मैं चिहुंक कर घूमा । कार की पिछली सीट पर निगाह पड़ते ही मेरा दिल जोर से उछला ।
कार में पिछली और अगली सीट के बीच फर्श पर एक जनाना लाश पड़ी थी । उस क्षण खुशीराम की टार्च की रोशनी लाश के चेहरे पर पड़ रही थी । मुझे उसकी पथराई हुई आंखे साफ दिखाई दीं । उसके मुंह से बाहर लटकती उसकी फूली हुई जुबान साफ बता रही थी कि उसे गला घोंट कर मारा गया था । उसकी एक कनपटी पर चोट का एक ताजा निशान दिखाई दे रहा था ।
उसकी मौत से कहीं ज्यादा हैरानी की बात मेरे लिए यह थी कि उसकी लाश मेरी कार में से बरामद हो रही थी ।
“पहले कनपटी पर वार करके इसे बेहोश किया गया मालूम होता है” - सब-इन्स्पेक्टर कह रहा था - “और फिर बाद में गला घोंटा गया लगता है ।”
“बेचारी” - मेरे मुंह से निकला - “खामखाह मर गयी ।”
“खामखाह नहीं मर गई, साले ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला, उसने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली - “तेरे मारे मरी । अब भागने की कोशिश की तो गोली ।”
“मैंने उसे नहीं मारा । “
“पकड़े जाने पर सभी यही कहते हैं ।”
“लेकिन....”
“तेरी बातों से लगता है कि तू इसे पहचानता है ?”
मेरी गर्दन अपने आप ही सहमति में हिल गई ।
“कौन है ये ?”
“श्रीलेखा ।”
“वही लड़की जो अपने होस्टल के कमरे में खतरे में थी और जिसे बचाने के लिए तू कर्जन रोड जा रहा था ?”
“हां” - मैं फंसे स्वर में बोला ।
“शाबाश ! क्या कहानी घड़ी है ! नब्बे की रफ्तार से गाड़ी चलाता तू उस लड़की को बचाने के लिए उड़ा जा रहा था जो पहले ही तेरी कार में मरी पड़ी थी !”
मैं खामोश रहा । क्या जवाब देता मैं !
“इसे हथकड़ी डालो ।”
तुरन्त मेरे हाथों में हथकड़ी डालकर मुझे जीप की ओर धकेला जाने लगा ।
केस कत्ल का था इसलिए मेरी पेशी इन्स्पेक्टर यादव के ही सामने हुई । उस वक्त उसकी सूरत से साफ जाहिर हो रहा था कि उसे सोते से जगाकर घर से बुलाया गया था ।
“हूं” - यादव थके स्वर में बोला - “तो तुम्हें मालूम नहीं था कि लड़की की लाश तुम्हारी कार में मौजूद थी ?”
“नहीं ।” - मैं बोला ।
“अब तुम यह भी चाहोगे कि तुम्हारी इस बात पर विश्वास कर लिया जाये ।”
“जो हकीकत है उस पर विश्वास किया ही जाना चाहिए ।”
“अभी सामने आ जाएगी हकीकत । तो तुम कहते हो कि मरने वाली ने तुम्हें फोन किया था ।”
“पहले कहता था, अब नहीं कहता ।”
“मतलब ?”
“उसने मुझे फोन किया नहीं हो सकता । वो एक ही वक्त में दो जगह - लाश की सूरत में मेरी कार में और मुझे टेलीफोन करती अपने होस्टल के कमरे में - मौजूद नहीं हो सकती थी ।”
“आई सी ।”
“एक बात और भी है जो पहले हड़बड़ी में और नशे में होने की वजह से मुझे नहीं सूझी थी लेकिन अब याद आ गई है ।”
“क्या ?”
“उसने फोन पर कहा था कि कोई उसके कमरे के दरवाजे को जबरदस्ती खोलकर भीतर दाखिल होने की कोशिश कर रहा था । उसने यह भी कहा था कि वह अपने होस्टल के कमरे से बोल रही थी ।”
“तो ?”
“उसके होस्टल के कमरे में फोन है ही नहीं ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“मैं उस कमरे में एक बार जा चुका हूं । मुझे बखूबी याद है कि वहां फोन नहीं था ।”
“यानी कि फोन तुम्हें किसी और ने किया था ?”
“हां ।”
“बशर्ते कि ऐसा कोई फोन हुआ हो ।”
“मैं फोन की बाबत झूठ क्यों बोलूंगा ?”
“लाश तुम्हारी कार में कैसे आ गई ?” - उसने मेरे सवाल की तरफ ध्यान दिए बिना सवाल किया ।
“मुझे नहीं मालूम ।”
“कोई अन्दाजा ?”
“जाहिर है किसी ने मुझे फंसाने के लिए लाश को मेरी कार में प्लांट किया था ।”
“किसने ?”
“जिस किसी ने भी कत्ल किया !”
“तुम अपनी कार को ठीक से ताला लगा कर नहीं रखते ?”
“रखता हूं लेकिन मेरी सैकेंडहैण्ड फियेट कार का, जो हमेशा लावारिस सी फुटपाथ पर खड़ी रहती है, ताला खोल लेना किसी के लिए क्या बड़ी बात रही होगी ?”
“मरने वाली तुम्हारी क्लायन्ट थी ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“नहीं ।”
“लेकिन पेट्रोल कार के सब-इन्स्पेक्टर को तो तुमने यही कहा था ।”
“वो तो मैंने यूं ही कह दिया था ।”
“यह जानने का कोई तरीका, कोई फारमूला है , कि कौन सी बात तुम यूं ही कह देते हो और कौन सी बात हकीकत के तौर पर बयान करते हो ?”
मैंने उत्तर न दिया ।
“तुम लड़की को कब से जानते हो ?”
“कल से । मैं उससे सिर्फ दो बार मिला हूं । एक बार जब वह दिन में तुम्हीं लोगों द्वारा खरबंदा के फ्लैट पर तलब की गई थी और दूसरी बार जब मैं कल ही रात को उसके होस्टल के कमरे में उससे मिला था ।”
“बस ?”
“हां ।”
“कल रात उसके होस्टल में उससे मिलने से पहले तुमने सिकन्दरा रोड पर उसके मंडी हाउस वाले सिरे के करीब उसे अपनी उसी फियेट कार के नीचे देने की कोशिश नहीं की थी जिसमें से कि अब उसकी लाश बरामद हुई है ?”
मैं सकपकाया ।
“हैरान हो गये न ?”
“कैसे जाना ?”
“कल जब तुम्हें खरवन्दा के फ्लैट से चले जाने की इजाजत दी गई थी तो तभी मैंने अपना एक आदमी तुम्हारे पीछे लगा दिया था ।”
“क्यों ?”
यही जानने के लिए कि इस बार हमारे खुफिया जासुस साहब कहां कहां जाते थे, क्या क्या गुल खिलाते थे ।”
“अगर कोई पुलसिया यूं मेरी निगरानी कर रहा था तो उसने किसी को मेरी कार मे लड़की की लाश प्लांट करते क्यों नही देखा ?”
“उसने तुम्हारी निगरानी तुम्हारे अपने घर पहुंच जाने तक ही की थी । उसे तुम्हारे दोबारा फ्लैट से बाहर निकलने की उम्मीद नहीं थी ।”
“ओह !”
“उस एक्सीडेन्ट की बात छुपाने का मकसद ?”
“कोई मकसद नहीं । वो रात वाली मुलाकात का ही हिस्सा था इसलिए मैंने उसका जिक्र जरूरी नही समझा था ।”
“हमारा आदमी कहता है कि तुमने जानबूझकर लड़की को कार के नीचे देने की कोशिश की थी ।”
वो बकवास करता है । अगर वो आंखें खोलकर देख रहा होता तो उसने यह भी देखा होता कि लड़की को किसी ने पीछे से धक्का दिया था । उसने धक्का देने वाले को भी देखा होता ।”
“वह कहता है कि तुमने जानबूझकर कार से उसका रास्ता काटा था । तुम गैलेक्सी थिएटर से उसके निकलते ही उसके पीछे लग गये थे ।”
“दुरुस्त । लेकिन सिर्फ उससे बात करने का कोई मुनासिब मौका तलाश करने के लिए, न कि उसे एक भरी पूरी सड़क पर अपनी कार के नीचे कुचल देने के लिए । यादव साहव, कोई वजह तो हो ऐसी मूर्खतापूर्ण हरकत करने की ।”
“वो तुम्हारी कार के नीचे आते आते बची थी ।”
“किसी और की करतूत को वजह से ।”
“तुम उसके पीछे लगे हुए थे !”
“सिर्फ उससे बात करने की खातिर ।”
“किस बारे में ?”
“उसी कटे बालों वाली युवती के बारे में जो मुझे खरबन्दा के फ्लैट में मौजूद मिली थी ।”
अभी भी क्यों ? वो किस्सा तो कल दोपहर ही खत्म हो गया था ।”
“किसे बेवकूफ बना रहे हो, यादव साहब । अगर वो किस्सा खत्म हो गया हुआ होता तो क्या तुमने मेरी निगरानी के लिए मेरे पीछे अपना आदमी लगाया होता ! कटे बालों वाली युवती के किस्से के एक ही पहलू का तुमने पीछा छोड़ा था, कोई दूसरा या तीसरा या चौथा पहलू तुम्हें बाद में भी सूझ सकता था । किसी को एक बार छोड़ देना, इस बात का सबूत नही होता कि तुम्हारी जरूरत या ख्वाहिश के मुताबिक वो दोबारा नहीं पकड़ा जाएगा ।”
यह तो ठीक है । दोबारा तो तुम पकड़े जा भी चुके हो ।”
“खामखाह ।”
“खामखाह! एक कत्लशुदा लाश के साथ अपनी गिरफ्तारी को तुम खामखाह कहते हो ।”
“तुम क्या समझते हो कि मैंने उस लड़की का कत्ल किया है ।”
“क्यों न समझूं ?”
“क्योंकि ऐसा कोई निरा अहमक ही समझ सकता है और तुम मुझे ऐसे अहमक नहीं मालूम होते ।”
“जुबान सम्भाल कर बात करो” - यादव भड़का ।”
“मैंने कोई बात जुबान सम्भाले बिना मुंह से नहीं निकाली । अन्धे को भी दिखाई दे रहा है कि मुझे फंसाने की कोशिश की गई है लेकिन सिर्फ तुम लोगों को नहीं दिखाई दे रहा ।”
“हम अन्धे नहीं ।”
“अफसोस की बात है । होते तो दिखाई दे जाता ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “यादव, जरा सोचो । यह क्योंकर मुमकिन हो सकता है कि पहले तो मैं खुद अपनी कार की चोरी की रिपोर्ट दर्ज करवाऊं और फिर ट्रैफिक के तमाम नियमों की अवहेलना करता हुआ उसी कार को सड़कों पर उड़ाता फिरूं ताकि पुलिस पेट्रोल की तवज्जो मेरी तरफ न भी जानी हो तो जाए ! और वो भी तब जब कि मेरी हो कथित करतूत के अंजाम के तौर पर एक लाश मेरी कार में मौजूद हो । यादव साहब, अगर मैं इतना ही अहमक हूं तो जेल में नहीं, पागलखाने में बन्द किए जाने के काबिल केस हूं ।”
अपने कथन की कोई प्रतिक्रिया यादव के चेहरे पर देखने के लिए मैं फिर तनिक ठिठका और फिर बोला - “लड़की किसी नामालूम झमेले में फंसी हुई थी । कल रात जव मैं उससे मिला था तो मैंने उसे निहायत खौफजदा पाया था । तभी कार के आगे धक्का देकर उसकी जान लेने की कोशिश होकर हटी थी । वो कोशिश नाकाम रही थी इसलिए दूसरी कोशिश आज रात को की गई थी जो कि कामयाब हुई थी । जिस किसी ने भी लड़की का कत्ल किया था, जरूर उसकी मेरे से कोई रंजिश थी । इसी वजह से उसने लाश को फुटपाथ पर लावारिस खड़ी मेरी कार में प्लांट कर दिया था और फिर खुद को सुधीर कोहली बताकर उसी कार के चोरी चली जाने की रिपाट दर्ज करवा दी थी । तब उसने मुझे वो फर्जी टेलीफोन काल करवायी थी जिसे सुनकर मैं आनन फानन अपनी कार पर सवार हुआ था और अन्धाधुन्ध कार चलाता हुआ कर्जन रोड की ओर दौड़ चला था । फिर जैसी कि उसे उम्मीद थी, जैसा कि वो चाहता था, मैं पुलिस हाथों में पड़ गया था ।”
“फोन पर तुमने क्यों न पहचाना कि आवाज मरने वाली की नहीं थी ?”
