सूरज डूब चुका था, वातावरण में अन्धेरा छा चुका था जबकि मलाड में स्थित दिवंगत बैकुण्ठराव अचरेकर द्वारा संस्थापित चालीस साल पुराने विधवा आश्रम के करीब इरफान ने कार रोकी ।
“जा के पता कर ।” - पिछली सीट पर बैठा बेचैन और संजीदासूरत विमल बोला ।
सहमति में सिर हिलाता इरफान कार से निकला और आश्रम की इमारत में दाखिल हुआ ।
पीछे खामोश बैठा विमल पाइप के कश लगाता रहा ।
तमाम दिन गुजर गया था लेकिन नीलम और सूरत की कोई खोज खबर नहीं थी, उनकी बाबत होटल में कोई फोन, कोई फैक्स, कोई सन्देशा नहीं आया था, कैसी भी कोई कम्यूनीकेशन उस बाबत किसी ने नहीं हुई थी ।
जो कि हैरान ही नहीं, हलकान करने वाली भी बात थी ।
दुखु सुखु तेरे भाणै होवै, किस थै जाय रुआइये ।
इरफान वापिस लौटा ।
विमल ने सिर उठा कर प्रश्नसूचक निगाह से उसकी तरफ देखा ।
“हैं ।” - वो बोला - “ऑफिस में बैठे हैं ।”
“पास कोई है ?” - विमल ने पूछा ।
“नहीं । मैंने बोला है कौन आया है इसलिये तेरा ही इन्तजार कर रहे हैं ।”
“नहीं बोलना था ।”
“अब तो बोल दिया ।”
विमल ने पाइप बुझाया और उसे कार में ही सीट पर रख दिया ।
“तू इधर ही ठहर ।” - वो कार से बाहर निकलता बोला ।
“पण....”
“इधर ही ठहर । गाड़ी में बैठ ।”
“अच्छा ।”
विमल इमारत में दाखिल हुआ ।
आश्रम का ऑफिस विमल का देखा भाला था । वहां उसने कोई फर्क पाया तो ये कि एक दीवार पर स्वतन्त्रता सेनानी, गान्धीवादी, सर्वोदय आन्दोलन कार्यकत्ता बैकुण्ठराव अचरेकर की चन्दन का हार चढी तसवीर लगी हुई थी और उनकी कुर्सी पर आश्रम के वर्तमान संचालक पंडित भोजराज शास्त्री विराजमान थे ।
“प्रणाम, भगवन् ।” - विमल विनम्र स्वर में बोला ।
“आइये ।” - शास्त्रीजी स्वागतपूर्ण भाव से बोले - “बिराजिये ।”
“धन्यवाद ।” - विमल उनके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया - “आप मुझे जानते तो न होंगे ?”
“जानते हैं । जिक्र से जानते हैं, प्रत्यक्ष मुलाकात का सौभाग्य अब प्राप्त हो रहा है ।”
“मैं एक अधम इंसान हूं, मेरे से मुलाकात सौभाग्य की बात कैसे हो सकती है ?”
“तुम एक परोपकारी पुरुष हो, गरीब बेसहरा लोगों का आसरा बनना जिसका मिशन है । ऐसा पुरुष अधम कैसे हो सकता है ?”
“मैं खुदा का गुनहगार बन्दा हूं जो अपने बनाने वाले से अपने गुनाह बख्शवाने का तमन्नाई है ।”
“अव्वल तो गुनाह करना नहीं चाहिये, हो जाये तो उसको बख्शवाने का तमन्नाई तो गुनहगार को होना ही चाहिये । उसका ऐसी तमन्ना करना, उसकी कमतरी नहीं, उसका बड़प्पन है । पश्चाताप गुनाह की कालख को धो देता है ।”
“मैं पापी तू बख्शनहार ।”
“सतबचन ।” - शास्त्रीजी एक क्षण ठिठके और बोले - “अचरेकर जी अक्सर तुम्हारा जिक्र करते थे कि जब तुम पहली बार यहां आये थे तो कैसे एक महाअंहकारी, दुराचारी की तरह असुरी जुबान बोलते हुए आये थे लेकिन जब तुमने अपने चेहरे पर से दुनियादारी की झूठी नकाब सरक जाने दी थी तो कैसे नीचे से मोहमाया से मुक्त साधुजनों जैसी सूरत प्रकट हुई थी । वो तुम्हारी तुलना महर्षि वाल्मीकि से करते थे ।”
“अचरेकर जी महान थे, जिन्होंने आश्रम की डेढ सौ माइयों की सुरक्षा के लिये अपनी शहादत दी, पाप की इस नगरी के सबसे बड़े अत्याचारी के सामने शीशे से खुद अपना गला चीर कर आत्महत्या कर ली । ऐसी कुर्बानी । ऐसा त्याग ! ऐसा परोपकार ! ख्याल करके दिल हिलता है ।”
“कैसे आये ?”
“स्वार्थ से आया, भगवन् । शान्ति की तलाश में आया । चित्त चलायमान है । नहीं टिकता । अप्रसन्न है । नहीं बहलता ।”
“किसी स्वजन का वियोग सताता है ।”
“कैसे जाना, भगवन् ?”
“तुम्हारे चेहरे से झलकते संताप से जाना । मस्तक की रेखाओं को पढ कर जाना कि कोई अपना बिछुड़ गया । लेकिन ये बिछुड़न वक्ती है । बहुत जल्दी बिछुड़े मिलेंगे ।”
“सच, भगवान ?”
“हां । लेकिन एक बात याद रखो । जिसको मोह माया ज्यादा सताती है, वो ज्यादा संतप्त होता है । जितनी बड़ी आशा को कोई आसरा देता है, उतनी ही बड़ी निराशा पल्ले पड़ने की सम्भावना होती है । जो जितना ऊंचा उड़ता है उतनी ही ऊंचाई से गिरने का उसे खतरा होता है । इसलिये इच्छाओं पर, आशा तृष्णाओं पर अंकुश रखना चाहिये, उन्हें आपे से बाहर नहीं होने देना चाहिये । दुख की घड़ी का भी उतनी ही बहादुरी से मुकाबला करना चाहिये जितनी उमंग से आप सुख की घड़ी का भोग करते हैं । जैसे कोई सुख स्थायी नहीं, वैसे ही कोई दुख भी स्थायी नहीं । सब दुख दूर होंगे, बेटा । सब दुख दूर होंगे, फिर भी ये कहना आवश्यक है कि ये संसार एक नित्य जलते हुए घर के समान है जहां सुख की कल्पना भी करना अपराध है । भौतिक सुख की कल्पना और अभिलाषा तो और भी घोर अपराध है । भौतिक सुख का दानव मेहमान बन कर दबे पांव घर में घुसता है, फिर मेजबान बन जाता है, फिर मालिक बन जाता है । आंग्ल भाषा के कवि की जुबान में कहे तो हम आगे इस बात को यूं कहेंगे - वेट, युअर वेटिंग विल नॉट बी इन वेन, टाइम गिल्ड्स विद गोल्ड दि आयरन लिंक्स ऑफ पेन; दि डार्क टुडे लीड्स इन टु लाईट टुमारो, देयर इज नो ऐंडलैस जॉय नो ऐंडलैस सारो ।”
“वैरी वैल सैड ।”
“मानवीय जीवन में जो कुछ बीतता है, वो सभी उसकी पसन्द का हो, ऐसा नहीं हो सकता । हम जीवन की तुलना सर्कस से करते हैं, मनोरंजन के लिये जिसका आप शो देखने जाते हैं लेकिन तमाम की तमाम आइटमें आपको पसन्द नहीं आ जातीं । कुछ पसन्द आती हैं तो कुछ को आप झेल लेते हैं और कुछ से आप इतना बोर होते हैं कि उठ कर सिगरेट वगैरह कुछ क्षण आपके लिये वाह वाह होते हैं, कुछ से आप कम्प्रोमाइज करते हैं और कुछ ऐसे नाकाबिलेबर्दाश्त साबित होते हैं कि रोने को जी चाहता है । लेकिन जीवन अपनी रफ्तार से चलता है, काल का पहिया घूमता रहता है । कई मुसाफिर पीछे छूट जाते हैं, कई नये मिल जाते हैं । तुम्हारे साथ ऐसा क्या बीत सकता है जो पहले कभी किसी के साथ नहीं बीता ! सुख पाया तो क्या सिर्फ तुमने पाया ? दुख पाया तो क्या सिर्फ तुमने पाया ? प्रियजनों का बिछोह क्या सिर्फ तुम्हें झेलना पड़ा ? हर काम के होने का एक वक्त होता है और वो अपने वक्त पर होकर रहता है । होनी को कोई नहीं टाल सकता । तुम कहते हो तुम्हारे मन को चैन नहीं । चैन पाना चाहते हो तो चैन की तलाश में न निकलो, अपना कर्म करो, रचनात्मक कार्यों में रुचि लो, चैन खुद तुम्हें तलाश कर लेगा ।”
विमल का सिर सहमति में हिला ।
“चैन उस अहसास का नाम है जिसे आप तब महसूस करते हैं जब आपके पास बेचैन होने का वक्त नहीं होता ।”
“हूं ।”
“जीवन में छोटी छोटी बातें ज्यादा परेशान, ज्यादा हलकान करती हैं । हम हाथी से बच सकते हैं, मक्खी से नहीं बच सकते ।”
“प्रियजन का वियोग छोटी बात तो नहीं, भगवन् ।”
“जब वियोग अस्थायी हो तो छोटी बात है । दुख सुख तुलनात्मक होते हैं । जो दुख बड़ा लगता है वो जब और बड़ा दुख आता है तो उसके सामने छोटा लगने लगता है । टांग कट जाना बड़ा दुख है लेकिन सिर कट जाने से बड़ा दुख नहीं । दुख सुख छोटे बड़े नहीं होते, हमारी सोच, हमारी बर्दाश्त, हमारी किसी खास वक्त की मानसिक स्थिति उन्हें छोटा बड़ा बनाती है । दुख संताप आता दिखाई देता है, सुख की, खुशी की अक्सर शिनाख्त करनी पड़ती है । कईं बार सुखकारक क्षण छू कर गुजर जाते हैं, हमें उनकी खबर नहीं लगती । आपकी जिन्दगी में खुशी अक्सर ऐसा दरवाजे से दाखिल होती है, जिसकी आपको खबर भी नहीं होती कि आपने खुला छोड़ा हुआ है ।”
“सही फरमाया, प्रभू ।”
“असैप्ट पेन एण्ड डिसअप्वायन्टमेंट ऐज पार्ट ऑफ लाइफ । वेदना, वियोग, निराशा सब जीवन का अंग है इसलिये स्वीकार्य होना चाहिये । संसार तुम नहीं चलाते, बेटा । तुम्हारे पैदा होने से पहले भी यहां बहुत कुछ हो चुका था और मर जाने बाद भी बहुत कुछ होगा । जिन्दगी वो रास्ता है जिस पर से हर कोई एक ही बार गुजरता है इसलिये अगर कोई किसी का भला कर सकता है, किसी पर दया दिखा सकता है तो ऐसा उसने अभी करना है क्योंकि इस रास्ते से वो दोबारा नहीं गुजरने वाला । जेनुइन परोपकारी पुरुष परोपकार करता है तो ऐंठ नहीं जाता कि परोपकार करके उसने बड़ा तीर मारा । क्यों ? क्योंकि वो जानता है कि सज्जन पुरुष ईश्वर के एजेन्ट होते हैं जिन्हें वो अपनी पावर्स डेलीगेट करता है, सद्कार्य के लिये निमित्त बनाता है ताकि जो वो चाहता है, वो हो सके । हम उसकी इच्छा के आगे नतमस्तक हैं ।”
“राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रजा है ।”
“बिलकुल । इसी बात को तुम्हारी जुबान में यूं कहा गया है - जिव तिसु भावे तिवे चलावे, जिव होवै फरमानु ।”
विमल ने विस्मय से उसकी तरफ देखा ।
“हैरानी हो रही है” - शास्त्रीजी मुस्कराते हुए बोले - “कि हमने तुम्हारा धर्मग्रन्थ भी पढा है !”
“जी !”
शास्त्रीजी फिर मुस्कराये ।
“आप वाकिफ है मेरी हकीकत से ? जानते हैं मैं कौन हूं ?”
“जानने लायक जानते हैं ।”
“क्या ?”
“तुम वो परोपकारी पुरष हो जो यहां की डेढ सौ विधवा माइयों को डेढ सौ कम्बल मुहैया कराने में निमित्त बने । इससे ज्यादा कुछ जानते होना स्वीकार हम नहीं कर सकते ।”
असहाय भाव से गर्दन हिलाता विमल खामोश हो गया ।
“दो दिन ऐसे होते हैं” - शास्त्रीजी फिर संजीदा होकर बोले - “जिनमें किसी को कभी कोई फिक्र नहीं करनी चाहिये । वो हैं बीता हुआ कल और आने वाला कल । जो हो चुका, अच्छा हुआ, जो होगा, अच्छा होगा । जो हो रहा है, वो तो अच्छा हो ही रहा है ।
“दुरुस्त ।”
“तुम्हारा मन संतप्त है, ईश्वर का नाम लो । तुम्हारा चित्त प्रसन्न है, ईश्वर का नाम लो । परमेश्वर ते भुलियां व्यापन सभे रोग । ईश्वर का नाम लेना बिजली का स्विच ऑन करने के समान है । स्विच बिजली नहीं बनाता, वो रूट बनाता है जिससे बिजली प्रवाहित होती है । सुखमनी साहब का जाप करते हो ?”
“कभी कभी ।”
“मारे राखे ऐको आप, मानुख को कुछ नांही हाथ । ...जिस राखे तिस कोउ न मारे, सो मुआ जिस मन बिसारे । ...जो जो होई सोई सुख माने, करन करावन हार प्रभ जाने । ...मन बेचे सतगुरु के पास, तिस सेवक के कारज रास ।
विमल का सिर स्वयंमेव सहमति में हिला ।
“हम नाहक उपदेशक बन बैठे ।” - शास्त्रीजी के चेहरे पर फिर मुस्कराहट आयी - “ज्ञानी को ज्ञान की कोशिश करने लगे । लेकिन अब जब ये गुस्ताखी कर ही बैठे हैं तो एक आखिरी बात और कहना चाहते हैं ।”
“कहिये । जरूर कहिये ।”
“इंसान जब इस दुनिया में कदम रखता है तो उसके पास क्या होता है ?”
“कुछ नहीं ।”
“और जब रुख्सत होता है तो ?”
“कुछ नहीं ।”
“फिर भी कुछ होता है तो दो गज कफन का टुकड़ा जो कि उसकी अंतिम यात्रा में उसका आखिरी लिबास होता है । लेकिन कफन में तो जेबें नहीं होतीं । या होती हैं ?”
“नहीं होतीं ।”
“कुछ साथ न लाये, कुछ साथ ले जा न सके । बीच का हासिल तो फिर क्लियर प्राफिट हुआ । बिना इनवेस्टमेंट के क्लियर प्राफिट हुआ । ऐसा प्राफिट हाथ से निकल जाये तो अफसोस कैसा ? जो कमाया, वो ही तो खोया । इनवेस्टमेंट तो सेफ है ।”
“इनवेस्टमेंट ?”
“कर्म । कर्म है इनवेस्टमेंट जिसके फल की चिन्ता ‘उस’ ने करनी है । सदकर्म का सद्फल । दुष्कर्म का दुष्फल । इट इज ऐज इजी ऐज दैट । जो बोया सो काटा । तुम्हें लगता है तुम्हारे दुष्कर्म बहुत हैं लेकिन सद्कर्म क्या कम हैं ? भगवान की लैजर में सब दर्ज होता है, जब बैलेंस शीट निकाली जायेगी तो वो प्राफिट दिखायेगी क्योंकि दुष्कर्मों से जो खोया उस पर सद्कर्मों से जो पाया वो हावी होगा ।”
“भगवन् ! बहुत चैन पा रहा है मेरा मन आपकी बातों से ।”
“अचरेकर जी कहा करते थे कि कोई अपनी दौलत अपनी छाती पर रखकर नहीं ले जा सकता लेकिन अपने से पहले भेज सकता है । दान वो तरीका है जिससे आपकी दौलत, आपको पुण्यों की कमाई आपके पहुंचने से पहले भगवान के घर पहुंची होती है । आपके लिये । आप ही के लिये ।”
“सतवचन, महाराज ।”
“चिन्ता ता की कीजिये, जो अनहोनी होय; अनहोनी होनी नहीं, होनी हो तो होय ।”
“मेरी चिन्ता अनुचित है ?”
“अगर समझो तो ।”
“अनजाने में में शेर सवारी कर बैठा हूं, अब न चढे रहते बनता है, न उतरते बनता है, ये चिन्ता भी व्यर्थ है कि चढा रह नहीं सकता, उतरूंगा तो शेर खा जायेगा ?”
“हमारा जवाब फिर वही है । अगर समझो तो ।”
“कैसे समझूं ? आजिज आ गया हूं मैं ऐसी जिन्दगी से । निजात चाहता हूं ।”
“शेर सवारी अगर तुम्हारी नियति है तो नहीं पा सकोगे, लाख कोशिशें करके भी नहीं पा सकोगे । लेकिन जब आयेगा तो तुम्हारी बेचैन जिन्दगी में चैन यूं एकाएक आयेगा जैसे रेगिस्तान में एकाएक नखलिस्तान आ जाता है ।”
“आयेगा ?”
“क्यों नहीं आयेगा ? जरूर आयेगा । सब दिन जात न एक समान ।”
“मुझे तो अपने सब दिन एक ही समान जान पड़ते हैं, भगवन् । मैं हूं, शेर है, सवारी है, शेर का भोजन बन जाने का अन्देशा है, बस ।”
“वहम है तुम्हारा । अतीत के पन्ने गौर से पलट कर देखो, कई नखलिस्तान दिखाई देंगे, जिन्हें कि तुम्हारा आकुल मन इस वक्त याद नहीं कर पाता ।”
“हूं । कुछ और कहिये, शास्त्रीजी ।”
“और क्या कहें ?”
