ठीक रात के पहले पहर में शाही घुड़सवार पाण्डे पुरवा पहुंचे।

अली नकी खां का लिखा हुआ पत्र पाण्डे जी को मिला। मकसद मालूम हुआ।

सवारों से पाण्डे जी ने कहा-'घोड़े थान से बांधो भाई, ओ बचवा...सुना कि नाई? ई हमार नवाब सरकार के जवान एक उछाल मां लखनऊ से इहां पहुंचे हैं। घोड़ों को बढ़िया रातब मिले। इन सिपाही लोगन के वास्ते खीर चढ़वा देओ।'

सोचने की, समझने की कोई बात ही नहीं थी।

चाहे खुदा सातवें आसमान से उतरे, चाहे भगवान क्षीर सागर छोड़ कर द्वारे पर आयें। चतुरी पाण्डे इतने चंट भी थे कि अपने सगे बाप को दांव देकर ठन्डी सड़क पर टहला दें।

परन्तु नवाब!

नवाब का नमक खाया था। नवाब का नमक अब भी खाते थे।

असगर अली की शिष्य परम्परा में आन थी...जमाना मक्कार है। जमाने के लिये पसीना बहाना भी बेकार है। लेकिन खून बहाया जा सकता है लखनऊ के नवाब के लिये। इसलिए कि लखनऊ की नवाबी का नमक उस्ताद दर उस्ताद ने खाया है।

कोई नाराजगी की बात नहीं।

नवाब के आदेश को पढ़ कर सम्मानपूर्वक पाण्डे ने आंखों से लगाया।

कोई गर्व की बात नहीं। नवाब चाहे तो खाल उतरवा कर जूतियां बनवा ले।

आधी रात के बाद तक आगन्तुक घुड़सवारों का खाना पीना हुआ, रात का तीसरा पहर घोड़े कसते कसाते बीत गया।

रात के अन्तिम पहर में चतुरी पाण्डे ने बुलावे के घुड़सवारों सहित कूच कर दिया। पूरे चौथे पहर घोड़े सरपट चाल दौड़े। जब पूरब से सूरज की लाली झांकी तो लखनऊ आ पहुंचा था।

साथ वालों को छुट्टी दी पाण्डे जी ने। कहा-'रात भर के जगे हो, जाकर आराम करो। हुजूर नवाब साहब उठ कर हमें ही आदाब बजाते देखेंगे। हम जरा एक चक्कर गोमती तक लगा कर तीन गोते लगा कर महल में पहुँच रहे हैं।'

पाण्डे पुरवा के पाण्डे जी लखनऊ में आते ही देहाती से शहरी हो गये।

सीधे गोमती तट पर पहुंचे। स्नान किया, पगड़ी ठीक से बांधी। चोगे के ऊपर सुनहरी कमरपट्टा लपेटा। माथे पर तिलक लगाया और इसके बाद घोड़ा दौड़ाते हुए शहर कोतवाल हाशिम खां की हवेली पर जा पहुंचे।

हाशिम खां अभी-अभी नींद से जागे थे।

जनानखाने में खबर पहुंची कि बैठक के बाहर घोड़े पर सवार देखने में तेज तर्रार चतुरी पाण्डे खड़े हैं।

हाशिम खां दौड़े आये। मन ही मन यह सोचते हुए कि शैतान के इस बच्चे को सुबह-सुबह किसने खुला छोड़ दिया! परन्तु प्रगट में मुस्कराते हुए और विशेष अपनापन जताते हुए कोतवाल हाशिम खां ने आकर कहा-'आदाब बजा लाता हूं पाण्डे जी।'

-'तसलीमात अर्ज है कोतवाल साहब।' पाण्डे जी घोड़े पर चढ़े ही बोले-'सीधा गांव से चला आ रहा हूं। सोचा हुजूर नवाब साहेब के दरे दौलत पर पहुंचने से पहले आपको तसलीमात अर्ज करता चलूं!'

-'खुश आमदीद। आइये तशरीफ लाइए।'

-'तकल्लुफ छोड़ कर बिल्कुल बेतकल्लुफ होकर जो कहना है वही कह रहा हूं कोतवाल साहब। कपड़ों से इत्र की महक, गले में सोने का तोड़ा और आंखों में खुमारी। साबित हुआ कि घर पहुंचना आधी रात के बाद! इसका मतलब है कि उस सफेद नागिन शीरीजान से अभी तक आशनाई चल रही है। कहना यह है कि कोतवाल का काम रण्डी के कोठे पर पड़े रहना नहीं है। अगर आपने मेरे लखनऊ में होते फिर उधर की तरफ मुंह किया तो शीरीजान के कान और नाक काट कर आपकी बेगम साहिबा को तोहफे के रूप में भिजवा दूंगा।'

इतना कह कर बिना कुछ कहे सुने पाण्डे जी ने घोड़ा मोड़ कर एड़ लगाई। कोतवाल हाशिम खां ऐसे भुनभुनाता रह गया जैसे भाड़ में चना।

उधर पाण्डे जी ने घोड़े को बुर्ज महल की ड्योढ़ी पर ही जाकर रोका।

उस्मान दरोगा खास ड्योढ़ीवान था। चतुरी पाण्डे को सामने देख कर वह चौंका।

-'अरे रे! आज सूरज किधर से निकला। मैंने कहा...पाय लागी पाण्डे जी।'

-'पाय लागी तो हुई दारोगा जी। लेकिन देखता हूं कि मेरे पीछे अफीम के अन्टे में और भी तरक्की हुई है। इस वक्त भी आप पीनक में हैं। याद है न मैंने पहले भी आपको कई बार टोका था!'               दारोगा उस्मान का नशा हिरन हो गया।

दबे से स्वर में कहा-'बुढ़ापा जो आन पहुंचा है पाण्डे जी।'

-'बुढ़ापा आया है तो मक्का मदीना जाइए। अन्टा गफील होकर ड्योढ़ी पर ही चारों जहान की खबर रखना छोड़ दीजिए। वर्ना मैं हुजूर नवाब साहेब को सलामी देने जा रहा हूं।'

-'बाल बच्चे आपके सहारे हैं पाण्डे जी।'

-'लेकिन आप तो अफीम के सहारे हैं दारोगा जी। सिर्फ आज की मुहलत और है।'

-'मेरे बाप की तोबाह है पाण्डे जी। कल से सुबह का अन्टा बन्द।'

-'शुक्रिया।'

चतुरी पाण्डे आगे बढ़े।

अपने काम के कारण और अपने चातुर्य के कारण ही पाण्डे जी की नवाबी में कद्र थी। वह इतना जानते थे कि अगर सारी जानकारी जबान पर ले आते तो लखनऊ की नवाबी में गदर जाता।

दुआ सलाम लेते देते पाण्डे जी नवाब साहब के शयनकक्ष की ओर जा रहे थे कि रास्ते में आती हुई एक स्त्री दिखाई पड़ गई। यह थी छम्मो कहारिन...नवाब की चहेतियों और रखेलों की कथित खिदमतगारिन और वास्तव में दारोगन।

सामने साक्षात पाण्डे जी को देख कर एक बार घबरा गई छम्मो। झट से ओढ़नी खींच कर घूंघट कर लिया और एक ओर सिमट गई।

देख कर पाण्डे जी मुस्कराए। रुकते हुये बोले-'हमसे मत छिपो शैतान की नानी छम्मो। अरे हम कोस भर दूर से तुम्हें देख कर तुम्हारी चाल देख कर पहचान लें! हटाओ घूंघट।'

छम्मो कहारिन।

उम्र चालीस के आस-पास। सिर से पांव तक सुनहरी गहनों से लदी, रंग काला लेकिन अदायें गुलाबी।

लेकिन इस वक्त बदहवास छम्मो की अदा ऐसी थी जैसे रंगे हाथों पकड़ी गई हो!

दृष्टि झुकाए छम्मो ने घूंघट हटाया। सूखे से कण्ठ स्वर में बोली-'पाय लागी पाण्डे जी।'

-'छम्मो, अब की बार हम फैसला करके आये हैं...या तो तुम नहीं या हम नहीं।'

सचमुच छम्मो झुकी और झुक कर पाण्डे जी के पांव पकड़ कर बोली-'दुहाई है आपकी पाण्डे जी। मेरे बाल बच्चे आपके सहारे हैं।'

-'खड़ी हो।' सख्त स्वर में पाण्डे जी बोले।

छम्मो कहारिन उठ कर खड़ी हो गई।

-'अगर आज तक मैंने किसी को बिना वजह सताया हो तो भोले शंभू की दुहाई...मेरा वंश नाश हो। लेकिन छम्मो, एक दिन तुम्हें भी लकड़ियों में ही पहुंचना है। जिसका नमक खाती है उसकी वफादार रह, नमक हराम मरने के बाद प्रेत बनता है। जो मैं कहूंगा अगर वह झूठ है तो कह...तू अब भी हुजूर नवाब की रखेलों के आशिकों को चिट्ठी पहुंचाती है! तेरी चोली में एक खत है। तेरे लहंगे के नेफे में दो खत हैं। क्या झूठ कह रहा हूं?'

