फोन बजते ही विनोद कुमार ने रिसीवर उठाया।

“सर!" दूसरी तरफ से उसके असिस्टैंट की आवाज आई।

"कहो ?"

"सर ! ड्रग्स का धंधा करने वाला अमर नाम का एक आदमी है। दादा है। हर तरह के काम करता है। उसके आदमी रात भर एक लड़की को शहर भर में तलाश करते फिर रहे हैं। अन्दर की खबर है कि वो लड़की सुखवंत राय की बेटी दीपाली ही है, जो किसी तरह से अमर की कैद से भाग निकली है।"

“अन्दर की खबर कितनी पक्की है?” विनोद कुमार की आंखें सिकुड़ीं।

"पूरी पक्की है सर ! तभी तो मैंने पांच असिस्टैंट को अमर और उसके साथियों की हरकतों को जानने पर लगा दिया है। इधर तीन असिस्टैंट दीपाली को तलाश कर रहे हैं।"

"काम की रफ्तार तेज करो। दीपाली को जल्दी से तलाश करो।"

"हमारा काम ठीक ढंग से चल रहा है। कोई लापरवाही नहीं हो रही। दीपाली का अपहरण अमर ने ही करवाया था।"

“अमर का ठिकाना कहां है?"

“अभी तो मालूम नहीं पक्के तौर पर अमर कहां है। वैसे उसके कई ठिकाने हैं, जहां वो मिलता है। आप कहें तो उसके ठिकानों की लिस्ट बना दूं।" शब्द, विनोद कुमार के कानों में पड़े।

"हां। और जिससे अन्दर की खबर मिल रही है, वो कौन है ?"

"अमर का आदमी है। अभी तक दस हजार उसे दिए जा चुके हैं। वो ही सब बातें हमें बता रहा है। लेकिन वो ये नहीं जानता कि हम कौन हैं। हमारे बारे में मालूम होने पर शायद वो बातें बताना बंद कर दे।"

“उससे, अमर की हरकतों की और दीपाली के बारे में जानकारी लेते रहो। मुझे बराबर रिपोर्ट करते रहो।"

"यस सर।"

सोचों में डूबे विनोद कुमार ने रिसीवर रख दिया।

■■■

सुबह आठ बजे दीपाली की आंख खुली। बेदी को बैड पर पास ही नींद में पड़े पाया। रात की बातें उसके मस्तिष्क में घूमी। बदमाशों के बारे में सोचते ही बदन में भय से भरे कम्पन की लहर दौड़ी। अगर इस इन्सान ने उसे न बचाया होता तो अब तक उसके साथ जाने क्या से क्या हो जाता !

दीपाली की निगाह कबाड़ जैसे कमरे में घूमने लगी। ऐसी मुसीबत के वक्त ये जगह उसे किसी स्वर्ग से कम नहीं लग रही थी। लेकिन अब कोई फिक्र नहीं। खतरा टल गया है। बाहर निकलकर बंगले पर फोन कर देगी। उसके बाद अपने घर होगी। घर से बाहर क्यों गई, इस पर पापा की डांट अवश्य पड़ेगी।

दीपाली ने गहरी सांस लेकर नींद में पड़े, बेदी को हिलाया।

"सुनो।"

एक ही बार में बेदी की आंख खुल गई। उसने दीपाली को देखा।

"क्या है?"

"मैं उठ गई हूं।" दीपाली ने उसे देखा ।

"वक्त क्या हुआ है?" बेदी ने पूछा।

"आठ-नौ बजे होंगे। तुम---।”

"किचन में चाय का सामान पड़ा है।" बेदी ने कहा--- "अपने और मेरे लिए चाय बना लो।"

"मैं, चाय बनाऊं?" दीपाली के होंठों से निकला ।

"क्यों, तूने कभी चाय बनाई नहीं क्या?"

बरबस ही दीपाली के चेहरे पर मुस्कान उभरी।

“बनाती हूं। किचन किधर है?"

"ढूंढ लो।” बेदी ने लापरवाही से कहा--- “मिल जायेगा।”

दीपाली बैड से नीचे उतरी।

"हरबंस नहीं आया?"

"वो, तुम्हारा साथी ?"

"कुछ भी कह लो ।” बेदी ने सीधा बैठते हुए कहा ।

"नहीं आया।” दीपाली बोली--- “तुम लोग इतने गंदे कमरे में कैसे रह लेते हो? सफाई क्यों नहीं करते?"

"जिस तरह तुमने रात बिताई। उसी तरह मेरी रात भी बीत जाती है। तुम्हें सफाई के बारे में सोचने की जरूरत नहीं। जिसकी जगह है, वो ही इस बारे में सोचेगा। चाय बनाओ।"

दीपाली बिना कुछ कहे बाहर निकल गई। चाय पीने की इच्छा दीपाली की भी थी। और उस इन्सान के लिए चाय बनाने के लिए उसे कोई एतराज नहीं था, जिसने उसे बदमाशों से बचाया था।

बेदी ने उठकर हाथ-मुंह धोये ।

कुछ ही देर में दीपाली चाय बना लाई। वो भी हाथ-मुंह धो चुकी थी। दोनों उस कमरे में आ गये जो कि बैठक जैसा लग रहा था।

"नाम क्या है तुम्हारा?" घूंट भरते हुए बेदी ने उसे देखा ।

"न बताना चाहूं तो?" दीपाली ने उसे देखा।

“मत बताओ। मैंने यूं ही पूछा था। रात क्या हुआ था तुम्हारे साथ? कौन लोग तुम्हें ले जाना चाहते थे?"

दीपाली ने घूंट भरा। चेहरे पर गम्भीरता आ गई थी।

"मैं नहीं जानती उन लोगों को। उन्होंने मेरा अपहरण किया था। लेकिन मैं उनकी कैद से भाग निकली। तब वो दोबारा मुझे पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, जब तुमने मुझे बचाया।" दीपाली ने कहा ।

"उन्होंने तुम्हारा अपहरण क्यों किया था?" बेदी की निगाह उस पर थी--- "कोई खास वजह?"

"वो लोग मेरे पापा से मोटी रकम लेना चाहते थे।"

“समझा। बड़े बाप की बेटी हो।” कहकर बेदी ने चाय का घूंट भरा।

दीपाली ने कुछ नहीं कहा। चाय के घूंट लेती रही।

“अब क्या चाहती हो?" बेदी ने पूछा।

"मैं बंगले पर पापा को फोन करूंगी। वो मुझे यहां से ले जायेंगे। तुम चलोगे मेरे साथ, बाहर फोन करने?"

“कुछ देर रुको। अभी चलता हूं।"

दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। वे चाय पीते रहे।

वे चाय खत्म करके हटे ही थे कि दरवाजे पर थपथपाहट पड़ी। दोनों की निगाहें मिलीं।

"तुम।" बेदी उठते हुए धीमे स्वर में बोला--- “पीछे वाले कमरे में चली जाओ।"

दीपाली जल्दी से उठी और पीछे वाले कमरे में चली गई।

बेदी ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला तो बाहर हरबंस को देखा।

हरबंस ने जल्दी से भीतर आकर दरवाजे पर सिटकनी चढ़ाई और बेदी से पूछा।

“वो लड़की कहां है?"

"कौन सी लड़की?" बेदी की निगाह हरबंस के परेशान से चेहरे पर जा टिकी।

"जिसे रात को बचाया था, उन बदमाशों से।"

“यहीं है। बैडरूम में आते ही तुमने ये सवाल क्यों किया?" बेदी का स्वर शांत था।

हरबंस ने एक निगाह बैडरूम के दरवाजे पर मारी फिर आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।

"मैंने तेरे को रात ही बोला था विजय कि दूसरे के लफड़े में टांग मत फंसा।" हरबंस उखड़े स्वर में बोला--- “तेरे को क्या पड़ी थी लड़की को बदमाशों से बचाने की ?"

"इस वक्त ये बात करने का मतलब? ये बात तो रात को ही खत्म हो गई थी।" बेदी ने हरबंस को गहरी निगाहों से देखा ।

"खत्म नहीं हुई, बल्कि रात को बात शुरू हुई थी।" हरबंस ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा--- "जानते हो वो लड़की कौन है जिसे तुमने बचाया और अब साथ लिए फिर रहे हो।"

"कौन है?"

"सुखवंत राय की बेटी दीपाली। जिसके पीछे सोफिया जैसी औरत है। ड्रग्स का धंधा करने वाला अमर जैसा खतरनाक आदमी है। रात हमने अमर के आदमियों से ही उस दीपाली को छीना था।"

"तो आफत क्या आ गई।"

“आफत नहीं आई?" हरबंस उखड़ा।

"मेरे ख्याल में तो ये कोई आफत वाली बात नहीं....।"

“मेरी बात सुनेगा, तो आफत सामने खड़ी नजर आयेगी। अपने साथ-साथ तूने मुझे भी मुसीबत में डाल दिया है।" हरबंस ने कड़वे स्वर में कहा--- “सोफिया और अमर रात को ही जान गये थे कि हम दोनों ने दीपाली को बचाया था। अमर ने दिन में दीपाली का अपहरण किया था कि सुखवंत राय से करोड़ों की मोटी रकम वसूल कर सके। लेकिन दीपाली वहां से भाग निकली। दोबारा उन लोगों के हाथ पड़ी तो हमने उसे, उन लोगों से बचा लिया। ये बात अमर को मालूम हो गई तो वो रात को सोफिया के दारूखाने पर आकर, मेरे से तेरे और दीपाली के बारे में पूछने लगा कि तुम दोनों कहां हो। मैं नशे में अवश्य था, परन्तु इतना तो समझ गया था कि कोई गड़बड़ है। मैंने कहा कि वो दोनों किसी होटल में जाने की बात कर रहे थे और रात से अमर और उसके आदमी शहर भर के होटलों में तुम दोनों को तलाश करते फिर रहे हैं। वो गुस्से से भरे पड़े हैं और हर हाल में दीपाली को वापस पाना चाहते हैं। सुनने में आया है कि अमर ने तुम दोनों की तलाश में शहर भर में आदमी फैला रखे हैं। वो पूरी हिम्मत लगाकर तुम दोनों की तलाश करवा रहा है।”

बेदी होंठ सिकोड़े हरबंस को देखे जा रहा था।

दीपाली भी बैडरूम के दरवाजे पर आ खड़ी हुई थी।

“दीपाली के मामले में अमर और सोफिया एक हो चुके हैं। पहले शायद वो इस मामले में अलग-अलग काम कर रहे थे। सुबह ही सोफिया ने मुझे कहा कि अगर मैं उसे दीपाली की खबर देता हूँ तो वो मुझे पचास हजार रुपया देगी।"

बेदी के माथे पर बल नजर आने लगे।

दीपाली ने घबराहट भरे ढंग से सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"बेकार में मुसीबत मोल ले ली। हम क्या इन लोगों का मुकाबला कर सकते हैं।" हरबंस ने तीखे स्वर में कहा।

बेदी ने कुछ नहीं कहा। सिग्रेट सुलगा ली।

हरबंस की निगाह दरवाजे पर खड़ी दीपाली पर गई तो गहरी सांस लेकर रह गया।

"मैं ही बोलता रहूंगा क्या?" हरबंस ने झल्लाकर कहा--- "अमर के आदमी सुखवंत राय के बंगले के बाहर पक्के तौर पर नजर रख रहे हैं कि अगर दीपाली बंगले पर पहुंचने की कोशिश करे तो उसे वहीं से उठा लिया जाये। दो घंटे लगा दिए इन सब बातों को जानने के लिए।"

बेदी ने गर्दन घुमाकर दीपाली को देखा फिर हरबंस पर नजरें टिका दीं।

"पहले तू अपनी बात कर हरबंस ।" बेदी का शांत स्वर गम्भीर था ।

"अपनी बात ?"

"हां। पचास हजार के बदले तू सोफिया को लड़की के बारे में खबर देगा?" बेदी ने पूछा।

"मैं इस वक्त सिर्फ एक ही बात चाहता हूं।"

"क्या?"

"दीपाली को यहां से बाहर निकाल दे।" हरबंस ने स्पष्ट कहा।

"क्यों?"

