एक बार स्टेडियम के इलाके से दूर निकल आने के बाद जयशंकर ने एम्बूलेंस की रफ्तार कम कर दी ।
हॉस्पिटल रोड के समीप उसने एम्बूलेंस को एक वीरान गली में मोड़ दिया । साथ ही उसने एम्बूलेंस की हैडलाइट्स बुझा दीं । अन्धेरे में एम्बूलेंस चलाता हुआ वह उसे वहां खड़ी एक स्टेशन वैगन के करीब ले आया । उसने एम्बूलेंस को ऐन स्टेशन वैगन के पहलू में खड़ा किया ।
वह स्टेशन वैगन खेल बनता या बिगड़ता दोनों तरीकों से उसके काम आ सकती थी । खेल बिगड़ने की सूरत में अपने साथियों से अलग होकर भाग निकलने में स्टेशन वैगन सहायक सिद्ध हो सकती थी और खेल बनने की मौजूदा सूरत में उस स्टेशन वैगन के सदके वह एम्बूलेंस से पीछा छुड़ा सकता था ।
उसने एम्बूलेंस से उत्तर कर स्टेशन वैगन का पृष्ठभाग खोला ।
वहां लकड़ी की एक काफी बड़ी, खाली, पेटी पड़ी थी ।
उसने पेटी का ढक्कन उतार कर एक ओर रख दिया और वापिस एम्बूलेंस के करीब पहुंचा । उसने उसका पिछला दरवाजा खोल कर नोटों से भरा एक थैला बाहर निकाला । वह थैला लेकर वह स्टेशन वैगन के पास पहुंचा और उसने उसके सारे नोट पेटी में डाल दिये ।
उसी प्रकार बाकी दो थैलों के नोट भी उसने पेटी में डाल दिये ।
पेटी पूरी भर गयी ।
उसने पेटी पर उसका ढक्कन ठोका और एम्बूलेंस का पृष्ठ भाग बन्द कर दिया ।
खाली थैले उसने एम्बूलेंस में डाले और उसका पिछला दरवाजा बन्द कर दिया ।
फिर वह स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा । उसने स्टेशन वैगन को गली से बाहर निकाला और साउथ बीच रोड की तरफ दौड़ा दिया ।
सारे ऑपरेशन से वह बेहद सन्तुष्ट था । जो कुछ, जैसा, उसने सोचा था, ऐन वैसा ही हुआ था । ऑपरेशन के अन्त में अगर श्रीपत के एकाएक वहां आगमन की वजह से घोटाला और खून खराबा न भी होता तो भी उसका बाकी लोगों को पीछे छोड़ कर माल समेत भाग खड़े होने का ही इरादा था । अब पीछे गोलियां चल जाने की वजह से तो वह और भी खुश था । एम्बूलेंस के रियरव्यू मिरर में से गार्ड की गोलियों की बौछार से धराशायी होते सदाशिवराव और अब्राहम को तो उसने स्वयं अपनी आंखों से देखा था । उसे पूरी उम्मीद थी कि बाकी सब जने भी वहीं एडमिनिस्ट्रेशन ब्लाक के कम्पाउण्ड में मर खप गये होंगे या जो एकाध जिन्दा बचा होगा, पकड़ा गया होगा
बहरहाल वह खुश था कि अब वह सत्तर लाख रुपये की मोटी रकम का अकेला मालिक था ।
पीछे उसके साथी अपनी निश्चित मौत से बच कर भाग भी खड़े हुए होते तो भी जयशंकर को कोई नहीं फर्क नहीं पड़ता था । ऑपरेशन के बाद सब लोग सूर्यनारायण रोड वाले बंगले पर इकट्ठे होने वाले थे और उस बंगले के करीब भी फटकने का उसका कोई इरादा नहीं था ।
और न ही उसका इरादा वीरप्पा को तीस लाख रुपये का हिस्सा देने का था । वीरप्पा की उसे जरूरत थी इसलिये उसने उसे केवल सब्जबाग दिखाया था जबकि वीरप्पा के उस गुफा के पास फटकने की देर थी कि जयशंकर ने उसे शूट कर देना था ।
एलफिंस्टन ब्रिज क्रॉस कर के वह महाबलीपुरम की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गया ।
***
एम्बैसेडर कार पर वीरप्पा और विमल सूर्यनारायण रोड पहुंचे ।
बंगले पर मुकम्मल सन्नाटा था और वह अन्धकार के गर्त में डूबा हुआ था ।
वे कार से निकल कर भीतर पहुंचे ।
वीरप्पा ने पोर्च की बत्ती जलाई ।
बंगले का मुख्य द्वार खुला था ।
वे सकपकाये । दोनों की निगाहें मिलीं ।
“जयशंकर आया होगा ।” - विमल धीरे से बोला ।
वीरप्पा ने उत्तर न दिया । केवल वही जानता था कि जयशंकर वहां आया नहीं हो सकता था ।
उसने झिझकते हुए दरवाजा खोला और भीतर कदम रखा । उसने दीवार टटोल कर बिजली का स्विच तलाश किया और उसे ऑन किया ।
भीतर उजाला फैल गया ।
उजाला फैलते ही लगभग एक साथ दोनों की निगाहें फर्श पर पड़े एक मानव शरीर पर पड़ीं ।
दोनों हड़बड़ा कर एक कदम पीछे हट गये ।
फिर वीरप्पा हिम्मत करके आगे बढ़ा और मानव शरीर के समीप पहुंचा ।
“अरे !” - उसके मुंह से सिसकारी निकली- “यह तो कुप्पूस्वामी है !”
***
अब्राहम के कन्धे में गोली लगी थी ।
बड़ी मेहनत से वह उठ कर खड़ा हुआ ।
सदाशिवराव उसके सामने मरा पड़ा था और उसके बाकी साथी वहां से भाग चुके थे । किसी ने पीछे यह देखने की तकलीफ नहीं की थी कि सदाशिवराव की तरह अब्राहम भी मर नहीं गया था ।
उसने एक व्याकुल निगाह चारों तरफ दौड़ाई ।
कम्पाउण्ड में एक तरफ एक बाइसिकल खड़ी थी ।
वह उसके करीब पहुंचा ।
यह देखकर उसे तनिक राहत महसूस हुई कि बाइसिकल को ताला नहीं लगा हुआ था ।
उसने गेट की तरफ निगाह दौड़ाई ।
गेट का फाटक टूटा पड़ा था और एक गार्ड केबिन के भीतर मौजूद था और कहीं टेलीफोन करने की कोशिश कर रहा था ।
अब्राहम साइकल पर सवार हुआ ।
उसका कन्धा उसे बेहद तकलीफ दे रहा था और उसे यूं लग रहा था जैसे वह उसके जिस्म के साथ न हो । पीड़ा और कमजोरी के आधिक्य से उसकी आंखें धुंधलाई जा रही थी लेकिन वह जानता था कि अगर उसने अपनी बाकी जिन्दगी के कई साल जेल में नहीं काटने थे तो उसका वहां से निकल भागना, कैसे भी निकल भागना, इन्तहाई जरूरी था ।
उसने साइकिल गेट तक दौड़ा दी ।
दांत भींचे, सिर नीचा किए, पूरी शक्ति से वह साइकल के पैडल मारने लगा ।
साइकल ऐन गेट पर पहुंच गई तो भीतर टेलीफोन से उलझे दामोदरन की उसकी तरफ तवज्जो गयी ।
वह जोर से चिल्लाया और बाहर को भागा ।
लेकिन तब तक अब्राहम गेट पार कर चुका था और साइकल इतनी रफ्तार पकड़ चुकी थी कि उसके पीछे भाग कर उसे पकड़ पाना कम से कम दामोदरन को अपने बस की बात न लगा ।
थोड़ी ही दूर जाने पर अब्राहम को एक खाली टैक्सी मिल गयी ।
साइकल को छोड़कर वह टैक्सी की पिछली सीट पर ढेर हो गया ।
“सूर्यनारायण रोड ।” - वह हांफता हुआ टैक्सी ड्राइवर से बोला ।
***
अब्राहम पुलिस की गिरफ्त में आने से बाल-बाल बचा ।
उसके स्टेडियम से कूच करने के दो या तीन मिनट बाद ही पुलिस का एक बहुत बड़ा लावलश्कर घटनास्थल पर पहुंच गया । उसके दस मिनट बाद स्टेडियम का सिक्योरिटी चीफ और पुलिस के बड़े-बड़े अधिकारी वहां पहुंच गए । और दस मिनट बाद स्टेडियम के एडमिनिस्ट्रेशन ब्लॉक वाले दरवाजे पर प्रैस रिपोर्टर इकट्ठे होने लगे ।
और आधे घण्टे में उस बेमिसाल डकैती का समाचार जंगल की आग की तरह सारे मद्रास शहर में फैल गया ।
पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट वी. राजागोपाल के नेतृत्व में तफ्तीश आरम्भ हुई ।
स्टेडियम का चीफ एडमिनिस्ट्रेटर श्रीपत और सदाशिवराव पहले ही परलोक सिधार चुके थे । कारबाइनधारी गार्ड, जिसे कि कई गोलियां लगी थीं, फौरन हस्पताल रवाना किया गया लेकिन उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया ।
दूसरा गार्ड दामोदरन मामूली तौर पर घायल हुआ था लेकिन बयान देने की स्थिति में था । वही वहां कम्पाउण्ड में हुए खूनखराबे का इकलौता चश्मदीद गवाह था ।
ऊपर ऑफिस में वासन समेत सबको बन्धनमुक्त किया गया । बालैया का सिर बुरी तरह से फटा था जिसकी वजह से उसे भी 'हॉस्पिटल केस' करार दिया गया और तत्काल हस्पताल भेज दिया गया ।
बाहर गलियारे में तैनात गार्ड सुब्रामन्यम की तलाश आरंभ हुई तो वह भी एक टॉयलेट में से बरामद हो गया ।
गार्ड दामोदरन ने बताया कि जो झब्बेदार बालों वाला क्रिश्चियन युवक बाइसिकल पर वहां से भागा था, शर्तिया घायल था क्योंकि उसने उसकी आर्डरली की यूनीफार्म वाला सफेद कोट खून से एकदम लाल हुआ देखा था ।
उसके बयान की पुष्टि यह बात भी करती थी कि वह श्रीपत की फियेट कार लेकर वहां से भागने वाले अपने दो साथियों के साथ नहीं भागा था । उसके साथी जरूर उसे मर गया समझकर वहां से भाग खड़े हुए थे लेकिन हकीकतन वह सिर्फ घायल हुआ था और बाद में अकेला वहां से भाग निकलने में कामयाब हो गया था ।
आधी रात को रेडियो पर एक स्पेशल न्यूज बुलेटिन प्रसारित किया गया जिसमें डाके की न्यूज थी और जनता से अपील थी कि अगर कोई कारबाइन की गोली से घायल आदमी किसी डाक्टर के पास इलाज के लिए लाया जाए तो उसकी सूचना तत्काल पुलिस को दी जाए ।
एम्बूलेंस का नम्बर पुलिस पैट्रोल में सर्कुलेट कर दिया गया । सारे मद्रास शहर में उस एम्बूलेंस के लिए पुलिस अलर्ट जारी हो गया ।
फिर गवाहों के बयानात से डाकुओं का कद-काठ, हुलिया वगैरह स्थापित किया जाने लगा ।
मालूम हुआ कि :
एक दुबला-पतला, गोरा-चिट्टा खूबसूरत युवक था जो कि निगाह का चश्मा लगाए था । वह चश्मा वह पहले अपनी नकाब के नीचे भी लगाए था ।
एक गठे हुए शरीर वाला, ठिगने कद का काला भुजंग मद्रासी था ।
एक झब्बेदार बालों वाला क्रिश्चियन युवक था ।
फिर वासन के ऑफिस में से फिंगरप्रिंट्स उठाने का, उन्हें क्लासीफाई करने का और उनका नोन क्रिमिनल्स के फिंगरप्रिंट्स से मिलान किए जाने का इन्तहाई पेचीदा काम आरम्भ हुआ ।
***
“अभी जिन्दा है” - विमल ने फर्श पर पड़े व्यक्ति का मुआयना किया तो बोला - “पानी लाओ ।”
पानी का एक जग वहीं मौजूद था । वीरप्पा ने जग उठा लिया और विमल के कहने पर मरणासन्न व्यक्ति के मुंह पर छींटे मारने लगा ।
“यह कुप्पूस्वामी है ?” - विमल बोला ।
“हां ।” - वीरप्पा बोला ।
“तुम्हारा ओरीजनल साथी जो ऐन मौके पर पीठ दिखा गया था और जिसकी जगह तुम लोगों ने मुझे भरती किया था ?”
