अगले पन्द्रह मिनट तक कार, सोहनलाल के इशारे पर भागती रही।  किशन की हालत में कोई फर्क न आया।  वह अभी तक सूखे पत्ते की भांति कांप रहा था । शंकर दास की पैनी निगाहें आसपास देख रहे थीं। 

कहीं कोई खतरा न था । कोई पीछे नहीं आ रहा था ।

सोहनलाल ने कार रुकवाई । रिवाल्वर के साये में किशन को नीचे उतारा । शंकर दास बराबर उसके साथ था । भीड़भाड़ से भरी जगह थी । इसलिये सोहनलाल को किशन पर रिवाल्वर सटाये ने कइयों ने देख लिया । देखने वाले ख़ौफ के मारे, किन्नी काट कर, वहां से दूर सरकने लगे ।

शंकरदास और सोहनलाल की आंखें मिलीं। दोनों के चेहरों पर वहिशयाना भाव झलक उठे । सोहनलाल पीछे हटा, रिवाल्वर जेब में डाल ली । अगले ही पल शंकर दास ने जेब से रिवाल्वर निकाली । किशन पाहवा की समझ में कुछ न आया । शंकर दास ने दरिंदगी भरे ढंग से रिवाल्वर सीधी की और ट्रिगर दबा दिया । फायर की तेज आवाज के साथ, किशन पाहवा की खोपड़ी के चिथड़े-चिथड़े उड़ गये । देख रहे लोगों के होंठों से ख़ौफपूर्ण चीख निकल गई।

किशन का शरीर किसी पुतले के समान कार से टकराकर नीचे गिर गया ।

"सोहनलाल के होंठों से दरिंदगी भरी खिलखिलाहट निकल गई ।

"एक और एक हमेशा ग्यारह होते हैं । अगर हम या हममें से कोई एक, इस हरामजादे को एयरपोर्ट पर गोली से उड़ा देता तो शायद हम भी पाहवा के कमाण्डो की गोलियों के शिकार हो जाते ।

शंकर दास ने रिवाल्वर थामे अपनी खूनी निगाहें घुमाईं। जिस-जिस पर उसकी निगाह पड़ी, वो सिर से पांव तक कांप उठा । आते-जाते बाहर सब रूक चुके थे । गश्त लगा रहे पुलिस वाले बुतों की भांति खड़े थे । किसी की हिम्मत न थी, एक कदम भी उस ओर बढ़ा सकते।

शंकर दास ने रिवाल्वर की नाल में फूंक मारी और वापस जेब में डालकर, सोहनलाल को देखा । अगले ही पल वो वापस पलटे और फुटपाथ पर चढ़ने के पश्चात, बांस की पतली-सी गली में प्रवेश कर गये।

उनके जाने के काफी देर तक वहां पर मौत-सा सन्नाटा छाया रहा । किशन की लाश लावारिसों की भांति पड़ी थी।

■■■

"सर-।" उनके जाते ही महेश चन्द ने पास आकर कहा--- "दूसरा आदमी शंकरदास था । दो रात पहले जेल से फरार हुआ जबकि चार दिन के बाद उसे फांसी होने वाली थी।  हमारी शंकरदास से कोई दुश्मनी नहीं, फिर...।"

"महेश-।"  तीरथराम पाहवा का स्वर क्रोध से धधकने लगा--- "हमारी शंकर दास से नहीं, इंस्पेक्टर पाल देशमुख से दुश्मनी थी।  हमने उसके पूरे परिवार को गोलियों से उड़ा दिया था-।"

"मैं समझा नहीं ।"

"शंकर दास की फरारी का संबंध इंस्पेक्टर पाल देशमुख से जुड़ा है । ये खबर बहुत आम है । यानी इंस्पेक्टर पाल देशमुख को सरासर मालूम हो गया है कि उसके परिवार की हत्या के पीछे हमारा हाथ है तो उसने मेरी जड़ें उखाड़ने के लिए शंकरदास को जेल से फरार करवाकर, उसका सहारा लिया---क्योंकि मुझसे टकराना उसके वश का नहीं है।"

"य-ये आप कैसे कह सकते हैं, हो सकता है ।"

"शक की कोई गुंजाइश नहीं, मैं ठंडे दिमाग से सोच-समझकर इस नतीजे पर पहुंचा हूँ ।" पाहवा ने सर्द स्वर में कहा--- "तुम जाओ और इंस्पेक्टर पाल देशमुख को लेकर होटल पहुंचो, उस कुत्ते को, उसके किए की सजा मैं अपने हाथों से दूंगा--- और मरने से पहले वो इस बात को भी अवश्य कबूल करेगा ।"

"लेकिन सर, आपका बेटा ? उसका क्या होगा ?"

"शहर से बाहर जाने के सारे रास्ते सील हो चुके हैं । वो लोग बाहर नहीं निकल सकेंगे और शहर में रहकर कब तक हमारी निगाहों से छिप सकते हैं ?" पाहवा ने स्थिर स्वर में कहते हुए सिगरेट सुलगा लिया।

"ज्यादा देर तक नहीं ।" महेश ने होंठ काटते हुए कहा--- "हो सकता है वो लोग आपके बेटे को लौटाने के लिए मोटी रकम मांगें ।"

"कोई बात नहीं । पाहवा के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान आ गई--- "वो जो भी मांगेंगे, उन्हें मिल जायेगा और किशन की वापसी के बाद उनसे सब कुछ वसूल कर लिया जायेगा । तुम जाओ इंस्पेक्टर को लेकर होटल पहुंचो, मैं आ रहा हूँ ।"

"राइट सर-।" महेश ने कहा और पलटकर तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ गया । उसकी चाल में कूट-कूटकर दृढ़ता भरी हुई थी।

लेकिन इंस्पेक्टर पाल देशमुख बहुत चौकन्ना था । उसने हर आने वाले खतरे का अहसास पहले ही कर लिया था । एयरपोर्ट पर सादे कपड़ों में वो भी मौजूद था । उसने सारा नजारा खुद देखा। दिल में प्रसन्तता की लहरें फूट रही थीं । पाहवा का लड़का शंकरदास और उसके साथी के कब्जे में था । उसे हैरानी अवश्य थी कि शंकरदास का साथी कहां से आ गया । परन्तु इस बारे में उसने ज्यादा न सोचा ।

अब सोचने की बात थी कि शंकरदास सबकी निगाहों में आ चुका है और हर किसी को शक है कि शंकरदास को उसने फरार करवाया है । लेकिन इस बात का किसी के पास कोई ठोस सबूत नहीं है कि उसने शंकरदास को फरार करवाया है । परन्तु तीरथराम पाहवा जब शंकरदास के बारे में सोचेगा तो, वो फौरन समझ जायेगा कि बीच की बात क्या है ?

फिर पाहवा उसको तलाश करेगा और उसकी हत्या कर देगा ।

इंस्पेक्टर पाल एयरपोर्ट से निकला । टैक्सी पकड़कर घर पहुंचा और सूटकेस में कपड़े भरकर, स्टेशन की ओर रुख किया, फिर जो ट्रेन सबसे पहले जा रही थी, उसमें सवार हो गया।

जब तक ये लड़ाई जारी थी । तब तक उसका इस शहर से कहीं दूर चले जाना ही बेहतर था । गाड़ी पटरियों पर सरकी तो उसकी सांस में सांस आई । कुछ देर पश्चात वो इस शहर से दूर होता जा रहा था।

कोई नहीं कह सकता था कि शहर में शुरू हो चुकी खूनी जंग का जन्मदाता वो है।

■■■

जब वे दोनों अलग-अलग होकर फ्लैट पर पहुंचे तो सुन्दरलाल आतंक में जकड़ा दिखाई दिया । सोहनलाल के माथे पर बल पड़ गये ।

"क्या बात है ?"

"म-मैं एयरपोर्ट पर था । वहां जो हुआ--- म-मैंने देखा था।"

सोहनलाल के होंठों से गहरी सांस निकल गई ।

"इसलिए तुम डर रहे हो ?"

"तुमने अच्छा नहीं किया उस्ताद ! इस तरह खुल्लम-खुल्ला पाहवा से दुश्मनी नहीं लेनी चाहिये थी ।" सुन्दरलाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा--- "तुम पाहवा की निगाहों से बच नहीं सकोगे । उसके हाथ बहुत लंबे हैं । एयरपोर्ट पर अपने बेटे की वजह से विवश हो गया था, नहीं तो भगवान ही जानता है कि तेरा क्या होता।"

"खैर, तुम फिक्र न करो, जो होना था वो तो हो ही गया ।" सोहनलाल ने हौले से मुस्कुराकर कहा--- "इसे देखो, ये शंकरदास है, फांसी प्राप्त जेल से फरार मुजरिम। पहचानते हो ?"

सुन्दरलाल ने मूक सहमति दे दी ।

"चाय-वाय पिलाओ यार, इतना बढ़िया मेहमान तुम्हारे घर आया है । चाय के साथ ही पाहवा के बारे में बातें करेंगे ।"

अनमने मन से सुन्दरलाल, किचन में चाय बनाने चला गया।

सोहनलाल और शंकरदास कुर्सियों पर जा बैठे ।

"अब ये बताओ प्यारे, तुम पाहवा के पीछे क्यों पड़े हो ? उसने तुम्हारी कौन-सी भैंस खोल ली, जो तुम वसूली करने पर लगे हो ?" कहने के पश्चात सोहनलाल ने सिगरेट सुलगाकर गहरा कश लिया ।

"मेरी पाहवा से कोई दुश्मनी नहीं ।"

सोहनलाल ने हैरानी से शंकरदास को देखा ।

"तो फिर क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है जो पाहवा से खार खाये बैठे हो।  ठीक मौके पर जेल से फरार हुए । उसके बाद तुम्हें इस शहर से हजारों मील दूर हो जाना चाहिये था, जबकि तुम एयरपोर्ट पर रिवाल्वर लिए पाहवा के लड़के की हत्या की ताक में मौजूद थे।

शंकरदास ने हंसकर सोहनलाल पर निगाह मारी फिर इंस्पेक्टर पाल देशमुख से संबंधित सारी बात उसे बता दी ।

सुनकर कुछ देर तक सोहनलाल खामोश बैठा रहा ।

"हाँ, इंस्पेक्टर पाल देशमुख के परिवार की हत्या का वारंट जब पाहवा ने जारी किया तो मैं वहीं था । मैंने हीं इंस्पेक्टर पाल को फोन पर इत्तला दी थी कि वो अपने परिवार को बचा ले ।"

"ओह-।" शंकरदास के होंठों से निकला--- "लेकिन तुम पाहवा के पास क्या कर रहे थे ? तुमने अपने बारे में मुझे कुछ भी नहीं बताया कि तुम्हारी पाहवा से क्यों लग गई ?"

