इंजन बंद होने की आवाज आई तो विमल ऊपर मोटरबोट के डैक पर पहुंचा ।
ऊपर दो आदमी मौजूद थे । एक मोटरबोट का कंट्रोल संभाले था, दूसरा उसके करीब एक कुर्सी पर बैठा था । दोनो नेवी के कमांडरो जैसी सफेद पोशाकें पहले थे और सिर पर वैसी ही सफेद पीक कैप लगाए थे । दोनों ने आंखों पर धूप के बड़े-बड़े चश्मे लगाए हुए थे । पीक कैप और धूप के चश्मों की वजह से उनकी नाकों की फुंगियों तक उनके चेहरे छुपे हुए थे । पहले आदमी के नाम से विमल वाकिफ नहीं था । दूसरा आदमी शमशेर भट्टी था ।
विमल ने चारों ओर निगाह दौड़ाई । वे लोग समुद्र में इतनी दूर निकल आए थे कि बंबई का समुद्र तट अब उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था ।
“उधर सामने देखो ।” - भट्टी बोला ।
विमल ने इंगित दिशा में देखा ।
उसे खुश्की पर उगे पेड़ो के झुंड के अलावा कुछ दिखाई न दिया ।
“ये है वो टापू ?” - विमल बोला - “स्वैन प्वाइंट ?”
“हां ।”
टापू से वो अभी कम से कम आधा मील दूर थे ।
“और करीब चलो ।” - विमल बोला - “इतने फासले से कुछ दिखाई नहीं देता ।”
“और करीब जाना ठीक नहीं होगा ।”
“मैं मोटरबोट को ले जाकर टापू के किनारे से लगाने को नहीं कह रहा ।”
भारी हिचकिचाहट का प्रदर्शन करते हुए भट्टी ने बोट चालक को आवश्यक निर्देश दिया ।
बोट चालक भी भट्टी की ही तरह बोट को टापू के और करीब ले जाने से हिचकिचाता लग रहा था । बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से उसने इंजन को दोबारा स्टार्ट किया और बोट को आगे बढाया ।
भट्टी के करीब एक खाली कुर्सी पड़ी थी ।
“आओ” - वह बोला - “बैठ जाओ ।”
विमल ने बैठने का उपक्रम न किया ।
“आराम से बैठो और” - भट्टी ने हाथ में थमी बोतल विमल की तरफ लहराई - “बियर का घूंट लगाओ ।”
“मैं यहां पिकनिक मनाने नहीं आया ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“अरे एक घूंट से क्या पिकनिक हो जाएगी ?”
“एक घूंट बियर से मेरा कुछ नहीं बनता ।”
“तो बोतल पी लो ।”
“फिर तो पिकनिक हो जाएगी न !”
भट्टी लाजवाब हो गया ।
“मर्जी तुम्हारी ।” - वह कंधे उचकाता हुआ बोला । उसने बोतल को मुंह से लगाकर बियर का एक लंबा घूंट भरा ।
वो मोटरबोट कोई चालीस फुट लंबा चमचमाता हुआ केबिन क्रूसर था जिसके डैक के नीचे बढिया होटलों जैसे सजे-धजे तीन कमरे थे ।
मोटरबोट आगे बढने लगी और टापू के और करीब पहुंचने लगी ।
“कैसीनो वगैरह की” - भट्टी बोला - “जो मेन इमारतें हैं, वो टापू की दूसरी तरफ हैं ।”
“इधर क्या है ?” - विमल ने पूछा ।
“गोदाम वगैरह हैं । पावर हाउस हैं । मेहमानों के लिए कुछ काटेज हैं ।”
“मेहमानों के लिए काटेज ! तुम्हारा मतलब है, कैसीनों में जुआ खेलने आने वाले लोग यहां ठहरते भी हैं ?”
“कभी कभार । बवक्ते जरूरत । कभी मौसम ही खराब हो जाता है । कभी सैलाब आ जाता है । कभी कोई मेहमान इतना खा-पी लेता है कि वापिस जाने के काबिल नहीं रहता ।”
“ऐसे लोग ओवरनाइट ही ठहरते होंगे ?”
“और क्या ?”
“टापू की इतनी जानकारी तुम्हें कैसे है ? कभी गए हो उस पर ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मैंने वहां कदम रखकर मरना है !”             
“तो ?”
“जानकारी हासिल की है मैंने । तुम्हारी खातिर ।”
“कैसे हासिल की ?”
“एक दो ऐसे बंदे तलाश किए जो वहां हो आए हुए हैं ।”
“हूं । लोग बाग स्त्री-सुख की खातिर भी तो एकाध रोज वहां रुक जाते होंगे ।”
“वहां कोई रेगुलर चकला नहीं चलता ।”
“ओह !”
“लेकिन बादशाह के खास क्लायंटों के लिए, उनकी खास फरमाइश पर ऐसे इंतजामात भी वहां हो जाते है ।”
“यानी कि हर किसी के लिए यह सेवा उपलब्ध नहीं ?”
“यही समझ लो ।”
“बादशाह से कभी मिले हो ?”
“नहीं ।”
“देखा हो ?”
“न ।”
मोटरबोट अब टापू के और करीब हो गई थी और अब पेड़ों के झुरमुट के पीछे से सफेद रंग से पुती हुई इमारतों के भी दर्शन होने लगे थे ।
“एक बोट इधर आ रही है ।” - एकाएक बोट चालक चेतावनी भरे स्वर में बोला ।
भट्टी हड़बड़ाकर कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । उसने टापू की दिशा में देखा ।
विमल ने भी उसकी दृष्टि का अनुसरण किया ।
एक छोटी-सी स्पीड बोट समुद्र की छाती चीरती और अपने पीछे सफेद झाग की लंबी दोहरी लकीर छोड़ती उनकी तरफ बढ रही थी ।
चालक ने बोट को आगे बढाना बंद कर दिया ।
नन्ही-सी स्पीड बोट बला की तेजी से उनकी बोट के पहलू में पहुंची ।
बोट में तीन आदमी मौजूद थे । तीनों ऐसी नीली वर्दियां पहने थे जैसी सिक्योरिटी के जवान पहनते हैं ।
“रास्ता भटक गए हो ?” - एक नीली वर्दी वाला उच्च स्वर में बोला ।
“नहीं तो ?” - भट्टी बड़ी अलमस्ती से बियर का एक घूंट लगाता हुआ बोला ।
“इधर कहां जा रहे हो ?”
“कहीं नहीं । तफरीह के लिए निकले है । टापू दिखाई दे गया । सोचा देखते चलें ।”
“वो प्राइवेट प्रापर्टी है ।”
“ओह !”
“हमें नहीं मालूम था ।” - बोट चालक बोला ।
“वैसे भी उस टापू के करीब जाना खतरनाक है । उसने करीब पानी में छुपी हुई बहुत बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं । उधर जाने से तुम्हारा ये नया नकोर केबिन क्रूसर चूर-चूर हो सकता है ।”
“वार्निग का शुक्रिया, भाई साहब ।” - भट्टी विनीत भाव से बोला - “हम दूर-दूर से ही घेरा काटकर परली तरफ निकल जाएंगे और वापिस लौट जाएंगे ।”
“समझदारी करोगे ।”
“वार्निग का बहुत-बहुत शुक्रिया ।”
“उसकी कोई बात नहीं । लेकिन टापू के करीब न जाना ।”
“बिल्कुल नहीं जाएंगे ।”
“ध्यान रखना ।”
“जरूर । शुक्रिया ।”
स्पीड बोट वापिस घूमी और जैसी तूफानी रफ्तार से वो वहां पहुंची थी, वैसी ही तूफानी रफ्तार से वो वहां पहुंची थी, वैसी ही तूफानी रफ्तार से वहां से लौट चली ।
पीछे मोटरबोट पर कई क्षण खामोशी छाई रही ।
“ऐसे सिक्योरिटी वाले” - विमल बोला - “कितने होंगे यहां ?”
“हैं कोई दर्जन भर ।”
“तीनों हथियारबंद थे ।”
“देखा मैंने ।”
“वो अभी भी ।” - बोट चालक बोला - “किनारे के करीब ही मंडरा रहे हैं । मैं किधर चलूं ?”
उत्तर के लिए भट्टी ने विमल की ओर देखा ।
“बाईं तरफ से” - विमल बोला - “टापू का लेबा घेरा काटते हुए आगे चलो ।”
बोट चालक ने सहमति में सिर हिलाया और तत्काल प्राप्त हुए आदेश का पालन आरंभ किया ।
विमल ने नोट किया कि तब तक टापू का जो हिस्सा उसे दिखाई दिया था, उस पर न बीच था, न कोई खाई थी, न मेहराब थी, न पायर था । वहां ऐसी कोई भी जगह नहीं थी जहां कोई बोट आकर टापू के किनारे लगं सकती हो । टापू के ऐन सिरे पर झाड़ झंखाड़ और पेड़ ही उगे दिखाई दे रहे थे जोकि कितनी ही जगहों पर नीचे समुद्र की सतह तक लटक आए थे ।
उसके बहुत पीछे काटेज और अन्य इमारतें थीं जोकि बहुत करीब से ही दिखाई दे पाती थीं । दूर से तो टापू एकदम उजाड़ बियाबान मालूम होता था ।
“वो लोग” - बोट चालक बोला - “अभी भी हमारे ऊपर ही निगाह गड़ाए हुए हैं ।”
“घबराओ मत ।” - विमल बोला - “वो सिर्फ यही देखने के लिए ठहरे हुए हैं कि जो कुछ हमने उनसे कहा है, हम ऐन वही करते हैं या नहीं ।”
भट्टी ने अनुमोदन में सिर हिलाया ।
बोट चालक का भी सिर उसी प्रकार हिला और फिर उसकी मुकम्मल तवज्जो बोट चलाने की तरफ हो गई ।
बोट तेजी से टापू का घेरा काटने लगी ।
कुछ देर बाद उन्हें टापू का जिधर से वे आए थे उससे ऐन विपरीत दिशा का भाग दिखाई देने लगा ।
तब उन्हें अत्यंत वैभवशाली, दो मंजिली सफेद खंबों और लाल पत्थरों की बनी मुख्य इमारत दिखाई देने लगी । उसके ऐन सामने दो पायर बने हुए थे और उस घड़ी वे लोग सवार थे । इमारत और पायर के बीच खूबसूरत रॉक गार्डन बना हुआ था ।
इमारत की एक बात विमल की खास तवज्जो में आए बिना न रह सकी कि उसमें खिड़कियां न होने के बराबर थी ।
“बादशाह खुद कहां रहता है ?” - विमल ने पूछा ।
“इसी मेन बिल्डिंग में ।” - भट्टी बोला ।
“और स्टाफ ?”
“वो मेन बिल्डिंग के बाएं पहलू में बनी वो दूसरी इमारत देख रहे हो जो मेन बिल्डिंग जैसी आलीशान नहीं हैं ?”
“हां ।”
“यहां काम करने वाला तकरीबन स्टाफ उसमें रहता है ।”
विमल ने देखा इमारत वो भी दोमंजिली थी और उसमें खिड़कियां और रोशनदान वगैरह यूं बने हुए थे जैसे कि साधारणतया होते हैं ।
“टापू पर ऐसे पायर” - विमल बोला - “यही हैं जो दिखाई दे रहे हैं ?”
“हां ।” - भट्टी बोला ।
“यानी कि टापू पर पहुंचने के लिए मोटरबोट को इधर लाकर इन दो पायरों में से एक पर लगाना जरूरी है ?”
“हां । बादशाह ने इस बात का खास इंतजाम करवाया हुआ है कि यहां के अलावा टापू पर और कहीं भी लैंड न किया जा सके ।”
“यह पक्की बात है” - विमल चिंतित भाव से बोला - “कि और कहीं लैंड करना मुमकिन नहीं ?”
“एकदम पक्की बात है ।”
“फिर तो गड़बड़ है ।”
“सिक्योरिटी वालों की बोट” - चालक बोला - “हमारे पीछे आ रही है ।”                                         
विमल और भट्टी दोनों ने घूमकर देखा ।
बोट उनके पीछे तो आ रही थी लेकिन पहले की तरह इस बार उनके करीब पहुंचने की कोशिश नहीं कर रही थी ।
“तुम उधर ध्यान मत दो ।” - विमल बोला - “और परली तरफ से घेरा काटकर वापिस चलो ।”
“ठीक है ।”
टापू का पूरा घेरा काटकर उनकी बोट जब टापू से परे बम्बई की दिशा में दौड़ चली तो सिक्योरिटी वाली बोट ने स्वयंमेव ही उनका पीछा छोड़ दिया ।
“क्या ख्याल है ?” - भट्टी बोला ।
“हालात” - विमल चिंतित भाव से गरदन हिलाता हुआ बोला - “कोई बहुत ज्यादा उम्मीदअफजाह नहीं ।”
“मैदान छोड़कर भागने का इरादा है ।”
“यह तो मैंने नहीं कहा ।”
“लेकिन...”
“ठहरो जरा ।”
एक जोर की गड़गड़ की आवाज सुनकर विमल ने आसमान की ओर सिर उठाया तो उसे अपने सिर के ऊपर हैलीकाप्टर उड़ता दिखाई दिया । हैलीकाप्टर पहले एक दिशा में उड़ा लौटा, फिर उनके ऊपर से उड़ा फिर वापिस लौटा ।
“यह भी बादशाह का ही होगा ?” - विमल बोला ।
“मुझे” - भट्टी कठिन स्वर में बोला - “बादशाह के पास कोई हैलीकाप्टर होने की खबर नहीं ।”
“तो फिर यह हैलीकाप्टर...”
