6 दिसम्बर : शुक्रवार
अगले रोज शादी के गैस्ट्स की स्क्रीनिंग की बाबत अख़बार में कोई ख़बर नहीं थी।
त्रिपाठी पिता पुत्र ने उससे यही नतीजा निकाला कि वो विस्तृत स्क्रीनिंग पुलिस की उम्मीद से कहीं ज़्यादा वक्तखाऊ काम साबित हुआ था जो कि पिछले रोज़ मुकम्मल नहीं हो सका था और ज़रूर इसी वजह से जस्से की कोई खोजखबर नहीं थी।
बहरहाल इन्तज़ार के अलावा कोई चारा नहीं था।
दोपहरबाद चिन्तामणि के जेहन में एक ख़याल आया जिसने उसे कनॉट प्लेस पहुंचा दिया जहाँ कि गैलेक्सी ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन का आफिस था।
लॉबी में लगे इन्डेक्स से उसे मालूम हुआ कि वो पांचवीं मंज़िल पर था।
विमल आफिस में होता तो वो कह सकता था कि उधर से गुजर रहा था, सोचा, देखू हमारे पड़ोसी की वर्क प्लेस कैसी है।
आफिस की औकात से उसे पड़ोसी की नौकरी की औकात भी मालूम हो सकती थी।
लिफ्ट पर सवार हो कर वो पांचवीं मंजिल पर पहुंचा।
गैलेक्सी के आफिस में दाखिल होते ही रिसैप्शन था जिस पर वो ठिठका तो रिसैप्शनिस्ट युवती ने सिर उठा कर उसकी तरफ देखा।
“अरविन्द कौल से मिलना है।” – वो बोला।
“क्या काम है, सर?”
“उन्हीं को बोलूंगा न!”
“सर, मैंने इसलिये पूछा था कि अगर एकाउन्ट्स रिलेटिड कोई काम है तो आप चीफ एकाउन्टेंट से मिल सकते हैं क्योंकि कौल साहब आफिस में नहीं हैं।”
“आफिस में नहीं हैं! छुट्टी पर हैं?”
“टूअर पर हैं।”
“बाहर?”
“टूअर पर बाहर ही जाया जाता है, सर।”
“मेरा मतलब हैं, कहां गये हैं?”
“हैदराबाद।”
“आज ही गये?”
“जी नहीं, काफी दिन हो गये हैं। बीच में आये थे, सोमवार फिर चले गये।”
“हैदराबाद ही?”
“जी हां। वहां भी गैलेक्सी का आफिस है।”
“आई सी। कब तक लौटेंगे?”
“कोई पक्का नहीं है।”
“कोई अन्दाज़ा?”
“कोई अन्दाज़ा नहीं, सर। आफिस का काम है, हो सकता है कल फ्री हो जायें, हो सकता है हफ्ता न हों।”
“आई सी, ओके, थैक्यू।”
“अगर आप चीफ एकाउन्टेंट से मिलना चाहें तो . . .”
“नहीं। कौल साहब से ही काम था। फिर पता करूंगा।”
“वैलकम, सर।”
चिन्तामणि घर लौटा तो जस्से को इन्तजार करते पाया।
ड्राईंगरूम में बैठा वो अरमान से बतिया रहा था। उसने उठ कर चिन्तामणि का अभिवादन किया।
“बैठ, बैठ।” – चिन्तामणि उसके सामने बैठता बोला – “बैठ।”
जस्सा वापिस अरमान के पहलू में बैठ गया।
“शादी के मेहमानों की पुलिस स्क्रीनिंग किसी सिरे लगी या नहीं?” – चिन्तामणि ने पूछा।
“स्क्रीनिंग तो सिरे लगी, त्रिपाठी जी” – गहरी सांस लेता जस्सा बोला – “लेकिन नतीजा वो न निकला जिसकी उम्मीद थी, जिसका इन्तज़ार था।”
“क्या हुआ?”
