पुलिस की असफलता
अतीक अंसारी और चंगेज खान की तलाश में एसपी सुखवंत सिंह की टीम आजमगढ़ और उससे लगते इलाकों में भटकती फिर रही थी। कई संभावित स्थानों पर छापे मारे, दर्जनों लोगों को उठाकर थर्ड डिग्री टार्चर दिया, मगर हासिल कुछ नहीं हुआ।
वह दोनों तो जैसे हवा में विलीन हो गये थे।
त्रिपाठी की मौत के बाद महंथ चौबे की टीम को भी एसआई मनीष यादव के साथ चंगेज खान का सुराग हासिल करने के काम पर लगा दिया गया था, मगर कामयाबी हासिल होती नहीं दिखाई दे रही थी।
देखते ही देखते दिन गुजरते चले गये। फिर सुखवंत सिंह ने वह काम किया जिसे हरगिज भी नहीं करना चाहता था। उसने जिले के तमाम थानों के लिए आदेश जारी कर दिया कि वे लोग अपने मुखबिरों को अलर्ट कर दें और अतीक तथा चंगेज खान का पता लगाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दें। पहले उनकी मदद शायद इसलिए नहीं लेना चाहता था क्योंकि उसे यकीन था कि लोकल थानों का पूरा स्टॉफ अपराधियों से मिला हुआ था।
मगर अब मजबूरी थी, क्योंकि उसकी टीम के लोग नये थे, उनके सोर्स सीमित थे, और त्रिपाठी की मौत के छह दिन बाद भी वे लोग काम की कोई जानकारी हासिल नहीं कर पाये थे।
उधर दरोगा अनुराग पांडे एक दोस्त के यहां शरण पाये हुए था। दिन रात उसके घर में ही रहता था, क्योंकि बाहर निकलने पर किसी के द्वारा पहचान लिये जाने का खतरा था।
असल में वह इंतजार कर रहा था अपना प्लॉस्टर कटने का, ताकि उसे एक हाथ से काम नहीं करना पड़ता। डॉक्टर ने उससे एक सप्ताह की बात कही थी, जिसकी मियाद खत्म होते ही वह एक क्लिनिक में पहुंच गया। वहां प्लॉस्टर कटने के बाद उसके हाथ का एक्सरे निकाला गया, फिर डॉक्टर ने एक सप्ताह के लिए नया प्लास्टर चढ़ाने की बात कह दी। ये कहते हुए कि हड्डी बेशक जुड़ चुकी थी लेकिन प्लॉस्टर चढ़ाकर रखेगा तो किसी अचानक लगे झटके के कारण कांप्लीकेशन पैदा होने का खतरा नहीं रहेगा। हां आंख की पट्टी से निजात बराबर मिल गयी उसे और बाहर निकलते समय काला चश्मा पहनने की हिदायत दे दी गयी।
पांडे ने नया प्लॉस्टर चढ़वा तो लिया मगर यूं चढ़वाया कि अब वह कोहनी के पास से मुड़ा हुआ नहीं था। यानि अपने हाथ को वह मनचाहे ढंग से इधर उधर कर सकता था। लेकिन उससे कोई मुश्किल काम लेना तो अभी भी खतरनाक ही था।
वैसा उसने इसलिए किया क्योंकि पहले वाले प्लास्टर के कारण हाथ को सीधा कर पाना संभव नहीं हो पा रहा था, और ऐन उसी कारण से उसे गले के साथ लटकाकर भी रखना पड़ता था। तकलीफ उसे कोई महसूस नहीं हो रही थी, इसलिए उम्मीद कर रहा था कि उसके आइंदा मिशन में वह प्लॉस्टर कोई बाधा नहीं बनने वाला था।
हॉस्पिटल से निकलकर वह एक टैंपो में सवार हुआ और अपने घर की तरफ निकल गया। हालांकि मौजूदा हालात में वह कदम बहुत खतरनाक साबित हो सकता था, मगर मोटरसाईकिल उसकी मजबूरी थी जिसे वह घर से लेकर आना चाहता था। आगे उसका इरादा स्टीकर या ब्लैक टेप के जरिये बाईक का नंबर बदल देने का था, जिसकी प्रत्यक्षतः कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि उसकी सबसे बड़ी पहचान तो उसका थोबड़ा ही था जिसे जानता पहचानता होने वालों की कम से कम आजमगढ़ में कोई कमी नहीं थी।
उसके बीवी बच्चे एकदम ठीक ठाक दिल्ली पहुंच गये थे, और वह लगातार उनके टच में भी बना हुआ था। वह बात मुसीबत की वजह बन सकती थी क्योंकि अतीक के सोर्स हर जगह मौजूद थे, वह अपनी पर ही उतर आता तो पांडे की कॉल डिटेल्स और मोबाईल लोकेशन हासिल करने में जरा भी वक्त नहीं लगने वाला था। मगर दरोगा को यकीन था कि उसकी तरह क्योंकि अतीक के सिर पर भी मौत का खतरा मंडरा रहा था इसलिए वह इतने लंबे पचड़ों में नहीं उलझने वाला था।
उधर त्रिपाठी के एनकाउंटर के ठीक सात दिन बार एसपी सुखवंत सिंह को एक खास जानकारी हासिल हुई। उस जानकारी का नाम था अकबर खान।
चंगेज की फिराक में दर दर भटकते एसआई यादव ने फोन पर बताया कि उसका एक भाई कि गोरखपुर में कहीं रहता है। ये भी पता लगा था कि वह अक्सर उससे मिलने जाया करता था। मगर गोरखपुर में वह कहां रहता था ये बात काफी कोशिशों के बावजूद वह नहीं जान पाया। बल्कि नाम के अलावा दूसरी कोई जानकारी उसके हाथ लगी ही नहीं थी।
तब सुखवंत सिंह ने एसपी गोरखपुर को कॉल कर के अपनी समस्या बताई तो उसने मदद का आश्वासन दिया और हाथ के हाथ कोतवाल को फोन कर के हुक्म दनदना दिया कि वह किसी भी तरह दो घंटों के अंदर ये पता लगाकर बताये कि चंगेज खान का भाई अकबर गोरखपुर में कहां रहता था।
मजेदार बात ये थी कि कोतवाल को उस बारे में पहले से खबर थी, फिर भी एसपी को कॉलबैक करने में उसने दो की बजाये ढाई घंटे लगा दिये, मगर उससे कहीं पहले उसने अकबर को फोन कर के चेतावनी दे दी कि पुलिस चंगेज खान की तलाश में उस तक पहुंचने वाली थी, इसलिए अगर वह उसके घर में था तो फौरन वहां से निकल जाने में ही उसकी भलाई थी।
अकबर का पता मालूम पड़ते ही गोरखपुर के एसपी ने सुखवंत सिंह को उसकी जानकारी दे दी, जो कि वहां के शहीद अशफाक उल्लाह नगर इलाके का था।
एसपी मयफोर्स तुरंत वहां के लिए रवाना हो गया।
सफर में करीब चार घंटे लगे जिसके बाद सब लोग अकबर खान के घर पर थे। उसने ढेर सारे पुलिसवालों को वहां पहुंचा देखकर बुरी तरह हैरान होकर दिखाया जबकि उसकी जानकारी उसे पहले से थी।
“अकबर खान?” दरवाजा खुलते के साथ ही एसपी ने सवाल किया।
“जी हम ही हैं, लेकिन बात क्या है?” वह सहम जाने की जबरदस्त एक्टिंग करता हुआ बोला।
“तुमसे कुछ बात करनी है, भीतर चलो।”
“हमने क्या किया है सर?”
“कुछ नहीं किये हो, तभी तो बस बात करनी है।”
“यहीं खड़े होकर कीजिए, काहे कि भीतर महिलायें हैं।”
“तो किसी ऐसे कमरे में चलो जो खाली हो।”
“हमारे घर में ऐसा कोई कमरा नहीं है सर।”
“काहे किचकिच कर रहे हो भाई? - दिनेश राय बोला - पुलिस क्या तुम्हारे परिवार को खा जायेगी? फिर ये भी तो सोचो कि एसपी साहब कितनी दूर से तुमसे मिलने इहां आये हैं, जबकि चाहते तो खबर भेजकर अपने पास भी बुलवा सकते थे।”
“हम पार्षद होते हैं इस इलाके के इंस्पेक्टर साहब इसलिए पुलिस के बुलावे की धमकी तो मत ही दीजिए, काहे कि आप जैसे लोगों से हमारा रोज का उठना बैठना है।”
“पार्षद ही हो न अकबर खान, सीएम तो नहीं बन गये हो न प्रदेश के।”
“एक दिन वो भी बन जायेंगे, अभी बस शुरूआत किये हैं, आगे कितना ऊपर जायेंगे, उसके बारे में आपको क्या पता?”
“लेकिन जा तो तभी पाओगे न, जब जेल जाने से बचे रह जाओगे?”
“काहे जेल से चुनाव नहीं लड़ सकते हम?”
“यानि गिरफ्तार होने के लिए मरे जा रहे हो?”
“नहीं लेकिन नाजायज बात तो हम किसी की नहीं मानेंगे। हां आपको लगता है कि हमने कोई गलत काम किया है तो बयान कीजिए, ताकि हमें आपकी इस ज्यादती की वजह समझ में आ सके।”
“दिनेश।”
“यस सर?”
“उठा लो इन्हें।”
एसपी का कहना भर था कि दिनेश ने मजबूती से अकबर की कलाई थाम ली।
“अरे अरे ये क्या कर रहे हैं आप लोग?”
“एसपी ऑफिस आजमगढ़ ले जा रहे है आपको, वहां महिलायें भी नहीं हैं, इसलिए आराम से पूछताछ निबटा लेंगे आपके साथ, क्योंकि खड़े खड़े सवाल जवाब करने की हमें आदत नहीं है।”
“गलत कर रहे हैं एसपी साहब।”
“आदत से मजबूर हैं, क्या करें?”
“हमें गिरफ्तार करने की आपके पास कोई वजह नहीं है।”
“लीजिए ये तो हमने सोचा ही नहीं - कहकर उसने जनार्दन मिश्रा की तरफ देखा - जरा पार्षद साहब की गाड़ी की तलाशी लो भई, देखो क्या पता उसमें गिरफ्तारी की कोई वजह पहले से मौजूद हो - फिर उसने अकबर की तरफ देखा - चाबी दीजिए सर।”
जवाब में अकबर पल भर को हिचकिचाया फिर जेब से चाबी निकालकर मिश्रा को थमा दिया।
उसके देखते ही देखते जनार्दन मिश्रा वहां खड़ी पुलिस जीपों में से एक की तरफ बढ़ गया, फिर वापिस लौटा तो उसके हाथ में एक थैला थमा था, जिसमें वह दर्जन रिवाल्वर्स मौजूद थीं, जो अतीक के ट्रक से उसके हाथ लगी थीं।
फिर अकबर के कार की डिक्की खोलकर थैला उसके भीतर रखने के बाद एक सिपाही की तरफ देखता हुआ बोला, “वीडियो बना रामदीन, वरना सर्च में कोई खतरनाक चीज हमारे हाथ लग गयी, तो बाद में अकबर साहब कहने लगेंगे कि उसे हमने ही इनकी कार में रख दिया था।”
“जो कि तुम रखे हो - वह बौखलाया सा बोला - अभी अभी हमारी आंखों के सामने एक थैला तुमने हमारी गाड़ी में रखा है, पक्का उसमें कोई गलत चीज ही होगी।”
“अरे क्यों इस गरीब सब इंस्पेक्टर पर इल्जाम लगा रहे हैं सर? हम वैसा कुछ काहे करेंगे? आपसे भला क्या दुश्मनी है हमारी? ऊपर से आप ठहरे चंगेज भईया के छोटे भाई, मतलब आपके साथ कुछ उल्टा सीधा करेंगे तो वह हमें गोली नहीं मार देंगे।”
“ये सब मुझे फंसाने की चाल है।”
“जरा धीरज रखिये सर, देखें तो सही कि आपने अपनी कार में क्या छिपा रखा है - कहकर उसने डिक्की खोली, फिर थैला बाहर निकाला और उसे सड़क पर पलटता हुआ बोला - हे भगवान! ये तो ऑर्म्स डीलर मालूम पड़ते हैं सर।”
“बढ़िया, अब इन्हें बाईज्जत गिरफ्तार कर के ले चलो यहां से।”
“ठीक है, ठीक है - अकबर यूं हांफता हुआ बोला जैसे मीलों लंबी दौड़ लगाकर आ रहा हो - आप हमसे सवाल करना चाहते हैं न? ठीक है भीतर चलिए और पूछिये क्या पूछना चाहते हैं, मगर ये खामख्वाह की बला हमारे सिर पर मत मढ़िये।”
“भीतर तो महिलायें हैं न?”
“नहीं कोई नहीं है, आईये।” कहकर उसने रास्ता दे दिया।
दरअसल पुलिस के वहां पहुंचता होने की खबर पाकर उसने अपनी बीवी रुखसाना और बेटे आतिफ के साथ-साथ उन पांच लठैतों को भी वहां से खिसका दिया था, जो चौबीसों घंटे उसके घर पर ही रहते थे। नहीं चाहता था कि पुलिस उनमें से किसी को गिरफ्तार करके ये उगलवा लेती कि सात-आठ दिन पहले चंगेज उससे मिलकर गया था। और अपने बारे में वह श्योर था कि पुलिस का जोर उसपर नहीं चलने वाला था, क्योंकि वह उस इलाके का पार्षद था, मगर अभी तो सब उल्टा पुल्टा हुए जा रहा था, इसलिए उसे ना चाहते हुए भी झुकना पड़ा था।
सब लोग अंदर पहुंचे जहां सुखवंत सिंह और अकबर खान आमने सामने रखे सोफों पर बैठ गये।
“क्या जानना चाहते हैं?” उसने पूछा।
“चंगेज खान कहां है अकबर?” एसपी का लहजा एकदम से बदल गया।
“हम नहीं जानते कि कहां है, और यहां उसके होने का तो कोई मतलब ही नहीं बनता, फिर भी यकीन न हो तो घर की तलाशी ले लीजिए। क्योंकि असल बात ये है कि हम उससे कोई रिश्ता रखना ही नहीं चाहते। नाक में दम कर के रख दिया है चंगेज ने। इसलिए हमारी तरफ से आप उसे गोली मार दें, या सूली पर चढ़ा दें, हमें उस बात से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।”
“अरे बड़ा भाई है वह आपका।”
“अफसोस कि है, इसीलिए तो हम सिर उठाकर, सीना तानकर जिंदगी बसर नहीं कर पाते। काहे कि उसके पाप हमारे आड़े आ जाते हैं और यूं महसूस होने लगता है जैसे अपराधी चंगेज नहीं हम खुद हैं। वरना चाहे जिससे पूछकर देख लीजिए, हर कोई यही कहेगा कि अकबर खान ने अपनी जिंदगी में कभी कोई गलत काम नहीं किया।”
“जबकि हमारी जानकारी कहती है कि वह अक्सर तुमने मिलने यहां आया करता है।”
“तो समझ लीजिए कि आपकी जानकारी गलत है, चंगेज की सूरत देखे हमें कम से कम भी दो साल गुजर चुके हैं। ऐसे में हम आपको उसका पता ठिकाना कैसे बता सकते हैं।”
“देखो अकबर मियां ज्यादा उड़ने की कोशिश तो तुम करो मत। हम प्यार से पूछ रहे हैं तो प्यार से ही जवाब दे दो। वरना अपने मतलब की जानकारी हासिल करना हमें खूब आता है। अमरजीत त्रिपाठी का हमने क्या हश्र किया तुम जानते ही होगे। आजकल सरकार के साथ-साथ आम जनता और मीडिया के लोग भी हमारी खूबे वाहवाही कर रहे हैं, ऐसे में एक दो निर्दोष भी हमारे हाथ मारे गये, तो कोई हमपर उंगली नहीं उठाने वाला।”
“कमाल है, मतलब प्रदेश में कोई कानून व्यस्था नाम की चीज रह गयी है या नहीं?”
“नहीं रह गयी है, जंगल राज फैला दिखाई दे रहा है हर तरफ। अपराधियों के साथ-साथ पुलिस भी निरंकुश हो गयी है, तभी तो हम तुम्हें गोली मार देने की बात कर रहे हैं, जबकि अच्छी तरह से जानते हैं कि भाई के धंधे से तुम्हारा कोई लेना देना नहीं है। मगर फायदा तो फिर भी होगा, काहे कि जब हम तुम्हारी खोपड़ी में बुलेट दागकर यहां से निकल जायेंगे तो उसकी खबर पाकर चंगेज खान बहुते तड़पेगा, और जब तड़पेगा तो जाहिर है तुम्हारी मौत का बदला लेने की भी कोशिश करेगा। जो कि हम चाहते हैं कि वह करे, ताकि उसे खत्म करने का मौका हासिल हो जाये हमें, अब बताओ कहां है चंगेज?”
“हम नहीं जानते।”
“एक बार और पूछते हैं बताओ चंगेज खान कहां है?”
“हम नहीं जानते।”
“दिनेश।”
“यस सर।”
“जुबान खुलवाओ भाई इनकी, भले ही एक दो गोली दाग दो लेकिन जान नहीं जानी चाहिए खान साहब की।”
“ये पार्षद हैं सर।”
“मतलब पहले किसी पार्षद को गोली नहीं मारे हो?”
“नहीं सर।”
“ठीक है फिर हम बताते हैं कि कैसे मारी जाती है।” कहकर वह अपनी जगह से उठा और रिवाल्वर की नाल अकबर की जांघ पर टिकाकर बेहिचक ट्रिगर दबा दिया।
सब हक्के बक्कते रह गये।
अकबर हलाल होते बकरे की तरह डकारा, और बुरी तरह छटपटाने लगा, मगर दर्द और तड़प से कहीं ज्यादा हैरानी के भाव थे उसके चेहरे पर, क्योंकि वह तो एसपी के कहे को बस धमकी भर मान रहा था।
“बहुत चींख रहे हैं खान साहब, मुंह दबा लो इनका।”
मगर किसी को वैसी कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी क्योंकि एसपी की बात सुनकर अकबर ने तुरंत अपने होंठ भींच लिये। अलबत्ता आंखों से बहते आंसूओं पर वह चाहकर भी कंट्रोल नहीं कर सकता था।
“अब हम तुम्हारे दूसरे पैर में गोली मारेंगे अकबर, फिर तुम्हारे सामान पर, और उसके बाद भी अगर तुम मुंह नहीं खोले तो हम यकीन कर लेंगे कि चंगेज के बारे में तुम्हें कोई जानकारी नहीं है।”
कहकर उसने अकबर की बाईं जांघ पर गन की नाल रखी ही थी कि वह जल्दी से बोल पड़ा, “त्रिपाठी की मौत वाले दिन वह यहां आया था सर, उसके बाद कहां गया, और इस वक्त कहां है, हम नहीं जानते।”
“झूठ मत बोलो, हम रिक्वेस्ट कर रहे हैं।”
“खुदा कसम एसपी साहब हमें उस बात का कोई इल्म नहीं है।”
“चलो यही बता दो कि कहां जा सकता है?”
“हम वह भी नहीं जानते सर - कहता हुआ वह बुरी तरह से रोने लगा - मालूम होता तो जरूर बता देते आपको।”
“आखिरी मौका दे रहे हैं।”
“जो बात हम जानते ही नहीं हैं सर, वह आपको कैसे बता सकते हैं?”
सुनकर सुखवंत सिंह ने एक बार फिर से ट्रिगर खींच दिया।
अकबर जोर से चिल्लाया, मगर इस बार दिनेश ने हुक्म मिले बिना ही उसका मुंह जोर से दबोच लिया, “ना चिल्लाने का वादा करो तो हम हाथ हटाये लेते हैं।”
जवाब में उसने ऊपर नीचे मुंडी हिला दी।
दिनेश राय उसे छोड़ दिया। मगर तकलीफ कोई ऐसी चीज नहीं होती जो हमारे कंट्रोल में हो, इसलिए दर्द को पीने की कोशिश में उसका चेहरा विकृत हुए जा रहा था। वैसे था बड़ा सख्त जान वरना उसकी जगह कोई दूसरा होता तो अब तक बेहोश हो गया होता।
“चलो जान बचाने का एक मौका और देते हैं, बताओ चंगेज कहां है?”
“ह....हम...आ.., आ.... सच कह रहे हैं सर - वह सोफे पर उछलता हुआ बोला - हमें नहीं मालूम कि यहां से निकलकर वह कहां गया है?”
“मोबाईल नंबर तो होगा?”
जवाब में उसने हां में गर्दन हिला दी।
“बताओ।”
“ह....हमारे फोन में है।” कहकर उसने जेब में हाथ डालकर मोबाईल निकाला और उसमें चंगेज का नंबर ओपन कर के एसपी को थमा दिया। मगर उससे पुलिस का कोई भला नहीं होने वाला था क्योंकि वह नंबर उनके पास पहले से मौजूद था और लगातार स्विच ऑफ जा रहा था।
“कोई दूसरा नंबर?”
“न...नहीं बस यही है।”
“ये तो कई दिनों से बंद है, जरूरत पड़ने पर तुम कांटेक्ट कैसे करोगे उससे?”
“ह...हम नहीं जानते सर, हमारे पास बस यही एक नंबर है।”
“अच्छी तरह से सोच लो, कहीं उसका दूसरा नंबर तुम हमसे छिपा तो नहीं रहे?”
“नहीं सर, अब खुदा के वास्ते हमें किसी अस्पताल पहुंचा दीजिए।”
सुखवंत सिंह उठ खड़ा हुआ।
अगले ही पल उसकी रिवाल्वर ने जोर की छींक मारी और अकबर का किस्सा हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गया। एक ऐसे आदमी का किस्सा जिसकी गलती बस इतनी थी कि उसका भाई अपराधी था, पुलिस के राडार पर था।
“भीतर कोई चादर वादर देखो और एक बोरा तलाश करो, फिर डेडबॉडी को चादर में लपेटकर बोरे में रखो और यहां पड़ा खून अच्छी तरह से साफ कर दो।”
“लाश साथ ले जानी है सर?” दिनेश ने पूछा।
“हां रास्ते में कहीं ठिकाने लगा देंगे।”
दस मिनट में वह काम पूरा कर लिया गया, तत्पश्चात सब वहां से निकल गये।
“गोरखपुर में तो नहीं ही होगा चंगेज, है न?” एसपी ने दिनेश की तरफ देखकर पूछा।
“उम्मीद तो नहीं है सर, बाकी आप कहें तो पता लगाने की कोशिश करते हैं?”
“नहीं हमें भी उम्मीद नहीं है, इसलिए वापिस चलते हैं।”
तत्पश्चात पुलिस पार्टी आजमगढ़ के लिए रवाना हो गयी।
रात के ग्यारह बजने को थे, एक पेड़ की ओट में अपनी बाईक पर बैठा अनुराग पांडे दो घंटों से अतीक अंसारी की हवेली पर निगाह रख रहा था। अलबत्ता अभी तक उसकी समझ में ये नहीं आया था कि वैसा कर के उसे हासिल क्या होना था।
वह जिस जगह पर खड़ा था, वहां से करीब पचास मीटर की दूरी पर एक ऑल्टो खड़ी थी, जिसकी तरफ कई बार उसका ध्यान गया मगर कोई खास बात उस कार में नहीं नोट कर पाया। और ध्यान भी बस इसलिए चला गया क्योंकि वह पूरी तरह चाक चौबंद था।
जिस पेड़ के पीछे उसने बाईक खड़ी कर रखी थी, वह एक ऐसी गली के मुहाने पर था, जो सीधा मेन रोड से जा मिलती थी। ऐसे में अंसारी गैंग का कोई आदमी उसे अपनी तरफ बढ़ता दिखाई देता तो बाईक स्टार्ट करके वह फौरन वहां से निकल जाने को एकदम तैयार बैठा था।
देखते ही देखते घंटा भर का वक्त और गुजर गया मगर हवेली में कोई आता जाता दिखाई नहीं दिया। और रात ज्यादा हो जाने के कारण अब किसी आवागमन की उसे उम्मीद भी नहीं थी। इसलिए उसने मन ही मन फैसला किया कि रात एक बजे तक निगरानी करने के बाद वहां से वापिस लौट जायेगा।
मगर वैसा वक्त नहीं आया।
ठीक साढ़े बारह बजे हवेली का फाटक खुला और एक बोलेरो बाहर निकलकर पांडे से विपरीत दिशा में बढ़ती चली गयी। उसके भीतर कौन था या कौन नहीं था, ये तो वह नहीं जान पाया मगर इतना अंदाजा फिर भी हो गया कि अंदर कई लोग बैठे हुए थे।
फिर उसके दिमाग में एक नया सवाल कौंधा, ‘क्या अतीक अंसारी इस वक्त हवेली के भीतर हो सकता था?’
सोचने भर से उसके बदन में झुरझुरी सी दौड़ आई।
अगर किसी तरह पता लग जाये कि वह भीतर ही था तो उसकी खबर एसपी को देकर वह अपने दुश्मन का सर्वनाश करा सकता था। फिर उसे छिपते फिरने की भी कोई जरूरत नहीं होती, और दिल्ली से सुनयना तथा बच्चों को वापिस भी बुला सकता था।’
उस बारे में जानने के लिए उसका हवेली में घुसना बहुत जरूरी था, जो कि अपने आप में बहुत खतरनाक काम था। लेकिन वह तो जैसे सिर पर कफन बांध चुका था, या यूं कह लें कि एक बार फिर उसकी मति मारी गयी थी, इसलिए उसने भीतर जाने का फैसला कर लिया।
अगले ही पल उसने बाईक स्टार्ट की और ले जाकर हवेली की बाउंड्री से लगाकर खड़ा कर दिया, फिर उसकी सीट पर खड़े होकर भीतर झांका तो कंपाउंड एकदम खाली नजर आया। उसकी हिम्मत बढ़ गयी, दिल कुछ कर गुजरने को बेताब हो उठा। बस ये नहीं सोच पाया कि भीतर का फाटक अगर अंदर की तरफ से बंद हुआ तो वह इस बात का पता कैसे लगा पायेगा कि अतीक अंसारी वहां था या नहीं।
अगले ही पल वह उचककर बाउंड्री वाल पर चढ़ा और बेआवाज भीतर कूद गया।
इस बात से अंजान कि किसी की आंखें उसपर नजर रख रही थीं। ऐसी आंखें जिन्होंने उसे साफ तौर पर दरोगा अनुराग पांडे के रूप में पहचान लिया था।
कंपाउंड में सन्नाटा पसरा हुआ था।
वह कुछ कदम आगे बढ़ा फिर दाईं तरफ को गर्दन घुमाकर देखा तो पाया कि गेट से थोड़ा परे दो लोग खटिया डाले सो रहे थे। वह जहां का तहां ठिठक गया। एक गाड़ी महज दस मिनट पहले हवेली से बाहर गयी थी, ऐसे में वहां लेटे हुए लोग सोते नहीं हो सकते थे, फिर भी सो रहे थे तो गहरी नींद में नहीं हो सकते थे।
आखिरकार उसने वही पैंतरा आजमाया जो अपने घर पर बोलरो तक पहुंचने के लिए आजमाया था। मतबल जमीन पर बैठ गया और धीरे धीरे खिसकता हुआ उनकी तरफ बढ़ने लगा।
कुछ ही देर में वह उनके सिर पर पहुंच गया मगर किसी हलचल का आभास नहीं मिला। तब उसने जेब से उस्तरा निकालकर उसे खोला, और बायें हाथ से एक शख्स का मुंह दबोचते हुए दायें हाथ की पूरी ताकत से उसका गला रेत दिया। जवाब में वह शख्स कुछ क्षण तड़पता महसूस हुआ फिर उसने दम तोड़ दिया। उस दौरान पांडे का पूरा ध्यान बगल की खाट पर सो रहे शख्स की तरफ था, जो अगर हरकत करता दिखाई देता तो साईलेंटली काम करने का फैसला छोड़कर उसने फौरन उसे शूट कर देना था।
मगर वैसा कुछ नहीं हुआ, दूसरा शख्स उसकी तरफ पीठ किये ज्यों का त्यों बाईं करवट सोता रहा। असल में दोनों रात ग्यारह बजे से ही सो रहे थे, इसलिए दरवाजा खोलने के बाद जब वापिस खाट पर लेटे तो लेटते के साथ ही उन्हें नींद आ गयी थी।
इसलिए दरोगा का काम बेहद आसान साबित हुआ। उसने दूसरे शख्स का भी वही हाल किया और दोनों का मुंह चादर से ढककर अंदर की तरफ बढ़ने ही लगा था कि ठिठक गया।
फिर दोनों के तकियों को थोड़ा-थोड़ा उठाकर देखा तो दो रिवाल्वर्स उसके हाथ लग गयीं। जिनमें से एक उसने अपनी कमर में खोंस ली और दूसरे को हाथ में लिए बाईं तरफ को बढ़ चला, जबकि सर्विस रिवाल्वर पहले से उसके पास थी।
पांडे पहले से जानता था कि हवेली के बायें हिस्से में मौजूद एक बड़े से कमरे में, जो कि बाउंड्री वाल के साथ लगकर बना हुआ था, अंसारी के लठैतों का बसेरा था। जिन्हें इमारत में दाखिल होने से पहले खत्म करना बेहद जरूरी था। वहां बाहर करीब ढाई फीट ऊंचे स्टैंड पर लोहे का एक खूब बड़ा कूलर चल रहा था जो अपने साईज के हिसाब से ही आवाज भी कर रहा था। बावजूद इसके अंदर मौजूद लोग गहरी नींद में सोते जान पड़ते थे।
वह कुल जमा छह लोग थे, जिन्हें साईलेंटली खत्म कर पाना मुश्किल था, क्योंकि एक को मारते वक्त बाकी पांचों में से किसी की भी नींद उचट सकती थी, जिसके बाद उसका वहां से भाग पाना असंभव जैसा काम बनकर रह जाने वाला था। दूसरी तरफ गोली चलाने की सूरत में समस्या ये थी कि लगातार किये गये छह फायर इमारत में मौजूद लोगों को चौंका सकते थे, यानि वह ये जानने के लिए वहां रुका नहीं रह सकता था कि अतीक हवेली में मौजूद था या नहीं।
‘अतीक या उसके आदमी?’ पांडे ने खुद से सवाल किया और जवाब भी खुद ही दे डाला, ‘आदमी क्योंकि उनको जिंदा छोड़कर वह अतीक की तलाश में भीतर घुसने की कोशिश करता तो वहां गोलियां चलकर रहनी थीं, जिसके बाद बाहर मौजूद छहों लोग हवेली को उसकी कब्रगाह बनाकर रख देने देते।’
उसने हाथ में थमी गन का चेंबर खोलकर देखा तो उसे पूरा का पूरा भरा पाया। फिर कमर में खुंसी दूसरी गन भी बाहर निकाल ली, और बला की फुर्ती दिखाते हुए एक के बाद एक गोली चलाता चला गया। छह गोली छह शिकार, दूसरी रिवाल्वर इस्तेमाल करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। फिर उसने गन से फिंगर प्रिंट पोंछकर वहीं फेंका और कूलर पर चढ़कर थोड़ी सी कोशिश के बाद छत पर पहुंच गया, जहां उसका इरादा कुछ देर रुककर माहौल भांपने का था। मतलब भीतर जाग नहीं होती तो छत से वापिस नीचे उतरकर अतीक के बारे में जानने की कोशिश कर सकता था।
मगर उसकी नौबत ही नहीं आई।
अभी वह छत पर पहुंचा ही था कि किसी ने जोर से उसे ललकारा, “रुक मादर...भागता कहां है?” साथ ही एक गोली चली जो पांडे से दो फीट की दूरी बनाती हुई निकल गयी।
तेजी से दौड़ता हुआ वह छत के आखिरी सिरे पर पहुंचा और मुंडेर से लटककर नीचे कूद गया। अब वह हवेली से बाहर था। इसलिए पूरी ताकत लगाकर फ्रंट की तरफ दौड़ा जहां अपनी मोटरसाईकिल खड़ी कर के भीतर घुसा था।
उस वक्त हवेली के भीतर बस चार लोग और मौजूद थे, क्योंकि कलंकी पांच आदमियों को साथ लेकर कहीं बाहर चला गया था। उन लोगों ने लगातार चलाई गयी गोलियों की आवाज सुनी तो बाहर निकलकर इधर उधर देखने लगे, तब मरे हुए लोग तो उन्हें नहीं दिखाई दिये मगर छत पर एक आदमी नजर आ गया। जिसे भागता जानकर उनमें से एक ने गोली चला दी थी, मगर जब पांडे वहां से नीचे कूद गया तो वह चारों तेजी से गेट की तरफ दौड़े, और लगभग उसके साथ ही साथ फ्रंट में पहुंच गये।
मतलब दरोगा अभी अपनी बाईक स्टार्ट भी नहीं कर पाया था कि चारों हथियारबंद आदमी उसके सिर पर खड़े। उनकी गन दरोगा की तरफ तन गयी, फिर करीब पहुंचकर उसे पहचान भी लिया।
“बहिन..., ये तो पांडे है।”
“भोस... के तुम्हारी इतनी मजाल हो गयी कि हवेली में घुस आये?”
“उस दिन भईया तुमपर रहम खा गये तो तुम सिर पर मूतने के लिए निकल पड़े।”
“पकड़ लो साले को।”
उसी वक्त एक गोली चली, कहां से चली कोई नहीं जान पाया मगर चार में से एक आदमी मारा गया, फिर दूसरे का भी वही हश्र हुआ। दरोगा के लिए उतना मौका पर्याप्त था, उसने तुरंत अपने सामने खड़े जिंदा बचे दोनों आदमियों को शूट कर दिया, और बाईक स्टार्ट कर के ये देखे बिना कि किसने उसकी मदद की थी, वहां से निकल गया।
बवेले के बावजूद सबकुछ आसानी से निबट गया था। गार्ड लापरवाह थे क्योंकि हवेली का बड़ा मालिक जेल में था और छोटा गायब था, यानि किसी की सुरक्षा की जिम्मेदारी उनके सिर पर नहीं थी। मगर इस बात में कोई शक नहीं था कि अगर किसी अंजान शख्स ने पांडे की मदद नहीं की होती तो उसकी ऐसी दुर्गति होती कि बयान करने के लिए शब्द कम पड़ जाते।
दरोगा के वहां से जाने के ठीक पंद्रह मिनट बाद कलंकी वापिस लौटा। लोहे का फाटक अधखुला पड़ा था, इसलिए ड्राईवर ने जोर से हॉर्न दिया मगर जवाब में उठकर वहां कोई नहीं पहुंचा। फिर बाउंड्री के किनारे पड़ीं चार लाशों पर उनकी निगाह गयी तो सब हक्के बक्के रह गये।
उसके बाद जो भयानक मंजर कलंकी को दिखाई दिया, उसे देखकर वह बुरी तरह बौखलाकर रह गया, क्योंकि हवेली के भीतर वैसी किसी घटना की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता था।
अगले ही पल उसका ध्यान पांडे की तरफ चला गया।
क्या सब किया धरा उसी का था?
कलंकी का मन उस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुआ।
फिर उसने अतीक को फोन लगाया।
“बोलो।”
“एक बहुते बुरी खबर है भईया?”
“क्या?”
कलंकी ने सारा किस्सा सुना दिया, फिर बोला, “एक ही रात में हमारे सोलह आदमी मारे गये भईया, समझ में नहीं आता कि किसने किया।”
“पांडे के अलावा कौन कर सकता है?”
“ध्यान हमारा भी जा रहा है भईया लेकिन लगता नहीं है कि वह इतनी हिम्मत कर सकता है, इसके बावजूद अगर सब उसी ने किया है, तो जरूर उसे हमारे किसी दुश्मन की शह हासिल है, क्योंकि किसी एक आदमी के बस का तो काम नहीं था।”
“दुश्मन कौन?”
“त्रिपाठी मारा गया, चंगेज अपनी जान बचाता फिर रहा है तो ऐसे में एक ही तो आदमी बचा रह जाता है भईया।”
“अनल सिंह?”
“हमें तो यही लग रहा है, आप कहें तो जाकर मुंडी काट दें ससुरे की।”
“पागल मत बनो कलंकी, सरकार उसकी तरफ है तो जाहिर है अपनी सुरक्षा के इंतजाम भी बढ़ा चुका होगा, फिर उसे भी तो इस बात की आशंका होगी कि हम उसपर हमला कर सकते हैं, इसलिए हवा का रुख पहचानना सीखो - उसके बाद क्षण भर को खामोश रहकर बोला - अभी कितने आदमी हैं तुम्हारे पास?”
“भीतर के आदमी तो बस पांचे बचे हैं, और बाकियों के बारे में तो आप जानते ही हैं, जिनकी संख्या पचास के करीब है, बल्कि पूरे पचास ही हैं।”
“उनमें से आठ-दस जो ज्यादा होशियार हों, हवेली बुला लो। और तमाम लाशों को कहीं दूर ले जाकर यूं दफना दो कि किसी को उनकी भनक तक नहीं लगे, वरना किसी तरह मीडिया में ये बात फैल गयी कि हमारे सोलह आदमियों को कत्ल कर दिया गया है तो नाक कट जायेगी, समझ गये?”
“जी भईया।”
“और सही वक्त का इंतजार करो, खुद को बचाकर भी रखो कलंकी, क्योंकि हम तुम्हें खोना अफोर्ड नहीं कर सकते। रही बात अनल सिंह की तो जल्दी ही उसकी बारी आयेगी, मगर वह वक्त आज नहीं है।”
“हम समझ गये भईया।”
तत्पश्चात दूसरी तरफ से कॉल डिस्कनैक्ट कर दी गयी। फिर कलंकी ने अपने आदमियों को हुक्म दिया कि सबसे पहले बाहर पड़ी चारों लाशों को भीतर लेकर आयें और वहां फैला खून अच्छी तरह से साफ कर दें। उसके बाद तमाम लाशों को घाघरा नदी ले जायें और पैट्रोल डालकर आग लगाने के बाद, ये सुनिश्चित करके कि उनमें से किसी की भी सूरत पहचान के काबिल नहीं रह गयी थी, सबको नदी में बहा दें।
सुनकर सब तुरंत काम पर लग गये।
एक लड़की की दुःखभरी गाथा
हवेली से सही सलामत निकल जाने के बाद दरोगा अनुराग पांडे ने बाकी की रात जयकुमार नाम के उस दोस्त के घर पर ही गुजारी जहां वह कई दिनों से रहता आ रहा था। हैरानी की बात ये थी कि ऐसे विकट हालात में भी वह बड़ी चैन की नींद सोया था। बेफिक्री वाली नींद जो अमूमन उस जैसे लोगों को कम ही नसीब हुआ करती है।
सुबह छह बजे उठकर वह जल्दी जल्दी तैयार हुआ फिर जयकुमार के साथ नाश्ता करता हुआ बोला, “बस आज के बाद हम तुम्हें परेशान करने इहां नहीं आयेंगे।”
“हम कहे कि तुम्हारे यहां रहने से हमें कोई परेशानी है?” जयकुमार उसे घूरता हुआ बोला।
“नहीं कहे थैंक यू, लेकिन हमारा यहां बने रहना तुम्हारे लिये मुसीबत खड़ी कर सकता है। किसी तरह अतीक को पता लग गया कि हमें शरण देने वाला कौन था तो हमारा जो होगा वह बाद में होगा, पहले तुम्हारा नामोनिशान मिटाकर रख देगा।”
“पहले नाहीं सोचे?”
“नहीं क्योंकि तब हमें दिन रात तुम्हारे घर में छिपकर बैठना था, इसलिए किसी को खबर लग जाने के चांसेज कम थे। मगर अब हमें बाहर निकलना है, दुश्मन के साथ लोहा लेना है। ऐसे दुश्मन के साथ जिसके सामने हमारी औकात चींटी जितनी भी नहीं है, जैसे कल रात हम लिये थे।”
“का किये थे पांडे?”
“अतीक के दस आदमी खत्म कर दिये - कहने के बाद वह थोड़ा हंसकर बोला - ससुरा इस वक्त ऐसे तड़प रहा होगा जैसे किसी ने उसे नंगा कर के गर्म तवे पर बैठा दिया हो।”
“दस आदमी मार दिये?” जयकुमार हैरानी से बोला।
“मरे बारह थे लेकिन दो को किसी अंजान आदमी ने गोली मारी थी। ऊ भी बस हमें बचाने के लिए वरना तो कल रात हमारा किस्सा खत्म हो गया होता।” कहकर पांडे ने उसे पूरी कहानी सुना दी।
“पता नहीं लगाये कि वह अंजान मददगार कौन था?”
