शंकर भगवान की मूर्ति के मस्तक पर स्थित उनका तीसरा नेत्र खुलता जा रहा था । नेत्र इतना खुल गया था कि एक व्यक्ति सरलता से उसमें लेटकर समा सके। अलफांसे समझ चुका था कि यही बागीसिंह के स्थान तक जाने का मार्ग है—– किन्तु मन-ही-मन मार्ग की तारीफ किए बिना अलफांसे रह नहीं सका । जंजीर पर से उतरता हुआ बागीसिंह नीचे आ गया ।


-"चलिए । " बागीसिंह अलफांसे को सम्मान प्रदर्शित करता हुआ बोला ।


-“आगे-आगे तुम चलो प्यारे ।" अलफांसे सतर्कता के  साथ बोला – “हम तो तुम्हारे पीछे-पीछे हैं ही।"


मुस्कराता हुआ बागीसिंह बोला — "इसका मतलब ये है कि आप अभी तक मुझ पर विश्वास नहीं कर पाए हैं, चलिए मैं ही चलता हूं।" 


कहने के साथ ही वह शंकर भगवान की मूर्ति के खुले हुए तीसरे नेत्र की ओर बढ़ा – “आप मेरे पीछे आ जाइए । 


वह शंकर भगवान की मूर्ति के तीसरे नेत्र में लेट गया और आराम से रेंगता हुआ वह नेत्र के अन्दर समा गया। उसने देखा अन्दर लगभग दस हाथ तक ये छोटी सुरंग चली गई थी । सुरंग मात्र इतनी ही ऊंची थी कि उसमें लेटे-लेटे ही रेंगकर आगे बढ़ा जा सकता था। सुरंग के अन्तिम छोर पर चिराग जल रहा था, बुझा अतः सुरंग में हल्का-सा प्रकाश था । अलफांसे ने अपनी मोमबत्ती और तेजी के साथ सुरंग में रेंगने लगा। उसके आगे-आगे बागीसिंह रेंगता चला जा रहा था। करीब पन्द्रह हाथ रेंगने के बाद सुरंग की ऊंचाई बढ़ने लगी, अतः वह धरती, जिस पर वे रेंग रहे थे, नीचे ढलान का रूप लेती दी जा रही थी।


कुछ ही देर बाद वे सुरंग में आराम से खड़े हो सकते थे। 


अब वे दोनों पास-पास खड़े थे। आगे सुरंग इतनी चौड़ी और ऊंची थी कि एक पंक्ति में आराम से पांच आदमी पैदल आगे बढ़ सकते थे। पीछे, जहां से वे आए थे—वह संकरी सुरंग बड़ी अजीब-सी लग रही थी। सुरंग के आले में रखी एक गोमबत्ती टिमटिमा रही थी। "अपनी मोमबत्ती जला लें... इसकी जरूरत पड़ेगी।" बागीसिंह ने कहा ।


अलफांसे ने जलती मोमबत्ती की लौ से अपनी मोमबत्ती जला ली। इसके बाद आगे बढ़कर बागीसिंह ने आले में रखी जलती मोमबत्ती बुझा दी। उसके बुझते ही पुनः जैसे सुरंग की धरती के नीचे कोई मशीन हरकत में आई और संकरी सुरंग में अन्धकार का साम्राज्य हो गया ।


- " अब यह रास्ता बन्द हो गया है।" मुस्कराते हुए बागीसिंह ने अलफांसे को बताया ।


- —" यानी वह शिव का तीसरा नेत्र ?" अलफांसे ने आश्चर्य के साथ कहा। अलफांसे के लिए यह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि मोमबत्ती के बुझने से किस प्रकार मार्ग बन्द हो गया, किन्तु उसने अपना आश्चर्य व्यक्त नहीं किया।


- —" जी हां । " बागीसिंह ने कहा – “आइए।"


अलफांसे चुपचाप मोमबत्ती के प्रकाश में उसके साथ आगे बढ़ गया ।


उस लम्बी सुरंग में अलफांसे अपनी समझ के अनुसार तीस मिनट तक चलता रहा, इसके बाद वे सुरंग के दूसरी तरफ निकले। यह देखकर अलफांसे चमत्कृत-सा रह गया कि सुरंग ने उन्हें खुले आकाश के नीचे एक बाग में ला छोड़ा था। यह बाग चारों ओर से ऊंची-ऊंची पहाड़ियों द्वारा घिरा हुआ था। पहाड़ियों के कटाव कुछ ऐसे थे कि किसी भी पहाड़ी पर चढ़कर इस बाग से बाहर निकलना असम्भव था ।