“हिंदोस्तानी होगा । कस्टम का । या नेवी का । या एयरफोर्स का । या कोस्ट गाडर्स का ।”
“हमारे ऊपर क्यों उड़ रहा है ?”
“होगी कोई वजह, यार । हैलीकाप्टर बादशाह का नहीं तो क्या वांदा है ?”
“अभी बंबई पहुंचने में कितना वक्त लगेगा ?”
“यही कोई एक घंटा ।”
“मैं नीचे जा रहा हूं ।”
विमल घूमा और तेजी से सीढियां उतर गया ।
वह एक केबिन में पहुंचा और जाकर एक सोफे पर ढेर हो गया । उसने अपना पाइप निकाल लिया ।             
वह पाइप सुलगाकर हटा ही था कि भट्टी वहां पहुंच गया ।
“क्या सोचा ?” - वह उसके सामने बैठता हुआ बोला ।
“अभी कुछ नहीं सोचा ।” - विमल तनिक रुक्ष स्वर में बोला ।
“इतना तो बताओ कि तुम्हारा जवाब हां में होगा या न में ?”
“ये ही बता दिया तो पीछे और सोचने लायक क्या रह गया ।”
“बॉस यही पसंद करेगा कि तुम्हारा जवाब हां में हो ।”
“तेल कौन-सा खाता है, तुम्हारा बॉस ? नहाता ठंडे पानी से है या गर्म पानी से ? मुर्गी भुनी हुई पसंद करता है या तली हुई ? हजामत खुद बनाना पसंद करता है या नाई को बुलाता है...”
“क - क्या मतलब ?”
“जब तुम बता ही रहे हो तो सोचा बाकी पसंद नापसंद भी दरयाफ्त कर लूं तुम्हारे बॉस की ।”
“तुम तो उखड़ रहे हो यार ।”
विमल खामोश रहा ।
“मैंने तो सिर्फ एक सवाल पूछा था ।”
“जवाब मिल गया ?”
“जवाब तो मिल गया लेकिन जवाब समझ में नहीं आया ।”
“समझ में आने लायक जवाब देने के लिए मुझे और जानकारी चाहिए ।”
“किस बाबत ?”
“टापू की बाबत ।”
“और कैसी जानकारी ?”
“टापू का कोई नक्शा चाहिए जिस पर सारी इमारतों की, रास्तों की, पायर्स वगैरह की सही-सही जगह दर्ज हो ।”
“यह कैसे होगा ? उस टापू का नक्शा पाकिस्तान की किसी जुगराफिए की किताब में थोड़े ही छपा होगा !”
“उसके बिना भी यह काम हो सकता है ।”
“वो कैसे ?”
“यह मैं बताऊं ?”
“तुम्हीं बताओ, बाप ।”
“जैसे तुमने टापू पर होकर आए एक-दो बंदे तलाश किए थे, वैसे चार-छ: कर लो, आठ दस कर लो । फिर उन्हीं से जानकारी हासिल करके नक्शा तैयार करवा लो ।”
“ओह !”
“वैसे यह काम उन्हीं एक-दो बंदों के जरिए हो सकता है जिन्हें तुम पहले ही तलाश कर चुके हो ।”
“ठीक है । हो जाएगा यह काम । नक्शा मिल जाएगा तुम्हें । और बोलो ।”
“और मुझे वहां के स्टाफ की पूरी जानकारी चाहिए । मसलन हर आदमी का क्या काम है, और किस काम को अंजाम देने के लिए कितने आदमी लगे हुए हैं, उनमें से कितने हथियारबंद होते हैं और आम पिस्तौल-तमंचों के अलावा वहां किस प्रकार का असला उपलब्ध है ?”
भट्टी का चेहरा उतर गया ।
“मैं मालूम करूंगा ।” - वह आश्वासनहीन स्वर में बोला ।
“गुड ।”
मोटरबोट अपोलो बंदर पर पहुंचकर किनारे लगी ।
भट्टी ने बड़े तजुर्बेकार ढंग से मोटरबोट के डैक पर से पायर की सीढियों पर छंलाग लगा दी लेकिन विमल को पायर की सीढ़ियों पर पहुंचने के लिए सीढियों के करीब की रेलिंग को दोनों हाथों से थामना पड़ा । दोनों हाथों से थामकर विमल पाइप की सीढियों तक पहुंचा था ।
***
विमल नागपाड़ा पहुंचा ।
वहां अलैग्जजेंड्रा सिनेमा के करीब एक चाल थी जिसका पता उसे सलाउद्दीन ने फोन पर बताया था और अन्य जरूरी निर्देश भी दिए थे ।
वहां उसने दरबारीलाल को तलाश किया ।
दरबारीलाल एक चुस्के हुए आम जैसी सूरत और फूंक से उड़ जाने वाली किस्म वाला बूढ़ा आदमी निकला । उसने बाइफोकल्स में से विमल को घूरा ।
“मुसाफिरखाने वाले हाजी ने भेजा है ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“कौन मुसाफिरखाना ?” - बूढ़ा संदिग्ध भाव से बोला - “कौन हाजी ?”
जितना कमजोर उसका जिस्म था, आवाज उसकी उतनी ही तीखी थी, माइक्रोफोन से निकली मालूम होती थी ।
“भिंडी बाजार ।” - विमल बोला - “हाजी अलताफ ।”
“क्या मांगता है ?”
“ड्राइविंग लाइसेंस ।”
“क्या ?” - वह हकबकाया, ऐसी मांग पहली बार जो हो रही थी ।
“ड्राइविंग लाइसेंस । मोटरगाड़ी चलाने की इजाजत का सरकारी परवाना । ऊंचा सुनता है ?”
“इधर क्यों आया ? अथॉरिटी में जा । फीस भर । बनवा ले ।”
“दो साल पुराना । बड़ोदा से जारी हुआ ।”
“ओह !” - वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “कब चाहिए ?”
“अभी ।”
“पागल हुआ है ?”
“जल्दी-से-जल्दी ।”
“कल शाम तक ।”
“चलेगा ।”
“दो हजार रुपए निकाल ।”
“इतने-से काम के...”
“बड़ोदा की लाइसेंसिंग अथॉरिटी के दस्तखत फैक्स से मंगवाने पड़ेंगे । वो नमूना खुद बड़ोदा जाके ले आ या यहीं किसी के पास से बड़ोदा से जारी हुआ ड्राइविंग लाइसेंस ढूंढ दे तो हजार रुपए ।”
“ठीक है, दो हजार रुपए ।” - विमल ने नोट उसे सौंपे और उठ खड़ा हुआ - “मैं कल शाम को आऊंगा ।”
“अभी कहां जाता है ? लाइसेंस के लिए फोटू नहीं खिंचवाएगा ?”
“ओह !”
दरबारीलाल उसे पिछवाड़े में ले गया । वहां उसने दीवार पर एक लाल कपड़ा टांगा और उसके सामने विमल को बिठाया ।
विमल ने कुछ सोचकर नकली दाढी उतार ली ।
दरबारीलाल ने पोलेरायड कैमरे से उसकी तीन तस्वीरें खींचीं ।
फिर उसने उसे एक कागज थमाया ।
“पांच-छः बार साइन कर” - वह बोला - “नाम-पता-लिख ।”
विमल ने आदेश का पालन किया ।
“अब फूट ।”
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
श्याम डोंगरे कम्पनी के स्याह धंधों में कंपनी का सिपहसालार था लेकिन प्रत्यक्षतः वह होटल सी व्यू का सिक्योरिटी ऑफिसर था ।
उस वक्त वह होटल के ग्राउंड फ्लोर पर स्थित अपने ऑफिस में बैठा था कि फोन की घंटी बजी ।
उसने घड़ी पर निगाह डाली ।
आठ बजे थे ।
उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और बोला - “हल्लो !”
“कोई लड़की है ।” - ऑपरेटर की आवाज आई - “आपसे बात करना चाहती है ।”
“नाम पूछा ?”
“हां । चांदनी ।”
“बात कराओ ।“
एक क्षण खमोशी रही फिर उसके कान में चांदनी की थर्राई हुई आवाज पड़ी - “मैं चांदनी बोल रही हूं ।”
“बोल, चांदनी । कहां से बोल रही है ?”
“जैकपॉट से ।”
“आज बहुत जल्दी वहां पहुंच गई ।”
“मैं अभी आई हूं ।”
“तू घबराई हुई क्यों है ?”
“मुझे डर लग रहा है ।”
“हौसला रख, चांदनी, हौसला रख । अपने-आपको काबू में कर और फिर बोल क्यों फोन किया ?”
“इसीलिए किया...”
“कि तुझे फिर डर लग रहा है ?”
“हां ।”
“रात को फिर कोई बुरा सपना आ गया ? फिर दिखाई दे गया अरविंद नायक !”
“वो भी बात है और...”
“और क्या ?”
“डोंगरे” - वह रुआंसे स्वर में बोली - “कोई यकीनन मेरे पीछे लगा हुआ है । अभी भी मैं यहां पहुंची हूं तो हर घड़ी मुझे यही लगा कि दादर मेन रोड से जुहू पहुंचने तक मैं किसी की निगाहों में थी ।”
“अरे, कहा न कोई तेरा फैन होगा । कोई तेरा दीवाना होगा ।”
“तो वो मुझे दिखाई क्यों नहीं देता ?”
“दिखाई नहीं देता ! दिखाई नहीं देता तो तुझे कैसे मालूम होता कि वो तेरे पीछे लगा है ?”
“म... मुझे... मा-मालूम है ।”
“कैसे मालूम है ?”
“बस, मालूम है ।”
“क्या मूर्खों जैसी बातें कर रही है !”
“तुम मुझे मूर्ख कहो या कुछ और लेकिन मेरा विश्वास करो, कोई शर्तिया मेरे पीछे लगा हुआ है जोकि मेरी जान लेकर मानेगा ।”
“चांदनी ! चांदनी ! ये मूर्खताई की बातें बंद कर । अपना वहम छोड़ और...”
“मैं मर जाऊंगी ।” - चांदनी ने आर्तनाद किया ।
चांदनी के स्वर में ऐसी कराह थी कि डोंगरे उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका ।
“तू नशे में तो नहीं ?” - इस बार उसने सहानुभूतिपूर्ण स्वर में पूछा ।
“नहीं । कसम उठवा लो ।”
“यूं कौन लगेगा तेरे पीछे ?” - डोंगरे बड़बड़ाया ।
“मुझे लगता है कि अरविंद...”
“मुझे भी यही लगता है ।”
“क-क्या ?”
“कि उसकी मौत का तेरे दिलो-दिमाग पर कोई असर हो गया है । चांदनी, मुझे लगता है कि तुझे आराम की जरूरत है । तू दो-चार दिन जैकपॉट से छुट्टी कर और पूरा आराम कर । मैं सितोले को कह दूंगा कि दो-चार दिन तू घर पर ही रहेगी ।”
“डोंगरे, घर पर तो मुझे और भी ज्यादा डर लगता है ।”
“तो कुछ दिन के लिए कहीं बाहर चली जा ।”
“बाहर से तो मेरी लाश ही वापिस आएगी । यहां तो फिर भी मुझे तुम्हारा आसरा है । बाहर तो मैं अकेली...”
“तू क्या चाहती है ?”
“मैं कुछ दिन तुम्हारे करीब रहना चाहती हूं ।”
“यह नहीं हो सकता ।”
“लेकिन मैं...”
“बहस बेकार है । यह नहीं हो सकता ।”
“लेकिन...”
“चांदनी, देख । सुन । तू खामखाह खौफ खा रही है ।”
“मैं खामखाह खौफ खा रही होती तो क्या मेरी भूख-प्यास मारी जाती ! मेरी आंखों की नींद उड़ जाती !”
“तू खामखाह डर का हौआ खड़ा करेगी यही कुछ होगा । ...सुन, सुन । मेरी बात सुन । तुझे जैकपॉट में तो डर नहीं लग रहा ?”
“नहीं ।”
“तो तू ऐसा कर । अपनी रात की परफारमेंस की तरफ ध्यान दे । मौज-मेले में मन लगा । मैं सितोले को कह देता हूं कि रात को वह खुद तुझे तेरे फ्लैट पर छोड़कर आए । अगर तब भी कोई आदमी तेरे पीछे हुआ तो वह उसे गोली न मार दे तो कहना ।”
“लेकिन घर पर तो मुझे सबसे ज्यादा डर लगता है । कहो तो मैं...”
“सितोले तेरे घर तक तेरे साथ जाएगा । वो डोरमैन को तेरी हिफाजत के लिए अच्छी तरह से समझाकर आएगा । ठीक ?”
चांदनी की आवाज न आई ।
“चांदनी तू आज घर जाना । कल मैं तेरा कोई इंतजाम करूंगा ।”
“कल ?”
“हां । जरूर । अब फोन रख । मैंने बॉस के पास जाना है ।”
“डोंगरे, अगर मैं मर गई तो...”
“अरे, मेरे होते कैसे मर जाएगी, साली !”
“लेकिन...”
