आठवां बयान


टुम्बकटू, हुचांग, माइक और बागारोफ हैरत के साथ उस हंस को देख रहे थे। कुछ देर पूर्व उन्होंने हंस की जो हरकत देखी थी, उसे देखकर चारों की बुद्धि चकरा गई थी। उनमें से किसी को स्वप्न में भी इस प्रकार का गुमान नहीं था कि संगमरमर का साधारण-सा हंस इस प्रकार की हरकत करेगा। अभी कुछ ही देर पूर्व उन चारों ने देखा था कि ये हंस विद्युत गति से झपटकर जेम्स बांड को निगल गया था ।


कुछ भी न करने की स्थिति में चारों हक्के-बक्के से खड़े देखते रह गए ।


अभी तक उनमें से किसी को एक-दूसरे की ओर देखने तक का होश नहीं आया था। सभी की दृष्टि स्थिर खड़े हुए संगमरमर के हंस पर जमी हुई थी ।


वह इस प्रकार निर्दोष की भांति खड़ा हुआ था कि एक बार को उन्हें भ्रम हुआ कि उन्होंने जो देखा है— कहीं वह गलत तो नहीं है !


- "बड़े मियां । " टुम्बकटू जैसा व्यक्ति भी आश्चर्य में डूबा हुआ बोला—‘‘ये क्या गजब हुआ ?"


- "मुझे लगता है कि यहां कोई तिलिस्म का चक्कर है।" हुचांग उसी हंस को घूरता हुआ बोला ।


"अबे चीनियों की दुम । " बागारोफ बौखलाता-सा बोला – "तुम्हारा लाउडस्पीकर जैसा मुंह बन्द ही अच्छा लगता है। अबे ये तिलिस्म आदम जमाने की बातें हैं। इस आधुनिक युग में तिलिस्म की बात करोगे, तो फिर चीन से निकाल दिए जाओगे । ”


–“कुछ भी हो, चचा।" बीच में माइक बोला— “माना कि विज्ञान काफी तरक्की कर चुका है और तिलिस्म अथवा भूत-प्रेत जैसी वस्तुओं को व्यर्थ मानता है। काल्पनिक कहानियां कहता है मगर भारत में निकला हुआ जयगढ़ का खजाना निश्चय ही इस बात की ओर संकेत करता है कि वास्तव में तिलिस्म का भी एक जमाना था ।


“आज के वैज्ञानिक चाहे उसे तिलिस्म न कहें कुछ और कह दें-परन्तु है यह तिलिस्म ही । वैसे भी तिलिस्म के विषय में लोगों के सोचने का ढंग गलत है। लोग सोचते हैं कि तिलिस्म में किसी प्रकार का जादू होता है—–— किन्तु यह गलत है। यह सब दिमाग का तथा कारीगरों की कारीगरी का खेल होता है — आज भी हम गुप्त रास्ते देखते हैं यह सब तिलिस्म का ही छोटा-सा अंश है।"


"देख बे अमेरिकन —–—साला ये हंस बांड को निगल गया और फिर एक तू है...कि जो बस तिलिस्म पर ही भाषण देने लगा । ” 


इसी प्रकार की कुछ बातें करने के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया कि हंस को नजदीक से देखा जाए कि क्या है। इस बार टुम्बकटू आगे बढ़ा। 


हंस के अत्यन्त करीब जाकर वह अपनी पैनी दृष्टि से हंस को घूरने लगा। हंस में किसी प्रकार की विशेषता वाली बात नजर नहीं आती थी। वह संगमरमर का बनाया हुआ हंस था। केवल मूर्तिकार की कारीगरी की प्रशंसा की जा सकती थी । टुम्बकटू ने पूरी तरह से सतर्क होकर हंस पर धीरे से हाथ रखा । कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई... हंस उसी प्रकार स्थिर खड़ा रहा । टुम्बकटू के साहस में वृद्धि हुई, उसने धीरे-धीरे अपना हाथ हंस की चोंच की ओर बढ़ाया। हाथ चोंच से स्पर्श होते ही - मानो कयामत आ गई।


छलावे जैसी फुर्ती वाला टुम्बकटू भी खुद को नहीं बचा सका। हंस के पिछले भाग में एकदम हवा निकलने जैसी आवाज हुई—मानो किसी हवा से भरे ब्लाडर का वॉल्व हटा दिया गया हो। एकदम ढेर सारा धुआं तीव्र वेग से निकलकर टुम्बकटू के ऊपर आ गिरा। ठीक इस प्रकार मानो यह धुआं किसी ने पिचकारी से डाला हो । एक क्षण तक तो टुम्बकटू समझा ही नहीं कि ये अचानक क्या हो गया । बस... यही क्षण उसके लिए शिकस्त का कारण बना। वह नहीं जान सका कि इस धुएं की लपेट में माइक, हुचांग और बागारोफ भी आए अथवा नहीं। उसे तो केवल इतना मालूम है कि यह धुआं गजब की बेहोशी पैदा करने वाला था और अपनी इच्छा शक्ति के बावजूद भी टुम्बकटू स्वयं को बचा नहीं सका।


वह बेहोश हो गया और जब होश में आया तो वह फुर्ती के साथ उछलकर खड़ा हो गया और एक बार गन्ने की भांति लहराया ——– इस समय उसने खुद को एक लम्बे-चौड़े लॉन में पाया | लॉन की दीवारें, फर्श और छत... सभी कुछ लाल पत्थर का बना हुआ था । लॉन में तीन तरफ दीवारें थीं और चौथी तरफ यह लॉन एक गैलरी में खुल रहा था। अभी टुम्बकटू वहां की भौगोलिक स्थिति को भली प्रकार देख भी नहीं पाया था कि किसी इन्सान के कराहने की आवाज उसके कानों में पड़ी। उसने पलटकर उस दिशा में देखा तो पाया... उसके समीप ही फर्श पर हुचांग होश में आ रहा था ।


-"उठो चीनी महोदय !" टुम्बकटू अपने ही अन्दाज में बोला — "लगता है इस बार अफलातून में फंस गए हैं । "


उसकी आवाज सुनकर हुचांग खड़ा हो गया और चारों तरफ देखता हुआ बोला – "बागारोफ चचा और माइक कहां गए ?" 


— "उन्हें जरा आपके लिए लालीपॉप लेने भेजा है।" टुम्बकटू बोला – "हमने सोचा महोदय को लालीपॉप चूसने का शौक है।"


-“मजाक मत करो, टुम्बकटू ।" हुचांग बोला— “लगता है हम किसी मुसीबत में फंसते जा रहे हैं। "


–“फंसते जा रहे हैं नहीं आदरणीय चीनी महोदय—–— बल्कि ये कहो कि फंस गए हैं।" टुम्बकटू गन्ने की तरह लचककर बोला – "जिस तरह तुम्हें उन दोनों का पता नहीं है, उसी प्रकार हमें भी पता नहीं है। अजब करिश्मे के बाद जब आंख खुली तो हमने खुद को यहीं पाया।” -“वह गैस तो बड़ी करामाती थी ।" हुचांग बोला—“पता नहीं बागारोफ और माइक उस गैस से बच सके या नहीं।" —" उसकी चिन्ता बाद में करना आदरणीय महोदय, पहले अपनी चिन्ता करो।" टुम्बकटू दालान की ओर देखता हुआ बोला – "हमारे ख्याल से यहां वार्तालाप करने में किसी प्रकार का लाभ नहीं होगा । निकलने के लिए रास्ता भी एक ही नजर आ रहा है—क्यों न इसी दालान में आगे बढ़कर देखा जाए कि क्या है ? वैसे हो सकता है कि इस दालान में पहुंचते ही हमें फिर किसी प्रकार के नए करिश्मे के दर्शन हों ।"


‘‘कहीं हम किसी और गहरे चक्कर में न उलझ जाएं । " हुचांग सतर्क लहजे में बोला – “इससे अच्छा तो ये है कि पहले हम कुछ देर # यहीं बैठकर परिस्थिति पर विचार क्यों न कर लें। सम्भव है कि हम दोनों अपनी बात में किसी प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंच सकें । "