“क्योंकि कोई जानबूझकर यूं आवाज बिगाड़कर या शायद माउथपीस पर कपड़ा रखकर बोल रही थी कि मैं यही समझूं कि लाइन में कोई खराबी थी जिसकी वजह से मुझे आवाज साफ नहीं सुनाई दे रही थी ।”
“लड़की ने जब अपने सिर पर मंडराते ऐसे किसी खतरे का जिक्र किया था तो तुम्हें फौरन पुलिस को खबर करनी चाहिए थी ।”
“काहे को ! जिसके सिर पर खतरा मंडरा रहा था जब वही पुलिस को खबर नहीं कर रही थी तो मैं क्यों करता ? यह तो वही मसल हुई कि तू कौन मैं खामखाह । इतना क्या कम था कि उसकी फरियाद सुन कर मैं अपने फ्लैट का आराम छोड़ कर उसकी तरफ दौड़ चला था ?”
वह खामोश रहा ।
“मैंने पुलिस को खबर की भी होती तो क्या फायदा होता । असल में तो लड़की पहले ही मर चुकी थी । पुलिस उसके होस्टल में पहुंच भी जाती तो उसे क्या हासिल होता । वो टेलीफोन काल तो झूठी थी । लडकी तो जरूर उस काल के वक्त भी मेरी कार में मरी पड़ी थी ।”
“अब तुम क्या चाहते हो ?”
“मैं क्या चाहता हूं । अरे, यह बताओ कि तुम क्या चाहते हो ? मैं तो लड़की के कत्ल के इलजाम में गिरफ्तार हूं । मैं तो रिहाई ही चाह सकता हूं ।”
“कल जब तुम उससे मिले थे तो उसने तुम्हें कतई कोई इशारा नहीं दिया था कि वह क्यों भयभीत थी ?”
“नहीं ।”
“ऐसा तो नहीं कि तुम कुछ छुपा रहे होवो ?”
“बाई गाड, नही । वो मेरी क्लायंट होती तो बात और थी ।”
“खरबन्दा और पंचानन मेहता मे कोख का कलंक को लेकर जिस अदावत की नींव पड़ रही थी, उसकी उसे खबर थी ?”
“पता नहीं ।”
“तुम उस केस के बारे में क्या जानते हो ?”
“वही जो पंचानन मेहता ने मुझे बताया है । मुझे लगता है कि उस के केस में दम है ।”
“तुम्हारा काम क्या है ?”
“उस दम के हक में सबूत खोजना ।”
“खोज पाये ?”
“फिलहाल नहीं लेकिन कोशिश जारी है ।”
“कामयाबी की उम्मीद है ?”
“अभी क्या कहा जा सकता है । अभी तो मैंने तफ्तीश शुरू की है ।”
“तुम कुछ छुपा तो नहीं रहे ?”
“नहीं” - मैं बड़ी सहूलियत से झूठ बोलता हुआ बोला ।
“कुछ जान पाओगे, खास तौर से मरने वाली की बैकग्राउंड की बावत कुछ जान पाओगे, तो पुलिस को खबर करोगे ?”
“नहीं ।”
“क्या ?” - यादव आंखें निकाल कर बोला ।
“पुलिस को खबर नहीं करूंगा लेकिन अपने दोस्त देवेन्द्र कुमार यादव, इन्स्पेक्टर दिल्ली पुलिस, को जरूर खबर करूंगा ।”
“एक ही बात है ।”
तभी पेट्रोल ड्यूटी वाला वो सब-इस्पेक्टर कमरे में दाखिल हुआ जिसने मुझे गिरफ्तार किया था ।
यादव ने प्रशनसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
उसने एक जनाना पर्स यादव के सामने मेज पर डाल दिया ।
“क्या है ?” -यादव वोल। ।
“एक जनाना पर्स है, साहब” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“इतना मुझे दिखाई देता है । किसका है ?”
“मरने वाली का ।”
“कहां से मिला ?”
“इसके फ्लैट में से” - सब-इन्स्पेक्टर ने खंजर की तरह अपनी एक उंगली मेरी तरफ भौंकी - “यह इसकी बैठक के सोफे के एक कुशन के नीचे से बरामद हुआ है ।”
मैंने एक आह भरी ।
कोई निश्चय ही हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ा हुआ था ।
“तो” - यादव कहरभरे स्वर में बोला - “मरने वाली ने कभी तुम्हारे फ्लैट में कदम नहीं रखा था । उसने सिर्फ फोन किया था तुम्हें । लेकिन उसका पर्स खुद चल कर या उड़कर तुम्हारे फ्लैट न पहुंच गया । लड़की खुद कत्ल होने के लिए रास्ते में कहीं रुक गयी लेकिन उसने अपना पर्स आगे रवाना कर दिया जो कि खुद तुम्हरे फ्लैट की बैठक में पहुंच गया । ठीक ! यही बात है न, मिस्टर सुधीर कोहली ?”
मैं खामोश रहा ।
“बोलो ! जवाब दो ।”
“मेरा जबाव यह है कि जैसे लड़की की लाश मेरी कार में प्लांट की गई थी, वैसे ही उसका पर्स मेरे फ्लैट में प्लांट किया गया था । लड़की के कत्ल के बाद उसके कातिल ने जब लाश मेरी कार में रखी थी तो उसका पर्स अपने कब्जे में कर लिया था । मेरे लाश के समेत कार पर रवाना हो जाने के बाद वह मेरे फ्लैट में घुसा था और उसने यह पर्स वहां छुपा दिया था जहां से कि यह बरामद हुआ था ।”
“इस बार एक बात कहना भूल गए ।”
“क्या ?”
“अन्धे को भी दिखाई दे रहा हे ।”
“पर्स की मेरे फ्लैट से बरामदी क्या साबित करती है, यादव साहब ?”
“यही कि लड़की तुम्हारे फ्लैट पर पहुंची थी ।”
“जहां कि मैंने उसका कत्ल कर दिया था ।”
“बेशक ।”
“और फिर उसके पर्स को अपनी बैठक में पुलिस द्वारा बरामदी के लिए छोड़ कर और लाश को अपनी ही कार में डाल कर सड़क पर दौड़ चला था ताकि पुलिस मुझे गिरफ्तार कर ले । और गिरफ्तारी में कोई दिक्कत न हो, इस के लिए मैंने पहले ही पुलिस को फोन कर के अपनी कार की चोरी की रिपोर्ट लिखवा दी थी ।”
यादव ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि दरवाजा फिर खुला और उसी मैडीकल एग्जामिनर ने भीतर कदम रखा जिसे मैंने कल खरवन्दा के फ्लैट पर भी देखा था ।
यादव ने प्रश्न सूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“मैंने लाश का मुआयना किया है” - डाक्टर बोला - “मेरा मुआयना कहता है कि लड़की की गला घोंट कर हत्या की गई है और गला घुटते वक्त वह कनपटी पर पड़ी चोट की वजह से बेहोश थी ।”
“यह कैसे कहा जा सकता है ?”
“गला घुटने पर प्राणी बहुत तड़पता है और हाथ पांव पटकता है । अगर वह होश में होती तो ऐसी हाथापायी और तड़पन ने उसके जिस्म पर आततायी के साथ गुत्थमगुत्था हुए होने के कोई निशान जरूर छोड़े होते ।”
“कत्ल का वक्त ?”
“लाश कब बरामद हुई थी
“कोई सवा ग्यारह बजे” - जवाब पैट्रोल ड्यूटी वाले सब-इन्स्पेक्टर ने दिया ।
“तो फिर कत्ल कोई सवा दस बजे, यानी कि उससे एक घंटा पहले हुआ था ।”
“सवा दस बजे” - यादव मेरी तरफ घूमा - “तुम कहां थे ?”
“अपने फ्लैट में ।” - मैं बोला ।
“अकेले ?”
“हां ।”
“साबित कर सकते हो ?”
“मुझे मालूम होता कि मैं कत्ल के किसी केस में फंसने वाला था और मुझे एलीबाई की जरूरत पड़ सकती थी तो मैं कोई गवाह अपने साथ लेकर सोता ।”
“लड़की तुम्हारे फ्लैट पर क्यों आई ?”
“कौन कहता है वो मेरे फ्लैट पर आई ?”
“उसका तुम्हारी बैठक से बरामद पर्स कहता है । उसकी तुम्हारे फ्लैट वाली इमारत के सामने खड़ी तुम्हारी फिएट कार सें बरामद लाश कहती है ।”
“पर्स पर्स की जगह पहुंचाया जा सकता है । लाश लाश की जगह पहुंचाई जा सकती है ।”
“तुम इस बात से भी इनकार करते हो कि वह तुम्हारे से मिलने आ रही थी ।”
“मेरे पास लड़की की आवाजाही का कोई रिकार्ड नहीं । मुझे नहीं मालूम कि अपनी मौत के वक्त वो कहां थी, कहां से आ रही थी या कहां जा रही थी ।”
यादव खामोश रहा । वह कुछ क्षण खामोशी सें बैठा एक हाथ से कुर्सी का हत्था ठकठकाता रहा और फिर एकाएक बोला - “उठो ।”
मैं हड़बड़ाया ! मैंने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“सुना नहीं ।” - वह घुड़क कर बोला ।
मैं तत्काल उठ खड़ा हुआ ।
“आओ तुम्हें बाहर तक छोड़ कर आऊं ।”
“बाहर तक !” - मैं संदिग्ध भाव से बोला ।
“ताकि तुम घर जा सको ।”
“ओह ! ओह ! दैट्स गुड न्यूज । थैंक्यू । थैंक्यू ।”
वह मेरे साथ बाहर सड़क तक आया ।
“अब यहां तुम्हारे और मेरे सिवाय कोई नहीं” - यादव बड़ी गम्भीरता से बोला - “अब बोलो क्या माजरा है ?”
“माजरा ।”
“मैं मान लेता हूं कि लड़की का कत्ल तुमने नहीं किया लेकिन उस सूरत में यह भी मानना पड़ेगा कि लड़की तुमसे मिलने आ रही थी और उसे तुम्हारे तक पहुंचने से रोकने के लिए उसका कत्ल किया गया था । अब बोलो, लड़की अगर इतनी रात गए तुम्हारे पास आ रही थी तो क्यों आ रही थी ।”
“मुझे जानकारी देने के लिए ।” - मैं धीरे से बोला ।
“कैसी जानकारी ?”
“जो मुझे उससे हासिल होने की उम्मीद थी ।”
उसने कहरभरी निगाहों से मेरी तरफ देखा ।
“मैं ...मेरा... मेरा मतलब है कि...”
फिर मैंने उसे न सिर्फ यह बताया कि मरने वाली के माध्यम से मैं कोख का कलंक के लेखक का अता पता हासिल होने की उम्मीद कर रहा था बल्कि उसे मोटे तौर पर बाकी सारी कहानी भी कह सुनाई ।
“लेखक का पता वो कैसे हासिल कर सकती थी ?” - यादव बोला ।
“उसके रायल्टी एकाउंट से । किसी ऐसे वाउचर से जिस पर उसका नाम पता हो । उस चैक से जो वह खरबन्दा से हासिल करके अपने एकाउन्ट में जमा कराता हो ।”
“जैसे यह है ?”
उसने एक भुगतान किए जा चुके चैक की फोटोकापी मुझे थमा दी ।
मैं सकपकाया । लैम्पपोस्ट की रौशनी में मैंने उस पर निगाह डाली । वह हर्षवर्धन के नाम काटा गया बारह हजार रूपये का एक चैक था जिसके नीचे कल्याण खरबन्दा के साइन थे । चैक बियरर था इसलिए मैंने फोटोकापी को उलट कर देखा ।
“पीछे चैक भुनाने भुनाने वाले के जो साइन हैं ।” - यादव बोला - “वो हर्षवर्धन के नहीं हैं, कोई और ही नाम लिखा है जो ऐसी घसीट में है कि ठीक से पढ़ा नहीं जा रहा । शायद नारायणदास है ।”
“बियरर चैक तो कोई भी भुनवा सकता है” - मैं बोला ।
“जाहिर है ।”
“इससे तो कुछ भी मालूम नहीं होता ।”
“सिवाय इसके कि चैक हर्षवर्धन को मिला है और उसने अपना कोई आदमी बैंक भेजकर उसे भुनवाया है ।”
“हूं ।”
“कोहली साहब, लड़की यही फोटोकापी तुम्हारे पास ला रही थी ।”
“कैसे मालूम ?”
