"सुधाकर बल्ली के साथ, शुरू से ही मदन मेहता मिला हुआ था। उसकी योजना ये थी कि जब काम ठीक-ठाक ढंग से निपट जाए तो वो पचास करोड़ ले उड़े। अपनी कोशिश में वे सफल भी रहे। मदन मेहता की ये योजना पहले से ही रही होगी कि सफल होने पर सुधाकर बल्ली को खत्म कर देना है। इससे उसे दो फायदे हुए। एक तो सुधाकर बल्ली को हिस्सा नहीं देना पड़ा और दूसरे अब कोई इस बात की शिनाख्त नहीं कर सकता कि वो इस मामले से जुड़ा है। बहुत ही चालाकी से मदन मेहता ने सारा काम किया। उसके बाद मुंबई में ठहरना मुनासिब नहीं था। और मौका मिलते ही पचास करोड़ के साथ गोवा रवाना हो गया, जहां वो सुरक्षित रह सकता था।" देवराज चौहान ने कहा।
शाम के नौ बज रहे थे। हर तरफ रात की रोशनियां चमक रही थीं। चेहरे पर गंभीरता के भाव समेटे जगमोहन कार ड्राइव कर रहा था।
"हमें, सोहनलाल के यहां चलना है।" देवराज चौहान ने पुनः कहा--- "रास्ते में कहीं फोन बूथ नजर आए तो, कार रोक देना। वानखेड़े से बात करनी है।"
"वानखेड़े से?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"हां।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "एक बार वानखेड़े से बात करना जरूरी है। इसलिए कि अगर उसने मेरे बारे में खांडेकर की पत्नी को लेकर कोई गलतफहमी बना ली है तो उसे बता सकूं कि ऐसा कुछ नहीं है। हम लोगों ने यह गिरा हुआ काम नहीं किया। मैं नहीं चाहता कि वो मेरी फाइल में बलात्कार जैसा घिनौना काम दर्ज कर ले।"
"तुम क्या समझते हो कि तुम्हारे कहने से वो मान जाएगा कि---।"
"वो माने या न माने, ये उसकी समझ पर है। उसे सच बात बताना तो मेरा फर्ज है।"
"अजीब मुसीबत में फंस गए हैं हम।" जगमोहन कह उठा--- "सुधाकर बल्ली शुरू से ही मदन मेहता के इशारों पर चल रहा था। और मदन मेहता इस पर नजर रख रहा था। उस रात जब उसने देखा कि हम सब खांडेकर के घर से निकलते जा रहे हैं तो तब उसने चुपके से भीतर प्रवेश किया होगा। सबसे पहले उसने अंकल चौड़ा को मारा। उसके बाद उसने जानबूझकर रजनी खांडेकर के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या की कि पुलिस और हमें दोनों उलझ जाएं कि सोच भी न सकें कि यह काम किसी और का हो सकता है। उसके बाद सुधाकर बल्ली के साथ दौलत लेकर निकला। अब मदन मेहता को सुधाकर बल्ली मुसीबत लगने लगा। इसी वजह से उसकी भी हत्या कर दी। और खुद को मुंबई में, पचास करोड़ की दौलत के साथ सुरक्षित न पाकर सीधा गोवा खिसक गया।"
देवराज चौहान ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया।
"हुआ तो कुछ ऐसा ही है। ठीक-ठीक क्या हुआ, ये तो अब गोवा जाकर ही मालूम होगा।" देवराज चौहान ने कहा।
तभी जगमोहन ने कार को साइड में रोक दिया। सामने ही पब्लिक फोन बूथ था।
"अभी आया?" कहने के साथ ही देवराज चौहान कार से निकला और फोन बूथ की तरफ बढ़ गया।
हैडक्वार्टर में तीन-चार जगह फोन करने के बाद उसे इंस्पेक्टर शाहिद खान की लाइन दी गई कि वानखेड़े के बारे में वो ही बता सकता है कि वो किधर मिलेगा।
देवराज चौहान ने शाहिद खान से बात की।
"मैं इंस्पेक्टर वानखेड़े से बात करना चाहता हूं।" देवराज चौहान ने कहा।
"वानखेड़े इस वक्त फील्ड में है। आप कौन हैं?" इंस्पेक्टर शाहिद खान की आवाज कानों में पड़ी।
"फील्ड में वानखेड़े से कैसे बात की जा सकती है?" उसके सवाल का जवाब न देकर देवराज चौहान ने पूछा।
"वानखेड़े कहां है? किसी को नहीं मालूम। मुझे भी नहीं। लेकिन ये पक्का है कि उसका फोन देर-सवेर में मेरे पास आएगा। कोई मैसेज हो तो दे सकते हो। तुमने अपना नाम नहीं बताया।"
"वानखेड़े से कहना, वो तुम्हारे इसी फोन पर मौजूद रहे, मैं कल सुबह दस बजे फोन करूंगा।"
"लेकिन तुमने अपना नाम नहीं...।"
"देवराज चौहान।" इसके साथ ही देवराज चौहान ने रिसीवर रखा और वापस कार में आ बैठा।
जगमोहन ने कार आगे बढ़ाते हुए पूछा।
"बात हुई?"
"नहीं। मैसेज छोड़ दिया है। कल सुबह दस बजे बात होगी।" देवराज चौहान ने सोच भरे लहजे में कहा।
■■■
इंस्पेक्टर शाहिद खान कई पलों तक हक्का-बक्का रह गया। रिसीवर थामें, वैसे ही बैठा वो फोन को देखता रह गया। लाइन कट चुकी थी। तो क्या जिससे वो बात कर रहा था, वो देवराज चौहान था, वो देवराज चौहान जिसकी तलाश में पुलिस का आधा डिपार्टमेंट लगा हुआ है?
उसने फोन किया।
वानखेड़े से बात करने के लिए।
क्या मामला है?
देवराज चौहान का इस तरह फोन करके वानखेड़े से बात करने को कहना उसकी समझ से बाहर था। मस्तिष्क में शक भी उभरा कि दोनों के बीच में कोई खिचड़ी तो नहीं पकती रहती? परन्तु अगले ही पल दिमाग से ये सोच निकाल दी। वानखेड़े अपने फर्ज के प्रति इतना कठोर था, इस बात का एहसास था उसे। वानखेड़े वर्दी से गद्दारी नहीं कर सकता।
शाहिद ने गहरी सांस लेकर रिसीवर रखा कि उसी पल पुनः बेल बज उठी।
"हैलो।" इंस्पेक्टर शाहिद ने फौरन रिसीवर उठाया।
"शाहिद!" वानखेड़े की आवाज उसके कानों में पड़ी।
"वानखेड़े...!" शाहिद ने कहना चाहा।
"खांडेकर के बारे में कोई रिपोर्ट है?" वानखेडे का स्वर आया।
"हां। मेरे दो हवलदार सादे कपड़ों में उस पर नजर रख रहे हैं।" शाहिद खान ने गंभीर स्वर में कहा--- "वो दिन के ग्यारह बजे के करीब होटल ब्लू गया था।"
"ब्लू स्टार?"
"हां। वो देवराज चौहान के चाचा सांवरा चौहान का होटल है। सांवरा चौहान अपने आपमें बेहद खतरनाक व्यक्ति है। खांडेकर वहां कई घंटे रहा। क्यों, यह बात मैं नहीं---।"
"मैं जानता हूं।" वानखेडे का व्याकुल स्वर आया--- "खांडेकर कह रहा था कि वो सांवरा चौहान से कहेगा देवराज चौहान को सजा दे। सांवरा चौहान से इंसाफ मांगेगा। क्योंकि उसने उसकी पत्नी के साथ बलात्कार और हत्या की है।"
"हां। ये बात हो सकती है।" शाहिद ने गंभीर स्वर में कहा--- "सांवरा चौहान के लंबे हाथों को कौन नहीं जानता-पहचानता। और मिली खबर के मुताबिक सांवरा चौहान के आदमी जिसमें कि उसका ख़ास आदमी रूद्रपाल तिहाड़ भी था, वो देवराज चौहान और जगमोहन को लेकर ब्लू स्टार आए।"
"फिर?"
"करीब एक घंटे बाद खांडेकर बाहर निकला, फिर देवराज चौहान, जगमोहन। खांडेकर ने देवराज चौहान का पीछा करना चाहा, परन्तु वो पीछा होने के बारे में जान गए और खांडेकर को वहां से जाना पड़ा। दोनों हवलदार खांडेकर के ही पीछे रहे। उसी टैक्सी में खांडेकर, सायन की झोपड़पट्टी में गया। दोनों हवलदार सावधानी के नाते, खांडेकर से दूर रहे कि उसे अपने पर नजर रखने का एहसास न हो सके। इसी कारण खांडेकर, आधे के लिए उसी झोपड़पट्टी में जाने कहां खो गया। लेकिन जब आधे घंटे बाद नजर आया तो, उसके कंधे पर लेदर का बैग था। जो कि खास वजनी नहीं था। वहां से वो सीधा अपने घर गया। उसके बाद वो बाहर नहीं निकला। दोनों हवलदार वहीं हैं।"
"उस काले बैग में क्या हो सकता है?" वानखेड़े के शब्द कानों में पड़े।
"कह नहीं सकता। क्यों?"
"मेरे ख्याल में खांडेकर ने सायन की झोपड़पट्टी में कोई गन हासिल की होगी। वो मुझे स्पष्ट कह चुका है कि देवराज चौहान और उसके साथियों को मारेगा।"
"ये तुम जानो। वो जाने। अभी देवराज चौहान का फोन आया था तुम्हारे लिए।"
"देवराज चौहान?" वानखेड़े की आने वाली आवाज में हैरानी के भाव उभरे।
"हां। वो तुमसे बात करना चाहता है। कल सुबह दस बजे इस फोन पर तुमसे बात करने के लिए फोन करेगा। तुम्हारे लिए देवराज चौहान का मैसेज है यह---।"
"ठीक है।" वानखेड़े का सोच भरा स्वर कानों में पड़ा--- "मैं बात करूंगा उससे---।"
"क्या बात करेगा वो?"
"मालूम नहीं। तुम बातचीत को टेप करने का इंतजाम कर लेना। रात को घर जाओगे?"
"हां।" शाहिद खान ने कहा।
"ठीक है। सुबह मुलाकात होगी?" इन शब्दों के साथ ही वानखेड़े ने लाइन काट दी थी।
■■■
रात के दस बज रहे थे।
रंजीत खांडेकर ने बैग में मौजूद फोल्डिंग गन को जोड़कर उसके ऊपर टेलीस्कोप और साइलेंसर लगाया और चैक करने के बाद, दांत भींचकर तसल्ली से सिर हिलाया। आंखों में प्रतिशोध की लपटें धधक उठी थीं। देवराज चौहान, जगमोहन और अंग्रेज सिंह के चेहरे दिलो-दिमाग में नाच उठे। फिर वह उठा और टेबल पर रखी व्हिस्की की बोतल खोलकर पास ही रखे गिलास को भरा, और बिना कुछ मिक्स किए ही गिलास उठाकर छोटे-छोटे घूंट भरने लगा।
तभी शांत-वीरान से घर में कॉलबेल की तीव्र आवाज गूंज उठी।
खांडेकर के दांत भिंच गए। एक हाथ में गिलास पकड़ा था। दूसरे में तैयार रखी गन उठाई और उस कमरे से निकलकर दूसरे कमरे के दरवाजे के पास पहुंचा। गन थामें एक उंगली से दरवाजे की सिटकनी हटाई और गुस्से से भरे स्वर में कह उठा।
"दरवाजा खुला है।" खांडेकर के हाथ में गन तैयार थी।
बाहर मौजूद व्यक्ति ने पल्लों को धक्का देकर दरवाजा खोला।
खांडेकर की निगाहें मिलीं।
सामने वानखेड़े मौजूद था।
दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे। वानखेड़े ने उसके हाथ में थमी गन को देखा। खांडेकर पलटा और देखते-ही-देखते उस कमरे से निकलकर पहले वाले कमरे में जा पहुंचा।
वानखेड़े ने भीतर प्रवेश किया। दरवाजा भीतर से बंद करके आगे बढ़ते हुए वानखेड़े ने सिगरेट सुलगाई। चेहरे पर गंभीरता के भाव नजर आ रहे थे। दूसरे कमरे में प्रवेश करके ठिठका। गन को देखा जो टेबल पर रखी हुई थी। खांडेकर गुस्से से भरा हाथ में व्हिस्की का गिलास लिए, उसे देखते हुए घूंट भर रहा था।
"तो तुम जानते थे कि सायन की झोपड़पट्टी में अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त होती है।" वानखेड़े का स्वर शांत था।
खांडेकर के माथे पर बल पड़े। होंठ भिंच गए।
"आप मुझ पर नजर रखवा रहे हो सर---?"
"हां।"
"क्यों?"
"तुम अच्छी तरह जानते हो क्यों।" वानखेड़े ने उसकी लाल सुर्ख आंखों में देखा।
खांडेकर वानखेड़े को देखता रहा।
"मैंने लंबी छुट्टी ले ली है।" खांडेकर ने घूंट भरा--- "सर्विस रिवाल्वर जमा करा दी है कि ड्यूटी ज्वाइन करने के पश्चात वो वापस ले लूंगा। व्हिस्की लेंगे सर---?"
वानखेड़े ने गहरी निगाहों से खांडेकर को देखा।
"ये छुट्टी तुमने देवराज चौहान और उसके साथियों को मारने के लिए ली है?"
"हां। मैं अपनी पत्नी के हत्यारों को जिंदा नहीं छोडूंगा। वो मुझे बर्बाद कर गए।" खांडेकर वहशी स्वर में कह उठा--- "और मुझ जैसे कमांडो का निशाना कभी नहीं चूकता।"
वानखेड़े आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठा।
"तुम्हारे पास गैर लाइसेंसी गन है। जोकि तुमने अवैध रूप से खरीदी है। इस बात के गवाह पुलिस वाले हैं। मैं खुद इस बात का गवाह हूं। तुम्हारी ये हरकत तुम्हारी वर्दी उतरवा सकती है। तुम्हें जेल में भिजवा सकती है। तुम्हारा कैरियर चौपट करवा सकती है।" वानखेडे का स्वर बेहद शांत था।
"जिसकी जिंदगी ही चौपट हो गई हो, जिसका घर बनने से पहले ही उजाड़ दिया गया हो। उसे आप कैरियर चौपट कराने की धमकी दे रहे हैं। मेरे ख्याल में आपने बेकार की बात की है। फिर भी सर, अपने शब्दों की मैं पहले ही माफी मांग लेता हूं, कि अगर-अगर आपने ऐसी कोई हरकत करने की चेष्टा की तो इस कमांडो की गन का पहला निशाना आप होंगे। बेहतर होगा कि फिर मेरे रास्ते में आने की कोशिश न करें।"
वानखेड़े ने बेहद शांत भाव से कश लेते हुए सिर हिलाया। फिर कहा।
"तो देवराज चौहान को शूट करने का तुम्हारा पक्का इरादा बन चुका है।"
खांडेकर के चेहरे पर विषैली मुस्कान नाच उठी।
"बहुत ख्याल है आपको देवराज चौहान का।" खांडेकर कड़वे स्वर में बोला--- "लगता है, कुछ ज्यादा ही मोटा माल देवराज चौहान ने आपके पास पहुंचा दिया है?"
कई पलों तक वानखेड़े खांडेकर के चेहरे को देखता रहा। जहां खतरनाक भाव सिमटे पड़े थे।
"मैं तुम्हारी किसी भी बात का बुरा इसलिए नहीं मान रहा कि इस वक्त तुम अपने होश में नहीं हो। ठीक तरह से सोचने-समझने के काबिल नहीं हो।"
"सर! आपकी बीवी नहीं मरी। बलात्कार के बाद उसे, बुरी मौत नहीं मारा गया। जबकि उसे बचाने के लिए मैंने वर्दी से भी गद्दारी कर ली थी। अगर ये सब आपके साथ हुआ होता तो आज भी आप अपने होश में नहीं होते। दूसरों का दर्द तमाशा ही नजर आता है। चोट तो वो होती है, जो खुद को लगे।" खांडेकर दांत भींचकर गुर्रा उठा।
"इसका मतलब तुम अपने इरादे से पीछे नहीं हटोगे?"
