रात के दस बजे रमाकांत विश्वनगर से वापिस लौटा ।
सुनील यूथ क्लब में उसके आफिस में बैठा प्रतीक्षा कर रहा था ।
“सीधा विश्वनगर से ही आ रहा हूं ।” - रमाकांत धम्म से एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।
“वह तो तुम्हारी सूरत से दिखाई दे रहा है ।” - सुनील तनिक विनोदपूर्ण स्वर से बोला - “क्या खबर है ?”
उत्तर देने के स्थान पर रमाकांत ने एक सिगरेट सुलगाया और फिर उसके गहरे-गहरे कश लेने लगा ।
“मेरे बताये हुलिये से तुम्हें कृति मजूमदार को पहचानने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई ?” - सुनील ने फिर प्रश्न किया ।
“नहीं ।” - रमाकांत ने उत्तर दिया - “कृति को पहचानने में पुलिस को भी कोई दिक्कत नहीं हुई ।”
“क्या मतलब ?” - सुनील एकदम चौंका ।
“मतलब यह कि फास्ट वर्क में पुलिस ने इस बार रिकार्ड कायम कर दिया है । डीलक्स बस के विश्वनगर पहुंचने से पहले ही प्रभूदयाल वहां पहुंचा हुआ था । मैं बड़ी मुश्किल से उसकी निगाहों में आने से बच गया ।”
“कृति बस में थी ?”
“थी ।”
“गुड ।” - सुनील सन्तुष्टिपूर्ण बोला - “इसका मतलब स्वर से यह हुआ कि कृति ने अपने पति की हत्या नहीं की है । वह छ: बजे ही राजनगर छोड़ चुकी थी ।”
“यूं एकदम कूदकर नतीजे पर मत पहुंचो ।” - रमाकांत गम्भीर स्वर से बोला - “पहले पूरी बात सुन लो । फिर कोई राय कायम करना ।”
“कोई गड़बड़ है क्या ?”
“जहां पुलिस होगी, वहां गड़बड़ भी होगी ही ।”
“किस्सा क्या है ? ठहरो, पहले यह बताओ कि पुलिस को कैसे मालूम हुआ कि कृति छ: बजे की बस से विश्वनगर गई है ?”
“मजूमदार की कोठी पर घर का कामकाज करने जो नौकरानी आती है, उसने बताया था । कृति ने खुद उस नौकरानी को बताया था कि वह सुबह डीलक्स बस से विश्वनगर जा रही है ।”
“आई सी । अब बताओ क्या किस्सा है ?”
“कृति विश्वनगर उसी डीलक्स बस में पहुंची थी जो सुबह छ: बजे राजनगर से रवाना होती है लेकिन उसने उस बस में अपने सफर की शुरूआत राजनगर से नहीं की थी ।”
“क्या ?” - सुनील अचकचा कर बोला ।
“विश्वनगर से पहुंच कर प्रभूदयाल ने कृति से प्रश्न करने के अतिरिक्त बस के अन्य यात्रियों से भी पूछताछ की थी । बस में मौजूद एक यात्री, जिसने राजनगर से ही अपना सफर आरम्भ किया था, कसम खाकर यह कहने के लिये तैयार है कि कृति सुबह बस में नहीं थी और यही नहीं उसका ध्यान है कि वास्तव में कृति एक बजे विशालगढ से उस बस में सवार हुई थी ।”
“कौन है वह यात्री ?”
“वह माला नाम की युवती है ।”
“उसका ध्यान विशेष रूप से कृति की ओर कैसे गया ? बस में से तो इतनी सवारियां चढती उतरती हैं ।”
“हालात ही ऐसे थे कि केवल माला ही नहीं और भी कई यात्रियों का ध्यान कृति की ओर आकर्षित हुआ था । कृति आखिरी क्षण पर एक टैक्सी में विशालगढ के बस स्टैण्ड पर पहुंची थी और भागती हुई चलने के लिये लगभग तैयार बस पर आकर चढी थी । मैंने बाद में विश्वनगर में खुद ड्राइवर से और एक अन्य सवारी से पूछा था । दोनों को याद था कि विशालगढ में कोई महिला ऐन मौके पर टैक्सी में बस स्टैण्ड पर पहुंची थी और भागती हुई बस पर चढी थी ।”
“वह माला नाम की युवती कसम खाकर कह सकती है कि विशालगढ में उसने कृति को ही भाग कर बस पर चढते देखा था, किसी ओर को नहीं ।”
“सकती है क्या ? कह रही है ।”
“लेकिन यह सब कुछ हो कैसे सकता है । अगर कृति साढे नौ बजे अपने पति की हत्या के समय राजनगर में थी तो एक बजे वह बस में चढने के लिये विशालगढ कैसे और क्यों पहुंच गई ?”
“पहले पूरी कहानी सुन लो फिर म्हारे सारे सवालों का जवाब तुम्हें मिल जायेगा ।”
“कहो ।” - सुनील बेसब्री से बोला ।
“पुलिस ने इस सन्दर्भ में बहुत तफ्तीश की है और बड़े दिलचस्प तथ्य सामने आये हैं । जिस काले रंग की एम्बैसेडर का तुमने पीछा किया था वह राजनगर के एयरोड्रोम से बहर खड़ी पाई गई । ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट पर राजनगर से विशालगढ के लिये एक हवाई जहाज चलता है जिसमें कि यात्री सूची में कृति मजूमदार का नाम है । पुलिस ने विशालगढ के उस टैक्सी ड्राइवर को तलाश कर लिया है, जो विशालगढ के हवाई अड्डे से एक युवती को विशालगढ के बस स्टैण्ड पर बड़ी तेज रफ्तार से टैक्सी चलाता हुआ लाया था जो उसकी याददाश्त के अनुसार कृति ही थी । उसने सवारी की अच्छी तरह सूरत तो नहीं देखी थी लेकिन उसने मोटे तौर पर सवारी का जो हुलिया बयान किया था, उससे वह कृति ही मालूम होती थी । साथ ही उसने ड्राइवर को यह भी कहा था कि अगर वह उसे एक बजे से पहले विशालगढ के बस स्टैण्ड पर पहुंचा देगा तो वह उसे पांच रुपये और देगी । उस युवती ने टैक्सी ड्राइवर को खुद ही बताया था कि उसने राजनगर से विश्वनगर जाने वाली उस डीलक्स बस पर सवार होना है जो ठीक एक बजे विशालगढ के बस स्टैण्ड से चल पड़ती है ।”
सुनील एकाएक बेहद गम्भीर दिखाई देने लगा था ।
“पुलिस की थ्योरी यह है कि कृति मजूमदार ने पहले से ही अपने पति की हत्या करने का इरादा किया हुआ था ।” - रमाकान्त बोला - “उसने पहले ही सुबह छः बजे की डीलक्स बस में विश्वनगर के लिये और पौने बारह बजे प्लेन से विशालगढ ले लिये अपनी सीटें बुक करवाई हुई थी । सुबह छ बजे वह बस पर सवार हुई लेकिन राजनगर से अगले किसी शहर में चुपचाप उतर गई और वापिस राजनगर लौट आई । वह वापिस राजनगर लौट आई । वह वापिस शंकर रोड पर अपनी कोठी पर पहुंची और दस बजे के आस-पास किसी समय उसने अपने पति की हत्या कर दी । फिर अपने पति की ही कार पर हवाई अड्डे पहुंची और पौने बारह बजे के जहाज पर सवार होकर विशालगढ पहुंच गई । पौने एक बजे के करीब वह विशालगढ हवाई अड्डे पर उतरी और उसके बाद वह टैक्सी पर जिस हालत में विशालगढ बस अड्डे पर पहुंची और विश्वनगर के लिये बस पर सवार हुई, वह मैं तुम्हें बता ही चुका हूं ।”
“कृति क्या कहती है ?”
“कृति कहती है कि उसे फंसाया जा रहा है । उसने अपने पति की हत्या नहीं की है और न ही उसे इस बात की जानकारी है कि उसके पति की हत्या हो गई है । यह बात सरासर झूठ है कि वह विशालगढ से उस बस में सवार हुई है । वह सुबह छः बजे राजनगर से ही बस में बैठी थी और रास्ते में कहीं नहीं उतरी थी ।”
“क्या बस में ऐसी कोई सवारी नहीं है जो कृति के कथन की पुष्टि कर सके ?”
“यही तो समस्या है । बस में सीधे विश्वनगर जाने वाली सवारियां तीन-चार ही थीं । जिन लोगों ने उस बस में राजनगर से अपना सफर आरम्भ किया था, वे रास्ते में ही उतर गये थे । कृति के कथन की पुष्टि के लिये उन लोगों को तलाश कर पाना बहुत कठिन है, जो विश्वनगर की सीधी तीन-चार सवारियां थी, उनमें से माला के सिवाए किसी को कृति की याद नहीं । माला को यह तो याद नहीं कि कृति राजनगर से बस चलते समय बस में थी या नहीं लेकिन इस बात को वह कसम खाकर कहने के लिये तैयार है कि जिस समय बस विशालगढ से चलने ही वाली थी, उस समय उसने कृति को भागकर बस में सवार होते देखा था ।”
“यह माला नाम की लड़की रहने वाली कहां की है ?”
“वह राजनगर की ही रहने वाली है । विश्वनगर में उसका केवल एक दिन का काम है, कल दस बजे की गाड़ी से वह राजनगर लौट जायेगी ।”
“कृति इस समय कहां है ?”
“कृति को प्रभूदयाल ने विश्वनगर में उसके पति की हत्या के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया था । वह रात की गाड़ी से अभी तक कृति को लेकर विश्वनगर से रवाना हो चुका होगा । कल सुबह वह राजनगर पहुंच जायेगा ।”
सुनील चुप रहा ।
“प्यारे ।” - रमाकांत सिगरेट का कश लगाकर उसे ऐश-ट्रे में झोंकता हुआ बोला - “कृति के खिलाफ बड़ा मजबूत केस है । माला की गवाही इतनी तगड़ी है कि कृति को सजा दिलवाने के लिये वही काफी है और अभी तो गनीमत समझो कि प्रभूदयाल को एक और चश्मदीद गवाह की जानकारी नहीं है ।”
“वह कौन है ?” - सुनील ने चौंककर पूछा ।
“तुम ।” - रमाकांत बोला - “तुमने भी तो मजूमदार की हत्या के फौरन बाद कृति को इमारत में से भागते देखा था और उसका पीछा भी किया था ।”
“मैंने यह कभी नहीं कहा है कि मैंने कृति को देखा था ।” - सुनील नाराजगी भरे स्वर में बोला - “मैंने कहा था कि मैंने काली एम्बेसेडर में किसी औरत को भागते देखा जो पीछे से मुझे कृति जैसी लगी थी ।”
“ऐसा ही होगा भाई । मेरे पर क्यों नाराज होते हो ? मैंने तो तुम्हें केवल एक बात याद दिलाई है ।”
सुनील कुछ क्षण चुप रहा और फिर यूं बोला जैसे अपने आपसे बातें कर रहा हो - “अगर पुलिस की थ्योरी सच है तो फिर मजूमदार की कोठी के ऊपरी मन्जिल के बन्द कमरे के भीतर कौन था ?”
“शायद कोई भी नहीं था । शायद तुम्हें वहम हुआ था कि भीतर कोई है ।”
“नहीं । मुझे वहम नहीं हुआ । मैंने साफ-साफ कमरे के भीतर किसी के सांस लेने की आवाज सुनी थी ।”
“तो फिर वह कृति ही होगी ।”
“मैं साढे नौ बजे के आस-पास मजूमदार की कोठी पर था । अगर उस बन्द कमरे में कृति थी तो फिर यह कैसे सम्भव है कि वह सुबह छः बजे विश्वनगर जाने वाली बस पर चढी हो और फिर चुपचाप किसी अगले स्टेशन पर उतर कर अपने पति की हत्या करने के लिये वापिस लौट आई हो ।”
“पुलिस की थ्योरी में थोड़े से संशोधन द्वारा इसका उत्तर दिया जा सकता है ।” - रमाकांत बोला - “मान लो कृति सुबह छः बजे बस पर नहीं चढी । वह साढे नौ बजे तक तुम्हारे कथनानुसार कोठी के एक कमरे में बन्द थी । तुम्हारे मजूमदार से मिलकर जाने के बाद वह किसी प्रकार बाहर निकलने में सफल हो गई होगी । फिर वह स्वय को सन्देह से दूर रखने के लिये पौने बारह के फ्लेन द्वारा विशालगढ पहुंच गई होगी, और एक बजे दोबारा विश्वनगर की बस पर सवार हो गई होगी, लेकिन माला की दृष्टि उस पर पड़ जाने की वजह से उसका सारा प्लान चौपट हो गया ।”
“एक बात और है ।” - सुनील बोला - “अगर कृति को मजूमदार ने कोठी में बन्द कर रखा था तो कृति ने अपने लिये इस में सीट कैसे बुक करवाई ?”
“बस में सीट तो कई दिन पहले भी बुक हो सकती है । सम्भव है कृति ने सीट मजूमदार द्वारा कोठी के कमरे में बन्द किये जाने की नौबत आने से पहले बुक करवाई हो ।”
“सम्भव है ।” - सुनील ने स्वीकार किया ।
रमाकांत चुप रहा ।
“तुम्हें माला का राजनगर का पता मालूम है ?”
“हां । फ्लैट नम्बर चार, जायसवाल भवन, शिवाजी मार्ग ।”
“माला वहां अकेली रहती है ?”