“हां ।”
“यह यहां कैसे पहुंच गया ?”
“पता नहीं । मैं खुद हैरान हूं ।”
“इसकी ऐसी गत किसने बनाई ॽ”
“पता नहीं ।”
“इसे तो बुरी तरह से टार्चर किया गया मालूम होता है । बहुत पीटा गया है इसे । सिगरेटों से भी जलाया गया है ।”
तभी कुप्पूस्वामी के मुंह से एक कराह निकली ।
“यह होश में आ रहा है ।” - वीरप्पा बोला - “यही कुछ बतायेगा ।” - फिर वह कुप्पूस्वामी से सम्बोधित हुआ - “कुप्पूस्वामी ! कुप्पूस्वामी ! क्या हुआ ? कुप्पूस्वामी ! तू यहां कैसे पहुंचा ? तेरी यह हालत किसने की ?”
कुप्पूस्वामी की आंखें फड़फड़ाई । उसने मुंह खोला और कुछ कहने का उपक्रम किया ।
वीरप्पा ने उसकी गरदन को सहारा देकर उसे तनिक ऊंचा उठाया और उसे पानी पिलाया ।
“क्या हुआ ? क्या हुआ, कुप्पूस्वामी ?”
“वीरप्पा !” - कुप्पूस्वामी के मुंह से निकला ।
“हां । बोलो ।”
“यह - क- कौन है ?”
“यह भी अपना साथी है । इसका नाम विमल है ।”
“ब-बाकी...”
“बाकी यहां नहीं हैं ।”
“क- काम- काम -बना ?”
“हां । बना ।”
“म-माल...?”
“हाथ लगा है । सुरक्षित है जयशंकर के पास । तुम अपनी बात बताओ । तुम्हारा यह हाल किसने किया ?”
“मेरे अपने भतीजे ने ।”
“क्या ?”
“मुत्थू ने । मेरे भतीजे ने । उसी की वजह से मैं तुम लोगों में शामिल नहीं हो रहा था । वह चाहता था कि बाद में मैं तुम लोगों को धोखा दूं और... और ऐसा इन्तजाम करूं कि सारा माल मुत्थू ले उड़े ।”
“यानी कि तुमने डर कर हमारा साथ देने से इन्कार नहीं किया था ?”
“डर कर ही इन्कार किया था लेकिन खतरे से डर कर नहीं । अपने भतीजे से डर कर । मुत्थू और उसके उस खतरनाक दोस्त गणेशन से डर कर । वो दोनों बहुत खतरनाक छोकरे हैं । मैं तुम लोगों को उनकी ताकत बताने और चेतावनी देने आया था, उन्होंने मुझे दबोच लिया और जबरन ऑपरेशन की बाबत मुझसे सब कुछ कुबुलवा लिया ।”
“तुमने उन्हें सब बता दिया ?”
“हां । उन्होंने बहुत मारा मुझे । मेरे अपने भतीजे ने...”
“यानी कि अब उन्हें पता है कि लूट का माल लेकर हम यहां जमा होने वाले हैं ?”
“हां ।”
“तो फिर वो यहां क्यों नहीं हैं ? लूट का माल हमसे छीनने के लिए यहां क्यों नहीं हैं वो ?”
“क्यों कि वो दो हैं । और तुम पांच...”
वीरप्पा खामोश रहा । उसने विमल की तरफ देखा ।
“पीछे खून खराबा न होता” - विमल बोला - “और जयशंकर माल के साथ भाग न गया होता तो हम पांच जने यहां पहुंचे होते ।”
“वो आस-पास ही कहीं होंगे” - वीरप्पा बोला - “और फिलहाल इसलिए सामने नहीं आये होंगे क्योंकि उन्होंने हमें खाली हाथ बंगले में दाखिल होते देखा होगा ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं मर रहा हूं” - कुप्पूस्वामी क्षीण स्वर में बोला - “लेकिन हो सके तो.. तो मेरे भतीजे से और उसके उस हरामी यार से... मेरी मौत का बदला लेना ।”
“तुम्हें कुछ नहीं होगा, कुप्पूस्वामी” - वीरप्पा बोला - “हम अभी तुम्हारे लिये डाक्टरी मदद का इन्तजाम करते हैं ।”
कुप्पूस्वामी कुछ न बोला । उसने आंखें बन्द कर लीं । उसकी सांस बड़े अजीबोगरीब तरीके से चल रही थी । कभी लगता था जैसे बन्द हो गई हो और एकाएक उसकी छाती जोर से उछल पड़ती थी और सांस धौंकनी की तरह चलने लगती थी ।
वीरप्पा ने उसका सिर धीरे से फर्श पर टिका दिया और उठ खड़ा हुआ ।
वह और विमल बाहर पोर्च में पहुंचे ।
“इसका क्या करें ?” - वीरप्पा बोला ।
“मैं क्या बताऊं ?” - विमल बोला ।
“हम इसके लिए डाक्टर बुलाने का हौसला नहीं कर सकते ।” - वीरप्पा बोला - “हमने ऐसा किया तो इसके साथ-साथ हम भी फंस जायेंगे ।”
“इसको यूं आंखों के सामने मरता भी नहीं देखा जा सकता । यह तो... यह तो बड़ी अमानवीय बात होगी ।”
“यह मर गया तो और भी मुसीबत पैदा कर जायेगा । फिर इसकी लाश हमारे गले पड़ जायेगी । साला खामखाह आन टपका यहां ।”
“वो तो तुम्हारे भले के लिए ही यहां आया था । तुम्हें अपने भतीजे के नापाक इरादों की चेतावनी देने ।”
“वो हरामजादा यहीं कहीं होगा और बंगले पर निगाह रखे होगा ।”
“तो ?”
“हमें उसको तलाश करना चाहिए ।”
“अगर वह और उसका साथी यहीं कहीं हैं तो वो बड़े इतमीनान से हम दोनों को शूट कर देंगे ।”
“अगर उन्होंने ऐसा करना होता तो हमारे यहां कदम रखते ही कर दिया होता । रात के सन्नाटे में वो यहां गोलियां चलाना अफोर्ड नहीं कर सकते ।”
“लेकिन...”
“बंगले का एक चक्कर लगाते हैं ।”
उन्होंने बंगले का ही नहीं, सारी सूर्यनारायण रोड का एक चक्कर लगाया ।
कहीं कोई नहीं था ।
कुप्पूस्वामी के भतीजे और उसके साथी को पता नहीं छुपने में महारत हासिल थी या वे वहां थे ही नहीं ।
दस मिनट बाद वे बंगले में वापिस लौटे ।
कुप्पूस्वामी मरा पड़ा था ।
***
स्टेशन वैगन चलाता हुआ जयशंकर उस स्थान पर पहुंचा जहां पिछली रात को उसने एम्बैसेडर छुपाई थी । उसने स्टेशन वैगन को एक स्थान पर खड़ा किया और उसमें से बाहर निकला ।
उसने स्टेशन वैगन का पिछला ढक्कन खोला ।
नोटों की पेटी पर निगाह पड़ते ही उसके नेत्र चमक उठे । उसने यूं उस पेटी पर हाथ फेरा जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु के शरीर पर हाथ फेरती है ।
उसने पेटी को अपनी ओर खींचा ।
पेटी अपने स्थान से हिली भी नहीं ।
जयशंकर आशंकित हो उठा । उसने यह नहीं सोचा था कि पेटी इतनी भारी होगी ।
उसने एक-दो गहरी सांसे लीं और फिर पेटी को मजबूती से दायें-बायें से थाम लिया । उसने एक झटके से पेटी को अपनी ओर खींचा । पेटी अपने स्थान से थोड़ा-सा सरकी लेकिन तभी एकाएक उसके सीने में जोर का दर्द उठा ।
जयशंकर ने घबरा कर अपने दोनों हाथ पेटी पर से खींच लिए । उसने अपना दिल थाम लिया और वहीं बैठ गया । आतंक से उसके नेत्र फट पड़े ।
अपने दिल के उस दर्द को वह अच्छी तरह पहचानता था ।
उसे दिल का दौरा पड़ रहा था ।
कितनी ही देर वह यूं ही दिल पकड़े बैठा रहा ।
लगभग एक घण्टा गुजर जाने के बाद उसे थोड़ी राहत महसूस हुई ।
वह धीरे से उठा । कांपते हाथों से उसने जेब से स्टेशन वैगन की चाबियां निकालीं । उसने स्टेशन वैगन के सारे द्वार बंद कर दिये और चाबियां जेब में रख लीं । फिर वह लड़खड़ाता हुआ उस पगडंडी की ओर बढ़ा जिधर गुफा थी ।
आखिरी क्षण पर उसके ऑपरेशन में गड़बड़ हो गई थी ।
नोटों से भरी पेटी को स्टेशन वैगन में ही छोड़ने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था । दिल के दौरे की वजह से उसे फौरन पूरे आराम की जरूरत थी । वह पेटी को स्टेशन वैगन में से गुफा में ले जाने योग्य नहीं रहा था - दो या तीन किस्तों में भी नहीं ।
गुफा के मुंह से झाड़ियां हटाकर वह भीतर प्रविष्ट हो गया । उसने अपनी जेब से काम्पोस की दो गोलियां निकाल कर खाईं । फिर धीरे-धीरे बड़ी मेहनत से उसने अपना बिस्तरबन्द खोला ।
उसने अपने ऊपर एक चादर ओढ़ ली और बिस्तर पर लेट गया । उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये ।
इस समय उसे बाहर स्टेशन वैगन में पड़ी दौलत से ज्यादा अपनी जान प्यारी थी ।
***
“अब इसकी लाश का क्या करें ?” - वीरप्पा बोला ।
“वही जो बाहर खड़ी फियेट का करें ।” - विमल बोला ।
“मतलब ?”
“वह फियेट भी तो हमें फंसवा सकती है । उसका क्या बाहर यूं बंगले के कम्पाउन्ड में खड़े रहना मुनासिब होगा ? क्या भूल गए हो कि फियेट का मालिक कौन है ?”
“स्टेडियम का चीफ एडमिनिस्ट्रेटर ।” - वीरप्पा के मुंह से निकला ।
“हां । इस वक्त मुनासिब कदम यही होगा कि हम इस लाश को फियेट में डालें और फियेट को यहां से लेकर किसी दूर दराज सड़क पर छोड़ आयें ।”
“ठीक है । यही करते हैं ।”
वीरप्पा ने बाहर आकर कार की डिकी खोली ।
फिर उन्होंने कुप्पूस्वामी की लाश उठाई और उसे किसी प्रकार डिकी में ठूंस दिया ।
दोनों कार में सवार हुए ।
सुनसान रास्तों पर कार चलाते हुए वे उसे सूर्यनारायण रोड से काफी दूर ले गये ।
फिर एक अन्धेरी गली में कार की छोड़ कर वे वापिस लौटे । रास्ते में उन्हें एक टैक्सी मिल गई । वे उस पर सवार हो गये ।
सूर्यनारायण रोड पर वे बंगले से काफी दूर ही उतर गए ।
वीरप्पा ने टैक्सी वाले को किराया देकर विदा कर दिया । टैक्सी के दृष्टि से ओझल हो जाने के बाद वे पैदल बंगले की ओर बढ़े ।
“तुम्हारे उस्ताद ने हमारा अच्छा मुर्गा बनाया ।” - एकाएक विमल बोला ।
“क्या कह रहे हो ?” - वीरप्पा बोला ।
“मैं जयशंकर की बात कर रहा हूं जो ऐन मौके पर एम्बूलेंस लेकर वहां से भाग गया और हमें मुसीबत में छोड़ गया ।”
“उसने बहुत अक्लमन्दी का काम किया था । माल के साथ उसका वहां से भाग जाना ही ठीक था ।”
“लेकिन पीछे हम लोग...”
