आधी रात से पहले जीतसिंह और ऐंजो वापिस पणजी में थे ।
"मैं बम्बई जाना चाहता हूं।" - जीतसिंह एकाएक बोला ।
"कब ?" - ऐंजो बोला ।
"अभी।”
"क्या !"
"बारह बजे के करीब एक बस बम्बई जाती है। उसकी रवानगी में अभी वक्त है। तू मेरे को बस अड्डे पर छोड़ ।”
"लेकिन यूं एकाएक बम्बई क्यों जाना मांगता है ?"
" है एक जरूरी काम । बहुत थोड़ी देर का । मैं कल रात तक वापिस भी आ जाऊंगा । कल इतवार है । इतवार को दुकान बंद रहती है । इसीलिए मेरे मालिक को मेरी गैर-हाजिरी नहीं खटकेगी। वैसे भी वो काफी तंदरुस्त हो गया है और उम्मीद है कि परसों तक वो खुद ही दुकान पर जाने लगेगा ।”
"ओह !"
"अब रात को उसे तीमारदारी की कोई खास जरूरत नहीं होती ! इसलिए मेरी सिर्फ एक रात की उसके घर से गैर-हाजिरी उसे खलेगी नहीं । "
"खली तो ?”
"तो क्या ? तो भाड़ में गया वो और भाड़ में गई उसकी नौकरी । मैं साला तेरा क्लीनर बन जाऊंगा । तेरी टैक्सी को पटका मार दिया करूंगा ।"
"हीं हीं हीं । मसखरी करता है अपना फिरेंड ।"
"अब तू मुझे बस अड्डे पर पहुंचा ।”
"पहुंचाता है लेकिन पल्ले एक बात बोल ।”
"क्या ?"
"दस लाख का क्या किस्सा है ? और टालने का नहीं है। तेरा फिरेंड है क्या !”
"वो एक लम्बी कहानी है। लौट के सुनाऊंगा ।"
"लौटेगा तो सही ?”
"हां लौटूंगा। नहीं लौटूंगा तो कहां जाऊंगा ।"
"मैं एक-दो दिन में ही कोई नवा मामला फिट करके दिखाएगा ।"
"फिर तो मेरे लौटकर न आने को सवाल ही नहीं पैदा होता |"
"बढ़िया । "
"ऐंजो, अगर तू ऐसा कर सका तो ये तेरा मुझ पर बहुत बड़ा अहसान होगा ।"
"क्या बोलता है, बॉस ! फिरेंडशिप मैं कहीं अहसान होता है !”
" अब चल ।"
दोनों पायर की पार्किंग की तरफ बढ़े जहां कि फिगारो आइलैंड के लिए रवाना होने से पहले ऐंजो अपनी टैक्सी खड़ी करके गया था ।
***
भिंडी बाजार मे पपड़ी अपनी खोली में घोड़े बेचकर सोया पड़ा था जब कि जीतसिंह ने उसे झिंझोड़कर जगाया ।
पपड़ी ने आंखें खोलीं और उन्हें मिचमिचाते हुए जीतसिंह की तरफ देखा ।
"जीते !" - फिर वो हड़बड़ाकर बोला - "तू !"
"हां ।" - जीतसिंह सहज भाव से बोला ।
"यहां ! इस वक्त !"
"हां । अब जरा तगड़ा हो और उठके बैठ । मेरे को टाइम का तोड़ा है।"
"क्या चाहता है ?"
"तेरे से बात करना चाहता हूं ! नींद से जाग । होश में आ।"
"टेम क्या हुआ है ?"
"दस बजने को हैं । अब उठ भी चुक ।"
वो उठकर बैठा । उसने तकिये के नीचे हाथ डालकर वहां से बीड़ी का बंडल और माचिस बरामद की और उसने एक बीड़ी सुलगाई और बंडल और माचिस जीतसिंह के सामने रख दी ।
जीतसिंह ने दोनों चीजों की तरफ निगाह तक न उठाई ।
पपड़ी ने बीड़ी का लम्बा कश लगाया, नथुनों से धुंए की दोनाली छोड़ी और अपलक जीतसिंह की तरफ देखा ।
जीतसिंह ने भी वैसे ही उसकी निगाह से निगाह मिलाई, एक क्षण को जैसे दोनो की निगाहें लाक हो गई, फिर पपड़ी परे देखने लगा ! उसने धीरे से बीड़ी का एक और कश खींचा और विचलित भाव से बोला - "कहां था ?”
