मैंने उस सेल्समैन के बारे में दरयाफ्त किया जिसे सुबह मदान हीरे के टोप्स सोंपकर गया था । मैंने उसे मकतूल के ड्राइव-वे पर से मिला हीरा दिखाया । उसने टोप्स निकाले और उसे खाली पड़ी जगह में जोड़कर इस बात की तसदीक की कि वो वहीं से उखड़ा हुआ हीरा था ।
“अब नया हीरा तराशने की जरूरत नहीं ।” सेल्समैन बोला, “अब तो यही लग जाएगा ।”
“नया ही तराशिये ।” मैं वो हीरा बड़ी सफाई से उसकी उंगलियों से निकालता हुआ बोला ।
अपने पीछे तनिक हकबकाए सेल्समैन को छोड़कर मैं वहां से रुखसत हो गया ।
मैं मंदिर मार्ग पहुंचा ।
सुजाता मेहरा वहां गर्ल्स होस्टल के दूसरी मंजिल पर स्थित अपने कमरे में मौजूद थी ।
वो वक्त वर्किंग गर्ल्स के होस्टल में मौजूद होने नहीं होता था इसलिए होस्टल में काफी हद तक सन्नाटा छाया हुआ था ।
सुजाता मेहरा 'तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना' मार्का लड़की निकली । उम्र में वो कोई तेईस चौबीस साल की थी, खूबसूरत थी, नौजवान थी लेकिन सूरत से ही मौहल्ले भर में मुंह मारती फिरने वाली बिल्ली की तरह चरकटी और नदीदी लग रही थी ।
पता नहीं चालू लड़कियों को भगवान इतना खूबसूरत क्यों बनाता है, या शायद खूबसूरत लड़कियां ही चालू होती हैं ।
मैंने उसे अपना परिचय दिया और परिचय की तसदीक के तौर पर अपना एक विजिटिंग कार्ड भी थमाया ।
उसने मुझे कमरे में एक कुर्सी पर बिठाया और स्वयं मेरे सामने पलंग पर बैठ गई । वह बिना दुपट्टे के शलवार कमीज पहने थी इसलिए ढका होने के बावजूद उसके उन्नत वक्ष का बहुत दिलकश नजारा मुझे हो रहा था ।
एक गिला मुझे रहा ।
दरवाजा उसने खुला छोड़ दिया था ।
युअर्स ट्रूली ये नहीं कहता कि दरवाजा बंद होता तो वो आकर मेरी गोद में ही बैठ जाती लेकिन तब ये सुखद सम्भावना कम से कम विचारणीय तो रहती ।
“कमरे में मेल गैस्ट को रिसीव करने के लिए” वो जैसे मेरे मन की बात भांपकर बोली, “दरवाजा खुला रखना जरूरी है । रूल है ये यहां का ।”
“ओह !” मैं बोला, “सिगरेट के बारे में क्या रूल है ?”
“चलेगा । एक मुझे भी दो । सुलगा के ।”
मैंने अपना एक डनहिल का पैकेट निकालकर दो सिगरेट सुलगाए और एक उसे थमा दिया । उसने बड़े तजुर्बेकार ढंग से सिगरेट के दो लम्बे कश लगाए और उसकी राख करीब मेज पर पड़े एक चाय के कप में झाड़ी । फिर उसने वही कप मेरी ओर सरका दिया ।
“मै सुन रही हूं ।” वो बड़ी बेबाकी से बोली ।
“क्या ?” मैं तनिक हकबकाया ।
“वही जो तुम कहने जा रहे हो ।”
“ओह! गुड । बात कैसी पसन्द करती हो ? आउटर रिंग रोड से खूब लंबा घेरा काट कर मकसद तक पहुचने वाली या शार्टकट वाली ।”
“शार्टकट वाली ।”
“गुड । आज मैटकाफ रोड नहीं गई ?”
उसने हैरानी से मेरी तरफ देखा ।
“शशिकात के यहां ।” मैं आगे बढा, “शार्टकट वाली बात तो ऐसी ही होती है ।”
“नहीं गई तो तुम्हें क्या ?”
“मुझे तो कुछ नहीं लेकिन किसी और को है ?”
“किस को ?”
“पुलिस को ।”
“क्या ?”
“बात को बातरतीब आगे बढ़ने दोगी तो आसानी से सब कुछ समझ पाओगी । यकीन जानो जब मैं यहां से रुखसत होऊंगा तो समझने के लिए कुछ बाकी छोड़कर नहीं जाऊंगा ।”
“हूं ।” उसने हथेली में छुपाए रखकर ही सिगरेट का एक कश लगाया और धुआं पता नहीं किधर हजम कर लिया ।
“अब बोलो । मेटकाफ रोड शशिकान्त की कोठी पर क्यों नहीं गई जहां कि तुम हर रोज ग्यारह बजे जाती हो ?”
“नहीं गई । आगे भी कभी नहीं जाऊंगी ।”
“क्यों ?”
“वो कहानी अब खत्म ।”
“कैसे खत्म ?”
“कल शाम बहुत कमीनगी से पेश आया वो मेरे से । खामखाह मेरे से उल्टा-सीधा बोलने लगा । अकेले में कुछ कहता तो मैं सुन लेती लेकिन उसने तो अपने एक मेहमान के सामने मुझे बेइज्जत किया ।”
“मेहमान ?”
“कोई पुनीत खेतान करके था स्टाक ब्रोकर था वो उसका ।”
“स्टाक ब्रोकर या वकील ?”
“वकील भी होगा ।”
“यानी कि टू इन वन । कानूनी सलाहकार भी ओर इनवेस्टमेंट एडवाइजर भी । लीगल एंड फाइनांशल एडवाईजर !”
“वही समझ लो ।”
“वो कल शाम वहां था ?”
“हां । छ पांच पर आया था ।”
“ठहरा कब तक था ?”
“मुझे नहीं मालूम । क्योकि मैं सात बजे तक वहां से चली आई थी ।”
“यानी कि तुम्हारे वहां से रुखसत होने तक वो वहीं था ?”
“न सिर्फ वहीं था, बल्कि अभी जल्दी रुखसत होने का उसका कोई इरादा भी नहीं लगता था ।”
“ऐसा कैसे सोचा ?”
“किसी बात पर झगड़ रहे थे दोनों । मेरे वहां से चले जाने तक वो झगड़ा किसी अंजाम तक पहुंचता जो नहीं लग रहा था ।”
“किस बात पर झगड़ रहे थे ?”
“मुकम्मल बात मुझे नहीं मालूम । मैं कोई उसके साथ थोड़े ही बैठी थी ।”
“वो कहां बैठे थे ?”
“शशि की स्टडी में ।”
“और तुम कहां थीं ?”
“पिछवाड़े के बैडरूम में ।”
“वहां तक स्टडी की आवाजें पहुचती थीं ?”
“तभी जब कोई बहुत ऊंचा बोले ।”
“झगड़ा पुनीत खेतान के आते ही शुरू हो गया था ?”
“नहीं । झगड़े का माहौल उसके आने के कोई पन्द्रह-बीस मिनट बाद बना था । बीच में एक-दो बार ठण्डा भी पड़ा था ।”
“वो किसलिए ?”
“मेरे से भी जो झगड़ना था उसने ।”
“आदतन झगड़ालू आदमी था शशिकांत ?”
“था क्या मतलब ? अब कौनसा उसे हैजा हो गया है ?”
उसके सिर्फ ‘था’ और ‘है’ में मीन-मेख निकालने लगने से ये मतलब नहीं लगाया जा सकता था कि उसे शशिकांत के कत्ल की खबर नहीं थी । मैं उसे जानना नहीं था । वो जितनी दिखती थी, उससे कहीं ज्यादा चालाक और पहुंची हुई हो सकती थी ।”
“आदतन झगड़ालू आदमी है” मैंने संशोधन किया, “शशिकान्त ?”
“पता नहीं क्या बला है ।” वो तिक्त भाव से बोली, “मैं तो समझ ही नहीं सकी उसका मिजाज ।”
“तुम जो बाकायदा उसकी हाउसकीपर बनी बैठी थी, किस खुशी में कर दी उसकी इतनी खिदमत ? क्यों हो गई इतनी मेहरबान उस पर ?”
“इसी खामख्याली में कर दी खिदमत कि उसे मेरी कद्र होगी वो मुझ पर मेहरबान होगा ।”
“सफा-सफा हिन्दोस्तानी में इसे मर्द को अपने पर आशिक करवाने की कोशिश कहते हैं ।”
उसने घूरकर मुझे देखा ।
“औरत जात की” मैं निर्विकार भाव से बोला, “कुछ खास उम्मीदें जब किसी मर्द मे पूरी नहीं होती तो वो चिड़कर उस पर ये लांछन लगाने लगती है कि वो बेमुरब्बत है, बद्जुबान है, खुदगर्ज है, नाशुक्रा है वगैरह ...”
वो कुछ क्षण पूर्ववत् मुझे घूरती रही और फिर एकाएक हंसी ।
“यानी कि मैंने ठीक कहा ?” मैं बोला ।
“हां ।”
“ठीक कहने का कोई इनाम ?”
उसने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और बचे हुए टुकड़े को आगे को झुककर उस चाय के प्याले में डाला जो उसने पहले ही मेरी तरफ सरका दिया हुआ था । यूं मुझे उसके उन्नत दूधिया वक्ष की घाटी में बहुत दूर तक झांकने का मौका मिला । अब पता नहीं वो बेध्यानी में ज्यादा नीचे झुक गई थी या वो नजारा मुझे कराकर उसने मुझे इनाम दिया था ।
“देखो” वो मुझे समझाती हुई बोली, “मैं उसकी नाइट क्लब में चिट क्लर्क की नौकरी करती थी । दो हजार तनख्वाह थी । और भी सुविधाएं थीं । नाइट क्लब जैसी जगह की मुलाजमत होने की वजह से ऊपरी कमाई के भी बड़े चांस थे । कुल मिलाकर बढिया, मौज-बहार वाली नौकरी थी । लेकिन पुलिस की मेहरबानी से नाइट क्लब पर ताला पड़ गया । खड़े पैर क्लब के सारे मुलाजिम बेरोजगार हो गए । दिल्ली शहर में आनन-फानन नई, बढ़िया नौकरी ढूंढ लेना कोई मजाक तो है नहीं । ऐसे माहौल में मैंने क्लब के मालिक को शीशे में उतारने की कोशिश की तो क्या गलत किया ?”
“क्लब खुलने पर नौकरी की बहाली हो जाती सिर्फ इसलिए ऐसा किया था या और कोई भी मकसद था ?”
“शुरू में कोई और मकसद नहीं था लेकिन जब माहौल ऐसा बन गया कि मैं एक तरह से उसकी कोठी पर ही रहने लगी तो और भी मकसद सूझने लगे ।”
“जैसे शादी ?”
“या एक्सपेंसिव मिस्ट्रेस ।”
“तुम्हें उसकी रखैल बनना भी मंजूर था ?”
“मामूली रखैल नहीं । कीमती रखैल । एक्सपेंसिव मिस्ट्रेस ।”
“लेकिन मंजूर था ।”
“मिस्टर, मेल ट्रेन मिस हो जाए तो पैसेंजर से सफर करने मे कोई हर्ज होता है ?”
“कोई हर्ज नहीं होता । पैसेंजर के बाद मालगाड़ी भी होती है फिर बस, घोड़ा-तांगा, बैलगाड़ी...”
“शटअप !” वो भुनभुनाई ।
“ ओके ।”
“मैं इतना नीचे नहीं गिरने वाली ।”
“एक बार डाउनवर्ड स्लाइड शुरू हो जाए तो क्या पता लगता है कोई कितना नीचे गिरेगा ! लेकिन वो किस्सा फिर कभी । बहरहाल वो पटा नहीं तुम्हारे से ?”
“यही समझ लो । अजीब कन्फ्यूजन का माहौल रहा पूरा एक महीना । कभी लगता था पट रहा है तो कभी लगता था परों पर पानी पड़ने देने को तैयार नहीं । मैंने तो उसका मिजाज भांपने के लिए उसे जलाने की भी कोशिश की ।”
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“अपने एक ब्वाय फ्रेंड के चर्चे करके ।”
“था कोई ऐसा । ब्वाय फ्रेंड ?”
“था । है ।”
“कौन ?”
“डिसूजा नाम है उसका । पॉप सिंगर है । क्लब में गाता-बजाता था ।”
“आई सी ।”
“एक-दो बार मैं शशिकांत के सामने डिसूजा के साथ डेट पर गई । मैंने खास ऐसा इंतजाम किया कि डिसूजा मुझे पिक करने के लिए ऐसे वक्त पर मेटकाफ रोड शशिकांत की कोठी पर आए जबकि वो घर हो ।”
“कोई नतीजा निकला ?”
“वो भुनभुनाया तो सही लेकिन हसद की उस आग में न जला जिसमें जलता मैं उसे देखना चाहती थी ।”
“फिर ?”
“कल भी डिसूजा मुझे लेने कोठी पर आने वाला था । उसके सामने ही जबकि उसका वकील पुनीत खेतान भी बैठा था, मेरे लिए डिसूजा का फोन आया जो कि मैंने स्टडी में शशिकांत के सिरहाने खड़े होकर सुना । मेरे फोन रखते ही वो मेरे पर फट पड़ा । अपने मेहमान के सामने जलील करके रख दिया कमीने ने मुझे । गुस्से में पता नहीं क्या-क्या भोंकता रहा । भड़क खेतान से रहा था और गले मेरे पड़ गया । कहने लगा अगर उस डिसूजा के बच्चे ने मेरी कोठी में कदम रखा तो साले को शूट कर दूंगा । फिर मुझे भी गुस्सा चढ़ गया । मैंने भी कह दिया कि वो कौन होता था मुझे किसी से मिलने से रोकने वाला ! जवाब में उसने इतनी गन्दी जुबान बोली कि कान पक गए मेरे ।”
“क्या बोला ?”
