12 मई : मंगलवार
दस बजे के करीब एक स्विफ्ट' ख़ुद ड्राइव करती एक अतिसुन्दर महिला कूपर कम्पाउन्ड पहुँची।
कम्पाउन्ड में उस घड़ी सन्नाटा था। युवती ने हार्न बजाया। इरफ़ान बाहर निकला और कार के करीब पहुँचा। विमल तुका के घर में तब भी सोया पड़ा था। शोहाब तो अपनी ड्यूटी से लौट कर सोता ही था।
आदतन इरफ़ान ने महिला का अभिवादन किया। महिला कार से बाहर निकली। तत्काल इरफ़ान के चेहरे के भाव बदले।
“लगता है मेरे को पहचाना!” – वो बोली। इरफ़ान ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“शनिवार रात। जुहू रोड। बंगला नम्बर सात। तुम कैब ड्राइवर, जो तब एक पैसेंजर को, हमारे गैस्ट को, उधर लाया। पूछता था अगर गैस्ट को उधर अभी ज्यास्ती टाइम ठहरना था तो तुम खाना खा कर आए। क्या?”
इरफ़ान ने फिर सहमति में सिर हिलाया।
“तभी तुम भी मेरे को पहचाना! क्या? अभी मुंडी नहीं हिलाने का।”
“हाँ।”
“उस रात पैसेंजर को किधर छोड़ा?”
“याद नहीं।”
“क्या बोला?”
“अक्खा दिन पैसेंजर ढ़ोता है, बाई। कोई एक पैसेंजर वो भी तीन दिन पहले का – कैसे याद रहेगा?”
“उस पैसेंजर को इधर न लाया?”
“काहे वास्ते?”
“तुम बोलो।”
“शनिवार को याद नहीं किधर पहुँचाया पैसेंजर को, पण ये बरोबर याद कि इधर न पहुँचाया। इधर उसका क्या काम!”
“शायद हो!”
“नहीं, कोई काम नहीं।”
“शायद ...”
“बाई, तुम बोलो न, तुम इधर काहे वास्ते आया? मेरे को पहचाना न होता तो क्या काम था तुम्हेरा इधर?”
“तुम इधर रहते हो?”
“हाँ।”
“तुम और और कौन?”
“एक भीड़ साथ में रहता है, होटल में नाइट ड्यूटी करता है इस वास्ते अभी सोता है।”
“बस?”
“उधर सामने एक केयरटेकर रहता है।”
“वो भी सोता है?”
“इत्तफाक से, हाँ।”
“इतने बड़े कम्पाउन्ड में खाली तीन भीडू?”
“अब . . . ऐसीच है।”
“तुम्हारा ख़ास पैसेंजर किधर रहता है?”
“वो कौन है?”
“तुम्हें नहीं मालूम?”
“नहीं।”
“तुम्हारा शनिवार रात का पैसेंजर, जो तुम्हारी कैब पर सवार जुहू रोड, बंगला नम्बर सात पर पहुँचा था।”
“पैसेंजर जिधर बोलेगा, उधर पहुँचाएगा न! डिरेवर का वो ख़ास काहे वास्ते होयेंगा?”
“पैसेंजर पुरानी जान-पहचान वाला हो तो अपने आप ख़ास बन जाता है।”
“बाई, इधर पहेलियाँ बुझाने आया तो टेम वेस्ट करता है अक्खा।”
“तुम्हारे ख़ास पैसेंजर का मुकाम कभी उधर सामने तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट में होता था।”
“ट्रस्ट अब बन्द है।”
“जब चलता था तो होता था?”
“होता होयेंगा। अभी इस बाबत मेरे को कोई वाकफ़ियत नहीं।”
“उधर कौन रहता है?”
“बाई, मैं पहले ही बोला, केयरटेकर रहता है।”
“जो दस बज गया, अभी भी सोता है?”
“हाँ।”
“जगाओ। इधर बुलाओ।”
“काहे वास्ते?”
“मेरे को उस से बात करने का।”
“क्या बात करने का?”
“बोलूँगी न!”
“अभी बोलो।”
“अरे, कहना मानो....”
“वो तुम्हेरे से कोई बात नहीं करना माँगता।”
“तुम्हें क्या पता?”
“है न पता!”
“मैं खुद जाती हूँ वहाँ।”
“नहीं जा सकोगी।”
“कौन रोकेगा?”
“जो सामने दिखाई दे रयेला है। ऐसी कोई ज़बरदस्ती करने का तो अगली बार चार-पाँच भीड़ साथ लाना।”
“उन से अकेले निपट लोगे?”
“देखना।”
वो कसमसाई, उसने बेचैनी से पहलू बदला। “देखो” – फिर नर्म लहजे से बोली – “मैं किसी वजह से यहाँ आई हूँ।”
“वो तुम्हेरे बोले बिना भी ज़ाहिर है।”
“पूरी तरह से नहीं ज़ाहिर है। गौर से सुनो मेरी बात। नौ मई, शनिवार रात को जो पैसेंजर तुम्हारी कैब में ट्रेवल करता था, मिस्टर जाधव उस से मिलना माँगता है।”
“कौन मिस्टर जाधव?”
“जो उस रात जुहू रोड के बंगला नम्बर सात में मेरे साथ मौजूद था।”
“तुम कौन?”
“मिसेज जाधव।”
“क्या माँगता है मिसेज जाधव?”
“मिसेज जाधव कुछ नहीं माँगता, जो माँगता है मिस्टर जाधव माँगता है और मैंने अभी बोला मिस्टर जाधव क्या माँगता है।”
“मेरे शनिवार रात के पैसेंजर से मिलना माँगता है?”
“हाँ। मेरे पास उसके लिए पैगाम है।”
“क्या?”
“तुम्हारा पैसेंजर शनिवार रात जुहू रोड पहुँचने से पहले बान्द्रा, हिल रोड पर ‘शंघाई मून’ में मौजूद था क्योंकि वो मिस्टर क्वीन से मिलना माँगता था।”
“तुम्हेरे को कैसे मालूम? यही कैसे मालूम तब वो मिस्टर क्वीन से मुलाकात का तमन्नाई बना ‘शंघाई मून’ नाम के किसी फैंसी ठीये पर मौजूद था?”