“यह फोटोकापी उसकी अंगिया में से बरामद हुई है ।”
“इस फोटोकापी को मेरे तक पहुंचने से रोकने के लिए उसको कत्ल कर दिया गया ।”
“सिर्फ यही बात नहीं रही होगी । इसके बारे में वो जुबानी भी तुम्हें कुछ बताना चाहती होगी । मुमकिन है वो उस नारायणदास को जानती रही हो जिसके कि चैक के पीछे साइन हैं और नारायणदास, जाहिर ही है कि लेखक का पता जानता होगा । आखिर वह लेखक के नाम का चैक भुनवाता था ।”
“हूं ।”
“अब सवाल यह पैदा होता है कि कोई क्यों नहीं चाहता कि तुम्हें लेखक का पता मालूम हो ।”
“सिर्फ पते की बात नहीं हो सकती । पता खरबन्दा से भी उगलवाया जा सकता है । वो मुझे पता बताने से इनकार कर सकता हूं लेकिन पुलिस को नहीं ।”
“हमें लेखक का पता जानकर क्या हासिल होगा ? लेखक दोनों कत्लों पर तो कोई रोशनी नहीं डाल सकता ।”
“लेकिन उसका बयान यह साबित कर सकता है कि कोख का कलंक की स्क्रिप्ट के मामले में खरबन्दा ने अपने भूतपूर्व पार्टनर पंचानन मेहता से फ्रॉड किया था कि नहीं ।”
“वो तुम्हारी सिरदर्द है । पुलिस का महकमा तुम्हारे लिए काम नहीं करता ।”
“लेकिन...”
“अभी हम खरबन्दा को डिस्टर्ब नहीं करना चाहते ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि यह हकीकत अभी भी अपनी जगह कायम है कि जिस गोली से सुभाष पचेरिया की जान गई थी, वह खरबन्दा की रिवाल्वर से चली थी । बैलेस्टिक एक्सपर्ट की रिपोर्ट से यह बात निर्विवाद रूप से साबित हो चुकी है । चाहे वक्ती तौर पर अपनी सेक्रेट्री के माध्यम से खरबन्दा ने कत्ल के वक्त की अपनी एलीबाई पेश कर दी है लेकिन मेरी निगाह में अभी वो शक से परे नहीं है । बहुत सी बातें हैं जो उसके कातिल होने की तरफ इशारा करती हैं । लेकिन मैं चाहता हूं कि वो यही समझे कि हम उसे किसी भी तरह के शक से बरी कर चुके हैं । ऐसे माहौल में मैं तुम्हारे लेखक को लेकर उस पर चढ दौड़ना अफोर्ड नहीं कर सकता ।”
“आई सी !” - मैं मायूसी से बोला ।
“कोई और बात ?”
मैंने इनकार में सिर हिलाया ।
“ठीक है । फिलहाल तुम आजाद हो । लेकिन मैं पहले ही वार्निंग दे रहा हूं । तुम कभी भी दोबारा गिरफ्तार किए जा सकते हो । सो बिहेव ।”
“यस सर ।” - मैं तत्पर स्वर में बोला ।
वह वापिस जाने को घूमा ।
“मेरी कार कब मिलेगी ?” - मैं व्यग्र भाव से बोला ।
“खबर कर दी जाएगी ।” - उसने अपने बड़े विशिष्ट पुलसिया लहजे में उत्तर दिया ।
मैं टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गया ।
***
एक थ्री व्हीलर से उतर कर मैं नेहरू प्लेस में अपने आफिस वाली इमारत की तरफ बढ़ रहा था कि मुझे एक हार्न की तीखी आवाज सुनाई दी । मैंने घूमकर देखा तो पाया कि हार्न एक टैक्सी का बज रहा था । मैं उधर से निगाह हटाकर आगे बढ़ने ही लगा था कि मुझे टैक्सी की पिछली सीट पर एक परिचित चेहरा दिखाई दिया ।
चेहरा वीणा शर्मा का था ।
वह टैक्सी की खिड़की में से हाथ निकालकर मेरी तरफ जोर-जोर से हिला रही थी ।
मैं टैक्सी की तरफ बढ़ा । मैं करीब पंहुचा तो उसने मेरी ओर का दरवाजा खोल दिया ।
मैं एक क्षण को हिचका और फिर भीतर बैठ गया ।
“इधर कैसे ?” - मैंने अभिवादन करते हुए पुछा ।
“तुम्हारी ही तरफ आ रही थी । अच्छा हुआ तुम सड़क पर ही दिखाई दे गए । मैं तुम्हारा ऑफिस ढूंढने की जहमत से बच गयी ।”
“पता मालूम था ?”
“हां । डायरेक्ट्री मे देखा था ।”
“ओह !”
उसने ड्राइवर को इशारा किया । टैक्सी आगे बढ़ चली ।
“किधर?” - मैं बोला ।
“जरा भीड़-भाड़ से दूर ।”
“वो किसलिए ?”
“यहां मुझे डर लग रहा है ।”
“किस बात का ?”
“कोई मेरे पीछे न लगा हुआ हो ।”
“क्या !”
“मेरा मतलब है अभी भी ।”
“अभी भी ! यानी कि पहले कोई आपके पीछे लगा हुआ था ?”
“हां ।”
“कौन ?”
“कोई आप जैसा खुदा का बन्दा ।”
“प्राइवेट डिटेक्टिव ?”
“हां ।”
“आप पहेलिया बुझा रही हैं ।”
“मुझे शक है कि मेरी निगरानी के लिए मेरे पति ने कोई प्राइवेट डिटेक्टिव एंगेज किया हुआ है । एक आदमी मुझे अपने पीछे लगा हुआ दिखा भी था लेकिन मैं उसे डाज देने मे कामयाब हो गयी ।”
“अच्छा ! बहुत होशियार हैं आप ।”
“वो तो मैं हूं ।” - वह मुदित मन से बोली ।
“अब हम कहां जा रहे हैं ?”
“जहां तुम कहो ।”
“जी !”
“मेरा मतलब है हम किसी खास जगह नहीं जा रहे ।”
“मुझे अफसोस है ।”
इस बार वो सकपकाई ।
“किसी खास जगह जा रहे होते तो कोई बात भी थी ।” - मैं बोला ।
“खास जगह कौन सी होती है ?”
“जहां तनहाई हो । नीमअन्धेरा हो । रोमांटिक म्यूजिक हो । जाम छलक रहे हों । शबाब के भी और शराब के भी ।”
“ऐसी कोई जगह है दिल्ली शहर में ?”
“एक है ।”
“क्या पता है उसका ?”
“एन 128 ग्रेटर कैलाश पार्ट वन नई दिल्ली - 110048 ।”
“यह कौन सी जगह हुई ?”
“आपके खादिम का फ्लैट !”
“बीवी झाड़ू लेकर टांट गंजी कर देगी ।”
“आपके खादिम के फ्लैट में झाड़ू है लेकिन बीवी नहीं ।”
“क्यों ? मायके गयी है ?”
“है ही नहीं ।”
“इस बात का अफसोस है या खुशी ।”
“दोनों । कभी अफसोस । कभी खुशी ।”
“मतलब ?”
“सर्दियों की तनहा रातों में अफसोस होने लगता है । अमूमन खुशी ।”
“यानी कि तुम्हारी रूमानियत दिल्ली के मौसम की मोहताज है ।”
“ऐसा ही है कुछ कुछ ।”
“बाते बढ़िया करते हो ।”
“मैं और भी कई काम बढ़िया करता हूं लेकिन वो किस्सा फिर कभी । आप यह बताइए मेरे से कैसे मिलने आ रही थी ?”
“कल मेरे पति के सामने मेरी पोल न खोलने के लिए तुम्हारा शुक्रगुजार होने को ।”
“वो तो आप कल ही हो चुकी हैं ।”
वह एक क्षण यूं खामोश रही, जैसे याद कर रही हो कि मैं ठीक कह रहा था या नहीं और फिर बोली - “कोहली साहब, मेरा पति बहुत ईर्ष्या करने वाला आदमी है ।”
“कोई बड़ी बात नहीं । आप जैसी खूबसूरत औरत का पति जो कोई भी होगा, ऐसा ही होगा ।”
“हर किसी पे शक करने वाला ?”
“वो हर किसी पर शक करता है ?”
“हां ।”
“फिर तो मुझे यूं आपके करीब नहीं बैठा होना चहिये ।”
“अरे, वो तुम पर शक नहीं करता ।”
“मैं इसे अपनी खुशकिस्मती समझूं या तौहीन ?”
वह हंसी ।
“शुकगुजार तो हो लीं आप । अब कोई और बात ? मेरा मतलब है शुक्रगुजार होने के अलावा ?”
“हां । है ।” - उसका स्वर बेहद गम्भीर हो गया – “कल फिक्र में मुझे सारी रात नींद नहीं आई । पता नहीं आज भी आएगी या नहीं ।”
“मैं इस बारे में मैं क्या कर सकता हूं ? मेरा मतलब है आपको लोरी सुनाने के अलावा ।”
“वादा । वादा कर सकते हो तुम ।”
“कैसा वादा ?”
“कि तुम मेरा राज आगे भी राज रखोगे । तुम कभी किसी को नहीं बताओगे की तुमने मुझे खरबन्दा साहब के फ्लैट में मौजूद पाया था ।”
“लगता है आप अपने पति से बहुत डरती हैं ।”
“हां । बहुत ज्यादा ।”
“आपकी बनती नहीं उनसे ?”
“नहीं ।”
“तो फिर छोड़ क्यों नहीं देती उसे ।”
“मैं ऐसा नहीं कर सकती ।”
“क्यों ? क्योंकि वो बहुत रईस है ? क्योंकि दौलत की छत्रछाया को छोड़ना आपको गवारा नहीं ?”
“उसने आहत भाव से मेरी तरफ देखा ।”
सिर्फ औरत ही ऐसी बेजा ख्वाहिश कर सकती है कि चित भी उसकी हो और पट भी उसकी । वह केक खा भी ले और केक उसके पास भी रहे । वही दो किश्तियों में सवार होकर चाह सकती है कि मंझधार में न गिरे । औरत के मन में क्या है, कौन माई का लाल जान सकता है ।
“एक बात बताइये” - मैं बोला - “जैसे आप अपने पति से डरती हैं, वैसे पुलिस से भी नहीं डरती ?”
“पुलिस से !” - वह सकपकाई - “क्या मतलब ?”
“आखिर आप एक ताजा ताजा कत्ल किये हुए शख्स के साथ उस फ्लैट में अकेली थीं । पुलिस के लिए आपके बयान की भारी अहमियत हो सकती है ।”
“लेकिन मैं तो मरने वाले को जानती तक नहीं ।”
“वो आपको जानता हो सकता है ।”
“कैसे ?”
“वो खरबन्दा के पीछे साए की तरह लगा हुआ था । उसने आपको खरबन्दा के साथ देखा हो सकता है । हो सकता है उसने आपसे संपर्क किया हो ?”
“मेरे से ! नहीं, नहीं । ऐसा कुछ नहीं किया उसने ।”
“नहीं किया तो ठीक है । इसमें इतना उत्तेजित होने वाली क्या बात है ?”
“मैं तो नहीं हो रही उत्तेजित । मैं तो एकदम नार्मल हूं ।”
“यह मेरे लिए शर्म की बात है ।”
“क्या ?”
“इतना अरसा एक नौजवान औरत मेरे साथ बैठी रहे और उत्तेजित न हो....”