"ये हमारे लिए मुसीबत खड़ी कर चुकी है और आगे कई मुसीबतें खड़ी कर देगी। अभी तो इस मामले से बच निकलने का मौका है, उन्हें ये कहकर कि दिन निकलने पर तूने दीपाली को जाने दिया। या फिर रात को ही चली गई। बात आगे बढ़ गई तो लड़की को छोड़कर, हमें अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ेगा।"

"तेरा मतलब कि मैं लड़की को बरबाद होने के लिए खुला छोड़ दूं।" बेदी ने उसे घूरा।

"तो तेरा क्या मतलब है मैं अपनी गर्दन कटवा लूं इसे बचाने के चक्कर में। पागल समझता है मुझे।" हरबंस ने शब्दों को चबाकर कहा--- "तेरा ख्याल रखकर मैं सोफिया के पचास हजार का लालच छोड़ रहा हूं। वरना मैं आता माल जाने देता क्या? तू दीपाली का बुरा हुआ नहीं देखना चाहता तो मैं तेरी सोच की कद्र करता हूं। लेकिन अब इसे यहां से चलता कर। मत भूल कल इसका अपहरण किया गया है। पुलिस ने इसे तेरे साथ पकड़ लिया तो तेरी खैर नहीं। तेरे पर ही सारे जुर्म थोप कर ।"

"ऐसा कभी नहीं होगा।" दीपाली असंयत स्वर में कह उठी--- “पुलिस मेरी बात सुनेगी, किसी और की नहीं। मुझे बचाने वाले को पुलिस उंगली नहीं लगा सकती।”

हरबंस ने दीपाली को देखा फिर बेदी से बोला ।

"विजय! मैं इस मामले को अपने से दूर करना चाहता हूँ। दीपाली यहां से मिल गई तो अमर-सोफिया ने मुझे नहीं छोड़ना। अमर के आदमी मेरा घर चैक करने के लिए कभी भी यहां आ सकते हैं। दीपाली को वो साथ ले जायेंगे और तेरा-मेरा वो हाल करेंगे कि दोबारा हम ठीक से चल भी नहीं पायेंगे।"

"तो मैं जाऊं यहां से?"

"तू नहीं, ये दीपाली ।"

"अमर के आदमी इसे तलाश कर रहे हैं तो मैं इसे अकेला नहीं छोड़ सकता।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा।

"तो तू इसके साथ जायेगा?" हरबंस के माथे पर बल पड़े।

"हां।"

"अमर के आदमी तेरे से तो वैसे ही खुन्दक खाये फिर रहे हैं। तुझे दीपाली के साथ देखा तो पहले वो तेरी जान लेंगे, बाद में दीपाली की बांह पकड़ेंगे।" हरबंस ने कहा।

"कोई बात नहीं। जो होगा, मेरे साथ होगा। तेरे पर तो आंच नहीं आयेगी।"

"तेरे को कुछ हुआ तो मेरे को दुःख नहीं होगा क्या !"

"बोतल पास में रख ले। जब मेरे बारे में खबर सुने तो बोतल पीकर दुःख मना लेना ।" बेदी ने कड़वे स्वर में कहा--- “दोनों तरफ की बात करता है। सीधी सी बात है हरबंस, मैं इस लड़की को खतरे में नहीं छोड़ूंगा।"

"पागल हो गया है तू । क्या लगती है तेरी जो तू इसके लिए---।"

"लगता तो तू भी मेरा कुछ नहीं था, जब सोफिया तेरे को अपने दारूखाने से धक्के देकर निकलवा रही थी तो मैंने तेरे को बचाया। तेरा पिछला उधार भी चुकता किया उसके बाद तेरे को अंग्रेजी भी पिलाई। मेरा कोई लालच तो नहीं था तेरे से।" बेदी का स्वर बिलकुल शांत था--- "उस वक्त जो रिश्ता तेरे साथ था, वही रिश्ता इस वक्त इस लड़की दीपाली के साथ । लेकिन मैं अपनी वजह से तेरे को खतरे में नहीं डालना चाहता। दीपाली के साथ मैं यहां से जा रहा हूँ। तू आराम से रह। मुसीबतों से दूर रह।"

हरबंस की नजरें बेदी पर थीं।

“चलो।" बेदी ने दीपाली से कहा--- “यहां से चलो।"

"ले-लेकिन बाहर मुझे खतरा।"

"जो होगा, देख लेंगे। कब तक तुम यहां बैठी रहोगी। वैसे भी जो लोग तुम्हें तलाश कर रहे हैं, वो तुम्हारी तलाश में यहां भी आ सकते हैं। यहां से निकल चलना ही ठीक रहेगा।" बेदी के स्वर में गम्भीरता थी।

दीपाली कई पलों तक बेदी को देखती रही।

"अब क्या है?" बेदी ने उसे देखा।

"मेरे लिए तुम खुद को क्यों खतरे में डाल रहे हो?" दीपाली के होंठों से धीमा स्वर निकला।

"पागल हूं मैं। ऐसे ही काम करता हूँ। मेरे पास कोई रास्ता नहीं है, जिस पर चल सकूं। जो भी रास्ता मिलता है, उसी पर चल देता हूं।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "चलो, देर मत करो।"

"मेरी बात पर नाराज हो गये।" हरबंस कह उठा।

बेदी ने हरबंस को देखा फिर सिर हिलाकर कह उठा।

"तेरे से कैसी नाराजगी हरबंस ! किस बात की नाराजगी। मैं जो कह रहा हूं अपनी जगह ठीक हूं । तेरी नजरों में बेशक गलत हो सकता हूं। और ये बात भी गलत है कि मेरे कारण तू खतरे में पड़े। तूने मेरे को रहने को जगह दी। ये मेहरबानी क्या कम है जो।"

"ऐसा मत कह।" हरबंस ने टोका--- "नाराजगी जैसी बातें मत कर। रुक, मुझे सोचने दे।"

"तू क्या सोचेगा?"

"पता नहीं। सोचने दे जरा।"

बेदी ने कुछ नहीं कहा।

दीपाली व्याकुल-सी कभी बेदी को देखती तो कभी हरबंस को।

कुछ देर बाद हरबंस उठा और बैडरूम में चला गया।

दीपाली, बेदी के पास आ पहुंची।

"ये क्या कर रहा है?" कहते हुए दीपाली ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"जो हो रहा है, तुम्हारे सामने ही है।"

"मैं, मैं अपने घर जाना चाहती हूं।"

"मैंने तुम्हें रोक नहीं रखा। दरवाजा खोलो और बाहर निकल जाओ।" बेदी ने दीपाली को देखा।

दीपाली खामोश सी खड़ी रही।

तभी हरबंस बैडरूम से निकलकर वहां आया। हाथ में कुछ कपड़े थे।

“ये मेरी बेटी के कपड़े हैं। जो भी सूट पसन्द आये पहन लेना । तुम्हें पूरा आयेगा।"

"मैं समझा नहीं।" बेदी कह उठा।

"इसके पहने कपड़े, उन लोगों ने देखे हुए हैं। जो इसे ढूंढ रहे हैं, वो दूर से ही पहचान लेंगे। दूसरे कपड़ों में होगी तो उनकी नजर में आने के चांस कम हो जायेंगे। जरूरी तो नहीं कि इसे ढूंढने वाले, चेहरे से इसे पहचानते हों।"

"ये ठीक कह रहा है।" बेदी बोला--- "कपड़े चेंज कर लो।"

दीपाली उससे कपड़े लेते हुए बोली।

"तुम्हारी बेटी भी है?"

"हाँ है। तुम जाकर कपड़े चेंज करो।"

दीपाली कपड़ों को थामे दूसरे कमरे में चली गई।

"इसे मत बताना कि, इसके बंगले पर काम करने वाली कल्पना मेरी बेटी है।" हरबंस ने धीमे स्वर में कहा--- “मालूम नहीं वहां कल्पना ने अपने बारे में क्या कह रखा है। कहीं उसकी नौकरी न चली जाये।"

बेदी ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

"मैं तुम लोगों को एक जगह ले चलता हूं। मेरे ख्याल में वहां किसी तरह का खतरा नहीं होगा।"

"क्या मतलब?" बेदी की आंखें सिकुड़ीं।

"मेरे पास जगह है, जहां तुम दोनों आसानी से, जब तक चाहो, वहां छिपे रह सकते हो। सोफिया या अमर के आदमी भी आखिर कब तक तुम लोगों को ढूंढेगे। एक-दो दिन में खुद ही ठण्डे पड़ जायेंगे। तब दीपाली को उसके घर पहुंचा देना।"

"पुलिस स्टेशन कहां है?"

"पुलिस स्टेशन--वो क्यों ?" हरबंस के होठों से निकला।

"दीपाली को पुलिस वालों के हवाले कर देता हूं वो उसे घर---।"

"ख्याल बुरा नहीं है।" हरबंस ने सोच भरे स्वर में कहा--- "लेकिन यहां से पुलिस स्टेशन जाने के लिए कई मुख्य सड़कों से गुजरना होगा। ये खतरे वाली बात हो जायेगी। बेहतर होगा एक-दो दिन अभी चुपके से बिता लो। बाहर की कोई खास खबर होगी तो वो मैं आकर तुम्हें बता दूंगा।"

बेदी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे। हरबंस को देखते हुए उसने सहमति से सिर हिलाया।

"ठीक है। मानी तुम्हारी बात। कहां है वो जगह, जहां---?"

"यहां से पांच-छः किलोमीटर दूर है। बाहर से टैक्सी ले लेंगे।"

तभी दीपाली वहां पहुंची। अब उसके बदन पर कल्पना का पुराना, किन्तु अच्छी हालत वाला सूट था। हरबंस ने ठीक कहा था कपड़े बदल लेने से तलाश करने वाले लोग उसे आसानी से नहीं पहचान सकेंगे।

■■■

पुराना इलाका था जो सौ बरस से भी पहले बना था। पतली गलिया। ऊंची-ऊंची इमारतें। कई गलियां तो ऐसी थीं जहाँ धूप भी नहीं पहुंच पाती थी।

टैक्सी उन्होंने बाहर ही छोड़ दी थी।

तीनों पैदल ही गलियों में आगे बढ़ रहे थे। लोग आ-जा रहे थे। गलियों में जगह-जगह गंदगी के ढेर लगे थे। दीपाली ने पहले कभी ऐसी गंदी जगह नहीं देखी थी, परन्तु हालातों की वजह से चुप रहकर मजबूरी में इस वक्त सब कुछ सहना था। जान और इज्जत का सवाल था।

कुछ देर बाद हरबंस गली में ठिठका। पास ही पुराने जमाने का दरवाजा था, जिस पर ताला लटक रहा था। हरबंस ने जेब से चाबी निकाली और ताला खोलकर, दरवाजा धकेलते हुए भीतर प्रवेश कर गया। बाहर दिन का उजाला होते हुए भी, भीतर अंधेरा सा लग रहा था।

हरबंस ने स्विच दबाकर बल्ब ऑन कर दिया। मध्यम-सी पीली रोशनी वहां फैल गई। कमरे में एक फोल्डिंग, उस पर बिस्तरा और एक तरफ कुर्सी पड़ी थी। वहीं फर्नीचर था।

"ये है कमरा। किचन-बाथरूम वगैरह वो हैं। बाथरूम का दरवाजा नहीं है। चादर लटका कर काम चलाया जा सकता है। किचन में खाने-पीने का सामान मैं अभी डलवा देता हूं। तुम दोनों आराम करो।"

"ये जगह किसकी है?"

"मेरे यार की है। इस वक्त वो जेल में आराम कर रहा है, तुम लोग यहां आराम करो मैं किचन का सामान लेकर आधे घंटे में आता हूं।" कहने के साथ ही हरबंस बाहर निकल गया।

बेदी ने दीपाली को देखा।

"तुम्हारा बाप बहुत अमीर है क्या?"

दीपाली ने उसे देखा। कहा कुछ नहीं।

"ये मैंने इसलिए पूछा है कि तुम्हें ऐसी जगह पर रहने की आदत तो नहीं होगी।" बेदी मुस्करा पड़ा।

"आदत ?” दीपाली के होंठों से निकला--- "मैंने ऐसी गंदी जगह कभी देखी भी नहीं। तुम आदत की बात कर रहे हो।"

"सावधानी के तौर पर तुम्हें कुछ दिन यहीं रहना पड़ेगा। मेरी तरफ से जबर्दस्ती नहीं है। अगर यहां नहीं रह सकतीं तो कहीं भी जाने के लिए तुम्हें पूरी छूट है।" बेदी का स्वर शांत था।

"मैं यहां से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकती। वो लोग तो इस जगह से भी ज्यादा गंदे हैं।" कहते हुए दीपाली के स्वर में नफरत के भाव आ गये--- "मुझे और पापा को ब्लैकमेल करने के लिए वो मेरी गंदी तस्वीरें खींचना चाहते थे। मेरी ब्लू फिल्म बनाने को कह रहे थे। उन लोगों के मुकाबले ये जगह लाखों दर्जे अच्छी है।"

बेदी ने कुछ नहीं कहा। वो कुर्सी पर जा बैठा।

"मेरे कारण तुम भी भागे-दौड़े फिर रहे हो विजय।" दीपाली ने अफसोस भरे स्वर में कहा।

"कोई काम तो करना ही है। यही काम सही।" बेदी ने उसे देखा।

"क्या मतलब?"

"कुछ नहीं।"

"कैसी बात करते हो तुम? मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानती।" दीपाली की नजरें उस पर जा टिकीं।

"मेरे बारे में जानने की जरूरत भी नहीं। सिर्फ इतना जान लो कि मुझसे तुम्हें किसी तरह का खतरा नहीं है। हम यूं ही इत्तफाक से मिल गये हैं। मौका मिलते ही हमने अपने-अपने रास्ते पर चले जाना है।" बेदी का स्वर शांत था।

दीपाली ने कुछ नहीं कहा।

■■■

विनोद कुमार इस वक्त अपनी सुपर प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी के आफिस में मौजूद था। दिन के ग्यारह बज रहे थे। रात ठीक से नींद न लेने की वजह से आंखें भारी थीं। रिसीवर थामे किसी के नम्बर मिला रहा था कि पचास वर्षीय एक व्यक्ति ने भीतर प्रवेश किया।

"आओ टण्डन !” विनोद कुमार ने रिसीवर वापस रख दिया--- "बैठो। कोई नई खबर ?"