"था कहीं ।" - जीतसिंह उतावले स्वर में बोला- "तू सवाल पूछने बंद कर और जो मैं पूछूं उसके जवाब दे ।”
“देवरे को तेरी तलाश है ।"
"मुझे भी उसकी तलाश है ।”
"तुझे भी उसकी तलाश है।" - पपड़ी हैरानी से बोला ।
"हां"
"तुझे क्यों ?"
"कहां है वो ?"
" अपने घर पर ही होगा। तेरे को क्यों तलाश है उसकी ?"
"मैं कमाठीपुरे से होकर आया हूं । अपने घर पर नहीं है वो ।”
"नहीं है तो आ जाएगा।"
"मुझे उम्मीद नहीं । मैंने पास-पड़ोस से पूछताछ की थी । वो दस-बारह दिन से अपने घर में नहीं घुसा है ।”
"मेरे को तो अभी बुधवार को मिला था वो ।”
"जरूर मिला होगा । वो बम्बई में ही कहीं होगा लेकिन अपने घर पर नहीं है वो । न है, न था ।”
"कमाल है । घर पर नहीं है । घर पर नहीं है तो कहां है ?"
"मैं क्या बताऊं ? मेरे हिसाब से तो उसे अपने घर पर ही होना चाहिए । लेकिन तू... खुद कहां था ? वो तलाश कर रहा था । बड़ी शिद्दत से ।"
"क्यों ? क्यों तलाश कर रहा था ?"
"क्योंकि लूट का माल तेरे पास है ।”
"क्या ?"
"वो कहता है । "
"उसका भेजा फिरेला है । "
"देख, मेरे भाई । हम पांच जने थे। तू, मैं, देवरे, ख्वाजा और चुनिया | माल लूटकर मैं, देवरे और ख्वाजा एक बाजू भागे थे और तू और चुनिया माल के साथ दूसरे बाजू भागे थे । दो दिन बाद चुनिया अपनी खोली में मरा पड़ा पाया गया था और माल वहां नहीं था। इस लिहाज से माल किसके पास हुआ ?"
"माल चुनिया के ही पास था । हम थोड़ी ही दूर तक इकट्ठे भागे थे और और फिर अलग हो गए थे। तब माल वाला बैग चुनिया के पास था और वो ही उसे अपने साथ ले गया था ।”
"तब साथ ले गया होगा। लेकिन बाद में तूने उसको खलास कर के उससे माल झटक लिया होगा ।"
"क्यों ?"
"वजह तू जानता है । तेरे से बेहतर कौन जानता है ?"
"क्यों ?"
"तेरे को दस लाख मांगता था । टोटल रोकड़ा जो हाथ आया, वो बारह लाख था, जबकि उम्मीद सत्तर - अस्सी लाख की थी जिसमें से तेरा हिस्सा पन्दरह सोलह लाख का होता । बारह लाख में से तेरा हिस्सा ढाई लाख भी पूरा न बनता । पण तेरे को दस मांगता था, इसलिए तू चुनिया को खलास करके टोटल माल नक्की किया ।"
"हूं । तो ये माजरा है ।"
"बाप" - पपड़ी धीरे से बोला- "अब देवरे को मालूम है कि तेरे को दस लाख क्यों मांगता है।"
"कैसे मालूम है ? जरूर तूने बताया होगा ।"
"वो मेरे को मजबूर किया। बहुत कड़क पेश आता था । मारने को दौड़ता था।"
"मारा नहीं ?"
"अभी तो बख्श दिया । "
"तुझे भी और ख्वाजा को भी ?"
"बाप, हम दोनों उसके साथ थे । "
"वारदात के बाद ही तो । बाद में भी वो क्या तुम दोनों की पहरेदारी करता रहा था ?"
"क्या मतलब ?"
"दो दिन बाद तुम दानों में से कोई भी चुनिया को खलास करके माल उससे झटक सकता था।"
"पण हम ऐसा नहीं किया । देवरे को हमारे पर एतबार है। वो बोलता है माल तू ही नक्की किया और उस छोकरी को दिया ।"
" सुष्मिता ऐसा बोलती है ?"