"कोई खास बात नहीं थी । दरअसल किसी जमाने में माना हुआ लुटेरा था । बड़ी-से-बड़ी लूट करना, चाहे वो बैंक हो या किसी मोटे सेठ का महल नुमा बंगला। मेरा पेशा था और हर दूसरी लूट में मुझे मजबूरन एक-दो कत्ल करने पड़ते। क्योंकि लूट के समय अक्सर कोई-न-कोई हीरो बनने की चेष्टा कर जाता था । आठ आदमियों का मेरा पूरा गैंग था । कभी इस शहर तो कभी उस शहर, हमारी गैंग ने खासा आतंक मचा रखा था ।" कहते हुए सोहनलाल ने सिगरेट का लम्बा कश खींचा--- "मुझे पकड़ना तो दूर, पुलिस कभी मेरा चेहरा भी न देख पाई थी।  सिर्फ एक बार पुलिस मुठभेड़ में हमारे गैंग का एक आदमी मारा गया था । इससे ज्यादा पुलिस कभी हमारा नुकसान नहीं कर सकी।  कई साल हमने देश भर में आतंक मचाये रखा । एक बार लूट के समय, जाने कैसे पुलिस को खबर लग गई और उसने बैंक को घेर लिया । हम लोगों ने मुकाबला किया । मेरे तीन साथी मारे गये । मेरी टांग पर गोली लग गई । कयामत ढा देने वाली पुलिस से हमारी मुठभेड़ हुई । मेरे साथी, किसी तरह मुझे बचाकर वहां से भाग निकले। चूँकि मेरी टांग में गोली धंसी हुई थी, इसलिए भाग्य ने ही मुझे बताया था । छिपकर मैं अपनी टांग का इलाज करवाता रहा, एकएका न जाने क्यों खून-खराबे से मुझे नफरत-सी हो गई । मैंने अपने गैंग से अलग होने का फैसला किया और अलग हो गया । गैंग की सरदारी कृपाराम नाम के साथी को सौंप दी । अलग होते समय सिर्फ एक लाख रुपया मैंने लिया था जो कि जल्दी ही समाप्त हो गया। पेट भरने के लिए मैंने अजीब-सा रास्ता चुना । किसी नए शहर में जाता और खुद को किसी दूसरे शहर का दादा दर्शाकर, छोटे-मोटे बदमाशों से माल झाड़ता और रफूचक्कर हो जाता । इस शहर में भी मैं इसी कारण आया । कुछ से माल झाड़ लिया था और कुछ से झाड़ना अभी बाकी था कि इसी बीच तीरथराम पाहवा के आदमी मुझे लेने आ पहुँचे ।"

"वहां क्यों ?" शंकरदास ने पूछा, जो की दिलचस्पी के साथ उनकी बात सुन रहा था।

"क्योंकि यहां पर मैंने सबके सामने, खुद को बम्बई का मशहूर गैंगस्टर सोहनलाल कहना शुरू कर दिया, जो कि दो महीने पहले पुलिस से हुई मुठभेड़ में मारा गया था । पूछने पर सबको यही जवाब दिया कि किसी और की लाश को पुलिस ने मेरी लाश समझा और मैं इसी मौके का फायदा उठाकर, बम्बई से भागकर यहां आ गया। मेरी आशा के विपरीत यहाँ यह खबर तेजी से फैल गई कि बम्बई का गैंगस्टर सोहनलाल इस शहर में छिपता फिर रहा है । तीरथराम पाहवा ने जब ये सुना तो, उसने अपने आदमी भेजकर, मुझे बुलवा भेजा । न चाहते हुए भी मुझे जाना पड़ा, क्योंकि इस शहर की दूसरी सरकार है । सब कुछ ठीक-ठाक रहा, लेकिन वो इस बात का अच्छी तरह यकीन कर लेना चाहता था कि मैं वास्तव में, वही सोहनलाल हूँ जो कह रहा हूँ । इसके लिए उसने अपना आदमी बम्बई भेजने का फैसला किया, ताकि वो सोहनलाल की तस्वीर लाकर, मेरी बात की सत्यता प्रमाणित कर सके।"

"फिर-।" शंकर दास ने पहलू बदला ।

सोहनलाल ने कश लेकर सिगरेट जूते मसले और पाहवा के साथ संबंध रखती सारी आप-बीती उसे बता दी ।

सुनने के बाद, शंकर दास ने कान खुजलाया और कहा ।

"अब क्या इरादा है ?"

"मैं तीरथराम पाहवा जैसे दरिंदे को खत्म कर देना चाहता हूँ ।" सोहनलाल के दांत भिंच गये, आंखें लाल हो गई ।

"मैं भी यही चाहता हूँ ।" शंकरदास ने शांति से कहा--- "और इसके लिए हमें, खुल्लम-खुल्ला मैदान में आकर उसे ललकारना होगा ।"

"कल ये भी कर देंगे ।" सोहनलाल के स्वर में वहशीपन उभर आया और शंकरदास के चेहरे पर पुनः वैसे ही क्रूरता के भाव आने आरंभ हो गये । जब उसने वासना के कुत्तों को खत्म करने का प्रण किया था और बीस दिन में बाईस की हत्या कर दी थी ।

सुन्दर लाल चाय ले आया, वो दोनों चाय पीने लगे । सुन्दर लाल प्याला लिये, उसके पास बैठ गया ।

"तुमने ये तो बताया नहीं कि तुम्हें फांसी की सजा क्यों हुई ?" कुछ घूंट लेने के पश्चात एकाएक सोहनलाल ने प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखा ।

शंकरदास के चेहरे पर क्रूरता छाने लगी।

"मैं मिलिट्री में था । मेरा ट्रांसफर अक्सर यहाँ-वहाँ होता रहता था । कई साल पहले मेरी शादी हो चुकी थी । बहुत खूबसूरत बीवी थी । लेकिन यहां तो मुझे बहुत ही बाद में मालूम हुआ कि बहुत बड़ी हरामजादी भी थी । जवानी के कुछ साल तो मौज- मस्ती से कट गये । इस बीच एक बेटी हुई । वो अपनी माँ से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी । मैं छोटा-सा परिवार पाकर बहुत खुश था । तभी मेरा ट्रांसफर आसाम हो गया। तीन साल के लिये मुझे वहां जाना पड़ गया । परन्तु इस बार मैं अपनी बीवी और बेटी को साथ न ले गया । कुछ तो जगह ठीक नहीं थी दूसरे वहां पर हो रहे अंदरूनी झगड़े की वजह से । मेरी बेटी सोलह साल की बहुत ही खूबसूरत जवान, निकल चुकी थी । मेरे आसाम जाते ही मेरी बीवी ने अपने पर फैला दिये।  पर तो वो पहले भी फैलाती रही थी किन्तु इसका मुझे अहसास न हुआ था। उसके यारों की लिस्ट बहुत लम्बी थी । ठीक बीस दिन के बाद हर एक की बारी आती थी। जब मैंने सुना तो तुम कल्पना नहीं कर सकोगे कि मेरी क्या हालत हुई होगी । आज सोचता हूँ तो लगता है शायद मैं सब कुछ बर्दाश्त कर लेता । ज्यादा बात होती तो अपनी बीवी को घर से निकाल देता । उसे तलाक दे देता । लेकिन जब मुझे मालूम हुआ कि मेरी बीवी ने, मेरी फूल-सी बेटी को अपना राजदार बना लिया है, और सोलह साल की खूबसूरत कली भी उसके यारों के बिस्तरे गर्म करने लगी है तो मैं पागल हो उठा । मेरे मस्तिष्क में धमाके होने लगे । हर समय मुझे लगता कि अभी मेरे दिमाग की कोई नस फटेगी और मैं मर जाऊंगा।" कहते हुए शंकरदास ठिठका और गहरी-गहरी सांसे लेने लगा। चेहरा आवेश के कारण सुर्ख हो गया था । आंखों में आग का तूफान नाचता दिखाई दे रहा था।

सोहनलाल और सुन्दरलाल बुत बने उसे देख रहे थे ।

"ये सब कुछ मेरे दोस्त ने मुझे बताया, जो मेरा भाई बना हुआ था ।" शंकरदास ने हाँफते हुए पुनः कहना शुरू किया । वो पूरे आदमी थे जो मेरी बीवी और मेरी बेटी के साथ ऐश करते थे । हर रात मेरा घर कोठा बन जाता और दिन शमशान, सारा दिन मां-बेटी सोई रहती । मेरे दोस्त ने मुझे तसल्लियां दीं । लेकिन वो भी जानता था और मुझे भी बहुत अच्छी तरह मालूम था कि सब कुछ बर्बाद हो चुका था । मैंने बहुत धैर्य के साथ सोचा और जो फैसला किया, उससे मैं आज तक संतुष्ट हूँ । मैंने अपनी सर्विस रिवाल्वर से अपनी बीवी और बेटी को गोलियों से उड़ा दिया। मैंने उन जड़ों को समाप्त कर दिया जहां से मेरी तबाही शुरू हुई थी । इतने पर भी जब मेरे दिल में जलती आग ठंडी न हुई, तब मैंने उन बीस व्यक्तियों को भी मारने का फैसला किया जो मेरी बर्बादी में शामिल थे । हर एक को चुनकर मारता रहा । पुलिस लाशें उठा-उठाकर परेशान होने लगी । हर कोई जान चुका था कि ये सब क्यों हो रहा है ? कौन कर रहा है ? पुलिस साथ होकर मेरे पीछे पड़ गई । मेरे केस का इंचार्ज इंस्पेक्टर पाल देशमुख ही था । वो मुझे पकड़ने की पूरी चेष्टा कर रहा था । बहुत जीदार इंस्पेक्टर है। मैं उससे बचता हुआ अपनी जिंदगी के सबक के आखिरी मुकाम पर पहुंच गया । आखिरी कुत्ता, आखिरी दुश्मन बीसवां हरामजादा, मैंने उसका सीना भी गोलियों से छलनी कर दिया । तब मैंने अपने दिल की आग को ठंडा होते हुए महसूस किया । परन्तु इंस्पेक्टर पाल देशमुख समझ चुका था कि मेरा आखिरी शिकार कौन है ? वो वहां पर घात लगाये हुए था । वो मुझे रोक नहीं सका, मैंने अपना आखिरी शिकार कर लिया था । परन्तु उसी समय मुझे इंस्पेक्टर पाल ने घेर लिया । मैंने खुद को बचाने के लिये बहुत संघर्ष किया। इंस्पेक्टर पाल को मेरी दो गोलियाँ लगीं, परन्तु इस पर भी वो पीछे न हटा, उसने खाली हाथों से मेरे से लड़ाई की और मुझे पकड़ लिया । मैं आज तक हैरान हूँ, जिस्म में दो गोलियाँ लगीं, उसने मुझसे मुकाबला किया और मुझे बेबस कर दिया । फिर अदालत में केस चला, बचने की गुंजाइश का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था और मुझे फांसी की सजा दे दी गई ।" शंकरदास ने भारी स्वर में कहा और कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाकर आंखें बंद कर लीं।

बुत बने सोहनलाल का शरीर हिला, सिगरेट सुलगाकर गहरा कश लिया । सुन्दरलाल ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए, चाय के खाली कप उठाये और किचन की तरफ बढ़ गया ।

कल पाहवा से टकराने का दृढ़ फैसला उन्होंने ले लिया था । बाहर किशन की लाश मिलने पर, शहर में क्या तूफान आ चुका है, इस बात से वो अंजान थे और न ही इस बारे में जानने की उन्होंने कोई चेष्टा की।

■■■

चन्द घंटों में ही तीरथराम बूढ़ा लगने लगा था । आंखें भीतर धंस-सी गयी थी । बदन में ढीलापन, चेहरे पर मुर्दानी की छांव पड़ चुकी थी । कुछ देर पहले ही वो अपने जवान बेटे किशन की लाश देखकर वापस लौटा था । अपने बेटे की मौत के साथ-साथ उसे पूरी दुनिया ही समाप्त होती नजर आ रही थी । चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था ।