टण्डन बैठता हुआ कह उठा।

“सर! खबर तो वास्तव में नई है। अमर के आदमी से पता चला है कि रात को दीपाली दोबारा उन लोगों के हाथ में लग गई थी। लेकिन हरबंस और विजय बेदी नाम के दो लोगों ने दीपाली को उन बदमाशों से बचा लिया। तब दोनों नशे में थे। सोफिया के दारूखाने से पीकर आ रहे थे कि बदमाशों से भिड़ गये।”

“सोफिया का दारूखाना ।” विनोद कुमार की आंखें सिकुड़ीं--- "ये वो ही सोफिया है जो ड्रग्स की सप्लाई करती है।"

"हां। और आगे मोटे तौर पर ये है कि हरबंस और विजय बेदी की दोस्ती भी नई-नई है। हरबंस तो कल रात पुनः वापस आकर सोफिया के यहां दारू पीने लगा। अमर के आदमी उस तक पहुंच गये। पूछने पर हरबंस सिर्फ इतना ही बता पाया कि विजय बेदी के साथ सुखवंत राय की बेटी दीपाली है। वो कहां गये, उसे नहीं मालूम। अमर के आदमी रात भर से दीपाली के साथ-साथ विजय बेदी को भी ढूंढ रहे हैं।"

“मतलब कि दीपाली इस वक्त विजय बेदी के साथ है।" विनोद कुमार के होंठ सिकुड़ गये।

"जी। लेकिन वो कहां है, किसी को मालूम नहीं।"

"विजय बेदी कौन है?"

"मैंने उसके बारे में मालूम करने की कोशिश की, लेकिन उसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम हो सका। ले-देकर उसके नाम के साथ हरबंस का ही नाम जुड़ता है।" टण्डन ने कहा।

"विजय बेदी की कोई तो पिछली जिन्दगी होगी टण्डन !"

“सर, वो पिछली जिन्दगी, इसे शहर की नहीं हो सकती।" टण्डन ने विश्वास भरे स्वर में कहा--- “मैंने विजय बेदी के बारे में जानने की जो कोशिश की है, उसके दम पर उसके बारे में मालूम हो जाता, अगर वो इस शहर का होता। विजय बेदी किसी दूसरे शहर से आया हो सकता है।"

"तो इस बारे में हरबंस जानता होगा।" विनोद कुमार ने उसे देखा।

"हरबंस के पास जाकर पूछताछ करने का मतलब है कि अमर और सोफिया को मालूम हो जाना कि हम इस काम में हैं। दीपाली को तलाश कर रहे हैं। मेरे ख्याल में अभी ये बात खुलना ठीक नहीं होगा। वो लोग सावधान हो सकते हैं।" टण्डन ने कहा।

"हमारे आदमी अब क्या कर रहे हैं?"

"कुछ अमर के आदमियों पर नजर रख रहे हैं जो दीपाली को ढूंढ रहे हैं। और कुछ सीधे-सीधे विजय बेदी और दीपाली को ढूंढ रहे हैं। उनके पास दीपाली की तो तस्वीर है, लेकिन विजय बेदी की नहीं।"

"विजय बेदी ने दीपाली को उन बदमाशों से बचाया था तो वो उसका बुरा नहीं चाहेगा।” विनोद कुमार ने कहा।

"जाहिर है सर।"

"लेकिन हरबंस जैसे इन्सान के साथ रहने वाला, सोफिया के दारूखाने पर जाने वाला विजय बेदी कोई शरीफ इन्सान भी नहीं हो सकता।" विनोद कुमार ने कहा--- “हो सकता है उसने उस वक्त अनजाने में दीपाली को उन बदमाशों से बचा लिया हो। लेकिन बाद में ये मालूम होने पर कि दीपाली, सुखवंत राय जैसे दौलतमंद इन्सान की बेटी है। उसके मन में बेईमानी आ सकती है। दीपाली खतरे में पड़ सकती है।"

"राईट सर! ऐसा हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं।"

विनोद कुमार ने टण्डन की आंखों में झांका।

"टण्डन!" दिनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- "विजय बेदी के बारे में जानना हमारे लिए बहुत जरूरी है और उसके बारे में हरबंस जानता होगा। ऐसे में जरूरी तो नहीं कि हरबंस से पूछताछ के दौरान उसे बताया जाये कि तुम कौन हो। एक उसका गला पकड़ ले। दूसरा रिवाल्वर निकाल ले। तीसरा सवाल करे तो वो बिना देर किए विजय बेदी के बारे में सब कुछ बता देगा।"

"यस सर! ये तो आसान काम है।"

"एक बात और ध्यान में रखना।"

"क्या सर?"

"हो सकता है, हरबंस को मालूम हो कि विजय बेदी और दीपाली वहां पर है।” विनोद कुमार ने उसे देखा ।

दोनों की नजरें मिलीं।

“समझ गया सर! इस बात को ध्यान में रखकर ही मैं हरबंस से पूछताछ करूंगा।" कहते हुए टण्डन खड़ा हो गया।

"और सबसे पहले इस बात को आगे रखना कि हमें सिर्फ दीपाली चाहिये। किसी दूसरी बात से कोई मतलब नहीं।" विनोद कुमार ने अपने शब्दों पर जोर देकर गम्भीर स्वर में कहा--- “जहां जरूरत पड़े, मुझे खबर कर सकते हो। दीपाली के मामले में, मैं खुद फील्ड में आने को तैयार हूं।"

"राईट सर ।"

■■■

रात भर न सोने और ठीक से आराम न करने की वजह से अमर हद से ज्यादा थका नजर आ रहा था। ऊपर से दीपाली का न मिलना, उसे तकलीफ दे रहा था।

अमर, सोफिया के यहां पहुंचा तो उसका चेहरा देखकर सोफिया ने कहा।

"मुझे नहीं लगता कि तुम दीपाली को ढूंढ पाओगे ।"

"मिल जायेगी।" अमर ने बैठते हुए कहा--- "क्योंकि वो बंगले पर नहीं पहुंची।"

“ये जरूरी नहीं कि अगर वो बंगले पर नहीं पहुंचेगी तो तुम्हें मिल जायेगी।” सोफिया कह उठी--- "इस बात की भी पूरी आशा रखो कि वो विजय बेदी, उसे लेकर शहर से बाहर निकल गया हो ।”

"नहीं हो सकता। मेरे आदमी बस अड्डे-स्टेशन पर, एयरपोर्ट पर नजर रख रहे हैं। उनको शहर छोड़ने का मौका नहीं मिलेगा।" मैंने किराये के आदमियों को भी इस काम पर लगा दिया है।"

"वो कार से भी शहर से बाहर निकल सकते हैं।"

"अभी उन्हें ऐसा मौका नहीं मिला होगा शहर से जाने का।" अमर ने होंठ भींचकर कहा--- "मुझे पूरा विश्वास है कि वो दोनों कहीं छिपे बैठे हैं। ये विजय बेदी जो भी है हमारा सारा काम उसी ने खराब किया है। वरना इस वक्त दीपाली हमारे पास होती। समझ में नहीं आता कि ये है कौन?"

"अमर!" सोफिया गम्भीर स्वर में बोली--- “हो सकता है वे दोनों हरबंस के यहां छिपे बैठे हों।"

"हरबंस के यहां ?"

"हां। हरबंस जितना जमीन के ऊपर है। उतना ही नीचे। मेरे ख्याल में हमें हरबंस की बात पर यकीन नहीं करना चाहिए। उसका घर एक बार अवश्य देखना चाहिये था।" सोफिया ने उसे देखा।

"तुम ठीक कहती हो। हो सकता है हरबंस ने हमसे झूठ बोला कि रात दोनों किसी होटल में चले गये हैं। हरबंस का घर मैं चैक करता हूं।" होंठ भींचे अमर उठ खड़ा हुआ।

"मेरे ख्याल में ये काम तुम्हें पहले करना चाहिये था ।"

"हरबंस घर पर ही होगा ?"

"जाकर देख लो। यहां से तो सुबह ही चला गया था।"

अमर अपने दो आदमियों के साथ हरबंस के घर पहुंचा। ये वही वक्त था जब हरबंस, बेदी और दीपाली को कमरे में छोड़कर, अपने घर वापस लौटा था। अमर को अपने घर आया देखकर कुछ घबराया फिर फौरन ही संभल गया।

अमर ने सख्त निगाहों से उसे देखा।

"कहां से आ रहे हो?"

“मैंने कहां से आना है।” हरबंस ने मुस्कराकर कहा--- “अपनी कोई रिश्तेदारी तो है नहीं। वैसे अभी लौट रहा हूं घर। सुबह सोफिया के यहां से निकलने के बाद, विजय और दीपाली की तलाश में इधर-उधर भटकता रहा। यहां आये हो तो जाहिर है वो दोनों तुम्हें नहीं मिले।”

"मैं तुम्हारा घर देखने आया हूं। खोलो।"

"मेरा घर ?" हरबंस मुस्कराया। जबकि उसकी सोचों में फौरन दीपाली के कपड़े आये, जो बैडरूम में पड़े हो सकते हैं। अमर उन कपड़ों को पहचान सकता था--- "मेरे घर में वो नहीं आ सकते। मैंने तो रात ही कहा था कि चाबी मेरे पास है। विजय के मांगने पर भी नहीं दी। वो होटल जाने की बात कर रहे---।"

"तुम दरवाजा खोलो।" अमर ने उसकी बात काटकर कठोर स्वर में कहा।

"कभी तो विश्वास कर लिया करो दूसरे का। मैं क्यों झूठ बोलूंगा।" कहने के साथ ही हरबंस ने जेब से चाबी निकाली और दरवाजे पर लटकता ताला खोलकर दरवाजे को धकेला तो अमर अपने दोनों साथियों के साथ भीतर प्रवेश कर गया। उसके बाद हरबंस ने भीतर प्रवेश किया। वो खुद को संयत रखने की चेष्टा कर रहा था कि अमर, दीपाली के कपड़े न देखे। देखे तो पहचान न सके।

लेकिन दूसरे ही मिनट गुस्से से भरा अमर उसके सामने था। दीपाली के कपड़े हाथ में थाम रखे थे।

"ये क्या है?" अमर के चेहरे पर खतरनाक भाव नाचने लगे थे।

"कपड़े हैं। मेरे से क्या पूछ---।"

"बकवास मत कर। ये कपड़े दीपाली के हैं। रात उसने यही कपड़े पहन---।"

"तेरा दिमाग खराब हो गया है।" हरबंस ने झल्लाकर कहा--- "ये मेरी बेटी कल्पना के कपड़े हैं। ऐसे और भी पड़े होंगे। जाकर देख ले दूसरे कमरे में।"

"इन कपड़ों को देख। ध्यान से देख और सोच कि क्या कभी तेरी बेटी ने ऐसे कपड़े पहने थे?"

हरबंस जानता था कि ड्रामा लम्बा खींचने से बात खराब हो सकती है। अमर का गुस्सा बढ़ रहा था। उसने अमर के हाथ में दबे कपड़ों को देखा। उन्हें छूकर देखा। फिर हैरानी से कह उठा।

"ये--ये कपड़े तो कल्पना के नहीं हैं। इन कपड़ों में मैंने उसे कभी नहीं देखा। तुम्हें कहां से मिले?"

“ड्रामा करता है।" अमर ने दांत भींचकर कहा--- "विजय और दीपाली रात भर यहीं थे। तू जानता---।”

"क्या बात करता है!" हरबंस तीखे स्वर में कहते हुए खड़ा हो गया--- "मैं रात भर सोफिया के यहां पड़ा रहा। घर की चाबी मेरे पास थी तो वो दोनों रात भर यहां कैसे रह सकते हैं?"

"तो दीपाली के कपड़े यहां कैसे आये? उसके कपड़े यहां होने का मतलब है कि वो दूसरे कपड़े पहनकर यहां से गई है।" अमर के चेहरे पर खतरनाक भाव नाच रहे थे--- "जो सच है वो बता दे। वरना---।"

"मैंने सच ही बताया।"

“ताले की दूसरी चाबी भी है?" अमर ने उसी लहजे में पूछा।

"दूसरी चाबी?" हरबंस का मस्तिष्क तेजी से चल रहा था--- "एक मिनट। दूसरी चाबी भी है।" हरबंस को बचने का रास्ता नजर आ गया था। जबकि ताले की एक ही चाबी थी। वो आगे बढ़ा और टेबल पर मैले कपड़ों के ढेर को एक तरफ धकेलकर टेबल का टूटा-फूटा ड्राज खोला और फिर गहरी सांस लेकर कह उठा--- "तुमने ठीक कहा अमर! विजय और दीपाली रात भी यहीं पर थे। मेरे घर में ही थे।"

"क्या मतलब?"

