पहलवान भूत का खौफ
इंसानों की भीड़ भरी दुनिया में बसती हैं, कुछ ऐसी खौफनाक हकीकतें, जिनका सामना होने पर ज़िंदगी के मायने बदल जाते हैं। अमूमन, जब तक इंसान इन पारलौकिक शक्तियों से रूबरू नहीं होता, तब तक वह इन्हें नहीं मानता। जिन लोगों को इस प्रकार के डरावने अनुभव से गुज़रना पड़ता है, उनकी ज़िंदगी खौफ़ से भर जाती है।
यह खौफनाक कहानी आज से लगभग 22 वर्ष पहले की है। जब इंसान ज़िन्दगी से तेज दौड़ सकते थे और मोमबत्तियाँ ‘बिजली’ का काम किया करती थीं।
उस दिन, होटल पहुँचने तक मेरी टांगे जवाब दे चुकी थी, क्योंकि हाथरस से ऋषिकेश की 375 किलोमीटर लंबी यात्रा, बस द्वारा लगातार चलना मामूली नहीं थी।
सूरज ढलते ही ठंड बढ़ चुकी थी। गंगा जी का पानी ठिठुर रहा था।
गर्म पानी मंगाकर पैरों की सिकाई की गई और तय किया कि भोजन करके, कुछ देर सोया जाए। रात के तीसरे पहर में उठकर, स्नान-ध्यान करने के बाद सुबह चार बजे वाली सबसे पहली बस से आगे की यात्रा की जाए। मैं भोजन करके जल्दी ही सो गया ।
‘सुबह जल्दी उठना है’ के चक्कर में रात बेचैनी से कटी। रात ढाई बजे मेरी नींद खुली। मैंने रिसेप्शन पर बैठे शख़्स को जगाया और उस से एक बाल्टी गर्म पानी मांगी।
वह बोला, “साहब, गर्म पानी का आपको अलग से ₹5 देने होंगे।”
मैं झुंझलाकर बोला, “जब शाम को कमरा लेने के लिए आया था, तब ₹100 में सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, ऐसा क्यों कहा था!?”
“बाबूजी, उनका तो काम ही है कहना, लेकिन यहाँ सारी व्यवस्था तो मुझे ही करनी पड़ती है। ये भी तो देखो, इतनी सुबह आपके लिए मुझे भी तो जागना पड़ रहा है।”
उसने तपाक से उत्तर दिया, जैसे उसकी दुम पर मैंने अपने पाँव रख दिए हो।
“ठीक है, ले लेना भाई! बस, जब तक मैं फ्रेश हो कर आता हूँ, तब तक मुझे गर्म पानी तो मिल ही जाना चाहिए।”, मैंने रोब जमाते हुए कहा।
बड़ी मुश्किल से थोड़ी देर में गर्म पानी मिला, जो कि गर्म पानी के नाम पर बस गुनगुना ही था। शायद, मुझे ऐसी ठंड में अत्यधिक गर्म पानी चाहिए था। खैर! मुझे देर हो रही थी इसलिए मैंने फटाफट गर्म बाल्टी की पानी को उठाया और नहाने चला गया।
थोड़ी देर में ही नहाकर मैं बाहर आ गया। सरसों तेल से मालिश कर के अपने बदन को दुरुस्त किया। बचपन में माँ से सुना था कि सरसों तेल यदि अपने जिस्म पर लगा लिया जाए तो ठण्ड का एहसास कम होता है। सारे बिखरे सामान को अपने एक ट्रैवलिंग बैग में डालकर, अच्छी तरह से पैक किया गया।
रिसेप्शन पर पहुँचा तो देखा कि जनाब ऊंघ रहे हैं। मैंने उनको जैसे ही हिलाया तो वह बोला पड़ा, “अरे! अरे!! ये क्या तरीका है, किसी को उठाने का? आप मुँह से भी तो बोलकर उठा सकते हो?”
“देखो, महाराज जी! मेरे पास इतना वक़्त नहीं है। मुझे यहाँ होटल से 2 किमी पैदल चल कर, बस अड्डे से चम्बा होते हुए उत्तरकाशी जाने वाली बस पकड़नी है। होटल थोड़ी दूर होने की वजह से और सुबह होने की वजह से, यहाँ से बस अड्डे तक की यात्रा मुझे पैदल ही तय करनी है।”, मैं जल्दबाजी में उसे बोलता ही चला गया।
“देखिए साहब, यदि आपको देर हो रही है तो बोलिए, मैं आपको अपनी लूना-फटफटिया से पहुँचवा देता हूँ। लेकिन जनाब, उसके लिए आपको ₹10 देने होंगे।”, रिसेप्शन पर बैठे शख़्स ने आँखों में चमक लिए हुए कहा।
“हद है! पैसा ही तुम लोगों के लिए सब कुछ है क्या? इंसानियत नाम की भी कोई चीज़ है या नहीं? समझ नहीं आता कि चंद कागज़ के टुकड़ों के लिए, मिट्टी के बने इंसान इतने लोभी कैसे हो जाते हैं? नहीं, महाशय! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। मेरे पास अभी काफी वक़्त है, मैं पैदल ही चला जाऊँगा।”,
यह कहते हुए मैंने होटल के बिल का भुगतान किया और अपना बैग उठा कर पैदल ही अपनी मंजिल की तरफ निकल पड़ा।
वैसे यहाँ ‘गंगोत्री लॉज’ रुकने के लिए उत्तम था और यहाँ के रसोइये ने उम्दा खाना भी खिलाया था। रेट कुछ ज्यादा था, लेकिन उम्दा खाने ने कसर पूरी कर दी।
होटल से बस अड्डे के रास्ते में गंगा नदी की अविरल धारा अलग ही छटा बिखेर रही थी; बड़ा ही मनोरम दृश्य था। आसपास दूर के घरों के जलते हुए बिजली के बल्ब की प्रतिबिंब गंगा नदी की धारा पर पड़ रही थी, जो अलग ही चमक बिखेर रही थी, मानो जैसे अपनी ओर आकर्षित कर रही हो।