“वो बातें अब छोड़ो तुम। जिस पैगाम का मैंने ज़िक्र किया, वो सुनो।”
“सुनता है।”
“ये एक मोबाइल नम्बर है।”
महिला ने एक छोटी-सी पर्ची जबरन इरफ़ान को थमाई – “इसको आगे पास ऑन करने का। पहले तुम्हारा पैसेंजर मिस्टर क्वीन से मिलने का तमन्नाई था, अब मिस्टर क्वीन ख़ुद तुम्हारे पैसेंजर से मिलना माँगता है और यकीन मानो, उस मुलाकात में दोनों का बहुत बड़ा फायदा छुपा है।”
“क्या फायदा?”
“मिस्टर क्वीन ख़ुद बोलेगा। अगरचे कि तुम्हारे पैसेंजर को इस मोबाइल नम्बर पर फोन लगाना कुबूल हुआ।”
“कुबूल हुआ तो दूसरी तरफ से कौन बोलेगा? मिस्टर क्वीन या मिस्टर जाधव?”
“मालूम पड़ेगा न! तुम्हारा पैसेंजर कॉल लगाएगा तो ....”
“बाई, तम बार-बार ‘मेरा पैसेंजर, मेरा पैसेंजर’ बोलता है, क्लियर क्यों नहीं करता क्या है तुम्हेरे मगज में?”
“कॉल आने दो, एकीच बार में सब क्लियर होगा।”
फिर तत्काल वो घुमी, कार में सवार हुई और कार यह जा वह जा। इरफ़ान कुछ क्षण माथे पर बल डाले खड़ा रहा, फिर अहाता पार कर के तुका के मकान की कॉलबैल बजाने लगा।
दरवाज़ा खुला। विमल ने एक उड़ती निगाह इरफ़ान पर डाली फिर सहमति में सिर हिलाता वापिस कहीं गायब हो गया।
इरफ़ान को इतना ही पता लगा कि वो नहा कर हटा था और कॉलबैल के जवाब में कमर के गिर्द तौलिया लपेटे दरवाज़े पर आया था। पाँच मिनट बाद विमल तरीके से उसके सामने मौजूद था।
“क्या हुआ?” – वो बोला।
“कौन बोला कुछ हुआ?” – इरफ़ान बोला।
“बच्चे न पढ़ा, यार! जो तेरे माथे पर लिखा है, उसकी जुबानी तर्जुमानी क्या ज़रूरी है?”
“नहीं। बाप, तभी तो तू उस्ताद है और हम तेरे शागिर्द हैं।”
“ओके! ओके! अब बोल, क्या हुआ?”
इरफ़ान ने तफ़सील से तमाम किस्सा बयान किया।
“हूँ।” — वो ख़ामोश हुआ तो विमल बोला – “इसका एक की मतलब मुमकिन हैं।”
“क्या?” – इरफ़ान उत्सुक भाव से बोला।
“मैं वहाँ पहचान लिया गया था। वहाँ मेरा जेम्स दयाल वाला न तआरूफ़ चला था, न हुलिया चला था।”
“फिर भी कुछ न किया!”
“क्या करते? मुझे गिरफ्तार करा कर पाँच पेटी ईनाम पर अपना दावा खड़ा करते?”
“ऐसा तो न करते! कुछ करते तो वो खुद करते जो उस माहौल में वो कर न पाए होते।”
“ठीक!”
“पण जो काम, जो ख़ास काम, वो भीड़- मिस्टर जाधव – हेरोइन स्मगलर जेम्स दयाल को सौंपना माँगता था, उस बाबत सोहल से कोई बात क्यों न की जब कि तू बोलता है वो पहचान गया था कि तू ही सोहल था!”
“माहौल नहीं था तब। मुमकिन है वो बात अब हो!”
“बाप, ये बात मगज में रख के जवाब दे कि उस बाई ने एक बार भी सोहल का नाम नहीं लिया था, ‘मेरा पैसेंजर, मेरा पैसेंजर’ ही भजती रही थी।”
“क्योंकि उसे पूरा-पूरा अन्दाज़ा था कि तेरा पैसेंजर कौन था?”
“ओह!”
“वो सोहल के लिए मैसेज छोड़ने आई थी, और बहुत होशियारी से छोड़कर गई थी।”
“कैसे सोच लिया उसने कि सोहल इधर पाया जाता था?”
“अन्दाज़ा लगाया। सोहल की थोड़ी-सी भी वाकफ़ियत रखने वाले को सोहल की ज़िन्दगी में कूपर कम्पाउन्ड की अहमियत की ख़बर होती है। वो अन्दाज़न इधर आई, फिर तेरे रूबरू हुई और उसने तेरे को पहचान लिया तो उसके अन्दाज़े को पुख्ता बुनियाद मिल गई।”
“हम्म! फोन करेगा?”
“सोचेंगे। अभी क्या जल्दी है! उस भीड़ ने शनिवार से मंगल कर दिया ...”
“किस भीड़ ने? मिस्टर क्वीन ने या मिस्टर जाधव ने?”
“दोनों एक ही निकलेंगे। साफ तो हिंट वो छोड़ के गई!”
“ठीक! तो जब मैंने टोका तो त कह रहा था ....”
“हाँ। मैं कह रहा था कि जब उस भीड़ ने अपना पासा फेंकने में तीन दिन लगा दिए तो इतना टाइम तो हमें भी मिलना चाहिए!”
“ये फैसला तू ही बेहतर कर सकता है, अभी मेरी सुनने का।”
“बोल!”
“तेरा अब इधर रहना ठीक नहीं।”
“अच्छा !”
“हाँ। पहले वो पुलिस इंस्पेक्टर आ गया बड़ी पिराब्लम खड़ी करने, अब वो बाई आ गई सोहल की सूंध लेती। आगे पता नहीं और कौन पहुँचेगा! बाप, हम तो भुगत लेंगे पण सोहल के लिए ऐसा खुल्ला दरबार ठीक नहीं।”
“कहाँ जाऊँ? सलाह दे कोई!”
“तेरे को मैं सलाह दे? इतनी औकात हो गई मेरी?”
विमल हँसा।
“जो नया ठिकाना मगज में आए, उसकी ख़बर करना खाली, अभी ये बोल, कल जो इंस्पेक्टर इधर इतना कड़क बोल के गया, दो दिन बाद फिर आने की सख्त धमकी छोड़ के गया, आएगा कल? ये सोच के जवाब देना कि तू पुलिस कमिश्नर जुआरी साहब को जो फरियादी मेल लगाया. उसका कोई जवाब तो आया नहीं.”