“बोला उसकी बला से मैं चाहे सारे शहर के डिसूजाओं के बिस्तर गर्म करूं लेकिन उसकी कोठी से बाहर ।”
“ओह ।”
“उसको अपने पर आशिक करवाने के अपने मिशन को निगाह में रखते हुए शायद मैं फिर भी जब्त कर लेती लेकिन वो उसका मेहमान, वो हरामजादा खेतान का बच्चा, मुझे बेइज्ज्त होता देखकर यूं मजे ले रहा था और हंस रहा था कि जी चाहता था कि उसका मुंह नोच लूं ।”
“उसका ? शशिकान्त का नहीं !”
“उसको तो उस वक्त गोली से उड़ा देने का जी चाह रहा था मेरा ।”
“इस काम के लिए तो कोई फायरआर्म, कोई हथियार दरकार होता । था तुम्हारे पास ?”
“नहीं था । जो कि अच्छा ही हुआ । नहीं तो जैसी उसने मेरी बेइज्जती की थी मैं जरूर उसे शूट कर देती ।”
“शूट कर देने की जगह क्या किया ?”
“मैने उसकी चाबी उसके मुंह पर मारी और घर चली आई ।”
“सात बजे ?”
“हां ।”
“'तब पुनीत खेतान अभी वहीं था ?”
“हां । बोला तो ?”
“और डिसूजा ?”
“क्या डिसूजा ?”
“वो तुम्हें लेने जो आने वाला था ?”
“वो बात तो मैं भूल ही गई थी । वो तो मुझे तब याद आया जब कि अंगारों पर लोटती मैं यहां पहुंच गई ।”
“वो गया तो होगा वहां ? आखिर उसे थोड़े ही पता था कि तुम वहां से हमेशा के लिए रुखसत ले चुकी हो ।”
“वह तो है ।”
“तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की कि वो वहां गया था या नहीं ?”
“नहीं ।”
“कमाल है ।”
“वो....वो क्या है कि मैंने सोचा था कि मुझे वहां न पाकर वो यहां आएगा ?”
“आया ?”
“आया तो नहीं ।”
“कल नहीं तो आज तो मालूम करती कि वो गया था या नहीं ?”
“मैं ...मैं अभी करती हूं ।”
“कैसे ?”
“उसे फोन करके । नीचे ग्राउण्ड फ्लोर पर पब्लिक फोन है ।”
मैं कुछ क्षण खामोश रहा, फिर मैंने सहमति में सिर हिला दिया ।
वह पलंग से उठी और कमरे से बाहर निकल गई ।
मैं दबे पांव दरवाजे के पास पहुंचा । मैंने बाहर गलियारे में झांका । वह सीढियों की ओर बढ रही थी । कुछ क्षण बाद जब वह सीढियां उतरती मेरी आखों से ओझल हो गई तो मैं चौखट पर से हटा । मैने घूमकर कमरे में चारों ओर निगाह डाली ।
एक कोने में एक वार्डरोब थी । उसके करीब जाकर मैंने उसका हैंडल ट्राई किया तो मैंने उसे खुली पाया । मैने भीतर निगाह दौडाई ।
भीतर एक खूंटी पर एक जनाना साइज की बरसाती टंगी हुई थी । उन दिनों बरसात का मौसम नहीं था ।
मैंने जेब से रूमाल में लिपटी रिवॉल्वर निकाली और रूमाल समेत उसे बरसाती की एक भीतरी जेब में डाल दिया ।
हजरात, खाकसार की उस हरकत को गलत न समझें । मेरा इरादा लड़की को फंसाने का कतई नहीं था, मैं तो महज वक्ती तौर पर उम फसादी रिवॉल्वर को किसी सुरक्षित जगह पर ट्रांसफर करना चाहता था और उस वक्त सामने मौजूद सुरक्षित जगह के इस्तेमाल का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया था ।
मैंनै वार्डरोब को पूर्ववत बन्द किया और वापस कुर्सी पर आकर बैठ गया । मैंने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और सुजाता के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद वह वापस लौटी ।
“बात नहीं हुई ।” वो पलंग पर ढेर होती हुई बोली, “पता नहीं नम्बर खराब है या वो घर पर नहीं है घंटी बजती है पर कोई उठाता नहीं ।”
“कोई बात नहीं ।” मैं बोला, “रहता कहां है वो ?”
“पंडारा रोड ।”
“पता और फोन नम्बर एक कागज पर लिख दो । कभी मौका लगा तो मैं उससे संपर्क करूंगा ।”
उसने ऐसा ही किया ।
“अकेले रहता है ?” कागज तह करके जेब के हवाले करते हुए मैंने पूछा ।
“हां ।”
“फिर तो घर ही नहीं होगा । तुम एक बात बताओ ।”
“पूछो ।”
“ये डिसूजा, तुम्हारा ब्वाय फ्रेंड तुम्हारे से इतना फिट है कि तुम्हारे भड़काने से वो किसी का खून कर दे ?”
“ऐसा कोई करता है !”
“मरता हो तो करता है । मरता है तुम्हारे पर ?”
“मरता तो बहुत है ।”
“फिर तो वो खून ....”
“ये खून वाली बात कहां से आ गई ?”
“तुम्हें नागवार लगती है तो फिलहाल जहां से आई है, वहीं वापस भेज देते हैं खून वाली बात और शशिकान्त और पुनीत खेतान के झगड़े पर आते हैं । किस बात पर झगड़ रहे थे वो ? ठहरो, ठहरो” उसे प्रतिवाद को तत्पर पाकर मैं जल्दी से बोला, “ये न कहना कि तुम उनके साथ नहीं बैठी थी या जहां तुम थीं वहां तक उनकी आवाज नहीं पहुचती थी । तुमने खुद कहा था कि ऊंचा बोलने पर आवाजें पीछे बैडरूम में तुम तक पहुंचती थी । अब झगड़ा खुसर-पुसर में तो होता नहीं । झगड़े का रिश्ता तुनकमिजाजी से, गुस्से से होता है । ऐसे माहौल में जब आदमी भड़कता है उसे पता भी नहीं लगता कि वो कब उंचा ऊंचा बोलने लगता है । कुछ तो न चाहते हुए भी तुमने सुना होगा ?”
“मेरी तवज्जो नहीं थी उधर ।”
“नहीं थी तो हो गई होगी । झगड़े का मुद्दा चाहे न समझ पाई होवो लेकिन फिर भी कुछ तो जरूर सुना होगा ।”
वो सोचने लगी ।
“मैं आशापूर्ण निगाहों से उसकी सूरत देखता रहा । सोच में उसकी भवें तन गई, होंठों की कोरें नीचे को झुक गई और चेहरा यू खिंच गया कि वो उस घड़ी मुझे जरा भी खूबसूरत न लगी । अच्छी-भली खूबसूरत लड़की सोचने की कोशिश में पता नहीं क्या लगने लगी । जिस किसी ने भी ये कहा था कि खूबसूरती और अक्ल में छत्तीस का आंकड़ा होता था, जरूर उसने किसी खूबसूरत औरत को वैसे ही सोच में जकड़ा देख लिया था जैसे मैं उस घड़ी सुजाता मेहरा को देख रहा था ।
फिर उसके चेहरे से क्षणिक विकृति के लक्षण गायब होने लगे ।
मैं आशान्वित हो उठा । सोच का कोई सुखद नतीजा निकलता दिखाई दे रहा था ।
“उनमे झगड़े का मुद्दा वो बोली, कोई कागजात थे ।”
“कागजात !” मैं सकपकाया ।
“हां । किन्हीं कागजात को लेकर शशिकान्त पुनीत खेतान पर कोई इल्जाम लगा रहा था जिसकी खेतान पहले सफाई देने की कोशिश करता रहा था और फिर वो भी भड़क उठा था ।”
“क्या कागजात रहे होंगे वो ?”
“मुझे क्या पता ?”
“सोचो ।”
“जितना सोच सकती थी सोच लिया । अब और सोचने से भी कोई नतीजा नहीं निकलने वाला ।”
तब उसकी जगह मैं साचने लगा ।
क्या झगड़े का मुद्दा वो कागजात शशिकान्त की मां कौशल्या की वो चिट्ठी हो सकती थे जिसमे इस बात का सबूत निहित था कि लेखराज मदान मुकंदलाल सेठी का कातिल था । उस चिट्ठी ने कहीं तो होना ही था । क्या वो खेतान के कब्जे में रही हो सकती थी । कहीं इसीलिए तो चिट्ठी मदान के हाथ नहीं आ रही थी क्योंकि वो खेतान के पास रखकर चिराग तले अंधेरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी ।
लेकिन उस चिट्ठी को ले के झगड़ने वाली क्या बात थी ?
मुझे कोई बात ना सूझी ।
“कल शाम की कोई और बात ?” प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“और क्या बात ?” वह बोली ।
“शशिकांत की कोठी पर तुम्हारी मौजूदगी के दौरान कोई और आया था ?”
“पुनीत खेतान के अलावा कोई नहीं ।”
“कोई और जिक्र के काबिल बात ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“सोच के जबाव दो ।”
उसने कुछ क्षण सोच की पहले जैसी ही भयानक मुद्रा बनाई और फिर दोबारा इनकार में सिर हिलाया ।
“नैवर माइंड । अब नहीं तो फिर सही । कई बार किसी के कहने पर दिमाग पर जबरन जोर देने पर कोई बात नहीं याद आती जबकि वाद में किसी वक्त वो सहज स्वाभाविक ढंग से ही याद आ जाती है । यूं कोई बात बाद में याद आ जाए तो गांठ बांध लेना और वक्त आने पर मुझे बताना न भूलना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड ।” मैं बोला, “अब तुम सुनो खून वाली बात और पुलिस वाली बात ।”
“सुनाओ ।”
“शशिकांत का खून हो गया है ।”
“क्या !”
“वो मेटकाफ रोड पर अपनी स्टडी में मरा पड़ा है । किसी ने बाइस कैलीबर की रिवॉल्वर से गोलियां बरसाकर उसकी दुक्की पीट दी है । हालात ये बताते हैं कि कत्ल शाम साढ़े आठ के करीब हुआ था और गोलियां चलाई जाने का पैटर्न ये साबित करता है कि गोलियां किसी औरत ने चलाई थीं, उसने आंख बंद कर ली थीं और रिवॉल्वर का रुख मकतूल की तरफ करके घोड़ा खींचना शुरू कर दिया था ।”
“पै....पैटर्न क्या ?”
मैने उसे बताया कि गौलियां कैसे-कैसे चली थीं और कहां कहां टकराई थीं ।
“वो...वो औरत”, वो हकलाई, “मैं थोड़े ही हो सकती हूं !”
“क्यों नहीं हो सकती ?”
“मैं....मैं तो सात बजे ही वहां से चली आई थी । वो...वो वकील वो पुनीत खेतान...वो मेरा गवाह है ।”
“कहीं से चले आकर वहां वापिस भी लौटा जा सकता है ।”
“मैंने ऐसा नहीं किया । और फिर मेरे पास रिवॉल्वर का क्या काम ?”
“वो घटनास्थल पर मौजूद रही हो सकती है ।”
“मुझे रिवॉल्वर चलाना नहीं आता ।”
“वो क्या मुश्किल काम है । रिवॉल्वर का रुख टारगेट की तरफ करना होता है और घोड़ा दबा देना होता है ।”
“ल...लेकिन निशाना लगाना तो मुश्किल काम होता होगा ।”
“जब बहुत सी गोलियां चलाई जाएं तो कोई तो निशाने पर लग ही जाती है ।”
“ब..बहुत-सी गोलियां !”
मैंने बड़े उदासीन भाव से हामी में गर्दन हिलाई ।
“देखो” वह तनिक दिलेरी से बोली, “तुम खामखाह मुझे डरा रहे हो । मेरा उसके कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“तुमने अभी कहा था कि तुमने उसके मुंह पर चाबी मारी और घर चली आई ।”
“हां ।”
“कैसे ?”
“ऑटो से ।”
“सीधे ?”
“नहीं ! पहले मैं तालकटोरा गार्डन गई थी ।”
“वो किसलिए ?”
“जो कुछ पीछे मेटकाफ रोड पर हुआ था उसकी वजह से मन बहुत अशांत था । मूड सुधारने की नीयत से तालकटोरा टहलने गई थी । फिर वहां से पैदल चलकर यहां लौटी थी ।”
“कितने बजे ?”
“नौ तो बज ही गए थे ।”
“इस लिहाज से साढ़े आठ बजे तुम तालकटोरा गार्डन में टहल रही थीं ?”
“हां ।”
“साबित कर सकती हो ?”
“कैसे साबित कर सकती हूं ? कोई वाकिफकार तो मुझे वहां मिला नहीं था ।”
“पुलिस ये दावा कर सकती है कि तुम अकेले या अपने फ्रेंड के साथ वापस मैटकाफ रोड गई थीं और खून करने के बाद सीधे यहां आई थीं ।”
“प...पुलिस !”
“हर हाल में तुम्हारे तक पहुंचेगी ।”
“मैं क्या करूं ?”
“ये मैं बताऊं ?”
“तुम्हीं बताओ । आखिर डिटेक्टिव हो । मुझे निकालो इस सांसत से । कुछ मदद करो मेरी ।”
“कुछ क्या पूरी मदद करता हूं ।” मैं उसकी आंखों मे झांकते हुए बोला ।
“शुक्रिया ।”
“दरवाजा बन्द करो ।” मैंने आगे झुककर उसकी जांघ पर हाथ रखा ।
“पागल हुए हो !” उसने तत्काल मेरा हाथ परे झटक दिया, “मुझे होस्टल से निकलवाओगे ।”
“तो फिर किसी जगह चलो जहां ऐसा खतरा न हो ।”
“कहां ?” वो संदिग्ध स्वर में बोली ।
“जहां मैं ले चलूं ।”
“पहले मेरी जान तो सांसत से छुड़वाओ ।”
“वो तो समझ लो छूट गई ।”
“कैसे ?”