“कम-से-कम दो हज़ार लोगों की शादी में हाजिरी थी। ऐसी शादियों में कोई अकेला तो आता नहीं! एक परिवार को एक इकाई माना जाये तो भी छः सात सौ परिवार वहां थे जिन की हज़ारों की तादाद में तसवीरें खिंची थीं जिनमें से पहले तो डुप्लीकेट छांटना और अलग करना विकट काम था ...”
“सिरे पर पहंच, जस्से” – चिन्तामणि उतावले स्वर में बोला – “सिरे पर पहुंच। आखिर, बोल, क्या हुआ?”
“जैसी की उम्मीद थी, कोई एक जना सिंगल आउट न हुआ। कम-से-कम पन्द्रह जने ऐसे निकले जिनको न लड़की वालों के आदमी ने पहचाना और न लड़के वालों के आदमी ने पहचाना।”
“यानी एक वो ही गैट क्रैशर नहीं था जिसने अशोक को ... का बुरा हाल किया, या करवाया?”
“कई थे ऐसे। बड़ी शादियों में ये कोई बड़ी बात नहीं।”
“उन की तसवीरें मुहैया की?”
“की किसी तरह से।”
“पुलिस से?”
“तौबा!”
“तो कैसे की?”
“एक फोटोग्राफर को पटाया। भारी फीस भरी उसकी ...”
“तू फीस की परवाह न कर। उसकी जैसी चाहेगा भरपाई हो जायेगी। साले खाते भरे पड़े हैं। लॉकर भरे पड़े हैं।”
“दो वीडियो वालों में से कोई न पटा। दोनों बोले पुलिस ने सब कुछ कब्ज़ा लिया, पता नहीं कब वापिस मिलेगा। स्टिल फोटोग्राफर छ: थे, एक को आखिरी पन्द्रह बारातियों के दस, बारह के प्रिंट बनाने को बोला गया था। मैंने उसको काबू किया और भारी फीस भर कर एक सैट मैंने भी हासिल किया।”
“साथ लाया है?”
“लो! तो और आया किस लिये हूं!”
“दिखा।”
जस्से ने एक खाली लिफाफे में से पन्द्रह प्रिंट निकालकर चिन्तामणि को सौंपे।
“तूने देखे?” – प्रिंट थामते चिन्तामणि ने बेटे से पूछा।
“हां।” – अरमान बोला।
“क्या देखा?”
“पहले आप देख लीजिये, फिर बोलता हूं।”
“हूं।”
चिन्तामणि ने काफी देर पन्द्रह प्रिंट्स को उलटा पलटा।
“मेरे को तो” – आखिर वो बड़बड़ाया – “इन में से अपने पड़ोसी जैसा कोई नहीं लगता!” – वो अरमान की तरफ घूमा – “तेरे को लगता है?”
“लगता तो नहीं” – अरमान बोला। – “लेकिन ...”
“क्या लेकिन?”
“एक ... भेद की बात है।”
“अरे, क्या?”
अरमान ने पिता के हाथ से तसवीरें लीं और उसमें से एक तसवीर छांटी।
“इस तसवीर को देखिये।” – वो बोला – “इसमें मेज़बान के रूबरू तीन मेम्बरान की एक फैमिली दिखाई दे रही है।”
“देखी मैंने। गंजा, तोंदियल, हैंडलबार मूछों वाला बूढा हमारा पड़ोसी नहीं हो सकता। साथ का नौजवान तो बिल्कुल भी नहीं हो सकता।”
“ठीक, ठीक। मुझे आप की हर बात से इत्तफ़ाक है लेकिन मैं आपकी तवज्जो तीसरे नग की ओर दिलाना चाहता हूं। ये लड़की बहुत खूबसूरत है, बल्कि बहुत से ज़्यादा खूबसूरत है।”
“अरे, बला की खूबसूरत है। माना। तो?”