समय की कमी की वजह से मुझे अपनी इच्छाओं पर काबू करना पड़ा। अगली बार गंगा स्नान का मन में संकल्प लिए, मैं बस अड्डे पहुँच गया। घड़ी में वक़्त देखा तो 3 बजकर 50 मिनट हो रहे थे।
उत्तराखण्ड रोडवेज की बस मुझे अंदर घुसते के साथ सामने ही दिख गई, जिस पर ‘ऋषिकेश से उत्तरकाशी वाया चम्बा’ का बोर्ड लगा हुआ था। कंडक्टर से उत्तरकाशी तक जाने की एक टिकट लेकर मैं बस में चढ़ गया। मैंने बस में खिड़की वाली सीट पकड़ ली।
पहाड़ी इलाकों में चलने वाली बसें, सुबह ही रवाना हो जाती है। पहला कारण यह कि रास्ता पहाड़ों को काट कर बनाया गया है, जो अत्यधिक संकरा है। दूसरा यह कि रास्ते में अनेक घुमावदार मोड़ भी आते हैं।
◆◆◆
गाड़ी
हर-हर महादेव
के उदघोष के साथ अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी। थोड़ी ही देर में मेरे बगल वाले यात्री के खर्राटे शुरु हो गए, मानो जैसे जनाब पूरी रात नहीं सोए हों।
सुबह के साढ़े नौ हो चले थे और गाड़ी में हीटर चल रहा था। थोड़ी देर चाय और लघुशंका के काम से बस 20 मिनट के लिए चम्बा नामक जगह पर रुकी। बाहर निकलते ही ठंड का पता चल गया। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। चारों तरफ सर्द हवाओं की हल्की-हल्की झोंका बह रही थी।
ठंड से दोनों हाथ सुन्न पड़ गए थे और नाक सुर्ख लाल हो गया था। मैं दोनों मुट्ठियों को सिकोड़कर उसमें फूँक मारकर गर्म करने की नाकाम कोशिश कर रहा था। बस से निकल कर चाय बनने तक ठिठुर चुका था। होटल की भट्टी की आँच भी गरमाहट नहीं दे रही थी।
बस के एक सहयात्री ने बताया कि दो दिनों से यहाँ पाला पड़ रहा है। लगता है ऊपर चोटियों में इस वर्ष जल्दी ही बर्फ पड़ गई है। इस तरफ पानी भी जमने लगा है।
जल्दी से चाय के घूँट लेकर, मैं बस की तरफ बढ़ लिया। जल्दी से बस में घुसकर मैंने सोने का यत्न किया लेकिन नींद नहीं आ रही थी।
थोड़ी देर के बाद नींद आई तो सपने में एक भयानक चुड़ैल का चेहरा दिखाई दिया। मैं उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसका चेहरा लगातार बदलता जा रहा था। उसके रूप बदलते जा रहे थे।
वह मुझे कह रही थी, “अब तुम्हारा समय पूरा हो गया है, तुम्हें मेरे साथ चलना ही पड़ेगा!”
फिर उसके चेहरे का रंग अनवरत बदलने लगा। मैंने उसे गाली दी और गन की ओर हाथ बढ़ा रहा था। गन मेरे हाथ से दूर छिटकते जा रही थी।
तभी मेरी आँख खुली तो देखा कि बस जंगल में खड़ी है। वहाँ आस-पास ना तो कंडक्टर और ना ही कोई यात्री बस में नजर आ रहा था। यह देखकर मेरी हालत नाज़ुक हो गई।
मेरे लिए विकट परिस्थिति हो चली थी। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि आखिर इस बस के सारे यात्री किधर गए। कहीं इसका उस सपने से कोई लेना देना तो नहीं। कहीं यह लघु स्वप्न किसी घटना का परिसूचक तो नहीं था।
मैं टकटकी लगाए बस में बैठे-बैठे चारों ओर निहार रहा था। उस दुःस्वप्न के कारण मन में नकारात्मक विचार हावी हो रहे थे। दिमाग में यह मंथन चल रहा था कि कहीं उसकी कथन वास्तविकता का रूप तो नहीं लेने वाला।
मैं अपनी सीट से एकाएक उठ खड़ा हुआ और इस डरावने खामोशी को चीरता हुआ, अपने आप से बुदबुदाया, “नहीं! वह मात्र एक स्वप्न था। मुझे बस से नीचे उतर कर देखना चाहिए।”
मन में यह विचार लिए मैं बस से जैसे ही नीचे उतरा तो देखा कि कंडक्टर वहीं नीचे खड़ा था। उसे देखते ही मैंने राहत की सांस ली और कंडक्टर से बस रुकने का कारण पूछा।
वह बोला, “साहब, गाड़ी का पिछला टायर पंचर हो गया है और इसे बदला जा रहा है। आप गहरी नींद में सो रहे थे तो मैंने आपको जगाना मुनासिब नहीं समझा। आपकी थकान को देखकर लगता है कि आप काफी दूर से आ रहे हैं?”
“हाँ! सही कहा आपने। मैं हाथरस से आ रहा हूँ और मुझे उत्तरकाशी जाना है।”, मैंने उसको जवाब दिया।
यह सुनते ही कंडक्टर ने एक प्रश्न कर दिया, “आपकी बोलचाल से तो यह पता लग रहा कि आप यहाँ के नहीं हो। पहले कभी उत्तरकाशी आए हो या किसी काम से जा रहे हो?”
