मुकन्दलाल कोई पैंतालीस साल का सांवली सूरत और लाल लाल आंखों वाला, मोटी तोंद वाला आदमी था जिसे कोई मील से देखता तो निस्संकोच कह देता कि वो पुलिसिया था 

निजामुद्दीन ईस्ट में वो मुझे हर्षा लेन के हर्षा रोड की ओर के दहाने पर मेरे से पहले खड़ा मिला 

मुझे ये देख कर बड़ी राहत महसूस हुई कि मेरे निर्देश पर वो अपनी वर्दी पहन कर आया था ।

“वर्दी ऑन ड्यूटी पहनी जाती है ।” - मुझे देखते ही वो भुनभुनाया - “तुझे मालूम है कि मैं सस्पेंशन में चल रहा हूं ।”

“मेरे भाई” - मैं मीठे स्वर में बोला - “तेरे लिये जो काम मेरे पास है, उसमें वर्दी के बिना तू मेरे किसी काम का नहीं ।”

“कोई पंगे वाला काम तो नहीं ?”

“बिल्कुल भी नहीं । होता तो क्या मैं तेरी दुश्वारियों में इजाफा करने का ख्याल भी करता ?”

“सस्पेंशन में वर्दी पेटी महकमे में जमा करानी पड़ती है । इत्तफाक से ही ये एक पुराना जोड़ा मेरे पास था ।”

“गुड ।”

“काम क्या है ?”

“एक लड़की को तलाश करना है ।”

“कौन लड़की ?”

“नाम प्रिया सिब्बल बताती है लेकिन असल में नाम कोई और भी हो सकता है ।”

“कहां से तलाश करना है ?”

“सामने कोठियों की कतार देख रहा है ?”

“हां ।”

“ये बी-20 से बी-30 तक की ग्यारह कोठियां है । मेरा अन्दाजा है कि अभी कोई डेढ घन्टा पहले वो इन्हीं कोठियों में से किसी एक दाखिल हुई थी ।”

“अन्दाजा है ?”

“हां ।”

“जो कि गलत भी हो सकता है ?”

“बिल्कुल ।”

“गयी होगी तो कौन सी कोठी में गयी होगी ?”

“यही तो मालूम करना है ।”

“कैसे ?”

“बड़ा आसान काम है । पहले लड़की के हुलिये और पोशाक की बाबत सुन ।”

उसने सुना ।

“कहानी यूं बनती है कि वो सूरत से बड़ी सम्भ्रान्त और ठस्सेदार लगने वाली लड़की असल में झपट्टामार थी जो कि एक औरत की चेन झपट कर भागी थी और इधर ही आयी थी । तूने हर कोठी पर जाकर यही कहानी है । जाहिर है कि जवाब तुझे इनकार में ही मिलेगा ।”

क्यों ?”

“अरे जहां वो गयी होगी वहां के बाशिन्दे उसके वाकिफ होंगे । वो क्यों भला खुद ही उसे, किसी झमेले में फंसने देंगे ?”

“यानी कि लड़की किसी कोठी में होगी भी तो यही जवाब मिलेगा कि वो वहां नहीं थी ?”

“हां ।”

“आगे बोल ।”

“इनकार में जवाब मिलने पर तूने वहां से फोन करने की इजाजत मांगनी है, महकमे में फोन करने का ड्रामा करना है और फोन पर कहना है कि हर्षा लेन की सारी कोठियों की तलाशी के सर्च वारन्ट के साथ एक पुलिस की गाड़ी वहां भेजी जाये ।”

“पागल हुआ है ! ऐसा सर्च वारन्ट कहीं जारी होता है ? और वो भी टेलीफोन पर ? सर्च वारन्ट तो...”

“मुझे मालूम है नहीं जारी होता । तुझे मालूम है नहीं जारी होता । लेकिन क्या पुलिस के कायदे कानून से कोरे कोठी वालों को मालूम होगा ?”

“हूं ।”

“उस हर फर्जी फोन कॉल के सिरे पर हर बार तूने ये भी कहना है कि फ्लाईंग स्क्वयड़ की गाड़ी प्राइवेट डिटेक्टिव सुधीर कोहली को साथ लेकर आये क्योंकि कोहली उस लड़की की शिनाख्त कर सकता है ।”

“मैंने ग्यारह की ग्यारह कोठियों में ये ड्रामा करना है और ऐसी फर्जी फोन कॉल करनी है ?”

“हां । और हर कोठी के मालिक का नाम और व्यवसाय भी नोट करना है ।”

“वो किसलिये ?”

“ताकि लगे कि तू असली पुलिसिया है और असली तफ्तीश कर रहा है । पुलिस वाले जिसके मत्थे लगते हैं, पहले ये ही तो पूछते हैं कि नाम क्या है ? क्या करता है ?”

“हूं ।”

“शुरुआत तूने बीस नम्बर वाली पहली कोठी से करनी है । मेरा मतलब बीच में हल हो गया तो तेरे लिये भी अपना काम जारी रखना जरूरी न होगा ।”

“तेरा मतलब हल हो गया तो इस बात की खबर तू मुझे करेगा ?”

“जाहिर है ।”

“मतलब क्या है तेरा जो कि तू हल करना चाहता है और वो ऐसे कैसे हल होगा ?”

“वो लड़की जिस कोठी में भी होगी, ये सुन कर कि वहां सर्च वारन्ट के साथ पुलिस पहुंच सकती थी और पुलिस के साथ मैं पहुंच सकता था, वहां टिकी नहीं रहेगी । वो जरूर पिछवाड़े से निकल भागने की कोशिश करगी । जब ऐसा होगा तो मैं उसे थाम लूंगा ।”

“मुझे क्या मिलेगा ?”

मैंने उसे दायें हाथ का पंजा दिखाया ।

जवाब में उसने मुझे दोनों हाथों के पंजे दिखाये ।

मैंने प्रतिवाद करने की खातिर मुंह खोला तो वो पहले ही बोल पड़ा - “सस्पैंड हूं । आधी तनखाह पर गुजारा कर रहा हूं । ऊपर से जोखम का काम है । कोई ऊंच नीच हो गयी तो बिल्कुल ही छुट्टी हो जायेगी ।”

“ऐसा कुछ नहीं होगा ।”

“मैंने कहा अगर । अगर । समझा !”

“अपनी तनखाह का घाटा मेरे से पूरा करेगा ?”

“बहस न कर ।”

“तेरी जानकारी के लिये ये काम मैं किसी कलायन्ट के लिये नहीं कर रहा जिससे कि मुझे कोई फीस मिली हो...”

“बोला न, बहस न कर । दो बड़े वाले गान्धी निकाल वरना नक्की कर ।”

भुनभुनाते हुए मैंने उसे हज़ार रूपये दिये ।

“शुक्रिया ।”

वो अपने अभियान पर आगे बढ गया तो मैं पिछवाड़े की संकरी सर्विस लेन के दहाने पर जा खड़ा हुआ । उस वक्त गली में नीमअन्धेरा था लेकिन गली खाली थी और मुझे उसके दूसरे सिरे तक का निर्विरोध नजारा हो रहा था ।

मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।

तीन सिगरेट और बीस मिनट तक कोई नतीजा सामने न आया ।

फिर एकाएक गली के बीच से आगे की एक कोठी के पिछले कम्पाउन्ड का दरवाजा खुला और रोशनी की एक आयत गली में और सामने की दीवार पर पड़ी । फिर उसमें एक साया प्रकट हुआ जो कि रोशनी की आमत में बनती उसकी परछाई से मुझे जनाना लगा । फिर तत्काल दरवाजा बन्द हो गया और वो साया तेजी से मेरी तरफ बढा ।

मैं गली की एक दीवार के साथ चिपक गया ।

साये ने गली का मेरी तरफ का आधा रास्ता पार कर लिया तो मुझे यकीन हो गया कि वो प्रिया ही थी ।

और कुछ क्षण बाद वो मेरे सामने से गुजरी ।

तत्काल मैं अन्धेरे की ओट से बाहर निकला और मैंने झपट कर पीछे से उसकी कलाई थाम ली ।

उसके मुंह से एक जोर की सिसकारी निकली । वो तड़प कर वापिस घूमी लेकिन जब उसकी निगाह मेरे पर पड़ी तो तत्काल उसके तमाम कस बल निकल गये ।

“हल्लो !” - मैं विषभरे स्वर में बोला - “सैर करने जा रही हो ?”

उसने जवाब न दिया । उसके नेत्रों में आतंक की छाया तैर गयी ।

“पीछे हालीडे इन में उल्लू बना लिया मेरे को । अब फिर ऐसी किसी कोशिश का इरादा है ?”

“हाथ छोड़ो ।”

“अभी नहीं ।”

“क्या चाहते हो ?”

“अभी तो तुम्हारी बांकी चाल ही देखना चाहता हूं ।”

“लेकिन...”

“आगे बढो ।” - मैं कर्कश स्वर में बोला ।

वो भारी कदमों से आगे बढी । उसे बांह पकड़ कर चलाता हुआ मैं अपनी कार की तरफ बढा ।

“भागने की कोशिश की तो पछताओगी ।” - रास्ते में मैंने उसे चेतावनी दी ।

“नहीं करुंगी । वादा करती हूं ।” - वो बड़े दयनीय भाव से बोली - “मेरी बांह छोड़ दो । छोड़ना नहीं चाहते तो जरा धीरे से पकड़ो । ऐसे तो तोड़ के ही मानोगे ।”

मैंने उसकी कलाई पर अपने हाथ का दबाव कम किया 

मैं अपनी कार तक पहुंचा । मैंने पैसेंजर सीट की ओर का दरवाजा खोल कर उसे भीतर धकेला और जल्दी से कार का सामने से घेरा काट कर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । मैंने कार का इंजन स्टार्ट किया 

“कहां जा रहे हो ?” - वो व्यग्र भाव से बोली ।

“जहां बिना विघ्न बाधा के दिल से दिल की बात हो सके ।”

“कहां ?”

“मेरे घर ।”

“वो कहां है ?”

“ग्रेटर कैलाश पार्ट वन में । दस मिनट लगेंगे ।”

वो खामोश हो गयी ।

मैंने कार को हर्षा लेन पर दौड़ाया ।

तभी मुकन्दलाल मुझे एक कोठी से बाहर निकलता दिखाई दिया । मैंने हौले से कार का हार्न बजाया और हैडलाइट बन्द करके डोम लाइट जला दी ताकि वो मेरे साथ बैठी लड़की को देख पाता और समझ पाता कि ऑपरेशन कामयाब रहा था ।

उसका सिर सहमति में हिला 

मैंने डोम लाइट बुझा दी, हैडलाइट फिर ऑन की और कार को अपने घर की तरफ दौड़ा दिया ।

तमाम सफर मुकम्मल खामोशी में कटा ।

मैंने अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने कार रोकी और उसके साथ बाहर निकला । फाटक ठेल कर हम इमारत के भीतर दाखिल हुए तो रात की उस घड़ी भी मेरा लैंडलार्ड प्रेत की तरह बरामदे में प्रकट हुआ ।

“मिस्टर कोहली...” - उसने कहना चाहा ।

“कैसे हैं, ओक साहब !” - मैं प्रिया के साथ सीढियों की तरफ बढता हुआ बोला ।

“जरा बात सुनकर जाइये ।”

“बाद में, ओक साहब, बाद में ।”

“बात जरूरी है...”

“मैं फ्लैट में पहुंचकर आपको फोन करता हूं ।”

“लेकिन...”

“इन ए मिनट, सर, इन ए मिनट ।”

मैं ऊपर पहुंचा । मैंने चाबी लगाकर अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो पाया कि भीतर रोशनी थी ।

जरूर मैं ही बुझा के जाना भूल गया था ।

लेकिन वो बात नहीं थी । भीतर कदम रखते ही मुझे अहसास हो गया कि बत्ती बुझा के जाना नहीं भूला था ।

मैं भौचक्का सा फ्लैट में मौजूद लैला को देखने लगा 

मेरे से एक कदम पीछे चलती प्रिया भी चौखट पर थमक कर खड़ी हो गयी 

ओक साहब जरूर मुझे फ्लैट में लैला मौजूदगी की बाबत ही बताना चाहते थे । मेरे फ्लैट की एक चाबी हमेशा उनके पास रहती थी ताकि मेरी गैरहाजरी में अगर मेरा कोई मेहमान वहां पहुंचता तो उसे बाहर सड़क पर ही एडि़यां घि‍सते रहना ना पड़ता ।

आज ओक साहब की बात वक्त रहते न सुनना मुझे महंगा पड़ा था ।

“हल्लो !” - मैं जबरन मुस्कराता हुआ बोला - “वैलकम ।”

वो उसे सोफे पर बैठी हुई थी जिसका रुख प्रवेश द्वार की ओर था । उसने खामोशी से कई क्षण अपलक मुझे और प्रिया को देखा । फिर वो बड़े यत्न से उठ कर खड़ी हुई ।

“तुम्हारा लैंड लार्ड बहुत अच्छा आदमी है ।” - वो भावहीन स्वर में बोली - “मैंने तुम्हारी बाबत पूछा था तो उसी ने मुझे ऑफर किया था कि मैं यहां भीतर बैठ कर तुम्हारा इन्तजार कर सकती थी । उसी ने मुझे यहा की चाबी दी थी ।”

“ही डीड दि राइट थिंग ।”

“मुझे नहीं मालूम था कि तुम तनहा वापिस नहीं लौटने वाले थे वरना मैं यहां बैठी इन्तजार न कर रही होती ।”

“वो.. वो क्या है कि...”

“मैं चलती हूं । कल फोन करूंगी ।”

“जरूर । लेकिन...”

“गुड नाइट ।”

उसने फ्लैट की ओक साहब वाली चाबी मेरी तरफ उछाली जिसे कि मैं बड़ी मुश्किल से हवा में लपक पाया । फिर वो लम्बे डग भरती वहां से रूख्सत हो गयी । अपने पीछे उसने इतनी जोर से दरवाजा बन्द किया कि भीतर के बाकी खि‍ड़कियां दरवाजे थरथरा गये । मैंने उसके पीछे जाने की कोशि‍श की लेकि‍न वो तो जैसे हवा में उड़ती सीढियों उतर गयी ।

“तौबा !” - असहाय भाव से गर्दन हिलाते मैंने वापिस चौखट में कदम डाला, मैं दरवाजा बन्द करके वापिस घूमा तो रास्ते में ही धमक गया । मैं आंखें फाड़ फाड़ कर प्रिया की तरफ देखने लगा ।

उसके हाथ में एक नन्ही सी पिस्तौल थी जिसका रुख मेरी छाती की तरफ था 

“दरवाजा खोलो” - उसने आदेश दिया - “और परे हट के खड़े हो जाओ ।”

“ये तुम्हारी ज्यादती है ।” - मैं शि‍कायतभरे स्वर में बोला - “मैंने तुम्हारे वादे पर एतबार किया और तुम..”

“प्लीज ओपन दि डोर ।”

“गन पास थी तो रास्ते में ही क्यों न तान दी ?”

“तब तुम सावधान थे । छीन लेते ।”

“ऐसी कोशि‍श मैं अभी भी कर सकता हूं ।”

“इतने मूर्ख तुम मुझे नहीं दिखाई देते ।”

“देखो । सुनो । मैं तुम्हें जाने से नहीं रोक सकता, लेकिन मौजूदा हालत में मेरे से बात करना तुम्हारे लिये भी फायदेमन्द हो सकता है । तुम अब यहां से चली जाओगी तो मैं तुम्हें फिर तलाश कर लूंगा ।”

“कैसे कर लोगे ?”

“जैसे पीछे निजामुद्दीन में किया था । आई एम ए डिटेक्टि‍व । रिमेम्बर ।”

वो खामोश रही ।

“तुम हर बार मेरे पर पिस्तौल नहीं तान पाओगी ।”

“दरवाजा खोलो ।”

“तुम मेरे से बच भी जाओ तो पुलिस से नहीं बच सकतीं ।”

“पुलिस ।”

“जिसे कि तुम्हारी तलाश है ।”

“खामखाह !”

