मुजरिम का इंटेरोगेशन

रात के ग्यारह बजने को थे।

इंस्पेक्टर सुशांत अधिकारी और सब इंस्पेक्टर दयानंद दीक्षित थाने के इंटेरोगेशन रूम में बैठे थे। उनके सामने, मेज के दूसरी तरफ अखिल नाम का एक लड़का बैठा था, जो एक नजर देखने पर नशे में जान पड़ता था। था या नहीं कहना मुहाल था, हां आंखें बराबर लाल हुई पड़ी थीं उसकी।

कमरे में उन तीनों के अलावा अमरेंद्र नाम का एक सिपाही भी मौजूद था, जो गेट के करीब दीवार से पीठ सटाये यूं खड़ा था जैसे वहां जो कुछ भी चल रहा था उससे उसका कोई मतलब ही न रहा हो।

अखिल को साढ़े आठ के करीब मनोहर पार्क से उठाया गया था, जहां कत्ल के बाद से ही रोज शाम को दो सिपाही हिरासत में लिए गये स्मैकियों के साथ जा बैठते थे। चार दिन यूं ही गुजर गये, जिसका गुस्सा भी उन कैदियों पर ही निकाला गया था, मतलब पार्क से वापिस लौटकर हर रात उनकी जमकर धुनाई की गयी थी, जैसे मुजरिम के उस इलाके में लौटकर न आने की वजह वही दोनों हों। मगर पांचवें दिन, यानि आज उन्हें सफलता हासिल हो गयी।

लड़का खूब हट्टा कट्टा और लंबे कद का था। बाल खिचड़ीनुमा और दाढ़ी बढ़ी हुई थी, जिसके कारण बड़ा ही अजीब नजर आ रहा था। जबकि नाई को आधा घंटा भी दे देता तो इंसान दिखाई देने लगता।

मुजरिम की गिरफ्तारी से पहले भी दोनों ऑफिसर्स ने केस पर कड़ी मेहनत की थी। जिसमें अमरजीत और मुक्ता की कॉल डिटेल्स का गहन अध्ययन, उसके स्कूल के दूसरे टीचर्स के साथ लंबी पूछताछ, पड़ोसियों से सवाल जवाब। यहां तक कि अमरजीत और मुक्ता के किसी संभावित अफेयर पर भी खूब दिमाग खपाया मगर हासिल कुछ नहीं हुआ।

लेकिन आज दोनों खुश थे, इसलिए क्योंकि दोनों नशेड़ियों ने हत्यारे की स्पष्ट शिनाख्त कर ली थी। अब बस ये जानना बाकी था कि उसने कत्ल क्यों किया था, हालांकि अंदाजा यही था कि पैसे छीनने के लिए उसने अमरजीत के जिस्म में छुरा उतार दिया था।

“आराम से सोच ले बेटा, क्योंकि वक्त की कोई कमी नहीं है हमारे पास - उंगलियों में फंसी सिगरेट से एक लंबा कश खींचने के बाद सुशांत अधिकारी बोला - अपनी बेगुनाही वाली जिद पर भी अड़ा रह सकता है। क्योंकि अड़ा रहेगा तो मजबूरन ही सही हम तुझे आजाद कर देंगे।”

“दुनिया से।” दयानंद दीक्षित ने जोड़ा।

“जिसके बाद हमारा केस सॉल्व हो जायेगा और तेरे जैसा नासूर भी समाज में बचा नहीं रहेगा। मतलब तुझे गोली मारकर एक तरह से पुण्य का काम करेंगे हम।”

“जिसका कुछ फायदा तो तुझे भी मिलेगा, हो सकता है अच्छे काम में भागीदारी निभाने के लिए यमराज तेरे लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल दें। मतलब ऐश ही ऐश होगी।”

“वहां तो सुना है सर - दीक्षित बोला - परियां होती हैं खिदमत करने के लिए।”

“एकदम सही सुना है - कहकर उसने मुजरिम से पूछा - जाना चाहता है?”

“नहीं।”

“क्यों?”

“क्योंकि मैंने कुछ नहीं किया सर।”

“जिंदा रहने का एक ही रास्ता है बेटा, और वो ये है कि आराम से पूरी शांति के साथ अपना गुनाह कबूल कर ले। फिर कत्ल किया है तूने, कोई छोटा मोटा अपराध थोड़े ही किया है जिसपर तुझे शर्मिंदा होने की जरूरत है।”

“मैंने नहीं किया।”

“यानि परलोक जाने को तड़प रहा है?”

“मुझे फंसाया जा रहा है सर।”

“कौन फंसा रहा है?”

“वह दोनों लड़के जिनकी निशानदेही पर आपने मुझे गिरफ्तार किया है।”

“उनसे तेरी कोई दुश्मनी है?”

“नहीं सर, मैं तो उन्हें जानता तक नहीं हूं।”

“फिर क्यों फंसायेंगे?”

“अगर वे नहीं फंसा रहे तो आप लोग फंसा रहे हैं।”

“साले पुलिस पर इल्जाम लगाता है?”

“जब आप लोग मेरी सुन ही नहीं रहे सर तो और क्या करूं?”

“अगर तू कातिल नहीं है तो लाश देखकर खिसक क्यों गया था?”