"वो क्यों बोलेगी ?"
"देवरे ने उससे पूछा ?”
"हां । वो साफ मुकर गई । बोली जीतसिंह उसको एक काला पैसा नहीं दिया । बोली तू तो कब से उससे मिला ही नहीं ।"
"ठीक बोली । और मुकर नहीं गई । सच बोली । बारह लाख रुपया अगर मेरे पास होता तो मैं शहरबदर हुआ यहां-वहां मारा-मारा न फिर रहा होता ।"
पपड़ी खामोश रहा ।
"पपड़ी, तू मेरी कल्पना एक कातिल के तौर पर कर सकता है ? क्या भूल गया कि उस काम में मेरी पहली शर्त यह थी कि खून - -खराबे में मेरा कोई हिस्सा नहीं होंगा ? मेरा काम सेफ खोलना था जिसे कि मैंने बखूबी अंजाम दिया था । सेफ में रोकड़ा कम निकला तो मेरी किस्मत | हमारी किस्मत | तू कैसे यकीन कर सकता है कि खुद को दरकार रकम की कमी को पूरा करने के लिए मैंने चुनिया का खून कर दिया होगा ?"
"जरूरत सब कुछ करा लेती है । "
"पपड़ी, तू मेरा यकीन कर, मैंने चुनिया का खून नहीं किया । मैंने उसके पास से माल नहीं सरकाया ।”
"तो खून किसने किया ? माल किसने सरकाया ?" "तूने । ख्वाजा ने । या दोनों ने ।" "हमने ऐसा कुछ नहीं किया । कसम उठवा ले ।” "तू मेरे से कसम उठवा ले कि मैंने ऐसा नहीं किया ।” "तो फिर कौन किया ?"
"जरूर चुनिया ने लापरवाही बरती जिसकी वजह से उसकी बस्ती में ही किसी को माल की खबर लग गई और उसने मौका हाथ आते ही चुनिय का खून किया और माल सरका लिया ।”
“ऐसा ?”
"क्या नहीं हो सकता ?"
"हो तो सकता है लेकिन... अब देवरे को कौन समझाए ?"
“तू । तू समझाए । तेरा खास यार है तो । तू.. तू उसको यकीन दिला कि हम में से कोई यारमार नहीं, कोई दगाबाज नहीं । खासतौर से मैं ।"
“वो नहीं मानता, बाप । वो नहीं सुनता । उसको पूरा यकीन है कि जो किया तू ही किया । वो बोलता है माल वापिस हाथ आए या न आए पण वो तेरे को जिन्दा नहीं छोड़ने का है । वो इधर आजू-बाजू दूर-दूर तक फैला के रखा है कि किसी को तेरी खबर लगे तो वो उसे बोल के रखे । तेरे तिजोरी तोड़ने के हुनर की वजह से भाई लोगों में तू छुपा नहीं रह सकता, बाप ।”
"ठीक बोला । वो कमीना मेरे कत्ल की कोशिश कर भी चुका है। "
"ऐसा ?" - पपड़ी नेत्र फैलाकर बोला ।
"हां" किधर ? कब ?”
"गोवा में ! कल रात ।”
"यानी कि फेल हो गया, अपना देवरे ।"
" जाहिर है । वर्ना मैं इस घड़ी तेरे पास न बैठा होता ।"
"इधर आया कैसे ? "
"पपड़ी, मैं बहुत खतरा मोल लेकर इधर आया हूं । इस डकैती की वारदात के बाद से ही पुलिस को एक ऐसे शातिर तिजोरीतोड़ की तलाश है जो कि तिजोरी को वैसे चुटकियों मे खोल सकता था जैसे कि उसे मैंने खोला था। पुलिस के सैकड़ों भेदिये होते हैं। उनमें से कोई मेरी मुखबरी कर सकता है। मैं पुलिस की जानकारी में नहीं आना चाहता । मैं पुलिस की निगाहों में नहीं चढ़ना चाहता । इसीलिए मेरे को इधर से भागना पड़ा । जब तक पुलिस के महकमे में वो मामला ठंडा नहीं पड़ जाता या उनकी पकड़ में कोई दूसरा तिजोरीतोड़ नहीं आ जाता, मैं बम्बई लौट आने का खतरा मोल नहीं ले सकता ।”
"फिर भी आया ।”
" देवरे की वजह से आया । वो अपनी कल रात की करतूत को फिर दोहरा सकता है। पपड़ी, मैं चाहता हूं कि तू उसे समझाए-बुझाए और उससे मेरा पीछा छुड़ाए । तू ऐसा कर सकता है...