-'पाण्डे जी, मैं आपकी काली गाय हूं, सिर्फ इस बार माफ कर दीजिए।'

-'यह तूने पहले भी कहा था, लेकिन जा...इस बार फिर माफ किया। छम्मो, मैं जानता हूं कि नवाब साहब की रखेलें सुखी नहीं हैं। महल में उनकी जवानियां तड़पती हैं। परन्तु यह दोगलापन है। जितनी रखेलें महल से निकल कर यारों के साथ भागना चाहें, आज ही रात को मैं उन्हें महल से निकाल सकता हूं...भाग जायें यारों के साथ। लेकिन वह रखेलें भी तो हरामजादी हैं...नवाबी महल के ऐश भी उन्हें चाहिये और आशनाई के लिए आशिक भी। रोग की जड़ है तू ...जा आज छोड़ा।'

जान छूटी। हाथ जोड़ कर वह बोली-'आइन्दा ऐसा न होगा। पाय लागी पाण्डे जी।'

वह लपकती आगे की ओर बढ़ी। पाण्डे जी ने फिर रोका-'सुन तो छम्मो।'

छम्मो रुक गई।

-'अब कुल कितने बच्चे हैं?'

-'छः।'

-'छहों के बापों से मेरी सलाम कहना।'

मुस्कराई छम्मो, बोली-'पाण्डे जी मेरी तो इच्छा थी छह सवारों के बाद सातवें सवार होते आप! एक और लड़के को जनती।'

भड़के पाण्डे जी-'दूर हो मेरे सामने से...कलमुंही कहीं की!'

पायल छनकाती हुई वह चली गई।

सब कुछ जानते थे पाण्डे जी। लेकिन जो जमाना चला रहा था उसे अकेले बदल तो न सकते थे।

कहीं जाने पर पाण्डे जी को रोक न थी। नवाब के शयनकक्ष के द्वार पर वह जा पहुंचे।

बाहर अंगरक्षकों ने बताया-'अभी जागे नहीं हैं नवाब साहब। लेकिन आज जाने क्या बात है...बड़ी कच्ची नींद सो रहे हैं। किसी वक्त भी जाग सकते हैं।'

पाण्डे जी अन्दर पहुंचे।

अफगानी बांदियों के आदाब के उत्तर में पाण्डे जी ने उन्हें सन्देह भरी दृष्टि से देखा।

कुछ बांदियां पर्दे हटाने के लिए तत्पर खड़ी थीं।

कुछ खास संगीतज्ञ बांदियां भिन्न-भिन्न साजों पर हल्के स्वर में राग भैरवी बजा रही थीं।

पाण्डे जी ने संकेत द्वारा संगीत के स्वर तेज करने का आदेश दिया।

नवाब की ख्वाबगाह के फानूश कम दमकने लगे थे। इसलिए कि कुदरत का फानूश सूर्य आकाश में जगमगा रहा था।

नवाब ने करवट बदली। यकायक आवाज गूंजी-'कोई है?'

पाण्डे जी आगे बढ़े-'दास हाजिर है जहांपनाह...चतुरी पाण्डे।'

चौंक कर नवाब उठ कर बैठ गये।

-'ओह...पाण्डे जी!'

-'आदाब बजा लाता हूं जहांपनाह।'

-'तसलीमात...उफ आज की रात तो हम ठीक तरह सो भी न सके पाण्डे जी। बात की बात थी न! ख्वाब में भी यह ख्याल था कि हम आंखें खोलें तो तुम्हें देखें।'

-'कद्रदानी है जहांपनाह की।'

-'यह हकीकत है पाण्डे जी, हमने तुम्हें तब याद किया जबकि तुम्हारे बिना हम कुछ न कर सके। यह बात का सवाल है, सौदागर नबी बख्श की जवान लड़की को आधी रात के वक्त कुछ नकाबपोश उठा कर ले गए। पन्द्रह दिन पहले की बात है, आज शायद सोलहवां दिन है। तुम्हें पाण्डे जी...उस लड़की को तलाश करना होगा।'

-'हुजूर का इकबाल बुलन्द रहे, ऐसे काम खाकसार ने बहुत किये हैं।'

-'मुद्दत एक महीने की है। हमारी स्लीमन से शर्त ठहरी है।'

-'बहुत है।'

-'हमें तसल्ली हुई। क्या अकेले ही आये हो...किसी शागिर्द को साथ नहीं लाये?'

-'सब शागिर्द लखनऊ में ही तो हैं।'

-'हमने नहीं देखे।'

-'जब हुक्म देंगे, दिखा दूंगा। लेकिन यह काम मैं अपने बिल्कुल नये शागिर्द से कराऊंगा। उसका काम देखिएगा...कमाल देखियेगा। वह सब कुछ करेगा। मैं तो शैतान की दुआ से लखनऊ में जाना पहचाना हूं। उम्मीद है वह लड़का खूबी से काम को अंजाम देगा।'

-'जिम्मेदार आप हो पाण्डे जी।'

-'बेफिक्र रहें सरकार, काम मामूली है और आपका इकबाल बहुत बुलन्द है।'

नाम था उसका नजीर।

गरीब मां का बेटा था। यूं ही आवारा घूमा करता था। फिर कुछ लोगों ने उसे चतुरी पाण्डे के साथ घूमते देखा। यूं नजीर आवारा ही रहा, परन्तु गजब का सयाना हो गया। करता पहले भी कुछ न था, करता अब भी कुछ न था। परन्तु देखते ही देखते कच्चे झोंपड़े की जगह छोटा सा तिदरी वाला पक्का मकान तैयार हो गया था। सारा दिन नजीर उस्ताद भूरे खां की सराय में रहता था। वहां इकट्ठा होने वाले जुआरी उस केवल बाइस साल के नौजवान को अपना गुरु मानने लगे थे...गुरु दक्षिणा भी देते थे।

वास्तव में नजीर था चतुरी पाण्डे का शिष्य। चतुरी पाण्डे लखनऊ से विदा हुये तो जासूसी करने को मन न चाहा। अलबत्ता चतुरी पाण्डे के जरिये सीखी हुई अक्ल से गुजारा जरूर कर लेता था।

रात में देर से सोया था। सुबह नजीर को वृद्धा मां ने जमाया-'अरे बेटा, देख तो कोई दरवाजे पर आवाज लगा रहा है।'

-'उफ अम्मी।' करवट बदलते हुए नजीर ने कहा-'तो दरवाजा खोल कर देख क्यों नहीं लेती कि कौन है, कोई बात हुई कि मेरे यार दोस्तों से भी पर्दा करो?'

-'दरवाजा तो खोल देती बेटा। लेकिन मुझे शक है, मुझे शक है कि आवाज देने वाले तुम्हारे गुरु हैं! भला उनके सामने बेपर्दा होकर कैसे जाऊं?'

नजीर उछल कर उठा-'क्या कहा...गुरु?'

-'आवाज तो वैसी ही है।'

नजीर तेजी से उठा। बाल बिखरे हुये थे। बदन पर सिर्फ तहमद ही था। वह उसी प्रकार दरवाजे की ओर भागा।

दरवाजा खोला।

-'गुरु जी!' श्रद्धा से भर गया नजीर। पांव छुए, आशीष ली। घोड़े को अपने हाथ से थान पर बांधा। फिर आदर सहित गुरु को घर में लाया। सहन में आते ही पुकार कर कहा-'अम्मी, गुरु जी आये हैं। लाजवाब जाफरानी हलवा बना डालो, आइये गुरु जी।'

यूं एक दिन ऐसा भी होता था जब पाण्डे जी के दूर-दूर तक फैले शिष्य गुरु पूर्णिमा पर गुरु को दक्षिणा देने गुरु के स्थान पर एकत्रित होते थे। इस साल यह पर्व पाण्डे पुरवा में मना था। वैसे नजीर तीसरे-चौथे महीने वहां भी हो आता था, परन्तु गुरु को लखनऊ में देख कर उसे आश्चर्य भी हुआ...प्रसन्नता भी हुई।

गुरु के लिये मसनद लगाई। आदरपूर्वक बैठाया।

-'अच्छे तो हो नजीर?' पाण्डे जी ने पूछा।

-'जी इनायत है आपकी।'

-'क्या कर रहे हो आज-कल?'