“दूसरी वारदात के बाद हम सेफली कह सकते हैं कि उसी शख्स ने उसको ऑर्गेनाइज़ किया था जिसने पहले – हफ्ता पहले, पिछले शुक्रवार को – अमित गोयल को अपना शिकार बनाया था। अमित गोयल ने खुद बोला था कि वो एक बला की हसीना के रूप जाल में फंसकर उल्लू बना था।”
“तो?”
“ये बला की हसीना है।”
“हँह! खोदा पहाड़ और निकला चूहा। अरे लड़के, इतनी हाई स्टेटस की शादी में, जिसमें बकौल जस्सा, दो हज़ार मेहमानों की शिरकत थी, ये एक ही बला की हसीना शामिल होगी?”
“ऐसी एक ही होगी जिसका अशोक से वास्ता पड़ा, जिसे अशोक पहचान सकता है।”
चिन्तामणि एकाएक ख़ामोश हो गया। कई क्षण अचरज से वो पुत्र को देखता रहा, आखिर अर्थपूर्ण भाव से उसने जस्से की तरफ देखा।
“कल शाम तक तो वो हस्पताल में ही था’ – जस्सा बोला – “और किसी को उससे मिलने की इजाजत नहीं थी। आज शायद ऐसा न हो।”
“या छुट्टी मिल गयी हो” – अरमान बोला – “घर चला गया हो! अमित को तो अगले रोज घर भेज दिया गया था।”
“कहीं भी हो, मालूम कर लूंगा। ये एक तसवीर मेरे को दे, बाकी रख ले।”
“रख के मैं क्या करूंगा?”
“बार-बार देखना। शायद कुछ सूझे! कोई क्लू हाथ लगे।”
“ओके। छोड़ जा।”
“चलता हूं।” – जस्सा उठने को हुआ।
“नहीं, अभी बैठ।’ – चिन्तामणि जल्दी से बोला – “एक बात और सुन के जा।”
वो वापिस बैठ गया।
“मैंने शक जाहिर किया था” – चिन्तामणि बोला – “कि हमारे सफेदपोश, गऊ-गणोष लगने वाले पड़ोसी का कोई और खुफिया किरदार हो सकता है। आज मेरा वो शक मजबूत हुआ है।”
“कैसे?” – जस्सा उत्सुक भाव से बोला।
“उसने एक बार मुझे खुद बताया था कि वो कहां, क्या नौकरी करता था। आज मैं केजी मार्ग पर स्थित उसके आफिस में गया था जिसका नाम गैलेक्सी ट्रेडिंग कार्पोरेशन था . . .”
अरमान ने हैरानी से अपने पिता की ओर देखा।
“बड़ी कम्पनी थी कोई। बड़ा आफिस था। मैंने अरविन्द कौल के बारे में पूछा तो पता लगा कि टूअर पर सोमवार से हैदराबाद गया हुआ था। कब से गया हुआ था?”
“सोमवार से।”
“पर वो तो रोज़ गली में दिखाई देता है!”
“अच्छा !”
“हां।”
“किसी वजह से नहीं जा सका होगा!”
“तो उसके आफिस में इस बात की खबर क्यों नहीं है?”
“होगी! जिसको होनी चाहिये, उसको की होगी। जिस से आपने बात की ...”
“रिसैप्शनिस्ट से की।”
“उसको नहीं होगी!”
“कौल कम्पनी में अधिकारी है।” – अरमान बोला – “एकाउन्ट्स आफिसर है। ज़रूरी तो नहीं कि उसके बारे में रिसैप्शनिस्ट को हर खबर हो।”
“अरे, लड़के, रिसैप्शनिस्ट है, आफिस की ऐन्ट्रैस पर बैठती है, ये तो खबर होगी कि नहीं कि वो आफिस में है या नहीं?”
