जंबाई, हंसा और प्रेमी ने खूब पी।

पहली बोतल तो एक घण्टे में ही खत्म हो गई। नशा चढ़ने लगा तो दूसरी बोतल प्रेमी ले आया, जंबाई की मोटरसाइकिल लेकर और आते वक्त दो मुर्गे भी पैक करा लाया था। जब दूसरी बोतल खुल गई तो नशे की तरंग में उन्हें सरबत सिंह याद आया कि वो भी हमेशा की तरह साथ होता तो और भी मजा आता।

दूसरी बोतल भी खत्म कर डाली। मुर्गे खत्म हो गये। रात के एक बजे वो तीनों नशे में ही इधर-उधर लुढ़क गये। हंसा के घर का दरवाजा भी रात भर खुला रहा। बंद करने की होश ही कहाँ थी।

अगले दिन दस बजे के बाद उन्हें होश आना शुरू हुआ। |

नशा उड़ चुका था और चेहरे रात की कहानी कह रहे थे। तीनों के सिर फटे जा रहे थे।

हंसा ने चाय बनाई।

बारह बजे तक वो कुछ ठीक से होश में आ सके।

"लगता है रात को ज्यादा हो गई थी।" जंबाई अपनी नाक रगड़ता कह उठा।

"सिर्फ दो बोतलें ही तो खाली की थी।" हंसा ने व्यंग से कहा।

“सत्यानाश। इतनी ज्यादा पिएंगे तो ये ही हाल होगा। घर का दरवाजा भी खुला रहा।"

"घर में है ही क्या जो चोर ले जायेगा।" जंबाई हंसा ।

"तेरे को क्या पता घर में कुछ है कि नहीं?" हंसा ने तीखे स्वर में कहा।

"तू अपने दाने मेरे से क्यों छिपाता है। सब दाने गिन रखे हैं।" जंबाई ने कहा ।

"अपने दानों की तरफ ध्यान दे। कहीं उन्हें तोता ना उड़ा ले जाये।" हंसा कह उठा--- “भूल गये कि आज सरबत सिंह से मिलना है। दिन के बारह बज चुके हैं। मैं सरबत सिंह को बुलाकर लाता...।"

"ओह, मैं तो भूल ही गया था। जरा फोन लगा उसे। शायद अब फोन लग जाये।"

हंसा ने सरबत सिंह का नम्बर मिलाया।

परन्तु कॉल नहीं लगी।

"फोन बंद करके, मजे से खा-पी रहा होगा हरामी ।" जंबाई बोला--- "पाँच करोड़ की बात सुनकर तो उछल पड़ेगा।"

"जल्दी से तैयार हो।" हंसा उठता हुआ बोला--- "मैं तेरे साथ चलूंगा।"

"तो मैं क्या करूँगा?" प्रेमी बोला ।

"तू यहीं रह हम...।" हंसा ने कहना चाहा।

"कोई नहीं जायेगा। मैं अकेला ही जाऊँगा और सरबत सिंह को मोटरसाइकिल के पीछे बिठा लाऊँगा। कोई मेरे साथ गया तो फिर उसे लाने में परेशानी होगी। तीन कैसे बैठेंगे मोटरसाइकिल पर ।" जंबाई कह उठा।

"तो जा जल्दी से सरबत सिंह को ले आ। पाँच करोड़ वाला चक्कर चलाते हैं उससे।"

"ऐसे कैसे जाऊँ।" जंबाई ने दाँत दिखाये--- "नाश्ता-वाश्ता तो करा दो। रात से भूखा हूँ।"

"भूखा ? दो मुर्गे लाया था रात को।" प्रेमी कह उठा।

"लाया होगा। मुझे तो याद नहीं।" जंबाई बेशर्मी से हंसा।

"नहीं याद ?"

"नहीं।"

"पैसे मत दे। कम से कम इतना तो कह दे कि रात को मुर्गे खाये थे। सबसे ज्यादा तूने ही खाये थे।"

"तेरे को कैसे पता?"

"मैं तुझे देख रहा था।"

"तुझे होश थी देखने की ?"

"मुर्गे के लिए तो पूरी होश थी। दो बार तो तूने मेरे हाथ से मुर्गे की टांग खींच कर खाई थी।"

"अच्छा, मुझे तो नहीं याद।"

"खा-पीकर कहता है याद नहीं।" प्रेमी ने हाथ नचाया--- "दूसरी बोतल आई थी, वो याद है?"

"हाँ-हाँ, वो कैसे भूल सकता हूँ।" जंबाई ने शराफत से माना ।

"उसी बोतल के साथ दो मुर्गे लाया था।"

"वो दो थे। मुझे तो एक ही लगा था।" जंबाई ने गम्भीरता से कहा।

हंसा ने मुस्कराकर मुँह फेर लिया।

"बेटे तू पक्का जंबाई है।" प्रेमी कलप कर बोला--- “खा-पीकर सुबह भूल गया। साले सुसराल में ऐसी जूतियां पड़ेंगी कि....।"

"मैंने शादी करने का प्रोग्राम बदल दिया है।"

"क्यों?" हंसा खुलकर मुस्कराया।

“शादी के बाद ये मजा जाता रहेगा। बीवी ही हर समय गले में...।"

"वक्त बरबाद मत कर। जल्दी से सरबत सिंह के घर जा और उसे लेकर आ। पाँच करोड़ वाले मामले की उससे बात करते हैं। वो देवराज चौहान से ये पता लगा लेगा कि साठी की पत्नी और बच्चों को कहाँ छिपाया हुआ है। साठी को ये बात बताकर उससे पाँच करोड़ ले लेंगे। बाई गॉड कितनी बड़ी रकम है पाँच करोड़ ।” हाथों को मलता प्रेमी बेचैनी से कह उठा।

■■■

सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाई और कश लिया। वो कुर्सी पर बैठा था। चेहरे पर सोचों के भाव नाच रहे थे। कल के गये सरबत सिंह और नगीना वापस नहीं लौटे थे। नगीना का फोन आया था और उसने बता दिया था कि बाहर के क्या हालात हैं और वे वापस इस जगह पर आना ठीक नहीं समझते। साथ में ये भी बता दिया था कि रुस्तम राव आज वहाँ पहुँचेगा।

अकेला होने की वजह से सोहनलाल को परेशानी आ रही थी।

पहली परेशानी उसे आरु और बच्चों की तरफ से थी। उन्हें खाने-पीने की परेशानी थी। घर पर खास कुछ नहीं बना सकता था। और घर में खास सामान रखा भी नहीं था बनाने का। बच्चे बाहर का सामान खाने को कह रहे थे और वो इन्हें यहाँ छोड़कर बाहर जाने की नहीं सोच सकता था। पीछे कुछ भी गड़बड़ हो सकती थी।

पाटिल की अलग ही समस्या थी। उसे बाथरूम जाना होता तो उसके बंधन खोलने पड़ते। सोहनलाल ये रिस्क नहीं ले सकता था। वो अकेला था। पाटिल ताकतवर था । खतरनाक था। उसके बंधन खोलने की देर थी कि पाटिल ने उसे छोड़ना नहीं था। ऐसे में पाटिल तब से बंधा पड़ा था। सोहनलाल उसे ना तो खाने को दे रहा था ना उसे बाथरूम जाने के लिए बंधन खोल रहा था। बंधा पड़ा पाटिल रह-रह कर उसे गालियाँ देने लगता था ।

सोहनलाल को रुस्तम राव के आने का इन्तजार था। उसके आ जाने से हालात ठीक हो जाने थे। दोनों ने मिलकर सब कुछ संभाल लेना था। उसी पल दूसरे कमरे से पुनः पाटिल के गालियाँ देने की आवाजें आने लगी। सोहनलाल गहरी सांस लेकर रह गया। तभी आरु के कमरे के दरवाजे पर थपथपाहट उभरी।

सोहनलाल उठा और सावधानी से बाहर से दरवाजा खोला।

सामने परेशान सी आरु खड़ी थी।

“क्या है?" सोहनलाल ने पूछा।

"बच्चों को भूख लगी है।" आरु बोली--- "इन्हें कुछ खाने को ला दो।"

"मैं यहाँ अकेला हूँ।” सोहनलाल बोला--- "अभी बाजार नहीं जा सकता। मेरा साथी आने वाला है, उसके आने पर बाजार जाऊँगा।"

"बच्चे जिद्द कर रहे हैं।” आरु के चेहरे पर परेशानी नज़र आ रही थी।

"तुम तो बच्ची नहीं हो।" सोहनलाल का स्वर कठोर हो गया--- "बार-बार मुझे कहने से बेहतर है बच्चों को समझा के रखो।"

आरु का चेहरा लटक गया।

सोहनलाल को लगा वो खामखाह उस पर गुस्सा हो रहा है। कल से इन्हें खाने को ठीक से नहीं मिला है तो ये परेशान होंगे ही। फिर बच्चे तो बच्चे ही हैं। सोहनलाल ने गहरी सांस ली और आराम से कह उठा ।

"थोड़ी देर की बात है, फिर सब ठीक हो जायेगा। अकेला होने की वजह से मैं भी परेशान हूँ।"

"हमें कब छोड़ोगे?" आरु ने पूछा।

“जल्दी ही ।" कहकर सोहनलाल ने पुनः दरवाजा बंद कर लिया बाहर से।

दूसरे कमरे से पाटिल उसे आवाजें लगा रहा था।

सोहनलाल वहाँ पहुँचा।

पाटिल की हालत बेहतर नहीं थी। कल से उसके हाथ-पाँव नहीं खोले गये थे। इस वक्त उसकी पैंट गीली थी और फर्श भी गीला था। पाटिल ने सोहनलाल को मौत की सी नज़रों से देखा ।

सोहनलाल खामोश रहा।

"इस तरह किसी को कैद करते हैं।" पाटिल ने सुलगते स्वर में कहा--- "ऐसी हालत मेरी कभी नहीं हुई। कम से कम बाथरूम जाने के लिए तो हाथ-पाँव खोल दे, जैसे कि पहले खोले जा रहे थे। कल से खाने को भी कुछ नहीं दिया।"

"कितनी बार तेरे को बताया है कि मैं अकेला हूँ।" सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा।

"मैंने तेरे को कसम खाकर कहा है कि मैंने सिर्फ बाथरूम जाना है। कोई हरकत नहीं करूँगा।"

"तू अच्छी तरह जानता है कि मैं ज़रा भी तेरा भरोसा नहीं कर सकता।"

"तू रिवॉल्वर हाथ में रख ले। मैं कुछ करने लगूं तो गोलियाँ मार देना मुझे।"

“मेरा साथी यहाँ पहुँचता ही होगा। फिर सब ठीक हो जायेगा।" सोहनलाल ने कहा।

पाटिल ने उसे घूरा।

“कसम से, अगर मेरा वक्त आ गया तो तुझे बहुत बुरी मौत मारूँगा।" पाटिल गुर्रा उठा ।

जवाब में सोहनलाल मुस्करा कर रह गया।

"साठी अपने परिवार को और मुझे ढूंढ रहा होगा। उसके आदमी यहाँ कभी भी पहुँच सकते हैं।" पाटिल ने तड़प कर कहा।

"जो कहना है कहता जा। मैं सुन रहा हूँ।"

“तू बचेगा नहीं।” पाटिल बोला--- "साठी का परिवार कैसा है?"