“हम लोगों के साथ उसके भी रुकने का कोई फायदा नहीं था । अब कम से कम माल हमारे कब्जे में है और देख लो हम सुरक्षित बंगले पर भी पहुंच गए हैं ।”
“लेकिन अब्राहम ! सदाशिवराव ! अगर तुम्हारा उस्ताद यूं एकाएक एम्बूलेंस लेकर भाग न खड़ा हुआ होता तो वो दोनों गार्ड को गोलियों का शिकार होने से बच जाते ।”
“मुझे उनकी मौत का अफसोस है । जिसकी मौत जैसे आनी होती है, वैसे ही आती है । इसमें हम-तुम कुछ नहीं कर सकते ।”
विमल चुप रहा ।
“मरने वाले तो मर ही गए” - वीरप्पा बोला - “अगर भावुकता निकाल कर सोचो तो हमें उनकी मौत से फायदा ही है ।”
“कौन सा फायदा ?” - विमल सकपकाया ।
“अब उन दोनों का हिस्सा भी हमारे में बंटेगा । अब तुम्हारा हिस्सा साढ़े बारह लाख रुपये से कहीं ज्यादा का होगा । जयशंकर का हिस्सा अब भी बड़ा रहे तो कम से कम बीस लाख का तो होगा ही ।”
“दाता !” - विमल के मुंह से निकला ।
“मैं” - फिर प्रत्यक्षतः वह नफरतभरे स्वर में बोला - “तुम्हारे जैसा कफनखसोट नहीं ।”
वीरप्पा बहुत विद्रुपपूर्ण हंसी हंसा ।
दोनों बंगले के समीप पहुंचे ।
वे भीतर दाखिल हुए । बंगले के मुख्य द्वार पर एकाएक वह ठिठक गया । उसके कान खड़े हो गये ।
“क्या हुआ ?” - विमल धीरे से बोला ।
“भीतर कोई है ।” - वीरप्पा फुसफुसाया ।
“कौन ?”
“शायद पुलिस !”
“स्टूपिड ! पुलिस क्या पैदल आती है ! और यूं भीतर छुपकर बैठती है ।”
“किसी की ताक में रहना हो तो छुपकर बैठना ही मुनासिब होता है और वाहन छुपाया जा सकता है ।”
“पुलिस को यहां की क्या खबर ?”
“शायद लग गयी हो ।”
“तो क्या करें ?”
वीरप्पा ने उत्तर न दिया ।
“दरवाजे को तो ताला लगा है ।” - एकाएक विमल बोला - “ऐन वैसे ही जैसे हम लगा कर गये थे । पुलिस ने ताला कैसे खोला होगा ?”
वीरप्पा सोचने लगा । बंगले की एक-एक चाबी विमल के अलावा कुप्पूस्वामी समेत सब पर थी । कुप्पूस्वामी मर चुका था, सदाशिवराव और अब्राहम भी गार्ड की गोलियों के शिकार हो चुके थे तो फिर चाबी लगा कर दरवाजा खोलने वाला कौन हो सकता था ।
जयशंकर !
क्या वह माल के साथ वहां लौट आया था ?
क्या उसने अपनी मूलयोजना बदल दी थी ?
वीरप्पा ने दरवाजा खोला और उसे भीतर को धक्का दिया ।
“भीतर कौन है ?” - वीरप्पा उच्च स्वर में बोला ।
“मैं !” - उसके कानों में अब्राहम का क्षीण स्वर पड़ा - “मैं हूं । अब्राहम !”
सबसे पहले वीरप्पा की ही निगाह अब्राहम पर पड़ी । उसके मुंह से सिसकारी निकल गई ।
अब्राहम ड्राइंगरूम के फर्श पर बिछे कालीन पर पड़ा था ।
कालीन पर उसके शरीर से बहे खून का ढेर लगा हुआ था और उसका चेहरा राख की तरह सफेद हो चुका था ।
“वीरप्पा !” - अब्राहम फुसफुसा कर बोला - “भगवान के लिये मुझे बचाओ ।”
वीरप्पा तत्काल अब्राहम पर झुक गया । उसने फाड़कर अब्राहम के कमर से ऊपर के कपड़े उतार दिये । उसके कहने पर विमल एक प्लास्टिक की बाल्टी में पानी ले आया । वीरप्पा ने एक गद्दी फाड़ कर उसकी रुई निकाली और उसे पानी में भिगो-भिगोकर जख्म धो डाला । फिर उसने बैडरूम की एक चादर मंगवाई और उसे फाड़ कर अब्राहम के जख्म को मजबूती से बांध दिया । खून बहना बन्द हो गया ।
फिर विमल और वीरप्पा ने अब्राहम को उठाया और उसे ले जाकर बैडरूम में पलंग पर डाल दिया । अब्राहम ने नेत्र बन्द कर लिये ।
विमल और वीरप्पा वापिस ड्राइंगरूम में आये । उन्होंने बड़ी मेहनत से कालीन से और कमरे के अन्य स्थानों से कुप्पूस्वामी और अब्राहम दोनों के खून के धब्बे मिटाये ।
तभी बैडरूम से अब्राहम के जोर-जोर से कराहने की आवाज आने लगी ।
दोनों बैडरूम में पहुंचे ।
“वीरप्पा” - अब्राहम तड़प कर बोला - “मैं मर रहा हूं ।”
“तुझे कुछ नहीं होगा, अब्राहम ।” - वीरप्पा सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला ।
“मेरा जिस्म जल रहा है ।”
“घाव लगे तो बुखार हो ही जाता है ।” - वीरप्पा सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला ।
“मुझे भयंकर दर्द हो रहा है ।”
“ठीक हो जायेगा ।”
“गोली अभी भी मेरे कन्धे में है ?”
“नहीं है । मैंने देखा है ।”
विमल जानता था, वीरप्पा झूठ बोल रहा था ।
“मुझे हस्पताल पहुंचा दो ।”
“वहां हस्पताल वाले तुझे फौरन गिरफ्तार करवा देंगे । तू जेल जाना चाहता है ?”
“नहीं ।”
“तो हौसला रख ।”
अब्राहम मुंह से तो कुछ न बोला लेकिन उसके चेहरे पर हौसले के भाव न आये ।
“सदाशिवराव का क्या हुआ ?” - वीरप्पा ने पूछा ।
“मर गया ।” - अब्राहम क्षीण स्वर में बोला ।
“तूने खुद देखा ?”
“हां ।”
“ओह !” - वीरप्पा एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “मैं तेरे लिये कोई दवा लाता हूं ।”
तुरन्त वह बाहर की ओर बढ़ा ।
विमल उसके पीछे हो लिया ।
“अभी रास्ते में मैंने एक कैमिस्ट शाप देखी थी ।” - वीरप्पा बोला - “मैंने उस पर ‘ओपन ऑल नाइट’ लिखा पढ़ा था । मैं वहां इसके लिये कोई पेन किलर और सिडेटिव लाता हूं ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
वीरप्पा वहां से विदा हो गया ।
विमल एक कुर्सी पर बैठ गया । उसने अपने दायें हाथ से अपना चश्मा उतारा, उसी हाथ की पीठ को अपनी आंखों पर रगड़ा और चश्मा दुबारा अपनी नाक पर चढ़ा लिया ।
वह सोचने लगा ।
स्थिति बहुत विकट थी ।
उसकी जेब में एक नया पैसा नहीं था और उसे विश्वास था कि अब तक सारे मद्रास शहर में स्टेडियम में डाका डालने वालों की तलाश आरम्भ हो गई होगी । इसलिये उस बंगले से बाहर तो उस का कदम भी रखना खतरनाक सिद्ध हो सकता था ।
अब्राहम की हालत बहुत खराब थी । गोली अभी भी उसके जिस्म में थी और उसे डाक्टरी मदद की फौरन जरूरत थी लेकिन उसे डाक्टर के पास ले जाना या बंगले में डाक्टर बुलाना मौत को बुलावा देना था ।
जयशंकर नोटों की पेटी ले कर कहीं गायब हो गया था । स्कीम के अनुसार उसे वापिस बंगले में आना था लेकिन अभी तक वह वहां नहीं आया था और न जाने क्यों विमल का मन पुकार-पुकार कर कह रहा था कि वह वापिस आने वाला भी नहीं था ।
और जयशंकर के साथ ही उसका सच्चे मोतियों का नैकलेस या उस नैकलेस से हासिल होने वाली रकम भी गायब हो गई थी ।
अब उसे इसी बात में अपना कल्याण दिखाई दे रहा था कि वह अधिक से अधिक समय उस बंगले में रहे और वीरप्पा को अपनी दृष्टि से ओझल न होने दे ।
फिर एकाएक उसके मन में एक ख्याल आया । वह अपने स्थान से उठा और किचन में पहुंचा ।
किचन में रसद के नाम पर कुछ नहीं था ।
विमल ने सारा बंगला छान मारा था ।
उसे कहीं ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया जो उनकी बंगले में रिहायश के दौरान उनका पेट भर सकता ।
विमल वापिस ड्राइंगरूम में आकर बैठ गया ।
वह और अधिक चिन्तित हो उठा था ।
वह वीरप्पा की प्रतीक्षा करने लगा ।
ज्यों-ज्यों वीरप्पा के आने में देर होती जा रही थी, विमल चिन्तित होता जा रहा था ।
वीरप्पा जयशंकर का विश्वासपात्र साथी था । कहीं वह भी तो खिसक नहीं गया था !
लेकिन तभी वीरप्पा वापिस बंगले में आया तो उसकी जान में जान आई ।
विमल ने उसे बताया कि बंगले में खाने के नाम पर एक दाना भी नहीं था ।
“यह कैसे हो सकता है ?” - वीरप्पा हैरानी से बोला - “कल तक यहां हर चीज मौजूद थी ।”
“मुझे लगता है कि जयशंकर ने जानबूझकर सब कुछ साफ कर दिया है ताकि जब हम भूख से तंग आकर यहां से बाहर निकलें तो सीधे जाकर पुलिस के चंगुल में फंस जायें ।”
वीरप्पा एकाएक बेहद चिन्तित हो उठा । उसके मन में जयशंकर के प्रति सन्देह का बीजारोपण होने लगा । जयशंकर ने उसे खुद कहा था कि उसने कुछ दिन सूर्यनारायण रोड वाले बंगले में बाकी लोगों के साथ रहना था और फिर बाद में चुपचाप वहां से खिस‍क जाना था । अगर जयशंकर चाहता था कि वह कुछ दिन बाकी लोगों के साथ बंगले में रहे तो उसने बंगले में रखी सारी रसद क्यों साफ कर दी थी ?
“क्या अब भी तुम्हें विश्वास है कि जयशंकर नोटों से भरे थैले ले कर यहां वापिस आयेगा ?” - विमल बोला ।
वीरप्पा ने उत्तर नहीं दिया । वह मन ही मन निश्चय कर रहा था कि अगर जयशंकर ने उसे भी धोखा देने की कोशिश की तो वह उसे जान से मार डालेगा । आखिर केवल उसे मालूम था कि उस समय जयशंकर कहां छुपा हुआ था ।
“तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया !” - विमल बोला ।
“छोड़ो ।” - वीरप्पा बोला - “अब इस बात का इतना महत्व नहीं है जितना कि इस बात का कि पेट कैसे भरेगा । और दोस्त, इस बात की खैर मनाओ कि हम दोनों कम से कम जीते-जागते वन पीस खड़े हैं, सदाशिवराव की तरह मर नहीं गए हैं और अब्राहम की तरह मौत के दरवाजे पर नहीं खड़े हैं ।”
“पेट भरने के बारे में क्या सोचा है तुमने ?” - विमल व्यग्र स्वर में बोला ।
“मुझे कुछ नहीं सूझ रहा ।”
“क्या राजाराव हमारी मदद नहीं कर सकता ?” - विमल धीरे से बोला ।
“राजाराव ! वह क्या मदद कर सकता है हमारी ?”