“मेरे आदमी का कत्ल तुम्हारी वजह से हुआ ।”

“खामखाह !”

“हरीश पाण्डेय के कत्ल में जरूर तुम्हारा कोई वास्ता है । वो तुम्हारे दिखाये एक आदमी के पीछे लगा और मारा गया, ऐसा खामखाह नहीं हो सकता ।”

“मेरा कत्ल से कोई वास्ता नहीं ।”

“पुलिस को बोलना ।”

“दरवाजा खोलो ।”

“इस पिस्तौल के दम पर तुम यहां से जा सकती हो लेकिन मैं तुम्हें ढूंढ सकें या न ढूंढ सकूं, पु‍लिस जरूर ढूंढ लेगी ।”

“तुम पुलिस को मेरे बारे में बताओगो ?”

“क्यों नहीं बताऊंगा ?”

“मैंने कुछ नहीं किया । पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।”

“खामख्याली है तुम्हारी । पुलिस...”

“तुम दरवाजा खोलते हो या मैं गोली चलाऊं ?”

“गोली की आवाज नीचे लैंडलार्ड सुनायी देगी । वो फौरन ऊपर पहुंचेगा ।”

“तो वो भी मारा जायेगा । और उसका खून तुम्हारे सर होगा ।”

“इतने खतरनाक इरादे हैं तुम्हारे ?”

“आखि‍री बार कह रही हूं । दरवाजा खोलो ।”

“खुद खोल लो ।” - मैं दरवाजे से परे स्विच बोर्ड की तरफ हटता हुआ बोला - “इसे ताला नहीं लगा हुआ ।”

वो आगे बढी । वो दरवाजे के करीब पहुंची तो उसका खाली हाथ दरवाजे के हैंडल पर पड़ा ।

तभी मैंने बिजली का स्विच ऑफ कर दिया । तत्काल कमरे में अन्धेरा छा गया । मैं बाज की तरह उस पर झपटा । मेरे हाथ उसके पिस्तौल वाले हाथ पर पड़ा जिसे मरोड़ कर मैंने पिस्तौल उसके हाथ से निकाल ली । मैंने जो से उसे अपने से परे धक्का दिया और उठ खड़ा हुआ । मैंने बिजली का स्विच वापिस ऑन किया ।

“अब क्या इरादा है, स्वीटार्ट ?” - मैं उसकी रिवॉल्वर उसकी तरफ तानता हुआ विद्रुपपूर्ण स्वर में बोला ।

“यू !” - वो तड़प कर बोली - “यू सन आफ बिच ।”

“ओरीजनल । दि वैरी फर्स्ट । इस ज‍गतप्रसिद्ध बिच ने जितने सन पैदा किये है, उनमें से सबसे पहला । पहललोठी का । अब राजी ?”

उसके मुंह से बोल न फूटा ।

“उठ के खड़ी हो ।” - मैं कर्कश स्वर में बोला ।

वो उठी तो मैंने उसे सोफाचेयर पर धकेल दिया ।

“अब बोलो क्या किस्सा है ?”

“मु... मुझे एक गिलास पानी पिला दो ।”

“बाद में । अभी मेरा खून ही पियो जैसे कि पी रही हो ।”

“लेकिन...”

“नो लेकिन । तुम समझती हो कि तुम मुझे पानी लेने भेज कर यहां से खि‍सक जाओगी तो ऐसा नहीं होने वाला ।”

“मेहमान के लिये तुम्हारा कोई फर्ज नहीं ?”

“कौन सा मेहमान ?”

“जिसे तुम अपने साथ लाये हो ।”

“मेहमान बनी कहां रहीं तुम ? तुमने तो मुझे बैंडिट क्वीन बन के दिखा दिया । तमंचे वाली दस्यु सुंदरी ।”

“लेकिन...”

“ऐनफ आफ दैट । अब शुरु करो ।”

“क्या शुरु करूं ?”

“बोलना । जुबान चालाना । किसके लिये काम कर रही हो ? कौन है तुम्हारी पीठ पर ? नहीं, पहले ये बताओ कि तुम्हारा नाम क्या है ?”

“जैसे तुम्हें मालूम नहीं ।”

“ये तुम्हारा असली नाम है ?”

“मेरा असली नकली एक ही नाम है । प्रिया ।”

“प्रिया सिब्बल ?”

“हां ।”

“तुम्हें मालूम है मेरे सहयोगी हरीश पाण्डेय का कत्ल हो गया है ?”

“हां । पेपर में पढा ।”

“पेपर में पढा ? वैसे नहीं मालूम ?”

“वैसे कैसे मालूम होता ?”

“क्या मतलब ?”

“मतलब ये कि या तो उसका कत्ल तुमने किया था और या फिर कत्ल वाले हालात तुमने पैदा किये थे । अगर इन दोनों में से कोई भी बात सच है तो समझ लो कि तुम्हारी खैर नहीं ।”

“तुम क्या करोगे ?”

“नमूना देखना चाहती हो ?”

“क्या करोगे ?”

मैं उसके करीब पहुंचा । मैंने अपलक उसकी तरफ देखा । उसने बड़ी दिलेरी से मेरी आंखों में आंखें मिलायीं । मैंने एक जोर का झांपड़ उसके गाल पर रसीद किया । उसकी खोपड़ी अर्धवृत में फिरकनी की तरह घूमी । उसके गुलाबी गाल पर मेरी उंगलियों के निशान आये । उसकी आंखों से आंसू छलक आये ।

“काफी है” - मैं क्रूर भाव से बोला - “या और खि‍दमत करूं ?”

उसने उत्तर न दिया ।

“आम हालात में मैं औरत पर हाथ उठाना पसन्द नहीं करता ले‍किन मौजूदा हालात आम नहीं है । मैंने कसम खाई है कि मैं पाण्डेय के कातिल का पता लगा के रहूंगा और इस काम के लिये मुझे जायज नाजायज जो कुछ भी करना पड़ेगा, मैं करूंगा । समझीं ?”

वो खामोश रही ।

“मेरा दिल गवाही दे रहा है कि कत्ल के षड़यंत्र में तुम भी शरीक हो । किस हैसियत से शरीक हो, ये मैं नहीं जानता लेकिन शरीक यकीनन हो । अब बोलो क्या शि‍रकत है तुम्हारी ? क्या वास्ता है तुम्हारा उन कातिलों से जो कि जरूर नशे के व्यपारी भी हैं ? क्या बला हो तुम ? डोप पुशर हो, डीलर हो, डिस्ट्रीब्यूटर हो, क्या हो ? या सिर्फ बरगलाने फुसलाने का काम करती हो ? ट्रेनिंग देती हो नये नशेबाजों को ? या कि खुद भी नशेबाज ही हो ?”

वो ख्याल आते ही मैंने उसकी पहली और फिर दूसरी कलाई थामी और उसकी अस्तीनों को कोहनियों तक ऊंचा किया । मुझे दोनों बांहों पर सिरिज से बने कई पंक्चर मार्क दिखाई दिये । मैंने वैसे ही जबरन उसकी दोनों आंखों की पुतलियों का मुआयना किया तो वो मुझे नार्मल लगीं । तब मैंने बांहों के निशानों का फिर मुआयना किया तो मुझे लगा कि उनमें से ताजा बना कोई नहीं था ।

यानी कि दिनेश वालिया की तरह वो भी नशे की लत छोड़ चुकी थी ।

“मुझे तुम्हारे से हमदर्दी है ।” - मैं धीरे से बोला ।

वो खामोश रही ।

“पहले नशा करती थीं ?”

उसका सिर सहमति में हिला 

“इलाज से ठीक हुई ?”

उसका सिर फिर सहमति में हिला ।

“कहां कराया इलाज ?”

“करनाल में । इन कामों के लिये बनी सरकारी इंस्टीच्यूट में ।”

“फिर तुम्हारी हकीकत जान लेना क्या बड़ी बात है ? वहां तो तुम्हारा रिकार्ड होगा ।”

वो खामोश रही ।

“देखो, मैं पुलिस को बीच में नहीं लाना चाहता । इसलिये नहीं क्योंकि मुझे तुम्हारी भलाई की फिक्र है बल्कि इसलिये क्योंकि मैं पाण्डेय के कातिल को खुद तलाश किया होने का सुख और संतोष पाना चाहता हूं । इसीलिये मैंने अभी तक तुम्हारे बारे में पुलिस को कुछ नहीं बताया । लेकिन तुम अपनी खामोशी बरकरार रखोगी तो मजबूरन मुझे ये कदम उठाना पड़ेगा । मुझे तुम्हारे पर हाथ उठाना पड़ा, इसका मुझे अफसोस है । दोबारा चाह कर भी मैं ऐसा नहीं कर पाऊंगा लेकिन पुलिस को अपने किसी किये का कोई अफसोस नहीं होता । अफसोस जाहिर करना पुलिस की फितरत में शुमार नहीं । अगर तुम्हारी ये जिद बरकरार है कि तुमने मेरे सामने जुबान नहीं खोलनी तो मैं इन्स्पेक्टर देवेन्द्र यादव को फोन लगाता हूं और तुम्हें उसके हवाले करता हूं । उसके बाद जो तुम्हारे साथ बीतेगी, उसके ख्याल से भी मेरी रूह कांपती है ।”

उसने बैचैनी से पहलू बदला 

“तो मैं करूं फोन ?”

उसने फिर पहलू बदला ।

मैं दृढता के साथ फोन की तरफ बढ़ा ।

“नहीं ।” - वो व्यग्र भाव से बोली - “पुलिस को फोन न करना । मैं सब बताती हूं ।”

“गुड ।”

“लेकिन इसका मतलब मौत होगा । तुम्हारी भी और मेरी भी ।”

“मै मौत से नहीं डरता । मेरे कत्ल की पहले ही दो कोशिशें हो चुकी हैं ।”

“वो हमारी तरफ से नहीं हुई थी ।”

“तुम्हारी तरफ कौन सी है ?”

“मिस्टर कोहली” - वो कातर भाव से बोली - “कोई ऐसा तरीका नहीं कि तुम इस काम से हाथ खींच लो ?”

“क्या पाण्डेय मुर्दे से जिन्दा हो सकता है ?”

“कैसे हो सकता है ?”

“तो फिर कोई तरीका नहीं ।”

“तो फिर देर-सबेर तुम्हारा भी वही हश्र होगा जो पाण्डेय का हुआ ?”

“मुझे परवाह नहीं । तुम वो किस्सा छोड़ो और बोलो जिस शख्स के पीछे पाण्डेय को लगाया गया था, वो कौन था ? तुम्हारा पति तो वो यकीनन नहीं था । सच पूछो तो तुम तो अब मुझे शादीशुदा भी नहीं लग रही हो ।”

“वो मेरा पति नहीं था ।”

“यानी कि ये लक्ष्मीकांत सिब्बल एक फर्जी नाम था जो तुमने अपने फर्जी पति को दिया था ?”

“हां ।”

“उसकी किसी गैर औरत से आशनाई की कहानी भी फर्जी थी ?”

“हां ।”

“असल में कौन था वो ?”

“उसका नाम हरमेश पीपट है ।”

“तुम्हें उसकी निगरानी करवाने की जरूरत थी ?”

“मुझे जरूरत नहीं थी, उन लोगों को जरूरत थी जिनके लिये कि मैं काम करती हूं । वो जानना चाहते थे कि वो कहां आता जाता था, किन लोगों में उठता बैठता था, वगैरह ।”

“क्यों ?”

“मेरे एम्पलायर्स की पीपट से बिजनेस डीलिंग थी लेकिन उन्हें पक्के तौर से मालूम हुआ था कि पीपट असल में खुद टाप बास नहीं था । वो असल में किसी और का नुमायन्दा था । मेरे एम्पलायर जानना चाहते थे कि असल में वो किस का नुमायन्दा था ?”

“यानी कि वो शख्श - वो टाप बास - कौन था जिसके लिये पीपट काम करता था ?”

“हां ।”

“और उसका ख्याल था कि किसी प्राइवेट डिटेक्टिव को पीपट के पीछे लगाने से उनका मतलब हल हो सकता था ?”

“हां ।”

“इसीलिये तुम्हें मेरे पास भेजा गया ? तुमने कहानी तो अपने फर्जी पति की सुनाई लेकिन निगरानी के लिये पति की जगह हमें पीपट दिखा दिया ?”

“हां ।”

“इतनी सी बात में कत्ल कहां से आ घुसा ? पाण्डेय क्यों मारा गया ?”

“उन्हें खबर लग गयी होगी कि वो पीपट के पीछे लगा हुआ था ।”

“इतनी आसानी से नहीं । इतनी जल्दी नहीं । पाण्डेय इन कामों में बहुत दक्ष, बहुत तजुर्बेकार आदमी था । इतनी जल्दी ये बात जाहिर नहीं हो सकती थी कि वो किसी के पीछे लगा हुआ था । पाण्डेय ऐसा होने नहीं दे सकता था ।”

“अब मैं क्या कहूं ?”

“अपने उस काम के दौरान उसने कभी तुम से सम्पर्क किया था ?”

“एक बार किया था ।”

“कैसे ?”

“उस मोबाइल नम्बर पर फोन करके जो मैंने तुम लोगों को दिया था ।”

“यानी कि वो नम्बर उस दूसरे नाम-पते की तरह फर्जी नहीं था जो कि तुमने मेरे ऑफिस में मुझे दिया था ?”

“नहीं । मोबाइल नम्बर जेनुइन था ।”

“फर्जी नाम-पता किसलिये ?”

“मुझे ऐसी हिदायत थी । मेरे बॉस लोग चाहते थे कि तुम मेरे से सम्पर्क न कर सको । जब जरुरत हो, मैं तुम से सम्पर्क करूं ।”

“किया तो नहीं ?”

“पहले जरुरत न पड़ी क्योंकि पाण्डेय से मोबाइल पर बात हो गयी । फिर जरुरत न रही क्योंकि पाण्डेय का कत्ल हो गया ।”

“पाण्डेय ने क्यों सम्पर्क किया था ?”

“ये बताने के लिये किया था कि पीपट हालीडे इन की सोलहवीं मंजील के एक सुइट में मौजूद था ।”

“क्यों मौजूद था ? वो वहां रहता था ?”

“रहता तो, भई, वो पार्क होटल में था । मुझे यकीनी तौर पर मालूम है ।”

“तो ?”

उसने अनभिज्ञता से कन्धे उचकाये 

“खुद पाण्डेय ने इस बाबत कुछ नहीं कहा था ?”

“नहीं ।”

“पाण्डेय बहुत जिम्मेदार आदमी और उतना ही ट्रेंड इनवैस्टिगेटर था जितना कि मैं खुद हूं । आधी अधूरी रिपोर्ट पेश करना उसकी फितरत से मेल नहीं खाता ।”

“मतलब ?”

“जब उसे ये तक मालूम था कि पीपट हालीडे इन की सोलहवीं मंजिल के एक सुइट में मौजूद था तो ये बात मुझे हज्म नहीं होती कि उसने ये जानने की कोशिश न की होती कि वो सुइट किसके हवाले था ?”

“उसने कोशिश की होगी । कोई बड़ी बात नहीं कि जान भी लिया होगा ।”

“तो फिर ?”

“मैंने इस बाबत क्योंकि कोई खास, ऐन कील ठोक कर, सवाल नहीं किया था इसलिये शायद उसने भी बात की डिटेल में जाना जरूरी नहीं समझा था ।”

मैं आश्वस्त न हुआ ।

“बाद में जब वो तुम्हें रिपोर्ट करता तो शायद सब कुछ बताता ।”

“यकीनन बताता । लेकिन बाद तो हुई ही नहीं । उससे पहले ही वो...”