सुनील कुछ क्षण चुप रहा और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मैं कल कृति से मिलूंगा ।”
“कृति से मिलने के लिये तुम्हें साथ ही प्रभूदयाल से भी मिलना पड़ेगा ।” - रमाकांत ने चेतावनी सी दी ।
“देखा जायेगा ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
रमाकांत फिर नहीं बोला ।
***
अगले दिन ग्यारह बजे के करीब सुनील पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
उसके चेहरे पर खिचड़ी दाढी थी । सिर पर रूखे सफेद बाल फैले हुये थे । चेहरे पर झुरियां थीं । आंखों पर मैटल के फ्रेम का मोटे-मोटे शीशों वाला चश्मा चढा हुआ था । वह धोती और कुर्ती पहने हुये था और अपने कन्धों के गिर्द उससे पीले रंग की गर्म शाल लपेटी हुई थी । वह एक पुरानी सी छड़ी का सहारा लेकर चल रहा था और हर कदम पर उसका शरीर छड़ी के सहारे कांप-कांप जाता था ।
सुनील के जिस मित्र ने उसका यह मेकअप किया था, उसका दावा था कि अगर सुनील अपनी असलियत न खुलने दे तो एक बार तो पुलिस इन्सपेक्टर तो क्या सुनील का बाप भी उसे नहीं पहचान सकता था ।
वह लिफ्ट द्वारा दूसरी मन्जिल पर पहुंचा । होमीसाइड डिपार्टमेन्ट वाले गलियारे में में पहुंचकर उसके कदम और ज्यादा लड़खड़ाने लगे और फिर गलियारे में खड़े सन्तरी के सामने पहुंचकर तो वह गिरता-गिरता बचा । सन्तरी ने आगे बढकर उसकी बांह पकड़कर उसे सम्भाला और फिर सहानुभूतिपूर्ण स्वर में पूछा - “कहां जाओगे बाबा जी ?”
सुनील ने सात-आठ लम्बी-लम्बी सांसें लीं और फिर कम्पित स्वर में बोला - “बेटा, इन्सपेक्टर प्रभूदयाल से मिलना है मुझे ।”
सन्तरी ने एक बार सिर से पांव तक सुनील का निरीक्षण किया और फिर बोला - “एक मिनट यहीं ठहरो ।”
सुनील ने हांफते हुये स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
सन्तरी गलियारे के एक दरवाजे को खोलकर भीतर चला गया ।
थोड़ी देर बाद वह वापिस लौटा और फिर सुनील को साथ लेकर उसी कमरे में प्रविष्ट हो गया ।
सामने मेज के पीछे इन्सपेक्टर प्रभूदयाल बैठा था ।
सन्तरी ने उसे प्रभूदयाल के सामने एक कुर्सी पर बिठा दिया ।
“जीते रहो बेटा ।” - सुनील बोला ।
सन्तरी बाहर चला गया ।
“फरमाइये ।” - प्रभूदयाल गम्भीर स्वर में बोला ।
सुनील ने हाथ उठाकर उसे रुकने का संकेत किया और हांफने लगा ।
प्रभूदयाल चेहरे पर व्यग्रता के भाव लिये उसके बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“मैं” - थोड़ी देर बाद सुनील पूर्ववत् कम्पित स्वर में बोला - “मैं... मेरा नाम बद्री प्रसाद है । मैं कृति मजूमदार का नाना हूं ।”
प्रभूदयाल तनिक चौंका और फिर भावहीन स्वर में बोला - “अच्छा ।”
“बेटे ।” - सुनील बड़े ही दयनीय स्वर में बोला - “मुझे सरकारी तौर तरीके नहीं मालूम हैं । दरअसल मैं कृति की जमानत देने आया हूं ।”
“बाबा जी ।” - प्रभूदयाल तिक्त स्वर से बोला - “यह पुलिस हैडक्वार्टर है, अदालत नहीं । जमानत अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने तब होती है जब पुलिस द्वारा मुजरिम को अदालत में हाजिर किया जाता है ।”
“तो मुझे अदालत में जाना होगा ?”
“कोई फायदा नहीं होगा । खून के जुर्म में गिरफ्तार अपराधियों की जमानत नहीं होती ।”
“हे भगवान !” - सुनील ने यूं सांस छोड़ी जैसे एकाएक गुब्बारे में से हवा निकल गई हो - “हे मेरे भगवान !”
“आपको मेरे बारे में कैसे जानकारी हुई ?” - प्रभूदयाल ने पूछा - “आप मेरा नाम कैसे जानते हैं ?”
“मेरी लड़की ने ।” - सुनील ने उत्तर दिया - “अर्थात कृति की मां ने मुझे विश्वनगर से ट्रंककाल की थी कि राजनगर पुलिस का कोई प्रभूदयाल नाम का इन्सपेक्टर कृति को गिरफ्तार करके ले गया है । मैं तुम्हारे बारे में पूछता-पूछता यहां चला आया ।”
“आप राजनगर में ही रहते हैं ?”
सुनील ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“कहां ?”
“मेहता रोड पर । सेठी बिल्डिंग में ।”
“बेटा” - सुनील याचनपूर्ण स्वर में बोला - “अगर मैं कृति को अपने साथ नहीं ले जा सकता तो कम से कम मुझे एक बार उससे मिलवा तो दो ।”
प्रभूदयाल हिचकिचाया ।
“बेटा, उस मासूम लड़की पर इतने जुल्म न करो । मैं कृति को अच्छी तरह जानता हूं, तुमसे बेहतर जानता हूं । मुझे पूरा विश्वास है उसने अपने पति की हत्या नहीं की है । वह जरूर-जरूर किसी भयानक गलतफहमी का शिकार है । मेरी नातिन...”
“हत्या तो उसने की है बाबा जी ।” - प्रभूदयाल उसकी बात काटता हुआ विश्वासपूर्ण स्वर में बोला - “एक तथ्य इसी दिशा में संकेत करता है । अब यह केवल उसकी हठधर्मी है कि वह अपना अपराध स्वीकार नहीं कर रही है ।”
“लेकिन बेटे...”
“मेरी सुनिये । आप कृति से मिलना चाहते हैं न ?”
“हां ।”
“मैं एक शर्त पर आपको उससे मिलने की इजाजत दे सकता हूं ।”
“क्या ?”
“आप अपनी नातिन से यह कहिये कि वह ‘मैं निर्दोष हूं - मैं निर्दोष हूं’ की रट छोड़े और अपना अपराध स्वीकार कर ले । इसी में उसकी भलाई है । अगर वह अपना अपराध स्वीकार कर ले तो कम से कम सजा होगी वरना वह सीधी फांसी के फन्दे पर ही पहुंचेगी ।”
सुनील चिन्ता की प्रतिमूर्ति बना उसके सामने बैठा रहा ।
“और फिर वह भी सम्भव है कि अपने पति की हत्या उसने आत्मरक्षा के लिये की हो । ऐसी सूरत में वह बरी भी हो सकती है । लेकिन यह सब तभी सम्भव है जबकि वह पूरी ईमानदारी से हकीकत बयान करे ।”
“मैं कृति को समझाने की कोशिश करूंगा ।” - सुनील बोला ।
“गुड । मैं आपको कृति के पास भिजवाता हूं ।” - प्रभूदयाल सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला ।
प्रभूदयाल ने घन्टी बजाई । एक सन्तरी कमरे में प्रविष्ट हुआ ।
“इन्हें कृति के पास ले जाओ ।” - प्रभूदयाल ने आदेश दिया ।
“जुग-जुग जियो बेटा ।” - सुनील कृतज्ञतापूर्ण स्वर में बोला ।
और फिर उठकर छड़ी के सहारे कांपकर चलता हुआ सन्तरी के साथ हो लिया ।
“और लौटती बार मेरे पास होकर जाइयेगा ।” - प्रभूदयाल ने पीछे से आवाज दी ।
“अच्छा ।” - सुनील बोला ।
सन्तरी उसे पुलिस हैडक्वार्टर के उसी फ्लोर पर स्थित छोटी सी हवालात में ले आया ।
हवालात के एक छोटे कमरे में कृति बन्द थी । कमरे के सामने के भाग में एक लोहे के सीखचों वाला चौड़ा दरवाजा लगा हुआ था । उस द्वार के अतिरिक्त उस कोठरी में हवा या प्रकाश के आगमन का कोई साधन नहीं था ।
सन्तरी ने कोठरी का दरवाजा खोला और सुनील को भीतर प्रविष्ट हो जाने दिया । सन्तरी बाहर गलियारे की दूसरी दीवार के साथ लगकर खड़ा हो गया ।
कृति कमरे के कोने में पड़ी एक लोहे की चारपाई पर बैठी हुई थी । उसके चेहरे से वह रौनक गायब हो चुकी थी जो सुनील ने पहली बार ‘नैपोली’ के बार में देखी थी । उसने गहन अवसाद भरे नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
सुनील लड़खड़ाता हुआ उसके समीप चारपाई पर बैठ गया ।
“मैं तुम्हारा नाना बद्री प्रसाद हूं ।” - सुनील पूर्ववत बनावटी स्वर में बोला ।
कृति के नेत्रों पर सन्देह के भाव परिलक्षित हुये ।
“मेरे नाना जी को मरे बरसों गुजर चुके हैं ।” - वह बोली - “और उनका नाम बद्री प्रसाद नहीं था ।”
“मैंने कहा था कि पुलिस वालों की नजरों में मैं तुम्हारा नाना बद्री प्रसाद हूं ।”
“ओह !” - वह बोली । लेकिन उसके नेत्रों में से सन्देह के भाव नहीं मिटे - “और वास्तव में आप क्या हैं ?”
“मैं सुनील हूं ।” - सुनील धीरे से अपने वास्तविक स्वर में बोला ।
कृति के नेत्र फैल गये ।
“नहीं ।” - वह अविश्वासपूर्ण स्वर से बोली ।
“देखो । सन्तरी तुम्हारी कोठरी के बाहर ही खड़ा है । अगर उसे सन्देह हो गया कि मैं वह नहीं हूं जो मैं स्वयं को प्रकट करने का प्रयत्न कर रहा हूं तो बड़ी दुर्गति होगी । इसलिये तुम हैरानी और अविश्वास जैसे भावों पर वक्त बरबाद करना बन्द करो और कम से कम समय में पूरी सच्चाई से मेरे ज्यादा से ज्यादा सवालों का जवाब देने की ओर ध्यान दो ।”
“लेकिन यह बहुरूप...”
“बहुत जरूरी था । मेरे वास्तविक रूप में इन्सपेक्ट प्रभूदयाल मुझे तुम्हारी हवा भी नहीं लगने देता । अभी भी उसने मुझे इस आशा से तुमसे मिलने दिया है कि मैं तुम्हें अपने पति की हत्या का अपराध स्वीकार करने के लिये तैयार कर लूंगा ।”
“लेकिन सुनील, भगवान की सौगन्ध, मैने अपने पति की हत्या नहीं की है ।” - कृति टूटे स्वर से बोली ।
“जो ढेर सारे सवाल मैं तुमसे पूछना चाहता था उनमें से पहला और सबसे महत्वपूर्ण यही था ।”
कृति चुप रही ।
“तुमने अपने पति की हत्या नहीं की ?” - सुनील ने फिर पूछा ।
“नहीं... मैंने तो ऐसी भयंकर बात कभी सपने में भी नहीं सोची ।
“लेकिन पुलिस की तफ्तीश में सामने आये सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ हैं ।”
“यह मेरा दुर्भाग्य है ।”
“तुम कल छः बजे डीलक्स बस पर सवार हुई थीं ?”
“हां ।”
“और रास्ते में कहीं उतर कर वापिस राजनगर नहीं लौटीं ?”
“नहीं । सवाल ही पैदा नहीं होता । मैं तो सीधी विश्वनगर ही जाकर उतरी थी ।”
“तुमने उसी बस में राजनगर से अपना सफर आरम्भ करने वाली माला नाम की युवती का अपने विरुद्ध बयान सुना है न ?”
“सुना है ।”
“उसके कथनानुसार और पुलिस की थ्योरी के अनुसार या तो तुम सुबह राजनगर से बस में चढी ही नहीं और अगर चढीं तो थोड़ा आगे उतरकर चुपचाप वापिस राजनगर लौट आई । दस बजे के आस-पास किसी समय तुमने अपने पति की हत्या कर दी । पौने बारह बजे विशालगढ जाने वाले हवाई जहाज की पैसेन्जर लिस्ट में तुम्हारा नाम है । उस हवाई जहाज द्वारा पौने एक बजे के करीब तुम विशालगढ हवाई अड्डे पर पहुंची । वहां से तुमने एक टैक्सी ली और टैक्सी ड्राईवर को पांच रुपये ज्यादा देने का लालच देकर उसे जल्दी-जल्दी विशालगढ बस स्टैण्ड पहुंचने के लिये कहा क्योंकि तुमने विश्वनगर जाने वाली डीलक्स बस पकड़नी थी, जिसमें तुम्हारी सीट बुक थी और जो पूरे एक बजे विशालगढ से चलती थी । विशालगढ बस स्टैण्ड में माला ने खुद तुम्हे टैक्सी से निकल कर आखिरी क्षण में भाग कर बस पकड़ते देखा ।”
“लेकिन यह झूठ है, असम्भव है ।” - कृति व्यथित स्वर में बोली - “मैंने ऐसा कुछ नहीं किया । मुझे फंसाया जा रहा है मैं तो कल सुबह छः बजे राजनगर से उस बस में सवार हुई थी और सीधी विश्वनगर ही जाकर उतरी थी ।”
“अपने कथन की सत्यता सिद्ध करने के लिये तुम कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सकती हो ?”
कृति चुप हो गई ।
“किसी ने तो मुझे राजनगर से विशालगढ के बीच के फासले में बस में बैठे देखा होगा ।” - थोड़ी देर बाद वह बोली ।
“तुम्हारी बगल में कौन बैठा था !”
“मेरी बगल में एक वृद्ध बैठे थे जो रास्ते में ही कहीं उतर गये थे ।”
“कहां ?”
“याद नहीं ।”
“तुम्हारी उनसे या किसी और यात्री से कोई बातचीत हुई ?”
“नहीं ।”
“मतलब यह कि तुम्हारे पास यह सिद्ध करने का कोई साधन नहीं है कि तुम शुरू से आखिर तक उस बस में मौजूद थीं ?”