“देखो, अब हमारा यहां से बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है । यहां से निकलकर रसद जुटाने के चक्कर में हम पकड़े जा सकते हैं । अगर राजाराव मान जाए तो वह हमारे लिए खाने-पीने का समान लेकर यहां आ सकता है ।”
“उसे मालूम हो जायेगा कि स्टेडियम का कैश हमने लूटा है ।”
“हो जाये । क्या फर्क पड़ता है । आखिर वह तुम्हारा यार है और फिर उसकी मदद के बदले में हम ढेर सारे धन का लालच दे सकते हैं ।”
वीरप्पा ने अपनी घड़ी देखी और फिर बोला - “मैं कोशिश करता हूं ।”
बंगले में टेलीफोन मौजूद था । राजाराव माउण्ट रोड के टेलीग्राफ ऑफिस में काम करता था और उन दिनों उसकी नाइट ड्यूटी थी ।
वीरप्पा ने डायरेक्ट्री में माउन्ट रोड के टेलीग्राफ ऑफिस का नम्बर देखा और फिर वह नम्बर डायल कर दिया ।
फोन पर उसे बताया गया कि राजाराव की उसी रोज से ड्यूटी बदली थी और यह कि अब वह दिन में आता था ।
वीरप्पा ने टेलीफोन को क्रेडल पर पटक दिया ।
वह रात उन्होंने भूखे ही काटी ।
***
रात के दो बजे तक शिनाख्त के लिए अनथक प्रयत्न करते पुलिस के फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट अब्राहम की शिनाख्त करने में सफल हो गए ।
सुबह तक उन्हें यह भी मालूम हो गया कि चश्मे वाला खूबसूरत युवक बम्बई में लेडी शान्ता गोकुल दास का खून करके भागा हुआ हत्यारा विमल कुमार खन्ना था और उससे पहले वही आदमी इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल से फरार हो चुका था । तब वह एक सिख युवक था और उसका वास्तविक नाम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था ।
वीरप्पा के बारे में पुलिस को कोई अतिरिक्त जानकारी हासिल नहीं हो सकी ।
धीरे-धीरे पुलिस की समझ में यह भी आ गया कि स्टेडियम का कैश लूटने के असम्भव कृत्य को कैसे सम्भव बनाया गया था ।
साथ ही उन्हें वह पांचवां आदमी बहुत महत्वपूर्ण लगने लगा जो एम्बूलेंस की ड्राइविंग सीट पर बैठा रहा था और जो एम्बूलेंस में नोटों से भरा स्ट्रेचर रखा जाते ही अपने साथियों की परवाह किये बिना एम्बूलेंस वहां से भगा ले गया था ।
किसी ने उस पांचवें आदमी की सूरत नहीं देखी थी ।
पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल के मतानुसार वह पांचवां आदमी ही रिंग लीडर था जो ऐन मौके पर अपने साथियों को दगा देकर और माल लेकर वहां से चम्पत हो गया था ।
नगर से बाहर जाने वाली सारी सड़कों पर और रेलवे स्टेशन पर पुलिस का कड़ा पहरा बढ़ा दिया गया था ।
पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल को शीघ्र ही कोई परिणाम निकलने की पूरी आशा थी ।
***
सुबह तीन बजे अब्राहम बेहोशी की हालत में ही परलोक सिधार गया ।
वीरप्पा ने उसकी नब्ज देखी, दिल की धड़कन देखी और फिर बोला - “गया ।”
“अब ?” - विमल बोला ।
“अब हमें इसकी लाश को ठिकाने लगाना पड़ेगा ।”
“कैसे ? कहां ?”
“बीच से अच्छी जगह कौन-सी हो सकती है ?”
गैरज में एक फावड़ा पड़ा था । उन्होंने फावड़ा उठा लिया और चुपचाप बीच पर आ गये ।
एक नारियल के पेड़ के समीप उन्होंने जमीन खोदनी आरम्भ कर दी । जमीन रेतीली थी, इसीलिए जल्दी ही वे वहां एक कब्र खोदने में सफल हो गये ।
फिर उन्होंने बंगले में वापिस आकर अब्राहम की लाश को एक चादर में लपेटा । वीरप्पा ने उसे अपने कन्धे पर लादा और बीच पर ले आया । उसने लाश को कब्र में लिटा दिया ।
विमल ने तेजी से उस पर मिट्टी डालनी आरम्भ कर दी । थोड़ी देर में पहले अब्राहम की लाश और फिर कब्र गायब हो गई और जमीन पहले की तरह हमवार हो गयी ।
वे वापिस बंगले में लौट आये ।
***
सुबह आठ बजे के न्यूज ब्रॉडकास्ट में स्टेडियम में पड़े डाके का बड़ा विस्तृत विवरण था जो कि विमल और वीरप्पा ने भी सुना ।
रेडियो पर विमल, विरप्पा और अब्राहम के हुलिए पढ़कर सुनाये गए और जनता से प्रार्थना की गई कि अगर किसी को वे तीनों या उनमें से कोई कहीं दिखाई दे तो उसकी सूचना फौरन पुलिस को दी जाये ।
साथ ही डाकुओं को पकड़वाने वाले को दस हजार रुपये के इनाम की भी घोषणा की गई ।
विमल और वीरप्पा को पसीने आ गए । रेडियो पर उनके हुलिये इतनी बारीकी से बयान किये गए थे कि उन्हें बच्चा भी आसानी से पहचान सकता था ।
बंगले से बाहर निकलने का रहा-सहा इरादा भी उनके दिमाग में से उड़ गया ।
अखबारों में और रेडियो में डाके का व्यापक जिक्र और जनता से सहयोग की अपील पुलिस के बहुत काम आयी ।
पहले पुलिस के पास हॉस्पिटल रोड के समीप की एक वीरान गली में लावारिस खड़ी एक एम्बूलेंस की खबर आयी ।
वह एम्बूलेंस गार्ड दामोदरन को दिखाई गयी ।
दामोदरन ने फौरन इस बात की तसदीक की कि पिछली रात वही एम्बूलेंस स्टेडियम में पहुंची थी ।
एम्बूलेंस के पृष्ठभाग से गाव तकिये के गिलाफ जैसे जो तीन थैले बरामद हुए, उनमें से एक में सौ का एक नोट भी अटका हुआ था ।
एम्बूलेंस के स्टियरिंग व्हील, गियर वगैरह पर से उंगलियों के निशान उठाये गए ।
फिर गली में से पूछताछ आरम्भ हुई ।
कई व्यक्तियों ने इस बात की तसदीक की कि जहां एम्बूलेंस खड़ी पाई गई थी, वहीं दो दिन से एक स्टेशन वैगन भी खड़ी थी ।
स्टेशन वैगन का नम्बर ?
रंग ?
रंग किसी ने नीला बताया तो किसी ने फिरोजी ।
नम्बर भी दो-तीन बताये गये ।
सारे बयानों का निचोड़ पुलिस ने यह निकाला कि स्टेशन वैगन सम्भवत: नीले रंग की थी और उसका सबसे अधिक सम्भावित नम्बर एम जे एल - 4477 था ।
***
दस बजे वीरप्पा ने फिर माउण्ट रोड टेलीग्राम ऑफिस में राजाराव के लिए फोन किया ।
तब तक राजाराव को अपने बारे में जानकारी देने में खतरा बहुत बढ़ गया था । रेडियो पर उनकी गिरफ्तारी पर दस हजार रुपये का इनाम एनाउन्स हो चुका था । सम्भावना इस बात की भी थी कि राजाराव बंगले में उनके लिए रसद लेकर आने के स्थान पर पुलिस को बता आता कि वे लोग सूर्यनारायण रोड के उस बंगले में छुपे हुए थे । लेकिन वह खतरा उठाने के सिवाय कोई चारा नहीं था । उन्होंने राजाराव का विश्वास करना ही था ।
इस बार राजाराव फोन पर मिल गया ।
वीरप्पा ने बहुत डरते-डरते राजाराव को बताया कि वह कौन बोल रहा था, कहां से बोल रहा था और क्या चाहता था ।
राजाराव ने बड़े ही शान्त स्वर में उत्तर दिया कि वह लगभग बारह बजे तक उसकी इच्छित वस्तुयें लेकर बंगले पर पहुंच जायेगा ।
वीरप्पा ने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया और अपने चेहरे पर चुहचुहा आया पसीना पोंछने लगा ।
वीरप्पा और विमल हाथों में रिवॉल्वर लिए खिड़कियों के पीछे छुपकर बैठ गये । कलेजा हाथ में लिए वे राजाराव के आने की प्रतीक्षा करने लगे ।
लगभग पौने बारह बजे उन्हें बंगले का फाटक लांघ कर भीतर प्रविष्ट होता हुआ राजाराव दिखाई दिया । वह अपने दोनों हाथों में दो भारी थैले लटकाये हुए था । यह देखकर उनकी जान में जान आ गई कि राजाराव अकेला था, साथ में पुलिस नहीं थी ।
वीरप्पा ने बंगले का मुख्य द्वार खोला । राजाराव भीतर आ गया ।
विमल ने द्वार बन्द कर दिया ।
“किचन कहां है ?” - राजाराव बोला ।
वीरप्पा के मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“मेरे साथ आओ ।” - विमल बोला । वह उसे किचन में ले गया ।
राजाराव बिना कुछ बोले खाना बनाने में जुट गया ।
मुश्किल से पच्चीस मिनट में उसने चावल और सांभर तैयार कर दिया ।
विमल और वीरप्पा पागलों की तरह खाने पर झपटे ।
जितने समय में उन्होंने खाना खाया, उतने समय में राजाराव ने कॉफी तैयार कर ली ।
सब कॉफी पीने लगे ।
राजाराव ने अपनी कॉफी का एक घूंट पिया और धीरे से बोला - “माल कहां है ?”
राजाराव का सवाल इतना सीधा और अर्थपूर्ण था कि वीरप्पा ने यही उचित समझा कि वह उसे सारी कहानी सुना दे ।
“ओह !” - सारी कहानी सुनने के बाद राजाराव का चेहरा निराशा से लटक गया ।
“लेकिन दौलत मेरे हाथों से इतनी आसानी से नहीं निकल सकती ।” - वीरप्पा आवेशपूर्ण स्वर में बोला ।
“वह तो निकल ही चुकी है ।” - राजाराव बोला - “जयशंकर तो यहां हरगिज वापिस लौट कर नहीं आयेगा ।”
“मत आये लेकिन मुझे मालूम है वह कहां छुपा बैठा है ।”
हालांकि वीरप्पा सच बोल रहा था लेकिन विमल ने यही समझा कि वह राजाराव को लालच में फंसाये रखने के लिए ऐसा कर रहा था ।
“जरा पुलिस की सरगर्मी खतम हो जाये फिर मैं तुम दोनों को वहां ले जाऊंगा जहां जयशंकर सत्तर लाख रुपये पर सांप की तरह कुंडली मारे बैठा हुआ है । उसके बाद दौलत हमारे हाथ में होगी । हमें यहां सिर्फ आठ-दस दिन इन्तजार करना होगा । उसके बाद हम यहां से निकाल लेंगे ।”
“अगर तब तक जयशंकर भी अपने गुप्त स्थान से निकल गया ?”
“वह नहीं निकलेगा । हम केवल अपनी जान बचाने के लिए यहां छुपे हुए हैं लेकिन उसे जान और माल दोनों की फिक्र होगी । दौलत का लालच उसे अधिक से अधिक देर तक छुपे रहने पर मजबूर करेगा । मुझे पूरा विश्वास है कम से कम एक महीने तक वह अपने स्थान से हिलेगा भी नहीं ।”
“वह गुप्त स्थान है कहां ?” - राजाराव ने पूछा ।
“वक्त आने दो । मैं तुम्हें वहां ले जाऊंगा ।” - वीरप्पा आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला ।
राजाराव चुपचाप कॉफी पीने लगा । अब वह पहले जितना निराश नहीं दिखाई दे रहा था ।
***
“यहां से एक शार्टकट है जो सीधा हमें महाबलीपुरम-मद्रास वाली सड़क से मिला देगा ।” - त्यागराजन बोला ।
लक्ष्मी ने एक उपेक्षापूर्ण निगाह अपने पति पर डाली लेकिन मुंह से कुछ न बोली ।
उनकी पुरानी फोर्ड गाड़ी हिचकोले खाती हुई उस गन्दी रेतीली सड़क पर आगे बढ़ती रही जो त्यागराजन की नजर में एक बहुत अच्छा शार्टकट था ।
त्यागराजन सुबह अपनी पत्नी लक्ष्मी को अपनी पुरानी फोर्ड पर पिकनिक के लिए कंचीपुरम लेकर गया था । कंचीपुरम पहुंचते-पहुंचते गाड़ी दो बार बिगड़ चुकी थी जिसकी वजह से सुबह से ही लक्ष्मी का मूड खराब था । उसके बाद त्यांगराजन ने कंचीपुरम के भव्य मन्दिरों की पृष्ठभूमि में अपनी फिल्म अभिनेत्रियों जैसी सुन्दर पत्नी की कुछ तस्वीरें खींची थीं लेकिन फिल्म निकालते समय गलती से उससे कैमरा खुल गया था और यूं एक्सपोज हो जाने से सारी फिल्म का सत्यानाश हो गया था ।
उसके बाद त्यागराजन लक्ष्मी का मूड ठीक नहीं कर सका था । सारा दिन लक्ष्मी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ा रहा था ।
त्यागराजन एक ऑटोमोबाइल कम्पनी में सेल्समैन था । उसे लगभग आठ सौ रुपये वेतन मिलता था लेकिन जैसी पत्नी उसे मिली थी, उसकी निगाह में आठ हजार रुपये वेतन पाने वाला आदमी भी गरीब था । लक्ष्मी को सैर-सपाटे का और कीमती परिधान और जेवर पहनने का बेहद शौक था । हमेशा वह अपने पति से कोई न कोई फरमायश करती ही रहती थी । उसने कभी इस बात की परवाह नहीं की थी कि उसकी फरमायश पूरी करने के लिए त्यागराजन पैसा कहां से लाता था ।
त्यागराजन अपनी हेमा मालिनी जैसी खूबसूरत बीवी पर इतना लट्टू था कि वह झक मार कर उसकी हर इच्छा पूरी करता था ।
कार झटके खाती हुई आगे बढ़ती रही ।
लक्ष्मी अपनी गोद में रखे ट्रांजिस्टर रेडियो को ट्यून करने की कोशिश कर रही थी लेकिन धक्कों की वजह से कामयाब नहीं हो रही थी ।
“हे भगवान !” - वह हताशापूर्ण स्वर में बोली - “क्या गाड़ी है । मेरे तो अंजर-पंजर ढीले कर दिये तुमने । इससे तो अच्छा हम बस पर आ जाते ।”
त्यागराजन बड़ी मुश्किल से अपना गुस्सा दबा पाया । सारा दिन लक्ष्मी किसी न किसी बात पर उसे ताने देती रही थी और अब उस शार्टकट के चक्कर में पड़ कर वह खुद बहुत पछता रहा था । अन्धेरा हो रहा था और रास्ता उसकी अपेक्षा से ज्यादा खराब निकला था । ऐसे में अगर गाड़ी बिगड़ जाती तो...