-'जी कुछ खास तो नहीं।'

-'भूरे खां की सराय में जाते हो?'

-'जी हां, गुजारे के लिए वहीं चला जाता हूं।'

-'गुजारा तो हो जाता है?'

-'बड़ा नाम खुदा का, शागिर्द आपका हूं, भला गुजारे में क्या दिक्कत होगी! कुछ काम और भी ढूंढ लिए हैं, कुछ कलदार भी मिल जाते हैं नाम भी मिल जाता है।'

-'सुन कर खुशी हुई। क्या काम ढूंढ लिये हैं?'

-'जी बटेरबाजी कर लेता हूं, चार बटेर भी पाल लिये हैं।'

-'अरे!' चौंकते हुए चतुरी पाण्डे ने कहा-'बटेरबाजी कैसे सीखी?'

-'जी आपकी बताई हुई हिकमतों से। चार मामूली और दब्बू बटेर एक दिन जुये में जीत गया। सोचा किस तरह इन्हें बहादुर बनाया जाये...आपने तासीरे हुक्मजवां नुस्खा बताया था न! उसकी गोलियां बना कर बटेरों को खिलानी शुरू की। एक हफ्ते बाद बटेर पिंजरा तोड़ने के लिये छटपटाने लगे। अहाते वाले मिर्जा तुफैल से ठन गई। एक मुहर की एक कुश्ती। चार बटेर उनके थे चार मेरे। अखाड़ा कुल पन्द्रह मिनट में खत्म हो गया। मिर्जा के बटेरों को फाड़ कर ही तो रख दिया मेरे बटेरों ने। चार मुहर जीत कर आपको दुआ दी।'

-'बहुत खूब।'

-'जब यह करिश्मा देखा तो सोचा तासीरे फौलाद का नुस्खा भी आजमा देखा जाये। दो काले मुर्ग चौक से खरीद लाया और तासीरे फौलाद दाने में मिला कर खिलाने लगा। अब हालत यह है कि लखनऊ में मेरे मुर्गों का लंगर घूमता है। शर्त लगा के कुश्तियां हुईं और जीतीं।'

-'खूब! लेकिन बेटा एक बात तो तुम्हें याद है न?'

-'जी फरमाइये।'

-'हमारा तुम्हारा एक कौल हुआ था कि जब भी हम मांगेंगे...जो भी हम मांगेंगे, एक बार तुम हमें गुरु दक्षिणा दोगे।'

-'कौल...! गुरु जी, कौल करार की क्या बात है...जो हुक्म हो, यह जान आपकी है जूतियां बनवा लें।'

-'सुन कर खुशी हुई।'

-'हुक्म इरशाद फरमायें।;

-'कहेंगे, अभी कहेंगे। जरा दम तो ले लें! और कहो...लखनऊ का क्या हाल है?'

-'सदा की तरह लखनऊ अपनी मस्ती में डूबा हुआ है। दुनिया जहान से दूर ज्यादातर अफीम चखते हैं और अंटा गफील रहते हैं। यूं अक्सर कोतवाल हाशिम खां कोतवाली बुलवाते हैं।'

-'तुम्हें...?' चौंके पाण्डे जी।

-'जी।'

-'क्यों?'

-'कहते हैं कि सब कुछ सीखे सिखाये हो। नौकरी कर लो, दारोगाई से नौकरी शुरू होगी।'

-'तुमने क्या जवाब दिया?'

-'मैंने तो गुरु जी एक ही जवाब दिया। हमेशा यही कहा कि गुरु जी हुक्म देंगे तो मेहतर का काम करने में भी शर्म न होगी। गुरु जी से कहिये।'

मुस्कराये चतुरी पाण्डे-'झाड़ू मारो हाशिम खां को। हां तो बेटे सुनो, हमें नवाब हुजूर ने बुलाया है। लखनऊ के मशहूर सौदागर नबी बख्श की लड़की को कुछ नकाबपोश उठा कर ले गये।'

-'जी हां, सुना मैंने भी है।'

-'उस लड़की को बरामद करना है और यह काम करोगे तुम।'

-'हुक्म बजा लाऊंगा।'

कुछ क्षण मौन रहा।

-'आज से ही तुम्हें काम शुरू करना होगा।'

-'जी बहुत अच्छा।'

-'यह काम ठीक से अंजाम देना ही मेरी गुरु दक्षिणा होगी। यह तुम्हारा इम्तिहान भी होगा।'

-'आपकी मेहरबानी रही तो गुरु जी इम्तिहान में कामयाब भी रहूंगा।'

-'शाबाश। तो आज से काम शुरु करोगे?'

-'जी बेशक।'

-'काम किस तरह शुरू करोगे?'

-'जी जैसे आप हुक्म देंगे।'

-'लेकिन बेटे यह तो इम्तिहान है! अपनी अक्ल से काम शुरू करना होगा।'

-'जी मेरा ख्याल है कि पहले नबी बख्श सौदागर की हवेली और मुहल्ले को भांपना होगा। हवेली और मुहल्ले के जरिये ही उस लड़की के बारे में पूरी जानकारी लेनी होगी, तब ही तय होगा कि काम का ढंग क्या होगा!'

-'शाबाश।' प्रसन्न होकर चतुरी पाण्डे बोले-'साबित हुआ कि मैंने जितने सबक तुम्हें पढ़ाये थे, यकीनन तुम्हें वह सब याद हैं। काम शुरू करने का बिल्कुल सही ढंग है। लेकिन बेटे, कोई यह न जाने कि तुम नजीर हो...।'

मुस्कराया नजीर-'गुरु जी, आपने जो मुझे भानमती का पिटारा दिया था वह जब तक है तब तक कोई कैसे पहचान सकता है?'

-'शाबाश। हमारी तुम्हारी दूसरी मुलाकात शाम को वहीं अघोरी वाले श्मशान में होगी, मेरे पुराने अड्डे पर।'

-'जी मुलाकात बेशक होगी...एक बात कहूं गुरु जी?'

-'कहो बेटा।'

-'अब तो इस खादिम का झोंपड़ा भी खासा घर बन गया है। यहीं ठहरें तो आपको तकलीफ न होगी।'

हंसे चतुरी पाण्डे-'कभी यहां भी ठहरूंगा बेटा।'

-'कब?'

-'जब यह घर हवेली बन जायेगी और इसकी बैठक में मसनद पर बैठ कर मैं कह सकूँगा कि यह मेरे शागिर्द की हवेली है! ऐसा होगा बेटा, ऐसा जरूर होगा...तुम में ऐसे गुण हैं।'

दरवाजे की चिक हटी।

नजीर की मां ओढ़नी से हाथ भर का घूंघट काढ़े प्रविष्ट हुई। हाथों में चांदी की रकाबियां थीं जिनमें महकता हुआ गर्मा गरम हलुवा था।

नजीर ने उठ कर जल्दी से दस्तरखान बिछाया।

चांदी की रकाबियां उस पर रखीं।

मां मुंह फेर कर सिमटी-सी एक ओर खड़ी हो गई।

धीमे स्वर में उसने कहा-'नजीर, अपने गुरु जी से कहो कि हमें उनसे कुछ कहना है।'

पाण्डे जी बोले-'कहो बहना।'

-'नजीर, अपने गुरु जी से कहो कि क्या हमें सदा ही चूल्हा फूंकना पड़ेगा? क्या हमें कभी चारपाई पर बैठ कर दो रोटी नसीब न होंगी? कहो कि हमें घर सूना लगता है, हमें एक दुल्हन चाहिये।'

मुस्कराये पाण्डे जी-'खूब, बड़ा खूबसूरत ख्याल है तुम्हारा बहन।'

-'तो क्या ख्याल हमेशा ख्याल ही रहेगा?'

-'ख्याल क्यों ख्याल रहे? उसे हकीकत बना डालो न बहन!'

-'यही तो दिक्कत है।'

-'दिक्कत क्या है?'

-'नजीर कहता है कि गुरु जी ने यह सब मना किया है।'

-'तो मैं क्या गलत कहता हूं? गुरु जी बता दीजिए न अम्मी को। शागिर्द बनाते वक्त आपने ही तो कसम ली थी कि शादी ब्याह के चक्कर से, औरतों के इश्क के चक्कर से बचना होगा।'

-'बेवकूफ...मैंने वह बात सिर्फ तालीमी वक्त के लिये कही थी। बहन, सिर्फ चन्द दिनों की बात है...इसका एक इम्तिहान होना है। दुल्हन की तलाश करो...इसकी शादी में शामिल होकर ही लखनऊ से गांव जाऊंगा।'

-'ओह! नजीर अपने गुरु जी से कहो कि मैं इनकी अहसानमन्द हूं। वल्लाह आज मैं बहुत खुश हूं।'

मां चली गई।

हलुवा चखते हुए पाण्डे जी बोले-'देखा...बहन कितनी खुश हुई हैं!'