–“प्यारे भाई साहब, हमारे विचार से तो हमारा वार्तालाप व्यर्थ है। क्योंकि हमारे दिमाग के पुर्जे सूख चुके हैं। वैसे मक्खी मारने में दिमाग की कम आवश्यकता पड़ती है। एक काम यह भी अच्छा था कि हम यहां बैठकर मक्खी मारने लगते... मगर महोदय... हमें इस बात का सख्त अफसोस है कि यहां मक्खी भी नहीं है वर्ना धतूरे की कसम हम तीस मार खां बन जाते ।”


हालांकि टुम्बकटू ने सही बात अपने ही अन्दाज यानी मजाक के ढंग से कही थी परन्तु फिर भी उसका मतलब ये था कि यहां बैठकर बातें करने से किसी प्रकार का निष्कर्ष नहीं निकल सकता । अतः जिधर रास्ता मिले, उधर ही बढ़ते रहना एकमात्र काम है। काफी सोच-विचारकर उन्होंने वही निर्णय किया कि इस दालान की ओर बढ़ा जाए। इस बार दालान की ओर आगे बढ़ने वाला हुचांग था । दो-तीन सीढ़ियां तय करके .हुचांग दालान से उतर गया। टुम्बकटू हुचांग का परिणाम देखकर ही उतरना चाहता था । अतः वह पीछे ही खड़ा देखता रहा और यह सोचता रहा कि देखना चाहिए हुचांग के साथ क्या होता है, अथवा वह किन परिस्थितियों से गुजरता है ? हुचांग भी अपना एक-एक कदम नाप-तोलकर आगे बढ़ा रहा था, टुम्बकटू की तीक्ष्ण दृष्टि बराबर हुचांग पर स्थिर थी। इसके बाद भी टुम्बकटू धोखा खा गया। यह वह भी महसूस नहीं कर सका कि वह कौन-से पल धोखा खा गया ? उसने अपनी सुराही-सी गर्दन को एक तेज झटका दिया। आंखें मलीं और पूरे ध्यान से दालान में हुचांग को देखने की कोशिश की, परन्तु दालान में वह यह देखकर दंग रह गया कि हुचांग कहीं भी नजर नहीं आ रहा था। हुआ ये कि एकाएक टुम्बकटू यह भी नहीं जान सका कि हुचांग को दालान का फर्श निगल गया अथवा छत खा गई। दालान में किसी प्रकार का कोई फर्क नहीं था—– किन्तु हुचांग एकदम चमत्कारिक ढंग से दालान से गायब हो गया था।


 –“अबे भाई आदरणीय ... चीनी !" बौखलाकर दालान में चारों ओर देखता हुआ टुम्बकटू बोला – “कहां गए मियां... हम तो यहां तड़प रहे हैं। सच कहते हैं चीनी भाई, हमें तुमसे दस किलो मुहब्बत हो गई है... जरा हमें आवाज दो हमारे सजना | "


किन्तु... जवाब में टुम्बकटू के सजना अर्थात हुचांग की कोई आवाज टुम्बकटू के कानों में नहीं आई। कुछ देर तक वह उसी प्रकार अपने ढंग से हुचांग को पुकारता रहा... मगर अन्त में निराश होकर बोला – “छोड़ गए बालम, मुझे हाय अकेला छोड़ गए ।" वह यही गाना गाता जा रहा था और बड़े अन्दाज में लचक-लचककर नाच रहा था। कुछ देर तक वह नाचता रहा, फिर एकदम इस प्रकार रुक गया, मानो चाबी के गुड्डे की चाबी समाप्त हो गई हो। फिर कुछ सोचता हुआ स्वयं से ही बोला— ‘भाई टुम्बकटू... तुम इस विचित्र अफलातून में फंसे हुए हो और फिर भी नाच रहे हो... यार शर्म तो करो । चलो... हम भी इस दालान में चलते हैं लेकिन मियां अगर हम भी गायब हो गए तो ?'


बस...इसी विचार पर पहुंचकर टुम्बकटू का मस्तिष्क स्थिर हो गया ।


वह सोचने लगा कि इस परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए। यहां से निकलने के लिए उस दालान के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था और उस दालान का करिश्मा वह देख ही चुका था। कुछ देर तक तो वह इधर-उधर टहलकर कोई अन्य रास्ता टटोलता रहा... मगर निराश होकर एक स्थान पर बैठ गया और... इस समय उसका मस्तिष्क कोई ऐसी योजना सोचने में व्यस्त था, जिससे वह उस दालान में जाए, किन्तु हुचांग की भांति गायब न हो सके। एकाएक उसके दिमाग में एक विचार आया और वह स्वयं ही उछलकर चीखा—“वो मारा साला पोटली वाला !"


और इसके साथ ही वह एकदम उलटा हो गया। सिर नीचे, टांग ऊपर और वह उबकाई करने लगा। कुछ ही देर में उसके गले में फंसी प्लास्टिक की थैली बाहर आ गई। थैली में से उसने रेशम की एक मजबूत एवं लम्बी डोरी निकाली तथा एक सिरा दूसरे खम्भे से बांध आया और दूसरा अपनी कमर से बांध लिया — फिर खुद से ही बोला – 'अब देखते हैं प्यारे टुम्बकटू मियां कि ये दालान हमको कहां ले जाता है ? 


साला या तो हमारे साथ उस खम्भे को भी खींचकर ले जाएगा वर्ना हमें भी छोड़ देगा।" बाकी सामान सहित उसने प्लास्टिक की थैली अपने विचित्र टेक्नीकलर कोट की भीतरी जेब में डाल ली। रेशम की डोरी काफी लम्बी एवं मजूबत थी।


अतः वह निश्चिन्त होकर आराम से दालान की ओर बढ़ा, रेशम की डोरी का दूसरा सिरा खम्भे से बंधा था और पहला उसकी कमर से, अतः वह निश्चिन्त होकर आगे बढ़ा । डोरी इतनी लम्बी तो थी ही कि वह आराम से पूरे दालान में उतरा और आगे बढ़ गया, किन्तु वह गायब नहीं हुआ। धीरे-धीरे वह पूरे दालान में टहल लिया, मगर उसके साथ कोई विशेष घटना नहीं घटी। दालान किसी गैलरी की भांति दूर तक चला गया था। उसकी चौड़ाई दस हाथ थी और दोनों तरफ कोठरियां बनी हुई थीं। एक कोठरी के अतिरिक्त सभी कोठरियों के दरवाजे खुले हुए थे। प्रत्येक कोठरी में लोहे के मजबूत किवाड़ लगे हुए थे। यूं ही टहलता हुआ टुम्बकटू एक कोठरी के सम्मुख पहुंचा। एक क्षण वह खड़ा हुआ सोचता रहा कि उसे इस कोठरी में जाना चाहिए अथवा नहीं । किन्तु फिर रेशम की डोर पर भरोसा करके और यह सोचकर कि देखें कोठरी में क्या है—–—उसने कोठरी के अन्दर कदम बढ़ाया ।


जैसे ही वह दरवाजा पार करके कोठरी में पहुंचा... अचानक एक झटके के साथ कोठरी का लोहे का दरवाजा बन्द हो गया, दोनों किवाड़ों के बीच में फंसकर रेशम की डोरी टूट गई। टुम्बकटू चौंककर अपनी छलावे जैसी फुर्ती के साथ दरवाजे की ओर पलटा, परन्तु तभी... उसके सिर पर एक जोरदार चपत पड़ी। टुम्बकटू की खोपड़ी भिन्नाकर रह गई । तभी एक और चपत...फिर...चपत...चपत... दनादन चपत पे चपत !