“भविष्य की कोई परत उधेड़िये ।”
“भविष्य जानने की लालसा सब में होती है लेकिन जान कर उससे लाभान्वित कोई विरला ही होता है इसलिये भविष्य में झांक पाने की इच्छा को हम अनुचित तो नहीं, अनावश्यक जरूर मानते हैं । फेट इज इनएविटेबल । जब नियति अटल है, जब होनी को कोई टाल नहीं सकता तो भविष्य जान कर हम कौन सा खास करतब कर दिखायेंगे ? हम किसी के लिये भविष्यवाणी करते हैं कि कोई किसी विशेष दिन, उदाहरणतया नये साल के पहले दिन, उत्तर की राह पर चलेगा तो उसको घोर विपति का सामना करना पड़ेगा । वो व्यक्ति अब अपने भविष्य से परिचित है इसलिये ये बात गांठ बांध के रखता है कि फलां दिन उसने फलां काम हरगिज नहीं करना है । रोज वो ये बात दोहराता है ताकि भूल न जाये और उसका अनुपालन न करने के लिये दृढप्रतिज्ञ होता है लेकिन जब वक्त आता है तो वो ही काम सबसे पहले करता है जिसकी कि वर्जना है । करना पड़ता है । परिस्थितियां अपने आप ऐसी बन जाती हैं कि वो वो ही राह पकड़ता है जिस पर कदम न रखने की बाबत वो सुबह दोपहर शाम अपने आपको खबरदार करके रखता था । परिस्थितियों के हवाले राजा परीक्षित ने अश्वमेध यज्ञ के दौरान एक युवा ब्राह्मण का सिर काट दिया था जबकि उसे पूर्वचेतावनी थी कि उसके हाथों से ब्रह्महत्या होगी और अपनी नियति में लिखे उस घटनाक्रम की किसी एक घटना को भी वो नहीं टाल सकेगा जिसके सिरे पर उसे ब्रह्महत्या के घोर पाप का भागी बनना पड़ेगा ।”
“क्या था वो घटनाक्रम ?” - विमल उत्सुक भाव से बोला ।
“लम्बी कहानी है ।”
“मैं सुनना चाहता हूं ।”
“ठीक है । हम संक्षेप में सुनाने की कोशिश करते हैं । एक ज्ञानी पुरुष ने पांडवों के वंशज राजा परीक्षित को उसके भावी जीवन की एक विशेष घड़ी के विशेष घटनाक्रम से - चेन ऑफ इवेंट्स से - अवगत कराया, उनमें से किसी को भी कार्यान्वित करने की उसके लिये वर्जना की लेकिन साथ ही ये भी कहा कि वो उसकी नियति थी इसलिये वो एक को भी टालने में सफल नहीं होगा और परिणामस्वरूप ब्रह्महत्या का भागी बनेगा । उसने राजा को कहा कि फलां तिथि की प्रात: को वो उत्तर दिशा में जायेगा, उधर उसे एक सुन्दर कन्या मिलेगी जिससे वो विवाह रचायेगा, रानी से पटरानी बनायेगा, उसके अनुरोध पर अश्वमेध यज्ञ करेगा जिसमें यज्ञ के घोड़े को तैयार करने की प्रकिया में जब ब्राह्मण मन्त्रोचरण कर रहे होंगे तो वो एक युवा ब्राह्मण का सिर काट देगा । राजा परीक्षित को ये सब बहुत हास्यास्पद लगा । जब उसे मालूम था कि फलां काम उसने नहीं करना था तो वो भला क्यों उसे करेगा ? फिर भी जब निर्धारित दिन आया तो आशंकित राजा महल के भीतरी कक्ष में इस निश्चय के साथ छुप के बैठ गया कि प्रात: काल क्यों, सारा दिन ही वो वहां से बाहर कदम नहीं रखेगा । लेकिन उसने बाहर कदम रखा, परिस्थितियां ऐसी बन गयीं कि उसने बाहर कदम रखा ।”
“क्या हुआ ?”
“अरब का एक सौदागर एक शानदार अरबी घोड़ा लेकर महल के प्रांगण में पहुंचा और लगा घोड़े का गुणगान करने । कहने लगा कि अरब से वहां तक आते उसे घोड़े के सैकड़ों ग्राहक मिले थे लेकिन उसने उनमें से एक को भी घोड़ा बेचना कुबूल नहीं किया था क्योंकि उस घोड़े को वो राजा की सवारी के ही काबिल समझता था । और राजा था कि छुप के बैठ गया था क्योंकि इतने जोशीले घोड़े की सवारी करना उसके बस की बात नहीं थी । राजा को वो ललकार बुरी लगी । उसने सोचा घोड़ा खरीद लेते हैं, सवारी कर लेते हैं उत्तर दिशा में नहीं जायेंगे । राजा ने ऐसा ही किया लेकिन सौदागार फिर ललकारने लगा कि खरीदने से क्या होता है - राजा के पास क्या धन का अभाव होता - सवारी करने से क्या होता है - खड़े घोड़े पर कोई भी सवार हो सकता है - पौरुष तो उसे सरपट दौड़ा कर दिखाने में था । राजा तिलमिला गया, उसने घोड़े को एड़ लगायी तो उसने ऐसी तूफानी रफ्तार पकड़ी कि राजा से काबू करते न बना, घोड़ा स्वयंमेव ही उत्तर दिशा में भाग निकला तो राजा ने ये सोच कर अपने आपको तसल्ली दी कि उत्तर दिशा में ही तो जा रहे हैं, उधर कोई युवती मिलेगी तो क्यों हम उससे विवाह रचाने बैठ जायेंगे । युवती मिली, वो ऐसी अद्वितीय सुंदरी निकली कि राजा देखते ही मोहित हो गया और ये सोच कर विवाह के लिये मचलने लगा कि सुन्दरी को रानी बनायेंगे, पटरानी नहीं बनायेंगे । लेकिन सुन्दरी विवाह के लिये तैयार ही पटरानी बनाये जाने की शर्त पर हुई । राजा ने इस तसल्ली के साथ फिर वो कदम उठाया कि पटरानी तक ठीक है, अश्वमेध यज्ञ नहीं रचायेंगे । सुन्दरी बाला पटरानी बन गयी । फिर करने लगी चक्रवर्ती राजा का पराक्रम तो अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ने से ही स्थापित होता था जिसे कि पकड़ने की किसी की मजाल नहीं होती थी । यूं राजा के पराक्रम और पौरुष को ललकारा गया तो वो अश्वमेध यज्ञ के लिये भी ये सोच कर तैयार हो गया कि मैं क्या पागल हूं जो यज्ञ के दौरान किसी ब्राह्मण का सिर काट टूंगा । भला क्यों करुंगा मैं ऐसा ?”
“किया उसने ?”
“हां, किया । नियति ने कराया ।”
“कैसे ?”
“अश्वमेध यज्ञ के दौरान ब्राह्मणों के मन्त्रोचारण के बीच रानी घोड़े को पवित्र जल से स्नान कराती है । स्नान कराती रानी ने जब घोड़े का लिंग पकड़ा तो वो दृश्य देख कर ब्राह्मण मंडली में मौजूद एक युवा ब्राह्मण की हंसी छूट गयी कि देखो, इतने बड़े राजा की रानी थी और घोड़े का लिंग पकड़ रही थी । राजा परीक्षित को तत्काल सूझा कि युवा ब्राह्मण क्यों हंस रहा था ! क्रोध ने उसके विवेक पर पर्दा डाल दिया । उसने अपना खड़ग निकाला और युवा ब्राह्मण का सिर काट दिया । यूं वो ब्रह्महत्या का भागी बना और कोढी हुआ ।”
“ओह !”
“अब बोलो, भविष्य को जान कर उसके हाथ क्या आया ? नियति को तो वो न टाल सका । उसकी प्रारब्ध में जो होना लिखा था, वो तो होकर रहा । पूर्वचेतावनी होने के बावजूद होकर रहा । कैसी विडम्बना है ? लोग जानते हैं नियति अटल है फिर भी भविष्य को जानना चाहते हैं । क्या इसलिये कि जिस चिन्ता, आशंका, उत्कंठा ने उन्हें अगले हफ्ते, अगले महीने, अगले साल सताना है, वो आज ही, बल्कि अभी, सताना शुरू कर दे ? जो बुरा होना है, वो तो होते होते होगा लेकिन उसकी प्रत्याशा में, ऐंटीसिपेशन में, अधमरे आप अभी हो जायेंगे ।”
“भगवन्, गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज कर रहा हूं, ऐसी पर बात अधमरा करने वाली ही तो नहीं होती, कोई बात उलटे अधमरे हुए हुए में प्राण फूंकने वाली भी तो होती है । जैसे कि मेरा साथ तब हुआ जब आपने कहा कि स्वजनों से मेरी बिछुड़न वक्ती है, बहुत जल्द बिछुड़े मिलेंगे ।”
“माया है । मेल हो तो नहीं गया ?”
“उम्मीद तो बन गयी ।”
“वो पहले से बनी हुई थी ।”
“तो मैं आपके पास क्यो आया ?”
“अपनी उम्मीद को बल देने के लिये, उसे मोहरबन्द करने के लिये । एनडोर्स कराने के लिये । कोई आदमी फुटपाथ पर खड़ा झूम रहा है, आंधी में पेड़ की तरह हिल डुल रहा है तो क्या ये निश्चत है कि वो धराशायी होगा ?”
“नहीं ।”
“फिर भी वो खम्बे को पकड़ता है और अपने आपको स्थिर करता है । तुम अस्थिर हो, हम सम्बल हैं ।”
“ओह !”
“इस बात को हम दूसरे तरीके से कहते हैं । बारिश होती है तो उसे होने से कोई नहीं रोक सकता लेकिन छतरी के प्रयोग से भीगने से बचा जा सकता है । तुम्हारी नियति बारिश है, हमारा आख्यान छतरी है ।”
“ठीक कहा आपने ।”
“बेटा, हमारी बातों का ये मतलब न लगाना कि हम उन लोगों के खिलाफ हैं जो कि भविष्य के गर्त में झांकने के सदाअभिलाषी हैं । कोई अपने भविष्य के साथ हाइड एण्ड सीक खेलना चाहता है तो उसे ऐसा करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है । अपने अपने तौर पर हर कोई बहलाता है दिल । लेकिन अगर वो समझता है कि भविष्य जान कर वो अपनी आइन्दा जिन्दगी को पालिश करके चमका सकता है या उसके छिद्रों को रफू करके छुपा सकता है तो गलत समझता है । वक्त आने पर जीवन की समताओं को मुट्ठी में जकड़ कर हमेशा के लिये उन पर अपना अधिपत्य जमा सकता है या विषमताओं की खाई को वो छलांग मार कर पार कर सकता है तो गलत समझता है । समता, विषमता प्रारब्ध की सगी बहनें हैं, आप एक जगह इन से बच के निकलेंगे ये दूसरी जगह आपको सामने खड़ी मिलेंगी । सो डोंट ट्राई टु ब्रोबीट युअर फेट, विच इज युअर लाइफ बाई एनदर नेम । फेस इट । फेस इट विद करेज एण्ड करेज एण्ड कनविक्शन । ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है ।”
“इक आग का दरिया है” - विमल ने हौले से दोहराया - “और डूब के जाना है ।”
“हां ।”
“पार उतरूंगा ?”
“तुम्हारे सद्कर्म तुम्हें पार उतारेंगे । हम भविष्यवक्ता नहीं बनना चाहते लेकिन खास तुम्हारी बाबत एक बात कहे बिना नहीं रह सकते । तुम्हारे लिये कोई स्वर्ग नर्क नहीं है । तुम्हारे तमाम फैसले यहीं होंगे, हो रहे हैं । अगर तुम समझते हो कि इस वक्त तुम नर्क भुगत रहे हो तो ये भी समझ लो कि मोड़ काटते ही आगे स्वर्ग की देहरी है । आइन्दा दिनों में तुम्हारी वो खतायें भी माफ होंगी जो तुम्हें सबसे ज्यादा संतप्त करती हैं ।”
“खून ! डकैती ! अगवा !”
“सब ।”
“मैं इश्तिहारी मुजरिम हूं ।”
“नेशनल हीरो भी इश्तिहारी हो बनोगे ।”
“मैं ! नेशनल हीरो !”
“ऐसे ही तो हमें तुम्हारे मस्तक पर राजयोग अंकित नहीं दिखाई दे रहा ।”
विमल भौचक्का सा शास्त्रीजी का मुंह देखने लगा ।
“मैं.... मैं.... मेरे बारे में कह रहे हैं आप ?”
“और कौन है यहां ?”
“यकीन नहीं आता । जरूर आप मेरी हौसलाअफजाई के लिये ऐसा कह रहे हैं ।”
“अगर ऐसी बातों से तुम्हारी हौसलाअफजाई होती है तो रोज आया करो, फिर जल्दी ही तुम भारत के सबसे ज्यादा हौसलामन्द आदमी बन जाओगे ।”
विमल खामोश रहा ।
“हमारी बात गांठ बांध लो । इसी जन्म में तुम्हारा नया जन्म होगा । अवतार होगा ।”
“कमाल है !” - विमल मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “मुझे अब चलना चाहिये । आज्ञा दीजिये, भगवन् ।
“बातों में हम इतना मग्न हो गये के मेहमाननवाजी का फर्ज भूल गये । किसी विधवा माई के हाथ की चाय पीना कुबूल हो तो अभी बैठो ।”
“सौ बार कुबूल । मैं जरूर पिऊंगा ।”
“हम अभी इन्तजाम करते हैं ।”
“एक मेरे जैसा ही पापी पुरुष बाहर कार में बैठा है, वो भी....”
“हमें ध्यान है उसका । हम अभी आते हैं ।”
पीछे अत्यन्त विचारमग्न, लेकिन अब शान्तचित विमल को बैठा छोड़कर शास्त्रीजी पिछले दरवाजे से ऑफिस से बाहर निकल गये ।
***
मुरली के साथ एक कार में सवार मुकेश बजाज रेडीसन पहुंचा ।
“गाड़ी को कहीं पार्किंग में लगा” - बजाज अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “मैं देखता हूं वो कहां है ?”
मुरली ने सहमति में सिर हिलाया ।
बजाज कार में से निकला ।
लक्ष्मी उसे मेन ऐन्ट्रेस के सामने पार्किंग में खड़ी एक ओमनी की ड्राइविंग सीट पर बैठा दिखाई दिया ।
वो ओमनी के करीब पहुंचा और भीतर लक्ष्मी की बगल में पैसेंजर सीट पर बैठ गया ।
“क्या खबर है ?” - वो बोला - “कोई पहुंचा ?”
“मुबारक अली पहुंचा ।” - लक्ष्मी बोला - “ऐसी औकात बना के पहुंचा कि देखने वाले की आंखे चौंधिया जायें । सुजानसिंह पार्क के टैक्सी स्टैण्ड से ही पीछे न लगा होता तो कभी न पहचान पाता कि वो वो ही था ।”
“आगे बोल ।”
“बड़ी सजधज के साथ अपनी ही टैक्सी में पैसेंजर बना वो यहां पहुंचा था, लॉबी में दाखिल हुआ था और जाकर एक सोफे पर पसर गया था ।”
“वजह ?”
“वजह क्या ? मुलाकात लॉबी में ही होने वाली होगी ?”
“हो गयी ?”
“अभी नहीं ।”
“कैसे मालूम ?”
“सरदार नहीं पहुंचा ।”
बजाज ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली ।
साढे छः बजने को थे ।
“अभी तक नहीं पहुंचा ?” - वो सकपका कर बोला ।
“नहीं ।”
“फरीद तो मुलाकात छ: बजे की पक्की बता रहा था ?”
लक्ष्मी खामोश रहा ।
“तुझे कैसे पता है पवित्तर सिंह नहीं पहुंचा ।”
“लो !” - लक्ष्मी भुनभुनाया - “दाखिले के दरवाजे के ऐन सामने तो बैठा हूं । पहुंचा होता तो मुझे दिखाई न दिया होता !”
“शायद किसी और रास्ते से पहुंचा हो ?”
“और रास्ता किधर है ? एक ही तो है जो सामने दिखाई दे रहा है ।”
“पीछे गया ?”
“पीछे कहां ?”
“अरे, होटल के पिछवाड़े में ?”
“किसलिये ?”
“उधर भी कोई न कोई दाखिले का रास्ता होगा ।”
“स्टाफ के लिये होगा । मेहमान तो जहां जाते हैं, लॉबी से होकर ही जाते हैं ।”
“कोई पीछे से जाये तो जरूर उसे गोली मार दी जाती होगी ?”
“अब मैं क्या बोलूं ?”
“तुझे पीछे जाना चाहिये था ।”
“मैं पीछे जाता, आने वाला सामने से आ जाता तो मुझे कैसे खबर लगती ?”
बजाज से जवाब देते न बना ।
“जो बात यहां आ के सोची, वो पहले सोचनी चाहिये थी ।”
“नुक्स निकालता है ?” - आंखें निकालता बजाज बोला ।
“अरे, नहीं भाई । मेरी ऐसी मजाल कहां ?”
“पहले सोचता तो क्या होता ?”
“तो मेरे साथ ज्यादा नहीं तो एक आदमी तो और रवाना किया ही होता ।”
“तुझे मालूम है ऐसा क्यों न हुआ । तेरा चार बजे से पहले सुजानसिंह पार्क पहुंचना जरूरी था । उससे पहले तूने करोलबाग से गाड़ी भी उठानी थी । तब कहां रखा था आदमी तेरा जोड़ीदार बनने के लिये ?”
“पीछे क्या हुआ ?”
“छोड़ पीछा पीछे का ।”
“बस, इतना बता दो माल का क्या हुआ ? आया काबू में ?”
“नहीं । पकड़ा गया । मैं और मुरली भी बस यूं समझी कि बाल बाल बचे पकड़े जाने से ।”
“झामनानी को बोल दिया ?”
“खुद जा के बोलूंगा । एक ही बार ।”
“एक ही बार ?”
“सारी बुरी खबरें जमा हो जाने पर ?”
“सारी ?”
“और क्या ? मुझे नहीं लगता कि इधर से भी कोई अच्छी खबर हाथ आने वाली है ।”
“खामखाह ! जब मुबारक अली अभी भीतर है तो....”
“क्यों भई ? जब कोई पिछवाड़े के रास्ते दाखिल हो सकता है तो कोई दूसरा उधर से निकल नहीं सकता ।”
“वो लॉबी में बैठा है । मैं दो बार देख के आया ।”
“अच्छा !”
“हां । दोनों बार वो मुझे भीतर एक सोफे पर अकेला बैठा दिखाई दिया था ।”
“दूसरी बार देखे कितना टाइम हुआ ?”
लक्ष्मी खामोश रहा ।
“अबे, जवाब क्यों नहीं देता ? ऐसी शक्ल क्यों बना के दिखा रहा है जैसे सांप सूंघ गया हो ?”
“अब तो... अब तो मैं काफी देर से इधर ही हूं ।”
“ठीक से... ठीक से जवाब दे । पहली बार कब गया था ?”
“उसके आते ही ।”
“दूसरी बार ?”
“चार पांच मिनट बाद ।”
“तब से यहीं बैठा है ?”
“हां ।”
“शाबाश !”
“जब वो उधर जम के बैठा था तो उठ के कहां जाने वाला था ?”
“चिट्ठी लिखेगा वो तुझे इस बाबत । एक तो कुछ होता नहीं, दूसरे तेरे जैसे कुछ होने नहीं देते ।”
“अब तुम तो....”
“क्या मैं तो ?”
लक्ष्मी ने जोर से थूक निगली ।
“अब यहीं मर, मैं पता करके आता हूं ।”
“वो” - लक्ष्मी के मुंह से निकला - “वो तो जा रहा है ।”
“कौन ?” - बजाज सकपकाया ।
“मुबारक अली ।”
“कहां है ?”
“वो लाल तुर्की टोपी और कत्थई शेरवानी वाला, जो शीशे के दरवाजे से बाहर निकल रहा है ।”
“वो... वो मुबारक अली है ?”
“हां । मैंने भी बहुत मुश्किल से पहचाना था ।”
“जा क्यों रहा है ?”
“क्योंकि सरदार नहीं पहुंचा ।”
“पहुंचा नहीं या मुलाकात मुकम्मल हो गयी ?”
“मेरे ख्याल से तो पहुंचा नहीं ।”
“क्या बात है तेरे ख्याल की !”
बजाज के देखते देखते मुबारक अली टैक्सी में सवार हुआ ।
“पीछे जा ।” - बजाज जल्दी से अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “हो सकता है मुलाकात की जगह बदल गयी हो और अब ये नयी जगह जा रहा हो ?”
“लेकिन....”
“अबे अहमक, अभी खुद ही तो बोला कि सरदार इधर नहीं पहुंचा । पहुंचा नहीं तो मुलाकात नहीं हुई । हुई नहीं तो कहीं और होगी । पीछे जा । मुरली को भी ले जा ताकि तुझे शिकायत न हो कि तुझे अकेले रवाना कर दिया । जल्दी कर । मुरली तुझे ड्राइव वे पर मिलता है ।”
बजाज वैन से उतरा और अपनी कार की तरफ लपका ।
***
नौ बजे के करीब इरफान होटल वापिस लौटा तो उसे मालूम हुआ कि पिछवाड़े के सर्विस ऐंट्रेंस के बाजू के कमरे में विक्टर उसका इन्तजार करता था ।
वो वहां पहुंचा ।
“विक्टर” - वो उसके सामने बैठता बोला - “तेरा थोबड़ा बोलता है कि अच्छी खबर लाया !”
