बुधवार ।
कत्ल का हल पेश करने के लिए जासूसी उपन्यास अशोक प्रभाकर उर्फ सुशील जैन की बारी का दिन ।
आज अशोक प्रभाकर प्रसिद्धि के जिस शिखर पर पहुंचा हुआ था, उसमें उसको खुद याद रखने में दिक्कत महसूस होती थी कि कभी वो अपने ही प्रकाशक की छपी किताबों का शहर-शहर आर्डर बुक करता फिरने वाला ट्रैवलिंग सेल्समैन होता था जिसने मैट्रिक में दो बार फेल हो जाने के बाद पढाई को हमेशा के लिए अलविदा कह लिया था और हकीकतन जिसमें उपन्यास तो क्या, एक चिट्ठी लिखने की काबलियत नहीं थी । अपनी टूर की नौकरी में उसने इतने उपन्यास पढे थे कि उन्हीं को गड्ड-मड्ड करके उसने खुद एक जासूसी कहानी गढ ली थी और इसे कागज पर उतारने की उसे तब सूझी थी जब एक बार उसकी मौजूदगी में इन्दौर में कर्फ्यू लग गया था और पूरे सात दिन उसे होटल में बन्द रहना पड़ा था । उस जबरदस्ती की गिरफ्तारी से सात ही दिनो में उसने एक जासूसी उपन्यास लिख मारा था जिसे पढ-पढकर कितना ही अरसा वो खुद ही खुश होता रहा था । फिर उन्हीं दिनों उसके एम्पलायर प्रकाशक का अपने उस लेखक से झगड़ा हो गया था जो कि अशोक प्रभाकर के छद्म नाम से उसके लिए उपन्यास लिखता था । प्रकाशक को उस नाम से उपन्यास छापने के लिए एक स्क्रिप्ट की तत्काल जरूरत थी । तब सुशील जैन ने डरते-डरते उसे बताया था किे उसने एक उपन्यास लिखा था । प्रकाशक ने वो उपन्यास पढा था और अपनी वक्ती जरूरत को पूरी करने के लिये उसे छपने के लिये दे दिया था । तब तक अशोक प्रभाकर के नाम से वो प्रकाशक दस उपन्यास छाप चुका था, वो ग्यारहवां उपन्यास छपा तो ऐसा संयोग हुआ कि वो पहले दस उपन्यासों से कहीं ज्यादा पसन्द किया गया ।
प्रकाशक ने उसे और उपन्यास लिखने को कहा ।
सुशील जैन ने पांच उपन्यास और लिखे तो अशोक प्रभाकर की सर्कुलेशन तीन गुणा बढ गयी ।
नतीजतन प्रकाशक ने उसकी सेल्समैन की नौकरी छुड़वा दी ।
पांच और उपन्यास छपे तो पॉकेट बुक्स ट्रेड में अशोक प्रभाकर अशोक प्रभाकर होने लगा ।
तब अगले ही उपन्यास पर अशोक प्रभाकर के नाम के साथ उसकी तस्वीर छपी और सुशील जैन स्थायी रूप से अशोक प्रभाकर बन गया । तब उसने महसूस किया कि अगर उसने उस धन्धे में ही रहना था तो उसे और मेहनत करनी चाहिये थी । मेहनत के नाम पर जो पहला काम उसने किया वो ये था कि अंग्रेजी और उर्दू जुबानें सीखीं और भारत में सरेआम उपलब्ध इंगलिश के जासूसी उपन्यास टैक्स्ट बुक वाली निष्ठा के साथ चाटने शुरू किये और उन्हीं की कहानियों को तोड़-मरोड़ कर मिस्त्रीगिरी के ऐसे-ऐसे कारनामे दिखाये कि एक दिन सुशील जैन नाम का स्कूल ड्राप-आउट, भूतपूर्व ट्रैवलिंग सेल्समैन, विख्यात जासूसी उपन्यासकार अशोक प्रभाकर बन गया । आज वो एयरकंडीशन्ड गाड़ी में घूमता था, एयरकंडीशन्ड आफिस में बैठ कर उपन्यास लिखता था, एक - उससे कहीं ज्यादा काबिल, हिन्दी में एम. ए. - लेखक उसकी भाषा - की गलतियां सुधारता था तो एक अन्य लेखक उसे जासूसी के नये-नये कारनामे और जासूसी के नये-नये तरीके सुझाता था और एक निहायत काबिल टाइपिस्ट इलैक्ट्रिक टाइपराइटर पर तीन लेखकों के सामूहिक प्रयत्नों को कागज पर सजाकर स्क्रिप्ट तैयार करती थी तो अशोक प्रभाकर का उपन्यास बनता था ।
“साहबान” - अशोक प्रभाकर ने अपना आख्यान आरम्भ किया - “आप जानते हैं कि मैं जासूसी उपन्यासकार हूं और मेरे जासूसी उपन्यासों की ये एक ट्रेडीशन रही है कि उनका अन्त बहुत चौंका देने वाला होता है । अमूमन उनमें हत्यारा वो शख्स निकलता है जिसके हत्यारा होने की सबसे कम सम्भावना होती है । मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मौजूदा केस में भी मैं अपनी इस ट्रेडीशन को बरकरार रखके दिखा पाता लेकिन कल मैजिस्ट्रेट साहिबा ने बहुत काबिलेतारीफ हल प्रस्तुत करके मेरी बुनियाद हिला दी । अब मेरी समझ में नहीं आ रहा कि कैसे मैं एडवोकेट दासानी साहब से ज्यादा असम्भावित हत्यारा पेश करने में कामयाब हो पाऊंगा ! कल छाया जी ने जो कमाल का क्लाइमैक्स प्रस्तुत किया, मेरी राय में उसके जेरेसाया अब इस महफिल में जो कुछ भी कहा जायेगा वो एण्टीक्लाइमैक्स ही होगा । इस का मतलब आप ये न लगाइयेगा कि मैंने केस का हल तलाशने के लिये भरपूर कोशिश और मेहनत नहीं की होगी । मैंने अपने तरीके से केस को स्टडी किया है, उस पर भरपूर मेहनत की है और जो नतीजा निकला है, यकीन जानिये, उसने मुझे भी कम हैरान नहीं किया है लेकिन मैं फिर कहता हूं कि छाया जी के आलादिमाग से निकले आला हल का मुकाबला मैं किसी सूरत में नहीं कर सकता ।”
“आपको” - छाया बोली - “केस का हल तलाश करने के लिये कोई मेहनत या कोशिश अब करने की क्या जरूरत थी ? बकौल आपके, आपको तो केस के हल या हल को हाइलाइट करती हुई थ्योरी सूझ भी चुकी थी । वो भी तब जब कि अभी आपने इन्स्पेक्टर राजोरिया की जुबानी केस की डिटेल्स भी नहीं सुनी थीं ?”
“बजा फरमाया आपने, मैडम । आप बात को यूं समझ लीजिये कि जो मेहनत मैंने गुजश्ता दिनों में की, वो मैंने अपनी उपलब्ध थ्योरी को पालिश करके चमकाने और उस पर फुंदने लगाने के लिये की ।”
“मैं बात को यूं समझ लूं ? यानी कि हकीकतन बात यूं नहीं है ?”
“है तो बात यूं ही लेकिन... वो क्या है कि मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ है कि कचालू उगाते-उगाते अरबी उग आयी है और खामखाह उग आयी चीज, यानी कि अरबी, मुझे उस चीज से ज्यादा पसन्द आने लगी है जो कि मैंने असल में उगानी चाही थी, यानी कि कचालू ।”
छाया के चेहरे पर उलझन के भाव आये ।
“या यूं कह लिजिये कि औलाद का मुंह देखने की ख्वाहिशमन्द मां को अगर जुड़वा बच्चे हासिल हो जायें तो एक को पास रखकर वो दूसरे को तिलांजलि नहीं दे सकती ।”
“मिस्टर प्रभाकर” - छाया तनिक तिक्त स्वर में बोली - “कोई ऐसी जुबान बोलिये जो मेरी समझ में आ सके ।”
“मुझे लगता है” - सभापति आगाशे बोला - “कि आपकी ये बातें हम सभी के सिर के ऊपर से गुजरी जा रही हैं ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“फिर तो मुझे मिसाल देना छोड़कर अपनी थ्योरी पर आना चाहिये ।”
“यही बेहतर होगा ।”
“तो सुनिये ।”
वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मेरे हल का शुरुआती नुक्ता जहर है । मेरा सबसे ज्यादा ध्यान इसी बात ने आकर्षित किया था कि कत्ल के लिये नाइट्रोबेंजीन जैसे गैरमामूली जहर का इस्तेमाल किया गया था । मुझे ये बात सबसे ज्यादा अहम लगी थी । कोई किसी की जान लेने के लिये बतौर हथियार जहर के बारे में सोचे तो नाइट्रोबेंजीन का तो उसे आखिर तक ख्याल नहीं आने वाला । बीस साल से मैं जासूसी उपन्यास लिख रहा हूं और इस दौरान मैंने कुल जहान के जहरों के बारे में पढ़ा है, सैकड़ों की तादाद में मैंने ऐसे कत्लों के सच्चे किस्से पढे हैं, जिनमें कातिल ने जहर के जरिये कत्ल किये थे लेकिन एक भी ऐसा इत्तफाक मेरे साथ नहीं हुआ जबकि मैंने बतौर जहर कहीं नाइट्रोबेंजीन का जिक्र पढ़ा हो । एकाध ऐसा वाकया तो सामने आया था जब कि कोई गलती से नाइट्रोबेंजीन पी गया था और मर गया था, नाइट्रोबेंजीन पीकर खुदकुशी करने की भी एकाध मिसाल मेरी निगाहों से गुजरी है लेकिन कत्ल की ऐसी एक भी मिसाल से मैं वाकिफ नहीं जिसमें बतौर जहर नाइट्रोबेंजीन का इस्तेमाल हुआ हो । मुझे हैरानी है कि मेरे से पहले अपना हल पेश कर चुके दोनों मेम्बरान में से किसी की भी तवज्जो इतनी अहम बात की तरफ नहीं गयी । इससे ताल्लुक रखती और भी दिलचस्प और काबिलेगौर बात ये है कि आम लोगबाग तो वाकिफ भी नहीं इस हकीकत से कि नाइट्रोबेंजीन जहर होता है । और तो और, जहरों की कारोबारी जानकारी रखने वाले लोग नहीं जानते ये बात । मैंने एक शख्स से बात की थी जो कि कैमिस्ट्री में एम.एस.सी. है और रिसर्च स्कालर है । साहबान, वो तक बतौर जहर नाइट्रोबेंजीन के नाम से नावाकिफ था । उससे बातचीत का ये दिलचस्प नतीजा सामने आया था कि नाइट्रोबेंजीन के बारे में उससे ज्यादा तो मैं जानता था । जब कि वो स्पैशलिस्ट था । कमर्शियल कैमिस्टों के जाने-पहचाने जहरों की लिस्ट तक में इसका नाम नहीं आता । और ऐसी लिस्ट को आप छोटी-मोटी न समझियेगा । सैकड़ों की तादाड में एन्ट्रीज थी उसमें ।”
“वैरी इन्टरेस्टिंग ।” - आगाशे बोला ।
“हकीकत ये इन्डस्ट्रियल यूज वाली आइटम है और इसका मेजर इस्तेमाल डाई एण्ड कैमिकल इन्डस्ट्री में ही है । डाई के बाद इसका इस्तेमाल कन्फेक्शनरी में है और उसके बाद थोड़ा-बहुत परफ्यूमरी में । इसके मेजर इस्तेमाल यही हैं, साहबान । इनके अलावा कुछ छोटे-मोटे इस्तेमाल और हो सकते हैं जिनकी मुझे खबर नहीं । बहरहाल अहम बात, जिसका कि यहां जिक्र जरूरी है, ये है कि ये एक आम आइटम है जो आम हासिल है । न सिर्फ आम हासिल है बल्कि इसे खुद बना लेना भी मामूली काम है । कैमिस्ट्री पढने वाला स्कूल का विद्यार्थी भी जानता है कि नाइट्रिक एसिड में बेंजोल डाली जाये तो नाइट्रोबेंजीन बन जाती है । कोई खास आला या औजार तक दरकार नहीं होता इस काम के लिये । लैबोरेट्री या कैमिकल प्लान्ट जैसी किसी खास जगह की भी जरूरत नहीं इसलिये इसको बनाने की प्रक्रिया को बड़ी सहूलियत से गुप्त रखा जा सकता है । बनाने के लिए किसी स्पेशलाइज्ड कैमीकल नालेज की जरूरत नहीं, मामूली कामचलाऊ ज्ञान ही काफी साबित हो सकता है । कहने का मतलब ये है कि नाइट्रोबेंजीन को हासिल कर लेना या इसे खुद बना लेना दोनों ही निहायत मामूली काम हैं ।”
“मिस्टर प्रभाकर” - रुचिका केजरीवाल तनिक नाक चढा कर बोली - “अभी तक आपने नाइट्रोबेंजीन पर अकैडमिक लैक्चर देने के अलावा कुछ नहीं किया है ।”
“मैं इस बात पर जोर देने की कोशिश कर रहा हूं, मिस कैजरीवाल, कि ये इस केस का इकलौता ओरीजिनल पहलू है और सबसे ज्यादा अहम सबूत है ।”
“बहुत जोर हो गया । यूं समझ लीजिये इस बाबत आपने जो कुछ कहा, वो कील की तरह हमारे दिमागों में ठुक चुका है ।”
“आलराइट । आगे मेरा ये कहना है कि मामूली कैमिकल नालेज रखने वाला शख्स जिन लोगों में से कोई हो सकता है वो हैं लैबोरेट्री असिस्टैंट, कम्पाउन्डर, फैक्ट्री वर्कर, नर्स या नर्सिंग स्टुडेंट और स्पेशलाइज्ड कैमिकल नालेज रखने वाले जो लोग हो सकते हैं वो हैं इन्डस्ट्रियल कैमिस्ट, डॉक्टर, रिसर्च स्कालर वगैरह । मेरे लिहाज से केस के हल की एक जरूरत ये भी है कि हत्यारा अपराधशास्त्र का ज्ञाता हो या अपराध से दो चार होना जिसके कारोबार का हिस्सा हो । ये बात मैंने ऐन छाया जी के कल के बयान में से दोहराई है और ये खुद ऐसी महिला हैं ।”
“क्या मतलब ?” - वो तीखे स्वर में बोली ।
“आप मैजिस्ट्रेट हैं इसलिये अपराधशास्त्र की आप ज्ञाता भी हैं और अपराध से दो चार होना आपके कारोबार का हिस्सा भी है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“कुछ भी नहीं हुआ । मैंने तो महज एक मिसाल दी है ।”
“लेकिन ऐसी पर्सनलाइज्ड मिसाल...”
“किसी बदनीयती से नहीं दी गयी । यकीन जानिये ।”
“फिर भी...”
“मिसाल के तौर पर पर भी आपको अपने नाम का जिक्र बुरा लगा तो मैं माफी चाहता हूं ।”
“नैवर माइन्ड ।”
“हां तो मैं कह रहा था कि मैं छाया जी को इस बात से सहमत हूं कि कातिल का अपराध विज्ञान से किसी-न-किसी रूप से वास्ता होना चाहिये । सच पूछिये तो आपके द्वारा इस बात का जिक्र किये जाने से बहुत पहले मैं इस नतीजे पर पहुंच चुका था । अब किसी फैक्ट्री वर्कर या कम्पाउन्डर या लैबोरेट्री असिस्टैंट या नर्स या इन्डस्ट्रियल कैमिस्ट या डाक्टर या रिसर्च स्कालर का अपराध विज्ञान से कोई वास्ता सीधे-सीधे तो समझ में नहीं आता लेकिन ऐन इससे उलट हो सकता है । ये हो सकता है कि कोई क्रिमिनालोजिस्ट ही टैक्सीकालोजिस्ट भी हो अर्थात कोई अपराधविज्ञान का ज्ञाता ही विषविज्ञान का भी ज्ञाता हो । यहां मैं ये कहना चाहता हूं, साहबान, कि विषविज्ञान का काम चलाऊ ज्ञाता बनना किसी के लिए कोई मुश्किल काम नहीं । विषविज्ञान विश्वकोष नाम की इस विषय पर एक प्रमाणिक पुस्तक बाजार में आम उपलब्ध है और ये इकलौती पुस्तक ही सारे संसार में प्रचलित तमाम विषों की मुकम्मल जानकारी प्रस्तुत करती है । ये पुस्तक इतनी प्रसिद्ध है कि अपराधविज्ञान में रुचि रखने वाले लोग जैसे जज, वकील, पुलिस अधिकारी, क्राइम रिपोर्टर्स, मिस्ट्री राइटर्स, इसे डिक्शनरी की तरह अपने पास रखते हैं । मैंने इस पुस्तक को ऐसे कई लोगों के बुकशैल्फों की शोभा बढाते देखा है । खुद मेरे पास भी इस पुस्तक की एक प्रति उपलब्ध है ।”
“आप ये कहना चाहते हैं” - छाया बोली - “कि जिस किसी ने भी कत्ल का सामान करने के लिये वो जहरभरी चाकलेटें तैयार की थीं, उसके पास विषविज्ञान विश्वकोष की एक प्रति जरूर होनी चाहिये ।”
“जरूर होनी चाहिये तो मैं नहीं कहता । अलबत्ता ऐसी सम्भावना पूरी-पूरी है ।”
“उसमें नाइट्रोबेंजीन का जिक्र है ?”