-'आगे चल कर रोएगी।'

-'क्या?'

-'जी हां, आगे चल कर रोएगी। हर मां अपने बेटे से यही मांग करती है, मांग पूरी होने पर खुश होती है और बाद में जब सास बहू में ठनती है तो...!'

-'चुप गधा कहीं का!' पाण्डे जी बोले-'ऐसा तब होता है जब लड़के मां के बेटे न रह कर जोरू के फरजन्द बन जाते हैं।'

नजीर ने मुहल्ला हाजी बन्ने खां, जहां सौदागर नबी बख्श की हवेली थी अपना कमाल दिखाना शुरू किया।

ठीक दोपहर को वह सिर पर टोकरा लादे सुरीले स्वरों में आवाज लगाता हुआ पूरा मुहल्ला घूम गया-'मटर...मोती बनी है मटर...हरी मटर। पुलाव की जान है मटर।'

बहुत देर तक नजीर नबी बख्श की हवेली के आगे पुकारता रहा, परन्तु वहां अन्दर से कोई बाहर न आया।

हवेली के बराबर ही एक छोटा-सा झोंपड़ा था। झोंपड़े से निकल कर किसी ने पुकारा-'ओ भाई मटर वाले।'

आगे बढ़ कर नजीर ने वहीं टोकरा उतार दिया। ऐसे हांफने लगा जैसे बहुत थक गया हो।

-'क्या भाव लगाई मटर?'

-'तू ले ले अम्मा, धेले सेर ही लगा दूंगा...बोझ तो कम हो।'

-'तो बेटा दे दे छ: कौड़ी की।'

-'ओह नहीं अम्मा। सेर तो लेनी ही होगी। धेला न होगा तो उधार कर लूंगा, कल दे देना। बोझ कम करना है मुझे। देखो तो...नाम बड़े और दर्शन छोटे! सौदागर की हवेली के आगे एक पहर से पुकार रहा हूं, यह न बना कि पांच सेर तुलवा लेते!'

टोकरे में से मटर निकाल कर तराजू में चढ़ाते हुए बुढ़िया बोली-'तू नहीं जानता बेटा, सौदागर के घर में मातम सा है। जवान बेटी को डाकू उठा कर ले गए।

-'सो जानता हूं मां। लेकिन इससे क्या...दस्तरखान तो बिछता ही होगा। खाना तो खाया ही जाता होगा। यूं सारा शहर जानता है...लेकिन जो खुदा की मर्जी हो उसे कौन बदले?'

-'अरे जा बावले।' उलाहने के से स्वर में बूढ़ी स्त्री ने कहा-'इसमें खुदा का क्या दखल! बेटा अगर बबूल बोओगे तो आम कहां से पाओगे? मैंने नबी बख्श के बाप अल्ला बख्श को भी देखा था। वह थे सही मानो में इन्सान। अपनी राह जाना अपनी राह आना। न किसी से झगड़ा न किसी से खुन्दक और नबी बख्श! उसे नशा रहता है हर वक्त दौलत का। लखनऊ में उसके दोस्त कम हैं और दुश्मन ज्यादा। भगवान उस लड़की की हिफाजत करे, पर्दे वाली लड़की थी...भला किसी घर के भेदी के बिना ऐसे काम हो सकते हैं?'

मटर तुल चुकी थी, बुढ़िया ने गांठ से खोल कर एक धेला थमा दिया था।

नजीर ने टोकरा उठा कर फिर सिर पर रखा और आवाज लगाई-'दौड़ो...अरे दौड़ो, हरे मोती बेच रहा हूं...लूट लो लखनऊ वालो। मटर...गोमती पार की बढ़िया मटर।'

एक और बात का पता लगा।

मुहल्ले के नुक्कड़ पर एक अफीमची ने पीनक में झूमते हुये उसे टोका-'ओ भाई मियां कुंजड़े।'

-'आया सरकार।'

-'भाई क्या भाव लगाई मटर?'

-'पहले जरा मटर का मुलाहिजा फरमाइए।'

-'अमां हम पर रौब गांठते हो? वल्लाह ऐसे रौब देते हो जैसे मटर न हो छदम्मी हलवाई का गुलदाना हो।'

-'सरकार गुलदाना क्या मुकाबला करेगा इस कुदरती मोती का? अभी-अभी सौदागर साहब की हवेली पर पांच सेर तोल कर आ रहा हूं।'

-'मियां लानत है। किसका नाम ले दिया सुबू सुबू? मियां उसने पांच सेर तुलवाई है तो हम दस सेर खरीदेंगे। उस नामाकूल का और हमारा क्या मुकाबला! हम ठहरे अल्लाह वाले और वह...खुदा का कुफ्र बहरामशाह काफिर का मुरीद। सुबू शक्ल देख लें तो शाम तक खाना नसीब न हो।'

बहरामशाह!

जानता था नजीर। बहरामशाह पुराने कब्रिस्तान में सूफी नसीर के मजार पर बैठता था। हरफनमौला था। खूब भीड़ रहती थी उसके पास। औरतों को गण्डे ताबीज देता था। भूत झाड़ने का भी धन्धा था। रोगी भी अच्छे होने उसके पास आते थे।

-'अपना-अपना ख्याल है हुजूर। यूं हमने तो यह सुना है कि बहराम शाह बड़े पहुंचे हुए हैं।'

-'हीं हीं हीं।' अफीमची बेतुकी हंसी हंसा-'तभी तो सौदागर की लड़की को उठवा दिया। खूब कहा...पहुंचा हुआ है...ठीक। ऐश लो मियां कुंजड़े।'

-'जी दस सेर मटर काहे में तौलूं?'

-'दस सेर मटर!' अफीमची साफ बदल गया-'मियां हमें क्या गदहा समझा है? तोल दो एक पाव।'

मटर की सौदागरी समाप्त कर दी नजीर ने।

इस वक्त चेहरे पर भद्दी सी दाढ़ी चिपकाये वह वाकई कुंजड़ा बना हुआ था। वापस घर पहुंचा। फिर वह भानमती का पिटारा खोला, इस बार रंग एकदम आबनूसी बनाया, सफेद चोगा पहना, चेहरे पर झुर्रियां बनाई और करीने से सफेद सीने तक लटकती दाढ़ी चिपकाई।

एकदम मौलवी जैसा लिबास। हाथ में माला ली और निकल गया घर से।

नबी बख्श की हवेली के पास जो भटियारे की दुकान थी, वह वहां रास्ते से दो भिखमंगे पकड़ कर पहुंचा।

दुकान पर पहुंच कर कहा-'मियां भटियारे?'

भटियारे ने नजर उठा कर देखा-'तशरीफ लाइए, मौलवी साहब।'

-'खुदा के यह दो बन्दे हैं, इन्हें इज्जत के साथ बैठाओ और दस्तरखान बिछा कर भर पेट खाना खिलाओ। यह लो कलदार, बाकी की रेजगारी अपने पास रखना। जो खुदा का बन्दा दिखाई पड़े उसे खाना खिलाना।'

भटियारे का चौंक जाना स्वाभाविक था।

यूं मौलवी उसने बहुत देखे। लेकिन खैरात खाने वाले मौलवी देखे थे। खैरात करने वाला अपरिचित मौलवी पहली बार देखा।

-'हैं हैं!' दांत निपोरे भटियारे ने-'तशरीफ ले आइए बन्दानवाज। इसकी क्या जरूरत है, मैं इन्हें खाना खिलाए देता हूं।'

-'कलदार उठा लो बेटा। जर से हमें क्या सरोकार...किसी ने दिया, किसी को दे दिया। नीयत के अच्छे हो, खुदा बरकत दे। इतना ही काफी है कि एक कलदार के बदले एक पैसा और एक कलदार का खाना अल्लाह के बन्दों को खिला देना।'

-'जो हुक्म तशरीफ तो लाइए आला हजरत।'

नजीर इस भटियारे को खूब अच्छी तरह जानता था। इसके साथ मुर्गे लड़ा चुका था। इसे न सिर्फ बाहर से जानता था बल्कि अन्दर से भी खूब जानता था।

अन्दर आकर बैठते हुए नजीर ने भटियारे पर कुछ क्षण के लिए दृष्टि जमाई-'खूब...खूब अच्छी किस्मत पाई है बेटे तुमने। अलबत्ता कुछ चमकती किस्मत पर धूल जमी है। कुछ महीने पहले दूसरी शादी की है न...?'

भटियारा चौंका-'जी...जी हां मौलवी साहब।'

-'तबसे कुछ घाटे भी हुए होंगे...कुछ बाजी लगा कर हारे भी होगे?'