“मैं डर गया था साहब जी, ये सोचकर कि कहीं मुझे ही उसका कातिल न समझ लिया जाये।”

“वो तो अभी भी समझा ही जा रहा है, फरार नहीं हुआ होता तो एक बार को बच भी जाता।”

“मैंने कुछ नहीं किया।”

“अगर नहीं किया तो आज मनोहर पार्क क्यों पहुंच गया?”

“काम की तलाश में भटक रहा था सर।”

“खास उस जगह को क्यों देख रहा था जहां से लाश बरामद हुई थी?”

“क्योंकि उधर से गुजरते वक्त वह नजारा मेरी आंखों के सामने आ गया था।”

“ये तो लगता है मार खाने की कसम खाये बैठा है सर।” दीक्षित बोला।

“मुझे भी यही लगता है।”

“आप दोनों को गरीब की हाय लगेगी साहब।”

“लगने दे भाई - अधिकारी बड़े ही लापरवाह अंदाज में बोला - आये दिन लगती रहती है। यानि हमें हर हाल में नर्क ही जाना है, फिर एक नई हाय ले लेने में क्या बुराई है।”

“गरीब पर जुर्म ढाओगे साहब जी तो कभी सुकून नहीं मिलेगा।”

“अरे हमारी चिंता क्यों करता है, अपने बारे में सोच।”

“मेरा इंसाफ ऊपर वाले के हाथ में है।”

“यानि दुर्गति कराये बिना जुबान नहीं खोलेगा?”

कैदी ने जवाब देने की कोशिश नहीं की।

“ठीक है जैसी तेरी मर्जी - कहते हुए दीक्षित ने पीछे मुड़कर वहां खड़े सिपाही की तरफ देखा - सुन लिया अमरेंद्र?”

“जी जनाब।”

“जुबान खोलने को राजी नहीं है ये।”

“अभी खोल देगा जनाब - कहकर वह मेज के दूसरी तरफ पहुंचा और अखिल का टेंटुवा पकड़कर खड़ा करता हुआ बोला - पहला और आखिरी मौका दे रहा हूं सच बयान कर दे, वरना बाद में तो मैं किसी के रोके भी नहीं रुकने वाला।”

कैदी खामोश!

“कपड़े उतार।”

“क...क्या?”

“कपड़े उतार बहन..., कम सुनता है क्या?”

“क...किसलिए?”

“घबरा मत रेप नहीं करूंगा तेरा, वैसे भी लौंडों में मुझे कोई इंट्रेस्ट नहीं है। हां ज्यादा ही चिकना निकल आया तो मैं कुछ नहीं कह सकता।”

“मैं नहीं उतारूंगा।”

“जैसे तेरी मर्जी चल ही जायेगी।” कहते हुए अमरेंद्र ने एक जोर का घूंसा उसके पेट में जड़ा और फर्श पर धकेल दिया। फिर उसकी छाती पर सवार होकर जबरन उसकी टी शर्ट उतार फेंकी, उसके बाद कैदी की दोनों छातियों को मुट्ठी में दबाकर इतनी जोर से मसलना शुरू किया कि वह हलाल होते बकरे की तरह डकारने लगा।

वह सिलसिला बस कुछ सेकेंड ही चला, मगर उतनी देर में अखिल नाम के उस लड़के की हालत बदतर हो चुकी थी।

“अब पैंट उतारकर यही हाल मैं तेरे सामान का करूंगा - अमरेंद्र हंसता हुआ बोला - देखना बहुत मजा आने वाला है तेरे को।”

“ये...ये गैरकानूनी है।”

“किसी का सामान ऐंठना?”

“किसी को यूं टार्चर करना।”

“कानून की किसी किताब में पढ़ा तो नहीं आज तक।”

“मैं कंप्लेन करूंगा - वह रोता हुआ बोला - आप सबकी कंप्लेन करूंगा।”

“जो मन आये करना, अभी शांति से मुझे अपना काम करने दे।” कहता हुआ अमरेंद्र उसकी जींस का बटन खोलने लगा।

“अरे अरे तुम पागल हो गये हो क्या?”

“अभी नहीं हुआ, हां तेरा हुस्न देखकर बौरा जाऊं तो कह नहीं सकता।”

“बचाओ - वह गला फाड़कर चिल्लाया - अरे कोई है, बचाओ मुझे इस कमीने से।”

“बहुत शोर कर रहा है - दीक्षित हंसता हुआ बोला - मैं तो कहता हूं नपुंसक ही बना दे साले को। फिर किसी को बता भी नहीं पायेगा कि तूने इसके साथ क्या किया है।”

“ठीक है सर जी।”

“म...मेरी शादी होने वाली है।”

“अच्छा! मुबारक हो।”

“बचा लो साहब जी, इसने कुछ कर दिया तो आगे मैं कुछ भी करने के काबिल नहीं रह जाऊंगा।”

“चिंता क्यों करता है - अमरेंद्र बोला - मैं हूं न, संभाल लूंगा तेरी बीवी को। कोई बच्चा वच्चा चाहिए हो तो वह भी दे दूंगा। पहले भी कई बार ऐसा कर चुका हूं।”

सुनते के साथ ही कैदी ने दोनों हाथों से पूरी ताकत लगाकर सिपाही को अपने ऊपर से धकेला और मेज पर चढ़कर दूसरी तरफ - जिधर सुशांत और दयानंद बैठे थे - कूद गया।

“तुझे लगता है थाने से भाग सकता है?”

