सब काला महल में जा पहुंचे।

काला महल में प्रवेश करते ही उन्होंने चैन की सांस ली कि रास्ते में कोई खतरा नहीं आया। प्रेतनी चंदा और शैतान के अवतार द्रोणा की तरफ से कोई वार नहीं हुआ। वो सुरक्षित रहे।

काला महल के भीतर वही नजारा था, जैसा वे छोड़कर गये थे।

एक तरफ सरजू, दया और मिट्टी के बुत वाली युवती बैठे थे। (मिट्टी के बुत वाली युवती के बारे में जानने के लिये पढ़े अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)।

तीनों के चेहरों पर गम्भीरता थी।

भामा परी अपने पंख समेटे व्याकुल मुद्रा में टहल रही थी।

हवा में बैठने की मुद्रा में स्थिर बिल्ली दिखाई दी। जिसके आसपास ही गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल मंडरा रही थी। उनके प्रवेश करने से पहले वहाँ चुप्पी से भरा महौल था।

उन सबको भीतर आते पाकर बिल्ली की आँखों में तीव्र चमक आ ठहरी।

सरजू, दया और मिट्टी के बुत वाली युवती के चेहरों पर खुशी के भाव उभर आये।

भामा परी की गम्भीर निगाह सब पर जाने लगी।

“आ गये सब।” दया के होंठों से निकला।

“सब नहीं।” मिट्टी के बुत वाली युवती गम्भीर होती कह उठी-“कुछ लौटे हैं।”

“सरजू।” दया कह उठी-“क्या हम वापस चले जायेंगे? हमें धरती को देखना नसीब हो सकेगा।”

“मैं नहीं जानता दया।” सरजू की निगाह सब पर जा रही थी-“मालूम नहीं क्या नसीब होता है।”

एकाएक जगमोहन ठिठक गया। नजरें देवराज चौहान के मृत शरीर पर जा टिकीं। चेहरे पर जहान भर का दुःख आ ठहरा। आँखों में आंसू चमकने लगे।

देवराज चौहान का कटा सिर गर्दन के पास ही पड़ा था। खून बहकर सूख चुका था। जाने क्यों शरीर की हालत देखते ही जगमोहन को ऐसा लगा कि वो अब कभी जिन्दा नहीं हो सकेगा।

“आ गये तुम लोग।” भामा परी के होंठों से निकला-“क्या हुआ? कैसे लौटे? मोना चौधरी तुम लोगों के साथ भी। अब वो तुम लोगों के साथ नहीं है। कहाँ है वो? अशुभ तो नहीं हो गया उसके साथ?”

“अभ्भी तो कुछ न होवो। पर जल्दी हो जायो कुछो मोना चौधरी हो।” बांकेलाल राठौर ने गहरी सांस ली।

“मैं समझी नहीं।” भामा परी के होंठों से निकला।

पारसनाथ ने कम शब्दों में भामा परी को सब कुछ बता दिया।

बिल्ली हवा में स्थिर चमक रही निगाहों से सबको देख रही थी।

“ओह।” भामा परी के होंठों से निकला-“नगीना चक्रव्यूह में फंस गई।”

“हाँ।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा-“अब पेशीराम की आत्मा मोना चौधरी को लेकर गई है-देवराज चौहान की आत्मा लेने।”

“मोना चौधरी भी तो फंस सकती है।” भामा परी ने कहा।

“हाँ। खतरे तो दूर तरफ फैले हैं।”

मिट्टी के बुत वाली युवती अपनी जगह से उठकर आगे बढ़ आई थीं, वो बोली।

“अगर मोना चौधरी भी उस चक्रव्यूह में जा फंसी तो क्या होगा?”

वो सब एक-दूसरे को देखने लगे।

“फिर पेशीराम की आत्मा किसे लेकर जायेगी?” मिट्टी के बुत वाली युवती कह उठी।

“ये ठीक कहेला है बाप।” रुस्तम राव कह उठा-“मोना चौधरी फंसेला तो पेशीराम की आत्मा फिर किसे लेकर पाईला?”

कोई कुछ न कह सका।

“जो भी हो रहा है, बहुत बुरा हो रहा है।” भामा परी गम्भीर स्वर में कह उठी-“जाने अंत क्या हो।”

तभी बिल्ली ने मुंह छत की तरफ किया।

“म्याऊँ।” बिल्ली का तेज स्वर वहाँ गूंज उठा।

नज़रें उसकी तरफ उठीं।

तभी बिल्ली उठी और चहल कदमी करने लगी। हवा में वो इस तरह चल रही थी जैसे फर्श पर चल रही हो। गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल उसके साथ-साथ हवा में मौजूद रही।

जगमोहन के दाँत भिंच गये थे।

तभी बिल्ली ठिठकी और चमकपूर्ण निगाहों से सबको देखती कह उठा।

“तो नगीना के भीतर उस वक्त पेशीराम की आत्मा थी।”

बिल्ली का मुँह हिला और आवाज गूंजी। (काली बिल्ली के बारे में जानने के लिये पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “तीसरी चोट)।”

“हां।” राधा ने फौरन सिर हिलाया।

“तभी वो अपनी पहचान मुझे नहीं बता रहा था।” बिल्ली की आवाज सबको सुनाई दी।

“पेशीराम तुमसे डरता नहीं है।” महाजन कह उठा-“उसके पास ज्यादा शक्ति है तुम्हारे से।”

“वो डरता है, तभी तो अपने बारे में नहीं बताया, पूछने पर भी।” बिल्ली तीखे स्वर में कह उठी-“इस वक्त मैं गुरुवर की शक्तियों की रक्षा कर रही हूँ। इस बात को पेशीराम की आत्मा जानती थी। तभी तो उसने अपने बारे में मुझे नहीं बताया।”

“अगर तुम्हें मालूम हो जाता तो तुम क्या कर लेतीं।” पारसनाथ बोला।

“मैं गुरुवर की शक्ति इस्तेमाल करके, उसके हाथ-पाँव मैं बांधकर, एक तरफ डाल देती।” बिल्ली ने कहा।

“ऐसा क्यों करतीं तुम?”

“क्योंकि पेशीराम गुरुवर की इजाजत के बिना ये काम कर रहा है। गुरुवर की तरफ से उसे इजाजत नहीं है शैतान के आसमान पर आने की। गुरुवर ने पेशीराम को ऐसी कोई इजाजत दी होती तो मुझे अवश्य खबर होती। पेशीसम ने जो मनमानी की है, उसके लिये गुरुवर उसे अवश्य सजा देंगे।” बिल्ली का स्वर उखड़ा हुआ था।

जगमोहन दाँत भींचकर कह उठा।

“गुरुवर पेशीराम को क्या सजा देंगे और क्या नहीं-ये बाद की बात है। तुम अपनी बात करो।”

“कहो जग्गू।” चहल कदमी करते बिल्ली ठिठकी।

“तुम हमारे साथ क्या खेल खेल रही हो।” श्रेय में जगमोहन के चेहरे पर सुर्खी थी।

“स्पष्ट कहो।”

“हमारे साथ हर कदम पर बुरा हो रहा है क्योंकि ये शैतान का आसमान है। यहाँ हमारा बस नहीं चल रहा।” जगमोहन एक-एक शब्द चबाकर कह उठा-“तुम हम सबको मुसीबतों से निकाल सकती हो। सब ठीक कर सकती हो।”

“कैसे?”

“गुरुवर की शक्तियों का इस्तेमाल करके, हमारे सारे काम ठीक कर दो या शक्तियाँ कुछ देर के लिये मेरे हवाले कर दो।”

“ये सम्भव नहीं। शक्तियों की रक्षा, गुरुवर ने मेरे हवाले की हैं-शक्तियों को बाँटने का काम नहीं सौंपा मुझे।” बिल्ली ने बहुत शांत स्वर में कहा-“मैं उतना ही करूंगी, जितनी इजाजत है मुझे।”

“बिल्ली।” बांकेलाल राठौर कह उठा-“तुम शक्तियाँ म्हारे को न दयो। उनका इस्तेमाल करके तम ही सबो ठीक कर दयो।”

“ये भी नहीं हो सकता।”

“क्यों नेई होएला बाप?”

“गुरुवर की शक्तियों की मुझे बहुत जरूरत पड़ने वाली है।” बिल्ली पुनः चहलकदमी करने लगी-“महामाया ने अपनी बहुत खतरनाक शक्ति इस महल पर छोड़ दी है। पन्द्रह दिन बाद वो शक्ति अपना असर दिखाएगी।”

“महामाया?” जगमोहन की आँखें सिकुड़ीं।

“कैसी शक्ति?”

“कोण असर की बातों करो हो।”

बिल्ली ठिठकी। बारी-बारी उसने सबको देखा।

भामा परी सोच भरे अंदाज में, टहलने लगी थी, उनसे हटकर।

“मैं जानती हूं कि महामाया के बारे में तुम में से कोई भी नहीं जानता कि वो कौन है। उसके बारे में हर कोई नहीं जान पाता।”

“मैं जानती हूं महामाया के बारे में।” भामा परी ने गम्भीर निगाहों से बिल्ली को देखा।

“हां। तुम्हें इस बात की जानकारी हो सकती है।” बिल्ली ने ठिठकर कर भामा परी को देखा-“महामाया के बारे में इन सबको बताओ।”

“तुम ही बताओ।” भामा परी ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।

काली बिल्ली ने हौले से गरदन हिलाई और दूसरों पर नजर जा टिकी।

“शैतान के अवतार को तुम लोग देख चुके हो। उसकी ताकत भी देखी है। शैतान के अवतार को आदेश देता है शैतान। शैतान ही उसको कर्मों का हिसाब रखता है और शैतान के कर्मों का हिसाब रखती है महामाया।”

“महामाया?”

“ये कौन है?”