उसके सारे जिस्म पर इतनी तेजी से चपत पड़ रहे थे कि वह देख भी नहीं सका कि चपत कौन मार रहा है। मगर इस समय टुम्बकटू की स्थिति शोचनीय अवस्था में थी, क्योंकि हमेशा से चपत मारने वाला टुम्बकटू इस बार स्वयं बड़ी बुरी तरह फंसा था।


खैर... टुम्बकटू को छोड़कर जरा हुचांग को देखते हैं कि उस पर क्या गुजरी? अब हम आपके सामने एक ऐसा अनूठा किस्सा बयान करने जा रहे हैं, जिसे पढ़कर आप निश्चित ही आनन्दित होंगे। यह किस्सा हम उसी समय से बयान करते हैं, जब हुचांग उस दालान से उतरा था। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हुचांग दालान में ही था—कहीं गायब नहीं हुआ था । वह दालान के बाहर खड़े हुए टुम्बकटू को बड़े आराम से देख पा रहा था । टुम्बकटू की हरकतों से उसने अनुमान लगाया कि वह टुम्बकटू को चमक नहीं रहा है। आश्चर्य के साथ उसने खुद को देखा... परन्तु अपने अन्दर उसने कोई खास परिवर्तन महसूस नहीं किया— अपना शरीर उसे भली प्रकार चमक रहा था। 


- टुम्बकटू ने दालान की ओर देखकर उसे आवाज दी —हुचांग ने उसको आवाज के जवाब में बोलना चाहा परन्तु बोल न सका, उसके मुंह से आवाज न निकल सकी। उसके होंठ भी हिले, मुंह भी चला किन्तु किसी प्रकार की कोई आवाज उसके कंठ से नहीं निकल सकी। हुचांग टुम्बकटू को दालान से बाहर गाना गा गाकर नाचते हुए देख रहा था। जब हुचांग स्वेच्छा से बोल नहीं सका तो समझ गया कि निश्चय ही इस दालान में कोई खास कारीगरी है। वह टुम्बकटू को नजर नहीं आ रहा है, जबकि वह उसे आराम से देख सकता है। मगर वह बोलकर उसकी बात का जवाब नहीं दे पाया। उसने टुम्बकटू की ओर कदम बढ़ाने चाहे, किन्तु उसमें भी असफल रहा ! बड़ी विचित्र - सी स्थिति में फंस गया था हुचांग । वहीं खड़े-खड़े उसने टुम्बकटू की सारी क्रियाएं देखीं। ऐसे समय में भी टुम्बकटू की हरकतों के कारण होंठों पर मुस्कान उभर आई। अन्त में रेशम की डोरी का प्रयोग करके जब टुम्बकटू दालान में उतरा तो कुछ देर तक वो वह हुचांग को नजर आता रहा, मगर फिर एकदम गायब हो गया । हुचांग समझ गया कि टुम्बकटू दालान में ही होगा। इस दालान में केवल यही विशेषता है कि इसमें आने के पश्चात आदमी किसी अन्य की नजर में अदृश्य हो जाता है, रेशम की डोरी का भी हुचांग को केवल वही भाग दृष्टिगोचर हो रहा था, जो दालान से बाहर था । टुम्बकटू के जिस्म से बंधी शेष रेशम की डोरी भी उसे नहीं चमक रही थी, परन्तु जितनी चमक रही थी—अपने दिल में हुचांग भली प्रकार अनुमान लगा सकता था कि टुम्बकटू अभी तक इसी रेशम की डोरी से बंधा हुआ है, किन्तु यह अनुमान उसे नहीं था कि टुम्बकटू गैलरी में है कहां। कुछ सोचकर हुचांग दालान में बनी कोठरियों की ओर बढ़ गया । जिस समय वह कोठरियों की ओर बढ़ा, उस समय प्रत्येक कोठरी का दरवाजा खुला हुआ था। लोहे के मजबूत दरवाजे एकाएक ऐसे नजर भी नहीं आते थे कि अचानक ही वे बन्द भी हो सकते हैं। इस बात का तो हुचांग को गुमान भी नहीं था । वह यूं ही कोठरी को देखने की जिज्ञासावश उसमें प्रविष्ट हो गया। जैसे ही वह अन्दर प्रविष्ट हुआ – लोहे का दरवाजा एक झटके से बन्द हो गया। चौंककर एकदम दरवाजे की ओर घूमा – बन्द दरवाजे पर झपटा, परन्तु दरवाजा निश्चय ही इतना मजबूत था कि हृदय में उसे तोड़ने का ख्याल लाना भी व्यर्थ था । निराश होकर हुचांग ने उस कोठरी को देखा, जिसमें वह विचित्र ढंग से कैद हो गया था । वह इस्पात की बनी हुई एक अत्यन्त छोटी कोठरी थी । दीवारें, फर्श और छत सबकुछ सपाट थी। कहीं कोई खूंटी अथवा आला नहीं — ठीक सामने पत्थर का एक ऐसा चबूतरा बना हुआ था, जिस पर एक आदमी आराम से लेट सकता था। सामान के नाम पर उस कोठरी में एक सूई तक भी नहीं थी । इस लालच से कि शायद उसे कोठरी में कहीं कोई गुप्त मार्ग मिल जाए, उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई, मगर निराशा ही हाथ लगी। कोई आधे घण्टे तक वह मेहनत करता रहा, परन्तु अन्त में निराशापूर्ण थकान के साथ उस पत्थर के चबूतरे की ओर बढ़ा, वह चबूतरा दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार से लगा हुआ था। कमरे और चबूतरे के बीच केवल पांच हाथ की दूरी थी। अन्त में हुचांग निराश होकर उसी चबूतरे पर जा बैठा। उस पर बैठते ही चौंक पड़ा— चबूतरे पर बैठते ही सामने का दरवाजा स्वयं खुल गया और खुले दरवाजे से दालान नजर आने लगा । दरवाजा खुलते ही हुचांग की आंखें विचित्र - सी चमक से चमक उठीं। वह खुश होकर एकदम चबूतरे से उठकर दरवाजे की ओर लपका–मगर इससे पहले कि वह दरवाजे के पार हो सके दरवाजा बन्द हो गया । भौचक्का-सा कोठरी के फर्श पर खड़ा हुचांग कोठरी के दरवाजे को घूर रहा था ।


वह वापस आकर पुनः चबूतरे पर बैठ गया ।


चबूतरे पर बैठते ही दरवाजा पहले की भांति फिर खुल गया। अब हुचांग समझ गया कि दरवाजे का खुलने और बन्द होने का सम्बन्ध इसी चबूतरे से है। चबूतरे पर बैठा हुआ वह दरवाजे के पार दालान में देख रहा था और सोच रहा था कि वह किस प्रकार इस अजीब कोठरी से बाहर निकले। कुछ सोचकर वह चबूतरे पर खड़ा हो गया। इस बार उसका इरादा हवा में जम्प मारकर दरवाजे के बन्द होने से पहले ही पार हो जाने का था, अपने इसी इरादे को उसने कार्यान्वित किया और अपनी तरफ से पूर्ण फुर्ती से जम्प लगा दी, किन्तु उस समय उसकी खोपड़ी के सारे पुर्जे हिल उठे, हुआ ये कि जैसे ही उसका भार चबूतरे से हटा दरवाजा बन्द हो गया और बन्द दरवाजे से हुचांग का सिर जोर से टकराया । कुछ देर तक वह अपना सिर पकड़े हुए वहीं फर्श पर खड़ा रहा। जब कुछ होश-सा आया तो एक बार उसने अपना सिर टटोलकर देखा ——–जहां दरवाजा लगा था, उसके सिर पर वहां गूमड़-सा उभर आया था । निराश होकर वह उस चबूतरे पर जा बैठा। दरवाजा पुनः खुल गया—मगर अब हुचांग समझ चुका था कि अब इस दरवाजे से वह निकल नहीं सकेगा, अतः दरवाजा खुलने से उसे कोई खुशी नहीं हुई। अलबत्ता वह यह अवश्य सोच रहा था कि ऐसी कैद जीवन में पहली बार देखी है, जिसमें कैदी स्वतन्त्र हो । कैद का दरवाजा भी खुला हुआ हो———मगर फिर भी कैदी कैद से बाहर न जा सके। हुचांग चबूतरे पर बैठा-बैठा इस कमरे के बनाने वाले के दिमाग की कारीगरी और अपनी विवशता पर विचार करता रहा — साथ ही सोच रहा था कि वह इस कोठरी से निकल कैसे सकेगा।

नौवां बयान


-"निश्चय ही पिशाच ने मेघराज को कोई ऐसी लरकीब बता दी थी, जिसके जरिए कमलदान का पता लगाना निश्चित था ।” विक्रमसिंह ने बख्तावरसिंह और गुलबदन इत्यादि को बताया — "परन्तु क्योंकि वह योजना पिशाच ने मेघराज के कान में बताई थी, इस वजह से मैं नहीं सुन सका। काफी देर तक मेघराज खुशी के कारण पागल सा होकर कमरे में नाचता रहा। उसे तभी अपना होश आया, जब पिशाच ने कहा - 'हम चार दिन बाद इस योजना पर काम करेंगे ।"


- "नाचता हुआ मेघराज एकदम ठहरा और पिशाच को देखता हुआ बोला— 'क्यों—–कल ही क्यों नहीं ?"