कृति चुप रही ।
“अगर यह मान भी लिया जाये कि संयोगवश हवाई जहाज में किसी और कृति मजूमदार ने सफर लिया था और नाम की समानता की वजह से यह समझ लिया गया कि वह कृति मजूमदार तुम हो और विशालगढ हवाई अड्डे से टैक्सी में भी कोई और ही महिला सवार होकर बस अड्डे तक पहुंची थी लेकिन माला की शहादत को तो फिर भी नहीं झुठलाया जा सकता । वह कसम खाकर कहती है कि विशालगढ बस अड्डे पर उसने तुम्हें टैक्सी से उतरकर भागकर बस में सवार होते देखा था ।”
“वह झूठ बोलती है ।”
“लेकिन एक अजनबी इन्सान को जिसका तुम्हारे साथ कोई वास्ता नहीं, जिसे तुम नहीं जानती, जो तुम्हे नहीं जानता, तुम्हारे विरुद्ध इतना भयकर झूठ बोलने की जरूरत क्या है ?”
“यही तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।”
“तुमने बस में माला को देखा था ?”
“शायद देखा हो । बस में और भी औरते मौजूद थीं, पता नहीं उनमें से माला कौन थी ?”
“अब एक बात और बताओ !”
“पूछो ।”
“उस दिल नैपोली में मिलने के बाद तुम दोबारा मुझसे मिली क्यों नहीं ? और उस दिन तुम नैपोली से एकाएक भाग क्यों खड़ी हुई थीं ? क्या तुम अलीबाबा के मैनेजर देसाई को देखकर भागी थीं ?”
“तुम देसाई जानते हो ?” - कृति ने आश्चर्यपूर्ण स्वर में पूछा ।
“नहीं, लेकिन मुझे लगा कि तुम उसी को देखकर वहां से भागी थी ।”
“तुम्हारा ख्याल एकदम सही है । उस दिन मैं समझी थी कि देसाई की मुझ पर नजर पड़ने से पहले ही में वहां से भाग खड़ी हुई थी लेकिन वास्तव में देसाई ने मुझे पहले ही देख लिया था और दुर्भाग्यवश वह तुम्हें भी पहचानता था ।”
“अच्छा ।”
“हां । देसाई ने मेरे पति को बताया कि मैं नैपोली में तुम्हारे साथ बैठी थी और उसको देखते ही रेस्टोरेन्ट की किचन के रास्ते वहां से भाग खड़ी हुई थी । थोड़ा बहुत सन्देह तो मेरे पति को मुझ पर पहले से ही था । उस दिन के बाद उसने मेरी कड़ी निगरानी करनी आरम्भ कर दी । वह क्षण भर के लिये भी मुझे अकेला नहीं छोड़ता था । वह जहां जाता था मुझे अपने साथ लेकर जाता था । मेरा ख्याल है कि उसके बास ने उसे चेतावनी दी थी कि अपनी बीवी को सम्भाले । इसी वजह से मैं उस दिन के बाद तुमसे सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकी थी ।”
“परसों रात तुमने मुझे अलीबाबा में फोन कहां से किया था ? नैय्यर एण्ड कम्पनी से ?”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“तुम्हारे बताये बिना जब मैंने यह जान लिया है कि तुम एफ-18 शंकर रोड पर रहती हो तो यह मामूली बात है ।” - सुनील अकड़ कर बोला ।
कृति ने एक आश्चर्यपूर्ण दृष्टि सुनील पर डाली और फिर बोली - “परसों रात मैं अपने पति के साथ ‘अलीबाबा’ में गयी थी । वहां मैंने तुम्हें बैठे देखा था । हम अलीबाबा से जल्दी ही वापस लौट गये थे । फिर मुझे तुमसे सम्पर्क स्थापित करने का एक तरीका सूझा । मैं किसी प्रकार अपने पति की नजर बचाकर कोठी से बाहर निकल आयी । मैंने एक टैक्सी ड्राईवर के हाथ ‘अलीबाबा’ में तुम्हारे लिये चिट्ठी भेज दी और फिर नैय्यर एण्ड कम्पनी से अलीबाबा में फोन करके तुम्हें बता दिया कि तुम्हें उस चिट्ठी का क्या करना है । तभी मुझे अपना पति नैय्यर एण्ड कम्पनी की ओर आता दिखाई दिया और मुझे फौरन टेलीफोन बन्द कर देना पड़ा ।”
“फिर तुम्हारे पति ने तुमसे कुछ नहीं कहा ?”
“वह मुझसे बड़ी बुरी तरह पेश आया । गुस्से में उसने मुझे जान से मार डालने की धमकी दी और कहा कि आगे से वह मुझे ताले में बन्द करके जाया करेगा ।”
“ऐसा कभी किया उसने ?”
“नहीं । अगले दिन उसने अपने बुरे व्यवहार के लिये मुझसे माफी मांगी थी और मुझे राय दी थी कि मैंने कुछ दिन के लिये अपनी मां के पास विश्वनगर चली जाऊं ।”
“कल सुबह साढे नौ बजे के करीब मैं मजूमदार से तुम्हारी कोठी पर मिला था । वह अपनी कोठी को सामान सहित फौरन बेच देने की बात कर रहा था । ऐसा क्यों ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“उसने मुझे सारी कोठी दिखाई थी । ऊपर के कमरे पर ताला लगा हुआ था । वह कहता था कि उस कमरे की चाबी तुम अपने साथ विश्वनगर ले गयी हो । तुम वह चाबी अपने साथ ले गई थीं ?”
“नहीं ।”
“मेरा भी यही ख्याल था । मैंने उस कमरे के भीतर किसी के सांस लेने की आवाज सुनी थी । उस समय मेरा ख्याल था कि उसने कमरे में तुम्हें बन्द कर रखा है लेकिन...”
“यह असम्भव है ।” - कृति उसकी बात काट कर बोली - “मैं तो सुबह पांच बजे ही स्टैंड की ओर रवाना हो गई थी ।”
“लेकिन कोई तो बन्द था उस कमरे में । कौन हो सकता है वह ?”
“मुझे नहीं मालूम । मेरी नजर में तो कोई भी नहीं हो सकता । सुबह पांच बजे तक तो कोठी में मेरे और मेरे पति के अतिरिक्त कोई दूसरा आदमी नहीं था । अगर बाद में कोई आया भी होगा तो मेरे पति ने भला उसे किसी कमरे में क्यों बन्द कर दिया होगा ।”
“खैर छोड़ो ।” - सुनील अपनी प्रश्नावली की धारा बदलता हुआ बोला - “तुमने कहा कि स्मगलरों के जिस गैंग का तुम्हारा पति सदस्य है, तुम उसके बॉस को जानती हो ?”
“हां ।”
“कौन है वह ?”
कृति हिचकिचाई ।
“रासबिहारी ?”
कृति ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“जो चिट्ठी तुमने रासबिहारी को मेरे द्वारा भिजवाई थी, उसमें एक आदमी के चेहरे की अखबार में छपी तस्वीर की कटिंग थी, एक ड्राईंग थी जिसमें फांसी पर लटका हुआ एक आदमी दिखाया गया था और साथ में एक पत्र था जिस पर मजूमदार का पीछा छोड़ देने के बारे में धमकी लिखी हुई थी । उसका क्या मतलब था ?”
कृति चुप रही ।
“तुमने यह कैसे सोच लिया था कि उस चिट्ठी से रासबिहारी डर जायेगा और तुम्हारे पति का पीछा छोड़ देगा ?”
“मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहती ।” - कृति धीरे से बोली ।
“क्यों ?”
कृति ने उत्तर नहीं दिया ।
“अच्छी बात है । मैं दूसरा प्रश्न पूछता हूं । तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ था कि रासबिहारी ही 1959 को फांसी की सजा पाने के बाद बम्बई की जेल तोड़कर भागा हुआ डाकू और दुर्दांत हत्यारा सुखराज है ?” - सुनील शान्ति से बोला ।
कृति एकाएक यूं चिहुंकी जैसे किसी ने उसे बिजली का तार छुआ दिया हो । वह मुंह बाये, विस्फारित नेत्रों से सुनील का मुंह देखने लगी ।
“इसमें हैरान होने वाली कौन-सी बात है ?” - सुनील बोला - “आखिर मैं भी तो अपनी खोपड़ी में दिमाग रखता हूं । वह अखबार की कटिंग की तस्वीर सुखराज की वास्तविक सूरत थी । पुराने अखबारों की फाइलों में मैं भी उसे तलाश कर सकता था ।”
कृति के होठ बन्द हो गये ।
“तुम्हें कैसे मालूम हुआ था कि रासबिहारी ही सुखराज था ?” - सुनील ने अपना प्रश्न दोहराया - “घनी दाढी मूछों और चश्मे के बिना रासबिहारी को बिना किसी पूर्व संदर्भ के सुखराज के रूप में पहचान पाना तो बहुत कठिन है ।”
“लेकिन प्राकृतिक रूप से उसके चेहरे की बनावट में एक विकार है जिसे दाढी मूंछ नहीं छुपा सकती ।” - कृति धीरे से बोली ।
“क्या ?”
“उसका एक कान दूसरे कान से थोड़ा ऊंचा है जिसकी वजह से वह चश्मा भी विशेष प्रकार का पहनता है । उसके चश्मे की एक ओर कमानी दूसरी ओर से थोड़ी ऊंची फिट की हुई होती है ताकि कान ऊंचे नीचे होने की वजह से आंखों के सामने चश्मा भी टेढा न हो जाये ।”
सुनील के नेत्रों के सामने रासबिहारी की सूरत घूम गई ।
“शायद तुम ठीक कह रही हो ।” - थोड़ी देर बाद वह बोला - “मुझे उसके चश्मे में कोई असाधारण बात महसूस तो हुई थी लेकिन उस समय मुझे यह नहीं मालूम हुआ था कि साधारण आदमियों की तरह उसके कान एक ही जैसे नहीं और इसलिये वह एक विशेष प्रकार का चश्मा लगाता है जिसका फ्रेम विशेष रूप से उसी के लिये बनाया जाता है । लेकिन फिर भी तुमने उसे सुखराज के रूप में कैसे पहचाना ?”
“मेरा एक भाई है । वह जासूसी उपन्यास लिखता है और आरम्भ से हावी के तौर पर समाचार पत्रों में छपने वाले अपराध समाचारों की कटिंग रखता है । उसी की स्क्रैप बुक में मैंने सुखराज की वास्तविक सूरत की कटिंग लगी देखी थी । उस कटिंग के साथ ही एक समाचार की कटिंग भी थी जिसमें सुखराज के कानों की आसाधारण बनावट के बारे में लिखा हुआ था पता नहीं क्यों इतने सालों बाद भी मुझे वह बात भूली नहीं । रासबिहारी को जब मैंने पहली बार देखा था, तभी उसके कानों की असाधारण बनावट मेरी नजरों से छुपी नहीं रही थी, फिर बाद में जब पहले संयोगवश और बाद में छुपकर रासबिहारी और अपने पति के वार्तालाप सुनने का अवसर मिला तो मुझे मालूम हो गया कि वास्तव में मेरा पति स्मगलर है और रासबिहारी ही उसका बॉस है और मेरा पति उसके चंगुल में फंसा हुआ है ।”
“फिर तुमने इस चिट्ठी के द्वारा बिहारी को ब्लैकमेल करने की कोशिश की । तुमने उसे धमकी दी कि अगर वह तुम्हारे पति का पीछा नहीं छोड़ देगा तो तुम पुलिस को इस तथ्य की सूचना दे दोगी कि वही फांसी पर चढ़ाये जाने से पहले बम्बई की जेल तोड़कर भागा हुआ हत्यारा सुखराज है ।”
कृति ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“लेकिन तुमने यह नहीं सोचा कि तुम्हारी इस धमकी के बाद पहले इसके कि तुम उसका रहस्य खोल पाती वह तुम्हारा गला काट देगा ।”
“लेकिन मैंने चिट्ठी में अपना नाम थोड़े ही लिखा था । उसको यह कैसे मालूम होता कि वह चिट्ठी मैंने उसके पास भेजी है ?”
“मूर्खों जैसी बातें मत करो । तुम्हारे नाम न लिखने के बावजूद भी यह बात दिन की तरह स्पष्ट थी कि चिट्ठी किसने लिखी थी । रासबिहारी से मजूमदार की रिहाई दिलाने या तो तुम्हारी दिलचस्पी हो सकती है या स्वयं मजूमदार की । रासबिहारी फौरन यह बात समझ गया होगा कि चिट्ठी तुमने भेजी है या तुम्हारे पति ने और या फिर दोनों ने वह तुम दोनों का ही खून करवा देता और कहानी खत्म हो जाती ।”
“इसलिये तो मैंने चिट्ठी तुम्हारे हाथ भिजवाई थी ।” - कृति दबे स्वर में बोली - “और तुम्हें यह कहा था कि तुम उसे यह जरूर बताना कि तुम ‘ब्लास्ट’ के क्राइम रिपोर्टर हो ताकि वह यही समझे कि अगर उसने मेरी धमकी न मानी तो सारा संसार उसकी वास्तविकता जान जायेगा ।”
“मतलब यह है कि तुमने अपने साथ-साथ मेरी गर्दन कटवाने का भी इन्तजाम कर दिया था ।”
कृति कुछ क्षण चुप रही और खेदपूर्ण स्वर में बोली - “अपने कृत्य की इतनी भयंकर सम्भावनायें नहीं सोची थीं मैंने । मेरा ख्याल था कि मेरी सोची हुई तरकीब काम कर जायेगी ।”
“मैडम ऐसी तरकीबें जासूसी उपन्यासों में ही चलती हैं । हकीकत में नहीं ।”
कृति चुप रही ।
“यह मालूम हो जाने के बाद कि रासबिहारी वास्तव में फरार अपराधी सुखराज है तुम्हें चाहिये था कि तुम यह बात अपने पति को बता देती और फिर तुम्हारा पति सीधा जाकर रासबिहारी से बात करता । वह कहता कि उसे मालूम हो गया है कि रासबिहारी सुखराज है और यह कि उसने यह बात प्रमाणों सहित एक चिट्ठी में लिख दी है और वह चिट्ठी उसने अपने किसी मित्र के पास या किसी वकील के पास रख दी है और अगर उसने तुम्हारे पति का पीछा नहीं छोड़ा या उसका या तुम्हारा किसी प्रकार का अहित करने का प्रयत्न किया तो वह चिट्ठी सीधी पुलिस के पास पहुंच जायेगी । क्योंकि रासबिहारी यह नहीं जान पाता कि वास्तव में चिट्ठी है कहां । इसलिये वह तुम्हारे पति को या तुम्हें हाथ लगाने से भी घबराता ।”
“मुझसे गलती हुई ।” - कृति धीरे से बोली - “मैंने जरूरत से ज्यादा होशियारी दिखाने की कोशिश की थी ।”
“यह तो तुम्हारा सौभाग्य था कि उसी रात को रासबिहारी अपनी कोठी में जल मरा वर्ना अगली सुबह तक पुलिस को तुम्हारी, तुम्हारे पति की और साथ ही मेरी लाशें मिलतीं ।”
कृति नहीं बोली । उसके चेहरे पर लज्जा के भाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे थे ।
“अब तुमने अपने बारे में क्या सोचा है ?”