“तुम्हें नहीं पता, अभी भी नहीं पता, कि शशिकांत का कत्ल हो गया है । तुम आज भी ऐसे ही वहां जाओ जैसे रोज जाती हो । जाके दरवाजा खोलो, लाश बरामद करो और शोर मचाना शुरू कर दो । यूं यही लगेगा कि तुम कल शाम के वाद पहली बार वहां लौटी हो ।”
“चाबी !”
“तुम्हें उम्मीद थी कि वो घर होगा ।”
“दरवाजा खुला होगा ?”
“रात को इतनी तकरार के बाद सुबह फिर वहां पहुंच जाने की मैं क्या सफाई दूंगी ?”
“कहना कि तुम्हें अहसास हुआ था कि गलती तुम्हारी थी । इसलिए आज तुमने अपनी गलती की तलाफी के तौर पर वहां जाना और भी जरूरी समझा था ।”
उसने संदिग्ध भाव से मेरी ओर देखा ।
“चाहने वालों में” मैं आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला, “ऐसी तकरार होती ही रहती हैं । आज रूठे कल मान गए ।”
“यानी कि मैं उसे अपना चाहने वाला कबूल करूं ?”
“ऐसा तो वैसे भी समझा ही जाएगा । आखिर तुम उसके घर में रहती थीं और ये बात कहीं छुपने वाली है ।”
वह कुछ क्षण सोचती रही, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“तो फिर चलो ।” मैं उठता हुआ बोला, “मैंने उधर ही जाना है, तुम्हें मैटकाफ रोड उतारता जाऊंगा ।”
“मैं कपड़े तो बदल लूं ।”
“बदल लो ।” मैं सहज भाव से बोला ।
“तुम्हारे सामने बदल लूं ?”
“क्या हर्ज है ?”
“पागल हुए हो ।”
“मैं नीचे जाके ऑटो तलाश करता हूं । जल्दी आना ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
नीचे पहुंचकर मैंनै खुद डिसूजा का टेलीफोन नम्बर ट्राई किया लेकिन नतीजा सुजाता वाला ही निकला । कोई जवाब न मिला ।
फिर मैंने एक निगाह अपनी कलाई घड़ी पर डाली और फायर आर्म्स रजिस्ट्रेशन के आफिस में फोन किया ।
मालूम हुआ कि वाईस कैलीबर की हाथी दांत की मूठ वाली जो रिवाल्वर मैंने शशिकांत की कोठी के कम्पाउंड से बरामद की थी, वो कृष्ण बिहारी माथुर नाम के किसी सज्जन के नाम रजिस्टर्ड थी जो कि फ्लैग स्टाफ रोड पर एक नम्बर कोठी में रहता था ।
माथुर ! फ्लैग स्टाफ रोड ।
पहले मेरा इरादा शक्तिनगर पुनीत खेतान के ऑफिस में जाने का था लेकिन अब मैंने फ्लैग स्टाफ रोड जाने का निश्चय किया ।
वहां पहुंचने के लिए भी मैटकाफ रोड रास्ते में आती थी इसलिए कोई समस्या नहीं थी ।
मैंने डायरेक्ट्री में मदान के पेंटहाउस अपार्टमेंट का नम्बर देखा और उस पर फोन किया ।
फोन खुद मदान ने उठाया ।
“कोल्ली ।” मेरी आवाज सुनते ही वह व्यग्र भाव से बोला, “ओए, अभी तक पुलिस नहीं बोल्ली ।”
“बोल पड़ेगी ।” मैं बोला, “बस एक घंटा और लगेगा ।”
“मैं सस्पेंस से मरा जा रहा हूं ।”
“मत मरो । तुम भी मर गए तो इंश्योरेंस क्लेम की दुक्की पिट जाएगी ।”
“दुर फिटे मूं ।”
“कहानी तैयार है तुम्हारी ।”
“पूरी तरह से ।”
“बीवी फिट हो गई ।”
“हां । सब समझा दिया है उसे ।”
“बढ़िया ।”
“फोन कैसे किया ?”
“तुम्हारी बीवी की जो बहन है....सुधा माथुर जो फ्लैग स्टाफ रोड पर रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर कहां रहती है ?”
“एक नम्बर कोठी में ।”
“हस्बैंड का क्या नाम है ?”
“कृष्णबिहारी माथुर । क्यों ?”
“मैं उससे मिलना चाहता हूं ।”
“क्यों ?”
“है कोई वजह ।”
“तू उसके पास भी नहीं फटक पाएगा ।”
“क्यों ?”
“वो पुराने जमाने का टिपीकल रईस आदमी है जो ऐरे गैरे लोगों को अपने पास न फटकने देने में अपनी शान समझता है । करोड़पति है । कई कारोबार कई मिल हैं उसकी । बादशाह की तरह रहता है फ्लैग स्टाफ रोड पर । आम, मामूली लोगों से आदम बू आती है उसे । कीड़े-मकोड़े समझता है उन्हें । तू उससे मिलने की कोशिश करेगा तो कोई तुझे उसकी कोठी का फाटक भी नहीं लांघने देगा ।”
“इस पंजाबी पुत्तर ने फ्लैग स्टाफ रोड की किसी कोठी से बड़े-बड़े किले फतह किये हुए हैं ।”
“वहां दाल नहीं गलेगी वीर मेरे । यकीन कर मेरा ।”
“कभी वहां तुम्हारी अपनी दाल कच्ची रह गई मालूम होती है ।”
जवाब में उसके मुंह से बड़ी भद्दी गाली निकली और फिर वह बोला, “भूतनी दा रईस होगा तो अपने घर का होएगा ।”
“तुम्हारे से रिश्तेदारी नहीं मानता ?”
“मैं नहीं मानता ।”
“उसी ने पास नहीं फटकने दिया होगा अंडरवर्ल्ड डान को ! गैंगस्टर शिरोमणि को ! रैकेटियर-इन-चीफ को ।”
“बक मत ।”
“क्लायंट का हुक्म सिर माथे पर ।”
“तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
“तुमने अभी उसे पुराने जमाने का टिपीकल रईस कहा । है ही वो पुराने जमाने का रईस या उसकी फितरत पुराने जमाने के रईसों जैसी है ?”
“दोनों ।”
“क्या मतलब ?”
“अगर तेरा जवाब उसकी उम्र की बाबत है तो वो साठ साल का है ।”
“तोबा । तुम्हारे से भी पांच साल बड़ा !”
“कोल्ली, दसवीं बार पूछ रहा हूं । तू क्यों मिलना चाहता है उससे ?”
उत्तर देने के स्थान पर मैंने लाइन काट दी ।
मामला गहराता जा रहा था ।
जिस रिवॉल्वर से हत्या हुई थी, वो हत्प्राण के कथित भाई की बीवी की बहन के पति के नाम रजिस्टर्ड थी ।
मैंने डायरैक्ट्री में कृष्णबिहारी माथुर की एंट्री निकाली । उसके नाम के आगे दो दर्जन टेलीफोन अंकित थे जिनमें से कम से कम चारफ्लैग स्टाफ रोड के पते वाले थे ।
मैंने एक नंबर पर फोन किया ।
तुरंत उत्तर मिला ।
“हल्लो ।” एक मर्दाना आवाज मुझे सुनाई दी ।
“मैं” मैं बोला, “मिस्टर कृष्यबिहारी माथुर से बात करना चाहता हूं ।”
“आप कौन साहब ?”
“मेरा नाम सुधीर कोहली है ।”
“किस बारे में बात करना चाहते हैं ?”
“मामला पर्सनल है l”
“मुझे बताइए । मैं उनका प्राइवेट सैक्रेट्री हूं ।”
“और गोपनीय भी, प्राइवेट सैक्रेट्री साहब ।”
“फिर भी मुझे बताइए ।”
“और अर्जेंट भी ।”
“आप खामखाह वक्त जाया कर रहे हैं । साफ बोलिए आप कौन सी प्राइवेट, पर्सनल और अर्जेंट बात करना चाहते हैं वर्ना मैं फोन बंद करता हूं ।”
“आपको बताए बिना बात नहीं होगी ?”
“मुझे बताने के वाद भी होने की कोई गारंटी नहीं ।”
“वो मामला इतना नाजुक है कि खुद माथुर साहब ही पसंद नहीं करेंगे कि.....”
“आप बेकार बातों में वक्त जाया कर रहे हैं । मैं फोन बद करता हूं ।”
“सुनिए । सुनिए । प्लीज ।”
“बोलिये । जल्दी ।”
“मैं माथुर साहब से एक रिवॉल्वर के बारे में बात करना चाहता हूं ।”
“रिवॉल्वर ।”
“बाइस केलीबर की । हाथी दांत की मूठ वाली । सीरियल नम्बर डी-24136 है । माथुर साहब के नाम रजिस्टर्ड है ।”
“क्या बात करना चाहते हैं है आप उस रिवॉल्वर के बारे में ।”
“मै उन्हें ये बताना चाहता हूं कि वो रिवॉल्वर इस वक्त कहां है ।”
“कहां है क्या मतलब ? उनकी रिवॉल्वर उनके पास नहीं है ?”
“नहीं है ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मालूम है । कैसे मालूम है, ये मैं उन्हीं को बताऊंगा । अब आप बेशक फोन बंद कर दीजिए ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“अपना नाम फिर से बताइए ।” फिर पूछा गया ।
“कोहली । सुधीर कोहली ।”
“आपकी लाइन आफ बिजनेस क्या है, मिस्टर कोहली ?”
“मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं ।”
“आधा घंटे बाद फोन कीजिए, मिस्टर कोहली ।”
“लेकिन......”
मैं खामोश हो गया । तब तक लाइन कट चुकी थी ।
मैंने सीढ़ियों की ओर निगाह दौड़ाई, सुजाता को नमूदार होती न पाकर वक्त्गुजारी के लिए मैंने अपने ऑफिस फोन किया ।
“यूनिवर्सल इन्वेस्टिगेशंस । मुझे अपनी सैक्रेट्री रजनी का खनकता हुआ स्वर सुनाई दिया ।
“मैं” मैं बोला, “तुम्हारा एम्प्लोयर बोल रहा हूं ।”
“बोलिए !”
“बोलिए ! मैं भुनभुनाया, “हद है तुम्हारी भी ।”
“क्या हुआ ?” उसने भोलेपन से पूछा ।
“अरे कोई राम सलाम नहीं, कोई नमस्ते नहीं, कोई गुड मार्निंग नहीं । ईंट मार दी । बोलिए । मैं तुम्हारा एम्प्लायर हूं या तुम्हारा दूध वाला हूं ?”
“आप मेरे दूध वाले होते तो फिर मैं ऐसे थोड़े ही बोलती !”
“फिर कैसे बोलती ?”
“फिर मैं कहती नमस्ते चाचाजी ।”
“चाचाजी !”
“हां । आप मेरे चाचा जी बनना चाहते हैं ?”
“अरे, जहन्नुम में गया तेरा चाचा जी मूड खराब कर दिया ।”
“सारी ।”
“कहती है सारी ।”
“आप अगर इस वक्त अपने एम्प्लोयर की फोन कॉल रिसीव करने का मेरा पोज देख पाते तो खुश हो जाते । फिर न कहते कि ईंट मार दी ।
“देख पाता तो क्या देखता मैं ?”
“आप देखते कि मैं सावधान की मुद्रा में खडी हूं । मेरा दायां हाथ सैल्यूट की सूरत में मेरे माथे पर है और मैं थर-थर कांप रही हूं ।
“रजनी मैं जो सवेरे दफ्तर नहीं पहुंचा, तूने कोई फिक्र की इत बात की ?”
“बहुत फिक्र की ।”
“फिक्र की तो क्या किया ?”
“सारे बड़े अस्पतालों की केजुअलटी पर फोन किया आस-पास के सारे थानों से पूछताछ की । अभी डायरेक्ट्री में तिहाड़ जेल का नम्बर देख रही थी कि आपका फोन आ गया ।”
“लानत ! लानत !”
“अब आप कहां से बोल रहे हैं ? इन्ही जगहों में से किसी में से या कहीं और से ?”
“कहीं और से ।”
“शुक्र है भगवान का । जान मे जान आ गई ।”
“कम से कम ये तो पूछना था कहीं और से कहां से ।”
“होंगे आप किसी नई बहन जी के पहलू में । हफ्ता दस दिन तो अब दफ्तर क्या आ पाएंगे आप !”
“अहमक ! जानती नहीं कि मैं मरता-मरता बचा हूं ।”
“अच्छा !”
“हां । वो रात को ....”
“जरूर कोई विषकन्या पल्ले पड़ गई होगी इस बार ।”
“तौबा ! तेरे से तो बात करना भी गुनाह है । एक नंबर की कम्बख्त औरत है तू ।”
“करेक्शन । एक नंबर की नहीं हूं । औरत नहीं हूं ।”
“लेकिन कम्बख्त है ।”
“बन गई हूं कुछ-कुछ आपकी सोहबत में ।”
“अब ये बात अभी कितनी बार कहेगी ?”
“जितनी बार आप मुझे ये एक नम्बर की कम्बख्त औरत वाला फिकरा कहेंगे ।”
“ठीक है, मर ।”
“खड़े खड़े ? सावधान और सैल्यूट की मुद्रा में थर थर कांपते हुए ?”
