दूसरी सुबह। सोफ़िया की हैरत की कोई सीमा न रही। जब उसने देखा कि कर्नल उस ख़ब्ती आदमी की ज़रूरत से ज़्यादा ख़ातिर-मदारात कर रहा है।
अनवर और आरिफ़ अपने कमरों ही में नाश्ता करते थे। वजह यह थी कि कर्नल को विटामिनों का ख़ब्त था। उसके साथ उन्हें भी नाश्ते में कुछ तरकारियाँ और भिगोये हुए चने खाने पड़ते थे। उन्होंने देर से सो कर उठना शुरू कर दिया था। आज कल तो एक अच्छा-ख़ासा बहाना हाथ आया था कि वे काफ़ी रात गये तक राइफ़लें लिये टहला करते थे।
आज नाश्ते की मेज़ पर सिर्फ़ सोफ़िया, इमरान और कर्नल थे। इमरान कर्नल से भी कुछ ज़्यादा ‘विटामिन-ज़दा’ नज़र आ रहा था। कर्नल तो भीगे हुए चने ही चबा रहा था, मगर इमरान ने यह हरकत की कि चनों को छील-छील कर छिलके अलग और दाने अलग रखता गया। सोफ़िया उसे हैरत से देख रही थी जब छिलकों की मिक़दार ज़्यादा हो गयी तो इमरान ने उन्हें चबाना शुरू कर दिया।
सोफ़िया को हँसी आ गयी। कर्नल ने शायद उधर ध्यान नहीं दिया था। सोफ़िया के हँसने पर वह चौंका और फिर उसके होंटों पर भी हल्की-सी मुस्कुराहट फैल गयी।
इमरान बेवक़ूफ़ों की तरह बारी-बारी से उन दोनों की ओर देखने लगा, लेकिन उसका छिलके उतार कर खाना अब भी जारी था।
‘शायद आप कुछ ग़लत खा रहे हैं।’ सूफिया ने हँसी रोकने की कोशिश करते हुए कहा।
‘हाँय!’ इमरान आँखें फाड़ कर बोला, ‘ग़लत खा रहा हूँ?’
फिर वह घबरा कर उसी तरह अपने दोनों कान झाड़ने लगा जैसे वह अब तक सारे निवाले कानों ही में रखता रहा हो। सोफ़िया की हँसी तेज़ हो गयी।
‘मेरा...मतलब...ये है कि आप छिलके खा रहे हैं।’ उसने कहा।
‘ओह...अच्छा अच्छा!’ इमरान हँस कर सिर हिलाने लगा। फिर उसने संजीदगी से कहा, ‘मेरी सेहत रोज़-ब-रोज़ ख़राब होती जा रही है, इसलिए मैं ग़िज़ा का वह हिस्सा इस्तेमाल करता हूँ जिसमें सिर्फ़ विटामिन पाये जाते हैं। ये छिलके विटामिनों से भरे हैं! मैं सिर्फ़ छिलके खाता हूँ। आलू का छिलका...प्याज़ का छिलका...गेहूँ की भूसी...वग़ैरह, वग़ैरह...’
‘तुम शैतान हो!’ कर्नल हँसने लगा। ‘मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे हो!’
इमरान अपना मुँह पीटने लगा। ‘अरे तौबा तौबा...यह आप क्या कह रहे हैं।’ कर्नल बदस्तूर हँसता रहा।
सोफ़िया हैरत में पड़ गयी! अगर यह हरकत किसी और ने की होती तो कर्नल शायद झल्लाहट में राइफ़ल निकाल लेता। कभी वह इमरान को घूरती थी और कभी कर्नल को, जो बार-बार तश्तरियाँ इमरान की तरफ़ बढ़ा रहा था।
‘क्या वे दोनों गधे अभी सो रहे हैं?’ अचानक कर्नल ने पूछा।
‘जी हाँ...!’