काश उसे पहले मालूम होता कि वे दोनों किशन को कत्ल करने के लिये उसका अपहरण कर रहे हैं तो एक बार अवश्य जान पर खेलकर भी उसे बचाने की चेष्टा करता।

इस समय पाहवा ने होटल के खास कमरे में टेबल के पीछे कुर्सी पर आंखें बन्द किए बैठा था । सूख रहे होंठों पर पपड़ी जमी स्पष्ट दिखाई दे रही थी । बदन तो जैसे कुर्सी पर लुढ़का हुआ लग रहा था ।

एकाएक कमरे में अजीब-सी ध्वनि गूंजने लगी । पाहवा ने आंखें खोली, जहां कि सिर्फ मातम की सुर्खी ही व्याप्त थी। पोपटें मनों भारी हो रहे थे । उसने हाथ बढ़ाकर, टेबल पर दिखाई दे रही बटनों की प्लेट में से एक बटन दबाया । सामने दिखाई दे रहा दरवाजा खुल गया । बाहर खड़ा महेश चन्द भीतर आया तो दरवाजा खुद-ब-खुद बंद हो गया ।

पाहवा उदास सूनी निगाहों से उसे देखने लगा।

महेश चन्द के चेहरे पर भी तूफान गुजरता महसूस हो रहा था । वो भारी कदम उठाता हुआ टेबल के पास आ खड़ा हुआ । उसने निगाह भरसक पाहवा का निरीक्षण किया, फिर दोनों हाथ बांधे, सिर झुकाये खड़ा हो गया ।

"कोई काम था ?" पाहवा के जैसे मुद्दत से बंद होंठ खुलते ही क्षीण-सा स्वर कंठ से निकला । जैसे मेहनत के पश्चात गले में ये शब्द निकाल पाया हो ।

"जी नहीं ।" महेश चन्द ने बुझे स्वर में कहा--- "वैसे मैंने छः कमाण्डो का एक दस्ता इंस्पेक्टर पाल की खोज में लगा दिया है । अगर वो इस शहर में हुआ तो बारह घंटे के भीतर सामने होगा, शहर से बाहर चले जाने की दिशा में उसे तलाश करने में कुछ दिन अधिक लग जायेंगे । लेकिन वो बच नहीं सकेगा ।"

तीरथराम पाहवा ने उसे देखा फिर एकाएक जैसे बिजली का करंट लगा हो । वो फौरन सीधा होकर बैठ गया । आंखों में वहशियाना भाव दिखाई देने लगे । चेहरा क्रूरता से भर गया ।

हाथ बढ़ाकर उसने सिगार सुलगाया ।

"महेश ।" पाहवा का स्वर सर्द था ।

"य-यस-सर ।"

"किशन वापस तो नहीं आ सकता ?"

"न-नहीं स-र ।" महेश चन्द की सांसो में अटकाव आने लगा । पाहवा का यह रूप उसके लिये नया नहीं था।

"मैं भी यही सोच रहा हूँ कि किशन वापस नहीं आ सकता । मरने वाले कभी वापस नहीं आते । अगर ऐसा होता तो वहां सब जिंदा हो चुके होते जो आज तक हमारे हाथों से मरे हैं ।" कहने के पश्चात पाहवा ने सिगार का लम्बा कद खींचा, फिर धुआं उगलकर पुनः कहा--- "किशन मेरी जिंदगी का इकलौता मकसद था । शायद उसी के कारण, बूढ़ा होने के पश्चात भी खुद को कभी बूढ़ा महसूस नहीं किया । इसके साथ ही मेरी जिंदगी भी खाली हो गई । अब मैं ये कुर्सी छोड़ देना चाहता हूँ, कहीं दूर जाकर शांति से भरी जिंदगी जीना चाहता हूँ । क्यों ठीक है ना ?"

"जी-जी जैसा आप उचित समझें ।" महेश चन्द ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"लेकिन ।" पाहवा के स्वर में क्रूरता का समावेश आ गया--- "जाने से पहले मैं अपने आखिरी दुश्मनों को कुत्ते की मौत मार देना चाहता हूँ । सोहनलाल और शंकरदास मुझे जिंदा या मुर्दा चाहिये ।"

"मैं समझ गया सर ।"

"समझ गये तो अब क्या करोगे ?"

"आपने कुछ सोचा हो तो कह दीजिये ।"

तीरथ राम ने ऐशट्रे पर सिगार रखा और दोनों हाथों की उंगलियाँ आपस में फंसा कर, टकटकी बांधे महेश को देखने लगा ।

"हमारे पास कितने आदमी हैं, जिन्हें हम फौरन इस्तेमाल में ला सकते हैं ?"

"बहुत हैं सर ।" महेश दृढ़ स्वर में बोला--- "हमें जितने भी आदमियों की जरूरत होगी, उन्हें फौरन इकट्ठे कर लिये जायेंगे ।"

पाहवा हिला और कुर्सी से उठकर, पीठ पर हाथ बांधे टहलने लगा । जबड़ों में खिंचाव आ जाने के कारण चेहरा कुरूप लगने लगा था ।

"शहर के हर इलाके में आदमी इस तरह फैला दो कि इलाके में जाने और आने वालों का चेहरा उनकी निगाह से गुजरे । हर टुकड़े में दो आदमी ऐसे होने चाहिये जो सोहनलाल और शंकरदास को जानते हों । पुलिस स्टेशन या जेल से शंकरदास की तस्वीर मिल जायेगी, उसके प्रिंट निकलवाकर अपने आदमियों में बंटवा दो । सोहनलाल का तो कोई जानते होंगे।"

"यस सर ।"

"छः घंटों में ये काम पूरा हो जाना चाहिये ।" पाहवा सांप की भांति फुंफकार उठा।

"बिल्कुल हो जायेगा सर, आप निश्चिंत रहें ।" महेश के चेहरे पर खतरनाक भाव विद्यमान हो गये--- "छः घंटों में तो पूरा शहर लाश में तब्दील किया जा सकता है--- और।"

"नहीं, बिना वजह किसी को न मारा जाये ।" शायद अब पाहवा को अपनों से जुदा होने के गम का अहसास होने लगा था--- "हमें सिर्फ दो लाशें इक्कठी करनी हैं--- सोहनलाल और शंकरदास की लाशें । इनकी लाशें कहीं से भी ढोकर लाओ ।"

■■■

अगले दिन सुबह दस बजे सुन्दरलाल ने सोहनलाल और शंकर दास को नींद से जगाया। सुन्दरलाल की घबराहट चरम सीमा पर थी । चेहरे पर भय की सफेदी पुती हुई थी । दोनों ने ध्यान पूर्वक उसके चेहरे को देखा ।

"क्या हुआ, सब ठीक तो है ना ?" शंकरदास ने पूछा ।

"मुसीबत सिर पर नाच रही है और तुम दोनों आराम से सोये हुए हो ।" सुन्दर लाल ने सूखे स्वर में कहा और दोनों फौरन सीधे होकर बैठ गये ।

"कैसी मुसीबत ?" सोहनलाल की आंखें सिकुड़ गई।

"शहर के जर्रे-जर्रे में तीरथराम पाहवा ने अपने अदमी फैला दिये हैं । भगवान ही जानता है कि उसने इतने आदमियों का इंतजाम कैसे किया, लेकिन इस वक्त शहर का, हर छोटी से लेकर बड़ा बदमाश उसके लिए काम कर रहा है । हर इलाके की उसने इस तरह नाकेबंदी करवा दी है कि किसी का भी, छिपकर गुजर जाना असंभव है और मालूम हुआ है कि यह नाकेबंदी तब तक रहेगी जब तक तुम दोनों को खत्म नहीं कर देता । खिड़की का पर्दा हटाकर देखो, पाहवा के आदमी दिखाई दे जायेंगे । हर किसी के पास हथियार हैं और उन्हें इस बात की पूरी छूट है कि तुम दोनों को भून दिया जाये।"

"यानी हम यहां से बाहर नहीं जा सकते ?"

"हरगिज़ नहीं ।"

शंकरदास उठा और खिड़की के पास पहुंचकर थोड़ा-सा पर्दा हटाकर बाहर देखा, दो पल बाहर देखने के पश्चात उसने पर्दा छोड़ा और वापस आ बैठा । कोई कुछ न बोला, गहरी खामोशी वहाँ छा चुकी थी ।

"मैं चाय बनाकर लाता हूँ ।" सुन्दर लाल किचन की तरफ बढ़ गया ।

सोहनलाल ने सिगरेट सुलगा ली ।

"इन मामूली बातों से हमें नहीं डरना चाहिये ।" कुछ क्षण उपरांत शंकर दास ने कहा और प्रश्न भरी निगाहों से सोहनलाल को देखने लगा ।

"तुम यह ख्याल अपने दिल से निकाल दो कि मैं डर गया हूँ ।" सोहनलाल हंसा--- "मुझे सिर्फ डराना आता है और हम आज तीरथराम पाहवा के होटल जय गणेश जाकर उसे डरा देंगे । ठीक है ना ?"

"बिल्कुल ठीक ।" शंकरदास का चेहरा चमकने लगा ।

"हमें पाहवा को अच्छी तरह समझा देना है कि और भी बहुत बैठे हैं । अकेले वो ही दादागिरी नहीं कर सकता ।"

"उसके पास सोर्स है । यही बात हमें तकलीफ दे रही है ।"

"देखा जायेगा ।"

तभी सुन्दरलाल चाय के प्याले थाम वहां आया और दोनों को एक-एक थमाता हुआ बोला---

"पाहवा, इंस्पेक्टर पाल देशमुख को तलाश रहा है । इंस्पेक्टर पाल गायब है । पाहवा ने एक स्पेशल दस्ता सिर्फ इंस्पेक्टर पाल को तलाश करने के लिए तैनात किया है ।"

"क्या ?" सोहनलाल ने पूछा ।

"पाहवा ने एयरपोर्ट पर शंकर दास को पहचान लिया था । चूँकि वो अफवाह पहले ही आम थी कि शंकरदास को जेल से फरार करवाने में इंस्पेक्टर पाल का हाथ है । सुना है कि कुछ दिन पहले पाहवा ने इंस्पेक्टर पाल के परिवार को उड़ा दिया था । इंस्पेक्टर पाल ने पाहवा से बदला लेने के लिए, शंकरदास को जेल से फरार करवाकर पाहवा के पीछे डाल दिया । वो आम कहानी है जो शहर में सबकी जुबानों पर दौड़ रही है ।" कहने के पश्चात सुन्दरलाल, प्रश्न भरी निगाहों से शंकरदास को देखने लगा ।

शंकरदास ने, सोहनलाल को देखा ।

"शायद इंस्पेक्टर पाल को खतरे का एहसास हो गया होगा । इसी कारण वो पाहवा को मिल नहीं रहा और कहीं अंडरग्राउंड हो गया है ।"