“बिल्कुल सही अंदाजा लगाया आपने। मैं हाथरस का रहने वाला हूँ, जो कि उत्तरकाशी से लगभग 425 किमी पड़ता है। उत्तरकाशी के गंगोई गाँव के इंटर कॉलेज में मेरा सहायक अध्यापक के पद पर चयन हुआ है, मैं वहाँ आज जॉइन करने जा रहा हूँ।”
“वाह गुरुजी! यह तो बहुत अच्छी बात है। वहाँ आपको किसी भी तरह की परेशानी नहीं होगी।
बाकी मेरा मानना है, जो यहाँ आया है, वह यहीं का होकर रह जाता है। बहुत ही मनोरम वातावरण है इधर का।”, कंडक्टर अपने ज्ञान का विस्तार मेरे समक्ष करने में लगा हुआ था।
इतना कहने के बाद वह बस के पीछे की तरफ चला गया। मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो देखा कि बाकी सारे यात्री धूप से गर्मी चुराने में व्यस्त थे।
मैंने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए अंगड़ाई ली तो देखा कि बाकी सभी यात्री बारी-बारी बस में चढ़ने लगे। बस का टायर बदला जा चुका था। मैं भी वापिस अपनी सीट पर आ कर बैठ गया। यात्रियों के बैठते ही बस एक बार फिर से चल पड़ी।
बस ने रफ्तार पकड़ी तो मील का पत्थर बता रहा था कि उत्तरकाशी अब मात्र 39 किलोमीटर ही दूर है।
टिहरी के धरासू बैंड के बाद ही उत्तरकाशी जिला का प्रारंभ हो जाता है। धरासू बैंड से उत्तरकाशी 39 किमी की दूरी पर पड़ता है। जंगल के बीच घुमावदार पहाड़ी रास्ते पर इतने मोड़ हैं कि गिनती ही नहीं हो सकती।
सर्पीला रास्ता गाड़ी की स्पीड बढ़ाने ही नहीं दे रहा था। लगभग, और सवा घंटे में ही बस उत्तरकाशी पहुँच चुकी थी। घड़ी में वक़्त 2 बजे का हो चला था।
मैंने स्थानीय लोगों को अपना परिचय दिया, तो उन्होंने बताया कि गंगोई गाँव वहीं पास में ही था। वहाँ मुख्य सड़क से गंगोई गाँव लगभग 2 किमी की दूरी पर थी, जहाँ जाने के लिए खड़ी चढ़ाई थी।
काफी मशक्कत करने के बाद, ठीक साढ़े तीन बजे गंगोई इंटर कॉलेज में मैंने अपना पदभार ग्रहण कर लिया। सामान ज्यादा होने की वजह से चढ़ाई में कुछ ज्यादा वक्त लग गया था। स्थानीय लोगों की मदद से गंगोई गाँव के पोस्ट ऑफिस के सामने ही किराए पर घर भी मिल गया।
◆◆◆
अगले ही दिन से, मैं निरंतर समय से विद्यालय आने-जाने लगा। हालाँकि मेरे मूल स्थान हाथरस से यह जगह काफी दूर पड़ता था, लेकिन यह जगह वाकई अब धीरे-धीरे मुझे पसंद आने लगी थी।
इसकी एक बड़ी वजह यहाँ के मितभाषी लोग भी थे। ये लोग गुरु की बहुत इज्जत करते थे। खाली गैस का सिलेंडर ले जाकर उसे भरवाकर लाना हो, या किसी भी तरह का काम हो, सभी इसे अपनी जिम्मेदारी मानकर पूरा किया करते थे।
वक़्त के साथ-साथ स्थानीय लोगों पर मेरी पकड़ अब मजबूत हो चली थी, जिसके फलस्वरूप मुझे सब्जियाँ कम ही खरीदनी पड़ती थी। स्थानीय निवासी ताजी सब्जियाँ भेंट कर जाते थे और ताजी सब्जियाँ खाने का मजा ही अलग होता था। चाहे वह पहाड़ी पालक हो या तोमड़ी आलू, इनको बनाते वक्त ही इनसे आने वाली खुशबू मंत्रमुग्ध कर देती थी। इसे खाते वक़्त तो मैं अपनी उँगलियों को चाटने पर मजबूर हो जाता था।
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बात एक शाम की है, मैं पैदल घुमते हुए निकट के गाँव जा पहुँचा।
मुझे वहाँ रहने वाले एक निवासी ने कहा, “गुरुजी, शेर और गुलदार जैसे जानवर यहाँ-वहाँ घूमते हुए आसानी से दिखाई दे जाते हैं। आपको अभी यहाँ की स्थिति का अनुमान नहीं होगा। मेरी मानिए तो अब अंधेरा भी बहुत हो चला है, आपको वापिस हो जाना चाहिए।”
“क... क... क्या कहा? शेर और गुलदार! शायद आप सही कह रहे हो। मुझे पता ही नहीं लगा कि मैं घुमते-घुमते इतनी दूर चला आया हूँ।”
शेर की बात सुनते ही मेरी घिग्घी बंध गई। मैं सरपट अपने कमरे की तरफ दौड़ पड़ा। मैं मन ही मन भगवान से यह प्रार्थना कर रहा था कि हे भगवान! बस मुझे सही सलामत अपने कमरे तक पहुँचा दो। कल से मैं रात को कभी भी फालतू इधर-उधर घूमना तो दूर की बात, कमरे से बाहर तक नहीं निकलूँगा।
मैं तकरीबन आधे घण्टे में ही अपने कमरे में पहुँच गया। मैंने फटाफट दरवाजे की छिटकनी चढ़ाई और भगवान का शुक्रिया अदा किया।
घड़ी में तकरीबन 8 बजे का वक़्त हो चला था। सारा गाँव सुनसान सा लग रहा था। चारों ओर वीराना पसरा हुआ था। गाँव में लोग जल्द ही खा पी कर सो जाते हैं। मैंने भी जल्दी पहाड़ी राई और पालक बनाया, और जल्दी से खा पीकर बिस्तर में घुस गया।
करीब रात के 10 बज रहे होंगे, उसी वक़्त एक औरत की तेज चीख ने मेरी नींद को तोड़ दिया। मैं बहुत घबरा गया। मन में अजीब-अजीब ख्याल आ रहे थे कि आखिर कौन हो सकती है? भला इतनी रात को ऐसे चीखने का क्या मतलब? कहीं वह किसी मुसीबत में तो नहीं?