“अब कहना मान । लाइन छोड़ ।”
“अच्छा ।”
“शाबाश ।”
डोंगरे ने रिसीवर रख दिया ।
अरविंद नायक के कत्ल से थर्राई, वहम की मारी वो छोकरी खामखाह उसके लिए सिरदर्द बनी जा रही थी ।
***
रात के दस बजे विमल मुंबई सेंट्रल स्टेशन के सामने कमाठीपुरे के पहलू में बने एक कामचलाऊ होटल के एक कमरे में मौजूद था । उसने फोन पर भट्टी से बात की थी तो उसने उसे उस होटल में पहुंचने के लिए कहा था जहां कि उसके नाम से वो कमरा बुक था । विमल ने होटल के ऐसे किसी कमरे को अपने लिए असुरक्षित बताकर वहां जाने से इनकार किया था तो भट्टी ने बताया था कि वो होटल इसलिए सुरक्षित था क्योंकि ‘सोहल’ की तलाश में बंबई के हर छोटे-बड़े होटल की खाक छानते फिरते ‘कंपनी’ के प्यादे अभी शाम को ही उस होटल को टटोलकर गए थे और अब उनके तत्काल ही वहां वापिस लौट आने का कोई अंदेशा नहीं था । उस आश्वासन के जेरेसाया विमल निर्विघ्न वहां पहुंच गया था और अब उसे वहां भट्टी की प्रतीक्षा करते आधे घंटे से ज्यादा वक्त हो चुका था ।
दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
विमल ने दरवाजा खोला ।
शमशेर भट्टी ने मुस्कराते हुए भीतर कदम रखा । उस घड़ी वह सूट पहने था और हाथ में ब्रीफकेस थामे था और किसी मवाली या उसके लेफ्टीनेंट से ज्यादा कोई बीमा एजेंट या सेल्समैन लग रहा था ।
“बन गया काम ।” - वह बोला और सीधा जाकर पलंग पर ढेर हो गया ।
विमल ने दरवाजा बंद किया और उसके करीब पहुंचा ।
“कौन-सा काम बन गया ?” - वह बोला ।
“तुम्हारा काम । सब कुछ हासिल हो गया । नक्शे । स्टाफ की जानकारी । सब कुछ ।”
“वैरी गुड ।” 
“सब कुछ मेरे पास है ।” - उसके पहलू में रखे ब्रीफकेस को थपथपाया - “मेहनत तो बहुत लगी लेकिन काम बन गया । सब जानकारी मिल गई ।”
“दिखाओ ।”
“पहले गला न तर कर लें !” - उसने इधर-उधर देखा - “कोई विस्की-विस्की नहीं मंगाई ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“मंगा लेते । तफरीह हो जाती ।”
“मैं काम के वक्त तफरीह नहीं करता ।”
“अरे, टाइम पास हो जाता !”
विमल ने उत्तर न दिया ।
“मैं समझता हूं ।” - भट्टी बोला, उसने साइड टेबल पर पड़ा फोन उठाया, एक-दो बार पलंजर ठकठकाया और फिर बोला - “एक छोकरा इधर भेजने का है ।”
उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और विमल की ओर देखकर मुस्कराया ।
“काम के बाद बाडी में पैट्रोल डालना पड़ता है ।” - वह बोला - “तभी अक्खी बाडी की ओवरडालिंग होती है । क्या ?”
विमल के चेहरे पर बड़े अरुचिपूर्ण भाव आए ।
“अब अपना बक्सा भी तो खोलो ।” - वह बोला ।
“खोलते हैं । खोलते हैं ।” - भट्टी बोला - “जल्दी क्या है ! पहले भट्टी में ईंधन तो झोंक लेने दो ।”
और वो यूं हो-हो करके हंसा जैसे कोई बहुत तगड़ा जोक मारा हो ।
विमल ने एक आह-सी भरी और अपना बुझा हुआ पाइप फिर सुलगाने लगा ।
“देखा !” - भट्टी बोला ।
“क्या ?” - विमल तनिक हकबकाकर बोला ।
“कितनी फास्ट सर्विस है मेरी ! सुबह तुमने एक काम बोला जो कि लग भी नहीं रहा था कि हो पाएगा लेकिन शाम को वो हो भी गया । तारीख भी नहीं बदली । क्यों ?”
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
“खुला है ।” - भट्टी बोला ।
दरवाजा खोलकर एक वेटर ने भीतर कदम रखा ।
“एक बोतल ले के आ ।” - भट्टी बोला ।
“कौन-सी ?” - वेटर बोला ।
“अरे दारू की और कौन-सी ?”
“कौन-सी दारू की ?” 
भट्टी ने विमल की तरफ देखा, उधर से कोई प्रोत्साहन न मिलता पाकर वह बोला - “मैक्डावल की ।”
“बोतल के लिए रोकड़ा पेशगी मांगता है ।”
भट्टी पलंग पर से उठा । उलने जेब में हाथ डालकर एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए ढेर सारे नोट निकाले, उसमें एक सौ का और एक पचास का नोट छांटकर वेटर को सौंपा और बोला - “गिलास, बर्फ और सोडा भी । पांच मिनट से पहले वापिस लौट आया तो बाकी पैसे तेरे ।”
उस फिकरे ने वेटर में गजब की स्फूर्ति भर दी, वह फौरन वहां से हवा हो गया ।
भट्टी वापिस लौटा और पलंग पर ढेर हो गया ।
“बंबई कैसी लगी ?” - वह बोला ।
“बढिया ।” - विमल भावहीन स्वर में बोला ।
“पहली बार आएला है ?”
“नहीं ।”
“पहले भी आ चुका है ?”
“कई बार ।”
“मस्ती मारी ?”
“कैसी मस्ती ?”
“छोकरी का शौक किया ?”
विमल अपने स्थान से उठा । उसने आगे बढकर पलंग पर से भट्टी का ब्रीफकेस उठाया और उसे लेकर राइटिंग टेबल की ओर बढा ।
“यह क्या कर रहा है ?” - भट्टी सकपकाकर बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया । उसने ब्रीफकेस को मेज पर रखकर उसे खोला ।
भट्टी उछलकर पलंग पर से उठा और लपककर उसके करीब पहुंचा ।
“ऐसी भी क्या जल्दी है, बाप ।” - वह भन्नाए स्वर में बोला ।
“बाहर मौसम कैसा है ?” - विमल बोला ।
“बढिया । बरसात होकर हटी है । अब ठंडी हवा चल रही है । लेकिन तुम यह...”
“जाके ठंडी हवा का मजा ले । यहां न खड़ा हो । जब तक लौटेगा तब तक बोतल भी आ जाएगी ।”
भट्टी के चेहरे पर से यूं खून निचुड़ा जैसे तमाचा जड़ दिया गया हो । फिर तत्काल उसके चेहरे के भाव बदले ।
“अबे, क्या बकता है !” - वह क्रोधित स्वर में बोला ।
“क्या बकता हूं ?” - विमल सहज भाव से बोला ।
“तेरे कू नहीं मालूम ?”
“नहीं ।” 
“ये कैसे पेश आ रहा है मेरे से ?”
“जैसे तूने देखा । कोई एतराज ?”
“हां । सख्त । तू समझता क्या है अपने आपको ! तू ऐसे...”
“तो संभाल अपना बस्ता ।” - विमल ने ब्रीफकेस ! उठाकर पलंग पर फेंक दिया और बाहर की ओर बढा ।
“कहां जा रहा है ?” - भट्टी हड़बड़ाकर बोला ।
“घर ।”
“लेकिन...”
“सौदा खत्म ।”
“लेकिन क्यों ?”
“क्योंकि मुझे बेहूदा बकवास करने वाले और खामखाह की हरकतों में वक्त जाया करने वाले शख्स के साथ काम करना मंजूर नहीं ।”
“ये कौन हुआ ?”
“और कौन है यहां ?”
“यानी कि मैं ?”
विमल खामोश रहा ।
भट्टी ने जोर से थूक निकली ।
“तू रुक तो सही ।” - विमल को फिर कदम उठाने को तत्पर पाकर वह व्यग्र भाव से बोला ।
“क्यों ?” - विमल बोला ।
“अरे, सुन तो ।”
“सुना ।”
“मेरे को इब्राहीम कालिया ने कहा था कि मैं तेरी हर मुमकिन मदद करूं और तेरे को राजी करके रखूं । इसलिए मैं...”
“कोई मास्का मार के या कोई दारू या छोकरी की दावत देकर मुझे अलग से राजी करने की जरूरत नहीं है, अहमक । मेरी हर मुमकिन मदद के अलावा तुझे और कुछ करने की जरूरत नहीं है ।”
“अच्छा-अच्छा ।”
“क्या अच्छा-अच्छा ?”
“छोकरे ! तू मेरे सब्र का इम्तहान ले रहा है ।”
“फेल ही होगा ।”
“ऐसी जुबान आज तक किसी ने नहीं बोली मेरे से ।”
“अच्छा !”
“मजाल नहीं हुई किसी की । जी तो चाहता है कि अभी तेरी गरदन मरोड़ दूं ।”
“मरोड़ता क्यों नहीं ?”
“मजबूर हूं, कालिया का हुक्म नहीं है ।” 
“तू मजबूर नहीं मूर्ख है । तू क्या जानता है मेरे बारे में ?”
“कुछ नहीं ।”
“क्या साझा है तेरे-मेरे में ?”
“कुछ नहीं ।”
“तो फिर क्यों मेरे से यारी गांठने की, मेरा सगेवाला बनने की कोशिश कर रहा है ? मैं यहां काम से आया हूं । तू भी यहां एक काम से आया है । यहां काम होना चाहिए या तफरीह होनी चाहिए ? या मौसम की बाबत बातचीत होनी चाहिए ? या हमें पगड़ियां बदलकर भाई बनने की कोशिश करनी चाहिए ?”
वह खामोश रहा ।
“कोई भी काम तसल्लीबख्श तरीके से तभी होता है जब उसकी तरफ पूरी तवज्जो हो । तरजीह काम को होनी चाहिए न कि तुम्हारे मूड और मिजाज को । तुम्हारी दारू की बोतल का या इस बात का कि कहीं तुम्हारी कोई तौहीन तो नहीं हो गई । तुम्हारे अहम को तो चोट नहीं पहुंची !”
“पता नहीं तुम क्या कह रहे हो, यार ।” - इस बार भट्टी मक्खन जैसे मुलायम स्वर में बोला - “मैंने तो जरा तुम्हारा ख्याल करने की कोशिश की थी ।”
“मत करो ।” - विमल नम्र स्वर में बोला - “गैरजरूरी काम है वो ।”
अब नम्र होना जरूरी था क्योंकि ज्यादा खींचने से भट्टी ज्यादा भड़क सकता था और हत्थे से उखड़ सकता था । आखिर सच में ही तो काम से हाथ खींच लेने का इरादा उसका थोड़े ही था !
तभी दरवाजे पर दस्तक पड़ी ।
दोनों दरवाजे की तरफ देखने लगे ।
एक ट्रे उठाए वेटर भीतर दाखिल हुआ ।
विमल की निगाह स्वयंमेव ही घड़ी की ओर उठ गई ।
भट्टी की बोतल के साथ वेटर साढे चार मिनट में वापिस लौटा था ।
वेटर ने ट्रे को एक तिपाई पर रख दिया ।
“शबाश !” - भट्टी भी अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डालता हुआ बोला - “बाकी पैसा तेरा ।”
वेटर ने ठोककर सलाम मारा ।
“छोकरा !” - विमल बोला ।
“हां, साब ।” - वेटर बोला ।
“कब से इधर काम करता है ?”
“तीन साल हो गया, साब ।”
“यहां होटल के किसी मेहमान ने कभी तेरे अहम को, तेरी भावनाओं को चोट पहुंचाई ?”
“क्या बोला, साब ?” - वेटर उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“इधर का कोई गैस्ट तेरे को चाय लाने को बोलता है, या बर्फ लाने को बोलता है, या सोडा लाने को बोलता है, या कोई और काम बोलता है तेरे को लेकिन ‘प्लीज’ नहीं बोलता ‘शुक्रिया’ नहीं बोलता या तेरी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देता तो तू क्या समझता है । तेरी तौहीन हो गई ?”
“नहीं साब ।”
“क्यों नहीं ?”
“क्योंकि” - वेटर के स्वर में अभी भी उलझन का पुट था - “ये तो अपुन का काम है । इसी का तो अपुन को पगार मिलता है ।”
“साब लोग तेरे को बोलता है, छोकरा, ये काम कर, वो काम कर । तू क्या बोलता है ?”
“अपुन बोलता है, अभी करता है, साब ।”
“समझा !” - विमल भट्टी से बोला ।
भट्टी ने तत्काल सहमति में सिर हिलाया लेकिन उसकी शक्ल से ऐसा नहीं लग रहा था जैसे वो कुछ समझा हो ।
“समझा साब ।” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“छोकरे को एक दस का नोट और दे ।”
“अभी देता हूं, बाप ।”
भट्टी ने हकबकाए-से वेटर को नोट देकर वहां से विदा किया और दरवाजा बंद कर लिया ।
“एक बात बोलूं ?” - भट्टी बोला ।
“बोल ।”
“इजाजत मांग के बोल रहा हूं ।”
“बोल तो सही ।”
“तेरे कू स्कूल मास्टर होना चाहिए था ।”
विमल हंसा । माहौल की तुर्शी कम करने के लिए अब तनिक आत्मीय होना जरूरी हो गया था ।
भट्टी ने एक हसरत-भरी निगाह बोतल पर डाली । जो वार्तालाप उनमें हो के हटा था, उसकी रूह में वह समझ रहा था कि विमल अब उसे पीने तो क्या देगा !