तीव्र हवा के कारण बाग में आते ही मोमबत्ती बुझ गई । किन्तु इतना अंधकार नहीं हुआ कि वे आगे भी नहीं बढ़ सकें । बागीसिंह उसका हाथ पकड़कर बांग के दक्षिण की ओर बढ़ा चला गया। कुछ ही देर बाद वह अलफांसे को साथ लेकर बाग में बने एक छोटे से मकान में प्रविष्ट हो गया । मकान का बाहरी दरवाजा खुला हुआ था। दालान में से गुजरकर वे एक अन्य दरवाजे के सामने पहुंच गए। यह एक कोठरी का दरवाजा था, जो अन्दर से बन्द था ।


बागीसिंह ने दरवाजा खटखटा दिया ।


"कौन है ?" अन्दर से किसी का नींद में डूबा स्वर उभरा ।


"मैं हूं पिताजी, बागीसिंह ।" बागीसिंह ने कहा।


- "अरे खोलता हूं ठहर जरा । " अन्दर से आवाज आई। इसके बाद सबसे पहले अन्दर कोई चिराग जला। दो-तीन लमहे की प्रतीक्षा के उपरान्त दरवाजा खुल गया । अलफांसे ने देखा — दरवाजा खोलने वाला एक अधेड़-सा व्यक्ति था । उस व्यक्ति ने भी बागीसिंह के साथ अलफांसे को देख लिया और चौंककर बागीसिंह से पूछा -बागीसिंह ने मुस्कराते हुए कहा। इसके साथ अलफांसे को लेकर वह --- " अन्दर तो आने दो पिताजी, आराम से बैठकर बताऊंगा।" कोठरी में प्रविष्ट हो गया । कोठरी काफी बड़ी थी उसमें एक ही पंक्ति में पांच पत्थर के चबूतरे बने हुए थे। दो पत्थर के चबूतरों पर बिस्तर लगे हुए थे और बाकी तीन खाली थे—यानी इन चबूतरों पर ही बागीसिंह और उसका पिता सोते थे ।


"ये कौन है ? "


तीसरे चबूतरे पर भी बागीसिंह ने एक सफेद चादर बिछा दी -" बैठें मिस्टर अलफांसे । अब मैं आराम से आपको समझा सकूंगा।'


अलफांसे चादर बिछे हुए पत्थर के चबूतरे पर बैठ गया।


और यहीं अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी ने बड़ा जबरदस्त धोखा खाया ।


सुना है अलफांसे जब सतर्क होता है तो बहुत कम मात खाता है – किन्तु यहां उन लोगों के बीच जो एक-दूसरे को दिमाग से परास्त करने में गर्व महसूस करते हैं। कदम-कदम पर सतर्क रहने के बावजूद अलफांसे ने धोखा खाया। जैसे ही वह चबूतरे पर बैठा, वह नीचे ही धंसता चला गया। साथ ही उस पर बिछी हुई चादर भी अपने साथ नीचे ले गया। ठीक इस प्रकार, जैसे वह पत्थर का चबूतरा न था, बल्कि बिना ढक्कन का सन्दूक था। अगले ही पल नीचे से थरथराता पत्थर पुनः ऊपर आया और पुनः अपने स्थान पर फिट हो गया ।


अब वह पुनः पहले जैसा मजबूत पत्थर का चबूतरा था ।


"ये कौन था और इसके साथ तुमने ऐयारी क्यों की ?” चौंककर बागीसिंह के पिता ने उससे पूछा ।


– “सारी ऐयारी ही इसके लिए हो रही थी, पिताजी ।" मुस्कराकर बोला बागीसिंह — "इसका नाम अलफांसे है।"


