शनिवार : अट्ठाइस दिसम्बर
उस रोज का अखबार केवल राजधानी में हुए ऐसे अपराधों की खबरों से भरा पड़ा था जिनमें से हर खबर की शहर के किसी खास आदमी के लिये खास अहमियत थी । उन खबरों में से जिसने अखबार के मुखपृष्ठ का सबसे महत्वपूर्ण स्थान घेरा हुआ था उसका शीर्षक थाः ‘दो सन्दिग्ध उग्रवादी हलाक’ ।
खबर पुलिस के एक प्रवक्ता के बयान के हवाले से छपी थी कि कैसे उनके अजीत लूथरा नाम के एक सब-इंस्पेक्टर ने ‘बियांड दि काल आफ ड्यूटी’ उन उग्रवादियों पर सन्देह करके उनका पीछा किया था और फिर जान की परवाह किये बिना दोनों को मार गिराया था ।
खबर के साथ कई तसवीरें भी छपी थीं ।
एक तसवीर मौकायेवारदात की थी जिसमें केटरिंग वैन के पहलू में जमीन पर मरे पड़े दोनों कथित उग्रवादी दिखाई दे रहे थे । दो तसवीरें उनके चेहरों के क्लोजअप थे जिनके माध्यम से पुलिस ने पब्लिक से उनकी शिनाख्त की अपील की थी ।
एक तसवीर प्रेस प्रतिनिधियों को बयान देते सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा की थी जिसमें उसके साथ बैठा, बत्तीसी निकाल के हंसता, उसका थानाध्यक्ष रतनसिंह भी दिखाई दे रहा था ।
दूसरी खबर का शीर्षक था : प्राइवेट बस में वारदात ।
उस खबर के मुताबिक पिछली रात ग्यारह बजे के करीब डिफेंस कालोनी फ्लाई ओवर पर डी टी सी के तहत चलने वाली एक प्राइवेट बस ने एक साइकल सवार को अपनी चपेट में ले लिया था । बस वालों ने उस दुर्घटना के बाद बस को भगाकर ले जाने की कोशिश की थीं लेकिन उस घड़ी वहां मौजूद कुछ लोगों ने, जो कि वारदात के चश्मदीद गवाह थे और जिन्होंने अपने बयान में पुलिस को बताया था कि वो हादसा सरासर बस ड्राइवर की लपरवाही से हुआ था, बस को वहां से भागने नहीं दिया था । बस के ड्राइवर और कन्डक्टर ने हजार-हजार माफियां मांगते हुए कहा था कि साइकल सवार गम्भीर रुप से घायल नहीं था और वो उसे बस में डालकर नजदीकी हस्पताल में ले जाने को तैयार थे । फिर ड्राइवर और कन्डक्टर ने स्वयं घायल साइकल सवार को और उसकी साइकल को बस में लादा था और उस को सफदरजंग हस्पताल की ओर ले चले थे ।
उस घड़ी बस में कोई सवारी नहीं थी ।
मौकायेवारदात से यूं बस निकाल जाने के बाद ड्राइवर और कन्डक्टर ने अपनी नीच प्रकृति का असल परिचय दिया था । बस को हस्पताल पर रोकने के स्थान पर वो उसे धौला कुआं ले गये थे और वहां एक सुनसान जगह में घनी झाड़ियों से छुपे एक गड्ढे में उन्होंने बुरी तरह से घायल साइकल सवारी को बमय उसकी साइकल फेंक दिया था । साइकल सवार उस वक्त होश में था लेकिन अधिक खून बह जाने की वजह से, जो कि तब भी बह रहा था, कुछ बोल पाने की हालत में नहीं था ।
अपनी उस हैवानी करतूत के बाद बस के ड्राइवर और कन्डक्टर बस में सवार होकर वहां से रवाना होने ही वाले थे कि एकाएक एक काली एम्बैसेडर कार वहां पहुंची थी जिसने कि बस का रास्ता रोक लिया था । फिर कार में से लम्बा ओवरकोट और काला चश्मा पहने एक व्यक्ति निकला था और उसने दोनों पर रिवॉल्वर तानकर उन्हें घायल साइकल सवार को खड्डे से निकाल कर दोबारा बस में सवार कराने पर मजबूर किया था । फिर वो अपनी कार नहीं छोड़कर बस में सवार हुआ था । और उसके आदेश पर ड्राइवर बस को वापिस हस्पताल में ले कर आया था । वहां ओवरकोट वाले ने बस में ड्राइवर और कन्डक्टर को अपने सामने खड़ा करके चार फायर करके उन दोनों के दोनों घुटने फोड़ दिये थे । मूर्छित होने से पहले ड्राइवर और कन्डक्टर ने, और घायल साइकल सवार ने भी, ओवरकोट वाले को ये कहते सुना था कि उसने उनकी जान नहीं ली थी क्योंकि उनकी करतूत का शिकार अभी जिन्दा था लेकिन अगर वो मर गया तो वो फिर लौट के आयेगा और दोनों को जहन्नुम रसीद करके जायेगा ।
घायल साइकल सवार का कथन है कि फिर उसने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस और कन्डक्टर का पहचान पत्र अपने अधिकार में कर लिया था ।
ऐसा जरूर उसने उन दोनों के पते जानने के लिये किया था ताकि अगर उनकी जान लेने की जरूरत वो महसूस करे तो उनकी तलाश करने में उसे दिक्कत न हो ।
फिर उसने करीब ही मौजूद एक पब्लिक टेलीफोन बूथ से हस्पताल में फोन करके बस में मौजूद घायल व्यक्तियों की खबर की थी ।
तमाम घटना क्रम के मूक गवाह घायल साइकल सवार का कहना है कि वो ओवरकोट वाला तब तक वहीं बस से थोड़ा परे ठिठका खड़ा रहा था जब तक कि उसने अपनी आंखों से घायलों को भीतर हस्पताल में ले जाये जाते नहीं देख लिया था ।
घायल साइकल सवार अब खतरे से बाहर है लेकिन जैसी निर्ममता से उसे धौला कुआं के करीब खड्डे में फेंक दिया गया था, वैसे भीषण ठण्ड के वर्तमान मौसम में वहां उसकी मौत निश्चित थी ।
ड्राइवर और कन्डक्टर भी खतरे से बाहर हैं लेकिन उनका उपचार करने वाले डाक्टर का कहना है कि अब वो बाकी की जिन्दगी चल-फिर नहीं सकते थे । उनकी हैवानियत की सजा के तौर पर ओवरकोट वाला उन्हें पूरी जिन्दगी के लिये अपाहिज बना गया था ।
पुलिस ने ड्राइवर और कन्डक्टर दोनों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है और उनकी बस अपने कब्जे में ले ली है । कहना न होगा कि सारी वारदात उसी खबरदार शहरी का कारनामा था जो कि पहले भी शहर में ऐसी कई वारदात कर चुका है । अलबत्ता इस बार उसकी कार्यप्रणाली में ये अन्तर पाया गया है कि ये पहला मौका है जबकि उसने अपने किसी शिकार को जिन्दा छोड़ दिया है ।
तीसरी खबर का शीर्षक था : संदिग्ध तस्कर लेखराज मूदंड़ा हिरासत में ।
खबर के मुताबिक लेखराज मूंदड़ा को नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के जासूसों ने तब गिरफ्तार किया था जबकि वो पिछली रात एम्बैसेडर होटल से बाहर निकल रहा था । जासूसों को उसके पास से भारी मात्रा में मादक पदार्थों की बरामदगी की अपेक्षा थी लेकिन उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई थीं । फिलहाल प्रैस को ये नहीं बताया गया था कि उनके पास से कुछ बरामद ही नहीं हुआ था या बरामदगी अपेक्षित मात्रा में नहीं थी ।
एन सी बी के एक प्रवक्ता का कहना था कि इस सन्दर्भ में अभी पूछताछ जारी थी ।
खबर के साथ एन सी बी और स्थानिय पुलिस के अधिकारियों से घिरे मूंदड़ा की तस्वीर भी छपी थी ।
चौथी खबर ‘पीजा पार्लर के मालिक की हत्या शीर्षक से छपी थी जिसमें विस्तृत वर्णन था कि कैसे पहाड़गंज के एक पीजा पार्लर में उसके चार्ली ब्राउन नाम के मालिक को दिन-दहाड़े शूट कर दिया गया था ।
पांचवी खबर का शीर्षक था ‘पुलिसकर्मी की दिन-दहाड़े हत्या’ और वो सहजपाल के कत्ल से सम्बन्धित थी ।
सहजपाल क्योंकि पुलिस का आदमी था इसलिये पुलिस द्वारा बहुत जोर-शोर से दावा किया गया था कि अड़तालीस घंटे के भीतर-भीतर उसका हत्यारा गिरफ्तार कर लिया जायेगा ।
***
टेलीफोन की घंटी ने लूथरा को सोते से जगाया । उसने घड़ी पर निगाह डाली तो पाया कि अभी सिर्फ साढे छः बजे थे । उसने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और भुनभुनाया-सा बोला - “हल्लो !”
“रावत बोल रहा हूं, साहब ।” - आवाज आई ।
“हां, बोलो । क्या खबर है ?”
“कौल की हामला बीवी वापिस नर्सिंग होम पहुंच गयी है ।”
तत्काल लूथरा के मिजाज में तब्दीली आयी, उसने दो-तीन बार आंखें मिचमिचाई और फिर अपेक्षाकृत सतर्क स्वर में बोला - “कैसे ? क्या हुआ ?”
“सुबह-सवेरे उसकी लेडी डाक्टर अपनी कार पर गोल मार्केट पहुंची । उसके वहां पहुंचने के दस मिनट बाद ही एम्बूलेंस पहुंच गयी । इस बार स्ट्रेचर पर थी वो हमला औरत । हालत बहुत ही बद् हो गयी मालूम होती थी उसकी । फूला हुआ पेट यूं उठ-गिर रहा था जैसे वहीं स्ट्रेचर पर ही बच्चा जन देगी । मुंह पर आक्सीजन का मास्क चढा हुआ था ।”
“आक्सीजन भी ?”
“हां । उसी से तो मुझे लगा कि मामला कुछ ज्यादा ही नाजुक था । कौल बेचारा भी बहुत ही बदहवास था । लगातार बीवी का हाथ थपथपाकर उसे तसल्ली दे रहा था जबकि उसकी अपनी हालत ये बताती थी कि उसे खुद तसल्ली की जरूरत थी ।”
“मैंने पहले ही कहा था कि पहली प्रेग्नेंसी में औरत की तबीयत का कुछ पता नहीं लगता । घड़ी में बिगड़ जाती है, घड़ी में सुधर जाती है ।”
“सुधरी तो कल भी नहीं लग रही थी उसकी तबीयत ।”
“ऐसी हालत में बाज औरतें हस्पताल से बहुत खौफ खाती हैं । कल तबीयत जरा सुधरते ही वो ही जिद करने लगी होगी घर चलने की ।”
“मुमकिन है ।”
“बहरहाल हमें क्या लेना-देना है उसकी तबीयत से ! सुधरे या बिगड़े । अलबत्ता मर न जाये पट्ठी । मर गयी तो बहुत गड़बड़ हो जायेगी ।”
“क्या गड़बड़ हो जायेगी, साहब ?”
“कुछ नहीं ।” - लूथरा तत्काल सम्भला - “तू नहीं समझेगा । तो अब वो वापिस नर्सिंग होम में है ?”
“हां ।”
“कौल ?”
“यहीं है ।”
“वो कहीं हो, तुम लोगों ने वहां से नहीं टलना जहां कि उसकी बीवी है ।”
“वो तो है ही ।”
“कोई खास बात हो तो फौरन खबर करना ।”
“ठीक है ।”
लूथरा ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और जोर की अंगड़ाई ली ।
तभी उसकी बीवी माधुरी बैडरूम की चौखट पर प्रकट हुई ।
“अपने लिये चाय बना रही हूं ।” - वो बोली - “जाग गये हो तो तुम्हारी भी बनाऊं ?”
“जाग गया हूं” - लूथरा बोला - “बना ले मेरी भी । लेकिन पहले अखबार ला के दे ।”
माधुरी ने अखबार ला के दिया ।
“इसमें मेरी फोटो छपी है ।” - लूथरा एकाएक बोला - “देखो ?”
“नहीं ।” - माधुरी किचन से बोली - “अभी आ के देखती हूं । चाय बना लूं ।”
लूथरा अखबार पढने लगा ।
लेखराज मूंदड़ा की गिरफ्तारी की खबर पढकर वो चौंका । मूंदड़ा की गिरफ्तारी की खबर ने उसे उतना न चौंकाया जितना इस बात ने चौंकाया कि उसे नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के जासूसों ने गिरफ्तार किया था ।
वो कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने अखबार परे फेंककर फोन अपनी तरफ घसीटा ।
उन दिनों उसके अपने बैच का एक सब-इंस्पेक्टर एन सी बी में कार्यरत था उसका अच्छा-खासा दोस्त था । उसने उसके घर पर फोन लगाया ।
“हल्लो !” - आवाज आई - “मेहरा हेयर ।”
“लूथरा बोल रहा हूं ।” - लूथरा माउथपीस में बोला - “जाग गये ?”
“हां । कब का ।”
“अखबार पढा ?”
“हां ।”
“मूंदड़ा की गिरफ्तारी की खबर पढी ?”
“पढी ।”
“वो तो छोटा-मोटा नारकाटिक्स स्मगलर था । पहले कभी गिरफ्तार भी नहीं हुआ । हमारे थाने में उसका केस था । छोटी मछली थी वो जो कि इत्तफाक से हमसे फंस नहीं पायी थी । वो एकाएक इतना बड़ा मगरमच्छ कैसे बन गया कि तुम्हारे महकमे की उसमें दिलचस्पी हो गयी ?”
“पता नहीं कैसे बन गया ? लेकिन एक बात पक्की है । जैसे उसे गिरफ्तार किया गया है, वैसे कोई बड़ा मगरमच्छ ही गिरफ्तार किया जाता है ।”
“कैसे गिरफ्तार किया गया है ?”
“हमारे ब्यूरो चीफ दुबे साहब ने खुद जा के उसे गिरफ्तार किया ।”
“अरे !”
“रेडिंग पार्टी में मैं भी था लेकिन जो कुछ किया खुद दुबे साहब ने किया । आगे उससे जो पूछताछ होनी है , वो भी दुबे साहव खुद करेंगे ।”
“अभी करेंगे ? की नहीं ?”
“कुछ की है । कुछ अभी और करेंगे ।”
“क्या मालूम हुआ ?”
“पता नहीं ।”
“कुछ मालूम हुआ भी है ?”
“ये भी पता नहीं ।”
“कमाल है !”
“वाकई कमाल है । मूंदड़ा के मामले में दुबे साहब किसी को, किसी को भी, अपने कान्फीडेस में नहीं ले रहे ।”
“कोई माल-पानी पकड़ा गया उसके पास ?”
“पता नहीं ।”
“क्या बात है, यार ? पता नहीं के अलावा तेरे पास कोई जवाब नहीं ?”
“अब मैं तेरे से झूठ बोलूं ?”
“अच्छी बात है । शुक्रिया ।”
उसने रिसीवर रख दिया ।
तभी माधुरी चाय ले आयी ।
***
कुशवाहा का ध्यानाकर्षित करने वाली खबर दो संदिग्ध उग्रवादी गिरफ्तार शीर्षक थी । खबर के साथ छपी तमाम सूरतों को उसने तत्काल पहचाना ।
वो बेहद गम्भीर हो उठा ।
तो पिछली शाम सब-इन्स्पेक्टर लूथरा नाहक ही उस काली एम्बैसेडर कार के बारे में सवाल करता नहीं आया था जोकि लट्टू और फौजी के अधिकार में थी । ये एक गम्भीर मामला था कि उस पुलसिये ने उनके दो आदमियों को एक फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था और अब उन्हें उग्रवादी साबित करने की कोशिश की जा रही थी ।
ऐसा पुलसिया उनकी तरफ कैसे हो सकता था ! कैसे उससे लाल साहब के लिये सोहल को खत्म कर देने की उम्मीद की जा सकती थी !
उस बाबत अपने बॉस से तुरन्त बात करना उसे अत्यावश्यक लगने लगा ।
***
विमल को बतलाने की जरूरत नहीं थी कि उस रोज के अखबार में मुखपृष्ठ पर छपी कौन-सी खबर शिवनारयण पिपलोनिया का कारनामा थी । ‘प्राइवेट बस में वारदात’ शीर्षक खबर पुकार-पुकारकर अपनी कहानी खुद कह रही थी । जाहिर था कि विमल से पीछा छुड़ाने की जुगत लगा चुकाने के बाद उसने अपना अभियान जारी रखा था ।
उसने अखबार एक ओर फेंक दिया और अपना पाइप सुलगा लिया ।
उस घड़ी वो मानसिंह रोड पर मौजूद होटल ताजमहल की सातवीं मंजिल पर स्थित एक कमरे में मौजूद था । उसके कमरे के ऐन सामने वाले कमरे में फाइव स्टार होटल के माहौल के मुताबिक निहायत संभ्रान्त और सजीले बने अली मोहम्मद और वली मोहम्मद मौजूद थे । महाजन नर्सिंग होम से विमल सीधा वहां पहुंचा था जहां कि उसने टेलीफोन करके बड़ौदा के पेस्टन जी नौशेरवानजी घड़ीवाला के नाम एक ही फ्लोर पर आमने-सामने दो कमरे बुक कराये हुये थे ।
दस बजे होटल के ही काफी हाउस में उसकी झामनानी से मुलाकात होने वाली थी ।
दस बजने में पांच मिनट पर शेरवानी, चूड़ीदार पायजामा और काले फुंदने वाली लाल टोपी में लब मुबारक अली ने विमल के कमरे में कदम रखा तो उसकी सजधज देखते ही बनती थी ।
“वाह मियां !” - विमल प्रशांसात्मक स्वर में बोला - “तेरा जलाल तो झेला नहीं जा रहा । तू तो कोई बड़ा नवाब या वजीर लग रहा है , मुबारक अली ।”
दुर्दान्त हत्यारा, खतरनाक मवाली मुबारक अली बच्चों की तरह शरमाया ।
“बाप ” -वो बोला - “वो क्या है कि अपुन तो तू जो बोला वो ही किया । तू बोला इदर हम वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में लकदक वाली जगह में लकदक वाली पोशाक में आना मांगता है तो अपुन ये जोड़ा मुहैया किया और हज्जाम के पास जा के हुलिया भी सुधरवाया ।”
“लेकिन जुबान न सुधारी, तेरी लकदक की तो तेरी जुबान ही पोल खोल देगी ।”
“वो भी काबू में करेंगा । तेरे सामने क्या वान्दा है । फिसलती है तो फिसलने दे ।”
“चल ऐसे ही सही ।”
“एक बात बोलूं, बाप ?”
“बोल ।”
“मेरे कू आज मालूम हुआ कि जिन्दगी बड़े लोगों की ही है । अपुन साले की नौटंकी वाला नकली औकात का भी अपुन को इदर ऐसा रोब देखने कू मिला जैसा कभी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सपने में नहीं देखा । साला हर कोई अपुन को सलाम मारा । जिदर जिससे निगाह मिल गयी, गोली की तरह सलाम । एक तो इतनी चिकनी मेम साहब ऐसा मुस्करा के अपुन को सलाम मारा कि” - मुबारक अली के चेहरे पर एक बड़ी रंगीन मुस्कराहट आई - “अब क्या बोलूं, बाप ! जी तो चाहा था कि उसे बगल में दबाऊं और यहां से भाग खड़ा होऊं ।”
विमल ने जोर का अट्टहास किया ।
मुबारक अली शरमाया । उसने बड़े अनुराग से अपनी तुर्की टोपी ठीक की और सिर झुकाकर शेरवानी के एक काज में लगा लाल सुर्ख गुलाब का फूल सूंघा ।
“इन्तजाम करें तेरे लिये वैसी मेम साहब का ?” - विमल उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।
“अगले जन्म में ।” - मुबारक अली बोला - ”ऊपर पहुंचेगा तो खुदाबन्द करीम को अपुन ये ही बोलेंगा कि बड़े बाप अगली बार जब इस फानी दुनिया में भेजे तो जिन्दगी भले ही छोटी देना, लेकिन औकात बड़ी बनाना ।”
विमल फिर हंसा ।
“अब बोल ।” - मुबारक अली तत्काल गम्भीर हुआ - “पहले झामनानी की सुनेगा या पिपलोनिया की ?”
विमल, जिसके जेहन में ‘प्राइवेट बस में वारदात’ वाली खबर अभी भी बज रही थी, तत्काल बोला - “पिपलोनिया की ।”
“उसी की सुन । बाप, उसकी निगरानी में तो कोई वान्दा नहीं था, पण मेरा एक पढा-लिखा जातवाला बोला कि निगरानी की खबर तेरे तक कैसे पहुंचेगा ?”
“क्या मतलब ?”
“बाप, सोच, एक आदमी पिपलोनिया के पीछे लगेला है । वो तेरे कू किसी तरह फोन लगा के बताता है कि पिपलोनिया, फर्ज कर, कनाट प्लेस में है और उदर अपना कोई कारनामा करने का मन बनाता मालूम होता है । बाप, क्या गारन्टी है कि होयेंगा, वो आठ-दस मील किसी भी बाज नहीं निकल गया होयेंगा ?”
“ये तो है प्राब्लम !”
“क्या बोला, बाप ।”
“मेरा मतलब है ये मुश्किल, ये दुश्वारी तो है । हल तो इसका ये है कि खुद मैं पिपलोनिया की निगाहबीनी में लगूं ।”
“तू कैसे करेंगा ? ये तो अक्खी दिहाड़ी खोटी करने वाला काम है । तेरे कू इतना टेम किदर से लगेगा । सब काम छोड़ के ये काम करना मांगता है, तो...”
“नहीं, नहीं । सब क्या, मैं तो एक भी काम नहीं छोड़ सकता । और तो और, यूं तो मुझे झामनानी से मुलाकात का ही खयाल छोड़ना पड़ेगा ।”
“ऐसा कैसे होयेंगा, बाप ।”
“मियां, तू मुस्करा रहा है । तेरी मुस्कराहट छुप नहीं रही । मेरी दुश्वारी पर खुश होता तो तू हो नहीं सकता ।”
“अरे, नईं बाप ।” - मुबारक अली हड़बड़ाकर बोला - “ऐसा कैसे होयेंगा !”
“तो फिर क्या बात है ?”
“बाप, वो क्या है कि अपुन तेरी इस वो क्या कहते है अंग्रेजी में, पलाम्बलम का हल ढूंढेला है ।”
“अच्छा !”
“ऐन विलायती हल । अपना जात भाई समझाया ।”
“क्या ?”
“इलैक... इलैक... टरा... टरा... नीक हल है बाप ।”
“इलैक्ट्रॉनिक ?”
“वही ।”
“बल्ले ! मुबारक अली के पास और इलैक्ट्रोनिक हल !”
“मेरा जातभाई मेरे कू दो पुर्जे दिखाया । एक पुर्जा” - मुबारक अली ने जेब से टी. वी. के रिमोट कन्ट्रोल जैसा एक उपकरण निकालकर विमल को सौंपा - “ये है कि इलैक... इलैक... बिजली वाला इशारा पकड़ता है ।”
“रिसीवर ।” - विमल बोला ।
“ऐसा ही एक दूसरा पुर्जा था जो इसके पकड़ने के वास्ते बिजली वाला इशारा छोड़ता है ।”
“टांसमिटर ।”
“मेरा जातभाई कुछ बलीप-बलीप करके बोला ।”
“ब्लीपर । एक ही बात है । ट्रांसमीटर ब्लीप, ब्लीप का सिग्नल छोड़ता है जो कि रिसीवर पकड़ता है ।”
“बीस मील तक ।”
“अभी तो इस पर कोई सिग्नल नहीं आ रहा ?”
“क्योंकि पिपलोनिया के पीछे लगा मेरा आदमी अपना पुर्जा तभी चालू करेंगा जब पिपलोनिया अपनी फियेट छोड़ के अपनी एम्बैसेडर में सवार होयेंगा । बाप, तेरे कू मालूम कि वो जो कुछ भी करेगा अपनी एम्बैसेडर में सवार होकर अपना हुलिया बदलने ने बाद करेंगा । उससे पहले वो किदर बी जाये, तेरे कू क्या वान्दा है !”
“मुबारक अली” - विमल प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “तूने तो कमाल कर दिया ।”
“अपुन क्या करेला है, बाप ? जो किया अपना जातभाई किया ।”
“ऐसा दानिशमन्द जातभाई होना भी तो कमाल है ।”
“वो तो है ।” - मुबारक अली एक क्षण ठिठका और फिर खोला - “बाप, इस पुर्जे पर जिसे तू वो क्या कहते है अंग्रेजी में...”
“रिसीवर ।”
“हां । रिसीवर बोला, इस पर इशारे के साथ-साथ ये भी दर्ज होयेंगा कि इशारा किदर से आया । यानी कि पिपलोनिया की गाड़ी किस डिरे... डिरे...क्शन में है ये... ये पुर्जा ये भी बतायेंगा ।”
“ये डायल ट्रांसमिट हो रहे सिग्नल की डायरेक्शन बता देगा ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
“बढिया इन्तजाम किया, मुबारक अली ।”
“तू राजी ?”
“बहुत । शुक्रिया ।”
“तेरे राजी होने पर अपुन भी थैंक्यू बोलता है ।”
विमल हंसा ।
“अव झामनानी की सुन ।” - मुबारक अली बोला ।
“सुन रहा हूं ।”
“वो इदर पहुंचा है । नीचू । अकेला वो कहते हैं अग्रेजी में कहवे वाले रेस्ट्ररां में...”
“काफी हाउस में ?”
“वहीं । अकेला बैठेला है वहां ।”
“आया भी अकेला था ?”
“हां । साथ सिर्फ एक डिरेवर था जो बाहर एक बड़ी वाली विलायती गाड़ी में बैठेला है पण...”
“क्या ?”
“कुछ लोग उसका पीछू लगेला है । चार आदमी हैं । एक दोरंगी एम्बैसेडर में बैठेले हैं । एक जना झामनानी के पीछू वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, काफी हाउस में भी पहुंचेला था पण झामनानी को भीतर अकेला बैठा देखकर बाहर आ गया था और अब काफी हाउस के दरवाजे पर इस बाजू से उस बाजू उस बाजू से इस बाजू फिरेला है ।”
“मतलब क्या हुआ इसका ?”
“मतलब साफ है, बाप । झामनानी की निगरानी के लिये वो लोग उसी के पीछू लगेला हैं ।”
“जरूर गुरबख्शलाल के आदमी होंगे ।” - विमल तनिक चिन्तित भाव से बोला - “जो इस उम्मीद में झामनानी की निगाहबीनी कर रहे होंगे कि देर-सवेर मेरी उससे मुलाकात होगी । कल सुबह कुशवाहा ने जब अपने घर से मेरी झामनानी से बात करवाई थी तो उसने मुझे झामनानी को ऐसा इशारा देते सुना था । अच्छी तरकीब सोची उन्होंने मेरे तक पहुंचने की । मियां इन लोगों से पीछा छुड़ाना होगा ।”
मुबारक अली खामोश रहा ।
“मैंने गलती की कि जिस होटल को अब मैंने अपना अस्थायी बसेरा बनाया है, उसी में मैंने झामनानी से मुलाकात मुकर्रर की । मियां, उन लोगों को मालूम नहीं होना चाहिए कि झामनानी यहां मेरे से मिलते आया है या मैं यहां ठहरा हुआ हूं ।”
“ऐसा तो हरगिज नहीं होना चाहिए ।”
“लेकिन होगा कैसे ?”
“तू बोल, बाप ।”
दोनों सिर से सिर जोड़कर मन्त्रणा करने लगे ।
***
लूथरा ने थाने में कदम रखा ही था कि उसे थानाध्यक्ष रतनसिंह का बुलाया आ गया ।
वो तत्काल रतनसिंह के कमरे में पहुंचा ।
रतनसिंह को उसने बहुत गम्भीर मुद्रा में पाया । लूथरा के अभिवादन के जवाब में उसने केवल एक क्षण को उसकी तरफ निगाह उठाई और फिर नीचे मेज की ओर देखने लगा ।
“आपने बुलाया, सर !” - लूथरा तनिक सशंक स्वर में बोला ।
“हां ।” - रतनसिंह पूर्ववत् उसके निगाहें चुराता हुआ बोला - “बैठो ।”
लूथरा उसके सामने एक कुर्सी पर बैठा गया ।
“लूथरा !” - रतनसिंह गम्भीरता से बोला - “तुम्हारे लिये बुरी खबर है ।”
“बुरी खबर !” - लूथरा सकपकाया ।
“हां ।”
“क्या ?”
“तुम्हें सस्पेंड किया जा रहा है ।”
“जी !”
“ए सी पी☐ का हुक्म है ।”
“लेकिन क्यों ?”
“ऐसा ही नियम है । तुम्हें मालूम ही होगा । महकमे के किसी आदमी पर कोई गम्भीर आरोप हो तो उसकी इन्क्वायरी उसे सस्पेंड करके की जाती है ताकि अपने रुतबे का बेजा इस्तेमाल करके वो इन्क्वायरी आफिसर्स को अपने हक में फैसला देने के लिये न बरगला सके ।”
“मेरे पर क्या गम्भीर आरोप है ? कहीं आप अभी भी उस वाहियात और बुनियाद बात को गांठ तो नहीं बांधे बैठे कि मैंने सहजपाल का कत्ल किया है या करवाया है ?”
“मैं नहीं, मरने वाले की बीवी इस बात को गांठ बांधे बैठी है । उसकी अब भी ये ही रट है कि तुम्हीं ने उसके खाविंद का कत्ल करवाया है । मैंने तुम्हें कल ही कहा था कि अगर उसने अपनी रट न छोड़ी तो मुझे तुम्हारे खिलाफ केस दर्ज करना पड़ेगा ।”
“केस दर्ज कर भी चुके आप ?”
“हां ।”
“ये तो बहुत ज्यादती की आपने मेरे साथ ।”
“भई, ऊपर से हुक्म था । अब मैं ए☐ सी पी से बाहर तो नहीं जा सकता न !”
“आप किसी से बाहर जायें या न जायें, आप मेरे साथ ज्यादती करें या नाइंसाफी, लेकिन ये हकीकत फिर भी अपनी जगह कायम है और रहेगी कि मेरा सहजपाल के कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“भई...”
“मुझे अफसोस है तो इस बात का” - लूथरा ने अपने उच्चाधिकारी की बात काटी - “कि कल आप ही ने मुझे राय दी कि मैं साबित करके दिखाऊं कि सहजपाल के कत्ल के लिये कोई और जिम्मेदार है और आज जब मैं गुड न्यूज लेकर थाने पहुंचा कि मैंने सहजपाल के कातिल का पता लगा लिया है तो आपने उस बाबत मेरे मुंह भी खोल पाने से पहले मेरे सिर पर सस्पैंशन का हथौड़ा जड़ दिया ? बतौर मेरे आला अफसर, ये इंसाफ किया आपने मेरे साथ ?”
“तुमने” - रतनसिंह हैरानी से बोला - “सहजपाल के कातिल का पता लगा लिया है ?”
“जी हां ।”
“कौन है वो ?”
“उसका नाम लतीफ अहमद है और वो गुरबख्शलाल का आदमी है ।”
“लट्टू । लट्टू के नाम से भी जाना जाता है जो ?”
“जी हां ।”
“लट्टू ने सहजपाल का कत्ल किया था ?”
“जी हां ।” - सहजपाल दृढ स्वर में बोला ।
“लट्टू को पहचानते हो ?”
“जी नहीं । लेकिन बच नहीं सकता वो मेरे से जब में उसे गिरफ्तार करूंगा तो पहचान के ही गिरफ्तार करुंगा ।”
“अब नहीं कर पाओगे ।”
“क्यों ?”
रतनसिंह ने एक गहरी सांस ली और फिर बड़े असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “लूथरा, यू आर इन ए ग्रेवर ट्रबल दैन यू केन इमेजिन यूअरसैल्फ इन ।”
“जी !”
“मेरे भाई, लतीफ अहमद उर्फ लट्टू वो आदमी था जिसे कल शाम तुमने जमना वेलोड्रोम के करीब सन्दिग्ध उग्रवादी कहकर मार गिराया था ।”
लूथरा जैसे आसमान से गिरा, वो हक्का-बक्का सा रतनसिंह का मुंह देखने लगा ।
“और वहीं जो दूसरा आदमी स्टेनगन की गोलियों से मरा था, उसका नाम पूरनसिंह उर्फ फौजी है ।” 
“फौजी !” - लूथरा बोला तो उसके मुंह से केवल फुसफुसाहट निकल पायी ।
“नाम जाना-पहचाना मालूम होता है ?”
लूथरा का सिर केवल सहमति में हिला ।
“कौन था वो ?”
“गुरबख्शलाल का आदमी । सहजपाल के कत्ल के वक्त वो भी लट्टू के साथ था ।”
लूथरा ने देखा रतनसिंह यूं गर्दन हिला रहा था जैसे कोई डाक्टर किसी लाइलाज मरीज को देखकर हिलाता है ।
उसका दिल बैठने लगा ।
“अब क्या हुआ ?” - वो बदहवास-सा बोला ।
“लूथरा” - रतनसिंह बेहद गम्भीर स्वर में बोला - “तुम्हारे कल के बहादुरी के कारनामे पर सवालिया निशान तो पहले ही लग चुका है और अब जो कुछ तुम मुझे बता रहे हो, उनकी बिना पर कोई बड़ी बात नहीं कि तुम गिरफ्तार भी कर लिये जाओ ।”
“जी !”
“लट्टू की सूरत में कल रात तुमने एक उग्रवादी नहीं मारा, एक कातिल की जुबान बन्द करने के लिए उसका कत्ल किया ।”
“क्या ?” - लूथरा भौचक्का-सा बोला - “क्या कह रहे हैं आप !”
“तुम्हारे साथ, अपने थाने के एक अधिकारी के साथ, अपने एक मातहत के साथ कल की वाहवाही में शरीक होने की एवज में अब मैं भी गेहूं के साथ घुन की तरह पिसूंगा । एक फर्जी मुठभेड़ की पुष्टि करने की जरूर मुझे भी सजा मिलेगी । मेरी थानेदारी तो समझ लो कि गयी, आगे सिर्फ लाइन हाजिर होने का ही हुक्म हो तो समझूंगा कि सस्ता छूटा ।”
“सर, आप क्या कह रहे हैं, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा ।”
“खुद मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा । बैठे-बिठाये खामखाह पंगा गले पड़ गया ।”
“लेकिन सर...”