"ठीक है।"

"उनके साथ तुम लोगों ने कोई बदतमीजी तो नहीं की?"

"हम बहुत शरीफ लोग हैं।"

"वो तो मुझे नज़र आ ही रहा है।" पाटिल कड़वे स्वर में बोला--- "उन्हें भी मेरी तरह बांध रखा है?"

"नहीं। वो आराम से एक कमरे में बंद हैं।" सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा।

"देख।" पाटिल एकाएक नम्र स्वर में बोला--- “तू मेरे साथ क्यों नहीं मिल जाता?"

सोहनलाल चुप रहा।

"साठी तेरे को मोटा नावां देगा। करोड़ों रुपया और---।"

"साठी ने पाँच करोड़ का इनाम रखा है, जो उसके परिवार की खबर देगा।" सोहनलाल मुस्कराया।

"पाँच, बस! मैं तेरे को पच्चीस करोड़ दिलवाऊँगा और लाख रुपया महीना, जब तक तू जिन्दा रहेगा। मेरी जुबान है। पाटिल का वादा है और इसके बदले साठी हमेशा तुम्हारा एहसान मंद रहेगा। मेरी बात मान ले मजे ही मजे हैं। मेरे को आजाद कर दे। साठी के परिवार को भी साथ ले चलते हैं। सीधे साठी के पास पहुंचेंगे और तू मालामाल हो जायेगा।"

सोहनलाल शांत-सा उसे देखता रहा।

"तेरे को मेरी बात समझ नहीं आई?" पाटिल पुनः कह उठा।

"आई।" सोहनलाल मुस्करा पड़ा--- “पच्चीस करोड़ एक साथ और लाख रुपया महीना ।"

“तो देर क्यों करता है। जल्दी से मुझे खोल और साठी के परिवार को लेकर सीधा साठी के पास... ।”

“तू उसके परिवार की चिन्ता छोड़, अपनी चिन्ता कर। दो दिन और इसी तरह पड़ा रहा तो पागल हो जायेगा। अभी तो सिर्फ फर्श ही गीला किया है। और भी बहुत कुछ हो सकता...।”

"तेरी तो...।" पाटिल ने गाली निकाली।

सोहनलाल मुस्कराता हुआ उसे देखता रहा।

“मेरी बात तुझे जंची नहीं ?" पाटिल ने कुछ देर बाद गहरी सांस ली ।

"नहीं।"

"देवराज चौहान तेरे को क्या देता है ?"

"कुछ भी नहीं।"

"क्या मतलब?"

"वो मेरा यार है। मैं मुफ्त में काम कर रहा हूँ---।"

"पागल है तू। यार-वार कुछ नहीं होते। मुसीबत के वक्त सब भाग जाते हैं। साठी का कहर जब टूटेगा तो देवराज चौहान तुझे बचाने नहीं आयेगा। वो तो तब अपनी जान बचाने के लिए कहीं जा छिपेगा। यारी की बातें भूल जा ।"

तभी कॉलबेल बजी।

सोहनलाल बाहर निकल गया।

■■■

जंबाई ने मोटरसाइकिल, सरबत सिंह के घर के बाहर रोकी और उसे स्टैण्ड पर खड़ा किया। वो नहाया-धोया लग रहा था। पैंट तो कल वाली ही पहने था, कमीज हंसा की पहन आया था। रात ज्यादा पीने के कारण आँखें अभी भी सूजी हुई थीं। आने से पहले हंसा ने उसे दो नमक के परांठे चाय के साथ खिलाये थे, उसके बाद ही वहाँ से निकला था।

जंबाई आगे बढ़ा, घर का गेट खोला और मुख्य दरवाजे पर पहुँचकर कॉलबेल दबा दी। भीतर घंटी बजी। वो खुश नज़र आ रहा था कि पाँच करोड़ हाथ लग जायेगा। एक बार तो सरबत सिंह भी उसकी बात सुनकर उछल पड़ेगा।

तभी दरवाजा खुला और उसे सोहनलाल दिखा। जंबाई के होंठ सिकुड़े।

सोहनलाल ने उसे शांत निगाहों से देखा।

"ओए, तू कौन?” जंबाई कह उठा--- "मेरा यार कहाँ है?"

"कौन यार?"

"कमाल है, मेरे यार के घर में खड़ा है। दरवाजा खोलता है और पूछता है कौन यार? तू है कौन। तेरे को पहले नहीं देखा कभी।"

सोहनलाल समझ गया कि ये सरबत सिंह का दोस्त है।

"तो सरबत सिंह तुम्हारा यार है।" सोहनलाल का दिमाग तेजी से दौड़ा।

“बहुत हो गया। हट पीछे...।" जंबाई ने आगे बढ़ना चाहा।

"सरबत सिंह घर पर नहीं है।" सोहनलाल बोला।

"कहाँ है?" जंबाई ने गर्दन हिलाई ।

"वो बाजार गया है।"

"कोई बात नहीं। आ जायेगा। तू हट पीछे। मुझे अन्दर आने दे।"

"वो देर से वापस लौटेगा।”

“कोई बात नहीं। मैं उसके आने का इन्तजार करूंगा। बोत जरूरी बात करनी है।" जंबाई ने सोहनलाल को हटाकर भीतर जाना चाहा।

"मैं तेरे को जानता नहीं। तो भीतर कैसे आने दूं?" सोहनलाल ने कहा।

"लो, कर लो बात। अरे भई मेरे को नहीं जानता तो अभी सरबत सिंह हमारा परिचय करा देगा। इसमें कौन-सी बड़ी बात है।"

"नाम क्या है तेरा?"

"यार-दोस्त प्यार से जंबाई कहते हैं।" जंबाई ने दाँत दिखाये।

"जंबाई ?”

"आराम परस्ती की आदत है। तो यारों ने जंबाई कहकर बुलाना शुरू कर दिया। बढ़िया है, किसी का जंबाई बनूं या ना बनूं पर जंबाई तो बन गया। वो दूसरी बात है कि मैंने अपनी लापता बीवी की शक्ल नहीं देखी।” जंबाई हंसा--- “तू कौन है?”

“सोहनलाल--।”

"सरबत सिंह से तेरा क्या वास्ता?"

"पुरानी पहचान है।”

"वो तो मैं समझ गया तू उसके घर में घुसा हुआ है तो पुरानी पहचान ही होगी।” जंबाई बोला--- “भीतर आने देगा कि बाहर ही बैठूं।”

"सरबत सिंह से फोन पर बात कर ले।"

"कल से फोन ट्राई कर रहा हूँ। लग जाता तो बात ही क्या थी। आना ही नहीं पड़ता।” जंबाई ने मुँह बनाया।

सोहनलाल सोच भरी निगाहों से जंबाई को देखता रहा।

"देख। तू मेरी बेइज्जती कर रहा है जो मुझे भीतर नहीं आने दे रहा। सरबत सिंह आकर तेरे को ठोकेगा कि तूने जंबाई को बाहर खड़ा रखा है। बहुत खास यारी है मेरी सरबत के साथ, तू पता नहीं उसका किस तरह का यार है।"

"तो भीतर आना चाहता है?"

"नहीं आने देगा तो बाहर बैठ जाऊँगा। बोत जरूरी है उससे मिलना।"

"आ---।" सोहनलाल दरवाजे से हट गया।

जंबाई फौरन भीतर आ गया।

सोहनलाल दरवाजा बंद करने लगा कि उसकी निगाह मोटरसाइकिल पर पड़ी।

"मोटरसाइकिल तेरी है?" सोहनलाल ने दरवाजा बंद करते हुए कहा।

“हाँ।" जंबाई आगे बढ़कर सोफे पर बैठता कह उठा--- "चाय पिला तेज पत्ती डालकर ऐसी कि मजा आ जाये।"

सोहनलाल उसके सामने जा बैठा।

"चाय नहीं पिलायेगा यार के यार को--- ।" जंबाई ने उसे देखा ।

तभी दूसरे कमरे से पाटिल की आवाज आई वो कह रहा था।

“अब तो तेरा साथी आ गया। खोल दे मुझे। बाथरूम तक ले चल।"

जंबाई चौंककर खड़ा हो गया।

“सरबत सिंह तो भीतर है।" उसके होठों से निकला।

"ये सरबत सिंह नहीं है।” सोहनलाल भी उठा। वो सतर्क दिखने लगा था।

"कमाल है।" जंबाई उस कमरे में जाने की कोशिश में पलटा--- "उधर भी कोई यार है सरबत सिंह का?"

