स है, वो कहीं भी टेंट्स लगा कर आराम कर सकते हैं, उनकी फ़िक्र करना छोडो वो तुम दोनों से ज्यादा मजबूत हैं। वैसे भी उपर कमरे दिखाई दे रहे हैं तो उन्हें वहाँ कमरा मिल ही जाएगा, ट्रेकर्स हैं तो जानते हैं कि रात में जंगली पहाड़ियों में सफर नही किया जाता।" मैंने बात स्पष्ट की। इसी के साथ लड़के का बुलावा आ गया। उसने हाथ धोने के लिए गर्म पानी का एक मग रख दिया।
हमने हाथ वगैरह धोये और रसोई में आ गए। रसोई सौंधी सी महक लिए हुए थी, मुझे मेरे ननिहाल में बिताया हुआ बचपन याद आ गया जब हमारे नाना के पास मिटटी से बनी सफ़ेद बखरी हुआ करती थी, उसकी रसोई भी इस से मिलती जुलती थी।
कमरे में एक बड़ा सा चुल्हा बना हुआ था, जिस पर लड़के की माता जी रोटियाँ सेंक रही थीं। मै दरवाजे के सामने बैठा था तो ठंडी हवा सीधी मुझ तक पहुँच रही थी। वसंत और महेश चूल्हे के पास जाकर बैठ गए, उनके पीछे दीवार थी तो ठंडी हवा से उनका कोई लेना देना ही नही था। इसके बावजूद दोनों के दांत किटकिटा रहे थे, कांप तो मै भी रहा था।
यह देखकर खाना बना रही अम्मा जी ने गढ़वाली में कुछ कहा, मुझे कुछ ख़ास समझ में तो नही आया लेकिन इतना जरुर समझ गया कि मुझे भी चूल्हे के पास बैठने के लिए कह रहीं हैं।
"नही मै ठीक हूँ, धन्यवाद।" मैंने कहा। वहाँ दो बच्चे भी कम्बल ओढ़ कर सोये हुए थे, उनके बारे में पूछा तो अम्मा ने मुस्कुराकर गढ़वाली में कुछ कहा, अब हमे कौन सा गढ़वाली कुमाउनी समझ में आती थी। फिर लडके ने बताया कि ये मेरी भांजिया है, दीपावली की छुट्टियां पड़ी हैं तो यहा नानी के घर आई हैं।
"क्या आप लोग यहीं रहते हैं? इतनी उंचाई पर?" मैंने सवाल किया क्योकि यहाँ इतनी उंचाई पर साल भर रहना तो काफी मुश्किल काम था। अभी तो ठीक है लेकिन जब जब बर्फबारी होती होगी तब तो रास्ता और अधिक दुर्गम हो जाता होगा।
तब लड़के ने बताया कि वो यहाँ बस यात्रा सीजन के छह महीने रहते हैं, मंदिर के कपाट बंद होने के साथ ही वह निचे 'गोंडार' चले जायेंगे, वहीं उनका घर है। फिर उन्होंने थाली में भोजन परोसना शुरू किया, दाल चावल, सब्जी और गरमा गर्म रोटी। सब्जी वही थी जो हमने मनसूना गाँव में खाई थी, लेकिन यहाँ का स्वाद कुछ अलग ही था, खाना अत्यंत स्वादिष्ट था। मैंने वसंत और महेश की तरफ देखा, इस बार वसंत ने ज्यादा ना नुकुर नहीं की, दोनों दबा कर भोजन कर रहे थे।
बातों का दौर चल पड़ा, अम्मा जी अपनी भाषा में मुस्कुराकर काफी बातें करती रहीं, लडका उन्हें ट्रांसलेट भी करता रहा । उन्होंने घर परिवार और कहाँ से आये हैं कहाँ जायेंगे के बारे में पूछा तो मैंने बता दिया।
"तो आप पहले भी काफी बार उत्तराखंड आ चुके हैं? आप अपने साथियों की तरह मुंबई के नही लगते, दिल्ली या आसपास के लगते हैं।" लड़के ने कहा।
"हां,जैसा देस वैसा भेस। बस इन दोनों ने पहली बार बाहर की दुनिया देखि है तो इन्हें ढलने में थोड़ा समय लगेगा, इनकी तू तडाक वाले लहजे का बुरा मत मानियेगा, ये इनकी बोलचाल की भाषा है। रास्ते भर इन्हें समझाते आया हूँ कि मुंबई के बाहर तू तडाक वाली भाषा नही चलती, लेकिन सम्भालने की कोशिश करने के बावजूद निकल ही जाता है इनके मुंह से।" मैंने कहा।
"हां वो तो समझ ही गए थे सर। अच्छा आप और भी ट्रेक वगैरह करते हैं क्या? नंदिकुंड का नाम सुना हैं आपने? पांडव सेरा? जहां पांडवों ने धान बोये थे और हर साल वहाँ अपने आप धान उग आते है और अपने आप उनकी कटाई भी हो जाती है।" लड़के ने पूछा।
"घिया विनायक पास की बात कर रहे हैं ना आप?" मैंने इस ट्रेक के बारे में सुन रखा था, मै जानता था कि इस ट्रेक की शुरुवात मदमहेश्वर मंदिर से होती है। मंदिर से भी कुछ पन्द्रह सोलह किलोमीटर या अधिक का ट्रेक है यह।