गाड़ी बिगड़ने का विचार उसके दिमाग में आने की देर थी कि उसका अगली ओर का दायां पहिया बैठ गया ।
गाड़ी बुरी तरह डगमगाई । लक्ष्मी झटका खाकर अपने पति की गोद में आ गिरी । त्यागराजन ने स्टियरिंग को सम्भालते हुए ब्रेक का पैडल दबाया ।
गाड़ी एक पेड़ों के झुंड के पास रुक गई ।
“अब क्या हुआ ?” - लक्ष्मी सम्भलती हुई क्रोधित स्वर में बोली ।
त्यागराजन बिना उत्तर दिये कार से बाहर निकल आया । शीघ्र ही उसे मालूम हो गया कि कार का एक अगला पहिया बैठ गया था ।
उसको पसीना आ गया । स्टेपनी में पहले ही पंचर था ।
“क्या हुआ है ?” - लक्ष्मी फिर बोली ।
“एक पहिया बैठ गया है ।” - त्यागराजन मरे स्वर में बोला ।
“वैरी गुड ।” - लक्ष्मी कार से उतर आई - “अब हम घर कैसे पहुंचेंगे, माई डियर डार्लिंग हसबैंड ?”
त्यागराजन ने जवाब नहीं दिया । यही चिन्ता उसे खा रही थी ।
“क्या सोच रहे हो, स्वामी ?”
“शायद कोई कार इधर आ निकले ।” - त्यागराजन बोला ।
“जैसे और लोग भी तुम्हारे जैसे मूर्ख हैं ।”
“फिर तो बस का ही सहारा है ।”
“और बस कहां मिलेगी ?”
“मेन रोड पर ।”
“मेन रोड कहां है ?”
“लगभग एक मील दूर ।”
“मैं तो इतना पैदल नहीं चल सकती ।”
“मजबूरी है, डार्लिंग ।” - त्यागराजन खुशामदभरे स्वर में बोला - “पैदल तो चलना ही पड़ेगा वर्ना हम घर कैसे पहुंचेंगे ।”
“मेन रोड से बस मिल जायेगी ?” - लक्ष्मी सन्दिग्ध स्वर में बोली ।
“मिल जायेगी । और सम्भव है हमें वहां से कोई कार वाला ही लिफ्ट दे दे ।”
“मेन रोड से शहर कितनी दूर है ?”
“बीस मील ।”
“ओह माई गॉड ।”
त्यागराजन कार को लॉक करने लगा ।
“आओ ।” - कार के सब दरवाजे मजबूती से बन्द करने के बाद वह बोला । उसने लक्ष्मी की ओर अपना हाथ बढ़ाया ।
लक्ष्मी ने उसका हाथ थामने का उपक्रम नहीं किया । वह तेज कदमों से त्यागराजन के आगे-आगे चल पड़ी ।
एक पालतू कुत्ते की तरह त्यागराजन उसके पीछे हो लिया ।
अन्धेरा हो गया था । त्यागराज के मन में एक अनजाना भय घर किये जा रहा था । वह मन ही मन खुदा को याद कर रहा था और प्रार्थना कर रहा था कि वे सुरक्षित घर पहुंच जायें ।
लक्ष्मी ने अपनी सैंडिल उतार कर हाथ में ले ली थी और तेजी से आगे बढ़ रही थी ।
एकाएक वह ठिठक गई ।
“क्या हुआ ?” - त्यागराजन सशंक स्वर में बोला ।
लक्ष्मी ने दाईं ओर की झाड़ियों की ओर संकेत कर दिया ।
त्यागराजन ने देखा, झाड़ियों से परे एक स्टेशन वैगन खड़ी थी।
“यह स्टेशन वैगन यहां क्या कर रही है ?” - त्यागराजन बोला ।
“आसपास कोई होगा ।” - लक्ष्मी बोली - “आवाज लगाओ ।”
त्यागराजन कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर गला फाड़कर चिल्लाया - “कोई है ! अरे, कोई है !”
त्यागराजन की आवाज दूर गुफा में लेटे जयशंकर के कानों में पड़ी । वह घबरा गया । यहां कौन आ पहुंचा ? वह अपने बिस्तर पर से सरका और गुफा के मुंह पर आ गया । उसने कांपते हाथों से अपनी जेब से रिवॉल्वर निकाल ली लेकिन वह जानता था कि उसमें इतनी भी शक्ति नहीं थी कि वह रिवॉल्वर का घोड़ा दबा पाता । उसके दिल में दर्द हो रहा था और उसका शरीर पत्ते की तरह कांप रहा था ।
“कोई है !” - त्यागराजन फिर चिल्लाया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
“आसपास कोई नहीं है ।” - वह बोला ।
“जरा देखो, स्टेशन वैगन स्टार्ट होती है ।” - लक्ष्मी बोली ।
“क्या ?” - त्यागराजन सकपका कर बोला ।
“स्टेशन वैगन को देखो, स्टार्ट होती है या नहीं ।” - लक्ष्मी तीव्र स्वर में बोली ।
“लेकिन किस लिये ?”
“क्या अक्ल है तुम्हारी ! ताकि हम इस पर घर पहुंच सकें ।”
“लेकिन यह कैसे हो सकता है ? तुम मुझे कार चुराने की राय दे रही हो ।”
“अरे बाबा, कार चुरा कौन रहा है ? तुम इसे केवल एक घंटे के लिये इस्तेमाल करने वाले हो और फिर इसे वापिस यहीं ले आने वाले हो ।”
“लेकिन...”
“पहले देखो तो सही कि यह स्टार्ट होती भी है या नहीं ।”
त्यागराजन हिचकिचाता हुआ स्टेशन वैगन के समीप पहुंचा ।
उसने अपनी जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला । वह ऑटोमोबाइल कम्पनी का सेल्समैन था और कम्पनी की ओर से उसे एक ऐसी मास्टर की मिली हुई थी जो कार के हर प्रकार के ताले में लग सकती थी । उसने वह चाबी स्टेशन वैगन के स्टियरिंग व्हील की ओर के द्वार में लगाई ।
द्वार फौरन खुल गया ।
झिझकता हुआ वह ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
उसने वही चाबी इग्नीशन में लगाई ।
इंजन फौरन स्टार्ट हो गया ।
“वैरी गुड ।” - लक्ष्मी बोली ।
त्यागराजन कार से बाहर निकल आया ।
“बाहर क्यों निकल आये ?” - लक्ष्मी बोली ।
“लक्ष्मी, कार का मालिक आसपास ही कहीं होगा । वह...”
“थोड़ी देर इन्तजार कर लो उसका ।”
लक्ष्मी कार के हुड पर चढ़कर बैठ गई । त्यागराजन कार की साइड के साथ पीठ लगाकर खड़ा हो गया ।
आधा घण्टा गुजर गया ।
“कोई नहीं आया ।” - लक्ष्मी बोर होती हुई बोली । - “इतनी देर में तो तुम मुझे घर छोड़कर और पहिये में पंचर लगवाकर यहां वापिस भी आ जाते ।”
गुफा के दहाने पर लेटा जयशंकर उनकी बातें सुन रहा था और अंगारों पर लोट रहा था । स्टेशन वैगन में सत्तर लाख रुपये के नोटों से भरी पेटी रखी थी । वे लोग स्टेशन वैगन को वहां से ले जाने की फिराक में थे और वह कुछ कर नहीं सकता था । त्यागराजन उसे गुफा के दहाने से दिखाई दे रहा था । उसने चाहा कि वह उसे शूट कर दे लेकिन वह अपना हाथ ऊंचा उठाने में भी सफल न हो सका ।
“अरे भई, कोई है ।” - त्यागराजन एक बार फिर गला फाड़ कर चिल्लाया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
त्यागराजन फिर स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । उसने हाथ बढ़ाकर दूसरी ओर का दरवाजा खोल दिया । लक्ष्मी उसकी बगल में आ बैठी । त्यागराजन ने इंजन स्टार्ट कर दिया । उसने कार को आगे बढ़ाया ।
त्यागराजन स्टेशन वैगन को अपनी फोर्ड के समीप ले आया । वह स्टेशन वैगन से बाहर निकला । उसने अपनी जेब से एक बाल प्वायन्ट पैन और एक बड़ा-सा कागज निकाला । कागज पर उसने लिखा:
मेरी कार पंचर हो गई है । मैं आपकी कार ले जा रहा हूं । मैं एक-डेढ़ घण्टे में वापिस लौट आऊंगा । मैं माफी चाहता हूं ।
आपकी जानकारी के लिए मेरा पता यह है :
एन. त्यागराजन
32, कॉलेज रोड, मद्रास ।
त्यागराजन ने वह कागज अपनी कार के विंडस्क्रीन वाइपर में फंसा दिया । अब कम से कम उस पर कोई चोरी का इलजाम नहीं लगा सकता था ।
उसने अपनी कार में से वह टोकरी, जिसमें पिकानिक का सामान था, और स्टेपनी निकाली । दोनों चीजें लेकर वह स्टेशन वैगन के समीप पहुंचा ।
अपनी मास्टर की लगाकर उसने स्टेशन वैगन का पिछला द्वार खोला ।
पीछे एक बहुत बड़ी लकड़ी की पेटी रखी थी । उसने पेटी को हिला कर देखा । वह बहुत भारी थी । उत्सुकतावश त्यागराजन ने पेटी खोलकर भीतर झांकना चाहा लेकिन तभी लक्ष्मी ने उसे आवाज दे दी ।
“जल्दी करो न !” - लक्ष्मी झुंझलाये स्वर में कह रही थी ।
त्यागराजन ने जल्दी से उस भारी पेटी को एक ओर सरकाया और फिर उसकी बगल में टोकरी और स्टेपनी रख दी । उसने दरवाजा बन्द किया और उसमें ताला लगा दिया ।
वह वापिस ड्राइविंग सीट पर आ बैठा ।
उसने स्टेशन वैगन को आगे बढ़ा दिया ।
शीघ्र ही वे नगर की ओर जाने वाली पक्की सड़क पर पहुंच गये । अब कार को झटके लगने बन्द हो गए थे । लक्ष्मी ने फिर ट्रांजिस्टर ऑन कर लिया । तीन-चार स्टेशनों पर सुई घुमाने के बाद उसने लोकल स्टेशन लगा लिया ।
ट्रांजिस्टर में से एनाउन्सर की आवाज आने लगी :
“...पुलिस सुपरिन्टेण्डेण्ट राजागोपाल के कथनानुसार स्टेडियम से लूटा गया सत्तर लाख रुपया डाकुओं का एक आदमी एक नीले रंग की स्टेशन वैगन में लेकर भागा है । उस स्टेशन वैगन का नम्बर है - एम जे एल 4477 । नगर की जनता से निवदेन है कि अगर वे इस नम्बर की नीले रंग की स्टेशन वैगन कहीं देखें तो फौरन पुलिस को सूचित करें...”