"बार-बार एक बात को दोहराने का कोई फायदा नहीं। दुनिया की ताकत मुझे रोक नहीं सकती। देवराज चौहान, जगमोहन और अंग्रेज सिंह मेरी गोलियों का निशाना बनकर रहेंगे।" खांडेकर ने सुर्ख आंखों से वानखेड़े को देखा--- "बेहतर होगा कि आप मुझ पर लगा रखे अपने निगरान हटा लीजिए। वरना गोलियां ये नहीं देखतीं कि सामने पुलिस वाले हैं या कोई और। मेरे रास्ते में जो आएगा। वो नहीं बचेगा।"
वानखेड़े उठ खड़ा हुआ।
"समझो, इसी वक्त से तुम पर से निगरानी हट गई।" वानखेड़े ने कहा जबकि ऐसा करने का उसका कोई इरादा नहीं था।
खांडेकर सुर्ख आंखों से वानखेड़े को देखता रहा।
"तुम्हारी हालत मैं समझ रहा हूं। लेकिन जाते-जाते सब-इंस्पैक्टर रंजीत खांडेकर, एक बात अवश्य कहूंगा कि तुम सिरे से ही गलत सोच रहे हो। देवराज चौहान और उसके साथियों ने तुम्हारी पत्नी की जान नहीं ली।"
"ये आप नहीं, वो नोट बोल रहे हैं, जो देवराज चौहान ने आपको दिए हैं।" खांडेकर चिल्ला पड़ा--- "आप शुरू से ही देवराज चौहान की साइड ले रहे हैं। सबकुछ सामने है फिर भी आंखें बंद रखे हुए हैं। मैं जानता हूं कि मेरा ही डिपार्टमेंट मुझे इंसाफ नहीं दिला सकता। इसलिए...।"
"इसलिए सांवरा चौहान तुम्हें इंसाफ दिला देगा।" वानखेड़े गंभीरता से उसे देख रहा था।
खांडेकर के दांत भिंच गए।
"सांवरा चौहान दिलाएगा या फिर मेरी गन से निकली गोली इंसाफ करेगी। इंसाफ तो होगा ही।"
"चलता हूं।" वानखेड़े ने कश लेने के पश्चात सिगरेट नीचे फेंककर जूते से मसली--- "आखिरी सलाह ये है कि तुमने जो रास्ता अख्तियार किया है, वो तुम्हें मौत तक ले जा सकता है। क्योंकि तुम जिसका निशाना लेने की कोशिश करोगे, वो शेर है, जिस पर शायद तुम काबू न पा सको।"
"देख चुका हूं उस शेर को जो सांवरा चौहान के सामने चूहा बना हुआ था।" खांडेकर चीखा--- "और कमांडो की ड्यूटी में मैंने ऐसे कई शेरों का शिकार किया है। जिनका जिक्र मेरे सर्विस रिकॉर्ड में है।"
वानखेड़े शांत भाव में मुस्कुराया और पलटकर बाहर निकलता चला गया।
खांडेकर ने एक ही सांस में गिलास खाली किया और टेबल पर पड़ी गन को उठाकर वहशी स्वर में गुर्रा उठा।
"देवराज चौहान...।"
■■■
अंग्रेज सिंह, सोहनलाल के कमरे में फोल्डिंग पर तकिए से टेक लगाए अधलेटा-सा था। वो पहले से बेहतर हालत में था। टांग का जख्म अब ऐसी स्थिति में था कि तीन दिन के पश्चात उसने सामान्य हो जाना था। सोहनलाल दवा से लेकर, खाने तक उसकी पूरी तरह देखभाल कर रहा था।
रात के दस बज रहे थे।
देवराज चौहान और जगमोहन भी वहां मौजूद थे।
देवराज चौहान उन दोनों को सारे हालातों की जानकारी दे चुका था।
"इसका मतलब हम शुरू से ही उस मदन मेहता की चालाकी के शिकार रहे।" अंग्रेज सिंह बोला--- "उसी ने जगनलाल की मार्फत, इत्तेफाक से, सुधाकर बल्ली को तुम तक पहुंचा दिया। उसके बाद खुद भी हम लोगों पर नजर रखने लगा। मौका पाकर बल्ली भी उसे एक-आध खबर दे देता होगा और अंत में मौका पाकर, सारी दौलत पर सफाई कर गया और हमारे लिए मुसीबतें खड़ी कर गया।"
"और हम नहीं जान सके कि सुधाकर बल्ली हमारे साथ रहकर मदन मेहता के इशारे पर काम कर रहा है।" सोहनलाल ने गंभीर स्वर में कहा--- "बहुत समझदारी के साथ हम पर चोट मारी गई है।"
कई पलों तक वहां खामोशी रही।
जगमोहन के चेहरे पर गुस्से के भाव नजर आ रहे थे।
"अब क्या करना है?" सोहनलाल बोला--- "पुलिस तुम्हारे पीछे है। वो तुम्हें अपराधी मान रही है।"
"पुलिस ही नहीं, सब-इंस्पेक्टर रंजीत खांडेकर भी हमारी तलाश में होगा।" जगमोहन ने दांत भींचकर कहा।
"हां।" सोहनलाल ने तुरन्त सिर हिलाया--- "सब-इंस्पेक्टर की पोस्ट पर आने से पहले खांडेकर, स्पेशल कमांडो फोर्स में खतरनाक कमांडो के रूप में जगह पा चुका था। वो उन कमांडो के रूप में जाना जाता था जो या तो मिशन पूरा करते हैं या फिर मिशन पूरा करने की चेष्टा में अपनी जान तक गंवा देना चाहते हैं। और खांडेकर ने खुले तौर पर डिपार्टमेंट में ऐलान किया है कि वो हम लोगों को खत्म करके अपनी पत्नी की मौत का बदला लेकर रहेगा।"
"जबकि उसकी पत्नी के हाल के हम दोषी है ही नहीं---।" अंग्रेज सिंह बोला।
"ये बात हम जानते हैं। वो तो नहीं?" जगमोहन ने कहा।
"सारे हालात हमारे खिलाफ हैं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "हमने खांडेकर की बीवी की हत्या नहीं की। उसके साथ कोई बुरा व्यवहार नहीं किया, ये बात तभी साबित कर सकते हैं, जब मदन मेहता को लेकर सामने खड़ा कर दें।"
"वो न माना कि ये काम उसने किया है तो...?"
"सच तो उसके मुंह से निकलवा लूंगा।" देवराज चौहान खतरनाक स्वर में कह उठा।
"मदन मेहता को ढूंढ निकालने के लिए तो गोवा जाना होगा। वो...।" अंग्रेज सिंह ने कहना चाहा।
"हां। कल सुबह मैं गोवा जाऊंगा। जगमोहन मेरे साथ होगा।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला।
"लेकिन--मैं--मैं भी साथ चलता।"
"तुम्हें अभी तीन-चार दिन आराम की सख्त जरूरत है।" देवराज चौहान ने कहा--- "वरना जख्म ठीक होते-होते खराब हो जाएगा। ऐसे में तुम गोवा नहीं जा सकोगे।"
अंग्रेज सिंह के चेहरे पर विवशता और परेशानी आ ठहरी।
"सोहनलाल तुम्हारा पूरा ध्यान रखेगा।" देवराज चौहान ने कहा और उठ खड़ा हुआ--- "ठीक होने के बाद खुलकर बाहर मत आना। पुलिस को तुम्हारी भी तलाश है।"
अंग्रेज सिंह होंठ भींचकर रह गया।
जगमोहन भी उठ खड़ा हुआ।
"हम जा रहे हैं।" देवराज चौहान बोला--- "गोवा से आने के बाद ही मुलाकात होगी।"
"ठीक होने पर मैं भी गोवा पहुंच जाऊंगा।" अंग्रेज सिंह कह उठा।
देवराज चौहान ने उसे देखा। कहा कुछ नहीं। जगमोहन के साथ बाहर निकल गया।
■■■
अगले दिन सुबह सवा दस बजे देवराज चौहान ने इंस्पेक्टर शाहिद खान के नंबर पर फोन करके वानखेड़े से बात की। फोन देवराज चौहान ने पब्लिक बूथ से किया था।
वानखेड़े से बात हुई।
"मैं तुम्हारे ही फोन का इंतजार कर रहा था, देवराज चौहान---।" वानखेड़े का स्वर कानों में पड़ा।
"मैं भी जानता था कि मैसेज मिलने के बाद तुम मेरे फोन का इंतजार अवश्य करोगे।"
"मैं कल दिन भर तुम्हें ढूंढता रहा।" वानखेड़े की आवाज में गंभीरता आ गई।
"मुंबई जैसी जगह में, किसी को ढूंढ पाना आसान नहीं वानखेड़े---।"
"मालूम है। लेकिन मैंने सोचा शायद देवराज चौहान जैसी शख्सियत के बारे में कोई खबर पा सकूं---।"
"वानखेड़े! मैं जानता हूं। इस वक्त फोन की टेपिंग हो रही है। इसलिए बातों को बढ़ाने की चेष्टा मत करो। मैं पब्लिक बूथ से बोल रहा हूं।" देवराज चौहान बोला--- "काम की बात करें?"
"काम की बात तो ये है देवराज चौहान---।" वानखेड़े की आवाज में सख्ती आ गई--- "कि मुझे तुमसे इतनी घटिया और गिरी हुई हरकत की उम्मीद नहीं थी?"
"खांडेकर की पत्नी के बारे में बात कर रहे हो?"
"बहुत जल्दी समझ गए?" वानखेड़े का तीखा स्वर कानों में पड़ा।
"इसी बात के लिए, तुमसे बात करना चाहता था।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मेरे साथ कौन-कौन था, ये तुम जान ही चुके हो। मैंने, जगमोहन और अंग्रेज सिंह ने ये काम नहीं किया और ना ही ये काम हम तीनों की मौजूदगी में हुआ है। मैं अपनी सफाई देने की कोशिश नहीं कर रहा। लेकिन एक बार तुम्हें अपने मुंह से बताना जरूर चाहता था कि खांडेकर की पत्नी की हत्या और बलात्कार से हमारा कोई वास्ता नहीं? ऐसा होगा, इस बात की भी मुझे भनक नहीं थी। मैं खुद अभी तक इन बातों से पूरी तरह अंजान हूं।"
वानखेड़े की आवाज नहीं आई।
"वानखेड़े!"
"सुन रहा हूं!" वानखेड़े का गंभीर स्वर कानों में पड़ा--- "तुम यह कह रहे हो कि ये काम तुमने नहीं किया है।"
"हां। मैंने या मेरे साथियों ने ये काम नहीं किया---?"
"इस बात का कोई सबूत है तुम्हारे पास?"
"नहीं।"
"तो फिर तुम्हारी बात पर विश्वास कौन करेगा?"
"कोशिश करूंगा, कि इस बारे में कोई ठोस सबूत पेश कर सकूं।"
"कैसे?"
"ये काम किसी बाहरी व्यक्ति ने किया है, जो कि शुरू से ही हमारी हरकतों पर नजर रख रहा था। और हमें उसकी खबर नहीं थी। उसकी नजर उन पचास करोड़ की दौलत पर थी, जिसे वो ले जाने में कामयाब रहा है और---?"
"तुम्हारा मतलब कि ये काम तुमने नहीं किया और जिसने किया है, वो पचास करोड़ भी ले गया?"
"हां---।"
"कौन है वो?"
"ज्यादा लंबी बात तो नहीं बता सकता। उसका नाम बताना भी तुम्हें, ठीक नहीं। मोटे तौर पर आखिरी जानकारी ये है कि वो जो कोई भी है, गोवा पहुंच चुका है।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था।
"गोवा। इसका मतलब कि तुम अब गोवा जा रहे हो? उसके लिए---?"
देवराज चौहान खामोश रहा।
"तुमने जो कहा। मैंने सुना। अच्छी तरह सुना जो सच है, वो तो सामने आएगा ही। लेकिन अपने काम की बात एक बात सुन लो कि खांडेकर तहे दिल से तुम्हें अपनी पत्नी का बलात्कारी और हत्यारे मानता है। ड्यूटी से छुट्टी लेकर वो तुम्हें शूट करने पर आमादा है। मैंने उसका रिकॉर्ड देखा है। कभी वो स्पेशल कमांडो ग्रुप का ऐसा खतरनाक कमांडो हुआ करता था, जो सिर पर कफन बांधकर अपने मिशन पर निकलता था और रिकॉर्ड के मुताबिक वो कभी असफल नहीं हुआ। और---।"
"ये बताने का शुक्रिया।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "ये जानकारी मेरे पास पहले से ही है।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने रिसीवर रखा और बूथ से बाहर आकर इधर-उधर देखा। सब ठीक पाकर, कुछ दूर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गया।
■■■
चेहरे पर गंभीरता समेटे वानखेड़े ने रिसीवर रखा।
इंस्पेक्टर शाहिद खान होंठ सिकोड़े, वानखेड़े को घूर रहा था।
"क्या हुआ?" वानखेड़े की निगाह शाहिद खान के चेहरे पर पड़ी, तो बरबस ही उसके होंठों से निकला।
"तुम देवराज चौहान, उस देवराज चौहान से बात कर रहे थे, जो डकैती मास्टर है।" शाहिद खान बोला।
"हां।"
"पुलिस में हो तगड़ा वांटेड है। उसकी फाईल तुम्हारे पास है और तुम उसे गिरफ्तार करने पर लगे हुए हैं।"
"हां---।"
"इस वक्त मुंबई की पुलिस को उसकी तगड़ी तलाश है।"
"हां---।"
"और तुम तो उससे इस तरह बातें कर रहे हो, जैसे वो तुम्हारा दोस्त हो।" शाहिद खान की आवाज में अजीब-से भाव थे।
वानखेड़े के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी।
"शाहिद! कानून और मुजरिम की दोस्ती बहुत पुरानी है। वैसे भी जब दुश्मन पुराना हो जाए तो वो दोस्त लगने लगता है। बरसों से मैं देवराज चौहान के पीछे हूं। ये जुदा बात है कि एक बार के अलावा में उसे गिरफ्तार नहीं कर पाया। और तब भी वो पुलिस के पहरे से निकल भागा था। ये जानते हुए भी कि मैं उसे छोड़ने वाला नहीं। और उसे पकड़ने के फेर में जब मेरी जान जाने लगी तो देवराज चौहान ने मुझे बचाया। पूछने पर उसने यही कहा कि उसकी-मेरी जाती दुश्मनी नहीं है। उसका कहना है कि मैं अपनी वर्दी के फर्ज को अंजाम दे रहा हूं और वो अपने कर्म कर रहा है। अब इस बात से तुम अंदाजा लगा सकते हो कि मेरे लिए वो कैसा मुजरिम है।"
"मुझे तो लगता है जैसे वो तुम्हारा दोस्त हो। तुमने उसे खांडेकर के प्रति आगाह किया है।"
"हां। क्योंकि मैं शुरू से ही कह रहा हूं कि देवराज चौहान और उसके साथियों ने खांडेकर की पत्नी के साथ बुरा नहीं किया।" वानखेड़े ने गंभीर स्वर में कहा--- "यही बात देवराज चौहान ने कही। खांडेकर की दिमागी स्थिति ऐसी नहीं है कि वो मेरी बात, मेरी तर्कों को समझ सके। ऐसे में मैं नहीं पसंद करता कि देवराज चौहान को खांडेकर गलतफहमी के तहत मारे।"
"देवराज चौहान के मरने से पुलिस डिपार्टमेंट को कोई नुकसान नहीं। फायदा ही है। वह कानून का मुजरिम है और पुलिस को हमेशा उसकी तलाश रहती है।" शाहिद खान ने गंभीर स्वर में कहा।
"मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं।" वानखेड़े ने सिर हिलाया--- "रात को मैं खांडेकर को गिरफ्तार कर सकता था। लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। वो देवराज चौहान को मारता है तो मारे। इधर देवराज चौहान खुद को बचा सकता है तो बचा ले। मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं कि कौन कामयाब होता है या कौन नाकामयाब। मुझे सिर्फ कानून का साथ देने की आदत है। गैरकानूनी लोगों का साथ मैं नहीं देता। मैं दिली तौर पर खांडेकर के साथ हूं, लेकिन ये भी यकीन पूरा है कि देवराज चौहान और उसके साथियों ने ये काम नहीं किया।"
शाहिद खान, वानखेड़े को देखता रहा। फिर बोला।
"देवराज चौहान ने क्या कहा?"
वानखेड़े ने टेबल पर मौजूद टेपरिकार्डर का बटन दबाकर, उसके भीतर मौजूद कैसेट निकाली। टेपरिकॉर्डिंग की तारें, फोन के भीतर तक जा रही थीं।
"देवराज चौहान के साथ मेरी जो भी बात हुई। वह इस कैसेट में दर्ज है।" वानखेड़े ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "देवराज चौहान का कहना है कि खांडेकर की बीवी के साथ जो हुआ, उससे उसका या उसके साथियों का कोई वास्ता नहीं। जब ये सब हुआ, तो वे वहां मौजूद नहीं थे। और जिसने भी ये किया है। वो पचास करोड़ को भी ले गया है, जिसे उस रात उन्होंने बंगले से हासिल किया था। जब मैं पुलिस वालों के साथ उसके पीछे लगा था, पकड़ने के लिए। इसके साथ ही देवराज चौहान ने कहा कि जिसने ये काम किया है वो इंसान इस वक्त गोवा पहुंच चुका है। और वो उसकी तलाश में गोवा जा रहा है।"
"गोवा?"