“ये नाम पहले तो नहीं सुना।”

सबके चेहरों पर हैरानी और उलझन नजर आने लगी।

“महामाया शैतान के कर्मों का हिसाब रखती है। शैतान से ऊपर है वो। जैसे कि शैतान के अवतार के ऊपर शैतान है।” बिल्ली की आवाज सबके कानों में पड़ रही थी-“शैतान ने इस काले महल को तबाह करने के लिये, इस पर कब्जा पाने के लिये बहुत कोशिश की। अपनी सारी शक्ति लगा दी। चूंकि गुरुवर की शक्तियां महल के भीतर मौजूद हैं। इसलिये शैतान की शक्ति यहां असर नहीं दिखा सकी। शैतान ने ये बात महामाया के सामने रखी होगी। तब महामाया ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल इस काला महल पर किया। महामाया की एक शक्ति काला महल पर असर दिखा सकी। वो भी फौरन नहीं। पन्द्रह दिन बाद उसमें से एक दिन व्यतीत हो चुका है। चौदह दिन बाद ये महल जल कर राख हो जायेगा।”

“ओह-।”

बिल्ली के शब्दों के साथ ही वहां हलचल-सी पैदा हो गई।

कुछ आवाजें उभरीं। वो एक-दूसरे को देखने लगे।

“महामाया? शैतान के ऊपर महामाया?” जगमोहन के होंठों से निकला।

“ये मामला तो सस्पेंस वाला होएला बाप।” रुस्तम राव के चेहरे पर उलझन उभर आई थी।

“मुझे तो इसकी बात पर विश्वास नहीं आ रहा।” पारसनाथ के होंठों से निकला-“शैतान के ऊपर भी कोई है।”

दो पलों के लिये गहरा सन्नाटा छा गया।

तभी मिट्टी के बुत वाली युवती के होंठों से निकला।

“बिल्ली का कहना गलत नहीं होगा। ये झूठ नहीं बोलेगी।”

“झूठ क्यों नहीं बोलेगी।” राधा ने उसे देखा-“इस पर विश्वास कौन करेगा।”

“ये सच कह रही है।” जगमोहन के होंठों से निकला-“ये झूठ नहीं बोलेगी हमसे। अगर ये झूठ बोलेगी तो गुरुवर की शक्तियां कमजोर हो जायेंगी।”

“लेकिन शैतान के ऊपर-ऊपर-।” पारसनाथ होंठ भींचकर रह गया।

जगमोहन ने गम्भीर निगाहों से बिल्ली को देखा।

“तुम्हारा मतलब है कि शैतान को भी हुक्म देने वाला कोई है? वो महामाया है। उसे महामाया कहते हैं।”

“हां। शैतान को हुक्म देने वाली महामाया है। उसके कर्मों का हिसाब महामाया लेती है।”

“ओह!” जगमोहन अजीब से स्वर में कह उठा-“मैंने तो सोचा था शैतान पर ही शैतानी साम्राज्य खत्म हो जाता है। लेकिन अब समझ आया कि शैतानी साम्राज्य महामाया पर खत्म-।”

काली बिल्ली के हंसने की आवाज पर जगमोहन का कहना रुका।

“शैतानी साम्राज्य का कहीं भी अन्त नहीं होता। ये बात हमेशा याद रखना।” काली बिल्ली कह उठी।

“क्या मतलब?” महाजन के होंठों से निकला।

“लोग सिर्फ शैतान का नाम ही जानते हैं। शैतान एक शैतानी दुनिया की डोर को अन्तिम सिरा समझ लेते हैं। हकीकत तो ये है कि शैतानी दुनिया का सिरा दूर तक फैला हुआ है।” काली बिल्ली का मुंह मुस्कराहट के रूप में फैल गया-“शैतान से बड़ी महामाया है। शैतान को महामाया का हुक्म मानना पड़ता है। महामाया को अपने कर्मों का जवाब देना-।”

“महामाया के ऊपर भी कोई है?” पारसनाथ ने पूछा।

“हां।” बिल्ली का सिर हिला।

“कौन है? क्या नाम है उसका?”

“गुरुवर की आज्ञा नहीं है ऐसी बातें बताने की।”

“गुरुवर की आज्ञा की इस काम में क्या जरूरत है।” जगमोहन बोला-“तुम तो शैतान के बारे में बता रही हो।”

“शैतान हो या भगवान। इनकी परतें तो रहस्य में लिपटी हैं। सृष्टि के पन्नों को बिना इजाजत के पलटना बहुत ही गलत होगा। मैं नहीं जानती कि कौन-सा रहस्य, क्यों छिपा रखा है। किसने छिपाया है। सृष्टि के लिये न तो शैतान नफरत के लिये है और न ही प्यार के लिये भगवान। समानता बनाए रखने के लिये दोनों की मौजूदगी जरूरी है।” काली बिल्ली ने शांत स्वर में कहा-“ऐसे में गुरुवर की इजाजत के बिना किसी रहस्य को खोल पाना मेरे लिये सम्भव नहीं है।”

जगमोहन होंठ भींचकर रह गया।

“शैतान के ऊपर महामाया है?” सोहनलाल सोच भरे स्वर में बोला-“महामाया के ही ऊपर कोई है।”

“हां-और उसके ऊपर भी कोई है। बहुत लम्बी कड़ी है। कहीं भी इसका अन्त नहीं। कोई भी अपने कर्मों का इकलौता मालिक नहीं। इससे ज्यादा कुछ नहीं बता सकूँगी।” बिल्ली ने शांत स्वर में कहा।

वे एक-दूसरे को देखने लगे।

“तुमने कहा कि महामाया की शक्ति की वजह से ये महल चौहदवें दिन जल कर राख हो जायेगा।” जगमोहन एकाएक बोला।

“हां।” बिल्ली बोली-“इस हादसे को रोका भी जा सकता है।”

“कैसे?”

“चौदह दिनों से पहले ही इस महल को यहां से वापस ले जाना होगा।”

“अगर ऐसा न हो सका तो?”

“महल जल जायेगा। इसके भीतर मौजूद कोई भी जिन्दा नहीं बचेगा। गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल भी जल जायेगी।”

“क्या?” बांकेलाल राठौर के होंठों से निकला-“गुरुवर की शक्तियों से भरी बालो भी जल्लो क्या?”

“हर चीज जल जायेगी-जो भी महल में मौजूद होगी।”

“गुरुवर की शक्ति से भरी बाल को हर हाल में बचाईला बाप-।”

“इसी बाल को बचाते-बचाते हम यहां तक आ पहुंचे हैं।” पारसनाथ बोला-“इसे कुछ नहीं होना चाहिये। गुरुवर की शक्तियों को किसी सूरत में नष्ट नहीं होने देना है हमने।”

“बिल्ली।” जगमोहन आंखें सिकोड़कर कह उठा-“तुम इस बाल की रक्षा कर रही हो।”

“हां।”

“बाल को बचाने के लिये तुम क्या करोगी?”

बिल्ली का मुंह मुस्कराहट भरे ढंग से फैल गया।

“मैं बाल की रक्षा के लिये मौजूद हूं तो इसकी रक्षा अवश्य करूंगी। परन्तु ये बात यकीन के साथ नहीं कह सकती कि तब तुम लोग बच पाओगे या नहीं।” बिल्ली ने कहा।

“नीलू। ये बिल्ली तो चाहती है हम मर जायें।”

“ऐसा मत कहो। मेरे मन में किसी के लिये बुरी भावना नहीं है।” बिल्ली कह उठी।

“ऐसी बात है तो तुम मोना चौधरी की सहायता क्यों नहीं करतीं।” पारसनाथ ने कहा-“मोना चौधरी खतरे में है। वो शायद देवराज चौहान की आत्मा को न ला सके। उसे सहायता की जरूरत है।”

“मत भूलो कभी तुम मोना चौधरी के इशारे पर नाचती थीं।”

“वो मिन्नो का पहला जन्म था।” बिल्ली कह उठी-“मिन्नो मैं की मौत के साथ ही सब कुछ खत्म हो गया था। अब मैं गुरुवर की सेवा में हूं। गुरुवर का हुक्म ही मेरे लिये सब कुछ है।”

“मैं मोना चौधरी की सहायता की बात कर रहा हूं-।” पारसनाथ कह उठा।

“ये नहीं हो सकेगा परसू-।” बिल्ली बोली-“गुरुवर के आदेश पर मैं बंधी हुई हूं। मुझे जहां तक तुम लोगों की सहायता के लिये कहा है, वहां तक ही मैं सहायता करूँगी।”

“मोना चौधरी की जान बचाने-उसकी सहायता करने पर गुरुवर तुमसे नाराज नहीं होंगे।” महाजन कह उठा।

“मैं नहीं जानती नीलसिंह कि गुरुवर नाराज होंगे या खुश।” बिल्ली ने गम्भीर स्वर में कहा-“मैंने सिर्फ गुरुवर का आदेश ही मानना है। बहुत मेहनत के बाद मैं गुरुवर की नजरों में यहां तक पहुंची हूं। कोई गलतं काम करके मैं खुद को बरबाद नहीं-।”

“क्या बरबाद होगी तुम?”

“जो शक्तियां मैंने हासिल की हैं, वो छिन जायेंगी।”

“बहुत प्यार है शक्तियों से।” मिट्टी के बुत वाली युवती कह उठी।

“हां। प्यार है।” बिल्ली ने शांत स्वर में कहा-“जिस तरह तुम लोगों को अपने जीवन से प्यार है, उसी तरह मुझे अपनी शक्तियों से प्यार है। गुरुवर के इस कार्य के पूर्ण करते ही मुझे जानवर के जीवन से मुक्ति मिल जायेगी। मैं युवती बन जाऊंगी। अगर मैंने कोई गलती कर दी तो फिर मैं मनुष्य जीवन में प्रवेश नहीं कर पाऊंगी। गुरुवर मेरी शक्तियां वापस ले लेंगे।”

कुछ पलों के लिये वहां चुप्पी छा गई।

तभी भामा परी कह उठी।

“तुम बहुत ही गलत बात कर रही हो बिल्ली।”

सबकी निगाह भामा परी पर गई।”

“कैसी गलत बात?” बिल्ली ने भी भामा परी को देखा।

“गाय के जीवन के बाद ही मनुष्य का जीवन प्राप्त होता है। बिल्ली के जीवन के बाद नहीं।”

“ये बात तुम्हें साधारण मुनष्यों के सामने नहीं करनी चाहिये।” बिल्ली ने टोका।

“बात मेरे मुंह से निकल गई।” भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा-“आज जवाब दो कि तुम कैसे बिल्ली के जीवन के पश्चात मनुष्य के रूप में आ सकती हो।”

“गुरुवर की शक्तियां इसमें काम कर रही हैं।” बिल्ली ने कहा-“गुरुवर अपनी शक्ति से मेरे जीवन का चक्र घुमायेंगे कि वो चक्र मनुष्य के जीवन पर ही आकर रुकेगा।”

“ओह। समझी-।” भामा परी का स्वर गम्भीर था।

चुप्पी रही कुछ पलों तक।

“छोरे।”

“बाप-।”