“जी हां, है । उसमें जहां पोटेशियम सायनाइड का जिक्र है उससे अगले ही पृष्ठ पर नाइट्रोबेंजीन का जिक्र है ।”
“आई सी ।”
“जनाब” - अभिजीत घोष आदतन संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “आपका मतलब है कि अपनी करतूत को अंजाम देने के लिये कातिल जब उस किताब में कोई माकूल जहर तलाश कर रहा होगा तो इत्तफाक से ही उसकी निगाह नाइट्रोबेंजीन पर पड़ गयी होगी ।”
“मैं ऐसा ही कुछ कहना चाहता हूं ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “इसीलिये इस बात पर जोर दे रहा हूं कि कातिल के पास विषविज्ञान विश्वकोष उपलब्श होना चाहिये । नाइट्रोबेंजीन कोई प्रचलित जहर होता तो मैं ऐसा न कहता । कातिल को ऐसी कोई किताब ही एजूकेट कर सकती थी ऐसे जहर के बारे में, बतौर जहर किसी आम निशाख्त तक नहीं है ।”
“नाइट्रोबेंजीन पर” - रुचिका बोली - “इतना ज्यादा जोर देकर क्या आप ये कहना चाहते हैं कि इस एक इकलौते क्लू के सदके ही आपने केस को हल कर लिया है ?”
“ऐसा तो नहीं है, मैडम । नाइट्रोबेंजीन पर मेरा जोर तो इस बात को हाइलाइट करने के लिये है कि इस केस का यही इकलौता ओरीजिनल फीचर है । अपने आप में ये केस का हल प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं है । लेकिन कुछ और बातों को साथ जोड़ने से जो नतीजा सामने आता है, वो काफी संतोषजनक है । या यूं कह लीजिये कि किसी व्यक्तिविशेष पर शक की बुनियाद अगर पहले से हो तो ये फीचर शक को हकीकत में बदलने में बहुत अहम रोल अदा कर सकता है ।”
“हूं ।”
“आप बरायमेहरबानी नाइट्रोबेंजीन की बाबत मेरे बयान को एक अलग इकाई की तरह देखने की जगह इसे कत्ल की मूलयोजना के साथ जोड़कर इस पर गौर फरमायें । ऐसा करने पर जो पहला ख्याल जेहन में उतरता है वो ये है कि अपराध किसी अनपढ आदमी का काम नहीं हो सकता । उच्चशिक्षाप्राप्त चाहे वो न हो लेकिन उसका गुजारेलायक पढा-लिखा होना जरूरी है । इतना पढा-लिखा होना तो बहुत ही जरूरी है कि वो विषविज्ञान विश्वकोष जैसे ग्रन्थ को पढ सके और उसमें निहित जानकारी को समझ सके । यूं पढा-लिखा होने के साथ-साथ उसके सूझ-बूझ होने वाला होने का भी इशारा मिलता है । यानी कि मेरा अपराधी वो शख्स है जो पढा-लिखा है, समझदार है । क्रिमिनालोजी (अपराध विज्ञान) और टैक्सीकालोजी (विषविज्ञान) की समझ रखता है और जिसके अधिकार में विषविज्ञान विश्वकोष नामक ग्रंथ की एक प्रति है । ये वो नतीजा है जिस पर मैं इस आधार पर पहुंचा हूं कि अपराधी ने नाइट्रोबेंजीन जैसा गैरमामूली जहर अपनी करतूत के लिये चुना ।”
“वैरी ड्रन्टरेस्टिंग !” - आगाशे बोला - “वैरी इन्टरेस्टिंग इनडीड !”
“कत्ल की थ्योरी क्या है आपकी ?” - रुचिका बेसब्रेपन से बोला - “है भी कोई थ्योरी आपके पास ?”
“है तो सही ।” - अशोक प्रभाकर मुस्कराता हुआ बोला - “न होने जैसी नाउम्मीदी तो आपको मेरे से नहीं होनी चाहिये ।”
“क्या है थ्योरी आपकी ?”
“अभी पेश होती है । लेकिन बरायमेहरबानी मुझे बात को अपने तरीके से, अपनी तरतीब से कहने दीजिये ।”
“ठीक है, ऐसे ही सही ।”
“नाइट्रोबेंजीन के बारे में अपनी राय, जो कि मैंने अभी बयान की, बना लेने के बाद मैंने अन्य उपलब्ध सूत्रों का अध्ययन किया । ऐसे सूत्रों में से सबसे पहले मैंने चाकलेटों के साथ आयी जाली चिट्ठी को चुना जो कि जहर के बाद दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्लू थी । उस चिट्ठी के लेटरहैड ने मेरा ध्यान बहुत आकर्षित किया अपनी तरफ । मेरा दिल गवाही देने लगा कि प्रसिद्ध चाकलेट निर्मात्री कम्पनी होने के अलावा किसी और सन्दर्भ में भी मैं सोराबजी एण्ड संस के नाम से परिचित था ।”
“और किस सन्दर्भ में ?” - दासानी बोला ।
“मैं बताता हूं । आखिरकार याद आया मुझे वो सन्दर्भ । वो सन्दर्भ ये था कि मेरी भतीजी ने, जो कि स्टेनो टाइपिस्ट है, कुछ अरसा सोराबजी एण्ड संस में नौकरी की थी । कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर की सैक्रेट्री शादी कर के हनीमून मनाने चली गयी थी जिसकी जगह लीव वैकेन्सी पर कोई दो महीने मेरी भतीजी ने सैक्रेटरी टु मैनेजिंग डायरेक्टर के तौर पर सोराबजी एण्ड संस में नौकरी की थी ।”
“ये” - रुचिका बोली - “कब की बात है ?”
“कोई ढाई साल पहले की ।”
“हूं । फिर ?”
“ये बात याद आ जाने के बाद मैंने अपनी भतीजी से बात की । उसकी अब शादी हो चुकी है, वो अब अपने पति के साथ अलग रहती है और एक बैंक में नौकरी करती है । उसे अपनी वहां की संक्षिप्त-सी एम्पलायमैंट की पूरी तरह से याद थी और - जरा ध्यान से सुनियेगा, साहबान - सोराबजी एण्ड कम्पनी के उस एक्सक्लूसिव लेटरहैड का एक पैड, जिसमें कि दस-बारह शीट ही बाकी रह गयी थीं, अभी भी उसके पास उपलब्ध था ।”
“उसके पास कैसे उपलब्ध था ?” - दासानी हैरानी से बोला ।
“उसके शानदार और एक्सक्लूसिव कागज की वजह से जिसका कि रोब खाकर उन लेटरहैड्स का एक पैड वो घर उठा लायी थी और उस पर से लेटरहैड वाला छपा हुआ हिस्सा फाड़कर वो उस अपनी व्यक्तिगत चिट्ठयां लिखा करती थी ।”
“एक पैड ढाई साल चला ?” - रुचिका बोली ।
“मैंने भी इस बात पर हैरानी जाहिर की थी तो मेरी भतीजी ने बताया था कि वो दो सौ शीट का पैड था और वो कोई दर्जनों की तादाद में चिट्ठयां नहीं लिखती थी ।”
“बहरहाल” - सभापति आगाशे बोला - “उस पुराने लेटरहेड की कुछ शीट आज भी आपकी भतीजी के पास उपलब्ध थीं ?”
“जी हां” - अशोक प्रभाकर बोला - “ऐसे पैड की दस-बारह शीट उसके पास उपलब्ध थीं जो कि छ: महीने से कम्पनी में भी मुकम्मल तौर से खत्म था । इस बात में संशय की कोई गुंजायश नहीं थी कि मेरी भतीजी के पास उपलब्ध वो लेटरहैड ऐन वैसे थे जैसों में एक पर चाकलेटों के साथ आयी जाली चिट्ठी टाइप की गयी थी । उनके किनारे भी ऐन फर्जी चिट्ठी के कागज की तरह पीले पड़ चुके हुए थे । आखिर ढाई साल से वो कागज उसके पास थे । यूं मेरी ये धारणा भी सच साबित हुई थी कि कम्पनी के किसी मौजूदा या भूतपूर्व कर्मचारी के पास वो लेटरहैड होने की सर्वाधिक सम्भावनायें थीं और इस लिहाज से कम्पनी का कोई ऐसा कर्मचारी ही उस जाली पत्र का लेखक भी हो सकता था । साहबान, तब मुझे पुलिस की ये थ्योरी भी भ्रान्तिपूर्ण लगने लगी कि किसी ने पहले... पहले कत्ल का इरादा किया था, उसकी योजना बनायी थी और फिर बाद में उसके लिये साधन मुहैया किये थे, यानी कि कत्ल की योजना बना चुकने के बाद किसी ने चाकलेटों के साथ भेजने के लिये जाली चिट्ठी तैयार के लिये कहीं से उस लेटरहैड की एक शीट मुहैया की थी । तब मुझे इस बात की सम्भावना ज्यादा लगी कि कातिल के पास वो लेटरहैड पहले से उपलब्ध था और इस संयोग ने ही उसे कत्ल का तरीका सुझाया था । यूं लेटरहैड के माध्यम से कातिल तक पहुंचने की सम्भावनायें बहुत कम होतीं । आप मेरी बात से सहमत हैं, सभापति महोदय ?”
“हां ।” - आगाशे बोला - “और मैं कबूल करता हूं ये आप बहुत दूर की कौड़ी लाये हैं ।”
“थैंक्यू ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “अब आप समझ ही सकते हैं कि लेटरहैड मेरी भतीजी के पास बरामद होना मेरे लिये कितनी भारी परेशानी का बायस बन गया होगा । आखिर स्थापित मान्यतायें ये जो है कि जिस किसी के पास भी वो दुर्लभ लेटरहैड उपलब्ध होगा वही इस मर्डर केस का प्राइम सस्पैक्ट भी माना जायेगा ।”
“ओह !” - आगाशे के चेहरे पर हमदर्दी के भाव आये ।
“इस सन्दर्भ में” - अशोक प्रभाकर आगे बढा - “एक हकीकत और भी थी जिसे मैं नजरअन्दाज नहीं कर सकता था । सोराबजी एण्ड संस में जाने से पहले कुछ महीने मेरी भतीजी ने एक प्राइवेट नर्सिंग होम में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी की थी जहां मैंने एक बार अपनी आंखों उसे ‘विषविज्ञान विश्वकोष’ पढते देखा था ।”
“ओह ! ओह !”
“ऊपर से मेरी भतीजी खूबसूरत है, नौजवान है, आजाद-ख्याल है, थियेटर की एमेच्योर आर्टिस्ट है ।”
“आप ये कहना चाहते हैं” - छाया प्रजापति बोली - “कि आपको अपनी भतीजी पर...”
“जिसका कि” - रुचिका बोली - “आपने अभी तक हमें नाम भी नहीं बताया है ।”
“...कातिल होने का शक है ।”
“आप खुद बताइये” - अशोक प्रभाकर गमगीन स्वर में बोला - “जो हालात मैंने बयान किये हैं, मेरी जगह अगर आप होतीं तो उनकी रू में आप क्या नतीजा निकालतीं ? अपने किसी अजीज पर कौन ऐसे लांछन लगाकर खुश हो सकता है ! मेरी भतीजी की जगह कोई और होता तो मैं खुश होता कि मैंने इतनी सहूलियत से कत्ल का हल खोज निकाला था । लेकिन उन हालात में मैं करता तो क्या करता ?”
कोई कुछ न बोला ।
“साहबान” - अशोक प्रभाकर गम्भीरता से बोला - “मैंने बहुत विचार किया इस समस्या पर । अन्त में मैं इसी नतीजे पर पहुंचा कि रिश्तेदारी के जज्बात को दरकिनार करके मुझे एक नेक और जिम्मेदार शहरी की तरह अपना फर्ज निभाना चाहिये था । नतीजतन अगले दिन मैं फिर अपनी भतीजी के घर गया और उससे साफ-साफ दो टूक पूछा कि क्या उसका दुष्यन्त परमार नाम के शख्स से कोई ताल्लुक था ! था तो कैसा था ! किस हद तक था !”
तत्काल सब श्रोताओं के चेहरों पर उत्सुकता जागी ।
“क्या जवाब मिला ?” - सभापति आगाशे ने जैसे और सबकी उत्सुकता का प्रतिनिधित्व करते हुए सवाल किया ।
“जवाब फौरन यकीन में आ जाने वाला नहीं था । जवाब ये मिला कि वो उस नाम के किसी शख्स से वाकिफ नहीं थी, कि अंजना निगम की मौत की खबर अखबारों में छपने तक उसने कभी वो नाम सुना तक नहीं था ।”
“ओह !” - सभापति के स्वर में निराशा का पुट था ।
“आखिरकार तो यकीन आया आपको अपनी भतीजी की बात पर !” - छाया प्रजापति बोली ।
“आखिरकार आया ।”
“आई सी ।”
“मैंने उससे पूछा कि क्या उसे याद था कि कत्ल की वारदात वाले दिन से पहले दिन वो कहां थी और क्या कर ही थी ! जवाब मिला कि उस रोज सवेरे वो अपने पति के साथ आगरा गयी थी जहां कि वो लोग फतेहाबाद रोड पर स्थित मयूर टूरिस्ट कम्पलैक्स में ठहरे थे और जहां से वो रविवार रात को वापिस दिल्ली लौटे थे ।”
“तसदीक की इन बातों की आपने ?” - रुचिका ने पूछा ।
“जी हां, की । अपना फर्ज मानकर की ।”
“नतीजा क्या निकला ?”
“यही कि मेरी भतीजी सच बोल रही थी । चाकलेटों का पार्सल पोस्ट करने के वक्त तो वो दिल्ली में ही नहीं थी । तब वो वाकई आगरा में थी, इस बात की तसदीक मैंने कई साधनों से खुद की । साहबान, मैं बयान नहीं कर सकता कि वो तसदीक हो जाने पर मैंने कितनी राहत महसूस की ।”
अशोक प्रभाकर देवदासी अंदाज में सिर झुकाये सब कुछ कह रहा था लेकिन एक बार जब उसने सिर उठाया और क्षणभर को उसकी निगाह आगाशे की निगाह से मिली तो आगाशे को मिस्ट्री राइटर की निगाह में एक शैतानी चमक का अहसास हुआ जिसने कि आगाशे को बहुत विचलित किया और ये महसूस करने पर मजबूर किया कि वो मिस्ट्री राइटर खुद भी किसी मिस्ट्री से कम नहीं था ।
“बस !” - प्रयत्क्षत: आगाशे बोला - “खत्म आपका बयान !”
“इतना ही हल है आपके पास इस मर्डर मिस्ट्री का ?” - रुचिका तनिक व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली ।
“जी नहीं” - लेखक तनिक सिर नवाकर बोला - “ये तो कचालू था । अरबी तो अभी मैं पेश करूंगा ।”
“क्या मतलब ?”
“ये तो मेरी पहली कोशिश थी । पहले कोशिश बेकार चली जाने पर मैंने हथियार नहीं डाल दिये थे ।”
“जानकर खुशी हुई ।” - रुचिका शुष्क स्वर में बोली ।
“अपनी पहली कोशिश बेकार जाने के बाद मैंने अपनी तफ्तीश के नतीजों का नये सिरे से विश्लेषण किया और केस के उन पहलुओं पर विचार किया जिन्हें मैंने अपनी पहली कोशिश में नजरअन्दाज कर दिया था । यूं मेरी तवज्जो टाइपराइटर की तरफ गयी, उस लेखनी की तरफ गयी जिससे कि पार्सल के रैपर पर दुष्यन्त परमार का नाम और शिवालिक क्लब का पता लिखा गया था । मैंने इंस्पेक्टर राजोरिया से बात की तो उसने मुझे बताया - वैसे अब ये बात हम छायाजी की जुबानी भी चुन चुके हैं - कि वो चिट्ठी रेमिंगटन-ट्रैवलर के नाम से जाने जाने वाले पोर्टेबल राइपराइटर पर टाइप की गयी थी । रैपर पर पता हौजर-707 के नाम से जाने जाने वाले उस जर्मन साइन पेन से लिखा गया था जिसमें कि हौजर हाईटैक प्वायन्ट नाम की स्याही भरी जाती थी । रैपर में कोई खूबी नहीं थी । उसके बारे में इंस्पेक्टर ने पहले ही सही कहा था कि वो मामूली किस्म का ब्राउन पैकिंग पेपर था और उस पर से किसी प्रकार के फिंगरप्रिंट्स उठाना सम्भव नहीं हो पाया था । यहां मैं बड़े संकोच के साथ ये कबूल करता हूं कि मैं कतई नहीं जानता कि असली डिटेक्टिव केस की कैसे तफ्तीश करते हैं या वो क्लूज को कैसे तलाशते हैं और कैसे केस एनेलाइज करते हैं । जासूसी उपन्यासों में तो ये काम बड़े आसान होते हैं क्योंकि उनमें तो लेखक ने खुद ही निर्धारित करना होता है कि उसने कौन-कौन से क्लू अपने हीरो के, सिर्फ हीरो के, हाथ लगवाने हैं । मौकायेवारदात पर कहां टूटी हुई चूड़ी पायी जानी है, कहां झुमके से निकला हीरा पाया जाना है या कहां व्हीलचेयर के निशान पाये जाने हैं वगैरह । अपनी कहानी की जरूरत के मुताबिक ये सब लेखक निर्धारित करता है और इस बात का खास ख्याल रखता है कि जब उन क्लूज की तलाश का वक्त आये तो उसके हीरो के अलावा बाकी तमाम के तमाम किरदार अंधे साबित हों । वास्तविक जीवन में तो निश्चय ही ऐसा नहीं होता होगा । अब ऐसी तफ्तीश में इस्तेमाल होने वाली असली कार्यप्रणाली की तो मुझे खबर नहीं इसलिए मैंने इस केस की तफ्तीश उसी तरीके से की जिससे कि मेरे जासूसी उपन्यासों का मेरा नायक करता है । कहने का मतलब ये है कि मैंने तमाम उपलब्ध सूत्रों की और तमाम उपलब्ध सबूतों की एक लिस्ट बनायी । मैंने केस से सम्बन्धित व्यक्तियों के बयानों की हाइलाट्स की भी एक लिस्ट बनायी । फिर सारी उपलब्ध सामग्री पर खूब सोच-विचार करके उससे जितने नतीजे निकाले जा सकते थे, मैंने निकाले । ऐसा करते वक्त किसी व्यक्तिविशेष का अक्स मैंने अपने जेहन में नहीं उभरने दिया और यही कोशिश रखी कि तथ्यों से नतीजा निकले न कि नतीजे से तथ्य थोपे जाएं । साहबान, आप मेरी बात समझ रहे हैं न ?”