“मेरे लिए भी बनाना ।” - विमल बोला - “लेकिन छोटा ।”
भट्टी के चेहरे पर तत्काल चमक आई । वह बोतल की ओर बढा ।
विमल फिर ब्रीफकेस की ओर आकर्षित हुआ । वह पलंग के करीब पहुंचा, उसने उसे खोला और भीतर मौजूद कागजात को बाहर पलंग के करीब पहुंचा, उसने उसे खोला और भीतर मौजूद कागजात को बाहर पलंग पर डालकर उसे बंद कर दिया । उसने ब्रीफकेस फर्श पर रख दिया और कागजात को खोल-खोलकर पलंग पर फैलाना शुरू कर दिया ।
दो गिलास थामे भट्टी उसके करीब पहुंचा । उसने एक गिलास विमल को थमा दिया । दोनों ने गिलास टकराए । विमल ने विस्की को चखकर गिलास करीब मेज पर रख दिया ।
“टापू की बाबत” - भट्टी के स्वर में गर्व का पुट था - “कोई ऐसी बात नहीं है जो तुमने पूछी हो और उसका जवाब इन कागजों में न हो ।”
“गुड ।” - विमल भावहीन स्वर में बोला ।
सबसे पहले उसने सबसे बड़े कागज की ओर तवज्जो दी जो कि टापू का हाथ से बनाया गया नक्शा था । उसके ऊपरी दाएं कोने में बड़े-बड़े अक्षरों में ‘स्वैन नैक प्वाइंट’ लिखा था । नक्शा बहुत मेहनत से बनाया गया मालूम होता था । उस पर टापू की हर छोटी-बड़ी इमारत, हर रास्ता, दिलचस्पी के काबिल हर कोना-खुदरा अंकित था । विमल ने मामूली नक्शा मांगा था, बनाने वाले ने टापू की पोट्रेट तैयार करके रख दी थी । इसी से जाहिर होता था कि कालिया और उसका लेफ्टीनेंट उसको मस्का मारने के लिए, उसको राजी रखने के लिए कितने व्यग्र थे ।
“कैसा है ?” - भट्टी पूर्ववत् गर्वपूर्ण स्वर में बोला ।
“बढिया ।” - विमल बोला - “लेकिन एक कमी है ।”
“क्या ?” - भट्टी सकपकाया ।
“फ्रेम नहीं करवाया इसे ।”
“क्या ? ...ओह ! ...अच्छा, अच्छा !”
वो हो-हो करके हंसा ।
“इसे फ्रेम कराके बादशाह को तोहफे के तौर पर दोगे तो वो खुश हो जाएगा ।”
भट्टी फिर हंसा ।
विमल फिर नक्शे का मुआयना करने में मशगूल हो गया ।
भट्टी अपना गिलास खाली करके अपने लिए नया पैग बनाने लगा ।
विमल ने नोट किया कि नक्शे के मुताबिक टापू पर छोटी-बड़ी कुल जमा तेरह इमारतें थीं जिनमें सबसे बड़ी खिड़कियों-रोशनदानों से कोरी वो मेन बिल्डिंग ही थी जिसके सामने कि रॉक गार्डन था और दो पायर थे । साइज में सबसे छोटी इमारतें टापू के उत्तरी भाग में बने पांच गैस्ट काटेज थे । फिर मेन इमारत के पहलू में बनी वो इमारत थी जिसमें टापू का स्टाफ रहता था । एक ओर एक छोटा-सा अखाड़े जैसा ओपन एयर थिएटर था जिसमें टापू के मेहमानों के मनोरंजन के लिए मुर्गों और मेढों की लड़ाई से लेकर मल्लयुद्ध तो होते थे । टापू के अपेक्षाकृत ऊंचे भाग में दो गोदाम थे और पावन हाउस की इमारत थी । पायर के दक्षिण की ओर स्टाफ की इमारत से थोड़ा हट के दो बोट हाउस थे ।
बोट हाउसों में विमल ने विशेष दिलचस्पी ली । उनका अस्तित्व यह सिद्ध करता था कि टापू पर किनारे लगने की एक जगह और भी थी । यानी कि यह बात गलत थी कि कोई बोट मेन बिल्डिंग के सामने के पायर के अलावा और कहीं भी लैंड नहीं कर सकती थी ।
विमल को उस जगह में बहुत संभावनाएं दिखाई दीं । वो जगह उनके बहुत काम आ सकती थी । वो मेन बिल्डिंग के व्यस्त और रौनक वाले माहौल से कटी हुई, उससे काफी दूर, अपेक्षाकृत एकांत में थी ।
उसने नक्शा लपेटकर एक ओर डाला और बाकी कागजात की ओर तवज्जो दी । उनमें तीन फुलस्केप शीट एक साथ नत्थी थीं जिन पर टापू के तमाम कर्मचारियों के नाम और काम अंकित थे । लिस्ट में उन नामों पर विशेष चिन्ह लगे हुए थे जो कि हथियारबंद होते थे और जो स्थायी रूप से टापू पर नहीं रहते थे । वो कुल जमा पैंतालीस नाम थे जिनमें अड़तीस आदमी थे और सात औरतें भी । आदमियों में से पंद्रह की ड्यूटी कैसीनों में होती थी जिनमें से चार हथियारबंद होते थे । उस बिल्डिंग में ही किचन थी जिसके स्टाफ में एक रसोइया, एक मसालची, दो प्लेटें धोने वाले और चार वेटर मिलाकर सात आदमी थे । छ: आदमी, जिनमें कोई भी हथियारबंद नहीं होता था, मिनी ओपन एयर थिएटर में काम करते थे । आठ आदमी जिनमें से चार हथियारबंद होते थे, टापू तक मेहमानों को लाने, ले जाने के लिए इस्तेमाल होने वाली मोटरबोट सर्विस में कार्यरत थे । दो हथियारबंद आदमी बादशाह के बाडीगार्डो की ड्यूटी को अंजाम देते थे । सात औरतों में से पांच होस्टेसें थीं जो कि जाहिर था कि ओवरनाइट काटेजों में ठहरने वाले मेहमानों का पहलू गर्म करने की ड्यूटी भी करती थीं और बाकी दो दासियां थीं ।
यानी कि टापू पर बादशाह को मिलाकर कुल जमा छियालीस बंदे पाए जाते थे ।
उन छियालीस में से केवल अट्ठारह स्थायी रूप से टापू पर रहते थे । उनमें से एक खुद बादशाह था, दो उसके बाडीगार्ड थे, चार वो हथियारबंद आदमी थे जो कैसीनों में काम करते थे, चार हथियारबंद बोट चालक थे, पांच होस्टेसें थीं, एक नौकरानी थी और एक नौकर था ।
यानी कि बादशाह को मिलाकर कम-से-कम ग्यारह जने ऐसे थे जो हर किसी के वहां से रुख्सत हो जाने के बाद भी टापू पर सदा हथियारबंद पाए जाते थे ।
“हथियारबंद हर कोई क्यों नहीं ?” - विमल बोला ।
“क्या ?” - भट्टी हड़बड़ाकर बोला ।
“मैंने कहा जब टापू का निजाम किसी मुल्क के कायदे-कानून के तहत नहीं आता, जब अब्दुल मजीद दलवई ही वहां का बादशाह है तो फिर वहां का सारा ही स्टाफ हथियारबंद क्यों नहीं ?”
“सारे वर्कर्स भरोसे के आदमी नहीं होंगे ।” - भट्टी सोचता हुआ बोला - “हथियार के मामले में बादशाह हर किसी का बराबर, मुकम्मल एतबार नहीं कर पाता होगा ।”
“हो सकता है ।”
“दारू भूल गए हो ।”
विमल भूला तो नहीं था अलबत्ता भट्टी को खुश करने के लिए उसने गिलास उठाकर विस्की का एक घूंट भरा ।
उसने फिर कागजात की ओर ध्यान दिया ।
उनके मुताबिक कैसीनों के तकरीबन तीन-चौथाई क्लायंट टापू पर अपनी मोटरबोटों में पहुंचते थे । उनमें दुबई, शरजाह, आबूधाबी, मस्कट और कराची तक से जुए के रसिया आते थे । बाकी मेहमानों के लिए बादशाह के पास खूब बड़े-बड़े चार केबिन क्रूसर थे जो अगर कोस्ट गार्ड्स बहुत ज्यादा सक्रिय न हों तो क्लायंट्स को मुंबई के समुद्र तट से लाते थे और वापिस छोड़कर आते थे और अगर कोस्ट गार्ड्स सक्रिय हों तो उन्हें समुद्र तट से दूर देश की हद से बाहर समुद्र से ही पिक कर-करके लाते थे जहां तक कि लोग छोटी-मोटी स्पीड बोट्स द्वारा भी पहुंच सकते थे । कागजात में मुंबई के कुछ ऐसे सुनसान समुद्री तटों का भी वर्णन था जहां तकरीबन हर शाम को जुआरियों को टापू तक ले जाने के लिए बादशाह का केबिन क्रूसर उपलब्ध होता था ।
टापू पर उपलब्ध असने के नाम पर कुछ एके 47 राइफलों, कुछ मशीनगनों, कुछ हथगोलों और कुछ धुएं के बमों का जिक्र था ।
एक अन्य पृष्ठ पर टापू के इर्द-गिर्द फैली उन चट्टानों और खुद बादशाह द्वारा बनवाए गए स्टील और कंकरीट के उन बैरियर्स का जिक्र था जिनकी वजह से मेन पायर और बोट हाउसों वाली साइडों के अलावा कहीं भी टापू के किनारे बोट लगाना असंभव था ।
बाकी कागजात में या तो ऐसी बातें थीं जिन्हें विमल पहले ही जान चुका था और या ऐसी बातें थीं जिनकी जानकारी उसके लिए बेमानी थी ।
अंत में विमल ने तमाम कागजात परे सरका दिए और अपना विस्की का गिलास उठा लिया ।
भट्टी आशापूर्ण निगाहों से उसे देखने लगा ।
“कोई काम नामुमकिन नहीं होता ।” - विमल बोला ।
“कोई काम की बात छोड़ो ।” - भट्टी तनिक बेसब्रेपन से बोला - “इस काम की बात करो ।”
“यह भी नामुमकिन नहीं ।”
“यानी इसे करना मंजूर है ?”
“कोशिश करना मंजूर है ।”
“एक ही बात है । बॉस यह खबर सुनकर बहुत खुश होगा ।”
“मैं खुद चलता हूं तुम्हारे बॉस को खुश करने के लिए ।”
“उसकी जरूरत नहीं । मुझे खुश कर देना ही काफी है ।”
“तुम खुश हो गए हो ?”
“हां ।”
“कालिया से मेरी मुलाकात फिर भी जरूरी है ।”
“क्यों ?”
“कोई बात करनी है ।”
“मुमकिन नहीं ।”
“लेकिन क्यों ?”
“वो अब मुंबई में नहीं है ।”
“कहां चला गया ?”
“दुबई ।”
“चला भी गया ?”
“हां ।”
“वो कोई प्रेत तो नहीं जो आंख बद करता है तो अंतर्ध्यान हो जाता है, खोलता है तो जहां चाहता है वहां प्रकट हो जाता है ।”
“यही समझ लो । क्यों जरूरी है तुम्हारी कालिया से मुलाकात ?”
“मैं बतौर कस्टमर टापू का एक चक्कर लगाना चाहता हूं । इसी बाबत मैं उससे...”
“यह मुनासिब होगा ?”
“क्या मतलब ?”
“टापू ‘कंपनी’ का अड्डा है । तुम ‘कंपनी’ के दुश्मन हो । वहां किसी ने तुम्हें पहचान लिया तो ?”
“मुझे यकीन है कि मुझे कोई नहीं पहचानेगा । मेरा चेहरा अभी इतना मशहूर नहीं कि ‘कंपनी’ का बच्चा-बच्चा उसे पहचान चुका हो । ऊपर से मेकअप...”
“जिसे भांपना मामूली काम होगा । आखिर मैंने भी तो भांपा था ।”
“तुम्हारी बात जुदा थी । एक तो तुम पूरे एकांत में मेरे से मुश्किल से दो फुट दूर बैठे हुए थे, दूसरे जैसे मैं वहां पहुंचा था और जैसे मैंने तुम्हें अपने काबू में किया था, उस लिहाज से तुम्हारा मेरी तरफ अतिरिक्त तवज्जो देना लाजमी था ।”
“ऐसा वहां भी हो सकता है ।”
“नहीं होगा । फिलहाल मैं वहां कोई गुल खिलाने नहीं जा रहा । वहां मेरी कोई खास आइडेंटिटी नहीं होगी । मैं वहां जुआरियों में जुआरी होऊंगा ।”
“खामखाह मारे जाओगे ।”
“तो तुम्हारा क्या जाएगा ?”
“ठीक है । मर्जी तुम्हारी । बोलो क्या चाहते हो ?”
“वहां दांव पर लगाने के लिए मोटी रकम ।”
“मोटी ?”
“उन कैसीनों में चवन्नियों, अठन्नियों के दांव चल जाते हैं तो पतली भी चलेगी ।”
“लाख रुपया चलेगा ?”
“पांच । नफा-नुकसान तुम्हारा । घट-बढ तुम्हारी ।”
“ठीक है ।”
“फैसला खुद ही कर लिया । कालिया से नहीं पूछोगे ?”
“तुम्हारे मामले में फैसला करने के तमाम अख्तियारात बॉस मुझे सौंपकर गया है ।”
“गुड ।”
“और बोला ।”
“एक खूबसूरत लड़की ।”
“साथ के लिए ?”