“बाई ग्रेस ऑफ जीसस, मेरी एण्ड जोसेफ” - विक्टर सन्तुष्ट भाव से बोला - “ऐसीच है, बाप ।”
“मिर्ची मिला ?”
“मिला ही समझ, बाप ।”
“मतलब ?”
“बोलता है । वो क्या है कि आकरे के साथ मैं काफी परेड किया एयरपोर्ट और चिंचपोकली के बीच । एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैण्ड पर उसका वास्ते मैसेज छोड़ा कि आने पर उसको उधरीच टिकने का था पण वो न टिका । आन्धी का माफिक आया, तूफान का माफिक निकल गया ।”
“शक हो गया होगा ।”
“ऐसीच था । तभी मैसेज चौकस करके भी न टिका ।”
“आगे बोल ।”
“हम फिर चिंचपोकली पहुंचे । इस बार हमने उसकी बाबत घर घर पूछताछ करने से कसर न छोड़ी । पण नतीजा चोखा निकला । हमें चिंचपोकली में उसकी खोली का पता मालूम हुआ पण वो उधर नहीं था ।”
“कैसे होता ? शक जो हो गया ।”
“बरोबर बोला, बाप, पण उसकी खोली का पता लगने का फायदा हमें फिर भी हुआ । उधर की चाल में अपुन का जातभाई एक फिरेंड निकल आया तो मिर्ची को भी खूब जानता था और उसकी मौजमस्ती की इस्पेशलिटी से भी खूब वाकिफ था ।”
“मतलब ?”
“वो जयश्री करके एक बाई पर टोटल फिदा है । पण मुलाकात कभी कभार वाली ।”
“वजह ?”
“बाई धन्धे वाली । चार्ज करती है । अपना जातभाई फिरेंड बोला कि कभी स्पेयर करने का वास्ते थाउजेंड रूपीज होता था तो मिर्ची चमकाता हुआ जाता था ।”
“किधर ? किधर जाता था ?”
“जयश्री करके बाई के पास । बोला न, बाप ।”
“मैं सुना । बाई किधर पूछा मैं ?”
“वो तो फिरेंड को मालूम नहीं था ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“हुआ न, बाप । मैं पता निकाला ।”
“ओह ! पता निकाला । कैसे ? और विक्टर, किस्तों में नहीं बोलने का है । तमाम इस्टोरी एकीच बार बोल ।”
“बाप, मैं टैक्सी डिरेवर । मेरे को मालूम मुम्बई में कैसा माल किधर मिलता था । बहुत पैसेंजर ढोया मैं ऐसे एरियाज में । जयश्री को मेरा फिरेंड थाउजेंड रूपीज वाली बाई बोला, सो मैं फाकलैंड रोज गया, कुलसा गली गया, चर्नी रोड गया, कैनेडी ब्रिज गया । उधर डिरेवर भाइयों से, रेस्टोरेंट के वेटरों से, होटलों के छोकरा लोगों से पूछताछ किया तो फाकलैंड रोड पर फोकस बना । उधर जाकर पता किया तो होटल खुशबहार का पता लगा जो कि जयश्री का पक्का ठीया । थोड़ा इधर उधर वाच किया तो टैक्सी स्टैण्ड पर मिर्ची की टैक्सी खड़ी दिखाई दी । स्टैण्ड के ठेकेदार के नेपाली छोकरे से पूछा तो मालूम हुआ कि पिछली रात भी वो टैक्सी उधरीच थी और इस रात के लिये भी मालिक बोल के गया था कि उसका सुबह तक ध्यान रखने का था । बाप, मैं दो में दो जोड़ा और गोली का माफिक आनसर चार निकाला ।”
“पण तू देखा किधर के अपना आदमी उधर था ?”
“बाप, जब अक्खी रात के लिये टैक्सी उधर, बाई उधर तो मिर्ची किधर होयेंगा ?”
“हूं ।”
“तभी तो दो में दो जोड़ा तो आनसर चार बना वरना चालीस बन जाता ।”
“हूं ।”
“फिर तू ये भी बोला, बाप, कि वाच करके रखने का था और तेरे को खबर करने का था, खुद ही नहीं थाम लेने का था ।”
“तेरे को कब बोला ?”
“बुझेकर को बोला न ! पिचड़ को बोला न उधर भायखला में ! वो दोनों मेरे को बोला ।”
“उन्हें तो ऐसा मैं जेकब परदेसी की बाबत बोला ।”
“बाप, जो बात एक भीड़ू की बाबत फिट वो दूसरे की बाबत भी फिट ।”
“काफी श्याना है ।”
“है न बाप ।” - विक्टर शान से हंसा ।
“तो अब पोजीशन क्या है ?”
“पोजीशन ये है कि आकरे उधर टैक्सी को वाच करता है, होटल को वाच करता है और मैं इधर तेरे को रिपोर्ट करता है ।”
“हूं ।”
“फरदर आर्डर्स का वास्ते ?”
“क्या बोला ?”
“पूछा । मेरे को आगे क्या करने का है ?”
“मेरे को उधर ले के चलने का है ।”
“ठीक ।”
***
नसीबसिंह अपने स्टाफ क्वार्टर के एक बैडरूमनुमा कमरे में पलंग पर अधलेटा सा पड़ा था ।
टी.वी. चलता छोड़ कर उसकी बीवी उसी क्षण वहां से उठ कर गयी थी । जब वो उसके साथ बैडरूम में थी तो वो चुपचाप किचन में गया था और वहीं खड़े खड़े एक पैग विस्की चढा कर आया था जिसका उसे कतई कोई मजा नहीं आया था । अपनी नौकरी में अमूमन वो दस ग्यारह बजे के आस पास पीता था जबकि उसका ए.सी.पी. या तो थाने का चक्कर लगा गया होता था या उसे यकीनी तौर पर मालूम होता था कि वो नहीं आने वाला था ।
अच्छा आदमी था - बड़े धूर्त भाव से मुस्कराते हुए उसने स्वत: भाषण किया - भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे ।
उस घड़ी अभी सात ही बजे थे इसलिये विस्की का कोई मजा तो आया ही नहीं था, एक सांस में पी एक पैग विस्की से उसका कुछ बना भी नहीं था । अलबत्ता एक पैग पी चुकने के बाद दूसरे तीसरे चौथे की तलब उसे बराबर लग गयी थी । नतीजतन उसने बीवी को आलू और प्याज के पकौड़े बनाने के लिये किचन में भेजा था और पीछे खुद वो रिमोट से बेवजह टी.वी. की चैनलें बदल रहा था ।
टी.वी. में न उसे कोई रुचि थी और न अपनी एस. एच. ओ. की बिजी नौकरी में उसे टी.वी. देखने का मौका मिलता था ।
अब तो मौका ही मौका था - भुनभुनाते हुए उसने सोचा - पता नहीं वो नामुराद सस्पेंशन कब तक चलने वाली थी, जैसा डी.सी.पी. मनोहरलाल उसके खिलाफ हुआ था, उसकी रू में पता नहीं वो नौकरी पर बहाल होने भी वाला था या नहीं । बहरहाल एक ही दिन के नाकारेपन में उसकी तौबा बुल गयी थी । रो रोकर उसने पहाड़ जैसा दिन काटा था और अब वो टुन्न होकर जल्द-अज-जल्द सो जाने का तमन्नाई था ।
रिमोट पर बेध्यानी में उसका हाथ ठिठक गया था जिसकी वजह से टी.वी. दूरदर्शन पर स्थिर हो गया था । उस घड़ी दूरदर्शन पर खबरें प्रसारित हो रही थीं जिसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन ‘हेरोइन’ शब्द सुन कर बेध्यानी में भी उसका पुलिसिया दिमाग अलर्ट हो गया ।
खबर के अनुसार दिल्ली पुलिस के हाथ में हेरोइन की एक बड़ी खेप लगी थी ।
खबर के साथ विजुअल्स भी प्रसारित हो रहे थे ।
स्क्रीन पर जो पहला ही विजुअल उसे दिखाई दिया, उसने उसे सीधा होकर बैठने पर मजबूर कर दिया ।
कैमरे का फोकस ब्राउन कलर की कार्ड बोर्ड की एक पेटी पर था जिसमें से सफेद पाउडर से भरी छोटी छोटी थैलियां बाहर बिखरी पड़ी दिखाई दे रही थीं । कैमरा लांग शाट में पहुंचा तो उसे फ्लाईंग स्कवायड की एक गाड़ी दिखाई दी, उसका स्टाफ दिखाई दिया और तमाशाइयों की भीड़ दिखाई दी ।
साथ में न्यूज रीडर जो कमेन्ट्री कर रही थी, उसके अनुसार वो दृश्य महरौली महिपालपुर रोड का था । वो पेटी एक चलती मारुति - 800 कार में से सड़क पर फेंकी गयी बताई जाती थी जिसका कि आगे एक ट्रक के साथ एक्सीडेंट हो गया था । कार को एक युवक ड्राइव कर रहा था और उसके साथ कार में एक युवती मौजूद थी । एक्सीडेंट में युवक की तत्काल मृत्यु हो गयी थी और युवती को पुलिस ने मरणासन्न अवस्था में एक नजदीकी हस्पताल पहुंचाया था ।
कैमरा जूम होता फिर पेटी पर फोकस हुआ ।
पेटी !
ब्राउन कलर की कार्ड बोर्ड की पेटी !
पैकिंग में काम आने वाली पेटी !
जिस पर उसका ढक्कन बन्द करने के लिये ब्राउन टेप लगा हुआ था लेकिन जो टी.वी. में उखड़ा हुआ पेटी के आसपास झूलता दिखाई दे रहा था ।
“पुलिस ने तसदीक की है” - न्यूजरीडर कह रही थी - “कि पोलीथीन की थैलियों में हेरोइन थी और उसका कुल जमा वजन लगभग छ: किलो था ।”
छ: किलो हेरोइन !
अब उसे पक्का ही यकीन हो गया कि वो झामनानी की वो ही पेटी थी जिसे उसने इतने यत्न के साथ एक खंडहर में छुपाया था ।
वो पेटी उस लड़के लड़की के हाथ कैसे लग गयी ?
शायद न्यूजरीडर कुछ बताये ।
उसने टी.वी. का वाल्यूम ऊंचा कर दिया ।
“अरे, धीरे बजाओ ।” - किचन में से उसकी बीवी बोली - “मुन्नी सो रही है ।”
“चुप कर !” - नसीबसिंह कलप कर बोला ।
न्यूज में उस बाबत आगे कुछ नहीं था, आगे न्यूज ही बदल गयी थी ।
उसने टी.वी. बन्द कर दिया और अपना माथा थाम लिया ।
वो मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि टी.वी. पर दिखाई गयी न्यूज झामनानी की पेटी की बाबत न हो लेकिन उसका दिल गवाही दे रहा था कि उसकी प्रार्थना बेमानी थी, वो वो ही पेटी थी बाजरिया वो छोकरा छोकरी किसी करिश्मासाज तरीके से जो अपनी खुफिया जगह से निकल कर सड़क पर पहुंच गयी थी ।
तौबा !
गुनाह बेलज्जत !
मुंह काला किया, खून से हाथ रंगे, नौकरी खोई, जेल जाने जैसे हालात पैदा कर लिये और पल्ले कुछ भी न पड़ा ।
कनपटियां ठकठकाता, बल्कि उन पर मुक्कियां मारता, वो सोचने लगा ।
क्या करूं ? क्या करूं ?
आखिरकार उसने एक फैसला किया ।
“मुन्ने की मां” - वो उच्च स्वर में बोला - “बन्द कर पकौड़े बनाना । मैंने कहीं जाना है, मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है ।”
“लो ! मैंने तो बना भी लिये ।”
“तो वहीं बैठ के खा ले ।”
उसने अपने उधार मांगे मोबाइल फोन पर झामनानी का नम्बर डायल किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“नसीबसिंह बोल रहा हूं ।” - वो बोला ।
“मालूम है नी ।” - झामनानी की आवाज आयी - “तभी तो जवाब दिया । क्या चाहता है ? क्यों फोन किया नी ?”
“वो क्या है कि....”
“क्या क्या है नी ? तू तो बोलता था दोबारा कभी फोन नहीं करेगा ?”
“करना पड़ा ।”
“वडी क्यों नी ?”
“एक दरख्वास्त थी ।”
“क्या ?”
“बजाज कहता था मेरा माल तैयार है ।”
“वडी ठीक कहता था नी ।”
“वो दिलाओ मुझे ?”
“वडी क्या बोला नी ? होशियारी आ गयी अब ? दिलेरी आ गयी ? बजाज को तो बोलता था....”
“पहले बोलता था, अब नहीं बोलता ।”
“वडी, क्यों नहीं बोलता नी ? कल और आज में शेर हो गया ? अब तुझे अन्देशा नहीं कि रकम पकड़ी जायेगी तेरे कब्जे में ? वडी, अफसरों को फिट कर लिया क्या ?”
“यही समझ लो ।”
“वडी समझ लिया नी ।”
“तो फिर....”
“माल ले और माल दे । हमारा माल हमारे हवाले कर, अपना माल चौकस कर ।”
“तुम्हारा माल चौकस तुम्हारे पास पहुंच जायेगा ।”
“तेरा माल भी चौकस ही पहुंचेगा, साईं ।”
“अपना माल मुझे अभी चाहिये ।”
“चड़या हुआ है ? मैं एक सस्पेंड पुलिसिये का एतबार करूंगा ?”
“सस्पेंड हुआ हूं । फांसी नहीं लग गया ।”
“क्या पता लगता है, साईं । झामनानी क्या तेरी सारी करतूतों से वाकिफ है नी ?”
“ठीक है, पूरा माल न दो लेकिन कुछ रकम एडवांस तो दो ।”
“कितनी ?”
“चलो, एक चौथाई दे दो ।”
“साथ में एक चौथाई मेरा माल ले के आ और ले जा ।”
“माल एक ही बार मिलेगा ।”
“फिर रकम भी एक ही बार मिलेगी ।”
“झामनानी सेठ, तुम समझते नहीं हो ।”
“वडी क्या नहीं समझता नी मैं ?”
“मेरा साहब मांगता है । उसका मुंह बन्द करने के लिये रकम चाहिये मुझे ? मेरी नौकरी भी वो तभी बहाल करेगा जब उसको चढावा चढेगा ।”
“करेगा सही ?”
“हां ।”
“ऐसा साफ बोला वो ?”
“हां । तभी तो फोन किया ?”
“वडी सच बोल रहा है नी ?”
“तुम मुझे पैसा दो जो मैं उसे आगे दे सकूं । उसके चौबीस घन्टे बाद मुझे अपनी एस.एच.ओ. की कुर्सी पर न बैठा देखो तो बोलना ।”
“ठीक है, साईं । आजमाता हूं तेरे को । फौरन मेरे ऑफिस पहुंच और लक्ख रुपये ले जा ।”
“बस ! एक लाख ?”
“एडवांस । तेरे साहब के लिये । तू मेरे से बोहनी कर और उसकी बोहनी करा, आगे देखेंगे ।”
“लेकिन एक लाख ।”
“दो ले जा । और अब फोन बन्द कर ।”
“दस ।”
“चड़या हुआ है !”
“आठ ।”
“वडी भाव ताव करना सब सीख गया है नी थाने में बैठ कर ।”
“पांच पर हां बोलो वरना भाड़ में जाओ ।”
“झूलेलाल ! झामनानी से ऐसी जुबान बोल रहा है जैसे जेबकतरा पकड़ा हो ।”
“सॉरी । वो क्या है कि....”
“पुलिसिये की जुबान है, जुलाब निकाले बिना नहीं मानती । ठीक है । मेरे ऑफिस पहुंच ।”
“आप वहां हो ?”
“नहीं । तेरी खातिर आऊंगा । इसलिये जल्दी पहुंचना । पन्द्रह मिनट में । बड़ी हद आधे घन्टे में ।”
“ठीक है ।”
***
एक एस्टीम कार पर सवार इरफान और विक्टर फाकलैंड रोड पहुंचे ।
पार्किंग में विक्टर की टैक्सी में बैठे आकरे ने एस्टीम को फौरन पहचाना, वो टैक्सी से निकल कर एस्टीम की तरफ बढा ।
दोनों एस्टीम से बाहर निकले ।
“क्या ?” - विक्टर बोला ।
आकरे ने इनकार में सिर हिलाया और फिर बोला - “वैसीच है, जैसा छोड़ के गया था ।”
“टैक्सी कौन सी है उसकी ?” - इरफान बोला ।
आकरे उन्हें एक टैक्सी के करीब ले कर आया ।
टैक्सी मैदान की तरफ मुंह किये कारों की कतार में खड़ी थी । उनके देखते देखते उसके दायें बाजू से एक कार निकली और वहां से रुख्सत हो गयी ।
“अब ?” - विक्टर बोला ।
“तू बोल ।” - इरफान बोला - “विक्टर, ये नहीं बोलने का है कि इधर वेट करते हैं, कभी तो आयेगा अपनी टैक्सी के पास ।”
“नहीं, बाप । ऐसीच तो पता नहीं वो कब आयेगा ?”
“अपना भीड़ू होटल खुशबहार में किधर है, मालूम ?”
“रूम नम्बर नहीं मालूम, बाप । पण मालूम भी हो तो, बाप, उधर उस पर हाथ डाला तो गलाटा हो जायेगा । वो बहुत बड़ा होटल है । फिर बाई ही ऐसा शोर मचायेंगा कि... अब क्या बोलेंगा, बाप । तेरे को सब मालूम ।”
“उसको इधर बुलाना होगा ।”
“कैसे ?”
“वो नेपाली छोकरा, जो तू इधर का अटेंडेंट बोला, जा के बोलेगा कि उसकी टैक्सी का भीतर का लाइट जल रहा है तो क्या करेगा अपना भीड़ू ?”
“तू बोल, बाप ।”
“बुझाने आयेगा । क्या ?”
“टैक्सी ही तो है ।” - जवाब में विक्टर की जगह आकरे धीरे से बोला - “नेपाली छोकरे को चाबी दे देगा । आयेगा किस वास्ते ?”
“जवाब दे ।” - इरफान बोला ।
“छोकरा वापिस जा के बोल देगा” - विक्टर सोचता हुआ बोला - “उससे टैक्सी का डोर लॉक नहीं खुल रहा था ।”
“क्या ?”
“चाबी दरवाजे में नहीं लग रही थी ।”
“खामखाह ! श्याना होगा तो फौरन शक करेगा भीड़ू । जब हमेशा लगती थी तो अब क्यों नहीं लगती थी ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ? अपने दीमाक से सोच ।”
“सोच लिया ।”
“क्या ?”
“अभी सामने आता है । गाड़ी में बैठ ।”
दोनों आकरे से परे हट के एस्टीम में सवार हो गये । इरफान ने एस्टीम आगे बढाई, उसे मिर्ची की टैक्सी के करीब लाया और उसका रुख पलट कर उसे यूं बैक करने लगा कि वो टैक्सी के बाजू में खाली हुई जगह में खड़ी हो पाती ।
बैक होती एस्टीम टैक्सी से जाकर टकराई । टैक्सी की हैडलाइट के परखचे उड़ गये और इतनी जोर की आवाज हुई कि नेपाली अटेंडेंट दौड़ता हुआ वहां पहुंचा । उसने तब भी भिड़ी खड़ी कारों पर निगाह डाली और बद्हवास लहजे से बोला - “ये क्या किया, साब ?”
इरफान कार में से निकला, उसने इरादतन किये उसे एक्सीडेंट का नजारा किया और फिर बड़ी मासूमियत से बोला - “पता नहीं कैसे हो गया ? ठीक से पार्किंग में जा रही थी गाड़ी । पता नहीं कैसे टकरा गयी ?”