-"क्या ?” बुरी तरह चौंक पड़ा अधेड़ ।


-"हां पिताजी – वास्तव में यह अलफांसे है।" बागीसिंह ने रहस्यात्मक स्वर में कहा – “फिलहाल आपसे अधिक बातें करने का समय नहीं है। मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं। वैसे ये यहां से बाहर निकल नहीं सकता, लेकिन तुम भी इसका ख्याल रखना ।" कहने के साथ -ही वह बाहर की तरफ बढ़ा।


"शाबाश बेटे – मुझे तुम पर गर्व है।" कहने के साथ उसने बागीसिंह की पीठ थपथपाई... बागीसिंह के जाते ही अधेड़ ने दरवाजा बन्द कर लिया और साथ ही उसकी आंखों में असाधारण चमक उत्पन्न हो गई, वह बुदबुदाया


- "मूर्ख—अलफांसे को गिरफ्तार करके लाया था, ये नहीं पता कि यहां तेरा बाप बैठा है।" कहने के साथ ही वह पत्थर के उसी चबूतरे की ओर बढ़ गया, जिस पर बागीसिंह ने अलफांसे को बैठाकर धोखा दिया था । उसने चबूतरे के एक उभरे भाग पर लात मारी और उसका ऊपरी पत्थर पुनः हट गया। उसने झांककर नीचे देखा... नीचे एक कोठरी में पड़ा हुआ अलफांसे उसी ओर देख रहा था ।


इससे आगे की अधेड़ की कार्यवाही हम आगे लिखेंगे, फिलहाल हम जल्दी से बाहर निकलकर बागीसिंह की कार्यवाही देखते हैं। उसके पिता के तेवर तो आप देख ही चुके हैं। हमारा ख्याल है कि आप लोग समझ ही गए होंगे कि बागीसिंह अपने पिता से स्वयं एक बड़ा धोखा खा गया। कम-से-कम हम तो ऐसी उम्मीद नहीं करते, तो फिर बागीसिंह ने क्या किया ? अगर हम उसके पिता में ही अटके रहे तो वह दूर निकल जाएगा, आइए, जल्दी से बाहर निकलकर बागीसिंह पर नजर रखते हैं। वो देखिए


–बागीसिंह तेजी से बाग़ में बढ़ा चला जा रहा है। उसका रुख इस बार पूरब की ओर है, बागीसिंह लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ बाग में बनी संगमरमर की एक आकृति के पास रुक गया। एक बार उसने अपने चारों ओर छाए सन्नाटे और अन्धकार को घूरा संगमरमर की यह मूर्ति किसी चील की है। चील कुछ ऐसी आकृति में है जैसे पंख फैलाकर आकाश में उड़ रही हो । बागीसिंह अपने बटुए से एक बारीक-सा तार निकालता है और तार को वह चील की दोनों चोंचों में देकर विशेष ढंग से घुमा देता है । बाग की धरती के नीचे गड़गड़ाहट होती है और संगमरमर की चील के पंख फड़फड़ाने लगते हैं। इसके साथ ही चील का पेट फटने लगता है।


बागीसिंह तुरन्त उसमें समा जाता है। चील के पेट से लेकर अन्दर नीचे तक लोहे की सीढ़ी बनी है। वह अन्धकार में ही अनुमान के आधार पर नीचे उतरने लगता है। जैसे ही वह सीढ़ी के पांचवें डण्डे पर पैर का दवाब डालता है, एक गड़गड़ाहट के साथ चील अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती है। उसके पेट में उभरा रास्ता भी समाप्त हो जाता है । बागीसिंह एक सुरंग में पहुंच जाता है।


बटुए से दूसरी मोमबत्ती निकालकर जलाता है और तेजी से सुरंग में आगे बढ़ जाता है। सुरंग में कोई तीन फर्लांग का सफर तय करने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर रुक जाता है, जहां सुरंग बन्द है — पत्थर से नहीं, बल्कि लोहे की एक बहुत बड़ी दीवार से । मोमबत्ती के प्रकाश में वह लोहे की दीवार में उभरी एक खूंटी देख लेता है। उसी खूंटी को पकड़कर वह उसे शक्ति के साथ नीचे झुकाता है।


लोहे की दीवार में एक दरवाजा पैदा हो जाता है।


बागीसिंह दरवाजे के नजदीक पहुंचा तो देखा–दरवाजे के पार लोहे के कमरे में अलफांसे खड़ा इसी तरफ देख रहा है। उधर उसे सामने देखते ही अलफांसे चौंक पड़ा । वह दो कदम रखकर तेजी से उसके करीब आया और बोला — “ये क्या हरकत हुई ?” ——