"हां वही, अपना मदमहेश्वर मंदिर हैं ना? उसके बाद से उसका रास्ता शुरू होता है। काफि लम्बा ट्रेक है, टेंट, खाने पिने का सामान वगैरह सब लेकर जाना पड़ता है। और वहां कुछ जगहों पर तो बारहों महीने बर्फ भी रहती है, ये देखिये यह अभी पिछले महीने की तस्वीरें हैं, मै यह ट्रेक भी करवाता हूँ। अगर आपको कभी भविष्य में इस ट्रेक पर जाना हो तो मुझे कह सकते हैं।" कहते हुए लडके ने उस जगह की सुंदर सुंदर तस्वीरें दिखाई।
वाकई वह जगह अत्यंत सुंदर और मनोरम था , बस तस्वीरें देखकर ही जाने की इच्छा होने लगी थी। लेकिन फिलहाल मै उसके लिए तैयार नही था और ना ही उस व्यवस्था के साथ आया था। तो मैंने उसका नम्बर ले लिया और सेव कर लिया। उसने तुंगनाथ के बारे में भी बातचीत की तो मैंने उसे बताया कि मै भी तुंगनाथ चन्द्रशिला दो तीन बार जा चुका हूँ, दिसम्बर में दो बार और एक बार जून में।
कार्तिक स्वामी के ट्रेक के बारे में भी बताया। और उसे भी मोबाइल में खिंची हुई तस्वीरें दिखाई, उसने अपने माँ को भी तस्वीरें दिखाई। फिर जब उसने स्क्रीन बैक की तो मोबाइल का वालपेपर सामने आ गया जिसमे मेरी बेटी के साथ फैमिली फोटो लगी हुयी थी। अम्मा ने तस्वीर को देखा और गढवाली में पूछा। इस बार मै उनका सवाल समझ गया, भावनाए भाषाई बन्धनों से मुक्त होती है।
"ये मेरी बेटी है  ढाई साल की है अभी।" मैंने कहां। मेरी बात सुनकर अम्मा जी के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान उभर आई।
उन्होंने अपनी भाषा में बेटी की छवि की प्रशंसा की और आशीष भी दिए। अम्मा जी का अपना पन देखकर ना चाहते हुए भी मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी। फिर खाना वगैरह निपट चुका था, हमने वापस हाथ वगैरह धोएं। लड़के ने गर्म पानी से भरा एक मग कमरे में रखवा दिया। इसी समय एक काला भोटिया कुत्ता आसपास डोलने लगा और आकर हमारे कमरे के बाहर वाले चबूतरे पर बैठ गया।
"यहाँ जानवर वगैरह नही आते?" मैंने ऐसे ही पूछा लिया, हमारे कमरे के बाई तरफ थोड़ी ही दुरी पर खाई थी जिसमे नदी बह रही थी, पिछले हिस्से में घने जंगल वाली चढाई, आगे भी घना जंगल और ढलान। मतलब चारों तरफ से हम घने जंगलो से ही घिरे हुए थे, ऐसे में यह सवाल आना स्वाभाविक था।
"इन जंगलों में जानवर तो हैं, लेकिन वह मनुष्यों के पास नही आते। जानवर मनुष्यों की बस्तियों को पहचानता है। यहाँ उजाला देखकर नही आते।" लड़के ने कहा। अब हमारे आराम करने का समय हो रहा था, खाना खाने के बाद सुस्ती भी आने लगी थी और वातावरण और ठंडा होने लगा था। हमारे मुंह से निकलती भांप तो जैसे थम ही नही रही थी। दांत किटकिटाने लगे थे।
सभी ने अपने कमरों के किवाड़ बंद कर लिए थे, बस हम ही बचे थे। बिना समय गंवाए हम भी अपनी रजाइयों में जाकर दुबक गए। लेकिन मै जानता था इतनी उंचाई पर नींद भी आसानी से नहीं आयेगी। वसंत और महेश कुछ देर मोबाइल में लगे रहे। मैंने भी एक पॉइंट नेटवर्क देखकर अपनी पत्नी को फोन करके अपडेट बता दिया और वापस समझाया कि आगे नेटवर्क ना होने की वजह से अगर फोन ना लगे तो व्यर्थ में चिंतित ना हों। जैसे ही नेटवर्क आयेगा मै खुद कॉल कर लूंगा। बता कर मैंने फोन को एरोप्लेन मोड़ में डाल दिया और लेट गया। मेरे दोनों साथी बार बार करवट ले रहे थे, वो चैन से सो नही पा रहे थे। ठंड लगती थी तो वो रजाई मुंह पर ओढ़ लेते थे और इससे कुछ ही देर में घुटन होने लगती तो रजाई हटा लेते। लेकिन फिर ठंड लगने लगती, दोनों अजीब सी परेशानी में फंसे हुए थे।