“मजाक मत करो ।”
“ओके, मैडम ।”
“तो फिर वादा रहा कि तुम आगे भी मेरी पोल नहीं खोलोगे ।”
“देखिये, फिलहाल मुझे नहीं मालूम कि सुभाष पचेरिया की मौत से आपका कोई रिश्ता है या नहीं । अब तक मैंने आपकी बाबत अपनी जुबान नहीं खोली है लेकिन आगे मैं क्या करता हूं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपका मरने वाले के साथ कोई रिश्ता, कोई वास्ता सामने आता है या नहीं । ऐसा कोई रिश्ता वास्ता सामने आने पर मेरा खामोश रहना मुमकिन नहीं होगा । मैं एक प्राइवेट डिटेक्टिव हूं और पुलिस से मुखालफत करके मेरा धंधा नहीं चल सकता । मैं दरिया मे रह कर मगर से बैर नहीं कर सकता । बहरहाल मेरी आपको यही नेक राय है कि अगर आप बेगुनाह हैं तो अभी बेफिक्र रहिये । लेकिन अगर आप गुनाहगार हैं तो अभी से पनाह तलाश करनी शुरु कर दीजिये ।”
“उसके चेहरे पर फौरन सख्त नाराजगी के भाव उभरे । उसी मूड में वह यूं जोर जोर से सांस लेने लगी कि मुझे डर लगने लगा कि कहीं उसके ब्लाउज का एकाध बटन न टूट पड़े । वैसे नजारा इतना दिलकश था कि मैं बड़ी मुश्किल से उधर से अपनी निगाह हटा पाया ।”
“मिस्टर कोहली” - वह आहत भाव से बोली ।
“यस, मैडम ।”
“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।”
“कैसी उम्मीद नहीं थी, मैडम ?”
“कि तुम्हें मेरा जरा भी लिहाज नहीं होगा । मैं इतनी दूर से तुम्हारे पास आई और तुम....”
“इज्जतअफजाई का शुक्रिया लेकिन मैं नहीं चाहता कि आपका पति मेरा भी नाम अपनी उस डायरी में दर्ज कर ले जिसमें वह आपके चाहने वालों के नाम दर्ज करता है ।”
“जैसे मेरे सौ पचास चाहने वाले हैं !” - वह जल कर बोली ।
“हों भी तो क्या बड़ी बात है । इतनी शानदार औरत हैं आप ! किसकी लार नहीं टपक जाएगी आप पर ।”
“तुम्हारी तो नहीं टपक रही ?”
“टपक रही है । दिखाई नहीं दे रही ।”
“फिर भी यह रवैया है तुम्हारा मेरी बाबत ।”
मैं खामोश रहा । मैंने बाहर झांका तो पाया कि टैक्सी डिफेंस कालोनी पहुंची पड़ी थी ।”
“अगर आपको वापिस नेहरु प्लेस कोई काम नहीं है” - मैं बोला - “तो मैं यहीं उतर जाता हूं ।”
वह खामोश रही । यानी कि वह मुझे वापिस नेहरु प्लेस नहीं ले जाना चाहती थी । इतनी ज्यादा खफा थी वह मेरे से ।
मेरे कहने पर ड्राइवर ने टैक्सी रोकी । मैंने उसका अभिवादन किया और बाहर निकल गया ।
“मैं तुमसे फिर बात करूंगी ।” - वह बोली ।
“वैलकम” - मैं बोला - “मेरा फोन नंबर डायरेक्ट्री में है । सो लांग, मैडम ।”
फिर टैक्सी के परे हटने से पहले मैं उससे परे हट गया ।
टैक्सी वहां से चली गयी तो मैंने महसूस किया की पीछे, जहां मैं खड़ा था वहां से थोड़ा परे एक काली अम्बैसेडर खड़ी थी । खामखाह खड़ी थी ।
मैं सड़क पार करने लगा ।
आमदरफ्त की दो सड़कों को विभक्त करने वाली पटरी पर पहुंच कर मैंने पीछे देखा तो पाया कि काली अम्बैसेडर अब तेजी से आगे दौड़ी जा रही थी ।
मैं एक टैक्सी पर सवार हो गया ।
मूलचन्द हस्पताल के चौराहे पर जब टैक्सी लाल बत्ती पर रुकी तो मैंने पीछे देखा ।
काली अम्बैसेडर मुझे अपने पीछे तीन चार वाहन परे दिखाई दी ।
मैं सोचने लग गया ।
क्या वाकई कोई आदमी वीणा शर्मा के पीछे लगा हुआ था ! और क्या अब वो मेरे पीछे लग गया था ! मेरी बाबत जानकारी हासिल करने के लिए ! अपने आका को यह रिपोर्ट पहुंचाने के लिए कि उसकी बीवी किससे मिली थी !
मैंने ऑफिस लोटने का ख्याल छोड़ दिया ।
टैक्सी लेडी श्रीराम कालेज के करीब पहुंची तो मैंने उसे रुकवाया ।
काली अम्बैसेडर अभी भी मेरे पीछे थी ।
मैंने ड्राइवर को एक दस का नोट सौंपा और तब तक टैक्सी में बैठा रहा जब तक कि मुझे विपरीत दिशा से एक बस आती न दिखाई दे गयी । जब वह बस स्टॉप पर लगी तो मैं टैक्सी से उतरा और तेजी से सड़क पार कर गया । मेरे स्टॉप पर पहुंचने तक बस चल पड़ी थी । मैं चलती बस पर चढ़ गया । मैंने बस की एक परली और की खिड़की के पास पहुंचकर पीछे बस से विपरीत दिशा में जाती काली अम्बैसेडर की ओर देखा । मुझे उसकी ड्राइविंग सीट पर एक तोते जैसी नाक वाला लम्बा, पतला आदमी बैठा दिखाई दिया ।
बस के पीछे लगने के लिए उसे अम्बैसेडर को काफी आगे से मोड़कर लाना पड़ना था लेकिन रूट नम्बर मालूम होने पर सड़क पर बस को तलाश कर लेना कोई कठिन काम नहीं था ।
बस ने अगला मोड़ काटा तो मैं मोड़ पर चलती बस से नीचे कूद गया और फौरन इमारतों की कतार की एक बाईं लेन में घुस गया । उसमें से सीधा आगे गुजरता हुआ मैं अपने फ्लैट वाली इमारत वाले ब्लाक में पहुंच गया ।
मैं सोचने लगा ।
कहीं वो औरत मेरी उम्मीद से ज्यादा चालाक तो नहीं थी ! उसे पता था कि उसका पीछा किया जा रहा था और कही वह जानबूझकर तो पीछा करने वाले को मेरे मत्थे नहीं मढ गयी थी ! यूं मानव शर्मा अपनी बीवी से मेलजोल से खफा होकर अपना बयान देने का इरादा बदल सकता था ।
फिर मेरा ध्यान श्रीलेखा की तरफ गया ।
क्या वाकई पिछली रात वो मेरे से मिलने आ रही थी ! चैक की वो फोटोकॉपी मुझे दिखाने के लिए जो उसकी अंगिया में से बरामद हुई थी ! वह फोटोकॉपी उसने अपने पर्स में रखने की जगह अपनी अंगिया में रखी, इससे तो लगता था कि उस फोटोकॉपी का कोई विशेष महत्व था जिसकी तरफ वो मेरा ध्यान आकर्षित करने के लिए रात के वक्त मेरे पास आ रही थी ।
क्या ! क्या महत्व था !
दूसरा सवाल यह था कि हत्यारे ने उसके कत्ल में मुझे लपेटने की कोशिश क्यों की !
क्या मेरी तफ्तीश में व्यवधान डालने के लिए !
क्या वो समझता था कि मैं कोई खास बात जान जाने वाला था !
या पहले से ही जान चुका था !
क्या ?
एकाएक मुझे एक ख्याल आया ।
बतौर सैक्रेट्री श्रीलेखा की नौकरी तो जुम्मा जुम्मा आठ रोज की थी लेकिन उससे पहले प्रीती नारंग नाम की जो खरबन्दा की सैक्रेट्री थी, वह कोख का कलंक और उसके लेखक के बारे में बहुत कुछ जानती हो सकती थी ।
अपने फ्लैट से मैंने पंचानन मेहता को फोन किया ।
“मैं खुद तुम्हें फोन करने की कोशिश कर रहा था” - मेरी आवाज सुनते ही वह उत्तेजित भाव से बोला - “यह अखबार में क्या किस्सा छपा है तुम्हारी कार से लाश की बरामदी का ? क्या माजरा है ?”
“पता नहीं” - मैं बोला ।
“कहते हैं कि लड़की तुम्हीं से मिलने आ रही थी जब कि कत्ल कर दी गई ।”
“मुमकिन है ।”
“इस लिहाज से तो तुम्हारी जान को भी खतरा हो सकता है ।”
“हो तो सकता है ।”
“तुम्हें परवाह नहीं !”
“परवाह तो है लेकिन मैं करूं क्या ? मेरे धंधे में ऐसा खतरा तो सदा ही रहता है । अब मैं यह धन्धा छोड़कर गोल गप्पों की रेहड़ी तो लगाने से रहा ।”
“फोन कैसे किया ?”
“कुछ पूछने के लिए ।”
“क्या ?”
“तुमने मुझे बताया था कि श्रीलेखा से पहले उत्कल प्रकाशन में श्रीलेखा की जगह कोई प्रीति नारंग नाम की लड़की सैक्रेट्री हुआ करती थी ।”
“हां ।”
“तुम्हें उसका पता मालूम है ?”
“अगर अब कहीं और न रहने लगी हो तो मालूम है ।”
“क्या पता है ?”
“कमरा नम्बर 301, कर्जन रोड होस्टल्स ।”
“यह तो वही जगह हुई जहां कि श्रीलेखा भी रहती थी ।”
“हां ।”
“यह प्रीति नारंग नौकरी क्यों छोड़ गई थी ?”
“मालूम नहीं ।”
“कोई बेहतर नौकरी मिल गयी होगी ।”
“हो सकता है ।”
“प्रीति नारंग के बारे में और क्या जानते हो ?”
“कुछ नहीं ।”
“थी कैसी वो ?”
“जैसी महानगरों में आम वर्किंग गर्ल्स होती हैं ।”
“खास कुछ नहीं ।”
“न ।”
“ठीक है । शुक्रिया ।”
मैंने लाइन काट दी ।
और आधे घंटे बाद मैं कर्जन रोड होस्टल्स में 301 नम्बर कमरे के दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।
मुझे यही देखकर बड़ी राहत महसूस हुई थी कि दरवाजे पर ताला नहीं झूल रहा था । दिन की उस घड़ी में किसी वर्किंग गर्ल के अपने कमरे में पाए जाने की संभावना जो नहीं होती थी ।
“कौन ?” - भीतर से सवाल किया गया।
“जरा दरवाजा खोलिए” - मैं अधिकारपूर्ण स्वर में बोला । साथ ही मैंने खामखाह फिर दरवाजे पर दस्तक जड़ दी ।
“दरवाजा खुला । चौखट पर गाउन पहने एक युवती प्रकट हुई । युवती हसीन नहीं थी लेकिन आंखों को चुभने वाली नहीं थी । उसने सशंक भाव से मेरी तरफ देखा ।
“आप प्रीति नारंग हैं ?” - मैं पूर्ववत अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां” - वह बोली “आप...”
“मेरा नाम सुधीर कोहली है । मैं एक डिटेक्टिव हूं ।”
“डिटेक्टिव ?”
“जी हां । आप से कुछ पूछताछ करनी है ।”
“मेरे से ?” - वह सकपकाई ।
“जी हां ।”
“किस सिलसिले में ?”
“श्रीलेखा के कत्ल के सिलसिले में । उसके कत्ल से आप नावाफिक न होंगी । अखवार में सब छपा है । अखबार पढती हैं न आप ?”
“उसने नर्वस भाव से सहमति में सिर हिलाया और बोली - “लेकिन मेरा उस कत्ल से क्या वास्ता !”
“भीतर चलिए । बताता हूं ।”
“लेकिन...”