—" 'मुझे अभी किसी काम से शंकर नगर जाना है।' पिशाच ने कहा – 'और वहां से मैं चार दिन बाद ही लौटूंगा ।' मेघराज ने काफी कहा कि वह शंकर नगर किस काम से जा रहा है ? परन्तु पिशाच ने उसे यह नहीं बताया। कुछ देर बाद पिशाच उससे विदा लेकर चला गया और उस समय मैं एक स्थान पर छुप गया था। कुछ देर बाद मैं मेघराज के पास गया और उससे कहा कि उसे राजा साहब ने तलब किया है । "


— "क्या तुमने ये सारी घटनाएं अभी उमादत्त को नहीं बताई हैं?" बख्तावरसिंह ने प्रश्न किया ।


–“नहीं । " विक्रमसिंह ने जवाब दिया।


-"क्यों ?"


"क्योंकि उमादत्त को यह सब बताने से कोई लाभ नहीं होगा। " विक्रमसिंह ने कहा – “वह मेघराज पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करते हैं, मेरी बात पर उन्हें विश्वास नहीं आएगा । इस स्थिति में राजा साहब मुझे सजा देंगे अथवा मेघराज मुझे भी उसी प्रकार की किसी साजिश में फंसा देगा जिस प्रकार तुम्हें फंसाकर राजा साहब की नजरों से गिरा दिया—अभी तक तो मेघराज को यह भी पता नहीं है कि उसकी और पिशाच की बातें मैंने सुनी हैं, अगर मैं इस बात का जिक्र करूंगा तो राजा साहब मेघराज से अवश्य इस बारे में चर्चा करेंगे, मेघराज कोई बहाना लगाकर राजा साहब को तो मूर्ख बना देगा, किन्तु राज्य में मैं उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन जाऊंगा और आजकल राज्य में उससे दुश्मनी लेकर राज्य में रहना उसी प्रकार है जैसे पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर करना । अतः मैं कुछ नहीं कर सकता।" "


- "लेकिन क्या तुम इस तरह अपने मालिक ( उमादत्त) का अन्त चुपचाप देखते रहोगे ?" बख्तावर ने पूछा ।


-“जी तो नहीं मानता लेकिन क्या करूं मैं अकेला कर भी क्या


सकता हूं ?" विक्रम ने कहा – “क्या पता कौन उससे मिला है ?” - "तुम तो जानते हो विक्रमसिंह कि मैं जब तक भी उमादत्त का नौकर रहा, उसके प्रति हर तरह से वफादार रहा । " बख्तावरसिंह बोला— "उसने मुझ जैसे सच्चे ऐयार को बेइज्जत करके अपने राज्य से निकाल दिया तो क्रोध में मैंने दो-चार काम उमादत्त के खिलाफ जरूर किए हैं। यह तो मैं जानता था कि मेरे साथ मेघराज ने धोखा किया था, किन्तु उसने क्या किया था, यह आज मुझे तुम्हारी बातें सुनकर ही पता लगा है। मैं आज तक समझता था कि मुझे अपमानित करके राज्य से निकाल देने में उमादत्त का भी हाथ है, लेकिन आज तुम्हारी बातों से पता लगा है कि सारा दोष मेघराज का था । राजा उमादत्त का कोई दोष नहीं है। वे तो मेघराज की ऐयारी में फंस गए, उनके स्थान पर कोई भी होता तो धोखा खा जाता। आज मुझे पता लगा कि मेरा असली दुश्मन तो मेघराज है, उमादत्त नहीं, उमादत्त मुझसे अब भी नफरत करते होंगे, क्योंकि अभी तक उन्हें असलियत का पता नहीं लगा है। किन्तु मैं उमादत्त का ऐयार हूं—मैं आज भी उनका साथ चाहता हूं। जो अभियोग मेघराज ने मुझ पर लगाया था, वही अपराध खुद वह करना चाहता है। अब जबकि मैं असलियत जान गया हूं तो अपने जीते-जी मैं कभी मेघराज को सफल नहीं होने दूंगा। मैं आज भी उमादत्त का ऐयार हूं – जब उमादत्त को सबकुछ ठीक-ठीक पता लगेगा तो इस बार मुझे उसके राज्य में पहले से भी अधिक इज्जत वाला स्थान मिलेगा। तुमने कहा था विक्रमसिंह कि तुम अकेले होने के कारण मेघराज के खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे हो। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारे साथ हूं, हम दोनों मिलकर अपने मालिक ( उमादत्त) को इस जालिम दारोगा मेघराज से बचा सकते हैं। "


- "अगर तुम ऐसा करो बख्तावर तो सच मानो—–—मेरी नजर में तुम्हारी इज्जत दुगुनी हो जाएगी ।" विक्रमसिंह ने कहा । –“तो फिर मिलाओ हाथ । " बख्तावरसिंह बोला— "कुछ गलतफहमियों ने हमें दुश्मन बना दिया था, परन्तु आज वे गलतफहमियां दूर हो गई हैं। अतः हम हाथ मिलाकर एक-दूसरे को दोस्त स्वीकार करते हैं। साथ ही कसम खाते हैं कि अपने जीते-जी पापी मेघराज को कभी अपने इरादों में सफल नहीं होने देंगे।"


इस प्रकार हम देखते हैं कि विक्रमसिंह और बख्तावर दोस्त बन गए हैं। हम तो केवल वही लिख सकते हैं जो हमारी आंखों के सामने हो रहा है, हम ये नहीं जानते कि यह दोस्ती करते समय विक्रम और बख्तावर के दिमाग में क्या है? कौन सच्चे दिल से दोस्ती कर रहा है अथवा कौन किसको धोखा देना चाहता है ? ये ऐयारी का मामला है — और हम ऐयार नहीं, जो उनकी बातों को समझ सकें। खैर — आगे चलकर शायद हम जान जाएं कि इनके बीच हुआ यह फैसला सच्चे दिल का है अथवा दोनों में से किसी के दिल में कोई खोट है। आगे देखते हैं कि उनकी ये बातें होती हैं ।


-“लेकिन अब ये सोचना शेष है कि हम दुष्ट मेघराज को रोक कैसे सकते हैं ?” विक्रमसिंह ने कहा । 


—"मेरे ख्याल से एक ही रास्ता है।" बख्तावर ने कहा - "हम जानते हैं कि कोई कलमदान नाम की वस्तु है । वह मेघराज की कमजोरी है। अगर हम किसी प्रकार वह कलमदान प्राप्त कर लें तो मेघराज हमारे सामने भीगी बिल्ली बन सकता है । "


- "लेकिन वह कलमदान हम किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं ? " विक्रमसिंह ने प्रश्न किया।


—" कलमदान प्राप्त करने के लिए केवल दो ही रास्ते हो सकते हैं।" बख्तावरसिंह बोला – “एक तो ये कि हम पहले चंद्रप्रभा और रामरतन को दारोगा की इस तिलिस्म कैद से निकाल सकें और दूसरा ये कि हम उस आदमी का पता लगाएं जिसके बारे में चंद्रप्रभा और रामरतन ने मेघराज से ये कहा है कि वे कलमदान एक आदमी के पास रख आएं हैं—या वही हमें कलमदान का पता बता सकता है । "


—"लेकिन उस आदमी को ढूंढा कैसे जाए ?" विक्रमसिंह सोचता हुआ बोला— "पता नहीं वह कौन है ?"


-"यह बात तो ठीक है।" बख्तावरसिंह ने समर्थन किया – “इससे अच्छा तो ये है कि हम चंद्रप्रभा और रामरतन को किसी प्रकार उस तिलिस्म कैद से निकालने का प्रयास करें। मगर इसके लिए सबसे जरूरी ये है कि पहले हमें ये पता लगे कि पिशाच ने मेघराज के कान में क्या कहा था ?"