"रुक।" सोहनलाल ने कहते हुए फौरन रिवॉल्वर निकाल ली।

जंबाई वापस घूमा और उसके हाथ में रिवॉल्वर देखकर ठगा सा रह गया।

"ये क्या ?" जंबाई के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला।

"यहीं खड़ा रह।" सोहनलाल कठोर स्वर में बोला ।

"लेकिन ये सब...।"

"चुप--।" सोहनलाल गुर्राया ।

जंबाई मूर्खों की भांति उसे देखता रहा। कुछ समझ ना पाया।

सोहनलाल वहाँ से पीछे हटा और कमरे में एक तरफ रखी डोरी उठा ली। जंबाई टुकर-टुकर उसकी हरकतें देख रहा था तो कभी उसके हाथ में दबी रिवॉल्वर को देखने लगता ।

“अब चल।" सोहनलाल बोला।

"कहाँ ?"

“उसी कमरे में, जहाँ तू जा रहा था।" सोहनलाल उसके प्रति पूरी तरह सतर्क था ।

"तू क्या कर रहा है? मैं सरबत सिंह का यार ।”

"उस कमरे में चल। तू बोत गलत वक्त पर आया। तेरे को इधर आना ही नहीं चाहिये था।"

सोहनलाल, जंबाई को लेकर, पाटिल वाले कमरे में पहुँचा। पाटिल को वहाँ बंधा पाकर जंबाई हैरान हो उठा।

"ये कौन है?" जंबाई के होंठों से निकला। उसने सोहनलाल को देखा।

पाटिल की निगाह जंबाई के चेहरे पर जा टिकी।

"तुम लोग मेरे यार के घर पे क्या कर रहे हो?" जंबाई परेशान सा बोला--- “सरबत सिंह कहाँ है?"

“बाहर गया है।" सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा।

"तो ये सब क्या हो रहा... ।"

तभी पाटिल कह उठा।

"मेरी बात सुन ।” पाटिल के दाँत भिंचे हुये थे--- “सोचता क्या है, झपट ले इसके ऊपर। रिवॉल्वर से मत घबरा, ये खाली है, गोलियाँ नहीं हैं। जल्दी से पकड़ ले इसे। पतला सा है, दम-खम नहीं है इसमें।"

जंबाई ने बारी-बारी उलझन भरी निगाहों से दोनों को देखा।

"ये तेरे को भी मेरी तरह बांध देगा। इसने हाथ में डोरी पकड़ रखी है।" पाटिल ने पुनः तीखे स्वर में कहा--- “सोच क्या रहा है झपट ले और साले की गर्दन तोड़ दे। रिवॉल्वर खाली है।"

"ये भूल मत करना।" सोहनलाल खतरनाक स्वर में रिवॉल्वर हिलाता जंबाई से कह उठा--- "रिवॉल्वर पूरी भरी पड़ी है और अभी तक एक गोली भी कम नहीं हुई।"

"बकवास करता है ये।" पाटिल तुरन्त बोला--- “झपट ले इस पर मौका है अभी---।"

जंबाई ने सोहनलाल को देखा।

सोहनलाल जंबाई पर रिवॉल्वर ताने खड़ा था।

"ये सब हो क्या रहा है?" जंबई परेशान सा कह उठा--- "कुछ पता तो चले मुझे।"

"बातें बाद में।" सोहनलाल रिवॉल्वर वाला हाथ हिलाकर बोला--- "तुम पेट के बल नीचे लेट जाओ।"

"लेकिन क्यों?"

"मैंने तो पहले ही कहा था कि तुझे भी बांध देगा।" पाटिल बोला--- "मौका है झपट ले इस पर। रिवॉल्वर की परवाह मत कर। वो खाली है। मुझे सब पता है। तोड़ दे साले की गर्दन।"

"नीचे लेट---।" सोहनलाल जंबाई पर गुर्राया ।

"मत लेटना।" पाटिल जल्दी से बोला--- "ये गोली नहीं चला सकता। आस-पास के घरों में और लोग भी रहते हैं। धमाके की आवाज सुनकर पुलिस को फोन कर देंगे। ये फंसा पड़ा है। कुछ नहीं कर सकता।"

सोहनलाल की कठोर निगाह जंबाई पर थी।

जंबाई परेशान दिखा और सामने की कुर्सी पर बैठता कह उठा।

"मेरे यार के घर को तुम लोगों ने अखाड़ा बना रखा है। सरबत को पता है कि यहाँ क्या हो रहा है।"

"सब पता है।" सोहनलाल ने कहा--- "कुर्सी से उठ और फर्श पर लेट जा।"

"क्यों?"

"तेरे हाथ-पांव बांधने हैं।" सोहनलाल ने कठोर स्वर में कहा।

"मैं सरबत का दोस्त हूँ। मुझे क्यों बांध रहे हो।" जंबाई उखड़े स्वर में बोला--- "सरबत यहाँ होता तो कभी ऐसा ना करता।"

"वो जब आयेगा तो उसकी मर्जी, तेरे साथ जो भी करे। अभी मेरी मर्जी चलेगी।"

"ये कैसे हो सकता है। मैं अपने हाथ पांव नहीं बंधवाऊंगा।" जंबाई बोला--- "पहले मुझे बताओ मामला क्या है?"

"शाबास ।" पाटिल बोला--- “थोड़ी और हिम्मत दिखा और तोड़ दे इसकी गर्दन।"

जंबाई और सोहनलाल एक-दूसरे को देख रहे थे।

"कुर्सी से उठ और चुपचाप नीचे लेट जा।" सोहनलाल गुर्रा उठा ।

“पहले मुझे बता मामला क्या है?

"मैं गोली चलाने जा रहा हूँ।" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा।

"रिवॉल्वर खाली है।" पाटिल हंसकर बोला--- “तू डरना मत ।"

जंबाई ने बेचैनी से पहलू बदला। सोहनलाल को देखता रहा।

सोहनलाल के चेहरे पर गुस्सा दिखाई दे रहा था।

"रिवॉल्वर में गोली होती ये अब तक तुझ पर चला चुका होता।" पाटिल ने फौरन कहा--- "तेरी जगह मैं होता तो अब तक इसकी गर्दन तोड़ चुका होता। ये कागजी पहलवान है, इसे एक हाथ मार के तो देख---।"

"तो तूने क्यों नहीं एक हाथ इसे मार दिया ?" जंबाई ने पाटिल से कहा।

"तब ये अकेला नहीं था। ज्यादा लोग थे।"

"तू कौन है?" जंबाई ने पूछा।

"मैं पाटिल हूँ। देवेन साठी का नाम सुना है।"

जंबाई बुरी तरह चौंका।

"देवेन साठी?" उसके होंठों से निकला ।

"नहीं सुना ?"

"सुना है, अच्छी तरह सुना...।"

"मैं उसका दायाँ हाथ पाटिल हूँ।"

“उसका दायाँ हाथ पाटिल?" जंबाई का दिमाग तेजी से दौड़ा--- "पर तू यहाँ क्या कर रहा है। इन लोगों ने क्यों... ?"

“पकड़ के बांध रखा है।" पाटिल गुस्से से तिलमिलाया--- "बुरी हालत कर रखी है। खोल भी नहीं रहे। पैंट गीली हो रखी है।"

“क्यों पकड़ा इन्होंने। ये कौन है?" जंबाई ने सोहनलाल पर निगाह मारी।

सोहनलाल रिवॉल्वर थामें कड़वी निगाहों से उसे देख रहा था।

“अब तुझे क्या बताऊँ?"

"बता बता...?"

"देवराज चौहान से पंगा हो गया है साठी साहब का ।"

"तो इससे इन लोगों को क्या ?"

"ये देवराज चौहान के ही तो साथी हैं।"

"क्या?" जंबाई फिर चौंका--- "ये देवराज चौहान के साथी हैं? म- मैंने तो सुना है देवराज चौहान ने साठी की पत्नी और बच्चों को---।"

"वो यहीं हैं।" पाटिल कसमसाकर बोला--- “साथ वाले कमरे में।"

"साठी की पत्नी और बच्चे यहीं हैं?" जंबाई इस खबर से हिल गया था।

"एक बार में सुन लिया कर।"

"स-साठी ने पाँच करोड़ का इनाम रखा है जो उसकी पत्नी और बच्चों की खबर देगा।" जंबाई जैसे अपने से कह उठा।

"इस हरामी ने बताया था।" पाटिल ने सोहनलाल को देखा।

"मैं इसीलिये तो यहाँ आया था।"

"किसलिए ?”

"साठी की पत्नी और बच्चों के लिए। सरबत सिंह देवराज चौहान को जानता है मैंने सोचा कि सरबत सिंह से कहकर, साठी की पत्नी और बच्चों का पता लगाकर साठी को बता दूंगा और पांच करोड़ ले लूंगा।" जंबाई को लगा जैसे कोई अपना मिल गया हो।

"तो फिर सोचता क्या है?" पाटिल उकसाने वाले स्वर में बोला--- “पकड़ ले इसकी गर्दन। रिवॉल्वर खाली है ये तो तेरे को बता ही चुका हूँ। एक ही हाथ में रगड़ दे साले को या मेरे हाथ-पांव खोल-मैं---।"

जंबाई सोहनलाल को देखता खड़ा हो गया।

सोहनलाल सतर्क हो गया।

"और तेरा सरबत सिंह तो पूरी तरह देवराज चौहान का साथ दे रहा है। सब कुछ तेरे सामने ही है कि साठी के परिवार को तेरे यार के ही घर में रखा हुआ है। पाँच करोड़ पाने का तेरे पास बढ़िया मौका है। गर्दन तोड़ दे इसकी ।"

“मेरी रिवॉल्वर खाली नहीं है।" सोहनलाल गुर्राया--- "ये झूठ बोलता है।"

"इसकी बातों की परवाह मत कर।" पाटिल तेज स्वर में बोला--- “अगर इसके रिवॉल्वर में गोली होती तो ये गोली चलाकर दिखाता। मुँह से ना कहता। खाली-खाली ढोल पीट रहा है ये ।"

“क्यों सूखे पहलवान ।" जंबाई दाँत भींचकर कह उठा--- “खाली रिवॉल्वर दिखाकर, मेरे को धमकाता---।”