“मैडम, यह जरुरी है ।”
तीव्र अनिच्छा का प्रदर्शन करती हुई वह चौखट से हटी ।
मैंने उसके कमरे में कदम रखा ।
कमरा श्रीलेखा के कमरे की ऐन कार्बन कॉपी था ।
हम दोनों आमने सामने बैठ गए तो मैं बोला – “हमें ऐसा इशारा मिला है कि श्रीलेखा की मौत का उसकी नौकरी से कोई रिश्ता था । हमें मालूम हुआ है कि श्रीलेखा वाली ही नौकरी उससे पहले आप करती थी इसलिए हम उम्मीद कर रहे हैं कि कत्ल पर रोशनी डालने वाली कोई कारआमद जानकारी हमें आप से हासिल होगी ।”
“मुझे ... मुझे क्या मालूम है ?”
“शायद कुछ मालूम हो । शायद आपको खुद को न मालूम हो कि आपको कुछ मालूम है ।”
“मैं आपका मतलब नहीं समझी ।”
“समझ जायेंगी । मेरे चंद सवालों का जवाब देंगी तो समझ जायेंगी ।”
“कैसे सवाल ?”
“मसलन आपने अपनी नौकरी क्यों छोड़ी ?”
“अगर मैं आपके इस सवाल का जवाब न दूं तो ?”
“तो...तो...तो बहुत बुरा होगा ।”
“किसके लिए ?”
“आपके लिए ।”
“आई सी ! आपने कहा कि आप डिटेक्टिव हैं ?”
“हां ।”
“अपना कोई आइडेंटिटी कार्ड वगैरह तो होगा आपके पास ।”
“इत्तफाक से इस वक्त नहीं है ।”
“तो मुझे कैसे पता लगे कि अपने बारे में जो आप बता रहे हैं वो सच है ?”
“मैं भला आपसे झूठ क्यों बोलूंगा ।”
“आप आये कहां से हैं ?”
“हैडक्वार्टर से ।”
“मुझे हैडक्वार्टर का कोई नम्बर बताइए जिस पर फोन कर के मैं यह तसदीक कर सकूं कि आपको यहां भेजा गया है ।”
“कमाल है । आप तो एकाएक यूं मेरे साथ पेश आने लगी हैं जैसे घर में कोई चोर घुस आया हो ।”
“हो सकता है ।”
“क्या ?”
“कि घर में चोर घुस आया हो ।”
मैं प्रत्यक्षत: यूं हंसा जैसे भारी मजाक की बात सुन रही हो । मन ही मन मैं हैरान था कि लड़की के तेवर एकाएक बदलने क्यों लगे थे । फिर वजह सामने आ गई ।
“मुझे अभी-अभी याद आया है कि जिस शख्स की कार में से श्री लेखा की लाश बरामद हुई थी, वह एक प्राइवेट डिटेक्टिव था और उसका नाम सुधीर कोहली था । मिस्टर, या तो कबूल करो कि तुम वही सुधीर कोहली हो या फूटो यहां से ।”
“कबूल किया ।”
“देन गैट आउट ।”
“कमाल है । कबूल करो तो भी फूटो । न कबूल करो तो भी फूटो । यह तो बहुत नाइंसाफी है ।”
“इन्साफ कोर्ट कचहरियो में होता है ।”
“मालूम है । देखो, मेरी बात सुनो ।”
“नहीं सुननी । मैं झूठे और फरेबी आदमियों को पसन्द नहीं करती ।”
“कोई खास झूठ नहीं बोला मैंने तुम्हारे से । डिटेक्टिव तो मैं हूं ही ।”
“प्राइवेट । जिसके किसी सवाल का जवाब देने के लिए मैं मजबूर नहीं ।”
“यकीनन नहीं लेकिन अगर कोई मशकूर होता हो तो जवाब देने में क्या हर्ज है ? खास तौर से तब जबकि इसमें तुम्हारा भी फायदा है ।”
“मेरा क्या फायदा है ?”
“देखो, तुम कत्ल के इस केस की एक महत्वपूर्ण कड़ी हो । मेरी धारणा है कि तुम ऐसा कुछ जानती हो जो कि कातिल की तरफ इशारा कर सकता है । यह बात कातिल को भी मालूम हुई तो वह तुम्हारी जुबान हमेशा के लिए बंद कर देने की जरुरत महसूस कर सकता है ।”
“यानी कि मेरा भी कत्ल हो सकता है ।” - वह सकपका कर बोली ।
“हां ।”
“तुम खामखाह मुझे डराने की कोशिश कर रहे हो ।”
“मैं तुम्हे सावधान करने की कोशिश कर रहा हूं । वो कहते हैं न फोरवार्नड इज फोरआर्म्ड ।”
वह सोचने लगी ।
मुझे हालत फिर उम्मीदअफजाह लगने लगे ।
“तुम क्या जानना चाहते हो ?” - फिर वह कठिन स्वर में बोली ।
“जो कुछ भी तुम मुझे श्रीलेखा की बाबत बता सको । वो इसी होस्टल में रहती थी । तुम्हारे बाद तुम्हारी जगह पर नौकरी पर लगी थी इसलिए तुम्हारी तो उससे अच्छी खासी दोस्ती रही होगी ।”
“मैं तो जानती भी नहीं थी उसे । उसी ने किसी तरह मुझे खोज निकाला था और मेरे पीछे पड़ गयी थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो मेरे वाली नौकरी हासिल करना चाहती थी और चाहती थी कि मैं इस काम में उसकी मदद करूं ।”
“क्या !” - मैं हैरानी से बोला ।”
“यही नहीं इस काम के लिए उसने मुझे पांच हजार रुपए ऑफर किये थे ।”
“नहीं” - मैं अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं सच कह रही हूं । उसने कहा था कि अगर मैं अपनी नौकरी छोड़ दूं और उसी नौकरी के लिए उसकी सिफारिश कर दूं और उसे वहां रखवा दूं तो वह मुझे पांच हजार रुपए देगी ।”
“तुमने कबूल कर ली यह पेशकश ?”
“क्यों न करती ? असल में मैं वैसे ही वह नौकरी छोड़ने वाली थी लेकिन यह बात न मेरे एम्पलायर खरबन्दा साहब को मालूम थी और न श्रीलेखा को । मैं फोकट के पांच हजार रुपए क्यों छोड़ती ।”
“नौकरी कितनी तनख्वाह की है ?”
“एक हजार की ।”
“एक हजार की तनख्वाह की नौकरी हासिल करने के लिए उसने तुम्हें पांच हजार रुपए की रिश्वत दी ?”
“हां ।”
“उसने कोई तो वजह बताई होगी कि क्यों वह खास यही नौकरी हासिल करना चाहती थी ।”
“कहती थी कि उसका खरबन्दा साहब पर दिल आ गया था और नौकरी के बहाने वह उनके ज्यादा से ज्यादा करीब रहना चाहती थी ।”
“नॉनसैंस । ऐसा कहीं होता है !”
“उसने यही कहा था ।”
“तुम्हे विश्वास हो गया था उसकी बात पर ?”
“नहीं । लेकिन मैंने अविश्वास कर के क्या लेना था ?”
“तो खरबन्दा ने तुम्हारी सिफारिश पर उसे तुम्हारी जगह रख लिया ?”
“हां ।”
“असलियत की खरबन्दा को कभी खबर नहीं हुई ?”
“उसने उत्तर न दिया । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।”
“यानी की हुई ?” - मैं अपलक उसे देखता हुआ बोला ।
उसने सहमती में सिर हिलाया ।
“कैसे हुई ?”
“मैंने बताया ।”
“तुमने ?”
“हां । वो क्या है कि श्रीलेखा तो मेरे लिए अजनबी थी लेकिन खरबन्दा साहब के साथ मैंने बरसों नौकरी की थी । बाद में मुझे लगने लगा था कि लड़की जरुर किसी गलत फिराक में थी इसलिए मैंने खरबन्दा साहब को सच सच असल बात बता दी थी ।”
“यह तो श्रीलेखा के साथ धोखा हुआ ।”
“कैसे धोखा हुआ ?” – वह तमक कर बोली – “उसने मुझे नौकरी लगवाने के लिए पांच हजार रुपए दिए थे जो कि मैंने लगवा दी थी । इस में धोखा....”
“छोड़ो ! और बात करो । यह बताओ कि जब कोख का कलंक की स्क्रिप्ट पेश हुई थी, तब भी तुम वहीं नौकरी करती थी ?”
“हां ।”
“कभी लेखक से तुम्हारी मुलाकात हुई ?”
“नहीं ।”
“ऑफिस में तो आता जाता रहता होगा वो ?”
“नहीं आता जाता रहता था ।”
“अपना रायल्टी का चैक लेने के लिए भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“तो क्या चैक उसे डाक से भेजा जाता था ?”
“नहीं ।”
“तुम्हें पक्का पता है ?”
“हां । मैं ही तो चैक बनाती थी । अगर वह डाक से भेजा जाना होता तो उसे पोस्ट भी मैं करती । मैंने कभी चैक पोस्ट नहीं किया था ।”
“तो बना कर किसे देती थीं तुम ?”
“खरबन्दा साहब को ।”
“बियरर ?”
“हां ।”
“यह खरबन्दा साहब की हिदायत होती थी कि चैक बियरर बनाया जाए ?”
“हां ।”
“उसे भुनवाता कौन था ?”
“पता नहीं ।”
“रायल्टी का चैक हर महीने बनता था ?”
“हां ।”
“तुम्हारे नौकरी छोड़ने तक बनता रहा था ?”
“हां ।”
“ऐसा हो सकता है कि हर्षवर्धन अपना चैक लेने ऑफिस में आता हो लेकिन तुम्हें उसके आगमन की खबर न लगती हो ?”
“नहीं ।”
“या वह चैक लेने के लिए अपना कोई प्रतिनिधि भेजता हो ?”
“न । मेरी गारंटी है कि ऑफिस में न कभी हर्षवर्धन खुद आया था और न उसने कभी अपना प्रतिनिधि भेजा था ।”
“तुम्हारी यह गारंटी तो सही नहीं । कम से कम एक बार तो वह ऑफिस में जरुर आया होगा । कोख का कलंक की स्क्रिप्ट देने के लिए ।”
“उस एक बार मैं छुट्टी पर रही होउंगी ।”
“यह हो सकता है । बहरहाल रायल्टी का चैक हर महीने हर्षवर्धन के पास पहुंचता था और भुनवाया जाता था ?”
“हां ।”
“तुम किसी नारायणदास को जानती हो ?”
“यह कौन हुआ ?”
“मैं तुमसे पूछ रहा हूं ।”
“न । मैं नहीं जानती ।
“कभी यह नाम नहीं सुना ?”
“न । कौन है यह ?”
“पता नहीं लेकिन ऐसा सामने आया है कि लेखक का कम से कम एक चैक नारायणदास नाम के किसी आदमी ने भुनवाया था ।”
“कैसे मालूम ?”
“एक चैक पर इस नाम की एन्डोर्समेंट थी ।”
“बियरर चैक भुनवाने के लिए तो कोई भी अपना नाम नारायणदास या काला चोर बता सकता है ।”
वह ठीक कह रही थी ।
“कोई और बात ?” - मैं बोला ।
उसने अनभिज्ञता से कंधे झटकाए ।
“ठीक है फिर” - मैं उठता हुआ बोला - “शुक्रिया ।”
“एक बात बताओ” – वह व्यग्र भाव से बोली ।
“पूछो ।”
“क्या वाकई मेरी जान को खतरा है ?”
“हो सकता है ।”
“है तो मुझे क्या करना चाहिये ।”
“जब तक हत्यारा गिरफ्तार नहीं हो जाता तब तक के लिए कहीं गायब हो जाना चाहिये ।”
“यह तो बड़ा मुश्किल काम है ।”
“जान है तो जहान है, मेम साहब ।”
वह फिर न बोली ।
अपने पीछे एक बेहद चिंतित प्रीति नारंग को छोड़कर मैं वहां से बाहर निकल गया ।
एक मंजिल सीढियां उतर कर मैं दूसरी मंजिल पर पहुंचा ।
उस घड़ी गलियारा सुनसान पड़ा था ।
मैं श्रीलेखा के कमरे के सामने पहुंचा ।
मैंने एक बार दायें-बाएं देखा और फिर उसके दरवाजे के ताले के छेद में अपनी वो मास्टर की डाली जो तीन चौथाई ताले ताले हमेशा खोल देती थी ।
मामूली कोशिश से वह ताला भी खुल गया ।
मैं भीतर दाखिल हुआ । मैंने अपने पीछे दरवाजा भिड़का दिया । दोपहर का वक्त था इसलिए कमरे में एकदम अंधेरा नहीं था । बंद खिडकियों के बावजूद वहां तलाशी लेने लायक पर्याप्त रोशनी थी । यह निश्चित था कि पुलिस वहां की तलाशी ले चुकी थी लेकिन फिर भी कोई सूत्र हाथ आने की मुझे उम्मीद थी ।
आखिर उम्मीद पर दुनिया कायम है ।
मैं बड़ी तरतीब से कमरे के विभिन्न स्थान टटोलने लगा ।
मेरे हाथ कुछ न लगा ।
लगता था मतलब की हर चीज वहां से पुलिस ले गयी थी ।
मैं मैट्रेस हटाकर पलंग पर झांक रहा था कि एकाएक दरवाजे की तरफ से आहट हुई ।
कोई बाहर से दरवाजे का हैंडल ट्राई कर रहा था ।
मैं घबराया ।
क्या पुलिस वापिस लौट आई थी ?