"दीपाली के कपड़ो का यहां मिलना और ड्राअर में दूसरी चाबी न होना यही साबित करता है कि विजय ने ताले की दूसरी चाबी देख ली होगी, जो इस ड्राअर में रहती थी। जाने क्या सोचकर उसने चाबी उठाई होगी। वो रात यहां आया होगा जब मैंने चाबी देने से मना कर दिया था और दूसरी चाबी से ताला खोलकर, दीपाली के साथ भीतर आ गया होगा।"

गुस्से से भरा अमर आगे बढ़ा और जोरदार चांटा हरबंस के गाल पर पड़ा।

हरबंस ने चांटे को बर्दाश्त किया।

"विजय के हाथ दूसरी चाबी लग गई तो, इसमें मेरी कोई गलती नहीं। रात दीपाली को तुम्हारे आदमियों से बचाया तो वो सिर्फ नशे में की गई हरकत थी।” हरबंस ने अपना गाल मसलते हुए धीमे स्वर में कहा--- “मुझे वास्तव में बहुत अफसोस है कि मेरी वजह से तुम्हें परेशानी हो रही है। जबकि मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।”

अमर खा जाने वाली निगाहों से, हरबंस को घूर रहा था।

"विजय अब कहां मिलेगा?" अमर शब्दों को चबाकर कह उठा।

“मुझे नहीं मालूम।”

“वो तुम्हारा साथी था। तुम उसके बारे में जानते हो कि वो कहां---।"

“साथी होना तो दूर, हम दोनों एक-दूसरे के बारे में कुछ जानते भी नहीं ।" हरबंस, अमर को देखकर कह उठा--- "तीन दिन पहले वो सोफिया के दारूखाने में मिला। साथ बैठकर पी। उसके पास नोट थे। मेरे को ऐसा बंदा चाहिये जो मुफ्त में दारू पिलाता रहे। उसके पास रहने का ठिकाना नहीं था। मैंने उसे अपने यहां ठहरा लिया। यही है उसका और मेरा रिश्ता। इससे ज्यादा जरा भी नहीं।"

"कहां से आया है विजय"

"मैंने नहीं पूछा। उसने नहीं बताया। हमारी बातचीत सिर्फ दारू तक ही थी। बस ।"

"कभी तो उसने अपने बारे में कुछ बताया होगा ?"

"नहीं।"

"यहां से वो दीपाली को लेकर कहां गया हो सकता है? इस शहर में उसका कोई तो ठिकाना होगा?"

"मुझे नहीं मालूम।”

"कभी उसने किसी इलाके का नाम तो लिया होगा?"

"ऐसा कुछ भी नहीं है। उसने एक बार इतना जरूर कहा था कि वो शहर में नया है।" हरबंस बोला।

अमर खा जाने वाली नजरों से उसे देखने लगा।

"विजय और दीपाली मेरे हाथों से दूर नहीं हैं।" अमर ने धमकी भरे स्वर में कहा---  “बहुत जल्द वो मेरे हाथों में आ जायेंगे। तुम्हारी कही बातें झूठ निकली तो, मेरे आदमी तुम्हें खत्म कर देंगे।"

"तेरे आदमियों को यहां आने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मैंने तेरे से हर बात सच कही है।"

हरबंस ने सिर हिलाया।

“चलता हूं। दोबारा मिलने की जरूरत नहीं पड़े तो ठीक रहेगा।" अमर ने तीखी आवाज में कहा।

“मुझे पूरा विश्वास है कि विजय अब यहां नहीं आयेगा। उसके लिए अपने आदमी बार-बार यहां भेजकर मुझे परेशान न करना । वो आया तो मैं तुम्हें फोन कर दूंगा।" हरबंस ने शांत स्वर में कहा।

“तू इतना शरीफ नहीं कि हर बात सच बोले।" अमर अपने दोनों साथियों के साथ बाहर निकल गया।

हरबंस कुर्सी पर बैठा और सिग्रेट सुलगा ली। मन में यही विचार आ रहा था कि उसे अमर और सोफिया के आदमियों से सतर्क रहना चाहिये। उस पर नजर भी रखी जा सकती है। विजय और दीपाली से मिलने जाना हो तो अब उसे हद से ज्यादा सतर्कता बरतनी होगी। वरना उन दोनों के साथ, वो भी मरेगा।

■■■

अमर दोपहर को थका-हारा अपने ठिकाने पर पहुंचा। कुछ खाने के बाद, वो दो घंटे की नींद लेना चाहता था। उसके आदमी बेदी और दीपाली की तलाश में थे और उसे विश्वास था कि देर-सवेर में उन दोनों को ढूंढ लिया जायेगा। वो बचकर कहीं भी नहीं निकल सकते।

अपने आदमी को उसने खाना लाने को कहा। वो आदमी चला गया।

तभी फोन बजा तो अमर ने रिसीवर उठाया।

"बोलो।"

"मैं कल्पना हूं।" कल्पना की आवाज, अमर के कानों में पड़ी।

अमर फौरन संभला ।

"मैं जानता था, तुम्हारा फोन कभी भी आ सकता है।" अमर के चेहरे पर बेचैनी उभर आई।

"मेरा काम हो गया?"

"कैसा काम ?" जानते हुए भी अमर बोला। कल्पना को जवाब देना, उसे भारी सा लग रहा था।"

"दीपाली की तस्वीरों और वीडियो फिल्म बनाने का काम।" कल्पना की आने वाली आवाज में तीखापन आ गया--- "मुझे हैरानी है कि पूछने पर तुम कह रहे थे कि कैसा काम ?"

“अभी कुछ नहीं हुआ।" अमर ने गहरी सांस ली।

"क्यों?" कल्पना की आवाज में कठोरता आ गई--- "मेरा काम क्यों नहीं हुआ। कल से दीपाली तुम्हारे पास है और एक-दो घंटे का काम नहीं कर सके। तुम---।"

"दीपाली रात को मेरी कैद से भाग गई है।" अमर के स्वर में उखड़ापन भर आया।

"क्या बकवास कर रहे हो।" कल्पना का तेज स्वर कानों में था।

"मैं ठीक बकवास कर रहा हूँ।"

"ये कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई। एक लड़की को तुम और तुम्हारे आदमी कैद में नहीं रख सके। कितनी मेहनत से दीपाली पर हाथ डाला गया था और.... अमर---!"

"हां।"

"कहीं तुम्हारे मन में बेईमानी तो नहीं आ गई। दीपाली तुम्हारे पास हो और---।"

“गलत बात मत बोलो। मैं---।"

“गलत क्यों---मेरी बात सच क्यों नहीं हो सकती ?" कल्पना का आने वाला स्वर कठोर था।

“मेरी बात पर, सच की मुहर तो तुम्हारा बाप हरबंस लगा देगा।" अमर ने तीखे स्वर में कहा।

“पापा ?" कल्पना का अजीब-सा स्वर, अमर के कानों में पड़ा।

"हां।" अमर ने उसी लहजे में कहा--- "दीपाली दोबारा हमारे हाथ लग गई थी, परन्तु तुम्हारे बाप ने अपने दोस्त विजय बेदी के साथ मिलकर, दीपाली को छुड़ा लिया।"

"ये कब की बात है?"

"रात की।"

"तो उनसे दीपाली को वापस लो और---।"

"तुम क्या समझती हो मैं हाथ पर हाथ रखे, मजे ले रहा हूँ।" अमर ने शब्दों को चबाकर कहा--- "इस वक्त तुम्हारा बाप अपने घर पर मौजूद है। विजय बेदी जो इन दिनों उसके घर पर रह रहा था। वो दीपाली के साथ कहीं छिपा बैठा है। उनके बारे में तुम्हारा बाप कहता है कि उसे उन दोनों के बारे में कुछ नहीं पता।"

कल्पना की तरफ से आवाज नहीं आई।

"विजय बेदी को उसने अपने घर पर रखा हुआ है और कहता है उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है उसे कि वो कहां से आया? कौन है? रात को तुम्हारे बाप ने कहा कि विजय बेदी और दीपाली उसके घर पर नहीं हैं। दो घंटे पहले वहां गया तो पता चला कि वो दोनों रात वहीं रहे। दीपाली के कपड़े वहीं मिले। और वो वहां से तुम्हारा कोई सूट पहनकर विजय के साथ निकल गई है। समझी तुम्हारे बाप की वजह से रात को दीपाली हमारे हाथ नहीं आ सकी। वो विजय बेदी और दीपाली को बचाता फिर रहा है। उससे सख्ती करूंगा तो तुम नाराज होंगी।"

कल्पना की आवाज नहीं आई।

"सुन रही हो?"

"हाँ।" कल्पना का सोच से भरा गम्भीर स्वर कानों में पड़ा--- "सब कुछ सुन रही हूं।"

"मेरी कैद से तो दीपाली एक बार अवश्य निकल भागी, लेकिन उसके बाद हरबंस की वजह से ही दीपाली मेरे हाथों में नहीं आ सकी। अब तुम ही बताओ, मैं क्या करूं?"

"पापा से बात करूंगी मैं।" कल्पना का गम्भीर स्वर अमर के कानों में पड़ा।

"मेरा ख्याल है कि हरबंस जानता है कि वो दोनों कहां हैं।"

"इस बारे में बात करूंगी पापा से।" कहने के साथ ही कल्पना ने लाईन काट दी थी।

अमर ने गहरी सांस लेकर रिसीवर रख दिया।

■■■

हरबंस, अमर के जाने के बाद घर से नहीं निकला था। वो सारे हालातों पर गौर करके इस नतीजे पर पहुंचा था कि कम से कम दो दिन तक तो उसे विजय और दीपाली के पास नहीं जाना है। लेकिन रोज की तरह सोफिया के दारूखाने पर अवश्य जायेगा ताकि अमर और सोफिया उस पर किसी तरह का शक न करें।

उसे हरबंस ये भी सोच रहा था कि विजय और दीपाली के मामले में कुछ भी लेना-देना नहीं है। विजय के लिए उसने जो करना था कर दिया। दीपाली जैसी अमीरजादी के साथ तो उसका कोई वास्ता था ही नहीं। उससे न तो दुश्मनी थी और न ही हमदर्दी। दीपाली बचे या न बचे। दोनों ही हालातों में, विजय को इस शहर से जाना पड़ेगा। क्योंकि अमर उसे छोड़ने वाला नहीं। उसके ख्याल से दीपाली को बचाने के फेर में विजय ने खामखाह मुसीबत मोल ले ली थी।

उस वक्त शाम के चार बजे थे, जब दरवाजे पर थपथपाहट हुई। हरबंस ने दरवाजा खोला तो सामने कल्पना को खड़े पाया।

"तुम?" हरबंस के होंठों से निकला।

"कैसे हो पापा ?" कल्पना ने कहा और हरबंस के बगल से भीतर प्रवेश कर गई।

"मैं ठीक हूं।" हरबंस ने दरवाजा बंद करते हुए कहा--- "तुम अचानक कैसे आई?"

"बहुत देर हो गई थी तुमसे मिले।" कल्पना कुर्सी पर बैठते हुए कह उठी।

"तुम सिर्फ मुझे मिलने आई हो तो, ये बात मेरे लिए हैरानी की है।" हरबंस शांत भाव से मुस्कराया और कल्पना के सामने पड़ी कुर्सी पर जा बैठा--- "महीनों से तो तुम्हें मेरी याद आई नहीं।"

कल्पना मुस्कराई।

“मेरी बेटी पहले से अच्छी दिखने लगी है। सुखवंत राय के यहां खाने-पीने की कमी तो होगी नहीं।"

“खाने-पीने की कमी तो यहां भी नहीं थी।"

"चाय चलेगी। बनाऊं बेटी ? पूछना पड़ता है। आखिर अब तुम सुखवंत राय जैसे इन्सान के यहां काम करती हो।"

"मजाक कब से करने लगे पापा!” मुस्कराई कल्पना--- "वैसे मैं छुट्टी लेकर आई हूं। रात यहीं रहूंगी।"

"बेशक रहो। तुम्हारा घर है। खाना बनाने की जरूरत नहीं। मैं बाहर से ले आऊंगा। लेकिन दारू सोफिया के यहां ही पिऊंगा। तुम हर पैग पर मुझे दस बार मना करोगी कि---।"

“आज नहीं करूंगी।" कल्पना मुस्कराई--- “पी लेना ।"

"फिर ठीक है। खाने के साथ शाम को बोतल भी ले आऊंगा ।" हरबंस मुस्करा कर कह उठा।

“तुमने फोन पर दो-तीन बार दीपाली के बारे में खबरें क्यों ली पापा ?"

"वो सब बातें सोफिया ने पूछी थीं। इन बातों के बदले खामखाह मैंने उससे पन्द्रह हजार झाड़ लिया।" हरबंस ने लापरवाही से कहा--- "मुझे तुमसे शिकायत है कल्पना ।"

"क्या ?"