बात भटियारे को तीर की तरह लगी-'बेशक...बेशक आप ठीक कहते हैं।'

नजीर मुस्कराया-'लेकिन मैंने कहा न, किस्मत तुम्हारी अच्छी है बेटे। तुम्हारी किस्मत के साथ मेल है तुम्हारी पहली बीवी का। किस्मत पर मामूली सी गर्द है। फिक्र की बात नहीं। झाड़ फूंक करने से ठीक हो जाएगी। तुम सिर्फ इतना करना कि अपनी पहली बीवी के हाथ से जुम्मे के दिन कबूतरों को बाजरा डलवा दिया करना, झड़ जायेगी किस्मत की धूल।'

भटियारा निहाल हो गया-'कुछ और बताइये मौलवी साहब...बड़ी मेहरबानी होगी।'

-'बेटे हम नजूमी नहीं हैं, पेशेवर नजूमी और ठग में कोई फर्क नहीं होता। हम तो खुदा के बन्दों के खिदमतगार हैं। जो देखा बता दिया...सच्चाई सिर्फ इतनी ही थी और जो कुछ कहेंगे वह झूठ होगा। बस जो हमने बताया है वह करना। किस्मत की धूल कबूतर झाड़ देंगे...किस्मत चमकने लगेगी।'

और अधिक प्रभावित हुआ भटियारा।

-'बुजुर्गवार आपका दौलतखाना किस मुहल्ले में है?'

-'बेटे हम अल्लाह के बन्दों के खिदमतगारों का दौलतखाना कहां होता है...खुदा के यहां! यूं पैदाइश है दिल्ली की, लखनऊ की सैर करने आये हैं।'

-'जहे किस्मत! वल्लाह एक अहसान कर सकेंगे मौलवी साहब? पड़ौस में ही रहते हैं लखनऊ के मशहूर सौदागर नबी बख्श। उनकी लड़की को दो हफ्ते पहले नकाबपोश बदमाश उठा कर ले गये। कुछ उसके बारे में बताइये, बेचारे बड़े गमगीन रहते हैं।'

-'बता देंगे...जो अल्लाह का हुक्म होगा वह बता देंगे। उन्हें बुलवाओ।'

-'नबी बख्श शायद इस वक्त न होंगे। हुक्म हो तो उनके साहबजादे को बुलवा लूं?'

-'बुलाओ।'

मन ही मन नजीर खुश हुआ। यह बात एकदम पक गई।

भटियारे ने अपने नौकर को सम्बोधित किया-'फैज मियां, जरा जाकर इलाही बख्श साहब को तो बुला लाओ। साथ ही ले आना।'

खुद भटियारा उन भिखारियों को खाना खिलाने लगा। जोश में उसने बढ़िया और तर माल परोसे।

कुछ देर बाद ही भटियारे का नौकर एक नौजवान को साथ लेकर आया।

जानबूझ कर नजीर ने दृष्टि नीची कर ली...मानो आन्तरिक उपासना में लीन हो।

भटियारा कह रहा था-'इलाहीबश साहब, दिल्ली के बड़े नामी...बड़े पहुंचे हुए मौलवी साहब किस्मत से मुझ गरीब की दुकान पर तशरीफ लाये हैं! मौलवी साहब यह हैं...।'

नजीर ने दृष्टि उठाई। मुस्कराया-'कुछ मत कहो। हम सब कुछ जानते हैं...सब कुछ पहचानते हैं। बेटे, अपने दोनों हाथ सामने कर लो।'

इलाही बख्श ने अपने दोनों हाथ सीधे करके आगे कर दिये।

हाथ देख कर नजीर ने चौंकने का अभिनय किया। फिर कुछ क्षण इलाही बख्श की सूरत को गौर से देख कर कहा-'हमें अफसोस है, हम बहुत कुछ बता सकते हैं लेकिन बता नहीं पायेंगे।'

रूआंसा-सा इलाही बख्श बोला-'मुझसे कुछ कुसूर हुआ बन्दा परवर?'

नजीर उठ कर खड़ा हो गया-'नहीं बेटे...ऐसी बात नहीं है। आलिमों की दुनिया में वह जो रूहानी दुनिया के बारे में कुछ समझते हैं, एक उसूल माना जाता है। हर आलिम अपने मुरीदों पर फरिश्तों का नेक साया रखने की कोशिश करता है। एक साया तुम्हारे ऊपर भी है...क्या तुम किसी फकीर के मुरीद हो?'

-'जी...जी हां खानदानी तौर से...!'

-'तुम किसी के मुरीद हो। यह साफ हम देख रहे हैं कि एक गलत साया तुम पर है। यह गलत साया तुम पर कैसे पड़ा...सवाल यही है। यकीनन कहीं न कहीं उसमें कमी है, जिसके तुम मुरीद हो। अब यह बात उसूल के खिलाफ होगी कि हम तुम्हें कुछ हकीकत बतायें। लेकिन फिर भी हम चाहते हैं कि तुम्हें कुछ ऐसा बतायें जिससे रंजो-गम दूर हो। जबान खोलने से पहले हमें अपने मुर्शिद से इजाजत लेनी होगी। अगर मुर्शिद ने इजाजत दी तो बेटे हम तुम्हें उसूल के खिलाफ भी कुछ बतायेंगे और कुछ ऐसा करेगे जो तुम्हारा रंजो-गम दूर हो। अब हमें इजाजत दो, खुदा हाफिज।'

-'लेकिन?' भटियारे ने टोका।

-'सुनिए तो बुजुर्गवार!'

नजीर कुछ कदम बढ़ा। फिर मुड़ा-'आज हम कुछ और न कह सकेंगे।'

-'क्या कल तशरीफ लाइएगा?' इलाही बख्श उत्सुकता से बोला-'मैं और मेरे अब्बा हुजूर ...दोनों आपका इन्तजार करेंगे।'

-'बेटे, हम फकीर कैसे कहें कि कल इधर आना होगा या नहीं!'

-'तब हुक्म हो, जहां बन्दानवाज का कयामगाह हो...वहां हम हाजिर हो जायेंगे।'

-'फकीरों की क्या कयामगाह! लेकिन कल दोपहर बाद बड़े इमामबाड़े के सामने हम नमाज पढेंगे। वहां आकर पूछ लेना।'

-'बहुत बेहतर। आदाब बजा लाता हूं।'

-'मेरा आदाब भी कुबूल हो।'

-'खुश रहो। खुदा तुम्हें हर बला से दूर रखे।'

और मौलवी साहब एक खास किस्म का रौब जमा कर चलते बने।

अभी सांझ ढलने में वक्त था।

लेकिन नजीर ने आज का काम बस यहीं समाप्त कर दिया।

वह फिर घर लौटा। उस कथित भानमती के पिटारे में वह वेष उतार कर रखा और वह वेश धारण किया जिसे युवक नजीर पहनता था।

अब शाम निकट थी।

बाहर नुक्कड़ पर तमोलिन से दो पान की गिलोरी लेकर मुंह मे दबाई और वह चल पड़ा गोमती की ओर।

लखनऊ के शाही महलात से लगभग एक कोस दूर।

यह कहलाता था अघोरी वाला श्मशान। किसी जमाने में यहां कोई अघोरी रहता था। परन्तु अब शमशान के निकट ही छोटा-सा हनुमान मन्दिर था। मन्दिर के साथ ही दो बीघे में छोटी सी बगीची थी। उसी के साथ गोमती के किनारे घाट की पक्की सीढ़ियां बनी हुई थीं।

अपने लखनऊ प्रवास में चतुरी पाण्डे शाम को यहां जरूर आते थे। हनुमान मन्दिर के पुजारी से खूब दुआ सलाम थी। दोस्ती भी थी, इसलिए कि पिश्ते बादाम किशमिश लेकर पाण्डे जी पहुंचते थे। भांग मन्दिर की बगीची में होती थी, सिल बट्टा चलाते थे पुजारी जी।

अभी कुछ देर पहले ही चतुरी पाण्डे वहां पहुंचे थे। खुश था पुजारी, आज रंगीन जो घुटनी थी। वह अपना सिल-बट्टा धोने लगा था। सामान उसे सौंप कर पाण्डे जी हाथ पांव धोने गोमती की ओर चले गये थे।

तभी पहुंच गया नजीर। वहीं जाकर गुरु के पांव छुए।

-'बड़ी जल्दी आ गए! आओ उधर बैठ कर बातें होंगी।' बगीची में एक हरसिंगार के वृक्ष के नीचे बैठते हुए पाण्डे जी ने पुजारी को पुकार कर कहा-'ओ पुजारी भैया! हल्की छनेगी, काम धाम कुछ नहीं है। बस इतनी चुटकी कि भूख बना दे।'

पुजारी ने उत्तर दिया-'जो हुक्म पाण्डे जी।'

-'हां बेटा...अब कहो।'

नजीर ने विस्तारपूर्वक आज दिन में जो कुछ किया था वह पाण्डे जी को बता दिया।

पूछा-'आज का काम ठीक हुआ न गुरु जी?'

