कर्मपाल सिंह । जो कि बंगाली के साथ पिछले दस बरस से पार्टनरशिप में धंधा कर रहा था। दोनों ने धंधे में बहुत माल कमाया। परंतु किसी बात को लेकर मन में खटास आ गई। वे समझ गए कि अब दोनों एक होकर काम नहीं कर सकेंगे। समझदारी इसी में है कि अपना-अपना रास्ता अलग कर लें।


यही किया दोनों ने।


बिना कोई तमाशा किए, दोनों ने आपसी सहमति से माल और धंधे का बंटवारा किया और अलग हो गए। यूं बातचीत का दोस्ताना अभी भी दोनों में कायम था। मन में मैल थी, वो बात जुदा थी परंतु चेहरों पर मुस्कान लिए अलग हुए थे, दोनों।


कर्मपाल सिंह पीछे से राजस्थानी था। बीकानेर से था और बांकेलाल राठौर भी बीकानेर से था। दोनों में कभी मुलाकात हुई थी और दोनों बीकानेरी भाई बन बैठे। दो-चार महीनों में कभी-कभार मुलाकात हो जाती थी या फिर फोन पर बात हो जाती थी।


वही कर्मपाल सिंह थापर समूह के ऑफिस में पहुंचा। जिस ऑफिस का मैनेजर बांकेलाल राठौर बन चुका था। गैरकानूनी काम छोड़कर, थापर खुद को बिजनेसमैन के रूप में स्थापित करता जा रहा था। बीते दो सालों में वो एक मिल और चार फैक्ट्रियां लगा चुका था और सब कुछ कामयाब रहा था और अब वो साड़ियों की दूसरी मिल लगाने की तैयारी लगभग पूरी कर चुका था।


बांकेलाल राठौर कई मैनेजरों के ऊपर, मैनेजर था। मिल और फैक्ट्रियों की सारी रिपोर्ट उसके पास रहती। जिसके

पास कोई दिक्कत आती वो बांकेलाल राठौर से ही बात करता । थापर तक सीधे बात करने की पहुंच किसी की नहीं थी। सब कुछ बांकेलाल राठौर ही संभालता और सारे बिजनेस की रिपोर्ट वो ही थापर को देता। 


उस वक्त बांकेलाल राठौर बेहद व्यस्त था जब उसे कर्मपाल सिंह के आने की खबर मिली। चूंकि वह महीनों महीनों बाद ही कभी मिलने आता था। इसलिए बांकेलाल राठौर ने उसे बुलवा लिया।


कर्मपाल सिंह ने बांकेलाल राठौर के शानदार ऑफिस में कदम रखा। वो पचास की उम्र को छूने जा रहा था। परंतु देखने में कुछ कम ही लगता था। हाव-भाव में चुस्ती थी। गठा हुआ शरीर कीमती कपड़े पहनने का शौकीन। ठाठ ज्यादा ही दिखाने की आदत। क्लीन शेव चेहरा। छोटे-छोटे संवरे बाल। उसके रंग-ढंग देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वो गैरकानूनी कामों का मालिक है। हद से हद वो बिजनेसमैन ही लगता था। 


"थारे को देखकर, महारे को बोत खुशी हौवे।" बांकेलाल राठौर से उसे भीतर प्रवेश करते पाकर, फौरन कुर्सी से उठा। कर्मपाल सिंह भी तेजी से आगे बढ़ा। दोनों सच्चे मन से गले मिले। कसकर मिले।


अलग हुए।


"कैसा है तू बांके ?" 


"बांके को क्या होना हौवे कर्मे तू अपनी सुनाए। देश गयो कि नाही?" 


"नहीं। " कर्मपाल सिंह ने गहरी सांस ली—"वक्त ही नहीं मिल पाया।"


"क्या बात करो हो। वहां थारे बीवी बच्चो हौवे। तू पैसे भेजो तो का थारी ड्यूटी पूरी हो जाए? ये पूरो गलत बात हौवे। म्हारे को देख। बिन व्याह का ही रै गयो। वो चाहो तो मेरे को, पण उसके बापो ने जबर्दस्ती ही उसका ब्याह किसी और से कर दयो। मेरे साथो उसो का ब्याह होता तो अंम उसो को अपनी बगलो में दबाये घूमो रहो।"