“बड़े लोग ‘नेकी कर दरिया में डाल वाली मसल पर अमल करते हैं।”
“क्या मतलब हुआ इस फैंसी बात का?”
“कल तक इन्तज़ार करना होगा। कल अगर इंस्पेक्टर इधर आ गया तो मतलब होगा कि अपनी मसरूफ़ियात में कमिश्नर साहब हमें भूल गए, न आया तो मतलब होगा कि उसकी कल की शेड्यूल्ड विज़िट पर रोक कमिश्नर साहब के ही इशारे पर लगी।”
“आ गया तो इधर केयरटेकर की गैरहाज़िरी की भी कोई सफाई देनी होगी!”
“बोला तो था कि तनखाह पर नहीं, आनरेरियम पर काम करता था। कहीं तनखाह वाली नौकरी मिल गई, फूट लिया।”
“तो आगे केयरटेकर कौन?”
“कोई नहीं।”
“उधर फोन बजता है! लैंड लाइन!”
“मेरे वहाँ रहना शुरू करने से पहले नहीं बजता था?”
“उस फोन पर कॉलर आइडेन्टिटी का इन्तज़ाम है। पहले बजता था तो कभी सुन लेते थे, कभी कॉल बैक करते थे, कभी जाने देते थे।”
“अभी इस इन्तज़ाम में कोई प्रॉब्लम?”
“पिराब्लम तो कोई नहीं पण . . .”
“केयरटेकर होना?”
“हाँ।”
“ठीक है। इन्तज़ाम करना।”
“मैं आकरे से बात करेगा।”
“बढिया। ज्वेलर का फोन वापिस कर आया?”
“कल ही कर आया था। ज्वेलर एक बात बोला जिसका कोई मतलब तेरे मगज में आए तो बोलना।”
“क्या बात?”
“कल तेरे से बिग बॉस की बात होने के बाद भाई लोगों का एक भीड़ मैरीन ड्राइव ज्वेलर के पास पहुँचा और उसको बोल के गया कि उसने डॉक्टरों जैसे आधी बाँह के सफेद कोट का इन्तज़ाम कर के रखना था।”
“उसने? ज्वेलर ने? कालसेकर ने?”
“हाँ।”
“क्यों?”
“ज्वेलर ने पूछा था। जवाब मिला क्योंकि वो बहुत मोटा था, क्योंकि उस के साइज़ का वैसा कोट रेडीमेड नहीं मिलता था। उसने खड़े पैर वैसा कोट सिलवाना था।”
“क्यों?”
“बाप, सोच। या मगज तभी काम करता है जब तू बिरेकफास्ट कर चुके?”
“डॉक्टरों जैसा कोट!” – विमल के माथे पर बल पड़े– “ौरमामूली नाप का! कुछ पड़ा तो सही मगज में!”
“क्या ?”
“एम्बूलेंस!”
“क्या बोला?”
“एम्बूलेंस! या मुर्दागाड़ी! हर्स! बिग बॉस ने फोन पर हुक्म जारी किया था – जिसकी बाद में मैंने ज्वेलर को ख़बर की थी कि वक्त आने पर फॉरेन करेन्सी में तमाम रोकड़ा रात की जगह दिन में, रश आवर में, शिवाजी चौक ढोया जाना था। पहले तो हक्म हआ था कि ये काम ज्वेलर खद करे फिर बिग बॉस ने लिहाज़ किया था और कहा था कि ज्वेलर के साथ उसके भीड़ भी होंगे जो वक्त आने पर ज्वेलर को मैरीन ड्राइव उसके शोरूम में रिपोर्ट करेंगे। यानी डॉक्टरों वाला सफेद कोट पहने ज्वेलर को मिलाकर एक से ज़्यादा जने होंगे। मुर्दागाड़ी में डॉक्टर की ज़रूरत नहीं होती – कभी ज़रूरत समझी भी जाए तो एक डॉक्टर काफी होता है। इसलिए एम्बूलेंस, केस के मुताबिक जिसमें कितने भी डॉक्टर हो सकते हैं। ज्वेलर के रोकड़े के साथ होने की शर्त है इसलिए वो भी डॉक्टर। इसलिए उसके साइज का आधी बाँह का सफेद कोट उसको भी माँगता है जिसका खुद इन्तज़ाम करने का उसको हुक्म है।”
“इसलिए एम्बूलेंस!”
“हाँ।”
“हो। हमेरा उससे क्या मतलब?”
“हो। सकता है मतलब। शुक्रवार से पहले हम एम्बूलेंस का कोई इन्तज़ाम कर सकते हैं?”
“नहीं भी कर सकते तो, बाप, तू बोलता है तो करना पड़ेगा। पण एम्बूलेंस! मेरे मगज से बाहर है।”
“अरे, कोई तो गाड़ी हमें दरकार होगी या नहीं?”
“होगी। जैसे...”
“फिर एम्बुलेंस में क्या हर्ज है?”
“तु बोलता है तो...”
“मैं बोलता हूँ।”
“... तो कोई हर्ज नहीं।”
“कहाँ से मिलेगी?”
“ऐसे कामों के लिए है न एक पहले से परखा हुआ ठिकाना? भूल गया?”
“अवधूत गैराज, अन्धेरी!”
“बोले तो नहीं भूल गया।”
“अवधूत हैल्प करेगा?”
“क्यों नहीं करेगा? पहले भी तो किया जब दफेदार ऊँचा उड़ता था! आखिर तुका का दोस्त था। अभी तेरा भी दोस्त है। क्यों नहीं करेगा?”
“तेरा अहसान मानता है कि तेरी वजह से दफेदार से उसका पीछा छूटा था जो हफ्ता भी वसूलता रहा फिर भी दो बार उसके जुए के अड्डे को तबाह कर गया।”
“अभी तीसरी बार चलता है जुआघर?”
“पता नहीं। हमेरे को पता कर के लेना भी क्या है!”
“ठीक! बात करना अवधूत से। तुम्हारी न सुने तो मैं साथ चलूँगा।”
“मेरी ही सुनेगा।”
“बढ़िया।”
“आगे का क्या पिरोगराम है?”
“अभी कोई नहीं। होगा तो ख़बर करूँगा।”
“करना। पण जब मेरा पैसेंजर’ मिस्टर क्वीन से बात करे तो मेरी मौजूदगी में करे। बरोबर?”