“तब सोचने का या उसके पीछे पड़ने का वक्त नहीं था इसलिए हम निकल लिये, और अब वह खुद हमसे कांटेक्ट कर ले तो और बात है, वरना हम जानते ही क्या हैं उसके बारे में।”
“तो भी तुम्हें हमारे घर से दूरी बनाने की कोई जरूरत नहीं है। काहे कि तुम हमारे दोस्त हो, और दोस्त के लिए तो हम अपनी जान भी दे सकते हैं।”
“नहीं अब हमारा यहां रुकना ठीक नहीं होगा, हां कोई और बंदोबस्त नहीं कर पाये, या वापिस यहां आना जरूरी लगने लगा तो मजबूरी होगी, लेकिन पहले हम कोशिश यही करेंगे कि उसकी नौबत न आये।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी, लेकिन हमारी तरफ से यहां के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे, चाहे तुम मौत को अपने साथ ही लेकर क्यों न घूम रहे हो।”
“थैंक यू भाई।”
तत्पश्चात दोनों नाश्ता करने में जुट गये।
उसके आधे घंटे बाद पांडे अपनी ही चौकी में तैनात एक सिपाही रमेश राय के घर पहुंचा, और दरवाजे पर दस्तक देकर इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद गेट खुद रमेश ने खोला और इतनी सुबह सुबह अपने अफसर को सामने खड़ा देखकर कुछ हड़बड़ा सा गया।
“नमस्कार सर।”
“नमस्कार।”
“भीतर आइये।”
“नहीं, हम यहीं से वापिस लौट जायेंगे।”
“कोई गलती हो गयी?”
“कैसी बात करते हो रमेश, उल्टा हम तो तुमसे मदद मांगने आये हैं।”
“कैसी मदद सर?”
“तुम्हारी वर्दी चाहिए हमें।”
“मजाक कर रहे हैं?”
“नहीं भई।”
“सिपाही की वर्दी का आप क्या करेंगे सर?”
“है कोई काम जिसे मैं अपनी वर्दी पहनकर पूरा नहीं कर सकता, अगर नहीं देना चाहते तो मना कर सकते हो।”
“कैसी बात करते हैं सर अभी लेकर आते हैं, जूते भी चाहिएं?”
“नहीं।”
सुनकर वह भीतर गया और प्लॉस्टिक की थैली में रखी एक जोड़ी वर्दी लाकर दरोगा को थमाता हुआ बोला, “एकदम नई है सर।”
“हम इसके पैसे दे देते हैं।”
“काहे हमार कपार पर जूता मार रहे हैं सर, नई है इसलिए बता दिये क्योंकि कहना चाहते थे कि अभी तक एक बार भी नहीं पहने हैं, अब आपको अपनी पहनी हुई वर्दी थोड़े ही दे सकते हैं हम। और आपको फिट भी आ जायेगी, काहे कि कद काठ तो हमारी भी आप जैसी ही है।”
“तभी तो तुम्हारे पास आये हैं।”
“हमें खुशी है सर कि आपकी कोई मदद कर पाये।”
“इस बात का जिक्र किसी से मत करना रमेश क्योंकि मामला बहुते खतरनाक है, और हम नहीं चाहते कि तुम्हारा कोई नुकसान हो।”
“नहीं करेंगे सर, फिर इसमें किसी को बताने जैसी क्या बात है?”
“थैंक यू, अब हम चलते हैं।” कहकर वह बाईक पर सवार होकर वहां से निकल गया। मगर पांच सौ मीटर भी नहीं जा पाया था कि जेब में पड़ा उसका मोबाईल रिंग होने लगा।
उसने बाईक रोककर मोबाईल बाहर निकाला तो पाया कि नंबर अननोन था। बावजूद इसके कॉल को नजरअंदाज करना ठीक नहीं समझा, इसलिए अटैंड कर लिया।
“हैलो।”
“कहां हो दरोगा?” कलंकी की आवाज कानों में पड़ते ही वह सिर से पांव तक कांप कर रह गया।
“कौन बोल रहा है?” उसने अंजान बनते हुए पूछा।
“काहे आवाज नहीं पहचाने?”
“नहीं पहचाने।”
“कलंकी बोल रहे हैं हम।”
“अरे कलंकी भईया नमस्कार, बताइये क्या बात है?”
“तुमसे मिलना है पांडे, चाहो तो हवेली आ जाओ या हम तुम्हारे घर आ जाते हैं।”
“कोई गलती हो गयी भईया?”
“अरे नाहीं भाई, बात ये है कि हम तुम्हें कोई खास जानकारी देना चाहते हैं, मतलब तुम्हारे हाथों अपने दुश्मन का ऐसा माल पकड़वाना चाहते हैं कि तुम्हारी तरक्की हो जायेगी। अतीक भईया बोले कि हम पांडे के साथ बहुते बुरा किये हैं इसलिए यह खास मौका उसी को मिलना चाहिए, तबहीं फोन किये हैं तुम्हें।”
“बहुते अफसोस की बात है।”
“हमारा फोन करना?”
“अरे नहीं भईया, बात ये है कि इस वक्त हम कानपुर में हैं, एक रिश्तेदार की शादी में आये थे, जो हो गयी है लेकिन चार-पांच दिन अभी और लग जायेगा आजमगढ़ लौटने में। और अफसोस कि बात ये है कि आपसे हासिल होने वाला इतना बढ़िया मौका हम लपक नहीं पायेंगे।”
“काहे टाल मटौल कर रहे हो यार, जबकि बात तुम्हारे फायदे की है?”
“टाल मटौल नहीं कर रहे, आप चाहें तो हमारे घर जाकर देख लीजिए, वहां ताला लगा ही मिलेगा, काहे कि सब लोग कानपुर में हैं। चौकी में भी पता कर सकते हैं।”
“ठीक है वापिस आ जाओ तो हमें फोन करना।”
“तुरंते करेंगे।” कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट की ही थी कि सुनयना और बच्चों का ख्याल आ गया, तब उसने बीवी को फोन कर के थोड़ी देर बात की फिर बाईक आगे बढ़ाने ही जा रहा था कि एक नई कॉल आ गयी।
नंबर इस बार भी अननोन ही था।
“नमस्कार दरोगा जी।” एक जनाना स्वर उसके कानों में पड़ा।
“नमस्कार, कौन?”
“हम ऊ हैं जो कल रात आपकी ही तरह अंसारी की हवेली पर निगाह रख रहे थे।”
दरोगा थोड़ा सकपका सा गया।
क्या वह कलंकी की कोई नई चाल थी?
या सच में बीती रात उसकी मदद किसी लड़की ने ही की थी?
“हम समझे नहीं।” प्रत्यक्षतः वह अंजान बनता हुआ बोला।
“इतना मुश्किल तो नहीं है दरोगा जी। हवेली के भीतर आपने क्या किया था, हम नहीं जानते, लेकिन बाहर जब आपकी जान पर बनी थी तो दो तीर हम चलाये और दो आप। बल्कि पहले हमीं चलाये थे, तभी तो आप उहां से निकल पाने में कामयाब हो गये।”
वह ऐसी बातें थी जो किसी तीसरे शख्स को मालूम नहीं हो सकती थीं, इसलिए पांडे को यकीन आ गया कि फोन उसके मददगार का ही था। अबलबत्ता ये सोचकर अभी भी हैरान हो रहा था कि बीती रात उसकी मदद करने वाली एक लड़की थी।
“हमारी जान बचाने के लिए शुक्रिया।”
“हम आपका शुक्रिया सुनने के लिए फोन नहीं किये हैं।”
“फिर?”
“मिलना चाहते हैं आपसे।”
“क्यों?”
“दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इसलिए।”
“मेरा कोई दुश्मन नहीं है।”
“काहे मजाक कर रहे हैं यार, अतीक ने आप पर कितना बड़ा जुल्म ढाया है, क्या उसकी खबर नहीं है हमें? या इस बात का अंदाजा नहीं है कि आप उसके हाथ लग गये तो वह क्या हश्र करेगा आपका? फिर दुश्मनी नहीं थी तो कल रात उसकी हवेली में घुसकर उसके आदमियों को गोली काहे मार दिये?”
“तुम चाहती क्या हो?”
“चाहते तो हम बहुत कुछ हैं, लेकिन अभी के लिए बस मिलना चाहते हैं आपसे।”
“ठीक है, बताओ कहां आना होगा?”
“बलरामपुर में एक रेस्टोरेंट है, ‘फूड हब’, सड़क किनारे ही बना हुआ है, इसलिए आपको खोजना नहीं पड़ेगा। ग्यारह बजे हम वहीं आपका इंतजार करेंगे।”
“मैं तुम्हें पहचानूंगा कैसे?”
“वहां जो सबसे खूबसूरत लड़की आपको दिखाई दे, या जिसपर नजर पड़ते ही आप उससे बातचीत करने को बेताब हो उठें, समझ लीजिएगा कि हम ही हैं।”
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“मिलेंगे तो वह भी जान जायेंगे।”
“ठीक है ग्यारह बजे पहुंच जाऊंगा मैं।”
“हम इंतजार करेंगे।”
दरोगा ने कॉल डिस्कनैक्ट करके बाईक आगे बढ़ा दी।
उसका इरादा कोतवाल समर सिंह से एक मुलाकात करने का था, जहां के लिए वह सिपाही के घर से निकलकर रवाना हुआ था। कोतवाली उस जगह से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर थी, इसलिए सात आठ मिनट में पहुंच भी गया।
उसका वह कदम निहायती बचकाना था। एक तरफ तो उसने कलंकी से कह दिया था कि वह आजमगढ़ में नहीं था और दूसरी तरफ ऐसी जगह पर कदम रखने जा रहा था जहां अंसारी गैंग के भेदियों की कोई कमी नहीं थी।
पता नहीं अक्ल से उसका नाता टूट चुका था है वह था ही ऐसा, मतलब बिना सोचे समझे फैसले लेने वाला, और लेकर बाद में पछताने वाला, तब जब मामला उसके काबू से बाहर हो जाता था, या अपने किसी गलत कदम से बुरे परिणाम भुगतने पड़ जाते थे।
कम से कम अभी तक वह यही तो करता आ रहा था।
कोतवाली में दाखिल होने के बाद कई लोगों ने उसका हाल चाल जानने की कोशिश की, जिसका हूं, हां, ठीक हूं, जैसे संक्षिप्त जवाब देता हुआ वह कोतवाल के कमरे तक पहुंचा और खुले हुए दरवाजे को हौले से नॉक कर के बोला, “अंदर आ जायें सर।”
“आओ भई, इजाजत लेने की क्या जरूरत है?”
सुनकर वह भीतर दाखिल हो गया।
“बैठो।”
“थैंक यू सर।”
“चाय मंगायें तुम्हारे लिये?”
“नहीं सर।”
“किसी खास काम से आये हो?”
“जी हां।”
“बोलो?”
“आपस जब आखिरी बार मुलाकात हुई थी, माने जब आप हमारे घर आये थे, उससे अगले रोज अतीक के आदमियों ने हमारी जान लेने की कोशिश की थी।”
“क्या कह रहे हो?”
“सच कह रहे हैं सर, वह तो किस्मत अच्छी थी जो वक्त रहते उनका पता लग गया हमें, वरना तो हमारी डेडबॉडी ही बरामद हुई होती - कहकर उसने पूछा - सीओ साहब से बात नहीं किये आप?”
“किये थे भाई - समर सिंह एक गहरी सांस खींचता हुआ बोला - वह तैयार भी हो गये, मगर अतीक अंडरग्राउंड हो गया है और अपना मोबाईल भी बंद कर लिया, इसलिए सीओ साहब वो नहीं कर पाये जो हम उनसे कराना चाहते थे, अब तुम बताओ क्या हुआ था कल रात?”
“उस शाम हम कहीं बाहर गये थे जहां से वापिस लौटने में आधी रात हो गयी, तब हमने गली में एक बोलेरो खड़ी देखी जिसमें चार लोग बैठे थे, उनमें से एक को हम अतीक के आदमी के रूप में तुरंते पहचान गये।”
“हे भगवान! - समर सिंह सिसकारी सी भरता हुआ बोला - हथिया के पास जो अतीक की जली हुई गाड़ी पाई गयी थी, कहीं वह तुम्हारा ही कारनामा तो नहीं था, बल्कि होगा ही क्योंकि लाशें भी चार ही बरामद हुई थीं।”
“हां, हमने ही किया था सर, अब चुपचाप उनकी गोली तो नहीं खा सकते थे न? इसलिए हमसे जो करते बना हमने किया, खत्म तो उन्हें अपनी गली में ही कर दिये थे, लेकिन बाद में चारों लाशों को गाड़ी में डालकर हथिया ले गये और आग लगा दी।”
“अतीक सब समझ जायेगा।”
“मेरे ख्याल से तो समझ ही चुका है सर क्योंकि कलंकी का फोन आया था हमारे पास, बुड़बक बनाकर मिलने के लिए बुला रहा था।”
“तुमने क्या कहा?”
“यही कि हम कानपुर में थे।”
“क्या फायदा, उसने क्या तुम्हारा घर नहीं देख रखा है?”
“देख रखा है लेकिन वहां ताला लगा है, बीवी बच्चों को रातों रात हम दिल्ली रवाना कर दिये थे, काहे कि खतरा तो उनपर भी मंडरा रहा था।”
“ये तो तुम बहुत अच्छा किये पांडे, लेकिन आजमगढ़ में बने रहना तुम्हारे लिये खतरे से खाली नहीं है। हमारी मानो तो कुछ दिनों के लिए खुद भी दिल्ली निकल जाओ।”
“उससे क्या हो जायेगा सर, जब तक अतीक अंसारी जिंदा है खतरा तो मंडराते रहेगा।”
“बताये तो थे हम कि वह एसपी साहब के निशाने पर है, इसलिए आज नहीं तो कल अपने अंजाम को पहुंच ही जायेगा। जैसे उन्होंने त्रिपाठी की खबर मिलते ही उसे खत्म कर दिया था। ऐसे खत्म कर दिया जैसे कोई पगलाये कुत्ते को मार डालता है। माने साहब के अंदर हिम्मत की कोई कमी नहीं है, और उनकी ईमानदारी पर तो सवाल उठाया ही नहीं जा सकता।”
“तभी तो हम उनके हाथ मजबूत करना चाहते हैं।”
“कैसे करोगे?”
“किसी तरह हमें उनकी टीम में शामिल कर दीजिए।”
“ओह तो असल में तुम्हारे दिल में अभी भी बदले की आग धधक रही है, इसलिए चाहते हो कि अतीक जब साहब के सामने हो तो तुम उसे अपने हाथों गोली मार सको, बोलो यही बात है न?”
“कुछ कुछ है सर, लेकिन ये भी सच है कि हमें अतीकवा के बारे में बहुत कुछ पता है। बाबूजी के कत्ल के बाद हमने उसके बारे में जानकारियां हासिल करने के अलावा और किया भी क्या था। अब वही जानकारी एसपी साहब के काम आयेगी।”
“ये पॉसिबल नहीं है, क्योंकि साहब चुन चुन कर नये आदमियों को लिये हैं। जो कि तुम नहीं हो, इसलिए तुम्हें अपनी टीम में तो नहिए शामिल करेंगे।”
“आप थोड़ी कोशिश कर देते तो?”
“नहीं कर सकता भई, जिस अफसर ने यहां का चार्ज लेने के बाद अभी तक मुझे बुलाकर दो बात तक नहीं की है, उससे जाकर हम तुम्हारी सिफारिश कैसे कर सकते हैं। हां किसी वजह से हमें तलब किये और अतीक के बारे में पूछताछ करने लगे तो हम पक्का तुम्हारा नाम ले देंगे, कह देंगे कि अनुराग पांडे को सब पता है। मगर उससे पहले नहीं, माने अपनी तरफ से ऐसी कोई कोशिश हम नहीं कर सकते।”
“ठीक है सर कोई बात नहीं।”
“हम बहाना नहीं कर रहे पांडे।”
“अरे हम क्या जानते नहीं हैं।”
“तो दिल्ली जाने के बारे में का सोचे?”
“देखते हैं सर, अभी तो कुछ जम नहीं रहा है।”
“ठीक है फिर सावधान रहना, और ई जो तुम खुल्लमखुल्ला हमसे मिलने इहां कोतवाली पहुंच गये, इसकी खबर कलंकी को लगकर रहेगी, मतलब अभी से समझ जाओ कि उसे तुम्हारे आजमगढ़ में होने की जानकारी मिल चुकी है।”
“हम ध्यान रखेंगे सर।”
“किसी प्रॉब्लम में पड़ जाओ तो दिन हो या रात तुरंत हमें फोन करना पांडे, संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है। काहे कि तोहार मदद से पीछे नहीं हटेंगे हम।”
“हम जरूर करेंगे सर, फिर आपको नहीं करेंगे तो और किसको करेंगे।” कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ।
ठीक ग्यारह बजे अनुराग पांडे ने अपनी बाईक ‘फूड हब’ रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी की और शीशे के दरवाजे को धकेलता हुआ भीतर दाखिल हो गया। अंदर पहुंचकर उसने इधर उधर निगाह दौड़ाई तो वहां तीन महिलायें बैठी दिखाई दीं, जिनमें से अकेली बस एक ही थी।
लड़की ने पीले रंग का कुर्ता पहन रखा था, आंखों पर गॉगल्स चढ़ाये थी। अपना पर्स उसने टेबल पर रख रखा था और सिर को थोड़ा सा झुकाये हुए चाय या कॉफी पी रही थी, जिसके कारण वह लड़की की सूरत नहीं देख पा रहा था।
सावधानी वश वह कुछ देर जहां का तहां खड़ा हॉल में मौजूद बाकी लोगों पर निगाह दौड़ाता रहा, मगर सब अपने आप में मस्त दिखाई दे रहे थे, और शक्लोसूरत से काफी सभ्य भी जान पड़ते थे। मतलब उनमें से किसी के अतीक का आदमी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
तभी लड़की ने चाय का कप टेबल पर रखकर गर्दन सीधी की तो पांडे को उसकी सूरत दिखाई दे गयी। जिसे देखकर वह यूं चौंका जैसे बीवी ने किसी पराई औरत के साथ रंगरेलियां मनाते उसे रंगे हाथों पकड़ लिया हो।
अगले ही पल वह आगे बढ़ा और लड़की के सामने जाकर खड़ा हो गया।
“अराध्या?” वह अभी भी हैरान था।
“जी हां अराध्या, प्लीज बैठिये।”
“तुमने हमें फोन किया था?”
“जी हां, तभी तो कहे थे कि यहां पहुंचते ही हमें पहचान जायेंगे आप - वह थोड़ा हंसकर बोली - और देख लीजिए झट पहचान गये।”
जवाब में एक लंबी आह भरता हुआ दरोगा उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया।
“हमसे मिलने आने के लिए थैंक यू पांडे जी - कहकर उसने पूछा - ‘पांडे जी’ ठीक है न, या ‘दरोगा जी’ कहकर संबोधित करे आपको?”
“जो चाहे कहो, चाहो तो नाम लेकर भी बुला सकती हो।”
“पांडे जी ज्यादा बढ़िया लगता है हमें।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी।”
“आप कंफर्टेबल नहीं दिखाई दे रहे?”
“क्योंकि है हीं नहीं, काहे कि बहुत अचंभे में हैं हम, ये सोचकर कि छह महीने पहले अपने भाई की मौत पर रोती चिल्लाती, अतीक के आदमियों से रहम की भीख मांगती, और मारे खौफ के अधमरी हुई जा रही एक लड़की में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी कि उसने गोली चलाकर दो लोगों की जान ले ली।”
“वक्त बहुत कुछ सिखा देता है पांडे जी, खासतौर से बुरा वक्त, वह हाड़ मांस से बने इंसान का कलेजा चट्टान जैसा सख्त बना देता है। फिर उसके जेहन में गहराई तक पैठ बना चुकी खौफ नाम की चीज खुले हुए कपूर की भांति हवा में विलीन हो जाती है। खासतौर से तब जब उसके पास खोने के लिए कुछ न बचा हो।”
“जबकि उस हादसे के बाद हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को बहुत अच्छे से समझाये थे कि जो जा चुका है उसे भूलकर, जो बचा हुआ है उसकी फिक्र करो। और खोने के लिए क्या नहीं है तुम्हारे पास? मां-बाप, एक बहन, क्या इतनी वजह काफी नहीं है, जो तुम सिर पर कफन बांधकर अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए निकल पड़ीं। ये तक नहीं सोचा कि अगर अतीक को पता लग गया तो वह तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का नामोनिशान मिटाकर रख देगा।”
“नहीं सोचे, जानते हैं क्यों?”
“क्यों?”
“क्योंकि सब मारे जा चुके हैं।”
“क्या कह रही हो?” पांडे हकबकाकर उसकी शक्ल देखने लगा।
“सच कह रही हूं, अपने परिवार में बस मैं अभागन ही जिंदा बच गयी, काश उस वक्त मैं भी उनके साथ होती तो किस्सा ही खत्म हो गया होता, और इस वक्त आपके सामने बैठी मैं उस घटना को याद कर के दुःखी नहीं हो रही होती।”
“अतीक ने किया?”
“उसी के इशारे पर किया गया।”
“कमाल है, हमें उस बात की कोई जानकारी क्यों नहीं है?”
“क्योंकि जो हुआ वह लखनऊ में हुआ था।”
“कब की बात है?”
“भाई की मौत के पंद्रह दिन बाद की, अफसोस तो इस बात का है कि हमारी वजह से हमारे मामा मामी और उनकी एक बेटी भी मारी गयी, जिनका कसूर बस इतना था कि उस वक्त मां, बाबूजी और पिंकी उनके घर पर थे।”
“मुझे पूरी बात बताओ प्लीज।”
“लंबी कहानी है।”
“तो भी बताओ, फिर वक्त की क्या कमी है।”
“उस रात जब आप हमारे घर से चले गये, तो उसके थोड़ी देर बाद आपके समझाये मुताबिक बाबूजी सड़क पर पड़ी भईया की लाश के पास पहुंचे और वहीं से पुलिस को फोन कर दिया, फिर अगला फोन हमें किया और सब लोग वहां जा खड़े हुए। बाबूजी की कॉल पर चार सिपाहियों के साथ दरोगा मुंशीचंद वहां पहुंचे और लाश का निरीक्षण करने के बाद, बाबूजी से मामले की जानकारी ली तो उन्होंने कुछ भी जानता होने से इंकार कर दिया, मगर जाने कैसे वह सब ताड़ गये।”
“क्या ताड़ गये?”
“यही कि हम लोगों को मालूम था कि भईया का कत्ल किसने किया था।”
“फिर क्या हुआ?”
“उस रात को कुछ नहीं हुआ, पुलिस ने डेडबॉडी को पोस्टमार्टम के लिए भिजवाया और वहां से वापिस चौकी लौट गये। मगर अगले रोज दरोगा जी फिर से बाबूजी से मिले और उन्हें विश्वास में लेकर जानना चाहा कि भईया का कत्ल किसने किया था, ये वादा भी किये कि किसी को उस बात की भनक तक नहीं लगने देंगे।”
“और तुम्हारे पापा ने सब बता दिया, है न?”
“नहीं उन्होंने पुलिस को कुछ नहीं बताया, ये सोचकर भी नहीं बताया कि आकाश भईया की जान लेने वाले तो मारे जा चुके थे, मतलब वह सच बता भी देते तो उससे नया कुछ नहीं हो जाने वाला था। इसलिए आखिर तक वह यही कहते रहे कि उन्हें नहीं पता उनके बेटे की जान किसने ली थी।”
“तो मुंशीचंद को असल बात की जानकारी कैसे हो गयी?”
“उन्हें जब पता लगा कि कत्ल वाले रोज भईया हमें लेकर एग्जॉम दिलाने गोरखपुर गये थे तो वह इंक्वायरी किये, जाकर हमारे मौसा मौसी से मिले, जिन्होंने बताया कि उस शाम छह बजे हम दोनों आजमगढ़ के लिए निकल गये थे। उसके बाद पता नहीं कैसे दरोगा जी मालूम कर लिये कि रास्ते में बाईक खराब होने की वजह से आठ बजे तक तो हम जयंतीपुर में ही फंसे रहे थे, जो कि हमारी मौसी के घर से बस पैंतीस किलोमीटर दूर है। मतलब उस मैकेनिक को खोज निकाले जिससे भईया ने मोटरसाईकिल ठीक कराई थी। आगे करीब 76 किलोमीटर का सफर बचता था और रास्ते की हालत आप जानते ही हैं कि अच्छी नहीं है, इसलिए उन्हें यकीन आ गया कि जयंतीपुर से आठ बजे चलकर हम किसी भी हाल में साढ़े नौ तक बलरामपुर नहीं पहुंच सकते थे, बस उसी बात को लपक लिये वह।”
“फिर क्या हुआ?”
“घटना के आठवें दिन रात के वक्त वह हमारे घर पहुंचे और इस बार सीधा हमसे सवाल जवाब करने लगे। और जब हम नहीं कबूले कि हमें सबकुछ पता था, तो कहने लगे कि कत्ल हमने किया है, और पूरा परिवार मिलकर हमें बचाने की कोशिश कर रहा है। फिर गिरफ्तारी की धमकी दिये तो बाबूजी डर गये।”
“यानि उसे सारी सच्चाई बता दी?”
“बताना ही था, मगर इतनी समझदारी जरूर दिखाये कि बीच में आपका नाम नहीं लिया। दरोगा जी को पूरी कहानी सुनाकर कह दिये कि हमें बचाने वाला कौन था वह नहीं जानते थे। हमने भी यही कहा कि वह कोई अंजान आदमी था जो भईया की लाश समेत हमें बलरामपुर पहुंचाकर वापिस लौट गया था। फिर बाबूजी दरोगा से रिक्वेस्ट किये कि बात खुद तक ही सीमित रखें। मुंशीचंद ने भरोसा भी दिलाया कि रखेंगे, लेकिन हमें लगता है कि रख नहीं पाये, वरना अतीक को कैसे पता लग जाता कि उस रात उसके आदमियों के साथ क्या हुआ था।”
“आगे क्या हुआ?”
“उसके पांच दिन बाद एक रोज हमें घर पर ही छोड़कर मां, बाबूजी और पिंकी मामी को देखने लखनऊ चले गये क्योंकि उनकी तबियत कई दिनों से खराब चल रही थी। जाना तो हम भी चाहते थे मगर घर में किसी का होना जरूरी था इसलिए नहीं गये। उस बात की खबर अतीक को कैसे लग गयी हम नहीं जानते, क्योंकि अपने घर पर नजर रखते तो कभी किसी को नहीं देखे हम।”
“लखनऊ में क्या हुआ?”
“अगले रोज रात करीब दस बजे एक दर्जन आदमी हमारे मामा के घर में घुस आये और चाकू घोंपकर उनकी और मामी की हत्या कर दी, जबकि मां, बाबूजी, पिंकी और मामा की लड़की को गाड़ी में डालकर वहां से निकल गये। उनकी लाशें अगले रोज कानपुर में बरामद हुई थीं, जिसकी खबर हमें मामा के लड़के विपुल से मिली। वह पुलिस में सिपाही है और इत्तेफाक से घटना के वक्त ड्यूटी पर था, इसलिए उसकी जान बच गयी। फिर खबर पाकर हम लखनऊ जाकर उससे मिले और कानपुर चलने को कहे तो उसने हमें साथ लेकर जाने से मना कर दिया।”
“क्यों?”
“उसका पता हमें बाद में तब लगा जब उसने वापिस लौटकर बताया कि वहां के थाने में अपनी बहन का नाम वह अराध्या लिखवा आया है। असल में वह समझ गया था कि हमला करने वाले लोग उसकी बहन को ये सोचकर उठा ले गये थे कि वही अराध्या यानि हम थे। इसलिए हमारी सुरक्षा के लिए वह भ्रम बने रहने दिया। और हमसे भी साफ कह दिया कि आगे की जिंदगी छिप छिपाकर ही गुजारनी पड़ेगी क्योंकि अतीक अंसारी से पार पाना असंभव था।”
“जो हुआ वह बहुत बुरा था अराध्या, मुझे अफसोस है कि उतनी दूर की नहीं सोच पाया था मैं, वरना उसी रात तुम्हारे भाई की लाश कहीं ले जाकर जला दी होती।”
“उसमें आपकी कोई गलती नहीं थी पांडे जी, इसलिए अफसोस करने की भी जरूरत नहीं है। वैसे भी उस रात आप हमारी जो मदद किये थे उसे हम पूरी जिंदगी नहीं भूल सकते।”
“फायदा तो कुछ नहीं हुआ।”
“हुआ, तभी तो हम आपके सामने जिंदा बैठे हैं। फिर हमेशा वही नहीं होता जो इंसान सोचता है, काहे कि वक्त और किस्मत पर किसी का भी जोर नहीं चल पाता।”
“बहुत समझदार हो गयी हो।”
“वह भी वक्त की ही देन है - कहकर उसने एक गहरी सांस खींची - खैर लखनऊ से लौटकर हम एक रात छिपते छिपाते अपने घर पहुंचे और वहां रखा कैश, मां के गहने, बाबूजी का एटीएम कार्ड वगैरह लेकर निकल गये। तब से आज तक हम दोबारा अपने घर में कदम कभी नहीं रखे।”
“फिर कहां रहती हो?”
“पहले दो महीना लखनऊ में रहे, लेकिन अब यूनिवर्सिटी के पास एक होस्टल में रहते हैं, काहे कि अतीक को खत्म करना है तो आजगढ़ में रहना जरूरी है।”
“कल रात उसकी हवेली पर कैसे पहुंच गयीं?”
“मैं बहुत दिनों से अतीक अंसारी पर निगाह रख रही थी पांडे जी, मतलब किसी ऐसे मौके की ताक में थी, जब उस कमीने को खत्म कर पाती। फिर जब उसके बाप तौफीक अंसारी की गिरफ्तारी हुई तो हमें लगा कि बदला लेने का वक्त आ चुका है, काहे कि उसकी ताकत कमजोर पड़ गयी है। तब से हर रात अपनी कार में बैठकर मैं उसकी हवेली की निगरानी करती हूं, और दिन में होस्टल जाकर सो जाती हूं। इसीलिए कल रात मैं उस इलाके में मौजूद थी। पहचान भी आपको बहुत पहले गयी थी, बस ये समझ में नहीं आ रहा था कि आप वहां क्यों थे, इसलिए करीब आने की कोशिश नहीं की।”
“गन कहां से मिली, कार कब खरीदी?”
“गाड़ी सेकेंड हैंड खरीदी है, और गन लखनऊ में मामा के लड़के ने किसी चोर से खरीदकर दी थी हमें। मगर उससे पहले हमने एक शूटिंग रेंज जॉयन कर के लगातार गोली चलाने की प्रैक्टिस भी की थी। बल्कि उसके बाद भी कई रातों को विपुल मुझे हाईवे के सुनसान इलाकों में ले जाकर प्रैक्टिस कराता रहा था, ये कहकर कि निशाना लगाना सीख जाना और बात थी, मगर जरूरत पड़ने पर गोली चलाने के लिए हिम्मत चाहिए होती है, जो कि खुले में गोली चलाये बिना नहीं आने वाली थी। फिर इत्तेफाक से उन्हीं दिनों विपुल को लखनऊ पहुंचे अतीक के दो आदमियों की खबर भी लग गयी। हमने उनका पीछा किया और मौका हासिल होते ही खत्म भी कर दिया, और उन दोनों को शूट करने वाले हाथ मेरे ही थे पांडे जी। सच पूछिये तो उसी रात मुझे यकीन आया कि जरूरत पड़ने पर मैं किसी पर भी गोली चला सकती हूं।”
“इतनी प्रैक्टिस के बाद निशाना तो बहुत अच्छा हो गया होगा तुम्हारा, है न?”
“उसका जवाब ये है कि कल रात हम कम से कम भी दस मीटर की दूरी से गोली चलाये थे, जो वहां खड़े दोनों आदमियों को ठीक उसी जगह लगी जहां हम मारना चाहते थे। विपुल कहता भी था कि हम बहुत जल्दी, बहुत अच्छे ढंग से गन हैंडल करना और निशाना लगाना सीख गये थे। अब बस किसी रोज अतीक हमारे निशाने पर आ जाये, उसके बाद जान चली जाये, या हम जेल चले जायें परवाह नहीं होगी पांडे जी।”
“खुद की परवाह न करने वाला बेवकूफ होता है अराध्या।”
“तो समझ लीजिए कि हम बेवकूफ ही हैं।”
“जबकि जरूरत थोड़ा धैर्य बनाकर रखने की है, क्योंकि अतीक अंसारी का चैप्टर बस क्लोज होने ही वाला है। ऐसे में उसे मारने की कोशिश में अपनी जान गंवा बैठना या कत्ल के जुर्म में जेल पहुंच जाना सरासर अहमकाना काम ही होगा, जबकि तुम्हारे आगे अभी पूरी जिंदगी पड़ी है।”
“अतीक का चैप्टर भला कौन क्लोज करेगा पांडे जी, या आपका इशारा अपनी तरफ है?”
“मौका मिलने पर मैं भी कर सकता हूं, लेकिन अभी वह काम एसपी साहब करने जा रहे हैं। इसलिए तुम्हें बस थोड़ा इंतजार करने की जरूरत है।”
“एसपी साहब! आपका मतलब है सुखवंत सिंह?”
“हां, मिली हो क्या कभी?”
“नहीं लेकिन इतना अच्छी तरह से जानते हैं हम कि वह अतीक अंसारी के खिलाफ अपनी उंगली तक नहीं हिलाने वाले।”
“गलत सोच रही हो, पता नहीं तुम्हें खबर है या नहीं लेकिन यहां का चार्ज संभालते के साथ ही उन्होंने अतीक के बाप को उठाकर जेल में डाल दिया।”
“सब नौटंकी है।”
“क्या कह रही हो?”
“मामूली सा चार्ज लगाया गया है तौफीक अंसारी पर, जिसमें कोई लंबी सजा तो नहीं ही होने वाली, उल्टा वह जल्दी ही जमानत पर बाहर भी निकल आयेगा। और नौटंकी इसलिए करनी पड़ी क्योंकि आपके एसपी साहब साबित करना चाहते हैं कि पुलिस सबको एक ही आंख से देख रही है।”
“तुम गलत सोच रही हो, जबकि हमारे पास पक्की इंफॉर्मेशन है कि एसपी साहब को अतीक अंसारी, अमरजीत त्रिपाठी और चंगेज खान का खात्मा करने के लिए ही आजमगढ़ में पोस्टिंग दी गयी है। जिसमें से त्रिपाठी का चैप्टर तो वह क्लोज कर भी चुके हैं।”
“आपके एसपी साहब और अतीक मिले हुए हैं पांडे जी।”
“मैं नहीं मान सकता, सुखवंत सिंह बहुते ईमानदार ऑफिसर हैं।”
“पहले रहे हों तो नहीं कह सकती लेकिन अब नहीं हैं।”
“ऐसा क्या जानती हो तुम उनके बारे में?”
“अपनी आंखों से हम अतीक को उनकी गाड़ी में बैठते देखे थे।”
पांडे हैरानी से लड़की का चेहरा तकने लगा।
“सच कह रहे हैं।”
“कब देखा, कहां देखा?”
“तारीख तो याद नहीं है हमें, लेकिन इतना पता है कि उस मुलाकात के अगले ही रोज सुखवंत सिंह आजमढ़ का चार्ज ले लिये थे।”
“उन्नीस मार्च को लिये थे।”
“तो समझ लीजिए कि हम उन्हें अठारह मार्च को देखे थे।”
“कहां देखा था, पूरी बात बताओ हमें।”
“रोज की तरह उस रात भी हम हवेली पर निगाह रखने के लिए नौ बजे से थोड़ा पहले हॉस्टल से निकल गये थे। मगर जैसे ही हवेली के करीब पहुंचे, अपने आदमियों के साथ अतीक बाहर खड़ी एक स्कॉर्पियो में सवार होता दिखाई दिया। तब हमने कार को यू टर्न दिया और उसके पीछे पीछे चल पड़े। बहुत लंबा सफर था, क्योंकि शहर से निकलकर उनकी गाड़ी हाईवे पर दौड़ने लगी थी। हमने पीछे बने रहने की पूरी कोशिश की, मगर जल्दी ही स्कॉर्पियो हमारी आंखों से ओझल हो गयी। लेकिन हम उम्मीद के खिलाफ उम्मीद करते हुए हाईवे पर आगे बढ़ते रहे।”
“स्कॉर्पियो दिखी दोबारा?”
“हां गुप्तारगंज वाले टर्न पर सड़क के दूसरी तरफ यानि वापिस आजमगढ़ का रुख कर के खड़ी थी, पहचान इसलिए गयी क्योंकि वहां उजाला था और अतीक अपनी गाड़ी से बाहर ही खड़ा था। मैं स्पीड में थी इसलिए वहां का टर्न क्रॉस कर के आगे बढ़ गयी, और कई किलोमीटर जाने के बाद जब वापिस उस जगह पर लौटी तो पाया कि स्कॉर्पियो के करीब ही एक सरकारी गाड़ी खड़ी थी जिसपर हूटर लगा हुआ था। फिर मेरे देखते ही देखते अतीक उस गाड़ी से बाहर निकला और गेट बंद करने के बाद खिड़की के बराबर में झुककर एसपी से कोई बात की, जिसके बाद वह गाड़ी आगे बढ़ गयी।”
“ये कैसे पता कि वह एसपी की ही गाड़ी थी?”
“तब नहीं पता था, लेकिन नंबर हम उसका बराबर नोट कर लिये थे, इसलिए बाद में मालूम पड़ गया कि वह एसपी सुखवंत सिंह की ही गाड़ी थी।”
“आगे क्या हुआ?”
“एसपी के वहां से निकल जाने के बाद अतीक अंसारी और कलंकी स्कॉर्पियो में बैठकर सड़क के दूसरी तरफ पहुंचे और अगले ही पल वह गाड़ी लखनऊ की तरफ चल पड़ी।”
“तुम किधर गयीं?”
“हमारा एसपी साहब से तो कोई लेना देना नहीं था इसलिए स्कॉर्पियो के पीछे लग गये, और इस बार वह हमारी निगाहों से ओझल भी नहीं हुई क्योंकि 90-100 से ज्यादा की स्पीड में नहीं चल रही थी।”
“और उस मुख्तसर सी मुलाकात से तुमने ये अंदाजा लगा लिया कि अतीक अंसारी एसपी साहब को अपनी तरफ करने में कामयाब हो गया था, है न?”
“तो और क्या सोचना चाहिए मुझे?”
“ये सब इतना आसान काम नहीं होता अराध्या, उसमें वक्त लगता है। कई बार तो महीनो का समय लग जाया करता है, ना कि वह कुछ मिनटों की ऑनरोड मुलाकात के जरिये किया जाने वाला काम था।”
“तो फिर खिचड़ी उनके बीच पहले से पक रही होगी, बस डील फाईनल करने के लिए एसपी साहब वहां रुक गये होंगे। वरना बीच रास्ते में गाड़ी रुकवाकर अतीक से मिलने की क्या जरूरत थी उन्हें, वह मुलाकात क्या यहां आजमगढ़ में नहीं हो सकती थी?”
“हो सकती थी।” दरोगा को कबूल करना पड़ा।
“और किसको कितनी देर में शीशे में उतारा जा सकता है पांडे जी उसकी कोई हद मुकर्रर नहीं है। आप सौ रुपये के काम के लिए किसी को एक हजार ऑफर कर दें तो वह एक क्षण भी नहीं लगायेगा हामी भरने में, और अतीक अंसारी के पास भला पैसों की तो क्या कमी होगी।”
“नहीं दौलत तो अथाह है उसके पास, खैर तुम आगे बताओ।”
“मैं उनके पीछे लगी लखनऊ पहुंच गयी, फिर...
“दोनों जीएमके अस्पताल में दाखिल हो गये, है न?”
“हां, आप कैसे जानते हैं?”
“लंबी कहानी है, तुम अपनी बात पूरी करो।”
“अस्पताल पहुंचकर अतीक और कलंकी भीतर चले गये जबकि ड्राईवर गाड़ी के साथ बाहर ही रुका रहा।”
“बस ड्राईवर, बाकी के आदमी कहां गये?”
“कहां गये?” वह हड़बड़ाई।
“यही तो हम तुमसे पूछ रहे हैं।”
“अजीब बात है।”
“इसमें अजीब क्या है?”
“गाड़ी में तो बस ड्राईवर ही दिखाई दिया था हमें।”
“ध्यान से देखा था?”
“नहीं, लेकिन लगा हमें यही था कि ड्राईवर के अलावा स्कॉर्पियो के भीतर और कोई नहीं था।”
“थोड़ा पसरकर बैठ गये होंगे, इसलिए तुम दूर से नहीं देख पाईं उन्हें, वरना रास्ते कहां गायब हो सकते हैं, वह भी तब जबकि तुम लगातार उनके पीछे बनी रही थीं, या स्कॉर्पियो को कहीं और भी रुकते देखा था?”