"बीस हजार तनख्वाह मिलती है तुम्हें और मुझे सिर्फ पांच हजार देती हो। जो कि कम रहता-- ।"

"अब ये पांच हजार भी बंद हो जायेगा।" कल्पना ने हरबंस को देखा।

"मैं समझा नहीं।" हरबंस ने उसे देखा।

"सुखवंत राय के यहां से मैं नौकरी छोड़ने जा रही हूँ।"

"क्यों?" हरबंस के माथे पर बल नजर आने लगे।

"जो सोचकर मैंने सुखवंत राय के यहां नौकरी की थी, वो सारी सोच बेकार हो गई।" कल्पना ने गम्भीर स्वर में कहा--- "तुम क्या सोचते हो मैं वहां बीस हजार की नौकरी करने गई थी ?"

"तो ?"

कल्पना कई पलों तक गम्भीर निगाहों से हरबंस को देखती रही।

"पापा! तुम्हें वो रात याद है? वो आधी रात का वक्त, जब मैं तुम्हें सड़क के किनारे रोती मिली थी और तुम नशे में डूबे वहां से गुजर रहे थे। तरस खाकर मुझे अपने साथ यहां ले आये?"

"अच्छी तरह से याद है।" हरबंस की निगाह कल्पना के कठोर होते चेहरे पर टिक चुकी थी।

"मैं वहां क्या कर रही हूं? तुम्हारे पूछने पर मैंने क्या कहा था?"

"यही कि कुछ लोगों ने तुम्हारे घर में घुसकर तुम्हारे पापा और माँ को गोली मार दी। उसके बाद घर का सामान लूट-पाट कर वो लोग चले गये। लेकिन तुम किसी तरह जान बचाकर भाग आईं।"

"हां। यही कहा था।" कल्पना की आवाज में दर्द और कठोरता थी--- "लेकिन तुम्हें ये नहीं बताया था कि मेरे पापा, सुखवंत राय की मिल के मजदूरों की यूनियन के नेता थे। मजदूरों की जायज मांगें न मानने पर मेरे पापा के कहने पर मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी। सुखवंत राय ने, मेरे पापा को रिश्वत देकर मिल की हड़ताल समाप्त करवाने की कोशिश की। लेकिन मेरे पापा नहीं माने। वो मिल कर्मचारियों का भला चाहते थे। उस शाम जब पापा घर आये तो, बातों-बातों में उन्होंने मां से कहा कि आज सेठ सुखवंत राय उस पर बहुत गुस्सा कर रहे थे कि मैं रिश्वत लेकर हड़ताल क्यों नहीं खत्म करवा रहा। उन्होंने कहा कि हो सकता है सुखवंत राय उन्हें जान से खत्म करवाने की चेष्टा करे और उसी रात बदमाशों ने घर में घुसकर, पापा और मां की हत्या कर दी। लेकिन मैं किसी तरह भाग निकली।"

हरबंस गम्भीर निगाहों से कल्पना को देखे जा रहा था।

“सुखवंत राय ने मेरे मां-बाप की हत्या की। मुझे अनाथ बना दिया। अगर तुम मुझे अपने घर न ले आये होते तो जाने मेरा क्या होता! आज मैं कहाँ होती!" कल्पना एक-एक शब्द चबाकर गुस्से से कह रही थी--- “और अब बड़े होकर सुखवंत राय के यहां नौकरी करना, उससे बदला लेने की मेरी योजना का हिस्सा था।”

"क्या नाम था तुम्हारे पापा का ? भूल गया मैं?"

"श्री धर्मपाल वोहरा।"

हरबंस, कल्पना को देखता रहा। खामोशी लम्बी होने लगी तो हरबंस ही बोला ।

"मैं तो समझता था कि तुम यूं ही सुखवंत राय के यहां नौकरी कर रही हो।"

"तुम नहीं जानते पापा कि मैंने बहुत ही गहरी कोशिशों के बाद सुखवंत राय के यहां नौकरी हासिल की थी। अमर के कहने पर मेरी गारण्टी, एक बहुत बड़े आदमी ने दी। तब कहीं जाकर सुखवंत राय के यहां नौकरी मिली थी।"

"अमर ?" हरबंस के माथे पर बल उभरे।

"हां। अमर। वही जो सोफिया का दोस्त है।" कल्पना ने गम्भीर स्वर में कहा।

"तुम उसे कैसे जानती हो ? वो नम्बरी बदमाश है और---।" हरबंस ने अजीब-से लहजे में कहना चाहा।

"जरूरत पड़ने पर मैंने अपने काम के बंदों को तलाश कर लिया था। लेकिन इस बारे में तुम्हें इसलिये कुछ नहीं बताया कि कहीं तुम्हारी कोई हरकत, मेरी योजना न खराब कर दे।" कल्पना ने गम्भीर स्वर में कहा।

उलझे से हरबंस ने सिग्रेट सुलगाई।

“बेटी!" हरबंस गम्भीर था--- "तुम्हारी बात समझकर भी मैं, समझ नहीं पा रहा हूं। तुम क्या करना चाहती थीं?"

"मैं अपने मां-बाप की मौत का बदला लेना चाहती थी। सुखवंत राय को बरबाद करना चाहती थी। इस काम के लिए मैंने सुखवंत राय और उसके पूरे परिवार के बारे में जानकारी हासिल करके ही आगे कदम बढ़ाया था।”

“क्या, कैसे करना चाहती थी तुम? तुम्हारी योजना.....?"

"मोटे तौर पर इतना जान लो पापा कि मैं दीपाली को बुरे चरित्र वाली, नशेड़ी लड़की साबित करना चाहती थी। बुरे काम करती उसकी तस्वीरें और वीडियो फिल्म लेना चाहती थी।" दांत भींचे कल्पना कह रही थी--- “ये इत्तफाक ही रहा कि दीपाली को वास्तव में नशे की आदत पड़ गई।"

“फिर-फिर क्या करतीं तुम?"

कल्पना ने दांत भींचे गम्भीर निगाहों से हरबंस को देखा फिर कह उठी।

“शहर में सुखवंत राय की जो पोजिशन है, उसे देखते हुए मुझे पूरा विश्वास है कि वो कभी भी नहीं चाहेगा कि शहर वाले उसकी बेटी की भद्दी तस्वीरें देखें। अपनी इज्जत को खराब नहीं होने देगा। सब कुछ लुटा देगा।”

"हां, मुंहमांगा पैसा देगा और---?"

"सुनते रहो पापा।” कल्पना ने तीखे स्वर में कहा--- “तुम्हें तो पैसे के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं।"

हरबंस, कल्पना को देखने लगा।

"सुखवंत राय को बरबाद करने की योजना के साथ मैंने सोचा था कि, उसके बेटे सुरेश राय को भी फंसाना है। लेकिन ऐसा करने की मुझे कोई जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि मुझ जैसी खूबसूरत को देखकर, वो वैसे ही पागल हुआ पड़ा है। दीपाली की भद्दी तस्वीरें हासिल करने के पश्चात्, मेरी अगली योजना थी, सुखवंत राय के बेटे सुरेश राय के साथ बैड पर अपनी तस्वीरें तैयार करवाना। बहुत आसान काम है ये, सुरेश, मेरे से यही तो चाहता है। ऐसे में मेरे पास सुरेश और दीपाली की बुरी तस्वीरें होतीं। और उन दोनों की तस्वीरें जग जाहिर होने का मतलब है कि सुखवंत राय किसी को चेहरा दिखाने के काबिल भी न रहता। बेटी नशे में तरह-तरह के युवकों के साथ बैड पर लेटती है और बेटा घर की नौकरानी के साथ चरित्रहीनता का खेल खेलता है। बात खुलने पर मैं रो-रोकर पुलिस को कहती कि सुरेश ने मेरे साथ जबर्दस्ती की और जान से मारने की धमकी देकर मेरे से बलात्कार करता रहता था। पुलिस हर हाल में मेरी बात मानती और सुखवंत राय, ऐसी स्थिति में शायद आत्महत्या भी कर ले तो, कोई बड़ी बात नहीं। "

"ठीक कहा तुमने।" हरबंस ने गम्भीरता से सिर हिलाया--- “वैसे तुम्हारी योजना क्या थी?"

“सुरेश और दीपाली की चरित्रहीनता की तस्वीरें, सुखवंत राय के सामने रखकर उससे सौदा करना था मैंने कि सुरेश की शादी मेरे से कर दे नहीं तो ये तस्वीरें और वीडियो फिल्म, शहर के बच्चे-बच्चे के पास पहुंच जायेंगी।” कल्पना की आवाज में भरपूर सख्ती थी--- “मुझे पूरा विश्वास है कि सुखवंत राय फौरन मेरी बात कबूल कर लेता। सुरेश से मेरी शादी कर देता और मैं वहां की सारी दौलत अपने नाम कराकर, उनके सारे बिजनेस-धंधे अपने नाम कराकर, उन्हें सड़क पर धकेल देती। उनका सब कुछ मेरा होता। अपने मां-बाप की हत्या का मैंने ये बदला लेना था सुखवंत राय से। लेकिन सब कुछ बेकार हो गया। दीपाली, अमर की कैद से भाग निकली। ऐसे में अब वो अमर के हाथ न लगकर, सुखवंत राय के पास पहुंच गई तो फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा। वो, दीपाली पर हमेशा लिए गनमैन लगा देगा। तब दीपाली जहां भी जायेगी, सशस्त्र आदमियों के साथ जायेगी। उस स्थिति में उस पर हाथ नहीं डाला जा सकेगा।”

हरबंस की गम्भीर निगाह, कल्पना पर टिकी रही।

"क्या देख रहे हो पापा?"

"यही कि तुम इतनी बड़ी योजना पर काम कर रही हो मुझे खबर तक नहीं---!" हरबंस ने गहरी सांस ली।

"तुम्हें कुछ न बताने की वजह मैं बता चुकी हूं।" कहते हुए कल्पना ने आंखें बंद कर लीं।

"अमर को इस काम में क्या मिलना था?" हरबंस ने पूछा।

"दीपाली की भद्दी तस्वीरें और वीडियो फिल्म मेरी होनी थी और उसने दीपाली के बदले सुखवंत राय से तगड़ी फिरौती लेनी थी।" हरबंस ने सिकुड़े होंठों में दबाकर सिग्रेट सुलगाई। कश लिया।

कुछ देर उनके बीच खामोशी रही ।

“ये विजय बेदी कौन है?” कल्पना ने आंखें खोलते हुए एकाएक पूछा।

हरबंस ने कल्पना को देखा।

"तुम्हें विजय के बारे में किसने बताया ?"

“अमर ने। फोन पर बात हुई थी उससे। दीपाली इस वक्त विजय बेदी के पास है?"

"मालूम नहीं।" हरबंस के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे--- “दोनों इकट्ठे हो भी सकते हैं। नहीं भी हो सकते। मुझे ये खबर नहीं है कि वे कहां हैं। रात उन्हें सड़क पर छोड़कर सोफिया के यहां दारू पीने चला गया था।"

"अमर ने बताया कि दीपाली ने जो कपड़े पहने हुए थे, वो यहां मिले। वो मेरे कपड़े पहनकर चली गई है। रात भर वो यहां रही। लेकिन पूछने पर भी तुमने उसे नहीं बताया कि वो यहां है।"

"मुझे खुद नहीं मालूम था। विजय के पास ताले की दूसरी चाबी थी।" हरबंस ने गम्भीर स्वर में कहा।

"इस ताले की दूसरी चाबी है ही नहीं पापा।" कल्पना बोली--- "अब ये मत कहना कि दूसरी चाबी तैयार करवा ली थी।"

हरबंस ने कल्पना को देखा। कहा कुछ नहीं।

"तुमने विजय और दीपाली को क्यों बचाया पापा ?”

“तब मुझे नहीं मालूम था कि वो सुखवंत राय की बेटी है। तब मुझे नहीं मालूम था कि, इस मामले से तुम्हारा भी कोई वास्ता है। मैं यूं ही उस लड़की को अमर जैसे इन्सान के हवाले नहीं करना चाहता था। मेरे से ज्यादा विजय इस बात के लिए पक्का था कि वो लड़की को बदमाशों से बचायेगा। उसने ही बचाया दीपाली को । मैंने तो इस मामले में अन्जाने में उसकी जरा सी सहायता की थी।"

कल्पना की निगाह हरबंस पर थी।

“अगर तुमने मुझे बता रखा होता कि सुखवंत राय के यहां तुम किस चक्कर में हो तो फिर मुझे दीपाली को बचाने को लेकर, अवश्य दोषी ठहरा सकती थीं।" हरबंस का स्वर शांत था।

"अब दीपाली और विजय बेदी कहां हैं?"

"मालूम नहीं।"

"अमर का कहना है कि, उनके बारे में तुम झूठ बोल रहे हो। उन्हें बचा रहे हो।"

"वो जो भी बकवास करता रहे, मैं उसकी परवाह नहीं करता।" हरबंस ने मुंह बनाकर कहा।

"विजय बेदी है कौन ?"

"मैं उसके बारे में, उसके नाम के अलावा कुछ नहीं जानता । वो किस शहर से आया है। किस शहर में जाना था उसने। कुछ भी नहीं मालूम। उसके बारे में मैं सिर्फ इतना जानता था कि उसके पास नोट है। और रहने की जगह नहीं है। मैंने उसे यहां रख लिया। वो अपने नोटों से मुझे व्हिस्की पिलाने लगा।" हरबंस मुस्करा पड़ा।

"पापा!" कल्पना ने गम्भीर स्वर में कहा--- “अगर दीपाली हाथ लग जाये तो मेरा बिगड़ा काम संवर सकता है।"

"मैं कोशिश करूंगा उसे ढूंढने की।" हरबंस ने सिर हिलाया।

"कब तक ढूंढ लोगे?"

"तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे मैं जानता होऊं कि वो कहां है।" हरबंस हौले से हंसा--- "अमर और उसके आदमी उन दोनों को नहीं ढूंढ पा रहे तो मैं कैसे ढूंढ लूंगा। इत्तफाक से वो मिल गये तो गर्दन पकड़कर ले आऊंगा।"

“पापा!" कल्पना मुस्कराई--- “अगर मैं अपनी योजना में कामयाब होती हूं तो तुम्हारी जिन्दगी भी मजे से बीतेगी। तुम सुखवंत राय के बंगले में रहोगे। ऐश करोगे और---।"

“इतने बड़े सपने मत दिखाओ। डर लगता है।" हरबंस हँसा--- "मैं गरीब, सादा सा बंदा हूं। मजबूरी में सारी जिन्दगी चोरी-चकारी करता रहा। सुखवंत राय का बंगला, मेरे लिए ज्यादा बड़ा रहेगा। ये छोटा सा मकान मुझे ज्यादा अच्छा लगता है, जहां मेरी सारी जिन्दगी बीत गई।"

"तुम्हें पैसे की कमी नहीं रहेगी पापा, अगर मेरी योजना कामयाब हो गई।” कल्पना ने कहा।

"लेकिन मुझे तो तुम्हारी सफलता नजर नहीं आ रही बेटी। दीपाली का हाथ लगना अब आसान न हो।" हरबंस ने सोच भरे स्वर में कहा--- “उसके साथ विजय है जो उसे बचा रहा है।"

"विजय कैसा इन्सान है? करता क्या है?"

"मुझे नहीं मालूम वो क्या करता है और कैसा इन्सान है।"

हरबंस पुनः मुस्कराया--- "मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि वो कोई काम नहीं करता था और जेब में नोट भरे पड़े थे।"

"मतलब कि कोई गलत काम करता है।"

"भगवान ही जाने क्या करता है अपने बाप का ताजा-ताजा क्रिया क्रम करके भी आया हो सकता है!” हरबंस ने लापरवाही से कहा। उसका मस्तिष्क तेजी से चल रहा था। अब नये हालात उसके सामने आये थे कि दीपाली के मामले में उसकी मुंह बोली बेटी कल्पना जुड़ी हुई थी और उसे खबर तक नहीं थी। अब भी कल्पना ने इसलिए ये सब बताया कि अगर वो दीपाली के बारे में जानता हो तो बता दे। ये हालात पैदा न होते तो, कल्पना अब भी उसे न बताती कि सुखवंत राय के यहां किस चक्कर में है। ऐसे में कल्पना पर किसी भी तरह का भरोसा करना ठीक नहीं था। अमर उसके साथ था। दीपाली को हाथ लगा पाकर, क्या मालूम दोनों उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल दें। कल्पना, अपनी इतनी बड़ी योजना से उसे दूर रख सकती है। उसे हवा तक नहीं लगने दी तो वो, कुछ भी कर सकती है। अपने तक दगा दे जाते हैं। कल्पना तो फिर भी मुंह बोली बेटी है।

“क्या सोच रहे हो पापा ?" कल्पना ने हरबंस को देखा।

“बेटी, शाम हो रही है। मैं डिनर पैक करा लाता हूं और अपने लिए बोतल भी।” हरबंस उठता हुआ बोला--- “तुम नहा-धो लो। चेंज कर लो। चाय का मन हो तो बना लेना। दरवाजा बंद कर लो।" कहने के साथ ही हरबंस ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला और बाहर निकल गया।

■■■

शाम का अंधेरा फैल रहा था।

हरबंस लिफाफों में डिनर और बोतल लिए पैदल ही अपने घर की तरफ आ रहा था। मस्तिष्क में कई तरह की सोचें गुड़मुड़ हो रही थीं। उसके दिल को बहुत तकलीफ पहुंची थी, ये जानकर कि कल्पना अपनी योजना पर, सुखवंत राय के खिलाफ काम कर रही थी और उसे अपनी योजना से बेखबर रखा। अमर जैसे दादे को अपने साथ मिला रखा था, जिसका वास्ता सोफिया जैसी बदमाश औरत से भी है।

वो ही अंजान रहा, इन सब बातों का।

कल्पना ने उसे कुछ भी नहीं बताया।

तेरह-चौदह बरस की थी कल्पना। जबसे उसने, उसे सहारा दिया। अपने घर पर रखा। बेटी की तरह उससे व्यवहार किया। कभी भी उसे पराया नहीं समझा। उसका बाप बनकर रहा।

लेकिन कल्पना ने उस पर भरोसा नहीं किया। अपनी योजना खुद ही बनाई । अमर जैसे दादे को जाने कैसे इस काम के लिए तैयार किया। अपने मामले से, कल्पना ने उसे बेगानों की तरह दूर रखा। ठीक ही तो है। वो उसका लगता ही क्या है? कुछ भी नहीं। जब तक कल्पना को मतलब था, उसके साथ रहकर अपना वक्त निकाल लिया और अब अपना असल चेहरा दिखा दिया था।

हरबंस मन ही मन सोच चुका था कि कल्पना पर वो भरोसा नहीं करेगा।

कल्पना भरोसे के लायक है ही नहीं।

वो तो जानता था कि विजय और दीपाली कहां है। लेकिन इस बारे में किसी को बतायेगा नहीं। वो अपने तौर पर ही सोचेगा कि इस मामले में क्या करना है?

तभी हरबंस को लगा, उसके पास ही कोई है।

वो फौरन सोचों से बाहर निकला। ठिठका। तीन आदमियों को अपने पास पाया। इस वक्त वो सड़क के किनारे एक गली के पास था। वो तीनों विनोद कुमार के असिस्टेंट थे और हरबंस उन्हें नहीं जानता था।

तीनों पर निगाहें मारने के बाद हरबंस ने आंखें सिकोड़कर कहा।

"क्या है ?"

“गली में चल ।” एक ने कठोर स्वर में कहा।

हरबंस ने गली में निगाह मारी। मन ही मन सतर्क हुआ।

"क्या मतलब?" हरबंस के होंठों से निकला ।

एक ने उसे रिवाल्वर की झलक दिखाई और वापस जेब में डाल लिया।

“जो मैंने दिखाया, पहचानता है उसे?” रिवाल्वर दिखाने वाले ने होंठ भींचकर कहा।

हरबंस ने उसे गहरी निगाहों से देखते हुए, हौले से सिर हिलाया।

“पहचानता हूं।"

"तो ये भी जानता होगा कि सामने वाला बात न माने तो ये क्या करती है। चल गली में।”

उनकी बात मानने के अलावा, दूसरा रास्ता नहीं था इस वक्त।

तीनों के साथ हरबंस गली के भीतर पहुंचा। गली में लोगों का आना-जाना कम ही था।

अभी-अभी एक आदमी-औरत वहां से निकल कर गये थे।

"क्या चाहते हो तुम लोग?" हरबंस ने ठिठकते हुए पूछा ।

उन्होंने हरबंस को धकेला और दीवार के साथ सटा दिया।

*बेटे!" टण्डन जो अब तक खामोश था, सख्त स्वर में कह उठा--- "हम तेरे बाप के बाप हैं। हमसे चालाकी करने की कोशिश मत करना। जो पूछें, रटे तोते की तरह बोलते जाना।"

हरबंस की निगाह टण्डन पर जम गई। लिफाफा अभी भी हाथ में थाम रखा था।

"दीपाली को अमर के लोगों से, कल रात तुमने और विजय बेदी ने बचाया?" टण्डन ने पूछा ।

"गुनाह कर दिया क्या?" हरबंस तीखे स्वर में कह उठा।

"सीधी तरह जवाब दे। गुनाह किया होता तो अब तक तेरे को गोलियों से भून दिया होता।"

"अपने बारे में बता दो तो शायद मुझे जवाब देने में आसानी---।"

"हमारे बारे में सोचना छोड़ दे। तू बेशक परेशानी से जवाब दे या आसानी से दे, लेकिन दे। बोल।" टण्डन ने दांत भींचकर कहा।

दीपाली को मैंने और विजय बेदी ने ही बचाया था।" हरबंस ने तीनों पर निगाह मारी।

"दीपाली इस वक्त कहां है?"

"विजय के साथ होगी शायद ।"

"विजय कहां है?"

"मालूम नहीं।"

तभी टण्डन का हाथ उठा और हरबंस के गाल से जा टकराया।

हरबंस का सिर झनझना उठा। चांटा जोरदार था।

"ध्यान से।" हरबंस ने संभले-शांत स्वर में कहा--- “मेरी बोतल मत तोड़ देना।" कहने के साथ ही हाथ में पकड़े लिफाफों को उसने दीवार के साथ नीचे रखा फिर बोला--- "मुझे विजय के बारे में नहीं मालूम कि---।"

दूसरे ने रिवाल्वर निकाली और हरबंस के पेट से लगा दी।

हरबंस ने उसे देखा।

"हम तेरे से झूठी बकवास सुनने नहीं आये।" उसने खा जाने वाले स्वर में कहा।

"मैं सच कह---।"

"सच बोल ।" टण्डन ने खा जाने वाले स्वर में कहा--- “वरना---।"

"मेरे भाई। मेरे यार। मेरे सब कुछ।" हरबंस गहरी सांस लेकर कह उठा--- "रिवाल्वर मेरे से लगा रखी है। ऐसे में क्या मैं नहीं जानता कि झूठ बोलने का क्या नतीजा हो सकता है। मैं सच कह रहा हूं कि कल आधी रात के बाद से दीपाली और विजय की कोई खबर नहीं है। विजय, दीपाली को अमर के आदमियों से बचाकर, उसे साथ लेकर चला गया था और मैं सोफिया के दारूखाने पर जाकर पीने लगा। ज्यादा पी ली तो वहीं रहा रात भर---। सुबह होश आने पर घर आया। विजय-दीपाली वहां भी नहीं थे। अमर भी उनके बारे में पूछने आया था। अब जाने तुम लोग कौन हो जो उनके बारे में पूछ रहे हो। लेकिन सच में मैं नहीं जानता कि वो दोनों कहां हैं।"

तभी गली में से एक आदमी निकला। उसने हरबंस के पेट से लगी रिवाल्वर देखी तो हड़बड़ा सा उठा। पल भर के लिए आंखें फाड़े ठिठका तो हरबंस मुंह बनाकर कह उठा।

"देखता क्या है। फूट यहां से। आपस का मामला है।"

वो व्यक्ति घबराये ढंग में जल्दी से गली पार करता चला गया।

"तो तुम नहीं जानते कि इस वक्त विजय और दीपाली कहां हैं?" टण्डन ने उसे घूरा।

"नहीं। लेकिन मेरा ख्याल है विजय, दीपाली को लेकर कहीं छिप गया है।" हरबंस बोला--- "क्योंकि वो अमर के आदमियों को भी नहीं मिल रहा। वो दोनों को होटलों में ढूंढते फिर रहे हैं।"

"विजय बेदी की असलियत क्या है?"

"मालूम नहीं। सोफिया के बॉर में मिला। अपने बारे में कुछ नहीं बताया। पट्ठे के पास तगड़े नोट थे। मेरे ख्याल में कहीं से तगड़ा हाथ मारकर आया था।"

“कहां से?"

"मालूम नहीं। लेकिन उसने इतना बताया था कि इस शहर में वो अजनबी है।"

"ये भी नहीं बताया कि वो किस शहर से आया है? सच बोल वरना---।"

वो तीनों विजय को लेकर हरबंस से दस मिनट तक पूछताछ करते रहे।

लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

हरबंस वास्तव में बेदी के बारे में कुछ नहीं जानता था। उसके सिर में फंसी गोली और उसकी छः लाख की जरूरत के बारे में जानता था, परन्तु इस बारे में बताने की उसने जरूरत नहीं समझी।

"कल्पना तुम्हारी बेटी है?"

"हां। मुंह बोली बेटी है। छोटी थी जब सड़क पर रोती मिली तो अपने साथ ले आया। बेटी की तरह रखा। पाल-पोसकर बड़ा किया।" हरबंस की निगाह, टण्डन के चेहरे पर जा टिकी थी।

"वो सुखवंत राय के यहां काम करती है ?"

“हां। बोझ उतरा मेरे सिर से कि अपने रास्ते लग गई। दो पैसे कमाने लगी। देर-सबेर में ब्याह भी खुद ही कर लेगी। मेरे पास तो पैसे हैं नहीं कि उसका ब्याह कर सकूं।" हरबंस का लहजा सामान्य था ।

"कल्पना कुछ देर पहले ही तेरे पास पहुंची है?"

"हां।"

"उसने तेरे को बताया कि दीपाली का किसी ने अपहरण कर---?"