“बरोबर।”
“अभी जाता है। बिरेकफास्ट का इन्तज़ाम करता है।”
“जाना। करना। पर एक बात का जवाब दे के जा।”
“बोलो, बाप!”
“मैं जब से मिला हूँ, मेरे को ढो रहा है। रिजक कमाने के लिए टैक्सी कब चलाता है?”
“मुश्किल सवाल है, बाप! बदले में दो आसान सवाल पूछे तो?”
“जवाब दे, भई!”
“बाप, सच में सवाल मुश्किल। जवाब सोच के देता है। शोहाब उठे तो उससे मशवरा कर के देता है। अभी जवाब के लिए टेम दे।”
“वैसे इस प्रॉब्लम का एक हल है मेरे ज़ेहन में।”
“क्या?”
“मैं कार रेंटल एजेन्सी से एक कार किराये पर लेता हूँ और आइन्दा उसे खुद ड्राईव करता हूँ।”
“करना। इरफ़ान फिर भी साथ होना।”
“कैसे साथ होना? मैं ड्राइवर, तू पैसेंजर?”
“अभी छोड़ न, बाप! जैसा चलता है, चलने दे। एण्ड” – इरफ़ान शान से बोला – “दैट्स फाइनल।”
विमल खामोश हो गया।
ग्यारह बजे के करीब जेकब परेरा शिवाजी चौक पहुँचा।
सामने, ट्रस्ट के, ऑफिस से उसने दरयाफ़्त किया तो मालूम पड़ा कि कुबेर पुजारी किसी भी क्षण पीछे अपने ऑफिस में अपेक्षित था।
इन्तज़ार में परेरा वहीं रिसैप्शन पर बैठ गया। किसी ने ऐतराज़ न किया। पहलू बदलते परेरा इन्तज़ार करने लगा।
आखिर चपरासी मानक ने उसके कन्धे पर दस्तक दी और सहमति में सिर हिलाया।
शुक्र मनाता परेरा उठ खड़ा हुआ और बाहर की ओर बढ़ा। पिछवाड़े के ऑफिस में जाने के लिए रास्ता उधर से भी था लेकिन उसको इस्तेमाल करने की इजाज़त हर किसी को नहीं थी।
वो हर कोई था – उसने वितृष्णापूर्ण भाव से सोचा, फिर उसके मिज़ाज में दृढ़ता आई – लेकिन अब रहने वाला नहीं था।
बाहर निकल कर, इमारत का घेरा काट कर वो पिछवाड़े में पहुँचा और उधर से उधर के ऑफिस में दाखिल हुआ। वो उस ऑफिस से पुराना वाकिफ़ था लेकिन कभी उसके वहाँ कदम नहीं पड़े थे। उसने नोट किया कि वो फ्रंट ऑफिस से तीन गुणा बड़ा था और कई गुणा भव्य था। उसने बाज़रिया स्टीवन फेरा सुना हुआ था कि उस इमारत में बेसमेंट भी थी जिसका रास्ता पिछवाड़े से था अलबत्ता पिछवाड़े में कहाँ से था, इसकी उसे कोई खबर नहीं थीं। वहाँ के प्रवेश द्वार से पार एक बाकी ऑफिस जैसा ही भव्य रिसैप्शन था जिस पर जो रिसैप्शनिस्ट बाला विराजमान दिखाई देती थीं, वो सूरत और फिगर में जरा भी हेठी होती तो उसका मुकाम वहाँ न होता। सहज ही उसे लगा कि वो रिसैप्शनिस्ट तो नाम को थी, बावक्तेज़रूरत पुजारी की दिलजोई का ज़रिया थी।
वो रिसेप्शन पर पहुँचा तो रिसैप्शनिस्ट ने जैसे अहसान करते हुए उसकी तरफ तवज्जो दी।
“मैं जेकब परेरा।” – परेरा ने आशापूर्ण निगाह उस पर डाली – “मालूम?”
सुन्दरी बाला ने इंकार में सिर हिलाया।
“वान्दा नहीं।” – वो निराश हुआ पर निराशा पलंग की रौनक पर ज़ाहिर करने का क्या फायदा था – “मेरे को कुबेर भाई से मिलने का।”
“पुजारी साहब ने बुलाया आपको? जेकब परेरा को?”
“नहीं। पण ....”
“प्लीज़ स्टैण्ड असाइड एण्ड वेट।”
अन्दर से हिले हुए परेरा ने आदेश का पालन किया।
सुन्दरी ने एक डैस्क फोन उठा कर उसका बज़र दबाया और फिर माउथपीस में मुँह घुसा कर कुछ बोली। तुरन्त बाद उसने रिसीवर वापिस रख दिया और
आगन्तुक से यूँ निर्लिप्त हुई जैसे वो वहाँ था ही नहीं।
पीछे का एक दरवाज़ा खुला और एक सख़्त, संजीदासूरत शख्स ने बाहर कदम रखा। वो दो कदम आगे बढ़ कर ठिठक गया। उसने ख़ुद रिसैप्शन पर पहुँच कर परेरा से मिलने की जगह उंगली के धृष्ट इशारे से उसे अपने करीब बुलाया।
परेरा उस शख्स को पहचानता था। उसका नाम राघव लोखण्डे था और वा पुजारी की गैरहाज़िरी में वो ऑफिस चलाता था।
झिझकता-सा परेरा उसके करीब पहुँचा, उसने सादर उसका अभिवादन किया।
“परेरा!” – उसे घूरता लोखण्डे बोला – “जेकब परेरा!”
“हँ-हाँ।”
“स्टीवन फेरा के अन्डर में चलता था?”
“हाँ”
“बॉस से मिलना माँगता है! बॉस बुलाया तेरे को?”
“न-नहीं।”
“निकल ले। तेरे को मालूम इधर तभी आने का जब बॉस बुलाए।”
“पण मेरा मिलना ज़रूरी...”
“काहे वास्ते? बॉस बोला न, अभी वेट करने का! वेट करने का तो करने का। क्या?”
“वो बात नहीं है, मैं वेट करता है।”
“तो क्या बात है?”
“कल रात मेरे को बहुत इम्पॉर्टेट कर के एक बात मालूम पड़ा जिसको कुबेर भाई के नोटिस में लाना मैंने निहायत ज़रूरी जाना।”
“ऐसा?”
“हाँ”
“मेरे को बोल।”
“अभी बोले तो ... कुबेर भाई सुनेगा, मेरे से सुनेगा तो ... तो ....”