__"शी...!" बागीसिंह ने तेजी से अपने होंठों पर उंगली रखकर उसे शान्त रहने का संकेत किया और फिर धीरे-से बोला – "मिस्टर अलफांसे, आप यकीन कीजिए, मैं आपका दुश्मन नहीं हूं मुझ पर इतनी कृपा और आप कीजिए कि फिलहाल यहां मत बोलिए, आप मेरे साथ आइए—मैंने जो भी कुछ किया है, वह आप ही की भलाई के लिए करना बहुत आवश्यक हो गया था । "


अलफांसे जैसे व्यक्ति की बुद्धि चकराकर रह गई।


वह इन अजीबो-गरीब घटनाओं का अर्थ नहीं समझ पा रहा था । कदाचित अलफांसे के जीवन में यह पहला अवसर था जब वह काफी देर तक घटनाओं के बीच रहता हुआ भी उनका सबब, उद्देश्य इत्यादि कुछ भी नहीं समझ पा रहा था । इसी व्यक्ति ने उसे धोखा देकर इस लोहे के कमरे में डाल दिया था । उस लोहे के कमरे से फरार होने का वास्तव में कोई मार्ग नहीं था, किन्तु अब कुछ देर बाद वही व्यक्ति दूसरे रास्ते से उसे लेने चला आया था । अलफांसे अभी अपने विचारों में उलझा हुआ ही था कि बागीसिंह ने खूंटी ऊपर करके लोहे की दीवार में उत्पन्न दरवाजा बन्द कर दिया और अलफांसे को लेकर सुरंग में वापस चल दिया ।


कुछ दूर निकल आने के बाद अलफांसे ने पूछा – “अब तो बोल सकता हूं ?"


-“जी हां... खुशी से ।" बागीसिंह ने कहा- -“अभी तक चुप रहने का शुक्रिया ।”


–" ये सब क्या चूहे-बिल्ली का खेल हो रहा है ?" अलफांसे के स्वर में गुर्राहट थी ।


- " शायद आप ये सोच रहे हैं कि पहले मैंने आपको उस पत्थर के चबूतरे पर बिठाकर धोखा क्यों दिया ? " बागीसिंह बोला— " और फिर तुरन्त ही आपको इस दूसरे मार्ग से छुड़ाने क्यों आ गया ?”


‘" और ऐसी परिस्थिति में आदमी सोच ही क्या सकता है ?"


-“आपको सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक हो गया था । " बागीसिंह ने कहा ।


— "मुझे सुरक्षित रखने के लिए ?" हल्के-से चौंकते हुए अलफांसे ने कहा । 


“जी हां —— और पिताजी को धोखा देने के लिए । " इस बार ताव आ गया अलफांसे को ।


उसने झपटकर बागीसिंह की गरदन पकड़ ली और गुर्रकर बोला— "मिस्टर बागी — बहुत उल्टा सीधा मामला हो चुका है। ये पहेलियां छोड़ो और साफ-साफ बताओ कि क्या चक्करबाजी है ? वर्ना याद रखना, मेरा नाम भी अलफांसे है। एक झटके में गरदन तोड़कर तुम्हारे बटुए में रख दूंगा । कभी कहते हो कि मुझे सुरक्षित रखने के लिए तुमने ऐसा किया... कभी कहते हो पिताजी को धोखा देने के लिए ऐसा किया। अबे पहले तो मुझे खुद बाप के पास लाए और फिर उसे ही धोखा देने लगे – बातों का सिर-पैर भी तो हो । "


