मोना चौधरी को कितनी देर बाद होश आया, वो नहीं जान सकी । मौसम साफ था । दिन की तीव्र रोशनी के साथ सूर्य चमक रहा था।
मोना चौधरी ने खुद को तीव्र गति से बहती नदी में पाया । कभी उसका शरीर पानी के भीतर पहुंच जाता तो कभी पानी की सतह पर । पानी के बहाव के साथ वो तेजी से आगे बढ़ी जा रही थी । वो समझ नहीं पाई कि, शेर की आंख को दबाने के बाद उसे गैलरी में क्या हुआ और अब वो इस नदी में कैसे पहुंच गई ? यह नदी कहां है और उसे कहां ले जा रही हो ?
मोना चौधरी ने उस तेज बहाव की नदी को तैरकर काटने की चेष्टा की, परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। पानी इतना तेज बह रहा था कि उसमें हाथ-पांव मारने की कोई गुंजाइश नहीं थी।
मोना चौधरी ने बहुत कोशिश की कि खुद को किसी तरह पानी के बहाव से बचा ले। परंतु उसकी हर कोशिश बेकार रही । पानी की रफ्तार से वो मुकाबला नहीं कर पाई। इसके साथ ही उसे एहसास हो गया कि शायद वो बच न सके, क्योंकि पानी का ऐसा बहाव वहीं पर होता, जहां आगे बेहद ऊंचाई से गिरने वाला झरना हो ।
मोना चौधरी ने मन ही मन खुद को पक्का किया कि उसे कुछ नहीं होगा । अगर वो झरने की अथाह ऊंचाई से भी गिरी तो खुद को बचा लेगी। परंतु मन में आशंका रही कि जहां झरने का पानी गिर रहा होगा, अगर वहां बड़े-बड़े पत्थर हुए, उनसे उसका शरीर टकराया तो फिर शायद न बच सके ।
जब पानी से मोना चौधरी ने गर्दन बाहर निकाली तो उसने इधर-उधर सिर को घुमाया । देखा नदी की चौड़ाई साठ फीट से ज्यादा नहीं थी । किनारों के दोनों तरफ घना जंगल नजर आ रहा था । तभी मोना चौधरी की निगाह सामने पड़ी, आंखों में हैरानी के भाव आ गए ।
नदी का तेज बहता पानी, सामने नजर आ रही गुफा जैसी जगह में प्रवेश कर रहा था । वो गुफा दस फीट के व्यास जितनी थी ।
आंखों के सामने मौत नाच उठी। यह सोच कर कि जब वो पानी के तेज बहाव के साथ गुफा में प्रवेश करेगी तो गुफा की दीवारों से टकराकर, वह पक्का मर जाएगी। पानी गुफा में इस कदर तेजी से जा रहा था । जैसे गुफा, अपनी तेज सांसों द्वारा पानी को, अपने भीतर खींच रही हो ।
मोना चौधरी को समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें ?
तभी उसका हाथ कमर में फंसे तिलस्मी खंजर से टकराया। मोना चौधरी की आंखों के सामने मुद्रानाथ का चेहरा नाच उठा, जिसने कहा था कि यह खंजर मुसीबत में तुम्हारी सहायता करेगा । कमर में फंसा खंजर निकालकर मोना चौधरी ने हाथ में लिया । तभी पानी की लहरें आई और उसे नदी के भीतर लेती चली गई । मोना चौधरी खंजर की मुठ सख्ती से पकड़े रही ।
चंद पलों बाद उसका शरीर पानी की सतह पर आया । सिर पानी से बाहर निकला ।
"खंजर । मुझे इस मुसीबत से बचा ।" मोना चौधरी के होठों से निकला ।
तब तक गुफा पास आ चुकी थी ।
मोना चौधरी का चेहरा दहशत से भर उठा ।
खामख्वाह की, मुसीबत से भरी मौत, गुफा के रूप में आंखों के सामने नाच उठी ।
और तब जब पानी के साथ उसने गुफा में तीव्रता से प्रवेश किया, तभी उसके हाथ में दबा खंजर, गुफा की दीवार से जा टकराया । मोना चौधरी को लगा, जैसे पानी के भीतर कही से करंट आ गया हो। इस कदर उसका शरीर तीव्रता से कांपा।
अगले ही पल जो उसने देखा, उस पर वह यकीन नहीं कर सकी । पानी का कहीं भी नामोनिशान नहीं था ।
जमीन इस तरह सूखी थी, जैसे कभी वहां पानी रहा ही ना हो । वो जमीन पर पड़ी हुई थी और तीव्रता से गहरी-गहरी सांसें ले रही थी । उसी गुफा के भीतर पांच-सात मिनट तक इस तरह पड़ी, अपने होश-हवासों को ठिकाने पर लाती रही । खंजर अभी भी उसके हाथ में सख्ती से दबा हुआ था । क्या हुआ था । वो सोचने लगी ।