कर्मपाल मुस्करा पड़ा।


बांकेलाल राठौर हौले से हंसा । 


"तू गुरदासपुर को भूलेगा नहीं।" कर्मपाल सिंह बोला।


"ना ही। इस जन्म में तो गुरुदासपुर न भूल सकोऊ। वां म्हारी वो रहो। मालूम नाही कितने बच्चों को जनो हो अभी तक पण म्हारी जान तो उसी में बसो। बैठ कर्मे बैठ, खड़ो क्यों हौवो। 


कर्मपाल सिंह बैठा।


बांकेलाल राठौर भी अपनी कुर्सी पर बैठा।


उसके विशाल टेबल का हाल देखकर कर्मपाल सिंह कह उठा -"बहुत व्यस्त लग रहे हो ?"


“मत पूछ कर्मे। थारे बांके का तो बुरा हाल हौवे पड़ो हो। बोत कामों हौवे। "


"इतना बोझ क्यों सिर पर लेता है। तेरे को क्या कमी है। छोड़ इस काम—"


"ना ही कर्मे। ये मत बोलना म्हारे को, कभ्भो मत बोलना ये। वो थापर साहब है ना, ये सब कामो उन्हीं का हौवे और वो म्हारे भाई-बाप हौवे। थारे को नेई मालूम। जब हम भूखा हौवे । एक रोटी कोई पेट में डालने को हमें न दयों तो थापर साहब ही अमको संभालो। म्हारे को रोटी दयो। अंम वो वकत न भूलो हो। म्हारे तो खून का कतरा-कतरा थापर साहब का हौवे। म्हारा तो इसे जन्म में कुछ न हौवे। एक बात बोलूं कर्मे । "


"बोल ।"


"थारा यो चिकना-चिकना थोबड़ा म्हारे को अच्छा न लगो। मूंछो रखो। अकल बढ़ेगी। म्हारी मूंछों को देखो हो। यो जितनी लंबी हौवे उतनी ही लंबी म्हारी अकल हौवे।"


कर्मपाल सिंह मुस्कराया ।


"बोल का लो हो। ठण्डो-गर्म?


"कुछ नहीं। "


"क्यों भायो। म्हारे से नाराजगी हौवे का कान पकडूं का ?" 


कर्मपाल सिंह के चेहरे पर गंभीरता आ ठहरी । बांकेलाल राठौर ने गहरी निगाहों से उसे देखा। 


"का हुआ। सब ठीको तो होवे। मेरे को बोल।"


"बांके । तूने एक बार बोला था कि तू देवराज चौहान को जानता है। " कर्मपाल सिंह बोला।


"हां पर यारे को उस खतरनाक बंदे से क्या काम ? मेरे को बोल, कोई तेरे को तंग करे हो तो अम्भी 'वड' के रख दूंगो। " बांकेलाल राठौर की निगाह कर्मपाल सिंह पर ही थी। 


"ये बात नहीं।" कर्मपाल सिंह बेचैनी से बोला- "मेरी समस्या वही ठीक कर सकता है। क्योंकि वो डकैती करने में मास्टर है। है और


रास्ता न होने पर भी वो रास्ता निकाल लेता है।" 


"थारे को कई डकैती करवानी हौवे। " बांकेलाल राठौर की आंखें सिकुड़ी । 


ऐसा ही समझो। डकैती कह लो। चोरी कह लो। लेकिन ये काम सिर्फ देवराज चौहान के बस का ही है। क्योंकि ये काम शंकर भाई की मांद में जाकर करना है। ?"


"शंकर भाई। वो अंडरवर्ल्ड का बदमाशों हौवे ना?"


"हां, मैं उसी की बात कर रहा हूं। "


"समझो। लफड़ा लम्बो ही हौवो भाई कर्मे। अंम देवराज चौहान को जानो-मिलो तो जरूर। उसो तक थापर साहब की पौंच हौचे। बोत जरूरी हौवे तो थापर साहब को मोबाइल मारूं का?"