“यो बिल्ली तो साली-खाली डन्डो घुमायो हो। न तो खुदो करो हो कुछ, न ही गुरुवर की शक्तियों को करनो दयो हो। बोत समझदारी से चल्लो हो। सबो की मौसी बनयो-।” बांकेलाल राठौर कह उठा।

“तुम हमारी सारी परेशानियां दूर कर सकती हो।” जगमोहन होंठ भींचे कह उठा-“देवराज चौहान जिन्दा हो सकता है। नगीना भाभी कैद से आजाद होकर यहां आ सकती हैं। मोना चौधरी को भी तुम सुरक्षित वापिस ला सकती हो।”

“मैं तुम लोगों की परेशानी दूर नहीं कर सकती।” बिल्ली ने कहा-“गुरुवर की शक्तियां अवश्य सब कुछ ठीक कर सकती हैं, जो कि इस बाल में मौजूद हैं। लेकिन गुरुवर की शक्तियों से छेड़-छाड़ करने की इजाजत नहीं है मुझे।”

“तुम ये बाल हमें दे दो।” महाजन कह उठा-“हम-।”

“किसी भी हाल में नहीं।” बिल्ली उसी पल कह उठी-“गुरुवर ने बाल की रक्षा करने का कार्य मेरे हवाले कर रखा है। ऐसे में इस बाल को छूने की इजाजत भी मैं किसी को नहीं दे सकती।”

“ये हमारे किसी काम का नहीं है।” राधा तीखे स्वर में कह उठी।

“यो तो म्हारो कांमा भी न आयो और म्हारो वक्तो भी बरबाद करो हो।”

“हमें जो करना है, खुद ही करना होगा।” पारसनाथ ने खुरदरे स्वर में कहा-“बिल्ली हमारी कोई सहायता नहीं करेगी। अगर हमने इससे कोई आशा लगाई तो, जो काम हम कर सकते हैं, वो भी अधूरे रह जायेंगे।”

“लेकिन हम कर क्या सकते हैं शैतान के आसमान पर, सामान्य मनुष्य कुछ नहीं कर सकता।” जगमोहन दांत भींचे कह उठा-“मुझे नहीं लगता कि हमारा कोई काम सफलतापूर्वक पूरा होगा। बारी-बारी हम सब मर जायेंगे।”

गुस्से, क्रोध और उलझन विवशता में सब एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।

देवराज चौहान का मृत शरीर जैसे उन्हें कंपा रहा था। इस बात का एहसास दिला रहा था कि उसका वंश मिट चुका है। शरीर बचा है, देर-सवेर वो भी नहीं रहेगा।

तभी बिल्ली गम्भीर स्वर में कह उठी।

“गुरुवर की शक्ति को थोड़ा-सा इस्तेमाल करके, थोड़ा-सा तुम लोगों के काम आ सकती हूं।”

“का काम आवे इब तू?”

“गुरुवर की शक्ति का थोड़ा-सा ज्यादा इस्तेमाल कर लो।” सोहनलाल बोला-“हमारा कोई काम संवर जायेगा।”

“जितनी मुझे इजाजत है, मैं उतनी ही शक्ति का इस्तेमाल करूंगी गुलचन्दन।”

“बताओ, तुम हमारे किस काम आ सकती हो।” पारसनाथ कह उठा।

“नगीना चक्रव्यूह में फंस चुकी है।” बिल्ली ने कहा।

सबकी निगाह उस पर थी।

“मिन्नो भी चक्रव्यूह में प्रवेश कर चुकी है।” बिल्ली की निगाह बारी-बारी सब पर जा रही थी-“ऐसे में अगर तुम लोग कहो तो मैं सबको चक्रव्यूह में पहुंचा सकती हूं।”

“चक्रव्यूह के भीतर?”

“परन्तु वहां से निकलेंगे कैसे?” महाजन बोला।

“बाहर निकलना तुम लोगों का काम होगा। तब मैं कोई सहायता नहीं कर सकूँगी-।” बिल्ली कह उठी।

“चक्रव्यूह के भीतर जाकर हम करेंगे क्या?” जगमोहन ने बिल्ली की चमकदार आंखों में देखा।

बिल्ली हिली और चहलकदमी करने लगा।

गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल हवा में डोलती उसके संग इधर-उधर हो रही थी।

“मैं नहीं जानती कि वहां जाकर तुम लोग क्या करोगे। ये तुम लोगों को सोचना है कि तुमने क्या करना है। सोचने में मैं तुम लोगों की सहायता कर सकती हूं। अगर कहो तो।” बिल्ली ने ठिठक कर जगमोहन को देखा।

“कैसी सहायता करेला बाप?”

“छोरे।” बांकेलाल का हाथ मूंछ पर पहुंचा। वो बिल्ली को घूर रहा था-“म्हारे को तो यो समझ में न आयो कि बिल्ली म्हारे पे मेहरबान क्यों हो गयी?”

तभी बिल्ली बोली।

“मैं तुम लोगों को ये बताकर सहायता कर सकती हूं कि चक्रव्यूह में जाकर तुम सब नगीना को कैद से आजाद कराने की चेष्टा कर सकते हो। देवा की आत्मा की तलाश में, आत्मा को लाने में, मिन्नों की सहायता कर सकते हो या फिर स्वयं ही देवा की आत्मा को तलाश करके ला सकते हो। नहीं जाना चाहते तो इसी महल में रहो सब। यहां पर किसी तरह का कोई खतरा नहीं। महामाया की शक्ति का खतरा अवश्य है। परंतु अभी दो सप्ताह बाकी है उस शक्ति के महल पर असर करने में।”

वो लोग कभी एक-दूसरे को देखते तो कभी दिल्ली को देखने लगते।

“वहां कितना खतरा है?” महाजन ने बिल्ली से पूछा।

“खतरा कम नहीं है।” बिल्ली ने गम्भीर स्वर में कहा-“पहले चक्रव्यूह में शैतान से खतरा था। परन्तु अब शैतान के साथ-साथ सौदागर सिंह से भी खतरा पैदा हो गया है। वो ढाई सौ बरस की कैद से आजाद होकर, चक्रव्यूह में चला गया है। उस चक्रव्यूह का असली मालिक सौदागर सिंह ही है। उसे आजाद हुए ज्यादा देर नहीं हुई कि चक्रव्यूह में उथल-पुथल कर दी है। चक्रव्यूह की इधर की चीज उधर और उधर की चीज इधर कर दी है। जो पहले चक्रव्यूह में गया हो, उसके लिये तो रास्तों को पहचान पाना भी सम्भव नहीं रहा।”

“यो सौदागर सिंह कोणों होवे बिल्ली?”

बिल्ली ने सौदागर सिंह के बारे में सब कुछ बताया।

“काम से तो सौदागर सिंह बढ़ियो आदमी लागो। जरो उसकी नियम बोत कमीनी है।” बांके लाल राठौर मुंह बनाकर कह उठा-“जो गुरुवर को धोखा देवें, वो किसी का सगा न होवे।”

“सौदागर सिंह कभी भी पसन्द नहीं करेगा कि उसकी इजाजत के बिना तुम लोग उसके चक्रव्यूह में प्रवेश करो। ऐसे में उससे और शैतान से भी तुम लोगों को खतरा है।” बिल्ली ने कहा।

“मैं जाऊंगा चक्रव्यूह में।” एकाएक जगमोहन दांत भींचकर कह उठा।

“मैं भी तुम्हारे साथ हूं।” सोहनलाल बोला।

“छोरे। थारो का इरादो होवे?”

“बाप आपुन तो चक्रव्यूह में जाईला। इधर रह कर तो बोर होइला।”

“अपनी बगल में म्हारा सीटो भी बुक करा लयो।”

पारसनाथ ने भी चक्रव्यूह में जाने की हामी भर दी।

“नीलू।” राधा कह उठी-“ये सब तो चक्रव्यूह में जा रहे हैं। मैं जानती हूं तुम खतरों से नहीं डरते। लेकिन तुम्हारे वहां जाने का क्या फायदा? आखिर किसी को यहां भी रहना चाहिये। तुम मत जाना।”

महाजन ने राधा को तीखी निगाहों से घूरा।

“मैंने गलत कर दिया क्या नीलू?” राधा जल्दी से कह उठी।

“तुम अपने बारे में फैसला करो।” महाजन कह उठा-“मुझे राय देने की जरूरत नहीं है।”

“नाराज क्यों होते हो। मैंने तो यूं ही बात की थी। तुम भी क्या इनके साथ जा रहे हो।”

“हां।”

“मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। मैं भी साथ चलूंगी।”

“बोत स्यानी बननो हो यो-।” बांके लाल राठौर बड़बड़ा उठा।

“कुछ कहेला बा?”

“बच्चों के सुनने की बात न नौवे। बात निकल गई तो उसो को आग लगो हो।”

“किसो बाप?”

“उसी को-जिसो तू बच्ची कहो हो।”

“तुम क्यों बच्ची के पीछे पड़ेला है?”

“अम थारी बच्ची के पीछो न होवो। वो म्हारे आगे चल्लो हो-।”

“एक ही बात होएला बाप-।”

तभी यामावर्त की आवाज सबके कानों में पड़ी।

“बिल्ली मैं भी इन सबके साथ चक्रव्यूह में जाऊंगी।”

“मैं भी-।” मिट्टी के बुत वाली युवती भी कह उठी।

सबकी निगाह इन दोनों की तरफ उठी।

बिल्ली ने शांत निगाहों से दोनों को देखा, फिर मिट्टी के बुत वाली युवती से कह उठी।

“तुम्हारी बात पर मुझे एतराज नहीं-परन्तु भामा परी को चक्रव्यूह में जाने की सलाह नहीं दूंगी।”

“मेरे लिये रुकावट क्यों बिल्ली?” भामा परी के होंठों से निकला।

“शैतान की धरती और चक्रव्यूह में परियों की जगह नहीं है। कोई भी शक्ति इस्तेमाल करके तुम्हें कैद कर सकती है। चूंकि शैतानों को, परियों को भोजन के रूप में खाना बहुत अच्छा लगता है। इसलिये शैतान तुम्हें छोड़ेंगे नहीं। कहीं भी तुम शैतानों की कैद में पहुंच सकती हो। तब तुम्हें बचाने वाला कोई भी नहीं होगा।”

“मैं जानती हूं अपने प्रति खतरे को।” भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा-“इसी कारण मैं इस काला महल से बाहर नहीं निकली थी, परन्तु अब मैं भीतर नहीं रह सकती। सारे मनुष्य चक्रव्यूह में जा रहे हैं। वहां पर मैं इनकी सहायता कर...।”