आखिरकार उसे याद आया कि हाथ में दबा तिलस्मी खंजर गुफा की दीवार से टकराया था और उसके साथ ही मौत की रफ्तार से बहती नदी, जाने कहां गायब हो गई । मोना चौधरी ने हाथ में दबे तिलिस्मी खंजर को देखा और समझ गई कि तिलस्मी खंजर की वजह से ही वो बच पाई है और वो नदी, असली नदी न होकर तिलस्मी नदी ही थी। जो कि तिलस्म में फंसे लोगों की जान लेने के लिए थी ।
मोना चौधरी उठ खड़ी हुई । खंजर को उसने वापस कमर में पैंट के बीच फंसा लिया । उसके कपड़े अभी भी गिरे थे। जो कि इस बात का एहसास दिला रहे थे कुछ देर पहले वो मौत के मुंह में थी ।
मोना चौधरी गुफा से बाहर निकली।
जहां नदी बह रही थी, अब वहां जमीन थी । जिस पर पेड़-झाड़ियां नजर आ रही थी । नदी के गायब हो जाने की वजह से जो जंगल नदी के दोनों तरफ नजर आ रहा था। वो अब एक ही जंगल नजर आने लगा था । मोना चौधरी वहीं खड़ी, इधर-उधर निगाहें दौड़ाती रही । समझ नहीं पा रही थी कि किधर जाए । आगे बढ़ने के लिए रास्ते तो बहुत थे, परंतु मंजिल किस तरफ थी, वो नहीं जानती थी ।
मोना चौधरी जानती थी कि इस वक्त वो तिलस्म में फंसी हुई है। जब तक वो इस हकीकत से नहीं निकल पाएगी, तब तक, उस ताज तक नहीं पहुंच सकेगी ।
मोना चौधरी ने पलटकर गुफा को देखा । देखती रही । फिर आसपास के घने जंगल पर निगाह मारी। मन में आया कि इस गुफा में जाकर देखना चाहिए कि भीतर क्या है, पानी कहां जा रहा था । इस सोच के साथ ही वो पलटी और गुफा में प्रवेश करती चली गई।
ज्यों-ज्यों वो आगे बढ़ रही थी, त्यों-त्यों गुफा में अंधेरा गहराता जा रहा था । गुफा का रास्ता बिल्कुल साफ था । मोना चौधरी कमर में लगाए खंजर को छू कर बुदबुदाई।
"मेरे साथ-साथ रोशनी कर दो ।"
उसी पल वहां रोशनी नजर आने लगी ।
मोना चौधरी आगे बढ़ती रही । आगे मोड़ आया तो वह मुड़ गई। रास्ता सीधा जा रहा था । रास्ते का अंत कहीं भी नजर नहीं आ रहा था । मोना चौधरी आगे बढ़ती रही । गुफा के गहरे भीतर तक आ जाने पर भी, सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आ रही थी ।
मोना चौधरी को आगे बढ़ते-बढ़ते चार घंटे बीत चुके थे । थकान हो रही थी । परंतु मोना चौधरी का आगे बढ़ना जारी रहा । वह जल्द से जल्द गुफा को पार कर जाना चाहती थी । सात घंटे बिना रुके, उस गुफा में चलने के पश्चात, मोना चौधरी गुफा से बाहर निकली तो सिर से पांव तक थक कर चूर हो रही थी ।
परंतु सामने हरियाली से भरे बाग को देकर उसे राहत का अहसास हुआ । बाग में कोई पेड़ पौधा नहीं था, दूर-दूर तक घास ही थी और बाग के ठीक बीचोबीच सफेद रंग का आलीशान बंगला बना नजर आया । जो कि धूप की रोशनी में इस हद तक चमक रहा था कि आंखें रह-रहकर चौधियां जाती थी ।
थकान से भरी मोना चौधरी उस बंगले की तरफ बढ़ गई
बंगला वास्तव में बहुत खूबसूरत था ।
प्रवेश गेट पर नन्हा सा फव्वारा चल रहा था, मोना चौधरी ने भीतर प्रवेश किया तो मध्यम सी फुहार उस पर पड़ी, जिससे कि शरीर पर बहते पसीने से राहत मिली। वहां से सीधा रास्ता बंगले के मुख्य द्वार की तरफ जा रहा था । दूर से ही खुला दरवाजा नजर आ रहा था।
मोना चौधरी उसी रास्ते पर बढ़ गई । रास्ते के दोनों तरफ फूलों से भरे छोटे-छोटे बाग थे । फूलों की मिली-जुली महक सांसो से टकरा रही थी, जिससे उसके थके मस्तिष्क को सुकून पहुंच रहा था ।