मैं फटाफट बिस्तर से उठा और टॉर्च लेकर उस घटनास्थल की तरफ दौड़ पड़ा, जिस तरफ से मुझे आवाज आई थी।
लगभग 200 मीटर की दूरी पर, ऊपर की तरफ चढ़ाई चढ़ने पर, मैं देखता हूँ कि एक औरत ज़मीन पर पड़ी हुई थी। उसके सिर के चारों तरफ रक्त स्राव हो रहा था। उसकी खोपड़ी खून से सनी हुई थी। मैंने उसके करीब जा कर देखा तो वह दर्द से कराह रही थी और मुँह से बचाने की दुहाई दे रही थी।
मैं फटाफट दौड़कर गाँव के कुछ स्थानीय लोगों को लेकर आया। उनकी मदद से उस अबला को उठाकर मैंने अपने ही कमरे के बेड पर लिटा दिया क्योंकि वहाँ आसपास के इलाके में मेरा ही कमरा पास पड़ता था।
थोड़ी ही देर में यह पता लगा कि उस औरत का पगडंडियों पर चलते हुए संतुलन बिगड़ गया था और वह नीचे गिर पड़ी थी। नीचे गिरते वक़्त उसका सिर किसी बड़े पत्थर से टकरा गया था। उस टक्कर से उस औरत की खोपड़ी का एक हिस्सा खुल गया था। उसे इस हाल में देख पाना ही बहुत बड़ी हिम्मत का काम था।
मुसीबत यहीं नहीं थमी।
मैंने एक नवयुवक को कहा, “जाओ, भाई! जल्दी किसी डॉक्टर को ले आओ, नहीं तो ज्यादा देर हो गई तो इसके लिए मुसीबत हो सकती है।”
यह सुनकर वह नवयुवक बोला, “गुरुजी! यहाँ आस-पास के गाँव में कोई भी डॉक्टर नहीं हैं। यदि कोई डॉक्टर हैं भी तो वह चम्बा में मिलेंगे, जो कि यहाँ से 120 किमी की दूरी पर है।”
मैं यह सुनकर अवाक रह गया कि इस गाँव में कोई भी डॉक्टर नहीं हैं।
मैं हैरानी से बोला, “यहाँ, इस तरह से पड़े रहना भी तो कोई उपाय नहीं है। ऐसे तो यह बेचारी मर ही जाएगी। क्यों ना इसे चम्बा ही ले चलें?”
यह सुनते ही वह नवयुवक बोला, “चम्बा जाना भी इतना आसान नहीं है गुरुजी क्योंकि यहाँ गाँव में सबसे पहली बस जो चम्बा की तरफ जाती है, वो ठीक सुबह 6 बजे है।”
मुझे यह सुनकर इस गाँव की दुर्दशा पर बड़ा ताज्जुब हुआ। मुझे यह एहसास हुआ कि यहाँ गाँव के लोगों का जीवन भी किसी तपस्या से कम नहीं है।
तभी पास खड़े एक व्यक्ति ने कहा, “अरे! पास के ही गाँव में बंगाली वैध जी हैं, क्यों न उन्हीं को बुला लिया जाए। कम से कम उन्हें इतना तो आता ही होगा कि किसी तरह सुबह तक इसके दर्द को कम कर सकें।”
तभी दूसरे ग्रामीण ने कहा, “अरे हाँ! सही बात। भला हम उन्हें कैसे भूल गए? क्या हुआ अगर वे रजिस्टर्ड डॉक्टर नहीं, लेकिन उन्हें भी गाँव-गाँव जाकर इलाज करके काफी अनुभव हो गया है।”
यह सुनते ही मैंने तपाक से अपना टॉर्च उस ग्रामीण को थमाते हुए कहा, “तो भाई! देर क्यों कर रहे हो। जाओ फटाफट। जाओ और उन्हें लेकर ही लौटना।”
मेरी बात सुनते ही उसके साथ एक और व्यक्ति चला गया। लगभग 20 से 30 मिनट में वह वैधजी के साथ हाजिर हो गया।
“ओह! सिर से काफी सारा खून बह गया है। वो तो भला हो आप लोगों का, जिन्होंने समझदारी दिखाते हुए इस औरत का सिर दुपट्टे से बांध दिया है। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं, इसकी जान बच जाएगी।”
यह बात बंगाली वैध ने उस औरत की खोपड़ी का मुआयना करते हुआ कहा।
उन्होंने वहीं मौजूद एक व्यक्ति से फटाफट गर्म पानी लाने को कहा और मेरी तरफ देखते हुए बोले, “गुरुजी! मुझे कम से कम 10 से 12 लोग ऐसे चाहिए, जो शारीरिक रूप से बलिष्ठ हों। तभी इसकी जान बचाई जा सकती है।”
वैध जी की बातें सुनकर आस-पास मौजूद लोगों की आश्चर्य से आँखों की पुतलियां फैलने लगी।
उनमें से एक बोला, “वैध जी, आप होश में तो हो? आप इस औरत के साथ क्या करने वाले हो?”