“इतना डैमेज कर दिया, साब । हैडलाइट टूट गया । डैंट लग गया ।”
“अपुन का भी तो डैमेज हुआ है ?”
“आपने खुद किया । आपने खुद....”
“ठीक है, ठीक है । कोई वान्दा नहीं । हैडलाइट टूटेला है, डैंट पड़ेला है, डैमेज देंगा । बोल, कितना मांगता है ?”
“वो तो टैक्सी का मालिक बोलेगा ।”
“जानता है उसको ?”
“हां ।”
“किधर मिलेगा, मालूम ?”
“हां ।”
“दूर है या इधरीच है ?”
“इधरीच है ।”
“फिर क्या वान्दा है ? जा, बुला के ला । अभी सैटल करता है ।”
नेपाली ने सावधानी से एस्टीम का नम्बर याद किया और फिर पार्किंग से निकल कर होटल खुशबहार की ओर लपका ।
***
मुरली करोलबाग झामनानी के ऑफिस में पहुंचा जहां झामनानी की मौजूदगी शाम की उस घड़ी अपेक्षित नहीं थी लेकिन अगर मुकेश बजाज उसे मिलता तो वहीं मिलता ।
बजाज वहां मौजूद था ।
“क्या हुआ ?” - बजाज बोला - “लौट क्यों आया ?”
“उधर कुछ नहीं रखा ।” - मुरली बोला - “फिर भी कुछ रखा है तो लक्ष्मी है उधर ।”
“किधर ?”
“तिराहा बैरम खान । जहां कि मुबारक अली पहुंचा ।”
“वहां क्यों पहुंचा ?”
“वहीं रहता है वो । घर है उसका उधर । एक बड़े कुनबे के साथ । मैंने मालूम किया । वो वहां पहुंचा और दोबारा वहां से कहीं न गया । अपने फैंसी कपड़े उतार के तहमद बनियान पहने चारपाई पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाता छोड़ के आया था मैं उसे वहां ।”
“पवित्तर सिंह से मुलाकात ?”
“कैसी मुलाकात ?”
“क्या कह रहा है ?”
“समझो । रेडीसन से वो सीधा दरियागंज तिराहा बैरम खान पहुंचा, रास्ते में न कहीं रुका और न कोई कट मारा, वहां पहुंच चुकने के बाद वो कहीं जाता लग नहीं रहा था । फिर कैसी मुलाकात ?”
“कमाल है ! यानी कि मुलाकात की जगह नहीं बदल गयी थी ?”
“अब मैं क्या बोलूं ? किसी नयी जगह का रुख तो उसने किया नहीं था ।”
“शायद कल करे ?”
“हो सकता है । या परसों करे । या अगले हफ्ते करे । अगले महीने करे ।”
“मुरली, खाल में रह । खाल में रह के बात कर ।”
“अब मेरे लिये क्या हुक्म है ? मैं वापिस लक्ष्मी के पास जाऊं या छुट्टी करूं ?”
“वापिस जा और उसको भी दफा कर वहां से । कमीने ने कुछ भी न किया ।”
“या कुछ भी न हुआ ?”
“क्या मतलब, भई ?”
“सरदार जी रेडीसन सच में ही नहीं पहुंचे होंगे मुलाकात के लिये ।”
“मेरा दिल नहीं मानता । जब खुद मुलाकात फिक्स की तो क्यों न पहुंचे ?”
“कोई अनहोनी हो गयी होगी ।”
“क्या ?”
“धड़का लग गया होगा । एक्सीडेंट हो गया होगा ।”
“ऐसा कुछ हुआ है तो पता लग जायेगा ।”
“कैसे ?”
“बॉस पता कर लेगा । मैं बॉस से बोलूंगा कि....”
तभी झामनानी ने भीतर कदम रखा ।
दोनों उछल कर खड़े हुए । दोनों ने उसका अभिवादन किया ।
“बॉस” - बजाज बोला - “आप तो ऑफिस लौट के आने वाले नहीं थे ?”
“मेरे साथ आ नी ।” - झामनानी बोला और अपने प्राइवेट कक्ष का दरवाजा खोल कर भीतर दाखिल हो गया ।
“तू बाहर ठहर ।” - बजाज मुरली से बोला - “अभी जाना नहीं । शायद बॉस कोई और काम बोले । समझ गया ?”
सहमति में सिर हिलाता मुरली बाहर निकल गया ।
बजाज झामनानी के पास पहुंचा ।
“बॉस, आप तो....”
“वडी क्या खबर है नी ?” - झामनानी उतावले भाव से बोला - “सबसे पहले पवित्तर सिंह की बोल ।”
बजाज ने बोला ।
“कमाल है !” - झामनानी बोला - “खुद मुलाकात मुकर्रर करके नहीं आया । कहां चला गया कर्मांमारा ?”
जवाब में बजाज ने मुरली की सुझाई - पवित्तर सिंह के साथ कोई अनहोनी हो गयी होने वाली -सम्भावना व्यक्त की ।
झामनानी को वो बात जंची, उसने तत्काल अपने मोबाइल पर पवित्तर सिंह के मोबाइल का नम्बर पंच किया ।
“कोई जवाब नहीं ।” - झामनानी बड़बड़ाया - “झूलेलाल ने तो नहीं बुला लिया ?”
“जी !”
“वडी चल चल तो नहीं हो गयी सरदार की ? एक्सीडेंट हुआ तो दम ही तो नहीं निकल गया ? दिल पक्का ही तो नहीं बैठ गया कर्मांमारे का ?”
“पानी का बुलबुला ही तो है इंसान । क्या पता लगता है ।”
झामनानी ने दोबारा लगाया ।
“कोई जवाब नहीं ।” - वो फिर बोला - “पहली बार घन्टी बजती रही, दूसरी बार घोषणा होने लगी कि फोन स्विच्ड ऑफ था ।”
“बॉस” - बजाज दबे स्वर में बोला - “ऐसा तो तभी होता है जब कोई कॉल रिसीव न करना चाहता हो । सरदार साहब ने देखा कि कॉल आपकी थी तो उन्होंने जानबूझ कर मोबाइल ऑफ कर दिया ।”
“हूं ।” - झामनानी ने लम्बी हूंकार भरी - “क्यों किया नी ऐसा ?”
“क्योंकि वो आप से बात नहीं करना चाहते ।”
“वडी क्यों नी ?”
बजाज ने जवाब न दिया ।
“वडी जैसे तू मुबारक अली को अपने घर में बैठा हुक्का पीता बताता है, उससे तो लगता है मुलाकात हुई, वो मुलाकात करके अपने उस काम से फारिग होकर ही घर लौटा ।”
“हमारे आदमी ने सरदार जी को उधर पहुंचते नहीं देखा था ।”
“गफिल हो गया होगा कर्मांमारा । ऊंघ गया होगा । कोई धार वार मारने चला गया होगा । वडी तेरे को उधर कम से कम दो आदमी भेजने चाहियें थे ।”
“उस वक्त सिर्फ लक्ष्मी ही था मेरे पास जिसे कि मैं स्पेयर कर सकता था ।”
“अब कहां है वो ?”
“मुबारक अली की निगरानी पर ही है ।”
“वो निगरानी वो जारी रखे, वो मुलाकात आज अगर नहीं हुई तो कल हो सकती है ।”
“हो चुकी हुई तो ?” - बजाज झिझकता सा बोला ।
“तो दोबारा हो सकती है । उसके साथ एक आदमी और लगा । मुझे पक्के तौर पर मालूम होना चाहिये कि सरदार मुबारक अली से मिलता है, तभी सरदार की खबर ली जा सकेगी । अन्दाजन कुछ नहीं हो सकता । वडी समझा नी ?”
“जी हां, समझा ।”
“वडी अब उस काम की बोल नी जिसे कि करने सुबह निकला था ।”
“फार्म की तलाशी में पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा था । उनके वहां से दफा होते ही लाश कुयें में गहरी दफना दी गयी थी और अब उसकी बरामदी का कोई अन्देशा नहीं है । हथियार कुयें से निकलवा कर किंग्सवे कैम्प पहुंचा दिये गये हैं ।”
“और ?”
“और तो बुरी खबर ही है ।”
“वडी क्या नी ?”
झिझकते अटकते बजाज ने हेरोइन के साथ बीता हादसा बयान किया ।
“वडी लक्ख दी लानत नी ।” - झामनानी भड़का - “गल्ला लुटवा दिया और मुझे चवन्नी अठन्नी की खबरें सुना रहा है ।”
“बॉस, जो हुआ करिश्मे की तरह हुआ ।” - बजाज दबे स्वर में बोला - “ये करिश्मा ही तो है कि जो माल हमें ढूंढे नहीं मिल रहा था, जो लाश की तलाश में लगी पुलिस को मिल सकता था, वो मिला तो उस छोकरा छोकरी को । हम ऐन मौके पर पहुंच भी गये और हमने उन्हें माल ले जाते देख भी लिया लेकिन हमारी बदकिस्मती कि माल हमारे काबू में न आ सका । आता आता रह गया ।”
“ये पक्की है कि माल पकड़ा जा चुका है, वो अब पुलिस के कब्जे में है ।”
“हां ।”
“कैसे पक्की है नी ?”
“आंखों से देखा पुलिस को सड़क पर बिखरा पड़ा माल कब्जाते । अब तो टी.वी. पर न्यूज भी आ चुकी है । विजुअल्स समेत ।”
“वडी सप्प लड़े नी उस नसीबमारे नसीबसिंह को । अगली सांस न आये कर्मांमारे को । माल पुलिस के कब्जे में है और वो हरामी कुत्ता उसके बदले में मेरे से एडवांस लेने आ रहा है पंज लक्ख रुपये का, जिसकी खातिर कि मैं इधर आया । वडी अब समझ में आया नी कि क्यों एडवांस रकम के लिये मरा जा रहा था ! कमीने को मालूम पड़ गया होगा कि माल बरामद हो गया था और पुलिस के कब्जे में पहुंच गया था ।”
“पुलिसिया है, मालूम कर लिया होगा ।”
“या टी.वी. देख लिया होगा जो कि मैंने नहीं देखा । तू ये खबर मुझे सुनाने को यहां मौजूद न होता तो वो तो ले गया था पंज लक्ख रुपये । वडी अब आने दे नी नसीबमारे को, न पंज लक्ख जूते मार के भेजा तो बोलना ।”
तभी बाहर आहट हुई ।
“वही आया होगा । देख जा के ।”
सहमति में सिर हिलाता बजाज बाहर को चल दिया ।
***
जमीर मिर्ची होटल की बेसमेंट में मौजूद था और थर थर कांप रहा था ।
फाकलैंड रोड से वहां तक वो मुकम्मल खामोशी में लाया गया था और वो खामोशी उसका वैसे ही दम निकाले दे रही थी । पनाह मांगती निगाहों से वो अपने ‘डिरेवर भाई’ विक्टर की तरफ देखता था तो विक्टर मुंह फेर लेता था ।
वहां विक्टर के अलावा परचुरे और मतकरी भी मौजूद थे जो कदरन नये लड़के थे लेकिन इरफान के वफादार थे ।
मिर्ची जिस कुर्सी पर बैठा हुआ था उसके ऊपर गोल शेड में ढंका और तार से लटकता एक बल्ब यूं जल रहा था कि उसकी रोशनी एक विशाल दायरा बनाती मिर्ची के इर्द गिर्द पड़ रही थी । रोशनी के उस दायरे से बाहर एक कुर्सी पर खामोशी से विमल बैठा हुआ था ।
बिलाल के कत्ल में अपना रोल मिर्ची कुबूल कर चुका था और औना पौना ये भी कुबूल कर चुका था कि ईरानी के होटल में ऐन उन लोगों की नाक के नीचे उसका कत्ल जेकब परदेसी ने ही किया हो सकता था ।
“अब किधर है जेकब परदेसी ?” - इरफान सख्ती से बोला ।
“मेरे को नहीं मालूम, बाप ।” - मिर्ची गिड़गिड़ाता सा बोला - “मैं तो खुद उसको ढूंढता है । मेरे को नहीं मिला वो ?”
“क्यों नहीं मिला ? बिलाल की खबर करने को तो बराबर मिला । अब क्यों नहीं मिला ?”
मिर्ची खामोश रहा ।
“साले !” - इरफान ने खींचकर एक झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया - “कल तू बान्द्रा में अपनी टैक्सी पर हमारे बाजू से गुजरा और हमारे दगड़ी चाल पहुंचने से पहले ही अपने बाप को सब बोल के रखा । कैसे किया ? जादू के जोर से ?”
“वो... वो...”
“क्या वो वो ?”
“मोबाइल । मोबाइल पर बोला ।”
“तेरे पास मोबाइल है ?”
“परदेसी ने दिया । इसीच काम के वास्ते ।”
“काले चोर ने दिया । पण तू उसको मोबाइल पर फोन लगाया । तेरे को उसका मोबाइल नम्बर मालूम ?”
“हं... हां ।”
“फिर लगा ।”
“बहुत बार लगाया, बाप । जवाब नहीं मिलता ।”
“मोबाइल किधर है तेरा ।”
“वो तो... वो तो उधर होटल में....”
“बाई के सिरहाने छोड़ के आया ?”
“पार्किंग तक ही तो गया था, बाप । अब क्या मालूम था कि....”
वो खामोश हो गया ।
“घर का पता पूछ ।” - विमल धीरे से बोला ।
इरफान का सिर सहमति में हिला ।
“रहता किधर है ये परदेसी ? नहीं मालूम बोला तो साले, मूंडी काट के हाथ में देंगा । क्या ?”
“धारावी में ।”
“धारावी में किधर ?”
“उधर इसी नाम का एक होटल है, उसके पांच नम्बर कमरे में ।”
“होटल में रहता है ?”
“चाल है पण नाम होटल है । धारावी ।”
“वो उधर है ?”
“नहीं है । दो बार पता करने गया ।”
“पण रहता है वो उधर ?”
“हां । पण कई दिन नहीं लौटता ।”
“नहीं लौटता तो किधर जाता है ?”
“किधर भी । बहुत यार दोस्त हैं उसके ।”
“सब के नाम पते बोल ।”
“कैसे बोलेंगा, बाप । मैं नहीं जानता ।”
“तो फिर कैसे मालूम है बहुत यार दोस्त हैं उसके जो उसे अपने पास ठहरने देते हैं ?”
“वोहीच बोला ।”
“पण नाम कोई न बोला, पता कोई न बोला ?”
“नक्को ।”
“इनायत दफेदार तो बोला या वो भी न बोला ?”
दफेदार के जिक्र पर मिर्ची के नेत्र फैले ।
“जानता तो है न दफेदार कौन है ?”
“नाम सुना खाली । परदेसी के मुंह से ।”
“क्या बोला वो ?”
“बड़ा बाप है । ‘भाई’ का खास ।”
“जैसे तू परदेसी का खास है और परदेसी दरफेदार का खास है ?”
जवाब में मिर्ची ने जोर से थूक निगली ।
“जवाब दे !” - इरफान कड़क कर बोला ।
“ऐसीच है, बाप ।”
“एक बात पक्की करके रख । इधर से वन पीस बाहर जाना मांगता है तो परदेसी का पता बोल....”
“मैं बोला न, बाप ।” - वो कातर भाव से बोला - “होटल धारावी । कमरा नम्बर पांच....”
“....शाबाशी और ईनाम चाहता है तो दफेदार का पता बोल ।”
“मेरे को नहीं मालूम ।”
“पता नहीं तो अता पता ही बोल ।”
“नहीं मालूम ।”
“‘भाई’ का ?”
“बाप !” - मिर्ची के स्वर से ऐसी दहशत झलकी जैसे ‘भाई’ का पता उसे मालूम होने के ख्याल से ही उसके प्राण निकल जाने वाले हों ।
“ठीक है, ‘भाई’ नक्को । दफेदार भी नक्को । पण परदेसी को काबू कराये बिना तू इधर से नहीं छूट सकता । क्या ?”
“कैसे करेंगा, बाप ? जो मालूम सो बोला ।”
“मैं भी तो कुछ बोला, साले हलकट !”
मिर्ची ने पनाह मांगती निगाहों से विक्टर की तरफ देखा ।
विक्टर ने असहाय भाव से कन्धे उचकाये ।
इरफान ने रोशनी के दायरे से पार विमल की तरफ देखा ।
“खत्म कर ।” - विमल धीरे से बोला ।
इरफान का सिर फिर सहमति में हिला, फिर वो वापिस मिर्ची से मुखातिब हुआ ।
“तो क्या बोला तू ?” - इरफान बोला ।
“क्या बोलेंगा, बाप । जो मालूम सो पहले ही बोला ।”
“ठीक है । पण अभी इधरीच रहेगा तू ऐसीच बन्धा हुआ । अभी कल तक का टेम है तेरे पास कुछ याद करने को । याद आये तो बोलना । जितनी जल्दी कुछ याद करेगा और बोलेगा, उतनी ही जल्दी इधर से नक्की होगा । अभी अपने सिर कि ऊपर देख ।”
मिर्ची ने झिझकते हुए सिर उठाया ।
“वो हुक देखा ?”
मिर्ची ने सहमे भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“कलाल की दुकान पर कभी बकरा टंगा देखा ?”
“हं... हां ।”
“वैसीच कल इधर तू टंगा होगा । तब तक के लिये शब्बा खैर ।”
***
नसीबसिंह अपनी पीले रंग की रायल एनफील्ड मोटरसाइकल पर सवार था । पहाड़गंज से करोलबाग झामनानी के ऑफिस वो पांच मिनट में पहुंच सकता था लेकिन उसने ऐसी कोई कोशिश न की । उसने गोल मार्केट का रुख किया और फिर आगे मंदिर मार्ग को चल दिया । उस सड़क पर ट्रैफिक वैसे ही बहुत कम होता था लेकिन उस घड़ी तो बहुत ही कम था इसलिये जल्दी ही उसे उस जीप की खबर लग गयी जो उसके पीछे लगी हुई थी ।
आगे चौराहे से उसने मोटरसाइकल को बायें पार्क स्ट्रीट पर और फिर अगले चौराहे से तीन चौथाई दायरा काट कर दायें विलिंगडन क्रीसेंट पर मोड़ा । उस सड़क पर थोड़ा ही आगे तालकटोरा गार्डन के पहलू से गुजरती एक सड़क थी जो वापिस पार्क स्ट्रीट पहुंचती थी । उसने वो सड़क पकड़ी, पार्क स्ट्रीट पहुंच कर बायें घूमा तो मंदिर मार्ग के सिरे के उसी गोल चक्कर पर पहुंच गया जहां से कि वे बायें घूमा था ।
जीप बद्स्तूर उसके पीछे थी ।
उसने मोटरसाइकल को शंकर रोड पर डाला । वो डबल रोड थी जिस पर से वापिस लौटने के लिये अपर चौराहे तक जाना पड़ता था । उसका जी चाहा कि वो मोटरसाइकल को वहीं छोड़ कर - आखिर वो पुलिस की मोटरसाइकल थी, कौन चुराता - बीच की पटड़ी पार करके परली सड़क पर पहुंचे और वहां किसी से लिफ्ट हासिल करके वापिस चल दे । लेकिन फौरन ही उसने वो ख्याल छोड़ दिया ।
क्या पता जीप वालों के पास उस स्थिति से दो चार होने का भी इन्तजाम हो !