तभी एक हवलदार वहां पहुंचा ।
“साहब” - वो रतनसिंह से बोला - “आपको बड़े साहब बुला रहे हैं ।”
रतनसिंह ने सहमति में सिर हिलाया और तत्काल उठ खड़ा हुआ ।
“ए सी पी साहब आ गये हैं ।” - वो लूथरा से बोला - “मैं उनसे मिल के आता हूं । तुम यहीं बैठना ।”
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
रतनसिंह वहां से चला गया ।
अपने किसी भारी अनिष्ट की आशंका से कांपता लूथरा पीछे चुपचाप बैठा रहा ।
पांच मिनट बाद पहले वाला हवलदार वहां पहुंचा और उसने लूथरा को बताया कि उसे बड़े साहब तलब कर रहे थे ।
मन-मन के पांव रखता लूथरा वहां से बाहर निकला और ए☐ सी पी के कमरे में पहुंचा ।
ए सी पी☐ और थानाध्यक्ष दोनों निहायत गम्भीर मुद्रायें बनाये वहां बैठे थे ।
लूथरा ने ए☐ सी☐ पी को सैल्यूट मारा । ए सी पी ने गर्दन को हौले से नवाकर सैल्यूट का जवाब दिया । किसी ने उसे बैठने को न कहा ।
“कितने साल से सब-इंस्पेक्टर हो ?” - फिर ए सी पी ने सख्ती से सवाल किया ।
“जी, तीन साल से ।” - लूथरा बोला ।
“जानते हो न कि दिल्ली शहर में सैंकड़ों की तादाद में जिप्सी वैन मौजूद हैं ? कहीं से किधर भी दो फरलांग चलो तो जिप्सी वैन दिखाई दे जाती है ।”
“जी ।”
“फिर भी उन कथित उग्रवादियों के पीछे अकेले ही लग लिये ? रास्ते में कहीं किसी जिप्सी वैन को अपने शुबह की खबर करने की कोशिश नहीं की ? अपने इरादों से आगाह करने की कोशिश नहीं की ?”
लूथरा के मुंह से बोल न फूटा ।
“कर्जन रोड से यमुना वेलोड्रोम तक पहुंचने के लिए जो रूट पकड़ा तुम बताते हो, उस पर कम से कम पांच जगह जिप्सी वैन का नाका है । मंडी हाउस के राउन्ड अबाउट पर तो एक की जगह दो जिप्सी वैन मौजूद होती हैं । आगे तिलक ब्रिज और आई टी ओ के चौराहों पर आधी-आधी दर्जन सिपाही एक वक्त में तैनात होते हैं । फिर आगे तुम ऐन पुलिस हैडक्वार्टर के नीचे से गुजरे । तुम कहीं भी पुलिस को हासिल की खबर कर सकते थे लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया । वजह बोलो ।”
“सर, म-मेरा ध्यान उस वक्त मुकम्मल तौर से केटरिंग वैन का पीछा करने में लगा हुआ था । फिर इत्तफाक ऐसा हुआ कि मुझे हर जगह ट्रैफिक लाइट हरी मिली इसलिए...”
“तुम दो मुख्तलिफ बातें कह रहे हो । एक सांस में तुम कह रहे हो कि पीछा करने में पूरी तवज्जो लगी होने की वजह से तुम्हें पुलिस को आगाह करने का खयाल नहीं आया, दूसरी सांस में कह रहे हो कि ऐसा करने का तुम्हें मौका साहिल नहीं हुआ । दोनों बातें नहीं हो सकती । कोई एक बात बोलो ।”
“मु-मुझे खयाल नहीं आया था ।”
“पीछा करते वक्त मालूम था कि वो लोग हथियारबन्द थे ?”
“नो, सर ।”
“जबकि तुम कहते हो कि उन्हें कोई बड़ी वारदात करने की तैयारी में लगे उग्रवादी समझकर तुम उनके पीछे लगे थे । सब-इंस्पेक्टर लूथरा, बड़ी वारदात निहत्थे होती है ?”
लूथरा को जवाब न सूझा ।
“जवाब दो ।” - इस बार ए सी पी बोला तो उसके स्वर में कोड़े जैसी फटकार थी ।
“न-नो । नो, सर !”
“बड़ी क्या, निहत्थे तो कोई छोटी वारदात भी नहीं होती । राइट ?”
“यस, सर !”
“फिर भी तुम अकेले उनके पीछे लग लिए । ये बहादुरी है या बेवकूफी ?”
“सर” - लूथरा हिम्मत करके बोला - “उस वक्त मुझे इतनी बातों का खयाल नहीं आया था । मैं मानता हूं कि आना चाहिये था लेकिन उस घड़ी मैं हालात की रौ ऐसा बह गया था कि नहीं आया ।”
“उन लोगों के पास स्टेनगन थी । उस तनहा, अन्धेरी जगह में वो बड़ी आसानी से तुम्हें मार गिरा सकते थे ।”
“जी हां । लेकिन मेरी खुशकिस्मती थी जो मैं बच गया ।”
“वर्ना उनकी जगह तुम मरे पड़े होते ।”
“यस, सर !”
“अब तुम्हें मालूम हो गया कि वो उग्रवादी नहीं थे ?”
“यस, सर । एस एच ओ साहब ने बताया ।”
“उनमें से एक जना लतीफ अहमद उर्फ लट्टू था जिसे कि तुम सहजपाल का कातिल बताते हो ?”
“यस, सर !” 
“जिसे कि तुमने उग्रवादी बताकर इसलिये मार डाला क्योंकि वो तुम्हारा ये राज फाश कर सकता था ए एस आई सहजपाल का कत्ल करने के लिये उसे तुमने कहा था ।”
“सर !” - लूथरा भौचक्का-सा बोला ।
“सब-इंस्पेक्टर लूथरा ! यू आर ए डिसग्रेस टु पुलिस फोर्स । यू आर नो बैटर दैन एक कामन क्रिमिनल । यू आर नो बैटर दैन दि पर्सन्स यू हैव शॉट !”
“सर” - लूथरा आंतकित स्वर में चिल्लाया - “ये झूठ है ।”
“डोंट यैल ! नोबाडी इज डैफ हेयर ।”
“सर, ये झूठ है । ये बिल्कुल झूठ है ।”
“तो फिर सच क्या है ?”
“सच ये है कि लतीफ अहमद सहजपाल का कातिल था...”
“कैसे जानते हो ?”
“मेरे पास एक चश्मदीद गवाह है ।”
“कौन है वो ?”
“मेरा उससे वादा है कि मैं उसका नाम किसी पर जाहिर नहीं करूंगा । मैं ऐसा करूंगा तो वो अपने बयान से मुकर जायेगा ।”
“सो दिस इज यूअर स्टोरी ।”
“सर !”
“तुम किसी भी आदमी का नाम बतौर चश्मदीद गवाह ले दोगे और जब वो ऐसा कोई बयान दिया होने से इनकार करेगा तो कह दोगे कि वो अपने बयान से इसलिए मुकर रहा था क्योंकि तुमने उसका नाम गुप्त रखने का वादा नहीं निभाया था ।”
“सर, ये बात नहीं है । ऐसा आदमी...”
“कोई है ही नहीं । लतीफ अहमद उर्फ लट्टू सहजपाल का कातिल है, ये तुम किसी चश्मदीद गवाह की वजह से नहीं, इस वजह से जानते हो क्योंकि तुमने” - ए सी पी☐ ने खंजर की तरह एक उंगली सहजपाल की ओर भोंकी - “तुमने उसे सहजपाल के कत्ल के लिए तैयार किया था ।”
“सर, मैं उस चश्मदीद गवाह को आपके सामने पेश कर सकता हूं ।”
“जिसके बारे में कि तुम अभी अपनी जुबानी कहकर हटे हो कि वो अपने बयान से मुकर जायेगा ।”
“श-शायद शायद न मुकरे !”
“यानी कि डण्डे के जोर से उसे अपना मनमाफिक बयान देने के लिए मजबूर करोगे ।”
“और नो, सर ! नैवर सर... वो तो...”
“ऐसा आदमी कोई है ही नहीं । तुम्हें ऐसी कोई छूट दी गयी तो तुम किसी को भी पकड़कर यहां ले आओगे और उससे कहलवा दोगे कि उसने लट्टू को सहजपाल का कत्ल करते देखा था । ऐसी गरीबमार की इजाजत तुम्हें नहीं दी जा सकती ।”
“सर, वो आदमी...”
“शटअप !”
“सर, आप मेरा विश्वास कीजिये...”
“तुम्हारा विश्वास करें या हालात का विश्वास करें जो पुकार-पुकारकर हकीकत बयान कर रहे हैं ?”
“मेरा विश्वास कीजिये, सर सहजपाल के कत्ल से मेरा कुछ लेना-देना नहीं । उसका कत्ल लतीफ अहमद उर्फ लट्टू ने किया है और मैं अभी दस मिनट पहले तक ये नहीं जानता था कि कल शाम जिन दो आदमियों को मैंने उग्रवादी समझा था, उनमें से एक लतीफ अहमद था । ये बात मुझे अभी दस मिनट पहले एस☐ एच☐ ओ साहब के बताये ही मालूम हुई है । इसलिये ये कहना मेरे ऊपर जुल्म ढाना है कि मैंने जानते-बूझते लतीफ अहमद का कत्ल किया । सर, मैं सिर्फ लतीफ अहमद के नाम से वाकिफ था, उसकी सूरत मैं नहीं पहचानता था ।”
“दैट्स वाट यू से ।”
“बट दिस इज गॉड्स ट्रुथ, सर ।”
“नानसेंस ।”
“सर, कत्ल का कोई उद्देश्य भी तो होता है । मुझे क्या जरूरत पड़ी थी सहजपाल का कत्ल करने की ?”
“वही जरूरत पड़ी थी जो तुम्हें सहजपाल के घर उससे मार-कुटाई करने के लिए ले गयी थी ।”
“वो जुदा मसला था । वो जुदा मसला था जो कि मार-कुटाई के साथ खत्म हो गया था ।”
ए सी☐ पी ने अपलक लूथरा की ओर देखा ।
पहले से विचलित लूथरा और विचलित हो गया उसने बेचैनी से पहलू बदला और अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी । साफ जाहिर हो रहा था कि ए सी पी के पास अभी एक और भी तोप का गोला था जो कि अभी उसके सिर पर फटना बाकी था ।
“कत्ल का उद्देश्य मालूम पड़ जायेगा, सब-इंस्पेक्टर लूथरा ।” - फिर ए सी पी बड़े सर्द स्वर में बोला - “अभी हमें दो चीजों का इन्तजार है ।”
“द-दो चीजों का ?” - लूथरा हकलाया ।
ए सी पी ने जानबूझकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया और बड़े नाटकीय भाव से लूथरा को घूरा ।
“और ?” - लूथरा डरते दिल से बोला - “और, सर ?”
“और नारकाटिक्स स्मगलर लेखराज मूंदड़ा के बयान का ।”
“मूंदड़ा के बयान का ?” - लूथरा फुसफुसाया ।
“जिसके पीछे से तुम्हें हटाकर सहजपाल को लगाया गया था ।”
“तो... तो क्या हुआ ?”
“तो क्या हुआ, ये हमें मूंदड़ा के बयान से मालूम होगा लेकिन तुम्हें तो पहले ही मालूम होगा । नो ?”
“सर...”
“सब-इन्स्पेक्टर लूथरा, आई एम पुटिंग यू अन्डर सस्पैंशन विद इमीजियेट इफेक्ट । तुम अभी, इसी क्षण अपना चार्ज एस एच ओ साहब को दे दो । नाओ गैट अलांग ।”
“सर...”
“रतनसिंह ! टेक हिम अवे ।”
पिटा-सा मुंह लेकर लूथरा रतनसिंह के साथ वहां से बाहर निकल गया ।
***
मुबारक अली होटल की मारकी में यूं खड़ा था जैसे कोई बड़ा आदमी अपने ड्राइवर द्वारा अपनी कार वहां लायी जाने की प्रतीक्षा कर रहा हो ।
उसकी निगाह उड़ती-सी ड्राइव वे की बाईं ढलान पर पड़ी जिसके निचले सिरे पर वो दोरंगी एम्बैसेडर खड़ी थी जिसमें वो तीन आदमी मौजूद थे जिनका चौथा साथी भीतर काफी हाउस के दरवाजे पर टहल रहा था ।
एक एयरकंडीशंड मिनी बस थोड़ी देर पहले मारकी में आकर रुकी थी जिसमें से कुछ विदेशी निकलकर होटल के भीतर चले गये थे । मिनी बस के ड्राइवर ने खाली बस को थोड़ा बैक करके ड्राइव वे में एक ओर खड़ा कर दिया था और स्वयं बस से निकलकर परली दाईं तरफ की ढलान पर चलता हुआ उधर के दरवाजे से बाहर निकल गया था ।
अब मुबारक अली को वो उधर की सड़क पर एक पनवाड़ी के खोखे के सामने खड़ा पान चबाता दिखाई दे रहा था ।
विमल अली वली के साथ मारकी में प्रकट हुआ ।
मुबारक अली ने इशारे से दाईं ढलान पर खड़ी एक लैफ्ट हैण्ड ड्राइव शेवरलेट की ओर संकेत किया जिसका ड्राइवर की ओर का दरवाजा खुला था और जिसमें ड्राइविंग सीट के पीछे अधलेटा-सा बैठा एक वर्दीधारी शोफर मौजूद था ।
विमल अली वली के साथ शेवरलेट के करीब पहुंचा । वहां विमल और वली कार के खुले दरवाजे के आगे यूं खड़े हुए कि उनके और दरवाजे के बीच सरक आया अली उन दोनों की ओट में आ गया ।
तीन आदमियों को यूं अपने करीब पहुंचता पाकर शोफर सकपकाया और उसने सीधा होने का उपक्रम किया लेकिन इससे पहले वो कुछ समझ पाता, अली ने रिवाल्वर निकालकर उसके माथे से सटा दी और कहरभरे स्वर में फुसफुसाया - “खबरदार ! आवाज न निकले ।”
फिर वो ड्राइवर को भीतर धकेलकर स्वयं स्टेयरिंग के पीछे पहुंच गया ।
विमल और वली पीछे सवार हो गये ।
तत्काल शेवरलेट वहां से रवाना हो गयी ।
मुबारक अली ने अनुमोदन में सिर हिलाया, उसने फिर एक उड़ती निगाह दोरंगी एम्बैसेडर की दिशा में डाली और फिर लापरवाही से टहलता हुआ मिनी बस के करीब पहुंचा । उसने एक बार सतर्क निगाह दायें-बायें दौड़ाई और फिर बस का दरवाजा खोलकर उसकी ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । उसने पाया कि ड्राइवर बस की चाबी इग्नीशन में नहीं छोड़ गया था लेकिन उसे पूरा यकीन था कि वो चाबी के बिना भी अपनी योजना को अंजाम दे सकता था । उसने रियर व्यू मिरर में से पीछे दूर खड़ी दोरंगी एम्बैसेडर को देखा और मन ही मन ड्राइव वे पर बस के उस कोण का हिसाब लगाया जिस पर कि वो बस को पहुंचाना चाहता था ।
तभी बाईं ढलान से ऊपर चढती शेलरलेट वापिस लौटी और मारकी में ठिठके बिना उसे पार करके दाईं ढलान पर मारकी के करीब ही रुक गयी ।
कार में से वली मोहम्मद बाहर निकला और होटल के भीतर दाखिल हो गया ।
तभी एक बन्द जीप वहां पहुंची जिसे अली मोहम्मद चला रहा था । उसने जीप को दाईं ढलान पर शेवरलेट से आगे रोक दिया ।
तभी हैंड ब्रेक के सहारे ढलान पर खड़ी बस की हैंड ब्रेक मुबारक अली ने हटाई । बस हौले से बाईं ढलान पर पीछे को लुढकी । मुबारक अली ने स्टियरिंग को यूं काटा कि बस ड्राइव वे के पहलू से निकलकर ढलान के मध्य में पहुंची गयी । मुबारक अली ने तब बस को दोबारा हैंड ब्रेक लगाई और बस से नीचे उतर आया । उसने एक बार फिर दोरंगी एम्बैसेडर की ओर निगाह दौड़ाई, जिसके और बस के बीच में उस घड़ी कोई व्यवधान नहीं था, और फिर बाहर खड़े-खड़े हाथ बढाकर बस की हैण्ड ब्रेक हटा दी और बस का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा हौले से बन्द करके परे हट गया ।
बस निशब्द पीछे ढलान पर लुढकने लगी ।
तभी शेवरलेट स्टार्ट हुई और बैक होती हुई मारकी में मुख्य द्वार के सामने आ खड़ी हुई ।
ढलान पर लुढकती मिनी बस रफ्तार पकड़ने लगी । दोरंगी एम्बैसेडर के करीब पहुंचते-पहुंचते वो इतनी तेज हो गयी थी कि उसके भीतर बैठे तीनों आदमियों को, जो कि समझ रहे थे कि बस उनके करीब आने से पहले ही उनसे परे मुड़ जायेगी और उनका कार के पहलू से गुजर जायेगी, सम्भलने तक का मौका न मिला । जब तक उनकी समझ में आया कि अब तेजी से उनकी तरफ बढती बस साइड नहीं काटने वाली थी, तब तक बस कार से टकरा भी चुकी थी ।
एक भीषण आवाज हुई ।
बस के भारी धक्के से गतिशील हुई दोरंगी एम्बैसेडर पीछे को चली और धड़ाम से उधर के फाटक के पहलू की दीवार से टकराई ।
कार दीवार और मिनी बस के बीच में पिचककर रह गई ।
आवाज सुनकर गेट पर खड़ा दरबान उधर दौड़ा ।
झामनानी होटल से बाहर निकला और मारकी में अपनी कार के करीब प्रकट हुआ ।
उसके पीछे लगा कार का चौथा सवार पता नहीं कैसे वली मोहम्मद से टकराया और धराशायी हो गया । वली मोहम्मद माफियां मांगता हुआ उसे उठाने का उपक्रम करने लगा ।
वर्दीधारी डोरमैन ने बड़ी तत्परता से झामनानी की शेवरलेट का पिछला दरवाजा खोला । झामनानी कार में सवार हुआ तो डोरमैन ने उसके पीछे दरवाजा बन्द कर लिया । कार तत्काल वहां से चल पड़ी ।
शेवरलेट के मारकी से गायब हो जाने के बाद वली मोहम्मद ने उठने के उपक्रम में बार-बार फिसले जाते चौथे सवार को अपने पैरों पर खड़ा हो पाने का अवसर दिया जो कि फौरन बाहर को लपका ।
मुबारक अली तब बन्द जीप में सवार हो चुका था ।
वली मोहम्मद भी मारकी में पहुंचा । उसने चौथे सवार को उस दोरंगी एम्बैसेडर की ओर लपकते पाया जो कि दीवार और मिनी बस के भीतर फंसी हुई थी और जिसके करीब तरह से पिचक जाने की वजह से भीतर उसकी सवारियां फंसी हुई थी ।
फिर वो भी जाकर बन्द जीप में सवार हो गया ।
ड्राइविंग सीट पर बैठे अली ने जीप को तत्काल आगे बढा दिया ।
***
कुशवाहा खुद मन्दिर मार्ग थाने पहुंचा ।
लूथरा उसे देखकर हड़बड़ाया । उसके तेवर देखकर वो और भी हड़बड़ाया ।
“चल ।” - कुशवाहा बोला ।
“कहां ?”
“लाल साहब के पास ।”
“अभी मेरे पास टाइम नहीं है । मैं काम से निपटकर खुद आ जाऊंगा ।”
“तुझे नहीं पता तूने कहां आना है । इसीलिये लेने आया हूं । काम लौट के करना । अभी मेरे साथ चल ।”
“लेकिन मैं...”
“लूथरा !” - कुशवाहा दांत पीसता हुई बोला - “अगर यहीं नहीं मरना चाहता तो उठके खड़ा हो जा ।”
सस्पेंशन की वजह से नैतिक बल में पहले से ही कमजोर पड़ा लूथरा चाबी लगे गुड्डे की तरह तत्काल उठ खड़ा हुआ ।
***
कार में बैठा झामनानी भुनभुना रहा था ।
कैसा आदमी था ये सोहल जिसने पहले तो उसे होटल ताजमहल में बुला लिया था और फिर चिट लिख के भेज दी थी कि वहां मुलाकात मुमकिन नहीं थी इसलिये वो वापिस लौट जाये ।
कर्मामारे ने कोई वजह भी तो नहीं बताई थी - उसने भुनभुनाते हुए सोचा - कि क्यों मुलाकात मुमकिन नहीं थी । मुलाकात मुमकिन नहीं थी तो फोन करके बुलाया क्यों था ? मैं भी तो मूर्ख हूं जो उसके एक ही बुलावे पर दौड़ा चला गया ।
पता नहीं फोन करने वाला सोहल था भी या नहीं ।
तभी कार राजपथ और मानसिंह रोड के चौराहे पर रुकी । उसने सामने सिर उठाया तो कार के रियर व्यू मिरर में से अपने शोफर को अपनी तरफ झांकता पाया । शीशे में दोनों की निगाहे मिलते ही शोफर ने सिर झुका लिया और यूं पीक कैप से उसका चेहरा छुप गया ।
झामनानी सन्न रह गया ।
क्षणभर के लिये शीशे में से जो सूरत उसे अपनी तरफ झांकती दिखाई दी थी, वो उसके ड्राइवर भागचन्द की तो नहीं थी ।
उसका हाथ हौले से अपने कोट की भीतरी जेब में सरक गया, हाथ जब बाहर निकला तो उसमें हाथी दांत की मूठ वाली एक नन्ही-सी पिस्तौल थी ।
“भागचन्द !” - वो अपने सिन्धी ड्राइवर से सिन्धी में बोला - “कार हेदा केदा खणी आयो आही ?”
कोई जवाब न मिला ।
भागचन्द से तो ऐसा अपेक्षित नहीं था कि वो अपने मालिक के सवाल का जवाब न देता ।
“गादीअ खेहिन पासे लगाये बिहार !” - वो सख्ती से बोला ।
उसके आदेशानुसार ड्राइवर ने गाड़ी को साइड में लगाकर खड़ा करने का उपक्रम न किया । कार की रफ्तार तक न घटी ।
तब उसे सूझा कि भागचन्द सिन्धी था लेकिन जरूरी थोड़े ही था कि उस घड़ी उसकी जगह लिये बैठा वो शख्स भी सिन्धी हो या सिन्धी जानता हो ।
“गाड़ी रोक !” - वो कर्कश स्वर में बोला ।
कोई प्रतिक्रिया सामने ने आयी ।
झामनानी ने पिस्तौल की नाल ड्राइवर की गुद्दी से सटा दी और फिर सांप की तरह फुंफकारा - “गोली मार दूंगा, हरामजादे ।”
तत्काल गाड़ी की रफ्तार घटने लगी । आगे राजपथ और जनपथ का चौराहा था वहां उसी क्षण सिग्नल लाइट लाल हुई । गाड़ी चौराहे पर रुकी ।
“बत्ती हरी होने पर चौराहा पार कर और फिर रोक ।”
ड्राइवर की ओर से कोई उत्तर न‍ मिला ।
तभी बन्द जीप शेवरलेट के पहलू में आकर रुकी और उसमें से मुबारक अली बाहर निकला । उसने शेवरलेट का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खोला तो झामनानी ने हड़बड़ाकर पिस्तौल वाला हाथ वापिस खींच लिया । पलक झपकते विमल कार से बाहर निकला और कार में उसकी जगह मुबारक अली ने ले ली । विमल कार के पिछले दरवाजे पर पहुंचा और उसे खोलकर झामनानी के पहलू में जा बैठा ।
तभी आगे बत्ती हरी हुई और मुबारक अली ने कार आगे बढा दी ।
विमल ने सिर पर से पीक कैप उतारकर आगे मुबारक अली के पहलू में डाल दी और फिर झामनानी की तरफ घूमकर मुस्कराता हुआ बोला - “हल्लो ! गुड मार्निंग ।”
झामनानी कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा, फिर उसने एक गहरी सांस ली और रिवाल्वर वापिस जेब में रख ली ।
“साईं !” - फिर वो बोला - “तू सोहल है ।”
“कैसे जाना ?” - विमल पूर्ववत् मुस्कराता हुआ बोला ।
“तेरी दीदादिलेरी से ही जाना जो तूने अभी दिखाई ।”
विमल हंसा ।
“मेरा ड्राइवर...”
“एकदम सही-सलामत है । हमारी बातचीत हो जाये फिर गाड़ी वो ही चला रहा होगा । अलबत्ता उसकी वर्दी मैं यहीं नहीं लौटा पाऊंगा ।”
“ये कौन है ?” - उसने मुबारक अली की पीठ की ओर संकेत किया ।
“आपना आदमी है ।”
“वडी, उधर होटल में क्यूं नहीं मिला नी ?”
विमल ने वजह बतायी ।
“ओह !” - वजह सुनकर झामनानी बोला - “तो गुरबख्शलाल ने ये एतबार किया मेरे ऊपर ! अपने आदमी लगा दिये मेरे पीछे ?”
“मेरे तक पहुंचने की उम्मीद में ।”
“वो तो जाहिर है, नी ।”
“जाहिर है तो खुद भी तो कोई सावधानी बरतनी थी ।”
“वडी, साईं, अब... अब जाहिर है न । पहले किधर से जाहिर था ?”
“एक बात बताओ ।”
“वडी, दो पूछ, नी ।”
“इतने बड़े दादा हो, यूं ही अकेले घूमते हो ? कोई लाव लश्कर नहीं रखते साथ ?” 
“वडी, मैं किधर का बड़ा दादा हूं, नी ! बड़ा दादा तो इधर एक ही है । वो कर्मामारा गुरबख्शलाल । वो ही घूमता है लाव-लश्कर के साथ । कोई और लाव-लश्कर वाला रख-रखाव बनाता है तो उसको शक होने लगता है कि वो उससे ऊपर उठने की कोशिश कर रहा है । फिर उसका लाव-लश्कर रखना ही उसकी सजा बन जाता है । मौत की सजा ! क्या समझा, साईं ?”
“हूं । यानी कि इस शहर के बड़े दादा लोग भी खौफ के जेरेसाया जिन्दा हैं ।”
“वडी, एकदम ठीक बोला, नी । लेकिन खौफ किसका ? नीली छतरी वाले का नहीं । पुलिस का नहीं । दमा, तपेदिक का नहीं । उस कर्मामारे गुरबख्शलाल का ।”
“फिर भी कोई उसे खत्म करने की कोशिश नहीं करता ?”
“कैसे करेंगा, नी ? वडी, साईं, वो बहुत ताकतवर है ।”
“कुशवाहा गुरबख्शलाल के बाद तुम्हारा ही बोलबाला बता रहा था इस शहर के अन्डरवर्ल्ड में । फिर तुम क्या कम ताकतवर हुए ? अगर तुम अन्डरवर्ल्ड में नम्बर दो हो तो तुम्हारे और गुरबख्शलाल में उन्नीस-बीस का ही फर्क होना चाहिए ।”
“गलत ।”
“क्या मतलब ?”
“साईं, अन्डरवर्ल्ड में कामयाबी के ग्राफ में अगर गुरबख्शलाल को एक नम्बर पर रखा जाये तो समझ ले कि आगे बीस नम्बर तक तमाम जगह खाली हैं ।”
“यानी कि तुम इक्कीसवें नम्बर पर हुए ?”
“वडी, एकदम ठीक समझा, साईं । साईं, ये हमारी बदकिस्मती समझ कि अन्डरवर्ल्ड के मेरे जैसे तमाम दादाओं की ताकत का जमा भी अकेले गुरबख्शलाल की ताकत के करीब नहीं पहुंचता । इस मामले में तो वो कर्मामारा वो हाथी है जिसके के नीचे सबका पांव है ।”
“तुम बात को बढा-चढाकर कह रहे हो । बढा-चढाकर नहीं बहुत ज्यादा बढा-चढाकर कह रहे हो । अगर वो इतना ही ताकतवर है तो फिर वो मेरी मुखालफत का सामना करने के लिये तुम जैसे शहर के और नामचीन दादाओं की मदद का जरूरतमन्द क्यों दिखाई देता है ? क्यों कल दोपहर को वो डलहौजी बार में तुम्हारे समेत सारे बड़े दादाओं की मीटिंग बुलाये बैठा था ?”
झामनानी ने सख्त हैरानी से विमल की ओर देखा ।
“सलीम खान, पवित्तर सिंह, भोगीलाल, माताप्रसाद ब्रजवासी और खुद तुम । क्यों इतने लोग कल दोपहर जमा थे उसके साउथ एक्सटेंशन वाले बार में ? सिर्फ काकटेल्स सर्व करने के लिये तो बुलाया नहीं होगा उसने तुम लोगों को वहां ?”
“वडी, साईं, कैसे जाना, नी ?”
“क्या कैसे जाना ?”
“कल की मीटिंग के बारे में ?”
“जाना किसी तरह से ।” - विमल लापरवाही से कन्धे झटकाता हुआ बोला ।
“डलहौजी बार का कोई मुलाजिम फोड़ा जिसने कल की मीटिंग की तेरे को खबर की ?”
“झामनानी तुम लोगों को बारी-बारी डलहौजी बार से बाहर निकलकर वहां से रुखसत होते मैंने अपनी आंखों से देखा था ।”
“आंखों से देखा था ! आंखों से देखा बोला, नी ?”
“हां ।”
“साईं, करीब तो उधर कोई फटका नहीं था ।”
“फासले से देखा ।”
“फासले से क्या दिखाई देता, नी ?”
“दूरबीन से दिखाई देता है ।”
“ओह ! तो तू डलहौजी बार के सामने की किसी इमारत में दूरबीन लेकर बैठा था ?”
“हां ।”
“झूलेलाल ! टेलीस्कोपिक लाइट वाली रायफल लेकर बैठा होता तो चाहता तो हम सबका काम तमाम कर देता ।”
“काम इतना आसान होता तो शायद मैंने ये ही किया होता लेकिन एक तो काम ही इतना आसान न था, दूसरे मैं किसी बेगुनाह के खून से अपने हाथ नहीं रंगना चाहता ।”
“लेकिन, साईं ?”
“छोड़ो । हमारी इस मिटिंग का मुद्दा ये बात नहीं है । तुम मुझे ये बताओ गुरबख्शलाल के खिलाफ तुम मेरी क्या मदद कर सकते हो ?”
“वडी, मैं क्या मदद कर सकता हूं, नी ? मैं तो कोई मदद नहीं कर सकता ।”
“क्या बकते हो ?”
“वडी, साईं, ठीक बोला, नी ।”
“यानी कि कल सुबह टेलीफोन पर किया वादा भूल भी गये ?”
“किधर से भूल गया, वो ? याद तो है । क्या बोला मैं तेरे को, नी ? मैं बोला कि अगर तू गुरबख्शलाल का पत्ता साफ कर दे तो मैं ड्रग्स के धन्धे को हाथ नहीं लगाऊंगा और तुझे इक्कीस तोपों की सलामी दिलाऊंगा और अपने हाथ से तेरी आरती उतारूंगा । यही तो बोला मैं !”
“झामनानी, तुम्हारे ये बोलने की नौबत आने से पहले मैं भी तो कुछ बोला था या नहीं बोला था ?”
“वडी, साईं, तू क्या बोला था ?”
“मैं बोला था कि मैं ड्रग्स का धन्धा छोड़ने के तुम्हारे वादे के साथ तुम्हारी थोड़ी मदद भी चाहता था ।”
“साईं, ये मदद वाली बात तो मेरे को याद नहीं ।”
“सब याद है तुम्हें । ऐसे भोले बलम नहीं हो तुम । मेरी मदद वाली बात भी हमारे करार का हिस्सा थी ।”
“साईं, ये तो तू मेरे को फंसने वाला रास्ता बता रहा है ।”
“झामनानी !” - विमल एकाएक बड़े हिंसक भाव से बोला - “ये टालमटोल वाली जुबान बोलना फौरन बन्द कर दे । मेरे सब्र का इम्तहान न ले । मैं बहुत सड़ा हुआ आदमी हूं इसलिये इम्तहान न ले मेरे सब्र का । समझा ?”
“वडी, साईं, तू तो...”
“क्या मैं तो ? हं ह ! क्या मैं तो ?”
“साईं, वो क्या है कि...”
“क्या है ?”
“तू तो नाराज हो रहा है, साईं !”
“ठीक पहचाना तूने । नाराज ही हो रहा हूं मैं । फरेब और वादाखिलाफी की जुबान पर नाराज ही हुआ जाता है ।”
“लेकिन, साईं...”
“शटअप ! झामनानी, अभी मैं तेरे से मदद मांग रहा हूं लेकिन मैं मजबूर भी कर सकता हूं तेरे को मेरी मदद करने के लिये ।”
“मजबूर कर सकता है ! मजबूर कर सकता है बोला, नी ?”
“हां । यही बोला मैं ।”
“तू जबरदस्ती मेरे से मदद हासिल कर सकता है ?”
“हां । तू इनकार कर, मैं करके दिखाऊंगा । मैं ऐसे हालात पैदा कर दूंगा कि तू तश्तरी में अपनी मदद सजाकर घर-घर, गली-गली मुझे ढूंढता फिरेगा ।”
“तू... तू क्या करेगा ?”
“मालूम पड़ जायेगा ।”
“तू... तू मुझे यहां से जिन्दा नहीं जाने देगा ?”
“जिन्दा तो जाने दूंगा । तू मर गया तो तुझे क्या पता लगेगा कि मैं क्या कर सकता हूं ! मैं क्या करूंगा ।”
“क्या करेगा ?”