"जो भी करो। एक बार मुझे देवराज चौहान से मिलवा दो। उसका अता पता बता दो। बहुत जरूरी काम है उससे। इस वक्त मैं जो चाहता हूं उसे वही कर सकता है।" कर्मपाल सिंह अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा— "अभी मिलवा दे मेरे को देवराज चौहान से।" 


बांकेलाल राठौर के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे। "ठीको। अम थारे सामने ही थापर साहब से बातो...।" 


तभी दरवाजा खुला और रुस्तम राव ने भीतर प्रवेश किया।


***

सोलह वर्षीय रुस्तम राव। मासूम चेहरा। नीली-सी आंखें। गोरा रंग देखने में इतना प्यारा कि कोई सोच भी नहीं सकता कि ये कितना बड़ा जालिम है। जो काम कोई न कर पाए, वो ये कर गुजरे। थापर का तैयार किया हुआ ऐसा पैनीचार वाला हथियार, जिसकी कोई काट नहीं।

जिसकी मासूमियत बड़े-बड़ों को धोखा दे जाती है। जिससे आप मोना चौधरी एवं देवराज चौहान सीरीज के पूर्व दो प्रकाशित उपन्यास 'हमला' एवं 'जालिम' में मिल चुके हैं।

"सलाम बाप।" भीतर प्रवेश करते ही वो बांकेलाल राठौर से बोला और जेब से एक कागज निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया"- ये थापर साहब ने भेजेला है। अकेले में पढ़ने का है। "

बांकेलाल राठौर ने कागज थामा और दूसरे हाथ से अपनी मूंछ को उमेठा ।

"ओ छोरे। थारे को कित्ती बार कहूं कि बिन व्याह के म्हारे को बापो मत बना। अंम अभ्भी सवा सौ परसेंट कंवारो हूं। अंम थारे से भी जवानो हौवे ।

रुस्तम राव मुस्कराया।

"बाप, आपुन तो बच्चा है। अपने को परसेंट का मतलब क्या मालूम। वो तुम्हारा गुरदासपुर वाला है ना छोकरी। सारे परसेंट तो उसने गिन रखे होंगे। "- रुस्तम राव बोला।

बांकेलाल राठौर ने मूंछ को और जोर से उमेठा।

"छोरे। मैं जानू हूं। तू बाप का बाप है। खुदो को बच्चा कहे और परसेंट वाला मजाको म्हारे से करे। थारी टांग कभी तो म्हारे हाथ आयो। तब सारो परसेंट थारे को समझायो।"

"लफड़ा नेई मांगता बाप चलेगा अब" कहकर रुस्तम राव जाने को हुआ।

"ओ छोरे। रुको।"

रुस्तम राव ठिठका।

"यो म्हारा भाई जैसा हौवे कर्मपाल सिंह नाम है। कर्मे भी चल्लो।"

रुस्तम राव ने कर्मपाल सिंह पर निगाह मारी फिर बांकेलाल राठौर को देखा।

"इसो को देवराज चौहान की जरूरत हौवे तू तो खूब जानो हो देवराज चौहान को इसो को मिलवाई दो, देवराज चौहान से। कहो तो थापर साहब की, थारे पर सिफारिश ठुकवा दूं का ?"

रुस्तम राव की नीली आंखों में सतर्कता के भाव उभरे। उसने कर्मपाल सिंह को देखा।

"क्या काम पड़ेला देवराज चौहान से?" रुस्तम राव का स्वर शांत था ।

"खास काम है। "

"आपुन से बात कर।"

कर्मपाल सिंह ने बेचैनी से बांकेलाल राठौर को देखा।

"बांके। इसे कुछ भी बताने का फायदा नहीं। सीधे देवराज चौहान से बात करना ही ठीक रहेगा।

बांकेलाल राठौर ने गंभीरता से सिर हिलाया और रुस्तम राव पर निगाहें टिका दी।

"छोरे तू इसो को देवराज चौहान से बातों करवा दे। ये बोलता है तेरे को बातों बता कर कौन फायदा नेई होनो तो समझ ले सच बोलो है यो।"

रुस्तम राव के चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

"भरोसे का होएला ये?" 

"का बात करो हो छोरे। म्हारे भाई जैसो हौवे फिर भी यो कोई गड़बड़ करो तो 'वड़' के रख दयो।" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर ने मूंछ को ताव दिया।

रुस्तम राव ने हौले से सिर हिलाया और कोट की जेब में हाथ डालकर मोबाइल फोन  निकाला और नंबर दबाने लगा। कुछ ही पलो में बात हुई। उधर जगमोहन था।

"बाप। आपुन बोएला। तेरा बच्चा, रुस्तम " रुस्तम राव के
चेहरे पर मुस्कान उभरी। 

"बापों का बाप हौवे ये।" बांकेलाल बड़बड़ाया—"खुद को बच्चा बोल के दूसरों को बेवाकूफ बनावें।"

"कैसे हो रुस्तम?" रुस्तम राव के कानों में जगमोहन की आवाज़ पड़ी।

"तेरी छत्रछाया है बाप।"

"कोई बात?" 