उसने एकाएक ब्रेक पर अपने पांव का पूरा दबाव डाला ।
मोटरसाइकल तीखी चरचराहट की आवाज के साथ रुकी ।
जीप वालों के लिये उसका वो एक्शन इतना अप्रत्याशित था कि जीप भी ब्रेकों की वैसी ही चरचराहट के साथ गतिशून्य हुई और मोटरसाइकल से मुश्किल से दस गज दूर आकर रुकी । तत्काल जीप का ड्राइवर अपने और मोटरसाइकल में फासला बढाने के लिये उसे बैक करने की कोशिश करने लगा लेकिन शाम के भारी ट्रैफिक में वो सम्भव न हो सका । पीछे एक मैटाडोर वैन थी जो जीप से टकराने से बाल बाल बची थी और उसके बाजू से गुजरने की कोशिश कर रही थी ।
नसीबसिंह मोटरसाइकल पर से उतरा और झपटता हुआ जीप के करीब पहुंचा । उसने जीप को आगे पैसेंजर सीट की साइड से यूं थामा जैसे उसे चलने न देने की शक्ति उसमें हो ।
जीप स्थिर हुई ।
मैटाडोर वाला उसके बाजू से गुजर गया ।
नसीबसिंह ने देखा कि जीप में तीन व्यक्ति सवार थे, तीनों सादे कपड़ो में थे लेकिन वो तीनों को पहचानता था - ड्राइवर सिपाही था, उसके पहलू में बैठा व्यक्ति सब-इन्स्पेक्टर था और पीछे बैठा व्यक्ति हवलदार था ।
“क्यों पीछे पड़े हो, सालो ?” - वो कलप कर बोला ।
सब-इन्स्पेक्टर ने यूं शक्ल बनायी जैसे चोरी करते पकड़ा गया हो, फिर धीरे से बोला - “हुक्म है ।”
“क्या हुक्म है, साले ! मेरी दुम से बन्धे रहने का हुक्म है ?”
“साहब, गाली नहीं । गाली नहीं ।”
“गाली का बच्चा न हो तो ।”
“हम अपनी ड्यूटी कर रहे हैं ।”
“दफा हो जाओ मेरे पीछे से वरना सौ जूते मारूंगा और एक गिनूंगा ।”
“साहब, आप पछतायेंगे ।”
“पछतायेंगे का बच्चा न हो तो ।”
“साहब, हमें डी.सी.पी. मनोहरलाल को आपकी बाबत सीधे रिपोर्ट करने का हुक्म है । आप हमारे साथ ऐसे पेश आयेंगे तो हम भी अपनी रिपोर्ट में एक की चार लगायेंगे ।”
“डी.सी.पी. की मां की । और तेरी बहन की....”
“साहब, क्यों खामखाह मुसीबत को दावत दे रहे हो ?”
“मुसीबत का बच्चा न हो तो....”
“ठीक है, जो मर्जी कीजिये और फिर अंजाम के लिये तैयार रहिये ।”
“तैयार ही हूं मैं, सालो । देखो अब मेरी तैयारी ।”
इससे पहले कि पुलिस वाले कुछ समझ पाते, नसीबसिंह ने हाथ बढा कर जीप के इग्नीशन में से चाबी खींच ली और उसे झाड़ियों में उछाल दिया ।
“ये” - सब-इन्स्पेक्टर हकबकाया सा बोला - “ये क्या किया आपने ?”
“अब दौड़ के आना मेरे पीछे ।”
सब-इन्स्पेक्टर के दान्त भिंच गये, उसने हुक पर टंगे वायरलैस फोन की तरफ हाथ बढाया लेकिन उसका हाथ फोन तक पहुंचने से पहले ही नसीबसिंह ने फोन झपट लिया, एक मजबूत झटके से उसकी तारें तोड़ीं और फिर उसे भी झाडि़यों में चाबी के पीछे फेंक दिया ।
“आपकी खैर नहीं ।” - सब-इन्स्पेक्टर असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला ।
“खैर का बच्चा न हो तो । जा, जो जी में आये कर ले ।”
“हमने क्या करना है, साहब ? अब तो जो करेगी आपकी उल्टी खोपड़ी और खोटी तकदीर करेगी ।”
“स्साले !”
भुनभुनाता, गालियां बकता नसीबसिंह वहां से हटा और लम्बे डग भरता अपनी मोटरसाइकल की तरफ बढ गया ।
“ढूंढो ।” - पीछे सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
हवलदार और सिपाही जीप से उतर कर झाड़ियों की ओर बढ चले ।
नसीबसिंह मोटरसाइकल पर सवार हुआ । उसने एक बार पीछे घूस कर देखा तो फोन और चाबी की तलाश में हवलदार और सिपाही को झाड़ियों में दाखिल होते पाया । फिर उसने पूरी रफ्तार से मोटरसाइकल सड़क पर दौड़ाई ।
करोलबाग पहुंचने तक हर घड़ी उसकी निगाह पीछे सड़क पर थी लेकिन उसे फिर कोई अपने पीछे लगा न दिखाई दिया ।
वो झामनानी के ऑफिस में दाखिल हुआ तो उसे भीतरी दरवाजा खोल कर बाहर कदम रखता बजाज दिखाई दिया ।
“आओ ।” - बजाज नकली गर्मजोशी दिखाता बोला - “साहब से मिलने आये ?”
“और क्या तेरे से मिलने आया हूं ?” - नसीबसिंह भुनभुनाया ।
“क्या बात है ? बहुत कड़क बोल रहे हो ?”
“सिन्धी भाई है ऑफिस में ?”
“है । तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा है बॉस । आओ ।”
उसने झामनानी के कक्ष का दरवाजा खोला । नसीबसिंह भीतर दाखिल हुआ । उसके पीछे बजाज ने भी भीतर कदम रखा और आटोमैटिक डोर क्लोजर के सहारे दरवाजे को पीछे बन्द हो जाने दिया ।
“आ, साईं ।” - झामनानी बोला - “तशरीफ रख ।”
नसीबसिंह एक विजिटर चेयर पर ढेर हुआ । उसने पीछे घूम कर यूं बजाज की तरफ देखा जैसे उसकी तब भी वहां मौजूदगी पर एतराज दर्ज करा रहा हो ।
बजाज ने भवें उठा कर झामनानी की तरफ देखा । झामनानी ने उसे वहीं टिके रहने का इशारा किया । बजाज का सिर एक बार हौले से हिला फिर वो दरवाजे के पहलू में दीवार के साथ पीठ लगा कर खड़ा हो गया ।
नसीबसिंह फिर झामनानी की तरफ आकर्षित हुआ ।
झामनानी अपलक उसे देखता कुर्सी पर पसरा रहा ।
“क्या देरदार है ?” - नसीबसिंह उतावले स्वर में बोला ।
“कोई देरदार नहीं ।”
“तो फिर माल निकालो ।”
“वडी साईं, तेरी तो तेरे महकमे की तरफ से हर घड़ी की निगरानी की खबर सुनी थी मैंने ?”
“ठीक खबर सुनी थी लेकिन मैं निगरानी करने वालों को डॉज देकर आया हूं, कोई मेरे पीछे इधर नहीं पहुंचा ।”
“वडी पहुंचे भी तो हमें क्या है ? जो है, तुझे है ।”
“मैं अपनी फिक्र कर लूंगा । अब माल निकालो ।”
“वडी तेरे को वो उजाड़ खंडहर याद आया नी जहां कि तूने हमारा माल छुपाया था ? अब तेरे पीछे तो कोई है नहीं इसलिये याद आया हो तो बजाज के साथ जा, इसे हमारा माल बरामद करके दे और फिर एडवांस की रकम की जगह अपना माल पूरा ही ले के जा ।”
“अभी एडवांस ही ठीक है ।”
“वडी क्यों एडवांस ही ठीक है नी ? जब पूरी कार मिल रही हो तो कोई उसका एक पहिया लेता है ? साइकल मिल रही हो तो घन्टी लेता है ?”
“मैंने कहा न, अभी एडवांस ही ठीक है ।”
“वडी क्यों ठीक है नी ? क्योंकि ये भागते चोर की लंगोटी है ?”
“क्या ?”
“एक झामनानी ही मिला तेरे को उल्लू बनाने को ?”
“क्या... क्या... क्या कह रहे हो ?”
“वडी तुझे नहीं पता क्या कह रहा हूं ?”
“पहेलियां न बुझाओ, सिन्धी भाई । मेरे से पैंतरेबाजी करोगे तो सात जन्म अपनी हेरोइन के दर्शन नहीं होंगे ।”
“तेरे को भी ।”
“क्या मतलब ?”
“वडी माल रखा है नी तेरे पास दर्शन के लिये ? माल तो पुलिस के पास पहुंच गया । और तू मुझे ऐसा भोला बन के दिखा रहा है जैसे तुझे इस बात की खबर ही नहीं ।”
“जो... जो माल पुलिस के कब्जे में पहुंचा है वो तुम्हारे वाला माल नहीं है ।”
“अच्छा ।”
“हां । तुम्हारे वाला माल महफूज है ।”
“साबित कर ।”
“बोल न....”
“साबित कर ।”
“अरे, बोला न....”
“वडी क्या कीमत है नी तेरे बोलने की ?” - तब झामनानी ताव में आ गया और हाथ नचाता बोला - “वडी मैं रण्डी के दलाल की जुबान पर एतबार कर सकता हूं तेरे जैसे पुलिसिये की जुबान पर नहीं ।”
नसीबसिंह हकबकाया सा उसका मुंह देखने लगा । कितनी ही देर उसके मुंह से बोल न फूटा ।
“तुम पछताओगे ।” - फिर वो कहरभरे स्वर में बोला ।
“तू चड़या है । तरस आता है मुझे तेरी अक्ल पर । नहीं जानता कि तू तभी तक ताकतवर था जब तक हमारा माल तेरे कब्जे में था । तेरे कब्जे से माल निकल गया, तेरी ताकत खत्म हो गयी । अब तू बोला या कुत्ता भौंका, वडी एक ही बात है नी ।”
“तू मेरे को कुत्ता बोला ?”
“वडी अब बोला तो बोला ।”
“मैं बरबाद कर दूंगा । तबाह कर दूंगा ।”
“वडी क्या करेगा नी ? मुखबिरी करेगा - जैसे कि तू बजाज को बोला - हेरोइन की बाबत अपने आला अफसरों को बयान देगा ?”
“मैं ऐन यही करूंगा ।”
“वडी फिर तेरा क्या होगा नी ?”
“अब मुझे अपनी कोई परवाह नहीं । तुम लोगों का बेड़ागर्क करने में अगर मेरा बेड़ागर्क होता है तो हो जाये ।”
“वडी, जब माल पेश नहीं कर सकेगा तो कौन विश्वास करेगा तेरे जैसे करप्ट पुलिसिये का ?”
“करेगा । हर कोई करेगा । तुम देखना ।”
“तू तो सच में ही चड़या हुआ है । वही जब तू हमारे खिलाफ भौंकेगा तो हम चुप रहेंगे ? हम नहीं बोलेंगे कि अमरदीप और शैलजा को गोली तूने मारी थी ? हम नहीं बोलेंगे कि अपने ए.सी.पी. का खून तूने किया था ? तेरा जो आला अफसर तेरी अकेले की सुनेगा वो हम चार बिरादरीभाइयों की नहीं सुनेगा ? मुखबिरी करना तू ही सीखा है, कर्मांमारे ? तू दिखा हमारे खिलाफ जा के । घन्टे की तरह फांसी से लटका होगा ।”
नसीबसिंह भौंचक्का सा झामनानी का रौद्ररूप देखता रहा ।
“इतना भी नहीं समझता कम्बख्तमारा कि किस जुर्म की सजा ज्यादा होती है, जबकि पुलिस वाला है । वडी ट्रिपल मर्डर की सजा ज्यादा होती है नी या हेरोइन स्मगलिंग की ? ऊपर से मौजूदा हालात में तेरी कोई कोशिश हेरोइन से हमारा रिश्ता नहीं जोड़ सकती । तू हेरोइन की पेटी की बरामदी करा सकता तो तब भी कोई बात थी । कहने का मतलब ये है, ईडियट साईं, कि तू अपने आला अफसरों के सामने हमारे खिलाफ भौंकना अफोर्ड नहीं कर सकता क्योंकि तू कत्ल किया होना - खासतौर से अपने ए.सी.पी. का - कुबूल करना अफोर्ड नहीं कर सकता । वडी गलत बोला नी मैं ? गलत बोला तो मुंह पकड़ मेरा ।”
नसीबसिंह से मुंह पकड़ते न बना ।
“वडी अपनी खैरियत चाहता है तो अब दफा हो जा यहां से और दोबारा मुझे कभी अपना काला मुंह न‍ दिखाना । खड़ा हो उठ के ।”
नसीबसिंह यूं झटके से कुर्सी पर से उठा कि कुर्सी उलट गयी ।
“मैं देख लूंगा ।” - वो खूंखार स्वर में बोला ।
“अभी देख ।” - झामनानी उससे ज्यादा खूंखार स्वर में बोला - “अभी देख गोलीवजने । अभी देख ।”
“मैं देख लूंगा ।”
अपमान से तिलमिलाता अंगारों पर लोटता नसीबसिंह वहां से रुख्सत हुआ ।
“जा के पक्की कर” - पीछे झामनानी बोला - “दफा हुआ कि नहीं !”
सहमति में सिर हिलाता बजाज बाहर को बढा ।
ऑफिस की मेन ऐन्ट्रेंस से उसने नसीबसिंह को मोटरसाइकल पर सवार होकर वहां से रुख्सत होते देखा । वो वापिस लौटने ही लगा था कि मुरली उसके करीब सरक आया ।
“कुछ लोग” - वो धीरे से बोला - “निगाहबीनी करते जान पड़ते हैं ।”
“उस पुलिसिये की ?” - बजाज बोला ।
“वो तो गया । वो तो अभी यहीं हैं ।”
“कहां हैं ?”
“एक वो सामने बिजली के खम्बे के साथ लगा खड़ा सिगरेट पी रहा है, दो सामने खड़ी दोरंगी फियेट में हैं ।”
“निगाहबीनी काहे की कर रहे हैं ?”
“ऑफिस की ।”
“कैसे मालूम ?”
“मुझे लगा ऐसा ।”
“खामखाह !”
“अब जो मुझे लगा, मैंने बोल दिया ।”
“ऑफिस की निगरानी किस लिये ?”
“सोचो ।”
“बॉस के पीछे लगे पहुंचे ?”
“हो सकता है ।”
“मालूम पड़ जायेगा । अगर बॉस के पीछे लगे हैं तो बॉस जब इधर से जायेगा तो फिर उसके पीछे होंगे । मैं... बोलता हूं बॉस को ।”
मुरली का सिर सहमति में हिला ।
***
अन्धेरी के इलाके में वो एक दोमंजिला इमारत थी जिस पर लगा खूब बड़ा बोर्ड कहता था:
अवधूत गैरेज
रिपेयर और सर्विस के लिये चौबीस घन्टे खुला
स्पैशल ब्रेक डाउन सर्विस ।
इमारत के सामने एक अहाता था जिसमें कुछ कारें खड़ी थीं । भीतर एक हाल था जहां रात की उस घड़ी भी हर तरह का काम चल रहा था । सामने भाग में एक विशाल ऑफिस टेबल यूं लगी हुई थी कि उस पर बैठा शख्स वहां होते हर काम पर निगाह रख सकता था । उस टेबल पर काटन का डॉक्टरों जैसा लेकिन रंग में सलेटी कोट पहने अवधूत मौजूद था ।
गैरेज के फाटक से इनायत दफेदार ने भीतर कदम रखा ।
उससे एक कदम पीछे जेकब परदेसी था ।
दोनों के दायें हाथ उनकी जेबों में थे ।
अवधूत की तत्काल उन पर नजर पड़ी । उसके नेत्र सिकुड़े । उसने धीरे से मेज का एक दराज बाहर खींच लिया और करीब ही मौजूद अपने फोरमैन को इशारा किया ।
फोरमैन खुले दराज के करीब आ खड़ा हुआ । आगन्तुक यूं खुले दराज के भीतर नहीं झांक सकते थे लेकिन फोरमैन झांक सकता था और देख सकता था कि उसमें दो रिवॉल्वरें पड़ी थीं और अवधूत का इशारा समझ सकता था कि एक उसके लिये थी ।
“कैसा है अवधूत ?” - जबरन मुस्कराता दफेदार बोला ।
“बढिया ।” - नेत्र सिकोड़े अवधूत बोला - “आज इधर कैसे आ गया भूले से ?”
“भूले से नहीं आया ।” - पूर्ववत मुस्कराता दफेदार बोला ।
“ऐसा ?”
“ऊपर कैसा है ?”
“ऊपर ? ऊपर किधर ?”
“तेरे को मालूम किधर ? आज मेरे को भी किस्मत आजमाने का है ।”
“ऊपर कुछ नहीं है ।”
“बंडल मारेला है ?”
“कुछ नहीं है । रेड पड़ गयी थी । बन्द करना पड़ा ।”
“रेड पांच महीने पहले पड़ी थी । क्योंकि तू पुलिस को हफ्ता नहीं पहुंचाया । तब ऊपर चलता तेरा जुआघर सात आठ दिन बन्द रहा था फिर सब सैट हो गया था और अभी तक सैट ही है ।”
“क्या मांगता है ?”
“किस्मत आजमाना मांगता है । बोला न !”
“असल में क्या मांगता है ?”
“जफर सुलतान ! और ख्वाजा !”
“वो इधर नहीं हैं ।”
“खामखाह ! जब हमेशा होते हैं तो अब क्यों नहीं हैं ?”
“बोला न, नहीं हैं ।”
“देखते हैं । रास्ता दिखा, बिरादर ।”
“दफेदार !” - अवधूत सख्ती से बोला - “मैं इधर गलाटा नहीं मांगता । गलाटा नहीं मांगता इसलिये तेरे को इधर देखना नहीं मांगता । तेरे को भी, परदेसी ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“जानता है किस को हूल दे रहा है ?”
“जानता हूं ।”
“भाई’ के आदमी से ऐसे पेश आने की मजाल होती तो नहीं किसी की मुम्बई शहर में ।”
“मेरा ‘भाई’ से कोई पंगा नहीं । मेरी ‘भाई’ से कोई अदावत नहीं ।मैं गलाटा नहीं मांगता इसलिये....”
“भाई’ के आदमी से ऐसे पेश आयेगा तो पंगा तो होगा, अदावत तो होगी ।”
“मैं गलाटा नहीं मांगता । तुम दोनों के छुपे हुए हाथों में गन है, मेरे को मालूम पण....”
“क्या पण ?”
अवधूत ने फोरमैन को संकेत किया । फोरमैन ने दराज में हाथ डालकर एक रिवॉल्वर निकाल ली । दूसरी अवधूत ने काबू में कर ली ।
“हाथ जेब में ही रहें ।” - अवधूत चेतावनीभरे स्वर में बोला ।
“हुक्म सिर माथे ।” - दफेदार व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“मेरा जुआघर इसलिये चलता है क्योंकि इधर आने वालों की सेफ्टी की गारन्टी होती है । मैं ऐसी धांधली चलने दूंगा तो कौन मेरी गारन्टी को खातिर में लायेगा ?”
“प्राब्लम तो है, भई, तेरी ।”
“और उसका हल ये है कि चुपचाप इधर से नक्की कर ।”
“ये हुक्म है ?”
“गुजारिश है ।”
“गुजारिश मुझे न कुबूल हो तो ?”
“तो” - अवधूत ने आह सी भरी - “तुम दोनों का आगे बढा अगला कदम जहन्नुन की देहरी पर होगा ।”
“हम दोनों का ?”
“हां ।”
“हूं ।” - दफेदार ने बड़ी गम्भीरता से हुंकार भरी और एकाएक मुंह से सीटी बजायी ।
प्रेत की तरह फाटक पर तीन आदमी प्रकट हुए । तीनों के हाथ में एल.एम.जी. थीं ।
“इन तीन के बारे में क्या कहता है, अवधूत ?” - दफेदार बोला ।
अवधूत ने जवाब न दिया । उसके गले की घन्टी जोर से उछली ।
“सात बाहर हैं ।” - दफेदार धीरे से बोला - “ऐसीच हथियारबन्द ।”
अवधूत का रिवॉल्वर वाला हाथ झुक गया ।
फोरमैन पर भी वो ही प्रतिक्रिया हुई ।
“भाई’ राजा आदमी है ।” - दफेदार बोला - “वो किसी का धन्धा बिगाड़ने के खिलाफ है । तभी मैं खाली परदेसी को लेकर भीतर आया । क्या ?”