"हां।"
"कौन है वह?"
"उसके बारे में उसने बताने से इंकार कर दिया है। शायद इसलिए कि गोवा में मेरी भागदौड़ उसके लिए अड़चन पैदा ना कर दे। देवराज चौहान, उसको गोवा में इसलिए तलाश करेगा कि सबको बता सके कि खांडेकर की पत्नी के साथ जो भी हुआ उसमें उसका कोई हाथ नहीं।" वानखेड़े बोला।
शाहिद खान के चेहरे पर सोच के भाव थे।
"देवराज चौहान ने ये सब कहा और तुमने विश्वास कर लिया।" शाहिद ने कहा।
"हां।" वानखेड़े के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी--- "इसलिए विश्वास कर लिया कि मैं उसे जानता हूं और तुम नहीं जानते। ये बताकर उसने अपनी सफाई नहीं दी, बल्कि सही रास्ते पर बढ़ने के लिए मुझे जानकारी दी है। एक बात ध्यान रखना। कम-से-कम देवराज चौहान अपने कर्मों के बारे में झूठ नहीं बोलता। वो जो करता है, उसे बे-हिचक स्वीकार करता है और जो नहीं किया। उसे स्पष्ट इंकार करता है। वो कैसा इंसान है? ये बात तुम उसकी फाइल पढ़कर अंदाजा लगा सकते हो। बहुत हद तक तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास आ जाएगा। ये कैसेट रख लो। ये भी देवराज चौहान की फाइल का ही एक हिस्सा बनेगी। मैं गोवा जाने की तैयारी करूंगा। शाम तक गोवा रवाना हो जाऊंगा।"
"अकेले?" शाहिद ने कैसेट लेते हुए कहा।
"हां। जरूरत पड़ी तो मैं आसानी से गोवा पुलिस की सहायता ले सकता हूं। पहले वहां पहुंचकर देवराज चौहान को तलाश करना पड़ेगा। आगे जो होगा उसके बाद ही होगा।" वानखेड़े के चेहरे पर गंभीरता आ गई--- "अपराधी कोई भी हो। अंत में वो कानून के पंजों में ही फंसता है। कभी ये काम जल्दी हो जाता है तो कभी देर से। बच नहीं सका कोई---?"
शाहिद सिर हिलाकर रह गया।
"एक बात का खास ख्याल रखना शाहिद---!"
"क्या?"
"खांडेकर को किसी भी कीमत पर मालूम न हो कि देवराज चौहान गोवा में है। ऐसे में खांडेकर देवराज चौहान की जान लेने, गोवा पहुंच जाएगा और देवराज चौहान के साथ-साथ मेरे लिए भी परेशानी खड़ी करेगा। मैं चाहता हूं देवराज चौहान उस तक पहुंच जाए, जिसने खांडेकर की पत्नी के साथ बलात्कार और फिर उसकी हत्या की है। बेहतर होगा कि किसी को भी ये मत बताना कि मैं गोवा आया हूं। इससे खांडेकर को शक हो सकता है।"
"फिक्र मत करो। इन बातों का जिक्र मैं किसी से भी नहीं करूंगा।" शाहिद गंभीर स्वर में बोला--- "मैं खुद चाहता हूं कि खांडेकर की पत्नी का मुजरिम पकड़ा जाए। बेशक उसे पुलिस पकड़े या देवराज चौहान।"
■■■
खांडेकर!
रात भर क्रोध की आग में सुलगते-सुलगते बोतल खाली करता चला गया। और जब बेहोशी भरी नींद में डूबा, तो सुबह आठ बजे ही आंख खुली। आंखें लाल हो रही थीं। पोपटे सूजकर भारी हो रहे थे। वह नींद नहीं ले पाया था। व्हिस्की की बेहोशी के दम पर, वो जितनी देर बेसुध पड़ा रहा। पड़ा रहा। यही वजह रही कि सुबह उठने पर अपने सिर को भी फटते पाया।
परन्तु आंखों के सामने देवराज चौहान का चेहरा नाचा तो सारी हालत भूल गया। नजर सीधी टेबल पर मौजूद गन पर गई। चेहरे पर दरिंदगी आ ठहरी। अब उसका एक ही लक्ष्य था। देवराज चौहान, जगमोहन और अंग्रेज सिंह को तलाश करके शूट करना। अपनी पत्नी के साथ हुए हश्र का बदला लेना। तभी उसकी आत्मा को शांति मिलेगी।
कहां मिलेगा देवराज चौहान?
रंजीत खांडेकर का दिमाग तेजी से दौड़ने लगा।
सोचा, बहुत सोचा।
एक ही जगह नजर आई मस्तिष्क की सोचों में, जहां देवराज चौहान आ सकता था। ब्लू स्टार। होटल ब्लू स्टार।
सांवरा चौहान ने उसे एक महीने का वक्त दिया है। ऐसे में, इस बात के पूरे चांसिस हैं कि वो महीने के भीतर, एक-दो बार किसी भी वजह के तहत सांवरा चौहान से मिलने आएगा। वहां देवराज चौहान को निशाना बनाया जा सकता है।
वरना, यूं ही भटकते-भटकते वो देवराज चौहान को नहीं ढूंढ पाएगा।
खांडेकर बैड छोड़कर उठ खड़ा हुआ। नहा-धोकर तैयार हुआ। नीली पैंट और नीली कमीज पहनने के बाद फोल्डिंग गन को अलग-अलग करने के पश्चात उसे बैग में डाला और बैग कंधे पर लटकाकर घर से बाहर आ गया। वानखेड़े ने पुलिस वाले उसके पीछे लगा रखे थे। उसकी हरकतों को वॉच किया जा रहा है। हालांकि रात को वानखेड़े ने कहा था कि वो अभी से उस पर नजर रख रहे आदमियों को हटा देगा।
खांडेकर ने सिर को लापरवाही से झटक दिया।
कोई उसकी हरकतों पर नजर रख रहा है या नहीं। इससे उसके काम में कोई अड़चन नहीं आने वाली। अपना काम कैसे करना है, इस बात को वो अच्छी तरह जानता था।
रास्ते में खांडेकर ने ब्रेकफास्ट किया और ऑटो पर होटल ब्लू स्टार के सामने जा पहुंचा। सुबह के दस बजने जा रहे थे। सड़क पर वाहन आ-जा रहे थे।
खांडेकर एक तरफ खड़ा होटल के प्रवेश द्वार का जायजा लेता रहा और निगाहें आसपास दौड़ाता रहा। आखिरकार ब्लू स्टार के सामने, सड़क पार पांच मंजिला कमर्शियल कॉम्पलेक्स उसे जंचा। वहां से ब्लू स्टार का प्रवेश द्वार, भीतर प्रवेश द्वार और पार्किंग का कुछ हिस्सा बेहद स्पष्ट नजर आ रहा था। देवराज चौहान जब भी वहां पहुंचेगा, उसे आसानी से निशाने पर लिया जा सकता है।
खांडेकर कमर्शियल कॉम्प्लेक्स की इमारत की छत पर पहुंचा। वहां से एक बार फिर उसने ब्लू स्टार पर निगाह मारी। सब कुछ स्पष्ट था। सड़क के किनारों पर खड़े पेड़ अवश्य कुछ अड़चन पैदा कर रहे थे। परन्तु खांडेकर को पूरा विश्वास था कि पेड़ अड़चन नहीं बनेंगे, निशाना लेने में।
धूप का तीखापन बढ़ता जा रहा था।
परन्तु खांडेकर के सिर पर तो जुनून सवार था। धूप-बरसात उनके इरादों को नहीं बदल सकती थी। बैग नीचे रखकर फोल्डिंग गन निकाली और उसे जोड़ने लगा। दिलो-दिमाग में एक ही बात घूम रही थी कि कभी तो ब्लू स्टार आएगा, देवराज चौहान।
■■■
दिन के बारह बज रहे थे।
कार देवराज चौहान ड्राइव कर रहा था। आधा घंटा पहले ही वे बंगले से निकले थे। गोवा के लिए। जगमोहन ने जब कार को दूसरी सड़क पर जाते देखा तो कह उठा।
"इधर, किधर?"
"ब्लू स्टार।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्यों?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
"चाचा के मुताबिक। उसके आदमी हम पर नजर रख रहे हैं। वे कैसे किस तरह हम पर नजर रख रहे हैं, हमें इस बात से कोई वास्ता नहीं। मैं नहीं चाहता कि हमें मुंबई से बाहर जाते देखकर, वे यह सोचें कि हम भाग रहे हैं और हमें रोकने की चेष्टा करें। ऐसे में चाचा को खबर मिल जानी चाहिए हम मुंबई से बाहर जा रहे हैं।" देवराज चौहान का लहजा शांत था।
"खांडेकर ने चाचा को इस मामले में लाकर हमें और मुसीबत में डाल दिया है।"
देवराज चौहान ने कुछ भी नहीं कहा।
ब्लू स्टार आ गया।
देवराज चौहान ने कार को भीतर पोर्च में ले जा रोका।
"तुम कार में ही रहो। मैं खबर करके मिनट भर में आया।" कहने के साथ ही देवराज चौहान कार से निकला और शीशे के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गया। जगमोहन कार में ही बैठा रहा। तभी पार्किंग अटेंडेंट वहां पहुंचा।
"सर, कार को पार्किंग में ले जाऊं?" उसने स्वागत भरे लहजे में कहा।
"मिनट भर में चल रहे हैं यहां से?" जगमोहन ने कहा।
वो वहां से हट गया।
मिनट के पूरा होने से पहले ही देवराज चौहान लौट आया। ड्राइविंग सीट संभाली और कार आगे बढ़ा दी। जगमोहन ने पूछा।
"कौन मिला?"
"तिहाड़। बता दिया उसे।" देवराज चौहान ने कहा।
कार होटल से बाहर निकलती चली गई।
■■■
देवराज चौहान और जगमोहन ने कार में जब ब्लू स्टार में प्रवेश किया तो, खांडेकर को लगा जैसे भगवान ने उसकी सुन ली हो। उसका तो ख्याल था जाने कितने दिन उसे इसी तरह सुबह से रात तक इस तरह ड्यूटी देनी पड़ेगी। लेकिन मात्र डेढ़-दो घंटे बाद ही देवराज चौहान और जगमोहन वहां आ पहुंचे थे।
टेलीस्कोप में आंख, लगाए वे दोनों खांडेकर को इतने करीब लग रहे थे कि एकबारगी उसे लगा कि जैसे हाथ बढ़ाकर उन्हें थाम ले।
खांडेकर की आंखों में दरिंदगी नाच उठी।
उसने स्पष्ट देखा कि कार भीतर जाकर होटल के पोर्च में रुकी और देवराज चौहान बाहर निकलकर, होटल में प्रवेश कर गया है। जगमोहन कार में ही बैठा रहा। स्पष्ट था कि उनका वहां रुकने का कोई इरादा नहीं। देवराज चौहान किसी भी पल बाहर आ सकता है।
खांडेकर ने फौरन गन को उस विशाल गेट पर सैट किया, जहां से कार ने बाहर निकलना था। कार में बैठा जगमोहन इस वक्त स्पष्ट तौर पर उसके निशाने पर था। परन्तु वो जानता था कि जगमोहन को शूट कर दिया तो फिर देवराज चौहान का निशाना नहीं ले पाएगा, जबकि वो सबसे पहले चौहान को शूट करने का ख्वाहिशमंद था।
धूप में खांडेकर सिर से पांव तक पसीने में डूब चुका था। लेकिन इस वक्त तो वह जैसे दुनिया को भूल चुका था। हर तरफ सिर्फ देवराज चौहान और जगमोहन ही नजर आ रहे थे।
खांडेकर को इंतजार नहीं करना पड़ा।
देवराज चौहान को उसने शीशे के दरवाजे से निकलकर कार की तरफ बढ़ते देखा और फिर देखते-ही-देखते कार आगे बढ़ी। खांडेकर का जिस्म तन गया। वो पेट के बल नीचे लेटा था। छत की मुंडेर मात्र एक फीट की थी। वहां उसने गन रखी हुई थी। वो निश्चिंत था। साईलेंसर की वजह से किसी को मालूम नहीं होना था कि गोली कहां से आई। टेलीस्कोप की वजह से तो निशाना चूकने का सवाल ही नहीं पैदा होता था।
देवराज चौहान और जगमोहन टेलीस्कोप में बिल्कुल स्पष्ट और करीब नजर आ रहे थे। दोनों हाथ गन पर टिके थे। उंगली ट्रेगर पर।
कार गेट से बाहर निकलने वाली थी।
सिर्फ सेकंडों का मामला बचा था।
आज खांडेकर खुद को पहले जैसा ही कमांडो महसूस कर रहा था, जब किसी जान लेने या देने वाले मिशन पर काम कर रहा होता था।
पांच सेकंड। चार सेकंड। तीन सेकंड।
बचे दो सेकंड।
खांडेकर की उंगली कसी, ट्रेगर पर।
तभी जैसे चील ने झपट्टा मारा। पीछे से दो व्यक्ति उस पर झपटे और गन को थामते हुए उसका रुख ऊपर की तरफ कर दिया। ट्रेगर दब चुका था। गोली आसमान की तरफ गई।
खांडेकर समझ नहीं पाया कि क्या हो गया?
गन उसके हाथ से निकल चुकी थी। और किसी ने उसे कमर से पकड़कर खींचते हुए सीधा खड़ा कर दिया था। खांडेकर के मस्तिष्क को झटका लगा। उसे अपनी स्थिति का एहसास हुआ। जिस्म में पुनः गुस्से से भरा खून दौड़ने लगा।
"ये आप क्या कर रहे हैं सर?"
खांडेकर ने दांत पीसकर गुर्राते हुए गर्दन घुमाई।
उसे वो अच्छी तरह जानता था। वो इंस्पेक्टर शाहिद खान के नीचे काम करने वाला हवलदार था। उसके हाथ में उसकी गन थमी हुई थी। वो सतर्क नजर आ रहा था।
"तुम---।" खांडेकर गुर्राया--- "हरामजादे तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी गन छीनने की। वो मेरे निशाने पर था। अभी सारा किस्सा खत्म हो जाना था। तुमने--- तुमने सब कुछ मिट्टी में मिला दिया।"
"सर, मैंने आपको गलत काम करने को रोका है। आप अपने होश में नहीं---।"
"शटअप! पागल नहीं हूं मैं।" खांडेकर गला फाड़कर चिल्लाया और अपने शरीर को तीव्रता से झटका देकर, दूसरे की बांहों के शिकंजे से खुद को आजाद करवाया। उसे देखा।
खांडेकर उस हवलदार को भी पहचानता था।
"तो तुम दोनों को वानखेड़े ने मेरे पीछे लगा रखा है। अब तुम भी नहीं बचोगे। मैंने वानखेड़े से पहले ही कह दिया था, जो भी मेरा रास्ता रोकने की चेष्टा करेगा, वो नहीं बचेगा। अब तुम दोनों को मैं छोड़ने वाला नहीं।" खांडेकर गुर्रा उठा--- "मेरे हाथों से, तुम दोनों ने मेरा शिकार छीना है।" कहने के साथ ही खांडेकर अपने करीब खड़े हवलदार पर, पागलों की तरह झपट पड़ा।
उसके दोनों हाथ हवलदार के गले पर जा टिके।
तभी हवलदार ने कपड़े से रिवॉल्वर निकालकर खांडेकर के पेट से सटा दी।
"बहुत हो गया सर। आप अवैध हथियार से किसी को शूट करने जा रहे थे। हमने आपको अपराध करने से रोका। वरना हमें तो यही ऑर्डर था कि आप पर निगाह रखी जाए। मेरे गले पर उंगलियों का दबाव मत बढ़ाइए। मेरा गला छोड़ दीजिए। वरना मैं आपको शूट कर दूंगा। और ये बात हम आसानी से साबित कर देंगे कि आप हमें शूट करने जा रहे थे, इसलिए आपको गोली मारनी पड़ी। मेरे गले में से हाथ हटा लीजिए सर।" कठोर स्वर में कहने के साथ ही हवलदार ने नाल का दबाव बढ़ाया।
दांत भींचे खांडेकर की उंगलियां उसके गले से ढीली पड़ने लगीं। फिर दोनों हाथ उसके गले से हटे और अपना चेहरा ढांपे खांडेकर फफक-फफक कर बच्चे की तरह रोते हुए नीचे बैठता चला गया। वह रोए जा रहा था। रोए जा रहा था। चेहरा ढांपे दोनों हाथ आंसुओं से गीले हो गए थे।
दोनों हवलदारों ने एक-दूसरे को देखा और खामोशी-गंभीरता से खांडेकर को देखते रहे।
खांडेकर रोता रहा। रोता रहा।
■■■
वो दोनों हवलदार, सब-इस्पेक्टर खांडेकर को, गन इंस्पेक्टर शाहिद खान के पास हैडक्वार्टर ले आए थे। गन को लाते समय उसे अलग-अलग करके बैग में डाल लिया था। उस वक्त वानखेड़े हैडक्वार्टर में ही था। शाहिद खान ने वानखेड़े को तुरन्त बुलवा भेजा।
खांडेकर रह-रहकर सुबह उठता था। रो पड़ता था। फिर चुप हो जाता।
वहां का माहौल गंभीर हुआ पड़ा था।
वानखेड़े सिगरेट सुलगाकर खांडेकर के पास पहुंचा।
"खांडेकर---तुम...।"
"सर---!" खांडेकर फफक पड़ा--- "मैं पागल हो जाऊंगा। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा। देवराज चौहान और जगमोहन मेरे निशाने पर थे, लेकिन उन्होंने मेरे को धोखे से रोका। आपने तो कहा था कि मेरे पर से पुलिसवाले हटा लेंगे। फिर मैं कौन-सा गलत काम कर रहा था। ऐसे लोगों को मार रहा था, जिनकी कानून को जरूरत है और---?"