“आप ये कहना चाहते हैं” - आगाशे बोला - “कि आपने पहले ही ये नहीं सोच लिया कि मिस्टर एक्स के पास या मिस वाई के पास या मिसेज जैड के पास कत्ल का तगड़ा उद्देश्य था, जरूर उसी ने कत्ल किया था और फिर उपलब्ध सबूतों का जबरन उस शख्स से रिश्ता जोड़ना नहीं शुरू कर दिया !”
“ऐग्जैक्टली । ऐसा नहीं किया मैंने ।”
“दैट्स वैरी थाटफुल आफ यू ।” - रुचिका केजरीवाल बोली ।
“थैंक्यू” - अशोक प्रभाकर फिर सिर नवाकर बोला - “आगे मैं अपने किताबी तजुर्बे की बिना पर ही कत्ल के अपराध की बाबत ये जनरल बात कहना चाहता हूं कि मेरी निगाह में कत्ल दो तरह के होते हैं । एक ओपन और दूसरे क्लोज्ड । खुले और बन्द । क्लोज्ड मर्डर मैं उसको कहता हूं जो कि एक सीमित दायरे में गिने-चुने लोगों की मौजूदगी में हो । जैसे घर में कोई पार्टी हो और वहां आमन्त्रित मेहमानों की मौजूदगी में कत्ल हो जिसमें कि कातिल का पार्टी में मौजूद लोगों में से ही कोई होना अवश्यम्भावी होता है । या यहीं की मिसाल लीजिए । यहां इस बन्द कमरे में हम छह जने मौजूद हैं और अब अगर यहां हममें से किसी एक का कत्ल हो जाता है तो ये बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि कातिल बाकी पांच जनों में से ही कोई एक होगा । ऐसे कत्ल को मैं क्लोज्ड मर्डर का दर्जा देता हूं और कत्ल की यही किस्म है जो जासूसी उपन्यासों में सब से ज्यादा जगह पाती है । ओपन मर्डर मैं उस कत्ल को कहता हूं जिसमें ऐसा कतई जरूरी नहीं होता कि कातिल सीमित दायरे में गिने-चुने, जाने-पहचाने या पहचान लिये जाने वाले लोगों में से कोई हो, बल्कि वो सारे इलाके में से कोई हो सकता है, सारे शहर में से कोई हो सकता है, यहां तक कि सारी दुनिया में से कोई हो सकता है । वास्तविक जीवन में होने वाले कत्ल अमूमन इस किस्म के होते हैं । लेकिन गौरतलब बात ये है कि प्रस्तुत केस की हम इन दोनों श्रेणियों में से किसी में भी नहीं रख सकते । पुलिस की निगाह में ये ओपन मर्डर केस है क्योंकि जहरभरी चाकलेटों का पार्सल सारे शहर में से किसी ने भी पोस्ट किया हो सकता है । लेकिन हमारे कल और परसों के पहले दो वक्ताओं का विश्लेषण यह कहता है कि ये क्लोज्ड केस है ।”
लौंगमल दासानी और छाया प्रजापति दोनों के सिर सहमति में हिले ।
“यहां मुख्य मुद्दा कत्ल का उद्देश्य है ।” - अशोक प्रभाकर आगे बढा - “अगर आप कत्ल के पुलिस वाले उद्देश्य से इत्तफाक जाहिर करें कि ये किसी सिरफिरे का, किसी क्रिमिनल ल्यूनैटिक का, किसी होमीसिडल मैनियाक का काम है तो फिर तो इसे ओपन केस ही कहा जायेगा क्योंकि तब दिल्ली शहर की मुकम्मल आबादी में से किसी ने भी, बल्कि बाहर से आए किसी शख्स ने भी, वो पार्सल पोस्ट किया हो सकता है । इसके विपरीत अगर ये कबूल किया जाए कि कत्ल का उद्देश्य जाती अदावत था जो कि किसी की दुष्यन्त परमार से थी तो ये क्लोज्ड केस कहा जाएगा क्योंकि तब कातिल परमार से ही सम्बन्धित कोई व्यक्ति होगा । मैंने ठीक कहा, साहबान ?”
सबने हामी भरी ।
“अब मैं उस पार्सल को पोस्ट करने की प्रक्रिया के बारे में आपको एक दिलचस्प बात बताता हूं । पुलिस की तफ्तीश के मुताबिक वो पार्सल शुक्रवार सोलह नवम्बर की दोपहर को सवा एक से पौने तीन बजे के बीच जनपथ पर इन्डियन आयल की इमारत के सामने के लेटर बाक्स से पोस्ट किया गया था । साहबान, उस रोज उस वक्त वो सारा वक्फा मैं जनपथ पर था । मेरी वहां मौजूदगी के दौरान मैंने कई लोगों को अपनी डाक पोस्ट करने के लिए वो लेटर बाक्स इस्तेमाल करते देखा था । यहां तक कि पौने तीन बजे डाक कलैक्ट करने आया डाक कर्मचारी भी मेरे सामने वहां पहुंचा था...”
“टोकने के लिए माफी चाहती हूं” - छाया बोली - “लेकिन आप वहां क्या कर रहे थे ?”
“कुछ तो कर ही रहा था ।” - अशोक प्रभाकर मुस्कराता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“कुछ ।”
“ऐसा कुछ जिसके लिए वहां डेढ घन्टा मौजूद रहना जरूरी होता है ?”
“उस दिन तो मैं वहां कम ठहरा । मौसम सुहावना हो तो मैंने इससे दुगना टाइम भी वहां गुजारा है ।”
“क्या करने के लिए ?”
“बताना मुनासिब नहीं होगा, मैडम ।”
“फिर भी ?”
“खासतौर से आपको बताना मुनासिब नहीं होगा । आखिर मैजिस्ट्रेट हैं आप । ऊपर से औरत हैं ।”
“आप बताइये । मुझे एतराज नहीं होगा ।”
“मुझे होगा ।”
“ओह, कम आन, मिस्टर । डोंट ट्राई टू मेक ए मिस्ट्री आउट आफ इट ।”
“मैडम, मैं वहां क्या कर रहा था, इसका मौजूदा बहस से कोई रिश्ता नहीं । अहम बात ये है कि मैं वहां था ।”
“क्यों थे ? जवाब न देकर आप न सिर्फ मुझे बल्कि सबको टीज कर रहे हैं ।”
“ये आपसदारी का मामला है, मिस्टर प्रभाकर ।” - आगाशे बोला - “आप बताइए आप वहां क्या कर रहे थे ?”
“बता दूं ?”
“प्लीज !”
“हालांकि जवाब मेरा इमेज खराब करने वाला है ।”
“अब कह भी चुको ।” - छाया चिढकर बोली ।
“और उसे सुनना आपको नागवार गुजर सकता है ।”
“यू डोंट वरी अबाउट मी ।”
“मैंने आपको चेतावनी दे दी है ।”
“मैं उसकी प्राप्ति स्वीकार करती हूं ।”
“मैं वहां नौजवान लड़कियां ताड़ रहा था ।”
“क्या !” - छाया अचकचा कर बोली ।
“वही जो मैंने कहा ।”
छाया के चेहरे पर गहन वितृष्णा के भाव आए । वो तत्काल परे देखने लगी ।
“जनपथ पर ही क्यों ?” - क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल ने सवाल किया ।
“क्योंकि सुहाने मौसम में दोपहर के वक्त वहां ताकने के काबिल खूबसूरत, नौजवान लड़कियां बहुतायत में पायी जाती हैं । मेरा जाती तजुर्बा है ।”
“और ये आपका पसन्दीदा शगल है ?”
“जी हां ।”
“फिर तो मैं आपको जेहनी तौर पर बीमार और इस क्लब की सदस्यता के लिए अयोग्य करार देती हूं ।”
“मुझे इस करार से सख्त एतराज है और मेरी सभापति महोदय से दरख्वास्त है कि मेरे एतराज को नोट किया जाए । ये कहां का इन्साफ है कि पहले एक बात मेरे से जबरन कुबुलवाई जाती है और फिर उसी को मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है ! क्या मैंने वक्त रहते चेतावनी नहीं दी थी कि इस बात को सुनना लेडीज को नागवार गुजर सकता था ?”
“लेकिन...”
“क्या लेकिन ? बोलिये !”
“आप” - रुचिका की जगह उसकी हिमायत लेती हुई छाया बोली - “अपनी बदनीयती यहां भी तो इस्तेमाल करते हो सकते हैं ।”
“मोहतरमा, रुचिका की कहें तो कहें, आपको तो ऐसी शिकायत नहीं होनी चाहिए । आप तो न खूबसूरत हैं, न नौजवान ।”
छाया का चेहरा कानों तक लाल हो गया ।
“आई कैन नाट सिट विद दिस थारोली डिस्गस्टिंग पर्सन” - वो उछलकर खड़ी होती हुई बोली - “आई क्विट ।”
“ओह नो” - तत्काल आगाशे भी उठ खड़ा हुआ और झपटकर उसके करीब पहुंचा - “प्लीज डोंट डू दैट, मैडम । आई बैग आफ यू ।”
“लेकिन ये आदमी...”
“आप पहले बैठ जाइये । मेरी विनती कबूल कीजिए ।”
भुनभुनाती हुई छाया बैठ गयी ।
“थैंक्यू, मैडम, आपने मेरी लाज रख ली ।” - फिर आगाशे प्रभाकर की ओर घूमा और सख्ती से बोला - “मिस्टर प्रभाकर, मैडम से माफी मांगिए ।”
“किस बात की ?”
“अपने बेहूदा व्यवहार की । मैडम पर तौहीन से भरा जुमला कसने की ।”
“ओह ! उस बात की । उस बात की तो मैं दिल से माफी चाहता हूं । मैं शर्मिंदा हूं कि मेरी जुबान फिसल गयी । आई एम सॉरी, मैडम ।”
“जुबान पर काबू रखना सीखिए ।” - छाया तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली ।
“मैं जरूरी सीखूंगा । दरअसल मेरे कारोबार में अहमियत कलम पर काबू की होती है, इसी के अभ्यास में इतनी उम्र गुजर गयी कि जुबान पर काबू करना सीखने की तरफ कभी तवज्जो ही नहीं गयी ।”
छाया ने नाक चढाई ।
“मैडम की शान में जो गुस्ताखी हुई उसके लिए दोबारा माफी मांगते हुए मैं सभापति महोदय से एक सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“क्या ?” - आगाशे सख्त स्वर में बोला ।
“मैडम की शान में जो कुछ मैंने कहा, अगर वो बेहूदा और तौहीनभरा था तो ये जो क्राइम रिपोर्टर साहिबा ने मुझे जेहनी तौर पर बीमार बताया, उसे आप अदब ओर आदाब के कौन-से गज से नापकर माकूल ठहरायेंगे ? क्या ये काबिलेएतराज और सदर साहब के लिए गौरतलब बात नहीं कि मेरी जिस जेहनी कूवत से मुतमईन होकर मुझे इस क्लब की मेम्बरी के काबिल माना गया है, रुचिका जी उसी में नुक्स निकाल रही हैं !”
“आई से सॉरी फार दैट ।” - रुचिका बोली - “लेकिन वो कहना इसलिए जरूरी हुआ कि अगर पुलिस की थ्योरी के मुताबिक ये कत्ल वाकई किसी सिरफिरे आदमी का काम है तो वो आप भी हो सकते हैं ।”
“सिरफिरा ?”
“कातिल ।”
“वो तो मैं हूं ही ।”
“मैंने सिर्फ एक सम्भावना व्यक्ति की थी ।”
“मैं उस संभावना को हकीकत में तब्दील कर रहा हूं ।”
“आप मजाक कर रहे हैं ।”
“लेकिन मैं तो...”
“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - आगाशे हाथ उठाता हुआ बीच में बोल पड़ा - “आई बैग आफ यू । लैट्स रिफ्रेन फ्राम परसनैलिटीज । वुई मुस्ट नाट फारगेट दैट वुई आर आल फैलो मेम्बर्स आफ वन फ्रेटर्निटी । वुई आर आल फ्रैंड्स । लैट्स नॉट फारगेट दैट । ओके ?”
सबने हामी भरी ।
“वुई हैव नो होर्ड फीलिंग्स नाओ । ओके !”
सबने - छाया ने लेखक की तरफ आंखे तरेरते हुए - फिर हामी भरी ।
“हां तो, मिस्टर प्रभाकर, आप कह रहे थे !”
“मैं अर्ज कर रहा था” - अशोक प्रभाकर बोला - “कि पार्सल पोस्ट किये जाने के पुलिस द्वारा तसदीकशुदा वक्त के दौरान में जनपथ पर था और मेरे सामने कई लोगों ने उस लेटर बाक्स का इस्तेमाल किया था । उन्हीं में से कोई एक जना असली अपराधी था लेकिन बदकिस्मती से उस घड़ी मैंने किसी को कोई पार्सल पोस्ट करते नहीं देखा । उस लेटर बाक्स में से पौने तीन बजे की डाक में केवल एक ही पार्सल निकला था इसलिये जाहिर है कि अगर मैं किसी को पार्सल पोस्ट करते देख लेता तो मैं इस अनोखे मर्डर केस का चश्मदीद गवाह होता । लेकिन जाहिर है कि खुदा को ये मंजूर नहीं था । खुदा को मिसेज अंजना निगम की मौत ही मंजूर थी ।”
अशोक प्रभाकर ने एक गहरी सांस ली - “बहरहाल बात ओपन और क्लोज्ड मर्डस की हो रही थी । मैंने ये कहा था कि पुलिस की निगाह में ये ओपन केस है लेकिन मेरे से पहले दो वक्ताओं की निगाह में ये क्लोज्ड केस है । हालांकि कोई निश्चित फैसला तो मैं नहीं कर सका था फिर भी बजातेखुद मैं इसे ओपन मर्डर मान कर ही चला था । यूं दुनिया का हर शख्स मेरी निगाह में मर्डर सस्पैक्ट बन जाता है । सारी दुनिया की आबादी क्योंकि मैं नहीं टटोल सकता इसलिये इस दायरे को तंग करने के लिये और उसे प्रैक्टिकल शेप में लाने के लिये मैंने उपलब्ध सूत्रों के आधार पर अपराधी का एक खाका अपने मस्तिष्क में विकसित किया । इस सन्दर्भ में नाइट्रोबेंजीन की बाबत अपनी सोच से मैं आपको वाकिफ करा ही चुका हूं । साथ ही मैंने ये भी कहा कि हत्यारा अनपढ नहीं हो सकता था क्योंकि अनपढ आदमी का तो दुष्यन्त परमार जैसे कलाकार आदमी के सम्पर्क में आना ही सम्भव नहीं था । ऊपर से अनपढ आदमी के ऐसे कामों को अंजाम देने के तरीके बड़े स्थूल होते हैं । कत्ल खंजर घोंपने, या शूट करने या गला घोंटने या किसी ऊंची इमारत से धक्का देने जैसे किसी तरीके से किया गया होता तो ये किसी शिक्षाविहीन व्यक्ति का कारनामा माना जा सकता था ।”
“आप ये कहना चाहते हैं” - आगाशे बोला - “कि कातिल चाहे आलमफाजिल न रहा हो लेकिन वो शिक्षित जरूर था ?”
“जी हां । और वो कोई पेशेवर अपराधी नहीं था ।”
“वो कैसे ?”