“जैसे मुझे यकीन आ गया है कि तू ऐसे खड़ी है ।”
“आके तसदीक कर लीजिये ।”
“आना जैसे आसान है ।”
“जो बहन जी आने से रोके हुए हैं, वो इजाजत दे तो कोई दिव्यदृष्टि पैदा कीजिये अपने आपमें ।”
“क्या मुश्किल काम है ?” मैं व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“आपके लिये । आखिर इतने बड़े जासूस हैं आप ।”
तभी मुझे सीढियां उतरती सुजाता दिखाई दी ।
“ठीक है ।” मैं बोला, मैं आके खवर लेता हूं तेरी ।” मैंने फोन हुक पर टांग दिया ।
***
मैं फ्लैग स्टाफ रोड पहुंचा ।
कृष्णबिहारी माथुर की कोठी पर एक निगाह पड़ते ही मुझे कबूल करना पड़ा कि मदान ने उसके बारे में गलत नहीं कहा था । वो भव्य, विशाल कोठी जिसके सामने मैं उस घड़ी खड़ा था, यकीनन किसी बादशाह के आवास के ही काबिल हो सकती थी ।
गरीब आदमी के लिए पैसा भगवान है लेकिन दौलतमंद के लिए पैसे का रोल बड़ा सीमित होता है । दौलतमंद की जिदगी में दौलत की एक ऐसी स्टेज आ जाती है, जबकि बतौर दौलत वो यूजलेस शै बन जाती है, तब उसका कोई इस्तेमाल मुमकिन होता है तो यही कि उससे और दौलत कमाई जा सकती है । दौलतमंद को जरूर इस बात का अफसोस रहता होगा कि खुदा ने उसका दस मुंह और बीस पेट क्यों न दिए, वो चांदी घोल के क्यों नहीं पी सकता, सोने का निवाला क्यो नहीं खा सकता, हीरे जवाहरात क्यों नहीं चबा सकता ? शायद यही वजह है कि दौलतमंद आदमी अपनी दौलत का सबसे व्यापक और भौंडा प्रदर्शन इमारत बनाने और औलाद की शादी करने पर करता है ।
वल्गर डिस्पले ऑफ वेल्थ का एक नमूना माथुर की कोठी की सूरत में उस वक्त मेरे सामने मौजूद था । कोठी दोमंजिला थी और एक कोई पांच हजार गज के प्लाट के बीचों-बीच ताजमहल की तरह खड़ी थी । आयरन गेट से कोठी तक पहुचते ड्राइव-वे के दायें-बायें ऊचे-ऊचे पेड़ थे और मखमली घास था, खूबसूरत फूल थे, फव्वारे थे और संगमरमर की प्रस्तर प्रतिमाएं थीं । दिल्ली शहर में उस ढंग से उतनी जगह में बनी दूसरी इमारत जरूर राष्ट्रपति भवन ही होगा ।
आयरन गेट पर खड़े सशस्त्र गोरखे को मैंने अपना परिचय दिया ।
जैसा कि हुक्म हुआ था, आधे घंटे बाद मैं वहां फोन करके आया था और मेरी माथुर से मुलाकात की दरख्वास्त कबूल हो चुकी थी ।
चौकीदार ने मुझे भीतर दाखिल हो लेने दिया, एक वर्दीधारी नौकर को वहां तलब किया और मुझे उसके हवाले कर दिया । नौकर मुझे एक रेलवे प्लेटफार्म जितने बड़े ड्राइंगरूम में ले गया ।
“आप यहां बैठिए ।” वह बड़े अदब से बाला, “मैं भीतर खबर करता हूं ।”
मैने सहमति में सिर हिलाया लेकिन मैने बैठने का उपक्रम नहीं किया ।
नौकर वहां से विदा हो गया ।
मै सोचने लगा ।
हालात बड़े उम्मीद अफजाह थे । ये बड़ा सुखद संयोग था कि मर्डर वैपन का मालिक एक रईस आदमी निकला था । युअर्स ट्रूली को कोई अतिरिक्त चार पैसे हासिल होने की उम्मीद किसी रईस आदमी से ही हो सकती थी । कड़के से क्या हासिल होता !
मुझे सिगरेट की तलब लग रही थी लेकिन वहां कहीं ऐश-ट्रे न दिखाई दे रही होने की वजह से मुझे अपने पर जब्त करना पड़ रहा था इतनी शानदार जगह पर सिगरेट की राख बिखराने की जुर्रत आपके खादिम से नहीं हो रही थी ।
कुछ क्षण जब वही पहले वाला नौकर ट्रे पर कोल्ड ड्रिंक का एक गिलास रख वपिस लौटा ।
उसने ट्रे मुझे पेश की ।
मैंने गिलास उठा लिया ओर बोला, “ऐश ट्रे ।”
उसने एक सोफे के सामने पड़ी शीशे की मेज की तरफ इशारा किया ।
वहां कांसे का बना एक हाथी पड़ा था । हाथी का हौदा ऐश ट्रे की तरह इस्तेमाल होने के लिए बना था ।
तौबा । मैंने जिसे सजावटी मुजस्मा समझा था, वो ऐश ट्रे निकली थी ।
“मैंने नायर साहब को खबर कर दी है ।” नौकर बोला, “आगे वही आपसे बात करेंगे ।”
“नायर साहब कौन हैं ?” मैंने पूछा ।
“साहब के प्राइवेट सैक्रेट्री हैं ।”
“ओह ।”
नौकर फिर वहां से रुखसत हो गया ।
कोल्ड ड्रिंक का गिलास मैंने हाथीनुमा ऐश ट्रे वाली मेज पर रखा और उसके सामने एक सोफे पर ढेर हो गया । मैने अपना डनहिल का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया ।
सोफा किसी तजुर्बेकार कॉलगर्ल की आगोश जैसा आरामदेय था । मुझे डर लग रहा था कि उस पर बैठा-बैठा कहीं मैं ऊंघने न लगूं ।
तभी वहां का भीतर की ओर एक दरवाजा खुला और भीतर एक सुन्दर युवती ने कदम रखा ।
मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ ।
मेरे पर निगाह पड़ते ही लड़की थमककर खड़ी हो गई । उसके चेहरे पर एकाएक हैरानी और बदहवासी के भाव प्रकट हुए । कुछ क्षण वह मुझे मुंह बाए देखती रही ।
मैंने देखा कि वह मर्दों जैसी खुले गले की लंबी धारियों वाली कमीज और डेनिम की जींस और जैकेट पहने थी । जींस इतनी टाईट थी कि ऐसा लगता था जैसे टखनों से कमर तक जिस्म पर डेनिम की रंगत का स्प्रे पेंट हुआ था । उसकी कमीज के तीन बटन खुले थे जिसकी वजह से उसके गले की मरमरी रंगत का मुझे बड़ा दिलकश नजारा हो रहा था । कमीज बड़ी-बड़ी जेबों वाली थी और वक्ष के उभार जेबों में भरे लगते थे ।
काबू में आ जाए - मन ही मन घुटनों तक लार टपकाते हुए मैंने सोचा - तो सबसे पहले जेब ही खाली करूं साली की ।
फिर उसके चेहरे के भाव बदले । मुझे लगा जैसे उसने चैन की गहरी सांस ली हो ।
मैंने देखा कि उसके बाल कटे हुए थे और मेकअप के नाम पर उसके होंठों पर बहुत सलीके से चढ़ी हुई सिर्फ लाल लिपस्टिक दिखाई दे रही थी ।
“हल्लो देयर ।” वह मुस्कराकर बोली ।
“हल्लो युअरसेल्फ ।” मैं बड़े अदब से बोला ।
गेंद की तरह फुदकती हुई वो मेरी तरफ बढ़ी । मैने उसकी उम्र का अंदाज बीस के आसपास का लगाया ।
वह मेरे विल्कुल सामने आ खड़ी हुई तो एकाएक मेरे जेहन में बिजली सी कौंधी !
वो वही लड़की थी जिसे मैंने शशिकांत की मेज की दराज से बरामद वीडियो कैसेट मैं देखा था । उस वक्त क्योंकि वो पूरी ढकी हुई थी इसलिए मुझे उसको पहचानने में वक्त लगा था । आखिर नंगी औरत में सूरत से कहीं बेहतर देखने लायक चीजें होती हैं ।
“जरूर कोई ममी के वाकिफ हो ।” वह बोली, “क्योंकि मैं तो तुम्हें जानती नहीं ।”
“ममी !” मेरे मुंह से निकला ।
“मेरे डैडी की बीवी । ममी ही हुई न मेरी ? मिसेज माथुर । मिसेज सुधा माथुर ।” उसके स्वर में व्यंग्य का स्पष्ट पुट था ।
“आप माथुर साहब की बेटी हैं ?”
“हां । पिंकी कहते हैं मुझे ।”
मदान ने सुधा माधुर को अपनी बीवी से सिर्फ चार साल बड़ी बताया था । इस लिहाज से वो पिंकी, वो स्वनामधन्य बालिका, सुधा माथुर की बेटी तो नहीं हो सकती थी ।
“सौतेली मां की बेटी हैं आप ।” मैं बोला ।
“बेटी तो सगी मां की ही होती है ।”
“मेरा मतलब है ये....ये सुधा जी माथुर साहब की दूसरी बीवी हैं ?”
“हां । तुम सुधा से ही मिलने आए होगे लेकिन वो तो इस वक्त घर होती नहीं ।”
“वजह ।”
“इंटीरियर डेकोरेटर जो है । अपने एक्सटीरियर की डेकोरेशन की नुमायश करने के लिए इंटीरियर डेकोरेशन का सजावटी धंधा पकड़ा हुआ है पट्ठी ने ।”
“इतने रईस आदमी की बीवी ये धंधा ....”
“पैसा कमाने के लिए नहीं करती । शौक की खातिर करती है । पास्टाइम के लिए करती है और ...”
“और क्या ?”
“घर से अकेली निकलने का बहाना हासिल करने के लिए करती है ।”
“आई सी ।”
“इस वक्त कनाट प्लेस में होगी । अपने ऑफिस में । आई मीन होगी तो होगी, वैसे नहीं भी होगी ।”
“मैं उनसे मिलने नहीं आया ।”
“सच !”
“हां ।”
“वैल, दैट्स गुड न्यूज । मुझे तो गुस्सा ही आने लगा था ।”
“किस बात पर ?”
“इसी बात पर । जो भी खूबसूरत सजीला नौजवान इस घर में कदम रखता है, वो ममी से ही मिलने आया होता है । उसका क्लायंट बनके । अपना इटींरियर डैकोरेट कराने के लिये ।”
“ये खूबसूरत सजीला नौजवान आपने मुझे कहा ?”
“तुम्हें ‘ही’ कहा । और कौन है यहां ?”
“फिर तो तारीफ का शुक्रिया ।”
“सिर्फ थोबड़ा ही खूबसूरत है या हरामी भी हो ?”
“वो तो मैं एक नंबर का हूं ।”
“और कमीने ?”
“फुल ।”
“खास दिल्ली वाली किस्म के ?”
“हां ।”
“और फंदेबाज ? मतलबी ? हरजाई ?”
“एक्सपोर्ट क्वालिटी का ।”
“फिर तो तुम्हारी मेरी निभ जाएगी हफ्ता दस दिन । क्योंकि मैं खुद ऐसी ही हूं ।”
“कैसी ?”
“हरजाई । कमीनी । फ्लर्ट ।”
“और फ्रैंक । साफगो ।”
“वो भी । नाम क्या है तुम्हारा ?”
“सुधीर ।”
“कुम्भ राशि हो न ?”
“हां ।”
“कुम्भ राशि से मेरी खास पटती है । इसलिए तुम्हारे साथ हो सकता है हफ्ता-दस दिन की जगह महीना दो महीना चल जाए ।”
“जहेनसीब ।”
मैं समझ नहीं पा रहा था कि वो जो कुछ कह रही थी, दिल से कह रही थी या महज अपनी हाजिरजवाबी को धार दे रही थी ।
“आज मौसम बढ़िया है ।” वो बोली, “चलो कहीं ड्राइव पर चलें ।”
“मेरे पास कार नहीं है ।” मैं खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“नो प्राब्लम । मेरे पास है । कई हैं ।”
“लेकिन ।”
“खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे हरामी दो ।”
“इस वक्त मेरा तुम्हारे डैडी से मिलना जरूरी है ।”
“मत मिलो ।”
“निहायत जरूरी है ।”
“सोच लो । ये मौका दोबारा हाथ नहीं आएगा ।”
“आएगा । जल्द आएगा ।”
“क्या ?”
“मौका । दोबारा तुम्हारे से मुलाकात का ।”
“मिस्टर सोच लो । नाओ ऑर नैवर ।”
“शाम को कहां पाई जाती हो ?”
“शाम किसने देखी है ।”
“ कहां पाई जाती हो ?”
“मेरी शामें ऐसे अहमक के लिए नहीं हैं जिसको मेरे से ज्यादा जरूरी मेरे बाप से मिलना लगता हो ।” उसने जोर से पांव पटके और रोषपूर्ण स्वर में बोली, “गुड बाई ।”
“ठहरो, ठहरो ।”
“इरादा बदल रहे हो ?” वो ठिठककर बोली ।
“वो तो मुमकिन नहीं लेकिन एक बात का जवाब दो ।”
“किस बात का ?”
“अभी जब तुम्हारी पहली निगाह मेरे ऊपर पड़ी थी तो तुम चौंक क्यों गई थी, बदहवास क्यों हो गई थीं ?”
“मैं तो नहीं चौंकी थी । मैं तो नहीं हुई थी बदहवास ...”
“क्या इसलिए क्योंकि मुझे शशि समझ बैठी थीं ?”
“शशि ?”
“सिर्फ हेयर स्टाइल और मूंछों का फर्क है ।”
“तुम क्या कह रहे हो मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा ।”
“तुम किसी शशि को नहीं जानती ?”
“नहीं जानती ।”
“यूं आनन-फानन बिना सोचे-समझे जवाब मत दो । कम से कम ये तो पूछ लो कि मैं किस शशि की बात कर रहा हूं । और नहीं तो उसका पूरा नाम तो पूछ लो ।”
“पूछ लिया । बोलो, क्या है पूरा नाम ? कौन है वो ?”
“पूरा नाम शशिकांत । घर मैटकाफ रोड पर । राजेन्द्र प्लेस में नाइट क्लब । कुछ याद आया ?”
“नहीं ।”
“फिर तो अभी जो अपनी खूबियां बयान करके हटी हो, उसमें एक खूबी और जोड़ लो ।”
“क्या ?”
“बड़ी ढीठ हो ।”
“शटअप ।”
“और भुलक्कड़ भी । मादरजात अल्फ नंगी होकर जिस मर्द को एंटरटेन कर रही थी, उसे चंद दिन भी याद न रख सकीं ।”
“क्या ।”
“मैंने सिर्फ दो मिनट फिल्म देखी थी तो तुम्हारे सांचे में ढले नंगे जिस्म को देख मुझे गश आने लगा था, पूरी फिल्म देखता तो मेरी हालत अस्पताल जाने वाली हो जाती । या शायद शमशान पहुंचने वाली ।”
“फिल्म ? कैसी फिल्म ?”