“तेरे को शाबाशी देगा। जो मैं नहीं देगा। क्या?”
“मैं ऐसा नहीं बोला पण ...”
“लिहाज़ करता है मैं तेरा, क्योंकि फेरा बॉस के अन्डर में चलता था। अभी बात का कोई हिन्ट दे मेरे को। कोई ऐसा हिन्ट दे जो बॉस को डिस्टर्ब करने के काबिल हो।”
“सोहल!”
लोखण्डे चौंका, उसने घर कर परेरा को देखा। इस बार परेरा विचलित न हुआ। “तेरे पास'- लोखण्डे पूर्ववत् उससे घूरता बोला – “बॉस को सोहल के बारे
में बोलने को कुछ है?”
“हाँ।”
“कोई पुरानी स्टोरी नहीं। कोई नवीं स्टोरी जिससे तू बोलता है कल रात ही वाकिफ़ हुआ?”
“हाँ।”
“बोम मारता निकला तो बॉस ख़ुद दुम ठोकेगा। मैं तो ठोकेगा ही!”
“मेरे को मंजूर।”
“इधरीच वेट करने का।”
“यस, बाँस।”
लोखण्डे जो दरवाज़ा खोल कर वहाँ प्रकट हुआ था, उसी के पीछे गायब हो गया।
दो मिनट में वो वापिस लौटा। उसने परेरा को साथ आने का इशारा किया। परेरा झिझकता-सा उसके साथ हो लिया। उसने पाया कि दरवाज़े के पीछे भी एक ऑफिसनुमा कमरा था जिस में शायद लोखण्डे मुकाम पाता था। लोखण्डे ने और पीछे का एक बन्द दरवाज़ा खोला और परेरा को भीतर दाखिल होने का इशारा किया।
परेरा ने वो दरवाज़ा पार किया तो खुद को किसी कॉर्पोरेट टॉप बॉस के एग्जीक्यूटिव ऑफिस जैसे शान-बान वाले ऑफिस में पाया।
लोखण्डे ने उसके पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया। अब वो अपनी एक्जीक्यूटिव चेयर पर शान से बैठे कुबेर पुजारी के रूबरू था।
ज़ाहिर था कि मवालियों की शानोशौकत भी उनके रुतबे, उनकी पायदान के मुताबिक बढ़ती थी। जितनी ऊँची पायदान पर मवाली अपनी पहुँच बना पाता था, उतनी ही काबिलेरश्क उसकी फं फाँ होती थी जिसमें डे टाइम में बुर्की भरने के लिए एक कमसिन हसीना भी शामिल होती थी जो बरायनाम रिसैप्शन की शोभा बढ़ाती थी।
पुजारी ने उसे करीब आने का इशारा किया। परेरा उसकी मेज़ के करीब आ खड़ा हुआ।
“कोई लम्बी हाँकने की ज़रूरत होगी तो मैं बोलूँगा।” – पुजारी शुष्क स्वर में
बोला – “थोड़े में बोल, सोहल के बारे में क्या कहना चाहता है?”
“वो मुम्बई में है।” — परेरा बोला। पुजारी को उस ख़बर से कोई हैरानी हुई तो वो उसकी शक्ल से न झलकी।
“कैसे मालूम?” – उसने सहज भाव से पूछा।
जवाब में परेरा ने संक्षेप में पिछली रात ग्रांट रोड अप्सरा बार में अपनी मौजूदगी की कहानी कही।
“हम्म!” – वो ख़ामोश हुआ तो पुजारी बोला – “तो तूने सोहल को पहचाना?”
“नहीं, बॉस।” — परेरा अदब से बोला – “सोहल ने ख़ुद अपनी शिनाख्त कराई।”
“वर्ना तेरे को ख़बर ही नहीं थी तेरे सामने कौन बैठेला था। ठीक?”
“हाँ।”
“कैसे कराई अपनी शिनाख़्त? क्या बोला?”
परेरा ने दोहराया।
“हमारी जानकारी में वो हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया था। लौट कैसे आया?”
“कहता था तकदीर ले आई।”
“तकदीर तो न लाई! कोई वजह ही लाई जो उसने बयान न की।” — पुजारी कुछ क्षण ठिठका, फिर बोला – “तेरे बॉस ने गैंग के साथ धोखा किया जिसकी तेरे को ख़बर थी। कैसे ख़बर थी?”
“जसमिन माने के बताए खबर थी जिसने दिल्ली में गोल्डन गेट रेस्टोरेंट में सोहल को पहचान लिया था। किसी बड़े ईनाम की उम्मीद में उसने इधर फेरा बॉस से अपनी ख़ास जानकारी शेयर करने के लिए उसे कॉल लगाई थी तो कॉल मैंने रिसीव की थी और उसको बोला था कि फेरा बॉस एक ख़ास, खुफिया मिशन के तहत काठमाण्डू में था और उसने जो बोलना था, मेरे को बोलती। मैंने जसमिन माने की फोन कॉल की काठमाण्डू में खबर की थी, तब फेरा बॉस ने शायद वहीं से जसमिन माने से कॉन्टैक्ट किया था और उससे सोहल की ‘गोल्डन गेट’ में मौजूदगी की बाबत जाना था। तभी फेरा बॉस ने ऐसी जुगत की थी कि वो काठमाण्डू से मुम्बई लौटने की जगह सीधा दिल्ली चला गया था जहाँ सोहल के किए एक बड़े खून खराबे का हिस्सा बना था जिस में न सिर्फ फेरा बॉस की बल्कि उसके दिल्ली के तमाम हिमायतियों की जान गई थी।”
“तेरे को कैसे मालूम?”