अवसादपूर्ण ढंग से गर्दन हिलाता मैं खामोश हो गया ।

“आई एम सॉरी ।” - वो बोली ।

मैं खामोश रहा ।

“उस सुइट में कौन ठहरा हुआ है, ये अभी भी तो जाना जा सकता है ?”

“कौन से सुइट में ?” - मैं बोला – “हालीडे इन के उस फ्लोर पर तो कई सुइट हैं ।”

“ओह !”

“और फिर होटलों के सुइट रोज खाली होते हैं, रोज आबाद होते हैं ।”

“यू आर राइट ।”

“बहरहाल बात पीपट की हो रही थी । ये पीपट अगर हेरोइन के ट्रेड में था तो उसके सिर पर मौत का खतरा तो सदा मंडराता होगा ?”

“जाहिर है ।”

“ऐसा आदमी, हो सकता है कि, अपने साथ कोई बाडीगार्ड रखता हो ?”

“बिल्कुल हो सकता है । रखता ही होगा ।”

“फिर तो बात समझ में आती है ।”

“कौन सी बात ?”

“यही कि पाण्डेय का राज कैसे फाश हुआ ? वो अपने सब्जेक्ट की यानी कि पीपट की जानकारी में नहीं आया था बल्कि पीपट के बाडीगार्ड की जानकारी में आया था जिसकी कि उसे खबर नहीं थी । यही बात उसका वाटरलू साबित हुई और वो अपनी जान से हाथ धो बैठा । पता नहीं कहां हुआ ऐसा ! क्योंकि पूसा रोड पर जहां उसकी लाश पड़ी पायी गयी थी, वहां तो उसका कत्ल हुआ नहीं था ।”

“मैं जानती हूं उसका कत्ल कहां हुआ था ?”

“अच्छा ! कहां हुआ था ? किसने किया था ?”

“दूसरे सवाल का जवाब मुश्किल है । पक्के तौर पर मैं सिर्फ पहले का जवाब दे सकती हूं ।”

“वही दो ।”

“उसका कत्ल करोलबाग में हुआ था ।”

“तुम्हें कैसे मालूम ?”

“तुम्हारे आदमी ने जब मुझे फोन कर के पीपट की हालीडे इन में मौजूदगी की बाबत बताया था तो मैं वहां पहुंची थी । तब मैं भी चुपचाप पीपट के पीछे लगी थी । तब कोई सात बजे के करीब पीपट होटल से निकला था और एक टैक्सी पर सवार होकर वहां से रवाना हुआ था । तब तुम्हारा आदमी पाण्डेय पीपट के पीछे था और मैं उसके पीछे थी । पीपट करोलबाग में सतनगर जा कर उतरा था और वहां की एक विशाल कमर्शियल बिल्डिंग में दाखिल हो गया था । उस बिल्डिंग के पहलू में एक अन्धेरी गली थी जहां कि पाण्डेय जा छुपा था । मैं सड़क के पार से उस गली और उस इमारत की एन्ट्रेंस दोनों को वाच कर रही थी । दो-तीन मिनट के बाद उस इमारत के सामने एक कार आ कर रुकी थी और उसमें से एक लड़की बाहर निकली थी । वो कुछ क्षण वहां टिकी रही थी और फिर इमारत में दाखिल होने की जगह उस अन्धेरी गली में जा घुसी थी जहां कि पाण्डेय छुपा हुआ था और जहां पाण्डेय उसकी निगाहों में आया बिना नहीं रह सकता था । उसने पाण्डेय को आवाज दी थी तो पाण्डेय उसके करीब पहुंचा था । दोनों उस गली के दहाने पर आमने सामने खड़े कुछ क्षण बात करते रहे थे । फिर एकाएक उस लड़की ने जैसे शुक्रगुजार होने के अन्दाज से अपनी बाहें पाण्डेय की गर्दन में पिरो दी थीं और उसको किस किया था । ऐन उसी घड़ी मुझे पाण्डेय के पीछे एक साया दिखाई दिया था, उस साये का एक हाथ हवा में उठा था और फिर हाथ गायब हो गया था और पाण्डेय लड़की के ऊपर ढेर हो गया था । उसके बाद वो साया जैसे अन्धेरे से प्रकट हुआ था वैसे ही अन्धेरे में कहीं गायब हो गया था ।”

“फिर ?” - मैं व्यग्र भाव से बोला - “फिर ?”

“फिर जिस कार पर वो लड़की वहां पहुंची थी, उसमें से एक आदमी निकला था और दौड़ कर गली में पहुंचा था । उसने और लड़की ने मिल कर पाण्डेय की लाश को कार में लादा था और फिर कार वहां से चली गयी थी । मैं बस इतना ही जानती हूं इस बाबत ।”

“लेकिन वो साया किस का था ? वो लड़की कौन थी ? वो आदमी कौन था ?”

“मुझे नहीं मालूम । तभी तो मैंने कहा था कि मुझे मालूम था कि पाण्डेय का कत्ल हुआ था ! लेकिन ये नहीं मालूम था कि कत्ल किसने किया था !”

“उस दौरान पीपट कहां था ?”

“मुझे नहीं मालूम । मेरे सामने वो इमारत से बाहर नहीं निकला था और न ही मैं वहां वो वारदात देखने का बाद रुकी थी । जिन्दगी में पहली बार मैंने अपनी आंखों के आगे किसी का कत्ल होते देखा था । मैं वहां टिकी रहती तो मेरी जान पर भी आ बनती ।”

“लेकिन कातिल या कातिलान तो कार पर सवार हो कर चले गये थे ।”

“वो साया पीछे था जिसने पाण्डेय की पीठ पीछे अपना काम किया था । पीपट पीछे था ।”

“हूं । और बोलो ।”

“और क्या बोलूं ? जो कुछ मुझे मालूम था वो सब मैंने बता तो दिया ।”

“तुमने सिर्फ पीपट की सूरत पहचानी थी लेकिन वो इमारत के भीतर था इसलिये कातिल नहीं हो सकता था । और किसी की सूरत तुमने पहचानी नहीं थी ।”

“पीपट पिछवाड़े से या साइड के किसी दरवाजे से अन्धेरी गली में पहुंचा हो सकता था । वो हमलावर साया खुद पीपट हो सकता था ।”

“हो सकने में और होने में जमीन आसमान का फर्क होता है ।”

“उसने कत्ल किया नहीं तो करवाया हो सकता है ।”

“साबित करना मुहाल है । अगर वो कातिल है तो मुझे उस तक किसी और जरिये से पहुंचना होगा । तुमने कहा तुम्हारे एम्पलायर्स की पीपट से बिजनेस डीलिंग थी । क्या डीलिंग थी वो ? क्या बिजनेस स्थापित था उन दोनों के बीच में ?”

“मुझे नहीं मालूम ।”

“तुम झूठ बोल रही हो । तुम्हें बाखूबी मालूम हैं । वो बिजनेस नशे का था और उस बिजनेस में तुम भी शामिल हो ।”

वो खामोश रही । उसने जोर से थूक निगली ।

“नारकॉटिक्स के ट्रड में आज कल इधर कुछ नया हो रहा है । वो नया ये है कि शहर में हेरोइन का तोड़ा पड़ गया है जिसकी वजह से आदी नशेबाजों में तहलका मच गया है । ऐसा क्यों हो रहा है ? कौन हेरोइन की सप्लाई को रोके बैठा है ? किसने ट्रेड पर ये अंकुश लगाया है और क्यों लगाया है ?”

“मुझे कुछ नहीं मालूम ।”

“तुम्हें सब मालूम है । इसलिये मालूम है क्योंकि तुम इस ट्रेड में शामिल हो । तुम उन लोगों की संगिनी हो जो कि इस ट्रेड मे शामिल हैं । ये कैसे हो सकता है कि तुम्हें कुछ मालूम न हो । नाओ कम ऑन । टैल मी वाटू यू नो । क्या जानती हो ?”

“मैं सिर्फ इतना जानती हूं” - वो कठिन स्वर में बोली - “कि पिछले छः महीनों से हेरोइन की कोई बड़ी खेप इस शहर में नहीं उतरी लेकिन...”

वो खामोश हो गयी ।

“अब उतरने वाली है ?” - मैं उसे घूरता हुआ बोला ।

“हां ।” - वो भयभीत भाव से बोला - “मिस्टर कोहली, ये बात जुबान पर लाने से मेरी जान जा सकती है लेकिन तुम मजबूर कर रहे हो इसलिये बता रही हूं कि कल हेरोइन की एक बड़ी खेप दिल्ली पहुंचने वाली है ।”

“कैसे ?”

“सड़क के रास्ते ।”

“सड़क के रास्ते कैसे ?”

“ये मुझे नहीं मालूम ।”

“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहतीं ?”

“मालूम नहीं ।”

“दिल्ली में उसे रिसीव करने वाला कौन होगा ?”

तत्काल उसकी आंखों में भय की छाया तैर गयी ।

“कौन होगा !” - मैं सख्ती से बोला ।

“वो... वो...”

तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी 

वो घबरा कर खामोश हो गयी ।

“कौन ?” - मैं उच्च स्वर में बोला ।

जवाब में दरवाजे पर फिर दस्तक पड़ी ।

“कौन ?” - मैं पहले से ज्यादा उच्च स्वर में बोला ।

“दरवाजा खोलो ।” - एक अपरिचित आवाज आयी ।

“कौन है ?”

“खोलो । मालूम पड़ जायेगा ।”

“मैं इस वक्त किसी से नहीं मिल सकता । कल दिन में आना ।”

“खोलो वरना दरवाजा तोड़ दिया जायेगा ।”

“दफा हो जाओ ।”

तत्पश्चात एक क्षण खामोशी रही, फिर दो बार हल्की-हल्की पिट-पिट की आवाज हुई और फिर दरवाजे का हैंडल उसके ताले समेत मुझे एक तरफ लटका दिखाई देने लगा । मुझे समझते देर न लगी कि उस पर साइलेंसर लगी रिवॉलवर से गोलियां चलायी गयीं थीं । फिर दरवाजा खुला और आनन फानन एक आदमी भीतर घुस आया जिसे कि मैंने तत्काल पहचाना ।

वो नोरा था ।

उसके पीछे वही दो आदमी खड़े जिन्होंने नोरा के आदेश पर किसी अज्ञात जगह पर पिछली रात मेरी धुनाई की थी । वो दोनों भी हथियारबन्द थे ।

“पिस्तौल गिरा दो ।” - नोरा ने आदेश दिया ।

तीन रिवॉल्वरें मेरी तरफ तनी हुई थी । मैं पिस्तौल न गिराता तो और क्या करता ?

“क्या चाहते हो ?” - मैं बोला ।

“तुम्हारे से कुछ नहीं चाहते, बिरादर । जो चाहते हैं इससे” - उसने प्रिया की तरफ इशारा किया - “चाहते हैं ।”

तब प्रिया के चेहरे पर आंतक के ऐसे भाव आये जैसे वो जहां बैठी थी, वहीं मर जाने वाली हो 

“इससे क्या चाहते हो ?” - मैं बोला ।

“ये हमारे साथ जा रही है ।”

“ये नहीं हो सकता ।”

“मैं तुम्हें यहां नहीं मारना चाहता - वैसे भी तुम्हारा कत्ल अब हमारे लिये जरूरी नहीं रहा - लेकिन मजबूर करोगे तो ऐन ऐसा ही करुंगा । ये हमारे साथ जायेगी । इसके लिये इस इमारत में मौजूद तमाम के तमाम लोगों का भी हमें कत्ल करना पड़ा तो परवाह नहीं । अब बोलो क्या कहते हो ?”

मैं क्या कहता ! मैं क्या कह सकता था ! मैं खामोश रहा ।

“बढिया ।” - नोरा बोला, फिर उसने अपने साथियों की तरफ इशारा किया । दोनों ने बढ कर प्रिया को दायें-बायें से थामा, एक झटके से उसे सोफे से उठा कर खड़ा किया और फिर उसे अपने बीच में चलाते बाहर को चल दिये ।

प्रिया ने पनाह मांगती निगाहों से मेरी तरफ देखा ।

मैंने उसकी तरफ से निगाह फिरा ली । उस घड़ी उसकी कोई मदद करने की स्थिति में मैं नहीं था । उस वक्त तो खुद मुझे कुल जहान की मदद की जरुरत थी ।

जब तक वो लोग सुरक्षि‍त वहां से न निकल गये, मेरी तरफ रिवॉल्वर ताने नोरा वहीं खड़ा रहा ।

“कहीं फोन करने की को‍शि‍श मत करना ।” - फिर वो चेतावनीभरे स्वर में बोला - “ऐसा कुछ किया तो लड़की की जान चली जायेगी । उसकी फौरन और तुम्हारी थोड़ी देर में । समझे ?”

“हां ।”

“तो मैं चलूं ?”

मैं खामोश रहा ।

कुछ कदम उलटा चलता वो वहां से रुख्सत हो गया 

पीछे दरवाजे के टूटे ताले का मातम मनाता मैं एक सोफे पर ढेर हो गया । मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।

नोरा एक ऐसी बात कह कर गया था जो कि मेरे जेहन पर बार बार दस्तक दे रही थी ।

क्यों अब मेरा कत्ल उनके लिये जरूरी नहीं रहा था ?

दूसरा सवाल ये था कि वो लोग प्रिया को क्यों ले गये ? उनका प्रिया का झपट्टा मारना ये तो स्थापित करता ही था कि वो उनकी तरफ नहीं थी । यानी कि प्रिया का एम्पलायर कोई और था । यानी कि लोकल नारकॉटिक्स वार में कम-से-कम दो पार्टियां तो ऐसी थीं जो कि एक दूसरे के बरखि‍लाफ आमने सामने खड़ी थीं और उनमें से एक पार्टी का मोहरा प्रिया थी तो दूसरी का मोहरा नोरा था ।

एकाएक फोन की घण्टी बजी 

मैंने फोन उठा कर कान से लगाया और बोला - “हल्लो !”

“कोहली ?” - पूछा गया - “सुधीर कोहली ?”

मुझे ऐसा लगा जैसे कोई जानबूझ कर आवाज बिगाड़ कर बोल रहा था ।

“स्पीकिंग ।” - मैं बोला 

“प्रिया सिब्बल तुम्हारे यहां है ?”

“कौन जानना चाहता है ?”

“वो बात अहम नहीं । तुम मुझे नहीं जानते । तुम सिर्फ इतना बताओ कि प्रिया सिब्बल कहां है ?”

“पहले बताओ तुम कौन हो, फिर जवाब मिलेगा ।”

“यानी कि वो तुम्हारे साथ है ?”

“मैंने ये नहीं कहा ।”

“ओह ! तुम ये कहना चाहते हो कि वो तुम्हारे साथ नहीं है लेकिन तुम्हें मालूम है कि वो कहां है ?”

“मैंने ये भी नहीं कहा ।”

“पहेलियां मत बुझाओ, मिस्टर कोहली । साफ बोलो, प्रिया कहां है ?”

“पहले तुम साफ बोलो, तुम कौन हो ?”

“कोहली, तुम नहीं जानते हो कि अनजाने में तुम कितने बड़े भि‍ड़ के छत्ते में हाथ डाल बैठे हो ! नहीं जानते हो कि तुम्हारे सिर मौत मंडरा रही है ।”

“धमकी दे रहे हो ?”

“वार्निंग दे रहा हूं, ईडियट । अगर आधे घण्टे में प्रिया सिब्बल वापिस न लौटी तो और आधे घण्टे में तुम्हारा जहन्नुम का टिकट कट जायेगा । कोहली, अपने जोड़ीदार के कत्ल का बदला लेने की तुम्हारी कोशि‍श को हम सही ठहराते हैं लेकिन हम ये नहीं चाहते कि तुम्हारी कोशिशें हमारे लिये जहमत बनती चली जायें । इसलिये प्रिया को वहां रोके रखने की को‍शि‍श न करो । उसे जाने दो । और हमारा यकीन करो कि तुम्हारे जोड़ीदार के कातिलों को बहुत जल्दी उनकी करतूत की मुनासिब सजा मिलेगी ।”

“कौन देगा सजा ?”