त्यागराजन ने इतनी जोर से स्टेशन वैगन को ब्रेक लगाई कि ट्रांजिस्टर लक्ष्मी की गोद से उछल कर नीचे जा गिरा ।
“पागल हो गये हो क्या !” - लक्ष्मी झल्ला कर बोली ।
त्यागराजन ने उसकी बात जैसे सुनी ही नहीं । उसने स्टेशन वैगन सड़क के किनारे रोक दी ।
लक्ष्मी ने ट्रांजिस्टर उठा लिया । संयोगवश वह टूटा नहीं था । उसने उसका स्विच बन्द किया फिर गुस्से से भरी हुई त्यागराजन की ओर घूमी लेकिन त्यागराजन के चेहरे के भाव देख कर एकदम चुप हो गई ।
त्यागराजन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी ।
“क्या हुआ ?” - लक्ष्मी आशंकित स्वर में बोली ।
“तुमने अभी सुना रेडियो पर क्या कहा गया था ?” - त्यागराजन धीरे से बोला ।
“हां सुना था । एनाउन्सर स्टेडियम में पड़े डाके के बारे में बता रहा था ।”
“उसने नीले रंग की स्टेशन वैगन के बारे में बताया था ।”
“हां । फिर ?”
“हम उसी स्टेशन वैगन में बैठे हैं ।”
“क- क- क्या ?”
“और पीछे जो लकड़ी की बड़ी-सी भारी पेटी पड़ी है, उसमें जरूर लूट का माल है ।”
लक्ष्मी का मुंह खुला का खुला रह गया । कई क्षण उसके मुंह से बोल नहीं फूटा । वह हक्की-बक्की सी अपने पति का मुंह देखती रही ।
फिर कई क्षण बाद जब लक्ष्मी बोली तो वह बेहद शांत थी - “तुमने पेटी खोलकर देखी थी ?”
“नहीं ।” - त्यागराजन धीमे स्वर में बोला ।
“सीधे घर चलो ।” - लक्ष्मी निर्णायात्मक स्वर में बोली ।
“लेकिन....”
“यह वह स्टेशन वैगन नहीं है जिसका जिक्र एनाउन्सर ने किया था । एनाउन्सर ने स्टेशन वैगन का नम्बर एम जे एल 4477 बताया था लेकिन इसका नम्बर एम जे आर 7744 है ।”
“लेकिन यह नीले रंग की है और इसमें जो पेटी मौजूद है उसमें स्टेडियम से लुटे सत्तर लाख रुपये होने की सम्भावना है ।”
“मूर्खों जैसी बात मत करो । क्या कम्पनी ने नीले रंग की केवल एक ही स्टेशन वैगन बनाई थी ? और इस पेटी में कुछ भी हो सकता है ।”
“इसमें जरूर नोट हैं । यह बहुत भारी है ।”
“तुम सीधे घर चलो ।”
“हम पुलिस को रिपोर्ट करनी चाहिए ।”
“पहले घर चलो । अगर पेटी में नोट हुए तो फिर हम पुलिस को रिपोर्ट करने के बारे में सोचेंगे । पिछली रात के न्यूज ब्रॉडकास्ट में आया था कि डकैती के बारे में किसी प्रकार की सूचना पुलिस को देने वाले को दस हजार रुपया इनाम मिलने वाला था । हम तरीके से पुलिस को सूचना देंगे तो हम कम से कम दस हजार रुपये का इनाम हासिल करने के हकदार तो हो जायेंगे ।”
“लेकिन...”
“अब यह लेकिन-वेकिन छोड़ो और गाड़ी आगे बढ़ाओ ।”
“लक्ष्मी, मैं कहता हूं, हम किसी बखेड़े में फंस सकते हैं ।”
“कुछ नहीं होता । तुम घर चलो ।”
बड़ी अनिच्छा से त्यागराजन ने स्टेशन वैगन को फिर सड़क पर डाल दिया ।
लक्ष्मी की आंखें लालच से चमक रही थी । वह जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहती थी । अगर उस स्टेशन वैगन में सत्तर लाख रुपये की विपुल धनराशि मौजूद थी तो उसका इरादा उसे पुलिस को सौंपने का कतई नहीं था ।
दिमाग पर चिन्ता का बोझ लिये त्यागराजन गाड़ी चलाता रहा ।
गाड़ी मद्रास नगर के निकट पहुंचने लगी ।
आगे ट्रैफिक स्लो हो गया था । स्टेशन वैगन से आगे कई गाड़ियां थीं ।
त्यागराजन ने खिड़की में से सिर निकालकर बाहर झांका और फिर उसका मुंह सूख गया ।
“आगे पुलिस ने सड़क ब्लाक की हुई है ।” - त्यागराजन घबराये स्वर में बोला - “पुलिस गाड़ियां चैक कर रही है ।”
लक्ष्मी ने भी अपनी साइड से सिर निकालकर बाहर झांका ।
“घबराओ नहीं ।” - वह बोली - “पुलिस केवल मद्रास से बाहर जाने वाली गाड़ियों को चैक कर रही है, मद्रास प्रविष्ट होने वाली गाड़ियों को नहीं ।”
“लक्ष्मी हमें यहीं पुलिस वालों को इस स्टेशन वैगन के बारे में बताना चाहिए ।” - त्यागराजन विनीत स्वर में बोला ।
“अगर पुलिस वाले तुम्हें टोकें तो बता देना ।”
“लेकिन...”
“डार्लिंग” - लक्ष्मी अपने स्वर में शहद घोलती हुई बोली - “तुम मुझसे मुहब्बत करते हो या नहीं ?”
त्यागराजन ने उल्लुओं की तरह फलकें झपकाते हुए अपनी बीवी की ओर देखा और फिर बोला - “बहुत ।”
“तो फिर जैसा मैं कहती हूं, वैसा करो ।”
और लक्ष्मी ने अपना दायां हाथ त्यागराजन की जांघ पर रखकर दबाया ।
त्यागराजन के शरीर में बिजली दौड़ गई ।
उसी क्षण पीछे से किसी ने हॉर्न दिया ।
त्यागराजन ने स्टेशन वैगन आगे बढ़ा दी ।
चैक पोस्ट पर केवल मद्रास से बाहर जाने वाली गाड़ियों को रोका जा रहा था ।
त्यागराजन को किसी पुलिस वाले ने नहीं टोका । चैकपोस्ट पर कम से कम एक दर्जन पुलिस कर्मचारी मौजूद थे लेकिन किसी ने उन्हें टोका नहीं, किसी ने उन्हें रोका नहीं ।
***
दोपहर के करीब एक आदमी झिझकता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा । उसने अपना नाम कृष्णाकुट्टी बताया और कहा कि वह स्टेडियम में पड़े डाके के बारे में एक महत्वपूर्ण बात जानता था ।
उसे फौरन पुलिस सुपरिन्टेंडेंट राजागोपाल के सामने पेश किया गया ।
कृष्णाकुट्टी ने बताया कि वह एक टैक्सी ड्रक्सी ड्राइवर था । पिछली रात बारह बजे के करीब थम्बी स्ट्रीट के करीब से दो आदमी उसकी टैक्सी पर सवार हुए थे और सूर्यनारायण रोड पर उतरते थे । उनमें से एक दुबला-पतला खूबसूरत चश्माधारी उत्तर भारतीय युवक था और दूसरा गठे हुए शरीर वाला ठिगने से कद का काला भुजंग मद्रासी था । आज के सुबह के ‘दिनाथांथी’ में कृष्णाकुट्टी ने स्टेडियम लूटने वाले डाकुओं का हुलिया पढ़ा था और वह इस नतीजे पर पहुंचा था कि कल उसकी टैक्सी में सवार होने वाले दोनों आदमी जरूर स्टेडियम लूटने वालों में से थे ।
सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल के कान खड़े हो गये । उसने कृष्णाकुट्टी की पीठ थपथपाई और उसकी कर्त्तव्यपराणता और सिविक सेंस की भूरि-भूरि प्रशंसा की । उससे पूछा गया कि क्या उसने देखा था कि वे दोनों सूर्यनारायण रोड पर कहां गये थे ।
नहीं - उत्तर मिला - वह तो उन्हें सड़क पर खड़ा छोड़ कर वहां से वापिस लौट आया था ।
कृष्णाकुट्टी को वहां से विदा कर दिया गया ।
तत्काल हैड कॉन्सटेबल राघवाचारी को बुलाया गया ।
राघवाचारी एक लम्बा-चौड़ा थुल-थुल शरीर वाला मद्रासी था । उसके रिटायर होने में केवल एक साल रह गया था और वह एक बेहद डरपोक और कमजोर आदमी था । जब उसे यह आदेश मिला कि वह अपने साथ दो सशस्त्र सिपाहियों को ले जाये और सूर्यनारायण रोड पर स्थित एक-एक बंगले को चैक करे, क्योंकि वहां पर बैंक के डाकुओं के छुपे होने की सम्भावना थी, तो उसने पहले अपने आदेश देने वालों को और फिर अपनी तकदीर को हजार-हजार गालियां दीं । आदेश क्योंकि सीधा सुपरिन्टेन्डेन्ट से मिला था इसलिए बहाना बनाकर जान छुड़ा पाने की भी कोई सम्भावना नहीं थी ।
मरता क्या न करता के अन्दाज से उसने काम आरम्भ किया । उसने जो दो सिपाही चुने उनमें से एक नायर नाम का मलयाली था और दूसरा पोनाप्पा नाम का मद्रासी था । दोनों नौजवान थे, पुलिस में ताजे भर्ती हुए थे और बड़े हिम्मती थे । कायर और कामचोर हैड कांसटेबल राघवाचारी ने उन्हें इसलिए चुना था कि अगर कोई मुसीबत आ जाती तो वह उन्हें उसमें झोंक कर स्वयं बच सकता ।
ऑटोमेटिक रायफलों से लैस होकर वे तीनों एक जीप पर सवार हो गए । राघवाचारी ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ।
वे सूर्यनारायण रोड की ओर रवाना हो गए ।
सूर्यनारायण रोड पर कम से कम पचास बंगले थे । उनको तरतीब और जिम्मेदारी से चैक करना बड़ा मेहनत और सब्र का काम था ।
सूर्यनारायण रोड के दहाने पर बंगलों की पहली कतार के सामने राघवाचारी ने जीप रोक दी ।
“तुम दोनों बारी-बारी हर बंगले में जाओ” - राघवाचारी अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “और वहां के रहने वालों को चैक करो । अगर वे पुराने रहने वाले हैं तो ठीक है और अगर वे नये हैं तो मुझे बताना । फिर मैं संभाल लूंगा ।”
“यानी कि बंगलों में आप हमारे साथ नहीं चलेंगे ?” - नायर बोला ।
“कोई जरूरत नहीं ।” - राघवाचारी लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “मैं सड़क से तुम लोगों को कवर करके रखूंगा । अगर कोई आदमी कुछ शरारत करेगा तो मैं उसे संभाल लूंगा ।”
और उसने बड़े ड्रामेटिक अन्दाज से अपनी रायफल थपथपाई । पोनाप्पा जानता था कि हैड कान्सटेबल साहब की खतरे के समीप फटकने के ख्याल से ही ऐसी तैसी हुई जा रही थी । फिर भी वह बोला - “साहब, आप भी हमारे साथ चलते तो अच्छा था ।”
“जैसा मैं कहता हूं, वैसा करो ।” - राघवाचारी गरजकर बोला ।
“अच्छा, साहब ।” - पोनाप्पा बोला ।
पोनाप्पा और नायर अपनी रायफलें सम्भाले सावधानी से आगे बढ़े ।
यूं दोपहर के दो बज गए और तब तक वे दोनों केवल आठ ही बंगले चैक कर पाये । उस दौरान राघवाचारी केवल इतना करता रहा कि वे दोनों जिस बंगले में प्रविष्ट होते थे, वह उसके सामने जीप लाकर खड़ी कर देता था और स्टियरिंग थपथपाता हुआ उन लोगों के बंगले से निकलने की प्रतीक्षा करने लगता था ।
“साहब” - अगले बंगले की ओर बढ़ने से पहले पोनाप्पा राघवाचारी से बोला - “अगर आप जीप में बैठे रहने के स्थान पर साथ चलें तो काम जल्दी निपटेगा ।”
“मुझे तरीके मत सिखाओ ।” - राघवाचारी गुर्राया - “जैसे मैंने कहा है, वैसे काम करते जाओ ।”
पोनाप्पा का चेहरा क्रोध से लाल हो गया लेकिन इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, नायर ने उसे पकड़ कर अगले बंगले की ओर खींच लिया ।
चैकिंग फिर शुरू हो गई ।
अनजाने में ही पोनाप्पा और नायर जयशंकर के बंगले के समीप होते जा रहे थे ।
उसी क्षण राजाराव बंगले से बाहर निकला । उसने पुलिस की जीप देखी, दो सशस्त्र पुलिसमैनों को बंगलों में पूछताछ करते देखा और वह उल्टे पांव वापिस बंगले में घुस गया ।
“वापिस क्यों आ गए ?” - वीरप्पा उसे लौटता देख कर बोला ।
“पुलिस !” - राजाराव बोला - “पुलिस बंगलों को चैक कर रही है । वे लोग यहां पहुंचने ही वाले हैं ।”
वीरप्पा ने सशंक नेत्रों से विमल की ओर देखा ।
विमल एक दम चुप था ।
“वे कितनी दूर हैं ?” - वीरप्पा ने पूछा ।
“सिर्फ चार या पांच बंगले परे हैं वे ।” - राजाराव बोला ।
“राजाराव, तुम यहां से चले जाओ ।”
“नहीं । अगर मैं यहां से निकल गया तो तुम लोग जरूर फंस जाओगे । पुलिस वाले तुम दोनों का हुलिया जानते हैं, मेरा नहीं । तुम दोनों जाकर ऊपर बरसाती में छुप जाओ मैं पुलिस वालों को सम्भाल लूंगा । मेरे लिए उन्हें टालना आसान होगा । मैं उन्हें कह दूंगा कि यह बंगला मेरा है ।”
वीरप्पा ने फिर विमल की ओर देखा ।
विमल ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
दोनों अपने अपने स्थान से उठे और चुपचाप सीढ़ियां चढ़ कर बरसाती में जा छिपे ।
राजाराव खिड़की के पास की एक कुर्सी पर बैठ गया । उस ने रेडियो ऑन कर दिया । वह पुलिस वालों के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा ।
पोनाप्पा और नायर उस बंगले के समीप आकर रुके । बंगले में किसी प्रकार की हलचल नहीं थी । केवल भीतर से रेडियो बजने की आवाज आ रही थी ।
राघवाचारी ने जीप लाकर उनके समीप खड़ी कर दी ।
पोनाप्पा ने बंगले की ओर कदम बढ़ाने का उपक्रम नहीं किया । नायर भी ठिठका खड़ा रहा ।
“क्या बात है ?” - राघवाचारी घुड़क कर बोला - “आगे क्यों नहीं बढ़ते ?”