"हो सकता है ।" सोहनलाल ने गर्दन हिला दी।

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सुधीर गोस्वामी ? अब्बल दर्जे का धूर्त ! मक्कार! फायदा नजर आये, तो अपने बाप का गला भी काट देने वाला । ऐसे इंसान को अगर पुलिस में नौकरी मिल जाये तो क्या कहने । जाहिर है, वह अपनी तनख्वाह से भी पांच-सात गुना ज्यादा कमाता होगा।

वैसे सुधीर गोस्वामी पुलिस में कांस्टेबल था । हर चोर-उचक्के से उसने मामे-चाचे का रिश्ता बना रखा था । चोरी-चकारी और जेबकतरों के लिए तो वह फरिश्ता था । जब भी ये लोग फँसते सुधीर गोस्वामी चक्कर लगाकर, उन्हें छुपा देता । बदले में अपना मेहनताना ले लेता।

वैसे भी चोरी में या जेब कतरी में उसका किस्सा अवश्य होता । शराफत के साथ उसके पास दस प्रतिशत पहुंच जाता । वह सिर्फ कॉन्स्टेबल था । जब इंस्पेक्टर होता तो इसमें कोई शक नहीं था कि हर वक्त आधा शहर उसकी जेब में होना था ।

वही कॉन्स्टेबल सुधीर गोस्वामी, पुलिस स्टेशन के पिछवाड़े बैठा, बीड़ी पर बीड़ी फूंके जा रहा था । पिछले एक घंटे से वह गंभीरता से सोच रहा था । ऐसे वह तब सोचता, जब कोई बड़ा मसला उसकी खोपड़ी में फंस जाता था ।

उसकी विचारधारा का केंद्र सुन्दरलाल था।

सुन्दर को वो एक लंबे अरसे से जानता था । वो जेबकतरा था और अपनी कमाई का दस-प्रतिशत शराफत से उसके चरणों में चढ़ाकर जाता था और पकड़े जाने पर, कई बार उसे इंस्पेक्टर के हत्थे से छुड़ाया भी था ।

वही सुन्दर लाल कल से उसके पास सात चक्कर लगा चुका था, रात देर तक उसके गिर्द मंडराता रहा और सुबह-सवेरे भी दर्शन देने आ पहुंचा । उसका इकलौता सवाल होता कि शहर का क्या हाल है ? शंकरदास और सोहनलाल के बारे में क्या कदम उठाये जा रहे हैं ?

शंकरदास व सोहनलाल के बारे में पाहवा तेज कदम उठा रहा था और पुलिस के कदम उठाने की रफ्तार बहुत ही सुस्त थी । पाहवा जो भी कदम उठाता, पुलिस वालों को फौरन खबर हो जाती । इसलिए सुन्दरलाल, सुधीर गोस्वामी के गिर्द चक्कर लगा रहा था ।

कॉन्स्टेबल सुधीर गोस्वामी को, उसकी दिलचस्पी बड़ी अटपटी लगी । पूछने पर सुन्दरलाल ने हंसकर टाल दिया ।

यहां तक तो सब-कुछ ठीक रहा ।

सुधीर गोस्वामी को जो कुछ भी मालूम था, वो सुन्दर लाल को बता दिया । आज सुबह सुन्दर लाल को पुनः आया देखकर सुधीर गोस्वामी चिढ़ गया । उसने साफ-साफ कह दिया कि दोबारा इस मामले में उसके पास न आये।

सुन्दर लाल उसकी जान-पहचान का था । उसने जेब से सौ का नोट निकालकर, सुधीर गोस्वामी की हथेली में दबा दिया । बस यहीं पर गजब हो गया । सुधीर गोस्वामी ने उसे पाहवा के नये कदम के बारे में बताया । सुन्दर लाल फिर आने को कहकर चला गया ।

कॉन्स्टेबल सुधीर गोस्वामी फौरन पुलिस स्टेशन के पिछवाड़े एकांत में पहुंचा, बीड़ी पर बीड़ी फूंकते हुए सोचने लगा और सोचते-सोचते उसे घंटे से ऊपर का समय हो चुका था।

अब इसमें कोई दो राय नहीं थी कि मामला वास्तव में गड़बड़ है । सुन्दर लाल पागल नहीं था जो उसे यूं ही सौ का नोट थमा गया । इतनी दिलचस्पी तो किसी को भी नहीं होती की जेब से पैसे देकर, खामखाह की बातें जानी जाये । यानी सुन्दर लाल खबरें इकट्ठी करके शंकरदास और सोहनलाल तक पहुंचा रहा है । इस बात को कोई बेवकूफ भी समझ सकता था।

कॉन्स्टेबल सुधीर गोस्वामी को लगा अब वक्त आ गया है कि मोटा नावा पीट सकता है । सुन्दर लाल को शंकर दास और सोहनलाल की खबर थी और पाहवा हर कीमत पर उन दोनों को चाहता था ।

सुधीर गोस्वामी जब पुलिस स्टेशन के पिछवाड़े से निकला तो उसकी आंखें चमक रही थीं । उसने वर्दी उतारकर सादी पैंट- कमीज पहनी और बिना किसी को कुछ कहे पुलिस स्टेशन से बाहर आकर टैक्सी पकड़ी और पाहवा के होटल जय गणेश जा पहुंचा ।

अपनी जिंदगी में वो पहली बार इस होटल में आया था ।

"मुझे श्रीमान पाहवा साहब से मिलना है ?" कॉन्स्टेबल सुधीर गोस्वामी ने स्वागत कक्ष के काउंटर पर खड़ी खूबसूरत युवती से कहा।

युवती के होंठों पर छाई मुस्कराहट एकाएक गायब हो गई । उसने ध्यान पूर्वक सुधीर गोस्वामी को देखा, फिर कहा ।

"सॉरी, पाहवा साहब नहीं मिल सकते । आप फिर कभी आइयेगा ।"

सुधीर गोस्वामी एकाएक मुस्कुरा पड़ा ।

"मुझे मिलना है ।" सुधीर गोस्वामी ने काउंटर पर कोहनियां टिकाकर कहा--- "पाहवा साहब परेशान हैं और मैं उनकी परेशानियों का हल हूँ।  समझी ?"

"अगर ये कोई मजाक हुआ तो आपके हक में यकीनन बुरा होगा ।" युवती ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी ।

"मुझे कुछ भी समझाने की चेष्टा न करो ?" पहले की अपेक्षा सुधीर गोस्वामी के स्वर में सख्ती आ गई ।

युवती ने फौरन इंटरकॉम का रिसीवर उठाया और बटन दबाकर धीमे शब्दों में कुछ कहने के पश्चात रिसीवर रख दिया ।

दो क्षण बाद ही काउंटर के पास एक आदमी हाजिर हुआ। युवती ने सुधीर गोस्वामी की तरफ इशारा किया । सुधीर गोस्वामी ने आने वाले पर भरपूर निगाह डाली फिर उसके साथ हो गया । रास्ते में कोई बात नहीं हुई ।

कुछ क्षणों के पश्चात वो व्यक्ति ठिठका और सामने दिखाई दे रहे दरवाजे की तरफ उसने इशारा किया।  सुधीर गोस्वामी ने हल्का-सा झटका दिया और दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर दिया।

उसके साथ आये व्यक्ति ने भीतर आने की चेष्टा न की ?

कमरे में प्रवेश करते ही सुधीर गोस्वामी की निगाहें टेबल के पीछे कुर्सी पर बैठे इंसान पर स्थिर हो गईं, जो कि महेश चन्द था ।

"मुझे पाहवा साहब से मिलना था ।" उसने आस-पास देखते हुए कहा ।

"बैठो ?" महेश चन्द ने चुभती निगाहों से उसे देखा ।

सुधीर गोस्वामी अनमने मन से टेबल के पास पड़ी कुर्सी पर जा बैठा ।

"मैं पाहवा साहब से...।"

"खामोश रहो ।" महेश चन्द ने उसकी बात काटकर उखड़े स्वर में कहा--- "सिर्फ वही कहो जो तुमसे कहने को कहा जाये ?"

सुधीर गोस्वामी मन-ही-मन झल्लाकर रह गया।

"कौन हो तुम ?"

"सुधीर गोस्वामी ।"

"करते क्या हो ?"

"पुलिस में हूँ, कॉन्स्टेबल ।"

"बहुत खूब ।" महेश चन्द के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे--- "लेकिन मैं ये समझने में नाकाम हूँ कि तुम पाहवा साहब से क्यों मिलना चाहते हो ?"

"मेरे पास कोई ऐसी जानकारी है जो उनके लिये फायदेमंद हो सकती है ? शायद आज की तारीख में उन्हें जानकारी की जरूरत है ?"

"मसलन ?" महेश चन्द के माथे पर बल उभर आये ।

"सोहनलाल और शंकरदास ।"

"तुम जानते हो कि वे दोनों कहां हैं?"

"मैं तो नहीं जानता लेकिन कोई है जो ये जानता है कि वे दोनों कहां हैं और उसे जानने वाले को मैं जानता हूँ ?"

"कम शब्दों में, जल्दी और बहुत जल्दी पूरी बात कह डालो ?" महेश चन्द के हाथों की उंगलियां कुर्सी के हत्थे से लिपट गईं।

बिना किसी जल्दी के सुधीर गोस्वामी ने जेब से सौ का नोट निकाला और उसकी तहें खोलकर, महेश चन्द को दिखाकर बोला ।

"ये नोट कुछ देर पहले किसी ने इसलिये दिया है कि मैं उसे शहर में हो रही हर वो खबर उसे बताऊं जो सोहनलाल, शंकर दास से ताल्लुक रखती हो ? समझे कुछ ?"

उत्तेजना में महेश चन्द का चेहरा सुर्ख होने लगा ।

"कौन है वह ? कहां रहता है ? उसका नाम क्या है ?"

सुधीर गोस्वामी ने मुस्कुराकर नोट जेब में डाला और जेब से बीड़ी निकालकर सुलगाई और गहरा कश लिया । दांत भींचे, कठोर निगाहों से महेश चन्द उसे देखता रहा।

"जहां तक जवाब देना, मैं मुनासिब समझता था, मैंने जवाब दिए । अब इससे आगे जवाब देना, मेरे लिए कुछ कठिन हो रहा है ?" सुधीर गोस्वामी ने शांति से कहा--- "अब तुम मेरे कुछ सवालों का जवाब दो । वो सवाल ये है कि तुम कौन हो ?"

महेश चन्द के चेहरे पर छाये भाव एकाएक गायब हो गये । उसके भावहीन चेहरे पर सिर्फ आंखों में सख्ती व्याप्त हो चुकी थी । उसने दराज खोलकर सिगरेट निकाली और सुलगाकर उसे देखा।

"मेरा नाम महेश चन्द  है । मैं पाहवा साहब का दांया हाथ हूँ ।"

"अच्छी बात है ? मेरा भी यही ख्याल था कि तुम महेश ही हो सकते हो ? वैसे पाहवा साहब होटल में मौजूद नहीं है क्या ?"