“मैं क्या सोचूं ?”
“अगर तुम निर्दोष हो तो तुम्हें स्वयं को निर्दोष सिद्ध भी करना पड़ेगा । अगर तुम अपनी निर्दोषिता का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकीं तो जो प्रमाण तुम्हारे विरुद्ध पुलिस के पास हैं, उनके दम पर वे तुम्हें फांसी के फन्दे तक पहुंचाकर ही दम लेंगे ।”
“सुनील मेरी बूढी मां और छोटे से बच्चे के सिवाय इस दुनिया में मेरा कोई भी नहीं है ।”
“तुम्हारा भाई ?”
“मर चुका है । पाकिस्तानी हमले के समय वह फौज में भरती हो गया था और खेमकरण सैक्टर में एक्शन में भारा गया था ।”
“ओह !”
“मेरी निर्दोषिता पर विश्वास करके अगर किसी बाहरी आदमी ने मेरी सहायता नहीं कि तो.. तो..”
और उसके नेत्रों में आंसू उमड़ पड़े ।
“रोना मत ।” - सुनील हड़बड़ा कर बोला ।
कृति ने डबडबाई आंखों से उसकी ओर देखा और सिर झुका लिया ।
“अगर तुम सच बोल रही हो तो यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि माला नाम की वह रूपवती झूठ बोल रही है जिसने तुम्हारे विरुद्ध गवाही दी है । अगर यह मालूम हो जाये कि उसने झूठ क्यों बोला और तुम्हें अपने पति की हत्या के अपराध में फंसाने में उसका क्या स्वार्थ था तो तुम निर्दोष सिद्ध हो सकती हो । लेकिन इस सारी थ्योरी की बुनियाद यह है कि तुम सच बोल रही हो । अगर यह बुनियाद ही हिल गई तो मेरी थ्योरी एक क्षण में ढेर हो जायेगी ।”
“मैं सच बोल रही हूं ।” - कृति व्यग्र स्वर में बोली - “हे भगवान ! मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि मैंने अपने पति का खून नहीं किया है ।”
“मैं तुम्हारे पर विश्वास कर रहा हूं । अब इसी विश्वास के आधार पर मैं दुनिया को विश्वास को दिलाने का प्रयत्न करुगा कि तुम निर्दोष हो और खामखाह फंसाई जा रही हो ।” - और सुनील उठ खड़ा हुआ - “मैं जाता हूं ।”
कृति ने कृतज्ञतापूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा और फिर बोली - “मैं तुम्हारे इस अहसान को जिन्दगी भर नहीं भूलूंगी ।”
“बिल्कुल मत भूलना ।” - सुनील बोला - “और साथ ही अपने उस भाई को मत भूलना जो देश की खातिर युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया था क्योंकि सम्भावना इस बात की भी थी कि देश के शत्रुओं की गोली का मैं शिकार हो गया होता और तुम्हारा भाई आज इस संकट की घड़ी में तुम्हारी सहायता करने के लिये जीवित होता ।”
कृति के नेत्रों से टप-टप आंसू बहने लगे । सुनील छड़ी का सहारा लिये कांपता हुआ कोठरी से बाहर आया ।
सन्तरी ने आने बढकर कृति की कोठरी को फिर ताला लगा दिया और फिर सुनील के साथ चल दिया ।
उसी क्षण उसी गलियारे के सिरे में स्थित एक कमरे का द्वार खुला और उसमें से इन्सपेक्टर प्रभूदयाल प्रकट हुआ । वह लम्बे डग भरता हुआ सुनील के समीप आया और फिर नम्त्र स्वर में बोला - “नातिन से मिल आये, बद्री प्रसाद जी ।”
“हां बेटा ।” - सुनील स्नेहासक्त स्वर से बोला - “भगवान तुम्हारा इकबाल बुलन्द करे । तुम्हें तरक्की दे ।”
“क्या कहती है वह ?”
“बेटा मुझे अफसोस है कि तुम्हारे वाली राय स्वीकर कर लेने के लिये मैं उसे तैयार नहीं कर सका । वह तो एक ही बात की रट लगाये हुये है - मैं निर्दोष हूं । मैं निर्दोष हूं ।”
“च-च-च, यह तो उसकी भारी हठधर्मी है ।”
“बेटा, मैं तो यही नहीं समझ सका कि वह सच बोल रही है या झूठ ।”
“अब आपने क्या सोचा है ?”
“मैं तो उसके लिये थोड़ा बहुत जो कर सकता हूं, करूंगा ही । किसी वकील से बात करूंगा । शायद कृति सच ही बोल रही हो और वह उसे बचा ले ।”
“वैसे आप की क्या राय है ? वह सच बोले रही है या झूठ ?”
“मेरी राय से तो वह सच ही बोल रही है ।”
“अगर ऐसी बात है तो आप उसे निर्दोष सिद्ध करने के लिये निजी तौर पर कुछ नहीं करेंगे ?”
“मैं क्या कर सकता हूं ?”
“जैसे आप वास्तविक हत्यारे की तलाश कर सकते हैं ।”
“मुझ में उतनी हिम्मत कहां बेटा” - सुनील हांफता हुआ बोला - “मैं बूढा आदमी ठहरा । कब्र में लटकाये बैठा हूं । पता नहीं कब ऊपर से बुलावा आ जाये । यहां पुलिस हैडक्वार्टर तक हो पता नहीं कैसे आया हूं !”
“मुझे आप से हमदर्दी है ।” - प्रभूदयाल सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला - “अब आप कहां जायेंगे ? मेहता रोड पर अपने घर ?”
“नहीं । पहले किसी वकील से मिलूंगा ।”
“इससे पहले आप मुझसे क्यों नहीं मिलते ?”
“तुमसे ?” - सुनील आश्चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“जी हां । आपने कहा था न कि कृति से मिल चुकने के बाद आप लौटते हुये मेरे पास आयेंगे । भूल गये क्या ?”
“नहीं ।”
“तो फिर आइये न ।”
“लेकिन...”
“आइये न ।” - प्रभूदयाल आग्रहपूर्ण स्वर में बोला - “थोड़ी देर हमारे पास बैठिये । आखिर आप कृति के नाना हैं । केस के दौरान में आपसे कई बार मुलाकात होने की सम्भावना है । क्यों न पहले ही आप से अच्छी तरह परिचित हो लिया जाये ।”
और उसने बड़े आदरपूर्ण ढंग से सहारा देने की नीयत से सुनील की पीठ पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रख दिया । सुनील को यूं लगा जैसे प्रभूदयाल का उसके कन्धे पर रखा हुआ हाथ उसके शरीर को टटोल रहा हो । सुनील के कानों में खतरे की घन्टी बजने लगी । उसको प्रभूदयाल का स्वर भी जरूरत से अधिक चिकना चुपड़ा लग रहा था । लेकिन उसने अपने अभिनय में कमी नहीं आने दी । वह पूर्ववत छड़ी के सहारे कांपता हुआ प्रभूदयाल के साथ चलता रहा ।
“बद्री प्रसाद जी” - रास्ते में प्रभूदयाल बोला - “आप इस देश के सम्मानित नागरिक हैं । अंग्रेजों के जाने के बाद आपके देश की पुलिस ने कितनी तरक्की कर ली है, उससे आपको थोड़ा सा प्रभावित करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं मैं ।”
“लेकिन बेटा...”
“विज्ञान द्वारा अविष्कृत उपकरणों को पुलिस अपने इस्तेमाल में किस ढंग से लाती है, इसका छोटा सा नमूना मैं आपको दिखाना चाहता हूं ।” - प्रभूदयाल उसको अपनी बात करने का अवसर दिये बिना ही बोल पड़ा ।
“मैं कुछ समझ पाऊंगा ?” - सुनील ने संदिग्ध स्वर में प्रश्न किया ।
“सच पूछिये तो उसे केवल आप ही समझ पायेंगे । आइये ।”
प्रभूदयाल उसे अपने कमरे में ले आया । उसने सुनील को एक कुर्सी पर बैठा दिया और स्वयं मेज के पीछे अपने स्थान पर बैठ गया । उस इन्टरनल टेलीफोन पर एक नम्बर डायल किया और फिर माउथपीस में बोला - “स्पूल को रिवर्स करके टेपरिकार्डर यहां भेज दो ।”
और उसने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया और फिर मुस्कराता हुआ बोला - “दो मिनट, केवल दो मिनट इन्तजार करना पड़ेगा, बद्रीप्रसाद जी ।”
सुनील का दिल धड़कने लगा ।
प्रभूदयाल चुप हो गया । उसका चेहरा बेहद गम्भीर था । वातावरण में ब्लेड की धार जैसा पैनापन उत्पन्न हो गया था । लगभग पांच मिनट बाद एक सन्तरी एक टेपरिकार्डर उठाये हुये कमरे में प्रविष्ट हुआ । प्रभूदयाल ने मेज की ओर संकेत किया । उसने टेपरिकार्डर प्रभूदयाल और सुनील के बीच में रख दिया और फिर उसे चालू कर दिया । कुछ देर टेपरिकार्डर से कोई आवाज नहीं निकली और फिर सुनील को अपना ही स्वर सुनाई दिया - “मैं तुम्हारा नाना बद्री प्रसाद हूं ।” फिर फौरन ही कृति का स्वर सुनाई दिया - “मेरे नाना को मरे बरसों गुजर चुके हैं और उनका नाम बद्री प्रसाद नहीं था ।” फिर दुबारा उसकी अपनी आवाज - “मैंने कहा था कि पुलिस वालों की नजरों में मैं तुम्हारा नाना बद्री प्रसाद हूं ।” फिर कृति की आवाज - “ओह और वास्तव में आप क्या हैं ?” फिर उसकी अपनी आवाज - “मैं सुनील हूं ।”
टेपरिकार्डर चलता रहा और सुनील के कानों में पिघले शीशे की तरह वे तमाम बातें पड़ती रही जो कुछ देर पहले कृति की कोठरी में उसके और कृति के बीच हुई थी ।
“बद्री प्रसाद जी ।” - प्रभूदयाल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “यह वार्तालाप आप आखिर तक सुनना चाहते हैं या इतना ही काफी होगा ?”
सुनील चुप रहा । उसका दिल तेजी से धड़क रहा था । प्रभूदयाल ने सन्तरी को संकेत किया । सन्तरी ने टेपरिकार्डर बन्द किया और उसे उठाकर कसरे से बाहर निकल गया ।
“रिपोर्टर साहब” - एकाएक प्रभूदयाल कर्कश स्वर से बोला - “तुम्हारी दाढ़ी मैं नोच कर उतारूं या इसे तुम खुद उतारोगे ।”
फिर सुनील के शरीर का ढीला-ढालापन गायद हो गया । वह कुर्सी पर सीधा बैठ गया और अपने स्वर में बोला - “यह दाढी मेरे या तुम्हारे नोचने से नहीं उतरेगी, इन्पेक्टर साहब ! बड़ा मजबूत मेकअप है ।”
“तुम समझे थे कि तुम्हारे इस मेकअप से मैं धोखा खा जाऊंगा ।”
“मैंने बिल्कुल ठीक समझा था । मेरे मेकअप से तुम्हारे फरिश्तों को भी सन्देह नहीं हुआ था कि मैं सुनील हूं । तुमने मुझे मेरे मेकअप से नहीं, टेपरिकार्डर के वार्तालाप से पहचाना है जिसमें मैं अपनी असली आवाज में बोल रहा था और जिसमें मैंने स्वीकार किया था कि मैं सुनील हूं ।”
प्रभूदयाल तनिक कसमसाया और फिर बोला - “रस्सी जल गई लेकिन बल नहीं गया ।”
“अभी रस्सी को ही क्या हुआ है ?”
“अभी मालूम हो जायेगा । इस बार अगर मैंने तुम्हें जेल की हवा नहीं खिलाई तो मुझे पुलिस इन्सपेक्टर नहीं घसियारा कह देना ।”
“क्या इल्जाम लगाओगे मुझ पर ?”
“मैं तुम पर कई इल्जाम लगाऊंगा और उनमें से एक से भी तुम बच नहीं पाओगे ।”
“जैसे ?”
“जैसे स्प्रेसिंग एवीडैन्स । चीटिंग दी अथारिटी बाई इम्पर्सनेशन । अटेम्प्ट टु रेस्क्यू मडैर सस्पैक्ट फ्राम पुलिस कस्टडी । वगैरह ।”
“तुम मेरे खिलाफ कोई इल्जाम सिद्ध नहीं कर सकोगे ।” - सुनील रोष भरे स्वर से बोला । प्रभूदयाल ने इस बार उसे धर लिया था ।
“इसके विपरीत, इस बार तो तुम्हारा बचना करिश्मा होगा । अगर तुम्हारा मेकअप उतना ही मजबूत है जितना तुम दावा कर रहे हो तो तुम्हारी ऐसी तैसी करने के लिये यही काफी होगा । तुम्हारा यह मेकअप तो अब मैं अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने ही उतरवाऊंगा ।”
सुनील ने मन ही मन ‘जरूरत में तो गधे को भी बाप बनाना पड़ता है’ वाली कहावत को दोहराया और फिर प्रत्यक्ष में धीमे स्वर में बोला - “अगर मेरी ऐसी तैसी हो जायेगी तो इससे तुम्हें क्या मिलेगा ?”