“देखो, यह वक़्त बहस करने का नहीं हैं। वैसे भी हम लोग काफी वक्त जाया कर चुके हैं। इसकी सलामती चाहते हो, तो जैसा मैं कहूँ ठीक वैसा ही करो।”, वैध जी इस बार सकपकाकर बोले।
मरता क्या न करता। थोड़ी ही देर में गाँव से लगभग 10-12 बलिष्ठ पुरुष कमरे में मौजूद थे। उस औरत की एक नजर हमारी ओर ही थी। यह भांप कर, वैध जी सभी बलिष्ठ मर्दों को दूसरे कमरे में ले गए। मैं भी उन्हीं के साथ हो चला।
उस कमरे में पहुँचने पर वैध जी ने जो कहा, वह सुनना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी।
वे बोले, “देखो, इस औरत को बचाने का एक मात्र उपाय यह है कि मुझे इसकी खोपड़ी को सुई और मजबूत धागे से सिलना ही होगा। यदि ऐसा नहीं किया तो सुबह तक अत्यधिक रक्त स्राव से इसकी बेशक जान चली जाएगी।”
“मैं चाहता हूँ कि जब मैं इसको टांके लगाऊं तो आप सभी लोग इस महिला को बेहद ही मजबूती के साथ पकड़ लें। कहीं से भी पकड़ ढीली नहीं होनी चाहिए। बाकी मैं अपना काम इस सुई और धागे से कर दूँगा।”
इस बात को सुनकर वहाँ मौजूद सभी मर्द भौंचक्का रह गए, लेकिन वैध जी की बातें सुनने के बाद कुछ राहत भी मिली कि कम से कम उस अबला की जान तो बच जाएगी। सभी उस कार्य को अंजाम देने को सहमत हो गए।
सभी कमरे में उस पीड़ित महिला के चारों तरफ फैल जाते हैं और सभी उसको ऊपर से नीचे तक कसकर, अपनी पकड़ मजबूत कर लेते हैं। यह देखकर उस महिला के मन में अजीब-अजीब से ख्याल आने लगे। वह शायद इन सभी की नीयत को गलत भांप गई थी।
वह चीख पड़ी, “अरे बेशर्मों! तुम्हें तनिक भी लज्जा नहीं आती। यहाँ एक औरत ज़िन्दगी और मौत की बीच झूल रही है, और तुम्हें अपनी हवस की पड़ी है। क्या आज जिस्म की भूख इंसानियत से भी बड़ी हो गई है?”
“चुप! एकदम चुप! तू जैसा समझ रही है, वैसा बिल्कुल भी नहीं है। हम तेरा इलाज करने में मदद कर रहे हैं, ना कि...!”, उस भीड़ से एक ग्रामीण चीखकर बोल पड़ा।
“तो इस तरह से पकड़ने का मतलब मैं क्या समझूँ?”, अब उस औरत ने अपने दर्द को भूला कर, ध्यान इस तरफ की हरकतों पर टिका दिया था।
“तुम बस शान्ति से लेटी रहो। तुम्हें धीरे-धीरे सब पता लग जाएगा।”, इस बार मैंने उस औरत को तेज आवाज में नसीहत दे डाली।
अभी यह सब बातें चल ही रही थी कि एक व्यक्ति गर्म पानी पतीले में ले कर वहाँ आ गया। वैध जी ने फटाफट एक सूती कपड़ा उस गर्म पानी में डाला और उस पीड़ित महिला के सिर से बंधे हुए दुपट्टे को धीरे-धीरे निकाला। अब उस सूती कपड़े को बार-बार पतीले में डालकर, पीड़ित महिला की खोपड़ी के ऊपरी भाग को साफ करने लगे।
ज्यों-ज्यों गर्म कपड़े से खोपड़ी पर जमे हुए रक्त को साफ किया जाता, महिला जोर-जोर से दर्द से चीख पड़ती थी।
बड़ी मुश्किल से 10 से 15 मिनट में वैध जी ने लगभग खोपड़ी के ऊपर जमे रक्त के थक्के को गर्म पानी की मदद से हटा दिया। उन्होंने एक सुई निकाली और उसमें धागे को डालने लगे।
यह देखकर वह अबला विचलित हो उठी और बोली, “अरे! अरे!! ये... ये... क्या करने जा रहे हो? नहीं! ये गलत है। मैं यह दर्द झेल नहीं पाऊंगी अब।”
सुई में धागे को डालते ही वैध जी ने कहा, “इसकी आँखों पर कोई तौलिया या कपड़ा रख दो। खुद का इलाज होते हुए देखने से स्वयं को दर्द की अनुभूति कुछ ज्यादा होती है।”
जैसे ही वैध जी ने सिर पर टांके लगाने के लिए खोपड़ी के ऊपरी परत की चमड़ी में सुई चुभो कर सिलने का प्रयास किया, वह औरत दर्द से तिलमिला उठी। थोड़ी देर में ही वह ज़ोर-ज़ोर से दहाड़े मार कर रोने लगी।
तभी वैध जी ने अपनी जेब से रुमाल निकाला और उस अबला के मुख में ठूंस दिया, ताकि उसकी आवाज से ध्यान न भटके और इलाज करने में किसी भी तरह की कोई दिक्कत नहीं आए। काफी मशक्कत करने के बाद सिर पर सारे टांके लगा दिए और वह औरत असहाय पीड़ा से घूंटी आवाज में ही बिलखती रही।
टाँके लगाने के बाद बंगाली वैध जी बोले, “अभी कुछ देर तक ऐसे ही पकड़े रहना। मैं जल्दी से एक लेप लगा देता हूँ, जो सुबह तक इसे दर्द में राहत दिलाएगा।”
ये कहते ही उन्होंने लेप को उसके सिर के चारों तरफ ढंग से लगा दिया और उस औरत के मुँह से अपने रुमाल को भी निकाल लिया। सभी ग्रामीणों ने मेरा और वैध जी का आभार व्यक्त किया और उस अबला को सहारा देते हुए, उसके घर तक छोड़ दिया।