"हां। बांकेलाल राठौर का एक आदमी होएला है बाप वो देवराज चौहान से बात करेला। देवराज चौहान है तो आपुन उसको तेरे पास लाएला क्या?" रुस्तम राव बोला।

"ला म्हारे से बात करा।" बांकेलाल राठौर ने उससे फोन लेने के लिए हाथ बढ़ाया। 

"क्या काम है?" जगमोहन की आवाज, रुस्तम राव के कानों में पड़ी। 

"पूछेला बाप। ये आपुन से नेई बोला। बोला, देवराज चौहान से ही बात करेला। बांके तेरे से बात करना मांगता बाप। बात करके प्रोग्राम तय करेला । " रुस्तम राव ने फोन बांके लाल राठौर को थमाया।

"हैलो। " बांकेलाल राठौर बोला। 

"कैसे हो बांके। " जगमोहन का स्वर कानों में पड़ा। 

"बढ़िया होवे। अंम भी बढ़िया म्हारी मूंछे भी बढ़िया थारा का हाल हौवे। "

"एकदम ठीक।" 

"उसो का हाल का हौवे। जो नशे वाली सिगरेट पिओ।"

"सोहन लाल — ?"

"हां-हां वो ही। सूखा सा, पतला सा मिल्लो कभी?" 

"मिलता रहता है। ठीक है। 

“म्हारे को याद करो कि नहीं?" बांकेलाल राठौर ने पुनः अपनी मूंछ पर हाथ फेरा ।

"नहीं, कभी जिक्र नहीं किया।"

"ससुरो को दवा की जरूरत हौवे। तभ्भी म्हारे को यादो करो। मिल्लो तो उसो को दवा अंम दबा के दयो।" बांकेलाल राठौर मुस्कराकर बोला— "कभी गुरदासपुर का चक्कर तो नेई लगो। म्हारे वाली मिल्लो का ?"

'गुरदासपुर तो जाने का नहीं हुआ।" जगमोहन के हंसने का स्वर भी साथ आया— "कभी जाना हुआ भी तो मैं उसे कैसे पहचानूंगा। मैंने तो उसे कभी देखा नहीं। " 

"इसो की जरूरत न पड़ो। जब वो थारे बगल से गुजरो तो म्हारी मूंछों की महको, उसके बदन से आयो तो वो ही, म्हारी वो हौवो। " बांकेलाल राठौर हंसा ।

जगमोहन के भी हंसने की आवाज आई।.

"देवराज चौहान ठीको?" बांकेलाल राठौर ने पूछा।

"हां। "

"पास में हौवो का?"

"नहीं। पांच मिनट में आने वाला है। "

"ठीको। ठीको। यो जालिम छोरा म्हारे भाई जैसे बंदे को लायो। इसो की बात देवराज चौहान से भिड़वा दयो। चिन्ता मत करियो। यो म्हारा खास हौवे जैसा अंम। वैसा ही यो। "

"ठीक है। रुस्तम राव के साथ भेज दो इसे "

“ओ. के. भायो। अम्मी भेजूं छोरे को। बायो।" कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर ने फोन बंद करके रुस्तम राव की तरफ बढ़ाया— "कर्मे को ले जाया, देवराज चौहान के पासो थारी सिफारिशों की जरूरत न पड़ो। "

रुस्तम राव ने फोन पकड़कर मुस्कराते हुए जेब में डाला। "बाप। आपुन तो बच्चा है। तेरे होते हुए, आपुन की कोई जरूरत नेई।"

"तू मेरे को खींचो हो। " बांकेलाल राठौर ने तीखे स्वर में कहा फिर कर्मपाल सिंह को देखा "कर्मे, तू इस छोरे के साथ जा। इसो को छोटा न समझो के, अपना बाप समझयो। नेई तो खत्ता खायो।"

कर्मपाल सिंह उठ खड़ा हुआ

***