“वीडियो फिल्म, मेरे पास है । शाम को मिलना । दिखाऊंगा ।”
“क ...कहां ?”
“जहां तुम कहो ।”
“फोन करना ।”
“कहां ?”
“2511265 पर । ये मेरा प्राइवेट नंबर है । इसे मैं ही उठाती हूं । मैं नहीं उठाऊंगी तो कोई और भी नहीं उठाएगा ।”
“गुड ।”
वो लम्बे डग भरती वहां से विदा हो गई ।
मैं वापस सोफे पर बैठ गया ।
मैं अभी बैठा ही था कि वहां एक सूट-बूटधारी साउथ इंडियन ने कदम रखा । उम्र में वो कोई पचास साल का था और इतना काला था कि चमड़ी की और बालों की रंगत में फर्क मुश्किल से ही मालूम होता था । उसकी आंखें तीखी थीं और चेहरे पर बुद्धिमत्ता की छाप थी ।
“हल्लो ।” वह बोला “आई एम नायर । मैं मिस्टर माथुर का प्राइवेट सैक्रेट्री हूं ।”
“मैं सुधीर कोहली ।” मैं उठता हुआ बोला ।
“आई नो । वेलकम, मिस्टर कोहली । मिस्टर माथुर शूटिंग रेंज पर हैं....”
“शूटिंग रेंज पर हैं !” मैं सकपकाया, “लेकिन मुझे तो यहां मिलने आने को कहा गया था ।”
“मिस्टर कोहली ।” वो मुस्कराया, “शूटिंग रेंज यहीं है । मिस्टर माथुर को जिस चीज की जरूरत होती है, वो उनके लिये यहीं मुहैया की जाती है । वो चीज के पास नहीं जाते । चीज उनके पास आती है ।”
“कमाल है !”
“शूटिंग रेंज यहीं कोठी के पिछवाड़े में है । आप उनके पास जाना चाहते हैं तो तो अभी चल सकते हैं वर्ना अभी और इन्तजार कीजिए ।”
“मैं और इन्तजार नहीं करना चाहता ।”
“तो फिर तशरीफ लाइए ।”
मैं उसके साथ चलता हुआ कोठी के पिछवाड़े में पहुंचा । वहां एक बहुत बड़ा उद्यान था जिसके बीच में स्वीमिंग पूल था और जिसके आगे शूटिंग रेंज था ।
पिछवाड़े में पहुंचते ही शूटिंग की आवाज आने लगी थी । स्वीमिंग पूल से पार हो जाने के बाद मुझे एक उम्रदराज आदमी दिखाई दिया जो कि रायफल से दूर टंगे टारगेट पर गोलियों से निशाना साध रहा था । मैंने देखा कि वो आदमी खड़ा होकर रायफल चलाने की जगह बैठकर ऐसा कर रहा था और जिस कुर्सी पर वो बैठा था वो एक व्हील चेयर थी ।
“मिस्टर माथुर अपाहिज हैं ।” नायर धीरे से बोला, “दो साल पहले लकवे के शिकार हो गए थे । दोनों टांगे बेकार हो गई हैं । बस, कमर से ऊपर के ही अंग चलते हैं ।”
“ओह ! फिर तो कहीं आते-जाते तो क्या होंगे !”
“बहुत कम आते-जाते हैं । बहुत ही कम । तभी जब कहीं जाना इंतहाई जरूरी हो ।”
“कोई इलाज वगैरह....”
“कोई इलाज नहीं । इंग्लेंड अमरीका तक के डॉक्टर इन्हें लाइलाज घोपित कर चुके हैं ।”
“दैट्स टू बैड ।”
हम पीछे से उनकी ओर बढे ।
मेरे देखते-देखते माथुर ने रायफल से जितनी भी गोलियां चलाई वो तमाम की तमाम टार्गेट से कहीं-न-कहीं टकराई । निशाना खूब था उसका ।
हम करीब पहुंचे तो उसने रायफल रख दी ।
मैंने देखा कि अपाहिज होते हुए भी साठ साल की उम्र के लिहाज से उसकी तंदरुस्ती बुरी नहीं थी । उसके चेहरे पर चमक थी और बाल उस उम्र में भी आधे से ज्यादा काले थे ।
उसकी सूरत से यूं लगता था जैसे जिंदगी की हर देखने लायक चीज कई-कई बार देख चुका था और पहली बार देखने पर भी किसी चीज का उस पर कोई खास रौब गालिब नहीं हुआ था ।
इसे कहते हैं खालिस बड़ा आदमी- मैंने मन ही मन सोचा ।
“सर” नायर ने आगे बढ़कर उसे बताया, “मिस्टर कोहली हैज अराइवड ।”
उसने पैनी निगाहों से मेरी तरफ देखा ।
मैंने हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया ।
मेरे अभिवादन पर उसने कोई खास गौर फरमाया हो, ऐसा न लगा । उसने अपने सैक्रेट्री को इशारा किया जो कि फौरन लम्बे डग भरता वहां से रुखसत हो गया ।
“सो” नायर बहुत दूर निकल गया तो वह मेरे से मुखातिब हुआ, “यु आर ए प्राइवेट डिटेक्टिव ।”
“आई हैव दि ऑनर, सर ।” मैं बड़े अदब से बोला ।
“यहां खड़े ही रहना पड़ेगा तुम्हें ।”
उसकी व्हील चेयर के करीब एक छोटी-सी टेबल पड़ी थी जिस पर कारतूस के कुछ डिब्बे और दो रिवॉल्वरें रखी हुई थीं । वो चाहता तो मुझे उस टेबल पर बैठने को कह सकता था लेकिन वो भला क्यों चाहता! उसे मेरी असुविधा से क्या लेना-देना था !
“आई डांट माइंड सर ।” प्रत्त्यक्षत: मैं बोला ।
“या भीतर चलें ?”
“मेरे लिए तो एक ही बात है । आप जैसा मुनासिब समझें ।”
“आज मौसम बढ़िया है । आउटडोर के काबिल ।”
“यहीं ठीक है सर ।”
“यू श्यॉर यू डोंट माइंड कीप स्टैंडिंग ।”
“नॉट एट आल, सर ।”
“सो नाइस आफ यू ।” वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला ।
“तुम्हारा फोन आने और तुम्हारे यहां पहुंचने के बीच के वक्फे में हमने तुम्हारे बारे में तफ्तीश कराई है ।”
“कुछ अच्छा तो सुनने को नहीं मिला होगा सर !”
“अच्छा ही सुनने को मिला है । काफी फेमस प्राइवेट डिटेक्टिव बताये जाते हो । नो ?”
“अंधों में काना राजा जैसी कुछ पूछ है तो सही, सर, मेरी दिल्ली शहर में ।”
“रिवॉल्वर की क्या बात है ?”
“पहले आप ये बताइए कि सीरियल नंबर डी- 241436 वाली, हाथी दांत की मूठ बाली, बाइस केलीवर की रिवॉल्वर क्या वाकई आपकी मिलकियत है ?”
“है तो सही ।”
“आपके पास है ?”
“तुम्हें मालूम तो नहीं है । हमें पहले नहीं मालूम था लेकिन अब मालूम है । तुम्हारी पहली फोन कॉल के बाद हमने रिवॉल्वर को उसकी जगह पर चैक किया था । वो अपनी जगह पर मौजूद नहीं थी ।”
“सर वो मर्डर वैपन है ।”
“क्या ?”
“उससे कत्ल हुआ है ।”
“किसका ?”
“वो...तो मुझे नहीं मालूम ।”
“ये कैसे मालूम है कि कत्ल हुआ है ?”
“मुझे बताया गया है ?”
“किसने बताया है ? साफ-साफ बोलो । पहेलियां न बुझाओ ।”
“सर, बतौर प्राइवेट डिटेक्टिव मेरी खिदमात हासिल करने का ख्वाहिशमंद एक आदमी मेरे पास आया था उसी ने मुझे सब कुछ बताया है और उसी के अधिकार में इस वक्त वो रिवॉल्वर है ।”
“नाम क्या है उसका ?”
“नाम बताना मेरे पेशे के उसूलों के खिलाफ है ।”
“वो हमारी रिवॉल्वर, जिसे वो शख्स मर्डर वैपन बताता है, उसके अधिकार में है ?”
“जी हां ।”
“वो चाहता क्या है?”
“वो मुझे बिचोलिया बनाकर उस रिवॉल्वर के बदले में आप से चार पैसे खड़े करना चाहता है ।”
“चार पैसे किस रकम को कहता है ?”
“पचास हजार रुपयों को ।”
“और तुम” उसके स्वर में तिरस्कार का पुट आ गया, “हमें ये राय देने आए हो कि ये रकम दम उसे सौंप दें !”
“सर, मैं आपको ये राय देने आया हूं कि आप उसे कानी कौड़ी न दें !”
वो सकपकाया । वो कुछ क्षण अपलक मुझे देखता रहा और फिर बदले स्वर में बोला - “अच्छा !”
“जी हां ।”
“मिस्टर, अभी तुम कह रहे थे कि उस शख्स का नाम बताना तुम्हारे पेशे के उसूलों के खिलाफ है अब उसके हितों के खिलाफ हमें राय देते वक्त कोई उसूल नहीं टूट रहा तुम्हारे पेशे का ?”
मैं हड़बड़ाया । मैं उसे क्या बताता कि वो बात तो तब लागू होती जबकि ऐसे किसी क्लायंट का अस्तित्व होता ।
“वो सिर्फ प्रस्ताव है, सर” मैं बोला, “मेरा क्लायंट वो अभी बन नहीं गया है । और फिर मुझे उसकी बात की हकीकत को परखने का पूरा अख्तियार है । यू अंडरस्टेंड माई पॉइंट, सर ?”
उसने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“तो” एक क्षण बाद वह बोला, “तुम समझते हो कि हमें उस शख्स को खातिर में नहीं लाना चाहिए !”
“जी हां ।” मैं जोशभरे स्वर में बोला, “सर, वो क्या है कि जाती तौर पर मैं ब्लेकमेलिंग के सख्त खिलाफ हूं । ब्लेकमेलर की मांग तो, सर, जूते की तरह होती है जो एक बार फटना शुरू हो जाए तो फटता ही चला जाता है । ब्लेकमेलर अपने शिकार के साथ एक बार जोंक बनकर चिपट जाता है तो मुकम्मल खून निचोड़कर ही मानता है ।”
“लेकिन जब रकम के बदले में रिवॉल्वर हमें वापस मिल जायेगी तो ...”
“ब्लैकमेलर रिवॉल्वर की तस्वीरें रख सकता है, उसके बैलेस्टिक मार्क्स का रिकार्ड रख सकता है, दस्तावेज के तौर पर अदला-बदली की केस हिस्ट्री वनाकर अपने पास महफूज रख सकता है, वो सारे सिलसिले का कोई गवाह खड़ा कर सकता है ।”
“ओह !”
“और फिर मुझे पूरा यकीन है कि आप जैसे उच्चकोटि के श्रीमंत का या उनके परिवार के किसी सदस्य का कत्ल जैसे जघन्य अपराध से कोई रिश्ता तो हो ही नहीं सकता । सच पूछिए तो मेरा ये यकीन ही मुझे आप तक लाया है, न कि आपके और ब्लैकमेलर के बीच बिचौलिया वनने का इरादा ।”
“दैट्स वैरी नाइस ऑफ यू । वैरी नाइस ऑफ यू इनडीड । तुम तो बड़े कैरेक्टर वाले नौजवान मालूम होते हो ।”
“आपकी जर्रानवाजी है, सर, जो आपने मुझे ऐसा समझा ।”
“तुम तो हमारे बहुत काम आ सकते हो । वी मे नीड युअर प्रोफेशनल सर्विसिज ।”
“आई विल बी ओनली टू ग्लैड टु बी ऑफ एनी सर्विस टु यू सर ।”
“लेकिन सवाल ये है कि उस रिवॉल्वर की बरामदगी के सिलसिले में हमारे लिए काम करना क्या तुम्हें मंजूर होगा ?”
“जी !”
“भई, हमारा इंटरेस्ट तुम्हारे उस ब्लैकमेलर क्लायंट के इंटरेस्ट से ऐन उलट जो है ।”
“ऐसा तब होगा सर जबकि रिवॉल्वर वाकई मर्डर वैपन, कत्ल का हथियार साबित हो । और फिर मैंने अभी कहा है कि वो मेरा क्लायंट अभी बन नहीं गया है ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है ? हमारा मतलब है वो रिवॉल्वर कैसे कत्ल का हथियार साबित हो सकती है ? या नहीं साबित हो सकती है ?”
“सर, इजाजत दें तो इस वाबत मैं आपसे एकाध सवाल करूं ?”
“करो ।”.
“वो रिवॉल्वर यहां कहां रखी जाती थी ?”
“मेरी स्टडी में । कोठी के ग्राउण्ड फ्लोर पर । उसी के एक कोने में मेरी गन की केबिनेट है जिसमें कई राइफलें, पिस्तौलें और रिवॉल्वरे हैं । उस कैबिनेट के एक दराज में ये रिवॉल्वर पड़ी होती थी ।”
“दराज को ताला ? “
“कभी जरूरी नहीं समझा गया ।”
“यहां के नौकर चाकर....”
“खानदानी हैं । वफादार हैं । स्वामिभक्त हैं ।”
“आजकल चांदी का जूता मार के किसी का ईमान खराब कर देना क्या मुश्किल है !”
“यहां यूं ईमान खो देने वाला नौकर कोई नहीं हमारी गारंटी ।”
“आई सी तब तो आपके फैमिली मेम्बर्स की ही उस रिवॉल्वर तक पहुंच थी ।”
“दो नानमेम्बर्स की भी पहुंच थी उस तक ।”
“वो कौन हुए ?”