अरमान हड़बड़ाया, फिर स्वयमेव उसका सिर सहमति में हिला।
“वो तो पूरे विश्वास के साथ कह रही थी कि कौल साहब सोमवार से टूअर पर हैं, हैदराबाद गये हुए हैं!”
अरमान खामोश रहा।
“और कौल साहब इलाके में विचरते दिखाई देते हैं।”
“एक वजह हो सकती है।” – जस्सा बोला।
“क्या?”
“डंडी मार रहा है। एम्पलायर को धोखा दे रहा है। जाहिर कर रहा है हैदाबाद में है, पर घर बैठा है।”
“ऐसा सरकारी नौकरियों में चलता है, प्राइवेट में नहीं। फिर एकाध दिन भांजी कोई मार ले तो कोई बात है, वो तो सोमवार से हैदराबाद गया बताया जा रहा है पर घर बैठा है!”
“ठीक! सब ठीक!” – अरमान उतावले स्वर में बोला – “आप ये बताइये कि आप कहना क्या चाहते हैं?”
“ये कि उसके ढोल में यकीनी कोई बड़ी पोल है।”
“अच्छा , है। तो?”
“तो ये कि ऐसे शख्स का कोई क्रिमिनल रिकार्ड हो सकता है। आजकल नोन क्रिमिनल्स का पुलिस के पास कम्प्यूट्राइज्ड रिकार्ड है और हर स्टेट में पुलिस के अन्डर रिजनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो काम करता है। दिल्ली राजधानी है इसलिये यहां वो महकमा सैन्ट्रल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो – सीसीआरबी – कहलाता है। हमारा जस्सा वहां पहुंच बनाने की कोई जुगत कर सके तो हमें मालूम पड़ सकता है कि हमारा पड़ोसी वाइट कालर बाबू असल में क्या बला है। और नहीं तो ये कनफर्म हो सकता है कि उसका कोई पुलिस रिकार्ड नहीं है, वो जो वो खुद को बताता है, वो ही है। अब बोल, जस्से, क्या कहता है?”
“मैं इस महकमे से वाकिफ तो हूं।” – जस्सा संजीदगी से बोला – “मेरे को ये भी मालूम है कि वहां आम आदमी भी किसी बात की पड़ताल के लिये अर्जी लगा सकता है।”
“ठीक है, लगा।”
“लेकिन अर्जी के साथ नत्थी करने के लिये कुछ चाहिये भी तो होता है जिसकी बिना पर ब्यूरो पड़ताल करेगा? हमारे पास क्या है?”
खामोशी छा गयी।
“फिंगरप्रिंट्स झूठ नहीं बोलते। वो तब्दील भी नहीं किये जा सकते। हम उसके फिंगरप्रिंट्स हासिल कर सकते हैं।”
“हम?”
“जस्सा ।”
“आप कहते हैं तो कर तो मैं लूंगा ही कुछ-न-कुछ, लेकिन अभी एक और भी तो फच्चर हैं!”
“और क्या?”
“अर्जी के जवाब की मिनीमम मियाद तीस दिन है, ज़्यादा भी लग सकते हैं।”
“सत्यानाश!”
“लेकिन पुलिस को ऐसा जवाब चुटकियों में हासिल होता है क्यों कि महकमा ही उनका है। आप का भाई एमएलए है, उसके ज़रिये कुछ ऐसा जुगाड़ कीजिये कि बाजरिया पुलिस आप का सोचा ये काम हो सके।”
“मैं जोग से बात करूंगा लेकिन तू फिंगरप्रिंट्स हासिल कर लेगा?”
“उम्मीद तो है! ये काम हो जाये” – उसने हाथ में थमी तसवीर की ओर इशारा किया – “उसने बाद देखूगा क्या कर सकता हूं!”