“मुझे एक कर्तव्य परायण पुलिस अफसर होने के नाते यह सन्तुष्टि होगी कि मैंने एक अपराधी को कानून के हवाले करके अपना कर्तव्य निभाया और तुम्हें कानून के साथ खिलवाड़ करने का मजा चखाया ।”
“जो कुछ मैंने किया है, उसमें मेरा कोई निजी स्वार्थ नहीं है ।” - सुनील दबे स्वर से बोला - “मेरी नीयत बुरी नहीं है ।”
“लेकिन तुम्हारे कर्म तो बुरे हैं । हमेशा ही तुम्हारे एक्शन ऐसे होते हैं जैसे कानून को तुम कुछ समझते ही नहीं । हर बार तुम किसी न किसी तरह पुलिस की चंगुल से निकल जाते थे लेकिन इस बार लुहार की एक का मजा चख रहे हो ।”
“मैंने यह बहुरूप इसलिये धारण किया था क्योंकि मुझे मालूम था कि सीधे तौर पर तुम मुझे कृति से नहीं मिलने दोगे ।”
“भला मैं कृति से तुम्हें क्यों मिलने देता ?” - प्रभूदयाल सख्त स्वर में बोला - “तुम उनके वकील नहीं । तुम उसके रिश्तेदार नहीं । तुम उससे मिलना चाहते थे केवल अपने लिये चटपटी खबर हासिल करने लिये । अगर मैं तुम्हें कृति से मिलने देता तो मैं और अखबारों के रिपोर्टरों को कैसे रोक सकता था ?”
“प्रभूदयाल, बाई गाड मेरा यह इरादा नहीं था ।”
“क्या इरादा नहीं था तुम्हारा ?”
“मैं ‘ब्लास्ट’ के लिये चटपटी खबर का मसाला हासिल करने के लिये कृति से नहीं मिलना चाहता था ।
“तो फिर ?”
“मैं उससे इसलिए मिलना चाहता था क्योंकि मुझे विश्वास था कि वह निर्दोष है और केवल सर्कमस्टान्शल एवीडेन्स के दम पर फंसाई जा रही है ।”
“तुम्हारा ख्याल गलत है । उसके खिलाफ बड़ा मजबूत केस है ।”
“लेकिन वह निर्दोष है ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“तुमने मेरे और उसके वार्तालाप का पूरा टेपरिकार्ड सुना है और...”
“और वह तुम्हें इसलिये निर्दोष लग रही है ।” - प्रभूदयाल उसकी बात काट कर बोला - “क्योंकि वह कहती है कि वह निर्देष है ?”
“हां । मुझे वह एकदम सच बोलती हुई लगी थी ।”
“अरे वह बड़ी चालाक औरत है और तुम पहले दर्जे के अहमक हो । जहां औरत ने दो टसुए बहाये वहीं तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गये और तुम लगे हाहाकार मचाने कि वह निर्देष मारी जा रही है, पुलिस उसके साथ ज्यादती कर रही है, सारी दुनिया उसके साथ ज्यादती कर रही है और तुम्हारा उसकी मदद करना इसलिये जरूरी है क्योंकि दुनिया में उसका कोई मददगार नहीं । बेटा... वह औरत अपनी ऊंचे दर्जे की अभिनय क्षमता और खूबसूरती के दम पर तुम्हारा मुर्गा बना रही है ताकि तुम उससे हमदर्दी जताओ और फिर किसी प्रकार तुम उसे इस जंजाल से निकाल लो जिसमें वह माला नाम के चश्मदीद गवाह और अन्य सर्कमस्टान्शल प्रमाणों की वजह से फंस गई है ।”
“प्रभूदयाल ।” - सुनील जिद भरे स्वर से बोला - “क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारी वजह से एक बेगुनाह इन्सान फांसी पर चढ जाये ।”
“हरगिज नहीं लेकिन मैं जानता हूं वह औरत निर्देष नहीं है । अरे भइय्या, वह औरत बहुत घिसी हुई है । उसने अपनी ओर से ऐसा इन्तजाम किया था कि पुसिस उस पर सात जन्म सन्देह नहीं कर पाती । यह तो पुलिस का सौभाग्य समझो कि हमें माला नाम का बड़ा जागरुक गवाह मिल गया और उसकी सारी स्कीम गड़बड़ा गई और अब वह अपने औरत होने का फायदा उठाकर और आंसू बहा बहा लोगों की हमदर्दी हासिल करने की कोशिश कर रही है । लेकिन ऐसे ड्रामेटिक तरीकों से क्या कोई कानून के पंजे से निकल सकती है ।”
“प्रभू, तुम एक संदिग्ध व्यक्ति के हाथ में आ जाने के बाद उसी को अपराधी सिद्ध करने के पुलिस के परम्परागत तरीके को अपने दिमाग से निकाल कर जरा ठण्डे दिल से विचार करो तो तुम्हें महसूस होगा कि उसके खिलाफ उतना मजबूत केस नहीं है जितनी तुम समझ रहे हो ।”
“और अगर उसने हत्या नहीं की तो बताओ हत्यारा कौन हो सकता है ? जिन हालात में मजूमदार की हत्या हुई है उनमें तुम कोई ऐसा नाम नहीं सुझा सकते जिस पर मजूमदार की हत्या का रंचमात्र भी सन्देह किया जा सके ।”
सुनील चुप रहा ।
“एक आदमी था जिसके बारे में सोचा जा सकता था कि शायद उसने मजूमदार की हत्या की हो और वह था रासबिहारी जिसके बारे में मुझे अब मालूम हुआ है कि वही फरार हत्यारा सुखराज था लेकिन वह मजूमदार से मरने से भी पहले मर चुका था ।”
“तुम यह क्यों नहीं सोचते कि शायद माला झूठ बोल रही हो ।”
“उसे क्या जरूरत है झूठ बोलने की ? वह मजूमदार को नहीं जानती, वह उसकी बीवी को नहीं जानती । वह भला क्यों झूठ बोलेगी । उसने तो एक तटस्थ दर्शक की तरह जो देखा, वह बयान कर दिया है ।”
“कृति के विरुद्ध जो केस तुम तैयार कर रहे हो, उसकी बुनियाद तो वह माला की गवाही ही है न ?”
“किसी हद तक ।” - प्रभूदयाल ने स्वीकार किया ।
“थोड़ी देर के लिये मान लो कि माला झूठ बोल रही है । फिर कृति के खिलाफ तुम्हारे केस में क्या दम रह जायेगा ?”
“लेकिन ऐसी बेबुनियाद बात मैं कैसे मान लूं ?”
“बहस की खातिर मान लेने के लेये क्या हर्ज है । एक क्षण के लिये मान लो कि माला झूठ बोल रही है ।”
“मान लिया लेकिन विशालगढ का वह टैक्सी ड्राईवर भी झूठ बोल रहा है जो कृति को हवाई अड्डे से बस स्टैण्ड पर लाया था ? क्या इण्डियन एयरलइन्स का रिकार्ड भी झूठ बोल रहा है ?”
“ड्राईवर ने कृति को देखकर कहा है कि वह वही औरत है जो विशालगढ हवाई अड्डे से उसकी टैक्सी पर चढी थी ?”
प्रभूदयाल एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “मैंने केशवराव नाम के उस टैक्सी ड्राईवर को कृति की शिनख्त के लिये विशेष रूप से यहां बुलाया है । उसने कृति की उतनी ठोस शिनाख्त तो नहीं की है जितनी माला ने की है । वह कहता है कि उसने गौर से सवारी की सूरत नहीं देखी थी लेकिन फिर भी उसे काफी हद तक विश्वास है कि कृति ही वह औरत थी जो विशालगढ हवाई अड्डे से उसकी टैक्सी में बैठी थी । लेकिन माला की ठोस गवाही की मौजूदगी में और हवाई जहाज की यात्रा सूची में कृति के नाम की मौजूदगी में केशवराव की इस प्रकार की गवाही भी बड़ी वजनी साबित होगी ।”
“बशर्ते कि माला सच बोल रही हो ।”
“वह सच बोल रही है ।” - प्रभूदयाल विश्वासपूर्ण स्वर से बोला ।
“और अगर मैं यह सिद्ध कर दूं कि माला झूठ बोल रही है ।” - सुनील शत-प्रतिशत ब्लफ मारता हुआ बोला ।
प्रभूदयाल ने घूरकर सुनील की ओर देखा और फिर संदिग्ध स्वर से बोला - “क्या सबूत है तुम्हारे पास ?”
“अभी मेरे पास कोई सबूत नहीं है लेकिन तुम मुझे चौबीस घण्टे का समय दो तो मैं न केवल यह सिद्ध कर दूंगा कि माला झूठ बोल रही है बल्कि साथ निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दूंगा कि कृति निर्देष है ।”
“ओह !” - प्रभूदयाल के होठों पर एक विषैली मुस्कराहट फैल गई - “यहां से बच निकलने की तरकीब सोच रहे हो । मुझे घिस्सा देना चाहते हो ।”
“प्रभू, बाई गाड ऐसी बात नहीं है ।”
“चौबीस घण्टों में क्या करिश्मा कर लोगे ?”
“मैं क्या करूंगा, यह देखने के लिये तुम मेरे साथ रहना । प्रभू तुम्हारा मेरे से आज ही वास्ता नहीं पड़ा है और आज जैसी स्थिति भी पहली बार नहीं आई है । तुम मेरे पिछले रिकार्ड पर नजर मारो और तुम्हें महसूस होगा, अव्वल तो ऐसी कभी नौबत ही नहीं आई कि तुम्हारी मेरी इतनी यारी हो जाये कि मैं तुमसे किसी प्रकर का वादा करूं लेकिन जब भी मैंने तुमसे कोई वादा किया है तो निभाया भी है ।”
सुनील एक क्षण के लिये प्रभूदयाल के चेहरे पर अपनी बात का प्रभाव देखने के लिये रुका और फिर बोला - “प्रभू मुझे चौबीस घण्टे की मोहलत देने से तुंम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन अगर तुमसे मुझे अपने ढंग से कृति निर्देष सिद्ध करने का मौका नहीं दिया तो एक बेगुनाह इन्सान का खून तुम्हारी गरदन पर होगा ।”
प्रभूदयाल सोचने लगा ।
“और अगर मैं अपने प्रयत्नों में सफल हो गया तो सोचा इस पेचीदे केस को इतने शानदार ढंग से सुलझाने के लिये तुम्हें कितनी वाहवाही मिलेगी ।”
“मुझे ?”
“और क्या !” - सुनील ने चारा फेंका - “मैं तो एक मामूली रिपोर्टर हूं । मेरा मुख्य काम तो ब्लास्ट के पाठकों की दिलचस्पी को ध्यान में रखकर एक रिपोर्ट तैयार करना है जिसमें केवल इस बात का जिक्र होगा कि किस प्रकार पुलिस के होमीसाइड डिपार्टमेंट के सुयोग्य इन्सपेक्टर प्रभूदयाल ने पुलिस के फंस गये को फंसाये रखने की घखने की घटिया और दकियानूसी पालिसी को छोड़कर एकदम खुले दिमाग से केस की सफ्तीश की और अपनी असाधारण बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुये मजूमदार मर्डर केस का रिकार्ड टाइम में एक नया हल खोल निकाला और निर्दोष कृति मजूमदार को फांसी के फंदे का शिकार होने से बचा केस में दिलचस्पी रखने वाले असंख्य लोगों की निगाहों में हीरो बन जाओगे ।”
प्रभूदयाल के चेहरे पर चमक आ गई ।
“और इनके विपरीत अगर तुम अपनी वर्तमान धारणा पर ही अड़े रहे और बाद में यह सिद्ध हो गया कि कृति निर्देष है तो तुम खुद सोचो तुम्हारी क्या हालात होगी ।”
प्रभूदयाल प्रभावित दिखाई दे रहा था । वह कुछ क्षण चुप रहा और फिर संदिग्ध स्वर में बोला - “तुम इस केस के बारे में जरूर कोई विशेष बात जानते हो जो मुझसे छुपा रहे हो ।”
“फिलहाल मैं कोई विशेष बात नहीं जानता हूं लेकिन फिर भी तुम्हारी सन्तुष्टि के लिये मैं तुम्हें शुरू से आखिर तक सारा किस्सा सुना दूंगा और अगले चौबीस घण्टों में मैं जो कुछ नया जान पाऊंगा, वह तुम भी जान जाओगे क्योंकि तुम हर क्षण मेरे साथ रहोगे ।”
“अब क्या चाहते हो ?”
“पुलिस की वर्दी उतारो और सादे कपड़ों में मेरे साथ चलो ।”
“कहां ?”
“4-जायसवाल भवन, शिवाजी मार्ग, माला के घर ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है, माला वहां रहती है ?”