“एक हमारा प्राइवेट सेक्रेट्री नायर जिससे तुम अभी मिले हो और दूसरा हमारा वकील । दोनों भरोसे के आदमी हैं । नायर तो, जब से मैं अपाहिज हुआ हूं हमारा हाथ पांव, दिमाग सब कुछ है ।”
“यहीं रहते हैं नायर साहब ?”
“रहता अशोक विहार में है लेकिन जरूरत पड़ने पर यहां भी रुक जाता है ।”
“अशोक विहार में कहां ?”
उसने एक पता बताया जो कि मैंने नोट कर लिया ।
“और वकील साहब ?”
“वो शालीमार बाग रहता है । लेकिन वो नायर की तरह रोज यहां नहीं होता । नायर तो नौ से छ: बजे तक लाजमी तौर पर यहां होता है वकील तभी आता है जब या तो बुलाया जाए या फिर उसका शूटिंग की प्रैक्टिस का दिल कर आए ।”
“वो भी आपकी तरह शूटिंग का शौक रखते हैं ?”
“हां पक्का निशानेबाज है वो । क्रैक शॉट । सारी दिल्ली में नाम है ।”
“क्या नाम है उनका ?”
“पुनीत खेतान ।”
“जी !”
“तुम्हारे जैसा ही खूबसूरत और होनहार नौजवान है । कारोबारी मशवरे के लिए तो हमारे पास फौज है वकीलों की लेकिन खेतान मेरा पर्सनल लीगल एडवाइजर है । फैमिली मेम्बर जैसा दर्जा है उसका यहां !”
खुशकिस्मत है पट्ठा ! - मैं मन ही मन भुनभुनाया - हर जगह फिट है ।
“आपकी फैमिली में कौन-कौन है,” प्रत्यक्षत: मैं बोला ।
“मेरे अलावा मेरी बीवी सुधा है, नौजवान बेटी पिंकी है और उससे कोई दस साल बड़ा नौजवान बेटा मनोज है ।” वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला “मिस्टर कोहली, जब तुम्हें हमने कांफिडेंस में लिया है और तुम हमारे लिए काम भी करने वाले हो तो एक बात हम तुमसे छुपाकर नहीं रखना चाहते ।”
“कौन-सी बात ?”
“पिंकी की बात । लेकिन वादा करो कि इस बाबत तुम कहीं मुंह नहीं फाड़ोगे ?”
“मैं वादा करता हूं ।”
“गुड । हमारे साथ वफादारी दिखा कर घाटे में नहीं रहोगे, मिस्टर कोहली । हमारा काम करो, वो रिवॉल्वर हमें वापस दिलाओ, बतौर फीस हम तुम्हारी कल्पना से बाहरी रकम तुम्हें देंगे ।”
“कि.... कितनी !”
“तुम्हारा वो ब्लैकमेलर क्लायंट उस रिवॉल्वर के बदले में हमसे पचास हजार रुपए हासिल करना चाहता है । कोहली उसे पचास हजार रुपए देने की जगह हम तुम्हें एक लाख रुपया देना पसंद करेंगे ।”
मेरा दिल जोर से धड़का । मेरा जी चाहा कि मैं वार्तालाप को वहीं विराम लगाकर आंधी की तरह मंदिर मार्ग पहुंचूं और तूफान की तरह रिवॉल्वर लेकर वापस लौटूं ।”
बड़ी मुश्किल से आपके खादिम ने अपने लालच पर जब्त किया ।
“सर” मैं बोला, “अगर वो रिवॉल्वर मर्डर वेपन निकला तो उसकी जगह पुलिस की कस्टडी होगी ।”
“उस सूरत में तुम्हारा काम ये साबित करना होगा”, वह बोला, “कि हमारा या हमारी फैमिली का किसी मर्डर से कोई लेना-देना नहीं ।”
“आपको पूरा एतबार है इस बात ?”
वो खामोश हो गया ।
“आप पिंकी की वावत कुछ कहने जा रहे थे ।”
“हां ।” वो तनिक चिंतित भाव से बोला, “सच पूछो तो वो हमारे एतबार को डगमगा रही है ।”
“जी !”
“बहुत उच्छ्र्न्खल लड़की है । मां-बाप के हाथों से निकली हुई । जितनी उसकी उम्र है, उससे दस गुणा ज्यादा गुल खिला चुकी है । शुरू से ही प्राब्लम चाइल्ड रही है वो । दस साल की थी जबकि उसकी मां मर गई थी । तब हम अपनी आज की हालत में नहीं थे और अपने कारोबार में बहुत मसरूफ रहते थे । पिंकी के लिए वक्त निकालते थे अपने बिजी विजनेस शेड्यूल में से लेकिन शायद वो काफी नहीं होता था । गवर्नेस थी उसके लिए लेकिन वो उसके काबू में नहीं आती थी । छ साल यूं ही कटे । फिर उसने बचपन की बेहूदा और काबिले एतराज हरकतें छोड़कर नौजवानी वाली बेहूदा और काबिले एतराज हरकतें शुरू कर दीं । कहते शर्म आती है लेकिन मौजूदा हालात में बताना जरूरी हो गया है कि जब वो दसवीं जमात में थी तो प्रेगनेंट हो गई थी । बड़ी मुश्किल से हालात को काबू में किया । स्कूल छुड़ा दिया । घर पर ही उसकी पढाई-लिखाई का इंतजाम किया तो अपने से तीन गुणा उम्र के टीचर पर ही डोरे डालने लगी । लेडी टीचर रखी तो उसे पीटकर भगा दिया । उस विकट स्थिति का हल शुभचिंतकों ने ये सुझाया कि हम फिर से शादी कर लें । तब छब्बीस साल का मनोज था और शादी शर्म की बात थी लेकिन औलाद की खातिर शादी की । बीवी तकदीर से समझदार और फर्माबरदार मिल गई । उसने हमारी प्रॉब्लम को अपनी प्रॉब्लम माना और बड़े यत्न से पिंकी को काबू करना शुरू किया ।”
“वो कामयाब हुई ?”
“किसी हद तक । अगले दो साल बहुत ही चैन से गुजरे । हमें लगा कि पिंकी पर कोई नामुराद साया था जो टल गया था लेकिन तकदीर की मार कि फिर हमें फालिज मार गया । हमारी उस दुश्वारी की घड़ी में बीवी की तवज्जो हमारी तरफ हुई तो बेटी फिर हाथों से निकल गई । इस बार और भी बड़ा गुल खिलाया । ड्रग एडिक्ट बन गई । गनीमत समझो कि जल्द पता लग गया । दो महीने सेनिटोरियम में रखा । सुधर कर घर आई तो मरी मां और अपाहिज बाप का सदका देकर वादा लिया कि फिर वो नशे का नाम नहीं लगी । बदले में उसने शर्त लगाई कि उसकी आजादी में खलल न डाला जाए, उसकी जरूरतों पर अंकुश न लगाया जाए, उस पर जासूसी न कराई जाए और उसका मुकम्मल एतबार किया जाए । मजबूरन उसकी वे शर्त मानीं । तब तक उन्नीस से ऊपर की हो चुकी थी वो । उस उम्र में लड़की को बेड़ियां पहनाकर तो नहीं रखा जा सकता था न ?”
“जी हां बजा फरमाया आपने ।”
“बीवी राय देती थी कि शादी कर दें लेकिन वो अपनी बला दूजे के सिर मढ़ने जैसा काम होता । फिलहाल हमने ये ही उचित समझा कि हम भगवान से उसे सुबुद्धि देने की प्रार्थना करें और कुछ अरसा सिलसिला यूं ही चलता रहने दें ।”
“ठीक से चला सिलसिला ?”
उसने अवसादपूर्ण ढंग से इनकार में गर्दन हिलाई और फिर बोला, “चार महीने पहले अपनी दस सहेलियों के साथ हफ्ते के लिए मुंबई गई । सहेलियां आंठवें दिन लौट आई, पिंकी न लौटी । सहेलियों से पूछताछ की बिना पर मुंबई पड़ताल करवाई तो वो वहां थी ही नहीं । पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई । कुछ पता न चला । बीस दिन बाद किसी ने बताया कि उसने पिंकी को नेपाल में देखा था । फौरन मनोज को नेपाल जाने के लिए तैयार किया । लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही वो घर लौट आई । पूरे एक महीने बाद । पूछने पर कुछ बताने को तैयार नहीं । पूछताछ को अपनी आजादी में खलल का दर्जा देने लगी । हमारे ऊपर इल्जाम लगाने लगी कि हम अपने वादे से फिर रहे थे । साथ ही यकीन दिलाने लगी कि उसने सैर करने के अलावा कोई बेजा हरकत नहीं की थी । बता कर सैर क्यों नहीं की ? क्योंकि उसे अंदेशा था कि हम यूं अकेले सैर की इजाजत न देते । बहरहाल पिंकी घर लौट आई थी और हमारे पास खामोश रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं था ।”
“था सब कुछ ठीक-ठाक ?”
“कहां था ठीक-ठाक ! अभी पिछले ही महीने बीवी ने अंदेशा जाहिर किया कि वो शायद फिर नशा करने लगी थी । फिर ड्रग एडिक्ट बन गई थी !”
“ओह !”
“अब वो बड़ी हो गई थी तो चालाक भी हो गई थी । ऐसी बातें छुपाकर रखने की कला जान गई थी । पूछे जाने पर साफ मुकर गई । रो-रोकर चिल्ला-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा लिया । हमें ही खामोश हो जाना पड़ा ।”
“अब आप लोग क्या कर रहे हैं ?”
“फिलहाल तो उसे वॉच ही कर रहे हैं ।”
“आई सी ।”
“मिस्टर कोहली, तुम्हें पिंकी की केस हिस्ट्री से वाकिफ कराने का मकसद ये था कि उस रिवॉल्वर को लेकर अगर इस हाउसहोल्ड में कोई बन्दा कोई गुल खिला सकने मे सक्षम था तो वो पिंकी थी ।”
“अगर आप उससे रिवॉल्वर की बाबत सीधे सवाल करें तो ?”
“तो वो साफ मुकर जाएगी । रिवॉल्वर की कभी सूरत भी देखी होने से इंकार कर देगी । हम क्या जानते नहीं उसके कम्बख्त मिजाज को ! ऊपर से सालों-साल झूठ बोलते रहने की वजह से झूठ बोलने का इतना तजुर्बा जो हो गया है उसे ।”
“उसकी आजादी बरकरार है ?”
“फिलहाल तो बरकरार है फिलहाल तो जब, जिसके साथ चाहती है आती-जाती है ।”
“घर में किसी से भीगती है ?”
“क्या मतलब ?”
“सर, डज शी कनफाइइ इन एनीबोडी ?”
“ओह । दैट ! देखो, हमारे से तो उसकी भरपूर कोशिश होती है कि वो न्यारी-न्यारी ही रहे । भाई से भी कुछ यूं ही पेश आती है । सुधा से कुछ खुलती है लेकिन उसका हमें कोई खास फायदा नहीं होता ।”
“क्यों ?”
“तीन चौथाई बातें तो सुधा हमसे छुपा लेती है । हमारी नाजुक तंदरुस्ती की खातिर ।”
“फिर भी ये शक मिसेज माथुर ने आप पर जाहिर किया कि पिंकी शायद फिर नशा करने लगी थी ?”
“हां । ये गम्भीर मसला जो था । ये भी वो छुपाती तो उसे बीवी और मां दोनों के रोल में फेल माना जाता ।”
“हूं । आपके ख्याल से पिंकी कत्ल कर सकती है ?”
“वो प्रॉब्लम चाइल्ड है । बोला न । शी इज नॉट ए नॉर्मल किड । वो कुछ भी कर सकती है ।”
“आपकी निगाह में कोई कैंडीडेट है जिसके कत्ल का वो इरादा कर सकती हो । अपने इरादे पर चाहे वो अमल न कर पाई हो लेकिन जिसकी वजह से उसने आपकी रिवॉल्वर चुराई हो ?”
वह कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने पहले हौले हौले और फिर जोर-जोर से इनकार में सिर हिलाया ।
आपके खादिम को उसका इनकार सरासर फर्जी लगा ।
“एक बात आप समझते हैं न, सर ?” मैं बोला, “अगर वो कत्ल की गुनहगार निकली तो उसके गुनाह पर पर्दा डालना मेरे बूते से बाहर की बात होगा ।”
“इतनी मोटी फीस लेकर भी ।”
“जी हां ।” मैं दृढ स्वर में बोला, “कत्ल के केस में पुलिस हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी रहती । वो मुजरिम को पकड़ने के लिए जमीन आसमान के कुलाबे मिला देती है । उनके सामने मेरे जैसा एक अदना प्राइवेट डिटेक्टिव....”
“नैवर माइंड । आई अंडरस्टैंड युअर लिमिटेशंस । तुम वही करो जो कर सकते हो ।”
“क्या ?”
“असलियत का पता लगाओ । मालूम करो कि पिंकी ने ऐसा-वैसा तो कुछ नहीं कर डाला ! मालूम करो और पुलिस से पहले, किसी से भी पहले, मालूम करो ।”
“उससे आपको क्या फायदा होगा ?”
“बहुत फायदा होगा । फोरवार्नड इज फोरआर्म्ड । यू नो ?”