“नहीं गुप्तारगंज से निकलकर वह सीधा जीएमके हॉस्पिटल के बाहर ही रुकी थी।”
“फिर तो तुमसे देखने में ही कोई भूल हो गयी होगी।”
“हो सकता है, वैसे भी जहां उनकी गाड़ी खड़ी थी उस जगह पर थोड़ा अंधेरा था।”
“दोनों के अंदर जाने के बाद क्या हुआ?”
“मैं इंतजार करने लगी, जो कि पूरे पांच घंटों का साबित हुआ, फिर अतीक और कलंकी बाहर निकलकर गाड़ी में सवार हो गये तो एक बार फिर से मैं उनके पीछे लग गयी। मगर कामयाब नहीं पाई, गाड़ी यूं मेरी निगाहों से ओझल हुई कि दोबारा मैं उसके करीब भी नहीं फटक पाई।”
“अस्पताल के सामने गाड़ी से उतरते वक्त क्या तुम्हारी निगाह अतीक के हाथों पर गयी थी? अगर गयी थी तो क्या उसका कोई हाथ तुम्हें घायल दिखाई दिया था?”
“नहीं, वह दोनों हमें पहचानते तो थे नहीं इसलिए हम धड़ल्ले से गाड़ी से नीचे उतरकर उनके पीछे पीछे अस्पताल में जा घुसे। तभी लॉबी के तेज प्रकाश में मैंने उसकी सूरत देखी दोनों हाथों पर भी निगाह बराबर गयी थी, मगर घायल तो वह कहीं से भी नहीं लग रहा था, हां कोई अंदरूनी चोट लगी हो तो नहीं कह सकती।”
“वह डॉक्टर जिससे अतीक वहां मिलने गया था, कहता है कि उसके हाथ में एक कट लग गया था जिसका ट्रीटमेंट कराने वह अस्पताल पहुंचा था।”
“झूठ बोला था पांडे जी, क्योंकि अतीक एकदम भला चंगा था।”
“डॉक्टर झूठ क्यों बोलेगा?”
“मैं भी झूठ क्यों बोलूंगी?”
“नहीं मैं तुम्हें झूठा नहीं कह रहा, ये सोच रहा हूं कि डॉक्टर के पास झूठ बोलने की क्या वजह रही हो सकती है, ये भी कि अतीक अगर अस्पताल में कोई ट्रीटमेंट कराने नहीं पहुंचा था तो और किसलिए गया था?”
“हम नहीं जानते, क्या पता डॉक्टर से उसे कोई दूसरा काम रहा हो।”
“कौन सा काम?”
“हमें क्या मालूम?”
“कोई अंदाजा ही बता दो।”
“कहीं डॉक्टर ही तो उसे छिपाये नहीं बैठा है?”
“कैसे हो सकता है, जबकि तुम कहती हो कि अतीक और कलंकी तुम्हारे सामने ही वहां से वापिस भी लौट गये थे।”
“हां कहती हूं, लेकिन निकलकर कहां गये ये मुझे नहीं पता, क्या मालूम डॉक्टर ने उसे कोई ठिकाना सुझा दिया हो, क्योंकि उस रात के बाद अतीक ने अपनी हवेली में कदम तो नहीं ही रखा है।”
“तुम ये कहना चाहती हो कि डॉक्टर ने उसे अपने घर में छिपा रखा है?”
“या वक्ती तौर पर घर भेज दिया था और बाद में किसी बहाने उसे नये नाम से अस्पताल में एडमिट कर लिया होगा। सोचकर देखिये पांडे जी कि उसके लिए किसी हॉस्पिटल से ज्यादा सेफ जगह और क्या हो सकती है?”
“नहीं छिपने के लिहाज से किसी अस्पताल को सेफ नहीं माना जा सकता। मत भूलो कि अतीक कोई मामूली आदमी नहीं है, हर तरफ लोग उसे जानते पहचानते हैं, इसलिए वहां एडमिट होने में बहुत बड़ा रिस्क था।”
“जबकि हमें तो रिस्क जैसी कोई बात दिखाई ही नहीं दे रही। ऐसे किसी शख्स के चेहरे पर बस ढेर सारी पट्टियां लपेट दीजिए, और उसकी पहचान गायब, मतलब उसके बाद कुछ करने की जरूरत ही नहीं रह जायेगी। अब पुलिस अस्पताल पहुंचकर एक एक पेशेंट की पट्टी तो हटाने से रही। बल्कि हॉस्पिटल स्टॉफ ही उन्हें वैसा कुछ करने से रोक देगा।”
पांडे सोच में पड़ गया।
“वैसे ये जान लेना कोई बड़ी बात नहीं होगी कि अतीक के गायब होने में डॉक्टर का कोई हाथ है या नहीं।”
“कैसे?”
“चलकर उठा लेते हैं साले को।”
“लो तुम तो गाली देना भी सीख गयीं।” दरोगा थोड़ा हंसकर बोला।
“अब गुंडी बन गये हैं तो गाली के बिना कैसे गुजारा होगा पांडे जी?”
“और तुमने जो बीएड का इंट्रेंस दिया था उसका क्या हुआ?”
“पास हो गये हम, काहे कि बचपन से ही मेधावी रहे हैं। गर्वनमेंट कॉलेज भी मिल गया है आगे की पढ़ाई के लिए, मगर अब उन बातों से क्या लेना देना, जबकि जिंदगी का ही कोई भरोसा नहीं है।”
“अतीक जैसे आदमी को खत्म करना तुम्हारा काम नहीं है अराध्या।”
“अब तो हमारा ही है - लड़की की आंखों में खून उतर आया - जब तक उस कमीने के सीने में गोली नहीं दाग देते, हमारे कलेजे को ठंडक नहीं पहुंचेगी।”
“तुम्हें उसकी मौत से मतलब है न, तो वेट करो, मैं कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगा, क्योंकि मेरा और मेरे परिवार की जिंदगी का दारोमदार भी उसकी मौत पर ही टिका हुआ है।”
“अगर ऐसा समझते हैं तो एक से भले दो, यकीन जानिये हम आपके बहुत काम आयेंगे, वैसे भी अब हम पहले वाली अराध्या नहीं रह गये हैं जो चार लोगों को अपनी तरफ बढ़ता देखकर उनके पांव पकड़ ले, उल्टा ऐसे मादर... के पिछवाड़े में बुलेट गाड़ देंगे हम।”
“तुम पागल हो गयी हो, तुम सच में पागल हो गयी हो। बदले की भावना ने तुम्हारे अंदर मौजूद लड़कियों वाली संवेदनशीलता को पूरी तरह खत्म कर के रख दिया है।”
“हां खत्म कर दिया है, लेकिन हम जानबूझकर तो हथियार नहीं उठाये न? बिना वजह अतीक के छह आदमियों की जान नहीं ले लिये न? और वजह भी उसी ने पैदा की थी न, ना कि हम किये हैं।”
“तुमने उसके छह आदमी मार दिये?” पांडे हकबकाया।
“दो को तो कल रात आपकी आंखों के सामने ही मारे थे, बाकी चारों एक जगह जाम टकराते मिल गये तो खत्म कर दिये सालों को, ये सोचकर कि दुश्मन की सेना में जितने कम लोग होंगे, हमारा काम उतना ही आसान हो जायेगा। कहने का मतलब ये है कि अगर सच में हमारा भला चाहते हैं तो किसी तरह ले चलकर अतीक के सामने खड़ा कर दीजिए, फिर हम उसे गोली मारकर सारा फसाद एक ही झटके में खत्म कर देंगे। वादा करते हैं कि उसके बाद कभी कोई गलत काम नहीं करेंगे।”
“अतीक को खत्म करना तुम्हें आसान लगता है?”
“सामने होगा तो आसान ही होगा, गन से निकली गोली को कोई खौफ थोड़े ही होता है जो अतीक अंसारी को सामने देखकर अपना रास्ता बदल देगी।”
उसी वक्त एक वेटर, जो बहुत देर से उनकी तरफ से कुछ मंगाये जाने का इंतजार कर रहा था, सिर पर आकर खड़ा हो गया, “आप कुछ ऑर्डर करना चाहेंगे सर, मैडम?”
“नाश्ते में क्या मिलेगा?” अराध्या ने पूछा।
“सबकुछ मिलेगा, आपको क्या चाहिए?”
“जाकर बाल्टी भर खून ले आओ।”
“क्या कह रही हैं आप?” वह सकपका सा गया।
“नहीं ला सकते न, फिर क्यों कह रहे हो कि सबकुछ मिलेगा, साफ साफ हमारी बात का जवाब काहे नहीं देते?”
“परांठे, छोले भटूरे, सांभर डोसा, इडली...
“दो प्लेट छोले भटूरे ले आओ - कहकर उसने पांडे की तरफ देखा - या आप कुछ और लेंगे?”
“नहीं ठीक है, बस साथ में एक कप चाय ले आना।”
“कॉफी मिलेगी सर।”
“वही ले आ भाई।”
वेटर चला गया।
“तो क्या कहते हैं?”
“किस बारे में?”
“लखनऊ चलने के बारे में?”
“वहां क्या धरा है?”
“चलकर डॉक्टर साहब को पकड़ते हैं, फिर क्या पता अतीक का ठिकाना मालूम पड़ जाये, जहां वह या तो अकेला रह रहा होगा, या बस एक दो आदमी होंगे, जिन्हें अतीक के साथ ही निबटा देंगे।”
“तुम तो एकदम बदल गयी हो अराध्या।”
“कितनी बार कहेंगे ये बात?”
“तब तक जब तक मुझे यकीन नहीं आ जाता कि तुम वही अराध्या हो जो हाईवे पर अतीक के चार आदमियों की गिरफ्त में फंसी जार जार होकर आंसू बहा रही थी। छोड़ देने की मिन्नतें कर रही थीं, भला इतनी जल्दी किसी के भीतर इतना बड़ा बदलाव कैसे आ सकता है?”
“वो क्या है न दरोगा जी कि हाईवे वाला हादसा हमारी लाईफ का फर्स्ट एक्सीपीरिएंस था, माने उससे पहले किसी ने हमारे साथ वैसा कुछ करने की कोशिश नहीं की थी। बड़े ही सुकून की जिंदगी जी रहे थे हम, इसलिए डर गये, अपनी जान की भीख मांगने लगे। मगर आगे अतीक अंसारी ने हमें इतना बड़ा दर्द दिया कि अब किसी बात से तकलीफ महसूस नहीं होती, अब तो हम खामख्वाह भी दो चार लोगों की जान ले सकते हैं। साली जिंदगी में जब कुछ बचा ही नहीं है तो एक अपनी जान की फिक्र क्या करना। इसलिए हम बदल गये, और बदले को अपना मकसद बना लिये।”
“छह महीनों में कोई इतना कैसे बदल सकता है अराध्या?”
“छह नहीं साढ़े पांच कहिये। हम तब बदले जब हमारे परिवार को खत्म कर दिया गया। अब भले ही कोई हमें गोली मार दे, हमारे जिस्म के पुर्जे पुर्जे कर दे, चाहे हमारा रेप करने में ही क्यों न कामयाब हो जाये, मगर डरा नहीं सकता हमें, अतीक अंसारी तो हरगिज भी नहीं। मतलब आजमगढ़ में या तो वह जिंदा बचेगा या हम बचेंगे, आप साथ दें या न दें।”
“उसके अलावा और कोई तो नहीं है तुम्हारे निशाने पर?”
“दरोगा मुंशीचंद, मगर उन्हें खत्म करने से पहले हम ये जानेंगे कि हमारी बर्बादी में उनका कोई हाथ सच में था या नहीं, हालांकि लगता यही है कि था। वरना अतीक को कैसे पता लगता कि उसके आदमियों की जान क्यों गयी थी?”
“अगर ऐसा है तो क्यों न पहले यही क्लियर कर लिया जाये कि पूरे मामले में मुंशीचंद का क्या रोल था, फिर क्या पता उसी से कोई ऐसी जानकारी मिल जाये जिससे अतीक तक पहुंचना आसान हो जाये।”
“आपको लगता है अतीक किसी को बताकर अंडरग्राउंड हुआ होगा?”
“नहीं, बड़ी हद मैं ये मान सकता हूं कि कलंकी को उस बात की खबर हो सकती है।”
“अगर ऐसा है तो कलंकी पर ही धावा क्यों न बोल दिया जाये, वह मर गया तो अतीक की आधी ताकत वैसे ही खत्म हो जायेगी।”
“असल में मुंशीचंद के जरिये मैं वही करने की सोच रहा हूं।”
“कैसे?”
जवाब में पांडे धीरे धीरे उसे सब समझाता चला गया।
इंस्पेक्टर दिनेश राय ने एसपी सुखवंत सिंह के कमरे में दाखिल होकर उसे सेल्यूट किया फिर इजाजत पाकर उसके सामने बैठता हुआ बोला, “चंगेज खान के बारे में एक खबर मिली है सर।”
“क्या?”
“उसके मोबाईल की लोकेशन देवरिया रोड की मिली है। उससे पहले गोरखपुर बस अड्डे की थी। मोबाईल ऑन भी गोरखपुर में ही किया गया था, जिसका पता तुरंत इसलिए नहीं लग पाया क्योंकि वाई फाई के कनैक्शन में कोई डिस्टर्बेंस आ गया था।”
“अभी भी मूव हो रही है?”
“मोबाईल बंद किया जा चुका है सर, लेकिन जिस रास्ते पर वह जाता दिखाई दिया है, वह चौरा चौरी होकर गुजरता है, जहां चंगेज खान की एक बर्तन बनाने वाली फैक्ट्री है। इसलिए हमें लग रहा है कि वह पक्का अपनी फैक्ट्री पर ही जा रहा होगा।”
“और अतीक अंसारी की लोकेशन?”
“उसका रेग्युलर नंबर लगातार स्विच ऑफ जा रहा है सर इसलिए ज्यादा उम्मीद इसी बात की है कि कोई दूसरा नंबर इस्तेमाल कर रहा है जिसकी हमें कोई जानकारी नहीं है।”
“चेक नहीं कराया?”
“करा लिया सर, उसके खुद के नाम पर दूसरा कोई सिम रजिस्टर नहीं है, इसलिए अगर किसी नंबर पर अवेलेबल है भी तो वह जरूर किसी फर्जी नाम से ही लिया गया होगा।”
“गोरखपुर पुलिस को चंगेज के बारे में अगाह किया या नहीं?”
“कर दिया है सर, और चौबे तथा यादव की टीम को चौरी चौरा स्थित चंगेज की फैक्ट्री पहुंचने को भी बोल दिया है, क्योंकि वहां से उन लोगों की लोकेशन महज तीस किलोमीटर की दूरी पर थी। अब अगर खान सच में अपनी फैक्ट्री पर ही जा रहा है तो समझ लीजिए आज उसका अंत निश्चित है, लेकिन ऑनरोड बना रहा तो पकड़ना मुश्किल होगा, क्योंकि हमारी टीम उससे तीस किलोमीटर पीछे है, हां लोकल पुलिस को इत्तिला कर सकते हैं लेकिन रिजल्ट हमारे हक में रहेगा इसकी गारंटी नहीं की जा सकती। अब आप बताईये कि क्या करना है, चौरी चौरा पुलिस को इंफॉर्म करें या न करें?”
“उनसे हमें कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए रहने दो।”
“जैसा आप कहें सर।”
“और भागने दो चंगेज खान को, देखें कहां तक भाग पाता है।”
“एक खबर अतीक के बारे में भी हाथ लगी है सर।”
“क्या?”
“उसका एक चचेरा भाई है अनवर अंसारी जो लालगंज से एमएलए है। वैसे तो अतीक के धंधे से उसका कोई लेना देना नहीं है, ना ही दोनों भाईयों में कोई ज्यादा मेल जोल है, लेकिन सुना है कि अतीक कभी कभार अपनी भतीजी शबाना से मिलने वहां चला जाया करता था।”
“तुम्हें लगता है भतीजी को मालूम हो सकता है कि अतीक कहां है?”
“नहीं सर।”
“फिर?”
“आज शबाना का निकाह है इसलिए मैं सोच रहा था कि क्या अतीक वहां पहुंचने की कोशिश कर सकता है।”
“कर सकता है या नहीं वह बाद की बात है, मगर इतनी बड़ी जानकारी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते, इसलिए हाजिरी बराबर भरेंगे। मगर पुलिस बनकर नहीं बल्कि मेहमान बनकर।”
“हम समझे नहीं सर?”
“भई शादी ब्याह के मौके पर सैकड़ों लोगों के बीच कुछ खास मेहमानों की अलग से शिनाख्त थोड़े ही की जा सकती है।”
“आपका मतलब है हम मेहमान बनकर वहां पहुंचेंगे?”
“हां यही मतलब है, फिर अतीक आ गया वाह-वाह, वरना मुफ्त की दावत उड़ाकर वापिस लौट आयेंगे।”
“सबके लिए खास कपड़ों का इंतजाम करना पड़ेगा सर।”
“फटाफट करो, अतीक मिल गया तो एक ही झटके में वसूली हो जायेगी। मगर ज्यादा भीड़ भी नहीं लगानी है, तुम और मिश्रा चार सिपाहियों को साथ लेकर चले जाना, और शेरवानी पहनकर जाना, थोड़ा इत्र वित्र भी छिड़क लेना, समझ गये?”
“आप नहीं चलेंगे?”
“नहीं क्योंकि मैं अपने बड़े बालों को चाहकर भी नहीं छिपा सकता, और उसके बिना वहां खप नहीं पाऊंगा। लेकिन तुम लोगों पर कोई शक नहीं करेगा। हां रहूंगा तुम्हारे आस-पास ही, फिर जैसे ही अतीक वहां पहुंचेगा, ये भूलकर कि जश्न का माहौल है, हम उसे अपनी गिरफ्त में ले लेंगे। इसके विपरीत अगर उसने भागने की कोशिश की तो एक तरह से अच्छा ही होगा, हम हाथ के हाथ वहीं उसका निबटारा कर देंगे।”
तभी एसपी का असिस्टेंट अभिमन्यु इजाजत लेकर भीतर दाखिल हुआ और एक कार्ड टेबल पर रखकर बाहर निकल गया। सुखवंत सिंह ने उसे खोलकर देखा तो बेध्यानी में ही उसके होंठों पर मुस्कान खिल उठी।
“लो सारी प्रॉब्लम ही सॉल्व हो गयी।”
“मैं समझा नहीं सर?”
“शादी का ये कार्ड अनवर अंसारी की तरफ से भेजा गया है हमें। मतलब अब मुझे बाहर कहीं रुककर तुम लोगों की कॉल का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐन उसी वजह से मुझे यकीन आ गया है कि अतीक वहां कदम भी नहीं रखने वाला। उसको आना होता तो अनवर अंसारी ने मुझे दावतनामा नहीं भेजा होता।”
“उन्हें इस बात की गारंटी थोड़े ही होगी सर कि आप उनका निमंत्रण कबूल कर ही लेंगे? हमारे शहर में तो रिवाज है ऐसे मौकों पर बड़े बड़े लोगों को निमंत्रित करने का, इत्तेफाक से कोई पहुंच जाता है तो मेजबान की इज्जत बढ़ जाती है, नहीं पहुंचता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दूसरों को ये बात मालूम नहीं होती कि किसे किसे निमंत्रण भेजा गया था।”
“बड़ा आदमी और मैं?”
“आप हैं सर, जिले के मालिक हैं आप।”
सुनकर सुखवंत सिंह जोर से हंस पड़ा, फिर बोला, “ठीक है फिर ये बड़ा आदमी अनवर अंसारी का निमंत्रण कबूल किये लेता है, लेकिन तुम लोग वहां अपनी पहचान छिपाकर ही पहुंचोगे।”
“ठीक है सर, तैयारी शुरू कर देते हैं।”
कहकर वह उठा और एसपी को सेल्यूट कर के बाहर निकल गया।
एसआई महंथ चौबे और मनीष यादव चंगेज की लोकेशन के बारे में सूचना मिलते ही अपनी टीम के साथ चौरी चौरा की तरफ रवाना हो गये। दोनों ही गाड़ियों की ड्राईविंग सीट पर ऐसे सिपाहियों को बैठाया गया था जो गाड़ी को उड़ा ले जाना जानते थे। यही वजह रही कि सड़क पर जगह-जगह गड्ढे होने के बावजूद दोनों गाड़ियां पचास साठ की रफ्तार से दौड़ी जा रही थीं।
समस्या बस ये थी कि वे लोग चंगेज से बहुत पीछे थे। ऐसे में वह अपनी फैक्ट्री पहुंचकर वहां से निकल भी जाता तो कोई बड़ी बात नहीं होती। ऊपर से उन्हें ये तक नहीं मालूम था कि वह किस गाड़ी में सवार था और उसके साथ कितने आदमी थे।
मगर उम्मीद के खिलाफ उम्मीद जारी थी।
करीब एक घंटे के सफर के बाद जब चौरी चौरा बामुश्किल बीस किलोमीटर दूर रह गया, तो सामने से तेज गति से चली आ रही एक आईटेन पर यादव की निगाहें ठिठककर रह गयीं।
कार का नंबर उसे कुछ जाना पहचाना लगा तो उसने अपनी पॉकेट डायरी को चेक करना शुरू किया, जिसमें एक दर्जन गाड़ियों के नंबर नोट कर रखे थे। वो सब ऐसी गाड़ियां थीं जिन्हें छावारा में अपनी जांच पड़ताल के दौरान उसने चंगेज के आदमियों के कब्जे में देखा था, या उसकी बनारसी साड़ी की फैक्ट्री के बाहर खड़ी दिखाई दी थीं
इधर आईटेन ने उसकी जीप को क्रॉस किया उधर यादव को वह नंबर अपनी डायरी में दिखाई दे गया।
“गाड़ी रोक।” वह चिल्लाकर बोला।
सिपाही ने तुरंत ब्रेक लगा दिया, तब वह छलांग मार कर नीचे उतरा और पलट कर विपरीत दिशा में बढ़ी जा गरी आईटेन पर निशाना साधकर ताबड़तोड़ दो फायर कर दिये।
गाड़ी के पिछले दोनों पहिये बैठ गये। वह थोड़ी लहराई फिर जहां की तहां स्थिर हो गयी। यादव पूरी ताकत से उसकी तरफ दौड़ा। चौबे उसके पीछे हो लिया और सिपाही भी फौरन जीप से नीचे कूद गये।
दस सेकेंड के भीतर आईटेन को चारों तरफ से घेर लिया गया।
अंदर बस ड्राईवर ही मौजूद था, जो हड़बड़ाया हुआ सा किसी के कहे बिना ही दोनों हाथ ऊपर उठाकर गाड़ी से बाहर निकल आया। यादव ने आगे बढ़कर उसकी तलाशी ली तो कमर में खुंसा एक देशी कट्टा और जेब से मोबाईल फोन बरामद हो गया।
बस उसके अलावा और कुछ नहीं था उसके पास, बटुआ तक नहीं जो अमूमन हर इंसान के पास होता ही होता है।
“नाम बोल अपना।”
“मनसुख गुप्ता।”
“चंगेज कहां है मनसुख?”
“हमें नहीं मालूम सर।”
यादव ने जोर की एक लात उसके पेट में जमा दी। मनसुख उछलकर कई फीट पीछे जा गिरा, तब यादव ने आगे बढ़कर अपने बूट की ठोकर उसकी पसलियों में जमा दी।
“चंगेज कहां है मादर..?”
“हम नहीं जानते सर।”
“चल यही बता कि तू आ कहां से रहा है?”
“फैक्ट्री गये थे सर।”
“गाड़ी की तलाशी लो।”
सुनकर दो सिपाही तुरंत उस काम में लग गये, मगर बरामद बस एक आईफोन हुआ जो कि ग्लब बॉक्स में रखा हुआ था। वह चमचमाता हुआ एकदम नया मॉडल था। जिसकी अहमियत सिपाहियों के तो पल्ले नहीं पड़ी, मगर यादव और चौबे फौरन समझ गये कि वह मोबाईल मनसुख का नहीं हो सकता था, भला एक साथ दो मोबाईल लेकर चलने की उसे क्या जरूरत थी, ऊपर से नया नकोर आईफोन जो उसकी औकात से मैच नहीं करता था।
फोन स्विच ऑफ था जिसे यादव ने ऑन किया तो फौरन उनकी समझ में आ गया कि असल में वह आईफोन चंगेज खान का था। मालिक का फोन नौकर के पजेशन में! पलक झपकते ही सारा माजरा उनकी समझ में आ गया।
उसके बाद मनसुख गुप्ता की पुलिसिया खातिरदारी शुरू कर दी गयी, वह सिलसिला मिनट भर भी नहीं चला होगा कि लड़का पनाह मांग गया और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता हुआ रहम की भीख मांगने लगा।
“छोड़ देंगे तुम्हें, बस इतना बता दो कि चंगेज का मोबाईल तुम्हारे पास क्यों है?”
“अशरफ भईया दिये थे हमको।”
“झूठ बोलेगा मादर...तो अबहियें गोली मार देंगे।”
“हम सच कह रहे हैं सर।”
“किसलिए दिया था?”
“बोले थे कि गोरखपुर बस अड्डे के पास इसे ऑन करके हम तुरंत चौरी चौरा के लिए निकल जायें और ठीक बीस मिनट बाद मोबाईल ऑफ कर दें।”
“यानि फैक्ट्री से नहीं आ रहे तुम?”
“वहीं से रहे हैं सर।”
“चंगेज है वहां?”
“नहीं सर।”
“फिर कौन है?”
मनसुख चुप्पी मार गया।
“भोस...के जिंदा रहना चाहते हो तो जवाब देते जाओ, वरना इहें एनकाउंटर कर देंगे तुम्हारा, बोलो फैक्ट्री में इस वक्त कौन कौन है?”
“बहुते लोग हैं।”
“कितने लोग?”
“पचास से तो ज्यादा ही होंगे।”
सुनकर चौबे और यादव सकपका से गये।
“हम वहां काम करने वाले लोगों के बारे में नहीं पूछ रहे।”
“नहीं सर, कामगारों को तो आज की छुट्टी दे दी गयी है।”
“तो फिर और कौन है?”
“पता नहीं, सबको भईया ही वहां भेजे हैं।”
“किसलिए?”
“अ..एसपी साहब को खत्म करने के लिए।”
“एसपी साहब वहां क्यों जाने लगे?”
“हम नहीं मालूम लेकिन चंगेज भईया को अशरफ भईया से कहते सुने थे कि उनका सुराग लगते ही एसपी दौड़े दौड़े फैक्ट्री पहुंच जायेंगे, जैसे त्रिपाठी के मामले में किये थे।”
“बढ़िया अब इसी तरह इतना और बता दो कि तुम्हारे चंगेज भईया और अशरफ इस वक्त कहां हैं?”
“ग...गोरखपुर में।”
“उहां कहां?”
“एडी मॉल के ठीक पीछे वाली गली में एक दो मंजिला मकान है, अशरफ भईया हमें उहें बुलाकर मोबाईल सौंपे थे, अब कहीं और चले गये हों तो हम नहीं कह सकते।”
“घर की कोई पहचान बताओ, ऐसे कैसे खोजेंगे?”
“दरवाजे के ऊपर हनुमान जी की फोटो लगी है। और नीचे से ऊपर तक ऐसी टाईलें लगी हुई हैं जिनपर राधे राधे लिखा हुआ है। वैसा मकान उधर दूसरा कोई नहीं है।”
“बहुत बढ़िया मकान है, मतलब कोई सोच भी न सके कि चंगेज खान किसी ऐसे घर में छिपा बैठा होगा जहां दरवाजे पर हनुमान जी की फोटो लगी हो, राधे राधे लिखीं टाईल्स लगी हों।”
मनसुख खामोश बना रहा।
“वहां कितने आदमी हैं?”
“चंगेज भईया और अशरफ भईया को छोड़कर बस एक नौकर है।”
“ऐसा ही उसका कोई और ठिकाना?”
“बलिया में है सर, सुना है उधर के थानेदार साहब से चंगेज भईया की बहुत अच्छी निभती है, इसलिए जबकि भी बलिया जाते हैं उन्हीं के मकान में ठहरते हैं।”
“मकान का अता-पता?”
“स्टेशन के ठीक पीछे है, इसके अलावा हम कुछ नहीं जानते।”
यादव ने दोनों बातें अपनी पॉकेट डायरी में नोट कर लीं, फिर चौबे की तरफ देखकर बोला, “बाल बाल बचे हम।”
“ठीक कहते हो भाई - वह गहरी सांस लेकर बोला - पचास हथियारबंद आदमियों का मुकाबला तो हमारे लिए किसी भी हाल में संभव नहीं था। तब तो हरगिज भी नहीं जब हमें हमले की कोई उम्मीद न हो, और दुश्मन घात लगाकर बैठा हो। मतलब हम लोगों में से आधों को तो वे लोग पोजिशन लेने से पहले ही खत्म कर चुके होते।”
“अब क्या करें?”
“साहब को फोन लगाओ, देखो क्या कहते हैं।”
“और कहीं हुक्म दे दिये कि जाकर सबको मार गिराओ तो?”
“तो ऐसी की तैसी उनके हुक्म की, हम क्या सुपरमैन हैं?”
जवाब में यादव ने जोर का ठहाका लगाया फिर एसपी को कॉल कर के सारी कथा कह सुनाई। आगे लाईन पर बहुत देर तक सन्नाटा पसरा रहा, फिर सुखवंत सिंह की आवाज उसके कानों में पड़ी, “पचास आदमियों का मुकाबला करने के लिए तुम लोगों की संख्या नाकाफी है मनीष यादव इसलिए उनका पीछा छोड़ो और तुरंत गोरखपुर के लिए निकल जाओ।”
“यस सर - कहकर उसने पूछा - मनसुख का क्या करना है?”
“जगह कैसी है वह?”
“दूर दूर तक खेत खलिहान हैं सर।”
“फिर हमसे क्यों पूछ रहे हो?” कहकर एसपी ने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
अगले ही पल यादव ने मनसुख के कट्टे से ही उसे गोली मार दी, फिर सिपाहियों को आदेश दिया कि लाश को ले जाकर खेत में डाल दें।
“क्या बोले साहब?” चौबे ने पूछा।
“यही कि हमें गोरखपुर के लिए निकलना है।”
“चलो चलते हैं फिर।”
तत्पश्चात सब लोग दोनों गाड़ियों में सवार हो गये।
यादव की कॉल कट करने के तुरंत बाद सुखवंत सिंह ने दिनेश राय को अपने ऑफिस में तलब किया, और हासिल जानकारी से उसे अवगत कराने के बाद बोला, “अब तुम बताओ कि हमें उन पचास आदमियों का क्या करना चाहिए?”
“आप बेहतर सोच सकते हैं सर।”
“हम तुमसे पूछ रहे हैं दिनेश।”
“मेरे ख्याल से तो पुलिस बल भेजकर सबको खत्म करवा देना चाहिए, ऐसा मौका बार बार थोड़े ही आता है सर जब पचास अपराधी किसी एक ही जगह पर मौजूद हों।”
“उसमें एक प्रॉब्लम है।”
“क्या सर?”
“पचास को मारने गये हमारे जवानों में से भी कई अपनी जान से हाथ धो बैठेंगे, दर्जनों घायल हो जायेंगे, जबकि मैं वैसा कुछ नहीं होने देना चाहता।”
“और क्या रास्ता है सर?”
“लोहे को लोहा काटता है, ये कहावत सुने हो?”
“जी सुने हैं।”
“यकीन भी करते होगे?”
“जी सर, क्योंकि यही सच है।”
“तो क्यों न इस मामले में भी वही पैंतरा आजमाया जाये।”
“हम समझे नहीं सर।”
“जरा कलंकी को फोन लगाओ।”
दिनेश राय ने तुरंत हुक्म का पालन किया, फिर कॉल कनैक्ट हो गयी तो ये कहकर कि एसपी साहब बात करेंगे, उसने अपना मोबाईल सुखवंत सिंह को थमा दिया।
“नमस्कार सर।”
“नमस्कार।”
“हुक्म कीजिए, क्या एसपी ऑफिस आना है हमें?”
“नहीं।”
“फिर?”
“हम तुमसे एक सौदा करना चाहते हैं।”
“सौदे की बाबत हमारा जवाब अभी भी वही है सर जो पहले था।”
“नहीं इस बार हम तुम्हारे ईमान का सौदा नहीं कर रहे कलंकी।”
“फिर?”
“चौरा चौरी में चंगेज खान की एक फैक्ट्री है।”
“जैसे कोई नई बात बता रहे हैं आप।”
“उस फैक्ट्री में इस वक्त पचास हथियारबंद आदमी मौजूद हैं।”
“सर मुद्दे पर आईये।”
“अब सौदा ये है कि अगर तुम पचास जिंदा आदमियों को मुर्दों में बदल दो तो हम अपनी हिट लिस्ट से अतीक अंसारी का नाम हटाकर वहां अनल सिंह लिख देंगे।”
“आप मजाक कर रहे हैं?” कलंकी का हकबकाया सा स्वर उसके कानों में पड़ा।
“नहीं सौदा कर रहे हैं।”
“बाद में वादे से मुकर गये तो?”
“तो समझ लेना कि हम सिख नहीं हैं।”
“खबर पक्की तो है न?”
“सौ फीसदी पक्की है, मगर वे लोग पूरे दिन वहां नहीं बने रहने वाले।”
“ठीक है आप अनल सिंह का नाम अपनी लिस्ट में नोट करने की तैयारी कर लीजिए एसपी साहब, क्योंकि अतीक भईया के लिए हम पचास तो क्या पचास हजार लाशें भी गिरा सकते हैं।” कहकर दूसरी तरफ से कॉल डिस्कनैक्ट कर दी गयी।
“कैसी रही दिनेश राय?”
“वो तो ठीक ही रही सर लेकिन हम लोग अतीक अंसारी को नजरअंदाज कैसे कर सकते हैं?”
“कौन कहता है कि हम करेंगे?”
“आपने अभी अभी वादा किया है।”
“तो क्या झूठ और फरेब पर बस गुंडे बदमाशों का अधिकार हो गया है, पुलिस झूठ नहीं बोल सकती, या पहले कभी बोला नहीं है।”
“यानि हमारा काम कर चुकने के बाद भी अतीक को उसका कोई फायदा नहीं पहुंचेगा?”
“नहीं, क्योंकि आजमगढ़ में अब बस एक ही गुंडा होगा और वह होंगे हम।”
दिनेश राय भौंचक्का सा उसकी शक्ल देखता रह गया।
एडी मॉल के करीब पुलिस की दोनों गाड़ियां रोक दी गयीं, फिर यादव अकेला उसके पीछे वाली गली में दाखिल हुआ और दोनों तरफ देखता हुआ आगे बढ़ता चला गया। यूं जब वह आधी से ज्यादा गली पार कर गया तो बाईं तरफ को उसे वह मकान दिखाई दिया जिसके दरवाजे के ऊपर हनुमान जी की फोटो लगी हुई थी। असल में वह टाईल्स का ही एक हिस्सा थी, और जैसा कि मनसुख गुप्ता ने बताया था, ऊपर से नीचे तक दीवार पर लगीं टाईल्स पर राधे राधे लिखा था।
उसने गहरी निगाहों से मकान को देखा और ज्यों का त्यों आगे बढ़ता चला गया। फिर गली के आखिरी सिरे पर पहुंचकर उधर से ही बाहर निकला और तेज कदमों से चलता हुआ मॉल के पास खड़ी अपनी टीम के पास पहुंच गया।
“मिला?” चौबे ने पूछा।
“हां मिला, लेकिन इतने लोगों का एक साथ वहां जाना ठीक नहीं होगा, भीड़ देखकर कहीं गली मुहल्ला इकट्ठा हो गया तो हमारा काम मुश्किल हो जायेगा, और ऐन उसी कारण से चंगेज तथा अशरफ को भाग निकलने का मौका हासिल हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।”
“तुम्हें लगता है गली के लोग पुलिस कार्रवाई में विघ्न डालने की कोशिश कर सकते हैं?”
“उन्हें क्या पता होगा कि हम पुलिस हैं, वर्दी थोड़े ही पहन रखी है।”
“तो भी हमें नहीं लगता कि गली के वाशिंदे हमारे लिए प्रॉब्लम खड़ी करने की कोशिश करेंगे, दूसरे के फटे में टांग भला कौन अड़ाता है?”
“हो सकता है कि न अड़ायें लेकिन मकान में बस हम दोनों ही जायेंगे।”
“भीतर ज्यादा लोग हुए तो?”
“कैसे होंगे, जबकि मनसुख ने साफ कहा था कि चंगेज और अशरफ के अलावा बस एक नौकर है घर में, वैसे भी अपने तमाम आदमियों को तो वह फैक्ट्री भेजे हुए है।”
“यार कुछ ठीक नहीं लग रहा, काहे कि बहुते कमीना आदमी है।”
“हम उससे बड़े कमीने हैं काहे कि पुलिस हैं - कहकर वह क्षण भर को रुका फिर फुसफुसाने वाले अंदाज में बोला - समझने की कोशिश करो पंडी जी, अगर भीतर पहुंचकर हम दोनों ने उन्हें मार गिराया तो हर तरफ वाहवाही होगी, एसपी साहब की निगाहों में क्रेडिट बन जायेगा सो अलग। जबकि हमला दस लोगों के साथ मिलकर करेंगे तो हीरो नहीं बन पायेंगे। फिर दो लोगों को संभालना हमारे लिये कौन सा मुश्किल काम है, वह भी तब जबकि उन्हें गिरफ्तार करने की हमारी कोई मर्जी ही नहीं है। मतलब धड़ल्ले से भीतर घुसेंगे और दोनों को खत्म कर के एसपी साहब को खबर कर देंगे कि मार गिराये। साथ में उनके पास जो हथियार होंगे उनसे अंधाधुंध फायरिंग भी कर देंगे, इधर-उधर, हर तरफ ताकि बाद में मुआयना करने वालों को हमारी बहादुरी पर पूरी तरह से यकीन आ जाये।”
चौबे हंसा।
“बीस तीस पचास! मतलब जितना मन होगा उनकी गन से उतनी ही गोलियां दाग देंगे हम, जो कि सिपाही साथ रहे तो कर पाना मुमकिन नहीं हो पायेगा।”
“दिमाग एकदम शैतान का पाये हो यादव।”
“काहे कि हम शैतान ही हैं।” कहकर उसने जोर का ठहाका लगा दिया।
तत्पश्चात दसों सिपाहियों को पांच पांच की संख्या में गली के दोनों सिरों पर जाकर तैनात हो जाने का हुक्म दे दिया गया। ताकि किसी वजह से चंगेज और अशरफ को भाग निकलने का मौका हासिल हो जाता तो वे लोग उन्हें रोक पाते। साथ ही इस बात की भी चेतावनी दे दी गयी कि अगर गोली चलने की आवाज उनके कानों में पड़े तो दौड़कर तुरंत मकान के आस-पास पोजिशन ले लें।
सिपाही चले गये तो पांच मिनट बाद चौबे और यादव टहलते हुए गली में दाखिल हुए और टारगेट मकान के सामने पहुंचकर ठिठक गये। वहां कोई कॉलबेल नहीं लगी हुई थी इसलिए यादव ने दरवाजे पर दस्तक दे दी।
“कौन है?” भीतर से पूछा गया।
“फैक्ट्री से आये हैं।”
“कौन सी फैक्ट्री?”
“अरे चौरी चौरा वाली, और कौन सी?”
दरवाजा खुला, सामने एक नौकर टाईप आदमी खड़ा था जिसने उन दोनों का नख शिख मुआयना किया फिर पूछा, “क्या बात है?”
“बहुते बुरी खबर है यार, चंगेज भईया से कहो कि मनसुख गुप्ता पुलिस की हिरासत में है, और फैक्ट्री में तैनात पचासों आदमी मारे जा चुके हैं। इसलिए उनका यहां बने रहना खतरे से खाली नहीं है, काहे कि मनसुख की जुबान खुलवाने में पुलिस का ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।”
“टेंशन काहे लेते हो, भइया तो कब के जा चुके हैं यहां से।”
“चले गये?” यादव बड़े ही निराश मन से बोला।
“हां मनसुख को इहां से रवाना करने के बाद ही निकल गये थे।”
“बहुत अच्छी खबर सुनाये तुम - प्रत्यक्षतः वह खुशी जाहिर करता हुआ बोला - अब फटाफट भईया को फोन कर के बता भी दो ताकि गलती से वह फैक्ट्री ही न पहुंच जायें, काहे कि उधर का इलाका अब पुलिस छावनी में तब्दील हो चुका है।”
“ठीक है।”
“क्या ठीक है?”