“यहां से चलो । रास्ते में मैं तुम्हें बहुत कुछ बताऊंगा ।”
प्रभूदयाल उठ खड़ा हुआ ।
***
शिवाजी रोड पर जायसवाल भवन के सामने सुनील ने टैक्सी रुकवाई ।
दोनों टैक्सी से बाहर निकले । सुनील ने टैक्सी का बिल अदा कर दिया । प्रभूदयाल एक क्षण चुप रहा और फिर बोला - “अपना हुट उतारो ।”
सुनील ने चुपचाप उसे अपना फैल्ट हैट उतार कर दे किया, प्रभूदयाल ने हैट को अपने सिर पर इस तरह जमाया कि उसका अगला कोना उसकी आंखों तक झुक आया । फिर उसने जेब से धूप का चश्मा निकाल कर अपनी आंखों पर चढा लिया और बोला - “माला ने मुझे रात के समय पुलिस की वर्दी में देखा था । मेरी मौजूदा हालत में वह मुझे नहीं पहचान पायेगी ।”
वे फ्लैट नम्बर चार के सामने पहुंच गये ।
सुनील ने कालबेल पर उंगली रख दी ।
थोड़ी देर बाद द्वार खुला और द्वार पर एक युवती प्रकट हुई । युवती की दांई आंख पर पट्टी बंधी हुई थी और पट्टी के ऊपर से उसने नजर का चश्मा लगाया हुआ था ।
“फरमाइये ।” - वह बोली ।
“मैं माला जी से मिलने आया हूं ।” - सुनील अपने चेहरे पर एक गोल्डन जुबली मुस्कान लाता हुआ बोला ।
“फरमाइये । मेरा ही नाम माला है ।”
“नमस्कार ।” - सुनील अपना सारा चार्म अपने स्वर में उंडेलता हुआ बोला - “मेरा नाम सुनील है । मैं ब्लास्ट का विशेष प्रतिनिधि हूं ।”
“फिर ?”
“मैं अपने अखबार के लिये आपका इन्टरव्यू लेना चाहता हूं ।”
“इन्टरव्यू ! किस विषय में ?”
“सब कुछ यहीं दरवाजे पर खड़े-खड़े ही पूछियेगा ?”
“आइये ।” - माला द्वार से एक ओर हटती हुई अनिच्छापूर्ण स्वर से बोली ।
सुनील और प्रभूदयाल भीतर प्रविष्ट हो गये । माला ने उन्हें ड्राइंग रूम में बिठाया । प्रत्यक्षत: वह प्रभूदयाल में दिलचस्पी नहीं ले रही थी । इसलिये सुनील ने उसका परिचय देना जरूरी नहीं समझा । प्रभूदयाल सिर झुकाये एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“माला जी ।” - सुनील बोला - “मजूमदार की हत्या के मामले में आप पुलिस की सबसे सहत्वपूर्ण गवाह हैं । इसी सिलसिले में आपसे चन्द सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“और आपके उन चन्द सवालों का जवाब दना मेरे लिये क्यों जरूरी है ?”
“कतई जरूरी नहीं है लेकिन अगर पुलिस ने आपको अखबार वालों बात न करने के लिये कोई विशेष चेतावनी नहीं दी है तो हर्ज ही क्या है ?”
“हर्ज यह है कि मैं अभी-अभी सफर से लौटी हूं । मेरी तबियत ठीक नहीं है और आप खामख्वाह मेरा वक्त बर्बाद करेंगे ।”
“मैं आपको विशवास दिलाता हुं कि मैं आपका पांच मिनट से अधिक समय नहीं लूंगा । दरअसल मैं आपसे केवल दो-चार बातें ही पूछना चाहता हूं ।”
“पूछिये ।” - माला तनिक उखड़े स्वर से बोली ।
“क्या इस बात की किंच मात्र भी गुंजाइश नहीं है कि विशालगढ के अड्डे पर कृति को पहचानने में आपको गलती हुई हो ?”
“सवाल ही पैदा नहीं होता ।”
“आपने विशालगढ बस अड्डे पर टैक्सी रुकती देखी, उसमें से कृति को उतर बस की ओर भागते दखा और फिर आखिरी क्षण में उसे बस में चढते देखा ?”
“जी हां ।”
“आपने टैक्सी ड्राईवर की सूरत भी देखी थी ?”
“जी नहीं । ड्राईवर टैक्सी से बाहर नहीं निकला था ।”
“कल से पहले आपने कभी कृति की सूरत देखी थी ?”
“नहीं ।”
“आप मजूमदार को जानती हैं ?”
“नहीं ।”
“कभी उसे देखा है ?”
“नहीं ।”
“आपका कोई जानकार मजूमदार को जानता हो ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“आपका चश्मा नजर का है ?”
“हां ।”
“नजर काफी कमजोर है आपकी ?”
“मिस्टर ।” - माला रुष्ट स्वर से बोला - “आगर आप यह कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैं चश्मा लगाती हूं इसलिये इसलिये शायद मुझे कृति को पहचानने में गलती हो गई हो तो यह आपकी गलतफहमी है । चश्मे के साथ मेरी नजर एकदम ठीक है ।”
“जरूर होगी ।” - सुनील बोला । वह एक क्षण भर अटका और फिर बोला - “आपका यह चश्मा नया मालूम होता ?”
“एक साल पुराना है ।”
“मालूम तो नहीं होता ।”
“यह मेरा कसूर है ।”
“एक साल में आपका नम्बर नहीं बदला ?”
“पिछले आठ साल से नहीं बदला ।”
“आई सी । आपकी एक आंख पर पट्टी बंधी देख रहा हूं । क्या आपने एक आंख से ही कृति को...”
“कल जिस समय मैंने विशालगढ में कृति को देखा था, उस समय मेरी आंख पर पट्टी नहीं बंधी हुई थी । आंख की ड्रैसिंग मैंने शाम को विश्वनगर पहुंचने के बाद करवाई थी ।”
“ओह !” - सुनील सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला - “हो क्या गया था ?”
“बस में मैं खिड़की के समीप बैठी हुई थी । विश्वनगर से दस-बारह मील पहले बस एक धूल भरी कच्ची सड़क से गुजरती है । मैंने बस की खिड़की बन्द करने की ओर ध्यान नहीं दिया । धूल आंखों में पड़ गई और मैंने ऊपर से आंख मल दी । नतीजा यह हुआ कि आंख एकदम सुर्ख हो गई । बाद में जब बहुत तकलीफ हुई तो मैंने डाक्टर को दिखाया । डाक्टर ने ड्रेसिंग कर दी ।”
“आई सी । कोई सीरियस बात तो नहीं ?”
“नहीं । बस तीन-चार दिन ड्रेसिंग करवानी पड़ेगी ।”
एकाएक सुनील की नजर माला की दायीं कलाई पर पड़ी और वह एकदम चौंक पड़ा । बड़ी मुश्किल से वह मन के भाव चेहरे पर आने से रोक पाया ।
माला अपनी दायीं कलाई में लाल रंग की चूड़ियां पहने हुये थी ।
“आप और कुछ पूछना चाहते हैं ?” - माला ने व्यग्र स्वर में प्रश्न किया ।
“विश्वनगर आप किस सिलसिले में गई थीं ?”
“मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहती । इस बात का मेरी शहादत से कोई सम्बन्ध नहीं है । यह मेरा निजी मामला है ।”
“आई एम सॉरी ।”
“और ?”
“बस ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “आपकी बहुत मेहरबानी ।”
प्रभूदयाल और माला भी उठ खड़े हुये ।
“आपके फ्लैट में टेलीफोन है ?” - एकाएक सुनील ने पूछा ।
“है ।” - माला तनिक हड़बड़ाकर बोली ।
“क्या मैं एक कॉल कर सकता हूं ?”
एक क्षण को तो यू लगा जैसे माला इन्कार करने वाली हो लेकिन फिर वह अनिच्छापूर्ण स्वर से बोली - “आइये टेलीफोन बैडरूम में है ।”
माला उसे बैडरूम में ले आई । प्रभूदयाल भी पीछे-पीछे चला आया । माला ने विचित्र नेत्रों से प्रभूदयाल की ओर देखा लेकिन मुंह से कुछ न बोली ।
टेलीफोन पलंग के समीप एक छोटी सी तिपाई पर रख था । टेलीफोन की बगल में चश्मा रखने के लिये प्रयुक्त होने वाला प्लास्टिक का खोल रखा था खोल पर छपा हुआ था मॉडर्न आप्टिक्ल कम्पनी, हर्नबी रोड राजनगर । सुनील ने टेलीफोन का रिसीवर उठाया और यूथ क्लब का नम्बर डायल कर दिया ।
प्रभूदयाल संदिग्ध नेत्रों से उसे घूर रहा था ।
सुनील ने एक आश्वासन पूर्ण निगाह उस पर डाली और फिर रिसीवर में बोला - “रमाकांत मैं सुनील बोल रहा हूं । देसाई का कुछ पता चला ?”
“नहीं ।” - रमाकांत का स्वर सुनाई दिया ।
“और उसकी कार का ?”
“क्या बेहूदा सवाल है । जहां देसाई होगा वहीं उसकी कार होगी ।”
“हां शायद ।” - सुनील बोला - “तुम तलाश जारी रखो ।”
और उसने रिसीवर रख दिया ।
सुनील ने आखिरी बार माला का धन्यवाद दिया और प्रभूदयाल के साथ फ्लैट से बाहर निकल आया ।
सुनील ने एक गुजरती हुई टैक्सी को हाथ देकर रोका और प्रभूदयाल के साथ उसमें बैठ गया ।
“हर्नबी रोड ।” - वह टैक्सी ड्राईवर से बोला ।
“वहां क्यों जा रहे हो ?” - प्रभूदयाल ने पूछा ।
“अभी पता लग जायेगा ।”
“वैसे तुम्हें विश्वास है कि तुम कृति को निर्दोष सिद्ध कर लोगे ?”
सुनील चुप रहा । उसके होंठ भिंच गये ।
प्रभूदयाल ने उसे और नहीं कुरेदा ।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुनील ने पूछा - “जब तुम विश्वनगर में माला से मिले थे, तब भी इसकी दायीं आंख पर पट्टी बन्धी हुई थी ?”
“हां ।”
सुनील ने लक्की स्ट्राईक का पैकेट निकला । उसने एक सिगरेट प्रभूदयाल को दिया, एक खुद लिया और फिर सिगरेट सुलगाकर विचारों में डूब गया ।
“हर्नबी रोड पर कहां चलूं साहब ?” - टैक्सी ड्राईवर ने पूछा ।
सुनील ने चौंककर खिड़की से बाहर देखा । टैक्सी हर्नबी रोड पर मुड़ रही थी । वह ड्राईवर से बोला - “रफ्तार कम कर दो और टैक्सी चलाते रहो । और प्रभू, तुम दायें देखो, मैं बायें देखता हूं । कहीं मॉडर्न आप्टीकल कम्पनी का बोर्ड लगा दिखाई दे तो बताना ।”
“अच्छा ।” - प्रभूदयाल अनमने स्वर से बोला ।
बोर्ड सुनील को ही दिखाई दिया । उसने टैक्सी रुकवाई और दोनों बाहर निकल आये । सुनील ने बिल अदा किया ।
“मुझे माला का चश्मा नया मालूम हुआ था ।” - सुनील बोला - “उसके फ्लैट में टेलीफोन की बगल में पड़े चश्मे के प्लास्टिक के कवर पर मॉडर्न आप्टीकल कम्पनी का पता लिखा था । मैं यहां से माला के चश्मे के बारे में कुछ जानकारी हासिल करना चाहता हूं । अगर दुकान का मालिक आनाकानी करे तो तुम मेरी मदद करोगे ।”
“अच्छा !” - प्रभूदयाल बोला - “लेकिन तुम सिद्ध क्या करना चाहते हो ?”
“शायद माला ने विश्वनगर से आने के बाद अपने चश्मे का नम्बर ठीक करवाया हो । शायद उसका पिछला चश्मा परफैक्ट न हो । और उसने नया चश्मा इसलिये ले लिया हो ताकि अदालत में चश्मे के मुआयने से उसकी गवाही से कसर न निकाली जा सके ।”
“चलो ।” - प्रभूदयाल बोला ।
वे आप्टीकल कम्पनी में प्रविष्ट हो गये ।
काउन्टर में पीछे बैठा एक व्यक्ति उन्हें देखकर मुस्कराया और फिर खड़ा हुआ ।
“चार, जायसवाल भवन, शिवाजी मार्गी पर रहने वाली माला नाम की महिला अपना नजर का चश्मा आप से लेती है ?” - सुनील ने सीधा प्रश्न किया ।
दुकानदार के चेहरे से मुस्कराहट उड़ गई ।
“क्या बात है ?” - उसने संदिग्ध स्वर से पूछा ।
सुनील ने अपना प्रश्न फिर दोहराया ।
“लेकिन बात क्या है, जनाब ?”