“उसके बाद ही। पहला काम ये।”
“ठीक है।”
अकील सैफी ऑन रोड था।
वो उम्दा सूट-बूट में सज़ा-धजा था और अपनी ‘फिगो’ खुद चला रहा था। उसकी मंजिल अशोक विहार था जहां उसने अपने एक करीबी दोस्त की बहन की सगाई में शामिल होना था। अगले हफ्ते शादी थी और उसने उस में भी हाजिरी भरनी थी।
वो इस बात से बेखबर था कि उसके आवास, जो कि निजामुद्दीन ईस्ट में था, से ही एक काली पीली टैक्सी, जिसमें दो हमशक्ल नौजवान सवार थे, उसके पीछे लगी हुई थी जिनको खबर थी कि उसकी मंज़िल अशोक विहार थी और वो वहां पहुंचने के लिये कौन-सा रूट अख्तियार करता था, इसकी खबर उन्होंने आगे करनी थी।
तीस नवम्बर से ही – जबकि उसे अमित के साथ बीती की खबर लगी थी – उसने अपनी आउटडोर मूवमेंट्स को बहुत रिस्ट्रिक्ट किया हुआ था, तब से एक बार भी ऐसा नहीं हुआ था कि लम्बे मौजमेले के बाद वो आधी रात को घर लौटा हो। फिर अमित वाला अंजाम अशोक का भी हो गया तो उसने नाइट आउटिंग का खयाल ही छोड़ दिया था। दोस्त की बहन की सगाई में हाजिरी भरना जरूरी था इसलिये वो अशोक विहार जा रहा था लेकिन वो जल्दी घर से निकला था और उसका जल्दी ही लौट आने का इरादा था।
अशोक न्यू राजेन्द्र नगर अपने घर पहुंच चुका था लेकिन उसकी उससे मुलाकात अभी भी नहीं हो पायी थी। उसका मोबाइल उसका पिता सुनता था और रूखाई से कहता था कि अशोक की हालत मुलाकात के लायक सुधरेगी तो वो खुद ख़बर करेगा।
आगे आईटीओ का फ्लाईओवर का जिस पर उसने कार डाली।
पैसेंजर सीट पर बैठे जुड़वें ने मोबाइल पर आगे काल लगायी – “वो लूप रोड पर नहीं गया है जो कि सीधे आईएसबीटी पहुंचती है, सीधा राजघाट की तरफ गया है।”
‘फिगो’ राजघाट का अतिव्यस्त चौराहा पार करके आगे बढ़ी, फिर शान्तिवन का अगला चौराहा पार किया और लाल किले की दीवार के साथ-साथ बनी सड़क पर दौड़ने लगी।
वो सलीमगढ़ फोर्ट के करीब पहुंचा तो उसे आगे सड़क किनारे एक औरत-मर्द खड़े दिखाई दिये; मर्द लिफ्ट मांगने के ट्रेडिशनल ढंग से हाथ हिला रहा था।
‘हसीन है साली’ – अकील ने मन-ही-मन बोला – लेकिन क्या फायदा! खसम साथ था।
वो और करीब पहुंचा तो उसे औरत का ढोल जैसा पेट दिखाई दिया।
‘तौबा! हामला थी साली! वो भी फुल ब्लोन! पता नहीं शादी के बाद औरतों को बच्चा पैदा करने की क्या जल्दी होती है! अल्लाह! मुल्क में क्या कोई ऐसा कानून नहीं है कि खूबसूरत औरत के शादी करने पर पाबन्दी हो!’
उसने कार उन दोनों के करीब रोकी और पैसेंजर सीट की विंडो का शीशा आधा गिराया।
“हमारी टैक्सी बिगड़ गयी है।” – मर्द विंडो के खुले हिस्से तक झुककर याचनापूर्ण स्वर में बोला – अगर आप ...”
अकील ने देखा उनके पीछे थोड़ा परे हटके एक ‘असैंट’ खड़ी थी जिसका हुड उठा हुआ था और एक शख्स – शायद ड्राइवर – हुड के नीचे सिर डाले भीतर हाथ चला रहा था।
‘नयी कार! फिर भी बिगड़ गयी!’