“पेशेवर अपराधी छुप के वार नहीं करता । वो अपने शिकार के रूबरू खड़ा होकर उसका कत्ल करता है । डाक से जहरभरी चाकलेटें अपने शिकार को भेजना छुप के वार करने जैसा काम है ।”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“उपलब्ध सूत्रों से अगला स्वाभाविक नतीजा जो मैंने निकाला है वो ये है कि वो शख्स काम को बहुत नफासत से करना पसन्द करता था । कुछ लोग आदतन नीट एण्ड क्लीन होते हैं । ऐसा ही वो शख्स था । बिना फाड़े एक दो नहीं, पन्द्रह चाकलेटों पर से रैपर उतारना, उनमें छेद करके उनमें नपी-तुली मात्रा में जहर भरना, छेद को सफाई से बन्द करना, चाकलेटों को ऐन पहले की ही तरह रैपर में बन्द करना, ये सब हर किसी के बस के काम नहीं । पहले मुझे लगा था कि इस काम को कोई औरत बेहतर अंजाम दे सकती थी लेकिन मैं ये नहीं कह सकता था कि सिर्फ इसलिये ये किसी मर्द का काम नहीं हो सकता था क्योंकि कोई औरत इसे बेहतर अंजाम दे सकती थी । तब मैंने एक तजुर्बा किया । मैंने अपने छ: स्त्री और पांच पुरुष मित्र अपने घर पर आमंत्रित किये । उन ग्यारह जनों में बारहवां जना मैं था । मेरी दरख्वास्त पर सबने दस्ताने पहनकर बारह-बारह चाकलेटों को खोलकर उनमें छेद करके छेद में तरल पदार्थ डालकर उसे बन्द करके उन्हें वापिस रेपरों में लपेटने का काम किया । साहबान, यकीन जानिये मैं ही अकेला शख्स था जो इस काम को नफासत से अंजाम दे पाया था । यानी कि मेरे खुद के तजुर्बे ने ही ये साबित कर दिया कि ये काम किसी औरत का होना जरूरी नहीं था ।”
अशोक प्रभाकर एक क्षण अपने शब्दों का प्रभाव अपने श्रोताओं पर देखने के लिए रुका और फिर बोला - “अब आइये हर चाकलेट में जहर की मात्रा पर । बची हुई जहरभरी चाकलेटों का पुलिस एक्सपर्ट का मुआयना ये बताता है कि हर चाकलेट में नाइट्रोबेंजीन की ऐन छ: बूंदें मिलाई गयी थीं । ये बात भी अपराधी की नफासतपसन्द, आई मीन नीट एण्ड क्लीन, नेचर की चुगली करती है । ऐसे लोग बेतरतीबी पसन्द नहीं करते । वो ये तक नोट करते हैं कि दीवार पर टंगी हुई तस्वीर जरा-सी तिरछी है या सोफे के सामने रखी मेज जरा-सी टेढी है, या चादर पर जरा-सी सिलवट है या किताब का पन्ना जरा-सा मुड़ा हुआ है, वगैरह । मैं खुद ऐसा हूं । ऐसी नफासतपसन्दगी इन्सान की फितरत बन जाती है ।”
“यू आर राइट ।” - आगाशे बोला ।
“आगे मेरा ये कहना है कि अपराधी रचनात्मक मस्तिष्क रखता है और हर कार्य को योजनाबद्ध तरीके से करने का आदी है । जिस तरीके से कत्ल हुआ है उसकी योजना बनाना किसी रचनात्मक मस्तिष्क का ही काम हो सकता है । ये ‘ख्याल आया और कर डाला’ किसम का काम नहीं । ये बड़ी दक्षता से, खूब सोच-विचार कर, स्टैप बाई स्टैप, सीन बाई सीन, योजनाबद्ध करके क्रियान्वित किया गया काम है । छाया जी, आपको मेरी बात से इत्तफाक है ?”
छाया ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“मैडम, कल जैसे आपने सत्यप्रकाश वाले पैरेलल केस का जिक्र किया, वैसे ही आज मैं भी एक पैरेलल केस का जिक्र करना चाहता हूं जो कि तीस साल पहले वाक्या हुआ था । वो केस है जालंधर के डाक्टर आनन्द के कत्ल का । उसमें क्या हुआ था कि एक रोज उसे डाक से एक पार्सल मिला था जो कि पंजाब की एक बहुत मशहूर शराब बनाने वाली कम्पनी ने भेजा था और जिसमें बहुत उम्दा विस्की की एक कम्पलीमैंट्री बोतल थी और कम्पनी के लेटरहैड पर टाइपशुदा वैसी ही एक चिट्ठी थी जैसी किे मौजूदा केस में है । डाक्टर आनन्द ने उस शाम को विस्की की वो बोतल खोली थी, उसमें से एक पैग पिया था और मर गया था । बाद में मालूम हुआ था कि विस्की में पोटेशियम सायनाइड नामक जहर मिला हुआ था । मौजूदा केस की ही तरह बाद में पता लगा था कि शराब बनाने वाली कम्पनी ने ऐसा कोई पार्सल नहीं भेजा था, उसका लेटरहैड नकली था और चिट्ठी जाली थी । साहबान, कत्ल आज तक हल नहीं हुआ । और तो और उस टिपीकल ओपन मर्डर केस में कत्ल का उद्देश्य तक ठीक से स्थापित नहीं किया जा सका था । जहर मिली शराब की वो बोतल जैसे आसमान से टपकी थी और बोतल भेजने वाले को जैसे आसमान ही लील गया था । आप में से किसी को वाकफियत है उस केस की ?”
तमाम सिर इनकार में हिले ।
“ओह ! तो सिर्फ मैं ही जानता हूं उस केस को । बहरहाल इतना तो आप कबूल फरमायेंगे कि हत्यारे की कार्यप्रणाली में वो केस बिल्कुल हमारे मौजूदा केस जैसा है और मेरा दावा है कि हत्यारे ने जब दुष्यन्त परमार के कत्ल की योजना तैयार की थी तो मिसाल के तौर पर उसके सामने ऐन ये ही, जालन्धर के डाक्टर आनन्द के कत्ल वाला, केस था ।”
“जिस केस में कत्ल का उद्देश्य ही सामने नहीं” - अभिजीत घोष बोला - “जिसका कि अपराधी भी नहीं पकड़ा गया, उसे क्या आपके कहे मुताबिक अनुकरणीय उदाहरण बनाया जा सकता है ?”
“कार्यप्रणाली नकल करने के लिये तो बनाया ही जा सकता है, मिस्टर घोष । और फिर उद्देश्य का कुछ अन्दाजा अखबार वालों ने छापा था, हालांकि पुलिस को उससे इत्तफाक नहीं था । अखबार वालों ने ये छापा था कि वास्तव में डाक्टर आनन्द एक अबार्शनिस्ट था । उन दिनों गर्भ गिराना, अधर्म का काम माना जाता था और कानूनी तौर पर भी इसकी इजाजत तब अभी तक नहीं थी, जबकि डाक्टर आनन्द की इस मामले में रिप्पूट कुछ ऐसी थी कि पंजाब से बाहर से भी दूर-दूर से उसके पास अबार्शन के केस आते थे । अखबार वालों का कहना था कि किसी धर्मान्ध व्यक्ति ने इस पाप को रोकने के लिए डाक्टर आनन्द का कत्ल किया था । यानी कि हत्यारे की निगाह में डाक्टर आनन्द भ्रूण हनन करने वाला एक पापी, दुराचारी व्यक्ति था और उसको इस संसार से विदा करना एक जायज, मानवीय कृत्य था । साहबान, ऐन ऐसा ही और ऐन ऐसे ही अंजाम का हकदार क्या हमारा दुष्यन्त परमार नहीं है ?”
सबने सहमति जताई ।
“साहबान, अपनी तफ्तीश की इस स्टेज पर पहुंचकर मैंने उन शर्तों की एक लिस्ट बनायी जो हमारे अपराधी को पूरी करता होना चाहिये था । इत्तफाक से वो लिस्ट इतनी लम्बी और इतनी विविध हो गयी कि उन तमाम शर्तों पर किसी एक आदमी या औरत का खरा उतरना मुझे एक असम्भव कृत्य लगने लगा ।”
“क्या हैं वो शर्तें ?” - रुचिका केजरीवाल ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“कितनी हैं ?” - दासानी बोला ।
“वो शर्तें बारह हैं” - लेखक जेब से एक कागज निकालता हुआ बोला - “और मेरे पास उनकी लिस्ट है जिसे कि मैं अभी आपको पढकर सुनाता हूं ।” - उसने कागज को खोला और बोला - “सुनिये ।”
बांची जाने के बाद लेखक की वो लिस्ट मेम्बरान में सर्कुलेट भी हुई ।
वो लिस्ट इस प्रकार थी:
अपराधी द्वारा पूरी की जाने वाली शर्तों की लिस्ट
उसे थोड़ी बहुत कैमिकल नालेज जरूरी होनी चाहिये ।
वो या अपराधशास्त्र का ज्ञाता होना चाहिये या अपराध से दो चार-होना उसके कारोबार का हिस्सा होना चाहिये ।
वो गुजारे लायक पढा-लिखा होना चाहिये, उच्च शिक्षा प्राप्त चाहे वो न हो ।
सोराबजी एण्ड संस का एक्सक्लूसिव लेटरहैड या उसके अधिेकार में होना चाहिये, या उस तक उसकी पहुंच होनी चाहिये ।
रेमिंगटन ट्रैवलर नाम का पोर्टेबल टाइपराइटर या उसके अधिकार में होना चाहिये या उस तक उसकी पहुंच होनी चाहिये ।
शुक्रवार सोलह नवम्बर को दोपहर सवा एक से पौने तीन बजे के बीच वो जनपथ पर इन्डिया आयल की इमारत के आसपास कहीं मौजूद रहा होना चाहिये ।
हौजर-707 के नाम से जाना जाने वाला जर्मन पैन या उसके अधिकार में होना चाहिये या उस तक उसकी पहुंच होनी चाहिये ।
हौजर हाईटैक प्वायन्ट के नाम से जानी जाने वाली स्याही या उसके अधिकार में होनी चाहिये या उस तक उसकी पहुंच होनी चाहिये ।
उसे आदतन बहुत नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द होना चाहिये ।
वो रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी और हर कार्य योजनाबद्ध तरीके से करने का आदी होना चाहिये ।
वो कोई पेशेवर अपराधी नहीं होना चाहिये ।
वो खुल खेलने के हौसले से महरूम छुप के वार करने जैसी फितरत वाला होना चाहिये ।
“दासानी साहब” - लेखक बोला - “आपने नोट किया होगा कि अपनी लिस्ट की छटी शर्त में मैंने आपकी इस राय से इत्तफाक जाहिर किया है कि हत्यारा पोस्ट करने के लिये उस पार्सल को किसी और को सौंपने वाला नहीं था ।”
दासानी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“दूसरे, अगर कोई साहब या साहिबा शर्त नम्बर सात में दर्ज हौजर-707 साइन पैन से वाकिफ न हों तो वो पैन उन्हें मैं दिखा सकता हूं । मेरे पास हौजर हाईटैक प्वायन्ट के नाम से जानी जाने वाली काली स्याही से भरा ऐसा एक पैन है । मुलाहजा फरमाइये ।”
उसने कोट की ऊपरी जेब से एक खूबसूरत साइन पैन निकाल कर सामने मेज पर रख दिया ।
सब बारी-बारी उसका मुआयना कर चुके तो उसने पैन वापिस अपनी जेब में रख लिया ।
“तो साहबान” - वो बोला - “ये था मेरी अक्ल के मुताबिक केस का खुलासा ।”
“बस ?” - आगाशे बोला ।
“जी हां ।”
“यानी कि केस को हल आप नहीं कर पाये हैं ? सुझाने के लिये ऐसा कोई नाम आपके पास नहीं है जो कि आपकी लिस्ट की तमाम शर्तों पर खरा उतरता हो ?”
“जनाब सदर साहब ! मेरे से ऐसी नाउम्मीदी !”
“यानी कि है ?”
“जी हां ।”
“तो बताइये कौन है वो ?”
“जनाब, नाम बताने से मेरे लिये उससे कहीं ज्यादा दुखद स्थिति पैदा हो जायेगी जो कि अभी थोड़ी देर पहले मेरे मैजिस्ट्रेट साहिबा को अपना जनपथ वाला शगल बताने से हुई थी ।”
“मिस्टर प्रभाकर, क्या इसका मतलब हम ये लगायें कि हत्यारा आपका कोई करीबी है ?”
“जी हां । बहुत ही करीबी ।”
“आपकी भतीजी ?”
“उसे तो मैं इस इलजाम से पहले ही बरी कर चुका हूं । पार्सल पोस्ट किये जाने के वक्त की उसकी एलीबाई तो बहुत मजबूत है ।”
“तो फिर और कौन ?”
“मैं नाम बताऊंगा तो आप मेरे पर हंसेंगे ।”
“कम आन, मिस्टर प्रभाकर !” - दासानी उतावले स्वर में बोला - “इतने गंभीर मसले पर हम भला क्यों हंसेंगे !”
“ये भी एक नजरिया है ।” - लेखक बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला - “चलिये हंसी वाली बात मैंने नाहक कही लेकिन ये बात अभी बरकरार है कि वो रहस्योदघाटन मेरे लिए बहुत दुखद स्थिति पैदा कर सकता है । स्थिति बहुत विकट है । मेरी समझ में नहीं आ रहा, मैं क्या करूं !”
“लेकिन नाम तो आपको बताना पड़ेगा ।” - आगाशे बोला - “यूं बात को क्लाइमैक्स तक लाकर आप उसे मंझधार में कैसे छोड़ सकते हैं ! ये बात नाजायज तो है ही, क्राइम क्लब की स्पिरिट के भी खिलाफ है ।”
“मैं खूब समझता हूं । ओके । नाम बताता हूं मैं । लेकिन पहले मैं एक आश्वासन चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“कि मेरे से हासिल जानकारी खुद मेरे ही खिलाफ इस्तेमाल नहीं की जायेगी ।”
“आपके खिलाफ ?”
“जी हां ।”
“यानी कि आपका अपराधी का नाम लेना आपके खिलाफ भी जा सकता है ?”
“जी हां ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“ऐसा ही है ।”
“फिर तो ये एक गंभीर मसला है । क्राइम क्लब कोई क्रिमिनल्स की जमात नहीं । आप से ऐसा कोई वादा करना एक अपराधी की रक्षा करना होगा ।”
“हार्बरिंग ए क्रिमिनल इज आलसो ए सीरियस क्राइम ।” - छाया प्रजापति बोली ।
“विच नन आफ अस मस्ट कमिट ।” - दासानी बोला ।
“तो फिर मैं क्या करूं ?”
“ये आप सोचिये ।” - आगाशे बोला ।
“मैं तो सोच ही रहा हूं ।” - लेखक एक क्षण तक बड़ी नाटकीय खामोशी अख्तियार किये रहा और फिर बोला - “चलिये ये आश्वासन न दीजिये आप मुझे लेकिन इतना तो वादा कीजिए कि बाद में आप सब लोग मेरी समस्या का कोई निदान सुझाने की ईमानदाराना कोशिश जरूर करेंगे ।”
“पहले समस्या पेश तो हो ।” - रुचिका केजरीवाल उतावले स्वर में बोली ।
“ये वादा तो हम एडवांस में भी कर सकते है ।” - आगाशे बोला ।
छाया प्रजापति, दासानी और अभिजीत घोष ने सहमति में सिर हिलाया ।
“ओके मिस्टर प्रभाकर, आपकी समस्या पर गम्भीर विचार किया जायेगा और आपको उचिततम राय दी जायेगी ।”
“थैंक्यू ।”
“अब बोलिये अपराधी का नाम ।”
“कमाल है ! आपको अभी भी नहीं सूझा ! मैं तो कदम-कदम पर उसके नाम का इशारा आपको देता रहा हूं ।”
सब श्रोताओं के चेहरे पर उलझन के भाव प्रकट हुए ।
“साहबान” - लेखक का स्वर नाटकीय हो उठा - “एक ही शख्स है, एक ही शख्स है जो मेरी लिस्ट की बारह की बारह शर्तो पर खरा उतरता है और जिसके पास कत्ल का उद्देश्य भी है ।”
“कौन ?” - आगाशे बोला ।
“मैं ।”
सभा में एकाएक मरघट का-सा सन्नाटा छा गया । पांचों मेम्बरान एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“आप !” - फिर आगाशे के मुंह से निकला - “खुद आप !”
“जी हां । मैं ।” - लेखक रुचिका की ओर घूमा और फिर बोला - “मैडम, आपको तो मैं अपना इकबालिया बयान दे भी चुका हूं लेकिन अफसोस है कि आपने उसे मजाक समझा ।”
“आप” - रुचिका हकबकायी-सी बोली - “अपनी जुबानी कबूल करते हैं कि कातिल आप हैं ?”