“हैड कान्सटेबल साहब” - पोनाप्पा दृढ़ स्वर में बोला - “मैं थक गया हूं । अब आप जीप में से निकल कर आगे बढ़िए और मैं जीप में टांगें पसार कर बैठता हूं ।”
“क्या बक रहे हो ?”
“मैं यह बक रहा हूं कि अफसरी बहुत हो चुकी है । अब या तो जीप में से निकल कर जरा अपने हाथ-पांव हिलाओ वरना मैं सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब से आपकी शिकायत कर दूंगा ।”
“क्या शिकायत करोगे तुम ?”
“मैं सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब से कहूंगा कि आप सारा दिन जीप में बैठे खर्राटे भरते रहे और हम दोनों बंगलों की खाक छानते रहे ।”
“मैं खर्राटे नहीं भर रहा हूं । मैं यहां से तुम दोनों को कवर कर रहा हूं ।”
“ऐसी की तैसी ऐसी कवरिंग की । असल में तुम जीप में से इसलिए नहीं निकलते हो क्योंकि ऐसे बंगले में घुसने के ख्याल से ही तुम्हारा दम निकला जा रहा है कि कहीं डाकू जिस बंगले में तुम घुसो, उसी में न छुपे हों और कहीं तुम्हारा थुल-थुल शरीर उनकी गोलियों का शिकार न हो जाए ।”
“तमीज से बात करो, पोनाप्पा ।” - राघवाचारी गर्जा ।
पोनाप्पा ने एक बार नफरतभरी निगाहों से उसकी ओर देखा और फिर निगाहें फिरा लीं ।
“नायर” - राघवाचारी बोला - “इसको समझाओ कि यह मेरे आदेश का पालन करे वर्ना मैं इस पर चार्जशीट लगवा दूंगा ।”
“आपको हमारे साथ चलने में क्या एतराज है ?” - नायर बोला ।
“ऑलराइट ।” - राघवाचारी जीप का इन्जन स्टार्ट करता हुआ बोला - “तुम दोनों जीप में बैठो । मैं अभी तुम दोनों को सुपर साहब के सामने पेश करूंगा ।”
“और चैकिंग अधूरी छोड़ दोगे ?” - नायर बोला - “अभी तो बहुत बंगले बाकी हैं ।”
राघवाचारी हिचकिचाया । उसे सारे बंगले चैक करके लौटने का आदेश मिला था ।
“मुझे कोई एतराज नहीं है ।” - पोनाप्पा विषैले स्वर में बोला - “तुम मुझे चाहे सुपर साहब के सामने खड़ा करो, चाहे आई.जी. के सामने । मैं डरता नहीं हूं । लेकिन मोटे, जब सुपर साहब को यह मालूम होगा कि तुम चैकिंग अधूरी छोड़कर वापिस लौट आए हो तो तुम्हारी ऐसी तैसी हो जाएगी । और मुमकिन वह है कि जिस बंगले के सामने हम खड़े हैं, डाकू उसी में छुपे हों । तुम हमें वापिस सुपर साहब के पास लेकर गए और उतने समय में डाकू यहां से भाग निकले तो सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी ।”
राघवाचारी का दम खुश्क हो गया । अंगारों पर लोटता वह जीप से बाहर निकल आया ।
“ठीक है” - वह दांत पीस कर बोला - “मैं भुगत लूंगा तुम्हें ।”
“भुगत लेना । लेकिन पहले हाथ-पांव हिलाओ ।”
“चलो ।”
“पहले तुम चलो ।”
ऊपर से बहादुरी दिखाता हुआ लेकिन मन ही मन बेहद डरता हुआ राघवाचारी आगे बढ़ा । वह बंगले का फाटक ठेल कर कम्पाउन्ड में प्रविष्ट हो गया ।
पोनाप्पा और नायर रायफलें सम्भाले उसके पीछे चले ।
“तुम दोनों आगे चलो” - रास्ते में राघवाचारी फिर बोला - “मैं तुम्हें कवर करके रखूंगा ।”
“नहीं, साहब” - पोनाप्पा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “आप आगे ब‍ढ़िये । हम आपको कवर करके रखेंगे ।”
“तुम्हारे ख्याल से डाकू इस बंगले में हो सकते हैं ?”
“खुद ही पता लगाओ ।”
पसीना-पसीना होता हुआ राघवाचारी आगे बढ़ा ।
वे बंगले के समीप पहुंच गए ।
“मैं पिछवाड़े में जाता हूं ।” - पोनाप्पा बोला ।
राघवाचारी ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
पोनाप्पा बंगले की साइड से घूमकर दृष्टि से ओझल हो गया ।
“देखो, नायर” - पोनाप्पा के गायब होते ही राघवाचारी बोला - “मैं बूढ़ा आदमी हूं । तुम जवान हो इसलिए मुझसे ज्यादा फुर्तीले हो । बाई गॉड, मैं तुम्हें कवर करके रखूंगा ।”
“सॉरी, बॉस । खुद ही आगे बढ़ो । मैं तुम्हें कवर करके रखूंगा । शायद आज जो बहादुरी तुम दिखाओ उसकी वजह से तुम्हें कोई मैडल ही मिल जाये ।”
“तुम पछताओगे ।”
“कोई बात नहीं । पछता लूंगा ।”
राघवाचारी अपने समेत सारे जहान की गालियां देता हुआ बरामदे में आ गया ।
उसने कॉलबैल बजाई ।
राजाराव ने द्वार खोला । उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी । राघवाचारी और नायर पर नजर पड़ते ही उसने ऐसा अभिनय किया जैसे वह घबरा गया हो । उसके चेहरे से मुस्कराहट उड़ गई ।
“क्या बात हो गई है ?” - राजाराव घबराहट का प्रदशर्न करता हुआ बोला ।
“यह बंगला आपका है ?” - राघवाचारी ने पूछा ।
“हां । क्यों ?”
“आप यहां अकेले रहते हैं ?”
“आजकल अकेला हूं । मेरे बीवी-बच्चे बंगलौर गये हुए हैं । लेकिन बात क्या है ?”
“कुछ नहीं ।” - राघवाचारी छुटकारे की सांस लेता हुआ बोला - “हम इस इलाके में नये रहने वालों को चैक कर रहे हैं । थैंक्यू ।”
और वह वापिस जाने के लिए मुड़ा ।
नायर राजाराव को घूर रहा था । उसे वह आदमी देखा हुआ मालूम हो रहा था लेकिन उसे उस समय याद नहीं आ रहा था कि उसने उसे कहां देखा था ।
“साहब” - नायर बोला - “आप यहां अकेले रहते हैं और यह बंगला बहुत बड़ा है । अगर कोई आदमी चुपचाप भीतर घुसकर कहीं छुप जाये तो आपको तो खबर भी नहीं होगी !”
“ऐसा कैसे हो सकता है भला ?” - राजाराव मुस्कराकर बोला ।
“अगर हम एक सरसरी निगाह इमारत के भीतर फिरा लें तो आपको कोई ऐतराज है ?”
“मुझे भला क्या ऐतराज हो सकता है ?” - राजाराव मन ही मन डरता हुआ बोला ।
उसी क्षण पिछवाड़े से पोनाप्पा भी वहां आ गया ।
“अरे, छोड़ो” - राघवाचारी उतावले स्वर में बोला - “चलो यहां से । सब ठीक है यहां ।”
और वह घूमकर बाहर की ओर बढ़ चला ।
उसी क्षण नायर को याद आ गया कि उसने अपने सामने खड़े आदमी को कहां देखा था । वह आदमी माउंट रोड के टेलीग्राफ ऑफिस में क्लर्क था । टेलीग्राफ ऑफिस में नायर कई बार तार करवाने जाता था और उसने राजाराव को वहां देखा था ।
भला टेलीग्राफ ऑफिस का एक मामूली क्लर्क इतने शानदार बंगले का स्वामी कैसे हो सकता था !
नायर के कानों में खतरे की घन्टियां बजने लगीं । उसे विश्वास हो गया कि वह सही ठिकाने पर पहुंच गया था ।
तब तक राघवाचारी बंगले के फाटक पर पहुंच चुका था ।
पोनाप्पा, जो बड़ी गौर से नायर को देख रहा था, समझ गया कि कोई गड़बड़ थी ।
दोनों की निगाहें मिलीं । नायर ने गम्भीरता से सिर हिलाया और फिर बंगले में प्रविष्ट हो गया । रायफल पर उसकी पकड़ मजबूत हो गई थी ।
“अरे क्या कर रहे हो वहां ?”
किसी ने उसकी पुकार पर ध्यान नहीं दिया ।
पोनाप्पा अपनी रायफल सम्भाले नायर के पीछे बढ़ा ।
“तुम वहीं ठहरो” - नायर तीव्र स्वर में बोला - “और मुझे कवर करके रखो ।”
पोनाप्पा ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया । वह सतर्कता की प्रतिमूर्ति बना द्वार के समीप खड़ा रहा ।
नायर ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
सबसे पहले उसकी निगाह ड्राइंगरूम की मेज पर पड़ी बड़ी सी ऐश ट्रे पर पड़ी । वह सिगरेट के टुकड़ों से ऊपर तक भरी हुई थी ।
क्या एक आदमी ने इतने सिगरेट पिये थे ?
राजाराव पोनाप्पा से थोड़ी दूर द्वार पर खड़ा रहा ।
नायर किचन में पहुंचा ।
किचन में तीन जूठी प्लेटें, तीन जूठी कटोरियां, तीन जूठे गिलास और तीन जूठे चम्मच पड़े थे ।
नायर के शरीर के रोंगटे खड़े होने लगे ।
बड़ी सावधानी से वह सारे बंगले में फिर गया ।
कोई दूसरा आदमी उसे कहीं दिखाई नहीं दिया ।
वह वापिस ड्राइंगरूम में आ गया ।
उसने सिर उठाकर बरसाती की ओर देखा ।
अगर वे लोग बंगले में कहीं थे तो बरसाती में थे ।
वह राजाराव के पास पहुंचा ।
“तुम्हारा नाम क्या है, मिस्टर ?” - नायर कर्कश स्वर में बोला ।
राजाराव सकपका गया । अभी थोड़ी देर पहले तक वह पुलिस वाला उससे बड़ी इज्जत से बात कर रहा था और अब एकाएक उसके स्वर में कर्कशता आ गई थी । वह समझ गया कि उसे किसी प्रकार विमल और वीरप्पा की सूंघ लग गई थी ।
“राजाराव ।” - राजाराव प्रत्यक्षतः शांति से बोला ।
“तुम माउन्ट रोड के टेलीग्राफ ऑफिस में काम करते हो ?