“... हमें कहीं आगे तक लिफ्ट दे दें तो मेहरबानी होगी। बेगम उम्मीद से हैं. आखिरी महीना है, ज़्यादा देर खडी नहीं रह सकतीं। अगर आप हमें आईएसबीटी भी उतार देंगे तो वहां से हमें सवारी मिल जायेगी।”
“वैसे कहां जाना है?” – अकील ने पूछा।
“शक्तिनगर। आपने?”
“अशोक विहार।”
“फिर तो आप हमें आगे उतार सकते हैं। शक्तिनगर अशोक विहार के रास्ते में ही तो है!”
अकील ने औरत के फूले पेट पर निगाह डाली।
‘तौबा! फुल तैयार है! जुड़वां ढो रही हो, तो भी कोई बड़ी बात नहीं।’
“जनाब, थोड़ी-सी ज़हमत कीजिये हमारी ख़ातिर। हमारी दुश्वारी को समझिये। नवाज़िश होंगी। आखिर आप अल्लाह वाले फर्द हैं...”
“कैसे जाना?” – अकील सकपकाया।
“आपकी बायीं कलाई पर मौजूद पीर बाबा के काले ताबीज़ से जाना।”
“ओह!”
“एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के काम नहीं आयेगा तो और कौन काम आयेगा?”
अकील हिचकिचाया।
“प्लीज़ सर।”
“काल ए कैब।” – फिर निरापिर भाव से बोला।
“जी, क्या फ़रमाया?”
“मैं जल्दी में हूं। ओला बुलाइये। उबर बलाइये।”
“हमें तो बुलाना आता नहीं!”
“ ‘असैंट’ के ड्राइवर से बोलिये।”
अकील ने शीशा चढ़ाया और कार आगे दौड़ा दी।
‘अच्छा किया’ – उसने खुद को समझाया – ‘साली कार में ही बच्चा जन देती।
ऐसी ही अक्ल थी उस लड़के की, दुश्वारी की घड़ी में भी जिसकी अक्ल पर ऐय्याशी का पर्दा आन पड़ता था। अच्छा इसलिये नहीं किया था क्योंकि मौजूदा हालात में उसे ऐसी इन्वाल्वमेंट्स से दूर रहना चाहिये था, अच्छा इसलिये किया था क्योंकि हसीना एडवांस्ड स्टेज ऑफ प्रेग्नेंसी में थी, इस्तेमाल में आने लायक नहीं थी।
“साला हरामी!” – मर्द जो कि अशरफ था, बड़बड़ाया।
अल्तमश जो अब तक गर्भ में भार से दोहरा हुआ जान पड़ता था, तन कर खड़ा हुआ।
पीछे ड्राइवर ने, जो कि विमल था, कार का हुड गिराया और उनके पास पहुंचा।
“नहीं फंसा।” – वो बोला।
“नहीं फंसा।” – अशरफ बोला – “जी तो चाहता था कि बाहर घसीट लूं लेकिन सड़क पर ट्रैफिक बहुत था।”
“नहीं, नहीं। ये फौजदारी आजमाने वाला काम नहीं। हमारा उसकी राजी से उसके साथ होना ज़रूरी है वर्ना सारा खेल बिगड़ सकता है।”
“तभी तो!”
काली पीली टैक्सी उनके करीब आकर रुकी।
ड्राइविंग सीट पर वली था और पैसेंजर सीट पर हाथ में मोबाइल थामे अली बैठा था। दोनों जुडवां मुबारक अली के भांजे थे।
दोनों टैक्सी से बाहर निकले। उनकी सवालिया निगाह अशरफ पर पड़ी।
“नहीं फंसा।” – जवाब विमल ने दिया – “फिर ट्राई करेंगे। कोई नयी, ज्यादा पुख्ता स्ट्रेटेजी लगायेंगे।”
सबके सिर सहमति में हिले।
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