-'बहुत ठीक हुआ बेटा। बात हमें बुढ़िया की जंची। किसी से जरूर नबी बख्श की अदावत होगी जो ऐसा बदला लिया। वरना पर्दे वाली लड़की थी, कौन ऐसी जोखम उठाता?'

-'बहरामशाह...?'

-'बहरामशाह हमारा जाना पहचाना है। माना कि धूर्त आदमी है, काली पीली आंखें दिखा कर लोगों से खूब पैसा ऐंठता है। गन्डे ताबीज भी खूब चलते हैं। अपना धन्धा खासा बना लेता है। लेकिन जब नबी बख्श उसका मुरीद है तो वह उसके साथ ऐसा नहीं कर सकता। उससे पैसा खींच सकता है...कुछ और भी कर सकता है, लेकिन ऐसा करने से उसे कोई फायदा नहीं हो सकता। बहरहाल कल मामले की तह इमामबाड़े में ही खोजो। नबी बख्श वहां होगा ही, कुछ और बातें निकालना उसके अन्दर से।'

-'जी जो हुक्म।'

-'लेकिन इन सब बातों के अलावा एक और बात भी है। यह कि बहरामशाह आदमी अच्छा नहीं है। उसकी भी उखाड़ होनी ही चाहिए।'

-'आपके चरणों की कसम गुरु जी, ऐसी ही इच्छा मेरी भी थी।'

-'तो फिर आज रात ही...!'

-'आप हुक्म इरशाद फरमायें।'

-'कुछ तरकीब ऐसी हो जाये कि...।' यकायक पाण्डे जी मुंह फेर कर बोले-'सुनते हो पुजारी भैया?'

-'हुक्म पाण्डे जी।'

-'भैया विजया एक चुटकी ज्यादा कर लेना। कुछ खाना हजम होने का काम दीख पड़ा है।'

पुजारी हंसा-'सो हम जानते हैं पाण्डे जी। लखनऊ आकर आराम से बैठना आपके भाग में बदा नहीं है।'

-'सो बात नहीं भैया पुजारी। लखनऊ आकर माल मिलते हैं एकदम तर। उन्हें हजम करने की तरकीब न करें तो अजीर्ण हो जाये। बस एक चुटकी ही बढ़ाना।'

कुछ देर पान्डे जी विचारपूर्ण मुद्रा में बैठे रहे।

-'आज रात...।'

-'गुरु जी आप चाहें तो आराम करें। मैं निपट लूंगा उससे।'

-'कैसे?'

-'अजी क्या मुश्किल है। जैसे ही सोफ्ता होगा...जड़ दूंगा दो-चार करारे हाथ। याद करेगा जिन्दगी भर।'

-'सो नहीं करना है।'

-'हर्ज ही क्या है?'

-'हर्ज है। देखो बेटा, जिस वन में सांप न हों वहां भी लाठी खड़खड़ाते चलने में बुराई नहीं होती। हाथ मारने वाली बात अच्छी नहीं है। देखो हम बताते हैं।'

-'फरमाइये।'

-'नवाब साहब ने एक बार नौटंकी की थी...इन्द्रसभा। राजा इन्द्र और सब्जपरी की मुहब्बत थी उसमें। लेकिन उस मुहब्बत में हमें मजा नहीं आया। हमें मजा आया काले देव और लाल देव में। गजब की शैतानी ताकत वाले दो इन्सान...कुछ ऐसा ही करना होगा। अरे भैया पुजारी?'

-'हां पाण्डे जी।' दूर से पुजारी ने पुकारा।

-'भैया तुम सच कहते हो। लखनऊ आकर वाकई दिमाग में फितूर उठता है...एक चुटकी और डाल लेना।'

पुजारी हंसा-'अब हमारी सुन लो पाण्डे जी।'

-'कहो।'

पुजारी अपने स्थान से उठा और निकट आकर बोला-'हम कहते हैं कि कुछ ऐसा बनेगा कि रात भर का जागरण होकर ही रहेगा।'

मुस्कराये पाण्डे जी-'क्या ज्योतिष सीख ली?'

-'ज्योतिष तो नहीं सीखी है, लेकिन पाण्डे जी को सीखा है। क्या पाण्डे जी लखनऊ में कभी रात को रात मान कर सोये हैं?'

पाण्डे जी हंस दिये-'सोने जो नहीं देता लखनऊ का पानी...क्या करें!'

-'फिर हमारी सुन लो।'

-'कहो...अपनी कहो।'

-'चुटकी-चुटकी बढ़ाने से काम नहीं चलेगा, अब तो गड़गच की ही छनने दो। वह तरंग आने दो जो नाक तक डुबा दे।'

-'जैसी तुम्हारी इच्छा।'

-'यह हुई न बात!' खुश होता हुआ पुजारी चला गया।

पाण्डे जी भी उठे-'सुन बेटा नजीर, गड़गच का मतलब है एक आदमी के हिस्से में एक पूरा अन्टा। तो आज यह अन्टा छनवा ही लूं, मेरा घोड़ा बन्धा है उसी पर चले जाओ और चौक के कूड़े हलवाई से आधा सेर रबड़ी ले आओ।'

-'अभी लाया।'

-'खाली पेट मत आना। पहले जाकर वहां मलाई की गिलौरी चखना और फिर रबड़ी लाना।'

-'जो हुक्म।'

पाण्डे जी ने गांठ की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि नजीर ने उनका हाथ पकड़ कर चूम लिया-'गुरु जी बस। शर्मिन्दा न करें।'

-'अच्छा भई अच्छा...तो जाओ। पुजारी का कहना भी नहीं टालेंगे, आज रात भर की ही नौटंकी होने दो। याद करेगा बहरामशाह भी कि कभी-कभी भूत झाड़ने वाले पर भी भूत आते हैं। छान कर तुम्हारे घर चलेंगे। फिर भानमती का पिटारा खोल कर सोचेंगे कि नौटंकी में क्या होगा! जाओ, हां तो पुजारी जी...!'

-'अब तो सिल पर पूरी पैदल पलटन उतर गई पाण्डे जी।'

-'कोई परवाह नहीं...तो आगे कर दो नशे को और होने दो धुंआधार।'

दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

नबी बख्श और उसका परिवार बहरामशाह का मुरीद था।

हर शबे रात को जब दिन ढल जाता, तारों की छांव होती तो नबी बख्श मय परिवार के कब्रिस्तान में शाह नसीर के मजार जाता। वही शुभ दिन था जब वह बहरामशाह का मुरीद हुआ था। उस दिन सारे मजार पर चिराग जलाये जाते। ग्यारह मोहर बहरामशाह को अर्पण की जाती और शीरनी के रूप में ढेरों मिठाई वहां पहुंचती।

शाह काले रंग की कफनी पहनता था, उम्र साठ पार कर चुकी थी। रंग एकदम काला था। आंखों में एक खास प्रकार की चमक थी जो मुरीदों को अधिक प्रभावित करती थी।

सांझ ढलने के बाद हर रोज उसके पास आधी रात तक जश्न मना करता था। साल के दिनों से कई गुना अधिक उसके मुरीद थे। इसके अतिरिक्त गन्डे ताबीज वगैरह भी वह तारों की छांव में ही बांटता था। मजार के निकट ही एक मजबूत घर उसने बनवा रखा था जहां वह अकेला रहता था। वैसे विरोधियों का यह भी कहना था कि हर रात उसके घर में कोई न कोई औरत भी होती है...कोई इलाज के बहाने, कोई मुराद पूरी कराने के बहाने। परन्तु मुरीद इस बात पर कभी विश्वास नहीं करते थे।

बहरामशाह ने कब्रिस्तान को खासी रौनक की जगह बना रखा था। सांझ होते ही भिखमंगे वगैरह वहां आ जुटते थे, खोमचे वालों की भी खासी बिक्री होती थी। रात के दूसरे पहर तक यह जश्न रहता था।

आज भी वैसी ही हालत थी।

रात का पहला पहर ढला तो मजार पर भीड़ कम होने लगी। वही मुरीद शेष रह गए जिनके पास सवारियां थीं। भिखारी जाने लगे, खोमचे वाले भी उखड़ने लगे।

दूसरा पहर आधा बीता तो अन्तिम मुरीद की पत्नी को सन्तान के लिए ताबीज देकर बहरामशाह ने धूनी में कटोरे का शेष लोबान उलट दिया। शमादान को उठा कर एक ओर रखा और उठते हुए सदा लगाई-'सब की खैर।'

इसका अर्थ था छुट्टी।

शाह ने एक हाथ में शमादान उठाया और दूसरे हाथ में छड़ी। वह थैली भी उठा ली जिसमें सोने और चांदी के वह सिक्के थे जो आज प्राप्त हुए थे।

मजार से उतर कर उसने फिर सदा लगाई-'सब की खैर।'

और मजार के पीछे बने अपने निजी आवास की ओर बढ़ गया।

जैसे ही वह मकान के दरवाजे पर पहुंचा और शमा की रोशनी दरवाजे पर पड़ी, वह चौंक पड़ा-'तू...?'