"बेवकूफ ये भरी हुई है।” सोहनलाल ने कठोर स्वर में कहा।

"तो गोली चला के दिखा। छत पर गोली चला---चल--।"

सोहनलाल दाँत भींचे जंबाई को देखता रहा।

"चला के दिखा, नहीं तो मैं तेरी गर्दन तोड़ने आ रहा हूँ।"

"नहीं चला सकता।" सोहनलाल का स्वर खतरनाक था।

"क्योंकि रिवॉल्वर खाली---।"

"छत पर गोली नहीं चला सकता। खामखाह का शोर होगा।" सोहनलाल ने रिवॉल्वर सीधी करते हुए कहा--- "परन्तु जरूरत पड़ने पर तेरे पर गोली जरूर चला दूंगा...।"

“मेरी बात मान ।” पाटिल हंस पड़ा--- "रिवॉल्वर खाली है। आगे बढ़, कुछ नहीं होगा।"

तभी सोहनलाल झपटा और पास पहुँचकर जंबाई को धक्का दिया। जंबाई पीछे कुर्सी पर जा लुढ़का। सोहनलाल ने रिवॉल्वर की नाल फुर्ती से उसकी कनपटी पर मारी। जंबाई कराह उठा। सोहनलाल ने पुनः एक के बाद एक दो चोटें उसकी कनपटी पर टिका दी तो जंबाई बेसुध सा होकर कुर्सी के नीचे उसकी टांगों के पास आ गिरा। वो बेहोश हो गया था !

पाटिल कठोर निगाहों से सोहनलाल को घूर रहा था।

सोहनलाल ने रिवॉल्वर जेब में रखी और कहर भरे स्वर में पाटिल से बोला ।

“तूने कोशिश तो बहुत की, पर तेरी चल नहीं सकी।"

"ये बेवकूफ अगर तेरे पर झपट पड़ता तो तब देखता तू क्या करता। गोली चलाता। आवाज गूंजती। गली-मोहल्ले में कोई तो पुलिस को फोन करता ही कि वहां गोली चली है। तब पुलिस आती और तेरा खेल खत्म हो जाता।" पाटिल गुर्राया ।

"अफसोस तो इस बात का है कि ऐसा कुछ भी नहीं हो सका।" सोहनलाल ने डोरी को संभाला और जंबाई को पेट के बल लिटाकर उसके हाथ-पांव बांधने में व्यस्त हो गया।

इस काम से फारिग हुआ ही था कि कॉलबेल बजी।

सोहनलाल ने दरवाजा खोला तो रुस्तम राव को सामने खड़ा पाया।

"किया हाल है बाप---।" रुस्तम राव भीतर आता कह उठा--- "सब ठीक होईला इधर ?”

“हाँ।" सोहनलाल मुस्कराया--- "मैं तेरे आने का ही इन्तजार कर रहा था। अकेले में यहाँ के हालात संभालने में मुझे समस्या आ रही है। बाजार से भी सामान लाना होता है ऐसे में निगरानी के लिए---।”

सोहनलाल का फोन बज उठा।

दूसरी तरफ नगीना थी। वो साठी की पत्नी बच्चों की बात साठी से कराना चाहती थी।

सोहनलाल उस कमरे की तरफ बढ़ गया, जहाँ आरु और बच्चे मौजूद थे।

आरु ने बात की।

“आखिर मुझे कब तक यहाँ रहना पड़ेगा।" आरु के स्वर में शिकायत के भाव थे ।

"मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ तुम्हें और बच्चों को आजाद कराने की।" उधर से साठी ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मामला क्या है। मुझे भी तो कुछ पता चले।"

"देवराज चौहान ने भाई को मारा था। अब मैं देवराज चौहान को कुछ ना कहूँ, इस वजह से तुम्हारा और बच्चों का अपहरण किया गया है। मेरे आदमी कभी भी तुम लोगों को ढूंढकर, वहाँ पहुँच सकते हैं, जहाँ तुम लोग हो।"

"तो क्या ये हमें आसानी से आपके आदमियों के हवाले कर देंगे।" आरु परेशान स्वर में बोली--- "तब तो ये हमें मार देंगे।"

"इस बारे में तुम फिक्र मत करो। मैं सब ठीक कर लूंगा। अभी थोड़ा-सा इन्तजार करो। शायद दो-तीन दिन देवराज चौहान, विलास डोगरा को खत्म करके तुम लोगों को छोड़ देगा। ऐसा देवराज चौहान की पत्नी ने वादा किया है। वो इस वक्त मेरे पास मौजूद है।"

आरु कुछ नहीं बोली।

"तुम्हें कोई तकलीफ तो नहीं वहाँ ?"

"ये ही तकलीफ है कि मैं और बच्चे कैद में हैं। हम इस तरह नहीं रह सकते। बच्चों से बात कराऊँ?"

"रहने दो। अभी मन ठीक नहीं है कि बच्चों से बात कर सकूं।"

"हमें जल्दी से यहाँ से निकालिये---।"

"मुझे तुमसे ज्यादा जल्दी है आरु---।"

बातचीत खत्म हो गई।

सोहनलाल, आरु से फोन लेते बोला।

"मेरा साथी आ गया है। अब आधे घंटे में तुम लोगों को खाने को मिल जायेगा ।" कहते हुए उसने बच्चों पर निगाह मारी। अर्जुन सो रहा था। गुंजन खामोश बैठा उसे देख रहा था।

बाहर निकलकर सोहनलाल ने दरवाजा बंद किया तो रुस्तम राव को दूसरे कमरे से बाहर आते देखा।

"अपुन को तो बतायेला कि इधर पाटिल कैद में होईला। ये दूसरा कौन होईला बाप ?"

सोहनलाल, रुस्तम को, जंबाई के बारे में बताने लगा।

हंसा और प्रेमी बस से उतरे और पैदल ही आगे बढ़ गये। शाम के सात बज रहे थे। शाम धीरे-धीरे अंधेरे में बदलने वाली थी। दोनों के चेहरों पर उलझन नाच रही थी।

“मुझे तो लगता है सरबत और जंबाई ने आपस में सांठ-गांठ कर ली है कि पाँच करोड़ को वो दोनों ढाई-ढाई करोड़ में बांट लेंगे और हम दोनों को इस मामले से दूर रखेंगे। तभी तो जंबाई, सरबत सिंह को लेकर आया नहीं। अब जंबाई का फोन भी बंद है। पहले तो दो बार बैल गई फिर सरबत की तरह उसका फोन भी बंद हो गया।"

"वो हमसे चालाकी करके ठीक नहीं कर रहे।" हंसा नाराजगी भरे स्वर में बोला--- "मुझे आशा नहीं थी कि वो हमसे धोखेबाजी करेंगे। हम उनके पुराने दोस्त हैं। कितनी बार एक साथ काम किए हैं।"

"क्या पता सरबत सिंह ने साठी के परिवार का पता लगाकर, साठी को बता भी दिया हो और पाँच करोड़ ले लिया हो।" प्रेमी बोला।

"इतनी जल्दी ?" हंसा ने प्रेमी को देखा।

"काम का क्या पता चलता है कि कब निपट जाये।"

दोनो पैदल ही आगे बढ़े जा रहे थे।

“मुझे नहीं लगता कि वो दोनों घर पर मिलेंगे। घर पर तो ताला लगा होगा।"

"अभी पता चल जायेगा। वो रही सामने सरबत सिंह की गली--- ।” प्रेमा ने सामने देखा--- "अगर उन्होंने धोखेबाजी की होगी तो मैं उन्हें छोड़ने वाला नहीं। सालों का गला काट दूंगा।"

"तैश में मत आ हंसा। ऐसा-वैसा काम करने से पहले उनसे ये जान लेना जरूरी है कि उन्होंने पाँच करोड़ कहाँ रखा है। मेरे ख्याल में तो अब तक उन्होंने नोट कहीं छिपा दिए होंगे। तेरा क्या ख्याल है।"

"तू ठीक कहता है, पहले नोटों का पता करेंगे कि पाँच करोड़ कहाँ रखा है।" हंसा सिर हिलाकर बोला।

दोनो गली में प्रवेश कर गये।

गली में छोटे बच्चे खेल रहे थे। शोर हो रहा था। परन्तु सरबत सिंह के मकान के बाहर नज़र पड़ते ही दोनों ठिठके। एक-दूसरे को देखा। वहाँ जंबाई की मोटरसाइकिल खड़ी थी। प्रेमा, हंसा की बाँह पकड़कर एक तरफ हो गया और कहा।

"जंबाई की मोटरसाइकिल खड़ी है। वो भीतर ही है।"

"नोटों की गिनती में तो नहीं लगे?" हंसा की आँखें सिकुड़ गई।

“ये ही कर रहे होंगे वो।” प्रेमी कह उठा--- "हम वक्त पर पहुँच गये, नहीं तो दोनों ने नोट लेकर फुर्र हो जाना था।”

"अब क्या करें?"

दोनों के चेहरों पर सोच के भाव थे।

"तू साथ में कुछ लाया है। औजार वगैहरा ?" प्रेमी धीमे से बोला।

"रामपुरिया चाकू है।"

"और वो जो देसी पिस्तौल महीना भर पहले हजार रुपये में खरीदा था ?"

"वो घर पर ही है। उसकी गोलियाँ खत्म हो गई।"

"तूने बीस गोलियाँ खरीदी थी। खत्म कैसे हो गई?”

"जंगल में जाकर निशाने की प्रेक्टिस की थी। वो कट्टा बेकार जैसा है। एक बार में उसमें एक गोली ही पड़ती है।"

"छोड़ जाने दे। इस बार चार लाख की अमरीकन पिस्तौल खरीदेंगे।"

“चार लाख कहाँ से आयेगा ?"

"नोटों की परवाह मत कर। हम पाँच करोड़ के मालिक बनने वाले हैं। रामपुरिया है ना?"