“मैं भाग नहीं रहा साहब - उसने अधिकारी के पैर पकड़ लिये - बस इस जल्लाद से बचा लो मुझे, क्यों गरीब आदमी के साथ ज्यादती कर रहे हो।”

“लगता है साले का नशा अभी टूटा नहीं है।”

“मैंने बस बीयर पी थी सर।”

“सच बोल दे बेटा, उसी में तेरी भलाई है।”

“कौन सा सच?”

“क्या यार अमरेंद्र - अधिकारी झल्लाकर बोला - सांड जैसा बना हुआ है और एक मामूली सा लड़का तेरे काबू में नहीं आ रहा?”

“सॉरी सर जी।” कहकर गुस्से से तिलमिलाता हुआ सिपाही दूसरी तरफ पहुंचा और अखिल को जबरन फर्श पर गिरा दिया। फिर वो चींखने लगा तो बूट की ठोकर उसके थूथन पर जमाता हुआ कड़ककर बोला, “चुप चाप जहां है वहीं पड़ा रह वरना प्राण खींच लूंगा।”

तत्पश्चात उसने अखिल की पैंट की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि वह दोनों घुटने मोड़कर अपना बचाव करता हुआ जल्दी से बोल पड़ा, “ठीक है, ठीक है।”

“क्या ठीक है?”

“मैं सच बताने को तैयार हूं।”

“पक्का?”

“हां पक्का।”

अमरेंद्र ने अपने अफसरों की तरफ देखा।

“वेट कर ले, बता देगा तो ठीक वरना जो मन आये करना - कहने के बाद अधिकारी ने अखिल की तरफ देखा - जा अब वापिस कुर्सी पर बैठ जा।”

सुनकर सहमा सहमा सा वह पहले वाली जगह पर जाकर बैठ गया।

“अब कबूल कर कि अमरजीत का कत्ल तूने ही किया है?”

“कोई बीच का रास्ता निकालो न साहब।”

“मतलब?”

“जिससे आपका और मेरा, दोनों का भला हो जाये। मुझे जेल भेजकर क्या हासिल होगा आपको?”

“तुझे बचाने से हमारा क्या भला हो सकता है?”

“सेवा पानी बता दो, मैं करने को तैयार हूं।”

“बहन... चिंदीचोर समझ रखा है हमें - कहता हुआ अधिकारी अपनी जगह से उठा और एक जोर का थप्पड़ कैदी के गाल पर जमाने के बाद बोला - हजार दो हजार रुपये छीनने के लिए तूने अमरजीत को जान से मार दिया, और हमें रिश्वत देने की बात कर रहा है?”

कैदी से जवाब देते नहीं बना।

“अब तू सच बोलेगा या मैं अमरेंद्र को प्रोग्राम शुरू करने को बोलूं?”

“मैंने कुछ नहीं किया सर।”

“सब तूने ही किया है बहन.., हजार दो हजार के लिए मास्टर साहब की जान ले ली, ये तो हद ही हो गयी - कहकर उसने अमरेंद्र की तरफ देखा - जमकर खातिरदारी कर साले की।”

“नहीं नहीं, प्लीज रुकिये।”

“सच बोलेगा?”

“सच आप कहां सुनना चाहते हो साहब, इसलिए जो सुनना चाहते हो बता दो, मैं वही बोल दूंगा।”

“नहीं ऐसे काम नहीं चलेगा, पहले कबूल कर कि कत्ल तूने किया था, फिर ये बता कि क्यों किया था। वरना अमरेंद्र तेरा वो हश्र करेगा जिसकी तूने कल्पना भी नहीं की होगी।”

उसी वक्त एक सिपाही इजाजत लेकर कमरे में दाखिल हुआ।

“इंचार्ज साहब बुला रहे हैं।”

“किसे?”

“आप दोनों को।”

“वजह?”

“एक काले कोट वाला बैठा है उनके पास, क्या पता उसी वजह से बुला रहे हों, पक्की बात मैं नहीं जानता।”

दोनों उठकर खड़े हो गये, फिर अधिकारी अमरेंद्र के कान में फुसफुसाया, “इसका हुलिया थोड़ा ठीक कर दे, नाक से बहता खून भी पोंछ देना। पता नहीं क्या माजरा है, पेश करने की नौबत भी आ सकती है, समझ गया?”

“जी सर मैं संभाल लूंगा।”

तत्पश्चात दोनों थाना इंचार्ज नीलकांत अग्निहोत्री के कमरे में पहुंचे।

“ये एडवोकेट रमन राय साहब हैं - एसएचओ ने बताया - अखिल से मिलने आये हैं।”

“अभी हमारी पूछताछ चल रही है वकील साहब।”

“मैं बस पांच मिनट लूंगा, प्लीज।”

“हॉयर किसने किया है आपको?”

“किसी ने नहीं, मैं उसे पर्सनली जानता हूं।”

“कमाल है, एक स्मैकिये के साथ यारी है आपकी?”

“नहीं यारी जैसी कोई बात नहीं है, और मुझे ये भी नहीं पता कि वह स्मैक लेता है। रही बात जान पहचान की तो वह इसलिए है क्योंकि मेरे ही गांव का रहने वाला है। बल्कि दो दिन पहले कोर्ट आकर मुझसे मिला भी था।”

“ये बताने के लिए कि कत्ल करने वाला है इसलिए आप उसे बचाने को तैयार रहें?”