"बताया। दीपाली के अपहरण को लेकर बेचारी बहुत परेशान है। मैंने उसे बताया कि रात मैंने ही विजय के साथ मिलकर दीपाली को बदमाशों से बचाया था, लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि वो सुखवंत राय की बेटी दीपाली है। मालूम होता तो उसी वक्त उसे बंगले पर पहुंचा देता।" हरबंस बोला।

टण्डन उसे देखता रहा।

"मैंने जो कहा है। सच कहा है।" हरबंस कह उठा--- “इस सारे मामले से मेरा खामखाह का वास्ता है। विजय को मैं नहीं जानता। वो यूं ही मिल गया था। रात दीपाली को इत्तफाक से अमर के बदमाशों से बचाया। अब विजय-दीपाली कहां हैं। मुझे उनकी हवा तक नहीं। दिन में अमर, उन दोनों की पूछताछ करते हुए मेरी ठुकाई कर गया और अब तुमने चांटा लगा दिया। रिवाल्वर से मुझे दबा रखा है। मानता हूं कि चोरी-पॉकेटमारी मेरा धंधा है। अब तो वो भी ठीक से नहीं हो पाता। वैसे मैं खराब बंदा नहीं हूं।”

"रिवाल्वर वापस रख लो।" टण्डन ने कहा ।

दूसरे ने हरबंस के पेट से रिवाल्वर हटाई और जेब में रख ली।

"क्या ख्याल है, विजय दीपाली के साथ कहां हो सकता है?" टण्डन के स्वर में कोई भाव नहीं था।

"इस शहर में उसका कोई ठौर-ठिकाना तो है नहीं।" हरबंस ने कहा--- "मेरे ख्याल में वो किसी होटल में छिपा होगा। कोई बड़ी बात नहीं कि दोनों अमर के आदमियों के हाथों में लग जायें। वो होटलों में ही उन दोनों को तलाश कर रहे हैं।"

“जाओ। तुम।" टण्डन का स्वर शांत था।

"जाऊं। बस?" हरबंस हड़बड़ाकर कह उठा।

“जाओ।"

हरबंस ने नीचे रखे लिफाफे उठाये और बोला ।

"अपने बारे में नहीं बताओगे कि तुम लोग कौन---?"

"सस्ते में छूट रहा है।" टण्डन ने सख्त स्वर में कहा--- "खिसक लो यहां से।"

बिना बोले, लिफाफों को थामें हरबंस गली में तेजी से आगे बढ़ गया।

"मेरे ख्याल से हरबंस आधी बातें झूठ बोलकर गया है। वो---।"

"जानता हूँ।" टण्डन ने सिर हिलाकर कहा--- "लेकिन वो खेला-खाया आदमी है। उसके मुंह से बात निकलवानी आसान नहीं। और उस पर सख्ती करना, अभी मैं ठीक नहीं समझता। सर, ने कहा है कि अभी हालातों पर नजर रखनी है। हमें दीपाली की जरूरत है। इन लोगों से झगड़ा करने से बचना है।"

"ऐसा है तो अब हरबंस से बात करने का फायदा क्या हुआ ?"

"ये तो मालूम हो गया कि हरबंस ने हमसे सच नहीं बोला।" टण्डन ने कहा--- "हमारे दो आदमी बारी-बारी चौबीसों घंटे हरबंस पर नजर रखेंगे। शायद उसे मालूम हो कि विजय और दीपाली कहां छिपे हुए हैं।"

टण्डन द्वारा की गई पूछताछ से, हरबंस को इस बात का तो एहसास हो गया था कि कुछ और लोग भी इस मामले में हैं और मामला गम्भीर होता जा रहा है। उसे संभलकर चलना होगा और इस मामले में वो अपनी दिलचस्पी, दूसरे पर उजागर नहीं होने देगा।

घर पहुंचकर ऐसा ही किया उसने। कल्पना को नहीं बताया कि कुछ और लोग भी विजय और दीपाली के बारे में पूछताछ करते फिर रहे हैं।

■■■

“सर!" टण्डन ने विनोद कुमार को देखा--- "हरबंस से बात हुई। वो कुछ तो जानता ही है। लेकिन बता नहीं रहा। मेरे ख्याल में शायद वो ये भी जानता हो सकता है कि विजय और दीपाली कहां हैं।"

"विजय है कौन?"

"हरबंस कहता है कि उसके बारे में सिर्फ यही जानता है कि वो किसी दूसरे शहर से आया है। सोफिया के यहां उससे मिला और अपने घर रख लिया क्योंकि उसके पास रहने की जगह नहीं थी।"

"विजय इस शहर में नया है। उसके पास रहने को ठिकाना नहीं।" विनोद कुमार ने सोच भरे स्वर में कहा--- “हरबंस का घर वो छोड़ चुका है तो ऐसे में दीपाली के साथ वो कहां रहेगा?"

"शायद किसी होटल में।" टण्डन ने कहना चाहा।

"नहीं। विजय इतना बेवकूफ तो होगा नहीं कि दीपाली के साथ किसी होटल में रहे। वो सोच सकता है कि जो लोग दीपाली के पीछे हैं, वो होटलों की तलाशी भी ले सकते हैं।” विनोद कुमार ने टण्डन को देखा।

"आपका मतलब कि वो दीपाली साथ किसी घर में है।"

"हां टण्डन। वो ऐसी ही किसी जगह पर छिपा है। लेकिन ऐसी किसी जगह पर वो तभी छिप सकता है, जबकि इस शहर में उसका कोई जानने वाला हो। सहायता करने वाला हो और हमारी नजरों में ऐसा एक ही इन्सान है जो कि विजय के पास था या है। वो है हरबंस।"

"यानि कि हरबंस ने ही विजय और दीपाली को कहीं रखा हो सकता है।" टण्डन बोला।

"ऐसा हो तो कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी।" विनोद कुमार ने कहा--- "लेकिन ये जान कर मुझे बहुत ही अजीब लग रहा है कि हरबंस की मुंह बोली बेटी कल्पना, सुखवंत राय के यहाँ काम करती है। और वो कल्पना तब पास ही थी जब मैं रेवती से पूछताछ कर रहा था और अब वो कल्पना हरबंस के पास है। उसके घर पर है। और हरबंस की कुछ पहचान अमर से भी हैं, जिसने दीपाली का अपहरण किया है। अगर हरबंस ने दीपाली और विजय को कहीं रखा है तो आने वाले वक्त में किसी भी तरह के हालातों से हमारा सामना हो सकता है।"

“मामला तो वास्तव में उलझ रहा है सर!"

“ये मालूम होने पर कि कल्पना, सुखवंत राय के यहां काम करती है और हरबंस की बेटी है, इस मामले का रुख किसी भी तरफ पलट सकता है अगर कल्पना, दीपाली वाले मामले में शामिल है तो इस बारे में कल्पना से किसी तरह की पूछताछ करना, उसे सतर्क करना होगा अगर वो इस मामले में शामिल है तो।" विनोद कुमार गम्भीर था।

"अगर ऐसा है तो सर, फिर इस मामले में हम क्या करेंगे-- हम---।"

"अमर पर नजर रखी जा रही है। उसके आदमियों पर नजर रखी जा रही है। कल्पना पर आदमी लगवा दो।"

"ठीक है सर!" टण्डन बोला--- "मैंने हरबंस पर भी दो की ड्यूटी लगा दी है। बारी-बारी वो हरबंस पर नजर रखेंगे। अगर दीपाली-विजय को उसने कहीं छिपाया है तो वो, उनके पास अवश्य जायेगा।"

"याद रखो, हमें दीपाली चाहिये। और किसी बात से कोई मतलब नहीं।"

"यस सर! इस मामले में मैं यही सोचकर आगे बढ़ रहा हूं।" टण्डन ने सोच भरे स्वर में कहा--- “क्या सुखवंत राय को कल्पना के बारे में मालूम होगा कि कल्पना, हरबंस जैसे इन्सान की मुंह बोली बेटी---।"

“मेरे ख्याल में सुखवंत राय को इस बात की जानकारी नहीं हैं। अगर होती तो वो ऐसी बैंक ग्राऊण्ड वाली लड़की को अपने यहां नौकरी नहीं देता।” विनोद कुमार ने टण्डन को देखा--- "यानि कि ये बात तो स्पष्ट है कि कल्पना ने अपना असली परिचय छिपाकर सुखवंत राय के यहां नौकरी की है और ये बात कल्पना को पूरी तरह सन्देह के दायरे में लाती है। इस बारे में मैं सुखवत राय से बात करूंगा। तुम इस पूरे मामले पर नजर रखते हुए अपन आदमियों को वॉच करते रहो कि वो ठीक काम कर रहे है। बहुत जल्द कोई नतीजा सामने आयेगा।"

■■■

अगले दिन सुबह हरबंस उठा तो, सुबह के नौ बज रहे थे। कल्पना ने घर की काफी हद तक सफाई कर दी थी। वो अपने पुराने कपड़ों में थी। जो यहां छोड़ रखे थे।

"चाय बना दे।" हरबंस ने कहा। उसे याद था कि रात बोतल खाली होने तक पीता रहा था। खाना भी नहीं खाया और सो गया था। जब वो नशे में था तब कल्पना ने कई बार घुमा-फिरा कर उससे विजय और दीपाली के बारे में पूछा था। लेकिन इस बारे में वो सतर्क था कि उनके बारे में कुछ नहीं बताना और यही कहता रहा कि उसे नहीं मालूम वो दोनों कहां है। यही पूछने के लिए तो कल्पना ने पीने से उसे नहीं रोका और वो पीता गया।

कल्पना चाय ले आई।

"तुमने आज वापस जाना है। चाय का गिलास थामते हुए हरबंस ने पूछा।

"देखूंगी।" कल्पना ने लापरवाही से कहा--- "आराम का मन है। वहां काम करना पड़ता है। वैसे भी जिस काम के लिए मैं सुखवंत राय के यहां थी, वो काम तो मुझे पूरा होता नजर नहीं आता।"

"जो तेरे मन में आये कर। एक घंटे तक नाश्ता बना देना।" हरबंस ने चाय का घूंट भरा--- "बाहर जाकर तलाश करूंगा कि विजय और दीपाली कहां हो सकते हैं। शायद कोई खबर मिले उनकी।"

हरबंस को गये एक घंटा हुआ होगा कि अमर वहां पहुंचा।

"खबर मिली कि तुम यहां हो।" अमर ने कहा--- "तो आ गया। हरबंस ने बताया कुछ ?"

"उससे कोई काम की बात नहीं मालूम हो पाई।" कल्पना ने उखड़े स्वर में कहा--- "शायद वो इस मामले से उतना ही वाकिफ है, जितना कि बताता है। तुमसे एक लड़की नहीं संभाली गई।"

"दीपाली के कैद से निकल जाने का मुझे वास्तव में दुःख है।" अमर ने व्याकुल स्वर में कहा--- "दीपाली अगर हाथ से न निकली होती तो अब तक करोड़ों रुपया मैं सुखवंत राय से झाड़ चुका होता। खरा नुकसान हुआ है मेरा।"

कल्पना, उखड़ी निगाहों से अमर को देखती रही।

“सुखवंत राय क्या कर रहा है इस मामले में? पुलिस में रिपोर्ट---?"

"नहीं। पुलिस को तो खबर नहीं की दीपाली के अपहरण के बारे में। लेकिन प्राईवेट जासूस विनोद कुमार को दीपाली की तलाश का काम सौंपा है। और वो माना हुआ जासूस है।" कल्पना ने शब्दों पर जोर देकर कहा।

“नाम सुन रखा है उसका।"

“दीपाली के मिलने में जितनी देर होती जा रही है, खतरा उतना ही बढ़ता जा रहा है।" कल्पना गम्भीर स्वर में बोली--- “सुखवंत राय ज्यादा देर चुप नहीं बैठेगा। देर-सवेर में पुलिस को खबर अवश्य करेगा।"

“मेरे आदमी ढूंढ रहे हैं दीपाली को। वो---।”

“दो दिन होने को आ रहे हैं और तुम्हारे आदमी कुछ नहीं कर--- ।"

"उस हरामजादे विजय ने सारा मामला खराब किया है। जो कि अब दीपाली को लेकर कहीं छिप गया है। वो मेरे आदमियों के हाथों से ज्यादा देर दूर नहीं रह सकता। कभी भी उसके और दीपाली के हाथ लगने की खबर आ सकती है। सोफिया ने भी अपने आदमी इसी काम पर लगा रखे हैं।"

"सोफिया?" कल्पना की निगाह अमर पर जा टिकी।

“तुम्हारा सोफिया से कोई मतलब नहीं। वो मेरे साथ है। वो ही है, जिसने विशाल नाम के लड़के को आगे करके दीपाली को फांसा और उसे धीरे-धीरे ड्रग एडिक्ट बनाया। वो भी इसी मामले में हाथ डाले हुए थी। अब हम दोनों साथ हैं। सुखवंत राय से जो रकम मिलेगी, वो हम में आधी-आधी होगी।" अमर बोला।

कल्पना ने अमर की आंखों में झांका।

"तुम क्या करते हो, मेरा इससे कोई मतलब नहीं! लेकिन इतना याद रखो कि दीपाली की तस्वीरें वीडियो फिल्म सिर्फ मुझे चाहिये। एक तस्वीर भी किसी के पास न रहे।" कल्पना का स्वर कठोर हो गया था।

“चिन्ता मत करो। जो बात हममें तय हुई है, वो याद है हमें।" अमर बोला--- “लेकिन एक बात मुझे समझ नहीं आती कि तुम्हें मेरे से डर नहीं लगता। मुझसे भी तुम सख्ती भरे ढंग से बात करती हो। कौन है तुम्हारे पीछे?"