राजाराव के चेहरे का रंग उड़ गया ।
“और झूठ बोलने की कोशिश मत करना । मैंने तुम्हें पहचान लिया है ।”
राजाराव के मुंह से बोल नहीं फूटा ।
“ऊपर बरसाती में कौन-कौन हैं ?”
“क- क- क्या कह रहे हो ?”
“तुम सुन रहे हो मैं क्या कह रहा हूं । यह बंगला तुम्हारा नहीं है । टेलीग्राफ ऑफिस का कोई मामूली क्लर्क इतने बड़े बंगले का मालिक नहीं हो सकता । यह बंगला स्टेडियम लूटने वाले डाकुओं में से किसी का है और इस वक्त वे लोग ऊपर बरसाती में छुपे हुए हैं ।”
“प- पता नहीं तुम किन... ल... लोगों की बात कर रहे हो !”
राजाराव हकलाकर बोला ।
“पोनाप्पा !” - नायर बोला - “फौरन चारी को बुलाकर लाओ ।”
“पोनाप्पा भागकर बरामदे में पहुंचा । उसने आवाज देकर गेट पर खड़े राघवाचारी को वापिस आने के लिए कहा ।”
राघवाचारी दोनों को कोसता हुआ वापिस आ गया ।
पोनाप्पा फिर ड्राइंगरूम में आ गया ।
राघवाचारी भी वहां पहुंचा ।
“वे लोग बरसाती में छुपे हुए हैं” - नायर बोला - “तुम इस आदमी को हिरासत में ले लो ।”
राघवाचारी के मुंह से सिसकारी निकल गई । उसने कांपते हाथों से अपनी रायफल सीधी की और उसे राजाराव की ओर तान दिया ।
“अपने हाथ ऊपर उठा लो और बाहर चलो ।” - राघवाचारी अपने स्वर को भरसक सन्तुलित करता हुआ बोला ।
राजाराव ने तत्काल हाथ सिर से ऊपर उठाये और लड़खड़ाते कदमों से बाहर की ओर बढ़ा ।
बरसाती में छुपे विमल और वीरप्पा नीचे हो रही सारी बातें सुन रहे थे ।
वीरप्पा बड़ी तीव्रता से यह अनुभव कर रहा था कि उसकी वजह से राजाराव फंसा जा रहा था । उसने अपनी जेब से रिवॉल्वर निकाल ली । वह बरसाती में से सरक कर सीढ़ियों पर आ गया । उसने अपनी रिवॉल्वर सीधी की और राघवाचारी को उसका निशाना बनाकर धीरे से ट्रीगर दबा दिया ।
फायर की आवाज से सारा बंगला गूंज गया ।
राघवाचारी के मुंह से एक चीख निकली । उसके हाथ से रायफल निकलकर फर्श पर गिर गई । उसकी यूनीफार्म के सामने के हिस्से में एक लाल धब्बा उभरा और तेजी से वृत्ताकार में फैलने लगा और फिर उसका भारी शरीर कटे वृक्ष की तरह फर्श पर आ गिरा ।
पोनाप्पा ने अपनी रायफल छत की ओर तानी और एक के बाद एक फायर करने आरम्भ कर दिए ।
रायफल की कई गोलियां वीरप्पा के शरीर में धंस गई । वह सीढ़ियों की रेलिंग पर उलट गया । बड़ी कठिनाई से उसने अपना रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा किया और पोनाप्पा की ओर फायर झोंक दिया ।
गोली पोनाप्पा के कन्धे में लगी । रायफल उसके हाथ से निकल गई और वह मुंह के बल फर्श पर गिर गया ।
नायर ने अपनी रायफल से फायर किया ।
गोली वीरप्पा की छाती में लगी । वह रेलिंग पर से उलट कर पके फल की तरह नीचे राघवाचारी के ऊपर आकर गिरा ।
नायर ने पोजीशन ले ली और ऊपर बरसाती में फायर करने लगा ।
विमल रिवॉल्वर हाथ में लिए बरसाती में छुपा हुआ था । अभी तक उसने एक भी फायर नहीं किया था ।
“बाहर निकल आओ, हरामजादो” - नायर गर्जा - “वर्ना भूनकर रख दूंगा ।”
नायर समझ रहा था कि उधर दो आदमी थे । उसे नहीं मालूम था कि अब्राहम मर चुका है ।
उस दौरान नायर का ध्यान राजाराव की ओर से एकदम हट गया था । जहां राजाराव खड़ा था, उसके समीप ही वह मेज थी जिस पर सिगरेट के टुकड़ों से भरी शीशे की भारी ऐश ट्रे पड़ी थी । राजाराव ने ऐश ट्रे उठा ली और फिर उसे पूरी शक्ति से नायर की ओर फेंक मारा ।
भारी ऐश ट्रे भड़ाक से आकर नायर की कनपटी से टकराई । उसके हाथ से रायफल गिर गयी और वह फर्श पर लोट गया ।
राजाराव ने देखा रास्ता साफ था । वह वीरप्पा और राघवाचारी के निश्चेष्ट शरीरों को फांदता हुआ बंगले से बाहर भाग निकला ।
एकाएक बंगले में मौत का सन्नाटा छा गया ।
***
दो बजे करीब एक और आदमी झिझकता हुआ पुलिस स्टेशन पहुंचा । वह भी एक टैक्सी ड्राइवर निकला जो कि पुलिस को अपनी एक ऐसी सवारी के बारे में बताना चाहता था जिस का रिश्ता पिछली रात की स्टेडियम की डकैती से हो सकता था ।
उसे फौरन सुपरिन्टेन्डेन्ट राजागोपाल के पास ले जाया गया ।
“वह एक झब्बेदार बालों वाला क्रिश्चियन था” - टैक्सी ड्राइवर ने बताया - “जो स्टेडियम के पास से मेरी टैक्सी में बैठा था । उसको मैं सूर्यनारायण रोड छोड़ने गया था । उसके बाद मैं अपने घर लौट गया था । आज दोपहर को ही मैंने टैक्सी दोबारा वापिस निकाली थी । तभी मैंने देखा था कि टैक्सी की पिछली सीट सारी की सारी खून से तर थी । तब मुझे अपनी कल की आखिरी सवारी याद आयी थी । तब मुझे यह बात भी बड़ी अजीब लगी थी कि वह सवारी जिस साइकल पर सवार थी, उसे उसने यूं ही लावारिस सड़क पर फेंक दिया था । फिर आज के अखबार में मैंने डकैतों का हुलिया पढ़ा तो उसमें से एक का हुलिया मुझे अपनी कल की सवारी से मिलता-जुलता लगा । मैं फौरन यहां आ गया, साहब ।”
“तुमने बहुत अच्छा किया ।” - राजगोपाल बोला - “उस सवारी को तुम सूर्यनारायण रोड पर छोड़ कर आये थे ?”
“जी हां ।”
“सूर्यनारायण रोड पर कहां ?”
“एक बंगले के सामने ।”
“कौन से बंगले के सामने ?”
“नम्बर तो मैंने देखा नहीं था, साहब ।”
“उस बंगले को दोबारा ढूंढ सकते हो ?”
“बिल्कुल ढूंढ सकता हूं, साहब ।”
“पक्की बात ?”
“हां, साहब ।”
“शाबाश ! तुम्हारी वो सवारी तुम्हारी आंखों के सामने उस बंगले में दाखिल हुई थी ?”
“कम्पाउण्ड में दाखिल हुई थी, साहब । फिर मैंने उसे मेन डोर पर जाकर ताले की चाबी लगाने की कोशिश करते भी देखा था । उसके बाद मैं वहां से चला आया था ।”
“वैरी गुड ! वैरी गुड ! चलो, चलकर वो बंगला दिखाओ ।”
***
विमल हाथ में रिवॉल्वर लिये बरसाती से बाहर निकला और सावधानी से सीढ़ियां उतरता नीचे ड्राइंग रूम में आ गया ।
वह तेजी से बंगले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ा ।
“विमल !” - उसके कानों में वीरप्पा का क्षीण स्वर पड़ा ।
विमल ने घूमकर देखा । वीरप्पा अधखुले नेत्रों से उसकी ओर देख रहा था । वह आधी दर्जन गोलियों का शिकार हुआ था, वह इतनी ऊंचाई से नीचे गिरा था लेकिन फिर भी जिन्दा था ।
विमल घुटनों के बल उसे ऊपर झुक गया ।
“क्या कहना चाहते हो, वीरप्पा ?” - वह धीरे से बोला ।
“विमल !” - वीरप्पा बड़ी कठिनाई से बोल पा रहा था - “म- मैं- मर- रहा हूं । लेकिन मैं- तुम्हें- एक-एक बात क-कह कर- मरना चाहता हूं ।”
“बोलो वीरप्पा, बोलो । क्या कहना चाहते हो ?”
“म... महाबली... पुरम की ओर.. ज.. जाने वाली सड़क... पर... पर.. सत्रहवें मील के.. पत्थर के पास बाईं ओर... एक... एक कच्ची सड़क... हं.. हं.. .हं.. .मुड़ती है ।. .. उस पर.. आधा मील.. आगे एक घनी झाड़ियों का.. झुंड है । उसके.. प... पास एक... ग... गुफा है जिसमें जयशंकर छुपा... हुआ है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - विमल हैरानी से बोला ।
“सुनते जाओ... जयशंकर का इरादा.. किसी को.. एक नया पैसा.. देने का नहीं था ।.. उसने पहले से ही... सबको धोखा देने का इरादा किया... हुआ था । केवल मुझे... उसने तीस लाख रुपये देने का.. वादा.. वादा किया था लेकिन अब.. अब मुझे.. महसूस हुआ है कि.. हाय.. उसका ऐसा कोई... इरादा.. न... नहीं था । उसने मुझे.. ऐसा.. ऐसा इसलिए... क... कहा था - क्योंकि उस वक्त ...उसे मेरी मदद की... जरूरत थी । वह अपनी.. एम्बैसेडर कार को वहां... छुपी छोड़ आया था.. औ.. और उसे वहां से वापिस बीस मील.. शहर लाने के लिये... किसी की मदद... की जरूरत थी ।... मैं उसे.. .स्कूटर पर बिठाकर.. वापिस लाया था ।”
“यानी कि सारी दौलत के साथ जयशंकर वहां उस गुफा में छुपा हुआ है ?”
“हां । और... वो वहां से... एक महीने.. से.. प... पहले.. पहले नहीं निकलेगा । विमल... मेरी प्रार्थना है... कि तुम... उस नीच आदमी को.. स.. सारी दौलत अकेले.. मत हड़पने देना ।”
वीरप्पा चुप हो गया । उसके मुंह से खून की एक पतली-सी लकीर फूट निकली ।
“और... और...” - वह बड़ी कठिनाई से फिर बोला - “मुझे माफ करना.. म... मैंने.. यह बात... तुमसे और.. और बाकी.. साथियों से... छुपा... छुपाकर रखी ।”
“तुमने अभी अपने स्कूटर का जिक्र किया था ।” - विमल बोला - “वह कहां है ?”
“गैरेज में ।” - वीरप्पा बोला - “म- मैं जा रहा हूं.. मेरे.. मेरे भाई । तुम... अब.. जयशंकर को मत.. छोड़ना । तुम...”
वीरप्पा की आंखें उलट गई ।
विमल ने जल्दी से वीरप्पा की जेब में हाथ डाला । उसकी जेब में जितने रुपये मौजूद थे, वे सब विमल ने अपनी पतलून की पिछली जेब में खोंस लिये । फिर वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ । उसने एक आखिरी दृष्टि वीरप्पा पर डाली और फिर बंगले से बाहर निकल गया । उसने गैरेज में से स्कूटर निकाला और उस पर सवार होकर तेजी से बंगले से बाहर निकल गया ।
वह जल्दी से जल्दी सूर्यनारायण रोड से ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाना चाहता था ।