“बेशक तुम वहां इनकी सहायता कर दोगी।” बिल्ली कह उठी-“लेकिन जब तुम किसी शैतान की कैद में फंस गई तो कोई मनुष्य तुम्हारी सहायता नहीं कर पायेगा।”

“ठीक कहती हो बिल्ली। परन्तु मैं इन मनुष्यों के साथ ही चक्रव्यूह में जाना चाहूंगी। मेरी जिन्दगी इन मनुष्यों की ही देन है। अस्सी बरस से मैं चिड़िया बनी, शैतान के अवतार की धरती पर अटक रही थी। अगर इन मनुष्यों ने मुझे आजाद न कराया होता तो अभी तक मैं कारी राक्षस की कैद में, शैतान की अवतार की शैतानी धरती पर होती।” (भामा परी के बारे में जानने के लिए पढ़े अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

“ये ठीक है कि हमने तुझे मुक्त कराया है। चिड़िया से वापस तुम्हें परी के रूप में ला दिया है।” राधा बोली-“परन्तु इसका ये मतलब तो नहीं कि तुम अपनी जान खतरे में डालती फिरो। मैं-।”

“मैं अपने कर्म कर रही हूं।” भामा परी ने राधा को गम्भीर निगाहों से देखा-“चक्रव्यूह जैसी खतरनाक जगह में मैं तुम सबके काम आ सकूँगी, जरूरत पड़ने पर। अब मैं महल में छिपी नहीं रह सकती। तुम लोगों को कुछ हो गया और मैं यहीं रही तो मुझे बहुत दुःख होगा। फिर जब वापस परी लोक लौटूंगी। तो मुझे अपने कर्मों का हिसाब वहां देना होगा। जब मेरे देवता को मालूम होगा कि जिन मनुष्यों ने मुझे बचाया है, वो सहायता के अभाव की वजह से जान गंवा बैठे हैं तो मुझ से पूछा जायेगा कि मैंने उन मनुष्यों की सहायता क्यों नहीं की? महल में क्यों छिपी रही। इस बात का मेरे पास जवाब नहीं होगा। क्या कहूंगी कि शैतानों से अपनी जान बचाने के लिये महल में छिपी रही।”

हर कोई भामा परी के गम्भीर मासूम चेहरे को देख रहा था।

काली बिल्ली की आंखों में तीव्र चमक थी।

“हम भामा जाति की परी हैं। हमारे आसमान पर कोई सोच भी नहीं सकता कि भामा जाति की परी कोई नीच काम भी कर सकती है। तुम लोगों की सहायता न करने की ऐवज में बेहद कठोर सजा देंगे देवता। मेरे पंख वापस ले लिए जायेंगे। मेरे मां-बाप और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भी ऐसा ही होगा, फिर हम कभी भी परी लोक से बाहर नहीं जा सकेंगे और भामा परी का रुतबा छीनकर, हमें झाड़-सफाई के कामों पर लगा दिया जायेगा। ऐसे जीवन से तो अच्छा है कि जीवन ही न हो। इसलिये मनुष्यों की सहायता करना मेरा सबसे पहला धर्म और कर्म है।”

किसी ने कुछ नहीं कहा।

लम्बी होती खामोशी को तोड़ती बिल्ली शांत स्वर में बोली।

“तुम अपनी जगह सही हो। परीलोक के अपने ही कायदे-नियम हैं। अपनी दुनिया के नियम के हिसाब से ही सबको चलना पड़ता है। चक्रव्यूह में मौजूद खतरे के बारे में बता कर मैंने अपना फर्ज पूरा किया। फिर भी तुम वहां जाना चाहती हो तो मैं इन्कार क्यों करूंगी।”

हर कोई गम्भीर नजरों से बिल्ली को देख रहा था।

“कब भेजोगी तुम हमें चक्रव्यूह में?” पारसनाथ कह उठा।

“जब भी आप लोग कहें।”

“तुम हमें अभी चक्रव्यूह में भेज दो।” जगमोहन होंठ भींच कर बोला।

“अच्छी बात है। तुम सब एक-दूसरे का हाथ थाम लो।” बिल्ली ने कहा।

देखते-ही देखते सबने एक-दूसरे के हाथ थाम लिये।

भामा परी ने नहीं थामा किसी का हाथ।

“मैं जानती हूं भामापरी कि तुम परीलोक के नियम के अनुसार देवता की इजाजत के बिना किसी का हाथ नहीं थामोगी।” बिल्ली कह उठी-“तुम किसी के कंधे पर हाथ रख लो। इनके साथ सौदागर सिंह के चक्रव्यूह में जाने के लिये ऐसा करना जरूरी है।”

भामा परी आगे बढ़ी और राधा के कंधे पर हाथ रख दिया।

बिल्ली ने सरजू और दया को देखा।

“तुम दोनों इनके साथ चक्रव्यूह में नहीं जाना चाहोगे।” बिल्ली ने पूछा।

सरजू और दया ने घबराये से एक-दूसरे को देखा।

“मुझे डर लग रहा है सरजू-।” दया कह उठी।

“डर तो मुझे भी लग रहा है।” सरजू ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी-“यहीं रहें या इनके साथ चले दया-।”

“मु-मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा।” दया बोली-“जहां कम खतरा हो, वहीं रहेंगे।”

“कम खतरा कहां है। हमें कैसे मालूम होगा?”

“इसी बिल्ली से पूछो। शायद बता दे।”

सरजू और दया की नजरें बिल्ली की तरफ उठीं।

“क्या सोचा?” बिल्ली का चेहरा मुस्कराहट के अंदाज में फैल गया।

“य-यहां खतरा ज्यादा है या चक्रव्यूह में?” सरजू ने घबराये स्वर में पूछा।

“दोनों जगह ही खतरा है। चौहदवें दिन महामाया की शक्ति रंग दिखा सकती है। ये महल जल कर राख हो सकता है। महल के भीतर की हर वस्तु जल जायेगी। जो इन्सान होगा, वो भी।” बिल्ली ने कहा-“इसी तरह चक्रव्यूह में खतरा है। वहां से बच में पाना आसान नहीं। बाहर आने का रास्ता मिलना कठिन होगा। खतरों से बचना वहां कठिन है। सौदागर सिंह ने वहां कदम-कदम में कोई पर अन्जाना खतरा बिछा रखा है। यहां रहो या चक्रव्यूह भी जगह सुरक्षित नहीं।”

“महामाया की शक्ति ने इस काला महल पर असर दिखलाया तो तुम अपने लिये क्या करोगी?” जगमोहन कह उठा।

“मुझे कुछ नहीं होगा।” बिल्ली शांत भाव में मुस्करा उठी-“गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल के साथ गायब हो जाऊंगी।”

“वापस गुरुवर की नगरी चली जाऊंगी?” महाजन बोला।

“हां।”

“सबको मरता छोड़कर-।” पारसनाथ के दांत भिंच गये।

“तुम लोगों को बचाना इस वक्त मेरी जिम्मेदारी नहीं है।” बिल्ली का स्वर शांत था-“मेरी जिम्मेवारी गुरुवर की शक्तियों से भरी बाल को सुरक्षित रखना है कि ये गलत हाथों में न पड़े।”

“महामाया की शक्ति के खिलाफ बाप, तुम गुरुवर की शक्ति का इस्तेमाल करेला।” रुस्तम राव ने कहा।

“इस बारे में मैंने फैसला नहीं किया कि अब क्या करना है।” काली बिल्ली गम्भीर स्वर में बोली।

सरजू और दया आपस में बात कर रहे थे।

“यहां भी खतरा है सरजू और चक्रव्यूह में भी।” दया सूखे होंठों पर जीभ फेरकर उसे देखने लगी।

“क्या करें दया? मेरी तो समझ में कुछ भी नहीं आ रहा।”

“तू ही सोच क्या करना है।”

सरजू कुछ देर दया को देखता रहा, फिर गम्भीर स्वर में बोला।

“ये लोग यहां से चले गये तो हम अकेले रह जायेंगे।”

“सो तो है।”

“खतरा दोनों तरफ है। ऐसे में इनके साथ रहना ही ज्यादा बेहतर होगा।” गम्भीर स्वर में सरजू ने कहा।

दया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“जैसा तुम ठीक समझो, वैसा ही कर लो।”

तभी बिल्ली की आवाज उन्हें सुनाई दी।

“क्या फैसला किया तुम दोनों ने?”

सरजू और दया ने बिल्ली को देखा।

“का सोचो हो।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा-“अंम जबो थारी उम्रो का हौवो, तो हवा में उड़ो हो। जबो म्हारे संग के गुरदासपुरो वालो हौवे तो अंम उड़न खटौले की ब्रेको ही तोड़ दयो कि रुकने की जरूरत न होवे। परवाह ना ही। डरो क्यों हो। अंम थारो साथो हौवे। अंम सबो एक साथो ही मरो। चल्लो महारे संग चक्रव्यूहों में-।”

“हम-हम भी-चक्रव्यूह में जायेंगे।” सरजू घबराया-सा हिम्मत करके कह उठा।

“इब तां म्हारो छोरो जवान हो गयो-।”

बिल्ली ने मुंह छत की तरफ किया।

“म्याऊं-।” उसके होंठों से तेज आवाज निकली।

फिर बिल्ली ने सरजू दया को देख कर कहा।

“दोनों पास आकर इनका हाथ पकड़ लो।”

सरजू और दया करीब आये। पास खड़े सोहनलाल का हाथ सरजू ने पकड़ लिया। दूसरी तरफ से सरजू का हाथ दया ने पकड़ रखा था। सब एक-दूसरे को छू रहे थे। भामा परी ने राधा के कंधे पर हाथ रखा हुआ था।

“बाप-।” रुस्तम राव बिल्ली से कह उठा-“बोत मेहरबानी तुम्हारी कि तुम अपुन लोगों को चक्रव्यूह में ले जाइला। पण वां पे आपुन लोगों के पास हथियार नेई होईला। तुम कोई हथियार का इन्तजाम करेला तो-।”

“नहीं। मैं इससे ज्यादा तुम लोगों की सहायता नहीं कर सकूँगी।” बिल्ली बोली-“इससे पहले कि महामाया की शक्ति महल पर असर करे, तुम सबको लौट आना है।”

“देवराज चौहान के शरीर का ध्यान रखना।” जगमोहन के होंठों से कांपता-सा स्वर निकला। नजर देवराज चौहान के मृत शरीर की तरफ उठी। आंखों में पानी चमक उठा था।