“इंफॉर्म कर देंगे हम।”
“अरे तो हमारे सामने करो न यार, ताकि हमें यकीन आ जाये कि खबर उन तक पहुंच गयी है, वरना बाद में कहीं तुम भूल भुला गये तो भईया उल्टा लटका देंगे हमें।”
“ठीक है अंदर आ जाओ, दरवाजे पर ज्यादा देर खड़े रहना ठीक नहीं होगा।”
दोनों भीतर दाखिल हो गये।
तब नौकर ने दरवाजा बंद किया और वहां रखे एक स्टूल पर मौजूद मोबाईल उठाकर कोई नंबर डॉयल किया ही था कि यादव ने बला की फुर्ती दिखाते हुए उसके हाथ से फोन छीन कर कॉल डिस्कनैक्ट कर दी। उसी वक्त चौबे ने रिवाल्वर निकालकर नौकर पर तान दी।
“क..कौन हो तुम लोग?” वह हकबकाया सा बोला।
“अब पूछा तो क्या पूछा।”
“प...पुलिस?”
“एकदम सही अंदाजा लगाये, चलो नाम बताओ अपना।”
“नौसिखुआ।”
“क्या बकते हो बे?”
“हमारा नाम यही है सर।”
“अच्छा नाम है, ये बताओ कि चंगेज खान यहां से निकलकर कहां गया है?”
“हमें क्या पता सर कि भईया कहां गये हैं, ऊ का अपने नौकर को बताकर जायेंगे? और ये जो आप लोग कर रहे हैं न, ठीक नहीं कर रहे, काहे कि भईया की सौ आंखें हैं, इसलिए हमारी मानिये तो तुरंते यहां से निकल जाइये, वरना कफनो नसीब नहीं होगा।”
सुनकर दोनों ने जोर का ठहाका लगाया, फिर यादव ने उसके डॉयल किये गये नंबर का मिलान अपने पास मौजूद चंगेज के नंबर से किया तो ये देखकर उनका मन खुशी से झूम उठा कि वह कोई दूसरा नंबर था।
जो कि उनके लिए बड़ा हासिल था, मगर मुसीबत ये थी कि नौकर को यूं ही छोड़ देते तो उसने मालिक को उस बारे में बताकर रहना था, जिसके बाद चंगेज ने तुरंत उस दूसरे नंबर से भी पीछा छुड़ा लेना था। इसलिए दोनों पुलिसियों ने उसे अपने साथ ले चलने का फैसला किया।
“दरवाजे को ताला वाला लगाना चाहते हो तो लगा लो बेटा, काहे कि अब तुम कुछ दिनों तक पुलिस की मेहमाननवाजी में रहने वाले हो। हां इतना वादा करते हैं कि चंगेज के पिछवाड़े में गोली दागने के बाद हम तुम्हें आजाद कर देंगे।”
“काहे गरीब आदमी पर जुल्म ढा रहे हैं सर, हमने क्या किया है?”
“चिंता काहे कर रहे हो, तुम्हें गिरफ्तार थोड़े ही कर रहे हैं हम।”
“रहम कीजिए सर, हम तो बस नौकर हैं इहां।”
“सुना नहीं भोस...के - यादव गुर्राया - यहां से चलने को कहे हैं हम तुमसे।”
“क...कुर्ता तो बदल लेने दीजिए साहब।” वह गिड़गिड़ाने वाले अंदाज में बोला।
“काहे अभी जो पहने हो उसमें क्या खराबी है?” चौबे ने पूछा।
“ई एकदम नया है सर।”
“तो?”
“हम नहीं चाहते कि इसपर आप लोगों का खून लगे।”
“का बकते हो ससुर....
आगे के शब्द उसके मुंह में ही रह गये, नौसिखुए ने कब अपनी कमर में खुंसा छुरा बाहर निकाला, कब उसके रिवाल्वर वाले हाथ को पकड़कर खुद से परे किया और कब उसने छुरे को चौबे की गर्दन में घुसेड़ दिया, उन दोनों की समझ में ही नहीं आया। और इससे पहले कि यादव अपनी कमर में पीठ पीछे खुंसी गन निकाल पाता, बला की फुर्ती दिखाते हुए नौसिखुए ने उसे भी ढेर कर दिया।
वाहवाही का तलबगार एसआई यादव खुद तो जान से गया ही अपने साथ चौबे को भी ले गया, जो उसके उस कदम से पहले ही नाइत्तेफाकी जाहिर कर चुका था।
सबकुछ पलक झपकते ही घटित हो गया था। नौसिखुआ बस नाम का ही नौसिखुआ था, असल में वह ऐसा दुर्दांत हत्यारा था जिसे चाकू चलाने में महारत हासिल थी। अशरफ अहमद के बाद चंगेज खान का सबसे वफादार और भरोसेमंद आदमी भी वही था।
दोनों ऑफिसर्स की आंखें खुली पड़ी थीं, और उनमें हैरानी के भाव साफ पढ़े जा सकते थे। जैसे मरते वक्त अपनी मौत का यकीन ही न कर पाये हों। देखा जाये तो जो हुआ उसमें सरासर यादव की ही गलती थी, दोनों वहां दस हथियारबंद सिपाहियों के साथ पहुंचे होते तो नौसिखुआ कितना भी करामाती क्यों न होता उसका मारा जाना तय था। फिर चंगेज और अशरफ का भी पुलिस के हत्थे चढ़ जाना तय था क्योंकि दोनों उस वक्त उसी मकान में थे।
लाशों को वहीं पड़ी छोड़कर नौसिखुआ पहली मंजिल पर पहुंचा और वहां के चार दरवाजों में से एक पर हौले से दस्तक दे दी।
“आ जा, खुला है।”
भीतर चंगेज और उसका दाहिना हाथ अशरफ बैठे हुए थे।
नौसिखुए ने जल्दी जल्दी उन्हें पूरी गाथा कह सुनाई। सुनकर दोनों एकदम से हक्के बक्के रह गये, फिर चंगेज खान बोला, “कमाल है, पुलिस यहां तक पहुंच गयी, जबकि हम सोचे थे कि लोकेशन देखकर भरम में पड़ जायेंगे, और चौरी चौरा पहुंचकर एसपी अपनी और अपने आदमियों की कब्र खुदवा लेगा।”
“यहां के बारे में कोई नहीं जानता था भईया।” अशरफ बोला।
“तभी तो उन दोनों कमीनों की ये बात सच लग रही है कि हमारे सारे आदमी मारे जा चुके हैं और मनसुख पुलिस हिरासत में है, क्योंकि आज की तारीख में बस वही जानता था कि हम कहां हैं - फिर उसने नौसिखुए की तरफ देखा - बस दो ही थे या बाहर और भी हैं?”
“घर के सामने तो कोई नहीं था भईया, कहीं छिप छिपाकर बैठे हों तो हम नहीं बता सकते।”
“देखकर आ।”
सुनकर वह कमरे से निकला और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
“एसपी को खत्म करना अब बहुत जरूरी हो गया है अशरफ।”
“आप हुक्म कीजिए फिर उसका कोई इंतजाम सोचते हैं हम।”
“ऐसे करना होगा कि इल्जाम अतीक पर आये ना कि हमपर।”
“ये कैसे पॉसिबल होगा भईया?”
“होगा, सबसे पहले हम अतीक के किसी आदमी को उठायेंगे, उसके बाद एसपी को खत्म कर के उस आदमी की लाश वहीं छोड़ देंगे, मगर गोली उसे एसपी की गन से मारनी होगी, ताकि बाद में सबको यही लगे कि अतीक अंसारी के आदमियों ने एसपी पर हमला किया, जिसमें एक आदमी एसीपी के हाथों मारा गया जबकि बाकी के सब उसका कत्ल कर के वहां से फरार हो गये। देख लेना हर कोई यही सोचेगा, फिर अतीक की खैर नहीं होगी क्योंकि पूरा पुलिस डिपार्टमेंट उसके पीछे होगा।”
“एसपी ऑफिस में उसे खत्म कर पाना तो मुश्किल होगा।”
“ठीक कहा, वहां नहीं कर सकते। ससुरा बहुते चालाक है, तभी तो सारा स्टॉफ बदल दिया। जिनमें से दो तो हमारी ही तरफ थे, बाकी भले ही अतीक की तरफ रहे हों।”
“और कहां मारेंगे उसे?”
“पहले उसकी रुटीन के बारे में पता लगवाओ फिर देखेंगे। और कोई दूसरी जगह नहीं सूझी तो एसपी ऑफिस पर धावा बोलना हमारी मजबूरी होगी, काहे कि और कोई रास्ता दिखाई नहीं देता।”
“अगर ऐसा है तो अतीक के आदमी को भी अभी उठाने की क्या जरूरत है भईया?”
“कोई जरूरत नहीं है, उसे तब उठायेंगे जब एसपी के कत्ल की पूरी प्लॉनिंग कर चुके होंगे। वैसे बुराई तो हमारे आज के प्लॉन में भी कोई नहीं थी, पता नहीं कैसे पुलिस को उसकी खबर लग गयी।”
“कहिये तो फैक्ट्री में तैनात किये गये लोगों को कांटेक्ट करने की कोशिश करें, क्या पता उनमें से कोई जिंदा बच गया हो?”
“नहीं, क्योंकि घंटी गलती से तुमने किसी ऐसे आदमी की बजा दी, जो मर चुका हो, या पुलिस हिरासत में हो, तो वे लोग तुरंत तुम्हारी लोकेशन का पता लगा लेंगे, फिर ऐसी घेराबंदी होगी कि निकल पाना संभव नहीं रह जायेगा।”
तभी नौसिखुआ वापिस लौट आया, “गली के दोनों छोरों पर पांच पांच आदमी खड़े हैं भईया, जो पुलिसवाले ही जान पड़ते हैं।”
“खड़े रहने दो सालों को - कहकर उसने पूछा - नीचे का दरवाजा बंद है?”
“जी भईया।”
“खोलकर छत पर पहुंच, आगे कहां जाना है तुझे मालूम ही है।” कहकर वह उठा और अशरफ के साथ सीढ़ियां चढ़कर छत पर पहुंच गया। वहां से मुंडेर फांदकर दोनों बगल की छत पर पहुंचे, फिर अगली छत पर और उसके बाद उससे अगली छत पर। इसी तरह एक के बाद एक छतों से गुजरते हुए आठवीं छत पर पहुंचकर दोनों सीढ़ियों के रास्ते इमारत में दाखिल हो गये।
पुलिस तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि वह पूरी की पूरी गली चंगेज खान की मिल्कियत थी, जिसमें से कुछ मकान खाली पड़े थे, तो कुछ में किरायेदारों का बसेरा था। आठवां घर भी खाली घरों में से ही एक था।
नीचे पहुंचकर अशरफ गेट के पास जाकर खड़ा हो गया। इस इंतजार में कि कभी तो गली के दोनों सिरों पर खड़े पुलिसवालों का धैर्य जवाब दे जायेगा और वे लोग अपने साथियों का हालचाल लेने के लिए उस मकान में जा घुसेंगे, बस उसी वक्त उसने और नौसिखुए ने चंगेज खान के साथ वहां से निकलकर गली के बाहर अपनी गाड़ी तक पहुंच जाना था, जो कि वहां से महज कुछ मीटर की दूरी पर खड़ी थी।
रात आठ बजे सब इंस्पेक्टर मुंशीचंद चौकी से बाहर निकलता दिखाई दिया तो वहां की निगरानी कर रही अराध्या ने अनुराग पांडे के कहने पर अपनी ऑल्टो आगे बढ़ाई और उसकी बाईक के पास ले जाकर खड़ी कर दिया, इस स्थिति में कि कार का पैसेंजर साईड, जिधर पांडे बैठा था मुंशीचंद की तरफ हो गया।
दोनों की निगाहें मिलीं।
“कैसे हो पांडे जी?” मुंशीचंद ने पूछा।
“बढ़िया हैं, तुम अपनी सुनाओ।”
“इधर भी सब ठीके चल रहा है भयवा।”
“तुमसे कुछ बात करनी है।”
“बोलो।”
“यहां नहीं, कार में बैठो थोड़ा दूर जाकर बात करेंगे, उसके बाद तुम्हें वापिस यहीं लाकर छोड़ देंगे।”
“ऐसी कौन सी बात करने वाले हो?” वह हंसता हुआ बोला।
“खास बात जो यहां खड़े खड़े नहीं हो सकती, मगर दस मिनट से ज्यादा का वक्त नहीं लेंगे तुम्हारा।”
“टाईम की कोई बात नहीं है यार, चलो।” कहकर वह कार का पिछला दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुआ तो पांडे भी उसके साथ जाकर बैठ गया।
अराध्या ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
“ये मैडम कौन हैं?”
“वही जिनकी वजह से हम तुमसे बात करना चाहते हैं।”
“कोई केस है क्या इनका हमारी चौकी में?”
“हां है, साढ़े पांच महीने पुराना केस।”
“कुछ बताओ तो समझ में आये।”
“बतायेंगे, कहीं रुककर आराम से बात करते हैं।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी - कहकर उसने पूछा - तुम्हारे बारे में सुने थे हम, बहुते अफसोस भी हुआ था, बस ड्यूटी की व्यस्तता के कारण मिलने नहीं आ पाये।”
“कोई बात नहीं।”
“वैसे तुम्हें अतीक अंसारी से पंगा नहीं लेना चाहिए था।”
“हम भी उस बात पर बहुत पछता रहे हैं भाई, लेकिन अब जो हो चुका है उसे बदल तो नहीं सकते न।”
“नहीं बदल सकते, लेकिन आगे से ख्याल रखना।”
“वो तो हम रखिये रहे हैं, तभी तो सबको कह दिये कि एक्सीडेंट हो गया था हमारा।”
“ठीक कहे, भला अतीक से दुश्मनी मोल लेकर कौन जिंदा बचा है आज तक।”
“कोई नहीं, सच पूछो तो हमारी मति मारी गयी थी जो उसका ट्रक रोक लिये, नहीं रोके होते तो आज ये दिन नहीं देखना पड़ रहा होता।”
कुछ देर तक दोनों के बीच यूं ही हल्की फुल्की बातें होती रहीं, फिर सफर लंबा खिंचता देखकर मुंशीचंद ने पूछा, “जा कहां रहे हैं हम?”
“हाईवे पर।”
“हाईवे पर! उहां का धरा है?”
“चल तो रहे हो, पता लग जायेगा।”
“तुम तो कहते थे कि बस दस मिनट का वक्त लोगे, जबकि हाईवे तक पहुंचने में ही पंद्रह मिनट से कहीं ज्यादा लग जायेंगे। तो बात इधरे कहीं गाड़ी रोककर काहे नहीं कर लेते?”
“अरे इतना परेशान काहे हो रहे हो यार?”
“ना, हम परेशान नहीं हो रहे, लेकिन पता तो चले कि बात क्या करना चाहते हो, और उसके लिए हाईवे पर जाना क्यों जरूरी है? मतलब तुम्हारी बात हमारी समझ में नहीं आ रही।”
“ठीक है फिर दूसरी तरह से समझाये देते हैं।” कहते हुए पांडे ने गन निकालकर उसकी कनपटी पर रख दी।
“पगला गये हो क्या?” वह सकपकाता सा बोला।
“नाहीं पगलाये नहीं हैं, बस मजाक कर रहे हैं।”
“ऐसे घटिया मजाक हमें पसंद नहीं है पांडे, इसलिए गन हटाओ, कहीं गलती से ट्रिगर दब गया तो तुम्हारे मजाक मजाक में हमारी तो जान चली जायेगी।”
“नहीं उसमें अभी वक्त है।”
“मतलब?”
“ठहरकर जायेगी, तब जायेगी जब हम चाहेंगे।”
“क्या बकते हो बे?”
“अब अपनी सर्विस रिवाल्वर निकालकर हमारे हवाले कर दो।”
“बहुत हो गया पांडे, बताओ क्या बात करना चाहते हो?”
“अपनी रिवाल्वर हमें दो मुंशीचंद।”
“नहीं देंगे तो क्या कर लोगे?”
“गोली मार देंगे, और क्या करेंगे।” पांडे गुर्राता हुआ बोला।
मुंशीचंद के माथे पर बल पड़ गये, अलबत्ता भय के कोई भाव उसके चेहरे पर अभी भी नहीं दिखाई दे रहे थे क्योंकि वह असमंजस की स्थिति में था, और बार बार खुद को यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था कि वह बस मजाक था।
“गन हमें दो, जल्दी करो।” कहते हुए उसने रिवाल्वर की नाल को जोर से उसकी कनपटी पर चुभोया।
इस बार मुंशीचंद थोड़ा बौखलाया, “न...नहीं देंगे, हम अपनी सर्विस रिवाल्वर भला तुम्हें क्यों दें?”
पांडे ने जोर का ठहाका लगाया, “देखा, देखा कैसे फट गयी तुम्हारी।” कहकर उसने अपनी गन मुंशीचंद की कनपटी से हटा ली, इसलिए हटा ली क्योंकि इतनी देर में समझ चुका था कि उसपर होल्ड बना पाना पॉसिबल नहीं था। इसलिए नहीं था क्योंकि वह उसे जानता पहचानता था, पुलिस में उसके बराबर की रैंक का था, ऊपर से दोनों के बीच कोई दुश्मनी भी नहीं थी। ऐसे में वह भला पांडे से खौफ क्यों खाता।
“तुम ससुर हमारी कनपटी पर गन रख के हमारी सर्विस रिवाल्वर मांगोगे तो फटेगी नहीं तो और क्या होगी - मुंशीचंद उसकी हंसी में साथ देता हुआ बोला - थोड़ी देर के लिए तो यकीन भी कर लिये थे कि तुम हमें गोली मारने जा रहे हो।”
“सॉरी यार, बस पहुंचने ही वाले हैं।”
उसके दो मिनट बाद गाड़ी हाईवे पर पहुंची तो अराध्या ने लैफ्ट टर्न मारा और एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ा दिया। मगर ज्यादा दूर नहीं गयी, बस आबादी वाला इलाका पार कर के गाड़ी को सड़क किनारे लगाकर रोक दिया।
“अब पूछो ये मैडम कौन हैं?” पांडे बोला।
“कौन हैं?”
“अराध्या राजपूत, कुछ याद आया मुंशीचंद?”
“अराध्या - उसने दोहराया फिर एकदम से चौंकता हुआ बोला - नहीं ये अराध्या नहीं हो सकती, काहे कि उसे और उसके परिवार को तो छह महीना पहले ही अतीक अंसारी के आदमियों ने लखनऊ में खत्म कर दिया था।”
“जिसकी वजह तुम बने थे मुंशीचंद।”
“क्या बकते हो?”
“तुम्हीं ने अतीक को ये जानकारी दी थी कि उसके चार आदमियों की जान अराध्या के कारण गयी थी।”
सुनकर वह सकपका सा गया।
“काहे किये?”
“किये तो किये, तुम्हारे पिछवाड़े में आग क्यों लगी जा रही है। अराध्या राजपूत तुम्हारी रिश्तेदार थी, माशूका थी, या रखनी रख लिये थे उसे?”
जवाब में पांडे के हाथ में थमी रिवाल्वर जोर से उसके चेहरे से टकराई। उतनी ही जोर से वह चींख भी पड़ा। मगर और कुछ नहीं कर पाया क्योंकि वार करने के साथ ही गन एक बार फिर उसकी तरफ तन चुकी थी।
“भोस...के, एक हंसता खेलता परिवार तुम बर्बाद कर दिये। पढ़ लिखकर टीचर बनने का सपना देखने वाली लड़की को तुम्हारी वजह से पेन की बजाये गन पकड़नी पड़ गयी, और तुम अपने किये पर पछताने की बजाये उसके बारे में उल्टा सीधा बोल रहे हो।”
“ठीक है हम किये, और अभी अभी उसके बारे में बुरा भी बोले, लेकिन तुम काहे भड़क रहे हो बे, चक्कर क्या है?”
“चक्कर ये है मुंशीचंद कि अतीक के उन चार आदमियों को हम खत्म किये थे। आगे उन्हें अतीक के कहर से बचाने के लिए झूठा बयान भी हमीं दिलवाये थे, मगर तुमने हमारे किये धरे पर पानी फेरकर रख दिया।”
“त...तुमने मारा था उन्हें?” मुंशीचंद हैरानी से बोला।
“हां, हम ही मारे थे।”
“जानते तो हो न कि अतीक को उस बात की खबर लग गयी तो अंजाम क्या होगा?”
“कैसे लगेगी, क्या तुम बता दोगे जाकर?”
“ह...हम! अरे हम काहे बतायेंगे।”
“तो और कैसे लग जायेगी?”
मुंशीचंद से जवाब देते नहीं बना।
“हरामखोर, कभी ईमानदारी से ड्यूटी करने के बारे में नहीं सोचे?”
“नहीं सोचे, सोच भी कैसे सकते थे। पचास लाख घूस देकर पुलिस में बहाल हुए थे। जमीन बिक गयी, मां के जेवर बिक गये, दस लाख लोन लिये थे सो अलग! ईमानदारी से ड्यूटी करेंगे तो उस सबकी वसूली कैसे कर पायेंगे, बड़े आये ईमानदारी का लेसन देने वाले।”
“तो मत देते घूस, कोई और नौकरी कर लेते।”
“नाहीं किये, काहे कि अच्छे से जानते थे कि किसी ढंग की जगह पर पोस्टिंग मिल गयी तो दो साल भी नहीं लगेंगे सब वापिस वसूल कर लेने में। इसीलिए चौकी के दरोगा बनने के लिए फिर से पचास लाख दे दिये, मगर अब कौनो टेंशन नाहीं है क्योंकि कर्जमुक्त हो चुके हैं हम। और लक्ष्मी मईया की कृपा ऐसे ही बरसती रही तो पांच साल में इतना बटोर लेंगे कि आगे की जिंदगी के बारे में सोचने की जरूरते नहीं पड़ेगी।”
“सोचना तो पड़ेगा दरोगा जी - अराध्या ने गर्दन घुमाकर उसकी तरफ देखा - इसलिए सोचना पड़ेगा क्योंकि अपने कर्मों का फल सबको इस धरती पर ही भुगतना पड़ता है।”
“त...तुम जिंदा हो?” दरोगा बौखलाकर रह गया।
“नहीं, अकाल मृत्यु हुई थी न, इसलिए प्रेत योनि में भटक रहे हैं।”
“पागल लड़की अगर जिंदा है तो कहीं भाग परा क्यों नहीं जाती? क्यों अपनी जान की दुश्मन बन रही है? जा आजमगढ़ से कहीं दूर निकल जा। हम वादा करते हैं कि अतीक अंसारी से इस बारे में कुछ नहीं कहेंगे।”
“मैं चाहती हूं कि कह दो, बता दो उसे कि अराध्या जिंदा है।”
“क...क्या?”
“अतीक को फोन लगाकर बोलो कि तुमने हाईवे पर खड़ी एक कार में दरोगा अनुराग पांडे के साथ अराध्या राजपूत को बैठे देखा है। और इतनी चतुराई से खबर दो कि वह सपने भी न सोच सके कि फोन हम करवाये हैं।”
“काहे अपने साथ साथ पांडे को भी मरवाना चाहती हो?”
“फोन करो मुंशीचंद।”
“पगला गये हो ससुर, तुम्हारी औकात है अतीक अंसारी से पंगा लेने की?”
“देखेंगे, अभी उसे फोन कर के कहो कि तुमने हम दोनों को एक साथ हाईवे पर कार में बैठे देखा है।”
“जान चली जायेगी पांडे।”
“उससे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?”
“कुछ नहीं, लेकिन तुम भी हमारी तरह पुलिस में हो, इसलिए अफसोस बहुते होगा हमें।”
“मत करना, फोन लगाओ।”
न तो मुंशीचंद की समझ में कुछ आया, ना ही उसने कॉल करने की कोशिश की, तब अराध्या ने अपनी गन उसके घुटने पर टिका दी और फुंफकारती हुई सी बोली, “हमारे सब्र का इम्तिहान मत लो, वरना अबहियें गोली दाग देंगे हम।”
“तू....तू.. पुलिस पर गोली चलायेगी?”
“नहीं एक दोगले आदमी पर चलाऊंगी, जो तन्ख्वाह सरकार से लेता है और हुक्म अंसारी का बजाता है। एक भड़वे पर चलाऊंगी जो अपराधियों के लिए दलाली करता है। एक ऐसे राक्षस पर भी चलाऊंगी जो जिंदा बचा रहा तो मुझे जैसी जाने कितनी अराध्या हथियार उठाने को मजबूर हो जायेंगी।”
“भाषण मत दे लड़की।”
“नहीं दूंगी, फोन करो अतीक को।”
“ठीक है बहन... जब तुम दोनों मरने पर ही तुले हो तो उसमें हम क्या कर सकते हैं। मगर अतीक का नंबर बहुत दिनों से बंद है, इसलिए उससे कांटेक्ट नहीं कर पायेंगे हम। लेकिन तुम दोनों की आखिरी इच्छा तो बस गोली खाने की है, और वह काम कलंकी भी बखूबी कर सकता है, इसलिए कहो तो उसे खबर कर दें?”
“करो।”
दरोगा सकपकाया।
“अब करते क्यों नहीं?”
“आखिरी मौका है सोच लो।”
“अपना काम करो दरोगा।”
जवाब में मुंशीचंद ने बुरी तरह झुंझलाते हुए जेब से मोबाईल निकाला और कलंकी का नंबर डॉयल कर दिया। जो कि कई बार बेल जाने के बाद कहीं जाकर अटैंड की गयी।
“नमस्कार कलंकी भईया।”
“हम इस वक्त बहुत बिजी हैं मुंशीचंद।”
“जरूरी बात है भईया।”
“ठीक है बोलो।”
“आप हमारे लिए बड़ी प्रॉब्लम खड़ी कर दिये हैं।”
“क्या बक रहे हो दरोगा?”
“अराध्या जिंदा है, इससे बड़ी प्रॉब्लम और क्या हो सकती है?”
“तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।”
“हम सच कह रहे हैं भईया, बल्कि हमें तो ये भी लगता है वह अनुराग पांडे के साथ मिलकर कोई खिचड़ी पका रही है, क्योंकि इस वक्त दोनों हमारी आंखों के सामने एक सफेद रंग की ऑल्टो में बैठे हुए हैं।”
“कहां?”
“पूर्वांचल हाईवे पर। शहर से निकलकर ज्यों हीं लखनऊ की तरफ टर्न लेंगे, दो ढाई किलोमीटर आगे सड़क पर उनकी ऑल्टो खड़ी दिखाई दे जायेगी, नंबर है 1452, और हम आपके आगे हाथ जोड़ते हैं, तुरंते उनका कोई इंतजाम कीजिए वरना लड़की कहीं कोतवाली पहुंच गयी तो हमारी नौकरी नहीं बचेगी।”
“खबर पक्की है न मुंशीचंद?”
“दोनों जब हमारी आंखों के सामने बैठे हैं भईया, तो इसमें कच्ची और पक्की वाली क्या बात है।”
“ठीक है पंद्रह मिनट का वक्त दो हमें, मगर उससे पहले अगर दोनों वहां से निकलने की कोशिश करें तो तुम उनकी कार का पीछा करना, वो हमारे हाथ लग गये मुंशीचंद तो तुम्हें इतना बड़ा ईनाम देंगे कि जीवन भर याद करोगे।”
“हम ध्यान रखेंगे भईया, अब जल्दी से आ जाइये - कहकर उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर के अराध्या की तरफ देखा - लो खबर कर दिये यमराज को, कुछ और चाहते हो तो वह भी बता दो, काहे कि मरने वालों की अंतिम इच्छा पूरी करना हम बड़े पुण्य का काम समझते हैं।”
“नहीं और कोई इच्छा नहीं है।”
“तो फिर हम चलते हैं अब।”
“तुम्हारी मर्जी है भाई - अनुराग पांडे बोला - वैसे कलंकी के आने तक रुक जाओ तो हम खुद तुम्हें चौकी ड्रॉप कर देंगे। टैंपो सैंपो में कहां धक्के खाते फिरोगे? ऊपर से हम तुमसे वादा भी तो किये थे कि वापिस छोड़कर जायेंगे।”
मुंशीचंद जोर से हंसा फिर बोला, “हम रुक भी गये पांडे तो चौकी अकेले ही जाना पड़ेगा, काहे कि तुम दोनों की मौत तो पक्की है, फिर काहे अपना वक्त बर्बाद करें। हां तोहार मेहरारू को खबर जरूर कर देंगे हम, बस मैडम की खबर किसी को नहीं कर सकते क्योंकि इनके आगे पीछे तो दुनिया में कोई रह ही नहीं गया है।”
“ठीक है तुम्हारी मर्जी, जाओ।”
तत्पश्चात मुंशीचंद और अराध्या एक साथ दरवाजा खोलकर गाड़ी से नीचे उतर आये। जबकि पांडे जाकर ड्राईविंग सीट पर बैठ गया। फिर जैसे ही मुंशीचंद कुछ कदम आगे गया, अराध्या ने आवाज लगाई, “जरा ठहरिये दरोगा जी।”
“अब क्या है?” कहता हुआ वह उसकी तरफ घूम गया।
“बताते हैं।” लड़की ने अपनी गन उसपर तान दी।
दरोगा के नेत्र फैले।
पांडे ने न्यूट्रल गियर में कार को जोर जोर से रेस देना शुरू कर दिया, साथ ही लगातार हॉर्न भी बजाये जा रहा था, जबकि आती जाती गाड़ियों की वजह से शोर शराबा तो पहले से ही था सड़क पर।
“मैं दरोगा हूं लड़की।” मुंशीचंद गुर्राता हुआ बोला।
“और हम यमराज हैं।” अराध्या ने ट्रिगर खींच दिया।
‘धांय!....’
बस एक गोली और दरोगा मुंशीचंद कटे पेड़ की तरह सड़क पर गिर गया, उसी वक्त तेज गति से चला आ रहा एक ट्रक उसकी लाश को कुचलता हुआ आगे बढ़ गया।
लड़की का निशाना वाकई में कमाल का था, गोली सीधा दरोगा के माथे में जा घुसी थी। फिर जैसे ही वह वापिस गाड़ी में सवार हुई और पांडे ने कार आगे बढ़ा दी।
“अब क्या करना है?” अराध्या ने पूछा।
“डिपेंट करता है कि कलंकी यहां कितने लोगों के साथ पहुंचता है।”
“चार पांच से कम तो क्या होंगे?”
“पांच छह लोगों की चिंता नहीं है हमें, समस्या तब खड़ी होगी जब पूरी पलटन के साथ यहां पहुंच जाये, उस स्थिति में मजबूरन ही सही, यहां से खाली हाथ लौटना पड़ेगा हमें, बल्कि तुम्हारी ये कार भी हाथ से निकल जाये तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।”
“पलटन हुई तो कितने लोग होंगे?”
“दस-पंद्रह की आशंका है हमें, जबकि होने को ज्यादा भी हो सकते हैं, आदमियों की कोई कमी थोड़ी है अंसारी गैंग के पास।”
“पंद्रह में से पांच तो मारिये देंगे आप?”
“उम्मीद तो है।”
“और पांच को ठोंकने की गारंटी हम किये देते हैं।”
“और उसके बाद अंसारी के जिंदा बचे पांच आदमी हमारा क्रिया कर्म कर देंगे।”
“ठीक है फिर तय रहा।”
“क्या?”
“आदमी दस हुए तो हम उनसे भिड़ जायेंगे, दस से ज्यादा हुए तो खिसक लेंगे।”
पांडे ने हौले से गर्दन हिलाकर सहमति दी फिर थोड़ा आगे ले जाकर कार रोक दी। उसके बाद गाड़ी को वहीं खड़ी छोड़कर वह दोनों डिवाईडर पर लगीं फूलों की झाड़ियों के बीच जाकर खड़े हो गये।
वक्त मंथर रफ्तार से गुजरने लगा।
देखते ही देखते पंद्रह मिनट बीत गये मगर कलंकी वहां नहीं पहुंचा। मगर उसके आने की उम्मीद दोनों को ही थी इसलिए गोली चलाने को एकदम तैयार जहां के तहां खड़े अपनी ही कार को वॉच करते रहे।
“अराध्या।”
“सुन रहे हैं हम।”
“तब तक गोली मत चलाना जब तक कि हम चलाने को न कहें। और एक बार गोली चल जाये तो उसके बाद पल भर का भी वक्त जाया मत होने देना, काहे कि हमें यहां से सही सलामत लौटना है, लौटेंगे तभी तो अतकी अंसारी की कब्र खोद पायेंगे।”
“हम आपकी बात का ध्यान रखेंगे पांडे जी।”
पांच मिनट और गुजरे फिर एक बोलेरो उनकी कार के पीछे पहुंचकर रुकती दिखाई दी। गन पर दोनों की पकड़ अंजाने में ही सख्त होती चली गयी। फिर चार लोग नीचे उतरे और गाड़ी खाली दिखाई देने लगी। मगर कलंकी! वह तो नहीं आया था वहां।
पांडे का तो जैसे दिमाग ही भिन्नाकर रह गया।
“अब क्या करें?” अराध्या बोली।
“क्या करें?”
“हम आपसे पूछ रहे हैं।”
“और हम यही सवाल खुद से कर रहे हैं।”
“जल्दी फैसला कीजिए पांडे जी।”
“कर लिये।”
“क्या?”
“हाथ आये शिकार को छोड़ना बेवकूफी होगी, हम इन्हें मारें या न मारें कलंकी को पता लग चुका है कि तुम जिंदा हो, ये भी कि हमारे साथ हो। कलंकी आ गया होता तो हमें तसल्ली होती कि सौदा बराबरी का था।”
“तो शुरू करें?”
“मैं तीन कहूं तो तुम बाईं तरफ वाले दोनों लड़कों को शूट कर देना, मैं दाईं तरफ वालों को करूंगा, समझ गयी?”
“हां समझ गयी।” कहते के साथ ही उसने अपनी गन का मुंह खोल दिया। एक के बाद एक चार गोलियां चलीं और चारों ही लड़के सड़क पर गिर गये।
पांडे को तो गिनती शुरू करने का भी मौका नहीं मिला।
फिर सड़क पर दायें बायें देखकर दोनों डिवाईडर से नीचे उतरे, जहां अराध्या ने मरे पड़े चारों लड़कों की पिस्तौलें अपने कब्जे में की और जल्दी से कार में सवार हो गयी। पांडे पहले से ड्राईविंग सीट पर पहुंच चुका था, इसलिए अराध्या के अंदर दाखिल होते के साथ ही उसने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
“हमारी बात नहीं मानी तुमने, जबकि हम साफ कहे थे कि गोली हमारे तीन कहने के बाद चलाना।”
“चारों हमारे निशाने पर थे पांडे जी, इसलिए आपको कष्ट नाहीं दिये हम। फिर हमें लगातार प्रैक्टिस करते रहने की भी तो जरूरत है। आपकी तरह पुलिस डिपार्टमेंट ने हमें ट्रेनिंग थोड़े ही दे रखी है। इसलिए खुदे निबटा दिये उन्हें। ये सोचकर भी निबटा दिये कि आप पीठ थपथपायेंगे हमारी, मगर आप तो शिकायत लेकर बैठ गये।”
“काहे कि पराई लड़की की पीठ पर हाथ नहीं रख सकते हम।”
“उस दिन तो रखे थे।”
“किस दिन?”
“जिस दिन हमें अतीक के आदमियों से बचाये थे।”
“तब तुम डर के मारे जोंक की तरह हमारे साथ लिपट गयी थीं, इसलिए सांत्वना दे रहे थे, हिम्मत बंधाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन अब उसकी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हम जान चुके हैं कि तुम वाकई में बदल गयी हो, ये भी कि तुम्हारा कोमल हृदय चट्टान की तरह सख्त हो गया है और दया माया जैसी कोई चीज तुम्हारे अंदर बची नहीं रह गयी है।”
“अरे अरे आप तो हमें राक्षस साबित करने पर तुले जान पड़ते हैं।”
“जो कि बदले की आग में जलती हुई तुम बन चुकी हो।”
“आप फिर वहीं पहुंच गये?”
“अच्छा उस बात को जाने देते हैं।”
“थैंक यू।”
“अब ये जानकर कि अतीक को तुम्हारे जिंदा होने की खबर लग चुकी है, कैसा महसूस कर रही हो, डर तो नहीं लग रहा?”
“नहीं डर नहीं लग रहा, लेकिन अब पहले जैसे धड़ल्ले से आजमगढ़ में नहीं घूम सकते हम, आपको भी सावधान रहना पड़ेगा, हैरानी है कि इतना बड़ा काम कलंकी ने अपने नौसिखुए आदमियों के भरोसे छोड़ दिया।”
“अब उस बात पर दिमाग खपाने का कोई फायदा नहीं है, इसलिए लखनऊ चलते हैं, देखें डॉक्टर साहब से क्या हासिल होता है, नया कुछ बता भी पाते हैं या नहीं।”
“स्टेयरिंग आपके हाथ में है जहां चाहे ले चलिए।”
सुनते के साथ ही पांडे ने एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया।
यह कलंकी का गुड लक ही कहा जायेगा कि उस वक्त एमएलए अनवर अंसारी के घर पर था, वरना तो आज उसका किस्सा खत्म हो ही जाना था।
असल में उसे रोका अतीक ने था, ये कहकर कि अनवर अंसारी के घर से हाईवे पर पहुंचने में उसे घंटा भर लग जायेगा, तब तक पांडे और अराध्या वहीं बैठे नहीं रहने वाले थे। ये भी कि शबाना का निकाह बीच में छोड़कर जाना भी ठीक नहीं था। तब उसने हवेली में मौजूद चार आदमियों को वहां के लिए रवाना कर दिया था। क्योंकि उससे ज्यादा आदमी उसके पास नहीं थे। होते भी कैसे अपनी पूरी पलटन तो उसने चौरी चौरा भेज दी थी, जो फैक्ट्री में मौजूद चंगेज के आदमियों को खत्म करने में भी कामयाब हो गये थे, मगर अभी रास्ते में थे, इसलिए आजमगढ़ पहुंचने में उन्हें काफी वक्त लग जाने वाला था।
साढ़े नौ बजे एसपी सुखवंत सिंह उस बैंक्वेट हॉल में पहुंचा जहां शबाना का निकाह होना था। वह सूट बूट में सज धजकर वहां पहुंचा था, इसलिए एकदम अलग दिखाई दे रहा था, क्योंकि बाकी के मेहमान ट्रेडिशनल ड्रेस में थे।
अभिमन्यु अपने हाथों में एक बड़ा सा पैकेट थामे उसके साथ चल रहा था। एसपी की तरह वह भी कोट पैंट ही पहने था, मगर जंच उससे कहीं ज्यादा रहा था। क्योंकि कमउम्र था और शक्लो सूरत भी बहुत अच्छी पाई थी उसने।
सैकड़ां मेहमान वहां पहुंचे दिखाई दे रहे थे। जिनमें वह पांच पुलिस वाले भी थे, जो घंटा भर से भीड़ का हिस्सा बने अतीक अंसारी के आगमन की राह देख रहे थे।
एमएलए ने बड़े ही प्रसन्न भाव से सुखवंत सिंह का स्वागत किया और उसे एक शामियाने के भीतर बैठी अपनी बेटी और दामाद के पास लेकर गया। जहां उसने अभिमन्यु के हाथों से गिफ्ट का पैकेट लेकर शबाना को दिया और वर-वधु आशीष देकर बाहर निकल आया।
“आपने हमारा गौरव बढ़ा दिया एसपी साहब - अनवर अंसारी बोला - जबकि आपके आगमन की हमें जरा भी उम्मीद नहीं थी, क्योंकि अभी तक तो आपसे एक मुलाकात भी नहीं हुई थी।”
“बेटी का निकाह है एमएलए साहब इंकार कैसे कर सकते थे, और हमारे आने से आपका गौरव नहीं बढ़ा है, बल्कि आपने हमें निमंत्रण दिया, ये हमारे लिए सौभाग्य की बात है।”
“आपका बड़प्पन है जो ऐसा कह रहे हैं।”
“चलिए वही सही, बहस में पड़ेंगे तो आपका वक्त जाया होगा।”
“अरे वक्त की क्या परवाह है, जितना चाहे ले लीजिए।”
“नहीं आपने बाकी मेहमानों को भी तो देखना है।”
“हां वो तो है, अच्छा दावत खाये बिना मत जाईयेगा।”
“नहीं जायेंगे।”
तत्पश्चात अनवर अंसारी उससे अलग हो गया। जिसके बाद वह और अभिमन्यु वहां रखी कुर्सियों पर जाकर बैठ गये। अभिमन्यु उसका ऐसा असिस्टेंट था, जिससे वह तमाम बातें साझा किया करता था। इस वक्त भी दोनों ये भूलकर कि वहां शबाना के निकाह में आये थे चंगेज खान और अनल सिंह के बारे में डिस्कस करने लगे।
कुछ ही देर में उन दोनों ने दिनेश राय, जनार्दन मिश्रा और उनके साथ आये सिपाहियों को भी पहचान लिया, वह सबके सब शेरवानी पहने थे, और दूसरे मेहमानों के साथ यूं घुट घुटकर बात कर रहे थे, कि किसी के लिए अलग से उनकी शिनाख्त कर पाना नामुमकिन काम था।
मगर हासिल कुछ नहीं हुआ।
बीच में दिनेश राय को एक दो लोगों पर अतीक होने का शक भी हुआ, मगर जल्दी ही वह शक दूर हो गया। और ज्यों ज्यों वक्त गुजरता गया अतीक के वहां पहुंचने की उम्मीदें भी खत्म होती चली गयीं।
एक घंटे बाद अनवर अंसारी फिर से एसपी के पास पहुंचा और उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठता हुआ बोला, “खाना खाये कि नहीं एसपी साहब?”