"खांडेकर!" वानखेड़े समझाने वाले स्वर में बोला--- "खामोश रहो। मेरी बात समझो।"
खांडेकर के आंसुओं ने उसके गालों को भिगो दिया था।
"कानून को देवराज चौहान अभी जिंदा चाहिए।"
"क्या मतलब?" खांडेकर गालों पर आए आंसुओं को साफ करते हुए बोला।
"हमें इस बात के पुख्ता सबूत चाहिए कि तुम्हारी पत्नी के साथ जो हुआ, वो देवराज चौहान और उसके साथियों ने ही किया है। मान लो, ये काम किसी और ने किया हो। गलती से तुम देवराज चौहान को खत्म कर दो तो असली अपराधी कानून के हाथों से बच जाएगा। तुम्हारी पत्नी को देवराज चौहान ने मारा है तो बचेगा नहीं। मैं इस बात का वायदा करता हूं। अगर किसी और ने मारा है तो, उस तक हम देवराज चौहान पर नजर रखकर ही पहुंच सकते हैं। क्योंकि देवराज चौहान को भी उसकी तलाश होगी। वो देवराज चौहान के पचास करोड़ ले उड़ा है।"
खांडेकर ने सीधी निगाहों से वानखेड़े को देखा।
"मुझे आप पर विश्वास नहीं सर।" खांडेकर का स्वर उखड़ गया।
"क्यों?"
"आप शुरू से ही कह रहे हैं कि देवराज चौहान ने ये काम नहीं किया। जबकि ऐसा कहने के पीछे आपके पास सूत भर भी सबूत नहीं। आप देवराज चौहान की साइड ले रहे हैं।"
वानखेड़े ने गहरी सांस लेकर शाहिद खान को देखा।
इंस्पेक्टर शाहिद खान गंभीर स्वर में कह उठा।
"सब-इंस्पेक्टर रंजीत खांडेकर। इंस्पेक्टर वानखेड़े हमसे बहुत सीनियर है। बड़े-से-बड़ा ऑफिसर इंस्पेक्टर वानखेड़े की बातों की कद्र करता है। तुम्हें इनकी बात पर भरोसा करना चाहिए---।"
"भरोसा---।" खांडेकर भड़ककर खड़ा हो गया--- आंखों से आंसू बह निकले--- "सब चोर हैं। रिश्वतखोर हैं। मेरी पत्नी की निर्ममता से हत्या कर दी गई और किसी को मेरे साथ हमदर्दी नहीं। कोई मेरी बात नहीं सुनता। मेरे दुख-दर्द को किसी ने महसूस नहीं किया। कितने शर्म की बात है कि मैं खुद पुलिस वाला हूं और अपने ही डिपार्टमेंट से, मुझे इंसाफ के लिए गिड़गिड़ाना पड़ रहा है।"
"तुम तो पुलिस वाले हो। तुम्हें तो कानून पर भरोसा होना चाहिए।" इंस्पेक्टर शाहिद खान ने कहा।
"नहीं। अब मैं अपने अलावा किसी पर विश्वास नहीं करूंगा। मेरी पत्नी मरी है। किसी को क्यों दुख होने लगा। जो मन में आए, आप लोग कीजिए।" खांडेकर तड़पकर कह रहा था। रुक-रुककर आंखों से आंसू बह रहे थे--- "अगर यही कानून, पन्द्रह दिन के भीतर ही भीतर मेरी पत्नी के हत्यारे और बलात्कारी को मेरे सामने नहीं लाया तो मैं ये वर्दी कभी नहीं पहनूंगा। मैं---।"
"तुम तो इंसाफ मांगने सांवरा चौहान के पास भी गए थे।" वानखेड़े ने कहा।
"हां। गया था। गया था मैं।" खांडेकर की आंखों से बराबर आंसू बह रहे थे--- "लेकिन मैं जानता हूं, सब चोर हैं। मतलबी हैं। मुझे इंसाफ नहीं मिलेगा। वो सांवरा चौहान जो इंसाफ का ठेकेदार बना बैठा है, वो भला अपने भतीजे को कैसे सजा देगा। सब ड्रामा किया मेरे सामने। मेरी बात सुनने के बाद देवराज चौहान को बुलवा लिया। खुद को बेगुनाह साबित करने के लिए सांवरा चौहान ने उसे महीने भर का वक्त दिया, वरना सांवरा चौहान उसे मुजरिम मानते हुए खत्म कर देगा। सब ड्रामा किया, मुझे दिखाने के लिए। सांवरा चौहान मुझे बेवकूफ बनाता है। आज भी देवराज चौहान मेरे सामने ब्लू स्टार गया। सांवरा चौहान से ही मिलने गया होगा। चाचा-भतीजा मुझे बेवकूफ बनाते हैं। इधर मेरे डिपार्टमेंट वाले मेरा साथ नहीं दे रहे। मैं तो बर्बाद होकर रह गया। समझ में नहीं आता कि कहां जाऊं। मैं जानता हूं मुझे इंसाफ नहीं मिलेगा। नहीं मिलेगा।" इसके साथ खांडेकर फफक उठा। तेजी से आंसू बह उठे।
कोई कुछ कह पाता। उसे हौसला देता।
उससे पहले ही खांडेकर बाहर निकलता चला गया।
कमरे में गंभीरता भरी चुप्पी छा गई।
आखिरकार वानखेड़े कश लेकर बोला।
"अपनी पत्नी की मौत के साथ ही खांडेकर टूट चुका है। ये हर किसी को शक भरी निगाहों से देख रहा है। खुद को अकेला समझ रहा है। मानसिक दबाव में इस कदर है कि इसे पूरी तरह आराम की आवश्यकता है। वक्त के ऐसे दौर में इंसान कुछ भी कर सकता है। शाहिद खांडेकर पर चौबीसों घंटे की निगरानी लगा दो कि मानसिक दबाव में ये कोई गलत काम न कर ले।" वानखेड़े के स्वर में व्याकुलता थी।
"मैं आज ही इस बात का इंतजाम करा देता हूं।"
"खांडेकर का कोई खास हो तो उसे खांडेकर के साथ ही उसके घर पर रुकवा दो।"
"देखता हूं। कोई इंतजाम होता है तो करवा दूंगा।" शाहिद ने गंभीर स्वर में कहा।
"मैं जा रहा हूं।" वानखेड़े ने शाहिद की आंखों में देखा--- "तुम जानते हो। लेकिन किसी को मालूम न हो कि...।"
"किसी को मालूम नहीं होगा।" शाहिद ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
■■■
शाम, अंधेरे में पूरी तरह बदल चुकी थी। समंदर की नम, ठंडी हवा की महक, सांसो से टकरा रही थी। गोवा की चमकती रोशनियां, गोवा में प्रवेश करने से पहले ही नजर आने लगी थी। कुछ ही देर में कार ने गोवा की सीमा में प्रवेश किया जहां बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में बोर्ड पर लिखा था--- गोवा में आपका स्वागत है।
गोवा की घनी आबादी वाली जगह में स्थित, मध्यम दर्जे के होटल में उन्होंने कमरा लिया। दिन भर की थकान उनके चेहरे पर मौजूद थी।
"वो फोन नंबर याद है, जो सुखदेव ने बताया था?" जगमोहन ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा।
"हां।"
"काम कब से शुरू करना है? मदन मेहता की तलाश?"
"अभी कुछ नहीं कह सकता। इस नंबर पर फोन करके देखता हूं।" देवराज चौहान बोला।
"तुम्हारा क्या ख्याल है मदन मेहता आसानी से हत्थे चढ़ जाएगा?" जगमोहन ने उसे देखा।
"अभी कुछ नहीं कह सकता।" देवराज चौहान दरवाजे की तरफ बढ़ा।
"कहां चलें?"
"उसी नंबर पर फोन करने। कमरे से फोन करना ठीक नहीं होगा।"
"ठीक है। तब तक मैं नहा लेता हूं।"
देवराज चौहान पहले कमरे से फिर होटल से बाहर निकला।
सामने सड़क थी। वाहन और लोग आ-जा रहे थे। होटल और क्लबों के नियोन-साईन वहां की रौनक बढ़ा रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे गोवा का दिन अब निकला हो। होटल से कुछ हटकर ही फुटपाथ पर एक साथ तीन फोन बूथ के बॉक्स नजर आए । एक बूथ में युवती बातें करने में व्यस्त थी। बाकी दो खाली थे। देवराज चौहान एक बूथ में प्रवेश कर गया और शीशे का दरवाजा बंद कर लिया। बाहर से आता तीव्र शोर एकाएक थम गया।
देवराज चौहान ने जेब से सिक्का निकाला और रिसीवर उठाकर कान से लगाया। डायलटोन चालू थी। उसने सुखदेव का बताया नंबर डायल किया। दूसरी तरफ से आवाज आई तो फौरन सिक्का डाला। आने वाला स्वर मर्दाना था। देवराज चौहान खामोश रहा। दूसरी तरफ से पुनः हैलो कहा गया।
"हैलो---।" देवराज चौहान का लहजा स्थिर था।
"कौन बोल रहा है?"
"ये फोन कहां लगा है?" देवराज चौहान ने पहले वाले स्वर में कहा।
क्षणिक खामोशी के बाद पुनः आवाज कानों में पड़ी।
"तुम्हें नहीं मालूम?"
"नहीं।"
"तो फिर फोन करने की क्या जरूरत थी?" आने वाले स्वर में तीखापन आ गया।
"किसी ने नंबर देकर यहां फोन करने को कहा था।" देवराज चौहान संभलकर बोल रहा था।
"किसने?"
"मुंबई के सुखदेव ने। मैं अभी गोवा पहुंचा हूं और मदन मेहता से मुझे जरूरी काम है।"
"सुखदेव?" देवराज चौहान के कानों में ऐसा स्वर पड़ा जैसे वो याद करने की कोशिश कर रहा हो।
"वही सुखदेव, जो मुंबई में एंटीक शॉप चलाता है।"
"तुम्हें क्या काम है मेहता से?"
"इस बारे में तुमसे बात नहीं की जा सकती। बिजनेस सीक्रेट है। सुखदेव ने कहा था कि मैं इस नंबर पर मैसेज छोड़ दूं तो मदन मेहता मुझसे मिल लेगा।" देवराज चौहान ने कहा--- "खास काम है। फायदे का सौदा है।"
"ठीक है। तुम अपना नंबर दो। मदन तक मैसेज पहुंच जाएगा।"
यह तो स्पष्ट हो गया कि मदन मेहता गोवा में ही है।
"मैंने अभी कहा है कि मैं अभी मुंबई से गोवा पहुंचा हूं। अभी मेरा कोई ठिकाना नहीं। पहुंचते ही पहले तुमसे फोन पर बात की है और अब देखूंगा कि कहां ठहरना है।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा--- "अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो कल सुबह, तुम्हें फोन कर लूं।"
"ठीक है। सुबह दस बजे फोन करना।" इसके साथ ही लाइन काट दी गई।
देवराज चौहान ने रिसीवर रखा और दरवाजा खोलकर बूथ से बाहर आ गया। बाहर का शोर पुनः कानों में पड़ने लगा। ये नंबर कहां का है? मालूम किया जा सकता था। लेकिन अभी ऐसी भागदौड़ की जरूरत नहीं थी देवराज चौहान ने वापस होटल की तरफ बढ़ते हुए सिगरेट सुलगा ली। नहाकर, वह दिन भर की थकान उतारकर, डिनर लेने के पश्चात नींद लेना चाहता था।
"इसका मतलब सुखदेव ने ठीक कहा था कि मदन मेहता, गोवा जा चुका है।" सारी बात सुनने के पश्चात जगमोहन ने कहा। देवराज चौहान नहा-धो चुका था और दोनों कमरे में ही डिनर ले रहे थे।
"हां।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया--- "मदन मेहता गोवा में न होता तो फोन सुनने वाला आदमी या तो स्पष्ट कह देता कि वो गोवा में नहीं है, या फिर कोई बहाना बनाकर टाल देता।"
"तुम्हारा क्या ख्याल है? मदन मेहता से कल मुलाकात हो सकती है?" जगमोहन ने उसे देखा।
"शायद---। यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता।"
"अगर मुलाकात हुई तो उसे कैसे कब्जे में किया जाएगा?"
"क्या मतलब?" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"सुखदेव के मुताबिक, मदन मेहता, गोवा में हस्ती रखता है। कैसी हस्ती यह हमें नहीं पता। लेकिन सुखदेव ने कहा था कि वो गोवा में हर तरह से सुरक्षित है।" जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा--- "ऐसे में अगर उस पर हाथ डालना हो तो क्या ये आसान काम होगा? जबकि मदन मेहता को हर हाल में मुंबई ले जाना जरूरी है। तभी हम खुद को बेगुनाह साबित कर सकते हैं।"
दो पलों की सोच के पश्चात देवराज चौहान बोला।
"मदन मेहता को मुंबई ले जाना जरूरी नहीं।"
"क्यों?"
"हमें पुलिस और चाचा के सामने ये साबित करना है कि खांडेकर की पत्नी के साथ जो हुआ, उसके साथ हमारा कोई वास्ता नहीं और चाचा के आदमी किसी-न-किसी रूप में हम पर नजर रख रहे हैं। हमारी हरकतों को जानते रहेंगे। हम जो भी कर रहे हैं, वो उनके सामने होगा। यानी कि वे देख-समझ सकते हैं कि हम क्या कर रहे हैं और क्या हो रहा है। वो चाचा को सारी बात बता सकते हैं। फिर वानखेड़े भी तो है।"
"वानखेड़े?"
"हां। वो जानता है कि हम गोवा में हैं। मेरे ख्याल में अब तक तो गोवा की तरफ रवाना हो चुका होगा। असल बात क्या है? वो नहीं जानती। ऐसे में वानखेड़े वहां पहुंचकर, हमें तलाश करने की चेष्टा करेगा और देर-सवेर में कर भी लेगा। मदन मेहता को हम उनके सामने करके, सच्चाई उगलवा सकते हैं। वानखेड़े की मार्फत बाद में ये खबर अखबारों में भी छपेगी कि खांडेकर की पत्नी का जुर्मी में कौन है? मतलब कि मदन मेहता से हम गोवा में ही निपट सकते हैं। दूसरी तरफ ये भी हो सकता हैं। कि मदन मेहता पर हाथ डालने के लिए हमें परेशानियों का सामना करना पड़े।"
खाना खाते हुए जगमोहन ने सिर हिलाया।
"तो कल करोगे फोन?"
"हां। कल सुबह दस बजे।"
■■■
अगले दिन सुबह उसी फोन बूथ पर देवराज चौहान ने फोन किया। इस बार जिसने रिसीवर उठाया वो रात वाला व्यक्ति नहीं था। कोई और ही आवाज थी।
"मैंने कल रात फोन किया था। मदन मेहता के लिए---।" लाइन मिलते ही देवराज चौहान ने कहा।
"होल्ड करो।"
करीब आधे मिनट बाद रात वाली आवाज उसके कानों में पड़ी।
"रात तुमने अपना नाम नहीं बताया था?"
"सुरेंद्र पाल---।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा।
"पता नोट करो---।"
"क्या?"