"हैं, लेकिन वो किसी से भी नहीं मिलेंगे । कल उनके जवान बेटे की हत्या हो गई है, जिसका उन्हें बहुत दुख है । अब अगर तुम कोई काम की बात करना चाहते हो तो बोलो, नहीं तो चलते बनो ।" महेश चन्द ने सर्द स्वर में कहा । जबकि उसका मन कर रहा था कि रिवॉल्वर निकालकर, उसे शूट कर दें । लेकिन वो अपनी इच्छा को जबरन दबाये हुए था । क्योंकि वो शंकरदास सोहनलाल तक पहुंचने का रास्ता जानता था, जिसे कि वो हर कीमत पर जानना चाहता था।"

"शायद तुम अभी तक नहीं समझे कि मैं तुम लोगों को शंकरदास और सोहनलाल तक पहुंचा सकता हूँ । जिन्हें पकड़ने के लिये शहर का हर आदमी ना-काम हो रहा है ?" सुधीर गोस्वामी ने पहलू बदलते हुए विचलित स्वर में कहा ।

"मैं तुम्हारे हर शब्द का मतलब समझ रहा हूँ ।" महेश चन्द ने कटु स्वर में कहा ।

सुधीर गोस्वामी दो पल तक महेश चन्द के चेहरे पर निगाहें दौड़ाता रहा, फिर दृढ़ता भरे स्वर में बोला ।

"ये जानकारी देने का मुझे कितना इनाम मिलेगा ।"

"तुम क्या चाहते हो?" महेश चन्द के होंठों पर कसाव आने लगा।

"एक लाख रुपया ।"

महेश चन्द ने सिगरेट का कश लेकर सिगरेट ऐश ट्रे में डाली, फिर खड़े होकर शांत निगाहों से सुधीर गोस्वामी को देखा ।

"ऐसे सौदों के फैसले पाहवा साहब खुद करते हैं ? तुम रुको मैं उनसे बात करके आता हूँ । कहने के पश्चात महेश चन्द बाहर निकल गया ।

सुधीर गोस्वामी एकाएक अजीब-सी बेचैनी महसूस करने लगा । उसे लगा कि कुछ हो रहा है, लेकिन अपनी बेचैनी की तह तक न पहुंच पा रहा था ।

दो मिनट बाद ही महेश चन्द वापस आ गया ।

"एक लाख तुम्हें मिल जायेगे ।" महेश चन्द कुर्सी पर बैठता हुआ बोला--- "अब कहो वो कौन है, जिसने तुम्हें सौ का नोट दिया ?"

"लेकिन लाख रुपये ?"

"मिल जायेंगे ।"

"सौदा हाथों-हाथ हो तो अच्छा रहता है ।"

महेश चन्द की आंखों में जहरीले भाव उजागर हो गये । वो पुनः कुर्सी से उठा और पीछे दिखाई दे रहे अलमारी खोलकर, उससे के नोटों की गड्डियां निकाली और टेबल पर ढेर कर दी ।

सुधीर गोस्वामी का शरीर उत्तेजना से कांपने लगा। नोटों पर निगाहें दौड़ाते हुए, बार-बार सूखे होंठों पर जीभ फेर रहा था ।

"इन्हें उठा लो ।"

महेश चन्द के कहने की देर थी कि सुधीर गोस्वामी ने हाथ की काँपती उंगलियों से गड्डियां उठाईं और अपनी कमीज में डाल ली । पेट और पीठ के साथ लगी गाड़ियों की चुभन उसे बहुत भली लग रही थी।

"बोलो ?" महेश चन्द ने उसकी आंखों में झांका ।

"उसका नाम सुन्दर लाल है । वो जेबकतरा है ?" साथ ही सुन्दर लाल के घर का पता बता दिया । फिर बोला--- "हो सकता है दोनों उसके घर पर ही छिप चुके हों? अब मैं चलता हूँ । जरूरत पड़े तो मुझे फिर बुला लेना ।" कहने के पश्चात सुधीर गोस्वामी दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

पूरा लाख रुपया उसकी जेब में था । जो कि वर्तमान स्थिति में उसके लिये बहुत भारी रकम थी । पुलिस में कॉन्स्टेबल की घटिया नौकरी छोड़कर इस लाख रुपए से वो कोई भी छोटा-मोटा धंधा कर सकता था ।

चार कदम आगे बढ़ते ही उसकी विचार तंद्रा टूटी । उसके रास्ते में, ठीक सामने कोई आ गया था । उसने देखा, वो पाहवा के ही कमाण्डो में से एक था । ये देखकर भय की लहर उसके शरीर में दौड़ गई । उसका हाथ जेब था ।

"पीछे हटो ।" भय और आतंक मिश्रित स्वर में वो चीख पड़ा।

"अगर अपनी जिंदगी चाहते हो तो खामोशी से मेरे पीछे चले जाओ ।" ये स्थिर लेकिन कठोर स्वर में बोला।

सुधीर गोस्वामी समझ गया कि महेश चाल चल गया है, बल्कि उसकी जिंदगी के क्षण भी गिने-चुने रह गये हैं । लाख रुपया उसके पास था और वो ऐसे वक्त में मौत को गले लगाने को तैयार नहीं था ।

"क्या बकवास कर रहे हो ?" सुधीर को स्वामी ने खुद पर काबू पा लिया । उसका मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था ।

"रिवाल्वर निकालकर समझाऊं ?" उसने कटु स्वर में कहा ।

"कहां है रिवाल्वर ?"

अगले ही पल उसने जेब में पड़ा हाथ बाहर निकाल लिया। हाथ की उंगलियों में दबे रिवाल्वर का रुख उसकी तरफ था । सुधीर गोस्वामी क्षण भर के लिये सिर से पांव तक सिहर उठा । परन्तु दूसरे ही क्षण किसी चील की भांति ही रिवाल्वर पर झपटा मारा । वो हर संभव कीमत पर, अपने गिर्द छात्र की मौत की दीवार को हटा देना चाहता था ।

हाथ-पांव सूखे पत्ते की भांति कांप रहे थे ।

दोनों  गुत्थम-गुत्था हो गये ।

"पागल मत बनो ?" रिवाल्वरधारी गुर्राया--- "तुम इस समय घिरे हुए हो, चाहो तो अपने आस-पास देख लो । मैं इसी पोजीशन में रहूंगा ।" दोनों के हिलते शरीर क्षण भर के लिये स्थिर हो गये । सुधीर गोस्वामी ने बिजली की-सी गति के साथ चारों तरफ निगाह घुमाई।

वो करीब आठ-दस लोग थे । जिनके हाथ तो जेबों में थे, परन्तु वो किसी भी वक्त बाहर आ सकते थे ।

दोनों तरफ ही मौत थी । सुधीर गोस्वामी ने संघर्ष करने का फैसला किया और पुनः रिवाल्वर हथियाने की चेष्टा करने लगा ।

रिवाल्वर धारी को शायद आशा न थी कि खुद को घिरा पाकर भी रिवाल्वर झपटने की चेष्टा करेगा। इसी कारण रिवाल्वर से उसकी पकड़ ढीली हो गई और फलस्वरुप, पहले झटके में ही रिवाल्वर सुधीर गोस्वामी के हाथों में फिसल आई, जो कि उसने तुरन्त सामने वाले के पेट से सटा दी ।

खबरदार मिलना नहीं, चालाकी, नहीं, अपने साथियों से कह दो, वो गोली न चलाएं, वरना गोलियों से मैं तुम्हारा पेट फाड़ दूंगा ।" सुधीर गोस्वामी भय से चिल्लाकर, खतरनाक स्वर में बोला ।

रिवाल्वरधारी का चेहरा सफेद पड़ गया । पेट मे चुभ रहे रिवाल्वर की नाल, कच्चे धागे पर लटक रही तलवार के समान लग रही थी । उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर, कुछ दूरी पर फैले अपने साथियों को देखा।

होटल की लाबी में मौजूद अन्य लोग पहनकर वहां से खिसकने लगे । पलभर में ही वहां अजीब-सा खौफयुक्त माहौल बन चुका था ।

"बाहर चलो ?" सुधीर गोस्वामी आतंक भरे स्वर में कह रहा था--- "मुझे बाहर तक पहुंचा दो, अपने साथियों को कह दो कि कोई पीछे न आये, वरना मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा । तुम मर जाओगे । जल्दी करो, खड़े-खड़े मेरा मुंह क्या देख रहे हो । ठहरो, पहले हाथ ऊपर कर लो।"

उसने हाथ ऊपर कर लिये ।

अब मुड़कर, बाहर की तरफ चले गये । सुधीर गोस्वामी की जान निकली जा रही थी--- "जितनी देर लगायेगा, उतनी ही जल्दी हम मर जाएंगे, मुझे तेरे साथ ही मारेंगे और तुझे मैं ?"

महेश चन्द इसी बीच दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया था । मामला समझते ही उसकी, आंखों में खून उभर आया।

हाथ ऊपर उठाये व्यक्ति ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर, महेश चन्द को देखा । महेश ने फौरन सिर हिलाकर उसे इशारा किया तो वो बाहर की ओर बढ़ने के लिए मुड़ गया ।

"मेरे साथ-साथ रहना, नहीं तो---।"

बाकी के शब्द सुधीर गोस्वामी के गले में ही रह गये । महेश चन्द के इशारों पर आस-पास खड़े कमांडो ने गोलियां चला दी । पूरी आठ गोलियां कुछ ऐसे कोने से चलाई गईं कि वो, एक साथ, सारी-की-सारी सुधीर गोस्वामी के शरीर में धंस गई । दो  गोलियों से तो उसके खोपड़ी के चिथड़े-चिथड़े उड़ गये। उसके हाथ में थमा रिवाल्वर, उसके शरीर से सटा था । उंगली ट्रिगर पर दबने के लिये बिल्कुल तैयार थी, परन्तु इसके बावजूद भी वो ट्रेगर न दबा सका । गोली न चला सका ।

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गोलियों की तेज गूंज से पूरा होटल का कांप उठा था ।

सुधीर गोस्वामी का शरीर कटे वृक्ष के समान नीचे जा गिरा । हाथ में थमी रिवाल्वर छूट गई । कमीज के भीतर पड़ी कुछ नोटों की गड्डियां बाहर आ गिरीं । ऊपर उठाये व्यक्ति के गले में फंसी सांस तेजी से निकली और उसके चेहरे का रंग वापस लौटने लगा । उसने नीचे पड़ी रिवाल्वर उठाकर, वापस जेब में डाल ली।

फिर वहां पर कोई तेज गति से भागने लगा । सुधीर गोस्वामी की लाश हटाकर, खून से लथपथ वो जगह साफ कर दी गई। सारे चेहरे वहां से गायब हो गये थे और सब कुछ पहले के समान चलने लगा ।

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"आगे से नहीं पीछे से निकलेंगे ।"

शंकरदास ने निगाह घुमाकर सोहनलाल को देखा ।

"मैं भी यही सोच रहा था, शंकरदास ने सहमति से  हिलाया--- "पीछे का रास्ता साफ है । हम बिना, किसी खतरे के यहां से निकल सकते हैं ?"