“जहां तक मेरी हिम्मत साथ देगी, मैं देव के शरीर का ध्यान रखूँगी।”

“अगर हम वक्त पर न लौट सके-काला महल जल कर राख हो गया तो?” महाजन ने गम्भीर स्वर में पूछा।

“फिर तुम लोग कभी भी नीचे नहीं जा पाओगे। शैतान के आसमान पर अपनी जान गंवा दोगे। तुम लोगों की आत्मा पर शैतान का अधिकार हो जायेगा। इसलिये वक्त रहते आने की चेष्टा करनी है।”

कोई कुछ नहीं बोला।

सबके चेहरों पर सख्ती छाने लगी थी

तभी बिल्ली ने आंखें बंद की और उसका मुंह बुदबुदाने के ढंग से हिलने लगा। दूधिया रंग की बाल में एकाएक सुर्खी सी आने लगी। देखते-ही-देखते वो तपती सी महसूस होने लगी। फिर बाल पूरी तरह सुर्ख हो गई। तभी उसकी सुर्खी कम होने लगी और धीरे-धीरे वो सामान्य अवस्था में आने लगी।

इस सारी क्रिया को डेढ़ मिनट लगा।

बाल सामान्य अवस्था में आ गई।

बिल्ली ने आंखें खोली।

अब वहां पर कोई नहीं था। सारी जगह खाली पड़ी थी। वो सब जाने कहां गायब हो गये थे। बिल्ली ने मुंह छत की तरफ किया।

“म्याऊं-।”

☐☐☐

जगमोहन, सोहनलाल, रुस्तम राव, बांकेलाल राठौर, महाजन, पारसनाथ, राधा, मिट्टी के बुत वाली युवती, सरजू, दया और भामा परी को कुछ पलों के लिये ऐसा लगा, जैसे वो गहरे अंधेरे के कुएं में खो गये हों। कुछ भी नजर नहीं आया उन्हें।

ये स्थिति ज्यादा देर नहीं रही।

फिर जब देखने के काबिल हुए तो उन्होंने खुद को हरे-भरे जंगल में पाया। वो सब एक पगडंडी पर खड़े थे। पगडंडी के आस-पास दूर तक, हरी मखमली घास ही दिखाई दे रही थी। बीच में कहीं-कहीं पेड़ थे, जिन पर फल लटके झूल रहे थे। मध्यम-सी हवा चल रही थी।

हर तरफ शांत माहौल देखकर आंखों और मस्तिष्क को सुकून-सा मिला।

दूर-दूर तक कहीं भी कोई व्यक्ति दिखाई न दे रहा था। न ही कोई जानवर देखने को मिला था।

धीरे-धीरे वे एक-दूसरे का हाथ छोड़ने लगे।

“हम चक्रव्यूह में आ पहुंचे हैं।” सोहनलाल कह उठा।

“हो सकता है ये चक्रव्यूह न हो।” महाजन के होंठों से ये निकला।

“यह चक्रव्यूह की जमीन ही है।” पारसनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा-“बिल्ली गलत जगह नहीं पहुंचायेगी हमें।”

उनकी नजरें इधर-उधर घूम रही थीं।

“हम बहुत बड़ी मुसीबत में फंसने वाले हैं।” पारसनाथ होंठ भिंचे खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरता कह उठा।

“क्या मतलब?” जगमोहन ने उसे देखा।

“पहले हमें सिर्फ शैतान से मुकाबला करना था।” पारसनाथ की निगाह जगमोहन पर जा टिकी-“लेकिन अब पता चला कि इस चक्रव्यूह का असली मालिक सौदागर सिंह है, जो कि कैद से आजाद हो चुका है और इस वक्त अपने चक्रव्यूह में ही कहीं है। वो कभी भी पसन्द नहीं करेगा कि हम लोग उसके चक्रव्यूह में प्रवेश करके, उसकी चीजों से छेड़-छाड़ करते रहें। वो कभी भी हम पर घातक हमला कर सकता है। पहले हमें शैतान का मुकाबला करना था परन्तु अब शैतान के साथ-साथ सौदागर सिंह का भी मुकाबला करना होगा।”

बांकेलाल राठौर छोटी-सी हंसी हंसा।

उस पर निगाह गई। बांकेलाल राठौर के चेहरे पर व्यंग्य के भाव देखने को मिले।

“तुम क्यों हंसे?” सोहनलाल कह उठा।

“पारसनाथो की बात पर हंसो हूं।”

“क्यों?”

“यो बोले हो पैले शैतानों का मुकाबलो करो हो ईब सौदागरों सिंह का मुकाबला भी करके पड़ो।” बांकेलाल राठौर के चेहरे पर कड़वे भाव फैले नजर आ रहे थे-“यो बातो तो ऐसो करो हो जैसो शैतान की मुंडी हाथों में होवो और सौदागर सिंह के आनो की वजहो से खेल खराब हो गयो। म्हारे को यो बतायो कि यां ये शैतान या सौदागरो सिंह के मच्छरो को मारने के वास्तों तो दम न होवे और सपणों लयो बड़ो-बड़ो-।”

सोहनलाल के होंठ सिकुड़ गये।

“बाप तेरी बात फिट होईला।” रुस्तम राव ने गम्भीर स्वर में कहा-“आपुन लोगों के पास कोई भी हथियार नेई होईला शैतानी शक्तियों का मुकाबला करने को बाप। ऐसे में एक दुश्मन होईला या दस क्या फर्क पड़ेला।”

जगमोहन गहरी सांस लेकर रह गया।

पारसनाथ अपने खुरदरे गाल पर हाथ फेरने लगा।

महाजन ने बोतल से घूंट भरा।

“नीलू-नीलू।” राधा कह उठी-“तू डरना नहीं। मैं देख लूंगी शैतान और सौदागर सिंह को। इन दोनों को-।”

“देख ल्यो छोरे। झांसी की रानी थारे सामने खड़ी हौवे-।”

“नीलू।” राधा मुंह बनाकर बोली-“देख तो, ये मूंछों वाला-।”

“बांके।” महाजन ने गम्भीर स्वर में कहा-“तुम्हें राधा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिये।”

बांकेलाल राठौर ने आंखें सिकोड़ कर महाजन को देखा।

“बाप-।” रुस्तम राव ने बांकेलाल राठौर को देखा।

रुस्तम राव पर ध्यान न देकर, बांकेलाल राठौर महाजन से बोला।

“तेरे को का तकलीफ हौवे म्हारे गयाको से-।”

“हां। राधा मेरी पत्नी है और अपनी पत्नी को मजाक का हिस्सा बनता नहीं देख सकता।”

“अंखियों को बंद कर लयो। हम तो मजाको करो हो।”

“बांके-!” महाजन के होंठों से गुर्राहट निकली। चेहरा क्रोध से भर उठा।

“छोड़ बाप।” रुस्तम राव जल्दी से बांकेलाल राठौर से कह उठा-“बेकार का लफड़ा...।”

“चुप्प हो जा छोरे। महाजनो का गुस्सा देख लेने दयो।”

“बांके-।” जगमोहन बोला-“होश में आओ। तुम-।”

“मैं होशो में आऊं। पूरो होशो में-।” बांकेलाल राठौर लापरवाही से कह उठा-“अम मजाक करो हो, तो करो। म्हारे को न रोको कोई-म्हारे को गुस्सा आ गयो तो बोत बुरो होवो-।”

“बाप-।” रुस्तम राव जगमोहन से कह उठा-“अपना बांके तो जवान होईला-।”

“जबान संभाल छोरे। अम बूढ़ो होनो जा रयो-।”

तभी भामा परी पास आकर कह उठी।

“बांकेलाल! राधा का मजाक उड़ाकर तुम ठीक नहीं कर रहे। नीलू महाजन की पत्नी का मजाक उड़ाने का तुम्हें कोई हक नहीं। समझाने पर भी तुम नहीं समझ रहे बहुत ही गलत हरकत तुम-।”

“कोणों गलत हरकत अंम करो हो।” बांकेलाल राठौर हाथ हिलाकर कह उठा-“राधा म्हारी बहना होवे। गुरदासपुरो वाली को छोड़ो के हर कोई म्हारी बहनो हौवे। अंग अपणी बहनों से बात करो। बहनों से मजाक करो हो। म्हारे को रोकनो वालो महाजन कोणो हौवे। समझदार लोगों बहन-भाइयो के झगड़े में न पड़ो हो।”

सब देखते रहे गये बांकेलाल राठौर को।

किसी से कुछ कहते न बना।

भामा परी के होंठों पर छोटी-सी मधुर मुस्कान उभर आई।

“मेरे को इतनी लम्बी-लम्बी मूंछों वाला भाई नहीं चाहिये।” एकाएक राधा कह उठी।

“क्या कहेला है बाप?” रुस्तम राव जल्दी से कह उठा।

“इसे कहो मूंछे छोटी कर ले।” राधा ने पुनः कहा।

“छोरे।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा-“बोल दे म्हारी बहनो से, अंमको मूंछों से बोत प्यार हौवे। म्हारी गुरदासपुर वाली भी मूंछों को बोत पसन्द करो हो। यो छोटी न होवे। मूंछो वालो भईया बोत कीमती होवे हो। सबो डरे हो। बुरी बला पासों भी न फटको हो।”

जगमोहन और पारसनाथ की नजरें मिलीं। फिर दोनों मुस्करा पड़े।

“रुस्तम। मेरे भाई बोल दे कि मूंछे रखनी हों तो फिर कटे नहीं।”

“परफैक्ट कहेला है बाप।” रुस्तम राव ने सिर हिलाया।

बांकेलाल राठौर और राधा की नजरें मिलीं। दोनों के चेहरों पर मीठी मुस्कान नाच उठी।

महाजन ने घूंट भरा और गहरी सांस लेकर रह गया।

सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।

“हम सौदागर सिंह के चक्रव्यूह में आ चुके हैं।” मिट्टी के बुत वाली युवती कह उठी-“शैतान से भी हमारा सामना हो सकता है। खतरों में खड़े हैं सब। हमें फौरन फैसला लेना है कि अब क्या करें।”

“ठीक कहती हो।” भामा परी ने उसे देखा-“तुम्हारा कोई नाम नहीं है।”