- "ये मैं तुम्हें बता सकता हूं, बख्तावर ।" अचानक दरवाजे की ओर से उभरने वाली एक नई आवाज ने सभी को चौंका दिया । बख्तावर, विक्रम, गुलबदन इत्यादि सभी ने पलटकर दरवाजे की ओर देखा—वहां पिशाच खड़ा था—पिशाचनाथ ! एक बार को तो पिशाच को यहां देखकर सभी चौंक पड़े। सभी के हाथ एकदम अपने हर्वे और तलवारों की ओर गए। किन्तु पिशाच लापरवाही के साथ मुस्कराकर आगे बढ़ता हुआ बोला – "जिस काम को केवल दिमाग के प्रयोग से हल किया जा सके—उसके लिए तलवार और हर्वे का प्रयोग करने वाला मूर्ख होता है। मैं स्वयं यहां तुम लोगों की समस्या हल करने आया हूं । ” -“लेकिन सबसे पहले तो तुम ये बताओ कि इस समय यहां कैसे आ गए ?” बख्तावर ने सतर्क स्वर में प्रश्न किया ।


— "तुम भूल रहे हो बख्तावर कि मेरा नाम पिशाच है।” पिशाच उससे दो कदम दूर ठहरकर बोला- “और पिशाच किसी भी समय कहीं भी पहुंच जाए, लोग इस बात पर आश्चर्य नहीं करते। कई बार तो लोगों ने ये भी देखा है कि पिशाच एक ही समय में कई-कई स्थानों पर पाया जाता है। मुझे पता लगा है कि इस समय आप लोग किसी मुसीबत में फंसे हुए हैं और मैं आपकी समस्या हल कर सकता हूं, अतः उपस्थित हो गया ।'


— "तुम हमारी क्या समस्या हल कर सकते हो और क्यों ?" बख्तावरसिंह ने उसे घूरते हुए कहा – “क्यों से मतलब है कि तुम्हें हमसे क्या लालच था या है ?"


-"केवल यही कि मैं तुमसे एक हजार सोने की मोहरें कमा सकता हूं।" पिशाच आराम से बोला- "तुम तो जानते हो कि पिशाच सबसे ज्यादा सोने की मोहरों से प्यार करता है, केवल एक हजार सोने की मोहरों में मैं तुम्हें ये बता सकता हूं कि मैंने मेघराज के कान में क्या कहा था और पांच हजार मोहरों में मैं तुम्हें चंद्रप्रभा और रामरतन दे सकता हूं। ये समझो कि इस समय वे दोनों मेघराज की नहीं, बल्कि मेरी कैद में हैं । "


– "किन्तु तुम तो मेघराज के दोस्त बन गए थे ?" विक्रमसिंह ने कहा ।


- "मूर्ख है मेघराज जो पिशाच को अपना दोस्त समझता है । " पिशाच ने कहा – “उसे ये तो पता नहीं है कि पिशाच मोहरों के अलावा किसी का दोस्त नहीं है। मैं तो साफ कहता हूं मैं उस हर आदमी के साथ दगा करता हूं जो मुझे सोने की मोहरे नहीं देता – जो मोहरें देता है, उसका काम मैं ईमानदारी से करता हूं।"


"—इसका मतलब तो ये हुआ कि तुम पक्के दुष्ट हो।" विक्रमसिंह क्रोधित हो उठा — "मोहरों के पीछे दोस्तों की जान ले लो।" 


– "बिल्कुल ले सकते हैं और एक की हम अभी लेकर दिखाएंगे।" पिशाच बिना विचलित हुए बोला — "बख्तावर क्या तुम मेरी एक बात थोड़े तखलिए (एकांत) में चलकर सुन सकते हो – बात तुम्हारे फायदे की है । "


" – तखलिए में क्यों यहां सबके सामने कहो।" बख्तावर अभी पिशाच की नीयत नहीं समझ पाया था ।


— "बात तुम्हारे फायदे की है, बख्तावर ।" पिशाच ने कहा – “सबके सामने कहने से उसमें से तुम्हारा फायदा निकल जाएगा, सुनना चाहते हो तो सुनो, वर्ना जाने दो मैं चला, मगर ये बात ध्यान रखना कि तुम एक बहुत बड़े धोखे में फंसने जा रहे हो। इस समय तो मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे हो, परन्तु जब तुम फंस जाओगे तो सोचोगे कि अगर मैं पिशाच की सुन लेता तो शायद इस मुसीबत में नहीं फंसता ।" इतना कहकर वापस जाने के लिए मुड़ गया पिशाचनाथ । बख्तावर तो उसके शब्दों पर विचार ही करता रह गया जबकि— 


-  "ठहर।" एकदम गरज उठा विक्रमसिंह-"जाता कहां है ? यहां आना तेरे हाथ था, किन्तु जाना तेरे हाथ नहीं है। इतना प्रबल नहीं है तू कि सबके बीच में से यूं आसानी के साथ निकलकर चला जाए। मेरे और बख्तावर के बीच ये फैसला हो चुका है कि हम उमादत्त का तख्ता किसी भी तरह नहीं पलटने देंगे और ये भी जानते हैं कि इस काम में तू मेघराज का खास सहायक है। मेघराज को ऐयारी की खास खास तरकीबें तू ही बताया करता है, अतः तुझे हम यहां से नहीं जाने देंगे। तुझसे पूछकर रहेंगे कि तूने मेघराज के कान में क्या कहा था ? तू चंद्रप्रभा और रामरतन से कलमदान का रहस्य किस तरह पता लगा सकता है ? " यह कहते हुए विक्रमसिंह ने म्यान सें तलवार खींच ली थी और झपटकर वह पिशाच के समीप पहुंच गया था ।


पिशाच बड़े आराम से पलटा । उसके होंठों पर मुस्कराहट थी। एक बार उसने बख्तावरसिंह की तरफ देखा, फिर बोला— "मुझे इस बात का आश्चर्य है विक्रमसिंह कि तुम पिशाच को इतना मूर्ख कब से समझने लगे हो कि वह तुम जैसे नमकहराम के सामने बिना किसी तैयारी के आ जाएगा ? तुम शायद यह नहीं देख रहे हो कि मैंने इस समय पहन क्या रखा है, ये देखो।" कहकर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और एक जोरदार अंगड़ाई ली। उसने जो काला लिबास पहन रखा था, उसमें से एक साथ ढेर सारी आग की चिंगारियां निकलीं और यह करिश्मा देखकर विक्रम चौंककर पीछे हट गया।


-"मुझे कोई नहीं पकड़ सकता ।" पिशाच मुस्कराकर बोला — "जो भी मेरे पास आएगा-जलकर खाक हो जाएगा। तुमसे एक बार फिर कहता हूं बख्तावर कि अगर तुम तखलिए में एक बार मेरी बात सुन लोगे तो एक बहुत बड़े धोखे से बच जाओगे-आगे तुम्हारी इच्छा । " कहकर पिशाच पुनः दरवाजे की ओर मुड़ा ।


—" ठहरो पिशाच !" एकाएक बख्तावर कुछ सोचता हुआ, आवाज में तब्दीली लाता हुआ बोला— "मैं तखलिए में तुम्हारी बात सुनने के लिए तैयार हूं।"


 –" नहीं बख्तावर ।" विक्रम तुरन्त बोला — "यह तुम्हें अपने विचित्र लिबास से जलाना चाहता है । "


" - "कुछ भी हो, विक्रम । " बख्तावर पिशाच की तरफ बढ़ता हुआ बोला – "लेकिन पिशाच की बातें सुनना इस समय बहुत जरूरी हैं। हमें किसी भी तरह चंद्रप्रभा और रामरतन को बचाना है और उनसे कलमदान का रहस्य पूछना है और इस काम के लिए हमारे पास पिशाच से अच्छा आदमी नहीं है। अगर इस काम में हमारी दस-पांच हजार मोहरें लग भी जाएं तो कोई बात नहीं, चंद्रप्रभा और रामरतन की जान तथा कलमदान का रहस्य इससे महंगा है।" यह कहता हुआ बख्तावर पिशाच के समीप जाकर बोला – "पिशाच, तुम मोहरों की चिन्ता मत करना - जितनी मोहरें मांगोगे, उतनी मिलेंगी, किन्तु शर्त यह होगी कि तुम हमसे धोखा नहीं करोगे। अगर वफादारी करोगे तो तुम्हें हम दो हजार मोहरें ज्यादा देंगे।"


-''इस समय तुमने बहुत बुद्धिमता का काम किया है बख्तावर पिशाच बोला—''मैं अब भी कहता हूं कि अगर तुम मुझे दुश्मन समझकर इस समय मेरी बातें नहीं सुनते तो बहुत जबरदस्त धोखा खाते।" कहने के बाद पिशाच ने दोस्ताना ढंग से बख्तावर के गले में बांहे डाली और तखलिए (अकेले) में ले जाकर बहुत धीरे से बोला "जो भी मैं कहूं उसका निर्णय करने से पहले तुम् चौंकना मत-बस इस तरह से रहना, जैसे मैं तुम्हे कोई बहुत साधारण बात बता रहा हूं। मेरी बताई हुई किसी भी बात पर तुम उस समय कोई कदम उठाना, जबकि झूठ-सच का अच्छी तरह फैसला कर लो।"


- "तुम बात बोलो पिशाच...!" बख्तावरसिंह ने कहा।


- सबसे पहली बात तो ये है कि विक्रमसिंह तुम्हें धोखा देकर बहुत बड़े जाल में फंसा रहा है।" पिशाच ने रहस्यमय ढंग से बताया। -"क्या ?" हल्के से चौंककर बोला बख्तावर -"यह कैसे हो सकता है— नहीं, तुम हममें फूट डलवाना चाहते हो !"