मैंने भी बिस्तर की चादर बदली और बिस्तर पर लेट गया। आँखों से नींद कोसो दूर थी। नजर के सामने वही खौफनाक मंज़र गुजर रहा था कि कैसे वह खून से लथपथ थी और डॉक्टर के अभाव में किस तरह उसका इलाज किया गया। बहरहाल, मैं संतुष्ट था कि अन्त भला तो सब भला।
मैंने एक बात आज ज़िन्दगी में देखी और सीखी कि खौफ़ वाले माहौल में भी पहाड़ी लोग बहुत ही ज्यादा हिम्मती और दृढ़ निश्चय वाले होते हैं। यही स्वभाव यहाँ उन्हें जीने के नए ढंग सिखलाती है।
◆◆◆
सूर्योदय हो रहा था, सामने सूरज की किरणें सीधे ही चेहरे पर पड़ रही थी।
आज रविवार का दिन था, इस वजह से मैं देर से उठा। दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि कल रात की घटना की वजह से दिमाग में देर रात तक गुत्थम-गुथी चल रही थी। फिर मुझे नींद भी बहुत देर रात से आई थी।
दो बजे के लगभग खाना खाने के बाद, मैंने सोचा कि यहाँ पास के गाँव में एक पुरानी हवेली हैं, क्यों न उसे देख कर आया जाए। मन में यह विचार लिए, मैं उस पुरानी हवेली में जा पहुँचा ।
पिछले हफ्ते ही, गाँव के एक व्यक्ति ने बताया था उस हवेली के बारे में कि यह तक़रीबन 250 वर्ष पुरानी है, जो राजा-महाराजाओं की ख्यातियों की बखान करती है। यहाँ हिंदी सिनेमा की कई हॉरर फिल्मों को फिल्माया भी गया है। उसने साथ-साथ यह भी हिदायत दी थी कि इस हवेली में कभी भी सूरज ढलने के बाद रुकना मना है, क्योंकि यहाँ किसी प्रेत का साया है, जिसने काफी समय से लोगों के नाक में दम किया हुआ है।
शाम के पाँच बजे का वक़्त हो चला था। मुझे बड़ा अचरज हुआ कि वहाँ मेरे अलावा कोई भी व्यक्ति मौजूद नहीं था। मेरे मन में यह भी ख्याल आया कि यहाँ के स्थानीय लोग तो जब मन तब आकर देख कर चले जाते होंगे। यहाँ इस पुरानी हवेली को देखने का प्लान तो उन्हें बनाना पड़ता है, जो कहीं बाहर से आते हैं।
हवेली आज भी मजबूती के साथ सुदृढ़ खड़ी थी। इस जगह की सबसे आलीशान हवेली होने के साथ-साथ, इस बात की भी गवाह थी कि बीते हुए दौर में भी यह हवेली एक संपन्न रजवाड़ा हुआ करती थी, जिसके हुक्मरान राजमहल जैसी भव्य हवेली में रहा करते थे।
कई एकड़ में फैली यह हवेली, आज भी ढाई सौ साल पुरानी वास्तुकला की भव्यता से लोगों को दाँतों तले उंगली दबाने को विवश कर रही थी। मैं हवेली की सुंदरता का सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा। दीवारों पर बहुत मेहनत से कलाकृतियाँ बनाई हुई थी, जो वक़्त और मौसम के थपेड़ों के आगे धूमिल होने को विवश थीं।
हवेली की ऊंची-ऊंची दीवारें, हवेली की शोभा बढ़ा रही थी। हवेली के प्रांगण के ठीक मध्य में, लगभग पन्द्रह मीटर की त्रिज्या के वृत्ताकार घेरे में मख़मली और मुलायम घास उगाई गई थी। उस परिधि पर गेंदा, गुलाब, कुमुदिनी इत्यादि भिन्न-भिन्न फूलों के पौधे, बगैर किसी अंतराल के लगाये गए थे, जिनमें उगने वाले भिन्न-भिन्न रंगों और अलग-अलग प्रजाति के फूल शोभायमान थे।
उस वृत्ताकार घेरे के बीच में, कमर पर घड़ा टिकाए हुए एक युवती की संगमरमर की मूर्ति थी। उस घड़े से निकलने वाली पानी की पतली धारा को इस प्रकार समयोचित किया गया था कि थोड़ी ऊंचाई से उठाने के बाद धारा सीधे मैदान की परिधि पर लगाए गए फूलों के पौधों पर ही गिरती थी।
मैं देखते-देखते हवेली के तहखाने में जा पहुँचा था। वहाँ पक्षियों की आवाज और अजीब सी बदबू ने नाक में दम कर दिया। यहाँ चारों तरफ अँधेरा होने के साथ-साथ एक डरावना सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसी भयानक ख़ामोशी, जिसमें मैं अपनी सांसों की आवाजों की प्रतिध्वनि भी आसानी से सुन पा रहा था।
मैं अपने साथ बैग ले कर आया था, जिसमें टॉर्च हमेशा रखा करता था। आज से 22 साल पहले, टॉर्च और छतरी की अहमियत ज्यादा हुआ करती थी। मैंने जैसे ही टॉर्च को बैग से निकला और सामने की तरफ जलाया ही था कि उड़ता हुआ चमगादड़ों का झुंड, मेरी सिर के ऊपर से सायं से निकल गया।
अचानक हुई इस घटना से मैं भयभीत हो गया था। मुझे लगा कि कहीं देर ना हो जाए इसलिए मुझे अब यहाँ से निकलना चाहिए। घड़ी में वक़्त देखा तो सात बज चुके थे।
“ओह! यह तो बुरा हुआ। मुझे वक़्त रहते यहाँ से निकल जाना चाहिए था। अब मुझे पैदल ही साढ़े तीन किमी की दूरी तय करनी पड़ेगी। मुझे अब गंगोई पहुँचने में दस बज ही जाएंगे।”
मैं खुद से ही बड़बड़ाता बाहर निकलने की कोशिश करने लगा। टॉर्च से प्रकाश भी धीमी हो चुकी थी, शायद उसकी बैटरी आखिरी चरण में थी।