"वो तो है।"

“जाते ही सालों की गर्दन पर रख देना है पाँच करोड़ के नोट किसी बैग में भर लेंगे। जंबाई की मोटरसाइकिल तो खड़ी ही है। वो ले चलेंगे। सीधा मुम्बई के बाहर। खंडाला पहुँचकर ही रुकेंगे। तू क्या कहता है।"

"मेरे घर का बिजली का बिल आने वाला है। वो ना दिया तो बिजली कट जायेगी ।"

“उसकी तू फिक्र मत कर। हमारे पास इतना पैसा होगा कि बिजली घर खरीद लेंगे।” प्रेमा पूरी तरह उत्साह में डूब चुका था--- "मेरी बात सुन ले। वो तरह-तरह के बहाने लगायेंगे कि हम तो बस तुम दोनों के पास आ ही रहे थे। या कहेंगे कि अभी तो हमने नोट खोल के भी नहीं देखे, नहीं तो कह देंगे अभी नोट लेकर पहुँचे हैं और फोन करने ही वाले थे। ऐसी ही कोई बात कहकर हमें शांत रखने की कोशिश करेंगे। लेकिन हमें शांत नहीं होना है। बेईमान यारों का क्या भरोसा कि पैसे के लालच में हमारी पीठ पर गोली मार दें। हंसा सुन, उनके पास रिवॉल्वर भी हो सकती है। क्या पता देवेन साठी ने खुश होकर इन्हें रिवॉल्वर भी दे दी हो या कमीनों ने ही मांग ली हो कि हमें गोली मार सकें।"

"ये तो मैंने सोचा ही नहीं था।" हंसा बोला।

"तू रामपुरिया तैयार रखना।”

"वो तैयार है।"

"जिसके हिस्से जो आयेगा, उसे पकड़कर गर्दन मरोड़ देनी है। लेकिन पहले ये पता लगा लेना है कि नोट कहाँ हैं।" प्रेमी ने हंसा का कंधा थपथपाया--- "चल, मन को मजबूत कर ले। गद्दार यारों का गला काटने में हिचक नहीं होनी चाहिये।"

"तेरे पास तो हथियार नहीं है?" हंसा बोला।

“मैं एक को पकड़े रहूँगा। तू पहले वाले का काम तमाम करके दूसरे का कर देना। साले हमें धोखा देते हैं। अपने यारों को तो हम भी कम नहीं। सरबत और जंबाई दोनों को सीधा ऊपर पहुँचा देंगे। आ---।"

दोनों आगे बढ़ गये।

सरबत सिंह के मकान के गेट पर पहुँचे। खुन्दक भरी निगाहों से जंबाई की मोटरसाइकिल को घूरा और गेट खोलकर भीतर प्रवेश करने के बाद दरवाजे पर पहुँचे और बेल बजा दी।

"तू घबरा तो नहीं रहा?" प्रेमी आहिस्ता से बोला ।

"मैं तैयार हूं।" हंसा ने दृढ़ स्वर में कहा।

भीतर से कदमों की आवाज आई फिर दरवाजा खुला ।

सामने सोहनलाल खड़ा था। उसने शांत भाव से दोनों को देखा।

हंसा और प्रेमी तो सरबत सिंह या जंबाई को दरवाजे पर देखने की अपेक्षा कर रहे थे। अन्जान आदमी को सामने देखकर दोनों की आँखें सिकुड़ी, प्रेमी ने हंसा से कहा।

"हिस्सेदार और भी हैं।"

“ये साठी का आदमी हो सकता है जो पाँच करोड़ लेकर आया हो और अब नोट गिनवाकर जाने वाला हो।" हंसा ने कहा।

सोहनलाल होंठ सिकोड़े उन्हें देखता, बात को समझने की चेष्टा कर रहा था।

"तुम कौन हो ?" प्रेमी ने सोहनलाल से पूछा।

"बेल तुमने बजाई है, मैंने नहीं।” सोहनलाल बोला--- “किससे मिलना है?"

"हम सरबत सिंह के दोस्त हैं।"

"अच्छा---।"

“मैं प्रेमी हूँ ये हंसा। तू देवेन साठी का आदमी है?"

"नहीं।" सोहनलाल सतर्क दिखा।

"सरबत सिंह को बुला।”

"वो घर पर नहीं है।" सोहनलाल ने गहरी निगाहों से दोनों को देखा--- "तुम लोग कौन हो?"

"हम सरबत सिंह के दोस्त हैं। जाकर उसे हमारे नाम बता।"

"वो घर पर नहीं है।" सोहनलाल ने फिर कहा ।

"झूठ मत बोल। वो भीतर ही है।" हंसा ने तीखे स्वर में कहा--- "हम सब जानते हैं।"

"क्या जानते हो?"

"जंबाई भी भीतर है।" जंबाई का नाम सुनकर सोहनलाल मन ही मन चौंका।

"जंबाई---?"

“उसकी मोटरसाइकिल बाहर खड़ी है।" हंसा ने पलटकर कहा--- "वो देखो---।"

सोहनलाल समझ गया कि उससे गलती हो चुकी है। मोटरसाइकिल हटवा देनी चाहिये थी।

"तुम लोग जंबाई को कैसे जानते हो?"

"हम सब आपस में दोस्त हैं।" हंसा ने मुँह बनाकर कहा--- "तू इतने सवाल क्यों पूछ रहा है। सरबत सिंह को बुला। मुझे मालूम है वे दोनों भीतर क्या कर रहे हैं। तुम भी तो इस मामले में उनके साथ हो।"

"किस मामले में?"

"सब पता है तुझे, उल्लू मत बना हमें।” प्रेमी ने तीखे स्वर में कहा।

सोहनलाल की सोच भरी निगाह दोनों के चेहरों पर थी। वो मामले को समझ गया था कि जंबाई, सरबत सिंह और ये दोनों दोस्त हैं। इन्हें पता है कि जंबाई यहाँ क्या करने आया था।

“वो दोनों भीतर नोट गिन रहे हैं ना?" हंसा तड़प भरे स्वर में कह उठा--- "पूरे पाँच करोड़ लिए बैठे हैं।"

"तो तुम दोनों सब जानते हो?” सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा।

"सब पता है हमें। क्यों प्रेमी ?" हंसा ने उखड़े स्वर में कहा।

“हमारा ही तो आइडिया था, हमें नहीं पता होगा तो किसको पता होगा।"

सोहनलाल दरवाजे से पीछे हटता हुआ बोला।

“भीतर आ जाओ।"

हंसा और प्रेमी की नज़रें मिली। आँखों-आँखों में इशारे हुए।

"समझ गया।" प्रेमी ने कहा।

"मैं सब ठीक कर दूंगा।" हंसा सिर हिलाकर दृढ़ स्वर में कह उठा।

दोनों आगे बढ़े और खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गये।

सोहनलाल ने तुरन्त दरवाजा बंद कर दिया।

दरवाजे के पास रुस्तम राव खड़ा था जो उनकी बातें पहले से ही सुन रहा था।

दोनों की निगाह रुस्तम राव पर पड़ी तो वो रुके और प्रेमी कह उठा।

"हंसा। हिस्सेदार और भी हैं।"

"क्या पता ये साठी का भेजा आदमी हो जो नोट लेकर आया हो।" हंसा ने रुतम राव को देखते हुए कहा।

"ये दोनों जंबाई के दोस्त हैं।" सोहनलाल ने रुस्तम राव से कहा।

"अपुन इन्हें समझेला बाप।" रुस्तम राव मुस्कराकर कह उठा।

तभी दूसरे कमरे से जंबाई की आवाज आई।

"कुछ खाने-पीने को तो दे दो। चाय ही पिला दो।"

प्रेमी और हंसा चौंके। आपस में नज़रें मिलीं।

"तो हमारा ख्याल ठीक है कि जंबाई और सरबत पाँच करोड़ के नोट गिनने में लगे हैं।" हंसा बोला।

"ऐसा लगे है कि कुछ खाया-पीया भी नहीं।" प्रेमी ने सिर हिलाया ।

“चल ज़रा उनकी गर्दन पकड़ें---।"

“तुम दोनों कौन हो?” प्रेमी एकटक सोहनलाल और रुस्तम राव को देखकर कह उठा।

सोहनलाल उसकी ओर पलटा और कमरे के कोने में जाकर वहाँ रखी डोरी उठा ली। फिर वापस आया।

“ये तुम्हारे हाथ में क्या है?" प्रेमी ने आंखें सिकोड़कर पूछा।

"डोरी।" सोहनलाल मुस्कराया--- “नोटों को बांधने के लिए।"

"अब नोटों को बांधने की जरूरत नहीं। हम आ गये हैं। क्यों प्रेमी, सब नोट संभाल लेंगे।"

"तुम किन नोटों को बांधने की बात कह रहे हो?" प्रेमी ने पूछा।

“वो ही पाँच करोड़। साठी को उसके परिवार के बारे में बताकर पाँच करोड़ ही तो मिलना था। सरबत सिंह देवराज चौहान को जानता है और तुम लोग ये सोचकर चल रहे थे कि सरबत सिंह देवराज चौहान से पता कर लेगा कि साठी का परिवार कहाँ पर रखा गया है और ये खबर साठी को बताकर, उससे पाँच करोड़ ले लोगे।” सोहनलाल मुस्कराकर बोला।

"ये तो सब जानता है हंसा।"

“ये जरूर हिस्सेदार होगा उस पाँच करोड़ में। सरबत सिंह ने नये यार बना लिए...।"

उसी पल जंबाई की आवाज आई।

"ये तो हंसा की आवाज है। तू है हंसा---।"

“हाँ।" हंसा ने होंठ भीचकर ऊँचे स्वर में कहा--- “मेरे साथ प्रेमी भी है और तू--- ।"

"भाग जा साले। जल्दी से भाग जा। वरना मुसीबत में फंस जायेगा।" जंबाई ने भीतर के कमरे से ऊँचे स्वर में कहा।

