रविवार : बाईस दिसम्बर
बस में चार की हत्या
राजधानी के राजौरी गार्डन के इलाके में आधी रात के करीब डी टी सी की नाइट सर्विस की बस में खून-खराबे की तब एक बड़ी वारदात हो गयी जब कि तिलकनगर रहने वाले एक नवविवाहित दम्पति मोतीनगर स्थित नटराज सिनेमा पर नाइट शो देखकर घर वापिस लौट रहे थे । मोतीनगर के बस स्टैण्ड से जब वो दम्पत्ति बस में सवार हुए तो उनके साथ चार आदमी और बस में चढ आये । बस में उनसे पहले ड्राइवर कन्डक्टर के अलावा सिर्फ एक सवारी और मौजूद थी । उस सवारी की बाबत बताया जाता है कि वह गहरे रंग का लम्बा ओवरकोट और सिर पर फैल्ट हैट पहने एक व्यक्ति था जो कि रात के वक्त भी आंखों पर काले रंग का चश्मा लगाये हुए था और जो ड्राइवर के पीछे की सीट पर बैठा ऊंघ रहा था । युवती के बयान के मुताबिक उनके साथ मोतीनगर से सवार हुए वो चारों आदमी नशे में धुत्त थे और उन्होंने बस के चलते ही युवती को लेकर फबतियां कसनी शुरू कर दी थीं और उसके साथ छेड़खानी की कोशिश शुरू कर दी थी । युवती के पति ने जब उन हरकतों का विरोध किया था तो उन चारों ने मिलकर उसे पीटना शुरू कर दिया था । युवक ने ड्राइवर को बस रोकने के लिए कहा तो ड्राइवर ने बस न रोकी । ड्राइवर के कथनानुसार तब एक बदमाश ने उसकी तरफ चाकू तान दिया था और उसे बस चलाते रहने का आदेश दिया था । फिर एक और बदमाश ने पति के सिर में एक लोहे का डण्डा दे मारा, जिससे कि उसकी खोपड़ी खुल गयी और वो तत्काल बेहोश हो गया । पति के यूं रास्ते से हटते ही उन्होंने पत्नी को दबोच लिया और उसके साथ जबरन नोच-खसोट शुरू कर दी । हालांकि ये बात सम्भावित नहीं लगती लेकिन युवती का कहना है कि तब कहीं जाकर उन बदमाशों की तवज्जो उस हैट और ओवरकोट वाली सवारी की तरफ गयी जो कि बस में पहले से सवार थी । तब पत्नी को दबोचे तीन बदमाशों में से दो अलग हुए और लोहे के डण्डे और चाकू से लैस उन दोनों ने ओवरकोट वाले पर हमला कर दिया लेकिन इससे पहले कि ओवरकोट वाले पर एक भी वार हो पाता उसने जेब से रिवाल्वर निकाली और अपने दोनों आक्रमणकारियों को प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया । फिर उसने उस बदमाश को भी शूट कर दिया जो पत्नी को दबोचे हुए था । चौथे बदमाश ने, जो कि ड्राइवर के कथनानुसार चाकू लेकर उसके सिर पर सवार था, वो नजारा देखा तो उसने आतंकित होकर ड्राइवर को बस रोकने को कहा । फिर जब बस की रफ्तार घटने लगी तो उसने चलती बस से बाहर कूदकर भाग निकलने की कोशिश की जिसमें कि वो कामयाब न हो सका । वो अभी बस के अगले गेट के करीब ही पहुंचा था कि ओवरकोट वाले ने उसे भी शूट कर दिया । फिर राजा गार्डन चौक से थोड़ा पहले बस रूकी और ड्राइवर और कन्डक्टर दोनों बस छोड़कर भाग गये । फिर उन्होंने ही पुलिस कन्ट्रोल रूम में कहीं से फोन करके पुलिस को उस वारदात की खबर दी ।
फ्लाइंग स्क्वायड़ की गाड़ी जब मौकायेवारदात पर पहुंची तो उन्होंने लावारिस खड़ी बस में चार बदमाशों को मरा पड़ा पाया और पत्नी को अपने घायल बेहोश पति का सिर अपनी गोद में लेकर बैठे रोता पाया । तब पुलिस ने ही बहुत नाजुक हालत में पहुंच चुके पति को हस्पताल पहुंचाया ।
मरने वालों की शिनाख्त होना अभी बाकी है ।
इस वारदात में जो गौरतलब बात है वो ये है कि ड्राइवर-कन्डक्टर और युवती की सूरत में जो चश्मदीद गवाह उपलब्ध हैं, उन्होंने ओवरकोट वाले का जो कद-काठ, हुलिया और पहरावा बयान किया है, वो ऐन वैसा है जैसा कि उस शख्स का था जिसने शुक्रवार रात को पंखा रोड पर हुई वारदात में दो चेन स्नैचर्स को शूट किया था ।
क्या दोनों वारदातों में एक ही शख्स का हाथ था ? था तो उसने ऐसा क्यों किया था ? इस बाबत अपनी कोई राय जाहिर करने के लिए इस दैनिक के प्रेस में जाने तक पुलिस का कोई प्रवक्ता उपलब्ध नहीं है ।
तमाम वारदात में बस ड्राइवर और कन्डक्टर का रोल बहुत सन्देहजनक बताया जाता है । वारदात की शिकार युवती का बयान है कि उसके पति ने जब बस रोकने की गुहार की थी तो ड्राइवर ने बस को रोकने के स्थान पर और तेज भगा दिया था और बदमाशों की तमाम ज्यादतियों के दौरान कन्डक्टर ने अपनी सीट से हिलने तक की कोशिश नहीं की थी । कहना न होगा कि अगर वो ओवरकोट वाला बस में मौजूद न होता तो वो नवविवाहित युवती, जिसके पति को उसकी आंखों के सामने उन बदमाशों ने मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया था, बस में ही सामूहिक बलात्कार का शिकार हो गयी होती और शायद अपनी जान से भी हाथ धो चुकी होती ।
बताया जाता है कि बस के ड्राइवर और कन्डक्टर फरदर क्वेश्चनिंग के लिए फिलहाल पुलिस की हिरासत में हैं । उन पर अपराधी की मदद करने का चार्ज लगाया जाने की पूरी-पूरी सम्भावना है ।
विमल ने अखबार एक ओर डाल दिया । कोई और खबर पढने की उसकी इच्छा न हुई ।
उस शख्स के कारनामे उसे दुविधा में डाल रहे थे । कहीं वो शख्स जो कुछ कर रहा था, उसी से प्रेरणा लेकर तो नहीं कर रहा था ? अलबत्ता कैसे भी वो वो सब कर रहा था, वो लम्बा चलने वाला सिलसिला नहीं था । अपनी नातजुर्बेवारी की वजह से मारने वाला मर भी सकता था ।
लेकिन - विमल ने खुद से सवाल किया - उसे क्या पता था कि वो नातजुर्बेकार था या उससे भी ज्यादा तजुर्बेकार ?
बहरहाल वो जो कोई भी था, फिलहाल उसके कारनामे उसे विचलित कर रहे थे ।
ये भी एक सुखद संयोग था कि उसका निगहबान रावत फिर उसका गवाह था कि पिछली रात की घटना के वक्त भी वो अपने फ्लैट पर मौजूद था ।
क्या वाकई संयोग था पिछली रात रावत का उसके फ्लैट की घन्टी बजाना ?
वो कुछ क्षण सोचता रहा और फिर अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ । वो अपने फ्लैट से बाहर निकला ।
उसने रावत के फ्लैट की घन्टी बजायी ।
रावत आंखें मिचमिचाता हुआ बाहर निकला ।
“फरमाइये ?” - वो बोला ।
“छुट्टी वाले दिन लम्बा सोना पसन्द करते हैं आप !” - विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
“जी हां ।” - रावत बोला - “कैसे आये ?”
“आपके भाई साहब की तबीयत के बारे में जानने आया था ।”
“तबीयत ?”
“खराब थी न कल रात ।”
“ओह, हां । वो । अब ठीक है मेरा भाई ।”
“डाक्टर साहब मिल गये थे ?”
“डाक्टर साहब ?”
“डाक्टर मजूमदार ! जिनका मैंने आपको पता बताया था ।”
“जी हां । जी नहीं । वो क्या है कि उनको बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी । मेरे भाई की तबीयत वैसे ही ठीक हो गयी थी । जैसे एकाएक बिगड़ी थी, वैसे ही एकाएक सुधर गयी थी ।”
“वैरी गुड । वैसे हुआ क्या था ?”
“पता नहीं ।”
“पता करना चाहिए । जो पिछली रात हुआ वो फिर हो सकता है ।”
“वो जायेगा आज चैकअप कराने ।”
“गुड । मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइये ।”
“जी नहीं । शुक्रिया ।”
विमल वापिस लौट आया ।
अब उसे पूरा यकीन था कि पिछली रात रावत के कथित भाई को कुछ नहीं हुआ था ।
शाम आठ बजे नीलम जब थोड़ी देर के लिए किचन में गयी तो विमल ने चार्ली को फोन किया ।
“हल्लो ।” - उसे चार्ली की आवाज सुनाई दी तो वो बोला - “तू जानता है मैं कौन बोल रहा हूं ?”
“जानता हूं ।” - चार्ली की दबी आवाज आयी ।
“क्या खबर है ?”
“अभी काम नहीं बना ।”
“चार्ली ! चार्ली...”
“जरा सुन तो ले, बास । उतावला न हो । सुन तो ले जरा ।”
“सुना ।”
“बहुत पूछताछ के बाद मैंने उसके घर का पता मालूम किया था और फिर मैं खुद उसके घर गया था । बास, वो घर पर नहीं था । उसकी मां कह रही थी कि वो परसों से घर नहीं आया ।”
“कहां गया ?”
“क्या पता कहां गया !”
“फिर क्या बात बनी ?”
“सीधे तो नहीं बनी ।” - चार्ली का स्वर और धीमा हो गया - “लेकिन और तरीके से बनने की उम्मीद हुई है ।”
“कैसे ?”
“उसका एक खास यार यहां पहुंचा है । उसका और सुन्दरलाल का पतंग और डोर जैसा साथ है । जब से सुन्दरलाल यहां नहीं आया, तब से वो भी नहीं आया । आज वो आया बैठा है ।”
“इसलिए तुझे उम्मीद है कि सुन्दरलाल भी आयेगा ?”
“हां ।”
“तेरा वो भी वाकिफ है ?”
“हां ।”
“सुन्दरलाल जितना ही ?”
“हां ।”
“मैं आ रहा हूं । मेरे पहुंचने तक न जाने पाये वो वहां से । ऐसी कोई कोशिश वो करे तो कैसे भी उसे रोक के रखना ।”
“ठीक है ।”
विमल किचन में पहुंचा जहां एक कुर्सी पर बैठी नीलम आलू छील रही थी । विमल ने उसके पीछे पहुंचकर उसके गले में अपनी बांहें पिरो दीं ।
“बन्द कर ये सब ।” - वो बोला ।
“क्यों जी ?” - नीलम अचरजभरे स्वर में बोली - “खाना नहीं खाना ?”
“आज ये खाना नहीं खाना ।”
“तो और क्या खाना है ? अपना कलेजा भून के खिलाऊं सरदार जी ?”
“नहीं ।”
“तो ?”
“आज पीजा खाने का दिल कर रहा है ।”
“दिल तो मेरा भी कर रहा है ।”
“बढिया । पहाड़गंज में कल ही मैंने एक पीजा पार्लर देखा है । तू ये सब छोड़, मैं वहां से पीजा लेकर आता हूं ।”
“मेरे लिए पीजा रैड चिली, चिकन लाना । मस्टर्ड सॉस ढेर सारी ।”
“ठीक ।”
“और एक वो तीन मंजिलों वाला हमबर्गर भी ।”
“ठीक है । मैं ले के आता हूं । बस गया और आया ।”
***
विमल पीजा पार्लर में चार्ली के आफिस में पहुंचा ।
वो वहां अकेला आया था लेकिन उसे उम्मीद थी कि इस बात की चार्ली को खबर नहीं होने वाली थी । उसने ये ही चिंता था कि उसकी कार की दुर्गति करने वाले दर्जन-भर आदमी तब भी उसके साथ थे ।
पीजा पार्लर तब भी पूरा भरा हुआ था ।
उसे पूरा विश्वास था कि वहां तक किसी ने उसका पीछा नहीं किया था, पीछा किया भी था तो पीछा करने वाला कम-से-कम पीजा पार्लर में उसके पीछे दाखिल नहीं हुआ था ।
“आओ ।” - उसे देखकर चार्ली बड़ी अदा से बोला - “आओ, मेरे मालिक ।”
“एक हमबर्गर” - विमल एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला - “एक रैड चिली चिकन और एक अनियन कैप्सीकम सॉसेज चीज पीजा पैक करवाने को बोल ।”
चार्ली हड़बड़ाया, कुछ क्षण वह हकबकाया-सा विमल को देखता रहा, फिर उसने घन्टी बजाकर एक वेटर को बुलाया और उसे विमल का आर्डर दोहराकर सुनाया ।
वेटर चला गया तो विमल बोला - “बाहर बैठा है अभी सुन्दरलाल का जोड़ीदार ?”