“नहीं।” मिट्टी के बुत वाली युवती ने कहा-“मेरा कोई नाम नहीं है। कभी मैं शैतान के अवतार के तिलस्म में लगी मिट्टी का बुत थी। परन्तु देवराज चौहान के हाथ में दबी पवित्र शक्तियों वाली तलवार के मुझे छूते ही, मुझमें जीवन भर गया और मैं मनुष्य बन गई। ऐसे में देवराज चौहान ही मेरा सब कुछ था, जो कि अब जिन्दा नहीं रहा।” कहने के साथ ही उसकी आंखों में पानी चमक उठा ये सब जानने के लिये पढ़ें। (पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

“हमें तो अभी यकीन नहीं आ रहा कि देवराज चौहान हमारे बीच नहीं रहा।” जगमोहन भर्राये स्वर में कह उठा।

“तुम अपना कोई नाम रख लो।” भामा परी बोली-“ताकि तुम्हें पुकारने में कोई परेशानी न हो किसी को।”

“मुझे जो भी नाम दोगे, स्वीकार होगा।” मिट्टी के बुत वाली युवती कह उठी।

“इसका नाम प्रेमा रख दो।” राधा कह उठी-“छोटा-सा अच्छा नाम है।”

“प्रेमा?” महाजन ने राधा को देखा।

“अच्छा नाम है।” भामा परी कह उठी-“हम तुम्हें अब से प्रेमा कहकर ही पुकारेंगे।”

“ये नाम मुझे पसन्द आया। प्रेमा-।” मिट्टी के बुत वाली के युवती बरबस ही मुस्करा पड़ी।

“अब क्या करेला बाप? इधर खड़े रहेला तो वक्त बरबाद होईला-।”

“हमारे सामने कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि जिसके बारे में हम जानते हों कि वो किधर जाता है।” जगमोहन की नजरें दूर-दूर तक गईं-“यहां का जर्रा-जर्रा हमारे लिये अंजान है।”

“म्हारे को तो यो भी न पता हौवे कि इधरो कैसो-कैसो खतरो होवे। वो किधरो से म्हारे पासो आयो।”

“हमारे सामने तीन काम हैं, जो कि अहम हैं।” जगमोहन गम्भीर स्वर में कह उठा-“पहला काम है देवराज चौहान की आत्मा को अपने कब्जे में करना-जो कि शैतान की पहरेदारी में इसी चक्रव्यूह में मौजूद है। दूसरा और तीसरा काम है नगीना भाभी और मोना चौधरी को तलाश करना कि वो चक्रव्यूह में कहां है।”

“ये तीनों काम बेहद कठिन हैं।” पारसनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा-“हमें अपना भरोसा नहीं कि हम कब तक जिन्दा हैं।”

“तुम्हारी बात ठीक है।” महाजन ने कहा-“लेकिन हम हाथ पर हाथ रखे भी तो नहीं रह सकते।”

कुछ क्षणों के लिए वहां चुप्पी-सी उभर आई।

तभी सरजू कह उठा।

“हम सब को यहां के रास्तों का ज्ञान नहीं। हमें अलग-अलग होकर हर दिशा में बढ़ना चाहिये। कहीं तो ठीक रास्ता मिलेगा।”

“और उसके बाद हम लोगों की मुलाकात नहीं हो सकेगी।” सोहनलाल ने कहा-“सब बिखर कर अपने-अपने रास्तों पर होंगे।”

“थारा मतलब कि आंम सबो एको-दूसरो का हाथ पकड़े रहो का? कोई तो कदम उठाना ही हौवे।”

“परफैक्ट कहेला बाप। आपुन लोग...।”

तभी भामा परी कह उठी।

“शायद इस समस्या का समाधान कर सकूं। मैं...।”

“तुम क्या कर सकती हो?”

“मैं आस-पास की जगहों को देखकर आती हूं कि किधर क्या है। उसके बाद आगे बढ़ने की दिशा तय हो जायेगी।”

“यो ठीक बोलो हो।”

इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था उनके पास।

“तुम सब यहीं-आस-पास ही रहना। मैं जल्दी ही लौट आऊंगी।”

“तुम्हें सावधान रहने की जरूरत है भामा परी।” प्रेमा कह उठी-“कोई भी शैतानी ताकत तुम्हें काबू में कर सकती है।”

“मैं सावधान रहूंगी कि ऐसी कोई घटना न हो।” भामा परी ने गम्भीर स्वर में कहा और दूसरे ही पल पीठ से चिपके अपने पंख फैलाकर हिलाए कि भामा परी धीमे-धीमे आसमान की तरफ उठती चली गई। उसके हिलते पंख स्पष्ट नजर आते रहे।

आधे मिनट में ही भामा परी इतनी ऊपर आसमान की तरफ चली गई कि दिखाई देना बंद हो गई।

☐☐☐

भामा परी को गये आधा घंटा बीत चुका था।

उसके लौटने का इन्तजार करते सब इधर-उधर छांव जैसी जगहों को तलाश करके बैठे हुए थे। कुछ देर तो वे लोग बातें करते रहे थे एक-दूसरे से। फिर सुस्ताने लगे थे।

“दया।” सरजू ने कहा-“यहां का वातावरण कितना अच्छा है! कितनी शान्ति है यहां!”

“लेकिन मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा।” दया ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“क्यों?”

“हम खतरे में हैं सरजू। यहां शैतान के अवतार से भी बड़े-बड़े जादूगर हैं। वो हमें मार देंगे।”

सरजू के चेहरे पर गम्भीरता नाच उठी।

“तुम ठीक कहती हो। लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते। सबके साथ ही हैं। जो होगा, सबके साथ होगा।”

“मेरा दिल जाने क्यों घबरा रहा है।”

“हिम्मत से काम...।”

“सरजू!” दया कह उठी-“क्या हम कभी वापस पहुंच सकेंगे?”

“वापस कहां, शैतान की धरती पर या पृथ्वी पर...।”

“जहां हमारे परिवार वाले हों।” दया की आंखों में पानी चमक उठा।

“यकीन नहीं कि हम वापस पहुंच सकें।” सरजू ने धीमे स्वर में कहा।

दया भीगी आंखों से सरजू को देखती रही, फिर उसके करीब सरक आई।

“छोरें।” बांकेलाल राठौर ने गम्भीर स्वर में कहा-“म्हारे को यहां पे बोत गड़बड़ लगो।”

“क्या बाप?”

“पता नाई हौवे। अंम चक्रव्यूह में होवे। वापसौ ने जा सको, रास्तों नेई मालूम हौवो। यां पे शैतान से, सौदागर सिंह से लड़ाई वास्ते कोई हथियार-औजार न होवे। कोई सामनो आ गयो तो भगनो का भी रास्तो न दिखो।”

“हम ही क्या, सब फंसेला है।” रुस्तम राव ने गहरी सांस ली।

बांकेलाल राठौर उठ खड़ा हुआ।

“क्या होइला बाप?”

“म्हारी खोपड़ी में टेंशन होवे। उसो कम करो हो।” कहने के साथ ही बांकेलाल राठौर टहलने के ढंग में आगे बढ़ा।

दोपहर हो रही थी। सूर्य सिर के ऊपर था। तीव्र गर्मी महसूस हो रही थी।

चंद कदम ही आगे बढ़ा होगा बांकेलाल राठौर कि उस बड़े से पेड़ के नीचे निगाह पड़ते ही वो ठिठका। चेहरे पर से अजीब से भाव आकर निकलने लगे। आंखें सिकुड़ गईं।

पेड़ के नीचे एक आदमी और औरत नींद में डूबे हुए थे ।

औरत ने पतला-सा मैला कपड़ा गर्दन तक ओढ़ रखा था और मर्द करवट लिये लेटा था। सांसें चलने के साथ-साथ उनके शरीर धीमे-धीमे से उठ रहे थे।

बांकेलाल राठौर के चेहरे पर हैरानी थी।

“छोरे-।” बांकेलाल राठौर ने कुछ ऊंचे स्वर में पुकारा।

“बाप-।” दूर से रुस्तम राव की आवाज आई।

“इधर आ छोरे । यो देखो। हनीमून मनयो हो यां पे-।”

रुस्तम राव फौरन पास आया।

“क्या कहेला बाप?”

“यो देख।”

रुस्तम राव भी ऐसी जगह पर आदमी-औरत को देखकर चौंका।

“ये कौन होएला बाप?”

“म्हारे को का पता। सेज तो पैले से ही बिछो हो।”

और फिर धीरे-धीरे सब वहां पहुंचने लगे।

तभी आहटें-सी पाकर उस औरत की आंख खुली। करीब में इतने लोगों को पाकर वो हड़बड़ा गई।

“सुनिये जी। सुनिये, ये देखिये-बहुत लोग हैं यहां।” औरत ने नींद में डूबे आदमी को हिलाकर कहा।

आदमी फौरन उठा। सब पर निगाह पड़ते ही वो चौंका।

“ये लोग कौन हैं?”

“मुझे क्या पता। हम नोंद में थे कि ये पास आ पहुंचे।” औरत ने जवाब दिया।

आदमी-औरत सबको देखने लगे। वो और कोई नहीं, सौदागर सिंह के सेवक जानकीदास और पार्वती ही थे, जिन्होंने नगीना को बंगा की कैद में फंसा डाला था और अब इन सबको किसी कैद में पहुंचाने की तैयारी में थे।

“कौन हो तुम लोग?” पारसनाथ खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरता हुआ कह उठा।

“हम...हम...हम जानकीदास हैं।” वो हड़बड़ा कर बोला-“ये मेरी पत्नी पार्वती-।”

“यहां क्या कर रहे हो?” जगमोहन के माथे पर बल नजर आ रहे थे।

“...ह...म मुसीबत के मारे हैं।” पार्वती फफक पड़ी।

“हमें बताओ क्या बात है। इस तरह रोने से कोई लाभ नहीं।” प्रेमा कह उठी।

जानकीदास ने पार्वती का कंधा थपथपाया जैसे उसे तसल्ली देता हो। फिर बोला।

“कभी हम शैतान के सेवक थे। मजे से जिन्दगी कट रही थी। एक पुत्र था। उन्नीस बरस का। उसे भी मैं शैतान के किसी कार्य में लगाने की सोच रहा था कि हमारे साथ बहुत बुरा हुआ।”

“क्या?” सोहनलाल के होंठों से निकला।

“शैतान की सेवा में व्यस्त हमसे भूल हो गई। उस भूल की सजा शैतान ने बहुत ज्यादा दी। हमारे इकलौते पुत्र की जान ले ली। शैतान के मन में रहम कहां। तब हम शैतान के चरणों में गिरकर रोये-गिड़गिड़ाये। बहुत माफी मांगी। सेवा की दुहाई दी। शैतान का मन नहीं पिघला। वो हमारे बेटे को जिन्दा करने को तैयार नहीं हुआ। उसने इतना अवश्य कहा कि अगर हम चक्रव्यूह में जाकर अपने बेटे की आत्मा लाने में सफल हो गये तो, वो हमारे बेटे को जिन्दा कर देगा। कोई भी रास्ता नहीं था हमारे पास। शैतान की ये बात हमने तुरन्त मान ली। फिर हम बेहोश हो गये। जब होश आया तो खुद को इस चक्रव्यूह में पाया। पहले तो हम नहीं समझ पाये कि ये कौन-सी जगह है। लेकिन अब समझ चुके हैं कि ये चक्रव्यूह ही है। अपने बेटे की आत्मा को पाने के लिये हम भटक रहे हैं। मालूम नहीं बेटे की आत्मा कहां है! कभी-कभी तो लगता है जैसे हम यहां से वापस लौट ही नहीं सकेंगे। बहुत बुरे हाल में है हम दोनों।”

नगीना को भी जानकीदास और पार्वती ने अपने बेटे की आत्मा के बारे में ही कहकर फांसा था।

“तुम कब से हो यहां?” महाजन ने पूछा।

“मालूम नहीं। अब तो हिसाब भी नहीं रहा। कब से यहां हैं, बहुत महीने बीत चुके हैं हमें भटकते-भटकते-।”

“हमारे बेटे की आत्मा नहीं मिली-।” पार्वती सुबक उठी-“तुम लोगों ने मेरे बेटे की आत्मा को देखा है?”