“मैं तुझे तबाह कर दूंगा ।” - विमल कहर भरे स्वर में बोला - “मैं तेरी वो गत बनाऊंगा कि तू हाथ में कटोरी ले ले के दर-दर की भीख मांगता फिरेगा । उन्हीं रास्तों पर लुंज-पुंज घिसटता फिरेगा जिन पर आज इस शेवरलेट जैसी विलायती कारों में बैठकर विचरता है ।”
झामनानी के जिस्म में सिहरन दौड़ गयी ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“बहुत बड़ा बोल बोल रहा है, साईं ।” - फिर झामनानी हिम्मत करके बोला - “जब मेरी ऐसी गत बिना किसी मदद के बना सकता है तो मेरी मदद के बिना खुद ही गुरबख्शलाल का पत्ता क्यों नहीं साफ कर सकता ?”
“किसने कहा कि नहीं कर सकता ? बिल्कुल कर सकता हूं । सरासर कर सकता हूं । करूंगा ही । तू क्या समझता है कि मुर्गा बांग नहीं देता तो सवेरा नहीं होता ? तू समझता है कि तू ही इकलौता रास्ता है जो मुझे गुरबख्शलाल तक पहुंचा सकता है ? इरादे नेक हों, इरादे मजबूत हों तो जब एक रास्ता बन्द होता है तो उसकी जगह दस रास्ते और खुल जाते हैं । और झामनानी, तू जो एक रास्ता बन्द करेगा वो मेरे लिये बन्द करेगा, वो मेरे लिये ही बन्द नहीं होगा । वो तेरे लिये भी बन्द होगा ।”
“मेरे लिये भी ?” - झामनानी फुसफुसाया ।
“हां तेरे लिये भी । क्योंकि गुरबख्शलाल के खातमे के बाद फिर अगला नम्बर तेरा ही होगा । गुरबख्शलाल के बाद तू अपने-आपको दूसरे नम्बर पर समझ या बाइसवें नम्बर पर, मेरी फेहरिस्त में अगला नम्बर तेरा ही होगा ।”
“वडी साईं, जरा सब्र से काम ले और मेरे को भी तो कुछ बोलने दे ।”
“बोल ।”
“तू क्या मदद चाहता है, नी ?”
“अच्छ ! अभी सिर्फ सुनेगा ! फिर सुन के सोचेगा कि मदद करने लायक है या नहीं !”
“ऐसी कोई बात नहीं, साईं । तू बोल कि तू क्या चाहता है ? तेरा काम मेरे से हो सकने लायक होगा तो मैं जरूर करूंगा । वादा करता हूं, नी ।”
विमल शांत हुआ, वो कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “फिलहाल तो मुझे गुरबख्शलाल की कोई ऐसी दुखती रग बता जिसके छेड़े जाने पर वो तड़प जाए, कोई ऐसा कमजोर पहलू बता जिस पर पड़ी चोट वो बर्दाश्त न कर सके । अब ये न कहना कि ऐसा कुछ है ही नहीं ।”
“है तो सही, साईं ।” - झामनानी धीरे से बोला ।
“गुड ।”
“लेकिन सवाल ये है कि तू उस पर वार कर सकेगा ?”
“तू अपना काम कर । मेरे काम की फिक्र छोड़ ।”
“देख साईं, इतना तो तू समझ ही चुका होगा कि गुरबख्शलाल की सारी ताकत, सारी बादशाही ड्रग्स के धन्धे से है जिस पर कि वो आज की तारीख में पूरी तरह काबिज है । वो सिर्फ दिल्ली का ही ड्रग लार्ड नहीं है, इस धन्धे में वो कर्मामारा बहुत दूर-दूर तक पसरा हुआ है । साईं, मैं तुझे उस जगह का पता देता हूं जहां से कि वो ड्रग्स के अपने सारे कारोबार को कन्ट्रोल करता है, जहां से वो अपना माल सारे नार्थ इन्डिया में फैलाता है ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“साईं, वो जगह एक तरह से गुरबख्शलाल के नॉरकाटिक्स ट्रेड का सैन्टर है । वो बुनियाद है जिस पर गुरबख्शलाल की सारी बादशाहत टिकी है । वडी, तोता है वो जगह जिसमें कि गुरबख्शलाल की जान फंसी है ।”
“जगह क्या है वो ?” - विमल उतावले स्वर में बोला ।
“वो जगह हिसार का एक पोल्ट्री फार्म है । सरकारी ग्रांट से बना वो पोल्ट्री एविएशन क्लब के करीब है । बहुत बड़ी जगह है वो, साईं । हजारों मुर्गे, हजारों मुर्गियां, हजारों चूजे, हजारों अंडे रोजाना । ढेरों मुलाजिम । साईं, वो पोल्ट्री फार्म वो जगह है जो गुरबख्शलाल के नॉरकाटिक्स ट्रेड पर पड़ा बहुत ही घना और बहुत ही मजबूत पर्दा है । ड्रग्स का पाना सारा स्टॉक गुरबख्शलाल वहीं छुपाकर रखता है जहां से कि अण्डों और मुर्गों की सप्लाई की ओट में उसे थोड़ा-थोड़ा करके निकाला जाता है और दूर-दूर तक फैलाया जाता है । साईं, वो पोल्ट्री फार्म तबाह हो गया तो समझ लेना कि गुरबख्शलाल तबाह हो गया ।”
“दिक्कत क्या है उसकी तबाही में ?”
“पहली दिक्कत तो ये ही है कि जो बात मैं तुझे बता रहा हूं, वो किसी को मालूम नहीं ।”
“किसी को भी ?”
“हां ।”
“फिर तेरे को कैसे मालूम है ?”
“साईं, अब तू ‘मेरी’ दुखती रग छू रहा है ।”
“कैसे मालूम है ?”
“साईं, कभी उस पोल्ट्री फार्म का मालिक ये कर्मामारा झामनानी था जिस पर से कि झूलेलाल की मेहर की छतरी उठ गयी । पोल्ट्री फार्म को ड्रग्स स्टॉक करने की जगह और ड्रग ट्रेड की ओट बनाने का आईडिया भी मेरा था ।”
“तेरा था ?”
“मेरा मतलब है कि जब वो आईडिया मुझे सुझाया गया था तो वो मुझे फौरन जंच गया था और फिर उस पर अमल तो मैंने ही किया था न, नी ।”
“सुझाया किसने था आईडिया ?”
“चार्ली ने ।”
“पीजा पार्लर वाले चार्ली ने ? जो कल अपने पीजा पार्लर में मारा गया ?”
“वडी, उसी ने, नी ।”
“हूं । यानी कि गुरबख्शलाल जब इस धन्धे पर यहां के अंडरवर्ल्ड पर काबिज हुआ तो पोल्ट्री फार्म पर भी काबिज हो गया ?”
“वडी, तू एकदम ठीक समझा, नी ।”
“मुझे तेरे से हमदर्दी है । और क्या दिक्कत है ?”
“और दूसरी दिक्कत ये है कि उस पोल्ट्री फार्म की हिफाजत के वहां इतने ज्यादा इंतजाम हैं कि एक छोटी-मोटी फौज का हमला ही उसे तबाह कर सकता है ।”
विमल की रियर व्यू मिरर में से मुबारक अली से निगाह मिली । मुबारक अली का सिर हौले से सहमति में हिला ।
“तुम ये कहना चाहते हो” - विमल फिर झामनानी की तरफ आकर्षित हुआ और नरमी से बोला - “कि गुरबख्शलाल से मुकाबिल कोई बड़ा दादा, मसलन तुम ही, मवालियों की ऐसी छोटी-मोटी फौज नहीं जमा कर सकता ?”
“कर सकता है । मैं ही कर सकता हूं । लेकिन यूं हमले से जो होगा वो ये होगा, साईं, कि न वो ठीया बचेगा, न ठीये का माल । साईं, जरा सोच, ऐसी जीत किस काम की जिसमें जो जीतना हो, वो ही भस्म हो गया हो ।”
“यानी कि उस ठीये को तबाह किये बिना उस पर काबिज नहीं हुआ जा सकता ?”
“एकदम ठीक बोला, नी ।”
“मैंने ठीये की तबाही या आबादी से क्या लेना-देना है ?”
“ये भी ठीक बोला, नी । तूने तो ड्रग्स का धन्धा पकड़ना नहीं । तू जरूर ये ही पसन्द करेगा कि ठीया न तबाह होता भी तबाह हो जाये ।”
“ठीक । और ?”
“और क्या ?”
“ऐसा ही कोई और करामात बात ?”
“अभी एक ही काबू पर और साबित करके दिखा कि तू उतना ही कहर बरसाने वाला शख्स है जितना कि सारे हिन्दोस्तान का अन्डरवर्ल्ड कहता है कि तू है ।”
“यानी कि गुरबख्शलाल की कमजोरियों का बखान किश्तों में करोगे ?”
“वो बात नहीं, साईं । बात ये है कि अब बुरा न मानना, कि एक तो इस एक ही कारनामे से तेरा इम्तहान हो जायेगा और दूसरे बहुत मुमकिन है कि इस एक कारनामे को कामयाबी से अंजाम दे चुकने के बाद तुझे ऐसा कोई और कारनामा कर दिखाने की जरूरत ही नहीं रहेगी । जब तोता मर ही जायेगा तो फिर उसके पांव तोड़ने की या पंख नोचने की क्या जरूरत रह जायेगी ?”
“ठीक ।” - विमल कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “जब वो पोल्ट्री फार्म बाकायदा चलता है तो वहां तमाम-के-तमाम दादे थोड़े ही बसे हुए होगे !”
“मैं समझा नहीं, साईं !”
“भई, वहां मुलाजिम भी तो होगे !”
“वो तो जाहिर है, नी । वर्ना इतनी मुर्गियां, इतने अंडे, इतने चूजे कौन सम्भालेगा उधर ?”
“चौबीस घन्टे के मुलाजिम तो नहीं होंगे वो ?”
“नहीं । वडी साईं, चौबीस घन्टे कौन-सा मुलाजिम काम कर सकता है कहीं ?”
“या शिफ्टों में चौबीस घन्टे काम होता हो ?”
“नहीं होता । फार्म के मुलाजिम वहां सिर्फ दिन में होते हैं, साईं ।”
“लेकिन वहां के माल के रखवाले दिन में भी होते हैं और रात में भी ?”
“हां । वो तो चौबीस घन्टे उधर रखवाली करते हैं, नी ।” - झामनानी ने उसकी तरफ सिर उठाया - “साईं, मतलब क्या हुआ इन बातों का ?”
“मैं नहीं चाहता कि गेहूं के साथ घुन भी पिस जाये ।”
“ओह ! मैं समझ गया, साईं । तू चाहता है कि वहां का ऐसा कोई मुलाजिम न मरे जिसका कि गुरबख्शलाल के दूसरे धन्धे से कुछ लेना-देना न हो । वडी, मैं ठीक बोला, नी ?”
विमल ने उत्तर न दिया । रियर व्यू मिरर में से उसकी एक बार फिर मुबारक अली से निगाह मिली । मुबारक अली ने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
“अब एक आखिरी बात ।” - फिर विमल बोला ।
“वो भी बोल, साईं ।” - झामनानी बोला ।
“तेरे मेरे बीच जो बातचीत हुई, उसकी गुरबख्शलाल को खबर करने के लिये अभी जायेगा या ठहरके ?”
“साईं” - झामनानी आहत भाव से बोला - “लगता है कि जिन्दगी में किसी पर एतबार करना नहीं सीखा ।”
“गलत ।” - विमल गहरी सांस लेकर बोला - “सच बात ये है कि सिर्फ एतबार ही करना सीख है मैंने जिन्दगी में ।”
“तो फिर मेरे पर भी एतबार कर साईं । झामनानी तेरे साथ है, गुरबख्शलाल के साथ नहीं ।”
“शुक्रिया ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला, फिर उसने मुबारक अली को कार रोकने का इशारा किया ।
***
गुरबख्शलाल एक तम्बू जैसा ड्रेसिंग गाउन पहने, जो कि उसके टखनों तक आ रहा था, अपने मिन्टो रोड वाले फ्लैट के ड्राइंगरूम में बैठा था और सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा था जब कि कुशवाहा लूथरा के साथ वहां पहुंचा ।
उसने आग्नेय नेत्रों से लूथरा को देखा ।
“बैठ ।” - गुरबख्शलाल थूक की फुहार छोड़ता, डकारता हुआ बोला ।
लूथरा तनिक झिझकता हुआ उसके समाने सोफे पर बैठ क्या ।
कुशवाहा दोनों से तनिक परे एक स्टूल पर जा बैठा ।
गुरबख्शलाल को एक तो सुबह सवेरे बुरी खबर सुननी पड़ी थी, दूसरे उसे अपने वक्त से बहुत पहले सोकर उठ जाना पड़ा था, ऊपर से पिछली रात उसे वो तृप्ति भी हासिल नहीं हुई थी जो कि मोनिका से या उस जैसे लड़कियों से उसे हमेशा हासिल होती थी - पता नहीं बार-बार कहां ध्यान भटक जाता था साली का । दो बार करारी दुम ठोकनी पड़ी थी उसकी तो तब कहीं जाके वो होश में आयी थी - इसलिए वो बहुत बुरे मूड में था । उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया और अपनी अंगारों जैसी आंखों से लूथरा को घूरता हुआ बोला - “तू किस की तरफ है, भई ?”
“मैं समझा नहीं ।” - लूथरा बोला ।
“क्या नहीं समझा ? मैं फारसी बोल रहा हूं ?”
“वो बात नहीं लाल साहब...”
“तो और क्या बात है ! साले ! मेरे दो आदमी मार गिराये किसलिये भला ?”
“लाल साहब, जब ये वाकया हुआ था तब मुझे नहीं मालूम था कि वो दोनों आपके आदमी थे ।”
“झूठ ! नहीं मालूम था तो कब लोटस क्लब में उनकी बाबत पूछता हुआ कैसे पहुंच गया था ?”
“तब मुझे नहीं मालूम था कि जिनकी बाबत में पूछताछ कर रहा था वो वही आदमी थे जो बाद में जमना वेलोड्रम के करीब मारे गये थे ।”
“तुम” - कुशवाहा लूथरा से बोला - “हमारे आदमियों की बाबत पूछताछ तो कर रहे थे ? उन आदमियों की बाबत जो कि हमारी डी आई एफ-7748 नम्बर की काफी एम्बैसेडर पर सवार थे ।”
“वो तो है ।” - लूथरा बोला ।
“लट्टू और फौजी ही उस काली एम्बैसेडर में सवार थे जिन्हें तुमने मार गिराया था ।”
“मुझे नहीं मालूम था । डी आई एफ-7748 नम्बर की काली एम्बैसेडर की तो मैंने शक्ल ही नहीं देखी थी । मैंने तो उन्हें उस केटरिंग वैन में ही सवार देखा था और तब, मैं फिर कहता हूं । मुझे नहीं मालूम था कि वो लट्टू और फौजी थे । लट्टू को तो मैं यूं हरगिज नहीं मार सकता था । उसका तो मुझे जिन्दा मिलना निहायत जरूरी था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वो हमारे ए एस आई सहजपाल का कातिल था ।”
कुशवाहा ने तनिक सकपका कर पहले उसकी तरफ और फिर गुरबख्शलाल की तरफ देखा ।
“तो !” - गुरबख्शलाल बोला - “तो क्या हुआ ?”
“लाल साहब” - लूथरा बोला - “मेरे महकमे में मेरे उच्चाधिकारियों द्वारा मुझे सहजपाल का कातिल ठहराया जा रहा है । अपने आपको बेगुनाह साबित करने के लिये सहजपाल के कातिल को तलाश करना मेरे लिये जरूरी था जो कि मेरी खुशकिस्मती थी कि मैंने कर लिया था । लाल साहब, ऐसे आदमी को जिसकी सलामती पर मेरी अपनी जिन्दगी का दारोमदार था, मैं नहीं मार सकता था ।”
“हूं ।” - गुरबख्शलाल तनिक नर्म पड़ता लगा - “तो तू लट्टू को नहीं पहचानता था ? फौजी को भी नहीं पहचानता था ! ठीक ?”
“जी हां ।”
“वो दोनों कौल का, उस बाबू का जो कि अब हम जानते हैं कि सोहल है, काम तमाम करने की नीयत से कर्जन रोड पर उसके आफिस वाली इमारत के सामने मौजूद थे । तेरी वजह से उन्हें वहां से हटना न पड़ गया होता तो उन्होंने कौल के इमारत से बाहर कदम रखते ही बिना अंजाम की परवाह किये उसे शूट कर दिया होता ।”
“वो मेरी वजह से वहां से नहीं हटे थे ।”
“क्या ?”
“दो हमशक्ल लड़के, जो कि मुझे अब मालूम है कि सोहल के आदमी हैं, उस केटरिंग वैन को जबरन, यूं कहिये कि आपके आदमियों का अगुवा करके, उन्हें वहां से हटा ले गये थे ।”
गुरबख्शलाल हक्का-बक्का-सा लूथरा का मुंह देखने लगा ।
“मैं तो इत्तफाक से ऐन उसी घड़ी वहां पहुंचा था और वो नजारा देखकर, मेरी बदकिस्मती, मैं उनके पीछे लग पड़ा था ।”
“अबे, कुशवाहा ये क्या नयी-नयी बातें रहा है हमें ?”
कुशवाहा ने हाथ के इशारे से गुरबख्शलाल से शान्त रहने की प्रार्थना की और फिर लूथरा से सम्बोधित हुआ - “बदकिस्मती किसलिये !”
“ये मेरी बदकिस्मती नहीं तो और क्या है” - लूथरा बोला - “कि आप लोगों के जिन आदमियों को मैंने नहीं मारा, उनकी मौत एक तो वैसे ही फन्दे की तरह मेरे गले में पड़ गयी है, ऊपर से उसकी सफाई देने के लिये मुझे यहां पेश होना पड़ रहा है ।”
“लट्टू को” - गुरबख्शलाल बोला - “फौजी को तूने नहीं मारा ?”
“नहीं ।” - लूथरा बोला ।
“तो किसने मारा ?”
“उन हमशक्ल लड़कों ने । मैं ये कहना कबूल न करता कि उन्हें मैंने मारा था तो वो हमशक्ल लड़के वहां मेरी भी लाश गिरा देते ।”
“किस्सा क्या है ?”
लूथरा ने किस्सा बयान किया ।
“कमाल है !” - गुरबख्शलाल बोला - “ये तो हद हो गयी, कुशवाहा !”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मेरी ट्रेजडी ये है” - लूथरा बड़े दयनीय स्वर में बोला - “कि जो हकीकत मैंने आपके सामने बयान की है, वो मैं किसी और के सामने, खासतौर से अपने महकमे के आला अफसरान के सामने, दोहरा भी नहीं सकता । अपनी बहादुरी से मैंने दो संदिग्ध उग्रवादी मार गिराये, इस बात की प्रैस में इतनी पब्लिसिटी हो गयी है कि अब मैं इससे फिर नहीं सकता । फिरूंगा तो जूते खाऊंगा । खा चुका हूं । खा रहा हूं । ऐसी सांप छछून्दर जैसी हालत हो गयी है मेरी ।”
“और नया क्या हो गया है ?”
“और नया ये हो गया है कि मेरे आला अफसरान मेरे ऊपर ये इलजाम लगा रहे हैं कि लट्टू का मुंह बन्द करने के लिये, उसे ये बताने से रोकने के लिये कि उसने मेरे कहने से सहजपाल का कत्ल किया था, मैंने उसको संदिग्ध उग्रवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया । लाल साहब” - लूथरा का स्वर एकाएक भर्रा गया - “आज सुबह मैं अपनी नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया हूं । और कोई बड़ी बात नहीं कि शाम तक गिरफ्तार भी कर लिया जाऊं । सहजपाल का कत्ल कराने के इलजाम में और लट्टू और फौजी का कत्ल करने के इलजाम में ।”
गुरबख्शलाल पिघल गया । वो सान्तवनापूर्ण स्वर में बोला - “हौसला रख ।”
“क्या हौसला रखू, जनाब ! मेरे पर तो शनीचर सवार हो गया । बैठे-बिठाये खामखाह दोतरफा मुसीबत में फंस गया । मेरा महकमा भी खफा और आप भी खफा ।”
“बोला न, हौसला रख । अगर तू हमारी तरफ है तो तेरी दुश्वारी का कोई हल भी हम ही निकालेंगे ।”
“मैं सौ फीसदी आपकी तरफ हूं । न होता तो क्या इतना बड़ा बोल बोलता कि सोहल नाम का आपके रास्ते का कान्टा मैं निकालूंगा ।”
“याद है तुझे अपनी ये बात ?”
“कैसे भूल सकता हूं, लाल साहब ? अब तो मुझे ये डर है कि आप न भूल जायें ।”
“क्या ? छ: लाख के इनाम वाली बात ?”
“वो भी और वे कि मेरी दुश्वारी का कोई हल आप निकाल लेंगे । आपकी बहुत ऊपर-ऊपर तक पहुंच है । आप चाहें तो...”
लूथरा ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया और बड़े आशापूर्ण नेत्रों से गुरबख्शलाल की ओर देखा ।
“गुरबख्शलाल जब कुछ कहता है” - गुरबख्शलाल सिगरेट का आखिरी कश लगाकर उसे एश-ट्रे में झोंकता हुआ बोला - “तो भूलने के लिये नहीं कहता । तुझे कुछ नहीं होता, लूथरा । तेरे ऊपर कोई बहुत बड़ी शामत नहीं आई हुई । तेरा बहुत ही बुरा होगा तो ये होगा कि तेरी नौकरी छूट जायेगी । ऐसा हो जाये तो मेरे पास आ जाना । मैं तेरी जिन्दगी बना दूंगा । ऐसी जिन्दगी बना दूंगा कि तू उस घड़ी की बलायें लेने लगेगा जब कि तेरी नौकरी छूटी ।”
“हौसलाअफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया, लाल साहब ।”
“लेकिन अब हमारा काम तो बिगड़ गया । लट्टू कैसे भी मरा, किसी के भी मारे मरा, मर तो गया । उससे मुझे कुछ उम्मीदें थीं । उम्मीदें क्या थी, पूरा-पूरा यकीन था कि वो उस बाबू का काम तमाम करके ही लौटने वाला था ।”
“आपका वो काम तो अब भी हो जायेगा ।” - उन बदले हालात में एकाएक इतमीनान और सकून महसूस करता लूथरा जोश में बोला ।
“वो कैसे ?”
“सुनेंगे तो तबीयत फड़क जायेगी ।”
“तबीयत फड़काने वाली बात सुनाने जा रहा है तो जरा ठहर जा, मैं सिगरेट सुलगा लूं ।” - गुरबख्शलाल ने पहले अपने ड्रेसिंग गाउन का जेबें टटोली, फिर सामने मेज पर निगाह डाली और फिर गला फाड़कर चिल्लाया - “मोनिका !”
“हां, जी ।” - भीतर से मोनिका की बौखलाई आवाज आयी ।
“सिगरेट ला, हरामजादी !”
नाईटी में लिपटी मोनिका सिगरेट का पैकेट थामे लगभग दौड़ती हुई बैडरूम से बाहर निकली । उसने सिगरेट का पैकेट गुरबख्शलाल को थमाया ।
“माचिस !” - वो भैंसे की तरह डकराया - “माचिस तेरा बाप लायेगा ?”
मोनिका दौड़ती हुई वापिस गयी और माचिस लेकर लौटी ।
“दफा हो जा ।”
मोनिका वापिस बैडरूम में चली गयी ।
“साली को शौक है मर्दों में जिस्म की नुमायश करने का” - सिगरेट सुलगाने का उपक्रम करता गुरबख्शलाल बोला - “इसीलिये जानबूझकर यहां दो फेरे लगाए ।”
“सभी को होता है ।” - लूथरा दबे स्वर में बोला ।
“इसको ज्यादा है । साली को नंगा करके सड़क पर धक्का दे दूंगा । सारा शौक एक ही बार में पूरा हो जायेगा ।”
कोई कुछ न बोला ।
गुरबख्शलाल के अपनी बाबत वो उदगार भीतर बैडरूम में सुनती मोनिका अंगारों पर लोट गयी और मन-ही-मन बार-बार गुरबख्शलाल की मौत की कामना करने लगी । उस घड़ी सोहल का अक्स उसके जेहन पर ऐसे  देवतापुरुष के तौर पर उभरा जो कि गुरबख्शलाल नाम के राक्षस की छाती फाड़कर चुल्लू भरकर के उसका लहू पी रहा था ।
“हां, भई ।” - ढेर सारा धुंआ उगलता गुरबख्शलाल बोला - “अब बोल ।”
लूथरा ने बड़ी शान से अन्डरवर्ल्ड बॉस गुरबख्शलाल के दरबार में सोहल की कथा की और समापन में बताया कि कैसे उस रोज उसको उससे बीस लाख रुपये हासिल होने वाले थे ।
“बस इधर मेरे हाथ में वो रकम लगी” - लूथरा खुश होता हुआ बोला - “और उधर मैंने सोहल को गिरफ्तार किया ।”
“क्या गारन्टी है” - गुरबख्शलाल गम्भीरता से बोला - “कि मुकर्रर वक्त पर तो तुझे अपने फ्लैट पर मिलेगा ? तूने उसे इतना वक्त दे दिया । अब तो वो ऐसा गायब हो गया होगा कि किसी को ढूंढे नहीं मिलेगा ।”
“वो गायब ही तो नहीं हो सकता, लाल साहब ।”
“वो कैसे ?”
लूथरा ने उसे महाजन नर्सिंग होम में भर्ती उसकी गर्भवती बीवी के बारे में बताया ।
“ओह ! ओह !” - गुरबख्शलाल ने सिगरेट का लम्बा कश लगाया, उसने आंखों-ही-आंखों में कुशवाहा से मन्त्रणा की और फिर उसका सिर मशीन की तरह इनकार में हिलने लगा ।
लूथरा ने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा ।
“मेरा एतबार नहीं बैठता ।” - गुरबख्शलाल बोला ।
“किस बात पर ?”  
“कि तेरे जैसा कोई आदमी उस सुपर गैंगस्टर को यूं अकेले चित कर सकता है ।”
लूथरा यूं हंसा जैसे कोई मजाक की बात सुन ली हो ।
“हंस मत ।” - गुरबख्शलाल डपटकर बोला - “यहां हंसने वाली कोई बात नहीं हो रही ।”
लूथरा की हंसी को ब्रेक लगा ।
“मुझे तो लगता है कि बीस लाख रुपये बटोरने की उम्मीद में तू वहां जायेगा और वहां से मौत का तोहफा बटोरेगा ।”
“लाल साहब, वो मुझे नहीं मारेगा । उसने मुझे मारना होता तो मेरी नीयत जाहिर होते ही कल ही मुझे मार दिया होता । वो मुझे नहीं मारेगा । मैंने उसकी केस हिस्ट्री को बड़ी बारीकी से स्टडी किया है । उसने आज तक कभी किसी बेगुनाह का कत्ल नहीं किया है ।”
“अबे, हर काम की कभी तो पहल होनी ही होती है ।”
“इस काम की पहल वो नहीं करेगा ।” - लूथरा पूरे विश्वास के साथ बोला - “वो आदमी बद् जरूर है, लेकिन उसकी बदी से भी एक कैरेक्टर झलकता है । लाल साहब, मुझे यकीन है कि वो मेरे खून से अपने हाथ रंगने वाला नहीं ।”
“तू इसी मुगालते में मारा जायेगा ।”
“मारा जाऊंगा तो मैं ही मारा जाऊंगा । आपका क्या जायेगा ?”
“अब तो हमारा भी जायेगा ।”
“वो कैसे ?”
“हाथ आता शिकार जो निकल जायेगा हमारे हाथ से । कीमत तेरी जिन्दगी की नहीं, सोहल की जिन्दगी की है । अहमियत तेरी मौत की नहीं, सोहल की मौत की है । तेरे जिन्दा रहने से या मर जाने से हमारा क्या बनता बिगड़ता है ? सोहल की जिन्दगी हमें तबाह कर सकती है, कर रही है । लेकिन उसकी मौत हमारे सिरे से बहुत बड़ा खतरा टाल सकती है । नहीं, नहीं । इतना शानदार मौका तेरी वाहियात बातों में नहीं गंवाया जा सकता । तेरे से मुकर्रर मुलाकात के वक्त आज सोहल अपने फ्लैट से मारा जाये, इसका इन्तजाम हम करेंगे ।”
“लाल साहब, यूं तो मेरे बीस लाख रुपये मारे जायेंगे । मैंने उस पर इतनी मेहनत...”
“बेवकूफ !”
लूथरा ठिठका । उसने हकबकाकर गुरबख्शलाल की तरफ देखा जिसने वो एक लफ्ज चाबुक की तरह उस पर फटकारा था ।
“तू गुरबख्शलाल की बीस लाख रुपये की औकात नहीं समझता ? जो बीस लाख रुपये तुझे सोहल से हासिल होते-होते होगा, वो तू मेरे से अभी ले जा । वो छः लाख रुपये भी ले जा जिसका मैंने तेरे से अलग से वादा किया है । कोई और मांग हो तो वो भी बोल । लेकिन आज मुकर्रर वक्त पर तू अकेला सोहल के फ्लैट पर नहीं जायेगा । आज वहां तेरे साथ कुशवाहा खुद जायेगा और कुशवाहा के साथ दर्जन-भर आदमी और जायेंगे । लूथरा, सोहल से आमना-सामना होते ही बिना एक सैकेंड भी बरबाद किये तू उसे शूट कर देगा । तू ऐसा नहीं करेगा तो सोहल तो मरेगा ही, वहां उसके साथ तू भी मरा पड़ा होगा ।”
लूथरा सिर से पांव तक कांप गया ।
“देख, उसे धोखा देने का प्रोग्राम तो तू पहले ही बनाये बैठा है । उसकी जिन्दगी या मौत से तो तेरा कुछ लेना-देना है नहीं । वो बाद में फांसी के फन्दे से झूल के मरे या अभी तेरी गोली खा के तेरे लिये तो एक ही बात है । तेरे लिये अहम बात तो बस ये है कि तूने उससे बीस लाख रुपया हासिल करना है । करना है । समझा ! कर नहीं चुका हासिल । लेकिन तुझे मैं वो रास्ता सुझा रहा हूं जिससे तेरी मुट्ठी पहले गर्म होगी और तू कुछ करेगा बाद में । अब हां बोल ।”
लूथरा अनिश्चित-सा खामोश बैठा रहा ।
“कुशवाहा, ये चांदी का जूता खाये बिना हां नहीं बोलने वाला ।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया और बोला - “छब्बीस लाख रुपया इसे यहां मुहैया कराने के लिये वक्त चाहिये । इसके पास वक्त कहां है ! इसने साढे ग्यारह बजे गोल मार्केट में कौल के फ्लैट पर होना है ।” - और - उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली - “पौने ग्यारह तो बजे भी पड़े हैं ।”
“सामने फ्लैट में जा । यहां देख कितना पैसा है ! जितना है, ले आ ।”
कुशवाहा उठा और फ्लैट से बाहर निकल गया । जब वो वापिस लौटा तो उसके हाथ में एक बड़ा-सा काला ब्रीफकेस था ।
“पांच लाख ।” - वो ब्रीफकेस गुरबख्शलाल और लूथरा के बीच में सेंटर टेबल पर रखता हुआ बोला ।
“काबू में कर ।” - गुरबख्शलाल लूथरा से बोला - “बाकी की रकम भी मैं तुझे दे के रुखसत कर सकता हूं लेकिन तेरे पास टाइम नहीं है । गोल मार्केट से निपटकर लोटस क्लब पहुंचना । बाकी का इक्कीस लाख रुपया वहां तुझे तैयार मिलेगा । अब हां बोल ।”
“मेरी तो हां ही हां है, लाल साहब ।” - उत्तेजना से थर-थर कांपता हुआ लूथरा बोला - “लेकिन एक बात है ।”
“अभी भी लेकिन लगा रहा है ।” - गुरबख्शलाल घुड़ककर बोला ।
“आप सुनिये तो ।”
“सुना ।”
“मैं किसी को अपनी अप्वायंटमैंट पर अपने साथ नहीं ले जा सकता । मेरा किसी को अपने साथ ले जाना ठीक नहीं होगा । और कोई भी कोई एक नहीं, आप कहते हैं कि दर्जन भर आदमी होंगे मेरे और कुशवाहा के साथ । लाल साहब, इतने लावलश्कर के साथ मैं दिन दहाड़े गोल मार्केट पहुंचूंगा तो क्या ये बात सोहल से छुपी रहेगी ! वो उस हाउसिंग कम्पलैक्स की सातवीं मंजिल पर रहता है । वो मेरी आमद की ताक में तो होगा ही क्योंकि मेरी उसकी मुलाकात कल से मुकर्रर है । अपने फ्लैट से अगर उसने मुझे लाव-लश्कर के साथ वहां पहुंचते देख लिया तो जब तक हम उसके फ्लैट तक पहुंच पायेंगे तब तक वो कभी का वहां से गायब हो चुका होगा ।”
“ऐसे कैसे गायब हो जायेगा ? हो जायेगा तो कहां गायब हो जायेगा । इमारत से बाहर निकलने का रास्ता तो एक ही होगा । जब हमारे आदमी उसे ब्लाक करके रखेंगे तो...”
“लाल साहब वो बहुत बड़ा कम्पलैक्स है । वो किसी और इमारत के किसी और फ्लैट में छुपा बैठा मेरी निगाहबीनी कर सकता है । जरूरी नहीं कि वो अपने फ्लैट पर मेरे से पहले मौजूद हो । वो मेरे वहां पहुंच जाने के बाद मेरे पीछे वहां पहुंच सकता है । अगर कुशवाहा और इसके आदमी मेरे साथ हुए तो क्या वो मेरे करीब भी फटकेगा ?”
गुरबख्शलाल ने कुशवाहा की ओर देखा ।
“वे ठीक कह रहा है ।” - कुशवाहा धीरे से बोला ।
“तू क्या चाहता है ?” - गुरबख्शलाल लूथरा से बोला ।
“मैं चाहता हूं कि जो हो वैसे ही हो जैसे कि उसके होने की उम्मीद की जा सकती है । आप मुझे अकेले वहां जाने दीजिये । मेरे और आपके आदमियों के वहां पहुंचने में पांच मिनट का भी अन्तराल होगा तो काम बन जायेगा ।”
“ठीक है । तू साढे ग्यारह वहां पहुंचेगा । ठीक ग्यारह पैंतीस पर कुशवाहा कौल के कमरे की घण्टी बजा रहा होगा । घण्टी के जवाब में अगर दरवाजा तूने खोला तो ये इस बात का अपने आप में सबूत होगा कि तूने अपना काम कर दिखाया है लेकिन अगर दरवाजा कौल ने खोला तो वो मरेगा ही, उसके साथ तू भी वही मरा पड़ा होगा । समझ गया ?”