“हां ।” - चार्ली बोला ।
“कौन है । दिखा ।”
चार्ली ने पीजा पार्लर की ओर का अपने आफिस की पार्टीशन में बना एक झरोखा-सा खोला ।
उसके कहने पर विमल ने झरोखे में से बाहर पार्लर में झांका ।
“वो ।” - चार्ली बोला - “वो जो दरवाजे के करीब कोने वाली मेज पर काला-सा आदमी बैठा है ।”
“वो चमड़े की जैकेट वाला ?” - विमल बोला - “चितकबरा ?”
“वही ।”
“नाम क्या है इसका ?”
“शफीक । शफीक खबरी ।”
“और ये सुन्दरलाल का पक्का जोड़ीदार है ?”
“हां ।”
“स्मैकिया ? उसी जैसा ?”
“हां ।”
“फोन पर तू कह रहा था ये तेरा सुन्दरलाल जितना ही वाकिफकार है ?”
“हां ।”
“तो इससे बात करनी थी ! पूछना था ये किस फिराक में है ?”
“मैंने पूछा, मेरे बाप ।” - चार्ली तनिक झुंझलाये स्वर में बोला - “ये सुन्दरलाल से मुलाकात की उम्मीद में ही यहां बैठा हुआ है ।”
“उम्मीद में ? इसे सिर्फ उम्मीद है सुन्दरलाल के यहां आने की ?”
“इसे पक्का है सुन्दरलाल यहां आएगा । वो खुद इससे ऐसा बोला था । बास, ये बोलता है उसका यहां आना पक्का है लेकिन आने का टाइम नहीं पक्का ।”
“यहां बन्द कितने बजे करता है ?”
“बारह बजे ।”
“सुन्दरलाल आया तो तेरा पीजा पार्लर बन्द होने से पहले ही आयेगा न ?”
“जाहिर है ।”
“अभी साढे आठ बजे हैं । चार्ली, ग्यारह बजे तक की गारन्टी कर कि ये - ये शफीक खबरी मरहूम और अगर यहां पहुंचा तो सुन्दरलाल स्वर्गवासी दोनों यहां होंगे ।”
“मैं पूरी कोशिश करूंगा कि...”
“गारन्टी कर ।”
“अब भला गारन्टी कैसे...”
“गारन्टी कर ।”
“अच्छा, बास, की गारन्टी । अब भले ही मुझे कुर्सियों से उनके हाथ-पांव बान्धने पड़ें या उन पर तोप ताननी पड़ें ।”
“गुड ।”
“तू ग्यारह बजे यहां आयेगा ?”
“मैं चाहे न आऊं । लेकिन ग्यारह बजे तक...”
“ओके । ओके । अब एक तसल्ली तू भी तो दे मुझे ।”
“क्या ?”
“कोई खून-खराबा यहां न हो ।”
“खून-खराबे का नाम किसने लिया ?”
“बच्चे मत पढा, यार ।”
“ठीक है ।”
फिर विमल ने जेब से सौ का नोट निकालकर चार्ली के सामने डाल दिया ।
“ये क्या ?” - चार्ली बोला ।
“हमबर्गर और पीजा का बिल ।”
“बास, क्यों शर्मिन्दा...”
“हराम का माल पुलिस वालों के लिए और अपने गुरबख्श लाल के गुण्डों के लिए रिजर्व रख ।”
“लेकिन... लेकिन बिल तो चौहत्तर रुपये का है ।”
“बाकी बैरे को टिप दे दे ।”
***
विमल घर पहुंचा ।
उसने साथ लाया सामान डायनिंग टेबल पर रखा । नीलम प्लेटें वगैरह ले आयी ।
दोनों ने भोजन आरम्भ किया ।
“नीलम” - भोजन के दौरान विमल एकाएक बोला - “रात मुझे एक सपना आया ।”
“अच्छा !” - नीलम बोली ।
“बम्बई के तेरे मेरे साथ के दिनों का सपना, जब हम झूठ-मूठ का हनीमूनिंग कपल बनके होटल सी व्यू में ठहरे थे ।”
“तौबा ! क्या दिन थे वो भी !” - नीलम के चेहरे पर पुरानी यादें ताजी होने लगीं । - “उन दिनों तुम राबिनहुड बने हुए थे और मैं राबिनहुडनी । एक अजीब से जुनून के दिन थे वो । सरदार जी, कितनी बार, कितनी बनाया तुमने मुझे अपनी झूठ-मूठ की बीवी !”
“अब कैसी बीवी है ?”
“अब तो सच्ची-मुच्ची की हूं । अब तो मेरा रुतबा और भी बुलन्द हो गया है । तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं । किसी की बीवी तो झूठमूठ की बना जा सकता है लेकिन किसी के बच्चे की मां तो झूठमूठ की नहीं बना जा सकता न !”
“वो बातें छोड़ । एक बात बता ! तुझे पीटर की याद है ?”
“पीटर ?”
“पीटर परेरा ! जो बम्बई में टैक्सी ड्राइवर बना बैठा था और जो ‘कम्पनी’ में ये डींग हांकने पहुंच गया था कि नूरपुर के समुद्र तट पर उसने मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की छाती में आठ इंच लम्बा बर्फ काटने वाला सुआ घोंपकर उसे मार डाला था ?”
“वही न जिसे तुमने वरसोवा बीच पर ले जाकर शूट कर दिया था ?”
“वही ।”
“याद है मुझे उसकी । हमने उसे सी व्यू होटल की लाबी में तब देखा था जबकि डोगरा का घोरपड़े नाम का खास आदमी उसे डोगरा से मिलवाने के लिए वहां लाया था ।”
“वही । होटल से मैं उसके पीछे लगा था और उसी की टैक्सी पर सवार होकर वरसोवा बीच पहुंचा था जहां कि मैंने उसे शूट कर दिया था ।”
“तो ?”
“नीलम, मैंने उसे क्यों शूट किया था ?”
“क्योंकि पीटर वो शख्स था जिसने नूरपुर में तुम्हारे दिल में सुआ उतार दिया था ।”
“उसने ऐसा क्यों किया था ?”
“क्यों किया था ?”
“उसने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि मैं उसके जग्गी नामक जोड़ीदार को शूट करके हटा था और तब उसे शूट करने वाला था । उसके सुआ चलाने से पहले अगर मैं गोली चलाने में कामयाब हो गया होता तो वो भी जग्गी की बगल में मरा पड़ा होता ।”
“तुम कहना क्या चाहते हो ?” - नीलम एकाएक बड़े आतंकित भाव से बोली ।
“यही कि मैंने बम्बई में नाहक उसकी जान ली ।”
“खामखाह ! अरे, उसने तो तुम्हें मार ही डाला था । वो तो एक करिश्मा था जो तुम बच गये ।”
“उसने आत्मरक्षा के लिए मेरे पर वार किया था । उसने इसलिए मेरे पर सुआ चलाया था क्योंकि मैं उस पर गोली चलाने वाला था । अपनी जान की रक्षा करने का अख्तियार हर किसी को होता है ।”
“ओफ्फोह ! ये क्या खटराग ले के बैठ गये, सरदार जी ? ये पीजा में पीटर कहां से घुस आया ?”
“मैंने नाहक उसकी जान ली । इन गुनहगार हाथों से इतने कत्ल हुए हैं कि मैं उनकी गिनती भूल चुका हूं लेकिन मेरी ये एक करतूत मेरे मन को कचोट रही है । मैंने नाहक उसकी जान ली ।”
“और ये बात तुम्हें अब सूझी है कल रात सपना आने के बाद ?”
“ह... हां ।”
“सच कह रहे हो ?” - नीलम सन्दिग्ध भाव से उसे घूरती हुई बोली - “सपने से ही सूझी न ! कोई बम्बई का बन्दा तो नहीं टकरा गया दिल्ली में ? गुजरी जिन्दगी में से कोई प्रेत तो नहीं उठके खड़ा हो गया जो तुम्हें ये सुझा गया ?”
“नहीं । वो बात नहीं ।”
“तो छोड़ो ये किस्सा । जो बीत गयी सो बीत गयी ।”
“नीलम, वाहेगुरु मेरे गुनाह बख्शे मैं...”
“फिर वो ही बात ! अरे, गेहूं के साथ घुन भी तो पिस जाता है । तुम समझो पीटर के साथ ऐसा ही हुआ ।”
“लेकिन...”
“फिर लेकिन ! अब तुम इस बात का पीछा नहीं छोड़ोगे तो ये बची हुई मस्टर्ड सॉस मैं तुम्हारे मुंह पर मल दूंगी ।”
“और फिर मेरे मुंह से चाटोगी अपनी पसन्दीदा सॉस ?”
वो हंसी ।
“क्या हर्ज है ?” - फिर वो मुदित मन से बोली ।
विमल ने दोबारा उस विषय को न छेड़ा लेकिन मन-ही-मन वो वाहेगुरु से ये ही प्रार्थना कर रहा था कि उसकी जिन्दगी में दुबारा कभी ऐसी नौबत न आये कि उसके हाथों किसी बेगुनाह की जान जाये ।
***
दस बजे के करीब सुन्दरलाल के पांव पीजा पार्लर में पड़े तो शफीक खबरी की जान में जान आयी । उसने हाथ हिला-हिला कर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । सुन्दरलाल की उससे निगाह मिली तो वो उसकी टेबल पर आ गया ।
“बड़ी देर लगाई, यार ।” - शफीक शिकायत-भरे स्वर में बोला - “कब से तेरा इन्तजार कर रहा हूं ।”
“कब से इन्तजार कर रहा है ?” - सुन्दरलाल तनिक अप्रसन्न स्वर में बोला ।
“तीन घन्टे हो गए । बल्कि उससे भी ज्यादा ।”
“अरे यारों के यार ! तू तो सूरज डूबते ही यहां आन बैठा मालूम होता है !”
“मैं क्या करता । तू रात बोला, मैं रात होते ही आ गया ।”
“बहुत फुर्तीला है अपना यारों का यार ।”
“अब बोल । क्या कहता है ?”
“अबे, दम तो लेने दे । तू तो मेरे पहुंचते ही गले पड़ गया ।”
शफीक बेचैनी से पहलू बदलता खामोश हो गया ।
“चार्ली है भीतर ?” - फिर सुन्दरलाल ने पूछा ।
“है तो सही ।”
“तू यहीं बैठा रह । मैं उससे मिल के आता हूं ।”
“मैं भी चलूं ?”
“क्या जरूरत है ! मैं बस दो मिनट में आया । तू यही बैठ ।”
शफीक ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
***
दस बजे तक सिडेटिव के असर में नीलम गहरी नींद सो गयी ।
तब विमल ने बम्बई की यादगार अपना वो तामझाम निकाला जिसके इस्तेमाल की, उसे उम्मीद नहीं थी कि, कभी दोबारा जरूरत पड़ने वाली थी । सबसे पहले उसने अपने चेहरे पर वो फ्रेंच कट दाढी चिपकाई जो कि शमशेर भटटी ने उसे इस्साभाई विगवाला नाम के टाप विगमास्टर से बनवाकर दी थी । उसके साथ वैसी ही एक शानदार मूंछ भी थी लेकिन उसे लगाने की जरूरत नहीं थी क्योंकि चण्डीगढ में उसने अपनी असली मूंछ उगा ली थी ।
दाढी लगाकर उसने शीशे में अपनी सूरत का मुआयना किया तो पाया कि उसके दोनों गालों पर कलमों में और दाढी के सिरों में कोई दो इंच सपाट, खलवाट चमड़ी दिखाई दे रही थी ।
उसने नीलम की एक अपने काम आने लायक साड़ी तलाश की और उसकी यूं अपने सिर पर पगड़ी बांधी कि दोनों कान पूरे-के-पूरे पगड़ी के नीचे आ गये ।
उसने फिर शीशे में मुंह देखा ।
पगड़ी और दाढी के बीच में नंगी चमड़ी अभी भी दिखाई दे रही थी और उस जगह को ढकने के लिए पगड़ी और नीचे सरकाना सम्भव नहीं था ।
वो कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने नीलम के दवाओं के बक्से में से रुई बरामद की । लीक्विड गम पेंट की सहायता से उसने पहले गालों पर खाली जगहों पर रुई चिपकाई, फिर रुई को सुरमे से स्याह किया और फिर उस पर कैंची चलाई ।
उसने फिर शीशे में शक्ल देखी ।
अब फ्रेंच कट दाढी सारे चेहरे पर छाई मुकम्मल दाढी लग रही थी ।
उसने पगड़ी उतारी । उसने आंखों पर नीले कान्टैक्ट लैंस चढाये और तार के सुनहरे फ्रेम वाला प्लेन शीशों वाला चश्मा लगाया । उसने एक रूमाल को माथे पर बान्धकर उससे फिफ्टी का काम चलाया और फिर पगड़ी सिर पर रखी ।
उसने फिर शीशे में अपनी शक्ल देखी तो उसे एक सिख व्यक्ति अपनी ओर झांकता मिला ।
वो याद करने की कोशिश करने लगा कि इलाहाबाद की जेल के फरार होने के बाद अपनी सूरता छुपाने की नीयत से जब उसने अपनी दाढी-मूंछ और केश कटवाए थे तो फिर जब उसके दोबारा एक सिख नौजवान के बहुरूप धारण करने के संयोंग हुआ था ?