“'यस सर ।”
“फिर जहां पर्दा डालना होगा वो हम डालेंगे । जो बात तुम्हारे बूते से बाहर है, वो जरूरी नहीं कि हमारे बूते से भी बाहर हो ।”
मैने हैरानी से उसकी तरफ देखा । उस घड़ी वो क्षीण-सा फालिज का मारा वृद्ध मुझे किसी फौलादी इन्सान से कम न लगा ।
उसी घड़ी मुझे लगा कि पैसे के लालच में मैं कुछ ज्यादा ही पंगा लिए जा रहा था । मेरा एक क्लायंट था जिसके लिए मैंने कातिल का पता लगाना था और उसे हर हाल में गिरफ्तार करवाना था । अब मैं दूसरा क्लायंट पकड़ रहा था जो कातिल की खवर इसलिए चाहता था ता कि अगर वो उसके परिवार का कोई सदस्य निकले तो वो उसके गुनाह पर पर्दा डाल सके । मैं दोनों क्लायंटो को कैसे राजी कर सकता था । ये तो चित्त भी मेरी पट भी मेरी जैसी बात होती ।”
लेकिन वो पंगा लेना जरूरी भी तो था - मैंने खुद अपने आपको समझाया - मदान के लिए कातिल का पता लगाने की खातिर पूछताछ के लिए मेरा वहां पहुंचना और वहां से सहयोग हासिल करना जरूरी था । बाकी जो कुछ हो रहा था, इत्तफाकिया हो रहा था ।
“पिंकी कल शाम को कहां थी ?” प्रत्यक्षत: मैंने पूछा ।
“क्या पता कहां थी” वो तिक्त स्वर में बोला, “शाम को घर में थोड़े ही टिकती है ।”
“कोई अंदाजा ?”
“तुम्हारा सवाल शाम के किसी खास वक्त की बाबत है ?”
“कह लीजिए कि साढ़े आठ बजे के करीब !”
“उस वक्त का तो हमें कतई कुछ नहीं पता कि वो कहां थी ।”
“आपके साहबजादे “
“उसका भी पता नहीं ।”
“वैसे अमूमन वो कहां पाए जाते हैं ?”
“भई, दिन भर तो वो मेरी कम्पनी के आसफ अली रोड पर स्थित कॉर्पोरेट आफिस में पाया जाता है । एग्जीक्युटीव डायरेक्टर है वो । शाम को तफरीह के लिए कहां कहां जाता है, मुझे नहीं मालूम ।”
“आपकी पत्नी ?”
“सुधा यहीं थी कल शाम को ।”
“और आप ?”
उसने घूरकर मेरी तरफ देखा ।
मैंने उसके घूरने की परवाह न की
“हमने कहां जाना है, भई ! हम तो यहीं होते हैं ।”
“पक्की बात ?”
“इसमें कच्ची-पक्की वाली कौन-सी बात हो गई ?”
“देखिए, क्लायंट और प्राइवेट डिटेक्टिव का रिश्ता मरीज और डॉक्टर जैसा होता हैं । जैसे मरीज का डॉक्टर से कुछ छुपाना मरीज के लिए अहितकर साबित हो सकता है वैसे ही आपका मेरे से कुछ छुपाना अहितकर साबित हो सकता है । आपके लिए । आपके परिवार के किसी सदस्य के लिए । मौजूदा केस के लिए ।”
“भई, कहा न, हम यहीं थे कल शाम ।”
“आपकी बीवी आपके पास थी ?”
“सुधा यहीं थी लेकिन अपने कमरे में थी । उसे अपने ऑफिस का कुछ काम था जो कि वो अपने कमरे में बैठी कर रही थी ।”
“उसका और आपका कमरा एक ही नहीं हैं ? जैसे पति-पत्नी का होता हैं ।”
“नहीं । हमारे कमरे अगल-बगल में हैं ।”
मैं तत्काल फैसला न कर पाया कि शशिकांत की कोठी के ड्राइव-वे में पाए गए व्हील चेयर के निशानों की बाबत मैं उससे दो टूक सवाल करूं या न करूं । फिर मैंने फिलहाल खामोश ही रहना जरुरी समझा ।
“कल शाम आप यहां से बाहर कहीं गए थे ?” अपना पहले वाला सवाल ही मैंने दूसरे तरीके से पूछा ।
“नहीं ।”
“अब आखिरी सवाल । आप शशिकांत को जानते हैं ?”
“कौन शशिकांत ?”
“कोई भी । आप इस नाम के किसी शख्स से वाकिफ हैं ?”
“नहीं ।”
“शशिकांत ऑर नो शशिकांत, आप मैटकाफ रोड की दस नंबर कोठी के किसी बाशिंदे से वाकिफ हैं ?”
“नहीं ।”
“नावाकफियत में भी आप कभी उस कोठी में गए हैं ?”
“वॉट नॉनसेंस !” वो झल्लाया, “अरे जब हम वहां किसी को जानते ही नहीं तो वहां क्या हम झक मारने जाएंगे ?”
“आप वहां कभी नहीं गए ?” मैंने जिद की ।
“नैवर ।”
“सर, डू आई हैव युअर सालम वर्ड फार इट ?”
“यस, यू डू ।”
“थैंक्यू, सर । अब एक आखिरी बात ।”
“वो भी बोलो ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव को क्लायंट से कोई ट्रेडिशनल रिटेनर मिलना होता है ।”
“अभी मिलता है । कोठी में जाकर नायर से दस हजार का चैक ले लो ।”
“थैंक्यू, सर । मैं आपको फिर रिपोर्ट करूंगा, बशर्ते कि.....”
मैं जानबूझ कर खामोश हो गया ।
“क्या बशर्ते कि ?” वो बोला ।
“आप तक पहुंचने में या आपसे फोन पर बात करने में मुझे पहले जैसी ही पाबंदियों और दुश्वारियों का सामना न करना पड़े ।”
“ओह ! तुम फिक्र न करो । तुम्हारी बाबत सबको खबर कर दी जाएगी ।”
“थैंक्यू, सर । गुड डे, सर ।”
माथुर की कोठी से निकलकर फ्लैग स्टाफ रोड पर किसी सवारी की तलाश में मैं पैदल चला जा रहा था कि मुझे एक हॉर्न की आवाज सुनाई दी । मैंने सर उठाया तो सड़क पर सिर्फ एक लाल मारुती कार दिखाई दी ।
तभी हॉर्न फिर बजा ।
मैं कार के करीब पहुंचा । कार पर चारो तरफ कुल जहान के स्टिकर लगे हुए थे । उसकी ड्राइविंग सीट पर पिंकी बैठी थी और बड़े तजुर्बेकार अंदाज से सिगरेट फूंक रही थी । मेरे से निगाह मिलते ही उसने सिगरेट फेंक दिया और बोली- “आओ, कार में बैठो ।”
मैं कार का घेरा काटकर परली तरफ पहुंचा और उसके साथ कार में सवार हो गया ।
“तब से यहीं हो ?” मैं हैरानी से बोला ।
“हां ।” वो चिंतित भाव से बोली, “तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं ।”
“क्यों ?”
“फिक्र जो लगा दी तुमने ? वो फिल्म का क्या किस्सा है ?”
“बताऊंगा । जरुर बताऊंगा । लेकिन पहले तुम कबूल करो कि तुम शशिकांत से वाकिफ हो । न सिर्फ वाकिफ हो, खूब अच्छी तरह से वाकिफ हो । इतनी अच्छी तरह से वाकिफ हो कि इंटिमेसी कि तमाम हदें पार कर चुकी हो ।”
उत्तर देने के स्थान पर उसने गाड़ी चला दी ।
“क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं ।” वो बोली, “कोठी से थोड़ा दूर चलते हैं । यहां कोई नौकर-चाकर देख लेगा ।”
बड़ी दक्षता से कार चलाती हुई वह उसे राजपुर रोड पर ले आई । वहां उसने कार को किनारे लगाकर एक पेड़ की छांव में रोक दिया ।
“अब बोलो क्या कहते हो ?” वह बोली, “नहीं, पहले ये बताओ कि तुम चीज क्या हो ?”
मैंने बताया ।
“ओह ! प्राइवेट डिटेक्टिव ! जरुर डैडी ने मेरी वजह से ही बुलाया होगा तुम्हें !”
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।
“और काहे को जरुरत होगी उन्हें किसी प्राइवेट डिटेक्टिव की !”
“कोई इंडस्ट्रियल मामला है । मोटी रकम के घोटाले का ।”
“झूठ बोल रहे हो ।”
“छोड़ो । शशिकांत की बात करो ।”
“क्या बात करूं ?”
“कबूल करो कि उसे खूब जानती हो ।”
“ओके । किया कबूल ।”
“उससे फिट हो ।”
“ये कैसे कहा ?”
“उस फिल्म की वजह से कहा ।”
“है भी कोई ऐसी फिल्म ?”
“है ।”
“है तो मुझे दिखाओ ।”
“दिखा दूंगा । लेकिन और बातों में मुझे उलझाकर शशिकांत की बात ना टालो । वो बात फिल्म से ज्यादा अहम है । बोलो, फिट हो उससे ?”
“फिट से क्या मतलब है तुम्हारा ?”
“उसके हाथ से चुग्गा चुगती हो ?”
“चुग्गा चुगती हूं ! क्या जुबान है ये, भई ! मेरी समझ से तो बाहर है एकदम ।”
“फुल फंसी हुई हो उससे ?” मैंने सरल जुबान बोली ।
“फुल नहीं ।” वो बड़ी सादगी से बोली, “उतनी ही जितनी कि किसी से भी फंस सकती हूं । तुम्हारे से भी ।”
“जहेनसीब ।”
“वो क्या होता है ? पहले कोठी में भी ऐसा कुछ कहा था तुमने ।”
“मेरा मतलब है कि मेरी खुशकिस्मती । माई गुड फारचून ।”
“ओह, दैट ।”
“तुम्हे मालूम है कि वो मर चुका है ।”
“क....क्या ?”
“उसका कत्ल हो चुका है । एक्टिंग न करो । झूठ न बोलो । मुझे नादान बनकर ना दिखाओ ।”
“लेकिन...”
“सुनो । कोठी में एकाएक मुझे देखकर तुम बदहवास इसलिए हो गई थी क्योंकि तुम सच में ही मुझे शशिकांत समझ बैठी थी । और तुम्हारी बद्हवासी की असली वजह ये थी कि जिस आदमी की बाबत तुम जानती थी कि वो मर चुका था, वो एकाएक तुम्हारे सामने जिन्दा कैसे आन खड़ा हुआ था । तुम्हारी जान में जान तभी आई थी जबकि तुम्हें ये अहसास हुआ था कि मैं शशिकांत नहीं था । अब बोलो कि मैं गलत कह रहा हूं ।”
“तुम वाकई जासूस हो । किसी के अंतर्मन में गहरा झांक लेने वाले मनोवैज्ञानिक भी ।”
“अब बोलो कैसे है तुम्हें शशिकांत के कत्ल की खबर ?”
“सच बता दूं ?”
“हां ।”
“तुम पर ऐतबार करके ?”
“हां ।”
“मुझे मरवा तो नहीं दोगे ?”
“हरगिज नहीं ।”
“मैंने उसे अपनी आंखों से मरा हुआ देखा था ।”
“मेरा भी यही ख्याल था ।”
“तुम्हारी सूरत पर पहली बार निगाह पड़ते ही वाकई मेरे छक्के छूट गए थे ।”
“अब वो किस्सा खत्म करो । तो कल शाम तुम शशिकांत की कोठी पर गई थी ?”
“हां ।”
“किस वक्त ?”
“साढ़े आठ के करीब । दो-चार मिनट आगे या पीछे ।”
“क्या देखा वहां ?”
“बताया तो ।”
“तफसील से बताओ ।”
“इसी कार पर मैं वहां पहुंची थी । कार को बाहर सड़क पर ही खडी करके मैं पैदल अन्दर गई थी ।”
“बाहर का फाटक खुला था ?”
“हां । और कोठी का प्रवेशद्वार भी खुला था । कोठी में सन्नाटा था । मैंने उसे आवाज लगाई थी । कोई जवाब नहीं मिला था तो मैं ड्राइंगरूम पार करके उसकी स्टडी में पहुंची थी । वहां वह अपनी टेबल के पीछे कुर्सी पर मरा पड़ा था । उसकी छाती में गोली का सुराख साफ दिखाई दे रहा था ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? मेरे तो छक्के छूट गए थे । मैं तो फौरन यूं वहां से भागी थी जैसे भूत देख लिया हो ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है कि वो तब मरा पड़ा था ? तुमने उसकी कोई नब्ज-वब्ज टटोली थी ?”
“मैं तो उसके पास भी नहीं फटकी थी लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वो मरा पड़ा था । अब तुम कुछ भी कहो लेकिन मुझे मौत की सूंघ लग रही थी उस जगह से ?”
“स्टडी में और क्या देखा था तुमने ?”
“कुछ भी नहीं । सिवाए इसके कि वहां ट्यूब जल रही थी लेकिन दीवार पर लगा सजावटी वॉल लैंप टूटा हुआ था और....और शायद मेज पर रखा कलमदान उलटा पड़ा था ।”
“बाहर कंपाउंड में रोशनी थी ?”
“नहीं ।”
“भीतर ?”
“भीतर ड्राइंगरूम में तो अंधेरा-सा ही था । शायद एक कोने में एक टेबल पर रखा एक टेबल लैंप जल रहा था वहां । दरअसल स्टडी की तरफ मेरी तवज्जो गई ही इसलिए थी कि क्योंकि वहां के खुले दरवाजे में से ट्यूब लाइट की रोशनी बाहर निकल रही थी ।”
“आई सी । अब एक बड़ा अहम् सवाल । गई क्यों थी तुम वहां ?”
“ये मैं नहीं बता सकती ।”
“ये क्या बात हुई ! ये कोई बात हुई ! ये तो यूं हुआ की पहले बांधा, फिर ताना, फिर खींचा और फिर खींच के छोड़ दिया कि जाओ बेटा लटके रहो ।”
“ये क्या जुबान बोलते हो तुम ?”
“बोलो, क्यों गई थी वहां ?”
“वजह मैं अपनी जुबान से नहीं बता सकती ।”
“वजह का अगर अंदाजा मैं लगाऊं तो उसकी बाबत कुछ हां या न तो कर दोगी या वो भी नहीं ?”
“क...क्या कहते हो ?”
“तुम ड्रग एडिक्ट हो । तुम ड्रग के चक्कर में उसके पास गई थी ।”
वो गैस निकले गुब्बारे की तरह पिचक गई ।
“बोलो हां या न ?”