“और ओट के लिए । जोड़े के तौर पर रौनक वाली जगहों पर जाने से लोग मादा को ही ज्यादा देखते हैं, नर को नहीं । यह मेरा जाती तजुर्बा है ।”
“ठीक है । लड़की का इंतजाम हो जाएगा ।”
“लड़की ऐसी होनी चाहिए जो गोपनीय तरीके से तस्वीर खींचना जानती हो ।”
“क्या !”
“कैमरा अपने पर्स में, अपनी चोली में या अपने जिस्म पर कहीं और छुपाकर जो यूं तस्वीरें खींच सकती हो कि किसी को भनक तक न लगे ।”
“ओह ! बाप, लड़की का इंतजाम करना आसान है, फोटोग्राफर का इंतजाम करना आसान है लेकिन फोटोग्राफर लड़की का इंतजाम...”
“जरूरी है । तुम्हारे पास कल शाम तक का वक्त है ।”
“मैं करूंगा कुछ इंतजाम ।”
“गुड ।”
“एक बात कहूं, यार ।”
“क्या ?”
“तू तो कालिया से भी बढ-चढ के आर्डर करता है ।”
विमल खामोश रहा ।
“और कुछ ?”
“फिलहाल बस ।”
“तो मैं तेरे लिए नया पैग बना दूं ?”
विमल ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
***
उल्हास सितोले ने अपनी बुलेटप्रूफ टोयोटा कार को दादर मेन रोड पर उस आठ मंजिली इमारत के द्वार के ऐन सामने रोका जिसमें चांदनी का फ्लैट था ।
वह चांदनी को देखकर मुस्कराया । उसने बड़े आश्वासनपूर्ण भाव से चांदनी का कंधा थपथपाया और बोला - “देखा ! खामखाह वहम कर रही थीं न ? कोई आया पीछे ?”
चांदनी खामोश रही । उसने कार से बाहर निकलने का उपक्रम न किया ।
उस वक्त नशे से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था । जैकपॉट में आज वह अपनी हर परफारमेंस से पहले स्काच विस्की का एक पैग पीती रही थी और वहां से सितोले के रवाना होने से पहले भी एक डबल पैग चढाकर आई थी । इतनी विस्की पी लेने की वजह से उसकी जुबान लड़खड़ाने लगी थी, उसकी खोपड़ी भन्नाने लगी थी लेकिन उसकी बद्हवासी में कोई अंतर नहीं आया था ।
सितोले कार से बाहर निकला ।
वह कोई पैंतालीस साल का लंबा, ऊंचा, निहायत आकर्षक व्यक्तिखत्व वाला व्यक्ति था । औरतों का रसिया था, दूसरों की खूबसूरत बीवियों पर निगाह रखना उसका पसंदीदा शौक था क्योंकि बकौल उसके बीवियां सिंगल हैंड ड्राइव कार की तरह भरोसेमंद टिंकाऊ और ज्यादा माइलेज देने वाली होती थीं । चांदनी जैसी औरतों को वह टैक्सी का दर्जा देता था जो कि साल-डेढ साल में ही खड़-खड़ बोल जाती थीं । यही वजह थी कि कैब्रे जायंट चलाने जैसे धंधे में होने के बावजूद वैसी औरतों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी । कैब्रे डांसरों को वो फारस रोड की बाइयों से जरा ही बेहतर समझता था । इसीलिए रात के डेढ बजे चांदनी को उसके फ्लैट पर छोड़कर आना सितोले को एक निहायत बदमजा जिम्मेदारी लग रही थी ।
वह कार के चांदनी की ओर वाले पहलू में पहुंचा और उधर का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “आ ।”
चांदनी ने कार से बाहर कदम रखा तो जमीन पर ढेर होते-होते बची ।
सितोले ने बड़े अनिच्छापूर्ण भाव से उसे सहारा दिया और बड़े अप्रसन्न स्वर में बोला - “आज इतनी क्यों पी ली ?”
चांदनी ने उत्तर न दिया । वह सितोले का कंधा थामे पैंडुलम की तरह झूलती रही ।
“जरा अपने पैरों पर खड़ी हो ।” - सितोले बोला - “कोई देखेगा तो क्या कहेगा !”
चांदनी संभली ।
“चल ।”
इस बार अपेक्षाकृत संतुलित चाल से चांदनी आगे बढी ।
“चौकीदार !” - उसके साथ चलते सितोले ने आवाज लगाई ।
भीतर कहीं से निकलकर चौकीदार मुख्य द्वार की चौखट पर प्रकट हुआ । उसने दोनों का अभिवादन किया ।
“तेरा नाम डाकी है न ?” - सितोले बोला ।
“हां साब ।” - चौकीदार अदब से बोला ।
“मुझे जानता है ?”
“आप” - चौकीदार अनिश्चित भाव से बोला - “डोंगरे साहब के दोस्त हैं, साब ।”
“मैडम को जानता है ?”
“खूब जानता हूं, साब ।”
“मैडम की बाबत डोंगरे साहब तेरे को कुछ बोला ?”
“बोला, साब । अपुन एकदम चौकस है, साब । अपुन छटे माले पर किसी नवें आदमी को नेई जाने देता, साब । कोई फिर भी जाना मांगता है तो अपुन साथ जाता है, साब ।”
“बढिया ।”
“अपुन दिन के चौकीदार को भी बरोबर ऐसा ही बोल के रखा है, साब ।”
“शाबाश !”
चौकीदार ने बड़ी तपरता से आगे बढकर लिफ्ट का बटन दबाया ।
“डाकी !” - चांदनी के साथ लिफ्ट के करीब पहुंचकर सितोले बोला - “तेरे को मैडम को ऊपर ले जाने का है और मैडम के फ्लैट के तमाम खिड़कियां, दरवाजे, कुंडे, ताले, चिटकनियां वगैरह खुद चैक करके आने का है । सब तसल्ली करके, मैडम की तसल्ली कराके, मैडम के भीतर से दरवाजा बंद कर लेने के बाद ही तेरे को वापिस नीचे आने का है । समझ गया ?”
“समझ गया, साब ।”
“यह लो ।” - सितोले ने उसकी तरफ एक सौ का नोट बढाया ।
“साब !” - चौकीदार संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “डोंगरे साब पहले ही मेरे कू दो सौ रुपिया दिया ।”
“फिर तो तू बहुत खुशकिस्मत है ।”
चौकीदार ने हिचकिचाते हुए नोट थाम लिया ।
लिफ्ट नीचे पहुंची । उसका दरवाजा खुला ।
“तुम ऊपर नहीं चलोगे ?” - चांदनी व्याकुल भाव से बोली ।
“मैं क्या करूंगा अब ऊपर जाकर !” - सितोले बोला - “ये जा तो रहा है तेरे साथ ऊपर । सुना नहीं मैं इसे क्या बोला ?”
“सुना ।”
“फिर ?”
चांदनी खामोश रही ।
“अब क्या बात है ?” - सितोले उतावले स्वर में बोला ।
“मैं सोच रही थी कि... कि... क्या ऐसा नहीं हो सकता कि... कि...”
“अरे, कैसा नहीं हो सकता ?”
“कि आज की रात तुम यहीं रह जाओ ।”
“यहां कहां ?” - सितोले हड़बड़ाया - “तेरे फ्लैट पर ?”
“हां ।”
“नहीं । ऐसा नहीं हो सकता ।”
“कल डोंगरे ने मेरा कोई इंतजाम करने का मेरे से वादा किया है । बस, आज रात की ही तो बात है ।”
“चांदनी, क्यों खामखाह हलकान हो रही है ? तू सेफ घर पहुंच गई है । अभी डाकी तुझे ऊपर तेरे फ्लैट पर छोड़ आएगा । जितनी तू नशे में है उसके लिहाज से तुझे पता भी नहीं लगना कि कब बाकी की रात बीती और अगले रोज की दोपहर हो गई ।”
“लेकिन...”
“फिर भी और तसल्ली चाहती है तो यह ले, इसे रख ले ।” - सितोले ने एक छोटी-सी, खिलौना-सी खूबसूरत पिस्तौल उसे थमाई ।
“यह... यह क्या...”
“वही जो तू देख रही है । कोई तेरे पास फटकने की कोशिश करे तो इसका रुख उसकी तरफ करके घोड़ा खींच देना और खींचती चली जाना । आगे जो होगा मैं देख लूंगा ।” - फिर उसने जल्दी से जोड़ा - “मेरा मतलब है डोंगरे देख लेगा ।”
वह खामोश रही ।
“अब राजी ?”
चांदनी ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया । पिस्तौल उसने अपने हैंडबैग में डाल ली ।
“शाबाश ! अब चल ।”
चांदनी लिफ्ट में दाखिल हुई ।
सितोले ने चौकीदार को इशारा किया । वह भी लिफ्ट में सवार हुआ । उसने छठी मंजिल का बटन दबाया । लिफ्ट तत्काल उसके मुंह पर बंद होने लगी ।
“गुड नाइट, डार्लिंग ।” - सितोले बोला - “स्वीट ड्रीम्स ।”
सितोले वहां से यूं रुख्सत हुआ जैसे किसी भी क्षण उसे दोबारा वापिस घसीट लिए जाने का अंदेशा हो ।
लिफ्ट छठी मंजिल पर पहुची ।
चौकीदार ने उससे चाबी लेकर खुद उसके फ्लैट का दरवाजा खोला । दोनों भीतर दाखिल हुए । चौकीदार ने दो-चार बत्तियां जलाई ।
किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर चांदनी ने पिस्तौल अपने हाथ में ले ली । न जाने क्यों पिस्तौल एकाएक उसे बहुत हौसला देने लगी थी ।
चौकीदार ने पहले सारे फ्लैट का चक्कर लगाया और फिर खुद एक-एक खिड़की-दरवाजे को बंद करने वाली व्यवस्था चैक की । कोई कुंडी खुली थी तो लगाई । कोई चिटकनी उतर गई थी तो चढाई ।
“सब एकदम चौकस है बाई ।” - अंत में वह बोला ।
चांदनी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब अपुन को जाने का है । दरवाजा अंदर से अच्छी तरह से बंद कर लेना ।”
चौकीदार को रुखसत करके चांदनी ने ऐसा ही किया ।
उसके जाते ही उसे फिर भय सताने लगा । उसने पिस्तौल हाथ में लेकर सारे फ्लैट में चक्कर लगाया तो उसे तसल्ली हुई ।
उसने कपड़े तब्दील किए ।
ज्यादा विस्की पीने से उसकी तबीयत खराब होने लगी थी लेकिन वह उतना नशा नहीं महसूस कर रही थी जितना कि उसे करना चाहिए था या वह करना चाहती थी ।
क्या वह और विस्की पी ले ?