वे सब गम्भीर निगाहों से एक-दूसरे को देखने लगे।

हर किसी के चेहरे पर सवाल था कि अब क्या करें?

तभी जानकीदास बोला।

“तुम लोग कौन हो और यहां क्या कर रहे हो?”

किसी ने जानकीदास की बात का जवाब देने की कोशिश नहीं की।

“सुनो जी-।” पार्वती ने कहा-“ये शैतान के आदमी ही हैं। यहां भला कोई दूसरा कैसे आ सकता है।”

“हां पार्वती, तुम्हारा कहना सही है। ये शैतान के ही आदमी हैं।” जानकीदास ने गम्भीर स्वर में कहा।

“इनसे सहायता मत मांगना। ये हमें नुकसान ही देंगे।”

“ऐसा मत कहो।” प्रेमा कह उठी-“हम शैतान के साथी नहीं है।”

“इनकी बात पर विश्वास नहीं करना।” पार्वती जल्दी से जानकीदास से कह उठी-“ये शैतान के ही साथी हैं।”

“इसकी खोपड़ी फिरेला है बाप-।”

“जिस हाल में ये फंसे हैं, वहां एक आ ही जाता है।” महाजन ने गम्भीर स्वर में कहा।

वो चुप से जानकीदास-पार्वती को देखते रहे।

“नीलू-।” एकाएक राधा कह उठी-“ये हमें शैतान के साथी कहते हैं। सोच लो, क्या इन्हें शैतान ने भेजा नहीं हो सकता कि ये हमें अपनी बातों में फंसाकर, किसी कुएं में धकेल सकें।”

महाजन के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। आंखें राधा पर थीं।

“क्या हुआ? मैंने गलत कह दिया क्या?”

“नहीं राधा।” महाजन शब्दों को चबाकर बोला-“तुम्हारी बात सही हो सकती है।”

“सुना पार्वती-ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे हैं।”

“जो भी सोचें। हमें क्या?” पार्वती आंखों से बहते आंसुओं का साफ करते कह उठी-“इन्हें देखकर मैंने तो सोचा था कि आगे का रास्ता साफ हो जायेगा। भले लोग होंगे ये। फिर मन में आया कि कहीं ये सब शैतान की कोई चाल तो नहीं। ये तो कभी भी नहीं सोचा था कि ये लोग हम पर शक करेंगे। हम तो अपने बेटे के लिये पहले ही गम में डूबे हैं।”

तभी सोहनलाल उठा।

“किसी के ऊपर शक की उंगली एकदम नहीं उठा देनी चाहिये।”

“ये भी तो हमें शैतान के आदमी कह रहे हैं।” राधा हाथ हिलाकर बोली-“मैंने भी कह दिया-।”

“ये दोनों बूढ़े हैं। बड़े हैं।” जगमोहन ने गम्भीरता से कहा-“हमें इनका दुःख-दर्द समझना चाहिये। ये अपने बेटे की आत्मा की तलाश में हैं और हम भी देवा की आत्मा को तलाश लेना चाहते हैं। इन्हें शायद वहीं जाना है जहां हम जाना चाहते हैं।”

“थारा मतलबो कि इन्हें अपणों साथ ही रखो का?”

“हां। इस तरह इन्हें अकेले छोड़ देना ठीक नहीं।”

“बाप।” रुस्तम राव जगमोहन से कह उठा-“अपने को तो रास्ता मालूम नहीं होएला। इन्हें किधर साथ लिए फिरेला।”

“जगमोहन ठीक कहता है कि इन्हें साथ रख लिया जाये।”

पारसनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा-“अगर हम आत्माओं के कैदखाने तक पहुंच सके तो ये भी अपने बेटे की आत्मा को वहां से ले लेंगे।”

“जुग जुग जियो बेटा। भगवान तुम्हारी किस्मत में रौनक करे।” पार्वती कह उठी।

☐☐☐

दो घंटे बाद भामा परी आसमान से उत्तरी और पंखों को समेटकर पीठ से सटा लिया।

उसे देखते ही जानकीदास और पार्वती ने आश्चर्य जाहिर किया।

“कितनी अच्छी किस्मत पाई है कि हमने परी के दर्शन कर लिए।” जानकीदास कह उठा-“पार्वती! परियां सिर्फ अच्छे लोगों के पास ही रहती हैं। अब ये स्पष्ट हो गया कि ये अच्छे लोग हैं।”

“आप ठीक कहते हैं।” पार्वती के चेहरे पर प्रसन्नता थी।

भामा परी ने दोनों को उलझन भरी निगाहों से देखा।

“ये दोनों कौन हैं। पहले तो हमारे साथ नहीं थे।” भामा परी कह उठी।

भामा परी को बताया उन दोनों के बारे में।

सुनकर भामा परी ने कुछ नहीं कहा।

“तुमने इतनी देर कहां लगा दी भामा परी?” सोहनलाल ने पूछा।

“चक्रव्यूह को देखने के लिए दूर तक चली गई थी।” भामा परी कह उठी-“सैंकड़ों मीलों तक फैला है चक्रव्यूह। इस चक्रव्यूह के अंत तक पहुंच पाना सम्भव नहीं। कहीं महल-कहीं खण्डहर तो कहीं भूल-भुलैया बनी देखीं मैंने। लेकिन कहीं भी नगीना या मोना चौधरी नहीं दिखीं। दोनों में से कोई भी मेरी नजरों के सामने नहीं आया।”

“लेकिन तुम देखकर क्या आईं? जिस काम के लिये गईं थीं, उसका क्या हुआ?

दो पलों की खामोशी के कद भामा परी ने सोच भरे स्वर में कहा।

“इस चक्रव्यूह की तह तक जाना, आसान ही लगा मुझे। ये एक कठिन काम हो सकता है क्योंकि चक्रव्यूह का इतना लम्बा फेरा लगाने के पश्चात भी मुझे खास कोई रास्ता न दिखा। महल-खंडहर और भूल-भुलैया ही मिली या फिर घने जंगल।”

“महलों में क्या है ?” जगमोहन ने पूछा।

“मैंने नहीं देखा। पास नहीं गईं। ये सोचकर कि कोई शैतानी शक्ति मुझे कैद न कर ले। तुम लोग वहाँ चलना चाहो तो मैं साथ चलूंगी।”

“अंम चलातो हो वाँ पे।”

“बाप, आपुन भी तेरे संग होएला।”

“हम सब चलेंगे।” महाजन कह उठा-“हो सकता है उसी महल में आत्माओं को रखा गया हो। देवा की आत्मा हमें वहाँ मिल जाये।”

“सुनो जी।” पार्वती कह उठी-“हमारे बेटे की आत्मा भी वहाँ मिल जायेगी।”

“ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है।” राधा कह उठी-“क्या मालूम महल में क्या हो।”

“हाँ पार्वती। ये ठीक कहती है।” जानकीदास बोला-“पहले महल में देख तो लें कि वहाँ क्या है।”

भामा परी चेहरे पर गम्भीरता समेटे सबको देख रही थी।

“तुम किस सोच में हो?” प्रेमा कह उठी।

“प्रेमा।” भामा परी गम्भीर स्वर में बोली-“मैंने कई महल देखे हैं। सोच रही हूँ किस महल में ले जाऊँ सबको?”

“जिसमें तुम ठीक समझो। महल तुमने देखे हैं। तुमने फैसला करना है।”

“हूँ।” भामा परी ने सिर हिलाया-“कई तरह के महल हैं। कुछ तो इतने बड़े हैं कि पूरा देखने में कई दिन लग जायें। कुछ कम छोटे हैं। कुछ तो बिल्कुल ही छोटे हैं। महलों के छोटा-बड़ा होने में अवश्य कोई खास बात होगी। कहाँ जाऊँ?”

तभी पास खड़ा सरजू कह उठा।

“महल छोटा हो या बड़ा-हमारे लिये सब एक जैसे ही हैं। क्योंकि हम न तो ये जानते हैं कि बड़े के भीतर क्या है-न ही ये जानते हैं कि छोटे के भीतर क्या है। जहाँ किस्मत ले जायेगी, वहीं चलेंगे।”

भामा परी के होंठों पर मुस्कान उभरी।

“ठीक कहते हो सरजू।”

“तुम गईं थी तो महलों के भीतर भी तुम्हें झांक लेना चाहिये था कि...।” दया ने कहना चाहा।

“वहाँ मेरे लिये खतरा भी हो सकता है। कोई शैतानी शक्ति मुझ पर काबू पा लेती तो मैं कभी न लौट पाती। तुम सब मेरा इन्तजार ही करते रहते। मेरे बारे में कोई खबर कभी भी न मिलती।” भामा परी की आवाज गम्भीर हो गई-“अब सब के साथ जाऊँगी। मेरे साथ कुछ हुआ, तो सब को मालूम हो होगा मेरा अंजाम। फिर कोई मेरी इन्तजार तो नहीं करेगा।”

“अच्छा-अच्छा बोलो।” दया बोली-“तुम्हें कुछ नहीं होगा। किसी को कुछ नहीं होगा।”

तभी महाजन इधर आता हुआ कह उठा।

“यहाँ से किसी महल में चलें?”