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अब फूट । तेरी मंजिल खोटी हो रही है ।”
लूथरा ने ब्रीफकेस काबू में किया और गुरबख्शलाल का अभिवादन करके वहां से विदा हो गया ।
कुशवाहा उसके पीछे दरवाजा बन्द करके वापस लौटा तो गुरबख्शलाल बोला - “सोहल आज खत्म हो भी गया तो भी एक बात का अफसोस मुझे जिन्दगी भर रहेगा ।”
“किस बात का ?”
“उसकी हामला बीवी की तरफ हमारा खयाल नहीं गया । उसे उठवा लेते तो वो खुद उसके पीछे-पीछे हमारे पास चला आता ।”
“अब उठवा लेंगे । अब हमें मालूम है कि वो कहां रहती है ।”
“यानी कि” - गुरबख्शलाल आंखें निकालकर बोला - “तुझे इस बार भी कामयीबी की उम्मीद नहीं ?”
“नहीं, नहीं ।” - कुशवाहा तत्काल हड़बड़ाकर बोला - “मेरा ये मतलब नहीं था ।”
“तो और क्या मतलब था ?”
“आप जानते हैं । अनहोनी कभी भी हो सकती है । मेरा मतलब था कि अगर अनहोनी हो गयी, सोहल अब भी बच गया तो यही तरीका आजमायेंगे जिसका आप जिक्र कर रहे हैं ।”
“ठीक है । अब जा जाके तैयारी कर ।”
“आप यहीं होंगे ?”
“क्यों ? क्यों यहीं होऊंगा मैं ? मेरी कोई कसम है दिन रात एक ही कुतिया के पहलू में गर्क रहने की ?”
“कहां होंगे आप ?”
“लोटस क्लब में । आध-पौन घन्टे में पहुंच जाऊंगा । गुड न्यूज की उम्मीद में उस पुलसिये के लिये इक्कीस लाख रुपये की गठरी भी तो बांध के रखनी होगी । अब फूट यहां से ।”
कुशवाहा वहां से रुखसत हो गया ।
***
लेखराज मूंदडा को नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो के चीफ एस पी दुबे के आफिस में पेश किया गया ।
उस घड़ी आफिस में एक शख्स और मौजूद था जो दुबे की मेज के सामने पड़ी कुर्सियों में से एक पर बैठा हुआ था ।
“बैठो ।” - दुबे बोला ।
मूंदड़ा दूसरे शख्स के पहलू में एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मैं अभी जाता हूं ।” - दुबे उठता हुआ बोला । फिर वो लम्बे डग भरता हुआ वहां से बाहर निकल गया ।
दूसरे शख्स ने मेज पर पड़ा सिगरेट का पैकेट और उसके पहलू में पड़ा सिगरेट लाइटर उठाया, उसने एक सिगरेट पैकेट में से आधा बाहर निकाला और पैकेट मूंदड़ा की तरफ बढाया ।
“लो” - वो बोला - “सिगरेट पियो ।”
मूंदड़ा ने सिगरेट ले लिया । दूसरे शख्स ने भी एक सिगरेट अपने होठों से लगाया, फिर उसने पहले मूंदड़ा का और फिर अपना सिगरेट सुलगा लिया ।
“मेरा नाम पाण्डेय है ।” - दूसरा शख्स धुआं उगलता और तनिक मुस्कराता हुआ बोला - “योगेश पाण्डेय ।”
मूंदड़ा ने हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
“मैं वो शख्स हूं” - पाण्डेय बोला - “जो तुम्हारी दुश्वारियों की वजह भी है और हल भी ।”
मूंदड़ा ने चौंककर सिर उठाया, उसके चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“ये अखबार देखो ।” - पाण्डेय ने इन्डियन एक्सप्रैस की एक प्रति उसके सामने डाली - “नेशनल डेली है । इसमें लीड में तुम्हारी गिरफ्तारी की खबर है । जरा पढो ।”
मूंदड़ा ने अपने से सम्बन्धित खबर पढी और फिर अखबार एक और डाल दिया । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से पाण्डेय की ओर देखा ।
“अखबार में जो कुछ छपा है” - पाण्डेय बोला - “वो एन सी बी (नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो) के प्रैस रिलीज पर आधारित है इसलिए तुमने अभी पढा है, तकरीबन वो ही सारे अखबारों में छपा है । कहने का मतलब ये है कि गिरफ्तारी के वक्त तुम्हारे पास से ढेर-सारी विदेशी मुद्रा बरामद हुई थी उसका, जिक्र अखबार में नहीं है ।”
“क... क्यों नहीं है ?”
“अभी उसका जिक्र तुम्हारे पंचनामे में भी नहीं है । ये सब कुछ रिकार्ड में दर्ज हो जाने का मतलब तो तुम जानते होंगे ! सात से दस साल तक की लम्बी सजा । ठीक ?”
मूंदड़ा के मूंह से बोल ना फूटा ।
“कुछ बोलो, भई ।”
“जनाब” - मूंदड़ा बड़ी कठिनाई से बोला पाया - “मेरी दुश्वारी तो आपने मुझे समझा दी लेकिन आप तो कह रहे थे कि आपके पास मेरी दुश्वारी का हल भी है ।”
“हां । अलबत्त मुकम्मल हल नहीं है । वो हल ऐसा नहीं है कि तुम यहां से उठो और आजाद पंछी की तरह विचरते हुए यहां से बाहर निकल जाओ ।”
“तो क्या बात बनी !”
“बनी । भई, बड़ी सर्जरी से अगर मर्ज ठीक हो जाये तो मरीज को सर्जरी की वजह से लगे जख्म से शिकायत नहीं होनी चाहिये ।”
“मतलब ?”
“तुम गिरफ्तार हुए हो, तुम्हारी गिरफ्तारी की खबर अखबारों में छुपी है इसलिए नारटिक्स स्मगलर तो तुम्हें करार दिया जाना ही है । जो माल तुम्हारे से बरामद हुआ है, उससे तुम बड़े मगरमच्छ साबित हो रहे हो । हम तुम्हारे लिए इतना कर सकते हैं कि तुम एक छोटी मछली लगो । यानी हम ये कर सकते हैं कि हम अदालत में तुम्हारा केस ऐसे कमजोर, ऐसे वाटर्ड डाउन तरीके से पेश कर सकते हैं कि तुम्हें कम-से-कम सजा हो । और आगे हम इस बात की गारन्टी कर सकते हैं कि तुम्हारे सजा के वक्फे के दौरान जेल में तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न हो, तुम अपनी सजा बतौर कैदी नहीं, बतौर मेहमान काटो ।”
“बदले में मुझे क्या करना होगा ?”
“तुम्हें एक वयान देना होगा ।”
“कैसा बयान ?”
“वो तुम्हारी हामी हो जाने के बाद तुम्हें समझा दिया जायेगा ।”
“किसके खिलाफ ?”
“वो भी बता दिया जायेगा ।”
“वो तो तुझे पहले मालूम होना चाहिए ।”
“वो किसलिये ?”
“आपका पढाया बयान मैंने अपने ही पेशे के किसी आदमी के खिलाफ देना हुआ तो आपकी तमाम हिफाजतों के बावजूद मेरी लाश गिरी पड़ी होगी ।”
“खातिर जमा रखो, जिस आदमी के खिलाफ तुमने बयान देना है, वो तुम्हारे पेशे का नहीं, हमारे पेशे का है ।”
मूंदड़ा के चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“मेरा जवाब इनकार में हो तो ?”
“तो बतौर नारकाटिक्स स्मगलर तुम्हारी ऐसी औकात बनायी जायेगी कि इस धन्धे के बड़े-बड़े खलीफा शर्मिन्दा हो जायेंगे । हम अभी यहीं एक प्रैस कान्फ्रेंस बुलायेंगे और उसमें तुम्हें इन्टरनेशनल कनैक्शंस वाला एक बहुत बड़ा नारकाटिक्स स्मगलर साबित करके दिखायेंगे और तुम्हारे से बरामद माल में अपनी तरफ से इजाफा करके प्रैस के सामने पेश करेंगे । फिर तुम्हें अदालत में पेश करके लम्बा रिमांड लिया जायेगा ताकि हमें तुम्हारे नेशनल और इन्टरनेशनल कनैक्शंस की खबर लगा सके । पहले कभी गिरफ्तार हुए हो ?”
मूंदड़ा ने भयभीत भाव से इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर भी इतना तो जानते होगे कि रिमांड में मुलजिम के साथ क्या बीतती है ?” - पाण्डेय ने एक खोजपूर्ण निगाह उसके चेहरे पर डाली और बोला - “यानी कि जानते हो । फिर तो ये विनाशकारी होता है । और ये भी जानते होगे कि बाज मुलजिमों पर सजा उसनी भारी नहीं गुजरती जितना कि रिमांड भारी गुजरता है । और फिर...”
पाण्डेय ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“अभी और भी ?” - मूंदड़ा आतंकित भाव से फुसफुसाया ।
“रिमांड फिर हासिल हो जाता है । फिर के बाद फिर हासिल हो जाता है । इतने रिमांड्स से गुजरे बाज मुलजिमों को तो सजा इनाम लगती है । हिरासत से छूटकर वो अपनी सजा काटने जेल में पहुंचने हैं तो जेल उन्हें स्वर्ग लगती है ।”
मूंदड़ा खामोश रहा ।
“तो फिर क्या जवाब है तुम्हारा ?” - पाण्डेय बोला ।
“आप अपने वादे से फिर तो नहीं जायेंगे ?”
“स्टाम्प पेपर पर तो लिखकर नहीं दे सकता; जुबानी ही विश्वास दिला सकता हूं कि नहीं फिरूंगा अपने वादे से । और फिर” - पाण्डेय ने उसे घूरा - “मेरी बात पर एतबार करने के अलावा तुम्हारे पास और कोई चारा क्या है ?”
“चारा तो कोई नहीं ।”
“तो फिर ?”
“जनाब, मेरा जवाब हां में है । आप जो कहेंगे मैं करूंगा ।”
“गुड !”
***
ठीक साढे ग्यारह बजे लूथरा कौल के फ्लैट के सामने खड़ा उसकी कालबैल बजा रहा था ।
कोई उत्तर न मिला ।
उसने फिल कालबैल बजायी और दरवाजे पर दस्तक भी दी ।
जवाब नदारद ।
उसने की-होल में आंख लगाकर भीतर झांका ।
उसे कुछ दिखाई न दिया ।
उसने आगे बढकर बगल वाले फ्लैट की कालबैल बजायी ।
तत्काल दरवाजा खुला । एक अधेड़ आदमी दरवाजे पर प्रकट हुआ । सामने एक वर्दीधारी सब-इंस्पेक्टर को देखकर वो सकपकाया ।
“आपके यहां फोन है ?” - लूथरा ने पूछा ।
उस आदमी ने तत्काल सहमति में सिर हिलाया ।
“जरा एक फोन करना है ।”
वो आदमी सहमति में सिर हिलाता एक ओर हटा । लूथरा भीतर दाखिल हुआ तो उसने बैठक के कोने में पड़े फोन की तरफ इशारा किया । लूथरा फोन के करीब पहुंचा । उसने कौल के फ्लैट का नम्बर डायल किया ।
जवाब नदारद । घण्टी बजती रही । किसी ने रिसीवर उठाया ।
लूथरा ने रिसीवर वापिस क्रैडल पर रख दिया, उसने फोन के मालिक का शुक्रिया अदा किया और वहां से बाहर निकल आया । सीढियों के रास्ते वो आठवीं मंजिल पर पहुंचा । वह उसने सुमन वर्मा के फ्लैट की कालबैल बजायी ।
दरवाजा खुला । सेफ्टी चेन के सहारे दरवाजे और चौखट के बीच में कोई तीन इंच की झिरी पैदा हुई और उसमें से उसे सुमन वर्मा की सूरत बाहर झांकती दिखाई दी ।
“मैं लूथरा ।” - लूथरा बोला - “पहचाना तो होगा मुझे ?”
सुमन ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कौल साहब से मिलने आया था । वो अपने फ्लैट में नहीं मालूम होते । सोचा आपको उनकी कोई खबर हो ।”
“वो नर्सिंग होम में होंगे । आज सुबह सबेरे उनकी मिसेज की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गयी थी । एम्बुलेंस पर आनन-फानन यहां से ले जाना पड़ा था । वो साथ ही गये थे । नीचे फ्लैट में नहीं हैं तो वहीं होंगे ।”
“ओह ! आप घर कैसे हैं । ड्यूटी पर नहीं गयी ?”
“रात की ड्यूटी है ।”
“शुक्रिया । मैं नर्सिंग होम जाता हूं ।”
“आपने ये तो पूछा ही नहीं कि नर्सिंग होम कौनसा है और कहां है ?”
“मुझे मालूम है ।”
“मालूम है ? कैसे मालूम है ?”
“बस है मालूम । बहरहाल शुक्रिया ।”
“कौल साहब के लिये कोई मैसेज हो तो...”
“नहीं । कोई मैसेज नहीं । मेरी उनसे मुलाकात जरूरी है । मैं नर्सिंग होम जाता हूं । तकलीफ माफ ।”
वो वहीं से लिफ्ट में सवार हुआ और ग्राउंड फ्लोर पर पहुंचा ।
ऐन उसी वक्त कुशवाहा अपने दलबल के साथ वहां पहुंचा ।
लुथरा को लॉबी में देखकर वो ठिठका । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से लूथरा की तरफ देखा ।
लूथरा उसके करीब पहुंचा ।
“वो फ्लैट में नहीं है ।” - वो बोला ।
“क्यों नहीं है ?” - कुशवाहा सख्ती से बोला - “जब मुलाकात का यही वक्त मुकर्रर था तो...”
“वो सुबह बीवी के साथ नर्सिंग होम गया था । सुबह उसकी बीवी बहुत नाजुक हालत में थी । आक्सीजन का मास्क लगाकर स्ट्रेचर पर यहां से ले जाई गयी थी । उसकी हालत और बिगड़ गयी हो सकती है । इसी वजह से वो नर्सिंग होम में उसके पहलू से नहीं हट पा रहा होगा ।”
“तो ?”
“मैं नर्सिंग होम जाता हूं । फिर जो असलियत होगी, सामने आ जायेगी ।”
कुशवाहा ने सहमति में सिर हिलाया ।
“तुम क्या करोगे ?”
“तुम्हारे पीछे आयेंगे और क्या करेंगे ?”
“पीछे बेशक आओ लेकिन मेरे से परे-परे रहना । और खुदा के वास्ते वहीं कोई गुल न खिला देना ।”
“तुम फिक्र न करो । हम जैसा माहौल देखेंगे, वैसा कदम उठायेंगे ।”
“लेकिन वहां नर्सिंग होम में ही...”
“अरे, बोला न जैसा माहौल देखेंगे, वैसा करेंगे । तू हिल तो सही यहां से ।”
लूथरा बड़े चिन्तित भाव से सहमति में सिर हिलाया हुआ बाहर जाकर अपनी मोटर साइकल पर सवार हुआ ।
वो महाजन नर्सिंग होम पहुंचा ।
उसके मोटर साइकिल रोकते ही रावत उसके करीब पहुंचा ।
“क्या खबर है ?” - लूथरा बोला ।
“ठीक खबर है ।” - रावत निश्चिन्तता से बोला - “हालात काबू में है ।”
लूथरा को चैन की सांस आयी ।
“कौल भीतर है ?” - उसने पूछा ।
“नहीं तो । वो तो सुबह ही यहां से चला गया था ।”
“चला गया था ! कब ?”
“कोई साढे आठ बजे के करीब ।”
“कहां चला गया था ?”
“अब ये मुझे क्या मालूम ?”
“अपने फ्लैट पर तो पहुंचा नहीं वो ?”
“कहीं और गया होगा ।”
“तेरी गारन्टी है कि वो भीतर नहीं है ?”
“लो ! आप तो मजाक करने लगे । जब वो मेरी आंखों के सामने यहां से गया और लौट के नहीं आया तो भीतर कैसे होगा ?”
“शायद वो लौटा हो और तुझे उसके लौटने की खबर न लगी हो ?”
रावत हंसा ।
“जवाब दे, यार ।”
“लूथरा साहब, वो सामने एक ही तो रास्ता है यहां से आवाजाही का जिस पर हम चार जने घाघ की तरह निगाह जमाये बैठे हैं ।”
“पिछवाड़े से या पहलू से कोई रास्ता नहीं ?”
“इस सामने के रास्ते के सिवाय और कोई रास्ता नहीं । कोई आये या जाये, उसे ये ही रास्ता इस्तेमाल करना होगा । और इस रास्ते पर हमारी नजर है । वो नर्सिंग होम की इमारत पर आसमान से टपका हो वो हो सकता है हमारी निगाह में आने से बच गया हो ।”
“मजाक न कर, यार ।”
रावत ने कोई सख्त बात कहने के लिये मुंह खोला लेकिन और कुछ सोच के चुप हो गया । अलबत्ता उसके चेहरे से झुंझलाहट और असंतोष के भाव न गये ।
“मैं अभी आया ।” - एकाएक लूथरा बोला ।
रावत ने सहमति में सिर हिलाया ।
लूथरा लम्बे डग भरता नर्सिंग होम के भीतर दाखिल हुआ ।
वहां के पब्लिक टेलीफोन से उसने कौल के आफिस में फोन किया ।
लाइन लगी तो वो बोला - “मिस्टर कौल, प्लीज ।”
“मिस्टर कौल इज आन लांग लीव । - जवाब में आपरेटर बोली ।
“क्या ?”
“कौल साहब लम्बी छुट्टी पर हैं ।”
“कब से ?”
“आज से ही ।”
“कहां गये ?”
“मालूम नहीं ।”
“दिल्ली में हैं या बाहर गये हैं ?”
“मालूम नहीं ।”
लूथरा ने धीरे-से रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया ।
एकाएक किसी गड़बड़ की आशंका उसे बुरी तरह से सताने लगी थी ।
वो रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“मिसेज कौल कौन से कमरे में हैं ?” - उसने रिसैप्शनिस्ट से सवाल किया ।
रिसैप्शनिस्ट ने अपने पीछे लगा इन्डैक्स बोर्ड देखा । फिर उसने अपने सामने रखे पेशेंट रजिस्ट्रेशन के पन्ने उलटे ।
“मिसेज नीलम कौल ?” - रिसैप्शनिस्ट बोली - “वाइफ आफ मिस्टर अरविन्द कौल ?”
“हां ।” - लूथरा उतावले स्वर में बोला - “वही ।”
“उनकी तो कल शाम छुट्टी हो गयी ।”
“मुझे मालूम है” - लूथरा और भी उतावला हो उठा - “लेकिन आज सुबह वो फिर यहां लाई गयी थीं । सुबह सवेरे । खस्ता हालत में । एम्बुलेंस में । आक्सीजन लगा के ।”
रिसैप्शनिस्ट ने फिर रजिस्टर के पन्ने पलटे और फिर इनकार में सिर हिलाया ।
“क्या मतलब ?” - लूथरा तीखे स्वर में बोला - “मुंह से बोलो ।”
“छुट्टी होने के बाद वो दोबारा यहां नहीं लाई गयी ।”
“लाई गयी हैं । तुम्हें उनके दोबारा यहां लाये जाने की खबर नहीं मालूम होती । सुबह ड्यूटी पर थीं तुम ?”
“सर, मेरी ड्यूटी ग्यारह बजे शुरू होती है । ये ठीक है कि मैं सुबह यहां ड्यूटी पर नहीं थी लेकिन पेशेन्ट्स के रजिस्ट्रेशन का रिकार्ड तो मेरे सामने है और इसमें” - उसने एक उंगली से सामने पड़ा रजिस्टर ठकठकाया - “मिसेज कौल की रीएडमिटेंस दर्ज नहीं है ।”
लूथरा हत्थे से उखड़ गया ।
“तुम झूठ बोल रही हो ।” - वो इतनी जोर से चिल्लाकर बोला कि रिसैप्शन के सामने बैठे और लोग बौखलाकर उधर देखने लगे ।
“मैं भला क्यों झूठ बोलूंगी ?” - वो तिलमिलाकर बोली ।
“तो फिर तुम अन्धी हो जो तुम्हें रजिस्टर में लिखा पेशेन्ट का नाम नहीं दिखाई देता । लाओ, मुझे दो रजिस्टर ।”
लूथरा ने जबरन रजिस्टर उससे छीन लिया और बड़े बेसब्रेपन से उसका मुआयना करने लगा ।
उस तारीख में रजिस्टर में मिसेज नीलम कौल का नाम दर्ज नहीं था ।
उसने रजिस्टर के पिछले पन्ने पलटे तो एक जगह उसे वो नाम दिखाई दिया लेकिन उसके आगे लिखा था डिस्चार्जड आन फ्राइडे ट्वेन्टी सेवन्थ दिसम्बर एट फाईव थर्ट पी एम ।
“आप लोग रिकार्ड ठीक नहीं रखते ।” - लूथरा आपे से बाहर होता हुआ बोला - “पेशेन्ट भर्ती होता है लेकिन आप जानबूझकर रजिस्टर में उसका नाम नहीं लिखते । ये एक गैरकानूनी हरकत है । कौन है यहां का इंचार्ज ?”
तब तक शोरशराबे से प्रभावित एक अत्यन्त सभ्रान्त व्यक्ति पीछे का दरवाजा खोलकर पहले ही वहां आन खड़ा हुआ था ।
“क्या बात है ?” - उसने रिसैप्शनिस्ट से पूछा ।
“आप कौन हैं ?” - रिसैप्शनिस्ट के जुबान खोल पाने से पहले ही लूथरा बोल पड़ा ।
“आई एम डाक्टर महाजन ।” - जवाब मिला - “आई ओन दिस नर्सिंग होम ।”
“आप पेशेन्ट्स के रजिस्ट्रेशन में गड़बड़ी क्यों करते हैं ? जब पेशेन्ट यहां भरती होता है तो आप रिकार्ड में उसका नाम क्यों नहीं दर्ज करते ?”
“ऐसा कहीं होता है ? यहां हर तरह का पूरा रिकार्ड रखा जाता है ।”
“तो फिर मिसेज नीलम कौल के सुबह वहां भरती किए जाने का रिकार्ड क्यों नहीं है यहां ?”
“मिसेज नीलम कौल ? दैट डिलीवरी केस आफ डाक्टर मिसेज कुलकर्णी ?”
“वही ।”
“मैं उस पेशेन्ट से जाती तौर से वाकिफ हूं । वो यहां भरती नहीं है । कल शाम उसकी छुट्टी हो गयी थी ।”
“आप झूठ बोल रहे हैं । वो अभी भी यहीं है और...”
“तुम कौन हो ?” - डाक्टर महाजन उसकी बात काटकर बोला - “और क्यों यहां इतने सवाल-जवाब कर रहे हो ? क्या अथारिटी है तुम्हें ऐसी पूछताछ की ?”
“मेरा नाम लूथरा है । मै दिल्ली पुलिस का सब-इंस्पेक्टर हूं । दिखाई नहीं देता ?”
“दिखाई देता है लेकिन...”
“दिखाई देता तो है चलके मुझे अपने सारे कमरे चैक कराइये ।”
“क्यों ?”
“ताकि मैं साबित कर सकूं कि आप मिसेज कौल की यहां मौजूदगी की बाबत झूठ बोल रहे हैं ।”
“ऐसा नहीं है लेकिन अगर ऐसा है भी तो तुम्हें क्या ? क्या केस है तुम्हारे पास जिसकी तुम तफ्तीश कर रहे हो !”
“मिसेज कौल एक इश्तहारी मुजरिम की बीवी है । मैंने उसे गिरफ्तार करना है ।”
“वारन्ट गिरफ्तारी दिखाओ ।”
“पहले मुझे मिसेज कौल यहां दिखाई दे जायें, फिर वारन्ट गिरफ्तारी भी आ जायेगा ।”
“जब तुम्हें गारन्टी है कि वो यहां है तो तुम उसे देखना क्यों चाहते हो ?”
लूथरा को तत्काल जवाब न सूझा ।
“अब जाओ और जाके पहले सर्च और गिरफ्तारी वारन्ट ले के आओ । उसके बिना मैं तुम्हें भीतर नर्सिंग होम में कदम नहीं रखने दूंगा ।”
“देखता हूं कौन रोकता है मुझे !”
और लूथरा दृढता से नर्सिंग होम के भीतर की ओर बढा ।
“यू कैन नाट डू दैट । यू कैन नाट डिस्टर्ब माई पेशेन्ट्स लाइक दैट !”
लूथरा की चाल में अन्तर नहीं आया ।
“यू स्टॉप राईट देयर ।” - उसके पीछे डाक्टर महाजन क्रोध से थरथर कांपता हुआ चिल्लाया - “और आई विल काल दि पुलिस ।”
“आई एम दि पुलिस, डैम यू ।”
“आल दि सेम आई विल काल दि पुलिस । आई एम वार्निंग यू ।”
लूथरा ने उसकी वार्निंग की परवाह न की । वो किसी पगलाये हुए सांड की तरह जमीन रौंदता हुआ आगे बढता रहा ।
डाक्टर महाजन ने रिसैप्शन पर रखा फोन अपनी तरफ घसीट लिया और कांपती उंगलियों से पुलिस का नम्बर डायल करने लगा ।
लूथरा बगुले की तरह सारे नर्सिंग होम में फिर गया । वो एक छोटा सा नर्सिंग होम था जिसकी दो मंजिलों में सोलह कमरे थे और छ:-छ: बैड के दो जनरल वार्ड थे ।
नीलम उसे कहीं दिखाई न दी ।
पगलाया हुआ लूथरा यहां के आपरेशन रूम एक्सरे रूम किचन; पैन्ट्री, स्टोर, डाक्टर और नर्सों के ड्यूटी रूमों तक में फिर गया ।
नीलम कहीं नहीं थी ।
मुंह लटकाये जब वो रिशैप्शन पर वापिस लौटा तो उसी क्षण उसे कम्पाउण्ड में एक जिप्सी वैन दाखिल होती दिखाई दी ।
फिर उसमें से एक सब-इंस्पेक्टर और दो हवलदार निकलकर नर्सिंग होम में दाखिल हुए ।
आगन्तुक पुलसियों को देखते ही डाक्टर महाजन रिसैप्शन के पीछे से निकला और लूथरा की ओर उंगली तानता उच्च स्वर में बोला - “ये है वो आदमी जिसने यहां कोहराम मचा रखा है । ये पुलिस की वर्दी में कोई बहरूपिया मालूम होता है । गिरफ्तार कीजिए इसे ।
आगन्तुक सब-इंस्पेक्टर ने असंमजपूर्ण भाव से लूथरा की तरफ देखा फिर वो उसके करीब पहुंचा और वैसे ही स्वर में बोला - “कौन हो भाई ?”
“मेरा नाम लूथरा है ।” - हालात की उस नयी करवट से तब तक आशंकित हो उठा लूथरा दबे स्वर में बोला - “अजीत लूथरा । मन्दिर मार्ग थाने से हूं ।”
“आई कार्ड है ?”
“है लेकिन मैंने कहा न कि मैं...”
“दिखाओ ।”
लूथरा ने अपना आइडेन्टिटी कार्ड निकालकर आगन्तुक सब-इंस्पेक्टर को दिखाया । उसने बड़ी बारीकी से कार्ड का मुआयना किया और फिर डाक्टर महाजन की तरफ घूमकर बड़े अदब से बोला - “सर, ये महकमे के आदमी हैं । मन्दिर मार्ग थाने से हैं ।”
“मुझे नहीं पता ये कहां से हैं ।” - डाक्टर महाजन गरजा - “और ये क्या बेजा है । जो हरकत इसने अभी की है, उसके लिए आप इसे गिरफ्तार कीजिए वर्ना मैं पुलिस कमिश्नर को फोन करता हूं । मैं लेफ्टोनेन्ट गवर्नर को फोन करता हूं ।”
“सर, आप....”
“क्या समझ रखा है तुम लोगों ने मुझे ? पद्मभूषण डाक्टर हूं मैं । राष्ट्रपति का कार्डियालोजिस्ट रह चुका हूं मैं । इन्डियन मैडीकल एसोसियेशन का...”
“सर, आप शान्त हो जाइये । मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं । प्लीज शान्त हो जाइये ।”
डाक्टर चुप हुआ ।
“आप अपने कमरे में चलिये । प्लीज ।”
“लेकिन ये आदमी....”
“कहीं नहीं जा रहा । यहीं है । आप मुझे जरा पूछताछ का मौका दीजिए । मैं अभी आपको रिपोर्ट करता हूं ।”
“बट यू डोंट लैट दिस मैन गैट अवे विद वाट ही हैज डन ।”
“नो । नैवर, सर । नाओ प्लीज ।”
आग्नेय नेत्रों से लूथरा को घूरता हुआ डाक्टर घूमा और वापिस अपने आफिस में घुस गया ।
“सुन लिया ?” - आगन्तुक सब-इंस्पेक्टर लूथरा से बोला ।
लूथरा ने जोर से थूक निगली ।
“क्या हरकत हुई ये ?”
“हो गयी यार ।” - लूथरा दबे स्वर में बोला - “एक टिप मिली थी, उसी पर काम कर रहा था । कामयाबी की इतनी गारन्टी थी कि ताव खा गया ।”
“ऐसा ताव वर्दी उतरवा देगा ।”
तब लूथरा को पहली बार याद आया कि वर्दी तो उसकी पहले ही उतरी जा रही थी ।
“अब क्या कहूं ।” - वो कातर भाव से बोला - “शनीचर चढ गया । सुबह से ही चढा हुआ है । मति हर ली मेरी । अब भगवान के लिए किसी तरह से इस जहमत से मेरा पीछा छुड़ा ।”
“उसने सच में ही पुलिस कमिश्नर को या लेफ्टिनेंट गवर्नर को फोन कर दिया तो मत छूटा तुम्हारा पीछा ।”
“उसे रोक, यार । वो सच में ही न फोन कर दे ।”
“मुझे तो एक ही तरीका दिखाई देता है उसे ठण्डा करने का ।”
“क्या ?”
“माफी मांगो ।”
“माफी !”
“हां । वो बड़ा आदमी है । ऊपर तक पहुंच रखता मालूम होता है । उसने अपनी कम्पलेंट वापिस न ली तो...”
वो जानबूझकर खामोश हो गया और चेतावनी भरी निगाहों से लूथरा को देखने लगा ।
“अच्छी बात है ।” - लूथरा मरे स्वर में बोला - “चल ।”
डाक्टर महाजन ने लूथरा को माफ तो कर दिया लेकिन ऐसा करने से पहले उसने लूथरा से नाक रगड़वाने से कसर न छोड़ी ।
बुरी तरह से अपमानित लूथरा डाक्टर के आफिस से बाहर निकला । जिप्सी वैन वहां से विदा हो गयी तो वो रावत के करीब पहुंचा ।
“क्या हुआ ?” - लूथरा के चेहरे पर फटकार बरसती पाकर रावत के मुंह से अपने आप ही निकल गया ।
“क्या हुआ ?” - लूथरा ने उसकी मां-बहन की एक कर दी ।
“साहब” - रावत आहत भाव से बोला - “गालियां ही बके जाओगे या कुछ बताओगे भी !”
“साले ! वो भीतर नहीं है ।”
“कौन भीतर नहीं है ?”
“कौल की हामला बीवी ।”
“नामुकिन । मेरे सामने वो एम्बुलेंस में लेट के...”
“कहीं और पहुंच गयी । तू किसी और एम्बुलेंस के पीछे लगा यहां आ गया ।”
“क्या बात करते हो, साहब । ऐसा कहीं हो सकता है ? मैं एक एम्बुलेंस पर निगाह नहीं रख सकता ?”
“नहीं रख सकता ।”
“आप खामखाह मुझे जलील कर रहे हैं । मैंने दिल लगा के पूरी चौकसी से खास आपके लिए आपका काम किया है । साले दिन-रात एक कर दिये आपके काम में और इसका ये सिला दे रहे हैं आप मुझे कि...”
“क्या किया ! जो किया अन्धों की तरह किया ।”
“मैं अंधा हूं तो क्या युद्धवीर भी अंधा है ! काले खां भी अंधा है ! शीशपाल भी अंधा है !”
“हां ! तुम सब अंधे हो ।”
“ठीक है । अंधे तो अंधे सही । अब आगे आप किसी आंखों वाले से अपना काम करा लीजिये ।”
“अब कहां रखा है काम ? काम की फिर गई ऐसी की तैसी । तुम अन्धों की मेहरबानी से ।”
“वो वाकई भीतर नहीं है ?”
“नहीं है । मैंने सारे नर्सिंग होम का एक-एक कोना-खुदरा टटोला है । ऐसे टटोला है कि वो कोई चुहिया भी होती तो मैंने तलाश कर ली होती । रावत, तू नहीं जानता तेरी कोताही ने मेरा कितना नुकसान कर दिया है और अभी कितनी दुर्गत कराएगी वो मेरी ।”
“साहब, कसम है मुझे बजरंगबली की, मैंने कोई कोताही नहीं की । कोताही होती भी कैसे ? मैंने कोई छुपके पीछा करना था एम्बुलेंस का ! मैं तो एम्बुलेंस की दुम से चिपका-चिपका यहां पहुंचा था और जैसे पीछे गोल मार्केट में मेरे सामने वो स्ट्रेचर पर से एम्बुलेंस में लादी गयी थी, वैसे ही वो यहां उतारी गई थी और नर्सिंग होम के भीतर ले जायी गई थी ।”
“वो यहां नहीं है । अब बोल, उसे जमीन निगल गई या आसमान खा गया ?”
रावत के मुंह से बोल न फूटा ।
“तू रास्ते में कहीं गच्चा खा गया । तू सुबह-सवेरे के नीमअन्धेरे में रास्ते में किसी और एम्बुलेंस के पीछे लग गया । अब खबरदार जो दोबारा कहा कि ऐसा नहीं हो सकता ।”
“वो तो चलिये मैं नहीं कहता लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“वो वाकई भीतर नहीं है ?”