लेकिन पुलिस क्या कभी इतनी नजाकत से दरवाजे का हैंडल ट्राई करके भीतर कदम रखती थी ?
जरूर आगंतुक कोई और था और मेरे ही जैसा अनिधिकृत व्यक्ति था ।
दरवाजा हौले हौले खुलने लगा तो मैं लपक कर बाथरूम में घुस गया । मैंने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
बाहर कमरे में किसी के भारी कदम पड़ने की और दरवाजा बन्द होने की आहट हुई ।
मैंने बाथरूम में निगाह दौड़ाई ।
वह डिब्बे जैसा बाथरूम था और वहां से निकासी का कोई रास्ता नहीं था ।
मैं कुछ क्षण सांस रोके खड़ा रहा, फिर मैंने नीचे झुक कर दरवाजे के की होल के साथ अपनी एक आंख सटा दी ।
नवागन्तुक भी मेरी तरह वहां की तलाशी ही ले रहा था । पहले मुझे उसकी पीठ दिखाई दी । कुछ क्षण बाद वह घूमा तो उसकी सूरत पर मेरी निगाह पड़ी ।
वह कल्याण खरबन्दा था ।
खरबन्दा कुछ क्षण ठिठका खड़ा बाथरूम की तरफ देखता रहा, फिर वह दबे कदमों से बाथरूम की तरफ बढ़ा ।
मैं बौखला कर उठ खड़ा हुआ ।
अभी वह दरवाजा खोलता तो मेरा उससे आमना सामना हो जाता ।
क्या करूं ?
एकाएक मैंने हाथ बढ़ा कर फ्लश की जन्जीर खींच दी ।
तुरन्त जोर की गड़गड़ाहट की आवाज के साथ पानी चला ।
मैंने फिर की होल में से बाहर झांका ।
आगे को बढता खरबन्दा ठिठक गया था । अब वह अत्यन्त सावधान मुद्रा में बाथरूम की दिशा में देख रहा था ।
फिर एकाएक वह वापिस घूमा और दबे पांव कमरे कमरे से बाहर निकल गया ।
दरवाजा उसके पीछे बदस्तूर बंद हो गया ।
मैं बाहर निकला । मैंने लपक कर अगला दरवाजा तनिक खोला और सावधानी से बाहर गलियारे में झांका ।
खरबन्दा सीढ़ियों की तरफ बढ़ रहा था ।
मैंने गलियारे में कदम रखा । मैंने अपने पीछे दरवाजा बंद किया और आगे बढ़ा ।
मुझे सीढ़ियों पर ऊपर को जाते कदमों की आहट सुनाई दी ।
मैं भी दबे पांव सीढियां चढ़ने लगा ।
ऊपरली मंजिल के दहाने पर पहुंच कर मैंने सावधानी से गलियारे में झांका ।
खरबन्दा प्रीति नारंग के कमरे के दरवाजे के सामने खड़ा था और दरवाजे पर दस्तक देने की तैयारी कर रहा था ।
मैं वापिस लौटा ।
नीचे इमारत के प्रवेशद्वार पर एक चौकीदार बैठा था ।
“चौकीदार साहब” - मैं जल्दी से बोला - “ऊपर 301 नम्बर कमरे में एक आदमी एक लड़की को पीट रहा है । जल्दी जाकर लड़की को छुड़ाओ वर्ना वह जालिम उसे मार डालेगा ।”
चौकीदार के नेत्र फैले । फिर वह फौरन अपनी लाठी सम्भाले ऊपर को भागा ।
मैं चुपचाप इमारत से बाहर निकल आया ।
पता नहीं वह झूठ मैंने क्यों बोला था ?
***
शाम तक मुझे पुलिस हैडक्वार्टर से अपनी कार हासिल हो गयी । उस पर सवार होकर मैं गोल मार्केट पहुंचा ।
मधुमिता का फ्लैट तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत न हुई ।
वह वैसा फ्लैट निकला जो सरकारी कर्मचारियों को मिलते हैं और जिसे किसी ने मधुमिता को सबलेट किया हुआ था ।
मधुमिता ने दरवाजा खोला ।
“नमस्ते” - मैं बोला - “भूल तो नहीं गयी थी कि मैं आने वाला था ।”
“नहीं” - वह मुस्कराती हुई बोली - “आओ ।”
“यह भी नहीं भूली होगी” - मैं भीतर कदम रखता हुआ बोला - “कि क्यों आने वाला था ?”
“नहीं, यह भी नहीं भूली ।” - उसने मेरे पीछे दरवाजा बंद कर दिया ।
तुरन्त मैंने उसे अपनी बांहों में लेने की कोशिश की ।
“अरे, अरे” – वह मुझे धकेलती हुई परे हट गई – “यह क्या कर रहे हो ।”
“लो !” – मैं शिकायतभरे स्वर में बोला – “और अभी तो तुम कह रही थीं कि नहीं भूली हो कि मैं यहां क्यों आने वाला था ?”
“मतलब ?”
“मैं तो अपनी फीस की खातिर आया था जो की मैंने कहा था कि कोई मुनासिब वक्त आने पर मैं खुद वसूल कर लूंगा ।”
“नॉनसैंस । मैं तो समझी थी कि तुम मेरे साथ फरीदाबाद मेरे अंकल के यहां चलने के लिए आये थे ।”
“क्या एक पंथ दो काज मुमकिन नहीं ?”
“अच्छा, अच्छा । अब चुपचाप बैठो उधर । मैं कपड़े बदल कर आती हूं ।”
“मुझे भी मदद करने दो न ?”
“किस काम में ?”
“कपड़े बदलने में ।”
“शट अप !”
“ब्लाउज के बटन खुद कैसे बंद करोगी ?”
“मैं ब्लाउज पहनूंगी ही नहीं ।”
“यह सबसे बढ़िया बात हैं ।” – मैं हर्षित स्वर में बोला ।
“मेरा मतलब है मैं शर्ट पहनूंगी ।”
“ओह !” - मैं एक सोफे पर ढेर हो गया ।”
“अब हिलना नहीं यहां से ।”
मैंने यूं सहमति में सिर हिलाया जैसे उस बात के लिए हामी भरते हुए मेरा कलेजा फटा जा रहा हो ।
वह चली गयी ।
पीछे मैंने डनहिल का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया । फिर मैंने बैठक में चारों ओर निगाह दौड़ाई । बैठक छोटी सी थी लेकिन बहुत करीने से सजी हुए थी ।
एक और टी वी कैबिनेट थी जिस पर एक जड़ाऊं म्यान में जड़ाऊं मूठ वाला मिनियेचर तलवार जैसा खन्जर रखा था । मैंने हाथ बढा कर उसे उठा लिया । मैंने देखा उसकी मूठ पर और म्यान पर जापानी के कुछ अक्षर खुदे हुए थे ।
“असली जापानी खन्जर है ।”
मैंने सिर उठाया ।
मधुमिता कपड़े बदल कर लौट आई थी । वह एक बेहद टाइट जीन, मर्दानी कमीज, बिना बांह का मर्दाना स्वेटर और एक घुटनों तक लटकने वाला मफलर पहने थी और उस लिबास में निहायत हसीन और कमसिन लग रही थी ।
“जवाब नहीं कारीगरी और खूबसूरती का !” - मैं बोला ।
“खंजर की ?”
“तुम्हारी ।”
“अरे मैं उस जापानी खन्जर की बात कर रही हूं जो इस वक्त तुम्हारे हाथ में है ।”
“और मैं उस हिन्दोस्तानी गुड़िया की बात कर रहा हूं जो इस वक्त मेरे हाथ में नहीं है ।”
“गुड़िया ! गुड़िया कहां है ?”
“मेरे सामने तो खड़ी है । साक्षात ?”
“ओफ्फोह !”
मैंने फिर खन्जर की तरफ देखा और उसे म्यान से निकाल कर उलटा पलटा ।
“एक जापानी ने ही मुझे यह भेंट में दिया था” - वह बोली - “खरबन्दा को भी यह बहुत पसन्द था । सच पूछो तो कल ही मैं वापिस लाई हूं इसे उसके फ्लैट से ।”
“कीमती मालूम होता है ।”
“रोब इसकी कीमत का नहीं, इसकी खूबसूरती और नक्काशी का है ।”
“यू आर राइट ।” – मैंने उसे वापिस टी वी पर रख दिया ।”
“कुछ पियोगे ?” – वह बोली ।
“तुम कुछ पिलाओगी तो क्यों नहीं पीयूंगा” – मैं बोला ।
“मैं तो हो सकता है जहर पिला दूं ।”
“मुझे वो भी कबूल होगा ।”
“बातें बढ़िया करते हो । बातों से जरुर हर किसी का दिल खुश कर देते होवोगे ।”
“बातों से कम । करामातों से ज्यादा ।”
“करामातें ! कैसी करामातें ?”
“इजाजत हो तो पेश करूं एकाध ?”
“हां, हां ।”
मैं उठकर उसकी और बढ़ा ।
वह मेरा मन्तव्य समझी तो उसने मुझे वापिस धकेल दिया ।
“मेरे पास ब्रांडी की एक बोतल है” – वह बोली – “अगर उसकी चुस्की मारना चाहो तो...”
“मैं तुम्हारी चुस्की मारना चाहता हूं ।”
“अरे, अब छोड़ो भी यह किस्सा ।”
“छोड़ दिया लेकिन चुस्की अकेले नहीं ।”
“ओके ।”
निहायत उम्दा कोनियाक ब्रांडी उसने दो गिलासों में डाली । जो गिलास उसने मुझे दिया, उसमें उसके गिलास से दो गुना ब्रांडी थी ।
मैंने ब्रांडी पी । तुरंत मेरे कान अंगारों की तरह दहक उठे ।
मेरी तवज्जो एक दीवार पर लगी उसकी एक रंगीन तस्वीर की तरफ गयी जिसमें वह एक बेशकीमती मिंक कोट पहने थी ।
“कोट मेरा नहीं है” – वह मेरा मन्तव्य समझकर बोली – “बतौर मॉडल पहना था । इतना कीमती कोट मैं अफोर्ड नहीं कर सकती ।”
“अपने पति से तलाक के बाद हर्जा-खर्चा न लेने की जिद छोड़ दो तो कम से कम आइंदा दिनों में तो अफोर्ड कर सकोगी ।”
“छोड़ो वह किस्सा” – उसने मेरा गिलास खाली देखा तो वह बोली – “अब चलें ?”
“मैंने सहमति में सिर हिलाया और बोला – “बोतल साथ ले चलें ?”
“फिर तुम मत पहुंचे फरीदाबाद” – वह बोली ।
“मैंने आज तक एक्सीडेंट नहीं किया ।”
“अब कर बैठोगे ।”
“ठीक है । मर्जी तुम्हारी ।”
“मैंने बड़ी बेशर्मी से बिना इजाजत कोनियाक का एक ड्रिंक और लिया और फिर उसके साथ हो लिया ।”
इस पंजाबी पुत्तर में यह एक खूबी है, पसंदीदा माल में तकल्लुफ नहीं करता ।
हम कार में सवार हुए ।
आश्रम तक मैंने कार ठीक ठाक चलाई फिर मैंने अपनी बाई बांह उसके कंधे के गिर्द लपेटी और उसे अपनी तरफ खींचने की कोशिश की ।
“गाड़ी चलाने की तरफ तवज्जो दो” – वह जबरन मेरी बांह परे करती हुई बोली – “एक्सीडेंट हो जाएगा ।”
“तुम तो दिल तोड़ रही हो ।”
“जानते हो मोटर एक्सीडेंटस के मुकाबले में रेल एक्सीडेंटस बहुत कम क्यों होते हैं ?”