मोना चौधरी प्रवेश द्वार के करीब पहुंचकर ठिठकी फिर भीतर प्रवेश कर गई ।
भीतर सजा-सजाया विशाल ड्राइंग रूम जैसा नजारा था । हर चीज कायदे और करीने से लगा रखी थी । एक तरफ पालने जैसा बड़ा-सा झूला था । छत पर खूबसूरत फानूस लटक रहे थे ।
लेकिन वहां कोई भी नहीं था ।
मोना चौधरी कई पलों तक खामोशी से वहां खड़ी रही ।
"कोई है ?" मोना चौधरी ने ऊंचे स्वर में पुकारा ।
कुछ इंतजार के बाद भी उसे कोई जवाब नहीं मिला ।
"कोई है ?" इस बार मोना चौधरी की आवाज और भी ऊंची थी । सन्नाटा कायम रहा ।
मोना चौधरी को जवाब न मिलने पर हैरत हुई । इतना खूबसूरत बंगला । बाहर फव्वारा चल रहा है और बंगले में कोई भी नहीं ? मोना चौधरी ने हॉल में निगाहें दौड़ाई।
सामने ही सफेद सी चमकती सीढ़ियां ऊपर जा रही थी । कुछ सोचकर मोना चौधरी सीढ़ियों की तरह बढ़ गई। और पहली मंजिल पर जा पहुंची । उसकी सिकुड़ी निगाह हर तरफ जा रही थी ।
अभी तक ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ था कि यहां पर कोई है । मोना चौधरी वहां बने कमरों के भीतर झांकने लगी। हर कमरे का दरवाजा खुला था । एक कमरे में झांकते ही वो चौंकी । चेहरे पर अजीब से भाव आ गए । कई पलों तक यूं ही ठिठकी रही, फिर भीतर प्रवेश कर गई ।
कमरे के बीचोबीच मानवीय आकार की मूर्ति थी, जिस पर सफेद रंग की चादर पड़ी थी। वैसे ही, जैसे उस टूटे-फूटे महल में, चादर ढकी मूर्ति नजर आ रही थी। जब गीतलाल साथ था।
परंतु एक और चीज वहां थी ।
उसी कमरे के दूसरे कोने में कोई लेटा हुआ था और उसका शरीर वैसी ही सफेद चादर से ढका हुआ था । उसके शरीर का कोई हिस्सा नजर नहीं आ रहा था ।
कई पलों तक मोना चौधरी दोनों तरफ देखती रही, फिर कमरे के बीचोबीच खड़े आदम कद मूर्ति के पास पहुंची और हाथ बढ़ाकर चादर उतार डाली।
अगले ही पल उसने वही देखा, जिससे उसे आशा थी ।
वो उसी का बुत था । उसका ही चेहरा । उसके जैसे ही हाथ-पांव।
लगता था जैसे बुत तराशने वाला, उसे बनाकर अभी-अभी गया हो ।
मोना चौधरी को दूसरी बार हैरानी हुई कि, उसका बुत यहां जगह-जगह मौजूद है, जिसे यहां के लोग, तिलस्मी नगरी के देवी कह रहे हैं । इस बात का जवाब भी उसने खुद ही दिया कि महज यह इत्तेफाक है कि उसका चेहरा, तिलस्मी नगरी की कुलदेवी से मिलता है।
कई पलों तक वो उस बुत को देखती रही । पहले बुत की तरह, इस बुत को भी नफासत से साड़ी पहने दिखाया गया था। हाथों में चूड़ियां । गले में आभूषण और पांवों के पास पिंडलियों में पड़े कंगन नजर आ रहे थे, परंतु वह सब चीजें, उसी बुत का हिस्सा थी, असल नहीं था । ऐसे में यह स्पष्ट होता था कि तिलस्मी नगरी की कुलदेवी आभूषण पहनने की शौकीन थी ।
मोना चौधरी ने गह्ररी सांस ली और फिर उस तरफ देखा, जो नीचे लेटा हुआ था और सिर से पांव तक चादर ने उसे ढांप रखा था ।
मोना चौधरी होंठ भींचकर आगे बढ़ी और पांवों की तरफ से चादर पकड़ कर उसे खींचा । चादर के नीचे किसी व्यक्ति का लेटा हुआ बुत था ।
मोना चौधरी ने उस बुत वाले चेहरे को, पहले कभी नहीं देखा था । उस बुत की छाती पर सफेद रंग का छोटा सा हीरा पड़ा था और इतनी तीव्रता से चमक रहा था कि जब-जब भी मोना चौधरी की आंखें उस हीरे से टकराती तो चौधियां जाती । मोना चौधरी की निगाहों से आज तक ऐसा हीरा नहीं गुजरा था कि जो इतना छोटा होकर ऐसी तीव्र किरणें फेंकता हो कि उस पर नजरें न टिक सकें । अगर हीरे को देखा न जाए तो उसकी चमक, उसकी मौजूदगी का एहसास होता ही नहीं था ।