टॉर्च का प्रकाश कम होने की वजह से मुझे तहखाने से बाहर जाने का रास्ता नहीं मिल पा रहा था।
तभी अचानक, मुझे हवेली के तहखाने में एक जोड़ी आँखें चमकती हुई दिखाई दी। मैं एकदम से सहम गया क्योंकि मुझे कुछ दिनों पहले ही एक ग्रामीण ने रात्रि में गुलदार और शेर के विचरण के विषय में बताया था।
अचानक डर की वजह से मेरे हाथ-पैर कांपने लगे और मेरे हाथ से टॉर्च छिटक के नीचे गिर पड़ा। मैंने तुरन्त टॉर्च को उठाया और जलाने की कोशिश की लेकिन वह अब जलने में असमर्थ थी। मैंने दुबारा कोशिश की तो वह जल गई। उसके जलते ही मन ही मन कुछ राहत महसूस हुई।
तभी मेरा ध्यान कोने पर गया। मैंने टॉर्च को जलाते हुए, उस तरफ रुख किया लेकिन उस जगह अब कोई भी नहीं दिख रहा था। वे एक जोड़ी आँखें अब नहीं दिख रही थी। मन में कुछ हिम्मत बंधी। मैंने अपने कदम तेज कर दिए और थोड़ी देर मशक्कत करने के बाद, मुझे तहखाने से बाहर आने का रास्ता भी दिख गया।
मैं तहखाने से निकलकर हवेली के पिछले हिस्से में जा पहुँचा। मुझे वहाँ अजीब सा एहसास हुआ, ऐसा लगा जैसे मेरे साथ और भी कोई वहाँ मौजूद था। मेरे कदम से कदम मिलाकर वह भी चलने की कोशिश कर रहा था। मैं ज्यों ही आगे बढ़ता तो पीछे से सूखे पत्तों की चरमराने की आवाज आ रही थी। मुझे इसका एहसास हो चुका था कि मैं इस हवेली में अब अकेला नहीं हूँ।
मेरे मन में एक विचार आया। मैं फुर्ती से पीछे की तरफ पलटा और टॉर्च जला दिया। सामने देखते ही मेरे होश उड़ गए। सामने छह फूट का विशालकाय आदमी था, जिसके हाथ घुटने से नीचे तक थे और वह मुझे देखकर हँस रहा था।
धीरे-धीरे वह आगे बढ़ते हुए, ठीक मेरे सामने आ गया और बोला, “मान गए तुम्हारी हिम्मत को! पिछले 250 सालों से किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह सूर्यास्त तक यहाँ रुके, और तू तो तहखाने तक भी पहुँच गया।”
“क्या बकवास करते हो? तुम 250 सालों से यहाँ मौजूद हो? मैं नहीं मानता तुम्हारी बातों को।”, मैंने झुंझलाकर उस से कहा।
“मैं मानता हूँ कि तुम बहादुर हो लेकिन क्या तुमने मेरी आँखें नहीं देखी थी तहखाने में, जो तुम पर टकटकी लगाकर देख रही थी।”, उस दानव से दिखने वाले इंसान ने कहा।
“अच्छा! तो वह तुम थे। फिर तुम अचानक कहाँ चले गए थे? लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि तुम पिछले 250 सालों से यहीं हो?”, मैंने उसको चुप कराते हुए कहा।
“कहो तो मैं तुम्हारे उस बस वाले सपने के बारे में भी बताऊँ, जिस सपने में तुमने एक भयानक चुड़ैल देखी थी और तुम्हें तुम्हारे जीवन के कालचक्र पूरे होने की बात रही थी।”, इस बार उसने बुलन्द आवाज में कहा।
“क... क... क्या? सपना? लेकिन मैंने उस सपने के बारे में तो किसी को नहीं बताया था, फिर तुम्हें कैसे पता?”, मैं इस बार डर गया था और उस से डरते हुए कहा क्योंकि उस सपने के बारे वास्तव में मेरे सिवा किसी को नहीं पता था।
मैं डरते-डरते बोला, “देखो, मुझे जाने दो। पिछले कुछ दिनों से बहुत ही विचित्र-विचित्र घटनाएँ घटित हो रहीं है मेरे साथ। मैं बहुत परेशान हूँ, अब और मत करो!”
“हा! हा! क्या कहा, परेशान? रे मूर्ख! तुझे तो कितनी बार समझाने की कोशिश की कि तू यहाँ से वापिस चले जा, तेरे ग्रह कमजोर हैं। लेकिन तूने तो हर इशारे को दरकिनार कर दिया।”, इस बार बहुत ही बुलंद और तेज आवाज में उस दानव रूपी मानव ने बोला।
मैंने उसकी बातों को ध्यान से सुना और बोला, “देखो! मुझे देर हो रही है। मुझे अब यहाँ नहीं रहना। मैं कल ही वापिस चला जाऊंगा।”
“हा! हा! हा! जाएगा तो तब, जब मैं तुझे यहाँ से जाने दूंगा। तुझे मेरी एक शर्त माननी होगी, तभी तू यहाँ से जा सकता है।”, उस विचित्र भूत ने मेरे सामने एक विचित्र शर्त रख दी।
“बोल! कौन सी शर्त है तेरी? मैं हर चुनौती से निपटने को तैयार हूँ।”, मैंने डरते-डरते ही सही लेकिन सारी बची-खुची हिम्मत को एकजुट करते हुए कहा था।
वह विचित्र भूत बोला, “मैं चाहता हूँ कि तू मुझसे कुश्ती लड़ और जब तक तू जीत नहीं जाता, तुझे लगातार लड़ते ही रहना होगा। यदि तू एक बार भी जीत गया तो बेशक तू यहाँ से जा सकता है। लेकिन कुश्ती को बीच में छोड़ कर नहीं जा सकता। यदि तूने ऐसा किया तो मुझे मजबूरन तुझे इस हवेली के ऊपर ले जाकर, नीचे धक्का देना होगा। बोल, मंजूर है तुझे?”