“हम देंगे । तुम हमारे लिये काम कर रहे थे । वो तुम्हारा आदमी था इसलिये वो भी हमारे लिये काम कर रहा था । उसकी मौत का बदला लेना हमारा भी फर्ज है ।”

“वो फर्ज मैं खुद निभा लूंगा । उसके लिये मुझे तुम्हारे जैसे किसी गुमनाम शख्स की मदद की जरूरत नहीं ।”

“बेमौत मारे जाओगे ।”

“देखेंगे ।”

“ठीक है, देखना । अगर तुम जानबूझ कर मौत का निवाला बनना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी लेकिन प्रिया से तुम्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला इसलिये उसे छोड़ो ।”

“नहीं छोड़ सकता ।”

“क्या ?”

“इसलिये नहीं छोड़ सकता क्यों‍कि वो मेरी गिरफ्त में नहीं है ।”

“क्या मतलब ?”

“अभी थोड़ी देर पहले कुछ लोग यहां आये थे जो कि उसे जबरन यहां से ले गये ।”

“कौन लोग ?”

“पता नहीं कौन लोग ! अलबत्ता उनमें से एक का नाम नोरा था ।”

“कितने आदमी थे ?”

“नोरा को मिला कर तीन ।”

“क्यों ले गये ? कहां ले गये ?”

“मालूम नहीं ।”

“जो कह रहे हो, सच कह रहे हो ?”

“मुझे झूठ बोलने से फायदा ?”

“बहुत ही पंगेबाज आदमी हो, सुधीर कोहली । तुम्हारे जैसे शख्स को तो बिना वजह खत्म कर दिया जाना चाहिए ।”

फिर रिसीवर के जोर से क्रेडल पर पटके जाने की आवाज हुई और सम्बन्ध-विच्छेद हो गया ।

मैंने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और नया सिगरेट सुलगाया 

तभी कालबैल बजी ।

“खुला है ।” - मैं उच्च स्वर में बोला ।

मुकन्दलाल ने भीतर कदम रखा 

“ताले को क्या हुआ ?” - वो बोला ।

“भूख लगी थी, मैं चबा गया । काफी लजीज था ।”

उसने हकबका कर मेरी तरफ देखा ।

“कैसे आया ?” - मैं पूर्ववत् भुनभुनाता-सा बोला ।

“ये लिस्ट देने आया ।” - वो बोला - “तू तो वहां टिका ही नहीं । कितनी देर तक तो मैं यही सोचता वहां मंडराता रहा था कि तू लौट कर आयेगा । तू न लौटा इसलिये मुझे आना पड़ा ।”

“शुक्रिया ।” - मैं लिस्ट लेकर उसका मुआयना करता हुआ बोला ।

“मैंने लड़की तेरे साथ कार में बैठी देखी थी । यानी कि तेरा काम हो गया था ।”

“हां । ये बीस से सत्ताईस तक की आठ कोठियों की लिस्ट है ?”

“हां । मैं आठवीं से ही तो बाहर निकल रहा था जबकि मुझे तेरा सिग्नल मिला था । तब बाकी की तीन कोठियों में जाने की क्या तुक थी ?”

“ठीक ।”

“मैं चलता हूं ।”

“एक मिनट रुक । बैठ ।”

उसने बैठने का उपक्रम न किया, वो मेरे करीब ठिठका खड़ा रहा ।

मैं सोचने लगा ।

प्रिया को मैंने सर्विस लेन के मिडल में से कहीं से बाहर निकलते देखा था । इस लिहाज से शुरु की कोठियों को भी नजरअन्दाज किया जा सकता था । आखि‍री तीन कोठियों में मुकन्दलाल नहीं गया और शुरु की तीन को मैंने अपने मतलब का न समझा तो बाकी पांच कोठियां बचीं जिनमें एक डॉक्टर, एक बड़ा सरकारी अफसर, एक ट्रांसपोर्टर, एक ज्वेलरी शोरूम का मालिक और एक रिटायर्ड व्यक्ति दर्ज था ।

उनमें से किसका सम्बन्ध प्रिया जैसी औरत से - जो कि एक्स हेरोइन एडिक्ट थी और अब हेरोइन के व्यापारियों की संगिनी थी - हो सकता था ?

ट्रांसपोर्टर का ?

यकीनन ट्रांसपोर्टर का ।

प्रिया ने कहा भी था कि हेरोइन की एक बड़ी खेप सड़क के रास्ते दिल्ली पहुंचने वाली थी ।

सड़क के रास्ते !

जो कि ट्रांसपोर्टर की तरफ खास इशारा था ।

मैंने लिस्ट में से ट्रांसपोर्टर की ऐन्ट्री फिर छांटी ।

नाम हीरालाल जयपुरिया, कोठी नम्बर बी-26, मालिक जयपुरिया-दासानी रोडलिंकर्स ।

दासानी के नाम पर मेरा माथा ठनका ।

क्या वो वही दासानी हो सकता था जिसकी कोठी में पिछली रात मैंने पनाह पायी थी और जिसका उसकी केयरटेकर वैशाली ट्रांसपोर्ट के धन्धे में भी दखल बताती थी ?

हो तो सकता था ।

ऊपर में उसका इम्पोर्ट एक्सपोर्ट का धन्धा बताया जाता था । ये तो समगलिंग की बड़ी तैयारशुदा बुनियाद मालूम होती थी ।

मैंने टेलीफोन डायरेक्ट्री निकाली ।

उसमें ऐन्ट्री के मुताबिक उस कम्पनी का हैड ऑफिस रोशनआरा रोड पर था और गोदाम संजय गान्धी ट्रांसपोर्ट नगर के प्लाट नम्बर 635-38 पर था 

एक की जगह चार प्लाटों का नम्बर दर्ज होना साबित करता था कि जरूर वो बहुत बड़ी ट्रांसपोर्ट कम्पनी थी 

मुकन्दलाल बड़े अर्थपूर्ण भाव से खांसा ।

“एक मिनट ।” - मैं बोला - “बस एक मिनट । ये तेरी लिस्ट की सातवीं ऐन्ट्री... बी-26 वाली... जिसके मालिक का नाम तूने हीरालाल जयपुरिया लिखा है.. क्या घर में ये जयपुरिया खुद मौजूद था ?”

“हां ।”

“कैसा आदमी था वो ?”

“वैसा ही जैसा कि पैसे वाले सारे सेठ होते हैं । कोई पचपन साल का ड्रम जैसा आदमी था वो जो कि बाइफोकल्स लगाता था और सिर से गंजा था ।”

“घर में और कौन था ?”

“पता नहीं । मुझे ऐसा कोई नहीं दिखाई दिया था जिसे कि फैमिली माना जा सकता । अलबत्ता एक दो नौकर चाकर जरूर दिखाई दिये थे ।”

“रहन-सहन कैसा था ?”

“बहुत करारा । बहुत शानदार । कम्पाउन्ड में मर्सिडीज खड़ी थी ।”

“कोई और बात ?”

“तू बोल ।”

“मैं क्या बोलूं ?”

“तो मैं चलूं ?”

मैंने सहम‍ति में सिर हिलाया 

छुटकारे की सांस लेता वो वहां से रुख्सत हुआ ।

***

सुबह दस बजे मैं संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर पहुंचा ।

अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंचने में मुझे, कोई दिक्कत न हुई । वहां एक विशाल बोर्ड लगा हुआ था जो कि जी.टी. रोड से ही दिखाई देता था । बोर्ड पर लिखा था:

जयपुरिया-दासनी रोडलिंकर्स

ट्रांसपोर्टर्स एण्ड फ्लीट ओनर्स

दिल्ली, मुम्बई, मद्रास, बंगलौर, कलकत्ता, गुहाटी

कार से निकलने से पहले मैंने सावधानी से उस जगह का मुआयना किया ।

वहां की जो खास बातें मैंने नोट की थीं, वो थीं:

ऑफिस मेन गेट के पहलू में यूं बना हुआ था कि उसमें जाने के लिये यार्ड में कदम रखना, यहां तक कि कम्पनी का विशाल फाटक पार करना भी, जरूरी नहीं था ।

भीतर एक तिहाई जगह में एक कवर्ड हॉल था, एक सायबान वाला विशाल शैड था और बाकी का अहाता खाली था जिस में ट्रक खड़े थे और तिरपाल से ढकी पेटियां पड़ी थीं ।

वहां के तमाम मुलाजिम, बोझा ढोने वाले वर्कर, चपरासी वगैरह, यहां तक कि सिक्योरिटी वाले भी, एक ही तरह की नीली वर्दी पहनते थे जिसकी जेब पर जे.डी.आर कढा हुआ था ।

किसी बाहरी आदमी की ऑफिस के अलावा वहां कहीं कदम रखने की सख्त मनाही थी - ऐसा फाटक पर लेग एक बोर्ड पर लिखा था 

आखि‍रकार मैं कार से निकला और ऑफिस में पहुंचा ।

एक क्लर्क ने प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी तरफ देखा ।

“हमारा एक कनसाइनमेंट मुम्बई से आना वाला था ।” - मैं अधि‍कारपूर्ण स्वर में बोला - “पहुंचा या नहीं ?”

“आपको हैड ऑफिस से दरख्वास्त करना चाहिये था” - क्लर्क बोला - “जो कि‍ रोशनआरा रोड पर है ।”

“मैं वहीं गया था, भई ।” - मैं उतावले स्वर में बोला - “उन्होंने ही मुझे यहां भेजा है ।”

“ओह ! कनसाइनीज कापी दिखाइये ।”

“उसका फैक्स है मेरे पास ।”

“वो ही दिखाइये ।”

मैंने अपनी जेब में हाथ डाला, फिर तमाम जेबों में हाथ डाला और खेदपूर्ण स्वर में बोला - “वो तो लगता है तुम्हारे हैड ऑफिस में रह गया ।”

“नम्बर याद हो ?”

“सॉरी !”

“ये ही याद हो कि सामान कब बुक कराया गया था ?”

“नहीं याद । बुकिंग की तारीख नहीं याद ।”

“फिर कैसे चलेगा ?”

“लेकिन अराइवल की सम्भावित तारीख याद है ।”

“वो ही बताइये ।”

“वो तारीख आज ही की है । तभी तो मैं यहां आया हूं ।”

“चालू तारीख तो रात के बारह बजे तक होती है, साहब, आप तो सवेरे ही सवेरे आ गये ।”

“अब आ ही गया हूं तो कुछ तो करो, भाई । आखि‍र मैंने भी अपने मालिकान को जवाब देना है ।”

“मुम्बई से चला हमारे ट्रकों का कॉनवाय आज शाम तक यहां पहुंचेगा ।”

“कॉनवाय ?”

“काफिला । छ: ट्रक इकट्ठे चलते हैं । स्पेशल ट्रक हैं । शक्ति‍ नाम है उनका । स्पेशल कनसाइनमेंट ढोने के काम आते हैं ।”

“ओह !”

“वो शाम छ: बजे तक यहां पहुचेंगे । आप उसके बाद या कल सुबह मालूम कीजियेगा अपने कनसाइनमेंट के बारे में ।”

“ठीक है । शुक्रिया !”

मैं ऑफिस से बाहर निकल आया लेकिन उस इलाके से न टला ।

मैं कार को वहां से परे ले आया जहां पहुंचकर मैंने अपना सूट उतार दिया और परसों रात वाले वो कपड़े पहन लिये जो कि मैं अपने साथ लाया था । मैंने सिर पर एक बद्शक्ल सी टोपी पहन ली, दायीं आंख के नीचे एक मस्सा लगा लिया और नथुनों में प्ला‍स्टि‍क की दो छोटी-छोटी गोलियां घुसा लीं जिनसे मेरी नाम फैल गयी और ऊपरी होंठ यूं उठ गया कि दांत दिखने लगे ।

करीब ही एक ढाबा था जिस पर मैं जा बैठा और चाय चुसकता, सिगरेट पीता प्रतीक्षा करने लगा ।

आसपास क्योंकि वो एक ही ढाबा था इसलिये जयपुरिया-दासानी रोडलिंकर्स के किसी न किसी वर्कर का वहां पहुंचना लाजमी था 

ऐसा ही हुआ ।

पन्द्रह मिनट बाद नीली वर्दी वाला बोझा ढोने वाला एक वर्कर वहां पहुंचा ।

“चाय बनाना ।” - वो बोला ।

“मेरे लिये भी ।” - मैं बोला ।

उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से मेरी तरफ देखा ।

“अच्छी चाय बनती है यहां ।” - मैं बोला - “अभी पी फिर भी हाथ के हाथ ही दोबारा पीने का दिल कर आया ।”

उसने सहमति में सिर हिलाया 

मैंने उसकी तरफ सिगरेट का पैकेट बढाया । वो पैकैट डनहि‍ल का नहीं था, पनामा का था जिसे कि मैंने ढाबे पर पहुंचने से पहले रास्ते में खरीदा था । उसने सिगरेट ले लिया और फिर मेरे करीब ही बैठ गया । मैंने भी एक सिगरेट लिया और पहले उसका और फिर अपना सिगरेट सुलगाया 

“सुधीर नाम है मेरा ।” - मैं बोला ।

“मेरा सुग्रीव ।” - वो बोला ।

“जयपुरिया-दासानी से हो ?”

“हां । तुम ?”

“मैं तो, भाई, बेरोजगार हूं ।” - मैं खि‍सियाया-सा हंसता हुआ बोला - “इधर नौकरी की तलाश में ही आया था ।”

“कहीं पता किया ?”

“दो-तीन जगह किया लेकिन काम नहीं बना । तुम्हारे यहां क्या हाल है ?”

“लोडर्स की भरती तो चलती ही रहती है ।”

“चलती ही रहती है ?”

“हां । कुछ लोग काम के जोर के हिसाब से दिहाड़ी पर भी रखे जाते हैं, इसलिये ।”

“ओह !”

“चौबीस घन्टे चलती है लोडिंग अनलोडिंग, इसलिये बहुत लोडरों की जरूरत होती है ।”

“क्या दिहाड़ी मिलती है ?”

“सौ । रात को काम करो तो बीस अलग से ।”

“हूं ! इस बाबत किस से मिलना होता है ?”

“फोरमैन तिवारी से ।”

“तुम मुझे उससे मिलवा सकते हो ?”

“इस काम के लिये किसी सिफारिश की जरूरत नहीं । वो शाम चार से साढ़े चार तक तुम्हारे जैसे लोगों से मिलता है । शाम को पहुंच जाना ।”

“ठीक है ।”

तभी बेयरा हमें चाय दे गया ।

“मेरी तरफ से ।” - मैं जेब से पांच का नोट निकालता हुआ बोला ।

“अरे नहीं ।” - उसने प्रतिवाद किया ।

“एक ही बात है ।”

दो चाय के तीन रुपये मैंने चुकता किये ।

“वर्दी कम्पनी की तरफ से मिलती है ?” - मैंने पूछा ।

“हां ।” - वो गर्व से बोला - “लेकिन नौकरी पक्की हो जाने के बाद ।”

“कब पक्की होती है ?”

“छ: महीने में ।”

“दिहाड़ी वाले भी वर्दी पहनते हैं ?”

“हां । फोरमैन देता है । ड्यूटी खत्म होने पर उतरवा लेता है ।”

“पक्के लोडरों को भी ऐसे ही वर्दी मिलती है ?”

“नहीं, भई ।” - उसके स्वर में फिर गर्व का पुट आ गया - “हमें तो दर्जी के पास भेजा जाता है ।”

“दर्जी ?”