मोना चौधरी नीचे झुकी और बुत की छाती पर पड़ा हीरा उठा लिया। उसे हथेली में लेकर देखा। जो कि भार विहीन था । हथेली में पड़े होने का एहसास ही नहीं हो रहा था । इतना हल्का था वो । बरहाल देखने के बाद मोना चौधरी ने उस हीरे को वापस बुत की छाती पर रख दिया ।
छाती पर हीरा रखकर अभी वह सीधी भी खड़ी नहीं हो पाई थी कि उसके देखते ही देखते, वो हीरा टूटकर वहीं बिखर गया । उसके कुछ टुकड़े बुत पर ही रहे, कुछ पास में ही गिरे।
मोना चौधरी को हीरे का इस तरह टूटना अजीब सा लगा ।
अगले ही पल वो जोरों से चिहुंक उठी और दो-तीन कदम पीछे हटते चली गई । उसकी आंखें हैरानी से पूरी फैल गई। चेहरे पर से कई रंग आकर गुजर गए।
आंखें, लेटे हुए बुत पर ही टिकी रही जो कि हर पल अपना रंग बदल रहा था ।
पहले उस बुत का रंग, सफेद से पीला हुआ फिर काला । जब बुत स्याह काले में बदल गया तो एकाएक बुत में हलचल हुई। मोना चौधरी को लगा जैसे वो पत्थर का बुत हाड़-मांस में बदल रहा हो । कई पलों तक बुत में मध्यम सी हलचल होती रही और इसके साथ ही पुनः उसका रंग बदलने लगा ।
अब बुत का रंग, इंसानी रंग में आता जा रहा था।
मिनट भर बाद वो पत्थर का बुत, जीते-जागते इंसान में बदल चुका था । अगले ही पल उसकी पलकें हिली और उसकी आंखें खुली गई ।
मोना चौधरी की निगाह एकटक उस पर थी ।
वो इस तरह हिला और सिर दिख रहा था जैसे बेहद गहरी नींद से उठा हो । वो उठ बैठा । हाथों से आंखें मली। फिर इधर-उधर देखने लगा ।
मोना चौधरी हैरान थी कि अभी वो पत्थर का था और अब सामान्य इंसान बन चुका था । उसकी निगाह मोना चौधरी पर पड़ी तो पहले उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव आए । फिर खुश हो गया। इसके साथ ही वो जल्दी से उठ खड़ा हुआ ।
"देवी ।" उसके होठों से खुशी से भरा कांपता स्वर निकला फिर नीचे, पेट के बल लेटकर, दोनों हाथ जोड़ते हुए प्रणाम किया, उसके बाद पुनः खड़ा हो गया--- "तुम आ गई देवी ।" मोना चौधरी ने अजीब सी निगाहों से उसे देखा ।
"कौन हो तुम ?"
"मुझे नहीं पहचाना देवी। मैं आपका सेवक शुभसिंह ।" वो आग्रह भरे स्वर में बोला । मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"तुम मुझे देवी इसलिए कह रहे हो कि मेरी सूरत, इस बुत से मिलती है ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"नहीं देवी । ऐसी बात नहीं । दरअसल बुत की सूरत तुमसे मिलती है । तुम्हें देखकर तो बनाने वाले ने इस बुत को बनाया । तुम पहले आई, ये बुत तुम्हें देखकर बनाया गया।"
मोना चौधरी कई पलों तक शुभसिंह को देखती रही ।
"तुम अभी पत्थर के बुत बनकर लेटे हुए थे ।" मोना चौधरी बोली ।
"हां । तिलस्मी कैद में अपने किए की सजा भुगत रहा था। मुझे मंत्रों से पत्थर का बना दिया गया था और ऊपर तिलस्मी लकीरों वाली चादर डाल दी थी और इस तिलस्मी कैद से मुझे देवी ही, यानी कि तुम निकाल सकती थी । कैद करते वक्त मुझे दालूबाबा ने यही बताया था कि तुम आओगी तुम ही मेरे पत्थर बने जिस्म से चादर हटाकर मुझे तिलस्मी कैद से मुक्ति दिलाआओगी। लेकिन दालूबाबा ने यह नहीं बताया कि तुम कब आओगी और मुझे कब तक ही सजा भुगतनी थी, जब तक कि तुम आकर तिलस्मी लकीरों वाली चादर हटाकर, मेरी छाती पर रखे, मंत्रों से भरे उस हीरे को न छूती ।" शुभसिंह ने दोनों हाथ जोड़कर, आदर-आभार भरे स्वर में कहा।
मोना चौधरी ने सिर से पांव तक देखा ।