उसे याद आया ।
जब बम्बई में उसने अपनी बेवफा बीवी सुरजीत कौर के बान्द्रा वाले फ्लैट में पहली बार कदम रखा था ।
उसके मानसपटल पर सुरजीत कौर की पंखे से झूलती लाश का अक्स उभरा ।
उसने जोर से अपने सिर को झटका दिया और उठ खड़ा हुआ ।
उसने अलमारी से अपना ओवरकोट निकाला ।
कोट को उसने अपने लाल चमड़े से मढे ब्रीफकेस मे रखने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका । ओवरकोट किसी सूरत में उस ब्रीफकेस में न समा पाया ।
उसने ओवरकोट पहन लिया और ब्रीफकेस के हैंडल में एक रस्सी बान्धकर उसे अपने गले में यूं पिरोया कि ब्रीफकेस पीठ पर लटक गया ।
वो अपने फ्लैट की बाल्कनी में पहुंचा । उसने एक सरसरी निगाह नीचे, दायें-बायें दौड़ाई । वातावरण में धुन्ध-सी फैली हुई थी जिसकी वजह से रात के अन्धेरे में दूर तक देख पाना संभव नहीं था । सातवीं मंजिल से नीचे सड़क उसे बड़ी कठिनाई से दिखाई दी ।
बाल्कनी की बगल से सीवर का पाइप गुजर रहा था । विमल ने बाल्कनी की रेलिंग पर चढकर पाइप को थामा और फिर उसके सहारे अपने सिर के ऐन ऊपर‍ स्थित आठवीं मंजिल की बाल्कनी पर पहुंच गया । काम जोखिम का था लेकिन वो निश्चिन्त था । अपनी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी में उससे कई ज्यादा जोखिम के काम उसने कई बार किए थे । 
ऊपरली बाल्कनी सुमन वर्मा के फ्लैट की थी जिसका बाल्कनी की ओर का दरवाजा वो दिन में ही खोल आया था । शाम को घर वापिसी के वक्त वो लिफ्ट द्वारा ग्राउंड फ्लोर से सीधा आठवीं मंजिल पर पहुंचा था, जहां उसने सुमन के फ्लैट में घुसकर बाल्कनी का दरवाजा खोला था, वापिस पहले मंजिल पर पहुंचा था और फिर रावत और उसके साथी की गुप्त निगाहों के सामने सातवीं मंजिल पर लिफ्ट में से निकला था ।
उसने गले में से रस्सी खोली, रस्सी वहीं बाल्कनी में फेंक दी और ब्रीफकेस हाथ में थामे फ्लैट में दाखिल हुआ । अपने पीछे उसने बाल्कनी का दरवाजा बन्द किया और फिर अन्धेरे में ही चलता हुआ फ्लैट के मुख्य द्वार पर पहुंचा । सुमन से हासिल चाबी से उसने मुख्य द्वार का बिल्ट-इन लॉक खोला और बाहर निकला । उसने अपने पीछे मुख्य द्वार को पूर्ववत् लॉक लगाया और लिफ्ट में सवार होकर ग्राउड फ्लोर पर पहुंचा । ब्रीफकेस थामे वो निसंकोच इमारत से बाहर निकला ।
एक टैक्सी पर सवार होकर वो पहाड़गंज पहुंचा ।
जिस घड़ी उसने चार्ली के पीजा पार्लर में कदम रखा, उस घड़ी पौने ग्यारह बजने को थे ।
सुन्दरलाल पन्द्रह मिनट में वापिस लौटा ।
“यार” - शफीक बोला - “इतनी देर...”
“अबे चुप भी कर, यारों के यार ।” - सुन्दरलाल धम्म से उसके सामने बैठता हुआ बोला ।
“मैं तो पीछे आने लगा था ।”
“आता तो बनता काम बिगड़ जाता ।”
“यानी कि” - शफीक आशापूर्ण स्वर में बोला - “अब काम बना है ?”
“हां ।”
“क्या काम बना ?”
“बताता हूं । पहले दो पीजा मंगा कीमे वाले ।”
“मेरे पास पैसे...”
“मैं दूंगा । मैं । मैं । सुन्दरलाल । सुना ?”
उत्तर देने की जगह शफीक ने तत्काल वेटर को बुलाकर आर्डर दिया ।
तभी ओवरकोट पहने और लाल ब्रीफकेस थामे एक सिख नौजवान उसके पहलू की मेज पर आकर बैठ गया ।
सुन्दरलाल ने एक उड़ती सी निगाह उस पर डाली ।
“अब बता तो सही क्या काम बना ?” - शफीक बोला ।
सिख नौजवान ने वेटर को काफी लाने को कहा और ऊंघता सा अपने स्थान पर बैठा रहा । अपना ब्रीफकेस उसने अपने बगल की खाली कुर्सी पर रख लिया था ।
सुन्दरलाल की निगाह सिख के चेहरे से उचटकर ब्रीफकेस पर पड़ी और फिर वापिस शफीक पर लौट आयी ।
ब्रीफकेस कीमती था - वो मन-ही-मन सोच रहा था ।
फिर उसने जेब से एक लिफाफा निकाला । उस लिफाफे से उसने दो और लिफाफे बरामद किये जिनमें से एक को वापिस बड़े लिफाफे में धकेलकर बड़ा लिफाफा अपनी जेब में डाल लिया । दूसरा लिफाफा उसने शफीक को थमाया और धीरे से बोला - “जेब में रख ।”
शफीक ने तत्काल लिफाफा जेब के हवाले किया ।
“क्या है ?” - वो उत्सुक भाव से बोला ।
“वही ।” - सुन्दरलाल दबे स्वर बोला - “तेरी खुराक । चालीस पुड़िया हैं । दस-बारह अपने लिए रख ले, बाकी बेच दे ।”
“बेच दूं ?” - शफीक डूबते स्वर में बोला ।
“आठ-नौ सौ रुपये खरे हो जायेंगे ।”
“लेकिन मैंने कभी ये काम...”
“अब कर ले ।”
“यार, चार्ली से चार पैसे उधार मांगने थे !”
“अबे, वो ये भी नहीं दे रहा था । तभी तो इतनी देर लगी । सौ बार मामा का हवाला दिया तो ये... ये खुराक उधार देने को तैयार हुआ ।”
“ये कोई बात हुई ?”
“ये ही बात हुई ।”
“यार, तेरी सोहबत तो...”
“क्या हुआ मेरी सोहबत को ? क्या मेरी सोहबत तो...”
“घाटे का सौदा बनती जा रहा है ।”
“अबे, यारों के यार, यार शफीक खबरी ।” - सुन्दरलाल तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोला - “इतना नाशुक्रा न बन ।”
तभी वेटर वहां पहुंच गया तो सुन्दरलाल खामोश हो गया ।
जो वेटर उनके लिए पीजा लाया था, वही बगल में बैठे सिख के लिए काफी लाया था ।
चार्ली अपने आफिस से बाहर निकला, उसने आफिस के दरवाजे को ताला लगाया, एक स्टीवर्ट को करीब बुलाकर कुछ आया और फिर बिना दायें-बायें निगाह डाले वहां से रूख्सत हो गया ।
“सुन्दरलाल” - वेटर रूख्सत हो गया तो शफीक आहत भाव से बोला - “तू मेरे को नाशुक्रा बोला !”
“और क्या बोलूं ?” - सुन्दरलाल भुनभुनाया - “जब तू मीठा-मीठा घप्प और कड़वा-कड़वा थू वाली बातें करेगा तो मैं नाशुक्रा ही तो बोलूंगा तेरे को । ऊंच-नीच कहां नहीं होती ! किसके साथ नहीं होती ! पिछले जुम्मे को गोल मार्केंट में तो तू ये नहीं बोला कि ये कोई बात हुई !”
“वो... वो क्या है कि...”
“तब तो तू सातवें आसमान पर पहुंचा हुआ था । क्या मैं, क्या छंगू, क्या हनीफ, क्या गोविन्द सबको परे धकेल-धकेलकर ‘मैं पहले मैं पहले’ करता छोकरी पर सवारी गांठ रहा था ! अम्मा को भी न छोड़ा ! मरी हुई को भी पेल दीया ! ऊपर से...”
“क्या बातें ले बैठा, यार ।” - शफीफ घबराकर बोला - “कोई सुन लेगा ।”
सुन्दरलाल को ब्रेक लगी । उसने सशंक भाव से दायें-बायें देखा । किसी का ध्यान उनकी तरफ नहीं था । सिख नौजवान तो जैसे उनके अस्तित्व से बेखबर अपने कप पर सिर झुकाये काफी पी रहा था ।
“अच्छा, अच्छा ।” - फिर सुन्दरलाल बोला - “पीजा खा, यारों के यार ।”
तभी सिख नौजवान ने अपना काफी का कप खाली किया और वेटर को बुलाकर उसका बिल चुकाया । फिर उसने बगल में पड़े ब्रीफकेस का हैंडल थामा और उठ खड़ा हुआ । उसके उठते ही कुर्सी से हटा ब्रीफकेस एकाएक खुल गया और उसके भीतर का सामान नीचे फर्श पर बिखर गया ।
सुन्दरलाल की फर्श पर गिरे सामान पर निगाह पड़ी तो उसके नेत्र फट पड़े ।
फर्स पर सौ-सौ के नोटों की कई गड्डियां पड़ी थीं ।
सिख नौजवान अपना बिखरा सामान उठा-उठाकर वापिस ब्रीफकेस में रखने लगा ।
सुन्दरलाल ने बांह पकड़कर शफीक को हिलाया तो उसने अपने पीजा पर से सिर उठाकर फर्श की ओर देखा ।
वो पीजा खाना भूल गया ।
सिख नौजवान ने सारा सामान समेटकर वापिस ब्रीफकेस में भरा और उसे मजबूती से बन्द किया ।
“पता नई किद्दां खुल गया, माईंयवा ।” - वो बड़बड़ा रहा था ।
वो सीधा हुआ और उसने एक चौकस निगाह फर्श पर चारों तरफ दौड़ाई ।
“और कुछ नहीं है ।” - शफीक बोला - “सब कुछ उठा लिया आपने ।”
“हूं ।” - विमल बोला ।
“यहीं के रहने वाले हैं, सरदार साहब ?” - सुन्दरलाल मीठे स्वर में बोला ।
“सूखे बांस जैसे असाधारण रूप में लम्बे, पतले सुन्दरलाल को विमल ने तत्काल पहचान लिया था । सुमन ने उसका बहुत सही हुलिया बयान किया था । छः फुट से भी लम्बा कद । धनुष की तरह लचकता पतला जिस्म । चूहे की पूंछ की तरह होंठो की कोरों से बाहर को लटकी हुई मूछें । गाल और आंखें अन्दर धंसी हुई । कन्धों तक आने वाले लम्बे बाल जिनके ऐन बीच में मांग । पक्के ड्रग एडिक्ट्स जैसी लाल आंखें ।
शक की कोई गंजायश नहीं थी । वो वही शख्स था जिसका हुलिया सुमन ने बयान किया था ।
सुन्दरलाल स्मैकिया !
गुरबख्श लाल नाम के किसी लोकल गैंगस्टर का सगे वाला !
उसकी खुद की बातों ने ही सिद्ध कर दिया था कि उसके साथ बैठा उसका खास यार शफीक खबरी भी पिछले शुक्रवार के सामूहिक बलात्कार में शामिल था ।
“नईं बादशाहो ।” - विमल बोला - “दुबई रही दा ए ।”
“दुबई । अब वहां से आये हैं या जा रहे हैं ?”
“आयें हां जी । अग्गे होशियारपुर जाना ए । सवेरे बस फड़ांगे ।”
“दिल्ली में रिश्तेदार होंगे ?”
“नां, जी । आपां दे सारे रिश्तेदार या पंजाब या दुबई ।”
“तो यहां किसी यार-दोस्त के पास ठहरे हुए होंगे ?”
“नां जी । यार-दोस्त वी सारे पंजाब या दुबई । ऐत्थे ते होटल च डेरा ए आपां दा ।”
“कौन से होटल में ?”
“ऐत्वे लागे ही । नां याद नईं । क्यों ?”
”कुछ नहीं, सरदार साहब, यूं ही पूछा ।”
विमल खामखाह हंसा और फिर बोला - “कुछ होर पुच्छना होवे ?”
“नहीं ।” - सुन्दरलाल जबरन सुस्कराया - “मैंने तो यूं ही...”
“फेर तां सत श्री अकाल, बादशाहो !”