लेकिन पेट में उठते मरोड़ों ने और छाती में होती जलन ने उसके हक में फैसला न किया ।
फिर उसे नींद की गोलियों का ख्याल आया ।
वह बाथरूम में पहुंची ।
उसने वाल कैबिनेट में से स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाश की, सिंक से पानी का गिलास भरा और फिर जो गोलियां उसे एक या दो से ज्यादा न खाने की हिदायत थी, वह उसने आठ खा लीं, या शायद नौ खा लीं ।
वह बैडरूम में वापिस लौटी और पलंग पर ढेर हो गई । पिस्तौल उसने अपने तकिए के नीचे रख ली । उसने बत्ती बुझाई, आंखें बंद की और फिर उसे पता ही नहीं लगा कि कब वह नींद के हवाले हो गई ।
***
आधी रात के करीब फ्लैट की कॉलबेल बजी ।
फ्लैट के भीतर बैठे फ्लैट के मालिक अयूब पहलवान का नोट गिनता हाथ ठिठक गया । उसने सकपकाकर सिर उठाया । फिर उसने नोटों को समेटकर एक छोटे-से बक्से में डाला और बक्से को उठाकर किचन में पहुंचा । उसने किचन के विशाल सिंक को अपनी ओर खींचा तो वह दीवार से अलग होकर उसकी ओर सरक आया और उसके पीछे ऐन उतनी जगह निकल आई जितने में कि वह नोटों का बक्सा समा सकता था । उसने बक्से को उस जगह में फिट किया और सिंक को पूर्ववत् आगे सरका दिया ।
ऐसा ही एक खाना बाथरूम के वाश बेनिसन के पीछे था जहां कि वह अपना प्योर, अनकट हेरोइन का स्टाक रखता था ।
अयूब पहलवान एक बड़ी-बड़ी तावदार मूंछों वाला, एक क्विंटल से ज्यादा वजन वाला, शक्ल-सूरत में राक्षस-सा लगने वाला आदमी था जिसका धंधा इलाके के डोप पैडलरों को हेरोइन मुहैया कराना था । वह फ्लैट फारस रोड की एक इमारत की सबसे ऊपरली मंजिल पर था, वहां दिन में सारा दिन दो आदमी बैठे हेरोइन की एक-एक डोज की पुड़ियां बनाते रहते थे जो डोप पैडलर वहां आकर दर्जनों की तादाद में लेकर जाते थे ।
घंटी फिर बजी ।
अयूब पहलवान फ्लैट के मुख्य द्वार पर पहुंचा ।
मुख्य द्वार में फिट लैंस में से उसने बाहर झांका ।
उसे खुली दाढ़ी वाले और पान से बैंगनी हुए दांतों और मसूडों वाले हजारासिंह का विकराल चेहरा दिखाई दिया ।
वह हजारासिंह से खूब अच्छी तरह से वाकिफ था ।
हजारासिंह कमाठीपुरे के इलाके का बड़ा जाना-पहचाना डोप पैडलर था जो डोप बेचता-बेचता खुद भी डोप एडिक्ट बन चुका था । पिछले दिनों वह पुलिस के फेर में पड़कर गिरफ्तार हो गया था लेकिन जौहरी बाजार का वाल्ट लूटने वाले डकैतों में से एक जामवंत राव को गिरफ्तार करवाने की एवज में इस वार्निंग के साथ छोड़ दिया गया था कि वह फिर कभी डोप पैडलिंग का नामुराद धंधा नहीं करेगा । लेकिन हजारासिंह वह धंधा इसलिए नहीं छोड़ सका था क्योंकि हेरोइन की पुड़िया तब उसकी खुद की जरूरत भी बन गई थी । अलबत्ता अब वह पहले से कई गुना ज्यादा सावधान होकर अपना धंधा चलाता था । उसी सावधानी का नतीजा यह था कि डोप हासिल करने के लिए वह अयूब पहलवान के पास हमेशा आधी रात को आता था ।
“खोल्लो, मालको ।” - उसे हजारासिंह का उतावला स्वर सुनाई दिया - “हजारासिंग आया जे ।”
उसने दरवाजा खोला ।
अपनी अस्त-व्यस्त दाढी-मूंछ के बीच में से हजारासिंह ने अपने बैंगनी दांत चमकाए ।
अयूब पहलवान ने चौखट छोड़ दी और एक कदम पीछे हटा ।
हजारासिंह ने दरवाजे के भीतर कदम डाला ।
तभी किसी ने हजारासिंह को जोर से एक ओर धक्का दिया और फिर अयूब पहलवान की छाती से एक भारी रिवॉल्वर की नाल आ लगी ।
उसके छक्के छूट गए । उसने आतंकित भाव से रिवॉल्वर वाले हाथ के स्वामी पर निगाह डाली तो उसे हार्ट अटैक होते-होते बचा ।
साक्षात मौत का परकाला बना ‘कंपनी’ का सिपहसालार श्याम डोंगरे उसके सामने मौजूद था ।
उसके पीछे ‘कंपनी’ के तीन प्यादे मौजूद थे, उन तीनों के हाथ में भी अपने बॉस जैसी ही भारी रिवॉल्वर थीं जिन्हें वे अयूब पहलवान की ओर ताने हुए थे ।
श्याम डोंगरे ने रिवॉल्वर की नाल से उसकी छाती को धक्का दिया । वह पीछे हटा तो डोंगरे और तीनों प्यादे भीतर फ्लैट में घुस आए । एक प्यादे ने पीछे फ्लैट का दरवाजा बंद कर दिया ।
अयूब पहलवान ने जोर से थूक निगली और आहत भाव से हजारासिंह को देखा ।
शर्मिंदा हजारासिंह का सिर उसकी छाती पर झुक गया ।
जाहिर था कि फ्लैट में दाखिला हासिल करने के लिए उसे इस्तेमाल किया गया था । उसे मजबूर किया गया था उस विश्वासघात के लिए ।
“मेरे कू” - डोंगरे कड़ककर बोला - “पहचानता है न पहलवान के बच्चे ?”
तत्काल अयूब पहलवान का सिर सहमति में हिला ।
“क्या खता हुई बाप ?” - वह कंपित स्वर में बोला ।
“तेरे कू नहीं मालूम ?”
अयूब पहलवान का सिर इनकार में हिला ।
“देखो साले को ।” - डोंगरे बेहद हिंसक स्वर में बोला - “कैसा भोला बलम बनके दिखा रहा है !”
“गलती हुई बाप । आइंदा नेईं होएंगा ।”
“इतनी फुर्ती क्यों दिखाएला है, साले मोटे ! पहले मालूम तो कर ले क्या गलती हुई ?”
अयूब पहलवान चुप रहा ।
डोंगरे ने खाली हाथ का एक पुरजोर झापड़ अयूब पहलवान के थोबड़े पर रसीद किया । अयूब पहलवान पीड़ा और अपमान से बिलबिला गया ।
“कुछ मुंह से फूट ।” - डोंगरे गरजा ।
“मेरे कू गुमराह किया गया था ।” - बड़ी कठिनाई से अयूब पहलवान कह पाया ।
“कौन किया तेरे कू गुमराह ?”
“इब्राहीम कालिया का आदमी । वो बोला कि... कि और एकाध महीन में...”
“क्या और एकाध महीने में ?”
“कंपनी’ खल्लास ।”
“क्या !”
“वो बोला कि अब्बी अपुन माल कालिया से लेना शुरू नेई करेंगा तो बाद में अपुन इस धंधे से बाहर होएंगा ।”
“क्योंकि ‘कंपनी’ का कारोबार खलास होने वाला है ?”
“वो अपुन को ये ही बोला ।”
“और तेरे कू यकीन आ गया !”
अयूब पहलवान फिर खामोश हो गया ।
“तू ‘कंपनी’ में आके इस बाबत कुछ काहे नेईं पूछा ?”
अयूब पहलवान से उत्तर देते न बना । उसने जोर से थूक निगली ।
“क्यूं कि तेरे कू एतबार आ गया था कि कोई जो कुछ ‘कंपनी’ की बाबत बोला, ठीक बोला । बरोबर ?”
“खता हुई, बाप ।”
“धंधा कैसा चल रहा है ? बढिया ?”
अयूब पहलवान ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“माल किधर रखता है ?”
अयूब पहलवान ने निसंकोच बता दिया । उस वक्त माल की कोई कीमत नहीं थी । कोई कीमत थी तो उसकी अपनी जान की थी जो उसे बेभाव जाती लग रही थी ।
“और रोकड़ा ?”
उसने उसका ठिकाना भी बताया ।
डोंगरे ने प्यादों को इशारा किया ।
पलक झपकते किचन के सिंक के पीछे से नोटों वाला बक्सा और बाथरूम के वाश वेसिन के पीछे से हेरोइन का स्टाक बरामद कर लिया गया ।
“लगता है” - खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता हुआ डोंगरे बोला - “अब धंधा बढिया चल रहा है तेरा । ‘कंपनी’ से तो एक साथ इतना माल कभी नेईं लिया तू ?”
“मेरे से खता हुई बाप ।” - अयूब पहलवान पहले से कहीं ज्यादा दीनहीन स्वर में बोला ।
“एक ही बात कितनी बार बोलेगा ।”
“अपुन कोई भी सजा भुगतने को तैयार है, बाप ।”
“कोई भी सजा ?”
“हां ।”
“तो मौत की सजा भुगत ।”
डोंगरे की रिवॉल्वर ने तीन बार आग उगली ।
अगले ही पल अयूब पहलवान, कमाठीपुरे का फेमस डोपडीलर अपने फ्लैट में मरा पड़ा था ।
***
चांदनी चौंककर उठी ।
उसका जिस्म पसीने से भीगा हुआ था और दिल धाड़-धाड़कर पसलियों के साथ बज रहा था ।
उसने फिर वो हौलनाक सपना देखा था जो अरविंद नायक की मौत के बाद से ही उसे हलकान किए हुए था ।
अरविंद नायक का चेहरा खून से रंगा हुआ था और वह अपने दाएं हाथ की पहली उंगली चांदनी पर ताने धीरे-धीरे उसकी ओर बढ रहा था ।
चांदनी ने जोर से आंखे मिचमिचाईं ।
अरविंद नायक का चेहरा उसके मानसपटल से गायब हो गया ।
उसने कांपते हाथों से बेड लैंप का स्विच ऑन किया और उसके करीब ही पड़ी घड़ी पर निगाह डाली ।
सवा तीन बजे थे ।
यानी कि उसे सोए हुए मुशिकल से एक घंटा हुआ था ।
शराब और नींद की गोलियों की मिली-जुली खुमारी उस पर अभी भी हावी थी ।
सपना ! - अपने सिर को जोर से झटकती हुई वह होंठों में बुदबुदाई - सपना था । सपना ही था ।
उसने तकिए के नीचे हाथ डाला । सितोले की दी पिस्तौल को वहां मौजूद पाकर वह बहुत आश्वस्त हुई ।
एकाएक हवा का एक बेहद तेज झोंका बैडरूम के द्वार की तरफ से आया और चांदनी के रोकते-रोकते बैड लैंप उलटकर नीचे फर्श पर जा गिरा । उसका बल्ब टूट गया और कमरे में अंधेरा छा गया ।
हवा का ऐसा तेज झोंका कहां से आ गया ! - उसने हैरान-परेशान भाव से सोचा - खिड़कियों दरवाजे तो सब बंद थे !
फिर उसे एक आहट सुनाई दी ।
एक दबी-सी, घुटी-सी आहट ।
खुद उसके आंदोलित दिल की धड़कन से मिलती-जुलती ।
धप्प ! धप्प !
आवाज यकीनन फ्लैट में ही कहीं से आ रही थी ।
चांदनी का बायां हाथ स्वयंमेव ही तकिए के नीचे सरक गया और मजबूती से पिस्तौल की मूठ से लिपट गया । वह कान लगाकर आहट सुनने की कोशिश करने लगी ।
धप्प ! धप्प !
अब उस आहट के साथ उसे यह भी अनुभव हुआ कि बाहर बारिश हो रही थी ।
क्या बारिश थी उस आहट की वजह ?
पहले तो कभी बारिश के दौरान उसे ऐसी आहट नहीं सुनाई दी थी !
धप्प ! धप्प !
हिचकिचाते हुए वह पलंग से उतरी और पिस्तौल को मजबूती से अपने सामने ताने चलती हुई बैडरूम के दरवाजे पर पहुंची । बहुत हिम्मत करके उसने दरवाजा खोला और बाहर झांका ।
धप्प ! धप्प !
दरवाजा खुलते ही वो आहट जब अपेक्षाकृत तेज हो गई थी । उसने महसूस किया कि आहट ड्राइंगरूम की तरफ से आ रही थी ।
“कौन है ?” - वह तीखे स्वर में बोली ।
जवाब में पहले से और ऊंची आहट हुई ।
उसने दृढता से गलियारे में कदम बढाया ।
होंठ भींचे, पिस्तौल ताने वह ड्राइंगरूम में पहुंची ।
धप्प ! धप्प !
तब एकाएक उसकी समझ में आ गया कि वो आहट कहां से आ रही थी । पता नहीं कैसे ड्राइंगरूम का बाल्कनी की ओर का दरवाजा खुल गया था और बारिश और हवा के मिले-जुले तेज झोंको की वजह से खुलता-बंद होता वह चौखट के साथ टकरा रहा था ।
उसकी जान में जान आई ।
महज एक खुला दरवाजा उसकी जान लेने को आमादा था ।
उस चौकीदार के बच्चे ने उसकी चिटकनी ठीक से नहीं लगाई थी और वो तूफानी हवा के जोर से खुल गया था ।
उसका अब तक धनुष की तरह तना शरीर ढीला पड़ा । उसका पिस्तौल वाला हाथ स्वयंमेव ही नीचे झुक गया । वह लंबे डग भरती हुई बाल्कनी के उस दरवाजे के करीब पहुंची । उसने पिस्तौल को अपने बाएं हाथ में स्थानांतरित किया, दरवाजे का हैंडल थामा और फिर उसे बंद करने लगी ही थी एकाएक थमक गई ।
बाल्कनी में उसे कुछ हिलता महसूस हुआ ।
कुछ ही क्षण पहले उससे किनारा करके गया भय उस पर फिर से हावी होने लगा । वह आंखें फाड़-फाड़कर सामने बाल्कनी में देखने लगी ।
“ओह !” - फिर उसने चैन की गहरी सांस ली ।
अपनी दिमागी हालत पर खुद उसे तरस आने लगा ।
बाल्कनी में महज एक बिल्ली थी जो खराब मौसम से बचने के लिए वहां उसकी बाल्कनी के फर्श पर आन बैठी थी ।
“बेचारी ।” - उसके मुंह से निकला । भीगकर ठिठुरती बिल्ली से उसे हमदर्दी होने लगी । वह उसे पुचकारकर पास बुलाने का उपक्रम करने लगी ।
बिल्ली अपने स्थान से न हिली । वह बारिश में भीगती, स्थिर, बाल्कनी के फर्श पर बैठी रही ।
“श ! श !” - चांदनी उसे ड्राइंगरूम के भीतर घुस आने के लिए इशारा करती हुई हाथ हिलाने लगी ।
बिल्ली अपने स्थान से न हिली । वह बिना पलक झपकाए चांदनी की ओर देखती रही ।
चांदनी दरवाजे पर से हटी । उसने बाल्कनी में कदम रखा । वह बिल्ली के करीब पहुंची । वह उसे उठाने की नीयत से दोहरी होकर झुकी ।
धप्प !