“अभी नहीं।”
“अरे काहे मेजबान की बेइज्जती कर रहे हैं, अच्छा चलिए साथ में खाते हैं।” तत्पश्चात अभिमन्यु को वहीं छोड़कर सुखवंत सिंह उसके साथ हो लिया।
यूं आधे घंटे का वक्त और गुजर गया।
“आपके बच्चे कितने हैं एमएलए साहब?” सुखवंत सिंह ने पूछा।
“चार, तीन लड़के और एक लड़की, अब बस एक लड़का ब्याहने को बाकी है। अफसोस इस बात का है कि तौफीक चच्चा नहीं शामिल हो पाये हमारी बेटी के निकाह में, जबकि शबाना को अपनी जान से भी ज्यादा चाहते हैं।”
“फिर तो हम आपके कसूरवार हुए एमएलए साहब।”
“नहीं, हम ऐसा नहीं मानते, काहे कि आप बस अपनी ड्यूटी किये। अब जो जैसा करेगा, उसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा उसे। इसलिए आपको दोष नहीं देंगे, हां एक दूसरी बात जरूर कहना चाहते हैं।”
“क्या?”
“खौफ बहुते फैला दिये हैं आप आजमगढ़ में।”
“क्या कह रहे हैं, उल्टा यहां के अपराधियों से डर डरकर काम करना पड़ रहा है हमें, अभी आज की ही बात ले लीजिए, चंगेज खान ने हमारे दो ऑफिसरों को दिन दहाड़े खत्म कर दिया। ऐसे में खौफजदा तो पुलिस है एमएलए साहब, ना कि अपराधी।”
“कहां की बात है?”
“गोरखपुर की।” कहकर अतीक अंसारी ने संक्षेप में सारा किस्सा उसे कह सुनाया।
“बहुत बुरा हुआ, लेकिन वो भी आपके डर का ही परिणाम है एसपी साहब। अभी हमारे घर की ही बात ले लीजिए, अतीक को शबाना बहुते प्यारी है, हालांकि हमारी उससे नहीं बनती, कई साल हो गये मिले हुए। लेकिन शबाना को अपनी बेटी मानता है, ऐसे में उसके निकाह में अतीक का न पहुंचना साबित करता है कि उसके दिल में आपका गहरा खौफ बैठ गया है।”
“आपको तो उसकी कोई खबर होगी नहीं?”
“नहीं, बताये तो कई सालों से कोई मेल मुलाकात नहीं है, जबकि रहते एक ही जिले में हैं। वो क्या है न कि हमें अमन चैन की जिंदगी बहुते पसंद है, जबकि अतीक का स्वभाव एकदम विपरीत है, इसलिए बनती नहीं है।”
“और विधायक अनल सिंह, उनसे कोई मेल मुलाकात होती है?”
“नहीं क्योंकि हमारी पार्टी अलग है, फिर वो क्या अतीक से अलग हैं, जो हम उन्हें सीने से लगा लेंगे, लगाना ही होता तो हमारा भाई कबूल नहीं हो जाता हमें? लेकिन इसमें उन लोगों की कोई गलती नहीं है, सब सरकारी खेल है। पहले पाल पोसकर लोगों को बड़ा करते हैं, मतलब उनके आतंक को जानबूझकर फलने फूलने देते हैं और जब उनका कद ज्यादा बढ़ता दिखाई देता है तो खात्मा करवा देते हैं। पचासों साल से हमारे आजमगढ़ में यही तो होता आ रहा है।”
“आप सोचते हैं हम सरकार के कहने पर मुजरिमों के पीछे लगे हैं?”
“अब क्या कहें सर।”
“अरे कहिये संकोच काहे कर रहे हैं?”
“आप हमारे मेहमान हैं, सुनकर बुरा मान गये तो हमें बहुते अफसोस होगा।”
“नहीं मानेंगे, वादा करते हैं।”
“उड़ती उड़ती खबर मिली है कि जिले के चार बड़े अपराधियों में से आपके निशाने पर बस तीन लोग हैं। अतीक अंसारी, चंगेज खान, और अमरजीत त्रिपाठी जिसे आप पहले ही निबटा चुके हैं। जबकि अपनी मर्जी से काम कर रहे होते तो तीन की बजाये चार शिकार करने के बारे में सोच रहे होते, और वह चौथा शिकार होता अनल सिंह। वैसे सुनी सुनाई बात है इसलिए झूठ भी हो सकती है।”
“नहीं आपकी जानकारी एकदम दुरुस्त है। हमें चार में से बस तीन को ही खत्म करने के हुक्म दिये गये हैं, मगर हुक्म हम बस कानून का मानते हैं। एक बार अतीक और चंगेज से पार पा लिये तो अगला नंबर अनल सिंह का ही होगा एमएलए साहब, चाहे हमें उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। तब तक हम इसी जिले में हैं और आप तो रहबे करेंगे, अपनी बात पूरी कर के ना दिखायें तो हमारे नाम पर कुत्ता पाल लीजिएगा अपने घर में।”
अनवर अंसारी हैरानी से एसपी की शक्ल देखने लगा, फिर बात बदलता हुआ बोला, “हमें यकीन है एसपी साहब कि आप जो कह रहे हैं कर के भी दिखा देंगे, आखिर बहुते नाम कमाये हैं आप। हालांकि उन बातों से हमारा कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि हमारे और उनके रास्ते अलग हैं। थोड़ी बहुत दबंगई हम भी दिखाते हैं, काहे कि अपना वर्चस्व कायम रखना जरूरी है, मगर कभी किसी पर जुल्म नहीं ढाये, कोई गैरकानूनी धंधा खड़ा करने की भी नहीं सोचे, जबकि इधर सत्ता में आते ही लोग बौरा कर ऐन वही करने लग जाते हैं। बाकी हमारे लायक कोई सेवा हो तो जब चाहे फोन कर सकते हैं। हमारी पार्टी विपक्ष में है लेकिन दम खम बहुते है, इसलिए जरूरत पड़ने पर आपको फुली सपोर्ट भी दिलवा सकते हैं।”
“थैंक यू अंसारी साहब, अब इजाजत दीजिए, क्योंकि सुबह जल्दी उठकर काम पर भी लगना है।”
तत्पश्चात उसने अभिमन्यु को वहां से चलने का इशारा कर दिया।
तब तक रात के एक बज चुके थे।
बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में बैठकर उसने दिनेश को फोन लगाया।
“हैलो।”
“यस सर?”
“दुल्हन के विदा होने तक डंटे रहना, उसके बाद वापिस लौट जाना।”
“ठीक है सर।”
फिर एसपी ने ड्राईवर को वहां से चलने के लिए कह दिया।
अराध्या और पांडे रात साढ़े बारह बजे लखनऊ पहुंचे, फिर जीएमके अस्पताल में दाखिल होकर डॉक्टर चिंतामणी के बारे में दरयाफ्त किया तो पता चला वह आठ बजे ही वहां से अपने घर के लिए निकल गया था।
एड्रेस जानना चाहा तो कोई बताने को तैयार नहीं हुआ।
डॉक्टर का मोबाईल नंबर पहले से पांडे के पास था, मगर उससे उनका क्या भला होना था, फोन कर के पूछने पर वह अपना एड्रेस थोड़े ही बता देता उन्हें, इसलिए किसी ऐसे शख्स की टोह में इधर उधर विचरने लगे जो उनके मतलब की जानकारी दे सकता हो।
लेकिन वह भी कोई सही रास्ता नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि इस बात की गारंटी करना मुश्किल था, कि डॉक्टर का पता बताने से इंकार करने के बाद, वैसा कोई शख्स उसे फोन कर के बता नहीं देता कि दो लोग उसका एड्रेस जानने के लिए मरे जा रहे थे।
फिर पांडे को एक नई बात सूझी। उसने मोबाईल निकालकर गूगल पर ‘डॉक्टर चिंतामणी त्रिपाठी, जीएमके हॉस्पिटल लखनऊ’ लिखकर सर्च मारा तो उसके बारे में काफी सारी जानकारियां सामने आ गयीं, मगर उसके घर का पता फिर भी नहीं मिला।
हां उस कोशिश में फेसबुक प्रोफाईल जरूर सामने आ गयी। उसे ओपन कर के चेक करना शुरू किया तो एक ऐसी फोटो उसके हाथ लग गयी जिसमें डॉक्टर एक दो मंजिला घर के सामने मौजूद कार के पास खड़ा था, घर उसका था या किसी और का, ये जानने का उसके पास कोई साधन नहीं था, मगर कार का रजिस्ट्रेशन नंबर उसके हाथ लग गया। जिसे चेक किया तो ऑनर का नाम चिंतामणी त्रिपाठी और एड्रेस के तौर पर रामबाग का एक पता सामने आ गया।
दोनों तुरंत वहां से निकल गये।
रामबाग जीएमके हॉस्पिटल से आठ किलोमीटर की दूरी पर था, जहां पहुंचकर एड्रेस तलाश लेना इसलिए आसान काम साबित हुआ क्योंकि घर के बाहर लगी नेमप्लेट पर वहां का पता लिखा हुआ था, और घर भी वही था जो पांडे फोटो में पहले ही देख चुका था।
मतलब एकदम जगह एकदम सही थी।
कार से उतरकर दोनों दरवाजे के पास पहुंचे, फिर अराध्या ने कॉलबेल बजा दी।
कोई जवाब नहीं मिला।
उसने फिर से बजाई।
“कौन है?” एक मर्दाना स्वर उनके कानों में पड़ा।
अराध्या ने पांडे की तरफ देखा तो उसने हौले से हां में गर्दन हिला दी।
“हम हैं डॉक्टर साहब - अराध्या घबराये लहजे में बोली - आपके पड़ोसी, पापा के सीने में बहुत जोर से दर्द हो रहा है, चलकर एक बार देख लीजिए, हाथ जोड़ते हैं हम आपके।”
“हॉस्पिटल क्यों नहीं ले जाते?”
“क्योंकि दर्द बहुत जोर का हो रहा है, डर है हॉस्पिटल तक पहुंच भी पायेंगे या नहीं। इसलिए मेहरबानी कीजिए, आप का उपकार जीवन भर याद रखेंगे हम।” कहते हुए उसने जोर से दरवाजा खटखटा दिया।
“आते हैं, वेट करो।”
पांडे दीवार के साथ चिपककर खड़ा हो गया, जबकि अराध्या जहां की तहां बनी रही।
फिर दरवाजा खुला।
डॉक्टर उस वक्त हॉफ निकर और टीशर्ट पहने था।
“कहां रहती हैं आप?”
“कहीं भी रहते हों डॉक्टर साहब अब तो आपका घर ही हमारा घर है - कहते हुए उसने रिवाल्वर की नाल डॉक्टर के सीने पर रखी और फुंकारती हुई सी बोली - आवाज न निकले वरना अगली सांस नसीब नहीं होने देंगे हम।”
हकबकाया सा डॉक्टर दो कदम पीछे हट गया।
दोनों भीतर दाखिल हुए, फिर पांडे ने पलटकर दरवाजा अंदर से बंद कर दिया।
“बीवी बच्चों को बुलाईये।”
“म...मैं अनमैरिड हूं।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है, काहे कि हम शादी का इरादा बना चुके हैं। चलिए अपने मां बाप को बुलाइये ताकि बात आगे बढ़ाई जा सके।”
“मैं यहां अकेला रहता हूं।”
“सच में?”
“हां, चाहो तो घर की तलाशी ले लो।”
“काहे ले लें, अब आप इतनी सी बात पर हमसे झूठ थोड़े ही बोलेंगे - कहकर उसने सवाल किया - तो क्या इरादा है आपका?”
“किस बारे में?”
“शादी के बारे में।”
“मजाक मत करो।”
“काहे हम पसंद नहीं आये आपको?”
“देखो मेरे पास नकदी के नाम पर बस दस हजार रूपये पड़े होंगे, बैंक में भी एक डेढ़ लाख से ज्यादा नहीं हैं, चाहो तो मैं एटीएम से निकालकर दिये देता हूं।”
“एक डेढ़ लाख से तो बात नहीं बनेगी डॉक्टर साहब।”
“मेरे पास सच में बस इतने ही हैं।”
“ठीक है अतीक अंसारी को बुलाइये, उसके पास तो सुना है बहुते पैसा है।”
“अतीक अंसारी! - डॉक्टर ने हकबकाकर पांडे को देखा - तुम तो पुलिस में हो न?”
“हैं, लेकिन महंगाई बहुत है डॉक्टर साहब इसलिए पार्ट टाईम में डकैती डालने का काम करते हैं। अब मरना नहीं चाहते तो साफ-साफ बताईये कि अतीक को कहां छिपा रखा है आपने?”
“अरे हम काहे छिपायेंगे उसे?”
जवाब में अराध्या ने एक जोर का घूंसा उसके पेट में जड़ा फिर पांडे से बोली, “निगाह रखिये इसपर, हम घर की तलाशी लेकर आते हैं।”
कहने के बाद उसने ग्राउंड फ्लोर के दोनों कमरे चेक किये, फिर सीढ़ियां चढ़कर उनकी निगाहों से ओझल हो गयी।
“ये जो लड़की है न डॉक्टर साहब, बहुते खतरनाक है। मतलब एक बार को हम भले ही आप पर रहम कर जायें, वो नहीं करने वाली। इसलिए अपना भला बुरा विचारिये और उसके हाथों गोली खाने से पहले ही बता दीजिए कि अतीक अंसारी कहां है, क्योंकि बाद में तो आप नहिये बता पायेंगे। काहे कि गोली वह सीधा खोपड़ी में मारती है, जिसके बाद इंसान कुछ कहने सुनने की पोजिशन में नहीं रह जाता, समझ गये? समझिये गये होंगे आखिर इतने बड़े डॉक्टर हैं आप।”
“अरे बतायें तो तब न जब हमें कुछ पता हो।”
“नहीं बतायेंगे तो मारे जायेंगे।”
तभी अराध्या ने वापिस लौटकर जानकारी दी कि घर खाली पड़ा था।
“हमें छोड़ दो प्लीज।” डॉक्टर गिड़गिड़ाया।
“अरे कमाल करते हैं - लड़की हाथ नचाती हुई बोली - हम इहां आपके प्राण लेने आये हैं और आप कहते हैं कि छोड़ दें, ये भी कोई बात हुई।”
“हमसे तुम्हारी क्या दुश्मनी है?”
“भोस...के - लड़की गुर्रा उठी - पांडे जी हॉस्पिटल पहुंचकर अतीक के बारे में तुमसे दो ठो सवाल क्या कर लिये, तुम सब हग दिये उसके सामने, ये क्या दुश्मनी वाली बात नहीं है?”
“हां हग दिये, काहे कि हमें लगा पुलिस किसी खास वजह से उसके बारे में पूछताछ कर रही थी, हमारी जगह तुम्हारा कोई जानकार रहा होता तो क्या तुमने उसे फोन नहीं किया होता?”
“अगर वह जानकार अतीक अंसारी जैसा पॉवरफुल इंसान होता तो नहीं ही किये होते। अब साफ-साफ बताओ डॉक्टर कि उस रात वह तुम्हारे पास क्यों आया था?”
“हम बताये तो थे।”
जवाब में अराध्या ने फिर से एक घूंसा उसके पेट में जड़ दिया, इस बार वार थोड़ा तगड़ा था इसलिए डॉक्टर के मुंह से जोर की चींख निकल गयी।
“अरे मार काहे रही हो?”
“इसलिए मार रहे हैं बहन... क्योंकि हम अच्छी तरह से जानते हैं कि अतीक को कुछ नहीं हुआ था, जबकि तुम पांडे जी को बताये थे कि उसके हाथ में कट लग गया था जिसका इलाज कराने वह तुम्हारे पास आया था।”
“अतीक ने वही बोलने को कहा था, इसलिए बोल दिये हम।”
“क्यों उसे सपना आना था कि कोई उस बारे में पूछताछ करता तुम तक पहुंच जायेगा?”
“नहीं, लेकिन उसने कहा यही था कि अगर कल को कोई हमसे उसके हॉस्पिटल विजिट के बारे में दरयाफ्त करें तो कह दें कि उसका हाथ कट गया था।”
“चलो मान लिया, लेकिन आने की कोई न कोई वजह तो फिर भी रही होगी, है न?”
डॉक्टर ने इस बार फौरन जवाब नहीं दिया।
“मतलब मरने पर ही तुले हो?” पांडे बोला।
“देखो हमने कोई गलत काम नहीं किया है।”
“ठीक है नहीं किया, तो बताने में क्या हर्ज है?”
“उसे एक ऐसी बीमारी थी जिसका पता किसी को नहीं लगने देना चाहता था, कहता था उसके दुश्मनों को खबर लग गयी तो सब हंसेगे उसपर, बस उसी का ऑपरेशन किये थे उस रात हम।”
“मतलब अतीक अंसारी नपुंसक है?”
“नहीं, नपुंसकता का इलाज ऑपरेशन से थोड़े ही होता है।”
“तो और कौन सी बीमारी लगी थी उसे?”
डॉक्टर हिचकिचाया।
लड़की को गुस्सा आ गया और उसने एक जोर की लात उसके पेट में जमा दी, फिर जैसे ही वह चिल्लाकर नीचे गिरा बालों से पकड़कर वापिस खड़ा कर दिया।
“अब बताओ क्या बीमारी थी उसे, जब तक बता नहीं देते ऐसे ही खातिरदारी होती रहेगी तुम्हारी।”
डॉक्टर रोने लगा।
“अब इतना भी नहीं मारे हैं तुमको जो तुम आंसू बहाने लगे, फिर चुप कराने के लिए यहां तुम्हारी कोई मईया नहीं बैठी है, इसलिए नौटंकी बंद कर के हमारी बात का सीधा और सच्चा जवाब दो, फिर हम तुम्हें सही सलामत छोड़कर यहां से वापिस लौट जायेंगे।”
“बवासीर था उसे।”
“खोदा पहाड़ और निकली चुहिया, इसमें छिपाने जैसी क्या बात है?”
“हम भी उससे यही कहे थे, मगर उसकी निगाहों में तो बवासीर बहुते शर्मनाक बीमारी थी, कहता था बवासीर बस उसी को होता है जो समलैंगिक संबंध बनाता है। जबकि हम बहुते समझाये उसे, बवासीर की कई वजहें भी गिना दिये, मगर उसके दिमाग में जो बैठा था उसे हम चाहकर भी नहीं निकाल पाये। बस यही वजह थी कि वह दिन की बजाये रात में अस्पताल पहुंचा था, और उस बारे में हमें किसी को बताने से भी साफ मना कर दिया था।”
“बकचोदी मत करो डॉक्टर और असल बात बताओ, वरना जान चली जायेगी तुम्हारी। हां इतना वादा करते हैं हम कि तुम्हारी कही बात किसी को नहीं बतायेंगे।”
“हम सच ही बोल रहे हैं, तुम लोग यकीन काहे नहीं करते?”
“क्योंकि तुम्हारी बात यकीन करने के काबिल नहीं है।”
“छोड़िये पांडे जी, इसका किस्सा खत्म कर के निकलते हैं यहां से।”
“जिंदा छोड़ देते हैं, इसे मारकर क्या हासिल होगा?”
“अतीक को बता देगा कि हम इससे पूछताछ करने आये थे।”
“नहीं बताऊंगा - डॉक्टर जल्दी से बोला - बाई गॉड नहीं बताऊंगा।”
“हम यकीन नहीं कर सकते।” कहते हुए अराध्या ने डॉक्टर के माथे से गन सटा दी।
“ये..ये ठीक नहीं कर रही हो तुम।”
“जानते हैं डॉक्टर साहब, लेकिन आप सच नहीं बोल रहे तो हमारे पास और चारा ही क्या है।”
“ठीक है फोन करो।” पांडे बोला।
“किसे?”
“अतीक को, पूछो उसे कोई तकलीफ तो नहीं है, फिर बहाने से ये जानने की कोशिश करो कि इस वक्त वह कहां है?”
“इतनी रात को?”
“हां इतनी रात को और मोबाईल को स्पीकर पर डालकर बात करो। मगर बहाने से करना, भले ही उसे बता दो कि दो लोग उसे पूछते हुए तुम्हारे घर में घुस आये थे, आखिर बाद में भी तो तुम यही करने वाले हो।”
मरता क्या न करता वाले अंदाज में डॉक्टर ने हुक्म का पालन किया, मगर हासिल कुछ नहीं हुआ क्योंकि अतीक का नंबर ऑफ था। फिर अराध्या ने उसके मोबाईल की कॉल डिटेल्स और फोनबुक सब चेक कर डाला मगर कोई सुराग हासिल नहीं हुआ।
“ठीक है जब अतीक का पता तुम बता ही नहीं पाये तो हम तुम्हें जिंदा काहे छोड़ें।” कहते हुए लड़की ने गन की नाल जबरन उसके मुंह में घुसेड़ दी।
डॉक्टर ऊपर से नीचे तक कांपकर रह गया। जैसे उसे यकीन आ गया हो कि अब जिंदा नहीं बचेगा, फिर डर के मारे उसने अपनी आंखें भी बंद कर लीं।
अराध्या ने पांडे की तरफ देखा तो उसने हौले से इंकार में गर्दन हिला दी।
तत्पश्चात डॉक्टर को सही सलामत छोड़ दोनों वहां से बाहर निकल गये, क्योंकि सच यही था कि अब वह अतीक से कांटेक्ट करने में कामयाब हो भी जाता तो उससे उनका अलग से कुछ नहीं बिगड़ने वाला था।
भेद पूरी तरह खुल जो चुका था।
हां इस बात का अफसोस बराबर हो रहा था कि उनकी तमाम मेहनत खामख्वाह की कसरत साबित हुई थी।
रामबाग के इलाके से निकलकर दोनों एक रेस्टोरेंट में पहुंचे, जो वहां से बामुश्किल दो किलोमीटर की दूरी पर था। आते वक्त पांडे ने खासतौर से उसपर ध्यान दिया था, क्योंकि भूख उसे जोरों की लग रही थी।
भीतर दाखिल होकर दोनों ने भर पेट खाना खाया फिर पांडे उठने ही लगा था कि अराध्या बोल पड़ी, “रात में आजमगढ़ लौटना क्या जरूरी है पांडे जी?”
“जरूरी तो नहीं है, लेकिन यहां रुक कर भी क्या करेंगे?”
“वो क्या है न कि लंबा सफर कर के हम थोड़ा थक गये हैं, और करने को कोई काम भी नहीं दिखाई दे रहा, इसलिए सोच रहे हैं कि बाकी बची रात क्यों न किसी होटल में गुजार ली जाये, फिर सुबह निकल लेंगे आजमगढ़ के लिए।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी, चलो।” कहने के पश्चात दोनों बाहर निकलकर कार में सवार हो गये।
पांडे तीन चार बार पहले भी लखनऊ में रुक चुका था, और हर बार वह रेलवे स्टेशन के करीब के ही किसी लॉज में ठहरा था, इसलिए इधर उधर भटकने की बजाये उसने सीधा वहीं का रुख किया।
पंद्रह मिनट बाद रेलवे रोड पर पहुंचकर उसने एक ऐसे लॉज के सामने गाड़ी रोक दी, जहां पॉर्किंग के लिए काफी स्पेस दिखाई दे रहा था। लॉज के बाहर एक बोर्ड लगा था जिसपर मोटे अक्षरों में, ‘होम स्टे’ लिखा था। उसपर एक नजर डालकर दोनों भीतर दाखिल हो गये।
“गुड ईवनिंग सर।” रिसेप्शनिस्ट मुस्कराता हुआ अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
“नमस्ते भाई, कमरा मिलेगा?”
“बिल्कुल मिलेगा सर।”
“रात भर का कितना किराया होगा?”
“एक ही कमरा चाहिए सर?”
सुनकर पांडे ने क्षण भर के लिए अराध्या की तरफ देखा, फिर उसे इंकार करता न पाकर बोला, “हां एक ही चाहिए।”
“एसी या नॉन एसी सर?”
“दोनों का बताओ।”
“ऐसी रूम 1800 का है, और नॉन एसी 1000 का, चेकआउट चौबीस घंटे का है, मतलब आप चाहें तो कल का पूरा दिन भी यहीं गुजार सकते हैं।”
पांडे ने फिर से अराध्या की तरफ देखा।
“गर्मी बहुत है, एसी रूम ठीक रहेगा।”
“ठीक है एसी ही दे दो।”
“आईडी प्लीज।”
जवाब में पांडे ने पर्स से अपना आधार कार्ड निकालकर उसके सामने डेस्क पर रख दिया।
“मैडम की आईडी?”
“इनके पास तो नहीं है।”
“फिर तो प्रॉब्लम हो जायेगी सर, क्योंकि आईडी दोनों की चाहिए हमें।”
“ये हमारी वाईफ हैं भई।”
सुनकर रिसेप्शनिस्ट ने गहरी निगाहों से अराध्या को देखा, फिर बदले हुए लहजे में मुस्कराता हुआ बोला, “वाईफ हैं सर तो कोई बात नहीं, हम आपकी आईडी पर ही कमरा बुक किये देते हैं।”
तत्पश्चात उसने पांडे के आधार कार्ड का जैरॉक्स निकाला और एक लड़के को बुलाकर कमरा दिखाने के लिए उनके साथ भेज दिया। कमरे का नंबर 105 था जो कि पहली मंजिल पर स्थित था।
लड़के ने ताला खोलकर कमरा दिखाया, फिर एसी ऑन करने के बाद रिसेप्शन और रूम सर्विस का नंबर बताकर वहां पड़ा एक मेन्यू पांडे के हाथ में थमाता हुआ बोला, “कुछ ऑर्डर करना चाहें सर तो रूम सर्विस को फोन कर लीजिएगा। और बाहर से कुछ मंगाना हो तो रिसेप्शन पर कॉल कीजिएगा, तब हम आपकी सेवा में फौरन हाजिर हो जायेंगे।”
“ठीक है भाई थैंक यू।”
“अभी कुछ चाहिए सर?”
“नहीं, चाहिए होगा तो हम फोन कर देंगे।”
“ठीक है सर, गुड नाईट सर।” वह बोला, लेकिन वहां से हिलने की कोशिश नहीं की।
पांडे ने फौरन उस बात को कैच किया और पर्स से पचास का एक नोट निकालकर उसके हवाले कर दिया, उसके बाद लड़का दोनों को सलाम कर के वहां से निकल गया।
फिर दरवाजा बंद कर के पांडे वापिस घूमा तो अराध्या ने गहरी निगाहों से उसे देखा।
“क्या हुआ?”
“इरादे तो ठीक हैं न पांडे जी?”
“मतलब?”
“एक ही कमरा लिये आप, जबकि अलग अलग भी ले सकते थे, ऊपर से हमें अपनी जोरू बता दिये सो अलग, माने चल क्या रहा है आपके दिमाग में?”
“तुम बहुत प्यारी हो अराध्या।”
“प्यारी हैं, ‘पूरी’ थोड़े ही हैं जो हजम कर जायेंगे आप।”
पांडे जोर से हंसा।
“यानि चल कुछ ऐसा ही रहा है आपके मन में?”
“तुम पागल हो गयी हो? जरा अपनी उम्र तो देखो, हमसे कम से कम भी दस साल छोटी होगी तुम।”
“उससे क्या फर्क पड़ता है, जवान तो हैइये हैं, और हमारी सहेलियां कहती थीं कि खूबसूरत भी बहुते हैं हम, क्या आपको नहीं लगते?”
“लगती हो क्योंकि तुम हो, मगर हम तुम्हें लेकर कुछ उल्टा सीधा नाहीं सोचे हैं। फिर ये भी तो देखो कि हम शादीशुदा हैं, कैसे तुम्हारे बारे में वैसे ख्याल अपने मन में आने दे सकते हैं। इसलिए खामख्वाह के अंदेशे मत पालो अपने जेहन में। तुम बेड पर सोओगी और हम नीचे फर्श पर सोयेंगे। रही बात एक ही कमरा लेने की और तुम्हें अपनी पत्नी बताने की, तो वैसा हम सावधानी बरतने के लिए किये हैं, काहे कि खतरा तो हम दोनों पर मंडराइये रहा है। क्या पता कौन किस तरफ से हमपर गोली दाग बैठे, ऐसे में तुम हमारी आंखों के सामने रहोगी तो ज्यादा बढ़िया ढंग से हिफाजत कर पायेंगे तुम्हारी, भले ही तुम्हें हिफाजत की जरूरत महसूस न हो रही हो।”
“कमाल के आदमी हैं आप।”
“तारीफ कर रही हो?”
“हां कर रहे हैं।”
“थैंक यू।”
अगले ही पल अराध्या लता की भांति उससे लिपट गयी।
“क्या करती हो?” वह हड़बड़ाया सा बोला।
“थैंक यू बोल रहे हैं पांडे जी, काहे कि आप जैसा आदमी तो हम अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं देखे होंगे।”
“इसलिए नहीं देख पाई क्योंकि अभी तुम बस बित्ता भर की हो। बड़ी हो जाओगी तो मुझ जैसे सैकड़ों हजारों दिखाई देने लगेंगे। काहे कि ई सृष्टि संतुलन पर ही टिकी हुई है। यहां बुराई है तो अच्छाई भी है। रावण हैं तो राम भी हैं। और जिस दिन ऐसा नहीं रह जायेगा उसी दिन परलय आ जायेगी।”
“हमें तो ऐसा नहीं लगता।” कहती हुई वह और कस के लिपट गयी।
“जबकि ऐसा ही है, और इससे पहले कि तुम्हारी नजदीकियां हमारे अंदर के अच्छे इंसान को खत्म कर दें, माने शैतान हमारे दिमाग पर हावी हो जाये, दूर हट जाओ हमसे।”
सुनकर जोर से ठहाका लगाते हुए उसने पांडे को छोड़ दिया।
“बेड बहुते बड़ा है दरोगा जी और उससे भी कई गुना ज्यादा बड़ा विश्वास हम आप पर करने लगे हैं, बल्कि ऊ तो पहले से ही करते आ रहे हैं। इसलिए आपको फर्श पर सोने की कोई जरूरत नहीं है।” कहने के बाद उसने जूते उतारे और बेड के एक किनारे पर जाकर लेट गयी।
अनुराग पांडे कुछ क्षण हिचकिचाता सा जहां का तहां खड़ा रहा फिर एक गहरी सांस लेकर बिस्तर के दूसरे सिरे पर पसर गया।
थके मांदे तो दोनों थे ही इसलिए जल्दी ही नींद के आगोश में पहुंच गये।
रात डेढ़ बजे के करीब हवलदार किशनचंद मंगू और नसीब सिंह नामक दो सिपाहियों के साथ ‘होम स्टे’ लॉज में दाखिल हुआ और रिसेप्शन पर जाकर खड़ा हो गया।
“कैसे हो बबलू?” उसने पूछा।
“ठीक हैं सर, बस आपका ही इंतजार कर रहे थे।”
“अंदाजा तो ठीक है न तुम्हारा?”
“एकदम ठीक है सर, पहले क्या कभी गलत इंफॉर्मेशन दिये हैं आपको?”
“वो तो खैर नाहीं दिये हो।”
“इस बार भी नहीं दे रहे, आदमी कम से कम भी पैंतीस पार का होगा, जबकि लड़की बीस बाईस से अधिक की नहीं दिखती। ऊपर से जींस और टीशर्ट पहने है, मांग में सिंदूर और हाथ में चूड़ियां भी नहीं पहने है। फिर दोनों यूं एक दूसरे से दूर दूर बने रहे थे हवलदार जी जैसे टच हुए नहीं कि कयामत आ जायेगी। कुल मिलाकर कहें तो पति पत्नी वाले तो कोई लक्षण हमें नहीं दिखाई दिये। इसलिए गारंटी समझिये कि लड़की कोई गश्ती है, और नहीं है तो पक्का उस सरवा की गर्लफ्रैंड होगी, जिसके साथ मजा मारने के लिए उसने हमारे लॉज में कमरा लिया है।”
“अंटी में माल तो होगा न उसके?”
“जब पर्स से निकालकर किराया दिया, तो हमने साफ देखा था कि वह पांच सौ के नोटों से ठुंसा पड़ा है। सोने की अंगूठी भी पहने थे दोनों, और लड़की ने तो एक चेन भी पहन रखी है जो दो तोले से कम तो हरगिज नहीं हो सकती, काहे कि भारी दिख रही थी। इसी तरह उसके कान में भी मोटे मोटे टॉप्स दिखाई दिये थे। फिर बैंक में भी तो कुछ रखे होंगे, जो आप निकलवाईये लेंगे, आखिर पहले भी तो कई बार ऐसा कर चुके हैं।”
“कमरा नंबर बोलो उनका?”
“एक सौ पांच, पहली मंजिल पर।”
“ठीक है खबर लेते हैं जाकर।”
“एक बात और हवलदार साहब।”
“क्या?”
“इस बार हमारा थोड़ा ज्यादा ख्याल रखियेगा।”
“देखेंगे, पहले माल हासिल तो हो जाये।” कहने के बाद वह दोनों सिपाहियों के साथ सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
दरवाजे पर पहली बार दस्तक पड़ते के साथ ही पांडे चौंकता हुआ उठकर बैठ गया, फिर दोबारा दस्तक दी गयी तो उसने उच्च स्वर में पूछा, “कौन है?”
“किचन में आग लग गयी है सर - नसीब सिंह नाम का सिपाही घबराये लहजे में बोला - जिसके पूरे होटल में फैल जाने का खतरा है, इसलिए तुंरत बाहर निकल जाइये, वक्त बर्बाद मत करियेगा, काहे कि हम दोबारा नहीं आयेंगे।” कहते हुए उसने जोर जोर से अपने पैरों को फर्श पर यूं पटकना शुरू किया जैसे तेज कदमों से बढ़ा जा रहा हो।
तब तक अराध्या भी उठकर बैठ चुकी थी।
“क्या हुआ?” वह हड़बड़ाई सी बोली।
“कोई बोलकर गया है कि किचन में आग लग गयी है।”
“ये भी अभी होना था, जानते होते तो वापिस ही लौट गये होते।”
“चलो निकलते हैं यहां से।”
“कहीं दूसरी बात तो नहीं है पांडे जी?” लड़की धीरे से बोली।
“मतलब?”
“अतीक के आदमी?”
“नहीं, उनके यहां पहुंचने की उम्मीद नहीं की जा सकती, जब हमें ही नहीं मालूम था कि रात कहां गुजारेंगे तो उन्हें भला कैसे खबर लग सकती है। फिर हम लोग लखनऊ में हैं ना कि आजमगढ़ में, इसलिए ज्यादा दूर की मत सोचो, अब चलो यहां से।”
तत्पश्चात दोनों दरवाजे तक पहुंचे फिर पांडे ने सिटकनी हटाकर गेट खोला तो सामने पुलिस को खड़ा देखकर भौंचक्का रह गया। मगर इससे पहले कि वह कुछ कह पाता, हवलदार किशनचंद उसे धकेलता हुआ दोनों सिपाहियों के साथ भीतर दाखिल हो गया।
मंगू ने दरवाजे को चौखट के साथ सटा दिया।
“क्या बात है?”
“नाम बोलो अपना।” किशनचंद गुर्राता हुआ बोला।
“अनुराग पांडे।”
“और मैडम का?”
“अराध्या राजपूत।”
“तुम पांडे और ये राजपूत, जबकि रिसेप्शन पर खुद को पति पत्नी लिखवाये हो, माजरा क्या है ससुर के? लड़की को भगाकर लाये हो का? या धंधे वाली है।”
“तमीज से बात कीजिए।”
“हम तमीज से बात करें, मतलब हवलदार किशनचंद तमीज से बात करे, तुम न करो जो यहां अय्याशी करने के लिए आये हो। बहन...सोच समझकर जुबान खोला वरना अबहियें तुम्हारे पिछवाड़े में डंडा घुसेड़ देंगे हम।”
“आपको कोई गलतफहमी हो रही है सर - कहते हुए अराध्या ने पांडे की बाहों में अपनी बाहें पिरो दीं - ये हमारे हस्बैंड ही हैं अनुराग पांडे। सरनेम अलग इसलिए हैं क्योंकि लव मैरिज किये थे हम।”
“और लव मैरिज करने के लिए तुम्हें अपनी उम्र का कोई लड़का नहीं मिला? हमें क्या चू...समझी हो? अब एक सेकेंड में सच्चाई बयान करो वरना मार मार कर खाल उधेड़ देंगे, काहे कि अपने इलाके में इस तरह की अय्याशियां बर्दाश्त नहीं कर सकते हम।”
“बहुते कड़क हैं साहब जी - सिपाही मंगू पांडे के पास पहुंचकर फुसफुसाता हुआ बोला - पिछली बार तुम लोगों जैसे एक जोड़े को तो यहां से घसीटकर चौकी ले गये थे, जहां पहले तो जमकर उन्हें मार लगाये, उसके बाद मीडिया को बुलाकर दोनों का जुलूस निकाल दिये, इसलिए होशियारी दिखाने की कोशिश मत करो।”
पल भर को पांडे के दिमाग में आया कि उन्हें अपना असली परिचय दे दे, जिसके बाद हवलदार ने यकीनन उसका पीछा छोड़ ही देना था, मगर दिया नहीं, ये सोचकर खामोश रह गया कि पहले उनकी असल मंशा जान ले। क्योंकि उन्हें लॉज के किसी कमरे में उनके होने की खबर हवलदार को यूं ही नहीं लग गयी हो सकती थी।
“अब बोलो, क्या कहानी है तुम्हारी?” हवलदार गरजकर बोला।
“कोई कहानी नहीं है, हम दोनों पति पत्नी ही हैं।”
“साबित करो।”
“कैसे करें?”
“सोचो, कोई रास्ता निकालो - फिर कमरे में इधर-उधर निगाह मारता हुआ बोला - तुम्हारे पास कोई सामान क्यों नहीं है?”
“सामान कार में है जो लॉज के बाहर खड़ी है।”
‘कार भी है - हवलदार की आंखें चमक उठीं - मतलब पैसे वाला आदमी था।’
“जहां भी है ठीक है, अभी तुम ये बताओ कि अपनी बात को सही साबित कर सकते हो या नहीं कर सकते, नहीं कर सकते तो बहुत बुरे फंसे हो बेटा।”
“नहीं कर सकते, क्योंकि हम आजमगढ़ के रहने वाले हैं।”
वह बात सुनकर किशनचंद की आंखें पहले से ज्यादा चमक उठीं।
“लखनऊ में कोई जानकार है जो इस बात की हामी भर दे कि तुम दोनों सच में मियां बीवी ही हो?”
“नहीं यहां हम किसी को नहीं जानते।”
“होटल में क्यों रुके?”
“क्योंकि हॉस्पिटल आये थे, जहां रात हो गयी, इसलिए सोचा इधरे रुक जाते हैं।”
“काहे आजमगढ़ चांद पर है?”
“नहीं धरती पर है।”
“फिर वापिस लौटने में क्या प्रॉब्लम थी?”
तभी अराध्या को चुहल सूझ गयी, क्योंकि पुलिस के आने से डरा तो उनमें से कोई एक भी नहीं था। ये भी समझ चुके थे कि हवलदार का इरादा बस उनसे पैसे ऐंठने का था, ना कि वह उन्हें गिरफ्तार कर के चौकी या थाने ले जाने वाला था।
“बड़ी मुश्किल से एकांत मिला था सर - वह मुस्कराती हुई बोली - इसलिए सोचे क्यों न किसी होटल में चलकर फायदा फायदा उठा लिया जाये, अब घर पर पांच बच्चों के रहते तो कुछ कर पाना मुमकिन नहीं हो पाता न, हर वक्त यही डर लगा रहता है कि कहीं उनमें से कोई उठकर बैठ न जाये।”
“तुम्हारे पांच बच्चे हैं?” किशनचंद हैरानी से बोला।
“हां, और छठें की तैयारी कर रहे थे तभी आप खीर में मक्खी की तरह यहां पहुंच गये।”
“हमें तो तुम शादीशुदा भी नहीं लगतीं।”
“ऊ का है न कि हमारी त्वचा से उम्र का पता ही नहीं लगता, काहे कि हम संतूर साबुन लगाते हैं - कहकर उसने पूछा - आप लगाये हैं कभी?”