“किंग्सवे कैम्प में है । आदर्श टेलर्स । वही कम्पनी की वर्दियां सीता है । जिसकी नौकरी पक्की हो जाती है, उसे फोरमैन की दर्जी के नाम स्लि‍प मिल जाता है ।”

“हूं ।”

“मैं चलता हूं ।”

मैंने सहमति में सिर हिला दिया ।

“फिर मिलेंगे ।”

“तुम्हारे यहां नौकरी लग गयी तो मिलते ही रहेंगे ।”

“लग जायेगी । शाम को आना ।”

“जरूर ।”

***

मैं किंग्सवे कैम्प पहुंचा ।

आदर्श टेलर्स का बोर्ड मुझे चौक के करीब ही एक दुकान पर लगा दिखाई दे गया ।

मैं दुकान पर पहुंचा ।

“जयपुरिया-दासानी से आया हूं ।” - मैं बोला - “फोरमैन तिवारी साहब ने भेजा है । वर्दी के लिये ।”

“पर्ची निकाली ।”

“घर रह गयी ।”

“ले के आओ ।”

“कल लाऊंगा । एक वर्दी अभी दे दो वरना मेरी मुसीबत हो जायेगी ।”

“ऐसा नहीं हो सकता ।”

“मैं सिकोटरी जमा करा दूंगा ।”

“क्या जमा करा दोगें ?”

“सिकोटरी ।”

“सि.. सिको.. ओह ! सिक्योरिटी ! सिक्योरिटी जमा करा दोगे !”

“हां । कल जब पर्ची लाऊं तो वापिस कर देना ।”

“तीन सौ रुपये चाहिये होंगे । हैं जेब में ?”

मैंने तीन सौ रुपये उसके हवाले किये ।

तत्काल उस के रुख में नर्मी आयी ।

“ऐसी पर्ची सम्भाल के रखनी चाहिये न !” - वो बोला ।

“सम्भाल के ही रखी है । खो नहीं गयी । घर रह गयी है । कल ले आऊंगा ।”

“हां । वरना तीन सौ रुपये वापिस नहीं मिलेंगे ।”

“ठीक है ।”

उसने एक सिली हुई वर्दी मुझे ट्राई करवाई ।

“पतलून ढीली है ।” - वो बोला - “मैं अभी...”

“ठीक है । पेटी बांध लूंगा ।”

“अरे, आधे घण्टे का काम है...”

“फौरन काम पर लौटना है । मेहरबानी करो ।”

उसने वर्दी मुझे सौंप दी 

मैं वहां से रुख्सत हुआ 

शाम चार बजे फोरमैन के सामने पेश होने का मेरा कोई इरादा नहीं था ।

वो मुझे रिजेक्ट कर सकता था ।

वो मुझे बतौर सुधीर कोहली पहचान सकता था ।

उस ट्रांसपोर्ट कम्पनी के अहाते में दाखि‍ल होने का मैं कोई और ही जरिया आजमाना चाहता था ।

***

मैं अपने ऑफिस पहुंचा ।

रजनी रिसेप्शन पर मौजूद थी 

उसने मेरा अभि‍वादन किया ।

अभि‍वादन का जवाब देता मैं अपने कक्ष में पहुंचा ।

वहां सबसे पहले मैंने पुलिस हैडक्वार्टर में इन्स्पेक्टर यादव का नम्बर मिलाया ।

“कोहली रिपोर्टिंग, बॉस ।‍” - जवाब मिला तो मैा बोला 

“अभी जिन्दा हो ?” - यादव बोला ।

“अभी हूं । अलबत्ता जान आयी गयी कई बार हुई ।”

“फिर तो खूब हाथ-पांव मार रहे होगे ?”

“जाहिर है ।”

“क्या जाना ?”

“कैसे जाना कि कुछ जाना ?”

“अरे, जब हाथ-पांव मार रहे तो कुछ तो जाना ही होगा ?”

“खास कुछ नहीं जाना ।”

“आम ही बताओ, क्या जाना ?”

“आम भी कुछ नहीं जाना । बस, धक्के ही खाये ।”

“कोहली, पी.डी. के धन्धे में पुलिस से असहयोग नहीं चल सकता ।”

“बिलकुल ठीक कहा । पुलिस से असहयोग तो वैसे भी नहीं चल सकता । मैं सिर्फ पी.डी. ही नहीं, एक नेक शहरी भी हूं, इसलिये हमेशा पुलिस से सहयोग करता हूं और उसकी पूरी-पूरी मदद करता हूं ।”

“क्या मदद करते हो ?”

“गाड़ी लाल बत्ती से निकाल ले जाता हूं और सौ रुपये का चालान भरता हूं । पोल्यूशन चैक नहीं करता इसलिये हजार रुपये का चालान भरता हूं । एक्सपायर्ड लाइसेंस को रीन्यू नहीं करवाता इसलिये...”

“लगे बकवास करने ।”

“कहने का मतलब ये है कि मैं पुलिस के पब्लिसिटी स्लोगन पर पूरा अमल करता हूं ।”

“पब्लिसिटी स्लोगन ! कौन सा पब्लिसिटी स्लोगन ?”

“हैल्प युअर लोकल पुलिस । ब्राइब ए कॉप टुडे ।”

“क्या ।”

“अपनी स्थानीय पुलिस की सहायता कीजिये । आज ही एक सिपाही को रिश्वत दीजिये ।”

“कोहली, बाई गॉड, अभी पकड़ मंगवाऊंगा और जेल में बन्द कर दूंगा ।”

“किस इलजाम में ?”

“लम्बी लिस्ट है मेरे पास इल्जामों की । खुद ही कोई सा छांट लेना ।”

“मैं मजाकर कर रहा था ।”

“मुझे मालूम है । किसी और के साथ ये बकवास करोगे तो महंगी पड़ेगी । समझे ।”

“समझा ।”

दूसरी तरफ रिसीवर पटक दिया गया ।

मैंने बाहर मेन टेलीफोन पर बजर देकर रजनी को भीतर बुलाया ।

“बैठ ।” - मैं बोला 

वो मेरे सामने एक कुर्सी पर बैठ गयी ।

“मैं एक खास बात कहना चाहता हूं । गौर से सुन ।”

“मैं नहीं ।”

मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।

“क्या तू नहीं ?”

“मैं अभी खास बात नहीं सुन सकती । गौर से तो हरगिज नहीं सुन सकती ।”

“क्यों भला ?”

“बस, नहीं सुन सकती ।”

“अरे, अभी जान तो ले कि खास बात है क्या ?”

“मुझे मालूम है ।”

“तुझे मालूम है ?”

“मैं अभी आपसे शादी नहीं कर सकती ।”

“क्या ।”

“मेरा इस महीने का प्रोग्राम फुल है । मैंने किसी से कमिट किया हुआ है । आप अगले महीने या उससे अगले महीने अर्जी लगाइयेगा ।”

“हे भगवान ! हे भगवान !”

वो होंठ दबा कर हंसी 

“इतनी जुबानदराजी ! वो भी अपने एम्पलायर से !”

वो फिर हंसी ।

“उम्र क्या हो गयी तेरी ?”

“अट्ठारह साल...”

“क्या बकती है ?”

“...और कुछ महीने ।”

“ओह ! कुछ महीने । कितने महीने ”

“साठ महीने ।”

“यानी कि तेईस की है तू ?”

“नकद ।”

“ज्याद की होगी ।”

“क्यों भला ?”

“इतनी गोली मार देने लायक कम्बख्त तू तेईस साल में ही कैसे हो सकती है ?”

वो हंसी ।

“मैं तुझे खीं खीं करने की तनखाह देता हूं ?”

“ये काम मैं फ्री में करती हूं । सौ बार बताया ।”

“अब फ्री का काम बन्द कर और संजीदगी से मेरी बात सुन ।”

“सुनाइये ।”

“सुन । वो जो तेरी कजन वैशाली है, जो कि किसी दासानी की कोठी की हाउसकीपर है, उसकी बाबत मैं कुछ कहना चाहता हूं ।”

“वो बहुत कैरेक्टर वाली लड़की है । नहीं मानेगी ।”

“क्या नहीं मानेगी ?”

“वही जो आप मनवाना चाहते हैं ।”

“फिर शुरु हो गयी, कम्बख्त ।”

“यानी कि वो बात नहीं है ?”

“नहीं । वो बात नहीं है ।”

“फिर क्या बात है । फिर तो जो मर्जी कहिये । हां तो आप कह रहे थे...”

“मैंने पता लगाया है कि वो दासानी एक ट्रांसपोर्ट कम्पनी में पार्टनर है ।”

“आपने कौन से तीर मारा है इसमें ? वो तो वैशाली ने ही आपको बताया था कि वो रोड ट्रांसपोर्ट के धन्धे में था ।”

“लेकिन ये नहीं बताया था कि वो किसी के साथ पार्टनरशिप में इस धन्धे में था । ये नहीं बताया था कि उसका पार्टनर कौन था, ट्रांसपोर्ट कम्पनी का नाम क्या था और वो कहां थी ।”

“ये सब आप जान गये हैं ?”

“हां । अब खबरदार जो मेरे काबिल जासूस होने पर की तबसरा किया या मुझे की शाबाशी दी ।”

“नैवर, सर्र । आप की खुशी के लिये मैं कबूल करने को तैयार हूं कि आप काबिल जासूस नहीं हैं और शाबाशी को काबिल आपने कभी कोई काम नहीं किया है ।”

“जो कि तेरा मेरे पर अहसास है ?”

“है तो सही । अहसान नहीं तो एम्पलायर की हां में हां मिलाना ओबिडियेंस तो है ही ।”

“अरी कम्बख्त, क्यों बात को कहीं से कहीं घसीट ले जाती है ?”

वो होंठ दबा कर हंसी 

“ठीक है । दफा हो । मैं जा के वैशाली से ही बात करता हूं ।”

“वो नहीं करेगी । उससे बात करने के लिये मेरे से पर्ची कटवानी पड़ती है इसलिये जो कहना है यहीं कहिये ।”

“कैसे कहूं ? कहने तो तू देती नहीं । मुंह पकड़ लेती है ।”

“अब कहिये ।”

“संजीदगी से सुनेगी ?”

“हां ।”

“वो ट्रांसपोर्ट कम्पनी, जिसका मैंने जिक्र किया, जयपुरिया-दासानी रोडलिंकर्स के नाम से जानी जाती है और कम्पनी का विशाल गोदाम संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर में है । समझ गयी ?”

“हां ।”

“आज शाम को अन्धेरा होने के बाद मैं उस गोदाम में दाखिल होना चाहता हूं ।”

“क्यों ?”

“क्यों को तू छोड़ ।”

“मिस्टर पाण्डेय के कातिल की तलाश में आप ऐसा करना चाहते हैं ?”

“ऐग्जैक्टली । ऐन यही बात है ।”

“आगे बढिये ।”

“वहां सिक्योरिटी का ऐसा इन्तजाम है कि ये काम मैं किसी की मदद के बिना नहीं कर सकता । और इस वक्त जो मददगार मुझे दिखाई दे रहा है, वो तेरी कजन वैशाली है ।”

“वो क्या कर सकती है ? कैसे कर सकती है ?”

“वो दासानी की हाउसकीपर है और दासानी ट्रांसपोर्ट कम्पनी का पार्टनर है । अव्वल तो वैशाली को वहां का सीनियर स्टाफ वैसे ही जानता होगा, नहीं जानता होगा तो वो खुद जनवा देगी ।”

“फिर क्या होगा ?”

“परसों जब मैं दासानी की कोठी से रुख्सत हुआ था तो मैंने वहां कम्पाउन्ड में एक एम्बैसेडर कार खड़ी देखी थी । मैं उस कार की डिकी में बड़ी आसानी से समा सकता हूं । मुझे यकीन है कि उस कार पर जब वो वहां पहुंचेगी तो उसे कार को बाहर ही पार्क करने को नहीं कहा जायेगा । जरूर उसके लिए फाटक खोला जाएगा और उसे कार भीतर ले जाने की इजाजत दी जायेगी । एक बार कार के भीतर अहाते में पहुंच जाने के बाद मैं कोई मौका ताड़ कर कार में से निकल जाऊंगा और जा कर लोडरों की भीड़ में मिक्स हो जाऊंगा ।”

“जहां कि आप कौवों में हंस की तरह साफ पहचाने जायेंगे ।”

“ऐसा नहीं होगा । मैं भी कौवा बन कर ही वहां जाऊंगा ।”

“ओह ! लेकिन फिर भी वहां आप उन लोडरों में नये होंगे, अजनबी होंगे ।”

“मैंने मालूम किया है कि रात पाली में वहां नये, अजनबी लोडरों की मौजूदगी आम बात है । मुझे कोई देखेगा तो यही समझेगा कि मैं दिहाड़ी वर्कर था और मुझे उसी रोज भरती किया गया था ।”

“ओह !” - वो एक क्षण ठिठकी और फिर चिन्तित भाव में बोली - “ये जोखम का काम नहीं ?”

उस घड़ी उसके स्वर में अपने लिये चिन्ता का पुट मुझे बहुत अच्छा लगा ।

“है जोखम का काम” - मैं बोला - “लेकिन अगर मैंने पाण्डेय के कातिल तक पहुंचना है तो ये जोखम उठाना मेरे लिये जरूरी है ।”

“हूं । वैशाली वहां पहुंचने की वजह क्या बतायेगी ?”

“कह देगी कि उसे फोन पर मैसेज मिला था कि वहां दासानी साहब के नाम कोई कनसाइनमेंट पहुंचा था जिसे कि वो लेने आयी थी ।”

“असल में तो ऐसा कोई कनसाइनमेंट नहीं पहुंचा होगा ।”

“ये बात तब वहां की मुद्दा नहीं बनेगी । उस वक्त यही समझा जायेगा कि कनसाइनमेंट पहुंचने में देरी हो गयी थी । बाद में या तो किसी को याद ही नहीं रहेगी या फिर समझा जायेगा कि उस की डिलीवरी रोशनआरा रोड से ले ली गयी थी ।”

“आई सी ।”

“मुझे यह बहाना सूझा है, वैशाली वहां का फेरा लगाने का अगर इससे कोई बेहतर बहाना सोच सकती है तो और भी अच्छा है ।”

“मैं उससे बात करती हूं ।”

“हां, कर । लेकिन ये बात जैसे भी बने, बननी चाहिये ।”

“बात तो बन जायेगी । बहाने बनाने का तो लड़कियों को खास तजुर्बा होता है लेकिन बात में फच्चर तो कहीं और ही फंसा हुआ है ।”

“क्या मतलब ?”

“वैशाली को कार चलानी तो आती ही नहीं ।”

“रजनी” ! - मैं भड़क कर बोला - “सत्यानाश हो तेरा । ये बात तू मुझे सारी कथा हो चुकने के बाद आखिर में बता रही है ?”

“मुझे अभी सूझी ।”

“अभी सूझी ?”

“लेकिन आप फिक्र क्यों करते हैं ? जाना तो आपने शाम को है न ?”

“हां ।”

“शाम होने में अभी छः घन्टे बाकी हैं ।”

“तो ?”

“वो सीख लेगी ।”

“सीख लेगी ! छ: घन्टे में ?”

“क्या बड़ी बात है ! जब सिखाने वाली मैं हूं तो क्यों नहीं सीख लेगी ?”

“लेकिन तुझे... खुद तुझे कहां आती है कार चलानी ?”