"पता नोट करो। बारह बजे यहां पहुंच जाना। मदन से मुलाकात हो जाएगी।" इसके साथ ही उसने बताया--- "मैं नहीं जानता, तुम कौन हो। लेकिन जो भी हो अकेले आना। बिल्कुल अकेले। आगे तो क्या, पीछे भी दूर-दूर तक कोई नहीं होना चाहिए।" इसके साथ ही दूसरी तरफ से रिसीवर रख दिया गया।
देवराज चौहान को बारह बजे वहां पहुंचने के लिए पता बताया गया था वो किसी रेस्टोरेंट का पता था। रेस्टोरेंट ऑफ माईकल।
■■■
रेस्टोरेंट ऑफ माईकल, बीच से कुछ दूरी पर स्थित था। वहां की सड़क से इस वक्त दूर, धूप में चमकता शांत समंदर नजर आ रहा था। समंदर के करीब होने की वजह से, रेस्टोरेंट में भीड़ जैसा माहौल था। देशी-विदेशी जोड़े अपनी-अपनी पसंदीदा पोशाकों में वहां के खानों का मजा लेने में व्यस्त थे। कुछ गोवा की पसंदीदा फेनी (शराब) की चुस्कियां भी खाने के साथ ले रहे थे।
मौज-मस्ती का ताजा माहौल था।
देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया। वहां सामान्य से ज्यादा शोर था। परन्तु इस कदर भी ज्यादा नहीं कि कानों को चुभे। वेटर ट्रे में सामान लादे, ऑर्डर सर्व करते, इधर-उधर जा रहे थे। हर तरफ नजर मारने के बाद देवराज चौहान एक काउंटर पर पहुंचा। जिस पर बिल देने और पेमेंट रिसीव करने के लिए आदमी मौजूद था और उसकी निगाहें, बराबर रेस्टोरेंट का जायजा ले रही थीं।
देवराज चौहान के पास पहुंचने पर कैश काउंटर पर मौजूद व्यक्ति ने उसे देखा।
"मैंने फोन पर बात की थी।" देवराज चौहान बोला--- "मेरा नाम सुरेंद्र पाल है।"
उस व्यक्ति ने गहरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा फिर काउंटर के नीचे कहीं हाथ मारकर, एक पेपर स्लिप निकाली। उसे पढ़ा।
"सुरेंद्र पाल हूं। मदन से मिलना है।"
"हां।"
"काम?"
"ये बात मदन से ही होगी।"
"पहले कभी मदन से मिले हो?" उसकी निगाहें बार-बार कागज की स्लिप पर जा रही थी।
"इस बात का जवाब तो मदन मुझे देखकर ही दे देगा।" देवराज चौहान बोला।
"मैं तुमसे पूछ रहा हूं।"
"नहीं। मुझे याद नहीं मैंने कभी--- कभी मदन को देखा हो। सामने आने पर शायद ये ध्यान आ जाए कि मैंने उसे फलां-फलां जगह देखा है।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "बहुत पूछताछ कर रहे हो।"
"अभी मदन नहीं आया। रेस्टोरेंट में बैठकर कुछ खाना-पीना हो तो खा लो। पेमेंट तुम्हें ही देनी होगी। खाने वाले माल को फ्री का माल मत समझना।"
"मदन कब आएगा?"
"जब आएगा, तुम्हें बता देंगे।"
देवराज चौहान ने गहरी निगाहों से उन्हें देखा, फिर पलटकर रेस्टोरेंट के टेबल के पास मौजूद खाली कुर्सी पर बैठा और वेटर आने पर काफी का ऑर्डर दे दिया। देवराज चौहान ने देखा काउंटर पर बैठा आदमी उस पर नजरें टिकाए इंटरकॉम पर धीमे स्वर में बातें कर रहा था।
कॉफी आई तो वो कॉफी के छोटे-छोटे घूंट भरने लगा। उसकी सतर्क निगाह बराबर हर तरफ टिक रही थी।
पन्द्रह मिनट बाद कॉफी सर्व करने वाला वेटर ही उसके पास पहुंचा।
"सर! आपको काउंटर पर बैठे साहब बुला रहे हैं।"
देवराज चौहान उठा। पचास का नोट काफी के खाली प्याले के नीचे रखा और काउंटर की तरफ बढ़ गया। वो आदमी उसे ही देख रहा था। उसके पास पहुंचते बोला।
"जाओ। मदन आ गया है।"
"कहां जाऊं?"
"फैमिली केबिन नम्बर पांच में वो बैठा है। जल्दी जाओ उसे जाना है।"
"फैमिली केबिन किधर है? मैं यहां पहली बार आया हूं।" देवराज चौहान ने इधर-उधर नजर मारी।
"वो सामने गैलरी देख रहे हो। उसमें चले जाओ। दरवाजे पर एक-दो-तीन लिखा नजर आ जाएगा। पांचवे का दरवाजा खोलकर भीतर चले जाना।"
देवराज चौहान ने उस तरफ देखा।
वो मात्र चार फीट चौड़ी गैलरी थी। किसी सुरंग की भांति आगे जा रही थी। देवराज चौहान ने उस पर निगाह मारी फिर वहां से हटकर गैलरी की तरफ बढ़ गया।
गैलरी में प्रवेश किया तो बाईं तरफ दरवाजे नजर आने लगे। दरवाजे बता रहे थे कि वो फैमिली केबिन न होकर, कमरे ही हैं। जिस दरवाजे पर पांच लिखा नजर आया, उस दरवाजे के हैंडिल पर हाथ रखकर दबाया और भीतर प्रवेश कर गया।
वो आठ-बाई-आठ साईज का कमरा था। एक तरफ डबल बैड मौजूद था और बाकी बची जगह में टेबल और दो कुर्सियां मौजूद थीं। उस कमरे की हालत बता रही थी कि फैमिली केबिन के नाम पर ये कमरे, जोड़ों को घंटे के हिसाब से किराए पर दिए जाते होंगे और किराया भी मोटा वसूला जाता होगा। यहां ऐसे और भी कई धंधे चालू होंगे। वो रेस्टोरेंट तो मात्र दिखावा ही है।
देवराज चौहान की निगाह, कुर्सी पर बैठे व्यक्ति पर जा टिकी। जो पचास वर्ष की उम्र का रहा होगा। क्लीन शेव चेहरा चमक रहा था। सिर के बाल छोटे और सलीकेदार थे। बदन पर कीमती कपड़े थे। देखने पर वो किस्म का इंसान लगा था।
दोनों की निगाहें मिलीं। देवराज चौहान ने हाथ पीछे करके दरवाजा बंद किया।
"कौन हो तुम?" उसने पूछा।
"पहले मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूं?" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा और कुर्सी पर जा बैठा।
"जिससे तुम मिलना चाहते हो, मैं वही हूं।" उसकी गहरी निगाह देवराज चौहान पर थी।
"क्या तुम अपने मुंह से अपना नाम नहीं लेते?"
"मदन मेहता।" वो बोला।
"मेरा नाम सुरेंद्र पाल है। मुंबई से आया हूं। सुखदेव को तो तुम जानते ही होंगे।" देवराज चौहान ने कहा।
"बोलते रहो।"
"सुखदेव ने मुझे तुम्हारा फोन नंबर दिया है। उसका कहना है कि तुमसे बात कर लूं। ये काम तुम कर सकते हो।"
वो, देवराज चौहान को देखता रहा। बोला कुछ नहीं।
"तुमने पूछा नहीं, कौन-सा काम?"
"पूछने की जरूरत नहीं समझता।" उसने पूर्ववतः लहजे में कहा।
"क्यों?" देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
"अगले कुछ महीनों में कोई काम नहीं चाहता। सुखदेव से भी कह देना। मैं आराम करना चाहता हूं। मेरे इस जवाब के बाद अब, तुम्हारे पास कोई सवाल नहीं बचता। अपने काम के लिए किसी और को ढूंढ लो।" कहकर वो उठ खड़ा हुआ।
देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"बहुत जल्दी है जाने की---?" देवराज चौहान ने कश लिया।
"जहां मेरी दिलचस्पी का सामान नहीं होता, वहां मैं ज्यादा नहीं ठहरता।" उसने देवराज चौहान को देखा।
"बैठ जाओ। असल बात तो अब शुरू होनी है।"
देवराज चौहान के शब्दों पर उसकी आंखें सिकुड़ी।
"असल बात?"
"हां---।"
"क्या---?"
"मुंबई में क्या गुल खिलाकर आ रहे हो?" कहते हुए देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।
इन शब्दों पर उसके जबड़ो में कसाव भर आया।
दोनों ने एक-दूसरे की आंखों में झांका।
"साफ कहो।" उसके भिंचे होंठ हिले।
"सुधाकर बल्ली तुम्हारा दोस्त था।" देवराज चौहान ने चुभते स्वर में कहा--- "बहुत कमीने निकले तुम। अपना काम निकालकर, उसे भी खत्म कर दिया। पचास करोड़ ले उड़े। खैर जिसे भी खत्म करो। मुझे क्या?" देवराज चौहान ने लापरवाही से कहा--- "मुझे तो पचास करोड़ से मतलब है, उसमें मेरा हिस्सा भी बनता है।"
उसके होंठ और भिंच गए।
"पुलिस वाले की पत्नी के साथ बलात्कार करके, उसकी हत्या कर दी। अंकल चौड़ा को खत्म कर दिया। सुधाकर बल्ली की लाश को वहां से कुछ दूर फेंक दिया, ताकि मामला उलझ जाए। पुलिस अवश्य तुम्हारी हरकत से उलझ गई। लेकिन मैं नहीं उलझा। तभी तो सीधा यहां आ पहुंचा हूं।" देवराज चौहान के स्वर में कठोरता भर आई थी--- "तुम कौन हो, क्या हो? मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं। मैं तो सिर्फ पचास करोड़ में से अपना हिस्सा चाहता हूं। जो कि बारह करोड़ बनता है। मेरे हवाले करो। मैं वापस मुंबई चलूं।"
वो दांत भींचे देवराज चौहान को देखता रहा।
"चिंता मत करो। मैं अपने धंधे का पक्का हूं। पुलिस को तुम्हारे बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।" देवराज चौहान तीखे अंदाज में मुस्कुराया--- "वैसे मुंबई पुलिस जोर-शोर के साथ तुम्हें ढूंढ रही है जिसने पुलिस वाले की बीवी के साथ मिलकर बलात्कार करके, उसकी हत्या की। मेरा हिस्सा दे दो। मैं अपना मुंह बंद रखूंगा।"
"बारह करोड़?" उसके होंठ हिले।
"हां। इसमें सौदेबाजी नहीं चलेगी। इतना तो मेरा हिस्सा तय था। वही लूंगा। बाकी तुम मजे करो।"
"तुम्हें नहीं लगता कि बारह करोड़ ज्यादा है?" वो तीखे अंदाज में मुस्कुराया।
"ज्यादा हो या कम। मैं अपना तयशुदा हिस्सा ले रहा हूं। अगर तुम बीच में आकर मामले में दखल न देते। सुधाकर बल्ली को अपनी तरफ मिलाकर, मौके पर गड़बड़ नहीं की होती तो मैं कब का बारह करोड़ मेरे पास होता और मत भूलो कि इसके साथ मैं इस बात की भी गारंटी दे रहा हूं कि पुलिस को तुम्हारे बारे में नहीं बताऊंगा।"
"बहुत मेहरबानी इतना विश्वास दिलाने की।" वो मुस्कुरा पड़ा।
देवराज चौहान की आंखों में पैनापन उभरा।
"मैं अभी रकम देकर, गोवा से निकल जाना चाहता हूं---।" देवराज चौहान बोला।
"बारह करोड़?"
"हां---।"
वो आगे बढ़ा और टेबल पर पड़े इंटरकॉम का रिसीवर उठाकर बटन दबाया। लाइन मिली।
"भेजो।" उसने इतना ही कहा और रिसीवर रख दिया।
देवराज चौहान एकाएक सतर्क नजर आने लगा।
उसने कठोर निगाहों से, देवराज चौहान को देखा।
"इस तरह लोगों को ढूंढना और मिलने पर पुलिस की धमकी देकर ब्लैकमेल करने का धंधा छोड़कर किसी और धंधे पर लग जाओ। क्योंकि इसमें जान का खतरा बहुत ज्यादा होता है।" उसने एक-एक शब्द चबाकर धमकी भरे स्वर में कहा।
"क्या मतलब?" देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"धंधे पर निकलो तो, अपने झूठ की बुनियाद पक्की करके निकलो।" उसने पहले वाले स्वर में कहा--- "सबसे पहले तो ये बात सुन लो कि मैं किसी सुधाकर बल्ली को नहीं जानता।"
देवराज चौहान के मस्तिष्क को को तीव्र झटका लगा।
"क्या--- तुम सुधाकर बल्ली को नहीं जानते?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"नहीं। जब उसे ही नहीं जानता तो, तुम्हारी बात का सारा आधार यहीं समाप्त हो जाता है। ऐसे में न तो कहीं पचास करोड़ है और ना ही, तुम्हारा बारह करोड़ का हिस्सा। न ही किसी पुलिसवाले की बीवी से मेरा वास्ता है तो फिर पुलिस मेरी तलाश क्यों करेगी।" उसके शब्दों में व्यंग्य से भरा जहरीला स्वर लिपटा हुआ था--- "इस मुद्दे को लेकर पुलिस के पास चलना चाहो तो मैं बिल्कुल तैयार हूं। गोवा की पुलिस के पास जाना हो तो ठीक, नहीं तो मैं मुंबई तक की पुलिस के सामने हाजिर हो सकता हूं।"
देवराज चौहान के मस्तिष्क में सोचों का तूफान उठ खड़ा हुआ था।
"तुम--- तुम झूठ बोल रहे हो।" देवराज चौहान ने कहा। परन्तु वो महसूस कर चुका था कि किन बातों के दौरान सामने खड़े इंसान के चेहरे और शब्दों में झूठ के भाव कहीं नहीं हैं। अगर ऐसा है तो फिर गड़बड़ कहां है! दो पल के लिए उसकी समझ में कुछ नहीं आया।
"अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तो तुम्हें सफाई देने की जरूरत महसूस नहीं करता। पहली बार है, तुम्हें छोड़ रहा हूं। वरना जो मुझे ठीक से जानता है वो संभलकर मुझसे बात।"
तभी दरवाज़ा खुला और देखते-ही-देखते एक-के-बाद-एक छः व्यक्तियों ने भीतर प्रवेश किया। उनके कपड़े तो ठीक थे, परन्तु चेहरों पर हरामीपन चमक रहा था।
"इसे देख लो। ठोक-पीटकर पीछे वाले रास्ते से बाहर फेंक देना। इसके बाद अगर ये आसपास कहीं नजर आए तो खत्म करके लाश को समंदर में फेंक देना।" उसने क्रूर स्वर में कहा।
"सुनो। तुम---।" देवराज चौहान ने कहना चाहा।
परन्तु वो खुले दरवाजे से बाहर निकलता चला गया।
वो छह के छह देवराज चौहान पर ऐसे टूट पड़े कि खुद को बचाने का उसे मौका ही नहीं मिला।
देवराजचौहान के होंठों से कराह निकली। धीरे-धीरे उसे होश आने लगा। बदन से उठती पीड़ा का एहसास होने लगा। उसने आंखें खोलीं।
धूप चमक रही थी, परन्तु उस तक नहीं पहुंच रही थी। वो तंग गली थी, जहां गंध और कबाड़ के अलावा कुछ नहीं था। उसने खुद को कूड़े के ढेर के करीब पाया। जिस्म से अभी भी पीड़ा की लहरें उठ रही थीं। आसपास देखते हुए वो उठा। जेब पर हाथ लगाया। वहां अब रिवाल्वर नहीं थी। उस पर झपटने वाले रिवाल्वर निकाल ले गए थे। पर्स अवश्य जेब में मौजूद था।
उसके साथ जो हुआ, कम-से-कम ऐसा होने की आशा तो उसे बिल्कुल भी नहीं थी। उसने अपने कपड़ों को देखा। वो अब ज्यादा बढ़िया नहीं रहे थे, परन्तु इतने भी खराब नहीं थे कि लोगों के बीच चल-फिर न सकें। गोवा में तो वैसे भी अच्छे या बुरे कपड़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता था।
देवराज चौहान गली से बाहर निकला। सामने लोग आ-जा रहे थे। देवराज चौहान आगे बढ़ा और फुटपाथ पर लगे लैटर बॉक्स से टेक लगाकर सिगरेट सुलगा ली। कश लेते हुए वो आसपास से गुजरते लोगों को देखने लगा, लेकिन उसके मस्तिष्क में, मदन मेहता के शब्द गूंज रहे थे।
वो सुधाकर बल्ली को नहीं जानता था।
सिरे से ही इस बात को इंकार कर रहा था।
और उसके चेहरे और शब्दों में शत-प्रतिशत सच्चाई थी।
तो फिर गड़बड़ कहां है?