‘मैं तंग आ गया हूँ उनसे, मेरी समझ में नहीं आता कि आगे चल कर उनका क्या बनेगा।’
सोफ़िया कुछ न बोली। कर्नल बड़बड़ाता रहा।
नाश्ते से निबट कर इमरान बाहर आ गया।
पहाड़ियों में धूप फैली हुई थी। इमरान किसी सोच में डूबा हुआ दूर की पहाड़ियों की तरफ़ देख रहा था। सोनागिरी की शादाब पहाड़ियाँ गर्मियों में काफ़ी आबाद हो जाती हैं। नज़दीक और दूर के मैदानी इलाक़ों की तपिश से घबराये हुए पैसे वाले लोग आम तौर से यहीं पनाह लेते हैं। होटल आबाद हो जाते हैं और स्थानीय लोगों के छोटे-छोटे मकान भी जन्नत-सरीखे बन जाते हैं। वे प्राय: गर्मियों में उन्हें किराये पर उठा देते हैं और ख़ुद छोटी-छोटी झोंपड़ियाँ बना कर रहते हैं। अपने किरायेदारों की ख़िदमत भी करते हैं जिसके बदले में उन्हें अच्छी-ख़ासी आमदनी हो जाती है और फिर सर्दियों का ज़माना इसी कमाई के बल-बूते पर थोड़े-बहुत आराम के साथ गुज़र जाता है।
कर्नल ज़रग़ाम का स्थायी निवास यहीं था। उसकी गिनती यहाँ के सम्मानित लोगों में होती थी। सोफ़िया उसकी इकलौती लड़की थी। अनवर और आरिफ़ भतीजे थे जो गर्मियाँ अक्सर उसी के साथ गुज़ारते थे।
इमरान ने एक लम्बी अँगड़ाई ली और सामने से नज़रें हटा कर इधर-उधर देखने लगा। शहतूतों की मीठी-मीठी गन्ध चारों तरफ़ फैली हुई थी। इमरान जहाँ खड़ा था, उसे पाईं बाग़ तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन था बाग़ ही। आड़ू, ख़ूबानी, सेब और शहतूत के दरख़्त इमरान के चारों तरफ़ फैले हुए थे। ज़मीन पर गिरे हुए शहतूत न जाने कब से सड़ रहे थे और उनकी मीठी गन्ध ज़ेहन पर बुरी लगती थी।
इमरान अन्दर जाने के लिए मुड़ा ही था कि सामने से सोफ़िया आती दिखाई दी। अन्दाज़ से मालूम हो रहा था कि वह इमरान ही के पास आ रही है। इमरान रुक गया।
‘क्या आप प्राइवेट जासूस हैं?’ सोफ़िया ने आते ही सवाल किया।
‘जासूस!’ इमरान ने हैरत से दुहराया, ‘नहीं तो...हमारे मुल्क में तो प्राइवेट जासूस क़िस्म की कोई चीज़ नहीं पायी जाती।’
‘फिर आप क्या हैं?’
‘मैं,’ इमरान ने संजीदगी से कहा, ‘मैं क्या हूँ...मिर्ज़ा ग़ालिब ने मेरे लिए शे’र कहा था...
‘हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं!!
‘मैं हक़ीक़तन किराये का एक नौहागर (शोक गीत गाने वाला) हूँ! बड़े लोग दिल या जिगर को पिटवाने के लिए मुझे किराये पर हासिल करते हैं। और फिर मैं उन्हें हैरान होने का भी...वो नहीं देता, क्या कहते हैं उसे...हाँ, मौक़ा, मौक़ा...’
सोफ़िया ने नीचे से ऊपर तक उसे घूर कर देखा। इमरान के चेहरे पर बरसने वाली बेवक़ूफ़ी कुछ और ज़्यादा हो गयी।
‘आप दूसरों को उल्लू क्यों समझते हैं?’ सोफ़िया भन्ना कर बोली।
‘मुझे नहीं याद पड़ता कि मैंने कभी किसी उल्लू को भी उल्लू समझा हो।’
‘आप आज जा रहे थे?’