“आती नहीं है लेकिन कॉरस्पोंडेंस कोर्स से सीख रही हूं । आज ही आखि‍री लैसन डाक से मिला है ।”

मैंने घूर कर उसे देखा 

वो मुंह फेरकर हंसने लगी 

तब मुझे यकीन हो गया कि वो झूठ बोल रही थी कि वैशाली को कार चलानी नहीं आती थी ।

फिर मैं भी हंसने लगा 

“मैं फोन करती हूं ।” - वो हंसना बन्द करके उठती हुई बोली ।

मैंने सहमति में सिर हिलाया 

***

शाम सवा चार बजे मैं जयपुरिया-दासनी रोडलिंकर्स के विशाल अहाते के भीतर था ।

पूर्वयोजनानुसार वैशाली के साथ काली एम्बैसेडर की डिकी में मैं वहां पहुंचा था । पता नहीं वैशाली ने वहां मेरे वाली पुड़िया दी थी या अपनी कोई कहानी गढ कर सुनायी थी लेकिन सब ऐन मेरी मर्जी के मुताबिक हुआ था और निर्विघ्न हुआ था 

वहां विशाल सायबान के नीचे दस बारह लोडर मौजूद थे जो कि बैंचों पर बैठे तम्बाकू या पान मसाला फांक रह थे और बतिया रहे थे । वहां धूम्रपान की मनाही का बोर्ड लगा हुआ था जिस की वजह से तम्बाकू और पान मसाले पर जोर मालूम पड़ता था ।

मैं उनमें जा मिला ।

किसी ने मेरी तरफ तवज्जो न दो ।

उन्हीं लोगों में सुग्रीव भी था जो कि मुझे बाद में दिखाई दिया । लेकिन मेरी खुशकिस्मती से उसका दिखाई देना भी मेरे खि‍लाफ जाने की जगह मेरे हक में गया ।

वो मेरे करीब आया और मेरे कन्धे पर हाथ रखता हुआ बोला - “देखो ! मैं नहीं कहता था कि तुम्हारा काम बिना किसी सिफारिश ही बन जायेगा !”

“हां ।”

“सुशील नाम बताया था न अपना ?”

“सुधीर ।”

“हां, सुधीर ।”

“क्या है, सुग्रीव ?” - किसी ने आवाज देकर पूछा 

“कुछ नहीं ?” - सुग्रीव बोला - “नया जमूरा है । अपना जानने वाला है ।”

“ओह !”

सुग्रीव फिर मेरी तरफ आकर्ष‍ित हुआ ।

“फोरमैन ने तुम्हें जल्दी भीतर कैसे भेज दिया ?” - वो बोला ।

“जल्दी क्या मतलब ?” - मैं बोला ।

“पांच बजे शि‍फ्ट खत्म होती है । यूं छांटे गये लोगों को तो पांच के बाद भीतर आने दिया जाता है ।”

“वो फोरमैन है । मालिक है । जो उसकी मर्जी हुई, उसने किया ।”

“ये भी ठीक है ।”

“कोई काम क्यों नहीं हो रहा ?”

“शि‍फ्ट खत्म होने को आती है तो ऐसा ही होता है । काम बहुत है यहां लेकिन अब पांच बजे के बाद आने वाले ही करेंगे ।”

“ओह !”

सुग्रीव के मेरे यूं बतियाने ने जैसे मुझे वहां स्थापित कर दिया ।

मैं भी उन लोगों की गप्पबाजी में शामिल हो गया 

पांच बजने मे दस मिनट पर मैं बोला - “टायलेट किधर है ?”

“क्या ?” - सुग्रीव बोला 

“पेशाबघर ! सण्डास !”

“अच्छा, वो । उधर शैड के बाजू में चला जा ।”

मैंने निर्देशि‍त रास्ता पकड़ा ।

रास्ते में शैड के सामने मुझे पेटियों का अम्बार लगा मिला ।

एक बार दायें-बायें निगाहें फिरा मैं उन पेटियों में घुस गया और उनके मध्य में जा कर दुबक कर बैठ गया ।

उस जगह पर बैठा मुझे आसमान से ही देखा जा सकता था ।

मैं प्रतीक्षा करने लगा ।

ऐन पांच बजे अहाते में एक सायरन सा बजा और फिर बाहर हलचल होती सुनायी देने लगी ।

दस मिनट में सब शान्त हो गया ।

मैंने वहां से निकलने का उमक्रम न किया ।

छ: बजे के करीब मुझे अहाते का विशाल फाटक खुलने की आवाज सुनायी दी और फिर साथ ही कई ट्रकों के शक्तिशाली इंजनों की आवाज हुई जो कि निश्चय ही कम्पाउन्ड के भीतर दाखि‍ल हो रहे थे ।

जरूर छ: बजे मुम्बई से आने वाला ट्रकों का कॉनवाय वहां पहुंच गया था ।

और दस मिनट बाद मैं सावधानी से वहां से बाहर निकला और यूं जाहिर करता वापिस लौटा जैसे टायलेट से लौट रहा था ।

तब तक रात पड़ चुकी थी और बत्त‍ियां जल चुकी थीं, वो उस नैशनल स्टेडियम जैसे अहाते का अन्धेरा दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं थीं ।

मैंने पाया कि ढके हुए विशाल सायबान के नीचे एक दूसरे की बगल में छ: ट्रक खड़े थे । सब के दोनों पहलुओं में बड़े-बड़े शब्दों में ‘शक्ति’ लिखा हुआ था ।

कुछ लोग उनमें से सामान उतारकर गोदाम में पहुंचा रहे थे ।

“किधर मर गया था ?” - कोई कड़क कर बोला 

बड़ी मुश्किल से मैं समझ पाया कि सवाल मेरे से हो रहा था ।

“टाय... पेशाब करने गया था ।” - मैं बोला ।

“चल सामान उतरवा । और पेशाब करके ड्यूटी पर आया कर । साले अभी कदम भीतर पड़े नहीं कि पेशाब करने लगा था ।”

मैं खामोशी से काम करते लोडरों में शामिल हो गया 

आधे घण्टे में तीन ट्रक खाली हो गये ।

“नम्बर चार को नहीं छेड़ना ।” - जिस आदमी ने मुझे झिड़का था, वो बोला 

“क्यों, वर्मा जी ?” - एक लोडर उत्सुक भाव से बोला ।

“ये ऐसे ही गाजियाबाद जायेगा । इसमें पेपर मिल की मशीनरी का पुर्जा है । ड्राइव शाफ्ट कहते हैं उसे । खास मुम्बई से मंगवाया गया है । सीधा मिल में जायेगा ।”

“पेपर मिल की मशीनरी में कुछ न कुछ टूटता ही रहता है, वर्मा जी । मेरे ख्याल में ऐसे ही पिछली बार कोई फीड पाइप आया था और उससे पिछली बार कोई पिलर आया था ।”

“चल चल, काम कर अपना । तेरा क्या मतलब इन बातों से ?”

“वो तो है ।”

“साले, पुर्जे टूटते हैं तो मालिकों का नुकसान होता है, तुझे क्या तकलीफ होती है ?”

“ठीक ।”

“काम कर काम ।”

मैं एक पेटी उठाकर गोदाम की तरफ गया तो उस बार लौट कर न आया । मुझे हर क्षण कड़कती हुई पुकार का अंदेशा था लेकिन वैसा न हुआ । वर्मा या वहां से चला गया था या उसकी तवज्जो मेरी तरफ नहीं रही थी । लोडरों की तवज्जो एक आदमी की घट बढ की तरफ शायद जाती ही नहीं थी ।

और आधे घण्टे बाद अनलोडिंग मुकम्मल हो गयी और सायबान और शैड के बीच मची हलचल बन्द हो गयी ।

आठ बजे के करीब दो वाचमैनों ने आकर गोदाम का विशाल फाटक कर दिया और उस पर बड़े-बड़े ताले जड़ दिये ।

नौ बजे बाहर का फाटक खुला और लगभग सारे लोडर वहां से बाहर निकल आये 

जरूर वो शि‍फ्ट की आधी छुट्टी का वक्त था ।

तब मैं दबे पांव सायबान में पहुंचा ।

मैं उस ट्रक के पिछवाड़े में पहुंचा जिस में ड्राइव शाफ्ट लदा हुआ था । एक बार दायें-बायें झांक कर मैं उचककर ट्रक में सवार हो गया । मैंने कितनी ही देर बड़े गौर से उस शाफ्ट का मुआयना किया 

आखि‍रकार कहानी मेरी समझ में आ गयी ।

वो शाफ्ट काम करने के लिये नहीं बनाया गया था । वो असली शाफ्ट था ही नहीं । वो भीतर से खोखला था और उसे कोई खास सामान ढोने के लिये बनाया गया था ।

खास सामान !

जैसे हेरोइन !

मैं भीतर हेरोइन की मौजूदगी की तसदीक की कोई तकरीब सोच ही रहा था कि एकाएक मुझे फाटक से भीतर दाखि‍ल होते चन्द ऐसे लोग दिखाई दि‍ये जो न लोडर थे, न सिक्योरिटी वाले थे और न क्लैरिकल स्टाफ के लोग थे ।

ये देखकर मैं सकपकाया कि वो सीधे सायबान की तरफ बढ रहे थे ।

और सायबान में भी उन का निशाना वो हिस्सा था जहां ‘शक्ति’ ट्रक खड़े थे 

अब ट्रक में से निकल कर चुपचाप खि‍सक जाना असम्भव था ।

मैं ट्रक के अन्धेरे कोने में विशाल शाफ्ट के एक पहलू में उकड़ू होकर दुबक कर बैठ गया ।

एक आदमी ट्रक के पिछवाड़े में प्रकट हुआ जहां कि वो कुछ क्षण ठिठका खड़ा रहा । उसकी उस पोजीशन में शैड की छत के साथ लटकते शेड लगे एक बल्ब की रोशनी उस पर पड़ रही थी ।

मैंने उसे फौरन पहचाना ।

वो पहाड़गंज के स्टेटस बार का वो बारमैन था जिससे मैंने संतोखसिंह नाम के डोप पुशर की बाबत सवाल किया था ।

अब मुझे पूरा यकीन हो गया कि मैं सही राह पर था और सही मुकाम पर पहुंचा था ।

फिर वो ट्रक के भीतर चढ आया ।

मैं अपने आप में और सिकुड़ गया ।

लेकिन वो उसके उधर के दहाने के करीब ही रहा, उसने मेरी तरफ ट्रक के भीतर आने की कोशि‍श न की ।

दो जने आगे ट्रक के केबिन में सवार हुए । ट्रक का इंजन गर्जा, फिर वो हौले से अपनी जगह से सरका और सायबान के नीचे से निकल कर फाटक दोबारा बन्द हो गया ।

जल्दी ही ट्रक ने स्पीड पकड़ ली ।

वो मेन रोड़ पर पहुंचा 

“कि‍शन !” - तभी ड्राइविंग केबिन में से कोई बोला 

“हां ।” - बारमैन ने जवाब दिया ।

“रखा है न पीछे ?”

“हां ।”

“माचिस दे । मेरी पता नहीं कहां गिर गयी !”

“अच्छा ।”

किशन के नाम से पुकारा जाने वाला बारमैन ट्रक में मेरी तरफ बढा । अभी वो आधे में ही होता कि उसे अहसास हो जाता कि ट्रक में कोई था । वो और करीब पहुंचता तो मैं उसे दिखाई भी दे जाता और वो मुझे पहचान भी लेता ।

तत्काल कुछ करना आवश्यक था 

मैं अपनी उकड़ू स्थि‍ति से ही यूं उसकी तरफ लपका जैसे तोप से गोला छूटा हो । मैंने अपने सिर से उसकी छाती को जोर से धक्का दिया तो वे चलते ट्रक से बाहर जा कर गिरा ।

एक धप्प की आवाज और फिर खामोशी ।

“क्या हुआ ?” - ड्राइविंग केबिन से पूछा गया ।

“कुछ नहीं ।” - मैं जानबूझ कर खांसता हुआ बोला - “गिर पड़ा था । कहीं पांव उलझ गया था ।”

“मुझे तो लगा था जैसे ट्रक के बाहर कुछ गिरा था ।”

“मैं नहीं गिरा था ।”

“साला ! मसखरी करता है । माचिस भूल गया ।”

मैं जल्दी से केबिन के गोल झरोखे के पास पहुंचा और मैंने माचिस उस झरोखे से भीतर बढाई । किसी ने मेरे हाथ से माचिस थाम ली तो मैंने हाथ वापिस खींच लिया ।

मैंने ट्रक से बाहर झांका । ट्रक को उस वक्त मैंने आउटर रिंग रोड पर ओल्ड दिल्ली की तरफ दौड़ते पाया ।

कहां जा रहा था ट्रक !

कहीं वाकई गाजियाबाद तो नहीं जा रहा था !

अगर ट्रक में सच में हेरोइन थी तो ऐसा नहीं हो सकता था । मुम्बई से सुरक्षि‍त दिल्ली हेरोइन पहुंच जाने के बाद भला क्यों वो उसे यू.पी. में घुसाते !

और फिर हेरोइन की शार्टेज दिल्ली में थी न कि यू.पी. में ।

शायद स्टोरेज के लिये उनकी सुरक्ष‍ित जगह वो पेपर मिल थी जिसकी बिगड़ी मशीनरी का कथि‍त पुर्जा मुम्बई में मंगवाया गया था ।

वो बात मुझे जंची ।

मैंने कुछ क्षण खामोशी से हालात का नजारा करने का फैसला किया ।

एकाएक मेरी तवज्जो ट्रक के पीछे आती एक कोन्टेसा कार की तरफ गयी । मुझे अहसास हुआ कि वो कार काफी देर से ट्रक के पीछे थी और मौका हासिल होने पर भी ट्रक को ओवरटेक करके उससे आगे निकलने की कोशि‍श वो नहीं कर रही थी ।

क्या वो कार भी ट्रक के साथ थी !

अब मैं याद करने की कोशि‍श करने लगा कि जब मैंने बारमैन किशन को धक्का दिया था तो क्या वो कार तब भी ट्रक के पीछे थी !

नहीं थी । होती तो उधर से ट्रक रोकने का सिग्नल हुआ होता और फिर मेरा खेल खत्म हो गया होता ।

इस लिहाज से तो वो कार ट्रक के साथ भी नहीं हो सकती थी । साथ होती तो शुरु से साथ होती ।

मेरी अक्ल ने यही फैसला किया कि उस कार का ट्रक से कोई लेना देना नहीं था ।

फिर भी वो ट्रक के पीछे लगी हुई थी ।

या वो महज इत्तफाक था 

बुराड़ी चौक पर पहुंच कर ट्रक बायें बुराड़ी गांव की तरफ मुड़ गया ।

उधर से गाजियाबाद का कोई रास्ता नहीं था ।

यानी कि पुर्जा पेपर मिल नहीं जा रहा था ।

कोन्टेसा कार उधर ही मुड़ी 

पता नहीं ट्रक ड्राइवर को अपने पीछे उस कार की मौजूदगी की खबर थी या नहीं ।

ट्रक उस नये रास्ते पर अभी कोई एक किलोमीटर आगे बढा था कि कोन्टेसा कार तब पहली बार उसका पीछा छोड़ कर उसके दायें पहलू में पहुंची । फिर कार का हार्न बजा ।

ट्रक एक क्षण को धीमा हुआ लेकिन तत्काल ही उसने फिर रफ्तार पकड़ ली ।

कार की रफ्तार भी तेज हुई ओर अब उसका हार्न बार-बार बजने लगा ।

प्रत्यक्षत: ट्रक को रुकने का इशारा किया जा रहा था लेकिन ट्रक वालों को वो इशारा कबूल करने का कोई इरादा नहीं मालूम होता था 

फिर एकाएक एक फायर की आवाज हुई ।

साथ ही कोई शीशा चटकने की आवाज हुई ।

ट्रक को इतनी जोर से ब्रेक लगी कि मैं अपना संतुलन खो बैठा । बड़ी कठिनाई से मैं अपने आप को धड़ाम से ट्रक के फर्श पर गिरने से बचा पाया ।

एक बार फिर फायर की आवाज हुई ।

फिर ब्रेकों की चरचराहट के साथ ट्रक रुका ।

पहली गोली चलने के बाद से ही मुझे अफसोस होने लगा था कि मैं हथि‍यारबन्द नहीं था । मेरे पास लाइसेंसशुदा रिवॉल्वर थी लेकिन मैं उसे अपने साथ नहीं ला सकता था क्योंकि मुझे मालूम नहीं था कि गोदाम में दाखि‍ले या निकासी के वक्त लोडरों की तलाशी होती थी या नहीं होती थी । किसी वैकल्पित हथि‍यार की तलाश में मैंने ट्रक में अन्धेरे में इधर उधर हाथ मारा तो मेरे हाथ एक लोहे की छड़ लगी । फिर मैं चुपचाप कार से विपरीत दिशा में ट्रक से बाहर कूद गया और मैंने उधर के डबल टायरों की ओट ले ली ।