“बात आपकी समझ में नहीं आयेगी । आप मेरे सवाल का जवाब दीजिये ।”
“लेकिन मैं अपने किसी स्थायी ग्राहक के बारे में किसी गैर आदमी से बात नहीं करना चाहता ।”
सुनील ने प्रभूदयाल की ओर देखा ।
प्रभूदयाल आगे बढा । उसने अपनी जेब से अपना आइडेन्टिटी कार्ड निकाल कर दुकानदार के सामने रख दिया और फिर कठोर स्वर से बोला - “यह पुलिस इन्क्वायरी है मिस्टर ।”
दुकानदार बौखला गया और फिर फौरन बोला - “जी हां जी हां, माला जी मुझसे ही चश्मा लेती हैं ।”
“हाल ही में क्या माला ने आप से अपने लिये कोई चश्मा बनवाया है ?” - सुनील ने पूछा ।
दुकानदार हिचकिचाया ।
“माला ने आपसे कोई चश्मा बनवाया है ?” - प्रभूदयाल अधिकारपूर्ण स्वर से बोला ।
“चश्मा तो बनवाया है साहब, लेकिन अपने लिये नहीं ।” - दुकानदार हिचकिचाता हुआ बोला ।
“क्या मतलब ?” - सुनील ने तीव्र स्वर से पूछा ।
“इंसपेक्टर साहब” - दुकानदार बोला - “मेरा घर भी इस दुकान के ऊपर ही है । माला मेरी स्थायी ग्राहक है और वह जानती है कि मैं दुकान के ऊपर ही रहता हूं । कल सुबह सवेरे माला ने मुझे घर आकर जगाया था और मुझे फौरन एक विशेष प्रकार का चश्मा तैयार करके देने के लिये कहा था ।”
“किस प्रकार का ?” - सुनील ने व्यग्रता से पूछा ।
“उसके फ्रेम की एक खास किस्म की बनावट बनाई थी जिसमें एक ओर की कमानी दूसरी ओर से लगभग चौथाई इंच ऊंची लगी हुई हो और वह उनमें बहुत भारी नम्बर के शीशे लगवाना चाहती थी ।”
सुनील का दिल तेजी से धड़कने लगा । उसने एक अर्थपूर्ण निगाह प्रभूदयाल के चेहरे पर डाली । प्रभूदयाल का चेहरा सलेट की तरह साफ था । शायद दुकानदार के कथन का महत्व अभी उसकी समझ में नहीं आया था ।
“फिर ?” - वह दुकानदार से बोला ।
“मैंने माला को कहा कि ऐसा फ्रेम तैयार करने में मुझे बहुत समय लगेगा । इसलिये उसके बताये ढंग का चश्मा दो दिन से पहले तैयार नहीं हो सकता । लेकिन उसने कहा कि उस विशेष चश्मे की उसे फौरन जरूरत है । वैसा चश्मा फौरन तैयार कर पाना असम्भव था । माला वापिस लौट गई और आधे घण्टे बाद फिर मेरे पास आई । इस बार वह अपने साथ एक टूटा हुआ चश्मा लाई थी । उस चश्मे के ब्रिज के पास से दो टुकड़े हो गये थे और दोनों शीशे चटके हुये थे लेकिन चश्मे की फ्रेम की एक कमानी दूसरी कमानी से लगभग चौथाई इंच उठी हुई थी अर्थात वह फ्रेम अपनी वास्तविक हालत में ऐसा था जैसा माला मुझसे बनवाना चाहती थी । उसने मुझसे कहा था कि अगर मैं नया चश्मा नहीं तैयार कर सकता तो क्या मैं उस टूटे हुये चश्मे की मरम्मत कर सकता हूं मरम्मत हो सकती थी इसलिये मैंने तभी फ्रेम को जोड़कर उस में नये शीशे फिट कर दिये थे ।”
“तुमने माला से यह नहीं पूछा था कि वह ऐसा विचित्र चश्मा क्यों और किसके लिये बनवा रही थी ?” - सुनील ने पूछा ।
“मैंने पूछा था लेकिन उसने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया था ।”
“यह कब की बात है ?” - एकाएक प्रभूदयाल बोला । शायद अब तक दुकानदार की बात का महत्व उसकी समझ में आ गया था ।
“बताया न साहब, कल सुबह की ।” - दुकानदार बोला ।
“मेहरबानी जनाब ।” - सुनील दुकानदार से बोला ।
दुकानदार ने छुटकारे की गहरी सांस ली ।
दुकानदार के द्वार के समीप पहुंचकर प्रभूदयाल वापिस घूमा और दुकानदार से बोला - “हमारे आगमन की सूचना माला को देने की कोशिश मत करना ।”
“नहीं करूंगा इन्सपेक्टर साहब ।” - दुकानदार बड़ी शराफत से बोला ।
दोनों दुकान से बाहर निकल आये ।
“तुम्हें याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि ऐसा चश्मा रासबिहारी उर्फ सुखराज लगाता था ।” - फुटपाथ पर आकर सुनील बोला ।
“लेकिन माला उसकी मौत के बाद वैसा चश्मा क्यों बनवा रही थी ?” - प्रभूदयाल बोला ।
“सोचो ?”
“मुझे तो इसका एक ही जवाब दिखाई देता है कि शायद रासबिहारी मरा न हो ?”
“करैक्ट ।”
“लेकिन यह कैसे हो सकता है ?”
“लेकिन इसके अतिरिक्त और कौन-सा जवाब है जिसके प्रकाश में माला का रासबिहारी के लिये नया चश्मा तैयार करवाना उचित लगता हो ।”
प्रभूदयाल सोचने लगा ।
“देखो, मैं तुम्हें बताता हूं कि वास्तव में क्या हुआ होगा ?” - सुनील बोला - “परसों रात को जब मैंने रासबिहारी को टेलीफोन किया था तो उसने खुद मुझे कहा था कि सवा ग्यारह बजे उसका कोई मित्र उससे मिलने आने वाला था, इसलिये मैं उसके पास बारह बजे से पहले पहुंचू । लेकिन मैं और रमाकांत बारह बजे से पहले ही रासबिहारी की कोठी पर पहुंच गये थे । उस समय ‘अलीबाबा’ के मैनेजर देसाई की कार रासबिहारी की कोठी के सामने खड़ी थी । मेरा विश्वास है कि सवा ग्यारह बजे जो आदमी रासबिहारी से मिलने आया था वह अलीबाबा का मैनेजर देसाई ही था । देसाई और रासबिहारी का किसी बात पर झगड़ा हो गया था और रासबिहारी ने उसका खून कर डाला था । देसाई का खून रासबिहारी ने किसी भयंकर तकरार के नतीजे के रूप में पैदा हुई गर्मी-गर्मी की वजह से कर दिया था, इस बात का सबूत यह है कि उसने मुझे फोन पर बताया था कि सवा ग्यारह बजे उससे कोई मिलने आने वाला है । अगर उसने पहले से ही देसाई का खून करने का इरादा किया होता तो वह न तो मुझे यह बताता कि सवा ग्यारह बजे कोई उससे मिलने आने वाला है और न ही वह मुझे बारह बजे वहां बुलाता ।”
“खैर फिर ?” - प्रभूदयाल व्यग्र स्वर से बोला ।
“हमारे रासबिहारी की कोठी पर जल्दी पहुंच जाने से फर्क यह पड़ गया कि हमने देसाई की कार रासबिहारी की कोठी के सामने खड़ी देख ली । अगर हम अपने कथनानुसार बारह बजे वहां पहुंचते तो उस समय तक रासबिहारी ने अपने किसी आदमी को कह कर कार वहां से हटवा दी होती । हमारे कोठी में चले जाने के बाद किसी समय रासबिहारी का कोई अपना फोन करके बुलाया हुआ आदमी वहां पहुंचा और कार को वहां से हटा ले गया । बाद में जब मैं और रमाकांत रासबिहारी से मिल कर उसकी कोठी से बाहर निकले और हमने कार को नदारद पाया तो हमने यही समझा कि देसाई शायद आस-पास किसी और कोठी में आया था और हमारी गैर मौजूदगी में वहां से चला गया था । जबकि वास्तव में देसाई उस समय भी रासबिहारी की कोई की ऊपरली मन्जिल के उस बैडरूम में मरा पड़ा था जिसमें बाद में एक जली हुई लाश पाई गई थी ।”
“और तुम्हारे ख्याल से वह लाश रासबिहारी की नहीं देसाई की थी ?”
“हर बात इसी तथ्य की ओर संकेत करती है । परसों रात से देसाई के गधे केसिर से सींग की तरह गायब है । उसकी बीवी तक को यह पता नहीं है कि वह कहां है । रमाकांत ने हर संभावित स्थान पर उसकी तलाश करवा ली है लेकिन उसकी हवा भी नहीं मिली है । उसकी वजह यह है कि रासबिहारी ने पहले उसकी हत्या की, फिर उसे अपने कपड़े पहना दिये और उसकी नाक पर अपना अनोखा चश्मा लगा दिया फिर उसने फोन कर के माला को अपनी कोठी पर बुलाया ।”
“माला को !”
“हां पौने एक बजे जो लड़की रमाकांत ने रासबिहारी की कोठी में घूमती देखी थी, वह माला के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकती । माला अपने साथ वह बम लाई होगी जो उन्होंने उनके लिये तैयार कर दिया । उसके बाद रासबिहारी और माला पिछले दरवाजे से बाहर निकल गये । जौहरी पिछवाड़े की निगरानी करने के लिये एक बजे पहुंचा था इसलिये उसने रासबिहारी या माला को बाहर निकलते नहीं देखा ।”
“फिर ?”
“फिर निश्चित समय पर बम फटा और इमारत में आग लग गई । साथ ही देसाई की लाश भी स्वाहा । देसाई और रासबिहारी का कद काठी एक जैसा ही है । झुलसे हुये कपड़ों के भग्नावशेषों और चेहरे पर मौजूद चश्मे की वजह से लाश रासबिहारी की समझी गई ।”
सुनील एक क्षण के लिये रुका और फिर बोला - “अब रासबिहारी के सामने चश्मे की समस्या आई । इसलिये माला सुबह सवेरे मॉडर्न आप्टीकल कम्पनी के मालिक के घर पहुंची और उसे रासबिहारी का विशेष प्रकार का चश्मा बना देने के लिये कहा । दुकानदार ने बताया कि वैसा चश्मा फौरन नहीं बन सकता था । इसलिये वह दुबारा मरम्मत के लिये ले आई ।”
“तुम्हारी सारी बातें युक्तिसंगत हैं लेकिन तुम इन्हें सिद्ध कैसे कर सकते हो और इनका सम्बन्ध मजूमदार की हत्या से कैसे जोड़ सकते हो ?”
“एक क्षण के लिये अगर तुम कृति के बयान पर विश्वास कर लो और माला को हत्यारी समझ कर तथ्यों पर विचार करो तो सारी बातें तुम्हारी समझ में आ जायेंगी ।”
“तुम क्या कहना चाहते हो ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं कि कृति कल सुबह छः बजे की बस से सचमुच ही विश्वनगर के लिये रवाना हो गई थी और जैसा कि वह कहती है, वह रास्ते में कहीं नहीं उतरी थी । फिर नौ साढे नौ बजे के करीब माला मजूमदार की या मजूमदार और उसकी पत्नी कृति दोनों की हत्या करने के लिये उनकी कोठी पर पहुंची ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वे रासबिहारी की हकीकत जान गये थे । सम्भव है, रासबिहारी मजूमदार और उसकी बीवी को सजा देने के लिये खत्म करवा देना चाहता हो ।”
“खैर, फिर ?”
“माला मजूमदार की कोठी पर पहुंची । वहां मजूमदार ने उसे बताया कि कृति सुबह छः बजे की डीलक्स बस से विश्वनगर चली गई है । उसी बातचीत के दौरान मैं मजूमदार की कोठी में पहुंच गया । माला क्योंकि वास्तव में वहां मजूमदार की हत्या करने के लिये आई थी इसलिये वह यह नहीं चाहती थी कि कोई तीसरा आदमी उसे वहां देखे । अतः उसके कहने पर मजूमदार ने उसे ऊपर की मंजिल से एक बैडरूम में छुपा दिया ।”
“मजूमदार ने यह नहीं पूछा होगा कि माला छुपना क्यों चाहती है ?”
“आगे बढो ।”
“मैं तो वास्तव में मजूमदार की कोठी पर कृति से सम्पर्क स्थापित करने के चक्कर में पहुंचा था । मजूमदार प्रापर्टी डीलर था, इसलिये वार्तालाप का विषय प्रापर्टी ही हो सकता था । मैंने केवल बातचीत का सिलसिला जारी रखने की खातिर एक कोठी खरीदने की बात की । मजूमदार ने मुझे असली ग्राहक समझा । उसने मुझे सारी कोठी दिखाई और मुझे मालूम हो गया कि ऊपरी मंजिल के बैडरूम में कोई बन्द है । उस समय मैं यही समझा था कि शायद उस कमरे में मजूमदार ने अपनी बीवी को बन्द कर रखा है । माला को उस कमरे में छुपाने की हड़बड़ाहट में ही उसकी कलाई की एक आध चूड़ी टूट गई होगी । माना कि कृति भी वैसी ही लाल चूड़ियां पहनती है लेकिन मेरी थ्योरी में इस बात की ज्यादा सम्भावना दिखाई देती है कि वे चूड़ियों के टुकड़े माला के थे ।”
सुनील एक क्षण के लिये रुका और फिर बोला - “मैं मजूमदार की कोठी से बाहर निकल आया । मेरे नैप्यर एण्ड कम्पनी में जाकर टेलीफोन करके लौटने के बीच में ही मजूमदार की हत्या हो गई । लेकिन संयोगवश मैं ठीक उस समय वापिस शंकर रोड पर पहुंचा जब माला मजूमदार की हत्या करके उसी की कार में भाग रही थी । सच पूछो तो मुझे यही संदेह भी हुआ था कि वह कृति है ।”
“फिर ?”