" ये मेरी बदकिस्मती है मिस्टर अलफांसे कि आप मेरे बारे में गलत धारणा बना रहे हैं ।." बागीसिंह ने कहा – “ये तो ठीक है कि मैं आपको यह समझकर पिता के पास लाया था कि हम वहां सुरक्षित रहेंगे, लेकिन जब मैंने देखा कि मेरे पिता के रूप में घर पर एक ऐयार बैठा है तो मन-ही-मन चौंक पड़ा—मैं समझ गया कि उसने मेरे पिता को अपने कब्जे में कर लिया है और मुझे धोखा देने के लिए खुद मेरा पिता बन बैठा है। समय ऐसा भी नहीं था कि मैं उस पर प्रकट करता कि मैं समझ गया हूं कि वह मेरा पिता नहीं ऐयार है, क्योंकि मैं अगर उसी समय प्रकट कर देता तो आपको खो भी सकता था- -अतः मैंने यही उचित समझा कि उनके सामने ही मैं आपको बन्द कर दूं तो वह धोखा खा जांएगा... मैंने उसे दिखाने के लिए आपको बन्द कर दिया। लेकिन मुझे यह भी डर था कि कहीं वह आपको कैद से निकाल न ले, इसी डर से मैं आपको तुरन्त उस कैद से निकाल लाया, अब मैं आपको एक सुरक्षित स्थान पर छोड़कर उस ऐयार की खबर लूंगा और अपने पिता का पता लगाऊंगा...पता नहीं इसने मेरे पिता को कहां बन्द कर रखा है। "


"इसका मतलब ये हुआ कि तुमने उस ऐयार को, जो तुम्हें धोखा देने के लिए तुम्हारां पिता बना – धोखा देने के लिए मुझे गिफ्तार किया ?"


— “जी हां । " बागीसिंह बोला – “उसे वहां देखते ही मुझे इससे अधिक उचित मार्ग आपकी सुरक्षा का नहीं सूझा । वह यह सोचकर सन्तुष्ट होगा कि आप उसकी कैद में हैं और मैं उसके धोखे में आ गया हूं—अतः वह निश्चिन्त होगा, किन्तु मैं आपको भी उससे दूर ले आया हूं और जाकर उसकी भी खबर लूंगा —–— पिता का पता लगाना भी बेहद आवश्यक है। कृपा करके आप मेरी गरदन छोड़ दें । "


अलफांसे ने उसकी गरदन छोड़ दी।


उसे बागीसिंह की बात में दम नजर आया था। गरदन छोड़कर उसके साथ-साथ सुरंग में आगे बढ़ता हुआ वह बोला – “अब मुझे कहां ले जा रहे हो ?"


-"सुरक्षित स्थान पर | "


- "तुमने मुझे समझ क्या रखा है ? " एकदम झुंझला उठा अलफांसे । 


—“क्यों ?"


---"मैं क्या मिट्टी का माधो हूं, जो मुझे किसी सुरक्षित स्थान पर रख दोगे ?" अलफांसे ने कहा- "मैं किसी से डरता नहीं और वक्त पड़ने पर जितने आदमियों से तुम लड़ सकते हो, मैं अकेला ही उससे आदमियों से लड़ सकता हूं।" 


“अरे...!!" एकदम अपने कान पर हाथ मारता हुआ चीखा बागीसिंह– “अबे...!" 


—"क्या हुआ ?" अलफांसे ने चौंककर पूछा।


-"कान में मच्छर घुस गया । " बागीसिंह कान में उंगली डालता हुआ चीखा।


अलफांसे एक बार पुनः धोखा खा गया ।


बिना सोचे-समझे वह बागीसिंह के कान पर झुक गया | कान से एक तीव्र गंध निकलकर उसके मस्तिष्क में समा गई । एक क्षण में उसे खतरे का आभास हुआ और उसने तेजी से अपनी नाक बागीसिंह के कान के समीप से हटाई, परन्तु वह एक पल धोखा खाने के लिए पर्याप्त था—उसके मस्तिष्क बेहोशी अपना प्रभुत्व जमाने लगी।


—"तुम भला किससे लड़ोगे ?" बेहोश होते-होते अलफांसे ने बागीसिंह का ये स्वर सुना – “अभी तक तुम मुझे ही नहीं समझ सके तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं कि मेरा पिता कोई ऐयार नहीं, बल्कि असली पिता था। इन सब हरकतों का तो कुछ और ही सबब है।" अलफांसे ने बहुत चाहा कि वह बागीसिंह पर झपट पड़े, किन्तु सफल न हो सका और बेहोशी की वह दवा इतनी तीव्र थी कि पल-भर में वह बेहोश होकर गिर पड़ा। एक बार बागीसिंह बेहोशं अलफांसे को तुम सौ देखकर मुस्कराया, फिर बोला – "मूर्ख –बागीसिंह की ऐयारी तो जन्मों में भी नहीं समझ सकते । "