सुन्दरलाल ने उत्तर न दिया ।
विमल ने बायें हाथ में ब्रीफकेस समभाला और अपने दायें हाथ को अपने ओवरकोट की जेब में धंसाये बाहर निकल गया ।
“अबे, उठ बे यारों के यार ।” - सुन्दरलाल जल्दी से बोला - “लगता है ऊपर वाले ने हमारी सुन ली । एकदम तैयार बकरा या । अबे, छोड़ पीछा पीजा का ।”
शफीक तत्काल उठकर खड़ा हो गया ।
वेटर को बुलाकर सुन्दरलाल ने पीजा का बिल चुकाया, फिर दोनों बाहर को लपके ।
“कमानी लाया है ?” - सुन्दरलाल बोला ।
“लाया हूं ।” - शफीक बोला ।
“तैयार कर ले ।”
“तैयार ही तैयार है ।”
विमल सड़क छोड़कर एक गली में दाखिल हो गया था । उसने जान बूझकर वो अन्धेरी गली चुनी थी ।
बिना पीछे एक बार भी घूमकर देखे वो लम्बे डग भरता हुआ सर्दियों की रात में सुनसान पड़ी गली में आगे बढता रहा ।
सिरे पर पहुंचकर गली एक ‘टी’ की सूरत में दायें-बायें घूम जाती थी ।
किसी भी क्षण अपने ऊपर आक्रमण की अपेक्षा करता लेकिन आक्रमण से पूरी तरह सावधान वो गली में बायें घूमा ।
वो कुछ ही कदम आगे बढा तो उसने पाया कि आगे गली बन्द थी ।
वो वापिस घूमा ।
तभी सुन्दरलाल और शफीक छलांग मारकर उसके सामने पहुंच गये ।
वो ठिठका, उसने देखा दोनों के हाथों में खुले हुए कमानीदार चाकू थे ।
“चल बे सरदार के बच्चे ।” - सुन्दरलाल गुर्राया - “ब्रीफकेस इधर कर ।”
“वर्ना फाड़ के रख देंगे ।” - शफीक अपने जोड़ीदार से मैच करती आवाज में बोला ।
“लूटना चाहते हो मुझे ?” - विमल मुस्कराकर बोला ।
“ये भी कोई पूछने की बात है !” - सुन्दरलाल बोला ।
“पीजा पार्लर में नोटों की झलक मिल गयी तो लार टपक गयी ?”
“देखो साले को अब क्या बढिया हिन्दोस्तानी बोल रहा है । वहां यूं पंजाबी झाड़ रहा था जैसे उसके सिवाय कोई जुबान ही न आती हो । चल, ब्रीफकेस इधर कर ।”
“ब्रीफकेस का क्या करोगे ? उसमें जरूरी कागजात हैं । वो तुम्हारे किसी काम के नहीं । तुम अपने काम की चीज ले लो । मैं नोट दे देता हूं ।”
“अबे, बक-बक मत कर । ब्रीफकेस ला । वो बाद में तुझे गली में पड़ा मिल जायेगा ।”
“ठीक है ।” - विमल ने ओवरकोट में से अपना हाथ निकाला और उसे उन दोनों की तरफ किया ।
रिवाल्वर पर निगाह पड़ते ही दोनों के नेत्र फट पड़े ।
“तुम दोनों मरने वाले हो ।” - विमल बड़े हिंसक भाव से बोला - “मरने से पहले तुम्हें मालूम होना चाहिए कि तुम्हारी जान क्यों गयी ?”
“ह... ह... हमसे” - सुन्दरलाल बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “गलती हो गयी ।”
“गलती आज नहीं हुई, हरामजादे । गलती तब हुई थी जब शुक्रवार तेरह तारीख तुम पांच जनों ने एक असहाय मां-बेटी पर बलात्कार किया था और उनकी जान ली थी ।”
सुन्दरलाल चौंका ।
“अ... आपको गलतफहमी हुई है, सरदार साहब ।” - फिर वो गिड़गिड़ाता-सा बोला - “हमने ऐसा कुछ नहीं किया । हम तो मामूली चोर हैं...”
“बक मत । तू सुन्दरलाल स्मैकिया है । ये तेरा जोड़ीदार शफीक खबरी है । तीसरा छंगू था । चौथा और पांचवां हनीफ और गोविन्द थे । ठीक ?”
दोंनों के पहले से फटे नेत्र और फट पड़े ।
“तू... तू” - शफीक बड़े ही आतंकित भाव से बोला - “तू वो आदमी है ?”
“कौन आदमी ?”
“जिसने उन तीनों को मारा ?”
“अब पांचो को ।” - विमल ने रिवाल्वर का कुत्ता खींचा - “इस फानी दुनिया पर आखिरी निगाह डाल लो, हरामजादो ।”
तब एक अप्रत्याशित घटना घटी । जिन दोनों को विमल भय से जड़ हो गया समझ रहा था, रिवाल्वर का कुत्ता खींचा जाने की आवाज सुननते ही वो एकाएक घूमे और सिर नीचा किये गली में सरपट भागे ।
विमल ने दो फायर किये ।
एक गोली सुन्दरलाल की पीठ में लगी, वो वहीं धराशायी हो गया ।
दूसरी गोली शफीक की जांघ में लगी लेकिन वो फिर भी भागता रहा ।
विमल ने उसके पीछे दोबारा फायर किया लेकिन तभी वो मोड़ काट गया । विमल दौड़कर मोड़ पर पहुंचा तो उसे आगे शफीक कहीं दिखाई न दिया । मौत को अपने इतने करीब पाकर जरूर उसके पैरों में पर लग गये थे ।
विमल वापिस सुन्दरलाल के पास लौटा ।
वो अभी जिन्दा था और पनाह पाने के लिए एक बन्द दरवाजे की ओर घिसटने की कोशिश कर रहा था ।
विमल ने दोनों हाथों में थामकर रिवाल्वर उसकी ओर तानी ।
“मुझे न मारो ।” - सुन्दरलाल बिलखता हुआ बोला ।
“क्यों ?” - विमल बोला ।
“मैं मरना नहीं चाहता ।”
“कौन मरना चाहता है ? वो नाबालिग लड़की मरना चाहती थी जिसके साथ तुम पांच जनों ने बद्फेली की ? उसकी मां मरना चाहती थी जिसकी आंखों के सामने उसकी औलाद की दुर्गत हुई ? बोल ! बोल मोरी के कीड़े !”
“गलती, गलती हो गयी, सरदार साहब ।”
“तो गलती की सजा भुगत !”
विमल ने दो बार रिवाल्वर का घोड़ा खीचा ।
सुन्दरलाल स्मैकिये के असुन्दर चेहरे के परखच्चे उड़ गये । विमल ने रिवाल्वर ब्रीफकेस में डाली, वो वहां से जाने के लिए घूमने ही लगा था कि एकाएक उसकी निगाह सामने पहली मंजिल की एक खिड़की पर पड़ी । वो खिड़की खुली थी और वहां देखकर वो सन्नाटे में आ गया कि उस घड़ी उस खिड़की में एक आदमी हाथ में कैमरा लिये खड़ा था ।
विमल को अपनी तरफ देखता पाकर वो आदमी खिड़की पर से गायब हो गया और खिड़की तत्काल बन्द हो गयी ।
तभी दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वायड के सायरन की आवाज गूंजी ।
विमल दबे पांव ‘टी’ की दूसरी भुजा की ओर भागा । संयोगवश वो गली बन्द नहीं थी ।
कैमरे वाले की और कैमरे की गम्भीर आशंका मन में लिये वो निर्विघ्न वहां से कूच कर गया ।
***
कन्ट्रोल रूम से सब-इंस्पेक्टर लूथरा को पहाड़गंज वाली वारदात की खबर लगी ।
जिद का मारा और आदत से मजबूर लूथरा पहले सीधा गोल मार्केट पहुंचा ।
क्या खबर है हमारे पंछी की ?” - उसने रावत से पूछा ।
“फ्लैट में है ।” - रावत बड़े तिक्त स्वर में बोला ।
“बाहर नहीं निकला ?”
“सवा आठ बजे निकला था । नौ बजे वापिस आ गया था ।
“कहां गया था ?”
“पहाड़गंज । पीजा लेने । वहां इम्पीरियल सिनेमा के करीब जो पीजा पार्लर है, वहां से ।”
“नौ बजे के बाद से बाहर नहीं निकला ?”
“न ।”
लूथरा ने घड़ी पर निगाह डाली । सवा ग्यारह बजे थे ।
“अब कैसे गारन्टी हो” - वो बड़बड़ाया - “कि वो भीतर है ?”
“मैं जो गारन्टी हूं ।” - रावत बोला ।
“लेकिन...”
“सर, या तो मेरे ऊपर एतबार कीजिए या इस काम पर किसी और को लगाइये । अगर गारन्टी हर बार उसका दरवाजा खुलवाकर, उसकी सूरत देखकर ही होनी है तो मेरे और युद्धवीर के रात-रात-भर आंखे फोड़ने का क्या फायदा ? नीचे काले खां और शीशपाल की मौजूदगी का क्या मतलब ?”
“यार, तू तो नाराज हो रहा है ।”
“और क्या करूं ? एक तो आपकी खातिर नौकरी दांव पर लगाई हुई है, ऊपर से...”
“चुप कर ।”
“सर, आप...”
“अबे, सुना नहीं ! मैने कहा चुप कर ।”
रावत खामोश हो गया ।
लूथरा कुछ क्षण सोचता रहा, फिर वह दृढ कदमों से खुद विमल के फ्लैट के दरवाजे की ओर बढा ।
***
गली से बाहर तक तो शफीक पहुंचा गया लेकिन उसके बाद वो धड़ाम से सड़क पर गिरा ।
तभी फ्लाइंग स्क्वायड की एक गाड़ी वहां पहुंची ।
तब तक सड़क पर लोग इक्कठे होने लगे थे । एक-दो लोगों ने बिना पूछे ही पुलिस वालों को गली के भीतर की ओर निर्देशित करना आरम्भ कर दिया ।
सारी गली में शफीक की जांघ निकले खून की लम्बी लकीर खिंची हुई थी जो पुलिस को मौकायेवारदात का रास्ता खुद जता रही थी ।
कुछ पुलिस वाले गली में दौड़े चले । दो जने शफीक के पास पहुंचे ।
“क्या हुआ ?” - एक पुलसिया बोला ।
“साहब, मुझे बचा लीजिये ।” - शफीक बिलखता हुआ बोला - “मुझे बचा लीजिए, साहब । वो मुझे मार डालेगा ।”
“कौन तुझे मार डालेगा ?”
“वो मुझे मार डालेगा, साहब । मुझे गिरफ्तार कर लीजिये मुझे जेल में बन्द कर दीजिये ।”
“अबे कौन मार डालेगा ?”
“वही जिसने मेरे चार साथियों को मार दिया । जिसने मुझे भी मार ही डाला था लेकिन अल्लाह ने बचा लिया । साहब, मुझे गिरफ्तार करके जेल में बन्द कर दीजिये वर्ना वो फिर आयेगा और मुझे मारके ही जायेगा ।”
“अबे कौन ? कुछ बोलेगा भी !”
“वही जो हमारे पीछे पड़ा है और हमें चुन-चुनकर मार रहा था ।”
“क्यों ? क्या किया है तूने ?”
तब आतंक से पगलाये और प्रलाप करते शफीफ को जैसे जोर का झटका लगा ।
वो उस सवाल का जवाब कैसे दे सकता था ? वो कैसे बता सकता था कि वो बलात्कारी था और कातिल था ? क्या बके जा रहा था वो ?
तभी उसे अपनी आंखें मुंदती महसूस हुई ।
फिर मूर्छा ने उसे अपनी पनाह में ले लिया ।
***
लिफ्ट सातवीं मंजिल से गुजरी तो विमल को लिफ्ट के दरवाजे में बनी शीशा जड़ी नन्ही-सी आयताकार खिड़की में से सब-इंस्पेक्टर लूथरा की झलका मिली जो कि उस घड़ी रावत वाले फ्लैट में से निकल रहा था ।
आशंका से उसका दिल लरजा ।
क्यों मौजूद था लूथरा वहां ?
क्या पिछली रात भी वो वहीं था जबकि रावत ने उसके फ्लैट की घन्टी बजायी थी ?
क्या घन्टी फिर बजने वाली थी ?