लूथरा ने अपना माथा पीट लिया ।
“अब हम क्या करें ?” - लूथरा उसे तनिक शांत होता दिखाई दिया तो रावत ने पूछा ।
“जा के जमुना में छलांग लगा दो ।” - लूथरा भड़का ।
“आप कहेंगे तो वो भी लगा देंगे लेकिन यहां से टलें न ?”
“दफा हो जाओ ।”
फिर रावत को वहीं खड़ा छोड़कर लूथरा जमीन रौंदता हुआ जाकर अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हुआ और वहां से बाहर निकला ।
तभी एक कार तिरछी होकर उसकी मोटर साइकिल के सामने लगी । लूथरा ने तत्काल ब्रेक न लगायी होती तो जरूर टक्कर हो गई होती । फिर कार का पिछला दरवाजा खुला और उसके सामने में कुशवाहा का सर्द स्वर पड़ा - “क्या बात है ? भागा जा रहा है ? हमें भूल गया ?”
“न-नहीं ।” - लूथरा हकलाता-सा बोला ।
“क्या हुआ ?”
मरे स्वर में लूथरा ने बताया ।
“लूथरा ।” - कुशवाहा दांत पीसता हुआ बोला - “तेरी खैर नहीं ।”
“अभी इतना कुछ नहीं बिगड़ा । सिर्फ वक्त की बात है । मुझे थोड़ा वक्त दो । मैं उसे ढूंढ लूंगा ।”
“किसे ढूंढ लेगा ?”
“कौल की बीवी को ! मेरे आदमियों से उसका पीछा करने में कोताही हो गयी । वो किसी और नर्सिंग होम में ले जायी गई मालूम होती है । वो हामला है और बहुत बीमार है । किसी नर्सिंग होम में तो वो होगी ही । मैं मालूम कर लूगा वो कहां है ।”
“कैसे मालूम कर लेगा ?”
“कर लूंगा । भले ही मुझे सारे शहर के एक-एक नर्सिंग होम की खाक छाननी पड़े ।”
“हफ्ते दस दिन में कर लेगा ये काम ?” - कुशवाहा ने अनजाने में अपने बॉस वाली जुबान बोली ।
“मैं आज ही करके दिखाऊंगा । मुझे सिर्फ शाम तक की मोहलत दो ।”
“ठीक है । शाम को क्लब में आना ।”
“ठीक है ।”
“लूथरा ! काम हो या न हो शाम को हर हाल में तूने लाल साहब की हाजिरी भरनी है ।”
कार लूथरा के रास्ते से हट गयी ।
***
लूथरा की बीवी माधुरी अपने घर की बैठक में बैठी टीवी का अफ्टरनून ट्रांसमिशन देख रही थी जबकि कालबैल बजी ।
उसने उठकर बैठक का दरवाजा खोला और आये फ्रंट यार्ड में कदम रखा उसे गेट पर एक बाइसिकल वाला खड़ा दिखाई दिया । उसके देखते-देखते उसने बाइसिकल के कैरियर पर से एक पार्सल उतारा ।
“क्या है ?” - वो गेट पर पहुंचकर बोली ।
“कूरियर सर्विस ।” - बाइसिकल वाला बोला - “पार्सल है । अजीत लूथरा के नाम ।”
“वो घर पर नहीं हैं ।”
“कोई बात नहीं । आप ले लीजिये ।”
माधुरी ने पार्सल को यूं देखा र्जैसे उसमें बम छुपा हो सकता हो । आखिर वो एक पुलसिये की बीवी थी ।
“मैं कैसे ले सकती हूं !” - वो बोली - “मेरे को ऐसे किसी पार्सल के आने की कोई खबर नहीं है ।”
“बहन जी, ये कोई जरूरी आइटम होगी तभी कूरियर से आयी है । आप...”
“अरे, कहा न मुझे नहीं पता कि ऐसा कोई पार्सल आने वाला है ।”
“तो पता कर लीजिये । ये” - उसने सिर्फ पार्सल पर से नाम पढा - “ये अजीत लूथरा आपके क्या लगते हैं ?”
“पति हैं मेरे ।”
“फिर भी आप पार्सल लेने से इनकार कर रही हैं ।”
माधुरी ने उसकी तरफ आंखें तरेरी ।
“बहन जी, वो कहीं फोन पर उपलब्ध हों तो पार्सल की बाबत उनसे बात कर लीजिये ।”
तभी भीतर फोन की घंटी बजने लगी ।
पार्सल वाले को बाहर ही खड़ा छोड़कर माधुरी तत्काल भीतर पहुंची ।
उसने फोन उठाया और बोली - “हल्लो ! कौन ?”
“मैं बोल रहा हूं ।” - आवाज आयी - “माधुरी, आज कुरियर से मेरे नाम एक पार्सल आने वाला है ।”
“वो तो आ भी गया ।” - तत्काल माधुरी के मुंह से निकला ।
“तूने ले लिया ?”
“नहीं । एक आदमी पार्सल लेकर अभी पहुंचा है । बाहर गेट पर खड़ा है । मुझे तो खबर नहीं थी किसी पार्सल के आने की । मैं तो ले नहीं रही थी....”
“ले ले । वो जरूरी पार्सल है ।”
“मुझे पहले बताना था पार्सल की बाबत ! तभी बताना था जब ब्रीफकेस रखने आए थे ।”
“मैं भूल गया था । बस ध्यान से उतर गयी थी पार्सल की बात ।”
“मैंने तो उसे लौटा ही दिया था ।”
“अब ले ले पार्सल ।”
“ठीक है ।”
“और सुन ।”
“बोलिये ।”
“पार्सलों पर भूरे रंग का जो रैपर चढा होता है न, जिस पर कि पाने वाले का नाम-पता लिखा होता है अरे जिस पर कुरियर सर्विस का लेबल लगा होता है, समझ रही है न ?”
“हां ।” - माधुरी अनिश्चित भाव से बोली ।
“जब पार्सल वाला चला जाए तो लेबल समेत वो भूरा रैपर पार्सल पर से उतार लेना और उसे जला देना ।”
“जला दूं !” - माधुरी सकपकाई ।
“हां । रैपर को । भूरे रैपर को । उसे जलाकर राख कर देना और यूं हाथ आये पार्सल को किचन में ले जाके आटे के बड़े वाले कनस्तर में आटे के नीचे छुपा देना ।”
“क्यों ?” - माधुरी हैरानी से बोली ।
“वजह आके समझाऊंगा । ये फोन पर करने वाली बात नहीं ।”
“है क्या पार्सल में ?”
“ये भी आके बताऊंगा ।”
“मैं खोल लूं उसे ?”
“खबरदार !”
“अच्छा, अच्छा । तुम्हारी बातें तुम्हीं जानो ।”
“तू समझ तो गयी न मेरी बात ?”
“हां । पार्सल को लेकर आटे के कनस्तर में आटे के नीचे दबाना है ।”
“उसका रैपर उतारकर जला चुकने के बाद !”
“हां । पहले रैपर जलाना है फिर पार्सल आटे में छुपाना है ।”
“ठीक । मैं रख रहा हूं ।”
“अजी, सुनो ।”
“बोल ।”
“तुम्हारी आवाज को क्या हुआ ?”
“क्या हुआ है ?”
“अजीब-सी खरखराई-सी निकल रही है । पहचान में ही नहीं आ रही ।”
“आवाज को कुछ नहीं हुआ । फोन में कोई खराबी है ।”
“फिर ठीक है । मैं तो समझी थी । फिर ठण्ड लगा ली...”
“ये बातें घर आने पर । मैं रख रहा हूं ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
माधुरी ने बाहर जाकर पार्सल रिसीव कर लिया ।
***
विमल ने मोनिका द्वारा बताये नम्बर पर मिन्टो रोड फोन किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“मैं बोल रहा हूं ।” - विमल बोला - “पहचाना ?”
“हां ।” - मोनिका की आवाज आयी - “तुम्हारे ही फोन का इन्तजार कर रही थी ।”
“वो गया ?”
“हां ! बहुत देर हो गयी ।”
“मैं आऊं ?”
“यहां नहीं । कहां से बोल रहे हो ?”
“मानसिह रोड से ।”
“अनसारी रोड पहुंचो । पन्द्रह मिनट बाद फायर ब्रिगेड के सामने मिलना । मेरा फासला थोड़ा है । मैं तुम्हारे से पहले वहां मौजूद होऊंगी ।”
“ठीक है ।”
अली वली के साथ बन्द जीप पर सवार होकर विमल ने पुरानी दिल्ली का रुख किया ।
झामनानी से अलग होते ही मुबारक अली अपने कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ हिसार पोल्ट्री फार्म का मुकम्मल जायजा लेने के बाद ही लौटने वाला था ।
जीप अनसारी रोड पहुंची ।
मोनिका फायर ब्रिगेड के सामने अकेली खड़ी थी ।
विमल जीप से निकलकर उसके करीब पहुंचा ।
मोनिका उसे देखकर तनिक मुस्कराई और फिर बोली - “करीब ही मेरा घर है, वहीं चल के बैठते हैं ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । वो मोनिका के साथ हो लिया । जीप उनके पीछे चलने लगी ।
मोनिका विमल को अपने घर ले आयी तो जीप घर के बाहर गली में जम गयी ।
“कोई चाय-वाय पियोगे ?” - मोनिका बोली ।
“नहीं ।” - विमल बोला - “जरूरत नहीं ।”
“और तो कोई खिदमत मैं कर नहीं सकती क्योंकि...”
“मोनिका ! तुम मेरी ये ही बहुत बड़ी खिदमत कर रही हो कि तुम मेरे पास बैठी मेरे से बातें कर रही हो । इस वक्त और किसी खिदमत की मुझे जरूरत नहीं ।”
“ठीक है । मर्जी तुम्हारी ।”
“अलबत्ता धूम्रपान की इजाजत दो तो...”
“हां, हां । शौक से ।”
विमल ने आपना पाइप सुलगा लिया । पाइप सुलगाने के बाद उसने सिर उठाया तो पाया मोनिका अपलक उसे देख रही थी ।
“क्या देख रही हो ?” - विमल तनिक सकपाकये स्वर मे बोला ।
“अब मुझे मालूम है कि असल में तुम कौन हो ।” - वो बोली ।
“अच्छा ।”
“तुम मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल हो और आजकल कौल के नाम से जाने जाते हो ।”
“कैसे जाना ?”
“मिन्टो रोड वाले फ्लैट में आज सुबह लूथरा नाम का एक पुलसिया गुरबख्शलाल से मिलने आया था । उसकी गुरबख्शलाल और कुशवाहा से हुई बातें सुनकर आना ।”
“ओह ! क्या सुना ?”
मोनिका ने सविस्तार सब कह सुनाया ।
“हूं ।” - अन्त में विमल बोला - “तो इतना दोगला आदमी निकला ये लूथरा !”
“पेश तो लेकिन न चली उसकी । तुम तो जिन्दा हो !”
“बाबे दी मेहर ए ।”
“क्या !”
“कुछ नहीं । तो तुमने अपनी आंखों के आगे इस नाचीज के सिर की कीमत छब्बीस लाख रुपये लगते देखी !”
“पांच लाख रुपये” - वो तनिक हंसी - “एडवांस में अदा भी होते देखे ।”
“फिर भी लालच न आया ?”
“किस बात का ?”
“गुरबख्शलाल को ये खबर करने का कि बाबजूद इतने इन्तजामात के जो शख्स मोल मार्केट में मार गिराया जाने से बच गया था, वो तुमसे मिलने आने वाला था ?”
“नहीं आया । यकीन जानो तो खयाल तक नहीं आया ।”
“आना तो चाहिए था । गुरबख्शलाल तुम्हें मालामाल कर देता । पैसा हर दुश्वारी का हल माना जाता है आजकल । एक ही दांव में तुम्हारी सारी दुश्वारियां दूर हो जाती ।”
“हो तो जातीं लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“कहा न खयाल तक नहीं आया ।”
“खयाल आता तो उस पर अमल करती ?”
“नहीं ।”
“क्यों ? कहीं इसलिये तो नहीं क्योंकि अभी तक तुमने हालात से सिर्फ जिस्म बेचने तक का समझौता किया है ? अपनी रूह, अपना जमीर अभी नहीं बेचा तुमने ?”
“नहीं, वो बात नहीं । तुम्हारी बात के जवाब में हां कहने से मेरा इमेज बनता है लेकिन हकीकतन वो बात नहीं है । औरत जब अपनी अस्मत बेचती है तो बाकी सब कुछ अपने आप ही बिक जाता है । सबूत के तौर पर एक वाकया बयान करती हूं । आज से सिर्फ चार दिन पहले मंगलवार के दिन इसी घर में, इसी कुर्सी पर जिस पर कि इस वक्त तुम बैठे हुए हो, ढक्कन नाम का वो शख्स बैठा हुआ था जो तुम्हारे कत्ल के लिये तैनात किया गया था और मैंने उसे राय दी थी कौल नाम का सफेदपोश बाबू - जो कि अब में जानती हूं कि तुम हो - गुरबख्शलाल के भांजे का कातिल हो या न हो, ढक्कन उसे खत्म कर दे क्योंकि मुर्दे तो बोलते नहीं और यूं ढक्कन पचास हजार रुपये की रकम कमा लेता जिसे कि मुझे हासिल करने के लिये वो खुशी-खुशी मेरे ऊपर खर्च कर देता । उस घड़ी अपने नफे के लिये एक बेगुनाह के कत्ल हो जाने से भी मुझे कोई गुरेज नहीं था । कुछ समझे, जनाब ! कुछ समझे कि कैसी, किस हद तक बिकी हुई, किस हद तक गिरी हुई औरत हूं मैं ?”
“फिर भी तुमने गुरबख्शलाल से मेरी जान का सौदा नहीं किया ?”
“नहीं किया । सूझा तक नहीं । सच कह रही हूं । सूझता तो भी ऐसा कुछ न करती । क्यों न करती, इसकी वजह सच में ही मुझे नहीं मालूम ।” - वो एक क्षण ठिठकी, उसने अब तक विमल की ओर देखा और फिर बोली - “पता नहीं क्यों तुम्हारे एक इस शख्स के जिसकी परसों रात से पहले मैने शक्ल नहीं देखी थी - अनिष्ट की आशंका से मेरा दिल लरजता है । इतना ही नहीं मेरे अन्दर से ये ख्वाहिश पैदा होती है कि मैं तुम्हारी नजर उतारूं और किसी पीर-पैगम्बर के दरबार में जाकर तुम्हारी खैरियत के लिये मन्नत मांगूं ।”
उस घड़ी विमल ने मोनिका की आंखों में अनुराग और आसक्ति की ऐसी झलक देखी कि स्वयंमेव ही उसके मुंह से निकल गया - “मैं एक शादीशुदा आदमी हूं...”
“और चन्द ही दिनों में बाप बनने वाले हो ?”
विमल ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा ।
“मुझे मालूम है ।” - वो तनिक हंसी - “मिन्टो रोड वाले फ्लैट में तुम्हारी गर्भवती बीवी का भी जिक्र आया था । वैसे तो लूथरा के जरिये अपनी कामयाबी की उन्हें पूरी गारन्टी थी लेकिन फिर भी वो तुम्हारी गर्भवती बीवी को काबू में करके तुम तक पहुंचने की बाबत सोच रहे थे ।”
“आई सी ।”
“तुम कोई खास फिक्रमन्द नहीं मालूम होते इस बात से !”
“फिक्रमन्द तो बहुत हूं । बीवी की हिफाजत का बहुत पुख्ता सामान कर चुकने के बावजूद फिक्रमन्द हूं लेकिन अपने होते तो मैं उसे कुछ होने नहीं दूंगा । जान दे दूंगा लेकिन उसका बाल नहीं बांका होने दूंगा ।”
“बहुत खुशकिस्मत है तुम्हारी बीवी” - मोनिका आह भरकर बोली - “जिसे तुम्हारे जैसा निष्ठावान पति मिला, जिसे तुम्हारे जैसे शख्स के बच्चे की मां बनने का सौभाग्य मिल रहा है । बहुत खुशकिस्मत है वो । रश्क आता है मुझे उसकी खुशकिस्मती पर ।”
“ग्रहण भी तो लगा हुआ है उसकी खुशकिस्मती को । गुरबख्शलाल की सूरत में । मोनिका, मैं गुरबख्शलाल से हार गया तो अव्वल तो मेरे साथ-साथ मेरी बीवी भी खत्म हो जायेगी, बच गयी तो विधवा मरेगी, तो मेरा बच्चा पैदा होने से पहले अनाथ हो आयेगा, तो...”
मोनिका ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया ।
विमल खामोश हो गया ।
“ऐसा नहीं होगा ।”
“जबकि” - विमल हंसा - “अभी कल ही तुम मुझे गुरबख्शलाल के मुकाबले में मक्खी बता के हटी हो !”
“म-मेरा मतलब है, ऐसा नहीं होना चाहिये ।”
“नेक ख्वाहिशें करने से ही नेक काम नहीं हो जाते ।”
“वो तो है । लेकिन किसी ने मरना है तो पापी मरे, जालिम मरे...”
“ये भी नेक ख्वाहिश है ।”
वो चुप हो गयी ।
“देखो, एक बात तो तुम्हारी सच है और उसे मैं कल रात ही कबूल कर चुका हूं । सीधे-सीधे तो गुरबख्शलाल के करीब भी नहीं फटका जा सकता और रिमोट कन्ट्रोल से होने वाला ये काम नहीं । तुम... तुम उसके करीब हो, उसके साथ, उसके साथ...”
“शरीफ आदमी हो । लफ्ज तुम्हारी जुबान पर नहीं आ रहा इसलिये मैं कहे देती हूं... उसके साथ लेटती हूं, हमबिस्तर होती हूं... अब आगे बोलो ।”
“मेरा दिल कहता है कि तुम मुझे अपने बॉस तक पहुंचने की कोई तरकीब सुझा सकती हो । मोनिका, हकीकत ये ही है कि इसी उम्मीद से मैं कल तुम्हारे पास आया था और इसी उम्मीद से में आज यहां मौजूद हूं । अब इससे आगे और क्या कहूं मैं ।”
वो सोचने लगी ।
विमल चेहरे पर आशापूर्ण भाव लिये उसे देखता रहा और पाइप के कश लगाता रहा ।
“नया साल आ रहा है ।” - एकाएक वो बोली ।
“तो ?” - विमल तनिक हकबकाकर बोला ।
“गुरबख्शलाल हर न्यू ईयर ईव पर यानी कि हर इकतीस दिसम्बर की शाम को फरीदाबाद में स्थित अपनी कोठी में अपने हमपेशा दादा लोगों की दावत करता है । वो ऐसी अजीमोश्शान पार्टी होती है कि तीन दिन पहले से ही उसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं । मेहमानों की दिलजोई के लिये गुरबख्शलाल के तीनों ठिकानों से हसीनतरीन लड़कियां छांटकर उस पार्टी के लिये एडवांस में फरीदाबाद भेज दी जाती हैं ताकि वो पार्टी के इन्तजामात को भी अंजाम दे सकें । यूं छांटी हुई लड़कियों में से एक मैं भी हूं । और बाकी लड़कियों तो दिन-के-दिन वहां पहुंचेगी लेकिन मुझे और सीमा नाम की एक लड़की को तो कल ही वहां पहुंच जाने का हुक्म हो गया है ।”
“गुरबख्शलाल खुद कब पहुंचेगा वहां ?”
“इकतीस की शाम को ही । मेहमानों के साथ ।” - वो एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “इस बार एक बात और भी गौर करने लायक है ।”
“वो क्या ?” - विमल उत्सुक भाव से बोला ।
“अब से लेकर इकतीस की शाम तक वो फरीदाबाद नहीं जाने वाला ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“मैंने उसे कुशवाहा को साफ ऐसा कहते सुना था ।”
“यानी कि कल-परसों और मंगलवार की शाम तक तुम तो फरीदाबाद में अपने बास की कोठी में मौजूद होगी लेकिन वो वहां नहीं होगा ।”
“तुम तो ऐसे कह रहे हो” - वो उपहासपूर्ण स्वर में बोली - “जैसे मैं चुपचाप वहां का कोई खिड़की दरवाजा भीतर से खोलूंगी और तुम्हें भीतर घुसा लूंगी ।”
“ऐसा मुमकिन नहीं ?”
“कतई मुमकिन नहीं ।” - वो फौरन संजीदा हो गयी - “वो कोठी एक ऐसी जगह बनी हुई है जिसके आसपास दूर-दूर तक कोई इमारत नहीं और वहां अलार्म सिस्टम का कोई ऐसा इन्तजाम है कि कोठी की चारदीवारी के पास भी फटकने से भीतर अलार्म बजने लगते हैं । समझे कुछ ? ये नहीं कि कोई चारदीवारी तक पहुंचेगा, उसको फांदकर भीतर दाखिल होने की कोशिश में वहां छुपाकर लगाई गयी कोई तार छू बैठेगा या फिल्मी स्टाइल की किसी अदृश्य इलैक्ट्रॉनिक किरण का कोई रास्ता काट बैठेगा तो तब जाकर कोई अलार्म बजेगा । वहां कोई ऐसा स्पैशल लो करेन्ट अलार्म सिस्टम चलता है कि इंसानी जिस्म की हरकत से भी वो बजने लगता है ।”
“ऐसा इन्तजाम सारी चारदीवारी में है ?”
“हां ।”
“भीतर दाखिले का क्या इन्तजाम है ?”
“एक ही फाटक है चारदीवारी में जो हमेशा बन्द रखा जाता है ।”
“गार्ड वगैरह ?”
“दो गार्ड हैं । वीरसिंह और मांगेराम ।”
“सिर्फ दो ?”
“एक ग्रैगरी नाम का डॉग ट्रेनर भी है । ऐंग्लो इन्डियन है और प्रशिक्षण प्राप्त डॉग ट्रेनर है इसलिये समझता अपने आपको गार्ड्स से ऊपर है लेकिन है वो एक तरह से गार्ड ही ।”
“कुत्ता भी है वहां ?”
“एक नहीं दो-दो । दोनों ऐसे खतरनाक और खूंखार जैसे शेर का कलेजा फाड़ सकते हों । खासतौर से जर्मनी से मंगाये गये । छोटे-मोटे घोड़े जैसे तो कद-बुत्त लगते हैं उनके ।”
“बहुत बढा-चढाकर बयान कर रही हो कुत्तों को ।”
“देखोगे तो जानोगे । इतनी तो मेरी गारन्टी है कि आम आदमी तो उनकी सूरत देख के ही बेहोश हो जायेगा ।”
“कोठी बहुत बड़ी है ?”
“हां । चारमंजिली । एक बहुत बड़े प्लाट के बीचों-बीच बनी ।”
“दो गार्ड, एक डॉग-ट्रेनर और दो कुत्तों के अलावा और कौन होता है वहां ?”
“एक बहुत खास, बहुत पुराना, बहुत वफादार नौकर तीरथ है और एक मिसेज स्मिथ नाम की हाउसकीपर है ।”
“बस ?”
“हां ।”
“ड्राइवर कोई नहीं ?”
“उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती । उसके बाडीगार्डों का पूरा लावलश्कर उसे वहां छोड़ के जाता है और पूरा लावलश्कर ही लेने आता है । फिर भी कभी ड्राइवर की जरूरत पड़ जाये तो दोनों गार्डों में से कोई भी ड्राइवर की ड्यूटी को अंजाम देता है ।”
“गुरबख्शलाल को वहां पहुंचाने गया लावलश्कर कोठी में ही रहता है ?”
“नहीं । वो फरीदाबाद में ही गुरबख्शलाल की ही मिल्कियत एक और इमारत में डेरा जमाते हैं जहां से बवक्ते जरूरत उन्हें फोन करके तलब किया जाता है ।”
“यानी कि अहम मसला उस कोठी में दाखिल होना है ?”
“क्यों ? दो गार्डों, एक डॉग ट्रेनर और उसके दो कुत्तों से - खासतौर से उसके दो कुत्तों से - भिड़ना कोई अहम मसला नहीं ?”
“है लेकिन गार्ड, डॉग ट्रेनर और कुत्ते कोठी के भीतर तो नहीं जाते होंगे ?”
“वो तो है । वो तो चारदीवारी और कोठी के बीच के विशाल कम्पाउंड में रहते हैं । फाटक के करीब एक काटेजनुमा एक मंजिला इमारत है और कुत्ते, उनका ट्रेनर और गार्ड उसी में रहते हैं ।”
“कोठी में कभी जाते ही नहीं वो ?”
“जाते हैं । गुरबख्शलाल बुलाये तो जाते हैं लेकिन ऐसा अमूमन नहीं होता ।”
“कैसा नहीं होता ?”
“गुरबख्शलाल अमूमन उन्हें कोठी के भीतर नहीं बुलाता । कोई बात हो तो तीरथ को कहता है जो कि आगे उनसे करके आता है ।”
“गुरबख्शलाल की गैरहाजिरी में...”
“उसकी गैरहाजिरी में तो सबकी बहुत मनमानी चलती है । फिर तो वो चोरी-छुपे उन सुख-सुविधाओं को भी भोगते हैं जिनकी कि उनकी औकात नहीं । मसलन यही सुन लो कि गुरबख्शलाल की गैरहाजिरी में वो उसकी फ्रांस से आयी क्राकरी और कटलरी इस्तेमाल करके उसकी बादशाहों जैसी डायनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं ।”
“संपन्न लोगों के नौकर तबके में ये सब सारी दुनिया में चलता है ।”
“वो तो है ।”
“तुम कल किस वक्त जाओगी ।”
“दोपहर के करीब ।”
“कैसे ?”
“एक गाड़ी मिलेगी । लेकिन चलानी खुद पड़ेगी ।”
“अच्छा है । अच्छा है । साथ में वो दूसरी लड़की - सीमा नाम बताया था न ? - वो होगी ।”
“हां ।”
“गुरबख्शलाल की गैरहाजिरी में वहां से तुम्हारी आवाजाही पर कोई पाबन्दी तो नहीं होती ?”
“न । पाबन्दी न हो, इसीलिये तो पहली तारीख तक के लिये गाड़ी मिली है । पहली को सारी लड़कियों को भी मैं ढो के दिल्ली लाऊंगी ।”
“तुम ऐसी पार्टियों में कब से शरीक हो रही हो ?”
“तीन साल से ।”
“ऐसी पार्टी न्यू ईयर ईव पर ही होती है या और मौकों पर भी होती रहती है ?”
“और मौकों पर भी होती हैं लेकिन ऐसी जोरदार पार्टी जिसकी तैयारी तीन दिन पहले शुरू कर दी जाती हो, न्यू ईयर ईव पर ही होती है ।”
“पार्टी का दावतनामा जारी हो चुका है या अभी होता है ?”
“हो चुका है ।”
“किसी वजह से पार्टी कैंसिल हो सकती है ?”
“किस वजह से ?”
“किसी भी वजह से । मसलन उसका कोई करीबी रिश्तेदार मर जाये ?”
“उसका कोई करीबी रिश्तेदार है ही नहीं ।”
“उसका कोई बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा नुकसान हो जाये, मसलन न्यू ईयर ईव पर या उससे पहले लोटस क्लब या शहनशाह रेस्टोरेंट या डलहोजी बार या तीनों जलकर खाक हो जायें ?”
मोनिका ने अपलक उसे देखा ।
विमल तत्काल पाइप का कश लगाने में मशगूल हो गया ।
“क्या इरादे हैं ?” - मोनिका बोली ।
“कोई खास इरादे नहीं । महज एक सवाल किया है ।”
“तो जवाब ये है कि गुरबख्शलाल खुद ही मर जाये तो बात दूसरी है, वर्ना न्यू ईयर ईव की पार्टी कैंसिल नहीं हो सकती । गुरबख्शलाल ने अपने किसी नुकसान पर अफसोस करना होगा या धाड़ें मारकर रोना होगा तो वो ऐसा जो कुछ भी करेगा, पहली तारीख को अपने मुअज्जिज मेहमानों को रुखसत कर चुकने के बाद करेगा ।”
“ओह !”
“गुरबख्शलाल अपनी कमजोरी किसी पर, खासतौर से अपने प्रतिद्वन्द्वियों पर, जाहिर करने वाली किस्म का आदमी नहीं । ऐसे उसकी हेठी होगी और जिसकी हेठी हो जाती हो वो अन्डरवर्ल्ड का बेताज बादशाह बना नहीं रह सकता । इतने से ही उसके दुश्मन समझ जायेंगे कि वो कमजोर पड़ रहा है । फिर कमजोर पड़ गये शख्स को तो उसके दुश्मन कुत्तों की तरह भंभोड़ डालने की कसर नहीं छोड़ते ।”
“ठीक कह रही हो । फरौदाबाद से अच्छी तरह वाकिफ हो ?”
“हां ।
“कोई रहने लायक होटल बताओ ।”
उसने बताया ।
“कोठी में तुम्हें फोन किया जा सकता है ?”
“किया तो जा सकता है लेकिन पहले कभी ऐसे मेरा वहां फोन आया नहीं इसलिये कोई-न-कोई शक करेगा ।”
“तुम किसी को फोन करो तब भी ?”
“तब तो नहीं । क्योंकि मैंने तो वहां के इन्तजाम के सिलसिले में भी कई जगह फोन करने होंगें ।”
“फिर कोई प्राब्लम नहीं । अब सुनो । कल शाम सात बजे के करीब तुम हर हाल में होटल में मुझे फोन करना ।”
“तुम वहां होवोगे ?” 
“इरादा तो है । उम्मीद भी है । फिर भी न होऊं तो परसों शाम करना ।”
“ठीक है । लेकिन फोन पर कोई फसादी बात न हो !”
“नहीं होगी ।”
“और बोलो ।”
“मेरी तरफ से बस । तुम बोलो ।”
“मैं क्या बोलूं ?”
“शाम को कहां होगी ?”
“लोटस क्लब में । बार पर ।”
“जरूरत पड़ी तो मैं वहां फोन करूंगा ।”
“ठीक है ।”
“या खुद आऊंगा ।”
“ठीक है । जैसा तुम मुनासिब समझो ।”
“अब मैं चलता हूं ।” - विमल उठ खड़ा हुआ - “सहयोग का शुक्रिया ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर दरवाजे तक उसके साथ आयी । विमल जाने लगा तो उसने एकाएक विमल का हाथ थाम लिया ।
“मैं भगवान से तुम्हारी कामयाबी की प्रार्थना करूंगी । दिल से प्रार्थना करूंगी ।”
“फिर भला मैं नाकामयाब कैसे हो सकता हूं ! अपनों की ही दुआयें तो लगती हैं ।”
“अपनों की ।” - वो फुसफुसाईं ।
“हां ।” - विमल ने दूसरे हाथ से उसका अपने हाथ से लिपटा हाथ थपथपाया और फिर दोनों हाथ खींच लिए ।”
“वो वहां से विदा हो गया ।
तेरा अन्त न जाना मेरे साहिब - गली में आकर वो हौले से बोला - मैं अन्धुले क्या चतुराई !
***
लूथरा गोल मार्केट पहुंचा ।
विमल के फ्लैट का ताला उसने बदस्तूर बन्द पाया ।
वो कुछ क्षण सतर्कता से दायें-बायें देखता रहा, फिर उसने अपनी जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला और उसमें से वो चाबी छांटी जिससे उस फ्लैट का ताला वो पहले भी खोल चुका था ।
शनीचर तो चढा ही हुआ है - वो मन-ही-मन भुनभुनाया - थोड़ा और सही ।
खौफ उसे विमल के ऊपर से आ जाने का नहीं था - वो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, उलटे वो तो अगर यूं वहां पहुंच जाता तो वो खुश होता - उसे खौफ था कि उसे यूं फ्लैट का ताला खोलकर चोरों की तरह भीतर घुसते कोई पड़ोसी न देख ले ।
ताले में चाबी कामयाबी से फिर जाने के बाद उसने पहले बायें-दायें देखकर तसदीक की कि वो किसी का निगाहों का मरगज नहीं था और फिर हैंडल घुमाकर दरवाजा खोला । वो फुर्ती से भीतर दाखिल हुआ और उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
सबसे पहले उसने दो बातों की तसदीक की ।
फ्लैट वाकई खाली था ।
टेलीफोन चल रहा था ।
फिर उसने पहले बारीकी से ही सारे फ्लैट की तलाशी ली ।
तलाशी का जो नतीजा सामने आया, उससे लूथरा का पहले से ही लरजा दिल और लरज गया ।
किंचन के ऊंचे शैल्फ के मुश्त खाने में से मेकअप का ताम-झाम, कान्टेंक्ट लेंस, चश्मा वगैरह हर चीज गायब थी ।
वार्डरोब में से चमड़ामढा लाल ब्रीफकेस गायब था ।
ओवरकोट तक गायब था ।
और कौल और उसकी बीमार बीवी तो गायब थे ही ।
वो फ्लैट से बाहर निकल आया और उसने पूर्ववत् उसका ताला बन्द कर दिया ।
वो बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था कि चोट हो गयी थी लेकिन फिर भी अभी वो पूरी तरह से या उम्मीद नहीं हुआ था । कौल की बीवी रावत की लापरवाही से किसी और नर्सिंग होम में पहुंच गयी थी और उसे पूरी उम्मीद थी कि वो उस नर्सिंग होम का पता लगा सकता था । ऐसे नहीं तो वो डाक्टर मिसेज कुलकर्णी से जबरन कुबुलवा सकता था कि उसकी पेशेन्ट कहां थी । और जहां तक फ्लैट से गायब सामान का सवाल था, नष्ट कर दिये जाने की जगह वो केवल किसी सहूलियत की जगह पर स्थानान्तरित कर दिया गया हो सकता था । कौल उस सामान को अभी भी सम्भाले हुए था, इसी से सिद्ध होता था कि वो बेशकीमती था और नष्ट किए जाने के काबिल नहीं था ।
स्थानान्तरण के लिए सहूलियत की एक जगह उस कम्पलैक्स में ही मौजूद थी ।
सुमन वर्मा का, उसकी कथित प्रेमिका का फ्लैट ।
सीढियों के रास्ते वो एक मंजिल ऊपर पहुंचा ।  
उसने सुमन वर्मा के फ्लैट की कालबैल बजायी । कोई जवाब न मिला तो कुछ क्षण उसने कॉलबैल फिर बजाई और दरवाजे पर दस्तक भी दी ।
फिर भी कोई जवाब न मिला ।
बढिया ! लूथरा ने मन-ही-मन सोचा - जरूर वो ड्यूटी पर चली भी गयी हुई थी । ताला खोलकर भीतर घुसने का बढिया मौका था वो । कौल का गायबशुदा सामान वहां से बरामद हो जाने पर वो उस छोकरी को भी मजबूर कर सकता था कौल का पता बताने के लिए ।
शाम होने को आ रही थी, सुबह से उस पर चढा शनीचर शायद अब उतर रहा था ।
उसने ताला खोलने की कोशिश की तो वो सकपकाया ।
पहली बार जो ताला कौल के ताले से भी ज्यादा आसानी से खुल गया था, वो अब टस से मस नहीं हो रहा था ।
फिर भी उसने कोशिश जारी रखी ।
“ये क्या कर रहे हो ?”