“ह..ह..हां ।”
“दैट्स लाइक ए गुड गर्ल ।”
“किसी से कहना नहीं । खास तौर से डैडी से ।”
“नशेड़ियों का एतबार बड़ा बेएतबारा होता है । जब नशे की तलब लगती है तो दीवाने हो जाते हैं । नशे का इंतजाम न हो तो उसे हासिल करने के लिए खून तक करने पर उतारू हो जाते हैं । तुम्हीं ने तो नहीं कर डाला उसका खून ?”
“नहीं ।”
“पहले ही मरा पड़ा था ?”
“हां । बोला तो ।”
“अक्सर जाती रहती थीं तुम वहां ?”
“पहली बार गई थी ।”
“पहले कभी ऐसी जरूरत पेश नहीं आई ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“पहले उसकी राजेंद्रा प्लेस वाली क्लब जो चलती थी । वहीं मेरा काम बन जाता था । क्लब पर ताला पड़ गया था तो फोन करने भर से काम चल जाता था ।”
“कल फोन पर काम नहीं बना ?”
“फोन लगा ही नहीं । तभी तो मैं वहां गई ।”
“तुम उसकी नाईट क्लब में भी आती जाती थी, इस लिहाज से तो तुम्हारी वाकफियत पुरानी हुई ।”
वो खामोश रही ।
“इतनी पुरानी हुई कि विडियो कैमरे की शहादत में तुम उसके सामने अलफ नंगी पेश हो सकती थी ।”
“मुझे अभी भी यकीन नहीं कि ऐसी कोई फिल्म है ।”
“यानी कि तुम्हारा इनकार फिल्म के अस्तित्व की बाबत है, अपनी करतूत की बाबत नहीं ।”
“उसकी बाबत भी है ।”
“वो मर गया है । जहां कत्ल से मौत होती है, वहां पुलिस पहुंचती है । जहां पुलिस पहुंचती है, वहां की भरपूर तलाशी होती है । यूं तुम्हारी कोई ब्लू फिल्म मकतूल के यहां से बरामद होने पर कितनी जय-जयकार हो सकती है तुम्हारी दिल्ली शहर में, कभी सोचा !”
“वो...वो फिल्म” वो कंपित स्वर में बोली- “नहीं बरामद होनी चाहिए ।”
“यानी मानती हो कि ऐसी फिल्म है ?”
“नहीं । लेकिन अगर है तो नहीं बरामद होनी चाहिए ।”
“नेक ख्वाहिशात से ही नेक काम नहीं होते, मैडम ।”
“तुम कुछ करो न ?”
“मैं करूं ?”
“आखिर डिटेक्टिव हो ।”
“वालंटियर नहीं ।”
“डैडी के लिए भी तो काम कर रहे हो ?”
“फीस ले के ।”
“मैं भी फीस दे दूंगी ।”
“क्या ?”
“जो तुम चाहो ।”
“जो मैं चाहूं ?”
“हां ।”
“मुकर न जाना ।”
“नहीं मुकरुंगी ।”
“डाउन पेमेंट अभी करो ।”
“कैसे ?”
“शीशा चढाओ ।”
उसने कार का अपनी ओर का और मैंने अपनी ओर का शीशा चढ़ाया । शीशे उस प्रकार के थे जिनमें से बाहर से भीतर नहीं झांका जा सकता था ।
“मेरी तरफ देखो ।” मैं बोला ।
उसने घूमकर मेरी तरफ देखा ।
मैंने अपनी बांहे उसकी गर्दन के गिर्द डाल दी और उसे अपनी तरफ खींचा ।
“अरे, अरे !” उसने तत्काल मुझे परे धकेला, “चलती सड़क है ।”
“लेकिन चल कोई नहीं रहा ।” मैं बोला, “सुनसान पड़ी है सड़क ।”
“अरे, आते-जाते का पता लगता है !”
“तो क्या हुआ ?”
“तो क्या हुआ ! सामने से सब दिखाई देता है ।”
“उसका भी इंतजाम हो सकता है ।”
“क्या ?”
“विंड स्क्रीन पर पानी का जैट छोडो और वाईपर चला दो ।”
चेहरे पर असमंजस के भाव लिए उसने ऐसा किया ।
“बस, बस ।”
उसने पानी और वाईपर दोनों बंद किए ।
अब सामने का शीशा धुंधला गया था ।
“वाकई टॉप के हरामी हो ।” वो प्रशंसात्मक स्वर में बोली ।
“तारीफ का शुक्रिया ।” मैं बोला । मैंने फिर उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसके होठों पर अपने होठ रख दिए । मेरे तजुर्बेकार हाथ उसके जिस्म की गोलाइयों पर दस्तक देने लगे । उसने कोई ऐतराज क्या, काफी हद तक सहयोग दिया ।
सुधीर कोहली - मैंने मन-ही-मन अपनी पीठ थपथपाई - दी लक्की बास्टर्ड ।
मेरा फ्यूज उड़ने को हो गया तो मैंने उसे अपने से अलग किया ।
“मारुती कार” मैं हांफता हुआ बोला, “इन कामों के हिसाब से नहीं बनी ।”
“मैं वापस जाके कोई बड़ी गाड़ी ले आती हूं ।” वो स्वप्निल स्वर में बोली ।
“गाड़ी फिर गाड़ी है ।”
“तो ?”
“किसी ऐसी जगह चलते है जहां टीवी हो और विडियो हो ताकि तुम्हें ऐतबार दिलाया जा सके कि जैसी फिल्म का मैं जिक्र कर रहा था, वैसी का अस्तित्व है ।”
“ऐसी जगह कहां ?”
“मेरा फ्लैट । ग्रेटर कैलाश में ।”
“वो तो बहुत दूर है । वहां तो मैं इस वक्त नहीं जा सकती ।”
“क्यों ?”
“मैंने कहीं और जाना है । तुम्हारे कोठी से बाहर निकलने के इंतजार में पहले ही बहुत देर हो चुकी है ।”
“कहीं फिक्स के इंतजाम में जाना हैं ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“तो फिर कैसे बात बने ?” मैं बोला ।
“फिल्म कहां है ?” उसने पूछा ।
“मेरे पास ।” मैंने कोट की जेब से निकालकर उसे कैसेट दिखाई ।
“फिर क्या बात है !” वो हर्षित स्वर में बोली, “फिर तो फिल्म मुझे दो । मुझे जब फुर्सत लगेगी, मैं घर पर ही इसे देख लूंगी ।”
“और मैं ?”
“तुम क्या ?”
“मैं कब देखूंगा ?”
“तुम तो देख ही चुके होंगे । तभी तो तुम्हें मालूम है कि इसमें क्या हैं ।”
“सिर्फ दो मिनट । इससे ज्यादा ड्यूरेशन का तो ट्रेलर ही होता है ।”
“तुम देखना क्यों चाहते हो इसे ? ट्रेलर से फिल्म का अंदाजा तो हो ही जाता है ।”
“देखो । मैंने जान जोखिम में डालकर ये फिल्म मौकाएवारदात से निकाली है । पुलिस को खबर लग जाए तो सीधे तिहाड़ में बोरिया बिस्तर हो । इस लिहाज से मुझे कम से कम ये देखने का मौका मिलना चाहिए कि तुम किन कारनामों में माहिर हो ।”
“वो मैं तुम्हें लाइव दिखा दूंगी ।”
“जहेनसीब । लेकिन फिल्म देखना फिर भी मेरे लिए जरुरी है । इसमें ऐसा कुछ और भी हो सकता है जो कि शशिकांत के कत्ल के राज पर रोशनी डाल सकता हो ।”
“तो फिर क्या किया जाए ?”
“जिस काम से जा रही हो, उससे फ्री होकर मेरे फ्लैट पर आ जाना ।”
“मुझे तो उस काम में ही रात पड़ जायेगी ।”
“क्या हर्ज है ! मैं भी अंधेरा होने से पहले घर नहीं पहुंच पाने वाला । तुम ऐसा करो । आठ बजे का टाइम फिक्स कर लो ।”
“ठीक है ।” वो बोली, “आठ बजे ।”
“अब तुम जाओगी कहां ?”
“मॉडल टाउन ।”
“बढ़िया । मुझे शक्तिनगर उतार देना ।”
“उतार दूंगी । अब जरा उतरकर शीशा साफ करो ।”
“शीशा !”
“धुंधलाना ही जानते हो ? साफ करना नहीं जानते । मैं विंडस्क्रीन की बात कर रही हूं । बाहर कुछ दिखाई देगा तो चलाउंगी न !”
“ओह ! ओह !”
उसने मुझे एक डस्टर थमा दिया । मैंने बाहर निकलकर विंडस्क्रीन साफ की और वापस कार में सवार हो गया ।
तत्काल उसने कार सड़क पर दौड़ा दी ।
“अब जरा” मैं बोला, “कल शाम की बात की ओर जरा तवज्जो दो । शशिकांत की कोठी में, पक्की बात है कि, कोई नहीं था ?”
“था तो कम से कम मुझे दिखाई नहीं दिया था ।” वो बोली, “मैं सारी कोठी तो घूमी नहीं थी । मैं तो बस स्टडी और ड्राइंग रूम में गई थी ।”
“स्टडी के साथ अटैच्ड बाथरूम में भी नहीं झांका था ?”
“नहीं ।”
“जैसे तुम कहती हो कि तुम्हें वहां मौत की सूंघ लग गई थी, वैसे तुम्हें वहां किसी की मौजूदगी की सूंघ नहीं लगी थी ?”
“नहीं लगी थी । तभी तो कहती हूं कि शायद वहां कोई था ही नहीं ।”
“या बाहर ?”
“बाहर कहां ?”
“कहीं भी । ड्राइव वे पर । कम्पाउंड में । बाहर सड़क पर । कहीं कोई नहीं दिखाई दिया तुम्हें ?”
वो खामोश रही ।
“मैं ये बात जानने के लिए पूछ रहा हूं कि क्या तुम्हारे वहां गए होने का राज खुल सकता है ? क्या किसी ने तुम्हें कोठी में या उसके आसपास देखा हो सकता है ?”
वह कुछ क्षण खामोश रही और फिर बहुत दबे स्वर में बोली, “सुधीर”
“बोलो ।” मैं आशापूर्ण स्वर मैं बोला ।
“जब मैं बाहर आकर अपनी कार में बैठी थी और उसे यू टर्न देकर बापस लौटने लगी थी तो उसी वक्त मुझे सामने से आती एक टैक्सी दिखाई दी थी । सुधीर, उस टैक्सी में सुधा सवार थी ।”
“सुधा ! तुम्हारी सौतेली मां !”
“हां ।”
“तुमने साफ पहचाना था उसे ?”
“हां । वो ही पिछली सीट पर बैठी थी और जैसे टैक्सी की रफ्तार घटने लगी थी, उससे लगता था कि वो वहीं आ रही थी ।”
“अगर तुमने उसे देखा था तो उसने भी तुम्हें देखा होगा ?”
“शायद न देखा हो । मेरी कार की हैडलाईट्स हाई बीम पर थीं जिससे कि सामने से आने वाले की आंखें चौंधियां जाती हैं और उसे ठीक से कुछ दिखाई नहीं देता ।”
“ऐसी ही हालत तुम्हारी नहीं थी ?”
“नहीं । टैक्सी की हैडलाइट्स हाई बीम पर नहीं थी ।”
“यानी कि हो सकता है कि उसने तुम्हें न देखा हो, देखा हो तो पहचाना न हो ।”
“हां ।”
“वो शशिकान्त की कोठी पर ही गई थी ?”
“मैं ये देखने के लिए वहां नहीं रुकी थी लेकिन और कहां गई होगी वो ?”
“हूं । तुम्हारी बनती कैसी है अपनी सौतेली मां से ?”
“क्या बननी है सौतेली मां से ?” वो वितृष्णापूर्ण स्वर में बोली, “वो भी नौजवान सौतेली मां !”
“अब जो रिश्ता कायम हो गया है, वो तो हो ही गया है ।”
“रिश्ते दिल से बनते हैं । खून से बनते हैं ।”
“ठीक कहा । पेश कैसे आती है तुम्हारी सौतेली मां तुम्हारे से ?”
“मां-मां मत करो” वो चिड़कर के बोली, “सुधा बोलो ।”
“पेश कैसे आती है सुधा तुम्हारे से ?”
“पुचपुच तो बहुत करती है । सच में ही मेरी मां बनके दिखाने की कोशिश करती है लेकिन मैं जानती हूं कि सब दिखावा है ।”
“दिखावा किसलिए ?”
“डैडी को खुश करने के लिए । उन्हें आदर्श और नेकबख्त बीवी बनके दिखाने के लिए ।”
“आई सी । उसके कैरेक्टर के बारे में कोई राय जाहिर करो ।”
“मैं क्या राय जाहिर करूं, तुम खुद सोचो । साठ साल उम्र के, पति का फर्ज निभा सकने में नाकाम मर्द की हसीन, नौजवान, बीवी, जोकि उसकी व्हील चेयर के हत्थे से बंधी भी नहीं रहती, संन्यास धारण कर लेने की इच्छुक तो होगी नहीं ।”
“उसकी नवाजिशों का हकदार, तलबगार, कोई कैंडीडेट है तुम्हारी निगाह में ?”
“मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहती ।”
“यानी कि है ।”
“कहा न, मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहती ।”
नाम न लेना चाहने का एक मतलब ये भी हो सकता था कि नाम लेने लायक कोई नाम उसके जेहन में था ही नहीं । उस लड़की पर मेरा ऐतबार कतई नहीं बैठ रहा था । कल शाम हत्या के वक्त के आसपास मैटकाफ रोड पर सुधा माधुर की मौजूदगी की बात भी उसकी गढी हुई हो सकती थी । उसकी एक-एक बात साफ जाहिर करती थी कि वो अपनी सौतेली मां को सख्त नापसंद करती थी । वो उसकी कल्पना एक चरित्रहीन, दौलत की दीवानी औरत के तौर पर करती थी, उससे खुंदक खाती थी और उसे किसी जहमत मे फंसाकर कोई निहायत भ्रष्ट किस्म का आत्मिक संतोष प्राप्त करना चाहती थी ।
सुधा से रात हो जाने तक मैंने उस बाबत खामोश रहना ही उचित समझा ।
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