“पहले कुछ मालूम नहीं था, बॉस, सिवाय इसके कि फेरा बॉस एकाएक दिल्ली पहुँच गया था लेकिन बाद में जसमिन माने मुम्बई लौट आई थी तो मेरे से मिली थी। तब उसने उधर की अपनी जानकारी में आई कुछ बातें बयान की थीं।”
“लड़की ने अक्ल की होती तो उसने वो बातें हमारे सामने बयान की होतीं। तब हमें ठीक से मालूम होता कि फेरा दिल्ली में क्या अपनी गैंग से खुफ़िया खिचड़ी पका रहा था! उसके डबल इमेज़ का मोटा अन्दाज़ा आखिर हमें हुआ था, जो पहले हुआ होता तो मरने के लिए वो दिल्ली न गया होता, अपनी धोखाधड़ी की सज़ा के तौर पर इधरीच मरता और ऐसी मौत मरता कि लोग बाग उससे इबरत हासिल करते। फेरा की मौत के बाद तेरी वफ़ादारी पर भी टॉप बॉस को शक था, इसी वजह से जब तू काम के लिए ऊपर अर्जी लगाता था तो तेरे को काम नहीं दिया जाता था, ‘अभी वेट करो’ बोला जाता था।”
“बॉस, ये तो गरीबमार हुई! मैं बजातेखुद फेरा बॉस के दिल्ली वाले किसी स्याह-सफेद में शामिल नहीं था। मैं तो जो हुक्म मिलता था, अपनी पूरी काबिलियत से, पूरी मुस्तैदी से उसकी तामील करता था। गैंग से कोई दगाबाज़ी की तो फेरा बॉस ने की, मैंने तो न की!”
“तेरे को स्टीवन फेरा के डबल इमेज़ की गैंग से पहले खबर थी” — पुजारी का शुष्क स्वर और शुष्क हुआ – “फिर भी तू ख़ामोश रहा। गैंग से वफ़ादारी न दिखाई, फेरा से वफ़ादारी दिखाई। एक तरह से देखा जाए तो ये भी गैंग से दगाबाज़ी ही थी। थी या नहीं?”
परेरा ने जवाब देते न बना, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“सोहल तेरे से वाकिफ़ कैसे था?”
“नहीं वाकिफ़ था।” – परेरा दबे स्वर से बोला – “मेरे ख़याल से किसी और तरीके से उसे मेरी ख़बर लगी थी और वो ग्रांट रोड़ के अप्सरा बार में मेरे गले पड़ने आन पहुँचा था। बॉस, कल शाम मेरी एक फ्रेंड मेरे साथ थी, मेरी गैरहाज़िरी में उसने उसे वहाँ से चलता कर दिया था ताकि पूरी तरह से मेरे गले पड़ पाता।”
“पूरी तरह से गले पड़ने के लिए एक ही मुलाकात काफी नहीं होती। आइन्दा मुलाकात का कोई इन्तज़ाम उसने ज़रूर किया होगा। उस आइन्दा मुलाकात के लिए अब वो तेरी तलाश में ग्रांट रोड अप्सरा बार में फिर नहीं जाने वाला था – तेरे को अक्ल होगी तो तू ही फिर वहाँ नहीं जाएगा – क्या इन्तज़ाम किया उसने आइन्दा मुलाकात का?”
“मेरे घर का पता, मेरा मोबाइल नम्बर लिया।”
“जो उसे मिला, उस पर उसे ऐतबार?”
“नहीं। सबूत माँगता था। मैं दिया सबूत।”
“अच्छा! पते का क्या सबूत दिया?”
“मेरी जेब में एक पुराना इनलैंड था जिसमें दर्ज कुछ बातों की वजह से मेरे को अभी उसकी ज़रूरत थी इसलिए मैंने उसे फेंका नहीं था। उस पर मेरा चिंचपोकली का वो पता दर्ज था जो मैंने उसको पेपर नैपकिन पर अलग से लिख कर दिया था। मैंने उसे वो इनलैंड दिखाया। उसने दोनों पते सेम टु सेम पाए तो उसकी मेरे पते की बाबत तसल्ली हो गई। एक तसल्ली हो गई तो दूसरी – मेरा मोबाइल नम्बर- की बाबत उसने कुछ करना ज़रूरी न समझा। पण जो तसल्ली हुई, वो झूठी थी, बेकार थी। मैं अब चिंचपोकली नहीं रहता। दो हफ्ता पहले मैं भायखला शिफ्ट किया। वो मेरे को ढूँढ़ेगा तो चिंचपोकली में ढूँढ़ेगा जिधर अब मैं हैइच नहीं।”
“काफी चिल्लाक है। मोबाइल की बोल!”
“मोबाइल नम्बर की बाबत मैं झूठ नहीं बोल सकता था – नहीं बोला था वो तभी नैपकिन पर दर्ज नम्बर बजाता तो सामने आ जाता कि मेरा मोबाइल बजता था कि नहीं।”
“तो क्या किया?”
“सिम फेंक दिया। नया ले लिया।”
“बढ़िया! चाहता क्या था?”
“टॉप बॉस की बाबत सवाल करता था, पूछता था वो कौन था और कहाँ पाया जाता था।”
“क्यों जानना चाहता था?”
“मालूम नहीं।”
“अरे, उसकी टॉप बॉस की बाबत पूछताछ के जवाब में तू कुछ तो बोला होगा!”
“ख-खाली वही बोला था जो टॉप बॉस की बाबत गैंग में हर कोई जानता था।”
“क्या?”
“यही कि उसकी गैरहाज़िरी में उसका हवाला ‘मिस्टर किंग’ के तौर पर दिया जाता था। या शाह के तौर पर दिया जाता था।”
“बस!”
“हाँ।”
“खाली इतनी ख़बर लगने पर उछलता, कि सोहल मुम्बई में था, इधर दौड़ा चला आया।”
“नहीं, बॉस।”
“यानी सोहल की बाबत कुछ और भी है तेरे पास?”
“हाँ, बॉस।”
“तो बोलता काहे नहीं?”
“मेरे को सोहल के मुम्बई में ठिकाने की ख़बर है।”
पुजारी सम्भल कर बैठा। उसने अपलक परेरा की ओर देखा।
“क्या बोला?” — फिर बोला।
“बॉस, मैंने ग्रांट रोड से चैम्बर तक उस काली-पीली टैक्सी को फॉलो किया जिसमें बार के बाहर से सोहल सवार हुआ था।”
“ये तो अक्ल का काम किया तूने? कहाँ पहुँचा?”