"नहीं ?" पास खड़े सुन्दरलाल ने कहा--- "हर इलाके को इस तरह घेरा है कि उन लोगों की निगाह से बचना संभव है। कहीं-न-कहीं टकराव हो जाना मामूली बात है ।" सुन्दरलाल का चेहरा चिंता से भरा हुआ था ।

अगर ऐसा वक्त आया तो हम पीछे नहीं हटेंगे ।" सुन्दरलाल ने दृढ़ स्वर में कहा--- "हम, सामने आने वाले को भूनकर रख देंगे ।"

सुन्दरलाल खुश्क होंठों पर जीभ फेरकर रह गया ।

"पीछे का दरवाजा खोलकर, एक निगाह बाहर डालो । अब हम यहां से फौरन निकल जाना चाहते हैं ?" शंकर दास ने सुन्दरलाल से कहा ।

सुन्दरलाल ने बिना कुछ कहे आगे बढ़कर पिछले ओर खुलने वाला दरवाजा खोलकर बाहर झांका । मकान के साथ-साथ लम्बी गली जा रही थी । जिसके बीच में से दायें-बायें छोटी-छोटी गलियाँ निकल रही थीं ।

शंकरदास और सोहनलाल उसके पीछे आ खड़े हुए थे ।

सुन्दरलाल ने गर्दन घुमाकर उन्हें देखा ।

"रास्ता साफ है ।

सुन्दरलाल की बगल से निकलकर, दोनों बाहर आ गये ।

"अपना ध्यान रखना ।" सुन्दरलाल ने गहरी सांस लेकर दरवाजा बंद कर दिया ।

दोनों आगे बढ़ गये।  चेहरों पर हल्की कठोरता व्याप्त हो चुकी थी।

"हमें आपस में थोड़ा-थोड़ा फासला रखना चाहिये ।" शंकर दास ने कहा--- "मैं आगे चलता हूँ, तुम बीस कदम पीछे रहो ।"

सोहनलाल ने सहमति से सिर हिलाने पर, शंकरदास आगे बढ़ गया ।

गली समाप्त हो गई । कोई खतरा न आया, गली की किनारे पर शंकरदास ठिठका और पांच-सात कदम पीछे सरक आया।

"क्या हुआ ?" सोहनलाल पास पहुंचकर दबे स्वर में बोला ।

"गली के बाहर बाई तरफ दो आदमी खड़े हैं । उनके हाव-भाव बता रहे हैं कि वहां पाहवा की तरफ से हैं ।" शंकरदास ने कहा ।

"सुन्दरलाल ठीक ही कहता था ?"

दोनों की आंखें टकराई । आंखों में प्रश्न उभरा और फिर उनके चेहरों पर छाने वाले भावों ने, प्रश्न का उत्तर दे दिया । अगले ही पल दोनों ने जेब में पड़े रिवाल्वर निकालकर हाथों में ले लिये ।

शंकरदास पलटा और तेज-तेज कदम उठाता हुआ गली से बाहर निकल गया । तीन-चार कदम के फासले पर पीछे सोहनलाल था। कुछ दूर खड़े दोनों व्यक्तियों ने उन्हें देखा । साथ ही उनकी निगाहें रिवाल्वरों पर पड़ी।

"वो रहे।" उनमें से एक गला फाड़कर चिल्लाया । इसके साथ ही उन्होंने रिवाल्वरों के लिए जेब में हाथ डाला ।

शंकर दास ने रिवाल्वर वाला हाथ उठाया और ट्रेगर दबा दिया । गोली सामने वाले की छाती में लगी वो उछलकर पीठ के बल नीचे जा गिरा । इससे पहले कि दूसरा कुछ करता, उसका भी यही हाल हुआ।

गोली के धमाकों ने शांत वातावरण में सनसनी फैला दी ।

"भागो शंकरदास ।" सोहनलाल चिल्लाया--- "दो मिनट के भीतर ही सबको मालूम हो जायेगा कि हम यहां हैं । फिर वो शिकारी कुत्तों की तरह हमारे पीछे लग जाएंगे ।"

दोनों ने एक दिशा पकड़ी और दौड़ पड़े । उनके चेहरे सख्त हो चुके थे । आंखों में वहशियाना भाव छा गये ।

जो भी सामने आये उसे भून दो, कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं ?" शंकरदास भागते हुए चिल्लाया ।

अभी उन्होंने दूसरी गली भी पार नहीं की होगी कि एक व्यक्ति हाथ में रिवाल्वर लिए भागता हुआ गली में प्रविष्ट हुआ । सोहनलाल और शंकरदास की रिवाल्वरें एक साथ गरज उठी।

दो गोलियां सामने वाले को लगीं और वो नीचे गिर गया । उसकी लाश को फलांगते हुए दोनों भागते चले गये ।

गली पार करके बिना कहीं मुड़े वो सामने वाली गली में प्रवेश करते चले गये । परन्तु इन्हीं क्षणों के बीच, उन्होंने देख लिया कि पीछे रह गई। गली के मोड़ों से कुछ आदमी भागते चले जा रहे थे ।

"तेज भागो, वहां लोग पीछे हैं ?" सोहनलाल ने दांत भींचकर कहा ।

"हरामजादे ।" शंकरदास जहर भरे अंदाज में दहाड़ा।

चंद सेकेंडों में ही वहां गली के मोड़ पर पहुंच गये । सामने सड़क थी । वाहन आ-जा रहे थे । अगले ही क्षण वो ठिठके । दो व्यक्ति रिवाल्वर थामें खड़े थे और उनकी निगाहें गली पर थीं।

उन्होंने शंकरदास सोहनलाल की झलक भी पा ली थी ।

"अब ?" दोनों की निगाहें मिलीं ।

इससे पहले कि वो कुछ कहते, पीछे से फायर हुआ । गोली उनके पास से गुजर गई । शंकरदास दांत भींचे पलटा और रिवाल्वर सीधी करके धड़ाधड़ ट्रेगर दबा दिये । गोली तो किसी को नहीं लगी, अलबत्ता पीछे जाने वाले छिटककर छिप गये । गोलियों के धमाकों, से गली अभी तक गूंज रही थी।

तभी सोहनलाल ने ट्रेगर दबाया । गली के बाहरी तरफ सड़क की ओर खड़े व्यक्तियों में एक के कंधे पर गोली जा लगी । वो गिरा । दूसरा फौरन पलटकर भागा । उसके कदमों की आहट उनके कानों में गूंजती रही ।

"भागो ?"

"पट्ठे ने तगड़ा इंतजाम किया है ?"

उसी समय पीछे से गोली चली जो कि दीवार से लगकर छिटक गई ।

दोनों तेजी से सड़क की तरफ भागे । पीछे से कदमों की आहट आने लगी ।

"कोई टैक्सी, कार वगैरह पकड़ने की कोशिश करो ?" शंकरदास भागते हुए चिल्लाया--- "नहीं तो ये कुत्ते हमारा शिकार कर लेंगे।

"हरामजादे बहुत सारे हैं। दो-चार, पांच-सात होते तो अब तक अपनी मांओं के पास पहुंच चुके होते ।" सोहनलाल ने दांत किटकिटा कर कहा ।

भागते हुए सड़क के किनारे पहुंचे । वहां कोई भी टैक्सी वगैरह नहीं थी । दो बार कारें अवश्य तेज रफ्तार से सड़क पर जाती दिखाई दी ।

दोनों बिना रुके सड़क के किनारे भागने लगे ।

पीछे आने वाले आठ थे । वो भी सड़क के किनारे पहुंचे और उनके पीछे भागने लगे । सबके हाथों में रिवाल्वरें थी । परन्तु सोहनलाल और शंकर दास रिवाल्वर की रेंज से दूर थे और ये फासला कभी भी कम हो सकता था।

तभी सड़क की दूसरी ओर फुटपाथ पर खड़ी कार अपनी जगह से हिली और धीरे-धीरे रेंगती हुई सड़क पर आ गई । कार में एक व्यक्ति स्टेयरिंग संभाले हुए था और दूसरा पिछली सीट पर ब्रेनगन लिये बैठा था । उसकी जहरीली-निगाहें भागते हुए उन आठों पर टिकी हुई थी ।

"कार को धीरे-धीरे उनके पास लो ?" ब्रेनगन वाला बोला और स्टेयरिंग सीट पर बैठे व्यक्ति के हाथ-पांव हरकत में आ गये ।

कार उन आठों की तरफ लपकी ।

कार ज्योंही उनके समीप पहुंची, पीछे बैठे व्यक्ति ने कार की खिड़की से छः इंच ब्रेनगन की नाल बाहर निकाली और घोड़ा दबा दिया।

छर्रों का राउण्ड, तेज आवाज के साथ बाहर निकला, और वो आठों पीड़ा से चिल्लाते हुए नीचे गिरकर तड़पने लगे । उनके शरीर में अनेक सुराख पैदा हो चुके थे । जहां सिर्फ खून-ही-खून था ।

ब्रेनगन चलने की आवाज सुनकर सोहनलाल और शंकरदास ने गर्दन घुमाकर पीछे देखा फिर आश्चर्य से ठिठककर रुक गये । इसी बीच कार उनके पास पहुंचकर रुक गई ।

दोनों ने पिछली सीट पर बैठे व्यक्ति को देखा । वो मुस्कुराया और हाथ में थमी ब्रेनगन उन्हें दिखाते हुए विजेता के रूप में हिलाया फिर उसने दरवाजा खोलकर भीतर आने का इशारा किया।

दोंनो ने असमजसंता में एक-दूसरे को देखा ।

"कार में आ जाओ, मैं दुश्मन नहीं हूं और दोस्ती का नमूना तुम लोगों के पीछे आ रहे हैं, उन आठों कोमार कर अभी दिया है ?"

सोहनलाल और शंकरदास कार में जा बैठे । दरवाजा बंद हो गया । कार रफ्तार से आगे बढ़ गई । इतना सब कुछ होने पर भी दोनों ने हाथ में पकड़ी रिवाल्वरें जेब में न डालीं ।

अभी तक हाथों में थमी रिवाल्वरें देखकर ब्रेनगन वाला मुस्कुरा पड़ा।

"कौन हो तुम ?" सोहनलाल ने उसे घूरा ।

"कुछ ही देर में तुम दोनों को मालूम हो जायेगा, लेकिन विश्वास करो, मैं तुम लोगों का दुश्मन नहीं हूँ ? ये ब्रेनगन तुम्हारे पांवों के पास रख देता हूँ, ताकि किसी बात का शक-शुबह न रहे ?" कहते हुए उसने ब्रेनगन कार के फर्श पर रख दी--- "तुम दोनों कुछ देर के लिये नीचे झुक जाओ, अगर पाहवा के आदमियों ने कार को घेर लिया तो हममें से कोई भी नहीं बचेगा । अब उन्होंने तुम दोनों की तलाश बड़े पैमाने पर शुरू कर दी होगी-शायद तुम लोग नहीं जानते कि तुम्हारे निकलते ही, वो इलाका घेर लिया गया है, जहां पर तुम सुन्दरलाल के साथ रह रहे थे । अब तक सुन्दरलाल पाहवा के क्रूर हाथों में पहुंच चुका होगा ।"

"क्या ?"

"कुछ मत पूछो, सिर नीचे करके झुक जाओ, दस मिनट के बाद आराम से बात करेंगे ?"

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खुदाई मददगार की वजह के कारण सोहनलाल और शंकरदास मन-ही-मन आश्चर्यचकित थे । इस समय दोनों एक घटिया मकान के छोटे से कमरे में मौजूद थे । उनके सिवाय उन्हें लाने वाला व्यक्ति और एक अन्य व्यक्ति वहां पहले से ही था । वो चालीस साल की उम्र का था । चेहरे पर जख्मों के पुराने निशान स्पष्ट चमक रहे थे । छोटे-छोटे सिर के बाल, गठा हुआ बदन, मोटी नाक उन्हें देखते ही मुस्कुराया ।

"आओ-आओ, मैं कब से तुम दोनों का इंतजार कर रहा था ।"

सोहनलाल और शंकरदास की निगाहें आपस में मिलीं ?"