“अधिकारी साहब - वकील का लहजा थोड़ा सख्त हो उठा - यहां कोई मजाक नहीं चल रहा, इसलिए फालतू बातों से परहेज रखे तो अच्छा होगा, हम दोनों के लिए।”

“गिरफ्तारी की खबर इतनी जल्दी कैसे लग गयी आपको?”

“इत्तेफाक से एक जानकार ने देख लिया था, उसी ने कॉल कर के बता दिया, वरना तो पता नहीं कब मालूम पड़ता, या नहीं भी पड़ता।”

“दिल्ली में उसका और कौन रहता है?”

“एक मौसा की खबर है मुझे, लेकिन उनका पता मुझे नहीं मालूम।”

“मिलकर क्या करेंगे, जबकि दो चश्मदीद गवाहों ने साफ साफ उसकी शिनाख्त की है। मतलब इस बात में कोई दो राय नहीं कि अमरजीत राय का कत्ल उसी ने किया था।”

“आप कहते हैं तो जरूर किया होगा, लेकिन मुलाकात कराने से आपको ऐतराज क्यों है?”

“मैं नहीं चाहता कि आप उसे कोई पट्टी पढ़ा दें।”

“मैंने ऐसा कुछ कर दिया तो वह बेगुनाह साबित हो जायेगा, है न?”

“नहीं, लेकिन हमारा काम मुश्किल जरूर हो जायेगा।”

“डोंट वरी मैं उसे कोई पट्टी पढ़ाने नहीं आया हूं, बस ये जानने आया हूं कि कत्ल उसने किया था या नहीं किया था।”

“किया है।”

“यही बात मैं उसके मुंह से सुनना चाहता हूं।”

“आपको लगता है वह सच बता देगा?”

“हां, वकील से भला कौन झूठ बोलता है।”

“आप उसका कहा हमें बतायेंगे?”

“नहीं।”

“तो फिर इस वक्त आपकी उससे मुलाकात भी नहीं करायी जा सकती, कल दिन में आईयेगा, तब देखेंगे कि हम क्या कर सकते हैं आपके लिए।”

“इसलिए नहीं कराई जा सकती क्योंकि मार मार कर अधमरा कर दिया है उसे, जो जुर्म उसने किया नहीं है, वह जबरन उसके मुंह से कबूल करवाने की कोशिशों में जुटे हैं आप, क्यों यही बात है न?”

“नहीं, मुजरिमों को टार्चर करना मुझे पसंद नहीं है।”

“फिर क्या प्रॉब्लम है?”

“पूछताछ चल रही है।”

“आप खामख्वाह उसके पीछे पड़े हैं, वह ऐसा लड़का नहीं है।”

“मैंने बताया न कि उसके खिलाफ हमारे पास दो गवाह हैं।”

“ऐसे गवाह जो साल के 365 दिन नशे में धुत्त रहते हैं, जिन्हें खुद का होश नहीं होता, दूसरों के बारे में तो क्या बता सकते हैं आपको।”

“आपको तो सब पता है।”

“जानकारियां हासिल करनी पड़ती हैं।”

“लेकिन बताया है, दोनों ने कत्ल वाले दिन उसका हुलिया बयान किया था, और आज उसी हुलिये वाले शख्स की सामने से शिनाख्त भी कर ली, दोनों बातें मैच करती हैं, इसलिए हमारे आई विटनेस झूठे नहीं हो सकते।”

“ठीक है नहीं हैं तो ना सही, मुलाकात करा दीजिए।”

“नहीं हो सकती।”

“सुशांत - एसएचओ बोला - डीसीपी साहब का हुक्म है।”

“व्हॉट! ये तो हद ही हो गयी सर।”

“मिलवा दो।”

“पहले पूछताछ तो मुकम्मल हो जाने दीजिए सर।”

“वो तुम बाद में कर लेना, मैं साहब के हुक्म को नजरअंदाज नहीं कर सकता, तुम भी नहीं कर सकते, समझ गये?”

“जी जनाब समझ गया - कहकर उसने वकील की तरफ देखा - पहले ही बता देते कि हाई कमान से फोन करवाकर पहुंचे हैं, तो आपका और हमारा दोनों का वक्त बच जाता, चलिए मिल लीजिए।”

“अकेले में मिलना है।”

सुनकर अधिकारी जैसे तड़प ही उठा। मगर मजबूरी थी इसलिए एक सिपाही को बुलाकर वकील को उसके साथ इंटेरोगेशन रूम में भेज दिया। पर वकील ने तब तक अखिल से कोई बात नहीं की, जब तक कि भीतर मौजूद अमरेंद्र वहां से निकल नहीं गया।

“कैसे हो?” वकील ने पूछा।

“ठीक हूं।”

“बहुत मारा है?”