“कृपर कम्पाउन्ड।”
परेरा और सम्भल कर बैठा। उसकी निगाहों से उतर चुका भीड़ उसे सरपराइज़ पर सरपराइज दे रहा था।
“वहाँ कहाँ?” - अब उसने कदरन नम्र स्वर में सवाल किया।
“बॉस उधर अन्धेरा था और कोई आवाजाही नहीं थी। ऐसे माहौल में मैं कम्पाउन्ड में दाखिल नहीं हो सकता था। पण बिना भीतर कदम रखे भी मैंने कुछ ख़ास नोट किया।”
“क्या? जो कहना है, एक ही बार में कह।”
“बॉस, मैंने देखा कि टैक्सी अपने पैसेंजर के साथ कम्पाउन्ड में जा कर रुकी, पैसेंजर टैक्सी से न तो उतरा, न तो उसने टैक्सी ड्राइवर को भाड़ा दिया, और न टैक्सी उधर से रुखसत हुई। मैंने वन आवर उधर वॉच किया, तब भी टैक्सी उधरीच खड़ेली थी।”
“ड्राइवर! पैसेंजर! – बोले तो सोहल – वो कहाँ गए?”
“मालूम न पड़ा कहाँ गए! अन्धेरे की वजह से मैं नहीं जान पाया कि किधर गए। पण एक बात पक्की कि कम्पाउन्ड से बाहर दोनों में से कोई न निकला।”
“क्या मतलब हुआ इसका? ये कि सोहल की मुम्बई वापिसी पर मुम्बई में उसका खुफ़िया मुकाम कूपर कम्पाउन्ड था!”
“बॉस, और क्या होगा? कूपर कम्पाउन्ड से सोहल का रिश्ता आज का नहीं है, बहुत पुराना है।”
“हूँमैंने एक और भीड़ को भी कूपर कम्पाउन्ड की पड़ताल को बोला था। वो कल उधर गया था। मेरे को उसने बोला था कि अभी कल फिर जाने वाला था, तभी वो कोई फाइनल रिपोर्ट देता। मेरे को उससे बात करने का। तब तक तू उधर परे बैठ।”
दाईं दीवार के साथ लगी कुछ कुर्सियाँ आजू-बाजू पड़ी थीं, उसका इशारा उन कुर्सियों की तरफ था। प्रत्यक्षतः अपने सामने बैठाने के काबिल उसने उसे नहीं जाना था। भारी कदमों से चलता वो वहाँ पहुँचा और एक कुर्सी पर बैठ गया।
पुजारी ने कॉलबैल बजाई। तत्काल लोखण्डे वहाँ प्रकट हुआ।
“इंस्पेक्टर महाडिक को कॉल लगा।” – पुजारी ने आदेश दिया। मोबाइल जैसे जादू के ज़ोर से लोखण्डे के हाथ में प्रकट हुआ। उसने कॉल लगाई। कितना ही वक्फा ख़ामोशी में गुज़रा।
“कॉल रिसीव नहीं कर रहा।” – आखिर लोखण्डे बोला।
“बोले तो?” – पुजारी उतावले स्वर में बोला।
“लगता है जानबूझ कर कॉल रिसीव नहीं कर रहा। पहली बार घन्टी बजी तो फोन को साइलेंट मोड़ पर कर दिया।”
“उसके पास दो फोन हैं।”
“मेरे को दूसरे का नम्बर नहीं मालूम।”
पुजारी ने दूसरा नम्बर लिख कर उसके हवाले किया और हिदायत दी – “ये नम्बर ट्राई कर। मिल जाए तो अपना फोन लाउड स्पीकर पर लगा कर टेबल पर रख।”
लोखण्डे ने आदेश का पालन किया। इस बार नम्बर मिल गया।
“हल्लो!” – इंस्पेक्टर रामदास महाडिक की आवाज़ कमरे में गूंजी।
“महाडिक!” – पुजारी रौब से बोला – “मैं पुजारी बोलता है।”
“मेरे को फोन नहीं लगाने का।” – इंस्पेक्टर कलपता-सा बोला – “ये टाइम सुनता है मैं, पर आइन्दा फोन नहीं लगाने का। लगाया तो मैं दोनों सिम गटर में फेंकेगा।”
“अरे, ऐसा क्या हो गया जो....”
“बर्बाद कर दिया तुम्हारे साथ ने मेरे को, ऐसा हो गया।”
“कहानी न कर। ठीक से बोल, क्या हुआ?”
“ट्रांसफर .... ट्रांसफर का फर्रा थमा दिया गया कल। खड़े पैर मेरे को थाने से पुलिस हैडक्वार्टर में ट्रांसफर कर दिया गया। और हैडक्वार्टर में भी कहाँ! पुलिस कमिश्नर के पर्सनल स्टाफ में जहाँ मैं अपनी सीट से हिल भी नहीं सकता। साला टॉयलेट जाते अन्देशा रहता है कहीं पीछे तलब न कर लिया जाऊँ।”
“ऐसा क्यों हुआ?”
“तुम्हारा हुक्का भरा, इसलिए हुआ।”
“नॉनसेंस! मेरा साथ तूने क्या पहली बार दिया?”
“खुफ़िया तरीके से दिया न हमेशा! इस बार तो पूरी पोल खुल गई! कल मेरे कूपर कम्पाउन्ड जाने की एक-एक बात मेरे ज़ोन के डीसीपी को मालूम थी।”
“कमाल है! कैसे मालूम हुई?”
“सख़्त जवाब तलबी हुई। अन्दर तक हिला दिया। इनडिसिप्लिन के, इनसबार्डिनेशन के जो चार्ज लगे सो अलग। इमीजियेट ट्रांसफर ऑर्डर मिला सो अलग। और अभी मालूम, डीसीपी क्या कहता था?”
“नहीं, क्या कहता था?”
“कहता था हैडक्वार्टर की ट्रांसफर टैम्परेरी थी, बाद में मेरे को ऐसी जगह पोस्ट किया जाएगा जहाँ मैं कहूँगा काश, मैं पुलिस के महकमें में न होता।”
“देवा! इतनी सख़्ती!”
“सब तुम्हारी वजह से।”
“कूपर कम्पाउन्ड वाले डीसीपी के पास पहुँच गए!”
“मेरे को नहीं पता क्या हुआ पर जो हुआ, उसकी डीसीपी को एक-एक बात मालूम थी। और कैसे मालूम थी? मैंने तो न बताई! मेरे को तो तुम्हारे को ही बताने का मौका न मिला!”
“हम्म!”
“कल इतना करारा खड़का के आया था मैं वहाँ सब को। अभी कल फिर जाने का था। तब और भी करारा खड़काता पर ... अब इधर हैडक्वार्टर में, जिधर अभी गिरफ्तारी जैसी ड्यूटी करता है!”
“आइन्दा न करना कुछ लेकिन जो कल गुज़र गया, उसका तो कुछ बोल! और कुछ नहीं तो यही बता, वहाँ कितने आदमी मौजूद पाए?”