देवराज चौहान सोचता रहा। सिगरेट समाप्त करके वहां से हिला और आगे बढ़ गया। सोच भरे भाव चेहरे पर समेटे, नजरें इधर-उधर दौड़ा रहा था। उसे एस•टी•डी• बूथ की तलाश थी, जहां से वो मुंबई फोन करके जगनलाल से बात करना चाहता था।
देवराज चौहान ने फोन पर जगनलाल से बात की।
"मैं गोवा से बोल रहा हूं।"
"देवराज चौहान?" जगनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
"हां---। तुम---।"
"बहुत जल्दी पहुंच गए।"
"मेरी बात सुनो।"
"कहो।"
"कुछ देर पहले ही मैं मदन मेहता से मिला हूं। वो...।"
"मदन से मुलाकात हो गई। हैरानी है। इतनी आसानी से वो कैसे मिलने को तैयार हो गया?"
"हो गया। सुखदेव ने जो फोन नंबर दिया था, उसी नंबर का इस्तेमाल करके उससे मिला हूं।" देवराज चौहान ने कहा--- "लेकिन उससे बातचीत ढंग से नहीं हो पाई। वो...।"
"मिले भी और बात नहीं हुई। ये कैसे?"
"बार-बार टोको मत। सुनो।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "मदन मेहता कहता है कि वो सुधाकर बल्ली को सिरे से ही नहीं जानता। वो---।"
"उसने कहा और तुमने मान लिया---।"
"क्या मतलब?"
"वो एक नंबर का हरामी, महा लुच्चा है। वो---।"
"वो कहता है, सुधाकर बल्ली को नहीं जानता। पचास करोड़ के बारे में पूरी तरह अंजान है और खांडेकर की पत्नी के साथ बलात्कार और हत्या का तो, उसका सपने में भी वास्ता नहीं रहा।"
"उसने कहा और तुम मान गए---।"
"मैंने उसे कहा कि पुलिस उसे तलाश कर रही है और मैं पुलिस को खबर कर सकता हूं तो मेरे साथ वो पुलिस के पास भी जाने को तैयार है। और वो जो कह रहा है बिल्कुल सच कह रहा है।"
जगनलाल के हंसने की आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
"क्या हुआ?" देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
"भाई देवराज चौहान!" जगनलाल की आवाज में समझाने वाला ढंग था--- "मैंने और सुखदेव ने तेरे को मुंबई में भी बताया था कि मदन मेहता एक क्या दस नंबर का हरामी है। उसके हरामीपन की तह तक तुम नहीं पहुंच सकते। मैं तो उसे देर से जानता हूं। सारी दुनिया का झूठ और चालाकी उसके मुंह और दिमाग में भरी पड़ी है। वो कहे दिन है तो समझो रात है। वो कहे तुम कमीने हो तो समझो उसकी निगाहों में तुम बहुत बढ़िया आदमी हो। मेरा मतलब है कि उसकी हर बात को झूठ मानो और---।"
"तो फिर उसकी किस बात को सच मानूं? जबकि तुम्हारे मुताबिक वो सच बोलता ही नहीं।"
दो पल के लिए लाइन पर खामोशी छा गई।
"मैं जो कहना चाहता हूं, वो शायद तुम समझे नहीं। मैं---।"
"मैं समझ चुका हूं कि तुम्हारे कहने का मतलब क्या है।" देवराज चौहान ने टोका--- "लेकिन तुम अपनी कहना, अब बंद करो तो मैं कुछ कहूं।"
"क्या?"
"वो जो भी कह रहा था, सच कह रहा था।" देवराज चौहान ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा--- "कम-से-कम मैं ये बात पहचानने में धोखा नहीं खा सकता।"
"हूं।" जगनलाल का सोच भरा स्वर उसके कानों में पड़ा--- "तुम्हारे मुताबिक अगर मदन सच कह रहा था तो फिर तुम्हारा ये मामला यहीं खत्म हो जाता है। यानी कि तुम्हें मदन मेहता की नहीं, किसी और की तलाश है, उसकी जिसने तुम्हारे काम में टांग अड़ाई है।"
"तुम सुखदेव से बात करो कि---।"
"अब बात करने को क्या बचा है?"
"उससे मालूम करो कि मदन मेहता के आनन-फानन मुंबई से खिसकने की क्या वजह थी?"
"इससे तुम्हें कोई फायदा होगा?"
"जो कहा है, वो करो। तुम्हें कब फोन करूं?"
"मैं अभी सुखदेव के पास जाता हूं। तुम सुखदेव का नंबर नोट कर लो। उससे बात करके दो घंटे बाद मैं वहीं पर तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा।" कहने के साथ ही जगनलाल ने सुखदेव का नंबर बताया।
देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया।
■■■
देवराज चौहान वापस होटल पहुंचा।
लंच का वक्त समाप्त हो चुका था और जगमोहन ने कमरे में ही लंच ले लिया था।
"आ गए। लंच लोगे?" देवराज चौहान के भीतर प्रवेश करते ही, जगमोहन ने पूछा।
"नहीं।" देवराज चौहान ने कहा और आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठते हुए बोला--- "कॉफी के लिए बोल दो।"
जगमोहन इंटरकॉम की तरफ बढ़ा। जबकि उसकी निगाह देवराज चौहान की हालत पर फिर रही थी। अब उसने देखा कि उसके जिस्म पर मौजूद कपड़े उतने सलामत नहीं हैं, जितने कि यहां से रवाना होते वक्त थे। जगमोहन रूम सर्विस को कॉफी के लिए कहकर हटा तो तब तक देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली थी। चेहरे पर मौजूद सोच के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
"मदन मेहता मिला?" जगमोहन भी कुर्सी पर आ बैठा।
"हां।"
"तुम्हारे कपड़ों की हालत ठीक नहीं लग रही। हाथापाई हुई थी क्या?" जगमोहन ने पूछा।
"हाथापाई नहीं। सिर्फ पाई हुई थी।" देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कुराहट उभरी।
"सिर्फ पाई?" जगमोहन के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे--- "ये पाई क्या होती है?"
"मैं हाथ नहीं इस्तेमाल कर पाया। सिर्फ दूसरे के हाथों को अपने शरीर पर महसूस किया।" देवराज चौहान ने कहा--- "वो जहां मुझे मिला। वहां उसके आदमी मौजूद थे और मेरी ठुकाई करवाकर बाहर कर दिया। और दोबारा मुझे वहां आने को मना कर दिया। यानी कि रेस्टोरेंट ऑफ माईकल के आसपास भी नजर आया तो वो मुझे छोड़ेंगे नहीं। मदन मेहता ने अपने आदमियों को मेरे सामने ये कहा। स्पष्ट है कि वो जगह मदन मेहता का ठिकाना है।"
जगमोहन की आंखों में कठोरता उभरी।
"मतलब कि खतरनाक बंदा है। गोवा का?" देवराज चौहान का स्वर सख्त था।
"हां। शायद सुखदेव ने ठीक कहा था। वो---।"
"मैं उसे आज की हरकत का सबक सिखाऊंगा।" जगमोहन का स्वर कठोर ही रहा--- "तुम चाहते तो, आसानी से उस वक्त हालातों पर काबू पा सकते थे। तुम्हारे पास रिवाल्वर---?"
"पहली बात तो यह है कि उन लोगों ने मुझे मौका ही नहीं दिया।" देवराज चौहान ने कश लिया--- "दूसरे, मैं गोवा में झगड़ा करने नहीं, बल्कि पूरे विश्वास के साथ मदन मेहता पर हाथ डालने आया हूं कि उसने खांडेकर की बीवी के साथ बुरा किया और पचास करोड़ लेकर गोवा भाग आया?"
जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।
"मेरे ख्याल में मुझे सबसे पहले ये पूछना चाहिए था कि मदन मेहता से क्या बात हुई?"
"कोई खास नहीं।" देवराज चौहान के चेहरे पर अभी तक सोच के भाव थे--- "मदन मेहता के मुताबिक उसका हमारे या खांडेकर के मामले से कोई वास्ता नहीं है। पचास करोड़ की उसे हवा तक नहीं।"
"तुमने मान लिया?" जगमोहन के माथे पर बल पड़े।
"हां। क्योंकि वो सच कह रहा है। मैंने उसकी आवाज और चेहरे के भावों से उसकी बात की सच्चाई जानी है। जब वो कह रहा था तो, तब सिर्फ सच कह रहा था।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
"इसका क्या मतलब हुआ?"
देवराज चौहान खामोश रहा।
"इसका मतलब कि हमारा शिकार मदन मेहता नहीं। कोई और है।" जगमोहन के होंठों से निकला।
"आज की बातों पर गौर किया जाए तो यही मतलब निकलता है।" देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा।
"यानी कि हम गोवा बेकार आये?"
"कुछ कहा नहीं जा सकता। फोन पर मैंने मुंबई बात की है। जगनलाल से। सब कुछ बताकर, उसे सुखदेव से बात करने को कहा है, क्योंकि सुखदेव मदन को ज्यादा जानता है। मैं जानना चाहता हूं कि वो इस बारे में क्या कहता है और ये भी पूछा है कि मदन का एकाएक मुंबई छोड़ने का क्या कारण था? शायद कोई काम की बात मालूम हो जाए?" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"जगनलाल कब बताएगा?" जगमोहन व्याकुल-सा हो उठा।
देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।
"वक्त हो चुका है। मैं उससे बात करने जाता हूं।"
■■■
देवराज चौहान ने एस•टी•डी• बूथ से फोन करके मुंबई बात की।
रिसीवर जगनलाल ने ही उठाया।
"हैलो---!"
"देवराज चौहान---।"
"मैं तुम्हारे ही फोन का इंतजार कर रहा था।" जगनलाल का स्वर कानों में पड़ा--- "मैंने सुखदेव से बात की है। वो मेरे पास ही है तुम उससे ही बात कर लो तो ठीक रहेगा।"
दूसरे ही पल सुखदेव की आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
"देवराज चौहान। मुझे अभी-अभी जगन ने सारी बात बताई। मदन मेहता की बात पर विश्वास मत करना। वो झूठ बोलता है तुमसे। तुमने जाने कैसे सोच लिया कि वो सच कहता है। सामने वाले को धोखा देने में वो माहिर है। उसके चेहरे के भावों को मत पढ़ो। उसकी आवाज के भावों को मत पहचानो। वो आधे मिनट में ही अपने चेहरे पर ऐसे भाव ले आता है जैसे अपनी माँ की चिता को अग्नि देकर आ रहा हो। वो शैतान है पूरा शैतान।"
देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"सुन रहे हो?" सुखदेव की आवाज कानों में पड़ी।
"हां।"
"मदन से कोई भी बात सीधे मुंह नहीं निकलवाई जा सकती। वो भी गोवा में। असंभव। मुझे तो हैरानी है कि उसने इतनी जल्दी तुमसे मुलाकात कैसे कर ली, जबकि वो चुपचाप मुंबई से खिसका है। ऐसे में तो वो किसी अंजाने के सामने आएगा ही नहीं। जाने क्या सोचकर, तुमसे मिला। क्या वो तुम्हें जानता है कि देवराज चौहान हो तुम?" सुखदेव ने बिना सांस लिए कहा।
"मेरे ख्याल में वो मेरे बारे में नहीं जानता। मुझे दूसरे नाम से जानता है।" देवराज चौहान बोला।
"खैर ये बात तुम जानो। मैंने जो कहा है, सिर्फ उसे ही सच मानना।"
उलझन में डूबा देवराज चौहान दो पल तक रिसीवर थामें खड़ा रहा।
"देवराज चौहान---।"
"वो मुंबई से तुम्हारे मुताबिक आनन-फानन गोवा क्यों आ पहुंचा?" देवराज चौहान ने पूछा।
"इस बात की कोई खबर कानों तक नहीं पहुंची। ये भी अब तुम ही जानो। ध्यान रखना, गोवा में मदन शेर है। इस बात का ध्यान रखोगे तो शायद आने वाली किसी मुसीबत से बच जाओ।"
"कोई और काम की बात?"
"सिर्फ यही कि मदन पर विश्वास मत करना। गोवा में मदन के मामले में तुम्हारे लिए इससे ज्यादा काम की कोई दूसरी नहीं हो सकती।" सुखदेव की आवाज में पक्केपन के भाव थे।
देवराज चौहान ने रिसीवर रखा और पेमेंट चुकता करके एस•टी•डी• बूथ से बाहर आ गया। सूर्य सिर पर था और आती ठंडी हवा में समुंदर की नमी की महक थी। देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कश लेता सोचभरे ढंग से आगे बढ़ने लगा। सुखदेव की बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया था। उसे पूरा यकीन था कि मदन मेहता सच कह रहा था। परन्तु जाने क्यों उसका मन कह रहा था कि सुखदेव भी गलत नहीं है।
तो फिर गड़बड़ कहां है?
जहां वो ठहरा था, वो होटल ज्यादा दूर नहीं था। बूथ से होटल तक का अभी आधा रास्ता ही तय हुआ था कि एकाएक वो मन ही मन सतर्क हो उठा। ठिठका। अगले ही पल उसकी गर्दन तेजी से इधर-उधर घूमी।
वो पीली कमीज वाला, जिसे उसने तब देखा था, जब वो एस•टी•डी• बूथ पर फोन पर बात कर रहा था शीशे से निगाह बाहर गई थी, उस वक्त वो सड़क के किनारे खड़ा बूथ की ही तरफ देख रहा था। तब देवराज चौहान ने उस पर गौर नहीं किया था।
लेकिन अब वो उसके पीछे था। मात्र बीस कदम की दूरी पर। उसका पीछा कर रहा था और उसे इस बात की जरा भी परवाह दिखाई नहीं देती थी कि उसे उसका पीछा किए जाने का पता चलता है या नहीं। देखने में पीली वाली कमीज वाला कोई दादा-बदमाश नहीं लग रहा था। परन्तु देवराज चौहान महसूस कर चुका था कि वो वैसा नहीं है, जैसा कि नजर आ रहा है।
देवराज चौहान को अपनी तरफ देखते पाकर, पीली कमीज वाला पल भर के लिए ठिठका। उसके बाद पुनः शांत भाव से उसकी तरफ बढ़ने लगा।
देवराज चौहान एकटक उसे देखता रहा।
पीली कमीज वाला उसके करीब पहुंचकर ठिठका। चेहरे पर लापरवाही के भाव नजर आ रहे थे। हाथ की उंगलियों में बिना सुलगी सिगरेट फंसी थी।
"माचिस होगी?" उसके स्वर में किसी तरह का भाव नहीं था। उसकी आंखों में झांकते देवराज चौहान ने माचिस निकाली। उसे थमा दी। उसने बिना किसी जल्दबाजी के सिगरेट सुलगाई और माचिस देवराज चौहान की कमीज की जेब में डालता हुआ बोला।
"मैं तुम्हारा पीछा कर रहा हूं।"
"मालूम है।"
"बहुत देर बाद मालूम हुआ---।" उसने सिर हिलाते हुए कश लिया।
देवराज चौहान के होंठ अजीब-से अंदाज में सिकुड़े।
"मेरी जेब में इतनी बड़ी रकम नहीं है कि, तुम उसके लिए मेरा पीछा करके अपना वक्त बर्बाद करो।" जबकि देवराज चौहान जानता था कि बात कुछ और है--- "गोवा में मुझसे बढ़िया शिकार मिलेंगे। जाकर उन पर अपना वक्त बर्बाद करो। शायद फायदा हो जाए।"
उसने इधर-उधर देखते हुए इंकार में सिर हिलाया।
"पैसे की बात नहीं है।"
"तो फिर किस बात की बात है?" देवराज चौहान की निगाह उस पर से नहीं हटी थी।
"तुम्हारी। तुम मेरे साथ चलो। बात करनी है।"
देवराज चौहान मन-ही-मन और सतर्क हो गया।
"मेरे से बात करनी है?"
"हां।"
"मेरे बारे में क्या जानते हो?"
"देवराज चौहान हो तुम---।" पहली बार उसके होंठों पर मुस्कान उभरी।
देवराज चौहान चौंका।
"चलो। सड़क के किनारे काली कार खड़ी है। उस पर हम चलेंगे।"
देवराज चौहान की निगाह काली कार की तरफ उठी। फिर उसे देखा।
"कौन हो तुम?"