“नहीं । क्यों होते हैं ?”
“क्योंकि इंजन का ड्राइवर अपने खलासी के गले में हाथ डालकर इंजन नहीं चलाता ।”
“यह जोक है ?”
“हकीकत है ।”
“यानि कि हंसने की जरुरत नहीं । जोक होता तो हंसता ।”
वह खामोश रही ।
आगे का रास्ता वैसी ही खामोशी से कटा ।
हम फरीदाबाद पहुंच गए तो वह मुझे रास्ता बताने लगी । अंत में हम एक एक मंजिली कोठी के सामने पहुंचे ।
तब तक काफी अन्धेरा हो चुका था और वह खामोश इलाका और भी खामोश लगने लगा था ।
“कोठी तुम्हारे अंकल की अपनी है ?” – मैंने पूछा ।
“नहीं । किराये की है ।” – वह बोली ।
“अच्छा ! तुम्हारा इतना पैसे वाला अंकल किराये की कोठी में रहता है ।”
“मेरी समझ में खुद नहीं आता” - वह उलझनभरे स्वर में बोली – “अंकल तो आंटी को भी कहते रहते हैं कि खर्चा कम करो ।”
“जब कि कोख का कलंक की सूरत में उनके हाथ सोने की खान लगी हुई है ।”
“है न कमाल की बात ।”
“कुछ लोग बुढ़ापे में कुछ ज्यादा ही कंजूस मक्खीचूस हो जाते हैं ।”
“जब कि बुढ़ापे में उन्हें ज्यादा शाहखर्च हो जाना चाहिए । कोई दौलत साथ तो ले जा नहीं सकता । दूसरे के लिए छोड़कर मरने का क्या फायदा !”
“यू आर राइट ।”
“हॉर्न बजाओ । तभी फाटक खुलेगा ।”
मैंने कई बार हॉर्न बजाया तो ओवरकोट में लिपटा एक व्यक्ति फाटक पर प्रकट हुआ । वह आंखें फाड़-फाड़ कर कार की तरफ देखने लगा ।
“गोपीनाथ” – वह बोली – “मैं हूं । मधुमिता ।”
उसका सिर सहमति में हिला । उसने चाबी लगाकर फाटक पर लगा ताला खोला और फिर फाटक खोला ।
मधुमिता के इशारे पर मैंने कार भीतर चला दी । मैंने कार को पोर्टिको में ले जाकर खड़ी किया । हम दोनों बाहर निकले ।
गोपीनाथ तब तक फाटक बन्द करके हमारे करीब आ खड़ा हुआ था ।
तभी कोठी का दरवाजा खुला और साड़ी पहने एक उम्रदराज औरत चौखट पर प्रकट हुई ।
“यह मेरी आंटी है ।” – मधुमिता बोली – “रुक्मणी गुप्ता ।”
मैंने रुक्मणी गुप्ता का अभिवादन किया ।
“आंटी” – मधुमिता बोली – “ये मिस्टर कोहली हैं । अंकल से मिलने आये हैं ।”
रुक्मणी गुप्ता का सिर सहमति में हिला । फिर वह हमारे लिए रास्ता छोड़कर चौखट से परे हट गयी ।
हम लोग एक ड्राइंग रूम में पहुंचे । वहां की हर चीज बाबा आदम के जमाने की मालूम होती थी । वहां रखा टी वी भी ब्लैक एण्ड वाइट था जो कि पता नहीं चलता भी था कि नहीं ।
रुक्मणी देवी के संकेत पर हम दोनों बैठ गए ।
जिस सोफाचेयर पर मैं बैठा, वह यूं चरमराई जैसे कराह कर अपने ऊपर हो रहे जुल्म का विरोध कर रही हो ।
“तू” - रुक्मणी देवी नाक चढ़ा कर बोली - “अभी भी मॉडलिंग ही कर रही है ?”
“हां आंटी” – मधुमिता बोली, फिर वह मेरी तरफ घूमी – “आंटी मॉडलिंग के धन्धे के बहुत खिलाफ है ।”
“भले घर की लड़कियों को” – रुक्मणी देवी बोली – “शोभा देता है अधनंगी तस्वीरें खिंचवाना जो आगे ऐसे अखबारों में छपती हैं जिनमें लोग जलेबियां खाते हैं और रोटी लपेटते हैं !”
मैंने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“अंकल कहां हैं ?” – मधुमिता बोली ।
“मैं यहां हूं ।”
मेरी निगाह पिछले एक दरवाजे की तरफ उठी जिसमें से रूद्रनारायण गुप्ता वहां कदम रख रहा था ।
वह करीब आया तो मैंने उठ कर उससे हाथ मिलाया ।
“वेलकम, मिस्टर कोहली” – वह बोला, फिर वह मधुमिता की ओर घूमा – “हेल्लो, माई डियर । कैसी हो ?”
“अच्छी हूं, अंकल” – मधुमिता मुस्करा कर बोली ।
“आई एम ग्लैड” – वह फिर मेरी तरफ घूमा – “क्या पियोगे, मिस्टर कोहली ?”
“जो आप पिलाएं” – मैं अदब से बोला ।
“ऐसे मौसम में रम का कुछ अपना ही मजा होता है ।”
“जी हां । क्यों नहीं ?”
मन ही मन मैं बूढ़े की कंजूसी पर भुनभुना रहा था और अपनी तकदीर को कोस रहा था – कोनियाक ब्राण्डी के ऊपर से रम ! भला कोई बात हुई !
रूद्रनारायण ने रम के दो पैग तैयार किए । मैंने अपनी अनिच्छा को भरसक छुपाते हुए एक पैग थाम लिया ।
“मधुमिता” – वह बोला – “अभी तुम्हारी आंटी फिर मॉडलिंग पर नाक चढ़ा रही थी ?”
“क्यों न चढ़ाऊं ?” – रुक्मणी देवी बोली – “इस का भला बुरा मैं नहीं सोचूंगी तो और कौन सोचेगा ? हमारे अलावा इसका कौन खैरख्वाह बैठा है इस दुनिया में ?”
“मधुमिता अब बच्ची नहीं । वो बालिग है, खुदमुख्तार है और अपना भला बुरा बखूबी सोच सकती है । फिर तुम कैसे हो गयी इसकी इकलौती खैरख्वाह ! कल्याण जो है ! इसका पति जो है इसका खैरख्वाह !”
“मधुमिता इनकार में सिर हिलाने लगी ।”
“था ।” – वह बोली ।
“क्या मतलब ?”
“मैं उससे तलाक ले रही हूं ।”
उस घोषणा का वृद्धा पर ऐसा असर हुआ जैसे बम फूटा हो ।
“बेटी” – रुक्मीणी देवी रुष्ट स्वर में बोली – “भले घर की लड़कियां तलाक के बारे में सोचती तक नहीं । शादी सिर्फ शरीरों का ही नहीं आत्माओं का मिलन होता है । आत्माओं का जन्म जन्मान्तर का मिलन होता है । जन्म जन्मान्तर के रिश्ते आधुनिक कानूनी सुविधाओं की आड़ लेकर यूं एकाएक तोड़े नहीं जा सकते ।”
“लेकिन...”
“मैं जानती हूं तुम क्या कहोगी ! तुम यही कहोगी कि तुम्हारी अपने पति से बनती नहीं । बनती बनाने से है । जिसके लिए एक दूसरे को मौका देना पड़ता है ।”
“मैं बहुत मौके दे चुकी उसे ।”
“फिर भी तलाक एक गलत कदम है, एक अपवित्र कदम है । मुझे और अपने अंकल को देखो । हमारी क्या कभी अनबन नहीं हुई ! लेकिन मैंने तलाक की तो कभी नहीं सोची । समझौता करना पड़ता है, बेटी । शादी तो नाम ही एक समझौते का है । सारी जिन्दगी ही समझौतों का एक निरन्तर सिलसिला है ।”
“आंटी, जिस आदमी से मुहब्बत न रही हो, उसके साथ भला कैसे रहा जा सकता है ?”
“कल्याण इतना बुरा” – रुद्रनारायण बोला – “इतना नाकाबिलेबर्दाश्त शख्स तो नहीं ।”
“बशर्ते कि” – मधुमिता बोली – “उसके साथ उम्र काटने का तकाजा न हो ।”
“लेकिन तलाक...”
“आप छोड़िये यह किस्सा ? इस बाबत अपना भला बुरा मैं खुद सोचूंगी ।”
“यह तुम्हारा आखरी फैसला है ?”
“हां । और घर में मेहमान आया है । उसको ऐसी बातों से बोर करने का क्या फायदा !”
“ओह !” – रुद्रनारायण बोला – “सॉरी, मिस्टर कोहली ।”
“नाट ऐट आल, सर” – मैं बोला ।
फिर वह मेरे से गिलास खाली करने का इसरार करने लगा ।
खुदा का शुक्र था कि डिनर बाकी मेहमानवाजी की तरह रोता धोता न निकला । खाना, मालूम हुआ कि, गोपीनाथ बनाता था जिसमें और कोई खूबी थी या नहीं, कुक वह निशचय ही बढ़िया था ।
डिनर के बाद हम फिर ड्राईंगरूम में आ गए ।
गोपीनाथ ने कॉफी सर्व की ।
रुद्रनारायण ने मुझे सिगार पेश किया लेकिन मैंने अपनी सिगरेट को ही वरीयता दी ।
फिर मुझे एक गुप्त इशारा करके मधुमिता रुक्मणी को वहां से उठा कर ले गई ।
पीछे मैं और रुद्रनारायण रह गए ।
“बड़ी मंहगाई है” – रुद्रनारायण बड़े असंतोषपूर्ण स्वर में बोला – “कोई चीज ढंग की नहीं मिलती । यह सिगार ही देखो । लोकल ब्रांड है । किसी काम का नहीं । जब कि इससे एक चौथाई कीमत में कभी सिगार आता था ।”
“आप जैसे पैसे वाले लोग मंहगाई की शिकायत कर रहे हैं” – मैं उपहासपूर्ण स्वर में बोला – “तो हमारे जैसे लोगों का क्या हाल होगा ?”
“अरे, हम काहे के पैसे वाले हैं ? हम तो रिटायर्ड आदमी हैं ।”
“खुशकिस्मत रिटायर्ड आदमी जिन्हें रोजी रोटी के लिए कुछ करना नहीं पड़ता । ऊपर से आप तो कोख का कलंक से ही लाखों कमा चुके होंगे ।”
“कमाई से क्या होता है ? सरकार भी तो कुछ छोड़े ।”
“सरकार सारा तो नहीं छीन लेती ।”
“लेकिन जो पीछे छोड़ती है, उसमें रईसी तो बरकरार नहीं रखी जा सकती न ।”
“आप मजाक कर रहे हैं । आप जरुर मजाक कर रहे हैं ।”
“एक बात बताओ, बरखुदार ।”
“पूछिए ।”
“तुम कोख का कलंक पर पंचानन मेहता का कोई क्लेम वाकई साबित कर सकते हो ?”
“जी हां । कर तो सकता हूं ।”
“किस बिना पर ?”
“एक ऐसे गवाह की बिना पर जिसका बयान साबित करता है कि कोख का कलंक की स्क्रिप्ट फर्म में तब पहुंची थी जब पंचानन मेहता भी उसका पार्टनर था । यही हकीकत हर्षवर्धन के माध्यम से भी स्थापित की जा सकती है ।”
“वही तुम्हारा गवाह है ?”
“आइंदा दिनों में वो भी होगा ।”
“अभी क्यों नहीं ?”
“क्योंकि अभी तो मैं उसका अता-पता नहीं जान पा रहा हूं ।”
“लेकिन जान जाओगे ?”
“जी हां । यकीनन ।”
“वो गवाही देगा पंचानन मेहता के हक में ?”
“भलामानस होगा तो जरूर देगा” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर सहज स्वर में बोला - “आपकी क्या राय है उसके बारे में ? है वो भलामानस ?”