“नहीं।”
“तो लगाकर देखियेगा, तब आप भी हमारी तरह दिखने लगेंगे।”
“आपका मतलब है मैडम - नसीब सिंह बोला - संतूर साबुन से नहाकर हमारे साहब आपकी तरह खूबसूरत लड़की में बदल जायेंगे?”
“हां बदल जायेंगे, तब तुम जब चाहे इन्हें लेकर लॉज में घुस आना।”
“अपनी हद में रहकर बात करो लड़की।” हवलदार गुर्राया।
“आप काहे अपनी हद भूले जा रहे हैं?”
हवलदार कसमसाया, क्योंकि उसका जोर नहीं चल पा रहा था। उसे ये बात भी हैरान कर रही थी कि पुलिस को देखकर दोनों के चेहरे पर जरा भी भय के भाव नहीं आये थे।
‘कहीं ससुरे सच में पति पत्नी ही तो नहीं थे?’
‘लग तो नहीं रहे थे।’
“देखो सच बता दो - प्रत्यक्षतः वह बोला - वरना हम तुम्हें अभी के अभी गिरफ्तार कर लेंगे, फिर चौकी ले जाकर ऐसी गत बनायेंगे कि जीवन भर याद करोगे कि किसी पुलिसवाले से पाला पड़ा था।”
“अरे ऐसा मत करियेगा प्लीज, वरना बहुते बेईज्जती हो जायेगी हमारी।”
“उसका ख्याल हम क्यों करें?”
“अरे बात को समझिये।”
“क्या समझें?”
“गुस्सा थूक कर सेवा पानी बोलिये न, हमें गिरफ्तार कर के आपको क्या हासिल होगा?”
“रिश्वत की बात कर रही हो?”
“और क्या कह रहे हैं हम, आईए आराम से बैठ जाइये आप लोग - उसने बेड की तरफ इशारा किया - फिर मिलजुलकर कोई रास्ता निकाल लेते हैं।”
“यानि मियां बीवी नहीं हो?”
“नहीं उस मामले में तो आप कमाल का अंदाजा लगाये हैं।”
“काहे कि हमारे निगाहें बहुत तीखीं हैं - कहता हुआ वह आगे बढ़कर बेड पर बैठ गया, दोनों सिपाही उसके दायें बायें खड़े हो गये, फिर बोला - बड़ा मामला है, साहब लोगों को भी हिस्सा देना पड़ेगा, उतना माल है तुम्हारी अंटी में?”
“यानि खाने को तैयार हैं आप?”
“क्या?”
“लात।”
“क्या बक रही हो?”
जवाब में अराध्या ने एक जोर की लात उसके सीने पर जमाई, और बेड पर चढ़कर उसकी छाती पर सवार हो गयी, अगले ही पल उसकी गन हवलदार के माथे से सट चुकी थी।
किशनचंद सिर से पांव तक कांपकर रह गया।
दोनों सिपाही हकबकाये से वह नजारा देखने लगे, क्योंकि तब तक पांडे की रिवाल्वर उनकी तरफ तन चुकी थी। वैसे भी हथियारबंद तो उन तीनों में से कोई एक भी नहीं था। इसलिए वह गन नहीं भी दिखाता तो अपनी जगह से हिलने की मजाल उनकी नहीं होने वाली थी।
“भोस...के इहां पहुंचकर हमारे आराम में खलाल डाल दिये तुम - अराध्या गुर्राती हुई बोली - जिसका मौका बहुते मुश्किल से मिला था, मन तो करता है कि छह की छह गोलियां तुम्हारे हलक में घुसेड़ दें हम।”
“क...कौन हो तुम?”
“गुंडी हैं, अब तक दस लोगों की जान ले चुके हैं, ग्यारहवें तुम होगे।”
“ऐसा मत करना - हवलदार गिड़गिड़ाया - हमारे दो बच्चे हैं।”
“बीवी नहीं है?”
“वो भी है।”
“तो उसका हवाला क्यों नहीं दिया साले?”
हवलदार से कुछ कहते नहीं बना।
“वैसे हम तुझे मार देंगे तो अच्छा ही होगा, तेरे बच्चों को नया बाप मिल जायेगा, और तेरी बीवी को भी टेस्ट बदलने का मौका हासिल हो जायेगा, काहे कि बोर तो होईये गयी होगी तुझे जैसे लीचड़ आदमी से।”
“म...माफ कर दो।”
“कोई एक वजह बता कि क्यों माफ कर दें?”
“हमसे तुम्हारी कोई दुश्मनी नहीं है।”
“अब तो बन गयी है।”
“हम बबलू के बहकावे में आ गये थे।”
“बबलू कौन?”
“रिसेप्शन वाला लड़का।”
“उसने बुलाया तुम्हें?”
“हां, वही खबर किये था।”
“यानि असली पुलिसवाले नहीं हो?”
“हैं चाहो तो हमारा आई कार्ड देख लो।”
अराध्या उसके ऊपर से हट गयी।
“जेब में जितने भी पैसे हैं निकालकर बेड पर रखो।”
जवाब में हवलदार ने अपना पर्स खोला और जितने भी नोट मौजूद थे निकालकर उसके सामने रख दिया।
“अब गिनो की कितने हैं?”
“त...तीन हजार।”
“और हमसे कितना झटकने वाले थे?”
किशनचंद से जवाब देते नहीं बना।
फिर उसी तरह अराध्या ने सिपाहियों की भी जेब खाली करवा ली। कुल मिलाकर पचपन सौ रुपये बरामद हुए, जिन्हें उठाकर उसने अपनी जेब में ठूंस लिया। पैसों का कोई लालच उसे नहीं था, लेकिन जाने से पहले उन्हें थोड़ा नुकसान पहुंचाना चाहती थी, इसलिए पैसे अपने पास रख लिये।
“अब जिंदा रहना चाहते हो तो पंद्रह मिनट तक यहां से हिलने की भी कोशिश मत करना, काहे कि उस दौरान हम नीचे बबूल का फातिहा पढ़ रहे होंगे, और बीच में तुम आये तो कसम से गोली मार देंगे हम।”
“न...नहीं आयेंगे।”
तत्पश्चात दोनों ने बाहर निकलकर कमरे को लॉक किया फिर सीढ़ियां उतरकर रिसेप्शन पर पहुंचे, जहां लड़की ने तुरंत अपनी गन सामने की तरफ तान दी।
बबलू हकबकाकर उनकी शक्ल देखने लगा।
“गल्ला खाली कर, कोई अठन्नी भी बची नहीं रह जानी चाहिए।” अराध्या बोली।
“क....क्या मतलब?”
“भूतनी के तुम्हारी वजह से तीन पुलिसवालों की जान चली गयी और तुम मतलब पूछ रहे हो? अब फटाफट पैसे निकालो, नहीं तो चौथी लाश हम तुम्हारी बिछा देंगे।”
इंकार करने की बबलू की मजाल नहीं हुई, उसने तुरंत दराज में पड़े पैसे निकालकर उनके सामने रख दिये, जो आठ दस हजार से कम तो क्या रहे होंगे।
“अब अपना पर्स खाली कर।”
उसने वह भी किया, और सात सौ रूपये निकालकर डेस्क पर रख दिये, जिन्हें उठाकर अराध्या ने अपनी जेब में ठूंसा फिर बबलू का गरेबान थामकर एक के बाद एक दो मुक्के उसके थोबड़े पर जमाने के बाद बोली, “आईंदा किसी कस्टमर को प्रॉब्लम में डालने से पहले ये नुकसान और मार दोनों याद कर लेना, वरना अगली बार हम यहां पहुंचकर तुम्हारे भेजे में बुलेट गाड़ देंगे, समझ गया?”
जवाब में उसने बुरी तरह बिलबिलाते हुए ऊपर नीचे मुंडी हिला दी, तब अराध्या ने उसे जोर से धक्का दिया और ये देखे बिना कि वह कुर्सी से नीचे गिर गया था या उसपर बना हुआ था, बाहर की तरफ बढ़ चली।
“तो अब तुम डकैत भी बन गयीं?” पांडे कार में दाखिल होता हुआ बोला।
“जब हत्यारिन बन गये हैं दरोगा जी तो डकैती उसके सामने भला क्या मायने रखती है। वैसे पैसों का लोभ नहीं है हमें, रास्ते में कोई मंदिर दिखाई दिया तो दानपेटी में डाल देंगे, नहीं तो किसी मांगने वाले को दे देंगे।”
पांडे ने कार आगे बढ़ा दी।
पौने दो के करीब लखनऊ से आजमगढ़ के लिए रवाना हुए अनुराग पांडे और अराध्या सुबह पांच बजे बलरामपुर पहुंच गये। वह पांडे की तेज रफ्तार ड्राईविंग का नतीजा था जो उसने जीवन में पहली बार की थी, इसलिए क्योंकि उजाला होने से पहले वहां पहुंच जाना चाहता था।
कार को दूर खड़ी कर के दोनों इधर उधर गलियों से होते हुए अराध्या के घर तक पहुंचे। जहां अतीक के किसी आदमी के निगरानी करता होने का अंदेशा तो नहीं था लेकिन उनका इरादा आगे कई घंटों का वक्त वहां गुजारने का था, इसलिए ये भी नहीं चाहते थे कि किसी पड़ोसी की उनपर निगाह पड़े, जिसके लिए अंधेरे में वहां पहुंचना बहुत जरूरी था।
आवागमन शुरू हो चुका था, मगर अभी उजाला नहीं हुआ था, इसलिए अराध्या के घर वाली गली एकदम सुनसान पड़ी थी। वहां पहुंचकर उसने ताला खोला फिर भीतर जाकर एक खिड़की खोलने के बाद बाहर निकलकर फिर से ताला लगा दिया, तत्पश्चात दोनों खुली हुई खिड़की के रास्ते घर में दाखिल हो गये।
“पहले ही यहां नहीं आ सकती थीं?” पांडे ने पूछा।
“अरे हमें क्या पता था कि बिन बुलाई मुसीबत आ टपकेगी पांडे जी, इसलिए होटल में आराम करना सूझ गया।”
“अच्छा ही हुआ जो हम दिन निकलने से पहले यहां पहुंच गये वरना इधर का रुख भी नहीं कर पाते। और दूसरा कोई ठिकाना कम से कम मेरे पास तो नहीं ही था, तुम भले ही हॉस्टल में पनाह हासिल कर लेतीं।”
“फिर तो सच में अच्छा ही हुआ, अब जहां चाहें फन्नाकर सो जाइये, क्योंकि बाहर ताला बंद है, और हमें यहां पहुंचते किसी ने देखा नहीं है। मतलब चिंता की कोई बात नहीं है।”
“आगे क्या करना है, कुछ सोचा है?”
“नहीं सोचने वाला काम हम आप पर छोड़ दिये हैं, जो कहेंगे हम करेंगे, जहां चलने को कहेंगे बिना सवाल किये चल पड़ेंगे।”
“पहली बार तुम्हारा फोन आने से पहले हमारा इरादा एसपी ऑफिस में घुसकर वहां के स्टॉफ के साथ घुल मिल जाने का है। काहे कि वहीं से अतीक का कोई सुराग मिलने की उम्मीद कर रहे थे हम, मगर तुम्हारी कॉल आ गयी तो उसके बाद टाईम ही नहीं मिला, क्योंकि हम दूसरे कामों में लग गये।”
“घुसते कैसे?”
“सिपाही की वर्दी पहनकर, जिसका इंतजाम हम पहले से किये बैठे हैं, उसे रखे भी तुम्हारी कार में ही हैं।”
“फौरन पहचान लिए जायेंगे।”
“हालांकि वहां का पूरा स्टॉफ नया है, लेकिन पहचाने जाने का खतरा तो हैइये है। ऊपर से हमारी चौकी के सब इंस्पेक्टर जनार्दन मिश्रा भी वहीं तैनात है। मगर कोशिश तो हम करबे करेंगे, कोई पहचान भी गया तो सूली पर थोड़े ही लटका देगा, कह देंगे कि हम एसपी साहब को कोई खास जानकारी देना चाहते थे, मगर अतीक के लोग हमपर निगाह रख रहे हैं इसलिए वेश बदल कर आ गये थे।”
“और जानकारी क्या देंगे?”
“ऊ तो हमारे पास बहुते है।”
“तो उसका इस्तेमाल खुद काहे नहीं करते?”
“क्योंकि उनमें से कोई एक भी ऐसी नहीं है जो हमें अतीक तक ले जा सकती हो, हां वह गायब नहीं हो गया होता तो अपनी जानकारियों के बूते पर हम पक्का उसका नुकसान करने में कामयाब हो गये होते। मगर अभी तो हम उसकी हवेली में बम भी फोड़ दें तो वह सामने नहीं आने वाला।”
“वैसे इंफॉर्मेशन है क्या आपके पास?”
“उसके धंधों के बारे में, उसके आदमियों के बारे में, जैसे हम जानते हैं कि हवेली से अलग भी उसका एक ठिकाना है जहां पचासों मुस्टंडे कोई काम ना होने की सूरत में आराम फरमा रहे होते हैं। जैसे कि हम उसकी शराब की फैक्ट्री के बारे में जानते हैं, जहां अंग्रेजी शराब की बोतलों में देसी शराब भरकर आगे सप्लाई दे दी जाती है। जैसे कि उसकी कट्टा फैक्ट्री खबर है जहां बीसियों लोग काम करते हैं।”
“आदमी कहां रहते हैं?”
“बस अड्डे के पास अगल बगल दो लॉज हैं, वह दोनों ही अतीक की मिल्कियत हैं, जहां उसके आदमियों का बसेरा हुआ करता है। दोनों में ही ऊपर की तीन मंजिलों पर किसी बाहरी आदमी को कमरा नहीं दिया जाता, काहे कि वह हर वक्त उसके आदमियों से भरा रहता है।”
“ऐसी किसी जगह पर हम धावा क्यों नहीं बोल सकते?”
“क्योंकि दो लोग पचास लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते, और हमें वैसा कुछ करने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि हमारा काम तो बस अतीक को खत्म कर देने से ही पूरा हो जायेगा। जब वही जिंदा नहीं बचेगा तो उसका गैंग भला कैसे कायम रह सकता है, सब पलक झपकते ही बिखर जायेंगे।”
“हमें तो लगता है कि अतीक के बाद कलंकी सब संभाल लेगा।”
“संभाल सकता है, इसलिए जरूरी है कि अतीक के साथ-साथ उसका भी नामोनिशान मिटा दिया जाये।”
“तो अभी आराम करते हैं, जब उठेंगे तो सोचेंगे इस बारे।”
जवाब में पांडे ने सहमति में गर्दन हिला दी।
बलिया में शूट आउट
सुबह ग्यारह बजे के करीब इंस्पेक्टर दिनेश राय एसपी के कमरे में पहुंचा और उसे सेल्यूट करने के बाद विश्राम की मुद्रा में दोनों हाथों को पीठ पीछे बांधकर खड़ा हो गया।
“कुछ पता लगा दिनेश?”
“यस सर।”
“क्या?”
“गोरखपुर पुलिस ने एसआई मनीष यादव के कपड़ों से बरामद सामान हमें भेजा था, जिसमें एक पॉकेट डायरी भी है। उस डायरी के भरे हुए पृष्ठों के आखिर में दो खास बातें दर्ज हैं - कहते हुए उसने अपनी जेब से यादव की डायरी निकालकर एक जगह से खोला और सुखवंत सिंह के सामने मेज पर रखता हुआ बोला - पहला उस घर की पहचान के संदर्भ में है, जहां उसकी और चौबे की डेडबॉडी बरामद हुई थी, इसलिए हम कह सकते हैं कि उसने जो कुछ भी नोट किया था वह मनसुख से पूछताछ कर के नोट किया था, क्योंकि उससे पहले हमारे पास एडी मॉल वाला एड्रेस उपलब्ध नहीं था, आगे एक लाईन में ‘बलिया थानेदार के साथ दोस्ती, स्टेशन के पीछे थानेदार का मकान’ लिखा है। हमने मनसुख से पूछताछ के दौरान यादव के साथ रहे सिपाहियों से सवाल किया तो उन्होंने बताया कि असल में वह चंगेज खान का ही एक ठिकाना है, जिसके बारे में बताते हुए मनसुख ने कहा था कि थानेदार के साथ खान की अच्छी दोस्ती है, इसलिए जब भी बलिया जाता है उसके मकान में ही ठहरता है, और वह मकान स्टेशन के पीछे है।”
“तुम्हें लगता है चंगेज खान वहां पनाह लेने की कोशिश कर सकता है?”
“कर सकता है सर, क्योंकि कहीं न कहीं तो उसे छिपना ही है, ऐसे में थानेदार साहब का मकान ज्यादा मुफीद साबित हो सकता है। हां अभी वहां पहुंचा है या नहीं कहना मुश्किल है।”
“तो एक काम करो।”
“क्या सर?”
“तुम और मिश्रा तुरंत बलिया निकल जाओ, और लुक छिपकर ये जानने की कोशिश करो कि चंगेज वहां है या नहीं, अगर होने के आसार दिखाई दें तो हमें खबर कर देना, मतलब खुद उसे पकड़ने की कोशिश नहीं करनी है।”
“ठीक है सर चले जाते हैं।”
“और थानेदार के मकान के बारे में भी कोई जुगत भिड़ाकर पता करना, ना कि सीधा पूछताछ करने लग जाना। वरना बात लीक हो जायेगी। और अब हम अपने एक भी ऑफिसर की जान नहीं जाने देना चाहते।”
“मैं समझ गया सर।”
“चौरी चौरा की क्या खबर है?”
“अच्छी खबर है सर, वहां से पुलिस को अड़तीस लाशें मिलीं हैं, जिनमें से बस चार अंसारी गैंग के लोगों की है, पता नहीं फैक्ट्री में मौजूद आदमियों की संख्या के बारे में मनसुख को ढंग की जानकारी नहीं थी, या बाकी के लोग भागने में कामयाब हो गये थे, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि चंगेज खान के चौंतीस आदमी मारे जा चुके हैं।”
“फिर तो कलंकी ने कमाल ही कर दिया।”
“हां सर किया तो कमाले है, तभी तो बिना बुलाये पहुंच गया यहां।”
“कहां है?”
“बाहर बैठा है।”
“क्या चाहता है?”
“मिलना चाहता है, हमारे ख्याल से तो आपको अपना वादा याद दिलाने आया होगा।”
“ठीक है बुलाओ उसे।”
जवाब में दिनेश बाहर गया और कलंकी को अपने साथ लिवा लाया।
“नमस्कार एसपी साहब।”
“नमस्कार, बैठो।”
“हम अपना वादा पूरा कर दिये।”
“जानते हैं हम।”
“अब आपकी बारी है, वैसे याद तो है न कि आप हमसे क्या कहे थे?”
“हां याद है, बस थोड़ा वेट करो, जरा हम चंगेज खान को ठिकाने लगा दें, उसके बाद अगला नंबर अनल सिंह का ही होगा। हां अतीक को बेशक खबर कर दो कि अब उसे छिपकर रहने की जरूरत नहीं है।”
“वो तो हम तब तक नहीं कह सकते एसपी साहब जब तक कि आप अनल सिंह को गोली नहीं मार देते, काहे कि उसके बाद ही हम यकीन कर पायेंगे कि अब अतीक भईया को पुलिस से कोई खतरा नहीं रह गया है।”
“हमारी जुबान पर यकीन नहीं है तुम्हें?”
“नहीं है, काहे कि इहां लोगों को मिनट भर भी नहीं लगता अपनी बात से पलटी मारने में। लेकिन अनल सिंह के बारे में हम अच्छे से जानते हैं कि सरकार उन्हें बचाना चाहती है, ऐसे में आप उन्हें खत्म कर देंगे तो हम यकीन कर लेंगे कि आप वादे पर खरे उतरे हैं। तब भईया आपको सलाम ठोंकने के लिए खुदे यहां हाजिर हो जायेंगे।”
“फिर तो तुम्हें थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।”
“कर लेंगे सर, उसमें क्या प्रॉब्लम है, फिर भईया पहले भी ऐश से रहते थे, अभी भी ऐश ही कर रहे हैं, मतलब उनके लिए कुछ भी नहीं बदला है। वह दिखाई भले ही नहीं दे रहे लेकिन हुकूमत तो उनकी ज्यों की त्यों कायम है।”
“लगता है आजमगढ़ में ही कहीं छिपे हुए हैं अतीक अंसारी, है न?”
“छिपे नहीं हैं, काहे कि शेर को किसी बात का डर नहीं होता। और बुरा मत मानियेगा एसपी साहब, सच यही है कि अतीक भईया हमेशा पुलिस से संबंध बनाकर चलने में यकीन रखते हैं, वरना तो अब तक जाने क्या हो चुका होता।”
“मतलब?”
“सुनकर आपको अच्छा नहीं लगेगा।”
“अरे बता दो, हम बुरा नहीं मानेंगे।”
“जब मुझ जैसा उनका आदमी चौरी चौरा में कदम रखे बिना चंगेज के चौंतीस आदमियों को मौत के घाट उतार सकता है, तो एसपी ऑफिस में क्या सब लोग तोप लिये बैठे हैं? मतलब ये कि भईया को अगर पुलिस का लिहाज नहीं होता तो अब तक यहां की एक ईंट भी सलामत नहीं बची होती, और उन ईंटों के मलबे में जाने कितने बेचारे पुलिसवालों की लाशें दबी पड़ी होतीं।”
“तुम हमें धमकी दे रहो हो?”
“नहीं सर, सच बता रहे हैं, फिर हम पहले ही वार्न किये थे कि हमारी बात सुनकर आपको बुरा लग जायेगा, काहे कि सच्चाई कड़वी होती है।”
“चंगेज के चौंतीस आदमियों को मार गिराना और दो दर्जन पुलिसवालों को खत्म कर देना तुम्हें एक ही बात लगती है कलंकी, का बौरा गये हो तुम?”
“नहीं एक ही बात नहीं है सर, काहे कि चंगेज के आदमी हमले के लिए एकदम तैयार बैठे थे, इसी वजह से उन्हें खत्म करना थोड़ा मुश्किल था, मगर यहां तो सब लोग इतने लापरवाह हैं कि हम अपनी अंटी में गन दबाये आपके सामने आ बैठे और किसी ने हमारी तलाशी तक लेने की कोशिश नहीं की। अभी हम रिवाल्वर निकालकर आप दोनों को शूट कर देते तो बाद में खुद भले ही मारे जाते - वैसे प्लॉनिंग कर के आये होते तो बच भी सकते थे - लेकिन आप दोनों तो भगवान को प्यारे हो जाते न। तबहीं कहे कि यहां हमला करना चंगेज के आदमियों को मार गिराने से कहीं ज्यादा आसान का है।”
सुनकर सुखवंत सिंह के चेहरे पर पल भर के लिए बड़े ही क्रोध के भाव उभरे, जिन्हें जब्त करता हुआ वह बोला, “और कुछ कहना चाहते हो?”
“एक आखिरी बात, अगर आप इजाजत दें।”
“कहो?”
“हम अपना वादा पूरा किये, आप नहीं करेंगे तो भी हमें कोई शिकायत नहीं होगी, काहे कि हम तो बस दुश्मनी निकाले हैं। एक तरह से चंगेज के आदमियों की खबर कर के आपने हमारा भला ही किया था। अब ऊ ससुरे की ऐसी कमर टूटी है कि वापिस खड़ा होने में कई महीने लग जायेंगे।”
“नहीं अब वह खड़ा नहीं हो पायेगा, और हम अपना वादा भी जरूर पूरा करेंगे।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है, हम इंतजार करेंगे।”
“बस एक दो दिन कलंकी, उससे ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा।”
“थैंक यू सर, अब हम इजाजत चाहेंगे।” कहकर वह उठा और एसपी को एक फरामाईशी सेल्यूट देकर वहां से निकल गया।
“लगता है अतीक से पहले इस कमीने का कोई इंतजाम करना पड़ेगा।”
“हम तो पहले ही कहे थे सर।”
“जानता हूं कि पहले तुमने क्या कहा था, अब मिश्रा को साथ लो और तुरंत बलिया के लिए निकल जाओ। मगर सावधान रहना, क्योंकि यादव और चौबे की मौत पहले ही हमपर बहुत भारी गुजरी है। अब वैसा फिर से होता नहीं देखना चाहते हम।”
“हम ध्यान रखेंगे सर।” कहकर वह कमरे से बाहर चला गया।
उसी वक्त मेज पर रखा लैंडलाईन फोन घनघना उठा, सुखवंत सिंह ने कॉल अटैंड की तो पता लगा दूसरी तरफ डीआईजी भगंवत राय था।
“नमस्कार सर।”
“नमस्कार, लगता है तुम्हारी जीभ का जख्म अभी भरा नहीं है।”
“भर चुका है सर, लेकिन टांके अभी गले नहीं हैं, इसलिए बोलने में थोड़ी परेशानी होती है, अटपटा भी लगता है। लेकिन उससे हमारे काम में कोई रुकावट नहीं आ रही। क्योंकि मैं जुबान की बजाये गोली चलाना ज्यादा पसंद करता हूं।”
सुनकर भगवंत सिंह ने जोर का ठहाका लगाया, फिर पूछा, “कोई अपडेट?”
“चंगेज खान के चौंतीस और अतीक के चार आदमियों के मारे जाने की खबर है सर।”
“खबर है, मतलब तुम नहीं मारे?”
“नहीं सर, लेकिन मारे हमारी वजह से ही गये हैं।”
“कैसे?”
“अतीक गैंग को टिप भिजवा दिया कि चंगेज की फैक्ट्री में उसके पचासों आदमी मौजूद हैं, उसके बाद जो किया कलंकी ने किया, हम तो बस तमाशा देखे थे।”
“लगता है कुछ ही दिनों में उधर की भाषा अच्छे से सीख गये हो।”
“क्योंकि सामने वाले को समझाने का सबसे बढ़िया तरीका यही होता है सर कि उससे उसी की लैंग्वेज में बात की जाये, तब ज्यादा असर होता है।”
“खैर मंत्री जी तुम्हारे काम से बहुते खुश हैं, कहे हैं कि चंगेज और अतीक के खात्में के बाद मैडल के लिए तुम्हारी सिफारिश भी करेंगे।”
“बहुत अच्छी खबर दी सर थैंक यू।”
“इसलिए जल्दी से दोनों का चैप्टर क्लोज करो।”
“बस कुछ दिन और सर, वैसे हम एक चाल चले हैं अतीक को उसके बिल से बाहर निकालने के लिए, अगर कामयाब हो गये तो एक दो दिनों से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा, रही बात चंगेज की तो हो सकता है आज रात ही आपको कोई गुड न्यूज देने में कामयाब हो जायें हम।”
“सुराग पा गये हो क्या उसका?”
“उम्मीद बराबर बंधती नजर आ रही है सर, बाकी असल बात का पता शाम तक लगेगा, इसलिए अभी गारंटी के साथ वह बात नहीं कह सकते।”
“कोई बात नहीं, लेकिन अपना ख्याल रखना। गदर मचाकर रख दिये हो तुम आजमगढ़ में, इसलिए अपराधी खूबे बौखलाये हुए भी होंगे। मतलब तुम्हारी हालत इस वक्त ठीक वैसी ही है जैसी दांतों के बीच बेचारी जीभ की होती है। जरा सी गलती हुई नहीं कि दांत उसे कुचलकर रख देते हैं।”
“मौत का वैसे तो कोई भरोसा नहीं है सर, लेकिन इतना तय समझिये कि किसी अतीक या चंगेज के हाथों नहीं मरने वाले हम। बाकी सावधानी तो हम बरत ही रहे हैं।”
“बरतना ही चाहिए, आखिर तुम और हम हाड़ मांस के ही तो बने हैं, ना कि वर्दी पहन लेने से अमरत्व हासिल हो जाता है हमें। अब रखते हैं, अपडेट देते रहना।” कहकर भगवंत सिंह ने कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
दरोगा मुंशीचंद की लाश हाईवे पर बरामद होने की खबर मिलते ही सारा माजरा पलक झपकते ही कलंकी की समझ में आ गया था। ये भी कि ट्रैप असल में उसके लिए लगाया गया था, जिसमें फंसने से वह बस बाल बाल बचा था।
फोन पर मुंशीचंद द्वारा बताया गया ऑल्टो का नंबर उसे अभी भी याद था, इसलिए एसपी ऑफिस जाने से पहले ही छह आदमियों को कार की तलाश में जिले का चप्पा-चप्पा छानने के लिए भेज दिया था।
वह छहों लोग बाईक पर सवार पूरे जिले की खाक छान रहे थे, इसलिए एक आदमी बलरामपुर भी पहुंचा था। वह जहां भी व्हाईट कलर की ऑल्टो कार देखता तुरंत उसके रजिस्ट्रेशन नंबर पर एक निगाह मार लेता था। ऐसे में कभी न कभी तो उसे 1452 नंबर की गाड़ी तक पहुंचकर रहना था। वह पहुंचा भी। फिर कार के नंबर पर निगाह पड़ते ही उसने उत्साहित होकर कलंकी को उस बात की जानकारी दे दी।
तब तक दोपहर के एक बज चुके थे।
कलंकी उस वक्त हवेली में खाली बैठा था। खबर पाते ही उसने कार की तलाश में भटक रहे बाकी के पांच लड़कों को तुरंत बलरामपुर पहुंचने को कहा फिर खुद भी वहां के लिए निकल गया।
हवेली से बलरामपुर पहुंचने में उसे पूरे पैंतालिस मिनट लग गये, तब तक बाकी के पांचों लड़के भी वहां पहुंच चुके थे। अपने पीछे हवेली में वह दो लड़कों को छोड़ आया था, क्योंकि घर खाली रखना उसे ठीक नहीं लगा था।
ऑल्टो एक आम के बगीचे में खड़ी थी, और यूं खड़ी थी कि कोई खास उसी की तलाश में नहीं होता तो सड़क से गुजर जाता और उसे गाड़ी की भनक तक नहीं लगती।
कलंकी ने एक नजर कार की नंबर प्लेट पर डाला फिर रिवाल्वर के दस्ते का प्रहार कर के उसके पैसेंजर साईड का विंडो ग्लास तोड़ दिया। उसके बाद ग्लब बॉक्स चेक किया तो भीतर गाड़ी की आरसी मिल गयी, जिसके मुताबिक वह कार अराध्या राजपूत के नाम से रजिस्टर्ड थी। यानि सेम कलर और सेम न्यूमिरकल नंबर वाली वह कोई दूसरी ऑल्टो नहीं थी।
उसके बाद किसी के लिए भी इस बात का अंदाजा लगा लेना बहुत आसान काम था कि अराध्या उस वक्त अपने घर में ही होगी। अगले ही पल उसने छहों आदमियों को अपने साथ चलने को कहा तो सब उसकी गाड़ी में सवार हो गये।
दूरी मुश्किल से डेढ़ किलोमीटर की थी, इसलिए पांच मिनट में सब अराध्या के घर पर थे।
मगर मकान पर ताला लटका देखकर कलंकी का सारा उत्साह खत्म हो गया। फिर कुछ क्षण विचार करने के बाद वह छहों आदमियों के साथ वापिस बगीचे में लौट गया, मगर कार तो अभी भी जहां की तहां खड़ी थी, जिसका मतलब बनता था कि दोनों अभी भी उसी इलाके में कहीं मौजूद थे, कम से कम अराध्या तो जरूर थी वरना गाड़ी वहां नहीं खड़ी होती।
अभी भी कलंकी के दिमाग में ये बात नहीं आई कि लड़की किसी खिड़की वगैरह के रास्ते भी घर में दाखिल हुई हो सकती थी, ताकि घर खाली होने का भ्रम बना रहता।
“एक काम करो सब लोग।”
“क्या भईया?”
“बंदर बन जाओ।”
“हम समझे नहीं भईया।”
“हमारा मतलब है अलग अलग पेड़ों पर चढ़कर बैठ जाओ, हम भी यही करेंगे, हमें पूरी उम्मीद है कि लड़की देर सबेर अपनी कार लेने के लिए यहां जरूर पहुंचेगी, और कहीं दरोगा भी उसके साथ हुआ तो मजा ही आ जायेगा, एक ही झटके में दोनों को निबटा देंगे हम।”
“पेड़ पर बैठने की क्या जरूरत है भईया?”
“यहां आराम से बैठने लायक दूसरी कोई जगह नहीं है, इसलिए ऊपर चढ़ जाओ सब, और वहीं से कार पर निगाह रखो।” कहकर वह गाड़ी के सबसे करीब वाले पेड़ के पास पहुंचा और बंदरों जैसी फुर्ती से उसपर चढ़ता चला गया।
बाकी के लोगों ने भी उसका अनुसरण किया और सब अलग अलग पेड़ों पर टंग गये।
वक्त धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा। एक एक मिनट कई कई घंटों के बराबर महसूस हो रहा था। फिर इंतजार से तंग आकर कलंकी ने जब घड़ी देखी तो पाया कि अभी तो बस तीन ही बजे थे, मतलब पेड़ पर चढ़े उसे एक घंटा ही बीता था और वह बुरी तरह बोर हो चला था।
फिर थोड़ी देर बाद उसे वह बात सूझी जो पहले सूझ गयी होती तो एक घंटा वहां बर्बाद नहीं करना पड़ा होता। मतलब ये कि लड़की अपने घर में भी छिपी हो सकती थी।
वह ख्याल जेहन में आते ही वह पेड़ से नीचे उतरा और बाकी लोगों को भी उतरने का इशारा कर दिया। तत्पश्चात एक बार फिर सब लोग अराध्या राजपूत के घर की तरफ चल पड़े।
लड़की एक बजे के करीब सोकर उठी, फिर जल्दी जल्दी तैयार होने में जुट गयी। तत्पश्चात उसने पांडे को जगाया और खुद किचन में पहुंचकर खाना तैयार करने में जुट गयी। घर में कई सारी सब्जियां मौजूद थीं, मगर वह सब की सब सड़ गल गयी थीं, लेकिन आटा एकदम सही सलामत था। उसने नमक और अजवाईन मिलाकर आटा गूंथा और स्टोव पर एक तरफ बिना दूध की चाय चढ़ाकर दूसरी तरफ तवे पर परांठे बनाने में जुट गयी।
तब तक पांडे नहा धोकर तैयार हो चुका था।
दोनों ने एक साथ खाना खाया और आगे की प्लॉनिंग कर ही रहे थे कि बैठक की खिड़की पर उन्हें एक मानव आकृति का आभास मिला, यूं प्रतीत हुआ जैसे कोई बंद खिड़की से अंदर देखने की कोशिश कर रहा हो।
शीशा पारदर्शी नहीं था और बाहर की अपेक्षा भीतर कम रोशनी थी इसलिए इतना तो तय था कि वे लोग किसी को दिखाई नहीं देने वाले थे, मगर ये जानना फिर भी जरूरी था कि बाहर कौन खड़ा था।
फिर पांडे के जेहन में किचन की उस खिड़की का अक्श उभरा जिसके जरिये दोनों भीतर दाखिल हुए थे, वह दौड़कर वहां गया और भीतर से सिटकनी चढ़ा दी।
उसी वक्त बाहर एक से ज्यादा परछाईंयां उसे नजर आईं। होने को कोई भी हो सकता था, मगर उसके दिल से यही आवाज आई कि वह और अराध्या दुश्मनों से घिर चुके थे। तब बेआवाज चलता हुआ वह अराध्या के पास पहुंचा और उसे साथ लेकर सीढ़ियां चढ़ता चला गया।
“क्या हुआ?” लड़की ने पूछा।
“कोई हमारी ताक में है, कम से कम चार लोग तो यकीनन, जबकि असल संख्या उससे कहीं ज्यादा हो सकती है।”
“मोहल्ले के लड़के होंगे।”
“नहीं, हमें नहीं लगता। मोहल्ले के लड़के भला तुम्हारे घर के भीतर झांकने की कोशिश क्यों करेंगे?”
“आपको लगता है अतीक के आदमी हैं?”
“और कौन होगा?”
“खबर कैसे लग गयी उन्हें?”
“तुम्हारी कार तक पहुंच गये होंगे, वह दूर भले ही खड़ी है मगर है तो इसी इलाके में, इसलिए अंदाजा लगा लिया होगा कि तुम अपने घर में ही छिपी बैठी हो।”
“उन्हें हमारी कार का भी कैसे पता हो सकता है?”
“हो सकता है, मत भूलो कि मुंशीचंद के जरिये उसकी खबर कलंकी को खुद हमने ही भिजवाई थी।”
“ओह, अब क्या करें?”
“घर तुम्हारा है, तुम बताओ?”
“नहीं, यहां से बाहर जाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”
“और बिना ग्रिल वाली खिड़की कितनी हैं?”
“बस दो हैं, पहली बैठक में और दूसरी दाईं तरफ को किचन में। बाकी सबपर लोहे की ग्रिल लगी हुई है, मगर उसे उखाड़ फेंकना कोई मुश्किल काम थोड़े ही है।”
“मेरे ख्याल से तो वह बिना ग्रिल वाली खिड़कियों से ही अंदर घुसने की कोशिश करेंगे, जिसकी खबर उन्हें लगकर रहेगी क्योंकि झांक झांककर देख रहे हैं।”
“अब क्या करें?”
“तुम यहीं छिपकर बैठ जाओ और ड्राईंगरूम की खिड़की पर निगाह रखो, हम नीचे जाकर किचन वाली खिड़की को कवर करते हैं। मगर गोली तब तक मत चलाना जब तक कि सब लोग अंदर न पहुंच जायें।”
“पहले ही क्यों न मार दें?”
“क्योंकि तब बाहर खड़े लोग सावधान हो जायेंगे, फिर होगा ये कि अभी चार हैं तो आगे चालीस हो जायेंगे, उसके बाद यहां से निकल पाना नामुमकिन होगा। इसलिए हम सबको पहले अंदर आने देंगे, उसके बाद उनका शिकार करना शुरू करेंगे।”
“हमें ये कैसे पता लगेगा कि सब भीतर आ ही चुके हैं?”
“नहीं लगेगा, लेकिन आना होगा तो वे लोग आगे पीछे ही अंदर दाखिल हो जायेंगे, संख्या ज्यादा हुई तो एक दो लोग बाहर भी रुक सकते हैं। मगर हम ज्यादा से ज्यादा देर तक उनका इंतजार करेंगे, तब तक तो यकीनन जब तक कि उनमें से कोई तुम्हारी या मेरी तरफ बढ़ता नहीं दिखाई दे जाता। उसके बाद हमारी गोली और उनका सिर, लेकिन सावधान रहना क्योंकि दुश्मन कमजोर नहीं है।”
“ठीक है हम समझ गये।”
तत्पश्चात अराध्या वहीं पेट के बल पोजिशन लेकर लेकर लेट गयी, बैठक की खिड़की उसे साफ नजर आ रही थी, इसलिए जरूरत पड़ने पर लेटे लेटे गोली चलाने में उसे कोई प्रॉब्लम नहीं आने वाली थी। जबकि पांडे तेजी से सीढ़ियां उतरता नीचे पहुंचा और किचन के बाहर सामने वाली दीवार के साथ रखी एक आलमारी को खिसकाकर उसके पीछे खड़ा हो गया।
फिलहाल वह दोनों ही मजबूत पोजिशन में थे, क्योंकि उन्हें मालूम था दुश्मन किस रास्ते से अंदर दाखिल हो सकता है। कम से कम तब तक तो यकीनन जब तक कि कलंकी और ज्यादा आदमियों को वहां नहीं बुला लेता।
दोनों सांस रोककर प्रतीक्षा करने लगे।
फिर शीशा तोड़े जाने की आवाज गूंजी और बैठक वाली खिड़की खोल दी गयी, अराध्या गोली चलाने को एकदम तत्पर हो उठी।
देखते ही देखते तीन आदमी खिड़की के रास्ते भीतर दाखिल हो गये, वह तीनों हथियारबंद थे और उनकी निगाहें हर तरफ को फिर रही थीं, मगर अराध्या को फिर भी नहीं देख पाये।
पांडे उनकी तरफ देख तो नहीं रहा था लेकिन किसी के भीतर दाखिल होने का एहसास उसे बराबर हो गया, हां अपनी निगाहें उसने किचन वाली खिड़की पर ही टिकाकर रखी थीं। ये अलग बात थी कि वहां से कोई भीतर आता नहीं दिखाई दे रहा था।
“क्या लगता है महेश? - कलंकी की आवाज पांडे ने साफ पहचानी - मकान खाली है या कोई मौजूद है अंदर?”
“है भईया, काहे कि दो थालियों में खाना खाया गया दिखाई दे रहा है, चाय के गिलास भी हैं, जो कि अभी भी हल्के गरम हैं।”
“ठीक है आते हैं हम।”
तत्पश्चात ताला तोड़े जाने की आवाज गूंजी, उसके बाद बाकी के तीनों आदमियों के साथ कलंकी अंदर दाखिल हो गया।
“कहां छिपी हो मैडम जी - वह जोर से बोला - और दरोगा बाबू आप कहां हैं?”