“क्या ?” - जोर से थूक निगलता अवधूत बोला - “क्या मांगता है ?”
“बोला तो ।”
“मैं उन्हें बुलाता हूं ।”
दफेदार ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या वान्दा है ?”
“मुझे पिछवाड़े के चोर दरवाजे की खबर है ।”
अवधूत ने गहरी सांस ली और बेबस अन्दाज से गर्दन हिलाई ।
“तो ?” - वो बोला ।
“ले के चल ।”
अवधूत की निगाह फाटक की तरफ उठी ।
“खाली मेरे को और परदेसी को ।”
अवधूत का सिर सहमति में हिला, उसने रिवॉल्वर दराज में डाल दी और उसके इशारे पर वैसी ही फोरमैन ने किया ।
“आओ ।” - अवधूत उठता हुआ बोला ।
“शुक्रिया ।” - दफेदार बोला ।
दोनों अवधूत के पीछे हो लिये ।
गैरेज के पिछवाड़े में एक बन्द दरवाजा था । अवधूत ने दरवाजा खोला तो पीछे से एक ऑफिसनुमा कमरा प्रकट हुआ । कमरे की एक समूची दीवार के साथ छत तक पहुंचने वाले क्लोजेट थे । उसने एक क्लोजेट का दरवाजा खींचा तो भीतर अपने आप बत्ती जल उठी और वहां से ऊपर को जाती सीढियां दिखाई दीं ।
अवधूत दरवाजे से परे हट के खड़ा हो गया ।
“साथ चल ।” - दफेदार बोला ।
“इतना बकश, बाप” - अवधूत याचनापूर्ण स्वर में बोला - “वरना जो शामत उन पर आने वाली है, उसके लिये मेरे को ही जिम्मेदार मान लिया जायेगा ।”
“वैसे नहीं मान लिया जायेगा ?”
“तू चाहेगा तो नहीं मान लिया जायेगा । समझो तुम दोनों भी जुआ खेलने आये । फिर कैसे मान लिया जायेगा ?”
“हूं ।”
“तभी मैं उन्हें गैरेज में बुलाने को बोला ।”
“क्या पता बुलाता या चोर दरवाजे से खिसकाता !”
अवधूत ने आहत भाव से असकी तरफ देखा ।
“ठीक है ।” - दफेदार बोला ।
“उन्हें साथ लेकर इधर से निकल लेना । गुजारिश है । जो करना कहीं और जा के करना ।”
“क्या ?”
“कुछ भी । जो भी मन में हो ।”
“देखता है ।”
दोनों सीढियां चढ के ऊपर पहुंचे ।
ऊपर लकड़ी के फर्श वाला नीची छत वाला हाल था जो कि मैजनीन फ्लोर कहलाता था । वो फ्लोर जब बना था तो यकीनन उस काम के लिये नहीं बना था जो कि उस घड़ी वहां हो रहा था । वहां पन्द्रह सोलह टेबल बिछी हुई थीं जिनमें से अधिकतर पर लोग मौजूद थे और फ्लैश खेल रहे थे । एक दीवार में शीशे की खिड़कियां थीं जिन पर इतने मोटे पर्दे पड़े हुए थे कि रोशनी बाहर नहीं जा सकती थी । हाल सिगरेट के धुयें से भरा हुआ था लेकिन वहां उससे किसी को कोई एतराज नहीं जान पड़ता था ।
दफेदार की निगाह पैन होती हुई हाल में फिरी ।
जफर सुलतान उसे परले सिरे की एक टेबल पर बैठा दिखाई दिया ।
“दूसरा नहीं दिखाई दे रहा ।” - दफेदार दबे स्वर में बोला - “उसे ढूंढ, मैं इसकी खबर लेता हूं ।”
परदेसी ने सहमति में सिर हिलाया ।
दफेदार हाल में बायें से आगे बढा ।
परदेसी ने दायीं ओर का रुख किया ।
तभी जफर सुलतान की नजर दफेदार पर पड़ी । उसके नेत्र फैले । तत्काल उसने पत्ते फेंके, उठ कर खड़ा हुआ और घूम कर पिछवाड़े के एक बन्द दरवाजे की तरफ बढा ।
जरूर उधर चोर दरवाजा था । - दफेदार ने मन ही मन सोचा ।
वो वहां चोर दरवाजे के वजूद से वाकिफ था लेकिन उसे ये नहीं मालूम था कि वो कहां था ?
“वहीं रुक जा, जफर ।” - दफेदार जेब से रिवॉल्वर निकाल कर उसकी तरफ तानता हुआ कड़क कर बोला ।
हाल में एकाएक मुकम्मल सन्नाटा छा गया, सब ताश खेलना भूल गये और मुंह बाये दफेदार की तरफ देखने लगे । अधिकतर लोग जानते थे कि दफेदार कौन था और कितना खतरनाक था इसलिये किसी ने अपने स्थान से हिलने तक की कोशिश न की ।
जफर सुलतान ने रुकने की नीयत न दिखाई, उसने बन्द दरवाजे की तरफ छलांग लगायी । वो दरवाजा खोलने में कामयाब हो भी चुका था जबकि उसकी खोपड़ी से दफेदार की गन से निकली गोली आकर टकराई और वो वहीं ढेर हो गया ।
गोली की आवाज, जो कि हाल के बन्द वातावरण में बहुत जोर से गूंजी थी, ख्वाजा ने टायलेट में तब सुनी जबकि वो वहां से निकल कर हाल में कदम रखने ही वाला था । उसको धराशायी हुआ जफर सुलतान तो न दिखाई दिया लेकिन दफेदार की धुआं उगलती गन की एक झलक दरवाजा वापिस बन्द करते करते उसे बराबर दिखाई दी ।
“टायलेट में है ।” - उसे परदेसी की आवाज सुनायी दी ।
ख्वाजा ने टायलेट का दरवाजा भीतर से बन्द किया और व्याकुल भाव से वहां के सीमित क्षेत्र में निगाह दौड़ाई । कमोड के पीछे एक रोशनदान था, उसे कोई उम्मीद दिखाई दी तो उसी में दिखाई दी ।
दरवाजे पर बाहर से चोटें पड़ रही थीं ।
वो कमोड पर चढ गया । उसने रोशनदान को खोलने की कोशिश की तो उसे जाम हुआ पाया ।
दरवाजा बाहर से पड़ती चोटों से हिल रहा था और किसी भी क्षण टूट सकता था ।
ख्वाजा ने आतंकित भाव से फिर टायलेट में निगाह दौड़ई तो उसे कमोड के करीब दीवार के साथ टिका खड़ा कमोड साफ करने के काम आने वाला लकड़ी का ब्रश दिखाई दिया । उसने झपटकर ब्रश उठाया और अन्धाधुन्ध उसके प्रहार रोशनदान के शीशे पर किये ।
शीशा टूट गया और आइन्दा चोटों से उसके टूटे टुकड़े चौखट में से निकल गये ।
दरवाजा जोर से चरमराया ।
वो कमोड पर से पानी की टंकी पर चढा और वहां से आगे रोशनदान तक पहुंचा । बड़ी मुश्किल से वो रोशनदान से पार निकल पाया । उस कोशिश में उसे कई खरोंचें लगीं लेकिन वो फिर भी राजी था कि वो अब इमारत से बाहर था ।
बाहर !
उसने नीचे झांका तो उसका सांस सूख गया ।
तभी दरवाजा टूट कर गिरा ।
मरता क्या न करता के अन्दाज से उसने नीचे छलांग लगा दी । एक जोर की धड़ाम की आवाज के साथ वो एक कार की छत पर जाकर गिरा । उसका पोर पोर झनझना गया लेकिन वो गम्भीर चोट खाने से वो बच गया जो कि वो नीचे सड़क पर जाकर गिरता तो उसे लगती ।
वो सीधा हुआ !
“वो रहा !” - पीछे रोशनदान में से चिल्लाया ।
उसने कार से नीचे छलांग लगायी और जान छोड़ कर सामने को अन्धेरी गली में भागा ।
दो फायर हुए ।
वो बाल बाल बचा ।
दो फायर और हुए ।
लेकिन तब तक वो अन्धेरी गली में बहुत गहरा धंस चुका था और अन्धेरे का अंग बन चुका था ।
***
झामनानी अपनी शेवरलेट में सवार था जिसे कि हमेशा की तरह उसका ड्राइवर भागचन्द चला रहा था ।
गाड़ी करोलबाग से निकल कर पूसा रोड पर पहुंची और दायें घूमी । दो चौराहे पार कर वो ‘मैक्डोनाल्ड’ के जगमग जगमग फास्ट फूड रेस्टोरेंट के सामने रुकी ।
झामनानी कार में से निकला और बिना दायें झांके रेस्टोरेंट की चार सीढियां चढ़ के भीतर दाखिल हो गया ।
भीतर उस घड़ी काफी भीड़ थी । कैश काउन्टर पर भी लाइन लगी हुई थी जिसमें वो खड़ा हो गया ।
शेवरलेट से थोडी दूर आन खड़ी हुई दोरंगी फियेट में से इकबाल बाहर निकला, लापरवाही से टहलता हुआ आगे बढ़ा और रेस्टोरेंट में दाखिल हो गया । वो कैश काउन्टर पर पहुंचा और झामनानी के पीछे जा खड़ा हुआ ।
पांच मिनट में झामनानी का नम्बर आया ।
फिर इकबाल का ।
उसने तीन पैप्सी के दाम चुकाये, काउन्टर पर जाकर कार्डबोर्ड के कार्टन में पैप्सी हासिल किये और रेस्टोरेंट से बाहर निकल आया । सहज भाव से चलता हुआ वो जाकर फियेट की पिछली सीट पर बैठ गया ।
आगे रहमान और अनीस मौजूद थे ।
उसने दो पैप्सी उन दोनों को पकड़ाये और बोला - “तीन पीजा चिकन चिली कैप्सीकम, तीन महाबर्गर, तीन फ्रेंच फ्राइज, चार चिकन सैंडविच, एक पैप्सी । बीस पच्चीस मिनट लगेंगे ।”
“तू पैप्सी क्यों लाया ?” - रहमान बोला ।
“लो ! उसके पीछे लाइन में लगा था तो कुछ तो लेना था ।”
“न लेता तो फौजदारी हो जाती ?”
“हद है नाशुक्रेपन की । लाओ, वापिस करो । मैं तीनों पी लूंगा ।”
“अच्छा, अच्छा ।पांच मिनट बाद चक्कर लगाना ।”
कार में खामोशी छा गयी ।
पांच मिनट बाद इकबाल रेस्टोरेंट में गया और उल्टे पांव वापिस लौटा ।
“एक सैंडविच खा रहा है ।” - वो बोला - “और पैप्सी पी रहा है । तीन पैक्ड सैंडविच मेरे सामने लीं ।”
“सैंडविच रेडीमेड माल है ।” - रहमान बोला - “पैप्सी की तरह झट मिलता है ।”
“हां । महाबर्गर भी बारी आने पर जल्दी मिल जायेगा । पीजा में टाइम लगेगा ।”
“वो आ रहा है ।” - ड्राइविंग सीट पर बैठा अनीस बोला ।
सब की निगाह शेवरलेट की तरफ उठी ।
पैप्सी चुसकते झामनानी ने सैंडविच के कार्डबोर्ड के डिब्बे और फ्रेंच फ्राइज के लिफाफे भागचन्द को पकड़ाये और वापिस रेस्टोरेंट में दाखिल हो गया ।
थोड़ी देर बाद वो फिर वापिस आया और कार्डबोर्ड के तीन और डिब्बे भागचन्द को थमा गया ।
“महाबर्गर होंगे ।” - इकबाल बोला - “डिब्बे उसी साइज के हैं ।”
रहमान ने सहमति में सिर हिलाया और बोला - “एक चक्कर काट के आ ।”
“क्या फायदा ? बार बार जाने से पहचान में आ जाने का अन्देशा है ।”
“एक आखिरी बार और जा ।”
इकबाल गया और पूर्ववत उलटे पांव वापिस लौटा ।
“टाइम लगेगा उसे अभी ।” - उसने रिपोर्ट पेश की - “अभी उसका पीजा का नम्बर दूर है ।”
“तुझे क्या खबर उसके नम्बर की ?” - रहमान बोला ।
“क्यों नहीं खबर ? उसके ऐन पीछे मैं था । जो मेरी कैशमीमो का नम्बर था उससे पहला नम्बर उसका न हुआ ?”
“काफी सयाना हो गया है ।”
“चार सौ बावन नम्बर है उसका, अभी तो चार सौ तिरतालीस चल रहा है । टाइम लगेगा ।”
“ठीक है ।”
वो खामोशी से कार में बैठे रहे ।
दस मिनट गुजर गये
रहमान ने बेचैनी से पहलू बदला ।
पांच मिनट और गुजारे ।
“देख के आ ।” - वो चिन्तित भाव से बोला ।
वैसे ही चिन्तित भाव से इकबाल ने सहमति में सिर हिलाया और कार में से निकला । वो जाकर रेस्टोरेंट में दाखिल हुआ ।
दो मिनट बाद वो लपकता हुआ वापिस लौटा ।
“नहीं है ।” - वो बौखलाये स्वर में बोला ।
“क्या ?”
“नहीं है । नम्बर चार सौ छप्पन चल रहा है, उसके पीजा तैयार काउन्टर पर पड़े हैं । नोटिस बोर्ड पर उसका नम्बर फ्लैश हो रहा है कि उसका आर्डर ठण्डा हो रहा है ।”
“टायलेट में होगा ।”
“देखा । नहीं है ।”
“तो कहां चला गया ? गाड़ी तो खड़ी है ?”
“उसका ड्राइवर इधर आ रहा है ।” - अनीस बोला ।
रहमान ने घूम कर सामने देखा ।
भागचन्द करीब पहुंचा ।
वो कार की पैसेंजर साइड पर पहुंचा और एक कागज रहमान की तरफ बढ़ाने लगा ।
“क्या है ?” - रहमान बोला ।
“झामनानी साहब की तरफ से तोहफा है ।” - भागचन्द सहज भाव से बोला ।
“क्या ?”
“तीन पीजा चिकन चिली कैप्सीकम । जा के काबू में करो, ठण्डे हो रहे हैं ।”
रहमान मुंह बाये उसे देखता रहा ।
वैसा ही हाल उसके भाइयों का था ।
उसे कैशमीमो थामता न पाकर भागचन्द ने खिड़की में हाथ डाल कर कैशमीमो रहमान की गोद में डाल दी और यूं टहलता हुआ शेवरलेट की तरफ बढ़ गया जैसे कम्पनी बाग में वाक के लिये निकला हो ।
पीछे फियेट में बैठे तीनों के चेहरों पर कालख पुती छोड़ कर ।
***
एक टैक्सी होटल सी-व्यू की मारकी में आकर रुकी ।
टैक्सी के पैसेंजर ने बिना मीटर देखे अगली सीट पर कुछ नोट उछाले और झपट कर बाहर निकला ।
डोरमैन का हाथ आदतन खोलने के लिये आगे बढ़ा लेकिन वो पैसेंजर इतना उतावला था कि उसने पहले ही दूसरे दरवाजे को धक्का दिया और भीतर दाखिल हो गया ।
लपकता हुआ वो रिसैप्शन पर पहुंचा ।
रिसैप्शन उस समय खाली था । उस पर मौजूद दो क्लर्कों में से एक उसकी तरफ आकर्षित हुआ ।
“यस सर ?” - वो व्यवसायसुलभ स्वागतपूर्ण स्वर में बोला ।
“मुझे” - ख्वाजा हांफता हुआ बोला - “बॉस से मिलना है । फौरन ।”
कलर्क ने सशंक भाव से आगन्तुक पर निगाह डाली । ये देख कर उसकी भवें उठीं की कि जो सफेद सफारी सूट आगन्तुक पहने था उस पर कई तरह के दाग धब्बे थे, पतलून का एक पाहुंचा घुटने के करीब से फटा हुआ और खुद आगन्तुक के चेहरे पर और हाथों और कलाइयों पर कई जगह खरोंचे दिखाई दे रही थीं ।
ख्वाजा बार बार व्याकुल निगाहों से पीछे दरवाजे की तरफ देख रहा था ।
अन्धेरी से वो अपनी कार पर रवाना हुआ था लेकिन तत्काल ही एक नहीं दो कारों को उसने अपने पीछे लगा पाया था जो कि उसे रोकना चाहती थीं या उसे एक्सीडेंट कर देने पर मजबूर करना चाहती थीं । उनसे निजात उसे तब मिली थी जब वो एक बिजी चौराहे की लालबत्ती पर पहुंचा था । वहां वो बीच सड़क पर कार खड़ी छोड़ कर सड़क के पार दौडा़ था और विपरीत दिशा में जाती एक खाली टैक्सी को रोक कर उसमें सवार हो गया था उस कोशिश में एक बस की चपेट में आने से वो बाल बाल बचा था लेकिन अपने पीछे लगी कारों से तब उसका पीछा छूट गया था ।
लेकिन पीछा पक्का ही छूट गया था, इस बाबत न जाने क्यों उसका दिल गवाही नहीं दे रहा था ।
“विच बॉस, सर ?”
उसकी तन्द्रा टूटी ।
“क... क्या ?” - वो बोला - “क्या ?”
“मैं पूछ रहा था, सर” - क्लर्क बोला - “कि आप कौन से बॉस से मिलना चाहते हैं ?”
“बिग बॉस से और किससे ? और कौन मुझे पनाह दे सकता है ?”
“सर, मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि....”
“कान इधर करो ।”
झिझकते हुए क्लर्क ने अपना सिर आगे किया ।
“सोहल से ।” - ख्वाजा फुसफुसाता सा बोला ।
“जी ?”
“सोहल ! सोहल से ।”
“वो कौन हैं ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“जी नहीं ।”
“तो मुझे किसी ऐसे शख्स से मिलाओ जिसे मालूम हो ।”
“ये जिन साहब का आपने नाम लिया, वो यहां ठहरे हुए हैं ? गैस्ट हैं हमारे होटल के ?”
“नहीं । मालिक हैं ।”
क्लर्क ने यूं उसकी तरफ देखा जैसे किसी पागल का प्रलाप सुन रहा हो ।
“सर” - वो बोला - “लगता है आप किसी गलत जगह पर आ गये हैं ।”
“मैं ठीक जगह पर आया हूं । तुम मेरी बात समझो, मेरी प्राब्लम समझो और फौरन मुझे बिग बॉस के हुजूर में पेश करो वरना मैं बेमौत मारा जाऊंगा ।”
“जी ?”
“जल्दी करो । खुदा के वास्ते जल्दी करो ।”
“मैं... मैं मैनेजर से बात करता हूं ।”
रिसैप्शन की कॉल नाइट शिफ्ट के मैनेजर ने रिसीव की । उसे मामला अपनी ड्यूटीज के स्कोप से बाहर वाला लगा इसलिये उसने सिक्योरिटी चीफ तिलक मारवाड़े से बात की जो कि संयोगवश ही उस घड़ी होटल में मौजूद था । तिलक मारवाड़े ने आगे राजा साहब के सैक्रेट्री कौल को फोन लगाया ।
विमल संयोगवश तब टायलेट में था ।
उसेकी वक्ती गैरहाजिरी की उस घड़ी में फोन इरफान ने सुना ।
सुना और संजीदगी से सिर हिलाया ।
तभी टायलेट से विमल बाहर निकला ।
इरफान ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और उसकी तरफ आकर्षित हुआ ।
विमल की भवें उठीं ।
“नीचे लॉबी में एक भीड़ू पहुंचा है ।” - इरफान बोला - “सोहल को पूछता है ।”
“वजह ?”