लूथरा ने चिहुंककर सिर उठाया ।
उसे अपने सामने सब्जी की टोकरी हाथ में लिए सुमन वर्मा खड़ी दिखाई दी । पता नहीं कैसे दबे पांव वो वहां पहुंची थी कि उसे उसके आगमन की जरा भी आहट नहीं मिली थी ।
लूथरा खिसियाता-सा हंसा, उसने चांबी की ताले से खींचने कोशिश की तो वो कहीं अटक गयी ।
“राव साहब !” - सुमन एकाएक जोर-जोर से चिल्लाने लगी - “गुप्ता जी ! प्रेरणा आंटी !”
उस फ्लोर के बाकी के तीन फ्लैटों के दरवाजे पटाक-पटाक खुले और कई लोग बाहर निकल आयें ।
“राव साहब ! गुप्ताजी ! जरा देखिये इस आदमी को ! पुलिस आफिसर है, फिर भी चोरों की तरह मेरे फ्लैट का ताला खोलने की कोशिश कर रहा है ।”
सबने बौखलाये लूथरा को ताले के छेद से चाबी खींचकर अपना चाबियों का गुच्छा अपनी वर्दी के जेब के हवाले करते देखा ।
“ये क्या कर रहे हैं आप ?” - एक बुजुर्ग आगे बढकर बोला ।
“मिस्टर गुप्ता” - एक और मद्रासी बुजुर्गवार बोला - “आई थिंक आई विल गो एण्ड डायल हन्ड्रड । ही कैन नॉट बी ए रीयल पुलिसमैन । ही मस्ट बी एन इम्पोस्टर ।” 
“हां ।” - एक औरत बोली - “यही बात है । पुलिस की वर्दी में कोई बहुरूपिया है ये । अभी दो हफ्ते पहले यहां इतनी बड़ी वारदात होके हटी है । इसे गिरफ्तार करवाना चाहिये । मिस्टर राव, आप पुलिस को फोन कीजिये ।”
मद्रासी बुजुर्गवार तत्काल उस खुले दरवाजे की ओर बढे जिसमें से वो बाहर निकले थे ।
“आओ भाइयो !” - गुप्ता जी बोले - “पकड़ो इसे ।”
लूथरा के प्राण कांप गए । शनीचर उतरा नहीं था, और मजबूती से सवार हो गया था । वहां पकड़े जाना उसकी बहुत दुर्गति करा सकता था ।
उस घड़ी उसे एक ही बात सूझी ।
वो जान छोड़कर भागा ।
“चोर ! चोर !” - पीछे शोर मचा - “पकड़ो ! पकड़ो !”
बगूले की तरह आठ मंजिलों की सीढियां तय करके वो नीचे पहुंचा ।
लॉबी में उसे चौकीदार रामसेवक लाठी ताने दिखाई दिया ।
“चोर अभी भीतर ही कहीं है ।” - उसके मुंह खोल पाने से पहले ही लूथरा बोल पड़ा - “मेरे पीछे शटर बन्द कर दे । मैं थाने से फार्स बुलाके लाता हूं ।”
रामसेवक को सहमति में सिर हिलाता छोड़कर लूथरा बाहर खड़ी अपनी मोटर साइकल पर सवार हुआ और फिर मोटर साइकिल पर यह जा वह जा ।
***
वो जामामस्जिद के करीब कमरा बंगश के इलाके में स्थित एक चाय की दुकान थी जिसके नीम अन्धेरे पृष्ठ भाग में एक मैली कुचैली मेज पर एक मैले कुचैले नौजवान के साथ बैठा जैदी मैली कुचैली चाय पी रहा था । वैसी ही चाय वो नौजवान पी रहा था लेकिन वो चाय को मजे ले-लेकर पी रहा था जबकि जैदी चाय यूं पी रहा था जैसे जहर मार कर रहा हो ।
नौजवान जो कि मुश्किल से तेईस या चौबीस साल का था, अब्दुल रहमान के नाम से जाना जाता था । वो एक घिसी हुई जीन, हाईनेक का पुलोवर और चमड़े की जीन जैसी ही घिसी हुई और बदरंग जैकेट पहने था, उसके चेहरे पर तीन-चार दिन की दाढी थी और वो बीड़ी पी रहा था ।
बड़ी विस्तृत पूछताछ के बाद जैदी उस तक पहुंचा था और वो इस बात की पक्की तसदीक कर चुका था कि वो कथित धोबियों की टीम का एक धोबी था । धोबियों का मुकाबला करने के लिये कमला नगर, वीरेन्द्र दुआ के रेस्टोरेन्ट में उसके बॉस गुरबख्शलाल ने जो आदमी वेटरों की सूरत में वहां तैनात किए थे लेकिन जिन्होंने धोबियों के वहां पहुंचते ही आत्म-समर्पण कर दिया था, जैदी ने उनमें से एक को अब्दुल रहमान की शक्ल दिखाई थी और उसने निसंकोच उसे धोबियों की संहारक टीम के एक धोबी के रूप में पहचाना था ।
अब जैदी उसे बरगलाने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था और उसे लग रहा था कि कामयाब हो रहा था । वो कम-से-कम उससे इतना कुबुलवा चुका था कि देवनगर, कमला नगर, निजामुद्दीन और पहाड़गंज में धोबियों द्वारा की गयी हर मारामारी में वो शामिल था और उसे उजरत के तौर पर कोई दस हजार रुपये भी मिले थे ।
“तू तो यार” - जैदी बोला - “झल्ली वालों वाली उजरत पर मारामारी का काम कर रहा है । दस हजार रुपल्ली कोई उजरत हुई ?”
“कम है ?” - रहमान बड़ी मासूमियत से बोला ।
“कम है, मियां, बहुत कम है । तेरे जैसा जियाला और कड़यल नौजवान, जो दीवार में ठोकर मारे तो उसमें खप्पा कर दे, सांड के माथे में घूंसा मारे तो सांड चित्त हो जाय, दस हजार रुपल्ली पर, चिड़िया के चुग्गे पर, अपनी जान बढाता रहा ! कमाल है, भई ।”
रहमान चुप रहा ।
“लाल साहब को जानता है ?”
“नाम सुना है ।”
“लाल साहब वो बड़ा साहब है जिसकी हिफाजत में वो तमाम ठीये चलते थे जिन पर तुम लोगों ने हल्ला बोला ।”
“अच्छा !”
“लो ! इतना हाहाकार मचा दिया और ये भी नहीं मालूम कि किसका नुकसान किया !”
“अल्लाह कसम, नहीं मालूम । हमने तो पूछा ही नहीं । हमने क्या लेना था पूछ के ?”
“बहरहाल अब जान ले कि तुम लोगों को लाल साहब से भिड़ाया गया था । लाल साहब से बैर मोल लिया तुम ने ।”
“मालूम तो नहीं था लेकिन अब ले लिया तो ले लिया । लाल साहब तो क्या, डरता तो मैं शैतान से नहीं ।”
जैदी सकपकाया । क्षण भर को उसके चेहरे पर कहर के भाव पैदा हुए और यूं लगा जैसे वो रहमान पर झपट पड़ने का इरादा रखता हो लेकिन फिर फौरन ही उसने अपने आप पर काबू पा लिया और पूर्ववत् चिकने-चुपड़े स्वर में बोला - “ऐसी ही दिलेरी के कद्रदान हैं, लाल साहब जो कुछ तूने उनके खिलाफ किया, उनके लिये करता तो जानता है तुझे कितना नावां मिलता ।”
“कितना मिलता ?”
“कम-से-कम नहीं तो पचास हजार रुपया ।”
रहमान के नेत्र फैले । वो हक्का-बक्का-सा जैदी का मुंह देखने लगा ।
फंसा साला ! - जैदी मन-ही-मन बोला । प्रत्यक्षत: वो बोला - “कम-से-कम कहा मैंने ।”
“यानी कि तीन लाख रुपया ।” - रहमान पूर्ववत् नेत्र फैलाये बोला ।
“मतलब ?”
“जनाब हम छ: जने हैं जो उस टोली में शामिल हैं ।”
“हद हो गयी, भई । अरे दफा करो ऐसे अल्लामारे धोबियों को जो तुम लोगों को झल्ली वालों की तरह उजरत देते हैं ।”
“दफा करें तो क्या करें ?”
“लाल साहब के लिए काम करो और क्या करो ?”
“क्या काम करें ?”
“यहां जो कर रहे हो ।”
“अब तो बकौल आपके लाल साहब के खिलाफ कर रहे हैं फिर किसके खिलाफ करना होगा ?”
“लाल साहब के दुश्मनों के खिलाफ ।”
“वो कौन हुए ?”
“जो कोई भी हों । मसलन ये धोबी ही ।”
“हूं ।”
“हैं कौन ये धोबी ?”
“मालूम नहीं ।”
“सरगना कौन है इनका ?”
“है कोई खुदा का बन्दा ।”
“नाम तो मालूम होगा ?”
“नहीं मालूम ।”
“वास्ता कैसे पड़ गया ?”
“बस, इत्तफाक से । राह चलते । जैसे इस वक्त आप यहां मेरे साथ बैठे हैं, वैसे चन्द रोज पहले में यहीं अपने बिरादरान के साथ बैठा हुआ था कि एक लम्बा-चौड़ा, दाढी वाला, चांटियल खोपड़ी वाला अपना जातभाई आया, साथ में उसके दो लड़के थे जो तिराहा नैरम खान से हमारी पहचान के थे, कुछ गुफ्तगू हुई, कुछ पेशकश हुई कि बस, हो गये तैयार हम ।”
“दस-हजार की एवज में ?”
“अरे, तब नावें पत्ते की तो कोई बात ही नहीं हुई थी । हमने नावें के लिये हामी थोड़े ही भरी थी ! हमें तो वो एक सबाब का काम लगा था, तो हमने हामी भर दी ।”
“कमाल है ।”
“अपनी औकात की माली शिनाख्त तो मुझे अब आपके कराये हो रही है ।”
“देख, तू भलामानस है । नेकबख्त बन्दा है । यारी-दोस्ती का कुछ ज्यादा ही जज्बा है तेरे अन्दर इसलिये तूने झट हामी भर दी । तू बात की गहराई में न गया । लेकिन तू चाहता तो मालूम तो कर सकता था कि धोबियों का सरगना कौन था !”
“वो तो है । मैं जिद पकड़ सकता था कि मैं और मेरे साथी पहले सारा किस्सा जानेंगे और फिर हां भरेंगे ।”
“बिल्कुल ! अब जैसे पहले मालूम कर सकता था, वैसे अब चाहे तो अब मालूम कर सकता है । नहीं ?”
“हां ।”
“मामूली काम है तेरे लिये ?”
“हां । खुदा के फजल से है तो मामूली काम ही ।”
“और तू लाल साहब के लिये काम करने का भी अब ख्वाहिशमन्द है ?”
“हां ।”
“तेरे जोड़ीदार ?”
“वो मेरे साथी हैं । वो वही करेंगे जो मैं करूंगा ।”
“फिर तो समझ ले कि तेरी जिन्दगी बन गयी ।”
“यही तो मैं चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“यही कि मेरी जिन्दगी बन जाये । वो अपना दाउद इब्राहीम भी तो मामूली आदमी था । मेरे जैसा । लेकिन कहां-का-कहां पहुंच गया ?”
देखो तो साले को ! - जैदी मन-ही-मन दांत पीसता हुआ बोला - कहां के सपने ले रहा है । एक ही छलांग में टॉप पर पहुंचना चाहता है !
“बिल्कुल !” - प्रत्यक्षत: वो बोला - “शुरूआत में हर कोई मामूली आदमी ही होता है । कोई मां के हमल से ही बड़ा बन के थोड़े ही निकलता है !”
“वो ही तो ।”
“मंजिल की बुलन्द‍ियों की तरफ पहुंचाने वाले रास्ते होते हैं जो कभी खुल जाते हैं तो कभी खोलने पड़ते हैं । अब तुम देख ही रहे हो कि तुम्हारी बुलन्द मंजिल का रास्ता खोलने के लिये मैं आ गया तुम्हारी जिन्दगी में ।”
“मैं मशकूर हूं आपका । अब बोलो करना क्या होगा ?”
“भई मियां, सबसे पहले तो उन धोबियों की सोहबत से ही किनारा करना होगा ।”
“फिर ?” - रहमान जोश से बोला ।
“फिर लाल साहब से अपनी वफादारी का अहद लेना होगा ।”
“फिर ?”
“फिर धोबियों को और उसके सरगना को - खासतौर से उसके सरगना को नेस्तनाबूद करने में हमारी मदद करनी होगी ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ! फिर किस्सा खत्म । फिर समझ लेना तुमने अपनी मंजिल पा ली । समझ लेना कि जिन्दगी बच गयी तुम्हारी । मालामाल हो जाओगे, साहबजादे !”
“वो तो मैं होना चाहता हूं । मालामाल !” - रहमान एक क्षण यूं खामोश हुआ जैसे अपनी आइन्दा मालामाल जिन्दगी का अक्स अपने जेहन पर उतारने की कोशिश कर रहा हो और फिर बोला - “जनाब, खाका तो उम्दा खींच दिया आप ने अब इसमें कोई रंग भी तो भरिये ।”
“रंग भी भर जायेंगे ।”
“कोई फौरी रंग भी तो भरिये ।”
“मतलब ?”
“मतलब ये ।” - और अहमद ने अपने दांये हाथ की उंगली और अंगूठे से यूं हरकत की जैसे कोई सिक्का उछाल रहा हो ।
“ओह !” - जैदी बो - “तो कोई एडवांस चाहते हो !”
“मिल जाये तो क्या बुराई है ? मुझे भी और मेरे बिरादरान को भी ।”
“तुम्हारे बिरादरान को भी ?”
“मुझे मिला के कुल जमा छ: जने हुए ।”
“हूं ?”
“कोई नावां-पत्ता मिल जायेगा तो हमें तसल्ली हो जायेगी कि किसी किस्सागो से ही सदका नहीं पड़ गया ।”
“लड़के” - जैदी सख्ती से बोला - “मैं तुझे किस्सागो लगता हूं ?”
“लगते तो नहीं हो ।” - अहमद बेधड़क बोला - “लेकिन आपके माथे पर कोई लेबल भी तो नहीं चस्पां जिस पर ये लिखा मैं पढ सकूं कि आप लाल साह‍ब के खासुलखास हैं ।”
“क्या चाहता है ?”
“नावां ।”
“वो तो हुआ लेकिन कितना ?”
“इतना तो यकीनन नहीं चाहता जितने को आप झल्ली वाले की उजरत या चिड़िया का चुग्गा बोलते हैं । कोई इज्जतदार रकम तो होनी ही चाहिये । नहीं ?”
“वो भी तू ही बोल ।”
“बीस हजार ।”
“मंजूर ।” - जैदी तत्काल बोला ।
“फी बन्दा ।”
जैदी के नेत्र सिकुड़े । उसने अपलक अहमद की ओर देखा लेकिन अहमद उस पड़ी निर्विकार भाव से अपनी तब तक बुझ चुकी बीड़ी सुलगाने में मशगूल था ।
“बरखुरदार ।” - जैदी भुनभुनाया - “उतना सीधा तो नहीं तू जितना कि सूरत से दिखाई देता है ।”
“जनाब” - अहमद बड़े मधुर भाव से मुस्कराया - “हमारे बीच कोई बात न बनी तो चाय के पैसे मैं दूंगा ।”
“इतनी रकम कोई साथ थोड़े ही लिये फिरता है !”
“अरे, परवेज भाई” - अहमद उच्च स्वर में बोला - “ये चाय के पैसे मेरे नाम में जोड़ना ।”
“ठीक है ।” - दुकान के दरवाजे के करीब भट्टी पर से आवाज आयी ।
“तो मैं” - अहमद ने उठने का उपक्रम किया - “चलूं ?”
“बैठ, बैठ ।” - जैदी बोला ।
अहमद ने अपना शरीर वापिस कुर्सी पर ढीलां छोड़ दिया ।
“नावां मिल जायेगा तुझे ।”
“बढिया !”
“मेरे साथ चल । अभी दिलाता हूं ।”
“कहां से ?”
“लाल साहब के पास से ।”
अहमद ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” - जैदी बोला - “क्या हुआ ?”
“एडवांस तो यहीं दिलाओ, जनाब । बाद में जहां कहोगे, चलेंगे ।”
“डरता है ?”
“आदमजात से नहीं डरता । उसकी फितरत से डरता हूं । उसके धोखे से डरता हूं ।”
“तेरे साथ कोई धोखा नहीं होगा । मैं गारन्टी करता हूं ।”
“अभी आपकी गारन्टी तो हो जाये, जनाब ।”
“मेरी गारन्टी ! मेरी गारन्टी कैसे होगी ?”
“एडवांस हाथ आने से ।”
“अभी तो कह रहा था कि सबाब के लिये काम किया ! अब पैसे का इतना लालच कर रहा है ?”
“आप ही ने कराया, जनाब । मैंने तो सिर्फ इतना किया कि जो सबक आपने दिया, उस पर फौरन अमल किया । आपने सपना दिखाया, मैंने देख लिया । अब आगे अपने बिरादरान को दिखा दूंगा ।”
“सयाना आदमी है । काबिल शागिर्द है । मतलब का सबक बहुत जल्दी सीखता है ।”
अहमद ने हंसकर दिखाया ।
“ठीक है । मैं नावां ले के आता हूं । एक घन्टे में लौटूंगा । यहीं मिलना ।”
अहमद ने इनकार में सिर हिलाया ।
“अब क्या हुआ ?”
“यहां नहीं ।”
“क्यों ?”
“मैं अपने बिरादरान के साथ आपको यहां मिला तो बात किसी-न-किसी को खटक जायेगी । तिराहा बैरम खां यहां से है ही कितनी दूर ! ये सामने का एक ही तो रास्ता है वहां तक जाने का ! हमारे जमघट्टे पर किसी आते-जाते की निगाह पड़ गयी तो कोई कुछ भी मतलब निकल लेगा । समझे, जनाब ?”
“अभी अपने साथियों को यहां बुलाने की कोई जरूरत नहीं ।”
“मैं भी तो दोबारा यहां आपके साथ नहीं देखा जाना चाहता ।”
“तो ?”
“आना जब मर्जी लेकिन यहां नहीं ।”
“तो फिर कहां ?”
“लालकिले की खाई के साथ की सड़क पर । मस्ज‍िद के पीछे ।” - उसने जैदी की घड़ी वाली कलाई थामकर घड़ी का रुख अपनी तरफ किया और फिर बोला - “सात बजे ।”
“ठीक है ।”
“मैं अकेला आऊंगा । जैसा कि आप चाहते हैं । आप भले ही जितने मर्जी आदमी साथ ले आइयेगा ।”
“मैं जितने मर्जी आदमी साथ ले के आऊं ! क्या मतलब ?”
“ऐसा मैंने ये जताने के लिये कहा कि मुझे कोई एतराज नहीं है । वो तनहा जगह है । सात बजे तक खूब अन्धेरा भी हो जायेगा । सोचा तब शायद आप ।”
“लाहौल विला कूवत ! अबे छोकरे, तू क्या मुझे गीदड़ समझता है ?”
“नहीं, नहीं । मैं भला आपको गीदड़ क्यों समझूंगा ! गीदड़ की शागिर्दी किस काम की ! और गीदड़ का शागिर्द आपके लाल साहब के किस काम का !”
“ठीक है तो फिर ।” - जैदी उठ खड़ा हुआ - “सात बजे ।”
“जी हां । सात बजे । खुदा हाफिज ।”
“खुदा हाफिज !”
***
लूथरा अपने थाने के कम्पाउन्ड में स्टैण्ड पर मोटर साइकल खड़ी कर रहा था जबकि रतनसिंह भीतर से निकला । लूथरा को देखकर वो ठिठका । फिर उसके चेहरे पर बड़े सख्त भाव आये और वो लगभग जमीन रौंदता हुआ लूथरा के करीब पहुंचा ।
लूथरा ने हड़बड़ाकर उसकी तरफ देखा ।
“कहां चले गये थे ?” - रतनसिंह क्रोधित स्वर में बोला ।
“कहां चला गया था !” - लूथरा हड़बड़ाया-सा बोला - “कहीं भी चला गया था ! आपको क्या ?”
“तुम सस्पेंड हो ।”
“मालूम है । तभी तो कहा कि कहीं भी चला गया था, आपको क्या !”
“तुम्हें फौरन अपना चार्ज मुझे देने का हुक्म हुआ था । चार्ज दे के क्यों नहीं गये ?”
“नहीं गया तो क्या आफत आ गयी ? मेरे पास कौन-सी मालखाने की चाबी है !”
“ये हुक्मउदूली है ।”
“तो फांसी लगा दो मुझे !” - लूथरा यूं गला फाड़कर चिल्लाया कि कम्पाउन्ड में मौजूद सारे पुलसिये उधर देखने लगे ।
“चिल्लाता क्यों है ?” - रतनसिंह दबे स्वर में बोला ।
“तो और क्या करूं ? आप मेरे साथ नाइ्ंसाफी से पेश आयें, मैं चिल्लाऊं भी नहीं !”
“मैं सिर्फ अपनी ड्यूटी बजा रहा हूं । तुझे चार्ज देकर जाना चाहिये था ।”
“चार्ज भागा नहीं जा रहा ।”
“जब ए सी पी कहता है कि चार्ज फौरन देना है तो...”
“ए सी पी की मां की...”
रतनसिंह हकबकाया । उसने नोट किया कि लूथरा के गाली बकते ही थाने के प्रवेश द्वार पर खड़ा एक सिपाही थाने के भीतर की ओर लपक पड़ा था ।
“लूथरा” - रतनसिंह बड़ी संजीदगी से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “तेरी खैर नहीं ।”
“क्यों ? अब क्या हुआ ?”
“जो मां की गाली तूने अभी ए सी पी को बकी है समझ ले कि उस तक पहुंच भी गयी ।”
“क्या !” - लूथरा जैसे आसमान से गिरा - “वो अभी थाने में हैं ?”
“हां ।”
“सुबह से गया नहीं ?”
“नहीं ।”
“ओह !”
“अभी और सुन । हनुमान रोड पर महाजन नर्सिंग होम में जो उत्पात तू मचा के आया है, उसकी खबर ए सी पी तक पहुंच चुकी है । गोल मार्केट में कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स में भी तूने जो उत्पात मचाया है उसकी खबर भी ए सी पी तक पहुंच चुकी है । लूथरा ! क्या हो गया है तुझे ? क्यों तू एकाएक अपना ही दुश्मन बन बैठा है ? इतनी धांधली इतनी दीदादिलेरी कहीं चलती है ! ऊपर से कोई वजह भी, नहीं ! वजह हो भी तो तू सस्पेंड है, तेरा यूं कहीं जाना बनता नहीं । तू तो खामखाह जानबूझकर औखले में सिर दे रहा है और कह रहा है कि मारो मुझे, मारो मुझे, बरसाओ मुसल मेरे ऊपर ! तू पागल तो नहीं हो गया ! दिमाग तो नहीं हिल गया तेरा !”
“सर” - लूथरा ने अपना माथा थाम लिया और बड़े कातर भाव से बोला - “ऐसा कुछ हो गया लगता है । पागल ही हो गया हूं मैं । दिमाग ही हिल गया है मेरा ।”
“अब भी संभाल अपने आपको ।”
“सर, आप मेरी मदद करो न ?”
“मैं तेरी हरचन्द मदद करूंगा लेकिन पहले तू आदमी तो बन ।”
लूथरा खामोश रहा ।
“अब ए सी पी के पास जा । वो तेरे ही इन्तजार में बैठा है ।”
“मेरे इन्तजार में क्यों ?” - लूथरा सकपकाया - “क्योंकि मैं आप को फार्मल चार्ज दिए बिना यहां से चला गया ?”
“वो बात नहीं है । वो तो तेरी खातिर मैं झूठ बोल दूंगा कि तू चार्ज देकर गया था ।”
“तो और क्या बात है ?”
“मुझे मालूम नहीं । जा के मिल और पता कर । मैं तो खुद अपने किसी बुरे अंजाम से थर्राया हुआ हूं, इसलिए मेरी तो सुबह से ही उसके सामने पड़ने की हिम्म‍त नहीं हो रही, वर्ना मैं ही कुछ पूछता । अब जा ।”
लूथरा ने सहमति मे सिर हिलाया । उसने आगे कदम बढाया ।
“और सुन ।”
लूथरा ठिठका ।
“मेरे सामने तेरा गर्जना बरसना कोई मायने नहीं रखता । मेरी बात और है । और फिर तेरे मेरे में कोई फर्क भी नहीं । लेकिन वो ए सी पी है, सीधा ए सी पी भर्ती हुआ आई पी एस आफिसर है उसके साथ बदतमीजी से पेश आयेगा तो बहुत पछतायेगा । ये बातें तुझे समझाने की जरूरत नहीं । तू खुद ही समझता है लेकिन भूल गया मालूम होता है, इसलिये समझा रहा हूं । अब कुछ समझ रहा है कि नहीं ?”
“समझ रहा हूं ।”
“शुक्र है । जो समझ रहा है, उस पर अमल भी करना । अब जा ।”
भारी कदमों से चलता हुआ लूथरा थाने में दाखिल हुआ और ए सी पी के हुजूर में पेश हुआ ।
युवा ए सी पी ने बड़े भावहीन ढंग से उसकी तरफ देखा और फिल बोला - “बैठो ।”
“थैंक्यू, सर ।” - लूथड़ा बड़े अदब से बोला और फिर यूं सम्भलकर एक कुर्सी पर बैठा जैसे उसके उल्टे-सीधे करवट बदलने से वो टूट सकती हो । फिर वो खामखाह बोला - “आपने मुझे याद किया सर !”
“हां ।” - ए सी पी अपलक उसे देखता हुआ बोला - “सुबह तुम जानना चाहते थे न कि तुम्हारे पास सहजपाल का कत्ल कराने का उद्देश्य क्या था ?”
“ज... जी... जी हां ।”
“मुझे खुशी है कि अब वो उद्देश्य मैं तुम्हें बता सकता हूं ।”
“जी !”
“अलबत्ता ऐसी कोई बात मैं तुम्हें नहीं बता सकता जो तुम्हें पहले से नहीं मालूम ।”
“सर, मैं कुछ समझा नहीं ।”
“अभी समझ जाओगे ।” - ए एस पी ने आपस में नत्थी किये हुए दो तीन फुलस्केप कागज उसके सामने डाल दिए - “ये लेखराज मूंदड़ा के इकबालिया बयान की फोटो कापी है । इसे पढो ।”
लरजते दिल से लूथरा ने कागज उठाये और उन्हें पढना आरम्भ किया । ज्यों-ज्यों वो बयान पढता गया, उसका चेहरा फक होता गया ।
“ये... ये” - आखिरकार वो कांपते स्वर में बोला - “ये...”
“लेखराज मूंदड़ा का इकबालिया बयान है जो कि खुद एन सी बी के चीफ की मौजूदगी में रिकार्ड किया गया था । मूंदड़ा ने अपनी जुबानी ये इकबाल किया है कि नारकाटिक्स स्मगलिंग में तुम उसके सहयोगी थे और हमेशा उसे कवर करके रखते थे । यही वजह थी कि बावजूद इसके कि तुम्हें खास उसके पीछे लगाया गया था लेकिन फिर भी तुमने जानबूझकर कभी उस पर हाथ डालने की कोशिश न की । अपनी रिपोर्ट में हमेशा तुमने अपने ऐसे ही गोलमोल जवाब दर्ज किये कि या तो वो अपेक्षित जगह पर पहुंचता नहीं या तुम्हारे पहुंचने से पहले वो वहां से जा चुका होता था । सब-इन्स्पेक्टर लूथरा, तुम्हारे बोले ऐसे एक झूठ की तसदीक भी हो चुकी है ।”
“तसदीक हो चुकी है ?” - लूथरा अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । याद करो, बृहस्पतिवार उन्नीस दिसम्बर की रात को तुम लेखराज मूंदड़ा की ही घात में एम्बैसेडर होटल के सामने थाने की एक जिप्सी वैन के साथ मौजूद थे । बाद में तुमने अपने एस एच ओ को रिपोर्ट दी थी कि मूंदड़ा की बाबत अपने खबरी से हासिल तुम्हारी टिप सही नहीं निकली थी और ये कि मूंदड़ा एम्बैसेडर होटल पहुंचा ही नहीं था सब-इन्स्पेक्टर लूथरा, तुम्हारा ये झूठ पकड़ा जा चुका है । अब ये साबित हो चुका है कि उस रोज एम्बैसेडर में तुम्हारी मूंदड़ा से मुलाकात हुई थी ।”
“बिल्कुल झूठ !”
“मूंदड़ा ने खुद कबूल किया है कि उस रात तुम उससे मिले थे ।”
“कहां ?”
“एम्बैसेडर होटल में ही ।”
“होटल के भीतर ?”
“हां । मूंदड़ा के कमरे में ।”
“झूठ ! मैं क्या जिप्सी वैन के साथ वहां अकेला था ? मेरे साथ चार जनों का क्यू था । जिसमें से एक हवलदार और दो सिपाहियों को मूंदड़ा की ताक में होटल के सामने छोड़कर मैं ड्राइवर कर्मचन्द के साथ एक और केस की तफ्तीश में लोधी गार्डन चला गया था ।”
“बिल्कुल ठीक । और यूं अपने चार सहकर्मियों की जगह सिर्फ एक से - ड्राइवर कर्मचन्द से - पीछा छुड़ाना तुम्हारे लिये बाकी रह गया था । और एक आदमी से थोड़ी देर के लिए पीछा छुड़ा लेना तुम्हारे जैसे” - ए सी पी के चेहरे पर तिस्कार के गहन भाव आये - “शख्स के लिये क्या बड़ी बात थी !”
“लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया था । कर्मचन्द हर घड़ी मेरे साथ था ।”
“तुम झूठ बोलते हो । वो हर घड़ी तुम्हारे साथ नहीं था । वो हर घड़ी तुम्हारे साथ हो ही नहीं सकता था । वो जीप छोड़ कर नहीं जा सकता था । क्योंकि पीछे रेडियो सन्देश सुनने के लिए भी कोई होना चाहिए था । तुम थोड़ी देर के लिए उससे पीछा छुड़ाकर चुपचाप होटल एम्बैसेडर में घुसे थे और मूंदड़ा से मिले थे । मूंदड़ा खुद उस मुलाकात का जामिन है । अपने इकबालिया बयान में उसने ऐसा साफ कहा है ।”
“झूठ कहा है ।”
“क्या ये भी झूठ कहा है कि तुमने जो कि उसकी हिरासत में लेने के लिए मौजूद थे - खुद जाके उसे खतरे में आगाह किया था और उसके वहां से चुपचाप खिसक जाने का सामान किया था ? तुमने ये इन्तजाम तक किया था कि अगर वो फिर भी पकड़ा जाता तो उसके पास से आपत्त‍िजनक कुछ भी बरामद न होता ।”
“मैं... मैंने क-क्या किया था ?”
“नारकाटिक्स का जो स्टाक उस रात उसके पास था, वो तुमने अपने अधिकार में ले लिया था और यूं एक पुलिस आफिसर होते हुए एक नारटाटिक्स स्मगलर के कूरियर का रोल अदा किया था ।”
अविश्वास और आतंक से लूथरा के नेत्र फट पड़े ।
“तुम्हारा मूंदड़ा से गंठजोड़ था ।” - ए सी पी ने तपते लोहे पर चोट की - “और ये ही वो बात थी जो तुम्हारे बाद मूंदड़ा के पीछे लगाये गये ए एस आई सहजपाल को किसी तरह मालूम हो गयी थी । वो तुम्हारी पोल खोलने पर आमादा था इसलिये तुमने लतीफ अहमद उर्फ लट्टू से उसका कत्ल करवा दिया । फिर लट्टू का मुंह बन्द करने के लिये तुमने उसे और उसके साथी पूरनसिंह उर्फ फौजी की उग्रवादी बताकर एक फर्जी मुठभेड़ का निशाना बना डाला ।”
“ये बिल्कुल झूठ है !” - लूथरा चिल्लाया - “बकवास है, सौ फीसदी गढी हुई कहानी है । ये मेरे साथ एक बहुत बड़ा धोखा है जो कि पता नहीं मुझे क्यों दिया जा रहा है ?”
“मूंदड़ा का ये इकबालिया बयान भी धोखा है ?”
“हां । ये मेरे खिलाफ सबसे बड़ा झूठ है । मुझे कतई यकीन नहीं कि मूंदड़ा ने ऐसा कोई बयान दिया है ।”
“यकीन दिला दिया जाएगा ।”
“क-कैसे ?”
“मूंदड़ा से तुम्हारा आमना-सामना कराके ।”
“उसकी मजाल नहीं हो सकती वो बातें कहने की जो आप इन कागजों के जरिये साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि उसने मेरे खिलाफ कहीं हैं ।”
“क्यों मजाल नहीं हो सकती ! ऐसा ही डराया-धमकाया हुआ है तुमने उसे कि वो तुम्हारे सामने अपनी जुबान नहीं खोल पायेगा ?”
“वो बात नहीं ।”
“तो और क्या बात है ?”
“और बात ये है कि ये बयान झूठा है, मुझे खराब करने के लिए गढा हुआ है । जब मैं सामने होऊंगा तो मुझे यकीन है कि वो ऐसा सफेद झूठ अपनी जुबान पर नहीं ला पायेगा ।”
“देखेंगे ?”
“कब देखेंगे ? आप अभी कराइये मेरा मूंदड़ा से आमना-सामना ताकि मैं...”
“अभी नहीं ।”
“क्यों अभी नहीं ?”