"वो नहीं सुनता ।"
"तू ऐसा बिना कोशिश किए कह रहा है। तू दिल से कोशिश कर और उसे यकीन दिला कि मैंने दगाबाजी नहीं की। "
"ठीक है । मैं करेगा ऐसा । दिल से करेगा । पर वो फिर भी न माना तो..?"
"तो" - जीतसिंह सर्द स्वर में बोला- "जो वो करना चाहता है, वो मुझे उससे पहले करना पड़ेगा ।"
"क्या ?"
"इससे पहले कि वो मेरा खून कर दे, मैं उसे जान से मार डालूंगा ।”
"तू..तू. ऐसा करेगा ?"
"हां"
"पण तू तो खून-खराबा पसन्द नहीं करता ।”
"नहीं करता लेकिन जब जान पर आ बने तो सब कुछ करना पड़ता है। मरने से बचने के लिए मारना भी पड़ता है।"
ओह !"
"वो अपने घर पर नहीं है लेकिन लौटेगा बम्बई ही । अपने घर के अलावा वो बम्बई में कहां हो सकता है, ये जान लेना तेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं होगा, पपड़ी । तू जब मौका लगे उससे बात करना और उसे अकल देना । पपड़ी, तू मेरा उससे पीछा छुड़ा सका तो ये तेरा मेरे पर बहुत बड़ा अहसान होगा । तू मुझे खून सें अपने हाथ रंगने से बचा लेगा ।"
पपड़ी के शरीर ने झुरझुरी ली ।
"तिजोरीतोड़ मैं अपनी मर्जी से हूं लेकिन कातिल मुझे मजबूरन बनना पड़ेगा। देवरे को समझा देना कि अगर वो मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा तो फिर उसका मेरे से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा । और उसे ये भी याद दिला देना कि लूट के माल में अपने हिस्से का तलबगार मैं अभी भी हूं तौर हमेशा रहूंगा क्या !"
पपड़ी ने सहमति में सिर हिलाया ।
- "ये" - जीतसिंह ने उसे एक कागज का पुर्जा थमाया "पणजी के कलंगूट बीच के करीब के फैरी स्टेशन के टैक्सी स्टैंड का नम्बर है । तेरे पास देवरे की बाबत मेरे लिये कोई मैसेज हो तो इस नंबर पर फोन करके टैक्सी ड्राइवर ऐंजो को पूछना । तू ऐंजो को जो बोलेगा उसकी खबर मुझको लग जाएगी।” -
"तू पणजी में है ?"
" मैं जहन्नुम में है। तू इतना याद रखने का है कि जो भी मैसेज तू ऐंजो को देगा, वो जहन्नुम में भी मेरे पास पहुंचेगा ।”
"ठीक है ।"
"ऐंजो मेरे को बद्रीनाथ के नाम से जानता है, जीतसिंह के नाम से नहीं । याद रखना ।"
"बराबर !"
- "मैं चलता हूं।" - जीतसिंह उठ खड़ा हुआ "लेकिन जाने से पहले एक आखिरी बात और बोलता हूं।"
"क्या ?"
“मैसेज देने के इस इंतजाम की खबर अगर तूने देवरे को की तो मैं वापिस आऊंगा और आकर क्या करूंगा ये बताऊं या जानता है ?"
"जानता है । बहुत कड़क बोलता है, बाप ।”
" अभी नहीं बोलता । अभी कड़क बोलना सीख रहा हूं । उसके बाद खून से हाथ रंगना सीखूंगा । लेकिन मुझे यकीन है कि ऐसा कोई नया सबक लेने के लिए कम से कम तू मुझे मजबूर नहीं करेगा। नहीं करेगा न, पपड़ी ?"