“पनाह पाने का तमन्नाई है । जो न मिली तो बोलता है बेमौत मारा जायेगा ।”
“पनाह यहां ?”
“यहां और सोहल से हासिल । मैं सोहल बोला, बाप ।”
“क्या मतलब हुआ इसका ?”
“दुश्मनों की कोई चाल जान पड़ती है ।”
“चाल ?”
“उस भीड़ू को पनाह देना ये तसलीम करना होगा कि सोहल इधर पाया जाता है ।”
“हूं । पनाह चाहता क्यों है ?”
“वो मैं अभी मालूम कर लूंगा पण पनाह नक्को, बाप ।”
“वो तो और वजह से भी नक्को ।”
“और वजह ?”
“ये फाइव स्टार डीलक्स होटल है जिसकी बिगड़ी साख को संवारना हमारा मेन मिशन है । हमने ऐसी बातों को तरह दी तो हमारे में और बखिया में फर्क क्या रह जायेगा ?”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“बस लॉबी में जहांगीरी घंटा लटकाने की कसर रह जायेगी ।”
“कोई भी आ के जंजीर खींचेगा और बोलेगा सोहल से मिलना है । सोहल बोलेगा, बंदा हाजिर है ।”
“वही तो ।”
“मैं देखता है ।”
इरफान रिसैप्शन पर पहुंचा ।
उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से क्लर्क की तरफ देखा ।
क्लर्क ने फौरन रिसैप्शन पर मौजूद इकलौते शख्स की तरफ इशारा कर दिया ।
उस इशारे ने ही ख्वाजा को अपने करीब किसी की मौजूदगी का अहसास कराया । उसने घूम कर देखा ।
“इरफान ?” - फिर उसके मुंह से निकला - “मेरे भाई । अब मेरी जान बच गयी ।”
“क्या है ?” - इरफान सर्द स्वर में बोला - “कौन हो ?”
“नहीं पहचाना ?”
“नहीं ।”
“मैं ख्वाजा । घाटकोपर वाला ।”
इरफान ने गौर से उसे देखा । उसका तो जैसे कायापलट हो गया था । हमेशा पठान सूट या कुरता पायजामा पहनने वाला, सिर पर जालीदार गोल टोपी लगाने वाला और दाढ़ी रखने वाला ख्वाजा उस वक्त क्लीन शेव्ड, माडर्न हेयर स्टाइल वाला, सफारी सूट वाला साहब बना उसके सामने खड़ा था ।
“ख्वाजा ।” - उसने दोहराया - “घाटकोपर वाला । अब पहचाना ?”
“नहीं ।” - इरफान पूर्ववत् सर्द स्वर में बोला ।
“अरे, बिरादर ! काहे नहीं पहचाना ? खाली दाढ़ी ही तो....”
“क्या मांगता है ?”
ख्वाजा हकबकाया, उसने व्याकुल भाव से क्लर्क की तरफ देखा और बोला - “इधर आ, बिरादर । बताता हूं ।”
ख्वाजा उसे रिसैप्शन से परे लॉबी के एक पिलर की ओट में ले गया ।
“क्या है ?” - इरफान बोला ।
“मेरी जान खतरे में है । बाल बाल बचा हूं । यूं समझो कि मौत छू कर गुजर गयी ।”
“क्या किस्सा है ?”
ख्वाजा ने अटकते झिझकते किस्सा बयान किया ।
किस्से में इनायत दफेदार और जेकब परदेसी का जिक्र सुन कर इरफान चौकन्ना हुआ लेकिन खामोश रहा ।
“ओह !” - वो खामोश हुआ तो इरफान बोला - “तो दफेदार खिलाफ हो गया ? दफेदार, जो कि ‘भाई’ का खास है ?”
“हां ।”
“मुम्बई में कहां पाया जाता है ?”
“मालूम नहीं ।”
“बंडल मारेला है ?”
“भिंडी बाजार में एक ट्रैवल एजेन्सी है, उधर फोन लगाओ तो वापिस कॉल करता है । और कुछ नहीं मालूम । अल्लाह कसम, और कुछ नहीं मालूम ।”
“और वो जेकब परदेसी ?”
“उसके लिये दगड़ी चाल के एक ईरानी रेस्टोरेंट में सन्देशा छोड़ना पड़ता है ।”
“पता उसका भी नहीं मालूम ?”
“मालूम है । धारावी के इसी नाम के होटल के कमरा नम्बर पांच में रहता है ।”
“इधर क्यों आया ?”
“इधर क्यों आया ? बिरादर, मेरे और जफर सुलतान के सिर पर जो मुसीबत टूटी, वो क्यों टूटी ?”
“क्यों टूटी ?”
“क्योंकि हमने सोहल के खिलाफ जाना कुबूल न किया ।”
“वजह ?”
“वजह अक्खा अन्डरवर्ल्ड जानता है । अक्खी ‘कम्पनी’ को खलास करने वाले सोहल की ताकत को इधर कौन नहीं जानता, कौन नहीं पहचानता ? बिरादर, दरिया में रह कर मगर से बैर कहीं होता है !”
“ऐसीच दफेदार को बोलना था ?”
“बोला । बरोबर बोला । पण वो तो नहीं पहचानता सोहल की ताकत को । सोहल को मच्छर बोलता था जिसे कि ‘भाई’ जब चाहे मसल सकता था ।”
“तू ऐसा नहीं समझता ?”
“अब तो कोई भी ऐसा नहीं समझता । ‘भाई’ उधर दिल्ली से जो मुंह काला करवा कर लौटा, उसकी बाबत इधर अन्डरवर्ल्ड का बच्चा बच्चा जानता है ।”
“तू ये कहना चाहता है कि आज की तारीख में ‘भाई’ के कहने पर सोहल के खिलाफ जाने की मजाल किसी की नहीं हो सकती ?”
“सब की बात मैं कैसे बोल सकता हूं, बिरादर ! अपनी अपनी अक्ल है । अपना अपना हौसला है । अपना अपना लालच है । कोई बड़ा रिस्क ले कर बड़ी सुपारी उठाना मांगता है तो उसे कौन रोक सकता है ?”
“इधर क्यों आया ?”
“बिरादर, बोला तो !”
“नहीं बोला ।”
“पनाह मांगता आया, बिरादर, पनाह मांगता आया । मौत मेरे पीछे है । ऐसे में यहीच एक जगह है जहां मुझे मौत से निजात मिल सकती है ।”
“खामखाह ?”
“बिरादर, जब खुद सोहल इधर मुझे पनाह देगा तो....”
“सोहल का इधर क्या काम ? ये फाइव स्टार होटल है । सोहल जैसे गैंगस्टर का इधर क्या काम ?”
“क्या बोला, बिरादर ?”
“जो तू सुना ।”
“गुस्ताखी माफ, बिरादर, फिर तेरा भी इधर क्या काम ?”
“मैं ! मैं मुलाजिम है होटल का । इधर सिक्योरिटी आफिसर की मुलाजमत करता है ।”
“बिरादर, क्यों दाई से पेट छुपाता है ? तुकाराम और वागले के अंडर में चलने वाला कल का मामूली प्यादा अफसर बोलता है अपने आपको ! वो भी इतने बड़े होटल की सिक्योरिटी का !”
“मैं तरक्की किया ।”
“सोहल जैसे बिग बॉस के वफादार तरक्की करते ही हैं । अब तू फटाफट बॉस के हुजूर में मेरी पेशी करा ताकि मैं उसकी कदमबोसी का फख्र हासिल कर सकूं और उसकी ऊंची औकात और बड़ी हस्ती के जेरेसाया पनाह पा सकूं ।”
“माथा फिरेला है ? अरे, क्या बोला मैं ? क्या सुना तू ? मैं बोला, सोहल का इधर क्या काम ?”
ख्वाजा के मुंह से बोल न फूटा । कितनी ही देर वो अवाक् इरफान को देखता रहा ।
“बिरादर” - फिर वो कातर भाव से इतने धीमे स्वर में बोला कि इरफान बड़ी मुश्किल से सुन पाया - “अक्खी मुम्बई से पूछ ले, यहीच सुनने को मिलेगा कि ये होटल वैसीच सोहल के कब्जे में है जैसे पहले गजरे के कब्जे में था, उससे पहले इकबाल सिंह के कब्जे में था और उससे और पहले बखिया के कब्जे में था इसलिये....”
“ये बात गलत है, बेबुनियाद है । होटल के मौजूदा मालिक का नाम राजा गजेन्द्र सिंह है, जहां से मर्जी पता कर ले ।”
“सोहल किसी को भी मालिक बना सकता है । कहने को मालिक कोई भी हो सकता है लेकिन असलियत यही है कि ये ‘कम्पनी’का हैडक्वार्टर है और ‘कम्पनी’ का निजाम अब सोहल के हाथों में है ।”
“अरे, खरदिमाग ! ‘कम्पनी’ खत्म है । उसका मुर्दा बहुत गहरा दफन हो चुका है ।”
“ये फर्जी बात है । फैलाई हुई बात है । ‘कम्पनी’ न खत्म है, न हो सकती है । बड़ी हद मैं ये मान सकता हूं कि कुछ अरसा ‘कम्पनी’ का नाम न लेने में नये बिग बॉस सोहल को अपनी कोई भलाई दिखाई देती है ।”
“तू... तू दीवाना है ।”
“जो मर्जी कह, बिरादर । मेरे को दीवाना कह या अहमक । या मेरे को पहचानने से इंकार कर । मैं सोहल से मिले बिना यहां से नहीं जाने वाला ।”
“ये नामुमकिन है क्योंकि....”
“मुलाकात नामुमकिन है किसी वजह से तो कोई वान्दा नहीं पण तू ऐसा बोल तो सही ।”
“तौबा !”
“पण पनाह तो नामुमकिन नहीं ?”
“ये पनाहगाह नहीं है, फाइव स्टार डीलक्स होटल है । पनाह मांगता है तो थाने जा । अपनी जान को खतरा महसूस करता है तो जा के पुलिस को बता । पण इधर से आभी का अभी टल ।”
“हरगिज नहीं ।”
“बाहर फिंकवा दिया जायेगा ।”
“तू ऐसा कर सकता है, बिरादर । आखिर सिक्योरिटी आफिसर बोला तू अपने आपको इधर का पण तूने ऐसा किया तो मेरा खून तेरे सर होगा । सोहल के सर होगा ।”
“अल्लाह ! लगता है तुझे जबरन यहां से निकलवाने का नामुराद काम मुझे करना ही पड़ेगा ।”
“ये तेरा आखिरी फैसला है, इरफान अली ?”
“पहला भी यही था ।”
“तू अपने मुसलमान भाई को नाहक जिबह हो जाने देगा ?”
“तौबा ! फिर पहुंच गया एक आने वाली जगह पर !”
“अच्छी बात है । मैं जाता हूं । जाता हूं मौत की आगोश में । बिरादर, एक मामूली जहमत गवारा हो तो कर लेना ।”
“क्या ?”
“सोहल तक मेरा एक पैगाम पहुंचा देना ।”
“अरे, क्या ?”
“उसे बोलना उसके एक शैदाई ने अपना खून उसे माफ किया ।”
इरफान हक्का बक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
ख्वाजा भारी कदमों से बाहर की ओर बढा ।
चेहरे पर असमंजस के भाव लिये इरफान उसे जाता देखता रहा ।
डोरमैन ने रुखसत पाते मेहमान के लिये शीशे का दरवाजा खोला ।
तभी एक टैक्सी मारकी में पहुंची ।
ख्वाजा ने देखा कि टैक्सी खाली थी । उसने उसे इशारा किया । ड्राइवर ने भीतर से ही हाथ निकाल कर टैक्सी का मीटर डाउन किया और फिर पीछे का, उसकी ओर का, दरवाजा खोला ।
ख्वाजा टैक्सी में सवार हो गया ।
टैक्सी तत्काल आगे बढ चली ।
टैक्सी ड्राइवर ने सिर्फ वर्दी वाला था बल्कि वो सिर पर शोफरों जैसी पीक कैप भी पहने था जो कि सफेद की जगह वर्दी जैसे खाकी रंग की थी ।
“बोरीवली चलने का है ।” - वो ड्राइवर की पीठ से बोला ।
जवाब में ड्राइवर ने हुंकार भरी ।
टैक्सी ने होटल का ड्राइव वे पार किया और आयरन गेट से बाहर निकल कर सड़क पर आ गयी ।
उस घड़ी सड़क सुनसान पड़ी थी ।
टैक्सी मंथर गति से सड़क पर थोड़ा आगे बढी और फिर एकाएक सड़क से उतर कर एक पेड़ के नीचे जा खड़ी हुई ।
“क्या हुआ ?” - ख्वाजा व्यग्रभाव से बोला ।
“बोलता है ।” - ड्राइवर बोला, उसने हैडलाइट्स ऑफ कीं और डोम लाइट जलाई ।
“क्या वान्दा है ?” - ख्वाजा बोला - “क्यों रोकी टैक्सी ?”
“ये टैक्सी बोरीवली नहीं जाती ।”
“बोरीवली नहीं जाती ! आरे, ये टैक्सी है कि बस है ?”
“ये एकीच रूट पकड़ती है ।”
“एक ही रूट पकड़ती है ? कौन सा ?”
“जहन्नुम का ।”
“क्या !”
जवाब में ड्राइवर घूमा, उसने अपने सिर पर से पीक कैप उतारी और चेहरे पर एक शैतानी मुस्कराहट लाता हुआ बोला - “क्या ?”
डोम लाइट की रोशनी में ड्राइवर की सूरत पर निगाह पड़ते ही ख्वाजा के प्राण कांप गये ।
वो जेकब परदेसी था ।
***
पिछली रात की तरह ही, लेकिन पिछले रोज के वक्त से कदरन देर बाद, जीओज मैस में डी.सी.पी. मनोहरलाल की डी.सी.पी. एस.पी. श्रीवास्तव से मुलाकात हुई ।
दोनों ने चियर्स बोला ।
“क्या समाचार है ?” - फिर मनोहरलाल बोला ।
“कई समाचार हैं ।” - श्रीवास्तव संजीदा लहजे से बोला - “कहां से शुरू करूं ?”
“कहीं से भी करो । बल्कि साधूराम मालवानी से शुरू करो । एक ही नाम के दो आदमी निकले या नर्सिंग होम में भरती मालवानी ही वो शख्स है जिसका कि झामनानी की गैस्ट लिस्ट में नाम है ।”
“दूसरी बात ठीक है लेकिन हाथ कुछ नहीं आया ।”
“वजह ?”
“हमारा भेजा इन्स्पेक्टर मालवानी के नर्सिंग होम पहुंचा था लेकिन साईं लोग उससे पहले वहां पहुंचे हुए थे । गवाह को फिट करके झामनानी और ब्रजवासी वहां से जा रहे थे जबकि इन्स्पेक्टर के मालवानी के कमरे में कदम पड़े थे ।”
“गवाह को फिट करके ?”
“हां । मालवानी का दावा है कि वो झामनानी के फार्म से ही लौट रहा था जबकि उस पर मॉब अटैक हुआ था ।”
“वो पहले ऐसा क्यों नहीं बोला था ?”
“कहता है उससे पूछा नहीं गया था । अलबत्ता ये उसने बराबर कहा था कि वो एक पार्टी से लौट रहा था । पहले उससे किसी ने ये सवाल नहीं किया था कि वो पार्टी कहां थी जहां से कि वो लौट रहा था । उस वक्त ये बात रेलेवेंट नहीं थी । वो भुक्तभोगी था, कातिलाना हमले का शिकार हुआ था इसलिये तब किसी को ये बात अहम न लगी कि वो लौट कहां से रहा था ? इसी बात को झामनानी एण्ड कम्पनी ने कैश किया और झामनानी की गैस्ट लिस्ट पर सवालिया निशान लगने से रह गया ।”
“लेकिन पार्टी तो अगले रोज थी ?”
“पिछले रोज भी थी, अगले से अगले रोज भी थी, जब तक चलती तब तक थी । मालवानी कहता है कि आधी रात तक वो वहां था, अटैक का शिकार न हुआ होता तो अगले रोज फिर वहां पहुंचता ।”
“ओह !”
“इसे मैं पुलिस की बैड लक ही कहूंगा कि हमारे इन्स्पेक्टर से पहले वो कम्बख्त वहां पहुंचे, इन्स्पेक्टर पहले पहुंचा होता तो मालवानी की कहानी यकीनन जुदा होती ।”
“अब उससे सच नहीं कुबूलवाया जा सकता ?”
“मुझे उम्मीद नहीं कि एक बार झामनानी एण्ड कम्पनी का सिखाया पढाया बयान दे चुकने के बाद अब वो उनसे दगा करेगा ।”
“उसे जबरन ऐसा करने के लिये मजबूर किया जा सकता है ।”
“कैसे ? ये सोच के जवाब देना कि वो खस्ता हालत में नर्सिंग होम में भरती है और पब्लिक की हमदर्दी उसके साथ है । उस पर हुए हमले को पुलिस की कोताही बताया जा रहा है ।”
“यानी कि वो कहानी खत्म ?”
“फिलहाल तो यकीनन ।”
“लाश की तलाश कहां पहुंची ?”
“फार्म से हमारे हवलदार की लाश बरामद नहीं हुई, आसपास से भी नहीं बरामद हुई लेकिन अभी तलाश जारी है और जारी रहेगी । देखते हैं, शायद कोई नतीजा निकले ।”
“कारआमद नतीजा तो ये ही होता कि लाश झामनानी के फार्म से बरामद हुई होती ।”
“नहीं हुई । मैंने कल ही बोला था कि झामनानी जैसा घुटा हुआ खलीफा ऐसी नादानी नहीं कर सकता था ।”
“कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि नादानी करनी पड़ती है ।”
“इस बार नहीं बने । नादानी नहीं हुई ।”
“हूं ।”
“तुम सुनाओ, तुमने जायन्ट कमिश्नर को जो नोट लिखा था, उसका क्या हुआ ? कमिश्नर से मीटिंग हुई ?”
“नहीं लेकिन जायन्ट कमिश्नर ने बुलाया था और मेरे से मशवरा करके खुद कमिश्नर के पास गया था । कमिश्नर ने झामनानी को पूछताछ के लिये हैडक्वार्टर बुलाये जाने का हुक्म जारी कर दिया है । उसके हैडक्वार्टर आने में आनाकानी या टालमटोल करने की सूरत में या आने से इंकार की सूरत में उसे हिरासत में ले लिये जाने का भी हुक्म हुआ है ।”
“दैट्स गुड न्यूज ।”
“ये बैटर न्यूज होती अगर उसे सीधे ही हिरासत में ले लिये जाने का हुक्म हुआ होता । तब मैं उसे रात को पकड़ मंगवाता, अब मुझे हैडक्वार्टर में उसकी हाजिरी का कल सुबह तक इन्तजार करना पड़ेगा ।”
“वो तो है । बाकी तीन बिरादरीभाइयों की बाबत क्या हुक्म हुआ ?”
“अभी कोई हुक्म नहीं हुआ । उनकी बाबत हुक्म जो भी होना होगा तब होगा जब मैं झामनानी से हुई पूछताछ की रिपोर्ट फाइल करूंगा ।”
“लिहाजा टाइम लगेगा ?”
“दो दिन तो लगेंगे ही ।”
“क्या फर्क पड़ता है ! दो दिन में वो लोग कोई गायब थोड़े ही हो जायेंगे ?”
“वो तो है ।”
“इन्स्पेक्टर नसीबसिंह की विजिलेंस से कुछ हाथ लगा ?”