-''मैं पहले ही कहता था कि तुम चौंकना मत !" पिशाच बोला — "मैं यह भी जानता था कि तुम्हें पहले पहल मेरी बात का यकीन भी नहीं आएगा। मगर मेरे पास ऐसे सुबूत हैं कि तुम्हें हर हालत में विश्वास करना पड़ेगा। सुनो, असल में विक्रमसिंह उमादत्त के पक्ष में नहीं, बल्कि मेघराज का पक्षपाती है।"


बस -"विक्रमसिंह भी मेघराज से मिलकर उमादत्त का तख्ता पलटने की साजिश में शरीक है, क्योंकि मेघराज ने उसे अपने राज्य का सबसे बड़ा ऐयार घोषित करने का वादा किया है। तुम्हें शायद याद हो कि विक्रम ने थोड़ी देर पहले ही यह कहा था कि अभी तक कोई ये भी नहीं जानता कि उमादत्त का कौन आदमी मेघराज से मिल गया है। यही समझ लो कि विक्रम ही मेघराज से मिला है। तुमने इस बात पर भी ध्यान दिया हो, जब मैंने तुमसे कहा कि मैं मेघराज से गद्दारी करूंगा तो विक्रमसिंह ने किस प्रकार मुझे दुष्ट कहा था ? मेरे और मेघराज के बीच की जो कहानी तुम्हें विक्रम ने सुनाई है, वह बिल्कुल ठीक है, परन्तु विक्रम ने यह कहा है कि वे सब बातें मैंने छुपकर सुनी हैं, मगर मैं कहता हूं कि ये बातें उसने छुपकर नहीं सुनी हैं, बल्कि जिस समय ये बातें हुई हैं – उस समय हम तीनों ही साथ बैठे थे । " पिशाच की बातें सुनकर बख्तावर का दिमाग घूम गया, बोला - " लेकिन अगर उसके दिल में मेरे प्रति कोई धोखे की भावना होती तो वह मुझे तुम्हारे और मेघराज के बीच हुई बातों को सच क्यों बताता ? तथा अब वह मुझसे क्या धोखा कर सकता है ?" -“यही बात तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं बख्तावर, लेकिन तुम समझने की कोशिश नहीं कर रहे हो।" पिशाच बोला- "तुम शायद ये भूल रहे हो कि तुमसे बातें करते समय विक्रम के दिमाग में हर पल ये बात रही है कि उसकी पत्नी और लड़की दोनों तुम्हारे पंजे में हैं, अतः वह तुम्हें थोड़ी-बहुत सच्ची कहानी बताकर अपने विश्वास में लेना चाहता है। मैं समझता हूं कि वह सफल भी हो गया है। वह जानता है कि अगर तुम ये जान गए कि वह तुम्हारा दुश्मन है तो चंदा और कुंती की भी खैर नहीं है- अतः वह तुम्हें अपने विश्वास में लेकर आराम से फंसा देना चाहता है। "


—" लेकिन इन सब बातों का तुम्हारे पास सुबूत क्या है ?" बख्तावर ने पूछा – “सबसे पहले तो यह सोचो कि जो कहानी तुम्हें विक्रम ने सुनाई है——उसमें सबसे अधिक लाभ की अथवा काम की बात क्या थी ?" पिशाच ने कहा ।


-"जो तुमने मेघराज के कान में कहा था । बख्तावर ने जवाब दिया ।


"वह बात तुम्हें विक्रमसिंह ने क्यों नहीं बताई ?" पिशाचनाथ ने पुनः प्रश्न किया।


– "तुम तो बेकार की बात कर रहे हो पिशाच !" बख्तावर ऊबता-सा बोला— “जो बात तुमने मेघराज के कान में बताई थी, उसे भला विक्रम किस प्रकार सुन सकता था और जब उसने सुना ही नहीं तो बताए क्या ?"


– “यही तो तुम नहीं समझ रहे हो बख्तावरसिंह ! " पिशाच बात समझाने वाले स्वर में बोला – “ये बात तुम्हें उसने इसलिए नहीं बताई है कि वह इसे सुन नहीं पाया था, बल्कि इसका सबब ये है कि यह बात वह तुम्हें बताना नहीं चाहता। क्योंकि वह तुम्हें धोखा देना चाहता है। जरा दिमाग से सोचो कि जब हम यानी मैं और मेघराज सारी बातें अलग कमरे में कर रहे थे तो कोई भी बात मुझे उसके कान में कहने की क्या आवश्यकता थी ? वह भी ऐसी बात जो उन सब बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी । जरा सोचो कि सब बातें तो मैंने इस तरह कहीं कि छुपा हुआ विक्रम सुन सके और यही बात मैंने इस ढंग से कही कि विक्रम न सुन सके। अगर ऐसा हुआ होता तो इसका मतलब ये था कि मुझे ये मालूम था कि कोई छुपकर हमारी बातें सुन रहा है। अगर मुझे ये मालूम होता तो मैं अन्य बातें इस प्रकार क्यों कहता कि छुपा हुआ कोई आदमी उन बातों को सुन सके। किसी भी ढंग से विक्रमसिंह की बात ठीक नहीं बैठती । "


– "मैं अभी तक नहीं समझ सका हूं कि तुम कहा क्या चाहते हो ?" बख्तावरसिंह ने कहा ।


—"कमाल है !" पिशाच बोला—"मैं तो ये समझता था कि तुम्हारे अन्दर इतना दिमाग है कि तुम किसी भी बात को कम शब्दों में समझ सकते हो। परन्तु अब मैं महसूस कर रहा हूं कि तुम्हें हर बात खोलकर ही समझानी होगी। सुनो, विक्रमसिंह ने जो ये कहा है कि कोई बात मैंने मेघराज के कान में कही थी, यह विक्रमसिंह ने तुमसे झूठ बोला है। यह बात भी मैंने उसी ढंग से कही थी, जैसे अन्य बातें । विक्रम का यह कहना भी गलत है कि ये सब बातें उसने छुपकर सुनी हैं — असलियत ये है कि सब बात उसी समय हुई हैं—–जब हम तीनों मेघराज, मैं और विक्रम पास-पास बैठे थे। असली बात छुपाने के लिए उसने तुमसे यह बहाना करके छुपाई है कि मैंने वह बात मेघराज के कान में कही थी, दरअसल वही बात सबसे अधिक महत्त्व की थी, जिसे विक्रम तुमसे बहुत खूबसूरत बहाने के साथ छुपा गया। उसने तुम्हें इस हद तक मूर्ख बना दिया है कि तुम मेरी बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे हो। जरा खुद सोचो कि एक आदमी सारी बातें खुलेआम कह रहा है तो वह एक खास योजना ही कान में क्यों बताएगा ? यह विक्रम का बहाना है। असलियत यही है कि वह तुम्हें उस योजना के विषय में बताना ही नहीं चाहता । "


इस परिस्थिति में पहुंचकर बख्तावरसिंह सोचने पर विवश हो गया । मगर अभी कुछ देर पहले वह विक्रम को दोस्त कह चुका था । बिना किसी ठोस प्रमाण के वह किस प्रकार एकदम विक्रम पर अविश्वास कर बैठे ? सम्भव है कि पिशाच ही उसके साथ किसी प्रकार की ऐयारी खेल रहा हो । इस समय बख्तावरसिंह बड़ी अजीब-सी उलझन में फंसा हुआ था समय वह सबकुछ सोचकर निर्णय करना चाहता था । बोला – “क्या तुम्हारे पास इसके अतिरिक्त कोई सुबूत है ?" 