“फिर माला ट्रैफिक लाइट के झमेले में मेरे हाथ से निकल गई । मैं वापिस लौट कर शंकर रोड पर आया तो मुझे मजूमदार की कोठी में उसकी लाश मिली । उधर माला को सन्देह हो गया था कि कहीं मैंने उसका पीछा करते समय उसकी सूरत न देख ली हो । अपने आपको सम्भावित सन्देह से बचाने के लिये उसने कृति को फंसाने की तरकीब सोच डाली । उसे यह तो मालूम ही था कि कृति सुबह छः बजे की डीलक्स बस से विश्वनगर को रवाना हो चुकी है । उसने पहले उस डीलक्स बस का रूट और विभिन्न शहरों में पहुंचने का समय पता किया और फिर राजनगर हवाई अड्डे पर पहुंची । वहां उसने पौने बारह बजे विशालगढ जाने वाले हवाई जहाज में कृति मजूमदार के नाम सीट बुक करवाई । पौने एक बजे वह, विशालगढ हवाई अड्डे पर पहुंच गई । वहां से बस स्टैंड जाने के लिये केशवराव नाम के ड्राईवर की टैक्सी में सवार हुई । बातचीत के दौरान में उससे अच्छी तरह केशवराव के दिमाग में यह बात बिठा दी कि राजनगर से विश्वनगर जाने वाली डीलक्स बस में उसकी सीट रिजर्व है और उसने एक बजे विशालगढ बस स्टैण्ड से उस बस में जरूर-जरूर सवार होना है । साथ ही उसने ड्राईवर से यह भी कहा कि अगर वह उसे बस स्टैण्ड पर डीलक्स बस चलने से पहले पहुंचा देगा तो वह उसे पांच रुपये और देगी ।”
सुनील एक क्षण रुका और फिर बोला - “प्रभू, मजेदार बात यह है कि खुद माला वह युवती थी, जिसने विशालगढ बस स्टैण्ड पर ऐन मौके पर पहुंचकर दौड़ कर बस पकड़ी थी । बस के ड्राईवर और एक अन्य यात्री ने माला को बस की ओर दौड़ते देखा था, कृति को नहीं । माला भारी विश्वास के साथ कह रही है कि उसने कृति को भाग कर बस पर चढते देखा था । केशवराव के बयान और हवाई जहाज की यात्री सूची को देखने के बाद तुम्हें पक्का विश्वास हो गया कि कृति ही हत्यारी है । एक बार तुम्हारे दिमाग में यह बात घुसने की देर थी और फिर तुमने एक क्षण के लिये भूलकर भी यह नहीं सोचा कि शायद कृति सच बोल रही हो ।”
प्रभूदयाल के चेहरे पर सुनील की बातों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई दे रहा था ।
“कृति के खिलाफ अपनी अचानक गवाही के द्वारा माला के दो मतलब हल होते थे । एक तो स्वयं उस पर सन्देह आने की गुंजाईश खत्म हो जाती थी । उसका यही ख्याल था कि शायद राजनगर में उसके कार पर भागते समय मैंने उसकी सूरत देख ली थी जबकि वास्तव में ऐसा नहीं हुआ था और दूसरे उसने बड़ी आसानी से कृति को दूसरी दुनिया में पहुंचाने का इन्तजाम कर दिया था । प्रभू, अगर तुम कृति को निर्दोष समझ कर पूरी ईमानदारी से उन यात्रियों की तलाश करने की कोशिश करो, जिन्होंने राजनगर से कृति के साथ सफर शुरू किया था और बाद में रास्ते में ही उतर गये थे तो कोई न कोई ऐसा यात्री तुम्हें जरूर मिल जायेगा, जिसने कृति को विशालगढ से पहले भी बस में देखा होगा, विशेष रूप से वे वृद्ध सज्जन जो राजनगर से बस चलने के समय कृति की बगल में बैठे हुये थे ।”
“मैं पता लगवाऊंगा ।” - प्रभूदयाल आश्वासनपूर्ण स्वर से बोला ।
“एक बात और है । प्रभू क्या यह तुम्हें कुछ अजीब नहीं लगता कि आंख में मिट्टी पड़ जाने की वजह से ही आंख की यह हालत हो गई हो कि पट्टी करवाने की नौबत आ जाये । याद रखो कि तुमने भी माला को तभी देखा है जबकि उसकी दांयी आंख पर पट्टी बंधी हुई थी और ऊपर से चश्मा लगा हुआ था । सम्भव है बिना पट्टी के और चश्मे के उसकी सूरत बहुत ज्यादा कृति से मिलने लगती हो और इसी तथ्य को छुपाने के लिये उसने आंख खराब हो जाने का बहाना किया हो और आंख की ड्रेसिंग करवा ली हो ।”
“लेकिन सम्भव है आंख के मामले में माला सच बोल रही हो ।”
“फिर भी एक बार उसकी आंख से पट्टी तो उतरवाई ही जा सकती है ।”
“मैं उसे मजबूर कैसे कर सकता हूं ?”
“मैं इतना बड़ा महाभारत सुना डाला है तुम्हें । उसके बाद भी उसे मजबूर नहीं कर सकते ?” - सुनील अफसोस जाहिर करता हुआ बोला ।
प्रभूदयाल चुप रहा ।
सुनील भी कुछ क्षण चिन्तित मुद्रा बनाये उसके समीप खड़ा रहा और फिर एकाएक बोला - “माला की आंखों से पट्टी उतरवाने की मैं तरकीब बताता हूं ।”
“क्या ?”
“तुम उसे हैडक्वार्टर बुला लो ।”
“फिर ?”
सुनील ने संक्षेप में उसे अपनी स्कीम बता दी ।
***
प्रभूदयाल ने एक उड़ती हुई दृष्टि कमरे के एक कोने में बैठे सुनील पर डाली और फिर बड़े विनम्र स्वर में माला से सम्बोधित हुआ - “आपको इस समय यहां आने में जो असुविधा हुई है, उसके लिये मैं आपसे माफी चाहता हूं । दरअसल बात हो कुछ ऐसी हो गई थी कि वह कल के लिये टाली नहीं जा सकती थी ।”
“ऐसा क्या हो गया है ?”
“कल कृति को उसके पति के हत्या के इल्जाम में अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाने वाला है । पुलिस केस में कृति के विरुद्ध आपकी गवाही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । कल जब आप अदालत में गवाही देने के लिये हाजिर होंगी तब भी आपकी दाईं आंख पर पट्टी बंधी होगी और आप चश्मा लगती हैं ।”
“इससे क्या फर्क पड़ता है ?” - माला तनिक झुझलाते हुये स्वर में बोली ।
“हमारे पुलिस सुपरिटेन्डेन्ट का कहना है कि आप अपनी एक आंख से उतनी अच्छी तरह नहीं देख सकती जितनी अच्छी तरह आप दोनों आंखों से देख सकती हैं ।”
“लेकिन यह गलत है । मै अपनी वर्तमान दशा में भी सब कुछ ठीक-ठीक देख सकती हूं ।” - माला तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोली ।
“जरूर देख सकती होंगी लेकिन माला जी जरा सोचिये, इन्सान का एक आंख से काम चल सकता है लेकिन फिर भी भगवान ने उसे दो आंखें दी हैं उसकी कुछ तो वजह होगी ।”
“मुझे यह सब कुछ नहीं मालूम लेकिन मैं एक आंख पर पट्टी बधी होने के बावजूद भी दूसरी आंख से सब कुछ एकदम ठीक देख सकती हूं ।”
“जहां आप बैठी हैं, वहां से कमरे का दरवाजा थोड़ी दूर है । अगर इस समय वहां कोई औरत खड़ी हो तो आप पहचान लेंगी कि वह कृति है या कोई और ?”
“फौरन ।”
“वैरी गुड ।” - प्रभूदयाल सन्तुष्ट स्वर में बोला - “अभी चैक करते हैं ।”
प्रभूदयाल ने कमरे में खड़े एक सिपाही की ओर संकेत किया ।
प्रभूदयाल चुपचाप प्रतीक्षा करने लगा । दो मिनट बाद सिपाही ने केशवराव नाम के टैक्सी ड्राईवर को द्वार के समीप लाकर खड़ा कर दिया और स्वयं हट गया ।
“माला जी !” - प्रभूदयाल बोला - “अभी चैक हुआ जाता है कि आप एक आंख से ठीक देख सकती है या नहीं । आप द्वार की ओर देखिये और फौरन बताइये कि द्वार पर कौन खड़ा है ? अगर आपने उत्तर देने में देर लगाई तो मैं समझूंगा कि आपकों एक आंख से देखने में असुविधा है ।”
वह द्वार को ओर घूमी और फिर तत्काल विजयपूर्ण स्वर में बोली - “यह तो वह ट्रैक्सी ड्राईवर है जो...”
एकाएक माला बोलती हुई यूं रुक गई जैसे जबान को लकवा मार गया हो । उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“वैरी गुड ।” - प्रभूदयाल बोला - “अब आप मुझे यह बतायेंगी कि आप इस ट्रैक्सी ड्राईवर को कैसे पहचानती हैं ? आपने तो इसे कभी नहीं देखा ?”
माला को तत्काल कोई उत्तर नहीं सूझा ।
तब तक केशवराव भी कमरे में आ गया था और विचित्र नेत्रों से माला की ओर देख रहा था ।
“मिस माला ।” - एकाएक प्रभूदयाल कर्कश स्वर में बोला - “आप इस ट्रैक्सी ड्राईवर को इसलिये पहचानती हैं क्योंकि विशालगढ हवाई अड्डे से इसकी ट्रैक्सी पर सवार होने वाली युवती आप थी कृति नहीं । और आपने अपनी आंख पर पट्टी इसलिये लपेटी है ताकि कोई आपको पहचान न पाये । अब आप अपनी आंख से यह पट्टी उतार दीजिये ताकि मुझे यह मालूम हो सके कि वास्तव में आपकी आंख में कोई खराबी है या नहीं ।”
“नहीं ।” - माला हिस्टोरिया के रोगी की तरह चिल्लाई - “नहीं ।”
और वह एकदम उछलकर कुर्सी से उठ गई लेकिन पहले कि वह द्वार की ओर भाग पाती, प्रभूदयाल के संकेत पर दो सिपाहियों ने उसे दबोच लिया और वापिस कुर्सी पर बैठा दिया । एक अन्य सिपाही ने जबरदस्ती उसकी आंख से पट्टी उतार दी ।
माला की दाईं आंख एकदम ठीक थी ।
केशवराव जो एकदम माला के सामने आ खड़ा हुआ था, एकाएक बोल पड़ा - “इन्सपेक्टर साहब, यही वह औरत है जो विशालगढ एयरोड्रम से मेरी टैक्सी पर चढी थी ।”
प्रभूदयाल ने माला की ओर देखा । उसका चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे उस पर से खून की आखिरी बून्द भी निचोड़ ली गई हो ।
“आप अपना अपराध स्वीकार करती हैं ?” - प्रभूदयाल ने पूछा ।
माला ने उत्तर नहीं दिया ।
प्रभूदयाल अपनी सीट से उठा । वह कोने में बैठे सुनील के समीप पहुंचा और बोला - “तुम खिसको यहां से ।”
“क्या !” - सुनील हड़बड़ा कर बोला ।
“फूटो ।”
“वाह इन्सपेक्टर साहब ।” - सुनील तीव्र विरोधपूर्ण स्वर में बोला - “यह क्या बात हुई ? जब तक तुम्हें जरूरत थी तब तक तो तुमने मुझे ठहराये रखा और जब मेरे मतलब का ड्रामा शुरू होने लगा है, भगा रहे हो । यह मत भूलो कि मेरे ही प्रयत्नों से वास्तविक अपराधी तुम्हारे कब्जे में आया है और नहीं तो मेरी सेवाओं के इनाम के तौर पर ही मुझे यहां ठहरे जाने दो ।”
“तुम्हारा इनाम यही बहुत है कि इस केस के दौरान में पुलिस को धोखा देने के लिये जो-जो गड़बड़ तुमने की है, जो गैर कानूनी काम तुमने किये हैं, उन सबको भुलाये दे रहा हूं ।”
“बड़े कमीने हो यार ।”
“इससे पहले कि तुम्हारे बारे में मेरा इरादा बदल जाये, तुम खिसक जाओ यहां से ।”
“अच्छी बात है ।” - सुनील बड़बहड़ाया - “भगवान करे आज घर जाते ही तुम्हें बिच्छू काट खाये ।”
“कल आना ।” - प्रभूदयाल पीछे से बोला - “और अखबारों के रिपोर्टरो के साथ ।”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी ।”
और सुनील लम्बे डग भरता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
द्वार बन्द होने से पहले कानों में प्रभूदयाल का कर्कश स्वर पड़ा - “रासबिहारी उर्फ सुखराज कहां छुपा हुआ है, माला ?”
***
माला ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया ।
कृति पुलिस द्वारा अदालत में प्रस्तुत की जाने से पहले ही छोड दी गई ।
माला से पुलिस को मालूम हुआ कि रासबिहारी नेपियन हिल पर स्थित एक कॉटेज में छुपा हुआ है । प्रभूदयाल ने दल बल सहित उस काटेज पर छापा मारा लेकिन दुर्दान्त सुखराज उर्फ रासबिहारी जीवित उसके हाथ में नहीं आया । पुलिस के दायरे से भाग निकलने के लिये उसने पुलिस का कड़ा मुकाबला किया लेकिन अन्त में पुलिस के गोलियों का शिकार होकर मर गया । मरते-मरते भी वह पुलिस के चार जवानों को बुरी तरह घायल कर गया था ।
बाद में माला के बयान से प्रकट हुआ था कि रासबिहारी मजूमदार और ‘अलीबाबा’ का मैनेजर देसाई तीनों स्मगलिग के धन्धे में पार्टनर थे । ‘अलीबाबा’ में ही मौजूद एक तहखाना उनका गोदाम था जिसे बाद में पुलिस ने छापा मारकर अपने अधिकार में कर लिया था । तीनों पार्टनरों में देसाई जरा डरपोक आदमी था । उसने पहले नैपोली में कृति को सुनील के साथ देखा । फिर उसने ‘अलीबाबा’ में टेलीफोन टेप करके कृति और सुनील का वह वार्तालाप सुना जिसमें कृति ने उसका पत्र लेकर सुनील को रासबिहारी के पास जाने के लिये कहा था । देसाई घबरा गया । उसने समझा कि शीघ्र ही भांडा फूटने वाला है और रात को वह रासबिहारी के पास गया उसने रासबिहारी पर अपना भय प्रकट किया और अपना हिस्सा लेकर अलग हो । जाने की इच्छा प्रकट की । उसी बात पर झगड़ा बढ़ गया और रासबिहारी ने देसाई की हत्या कर डाली ।
बाकी मामलों में भी माला के बयान ने सुनील की थ्योरी को शत-प्रतिशत सिद्ध कर दिया था । उसी ने उस गैरेज का भी पता बताया था जहां देसाई की हत्या के बाद रासबिहारी के एक आदमी ने देसाई के फियेट कार छुपा दी थी ।
पुलिस ने उस वृद्ध को भी तलाश कर लिया था जिसने कृति के साथ अपना सफर आरम्भ किया था । उसने बताया था कि कृति छ: बजे उसके साथ बस में बैठी थी । वह ग्यारह बजे के करीब रास्ते में उतरा था और ग्यारह बजे तक कृति उसकी बगल की सीट पर मौजूद थी ।
इस केस का जो विवरण ‘ब्लास्ट’ में छपा उसमें इन्सपेक्टर प्रभूदयाल की योग्यता के कसीदे खड़े हुये थे । उस समाचार के कथनानुसार केस की तह तक पहुंचने में प्रभूदयाल ने कमाल कर दिखाया था । लेकिन प्रभूदयाल सुनील की इस ईमानदारी की शराफत के लिये कोई विशेष अहसानमन्द नहीं था ।
समाप्त