वो पचास बरस का गठे जिस्म का व्यक्ति था । उसके सिर के बाल काले थे । बदन पर कुर्तापायजामा था । देखने में वो संपन्न नजर आता था । मोना चौधरी ने महसूस किया कि उसका आदर भाव नकली नहीं है । वह जो कह रहा है जिद से कह रहा है ।
"मैं थकी बहुत थकी हुई हूं।" मोना चौधरी बोली--- "कहीं आराम से बैठकर तुमसे बात करना चाहती हूं ।"
"आओ देवी ।" कहने के साथ ही शुभसिंह दरवाजे की तरफ बढ़ा।
मोना चौधरी उसके पीछे चल दी।
"तुम कितनी देर कैद में रहे ?" मोना चौधरी बोली।
शुभसिंह होठों ही होठों में बड़बड़ाया फिर कह उठा ।
"डेढ़ सौ बरस ।"
"तू ये जगह इतनी साफ कैसे-क्या यहां कोई साफ-सफाई करने आता है ?" मोना चौधरी ने उसे देखा ।
"नहीं । जब मुझे सजा के लिए तैयार किया जा रहा था तो इस जगह को मैंने मंत्रों से बांध दिया था कि यह जगह, हमेशा साफ रहे । धूल भी भीतर न आ सके। इसलिए यह जगह बिल्कुल साफ है ।"
मोना चौधरी फिर कुछ नहीं बोली ।
शुभसिंह, मोना चौधरी को लेकर ऐसी कमरे में पहुंचा, जो शयनकक्ष था ।
"देवी ।" कमरे में पहुंचकर, वो मोना चौधरी की तरफ पलट कर बोला--- "यहां तुम निश्चिंत होकर आराम कर सकती हो । खाने पीने के लिए जो भी चाहिए हो तो मुझे सेवा का मौका दो।"
मोना चौधरी सजे-सजाए बेड की तरफ बढ़ती हुई बोली ।
"इस वक्त मुझे आराम के अलावा कुछ नहीं चाहिए। तुम बैठो और मुझसे बात करो।" शुभसिंह कुर्सी पर बैठ गया।
मोना चौधरी आराम करने का ढंग में बेड पर लेट गई ।
"पूछो देवी, क्या पूछना चाहती हो तुम ?" शुभसिंह आदर भरे स्वर में कह उठा ।
"तुम्हें दालूबाबा ने सजा दी और पत्थर बना दिया।" मोना चौधरी ने उसे देखा ।
"हां ।"
"ये दालूबाबा कौन है ?" मोना चौधरी की निगाह उस पर टिकी रही ।
"तिलस्मी नगरी का राजा है इस वक्त " शुभसिंह ने बताया ।
"इस वक्त का क्या मतलब ?"
"पहले, डेढ़ सौ बरस पहले जब यह उथल-पुथल हुई तो तब इस नगरी की मालकिन तुम थी देवी और दालूबाबा तुम्हारा हुक्म मानने वाला गुलाम था और नगरी के चंद खास लोगों में जो तिलस्म जानते थे, उनमें दालूबाबा भी तिलस्म जानता था । जब तुम जिंदा नहीं रही तो दालूबाबा ने इस नगरी को संभाल लिया और अपनी विद्या के दम पर उसने ऐलान किया था कि तुम वापस लौटेगी और तुम लौट भी आई।" शुभसिंह ने कहा ।
"डेढ़ सौ बरस पहले क्या उथल-पुथल हुई थी ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
शुभसिंह सिर झुकाकर धीमे स्वर में कह उठा।
"देवी, मुझे लगता है, तुम पहले की बातें भूल चुकी हो और तिलस्मी नगरी के उसूलों के मुताबिक तिलस्मी नगरी की कोई बात बाहरी व्यक्ति को बताने का मतलब है, वो तिलस्मी विद्या के खिलाफ जा रहा है और तुम्हारे बदन से उठने वाली महक बता रही है कि तुम पृथ्वी वासी हो।" मोना चौधरी के होठों पर मुस्कान उभरी ।
"मतलब कि तुम जानते हो कि मैं इस नगरी की नहीं हूं ।" मोना चौधरी बोली । "हां"
"इस पर भी तुम मुझे देवी कह रहे हो । "
"हां । तुम तिलस्मी नगरी की कुलदेवी हो ।" शुभसिंह ने पक्के स्वर में कहा ।
"क्योंकि कि मेरा चेहरा तुम्हारी देवी के बुत से मिलता है।" मोना चौधरी हौले से हंसी ।
"देवी । ये बात मत कहो । तुम ही हमारे कुल की देवी हो।"
"यह बात तुम इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकते हो।" मोना चौधरी के चेहरे पर मुस्कान थी।
शुभसिंह दो पलों तक खामोश रहा । फिर कह उठा।
"तुमने देखा था कि मैं पत्थर बना लेटा हुआ था।"
"हां ।"