“नहीं, ज्यादा नहीं।”

आगे उनकी बातचीत बस पांच मिनट चली, फिर रमन राय इंटेरोगेशन रूम से निकलकर वापिस एसएचओ के कमरे में पहुंचा, “मैंने उसे समझा दिया है कि पुलिस के साथ कोऑपरेट करे, मतलब अब वह जो कुछ भी बोलेगा सच ही बोलेगा। इसलिए ज्यादती मत कीजिएगा। जितना कर चुके हैं उतना बहुत है, फिर भी करेंगे तो अच्छा नहीं होगा।” कहने के बाद एडवोकेट रमन राय थाना इंचार्ज को धन्यवाद देकर वहां से निकल गया।

“ऐसी की तैसी साले की - अधिकारी भुनभुनाया - जैसे हम यहां उसका हुक्म मानने के लिए ही बैठे हैं।”

“नहीं बैठे - एसएचओ बोला - लेकिन कोई गंभीर चोट लड़के को मत आने देना, वरना फजीहत होकर रहेगी। हो सकता है वकील उसकी कोई तस्वीर वगैरह भी खींच ले गया हो।”

“आपने नाहक मिलने दिया सर।”

“तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? जबकि पहले ही बता चुका हूं कि वह डीसीपी साहब से इजाजत हासिल कर के यहां पहुंचा था।”

“सॉरी सर। नहीं कोई गंभीर चोट हम उसे नहीं आने देंगे।” कहकर वह उठा और दीक्षित के साथ एक बार फिर से इंटेरोगेशन रूम में जाकर बैठ गया।

आगे बहुत देर तक वह कैदी को घूरता रहा फिर बोला, “कर ली वकील से मुलाकात?”

“जी कर ली, थैंक यू।”

“क्या लगता है बचा लेगा तुझे?”

“अफसोस कि साफ-साफ इंकार कर के गये हैं। बोल रहे थे बचने की कोई गुंजाईश नहीं है। ये भी कह रहे थे कि दो चश्मदीद गवाहों की मौजूदगी में मेरा झूठ नहीं चलने वाला। बाकी आश्वासन दिया है कि कोर्ट में मेरी पैरवी करेंगे, वह भी बिना कोई फीस लिए।”

“और क्या कहा?”

“यही कि आप लोगों की मार खाने से अच्छा है, मैं सारी सच्चाई कबूल कर लूं।”

“भई जब तू सच बोलेगा तो जाहिर है अपना गुनाह भी कबूल करेगा, उसके बाद वह पैरवी कर के क्या अला भला कर लेगा तेरा?”

“कह रहे थे कि दोनों आई विटनेस नशेड़ी हैं इसलिए अदालत में उनके बयान की कोई अहमियत नहीं होगी। और एक बार उन्हें झूठा साबित करने में कामयाब हो गये तो मुझे कोर्ट से संदेह लाभ मिल जायेगा।”

“बेशक मिल जाये, उससे हमें कोई प्रॉब्लम नहीं है। फिर तेरे से कोई दुश्मनी थोड़े ही है हमारी, इसलिए अब वकील की सलाह पर ध्यान दे और सच बोल।”

“एक बीयर मिलेगी साहब?”

“क्यों बारात में आया है हमारी?”

“वो बात नहीं है सर।”

“फिर?”

“मेरा नशा टूटा जा रहा है, इसलिए आगे जो कुछ मैं बताना चाहता हूं उसके लिए हिम्मत की जरूरत है, प्लीज एक बीयर मंगवा दीजिए, बड़ी मेहरबानी होगी।” कहते हुए उसने दोनों हाथ जोड़ दिये।

“मुझे पांच मिनट और दीजिए सर - अमरेंद्र बोला - इस बार इसे तोता न बना दूं तो कहियेगा।”

“वक्त कितना हुआ है?”

“साढ़े नौ बज रहे हैं जनाब।”

“दौड़कर जा और बीयर की एक बोतल ले आ।”

“क्या कह रहे हैं जनाब?” सिपाही यूं बोला जैसे उसके कहे पर यकीन न कर पा रहा हो।

“सुना नहीं।” अधिकारी का लहजा इस बार थोड़ा सख्त था।

जवाब में अमरेंद्र भुनभुनाता हुआ वहां से बाहर निकल गया।

“बीयर आ रही है, तब तक तू अपनी कथा कहनी शुरू कर दे।”

“थैंक यू सर।”

“मत बोल, वो कह जो हम सुनना चाहते हैं।”

“अमरजीत, या वह जो कोई भी था, उसे मैंने ही मारा था सर।”

सुनकर दोनों ऑफिसर्स ने चैन की सांस ली।

“शाबाश, क्यों मारा था?”

“मजबूर था सर।”

“ओह - दीक्षित ने अधिकारी की तरफ देखा - ये मजबूर था सर इसलिए अमरजीत को खत्म कर दिया। अब मजबूरी में तो इंसान जो न कर गुजरे वही कम होता है - फिर उसने कैदी की तरफ देखा - एकदम कलेजा चाक कर देने वाली बात कह दी यार, पहले क्यों नहीं बोला? अच्छा चल यही बता दे कि कौन सी मजबूरी थी, मां बीमार थी, छोटी बहन भूखी थी, नशे के लिए पैसे नहीं थे, रखैल को खुश करना था, या कोई और मजबूरी थी?”

“स्मैक खरीदना था सर इसलिए मार दिया, नशा ना हासिल हो तो शरीर ऐंठने लग जाता है, इसलिए मजबूरी में वो सब करना ही पड़ता है। सच पूछिये तो नशा इंसान को जानवर बना देता है। मैं भी जानवर ही तो हूं सर, इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाहर रहूं या जेल में रहूं।” कहता हुआ वह एकदम से रो पड़ा।

अधिकारी ने हैरानी से दीक्षित की तरफ देखा, जैसे यकीन ही न कर पा रहा हो कि लड़का एक वकील से मिल चुकने के बाद अपना जुर्म कबूल किये ले रहा था।

“बात तो तूने एकदम सही कही यार, मजबूरी इंसान से जो न करा दे वही कम है। अब हमें ही देख ले कितने मजबूर हैं हम, जो तेरे साथ पूरी पूरी हमदर्दी होते हुए भी तुझे आजाद नहीं कर सकते। और ये तो तूने एकदम सही कहा कि नशा इंसान को जानवर बना देता है। वाह क्या बात कही, दिल खुश कर दिया दोस्त।”

“थैंक यू सर।”

“अच्छा ये बता कि इससे पहले भी कोई कांड किया है, या अमरजीत का कत्ल पहला कत्ल है तेरे जीवन का?”