"सुना।" हंसा कड़वे स्वर में बोला--- "हमें भागने के लिए कह रहा है। धमकी दे रहा है कि हम मुसीबत में पड़ जायेंगे। हमें पाँच करोड़ के मामले से बाहर कर दिया है। इसकी तो मैं अभी गर्दन काट देता हूँ।" कहते हुए हंसा तेजी से कमरे की तरफ बढ़ा।

"सरबत सिंह की भी गर्दन काटनी है।" उसके पीछे चलते प्रेमी ने जैसे याद दिलाया।

पहले हंसा फिर प्रेमी, दोनों कमरे में जा पहुँचे।

कमरे में पहुँचते ही ठिठके। जो नजारा उन्हें देखने को मिला, उसकी तो उन्होंने कल्पना नहीं की थी।

जंबाई के हाथ-पांव बंधे थे। वो कमरे के फर्श पर पड़ा था। उससे चार कदम दूर पाटिल बंधा हुआ था।

उन्हें कमरे में आया पाकर जंबाई का मन माथा पीटने को हुआ।

"ये क्या?" प्रेमी के होंठों से निकला।

सिर घूम गया था उन दोनों का। कुछ समझ में नहीं आया ।

वो तो कमरे में पाँच करोड़ के नोटों के ढेर को देखने की आशा कर रहे थे। जबकि यहाँ सब कुछ उल्टा था।

हंसा हक्का-बक्का सा पीछे पलटा ।

दरवाजे पर सोहनलाल को रिवॉल्वर लिए खड़ा पाया। डोरी अब रुस्तम राव के हाथ में थी।

"प्रेमी...।" हंसा के चेहरे का रंग फक्क पड़ गया।

प्रेमी ने पलटकर देखा तो वो भी ठगा सा रह गया।

"डरो मत।" पाटिल तुरन्त कह उठा--- "इसके हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर खाली है। टूट पड़ो इन दोनों पर। सालों की गर्दन तोड़ दो। कोई दम खम नहीं इनमें। एक ही हाथ में नीचे पड़े होंगे।"

"रिवॉल्वर खाली है?" हंसा गुर्रा उठा।

"सच में।” पाटिल तेज स्वर में कह उठा--- "जंबाई से पूछ लो ।”

"मुझे नहीं पता।" जंबाई कह उठा--- "मेरे ख्याल में तो रिवॉल्वर भरी होगी ---।"

"तेरे को तो पता ही है कि रिवॉल्वर खाली है।" पाटिल ने गुस्से से, जंबाई से कहा।

"मुझे नहीं पता।” जंबाई ने बुरा मुँह बनाकर कहा--- "तू मेरे यारों को मरवाना चाहता है कि वो उन पर झपटें और ये कमीना इन पर गोली चला दे। मुझे अपने यार बहुत प्यारे हैं।"

“पाँच करोड़।" पाटिल ने जैसे जंबाई को भूली बात याद कराई।

जंबाई पाँच करोड़ का नाम सुनते ही बेचैन हो उठा।

"कह उन्हें झपट पड़ें उन पर।" पाटिल फुसफुसाया।

"नहीं।" जंबाई परेशान हुआ।

"कह दे। दो घंटों में पाँच करोड़ तेरे पास होंगे।"

"ये मर गये तो?"

"तो हिस्सा डबल हो जायेगा।"

"ये मेरे यार हैं।"

"नोटों से बड़ा कोई यार नहीं होता।"

"नहीं-नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता।" जंबाई होंठ भींचकर कह उठा।

"तू कुत्ता है।" पाटिल गुर्राया--- "कुत्ता ही रहेगा तू---।”

जंबाई ने गर्दन घुमाकर प्रेमी और हंसा को देखा।

सोहनलाल रिवॉल्वर हिलाकर कठोर स्वर में बोला।

"फर्श पर लेट जाओ। तुम दोनों के हाथ-पांव बांधने हैं इस डोर, से।"

हंसा-प्रेमी ने एक दूसरे को देखा।

“ये क्या हो रहा है हंसा?"

“मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा। सरबत सिंह के घर का क्या हाल हुआ पड़ा है। वो खुद कहाँ है?"

"मुझे क्या पता।" प्रेमी ने जंबाई से कहा--- "रिवॉल्वर खाली है इनकी ?"

“हाँ।" पाटिल जल्दी से बोला ।

"मुझे नहीं पता।" जंबाई ने पाटिल को देखकर कहा--- "पाटिल चाहता है कि यहाँ गोलियाँ चलें, शोर हो और पुलिस आ जाये। मेरे ख्याल में रिवॉल्वर में गोलियाँ हैं। मेरी मानो तो चुपचाप हाथ-पांव बंधवा लो।"

“उल्लू का पट्ठा ।" पाटिल जंबाई पर गुर्राया ।

"ये कौन है?"

"ये पाटिल है। देवेन साठी का राइट हैंड---।" जंबाई ने बताया।

"देवेन साठी का राइट हैंड---।" प्रेमी चौंका--- "ये सब क्या हो रहा है। मामला क्या है, पता तो चले। ये लोग कौन हैं और तुम लोगों को क्यों बांध रखा है। सरबत सिंह कहाँ है और---।"

तभी रुस्तम राव का घूंसा प्रेमी की कनपटी पर जा पड़ा।

प्रेमी के होंठों से कराह निकली। उसके घुटने मुड़े और बेहोश होकर नीचे जा लुढ़का।

सोहनलाल ने आगे बढ़कर हंसा के सीने पर रिवॉल्वर की नाल रखी और गुर्राया ।

"गोली चला के दिखाऊँ कि इसमें गोलियाँ हैं।"

"न-नहीं---।"

"तो नीचे लेट जा। देर मत कर। तेरे हाथ-पांव बांधने हैं, मारने का प्रोग्राम नहीं है तेरे को। उसके बाद पूछते रहना कि मामला क्या और यहाँ क्या हो रहा है। लेट नीचे।"

"लेट जा हंसा लेट जा। बंधवा ले हाथ-पांव।" जंबाई ने गहरी सांस ली--- "मैंने तो पहले ही कहा था कि यहाँ मत आना, मुसीबत में पड़ जायेगा, पर तूने मेरी एक ना सुनी।"

हंसा शराफत से पेट के बल लेट गया। रुस्तम राव ने डोरी से उनकी बांहें पीठ पर करके बांध दी। फिर बेहोश पड़े प्रेमी के हाथ-पांव बांध दिए। सोहनलाल ने रिवॉल्वर जेब में रख ली।

“अब मामला फिट होईला बाप---।" रुस्तम राव ने सोहनलाल को देखा।

तभी जंबाई गुस्से से कह उठा ।

“तुम सरबत से मेरी बात कराओ। उसका फोन मिलाओ।"

सोहनलाल, रुस्तम राव दरवाजे की तरफ बढ़ गये।

"कम से कम चाय तो पिला दो।" जंबाई ने जल्दी से कहा।

वो दोनों बाहर निकल गये।

"जंबाई।" हंसा ने कहा--- "यहाँ तेरी सेवा नहीं होने वाली ।"

"मैंने तो यहाँ आकर मुसीबत मोल ले ली।" जंबाई ने थके स्वर में कहा।

"तुम लोग ना आते तो मेरा दिल कैसे लगता।" पाटिल मुस्कराया-- "अकेले मेरा मन नहीं लग रहा था।"

"आखिर मामला क्या है जंबाई?" हंसा ने जंबाई से पूछा--- "बता तो, ये सब क्या हो रहा है।"

■■■

मोना चौधरी, महाजन और पारसनाथ, देवराज चौहान के पीछे कोल्हापुर जा पहुंचे थे। नौ घंटों के सफर में उन्होंने ये जान लिया था कि दो और कार देवराज चौहान के पीछे लगी है। उन्हें इस बात का शक था कि वो दोनों कारों वालों को भी उनके बारे में पता चल गया है। उनका अनुमान था कि वो देवेन साठी के आदमी हो सकते हैं। 

शाम सात बजे जब वे कोल्हापुर पहुँचे तो अंधेरा होने वाला था।

इस वक्त देवराज चौहान कार चला रहा था। वे अम्बेडकर नगर जैसे पाश इलाके पहुँचे और तलाश करते वो स्टार क्लब की इमारत के बाहर जा पहुँचे जो कि बाहर से बहुत शानदार लग रही थी। इमारत के माथे पर नियोन साईन बोर्ड लगा हुआ था और इस वक्त नीली और लाल रोशनी में जलना आरम्भ हो चुका था। इसके अलावा इमारत पर और भी लाइटें जल रही थी। बड़े से विशाल गेट पर वर्दीधारी दो दरबान खड़े थे। ये कोल्हापुर का शानदार स्टार नाइट क्लब था। यहाँ डी-जे था। बॉर था, डासिंग फ्लोर था। रैस्टोरेंट था। दबी आवाज में सुना जाता था कि यहाँ जुआ भी खेला जाता है।

"ये है वो जगह, जहाँ कल शाम आठ बजे विलास डोगरा ने आना है।" देवराज चौहान बोला।

"ये स्टार नाइट क्लब डोगरा का है?" जगमोहन के होंठ भिंच गये।

“हाँ। तुम्हारे सामने ही तो प्रकाश दुलेरा ने बताया था।"

"वो पक्का आयेगा क्या?” हरीश खुदे कह उठा।

"पक्का आयेगा।"

"तुम समझे नहीं।" खुदे ने कहा--- “प्रकाश दुलेरा की मौत के बाद वो सतर्क भी हो सकता है कि कहीं उसने हमें उसके प्रोग्राम के बारे में बता दिया हो। ऐसे में वो अपना प्रोग्राम बदल दे तो बड़ी बात नहीं होगी।"

“खुदे की बात में दम है।" जगमोहन गुर्रा उठा ।

"वो आएगा।" देवराज चौहान सख्त स्वर में बोला--- “डोगरा ऐसी बातों की परवाह करने वाला इंसान नहीं है। अगर उसे इस बात का शक भी हो तो वो ये दिखाने के लिए अपना प्रोग्राम नहीं बदलेगा कि वो हमारी परवाह नहीं करता।"