“जी हां ।”
“कमाल है ।”
“ये हकीकत है । ये हकीकत है कि मैं वो शख्स हूं जिसे” - अशोक प्रभाकर उंगलियों पर गिनने लगा - “एक, कामचलाऊ कैमिकल नालेज है जो कि मैंने ‘विषविज्ञान विश्वकोष’ को पढकर हासिल की है और मैं नाइट्रोबेंजीन तैयार करना बाखूबी जानता हूं । दो, अपराधविज्ञान का ज्ञाता होना बतौर जासूसी उपन्यासकार मेरे कारोबार का हिस्सा है । तीन, मैं उच्चशिक्षाप्राप्त नहीं हूं लेकिन गुजारे लायक पढा-लिखा हूं । चार, अपनी भतीजी के माध्यम से सोराबजी एण्ड संस के एक्सक्लूसिव लेटरहैड तक मेरी पहुंच थी । पांच, मेरे पास जो पोर्टेबल टाइपराइटर है वो रेमिंगटन-ट्रैवलर है । छ: शुक्रवार सोलह नवम्बर दोपहर सवा एक और पौने तीन बजे के बीच मैं जनपथ पर लड़कियां ताड़ने के लिये नहीं बल्कि जहरभरी चाकलेटों का पार्सल पोस्ट करने के लिये मौजूद था । सात और आठ, मुनासिब स्याही से भरा मुनासिब पैन मैंने अभी आपको दिखाया ही है । नौ, आदतन नीट एण्ड क्लीन और नफासतपसन्द शख्स मैं हूं । दस, मेरा जासूसी उपन्यास लिखने का पेशा मेरे रचनात्मक मस्तिष्क का स्वामी होने का और हर कार्य योजनाबद्ध तरीके से करने का आदी होने का पर्याप्त सबूत है - इन खूबियों के बिना कहीं नावल लिखा जा सकता है ! ग्यारह, मैं कोई पेशेवर अपराधी नहीं । और बारह, मैं कोई हौसलामन्द शख्स नहीं । मेरी उम्र का, मेरे जैसा कलम चलाने वाला आदमी जरूरत पड़ने पर छुप कर वार करने वाला रास्ता ही अख्तियार कर सकता है । साहबान” - लेखक ने आह भरी - “इतने बेशुमार सबूतों की रू में मुझे यकीन है कि आप खुद भी ये ही नतीजा निकालेंगे कि वो चाकलेटों का पार्सल जरूर मैंने ही दुष्यन्त परमार को भेजा था । मैंने ही भेजा था, साहबान । निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया है मैंने । और हैरान कर देने वाली बात ये है कि अपनी इस हरकत की जरा-सी भी याद मुझे नहीं है । जरूर मैंने जो कुछ किया किसी सम्मोहन से, किसी वक्ती जुनून से वशीभूत होकर किया और जरूर वो सम्मोहन टूटते ही, वो जुनून उतरते ही, मैं सब कुछ भूल गया । इन हालात में काफी सारा इजाफा मेरी गायबख्याली ने भी किया होगा । मेरा डाक्टर कहता है कि हर वक्त जासूसी नावलों का प्लाट सोचते रहने की वजह से मेरा दिमाग वन-ट्रैक-माइन्ड बन गया है और गायबख्याली मेरी अलामत बन गयी है । लेकिन इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता । भले ही मुझे कुछ याद नहीं लेकिन मैंने ठोस तर्को के आधार पर साबित करके दिखाया है कि जो शख्स इस अपराध का अपराधी है, उसका नाम अशोक प्रभाकर है ।”
सब फिर एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“ये, लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - लेखक बोला - “मैं कबूल करता हूं कि, एक पेचीदा मसला था । अपनी गायबख्याली की आदत की रू में अपनी करतूत का रिश्ता किसी उद्देश्य से जोड़ना मेरे लिये कदरन मुश्किल काम था । इसलिये मुश्किल काम था क्योंकि मैं तो दुष्यन्त परमार का कोई करीबी नहीं था । अलबत्ता उसके नाम और उसकी सूरत से मैं वाकिफ था क्योंकि उसकी तरह मैं भी लेखक हूं और उसकी तरह मैं भी शिवालिक क्लब का मेम्बर हूं । लेकिन मेरी उस शख्स से कोई अदावत नहीं थी, कोई अनबन नहीं थी । अपने लार्ड बायरन के इमेज की वजह से वो जिन्दगी के मेरे से कहीं ज्यादा मजे लूट रहा था लेकिन इससे मैंने क्या लेना-देना था ! अलबत्ता उसकी इस खूबी की वजह से मैं उससे वाकिफ था जबकि वो तो पता नहीं मेरे नाम से भी वाकिफ था या नहीं । कहने का मतलब था कि किसी विश्वसनीय उद्देश्य की स्थापना समस्या बन रही है । कोई उद्देश्य होना तो बहुत जरूरी था । वरना क्यों मैंने उसके कत्ल की कोशिश की ?”
“क्यों की ? बताइये कोई उद्देश्य !”
“उद्देश्य की तलाश में मैंने बहुत सिरखपाई की । उस सिरखपाई के दौर में मुझे याद आया कि एक बार मैंने अपने प्रकाशक से, जो कि मेरा जिगरी दोस्त भी है, कहा था कि सौ से ज्यादा कत्ल की फर्जी कहानियां लिख चुकने के बाद अब बार-बार मेरे मन में एक ख्वाहिश उठती थी कि मैं एक कत्ल करके देखूं । मुझे यकीन था कि अपने उपन्यास के लिये कत्ल की योजनायें बनाने के अपने वसीह तजुर्बात की बिना पर मैं बड़ी कामयाबी से इस काम को अंजाम दे सकता था । पुलिस सात जन्म सिर धुनती रहती तो मुझ तक न पहुंच पाती । कितना सनसनीखेज काम होता ये मेरे लिए ! और कहां थी ऐसी सनसनी, ऐसी एक्साइटमैंट मेरी उम्र के आदमी की जिन्दगी में ! शराब में ! जुए में ! खूबसूरत औरतों में ! किसी इनाम-इकराम से नवाजे जाने में ! समाजी रुतबे में ! प्रतिद्धि में ! कहां ? मेरे दिल ने जवाब दिया कि कत्ल करके फंसने से बच के दिखाने के अलावा कहीं नहीं । ये किसी की जान लेने कि लिये अपनी जान दाव पर लगाने वाला काम था । इतना बड़ा दाव हर कोई नहीं खेल सकता । लेकिन मैं तैयार था वो दाव खेलने के लिये । इसलिये तैयार था क्योंकि मैं कत्ल की सनसनी का फर्स्टहैण्ड तजुर्बा करना चाहता था । मैं ये साबित करके दिखाना चाहता था कि अपनी जेहनी कूवत के सदके मैं ऐसे कठिन इम्तहान में पास होकर दिखा सकता था । मैं कत्ल करके पकड़े जाने से बचा रह कर दिखा सकता था ।”
“कमाल है !”
“जी हां, कमाल ही है । और ये कमाल मेरी खुराफाती सोच की इन्तहा थी । पहले मैंने ये ही समझा कि ये भी मेरी गायबख्याली में से उपजी मेरी कोई कोरी, किताबी, कल्पना थी लेकिन जब इस बाबत मैंने अपने प्रकाशक से बात की तो उसने तसदीक की कि मैंने वाकई पूरी संजीदगी के साथ उस पर कत्ल करने की अपनी ख्वाहिश का इजहार किया था । इस सन्दर्भ में उसने तो मुझे मेरे मुंह से निकली कुछ ऐसी बातें भी याद दिलायी जिन्हें कि मैं भूल चुका था । उसने मुझे याद दिलाया कि मैंने उसके साथ ये तक डिसकस किया था ! इस काम के लिये पहला कदम तो ये ही था कि कत्ल कर दिये जाने के काबिल कोई कैन्डीडेट चुना जाता । मैंने ये राय जाहिर की थी कि वो कैन्डीडेट कोई ऐसा शख्स होना चाहिये था जिसकी मौत से सोसायटी का कुछ भला ही होता । इस काम के लिये, बकौल मेरे प्रकाशक, मैंने दुष्यन्त परमार का नाम लिया था और कत्ल करने का मैंने वो रास्ता सोचा था जिससे कि मुझे अपने शिकार के करीब भी न फटकना पड़ता । मेरा इरादा जान-बूझकर अपने खिलाफ कुछ छोटे-मोटे क्लू छोड़ने का था ताकि पुलिस को वो बिल्कुल ही डैडएण्ड वाला मर्डर केस न लगता ।”
“असल में तो कई क्लू उपलब्ध हैं ।”
“जी हां । ये एक ऐसा काम था जो कि मेरे किये नहीं होना चाहिये था । बहरहाल मेरे प्रकाशक ने मुझे बताया कि जब मैं उसके पास से रुखसत हुआ था तो उस घड़ी मैं अपना पहला कत्ल करने के लिये जेहनी तौर पर पुरी तरह से तैयार था ।”
“पहला कत्ल !” - छाया प्रजापति अचकचा कर बोली - “यानी कि आपका कई कत्ल करने का इरादा था ?”
“इरादा तो यकीनन था लेकिन कर पाता या नहीं, ये तो पहले कत्ल की कामयाबी पर मुनहसर था ।”
“ओह !”
“कितनी एक्साइटिंग हॉबी साबित होती कत्ल करना ! जिन्दगी का मजा तो आ ही जाता, साथ ही मेरे जासूसी नावलों में यथार्थ का ऐसा पुट पैदा हो जाता कि पढने वाले चमत्कृत हो जाते ।”
“तौबा !”
“बहरहाल ये ही है कत्ल का उद्देश्य । तजुर्बे के किये कत्ल ! एक्साइटमैंट के लिये कत्ल ! थ्रिल के लिये कत्ल !”
“कमाल है !” - आगाशे मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“मिस्टर प्रभाकर” - रुचिका बोली - “मैं जानती हूं कि आप फिर खफा हो जायेंगे लेकिन मैं कहे बिना नहीं रह सकती कि आप जरूर ही कोई जेहनी तौर पार बीमार आदमी हैं ।”
“आप मुझे कुछ भी कह लीजिये, मैडम” - लेखक बिना खफा हुए बोला - “लेकिन आप इस बात से इन्कार नहीं कर सकती कि अपने खिलाफ मैंने एक निहायत पुख्ता केस खड़ा कर के दिखाया है, अपने उन जासूसी नावलों से ज्यादा पुख्ता केस खड़ा करके दिखाया है जिनके लिये मैं मशहूर हूं ।”
रुचिका चुप रही ।
“वाट डु यू से, मिस्टर दासानी ?” - अशोक प्रभाकर वकील से बोला - “आप अगर सरकारी वकील हों मेरे खिलाफ इस केस में तो चुटकियों में मुझे अपराधी साबित कर दिखायेंगे आप !”
“सुनवाई अगर मेरी अदालत में हुई” - छाया प्रजापति सख्त स्वर में बोली - “तो मैं बेहिचक आपको फांसी की सजा सुना दूंगी ।”
“वकील साहब, आप सहमत होंगे सजा से ?”
“मेरी राय में” - दासानी बोला - “जब तक कोई चश्मदीद गवाह उपलब्ध न हो, मुजारिम को फांसी की सजा नहीं सुनाई जानी चाहिये । मैजिस्ट्रेट साहिबा इस बात से बाखूबी वाकिफ हैं लेकिन क्योंकि ये आप से खफा हैं इसलिये आपके लिये सख्त-से-सख्त सजा तजवीज कर रही हैं ।”
“मेरी बदकिस्मती कि मैडम मेरे केस का फैसला केस के मैरिट की बिना पर नहीं, जाती अदावत की बिना पर करेंगी ।”
“देयर इज नथिंग लाइक दैट ।” - छाया बोली - “अदालती फैसले जाती जज्बात से ऊंचा उठकर ही किये जाते हैं । सरकमस्टांशल एवीडेंस अगर स्ट्रांग हो तो उसकी बिना पर भी फांसी की सजा सुनाई जा सकती है ।”
“मैडम, गुस्ताखी की माफी के साथ कह रहा हूं कि अभी भी आप जो कुछ कह रही हैं, जाती अदावत की बिना पर कह रही हैं वरना आप जैसी कानून की ज्ञाता को मुझे ये याद न दिलाना पड़ता कि कुल जहान में सबसे ज्यादा मिसलीडिंग एवीडेंस सरकमस्टाशल एवीडेंस को ही माना गया है । परिस्थितिजन्य सबूत सबसे ज्यादा भ्रामक और सबसे ज्यादा गुमराह करे वाले सबूत होते हैं । ऐसे सबूतों की अतिरिक्त सबूतों द्वारा पुष्टि - आई मीन कोरोबोरेटिंग एवीडेंस - जरूरी मानी गयी हैं । ”
“आप मुझे कानून पढाने की कोशिश कर रहे हैं ?”
“हरगिज नहीं । मैं कभी किसी असम्भव काम में हाथ नहीं डालता ।”
“क्या !”
“मैं आपको एक जोक सुनाता हूं जो है तो जोक ही लेकिन आप उसे सरकमस्टांशल एवीडेंस - परिस्थितिजन्य सबूत - की औकात पर अच्छी रोशनी डालता पायेंगी ।”
छाया के चेहरे पर उपेक्षा के भाव आये लेकिन बाकी मेम्बरान चुटकला सुनने के बहुत इच्छुक दिखाई देने लगे ।
“एक चर्च में रविवार सुबह को जब प्रार्थना सभा का समापन हुआ तो पादरी ग्रैगरी नाम के एक शख्स पर इलजाम लगाने लगा कि वो फिर शराबखोरी में रुचि लेने लगा था । ग्रैगरी ने एतराज किया, उस बात को नकारा तो पादरी ने कहा कि पिछली रात उसने खुद अपनी आंखों से ग्रैगरी की कार स्थानीय बार के सामने खड़ी देखी थी । ग्रैगरी ने बहुत दुहाई दी थी कि उसकी कार के बार के सामने खड़ी होने का ये मतलब नहीं था कि वो बार के भीतर था और अगर भीतर था तो भीतर शराब पी रहा था । लेकिन पादरी की यही जिद थी कि उसका यही मतलब था । बेचारे ग्रैगरी की सारी बिरादारी के सामने किरकिरी हो गयी । उस किरकिरी का पादरी से उसने यूं बदला लिया कि रात को उसने पादरी की कार उसके चर्च में स्थित आवास के सामने से चुराई और उसे ले जाकर एक रंडी के कोठे के सामने खड़ी कर आया जहां कि कार रातभर खड़ी रही । इसकी क्या मतलब हुआ, साहबान ? क्या ये कि पादरी रात भर उस रंडी के साथ था ? ऐसा तो नहीं था । वो तो चर्च में सोया पड़ा था । लेकिन अगर कोई गवाह तलाशने निकले तो उसे दर्जनों ऐसे शख्स मिल जायेंगे जो कसम खाकर ये कहेंगे कि उन्होंने अपनी आंखों से पादरी की कार को - तवज्जो दीजिये, साहबान, कार को, पादरी को नहीं - बहुत रात गये तक फलां बाई के कोठे के सामने खड़े देखा था । हजरात, आप समझे कि मैं क्या कहना चाहता हूं ?”
छाया के अतिरिक्त तमाम सिर सहमित में हिले ।
“अब आप क्या कहती हैं, मैंडम ?” - अशोक प्रभाकर बोला
“वही जो पहले कहती थी ।” - छाया सख्ती से बोली - “सरकमस्टांशल एवीडेंस अगर स्ट्रांग हो तो उसकी बिना पर भी फांसी की सजा सुनायी जा सकती है ।”
“यानी कि मेरा जोक आपके सिर के ऊपर से गुजर गया !”
“डोंट टाक नानसेंस । जोक जोक होता है । हकीकत हकीकत होती है और हकीकत ये है कि जो हालात आपने खुद अपनी जुबानी बयान किये हैं, उन हालात में मुझे इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई देती कि आप ही वो शख्स हैं जिसने दुष्यन्त परमार को जहरभरी चाकलेटों का डिब्बा भेजा था । ”
“आप के इस विश्वास की बुनियाद क्या है, मोहतरमा ?”
“खुद आप का बयान मेरे इस विश्वास की बुनियाद है । बोला तो ।”
“मैंने इकबाल किया और आपने मेरे इकबाल की कबूल कर लिया ?”
“न कबूल करने की कोई वजह तो नहीं दिखाई देती ।”
“एक वजह तो दिखाई देनी चाहिये आपको । आखिर आप मैजिस्ट्रेट हैं ।”
“कौन सी वजह ?”
“कि शायद मैं झूठ बोल रहा होऊं ?”
“आप झूठ बोल रहे हैं ?”
“ये बाद की बात है । इस वक्त बहस का मुद्दा ये है कि मैं झूठ बोलता हो सकता हूं या नहीं । अदालत के कठघरे में गवाह गीता पर हाथ रखकर आये दिन झूठे बयान देते हैं । मैं तो अदालत में भी नहीं । मैंने तो गीता पर हाथ भी नहीं रखा !”
“यानी कि आप जिस फन्दे में अपने आप को खुद फंसा चुके हैं, उसमें से ये कह के निकलना चाहते हैं कि आप झूठ बोल रहे थे ?”