–“हां है !" पिशाच ने कहा – “विक्रम से ये पूछो कि वह बख्तावरसिंह क्यों बना ?"


पिशाच के इस प्रश्न ने बख्तावरसिंह के मस्तिष्क में धमाका - सा किया । वास्तव में उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि विक्रमसिंह उसका भेष बनाकर अपना कौन-सा काम निकालना चाहता था ? इस बार बख्तावर पर रहा नहीं गया और घूमकर विक्रमसिंह से यह प्रश्न कर दिया।


— " विक्रमसिंह ने जवाब दिया – “मेरे एक ऐयार साथी रूपलाल ने यह पता लगा लिया था कि गुलबदन नकली बलवंत बनकर दलीपसिंह के महल में मुकरन्द का पता लगाने के लिए गया है, रूपलाल ने किसी धोखे में फांसकर तुम्हें बख्तावरसिंह को गिरफ्तार भी कर लिया था। यह बात रूपलाल ने उमादत्त को बता दी थी । उमादत्त ने मुझे बुलाकर सबकुछ बताया और आदेश दिया कि मैं खुद मुकरन्द प्राप्त करूं। मैंने सोचा कि अगर मुकरन्द बलवंतसिंह बने गुलबदन के हाथ लगेगा तो वह अपने पिता यानी तुम्हें बख्तावर ही समझेगा । साथ ही यह भी सोचा कि तुम तो हो ही कैद में—–—अतः क्यों न मैं ही बख्तावर बनकर गुलबदन से मुकरन्द प्राप्त कर लूं ।'


-"अच्छी कहानी तैयार कर रखी है सबने ।" उसके चुप होते ही पिशाचनाथ बोला—‘“उमादत्त का ऐयार बनकर तुम कुछ लाभ उठाते हो। असलियत ये है कि तुम्हें पता ही नहीं था कि गुलबदन बलवंतसिंह बना हुआ है। तुम्हें इतना पता था कि बख्तावरसिंह उमादत्त की कैद में पहुंच चुका है। बख्तावरसिंह को रूपलाल ने केवल इसलिए गिरफ्तार किया था, क्योंकि राजा उमादत्त ने बख्तावरसिंह को देश निकाला दे दिया था। इसलिए रूपलाल ने बख्तावरसिंह को उमादत्त के राज्य में देखकर गिरफ्तार कर लिया —–मगर उमादत्त दिल-ही-दिल में काफी पहले से बख्तावरसिंह की कमी महसूस कर रहे थे, अतः उन्होंने दरबार में उन्हें अपनाना भी चाहा, मगर उन्होंने उस इच्छा को ठुकरा दिया और इन्हें कैद में डाल दिया ।


–" बस इतना ही बड़ा काम उमादत्त की जानकारी और उनकी आज्ञा से हुआ है। इससे आगे की सारी बातें मेघराज के इशारे पर हुई हैं। उमादत्त के दरबार में उस समय तुम, विक्रम और मेघराज भी उपस्थित थे। बख्तावर को तुम्हारे सामने ही कैद किया गया था । उस समय तुम नहीं जानते थे कि बख्तावरसिंह का लड़का मुकरन्द प्राप्त करने बलवंतसिंह बनकर दलीपसिंह के महल में गया हुआ है। दरबार बर्खास्त होने के बाद मेघराज ने तुम्हें अकेले में अपने घर बुलाकर यह रहस्य बताया और तुम्हें बख्तावरसिंह बनने की आज्ञा दी और यह सारे काम तुम मेघराज की ही आज्ञा से ही कर रहे हो ।”


- "क्या मतलब ?” एकदम चौंककर बोला विक्रमसिंह – “तुम ये कहना चाहते हो कि मैं मेघराज से मिला हुआ हूं ?"


"क्या यह गलत है ?” पिशाच व्यंग्यात्मक स्वर में बोला— "इस तरह के नाटक से तुम हमें धोखा नहीं दे सकते, विक्रमसिंह। हमारे पास एक ऐसा सुबूत भी है जिससे तुम्हारी सारी असलियत खुल जाएगी। मगर हम ये मानते हैं विक्रम कि अगर हम यहां नहीं आ जाते तो तुम बख्तावर को धोखा अवश्य दे देते।”


- "ये गलत है बख्तावर !" एकदम चीख पड़ा विक्रम – “इसकी बातों में मत आना। ये एक नम्बर का झूठा, जालसाज, दुष्ट और कमीना है। ऐसा ही वो दुष्ट मेघराज है। मैं तुम्हें बता चुका हूं कि अब ये दोनों मिल गए हैं। दोनों मिलकर कोई बड़ा बखेड़ा करना चाहते हैं। न जाने यह कैसे यहां पहुंच गया है। इसने हमारी बातें सुन ली हैं । यह समझ गया है कि हम दोनों दोस्त बनकर इसकी और मेघराज की साजिश असफल करना चाहते हैं। इसी सबब से यह नई नई बात बनाकर हम दोनों में फूट डलवाना चाहता है। यह मेरे विरुद्ध वैसी ही साजिश है, जैसी कि उमादत्त की नजरों से तुम्हें गिराने के लिए मेघराज ने की थी। पिशाच का यकीन कभी मत करना – वरना जबरदस्त धोखा खाओगे।"


बख्तावर बड़ी अजीब स्थिति में फंस गया था । वह तय नहीं कर पा रहा था कि पिशाच सच्चा है अथवा विक्रमसिंह । अपने दिमाग की उलझन को सुलझाने के लिए उसने पिशाच से कहा – “तुम्हारे पास क्या सुबूत है कि विक्रमसिंह मेघराज से मिला हुआ है ?" 


- " पहले तो यह सोचो कि मैं यहां क्यों पहुंच गया ?” पिशाच ने कहा ।


- "तुमने कहा था कि तुम कहीं भी किसी भी समय पहुंच सकते हो ।"

  –“लेकिन फिर भी कहीं पहुंचने का कोई-न-कोई जरिया और सबब तो होता ही है ।" पिशाच बोला— "मुझे यहां का पता मेघराज से मिला है। जब उसने मुझे यहां भेजा, तब तक उसे यह बिल्कुल नहीं पता था कि तुम उमादत्त की कैद से भाग गए हो, तुम्हारे साथ जो भी कुछ गुजरा, वह सब खुद मेघराज ने मुझे बताया है। उसने बताया कि इस इस तरह से रूपलाल ने तुम्हें धोखा दिया और अब तुम उमादत्त की कैद में हो और मैंने (मेघराज ) विक्रम को बख्तावरसिंह बना रखा है। हमारा बनाया हुआ बख्तावरसिंह ——यानी विक्रमसिंह यहां —–—यानी बख्तावर के घर पर मिलेगा। उसने मुझे विक्रमसिंह के लिए एक कागज लिखकर दिया और मुझसे कहा कि यह कागज मैं बख्तावरसिंह बने विक्रमसिंह को दे दूं । मगर जब यहां आया तो आप लोगों की बातें सुनीं। मैं समझ गया कि विक्रमसिंह एक झूठी कहानी गढ़कर तुम्हें धोखा देना चाहता है। अतः बीच में कूद पड़ा, क्योंकि मुझे तुमसे अधिक लाभ है।"


"ये गलत है–झूठ है । " विक्रमसिंह चीख पड़ा – "मेरे खिलाफ साजिश है। "


"तुम्हारी यह पोल- पट्टी तो वह कागज खोल देगा जोकि मेघराज ने मुझे इसलिए लिखकर दिया था कि यह मैं तुम्हें दे दूं, किन्तु अब यह कागज नकली बख्तावर की जगह असली बख्तावरसिंह पढ़ेगा । लो बख्तावर — और जान लो कि कौन सच्चा और कौन झूठा है !"