मैंने उसकी बातों को धीरज के साथ सुना और कहा, “एक शर्त मेरी भी है! यदि मैं जीत गया तो तू इस हवेली को हमेशा के लिए छोड़ कर चला जाएगा और किसी भी व्यक्ति को फिर कभी परेशान नहीं करेगा।”
“हा! हा! हा! मैं तेरा गुलाम नहीं, जो तेरी शर्त मानूँ। तुझे इस जगह से निकलना है, मुझे नहीं! इसलिए अपनी नसीहत अपने पास रख और कुश्ती के लिए आजा।”
मरता, क्या न करता! सही में उस वक़्त मैं हालात के आगे बेबस था। यहाँ से निकलने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था तो मैंने हामी भर दी।
थोड़ी देर में ही दोनों में पकड़म-पकड़ाई और उठा-पटक शुरू हो गई। कभी मैं उस भूत को आगे से पकड़ता तो कभी उसपर पीछे से लपकता, लेकिन वह पहलवान भूत बड़ी चालाकी से मेरी टांगो के बीच अपनी टांग डालकर हर बार पटकनी दे देता, जैसे वह कुश्ती में माहिर खिलाड़ी रहा हो। वह हर बार नए दांव और पैंतरे से चकित कर देता था।
मेरी हर कोशिश नाकाम होती जा रही थी। हर बार मुझे मुँह की खानी पड़ी रही थी। न तो मैं उसको धूल चटा पा रहा था, न ही वह पहलवान भूत ही थक कर हार मान लेने को ही तैयार था।
हम दोनों में भीषण मल्ल युद्ध जारी था। लड़ते-लड़ते, वक़्त का पता ही नहीं लगा कि कब सूरज की लालिमा दिखने लगी।
गाँव में अब सभी लोग मेरे लिए चिंतित हो चले थे। गाँव के साहसी युवकों की टोली हाथ में मशाल लेकर, मेरी ही खोज में निकल पड़ी थी। थोड़ी ही देर में उन युवकों की टोली इस पुरानी हवेली के करीब पहुँची तो सभी यह नजारा देख कर हतप्रभ थे।
पहलवान भूत की नजर जब उस टोली पर पड़ी तो वह घबरा गया और अचानक ही हवेली के तहखाने की ओर भाग पड़ा। देखते ही देखते वह एकदम अदृश्य हो गया।
मेरी नजर जब गाँव की टोली पर पड़ी तो जान में जान आई। फिर मैंने सारी घटना विस्तार से बतायी।
उस टोली से एक युवक ने बताया कि जिस व्यक्ति को मैं बताकर आया था कि पुरानी हवेली की तरफ जा रहा हूँ, उसी ने मुझे देर से भी वापिस न आने पर उन सभी को सूचना दी, जिसके फलस्वरूप वे सभी यहाँ मौजूद हैं।
मैं गाँव वालों के इस अथाह स्नेह पर खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था। मेरी समझ नहीं आ रहा था कि उस टोली के वक़्त पर आने की खुशी मनाऊं या अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति पर गर्व महसूस करूँ, जिसने मुझे सुबह तक लड़ने के लिए बल प्रदान किया।
मैंने नीचे गिरे हुए टॉर्च को उठाया और उसे अपने बैग में डालते हुए, टोली के साथ गाँव चल पड़ा।
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इन सभी घटनाओं ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था। मैंने अपनी नौकरी छोड़ कर, अपने पैतृक गाँव हाथरस जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था और मेरा फैसला अटल था।
मैं अपने सारे सामान को दोपहर 2 बजे तक पैक कर चुका था। दिन की अंतिम बस 2:15 पर आती थी, जो कि देर रात तक ऋषिकेश तक पहुँचा देती थी। फिर वहाँ से अगली सुबह 6 बजे ही हाथरस के लिए बस जाती थी, जो शाम तक पहुँचा देती थी।
2:15 बजे वाली बस ऋषिकेश जाने के लिए अंतिम बस थी, जिसे मुझे हर हाल में पकड़नी थी। मुझे अब यहाँ एक भी रात रुकना खुद पर भारी लग रहा था। मैं अपने सामान को लेकर मुख्य सड़क की तरफ भाग पड़ा।
सामान ज्यादा होने की वजह से मुझे सड़क पर बने पड़ाव पर पहुँचने में 20 मिनट लग गए। मुझे लगा कि अब बस निकल गई होगी। मैं जैसे ही बस स्टॉप पर पहुँचा तो देख कर अत्यंत खुशी हुई कि बस थोड़ी दूरी पर अभी भी खड़ी थी।
मैं लपक कर बस की तरफ भागा, लेकिन जैसे ही बस के करीब पहुँचा बस चल चुकी थी। मैंने बहुत आवाज़ें लगाई लेकिन बस मेरी नजरों से ओझल हो चुकी थी।
मुझे अपनी किस्मत पर बड़ा पछतावा महसूस हो रहा था। मैं यहाँ एक भी रात रुकने को तैयार नहीं था लेकिन अब मैं पूरी तरह से हताश हो चुका था।
मैं वापिस कमरे की तरफ जाने की सोच ही रह था कि पौं-पौं की ध्वनि ने मेरा ध्यान भंग किया। पीछे से एक मिनी ट्रक आ रही थी, जिसमें ड्राइवर के अलावा कोई भी नहीं था। मैं खुशी से अपनी जगह पर उछल पड़ा और भगवान का मन ही मन शुक्रिया अदा किया।
ट्रक वाले से बात की तो पता लगा कि वह सामान लेने के लिए ऋषिकेश ही जा रहा था। वह मुझे अपने साथ ले जाने को तैयार हो गया। मैं उसके साथ उसके ट्रक पर सवार हो गया।
अभी मुश्किल से एक घंटे का सफ़र ही तय किया था कि देखा कि एक मोड़ पर काफी लोगों की भीड़ है। ट्रक वाले ने ट्रक रोक कर हालात का जायज़ा लेना चाहा।
पता चला कि ऋषिकेश के लिए आखिरी बस, जो अभी थोड़ी देर पहले ही गंगोई गाँव में मुझसे छूट गई थी, वह गहरी खाई में गिर गई और नीचे नदी में डूब गई थी। बचाव कार्य जारी था लेकिन किसी भी यात्री के बचने की कोई भी उम्मीद नहीं थी।
यह सुनते ही मेरा दिल दहल उठा। इतने लोगों की मौत की खबर आखिर किसे अच्छी लगती है। मेरा सिर घूमने लगा।
थोड़ी देर बाद जब शांत हुआ तो मैंने भगवान का लाख-लाख शुक्रिया अदा किया और मन ही मन में अपनी किस्मत और भाग्य पर अभिमान महसूस हुआ कि मैं उसी बस के छूटने के कारण जीवित हूँ। अन्यथा मेरा नामों निशान मिट चुका होता और इस दुःखद घटना की जानकारी मेरे घर पर किसी को भी नहीं मिल पाती।
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