"और तुम्हारा और मेरा शरीर चादर से ढका हुआ था । वो सामान्य चादरें नहीं थी। उस पर मंत्र द्वारा तिलस्मी लकीरे डाल रखी थी। जो भी उन चादरों को हटाने की चेष्टा करता तिलस्मी लकीरें उसे जला देती । वह मर जाता । लेकिन तुम्हें कुछ नहीं हुआ। यह ठीक है कि तुम मनुष्य हो और बीते वक्त की बातें तुम्हें याद नहीं । लेकिन तिलस्मी चादरों ने, तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया । तुम्हारी वजह से मैं पत्थर से इंसान बन गया । क्योंकि तुम हमारी कुलदेवी ही हो और दोबारा जन्म लेकर, अपनी नगरी में आई हो।"
मोना चौधरी के होठों से गहरी सांस निकली।
"तुम्हारी बात का जवाब मेरे पास शायद नहीं है । जैसे कि मेरे सवाल का जवाब तुम्हारे पास नहीं होगा।"
"सवाल करो देवी ।"
"अगर मैं वही, तुम्हारी देवी हूं तो मुझे याद क्यों नहीं सब कुछ।" मोना चौधरी ने उसकी आंखों में झांका ।
"यह कोई वक्त का फेर है कि अपनी धरती पर ही देवी अजनबी बनी हुई है । यह भी हो सकता है कि भविष्य में तुम्हें सब याद आ जाए और दालूबाबा से तुम अपनी सारी से वापस ले लो । तुम्हारे सवाल के जवाब में मैं इतना ही कह सकता हूं।" हुकूमत
मोना चौधरी सोच भरी निगाहों से शुभसिंह को देखती रही।
"मैं दालूबाबा से मिलना चाहती हूं ।
"वो नीले पहाड़ पर रहता है । "
"कहां है नीला पहाड़ ? "
"माफ करना देवी तिलस्मी नगरी में बाहरी व्यक्ति की सहायता करना मना है। इसलिए मैं तुम्हें रास्ता नहीं बता सकता । लेकिन यहां से मैं सीधा नीले पहाड़ पर जाऊंगा और दालूबाबा को बताऊंगा कि हमारी कुलदेवी वापस आ गई है । वैसे भी मुझे सामने पाकर समझ जाएगा कि देवी वापस आ गई है।" कहते हुए शुभसिंह के होठों पर मुस्कान उभरी। मोना चौधरी को महसूस हुआ कि वो खामख्वाह के झंझट में पड़ रही है।
"तुम जानते हो इस नगरी का 'ताज' कहां है ?'' मोना चौधरी ने पूछा ।
"हां । दालूबाबा ने तिलस्मी पहरेदारी में रखा हुआ है ।" शुभसिंह ने बताया ।
"पृथ्वी से मैं वो 'ताज' लेने आई हूं शुभसिंह ।" मोना चौधरी ने एक-एक शब्द चबाकर कहा
"सिर्फ ताज ?" शुभसिंह ने हैरानी से उसे देखा ।
"हां । उस ताज को हासिल करना मेरे लिए बहुत जरूरी है।"
शुभसिंह ने सिर हिलाकर कहा ।
"उस ताज पर तो एकमात्र तुम्हारा ही अधिकार है देवी । वो ताज तो सदा तुम्हारे माथे और सिर पर ही रहा है । अपनी चीज को भला मांगना कैसा । तुम्हें तो अपनी हुकूमत, पूरी तिलस्मी नगरी दालूबाबा से वापस लेनी चाहिए। वैसे भी सब जानते हैं कि दालूबाबा, तो इस नगरी का मात्र रखवाला है। वह तो तुम्हारे इंतजार में, तुम्हारी अनुपस्थिति में अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहा है । "
मोना चौधरी के चेहरे पर तीखे भाव उभरे ।
"बेकार की बातें मत करो मुझसे । जो बातें तुम मुझसे कर रहे हो, मैंने वह न कभी देखी, न कभी सुनी और जिस नगरी की मालकिन तुम मुझे कह रहे हो, आज से पहले मैंने इसे कभी नहीं देखा । तुम्हारी बातों से लगता है, जैसे मेरे सवालों की चाबी दालूबाबा के पास है और दालूबाबा कहां है, किस जगह पर वह मिलेगा । यह बताने की तुम तैयार नहीं ।" मोना चौधरी के लहजे में उखड़ापन था ।
"मुझे अफसोस है देवी । मैं तुम्हें नीले पहाड़ पर जाने का रास्ता नहीं बता सकता। लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि तुम मिले पहाड़ तक पहुंच जाओगी या फिर तुम्हें सब कुछ याद आ जाएगा । मेरा अपना ख्याल है कि देवी की तुम्हें सब्र के साथ काम लेना चाहिए । वक्त का इंतजार करना चाहिए । शायद तुम्हें याद नहीं, पहले भी तुम हर काम में जल्दबाजी किया करती थी। जिससे कभी नुकसान तो कभी फायदा होता था । जल्दबाजी मत करो।" मोना चौधरी ने अजीब सी निगाहों से शुभसिंह को देखा ।