‘च्च...च्च...! मुझे अफ़सोस है...कर्नल साहब ने तसल्ली के लिए मेरी ख़िदमात हासिल कर ली हैं...मेरा साइड बिज़नेस तसल्ली और दिलासा देना भी है।’
सोफ़िया कुछ देर ख़ामोश रही फिर उसने कहा, ‘तो इसका मतलब यह है कि आपने सारे मामलात समझ लिये हैं।’
‘मैं अक्सर कुछ समझे-बूझे बग़ैर भी तसल्लियाँ देता रहता हूँ।’ इमरान ने गम्भीर हो कर कहा, ‘एक बार का ज़िक्र है कि एक आदमी ने मेरी ख़िदमात हासिल कीं...मैं रात भर उसे तसल्लियाँ देता रहा, लेकिन जब सुबह हुई तो मैंने देखा कि उसकी खोपड़ी में दो सूराख़ हैं और वो न दिल को रो सकता है और न जिगर को पीट सकता है।’
‘मैं नहीं समझी।’
‘इन सूराख़ों से बाद को रिवॉल्वर की गोलियाँ बरामद हुईं थीं...चमत्कार था जनाब, चमत्कार...! सचमुच यह चमत्कारों का ज़माना है। परसों ही अख़बार में मैंने पढ़ा था कि ईरान में एक हाथी ने मुर्ग़ी के अण्डे दिये हैं।’
‘आप बहुत सैडिस्ट मालूम होते हैं।’ सोफ़िया मुँह बिगाड़ कर बोली।
‘आपकी कोठी बड़ी शानदार है।’ इमरान ने मौज़ूँ बदल दिया।
‘मैं पूछती हूँ, आप डैडी के लिए क्या कर सकेंगे?’ सोफ़िया झुँझला गयी।
‘दिलासा दे सकूँगा...’
सोफ़िया कुछ कहने ही वाली थी कि बरामदे की तरफ़ से कर्नल की आवाज़ आयी, ‘अरे...तुम यहाँ हो...!’ फिर वह क़रीब आ कर बोला, ‘ग्यारह बजे ट्रेन आती है। वो दोनों गधे कहाँ हैं? तुम लोग स्टेशन चले जाओ...मैं न जा सकूँगा!’
‘क्या ये वापस नहीं जायेंगे?’ सोफ़िया ने इमरान की तरफ़ देख कर कहा।
‘नहीं!’ कर्नल ने कहा, ‘जल्दी करो साढ़े नौ बज गये है!’
सोफ़िया कुछ देर खड़ी इमरान को घूरती रही फिर अन्दर चली गयी।
‘क्या आपके यहाँ मेहमान आ रहे हैं?’ इमरान ने कर्नल से पूछा।
‘हाँ, मेरे दोस्त हैं!’ कर्नल बोला, ‘कर्नल डिक्सन...ये एक अंग्रेज़ हैं, मिस डिक्सन, उनकी लड़की और मिस्टर बारतोश...!’
‘बारतोश!’ इमरान बोला, ‘क्या चेकोस्लोवाकिया का बाशिन्दा है।’
‘हाँ...क्यों? तुम कैसे जानते हो?’
‘इस क़िस्म के नाम सिर्फ़ उधर ही पाये जाते हैं।’
‘बारतोश डिक्सन का दोस्त है। मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा है। वह तस्वीर बनाता है।’
‘क्या वे कुछ दिन ठहरेंगे?’
‘हाँ, शायद गर्मियाँ यहीं गुज़ारें!’
‘क्या आप उन लोगों से ली यूका वाले मामले का ज़िक्र करेंगे।’
‘हरगिज़ नहीं!’ कर्नल ने कहा, ‘लेकिन तुम्हें इसका ख़याल कैसे आया।’
‘यूँही!...अलबत्ता, मैं एक ख़ास बात सोच रहा हूँ।’
‘क्या?’