"बेकार का सवाल मत करो। कार में बैठो।" उसने सीधे-सीधे कहा।
"इस वक्त मेरा मूड कार में बैठने का नहीं है तुम बैठो। गोवा की सैर करो।" देवराज चौहान ने चुभते स्वर में कहा--- "गोवा में मेरे देखने लायक कोई चीज नहीं बची।"
"मेरे साथ चलोगे तो बहुत कुछ देखने को मिलेगा।" उसने तीखे स्वर में कहा।
देवराज चौहान ने उसे चेतावनी भरे अंदाज में घूरा और पलटकर आगे बढ़ गया। सड़क पर खड़ी कार पीछे रह गई। लेकिन अब इस बारे में सतर्क था कि पीली कमीज वाला पीछे न आने पाए। मन में अजीब-सी कशमकश थी कि उसने पीली कमीज़ वाले को कभी नहीं देखा। इस पर भी वो उसके बारे में जानता है और उसे साथ ले जाना चाहता है, कहां? देवराज चौहान को महसूस होने लगा कि गोवा में उसके कदम पड़ने के साथ ही कोई मामला उससे उलझने की फेर में है। जबकि गोवा आकर उसने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया था कि कोई इस तरह उसका पीछा करता।
फुटपाथ पर आते-जाते लोगों के बीच में से वो गुजरता हुआ आगे बढ़ रहा था कि तभी सामने से आते व्यक्ति ने उसे हल्की-सी टक्कर मारी और सटकर खड़ा हो गया।
अगले ही पल देवराज चौहान को अपने पेट पर कठोर चीज लगे होने का एहसास हुआ। उससे टकराने वाले व्यक्ति का हाथ कोट की बाहरी जेब में था और पक्का उसकी उंगलियों में रिवाल्वर दबी थी। दोनों की आंखें टकराई। टकराने वाला मुस्कुराकर कह उठा।
"सॉरी। मेरा पांव फिसल गया था।" स्वर धीमा था--- "अगर दोबारा फिसला तो, ट्रेगर पर मौजूद उंगली दब जाएगी और रिवाल्वर की नाल से गोली निकलेगी, जो तुम्हारे पेट से लगी हुई है।"
देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता उभर आई। इससे पहले कि वो कुछ कहता, पास में एक और व्यक्ति आ खड़ा हुआ। देवराज चौहान समझ गया कि उसे घेरा जा रहा है।
"हमारे यार-बंधु आसपास और भी हैं। चलना तो तुम्हें हमारे साथ पड़ेगा ही। अब ये तुम्हारी मर्जी है कि तुम किस रंगो-ढंगो से उस काली कार में जा बैठते हो।" उसकी आवाज में सादापन था।
देवराज चौहान की निगाह घूमी तो फुटपाथ किनारे उसी काली कार को रुकते देखा।
"बहुत देर लगाते हो फैसला करने में?"
"कौन हो तुम लोग?" देवराज चौहान का स्वर बेहद कठोर हो उठा था।
"काली कार---।" उस व्यक्ति ने देवराज चौहान की आंखों में झांका।
इस वक्त इन लोगों की बात मानने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। ये जाने कितने लोग हैं और कहां-कहां हैं? देवराज चौहान ने दोनों को देखा फिर कार की तरफ पलट गया। उलझन में था कि ये लोग कौन हैं? उसे कहां ले जाना चाहते हैं? न चाहते हुए भी देवराज चौहान कार के पास पहुंचा तो दरवाजा खुल गया।
देवराज चौहान भीतर बैठा। दरवाजा बंद हो गया। भीतर ड्राईवर के अलावा दो अन्य व्यक्ति थे। उनके हाथों में रिवाल्वरें थीं। वो पीली कमीज वाला कार में नहीं था।
कार आगे बढ़ गई।
■■■
इतना तो देवराज चौहान समझ गया था कि ये लोग जो भी हैं, कम-से-कम अभी तक तो उसका बुरा नहीं चाहते। इस तरह कार में ले जाने का मतलब है कि उससे कोई खास बात करना चाहते हैं ये लोग। देवराज चौहान खुद भी हालातों को समझने की चेष्टा कर रहा था। मदन मेहता का मामला अभी स्पष्ट नहीं हो पाया था कि उसने क्या करना है और अब ये लोग?
देवराज चौहान की सोचें रुकीं।
कहीं ये मदन मेहता के आदमी तो नहीं? मदन को लगने लगा होगा कि वो बाद में उसके लिए खतरा बन सकता है, खांडेकर की बीवी के मामले में, इसलिए उसने अपने आदमी उसके लिए भेज दिए। या फिर मदन पहचान गया हो कि वो देवराज चौहान है और...।
नहीं। अगर ऐसी कोई बात होती तो मदन मेहता के आदमी उसे सीधा-सीधा शूट कर देते। इस तरह उसे संभालकर न ले जा रहे होते। यानी कि ये लोग, कम-से-कम मदन मेहता के आदमी नहीं हैं। कोई दूसरी ही बात है।
वो आराम से रास्ता देख रहा था कि कार किन सड़कों से गुजर रही है। उसकी आंखों पर पट्टी बांधने की कोई चेष्टा नहीं की गई थी। न ही उसे सिर झुकाकर रखने को कहा गया था। जबकि वो उसकी शख्सियत से अच्छी तरह वाकिफ थे।
समंदर तट से वे काफी दूर आ चुके थे।
आधे घंटे बाद कार, मोड़ काटने के पश्चात धीमी हुई और थोड़े से घेरे में बनी चार मंजिला इमारत के पास कार रुक गई। वो गोवा का पुराना इलाका था और वो इमारत भी पच्चीस-तीस साल पुरानी बनी हुई थी। शाम के साढ़े चार बजने जा रहे थे। सड़क पर अपने काम में व्यस्त लोग आ-जा रहे थे, परन्तु खास भीड़ नहीं थी।
ड्राइवर ने इंजन बंद किया तो पास बैठे व्यक्ति ने देवराज चौहान को देखा।
"मैंने तो सोचा था कि तुम रास्ते में हमारे लिए कोई-न-कोई परेशानी खड़ी करोगे।"
देवराज चौहान ने शांत निगाहों से उसे देखा।
"अगर आगे भी इसी तरह चलो तो मुझे अच्छा लगेगा। वो सामने भीतर प्रवेश करने का दरवाजा है और हमें पहली मंजिल तक जाना है। भीतर और लोग भी रहते हैं। तुम शोर करोगे तो लोगों को मालूम हो जाएगा कि हम गलत काम कर रहे हैं, जबकि हम यहां किसी का रिश्तेदार बनकर ठहरे हैं। क्या समझे?"
"चिंता मत करो।" देवराज चौहान ने कहा--- "मेरे कारण कम-से-कम अभी तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होगी।"
"ऐसा क्यों?" उसकी आंखों में शक उभरा।
"क्योंकि मैं जानना चाहता हूं कि तुम लोग मुझे यहां क्यों लाए हो?" जबकि तुम लोगों का मेरे साथ कोई वास्ता नहीं। कोई लेना-देना नहीं। असल बात तो मालूम हो।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
"हम लोगों का लेना-देना, वास्ता कभी भी किसी के साथ हो जाता है।" उसने देवराज चौहान को घूरने के बाद कार का दरवाजा खोलते हुए कहा--- "आओ।"
कार वाले तीन और देवराज चौहान कार से बाहर निकले। वे तीनों, देवराज चौहान के प्रति सतर्क थे। परन्तु देवराज चौहान ने कोई गलत हरकत नहीं की। वे सब इस इमारत की पहली मंजिल पर पहुंचे। जो कि पूरी तरह उनके अधिकार में थी।
देवराज चौहान को जिस कमरे में पहुंचाया गया, जो सजा-सजाया सामान्य-सा ड्राइंगरूम था। देखने में लगता था जैसे वो किसी बसे-बसाये घर-परिवार में मौजूद हो। ऐसा ही माहौल उसे वहां महसूस हुआ। उसने तीनों पर निगाह मारी।
"अब बोलो क्या बात है?"
"आराम से बैठो देवराज चौहान। मालूम हो जाएगा कि बात क्या है। यहां से बाहर मत निकलना, इस ड्राइंगरूम से। कुछ देर सब्र कर लेना बुरा नहीं होता।"
इसके बाद वो तीनों बाहर निकल गए। दरवाजा खुला रहा। देवराज चौहान जानता था कि वे खुले दरवाजे से बाहर ही होंगे। उसने दूसरे दरवाजे पर निगाह मारी, जो भीतर की तरफ खुला नजर आ रहा था। देवराज चौहान कुर्सी पर बैठा और सिगरेट सुलगा ली। चेहरे पर सोच और आंखों में सतर्कता के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।
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देवराज चौहान को ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। सिगरेट समाप्त होते-होते ही वो पीली कमीज वाला वहां आ पहुंचा। उसके साथ दो और व्यक्ति थे। जो पहनाने से शरीफ और देखने में खतरनाक लग रहे थे। वो दोनों बिना कुछ कहे कमरे में इधर-उधर खड़े हो गए। इसमें कोई शक नहीं कि उनके पास यकीनन रिवाल्वर मौजूद थे।
देवराज चौहान की निगाह पीली कमीज़ वाले पर जा टिकी। जो स्थिर निगाहों से उसे देख रहा था। उसका चेहरा बता रहा था कि वो तेजी से सोचों में व्यस्त है।
"हैलो।" पीली कमीज वाले ने बिना मुस्कुराए कहा और आगे बढ़कर सोफा चेयर पर बैठ गया।
"जिस तरह मुझे यहां लाया गया है, वो मुझे अच्छा नहीं लगा।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।
"ये ढंग किसी भी हिम्मत वाले को अच्छा नहीं लगेगा।" पीली कमीज वाले ने कहा--- "लेकिन कभी-कभी मजबूरी में ऐसे ढंग इस्तेमाल करने पड़ जाते हैं। फिर भी हमारी शराफत देखो। हम जानते हैं कि देवराज चौहान जैसा इंसान बे-हथियार नहीं हो सकता। लेकिन हमने तुमसे रिवॉल्वर लेने की चेष्टा नहीं की। ऐसा करके मेरे आदमियों ने खतरा उठाया। तुम उन्हें धोखे में रखकर, उन्हें शूट कर सकते थे।"
देवराज चौहान उसे देखता रहा।
"यहां लाते वक्त तुम्हारी आंखों पर हमने कपड़ा नहीं बांधा कि तुम इस जगह को न देख सको। अगर हमारे मन में मैल होती तो हम तुम्हारे साथ सख्ती से पेश आते। परन्तु ऐसा नहीं किया गया। मैंने तो कोशिश की थी कि तुम्हें आराम से यहां ले आऊं। लेकिन तुम्हारे इंकार पर ही मुझे अपने आदमियों को इशारा करना पड़ा कि तुम्हें यहां ले आए।"
"इसे तुम अपनी शराफत कहते हो---।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
"हां। इसे मैं अपनी शराफत ही कहता हूं---।" उसने सिर हिलाकर कहा।
देवराज चौहान ने वहां मौजूद दोनों व्यक्तियों को देखा, जो उसके प्रति सतर्क थे। उसके बाद पुनः उसकी निगाह पीली कमीज वाले पर जा टिकी।
"कौन हो तुम?"
"मेरा नाम राजन राव है।"
"मैंने नाम नहीं, तुम्हारे बारे में पूछा है।"
"कम-से-कम इस वक्त तो मैं तुम्हें अपने बारे में इससे ज्यादा नहीं बता सकता।" राजन राव ने गर्दन को नीचे-ऊपर हिलाते हुए कहा--- "मेरे बारे में जानकर तुम्हें कोई फायदा भी नहीं होगा। अगर हम मदन मेहता के बारे में बात करें तो शायद हम दोनों को ही फायदा हो जाए।"
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी।
"मदन मेहता---?" बरबस ही उसके होंठों से निकला--- "कौन लगता है वो तुम्हारा?"
"कोई नहीं।" राजन राव ने कहा--- "तुम्हें उसकी जरूरत है और मुझे भी। लेकिन उस तक पहुंच पाना आसान काम नहीं। परन्तु मैं तुम्हें उस तक पहुंचा सकता हूं।"
देवराज चौहान कई पलों तक राजन राव को देखता रहा।
"तुम जानते हो मैं मदन मेहता से क्या चाहता हूं?"
"ये तुम्हारा अपना मामला है देवराज चौहान। तुम उससे जो भी चाहो। मेरा कोई मतलब नहीं और मैं उससे जो भी चाहूं, उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। हम दोनों की मंजिल मदन मेहता है। मैं सिर्फ इतना ही जानता हूं हम मिल जाएं तो मदन मेहता की गर्दन आसानी से पकड़ सकते हैं।"
"लेकिन मैं इस मामले में तुम्हारी सहायता की जरूरत नहीं समझता।"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं आज ही मदन मेहता से मिला हूं और जब भी चाहूं थोड़ी-सी कोशिश करने पर उससे फिर मिल सकता हूं। ऐसे में मेरे लिए तुम्हारी जरूरत कहीं भी नहीं है।"
राजन राव ने आदत के मुताबिक पुनः गर्दन हिलाई।
"हां। कल रात तुमने रेस्टोरेंट ऑफ माईकल में फोन किया। खबर मुझे मिल गई। आज तुम मदन मेहता से मिलने वहां गए। मालूम हो गया मुझे। तुम्हें देखा तो पहचान लिया कि तुम देवराज चौहान हो। तभी तो अपने आदमियों के साथ तुम्हारे पीछे लग गया। उसके बाद उस होटल में गए थे, जहां कल रात ही आकर ठहरे हो। वहां तुम्हारा खास जगमोहन भी है फिर जब तुम वहां से बाहर निकले तो मैंने तुमसे बात कर लेना ठीक समझा। जो कि यहां आराम से ही हो सकती है।"
"तुम्हें मेरी हरकतों के बारे में कैसे पता चला कि...?"
"रेस्टोरेंट ऑफ माईकल में मेरा आदमी है जो वहां की, मदन मेहता से वास्ता रखती खबरें मुझे बेचता है।" राजन राव ने देनराज चौहान को देखा।
"मैं अभी तक नहीं समझ पाया कि तुम चाहते क्या हो?" देवराज चौहान बोला।
राजन राव ने जेब से तस्वीर निकाली और उसके सामने कर दी। देवराज चौहान ने तस्वीर को फौरन पहचाना कि वो मदन मेहता ही है।
"पहचाना इसे?" राजन राव ने तस्वीर टेबल पर रखते हुए कहा।
"मदन मेहता---।"
"नहीं। ये मदन मेहता नहीं है।"
देवराज चौहान के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा।
"तुम मुझे उलझाने की बेकार कोशिश कर रहे हो। यह मदन मेहता ही है और आज दिन में मैं इसे रेस्टोरेंट ऑफ माईकल में मिला हूं।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर कह उठा।
"इसमें कोई शक नहीं कि तुम आज इससे मिले हो। मैं कहां इंकार कर रहा हूं।" राजन राव ने पुनः गर्दन हिलाई--- "मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूं कि यह मदन मेहता नहीं है।"
देवराज चौहान की निगाह टेबल पर पड़ी तस्वीर पर गई। आंखें सिकुड़ चुकी थीं।
"तुम पहले कभी मदन मेहता से मिले हो?" राजन राव ने पूछा।
"नहीं।"
"तो फिर कैसे कह सकते हो कि रेस्टोरेंट ऑफ माईकल में तुम जिससे मिले हो, वो मदन मेहता था?"
"मतलब कि वो मदन मेहता नहीं था।" देवराज चौहान बोला।
"नहीं।"
देवराज चौहान का मस्तिष्क तेजी से दौड़ने लगा।
"तुम यह सब मुझे क्यों बता रहे हो?"
"इसलिए कि तुम्हें मदन मेहता की जरूरत है और मुझे भी। वो कहां है, मैं जानता हूं। तुम नहीं। और उस तक तुम पहुंच सकते हो, परन्तु मैं नहीं।" राजन राव ने देवराज चौहान की आंखों में देखा।
"मैं समझा नहीं---।"
"अगर तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास आ रहा हो तो, तुम्हारे सवाल के जवाब में आगे कहूं?"
"अभी मैं तुम्हारी बात का विश्वास नहीं कर सकता।" देवराज चौहान ने उसे देखा--- "मैं तुम्हें नहीं जानता और तुम जो कह रहे हो, वह सच है या झूठ, मुझे कैसे मालूम होगा?"
राजन राव की गर्दन हिली।
"अच्छी बात है। तुम पहले ये मालूम कर लो कि मेरी कही बात सच है या झूठ। अगर सच हो तो यहीं आ जाना, हमारी फिर मुलाकात हो जाएगी हम आगे की बात करेंगे।"
देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका।
"मतलब कि मैं यहां से जा सकता हूं।"
"हां। तुमसे बात करने के लिए ही तुम्हें यहां लाया गया था। लेकिन इन बातों का फायदा तभी है जब हम एक-दूसरे पर विश्वास करके चलें।" राजन राव ने सोच भरे स्वर में कहा--- "यहां से जाकर तुम ये जान सकते हो कि मदन मेहता के बारे में मैंने जो कहा है वो ठीक है या गलत?"
देवराज चौहान उठा। टेबल पर पड़ी तस्वीर उठा ली।
"ये तस्वीर मैं ले जा रहा हूं।"
वहीं बैठे-बैठे राजन राव ने सहमति से सिर हिला दिया।
"अगर ये मदन मेहता नहीं है तू कौन है?"