फकीर बाबा भी तो यही कहा कहते हैं कि तू जल्दबाज है। अच्छा बुरा देखे बिना हर काम कर डालती है।
और अब शुभसिंह भी ऐसा ही कुछ कह रहा था।
"देवी । अगर मेरी बात बुरी लगी तो हो तो मैं क्षमा चाहता हूं ।" शुभसिंह ने आदर भरे स्वर में कहा ।
मोना चौधरी ने गहरी सांस लेकर सिर हिलाया ।
"इसका मतलब, तुम यहां पर मेरी सहायता नहीं कर सकते । ताज तक पहुंचने का रास्ता...।"
"देवी, मैंने पहले ही कहा है कि 'ताज दालूबाबा की सुरक्षा में है और दालूबाबा का स्थाई ठौर-ठिकाना नीले पहाड़ पर है । इससे ज्यादा, मैं कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं हूं ।" शुभसिंह बोला-"लेकिन वक्त आने पर, पहले की ही तरह अपनी गर्दन काटने में सबसे आगे रहूंगा।"
मोना चौधरी ने शुभसिंह की आंखों में देखा ।
"पहले जिस तरह तुम्हारे लिए नीलसिंह, परसू और दूसरों ने जान दी थी, अगर जरूरत पड़ी तो इस बार में आगे आकर सिर कटवाऊंगा। डेढ़ सौ बरस के करीब ही मैं तिलस्म की कैद में रहा हूं । बहुत कुछ बदलाव आ गया होगा नगरी में । मुझे अभी उस बदलाव को भी जानना-देखना है।"
मोना चौधरी अजीब सी निगाहों से शुभसिंह को देखे जा रही थी ।
नील सिंह !
परसू !
फकीर बाबा भी तो इन्हीं नामों से महाजन और पारसनाथ को बुलाते हैं । यह माजरा क्या है ?
"कुछ और पूछना है, देवी ?"
"सवालों का जवाब तुम नहीं दे पा रहे तो आगे क्या सवाल करूं । नीले पहाड़ बारे में तो तुम कुछ भी बताने को तैयार नहीं हो।" मोना चौधरी ने उसे कुरेदा ।
शुभसिंह ने खामोशी से सिर झुका लिया ।
"मैं कुछ देर नींद लेना चाहती हूं।" मोना चौधरी बोली । "जरूर देवी । मैं बाहर पहरेदारी पर रहूंगा।" शुभसिंह तुरंत खड़े होते हुए बोला--- "और जब तुम नींद से उठोगी तो, नहाने के लिए पानी और अन्य सामान तैयार होगा। पहले की तरह तुम्हें ज्यादा सुविधाएं तो इस वक्त नहीं मिल सकेंगी। लेकिन जहां तक हो सकेगा, मैं सेवा करूंगा।"
मोना चौधरी ने कुछ कहने की अपेक्षा सिर हिला दिया ।
शुभसिंह बाहर निकल गया।
दरवाजा खुला ही रहा ।
शुभसिंह की बातों से मोना चौधरी का मस्तिष्क और भी उलझ गया था । उसकी बातें, उसके शब्द फकीर बाबा से मिले थे । यह मात्र संयोग है । किसी की चाल है, या फिर हकीकत ही है ? इन्हीं सोचो में डूबे-डूबे मोना चौधरी नींद में डूबती चली गई।
जब मोना चौधरी की आंख खुली तो आधी रात से ज्यादा का वक्त हो रहा था । जाने कब तक वो सोई रही थी। उसे खुद ही वक्त का एहसास नहीं रहा था । वहां तुरंत बेड से उतरी और खुले दरवाजे की तरफ बढ़ गई । दरवाजे से बाहर निकलते ही ठिठकी। शुभसिंह हाथ जोड़े किसी सेवक की भांति बाहर मौजूद था। "तुम ?" मोना चौधरी के होठों से निकला ।
"आपकी पहरेदारी पर मौजूद था ।
"तुम सोये नहीं । आराम नहीं किया तुमने ?" मोना चौधरी ने अजीब सी निगाहों से उसे देखा।
"तुम्हारी सेवा करने का मौका, डेढ़ सौ बरस बाद मिला है देवी । ऐसे में तो मेरे लिए पलकें झपकाना भी हुराम है । तुम्हारी वजह से ही मैं कैद से मुक्ति पा सका। नहीं तो जाने कब तक इसी कैद में रहता। जरूरत पड़ने पर ये जान भी तुम्हारे कदमों में है देवी।"
मोना चौधरी को लग रहा था जैसे ये बातें सुनकर वो पागल हो जाएगी ।
"बाथरूम तैयार है।"
"गुसलखाना तैयार है देवी । आओ मैं तुम्हारा रास्ता दिखाता हूं ।" कहने के साथ ही शुभसिंह एक तरफ बढ़ा।