"क्यों, तू हमारा इंतजार करने वाला कौन होता है ?"

सोहनलाल ने उखड़े स्वर में कहते हुए सिगरेट सुलगाई--- "क्या नाम है तेरा, कहाँ का रहने वाला है ?"

"नाराज मत होइये साहब ।" वो हँसा--- "मेरा नाम जयचंद पाटिया है । बैठिये ना, खड़े क्यों है साहब ।" उसने कुर्सियों की तरफ इशारा किया ।

दोनों कुछ सोचकर कुर्सियों पर बैठे और शंकरदास ने साथ आये व्यक्ति को देखा, जोकि सावधानी से, बुत की मानिंद खड़ा था।

"तुम कार में क्या कर रहे थे सुन्दरलाल, पाहवा के क्रूर पंजों में पहुंच चुका है ।" शंकरदास ने उलझन भरे स्वर में पूछा ।

परन्तु जवाब जयचंद पाटिया ने दिया ।

"हुजूर, आप लोग इस प्रश्न के बाद, दूसरा प्रश्न करेंगे कि हम कौन हैं ? आपसे क्या चाहते हैं ? आपको यहां क्यों लाए हैं ? वगैरहा-वगैरहा, इसलिए बेहतर है कि आप मुझसे खामोश रहे और मैं बोलता रहूं । जब मैं अपनी बात पूरी कर लूंगा तो आपको सारी बातें समझ में आ जायेंगी, जिन्हें आप समझने की असफल चेष्टा कर रहे हैं।"

शंकरदास सोहनलाल की निगाहें जयचंद पाटिया पर जा टिकी ।

जयचंद पाटिया ने उन्हें सुधीर गोस्वामी के बारे में बताया कि कैसे वो पाहवा के दरबार में पहुंचा और उसने सुन्दरलाल को पाहवा की निगाहों में ब्लैक लिस्ट किया।

"अब मैं आपको अपने बारे में बताता हूँ ताकि पूरी बात समझने में आसानी हो । मैं पाहवा का पहला नम्बर दुश्मन हूँ । यानी उसके बाद मुझे भी इस शहर का दादा बनना है । आज की तारीख में अगर पाहवा को सही मायनों में खतरा है तो सिर्फ मुझसे । इस तरह पाहवा का दुश्मन, मेरा जिगरी दोस्त । पाहवा के आदमियों के बीच, ज्यादा नहीं तो चंद एक आदमी, मेरे घुसे हुए हैं । उनसे मुझे खबर मिल गई कि तुम दोनों सुन्दरलाल नामक जेबकतरे के साथ रह रहे हो और पाहवा के कमांडो सुन्दरलाल के घर धावा बोलने जा रहे हैं । मेरे लिये इतना ही काफी था । इससे पहले कि पाहवा के आदमी वहां पहुंचते, मेरे आदमियों ने वो इलाका घेर लिया, जहां सुन्दरलाल रहता था। हमें सुन्दरलाल के घर का पता नहीं मालूम था और ऐसे नाजुक वक्त में किसी ने सुन्दरलाल के घर का पता पूछना मुनासिब नहीं था । क्योंकि मैं सीधे-सीधे पाहवा से दुश्मनी लेकर बेमौत नहीं मरना चाहता । हमने यही प्लान बनाया कि जब पाहवा के आदमी तुम दोनों को पकड़ कर ले जा रहे होंगे, तब हम, तुम दोनों को उनसे छीनने की चेष्टा करेंगे । लेकिन ऐसी नौबत नहीं आई । तुम दोनों की किस्मत अच्छी थी कि वक्त पर सुन्दरलाल के मकान से बाहर निकल आये और मेरे आदमी को नजर आ गये ।" कहने के पश्चात जयचंद पाटिया खामोश हो गया।

सोहनलाल और शंकरदास की निगाहें आपस में मिली ।

"ऐसे खतरनाक वक्त में मैंने तुम लोगों को अपने खास अड्डे पर नहीं बुलवा भेजा । क्योंकि मैं पाहवा को किसी भी तरह के शक में नहीं डालना चाहता था । ये जगह खतरों से दूर और सुरक्षित है । पाहवा के परिंदे भी यहां नहीं पहुंच सकते ।" जयचंद पाटिया के होंठों पर जहरीले मुस्काने नाचने लगी।

सोहनलाल ने सिगरेट का गहरा कश लिया और सिगरेट कश पर फेंककर जूते काले मसल दिए । शंकरदास ने पहलू बदला।

"वो तो सब ठीक है बंधुवर-।" सोहनलाल ने जयचंद पाटिया की आंखों में झांका--- "अब सवाल ये पैदा होता है कि तुम हमें यहां क्यों लाये । ये तो हम मान ही नहीं सकते कि तुम सिर्फ हमारा दीदार ही करना चाहते थे ।"

"ठीक समझे तुम-।" जयचंद पटिया मुस्कुराया--- "मैं तुम दोनों को पिछले चौबीस घंटों से बेसब्री से तलाश कर रहा था । तुम पाहवा से दुश्मनी उतारने की ख्वाहिशमंद हो और मैं भी । हम लोग अगर मिलकर चलें तो बहुत ही जल्द मंजिलें तय कर सकते हैं । तुम दोनों के पास हिम्मत है ! जिगरा है, अक्ल है और बखूबी इसका इस्तेमाल कर रहे हो।"

"साफ-साफ कहो ।" शंकरदास बोला ।

"पाहवा की अस्सी प्रतिशत ताकत उसका होटल जय गणेश है । उसके सारे काम वहीं होते हैं । अगर वो होटल न रहे तो वो अधमरा हो जायेगा । उस हालत में उस पर आसानी से हाथ डाला जा सकता है । वो होटल उसके लिए एक किले के समान है या यूँ  समझ लो कि उस होटल में पाहवा की जान है । होटल खत्म होते ही, पाहवा भी खत्म हो जायेगा । उसका रसूख मिट्टी में मिल जायेगा । वो सड़कों पर भागता दिखाई देगा ।"

"अगर ऐसा है तो तुमने आज तक ये काम क्यों नहीं किया ?"

ये कोई मामूली काम नहीं है ।"जयचंद पाटिया ने मुँह बनाया--- "पाहवा अपनी जान के बराबर, होटल की हिफाजत करता है । वो भी इस बात को समझता है, कि जब तक होटल सलामत है तब तक वो सुरक्षित है । होटलनुमा किला नहीं रहेगा तो उसके दुश्मन उसे घेरकर, उसकी बोटी-बोटी तोड़ लेंगे और उसके नमक हलाल कमांडो भी उसे न बचा पायेंगे।"

सोहनलाल ने नई सिगरेट सुलगाई ।

"तो तुम ये चाहते हो कि पाहवा के होटल को उड़ा दें।"

"बिल्कुल ! इसमें हम दोनों का फायदा है । आप पाहवा की हुकूमत समाप्त करना चाहते हैं और इसके लिये, उसके होटल तबाह होने पर जब उसके आदमी मक्खियों की भांति इधर-उधर भागेंगे तो उन्हें संभालने वाले, मुझ जैसे कई जयचंद पाटिया बैठे हैं । आधा शहर पाहवा से बदला लेना चाहता है ।"

"यानी कि तुम्हें हमारा कंधा बहुत पसंद आया है, जिस पर बंदूक रखकर तुम चलाना चाहते हो ।" सोहनलाल ने कहा।

"कुछ भी समझ लो ।" जयचंद पाटिया हँसा--- "वैसे तुम दोनों अंधाधुंध गोलियां दागे जा रहे हो, अगर तुम्हारे कंधे पर बंदूक रखकर, एकाध फायर कर भी दिया तो कौन-सा तुम्हारा कुछ भी जायेगा ।"

"तुम क्या समझते हो कि हम रिवाल्वरों की गोलियों से पाहवा के होटल की धज्जियां उड़ा देंगे ?" शंकर दास बोला ।

"नहीं हुजूर।" एक-एक जयचंद पाटिया का चेहरा खिल उठा--- "रिवाल्वर की गोलियां तो इंसान का सीना छलनी करने के लिए होती हैं । दीवारों का सीना छलनी करने के लिये बारूद होता है, जिसका ढेर मेरे पास ही लगा हुआ है । उस बारूद से पूरा शहर उड़ाया जा सकता है ।"

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पाहवा के होटल जय गणेश की ठीक बायीं तरफ बराबर बनी चौदह मंजिला इमारत, जगन्नाथ मैन्शन के ग्यारहवे फ्लोर पर जयचंद पाटिया का बहुत बड़ा ऑफिस था । जिसमें आठ कमरे थे । उसकी खिड़की जय गणेश की तरफ से खुलती थी । नौ मंजिला जय गणेश होटल जगन्नाथ मैन्शन के सामने बौना-सा लगता था। जबकि सिर्फ पांच मंजिलों का फर्क था ।

सब कुछ सुनने के बाद प्लान शंकरदास ने बनाया ।

उसने जयचंद पाटिया को पावरफुल हैंडग्रेनेड उस ऑफिस में पहुंचा देने को कहा । जयचंद पाटिया खुद भी यही चाहता था । उसने फौरन, जगन्नाथ मैन्शन इमारत के ग्यारहवें फ्लोर पर मौजूद अपने ऑफिस में, इतने ज्यादा हैंडग्रेनेड पहुंचा दिये कि उससे जय गणेश जैसे दो होटल उड़ाये जा सकें । शंकरलाल ने सोहनलाल की ड्यूटी जगनन्नाथ मैन्शन के ग्यारहवें फ्लोर पर, जयचंद पाटिया के ऑफिस में लगा दी। उसका काम सिर्फ इतना था कि बिना रुके, हैंडग्रेनेड 'जय गणेश पर' पर फेंकते जाना था।

सोहनलाल ने फौरन ये काम करना मंजूर कर लिया ।

जय गणेश के दूसरी तरफ, आड़ में शंकरदास ने जयचंद पाटिया के दो आदमियों की ड्यूटी लगाई वहां से उन्हें होटल पर हैंड ग्रेनेड फेंकने थे ।

इसी तरह दो आदमी होटल के पिछड़ी ओर थे।

तीन आदमी और उसने खुद अपने साथ रखे। उसने 'जय गणेश' के सामने की ओर से हल्ला बोलना था।

अब इस काम में कोई वक्त नहीं था । हर कोई अपने-अपने ठिकाने पर पहुंच चुका था । शंकरदास तीन आदमियों के साथ दो किलोमीटर दूर कार में बैठा था । स्टेयरिंग सीट पर ड्राइविंग मौजूद था । सबके पास पर्याप्त मात्रा में हैंडग्रेनेड और राइफलें थीं । शंकरदास ने दो रिवाल्वर अपने कपड़ों में छिपा रखे थे।

रात का अंधेरा फैल चुका था । साढ़े नौ बज रहे थे । आज शंकरदास ने सारा काम समाप्त करने का फैसला कर लिया था । इंस्पेक्टर पाल देशमुख के किये गये वायदे के अनुसार वो पाहवा को मारकर, इस शहर से कहीं दूर, शांत जगह, निकल जाना चाहता था।  जहां उसे अपनी बाकी की जिंदगी बिना किसी, शोर-शराबे के गुजारनी थी । इस खूनी खेल से उसका मन उकता गया था । इसी कारण उसने सोच लिया था कि रात का खेल, आखिरी खूनी खेल होगा।