“ये आपकी खामख्याली है कि मैं किसी फंदे में फंसा हुआ हूं । मैं किसी फंदे में नहीं फंसा हुआ । मैंने कुछ नहीं किया ।”
“कुछ नहीं किया ?” - छाया अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“जी हां ।” - लेखक मुस्कराता हुआ बोला - “कुछ नहीं किया मैंने । मैंने जहरभरी चाकलेटों का डिब्बा किसी को नहीं भेजा लेकिन जैसे मैंने पहले ये साबित करके दिखाया कि ये काम मेरी भतीजी का था और फिर इतने विश्वसानीय ढंग से ये साबित करके दिखाया कि ये काम खुद मेरा था, अगर आप मुझे और वक्त दें तो ऐेसे ही विश्वसनीय ढंग से मैं ये सबित करके दिखाने को तैयार हूं कि ये काम अमिताभ बच्चन का था, या सद्दाम हुसैन का था, या जार्ज बुश का था, या पोप का था, या रैम्बो का था या किसी भी और ऐसे शख्स का था जिसका नाम आप तजवीज करें ।”
छाया प्रजापति हकबकाई सी उसका मुंह देखने लगी ।
“इतनी ही औकात है, मैडम, मेरे द्वारा पेश किये गये सबूतों की । साहबान, अपने खिलाफ ये सारा केस मैंने इस वाहिद इत्तफाक की बिना पर गढा था कि सोराबाजी एण्ड संस के एक्सक्लूसिव लेटरहैड की कुछ शीट मेरी भतीजी के पास उलपब्ध थीं ।”
“आपने सब कुछ झूठ कहा ?” - आगाशे बोला ।
“मैंने सब कुछ सच कहा । लेकिन मुकम्मल सच नहीं कहा । मैंने बड़ी नफासत से सच के वही टुकड़े चुन-चुनकर आपके सामने पेश किये जिन से मेरा मकसद हल होता था । यही वो कला है जिसमें मैं पारंगत हूं और जिसके सदके मैं हिन्दोस्तान का सबसे ज्यादा मशहूर मिस्ट्री राइटर हूं । अगर आप जानते हैं कि सच का कौन-सा हिस्सा छुपाकर रखा जाना चाहिये और कौन बढा-चढाकर पेश किया जाना चाहिये तो आप कुछ भी साबित करके दिखा सकते हैं । मसलन अगर कोई बाप ये कहे कि उसका बेटा दौड़ में सैकंड आया है तो ये सुनने वालों को काफी प्रभावित करने वाली और बेटे के लिये शाबाशी के काबिल बात लग सकती है । लेकिन इसमें निहित जो सच छुपा के रखा गया है अगर वो उजागर हो जाये तो ये बात जिक्र के काबिल भी नहीं रह जाती । बेटे के दौड़ में सैकंड आने का यशोगान करने वाला बाप जो तथ्य छुपाकर रखता हैं वो ये है कि उस दौड़ में केवल दो ही जने दौड़े थे ।”
“अच्छी मिसाल दी ।”
“इसी मिसाल को मैं एक दूसरे तरीके से पेश करता हूं जिस में सच को और भी ज्यादा तोड़ा-मरोड़ा गया है । एक रेस में दो धावक शामिल हुए जिसमें से एक अमरीकी था, और दूसरा रूसी था । उस रेस में जीत अमरीकी धावक की हुई । सभी रूसी अखबारों में ये खबर यूं छपी कि एक अन्तरराष्ट्रीय रेस में रूसी धावक ने इतना शानदार प्रदर्शन किया की वो दूसरे नम्बर पर आया जब कि ‘बेचारा’ अमरीकी धावक आखिर वाले धावक से जरा-सा आगे था । बुनियादी तौर पर ये बात हर पहलू से सच है लेकिन देखिये इस सच में कितने झूठ छुपे हुए हैं । इससे ये नहीं मालूम होता कि उस रेस में दो ही धावक शामिल हुए थे । ये अमरीकी धावक की उपलब्धि को जीरो करके बताती है । ये रेस में हारे रूसी धावक को यूं चित्रित करती है जैसे वो फर्स्ट आते-जाते रह गया था । ये ये जाहिर करती है कि आखिर वाला धावक खुद रूसी धावक ही नहीं बल्कि कोई और था ।”
“वैरी वैल सैड !” - दासानी बोला ।
“तथ्यों की ये तोड़-मरोड़ असल में मदारी जैसा काम है । मदारी के खेल में भी आप वही देखते हैं जैसा कि वो आपको दिखाना चाहता है । आप वो नहीं देख पाते जो वो आपको नहीं दिखाना चाहता । जो वो छुपाता है उसी के जेरेसाया उस चीज का रोब गालिब होता है जो कि वो दिखाता है । पहले अपने बयान में और फिर दो मिसालों से मैंने अभी आपके सामने तथ्यों की जो लुकाछिपी पेश की है, वो मदारी के खेल जैसा ही काम था और आप इस बात से इत्तफाक जाहिर करेंगे कि मैं अपने खेल में कामयाब हुआ हूं ।”
“कामयाब तो आप बाखूबी हुए हैं ।” - आगाशे बोला ।
“लेकिन इसका हासिल क्या निकला ?” - छाया प्रजापति अप्रसन्न स्वर में बोली - “हासिल ये निकला कि आप कातिल नहीं हैं । हासिल ये निकला कि आपकी भतीजी कातिल नहीं है । और हासिल ये निकला कि आपको इस बात का कतई कोई अन्दाजा नहीं है कि असल में कातिल कौन है !”
“मुझे अन्दाजा नहीं है...”
“सो देयर यू आर ।”
“...मुझे ‘मालूम’ है कातिल कौन है ! लेकिन मेरी ट्रेजेडी ये है कि जो मुझे मालूम है, उसे मैं साबित नहीं कर सकता ।”
“आपका मतलब है” - आगाशे उत्सुक भाव से बोला - “अभी कोई और शख्स आपके जेहन में है जो बतौर अपराधी आपकी लिस्ट की तमाम शर्तों को पूरा करता है ?”
“जी हां ।” - लेखक बोला - “लेकिन वक्त की कमी आड़े आ जाने की वजह से मैं सारी शर्तें चैक नहीं कर सका था । फिर भी जिनती मैंने चैक की हैं, वो भी उसे हत्यारी साबित करने के लिये काफी हैं ।
“हत्यारी !” - रुचिका बोली ।
“जी हां । मेरी चायस का अपराधी पुरुष नहीं, स्त्री है । मेरी निगाह में केस की सबसे स्पष्ट बात, जिसे कि किसी सबूत की भी जरूरत नहीं, है ही ये कि हत्यारी कोई स्त्री है । इस क्राइम का सारा पैट्रन ही स्त्रीसुलभ है । किसी पुरुष को दूसरे पुरुष के नाम जहरभरी चाकलेट भेजना तो सूझ ही नहीं सकता । ये किसी पुरुष का काम होता तो उसने जहर से बुझे ब्लेड भेजे होते, बारूद से फट पड़ने वाले सिगार भेजे होते या जालन्धर के डाक्टर आनन्द वाले केस की तरह जहर मिली विस्की भेजी होती । चाकलेट किसी औरत को ही सूझ सकती है, साहबान ।”
“मिस्टर प्रभाकर, आपने ये सोचा कि किसी मर्द ने चाकलेट का इस्तेमाल यही भ्रान्ति फैलाने के लिये किया हो सकता है कि चाकलेट किसी औरत को ही सूझ सकती है ?”
“कबूल । लेकिन ये इकलौता प्वायन्ट नहीं है मेरे पास जो कातिल के औरत होने की ओर इशारा करता है ।”
“तो बात दूसरी है । अब सुनाइये क्या है आपकी असली थ्योरी ?”
“क्या फायदा होगा सुनाने में ! साबित तो मैं कुछ कर नहीं सकता उस औरत के खिलाफ । फिर उस औरत की इज्जत का भी सवाल है ।”
“आप ये ओट लेकर अपनी थ्योरी पेश करने की जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं कि किसी की मानहानि हो जायेगी और यूं खुद आप ही कानून की लपेट में आ जायेंगे ?”
“मुझे ऐसा कोई खौफ नहीं । लेकिन फिर भी मैं उस औरत के नाम को आम नहीं करना चाहता ।”
“जानते आप हैं कि वो औरत कौन है ?”
“जी हां ।”
“हमें कैसे यकीन आये ? क्या पता ऐसी कोई औरत हो ही न और आप उसका जिक्र महज अपनी काबलियत का रौब गांठने के लिये कर रहे हों ।”
“ये बहुत चुभने वाला इलजाम है ।”
“तो इससे बरी होकर दिखाइये ।”
“ठीक है । वो नाम मैं सभापति आगाशे साहब को बता दूंगा । उस नाम से आगाशे साहब भी वाकिफ हैं ।”
आगाशे सकपकाया ।
“फिर बिना नाम लिये ये ही इस बात की तसदीक कर देंगे कि मेरी बात में कोई दम है या नहीं ।”
सबने आगाशे की तरफ देखा ।
आगाशे ने सहमति में सिर हिलाया ।
“आप” - रुचिका अशोक प्रभाकर से सम्बोधित हुई - “नाम न लीजिये लेकिन कम-से-कम इतना तो बताइये कि वो औरत क्या चीज है ?”
“वो हमारे लार्ड बायरन के हरम की एक सदस्या है ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“वर्तमान ?”
“भूतपूर्व ।”
“आप ये कहना चाहते हैं कि हत्यारी दुष्यन्त परमार की कोई पुरानी प्रेमिका है ?”
“जी हां ।”
“इस सन्दर्भ में” - कभी-कभार बोलने वाला अभिजीत घोष सकुचाता हुआ बोला - “मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“पूछो ।” - लेखक बोला ।
“वो भूतपूर्व प्रेमिका क्या कोई तिरस्कृत प्रेमिका है ?”
“डिस्कार्डिड मिस्ट्रेस ?”
“वही !”
“बिल्कुल ठीक । कहीं तुम भी तो मेरे वाली लाइन पर ही काम नहीं कर रहे ?”
अभिजीत घोष शर्माया ।
“फिर तो मैं तुम्हें बधाई देता हूं ।” - लेखक प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “क्योंकि दुष्यन्त परमार के विलासी चरित्र की रू में केस का सामूहिक मूल्यांकन करने पर तिरस्कृत प्रेमिका अन्धेरे समुद्र में लाइट हाउस की तरह चमकती दिखाई देती है । ये एक ऐसी बात है, अपनी शर्तों में जिसे मैंने जानबूझ के शामिल नहीं किया था क्योंकि तब मैं खुद अपने आपको कातिल स्थापित न कर पाता - मैं औरत जो नहीं ! साहबान, मेरी उस शर्तों की लिस्ट में एक शर्त और जोड़ लीजिए कि कातिल जरूर कोई औरत होनी चाहिये ।”
“आप उस औरत का सम्बन्ध” - रुचिका बोली - “नाइट्रोबेंजीन से जोड़ पाये हैं ?”
“नहीं ।” - लेखक बोला ।
“फिर क्या बात बनी ?”
“रुचिका जी, ये न भूलिये कि मेरे से पहले के दोनों वक्ता भी अपनी-अपनी थ्योरी में अपने अपराधी का सम्बन्ध नाइट्रबेंजीन से नहीं जोड़ पाये थे ।”
“आप भी उस अंजाम को न भूलिये जो कि पहली दो थ्योरियों का हुआ था ।”
“मेरे हल की थ्योरी का वैसा अंजाम नहीं होने वाला । हां, ये जरूर है कि उसका कोई प्रैक्टिकल नतीजा शायद ही निकले । क्योंकि मैं पहले ही अपनी ये ट्रेजडी कबूल कर चुका हूं कि जो कुछ मुझे मालूम है, उसे मैं साबित नहीं कर सकता । नाइट्रोबेंजीन से उस औरत का रिश्ता न जोड़ पाना भी मेरी इसी मजबूरी का एक अंग है । लेकिन दासानी साहब की तरह ये बात मैं भी जोर देकर कहना चाहता हूं कि ये कोई अहम बात नहीं कि नाइट्रोबेंजीन जैसी आम और मामूली आइटम अपराधी को कैसे हासिल हुई !”
“बहरहाल” - आगाशे ने दखल दिया - “अगर आपकी तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी को एतबार में लाया जाये तो हत्या का उद्देश्य ईर्ष्या की भावना होना चाहिये ।”
“बिल्कुल ठीक ।” - अशोक प्रभाकर बोला - “लेकिन जो खास बात मैं कहना चाहता हूं, वो ये है कि मुझे इस बात का कतई एतबार नहीं कि कातिल का असली निशाना दुष्यन्त परमार था ।”
“क्या ?” - आगाशे हकबकाकर बोला - “आप ये कहना चाहते हैं कि वास्तव में दुष्यन्त परमार का कत्ल नहीं होने वाला था ?”
“मैं ऐन ये ही कहना चाहता हूं । मेरा दावा है कि कातिल का शिकार दुष्यन्त परमार नहीं था ।”
“तो और कौन था ?”
“मैं अभी बताता हूं । सुनिये । अपनी तफ्तीश से मैंने मालूम किया है कि शनिवार सत्तरह नवम्बर को यानी कि कत्ल वाले रोज दुष्यन्त परमार की किसी के साथ लंच अप्वायन्टमैंट थी । वो लंच अप्वायन्टमैंट, जिसे कि वो बहुत गुप्त रखने की कोशिश करता रहा था, एक औरत के साथ थी और वो औरत कोई आम औरत नहीं थी, वो एक ऐसी औरत थी जिसमें उन दिनों परमार की कोई खास ही दिलचस्पी थी ?”
“विभा दासानी ?” - छाया प्रजापति तनिक कुटिल स्वर में बोली ।
“नहीं, वो नहीं । क्योंकि विभा दासानी में उसकी दिलचस्पी जगजाहिर थी । परमार की उससे लंच अपॉइंटमेंट होती तो कोई गोपनीयता बरतने की जरूरत उसने न महसूस की होती । परमार की ये अप्वायन्टमैंट किसी ऐसी औरत के साथ थी जिसकी कि वो विभा दासानी को - आई मीन अपनी सबसे करेन्ट प्रेमिका को - खबर नहीं लगने देना चाहता था । लेकिन” - लेखक का स्वर फिर आदतन ड्रामेटिक हो उठा - “जिसकी खबर हत्यारी को थी । उस तिरस्कृत प्रेमिका को थी जिसने कि जहरभरी चाकलेंटे भेजी थीं ।”
“ओह !” - आगाशे बोला ।
“इत्तफाक से वो लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो गयी थी लेकिन मेरी धारणा ये है कि उस कैंसलेशन की हत्यारी को खबर नहीं लगी थी । मेरी आगे धारणा ये है कि जहरभरी चाकलेटों का पैकेट भले ही भेजा परमार के नाम गया था लेकिन वास्तव में वो उस रहस्यमयी नयी प्रेमिका के लिये था जिसे कि हत्यारी अपना प्रतिद्वन्द्वी मानती थी ।”
“ब्रिलियन्ट !” - आगाशे के मुंह से स्वयंमेव ही निकल गया ।
“यकीनन नया आइडिया है ये ।” - दासानी बोला ।
“अगर” - आगाशे बोला - “चाकलेट भेजने वाली औरत वाकई दुष्यन्त परमार की कोई तिरस्कृत प्रेमिका थी तो उसकी आइडेन्टिटी छुपी नहीं रह सकती । ऐसी औरत का नाम तो मंडी हाउस के कलाकार सर्कल के हर शख्स की जुबान पर होगा ।”
“मैं ऐसा नहीं समझता ।” - लेखक गम्भीरता से बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे पूरा यकीन है कि उस औरत का परमार से अफेयर वैसे चर्चा का विषय नहीं बना था जैसे उसका हर अफेयर बनता था ।”
“लेकिन फिर भी...”
“सभापति महोदय, कहीं आपको ये खुशफहमी तो नहीं कि आपको परमार के हर अफेयर की खबर है ?”
“है तो सही । क्योंकि पिछले एक हफ्ते में मैंने परमार की निजी जिन्दगी को बहुत बारीकी से टटोला है, बहुत अच्छी तरह से खंगाला है और मेरा दावा है कि उसकी भूतपूर्व या वर्तमान ऐसी कोई प्रेमिका नहीं, जिसकी मुझे खबर नहीं ।”
“गुस्ताखी की माफी चाहता हूं, आगाशे साहब लेकिन ये दावा इस खुशफहमी का नतीजा है कि आप बहुत बड़े जासूस हैं । इसलिए आपने खुद ही ये खुशफहम फैसला कर लिया हैं कि परमार के अफेयर्स की बाबत आपकी जानकारी मुकम्मल है । आप जरा ठण्डे दिमाग से इस बात पर गौर फरमायेंगे तो कबूल करेंगे कि परमार की सूरत में जो शख्स सारी दिल्ली की खातूनों की खानाखराबी का दावेदार है, उसके सारे अफेयर्स की लिस्ट किसी एक शख्स के पास होना मुमकिन नहीं । परमार कोई डायरी-वायरी न लिखता हो तो खुद उसे मालूम नहीं होगा कि वो कुल जमा कितनी औरतें खराब कर चुका है ।”
आगाशे के माथे पर बल पड़े, वो कुछ क्षण खामोश रहा । और फिर बड़ी सादगी से बोला - “शायद आप ठीक कह रहे हैं ।”
“मैं यकीनन ठीक कह रहा हूं ।” - लेखक पुरजोर लहजे में बोला - “ऐसी जानकारी मुकम्मल तौर पर किसी एक शख्स को हो ही नहीं सकती । बड़ी हद ये हो सकता है कि उसके चार अफेयर मुझे मालूम हैं तो छ: आपको मालूम होंगे, एक दासानी साहब को मालूम हैं तो ग्यारह काले चोर को मालूम होंगे ।”
“ऐसी तमाम जानकारियों को कम्प्यूट करके भी तो एक मुकम्मल लिस्ट बनायी जा सकती है !”
“बनाई जा सकती है लेकिन दो चार दिन में नहीं, साल छ: महीने में । दूसरे, वो लिस्ट मुकम्मल है या नहीं, इसकी तसदीक परमार करे तो करे, और कोई नहीं कर सकेगा । और वो क्या आपकी ऐसी किसी लिस्ट को सर्टीफाई करेगा ?”
“आई अन्डरस्टैण्ड युअर प्वायन्ट । इस प्वायन्ट पर अब मैं आपसे सहमत भी हूं । परमार का कोई इक्का-दुक्का अफेयर अन्यन्त गोपनीय रहा हो सकता है । उसकी ऐसी एक या एक से ज्यादा माशूकें हो सकती हैं जिनकी खबर कभी किसी को न लगी हो ।”
“जैसे एक तो वो ही है जिसके साथ परमार की शनिवार सत्तरह नवम्बर की लंच अप्वायन्टमैंट थी और जो कैंसिल हो गयी थी । दूसरी वो है जिसको मैं तिरस्कृत प्रेमिका का दर्जा दे रहा हूं । ऐसी और भी होंगी ।”
“कबूल । अब आगे बढिये ।”
“तो मैं ये कह रहा था कि परमार की जिन्दगी में कभी किसी ऐसी औरत का अस्तित्व था जिसने उससे अपने अफेयर को बहुत गोपनीय रखा था और जिसमें अब परमार की कोई रुचि बाकी नहीं रही थी । और इस अफेयर की बाबत दुष्यन्त परमार के, उस औरत के, मेरे खबरी के और मेरे अलावा और कोई नहीं जानता ।”
“खबरी कौन है आपका ?” - रुचिका बोली ।
“ये मैं नहीं बता सकता ।”
रुचिका ने बड़े असंतोषपूर्ण भाव से मुंह बिचकाया ।
“कम-से-कम ये तो बताइये, मिस्टर प्रभाकर” - दासानी बोला - “कि आप की बारह शर्तों की लिस्ट- जिसमें कि अब आपने एक तेरहवीं शर्त भी जोड़ दी है - आपकी उस तिरस्कृत प्रेमिका पर भी लगू होती है या वो आपने महज अपनी उस फर्जी थ्योरी के लिये गढी थी जिसके तरह अभी आपने खुद अपने आप को ही अपराधी साबित कर दिया था ?”