“वैसा कुछ नहीं लगा जैसे की कि उससे उम्मीद थी । अलबत्ता एक अहमकाना करतब तो कर ही दिया उसने ।”
“क्या किया ?”
मनोहरलाल ने बताया ।
“तौबा !” - श्रीवास्तव बोला - “ऐसी दीदादिलेरी ?”
“इसी को तो कहते हैं विनाशकाले विपरीतबुद्धि ।”
“किया क्या उसका ?”
“हिरासत में ले लिया है । सुबह इंक्वायरी होगी, उसे अपनी सफाई का मौका दिया जायेगा ।”
“दे पायेगा कोई माकूल सफाई ?”
“दे भी चुका है ।”
“अच्छा ! क्या कहता है ?”
“डी.सी.पी. मनोहरलाल कोई जाती खुन्दक निकालने के लिये उसे फंसा रहा है । पुलिस वालों के साथ बदसलूकी का जो इलजाम उस पर लगाया जा रहा है, वो झूठा है । उसने कोई चाबी जीप के इग्नीशन से नहीं निकाली थी, उसने कोई फोन झाड़ियों में नहीं फेंका था । उसे तो खबर भी नहीं थी कि जब वो अपने एक दोस्त से मिलने मोती नगर जा रहा था तो उसकी निगाहबीनी के लिये पुलिस उसके पीछे थी ।”
“सब झूठ बोल रहे हैं ? सब-इन्स्पेक्टर, हवलदार, सिपाही, सब ?”
“हां । सब झूठ बोल रहे हैं क्योंकि अब डी.सी.पी. मनोहरलाल के सिखाये पढाये हैं । सब मिलीभगत है और जो कुछ हुआ बताया जा रहा है वो सब मनघड़न्त है, उसके खिलाफ गहरी साजिश का एक हिस्सा है और वो सवेरा होते ही हाई कोर्ट में अपील लगायेगा ।”
“किस बिना पर ?”
“हैरेसमैंट । इललीगल कनफाइनमेंट । इंफ्रिंजमेंट ऑफ सिविल राइट्स । मिसयूज आफ हाई ऑफिस । यूनीलेट्रल सस्पेंशन रिजल्टिंग इन एक्सट्रीम ह्यूमीलियेशन ?”
“अरे ! इतने सारे चार्जिज सोचे भी बैठा है ! किसी शातिर वकील का हाथ थाम भी लिया क्या ?”
“क्या पता क्या किया ! लेकिन उसकी स्ट्रेटेजी जाहिर है । हर बात से मुकर कर दिखाता है और हर बात के लिये डी.सी.पी. मनोहरलाल को जिम्मेदार ठहराता है ।”
“पछतायेगा । कोई इकलौती उंगली उसकी तरफ उठी हो तो वो उठाने वाले की तरफ उसे मोड़ भी दे, उसकी तरफ तो कई उंगलियां उठी हुई हैं, किस किस का रुख डी.सी.पी. की तरफ करेगा ।”
“अभी तो कर ही रहा है ।”
“खता खायेगा ।”
“कुछ बातें ऑफ दि रिकार्ड भी कह रहा है ।”
“मसलन क्या ?”
“वो उन रिश्वतों की लिस्ट पेश करेगा जो डी.सी.पी. ने बाजरिया एस.एच.ओ. पहाड़गंज खाई ।”
“हे भगवान ! क्या बिल्कुल ही पागल हो गया है ?”
“डी.सी.पी. ने उसे बरबाद करे देने की धमकी दी क्योंकि उसने डी.सी.पी. की मौज के लिये पहाड़गंज के होटलों में ठहरने वाली विदेशी टूरिस्ट लड़कियों का इन्तजाम करने से इनकार किया ।”
“अरे !”
“अभी तो शुरुआत है । और सोचेगा तो और कहेगा । जितना ज्यादा इस बाबत सोचेगा, उतना ज्यादा भौंकेगा ।”
“कोई समझाता नहीं उसे कि वो खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है, खुदकशी जैसी हरकतें कर रहा है ?”
“क्या पता ?”
“झामनानी से दो चार होने की जो अथॉरिटी तुम्हें मिली है, अब तो तुम्हें उसका पूरा फायदा उठाना होगा । नसीबसिंह का मुंह बन्द करने के लिये अब किसी न किसी तरह झामनानी का मुंह खुलवाना ही होगा ।”
“देखते हैं कल क्या होता है ?”
“तुम्हारा गिलास खाली है ।”
मनोहरलाल की तवज्जो अपनी खाली गिलास की तरह गयी, उसने वेटर को इशारा किया ।
तत्काल उसे नया ड्रिंक सर्व हुआ ।
श्रीवास्तव ने भी अपना गिलास खाली किया और बोतल की बाकी बियर उसमें डाली ।
कुछ क्षण खामोशी से दोनों ने अपने अपने ड्रिंक को चुसका ।
“सुना है” - फिर मनोहरलाल बोला - “तुम्हारे जोन की पुलिस ने हेरोइन की एक बड़ी खेप पकड़ी है ?”
“पकड़ी कहां, यार ?” - श्रीवास्तव तनिक हंसा - “पुलिस की गोद में जैसे खुद आ कर गिरी ।”
“मतलब ?”
“किसी ने कन्ट्रोल रूम में फोन किया कि महरौली महिपालपुर रोड पर आगे पीछे दौड़ती दो कारों के बीच गोलियां चल रही थीं । एक कार सफेद मारुति - 800 थी और दूसरी काली एम्बैसेडर थी । दोनों कारें इतनी खतरनाक रफ्तार से दौड़ रही थीं कि वो किसी का नम्बर नहीं देख पाया था । कन्ट्रोल रूम से तत्काल दो नजदीकी पी.सी.आर. वैंस से सम्पर्क किया गया था और उन्हें उधर पहुंच कर तफ्तीश करने का आदेश दिया गया था । तब एक वैन को ऐन बीच सड़क पर लुढकी एक कार्डबोर्ड की पेटी दिखाई दे गयी थी जिसका मुंह खुल गया था और जिसमें से सफेद पाउडर से भरी पोलीथीन की थैलियां बाहर बिखरी पड़ रही थीं । पुलिस को उधर एक गवाह मिला जो बोला कि वो पेटी सफेद मारुति - 800 में से फेंकी गयी थी ।”
“उस सड़क पर तो फास्ट मूविंग ट्रैफिक के अलावा कुछ भी नहीं होता, वहां गवाह कैसे मिल गया ?”
“गवाह एक नौजवान था जिसके स्कूटर का पहिया पंक्चर हो गया था और जिसे वो बदल रहा था जबकि उसने सफेद मारुति - 800 से वो पेटी बाहर फेंकी जाती देखी थी ।”
“था क्या पेटी में ?”
“प्योर, अनकट हेरोइन । सौ सौ ग्राम की उनसठ थैलियां । गिरने से कुछ थैलियां फट गयी थीं लेकिन ये तसदीक फिर भी हुई थी कि वो गिनती में उनसठ थीं ।”
“गिनती पर कुछ खास ही जोर जान पड़ता है ?”
“खास ही है । आगे बयान करूंगा । भूल जाऊं तो टोकना ।”
“बेहतर । गवाह ने बताया कि पेटी फेंकने वाला कौन था ?”
“वो इस बाबत कुछ नहीं बता सका था लेकिन हमें मालूम है कि फेंकने वाला कौन था ?”
“कैसे मालूम है ?”
“उस सफेद मारुति का उस जगह से थोड़ा ही आगे एक ट्रक से हैड-आन कोलीजन हो गया था । कार को एक युवक चला रहा था और उसके साथ एक युवती थी । युवक की वहीं स्पाट डैथ हो गयी थी लेकिन किसी करिश्मासाज तरीके से युवती की जान बच गयी थी । घायल वो बुरी तरह से हुई थी लेकिन कोई घातक चोट उसे नहीं लगी थी । उसे फौरन हस्पताल पहुंचाया गया था तो शाम ढले तक वो एक संक्षिप्त सा बयान देने के भी काबिल हो गयी थी ।”
“क्या बयान दिया उसने ?”
“वो मुम्बई से आयी फिल्म स्टार थी । रिमझिम नाम था । युवक का नाम विशाल भल्ला था, वो भी उसी की तरह फिल्म स्टार था, दिल्ली में रहता था और हमपेशा होने की वजह से उसका फ्रेंड था । लड़की ने कुबूल किया था कि कार में से वो पेटी उसने फेंकी थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि उसकी वजह से कुछ गुण्डे उनके पीछे लगे हुए थे जो उस पेटी की खातिर उनकी जान लेने से भी गुरेज नहीं करते जान पड़ते थे । उन्होंने पेटी के साथ भाग निकलने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन जब गुण्डों की कार से गोलियां चलने लगी थीं तो आतंकित होकर फसाद की जड़ उस पेटी को उन्होंने कार से बाहर फेंक दिया था । युवती कहती है कि गोलीबारी की वजह से ही युवक हद से ज्यादा तेज रफ्तार से कार भगाने लगा था, मोड़ काटते वक्त एकाएक सामने आ गया ट्रक उसे वक्त रहते दिखाई नहीं दिया था और वो एक्सीडेंट हो गया था ।”
“हेरोइन की पेटी उनके पास कहां से आयी ? युवती ने इस बाबत कुछ बताया ?”
“बताया । वो युवक के साथ दिल्ली की सैर के लिये निकली हुई थी । जब वो छतरपुर के रास्ते के एक पुराने खण्डहर में विचर रहे थे तो वो पेटी उन्हें वहां एक जगह पड़ी दिखाई दी थी । उसके कथनानुसार युवक पहले सरकारी फोरेंसिक साईंस लैबोरेट्री में काम करता था इसलिये हेरोइन की उसे पहचान थी । उसे बेशकीमती माल जानकर उन्होंने वो पेटी पुलिस को सौंप देने के इरादे से वहां से उठा ली थी लेकिन वो अभी वहां से अपनी कार पर रवाना ही हुए थे कि काली एम्बैसेडर पर कुछ गुण्डे वहां पहुंच गये थे और उनके पीछे पड़ गये थे ।”
“उन्हें क्या मालूम पेटी में क्या था ?”
“पेटी उन्हीं की हो तो मालूम ही मालूम ।”
“ओह !”
“अब, उनसठ थैलियों की बात सुनो और जवाब दो कि हेरोइन की सौ सौ ग्राम की वो थैलियां उनसठ क्यों ?”
“भई, साठ होंगी । एक कहीं गिर गयी होगी ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
“तुम कहते हो पेटी गिर कर खुल गयी थी, एक थैली उछल कर कहीं इधर उधर जा पड़ी होगी ।”
“ऐसा नहीं हुआ था ।”
“बहुत दावे क साथ कह रहे हो ।”
“हां । क्योंकि छ: किलो हेरोइन में से सौ ग्राम की एक मिसिंग थैली मेरे ही जोन की पुलिस पहले ही कहीं और से बरामद कर चुकी है ।”
“क्या कह रहे हो ?” - मनोहरलाल हैरानी से बोला ।
“पिछले शुक्रवार यानी कि बारह मई को महिपालपुर रोड पर एक मुर्दागाड़ी का एक्सीडेंट हुआ था । वो एक्सीडेंट विशाल भल्ला वाले एक्सीडेंट साइट से सिर्फ दो किलोमीटर दूर हुआ था ।”
“इस बात की कोई अहमियत है ?”
“नहीं । महज इत्तफाक पर जोर है । इस बात पर जोर है कि सफेद मारुति में से पेटी और किलोमीटर आगे फेंकी गयी होती तो हेरोइन घूम फिर कर वहीं पहुंच गयी होती जहां से कि वो, माइनस एक थैली, रवाना हुई थी ।”
“अभी तक बात मेरी समझ से बाहर है इसलिये आगे बोलो ।”
“आगे मुर्दागाड़ी के एक्सीडेंट की बाबत सुनो । मुर्दागाड़ी में एक ताबूत था जो कि एक्सीडेंट में गाड़ी से बाहर आ गिरा था और खुल गया था । उसमें एक नौजवान लड़की की लाश थी जो कि गाड़ी में आग लग जाने की वजह से पूरी तरह से जलने से इसलिये बच गयी थी क्योंकि फायरब्रिगेड ने वक्त रहते मौकायवारदात पर पहुंच कर आग को काबू में पा लिया था । फिर भी तब तक लाश का कमर से नीचे का हिस्सा जल कर कोयला हो चुका था, छाती और पेट महज झुलसे थे और चेहरा और कन्धे जलने से बच गये थे । बाद में पता चला था कि लाश गोल मार्केट के कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में रहने वाली एक लड़की की थी जो कि इन्डिलयन एयरलाइन्स की एक फ्लाइट पर ताबूत में बन्द मुम्बई से दिल्ली पहुंची थी । ताबूत पर इन्डियन एयरलाइन्स का एयरफ्रेट का स्टिकर लगा हुआ था जिससे कि ये बात मालूम हो सकी थी ।”
“घर से बाहर हुई मौत के मामले में अक्सर होता है ऐसा । इसमें खास बात क्या है ?”
“खास बात कई हैं । सुनो । नम्बर एक, मुर्दागाड़ी निगम बोध घाट की थी जो कि निकलसन रोड की एक रिपेयर शाप से चोरी चली गयी थी । नम्बर दो, दुर्घटनास्थल से गाड़ी का ड्राइवर गायब पाया गया था । क्योंकि गाड़ी चोरी की थी इसलिये जाहिर है कि वो वहां टिका रहना अफोर्ड नहीं कर सकता था । लिहाजा एक्सीडेंट के बाद वो वैन छोड़ कर भाग गया था । नम्बर तीन, ताबूत सैल्फ की बुकिंग वाला था जिसे किसी ने कार्गो बुकिंग की कनसाइनीज कापी का फैक्स पेश करके छुड़ाया गया था । तब छुड़ाने वाले ने कापी पर अपना जो नाम पता दर्ज किया था, वो फर्जी निकला था ।”
“भेजने वाले का नाम पता भी तो उस पर दर्ज होता है ।”
“उसकी बाबत तब कुछ नहीं किया गया था लेकिन आज मैंने मुम्बई पुलिस को उस बाबत एक्सप्रैस इंक्वायरी भेजी थी तो पता चला था कि भेजने वाले का नाम पता भी फर्जी था ।”
“खैर । आगे ?”
“आगे वो सनसनीखेज बात आती है जिसकी बाबत मैंने कहा था कि अगर भूल जाऊं तो याद दिलाना । वो एक्सीडेंटल केस था इसलिये रूटीन के तौर पर लाश का पोस्टमार्टम हुआ था । तब पाया गया था, कि लाश का पहले भी पोस्टमार्टम हुआ था ।”
“मुम्बई में किसी एक्सीडेंट में मरी होगी ?”
“हां । तब नहीं मालूम था लेकिन अब मालूम है कि डूब के मरी थी । लेकिन लाश की बाबत जो दहला देने वाली बात थी वो ये थी कि लाश को जब दोबारा खोला गया था तो उसके भीतर से उसके तमाम वाइटल आर्गंस गायब पाये गये थे ।”
“क्या ?”
“दिल, जिगर, आंतें, सब गायब थीं ।”
“हे भगवान !”
“और” - श्रीवास्तव का स्वर एकाएक अतिनाटकीय हो उठा - “लाश की पसलियों के पिंजर में पोलीथीन की एक थैली फंसी पायी गयी थी जिसमें सौ ग्राम प्योर, अनकट वैसी हेरोइन थी जो कि नारकाटिक्स स्मगलरों की जुबान में नम्बर फोर कहलाती है । एक थैली, मनोहरलाल, एक थैली जो कि इत्तफाक से पसलियों में तब अटकी रह गयी थी जबकि बाकी उसमें से निकाल ली गयी थीं ।”
“बाकी ! उनसठ ?”
“ऐग्जैक्टली । उस लाश को हेरोइन स्मगलिंग के लिये इस्तेमाल किया गया था इसीलिये उसके वाइटल आर्गंस निकाल दिये गये थे । वो लाश नहीं, छ: किलो हेरोइन का बक्सा था जो एक्सीडेंट न हुआ होता तो दिल्ली के किसी टॉप के नारकाटिक्स स्मगलर के पास पहुंचा होता ।”
“टॉप का नारकाटिक्स स्मगलर ?”
“जो कि पहले गुरुबख्शलाल था ।”
“और अब ?”
“अब मेरा एतबार झामनानी पर है । और इस बात पर है कि आज हाथ लगी हेरोइन की खेप वही है जो कि उस लाश में बन्द कर के मुम्बई से दिल्ली भेजी गयी थी ।”
“हूं ।”
“चोरी की मुर्दागाड़ी का एक्सीडेंट होना इत्तफाक था । साठ थैलियों में से एक थैली लाश में अटकी रह जाना भी इत्तफाक था । अब अगर ये भी इत्तफाक है कि माल मालिक के कब्जे से निकल कर दिनदहाड़े महिपालपुर रोड पर टपका तो मैं कहूंगा कि मालिक बहुत ही अभागा है ।”
“झामनानी ?”
“मैंने पहले ही बोला कि मेरा एतबार उसी पर है ।”
“इतने कीमती माल का खंडहर में क्या काम ?”
“कोई काम नहीं । अगर हम ये मान के चलें कि माल झामनानी का था तो उसे खंडहर में नहीं होना चाहिये था । होना ही नहीं चाहिये था ।”
“शायद हो भी नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“अकेली वो लड़की ही तो कहती है कि माल खंडहर में पड़ा था । क्या सबूत है कि वो सच बोल रही है ?”
“झूठ बोलने की कोई वजह वजह ?”
“वो झामनानी की कैरियर हो सकती है ।”
“इस बात की तसदीक हो चुकी है कि मुम्बई की रहने वाली है, टेलीफिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्री है और एक टेलीसीरियल की शूटिंग के लिये ही दिल्ली आयी है ।”
“वो फिर भी कैरियर हो सकती है ।”
“और वो लड़का जो मर गया ?”
“उसका अकम्पलिस हो सकता है या अनजाने में उसका मददगार बन गया हो सकता है ।”
“पेटी कार से बाहर क्यों फेंकी ?”
“क्योंकि किसी दूसरे गैंग के आदमी पीछे पड़ गये थे । न फेंकती तो जान से जाती । एक्सीडेंट इत्तफाक से हुआ । तब मार डाली जाती ।”
“तुम तो, यार, किसी मुम्बईया फिल्म का स्क्रीन प्ले पढ कर सुना रहे जान पड़ते हो । ऐसी गैंगवार्स का चलन अभी दिल्ली में नहीं है ।”
“शुरू होते देर लगती है ?”
श्रीवास्तव चुप रहा ।
“हेरोइन स्मगलिंग का जो अनूठा और दिल दहला देने वाला तरीका अभी तुमने बयान किया, उसका भी चलन दिल्ली में किधर था ?”
“मे बी यू आर राइट ।”
“गुनाह की दुनिया में कुछ भी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, कहीं भी हो सकता है ।”
“ठीक । बहरहाल तुम्हें ये किस्सा सुनाने के पीछे मेरी मंशा झामनानी के खिलाफ तुम्हारे हाथ मजबूत करना थी । सीधे या घुमा फिरा कर तुम झामनानी पर ये इलजाम लगा सकते हो कि जिस हेरोइन का पिछले शुक्रवार एक सैम्पल बरामद हुआ और जो बाकी की आज बरामद हुई, उसका मालिक वो था ।”
“चोर बहकाने वाला काम होगा !”
“बहकाओ । और तलब किस लिये किया है उसे पूछताछ के लिये ?”
“ये भी ठीक है ।” - मनोहरलाल ने अपना गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ - “ओके । देखेंगे कल क्या होता है ?”
“विश यू गुड लक ।”
“थैंक्यू ।”
***