“क्या मालूम ? मैं तो मिला नहीं उससे ।”
“क्या वाकई ?”
“हां ।”
“वैसे आपको उसका कोई अता-पता तो मालूम होगा ?”
“नहीं मालूम ।”
“मालूम नहीं या बताना नहीं चाहते ?”
“मालूम नहीं । वैसे मालूम होता भी तो ऐसी कोई बात तुम्हारे सामने जुबान पर लाने से पहले मैं दस बार सोचता ।”
“ऐसा ?”
“हां । आखिर खरबन्दा मेरा दोस्त है, मेरा रिश्तेदार है, मेरा बिजनेस एसोसिएट है जब कि तुम्हें मैं ठीक से जानता भी नहीं ।”
“अब तो जानते हैं । अब तो मैं आपकी दारू पी चुका हूं, आपका अन्न खा चुका हूं ।”
वह एक खोखली हंसी हंसा । उसने सिगार का एक लंबा कश लगाया और अपनी दाढ़ी में उंगलियां फिराईं ।
“जनाब” - मैं बड़ी संजीदगी से बोला - “अगर आप खरबन्दा को अपना दोस्त, अपना अजीज मानते हैं तो उसे एक नेक राय दीजिए ।”
“क्या ?”
“उसे कहिए कि वह पंचानन मेहता के साथ आउट ऑफ कोर्ट सैटलमेंट कर ले । केस कोर्ट में पहुंचा तो आपका दोस्त यकीनन हारेगा ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“उसने एक कोशिश की तो थी सैटलमेंट की ।”
“वह कोशिश बेजा थी । उसका वकील सैटलमेंट की जो रकम ऑफर कर रहा था, वह चिड़िया की बीट जितनी थी ।”
“मैं खरबन्दा के जाती मामलात में दख्ल नहीं देना चाहता ।”
“देना भी नहीं चाहिए । लेकिन यह पूरी तरह से जाती मामला नहीं । कोख का कलंक से होने वाले हर मुनाफे के आप भी हिस्सेदार हैं, इसलिए कोर्ट का खरबन्दा के खिलाफ हुआ कोई फैसला आप पर भी बराबर असर डालेगा ।”
“हूं” - उसने चिन्तित भाव से हामी भरी - “मैं खरबन्दा से बात करूंगा ।”
“जरूर कीजिएगा ।”
तभी मधुमिता वापिस पहुंची ।
“अब चलो” - वह बोली - “बहुत रात हो गई है ।”
मैं उठ खड़ा हुआ ।
“कल” - रुद्रनारायण भी उठता हुआ बोला - “मैं और तुम्हारी आंटी दिल्ली आ रहे हैं । बैंक से चैक भुनवाना है । बाद में तुम्हारे यहां आएंगे । तुम घर पर होवोगी ?”
“हां ।” - मधुमिता बोली - “कल मैं सारा दिन घर पर ही होऊंगी । लंच मेरे साथ कीजिएगा ।”
“हो सकता है हमें थोड़ी देर हो जाए ।”
“कोई बात नहीं । मैं लंच पर इंतजार करूंगी ।”
“ठीक है ।”
“आप अपना बैंक एकाउंट दिल्ली में रखते हैं ।” - मैंने सहज भाव से पूछा ।
“हां ।” - रुद्रनारायण बोला - “ट्रस्ट का चैक दिल्ली के बैंक का होता है न । मेरा भी एकाउंट दिल्ली में होने से वह जल्दी खाते में लग जाता है ।”
“आई सी ।”
फिर हम वहां से विदा हो गए ।
***
दिल्ली की सड़क पकड़ते-पकड़ते ग्यारह बज चुके थे ।
“दिल्ली में कहां है तुम्हारे अंकल का एकाउंट ?” - एकाएक मैंने पूछा ।
“नेशनल बैंक की कनाट प्लेस ब्रांच में ।” - मधुमिता बोली - “क्यों ?”
“कुछ नहीं । यूं ही पूछा था ।”
“मैं जानबूझकर आंटी को दूसरे कमरे में ले गई थी ताकि तुम खुलकर अंकल से बातें कर सको । बातें हुईं ?”
“हां । हुईं तो ।”
“मतलब हल हुआ ?”
“नहीं हुआ । खास मतलब तो हर्षवर्धन का पता जानना था लेकिन तुम्हारे अंकल कहते थे कि वे उससे कभी भी नहीं मिले ।”
“झूठ तो नहीं बोल रहे होंगे ।”
“क्या पता ?” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “कंजूस तो वाकई बहुत है चाचा तुम्हारा....”
“मौसा ।”
“...ऊपर से महंगाई का रोना रो रहा था । क्या करता है वो इतने पैसे का ? कोई माशूक तो नहीं पाली हुई ?”
“इस उम्र में ।”
“ऐसे कामों में उम्र का नहीं, नीयत का दख्ल होता है । सच पूछो तो उसकी आंखों में गुलाबी डोरे साफ तैरते मैंने खुद देखे थे ।”
“नशे की वजह से न कि ... जो तुम समझ रहे हो उसकी वजह से ।”
“दोनों वजहें भी हों तो क्या है । ऐश करने दो बूढ़े को ।”
“लेकिन...”
“तुम ऐश के हक में हो न ?”
“हूं तो सही ।”
मैंने कार को सुनसान सड़क पर एक घने पेड़ के नीचे रोक दिया ।
“क्या हुआ ?” - वह बोली ।
“अभी कुछ नहीं हुआ ।” - मैं उसकी ओर घूमता हुआ बोला - “अब होगा ।”
“क्या ?”
जवाब में मैंने उसकी तरफ हाथ बढ़ाये तो वह एकदम परे सरक गई । स्टियरिंग के पीछे बड़ी मुश्किल से पहलू बदलकर मैं आगे को सरका, मैंने उस पर झपट्टा मारा तो एकाएक मेरे आंखों के आगे सितारे नाच गए । मैं हकबकाकर पीछे हटा और अपना जबड़ा सहलाने लगा ।
“अभी तो तुम कह रही थीं कि तुम ऐश के हक में हो ।”
वह खामोश रही ।
“लगता है बूढ़ों की ही ऐश के हक में हो ।”
“वो बात नहीं ।”
“तो क्या बात है ?”
“यह कोई तरीका है । हर काम का कोई वक्त होता है, कोई जगह होती है ।”
“हमारे यहां जब भूख लगे तब खाना खाया जाता है ।”
“अब गाड़ी चलाओ ।”
“तुम” - मैं फिर से इंजन स्टार्ट करता हुआ बोला - “बाक्सर तो नहीं रह चुकी हो ?”
उसने उत्तर न दिया ।
मैंने गाड़ी आगे बढ़ा दी । थोड़ा सफर खामोशी में कटा ।
“सुधीर !” - फिर एकाएक वह बोली ।”
“हां” - मैं बोला ।
“आई एम सारी ।”
“किस बात के लिए ?”
“तुम्हें मालूम है ।”
मैं खामोश रहा ।
“जानते हो ?”
“क्या ?”
“तुम मुझे बहुत पसंद हो ।”
“मेरी खुशकिस्मती । अभी तुमने अपनी पसंद का इजहार मेरे जबड़े पर एक घूंसा जमाकर किया है । इस जज्बे में और इजाफा हुआ तो जबड़े में फ्रैक्चर ही दिखाई देगा ।”
“कहा न सारी ।”
“ओके । ओके ।”
“और फिर मैंने क्या गलत कहा ! हर काम का कोई मुनासिब वक्त होता है, कोई मुनासिब जगह होती है ।”
“ठीक कहा तुमने ।”
उसके फ्लैट तक का बाकी रास्ता मुकम्मल खामोशी में कटा ।
मैंने कार को उसके फ्लैट वाली इमारत के सामने खड़ा किया और उतरकर उसकी ओर का दरवाजा खोला ।
उसने बाहर निकलने का उपक्रम न किया ।
मैंने असमंजसपूर्ण भाव से उसकी तरफ देखा ।
“सीढ़ियों में अंधेरा है” - वह बोली - “मुझे डर लगता है । ऊपर छोड़कर आओ ।”
“जो हुक्म, मेम साहब” - मैं तनिक सिर नवा कर बोला ।
तब वह बाहर निकली और मेरे साथ सीढ़ियां चढ़ने लगी ।
सीढ़ियों में वाकई अंधेरा था । पहली सीढ़ी पर कदम रखते ही उसने मेरे कंधे का सहारा ले लिया । और कुछ सीढ़ियों के बाद हम जब मोड़ पर पहुंचे तो एकाएक वह मेरे ऊपर ढेर हो गई । मेरे बाहें फैलीं तो वह तत्काल उनमें समा गयी । मैंने कसकर उसे अपनी बांहों में भींच लिया । उसके नम अधखुले होंठ मेरे होंठों को छुए । मैं सदियों के प्यासे की तरह अधर पान करने लगा । मेरा एक हाथ उसके जिस्म की विभिन्न, निहायत दिलकश, गोलाइयों को टटोलने लगा । उसकी सांसें भारी होने लगीं । मेरी भी वही हालत हो रही थी ।
फिर जैसे एकाएक वो मेरे आगोश में आयी थी, वैसे ही एकाएक आगोश से निकल गई । उसने घूमकर अगली सीढ़ी पर कदम रखा ।
हमने बाकी की सीढ़ियां तय कीं । मैं उसके फ्लैट के दरवाजे के सामने पहुंचा तो उसने मुझे एक चाबी थमा दी । मैंने झुककर ताला खोलने का उपक्रम किया तो सकपका कर हाथ खींच लिया ।
“क्या हुआ ?” - वह बोली ।
“ताला तो पहले से खुला है ।”
“क्या ?”
खुला ताला कुंडे के साथ झूल रहा था । पता नहीं वह तोड़ा गया था या चाबी लगा कर खोला गया था ।
मैंने ताले को कुंडे से निकाला और दरवाजे को धक्का दिया ।
भीतर फ्लैट की तमाम बत्तियां जल रही थीं और वहां फैली अस्तव्यस्तता बता रही थी कि किसी ने जम कर वहां की तलाशी ली थी ।
खुले ताले से ही बदहवास मधुमिता के मुंह से एक दहशत भरी सिसकारी निकल गयी ।
“भीतर कोई होगा !” - वह फुसफुसाई ।
“उम्मीद तो नहीं ।” - मैं बोला - “दरवाजा बाहर से बंद था । फिर भी तुम यहीं ठहरो । मैं देखता हूं ।”
मैं सारे फ्लैट में फिर गया । कहीं कोई नहीं था । अलबत्ता तलाशी हर जगह की ली गई थी ।
“कोई नहीं है ।” - मैंने वापिस लौट कर बताया ।
“ओह !”
मेरी तवज्जो अनायास ही खरबन्दा की तरफ गई । बंद ताले खोलने में वही माहिर मालूम होता था, पहले वह श्रीलेखा के होस्टल के कमरे का ताला भी तो खोल चुका था ।
“यह हरकत तुम्हारे हसबैंड की तो नहीं ?” - मैं बोला ।
“खरबन्दा की ? वो भला ऐसा क्यों करेगा ?”
“वजह तुम बताओ ।”
“कोई वजह नहीं ।”
“जरा देखो चोरी क्या गया है ?”
“यहां चोरी लायक कुछ है ही नहीं । अभी तो निहायत टैंपरेरी रहन-सहन है मेरा यहां ।”
“तुम्हारा वो जापानी खंजर टी वी कैबिनेट पर दिखाई नहीं दे रहा ।”
“उसे कौन चुराएगा । इधर-उधर कहीं गिर गया होगा, मिल जाएगा ।”
“मैं ढूंढूं ?”
“अरे, छोड़ो ।”
“या यहां सब कुछ ठीक ठाक कराने में मैं तुम्हारी कोई मदद करूं ।”
“नहीं । सुबह देखा जाएगा ।”
“कहो तो” - मैं आशापूर्ण स्वर में बोला - “मैं रात यहीं रह जाऊं ।”
“नहीं । ठीक है । अब जो होना था, वो हो चुका है । चोर कोई दोबारा थोड़े ही आएगा ।”
“तो फिर मैं चलूं ?” - मैं अपने स्वर में ढेर सारी मायूसी उड़ेलता हुआ बोला ।
“हां । शुक्रिया । गुडनाइट ।”
“गुड नाइट ।”
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