पपड़ी ने बड़ी व्यग्रता से इनकार में सिर हिलाया ।
***
जीतसिंह रिसीवर कान से लगाये ग्रांट रोड के उस कैफे के दरवाजे के करीब काउंटर के सामने खड़ा था ।
"हल्लो।" - उसके कान मे सुष्मिता का स्वर पड़ा ।
जीतसिंह के दिल की धड़कन तेज हो गई । उसने रिसीवर को कसकर पकड़ लिया । बड़ी कठिनाई से वो माउथपीस में बोल पाया - "जीता बोल रहा हूं।"
तत्काल सुष्मिता के मुंह से सिसकारी निकली।
" कहां से ?" - वो बोली ।
"तुम्हारे बहुत करीब से। सड़क पार के कैफे से । अपने आफिस की खिड़की से झांकोगी तो दरवाजे पर खड़ा दिखाई दे जाऊंगा ।"
"क्या चाहते हो ?"
"एक मिनट को मिलना चाहता हूं ["
" आती हूं।"
लाइन कट गई ।
जीतसिंह ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और काउन्टर के पीछे बैठे कैफे के मालिक से बोला - "एक टेलीफोन काल, दो कोल्ड ड्रिंक्स | कितना पैसा ?" ।
"पन्दरह रुपया।"
जीतसिंह ने उसे पन्दरह रुपये दिए तो मालिक ने उसके सामने प्लास्टिक के दो गोल टोकन रख दिए । उन टोकनों के बदले में उसने दो पैप्सी हासिल किए और कोने की एक खाली मेज पर जा बैठा ।
दो मिनट बाद कैफे के प्रवेशद्वार पर सुष्मिता प्रकट हुई । उसकी निगाह धीरे-धीरे पैन होती हुई सारे कैफे में फिरने लगी ।
पहले से तेज धड़कता जीतसिंह का दिल और तेज धड़कने लगा । वो अपलक सुष्मिता को देखने लगा ।
सुष्मिता कोई बाइस साल की लम्बी साल की लम्बी, ऊंची, गोरी-चिट्टी, निहायत खूबसूरत लड़की थी । फैशन माडल्स की तरह सांचे में ढला उसका जिस्म था । उसके बाल सुनहरी रंगत लिये भूरे थे और नयननक्श संगमरमर से तराश मालूम होते थे । वो एक बहुत मामूली साड़ी पहने थी लेकिन उसमें भी वो इतनी हसीन और दिलकश लग रही थी कि वहां शायद ही कोई ऐसा शख्स था जिसकी तारीफी निगाह उस घड़ी उसे नहीं निहार रही थी।
तभी उसकी निगाह जीतसिंह पर पड़ी और वो लम्बे डग भरती उसकी तरफ बढ़ी । वो करीब पहुंची तो जीतसिंह ने आंखों से उसका अभिवादन किया। वो उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गई तो जीतसिंह ने एक पैप्सी उसकी तरफ सरका दिया ।
"कैसी हो ?" - वो फंसे कंठ से बोला ।
"ठीक ।" - सुष्मिता बोली- "अपनी सुनाओ।"
"मैं भी ठीक हूं । अस्मिता कैसी है ?"
अस्मिता उसकी उससे नौ साल बड़ी बहन थी जिसके तीन छोटे-छोटे बच्चे थे और जो शादी के पांच साल बाद ही विधवा हो गई थी ।
"वैसी ही है ।"
"नौकरी पर जाती है ?"
"अभी तो जाती है लेकिन लगता नहीं कि जाती रह पाएगी |"
"ओह !"
"तुम कहां थे इतने अरसे से ?"
“कहीं इधर-उधर ।”
"कुछ काम बना ?”
" अभी तो नहीं बना।”
"बनेगा ?"
“उम्मीद तो है ।”
"क्यो नहीं ! मुझे भी तो उम्मीद ही है। उम्मीद पर तो दुनिया कायम है ।”
"तुमने मुझे तीन महीने का वक्त दिया था । उसमें से अभी पूरे तीन हफ्ते बाकी हैं। "
"जब सवा दो महीने में कुछ नहीं हुआ तो तीन हफ्ते में क्या करिश्मा हो जाएगा ?"