"मालूम करने जा रहे हो तो इसके बारे में भी मालूम कर लेना।" राजन राव ने पूर्ववतः स्वर में कहा--- "गोवा में बहुत लोग हैं, जो इसकी तस्वीर देखते ही, इसके बारे में बता देंगे।"
देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़कर, राशन राव को देखा। दोनों व्यक्तियों को भी जो उसे ही देख रहे थे। फिर पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ा।
राजन राव का स्वर सुनकर देवराज चौहान ठिठका। पलटकर उसे देखा। वो अभी तक उसी मुद्रा में सोफा चेयर पर बैठा था।
"देवराज चौहान, मदन मेहता तक तुम्हें सिर्फ मैं पहुंचा सकता हूं। उसके बारे में मालूमात पाने जा रहे हो तो, ये भी मालूम कर लेना कि उस तक पहुंचा जा सकता है या नहीं। मैं यहीं पर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं। चार घंटे बाद वापस लौटे, या चार दिन बाद। जितनी जरूरत उसकी तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी है। और मैं जानता हूं तुम मेरे पास जल्दी ही आओगे।" कहने के साथ ही राजन राव के होंठों पर मुस्कान उभर आई थी।
देवराज चौहान ने उसे गहरी निगाहों से देखा फिर पलटकर बाहर निकल गया।
■■■
रात के नौ बज रहे थे।
होटल के उस छोटे-से कमरे में चुप्पी-सी छाई हुई थी। कुर्सी पर बैठे देवराज चौहान के हाथ की उंगलियों में सुलगती सिगरेट फंसी थी। सामने टेबल पर राजन राव की दी हुई तस्वीर पड़ी थी, जिसे जगमोहन कई बार देख चुका था। जगमोहन सब कुछ जान चुका था कि क्या हुआ? आखिरकार जगमोहन ने ही खामोशी तोड़ी।
"मैंने तो सोचा भी नहीं था कि गोवा में ऐसी अजीब बातों से पाला पड़ेगा।" जगमोहन के चेहरे पर सोच के भाव थे--- "तुम क्या सोचते हो राजन राव के बारे में, वो किस फेर में है?"
"मैं नहीं जानता, वो किस फेर में है।" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा--- "वो बताना नहीं चाहता कि मदन मेहता की उसे क्यों जरूरत है, वैसे भी अभी तक उसके साथ मेरी खुलकर बात नहीं हो पाई।"
"मुंबई से निकलने के पश्चात अगर हम मेकअप नहीं उतारते तो राजन राव जो भी है, गोवा में तुम्हें पहचान नहीं पाता। ये एक खामखाह का झंझट खड़ा हो गया।"
"मैं इसे झंझट नहीं मानता।"
"क्यों?"
"राजन राव की वजह से मैं धोखे में से निकला हूं। जैसे मैं मदन मेहता समझ रहा था, वो मदन नहीं बल्कि कोई और है। शायद ये बात मैं नहीं जान पाता, अगर राजन राव न बताता तो।"
"तुम्हारा मतलब कि राजन राव ठीक कह रहा है कि---।"
"हां। तभी मैं इस तस्वीर वाले व्यक्ति से धोखा खा गया। मैं उससे मिला। बात हुई और मैंने पक्के तौर पर कहा कि उसे वास्तव में खांडेकर के मामले का ज्ञान नहीं। पचास करोड़ के बारे में कुछ नहीं जानता। वो वास्तव में कुछ नहीं जानता था, क्योंकि वो मदन मेहता नहीं था। राजन राव इतनी बड़ी बात झूठ नहीं बोल सकता। खासतौर से वो बात जिसका सच-झूठ कभी भी किसी भी वक्त जाना जा सकता है।"
जगमोहन की निगाह टेबल पर पड़ी तस्वीर पर गई।
"तो फिर ये कौन है?"
"ये मदन मेहता की तरफ से मुझसे मिलने आया था। शायद इसलिए कि, जान सके, सुखदेव ने किसे और क्यों नंबर दिया है उसका? मुझसे मिलने वाला मदन मेहता का ही आदमी हो सकता है।" देवराज चौहान एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "जो भी बातें हैं, अब वो सामने आकर ही रहेंगी। तुम अभी ये तस्वीर ले जाओ और अच्छी तरह तसल्ली करो कि तस्वीर देखकर, गोवा में कई लोग इसे पहचान जाएंगे।"
जगमोहन के आगे बढ़कर, टेबल से तस्वीर उठायी।
"पूछताछ के दौरान रेस्टोरेंट ऑफ माईकल की तरफ मत जाना। खामोशी से सब कुछ जानना।"
"ठीक है।" जगमोहन तस्वीर जेब में डालते हुए बोला--- "राजन राव ने तुम्हें आसानी से आने दिया। मेरे ख्याल में उसके आदमी हम लोगों की हरकतों पर अवश्य नजर रखेंगे।"
"रखने दो। हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।" देवराज चौहान ने कहा--- "कोशिश करना कि कोई शोर-शराबा न हो। हम गोवा में अपने ऊपर लगे दाग को हटाने आए हैं, शोर-शराबा होना, हमारे हक में ठीक नहीं होगा।"
"समझ गया।"
"राजन राव का कहना है कि हम चाहकर भी मदन मेहता तक नहीं पहुंच सकते। और वो हमें उस तक पहुंचा सकता है। मदन मेहता के बारे में हर तरह की जानकारी मालूम करो। उस तक पहुंचना हो तो कैसे पहुंचा जा सकता है? कहां मिला जा सकता है?" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मदन मेहता के मामले में मैं चाहता हूं, कि राजन राव से कोई सहायता नहीं लेनी पड़े तो ज्यादा बेहतर होगा।"
"मैं सब कुछ मालूम करके आता हूं।" जगमोहन ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा।
"आज मैं इस तस्वीर वाले से मिला था। हो सकता है इसका कोई आदमी मुझ पर नजर रख रहा हो। दिन में तो मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। क्योंकि तब मैंने यही सोचा था कि मेरी मुलाकात मदन से हो चुकी है। लेकिन अब सोचने पर लगता है कि हो सकता है इसने अपना कोई आदमी मेरे पीछे कर दिया हो। ऐसा हुआ तो तुम भी निगाहों में आ चुके हो। जब इन्हें पता चलेगा कि तुम तस्वीर वाले या मदन मेहता के बारे में जानकारी पाने की चेष्टा में हो तो उस स्थिति में वो लोग तुम्हारे साथ कुछ करने की चेष्टा कर सकते हैं।"
"इस बारे में मैं सावधान रहूंगा।" कहने के साथ ही जगमोहन कमरे से बाहर निकलता चला गया।
सोचों में डूबे देवराज चौहान में सिगरेट समाप्त की और बाथरूम में प्रवेश कर गया। नहा-धोकर बाहर आया और रूम सर्विस को डिनर के लिए इंटरकॉम पर कहा। वो मदन मेहता के लिए गोवा आया था और उससे कभी नहीं मिल पाया था। बात वहीं के वहीं थी। स्पष्ट था कि वो किसी ऐसी जगह छिप चुका है, जहां से बाहर निकलना वो कठिन नहीं समझ रहा। या फिर मदन मेहता को मालूम हो चुका है वो, उसकी तलाश में गोवा आ पहुंचा है।"
■■■
आधी रात के ढाई बज रहे थे, जब जगमोहन वापस पहुंचा। बैड पर अधलेटा देवराज चौहान, उसके इंतजार में सिगरेट के कश ले रहा था।
देवराज चौहान ने जगमोहन के चेहरे पर गंभीरता के भाव महसूस किए।
"कुछ पता लगा?"
"बहुत कुछ?" जगमोहन कुर्सी को बैड के पास खींचकर, बैठता हुआ कह उठा।
देवराज चौहान की निगाह जगमोहन पर जा टिकी।
जगमोहन ने जेब से तस्वीर निकालकर बैड पर रखते हुए कहा।
"ये गोवा में ब्रिंगेजा के नाम से जाना जाता है। और ये गोवा के उन पांच-सात लोगों में है, जिनकी दहशत यहां जर्रे-जर्रे में मौजूद है। ब्रिंगेजा लगभग हर काम में एक्सपर्ट है। पुलिस पर भी इसका खौफ है। इसे खतरनाक हत्यारा माना जाता है। किसी की जान लेने में इसे महारथ हासिल है। ब्रिंगेजा पर अगर कोई काबू हो सकता है तो वो सिर्फ मदन मेहता ही है।"
"मदन मेहता का क्या लगता है ये?" देवराज चौहान ने पूछा।
"कुछ भी नहीं लगता और बहुत कुछ लगता है।" जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा--- "पिछले पांच सालों में दो बार ऐसा इत्तेफाक होगा कि ब्रिंगेजा को दूसरी पार्टी के लोगों ने घेर लिया। एक बार तो इत्तेफाक से मदन मेहता वहां पहुंच गया और अपनी जान की परवाह न करके ब्रिंगेजा का साथ देकर, उसकी जान बचाई। ये इन दोनों के बीच दोस्ती का पहला कदम था। दूसरी बार, दो साल पहले रात को नाइट क्लब में मदन मेहता और ब्रिंगेजा व्हिस्की-बियर ले रहे थे कि ब्रिंगेजा के दुश्मनों ने उसकी जान लेने की कोशिश की। ब्रिंगेजा को बचाने के लिए मदन मेहता ने अपनी पूरी हिम्मत लगा दी। उस पर हमला करने वाले चारों के चारों आदमियों को मार दिया और हाथों-हाथ लाशें गायब कर दीं। सब कुछ ठीक कर दिया। पुलिस को मालूम होते हुए भी, इस मामले में आंखें मूंद लीं। इसके बाद दोनों जी-जान से एक-दूसरे के काम आते हैं। यानी कि मदन मेहता पर हाथ डालने से पहले ब्रिंगेजा से निपटना पड़ेगा और ब्रिंगेजा से तुम मिल भी चुकी हो कि वह कैसा इंसान है।"
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गये।
"अब मदन मेहता का मामला कुछ-कुछ समझ में आ रहा है।" देवराज चौहान बोला--- "और मदन मेहता के बारे में क्या मालूम किया?"
"वो तो और भी पहुंची हुई चीज है।" जगमोहन ने गहरी सांस ली।
"कैसे?"
क्षणिक रुककर जगमोहन कह उठा।
"मदन मेहता का दादा कभी हरियाणा से गोवा आया था और फिर गोवा में बस गया। यह अस्सी-नब्बे साल पहले की बात है। यहीं पर उसने मछुआरों की लड़की से शादी कर ली और धीरे-धीरे अपने बढ़ते परिवार के साथ वो पूरी तरह गोवानी बनता चला गया। उसके बच्चे हुए, जो कि पक्के गोवा के ही बन गए। बच्चे बड़े हो गए। धंधा मछली पकड़ने का ही रहा। मदन मेहता के दादा ने तो इसी तरह जिंदगी बिता दी। बच्चे मछली पकड़ने के साथ-साथ समुंदर तट में तस्करी भी करने लग। उनकी शादियां भी हो गईं। बच्चे भी हो गए। पुरानी पीढ़ी समाप्त होती चली गई। नई पीढ़ी के अपने रंग-ढंग चलने लगे। औलादें तस्करी में लग चुकी थीं। इसलिए वे पुलिस की निगाहों में आ चुके थे और फिर एक-एक करके वे यदा-कदा पुलिस की गोलियों का शिकार होकर खत्म हो गए। तब तक मदन मेहता पन्द्रह बरस का हो चुका था। उसके परिवार में औरतें या फिर एक चाचा जिंदा है जो कि इस वक्त जेल में, तस्करी और हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा काट रहा है। इन तीन पीढ़ियों के साथ ही मेहता परिवार का मछुआरों की बस्ती में पूरी तरह धाक जम चुकी थी। इस परिवार ने मछुआरों को कई सरकारी सुविधाएं दिलवाईं। कुल मिलाकर, मेहता परिवार मछुआरों की बस्ती में खास ही अहमियत रखता है। बस्ती पर आने वाली मुसीबतों को मेहता परिवार ही निपटता है। मछुआरों की वो बस्ती जो कभी छोटी-सी थी। अब वो गोवा की सबसे पुरानी और एक मील लंबी-चौड़ी बस्ती है। वो बस्ती मेहता के लिए सबसे सुरक्षित जगह है। कोई आम आदमी तो क्या, पुलिस भी उस बस्ती में जाकर मेहता तक नहीं पहुंच सकती, क्योंकि मेहता को सारे मछुआरे मानते हैं। उसकी इज्जत करते हैं और डरते भी हैं। कुल मिलाकर मेहता तक तब तक पहुंचना असंभव है, जब तक कि वो बस्ती में हो और बस्ती में कब कहां होता है, यह बात यदा-कदा बस्ती वाले भी नहीं जान पाते।"
जगमोहन कहते-कहते रुका।
देवराज चौहान की निगाह, जगमोहन पर ही थी।
"मदन मेहता पर हाथ डालने के लिए बस्ती में नहीं जाया जा सकता। जरा भी बात खुल गई तो जाने जाने का पूरा खतरा है। वैसे मछुआरों की बस्ती के लोग किसी बाहरी व्यक्ति को बस्ती के भीतरी हिस्से में देखना पसंद नहीं करते। बस्ती के शुरू में ही मछली का बाजार लगता है। आमतौर पर बाहरी व्यक्ति वहीं से मछली खरीदकर वापस चले जाते हैं। बाहरी व्यक्ति को बस्ती में प्रवेश करने पर शक की निगाहों से देखा जाता है।"
"शक भरी निगाहों से देखने की वजह?" देवराज चौहान ने पूछा।
"इसलिए कि बस्ती के मछुआरे, समंदर से तस्करी का सामान लाते हैं। सामान को बस्ती में छिपाकर लाते हैं, और माल को आगे सप्लाई करके मोटा नावां कमाते हैं। मछुआरे, अपराधियों को पनाह देकर पुलिस या किसी और को बचाकर बदले में तगड़ा पैसा लेते है। यानी कि कहने को तो वो मछुआरों की बस्ती है। लेकिन हर तरह का गैरकानूनी काम वहां होता है। पुलिस ये सब जानती है और कम ही वहां दखल दे पाती है। जरूरत पड़ने पर पुलिस मछुआरों की बस्ती में जाती भी है तो वहां के लोगों से सहयोग न मिलने की वजह से पुलिस को असफल ही लौटना पड़ता है। ऐसे में मछुआरों की बस्ती में मौजूद वहां के खास आदमी मदन मेहता पर हाथ डालना, उसे तलाश करना, उसे पकड़ना संभव नहीं लगता। किसी से मदन के बारे में पूछते ही मुसीबत में पड़ने वाली बात हो जाएगी।"
देवराज चौहान सोच भरी निगाहों से जगमोहन को देखता रहा।
"क्या हुआ?"
"कुछ नहीं।" देवराज चौहान ने कहा--- "तुमने जो बताया है उसे देखते हुए मदन मेहता तक पहुंचना आसान काम नहीं। जबकि हमें उसकी सख्त जरूरत है। वो खांडेकर की पत्नी, अंग्रेज सिंह और सुधाकर बल्ली की हत्या करके वहां जा छिपा है। उसे वहां से निकाले बिना हमारा काम नहीं बनेगा।"
"कोई तो रास्ता होगा ही मदन मेहता को वहां से बाहर निकालकर, उसे गिरफ्त में लेने का। कोई तो ऐसी चीज होगी ही जिसके लालच में वो बाहर निकल सकता है।" जगमोहन बोला।
"कह नहीं सकता।" देवराज चौहान बैड से उठा और टहलने लगा--- "इस वक्त तो सिर्फ एक ही रास्ता है राजन राव जिसका कहना है कि वो मुझे मदन मेहता तक पहुंचा सकता है, परन्तु इस मामले में मैं उसे नहीं लाना चाहता।"
"मैं खुद ही रास्ता निकालूंगा, मदन मेहता तक पहुंचने का।" देवराज चौहान के स्वर में सोच के भाव थे--- "तुम सुबह दुकानें खुलने पर मेकअप का सामान ले आना। कल हम रेस्टोरेंट ऑफ माईकल में जाएंगे। मदन तक पहुंचने का रास्ता वहीं से मिल सकता है। मदन मेहता वहां का फोन नंबर इस्तेमाल करता है तो वहां से उसकी कोई कमजोरी हासिल करके आगे बढ़ा जा सकता है।"
"रेस्टोरेंट ऑफ माईकल से मदन मेहता तक पहुंचने का रास्ता मिलना आसान नहीं।" जगमोहन ने सोच भरे स्वर में कहा।
"कोशिश करने में क्या हर्ज है।" देवराज चौहान बोला--- "किसी के पीछा करने का एहसास हुआ?"
"नहीं। मुझे तो ऐसा नहीं लगा कि कोई मेरे पीछे हो।" जगमोहन ने जवाब दिया।
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