“जनाब, वो एक जनरल लिस्ट है” - लेखक बोला - “जो कि तर्क की कसौटी पर एकदम खरी उतरती है और मेरी राय में उसकी प्रासंगिकता हर थ्योरी में है चाहे वो मेरी हो या किसी और मेम्बर की । उस लिस्ट की कोई एकाध शर्त किसी खास थ्योरी पर फेल हो सकती है लेकिन तकरीबन शर्तो की पूरी प्रासंगिकता है । मिसाल के तौर पर नाइट्रोबेंजीन को ही लीजिये । नाइट्रोबेंजीन की बाबत मैंने जो कुछ भी कहा है, ऐन वही हर वो शख्स कहेगा जो कि इस आइटम को वैसी अहमियत देगा जैसी कि मैंने दी । थ्योरी मेरी हो, आपकी हो या काले चोर की, ये हकीकत कैसे बदल सकती है कि नाइट्रोबेंजीन ऐसी आइटम है जिसकी बतौर जहर कोई आम शिनाख्त नहीं है ! ये कोई प्रचलित जहर नहीं है ।”
“यानी कि आपकी नयी थ्योरी में भी इस बात का दखल है ?”
“जी हां ।”
“कैसे ?”
“वो ऐसे कि मेरी अपराधिनी के लिए भी नाइट्रोबेंजीन की जानकारी हासिल करने का साधन विषविज्ञान विश्वकोष ही था ।”
“कैसे जाना ?”
“अन्दाजा लगाया । क्योंकि मैंने खुद अपनी आंखो से उसके घर में, उसके एक बुकशैल्फ पर इस ग्रन्थ की एक प्रति पड़ी देखी थी ।”
“बस ?”
“जी हां ।”
दासानी ने सहमति में गर्दन हिलायी ।
“वो औरत” - छाया प्रजापति ने पूछा - “क्रिमिनालोजिस्ट है ?”
“नहीं” - लेखक बोला - “ये तथ्य स्थापित नहीं है कि वो क्रिमिनालोजिस्ट है । लेकिन क्राइम में उसकी दिलचस्पी स्थापित है ।”
“कैसे ?”
“उसका घर इस विषय की पुस्तकों से भरा पड़ा है । मर्डर मिस्ट्रीज में उसकी विशेष रुचि है । मर्डर मिस्ट्रीज की स्टेज प्रस्तुति की दिशा में थियेटर की दुनिया में उसका विशिष्ट योगदान माना जाता है ।”
“जब उसके घर में आपका आना-जाना है तो वो जरूर आपकी कोई घनिष्ट मित्र होगी !”
“ऐसा नहीं है । मैं उससे सिर्फ एक बार मिला हूं और सिर्फ एक बार उसके घर गया हूं । उसने एक बार चिट्ठी लिखकर मेरे किसी नावल का स्टेज प्ले बनाने की ख्वाहिश जाहिर की थी । जवाब में मैंने लिखा था कि जब मेरा नया नावल प्रकाशित होगा तो मैं उसे लेकर खुद उसके पास हाजिर होऊंगा । जब नया नावल छपा था तो उसकी एक प्रति लेकर मैं उसके पास गया था । तभी मैंने उसका पुस्तकों का संकलन देखा था । उनमें तीन चौथाई पुस्तकें या तो जासूसी उपन्यास थे या अपराधविज्ञान पर आधारित ग्रन्थ थे । और उन्हीं ग्रन्थों में एक ग्रन्थ विषविज्ञान विश्वकोष था । उसने अपनी जुबानी कहा था कि जैसे किशोरियां रोमांटिक कविता या कहानी पढकर भावविभोर हो जाती थीं, वैसे वो मर्डर मिस्ट्री पढकर उसके सम्मोहन में जकड़ जाती थी ।”
“मर्डर मिस्ट्री से सम्मोहन ! क्या कहने !” - दासानी बोला - “जरूर दिमाग में फितूर होगा उसके ।”
“थोड़ा-बहुत दिमागी फितूर तो हर कातिल में होता है ।”
“वुई अन्डरस्टैन्ड ।” - आगाशे बोला - “ये बात हमारे बीच पहले भी हो चुकी है । आप ये बताइये कि उस औरत के सन्दर्भ में आपकी तवज्जो दुष्यन्त परमार की तरफ कैसे गयी ?”
“मैं जब उस औरत के घर में मौजूद था तो वहां उसका कोई मिलने वाला आ गया था । मुझे अपनी स्टडी में बैठा छोड़ कर वो उससे निपटने चली गयी थी । पीछे अकेले बैठे मुझे वहां की एक साइड टेबल पर पड़ी एक एलबम दिखाई दी थी जिसके कि यूं ही वक्तगुजारी के लिये मैं पन्ने पलटने लगा था । साहबान, उस एलबम में मैंने दुष्यन्त परमार की एक तस्वीर लगी देखी थी जिस पर उस औरत का नाम लिखकर उसने सप्रेम भेंट लिखा था और नीचे अपने हस्ताक्षर किये थे ।”
“बस ?”
“जी हां ।”
“इतने से ही परमार से उस औरत का अवैध सम्बन्ध भी स्थापित हो गया और ये भी स्थापित हो गया कि वो परमार की कोई तिरस्कृत प्रेमिका थी ?”
“थी भी तो इसमें खास बात क्या है ?” - रुचिका केजरीवाल बोली - “जिस शख्स को चाहने वालियां दर्जनों की तादाद में हों, उसकी तिरस्कृत प्रेमिकायें भी तो दर्जनों की तादाद में ही होंगी ! उसके प्रेम संसार में ईर्ष्या में सुलगती कई औरतें हो सकती हैं ।”
“लेकिन क्राइम में दिलचस्पी उन कई औरतों की नहीं हो सकती, विषविज्ञान विश्वकोष नामक ग्रन्थ उन कई औरतों की लायब्रेरी की शोभा बढाता नहीं हो सकता ।”
“लगता है” - अभिजीत घोष बोला - “जैसे आपकी पिछली थ्योरी में नाइट्रोबेंजीन की प्रधानता थी, वैसे मौजूदा थ्योरी में क्रिमिनालोजी के ज्ञान की प्रधानता है ।”
“दुरुस्त । मेरी निगाह में ये बहुत महत्वपूर्ण क्लू है ।”
अभिजीत घोष ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर इरादा बदल दिया ।
“आप कुछ कहने जा रहे थे ?” - लेखक बोला ।
“नहीं” - अभिजीत घोष तनिक हड़बड़ाकर बोला - “कुछ नहीं ।”
“मिस्टर प्रभाकर” - रुचिका केजरीवाल बोली - “आपने अभी थोड़ी देर पहले कहा था कि वक्त की कमी के कारण अपनी अपराधिनी के सन्दर्भ में आप अपनी लिस्ट की सारी शर्तों को चैक नहीं कर सके थे । क्या बरायमेहरबानी आप बतायेंगे कि आपकी लिस्ट की कौन-सी शर्तों को आपकी अपराधिनी - वो तिरस्कृत प्रेमिका, वो डिस्कार्डिड मिस्ट्रेस - पूरा करती है और कौन-सी शर्तों को आप इस सन्दर्भ में चैक नहीं कर पाये ?”
“सुनिये ।” - लेखक सावधान स्वर में बोला - “नम्बर एक, मुझे नहीं मालूम कि उस औरत का कोई कैमिकल नालेज है या नहीं । नम्बर दो, मुझे यकीनी तौर पर मालूम है कि अपराधशास्त्र की बेसिक नालेज उस औरत को है । नम्बर तीन, मुझे यकीनी तौर पर मालूम है कि वो एक खूब पढी-लिखी औरत है । नम्बर चार, सोराबजी एण्ड संस के एक्सक्लूसिव लेटरहैड से उसका कोई सीधा सम्पर्क में नहीं जोड़ पाया लेकिन वो लेटरहैड उस तरीके से उसे उपलब्ध हो सकता है जो कि दासानी साहब ने बयान किया था, यानी कि उसकी सोराबजी एण्ड संस में एफ.डी. रही हो सकती है । नम्बर पांच, रेमिंगटन-ट्रैवलर नामक पोर्टेबल टाइपराइटर के उसके अधिकार में होने की कोई खबर मुझे नहीं लेकिन ऐसा टाइपराइटर उसकी मैत्री के विस्तृत दायरे में किसी के पास भी हो सकता है और उस तक उसकी पहुंच हो सकती है । नवम्बर छ:, पार्सल पोस्ट करने के लिए वो जनपथ पर मौजूद रही हो सकती है । उस वक्त की उसने अपने लिए एक एलीबाई स्थापित करने की कोशिश की है लेकिन वो एलीबाई ऐसी है जो बारीक जांच के सामने बिल्कुल नहीं ठहर सकती ।”
“क्या है वो एलबाई ?” - आगाशे उत्सुक भाव से बोला ।
“वो कहती है कि उस वक्त के दौरान वो कमानी आडीटोरियम में बैठी हुई थी जहां कि वो ‘सनमकदा’ नामक नाटक के स्पेशल शो में खुद डायरेक्टर द्वारा आमन्त्रित थी । वो नाटक एक बजे शुरू हुआ था लेकिन वो डेढ बजे के बाद वहां पहुंची थी, इस बात की मैं पूरी-पूरी तसदीक कर चुका हूं ।”
आगाशे चौंका लेकिन उसने देखा कि तब लेखक की तवज्जो उसकी तरफ नहीं थी ।
“कमानी आडीटोरियम में जनपथ का रास्ता मुश्किल से पांच मिनट का है । वो यकीनन जनपथ पर पार्सल पोस्ट करने के बाद कमानी आडीटोरियम पहुंची थी ।”
“आगे ?” - रुचिका तनिक उतावले स्वर में बोली ।
“नम्बर सात” - लेखक आगे बढा - “मैंने अपनी आंखों से उसकी स्टडी टेबल पर हौजर-707 नामक का जर्मन साइन पैन पड़ा देखा था । नम्बर आठ, मैंने अपनी आंखों से पैन की बगल में ही हौजर हाईटेक प्वायन्ट के नाम से जानी जाने वाली काली स्याही की एक शीशी पड़ी देखी थी । नम्बर नौ, वो नीट और क्लीन आदतों वाली निहायत नफासतपसन्द औरत है । नम्बर दस, मुझे नहीं मालूम कि वो रचनात्मक मस्तिष्क की स्वामिनी है या नहीं अलबत्ता थियेटर में उसकी दिलचस्पी उसके कुछ-कुछ ऐसे होने की चुगली करती है । मुझे ये कतई नहीं मालूम कि हर काम योजनाबद्ध तरीके से करने की आदी वो है या नहीं । नम्बर ग्यारह, मुझे मालूम है कि वो कोई पेशेवर अपराधिनी नहीं । नम्बर बारह, छुपकर वार करने की फितरत तो हर औरत की होती है और जहर है ही जानना हथियार ।”
लेखक एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “सो देयर यू आर, लेडीज एण्ड जन्टलमैन । आप देख सकते हैं कि हालात का तगड़ा इशारा तो इस औरत की तरफ है लेकिन उसको अपराधिनी साबित करने के लिए कोई ठोस, अकाट्य सबूत मेरे पास नहीं है ।”
“वो अपराधिनी है ही नहीं ।” - आगाशे बोला ।
सबकी निगाहें आगाशे की ओर उठ गयीं ।
“आप जानते हैं उस औरत को ?” - छाया बोली ।
“जब” - आगाशे बोला - “मिस्टर प्रभाकर ने कहा था कि मैं उस औरत के नाम से वाकिफ था, तब नहीं जानता था लेकिन अब जानता हूं । ‘सनमकदा’ के जिक्र की वजह से जानता हूं । उस औरत के थियेटर से जुड़ा होने की वजह से जानता हूं ।”
“ओह !”
“मिस्टर प्रभाकर, उस औरत का नाम छिपाकर रखने के आपके इरादे की मैं कद्र करता हूं लेकिन ऐसे किसी कदम की तक कोई कीमत थी जबकि वो अपराधिनी होती । वो अपराधिनी नहीं, इस बात की मैं गारन्टी करता हूं ।”
“कैसे ?”
“बताऊंगा लेकिन पहले आप अपनी ये जिद छोड़िये कि उसका नाम गोपनीय रखा जाए ।”
“अगर वो अपराधिनी नहीं तो ये जिद बेमानी है ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
“मैंने तो उसे अपराधिनी जानकर ही उसका नाम न लेने का फैसला किया था ।”
“वो अपराधिनी नहीं । आपके पास उसके अपराधिनी होने का कोई सबूत नहीं लेकिन मेरे पास उसके निर्दोष होने का अकाट्य सबूत है ।”
“फिर क्या बात है ! फिर तो उस नाम के हाजिर मेम्बरान की जानकारी में आने में कोई हर्ज नहीं ।”
“साहबान, उस औरत का नाम रोज पद्मसी है । एक ब्लैकमेलिंग के केस के सिलसिले में वो मेरी क्लायन्ट रह चुकी है इसलिए उससे और उसकी जाती जिन्दगी से मैं अच्छी तरह से वाकिफ हूं । वो कोई डिस्कार्डिड मिस्ट्रस नहीं । दुष्यन्त परमार से उनका कोई रिश्ता न था, न होना मुमकिन था । वो न सिर्फ दुष्यन्त परमार से बल्कि उसकी किस्म के लोगों से नफरत करती है । ऐसे कैरेक्टरलैस मर्द को वो पास नहीं फटकने दे सकती, मैंने जाती तौर से इस बात की तसदीक की है ।”
“ओह !” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“आप उसके खिलाफ कुछ साबित इसलिए नहीं कर सकते मिस्टर प्रभाकर, क्योंकि साबित करने के लिए कुछ है ही नहीं । अलबत्ता आपकी तिरस्कृत प्रेमिका वाली थ्योरी में दम है । बाकी बातें आपने उसके सिर पर सिर्फ इसलिए थोप दी हैं । क्योंकि नम्बर एक, उसकी अपराध विज्ञान में दिलचस्पी है और मर्डर उसे रोमांचित करता है और नम्बर दो, पार्सल पोस्ट किये जाने वाले दिन वो कमानी आडीटोरियम में आधा-पौना घण्टा लेट पहुंची थी । सिर्फ इतने से ये साबित नहीं हो जाता कि वो कमानी में नहीं थी तो जनपथ पर थी ।”
“आपको मालूम है असल में उस दौरान वो कहां थी ?”
“हां, मालूम है । कमानी में लेट पहुंचने के लिए वो बेचारी अपनी लेट-लतीफी को जिम्मेदार ठहरा रही थी लेकिन हकीकत ये है कि कम-से-कम उस रोज कमानी में देर से पहुंचने के पीछे वजह उसकी लेट-लतीफी नहीं थी । उस रोज एक और डेढ के दरम्यान वो करीब ही श्रीराम सेन्टर में एक नवोदित कलाकार की कला प्रदर्शनी का फीता काट कर उदघाटन कर रही थी । अपना वो प्रोग्राम उसने ‘सनमकदा’ के डायरेक्टर को, जो कि थियेटर की दुनिया की बहुत बड़ी तोप माना जाता है, इसलिए नहीं बताया था क्योंकि वो इस बात का बुरा मानता उसके प्ले के मुकाबले में रोज पद्मसी ने एक नवोदित कलाकार की कला प्रदर्शनी को तरजीह दी थी । इतनी भली औरत है मिसेज रोज पद्मसी जिसे कि आप कातिल साबित करने पर तुले हुए थे ।”
“आपको ये बात कैसे मालूम है ?”
“खुद रोज पद्मसी के ही बताये मालूम है ।”
“उसने क्यों बताया ?”
“उसने नहीं बताया, मैंने पूछा । असल में ‘सनमकदा’ में उसकी लेट हाजिरी को लेकर मेरा माथा ठनका था । कल सुबह जब वो मुझे मिली भी तो उसने मुझे बताया था कि वो ‘सनमकदा’ के शो में पन्द्रह मिनट लेट पहुंची थी लेकिन साथ ही उसने प्ले के एक ऐसे सीन से अनभिज्ञता प्रकट की थी जो कि प्ले शुरू होने के आधे घण्टे बाद नमूदार होता था । तब तो मैंने उसे इस बात पर नहीं कुरेदा था क्योंकि बात मुझे बहुत मामूली और अपनी तफ्तीश से असम्बद्ध लगी थी । लेकिन पिछली शाम को इत्तफाक से रोज पद्मसी मुझे फिर ‘होस्ट’ में मिल गयी थी । तब मेरे मन में आया था कि मन में शंका रखने से तो उसका समाधान कर लेना अच्छा था । तब मैंने निहायत दोस्ताना माहौल में देरी की असली वजह की बाबत एक सीधा सवाल किया था, जिसका सीधा जवाब मुझे मिला था ।”
“ओह !”
“आज दिन में श्रीराम सेन्टर से भी मैंने इस बात की तसदीक की थी और इसे एकदम सच पाया था । शुक्रवार सोलह नवम्बर की दोपहर की एक और डेढ बजे के बीच रोज पद्मसी श्रीराम सेन्टर में थी, इस बात की तसदीक के लिए दर्जनों लोग वहां उपलब्ध हैं ।”
“गुड !”
“इसलिए मैं फिर कहता हूं कि रोज पद्मसी, जिसे आप कातिल साबित करने पर तुले हुए हैं, एकदम बेगुनाह है ।”
“मुझे खुशी है” - लेखक होंठों में बुदबुदाया - “कि उसे कातिल साबित करने की मेरी मुराद पूरी न हुई लेकिन....”
“क्या लेकिन ?”