"परवाह तो उसे करा देंगे।" जगमोहन ने खतरनाक स्वर में कहा--- "एक बार वो यहां पहुंचे तो सही।"

"हमें अपने टिकने की जगह तलाश करनी चाहिए।" देवराज चौहान ने कहा और धीमी गति से कार आगे बढ़ा दी।

“पीछे की क्या पोजिशन है?" खुदे ने पूछा।

"तीनों कारें पीछे हैं।” देवराज चौहान शीशे में देखता कह उठा--- "एक कार में तो मोना चौधरी, महाजन और पारसनाथ, बाकी की दो कारों में दो-दो आदमी हैं। उनके बारे में नहीं पता कि वो कौन हैं।"

"वो हमारे पीछे लगे देवेन साठी के आदमी हो सकते हैं।" जगमोहन बोला।

"दो कारों में?" देवराज चौहान ने कहा।

"कहीं एक कार में विलास डोगरा के आदमी न हों।" खुदे ने आशंका व्यक्त की।

"ये संभव नहीं ।" देवराज चौहान बोला--- "डोगरा के आदमी हमारा पीछा नहीं करेंगे। हम पर हमला करेंगे।"

"वो रहा होटल।" तभी देवराज चौहान कह उठा--- "सफेद बिल्डिंग माथे पर होटल का नियोन साइन बोर्ड चमक रहा है।"

देवराज चौहान ने उसी होटल में कार ले जा रोकी। वो बड़ा और खुला होटल था। तीनों बाहर निकले तभी पीछे-पीछे तीन और कारें वहां आ पहुंचीं। ये वो हीं कारें थीं, जो मुम्बई से उनका पीछा करती आई थीं। उन्होंने खुद को छिपाए रखने की ज़रा भी चेष्टा नहीं की थी। एक कार मोना चौधरी वाली थी।

दूसरी में गोकुल और शेखर थे।

तीसरे में शिंदे और घंटा थे।

देवराज चौहान, जगमोहन और खुदे ने उन कारों की तरफ देखा !

फिर देवराज चौहान उन कारों की तरफ बढ़ गया ।

जगमोहन और खुदे सतर्क मुद्रा में वहीं खड़े रहे। ये जगह होटल के नीचे बनी, होटल की पार्किंग थी और वहां लाइटों से पर्याप्त रोशनी हो रही थी। इस वक्त वहां तीस के करीब कारें खड़ी थीं। तीन अटैण्डेंट दिखाई दे रहे थे।

देवराज चौहान, शिंदे और घंटा वाली कार के पास पहुंचा।

वो दोनों भीतर थे और उसे आता देख रहे थे।

पास पहुंचकर देवराज चौहान झुका और भीतर झांका। उनसे नज़रें मिलीं।

“तुम लोग मुम्बई से मेरे पीछे हो ?"

"हां।" शिंदे ने देवराज चौहान को घूरा।

"क्यों?"

"साठी साहब का ऑर्डर है कि तुम लोगों पर नजर रखी जाए।" शिंदे ने कहा।

"तो देवेन साठी के आदमी हो?"

दो पल चुप्पी रही।

“वो दूसरी कार में दो आदमी कौन हैं?"

"हमारे ही आदमी हैं।"

"इस तरह अलग-अलग पीछा करने का क्या मतलब है?"

"एक की नज़रों से तुम दूर हो जाओ तो दूसरे की निगाह तुम पर रहे।" शिंदे ने शांत स्वर में कहा।

"तुम लोगों का इरादा क्या है?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में पूछा।

"तुम तीनों पर नज़र रखना और साठी साहब को खबर करना हमारा काम है देवराज चौहान ।"

"बस ?"

"बस ।"

“यहां मैं जो भी करता हूं, मेरे किसी काम में, किसी भी हालत में दखल मत देना।"

"यहां क्या करने आए हो तुम? तुम तो विलास डोगरा के पीछे पड़े हो? वो तो मुम्बई में है।" घंटा कह उठा।

"मैंने कहा है, मेरे किसी काम में दखल मत देना। इन दोनों, दूसरी कार वालों को भी समझा देना। इस पर मुझे एतराज नहीं कि तुम लोग मुझ पर नज़र रखो।" देवराज चौहान ने बारी-बारी दोनों को देखते हुए कहा।

"तुम जो भी करो, हम दखल नहीं देंगे।"

देवराज चौहान जाने लगा तो घंटा बोला।

"उस कार में कौन है?" वो आदमी और एक लड़की....?"

“वो मोना चौधरी, पारमनाथ और महाजन है, नाम सुना है उनका ?" देवराज चौहान बोला।

"उनके बारे में सब पता है।"

"तुम्हारी तरह वो भी देख रहे हैं कि मैं क्या क्या कर रहा हूं।" देवराज चौहान ने होंठ भींचकर कहा।

"साठी साहब के परिवार को कहां रखा है तुमने?” शिंदे ने एकाएक तीखे स्वर में पूछा ।

"अब तुम अपने काम से आगे की बात कर रहे हो।"

"तुम तब तक ही मजे में हो, जब तक साठी साहब का परिवार नहीं मिल जाता। उसके बाद तो तुम्हारी खैर नहीं।" वो कड़वे स्वर में बोला।

“इन विचारों को दिल में रखकर मुझ पर नज़र रखोगे तो मामला बिगड़ सकता है। मुझसे दूर रहना।" कहने के साथ ही देवराज चौहान पलटा और वापस जगमोहन और खुदे के पास जाकर बोला--- “वो दोनों कारें साठी के आदमियों की हैं। वो हम पर नज़र रख रहे हैं और साठी को खबर दे रहे हैं। उन्हें अपना काम करने दो। हमें सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना है।"

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उसी होटल में उन्होंने ऐसा कमरा लिया, जो कि काफी बड़ा था और दो डबल बैड उसमें लगे हुए थे। एक तरफ सोफा सैट था। अटैच बाथरूम था। देवराज चौहान, जगमोहन और खुदे बारी-बारी नहाए और कॉफी मंगवाकर पी। लंबे सफर के बाद भी वे थकान में नहीं थे। देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई और कश लगाते हुए बोला।

"यहां बैठने का कोई मतलब नहीं है। हमें स्टार नाइट क्लब जाकर, वहां के रास्तों से वाकिफ हो जाना चाहिए। कल हमें वहां पर काम करना है। हमारी कोशिश होगी कि हम स्टार नाइट क्लब को अच्छी तरह देख लें । देशमुख वाग़ले उस क्लब का मैनेजर है। वो कहां बैठता है और हमनें यह सोचना है कि डोगरा से वो क्लब में कहां मिलेगा, कहां बैठेगा?"

“ऐसी बात की पूछताछ से हमारा भेद खुल सकता है। वो हम पर शक कर सकते हैं।" खुदे बोला।

“ये बात हमने किसी से पूछनी नहीं है। हर जगह देखकर, दो-तीन जगह ऐसी दिमाग में रख लेनी है, कि जहां डोगरा के और देशमुख वागले के बैठे जाने की संभावना हो।" देवराज चौहान ने कहा।

"क्या ये बेहतर न होगा कि विलास डोगरा को स्टार नाइट क्लब के गेट पर ही पकड़ लें?" जगमोहन ने कहा।

"उसमें हम चूक सकते हैं, क्योंकि कल आठ बजे डोगरा वहां पहुंचेगा तो अंधेरा हो चुका होगा। हम चूक भी सकते हैं उसे देख पाने में। इसलिए हमें क्लब के भीतर होना चाहिए। अपनी नज़रें हर तरफ रखनी होंगी। परंतु खुदे तब बाहर ही रहेगा। अगर खुदे को डोगरा नज़र आ जाता है तो वो उसी पल फोन पर हमें इत्तला कर देगा।"

खुदे ने सिर हिलाया ।

“डोगरा जानता है कि हम उसके पीछे हैं। शायद वो कुछ सावधानी इस्तेमाल करे।" जगमोहन बोला।

“ऐसा हो सकता है, तब तो हमें भी ये देखना होगा कि क्लब में प्रवेश करने के कितने रास्ते हैं।" देवराज चौहान ने कहा--- "यहां से चलते हैं। क्लब पास ही है। पैदल चलेंगे और दस मिनट में पहुंच जाएंगे।"

वे उठ खड़े हुए।

तभी दरवाजा थपथपाया गया।

तीनों ने एक-दूसरे को देखा।

जगमोहन ने जेब में पड़ी रिवॉल्वर पर हाथ रखा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया। चेहरे पर कठोरता आ ठहरी थी। यहां उनका मिलने वाला कोई नहीं था। आने वाला या तो वेटर होगा, या फिर कोई दुश्मन। जगमोहन ने सावधानी से दरवाजा खोला, बाहर देखा।

सामने मोना चौधरी खड़ी थी।

दो पल जगमोहन उसे देखता रहा फिर दरवाजा खोल दिया। वो अकेली थी। मोना चौधरी आगे बढ़ी और कमरे में प्रवेश कर गई। जगमोहन ने दरवाजा बंद कर दिया।

मोना चौधरी को आया पाकर हरीश खुदे हड़बड़ाकर देवराज चौहान को देखने लगा।

देवराज चौहान की निगाहें मोना चौधरी पर टिक गई थीं।

देवराज चौहान की तरफ बढ़ती मोना चौधरी कह उठी।

"तुम लोग विलास डोगरा के पीछे हो जबकि इस वक्त वो मुम्बई में है और तुम लोग यहां आ गए । मैं जानने आई हूं कि कोल्हापुर में क्या करने आए हो? क्योंकि मैं अपनी पूरी छानबीन कर लेना चाहती हूं कि कठपुतली वाली बात सही है या नहीं। इसलिए मेरी नज़र तुम लोगों से हटी नहीं है अभी।"

"कल विलास डोगरा कोल्हापुर आ रहा है।" देवराज चौहान बोला।

"कहां?" मोना चौधरी रुक गई।

"स्टार नाइट क्लब उसका है।"