उसी क्षण ट्रक के ड्राइविंग केबिन का मेरी ओर का दरवाजा खुला और पके आम की तरह एक आदमी बाहर टपका । उसके हाथ में रिवॉल्वर थी जो उसके नीचे गिरते ही छिटक कर परे जा पड़ी । मैंने चुपचाप वो रिवॉल्वर अपने कब्जे में कर ली लेकिन छड़ को भी तिलांजलि न दी ।

रिवॉल्वर को मैंने पूरी भरी पाया । यानी कि उसके मालिक को एक भी गोली चलाने का मौका नहीं मिला था कि वो खुद गोली खा गया था ।

अब रात के सन्नाटे में रह-रह कर गोलियां चल रही थीं । साफ पता चल रहा था कि गोलियां न केवल ट्रक की तरफ चल रही थीं बल्क‍ि ट्रक की तरफ से भी चलायी जा रही थीं ।

मेरा क्योंकि क्रास फायर में फंसकर जान देने का कोई इरादा नहीं था इसलिये मैं ट्रक के नीचे घुस गया 

फिर एकाएक केबिन से एक घुटी हुई चीख की आवाज आयी ।

“गोली मत चलाओ ।” - साथ ही कोई कराहता सा बोला - “गन बाहर फेंको ।”

एक भारी रिवॉल्वर बाहर सड़क पर आकर गिरी ।

“बाहर कूदो ।” - हुक्म हुआ ।

“मैं घायल हूं । मुझे गोली लगी है ।”

“कूदो ।”

ट्रक में से ड्राइवर बार कूदा । उसने अपने हाथ सिर से ऊपर खड़े कर दिये ।

कार की ओट में से एक साया प्रकट हुआ । उसका रिवॉल्वर वाला हाथ ड्राइवर की तरफ उठा और उसने प्वायन्ट ब्लैंक ड्राइवर का शूट कर दिया ।

ड्राइवर पछाड़ खाकर ट्रक के पहलू में गिरा ।

फिर सन्नाटा छा गया ।

मैं ट्रक के नीचे से परे की तरफ सरक गया । मैं चुपचाप उधर से ट्रक के केबिन में सवार हुआ और सिर झुकाये स्टि‍यरिंग के पीछे सरक गया । ऊंचाई से मैंने खि‍ड़की की ओर निगाह दौड़ाई तो पाया कि ड्राइवर के मृत शरीर के अलावा भी दो शरीर फर्श पर लुढके पड़े थे । जो तीसरा अपने पैरों पर खड़ा था और जिसने ट्रक ड्राइवर को झूठा आश्वासन देकर शूट किया था, वो भी घायल था, क्योंकि तब वो अपना बायां कन्धा थामे कोन्टेसा के हुड का सहारा लिये खड़ा था और जोर-जोर से हांफ रहा था ।

गुड !

मैंने एकाएक इंजन स्टार्ट किया और ट्रक को गियर में डाल कर अन्धाधुन्ध सामने दौड़ाया 

पीछे कोई हैरानी से चिल्लाया 

फिर एक फायर हुआ जो ट्रक से पता नहीं कहां टकराया !

फिर एक खाली चैम्बर घूमने को क्लि‍क-क्लि‍क ।

बढिया !

लेकिन अभी मैं खतरे से बाहर नहीं था । वो कोन्टेसा पर मेरे पीछे आ सकता था । अलबत्ता ये बात मेरे हक में थी कि वो घायल था जबकि मेरे साथ ऐसी कोई दुश्वारी नहीं थी । ऊपर में ये एलीमेंट आफ सरपराइज भी मेरे हक में था कि वो नहीं जानता था कि मैं कौन था !

मैंने ट्रक को अन्धाधुन्ध सामने दौड़ाया ।

कोन्टेसा मुझे अपने पीछे आती दिखाई न दी ।

ट्रक स्वेच्छा से बुराड़ी वाली सड़क पर मुड़ा था, इसका मतलब था कि उसका गन्तव्य स्थल उधर ही कहीं था जहां कि उसके आगमन की प्रतिक्षा हो रही हो सकती थी । यूं मैं अनजाने में ही उस जगह पर पहुंच सकता था और फंस सकता था ।

लिहाजा मेरे लिये वो रास्ता छोड़ना जरूरी था ।

लेकिन वैकल्पि‍क रास्ता तो वो ही था जिधर से कि मैं आया था और जिधर कोन्टेसा के साथ वो शख्स मौजूद था जो जरूर अब तक अपनी रिवॉल्वर में दोबारा गोलियां भर चुका था ।

मैंने आगे बढने या पीछे लौटने की जगह ट्रक को बायीं तरफ कच्चे पर उतार दिया ।

उस रास्ते पर मैं दो किलोमीटर आगे बढा तो आगे मुझे एक बहुत बड़ा स्क्रैप यार्ड मिला । उस यार्ड में टूटी बसों, ट्रकों और टेम्पुओं की स्क्रैप बाडियों का अम्बार लगा हुआ था । साफ जाहिर हो रहा था कि उनमें से इंजन, रिम जैसे तमाम काम के पुर्जे निकाल लिये गये थे और पीछे जो लोहा रह गया था वो कबाड़ के भाव ही बिक सकता था ।

यार्ड के इर्द-गिर्द कंटीली तारों की बाड़ थी जो कई जगह से टूटी हुई थी । सामने एक फाटक भी था लेकिन वो भी आधा खुला झूल रहा था । भीतर मुकम्मल सन्नाटा था, वहां किसी के होने की कोई सम्भावना नहीं थी, फिर भी मैंने कई बार आवाज लगाकर इस बात की तसदीक की । आखिरकार मैंने नीचे उतरकर फाटक को पूरा खोला और ट्रक को भीतर दाखिल किया । मैंने उसे स्क्रैप के एक बहुत बड़े और ऊंचे पहाड़ के बीच में ले जाकर खडा किया । मैंने हैडलाइट्स बुझाई, इन्जन बन्द किया और डैशबोर्ड में बने बक्से में हाथ मारा । जैसा कि अपेक्षित था, वहां एक शक्तिशाली टार्च मौजूद थी । मैंने टार्च सम्भाली और केबिन से नीचे कूदा । मैं ट्रक के पीछे पहुंचा ।

लोहे की छड तब भी मेरे कब्जे में थी । मैंने वहीं कहीं से एक ईंट भी अपने कब्जे में की और ट्रक के भीतर चढ गया ।

मैं शाफ्ट के पहलू में पहुंचा । टार्च से बारीकी से उसका मुआयना करने के बाद मैंने एक स्थान पर छड़ का एक सिरा टिकाया और उसे ईंट से हथौड़े की तरह ठोका । ऐसे मैंने आठ दस प्रहार ही किये थे कि छड़ शाफ्ट के भीतर घुस गयी, जो कि इस बात का पक्का सबूत था कि मेरे पहले अन्दाजे के मुताबिक शाफ्ट भीतर में खोखला था ।

मैंने छड़ वापस खींच ली और शाफ्ट में हुए छेद पर टार्च की रोशनी डाली 

काले शाफ्ट के छेद से मुझे सफेदी की झलक मिली 

मैंने छेद में एक उंगली डाली तो वो महीन पिसी चीनी जैसे पाउडर में लिथड़ गयी ।

मैंने उसे नाक के पास ले जाकर सूंघा, उसके एक कण से अपनी जुबान लगायी 

तत्काल मुझे यकीन हो गया कि हेरोइन से शाफ्ट भरा पड़ा था । शाफ्ट का आकार बताता था कि भीतर मौजूद हेरोइन पचास से साठ किलो तक हो सकती थी 

यानी कि पचास साठ करोड़ रुपये का माल ।

यानी कि दिल्ली शहर की कम-से-कम एक साल की सप्लाई एक ही बार में एक ही जगह मौजूद ।

यानी कि हजारों लाखों लोगों की मौत का एकमुश्त सामान 

ट्रक से टेप तलाश करके मैंने अच्छी तरह से वो छेद बन्द कर दिया और ट्रक की एक साइड के पल्ले खोल कर उसे नीचे लटका दिया । फिर बड़ी मेहनत से मैंने शाफ्ट को उधर से नीचे जमीन पर लुढक जाने दिया । ट्रक से उतर कर छड़ को लिवर की तरह इस्तेमाल करते हुए मैंने शाफ्ट को और परे लुढक जाने दिया और फिर उसे स्क्रैप से ढक दिया ।

अब कोई नहीं कह सकता था कि स्क्रैप के नीचे कुछ और भी मौजूद था 

अन्त में मैं वापिस ट्रक में आ बैठा ।

मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।

इतनी हेरोइन कब्जा लेने के बाद अब तो मैं भी ड्रग लार्ड कहला सकता था । फिल्दी रिच कहला सकता था ।

उस ख्याल से मुझे कोई सुकून हासिल न हुआ ।

जो कि मेरी खुशकिस्मती थी 

लेकिन वो एक तुरूप का पत्ता मेरे हाथ में था जो कि मुझे कई बाजियां जितवा सकता था ।

अब हरीश पाण्डेय के हत्यारे को मैं दांव पर लगवा कर दांव जीत सकता था 

वो ख्याल मुझे बहुत सुखद लगा ।

मैंने सिगरेट का आखि‍री कश लगाकर उसे खि‍ड़की से बाहर फेंका और ट्रक का इंजन फिर स्टार्ट किया ।

***

मैं अपने फ्लैट पर पहुंचा 

टेलीफोन डायरेक्टरी निकाल कर मैंने उसमें दासानी की ऐन्ट्री देखी तो पाया कि उसमें कोई दो दर्जन भर दासानी दर्ज थे लेकिन सौभाग्यवश ऐसा दासानी सिर्फ एक था जो कि हैडग्वार मार्ग पर रहता था 

मैंने उसका नम्बर डायल किया । कुछ क्षण घन्टी बजती रहने के बाद जवाब मिला तो मैंने वैशाली की आवाज साफ पहचानी ।

“मैं सुधीर बोल रहा हूं ।” - मैं माउथपीस में बोला ।

“सुधीर !”

“कोहली । दि डिटेक्टिव ।”

“ओह ! सलामत हैं आप ?”

“हां । न सिर्फ सलामत हूं बल्कि मेरा काम भी हो गया है ।”

“फिर तो मुबारक हो आप को । क्या सिर्फ यही बताने के लिए फोन किया ?”

“नहीं । वजह तो और भी है ।”

“और क्या वजह है ?”

“वैशाली, तुम्हारी मदद के बिना मेरा काम नहीं हो सकता था । तुम ने मेरी जो मदद की है, उसके लिये मैं तुम्हारा शुक्रगुजार होना चाहता हूं ।”

“हो लीजिए । क्या मनाही है ? आप ‘थैंक्यू’ बोलिये मैं इधर से ‘मैंशन नाट’ फेंकती हूं ।”

“तुम्हारे अहसान का बदला सिर्फ ‘थैंक्यू’ बोल देने से नहीं चुकाया जा सकता ।”

“तो ?”

“मैं तुम्हें एक ट्रीट देना चाहता हूं ।”

“ट्रीट ! मुझे !”

“हां ।”

“क्या ट्रीट देना चाहते हैं, मिस्टर कोहली ?”

“मैं तुम्हें डिनर पर इनवाइट करना चाहता हूं ।”

“इस वक्त ! जब कि मैं डिनर कर भी चुकी हूं ।”

“आज नहीं, कल ।”

“ओह, कल । कहां ले जायेंगे, मिस्टर कोहली ?”

“जहां तुम चाहो ।”

“हम तो मेजबान की मर्जी से चलते हैं ।”

“अब्बा’ ?”

“डिफेंस कालोनी में है । थ्री-इन-वन जगह है । रेस्टोरेंट, डिस्को, नाइट क्लब ।”

“डीसेंट जगह है न ?”

“हां । बहुत ।”

“ठीक है । हमें आपका निमन्त्रण कबूल है ।”

“हमें !”

“मुझे और रजनी को । वो भी तो साथ चलेगी न !”

मैं जैसे आसमान से गिरा 

“हां, हां ।” - प्रत्यक्षत: मैं बोला- “क्यों नहीं ? जरूर ।”

“वो यहीं है । बात करेंगे ?”

“नहीं, जरूरी नहीं । अब कल ही बातें होंगी । अब बोलो, कैसे मुलाकात होगी ?”

“हम ‘अब्बा’ पहुंच जायेंगी । आप टाइम बोलिये ।”

“आठ बजे ।”

“ओके । आठ बजे । गुड नाइट ।”

सम्बन्धवि‍च्छेद हो गया ।

***

अगले रोज जब मैं सोकर उठा तब तक ग्यारह बज चुके थे ।

सब से पहले मैं नित्यकर्म से निवृत हुआ, फिर अंडे, डबल रोटी और चाय का ब्रेकफास्ट किया और फिर पुलिस हैडक्वार्टर फोन करके यादव के पास अपनी सलामती की हाजिरी लगवाने की कोशि‍श की जो कि कामयाब न हो सकी 

यादव अपनी सीट पर नहीं था । वो फील्ड में कहीं गया था ।

उस रोज जब मैं घर से निकला तो मेरे साथ मेरी लाइसेंशुदा अड़तीस कैलीबर की स्मिथ एण्ड वैसन रिवॉल्वर थी । पिछली रात के वाकयात की रू में मेरा दिल गवाही दे रहा था कि मेरे ऊपर कभी भी, कहीं भी हमला हो सकता था 

अपनी कार पर सवार होकर मैं पूसा रोड पहुंचा ।

वहां एक बार फिर मैं दिनेश वालिया के बरसाती अपार्टमेंट के बन्द दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।

“कौन ?” - मुझे भीतर से वालिया की आवाज आयी 

पिछली बार की तरह इस बार आवाज में ऊंघ या झुंझलाहट का समावेश नहीं था 

जो कि अच्छी बात थी 

जरूर वो भीतर अकेला था और ऐसा ही मैं चाहता था । मैं उससे अकेले में ही बात करना चाहता था ।

“कोहली ।” - मैं बोला - “सुधीर कोहली ।”

“ओह नो । नॉट अगेन ।”

“खोलो ।”

“कोहली, तूने वादा किया था कि लौट के नहीं आयेगा ।”

“खोलेगा तो जानेगा न, कि मैं क्यों लौट के आया हूं !”

“अच्छी बात है ।”

दरवाजा खुला । मुझे भीतर बुलाने की जगह उसकी मर्जी खुद बाहर निकल कर मेरे से बात करने की थी लेकिन उसके चौखट से बा‍हर कदम रखने से पहले ही मैंने भीतर कदम डाल दिया और उसे परे धकेल कर पीछे दरवाजा बन्द कर दिया 

“यार, ये तो हद है बेमुरव्वती की ! तुम तो...”

मैंने उसकी बातों की तरफ ध्यान न दिया । मैंने देखा कि उस रोज वो लुंगी लपेटे होने की जगह तरीके के कपड़े पहने था 

अपार्टमेंट के स्टूडियो वाले हिस्से में वही लड़की - विपाशा - सम्पूर्ण नग्नावस्था में बांहें सिर से ऊपर उठाये ऐन वही पोज बनाये, जो कि कैनवस पर अंकित था, एक ऊंचे स्टूल पर बैठी हुई थी । मुझे देखते ही उसने हाथ नीचे गिरा दिये, स्टूल से उतर कर फर्श पर पड़ा एक तौलिया उठा कर अपने जिस्म से लपेट लिया और फिर बड़े असहिष्णुतापूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा । मैने उसको विश किया तो जवाब देने की जगह वो मुंह बिचका कर परे देखने लगी ।

मैंने नोट किया कि कैनवस पर लगी उसकी तस्वीर लगभग तैयार थी ।

यानी कि उस रोज चेंज के लिये कलाकार कला के ही हवाले था ।

“अब क्या है ?” - वालिया भुनभुनाया ।

“वही है जो पहले था ।”

“यार, ये तो ज्यादती है...”