बाल्कनी का दरवाजा एक जोर की आवाज करता हुआ उसके पीछे बंद हो गया ।
“म्याऊं ।” - बिल्ली बड़े खतरनाक ढंग से गुर्राई । उसने अपना एक पंजा अपने सामने चलाया ।
चांदनी के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली और उसने बिल्ली की तरफ बढा अपना हाथ वापिस खींच लिया । बिल्ली ने इस बुरी तरह से उसका हाथ खरोंचा था कि खरोचों में से खून रिसने लगा था । वह तत्काल सीधी हुई और बिल्ली से परे हट गई ।
मर यहीं - वह गुस्से में बड़बड़ाई और वापिस घूमी । उसने बाल्कनी का दरवाजा खोलने की कोशिश की तो उसके छक्के छूट गए ।
बाल्कनी के दरवाजे को ताला लग गया था ।
उस फ्लैट के तमाम दरवाजों में ऐसे ताले फिट थे जो बंद केवल दरवाजे को चौखट से भिड़काने से ही हो जाते थे लेकिन खुलते चाबी से थे ।
उसने जोर-जोर से दरवाजा भड़भड़ाया, हैंडल को उमेठकर उसे खींचा ।
दरवाजा टस से मस न हुआ ।
बारिश के थपेड़े उसके जिस्म से टकरा रहे थे । अपने फ्लैट में होते हुए भी वह अपने फ्लैट में नहीं थी और वहां की सुरक्षा, सुख-सुविधा से सर्वदा वंचित थी ।
“चांदनी !”
चांदनी के प्राण कांप गए । उसका कलेजा उखड़कर मुंह को आने लगा ।
किसने ? किसने पुकारा था उसे ? अपने नाम की पुकार उसने साफ सुनी थी । अभी किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा था । कोई बाल्कनी में था । कोई बाल्कनी में नहीं हो सकता था लेकिन था । ड्राइंगरूम के बंद दरवाजे के अलावा बाल्कनी में पहुंचने का कोई जरिया नहीं था लेकिन कोई वहां था ।
उसने जोर से चिल्लाने की कोशिश की लेकिन उसके मुंह से आवाज न निकली । भय से उसकी घिग्घी बंध चुकी थी ।
उसके पिस्तौल वाले हाथ पर किसी का हाथ पड़ा । पिस्तौल गीले साबुन की तरह उसकी गिरफ्त से निकल गई ।
उसने फिर चीखने की कोशिश की लेकिन आवाज उसके गले में ही घुटकर रह गई ।
एकाएक दो मजबूत हाथों ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया ।
चांदनी बुरी तरह तड़फड़ाई । उसके पांव फर्श से उखड़ गए और उसका मछली की तरह तड़पता शरीर हवा में उठ गया ।
तब पहली बार उसके मुंह से चीख निकली ।
लेकिन तब तक हवा में उछला उसका बेसहारा जिस्म बाल्कनी की रेलिंग को लांघता हुआ छ: मंजिल ऊपर से नीचे राहदारी की और गिरा चला जा रहा था ।
✽***
अगले दिन रविवार था इसलिए बड़ोदा से आया पारसी साहब पी.एन. घड़ीवाला अपनी फैमिली के साथ सुबह-सवेरे ही बंबई की सैर के लिए होटल सी व्यू से निकल पड़ा । होटल के कर्मचारियों को पारसी साहब का वो कदम एकदम स्वाभाविक लगा । आखिर साहब को कार्यकारी दिनों में तो अपने व्यापार का ख्याल करना पड़ता था जिसके सिलसिले में कि वो वहां आया था ।
विमल ने फिरोजा और दोनों बच्चों को चर्चगेट यतीमखाने में छोड़ा और स्वयं कोलीवाड़े केशवराव भौंसले के यहां पहुंचा ।
भौंसले उस घड़ी ऑफिस जाने के लिए बस निकल ही रहा था ।
विमल के पारसी बहुरूप पर उसने कोई हैरानी जाहिर न की । न‍ सिर्फ हैरानी जाहिर न की बल्कि उसे देखते ही बोला - “कल तुम्हारा काम नहीं हो सका । आज जरूर हो जाएगा ।”
विमल हकबकाया ।
“कैसे जाना ?” - वह बोला ।
“क्या ?” - भौंसले बोला ।
“कि मैं परसों रात वाला वही मुसलमान हूं जो...”
“अंदाजा लगाया ।”
“बल्ले !”
“तुम” - वह दबे स्वर में बोला - “सोहल हो ।”
“बड़ी गारंटी से यह बात कह रहे हो, केशवराव !”
“मैंने चैक किया ।”
“क्या ? कैसे ?”
“परसों तुम जिस गिलास में चाय पीकर गए थे, मैंने उस पर से तुम्हारे फिंगर प्रिंट्स उठाए थे और हैडक्वार्टर जाकर उनका सोहल के फिंगर प्रिंट्स से मिलान किया था । फिंगर प्रिंट्स हूबहू मिलते थे ।”
“फिर भी मुझे गिरफ्तार करा के ढाई लाख का इनाम हासिल करने की कोशिश नहीं की ?”
“मैंने ख्याल तक नहीं किया ।”
“क्यों ?”
“मेरी बेटी कहती है तुम कोई बुरे आदमी नहीं हो । तुम कोई बुरे आदमी हो ही नहीं सकते ।”
“मैं खूनी हूं । डकैत हूं ।”
“वो कहती है तुम कोई देवता हो, अवतार हो, पीर पैगम्बर हो, और तुम्हारे गुनाह, तुम्हारे बुरे काम भी तुम्हारी कोई लीला है जिसमें सृष्टि की कोई भलाई है ।”
“वो है कहां ?”
“अपने घर गई । कल रात मैं खुद उसे छोड़कर आया । पैसा भी दे आया ।”
“दामाद खुश हो गया तुम्हारा ?”
“खुश तो हो गया, लेकिन मेरी शराफत पर नहीं, मेरी दयानतदारी पर नहीं, अपनी नीचताई की कामयाबी पर । वो छोकरा समझता है कि मैं कोई रिश्वतखोर पुलिसिया हूं जिसने लाखों रुपया दबाकर रखा हुआ है । रुपया लेते वक्त मैंने उसकी आंखों में लालच और बेहयाई की साफ चमक देखी थी । वो फिर रुपया मांगेगा ।”
“नहीं मांगेगा ।”
“वो जरूर मांगेगा । वो मेरी लड़की के साथ बदसलूकी भी करेगा ।”
“केशवराव, वो काशीबाई के पांव धो-धो के पिएगा । वो खुद को खुशकिस्मत जानेगा कि उसे काशीबाई जैसी बीवी मिली ।”
“तुम्हारी बातें मेरी समझ से बाहर हैं ।”
“नाम क्या है उसका ?”
“मधुकर । मधुकर झेंडे ।”
“करता क्या है ?”
“कारपोरेशन में क्लर्क है ।”
“व्यापार क्या करना चाहता है ?”
“कोई भी नहीं । व्यापार मेरे से रुपया ऐंठने का बहाना था । रुपया उसे व्यापार के लिए नहीं ऐय्याशी के लिए चाहिए ।”
“रहता कहां है ?”
केशवराव ने धोबी तालाब का एक पता बताया ।
“अब ये बताओ” - विमल बोला - “कि कल काम क्यों नहीं हुआ ? जब चाय के गिलास से उठाए फिंगर प्रिंट्स रिकार्ड में से निकाल सकते थे तो...”
“तब उनकी रिकार्ड में जगह लेने के लिए दूसरे फिंगर प्रिंट्स मेरे पास नहीं थे ।”
“वो कहां से आएंगे ?”
“आ जाएंगे । रोज ही कोई-न-कोई नया अपराधी हैडक्वार्टर में बुक किया जाता है । ऐसे अपराधी के फिंगर प्रिंट्स रिकार्ड करने के लिए उसे मेरे पास भेजा जाता है । मैं ऐसी किसी अपराधी के फिंगर प्रिंट्स के दो सैट बना लूंगा । एक सैट मैं उसी के रिकार्ड में रहने दूंगा और दूसरे सैट को तुम्हारे रिकार्ड की जगह रखकर असली रिकार्ड को नष्ट कर दूंगा ।”
“ओह !”
“आजकल नई दिल्ली से होम मिनिस्ट्री के किसी खुफिया महकमे के कुछ जासूस हमारे यहां आए हुए हैं । वो कोई-न-कोई रिकार्ड चैक करने के लिए फिंगर प्रिंट्स डिपार्टमेंट में घुसे ही रहते हैं । कल तो कहीं से एक रेलिंग ही उखाड़कर ले आए थे जिस पर से वो खुद उंगलियों के निशान उतार रहे थे । पता नहीं किस फिराक में हैं वो लोग ?”
“तुमने पूछा नहीं ?”
“बात तो चलाई थी अपने साथ काम करने वालों के बीच । ज्यादा कोई कुछ नहीं जानता लेकिन कोई कह रहा था कि सी.बी.आई. में एक नया संगठन एंटी टैरेरिस्ट स्क्वायड के नाम से बना था । वो लोग उसी से संबंधित थे ।”
“बंबई में टैरेरिस्ट कहां से आ गए ? इधर तो उग्रवादियों का कोई आतंक नहीं !”
“पता नहीं क्या माजरा है ! बहरहाल आज छुट्टी का दिन है इसलिए मुझे उम्मीद है कि आज हैडक्वार्टर में मेरे महकमे में उनकी आवाजाही नहीं होगी ।”
“अगर आज कोई नया अपराधी बुक न हुआ तो ?”
“तो मैं कोई और तरकीब कर लूंगा । तुम निश्चिंत रहो । आज तुम्हारा काम जरूर होगा ।”
“ठीक है फिर ।”
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
सुबह दस बजे श्याम डोंगरे इकबालसिंह के सुइट में उसके सामने पेश हुआ ।
इकबालसिंह तभी ब्रेकफास्ट करने बैठा था । चिकन सूप, लिवर किडनी अनियन, कीमा परांठा और कॉफी का आनंद लेते हुए उसने अपने सिपहसालार से रिपोर्ट हासिल की । अयूब पहलवान का हश्र सुनकर वह खुश हुआ । चांदनी की मौत की खबर सुनकर वह सकपकाया ।
“लड़की कैसे मर गई ?” - वह बोला ।
“अभी ठीक से पता नहीं ।” - डोंगरे बोला - “भौमिक को मैंने दादर भेजा है । वो लौटेगा तो मालूम होगा सारा किस्सा सही तरीके से ।”
“उसकी मौत में कोई भेद हो सकता है ?”
“उम्मीद तो नहीं । सितोले खुद उसे क्लब से उसके फ्लैट तक छोड़कर आया था और चौकीदार डाकी के हवाले करके आया था । मुमकिन है बारिश में भीगी बाल्कनी के फर्श पर से उसका पांव फिसला हो और वह रेलिंग से उलटकर नीचे आ गिरी हो ।”
“इतने खराब मौसम में इतनी रात गए वो बाल्कनी पर क्यों निकली ?”
“होगी कोई वजह ! सो नहीं पा रही होगी ! बारिश का नजारा करना पसंद करती होगी ।”
“यह हो सकता है, वह खुद न गिरी हो, किसी ने उसे बाल्कनी से धक्का दिया हो ।”
“कोई बाल्कनी में छुपा बैठा हो ?”
“हां ।”
डोंगरे ने इनकार में सिर हिलाया ।
“बाहर से बाल्कनी तक पहुंचना नामुमकिन है । वो इमारत कुछ ऐसी ही बनी हुई थी कि कोई आदमजात तो बाहर से छठी मंजिल की बाल्कनी तक पहुंच नहीं सकता ।”
“कोई फ्लैट में घुस आया हो ?”
“खुद चांदनी की मदद के बिना यह मुमकिन नहीं ।”
“कोई चांदनी की राजी से फ्लैट में मौजूद हो ?”
“ऐसा हुआ होगा तो डाकी को उसकी खबर होगी । भौमिक को लौटने दीजिए, सब मालूम हो जाएगा ।”
“ठीक है । चैम्बूर की क्या खबर है ?”
“अभी तक तो सोहल वहां पहुंचा नहीं ।”
“पहुंचा होता तो तेरे को खबर लग जाती ?”
“बिल्कुल लग जाती ।”
“तीन दिन गुजर गए, वहां कोई तुका या वागले से मिलने नहीं पहुंचा ?”
“न ।”
“कोई टेलीफोन काल तक नहीं आई ?”
“मतलब की कोई नहीं आई ।”
“हूं ।”
“वहां आती हर काल को रिकार्ड किया जा रहा है । मैंने खुद तमाम रिकार्डिंग सुनी है । हमारे मतलब की कोई काल वहां नहीं आई है ।”
“फोन कौन सुनता है ?”
“पहले हमारी आदमी फिर तुका या वागले, जिसे भी पूछा गया हो लेकिन तब भी हमारा आदमी सारी बात बीच में सुन रहा होता है ।”
“वो लोग फोन पर कोई इशारा-विशारा...”
“नहीं कर सकते । ढाई फिकरों की तो बात होती है । तुका और वागले दोनों को समझा दिया गया हुआ है कि जो कोई भी फोन करे उसे उन्होंने यह कहना है कि वह चैम्बूर में उनके पास आ जाए । इस तरह हम स्क्रीन कर सकते हैं कि आने वाला सोहल है या नहीं, कोई हमारे काम का आदमी है या नहीं ।”
“यूं लोग आ जाते हैं ?”
“कोई आ जाता है, कोई नहीं आता ।”
“जो आए उनमें से कोई हमारे काम का आदमी निकला ?”
“नहीं ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ? क्या खबर फोन करने के बाद जो लोग वहां नहीं पहुंचे उन्हीं में से कोई सोहल हो ! जैसे हम सोहल के नए चेहरे को पहचानते हैं, वैसे हम उसकी नई आवाज को तो पहचानते नहीं !”
डोंगरे ने इनकार में सिर हिलाया ।
“मुंडी मत हिला ।” - इकबालसिंह डपटकर बोला ।
“नहीं पहचानते ।” - डोंगरे हड़बड़ाकर बोला ।
“क्या नहीं पहचानते ?”