“हाँ।” भामा परी ने उसे देखा।

“किस महल में ले जाओगी हमें?”

“जो सबसे बड़ा है।” भामा परी गम्भीर थी-“सबसे बड़े महल में चलेंगे। तैयार हो जाओ।”

“चलेंगे कैसे? कैसे ले जाओगी हमें?” महाजन ने कहा।

“वैसे ही ले जाऊँगी, जैसे सबको तिलस्म से निकालकर, काला महल में लाई थी।” भामा परी ने कहा।

“ओह।”

(ये जानने के लिये अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास “दूसरी चोट”)

भामा परी ने आँखें बंद करके होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया कि तभी जाने किस धातु की रॉड जैसी पाईप उसके हाथ में दबी नज़र आने लगी।

“हाय राम।” दया के होंठों से निकला-“ये कैसा जादू है?”

“हैरान मत हौवो दया।” सरजू बोला-“इन अजीब हरकतों पर हमें हैरान नहीं होना चाहिये। इनसे वाकिफ हो चुके है हम?”

महाजन ने ऊँची आवाज में सबको पास आने को कहा।

सब पास आ गये।

“पहले कौन-कौन महल में जायेगा।” भामा परी बोली।

“कोई जावे या न जावे-अंम तो पैले जावे।”

“आपुन भी बाप।”

जगमोहन ने सब पर नज़र मारकर कहा।

“महल में हमारे इन्तजार में कोई खतरा भी खड़ा हो सकता है। ऐसे में पहले वो ही जायें जो खतरे से मुकाबला कर सकते हैं। तुम कितनों को एक बार में महल में ले जा सकती हो?”

“चार लोगों को।”

“तो पहले मैं, महाजन और...।”

“अंम चलेगा।”

“आपुन भी बाप। पहले नम्बर पर।” रुस्तम राव ने कहा।

भामा परी ने हाथ में थमी अजीब-सी धातु जैसी पाईप सामने की और बोली।

“आओ।”

जगमोहन, महाजन, बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव ने आगे बढ़कर पाईप पकड़ ली। दो एक तरफ थे और दो दूसरी तरफ।

तभी राधा कह उठी।

“नीलू। कसकर पकड़ना। पक्के में। ऊँचाई पर पहुँचकर पाईप छोड़ मत देना।”

“कितनी देर में वापस आओगी भामा परी?” प्रेमा ने पूछा।

“बीस मिनट बाद, मैं फिर यहाँ होऊँगी।” कहने के साथ ही भामा परी पंख फैलाये और धीरे-धीरे आसमान की तरफ उठने लगी। पंख बराबर हिल रहे थे। उसके हाथ में पकड़ी रॉड पर जगमोहन, महाजन, बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव लटके हुए थे।

वे सब जमीन से हर आसमान की तरफ जाते रहे। फिर उनका ऊपर जाना रुक कर बाईं तरफ बढ़ना शुरू हो गया और कुछ देर में वो नज़रों से ओझल हो गये।

☐☐☐

“पार्वती।” जानकीदास फुसफुसाया।

“हूँ।”

भामा परी को गये पाँच मिनट हो चुके थे।

जानकीदास और पार्वती एक तरफ हटकर घास पर बैठे थे।

आसपास पेड़ों का डेरा था। उनकी छाँव में बैठकर आराम मिल रहा था। मंद-मंद हवा के झोंके पसीने से भीगे जिस्म से टकरा जाते थे।

“हमारा काम आसान होने जा रहा है।” जानकीदास की नज़रें इधर-उधर बैठे-टहलते, उन पर जा रही थीं।

“कैसे?”

“बड़े महल में वो परी सबको ले जा रही है।”

“बड़े महल-वो वाला महल जो जहरीला है।”

“हाँ, जहरीले महल में। इनमें से कोई भी नहीं जानता कि जब ये लोग उस महल में खाना खायेंगे तो हम अपने मालिक सौदागर सिंह का बताया छोटा-सा मंत्र पढ़ेंगे और सामने पड़ा इनका खाना जहरीला हो जायेगा। जिसे खाते ही ये लोग जान गवाँ बैठेंगे।”

जानकीदास की आवाज में कड़वे भाव आ गये थे।

पार्वती ने कुछ नहीं कहा।

“तुम चुप हो।”

“हाँ” पार्वती ने सिर हिलाकर आहिस्ता से कहा-“मैं सोच रही हूँ कि इनकी जान जाने की अपेक्षा, इन्हें कहीं कैद करा देते तो बहुत अच्छा होता। सौदागर सिंह ढाई सौ बरस की कैद से मुक्ति पा चुका है। वो ही इनका फैसला करता।”

“हम जानबूझकर इन मनुष्यों की जान नहीं ले रहे। ये लोग खुद ही जहरीले महल में जा रहे हैं। उस महल का हर असर जहर भरा होगा। ये कहीं और जाते तो कम-से-कम जान जाने से बच जाते।”

“जैसा तुम ठीक समझो। वैसे सौदागर सिंह अपने चक्रव्यूह में अवश्य बदलाव लायेगा। ढाई सौ बरस से सब कुछ वैसा ही है। कैद से आजाद होने पर सौदागर सिंह ने सिर्फ चक्रव्यूह की चीजें इधर से उधर की हैं।”

“अभी सौदागर सिंह के पास वक्त नहीं होगा। वो शैतान को खत्म किए बिना चैन की सांस नहीं लेगा। शैतान ने उसे ढाई सौ बरस से कैद में रखा। मालिक के आजाद होते ही शैतान परेशान हो गया होगा।”

“तुम ठीक कहती हो।” जानकीदास ने कहा-“हमें अपने काम की तरफ ध्यान देना है।”

“हाँ।” पार्वती ने पारसनाथ, सोहनलाल, राधा, प्रेमा, दया को देखा-“किसी को हम पर शक नहीं हुआ।”

“हमने हर काम बहुत अच्छे ढंग से किया है। इन्हें शक कैसे होता कि हम वो फरेब है जो सामने वाले को मुसीबत में पहुँचा देते है।”

पार्वती मुस्कराकर उसे देखने लगी।

“इनमें से शंकर नज़र नहीं आ रहा। एक कम है इनमें।” जानकीदास बोला।

“एक कम है।” बड़बड़ाते हुए पार्वती की निगाह पुनः सब पर गई।

उसी पल पीछे मध्यम-सी आहट हुई।

दोनो फौरन पलटे।

वहाँ कोई नहीं था।

पार्वती और जानकीदास की नज़रें मिलीं। दोनों सतर्क नज़र आ रहे थे।

“वहम हुआ होगा। यहाँ कोई नहीं है।”

“मुझे वहम नहीं हुआ। वो आहट वहम वाली नहीं हो सकती। मैंने स्पष्ट तौर पर सुनी थी। पीछे कोई है।” दाँत भींचे धीमे स्वर में कहते हुए जानकीदास उठा। लापरवाही भरे ढंग से आगे बढ़ा। परन्तु वो बेहद सतर्क था। किसी की भी निगाह उसकी तरफ नहीं थी। सात-आठ कदमों के फैसले पर दो तीन पेड़ों का झुरमुट था।

जानकीदास उस झुरमुट के पास जाकर ठिठका।

तभी पेड़ के एक तने के पीछे कोई खड़ा दिखा। कपड़े का रंग चमका। जानकीदास की आँखों में कठोरता आ ठहरी। वो फुर्ती के साथ आगे बढ़ा। तने के दूसरी तरफ देखा।

वहाँ सरजू था। जानकीदास और पार्वती की बातें सुन ली थीं उसने। पूरी तरह बातों को नहीं समझा था वो। लेकिन इतना समझ गया था कि ये दोनों, उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं।

तभी जानकीदास ने चमगादड़ की भांति झपट्टा मारा और सरजू पर कब्जा जमा लिया। वो बोलने के काबिल नहीं रहा। हथेली सरजू के मुँह पर टिक चुकी थी।

सरजू की आँखें भय से फैल गईं।

जानकीदास को महसूस हो चुका था कि ये युवक उसके लिये खतरा बन सकता है। सबके सामने उनकी पोल खुल जायेगी। ये जुदा बात है कि वो और पार्वती इन सबके हाथों से बच निकलेंगे। परन्तु काम तो अधूरा रह जायेगा। यानि कि इस युवक का जिन्दा रहना उसके हक में ठीक नहीं था।

“तुमने सब सुना। मेरी बातें सुनीं।” जानकीदास ने दबे स्वर में पूछा।

सरजू आँखें फाड़कर उसे देखता रहा। मुँह पर से उसका हाथ हटाने की चेष्टा की।

“चुपचाप खड़ा रह।” जानकीदास ने बेहद कठोर स्वर में कहा।

सरजू आँखें फाड़े उसे देखता रहा। उसके होंठों पर जानकीदास का हाथ टिका था।

“आँखों के इशारे से बता कि तूने सब सुना। मैं जानता हूँ तू मेरी और पार्वती की बातें सुन चुका है।”

सरजू ने आँखें हिलाकर सहमति दी।

“फिर तो तेरा जिन्दा रहना हमारे लिये खतरनाक है।” कहने के साथ ही जानकीदास ने सरजू के सिर पर दूसरा हाथ जोर से मारा तो सरजू हौले से तड़पा, फिर बेहोश होकर नीचे गिरने लगा कि जानकीदास ने उसे थामा और आहिस्ता से नीचे लिटा दिया।

फिर पेड़ों के पीछे से निकलकर सामने आया।

सब कुछ वैसा ही नज़र आया जैसे पेड़ों के पीछे जाने से पूर्व था।

जानकीदास सामान्य-सा, पार्वती के पास आ बैठा।

पार्वती की आँखों से उसकी आँखें मिलीं।

“उधर इनके साथ का ही एक युवक है। हमारी बातें सुन ली हैं उसने। वो चीखना चाहता था, मैंने बेहोश कर दिया है उसे। तुम जाओ और चुपचाप उस युवक को उठाकर यहाँ से दूर छोड़ आओ। कोई तुम्हारे बारे में पूछेगा तो कह दूंगा कि पेट खराब है। उधर झाड़ियों में गई हो।”

“उसे बेहोश किया है।” पार्वती बोली-“मैं उसे खत्म कर दूं?”

“बेशक कर दो। कम-से-कम हमारे लिये वो मुसीबत न बने।”

पार्वती उठी और पेड़ों के झुरमुट की तरफ बढ़ गई।

☐☐☐