और साथ ही नारी कन्ठ का एक अट्टाहास गूंज गया।

शमा की लौ से बनने वाली धीमी रोशनी में एक युवती खड़ी थी, वह कई जगह से फटा हुआ पाजामा पहने थी। उसके पांव नंगे थे, वह जो कुर्ता पहने थी वो भी कई जगह से फटा हुआ था। न ओढ़नी थी और न पर्दे के लिए कुछ और कपड़ा। बाल इस तरह बिखरे हुए थे जैसे महीनों से कन्घी चोटी न हुई हो।

-'तू...तू पगली....फिर...?'

यकायक वह जोर से ठहाका मार कर हंस पड़ी।

बड़ी सावधानी से शाह तनिक पीछे हटा और जोर से आवाज लगाई-'छिद्दन।'

वह जो सचमुच पगली-सी लगती थी, जोरों से हंस रही थी...हंसे जा रही थी।

बड़ी सावधानी से शाह पीछे हटता जा रहा था। उसने फिर आवाज दी-'छिद्दन।'

यकायक यह हंसते-हंसते रुक गई और अजीब से नाटकीय अन्दाज में बोली-'शाह, तुम घबराते क्यों हो? मैं तो तुम्हारे पास मुराद लेकर आई हूं। एक ताबीज पढ़ कर मेरे गले में भी बांध दो। वल्लाह तुम तो डर रहे हो! शाह...शाह साहब मैं तो आपको फरिश्ता समझती हूं फरिश्ता...।'

शाह अब कई कदम पीछे हट चुका था।

इस बार उसने और भी जोर से आवाज लगाई-'छिद्दन।'

कहीं दूर से आवाज आई-'आया होत।'

अजीब बात थी कि शाह पगली को देख कर घबरा-सा गया था।

अब वह उससे कई कदम दूर हो गया था। बड़ी फुर्ती से वह मुड़ कर वापस मजार की ओर दौड़ना चाहता था कि तभी वह पगली यकायक चीते की फुर्ती से उछली और झपट कर शाह को गिरा दिया।

शमा जमीन पर गिरी और बुझ गई।

उसने उठने की असफल चेष्टा की, परन्तु गजब की फुर्ती से पगली उसकी छाती पर जा कूदी और चीते की तरह गुर्रा उठी।

पगली युवती के दोनों हाथों ने शाह की गर्दन दबोच ली थी। पूरी शक्ति से शाह प्रतिरोध करता हुआ चिल्लाया-'छिद्दन!'

-'चुप चुप...ओ शाह, ओ फरिश्ते चुप...मैं तेरा गला दबाऊंगी और फिर इन नाखूनों से तेरा सीना चाक करूंगी। फिर तेरा खून पिऊंगी। यही मेरी दवा है, जब मैं तेरा खून पी लूंगी तब मैं कोख वाली होऊंगी। तब मैं औलाद जनूंगी...खून...खून...।'

गजब की ताकत थी उस पगली की उंगलियों में।

शाह के प्रतिरोध के बावजूद उसका गला पगली की उंगलियों की लपेट में आ गया था। ऐसे जैसे उंगलियां फौलाद की बनी हुई हों!

शायद शाह की जीवन लीला ही समाप्त हो जाती कि तभी हाथ में मशाल लिए एक हष्ट-पुष्ट व्यक्ति वहां आ पहुंचा।

यह था छिद्दन, मजार का तन्खाहदार सेवक। जैसे ही उसने वह दृष्य देखा, मशाल एक ओर फेंक कर फुर्ती से शाह की एक ओर को पड़ी हुई छड़ी उठा ली और बड़ी ही बेरहमी से पगली की कलाइयों पर मारी।

-'हाय जालिम...हाय!' पगली चीखी।

वह ताबड़-तोड़ उस वक्त तक उसके हाथों पर, पीठ पर छड़ी बरसाता रहा जब तक कि वह हाय तौबा करती एक ओर को न लुढ़क गई।

हांफता-सा शाह उठा।

पगली एक ओर लुढ़कती-सी कह रही थी-'मर गई...मार डाला जालिम...मार डाला।'

छिद्दन ने छड़ी शाह को थमाते हुए कहा-'हुजूर, आखिर यह कमबख्त कहां से आन मरी? आपने तो इसे कोतवाल साहब के सुपुर्द करवा दिया था। इसके देवर ने वायदा किया था कि वह इसे कहीं दूर छुड़वा देगा।'

-'मैं कुछ नहीं जानता।' शाह ने हांफते हुए कहा-'मैं कुछ नहीं जानता। उफ यह कमबख्त पगली तो आज मेरी जान ही ले लेती! छिद्दन, इस शैतान की बला को मेरे सामने से दूर ले जाओ। इसे बांध दो...खूब कस कर बांध दो।'

-'आप बेफिक्र रहिए शाह साहब। मैं ले जाऊंगा इसे सुबह कोतवाल साहब के पास।'

बड़ी बेरहमी से छिद्दन ने उस पगली की बांह पकड़ी और घसीटता हुआ ले गया।

शाह ने अपनी छड़ी उठाई। पड़ी हुई मशाल से शमादान की शमा को फिर जलाया। रकम की थैली उठाई और घर के दरवाजे पर पहुंच कर शीघ्रतापूर्वक ताला खोला।

अन्दर घर में प्रविष्ट होकर जब शाह ने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया तो अपने आपको पूर्ण संयत अनुभव किया।

उसने छड़ी दरवाजे के निकट रख दी और शमा को सहन में रखते हुये अपनी सदा लगाई  -'सबकी खैर।'

परन्तु आज बेचारे शाह की खैर नहीं थी।

खूब गुड़गच की भांग चढ़ा कर पाण्डे जी ने पुजारी के साथ खुश्की मिटाने के लिए रबड़ी खाई और इसके बाद उन्होंने चुपचाप नजीर को कुछ आदेश दिये।

नजीर पाण्डे जी का घोड़ा लेकर चला गया और इसके बाद पाण्डे जी पैदल घूमते हुये जब कब्रिस्तान के निकट के जंगल में पहुंचे तो रात हो चुकी थी।

वहीं उस जंगल में एक टूटा-फूटा पुराना कुआं था, जहां नजीर घोड़े पर एक बड़ी सी पिटारी लादे उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।

पाण्डे जी ने पहुंच कर घोड़ा एक ओर बंधवा दिया। पिटारी में से नजीर ने दो चमड़े के बने हुए विचित्र से लबादे निकाले। अजीब थे यह लबादे भी। एक लबादा सम्पूर्ण शेर की खाल का बना हुआ था। कई जगह उस लबादे में तस्मे और बटन लगे हुए थे। यह लबादा पाण्डे जी ने अपने बदन पर पहना। सारा लबादा जिस्म से चिपका जा रहा और मुंह पर कपड़े के योग से ऐसा कुछ उस लबादे पर लगा हुआ था कि पास से देखने पर भी वह कंकाल का मुंह जैसा लगता था। शेर की खाल से बने इस लबादे में लंगूर की पूछ जुड़ी हुई थी।

इसी तरह का दूसरी लबादा था, जिसमें पूंछ तो लंगूर की जुड़ी हुई थी परन्तु लबादा बना हुआ था रीछ की खाल का। यह लबादा नजीर ने पहना।

दोनों अजीब और भयानक लग रहे थे। चेहरे ऐसे जैसे कंकाल का मुंह हों!