“वो तस्वीर ! दुष्यन्त परमार की । जो कि रोज पद्मसी की एलबम में लगी हुई थी । नफरत के काबिल आदमी की तस्वीर तो कोई अपनी एलबम में नहीं लगाता ।”
“मैं आपसे सहमत हूं लेकिन साथ ही मुझे पूरा यकीन है कि उस तस्वीर की मिसेस पद्मसी की एलबम मौजूदगी की जरूर कोई बिल्कुल निर्दोष वजह होगी । मिस्टर प्रभाकर, उस तस्वीर की बाबत मैं आपको कल बताऊंगा ।”
“कल तो आप हमें और भी बहुत कुछ बतायेंगे । अगली बारी आप ही की जो है केस का हल प्रस्तुत करने की ।”
“मुझे याद है और मैं आपके और क्राइम क्लब के बाकी मेम्बरान को यकीन दिलाता हूं कि आपके अपने सभापति से मायूसी न होगी ।”
समस्त सदस्यों ने हर्षध्वनि की ।
“अब” - आगाशे बोला - “आज की मीटिंग की बर्खास्तगी से पहले मैं एक बहुत अहम बात आप लोगों की तवज्जो में लाना चाहता हूं । सब जने कृपया गौर से सुनें । मुझे खुद इंस्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया ने बताया है कि हमारी क्राइम क्लब के हर मेम्बर की पुलिस निगरानी करवा रही है । इंस्पेक्टर राजोरिया का दावा है कि हमारे हर मेम्बर का हर कार्यकलाप पुलिस की निगाह में है ।”
“अरे !” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“यकीन नहीं आता ।” - छाया प्रजापति बोली ।
“यकीन न आने की कोई बात नहीं । सबूत के तौर पर, मैजिस्ट्रेट साहिबा, खास आपकी सूचनार्थ निवेदन है कि आज सुबह जब मैं इन्स्पेक्टर राजोरिया से मिला था तो ये बात इंस्पेक्टर ने मुझे - मैंने इंस्पेक्टर को नहीं - बताई थी कि आप दासानी साहब को कत्ल का अपराधी समझती हैं ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?”
“ऐसा ही है । अलबत्ता उसे ये नहीं मालूम था कि दासानी साहब को अपराधी साबित करने के लिए आपने क्या दलीलें दी थीं या क्या सबूत पेश किये थे !”
“इसका मतलब ये हुआ” - रुचिका बोली - “कि कम-से-कम यहां से तो कोई बात बाहर लीक नहीं होती ।”
“वो तो जाहिर है लेकिन हम लोगों के पीछे लग के भी पुलिस के हाथ कुछ न लगे, इसका इन्तजाम हममें से हर किसी को अपनी जाती जिम्मेदारी के साथ करना होगा ।”
“वो तो हम कर लेंगे ।” - दासानी बोला - “लेकिन इंस्पेक्टर की इस हरकत की वजह ?”
“वो चाहता था कि अंजना निगम के कत्ल को लेकर हम लोगों के बीच यहां जो कुछ भी डिसकस हो, वो प्वायन्ट-टु-प्वायन्ट, डे-टु-डे उसे बताया जाये ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ?” - रुचिका बोली ।
“नहीं हो सकता । यही मैंने उसे कहा । इसीलिये उसने हममें से हर किसी को निगरानी का इन्तजाम किया ।”
“बहुत बेजा हरकत है ये ।” - अशोक प्रभाकर बोला ।
“आई एग्री । लेकिन इसमें हम कुछ नहीं कर सकते । हमारे मना करने से मना हो जाने वाला नहीं है वो अपनी इस बेजा हरकत से । इंस्पेक्टर राजोरिया की इस बेजा हरकत का तोड़ यही है कि हम पूरी तरह से सावधान रहें । अब जबकि हम पुलिस की ऐसी किसी कोशिश से खबरदार हो चुके हैं तो पीछे लगे लोगों से पीछा छुड़ा लेना हमसें से किसी के लिए भी कोई मुश्किल काम नहीं होगा । आज दिन में मेरे अपने पीछे लगे दो आदमी मेरी जानकारी में आये थे, मैंने बड़ी आसानी से उनसे पीछा छुड़ा लिया था ।”
“पहले से खबर न होती तो शायद न छुड़ा पाते ?”
“हां । तब तो शायद मुझे सूझता भी न कि कोई मेरे पीछे लगा हुआ था । इंस्पेक्टर राजोरिया झोंक में मुझे ये बात बैठा, बहरहाल इसका हमने फायदा उठाना है । यूं हमने पुलिस के कुछ पल्ले नहीं पड़ने देना । इसमें हमारी हेठी है ।”
“वो तो है ।” - रुचिका पुरजोर लहजे में बोली - “हमारे बताने से कोई कुछ जाने तो जाने, खामखाह क्यों जाने !”
“ऐग्जैक्टली । वुई विल टैल दि पुलिस ऐनीथिंग ओनली वैन वुई आर गुड एण्ड रेडी टु टैल ।”
सबने सहमति में सिर हिलाये ।
“तो आप सब लोग ऐसी किसी निगाहबीनी से खबरदार रहेंगे ?”
सबने फिर सहमति में सिर हिलाये ।
फिर उस रोज की मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
***
विवेक आगाशे का अगला, अपनी बारी वाला, दिन अपार व्यस्तता में गुजरा ।
दिन की शुरूआत मिसेज रोज पद्मसी से उसकी साउथ एक्सटेंशन में स्थित आलीशान कोठी में मुलाकात से हुई ।
फिर उसने मुकेश निगम के स्टाक ब्रोकर का पता लगाया और उससे मुलाकात की ।
उसने कम्पनी रजिस्ट्रार के दफ्तर का चक्कर लगाया ।
वहां से लारेंस रोड इन्डस्ट्रियल एरिया में स्थित ओरियन्टल परफ्यूमरी कम्पनी में पहुंचा । उसने रिसेप्शनिस्ट से कम्पनी के वर्क्स मैनेजर से मिलने की इच्छा प्रकट की । रिसेप्शनिस्ट ने एक क्षण फोन पर किसी से बात की और फिर उसे एक चपरासी के हवाले कर दिया । चपरासी उसे वर्क्स मैनेजर के कक्ष में छोड़ गया । वर्क्स मैनेजर एक कोई पचास साल का दुबला-पतला सूरत से भलामानस लगने वाला आदमी निकला ।
आगाशे से उसे अपना एक कार्ड पेश किया जिससे कि वो बहुत प्रभावित हुआ ।
“मैं एक केस की तफ्तीश के सिलसिले में यहां आया हूं ।” - आगाशे बोला ।
“उस केस से” - मैनेजर बोला - “हमारा रिश्ता...”
“हो सकता है ।”
“क्या केस है ?”
“आपके यहां गिरधारी लाल वर्मा का नाम का एक आदमी काम करता था....”
मैनेजर का सिर पहले ही इनकार में हिलने लगा ।
“इस नाम का कोई आदमी” - वो बोला - “कभी यहां की मुलाजमत में नहीं था ।”
“होता तो आपको उसकी खबर होती ?”
“हां । जरूर । यहां कुल मिलाकर नब्बे आदमी काम करते हैं और मैं हर किसी को बाखूबी, नाम से जानता हूं ।”
“ये गिरधारी लाल वर्मा यहां किसी और नाम से मुलाजिम रहा हो सकता है । आप उसे किसी और नाम से जानते हो सकते हैं ।”
“किसी एक आदमी के दो नाम...”
“हो सकते हैं । किसी मकसद में रखे जा सकते हैं ।
“दूसरा नाम क्या था इस शख्स का ?”
“वो मुझे नहीं मालूम । दूसरे नाम की सम्भावना मैंने इसलिए व्यक्त की है क्योंकि आप कहते हैं कि इस नाम का कोई आदमी आपके यहां मुलाजिम नहीं था । मुलाजिम तो वो यहां जरूर था । आप उसे जानते नहीं, किसी मुलाजिम को आप न जानते हों, ये हो नहीं सकता तो फिर तो यही सम्भावना सामने आती है कि वो यहां किसी और नाम से नौकर था ।”
“क्या नौकरी थी उसकी यहां ?”
“वो आपके नाइट्रोबेंजीन डिपार्टमैंट में मुलाजिम था ।”
“ऐसा तो कोई डिपार्टमैंट हमारे यहां है ही नहीं ।”
“मेरा मतलब है” - आगाशे ने जल्दी से बात संवारी - “कि आप के जिस डिपार्टमैंट में नाइट्रोबेंजीन का इस्तेमाल होता है, वो वहां काम करता था । अब आप ये तो नहीं कहेंगे कि नाइट्रोबेंजीन आपके यहां इस्तेमाल ही नहीं होती !”
“नहीं, ये तो नहीं कहूंगा मैं । नाइट्रोबेंजीन तो यहां काफी इस्तेमाल होती है ।”
“सो देयर यू आर ।”
“वेयर एम आई ? किस्सा क्या है ?”
“किस्सा ये है, जनाब, कि इस शख्स गिरधारीलाल वर्मा के घरवालों का कहना है कि उसकी मौत इस वजह से हुई क्योंकि यहां आपकी कम्पनी में आपके कर्मचारियों को नाइट्रोबेंजीन के घातक असर की बाबत कोई चेतावनी नहीं है ।”
“क्या मतलब ?” - मैनेजर तीखे स्वर में बोला - “आप ये कहना चाहते हैं कि नाइट्रोबेंजीन की वजह से हमारा कोई वर्कर मर गया है ?”
“जी हां ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ? अगर ऐसी कोई मौत यहां हुई होती तो क्या मुझे खबर न होती ?”
“वो शख्स घर जाकर मरा था लेकिन नाइट्रोबेंजीन के जहरीले प्रभाव की चपेट में वो यहां आया था ।”
“लेकिन...”
“सुनिये, सुनिये । आप मुझे ये बताइये कि क्या आप मुझे अपने उस डिपार्टमैंट में, जहां कि नाइट्रोबेंजीन इस्तेमाल होती है, कोई ऐसा बोर्ड टंगा दिखा सकते हैं जिसपर ये चेतावनी अंकित हो कि नाइट्रोबेंजीन का एक घातक जहर है ?”
“नहीं ।”
“यानी कि ऐसी कोई चेतवनी नहीं है ?”
“ऐसा बोर्ड नहीं है । चेतावनी है, बोर्ड नहीं है । जुबानी तौर पर उस डिपार्टमैंट में काम करने वाले हर मुलाजिम को ये चेतावनी है कि नाइट्रोबेंजीन को सावधानी से हैंडल किया जाना जरूरी है क्योंकि वो एक घातक विष है । कारखानों में टंगे बोर्डों को कोई नहीं पढता, जनाब, इसलिए ऐसी बातें फोरमैन लोग मुलाजिमों को जुबानी समझाते है । आप बोर्ड जरूरी समझते हैं तो बोर्ड भी टांग देंगे ।”
“मैं कुछ जरूरी नहीं समझता ।” - आगाशे एकाएक उठ खड़ा हुआ - “आपकी मर्जी हो बोर्ड टांगें, न मर्जी हो न टांगें ।”
“लेकिन वो गिरधारीलाल...”
“लगता है मैं किसी गलत जगह आ गया । वो जरूर किसी और परफ्यूमरी कम्पनी में काम करता होगा ।”
“हमारे जैसी एक परफ्यूमरी कम्पनी तो हमारे ब्लॉक में ही है ।”
“जरूर वही होगी । मैं वहां पता करता हूं । शुक्रिया ।”
आगाशे तत्काल वहां से विदा हुआ ।
वो कनाट प्लेस पहुंचा ।
वहां प्रिंट आर्ट नामक अतिआधुनिक स्टेशनरी शॉप तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई ।
शाप के अग्रभाग में रिसेप्शन का लम्बा काउन्टर था जिस पर तीन कड़क सुन्दरियां तैनात थीं । उनमें दो ग्राहकों से बात कर रही थीं लेकिन तीसरी खाली थी ।
वो तीसरी के करीब पहुंचा और उसने उसे समझाया कि वो किस प्रकार का लेटरहैड छपवाना चाहता था । जवाब में युवती ने उसके सामने एक फाइल रखी जिसके भीतर एक चुटकी की पकड़ में विभिन्न प्रकार के लेटरहैड्स के सैम्पल दिखाई दे रहे थे और उसे उनमें से अपनी पसन्द का सैम्पल चुनने के लिए कहा ।
आगाशे बड़ी सावधानी से फाइल के पन्ने पलटने लगा ।
तभी एक और ग्राहक वहां पहुंच गया और वो युवती आगाशे को फाइल टटोलता छोड़कर उसे अटैण्ड करने चली गयी ।
आगाशे ने सारी फाइल पलटी और फिर उसे बन्द कर दिया । फिर वो फाइल को काउन्टर पर रखकर दूसरी सेल्सगर्ल के करीब सरक आया । उसके कहने पर उसने अपनी सैम्पल फाइल आगाशे के सामने रखी । आगाशे ने उसके भी पन्ने पलटने आरम्भ किये लेकिन जल्दी ही उसे महसूस हो गया कि वो फाइल पहली फाइल की ऐन डुप्लीकेट थी । जैसे सैम्पल वो पहले देख चुका ऐन वैसे ही उसे अब दिखाई दे रहे थे ।
भुनभुनाते और असंतोष जाहिर करते वो तीसरी युवती के करीब सरक आया । उस युवती ने उसे समझाने की कोशिश की कि तीनों सैम्पल फाइलों में ऐन एक ही जैसे कागजात थे लेकिन फिर भी आगाशे ने उसकी फाइल देखनी चाही । युवती ने यूं अपनी फाइल उसे सौंपी जैसे वो जानती थी कि वो कोई खब्ती बूढा था, कोई फैसला तत्काल कर लेना जिसके बस की बात नहीं थी ।
उस फाइल को देखते हुए आगाशे ने पाया कि तीनों फाइलों में ऐन एक जैसे कागजात नहीं थे । कम-से-कम एक फर्क तो उसकी निगाह ने यकीनन नोट किया ।
“मैं यूं ही यहां नहीं चला आया ।” - फाइल के पन्ने पलटता हुआ वो उस सेल्सगर्ल से बोला - “अपने एक खास दोस्त की सिफारिश पर मैं यहां आया हूं ।”
“आपके दोस्त” - वो मधुर स्वर में बोली - “अपनी स्टेशनरी हमारे यहां से लेते होंगे ।”
“जाहिर है । तभी तो सिफारिश की ।”
“सर, जो कोई भी हमसे एक बार काम करा लेगा वो तो हमारी सिफारिश जरूर करेगा ।”
“हां । ऐसा ही मालूम होता है ।”
“कौन हैं आपके फ्रेंड ? शायद मैं उन्हें जानती होऊं !”
“नाम से कई बार नहीं कुछ याद आता । मैं तुम्हें उनकी एक तस्वीर दिखाता हूं जो इत्तफाक से इस वक्त मेरे पास है ।”
“जरूर ।”
आगाशे ने जेब से एक तस्वीर निकालकर युवती को दिखाई ।
“अच्छा, ये हैं आपके फ्रेंड ।” - युवती तस्वीर पर निगाह डालती हुई बोली - “इन्हें तो मैं पहचानती हूं ।”
“अभी कोई तीन हफ्ते पहले ही ये यहां आये थे । नहीं ?”
“हां । इतने ही दिन हुए होंगे मेरे ख्याल से इन्हें यहां आये । ....तो फिर कौन-सा डिजाइन पसन्द किया आपने ?”
उस घड़ी लेटरहैड का जो सैम्पल उसके सामने आया, आगाशे ने उस पर उंगलियां रख दीं ।
बाकी का दिन आगाशे ने सैकेण्डहैण्ड टाइपराइटरों के डीलरों की दुकानों की खाक छानते गुजारा ।
हर दुकान पर उसने रेमिंगटन-ट्रैवलर के नाम से जाने जाने वाले पोर्टेबल टाइपराइटर में ही रुचि दिखाई । किसी सेल्समैन ने कोई और किसम का टाइपराइटर आफर किया तो उसने उसकी तरफ झांकना तक गवारा न किया और कहा कि उसके एक दोस्त ने सिर्फ रेमिंगटन-ट्रैवलर की ही सिफारिश की थी क्योंकि अभी सिर्फ तीन हफ्ते पहले उसने वैसा एक सैकेण्डहैण्ड टाइपराइटर खरीदा था और वो उससे बहुत सन्तुष्ट था ।
कहीं यहीं से तो नहीं खरीदा था ?
जी नहीं । हमने तो पिछले दो महीनों से रेमिंगटन-ट्रैवलर नहीं बेचा ।
लेकिन खैबर पास पर स्थित एक दुकान से मुख्तलिफ जवाब मिला ।
जी हां - वहां दुकानदार ने अपनी रसीद बुक देखकर बताया - एक महीना पहले हमने ऐसा एक टाइपराइटर बेचा था, जो कि हो सकता था कि आपके फ्रेंड ने ही खरीदा हो ।
आगाशे ने फ्रेंड का हुलिया बयान करना आरम्भ किया तो उसके ऐसा कर चुकने से पहले ही दुकानदार की गर्दन सहमति में हिलने लगी ।
आगाशे ने फ्रेंड की तस्वीर दिखाई तो दुकानदार ने उसकी भी फौरन शिनाख्त की । जरूर उनका फ्रेंड ही एक महीना पहले उनके यहां से एक सैकण्डहैण्ड रेमिंगटन-ट्रैवलर खरीद कर ले कर गया था ।
दुकानदार से अपनी वो मनमाफिक जानकारी हासिल हो जाने के बाद आगाशे से टापइराइटर की खरीद को नकारते न बना ।
उसे बारह सौ रुपये की चपत लगी ।
अपनी दिनभर की भाग दौड़ से पूर्णतया सन्तुष्ट वो जोरबाग लौटा ।
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