‘वे लोग आप पर अभी तक क़रीब-क़रीब सारे तरीक़े इस्तेमाल कर चुके हैं, लेकिन काग़ज़ात हासिल करने में नाकाम रहे। काग़ज़ात हासिल किये बग़ैर वे आपको क़त्ल भी नहीं कर सकते, क्योंकि हो सकता है कि उसके बाद काग़ज़ात किसी और के हाथ लग जायें...अब मैं यह सोच रहा हूँ कि क्या आप लड़की या भतीजों की मौत बर्दाश्त कर सकेंगे?’
‘क्या बक रहे हो?’ कर्नल काँप कर बोला।
‘मैं ठीक कह रहा हूँ...’ इमरान ने सिर हिला कर कहा, ‘मान लीजिए, वे सोफ़िया को पकड़ लें...फिर आपसे काग़ज़ात की माँग करें...इस सूरत में आप क्या करेंगे?’
‘मेरे ख़ुदा!’ कर्नल ने आँखें बन्द करके एक खम्भे से टेक लगा ली।
इमरान ख़मोश खड़ा रहा। कर्नल आँखें खोल कर मुर्दा-सी आवाज़ में बोला, ‘तुम ठीक कहते हो! मैं क्या करूँ? मैंने इसके बारे में कभी नहीं सोचा था।’
‘ सोफ़िया को स्टेशन न भेजिए।’
‘अब मैं अनवर और आरिफ़ को भी नहीं भेज सकता।’
‘ठीक है!...आप ख़ुद क्यों नहीं जाते?’
‘मैं उन लोगों को तन्हा भी नहीं छोड़ सकता।’
‘इसकी फ़िक्र न कीजिए! मैं मौजूद रहूँगा।’
‘तुम!’ कर्नल ने उसे इस तरह देखा जैसे वह बिलकुल पागल हो! ‘तुम...क्या तुम किसी ख़तरे का मुक़ाबला कर सकोगे?’
‘हा...हा...क्यों नहीं...? क्या आपने मेरी हवाई बन्दूक़ नहीं देखी?’
‘संजीदगी! मेरे लड़के...संजीदगी।’ कर्नल अधीरता से हाथ उठा कर बोला।
‘क्या आप कैप्टन फ़ैयाज़ को भी बेवक़ूफ़ समझते हैं?’
‘आँ...नहीं।’
‘तब फिर आप बेखटके जा सकते हैं। मेरी हवाई बन्दूक़ एक चिड़े से ले कर हिरन तक शिकार कर सकती है।’
‘तुम मेरा रिवॉल्वर पास रखो!’
‘अरे तौबा-तौबा।’ इमरान अपना मुँह पीटने लगा, ‘अगर यह सचमुच चल ही गया तो क्या होगा?’
कर्नल कुछ देर इमरान को घूरता रहा फिर बोला, ‘अच्छा, मैं उन्हें रोके देता हूँ!’
‘ठहरिए! एक बात और सुनिए!’ इमरान ने कहा और फिर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ कहता रहा। कर्नल के चेहरे की रंगत कभी पीली पड़ जाती थी और कभी वह फिर अपनी अस्ल हालत पर आ जाता था।
‘मगर!’ थोड़ी देर बाद अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़ुबान फेर कर बोला, ‘मैं नहीं समझ सकता।’
‘आप सब कुछ समझ सकते हैं! अब जाइए...’
‘ओह...मगर!’
‘नहीं कर्नल...मैं ठीक कह रहा हूँ।’
‘तुमने मुझे उलझन में डाल दिया है।’
‘कुछ नहीं...बस आप जाइए।’
कर्नल अन्दर चला गया। इमरान वहीं खड़ा कुछ देर तक अपने हाथ मलता रहा। फिर उसके होंटों पर फीकी-सी मुस्कुराहट फैल गयी।
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