"अब तुम बेकार की बातों पर उतर आये हो।" कल्पना ने अमर की आंखों में झांका--- "मेरे आगे-पीछे कौन है, ये जानने की जरूरत नहीं। और यहां बैठकर तुम वक्त बरबाद कर रहे हो। दीपाली की तरफ ध्यान दो।"

"तुम कब तक यहां हो?" अमर ने उठते हुए पूछा।

"मालूम नहीं। दीपाली के निकल जाने की वजह से मैं परेशान हूँ। कुछ समझ नहीं पा रही कि क्या करूं, क्या न करूं।"

"दीपाली मिल जायेगी। तुम्हारी परेशानी जल्दी ही दूर हो जायेगी। चलता हूं।" कहने के साथ ही अमर बाहर निकल गया।

■■■

हरबंस जब घर से निकला था तो ग्यारह बज रहे थे। जब से उसे मालूम हुआ था कि कल्पना और अमर किसी फेर में है, तो तब से ही वो उधेड़-बुन में लगा हुआ था और जब अपनी सोचों के नतीजे पर पहुंचा तो बेदी से मिलने की जरूरत महसूस होने लगी। लेकिन हरबंस को इस बात का एहसास था कि अमर के आदमी उस पर नजर रखते हो सकते हैं। इस बारे में वो सतर्क था। इसी वजह से घर से पैदल ही आगे बढ़ता रहा और पन्द्रह मिनट में उन दो को पहचान लिया था जो उसके पीछे आ रहे थे।

दोनों अलग-अलग थे।

एक को तो उसने स्पष्ट पहचान लिया था कि वो अमर का आदमी है। लेकिन दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था। वो अच्छे कपड़ों में था और खाता-पीता, शरीफ लग रहा था। दो मिनट की सोच के पश्चात् ही हरबंस इस नतीजे पर पहुंच गया था कि दूसरा वाला, उन लोगों का साथी हो सकता है, जो कल शाम उसे घेरकर, विजय बेदी और दीपाली के बारे में पूछताछ कर रहे थे।

बहरहाल उन दोनों को पीछे लगा पाकर उसने बेदी के पास जाने का इरादा छोड़ दिया और बस स्टॉप पर जा खड़ा हुआ। कुछ देर बाद वो दोनों भी धीरे-धीरे बस स्टॉप पर आ खड़े हुए थे।

तभी बस आई तो हरबंस बस में जा चढ़ा। वो दोनों भी बस के भीतर आ गये। टिकट लेने के पश्चात् हरबंस अगले बस स्टॉप पर उतरा तो वो दोनों भी उतर गये।

हरबंस ने सिग्रेट सुलगाई और आराम से सिग्रेट समाप्त की इस दौरान कई बसें आई और कई गई। स्टॉप पर और लोग भी खड़े थे। पर्याप्त चहल-पहल थी। हरबंस समझ नहीं पा रहा था कि इन दोनों से कैसे पीछा छुड़ाये। दोनों अलग-अलग ढंग से उस पर नजर रख रहे थे। तभी बस आई तो हरबंस बस पर चढ़ा। वो दोनों भी चढ़ गये। हरबंस सीट पर जा बैठा। उन दोनों की तरफ देखने की चेष्टा नहीं की कि वो कहां बैठे हैं।

करीब एक घंटे बाद जब बस का आखिरी स्टॉप आया तो हरबंस उतरा। दोनों भी नीचे उतरे। हरबंस ने लापरवाही भरे ढंग से उन्हें देखा और सामने नजर आ रहे ढाबे की तरफ बढ़ गया। लंच का वक्त हो रहा था और उसे भूख लग रही थी।

ढाबे में एक टेबल पर हरबंस बैठा। छोकरे को खाने का आर्डर दिया। वो दोनों भी अलग-अलग टेबलों पर बैठ गये थे। हरबंस ने आराम से खाना खाया। उन दोनों ने भी खाना खाया। हरबंस महसूस कर चुका था कि इन दोनों से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं।

खाना खाने के बाद, बाहर आकर उसने बस पकड़ी। वापस घर आ गया। दोनों घर तक उसके पीछे-पीछे आये थे। हरबंस यही सोच रहा था कि इन लोगों की नजरों से बचकर कैसे विजय तक पहुंचे?

"बहुत जल्दी वापस आ गये?" कल्पना ने पूछा।

"हां बेटी!" हरबंस मुस्कराया--- "कभी जल्दी, कभी देर से। मेरा कोई काम तो है नहीं।"

“तुम तो पापा, विजय और दीपाली को ढूंढने गये थे कि---।"

“हां। लेकिन थकान सी महसूस हो रही थी। एक घंटा आराम करके जाऊंगा। खाना खा लिया?"

"नाश्ता लेट किया था। अभी खाने का मन नहीं है।" कहने के साथ ही कल्पना कुर्सी पर जा बैठी।

■■■

“सर!" टण्डन बोला--- “पहली खबर तो ये कि अमर, हरबंस के घर गया था। तब हरबंस घर पर नहीं था। अमर, कल्पना के पास करीब आधा घंटा रहा।"

“इसका मतलब अमर और कल्पना में पहचान है।" विनोद कुमार के होंठ सिकुड़े---  "इससे ये बात भी स्पष्ट होती है कि दीपाली के अपहरण में, कल्पना भी अमर के साथ है।"

"वो कैसे साथ हो सकती है?"

"भीतर की खबरें अमर को देती रहती होगी कि जिससे अमर का काम आसान हो गया।” विनोद कुमार ने कहा--- "बंगले पर रहकर कल्पना कई तरह से, अमर की सहायता कर सकती है। अमर का आधा घंटा, हरबंस की गैरमौजूदगी में कल्पना के पास रहना, कई बातों को स्पष्ट करता है।"

"दूसरी खबर ये है कि हरबंस जब ग्यारह बजे घर से निकला तो उसे अपना पीछा होने के बारे में पता चल गया था। हमारे आदमी के अलावा, कोई और भी हरबंस के पीछे था, जो कि अमर का आदमी हो सकता है। बहरहाल हरबंस यूं ही बसों पर घूमकर दो-तीन घंटे में वापस अपने घर आ गया। मतलब कि वो कहीं जाना चाहता था, परन्तु अपना पीछा होते देख, वहां नहीं गया। मेरे ख्याल में हो सकता है वो वहां जाना चाहता हो, जहां विजय और दीपाली हों। उसका इस तरह वापस आना तो यही साबित करता है।"

"तुम्हारा ख्याल ठीक हो सकता है। हरबंस पर निगरानी सख्त कर दो।"

"राईट सर!।"

“अपने आदमी से कह दो कि, अमर के आदमी से दूर रहे। अपना रास्ता अलग रखे।"

टण्डन ने सिर हिलाया।

"दीपाली जहां भी है, सुरक्षित है।” विनोद कुमार सोच भरे स्वर में कह उठा--- "विजय शायद दीपाली को अमर के लोगों से बचाये हुए है। ये हमारे लिए अच्छी बात है।"

"सर, एक बात मेरे मस्तिष्क में खटक रही है।" टण्डन बोला।

"कहो।"

“अमर-कल्पना एक है। ये बात तो काफी हद तक स्पष्ट हो गई। कल्पना का पूरा हाथ हो सकता है कि दीपाली के अपहरण में उसने अमर की सहायता की हो। इधर हम हरबंस के बारे में ये सोच रहे हैं कि उसने विजय और दीपाली को कहीं छिपाया हो सकता है। ऐसा है तो हरबंस ने कल्पना को, दीपाली के बारे में बताया क्यों नहीं कि वो कहां है। अगर बताया होता तो अमर के आदमी अभी भी दीपाली की तलाश में भागदौड़ न कर रहे होते।"

“ये सब हमारी सोचें हैं। सोचों की कड़िया हैं। जिन्हें हम मिला रहे हैं। अपने ही सवालों का जवाब हमें खुद-ब-खुद मिलता चला जायेगा। हम सब हालातों पर निगाह रखे हुए हैं।" विनोद कुमार ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया--- “इन्हीं सोचों में ये भी जोड़ लो कि अगर हरबंस, जानता है कि विजय और दीपाली कहां है और उसने कल्पना को नहीं बताया तो समझो हरबंस अपना ही कोई चक्कर चलाना चाहता है। ऐसे में हरबंस जल्दी ही विजय के पास जायेगा, ताकि जो उसने सोचा है, वो पूरा कर सके।”

"ओह!"

"सुखवंत राय से मेरी बात हुई थी कल्पना के बारे में। उसका कहना है कि कल्पना की सिफारिश उनके किसी पहचान वाले ने की थी। कल्पना के बारे में कोई जांच-पड़ताल नहीं की गई।" विनोद कुमार ने कहा--- "ऐसे में इस बात की संभावना बढ़ जाती हैं कि वो अमर से मिली हुई है।"

टण्डन सिर हिलाकर रह गया।

"हालातों पर नजर रखो टण्डन ! सब सामने आ जायेगा।" सोचों में घिरा विनोद कुमार बोला।

■■■

हरबंस दो घंटे बाद घर से बाहर निकला।

शाम के पांच बज रहे थे। मन में ये बात पक्की कर चुका था कि जो भी उस पर नजर रख रहा है, उससे हर हाल में पीछा छुड़ाकर, विजय से मिलना है। कल्पना से ये कहकर निकला था कि सोफिया के बार में दारू पिएगा और जल्दी वापस आ जाएगा।

घर से बाह निकलने के कुछ देर बाद ही उसकी नजरों ने उन दोनों आदमियों को पा लिया जो कि पर्याप्त फासला रखकर, उसके पीछे आने लगे थे। उनकी परवाह किए बिना सड़क पर पहुंचकर वहां जाते ऑटो को रोका और भीतर बैठ गया। ऑटो आगे बढ़ गया। हरबंस ने उन दोनों व्यक्तियों को अलग-अलग दिशाओं की तरफ भागते देखा। जाहिर है वो अपने-अपने वाहनों की तरफ गये होंगे, जो पास ही होंगे।

"इधर लेना।" हरबंस बोला--- “जल्दी।"

हरबंस ने पास की गली की तरफ इशारा किया तो ऑटो वाले ने ऑटो को गली में मोड़ दिया।

आगे गलियों का जाल था। हरबंस ऑटो को गलियों की गहराई में ले जाता रहा।

“सुन।" हरबंस पचास का नोट निकालकर उसे थमाता हुआ बोला--- "मैं ऑटो छोड़ रहा हूं। तू पन्द्रह मिनट तक इन गलियों से बाहर नहीं निकलेगा। खड़ा कर ले कहीं ऑटो को। तेरा पांच रुपये का भी पैट्रोल नहीं लगा। पैंतालीस रुपये ऊपर दे रहा हूं। समझा?"

"समझ गया साहब!" ऑटो ड्राईवर ने नोट लेकर ऑटो गली के किनारे रोका--- “खास चक्कर है क्या?"

"बेकार का चक्कर है।" हरबंस मुंह बनाकर ऑटो से बाहर निकलता हुआ बोला--- “अब ये बुढ़ापा क्या इश्क करने का है। बीवी यूं ही शक करती है। अपने दो भाईयों से मेरा पीछा कराती है।"

"कराने दो। इश्क नहीं तो डर किस बात का?" ऑटो ड्राईवर बोला ।

"तेरी बात तो ठीक है।" हरबंस ने मुस्कराकर कहा--- "लेकिन कभी-कभी तो करना ही पड़ता है।"

"क्या?"

"सोचता रह। समझ जायेगा।" कहने के साथ ही हरबंस आगे बढ़ गया।

ये गलियों का जाल, हरबंस के लिए जाना-पहचाना था। वो तेजी से आगे बढ़ने लगा। उसे पूरा विश्वास था कि पीछे लगे दोनों व्यक्ति उसके धोखे में आ चुके हैं। वो अपने वाहनों तक भी नहीं पहुंचे होंगे कि उसका ऑटो सड़क छोड़कर गलियों में पहुँच गया था। अब वो दोनों सड़क पर ही उसे और उस ऑटो को ढूंढ रहे होंगे।

दस मिनट बाद हरबंस गलियों के जाल में से काफी दूर जाकर निकला। इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि कोई उस पर नजर तो नहीं रख रहा। कोई पीछे तो नहीं।

लेकिन सब ठीक था।

सामने सड़क थी। ऑटो पर जाने से देखे जाने का खतरा पैदा हो सकता था। अमर के किसी आदमी की उस पर नजर पड़ सकती थी। हरबंस ने स्टॉप से बस ली, जो उस तरफ जाती थी, जहां इस वक्त विजय और दीपाली मौजूद थे। बस में मौजूद होने की वजह से, वो देखे जाने के खतरे से दूर था।

■■■