"पास ही में। जहां तुमने पहले ही कार रोकी थी।" मोना चौधरी बोली ।

देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिला दिया।

"तो कल तुम डोगरा का शिकार यहां करने वाले हो। ठीक है ।" मोना चौधरी ने कहा और वह दरवाजे की तरफ पलट गई।

"मुझे इस बात की खुशी है कि तुम यह समझ चुकी हो कि मैं जब तुम्हारे पीछे पड़ा तो तब अपने होश में नहीं था।" देवराज चौहान ने कहा---  "डोगरा ने तब मुझ पर कठपुतली आजमाई थी। मेरे रास्ते से हट जाने का शुक्रिया।"

दरवाजे के पास पहुंचकर मोना चौधरी ठिठकी और देवराज चौहान को देखा। चेहरे पर गंभीरता के भाव थे।

"मैं अभी तुम्हारे इस सच को समझने की चेष्टा कर रही हूँ।" कहने के साथ ही दरवाजा खोलकर मोना चौधरी बाहर निकल गई।

पास खड़े जगमोहन ने दरवाजा बंद कर दिया।

"मोना चौधरी को कमरे में आया पाकर मैं तो घबरा ही उठा था।" हरीश खुदे ने एक गहरी सांस लेकर कहा।

"ये हमारे लिए परेशानी खड़ी करेगी?" जगमोहन ने पूछा।

"नहीं।" देवराज ने इंकार में सिर हिला दिया--- "ऐसा कुछ होता तो हमारे पास आकर सीधी बात न करती। इस बात को लेकर वो ज़रूर उलझन में थी कि हम कोल्हापुर क्यों आए हैं। अब उसे जवाब मिल गया।"

"मोना चौधरी हम पर नज़र रखेगी, क्या ऐसे में हम काम कर पाएंगे कल?"

"वो बच्ची नहीं है, वह हमारे रास्ते में परेशानी खड़ी नहीं करेगी।"

"उसे कठपुतली वाली बात पर यकीन है तो वो हमारे साथ डोगरा को खत्म करे। डोगरा ने हमें कठपुतली देकर उससे भी तो दुश्मनी ली है।"

"प्रत्यक्ष रूप में डोगरा ने हमसे पंगा लिया है और ना कि मोना चौधरी या फिर देवेन साठी से।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "इन दोनों के पास ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि हमारे द्वारा डोगरा ने इसकी जान लेनी चाही, या हमने डोगरा के इशारे पर पूरबनाथ साठी को मारा। कठपुतली को हम ही महसूस कर सकते हैं। फिर डोगरा ने फोन पर कठपुतली नाम के नशे के बारे में माना था कि उसने उसका इस्तेमाल मुझ पर किया और हमें गुलाम बनाकर पूरबनाथ साठी और मोना चौधरी के पीछे डाल दिया। मेरा मतलब है कि कठपुतली पर पूरी तरह यकीन करना आसान नहीं मोना चौधरी और देवेन साठी के लिए।" ये सब जानने के लिए पढ़े अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'सबसे बड़ा गुण्डा'--- 'मोना चौधरी ने कठपुतली की वजह से ही अपने कदम पीछे खींच लिए। वरना वो हमें मारे बिना नहीं मानती, या झगड़े में खुद मर जाती। परंतु अभी भी उसे हमारी बात पर शक है।"

"तभी तो वह हम पर नज़र रखे हुए है।" जगमोहन गंभीर था।

"हां, वो उलझन में है और वो हम पर नज़र रखे हुए है। नगीना ने मुझे बताया था कि किसने कठपुतली नाम की नशीली दवाई बनाई थी यानी कि अब्दुल्ला। पारसनाथ अब्दुल्ला के पास गया था। अपने तौर पर उसने अब्दुल्ला से बात की। सच उसके मुंह से निकलवाया और फिर इस बारे में मोना चौधरी को बताया।"

"मतलब कि मोना चौधरी अभी भी विश्वास-अविश्वास के घेरे में है।" जगमोहन ने सिर हिलाया।

"हां, कठपुतली को लेकर वो उलझन में है।" तभी हरीश खुदे कह उठा ।

“मुझे बिल्ले की याद आ गई। उसने हमें कैसी मुसीबत में डाल दिया। साला नम्बरी हरामजादा था। अच्छा हुआ मर गया। तुम्हारी पत्नी ने वक्त पर पहुंचकर हमें बचा लिया, नहीं तो तब पता नहीं क्या हो जाता? कुत्ता-कमीना हर वक्त टुन्नी के बारे में ही सोचता रहता था। ज़रा भी शर्म नहीं थी उसे कि टुन्नी मेरी पत्नी है।"

“अब तो उससे छुटकारा मिल गया।" जगमोहन बोला--- “उसे रुस्तम, बांके ने उसके किए की सजा दे दी।"

"अच्छा हुआ मर गया। कलंक था वो हरामी ।"

"चलो अब ।” देवराज चौहान बोला--- “स्टार नाइट क्लब हो आएं।"

तीनों बाहर निकले और लॉक लगाकर आगे बढ़ गए।

"साठी के आदमी जरूर हमारे पीछे आएंगे।" जगमोहन चलते-चलते कह उठा।

“उसकी परवाह मत करो। उनके बारे में सोचो भी मत। अपने काम की तरफ ध्यान दो।" देवराज चौहान बोला।

रिसैप्शन पर उन्होंने चाबी दी और होटल के बाहर निकल आए। कुछ दूर उन्हें स्टार नाइट क्लब की बिल्डिंग दिखाई दे रही थी। वो पैदल ही उस तरफ चल पड़े। तभी हरीश खुदे का मोबाइल बज उठा।

"हैलो!” उसने बात की फोन पर ।

"कैसे हो?” टुन्नी की प्यारी सी आवाज कानों में पड़ी ।

"तुम?" खुदे ने गहरी सांस ली।

"क्या हुआ? गलत वक्त तो फोन नहीं कर दिया?"

“नहीं-नहीं, अभी मेरे पास दस मिनट हैं बात करने को।” खुदे ने जल्दी से कहा।

"तो अब तुम्हारी ये हालत हो गई है कि मुझसे बात करने के लिए भी वक्त नहीं।" टुन्नी के स्वर में शिकायत के भाव आ गए।

“बस थोड़े से वक्त की बात है। देवराज चौहान के साथ डकैती करने के बाद हमेशा तेरे पास ही रहूंगा। तब हमारे पास इतना पैसा होगा कि जिंदगी भर हम ऐश करेंगे।" कहते हुए खुदे मुस्करा पड़ा था।

चलते-चलते जगमोहन ने उसे देखा, कहा कुछ नहीं ।

"मुझे सपने दिखा रहे हो?"

"तेरी कसम टुन्नी। सच कह रहा हूं।"

"मेरे पास कब आओगे ?"

“महीना भर लग ही जाएगा। नोट लेकर आऊंगा तेरे पास। करोड़ों रुपया, तू और मैं।”

“कभी-कभी तो मैं सोचती हूं कि तू तब ही ठीक था, तब साठी के लिए काम करता था। घर पर तो आ जाता था, एक-दो दिन बाद। अब तो जब से देवराज चौहान और जगमोहन तुझे उठाकर ले गए हैं, तब से तेरी सूरत देखनी नसीब नहीं हुई।"

"तू ही तो कहा करती थी कि मैं घर में क्यों बैठा रहता हूं?"

"पर मेरा ये मतलब तो नहीं था कि तू लंबे वक्त के लिए घर से ही गायब हो जाए।"

“तू सब जानती है कि मैं किन कामों में पड़ा हुआ हूं? मुझे देवराज और जगमोहन की फिक्र नहीं है, उन्हें तो मैं अभी छोड़कर आ जाऊं, मुझे तो उस डकैती कि फिक्र है, जिसका वादा देवराज चौहान ने किया है कि ये काम निपटकार, वो डकैती में मुझे साथ लेगा और मुझे इतना पैसा दे देगा कि सारी जिंदगी मजे से खाता रहूं।” खुदे ने कहा।

"मैं क्या कहूं, मुझे तो तेरी जरूरत है।"

"और मुझे तेरी भी और पैसे की भी।" खुदे मुस्कराकर बोला--- “मैं हमेशा सोचा करता था कि बड़ा हाथ मारूं। अब देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर के साथ काम करने का मौका मिल रहा है, तो इस मौके को नहीं छोड़ूंगा।"

"अगर अपना काम निकालकर देवराज चौहान ने डकैती के लिए मना कर दिया तो?"

"वो ऐसा नहीं करेगा, ऐसा नहीं करेगा वो।”

"भरोसा है उस पर?"

"बहुत। वो बढ़िया आदमी है, ऐसे लोग मैंने कम ही देखे हैं।" खुदे ने गहरी सांस ली।

"तेरी बातें तू ही जाने, अच्छा ये बता बिल्ला सच में ही मर गया है?"

"बिल्ले का नाम भी अपने होंठों पर मत लाना।" खुदे ने तीखे स्वर में कहा--- “कमीना तेरे पीछे हाथ धोकर पड़ा था। वो धोखेबाज था। कमीना था, नहीं मरता तो मैंने उस हरामी का गला काट देना था। उसने बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा दिया था हम तीनों को। उस जैसा घटिया इंसान मैंने कभी नहीं देखा था। साठी और मोना चौधरी को हमारे ठिकाने की खबर एक-एक करोड़ में बेच दी और हम घिर गए। किस्मत अच्छी थी जो बच निकले, कुत्ता कहीं का। अब बंद करता हूं, फिर बात करेंगे टुन्नी ।"

"तुम भी फोन कर लिया करो।”

"हां-हां, मैं कल फोन करूंगा। अपनी प्यारी टुन्नी को तो मैं हमेशा अपने दिल में रखता हूं।"

"सच ।"

"तेरी कसम टुन्नी, तू कभी-भी मेरे दिल से दूर नहीं हुई है। कल फोन करूंगा। बाय टुन्नी।" कहकर खुदे ने फोन बंद कर दिया।

वे तीनों स्टार नाइट क्लब के मेन गेट तक आ पहुंचे थे।

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