जवाब नदारद।
“अरे पुलिस के दरोगा को चोरों की तरह छिपना क्या शोभा देता है, सामने क्यों नहीं आते, या मर्दानगी नाम की कोई चीज तुम्हारे भीतर नहीं रह गयी है?”
जवाब नदारद।
“तुम्हीं आ जाओ मैडम, काहे कि बहुते फड़फड़ा रही हो आजकल।”
इस बार भी जवाब नहीं मिला। मगर कलंकी की निगाहों ने जल्दी ही भांप लिया कि सामने रखी आलमारी दूसरी तरफ से तिरछी थी, जबकि उसे दीवार के साथ लगा होना चाहिए था।
मतलब दोनों में से कोई एक या फिर दोनों उस आलमारी के पीछे छिपे हुए थे। उसने अपने आदमियों को इशारा किया और उनके पीछे पीछे उधर को बढ़ चला। अब गोली चलाना अराध्या की मजबूरी थी, वरना पांडे चूहे की तरह फंसकर रह जाता।
उसकी दिली इच्छा थी कि सबसे पहले कलंकी पर गोली चलाये, मगर वैसा करने के लिए उसका उठकर खड़े हो जाना जरूरी था क्योंकि वह तीन चार आदमियों के पीछे चल रहा था। और खड़ा होना बेहद खतरनाक साबित हो सकता था, इसलिए जो सामने थे उनमें से एक के सिर का निशाना लेकर गोली चला दी। हाथ के हाथ दूसरा, तीसरा और चौथा फायर भी कर दिया।
उसके बाद मौका नहीं मिला क्योंकि जिंदा बचे लोगों ने गोलियां चलाते हुए सोफे के पीछे छलांग लगा दी। सिर में गोली खाया लड़का जहां का तहां गिरा हुआ था, उसके बगल में एक और लड़का भी पड़ा था जिसकी सांसे अभी चल रही थीं, क्योंकि जोर जोर से चिल्ला रहा था।
बाकियों में से किसी को गोली लगी थी या नहीं कहना मुहाल था, क्योंकि चिल्ला तो उनमें से कोई एक भी नहीं रहा था।
कुछ देर तक दोनों पार्टियों में से किसी ने भी फायर नहीं किया। सब सांस रोके एक दूसरे की आहट लेने की कोशिश कर रहे थे। अराध्या की पोजिशन ऐसी थी कि नीचे से उसे शूट कर पाना संभव नहीं था, और उसे मारे बिना वे लोग पांडे की तरफ बढ़ नहीं सकते थे।
मगर कलंकी को छिपकर बैठना कबूल नहीं हुआ।
उसने अपने आदमियों को सामने सीढ़ियों के ऊपर लगातार फायर करते रहने को कहा और खुद दौड़कर उस आलमारी के इस तरफ दीवार से लगकर खड़ा हो गया जिसके दूसरी तरफ पांडे उसके पीछे घुसा पड़ा था।
उनके फायर के जवाब में अराध्या ने सोफे को निशाना बनाकर अंदाजे से दो बार ट्रिगर दबा दिया, क्योंकि दिखाई तो उनमें से कोई भी नहीं दे रहा था उसे। मगर वह दोनों गोलियां ही जाया चली गयीं, क्योंकि वह सब सोफे के पीछे फर्श पर पड़े थे और वहीं से हाथ ऊपर कर के अंदाजे से फायर किये जा रहे थे।
“पांडे जी।” अराध्या जोर से बोली।
“सुन रहे हैं।”
“हमारी रिवाल्वर खाली हो गयी है।”
“दोबारा लोड कर लो।”
“गोलियां कमरे में हैं।”
“तो एक काम करो, भागकर छत पर पहुंचो और वहां से किसी दूसरी छत पर छलांग लगाकर निकल जाओ इस इलाके से, तब तक हम इन्हें रोकने की कोशिश करते हैं।”
“रोकने की कोशिश करते हैं? - कलंकी ने जोर का ठहाका लगाया - बिल में घुसे बैठे हो ससुर के और बात करते हो हमें रोकने की, जानते नहीं कि हम कौन हैं।”
“भाग अराध्या।” पांडे जोर से चींखा।
सब उसके झांसे में आ गये।
“दो लोग लड़की के पीछे जाओ, वह बचनी नहीं चाहिए।” कलंकी चिल्लाकर बोला और एकदम से आलमारी के अपनी तरफ वाले हिस्से को खींचकर दीवार से अलग करते हुए पीछे खड़े पांडे पर गोली चला दी। मगर दरोगा उसके दूसरी तरफ खड़ा होने के बाद से ही वैसी किसी हरकत की उम्मीद कर रहा था, इसलिए जैसे ही आलमारी खींची गयी उसने खुद को बाहर की तरफ दायें कंधे के बल गिराया और उसी हाथ में थमी रिवाल्वर से सीढ़ियों की तरफ दौड़े दोनों लड़कों को गोली मार दी।
अराध्या की गोलियां खत्म हो जाने की बात सुनकर बाकी दोनों भी सोफे की ओट से बाहर निकल आये थे। इसलिए सबकी पोजिशन इस वक्त आमने सामने वाली थी।
चौतरफा गोलियां चलीं, पांडे की चलाई अगली गोली जो उसने कलंकी के सीने पर चलाई थी, इत्तेफाक से उसके रिवाल्वर वाले हाथ में जा लगी, उधर सोफे के पीछे से निकले दोनों लड़कों ने उसी वक्त उठकर खड़ी हुई अराध्या पर गोलियां चलाईं, जिनमें से एक उसकी जांघ को जख्मी करती हुई निकल गयी, फिर उनमें से एक को पांडे ने खत्म किया और दूसरा अराध्या की तरफ से चलाई गयी गोली का शिकार बन गया।
अब बस कलंकी ही जिंदा बचा रह गया था, जिसने बला की फुर्ती दिखाते हुए फर्श पर पड़ी अपने किसी आदमी की गन पर छलांग लगाई, और नीचे गिरते के साथ ही अपने दायें पैर से फर्श पर पड़े पांडे को जोर से परे धकेल दिया, जो खिसकता हुआ कई फीट दूर चला गया और गन भी उसके हाथ से निकल गयी।
मगर कलंकी ने अपनी जगह से उठने की कोशिश नहीं की।
“पांडे जी हमारे निशाने पर हैं लड़की और हम तुम्हारे निशाने पर। अब देखना ये है कि तुम्हें पांडे की जिंदगी चाहिए या हमारी मौत। अगर पांडे को जिंदा देखना चाहती हो तो चुपचाप गन फेंककर नीचे आ जाओ वरना तो हम पलक झपकते ही इन्हें निबटा देंगे।”
जवाब में ना तो अराध्या ने कुछ कहा ना ही सीढ़ियां उतरती दिखाई दी, बल्कि वह दिखी ही नहीं।
“अरे मर गयीं क्या तुम?”
जवाब इस बार भी नहीं मिला, तब कलंकी सावधानी से उठा और पांडे के सिर पर पहुंच गया, फिर इतनी कस की लात उसकी पसलियों में जमाई कि पांडे के मुंह से एक दिल दहला देने वाली चींख निकल गयी।
उस दौरान कलंकी ने एक क्षण को भी अपनी निगाह सीढ़ियों से नहीं हटने दी थी।
मगर लड़की अभी भी सामने नहीं आई।
“ठीक है नहीं आओगी तो मत आओ, इन्हें खत्म करने के बाद हम तुम्हें भी निबटा देंगे, भाग कर भला कहां जा सकती हो?”
“तुम क्या बेवकूफ हो कलंकी? - पांडे बोला - समझ में नहीं आ रहा कि अराध्या मर चुकी है, और मुर्दे उठकर खड़े नहीं हुआ करते, जवाब भी नहीं दिया करते।”
“का पता होशियारी दिखा रही हो?”
“हमारी जान की कीमत पर वह कोई होशियारी नहीं दिखाने वाली।”
“तुम्हारी जान की कोई कीमत भी है? - कलंकी ने जोर से ठहाका लगाया - ये तो कमाल की बात कह दिये तुम दरोगा। भोस...के औकात का है तुम्हारी? हिम्मत कैसे कर लिए अतीक भईया से पंगा लेने की?”
“औकात तुम जानते हो कलंकी, अब तक दो दर्जन से ज्यादा आदमी मार चुके हैं हम तुम्हारे, अतीक छिप नहीं गया होता तो उसे भी ठिकाने लगा दिये होते।”
सुनकर कलंकी ने फिर से एक लात उसे जमा दी।
“अतीक भईया की तुम उंगली भी नहीं छू सकते, काहे कि उनके और तुम्हारे बीच कलंकी खड़ा है। वहां तक पहुंचने वाली तमाम गोलियां हम अपने सीने पर झेल जायेंगे बहिन...।” कहते हुए उसने पांडे की गर्दन पकड़कर उसे उठाया और खड़ा करने के बाद उसका रुख सीढ़ियों की तरफ कर दिया।
“अब चलो, जरा देखें तो अराध्या मैडम सच में मर गयी हैं, या नौटंकी कर रही हैं।” कहते हुए उसने गन से उसे टकोहा तो पांडे मन मन के कदम रखता सीढ़ियां चढ़ने लगा।
उस वक्त वह दोनों आधी सीढ़ियां चढ़ चुके थे, और अराध्या का दूर दूर तक कोई पता नहीं था, जो कि पांडे के लिए बड़ी हैरानी की बात थी। वह ये तक सोचने लगा कि कहीं लड़की सच में मर ही तो नहीं गयी थी।
फिर उसने वह हरकत की जो खुद उसके लिए भी जानलेवा हो सकती थी। सीढ़ियां चढ़ते हुए उसने जोर से अपने शरीर को पीछे की तरफ धकेला, कलंकी का बैलेंस बिगड़ा और वह पीठ के बल नीचे गिरा, पांडे उसके ऊपर गिरा, फिर दोनों नीचे को फिसलते चले गये।
अच्छी बात ये रही कि उस दौरान कलंकी के हाथ से गन निकल गयी।
दोनों गिरते पड़ते नीचे पहुंचे फिर एक दूसरे से भिड़ गये। वहां फर्श पर कई रिवाल्वर्स गिरी पड़ी थीं, मगर इस बार कलंकी ने उन्हें उठाने की कोई कोशिश नहीं की, जबकि पांडे की हर कोशिश गन उठा लेने की ही थी। जिसमें वह कामयाब नहीं हो पाया क्योंकि कलंकी सांड जैसा बना हुआ था, और पांडे का एक हाथ अभी कमजोर था, उसपर प्लॉस्टर चढ़ा हुआ था।
कसकर तीन चार घूंसे पेट में जमाने के बाद कलंकी ने उसे अपने कंधे पर उठाया और पूरी ताकत से फर्श पर पटक दिया। इतनी जोर से कि पांडे को अपनी हड्डियां टूट गयी प्रतीत हुईं, मुंह से दिल दहला देने वाली चींख निकली और आंखों के आगे अंधेरा सा छाता महसूस होने लगा।
उसी वक्त एक गोली चली जो अराध्या ने चलाई तो कलंकी के झुके हुए सिर का निशाना लेकर थी, मगर उसके अचानक सीधा हो जाने के कारण कंधे में जा घुसी।
“हिलना नहीं कलंकी, वरना कुत्ते की मौत मारे जाओगे।” कहती हुई वह लड़खड़ाते कदमों से सीढ़ियां उतरने लगी। दर्द से बिलखता पांडे उठने की कोशिश करने लगा।
लड़की नीचे पहुंची, मगर उसने कलंकी के करीब जाने की कोई कोशिश नहीं की, पांडे भी एहतियातन कुछ कदम परे सरक गया। फर्श पर पटके जाने के कारण उससे सीधा खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, मगर चिल्लाना वह बंद कर चुका था।
“अतीक अंसारी कहां है कलंकी?” अराध्या ने पूछा।
“का करोगी जानकर, या उनके बच्चे जनना चाहती हो?”
अराध्या ने बिना किसी चेतावनी के उसके पैर पर गोली मार दी। मगर कलंकी ना तो चींखा ना ही नीचे गिरा, वह ज्यों का त्यों चट्टान की तरह खड़ा आग उगलती निगाहों से लड़की को घूरता रहा।
“अतीक कहां है कलंकी?”
“भईया पुलिस के सुरक्षा घेरे में इसलिए तुम उनका कुछ नाहीं उखाड़ पाओगी।”
“मतलब एसपी उसके साथ मिला हुआ है?”
“कुछ ऐसा ही समझ लो।”
“यानि गुप्तारगंज में जो ऑन रोड मीटिंग की थी तुम लोगों ने एसपी के साथ, वह उसी बारे में थी?”
कलंकी की आंखें फट पड़ने को उतारू हो उठीं।
“हैरान काहे हो रहे हो, खबरी क्या बस तुम्हारे ही हैं।”
“तुम्हें उस मीटिंग के बारे में कैसे पता?”
“जानकारी ताकत होती है कलंकी और हम ताकतवर बनना चाहते थे, इसलिए हर बात की तरफ ध्यान दिये।”
“ताकतवर, तुम खुद को ताकतवर समझती हो?”
“हां समझते हैं।” कहकर उसने कलंकी के घुटने पर गोली चला दी।
इस बार वह चाहकर भी खड़ा नहीं रह सका, और चींख भी बराबर निकल पड़ी उसके हलक से। दिल दहला देने वाली चींख जो किसी के भी रोंगटे खड़े कर सकती थी।
“आखिरी बार पूछ रहे हैं अतीक का पता बता दो।”
“हम नहीं जानते कि भईया कहां है, बस इतना मालूम है कि एसपी साहब के संरक्षण में हैं। फिर भी जानने को मरी जा रही हो तो जाकर सुखवंत सिंह से काहे नहीं पूछ लेतीं?”
“उनसे भी पूछेंगे, मगर अभी तुम्हारी बारी है, बताओ अतीक कहां है?”
“हमें नहीं मालूम।”
अराध्या ने पलक झपकते ही उसके सिर में गोली मार दी।
“तुम घायल हो?” पांडे ने पूछा।
“और क्या टोमैटो सॉस लगाये हैं?”
“अरे खून बहुत बह रहा है।”
“लेकिन रुकने का वक्त नहीं है हमारे पास, काहे कि पुलिस कभी भी यहां पहुंच सकती है, इसलिए निकलते हैं, बाद में घाव के बारे में भी सोच लेंगे।”
तत्पश्चात दोनों घर से बाहर निकले तो अनगिनत आंखें उन्हें घूरने लगीं। कोई छत से, कोई बॉलकनी से, कोई खिड़की से तो कोई दरवाजे से, मगर उनकी परवाह करने का ना तो वक्त था ना ही उतने लोगों को चुप रहने के लिए धमकाया जा सकता था, इसलिए दोनों सड़क की तरफ बढ़ते चले गये।
शाम सात बजे के करीब सुखवंत सिंह का मोबाईल घनघना उठा। कॉल इंस्पेक्टर दिनेश राय की थी, जिसे उसने तुरंत अटैंड कर लिया। वैसे भी बड़ी बेसब्री से उनकी तरफ से कोई खबर मिलने का इंतजार कर रहा था।
“जयहिंद सर।”
“जयहिंद दिनेश क्या अपडेट है?”
“मैं और मिश्रा इस वक्त थानेदार अवध सिंह राजपूत के घर पर निगाह रख रहे हैं सर। अभी तक चंगेज खान तो नहीं दिखाई दिया, लेकिन अशरफ अहमद को अपनी आंखों से देखे हैं हम।”
“और कितने आदमी हैं?”
“अभी तक दिखाई तो बस तीन लोग दिये हैं सर, वैसे ज्यादा भी हुए तो पांच छह से अधिक नहीं होंगे। वरना कोई न कोई हलचल हम जरूर नोट किये होते, जबकि अभी तो ऐसा लग रहा है जैसे घर उजाड़ पड़ा है।”
“तुम लोगों की तरफ किसी का ध्यान तो नहीं गया?”
“नहीं सर, काहे कि हम बहुते सावधानी बरत रहे हैं।”
“थानेदार पहुंचा था वहां?”
“नहीं सर, पुलिस की तरफ से तो अभी कोई आता जाता नहीं दिखाई दिया। और घर के अंदर से भी बस एक ही आदमी बाहर निकला था जो दुकान से सिगरेट खरीदकर वापिस लौट गया था।”
“ठीक है निगाह बनाये रखो, हम तुरंत वहां के लिए निकल रहे हैं।”
“अगर आपके आने से पहले वे लोग निकलते दिखें तो हमारे लिए क्या हुक्म है सर?”
“इसके अलावा कुछ नहीं कि उनका पीछा करना - फिर थोड़ा सख्त लहजे में बोला - हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी है दिनेश।”
“हम समझ गये सर।”
तत्पश्चात एसपी ने कॉल डिस्कनैक्ट की और अभिमन्यु को हुक्म दिया कि ऑफिस में जितना भी स्टॉफ मौजूद था, उनमें से चार को छोड़कर बाकी सबको ग्राउंड में पहुंचने को कह दे।
उसके थोड़ी देर बाद वर्दी उतारकर उसने आम कपड़े पहने और दराज से निकालकर एक की बजाये दो रिवाल्वर अपनी कमर में पीठ पीछे खोंस ली। फिर ऑफिस से निकलकर ग्राउंड की तरफ बढ़ चला, जहां उस वक्त बीसियों की तादात में सिपाही कतार बनाये खड़े थे। मगर ऑफिसर कोई नहीं था, क्योंकि दो लोग गोरखपुर में मारे गये थे, और बाकी के दोनों इस वक्त बलिया में चंगेज खान की निगरानी कर रहे थे, पांचवा कोई वहां था नहीं।
बगीचे में खड़ी कार में बैठकर पांडे ने अराध्या को लगी गोली का मुआयना किया तो पाया बुलेट भीतर तो नहीं घुसी पड़ी थी, मगर कट गहरा था, और खून अभी भी बहे जा रहा था।
“तुम्हारी पैंट उतारनी पड़ेगी।”
“क्या गजब बात कह दी दरोगा जी?”
“मेरा मतलब है पैंट को नीचे खिसकाना पड़ेगा।”
“उसके बाद क्या करेंगे?” लड़की मुस्कराती हुई बोली।
“तुम्हारे घाव पर रुमाल बांधकर खून रोकने की कोशिश करेंगे, और क्या करेंगे?”
“बस इतना ही करेंगे?”
“हां बाकी का काम डॉक्टर करेगा।”
“तो उसके लिए हमें नंगा काहे करना चाहते हैं?”
“कान के जड़ में एक थप्पड़ खींच देंगे लड़की।”
“उसके लिये भी हमारी पैंट उतारने की क्या जरूरत है पांडे जी, कान पैंट के भीतर थोडे़ ही होता है।”
“तुम पागल हो।”
“सच में?”
“और नहीं तो क्या, हर बात का दोहरा अर्थ खोज लेती हो।”
“हम तो नहीं खोजे, आप ही तलाशने में लगे हैं।”
“अराध्या....
“ठीक है ठीक है, उतारिये।”
“क्या?”
“हमारी पैंट या कुछ और भी उतारना चाहते हैं?”
पांडे ने एक गहरी आह भरी फिर उसकी पैंट की तरफ हाथ बढ़ाया तुरंत वापिस खींच लिया।
“करेंट लग गया क्या दरोगा जी को?”
“रहने दो उतारने की जरूरत नहीं है।”
“क्यों?”
“बताते हैं।” कहकर उसने घाव के आस-पास से पैंट को थोड़ा फाड़ा, और रुमाल का लंबा तह बनाकर कस के उसपर बांध दिया।
“थोड़ा आराम से नहीं कर सकते थे?”
“आराम से ही किये हैं।”
“तो दर्द काहे हुआ हमें?”
“गोली खाये पड़ी हो तो दर्द नहीं होगा तो और क्या होगा?”
“ओह गोली लगी है हमें, जबकि हम तो कुछ और ही समझे थे।”
“बकवास बंद कर लड़की।” कहता हुआ वह ड्राईविंग सीट पर जा बैठा। फिर बगीचे से कार निकालकर सड़क पर पहुंचा ही था कि पुलिस की दो गाड़ियां उसे अराध्या के घर की तरफ जाती दिखाई दीं।
पांडे ने तुरंत अपनी रफ्तार बढ़ा दी।
दस मिनट बाद उसने एक दुकान के सामने कार रोकी और भीतर से एक प्लाजो खरीद लाया। उसके बाद दोनों एक छोटे से क्लिनिक पर पहुंचे जहां अराध्या ने पैंट उतारकर प्लाजो पहना फिर उसे ऊपर सरकाकर डॉक्टर से मलहम पट्टी कराई और टिटनेस का इंजेक्शन लगवाने के बाद दर्द की गोली भी गटक गयी।
तत्पश्चात दोनों वहां से निकल गये।
“अब क्या इरादा है पांडे जी?”
“तुम बताओ?”
“अंधेरा घिरने तक किसी शॉपिंग मॉल में वक्त गुजारी करते हैं, फिर अतीक के घर की निगरानी पर जुट जायेंगे, क्या पता कलंकी के मारे जाने की खबर सुनकर वह लौट आये। भले ही थोड़ी देर के लिए, लेकिन हमारा तो काम बन जायेगा न।”
“किसी मॉल में भटकना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि अब तक पुलिस को तुम्हारी खबर लग चुकी होगी। इसलिए कुछ और सोचो, हां रात को अतीक के घर की निगरानी वाली बात हमें कबूल है।”
“सिनेमा देख लेते हैं।”
“ये अच्छा आइडिया है।”
उसके बाद दोनों विशाल टॉकीज पहुंचे। वहां ‘मैं तेरा हीरो’ मूवी चल रही थी जिसे शुरू हुए आधा घंटा से ज्यादा का वक्त गुजर चुका था और विंडो पर हाउस फुल की तख्ती टंगी थी। मगर वह कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि अनुराग पांडे दरोगा था। आगे वह सिनेमा हॉल के मैंनेजर से जाकर मिला तो टिकट के पैसे तो उसने नहीं ही लिए, उल्टा बॉक्स में उनके लिए अलग से कुर्सियां भी रखवा दीं, क्योंकि सच यही था कि हॉल खचाखच भरा पड़ा था।
फिर साढ़े छह बजे मूवी समाप्त हुई तो दोनों उठकर बाहर निकल आये। तब तक अंधेरा तो नहीं घिरा था लेकिन अतीक की हवेली वहां से बहुत दूर थी, जहां पहुंचने तक साढ़े सात तो यकीनन बज जाने वाले थे, इसलिए उजाले की परवाह करने की उन्हें कोई जरूरत नहीं थी।
पांडे ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
फिर पैंतीस चालीस मिनट बाद जब उनकी कार एसपी ऑफिस के सामने से गुजरी तो भीतर ग्राउंड में खड़े सिपाहियों पर पांडे की निगाह पड़ी। उनके वहां कतार में खड़े होने की ढेरों वजहें हो सकती थीं, मगर उसके मन में बस एक ही बात आई, और वो ये थी कि हो न हो एसपी साहब शिकार पर निकलने वाले थे।
तब उसने थोड़ा आगे जाकर यू टर्न मारा और कार को एसपी ऑफिस के ठीक सामने मगर सड़क के दूसरी तरफ ले जाकर खड़ा कर दिया।
“यहां क्यों रुक गये पांडे जी?”
“हमें लगता है एसपी साहब किसी का फातिहा पढ़ने जा रहे हैं।”
“अगर जा भी रहे हों तो हमें उससे क्या, अतीक को खत्म करने तो नहीं ही जा रहे होंगे, काहे कि कलंकी ने साफ कहा था कि उसे पुलिस प्रोटक्शन हासिल है।”
“हमें क्या पता कि सच बोला था?”
“आपको एसपी साहब से कोई खास लगाव हो गया जान पड़ता है।”
“कैसे हो जायेगा, हम तो कभी मिले भी नहीं हैं उनसे।”
“फिर बार बार उनका साईड काहे लेने लगते हैं?”
“काहे कि हम यकीन नहीं कर पा रहे कि एसपी सुखवंत सिंह जैसा ईमानदार ऑफिसर आजमगढ़ पहुंचकर बेईमान हो गया, अतीक अंसारी जैसे अपराधी से हाथ मिला बैठा। इसीलिए हमारे मन में बार बार ये बात आती है कि कहीं न कहीं कोई बड़ी गड़बड़ जरूर है।”
“कैसी गड़बड़?”
“हम नहीं जानते, वैसे होने को ये भी हो सकता है कि एसपी साहब अतीक को बस झांसा भर दिये हों, मतलब मुलाकात में कह दिये हों कि उसका ख्याल रखेंगे, जबकि असल में उनका वैसा कोई इरादा न हो। और इरादा नहीं है तो इस वक्त वह अतीक का शिकार करने के लिए भी निकलते हो सकते हैं।”
“बड़ी दूर की सोच रहे हैं पांडे जी, जबकि किसी का बदल जाना कोई बड़ी बात नहीं होती, सबकुछ हालात और हासिल पर डिपेंड करता है। इसलिए कल्पना करना बंद कीजिए, और एसपी साहब का पक्ष लेना भी।”
“जबकि हमारा दिल कह रहा है कि आज अतीक अंसारी का चैप्टर क्लोज होने वाला है।”
“अच्छा है ख्याली पुलाव पकाने में पैसे थोड़े ही लगते हैं।”
“हमारा दिल हमसे झूठ नहीं बोलता लड़की।”
“अरे इसमें इतना परेशान होने की क्या जरूरत है, मिश्रा जी को कॉल लगाकर काहे नहीं पूछ लेते? आप ही तो बताये थे कि वह आपके अंडर में काम करते थे, तो क्या जवाब देने से इंकार कर देंगे?”
“उम्मीद तो नहीं है।”
“तो लगाईये कॉल।”
पांडे ने मोबाईल निकालकर जनार्दन मिश्रा का नंबर डॉयल कर दिया,
जो कि पहली ही घंटी पर कट कर दी गयी। दोबारा ट्राई किया तो फिर से वही हाल हुआ, इसलिए तीसरी बार कोशिश ही नहीं की।
“कॉल काटे दे रहा है।”
“क्या पता भीतर जो लाईन लगी है, मिश्रा जी भी उसी में खड़े हों?”
“नहीं सब के सब सिपाही दिखाई दे रहे हैं, फिर ब्रीफिंग के दौरान अपना मोबाईल निकालकर भला कौन देखता है कि किसकी कॉल आ रही है, और निकाले बिना कट कैसे कर सकता है?”
“जाने दीजिए, अब चलिए यहां से।”
“नहीं, हमें लगता है सिपाही की वर्दी पहनने का वक्त आ गया है।”
“क्या कह रहे हैं?”
“अगर ये लोग कहीं जा रहे हैं, तो इतने सिपाहियों के बीच एक और सिपाही का खप जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी। मतलब किसी को नहीं पता लगेगा कि हम कौन हैं।”
“पक्का पहचाने जायेंगे।”
“नहीं उसका अंदेशा नहीं है क्योंकि तमाम स्टॉफ नया है, और हमें याद नहीं पड़ता कि मिश्रा को छोड़कर कभी किसी ऐसे पुलिसवाले से मिले हैं जिसे जॉयन किये तीन चार महीने से ज्यादा न हुए हों। ऊपर से रोशनी भी कुछ ज्यादा नहीं है।”
“अरे काहे अपनी जान को मुसीबत बुला रहे हैं?”
“जो होगा देखा जायेगा - कहकर वह नीचे उतरा और पिछली सीट पर बैठता हुआ बोला - मुड़कर हमारी तरफ मत देखना, बैक व्यु मिरर में भी मत झांकना।”
“काहे?”
“अरे कपड़ा बदलने जा रहे हैं हम।” कहकर उसने जल्दी जल्दी अपने कपड़े उतारे और पार्सल ट्रे पर रखी सिपाही की वर्दी उठाकर पहन ली, जो उसे एकदम फिट आ गयी। उसके बाद दोबारा आगे जाकर बैठ गया।
“काहे पंगा ले रहे हैं पांडे जी?”
“इसलिए क्योंकि हम अतीक को अपनी आंखों के सामने मरते हुए देखना चाहते हैं।”
“जैसे हम नहीं देखना चाहते, तो क्या करें हम भी सिपाही बनकर भीतर चलें आपके साथ?”
“नहीं जा सकतीं, तुम्हारे पास ना तो वर्दी है ना ही तुम मर्द हो, जबकि अंदर एक औरत भी नहीं दिखाई दे रही।”
“ऐसे धड़ल्ले से घुसेंगे तो क्या सबकी निगाह नहीं पड़ेगी आप पर?”
“तुम बस देखती जाओ।”
तत्पश्चात इंतजार शुरू हो गया, फिर पांच मिनट और गुजरे तो ब्रीफिंग खत्म हो गयी, जिसके बाद तमाम सिपाही कंपाउंड में खड़ी जीपों की तरफ बढ़ चले, तब पांडे नीचे उतरा और सड़क पार करता हुआ जोर से बोला, “हॉस्टल लौट जाना, अतीक के घर की निगरानी कल कर लेंगे हम।”
तत्पश्चात दूसरी तरफ पहुंचकर वह भीतर दाखिल हो गया। किसी का ध्यान उसपर नहीं था, फिर भीड़ में घुस जाने के बाद तो ध्यान जाने का मतलब ही नहीं बनता था।
फिर पांडे उन सिपाहियों में से ही एक दिखाई देने लगा।
सत्रह लोग, जिनकी संख्या अब अठारह हो चुकी थी, चार जीपों में सवार हो गये। एसपी अपनी गाड़ी में जा बैठा, अगले ही पल वह काफिला सड़क पर निकल आया।
पांडे अपने सिर को थोड़ा झुकाकर बैठा था, और उसके साथ मौजूद तमाम सिपाहियों में से कोई भी ऐसा नहीं था जो उसकी सूरत पहचानता हो, ऊपर से गहमा गहमी का माहौल! इसलिए भी वह खुद को उनके बीच खपाने में कामयाब हो गया था।
पांडे को छोड़कर सबको पता था कि वे लोग कहां जा रहे थे। मगर ना मालूम होते हुए भी उसे दिमाग में ये घुसा पड़ा था कि एसपी सुखवंत सिंह अतीक अंसारी का खात्मा करने ही जा रहा था।
अराध्या ने उसकी बात मानकर हॉस्टल लौट जाने की बजाये अपनी कार उस काफिले के पीछे लगा दी। उसके पास पुलिस का पीछा करने की कोई वजह नहीं थी, मगर पांडे क्योंकि उस टीम का हिस्सा बन चुका था, इसलिए उसने साथ बने रहना जरूरी समझा।
देखते ही देखते पांचों गाड़ियां शहर की सीमा पार कर गयीं, मगर पांडे को अभी भी नहीं सूझा कि एसपी का निशाना अतीक नहीं बल्कि कोई और था। उसके आस-पास बैठे लोग खुसर फुसर बराबर कर रहे थे, मगर वह सब उनकी निजी बातें थीं, ना कि कोई मिशन के बारे में कुछ कह सुन रहा था।
वक्त गुजरता रहा, मिनट घंटे में तब्दील हो गया।
पांचों गाड़ियां बल्कि अराध्या की कार को मिलाकर छहों गाड़ियां सड़क पर आगे पीछे दौड़ती रहीं। फिर दो घंटे बीतते बीतते पांडे को जैसे यकीन आ गया कि एसपी साहब बलिया जा रहे थे।
वह सफर तकरीबन 132 किलोमीटर का था जिसे तीन घंटों में पूरा कर लिया गया। तत्पश्चात रेलवे स्टेशन के पास पहुंचकर पांचों गाड़ियां रुक गयीं।
सुखवंत सिंह ने दिनेश राय को फोन लगाया और उसे अपने पास आने को कह दिया। जिसमें दस मिनट और लग गये, तब तक रात के साढ़े दस बज चुके थे।
“क्या अपडेट है दिनेश?”
“तीन मंजिलों तक उठा एक बड़ा ही शानदार मकान है सर, जिसके एक तरफ स्कूल है, और दूसरी तरफ कटरा बना हुआ है। स्कूल तो रात को बंद होना ही था, अब कटरे की तमाम दुकानें भी बंद हो चुकी हैं। जबकि सामने की सामने की दुकानों पर तो नौ बजे ही ताला लग गया था। अशरफ अहमद की सूरत हम अपनी आंखों से देखे थे, इसलिए चंगेज के वहां ना होने की कोई वजह नहीं है। उसके अलावा तीन आदमी नजर आये हैं, जिनमें से एक तो कई बार बाहर दुकानों के फेरे भी लगा चुका है।”
“अंदर ज्यादा आदमियों के होने की कितनी उम्मीद है?”
“हमारे ख्याल से तो पांच के अलावा छंठा वहां कोई नहीं है सर।”
“लेकिन चंगेज के बारे में गारंटी नहीं कर सकते कि वह घर के भीतर मौजूद है?”
“देखे नहीं हैं सर, लेकिन अशरफ की वजह से हमें यकीन है कि वह भीतर ही होगा। और ये भी पक्का है कि घर थानेदार साहब का ही है। आठ बजे के करीब दो सिपाही वहां खाना पहुंचाने भी आये थे, जिन्हें पैकेट लेकर बाहर से ही वापिस लौटा दिया गया था।”
“निकासी के कितने रास्ते हैं?”
“आगे पीछे दोनों तरफ से निकला जा सकता है सर, और हमें पूरी उम्मीद है कि पुलिस को वहां पहुंचा देखकर सब पिछले रास्ते से ही निकलने की कोशिश करेंगे। गलियां क्योंकि दोनों ही तरफ की खुली हुई हैं इसलिए घर से निकलकर दायें बायें किधर को भी भाग सकते हैं।”
“तो एक काम करो, दस सिपाही अपने साथ लेकर जाओ और बैक स्ट्रीट को पूरी तरह कवर कर लो, जबकि हम फ्रंट की तरफ से जायेंगे। और किसी के साथ कोई रियायत बरतने की जरूरत नहीं है। मतलब गिरफ्तार करने के बारे में सोचना भी नहीं है, काहे कि यादव और चौबे की शहादत भूले नहीं हैं हम।”
“ऐसा ही करेंगे सर।”
“मिश्रा कहां है?”
“फ्रंट की निगरानी पर छोड़कर आये हैं।”
“और टारगेट यहां से कितनी दूरी पर है?”
“सामने जो गली देख रहे हैं न सर, उसके बीचों बीच एक स्कूल है, थानेदार साहब का घर उसके आगे लेकिन स्कूल की बिल्डिंग के साथ एकदम सटा हुआ है।”
“ठीक है चलो चलते हैं।”
तत्पश्चात वह फोर्स दो भागों में विभक्त होकर दो अलग अलग गलियों में जा घुसी। अपनी कार में बैठी अराध्या जहां की तहां रुककर इंतजार करने लगी, क्योंकि आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता था।
दरोगा अनुराग पांडे जाना तो एसपी के साथ चाहता था, मगर पहुंच गया दिनेश राय की टीम में। दोनों अफसरों की बातचीत भी वह नहीं सुन पाया था, इसलिए अभी तक इस बात से अंजान था कि पुलिस वहां चंगेज खान को खत्म करने के लिए पहुंची थी।
दो से तीन मिनट के भीतर घर को दोनों तरफ से पूरी तरह घेर लिया गया। सिपाही गली में पोजिशन लिये खड़े थे और गोली चलाने की वजह खोज रहे थे। उसी वक्त वहां पहले से मौजूद जनार्दन मिश्रा ने एसपी के कहने पर एक बड़ा सा पत्थर उठाकर जोर से लोहे के गेट पर दे मारा।
रात्रि के सन्नाते में बड़ी भयंकर आवाज हुई। जिसके बाद एक आदमी ये देखने के लिए बाहर निकल आया कि वह आवाज कैसी थी, जबकि दो आदमी पहली मंजिल की बॉलकनी में निकल आये।
फिर एक साथ कई गोलियां चली।
गेट से बाहर आने वाले शख्स को एसपी ने शूट किया, जबकि बाकी दोनों को वहां पोजिशन लेकर खड़े सिपाहियों ने खत्म कर दिया। उसके बाद फोर्स भीतर दाखिल हो गयी।
चंगेज खान और अशरफ उस वक्त पहली मंजिल के एक कमरे में बैठे जाम टकरा रहे थे। गोली की आवाज और अपने आदमियों के हलक से निकली भयानक चींखों ने उन्हें दहलाकर रख दिया। फिर खिड़की खोलकर सावधानी से बाहर झांका तो कुछ नहीं दिखाई दिया, मगर दौड़ते कदमों की आवाजें उनके कानों में पड़कर रहीं।
दोनों ने अपने अपने हथियार उठाये और कमरे से बाहर सीढ़ियों के पास दोनों तरफ छिपकर खड़े हो गये। पुलिस ने ग्राउंड फ्लोर पर हर तरफ उन्हें देख डाला, मगर वहां कोई नहीं था। तब वे लोग सीढ़ियों की तरफ बढ़े जिनमें सबसे आगे एसपी सुखवंत सिंह चल रहा था।
इधर उसने पहली सीढ़ी पर कदम रखा उधर चंगेज खान ने एक के बाद एक गोलियां दागनी शुरू कर दीं, पहली गोली सुखवंत सिंह के बायें बाजू में लगी और उसी के साथ उसने खुद को नीचे गिरा दिया, फिर मिश्रा ने उसकी टांग पकड़ी और जल्दी से अपनी तरफ खींच लिया वरना तो उसका मारा जाना तय था।
दोनों तरफ से फायरिंग जारी थी।
फिर जल्दी ही चंगेज खान और अशरफ की समझ में ये बात आ गयी कि वह दोनों बुरी तरह फंस चुके थे, इसलिए वहां से जिंदा निकल पाना संभव नहीं था। मगर गिरफ्तार हो जाना तो उनमें से किसी को भी मंजूर नहीं था, लिहाजा गोलियां चलाते रहे। यहां उनके हक में जो बात थी वह बस इतनी थी कि एक्सट्रा राउंड की कोई कमी उनके पास नहीं थी। इसलिए कंजूसी बरतना भी जरूरी नहीं था।
पांच मिनट बाद का नजारा ये था कि चार सिपाही शहीद हो चुके थे, दो घायल थे जबकि चंगेज और अशरफ अभी भी एकदम सही सलामत खड़े थे। ऊपर जाने का वह इकलौता रास्ता था इसलिए भी उनका पलड़ा अभी भारी ही दिखाई दे रहा था।
लगातार चल रही गोलियों की आवाज सुनकर मकान के पीछे खड़े दिनेश राय ने छह सिपाहियों को जहां का तहां छोड़ा और बाकियों को फ्रंट में चलने को कह दिया।
पांडे तुरंत उसके साथ हो लिया।
करीब करीब दौड़ते हुए वे लोग गली से बाहर निकले फिर दूसरी गली में घुसकर इमारत के फ्रंट में पहुंच गये। अंदर घमासान मचा हुआ था, जिसमें वहां पहुंचकर दिनेश और उसकी टीम भी शामिल हो गयी।
जल्दी ही वहां के हालात पांडे की समझ में आ गये। ये भी कि सीढ़ियों पर निशाना साधकर बैठा होने के कारण दुश्मन का पलड़ा भारी था, आखिर कुछ घंटों पहले अराध्या भी तो वही कर के हटी थी।
वह अपने अफसरों से ज्यादा काबिल था या नहीं, वह जुदा बात थी, मगर सच यही था कि इस वक्त जो ख्याल उसके जेहन में आया वह किसी और के नहीं आया था।
घर से बाहर निकलकर वह बाउंड्री वॉल पर चढ़कर खड़ा हो गया, बॉलकनी एकदम उसके ऊपर तक पहुंच रही थी, जिसे पकड़कर वह पहली मंजिल पर पहुंचने की कोशिश करने लगा। तब पहली बार उसे इस बात का एहसास हुआ कि उसका बायां हाथ कितना कमजोर हो चुका था।
जोर की टीसें उठने लगीं, हाथ शरीर का वजन उठाने से इंकार करने लगा, मगर उसने कोशिश नहीं छोड़ी। और आखिरकार बॉलकनी तक पहुंचने में कामयाब हो गया। फिर वहीं रुककर उसने अराध्या को कॉल लगाया जिसकी गाड़ी उसे रास्ते में कई बार नजर आई थी।
“कहां हो?” उसने पूछा।
“आपके इतने करीब हैं कि जोर से आवाज लगायेंगे तो हमें सुनाई दे जायेगा।”
“ये देखा था कि एसपी साहब कौन सी गली में घुसे थे?”
“हां देखा था।”
“कार लेकर गली में पहुंचो, बायें हाथ को एक स्कूल दिखाई देगा, उससे आगे वाले मकान के सामने गाड़ी रोक देना, मगर नीचे मत उतरना और इंजन भी स्टार्ट कर के रखना।”
“उधर से आगे निकलने का रास्ता है, या बैक कर के लायें?”