“क्योंकि अभी मुझे किसी और रपट का, किसी और नतीजे का इन्तजार है ।”
“और नतीजा !”
“सब-इंस्पेक्टर लूथरा, तुम्हारी जानकारी के लिए मूंदड़ा के पास इकबालिया बयान की बिना पर, जो कि ये कहता है कि तुम उसके एजेन्ट हो, कूरियर हो, तुम्हारे घर की तलाशी का सर्च वारन्ट जारी किया गया है ।”
लूथरा पर जैसे गाज गिरी ।
“अगर तुम्हारे घर की तलाशी में कुछ...”
लूथरा उठ के बाहर को भागा ।
“कहां जा रहे हो ?” - ए सी पी तीखे स्वर में बोला ।
“अपने घर !” - लूथरा दहशतनाक स्वर में बोला - “मुझे डर है, डर क्या यकीन है कि मुझे फंसाने के लिए आप जरूर वहां कुछ प्लांट करा देंगे ।”
“सब-इंस्पेक्टर लूथरा ! रुक जाओ वर्ना...”
लेकिन वर्ना, सुनने के लिए लूथरा वहां मौजूद न था । उसके पैरों को तो उस घड़ी जैसे पर लग गए थे ।
***
ठीक सात बजे जैदी निर्धारित स्थान पर पहुंचा ।
रहमान उसे कहीं दिखाई न दिया ।
मस्ज‍िद से लेकर किले के उस ओर के दरवाजे के करीब तक उसने दो चक्कर लगाये लेकिन रहमान उसे कहीं दिखाई न दिया ।
छोकरा दगा तो नहीं दे गया था ? - उसने मन-ही-मन सोचा ।
एक लाख बीस हजार रुपये मुहैया करने की खातिर जब वो लोटस क्लब गया था तो गुरबख्शलाल ने पहला फतवा यही दिया था कि उस छोकरे को पकड़ मंगवाना चाहिये था और उससे जबरन कुबुलवाना चाहिए था कि वो धोबियों की बाबत क्या जानता था ! तब कुशवाहा ने ही उसे समझाया था कि जब सीधे-सीधे काम हो रहा था तो वो टेढा रास्ता अख्तियार करने की क्या जरूरत थी ! खासतौर से जब कि मामला जिस रकम का था वो एक लाख बीस हजार से अपनी शुरूआत करके बड़ी हद छ: लाख तक पहुंचाने वाली थी खुद जैदी ने भी इस बात का तगड़ा दावा किया कि वो लड़के को मुम्मल तौर से शीशे में उतार चुका था । उस सन्दर्भ में उसने रहमान की दाउद इब्राहिम के समकक्ष पहुंचने की ख्वाहिश का खास जिक्र किया जिस पर कि गुरबख्शलाल समेत सबने बहुत जोर का ठहाका लगाया ।
कम्बख्त घड़ी तो पहनता नहीं था - जैदी ने भुनभुनाते हुए सोचा जरूर इसीलिए वक्त का अन्दाजा नहीं हुआ होगा उसे ।
पांच-सात मिनट और देखता हूं, न आया तो जाके कमरा बंगश में ही तलाशूंगा कमीने को ।
तभी जैसे प्रेत की तरह रहमान उसके सामने प्रकट हुआ ।
जैदी चिहुंका ।
“मैं हूं ।” - रहमान जल्दी से बोला - “आदाब ।”
“आदाब तो हुआ लेकिन अटक कहां गया था ?”
“कहीं भी नहीं । सीधा यहीं आया हूं ।”
“तो टाइम पर तो आना था ?”
“लेट हो गया मैं ?”
“और नहीं तो क्या ? अब तो सवा सात बजने वाले हैं ।”
“खता माफ, जनाब । मेरे पास तो घड़ी है नहीं, जिससे टाइम पूछा था, उसकी घड़ी आगे होगी ।”
तो घड़ी ही वजह निकली छोकरे के देर से आने की - जैदी ने मन-ही-मन सोचा । फिर प्रत्यक्षत: वो बोला - “और आया भी तो कैसे दबे पांव जैसे मौत के फरिश्ते आते हैं । कोई आवाज तक न हुई तेरे आने की । सच पूछे तो तूने तो डरा दिया मुझे ।”
“खता दोबारा से माफ, जनाब ।”
“खैर कोई बात नहीं । ये ले” - जैदी ने उसे एक लिफाफा थमाया - “सम्भाल अपनी रकम । पूरे एक लाख बीस हजार हैं । दस-दस हजार की बारह गडि्डयां । चौकस कर ।”
“चौकस-ही-चौकस है, जनाब, मुझे क्या आप पर बेएतबारी है ?”
“फिर भी...”
“फिर अभी मुझे कुछ और भी तो चौकस करना है ।”
“क्या ?”
“तेरी जान !”
वातावरण में एक खटाक की आवाज गूंजी और फिर एक रामपुरी चाकू की नोक जैदी ने अपनी पसलियों में चुभती पायी ।
उसके छक्के छूट गये ।
“ये... ये...”
“तेरी पहचान की दाद देता हूं, मियां । कोई दूसरा होता तो यूं आनन-फानन न पहचान पाता कि उसकी मौत का फरिश्ता आन पहुंचा था ।”
“तू” - जैदी आतंकित भाव से बोला - “तू क्या करेगा ?”
“तेरा फातिहा पढूंगा और क्या करूंगा ?”
“ऐसा न करना ।”
“क्यों ?”
“अरे, मैं तेरा जातभाई हूं ।”
“भाई तो तू मेरा है ही नहीं और इस बात का मुझे अफसोस है कि तू मेरी जात का है । साले ! गद्दारी सिखाता है ?”
“अरे बेटा अब्दुल रहमान...”
“अपने आखरी वक्त में मेरा नहीं, अल्लाह का नाम ले । अपनी नापाक रूह को खुदाबन्द करीम के रूबरू होने के लिए तैयार कर ।”
फिर रहमान ने बड़ी दक्षता से उसके पेट में चाकू घोंपकर घुसा दिया ।
***
“ये तुम्हारी फाइल ।” - योगेश पाण्डेय ने एक मोटी फाइल जिस पर कि ‘अरविन्द कौल’ लिखा था, विमल के सामने डाल दी - “इसी में तुम्हारा पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला के नाम वाला ड्राइविंग लाइसेंस भी है ।”
विमल ने फाइल का मुआयना किया ।
उस घड़ी रात के नौ बजे थे और वे दोनों विमल के होटल के कमरे में मौजूद थे ।
मुबारक अली थोड़ी देर पहले ही वहां से रुखसत हुआ था । हिसार का तूफानी दौरा करके लौटने के बाद उसने विमल को सिर्फ इतना कहा था कि हालात काफी उम्मीदअफजाह थे और वो तब सदर वाले हुसैन साहब के हवाले से तनवीर अहमद से हिसार में इस्तेमाल के लिए कुछ खास असला और गोला बारूद मुहैया करने जा रहा था । बकौल मुबारक अली अगर वो और उसके धोबी यूं महैया हुए साजोसामान के साथ दिल्ली और हिसार के बीच के रास्ते में ही न पकड़े गये तो फतह निश्च‍ित थी ।
“उसके घर से मिली ?” - फिर विमल ने पूछा ।
“हां ।” - पाण्डेय बोला - “शुक्र है कि मिल गयी । घर की जगह कहीं और होती तो दिक्कत हो जाती । फिर मुश्क‍िल हो जाता लूथरा से फाइल का मुकाम कुबुलवाना । फाइल का जिक्र आते ही वो इसे अपने हक में इस्तेमाल करने की जुगत सोचने लगता । तब कोई बड़ी बात नहीं थी कि उस काइयां सब-इंस्पेक्टर के साथ तुम्हारी फाइल को लेकर कोई सौदेबाजी करनी पड़ जाती ।”
“ओह !”
“अब फाइल यूं ही हाथ आ गयी । बड़ी सहूलियत से ।”
“सर्च वारन्ट में इस बात का जिक्र नहीं होता कि वो किस चीज की तलाश के लिए जारी किया गया है ?”
“होता है लेकिन एक आपत्त‍िजनक चीज की तलाशी के दौरान कोई दूसरी आपत्त‍िजनक चीज बरामद हो जाये तो उसे नजरअन्दाज थोड़े ही कर दिया जाता है !”
“आई सी ।”
“हकीकत तो ये है कि हमने तो सबसे पहले फाइल ही ढूंढी थी । चरस का क्या ढूंढता था । वो तो हमने खुद वहां प्लांट कराई थी । रसोई में रखे आटे के कनस्तर में । उसकी बरामदी तो दो सेकेण्ड की बात थी । वहां की असली तलाशी तो तुम्हारी फाइल की खातिर थी । और फाइल की ही तलाश के चक्कर में वो ब्रीफकेस हाथ लग गया जिसमें पांच लाख रुपये के नोट बंद थे । उन नोटों की बरामदी ने तो सोने पर सुहागे का काम किया । असली होश तो लूथरा के, सर्च के टेल एड पर एकाएक अपने घर पहुंच गया था, उस ब्रीफकेस की बरामदी ने ही उड़ाये थे । चरस की बाबत तो वो चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था कि उसका दो किलो का पैकेट उसके घर में प्लांट किया गया था लेकिन ब्रीफकेस की बाबत तो वो बस मिमिया भर ही पा रहा था ।”
“क्यों ? नोटों की बाबत भी तो वो वही कह सकता था जो कि वो चरस की बाबत कह रहा था ।”
“नहीं कह सकता था । वो खुद पुलसिया है इसलिये जानता है कि कहीं प्लांट करने के लिहाजे से वो रकम बहुत बड़ी थी । मैंने सच में नोट भी प्लांट कराए होते तो क्या मैं पांच लाख का नुकसान उठाता ? रेड में हुई बरामदी तो सरकारी माल मानी जाती है और मालखाने में जमा हो जाती है । कहा तो उसने फिर भी वो नोट वहां प्लांट किये गये थे लेकिन चरस की तरह गरज-बरसकर नहीं कहा ।”
“ओह !”
“फिर बौखलाहट में उससे एक भारी गलती भी हुई ।”
“वो क्या ?”
“बरामद हुआ बन्द ब्रीफकेस अभी उसे दिखाया ही गया था कि वो फट पड़ा कि उसका उस रकम से कुछ लेना-देना नहीं था । कह चुकने के बाद उसे सूझा कि ब्रीफकेस के भीतर झांके बिना उसे मालूम नहीं हो सकता था कि उसके भीतर क्या था । सू्झते ही होंठ काटने लगा ।”
“अब लूथरा का क्या होगा ?”
“जो होगा बुरा ही होगा । वैसे ये तुम्हारी मर्जी पर मुनहसर है कि तुम उसका बहुत बुरा चाहते हो या सिर्फ बुरा ?”
“बुरा चाहने के लिये क्या है उसके खिलाफ ?”
“यह कि वो एक नारकाटिक्स स्मगलर का सहयोगी है । मूंदड़ा के उसकी बाबत बयान और उसके घर से बरामद दो किलो चरस और पांच लाख रुपये के नोटों की रू में वो इस इलजाम से नहीं बच सकता । इस इलजाम से वो एक ही सूरत में बच सकता है कि मूंदड़ा अपने बयान से मुकरे लेकिन ऐसा नहीं होने वाला । ऐसा हो जाने पर तो मैं ही मुसीबत में फंस जाऊंगा । मैं फंसा तो एन सी बी और पुलिस के वो लोग भी फंस जायेंगे जिन्होंने इस अभियान में मेरी मदद की ।”
“यानी कि तुमने इस बात का पक्का इन्तजाम किया हुआ है कि मूंदड़ा अपने बयान से फिरने न पाये ?”
“बिल्कुल ! भई, उस पहले कदम की मजबूती की गारन्टी हो जाने के बाद ही मैंने अगला कदम उठाया था ।”
“आई सी ।”
“बहरहाल लूथरा के बुरे अन्जाम के खाते में ये है कि नौकरी तो उसकी गयी, उसे कोई छोटी-मोटी जेल की सजा होगी ।”
“दूसरे, बहुत बुरे, अन्जाम के नाम पर क्या है उसके खिलाफ ?”
“बहुत बुरे अन्जाम के नाम पर तो उस पर कत्ल का इलजाम भी है लेकिन वो इलजाम तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट से ही खारिज हो सकता है जो कि ये कहती है कि लूथरा की सर्विस रिवाल्वर से चली तमाम गोलियां लतीफ अहमद उर्फ लट्टू के मुर्दा जिस्म में दागी गयी थीं । यानी कि वो गोलियां चलायी जाने से पहले ही वो मर चुका था । इस वक्त लूथरा फंसा हुआ है इसलिये अब वो लट्टू और फौजी की मौत के पीछे जो असली कहानी है उसे जरूर बयान करेगा । पोस्टमार्टम की रिपोर्ट उस असली कहानी की तसदीक करती है । अब तुम चाहो तो पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को गायब किया जा सकता है, तब्दील किया जा सकता है । ऐसा हो जाने पर लूथरा की कहानी पर कोई यकीन नहीं करेगा । अब बोलो, तुम चाहते हो कि ऐसा हो ?”
“नहीं । मैं ऐसा नहीं चाहता लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता कि इस बड़े इलजाम से अपना पीछा छूटता पाकर वो शेर हो जाये और अपने उच्चाधिकारियों को गा-गाकर सुनाने लगे कि असल में वो मशहूर इश्त‍िहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल की ट्रेल पर था । मेरे घड़ीवाला के नाम वाले लाइसेंस को छोड़कर इस फाइल में ऐसा कुछ नहीं है जो कि रीकन्स्ट्रक्ट नहीं किया जा सकता । उसके किसी एक भी उच्चाधिकारी को मेरी बाबत उसकी बात का यकीन आ गया तो ये फाइल तो फिर बन जायेगी ।”
“कोई बड़ी बात नहीं ।”
“इस लिहाज से तो उसके गहरा फंस जाने के अन्देशे की तलवार उसके सिर पर लटकी रहने में ही मेरी भलाई है ।”
“दुरुस्त !”
“तो फिर क्या किया जाये ?”
“कुछ भी नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब ये कि लूथरा नाम के इस पुलसिये के कस-बल मुकम्मल तौर पर ढीले पड़ चुके हैं । वो तुम्हारे खिलाफ कुछ नहीं करने वाला । वो तुम्हारा नाम भी अपनी जुबान पर नहीं लाने वाला ।”
“कैसे जाना ?”
“चिट्ठी !”
“उस चिट्ठी से जाना जो उसने तुम्हारे नाम लिखी है ।”
“चिट्ठी !”
“मेरे पास है ।” - पाण्डेय ने एक तह किया हुआ कागज उसे सोंपा - “उसने खुद मुझे दी थी । चिट्ठी खुली थी इसलिये मैंने पढ ली थी । आई होप यू डोंट माईड ।”
“नो, नैवर ।”
“थैंक्यू ।”
“है क्या इसमें ?”
“खुद ही पढ के देखो ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया और फिर चिट्ठी को खोल के पढना शुरू किया लिखा था ।
माई डियर कौल साहब,
मैं अपने जिस अंजाम तक पहुंच चुका हूं, मुझे यकीन है कि वो आपसे छुपा न होगा । छुपा हो ही नहीं सकता क्योंकि आप ही तो मेरी मौजूदा बदकिस्मती के चीफ आर्किटैक्ट हैं । मैं कबूल करता हूं कि जो थोड़ी बहुत कामयाबी मुझे आपकी अजीमो शान हस्ती के खिलाफ हासिल हुई थी उससे मैं बौरा गया था, मैं आपे से बाहर हो गया था और जब कोई शख्स आपे से बाहर हो जाता है तो विवेक से उसका नाता टूट जाता है । अपनी बद्अक्ली के उस आलम में एक बड़ी छलांग तो मैंने लगा ली लेकिन ये न सोचा कि बड़ी छलांग से ही आदमी मुंह के बल गिरता है और हाथ-पांव तुड़ाता है । मैंने समझ लेने की मूर्खता की कि जिस शख्स के नाम से सारे हिन्दोस्तान को अन्डरवर्ल्ड थर्राता था, जिस शख्स को सात राज्यों की पुलिस काबू मे करने में नाकाम रही थी, उसको काबू मैं कैसे कर सकता था । मेरी बदकिस्मती कि मैंने आपकी ताकत को बहुत कम करके आंका कि मैं कश्मीरी शरणार्थी के आपके मौजूदा बहुरूप से मेल खाती आपकी भोली-भाली सूरत और आपके सहज और सरल मिजाज से धोखा खा गया, कि मैं शेर को बकरी समझ बैठा और इसी बात की सजा मैं इस घड़ी भुगत रहा हूं । मेरी इस घड़ी हवालात में मौजूदगी ही आपकी असीम क्षमता और साधनसम्पन्नता का सबसे बड़ा सबूत है । मेरा दिमाग ठिकाने ही तब आया जब मैंने आपने-आपको हवालात की तारीक कोठरी के ठंडे फर्श पर बैठा पाया । अपनी नौकरी के दौरान अनगिनत लोगों को मैंने ऐसे अंजाम तक पहुंचाया लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी तकदीर मेरे उसी अंजाम तक कभी मुझे पहुंचा देगी । बहरहाल मैं आपका खतावार हूं और आपसे अपनी खता की माफी की अपील करता हूं । जिन उलझनों में मेरी करतूतों ने मुझे फंसा दिया है, उनमें से पाक-साफ तो शायद ईश्वर भी मुझे न निकाल पाये लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि आप मेरी इुश्वारियों को कम जरूर कर सकते हैं । मेरी आपसे अपील है कि माफ आप भले ही मुझे न करें लेकिन बदले कि भावना से मेरे खिलाफ कोई कदम न उठायें । एक हाथी एक चींटी से क्या बदला उतार सकता है ? ये एक टूटे हुए और हारे हुए आदमी की आपसे इल्तजा है कि आप उस पर रहम फरमायें । मैं आपको आपकी होने वाली औलाद का सदका देता हूं । मुझ पर नहीं तो मेरी बीवी पर रहम फरमायें जिसका मेरी कारगुजारियों से कुछ लेना-देना नहीं जिसका मेरे बाद इस दुनिया में कोई नहीं...
विमल ने चिट्ठी पर से सिर उठाया और पाण्डेय से बोला - “यार, ये चिट्ठी उसी पुलसिये ने लिखी है । मेरा तो दिल पसीजा जा रहा है ।”
“तुम्हारा दिल ही तुम्हारी लाइलाज बीमारी है ।” - पाण्डेय बोला - “देख लेना, यही किसी दिन तुम्हें फांसी के फन्दे तक पहुंचायेगा ।”
“लेकिन...”
“आगे तो पढो ।”
विमल ने चिट्ठी फिर पढना शुरू किया ।
आगे लिखा था :
कौल साहब, हवालात के गैरदोस्ताना माहौल ने जब मेरे दिलोदिमाग को गहरा झटका दिया तो मेरी समझ में ये भी आ गया कि आपकी निगरानी करने मेरे आदमियों की आंखों के सामने आपकी बीवी कैसे गायब हो गयी थी, कहां गायब हो गयी थी ? अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि असल में तो आपकी बीवी नर्सिंग होम पहुंची ही नहीं थी, वो तो आपके हाउसिंग कम्पलैक्स की इमारत के बाहर तक नहीं निकली थी । आपकी, बल्कि आपकी बीवी की, निगरानी करते मेरे आदमियों ने सुबह सवेरे आपके फ्लैट वाले कम्पलैक्स में आपकी बीवी की डाक्टर मिसेज कुलकर्णी को पहुंचते देखा, फिर दस मिनट बाद वहां एम्बूलेंस पहुंचती देखी, स्ट्रेचर लेकर भीतर दाखिल होते आर्डरली देखे, स्ट्रेचर पर एक हामला लगने वाली औरत को लिटाये वापिस लौटते आर्डरली देखे, औरत को आक्सीजन लगी देखी, साथ में लेडी डाक्टर को देखा, बीवी का हाथ थपथपा-थपथपाकर उसे तसल्ली देते आपको देखा तो मेरे आदमी कूदकर उस नतीजे पर पहुंच गये जिस पर कि आप उन्हें पहुंचाना चाहते थे । वो नतीजा ये था कि कौल साहब अपनी बीवी को बहुत खस्ता हालत में वापिस नर्सिंग होम ले जा रहे थे । लेकिन क्या उन्होंने आपकी बीवी की सूरत देखी ? नहीं देखी । सूरत तो मुंह पर चढे गैस मास्क की वजह से दिखाई दे ही नहीं सकती थी । तो फिर मेरे आदमीयों ने क्या देखा आपकी बीवी की पहचान के लिये ! उन्होंने वो देखा जो उन्हें दिखाया गया । उन्होंने स्ट्रैचर पर पड़ी औरत का गर्भ से फूला हुआ उठता-गिरता पेट देखा । उन्होंने उसकी खस्ता हालत देखी जिसका सबूत उसके मुंह पर चढा आक्सीजन मास्क था । उन्होंने मरीज के पहल में पेशेन्ट की डाक्टर को देखा, उसके फिक्रमन्द खाविन्द को देखा और आखिर में उन्होंने पेशेन्ट को वापिस महाजन नर्सिंग होम पहुंचाये जाते देखा जहां से थोड़ी देर बाद लेडी डाक्टर रुखसत हो गयी और थोड़ी देर बाद टहलते हुए आप भी रुखसत हो गये । और थोड़ी देर बाद मरीज भी उठकर खड़ी हुई और आप ही की तरह टहलती हुई वहां से चलती बनी । पीछे नर्सिंग होम में तो निगरानी के काबिल कुछ भी न बचा लेकिन मेरे आदमी पूरी मुस्तैदी से नर्सिंग होम की निगरामी करते रहे जिसके भीतर उनकी आंखों के सामने आपकी बीमार, खस्ताहाल बीवी को ले जाया गया था । लेकिन उनकी निगरानी उस अस्तबल की निगरानी की तरह थी जिसमें से घोड़ा पहले ही चोरी हो चुका था ।
कौल साहब, अब में दावे के साथ कह सकता हूं कि स्ट्रेचर पर लेटकर मोहसिन सुमन वर्मा पहुंची थी । उसके मुंह पर आक्सीजन का मास्क खास इसलिये चढाया गया था कि मेरे आदमी उसकी सूरत न देख पायें । गर्भवती दिखने के लिये उसने जरूर पेट पर ताकिया बांध लिया होगा । एक बार नर्सिंग होम पहुंच जाने के बाद उसके लिये क्या मुश्किल था तकिया और गैस मास्क त्यागकर वहां से उस के चल देना । वैसे तो मेरे आदमियों की तवज्जो ही उसकी तरफ नहीं गयी थी, चली भी गयी होती तो क्या फर्क पड़ता । आपकी पड़ोसिन की आपकी बीवी का तीमारदारी के लिये उस नर्सिंग होम में आवाजाही एक आम नजारा थी । वो बहुत चौकन्ने होते तो सुमन वर्मा को वहां से रुखसत होती देखकर वो इतना जरूर सोचते कि जो लड़की उन्होंने नर्सिंग होम के भीतर दाखिल होती नहीं देखी थी, उसे वो वहां से बाहर निकलता कैसे देख रहे थे ? लेकिन काश कि ऐसा न हुआ । मेरे आदमी इतने चौकन्ने न निकले ।
कौल साहब, अब मैं शर्तिया कहता हूं कि आपकी बीवी सुमन वर्मा के फ्लैट में है । आपने वहां का ताला भी इसलिये तब्दील करवाता ताकि मैं चोरी से वहां दाखिल न हो सकूं । मैं वाकई आपकी नजरेइनायत का तलबगार हूं और ये कि आपसे माफी को मेरी अपील फर्जी नहीं है इसका सबसे बड़ा सबूत मैं ये पेश कर सकता हूं कि आपकी बीवी की बाबत जो जानकारी इस वक्त मुझे है, उसे मैंने गुरबख्शलाल तक नहीं पहुंचाया । इसलिये नहीं पहुंचाया क्योंकि इस खिदमत के लिए गुरबख्शलाल मुझे दौलत से मालामाल तो कर सकता है लेकिन मेरी मौजूदा दुश्वारी से मुझे निजात नहीं दिला सकता । मेरे मर्ज की दवा तो उसी के पास है जिसने कि मुझे ये मर्ज दिया है ।
कौल साहब, वो शख्स आप और सिर्फ आप हैं ।
मैंने जो कहना था, कह दिया । आगे आप मालिक हैं । बहरहाल उम्मीद पर दुनिया कायम है और ये उम्मीद करने से आप मुझे नहीं रोक सकते कि आप इस हकीर इनसान को माफ फरमाकर अपने बड़प्पन और दरियादिली का इजहार करेंगे । मैंने अपनी जिन्दगी में अपनी किसी करतूत से शर्मिन्दा होना या पछताना नहीं सीखा । लेकिन आज शर्मिन्दा भी हूं और पछता भी रहा हूं । क्योंकि मैं न इधर का रहा न उधर का रहा । मैं अपना फर्ज, अपनी ड्यूटी जानकर आपके पीछे पड़ा होता तो मुझे ये दिन न देखना पड़ता और मेरा सिर फख्र से ऊंचा होता कि मैंने अपनी ड्यूटी की बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया, मैंने अपनी ड्यूटी को बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया, मैंने उस काम को ईमानदारी से अंजाम दिया जिसकी कि मुझे तनखाह मिलती है । लेकिन मैंने तो अपनी जानकारी को आपसे कैश करने की कोशिश की, आपसे बीस लाख रुपया ऐंठने की कोशिश की । मैं बेइमानी भी ईमानदारी से न कर सका क्योंकि मैं पैसा हासिल होते ही पहले आपको गिरफ्तार कर लेने का इरादा रखता था लेकिन फिर वो इरादा आपकी गुरबख्शलाल के जल्लादों के हवाले कर देने के नापाक इरादे में तब्दील हो गया था । मैंने कई किश्तियों में एक साथ सवार होने की कोशिश की इसीलिये मंझधार में गिरा । इसीलिये अब मुझे आपसे रहम का भीख मांगनी पड़ रही है जो कि पता नहीं मिलेगी या नहीं मिलेगी लेकिन, फिर कहता हूं, उम्मीद पर दुनिया कायम है ।
आपका खतावर
अजीत लूथरा
विमल ने पत्र तह करके अपनी जेब में रख लिया और फिर बोला - “इसे तो कोई ऐसा इलहाम हो गया लगता है कि मैं कोई देवता या अवतार हूं जिसने श्राप दे दिया तो ये भस्म हो जायेगा, वरदान दे दिया तो ये जिन्दगी की तमाम दुश्वारियों से निजात पा जायेगा ।”
“ये सब दुकानदारी भी हो सकती है, भैय्या ।” - पाण्डेय बोला - “फंसा हुआ आदमी हर तरह का पैंतरा आजमाता है ।”
“फिर भी मेरी तुम्हारे से दरख्वास्त है कि तुम इस शख्स के बुरे अंजाम का ही सामान करो, बहुत बुरे अंजाम का वही ।”
“सोच लो ।”
“सोच लिया ।”
“अभी तुमने ये अन्देशा जाहिर किया था कि खुद को सस्ता छूटता पाकर वो शेर हो सकता था और इस बात का यश लेने की कोशिश कर सकता था कि उसने मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल का पता पा लिया था ।”
“तब मैंने ये चिट्ठी नहीं पढी थी ।”
“भय्या, दादागिरी में नर्माई नहीं चलती । इसमें बेरहम बनने से ही काम चलता है ।”
“मैं दादा नहीं ।”
“फिर सोच लो ।”
“उसने मुझे मेरी होने वाली औलाद का सदका दिया है ।”
“ये इमोशनल बातें हैं । सेल्स टाक है । उस शख्स की दुकानदारी है ।”
“तुम मेरा कहना मानो ।”
“आल राइट । जैसा तुम चाहते हो, वैसा ही होगा ।”
“थैंक्यू ।”
“अब एक बात बताओ ।”
“पूछो ।”
“ये बात लूथरा के भी जेहन में जरूर होगी लेकिन शायद उसे बात को चिट्ठी में लिखने का ध्यान नहीं रहा था उसने ऐसा कुछ लिखना मुनासिब न समझा था ।”
“कौन-सी बात ? कुछ बोलो भी तो सही ।”
“महाजन नर्सिंग होम में अपनी खस्ताहाल बीवी की फिर से भरती कर जो ड्रामा तुमने स्टेज किया, वो नर्सिंग होम वालों की मदद के बिना तो नहीं हो सकता था । आखिर एम्बूलेंस उनकी थी, स्टाफ उनका था और सुमन वर्मा को तुम्हारी बीवी बनाकर ले जाया वहां गया था । नर्सिंग होम वालों को तो इतनी बातों में बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता था । उन्हें कैसे पटाया ने ? खासतौर से डाक्टर महाजन को ?”
“मैंने डाक्टर मिसेज कुलकर्णी को पटाया । वो बहुत मेहरबान औरत है और मेरी खुशकिस्मती से मुझे और मेरी बीवी को बहुत पसन्द करती है । डाक्टर महाजन को आगे उसी ने पटाया जो कि उसके लिये मामूली काम था ।”
“वो कैसे ?”
“उसी ने मुझे बताया था कि उसका पति कुलकर्णी भी बड़ा डाक्टर था और एक प्लेन केस में अपनी मौत से पहले महाजन नर्सिंग होम में डाक्टर महाजन का बराबर का पार्टनर था ।”
“फिर तो मिसेज कुलकर्णी भी वहां की पार्टनर ही हुई !”
“जाहिर है ।”
“उसने सवाल नहीं किया कि तुम ऐसा क्यों करना चाहते थे ?”
“किया था । मैंने कह दिया था कि वो एक लम्बी कहानी थी जो कि मैं बाद में सुनाऊंगा । बाद में सुनाने की नौबत आने तक कोई सजता-सी कहानी मैं गढ लूंगा ।”
“क्या मुश्किल है ?”
फिर दोनों एक साथ हंसे ।
“ये भी बहुत अच्छा हुआ” - पाण्डेय बोला - “कि तुम्हारी बीवी की बाबत लूथरा को जो कुछ सूझा, अपनी गिरफ्तारी के बाद सुझा ।”
“फौरन तो ये सूझ ही नहीं सकता था ।” - विमल बोला “क्योंकि वो मुतमईन था कि उसके आदमियों ने मेरी बीवी को वापिस नर्सिंग होम में भरती होते अपनी आंखों से देखा था । इस बाबत उसका माथा तब तक नहीं ठनकने वाला था जब तक उसे यकीन न हो जाता कि मैं भी गायब हो गया था । यूं जो वक्त मुझे हासिल होता उसमें मुझे पूरी उम्मीद थी कि उसके पर कतरने के लिये तुम कुछ-न-कुछ कर ही दिखाओगे ।”
“हां । दरअसल मैंने तो दो ही काम करने थे । एक मूंदड़ा को लूथरा के खिलाफ बयान देने के लिये तैयार करना था और दूसरे उसके घर में चरस प्लांट करवानी थी । खुशकिस्मती से ये दोनों काम मेरी उम्मीद से कहीं जल्दी हो गये ।”
“पेपर में छपा है कि मूंदड़ा को तो खुद नारकाटिस कन्ट्रोल ब्यूरो के चीफ ने गिरफ्तार किया था । फिर उस तक तुम्हारी पहुंच कैसे हुई ? तुम्हारा तो एन सी बी से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“एम सी बी से वाकई मेरा कुछ लेना-देना नहीं लेकिन उस शख्स से मेरा बहुत कुछ लेना-देना है जिसका एन सी बी ये सब कुछ लेना है ।”
“मतलब ?”
“भैया, एन सी बी का चीफ, एस पी दुबे” - पाण्डेय ने जोर से अट्टास किया - “मेरा ससुरा है ।”
“ओह ! ओह ! इसे कहते हैं बाबे दी मेहर होवे ते कारज अपने आप बनते चले जाते हैं ।” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “अब बोलो इतनी बेशकीमती खिदमत के लिये मैं तुम्हारा कैसे शुक्रगुजार होकर दिखाऊं ?”
“कैसे भी नहीं । मैंने महज दोस्ती का फर्ज निभाया है और...”
“और क्या ?”
“और ये साबित करके दिखाया है कि बम्बई में मैंने तुम्हारी तरफ दोस्ती का फर्जी हाथ नहीं बढाया था । वहां मैंने झूठ नहीं कहा था कि मुझे तुम्हारे समाजी गुनाहों से कुछ लेना-देना नहीं । मैंने तुम्हें दोस्त कहा है तो तुम मेरे लिये दोस्त पहले हो और और जो कुछ भी हो वो बाद में हो । अब देखो, मुल्क के कायदे-कानून की जुबान में गुरबख्शलाल को मार के तुम कत्ल के फांसी की सजा पाने के हकदार मुजरिम माने जाओगे लेकिन मेरी निगाह में तुम ड्रग-लार्ड का खात्मा करके एक ऐसा सबाब का काम करोगे जिसके लिये तुम्हें मुल्क के सबसे बड़े सम्मान से नवाजा जाना चाहिये ।”
“मैंने बम्बई में गलत नहीं पहचाना था तुम्हें । तुम वाकई बहुत मेहरबान आदमी हो । रहमदिल और दयानतदार भी ।”
“अब हम महज एक दूसरे को बधाईयां दे रहे हैं । शाबाशी में एक दूसरे की पीठ ठोक रहे हैं ।”
विमल हंसा ।
“विस्की मंगायें ?” - फिर वो बोला ।
“जरूर ।” - पाण्डेय बोला - “मौका भी है, दस्तूर भी है ।”
“दस्तूर भी है ?”
“और नहीं तो क्या ? भैय्या, कामयाबी पर चियर्स भी तो बोलना ही होता है ।”
विमल फिर हंसा ।
“लेकिन” - पाण्डेय बोला - “पहले इस नामुराद फाइल का तिया-पांचा एक करो । जलाके राख ही कर देना मुनासिब होगा इसे ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
***
“तेरा जमूरा तो आया नहीं, भई ।” - गुरबख्शलाल बोला । 
कुशवाहा ने घड़ी देखो । साढ़े आठ बजे थे ।
“सात बजे का वक्त मकर्रर बना रहा था वो मुलाकात के लिये । अभी कोई ज्यादा वक्त तो नहीं हुआ । आ जायेगा, लाल साहब ।”
“तू किसकी बात कर रहा है ?”