आओ प्यारे पाठको— अब हम जरा बागीसिंह के पिता की खबर लेते हैं। अब जरा सतर्क होकर बैठ जाइए एक जैसे ही दो रहस्य हम आपके समक्ष खोल रहे हैं, किन्तु हम विश्वास करते हैं कि रहस्य जानने के बाद आपकी जिज्ञासा और भी अधिक बढ़ जाएगी। दो जबरदस्त ऐयारों के बीच टक्कर चल रही है — अब ये देखना है कि कौन किसको किस ढंग से धोखा देता है।


बागीसिंह के अधेड़ पिता ने भी नीचे लोहे के कमरे में पड़े अलफांसे को देखकर और सन्तुष्ट होकर चबूतरे वाला खाली स्थान बन्द कर दिया।


उसने अपने ऐयारों के कपड़े पहने । कमन्द बांधा, बटुआ, तलवार और एक विशेष ढंग से लैस होकर कमरे से बाहर निकल आया। बाग में आकर वह तेजी के साथ उत्तर दिशा की और बढ़ा। कुछ ही देर बाद वह एक पतली सी सुरंग में से गुजर रहा था।


इस सुरंग का मार्ग हमने जान-बूझकर यहां नहीं लिखा है, क्योंकि हम जल्दी से जल्दी पाठकों को एक दिलचस्प रहस्य से अवगत कराना चाहते हैं।


अधेड़ के हाथ में एक मोमबती है और वह बढ़ता चला जा रहा है। सुरंग में एक स्थान पर वह रुक जाता है। सुरंग के बीचोबीच एक गोल कुआं बना हुआ है। कुएं के चारों और किसी प्रकार की दीवार नहीं


वह धीरे से कुएं के एक किनारे पर पहुंचता है।


उसी क्षण-कुएं के अन्दर एक विशाल शेषनाग अपना फन ऊपर उठाता है और फुंफकार के साथ वह अधेड़ को डस लेता है। असलियत है कि वह शेषनाग किसी निश्चित मार्ग पर पहुंचने का गुप्त मार्ग है। शेषनाग का ऊपरी भाग अर्थात विशाल फन कपड़े का है जिस पर शेषनाग की खाल जैसी ही कोई खाल चढ़ा दी गई है। कुछ नीचे जाकर स्प्रिंग लगा है और उसका बाकी कुएं के अन्दर आने वाला जिस्म टीन का बना हुआ चौड़ा और लम्बा गोल डिब्बा-सा है।


किसी विशेष कारीगर ने ये शेषनाग तैयार किया है।


इस नकली शेषनाग के अन्दर से सीधा रपटता हुआ अधेड़ घास के एक ढेर पर जाकर गिरता है।


अधेड़ इस मार्ग का जैसे अभ्यस्त हो वह उछलकर घास पर खड़ा हो जाता है। घास का ये ढेर एक कोठरी में पड़ा था। कोठरी में आले में रखा एक चिराग जल रहा है। दीवार के सहारे जंजीरों में जकड़ा एक आदमी पड़ा है। उस आदमी के सारे कपड़े फटे हुए हैं। ऐसा लगता है... जैसे वह काफी लम्बे समय से इस कोठरी में पड़ा सड़ रहा हो। भूख-प्यास से निढाल वह धरती पर औंधे मुंह पड़ा है।


अधेड़ के होंठों पर एक अजीब गर्वीली मुस्कान नृत्य कर उठती है।


आगे बढ़कर वह कैदी के समीप पहुंचता है और बाल पकड़कर ऊपर उठाता है। एक दर्द भरी चीख के साथ उसका चेहरा ऊपर उठता है। कमाल ये है कि कैदी का चेहरा अधेड़ के चेहरे से सौ प्रतिशत मिलता है।