सोचो में डूबी मोना चौधरी उसके पीछे हो गई ।
नहाने के बाद, मोना चौधरी ने खुद को काफी फ्रेश महसूस किया । जब वो बाथरूम से बाहर निकली तो चंद कदमों दूर शुभसिंह को हाथ बांधे मौजूद पाया।
"कितना वक्त हुआ होगा ?" मोना चौधरी ने पूछा ।
"रात्रि का आखिरी पहर चल रहा है ।" शुभसिंह ने कहा ।
नहाने के बाद मोना चौधरी ने पहले वाले ही कपड़े पहन लिए थे ।
"देवी ।" शुभसिंह बोला--- "ये कपड़े मैले हो रहे हैं । यह देख कर मुझे अच्छा नहीं लग रहा। मैं तुम्हें नए...।"
"कोई जरूरत नहीं । मुझे यही अच्छे लगते हैं ।" मोना चौधरी ने उसकी बात काटकर कहा ।
"जैसे देवी की इच्छा । आओ, मैंने तुम्हारे लिए कुछ खाने का प्रबंध कर रखा है। "
मोना चौधरी बिना कुछ कहे, शुभसिंह के साथ चल पड़ी ।
शुभसिंह, मोना चौधरी को लेकर नीचे वाले हॉल में पहुंचा, जहां बहुत बड़ा डाइनिंग टेबल, बर्तनों से भरा पड़ा था । बर्तनों में तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन थे, जिनकी महक वहां फैली हुई थी । परंतु वहां सिर्फ एक ही कुर्सी पड़ी थी।
"देवी । अन्न ग्रहण करें । अगर मेरी सेवा सत्कार में कोई कमी रह गई हो तो क्षमा चाहूंगा ।" शुभसिंह हाथ जोड़कर बोला और दोनों हाथ बांधे आज्ञाकारी सेवक की भांति खड़ा हो गया ।
आगे बढ़कर मोना चौधरी कुर्सी पर बैठी और शुभ सिंह को देखा ।
"तुम नहीं लोगे ?"
"मैं बाद में लूंगा । जो देवी का बचा होगा, मैं ग्रहण कर लूंगा।"
"मेरे साथ ही बैठकर...।"
"देवी के बराबर बैठने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता ।" शुभसिंह ने आदर भाव से कहा ।
मोना चौधरी के होठों पर मुस्कान उभरी । वो खाने में व्यस्त हो गई शुभसिंह उसी मुद्रा में खड़ा रहा ।
"तुम यहीं रहते हो ?"
"नहीं। यह जगह तो मैंने अपनी कैद का वक्त काटने के लिए बनाई थी ।" शुभसिंह बोला--- "और अब कैद पूरी हो चुकी है। तुमसे फारिग होकर, मैं वापस जाऊंगा देवी।"
"वापस कहां ?" मोना चौधरी ने उसे देखा ।
"माफ करना देवी । अभी मैं तुम्हें कोई जानकारी नहीं दे सकता । क्योंकि तुम अभी तक डेढ़ सौ बरस पहले का वक्त भूली हुई हो । जब भी तुम्हें वो सब याद आएगा, तुम मुझे अपने चरणों में पाओगी ।"
मोना चौधरी कई पलों तक होंठ सिकोड़ कर उसे देखती रही फिर खाने में व्यस्त हो गई । उसके बाद उसने कुछ नहीं पूछा। खाने के पश्चात मोना चौधरी फारिग हुई । शुभसिंह वैसे ही खड़ा रहा। मोना चौधरी उठ खड़ी हुई ।
"कोई और सेवा देवी ?" शुभसिंह ने उसी प्रकार हाथ बांधे पूछा ।
"नहीं।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "तो अब तुम दालूबाबा के पास जाओगे।"
"हां देवी । उसे खबर देनी बहुत जरूरी है कि देवी लौट आई है । तिलस्मी नगरी की मालकिन लौट आई है । "
"मतलब कि यहां से सीधे नीले पहाड़ पर दालूबाबा के पास जाओगे।" मोना चौधरी ने उसे देखा ।
"हां।"
मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव छाए रहे ।
शुभसिंह आदर भाव से खड़ा रहा ।
"मैं यहां से जाना चाहूंगी शुभसिंह ।"
"जैसी देवी की इच्छा ।"
मोना चौधरी पलटी और बाहर जाने वाले दरवाजे की तरफ बढ़ गई । दरवाजे पर पहुंचकर ठिठकी पलटकर पीछे देखा । शुभसिंह उसी तरह हाथ बांधे खड़ा उसे देख रहा था । उसे देखते पाकर शुभसिंह ने दोनों हाथ जोड़ दिए । मोना चौधरी पलटी और बाहर निकलती चली गई । आसमान बता रहा था कि कुछ देर में दिन का उजाला फैलने वाला है ।
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