"करिश्मा करिश्मा की ही तरह होता है । वो ऐन आखिरी घड़ी में भी हो सकता है।”
" तो तुम कोई करिश्मा होने की आस लगाए हो ?"
"नहीं । खुद ही कुछ कर गुजरने के लिये हाथ-पांव मार रहा हूं।"
"लेकिन कामयाब नहीं हो पा रहे ।"
“अभी तो ऐसा ही है लेकिन हालात ने कभी तो बदलना हो होता है । "
"वक्त रहते न बदले तो क्या फायदा ?"
“वक्त रहते ही बदलेंगे । हिम्मते मर्दा, मददे खुदा ।"
"कुछ दिन पहले एक आदमी मेरे पास आया था । अपने को तुम्हारा दोस्त बता रहा था । पूछ रहा था कि तुमने मुझे जो बारह लाख रुपया दिया था, उसका मैंने क्या किया था ! "
"तुमने क्या कहा था ?”
"मैंने और क्या कहना था ! सिवाय इसके कि ऐसी कोई रकम तुमने मुझे नहीं दी थी । बोला हमेशा के लिए न दी हो, वक्ती तौर पर रखने के लिए दी हो। मैंने कहा ऐसा भी नहीं था । बहुत ही बददिमाग आदमी था । वल्गर जुबान बोलता था । मुझे तो बहुत डर लगा था उससे ।"
"एक ही बार आया था ?"
“हां, आया तो एक ही बार था लेकिन टला बहुत मुश्किल से था।”
"तुम इत्मीनान रखो, वो अब नहीं आएगा ।"
"था कौन वो ? तुम्हारा कोई वाकिफकार ?”
"हां । मामूली ।"
"बारह लाख का क्या किस्सा है ?"
जीतसिंह ने जवाब न दिया ।
सुष्मिता ने उसे फिर न कुरेदा । उसने एक गुप्त निगाह अपनी कलाई घड़ी पर डाली और फिर बोली - "फोन कैसे किया था ?"
" उसी वजह से जो फोन पर बयान की थी । तुमसे एक मिनट को मिलने के लिए । इत्तफाक से चन्द घंटों के लिये लौटा था । दिल न माना कि एक निगाह तुम्हें देख लेने के बिना ही लौट जाता ।"
"आजकल बम्बई में नहीं हो ?"
"नहीं ।"
"तो कहां हो ?"
"कोई खास ठिकाना नहीं । "
"हूं।"
" और सुनाओ।"
" और क्या सुनाऊं ? और सुनाने को यही है कि अगर मेरी बहन मर गई तो मैं उसके साथ मर जाउंगी ।"
"पागल हुई हो ! बच्चों का क्या होगा ?"
"उन्हें मैं अपने हाथों से समुद्र में डुबोकर मारूगी ।"
"शुभ शुभ बोलो ! मैं कहता हूं किसी को कुछ नहीं होगा । मालिक के घर देर है अंधेर नहीं है । देख लेना वक्त रहते सब ठीक हो जाएगा ।"
"मैं अब चलती हूं।"
"पैप्सी तो पी जाओ ।"
उसने बोतल उठाकर पैप्सी का केवल एक घूंट भरा और फिर उठती हुई बोली- "चलती हूं ।”
"सुनो !" - जीतसिंह भी उछलकर खड़ा हुआ और व्यग्र भाव से बोला ।
सुष्मिता ने ने प्रश्नसूचक भाव से उसकी तरफ देखा ।
"तुम गरीबमार तो नहीं करोगी ?"
"गरीबमार !" - सुष्मिता के माथे पर बल पड़े ।
“अपने वादे से मुकर तो नहीं जाओगी ?"
"तुम्हें ऐसा अंदेशा है ?"
"है तो नहीं लेकिन फिर भी तुम्हारी जुबानी इस बाबत कोई तसल्ली पाकर मेरे मन को चैन मिलेगा।"
"मैं अपने वादे से नहीं मुकरूंगी । तुम्हारे सदके मेरी बहन बच जाए तो मैं उम्र-भर तुम्हारे पांव धो धोकर पीऊंगी ।"
फिर एकएक वो घूमी और लम्बे डग भरती हुई वहां से रुख्सत हो गई ।
***
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