अखिल और जोर से रोने लगा।

“क्या फर्क पड़ता है, एक कत्ल करे या दस सजा में कोई बहुत ज्यादा हेर फेर थोड़े ही हो जायेगी, जबकि सच बताकर तू अपनी दुर्गति कराने से साफ बच जायेगा।”

“बीयर आ जाने दो न साहब, फिर सब बता दूंगा।”

“बस आती ही होगी, तब तक वक्त गुजारी के लिए ही कुछ सुना दे।”

“हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं सर, ये सोचकर डर लग रहा है कि पूरी बात सुनकर आप लोग मुझे पीटना शुरू कर दोगे।”

“नहीं पीटेंगे, प्रॉमिस। फिर तू राजी राजी सब बता देगा तो हम क्यों मारेंगे तुझे?”

“पक्का मारोगे साहब जी, मैं जानता हूं कि मार मारकर बेहाल कर दोगे।”

“नहीं, मैं अपने सिर की कसम खाता हूं, हाथ भी नहीं लगाऊंगा, किसी और को भी नहीं लगाने दूंगा।”

“थैंक यू सर जी।”

तभी अमरेंद्र बीयर की बोतल के साथ वापिस लौट आया, और कैदी के सामने मेज पर रखता हुआ बोला, “ले भई अब यही दिन देखना बाकी रह गया था पुलिस की नौकरी में।”

“ऐसे मत तड़पकर दिखा जैसे कभी ठेके पर कदम ही नहीं रखा हो।” अधिकारी थोड़ा भन्नाये लहजे में बोला।

“किसी कैदी की खातिरदारी करने के लिए तो नहीं ही रखा होगा सर।”

“अरे क्यों नाराज हो रहा है यार - दीक्षित बोला - चिल कर, यही सोचकर कर ले कि बीयर पीकर ये अपनी जुबान खोल देगा, मतलब तुझे कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।”

“नहीं जुबान तो ये मार खाकर ही खोलेगा।”

“ऐसा नहीं है, अमरजीत की हत्या वाली बात तो ये कबूल भी कर चुका है - कहकर उसने अखिल की तरफ देखा - सही कह रहा हूं न?”

“जी सर, मैंने ही मारा था उसे।” कहकर उसने बीचर की बोतल को थोड़ा तिरछा कर के उसकी कैप को मेज के कोने पर टिकाया और दायें हाथ से एक घूसा जमा दिया। कैप उछलकर फर्श पर जा गिरी और उसने बोतल से मुंह लगा लिया।

सब इंतजार करने लगे, मगर उसने बोतल को होंठों से तभी दूर किया जब वह पूरी की पूरी खाली हो गयी, “थैंक यू सर, आप लोगों का ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा।”

“भूलना भी नहीं चाहिए, तू नशेड़ी है, एहसान फरामोश थोड़े ही है। अब बता क्या अमरजीत के कत्ल से पहले भी किसी की जान ले चुका है? या अभी बस बोहनी ही की है।”

“क्यों जूते मार रहे हो सर जी।”

“मतलब?”

“बहुतों को खत्म कर चुका हूं।”

“कितनों को?”

“गिनती तो याद नहीं है।”

“नशे में बकवास कर रहा है सर।” दीक्षित बोला।

“और कीजिए खातिरदारी साले की।” अमरेंद्र बोला।

“बेशक तूने बहुतों को मारा होगा लेकिन उनमें से कुछ तो फिर भी याद रह गये होंगे, नाम बता उनके, या अंदाजे से यही बता दे कि पांच को मारा, दस को मारा, या उससे ज्यादा लोगों की जानें ले चुका है?”

“दस की गिनती तो पार कर ही चुका होऊंगा सर। पहले मैं पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास रेलवे लाईन के किनारे रहता था। उस दौरान जाने कितने मुसाफिरों को मार गिराया होगा, अपने एक दोस्त का भी कत्ल किया था, गुल्लू नाम था उसका।”

“दोस्त को मार दिया, क्यों?”

“पुड़िया नहीं दे रहा था।”

“उसे भी पुरानी दिल्ली में ही खत्म किया था?”

“जी सर।”

“यानि उधर जितनी वारदातें हुईं वो सब तेरा कारनामा था?”

“साल भर पहले तक तो सब मैंने ही किया होगा, बहुत धाक थी मेरी उस इलाके में, मेरे जैसे दूसरे लड़के थर-थर कांपा करते थे मुझसे। किसी की मजाल नहीं हो सकती थी मुझसे आंख मिलाकर बात करने की।”

“ये पक्का पिनक में ही है सर।” दीक्षित हंसता हुआ बोला।

“धाक खत्म क्यों हो गयी?”

“इलाका छोड़ दिया।”

“क्यों?”