बख्तावरसिंह ने वह कागज लिया । वह अच्छी तरह पहचान गया कि यह लिखाई तो वास्तव में मेघराज की ही है। लिखा था। 

प्यारे विक्रमसिंह,

मैं पिशाचनाथ को यह कागज लेकर तुम्हारे पास भेज रहा हूं, आज से चार दिन पहले पिशाच ने रामरतन और चंद्रप्रभा से कलमदान का पता लगाने की जो तरकीब बताई थी। आज हम उस तरकीब पर अमल करने वाले है। हमें आशा है कि अभी तक तुमने गलबदन से मुकरन्द का पता लगा लिया होगा । तुमने हमसे कहा था कि हमारे तिलिस्म में घूमने की तुम्हारी भी बड़ी इच्छा है। आज वह वक्त आ गया है —तुम यह पत्र देखते ही पिशाच के साथ चले आओ। आज हम तीनों तिलिस्म में जाएंगे और पिशाच की तरकीब से कलमदान का पता लगाएंगे। बाकी सब ठीक है, शेष बातें मिलने पर होंगी।

तुम्हारा मेघराज | । 


वह पत्र बख्तावरसिंह ने जोर-जोर से पढ़कर सबको सुनाया। पत्र के समाप्त होते ही विक्रमसिंह चीखा — “नहीं... ये गलत है बख्तावर ये धोखा है... मुझमें और तुममें फूट डालकर फिर हमें एक बहुत ही खतरनाक जाल में उलझाया जा रहा है । "


"अब तुम्हारा झूठ नहीं चलेगा विक्रमसिंह !" बख्तावरसिंह गुर्राया— "मैं मेघराज की लिखाई पहचानता हूं।"


-"इस साजिश को समझने की कोशिश करो बख्तावर । " विक्रमसिंह बोला—‘‘ये कमीना पिशाचनाथ मेघराज से मिला हुआ तो है ही। मुझे फंसाने के लिए यह दुष्ट ऐसा पत्र असली मेघराज से ही लिखवा लाया हो तो क्या आश्चर्य की बात है ? मैं नहीं, बल्कि ये पिशाच मेघराज से मिला हुआ है ! तुम्हारे सामने झूठा बनाने की यह इन दोनों की गहरी चाल है ! तुम तो भुगत चुके हो कि मेघराज कैसी खतरनाक साजिश बनाता है । "


–“अब तुम्हारी एक नहीं चलेगी विक्रमसिंह ।" बख्तावरसिंह बोला – “हम अच्छी तरह जानते हैं कि मेघराज कैसी साजिश बनाता है ? मेघराज इस बार तुम्हारे जरिए हमें साजिश में फंसाना चाहता है। गुलबदन !" एकाएक बख्तावर ने अपने लड़के को आदेश दिया – "विक्रमसिंह को गिरफ्तार कर लो ।


. विक्रमसिंह इस समय ऐसी परिस्थितियों में नहीं था कि वह शारीरिक विरोध कर सकता—क्योंकि उसके चारों ओर गुलबदन, बख्तावरसिंह और पिशाचनाथ के साथी थे । विक्रमसिंह चीखता रहा कि पिशाच झूठा है—वह सच्चा है, किन्तु किसी ने उसकी एक न सुनी और बख्तावरसिंह के आदेश पर उसे गुलबदन गठरी बनाकर कैदखाने में डालने के लिए ले गया — उसके जाने पर बख्तावरसिंह पिशाच की ओर पलटा और बोला — "मुझे यकीन हो गया है पिशाच कि तुम सच्चे हो। वास्तव में अगर तुम समय पर न आते तो आज फिर मैं एक साजिश में फंस जाता। मानना पड़ेगा कि दुष्ट मेघराज बड़ी गहरी चाल चलता है। और अब तुम बताओ कि वह योजना क्या है जोकि तुमने मेघराज को बताई थी ? मैं तुम्हें मुंहमांगी सोने की मुहरें दूंगा, लेकिन शर्त यही है कि इस काम में ईमानदारी से मेरा साथ दो । ”


– “मैं अब अधिक समय खराब करना नहीं चाहता हूं।" पिशाच ने कहा—‘‘मैंने मेघराज को योजना बताई थी कि मैं यानी पिशाचनाथ मेघराज के साथ उस तिलिस्म में जाऊंगा। मेरे साथ विक्रमसिंह भी होगा जो तुम – यानी बख्तावरसिंह होगा ।


–“मेघराज हम दोनों को वह कैदखाना दिखा देगा, जहां रामरतन और चंद्रप्रभा होंगें ।


“बस – वह कैदखाना दिखाकर मेघराज एक स्थान पर छुप जाएगा। इसके पश्चात मैं और बख्तावरसिंह — यानी विक्रमसिंह इस तरह का नाटक करेंगे, जैसे हम दोनों चंद्रप्रभा और रामरतन को कैद से छुड़ाने आए हैं। हम दोनों उन्हें कैद से निकालकर ले भी जाते । इस तरह चंद्रप्रभा और रामरतन ये बिल्कुल नहीं समझ सकेंगे कि असली बख्तावर नहीं, नकली है । ।"


-" बख्तावर बना विक्रम उनसे मेरे बारे में कहता है कि – इसका नाम पिशाच है। इन्हीं की मदद से मैं यहां तक पहुंचा हूं और इसके बाद बख्तावरसिंह बना विक्रम उनसे आसानी से कलमदान का पता पूछ लेता। क्योंकि चंद्रप्रभा और रामरतन की नजरों में तो विक्रम बख्तावर होता, अतः वे आसानी से कलमदान का पता बता देते और मेघराज को सफलता मिल जाती ।”


—"बहुत सुन्दर !" बख्तावरसिंह के मुंह से निकला — "वास्तव में तुमने मेघराज को बड़ी अच्छी तरकीब बताई थी।"


-“अब भी हम सारा काम इसी तरकीब से करेंगे । " पिशाचनाथ ने कहा – “अन्तर केवल यही होगा कि नकली बख्तावर यानी विक्रमसिंह के स्थान पर तुम यानी असली बख्तावर मेरे साथ चलोगे । मेघराज यही समझेगा कि तुम विक्रमसिंह ही हो और फिर हम सारा काम उसी योजना के अनुसार करेंगे। चंद्रप्रभा और रामरतन को कैद से निकालने के बाद मेघराज को धोखा दे देंगे। बस —–— अब यही तरकीब है – तुम जल्दी से जल्दी मेरे साथ चलो।"


– "चलते हैं, गुलबदन को आने दो, उसे कुछ समझाकर चलता हूं।" कहने के साथ ही बख्तावर ने अपनी जेब से चिलम निकाली और के फिर उसमें तम्बाकू डालकर पीने की तैयारी करने लगा—उसने अभी दो-तीन कश ही लगाए थे कि पिशाच ने कहा – “क्या खुद ही तम्बाकू का आनन्द लिये जाओगे ?" -


– “ऐसी क्या बात है ?" मुस्कराकर बख्तावर बोला – "लो, चिलम पियो !”


पिशाच ने चिलम हाथ में लेकर दनादन दो-तीन जोरदार कश मारे और उस समय वह हल्के से चौंक पड़ा – जब उसका दिमाग घूमने लगा। मगर तब तक देर हो चुकी थी। उसने खुद को सम्भालने की कोशिश की, मगर सम्भाल न सका और बेहोश होकर धरती पर लुढ़क गया । 


- "चला था बख्तावर को धोखा देने।" मुस्कराकर बख्तावर बुदबुदाया—उसी समय अपने साथियों के साथ गुलबदन लौट आया। वह देख वह आश्चर्य के साथ बोला--"अरे, यह क्या पिताजी ?"


-"अभी तू ऐयारी नहीं सीखा है बेटे !" बख्तावर बोला— "वह कम्बख्त मुझको ही फंसाना चाहता था। मैं तो पहले ही जान गया था कि यह झूठा और विक्रमसिंह सच्चा है किन्तु इससे वह तरकीब पूछनी थी। जो इसने मेघराज के कान में बताई थी। वह तरकीब मैंने पूछ ली।


 -“असल बात ये भी थी कि यह मुझे खूबसूरत बहाने के साथ मेघराज के पास ले जाना चाहता था --वहां ले जाकर ये मुझे भी रामरतन और चंद्रप्रभा की भांति कैद कर लेते। हमारे सामने यह सच्चे विक्रमसिंह को झूठा बनाना चाहता था। अवश्य अब हम आसानी से रामरतन और चंद्रप्रभा को मेघराज की तिलिस्मी कैद से निकालकर ला सकते हैं। जन मेघराज पर असलियत खुलेगी तो वह अपना सिर पीट लेगा।"

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