लिफ्ट आठवीं मंजिल पर रुकी तो वो झपटकर उसमें से बाहर निकला । वो लपकता हुआ सुमन के फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचा, उसने चाबी लगाकर दरवाजा खोला और भीतर दाखिल हुआ । अपने पीछे फिर से दरवाजे को ताला लगाकर वो बाल्कनी की ओर लपका ।
बाल्कनी के करीब पहुंचकर उसने उसका दरवाजा खोला तो उसे नीचे अपने फ्लैट में बजती घन्टी की मद्धम सी आवाज सुनाई दी ।
वो ठिठका ।
बड़ी विवट स्थिति थी । घन्टी की आवाज से नीलम जाग सकती थी । जागकर वो दरवाजा खोल सकती थी या बाल्कनी के रास्ते एक ‘सिख’ को भीतर दाखिल होता पाकर जोर-जोर से चिल्लाने लग सकती थी ।
घन्टी फिर बजी ।
विमल ने ब्रीफकेस हाथ से निकल जाने दिया, उसने अपनी पगड़ी, फिफ्टी, चश्मा और ओवरकोट उतारकर वहीं पर फेका चेहरे से दाढी को नोचकर उतारा और उसे भी वहीं बाकी सामान के ऊपर फेंका और फिर बड़ी फुर्ती से रेलिंग लांघकर पाइप के सहारे नीचे अपनी बाल्कनी में उतर गया ।
तभी घन्टी फिर बजी और इस बार साथ ही दरवाजे पर दस्तक भी पड़ी ।
वो बैडरूम में पहुंचा, उसने नीलम को नींद में कसमसाते पाया लेकिन उसने आंखें न खोलीं ।
वो लपककर बाथरूम में दाखिल हो गया । वहां उसने अपने कपड़े जैसे नोचकर अपने जिस्म से उतारे और उनके स्थान पर कुर्ता-पाजामा पहना ।
घन्टी फिर बजी - बहुत देर तक ।
दरवाजे पर दस्तक फिर पड़ी - कई बार ।
विमल बैडरूम से बाहर निकला । उसने बाहर की एक बत्ती जलायी और दरवाजे की ओर बढा ।
***
कैमरे के साथ जो शख्स खिड़की में प्रकट हुआ था, उसका नाम मोहन वाफना था और वो एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर था । वो खिड़की उसके घर में ही बने उसके स्टूडियो की थी जिस पर कि वो थोड़ी देर के लिए अपना काम छोड़कर सिगरेट के कश लगाता आन खड़ा हुआ था । उस घड़ी वो एक बेहद थका देने वाला स्पेशलाइज्ड काम कर रहा था जिसके लिए एक विशेष प्रकार की सुपरफास्ट फिल्म और इन्फरारैड लाइट इस्तेमाल होती थी । बाहर गली में निगाह पड़ते ही उसके छक्के छूट गए थे । दो मवाली एक ओवरकोटधारी सिख पर चाकू ताने खड़े थे और उसे लूटने को आमादा थे । लेकिन उसके और भी छक्के तब छूटे थे जब सिख के हाथ में एकाएक एक रिवाल्वर प्रकट हुई थी । फिर आगे जो वार्तालाप उन मवालियों में और उस सिख में उसे सुनाई दिया था, उसे सुनकर वो इस नतीजे पर पहुंचा था कि वो एक बहुत ही दुर्लभ दृश्य का साक्षी था । तब वो दौड़कर वापिस स्टूडियो के भीतर गया था और अपना कैमरा उठा लाया था । कैमरे के साथ इन्फरारैड लाइट वाली फ्लैश सम्बद्ध थी । वो सब साजो सामान अन्धेरे में भी तसवीर खींच सकता था ।
तभी नीचे गोलियां चलने लगी थीं ।
मोहन वाफना तसवीरें खींचने लगा था ।
आखिरी तसवीर उसने तब खींजी थी जब कि वो सिख सिर उठाए उसकी खिड़की की ओर ही देख रहा था ।
***
लूथरा ने फिर दरवाजा भड़भड़ाने के लिए हाथ बढाया ही था कि एकाएक भीतर रोशनी हुई । वो ठिठक गया । अपना आगे बढा हाथ उसने वापिस खींच लिया ।
दरवाजा खुला । चौखट पर विमल प्रकट हुआ ।
लूथरा पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया ।
“तुम !” - विमल ने नकली हैरानी जाहिर की ।
“इधर से गुजर रहा था ।” - लूथरा खिसियाई सी हंसी हंसा - “सोचा मिलता चलूं कौल साहब से ।”
“आधी रात को ?” - विमल की भवें उठीं ।
“अभी कहां हुई है आधी रात ?”
“कसर भी क्या बाकी है ?”
“जल्दी सो जाने के आदी मालूम होते हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो मैंने डिस्टर्ब किया आपको ।”
कोई बात नहीं ।” - विमल दरवाजे पर से हटा - “अब आ ही गये हो तो आओ ।”
लूथरा ने झिझकते हुए भीतर कदम रखा ।
विमल ने उसे ड्राइंगरूम में ले जाकर बैठाया ।
“कोई चाय-काफी पेश करूं ?” - विमल बोला ।
“नहीं, नहीं ।”
“विस्की ? ब्रांडी ?”
“अरे नहीं, कौल साहब, मैं तो बस एक मिनट के लिए...”
“पता कैसे जाना यहां का ?”
“आपके कार्ड पर लिखा था । लोधी गार्डन के बाहर देखा था न मैंने आपका कार्ड ! उस पर आपके आफिस का और घर का दोनों का पता लिखा था ।”
“न भी लिखा होता तो क्या है ! आप तो पुलिस वाले हैं । बुरे के घर तक पहुंचकर दिखा सकते हैं ।”
“वो तो है । देख लीजिए अभी भी पहुंचा ही हुआ हूं ।”
विमल का चेहरा सुर्ख हो गया । उसने कहरभरी निगाहों से लूथरा की ओर देखा ।
“हा हा हा !” - लूथरा हंसा - “मैं तो मजाक कर रहा था, जनाब ।”
“धीरे । धीरे हंसिये । मेरी बीवी बीमार है । जाग जाएगी ।”
“घन्टी की आवाज से तो जागी नहीं । दरवाजे पर पड़ती दस्तक की आवाज से भी न जागी ।”
विमल खामोश रहा ।
“आपके बायें कान के नीचे कुछ लगा हुआ है ।”
तत्काल विमल का हाथ वहां पड़ा । उसके हाथ में सुरमा लगी रुई का एक फाहा-सा आ गया । उसने उसकी गोली सी बनाई और उसे मेज पर रखी ऐश ट्रे में डाल दिया ।
“क्या था ?” - लूथरा उत्सुक भाव से बोला ।
निगाह बहुत तीखी है साले तेरी - वो मन ही मन भुनभुनाया । फिर प्रत्यक्षतः बड़े अनमने भाव से बोला - “पता नहीं । कुछ जाला-सा था ।”
“बीवी बीमार है आपकी ।” - लूथरा सहानुभूतिपुर्ण स्वर में बोला - “घर की सफाई नहीं कर पाती होगी ।”
“ऐसा ही है कुछ ।”
“आपकी आंखें आज बड़ी अजीब लग रही हैं ।”
“क्या ?”
“यूं लग रहा है जैसे आपकी काली पुतलियां नीली हो गयो हों ।”
विमल सन्न रह गया ।
वो आंखों से नीले कान्टैक्ट लैंस निकालना भूल गया था ।
“आर्टीफिशियल लाइट वजह होगी ।” - प्रत्यक्षतः वो लापरवारी से बोला - “ऊपर से दीवारों का रंग भी नीला है । रिफ्लैक्शन का वजह से ऐसा लग रहा होगा । अब तुमने ध्यान दिलाया है तो मुझे सूझा है कि खुद मुझे भी तुम्हारी आंखें नीली लग रही हैं ।”
“अच्छा !”
“जी हां । कहो तो शीशा लाकर दिखाऊं ?”
“जी नहीं । जी नहीं । आप कह रहे हैं तो जरूर ऐसा ही होगा ।”
“ऐसा ही है ।”
“दरवाजा बड़ी देर से खोला आपने । जरूर बड़ी गहरी नींद में रहे होंगे ।”
“मैं टायलेट में था ।”
“हूं ।”
विमल ने वाल क्लाक पर निगाह डाली और फिर अपलक उसकी तरफ देखा ।
“मैं चलता हूं ।” - लूथरा उठ खड़ा हुआ - “मैं बस यही तसदीक करने आया था कि आप वाकई यहां रहते हैं ।”
“दिन में तो हो नहीं सकती थी ये तसदीक ?”
“हो सकती थी । दिन में भी हो सकती थी । लेकिन हम पुलिस वालों के लिए दिन क्या, रात क्या ! हम तो चौबीस घन्टे के सेवक हैं आपके ।”
“मेरे ?”
“जनता के ।”
विमल खामोश रहा और फिर दरवाजे की ओर बढ़ा लेकिन फिर लूथरा को अपने साथ उधर बढता न पाकर वो ठिठका ।
वो परे बाल्कनी की ओर देख रहा था ।
“अब हिलो, भाई ।” - विमल बेसब्रेपन से बोला ।
“वो” - लूथरा बोला - “बाल्कनी है ?”
“तुम्हें क्या लगता है ?”
“बाल्कनी ही लगती है । खूब बड़ी । फ्लैट बढिया है आपका अपना है ?”
“किराये का है ।”
“सातवीं मंजिल से शहर का नजारा तो खूब होता होगा ?”
“खूब होता है । करना चाहते हो ?”
“शुक्रिया ।”
विमल ने तो वैसा यूं ही कह दिया था लेकिन लूथरा सच में ही लम्बे डग भरता हुआ बाल्कनी के दरवाजे पर पहुंच गया । उसने दरवाजा खोलकर बाहर कदम रखा ।
भारी कदमों से चलता विमल उसके पीछे बाल्कनी में पहुंचा ।
“वाह !” - लथूरा चारों तरफ निगाह दौड़ाता हुआ बोला - “मजा आ गया । जन्नत का नजारा है यहां तो ।”
विमल खामोश रहा ।
“अपने से नीचे के फ्लैट वालों को आप जानते हैं, कौल साहब ? ये जिनकी बाल्कनी ऐन आपके नीचे है ?”
“नहीं ।”
“इस कम्पलैक्स में कुल कितने फ्लैट हैं ?”
“बत्तीस ।”
“यानी कि एक फ्लोर पर चार ?”
“जी हां ।”
“वो लड़की... सुमन... जिसके कि आप हमदर्द हैं, जिसका हस्पताल का बिल आप भरने वाले हैं, उसका फ्लैट आठवीं मंजिल पर है न ?”
“हां ।”
“कौन-सा ? कहीं आपके ऐन ऊपर वाला तो नहीं ?”
“वही ।”
“जिसकी बाल्कनी की छत के नीचे हम इस वक्त खड़े हैं ?”
“हां ।”
“अजीब इत्तफाक है ।”
“क्या अजीब है इसमें ? क्या इत्तफाक है इसमें ?”
“कुछ नहीं तकलीफ माफ, कौल साहब, मैं चलता हूं ।”
“अभी पांच मिनट पहले भी तुम चलते थे ।”
लूथरा ने अट्टहास किया ।
“धीरे ।”
“सारी ।” - लूथरा को तुरन्त ब्रेक लगी - “आपकी बीवी बीमार है । जाग जाएगी । मैं भूल गया था ।”
“जैसे घर जाना भूल गया हुआ है !”
“बहुत गहरी नींद सोती हैं आपकी बेगम साहिबा ।” - विमल के व्यंग्य को पूरी तरह से नजरअन्दाज करता हुआ लूथरा बोला ।
“वो सिडेटिव लेकर सोती है ।”
“फिर भी अन्देशा है उनके जाग जाने का ?”
“हां । आओ ।”
इस बार लूथरा बिना हुज्जत किए उसके साथ हो लिया और फ्लैट के मुख्य द्वार पर पहुंचा ।
चौखट पर वो ठिठका ।
“एक बात और कहना चाहता हूं मैं ।” - वो विमल की ओर घूमकर बोला ।
विमल ने एक जम्हाई ली और बोला - “वो भी कहो ।”
“ये जो आप जैसे सफेदपोश लोग होते हैं न... पढे-लिखे । सम्भ्रान्त । कार्पोरेट सर्कट के लोग । ...ये लोग जब कोई अपराध करते हैं तो एक गहरा अपराधबोध इन लोगों की अन्तरात्मा पर बैठ जाता है । जितना बड़ा ये अपराध करते हैं उनता ही बड़ा बोझ इनकी अन्तरात्मा पर, कांशस पर काबिज हो जाता है । फिर या तो ये लोग घबराकर अपना अपराध कबूल कर लेते हैं और या फिर खुदकुशी कर लेते हैं । कौल साहब, अपना अपराध कबूल कर लेने वाली किस्म के आदमी तो आप नहीं हैं, होते तो आप ऐसा कब का कर चुके होते । अलबत्ता खुदकुशी वाली किस्म के आदमी आप हो सकते हैं । जनाब, मेरी आपसे गुजारिश ये है कि अगर खुदकुशी की नौबत आ जाये तो दिल्ली पुलिस पर एक मेहरबानी जरूर कीजियेगा ।”
“क्या ?” - विमल बड़े सब्र से बोला ।
“जेब में कोई चिट्ठी-विट्ठी जरूर रख लीजियेगा कि क्यों आपने खुदकुशी की ताकि पिछले दिनों हुई दर्जन-भर हत्याओं के जो केस आपकी वजह से पुलिस के गले में पड़े हुए हैं, उन्हें पुलिस हल हो गया करार देकर क्लोज कर सके ।”
विमल कई क्षण खामोश रहा ।
“तो” - आखिरकार लूथरा बोला - “ऐसा करेंगे न आप ? वो चिट्ठी...”