"गिरधारीसिंह।" अधेड़ गुर्राकर कहता है— "तुझे अपने बेटे बागीसिंह पर बड़ा गर्व था ना... सुन आज उसी बेटे ने बहुत बड़ा धोखा खाया है। उसने अलफांसे को गिरफ्तार किया, लेकिन मेरे पास छोड़कर चला गया। वह बेचारा यह नहीं जानता कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन मैं ही तो हूं- तुम यह कहा करते थे ना...कि बागीसिंह पहचान जाएगा कि मैं उसका बाप नहीं हूं और वह तुम्हारा पता लगा लेगा... लेकिन न तो वह मेरी ऐयारी को काट सका और न ही यहां तक पहुंच सका... हां, उसका अन्त अब निश्चित हो चुका है। " 


-“अधर्म की कभी विजय नहीं हुआ करती, शामा ।” बागीसिंह का असली पिता यानी गिरधारीसिंह बोला – “अपने बागीसिंह को मैंने ऐयारी सिखाई है—वह तुम्हारे हाथ में नहीं आएगा — याद रखना वह दिन बहुत जल्दी आने वाला है जब ईश्वर मुझे तुम्हारी इस नरक समान कैद से मुक्त करेगा, उस दिन मैं तुमसे गिन-गिनकर बदले लूंगा।" 


–“क्यों ?" व्यंग्यात्मक स्वर में शामा बोला – “दोस्त की पत्नी से सम्बन्ध रखना शायद धर्म होता है ? "


“मैं तुमसे कह चुका हूं कि भाभी से मेरे सीता और लक्ष्मण जैसे सम्बन्ध थे।" गिरधारीसिंह बोला – “तुम्हें यकीन नहीं आता तो मैं इसमें क्या कर सकता हूं—अगर भाभी जिन्दा होतीं तो खुद ही कहतीं । "


- " तूने उसे जिन्दा छोड़ा होता... तभी तो जिन्दा होती, पापी । ” गुर्राकर कहा शामां ने — “तूने उसकी हत्या कर दी... उसी दिन से मेरा बेटा बलदेवसिंह गायब हो गया— हालांकि उसकी लाश नहीं मिली, लेकिन तूने उसे भी मार दिया है । "


मुझे यकीन है कि -"बकता है तू।" गिरधारीसिंह चीखा — "मैंने किसी को नहीं मारा । " - "असलियत मैं जानता हूं।" एकाएक कोठरी में गूंजने वाली इस तीसरी आवाज ने उन दोनों को चौंका दिया ।


***


अब हमें बूढ़े गुरु का हाल लिखना मुनासिब जान पड़ता है, क्योंकि उस वृक्ष पर बैठे-बैठे अब वे ऊबने की अन्तिम सीमा तक पहुंच चुके हैं।


रात समाप्त होने वाली है और वे टकटकी लगाए उसी छोटे से मन्दिर की ओर देख रहे हैं—उनके दिल में तरह-तरह के विचार उठ रहे हैं।


बागीसिंह अलफांसे को लेकर मन्दिर में क्यों गया है ? वह अभी तक लौटा क्यों नहीं ? कहां गायब हो गया ? इत्यादि इसी प्रकार के अनेक सवाल उनके मस्तिष्क में चकरा रहे हैं। जब पहर-भर रात रह जाती है तो वे निश्चय करते हैं कि मन्दिर में चलकर देखा जाए । वे वृक्ष से उतरने की सोच ही रहे थे कि चौंक पड़े।


उन्हें मन्दिर के अहाते में एक साया नजर आता है। वे ध्यान से उसे देखने लगते हैं। साया तेज कदमों के साथ चलता हुआ बाहर आता है और जिस वृक्ष के ऊपर बूढ़े गुरु बैठे हैं... उसके नीचे से निकलकर आगे बढ़ जाता है।


-"बागीसिंह । " उसे पहचानकर  बूढ़े गुरु बड़बड़ा उठते हैं—'अलफांसे को कहां छोड़ आया ?'


एक विचार तो उनके दिमाग में आता है कि मन्दिर के अन्दर जाएं और अलफांसे को वास्तविकता बताकर उसे अपने साथ ले लें किन्तु फिर सोचते हैं कि क्यों न इस समय बागीसिंह की ही खबर ली जाए... इस समय वह कहां जा रहा है और क्या करना चाहता है। उन्होंने मस्तिष्क में जन्मे दूसरे विचार को ही कार्यान्वित करने की ठानी — और बागीसिंह का पीछा करने लगे।


*****