“जैदी की । जो कि उस अब्दुल रहमान नाम के धोबी के लिये एक लाख बीस हजार रुपये ले के गया है ।”
“अरे, मैं उस पुलसिये की बात कर रहा हूं । लूथरा की जिस को तू शान को हर हाल में यहां हाजिरी भरने के लिये बोल कर आया था । कितने बजे होती है शाम ?”
“मैं... मैं मालूम करता हूं ।”
कुशवाहा वहां से बाहर निकलकर अपने आफिस में पहुंचा और दायें-बायें फोन खड़काने लगा ।
पता नहीं कैसा दिन था वो शनीचर का कि सुबह से जो खबर मिल रही थी, खराब मिल रही थी । एक तो हर खबर खराब ऊपर से उसे खुरबख्शलाल तक पहुंचाने का जिम्मा भी सिर्फ उसका ।
पहले झामनानी के पीछे लगे चार आदमियों ने बरी खबर सुनायी कि एक एक्सीडेंट की वजह से होटल ताज पैलेस तक झामनानी के पीछे पहुंचे वो लोग उसके वहां से रुखसत होने के वक्त उसके पीछे पहुंचे वो लोग उसके वहां से रुखसत होने के वक्त उसके पीछे नहीं लगे रह सके थे । एक मिनी बस के लापरवाह ड्राइवर ने हैंड ब्रेक लगाये बिना होटल के ड्राइव-वे की ढलान पर बस खड़ी कर दी थी जो कि वापिस लुढकती हुई उनकी कार से आ टकराई थी और कार में यूं फंस जाने की वजह से दो उसी क्षण होटल से रुखसत होने झामनानी की पीछे नहीं लग सके थे ।
उसके आदमियों की गारन्टी थी कि वो महज एक एक्सीडेंट था लेकिन हालात की मौजूदा करवटों से सशंक कुशवाहा को उसमें भी भेद लगा रहा था ।
आगे उसके आदमियों की रिपोर्ट थी कि झामनानी ताज पैसेल के काफी हाउस में थोड़ी देर बैठकर चला आया था । न सिर्फ वो वहां किसी से मिला-जुला नहीं था, उसने वहां एक काफी तक नहीं पी थी ।
कुशवाहा को झामनानी की उस हरकत में भी कोई भेद लगा था ।
उस बुरी खबर को तो गुरबख्शलाल ने किसी तरह हज्म कर लिया था लेकिन सोहल और उसकी बीवी दोनों के गायब हो जाने की खबर पर वो बहुत भड़का था । बड़ी कठिनाई से कुशवाहा उसे यकीन दिलाने में कामयाब हुआ था कि लूथरा कौल की बीवी को तलाश करने की हरचन्द कोशिश कर रहा था और उसकी किसी और नर्सिंग होम में मौजूदगी का पता लगा जाना महज वक्त की बात थी ।
उस तसल्ली से तनिक ठण्डा पड़ा गुरबख्शलाल अब लूथरा के वहां न पहुंचने की वजह से बिफरा जा रहा था ।
कई जगह फोन खड़काने के नतीजे के तौर पर उसे लूथरा की बाबत जो खबर लगी थी वो सबसे बुरी थी ।
लेकिन खबर गुरबख्शलाल तक पहुंचाना तो जरूरी था ।
उसने पहुंचायी ।
“बढिया ।” - खबर सुनकर गुरबख्शलाल बोला - “यानी कि उस पुलसिये के जरिये सोहल या उसकी बीवी के हाथ आने की उम्मीद तो गयी ही, हमारे पांच लाख रुपये भी गये ।”
“बीवी को हम भी तलाश करवा सकते हैं ।” - कुशवाहा बोला - “आखिर होगी तो वो किसी नर्सिंग होम में ही ।”
“क्यों ?” - गुरबख्शलाल आंखें निकालता हुआ बोला - “गजट में छपा है ?”
“लूथरा तो वे ही कहता था कि वो...”
“उसके दूध वाले, अखबार वाले से भी पता कर लें कि वो क्या कहते हैं ।”
कुशवाहा ने जोर से थूक निगली ।
“मूर्खों के साथ लग के मूर्ख बनना आजकल हमारी किस्मत बन गया मालूम होता है । अन्धे को भी दिखाई दे रहा है कि उस पुलसिये को उस बाबू ने बड़ी सफाई से बेवकूफ बनाया है ।”
“क... कैसे ?”
“ये मुझे नहीं पता । लेकिन उसका अपने फ्लैट पर न मिलना और उसकी बीवी का अपने नर्सिंग होम में न मिलना अपनी कहानी खुद कह रहा है । उस मादर... लूथरे ने कहा कि सोहल उसकी मुट्ठी में था और हमने मान लिया । न सिर्फ मान लिया उसे छब्बीस लाख की पेशकश भी कर दी । पांच लाख एडवांस भी दे दिये । कुशवाहा, मैंने पहले ही कहा था इस बात पर मेरा एतबार नहीं बैठ रहा था कि उस... उस लूथरे जैसा कोई आदमी सोहल जैसे सुपरगैंगस्टर को अकेले जिच कर सकता था । बोल कहा था कि नहीं कहा था ?”
“कहा था । आज सुबह ही कहा था । मिन्टो रोड वाले फ्लैट में ।”
“हम खामखाह उस पुलसिये की बातों में आ गये । क्या हो गया है हमारी अक्ल को !” - गुरबख्शलाल कुछ क्षण बेचैनी से पहलू बदलता रहा और फिर बोला - “जानता है कब कोई यूं किसी की बातों में आ जाता है ?”
कुशवाहा ने इनकार में सिर हिलाया ।
“जब उसकी अपनी अक्ल, अपनी कबूल, अपनी सलाहियात से विश्वास उठने लगता है । लगता है सोहल का खौफ अपनाने में हमारे दिलों में कहीं घर करता जा रहा है । इसीलिये हम मदद के लिए दायें-बायें झांकने वाले, हर तसल्ली में पनाह तलाश करने वाले लोग बन गये हैं । हकीकत ये ही है, कुशवाहा, कि सोहल के सामने हम पिलपिला रहे हैं ।”
“अरे नहीं, लाल साहब” - कुशवाहा ने तत्काल प्रतिवाद किया - “आप और किसी के सामने पिलपिला जायें, ऐसा कहीं...”
“बकवास बन्द कर ।”
कुशवाहा की जुबान को जैसे ब्रेक लग गयी ।
“सुन । तू कहता है कि लूथरा को पूरा यकीन था कि सोहल की बीवी किसी और नर्सिंग होम में पहुंच गयी थी ?”
“जी हां । और वो गारन्टी कर रहा था कि वो शाम तक उस नर्सिंग होम का पता था लेगा ।”
“क्या पता उसने पता पा लिया हो ?”
“जी !”
“ऐसा उसने तुझे दोपहर को कहा, गिरफ्तार वो शाम को हुआ । क्या पता बीच के वक्फे में उसे इस बाबत कामयाबी का मुंह देखना नसीब हो गया हो ।”
कुशवाहा चेहरे पर संशय के भाव लिये खामोश रहा ।
“अब जवाब तो दे, भई ।”
“लाल साहब, अभी आप ही तो कह रहे थे कि कोई जरूरी नहीं कि वो किसी नर्सिंग होम में हो ।”
गुरबख्शलाल क्षण भर को हकबकाया और फिर पूरी ढिठाई से बोला - “बहस नहीं कर । जो मैं कह रहा था या नहीं कह रहा था, उसमें मीन-मेख न निकाल । जो मैं कह रहा हूं, वो सुन । और सुन के कुछ समझ ।”
“मैं सुन रहा हूं, लाल साहब ।”
“लूथरे का पता कर कि वो कहां गिरफ्तार है और फिर जेल या हवालात जहां कहीं भी वो है, वहां उससे मिलने की कोई जुगत कर । उसे हमारे से बहुत उम्मीदें हैं । अपनी नाकामयाबी की सूरत में वो हमारा पांच लाख रुपये का कर्जाई है । ऊपर से वो इस घड़ी भारी मुसीबत में है । ऐसी हालाल में वो कहीं से भी हासिल हो सकने वाली कैसी भी मदद का तलबगार होगा । ऐसी हालात में वो हमारे से बाहर जाना अफोर्ड नहीं कर सकता अगर वो कौल की बीवी का पता पा चुका होगा तो मौजूदा हालात में वो हमें वो पता जरूर बतायेगा । बोल, मानता है ?”
“जी हां ।” - कुशवाहा तत्काल बोला - “मैं लूथरा से खुद मिलने की जुगत भिड़ाता हूं ।”
“शाबाश !”
तभी एकाएक फोन की घंटी बज उठी ।
गुरबख्शलाल ने अनमने भाव से फोन उठाकर कान से लगाया । दूसरी ओर से जो कुछ कहा गया, उसे सुनकर उससे चेहरे पर विस्मय के भाव आए । फिर वो माउथपीस में बोला - “बात करो ।”
वो कुछ क्षण रिसीवर कान से लगाये रहा, फिर उसे सोहल की आवाज सुनाई दी - “गुरबख्शलाल, मैं कौल बोल रहा हूं । पहचाना ?”
“हां ।” - गुरबख्शलाल बोला - “क्या कहता है ?”
“एक तो ये बताना चाहता हूं कि जैदी नाम के तेरे आदमी की लाश लालकिले की दीवार के दिल्ली गेट वाले सिरे के करीब खाई में पड़ी है । उसे वहां से उठवा के उसके कफन का इन्तजाम कर ताकि बेचारा जन्नतनशीन हो ।”
गुरबख्शलाल ने जोर से थूक निगली, उसने असहाय भाव से गर्दन हिलायी और फिर बड़े सब्र से बोला - “और ?”
“और जैदी के अन्जाम से सबक ले । मेरे आदमियों को फोड़ के मेरे खिलाफ खड़ा करे के सपने देखना छोड़ । मेरे आदमी दगाबाज नहीं, गद्दार नहीं, यारमार नहीं । यूं तेरे से कोई कोशिश करने वाले हर शख्स का वही अन्जाम होगा जो जैदी का हुआ । समझ गया ?”
“हां ! और ?”
“परसों से अब तक दो दिन फालतू जी लिया, इससे कोई सबक तो लिया नहीं होगा तूने ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब तू बखूबी समझता है । मैंने तेरी भलाई की खातिर सोचा कि एक बार फिर पूछ लूं कि तुझे अक्ल आयी या नहीं ड्रन्स के धन्धे से किनारा करने का इरादा किया या नहीं !”
“तू मेरे धन्धे के पीछे क्यों पड़ा है ?”
“मैं तेरे धन्धे के पीछे नहीं पड़ा हूं, तेरे खास धन्धे के पीछे पड़ा हूं । तेरे ड्रग्स के धन्धे के पीछे पड़ा हूं । तू मूंगफली बेचने का धन्धा शुरू कर दे या आइसक्रीम की रेहड़ी लगा ले तो तेरी-मेरी कोई अदावत नहीं । लेकिन ड्रग्स का धन्धा नहीं । वर्ना तू नहीं ।”
“देख तू आके मिल मेरे से । फिर मैं तुझे समझाता हूं कि...”
“मैं परसों ही कहा था कि अगर तू ड्रग्स का धन्धा बन्द नहीं करेगा तो मुलाकात तो तेरी-मेरी एक ही बार होगी जबकि तू मुझे रिवाल्वर की नाल में से दिखाई देगा ।”
“तू मेरे करीब भी नहीं फटक पायेगा ।”
“देखेंगे !”
“और मेरे हाथ तेरी गर्दन तक पहुंच जाना महज वक्त की बात है । गुरबख्शलाल की मुखालफत करने वाला कोई शख्स दिल्ली शहर में रह कर उसके कहर से बचा नहीं रह सकता । जब तक तेरे पर मेरा कहर नाजिल नहीं होता, तब तक तू मेरे छोटे-मोटे नुकसान कर सकता है, मेरा इक्का-दुक्का आदमी मार सकता है । और बस । इतनी ही औकात है तेरी ।”
“बहुत छोटी औकात है मेरी ?”
“हां । बहुत छोटी ।”
“फिर भी मेरे साथ मिल-बैठने का तमन्नाई है ?”
“सिर्फ इसलिए कि अपना बिरादरी भाई मान के तुझे कोई सबक दे सकूं । तुझे सीधे रास्ते पर ला सकूं ।”
“सीधा रास्ता ?”
“जो वो नहीं है जिस पर तू चल रहा है । जिस रास्ते पर तू इस वक्त चल रहा है, वो मौत का रास्ता है ।”
“मुझे मालूम है । तेरी मौत का रास्ता ।”
“ये लफ्फाजी छोड़ और...”
“लफ्फाजी तू छोड़ । सुन । सजा देने से पहले खुदा भी अपने गुनहगार बन्दी को तीन बार खबरदार करता है ? मैं भी वहीं कर रहा हूं । दो वार्निंग मैं तुझे दे चुका । एक तीसरी वार्निंग कल तक तुझे और मिल जायेगी, उसके बाद न तू होगा, न तेरा ड्रग एम्पायर । अच्छी तरह सोच लेना इस बाबत, दादा गुरबख्शलाल ।”
लाइन कट गयी ।
गुरबख्शलाल ने रिसीवर क्रेडल पर पटक दिया ।
कुशवाहा ने सशंक भाव से उसकी तरफ देखा ।
“वहीं था ।” - गुरबख्शलाल दांत पीसता हुआ बोला - “साला जुकाम है । पीछा ही नहीं छोड़ता ।”
“क्या कहता था ?” 
गुरबख्शलाल ने बताया ।
***
दस बजे विमल के होटल के कमरे में टेलीफोन की घंटी बजी ।
विमल ने हाथ बढाकर रिसीवर उठाया और उसे कान से लगाया ।
“हल्लो !” - वो माउथपीस में बोला ।
“कौल साहब ?” - पूछा गया ।
“हां ।”
“मैं हाशमी बोल रहा हूं, जनाबेआली ।”
बकौल मुबारक अली हाशमी वो शख्स था जो पिपलोनिया के पीछे लगा हुआ था ।
“हां । बोलो, हाशमी ।”
“आपका आदमी इस वक्त ग्रीन पार्क मार्केट में है । उसकी डी आई ए - 7799 नम्बर की काली एम्बैसेडर वहीं की पार्किंग में खड़ी थी जिसमें कि वो इस वक्त सवार है । आपको फोन करने का मौका था, इसलिए मैंने फोन कर दिया ।”
“लेकिन” - विमल ने अपने सामने मेज पर पड़े रिसीवर पर निगाह डाली - “सिग्नल तो आ नहीं रहा ।”
“ये भी वजह भी आपको फोन करने की । सिग्नल मैंने अभी ऑन नहीं किया है । मेरा इरादा पिपलोनिया के अपनी एम्बैसेडर के साथ वहां से हिलने पर ट्रांसमिटर आन करने का था लेकिन अब क्योंकि आपसे फोन पर बात करने का मौका लग गया है इसलिये मैं इसे अभी आन करता हूं । कर दिया मैंने । अब आप बताइये सिग्नल आ रहा है आपके रिसीवर पर ?”
“हां ।”
“ढायरेक्शन भी ?”
“हां ।”
“वो रवाना होने की तैयारी में है । इंजन चालू कर रहा है । उसकी एम्बैसेडर बैक होती हुई पार्किंग से बाहर निकल रही है । अब जब तक कि फिर एम्बैसेडर छोड़कर अपनी फियेट पर सवार नहीं हो जायेगा, सिग्नल चालू रहेगा । मैं फोन रख रहा हूं ।”
साथ ही सम्बन्ध-विच्छेद हो गया ।
विमल ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया और पाण्डेय की ओर आकर्षित हुआ ।
“सारी, सर ।” - वो बोला - “वुई विल हैव टू डिसकन्टीन्यू दिस सैलीब्रेशन ।”
“क्यों ?” - पाण्डेय बोला - “क्या हुआ ?”
“मुझे फौरन कहीं जाना है ।”
“क्यों ?”
“लम्बी कहानी है बताने का वक्त नहीं ।”
“उस टेलीफोन काल की वजह से जाना है जो कि अभी आई थी ?”
“हां ।”
“लौटोगे कब ?”
“कोई पक्का नहीं ।”
“यानी कि तुम्हारे इन्तजार में यहां रुकना बेकार है ?”
“ऐसा ही है । सारी ।”
“बड़े बेमुरव्वत यार हो, यार !”
“बेमुरब्बत नहीं, मजबूर ।”
“ओके” - पाण्डेय अपना गिलास खाली करके बोतल उठाता हुआ बोला - “आई विल हैव वन लास्ट ड्रिंक । प्रोवर्बियल वन फोर दि रोड ।”
“आई आलसो नीड वन फार दि रोड ।”
दोनों ने उस शाम का आखिरी जाम पिया ।
***
अली, वली की बन्द जीप कुतुबमीनार के सामने के राउन्ड अबाउट पर पहुंची ।
विमल ने देखा रिसीवर पर आती डायरेक्शन की इंडीकेशन ये बता रही थी कि हाशमी आगे छतरपुर की दिशा में थी ।
“बांये चलो ।” - विमल बोला - “छतरपुर वाली सड़क पर ।”
ड्राइविंग सीट पर बैठे वली मोहम्मद ने सहमति में सिर हिला दिया और जीप को बांये मोड़ दिया ।
जीप खामोशी से उस वक्त सुनसान पड़ी सड़क पर दौड़ने लगी ।
विमल नोट कर रहा था कि सिग्नल की ब्लीप-ब्लीप में वो तीखापन अभी नहीं आ रहा था जो कि ट्रांसमिटर के बहुत करीब होने पर उसमें पैदा हो जाना अपेक्षित था ।
जीप छतरपुर मन्दिर के आगे से गुजर पर भाटी माइन्स के और भी सुनसान रास्ते पर चली और यूं ही कोई दो किलोमीटर और आगे बढी ।
आगे सड़क की बाईं ओर एक किसी टूटे-फूटे मकबरे का खण्डर-सा था ।
“रोको ।” - एकाएक विमल बोला ।
वली ने तत्काल जीप रोक दी ।
आंखें फाड़-फाड़कर विमल ने इधर-उधर देखा तो पाया कि खंडहर की टूटी चारदीवारी के करीब एक जगह पिपलोनिया की काली एम्बैसेडर खड़ी थी ।
तभी वातावरण में गोली चलने की आवाज गूंजी ।
“कहां से आयी ?” - विमल के मुंह से निकला ।
“खंडहर के भीतर से ।” - अली बोला ।
गोली फिर चली ।
विमल ने देखा रिसीवर पर अब वैसा तीखा सिग्नल आ रहा था जो ये साबित करता था कि ट्रांसमिटर बिल्कुल करीब ही कहीं था ।
तभी विमल ने नोट किया कि एक कार सड़क के करीब के एक पेड़ों के झुरमट के पीछे भी खड़ी थी । उसके देखते-देखते पेड़ों के पीछे से एक आदमी निकला और अपना हाथ अपने सिर के ऊपर हिलाता हुआ उनकी जीप की ओर बढा ।
“हाशमी है ?” - वली एकाएक बोला ।
अली ने सहमति में सिर हिलाया ।
वो सब उसके करीब आने की प्रतीक्षा करने लगे ।
हाशमी जीप के करीब पहुंचा ।
विमल ने देखा वो कोई तीस-साल का चश्माधारी, सूरत से बहुत ही जहीन थी और संजीदा लगने वाला खूबसूरत नौजवान था ।
उसने विमल का अभिवादन किया और बोला - “आपका आदमी मुसीबत में है ।”
“क्या हुआ ?”
“मेहरोली रोड पर हौजखास के चौराहे के करीब अभी थोड़ी देर पहले एक वारदात हुई थी जो कि आपके आदमी की निगाह में आ गयी थी । सुनसान चौराहे पर बत्ती हरी होने के इन्तजार में एक मोटर साइकल खड़ी थी जिस पर एक युवक और युवती सवार थे । तभी एक मैटाडोर वैन पीछे से आयी, उसका पीछे का दरवाजा खुला, दो आदमियों ने वैन में से हाथ निकालकर मोटर साइकल पर बैठी युवती को दबोचा और उसे वैन के भीतर खींच लिया । फिर मैटाडोर वैन फौरन वहां से भाग खड़ी हुई । आतंकित युवक ने अपनी मोटर साइकल वैन के पीछे भगाई तो वैन के ड्राइवर ने उसे साइड मार दी । बेचारा युवक मोटर साइकिल समेत बहुत बुरी से गिरा ।”
“तौबा !”
“वो युवक तो मैटाडोर वैन के पीछे दोबारा न लग सका लेकिन आपका आदमी वैन के पीछे लगा और उसका पीछा करता हुआ यहां पहुंच गया । वैन में पांच जने थे । आपके आदमी ने युवती को बचाने के लिये अकेले ही उनसे भिड़ जाने की कोशिश की तो खता खा गया ।”
“कैसे ? क्या हुआ ?”
“वो लोग भी हथियारबन्द निकल आये । अब पोजीशन ये है कि वो दो ग्रुपों में बंट गये उन गुंडों के बीच फायर में फंसा हुआ है । युवती को तो अब वो क्या बचायेगा, खुद ही जिन्दा बच जाये तो गनीमत है ।”
फायरिंग की आवाज फिर हुई ।
“लड़की कहां है ?” - विमल ने पूछा ।
“उन्हीं के काबू में है । मेरा अन्दाजा है कि एक जना कहीं लड़की को दबोचे छुपा बैठा है और बाकी चार जने दो-दो की टोली में बंटकर आपके आदमी को घेर के मारने की फिराक में है ।”
“है कहां पिपलोनिया - मेरा आदमी ?”
“खंडहर के बीच में एक ऊंचा चबूतरा है, उसके पीछे दुबका हुआ है । वो गुंडे उसके दायें-बायें दो तरफ हैं । वो एक ही वक्त में दोनों तरफ निगाह नहीं रख सकता । अभी तो वो बड़ी बहादुरी से मुकाबला कर रहा है लेकिन मौजूदा हालात में उसका मारा जाना महज वक्त की बात है ।”
“इस उजाड़ बियाबान जगह में तो” - विमल चिन्तित भाव से बोला - “ये भी उम्मीद नहीं की जा सकती कि गोलियों की आवाज सुनकर पुलिस पहुंच जायेगी या कोई आता-जाता शख्स पुलिस को यहां होती गोलीबारी की खबर कर देगा ।”
“दुरुस्त फरमाया आपने ।”
“उस आदमी को बचाना होगा ।”
हाशमी खामोश रहा ।
“मुश्किल काम है ?” - विमल बोला ।
“नहीं ।” - हाशमी हड़बड़ाकर बोला - “नहीं तो ।”
“तो खामोश क्यों हो ?”
“मैं आपके अगले हुक्म का इन्तजार कर रहा था ।”
“तुम अकेले हो ?”
“मेरे साथ एक जना और भी है । अब्दुल रहमान ।”
“हथियारबन्द हो ?”
“हां, जनाब ।”
“हम चार आदमी” - अली मोहम्मद बोला - “उस पांच आदमियों का मुकाबला कर सकते हैं । आप जहमत न कीजिये । आपके आदमी को पीछे से घेरने की कोशिश करते गुंडों को हम पीछे से घेर लेंगे । हाशमी, उन्हें तेरी यहां मौजूदगी की खबर है ?”
“नहीं ।” - हाशमी बोला ।
“फिर क्या बात है ! वो गुण्डे तो ये खबर लगते ही भाग खड़े होंगे कि उनका मुकाबला अब एक अकेले आदमी से नहीं है ।”
“भागने न पायें ।” - विमल बोला - “उन्हें उसकी करतूत की सजा जरूर मिलनी चाहिये ।”
“ऐसा ही होगा ।”
“चलो ।”
“आप यहीं ठहरेंगे ।”
“पागल हुए हो ! तुम लोग दायें-बायें से उनके पीछे पहुंचने की कोशिश करो । मैं पिपलोनिया के पास पहुंचने की कोशिश करता हूं ।”
“गलती करेंगे । पिपलोनिया की तरह आप भी क्रासफायर में फंस जायेंगे ।”
“तुम लोग मेरी फिक्र न करो । जान देने का कोई इरादा नहीं मेरा । अब जल्दी करो ।”
चारों आगे बढे । वो पेड़ों के झुरमुट के करीब पहुंचे तो उनमें अब्दुल रहमान भी आन मिला । खंडहर की टूटी दीवार के करीब पहुंचने तक अली बली बाईं ओर, और हाशमी और रहमान दायीं ओर सरक गये । चारों के हाथों में रिवाल्वर थी ।
विमल ने भी अपनी रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली और फिर वो दबे पांव सामने आगे बढा । खंडहर की टूटी दीवार की ओट में पहुंचकर वो आंखें फाड़-फाड़कर सामने देखने लगा । सामने उसे वो चबूतरा तो दिखाई दिया जिसका हाशमी ने जिक्र किया था लेकिन उसके करीब कहीं पिपलोनिया उसे न दिखाई दिया । अलबत्ता चबूतरे के पास कहीं हल्की-सी भी आहट होती थी तो दायें-बायें से गोलियां चलने लगती थीं ।
पांच मिनट यूं ही गुजरे ।
फिर एकाएक दायें-बायें से एक साथ फायरिंग शुरू हुई और फिर तत्काल उस फायरिंग के साथ खंडहर में चीख-पुकार की आवाजें भी गूंजने लगीं ।
प्रत्यक्षतः मुबारक अली के आदमी गुण्डों को घेर चुके थे ।
विमल दीवार की ओट से निकला और फिर सिर नीचा किये चबूतरे की ओर भागा ।
तब उसे पिपलोनिया दिखाई दिया । वो चबूतरे की जड़ में ऊंची घास के बीच में यूं पड़ा था कि केवल उसका सिर ही चबूतरे की दीवार में कहीं टिका हुआ था । उसके सिर पर से उसका हैट उतर गया हुआ था और जब वो उससे परे घास में लुढका पड़ा था । उसकी नकली मूंछ एक तरफ से उतरकर तिरछी हो गयी थी और अब बड़े अजीबोगरीब ढंग से उसकी ठोढी तक लटक रही थी ।
विमल लपककर उसके करीब पहुंचा और उसके करीब उकडूं बैठा गया । उसने महसूस किया कि पिपलोनिया की सांस बहुत उखड़ी-उखड़ी चल रही थी और वो अपने हाथ में थमी रिवाल्वर से बेखबर मालूम होता था ।
रिवाल्वर से क्या, वो तो विमल के आगमन से भी बेखबर मालूम होता था ।
उसकी आंखों पर उसका काला चश्मा बदस्तूर चढा हुआ था ।
“शिवनारायण जी ।” - विमल धीरे से बोला ।
कोई उत्तर न मिला ।
आशंकित विमल ने उसका काला चश्मा हाथ बढाकर उसकी आंखों पर से उतार लिया ।
उसने पिपलोनिया को अपलक अपनी तरफ देखता हुआ पाया ।
“शिवनारायण जी !” - विमल बोला - “मैं हूं कौल ! पहचाना ?”
“कौल ? कौल ?” - पिपलोनिया बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “कौल ?”
“हां ।”
“यहां कैसे ?”
“आपके पीछे-पीछे आया । क्या हुआ ?”
“गोलियां खत्म हो गयीं ।”
“तो क्या हुआ ?”
उसने उतर न दिया ।
तब विमल को दिखाई दिया कि उसकी छाती का सारा अग्रभाग खून से रंगा हुआ था । उसने उसका ओवरकोट छाती पर से सरका कर भीतर झांका ।
“अरे !” - वो आतंकित भाव से बोला - “आपको लो गोली लगी है । आप तो बुरी तरह से जख्मी हैं ।”
“वो... वो... वो लड़की... वो बेचारी...”
“उसे कुछ नहीं होगा ।”
“वो गुण्डे...”
“एक नहीं बचेगा ।”
“आ... आ... आई एम ग्लैड ।”
“मैं आपको हस्पताल पहुंचाता हूं ।”
विमल ने उसे उठाने का उपक्रम किया ।
“नहीं, नहीं । मुझे हिलाओ नहीं । तकलीफ होती है ।”
“लेकिन...”
“सुनो । सुनो । प्लीज ।”
“बोलिये ।”
“तुम्हारे हाथ में जो रिवाल्वर है... वही है जो तनवीर अहमद से ली ?”
“जी हां ।”
“एक गोली हवा में चलाओ ।”
“जी !”
“कहना मानो । ...मेरे पास वक्त कम है ...एक मरते आदमी की ख्वाहिश पू... पूरी करो ।”
“शिवनारायण जी, आपको कुछ नहीं होगा । मैं अभी आपको हस्पताल...”
“कहना मानो ।”
विमल ने अपनी रिवाल्वर से एक गोली हवा में चलायी ।
पिपलोनिया ने अपनी उंगलियों से अपनी रिवाल्वर फिसल जाने दी और बोला - “दो ।”
विमल ने उसे अपनी रिवाल्वर थमा दी ।
पिपलोनिया की उंगलियां रिवाल्वर की मूठ से लिपट गयीं ।
“अब सुनो ।” - वो बोला - “तुमने कुछ नहीं किया । तमाम कत्ल... मैंने किये । ...इन दो रिवाल्वरों से ।”
“ये क्या कह रहे हैं आप ?”
“मैं मर रहा हूं । मुझे क्या फर्क पड़ता है ?”
“लेकिन फिर भी...”
“बहस न करो । ...मैं हूं... और सिर्फ मैं हूं... खबरदार शहरी । मेरे साथ ही ये ...ये कहानी खत्म हो जाने दो ।”
“शिवनारायण जी, मैं कहता हूं आपको कुछ नहीं होगा ।”
“गलत कहते हो । मेरी मौत मेरे... मेरे सामने खड़ी है ।”
“आपको फौरन हस्पताल पहुंचाया जाना जरूरी है । मैं आपके जबरन यहां से उठाकर...”
“खबरदार !”
उसके क्षीण होते स्वर में ऐसी कोड़े जैसी फटकार थी जैसे कोई बुझती हुई लौ एकाएक लपलपा उठी हो ।
“मेरी सुनो ।” - वो फिर बोला ।
“फरमाइये ।” - विमल बोला ।
“मेरे कोट की भीतर जेब में... एक... एक लिफाफा है । निकालो ।”
विमल ने ओवरकोट हटाकर उसके कोट की भीतरी जेब में हाथ डाला और वहां मौजूद एक लम्बा लिफाफा बरामद किया ।
“देखो !”
विमल ने जेब से लाइटर निकालकर उस बन्द लिफाफे का मुआयना किया ।
“अरे !” - वो हैरानी से बोला - “इस पर तो मेरा नाम लिखा है !”
“हां ।” - पिपलोनिया क्षीण स्वर में बोला - “प्रभू की माया है कि मरने से पहले मैं... मैं जिस शख्स को ...याद कर रहा था ...वो ही ...वो ही अब मेरे ...मेरे करीब है । ...अब मेरी लाश ...लावारिस नहीं होगी ।”
“लिफाफा खोलूं मैं ?”
“जरूरत नहीं ...तुम्हारा है ...जब मर्जी खोलना । ...इत ...इतमीनान से ।”
“क्या है इसमें ?”
“मेरी वसीयत !”
“आपकी वसीयत ?”
“रजिस्टर्ड ...विटनेस्ड ...तुम्हारे नाम ।”
“जी !”
“मेरा कोई नहीं । ...जो थे वो रहे नहीं ...मैं जा रहा हूं ...अपना सब कुछ सही हाथों में छोड़ के । ...परसों ...रात को जब तुम मेरे ...मेरे घर आये थे मैंने तभी सब कुछ तुम्हारे ...तुम्हारे नाम छोड़ के जाने का ...फैसला कर लिया था ...कल सुबह पहला काम ये ही किया । ...कोर्ट गया । विल की ।”
“लेकिन मेरे नाम ?”
“सब कुछ । ...मेरा माडल टाउन वाला मकान ...उसका सब सामान ...दोनों कारें ...बैंक बैलेंस ...”
“लेकिन क्यों ?”
“क्योंकि तुम ही ...तुम ही एक शख्स मुझे मिले हो ...जो कि मेरी तरह ...जुल्म के खिलाफ जेहाद ...का तरफ... तरफदार है ।”
“लेकिन फिर भी...”
“फिर भी कुछ नहीं । एक ...एक मरते आदमी की ...आखिरी ख्वाहिश जान के ...मेरा वारिस बनना ...कबूल करो ।”
“शिवनारायण जी, आप ये सब किसी चैरिटेबल ट्रस्ट को...”
“मेरे बाद तुम जो मर्जी करना ...भले ही ये ही करना ...लेकिन अभी हां बोलो ।”
“आप ऐसा चाहते हैं तो ठीक है लेकिन अब आप एक बात मेरी भी मानिये ।”
“वो फिजूल बात है । ...तुम ...तुम मुझे हस्पताल तक ...जिन्दा नहीं सकते ...फिर मेरा ...मेरा यहीं मरा पाया जाना ठीक है ...इन ...इन दोनों रिवाल्वरों के साथ, काली एम्बैसेडर के साथ ...नाओ लीव मी अलोन ।”
“लेकिन...”
“स्टैण्ड अप एण्ड गो अवे ।”
“मैं ...मैं गाड़ी यहीं लाता हूं ।”
“नो । नो ।”
विमल उठा और बाहर को लपका ।
वो खण्डहर के बाहर निकाल तो अली वली उसके करीब पहुंचे ।
“क्या हुआ ?” - विमल बोला ।
“पांचों खत्म ।” - अली बोला ।
“लड़की ?”
“सेफ है ।”
“तुम्हारे आदमी ?”
“वो भी सेफ हैं ।”
“उन्हें बोल दो अब उनकी उस काम के लिए जरूरत नहीं जो कि वो कर रहे थे । वो लड़की को लेकर यहां से चले जायें और जहां वो कहे, उसे ड्राप कर दें ।”
वली तत्काल एक ओर लपका ।
“तुम” - विमल अली से बोला - “जीप ले के आओ । उसे भीतर चबूतरे तक पहुंचाना है ।”
अली जीप लेने दौड़ा ।
जब वो जीप के साथ लौटा तो विमल भी उसमें सवार हो गया ।
बड़ी दक्षता से खंडहर में जीप चलाते हुए अली ने उसे चबूतरे तक पहुंचाया ।
लेकिन शिवनारायण पिपलोनिया पहले ही मर चुका था ।