“तीन। एक का नाम इरफ़ान था जो ख़ुद को टैक्सी ड्राइवर बताता था – एक काली पीली टैक्सी अहाते में खड़ी भी थी। दूसरे का नाम शोहाब था जो जुह के होटल अमृत में सिक्योरिटी ऑफिसर की नौकरी करता था। एक तीसरा और था जो अपना नाम गिरीश कुमार बताता था और ख़ुद को तुकाराम के पुराने चैरिटेबल ट्रस्ट का और उधर की बाकी प्रॉपर्टी का केयरटेकर बताता था। कल अगर मैं कूपर कम्पाउन्ड जाता तो सब से ज़्यादा उसी के गले पड़ता पर ...”
“जा न! पड़ न!”
“शामत आई हैमेरी! इस बार उसज़ोन के डीसीपीको मेरी उस अनआथोराइज्ड मूवमेंट की ख़बर लग गई तो यकीनी तौर पर सस्पेंड किया जाऊँगा और फिर बर्खास्तगी की बाबत एक्शन लिया जाएगा।”
“वान्दा नहीं। हम सम्भाल लेंगे।”
“कैसे सम्भाल लोगे? भाई लोगों की जमात में बाकायदा शामिल कर लोगे? मेरे को भी अपने जैसा ‘भाई’ बना लोगे?”
पुजारी ने जवाब न दिया।
“बन्द करता हूँ। दोबारा फोन न करना। अहसान होगा।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
पुजारी चेहरे पर चिन्तापूर्ण भाव लिए उँगलियों से मेज़ पर ख़ामोश दस्तक देता रहा।
लोखण्डे ने अपना फोन उठा लिया और ख़ामोशी से वहाँ से रुखसत हो गया।
ऑफिस में बोझिल सन्नाटा छाया रहा जो परेरा को बेचैन, और बेचैन करने लगा। कुछ ठीक नहीं हो रहा था। उसका कोई दोष नहीं था फिर भी उसे अहसास सता रहा था कि जो ठीक नहीं हो रहा था, उसका दोष नाहक उसके मत्थे मंदा जा सकता था।
“इधर आ” – आखिर पुजारी ने ख़ामोशी भंग की। परेरा उछल कर खड़ा हुआ और पुजारी के सामने मेज़ के पास पहुँचा।
“तू सब सुना?” – पुजारी बोला। परेरा ने जल्दी से सहमति में सिर हिलाया।
“समझा?”
परेरा ने बेचैनी से पहलू बदला।
“मैं समझाता है। अपना ज़ाती मजबूरी के तहत वो इंस्पेक्टर पूरा काम न कर सका – अभी कल फिर वो कूपर कम्पाउन्ड नहीं जा पाएगा – पण जितना किया, वो भी कम नहीं। अभी मेरे को कूपर कम्पाउन्ड पर ख़ास फोकस माँगता है। आइन्दा तेरे को कूपर कम्पाउन्ड पर वॉच रखने का ...”
“क्या! मैं... मैं बहाल!”
“हाँ।”
“थै-थै क्यू, बॉस।”
फेरा से तेरा कोई ख़ास गंठजोड़ अभी भी शक के घेरे में है। पण तू फेरा का पसन्दीदा था तो कोई तो खूबी होगी ही तेरे में अभी पेश करना वो खूबी! दिखाना उस खूबी का कोई कमाल!”
“क-क्या करना होगा?”
“कूपर कम्पाउन्ड पर वाँच रखना होगा।”
“म-मैं अकेला?”
पुजारी ने उस बात पर विचार किया। फिर उसने लोखण्डे को वापिस तलब किया।
“अहसान की क्या ख़बर है?” – उसने पूछा।
“अच्छी खबर है।” – लोखण्डे बोला – “जिस बुरे हाल में हस्पताल पहुंचाया गया था, उसके लिहाज़ से जल्दी रिकवर कर गया। हस्पताल से आ गया हुआ है। कल या परसों काम पर जाएगा।”
“मेरे को उसकी अभी ज़रूरत थी।”
लोखण्डे खामोश रहा।
“उसकी जगह लेने के लिए उस जैसा कड़क कोई भीड़ सुझा!”
“मंगेश नटके।”
पुजारी परेरा की ओर घूमा।
“मालूम?” — फिर बोला।
“नाम मालूम।” – परेरा बोला – “कभी मुलाकात नहीं हुई।”
“अब होगी। लोखण्डे कराएगा। ... कब?”
लोखण्डे को समझने में वक्त लगा कि सवाल उससे हुआ था।
“वन आवर में।”
वो बौखलाया-सा बोला– “वन आवर में फ्रंट ऑफिस में।”
“सुना?”
“हाँ, सर।” — परेरा बोला।
“कोई हैल्प की ज़रूरत होगी तो वो अरेंज करेगा। कौन रेंज करेगा?”
“नटके। मंगेश नटके।”
“बढ़िया।”
“वो... वाँच... बाँच कब तक चलेगी?”
“दो दिन। आज और कल। वहाँ जो गिरिश कुमार नाम का केयरटेकर बताया जाता है, उस दौरान उसकी तरफ ख़ास तवज्जो देनी होगी। हो सकता है जो वो ख़ुद को बताता है, वो वो न हो। समझ गया?”
परेरा ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“समझने को कुछ बाकी बच जाएगा तो वो लोखण्डे समझाएगा।”
“मैं वैसे ही समझ गया, बॉस।” – इस बार परेरा के स्वर में होशियारी आई।
“बढ़िया। आज और कल में कुछ और समझने लायक समझ में न आए तो परसों सुबह जो कोई भी वहाँ दिखाई दे, उसे पकड़ के यहाँ लाने का, ये भी समझ गया?”
“दो जनों ने?”
वो बौखलाया – “मैंने और नटके ने?”
“येड़ा।”
“स-सॉरी!”
“बैक-अप का इन्तज़ाम लोखण्डे करेगा। क्या?”
“लोखण्डे बाप करेगा।”
“अभी समझा। इस काम को करने में अगर कोई खून-खराबा हो तो वान्दा नहीं। ये भी समझा?”
“हाँ, सर।”
“और कुछ कहना-सुनना है?”
“खाली शुक्रिया बोलना है दिल से, बॉस, कि आपने मेरा बनवास खत्म किया।”
“शुक्रिया कुबूल। निकल ले।”
0 Comments