“वालिया, क्यों स्लेव ड्राइवर की तरह काम लेता है इस नन्ही सी जान से ? जरा हाल देख उसका । पेट अन्दर धंसा हुआ है और पसलियां दिख रही हैं । पता नहीं कब से पेट में कुछ नहीं गया ।” - एक क्षण ठिठक कर मैंने जोड़ा - “मुंह के रास्ते ।”

लड़की ने निगाहों से भाले-बर्छिया बरसाते हुए मेरी तरफ देखा 

“इसे लंच पर भेज ।”

वालिया उसकी तरफ घूसा और बड़े लाचार स्वर में बोला - “लंच पर जा ।”

“अभी तो बारह भी नहीं बजे ।”

“जा ।”

“तुम कहते थे कि कैनवस पर सिर्फ एक घण्टे का काम बाकी है । पहले काम मुकम्मल करो ।”

“लेकिन...”

“इसे बोलो, एक घण्टे बाद आये ।”

“या इसके सामने ही काम मुकम्मल करो । मुझे कोई एतराज नहीं ।”

और उसने तौलिया एक तरफ फेंका और वापिस स्टूल पर बैठ गयी ।

“मुझे एतराज है ।” - मैं बोला ।

उसने तिरस्कारपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा और फिर बोली - “जरूर छक्के हो ।”

“बिल्कुल सही पहचाना ।” - मैं बोला - “मैं सच्ची बात का कभी बुरा नहीं मानता ।”

उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये । वो बोली - “यानी कि मानते हो कि...”

“हां, मानता हूं । नाओ गैट अलांग ।”

“कपड़े पहन ।” - वालिया उतावले स्वर में बोला - “जल्दी कर ।”

“कपड़े पहन ।” - वो कलप कर बोली - “कपड़े उतार । खड़ी हो । बैठ जा । पेट अन्दर । छाती बाहर । हाथ ऊपर । घुटने नीचे । ओह माई गॉड, पैसे कमाने जरूर कोई आसान तरीका भी होगा इस दुनिया में ।”

“सॉरी हनी ।” - वालिया खेदपूर्ण स्वर में बोला - “वो क्या है कि...”

“मुझे मालूम है वो क्या है । इस आउट आफ आर्डर आदमी के सामने तुम मजबूर हो । तुमसे हमदर्दी है ।”

“थैंक्यू ।”

फिर जैसे मेरा मुंह चिड़ाने के लिए उसने वहीं मेरे सामने अपने कपड़े पहने ।

“सी यू, डैडियो ।” - फिर वो मीठे स्वर में बोली ।

“सी यू ।” - वालिया जबरन मुस्कराता हुआ बोला ।

“यू आर ए ग्रेट गाई । आई लव यू ।”

“थैंक्यू, हनी ।”

“मुझे तुम्हारे जैसे मर्द ही पसन्द आते हैं । बालिग । तजुर्बेकार । ठहराव वाले । न कि” - उसने एक तिरस्कारपूर्ण निगाह मेरी तरफ डाली - “ओछे । उतावले । छिछोरे । छक्के ।”

मैं बड़े सब्र से मुस्कराया 

“उम्रदराज आदमी अचार की तरफ होता है । मीठा, खट्टा और तीखा । मालूम !”

उसने फिर मेरी तरफ देखा 

“तेरे से पूछ रही है ।” - मैंने वालिया को कोहली मारी ।

“यस । यस ।” - वालिया हड़बड़ाया सा बोला - “नाओ गैट अलांग ।”

“लौट के कब आऊं ?”

“मैं फोन करूंगा ।”

“मैं घर नहीं जा रही ।”

“तुम फोन करना ।”

“ठीक है ।”

वो तन कर मेरे करीब से गुजरी । उस घड़ी मुझे लगा जैसे उसने होंठें में बुदबुदा कर मुझे फिर छक्का कहा हो ।

मैंने बड़े सब्र के साथ उसके रुख्सत होने का इंतजार किया ।

“अब क्या है ?” - पीछे वालिया आशंकित भाव से बोला - “कोई पंगा तो नहीं खड़ा कर दिया मेरे लिये ?”

“नहीं ।”

“पक्की बात ?”

“हां । अभी कोई पंगा खड़ा नहीं हुआ है तुम्हारे लिये ।”

“हे भगवान ! तो क्या आगे होगा ?”

“चाहोगे तो होगा । नहीं चाहोगे तो नहीं होगा ।”

“क्या मतलब ?”

“अभी समझ में आता है । पहले मुझे एकाध बात का जवाब दो ।”

“अब जवाब देने को क्या बाकी है ? जो कुछ मुझे मालूम था, मैंने तुम्हें तुम्हारे पहले फेरे में ही बता दिया था ।”

“ठीक । अब मैंने कुछ बताना है ।”

“क्या ?”

“जो तुझे नहीं मालूम ।”

“अरे, क्या नहीं मालूम मुझे ?”

“वालिया, तुझे ये नहीं मालूम कि जहां तूने मुझे भेजा था, वहां क्या बीती थी ।”

“कहां भेजा था ?”

“अच्छा ! इतनी नादानी !”

“तुम स्टेटस बार की बात कर रहे हो ?”

“हां ।”

“तुम गये थे वहां ?”

“और क्या न जाता ?”

“क्या हुआ था वहां ? संतोख सिंह नहीं मिला था ?”

“मिला था ।”

“तो !”

“अखबार नहीं पढते हो ?”

“पढता हूं । क्यों ?”

“तो फिर अखबार में संतोख सिंह की मौत की खबर तुमने क्यों नहीं पढी ?”

“वो मर गया ?”

“हां । उसी रात को जिस रात कि मैं स्टेटस बार गया था ।”

“बाई गॉड, मुझे इस बारे में कोई खबर नहीं । जरूर अखबार मैंने लापरवाही से पढा होगा या मेरे वाले अखबार में संतोख सिंह का नाम नहीं छपा होगा । हुआ क्या उसे ? कैसे मर गया ?”

“गोली खा गया बेचारा । शूट कर दिया गया ।”

“तुमने... तुमने किया ऐसा ?”

“मैंने नहीं । किसी और ने मारा । उसे भी और उसके एक जोड़ीदार को भी ।”

“हे भगवान ! डबल मर्डर ! यार, हुआ क्या था ?”

मैंने बताया ।

“यानी कि” - वो हक्का-बक्का सा बोला - “किन्ही नामालूम लोगों ने वहां पहाड़गंज की उस गली में संतोख सिंह और उसके एक जोड़ीदार को शूट कर दिया और तुम्हें अगवा कर के ले गये ?”

“हां ।”

“कौन थे वे लोग ?”

“तुम बताओ ।”

“मैं बताऊं ? मैं कैसे बताऊं ? मुझे क्या मालूम वो कौन थे ?”

“अपना कोई अन्दाजा ही बताओ ।”

“मेरा कोई अन्दाजा नहीं । मेरे भाई, मेरा यकीन कर, मैं अपनी पुरानी जिन्दगी से और पुरानी जिन्दगी से ताल्लुक रखते लोगों से मुकम्मल तौर से किनारा कर चुका हूं ।”

“तो फिर अभी तुमने ये क्यों कहा था कि मैंने तुम्हारे लिये कोई पंगा तो नहीं खड़ा कर दिया था ?”

“वो तो... वो तो...”

“क्या वो तो वो तो ?”

“वो तो मैंने यूं ही कह दिया था ।”

“वालिया, हकीकत ये है कि मैंने तुम्हारे लिये नहीं, तुमने मेरे लिये पंगा खड़ा किया था ।”

“क्या ! क्या कहते हो ?”

“अब बोलो तुमने क्या किया था ?”

“मैंने ! मैंने कुछ नहीं किया था ।”

मैने रिवॉल्वर निकाल कर अपने हाथ में ले ली और बड़े अर्थपूर्ण भाव से उसका चैम्बर घुमाया ।

“क... क्या मतलब है तुम्हारा ?” - वो थूक निगलता हुआ बोला - “क्या इरादे हैं तुम्हारे ? क्या चाहते हो तुम ?”

“हकीकत । हकीकत जानना चाहता हूं मैं ।”

“क- क-क्या...”

“उस रोज मेरे यहां से जाने के बाद तुमने मेरी बाबत किसी को खबर की थी । जरूर तुमने किसी को बताया था कि मैं हरीश पाण्डेय के कत्ल का रिश्ता लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड से जोड़ने की कोशि‍श कर रहा था । तभी मुझे भी हरीश पाण्डेय की ही राह पर रुख्सत किये जाने के इन्तजामात किये गये थे ।”

उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी ।

“मैं जवाब का इन्तजार कर रहा हूं ।”

“मैंने संतोख सिंह को कुछ नहीं कहा था ।” - वो भयभीत भाव से बोला 

“संतोख सिंह का नाम किसने लिया ?”

“क्या मतलब ?”

“मैंने ये कब कहा कि मेरी बाबत तूने संतोख सिं‍ह को बताया था । संतोख सिं‍ह को तो हो सकता था कि तू चाह कर भी कुछ न बता पाता ।”

“तो ? तो ?”

“तूने किसी और को खबर की थी । तूने उस डोप पुशर से ऊपर किसी को मेरी बाबत आगाह किया था ।”

“तू- तू पागल है । मैं ऐसे किसी शख्स को भला कैसे जान सकता था ?”

“तू जान सकता था । एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बहुत कुछ जान सकते हैं । बहुत कुछ जान सकने की पोजीशन में होते हैं ।”

“तू बिल्कुल ही पागल है । जानता है तू क्या कह रहा है ? तू मेरे पर ये इल्जाम लगा रहा है कि मैं भी नारकॉटिक्स ट्रेड में शामिल हूं ।”

“मैं हकीकत बयान कर रहा हूं । साले, तू खुद डोप एडिक्ट था इसलिए इस धन्धे की तमाम ऊंच-‍नीच जानता है । ऊपर से कलाकार है । तेरा ये शगल इस मामले में तेरी सबसे बड़ी ओट है । कलाकार लोगों की स्वाभाविक रुचि नशे में होती है इसलिये कोई ये तो सोच सकता था कि तू ड्रग एडिक्ट था लेकिन कोई सपने में नहीं सोच सकता था कि ड्रग एडिक्ट से प्रोमोट होकर तू ड्रग डीलर बन गया था । यानी कि तू इस बात पर कायम रहता कि तू सुधर चुका था तो ड्रग ट्रेड के संदर्भ में किसी की तवज्जो तेरी तरफ नहीं जा सकती थी ।”

उसने जोर से थूक निगली 

“अब बोल, माल कहां रखता है ?”

“तू-तू पागल है ।”

मैंने रिवॉल्वर की नाल से उसकी नाक ठकठकाई ।

वो पीड़ा से बिलबिलाया । उसकी आंखों में भय की छाया तैर गयी ।

“जान से मार डालूंगा ।” - मैं दांत पीसता हुआ बोला - “तूने मुझे मरवाने की कोशि‍श की थी इसलिये तेरी जान लेने का मुझे पूरा अख्तियार है । साले, तू इसीलिये जिन्दा है क्योंकि मुर्दा तू मेरे किसी काम का नहीं । लेकिन मैं अगर तुझे मारूंगा तो तेरे प्राण तिल तिल कर के निकलेंगे ।

उसके गले की घन्टी जोर से उछली ।

“तू... तू चाहता क्या है ?”

“अपने उस बाप को फोन लगा जिसे तूने मेरी बाबत पहले खबर की थी ।”

“फो... फोन लगाऊं ?”

“पहले भी फोन ही लगाया होगा । या खुद पहुंच गया था कहीं ?”

उसने जवाब न दिया । उसने बेचैनी से पहलू बदला 

“जिस शख्स से पहले बात की थी, उससे फिर बात कर ।”

“मैंने किसी से बात नहीं की थी ।”

“बराबर की थी ।”

“अच्छी जबरदस्ती है । जब मैं कहता हूं कि...”

“तेरी क्या बात है ! तू तो बहुत कुछ कहता है । सिवाय सही बात के ।”

“सही बात क्या है ?” - वो तनिक दिलेरी से बोला - “अगर इतना ही ज्ञानी है तो बता मैंने किससे बात की थी और अब किस से बात करूं ?”

मैं खामोश रहा ।

मुझे खामोश पाकर वो और दिलेर हो गया ।

“बता किससे बात करूं ?” - वो चैलेंजभरे स्वर में बोला । मैंने अपलक उसकी तरफ देखा ।

उसने बड़ी धृष्टता से मेरी निगाह से निगाह मिलाई ।

“पीपट को फोन लगा ।” - मैं धीरे से बोला 

तत्काल उसके चे‍हरे का रंग उड़ा ।

मैं समझ गया कि अन्धेरे में छोड़ा मेरा तीर निशाने पर बैठा था ।

“या” - मैंने ब्लफ को और आगे बढाया - “उसके बॉस को फोन लगा ।

उसका रंग और भी फक पड़ा ।

मैंने पीपट को सिर्फ एक ही बार तब देखा था जब कि मुझे उसका नाम लक्ष्मीकान्त सिब्बल बताया गया था और पार्क होटल में दाखि‍ल होता दिखाया गया था । तब वो मुझे हल्का आदमी लगा था और उसी बात ने मुझे ये सोचने पर प्रेरित किया था कि वो टॉप का आदमी नहीं हो सकता था । अब पीपट के कथि‍त बॉस के जिक्र पर वालिया का कोई प्रतिवाद न करना मेरी उस सोच की पुष्टि कर रहा था 

कितनी ही देर खामोशी छाई रही ।

“कोहली” - फिर वो धीरे से बोला - “समझ ले कि तेरी जिन्दगी की घड़ियां खत्म हुई ।”

“देखती हैं किसकी जिन्दगी की घड़ियां खत्म होती हैं !” - मैं बोला - “तू पीपट को या उसके बॉस को फोन लगा और उसे बोल कि ते‍रे पास उसके लिये मेरा एक सन्देशा है ।”

“क-क्या ? क्या सन्देशा है ?”

“उसे बोल कि माल कहां गर्क हो गया, ये आज की तारीख में अगर किसी को मालूम है तो वो शख्स मैं हूं । मैं । सुधीर कोहली । दि ओनली वन । मैसेज समझ गया ?”

“तू बिल्कुल ही अपनी मौत बुला रहा है । ये बात कह कर तू खुद अपने हाथों अपनी मौत के हुक्म को मोहरबन्द कर रहा है । वैसे शायद बच जाता, वैसे शायद कोई तेरा लिहाज कर देता, लेकिन अब तेरी मौत नि‍श्चित है ।”

“अभी नहीं, बेटा, अभी नहीं । जब तक वो तोपखाना मेरे पास है, तब तक नहीं । अब बोल क्या कहता है ?”

“तेरे भले की कहता हूं । इस बाबत खामोश रह । बिल्कुल खामोश रह । जो हुआ उसे कतई भूल जा ।”

“भूल जाऊं कि हरीश पाण्डेय अब इस दुनिया में नहीं है ?”

“हां, भूल जा । इसी में तेरी भलाई है । मरने वाले के साथ मरना कहां की दानिशमन्दी है ! तू क्यों अपनी निश्चित मौत को आवाज देता है ?”

“बक मत । जो कहा है, वह कर । मेरा सन्देशा आगे पहुंचा ।”

“ठीक है ।”

मैंने रिवॉल्वर जेब में रखी और वापिस लौट पड़ा ।

मैंने बम लगा दिया था, उसके पलीते को आग दिखा दी थी और अब सिर्फ उसके फूटने का इन्तजार था