“कुछ बड़ा करना चाहता था, जो उधर मुमकिन नहीं था, क्योंकि रेलवे लाईन पर चलकर प्लेटफॉर्म तक पहुंचने वाले सब छोटे लोग हुआ करते थे। एक आदमी तो ऐसा भी निकला था, जिसके पर्स में बस दस का नोट था।”

“फिर भी तूने उसे मार डाला?”

“पर्स उसे खत्म करने के बाद निकाला था, तब बहुत अफसोस हुआ, गाली भी दी थी।”

“अपने आपको?”

“नहीं उसको, ये कहकर कि बहन... कम से कम पांच सौ का नोट तो रख लिया होता बटुए में, खामख्वाह मेरी मेहनत बर्बाद कर दी।”

“क्या कहने तेरे, अच्छा ये बता कि वहां से निकलकर कहां गया तू?”

“इधर वसंतकुंज आ गया, क्योंकि यहां रहने वाला हर कोई अमीर ही होता है। फिर एक रोज बड़ा हाथ मारा, खूब बड़ा हाथ, और कई महीनों की खुराक का इंतजाम हो गया।”

“कहां मारा?”

कैदी चुप।

“अब क्या फायदा?”

सन्नाटा।

“अरे बता भी दे कि बड़ा हाथ कहां मारा था? कम से कम इसी बहाने तेरा रौब गालिब हो जायेगा हमपर, और इस बात का फख्र भी होगा हमें कि कितने बड़े अपराधी को गिरफ्तार किया है। फिर जितने ज्यादा लोगों के कत्ल की बात तू कबूल करेगा, उतनी ही ज्यादा जेल में तेरी धाक बनेगी। मतलब बाकी के कैदी तेरी चाकरी करेंगे, और तू वहां भी बस ऐश कर रहा होगा, अब बता बड़ा हाथ कहां मारा था तूने?”

“सर यही वो बात है जिस सुनकर आप भड़क उठेंगे, और अपनी कसम भूलकर मुझे पीटना भी शुरू कर देंगे।”

“ऐसा क्यों?”

“क्योंकि उस केस की छानबीन आप दोनों ने ही की थी।”

“मैं अपनी कसम से कभी नहीं मुकरता लड़के इसलिए जो कहना है बेफिक्र होकर बोल। उसके बाद अगर तुझे एक थप्पड़ भी कोई मार दे, तो मैं एक बाप की औलाद नहीं।”

“थैंक यू सर जी।”

“अब बता बड़ा हाथ कहां मारा था?”

“डाक्टर बरनवाल के क्लिनिक में।”

सुनकर दोनों अफसर एकदम से सन्नाटे में आ गये।

“कब की बात है?” अधिकारी हकबकाया सा बोला।

“साल भर तो हो ही गये होंगे सर, बाकी तारीख किसे याद रहती है।”

“क्या हासिल हुआ?”

“तीन लाख नकद।”

“तू वहां चोरी करने गया था या कत्ल करने?”

“चोरी करने।”

“रात में?”

“और क्या दिन में जाता।”

“कितने बजे?”

“पक्का याद नहीं है, लेकिन दस तो बज ही गये होंगे।”

“चोरी करने के लिहाज से रात दस बजे का समय ठीक तो नहीं कहा जा सकता।”

“नहीं मैं चोरी करने के इरादे से नहीं निकला था।”

“फिर?”

“बस उधर से गुजर रहा था तो क्लिनिक खुला दिखाई दिया, जबकि रोज जल्दी बंद हो जाता था। तब मैं चुपके से भीतर दाखिल हो गया। कहीं कोई नहीं था, लेकिन लाइट बराबर जल रही थी। मगर मेरे काम लायक भी कुछ नहीं दिखाई दिया वहां, तब मैं ऊपर चला गया, जहां डॉक्टर अपने केबिन में बैठा नोट गिन रहा था, नहीं नोट एक लिफाफे में उसकी टेबल पर रखे थे। नहीं शायद वह उन्हें लिफाफे में रख रहा था, सॉरी मुझे ढंग से याद नहीं आ रहा।”

“खैर जो भी रहा हो, सच तो यही है न कि तूने पैसे छीनने के बाद डॉक्टर को खत्म कर दिया था?”

“और क्या करता सर जी, इतना बड़ा आदमी था वह, जिंदा छोड़ देता तो वह क्या पुलिस में कंप्लेन लिखवाने से बाज आ जाता। इसलिए मार दिया।”

“कैसे मारा?”

“छुरे से, जैसे अमरजीत को मारा था, आई लव नाईफ।”

“क्या कहने तेरे।”

“और कुछ पूछना है आप लोगों को?”

“जिस वक्त तू डॉक्टर के केबिन में पहुंचा, उस वक्त वह कहां बैठा था?”

“बायीं तरफ सोफे पर।”

“अपनी कुर्सी पर नहीं बैठा था, जो मेज के परली तरफ रखी थी?”

“नहीं सोफे पर बैठा था।”

“चाकलेट खाता है?”

“है आपके पास?”

“यानि खाता है?”

“कौन नहीं खाता सर जी?”

“उस दिन खाया था, मेरा मतलब है डॉक्टर के केबिन में?”

“कत्ल के बाद खाया था, क्योंकि चाकलेट उसकी मेज पर ही पड़ा मिल गया था।”

“रैपर कहां फेंका?”

“याद नहीं, शायद केबिन में, या कहीं और, पक्का नहीं बता सकता।”

“और क्या किया था?”