"अपने कनटोप पहन लो भाई। रजाई ओढ़ कर नही सो पाओगे, एक तो हम इतनी उंचाई पर है, यहाँ वैसे भी सांस लेने में दिक्कते हैं उसमे भी तुम इतनी मोटी रजाई ओढ़ लोगे तो नींद कहाँ से आयेगी? इतनी हाईट पर आसानी से नींद नहीं आती, लेकिन कोशिश करो सोने की। सुबह तरोताजा होकर निकलना है, पांच बजे।" मैंने कहा और आंखे बंद कर ली। वो थोड़ी देर करवटें लेते रहे लेकिन फिर उनके खर्राटे गूंजने लगे।
महेश अपने सीने और नाक पर बाम मलने लगा, दोनों की नाक मनसूना पहुँचते ही बंद हो चुकी थी, लेटने के बाद वह चीजें और ज्यादा दिक्कत देती थी। दोनों रात भर अजीबो गरीब आवाजें निकालते रहे। मैंने कनटोप को अपने कानों पर कस कर खिंच लिया लेकिन उस सन्नाटे में सांस लेने तक की आवाजें सुनी जा सकती थी। दिन भर के थके होने की वजह से नींद आने में ज्यादा देर नही लगी।
अगली सुबह साढ़े पांच बजे नींद खुली, ठंड बहुत ज्यादा थी जिस वजह से रजाई से बाहर आने का मन नही हो रहा था लेकिन मै जानता था कि हमारा हर मिनट कीमती है यह समय आलस में गंवाने का हरगिज नही था। मैंने वसंत और महेश को जगाया कि तैयार हो जाओ हमे निकलना है। दोनों कुनमुनाते रह गए और उन्होंने मुझे पहले तैयार होने के लिए कह दिया। मैं भी कम नहीं था मैंने उन्हें नाश्ते का ऑर्डर देने के लिए कह दिया और वाशरूम चला गया। पानी काफी ठंडा था, नहाने की सोचना भी बेवकूफी थी, मैंने किसी तरह से उसी ठंडे पानी से ब्रश किया, चेहरा धोया और फिर सोचने लगा कि क्या पता फिर कब नहाने का अवसर मिले, यह सोचकर हिम्मत करके जल्दी जल्दी नहा लिया। नहाने के बाद कांपते ठिठुरते तौलिया पहन कर बाहर निकला और फौरन अपने कपडे पहनने लगा।
"आप नहा लिए क्या?" महेश को इस बात की उम्मीद नहीं थी।
"हां, आगे क्या भरोसा कितना टाइम लगेगा, कुछ मिलेगा या नही। इसलिए जहाँ मौक़ा मिला नहा लिया, वैसे भी कल सुबह के ही नहाए हुए थे, अब नहाने के बाद बदन थोड़ा हल्का महसूस हो रहा है। तुम लोग भी चाहो तो नहा सकते हो।" मैंने कहा तो दोनों ने साफ़ मना कर दिया।
नाश्ते में पराठें अचार और चाय आ गयी। हमने जल्दी जल्दी खाकर उन्हें निपटाया। मैंने फोन ऑन किया और घर पर मैसेज में अपडेट दे दिया। अब बारी थी निकलने की, लेकिन यहाँ से चढाई भयानक रूप से खड़ी थी मेरे पास हालांकि तीस लीटर के आसपास का बैग था जो पूरी तरह भरा हुआ था। वसंत और महेश तो रकसैक लेकर आये थे।
"देखो हमे सीधी चढाई चढ़नी है अब, हमने कल जितना रास्ता पार किया है उतना ही रास्ता और बाकी है। ये बैग्स काफी ज्यादा वजन हो रहे है, वैसे भी हम उपर रहने वाले नही है तो मेरे ख्याल से हमे बैग्स की जरूरत नही पड़ने वाली। दो चार जरूरी सामान ले लो, जैकेट्स, ग्लव्स, कनटोप, वगैरह साथ रखो और चल पड़ो, कोशिश यही रहेगी कि दोपहर में एक बजे तक हम वापस यहाँ पहुंचकर अपना सामान लेकर वापस रांसी और शाम तक उकिमठ पहुँच जाए। अगर हम आज उकिमठ पहुँच जायेंगे तो कल केदारनाथ चले जायेंगे, और ख़ुशी की बात यह है कि वेदर रिपोर्ट कह रही है कि कल दोपहर बाद केदारनाथ में बर्फबारी होगी। तो तुम्हारे साथ साथ मै भी पहली बार बर्फबारी होते हुए देखूंगा, लेकिन सब निर्भर करता है हमारी गति पर।" मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वे दोनों उत्साहित हो गए, उन्होंने बैग्स रख दिए, महेश ने अपना डिएसएलआर ले लिया। फिर मैंने होम स्टे वाले लड़के को पूरी बात बताई कि वापसी में आते हुए मै अपना सामान लेते जाऊँगा, इसी बिच अगर किसी को कमरा देना चाहे तो दे सकते हैं। वह मान गया। और मैंने महादेव का नाम लेकर यात्रा फिर शुरू कर दी।