“सुनो ।” - विमल बर्फ से सर्द स्वर में बोला - “हत्याओं की जिस दर्जन का तुम जिक्र कर रहे हो, वो अभी पूरी नहीं हुई । उसमें अभी एक की कमी है । एक हत्या और होने के बाद वो दर्जन पूरी होंगी । इस वक्त तुम्हें दो गवाह न हासिल होते तो वो कमी मैं अभी पूरी कर देता ।”
“गवाह ?”
“दो ।”
लूथरा की निगाह खुद ही रावत वाले फ्लैट के बन्द दरवाजे की ओर उठ गयी लेकिन तत्काल ही उसने उधर से निगाह हटा ली ।
“धमकी दे रहे हो, कौल साहब ।” - फिर वो बोला ।
“धमकी देना गुण्डे-बदमाशों का काम होता है ।” - विमल बोला - “या फिर पुलिस वालों का । मैं तो राय दे रहा हूं तुम्हें । रात-विरात अकेले न घूमा करो । जमाना बहुत खराब है । कोई ओवरकोट वाला मिल जायेगा ।”
“मैं ध्यान रखूंगा ।”
“जरूर रखना । ये भी ध्यान रखना कि गोली पुलिस में और मुजरिम में फर्क नहीं पहचानती ।”
तब अब तक विमल पर कोई मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के इच्छुक लूथरा पर विमल की उस बात का ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा कि वो हत्थे से उखड़ गया ।
“होशियारी दिखाइए” - वो तड़पकर बोला - “जी भरके होशियारी दिखाइये । जुबानदराजी भी कीजिए लेकिन आखिरकार देख लीजियेगा कि मेरे हाथ होंगे और आपकी गर्दन होगी । आई विल गैट यू” - उसने अपनी एक उंगली उसकी तरफ तानी - “आई विल गैट यू, मिस्टर कौल ।”
विमल ने उसकी कलाई थामी और जबरन उसे मोड़कर उसकी अपनी तरफ तनी उंगली का रुख उसी की ओर कर दिया ।
लूथरा ने अपना हाथ छुड़ाया और घूमकर रावत वाले फ्लैट की ओर बढा । आधे रास्ते उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो वो ठिठका और फिर भुनभुनाता हुआ लिफ्ट की ओर बढा ।
विमल ने अपने फ्लैट का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया ।
***
उत्तेजना से कांपते हुए मोहन वाफना ने आननफानन फिल्म डवैलप की और रिवाल्वर वाले सिख की तसवीरों के टैस्ट प्रिंट निकाले । उसने पाया कि तमाम तसवीरों में से वो आखिरी तसवीर ही किसी काबिल थी जो उसने तब खींची थी जबकि वो सरदार सिर उठाकर उसकी खिड़की की ओर देख रहा था ।
बाहर पुलिस के फ्लाइंग स्क्वायड की गाड़ियों के सायरनों की आवाजें गूंज रही थीं और गली में धीरे-धीरे इकट्ठे होते लोगों का शोर-शराबा बढता जा रहा था ।
लेकिन मोहन वाफना उन तमाम बातों से निर्लिप्त था । उसने उस आखिरी तसवीर के आठ गुणा दस के चार प्रिंट बनाये और तसवीर का फिर मुआयना किया ।
तसवीर, उसने देखा कि, कुछ धुंधली थी, कुछ आउट आफ फोकस थी लेकिन एकदम निकम्मी नहीं थी ।
उस तसवीर में वो ओवरकोट वाला सिख हाथ में नाल से धुआं उगलती रिवाल्वर लिये लाश के सिरहाने खड़ा सिर उठाये ऊपर की ओर देख रहा था ।
उसने एक व्यग्र निगाह घड़ी पर डाली और फिर हिन्दुस्तान टाइम्स में उसके नाइट एडीटर को फोन लगाया ।
“वाफना बोल रहा हूं, जगतनारायण जी ।” - वो बोला ।
“बोलो, भाई ।” - आवाज आयी - “कैसे फोन किया इतनी रात गये ?”
“आपकी खातिर किया, जगतनारायण जी । फर्माबरदारी दिखाने के लिये किया, दोस्ती का हक निभाने के लिये किया...”
“यार, अखबारी ढंग की ब्रीफ बंद करो । तुम तो नावल सुनाने लगे ।”
“बहुत बड़ा स्कूप है, जगतनारायण जी ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“अभी-अभी पहाड़गंज में मेरे घर के सामने एक कत्ल हुआ है और मेरे पास कातिल की तसवीर है ।”
“क्या ?”
“मैं ठीक कह रहा हूं, जगतनारायण जी । मैं सारी वारदात का चश्मदीद गवाह हूं और वो तसवीर मैंने ऐन वारदात के दौरान खींची है ।”
“यानी कि अभी वो फिल्म पर ही है ?”
“प्रिंट है मेरे हाथ में । एनलार्जमैंट । आठ गुणा दस का । तसवीर की औकात परखने के बाद ही मैंने आपको फोन किया है ।”
“ठीक है । मैं एक स्टाफ रिपोर्टर वहां रवाना करता हूं, तुम वो तसवीर उसे दे देना ।”
“वो दुर्लभ तसवीर है, जनाब, इसलिये उसकी कोई खास कीमत होनी चाहिये ।”
“कोई कीमत खुद ही लगाये बैठे मालूम होते हो उसकी !”
“बात तो ऐसी ही है कुछ ।”
“कितनी ?”
“पांच हजार ।”
“पागल हुए हो ?”
“मैं इण्डियन एक्सप्रैस में फोन करता हूं ।”
“खबरदार !”
“तो फिर ?”
“तसवीर हमारे रिपोर्टर को दे देना ।”
“ओके ।”
“और अपना बयान भी ।”
“जरूर ।”
“सिर्फ हमारे रिपोर्टर को । साथ में पुलिस को भी नहीं ।”
“पुलिस कुछ पूछे तो ?”
“कैसे पूछेगी ? उन्हें तुम्हारी क्या खबर ?”
“लेकिन कल जब सब कुछ अखबार में छपा दिखाई देगा तो...”
“तो बेशक जिसको जो मर्जी बताना ।”
“मैं समझ गया आपकी बात । थैंक्यू, जगतनारायण जी । एण्ड गुड नाइट ।”
***
लूथरा पहाड़गंज पहुंचा ।
उस घड़ी सुन्दरलाल की लाश उठाकर मोर्ग की गाड़ी में रखी जा रही थी ।
जो सब-इन्स्पेक्टर उस वक्त मौकायेवारदात पर मौजूद था, उसका नाम जनकराज था, वो पहाड़गंज थाने से सम्बद्ध था और लूथरा का दोस्त था ।
“शिनाख्त हुई इसकी ?” - उसने जनकराज से पूछा ।
“हां ।” - जनकराज बोला - “सुन्दरलाल नाम है इसका । वो सामने जो पीजा पार्लर है, वहां इसे कई लोग जानते हैं ।”
“ये दो थे ?”
“दूसरा मरा नहीं, सिर्फ घायल हुआ है । उसकी जांघ में गोली लगी है । एम्बूलेंस पर हस्पताल भेजा है उसे । उसका नाम शफीक है और वो मरने वाले का पक्का जोड़ीदार बताया जाता है ।”
“हूं ।”
“सुन्दरलाल की असली शिनाख्त कुछ और ही हुई है ।”
“वो क्या ?”
“गोल मार्केट में हुई बलात्कार की वारदात के एक सम्भावित बलात्कारी का हुलिया तुम्हारे थाने से तमाम थानों में सर्कुलेट किया गया था । वो हुलिया ऐन इस सुन्दरलाल से मिलता है । बाकी तसदीक जब शफीक होश में आयेगा तो तब हो जायेगी ।”
“वो बलात्कारी पांच थे । अब तक उनमें से चार की लाशें गिर चुकी हैं - दो की मजनू का टीला में, एक की लोधी गार्डन में और एक की अब यहां पहाड़गंज में । इस लिहाज से कोई बड़ी बात नहीं कि पांचवां बलात्कारी वो शफीक ही हो ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”
“कुछ पता लगा कि वारदात करने वाला कौन था ?”
“हां । पीजा पार्लर के एक वेटर का कहना है कि सुन्दरलाल और शफीक की मौजूदगी में वहां एक सिख आया था । जब वो वहां से रवाना हो रहा था तो एकाएक उसका ब्रीफकेस खुल गया था और उसमें से सौ-सौ के नोटों की कई गड्डियां बाहर बिखर पड़ी थीं । वेटर कहता है कि अपना माल समेटकर जब वो सिख वहां से रवाना हुआ था तो ये दोनों उसके पीछे लग लिये थे । आगे तुम सोच ही सकते हो कि क्या हुआ होगा ।”
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“दोनों के पास से लम्बे कमानीदार चाकू बरामद हुए हैं ।” - जनकराज बोला - “और पचास-पचास ग्राम स्मैक बरामद हुई है ।”
“स्मैकिए थे दोनों ?”
“और चक्कूबाज भी । बढिया सबक मिला हरामजादों को ।”
“सिख का कोई हुलिया वगैरह पता लगा होगा ?”
“सिख का हुलिया आम सिखों जैसा ही था, सिवाय इसके कि वो गहरे रंग का एक लम्बा ओवरकोट पहने था और आंखों पर तार के सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाये था ।”
“हूं ।”
“और उसकी आंखों का रंग नीला था ।”
लूथरा सकपकाया ।
“आंखों का रंग नीला था ?” - उसने दोहराया ।
“हां ।”
“जो ब्रीफकेस वो थामे था वो लाल रंग के चमड़े से मंढा ब्रीफकेस था ?”
“हां । तुझे कैसे मालूम ?”
लूथरा ने उत्तर न दिया । हर बात कौल की तरफ इशारा करती थी लेकिन फिर भी उसकी कोई पेश नहीं चल रही थी कौल के ऊपर ।
***
पाइप के सहारे ऊपर चढकर विमल फिर सुमन के फ्लैट की बाल्कनी में पहुंचा ।
वहां कदम रखते ही उसका दिल धक्क से रह गया ।
उसका ब्रीफकेस, ओवरकोट और बाकी साजो-सामान सब कुछ वहां से गायब था ।
उसने बाल्कनी को भीतर फ्लैट से जोड़ने वाला दरवाजा ट्राई किया ।
वो दरवाजा, जो वो खुला छोड़कर गया था, भीतर से बन्द था ।
क्या सब कुछ पुलिस के काबू में आ गया था ?
क्या पुलिस वाले अभी भी भीतर थे ?
बाल्कनी में एक भी क्षण और ठहरना उसे मुसीबत को दावत देने जैसा लगने लगा ।
पहले ही आंखों से कान्टैक्ट लैंस निकालना भूल जाने की वजह से वो फंसते-फंसते बचा था ।
बाल्कनी में जो साजो-सामान उसने छोड़ा था, वो ऐसा नहीं था जिसका कि उसे मालिक साबित करना आसान काम होता ।
सिवाय ओवरकोट के ।
ओवरकोट को उसका तो साबित नहीं किया जा सकता था लेकिन उसके लिये ये बताना मुश्किल होता कि उसका खुद का वैसा ही ओवरकोट कहां गया !
ओवरकोट से पैदा हो सकने वाली दुश्वारी का कोई हल सोचता वो चुपचाप वापिस लौट पड़ा ।
***
लूथरा वापिस गोल मार्केट पहुंचा । वहां उसने विमल के फ्लैट वाले कम्पलैक्स के सामने से काले खां और शीशपाल को तलाश किया । उनसे पूछताछ करने पर उसे मालूम हुआ कि जनकराज द्वारा बयान किये गये हुलिये वाला एक सिख सवा दस बजे के करीब वहां से बाहर निकला था और ग्यारह बजे के बाद किसी क्षण वापिस लौटा था ।
“रावत को बोलना” - लूथरा ने आदेश दिया - “कि दिन चढने पर यहां से पूछताछ करके मालूम करे कि क्या यहां इस हुलिये का कोई सिख रहता है । और अगर रहता है तो कौन से फ्लैट में रहता है ।”
“ठीक ।” - शीशपाल बोला ।
“फिर ये भी मालूम करना है कि क्या वो दस और सवा ग्यारह के बीच यहां से कहीं गया था ? गया था तो कहां गया था ?”
“ठीक ।”
“बोलना जो मालूम हो, सुबह थाने में खबर करे ।”
“ठीक ।”
लूथरा वहां से विदा हुआ और ईस्ट पटेलनगर में स्थित अपने घर पहुंचा ।
“कन्ट्रोल रूम से ध्यानचन्द का दो बार फोन आ चुका है ।” - उसकी बीवी माधुरी ने बताया ।
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाते हुए कन्ट्रोल रूम में ध्यानचन्द नाम के उस हवलदार को फोन किया जिससे उसको पहाड़गंज में हुए या राजौरी गार्डन में हुए खून-खराबे की किस्म की वारदात की फौरन खबर लगती थी ।
“हां, भई ध्यानचन्द ।” - उसके लाइन पर आने पर वो बोला - “लूथरा बोल रहा हूं । क्या बात है ?”