“मैं नशे में था सर और रूपये इतने हाथ लग गये थे जितने मैंने एक साथ कभी देखे भी नहीं थे। इसलिए खुशी से नाचने लगा, फिर उसकी मेज पर चढ़ गया। एक बार कुर्सी पर भी जाकर बैठा था।”

“उसके बाद वहां से चला गया?”

“नहीं।”

“फिर?”

“अचानक मुझे याद आ गया कि मेज पर मेरे जूतों के निशान बन गये थे। तब मैंने अपनी टीशर्ट उतारी और मेज को रगड़ रगड़कर साफ कर दिया। उसके बाद कुर्सी साफ की और बाहर निकलकर दरवाजे को भी पोंछ दिया, फिर टीशर्ट पहनी और निकल गया वहां से।”

“इतना कुछ करने की क्या जरूरत थी?”

“मैंने टीवी पर और फिल्मों में देखा था सर कि ऐसे निशानों से पुलिस अपराधियों का पता लगा लेती है, इसलिए होशियारी बरती थी। तभी तो दोनों सर जी बस मुझे ढूंढते ही रह गये।”

“सही कहा होशियारी तो गजब की दिखाई थी।” कहकर अधिकारी ने दीक्षित को वहां से बाहर चलने का इशारा किया, फिर दोनों गलियारे में रखी बेंच पर जाकर बैठ गये। बैठकर उसने दो सिगरेट सुलाये और एक दीक्षित को थमाता हुआ बोला, “क्या लगता है हीरो?”

“आप और मैं दोनों जानते हैं सर कि वो झूठ बोल रहा है, या नशे में है और उसे होश ही नहीं कि क्या कह रहा है। ऊपर से एक बीयर आपने पिला दी उसे।”

“बीयर से नशा हो जाता है?”

“कई लोगों को हो भी जाता है।”

“यार ना तो वह झूम रहा है, ना उसकी जुबान लड़खड़ा रही है, फिर उसे नशे में कैसे मान लूं मैं?”

“कोई ऐसा नशा किया होगा सर जिसका असर दिमाग पर होता होगा। फिर मुझे ये बात भी हैरान कर रही है कि अपने वकील से मिल चुकने के बाद जहां उसे बेगुनाही वाली जिद पर अड़ता होना चाहिए था, वहीं वह एक से बढ़कर एक जुर्म कबूल किये जा रहा है। ऐसे जुर्म जिनसे उसका कोई लेना देना नहीं हो सकता।”

“तुम्हें क्या पता कि लेना देना नहीं है?”

“बस डॉक्टर बरनवाल के मामले में लगता है।”

“वह अगर जुर्म कबूल कर रहा है तो हमें क्या फर्क पड़ता है?”

“नशे में है इसलिए कबूल कर रहा है, नशा टूटेगा तो उसे याद भी नहीं रह जायेगा कि क्या कहा था और क्या नहीं कहा था।”

“तो फायदा उठाते हैं।”

“कैसे?”

“अभी उसे देखकर कहीं से ऐसा नहीं लग रहा कि वह नशे में है।”

“तो?”

“बयान रिकॉर्ड कर लेते हैं उसका।”

“बाद में मुकर गया तो अमरजीत के कत्ल को छोड़कर बाकी चार्ज हटा देंगे, नहीं मुकरा तो दोनों हत्यायों का ठीकरा उसके सिर फोड़ देंगे, बल्कि तब उसकी पुरानी दिल्ली वाली स्टोरी भी चेक करेंगे, फिर रमन राय चाहे कितना भी सयाना वकील क्यों न हो, बचा तो क्या ही पायेगा उसे।”

“आपको लगता है इतने सारे कत्ल उसने किये होंगे?”

“कौन सी बड़ी बात है यार, दुनिया में आये दिन एक से बढ़कर एक कांड होते रहते हैं। फिर सीरियल किलिंग हमारे समाज के लिए कोई नई बात थोड़े ही है। वो तो अपराधी जब पकड़ा जाता है तब पता लगता है कि उसने कितने जघन्य अपराध किये थे, समझ ले अखिल भी उन्हीं में से एक है।

“ठीक है फिर वीडियो रिकॉर्डिंग करा लेते हैं। और दोबारा वही सवाल करेंगे तो ये भी पता लग जायेगा कि जो बोला वह नशे में बोला था या सोच समझकर।”

“बढ़िया, चलो।”

तत्पश्चात अगले पंद्रह मिनटों में अखिल से कई कई बार पूछे जा चुके सवाल फिर से किये गये, जिसमें 19-20 के फर्क के साथ उसका बयान पहले जैसा ही रहा, जो कि उन दोनों पुलिस ऑफिसर्स के लिए भारी राहत की बात थी।

“देख ले बेटा - अधिकारी बोला - हमने हाथ भी नहीं लगाया तुझे।”

“थैंक यू सर जी।”

“अब तू आराम कर, बाकी की पूछताछ कल सुबह करेंगे।”

अखिल को पता नहीं एहसास था या नहीं मगर सच यही था कि बरनवाल के कत्ल की बात कबूल कर के उसने पुलिस महकमे पर बहुत बड़ा एहसान किया था।

एक ब्लाइंड मर्डर केस जो साल भर से उनके लिए सिरदर्द बना हुआ था, यूं सॉल्व हो गया जैसे बच्चों का खेल था। जबकि वसंतकुंज पुलिस अदालत में उस मामले की अनट्रेस्ड रिपोर्ट तक दाखिल कर चुकी थी।