"चलें ?" उसके साथ बैठे व्यक्ति ने पूछा। 

"नहीं । तीन मिनट पड़े है । तुम सब के हथियार तैयार हैं ?" शंकर दास ने पूछा ।

"हाँ ।"

"फिर चैक कर लो।"

"जरूरत नहीं, हमारे हथियार, हमें वक्त पर कभी धोखा नहीं देते ।" एक ने दृढ़ और आत्मविश्वास से भरे स्वर में कहा ।

उन्हें घड़ी की सुईयां धीमी चलती महसूस हो रही थीं। सबके शरीरों में उत्तेजना व्याप्त थी । ड्राइवर बीड़ी के कश लगाये जा रहा था ।

जब तीन मिनट पूरे होने में पच्चीस सेकंड रह गये तो शंकरदास बोला।

"चलो ।"

ड्राइवर ने फौरन बीड़ी फेंकी, कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।  हैडलाइट की तीव्र रोशनी अंधेरे को चीरती हुई सड़क पर पड़ रही थी ।

दूर से होटल 'जय गणेश' का साइन बोर्ड जगमगाता दिखाई दिया । फिर कार होटल के ठीक सामने सड़क के पास रुकी।

दरवाजे खोलकर शंकरदास और उसके तीनों साथी बाहर निकल आये । राइफलें उनके हाथों में थीं। पीठ पर बंधे थैलों में हैंड ग्रेनेड भरे पड़े थे । उसी क्षण कार आगे सरकी फिर, तेज गति के साथ अंधेरे में गायब हो गई । तीनों के चेहरे पत्थरों जैसे सपाट हो चुके थे ।

शंकर दास के होंठ भिंच गये थे ।

"चलो । शंकरदास ने कहा--- "जो भी सामने आये उसे भून दो । मैं शुरुआत करके दूसरी पार्टियों को सिग्नल दे दूँ ।" कहते हुए उसने जगन्नाथ मैन्शन ग्यारहवें फ्लोर पर निगाह दौड़ाई । खिड़की खुली हुई थी और उसमें से कोई बाहर झाँकता हुआ दिखाई दे रहा था । वो सोहनलाल ही होगा ? शंकरदास ने अनुमान लगाया और अपने साथियों के साथ, सड़क पार करके होटल के गेट पर जा पहुंचा।

हाथ में नंगी राइफलें देखकर आते-जाते लोग ठिठके।  फिर फौरन ही इधर-उधर सरकने लगे, गेट पर खड़े दरबानों में से एक दरबान उन्हें देखते ही फौरन भीतर की तरफ भागा।

शंकरदास के साथी ने उस पर राइफल ताननी चाही । परन्तु शंकरदास ने हाथ मारकर उसकी रायफल नीचे की और पीठ पर लटक रहे थैले में से हैंडग्रेनेड निकाला और फिर उसकी पिन निकालकर हैंडग्रेनेड को किसी पत्थर की तरफ निशाना लेकर उसे मारा।

अगले ही पल कान फाड़ देने वाला धमाका हुआ और भाग रहे दरबान के चिथड़े-चिथड़े उड़ गये ।

इसके साथ ही शुरुआत हो गई । वहां धमाकों की आवाजें गूंजने लगीं। दायें-बायें और पीछे की ओर हैंडग्रेनेड आकर होटल पर गिरने लगे । भीतर से आ रही अफरा-तफरी से भरी चीखें सुनाई देनी शुरू हो गईं।

"अहाते में फैल जाओ । पाहवा का जो भी आदमी दिखाई दे उसे भून दो । हैडग्रेनेडों से होटल को तबाह करने की पूरी कोशिश करो । चारों तरफ से दुश्मन पर हमला हो रहा है । दुश्मन बौखला चुका है । उसे समझने का मौका न दो और किसी भी हालत में होटल में प्रवेश न करना ।" अहाते में घुसते हुए शंकरदास ने जल्दी-जल्दी कहा।

फिर चारों अलग हो गये । हर किसी ने अपनी समझ के मुताबिक पोजिशन ले ली । पाहवा के आदमी हथियारों के साथ होटल के बाहर निकलने की चेष्टा कर रहे थे । परन्तु राइफल की गोलियां उनके चिथड़े उड़ाकर, उन्हें वापस अन्दर धकेल रही थी ।

वातावरण सुलग उठा था । धमाके, बारूद की गंध और चीखों के अलावा किसी को और कुछ वहां दिखाई-सुनाई नहीं दे रहा था।

शंकर दास ने पार्किंग में खड़ी कारों के बीच पोजीशन ले ली थी । परन्तु अभी तक एक फायर भी नहीं किया था । जबकि गोलियां बरसाते कई दुश्मन उनके निशाने पर थे । वो फायर करके दुश्मन को अपनी पोजीशन का एहसास नहीं दिलाना चाहता था । सबकुछ उसकी योजना के मुताबिक ही हो रहा था । बराबर चारों तरफ से धमाके गूंज रहे थे । हर धमाका पाहवा के होटल को कमजोर बनाता जा रहा था।

फिर उसने कपड़ों में हाथ डालकर लकड़ी का छोटा-सा बक्सा निकाला । ये जबरदस्त शक्ति वाला टाइम बम था । जयचंद पाटिया ने विश्वास के साथ कहा था कि वो बम होटल की ईंट से ईंट अलग कर देगा । बक्सा खोलकर उसमें बम को देखा फिर बंद करके वापस कपड़ों में रख लिया।

उसके बाद कारों के बीच में होता हुआ, होटल के सदर द्वार की तरफ बढ़ने लगा । सबसे ज्यादा शोर द्वार पर था । भीतर की तरफ से पाहवा के आदमी गोलियां बरसा रहे थे और बाहर की ओर से उसके आदमी द्वार पर गोलियां बरसा रहे थे । आग के शोले हर और चमक रहे थे ।

सोहनलाल अपना काम हिम्मत और मेहनत से कर रहा था । क्योंकि उसकी तरफ वाले हिस्से में ज्यादा और लगातार धमाके गूंज रहे थे । उठता हुआ धुआं और चिंगारियां आसमान को छूने की चेष्टा कर रही थीं ।

दायीं ओर पिछली तरफ से धमाकों की गूंज जारी थी।

शंकरदास के विचार अनुसार होटल का काफी बड़ा हिस्सा तबाह कर चुका था ।

शंकरदास होटल में कहीं, मुनासिब जगह पर टाइम बम लगाना चाहता था लेकिन वो भीतर प्रवेश करने का ठीक मौका न था, कोई भी गोली उसे लग सकती थी, आखिरकार उसने यही फैसला किया कि जब तक गोलियां चल रही हैं, तब तक उसका इसी तरह छिपा रहना ही ठीक है।

भीतर से आ रही चीखों की आवाज उसके कानों में पड़ रही थीं । भीतर ठहरे मुसाफिर आतंक से मरे जा रहे थे । होटल पर हर तरफ से हमला हो रहा था । वो कहीं से भी बाहर नहीं निकल सकते थे । यहां तक कि पाहवा के आदमी भी बौखलाये हुए थे  । होटल से बाहर निकलकर ही वो दुश्मनों का मुकाबला कर सकते थे और वो होटल से बाहर नहीं निकल सकते थे । मेन द्वार पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई जा रही थीं ।

और पिछले द्वार पर हैंडग्रेनेड फेंके जा रहे थे।

शंकरदास ने कार के पहिये से टेक लगा ली । दायें हाथ की तर्जनी उंगली राइफल के ट्रिगर पर थी । वो किसी भी तरह से अचानक आ आने वाले खतरे से निपटने के लिए हर प्रकार से तैयार था । हर मिनट में दो-तीन मौत में डूबी आवाजें होटल के द्वार की ओर से उसे सुनाई दे जाती थीं । धमाकों और गोलियों का आरंभ कुछ इस प्रकार हुआ कि उसे लग रहा था जैसे सदियों से वो धमाके सुनता आ रहा है ।

शंकरदास अपनी जगह से हिला और सिर ऊपर करके होटल के मेन द्वार की तरफ झांका । वहां पर लाशें ही लाशें बिखरी नजर आ रही थीं। अभी तक उसे किसी और दिशा से चीख की आवाज न सुनाई दी थी । इसका मतलब कि उसके साथ आये व्यक्तियों में से कोई भी अभी हताहत नहीं हुआ था ।

सदर द्वार की ओर देखते हुए शंकरदास की आंखें सिकुड़ गयीं । वहाँ से मेन द्वार के भीतर स्पष्ट देखा जा सकता था । उसे पाहवा की कमांडो का ढेर लगा दिखाई दिया जो हाथों में हथियार संभाले खड़े, वे बाहर आने के मौके की तलाश में थे । शंकरदास ने अनुमान लगाया कि अगर वो सब एक साथ बाहर की ओर भागे तो इन चलती गोलियों के बीच उनमें से कुछ ही मरेंगे और अधिकांश जिंदा बचकर, बाहर अंधेरे में पोजीशन ले लेंगे।

बहुत खतरनाक बात थी । अगर ऐसा हो गया तो वो लोग उन पर हावी हो जायेंगे, जो कि होना नहीं चाहिये । शंकरदास किसी को अपनी स्थिति का अहसास नहीं दिलाना चाहता था । लेकिन अब बात दूसरी थी । अगर भीतर दिखाई दे रहे सारे कमांडो हवा के झोंके की भांति बाहर आ गये तो उसकी सारी योजना मिट्टी में मिल जायेगी । फिर तो शायद वो टाइम बम भी होटल में नहीं लगा पायेगा । वो सीधा हुआ पीठ पर मौजूद थैलों में से कुछ है हैंडग्रेनेड निकालकर अपने पास रखे और एक की पिन निकालकर द्वार के भीतर, एक तरफ कमांडो पर निशाना लेकर फेंक दिया। एक जबरदस्त धमाका हुआ और देखते-ही-देखते तीन कमांडोज के चिथड़े-चिथड़े उड़ गये । अन्य सब हड़बड़ाकर पीछे हो गये।  शंकरदास ने दांत भींचकर दो ग्रेनेड और फेंके।

एक तो मेन द्वार के समीप दीवार पर लगा और दीवार का वो हिस्सा उड़ गया । क्षण भर के लिये वहां धूल ही धूल फैल गई । साथ ही उसके साथी जो गोलियां बरसा रहे थे, उन्होंने देखा-देखी, गोलियां छोड़कर ग्रेनेट फेंकने शुरू कर दिये।

फिर तो जैसे तबाही आ गई । ग्रेनेट द्वार से होते हुए होटल के भीतर भी गिर रहे थे । होटल की दीवारों पर भी लग रहे थे और पहली-दूसरी मंजिल की खिड़कियों से होकर भीतर गिर रहे थे ।

देखते ही देखते होटल का वो हिस्सा खंडहर में परिवर्तित होने लगा । पहले की अपेक्षा चीखों में अब बढ़ोतरी हो गई थी । भीतर से गोलियां चलनी बंद हो गई थीं । कदाचित वे लोग अपनी जान बचाने के लिये पीछे हट गये थे।

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