“आपको पहली बार फोन करते ही मैंने दोबारा फोन किया था ।” - ध्यानचन्द बोला - “लेकिन आप घर से निकल चुके थे ।”
“क्या बात थी ?”
“इण्डिया गेट पर एक वारदात हुई है । अपने ही महकमे के दो आदमी - एक एएसआई और एक हवलदार जो कि वहां गश्त की ड्यूटी पर थे - वहां मौजूद एक नौजवान जोड़े पर पिल पड़े थे । उन्होंने लड़के को एक पेड़ के साथ बांध दिया था और लड़की के साथ वहीं उसी पेड़ की ओट में जबरजिना करने की कोशिश कर रहे थे कि एक ओवरकोट और हैट वाला आदमी वहां पहुंचा था और उसने उन दोनों को शूट कर दिया था ।”
“मर गये दोनों ?”
“हां । वहीं ।”
“वारदात की खबर कैसे लगी ?”
“पुलिस की ही एक जिप्सी वैन वहां से गुजर रही थी । वैन के क्रियु ने गोलियों की आवाज सुन ली थी ।”
“फिर भी वो ओवरकोट वाला पकड़ा न गया ?”
“हादसे के शिकार लड़का-लड़की दरअसल वहां से चुपचाप खिसक जाना चाहते थे...”
“मिया-बीवी थे ?”
“नहीं ।”
“तभी तो ।”
“जिप्सी वैन वाले उस खिसकते जोड़े को ही पहले अपराधी समझ बैठे थे । जब तक उन्होंने उन दोनों को दबोचा तब तक ओवरकोट वाला रात के अन्धेरे में कहीं खिसक गया ।”
“लड़का-लड़की ने उसका कोई हुलिया बताया ?”
“नहीं । दोनों कहते हैं कि एक तो अन्धेरा था, दूसरे उसने अपना हैट नाक तक झुकाया हुआ था और ओवरकोट का कालर गर्दन पर खूब ऊंचा उठाया हुआ था । ऊपर से वो बहुत थोड़ी देर वहां ठहरा था । वो तो साये की तरह अन्धेरे से निकलकर वहां पहुंचा था और साये की तरह ही अन्धेरे में विलीन हो गया था ।”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि बलात्कार वो ओवरकोट वाला करने पर आमादा हो, ऊपर से वो गश्त की ड्यूटी वाले एएसआई और हवलदार आये हों तो वो उन दोनों को शूट करके वहां से भाग गया हो ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अकेला अदमी दो जनों को, वो भी लड़की पर बलात्कार की नीयत से, काबू करके नहीं रख सकता । रिपोर्ट भी यही आयी है कि जो कुछ किया था, हमारे आदमियों ने ही किया था ।”
“कब की बात है ये ?”
“ग्यारह बजे के आसपास की ।”
“और ?”
“बस ।”
“ठीक है, शुक्रिया ।”
लूथरा ने रिसीवर रख दिया और सोचने लगा ।
कौल एक ही वक्त में पहाड़गंज और इन्डिया गेट दोनों जगह कैसे मौजूद हो सकता था ?
***
रात के दो बजे मोनिका के मिंटो रोड के इलाके में स्थित फ्लैट के टेलीफोन की घन्टी बजी । वो सोते से जागी । उसने हाथ बढाकर बिजली का एक स्विच आन किया और फिर विशाल डबल बैड पर अपने पहलू में लेटे गुरबख्श लाल पर निगाह डाली और बड़े अरुचिपूर्ण ढंग से नाक चढाते हुए टेलीफोन की तरफ हाथ बढाया ।
गुरबख्श लाल एक कोई पचास साल का ठिगना आदमी था जिसके जिस्म की कोई कल सीधी नहीं थी । उसका हर अंग बेडौल था । नाक पकौड़े जैसी थी तो होंठ ऐसे थे जैसे कि किसी ताजे सिले जख्म के टांके उधड़ गए हों । आंखें बटन जैसी थी और भवें मूंछों से ज्यादा घनी थी । गाल फूले हुए थे और ठोड़ी जैसे थी ही नहीं । उसकी टांगें और बाहें पतली थीं लेकिन बाकी जिस्म एक विशाल ढोल जैसा था । उस वक्त नाक से खर्राटे भरता पलंग पर चित्त लेटा वो ऐसे कछुवे की तरह लग रहा था जो उलट गया था और सीधा होने की कोशिश कर रहा था ।
उसके विपरीत मोनिका एक कोई चौबीस साल की मेहंदी की रंगत जैसी बालों वाली निहायत हसीन लड़की थी जिसका मरमरी जिस्म सांचे में ढला मालूम होता था । गुरबख्श लाल की वो मुलाजिम थी । वो गुरबख्श लाल की सम्पति कनाट प्लेस में स्थित लोटस क्लब के नाम से जानी जाने वाली अत्यन्त ऐश्वर्यशाली नाइट क्लब में बारमेड की नौकरी करती थी । उस जैसी कई नौजवान खूबसूरत लड़कियां गुरबख्श लाल की मुलाजमत में थीं और उनमें से किसी को भी कभी भी उनका एम्पलायर अपनी तफरीह के लिए छांट लेता था । किसी लड़की की मजाल नहीं होती थी गुरबख्श लाल को इनकार करने की । कभी किसी ने ऐसा इनकार किया था तो वो यूं गायब हुई थी जैसे उसका कभी कोई अस्तित्व ही न रहा हो । यूं गुरबख्श लाल द्वारा तलब की गयी उसकी मुलाजिम किसी लड़की को उसके मिन्टो रोड पर स्थित उस फ्लैट में हाजिरी भरनी पड़ती थी । उस फ्लैट की चाबी मोनिका की तरह गुरबख्श लाल की मुलाजिम कई लड़कियों के पास थीं और चाबी रखने के काबिल जानी जाने वाली ऐसी खुशकिस्मत लड़कियां अमूमन बड़े फख्र के साथ उस चाबी को नुमायश अपने साथ काम करने वाली उन लड़कियों में करती थीं जिन्हें गुरबख्श लाल ने अपनी नजरेइनायत के काबिल नहीं समझा था ।
जो लड़की यूं गुरबख्श लाल की खिदमत में मिन्टो रोड वाले उस फ्लैट में हाजिर होती थी, अमूमन उसका ये ही इनाम होता था कि वो दो-तीन दिन के लिए, या जब तक कि गुरबख्श लाल का उससे मन न भर जाए, नौकरी की जहमत से निजात पा जाती थी और उस अत्यन्त ऐश्वर्यशाली ढंग से सजे, दुनिया की तमाम सुख-सुविधाओं से भरपूर फ्लैट में रहने का सुख भोग लेती थी । वहां से रुखसत किये जाते वक्त ऐसी लड़की को गुरबख्श लाल से कोई छोटा-मोटा नजराना भी हासिल हो सकता था लेकिन वो पूरी तरह से गुरबख्श लाल के मूड और मर्जी पर निर्भर करता था । उसके मूड का तो ये आलम होता था कि कई बार ऐसी किसी लड़की को इनाम की जगह दुत्कार झेलनी पड़ती थी । आखिर वो बड़ा गैंगस्टर था, दिल्ली का टॉप का दादा था, किसी मामूली लड़की की कैसे मजाल हो सकती थी उसके सामने निगाह भी उठाने की ! अगर उसे इनाम की जगह दुत्कार मिलती थी तो वो भी उसे अपना नसीब जानकार अपना इनाम जानकार अपने सिर-माथे लेनी पड़ती थी ।
बम्बई से गुरबख्श लाल अगली सुबह लौटने वाला था लेकिन वो शाम को ही दिल्ली आन धमका था । आते ही उसने एयरपोर्ट से ही लोटस क्लब फोन किया था और अपने खास लेफ्टीनेन्ट कुशवाहा को आदेश दिया था कि वो मोनिका को - किसी भी उपलब्ध लड़की को नहीं, खास मोनिका को - फौरन मिन्टो रोड के लिए रवाना कर दे । फिर वो एयरपोर्ट से फरीदाबाद में स्थित अपनी कोठी का रुख करने के स्थान पर सीधा मिंटो रोड उस फ्लैट में पहुंच गया था जहां कि मोनिका उसकी हर तरह की सेवा के लिए पहले ही पहुंच चुकी थी ।
मोनिका इस बात से खुश थी कि दर्जनों उपलब्ध लड़कियों में से उस रात गुरबख्श लाल ने खास उसे चुना था और किसी बड़े इनाम की चाह में वो अपने एम्पलायर की हर मुमकिन खिदमत करने के लिए पूरी तरह से तैयार थी । लोटस क्लब से मिन्टो रोड के उस फ्लैट का रास्ता मुश्किल से पांच मिनट का था जबकि गुरबख्श लाल को एयरपोर्ट से वहां पहुंचने में तीस-चालीस मिनट से कम नहीं लगने वाले थे इसलिए मोनिका ने आते ही सब से पहले वहां मौजूद बेशकीमती फ्रेंच परफ्यूम की कम-से-कम आधी शीशी बाथटब में पलटकर यूं मल-मल के स्नान किया था कि उस परफ्यूम की सुगन्ध उसके रोम-रोम में बस गयी थी, फिर उसने वहीं उपलब्ध बेशुमार जनाना पोशाकों में से एक पारदर्शक गुलाबी नाइटी छांटकर पहनी थी और गुरबख्श लाल के इन्तजार में बैठ गयी थी ।
गुरबख्श लाल आया तो जैसे उसने उसे उसकी झीनी नाइटी दिखाई दी, न उसे उस परफ्यूम ने दीवाना बनाया जिसमें कि मोनिका का नौजवान जिस्म उस घड़ी रचा-बसा हुआ था, न उसने शैम्पेन की उस बोतल की तरफ तवज्जो दी कि मानिका ने खास तौर से उसके लिए आइस बकेट में लगाकर रखी थी और न वो उस गर्म गुसल को किसी खातिर में लाया जिसे एडवांस में तैयार रखने की सूझबूझ के लिए तो मोनिका को पूरी गारन्टी थी कि उसे गुरबख्श लाल से भरपूर शाबाशी मिलेगी - आखिर वो प्लेन के सफर से थका-मान्दा लौटा था - वो तो आते ही बाज की तरह उस पर झपटा और उसने उसकी गुलाबी नाइटी फाड़कर उसके जिस्म से अगल की, उसे पलंग पर धकेल कर उसकी छाती पर सवार हुआ और भैंसे की तरह डकराता हुआ पूरी दुर्दान्तता से उसे रोंदने लगा ।
मोनिका के सारे रंगीन सपने चकनाचूर हो गए ।
कैसा रूखा, फूहड़, नाशुक्रा पशु था ये कमीना गुरबख्श लाल !
डेढ बजे तक मोनिका गुरबख्श लाल के पहाड़ जैसे जिस्म के नीचे पिसी, उसके बाद एकाएक उसने मोनिका के ऊपर से करवट बदली और फिर खर्राटे भरता हुआ यूं सोया जैसे कयामत के दिन तक नहीं उठने वाला था ।
तभी थक कर चूर हुई मोनिका भी सोई थी ।
उसने एक बार जोर से अपनी आंखें मिचमिचाईं, रिसीवर को कान से लगाया और दूसरी ओर से आती आवाज को सुना ।
लाइन पर कुशवाहा था जो कि फौरन ‘बॉस’ से बात करने का ख्वाहिशमन्द था ।
उसने गुरबख्श लाल को जगाया और फोन उसे थमाते हुए बोली - “कुशवाहा ।”
जगाये जाने पर खून करने को आमादा गुरबख्श लाल कुशवाहा का नाम सुनकर थोड़ा शान्त हुआ । उसने रिसीवर कान से लगाया और बोला - “क्या है ?”
“लाल साहब ?” - कुशवाहा की आवाज उसे सुनाई दी ।
“हां ।”
“कुशवाहा बोल रहा हूं ।”
“कहां है तू ?”
“लोटस क्लब में ।”
“आग लग गयी वहां ?”
“नहीं, लाल साहब ।”
“तो फिर क्यों फोन कर रहा है इतनी रात गये ?”
“लाल साहब, यहां आपकी बहन का फोन आया था ।”
“शकुन्तला का ?” - उसकी एक ही बहन थी जो कि उससे दस साल बड़ी थी । फिर भी उसने पूछा ।
“जी हां ।”
“क्यों ? क्या चाहती थी ?”
“आपसे बात करना चाहती थी । कोई हादसा हो गया बताती थी ।”
“हादसा ! कैसा हादसा ?”
“कोई मर गया मालूम होता है । रो-रो के किसी सुन्दरलाल का नाम ले रही थी वो ।”
“सुन्दर मर गया ?”
“उसकी बातों से तो ऐसा ही लगता था ।”
“कैसे मर गया ?”
“मालूम नहीं ।”
“अब कहां है वो ?”