“रास्ता है।”
“ठीक है पहुंचते हैं।”
“लाईन पर बनी रहो।”
फिर तीस सेकेंड के भीतर अराध्या ने कार को वहां पहुंचकर रोक दिया।
पांडे ने हाथ के इशारे से उसे ठहरने को कहा, उसके बाद सावधानी से चलता हुआ कमरे से होकर गेट पर जाकर खड़ा हो गया। आगे ये देखकर उसकी खोपड़ी भिन्ना गयी कि वहां अतीक अंसारी नहीं बल्कि चंगेज खान बैठा हुआ था।
मतलब उसने नाहक इतनी मुसीबत मोल ली थी।
मगर अब जब आ ही गया था तो सामने मौजूद शिकार को जिंदा छोड़ना उसे ठीक नहीं लगा, आखिरकार पुलिसवाला था। और शिकारों को पूरा ध्यान उस वक्त क्योंकि सीढ़ियों की तरफ था, इसलिए दो गोलियां ही काफी साबित हुईं उनकी जान लेने के लिए, फिर निशाना तो उसका बढ़िया था ही।
तत्पश्चात वह दौड़ता हुआ बॉलकनी में पहुंचा और उससे लटककर बाउंड्री पर खड़े होने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी तेजी से चली आ रही एक बोलेरो दरवाजे के सामने पहुंचकर खड़ी हो गयी।
फिर कई काम एक साथ हुए।
बोलेरो को अपने पीछे रुकता देखकर अराध्या को खतरे का एहसास हुआ और वह तुरंत कार से बाहर निकल आई। गाड़ी में नौसिखुआ बैठा था, जो चंगेज के किसी काम से बाहर गया था, उसने भीतर से आती गोलियों की आवाज सुनी तो हड़बड़ाया सा गन हाथ में थामें नीचे कूदा, तब उसकी सीधी निगाह बाउंड्री पर खड़े हो चुके पांडे पर पड़ी, उसने गन का रुख उधर को करने में पल भर का भी वक्त जाया नहीं किया, मगर तब तक अराध्या गोली चला चुकी थी।
नौसिखुआ कटे पेड़ की तरह नीचे जा गिरा।
किस्सा खत्म!
पांडे और अराध्या तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि अभी अभी जो आदमी मारा गया था वह कितना खतरनाक था, या ये कि गोरखपुर में उसने कितने भयानक तरीके से महंथ चौबे और मनीष यादव को मौत के घाट उतार दिया था।
बहरहाल पांडे बाउंड्री से नीचे कूदा और झपटकर कार में सवार हो गया, तब तक अराध्या भी वापिस ड्राईविंग सीट पर बैठ चुकी थी।
“कुछ हाथ लगा?” गाड़ी आगे बढ़ाते हुए लड़की ने पूछा।
“अतीक अंसारी तो नहीं ही लगा - पांडे गहरी सांस खींचकर बोला - लेकिन चंगेज खान और अशरफ अहमद को खत्म कर आये हैं हम, जो पुलिस पर भारी पड़ते दिखाई दे रहे थे।”
“एसपी यहां चंगेज को मारने आया था?”
“हां, पता होता तो हम आते ही नहीं।”
“हम तो पहले ही कहे थे।”
“जानते हैं, अफसोस कि आज जीवन में पहली बार हमारे दिल ने गलत सिग्नल दिया था हमें।”
“अब क्या इरादा है?”
“गाड़ी घुमाकर उस जगह पर ले चलो जहां पुलिस की जीपें खड़ी हैं। देखें यहां से निकलकर एसपी साहब कहां जाते हैं?”
“वापिस आजमगढ़ जायेंगे और कहां जायेंगे?”
“तो हम इनके पीछे हो लेंगे, आखिर जाना तो हमें भी आजमगढ़ ही है, फिर प्रॉब्लम क्या है?
“कोई प्रॉब्लम नहीं है, लेकिन सिपाही की वर्दी उतार दीजिए।”
“हां उतारे देते हैं क्योंकि फिलहाल इसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी है।” कहकर उसने शर्ट उतार कर अपनी शर्ट पहन ली, मगर पैंट वर्दी वाली ही पहने रहा।
“वैसे काम बढ़िया ही कर के आये हैं पांडे जी, भले ही वह अतीक नहीं था, लेकिन था तो धरती पर बोझ ही, इसलिए हमारी बधाई कबूल कीजिए।”
“किया थैंक यू।”
गोलियां चलनी अचानक बंद हो गयीं तो एसपी को थोड़ी हैरानी हुई, मगर वह दुश्मन की कोई चाल भी हो सकती थी, इसलिए उसने फौरन आगे बढ़ने की कोई कोशिश नहीं थी।
थोड़ा वक्त यूं ही गुजर गया।
असमंजस की स्थिति बरकरार रही।
फिर उसने दिनेश राय और मिश्रा को कवर देने का इशारा किया और खुद सावधानी से ऊपर की तरफ बढ़ने लगा। वहां पहुंचकर उसने ज्यों हीं चंगेज और अशरफ की डेडबॉडी देखी, दो कदम पीछे हटकर एकदम से नीचे बैठ गया।
मतलब एसपी भी कोई कम नौटंकीबाज नहीं था।
अगले ही पल उसने एक के बाद एक चार फायर किये फिर उठकर सीधा खड़ा होने के बाद चंगेज और अशरफ के मृत शरीर पर दो गोलियां और दाग दीं। ये जाहिर करने के लिए कि उन दोनों का शिकार उसी ने किया था।
अलबत्ता हैरान बराबर था, क्योंकि उससे बेहतर ये बात कोई नहीं जानता था कि उनकी तरफ से चलाई गयी एक भी गोली उन दोनों में से किसी को नहीं लगी थी।
फिर मर कैसे गये?
वो बात उसके लिए किसी अचम्भे से कम नहीं थी।
पांच मिनट बाद उसने बलिया के पुलिस कमिश्नर को फोन कर के इस बात की जानकारी दी कि चंगेज खान जैसे अपराधी को थानेदार का संरक्षण प्राप्त था, फिर वहां पुलिस फोर्स भेजने को कहकर वह अपनी टीम के साथ मकान से बाहर निकल आया।
दस मिनट और गुजरे तो पूरा का पूरा लोकल थाना वहां उमड़ आया, साथ में वह थानेदार भी था जिसके मकान में वह शूटआउट हुआ था। सुखवंत सिंह ने गहरी निगाहों से उसे देखा मगर उस बारे में कोई सवाल करने की कोशिश नहीं की, बस ये कहकर वहां से निकल गया कि भीतर चंगेज खान और उसके आदमियों की लाशें पड़ी हैं, जिसके संदर्भ में कार्रवाई करने के लिए उसे वहां बुलाया गया है।
उसके बाद अपने चार सिपाहियों की लाशें साथ लेकर वे लोग गली से बाहर निकले, और गाड़ियों में सवार होकर आजमगढ़ की तरफ चल पड़े। किसी को इस बात का एहसास तक नहीं हुआ कि चंगेज और अशरफ को खत्म करने वाला उनके बीच का नहीं था, या ये कि उनकी पलटन का एक सिपाही गायब हो चुका था।
तेज गति से आगे पीछे चलतीं छहों गाड़ियां आजमगढ़ की तरफ दौड़ी जा रही थीं। चार बड़े अपराधियों में से दो मारे जा चुके थे, तीसरे को खत्म करने की उसे इजाजत थी, मगर चौथा! उसे तो वह बस तभी मार सकता था जब सरकार से पंगा लेने के लिए खुद को तैयार कर लेता।
वापसी में उन लोगों को बस ढाई घंटे का वक्त लगा, मगर एसपी ऑफिस से थोड़ा पहले ही सुखवंत सिंह ने सबको रूक जाने को कह दिया। उसके बाद दिनेश को निर्देश दिया कि शहीद हुए चारों जवानों की डेडबॉडी मोर्ग भिजवा दे, और घायलों को ले जाकर अस्पताल में एडमिट करा दे।”
“आप कहीं जा रहे हैं सर?”
“क्यों भई क्या गोली लगने से हमें दर्द नहीं होता?”
“सॉरी सर आप इतनी बहादुरी के साथ मुकाबला किये कि आपको गोली लगने वाली बात हमारे ध्यान से ही उतर गयी, तो हॉस्पिटल जा रहे हैं?”
“हां।”
“ठीक है सर, हम सब संभाल लेंगे।”
तत्पश्चात एसपी को वहीं छोड़कर दिनेश राय बाकी लोगों के साथ वहां से निकल गया। फिर सुखवंत सिंह ने अभिमन्यु को फोन लगाया और अपनी लोकेशन बताकर कॉल डिस्कनैक्ट कर दी।
दस मिनट बाद पैदल चलता वह एसपी की गाड़ी तक पहुंचा और दरवाजा खोलकर अंदर बैठ गया।
“निबटा दिये सर?”
“हां निबटा दिये।”
“आपका खून बह रहा है।”
“तभी तो हॉस्पिटल जा रहे हैं हम।”
तत्पश्चात ड्राईवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
आखिरी शिकार
पांडे के कहने पर अराध्या बदस्तूर एसपी के पीछे लगी रही। फिर उनके देखते ही देखते वह एक अस्पताल के सामने नीचे उतरा और भीतर दाखिल हो गया।
“लगता है गोली वोली खा गये हैं आपके एसपी साहब।”
“घायल दिखाई तो नहीं दिये थे।”
“और किसलिए हॉस्पिटल आये होंगे?”
“हम अभी यहीं रुकने वाले हैं?”
“हां, तब तक तो यकीनन जब तक कि साहब कहीं जाकर टिक नहीं जाते - कहकर उसने पूछा - वो दूसरा लड़का कौन हो सकता है अराध्या, जो आकर उनकी गाड़ी में बैठ गया था, और अब हॉस्पिटल के भीतर है।”
“हम क्या एनसाईक्लोपीडिया हैं पांडे जी?”
“कहीं अतीक का कोई आदमी तो नहीं है।”
“कैसे हो सकता है?”
“अरे जब तुमने खुद इस बात की आशंका जाहिर की थी कि एसपी और अतीक मिले हुए हैं, और बाद में कलंकी ने भी उस बात को कबूल किया था, तो क्यों नहीं हो सकता?”
“अगर है भी तो वह भला एसपी से मिलने क्यों आयेगा?”
“क्या पता उसे अतीक के ठिकाने पर ले जाने के लिए आया हो?”
“आप ये कहना चाहते हैं कि अतीक इस हॉस्पिटल में है?”
“हो सकता है, लेकिन ये भी हो सकता है कि जाने से पहले साहब कोई मेडिकल ट्रीटमेंट लेने के लिए यहां पहुंचे हों, इसलिए उनके निकलने का वेट बराबर करेंगे हम।”
“ठीक है कर लेते हैं।”
वह इंतजार पूरे आधा घंटा चला, उसके बाद सुखवंत सिंह और अभिमन्यु हॉस्पिटल से बाहर निकलकर गाड़ी में सवार हो गये। मगर एसपी ऑफिस का रुख तो अभी भी नहीं किया, उल्टा उससे विपरीत दिशा में चल पड़े।
अराध्या ने अपनी कार उनके पीछे लगा दी।
विभिन्न सड़कों से गुजरती एसपी की गाड़ी जब मयंक नगर के इलाके में दाखिल हुई तो पांडे हड़बड़ाया सा बोला, “इधर तो विधायक अनल सिंह का घर है।”
“मिलने जा रहे होंगे।”
“या अतीक को उसी ने अपने घर में छिपा रखा है?”
“ऐसा नहीं हो सकता, काहे कि दोनों कट्टर दुश्मन हैं।”
“अगर नहीं हो सकता तो अतीक का कोई आदमी एसपी साहब को विधायक के घर लेकर क्यों जा रहा है?”
“लगता है पांडे जी थक गये हैं।”
“क्यों?”
“हमें क्या पता कि वह अतीक का ही आदमी है, अनल सिंह का क्यों नहीं हो सकता?”
कहते हुए उसने गाड़ी रोक दी।
“क्या हुआ?”
“वो लोग भी रुक गये हैं।”
“अनल सिंह का घर तो अभी थोड़ा आगे है।”
“क्या पता पैदल जाना चाहते हों?”
फिर उनके देखते ही देखते दोनों नीचे उतरकर आगे बढ़ गये, जबकि ड्राईवर ने गाड़ी घुमाई और वहां से निकल गया, जो कि बेहद हैरानी की बात थी।
“कमाल है, ई ससुरा चल क्या रहा है?”
“हम गाड़ी आगे बढ़ायें?”
“नहीं पैदल चलते आदमी का पीछा पैदल चलकर ही किया जा सकता है।” कहता हुआ वह गाड़ी से नीचे उतर आया। अराध्या भी उतरी फिर गली में खड़ी बीसियों गाड़ियों के पीछे छिपते छिपाते दोनों उनके पीछे चल पड़े।
पांडे का अंदाजा एकदम सही साबित हुआ, दोनों अनल सिंह के घर ही पहुंचे थे। वहां गेट पर तीन हथियारबंद आदमी खड़े पहरा दे रहे थे, जिन्होंने एसपी को पहचानकर उसे सलाम ठोंका और उसके कुछ कहने का इंतजार करने लगे।
“विधायक जी को खबर करो कि हम इसी वक्त उनसे मिलना चाहते हैं, कहना बात बहुत जरूरी है, और उसका ताल्लुक अतीक अंसारी से है।”
सुनकर उनमें से एक ने अपना मोबाईल निकाला और कोई नंबर डॉयल कर दिया, फिर दूसरी तरफ से कॉल अटैंड कर ली गयी तो जल्दी जल्दी एसपी का कहा दोहरा दिया।
“बात कराओ हमारी एसपी साहब से।”
गार्ड ने मोबाईल सुखवंत सिंह को थमा दिया।
“नमस्कार सर, हम अजगर बोल रहे हैं।”
“नमस्कार, विधायक जी से कहो कि हमें उनसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
“साहब सो रहे हैं सर, क्या सुबह बात नहीं हो सकती?”
“बेवकूफ, अगर सुबह करने लायक बात होती तो क्या हम इतनी रात को अपनी नींद खराब कर के यहां पहुंचे होते?”
“कोई हिंट तो दीजिए सर, वरना हम क्या कहकर जगायेंगे उन्हें?”
“बोलो अतीक के मामले में हमें इसी वक्त उनकी मदद की जरूरत है, वरना वह कमीना हाथ से निकल जायेगा, जबकि अभी हमें पक्के तौर पर पता है कि वह कहां छिपा हुआ है। और जगह ऐसी है कि हम फोर्स के साथ वहां धावा नहीं बोल सकते।”
“ऐसी कौन सी जगह हो सकती है सर?”
“एमएलए अनवर अंसारी का घर, जो कि उसका चचेरा भाई है।”
“ठीक है गार्ड को फोन दीजिए।”
एसपी ने दे दिया।
उसने ध्यान से अजगर की बात सुनी और दरवाजा खोलता हुआ बोला, “थोड़ा बाईं तरफ को चलेंगे सर तो आगे एक बरामदा है, वहां विधायक जी के बॉडीगार्ड होंगे जो आपको उनके पास ले जायेंगे।”
“एक काम और करो।”
“क्या सर?”
“गली के बाहर खड़ी हमारी गाड़ी में एक पैकेट पड़ा है, कोई एक जना जाकर उसे ले आओ, ड्राईवर से कहना हम भेजे हैं।”
सुनकर तीन में से एक आदमी तुरंत आगे बढ़ गया।
उसी वक्त अभिमन्यु ने बिजली जैसी तेजी के साथ बायें हाथ से एक गार्ड का मुंह दबाया और दायें हाथ में थमें छुरे को उसके गले में घुसेड़ दिया। वही हाल सुखवंत सिंह ने दूसरे गार्ड का किया। फिर अभिमन्यु गाड़ी से पैकेट लाने के लिए निकले तीसरे गार्ड के पीछे लपका, वह अभी थोड़ी ही दूर गया था कि उसने आवाज देकर उसे रोका और नजदीक पहुंचकर उसे खत्म करने के बाद लाश को वहां खड़ी एक कार के पीछे डाल दिया।
तब तक सुखवंत सिंह दोनों लाशों को खींचकर वहां रखे फूलों के बड़े बड़े गमलों के पीछे पहुंचा चुका था। तीस से चालीस सेकेंड के भीतर तीन लोगों को कत्ल कर दिया गया और किसी को भनक तक नहीं लगी थी।
अराध्या और पांडे वह नजारा देखकर भौंचक्के से रह गये।
“ये चल क्या रहा है दरोगा जी?” लड़की ने फुसफुसाते हुए पूछा।
“जैसे हमें पता ही है।”
“हमें तो लगता है एसपी साहब अनल सिंह को गुपचुप ढंग से निबटाने पहुंचे हैं यहां, और ऐसा हो गया तो समझ लीजिएगा कि हमारी बात सच एकदम सच थी, मतलब अतीक के साथ पक्का इनकी कोई बड़ी डील हो गयी है।”
“सवाल ये है अराध्या की इस जानकारी का हमें क्या फायदा पहुंचेगा?”
“पहुंच सकता है, अगर किसी तरह हम एसपी और उसके साथ मौजूद लड़के को काबू में कर लें, तो अतीक का पता हमें मिल जायेगा। क्योंकि अब तो गारंटी हो गयी है कि एसपी को सब मालूम है।”
“स्पीड देखी उस लड़के की, तुम्हें लगता है हम उससे पार पा सकते हैं?”
“थोड़ा मुश्किल जरूरत है लेकिन चांस भी आखिरी है अतीक तक पहुंचने का, मिस कर दिये तो दोबारा ऐसा मौका हाथ नहीं लगेगा।”
“अंदर चलकर देखते हैं, फिर जैसे हालात होंगे वैसा कदम उठायेंगे।”
तत्पश्चात दोनों सावधानी से गेट की तरफ बढ़ चले।
एसपी और अभिमन्यु गेट से भीतर दाखिल होकर बाईं तरफ को बढ़े तो दस कदम बाद दाईं तरफ को बना बरामदा उन्हें दिखाई दे गया। वहां अनल सिंह के दोनों गार्ड पहले से खड़े उनका इंतजार कर रहे थे। सामने का दरवाजा खुला हुआ था जिसके भीतर सोफे पर बैठा विधायक उन्हें दूर से ही नजर आ गया।
“गन अंदर नहीं ले जा सकते सर।”
“क्यों?”
“विधायक जी का हुक्म है।”
“हैं कहां वह?”
“सामने ही तो बैठे हैं।”
“अकेले हैं?”
“अजगर भईया भी हैं।”
“बस इतनी ही सिक्योरिटी है एमएलए साहब की, जबकि यहां तो पचासों लोगों को तैनात होना चाहिए।”
“हमें मिलाकर आठ लोग होते हैं सर, हालांकि जरूरत उतनों की भी नहीं है, भला किसकी मजाल है जो विधायक जी की तरफ आंख उठाकर भी देख ले।”
“हां ये तो एकदम सही कहे तुम।”
“अब अपनी गन हमें दे दीजिए प्लीज।”
तभी अभिमन्यु के हाथ में थमा छुरा जिसे अब तक वह पीठ पीछे कर के खड़ा था, चल गया। इतनी तेजी से चला कि दोनों को हमले का एहसास तक नहीं हुआ। मगर इस बार शिकारों को चींखने से तो नहीं रोक पाया।
भयानक और दिल दहला देने वाली चींख, जिसने भीतर बैठे विधायक और उसके राईट हैंड अजगर को हिलाकर रख दिया। मगर चौंकने के अलावा और कुछ नहीं कर पाये, क्योंकि उनके गन निकालने से कहीं पहले एसपी की रिवाल्वर उनकी तरफ तन चुकी थी।
“हिले तो गोली, काहे कि हमारा निशाना बहुते अच्छा है।”
“त...तुमने मेरे दो बॉडीगार्ड मार डाले, होश में तो हो एसपी?”
“हां पूरी तरह, लेकिन हमें ये पसंद नहीं कि किसी के चेले चपाटे हमारे रास्ते में आयें, इसलिए खत्म कर दिये सालों को। और बस दो ही नहीं मारे हैं, गेट पर खड़े तुम्हारे तीनों आदमियों को भी खत्म कर दिये हैं।”
“त...तुम तो हमारी तरफ थे?”
“आपको कोई शक है?”
“अगर हमारी तरफ हो तो दुश्मनों की तरह बात क्यों कर रहे हो?”
“क्योंकि यही हमारा स्टाईल है सर।” कहने के बाद वह आगे बढ़ा और टांग पर टांग चढ़ाकर अनल सिंह के सामने बैठ गया। जबकि अभिमन्यु अजगर के पास जाकर खड़ा हो गया।
“तो हमारा ये धमाकेदार आगमन तुम्हें कैसा लगा अनल सिंह?”
“यहां क्या कोई नौटंकी चल रही है एसपी? - अजगर गुर्राता हुआ बोला - जानते भी हो कि तुमने यहां पहुंचकर जो कुछ भी किया है उसका परिणाम क्या होगा?”
“अभिमन्यु।”
“यस सर?”
“चेले चपाटे पसंद नहीं हैं भाई हमें।”
उसकी बात सुनकर अजगर ने गन निकालने में बहुत फुर्ती दिखाई, मगर कामयाब नहीं हो पाया, क्योंकि चाकू चलाने में अभिमन्यु का कोई मुकाबला नहीं था, अगले ही पल अजगर वहां मरा पड़ा था। उसकी गर्दन से निकले खून के छींटे अनल सिंह को भिंगोते चले गये, जिसने उसे भीतर तक कंपकंपाकर रख दिया।
पांडे और अराध्या दरवाजे के बाहर खड़े भीतर चल रहा सारा वार्तालाप सुन रहे थे, सुनकर हैरान हो रहे थे, क्योंकि जो घटित हो रहा था वह उनकी सोच से परे था।
“तुम पागल हो गये एसपी?” विधायक ने झूठी दिलेरी दिखाने की कोशिश की।
“नाहीं, पागल नाहीं हुए हैं हम, अब जिले से अपराधियों का नामोनिशान मिटाने के लिए सरकार किसी एसपी को भेजेगी तो ये कैसे हो सकता है वह अतीक अंसारी को खत्म करे और अनल सिंह को सही सलामत छोड़ दे?”
“वर्दी उतर जायेगी सुखवंत सिंह, काहे कि तुम्हें बस हमारी वजह से आजमगढ़ भेजा गया है। सीएम साहब डीआईजी को हुक्म दिये थे कि अनल सिंह को छोड़कर बाकी तीनों को खत्म करवा दिया जाये।”
“और तुमने सोचा कि वह कामयाब भी हो जायेंगे, है न?”
“ओह अब समझे।”
“क्या समझे?”
“यही कि तुमने अतीक के साथ हाथ मिला लिया है?”
“नहीं ये तो सरासर गलत इल्जाम है हमपर, जिसकी मन हो उसकी कसम खिलवा लीजिए विधायक जी, हम अतीक से कबहूं हाथ नहीं मिलाये। काहे कि मिलाइये नहीं सकते।”
“तो हमें मारने यहां काहे पहुंच गये?”
“इसलिए क्योंकि हम अतीक अंसारी की सल्तनत ढहते हुए नहीं देख सकते।”
“उसका मतलब भी तो यही हुआ न कि अतीक ने तुमको अपनी तरफ कर लिया है।”
“नहीं उसने हमें अपनी तरफ नहीं किया है, बल्कि हम हैं ही अतीक अंसारी भोस...के।”
अनल सिंह के जिस्म में सिहरन सी दौड़ गयी, आंखें फट पड़ने को उतारू हो उठीं। और वैसा ही हाल उनकी बातचीत सुन रहे अराध्या और अनुराग पांडे का भी हुआ, जैसे अपने कानों पर यकीन ही न कर पाये हों।
“तुम क्या सोचे थे अनल सिंह कि जाकर दामोदर राय की गोद में बैठ जाओगे तो वह अतीक को खत्म करवा देगा? हमें क्या त्रिपाठी समझे हो, चंगेज खान समझे हो, नहीं बादशाह होते हैं हम आजमगढ़ के, कोई माद....हमारी गद्दी हमसे नहीं छीन सकता।”
“त...तुम सच में अतीक हो?”
“तुम्हें मजाक लग रहा है?”
“आवाज पहचान में नहीं आ रही, चेहरा भी नहीं आ रहा।”
“उसमें क्या है, अबहियें पहचनवाये देते हैं - कहकर उसने पगड़ी उतारी जो कि असल में बालों के साथ जुड़ी एक विग थी, पलक झपकते ही उसका सिख बहुरूप गायब हो गया। फिर चश्मा उतारता हुआ बोला, “दाढ़ी एकदम असली है अनल सिंह बस स्टाईल बदलवा लिये हम। सिख लोगों में एक खास बात ये होती है कि जब कोई उन्हें देखता है तो पगड़ी और दाढ़ी के अलावा कुछ दिखाईये नहीं देता। फिर सुखवंत सिंह तो चश्मा भी लगाकर रखते थे, इसलिए हमारा काम एकदम आसान हो गया।”
“आवाज क्यों अलग है?” उसने हकबकाये लहजे में पूछा।
“काहे कि लखनऊ जाकर जुबान के दोनों तरफ दो दो टांके लगवा लिये थे हम। मगर सबका ये जानना भी बहुत जरूरी था कि हमारी जुबान में टांके लगे हैं इसलिए थोड़ा तोतलाकर बोल रहे हैं, जो कि हम अपने मुंह से नहीं बता सकते थे, इसलिए एसपी ऑफिस पहुंचते ही धड़ाम से मुंह के बल गिर पड़े, जहां पोंछा लगाने वाला आदमी हमारी तरफ था, उसने सीढ़ी पर ढेर सारा फिनाईल फैला दिया ताकि हमारा गिरना जस्टीफाई हो जाता। वहीं हमारा भेजा हुआ एक डॉक्टर भी मौजूद था, जिसने दिखावे को हमारी जुबान पर टांके लगाये, जो कि हम लखनऊ में ही लगवा चुके थे। फिर उसी ने सबसे कह भी दिया कि एक दो दिन हमें बोलने में तकलीफ होगी, तोतलाहट भी हो सकती है, माने शक की कोई गुंजाईश नहीं छोड़े हम। अब आखिरी समस्या हमारे सामने ये थी कि एसपी ऑफिस का पूरा स्टॉफ हमें पहचानता था, ऐसे में बार बार सामने पड़ने पर कोई भांप सकता था कि हम सुखवंत सिंह नहीं बल्कि अतीक अंसारी हैं, इसलिए हम पूरा स्टॉफे बदल दिये, आखिर एसपी होने का कुछ तो फायदा होता ही है।”
“कमाल है - अनल सिंह हकबकाया सा बोला - पुलिस की कार्यप्रणाली कब सीख लिये तुम? कैसे मैनेज कर पाये इतना कुछ?”
“वो तो पुराने एसपी साहब से बार बार होने वाली मुलाकातों से ही सीख गये थे हम, फिर एसपी को हुक्म देने के अलावा और करना ही क्या होता है, इसलिए अभी तक तो कोई समस्या नाहीं आई हमारे सामने।”
“अपने बाप को जेल भिजवा दिये?”
“हां भिजवा दिये ताकि किसी को हमपर जरा भी शक न होने पाये। मगर उनपर लगे इल्जाम बहुते मामूली हैं, जब चाहें उन्हें बाहर निकाल लेंगे हम।”
“उन्हें भी नहीं मालूम था कि तुम कौन हो?”
“मालूम था, बस चार लोग हमारा राज जानते थे, अब्बाजान, कलंकी, हमारी गाड़ी का ड्राईवर और अभिमन्यु जो इस वक्त तुम्हारे सामने खड़ा है। बहुते होशियार लड़का है, गोली से ज्यादा तेज चाकू चला लेता है। साथ में हमारा मामूजात भाई भी है - कहकर उसने पूछा - और कुछ जानना चाहते हो?”
“हमें मारकर तुम बच नहीं पाओगे अंसारी, काहे कि मुख्यमंत्री साहब तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे।”
“गलत सोच रहे हो, इधर तुम्हारी जान गयी नहीं कि उधर वह हमें गले से लगा लेंगे।”
“असंभव।”
“ठीक है तुम्हारी गलतफहमी हम अभी दूर किये देते हैं, बस जुबान बंद कर के बैठना, और अपने मोबाईल पर सीएम का नंबर लगाकर हमें दो।”
“हमार मोबाईल काहे?”
“काहे कि जब से तुम उनकी गोद में बैठे हो वह हमारा कॉल उठाना बंद कर दिये हैं। मगर तुम्हारी गलतफहमी दूर करना जरूरी है इसलिए अभी तुम्हारे सामने दामोदर राय से बात करेंगे हम।”
अनल सिंह ने हुक्म का पालन करते हुए सीएम का नंबर डॉयल कर के मोबाईल अतीक को थमा दिया। फिर जैसे ही दूसरी तरफ से कॉल अटैंड की गयी अतीक ने मोबाईल को हैंड्स फ्री मोड पर डाल दिया।
“बोलो अनल सिंह, इतनी रात को फोन काहे किये?”
“ई अनल सिंह नहीं बोल रहे दामोदर राय, हम बोल रहे हैं।”
“अ...अतीक?”
“हां अतीक अंसारी, तुम ससुर मुख्यमंत्री क्या बन गये अपनी औकात भूल गये। भूल गये कि आज तुम जिस कुर्सी पर बैठे हो वह हम तुम्हें दिलवाये थे। और तुमने जितने पाप किये हैं न उनमें से बहुतों का लाईव टेलिकॉस्ट कराने का इंतजाम भी मौजूद है हमारे पास, फिर भी तुम हमारे खिलाफ जाने की जुर्रत कर बैठे?”
“जुबान संभालकर बात करो अतीक।”
“ऐसी की तैसी जुबान की, अब साफ-साफ हमारी बात सुनो दामोदर राय। ऊ का है न कि त्रिपाठी, चंगेज और तुम्हारे प्यारे अनल सिंह दुनिया से विदा हो चुके हैं। माने आजमगढ़ में पहले भी अतीक अंसारी की हुकूमत चलती थी और आगे भी अतीक अंसारी की ही चलेगी। बस तुम सोच लो कि तुम्हें क्या करना है। छह महीना बाद होने जा रहे इलैक्शन में अपना मुंह काला करवाओगे, या जीतकर कुर्सी पर बने रहना चाहते हो।”
लाईन पर सन्नाटा छा गया।
“वक्त नहीं है सीएम साहब, जल्दी से जवाब दीजिए हमें।”
“देखो पहली बात तो ये कि हम तुम्हें खत्म करने का हुक्म कभी नहीं दिये। एसपी सुखवंत सिंह जो कर रहा था अपनी मर्जी से कर रहा था। ना कि हम कहे थे कि जाकर अतीक को खत्म कर दो।”
“काहे बुड़बक बना रहे हो दामोदर, जो किये उसे सीना ठोंककर कबूल काहे नहीं करते। कहो कि तुम अनल सिंह से कैचअप और हमसे ब्रेकअप करने का फैसला ले लिये थे। काहे कि झूठ बोलोगे तो बात लंबी खिंचेगी जिसके लिए तुम्हारे पास कितना वक्त है हम नहीं जानते, लेकिन हमारे पास तो बिल्कुल भी नहीं है।”
“ठीक है।”
“क्या ठीक है?”
“हम ही हुक्म दिये थे, मगर कसम खाकर कहते हैं कि हमारा वैसा कोई इरादा नहीं था। वह तो हाईकमान का प्रेशर था जिसके आगे हमें झुकना पड़ा। अनल सिंह हमारी ही पार्टी के थे, इसलिए उन्हें आगे लाने के आदेश दे दिये गये थे। ना कि तुम्हारे साथ कोई पर्सनल दुश्मनी निकाले थे हम। इसलिए चाहो तो बेशक सुखवंत सिंह को खत्म कर दो, हम वादा करते हैं कि उसकी वजह से तुमपर कोई आंच नहीं आने देंगे।”
जवाब में अतीक ने बड़ा ही शैतानी ठहाका लगाया।
“क्या हुआ?”
“एसपी की कब्र हम पहले ही खोद चुके हैं दामोदर राय।”
“क...कब?”
“बहुत पहले, मतलब आजमगढ़ में तो उन्हें कदमें नहीं रखने दिये थे।”
“क्या कह रहे हो, अगर ऐसा था तो उसने त्रिपाठी और चंगेज को कैसे खत्म कर दिया?”
“ऊ तोहार एसपी नाहीं किये, हम किये थे, काहे कि आजकल एसपी ऑफिस में हमीं बैठते हैं, मतलब जिले की सुरक्षा व्यवस्था की कमान अतीक अंसारी संभालता आ रहा है।”
“कहां मारे थे, लाश कहां गयी?”
“गुप्तारगंज के पास गाड़ी रोक लिये थे, फिर उधरे निबटा दिये एसपी साहब को, उसी रात जिस रात वह लखनऊ से आजमगढ़ के लिए निकले थे। लाश भी वहीं हाईवे किनारे कहीं दफन करवा दिये, मातम मनाना चाहते हो तो आकर हमसे मिल लेना, चलकर डेडबॉडी दिखा देंगे।”
“जो किये ठीक किये, हमें भला उससे क्या फर्क पड़ता है।”
“आजमगढ़ के लिए अब तुम्हारे पास कोई चॉयस नहीं है दामोदर राय।”
“हम समझते हैं।”
“आगे इस बात का भी ध्यान रखना कि अनल सिंह को हम नहीं एसपी सुखवंत सिंह मारे हैं, जो बाद में कहां गायब हो गये किसी को नहीं पता, काहे कि एसपी की वर्दी पहने पहने अब हम थक गये हैं, हमें तो कुर्ता पाजामा ही कंफर्टेबल लगता है, जो कल से पहनना शुरू कर देंगे।”
“हम सब संभाल लेंगे अतीक, बेफिक्र रहो।”
“ऊ तो हम हमेशा रहते हैं - कहने के बाद उसने कॉल डिस्कनैक्ट कर के विधायक की तरफ देखा - ये जो राजनीति है न अनल सिंह, वह बहुते कुत्ती चीज होती है, इसमें बाप बेटे का सगा नहीं होता, तुम तो फिर भी दामोदर राय के कुछ नहीं लगते। मतलब उसे बस अपनी कुर्सी प्यारी है ना कि हम या तुम।”
अगले ही पल अतीक ने गोली चला दी, जो एमएलए के माथे में तीसरी आंख बना गयी।
आजमगढ़ का बादशाह बनने का सपना देखने वाला विधायक अनल सिंह कुत्ते की मौत मारा जा चुका था।
तुरंत बाद एक और गोली चली, जो अभिमन्यु की खोपड़ी में जा घुसी। दरवाजे की तरफ उन दोनों की पीठ थी इसलिए भीतर सरक आये पांडे की भनक तक नहीं लगने पाई।
“गन नीचे फेंक दो अतीक अंसारी - दरोगा गुर्राया - वरना अगली गोली हम तुम्हारी खोपड़ी में उतार देंगे।”
सुनकर उसने रिवाल्वर अपने हाथ से निकल जाने दी, फिर पांडे की तरफ घूमकर बोला, “क्या आदमी हो यार तुम, मतलब एकदम डराकर रख दिये हमें।”
“और तुम कितने बड़े नौटंकीबाज हो साले - अराध्या माखौल उड़ाने वाले अंदाज में हंसती हुई बोली - मतलब सिपाही या दरोगा नहीं, सीधा एसपी बन गये? एक अपराधी जिले का सबसे बड़ा पुलिस ऑफिसर बन गया? बनकर अपने दुश्मनों का खात्मा करते चले गये और लोग सुखवंत सिंह जिंदाबाद के नारे लगाते रहे। बहन... तुम्हें तो एक्टर होना चाहिए, खामख्वाह बाहुबली बनने की फिराक में लगे हो।”
“और ये मैडम जी कौन हैं?”
“अराध्या, अराध्या राजपूत।”
“तुम तो बड़ी खूबसूरत हो यार।”
“हमारी सहेलियां भी यही कहती हैं।”
“ब्वॉयफ्रैंड कुछ नहीं कहते?”
“कहते हैं न।”
“क्या?”
“यही कि हम बहुते हॉट और सैक्सी हैं।”
“तो अब क्या?”
“तुम्हें खत्म करेंगे और क्या?”
तभी धड़धड़ाते हुए तीन हथियारबंद लोग भीतर आ घुसे। वह अनल सिंह के ही आदमी थे जिन्हें वहां चली गोलियों की आवाज ने गहरी नींद से जगा दिया था।
उस दौरान पल भर को पांडे का ध्यान अतीक की तरफ से हट गया, जिसका पूरा पूरा फायदा उठाते हुए उसने एक जोर की लात उसके रिवाल्वर वाले हाथ पर जमा दी।
गन उछलकर कहां जा गिरी पता भी नहीं लगा।
उसी वक्त अराध्या भीतर पहुंच चुके तीनों आदमियों को गोली चलाने के लिए तत्पर देखकर एकदम से नीचे बैठ गयी। तीनों की गन एक साथ गरज उठी, जिनमें से एक गोली पांडे के दायें बाजू में लगी, दूसरी अतीक के बायें पैर में और तीसरी खाली चली गयी। उसी वक्त लड़की ने तीनों को शूट किया फिर चौथी गोली खुद पर झपटने को तैयार अतीक के पैर पर चला दी।
वह धड़ाम से जहां का तहां गिर पड़ा।
“तुम्हारा आखिरी वक्त आ चुका है अतीक अंसारी, इसलिए बचने की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं होने वाली, ठीक वैसे ही जैसे कलंकी की तमाम कोशिशें बेकार चली गयी थीं।”
“ल...लड़ाई झगड़े में क्या रखा है मैडम? हमने तुम्हारा जो कुछ भी बिगाड़ा है वह हमें खत्म कर देने से वापिस थोड़े ही लौट आयेगा, हां हमें जाने दोगी तो वादा करते हैं कि जिंदगी भर किसी चीज की कोई कमी नहीं होने देंगे, मतलब फुली ऐश करायेंगे तुम दोनों को।”
“कमी तो हमें वैसे भी कोई नहीं है अतीक अंसारी, काहे कि अकेली जान हैं, कोई खर्चा ही नहीं है हमारा, हां दिल में एक हसरत थी कि तुम्हारा खून पीयेंगे, मगर पी नहीं पायेंगे, काहे कि उसमें से सड़ांध उठ रही होगी। अब बस एक सवाल का जवाब दे दो फिर हम फातिहा पढ़ते हैं तुम्हारा।”
“कैसा सवाल?”
“एसपी को गुप्तारगंज वाली मीटिंग के दौरान ही खत्म कर दिये थे, या बाद में किये?”
“उहें कर दिये थे, फिर अपने आदमियों को उन्हीं की गाड़ी में बैठाकर लाश ठिकाने लगाने भेज दिये और खुद कलंकी के साथ लखनऊ निकल गये, जहां हमें अपनी आवाज का तियां पांचा करवाना था।”
“थैंक यू अब मरने के लिए तैयार हो जाओ।”
“तुम हमें नहीं मार सकतीं।”
“काहे?”
“काहे कि कोमलांगी हो, तुम्हारे हाथों में चूड़ियां होनी चाहिएं, ना कि गन। इसलिए हमारी बात मानों और सुलह कर लो हमसे। सच कहते हैं ऐसी जिंदगी देंगे जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी।”
“कल्पना तो तुम अपनी मौत की भी कहां किये होगे अंसारी, लेकिन खड़ी तो है न तुम्हारे सिर पर, अब बच सकते हो तो बचकर दिखा दो।”
“तुम भी कोई डॉयलाग बोल लो पांडे, चुप काहे हो?”
“बोलते हैं।” कहकर उसने बिना किसी चेतावनी के अतीक के सीने पर गोली दाग दी। दूसरा फायर अराध्या ने किया। इस बार गोली अतीक की नाक तोड़ती हुई भीतर घुसी थी, जिसके कारण उसका चेहरा बड़ा ही वीभत्स हो उठा।
किस्सा खत्म।
आजमगढ़ चार बड़े अपराधियों के आतंक से हमेशा हमेशा के लिए मुक्त हो चुका था। मगर इसे अपराध का अंत कहना गलत होगा, क्योंकि एक के जाने के बाद दूसरे का आना तय होता है। अपराध और अपराधी दोनों ही अनवरत हैं, बस अपराध का ढंग और अपराधियों के चेहरे बदल जाया करते हैं।
अब बारी थी याकूब खान की, जो सालों से आजमगढ़ की बादशाहत हथियाने के सपने देख रहा था। मगर अमरजीत त्रिपाठी, चंगेज खान, अनल सिंह और अतीक अंसारी जैसे बड़े मगरमच्छों के सामने सिर उठाने की जुर्रत नहीं कर पा रहा था।
समाप्त
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