“सोहल की नई आवाज ।”
“हां । और फोन पर फोन करने वाले का थोबड़ा दिखाई नहीं देता ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“ऐसे कैसे बीतेगी ?”
डोंगरे से उत्तर देते न बना ।
“जवाब दे, भई । आखिर तू ‘कंपनी’ का सिपहसालार है ।”
“मेरे ख्याल से थोड़ा और इंतजार कर लेते हैं ।”
“इतने दिन तो हो गए ।”
“बाप, तुका की नजरबंदी से कोई नतीजा तभी हासिल हो सकता है जबकि सोहल मुंबई में हो । हमने मुंबई के चप्पे-चप्पे में उसके नए चेहरे की तस्वीरें फैलाई हुई हैं । अगर वो मुंबई में होता तो अब तक हमें कहीं-न-कहीं से उसकी कोई-न-कोई खबर लग गई होती ।”
“यह झूठी तसल्ली है ।”
“जी !”
“तस्वीर से हमने कौन-सा सोहल को पहचान लिया था । उसे आत्माराम के बच्चे को हम दोनों ने देखा था, करीब से देखा था, खूब देखा था । फिर भी सोहल के नए चेहरे की तस्वीर देखते ही मैंने गोली की तरह कहा था कि अरे ! ये तो तुकाराम का भांजा आत्माराम है ?”
“नहीं ।”
“तूने कहा था ?”
“नहीं ।”
“फिर ?”
डोंगरे खामोश रहा ।
“जवाब दे ।”
“बाप, पहचाना तो हमने था । बस जरा मौके पर याद नहीं आया था कि वो सूरत हमने पहले कहां देखी थी ।”
“ऐसे ही औरों को मौके पर याद नहीं आएगा । जब तक याद आएगा तब तक वो सोहल का बच्चा कहीं का कहीं पहुंचा होगा ।”
“तो क्या किया जाए ? उसके बंबई लौट आने की तसदीक होने तक इंतजार न किया जाए ?”
“इंतजार किया जाए लेकिन साथ में कुछ और भी किया जाए ।”
“तो क्या ?”
“वागले को जाने दे ।”
“जी !”
“बड़ी मछली फंसी रहे तो छोटी का नुकसान हम झेल सकते हैं । तुका को बदस्तूर काबू में रख लेकिन वागले को जाने दे । वागले को जाने दे और उसके पीछे बेहद होशियार आदमियों की टीम लगा जो कि साये की तरह उसके साथ लगे रहे । हो सकता है यूं वागले हमें सोहल तक ले जाए...”
“सोहल तक ?” - डोंगरे संदिग्ध स्वर में बोला ।
“या किसी ऐसे शख्स तक ले जाए तो हमें सोहल तक पहुंचाने के मामले में वागले और तुकाराम से ज्यादा फायदेमंद साबित हो सकता हो ।”
डोंगरे सोचने लगा ।
“वागले चैम्बूर में तुका के घर से निकलेगा तो कहीं का तो रुख करेगा ।”
“वो तो है ।”
“यूं उसके सहारे किसी मतलब के ठिकाने पर पहुंचा जा सकता है । वो नहीं पहुंचाएगा तो हम उसे फिर पकड़ लेंगे ।”
“बात तो आपने सही सोची है इस बार ।”
“इस बार !” - इकबालसिंह आंखें निकालकर अपने सिपहसालार को घूरता हुआ बोला ।
“मेरा मतलब है” - डोंगरे बौखलाकर बोला - “बात तो आप हमेशा ही सही सोचते हैं लेकिन इस बात तो आपने कमाल ही कर दिया है । बहुत दूर की कौड़ी लाए हैं आप इस बार ।”
इकबालसिंह मुस्कराया ।
“ठीक है ।” - डोंगरे बोला - “मैं खुद चैम्बूर जाता हूं और जाकर वागले को छोड़ता हूं ।”
“बेवकूफ !”
डोंगरे बौखलाया ।
“यूं उसे छोड़ेगा तो वह जरूर ही हमें कहीं लेकर जाएगा ।”
“तो ?”
“उसको खुद अपनी कोशिश से वहां से रिहा होने का मौका दे । ऐसा इंतजाम कर कि उसे लगे कि उसने बहुत चालाकी, बहुत होशियारी, बहुत सूरमाई दिखाकर उस नजरबंदी से निजात पाई । इस काम को करने में वो हमारे एकाध प्यादे को घायल कर दे या मार भी दे तो कोई बात नहीं ।”
“मैं समझ गया आपकी बात ।”
“डोंगरे, ढील उतनी ही देनी है जितनी पतंग उड़ाने के लिए जरूरी है । डोर हाथ में ही रहनी चाहिए ।”
“ऐसा ही होगा ।”
“कहीं ऐसा न हो कि बाद में खबर लगे कि वहां तैनात हमारे सारे आदमी मारे गए और वह तुका को भी साथ ले गया ।”
“ऐसा नहीं होगा । हरगिज नहीं होगा ।”
“हो गया तो जानता है न तेरा क्या होगा ?”
“जानता हूं ।”
“बढिया ।”
***
“मधुकर झेंडे” - विमल इरफान अली से बोला - “नौजवान लड़का है । ताजी-ताजी शादी हुई है । कारपोरेशन में क्लर्क है । धोबी तालाब में रहता है । यह” - विमल ने उसे एक कागज थमाया - “उसके घर का पता है । इसकी कोई खोज-खबर ले । कोई अता-पता लगा ।”
इरफान में सहमति में सिर हिलाया ।
“ज्यादा संभावना इसके ऐय्याश और बदकार निकलने की है ।”
“मैं सब पता लगा लूंगा ।”
“जल्दी ।”
“आज इतवार होने की वजह से कोई अड़चन न आई तो बहुत जल्दी ।”
“गुड ।”
***
रात आठ बजे एक काली एम्बेसेडर दादर मेन रोड पर स्थित चांदनी के फ्लैट वाली आठ मंजिली इमारत के सामने आकर रुकी । कार खुद श्याम डोंगरे चला रहा था । कार की पिछली सीट पर इंदौरी और भौमिक बैठे थे ।
श्याम डोंगरे ने हॉर्न बजाया ।
भीतर कहीं से निकलकर इमारत का नाइट वाचमैन डाकी इमारत के मुख्य द्वारा पर प्रकट हुआ ।
डोंगरे ने फिर हॉर्न बजाया ।
डाकी कार के करीब पहुंचा ।
डोंगरे ने एक बार कार की डोम लाइट जलाकर बुझा दी ताकि डाकी को उसकी सूरत दिखाई दे जाती ।
“सलाम, साब ।” - डाकी तत्काल बोला ।
“कैसा है, डाकी ?” - डोंगरे मीठे स्वर में बोला ।
“बढिया, साब ।”
“जरा गाड़ी में बैठ ।”
“साब, इधर दरवाजे पर...”
“पांच मिनट में दरवाजे को डाकू नहीं पड़ते । चल, बैठ ।”
डाकी झिझकता हुआ आगे डोंगरे के पहलू में गाड़ी में बैठ गया ।
डोंगरे ने गाड़ी दादर सी फेस की दिशा में दौड़ा दी ।
“किदर चल रहे हैं, साब ?” - डाकी तनिक व्यग्र भाव से बोला ।
“किदर बी नेईं ।” - डोंगरे बोला - “यूं ही जरा तेरे से बात करने का है ।”
“क्या बात, साब ?”
“ये ही जरा चांदनी मेमसाहब की मौत की बात !”
“मौत की क्या बात, साब ?”
“कितना पैसा मिला ?”
“प-पैसा ?”
“रोकड़ा । नावां-पत्ता । रुपया । कितना मिला ? कितने में बिका तू ?”
“साब, साब । आप क्या कह रहे हैं । आप क्या...”
गाड़ी चलाते-चलाते ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ डोंगरे ने डाकी के चेहरे पर रसीद किया । थप्पड़ ऐसा वेगवान था कि डाकी को अपनी गरदन फिरकनी की तरह घूमती महसूस हुई ।”
“कैसे ?” - डोंगरे खूंखार स्वर में बोला - “कैसे घुसाया दुश्मन के आदमी को चांदनी मेमसाहब के फ्लैट में ? अपने मुंह से बक ।”
“साब ।” - डाकी आतंकित भाव से बोला - “मैंने नहीं...”
“तेरे अलावा कोई दूसरा जना ये काम नहीं कर सकता था, हरामजादे । और झूठी फरियाद से तेरी जानबख्शी नहीं होने वाली । सच बोल सच ।”
“साब, मैं सच बोलता हूं । मैंने कुछ नहीं किया ।”
“चांदनी मेमसाब खुद अपने फ्लैट की बाल्कनी से नहीं गिरी, गिराई गई । मालूम ?”
“नहीं । नहीं मालूम ।”
“तो अब मालूम कर । किसी ने चांदनी मेमसाहब को उठाकर बाल्कनी से नीचे फेंका । वो कुत्ते का पिल्ला, वो कातिल बाल्कनी में कैसे पहुंचा ? किदर से पहुंचा ? बाहर से छठी मंजित की बाल्कनी में पहुंचना नामुमकिन है । ये तो मालूम ?”
“ये तो मालूम ।” - डाकी को कबूल करना पड़ा ।
“मालूम तो बोल कातिल बाल्कनी में कैसे पहुंचा ? अपने मुंह से बोल कि फ्लैट के भीतर से पहुंचा । और फ्लैट के भीतर उसे तूने पहुंचाया ।”
“नहीं । मैं नहीं, साब । साब, वो पहले से ही उदर होएंगा ।”
“पहले से उदर होएंगा ?”
“हां, साब ।”
“सितोले साब तेरे को बोला कि तेरे को चांदनी मेमसाहब को साथ जाने का था, और फ्लैट के तमाम खिड़कियां, दरवाजे, कुंडे, ताले, चिटकनियां खुद चैक करके आने का था ? सितोले साहब तेरे को बोला कि वो सब तसल्ली तेरे को खुद करके ही उदर से आने का था ? बोल, बोला कि नहीं बोला ?”
“बोला ।”
“तो फिर कातिल पहले से ही उदर कैसे होएंगा ? तू अंधा है ? अंधा है भी तो ऐसा जिम्मेदारी का काम अपने सिर काहे लिया ?”
डाकी के मुंह से बोल न फूटा ।
डोंगरे ने फिर एक झांपड़ उसके मुंह पर रसीद किया । इस बार डाकी का होंठ कट गया और उसमें से खून बहने लगा ।
“कितने में बिका ?” - डोंगरे दहाड़ा ।
“साब, मुझे मजबूर किया गया था” - डाकी एकाएक बच्चे की तरह बिलखने लगा - “जान की धमकी दे के मजबूर किया गया था ।”
“मंजूर । जान की धमकी के साथ रोकड़ा कितना मिला ?”
“द-दस हजार ।”
“मेरे पास काहे नहीं आया ?”
“मैं डर गया था ।”
“क्या किया था तूने ?”
“मैंने एक आदमी को फ्लैट में घुसाया था और उसे बाल्कनी के दरवाजे की डुप्लीकेट चाबी दी थी ।”
“शाबाश !”
“साब, मेरे को नहीं मालूम था कि वो आदमी चांदनी मेमसाब को मार डालना चाहता था ।”
“तू क्या सोचा था ? वो आदमी चोरी-छुपे चांदनी मेमसाब की आरती उतारना चाहता था ?”
डाकी के मुंह से बोल न फूटा ।
“कौन था वो आदमी ?”
“मेरे को नहीं मालूम ।”
डोंगरे का खुला हाथ डाकी के पहले से ही लहूलुहान थोबड़े से टकराया ।
“मेरे को नहीं मालूम, साब ।” - डाकी ने आर्तनाद किया - “मेरे को नहीं मालूम ।”
“वो नवां आदमी थी ?”
“हां, साब ।”
“वो वो आदमी नेईं था, जो तेरे को खरीदा ? तेरे को रोकड़ा दिया ?”
“नहीं था, साब ।”
“वो आदमी कौन था ? कौन तेरे से बातचीत किया ? कौन तेरे को रोकड़ा दिया ? वो तो मालूम ?”
“हां, साब । वो तो मालूम ।”
“कौन था वो ?”
“भट्टी साब था, साब ।”
“कौन भट्टी साब ? शमशेर भट्टी साब ?”
“हां साब ।”
“तू भट्टी साब को कैसे जानता है ?”
“वैसे ही जैसे आपको जानता हूं, साब ।”
“मेरे को तो तू इसलिए जानता है क्योंकि मैं चांदनी मेमसाहब के पास आया करता था । क्या भट्टी भी चांदनी मेमसाहब के पास आया करता था ?”
“नहीं, साब ।”
“तो ?”
“साब, भट्टी साब भी आपकी तरह.. .आपकी तरह...”
“हां-हां । क्या मेरी तरह ?”
“बड़ा मवाली था ।”
“ओह !” - डोंगरे के मुंह से निकला । एक क्षण के लिए वह खामखाह इस ईर्ष्या से सुलग उठा था कि चांदनी शमशेर भट्टी को भी हासिल थी ।
फिर रियरव्यू मिरर में उसकी निगाह भौमिक से मिली । डोंगरे ने आंख का हल्का-सा इशारा किया तो एक मजबूत तार डाकी के गले के गिर्द आकर गिरी जिसके दोनों सिरे भौमिक तब तक पूरी शक्ति से उमेठता चला गया जब कि बुरी तरह से तड़पने लगे डाकी के प्राण-पखेरू न उड़ गए ।