“किसी पब्लिक टेलीफोन पर बैठी है । नम्बर बताया है । मैंने कहा था आप मुझे मिल गए तो मैं वहां फोन करा दूंगा ।”
“नम्बर बोल ।”
“775040”
“लाइन छोड़ ।”
“क्या बात है ?” - मोनिका ने उत्सुक भाव से पूछा ।
“थोबड़ा बन्द रख और चुपचाप सो जा ।”
गुरबख्श लाल का सामने का एक दांत आधा टूटा हुआ था, वो बोला तो थूक की एक बारीक फुहार मोनिका के मुंह पर जाकर पड़ी । मोनिका की मुंह पोंछने तक की हिम्मत न हुई । की उससे भी खफा हो सकता था ।
“पहली बार आयी है यहां ?”
मोनिका ने तत्काल इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर भी नहीं जानती कि गुरबख्श लाल से कैसे पेश आना है ?”
मोनिका ने जोर से थूक निगली ।
“बुलाये जाने पर बोलना है । फालतू सवाल नहीं करना है । समझी ?”
मोनिका का सिर मशीन की तरह सहमति में हिला ।
“फिर भौंकी तो दुम ठोक दूंगा ।”
मोनिका ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा और फिर वापिस पलंग पर ढेर होकर आंखें बन्द कर लीं ।
गुरबख्श लाल ने नम्बर मिलाया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“शकुन्तला !” - वो बेसब्रेपन से बोला - “गुरबख्श बोला रहा हूं । क्या आफत आ गयी ?”
“गुरबख्श !” - शकुन्तला फोन पर धाड़ मारकर रोई - “वे, सुन्दर मर गया । वे, मेरा सुन्दर मर गया ।”
“कैसे मर गया ?”
“मार दिया किसी रुड़जाने ने ।”
“शकुन्तला, हौसला रख और ठीक से बता क्या हुआ ।”
“किसी ने उसे गोली मार दी । पहाड़गंज में लाश मिली उसकी ।”
“तुझे कैसे पता लगा ?”
“पुलिस ने आके बताया ।”
“मरा कब ?”
“आज ही । कहते थे ग्यारह बजे । हाय वे गुरबख्श या मेरा जवान पुत्तर मर गया ।”
“मुझे क्यों फोन किया ?”
“तुझे क्यों फोन किया ? गुरबख्शया, तू उसका मामा था । वो तेरा इकलौता भांजा था ।”
“वो तो है । वो तो है । लेकिन लगता नहीं कि तूने सिर्फ मुझे खबर करने के लिए फोन किया है । खबर तो मुझे मेरे उस आदमी से भी लग जाती जिससे तूने बात की थी । अब बोल और किसलिए फोन किया ?”
“और इसलिए फोन किया कि तू कुछ कर गुरबख्शया, कुछ कर ।”
“कुछ करूं ?”
“मुझे पता था तू कुछ नहीं करेगा । तुझे मेरा सुन्दर अच्छा वो नहीं लगता था । हमेशा मीन-मेख जो निकालता रहता था तू उसमें । तू क्यों करेगा कुछ ?”
“अरे, मैंने कब कहा मैं कुछ नहीं करूंगा । लेकिन तू कुछ बताये भी तो सही कि तू क्या कराना चाहती है मेरे से ?”
“कराना चाहती है क्यों कहता है, गुरबख्शया ? तेरा खुद का कोई फर्ज नहीं ? तू उसका सक्का मामा, वो तेरा सबका भांजा...”
“अब हौसला रख और...”
“कैसे हौसला रखूं, गुरबख्शया । मेरे जिगर का टुकड़ा...”
“किसने मारा उसे ? बताया पुलिस ने ?”
“नहीं ।”
“मारने वाला कोई एक जना था या कोई टोली थी ?”
“वो कहते हैं एक जना था ।”
“तू कह रही थी पहाड़गंज में लाश मिली । पहाड़गंज में कहां लाश मिली ?”
“इम्पीरियल सिनेमा के पास की एक गली में ।”
“वहां क्या कर रहा था वो ?”
“पता नहीं । दो दिन से घर तो वो आया नहीं था । मुझे क्या पता वो कहां क्या खाक छान रहा था ?”
“अकेला था ?”
“नहीं । उसका वो मुसलमान दोस्त साथ था । भला-सा नाम था उसका । शफीक । शफीक ।”
“वो भी मर गया ?”
“गोली उसे भी लगी है लेकिन वो जिन्दा है । हस्पताल में है ।”
“तू क्या चाहती है ?”
“वे गुरबख्शया, मैं क्या तू नहीं चाहता कि तेरे खून को, तेरी इक्कोइक बहन के इक्कोइक पुत्तर को मारने वाले को उसकी करतूत की सजा मिले ! कैसा मामा है तू ?”
“हौसला रख ! हौसला रख !”
“अब मैं तभी हौसला रखूंगी, गुरबख्शया, जब मुझे खबर लगेगी कि तूने उस जालिम के टोटे-टोटे करके जमना में बहा दिए ।”
“तू ये चाहती है ?”
“हां, मैं ये चाहती हूं ।”
“तू ये चाहती है तो ये ही होगा । अब हौसला रख ।”
“गुरबख्शया, हौसला तो मुझे...”
“लाश कहां है ?”
“चीर-फाड़ के लिए ले गए वो पुलिस वाले उसे । कल चीर-फाड़ के बाद मिलेगी ।”
“तो फिर चुपचाप सो जा । मैं कल आऊंगा तेरे घर ।”
“लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन छोड़ । जैसे लच्छन थे तेरे बेटे के, उसे देखते हुए बीतनी तो उसके साथ कुछ ऐसी ही थी । लेकिन जो हो गया सो हो गया । तू फिक्र न कर, शकुन्तला बहन, तेरी मुराद पूरी हो जाएगी । सुन्दर को मारने वाला जिंदा नहीं बचेगा । उसकी लाश के टुकड़े जमना से ही बरामद होंगे । अब जा, जा के सो जा ।”
गुरबख्श लाल ने फोन क्रेडिल पर पटक दिया । उसने फोन पर से हाथ खींचा तो मोनिका को बितर-बितर अपने ओर झांकते पाया ।
“तू सोई नहीं ?” - वो सख्ती से बोला - “मैंने तुझे कहा था सो जो ।”
“मैं सोच रही थी कि...”
“क्यों सोच रही थी, हरामजादी ! मैंने तुझे सोचने के लिए यहां बुलाया है ?”
घबराकर मोनिका ने तत्काल आंखें मीच लीं ।
गुरबख्श लाल ने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।
उसका पक्का स्मैकिया भांजा अपने स्मैकिए यार के साथ आधी रात के करीब पहाड़गंज में किस फिराक में विचर रहा होगा, ये उससे छुपा नहीं था । किसी शिकारी का खुद शिकार हो जाना भी कोई ऐसी घटना नहीं थी जो कि पहले कभी न हुई हो लेकिन शकुन्तला की एक बात सच थी और गौर करने के लायक थी ।
सुन्दरलाल उसका भांजा था । और खुद वो दिल्ली शहर के अन्डरवर्ल्ड का बादशाह था । अनजाने में भी किसी की गुरबख्श लाल के भांजे का खून करने की मजाल नहीं होनी चाहिए थी ।
उसने सिगरेट एक ओर फेंका और फिर रिसीवर उठा लिया । फोन का अपने करीब सरकाकर उसने एक नम्बर डायल किया । तत्काल दूसरी ओर घन्टी बजने लगी । गुरबख्श लाल भुनभुनाता रिसीवर कान से लगाए रहा । आखिलरकार दूसरी ओर से फोन उठाया गया और फिर कोई उनींदी आवाज में बोला - “हल्लो !”
“सहजपाल ?” - गुरबख्श लाल कर्कश स्वर में बोला ।
“हां, कौन ?”
“क्या बात है ? मुर्दों से शर्त लगाके सोता है ? कान दुख गया मेरा जवाब के इन्तजार में ।”
“कौन ? एस एच ओ साहब !”
“अबे, मैं तेरे साहब का भी बाप गुरबख्श लाल बोल रहा हूं ।”
“गुरब...!” - तत्काल सहजपाल के स्वर में तब्दीली आई और वो बड़े अदब से बोला - “लाल साहब ?”
“हां । अब जाग गया ?”
“जाग गया जी, बिल्कुल जाग गया । सेवा बताइए ।”
“पहाड़गंज में इम्पीरियल सिनेमा के पास मेरे भांजे सुन्दरलाल का खून हो गया है । मालूम ?”
“नहीं ।”
“मालूम कर ले । और फिर जो कोई भी केस की तफ्तीश कर रहा हो, उसके नाम की मुझे खबर कर ।”
“लाल साहब, वो दूसरे थाने का केस है । वो...”
“मैंने तेरे से पूछा वो कौन से थाने का केस है ?”
“नहीं लेकिन...”
“लेकिन-वेकिन न कर । ये काम तेरे बस का नहीं तो साफ बोल ताकि मैं किसी और से बात करूं ? गुरबख्श लाल के फेंके टुकड़े चबाने वाला तू अकेला कुत्ता नहीं इस शहर में ।”
सहजपाल खून का घूंट पीकर रह गया ।
“मुझे जवाब नहीं सुनाई दिया तेरा ।”
“मैं...मैं मालूम करूंगा ।”
“बढिया । अगर इस केस में कोई गिरफ्तारी हो या तफ्तीश करने वाले पुलसिए को, जिसके नाम की तू मुझे खबर करेगा, किसी पर शक हो तो उस शख्स की खबर भी मुझे फौरन लगनी चाहिए । क्या समझा ?”
“वही जो आपने कहा । आप जानना चाहते हैं कि आपके भांजे का खून किसने किया ।”
“अबे, कमअक्ल, सिर्फ जानना नहीं चाहता, फौरन जानना चाहता हूं । फौरन से पेशतर जानना चाहता हूं ।”
“फौरन से पेश्तर ही मालूम होगा, लाल साहब ।”
“हो सकता है ये मालूम होने में टाइम लगे कि कातिल कौन है लेकिन ये तू कदरन जल्दी मालूम कर सकता है कि केस की तफ्तीश किसके हाथ में है । मेरे काम ये जानकारी भी खूब आ सकती है ।”
“मैं सब मालूम करूंगा, लाल साहब ।”
“बकवास मत कर । सब मालूम करने की औकात तेरी होती तो तू अभी ए एस आई ही होता महकने में ! साले, लोगबाग दो फूल से तीन पर पहुंचते हैं, तू उलटा गियर मारकर एक पर पहुंच गया ।”
“आप लोगों की खिदमत की वजह से, लाल साहब, आप लोगों की खिदमत की वजह से ।”
“डायलागबाजी छोड़ रात के वक्त । काम समझा ?”
“समझा । बखूबी समझा ।”
“शाबाश । कल दोपहर को फोन करना ।”
उसने फोन वापिस रख दिया ।
तब उसने देखा कि मोनिका ने उसकी तरफ पीठ कर ली थी और कान पर एक तकिया दबा लिया था । उसने अपने हथौड़े जैसे वजनी हाथ का एक प्रहार उसके नितम्ब पर किया और कर्कश स्वर में बोला - “अरे, क्या लाश की तरह पड़ी है । मेरी तरफ मुंह कर ।”
“मैं नहीं ।” - तकिये में से उसकी आवाज आयी ।
“मैं नहीं ! साली, तेरी ये मजाल !”
“मैं रो रही हूं ।”
“क्यों रो रही है ? क्योंकि मेरा भांजा मर गया ! हरामजादी, मैं रो रहा हूं जो तू रो रही है !”
“मैं कोई आपके भांजे के लिए रो रही हूं !”
“तो फिर क्यों रो रही है ?”
“आपने मुझे इतना बेइज्जत जो किया है !”
“क्या बेइज्जत किया है ?”
“इतनी गालियां दी हैं ।”
गुरबख्श लाल ने उसे कन्धे से घसीटकर उसका रुख अपनी ओर किया और उसके कान के ऊपर का तकिया एक तरफ फेंका । उसने मोनिका को ठोड़ी के करीब से गर्दन से थाम लिया और कहरभरे स्वर में बोला - “गाली से बेइज्जती होती है ?”
आतंक से मोनिका का शरीर सिर से पांव तक पत्ते की तरह कांपा ।
“नहीं ।” - वो बड़ी कठिनाई से कह पायी - “नहीं ।”
“तो फिर अभी क्या भौंक रही थी ?”
“वो तो मैं यूं ही... यूं ही मजाक कर रही थी ।”
“मजाक कर रही थी तो ठीक है ।” - उसने मोनिका की गर्दन छोड़ दी ।
तत्काल मोनिका यूं उसके साथ लिपटी जैसे उसके बिना वो मरी जा रही हो ।
वो खूब जानती थी कि सदव्यवहार और इज्जत-आबरू पर कोई दावा नहीं होता था उस जैसी औरत का लेकिन फिर भी वो मन ही मन उसे हजार-हजार गालियां दे रही थी और बारम्बार उसकी मौत की कामना कर रही थी ।