पीछे पूंछ, लेकिन दुपाए।

-'ठीक है?' पाण्डे जी ने पूछा।

-'बिल्कुल ठीक है।'

-'तो फिर आओ।'

दोनों घोड़े को वहीं छोड़ कर चल पड़े। कब्रिस्तान की दीवार एक जगह से टूटी हुई थी, वहीं से वह दोनों कब्रिस्तान में प्रविष्ट हुए। सारा कब्रिस्तान अन्धकार में विलीन था, केवल उस भाग में रोशनी थी जहां शाह नसीर का मजार था।

रोशनी से दूर कब्रिस्तान की परिक्रमा करते हुए वह दोनों मजार के पीछे बहरामशाह के घर पर जा पहुंचे। दरवाजे पर ताला बन्द था, परन्तु ताले और दरवाजे की चिन्ता उन्हें नहीं थी। एक नीम का पेड़ मकान के साथ ही था। उसी के सहारे वह दोनों घर की ऊपरी दीवार फांद कर अन्दर सहन में जा पहुंचे।

छोटा सा किन्तु पुख्ता घर था।

अन्दर एक ही कमरा था और उस कमरे का भी ताला लगा हुआ था।

दोनों आराम से सहन में रखे तख्त पर बैठ गए। इधर-उधर की बातें भी धीमे-धीमे होने लगीं।

समय बीतता गया।

फिर उन्होंने ऐसा अनुभव किया जैसे दरवाजे को कोई धकेल रहा हो। दोनों सांस रोक कर प्रतीक्षा करने लगे...परन्तु दरवाजा खुला नहीं।

उन्होंने सबकी खैर की कई सदा सुनीं। इसके बाद उन्होंने कुछ आवाजें सुनीं। पगली के कहकहे सुने और शाह की पुकार सुनी।

इसके बाद जब दरवाजा खुला तो दोनों दरवाजे से सटे खड़े थे।

जब शाह ने शमादान सहन में रखा, तब भी दोनों दरवाजे की दीवार के साथ सटे ऐसे खड़े थे जैसे पत्थर के बुत हों!

शाह ने अन्दर वाले कमरे का दरवाजा खोला और दरवाजा खोलने के बाद जब वह सहन में रखे शमादान को उठाने के लिए बढ़ा तो दोनों ही सहन में उस खुले दरवाजे के अन्धकार में जा पहुंचे।

शमादान हाथ में लिये शाह अन्दर उस विशाल कक्ष में पहुंचा। जहां सजावट आदि की कीमती चीज थी और कमरे के बीचों-बीच एक चांदी मढ़े तख़्त पर मुलायम बिस्तरा बिछा हुआ था।

शाह ने यह दरवाजा भी अन्दर से बन्द कर लिया था, उसके हाथ में शमादान अब भी था। बिल्कुल बेफिक्र सा शाह झुका और फर्श के एक स्थान से उसने कालीन हटा दिया।

फर्श में बना दरवाजा।

उस दरवाजे का पल्ला खोल कर शाह नीचे को झुका। यह सीढ़ियां थीं...शमादान हाथ में लिए ही वह उतर गया।

उसके पीछे ही वह दोनों भी उतरे और लगभग दस सीढ़ियां उतर कर ठिठक गए।

यह छोटा-सा तहखाना था जो केवड़े के इत्र से महक रहा था।

इस तहखाने में दो मजबूत सन्दूक रखे थे और एक ओर कई मन वजन के तांबे के सिक्कों का ढेर लगा हुआ था।

बहरामशाह ने वह दोनों लकड़ी के सन्दूक खोले। एक में सोने के सिक्के थे। दूसरे में चांदी के सिक्के थे। तांबे के सिक्कों का ढेर पड़ा ही था।

आज की कमाई की थैली शाह के हाथ में थी। वह उसमें से सिक्के छांट रहा था।

-'देखा काले देव?'

-'खूब देखा।'

-'खजाना।'

-'लेकिन खजाने के बीच...?'

-'जिन्न।'

-'पहले जिन्न को दफनाओ।'

-'फिर खजाना उड़ाओ।'

बहरामशाह को काटो तो खून नहीं!

शमादान नीचे फर्श पर रखा था। धीमी रोशनी, जिस पर बुढ़ापे की आंखें।

दो अजीब-सी सूरतें।

दो अजीब से जानवर।

भय से बहराम ऐसा स्तब्ध हुआ कि चीख भी ना सका। उसने आंखें मूंद ली और लड़खड़ा-सा गया।

-'काले देव।'

-'हां लाल देव।'

-'शैतान मर रहा है।'

-'मरते को सीधे जहनुम भेज दूं?'

-'फौरन रसीद लिखो।'

रीछ की खाल के लबादे में नजीर झपटा और बहरामशाह को उठा कर धड़ाम से तांबे के सिक्कों पर दे मारा।

-'गीगीं गीगीं।' कुछ इस प्रकार की आवाज उसके मुंह से निकली।

नजीर उसे उठा रहा था और पटक रहा था। इसी दौर में पाण्डे जी ऊपर गये, बिस्तरे पर से एक चादर उठा लाये।

शायद भय से या फिर किसी चोट से शाह अचेत-सा हो गया था। दोनों ने मिल कर आनन-फानन में उसे चादर में बांध दिया।

-'काले देव।'

-'हुक्म लाल देव।'

-'ऊपर से कोई बड़ा-सा कपड़ा लाओ और चांदी सोने के सिक्के उसमें बांधो।'

तुरन्त ही दो गठरियां तैयार हो गईं।

एक गठरी थी सोने चांदी के सिक्कों की। अपेक्षाकृत छोटी किन्तु वजनी। दूसरी गठरी शाह की थी ही।

शाह की गठरी को वहीं छोड़ा गया। नजीर ने वह गठरी उठा ली। दोनों तहखाने से ऊपर आये और फिर बाहर से शाह के घर की कुन्डी चढ़ा दी।

-'बेटा नजीर।'

-'जी गुरु जी।'

-'इस गठरी को लेकर तुम अड्डे पर पहुंचो। मैं जरा मजार का चक्कर लगाते हुए आता हूं।'

नजीर अंधेरे की ओर बढ़ गया। पाण्डे जी मजार की ओर बढ़ गए।

इघर छिद्दन ने अभी-अभी पगली को खूब कस पर रस्सी से बांध दिया था और चिलम भरने की तैयारी करता हुआ उस पगली से दूर अलाव के निकट बैठा था।

पाण्डे जी ने उस पगली को उठा कर कंधे पर लाद लिया।

पगली छटपटाई, परन्तु कुछ बोल न सकी। इसलिये कि उसका मुंह भी पट्टी से खूब जकड़ कर बंधा हुआ था।

छिद्दन अपनी चिलम भरता रहा। मजार पर जलते हुए दिये और अलाव की रोशनी से दूर अंधकार में लिपटी हुई कब्रों की राह पाण्डे जी थोड़ा फेर खाते हुए कब्रिस्तान के दरवाजे से ही कब्रिस्तान की सीमा से बाहर निकले।

उसी पुराने कुएं पर जहां घोड़ा बंधा था, नजीर उनकी राह देख रहा था।

पाण्डे जी ने आदेश दिया-'बेटे रोशनी करो।'

नजीर ने आस-पास के सूखे पत्ते और घास आदि एकत्रित करके चकमक के सहारे आग जलाई। सर्दी का मौसम था, थोड़ा समय लगा।

पहले दोनों ने अपने लबादे उतार कर ठीक सूरत बनाई।

फिर पाण्डे जी ने उस युवती के बंधन खोले।

मुंह की पट्टी खोलते ही वह पगली फूट-फूट कर रोने लगी।

-'बेटी तुम कौन हो?' पाण्डे ने पूछा।

यकायक उसने पाण्डे जी की ओर गौर से देखा।

-'कौन हो बेटी तुम?'

-'पगली।' वह हंस पड़ी।

-'तुम्हारा नाम क्या है?'

-'धत्! पगली का भी कोई नाम होता है?'

-'तुम्हारे वालिद हैं बेटी?'

वह हंसती रही।

-'तुम्हारे भाई हैं?'

उसने जवाब नहीं दिया।

-'तुम्हारे शौहर हैं?'

यकायक पगली चीख कर रो पड़ी।

मजबूर से पाण्डे बोले-'बेटे।'

-'जी।'

-'तुम घोड़ा लेकर घर जाओ। इससे पहले शाह की हराम वाली दौलत यहीं कहीं गड्ढा खोद कर दबा दो। मैं चलता हूं, कुछ बातें सुनी थीं न कोतवाल हाशिम खां इसे जरूर पहचानता होगा। इस बेचारी को इसके घर पहुंचवा देना ही ठीक होगा, नहीं तो नाहक ही मर जायेगी।'

पाण्डे जी ने पगली की कलाई थामी और चल पड़े।

नजीर ने अपनी कमर से बंधी कटार से उस दौलत के लिए छोटी सी कब्र खोदी और सोने चांदी के सिक्कों की गठरी उसमें दफन कर घोड़े पर सवार हो गया।

राह में गुरु को पैदल शहर की ओर जाते देख कर उसे खेद तो हुआ, परन्तु अपनी आज्ञा का उल्लंघन गुरु को पसन्द नहीं था।

यह घोड़े पर घर पहुंच गया।